MP Board Class 9th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 8 कल्याण की राह

MP Board Class 9th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 8 कल्याण की राह

कल्याण की राह अभ्यास

बोध प्रश्न

कल्याण की राह अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कवि ‘मन’ में किस बात के लिए इंगित करते
उत्तर:
कवि ‘मन’ में इस बात के लिए इंगित करते हैं कि हमारा विश्वास सूरज के चक्र के समान सदैव गतिशील बना रहे।

प्रश्न 2.
कवि किस चक्र को नहीं रुकने देने की बात करता है?
उत्तर:
कवि विश्वास एवं प्रगति चक्र को नहीं रुकने देने की बात करता है।

प्रश्न 3.
तुलसीदास एवं गिरिजाकुमार माथुर की दो अन्य कविताओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
तुलसीदास जी ने ‘विनय-पत्रिका’ एवं ‘दोहावली’ नामक रचनाएँ लिखी हैं। गिरिजाकुमार माथुर ने ‘धूप के धान’ तथा ‘नाश और निर्माण’ नामक कृतियाँ रची हैं।

प्रश्न 4.
‘तात राम नर नहीं भूपाला’ कथन किसने किससे कहा?
उत्तर:
यह कथन विभीषण ने रावण से कहा है।

प्रश्न 5.
माल्यवन्त कौन था?
उत्तर:
माल्यवन्त रावण का सचिव (मंत्री) था।

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कल्याण की राह लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
विभीषण रावण से बार-बार क्या विनती करता है?
उत्तर:
विभीषण रावण से बार-बार विनती करता है कि हे तात! यदि आप अपना कल्याण चाहते हैं तो सीताजी को राम को वापस दे दीजिए, राम कोई साधारण पुरुष नहीं है। वे तो काल के भी काल हैं, दीनबन्धु हैं और शरणागत शत्रु की रक्षा करने वाले हैं अतः आप मेरी बात मान जाइए और सीताजी को उन्हें वापस लौटा दीजिए।

प्रश्न 2.
“सीता देहु राम कहुँ अहित न होय तुम्हार” से क्या आशय है?
उत्तर:
विभीषण रावण को समझाते हुए कहते हैं कि हे तात! मैं तुम्हारे चरणों को पकड़कर विनती करता हूँ कि तुम्हें मेरे दुलार की (छोटे भाई-बहन के प्रति बड़ों का स्नेह अथवा कल्याण की भावना) रक्षा करनी चाहिए। तुम्हें श्रीराम को उनकी सीता को लौटा देना चाहिए इससे तुम्हारा किसी भी दशा में अहित नहीं होगा। यदि तुम ऐसा नहीं करते हो तो तुम्हें समझ लेना चाहिए कि सीता राक्षसों के कुल के लिए काल सिद्ध होगी।

प्रश्न 3.
“पाँव में अनीति के मनुष्य कभी झुके नहीं” का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
गिरिजाकुमार माथुर का इस पंक्ति से आशय यही है कि मनुष्य को कभी अनीति और अन्याय के मार्ग पर अपना कदम नहीं बढ़ाना चाहिए। अनीति और अन्याय करने से मनुष्य की अच्छी वृत्तियों के विकास में बाधा पड़ती है। अपने जीवन के लक्ष्य को नीति का अनुसरण करके प्राप्त किया जा सकता है।

कल्याण की राह दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
विभीषण के समझाने पर रावण ने क्या प्रतिक्रिया व्यक्त की?
उत्तर:
विभीषण ने जब रावण से कहा कि उसे राम से बैर मोल नहीं लेना चाहिए। वे कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं। वे तीनों लोकों के स्वामी और काल के भी काल है। उनसे शत्रुता करके कोई बच नहीं सकता। अत: बैर भाव छोड़कर उन्हें सीता सौंपकर उनकी शरण में चले जाओ। वे शरणागत वत्सल हैं। वे तुम्हें क्षमा कर देंगे और तुम्हारा कल्याण करेंगे। इस प्रकार जब विभीषण ने रावण को समझाया तो रावण पर इसकी विपरीत ही प्रतिक्रिया हुई। वह क्रोध से आग बबूला हो उठा और बोला कि तुम शत्रु के उत्कर्ष की बात करते हो, शत्रु का गुणगान करते हो। अरे कोई है जो इन दोनों को (विभीषण और माल्यवन्त को) राजसभा से दूर कर दे। इतना सुनकर माल्यवन्त तो उठकर अपने घर चला गया। किन्तु विभीषण ने फिर भी हार नहीं मानी। वह उसे पुनः समझाने का प्रयास करने लगा। इस पर रावण ने उस पर अपने पाँव से आघात किया। तब दु:खी होकर और मन में रावण का सर्वनाश विचार कर विभीषण राम की शरण में आ गया।

प्रश्न 2.
‘सूरज का पहिया’ से कवि का क्या आशय है?
उत्तर:
‘सूरज का पहिया’ से कवि का यह आशय है कि जिस प्रकार सूरज का पहिया बिना थके, बिना रुके रात-दिन चलता रहता है उसी तरह मनुष्य को भी मन के विश्वास के स्वर्णिम चक्र को चलाए रखना चाहिए। उसे अपने विश्वास को कभी रुकने नहीं देना चाहिए। सूर्य की भाँति न तो उसकी आभा मन्द होनी चाहिए और न गति रुकनी चाहिए।

प्रश्न 3.
‘विभीषण-रावण संवाद’ एवं ‘सूरज का पहिया’ कविताएँ कल्याण की राह बताती हैं। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
‘विभीषण-रावण संवाद’ कविता में विभीषण ने रावण को बार-बार समझाया है कि हे तात! तुम कुबुद्धि को त्याग दो क्योंकि कुबुद्धि विपत्तियों का घर होती है और उससे मानव का कुछ भला नहीं होता है। अत: सुमति को अपनाओ और पर स्त्री को श्रीराम को सौंपकर उनकी शरण ले लो तो तुम्हारा उद्धार हो जाएगा।

‘सूरज का पहिया’ कविता भी मानव के कल्याण की बात करती है। मानव को सूर्य के समान सदैव आभा युक्त होकर बिना थके, बिना रुके अपने लक्ष्य की ओर निरन्तर आगे बढ़ता रहना चाहिए।

प्रश्न 4.
सूरज की तश्तरी’ से कवि का क्या आशय है?
उत्तर:
‘सूरज की तश्तरी’ से कवि का आशय है कि मानव जीवन भर सूर्य के समानं संसार को ज्ञान (प्रकाश) बाँटता रहे। वह कभी थके नहीं, रुके नहीं। उसके होठों पर अपने विश्वास के गीत हों और भविष्य निरन्तर प्रगति के पथ पर बढ़ता चला जाए। सूरज की तश्तरी के समान ही उसकी चमक कभी कम न होने पाए।

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कल्याण की राह काव्य-सौन्दर्य

प्रश्न 1.
सन्दर्भ सहित व्याख्या कीजिए
(1) सचिव वैद गुरु………….बेगिही नास।
उत्तर:
कविवर तुलसीदास का कथन है कि मंत्री, वैद्य और गुरु यदि भय के कारण प्रिय लगने वाला झूठ बोलते हैं अर्थात् चापलूसीवश सत्य बात न बोलकर मीठी बातें बोलते हैं तो इनसे क्रमशः राज्य, शरीर और धर्म का शीघ्र ही नाश हो जाता है। कहने का भाव यह है कि यदि मंत्री राज्य की वास्तविक स्थिति का वर्णन न करके राजा को झूठी खबर या सूचना देता है, यदि वैद्य रोगी की वास्तविक दशा को न बताकर झूठ बोलता है और यदि गुरु भयवश (या स्वार्थवश) धर्म की बात नहीं बोलता है तो इन स्थितियों में क्रमशः राज्य, शरीर और धर्म का शीघ्र ही नाश हो जाता है। अतः किसी भी परिस्थिति में झूठ नहीं बोलना चाहिए।

किन्तु रावण की राजसभा में तो यही हो रहा था। चाटुकार मंत्री उसकी झूठी प्रशंसा कर रहे थे। उसी समय उपयुक्त अवसर समझकर विभीषण वहाँ आ गया। उसने भाई के चरणों में अपना शीश झुकाकर प्रणाम किया। तदुपरान्त सिर को झुकाकर पुनः प्रणाम करके अपने आसन पर बैठकर और रावण से आज्ञा पाकर इस प्रकार वचन बोला-हे दयामय! आप यदि मुझसे कुछ पूछना चाहें तो मैं अपनी बुद्धि के अनुसार आपकी हितकारी बात को कहना चाहता हूँ। हे तात! यदि आप अपना कल्याण चाहते हैं, यदि आप सुन्दर कीर्ति, सुन्दर बुद्धि, शुभ गति और अनेक प्रकार के सुख चाहते हैं तो आप पराई स्त्री के मस्तक को चौथ के चन्द्रमा की भाँति कलंक युक्त मानते हुए उसका परित्याग कर दें।

अर्थात् जिस प्रकार भाद्रपद मास में कृष्णपक्ष की चतुर्थी का चन्द्र दर्शन कलंक का कारण बनता है, उसी भाँति पराई स्त्री को घर में रखना कलंक का कारण है। अतः पराई स्त्री का त्याग करना ही उचित है। अत: तुम श्रीराम की पत्नी सीता को उन्हें वापस लौटा दो। वे चौदह लोकों के स्वामी हैं, उनसे द्रोह करके कोई बच नहीं सकता। हे स्वामी! मनुष्य के लिए काम वासना, क्रोध, अहंकार, लिप्सा ये सब नरक के मार्ग हैं अर्थात् इनसे व्यक्ति को नरक का मुँह देखना पड़ता है। अतः इन सबका त्याग करके सीता को राम को सौंपकर उनका भजन करो, जिनका भजन साधु सन्त करते रहते हैं अर्थात् उन श्रीराम की भक्ति करने से ही तुम्हारा कल्याण हो सकता है।

(2) मन में विश्वास …………. चुके नहीं।
उत्तर:
कविवर श्री गिरिजाकुमार माथुर कहते हैं कि मनुष्य को अपने मन के विश्वास को सदैव मजबूत बनाये रखना चाहिए। वह निरन्तर स्वर्णिम चक्र की भाँति (सूर्य के गोले के समान) निरन्तर गतिशील बना रहना चाहिए। तुम्हें हमेशा यह प्रयास करना चाहिए कि तुम्हारे मन में पीली केसर की भाँति जो स्वप्न जन्म ले रहे हैं, वे कभी चुक न जाएँ अर्थात् समाप्त न हो जाएँ। कहने का भाव यह है कि तुम्हारे मन में जो स्वप्न जन्मे हैं वे सदैव पल्लवित और पुष्पित होते रहें, वे कभी मुरझाएँ नहीं। तुम अपने जीवन में सदैव उसी तरह प्रकाशित होते रहो जिस तरह सूर्य का गोला प्रकाशित होता रहता है।

अतीत के डंठलों पर भविष्य के चन्दनों को उगाओ। कहने का भाव यह है कि अतीत में तुमने अनेकानेक संकट एवं विपत्तियाँ झेली हैं पर अपने भविष्य को तुम चन्दन के समान महकाओ। तुम्हारी आँखों में तुम्हारे विश्वास की रंग-बिरंगी तस्वीर हो। तुम्हारे ओठों पर तुम्हारे स्वप्नों के गीत हों। यदि कभी तुम्हारे जीवन में शाम भी आ जाए अर्थात् निराशा आ जाए तब भी तुम चन्द्रमा के समान अपनी शीतलता बिखेरते रहना। कहने का भाव यह है कि निराशा में भी अपनी आशा का संबल मत छोड़ना। तुम्हारी आँखों की बरौनियों में चन्द्रमा कभी भी थके नहीं अपितु वह निरन्तर गतिशील बना रहे। तुम्हारे जीवन के स्वप्नों की पीली केसर कभी भी मुरझाए नहीं, ऐसा तुम्हें सदैव प्रयत्न करना चाहिए।

(3) काम क्रोध………………जेहि संत।
उत्तर :
किन्तु रावण की राजसभा में तो यही हो रहा था। चाटुकार मंत्री उसकी झूठी प्रशंसा कर रहे थे। उसी समय उपयुक्त अवसर समझकर विभीषण वहाँ आ गया। उसने भाई के चरणों में अपना शीश झुकाकर प्रणाम किया। तदुपरान्त सिर को झुकाकर पुनः प्रणाम करके अपने आसन पर बैठकर और रावण से आज्ञा पाकर इस प्रकार वचन बोला-हे दयामय! आप यदि मुझसे कुछ पूछना चाहें तो मैं अपनी बुद्धि के अनुसार आपकी हितकारी बात को कहना चाहता हूँ। हे तात! यदि आप अपना कल्याण चाहते हैं, यदि आप सुन्दर कीर्ति, सुन्दर बुद्धि, शुभ गति और अनेक प्रकार के सुख चाहते हैं तो आप पराई स्त्री के मस्तक को चौथ के चन्द्रमा की भाँति कलंक युक्त मानते हुए उसका परित्याग कर दें।

अर्थात् जिस प्रकार भाद्रपद मास में कृष्णपक्ष की चतुर्थी का चन्द्र दर्शन कलंक का कारण बनता है, उसी भाँति पराई स्त्री को घर में रखना कलंक का कारण है। अतः पराई स्त्री का त्याग करना ही उचित है। अत: तुम श्रीराम की पत्नी सीता को उन्हें वापस लौटा दो। वे चौदह लोकों के स्वामी हैं, उनसे द्रोह करके कोई बच नहीं सकता। हे स्वामी! मनुष्य के लिए काम वासना, क्रोध, अहंकार, लिप्सा ये सब नरक के मार्ग हैं अर्थात् इनसे व्यक्ति को नरक का मुँह देखना पड़ता है। अतः इन सबका त्याग करके सीता को राम को सौंपकर उनका भजन करो, जिनका भजन साधु सन्त करते रहते हैं अर्थात् उन श्रीराम की भक्ति करने से ही तुम्हारा कल्याण हो सकता है।

प्रश्न 2.
‘तुलसीदास’ एवं ‘गिरिजाकुमार माथुर’ की काव्य-कला की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
तुलसीदास जी सामाजिक एवं धार्मिक मर्यादाओं के पोषक रहे हैं। उनका मानना है कि व्यक्ति विशेष के आचरण में जितनी पवित्रता होगी समाज का कल्याण भी उतना ही होगा। इसी तथ्य को उन्होंने ‘विभीषण-रावण संवाद’ के माध्यम से व्यक्त किया है। ये विचार तुलसी ने अवधी भाषा में दोहा एवं चौपाई छन्दों के माध्यम से व्यक्त किए हैं।

गिरिजाकुमार माथुर के गीत छायावादी प्रभाव लिए हुए हैं। उनमें आनन्द, रोमांस और संताप की तरल अनुभूति के साथ लय भी मिलती है। उनके शब्द चयन में तुक-तान और अनुतान की काव्यात्मक झलक मिलती है। वास्तव में वे माँसल रोमांस के वाचिक परम्परा के कवि हैं। आधुनिक कविता के वे श्रेष्ठ कवि हैं।

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विभीषण-रावण संवाद संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास॥
सोइ रावन कहुँ बनी सहाई। अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई।
अवसर जानि विभीषन आवा। भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा॥
पुनि सिरू नाइ बैठनिज आसन । बोला बचन पाइ अनुशासन॥
जो कृपाल पूँछिहु मोहि बाता। मति अनुरूप कहउँ हित ताता॥
जो आपन चाहै कल्याना। सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना॥
सो परनारि लिलार गोसाई। तजउ चउथि के चंद कि नाई।
चौदह भुवन एक पति होई। भूतद्रोही तिष्टइ नहिं सोई॥
काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहिभजहुभजहिंजेहि संत ॥1॥

कठिन शब्दार्थ :
सचिव = मंत्री, सलाहकार; बैद = वैद्य (चिकित्सक); गुर = गुरु (शिक्षक); भय = डर के कारण; राज = राज्य; बेगिहीं = शीघ्र; सहाई = सहायक; नाइ = झुकाकर; अनुशासन = आज्ञा; सुजसु = सुन्दर यश; परनारि = पराई स्त्री; लिलार = माथे पर; भुवन = लोक; भूतद्रोही = प्राणियों से शत्रुता रखने वाला।

सन्दर्भ :
यह पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘कल्याण की राह’ के अन्तर्गत ‘विभीषण-रावण-संवाद ‘शीर्षक से लिया गया है। मूलतः यह अंश तुलसीकृत रामचरितमानस’ के ‘सुन्दरकाण्ड’ से लिया गया है।

प्रसंग :
विभीषण अपने भ्राता रावण को नीतिगत बातें बताते हुए कहता है।

व्याख्या :
कविवर तुलसीदास का कथन है कि मंत्री, वैद्य और गुरु यदि भय के कारण प्रिय लगने वाला झूठ बोलते हैं अर्थात् चापलूसीवश सत्य बात न बोलकर मीठी बातें बोलते हैं तो इनसे क्रमशः राज्य, शरीर और धर्म का शीघ्र ही नाश हो जाता है। कहने का भाव यह है कि यदि मंत्री राज्य की वास्तविक स्थिति का वर्णन न करके राजा को झूठी खबर या सूचना देता है, यदि वैद्य रोगी की वास्तविक दशा को न बताकर झूठ बोलता है और यदि गुरु भयवश (या स्वार्थवश) धर्म की बात नहीं बोलता है तो इन स्थितियों में क्रमशः राज्य, शरीर और धर्म का शीघ्र ही नाश हो जाता है। अतः किसी भी परिस्थिति में झूठ नहीं बोलना चाहिए।

किन्तु रावण की राजसभा में तो यही हो रहा था। चाटुकार मंत्री उसकी झूठी प्रशंसा कर रहे थे। उसी समय उपयुक्त अवसर समझकर विभीषण वहाँ आ गया। उसने भाई के चरणों में अपना शीश झुकाकर प्रणाम किया। तदुपरान्त सिर को झुकाकर पुनः प्रणाम करके अपने आसन पर बैठकर और रावण से आज्ञा पाकर इस प्रकार वचन बोला-हे दयामय! आप यदि मुझसे कुछ पूछना चाहें तो मैं अपनी बुद्धि के अनुसार आपकी हितकारी बात को कहना चाहता हूँ। हे तात! यदि आप अपना कल्याण चाहते हैं, यदि आप सुन्दर कीर्ति, सुन्दर बुद्धि, शुभ गति और अनेक प्रकार के सुख चाहते हैं तो आप पराई स्त्री के मस्तक को चौथ के चन्द्रमा की भाँति कलंक युक्त मानते हुए उसका परित्याग कर दें।

अर्थात् जिस प्रकार भाद्रपद मास में कृष्णपक्ष की चतुर्थी का चन्द्र दर्शन कलंक का कारण बनता है, उसी भाँति पराई स्त्री को घर में रखना कलंक का कारण है। अतः पराई स्त्री का त्याग करना ही उचित है। अत: तुम श्रीराम की पत्नी सीता को उन्हें वापस लौटा दो। वे चौदह लोकों के स्वामी हैं, उनसे द्रोह करके कोई बच नहीं सकता। हे स्वामी! मनुष्य के लिए काम वासना, क्रोध, अहंकार, लिप्सा ये सब नरक के मार्ग हैं अर्थात् इनसे व्यक्ति को नरक का मुँह देखना पड़ता है। अतः इन सबका त्याग करके सीता को राम को सौंपकर उनका भजन करो, जिनका भजन साधु सन्त करते रहते हैं अर्थात् उन श्रीराम की भक्ति करने से ही तुम्हारा कल्याण हो सकता है।

विशेष :

  1. इस पद्यांश में नीति सम्बन्धी वचनों का उपदेश दिया गया है।
  2. काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ आदि मनुष्य के आन्तरिक शत्रु हैं। मनुष्य अपनी इन्द्रियों पर संयम रखकर इन पर विजय प्राप्त कर सकता है।
  3. भारतीय पुराणों में ब्रह्माण्ड में स्वर्ग, नरक, पृथ्वी, आकाश-पाताल आदि चौदह लोक बताए गए हैं।
  4. भाषा सहज, सरल एवं भावानुकूल हैं।
  5. चौपाई एवं दोहा छन्द का प्रयोग।
  6. चौथ के चन्द्र दर्शन से कलंक लगता है। इस जन विश्वास का सटीक वर्णन किया गया है।

तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेश्वर कालहु कर काला॥
ब्रह्म अनामय अज भगवंता। व्यापक अजित अनादि अनंता॥
गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपा सिंधु मानुष तनुधारी॥
जन रंजन भंजन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता।
ताहि बयरू तजि नाइअ माथा। प्रनतारति भंजन रघुनाथा॥
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही। भजन राम बिनु हेतु सनेही॥
सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा। बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥
जासु नाम त्रय ताप नसावन। सोइ प्रभु प्रगट समुझु जिय रावन॥
बार बार पद लागऊँ विनय करऊँ दससीस।
परिहरि मान मोह मद, भजहु कोसलाधीस॥
मुनि पुलकित निज सिष्य सन कहि पठई यह बात।
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरू तात ॥2॥

कठिन शब्दार्थ :
भूपाला = राजा; भुवनेश्वर = सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्वामी; कालहु कर काला = मृत्यु की भी मृत्यु; अज = अजन्मा; अनामय = विकार रहित; अजित = जिससे कोई जीत न सके; अनादि = जिसका आदि नहीं है; मानुष = मनुष्य; जनरंजन = लोगों को प्रसन्न करने वाला; भंजन = नष्ट करने वाला; गो = पृथ्वी; धेनु = गाय; खल ब्राता = दुष्टों के समूह को; रच्छक = रक्षक; बयरू = बैर; नाइअ = झुकाइए; प्रनतारति = शरण में आये हुए के दुःख को; अघ = पाप; त्रय ताप = तीनों तापों को; दससीस = रावण; परहरि = त्यागकर; कोसलाधीस = रामचन्द्रजी; सन = से।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस अंश में विभीषण अपने भाई रावण को समझाता है कि वह प्रभु राम को सीता को लौटा दे और प्रभु की शरण में चला जाए तो उसका कल्याण हो जाएगा।

व्याख्या :
कविवर तुलसीदास जी कहते हैं कि विभीषण अपने भाई रावण को समझाते हुए कहता है कि हे तात! अर्थात् भाई रावण। काम, क्रोध, मद और लोभ-ये सब नरक के रास्ते हैं। इन सबको छोड़कर श्रीरामचन्द्र जी को भजिए, जिन्हें सन्त पुरुष भजते हैं। हे तात! राम मनुष्यों के राजा नहीं हैं। वे समस्त लोकों के स्वामी और काल के भी काल हैं। वे भगवान हैं वे विकार रहित, अजन्मा, व्यापक, अजेय, अनादि और अनन्त ब्रह्म हैं। उन कृपा के समुद्र भगवान ने पृथ्वी, ब्राह्मण, गौ और देवताओं का हित करने के लिए ही मनुष्य शरीर धारण किया है। हे भाई! सुनिए, वे सेवकों को आनन्द देने वाले, दुष्टों के समूह को नष्ट करने वाले और वेद तथा धर्म की रक्षा करने वाले हैं। अत: आप उनसे बैर त्यागकर उन्हें अपना माथा नवाइए। वे रघुनाथ शरणागत का दुःख नष्ट करने वाले हैं। हे तात! उन प्रभु श्रीराम को जानकी जी दे दीजिए और बिना ही कारण स्नेह करने वाले श्रीराम को भजिए।

आगे विभीषण समझाता है कि जिसे सम्पूर्ण जगत् से द्रोह (बैर) करने का पाप लगा है, शरण जाने पर प्रभु उसका भी त्याग नहीं करते अर्थात् शरणागत चाहे कितना ही बैरी या पापी क्यों न हो? भगवान श्रीराम उसे अपना लेते हैं। जिनका नाम तीनों तापों (दैविक, दैहिक, भौतिक) का नाश करने वाला है, वे ही प्रभु (भगवान्) मनुष्य रूप में प्रकट हुए हैं। हे रावण! हृदय में यह बात अच्छी तरह समझ लो।

हे दसशीश! मैं बार-बार आपके चरणों में लगता हूँ और विनती करता हूँ कि मान, मोह और मद को त्यागकर आप कौशलपति श्रीराम का भजन करिए। मुनि पुलस्त्य जी ने अपने शिष्य के हाथ यह बात तुम्हारे लिए कहला भेजी है। हे तात! सुन्दर अवसर पाकर मैंने तुरन्त यह बात प्रभु अर्थात् आप से कह दी है।

विशेष :

  1. कवि ने काम, क्रोध, मद एवं मोह को त्यागने का उपदेश दिया है।
  2. भगवान के निराकार और साकार दोनों रूपों का वर्णन है
  3. अजित अनादि अनन्ता में अनुप्रास अलंकार है।
  4. भाषा सहज एवं सरल है।
  5. शान्त रस।

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माल्यवन्त अति सचिव सयाना। तासु वचन सुनि अति सुख माना॥
तात अनुज तब नीति विभूषन । सो उर धरहु जो कहत विभीषन॥
रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ। दुरिन करहु इहाँ हइ कोऊ॥
माल्यवन्त गृह गयउ बहोरी। कहइ विभीषन पुनि कर जोरी॥
सुमुति कुमति सबके उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥
जहाँ सुमति तहँ संपत्ति नाना। जहाँ कुमति तहँ विपति निदाना॥
तब उर कुमति बसी विपरीता। हित अनहित मानहु रिपु प्रीता॥
कालराति निसिचर कुल केरी। तेहि सीता पर प्रीति घनेरी॥
दोहा : तात चरन गहि मागउँराखहु मोर दुलार।
सीता देहु राम कहुँअहित न होइ तुम्हार ॥3॥

कठिन शब्दार्थ :
सचिव = मन्त्री; सयाना = चतुर; अति = अधिक; अनुज = छोटा भाई; नीति विभूषन = नीतिवान; उर = हृदय में; रिपु = शत्रु; उतकरष = उत्कर्ष, महिमा; सठ = मूर्ख; दुरिन करहुँ = इन्हें दूर कर दो अर्थात् यहाँ से ‘भगा दो; गयउ = चला गया; पुरान = पुराण; निगम = शास्त्र; अस = ऐसा; सुमति = अच्छी बुद्धि; कुमति = दुष्ट बुद्धि; निदाना = परिणाम में; विपरीता = उल्टी; रिपु प्रीता = शत्रु को मित्र; कालराति = कालरात्रि; निसिचर कुल = राक्षस कुल; घनेरी = अधिक; राखहु मोर दुलार = मेरा दुलार रखिए अर्थात् मेरी बात को प्रेमपूर्वक मान लो।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस अंश में विभीषण अपने भाई रावण को समझाते हुए कहते हैं कि श्रीराम को उनकी पत्नी लौटा दो, इसी में तुम्हारा कल्याण है।

व्याख्या :
कविवर तुलसीदास जी कहते हैं कि जिस समय विभीषण रावण को नेक सलाह दे रहा था उस समय वहाँ माल्यवन्त नामक एक बहुत ही बुद्धिमान मंत्री बैठा हुआ था। उसने उन (विभीषण) के वचन सुनकर बहुत सुख माना और कहा हे तात! (रावण) आपके छोटे भाई बहुत ही नीतिवान हैं। अतः विभीषण जो कुछ कह रहे हैं उसे आप अपने हृदय में धारण कर लीजिए।

इस पर रावण ने कहा कि ये दोनों मूर्ख शत्रु की महिमा का बखान कर रहे हैं। क्या यहाँ कोई व्यक्ति है जो इन्हें यहाँ से दूर कर दे। यह सुनकर माल्यवन्त तो अपने घर चला गया लेकिन विभीषण पुनः हाथ जोड़कर कहने लगे-हे नाथ! पुराण और वेद ऐसा कहते हैं कि सुबुद्धि और कुबुद्धि सभी मनुष्यों के हृदय में रहती है। जहाँ सुबुद्धि होती है वहाँ नाना प्रकार की सम्पत्तियाँ आ जाती हैं और जहाँ कुबुद्धि होती है वहाँ परिणाम में विपत्ति ही प्राप्त होती है। ऐसा लगता है कि आपके हृदय में उल्टी बुद्धि अर्थात् कुबुद्धि आ बसी है। इसी से आप हित को अहित और शत्रु को मित्र मान रहे हैं जो राक्षस कुल के लिए कालरात्रि के समान है उन सीता पर आपकी बड़ी प्रीति है।

हे तात! मैं चरण पकड़कर आपसे भीख माँगता हूँ अर्थात् विनती करता हूँ कि आप मेरा दुलार रखिए अर्थात् मेरी बात को स्वीकार कर लीजिए और सीताजी को श्रीराम को दे दीजिए, जिसमें आपका अहित नहीं होगा।

विशेष :

  1. विभीषण रावण से बार-बार विनती करके सीताजी को लौटाने की प्रार्थना करता है।
  2. सुमति और कुमति सभी में होती है पर विद्वान लोग सुमति को धारण करते हैं कुमति से दूर रहते हैं।
  3. अनुप्रास की छटा।
  4. भाषा सहज एवं सरल है।
  5. शान्त रस।

सूरज का पहिया संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

मन में विश्वास का यह सोनचक्र रुके नहीं
जीवन की पियरी केसर कभी चुके नहीं।
उम्र रहे झलमल
ज्यों सूरज की तश्तरी
डंठल पर विगत के
उगे भविष्य संदली
आँखों में धूप लाल
छाप उन ओठों की
जिसके तन रोओं में
चंदरिमा की कली
छाँह में बरौमियों के चाँद कभी थके नहीं।
जीवन की पियरी केसर कभी चुके नहीं ॥1॥

कठिन शब्दार्थ :
सोनचक्र = स्वर्णिम पहिया; पियरी = पीली; झलमल = झिलमिलाती रहे, चमकती रहे; सूरज की तश्तरी = सूरज का गोला; विगत = बीते हुए; संदली = चन्दन के समान; चंदरिया = चन्द्रमा।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के कल्याण की राह पाठ से गिरिजाकुमार माथुर द्वारा रचित कविता ‘सूरज का पहिया से लिया गया है।

प्रसंग :
इस अंश में कवि संसार के मनुष्यों को सचेत करते हुए कहता है कि तुम विपत्तियों और संकटों में कभी भी घबड़ाना मत और अपने लक्ष्य को पाने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना।

व्याख्या :
कविवर श्री गिरिजाकुमार माथुर कहते हैं कि मनुष्य को अपने मन के विश्वास को सदैव मजबूत बनाये रखना चाहिए। वह निरन्तर स्वर्णिम चक्र की भाँति (सूर्य के गोले के समान) निरन्तर गतिशील बना रहना चाहिए। तुम्हें हमेशा यह प्रयास करना चाहिए कि तुम्हारे मन में पीली केसर की भाँति जो स्वप्न जन्म ले रहे हैं, वे कभी चुक न जाएँ अर्थात् समाप्त न हो जाएँ। कहने का भाव यह है कि तुम्हारे मन में जो स्वप्न जन्मे हैं वे सदैव पल्लवित और पुष्पित होते रहें, वे कभी मुरझाएँ नहीं। तुम अपने जीवन में सदैव उसी तरह प्रकाशित होते रहो जिस तरह सूर्य का गोला प्रकाशित होता रहता है।

अतीत के डंठलों पर भविष्य के चन्दनों को उगाओ। कहने का भाव यह है कि अतीत में तुमने अनेकानेक संकट एवं विपत्तियाँ झेली हैं पर अपने भविष्य को तुम चन्दन के समान महकाओ। तुम्हारी आँखों में तुम्हारे विश्वास की रंग-बिरंगी तस्वीर हो। तुम्हारे ओठों पर तुम्हारे स्वप्नों के गीत हों। यदि कभी तुम्हारे जीवन में शाम भी आ जाए अर्थात् निराशा आ जाए तब भी तुम चन्द्रमा के समान अपनी शीतलता बिखेरते रहना। कहने का भाव यह है कि निराशा में भी अपनी आशा का संबल मत छोड़ना। तुम्हारी आँखों की बरौनियों में चन्द्रमा कभी भी थके नहीं अपितु वह निरन्तर गतिशील बना रहे। तुम्हारे जीवन के स्वप्नों की पीली केसर कभी भी मुरझाए नहीं, ऐसा तुम्हें सदैव प्रयत्न करना चाहिए।

विशेष :

  1. इस कविता में कवि ने सार्थक जीवन जीने का सन्देश दिया है।
  2. ज्यों सूरज की तश्तरी में उपमा अलंकार।
  3. भाषा सहज, सरल एवं भावानुकूल है।

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मन में विश्वास
भूमि में ज्यों अंगार रहे
आरई नजरों में
ज्यों अलोप प्यार रहे
पानी में धरा गंध
रुख में बयार रहे
इस विचार-बीज की
फसल बार-बार रहे
मन में संघर्ष फाँस गड़कर भी दुखे नहीं।
जीवन की पियरी केसर कभी चुके नहीं ॥2॥

कठिन शब्दार्थ :
अंगार = जलता हुआ कोयला; आरई नजरों = प्रेमपूर्ण दृष्टि में; अलोप = प्रकट; धरा = पृथ्वी; गन्ध = सुगन्ध; बयार = वायु; विचार-बीज= विचार रूपी बीज।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस अंश में कवि ने जीवन में संचार बनाये रखने तथा निरन्तर आगे बढ़ते रहने का सन्देश दिया है।

व्याख्या :
कविवर माथुर कहते हैं कि हमारे मन में विश्वास की लौ उसी प्रकार प्रज्ज्वलित होती रहनी चाहिए जिस प्रकार पृथ्वी पर जलता हुआ कोयला दिखाई देता है। कहने का भाव यह है कि हमें जीवन में सदैव ऊर्जा का संचार करते रहना चाहिए। जिस प्रकार प्रेम भरी दृष्टि से प्रेम प्रकट हो जाता है, जिस प्रकार जल में पृथ्वी की गंध समाई रहती है, जिस प्रकार वायु भी निरन्तर गतिमान रहती है उसी प्रकार तुम्हारा लक्ष्य भी निरन्तर गतिमान रहना चाहिए। जिस लक्ष्य को तुमने अपने विचारों में बीज की भाँति बोया है उसे कभी नष्ट नहीं होने देना है। तुम्हें सतत् प्रयत्न करते हुए आगे ही आगे बढ़ते रहना है। अपने विचारों को कार्य रूप में परिणत करना है। तुम्हारा विचार बीज कभी भी नष्ट नहीं होना चाहिए अपितु वह बार-बार पल्लवित एवं पुष्पित होते रहना चाहिए। तुम्हें चाहे जीवन में कितना ही संघर्ष क्यों न करना पड़े पर इस संघर्ष रूपी काँटे को कभी भी मन में मत चुभाना। इससे अपना मन दुःखी न करना। अपनी पीली केसर जैसी जिन्दगी को कभी भी समाप्त मत होने देना अपितु उसे निरन्तर गतिमान बनाये रखना।

विशेष :

  1. कवि ने जीवन में सदैव उत्साह भरने की प्रेरणा दी है।
  2. भूमि में ज्यों अंगार रहे में उपमा अलंकार।
  3. विचार-बीज में रूपक अलंकार।
  4. भाषा सहज एवं सरल तथा लाक्षणिक है।

आगम के पंथ मिलें
रंगोली रंग भरे
तिए-सी मंजिल पर
जन भविष्य-दीप पर
धूरी साँझ घिरे
उम्र महागीत बने
सदियों में गूंज भरे।
पाँव में अनीति के मनुष्य कभी झुके नहीं।
जीवन की पियरी केसर कभी चुके नहीं ॥3॥

कठिन शब्दार्थ :
आगम = शास्त्र, पुराण; भविष्य-दीप= जीवन के भविष्य का दीपक; अनीति = अन्याय; रंगोली = अल्पना।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि का सन्देश है कि हमें निरन्तर प्रयत्नशील रहना चाहिए और कभी भी अनीति के आगे झुकना नहीं चाहिए।

व्याख्या :
कविवर गिरिजाकुमार माथुर कहते हैं कि हमारे प्राचीन आर्य ग्रन्थ ही हमारे मार्गदर्शक बन जाएँ और हम अपना जीवन उन्हीं सिद्धान्तों पर जिएँ। हमारे जीवन में सदैव मंगलकारी रंगोलियाँ बनती रहें। इन लक्ष्यों को पाने के लिए हम अपने उज्ज्वल भविष्य के दीप जलाते चलें। हम जीवन में इतना प्रयास करें कि हमारा जीवन स्वयं एक महागीत बन जाए और उसकी गूंज सदियों तक गूंजती रहे। इसके साथ ही हमारे पाँव कभी भी अनीति के सामने झुके नहीं अपितु उन अनीतियों का हमें दृढ़ता से सामना करना चाहिए। हमें सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हमारे जीवन की पीली केसर कभी समाप्त न होने पाए।

विशेष :

  1. कवि प्राचीन आगम-निगमों को अपना आदर्श मानता है।
  2. जीवन में जीवन्तता बनाये रखना ही जीवन का लक्ष्य है।

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MP Board Class 9th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 7 सामाजिक समरसता

MP Board Class 9th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 7 सामाजिक समरसता

सामाजिक समरसता अभ्यास

बोध प्रश्न

सामाजिक समरसता अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कृष्ण और सुदामा कौन थे?
उत्तर:
कृष्ण और सुदामा बाल्यावस्था के घनिष्ठ मित्र थे।

प्रश्न 2.
सुदामा की पत्नी ने उन्हें क्या सलाह दी?
उत्तर:
सुदामा की पत्नी ने सुदामा को यह सलाह दी कि तुम्हारे बचपन के मित्र श्रीकृष्ण द्वारिका के राजा हैं अतः इस विपत्ति में तुम उनके पास चले जाओ, वे तुम्हारी सहायता करेंगे।

प्रश्न 3.
शबरी के आश्रम में कौन आये थे?
उत्तर:
शबरी के आश्रम में राम और लक्ष्मण दोनों भाई आये थे।

प्रश्न 4.
शबरी ने राम को प्रेम सहित खाने को क्या दिया?
उत्तर:
शबरी ने राम को प्रेम सहित कन्द, मूल एवं फल खाने को दिए।

प्रश्न 5.
शबरी के मुँह से शब्द क्यों नहीं निकल पा रहे थे?
उत्तर:
शबरी श्रीराम के प्रेम में इतनी मग्न हो गई थी कि उसके मुँह से शब्द तक नहीं निकल पा रहे थे।

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सामाजिक समरसता लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
शबरी ने अपने आश्रम में श्रीराम का किस प्रकार स्वागत किया?
उत्तर:
शबरी ने अपने आश्रम में राम का प्रेमपूर्वक स्वागत किया। उसने आदर के साथ जल लेकर प्रभु के चरण पखारे तत्पश्चात् उन्हें सुन्दर आसन पर बैठाया।

प्रश्न 2.
द्वारपाल द्वारा वर्णित सुदामा का चित्र अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
द्वारपाल ने जाकर श्रीकृष्ण से कहा कि हे प्रभु! एक अनजान व्यक्ति आया हुआ है, उसके सिर पर न तो पगड़ी है, और न शरीर पर झंगा है। न मालूम वह किस गाँव का रहने वाला है। उसकी धोती फटी हुई है और उसका दुपट्टा भी जीर्ण-शीर्ण है। वह अपने पैरों में जूते भी नहीं पहने हुए हैं। बड़े आश्चर्य से आपके महलों को देख रहा है और अपना नाम सुदामा बता रहा है।

प्रश्न 3.
सुदामा द्वारा पोटली न दिये जाने पर कृष्ण ने कौन-सी बातें याद दिलाईं ?
उत्तर:
सुदामा द्वारा सुदामा की पत्नी द्वारा भेजे गये चार मुट्ठी चावलों की पोटली न दिये जाने पर कृष्ण ने कहा कि हे मित्र! तुम चोरी की कला में बचपन से ही निपुण हो। जब बचपन में गुरुमाता ने हमें चबाने के लिए चने दिये थे तो तुमने चुपचाप चोरी से खा लिये थे संभवत: तुम्हारी वही चोरी की आदत आज भी नहीं छूटी है तभी तो तुम भाभी द्वारा दिये गये चावलों की पोटली को काँख में छिपाए हए हो।

प्रश्न 4.
बिना भक्ति के मनुष्य की स्थिति किस प्रकार की हो जाती है?
उत्तर:
बिना भक्ति के मनुष्य की स्थिति जलरहित बादलों के समान होती है अर्थात् जैसे जलरहित बादल किसी काम में नहीं आते हैं उसी तरह भक्ति रहित मनुष्य भी संसार में किसी के काम नहीं आता है।

प्रश्न 5.
शबरी और राम प्रसंग सामाजिक समरसता का अनूठा उदाहरण है, समझाइए।
उत्तर:
शबरी निम्न जाति की भीलनी थी और राम चक्रवर्ती सम्राट दशरथ के पुत्र थे पर जब श्रीराम वन में शबरी के आश्रम पर पहुँचे तो उसके आतिथ्य को बड़े ही प्रेम से स्वीकारा। उसके द्वारा परोसे गये कन्द, मूल और फलों को प्रेम से खाया। उन्होंने जाति-पाँति का भेद न करके प्रेम को महत्त्व प्रदान किया। इस प्रकार शबरी और राम प्रसंग सामाजिक समरसता का अनूठा उदाहरण है।

सामाजिक समरसता दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
श्रीकृष्ण और सुदामा की मैत्री का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर:
श्रीकृष्ण और सुदामा की मैत्री सच्ची थी। यह मैत्री बचपन में ही पाठशाला से शुरू होती है और जीवन भर चलती है। संयोग से कृष्ण द्वारिका के राजा बन जाते हैं और सुदामा दरिद्र बनकर भीख माँगकर अपना पेट पालता है। एक दिन सुदामा की पत्नी ने राजा श्रीकृष्ण के पास जाने की बात कही। पत्नी की बात मानकर सुदामा द्वारिका पहुँच जाते हैं। जब द्वारपाल के द्वारा सुदामा के आने की सूचना मिलती है, तो वे अपना राज-काज छोड़कर अपने मित्र का स्वागत करते हैं। मित्र सुदामा की दीन दशा देखकर वे अपने नेत्रों के आँसुओं से ही उनके पैर धो देते हैं। बिना सुदामा को बताये वे सुदामा को भी अपने समान सम्पन्न बना देते हैं।

प्रश्न 2.
सुदामा ने जब द्वारिका का वैभव देखा तो उनके मन में क्या विचार आए?
उत्तर:
सुदामा ने जब द्वारिका का वैभव देखा तो उनकी दृष्टि स्वर्ण निर्मित भवनों को देखकर चौंधिया गई। वहाँ उन्होंने देखा कि एक से बढ़कर एक द्वारिका के भवन हैं। वहाँ बिना पूछे कोई किसी से बात तक नहीं कर रहा है, ऐसा लगता है कि वहाँ के सभी लोग मौन साधकर देवताओं की तरह बैठे हुए हैं।

प्रश्न 3.
नवधा भक्ति समझाइए।
उत्तर:
श्रीराम ने भक्ति के नौ प्रकार बताए हैं, ये नौ प्रकार ही नवधा भक्ति के नाम से जाने जाते हैं। यह उपदेश श्रीराम ने शबरी को देते हुए कहा है कि प्रथम प्रकार की भक्ति संत पुरुषों की संगति है। दूसरी प्रकार की भक्ति मेरी कथा में प्रीति रखना है, तीसरी भक्ति गुरु के चरण कमलों की निरभिमान भाव से सेवा करना है। चौथी भक्ति कपट त्यागकर निश्छल हृदय से मेरा गुणगान करना है। पाँचवीं भक्ति मंत्रों का जाप करना, मुझ पर दृढ़ विश्वास करना और वेद विहित कर्म करना है।

छठी भक्ति इन्द्रियों को वश में रखना, शील धारण करना, सकाम कर्मों से विरक्त रहना और सज्जनों के धर्म का अनुसरण करना है। सातवीं प्रकार की भक्ति सारे संसार को मेरे स्वरूप में देखना, सब में समान भाव रखना तथा मुझसे भी अधिक सन्तपुरुषों को सम्मान देना है। आठवीं भक्ति जथा लाभ संतोष करना, स्वप्न में भी दूसरों के दोष न देखना है। नवीं भक्ति सबसे सरलता का व्यवहार करना, निष्कपट होना, मुझ पर अटूट श्रद्धा रखना, हृदय में प्रसन्नता का भाव रखना और स्वयं को दीनहीन न समझना है। आगे श्रीराम कहते हैं कि इन नौ प्रकार की भक्ति में से जिनके पास कोई एक भी हो, तो वह मनुष्य मुझे सम्पूर्ण संसार में प्रिय है।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित काव्यांश की सप्रसंग व्याख्या कीजिए
(क) ऐसे बेहाल…………….पग धोए।
उत्तर:
कवि कहता है कि जब श्रीकृष्ण ने सुदामा की दयनीय दशा को देखा तो वे भावविह्वल हो उठे। वे उनके पैरों की बिवाइयों एवं पैरों में चुभे हुए काँटों को देखकर दुःखी हो उठे और फिर उन्होंने अपने मित्र से कहा कि हे मित्र! तुमने इतना कष्ट उठाया? तुम इधर अर्थात् हमारे पास क्यों नहीं आए? इतने दिन तक तुम कहाँ रहे? सुदामा की इस दीन दशा को देखकर करुणा के सागर श्रीकृष्ण अत्यन्त दुःख करके रोने लगे। सुदामा के पैरों को धोने के लिए परात में रखे हुए पानी को तो उन्होंने हाथ भी नहीं लगाया तथा अपने नेत्रों से झरने वाले आँसुओं से ही सुदामा के चरण धो डाले।

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सामाजिक समरसता काव्य सौन्दर्य

प्रश्न 1.
रूढ़, यौगिक और योगरूढ़ शब्द छाँटिए-
पंकज, मित्र, गुरुबंधु, दीनबंधु, धर, मुकुट, किनारीदार, राजधर्म।
उत्तर:
रूढ़ शब्द-मित्र, धर, मुकुट। यौगिक शब्द-गुरुबंधु, दीनबंधु, किनारीदार। योगरूढ़ शब्द-पंकज, राजधर्म।

प्रश्न 2.
दिये गये शब्दों में उपसर्ग और प्रत्यय छाँटिए-
सुशील, परलोक, अनाथन, अधीर, बेहाल, चतुराई।
उत्तर:
उपसर्ग – सु + शील, पर + लोक, अ + धीर, बे + हाल।
प्रत्यय – अनाथन (न प्रत्यय), चतुराई (आई प्रत्यय।)

प्रश्न 3.
निम्नलिखित शब्दों के विलोम शब्द लिखिएसत्य, धर्म, प्रिय, सुलभ, सुमति, अहित, सुअवसर, संत।
उत्तर:
सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म, प्रिय-अप्रिय, सुलभ-दुर्लभ, सुमति-कुमति, अहित-हित, सुअवसरकुअवसर, संत-दुष्ट, असंत।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित शब्दों के तीन-तीन पर्यायवाची शब्द लिखिए।
नभ, कमल, लोचन, जग, पिता।
उत्तर:
नभ – गगन, अम्बर, आकाश।
कमल – सरसिज, पंकज, वारिज।
लोचन – नेत्र, चक्षु, अक्षि।
जग – जगत्, संसार, लोक।
पिता – जनक; तात, पितृ।

प्रश्न 5.
ते दोउ बंधु………………तब कीन्हीं॥
चापत चरन………………जल जाता॥
उठे लषनु………………..राम सुजान।
(1) यह प्रसंग किस काव्य से लिया गया है?
उत्तर:
उपर्युक्त तीनों प्रसंग गोस्वामी तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस’ से लिए गये हैं।

(2) ‘रामचरितमानस’ के उपर्युक्त अंश में कौन-से छन्द आये हैं?
उत्तर:
‘रामचरितमानस’ के उपर्युक्त अंश में से प्रथम दो में चौपाई छन्द तथा अन्तिम में दोहा छन्द है।

(3) चौपाई और दोहा छन्द की क्या पहचान है?
उत्तर:
चौपाई-यह एक मात्रिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राएँ होती हैं। पहले तुक चरण की दूसरे चरण से और तीसरे चरण की चौथे चरण से मिलती है।

दोहा-यह एक मात्रिक छन्द है। इसके विषम चरणों में 13-13 मात्राएँ और सम चरणों में 11-11 मात्राएँ होती हैं। कुल 48 मात्राएँ होती हैं।

प्रश्न 6.
इस पाठ में किन-किन छन्दों को तुलसीदास ने अपनाया है ? प्रत्येक छन्द का इसी पाठ से एक-एक उदाहरण लिखिए।
उत्तर:
इस पाठ में तुलसीदास ने दोहा एवं चौपाई छन्दों को अपनाया है। उदाहरण प्रस्तुत हैं-
चौपाई-
जाति-पाँति कुल धर्म बड़ाई। धनबल परिजन गुन चतुराई।
भगतिहीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल वारिद देखिअ जैसा।

दोहा-
गुरु पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥

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सुदामा चरित संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

विप्र सुदामा बसत हो, सदा आपने धाम।
भीग माँगी भोजन करे, हिये जपत हरि नाम।
ताकी घरनी पतिव्रता, गहै वेद की रीति।
सलज सुसील सुबुद्धि अति, पति-सेवा सौं प्रीति॥
कहो, सुदामा एक दिन, कृष्ण हमारे मित्र।
करत रहित उपदेश तिय, ऐसो परम विचित्र ॥1॥

कठिन शब्दार्थ :
विप्र = ब्राह्मण; धाम = घर; हिये = हृदय में; घरनी = पत्नी; गहै = ग्रहण करती है, चलती है; सलज = लज्जाशील; सुबुद्धि = अच्छी बुद्धिवाली; सौं = से; प्रीति = प्रेम; तिय = पत्नी से।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश कविवर नरोत्तमदास रचित ‘सुदामा चरित्र’ से लिया गया है।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्य में कवि ने सुदामा की स्थिति और दिनचर्या का वर्णन किया है।

व्याख्या :
कविवर नरोत्तमदास जी कहते हैं कि ब्राह्मण सुदामा अपने घर में रहता था, वह भीख माँगकर भोजन करता था और अपने हृदय में हरि नाम का जाप करता रहता था। उनकी पत्नी बड़ी ही पतिव्रता थी और वह सदैव वेदों के बताये मार्ग पर चलती थी। वह लज्जाशील, सुशील एवं अच्छी बुद्धि वाली थी तथा सदैव पति की सेवा में लगी रहती थी। एक दिन सुदामा ने अपनी पत्नी से कहा कि कृष्ण मेरे मित्र हैं। इस मित्रता की बातें वह नित्य अपनी पत्नी से किया करता था।

विशेष :

  1. सुदामा कृष्ण के बाल सखा एवं सहपाठी थे।
  2. वे सन्तोषी ब्राह्मण थे तथा भिक्षाटन किया करते थे।
  3. सलज सुसील सुबुद्धि-में अनुप्रास अलंकार।
  4. भाषा सहज एवं सरल है।

स्त्री
लोचन-कमल दुख-मोचन तिलक भाल,
स्रबननि कुंडल मुकुट धरे माथ है।
ओढ़े पीत बसन गरे मैं, बैजयंती माल,
संख चक्र गदा और पदम लिय हाथ है।
कहत नरोतम संदीपनि गुरु के पास।
तुम ही कहत हम पढ़े एक साथ हैं।
द्वारिका के गए हरि दारिद हरेंगे पिय,
द्वारिका के नाथ वै अनाथन के नाथ हैं ॥2॥

कठिन शब्दार्थ :
लोचन = नेत्र; दुख मोचन = दुखों को दूर करने वाला; सवननि – कानों में; माथ = माथे पर; पीत बसन = पीले वस्त्र कर = हाथ; पद्म = कमल; संदीपनि गुरु = इन्हीं गुरु के आश्रम में कृष्ण और सुदामा सहपाठी थे; हरि = भगवान; दारिद = दरिद्रता; अनाथन = गरीबों के।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग ;
प्रस्तुत पद्यांश के पूर्वार्द्ध में सुदामा की पत्नी भगवान की रूप छवि का वर्णन करती है फिर वह अपने पति से द्वारिका जाने का आग्रह करती है।।

व्याख्या :
कविवर नरोत्तमदास जी कहते हैं कि सुदामा की पत्नी पहले तो भगवान की रूप छवि का वर्णन करती है कि भगवान के नेत्र कमल जैसे हैं और उनके माथे पर जो तिलक लगा हुआ है वह दु:खों का नाश करने वाला है। उनके कानों में कुंडल लटक रहे हैं तथा माथे पर मुकुट धारण किये हुए हैं। वे पीत वस्त्र ओढ़े हुए हैं तथा उनके गले में वैजयन्ती माला शोभा दे रही है। उनके चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा और कमल रखे हुए हैं।

नरोत्तम कवि कहते हैं कि सुदामा की पत्नी सुदामा से कहती है कि तुम्ही हमें यह बताया करते हो कि हम दोनों संदीपन गुरु के आश्रम में एक साथ ही पढ़ते थे। हे प्रियतम! श्रीकृष्ण तुम्हारे मित्र हैं तो तुम निश्चय ही द्वारका को चले जाओ। तुम्हारी दीन दशा देखकर वे तुम्हारे दरिद्रों को दूर कर देंगे। हे प्रिय! द्वारिका के नाथ भगवान श्रीकृष्ण अनाथों एवं बेसहारा लोगों के नाथ हैं अर्थात् उनको सहायता प्रदान करने वाले हैं।

विशेष :

  1. कवि ने पद के पूर्वार्द्ध में चतुर्भुज भगवान की मोहक रूप छवि का वर्णन किया है।
  2. श्रीकृष्ण और सुदामा संदीपन गुरु के आश्रम में एक साथ पढ़े थे।
  3. अनुप्रास अलंकार।
  4. भाषा सहज एवं सरल।

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सुदामा
सिच्छक हौं सिगरे जग को तिय, ताको कहा अब देति है सिच्छा

जे तप ते परलोक सुधारत, संपति की तिनके नहि इच्छा
मेरे हिये हरि के पद पंकज, बार हजार लै देखि परीच्छा।
औरन को धन चाहिए, बावरि, बामन को धन केवल भिच्छा ॥3॥

कठिन शब्दार्थ :
सिच्छक = शिक्षक: सिगरे = सम्पूर्णः तिय = पत्नी; हिये = हृदय में; पद पंकज = चरण रूपी कमल; परीच्छा = परीक्षा; बावरि = पगली; बामन = ब्राह्मण।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद में सुदामा अपनी पत्नी को समझाते हुए कहता है कि ब्राह्मण को कभी धन की इच्छा नहीं करनी चाहिए।

व्याख्या :
हे प्रिय! तू जो बार-बार श्रीकृष्ण के पास द्वारिका जाने की शिक्षा दे रही है सो तो ठीक है पर तू यह भी अच्छी तरह से जान ले कि मैं ब्राह्मण होने के नाते सारे संसार का शिक्षक हूँ और अब तू उसी ब्राह्मण को इस प्रकार की शिक्षा दे रही है। हम ब्राह्मणों का धर्म तो तपस्या करके अपने परलोक को सुधारना है और साथ ही हममें सम्पत्ति एवं धन के लिए नाममात्र की भी इच्छा नहीं है।

हे प्रिय! मेरे हृदय में तो सदैव भगवान के चरण-कमल विराजे रहते हैं चाहे तू हजार बार मेरी परीक्षा लेकर देख ले। हे पगली स्त्री! धन की चाहना तो और जाति के लोग करते हैं हमारा धन तो केवल भिक्षा ही है।

विशेष :

  1. सुदामा एक संतोषी ब्राह्मण थे। उन्हें भौतिक सुखों से कोई लगाव नहीं था।
  2. पद पंकज में रूपक, अन्यत्र-अनुप्रास अलंकार।
  3. भाषा सहज एवं सरल।

स्त्री
कोदा सवाँ जुरतो भरि पेट, न चाहति हौं दधि दूध मिठौती।
सीत वितीत कियो सिसयातहि हों, हठती मैं तुम्हें न हठौती॥
जो जनती न हित हरि सों तुम्हें काहे को द्वारके पेलि पठौती।
या घर तें न गयौ कबहूँ पिय, टूटो तवा अरू फूटी कठौती ॥4॥

शब्दार्थ :
कोदा सवाँ = चावल की सबसे घटिया किस्म; मिठौती = मिष्ठान्न; सीत = जाड़ा; वितीत = बिता दिया; सिसयातहि = ठिठुरते हुए; हठती = अपनी जिद्द से हट जाती; न हठौती = तुम्हें तुम्हारी जिद्द से न हटाती; हितू = मित्रता; पेलि पठौती = जबरन भेजती; अरु = और; कठौती = काठ (लकड़ी) की परात जिसमें आटा गूंथा जाता है।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद में सुदामा की पत्नी अपनी दयनीय दशा का वर्णन करते हुए सुदामा को कृष्ण के पास जाने का आग्रह करती है।

व्याख्या :
सुदामा की पत्नी सुदामा से कह रही है कि यदि मुझे भर पेट कोदों और सवों के चावल भी मिल जाते तो मैं कभी भी दही, दूध और मिठाई की चाहना न करती। जाड़े की रातें मैंने ठिठुरते हुए ही बिता दीं। मैं अपनी जिद्द (कि तुम द्वारिका चले जाओ) से हट जाती पर तुम्हें तुम्हारी जिद्द से न हटाती। यदि मुझे यह पता न होता कि श्रीकृष्ण से तुम्हारी मित्रता है तो मैं तुम्हें जबरन द्वारिका भेजने की जिद्द न करती। हे पतिदेव! हमारा तो यह दुर्भाग्य है कि इस घर से कभी भी टूटा हुआ तवा और फूटी हुई कठौती नहीं गई।

विशेष :

  1. गरीबी की दयनीय दशा का वर्णन है।
  2. सुदामा की पत्नी कष्टों को सहने वाली है।
  3. भाषा सहज एवं सरल।

सुदामा
छोड़ि सबै जक तोहिं लगी बक, आठहु जाम यहै जक ठानी।
जातहि देहें लदाय लढ़ा भरि, लैहों लदाय यह जिय जानी॥
पार्वै कहां ते अटारी अटा, जिनके विधि दीन्हीं है टूटी-सी छानी।
जो पै दरिद्र लिखो है ललाट तो, काहू पै मेटि न जात अजानी ॥5॥

कठिन शब्दार्थ :
जक = बातें; बक= वे सिर पैर की बातें कहना; आठहु जाम = आठों पहर अर्थात् चौबीस घण्टे; जक = जिद्द, जातहिं = जाते ही; लढ़ा = बैलगाड़ी; लैहों लदाय = मैं लदा लूँगा, भर लूँगा; यहै= यही बात; जिय जानी = अपने हृदय में मान लिया है; अटारी अटा = ऊँची-ऊँची हवेलियाँ, महल; विधि = भाग्य में; छानी = छप्पर; दरिद्र = गरीबी; ललाट = भाग्य में; अजानी = हे अज्ञानी स्त्री।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि कहता है कि पत्नी की द्वारिका (श्रीकृष्ण के पास) जाने की जिद्द का उत्तर देते हुए सुदामा कहते हैं।

व्याख्या :
कवि कहता है कि सुदामा अपनी पत्नी से कहते हैं कि तूने और सब सार्थक बातें करना तो छोड़ दिया है केवल निराधार एक ही बात की रट लगाये हुए है, अब तू चौबीस घण्टे केवल एक ही बात को लेकर अड़ गयी है। तू यह समझती है कि जैसे ही मैं द्वारिका पहुँचूँगा तो वे गाड़ी भरकर मुझे दे देंगे और मैं उस धन सम्पत्ति को लदाकर तेरे पास आ जाऊँगा। हे बावली स्त्री! तू यह क्यों नहीं सोचती है कि विधाता ने जिनके भाग्य में टूटा-सा छप्पर दिया है, वे ऊँचे-ऊँचे महल और हवेलियाँ कहाँ से प्राप्त कर लेंगे। हे अज्ञानी स्त्री ! जिनके भाग्य में दरिद्रता लिखी हुई है वह किसी से भी मिटाये नहीं मिटती है।

विशेष :

  1. सुदामा भाग्यवादी है।
  2. पत्नी अपने मन में यह समझती है कि कृष्ण मित्र सुदामा को धन वैभव से सम्पन्न कर देंगे।
  3. अनुप्रास अलंकार की छटा।

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स्त्री
बिप्र के भगत हरि जगत विदित बंधु,
लेत सब ही की सुध ऐसे महादानि हैं।
पढ़े एक चटसार कहीं तुम कैयो बार,
लोचन-अपार वै तुम्हें न पहिचानि हैं,
एक दीनबंधु, कृपासिंधु फेरि गुरुबंधु,
तुम-सम कौन दीन जाको जिय जानी है?
नाम लेत चौगुनी, गए तें द्वारा सोगुनी सो,
देखत सहस्र गुनी प्रीति प्रभु मानि है ॥6॥

कठिन शब्दार्थ :
विप्र के भगत = ब्राह्मणों के भक्त; हरि = श्रीकृष्ण; जगत् = संसार में; विदित = जाने जाते हैं; सुधि = खबर; चटसार = पाठशाला में; कैयो बार = अनेक बार; लोचन-अपार = उनकी दृष्टि महान् एवं दूरदर्शी है; दीनबंधु = गरीबों के भाई; कृपासिंधु = कृपा के सागर; सम= समान; सहस्त्र = हजार गुनी।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
सुदामा के वचनों का उत्तर देती हुई उनकी पत्नी कहती है।

व्याख्या :
सुदामा की पत्नी सुदामा से कहती है कि भगवान श्रीकृष्ण ब्राह्मणों के भक्त हैं, वे एक श्रेष्ठ बंधु हैं यह बात सारा संसार जानता है। वे तो ऐसे महादानी हैं कि वे सभी प्राणियों की खबर लेते रहते हैं। तुमने तो मुझसे अनेक बार कहा है कि तुम श्रीकृष्ण के साथ एक ही पाठशाला में पढ़े हो, उनकी दृष्टि बड़ी अपार है, फिर वे तुम्हें क्यों नहीं पहचान लेंगे ? अर्थात् अवश्य पहचान लेंगे। एक तो वे श्रीकृष्ण दीन लोगों के सच्चे बंधु हैं, वे कृपा के सागर हैं और फिर तुम्हारे तो वे गुरुभाई हैं। इस समय तुम्हारे समान दुनिया में कौन दीन है जिसको वे अपने हृदय में नहीं जानते होंगे ? अर्थात् वे तुम्हारी दीनता को अवश्य ही जानते होंगे। अंत में सुदामा की पत्नी सुदामा से कहती है कि प्रभु श्रीकृष्ण का नाम लेते ही प्रभु भक्त के प्रेमभाव को चौगुना, उनके यहाँ जाने पर प्रेमभाव को सौ गुना और उनका दर्शन करते ही प्रेमभाव को वे हजार गुना मानते हैं।

विशेष :

  1. अपने वाक् चातुर्य से सुदामा की पत्नी सुदामा को निरुत्तर कर देती है।
  2. अनुप्रास की छटा।
  3. भाषा सहज, सरल एवं भावानुकूल है।

सुदामा
द्वारिका जाहु जू द्वारिका जाहू जू, आठहु जाम यहै जक तेरे।
जौ न कहो करिए तो बड़ो दुख, जैए कहाँ अपनी गति हेरे॥
द्वार खरे प्रभु के छरिया, तहं भूपति जान न पावत नेरे।
पाँच सुपारी तें देंखु विचारिक, भेंट को चारि न चाउर मेरे॥
यह सुनिके तब ब्राह्मनी, गई परोसिनि-पास।
पाव-सेर चाउर लिए, आई संहित हुलास॥
सिद्धि करी गनपति सुमिरि, बांधि दुपटिया खूट।
मांगत खात चले तहाँ, मारग बाली-बूट॥
दीठि चकचौँधि गई देखते सुबर्नमई,
एक तें सरस एक द्वारिका के भौन हैं।
पूछे बिन कोऊ कहूं काहू सौं न करें बात,
देवता से बैठे सब साधि-साधि मौन हैं।
देखत सुदामें धाय पौरजन गहे पाय,
कृपा करि कहौ विप्र कहाँ कीन्ह गौन है?
धीरज अधीर के, हरन पर पीर के,
बताओ बलबीर के महल यहाँ कौन है? ॥7॥

कठिन शब्दार्थ :
जक = जिद्द; जैए कहाँ = कहाँ जाएँ; गति = दशा; हेरे = देखें; छरिया = हाथ में दण्ड धारण किये हुए; तहँ = उस स्थान पर; भूपति = राजा लोग; जान न पावत = जा नहीं पाते हैं; नेरे = समीप; चाउर = चावल; ब्राह्मनी = ब्राह्मण सुदामा की पत्नी; सहित हुलास = आनन्द के साथ; गनपति = गणेशजी; सुमिरि = स्मरण करके; दुपटिया = दुपट्टे में; छूट = गाँठ; दीठि= दृष्टि; चकचौंधि = चौंधिया गई; सुबर्नमई = स्वर्ण से बनी हुई; सरस = सुन्दर; भौन = भवन, महल; साधि-साधि मौन है = मौन धारण कर सब बैठे हुए हैं; धाय = दौड़कर; पौर जन = नगर निवासी; गहे पाय = चरण पकड़ लिए; विप्र = ब्राह्मण; गौन = गमन, जाना; धीरज अधीर के = अधीर लोगों को धीरज देने वाले; हरन पर पीर के = दूसरों की पीड़ा को हरने वाले बलबीर = बलदाऊ के भाई अर्थात् श्रीकृष्ण।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
सुदामा अपनी पत्नी द्वारा बार-बार कहे जाने पर विवश होकर द्वारिका जाने को तैयार हो जाते हैं, उसी समय का वर्णन है।

व्याख्या :
सुदामा जी अपनी पत्नी से कहते हैं कि तुमने तो द्वारिका जाने की एक तरह से आठों पहर रट लगा रखी है। यदि मैं तुम्हारी बात नहीं मानता हूँ तो तुम्हें बहुत दुःख होगा और यदि मैं तुम्हारी बात मानकर द्वारिका चला भी जाऊँ तो मेरी स्थिति कैसी होगी, यह तुम नहीं जानती हो। जब मैं वहाँ पहुँचूँगा तो श्रीकृष्ण के महल के बाहर दण्डधारी द्वारपाल खड़े मिलेंगे, उस जगह बड़े-बड़े राजा भी सरलता से नहीं जा सकते हैं फिर मेरी तो बिसात ही क्या है? शायद तुम यह भी नहीं जानती हो कि राजा के पास कभी भी खाली हाथ नहीं जाया जाता है। वहाँ जाने के लिए कम-से-कम पाँच सुपाड़ी तो होनी ही चाहिए जो मेरे पास नहीं है। इतना ही नहीं यदि पाँच सुपाड़ी न भी हों तो कम से कम चार मुट्ठी चावल तो होना ही चाहिए, संयोग से वह भी हमारे घर नहीं है। तो सोचो ऐसी दशा में वहाँ जाना कैसे सम्भव है।

सुदामा के मुख से यह बात सुनकर तब सुदामा की पत्नी अपनी पड़ोसिन के पास गई और उससे पाव भर चावल उधार लेकर बड़े ही उल्लास एवं उमंग के साथ आ गई। सबसे पहले भगवान! गणेश का स्मरण कर और अपने दुपट्टे के एक छोर में चावल रखकर तथा उसमें गाँठ लगाकर और उसे कन्धे पर रखकर माँग कर खाते हुए वे द्वारिका के मार्ग पर चल निकले।

सुदामा जी बीहड़ मार्ग को पार कर जैसे ही द्वारिका नगरी में पहुँचते हैं तो वहाँ के स्वर्ण निर्मित जगमगाते हुए भवनों को देखकर जो एक से एक सुन्दर हैं, उनकी दृष्टि चौंधिया जाती है। वहाँ के लोगों की एक विचित्र दशा यह है कि कोई भी व्यक्ति बिना पूछे किसी से कोई बात ही नहीं कर रहा है तथा वे सभी लोग अपना-अपना मौन साधकर देवता जैसे बैठे हए हैं।

जैसे ही द्वारिका के नागरिकों ने सुदामा को देखा तो उन्होंने दौड़कर सुदामा के पैर पकड़ लिए और विनती करके कहने लगे कि हे विप्रवर! कृपा करके यह बतलाएँ कि आपको कहाँ जाना है? यह बात सुनकर सुदामा बोले कि जो अधीर लोगों को धैर्य धारण कराते हैं, दूसरों की पीड़ा को हरते हैं तथा जो बलराम के भाई हैं, उन्हीं का घर कृपया बता दीजिए।

विशेष :

  1. सुदामा की सहज भावना का वर्णन किया गया है।
  2. अनुप्रास की छटा है।
  3. भाषा सहज, सरल एवं भावानुकूल है।
  4. शास्त्रों के अनुसार मान्यता है कि राजा एवं गुरु के पास कभी भी खाली हाथ नहीं जाना चाहिए।

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द्वारपाल
सीस पगा न झगा तन पै, प्रभु जाने को आहि, बसै केहि ग्रामा।
धोती फटी सी लटी दुपटी, अरूपाय उपानह की नहि सामा॥
द्वार खरौ द्विज दुर्बल एक, रह्यो चकि सौ बसुधा अभिरामा।
पूछत दीनदयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा ॥8॥

कठिन शब्दाधं :
सीस = सिर पर; पगा = पगड़ी; झगा = झंगा एक प्रकार का कुर्ता; आहि = है; बसै = रहता है; केहि= कौन से; ग्रामा = गाँव में; लटी दुपटी = दुपट्टा जीर्ण-शीर्ण है; अरु = और; उपानह = जूता; सामा = सामर्थ्य; खरौ = खड़ा है; दुर्बल = कमजोर; चकि = चकित होकर; वसुधा = पृथ्वी; अभिरामा = सुन्दर; धाम = भवन।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
सुदामा के द्वारिका पहुँचने पर श्रीकृष्ण का द्वारपाल श्रीकृष्ण को सुदामा की वेशभूषा के बारे में बताता है।

व्याख्या ;
द्वारपाल ने श्रीकृष्ण से कहा कि हे प्रभु! कोई एक अनजान व्यक्ति आपसे मिलता चाहता है। उसके सिर पर न तो पगड़ी है और न शरीर पर झंगा ही है। न जाने वह कौन है और किस गाँव में रहता है। उसकी धोती फटी हुई है और उसका दुपट्टा भी चीथड़ा बना हुआ है। उसके पैरों में जूते भी नहीं हैं। हे प्रभु! द्वार पर इस प्रकार का एक अत्यन्त दीन एवं कृशकाय ब्राह्मण खड़ा हुआ है। वह बड़े आश्चर्य से इस सुन्दर भूमि को देख रहा है। वह दीनदयाल श्रीकृष्ण अर्थात् आपका भवन पूछ रहा है और अपना नाम सुदामा बता रहा है।

विशेष :

  1. कवि ने सुदामा की दीन-हीन दशा का बड़ा ही मार्मिक वर्णन किया है।
  2. अनुप्रास अलंकार की छटा।
  3. भाषा सहज, सरल एवं भावानुकूल।

बोल्यौ द्वारपालक सुदामा नाम पांडे,
सुनि, छांड़े राज-काज ऐसे जी की गति जाने को?
द्वारिका के नाथ हाथ जोरि धाय गहे पाँय,
भेंट लपटाय करि ऐसे दुख सानै को?
नैन दोऊ जल भरि पूछत कुसल हरि,
बिप्र बौल्यौ बिपदा में मोहि पहिचाने को?
जैसी तुम करी तैसी करै को कृपा के सिन्धु।
ऐसी प्रीति दीनबंधु दीनन सो माने को? ॥9॥

कठिन शब्दार्थ :
छांड़े = छोड़ दिए; गति = दशा; को = कौन; धाय = दौड़कर; भेंट = गले लगना; विपदा = विपत्ति; मोहि = मुझे कृपा के सिंधु = दया के सागर; दीनबन्धु = दीनों के बंधु; दीनन = गरीबों से।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यांश में उस समय का वर्णन है जब द्वारपाल ने श्रीकृष्ण के पास जाकर सुदामा नाम बताया तो श्रीकृष्ण राज-काज छोड़कर सुदामा से मिलने के लिए पैदल ही दौड़ पड़े।

व्याख्या :
कवि कहता है कि जैसे ही द्वारपाल ने श्रीकृष्ण को यह बताया कि कोई सुदामा नाम का ब्राह्मण आपका धाम पूछ रहा है तो श्रीकृष्ण राज-काज को छोड़कर सुदामा से मिलने के लिए व्याकुल हो उठे। उस समय उनके हृदय की गति को कोई नहीं समझ सकता। द्वारिका के नाथ श्रीकृष्ण ने हाथ जोड़कर तथा दौड़कर सुदामा के पैर पकड़ लिए और फिर उन्हें गले से लगाकर उनकी दुःखभरी दीन स्थिति को देखकर दोनों नेत्रों में जल भरकर सुदामा की कुशल क्षेम पूछने लगे। श्रीकृष्ण से इतना अधिक प्रेम पाकर सुदामा भाव-विभोर होकर श्रीकृष्ण से कहने लगे कि हे प्रभु! इस विपत्ति काल में मुझे कौन पहचानता है? अर्थात् कोई नहीं। किन्तु हे दया के सागर ! जिस प्रकार से आपने मेरा सम्मान किया और कुशल क्षेम पूछी, इस प्रकार की प्रीति आपके अतिरिक्त और कौन कर सकता है? अर्थात् कोई नहीं। आप दीनों के बंधु हैं, दीनों की कुशल क्षेम पूछते हैं अन्यथा अन्य कोई तो दीनों को समझता ही कहाँ है?

विशेष :

  1. दीन सुदामा और दीनबन्धु श्रीकृष्ण की भेंट का बड़ा ही भावपूर्ण चित्रण हुआ है।
  2. कृष्ण एवं सुदामा की मानसिक दशा का सूक्ष्म वर्णन हुआ है।
  3. अनुप्रास अलंकार।
  4. सहज एवं सरल ब्रजभाषा का प्रयोग।

ऐसे बेहाल बेवाइन सों, पग कंटक जाल लगे पुनि जोए।
हाय महादुख पायो सखा, तुम आए इतै न कितै दिन खोए।।
देखि सुदामा की दीनं दसा, करुना करिकै करुनानिधि रोए।
पानी परात को हाथ छुयौ नहिं, नैनन के जल सों पग धोए ॥10॥

कठिन शब्दार्थ :
बेहाल = बुरी दशा में; बेवाइन = फटे हुए पैरों के घाव; कंटक जाल = काँटों का झुण्ड; जोए = देखने लगे; इतै = इधर; कितै = किधर; दीन दसा = दयनीय दशा; करुणानिधि = करुणा के सागर; नैनन के जल = आँसुओं से; पग = पैर।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
श्रीकृष्ण और सुदामा की भेंट होने पर सुदामा की दीनदशा, फटी हुई बिवाइयों एवं पैरों में लगे हुए काँटों को देखकर श्रीकृष्ण भाव विह्वल हो उठते हैं। उसी का यहाँ वर्णन है।

व्याख्या :
कवि कहता है कि जब श्रीकृष्ण ने सुदामा की दयनीय दशा को देखा तो वे भावविह्वल हो उठे। वे उनके पैरों की बिवाइयों एवं पैरों में चुभे हुए काँटों को देखकर दुःखी हो उठे और फिर उन्होंने अपने मित्र से कहा कि हे मित्र! तुमने इतना कष्ट उठाया? तुम इधर अर्थात् हमारे पास क्यों नहीं आए? इतने दिन तक तुम कहाँ रहे? सुदामा की इस दीन दशा को देखकर करुणा के सागर श्रीकृष्ण अत्यन्त दुःख करके रोने लगे। सुदामा के पैरों को धोने के लिए परात में रखे हुए पानी को तो उन्होंने हाथ भी नहीं लगाया तथा अपने नेत्रों से झरने वाले आँसुओं से ही सुदामा के चरण धो डाले।

विशेष :

  1. कवि ने कृष्ण सुदामा की सच्ची मित्रता का अत्यन्त भावग्राही चित्रण किया है।
  2. भगवान तो वास्तव में सच्ची भक्ति के वश में रहते हैं। इसी भाव का यहाँ अंकन हुआ है।
  3. पानी परात को हाथ छुओ नहिं नैनन के जल सों पग धोए-में अतिशयोक्ति अलंकार।
  4. भाषा सहज, सरल एवं भावानुकूल है।

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श्रीकृष्ण
कछु भाभी हमको दियो, सो तुम काहे न देत।
चाँपी पोटरी काँख में, रहे कहो केहि हेत॥
आगे चना गुरु-माता देत ते लए तुम चाबि हमें नहिं दीने।
स्याम कहो मुसुकाय सुदामा सों, चोरी की बानि मैं हो जू प्रबीने॥
पोटरी काँख में चाँपि रहे तुम, खोलत नाहिं सुधा-रस भीने।
पाछिली बानि अजौ न तजौ तुम, तैसेइ भाभी के तंदुल कीने॥
देनो हुतो तो दे चुके, बिप्र न जानी गाथ।
चलती बेर गोपालजू, कछु न दीन्हौ हाथ ॥11॥

कठिन शब्दार्थ :
चाँपी = दबा रखी है; पोटरी = पुटरिया; = केहि हेत = किस लिए; गुरु माता = संदीपनि गुरु की धर्म पत्नी; चाबि = चबा कर खा लिए; बानि = आदत; प्रबीने = चतुर; सुधारस भीने = अमृत रस से सिक्त; पाछिली = पुरानी; अजौ = अब भी; तंदुल = चावल; गाथ = कहानी; बेर = समय।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
सुदामा श्रीकृष्ण की भेंट के समय यद्यपि अपनी पत्नी के हाथ से चार मुट्ठी चावल श्रीकृष्ण को देने के लिए लाये थे, पर वे संकोचवश उन्हें नहीं दे सके तो श्रीकृष्ण ने उनकी काँख में दबी हुई पोटली के बारे में पूछ ही लिया, उसी का यहाँ वर्णन है।

व्याख्या :
कवि कहता है कि श्रीकृष्ण ने अपने मित्र सुदामा से पूछा कि क्या मेरी भाभी ने हमारे लिए कुछ भेंट के रूप में भेजा है? जो हमारी भाभी ने मेरे लिए भेंट भेजी है उसे तुम मुझे क्यों नहीं देते हो? बताओ तो सही भाभी द्वारा दी हुई भेंट की पोटरी को तुम काँख में किसलिए छिपाए हुए हो?

फिर श्रीकृष्ण बचपन की एक घटना सुदामा को स्मरण दिलाते हुए सुनाते हैं कि बचपन में जब हम तुम एक साथ पाठशाला में पढ़ते थे तो गुरुमाता ने जंगल से ईंधन लाने के लिए हम दोनों को भेजा था और साथ ही गुरुमाता ने चबाने के लिए कुछ भुने हुए चने भी बाँधकर तुम्हें दे दिए थे कि जब भूख लगे तो तुम दोनों खा लेना लेकिन तुमने मेरे साथ कपट किया और अकेले ही उन चनों को चबा लिया था। फिर श्रीकृष्ण मुस्कराकर सुदामा से कहते हैं कि हे मित्र! तुम तो बचपन से ही चोरी की कला में चतुर रहे हो। तुम काँख में दबी हुई उस पोटरी को क्यों नहीं खोल रहे हो जिसमें अमृत रस से भीगे हुए चावल रखे हुए हैं। ऐसा लगता है कि तुमने अपनी पिछली चोरी की आदत आज भी नहीं छोड़ी है और इसी कारण मेरी भाभी द्वारा भेजे. चावलों को भी तुम मुझसे छिपा रहे हो। – इस प्रकार अपने मित्र के दुःखों को दूर करने हेतु श्रीकृष्ण जो कुछ भी दे सकते थे वह उन्होंने बिना सुदामा को बताये दे दिया लेकिन प्रत्यक्ष रूप में गोपाल जी ने उनके हाथ में कुछ नहीं दिया।

विशेष :

  1. अन्तिम दो पंक्तियों में श्रीकृष्ण ने प्रत्यक्ष रूप में तो सुदामा को कुछ नहीं दिया पर अप्रत्यक्ष रूप से उन्हें दो लोक का स्वामी बना दिया है।
  2. अनुप्रास अलंकार की छटा।
  3. भाषा, सहज, सरल एवं भावानुकूल है।

सुदामा
वह पुलकनि वह उठि मिलनी, वह आदर की भांति।
यह पठवनि गोपाल की, कछु न जानी जाति॥
घर-घर कर ओड़त फिरे, तनक दही के काज।
कहो भयौ जो अब भयौ, हरिको राज-समाज॥
हौं कब इत आवत हुतौ, बाही पठयौ ठेलि।
कहिहौ धन सो जाइकै, अब धन धरौ सकेलि ॥12॥

कठिन शब्दार्थ :
पुलकनि = पुलकित दशा, रोमांचित होना; पठवनि = भेजना; घर-घर = द्वार-द्वार पर; ओड़त-फिरे = माँगते फिरते हैं; तनक= थोड़े; कहो भयौ = जो कुछ मैं कहता था; जो अब भयौ = वही हो गया; इत = इधर; आवत हुतौ = आना चाह रहा था; बाही = उसी ने अर्थात् मेरी पत्नी ने; पठ्यौ ठेलि= जबरदस्ती भेज दिया; धरौ सकेलि = इकट्ठा करके धर लो।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रकट में श्रीकृष्ण ने जब सुदामा को कुछ नहीं दिया तो सुदामा हतोत्साहित होकर अपनी व्यथा का वर्णन करते हैं।

व्याख्या :
कवि कहता है कि सुदामा श्रीकृष्ण की भेंट के समय दोनों में कैसी पुलकन थी, कैसा दोनों का उठना-बैठना और मिलना था और कैसा श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया आदर-सम्मान था? श्रीकृष्ण ने जब सुदामा को विदा किया तो कैसे किया? ये बातें कोई भी जान नहीं सका अर्थात् श्रीकृष्ण ने अपने मित्र की दशा देखकर उन्हें जो दो लोकों का राज्य दे दिया उसे केवल श्रीकृष्ण के अलावा कोई नहीं जानता था।

सुदामा निराश होकर कहने लग जाते हैं कि मैं तो थोड़े-से दही की चाहना में द्वार-द्वार भीख माँगता फिरता था लेकिन उस दशा में भी मैं सन्तुष्ट था लेकिन पत्नी की हठ के कारण यहाँ श्रीकृष्ण की द्वारिका में आकर मुझे क्या प्राप्त हुआ अर्थात् कुछ भी नहीं। राजाओं के राज-समाज की तो अनोखी गति होती है। मैं तो इधर किसी भी कीमत पर आना नहीं चाहता था पर मेरी उस घरवाली ने मुझे जबरन जिद्द करके इधर द्वारिका भेज दिया। अब मैं घर लौटकर अपनी गृहिणी से कहूँगा कि मैं जो अपने साथ बहुत सारा धन लेकर आया हूँ उसे तुम भली-भाँति सजाकर रख लो।

विशेष :

  1. सुदामा की खीझ का वर्णन है।
  2. अनुप्रास की छटा।
  3. भाषा सहज, सरल एवं भावानुकूल।

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वैसेई राज-समाज बने, गज-बाजि घने, मन संभ्रम छायौ।
वैसेई कंचन के सब धाम है, द्वारिकै माहि नौं फिरी आयो।
भौन बिलोकि ये को मन लोचत-सोचत ही सब गाँव मँझायो।
पूछत पांडे फिर सबसों, पर झोंपरी को कहुँ खोज न पायो।। ॥13॥

कठिन शब्दार्थ ;
वैसेई = वैसे ही; गज-बाजि = हाथी घोड़े; घने = बहुत अधिक; संभ्रम = धोखा, भ्रम; कंचन = सोना; धाम = महल; बिलोकि = देखकर, मंझायो = ढूँढ़ डाला।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहां उस समय का वर्णन है जब सुदामा लौटकर अपने घर आ जाते हैं पर यहाँ के ठाठ-बाट देखकर वे चकरा जाते हैं कि कहीं मैं पुनः लौटकर द्वारिका तो नहीं पहुँच गया।

व्याख्या :
कवि कहता है कि जब सुदामा द्वारिका से लौटकर अपने घर वापस आते हैं तो उन्हें वैसे ही ठाठ-बाट यहाँ देखने को मिलते हैं। वे देखते हैं कि यहाँ भी वैसा ही राज-समाज बैठा हुआ है जैसा कि द्वारिका में था। वैसे ही हाथी, घोड़े और सोने के महल हैं। सुदामा को लगता है कि कहीं वह भूलकर फिर से द्वारिका तो नहीं आ गया है। सारे भवनों को देखते-देखते उन्होंने पूरा गाँव घूम लिया वे सभी लोगों से अपनी पुरानी झोंपड़ी के बारे में पूछते हैं पर उन्हें अपनी वह पुरानी झोंपड़ी नहीं मिली।

विशेष :

  1. अपने घर की नई बसावट एवं सजावट देखकर सुदामा को भ्रम उत्पन्न हो जाता है कि कहीं वे लौटकर फिर द्वारिका तो नहीं आ गये।
  2. भाषा सहज, सरल एवं भावपूर्ण है।

कनक दंड कर में लिए, द्वारपाल है द्वार।
जाय दिखायौ सबनि लै, या है महल तुम्हार॥
टूटी-सी मडैया मेरी परी हुती याही ठौर,
तामै परो दु:ख काटौं हेम-धाम री।
जेवर-जराऊ तुम साजे प्रति अंग-अंग,
सखी सोहें, संग वह छूछी हुती छाम री॥
तुम तौ पटंबर री ओढ़े हो किनारीदार।
सारी जरतारी, वह ओढ़े कारी कामरी।
मेरी वा पँडाइन तिहानी अनुहार ही पै,
विपदा-सताई वह पाई कहाँ पामरी।। ॥14॥

कठिन शब्दार्थ :
कनक दंड = सोने का दण्डा; सबनि = सबने; मडैया = छाया हुआ छोटा-सा छप्पर; परी-हुती = पड़ी हुई थी; याही ठौर = इसी स्थान पर; हेम-धाम = स्वर्ण निर्मित महल; जेवर-जराऊ = जड़े हुए जेवर; साजे = सज रहे हैं; प्रति अंग-अंग = हर अंग में; छूछी हुती = बिना आभूषण के; छामरी = पतली दुबली; पटंबर = ऊपरी वस्त्र; सारी = साड़ी; जरतारी = जरदोई के काम वाली; कारी कामरी = काला कम्बल; पँडाइन = पंडिताइन; अनुहार ही पै = तुम्हारी जैसी ही; विपदा = विपत्ति; पामरी = बेचारी।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग ;
सुदामा जी द्वारिका से जब अपने घर लौटते हैं तो वहाँ की भव्य अभिराम छवि को देखकर वे हक्के-बक्के रह जाते हैं और अपनी टूटी-सी छानी तथा अपनी पंडिताइन को ढूँढ़ते फिरते हैं, इसी का यहाँ वर्णन है।

व्याख्या :
कवि कहता है कि जब सुदामा श्रीकृष्ण से भेंट करने के पश्चात् द्वारिका से अपने घर वापस आते हैं तो भगवान की कृपा से सुदामा के घर पर कंचन बरसने लगता है। उनके मकान आदि भी वैसे ही भव्य हो जाते हैं जैसे कि द्वारिका में थे तो वे आश्चर्य चकित होकर कहने लगते हैं कि यहाँ तो द्वार पर खड़े द्वारपाल अपने हाथों में स्वर्ण निर्मित डण्डा लिए हुए हैं। फिर नगर के अन्य लोगों ने सुदामा को ले जाकर उन्हें बताया कि यही तुम्हारा महल है।

इस पर सुदामा कहने लगते हैं कि मेरी तो इस स्थान पर टूटी सी मडैया खड़ी हुई थी, उसी में मैं अपने दुःखों को काटता रहता था, पर अब यहाँ स्वर्ण निर्मित भवन कहाँ से आ गये? उसी घर पर एक स्त्री खड़ी हुई मिलती है उसे देखकर सुसुदामा जी कहते हैं कि हे भाग्यवती! तुम्हारे अंग-प्रत्यंग पर तो जड़ाऊ जेवर शोभा दे रहे हैं साथ ही तुम्हारे साथ तो सखियाँ भी हैं लेकिन मेरी वह पंडिताइन तो बिना किसी आभूषण के पतली-दुबली सी थी। तुम तो किनारीदार पटंबर पहने हुए हो साथ ही तुम्हारी साड़ी भी जरदोई के काम से युक्त है लेकिन मेरी पंडिताइन तो केवल काली कामरी ओढ़े रहती थी। इतना अवश्य है कि मेरी वह पंडिताइन तुम जैसी ही लगती थी। विपत्ति ने मेरा साथ नहीं छोड़ा है। मैं अपनी उस भोली-भाली पंडिताइन को कहाँ से पा सकूँगा।

विशेष :

  1. भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी कृपा से सुदामा को भी राजसी ठाठ-बाट प्रदान कर दिए हैं पर भगवान ने अपना रहस्य सुदामा को नहीं बताया था इसीलिए वह दिग्भ्रम हो रहा है।
  2. भाषा, सहज, सरल एवं भावानुकूल है।

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कै वह टूटी-सी छानी, हती, कहै कंचन के सब धाम सुहावत।
कै पग मैं पनही न हती, कहै लै गजराजहु ठाढ़े महावत॥
भूमि कठोर पै रात कटै, कै कोमल सेज पै नींद न आवत।
के जुरतो नहीं कोदो सवाँ, प्रभु के परताप तैदाख न भावत ॥15॥

कठिन शब्दार्थ :
कै= कहाँ छानी = टूटी झोंपड़ी, छप्पर; हती = थी; कंचन = सोने के; धाम = महल; सुहावत = शोभा दे रहे हैं; पनहीं = जूते; जुरतो नहीं = जुड़ता नहीं था, मिलता नहीं था; कोदों सवाँ = चावल की सस्ती एवं मोटी जाति; परताप = महिमा; तै = से; दाख = अंगूर।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस अंश में बताया गया है कि भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से सुदामा के बुरे दिन फिर गये।

व्याख्या :
कवि कहता है कि सुदामा कहते हैं कि जहाँ वह टूटी-सी झोंपड़ी पड़ी हुई थी अब वहीं पर सुन्दर-सुन्दर सोने के महल शोभायमान हो रहे हैं। कहाँ तो सुदामा के पैरों में जूता तक न था अब भगवान की कृपा से उन्हें ले जाने के लिए गजराजों के साथ महावत खड़े हुए हैं। कहाँ तो कठोर भूमि पर (बिना बिस्तरों के) रात कट जाती थी कहाँ अब कोमल शैया पर भी नींद नहीं आ रही है। कहाँ खाने के लिए कोदों और सवाँ के चावल भी नहीं मिलते थे और कहाँ अब ईश्वर की महिमा से अंगूर भी नहीं खाये जा रहे हैं।

विशेष :

  1. भगवान की कृपा से भक्तों के दिन फिर जाते हैं जैसे कि सुदामा के।
  2. प्रभु की महिमा का बखान है।
  3. भाषा सहज, सरल एवं भावानुकूल है।
  4. अनुप्रास की छटा।

शबरी प्रसंग संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

कहि निज धर्म ताहि समुझावा। निज पद प्रीति देखि मनभावा॥
रघुपति चरन कमल सिरु नाई। गयऊ गगन आपनि गति पाई॥
ताहि देइ गति राम उदारा। सबरी के आश्रम पगु धारा॥
सबरी देखि राम गृह आए। मुनि के वचन समुझि जिय भाए।
सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर वनमाला॥
स्याम गौर सुन्दर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई॥
प्रेम मगन मुख वचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा॥
सादर जल लैं चरन पखारे। पुनि सुन्दर आसन बैठारे॥
दोहा-कंद मूल फल सुरस अति दिएराम कहूँ आनि।
प्रेम सहित प्रभुः खाए बारंबार बखानि ॥1॥

कठिन शब्दार्थ-निज धर्म = भागवत धर्म; आपनि गति = गन्धर्व का स्वरूप; उदारा = दयालु; सरसिज = कमल; लोचन = नेत्र; सरोज = कमल; पुनि = पुनः; सुरस = रसपूर्ण; बारंबार = बार-बार।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत अंश ‘सामाजिक समरसता’ के शीर्षक ‘शबरी प्रसंग’ से लिया गया है। इसके रचयिता महाकवि तुलसी दास हैं। यह प्रसंग मूलतः ‘अरण्य काण्ड’ से लिया गया है।

प्रसंग :
गिद्धराज जटायु का अन्तिम संस्कार करने के पश्चात् सीताजी की खोज में दोनों भाई आगे चले। उस मार्ग में कबंध नामक राक्षस जब सामने आया तो श्रीराम ने उसका वध कर डाला। कबंध राक्षस ने अपने शाप की बात श्रीराम से कही। श्रीराम ने कबंध से कहा हे, गंधर्व। सुनो, मैं तुमसे कुछ कहता हूँ

व्याख्या :
कविवर तुलसीदास कहते हैं कि तब श्रीराम ने उसे (कबंध को) अपना भागवत धर्म समझाते हुए कहा। अपने चरणों में प्रेम देखकर वह उनके मन को अच्छा लगा। तत्पश्चात् श्रीरघुनाथ जी के चरण कमलों में सिर नवाकर वह अपनी गति (गन्धर्व स्वरूप) पाकर आकाश में चला गया। उदार श्रीराम जी उसे गति देकर शबरी के आश्रम में पधारे। शबरी ने श्रीरामचन्द्र जी को घर में आते देखा. तो मुनि मतंग जी के वचनों को याद करके उनका मन प्रसन्न हो गया।

कमल जैसे नेत्र और विशाल भुजा वाले, सिर पर जटाओं का मुकुट और हृदय पर वनमाला धारण किये हुए सुन्दर साँवले और गोरे दोनों भाइयों के चरणों में शबरी लिपट गयीं। वे प्रेम में इतनी डूब गयीं कि उनके मुख से वचन तक नहीं निकला। वे बार-बार प्रभु के चरण-कमलों में सिर झुका रही हैं। इसके पश्चात् उन्होंने जल लेकर आदरपूर्वक दोनों भाइयों के चरण धोये फिर उन्हें सुन्दर आसानों पर बैठाया। शबरी ने अत्यन्त रसदार और स्वादिष्ट कन्द, मूल और फल लाकर श्रीराम जी को दिए। प्रभु ने बार-बार प्रशंसा करके उन्हें प्रेम सहित खाया।

विशेष :

  1. श्रीराम भक्तवत्सल हैं। शबरी की भक्ति भावना देखकर वे उसके आश्रम पर जाते हैं तथा उसके द्वारा दिये गये कन्द, मूल और फलों को प्रेम सहित खाते हैं।
  2. भाषा अवधी है।
  3. उपमा, रूपक एवं अनुप्रास अलंकारों का प्रयोग।
  4. दोहा चौपाई छन्द का प्रयोग।

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जातिपाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई।
भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा॥
नवधा भगति कहऊँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरू मन माहीं॥
प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंग।
दोहा-गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान ॥2॥

कठिन शब्दार्थ :
भगतिहीन = भक्ति भावना से रहित; वारिद = बादल; नवधा = नौ प्रकार की; रति = प्रेम; पद पंकज = चरण कमल; मम = मेरे।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस अंश में भक्ति की महिमा का बखान किया गया है। भक्ति के आगे जाति, पाँति, कुल धर्म आदि का कोई महत्त्व नहीं है।

व्याख्या :
कविवर तुलसीदास जी कहते हैं भगवान श्रीराम शबरी को भक्ति की महिमा बताते हुए कहते हैं कि जाति-पाँति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुरता इन सबके होने पर भी भक्ति रहित मनुष्य कैसा लगता है जैसे जलहीन बादल दिखाई पड़ता है।

आगे श्रीराम कहते हैं कि मैं तुमसे अब नवधा भक्ति के बारे में बताता हूँ। तुम सावधान होकर सुनो और मन में धारण करो। पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम। तीसरी भक्ति अभिमान रहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति है कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करना।

विशेष :

  1. भगवान भक्ति को बहुत महत्त्व देते हैं।
  2. इस अंश में कवि ने नवधा भक्ति में से चार प्रकार की भक्ति का वर्णन किया है।
  3. उपमा एवं रूपक अलंकार।
  4. अवधी भाषा का प्रयोग।

मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥
सातवें सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा।
आठवें सम जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा।
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
नव महुँ एकउ जिन्ह के होई। नारि पुरुष सचराचर कोई॥
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें॥
जोकि बंद दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सलभ भई सोई॥
मन दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा॥
जनकसुता कइ सुधि भामिनी। जानहि कहु करिबरगामिनी॥
पंपा सरहि जाहु रघुराई। तहँ होइहि सुग्रीव मिताई॥
सो सब कहि देव रघुवीरा। जानतहूँ पूछहु मतिधीरा ॥3॥

कठिन शब्दार्थ :
प्रकासा = प्रसिद्ध है; विरति = विरक्ति; जथालाभ = जो कुछ मिल जाए; परदोषा= दूसरों के दोष; सब सन = सबके साथ; करिबर गामिनी = गज गामिनी।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत अंश में कवि ने श्रीराम के मुख से शबरी को नवधा भक्ति का ज्ञान कराया है।

व्याख्या :
कविवर तुलसी कहते हैं कि श्रीराम जी शबरी से कहते हैं कि मंत्र जाप करना, मुझ पर दृढ़ विश्वास रखना तथा वेद विहित कर्मकाण्ड करना पंचम प्रकार की भक्ति है। इन्द्रियों को वश में करना, शील व्यवहार बनाये रखना, सकाम कर्मों से विरक्त रहना और निरन्तर सज्जनों के धर्म का अनुकरण करना मेरी छठवीं प्रकार की भक्ति है। सातवीं प्रकार की भक्ति के अन्तर्गत सम्पूर्ण संसार को मेरे स्वरूप में देखना, सब में समान भाव रखना तथा मुझसे अधिक सन्त पुरुषों को सम्मान देना है। आठवीं प्रकार की भक्ति है-जितना मिले उतने में ही संतोष करना तथा स्वप्न में भी किसी दूसरे के दोषों को न देखना है।

सबसे सरलता तथा निष्कपट व्यवहार, मुझ पर अटूट विश्वास, हृदय में प्रसन्नता का भाव तथा स्वयं को कभी दीन-हीन न समझना मेरी नवम् प्रकार की भक्ति है। इन नौ भक्तियों में से जिनके पास एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़ चेतन कोई भी हो, हे भामिनि (शबरी)! मुझे वही अत्यन्त प्रिय है। फिर तुममें तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गयी है। मेरे दर्शन का परम अनुपम फल यह है कि जीव अपने सहज स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। हे भामिनि (शबरी)! अब यदि तुम गजगामिनी जानकी की कुछ खबर जानती हो तो बताओ।

इस पर शबरी ने कहा-हे रघुनाथ जी! आप पंपा नामक सरोवर को जाइए, वहाँ आपकी सुग्रीव से मित्रता होगी। हे देव! हे रघुवर! वह सब हाल बता देगा। हे धीर बुद्धि! आप सब जानते हुए भी मुझसे पूछते हैं।

विशेष :

  1. इस अंश में श्रीराम ने भक्ति के अन्य प्रकारों का सहज रूप में वर्णन किया है।
  2. सम्पूर्ण विश्व को राममय देखना ही राम की भक्ति है।
  3. अवधी भाषा का प्रयोग।
  4. दोहा, चौपाइ छन्द का प्रयोग।
  5. शान्त रस।

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MP Board Class 9th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 6 शौर्य और देशप्रेम

MP Board Class 9th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 6 शौर्य और देशप्रेम

शौर्य और देशप्रेम अभ्यास

बोध प्रश्न

शौर्य और देशप्रेम अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
‘हिन्दुस्तान हमारा है’ से कवि का क्या आशय है?
उत्तर:
‘हिन्दुस्तान हमारा है’ से कवि का आशय यह है कि यह देश हमारा है और इस देश की आन-बान शान से हमें प्रेम है।

प्रश्न 2.
हमारा अतिशय मान किसने किया है?
उत्तर:
इतिहास और अतीत ने हमारा अतिशय मान किया है।

प्रश्न 3.
निशीथ का दिया क्या ला रहा है?
उत्तर:
निशीथ का दिया सबेरा ला रहा है।

प्रश्न 4.
स्वतंत्रता का निशीथ का दिया’ क्यों कहा है?
उत्तर:
स्वतंत्रता को निशीथ का दिया इसलिए कहा है कि जिस प्रकार दिया रात्रि के अंधकार को नष्ट कर प्रकाश बिखेर देता है उसी तरह स्वतंत्रता से भी हमारे दुःख एवं कष्ट मिट जायेंगे और हम प्रगति करते चले जायेंगे।

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शौर्य और देशप्रेम लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
‘यह स्वतंत्र भावना का स्वतंत्र गान है’ का संकेत किस ओर है?
उत्तर:
‘यह स्वतंत्र भावना का स्वतंत्र गान है’ से कवि का संकेत है कि हमें स्वतंत्रता के दीपक की हर कीमत पर रक्षा करनी है। चाहे कितने भी आँधी-तूफान, युद्ध-शान्ति, जय-पराजय आकर खड़ी हो जायें तब भी हमारा स्वतंत्रता का दीपक बुझ न पाये और वह जनमानस को सन्मार्ग दिखाता रहे।

प्रश्न 2.
कवि स्वतंत्रता का दीपक किन परिस्थितियों में जलाए रखने की प्रेरणा देता है?
उत्तर:
कवि स्वतंत्रता का दीपक प्रत्येक परिस्थिति में जलाए रखने की प्रेरणा देता है। चाहे घनघोर अँधेरी रात हो, चाहे घनघोर वर्षा हो रही हो और बिजलियाँ कड़क रही हों। शत्रु पक्ष चाहे कितना ही प्रबल क्यों न हो, हमें हर स्थिति में उनसे मुकाबला करना है और इस स्वतंत्रता के दीपक को जलाए रखना है।

प्रश्न 3.
‘हिन्दुस्तान हमारा है’ एवं ‘स्वतंत्रता का दीपक’ कविताओं में कौन-सा रस है? उदाहरण देकर समझाइए।
उत्तर:
‘हिन्दुस्तान हमारा है’ एवं ‘स्वतंत्रता का दीपक’ कविताओं में वीर रस है।
‘हिन्दुस्तान हमारा है’ कविता में वीर रस का उदाहरण यह है-
गरज उठे चालीस कोटि-जन, सुन ये वचन उछाह भरे,
काँप उठे प्रतिपक्षी जनगण, उनके अंतस्तल सिहरे;
आज नये युग के नयनों से, ज्वलित अग्निपुंज झरे,
कौन सामने आएगा? यह देश महान हमारा है।

‘स्वतंत्रता का दीपक’ कविता में वीर रस का उदाहरण यह है-
घोर अंधकार हो, चल रही बयार हो,
आज द्वार-द्वार पर यह दिया बुझे नहीं।

अथवा
लड़ रहा स्वदेश हो, शान्ति का न लेश हो,
क्षुद्र जीत-हार पर यह दिया बुझे नहीं।

शौर्य और देशप्रेम दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
‘हिन्दुस्तान हमारा है’ कविता में भारतीय इतिहास का चित्रण है, उसे अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
‘हिन्दुस्तान हमारा है’ कविता में कवि ने भारतीय इतिहास का चित्रण किया है। हमारा अतीत हमें बताता है कि हमने समय-समय पर अनेकानेक क्रान्तियों को जन्म दिया है और उन क्रान्तियों के द्वारा हमने नये इतिहास को जन्म दिया है तथा इतिहास ने भी हमारा सदैव मान रखा है। हमारा अतीत का इतिहास बहुत ही गौरवशाली रहा है, हमने बड़े-से-बड़े शत्रु को भी युद्धक्षेत्र में मुँह की खिलाई है और अपनी स्वतंत्रता की रक्षा की है।

प्रश्न 2.
भारत की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखने के लिए कवि का क्या संदेश है?
उत्तर:
भारत की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण करने के लिए कवि ने सभी देशवासियों से देश के लिए सदैव बलिदान देने के लिए तैयार रहने को कहा है। साथ ही यह प्रतिज्ञा भी कराई है कि हमें खुद तो स्वतंत्र रहना ही है चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी विषम क्यों न हों साथ-ही-साथ हमें सम्पूर्ण मानवता को भी बुराइयों से मुक्ति दिलाने का प्रयास करने को कहा गया है।

प्रश्न 3.
“स्वतंत्रता शहीदों के पुण्य प्राण-दान का प्रतिफल है” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
हमारा भारत देश अत्यन्त पुरातन है। यह देश विश्व में अपनी वीरता, साहस एवं बलिदान के लिए प्रसिद्ध है। हमने स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अनेक क्रान्तियाँ की हैं। हमारे मार्ग में चाहे कितनी भी विपत्तियाँ आई हों, पर हमने उन सबका पूरी बहादुरी के साथ सामना कर उन पर विजय पाई है। देश की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए देश के वीर सपूतों ने सदैव दुश्मन के दाँत खट्टे किए हैं।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित काव्य पंक्तियों की प्रसंग सहित व्याख्या लिखिए
(अ) विंध्य सतपुड़ा ………. हमारा है।
उत्तर:
कविवर नवीन जी कहते हैं कि हमारे इस देश में विंध्याचल, सतपुड़ा, नागा, खसिया नाम के दो दुर्गम घाट हैं। इस देश के पूरब एवं पश्चिम के ये दो भीमकाय दरवाजे हैं। सदैव अटल रूप में खड़ा रहने वाला हिमालय पर्वत है। इस पर्वत का शिखर सबसे ऊँचा है। ऐसा पर्वतराज हिमालय हमारे देश में है जो युगों-युगों से हमारी विजय का प्रतीक बन गया है। यह भारतवर्ष हमारा है, यह हिन्दुस्तान हमारा है।

(आ) तीन चार फूल हैं …………. झकोर दे।
उत्तर:
कविवर नेपाली कहते हैं कि चाहे हमारे पास तीन-चार ही फूल क्यों न हों अर्थात् हमारी सुविधाएँ चाहे जितनी सीमित हों और चारों ओर धूल बिखरी हो अर्थात् अभाव इकट्ठे हो रहे हैं। चाहे हमारे चारों ओर बाँस हों या बबूल हों या घास की मेड़ें उग रही हों, चाहे वायु हमें हिलोरें देकर हर्षित करती रहे, अथवा वह आँधी बनकर हमें झकझोर डाले। चाहे संघर्ष करते-करते हमारी कब्र बन जाये अथवा कोई मजार बन जाये तो भी आजादी का यह दीप बुझे नहीं क्योंकि यह किसी बलिदानी के पुण्यों का प्राणदान है।

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शौर्य और देशप्रेम काव्य-सौन्दर्य

प्रश्न 1.
निम्नलिखित पंक्तियों का भाव सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए
(अ) शक्ति का दिया ………….. दिया हुआ।
उत्तर:
भाव-सौन्दर्य-इस पंक्ति में कवि का आशय यह है कि यह जो स्वतंत्रता का दीपक है. वह शक्ति प्रदान करने वाला है और यह पूर्ण भाव से शक्ति बनकर ही हमारे सम्मुख आया है।

(आ) यह अतीत ………… प्रार्थना।
उत्तर:
भाव-सौन्दर्य-कवि का कथन है कि स्वतंत्रता का यह दीपक अतीत की कल्पनाओं से भरा हुआ है तथा यह विनम्र प्रार्थना के रूप में हमारे सामने है।

(इ) यह किसी ………….. प्राण-दान है।
उत्तर:
भाव-सौन्दर्य-कवि का कथन है कि यह स्वतंत्रता का दीपक किसी बलिदानी शहीद द्वारा किये गये पुण्यदान का प्रतीक है। कहने का भाव यह है कि बलिदानी वीरों ने अपना बलिदान देकर ही इसकी रक्षा की है।

प्रश्न 2.
स्वतंत्रता का दीपक कविता में निम्नलिखित शब्द किस ओर संकेत करते हैं? इन शब्दों को अपने वाक्यों में प्रयोग भी कीजिए
निशीथ, विहाने, बिजलियाँ, आँधियाँ।
उत्तर:
(i) निशीथ-घनघोर काली रात। :
वाक्य प्रयोग-आज हमारे देश की स्वतंत्रता पर सरहदों से निशीथ घिरती आ रही है।
(ii) विहान-नया सवेरा :
वाक्य प्रयोग-यदि हम सभी देशवासी प्रतिज्ञा कर लें कि हमें अपने देश को उन्नत बनाना है तो निश्चय ही हमारे देश में नया विहान आ जाएगा।
(iii) बिजलियाँ और आँधियाँ :
विभिन्न दिशाओं से आने वाले संकटों की ओर इशारा करती हैं।

वाक्य प्रयोग :
चाहे हमारे स्वतंत्रता के मार्ग में कितनी भी बिजलियाँ कड़कें अथवा तेज आँधियाँ आएँ पर हमारी एकजुटता के सामने वे हमारा बाल भी नहीं बिगाड़ सकतीं।

प्रश्न 3.
‘स्वतंत्रता का दीपक में स्वतंत्रता’ उपमेय और ‘दीपक’ उपमान है। इस स्थिति में यहाँ कौन-सा अलंकार है?
उत्तर:
रूपक अलंकार।

प्रश्न 4.
‘स्वतंत्रता का दीपक’ में दिया गया शब्द का एक ही पंक्ति में दो बार प्रयोग हुआ है और उसके अलग अर्थ हैं अतः उस पंक्ति को छाँटकर लिखिए तथा उसमें प्रयुक्त अलंकार का नाम भी लिखिए।
उत्तर:
शक्ति का दिया हुआ, शक्ति को दिया हुआ। इस पंक्ति में शक्ति दो बार आया है और दोनों का अलग-अलग अर्थ है। अतः यहाँ यमक अलंकार है।

प्रश्न 5.
‘स्वतंत्रता का दीपक’ एवं ‘हिन्दुस्तान हमारा है’ कविता में कौन-सा रस है? उदाहरण देकर समझाइए।
उत्तर:
इसके उत्तर के लिए लघु उत्तरीय’ प्रश्नों में से प्रश्न 3 का उत्तर देखें।

हिन्दुस्तान हमारा है! संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

कोटि-कोटि कंठों से निकली आज यही स्वर धारा है
भारतवर्ष हमारा है, यह हिन्दुस्तान हमारा है।
जिस दिन सबसे पहले जागे, नवल सृजन के स्वप्न घने,
जिस दिन देश-काल के दो-दो, विस्तृत विमल वितान तने,
जिस क्षण नभ में तारे छिटके, जिस दिन सूरज-चाँद बने,
तब से है यह देश हमारा, यह अभिमान हमारा है!
भारतवर्ष हमारा है, यह हिन्दुस्तान हमारा है ! ॥1॥

कठिन शब्दार्थ :
कोटि-कोटि = करोड़ों; कंठों = गलों से; नवसृजन = नये निर्माण; स्वप्न घने = अनेक कल्पनाएँ; विस्तृत = विशाल; विमल = स्वच्छ; वितान = तम्बू; छिटके = बिखरे।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश हिन्दुस्तान हमारा है शीर्षक कविता से लिया गया है। इसके कवि बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ हैं।

प्रसंग :
कवि ने इस अंश में बताया है कि जिस समय से प्रकृति में चेतना का संचार हुआ तभी से हमारा देश गौरवशाली बना हुआ है।

व्याख्या :
कविवर बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ कहते हैं कि करोड़ों देशवासियों के कंठ से यही स्वर निकल रहा है कि यह भारतवर्ष हमारा है, यह हिन्दुस्तान हमारा है।

जिस दिन सबसे पहले नवीन निर्माण की अनेक कल्पनाओं को साकार करने की प्रबल इच्छा जाग्रत हुई, जिस दिन देश और काल के दो-दो विशाल एवं निर्मल तम्बू बनकर तैयार हुए, जिस दिन नभ में तारागणों का समूह बिखरा हुआ दिखाई दिया, जिस दिन सूर्य एवं चन्द्रमा का निर्माण हुआ, तभी से यह देश हमारा है। इस पर हमें अभिमान है। यह भारतवर्ष हमारा है, यह हिन्दुस्तान हमारा है।

विशेष :

  1. कवि ने अनादिकाल से ही भारत की महत्ता का बखान किया है।
  2. रूपक, अनुप्रास एवं मानवीकरण अलंकार
  3. भाषा सहज एवं सरल खड़ी बोली।

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जब कि घटाओं ने सीखा था सबसे पहले घहराना,
पहले पहल प्रभंजन ने जब सीखा था कुछ हहराना,
जब कि जलधि सब सीख रहे थे सबसे पहले लहराना,
उसी अनादि-आदि क्षण से यह जन्म-स्थान हमारा है!
भारतवर्ष हमारा है, यह हिन्दुस्तान हमारा है! ॥2॥

कठिन शब्दार्थ :
घहराना = इकट्ठा होना; प्रभंजन = आँधी; हहराना = ध्वनि के साथ बहना; जलधि = समुद्र।

सन्दर्भ एवं प्रसंग :
पूर्ववत्।

व्याख्या :
कविवर बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ कहते हैं कि जब से काली-काली घटाओं ने आकाश में घने रूप में एकत्रित होना सीखा, आँधी-तूफान ने आकाश में ध्वनि करते हुए बहना सीखा, समुद्र में सबसे पहले लहरों ने हिलोर मारना सीखा था, तभी उसी अनादिकाल के आरंभ में यह हमारा देश जन्मस्थल है। यह भारतवर्ष हमारा है, यह हिन्दुस्तान हमारा है।

विशेष :

  1. कवि ने अनादिकाल से ही भारतवर्ष के अस्तित्व को माना है।
  2. रूपक, अनुप्रास एवं मानवीकरण अलंकार
  3. भाषा सहज एवं सरल खड़ी बोली।

जिस क्षण से जड़ उजकण गतिमय होकर जंगम कहलाए,
जब विहँसी थी प्रथम उषा वह, जब कि कमल-दल मुस्काए,
जब मिट्टी में चेतन चमका, प्राणों के झोंके आए,
है तब से यह देश हमारा, यह मन-प्राण हमारा है!
भारतवर्ष हमारा है, यह हिन्दुस्तान हमारा है! ॥3॥

कठिन शब्दार्थ :
उजकण = चमकते हुए; गतिमय = गतिशील; जंगम = प्राणी; विहँसी = हँसी थी; उषा = प्रात:कालीन सूर्य की लालिमा; कमल-दल = कमल की पंखुड़ियाँ।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि की मान्यता है कि जिस क्षण से सृष्टि में प्राणों का संचार हुआ तभी से यह देश हमारा है।

व्याख्या :
कविवर नवीन का कथन है कि जिस क्षण से जड़ चमकते हुए कण गतिशील बनकर प्राणों का संचार करने वाले कहलाए, जिस समय प्रथम उषा हँसी थी, जिस समय कमल दल मुस्कराए थे, जब मिट्टी में चेतन चमका था तथा प्राणों के झोंके आए थे तभी से यह देश हमारा है, यह हमें मन और प्राणों से भी प्यारा है। भारतवर्ष हमारा है, यह हिन्दुस्तान हमारा है।

विशेष :

  1. कवि ने सृष्टि के आरंभ से ही भारत की सत्ता मानी है।
  2. रूपक, अनुप्रास एवं मानवीकरण अलंकार।
  3. भावानुकूल सरल भाषा।

यहाँ प्रथम मानव ने खोले, निदियारे लोचन अपने!
इसी नभ तले उसने देखे, शत-शत नवल सृजन-सपने!
यहाँ उठे ‘स्वाहा’ के स्वर, औ यहाँ ‘स्वधा’ के मंत्र बने!
ऐसा प्यारा देश पुरातन, ज्ञान-निधान हमारा है!
भारतवर्ष हमारा है, यह हिन्दुस्तान हमारा है! ॥4॥

कठिन शब्दार्थ :
निंदियारे = नींद से भरे हुए; लोचन – नेत्र; नभ तले = आकाश के नीचे; शत-शत = सैकड़ों; नवल = नवीन; सृजन सपने = नये-नये सपनों का निर्माण; स्वाहा के स्वर = सर्वस्व त्याग की भावना; स्वधा = मंगलकारी; पुरातन = प्राचीन; ज्ञान-विधान = ज्ञान का भण्डार।

सन्दर्भ एवं प्रसंग :
पूर्ववत्।

व्याख्या :
कविवर नवीन कहते हैं कि यहाँ मनुष्यों ने सर्वप्रथम अपनी नींद से भरे हुए नेत्र खोले थे। भाव यह है कि इस देश में सबसे पहले ज्ञान का प्रकाश प्रकट हुआ था। उस समय इसने इसी आकाश के नीचे नवीन सृष्टि के निर्माण के सपने संजोये थे। यहीं पर सर्वप्रथम स्वाहा (सर्वस्व त्याग की भावना) शब्द उच्चरित हुआ तथा यहीं पर स्वधा के मंत्र बने थे। ऐसा हमारा प्राचीनतम देश ज्ञान का अक्षय भंडार है। यह देश भारतवर्ष हमारा है, यह हिन्दुस्तान हमारा है।

विशेष :

  1. कवि ने स्वाहा और स्वधा के प्रयोग द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि वैदिक यज्ञों एवं मंत्रों का जन्मदाता यही देश है।
  2. रूपक, अनुप्रास एवं पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  3. भाषा भावानुकूल एवं सरल है।

सतलज, व्यास, चिनाब, वितस्ता, रावी, सिंधु, तरंगवती,
यह गंगा माता, यह यमुना गहर, लहर-रस रंगवती,
ब्रह्मपुत्र, कृष्णा, कावेरी, वत्सलता-उत्संग-सी,
इनसे प्लावित देश हमारा, यह रसखान हमारा है!
भारतवर्ष हमारा है, यह हिन्दुस्तान हमारा है!! ॥5॥

कठिन शब्दार्थ :
तरंगवती = लहरों वाली; गहर = गहरी; लहर-रस = लहरों की सुन्दरता से; रंगवती = क्रीड़ा करती हुई; वत्सलता = वात्सल्य प्रेम से; उत्संग = लहरें लेती हुई; प्लावित = पानी में डूबा हुआ; रसखान = रस की खान (खजाना)।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि का कथन है कि इस भारतवर्ष में असंख्य नदियाँ बहती हैं और वे ही इस देश को रससिक्त किए रहती हैं।

व्याख्या :
कविवर नवीन जी कहते हैं कि हमारे देश में सतलज, व्यास, चिनाब, वितस्ता, रावी एवं सिंधु नदियाँ लहरें लेती हुई प्रवाहित होती हैं। माँ गंगा, गहरी यमुना नदी अपनी लहरों के रस से आनन्दित होती हुई एवं क्रीड़ा करती हुई बहती हैं। ब्रह्मपुत्र, कृष्णा, कावेरी आदि नदियाँ अपने हृदय में वात्सल्य प्रेम के साथ तथा उत्साह के साथ बहती रहती हैं। इन्हीं नदियों से हमारा देश रस अर्थात् जल से तृप्त बना रहता है। यह भारतवर्ष हमारा है, यह हिन्दुस्तान हमारा है।

विशेष :

  1. कवि ने नदियों में वात्सल्य भाव दर्शाकर उन्हें माता का रूप प्रदान किया है।
  2. अनुप्रास एवं मानवीकरण अलंकार।
  3. भावानुकूल सहज एवं सरल खड़ी बोली।

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विध्य, सतपुड़ा, नागा, खसिया, ये दो औघट घाट महा,
भारत के पूरब-पश्चिम के, यह दो भीम कपाट महा!
तुंग शिखर, चिर अटल हिमालय; है पर्वत-सम्राट यहाँ!
यह गिरिवर बन गया युगों से विजय निसान हमारा है।
भारतवर्ष हमारा है, यह हिन्दुस्तान हमारा है! ॥6॥

कठिन शब्दार्थ :
औघट = दुर्गम; भीम = विशाल, भयंकर; कपाट = दरवाजे; तुंग = ऊँचा; शिखर = चोटी; चिर अटल = सदैव अडिग (स्थिर)।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।।

प्रसंग :
इस छन्द में कवि ने भारत में विद्यमान पर्वत श्रेणियों का वर्णन किया है।

व्याख्या :
कविवर नवीन जी कहते हैं कि हमारे इस देश में विंध्याचल, सतपुड़ा, नागा, खसिया नाम के दो दुर्गम घाट हैं। इस देश के पूरब एवं पश्चिम के ये दो भीमकाय दरवाजे हैं। सदैव अटल रूप में खड़ा रहने वाला हिमालय पर्वत है। इस पर्वत का शिखर सबसे ऊँचा है। ऐसा पर्वतराज हिमालय हमारे देश में है जो युगों-युगों से हमारी विजय का प्रतीक बन गया है। यह भारतवर्ष हमारा है, यह हिन्दुस्तान हमारा है।

विशेष :

  1. कवि ने प्रकृति प्रदत्त उच्च पर्वत श्रृंखलाओं का वर्णन किया है।
  2. अनुप्रास एवं मानवीकरण अलंकार।
  3. भावानुकूल सहज एवं सरल खड़ी बोली का प्रयोग।

क्या गणना है, कितनी लम्बी हम सबकीइतिहासलड़ी?
हमें गर्व है कि बहुत ही गहरे अपनी नींव पड़ी।
हमने बहुत बार सिरजी हैं कई क्रान्तियाँ बड़ी-बड़ी,
इतिहासों ने किया सदा ही अतिशय मान हमारा है!
भारतवर्ष हमारा है, यह हिन्दुस्तान हमारा है! ॥7॥

कठिन शब्दार्थ :
इतिहास लड़ी = इतिहास बताने वाली रेखाएँ; गर्व = अभिमान; सिरजी हैं = पैदा की हैं; क्रान्तियाँ = संघर्ष; अतिशय = अत्यधिक।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि का कथन है कि हमारे देशवासियों के इतिहास की लड़ी बहुत लम्बी है और समय-समय पर हमने अनेक क्रान्तियाँ की हैं।

व्याख्या :
कविवर नवीन कहते हैं कि हमारे देश के इतिहास की लड़ियाँ बहुत लम्बी हैं। इनकी गणना नहीं की जा सकती है। हमें इस बात का गर्व है कि हमारी संस्कृति की नींव बहुत ही गहरी गढ़ी हुई है। यद्यपि समय-समय पर हमें अनेक विरोधियों के विरोध का सामना करना पड़ा है जिसके कारण हमने अनेक क्रान्तियों को भी जन्म दिया है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि ईश्वर ने इन विपत्तियों में भी हमारी पूरी सहायता की और हम विजयश्री लेकर ही निकले। यह भारतवर्ष हमारा है, यह हिन्दुस्तान हमारा है।

विशेष :

  1. कवि का कथन है कि भारतीय संस्कृति संसार की प्राचीनतम एवं लम्बी श्रृंखला वाली संस्कृति है।
  2. अनुप्रास एवं मानवीकरण अलंकार।।
  3. भाषा भावानुकूल सहज एवं सरल है।

है आसन्न-भूत अति उज्ज्वल है, अतीत गौरवशाली,
औ, छिटकी है वर्तमान पर, बलि के शोणित की लाली,
नव उषा-सी विजय हमारी विहँस रही है मतवाली!
हम मानव को मुक्त करेंगे, यही विधान हमारा है!
भारतवर्ष हमारा है, यह हिन्दुस्तान हमारा है! ॥8॥

कठिन शब्दार्थ :
आसन्न भूत = बीता हुआ, अतीत; उज्ज्वल = पवित्र, शानदार; गौरवशाली = महिमा वाला; औ = और; शोणित = खून; बलि = बलिदान; उषा-सी = प्रात:कालीन लालिमा जैसी; विहँस = हँस रही हैं; मुक्त = स्वतंत्र।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि का कथन है कि हमारा अतीत काल बड़ा ही स्वर्णिम रहा, वर्तमान पर शोणित की लाली छिटकी हुई लेकिन साथ-ही-साथ हमारे देश में नवागन्तुक के रूप में उषा की लाली भी बिखर रही है।

व्याख्या :
कविवर नवीन कहते हैं कि हमारा अतीत काल बड़ा ही उज्ज्वल एवं गौरवशाली रहा है। वर्तमान पर बलिदानों के खून की लाली छिटक रही है। साथ ही हमें यह भी विश्वास है कि आने वाला समय हमारे देश के जीवन में हँसती हुई उषा की मतवाली लाली को लेकर आने वाला है। हम यह प्रतिज्ञा करते हैं कि मानव को सभी प्रकार के बन्धनों से उन्हें मुक्त कर देंगे यही हमारा विधान है। यह भारतवर्ष हमारा है, यह हिन्दुस्तान हमारा है।

विशेष :

  1. अतीत की गौरवशाली परम्परा के उल्लेख के साथ नये कीर्तिमान स्थापित करने की कवि प्रतिज्ञा करता है।
  2. अनुप्रास एवं मानवीकरण अलंकार।
  3. भावानुकूल भाषा।

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गरज उठे चालीस कोटि जन, सुन ये वचन उछाह भरे,
काँप उठे प्रतिपक्षी जनगण, उनके अंतस्तल सिहरे;
आज नए युग के नयनों से, ज्वलित अग्नि के पुंज झरे;
कौन सामने आएगा? यह देश महान हमारा है!
भारतवर्ष हमारा है, यह हिन्दुस्तान हमारा है! ॥9॥

कठिन शब्दार्थ :
कोटि = करोड़; उछाह = उत्साह (जोश); प्रतिपक्षी = शत्रु; अंतस्तल = हृदय; सिहरे = काँप गये; ज्वलित = जलते हुए; अग्नि के पुंज = आग के गोले।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि ने भारतवासियों की उमंग और वीरता का ‘वर्णन करते हुए कहा है।

व्याख्या :
कविवर नवीन जी कहते हैं कि भारत के चालीस करोड़ भारतवासियों के उत्साह एवं जोश से भरे हुए वचनों की गर्जना सुनकर शत्रुओं के हृदय भय से काँपने लगे। आज उन देशवासियों को नवीन युग के सपनों को सजाने वाली आँखों से जलते हुए आग के गोले झर रहे थे। कहने का भाव यह है कि उनके नेत्रों से शत्रुओं को जला डालने वाला क्रोध टपक रहा था। ऐसे वीरों को देखकर कौन व्यक्ति उनके सामने आने का दुःस्साहस कर सकेगा? अर्थात् कोई नहीं। यह हमारा देश महान् है। भारतवर्ष हमारा है, यह हिन्दुस्तान हमारा है।

विशेष :

  1. कवि ने भारतीय लोगों के वीर एवं उत्साह के भावों का वर्णन किया है।
  2. अनुप्रास एवं रूपक अलंकार
  3. वीर रस का वर्णन है।

स्वतंत्रता का दीपक संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

घोर अंधकार हो, चल रही बयार हो, 
आज द्वार-द्वार पर यह दिया बुझे नहीं! 
यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है! 
शक्ति का दिया हुआ, शक्ति को दिया हुआ, 
भक्ति से दिया हुआ, यह स्वतंत्रता-दिया, 
रुक रही न नाव हो, जोर का बहाव हो, 
आज गंग-धार पर यह दिया बुझे नहीं! 
यह स्वदेश का दिया प्राण के समान है! ॥1॥

कठिन शब्दार्थ :
घोर = घना, भयंकर; बयार = हवा; निशीथ = रात; विहान = सबेरा; दिया = दीपक; बहाव = प्रवाह।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘स्वतंत्रता का दीपक’ शीर्षक कविता से ली गयी हैं। इसके कवि गोपाल सिंह ‘नेपाली’ हैं।

प्रसंग :
इन पंक्तियों में कवि ने स्वतंत्रता के दीपक को जलाये रखने की सलाह दी है।

व्याख्या :
कविवर नेपाली जी कहते हैं कि अंधकार चाहे कितना ही घना क्यों न हो, चाहे कितनी ही तेज हवा बह रही हो, प्रत्येक दरवाजे पर यह दिया बुझना नहीं चाहिए। यह रात में जलाया गया दिया प्रातःकालीन आजादी की खुशियाँ ला रहा है।

यह शक्ति का दीपक शक्ति के लिए राष्ट्र प्रेम की भावना से ओत-प्रोत हो। अत्याचार एवं अनाचार रूपी नदी का प्रवाह कितना ही तीव्र क्यों न हो किन्तु देश की स्वतंत्रता को बचाने वाली नाव रुके नहीं। यह गंगा की धारा को समर्पित आजादी का दीपक कभी न बुझने पाये ऐसा सदैव प्रयास करना चाहिए। यह स्वतंत्रता का दीपक भारतवासियों के लिए अपने प्राणों के समान प्रिय है।

विशेष :

  1. राष्ट्र प्रेम की भावना का वर्णन है।
  2. प्रतीक शैली का प्रयोग।
  3. यमक, अनुप्रास एवं रूपक अलंकारों का प्रयोग।
  4. भाषा सहज एवं सरल।।

यह अतीत कल्पना, यह विनीत प्रार्थना,
यह पुनीत भावना, यह अनंत साधना,
शांति हो, अशांति हो, युद्ध-संधि-क्रांति हो,
तीर पर कछार पर यह दिया बुझे नहीं!
देश पर, समाज पर ज्योति का वितान है! ॥2॥

कठिन शब्दार्थ :
अतीत = भूतकाल; विनीत = विनम्र; पुनीत = पवित्र; अनन्त = कभी न समाप्त होने वाली; संधि = समझौता; क्रान्ति = परिवर्तन; तीर पर = किनारे पर; कछार = बालू के किनारे; वितान = तम्बू।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि ने आजादी के महत्त्व को बताते हुए उसकी हर प्रकार से रक्षा का आह्वान किया है।

व्याख्या :
कविवर नेपाली कहते हैं कि आजादी की यह कल्पना अतीत काल से चली आ रही है। यह देश की स्वतंत्रता तथा अखंडता के लिए की गयी विनम्र प्रार्थना है। यह आजादी वास्तव में एक पवित्र भावना है। इसकी प्राप्ति के लिए अनन्त साधनाएँ की जाती रही हैं। चाहे शान्ति का काल हो या अशांति का, युद्ध का हो या सन्धि-समझौते का, नदी के तट पर हो या कछारों में हो पर आजादी का यह दिया कभी भी बुझने न पाये। हम यह प्रार्थना करते हैं कि हे ईश्वर! आजादी का यह दीप देश एवं समाज पर अपने प्रकाश का चंदोवा ताने रहे।

विशेष :

  1. कवि ने आजादी को बनाये रखने हेतु भारतवासियों को जगाया है।
  2. उपमा, रूपक, यमक एवं मानवीकरण अलंकारों का प्रयोग।
  3. भाषा भावानुकूल सहज एवं सरल है।

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तीन-चार फूल हैं, आस-पास धूल है,
बाँस हैं, बबूल हैं, घास के दुकूल हैं,
वायु भी हिलोर दे, फूंक दें, झकोर दे,
कब्र पर, मजार पर यह दिया बुझे नहीं!
यह किसी शहीद का पुण्य प्राण-दान है! ॥3॥

कठिन शब्दार्थ :
दुकूल = दुपट्टे पुण्य = पवित्र; शहीद = बलिदानी का।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि ने आजादी के दीपक को शहीदों के पुण्य युक्त प्राणों का दान बताया है।

व्याख्या :
कविवर नेपाली कहते हैं कि चाहे हमारे पास तीन-चार ही फूल क्यों न हों अर्थात् हमारी सुविधाएँ चाहे जितनी सीमित हों और चारों ओर धूल बिखरी हो अर्थात् अभाव इकट्ठे हो रहे हैं। चाहे हमारे चारों ओर बाँस हों या बबूल हों या घास की मेड़ें उग रही हों, चाहे वायु हमें हिलोरें देकर हर्षित करती रहे, अथवा वह आँधी बनकर हमें झकझोर डाले। चाहे संघर्ष करते-करते हमारी कब्र बन जाये अथवा कोई मजार बन जाये तो भी आजादी का यह दीप बुझे नहीं क्योंकि यह किसी बलिदानी के पुण्यों का प्राणदान है।

विशेष :

  1. स्वतंत्रता की हर स्थिति में रक्षा की बात कही गई है।
  2. अनुप्रास, रूपक एवं मानवीकरण अलंकारों का प्रयोग।
  3. भाषा भावानुकूल सहज एवं सरल है।

झूम-झूम बदलियाँ, चूम-चूम बिजलियाँ
आँधियाँ उठा रहीं, हलचलें मचा रहीं! 
लड़ रहा स्वदेश हो, शांति का न लेश हो,
क्षुद्र जीत-हार पर यह दिया बुझे नहीं! 
यह स्वतंत्र भावना का स्वतंत्र गान है! ॥4॥

कठिन शब्दार्थ :
बदलियाँ = बरसा के बादल; हलचलें = खलबली; लेश = नाममात्र भी; क्षुद्र = तुच्छ, ओछी।

सन्दर्भ एवं प्रसंग :
पूर्ववत्।

व्याख्या :
कविवर नेपाली कहते हैं कि आसमान में चाहे कितने ही बादल उमड़-घुमड़कर छा गये हों और उनके मध्य बिजली बार-बार चमक रही हो। कहने का भाव यह है कि चाहे कितनी भी मुसीबतें क्यों न आयें हम इनसे घबड़ाएँ नहीं और अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए निरन्तर प्रयास करते रहें। चाहे चारों ओर आँधियाँ उठकर हलचलें उत्पन्न कर रही हों। चाहे देश के अन्दर युद्ध चल रहा हो और शान्ति नाममात्र को भी न हो। चाहे हमें क्षुद्र जीत या हार का सामना करना पड़े पर यह आजादी का दीप किसी भी प्रकार बुझ न पाये। यह स्वतंत्र भावना का स्वतंत्र गान है।

विशेष :

  1. स्वतंत्रता की रक्षा की प्रतिज्ञा की गयी है।
  2. वीर रस का प्रयोग।
  3. अनुप्रास एवं उपमा का प्रयोग।
  4. भाषा भावानुकूल सहज एवं सरल है।

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MP Board Class 9th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 5 प्रकृति-चित्रण

MP Board Class 9th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 5 प्रकृति-चित्रण

प्रकृति-चित्रण अभ्यास

बोध प्रश्न

प्रकृति-चित्रण अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
चन्द्रमा की किरणें कहाँ-कहाँ फैली हुई हैं?
उत्तर:
चन्द्रमा की किरणें जल और थल में तथा पृथ्वी से लेकर अम्बर तक फैली हुई हैं।

प्रश्न 2. धरती अपनी प्रसन्नता किस प्रकार प्रकट कर रही है?
उत्तर:
धरती अपनी प्रसन्नता हरी घास के झोंकों में तथा मन्द पवन से फूलने वाली तरुओं के द्वारा प्रकट कर रही है।

प्रश्न 3.
पैसा बोने के पीछे कवि का क्या स्वार्थ था?
उत्तर:
पैसा बोने के पीछे कवि का यह स्वार्थ था कि उससे सुन्दर-सुन्दर पेड़ उगेंगे और फिर वे पेड़ बड़े होकर कलदार रुपयों की फसल उगायेंगे जिन्हें बेचकर कवि एक बड़ा सेठ बन जाएगा।

प्रश्न 4.
कवि ने धरती में क्या बोया?
उत्तर:
कवि ने धरती में सेम के बीज बोये।

प्रश्न 5.
कवि एक दिन अचरज में क्यों भर उठे?
उत्तर:
कवि ने देखा कि एक दिन उनके घर के आँगन में जहाँ कवि ने सेम के बीज बोये थे उनमें से छोटे-छोटे पौधे उग आये हैं। इन्हें देखकर उसे बड़ा अचरज हुआ।

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प्रकृति-चित्रण लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कवि ने ओस की बूंदों को लेकर क्या कल्पना की है? ‘पंचवटी’ कविता के आधार पर बताइए।
उत्तर:
कवि ने ओस की बूंदों को लेकर यह कल्पना की है कि जब सारे संसार के प्राणी रात में सो जाते हैं तब इस पृथ्वी पर चन्द्रमा ओस रूपी मोतियों को बिखेर देता है। प्रात:काल होने पर सूर्य अपनी किरणों रूपी झाडू से उन सभी मोतियों को बटोर लेता है।

प्रश्न 2.
प्रकृति को नटी क्यों कहा गया है?
उत्तर:
कवि ने प्रकृति को नटी इसलिए कहा गया है कि जिस प्रकार नटी अर्थात् नर्तकी अपने हाव-भाव एवं आंगिक चेष्टाओं द्वारा अपने भावों को व्यक्त करती रहती है। उसी प्रकार प्रकृति भी अपने क्रियाकलापों द्वारा अपनी भावनाओं को व्यक्त कर देती है।

प्रश्न 3.
गोदावरी नदी के तट का मोहक वर्णन कीजिए।
उत्तर:
कवि कहता है कि गोदावरी नदी का यह तट अब भी ताल दे रहा है और उसका चंचल जल कल-कल की ध्वनि में अपनी तान छेड़ रहा है।

प्रश्न 4.
कवि ने किरणों के सौन्दर्य वर्णन में कौन-सी युक्ति अपनाई है?
उत्तर:
कवि ने किरणों के सौन्दर्य वर्णन में यह युक्ति अपनाई है कि जैसे प्रकृति सरल और तरल ओस की बूंदों के द्वारा वह हर्षित होती है तथा विषम समय आने पर वह भी मानव के समान ही रोती है।

प्रश्न 5.
‘सुन्दर लगते थे मानव के हँसमुख मन से’-इस पंक्ति से कवि का क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
सेम की श्यामवर्णी बेलों पर सफेद पुष्पों के गुच्छे मनुष्य की उन्मुक्त हँसी के समान लग रहे थे। कवि ने सफेद पुष्पों की तुलना मनुष्य के हँसते हुए मुख से की है।

प्रश्न 6.
कवि की धरती माता के प्रति क्या धारणा बनी?
उत्तर:
कवि धरती माता को उपकार करने वाली, सबका हित करने वाली और बिना किसी लोभ के उनका पालन-पोषण करने वाली मानता है। साथ ही कवि की मान्यता है कि जो व्यक्ति प्रकृति के साथ जितना श्रम करता है धरती माता उसे उतना ही अच्छा फल देती है।

प्रकृति-चित्रण दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पंचवटी में प्रकृति के उपादानों की शोभा का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पंचवटी में कवि ने प्रकृति के उपादानों के रूप में सूर्य, चन्द्र, हरी घास, तरु, गोदावरी नदी की कल-कल करती हुई जल की तरंगों आदि को प्रस्तुत किया है। रात में चन्द्रमा अपनी शीतल ओस की बूंदों से पृथ्वी को आनन्दित करता है तो प्रात:काल सूर्य उन्हीं बूंदों को साफ कर देता है। पंचवटी में हरी-हरी घास उगी हुई है। घास की कोमल नोंकें पृथ्वी के रोमांच को व्यक्त कर रही हैं। संध्या का समय जगत् के सभी प्राणियों को विश्राम देने वाला बताया है। गोदावरी के जल की कल-कल करती हुई तरंगें मानव मन की खुशी को व्यक्त करने वाली हैं।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित काव्यांश की प्रसंग सहित व्याख्या कीजिए
(अ) है बिखेर देती ………….. सवेरा होने पर।
उत्तर:
कविवर गुप्त जी रात्रिकालीन सुषमा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि इस समय पृथ्वी सबके सो जाने पर ओस के रूप में अपने मोती बिखेर देती है और प्रात:काल होने पर सूर्य उन्हीं ओस रूपी मोतियों को बटोर लेता है। कहने का भाव यह है कि रात के समय जो ओस घास पर मोती के रूप में चमकती है प्रात:काल सूर्य की गर्मी से वह पिघल जाती है। इस प्रकार विश्राम प्रदान कराने वाली उस अपनी सन्ध्या को वह सूर्य आकाश रूपी श्याम शरीर प्रदान कर उसके रूप को नये रूप में झलका देता है।

(आ) पर बंजर ……….. पैसा उगला।
उत्तर:
कवि कहता है कि जब मैंने बचपन में लोगों से छिपाकर पैसे जमीन में बोये तो उस बंजर भूमि में से पैसों का एक भी कुल्ला नहीं फूटा। उस बाँझ पृथ्वी ने मेरे द्वारा गाड़े गये पैसों में से एक भी पैसा नहीं उपजाया। इस बात को जानकर मेरे सपने जाने कहाँ मिट गये और वे धूल में मिल गये। मैं निराश हो उठा फिर भी बहुत दिनों तक प्रतीक्षा करता रहा कि शायद कभी उनमें कुल्ले फूटें। मैं बालक बुद्धि के अनुसार टकटकी लगाकर पाँवड़े बिछाकर उन रुपयों के उगने की प्रतीक्षा करता रहा। मैं अज्ञानी था, इसी कारण मैंने भूमि में गलत बीज बोये थे। मैंने स्वार्थ की भावना से भूमि में पैसों को बोया था और उन्हें इच्छाओं के तृष्णा रूपी जल से सींचा था।

प्रश्न 3.
मानवता की सुनहली फसल उगाने से कवि का क्या आशय है?
उत्तर:
मानवता की सुनहली फसल उगाने से कवि का यह आशय है कि हमें पृथ्वी पर उत्तम विचारों वाले बीज बोने चाहिए साथ ही हमें उसमें अथक परिश्रम भी करना चाहिए। ऐसा होने | पर उसमें से जो फल निकलेगा उससे समूची मानवता खुश एवं प्रसन्न रहेगी। कहीं पर दुःख-दर्द, अभाव-निराशा एवं बुरे विचार देखने को नहीं मिलेंगे। कहने का भाव यह है कि यदि मनुष्य निस्वार्थ भाव से प्रेम एवं परिश्रम समाज में बाँटता है तो उससे सम्पूर्ण मानवता सुख का अनुभव करेगी।

प्रश्न 4.
“हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे” कविता के आधार पर कवि का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
इस कविता में कवि का आशय यह है कि यदि हम अच्छा बीज बोयेंगे तो हमें अच्छे फल मिलेंगे और यदि हम किसी स्वार्थवश बुरे बीज बोयेंगे तो उनका परिणाम भी बुरा मिलेगा। इस कविता में कवि ने जीवन में दो प्रयोग किये। प्रथम प्रयोग उसने बालपन की अज्ञानता में पृथ्वी में पैसे बो कर दिया था जिसमें उसे निराशा मिली, दूसरा प्रयोग उसने सेम के बीज बो कर किया था जिसमें उसे सब ओर खुशी और आनन्द मिला। सेम की बेल पर इतनी फलियाँ उगी कि कवि ने जाने-पहचाने, परिवारी तथा अन्य सभी लोगों को भरपेट खिलाया।

कहने का भाव यह है कि दोष पृथ्वी का नहीं होता है, दोष तो हमारी अपनी भावना का होता है। यदि हमारी भावना शुद्ध, पवित्र एवं परोपकारी है तो उससे जहाँ हमें आनन्द और शान्ति मिलेगी वहीं हम समाज तथा देश का भी भला कर सकेंगे।

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प्रकृति-चित्रण काव्य-सौन्दर्य

प्रश्न 1.
निम्नलिखित काव्य-पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकार पहचान कर लिखिए

  1. मानो झूम रहे हैं तरु भी मंद पवन के झोंकों से।
  2. चारु चन्द्र की चंचल किरणें खेल रही हैं जल-थल में।
  3. निर्झर के निर्मल जल में, ये गजरे हिला-हिला धोना।

उत्तर:

  1. उत्प्रेक्षा अलंकार
  2. अनुप्रास अलंकार
  3. पुनरुक्तिप्रकाश तथा मानवीकरण अलंकार।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित शब्दों के विलोम शब्द लिखिएसवेरा, शुचि, बूढ़ा, हर्ष।
उत्तर:
MP Board Class 9th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 5 प्रकृति-चित्रण img 1

प्रश्न 3.
निम्नलिखित शब्दों के पर्यायवाची शब्द लिखिए
आँख, रवि, धरती, रजनी, फूल।
उत्तर:
आँख – चक्षु, नेत्र।
रवि – दिनकर, सूर्य।
धरती – पृथ्वी, वसुधा।
रजनी – निशा, रात्रि।
फूल – पुष्प, सुमन।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित पंक्तियों का भाव-सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए
(क) रवि बटोर लेता है, उनको, सदा सबेरा होने पर।
(ख) अति आत्मीया प्रकृति हमारे साथ उन्हीं से रोती है।
उत्तर:
(क) इन पंक्तियों में कवि ने प्रकृति के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कहा है कि रात में चन्द्रमा द्वारा टपकाई गई ओस की बूंदों को प्रात:काल होने पर सूर्य उन्हें बटोर लेता है।

(ख) इन पंक्तियों में कवि ने यह दिखाया है कि प्रकृति मानव के सुख में तुहिन कणों को बिखरा कर हँसती है तो वही प्रकृति दु:ख के समय आत्मीय भाव से अपने उपादानों द्वारा दुःख भाव को भी व्यक्त करती रहती है।

प्रश्न 5.
पाठ में संकलित अंशों से प्रकृति के मानवीकरण के उदाहरण छाँटकर लिखिए।
उत्तर:

  1. पुलक प्रकट करती है धरती हरित तृणों के झोंकों से।
  2. है बिखेर देती वसुंधरा, मोती सबके सोने पर।
    रवि बटोर लेता है उनको, सदा सवेरा होने पर।
  3. और विरामदायिनी अपनी संध्या को दे जाता है।
  4. अति आत्मीय प्रकृति हमारे साथ उन्हीं से रोती है।
  5. रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ।

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पंचवटी संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

चारु चन्द्र की चंचल किरणें 
खेल रही है जल थल में 
स्वच्छ चांदनी बिछी हुई है 
अवनि और अंबर तल में। 
पुलक-प्रकट करती है धरती 
हरित तृणों के झोकों से 
मानों झूम रहे हैं तरु भी
मंद पवन के झोंकों से। (1)

कठिन शब्दार्थ :
चारु = सुन्दर; थल = स्थल; अवनि = पृथ्वी; अंबर = आकाश; पुलक = प्रसन्नता; हरित तृणों = हरी घास; तरु = वृक्ष; मन्द = धीमी गति से।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश श्री मैथिलीशरण गुप्त रचित ‘पंचवटी’ शीर्षक से लिया गया है।

प्रसंग :
इस अंश में कवि ने रात के समय की प्राकृतिक सुषमा का वर्णन किया है।

व्याख्या :
कविवर गुप्त जी कहते हैं कि सुन्दर चन्द्रमा की चंचल किरणें पानी और स्थल पर खेल रही हैं। चन्द्रमा की स्वच्छ चाँदनी आकाश और पृथ्वी पर बिछी हुई है। इस चाँदनी का स्पर्श पाकर मानो पृथ्वी अपनी प्रसन्नता को घास की हरी-भरी नोंकों से प्रकट कर रही है। इस समय वृक्ष भी हवा के मन्द-मन्द झोकों को छूकर मस्त होकर प्रसन्नता से झूम रहे हैं।

विशेष :

  1. कवि ने प्रकृति का मानवीकरण किया है।
  2. अनुप्रास एवं उत्प्रेक्षा अलंकार।
  3. खड़ी बोली का प्रयोग।

क्या ही स्वच्छ चांदनी है यह
है क्या ही निस्तब्ध निशा
है स्वच्छन्द-सुमंद गंध वह
निरानंद है कौन दिशा?
बंद नहीं, अब भी चलते हैं
नियति-नटी के कार्य कलाप
पर कितने एकांत भाव से
कितने शांत और चुपचाप। (2)

कठिन शब्दार्थ :
निस्तब्ध = शान्त; निशा = रात्रि; सुमंद = मन्द-मन्द; गंधवह = सुगन्धि को बहाने वाली; निरानन्द = आनन्द रहित; नियति = भाग्य; नटी = नटनी, आश्चर्यजनक खेल दिखाने वाली।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस अंश में कवि ने रात्रिकालीन क्रियाकलापों और प्रकृति नटी के कार्यों का वर्णन किया है।

व्याख्या :
कविवर गुप्त जी कहते हैं कि रात के समय पहरा देते समय प्रकृति की इस सुषमा को देखकर लक्ष्मण जी कहते हैं कि पंचवटी में कितनी सुन्दर और निर्मल चाँदनी फैली हुई है। यहाँ की रात कितनी शान्त है? यहाँ पर स्वच्छ एवं सुगन्धित हवा बह रही है। इस समय यहाँ ऐसी कौन-सी दिशा है जो आनन्द विहीन है? अर्थात् कोई नहीं। इस शान्त वातावरण में प्रकृति नटी के क्रियाकलाप भी चल रहे हैं अर्थात् रात्रि के समय भी प्रकृति के क्रियाकलाप बन्द नहीं हैं। इसके ये क्रियाकलाप कितने अधिक और एकान्त भाव से शान्ति के साथ चुपचाप चलते रहते हैं।

विशेष :

  1. प्रकृति पर कवि ने नटी का आरोप किया है। अत: रूपक अलंकार।
  2. प्रकृति का मानवीकरण।
  3. सहज एवं सरल खड़ी बोली का प्रयोग।

है बिखेर देती वसुंधरा
मोती सबके सोने पर,
रवि बटोर लेता है उनको
सदा सवेरा होने पर,
और विरामदायिनी अपनी
संध्या को दे जाता है,
शून्य श्याम तनु जिससे उसका
नया रूप झलकाता है। (3)

कठिन शब्दार्थ :
वसुन्धरा = पृथ्वी; रवि = सूर्य; विरामदायिनी = विश्राम कराने वाली; शून्य = आकाश; तनु = शरीर।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कविवर गुप्त जी रात्रिकालीन सुषमा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि इस समय पृथ्वी सबके सो जाने पर ओस के रूप में अपने मोती बिखेर देती है और प्रात:काल होने पर सूर्य उन्हीं ओस रूपी मोतियों को बटोर लेता है। कहने का भाव यह है कि रात के समय जो ओस घास पर मोती के रूप में चमकती है प्रात:काल सूर्य की गर्मी से वह पिघल जाती है। इस प्रकार विश्राम प्रदान कराने वाली उस अपनी सन्ध्या को वह सूर्य आकाश रूपी श्याम शरीर प्रदान कर उसके रूप को नये रूप में झलका देता है।

विशेष :

  1. प्रकृति का मानवीकरण।
  2. रूपक एवं अनुप्रास अलंकार।
  3. सहज एवं सरल खड़ी बोली।

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सरल तरल जिन तुहिन-कणों से
हँसती हर्षित होती है,
अति आत्मीया प्रकृति हमारे
साथ उन्हीं से रोती है।
अनजानी भूलों पर भी वह
अदय दण्ड तो देती है
पर बूढ़ों को भी बच्चों सा
सदय भाव से सेती है। (4)

कठिन शब्दार्थ :
तरल = गीले; तुहिन कणों = ओस की बूंदों से; हर्षित = प्रसन्न; आत्मीय = अपनापन दिखाने वाली; अदय = दयाहीन होकर; सद्भाव = दया के भाव से; सेती है = सेवा करती है।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस अंश में कवि ने प्रकृति तथा मानव के आत्मीय सम्बन्धों का सुन्दर ढंग से वर्णन किया है।

व्याख्या :
कविवर गुप्त जी कहते हैं कि लक्ष्मण का कथन है कि इस पंचवटी में मानव और प्रकृति के मध्य एक आत्मीय सम्बन्ध है क्योंकि यह प्रकृति मानव के सुख में प्रसन्न और दुःख में दुःखी होती है। सुख का अहसास वह ओस रूपी मोतियों की वर्षा करके तथा दु:ख के समय आँसुओं के समान हमारे साथ रुदन करती हुई दिखाई देती है और यदि किसी से अनजाने में कोई त्रुटि हो जाए तो वही प्रकृति कड़ी से कड़ी सजा भी देती है। इसके साथ ही वह विनम्र भाव से वृद्धों एवं बालकों की समान भाव से सेवा एवं भरण-पोषण भी करती है।

विशेष :

  1. प्रकृति का मानवीकरण।
  2. अनुचित कार्य करने वालों को दण्ड की व्यवस्था भी प्रकृति ने कर रखी है।
  3. अनुप्रास एवं उपमा अलंकार।
  4. सहज एवं सरल खड़ी बोली।

गोदावरी नदी का तट यह
ताल दे रहा है अब भी,
चंचल जल कल-कल मानो
तान दे रहा है अब भी।
नाच रहे हैं अब भी पत्ते
मन से सुमन महकते हैं
चंद्र और नक्षत्र ललककर
लालच भरे लहकते हैं। (5)

कठिन शब्दार्थ :
तट = किनारा; कल-कल = कल-कल ध्वनि बहते पानी की होती है; सुमन = फूल; लहकते हैं = प्रसन्न होते हैं।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि गोदावरी नदी में बहते जल का वर्णन करते हुए कहता है।

व्याख्या :
कविवर गुप्त जी कहते हैं कि गोदावरी नदी का किनारा अब भी ताल दे रहा है। उसमें बहने वाला चंचल जल अपनी कल-कल ध्वनि से मानो तान दे रहा हो।

आज भी वृक्षों के पत्ते वायु का स्पर्श पाकर नाच रहे हैं तथा वहाँ प्रसन्न मन के समान पुष्प अपनी सुगन्ध बिखेर रहे हैं। यहाँ पर चन्द्रमा और नक्षत्रगण ललककर तथा लालच में भरकर प्रसन्न हो रहे हैं।

विशेष :

  1. प्रकृति का मानवीकरण।
  2. अनुप्रास एवं उत्प्रेक्षा अलंकार।
  3. सहज एवं सरल खड़ी बोली का प्रयोग।

आँखों के आगे हरियाली
रहती है हर घड़ी यहाँ
जहाँ-तहाँ झाड़ी से झरती
है झरनों की झड़ी यहाँ।
वन की एक-एक हिमकणिका
जैसी सरस और शुचि है
क्या सौ-सौ नागरिकजनों की
वैसी विमल रम्य रुचि है। (6)

कठिन शब्दार्थ :
घड़ी = पल; झड़ी = पंक्ति; हिमकणिका = ओस की बूंदें; शुचि = पवित्र; विमल = स्वच्छ; रम्य = रमणीक; रुचि = इच्छा।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस अंश में कवि ने प्रकृति के अलौकिक एवं पवित्र सौन्दर्य का वर्णन किया है।

व्याख्या :
कविवर गुप्त जी कहते हैं कि उस पंचवटी में लक्ष्मण जी सोच रहे हैं कि यहाँ प्रतिपल नेत्रों के सामने हरियाली खड़ी रहती है तथा इस वन प्रदेश में जहाँ-तहाँ झाड़ियों के मध्य झर-झर करते हुए सुन्दर झरने प्रवाहित हो रहे हैं।

इस वन प्रदेश का एक-एक कण सरस एवं पवित्र है। वे मन में सोचते हैं कि जितनी पवित्रता एवं सरसता इन ओस के कणों में निहित है क्या उतनी ही पवित्रता एवं सरसता नगर में रहने वाले नागरिकों में देखने को मिलती है? अर्थात् नहीं। क्या नागरिकों के हृदय में भी प्रकृति के सदृश सुन्दर एवं पवित्र भावनाएँ पाई जाती हैं? अर्थात् नहीं पाई जाती हैं। कहने का भाव यह है कि कवि चाहता है कि मानव का मन भी प्रकृति के समान पवित्र होना चाहिए।

विशेष :

  1. कवि ने मानव में सद्विचारों की कामना की है।
  2. प्रकृति का मानवीकरण।
  3. उदाहरण अलंकार।
  4. सहज एवं सरल खड़ी बोली।

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आः धरती कितना देती है! संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोए थे,
सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे,
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी,
और फूल-फल कर मैं मोटा सेठ बनूँगा। (1)

कठिन शब्दार्थ :
छुटपन = बचपन में; कलदार = रुपये का खनकता हुआ सिक्का।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘आ: धरती कितना देती है’ शीर्षक कविता से ली गयी है। इसके रचयिता श्री सुमित्रानन्दन पंत हैं।

प्रसंग :
इसमें कवि ने अपने बचपन की एक घटना का वर्णन किया है।

व्याख्या :
कविवर सुमित्रानन्दन पन्त जी कहते हैं कि मैंने बचपन में बाल सुलभ स्वभाव के अनुसार लोगों से छिपाकर जमीन में कुछ पैसे गाड़ दिये थे। पैसों के गाड़ने के पीछे भावना यह थी कि पथ्वी में जो भी बोया जाता है वह अगणित रूप में उपज कर हमें सम्पन्न करता है। कवि ने सोचा कि एक-दिन निश्चय ही पैसों के पेड़ उगेंगे और फिर उन पेड़ों से रुपयों की कलदार खनक सुनाई देगी और इस तरह मैं एक बड़ा धनपति अर्थात् सेठ बन जाऊँगा।

विशेष :

  1. कवि ने बाल सुलभ भावना का वर्णन किया है।
  2. अनुप्रास अलंकार।
  3. सहज एवं सरल खड़ी बोली का प्रयोग।

पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,
बंध्या मिट्टी ने न एक भी पैसा उगला!
‘सपने जाने कहाँ मिटे, कब धूल हो गये!
मैं हताश हो, बाट जोहता रहा दिनों तक,
बाल-कल्पना के अपलक पाँवड़े बिछाकर!
मैं अबोध था, मैंने गलत बीज बोये थे,
ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था! (2)

कठिन शब्दार्थ :
बंजर = अनुपजाऊ भूमि; अंकुर = कुल्ला; बंध्या = बाँझ; उगला = पैदा किया; धूल हो गये = मिट्टी में मिल गए; हताशा = निराशा; बाट जोहता रहा = प्रतीक्षा करता रहा; अपलक = बिना पलक झपकाए, टकटकी लगाकर; पाँवड़े = पैरों के नीचे बिछाया जाने वाला वस्त्र; अबोध = अज्ञानी; ममता = मोह; रोपा था = पौधा लगाया था; तृष्णा = प्यास।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत अंश में कवि अपने बचपन की अज्ञानता का वर्णन कर रहा है।

व्याख्या :
कवि कहता है कि जब मैंने बचपन में लोगों से छिपाकर पैसे जमीन में बोये तो उस बंजर भूमि में से पैसों का एक भी कुल्ला नहीं फूटा। उस बाँझ पृथ्वी ने मेरे द्वारा गाड़े गये पैसों में से एक भी पैसा नहीं उपजाया। इस बात को जानकर मेरे सपने जाने कहाँ मिट गये और वे धूल में मिल गये। मैं निराश हो उठा फिर भी बहुत दिनों तक प्रतीक्षा करता रहा कि शायद कभी उनमें कुल्ले फूटें। मैं बालक बुद्धि के अनुसार टकटकी लगाकर पाँवड़े बिछाकर उन रुपयों के उगने की प्रतीक्षा करता रहा। मैं अज्ञानी था, इसी कारण मैंने भूमि में गलत बीज बोये थे। मैंने स्वार्थ की भावना से भूमि में पैसों को बोया था और उन्हें इच्छाओं के तृष्णा रूपी जल से सींचा था।

विशेष :

  1. बाल स्वभाव का वर्णन किया है।
  2. अनुप्रास, रूपक, उत्प्रेक्षा अलंकार।
  3. पाँवड़े बिछाना, बाट जोहना मुहावरों का प्रयोग।

अर्धशती हहराती निकल गई है तब से!
कितने ही मधु पतझर बीत गए अनजाने,
ग्रीष्म तपे, वर्षा झूली, शरदें मुसकाईं,
सी-सी कर हेमंत कॅपे, तरु झरे, खिले वन!
ओ’ जब फिर से गाढ़ी ऊदी लालसा लिए,
गहरे कजरारे बादल बरसे धरती पर। (3)

कठिन शब्दार्थ :
अर्धशती = पचास वर्ष; मधु = बसन्त ऋतु; हहराती = गूंजती हुई; कजरारे = काले।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि का कथन है कि रुपये बोने की उस घटना को लगभग पचास वर्ष बीत गये हैं अनेक ऋतुएँ आयीं और चली गईं पर पैसों में कुल्ला नहीं फूटा।

व्याख्या :
कविवर पन्त कहते हैं कि जब बचपन में मैंने रुपये बोये थे तब से लेकर अब तक पचास वर्ष गूंजते हुए निकल गये। इस बीच में अनेक ऋतु परिवर्तन हुए। बसन्त आया, पतझर बीता, ग्रीष्म तपी, वर्षा की झड़ी लगी, शरद ऋतु मुस्कराई, सी-सी करता हुआ एवं काँपता हुआ हेमंत भी आया, वृक्ष झड़ उठे, वन उपवन खिल उठे। मेरे मन में फिर से गाढ़ी ऊदी लालसा लिए हुए घने काले बादल भी पृथ्वी पर आकर वर्षा करते रहे। पर परिणाम कुछ नहीं निकला।

विशेष :

  1. प्रकृति की विभिन्न ऋतुओं का संकेत रूप में कवि ने चित्रण किया है।
  2. अनुप्रास अलंकार।
  3. सहज एवं सरल खड़ी बोली।

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मैंने कौतुहल वश, आँगन के कोने की
गीली तह को ही उँगली से सहलाकर,
बीज सेम के दबा दिए मिट्टी के नीचे!
भू के अंचल में मणि माणिक बाँध दिए हों!
मैं फिर भूल गया इस छोटी-सी घटना को
और बात भी क्या थी, याद जिसे रखता मन! (4)

कठिन शब्दार्थ :
कौतुहलवश = जिज्ञासा से; गीली = भीगी; तह = नीचे की मिट्टी को; अंचल = आँगन।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि बचपन की एक अन्य घटना का वर्णन करते हुए कह रहा है।

व्याख्या :
कविवर पन्त कहते हैं कि मैंने जिज्ञासा के वशीभूत होकर आँगन के एक कोने में गीली मिट्टी को उँगली से कुरेदकर उसमें सेम के बीज बो दिए। उस समय मैंने ऐसा अनुभव किया मानो मैंने पृथ्वी के आँचल में मणि और माणिक बाँध दिये हों। इसके पश्चात् मैं इस छोटी सी बचपन की घटना को भूल गया और वास्तव में बात भी कोई ऐसी विशेष नहीं थी जिसे मैं अपने मन में धारण रखता।।

विशेष :

  1. बचपन की घटना का वर्णन कवि ने किया है।
  2. अनुप्रास एवं उत्प्रेक्षा अलंकार।
  3. सहज एवं सरल खड़ी बोली।

फिर एक दिन, जब मैं संध्या को आँगन में
टहल रहा था- जब सहसा मैंने जो देखा,
उससे हर्ष-विमूढ़ हो उठा मैं विस्मय से!
देखा, आँगन के कोने में कई नवागत
छोटे-छोटे छाता ताने खड़े हुए हैं। (5)

कठिन शब्दार्थ :
संध्या = शाम; सहसा = अचानक; हर्ष-विमूढ़ = खुशी से आनन्दित; विस्मय = आश्चर्य; नवागत = नये आये हुए।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि द्वारा बोये गये सेम के बीजों से जब कुल्ला फूटकर नये-नये पौधे उग आये, उसी का यहाँ वर्णन है।

व्याख्या :
कवि कहता है कि एक दिन शाम के समय जब मैं आँगन में टहल रहा था। तब मैंने जो कुछ अचानक देखा उससे मैं आनन्द से भर गया और मैं उस दृश्य को देखकर आश्चर्य करने लगा कि यह क्या हो गया है। मैं देखता हूँ कि उस आँगन के कोने में नये-नये उगे हुए छोटे-छोटे पौधे मानो छाते ताने हुए खड़े हों।

विशेष :

  1. नये उगे हुए पौधों को कवि ने छाता मान लिया है।
  2. अनुप्रास अलंकार।
  3. भाषा खड़ी बोली।

छाता कहूँ कि विजय-पताकाएँ जीवन की,
या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं, प्यारी
जो भी हो, वे हरे-हरे उल्लास से भरे
पंख मार कर उड़ने को उत्सुक लगते थे,
डिम्ब तोड़कर निकले चिड़ियों के बच्चों-से! (6)

कठिन शब्दार्थ :
विजय पताकाएँ = जीत की ध्वजाएँ; उल्लास = उमंग; उत्सुक = इच्छुक; डिम्ब = अण्डा।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
सेम के बीजों से निकले हुए नये पौधों को कवि अनेक उपमानों द्वारा व्यक्त करते हुए कह रहा है।

व्याख्या :
कवि कहता है कि नव सृजित वे पौधे जिनमें ऊपर के पत्ते निकल आये थे, उन्हें मैं छाता कहँ या विजय की पताकाएँ कहूँ। या फिर यह कहूँ कि वे नन्हें पौधे अपनी हथेलियाँ खोले हुए खड़े थे। जो कुछ भी हो वे नये-नये पौधे हरे-भरे थे उनमें बहुत उमंग भरी हुई थी और वे पंख मारकर उड़ने के इच्छुक बने हुए थे अथवा यह कहा जाये कि वे अण्डों को फोड़कर निकले हुए चिड़ियों के बच्चों जैसे लग रहे थे।

विशेष :

  1. प्रकृति का आकर्षक वर्णन।
  2. सन्देह, उपमा एवं अनुप्रास अलंकार
  3. भाषा खड़ी बोली।

निर्मिमेष, क्षण भर, मैं उनको रहा देखता
सहसा मुझे स्मरण हो आया-कछ दिन पहले
बीज सेम के रोपे थे मैंने आँगन में,
और उन्हीं से बौने पौधों की यह पलटन
मेरी आँखों के सम्मुख अब खड़ी गर्व से
नन्हें नाटे पैर पटक, बढ़ती जाती है!
तब से उनको रहा देखता धीरे-धीरे,
अनगिनती पत्तों से लद, भर गई झाड़ियाँ। (7)

कठिन शब्दार्थ :
निर्मिमेष = बिना पलक गिराये, टकटकी लगाकर; सहसा = अचानक; पलटन = फौज; सम्मुख = सामने; नाटे = छोटे।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
सेम के नये पौधों की सुन्दरता का वर्णन कवि कर रहा है।

व्याख्या :
कवि कहता है कि उन सेम के नये पौधों को मैं अपलक भाव से क्षणभर के लिए देखता रह गया। तभी मुझे स्मरण आया कि कुछ दिन पहले ही मैंने इस आँगन में सेम के बीज बोये थे और अब उन्हीं बीजों से मेरी आँखों के सामने बौने पौधों की एक पलटन खड़ी हुई है। वह पलटन अपने छोटे और नन्हें पैरों को पटक कर धीरे-धीरे नित्य बढ़ती जा रही है। मैं उसी समय से उन्हें देखता रहा और धीरे-धीर वे पौधे अनगिनती पत्तों से लद गये और उनसे झाडियाँ भर गई थीं।

विशेष :

  1. सेम के बीजों से उगे हुए नये पौधों का मनमोहक वर्णन किया है।
  2. मानवीकरण, उत्प्रेक्षा, उपमा आदि अलंकारों का प्रयोग।
  3. भाषा खड़ी बोली।

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हरे, भरे टैंग गए कई मखमली चंदोवे!
बेलें फैल गई बल खा, आँगन में लहरा
और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का
हरे-हरे सौ झरने फूट पड़े ऊपर को!
मैं अवाक रह गया वंश कैसे बढ़ता है!
छोटे तारों-से छितरे, फूलों की छीटें
झागों-से लिपटे लहरी श्यामला लतरों पर
सुन्दर लगते थे मानव के हँसमुख नभ-से
चोटी के मोती-से, आँचल के बूटों-से! (8)

कठिन शब्दार्थ :
चँदोवे = चाँदनी; बलखा = इठलाकर; टट्टी = टटिया; बाड़े = मकान की चौहद्दी; अवाक् = बिना बोले; छितरे = बिखरे हुए; श्यामला = साँवली; लतरों = लताओं; मोती-से = मोती जैसे; बूटों-से = पौधों जैसे।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
सेम के पौधों के बड़े होने, फैलने और फूलने का वर्णन किया गया है।

व्याख्या :
कवि कहता है कि सेम के पौधों के हरे-भरे अनगिनती मखमली चँदोवे टॅग गये थे। उनकी बेलें बल खा-खाकर आँगन में लहराकर और बाड़े की टटिया का सहारा लेकर ऊपर को फैल गई थी। वे फूली हुई बेलें ऐसी लग रही थीं जैसे हरे-हरे सैकड़ों झरने ऊपर की ओर फूट पड़ रहे हों। बेलों की इस बढ़ती को देखकर मैं अवाक् रह गया, मेरे मुँह से कोई भी शब्द न निकल सका और मैं मन ही मन यह समझ गया कि वंश वृद्धि कैसे होती है। उन बेलों पर लगे हुए फूल ऐसे लग रहे थे मानो साँवली बेलों पर छोटे-छोटे तारे बिखर रहे हों। वे फूल मानव के हँसीयुक्त मुख पर आकाश जैसे लग रहे थे। वे चोटी में लगे हुए मोती जैसे अथवा आँचल पर लगे हुए बूटों जैसे लग रहे थे।

विशेष :

  1. कवि ने सेम के पौधों की हरियाली और उन पर लगे हुए फूलों की सुन्दरता का वर्णन किया है।
  2. अनुप्रास, उपमा और उत्प्रेक्षा अलंकारों का प्रयोग।
  3. भाषा खड़ी बोली।

ओह, समय पर उनमें कितनी फलियाँ टूटी!
कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ!
पतली चौड़ी फलियाँ-उफ् उनकी क्या गिनती?
लम्बी-लम्बी अंगुलियों-सी, नन्हीं-नन्हीं
तलवारों-सी, पन्ने के प्यारे हारों-सी
झूठ न समझो, चन्द्र कलाओं-सी, नित बढ़ती
सच्चे मोती की लड़ियों-सी ढेर-ढेर खिल। (9)

कठिन शब्दार्थ :
फलियाँ = सेम की फली; ढेर-ढेर = बहुत सारी।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि सेम की बेल में लगने वाली फलियों की सुन्दरता का वर्णन कर रहा है।

व्याख्या :
कवि कहता है कि समय आने पर ओहो ! देखो तो उन बेलों में कितनी अधिक फलियाँ निकल आईं, वे फलियाँ अनगिनती थीं, वे बहुत प्यारी थीं, वे पतली और चौड़ी थीं, उनकी कोई गिनती नहीं थी। वे फलियाँ उँगलियों जैसी लम्बी-लम्बी थीं, वे फलियाँ नन्हीं-नन्हीं तलवारों जैसी थीं, वे पन्ना मणि से निर्मित हारों जैसी थीं। तुम इसे झूठ मत समझो, वे नित्य वैसे ही बढ़ती जाती थीं जैसे कि चन्द्रमा की कलाएँ नित्य बढ़ती जाती हैं। वे सच्चे मोती की लड़ी जैसी फलियाँ अधिक मात्रा में खिल जाती थीं।

विशेष :

  1. सेम की फलियों की तुलना में कवि ने नये-नये उपमान दिये हैं।
  2. अनुप्रास, उपमा अलंकार।
  3. भाषा-खड़ी बोली।

झुंड-झुंड झिलमिलकर कचचिया तारों-सी!
आः इतनी फलियाँ टूर्टी, जाड़ों भर खाईं,
सुबह शाम वे घर-घर पर्की पड़ोस पास के
जाने अनजाने सब लोगों में बँटवाईं,
बंधु, बाँधवों, मित्रों, अभ्यागत, मंगतों ने
जी भर-भर दिन-रात मुहल्ले भर ने खाईं!
कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ! (10)

कठिन शब्दार्थ :
कचचिया तारों-सी = झिलमिलाते हुए तारों जैसी; अभ्यागत = आये हुए अतिथियों; मंगतों = भिखारियों ने।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
सेम की बेलों में इतनी फलियाँ उगीं कि परिवारीजनों, मित्रों, भिखारियों आदि सभी ने खाईं।

व्याख्या :
कवि कहता है कि सेम की बेलों में झुंड के झुंड झिलमिलाते हुए तारों जैसी फलियाँ लदी रहती थीं। बेलों में से इतनी फलियाँ उतरीं कि पूरे जाड़े में हमने सुबह-शाम पकाकर खाईं। इतना ही नहीं पड़ौसियों, पास के रहने वालों तथा अपरिचित-परिचित सभी लोगों में हमने उन्हें बँटवाया। बंधु-बान्धवों, मित्रों, अतिथियों, भिखारियों आदि ने उन फलियों को दिन-रात भर-भर कर खाया। वे फलियाँ कितनी अधिक थीं, वे फलियाँ कितनी प्यारी थीं।

विशेष :

  1. फलियों की बहुतायत का वर्णन है।
  2. उपमा एवं अनुप्रास अलंकार।
  3. भाषा-खड़ी बोली।

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यह धरती कितना देती है! धरती माता
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को!
नहीं समझ पाया था, मैं उसके महत्त्व को!
बचपन में, छि: स्वार्थ लोभ बस पैसे बोकर! (11)

कठिन शब्दार्थ :
छिः = तिरस्कार का भाव।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
बचपन में पैसे बोने की भूल पर कवि प्रायश्चित करते हुए धरती माता के महत्त्व का वर्णन कर रहा है।

व्याख्या :
कवि कहता है कि धरती माता कितना उपकार अपने पुत्रों पर करती है, इसे कोई नहीं जान पाया है। वह अपनी सन्तानों को, अपने प्यारे पुत्रों को कितना देती है, इसे कौन जान पाया है, अर्थात् कोई नहीं जान पाया है। मैं भी स्वयं धरती माता के महत्त्व को नहीं समझ पाया था और बचपन में स्वार्थ के वशीभूत होकर मैं पैसों की फसल उगाना चाहता था। वह मेरी अज्ञानता थी जिसे मैंने आज जान लिया है।

विशेष :

  1. धरती माता की महत्ता का वर्णन है।
  2. अनुप्रास अलंकार।
  3. भाषा-सहज एवं सरल खड़ी बोली है।

रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ।
इसमें सच्ची ममता के दाने बोने हैं,
इसमें जन की क्षमता के दाने बोने हैं,
इसमें मानव ममता के दाने बोने हैं,
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें
मानवता की-जीवन श्रम से हँसें दिशाएँ।
हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे। (12)

कठिन शब्दार्थ :
रत्न प्रसविनी = रत्नों को जन्म देने वाली; वसुधा = पृथ्वी; ममता = ममत्व, प्रेम; क्षमता = सामर्थ्य; जीवन-श्रम = जीवन रूपी. श्रम से।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
बेल की परोपकारी भावना से कवि प्रभावित हो जाता है और वह भी पृथ्वी पर सच्ची मानवता की फसल उगाना चाहता है।

व्याख्या :
कवि कहता है कि यह हमारी धरती माता रत्नों को उत्पन्न करने वाली है इस बात को मैं अब समझ सका हूँ। मेरा यह प्रयास रहेगा कि हम सब मिलकर इसमें सच्ची ममता के दाने बोयें। इसमें ऐसे दाने बोयें जिससे इसके निवासी लोगों में सामर्थ्य-शक्ति आ सके, इसमें हमें सच्ची मानवता की ममता के दाने बोने हैं। ताकि पृथ्वी की धूल अपने गर्भ में से पुनः सुनहरी फसलों को जन्म दे सके और फिर जीवन रूपी परिश्रम से सभी दिशाएँ हँसने लग जाएँ। कहने का भाव यह है कि सभी ओर खुशी छा जाए। जैसा हम इस पृथ्वी में बोयेंगे वैसा ही पाएँगे।

विशेष :

  1. कवि समाज में समरसता, खुशी एवं उल्लास की फसल उगाना चाहता है।
  2. लोकोक्ति का प्रयोग।
  3. अनुप्रास अलंकार।

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MP Board Class 9th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 4 नीति – धारा

MP Board Class 9th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 4 नीति – धारा

नीति – धारा अभ्यास

बोध प्रश्न

नीति – धारा अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सच्चे मित्र की क्या पहचान है?
उत्तर:
सच्चा मित्र वही होता है जो विपत्ति में साथ दे।

प्रश्न 2.
अमरबेल का पोषण कैसे होता है?
उत्तर:
अमरबेल एक विशेष प्रकार की पीले रंग की बेल होती है जिसमें न जड़ होती है और न पत्ते। उस बेल को भी ईश्वर सींचता रहता है।

प्रश्न 3.
रहीम ने बुरे दिनों में चुप रहने की बात क्यों कही है?
उत्तर:
रहीम ने बुरे दिनों में चुप रहने की सलाह इसलिए दी है कि बुरे दिनों में यदि आप किसी से अटकोगे तो उससे आपको हार माननी पड़ेगी।

प्रश्न 4.
वृन्द के अनुसार मूर्ख विद्वान् कैसे बन सकता है?
उत्तर:
वृन्द कवि के अनुसार मूर्ख व्यक्ति भी यदि निरन्तर अभ्यास करे तो वह विद्वान् बन सकता है।

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नीति – धारा लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
“रहिमन भंवरी के भये नदी सिरावत मौर” से क्या आशय है?
उत्तर:
रहीम कवि कहते हैं कि काम निकल जाने पर व्यक्ति महत्त्वपूर्ण बातों और व्यक्तियों का असम्मान करते हैं, जैसे भाँवर पड़ने से पूर्व दूल्हा के मौर की बड़ी इज्जत की जाती है और जब भाँवर पड़ जाती है तब उसका तिरस्कार कर उसे नदी में बहा दिया जाता है।

प्रश्न 2.
“होनहार बिरवान के होत चीकने पात” कवि ने किस सन्दर्भ में कहा है?
उत्तर:
अच्छे वृक्ष के पत्ते प्रारम्भ में बड़े ही चिकने होते हैं। जिस वृक्ष के पत्ते प्रारम्भ में चिकने होते हैं वही वृक्ष कालान्तर में भली-भाँति पल्लवित एवं पुष्पित होता है। उसी प्रकार जो बालक बचपन में अच्छे व्यवहार करता है वह एक दिन महान् व्यक्ति बनता है। कहा भी गया है कि पूत के पाँव पालने में ही दिखाई दे जाते हैं।

प्रश्न 3.
अधिक परिचय बढ़ाने के विषय में कवि वृन्द के क्या विचार हैं?
उत्तर:
अधिक परिचय बढ़ाने को कवि वृन्द अच्छा नहीं मानते हैं। उनका अनुभव है कि अधिक परिचय से एक-दूसरे के प्रति असम्मान का भाव उत्पन्न होता है। जैसे कि मलय पर्वत पर रहने वाली भीलनी चन्दन के पेड़ का महत्त्व न जानकर उसे साधारण लकड़ी के रूप में जला देती है।

नीति – धारा दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कौए और कोयल की पहचान कवि के अनुसार स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कौआ और कोयल दोनों का वर्ण एवं आकार-प्रकार एक जैसा ही होता है। बसंत ऋतु आने पर दोनों का अन्तर सरलता से ज्ञात हो जाता है। कौआ अपनी कर्कश ध्वनि में काँव-काँव करता है और कोयल अपनी मधुर बोली से सबको आकर्षित कर लेती है। इसी प्रकार बोली एवं व्यवहार से दुष्ट और सज्जन लोगों की पहचान हो जाती है।

प्रश्न 2.
सबल की सब सहायता करते हैं, निर्बल की कोई सहायता नहीं करता है। उदाहरण देकर समझाइए।
उत्तर:
जिस प्रकार प्रचण्ड आग (सबल) को हवा और बढ़ा देती है, किन्तु वही हवा दीपक की लौ (निर्बल) को क्षण भर में बुझा देती है, अत: यह कहा जा सकता है कि सबल की सब सहायता करते हैं, निर्बल की कोई नहीं करता है।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित दोहों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए
(अ) खीरा सिर तें ………… यही सजाय॥
उत्तर:
रहीम कहते हैं कि खीरा का सिर काटकर उस पर नमक लगाकर रगड़ा जाता है ताकि उसके अन्दर का जहर बाहर निकल जाए। उसी तरह कड़वे वचन बोलने वाले व्यक्ति को भी सिर काटकर सजा देनी चाहिए।

(आ) कदली सीप …………. फल दीन॥
उत्तर :
कविवर रहीम कहते हैं कि मनुष्य जैसी संगत करेगा उसका फल भी उसको वैसा ही मिलेगा। कवि उदाहरण देते हुए कहता है कि स्वाति नक्षत्र में बादलों से टपकने वाली बूंद तो एक ही होती है पर संगत के प्रभाव से उसका प्रभाव अलग-अलग पड़ता है अर्थात् यदि वह केले के पत्ते पर गिरेगी तो कपूर बन जाएगी, सीप में गिरेगी तो मोती बन जाएगी और सर्प के मुख पर गिरेगी तो मणि बन जाएगी।

(इ) उद्यम कबहुँ न ………… देखि पयोद॥
उत्तर :
कविवर वृन्द कहते हैं कि भविष्य में कुछ अच्छा होने की आशा की खुशी में मनुष्य को अपने परिश्रम (प्रयत्न) को शिथिल महीं कर देना चाहिए। उदाहरण देते हुए कवि कहते हैं कि घुमड़ते हुए बादलों को देखकर उनसे प्राप्त होने वाले पानी की खुशी में अपने घर में रखी हुई पानी की गागर को नहीं फोड़ देना चाहिए।

(इ) करत-करत…………. निसान॥
उत्तर:
कवि वृन्द कहते हैं कि हमें जीवन में सदैव अभ्यास करते रहना चाहिए। निरन्तर अभ्यास करने से जड़मति अर्थात् मूर्ख व्यक्ति भी चतुर हो जाते हैं। कवि उदाहरण देते हुए कहते हैं कि कुएँ पर रखी शिला (बड़े पत्थर) पर भी जब लोग पानी खींचते है तो उस पत्थर पर रस्सी की बार-बार रगड से बड़े-बड़े गड्ढे बन जाते हैं। कहने का भाव यह है कि जब पत्थर जैसा कठोर पदार्थ भी बार-बार के अभ्यास से अपना रूप बदल लेता है तो चेतन व्यक्ति तो निरन्तर के अभ्यास से अवश्य ही चतुर बन जाएगा।

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नीति – धारा काव्य-सौन्दर्य

प्रश्न 1.
निम्नलिखित अनेकार्थी शब्दों के दो-दो अर्थ बताकर वाक्य में प्रयोग कीजिए
मूल, कुल, फल, रस।
उत्तर:
मूल :

  1. मूलधन,
  2. जड़।

वाक्य प्रयोग :

  1. व्यापारी अपने मूलधन को कभी नहीं छोड़ता है।
  2. इस वृक्ष की मूल पाताल तक गई है।

कुल :

  1. सम्पूर्ण
  2. वंश।

वाक्य प्रयोग :

  1. इस व्यापार में कुल पूँजी 5 अरब रुपये लगी है।
  2. कुल से ही व्यक्ति की पहचान होती है।

फल :

  1. वृक्ष का फल
  2. परिणाम।

वाक्य-प्रयोग :

  1. इस वर्ष आम के पेड़ फलों से लदे हैं।
  2. मोहन का परीक्षाफल अभी नहीं आया है।

रस :

  1. पेय
  2. सार।

वाक्य-प्रयोग :

  1. गन्ने का रस स्वास्थ्य के लिए अच्छा है।
  2. निर्धनता में मानव जीवन का रस ही सूख जाता है।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित शब्दों के विलोम शब्द लिखिए
उत्तर:

शब्दविलोम
दिनरात
मित्रशत्रु
सुखदुःख
अच्छेबुरे
अनादरआदर
सबलनिर्बल
अरुचिरुचि
नीचऊँच

प्रश्न 3.
निम्नलिखित शब्दों के पर्यायवाची शब्द लिखिए-
पवन, पयोद, आग, कंचन, मोर।
उत्तर:
पवन – वायु, वात, हवा।
पयोद – नीरद, जलद, वारिद।
आग – अग्नि, पावक, दहक।
कंचन – स्वर्ण, सोना, कनक।
मोर – मयूर, सारंग, केकी।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित सूक्तियों का आशय स्पष्ट कीजिए(अ) बिगरी बात बनै नहीं, लाख करौ किन कोय।
उत्तर:
आशय :
कवि कहता है कि यदि कभी कोई बात बिगड़ जाती है तब फिर लाख कोशिश करने पर भी वह बनती नहीं है। जैसे दूध जब फट जाता है तो लाख कोशिश करने पर भी उसमें से मक्खन नहीं निकलता है। अतः मनुष्य को कभी भी ऐसा मौका नहीं देना चाहिए जिससे कि बात बिगड़ जाए।

(आ) एकै साधै सब सधै, सब साधे सब जाय।
उत्तर:
आशय-इस सूक्ति का आशय यह है कि हमें पूरी निष्ठा के साथ एक का ही सहारा लेना चाहिए। इधर-उधर भागने से अथवा दस आदमियों से अपनी परेशानी कहने से कोई बात नहीं बनती है। हमें एक पर ही भरोसा रखना चाहिए, इससे हमारा काम अवश्य ही बनेगा।

(इ) रसरी आवत जात ते, सिल पर परत निसान।
उत्तर:
आशय-इस सूक्ति का आशय यह है कि अभ्यास से मूर्ख व्यक्ति भी ज्ञानी हो जाता है जैसे कि कुएँ के ऊपर की बड़ी चट्टान भी रस्सी जैसे कोमल वस्तु से घिस जाया करती है।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित लोकोक्तियों को अपने वाक्यों में प्रयोग कीजिए
(i) होनहार बिरवान के होत चीकने पात।
उत्तर:
अच्छे वृक्ष के पौधे में चिकने पत्ते होते हैं। कहने का भाव यह है कि महान् मनुष्य की पहचान उसके बचपन के क्रियाकलापों से ही हो जाती है। कहा भी है कि पूत के पाँव पालने में दिखाई दे जाते हैं।

(ii) तेते पाँव पसारिये जेती लाँबी सौर।
उत्तर:
मनुष्य को अपनी सामर्थ्य के अनुसार ही कार्य करना चाहिए। रमेश के पास पचास रुपये की पूँजी थी लेकिन वह लाखों के बजट बना रहा था। इस पर उसके पिताजी ने उसे समझाया कि बेटा उतने ही पैर पसारो जितनी लम्बी तुम्हारी रजाई है।

(iii) ज्यौं-ज्यौं भीजै कामरी, त्यौं-त्यौं भारी होय।
उत्तर :
हठ या जिद करने से कोई काम बनता नहीं है अपितु बिगड़ जाता है। कहा भी है कि जैसे-जैसे कम्बल भीगता जाएगा वैसे ही वैसे वह भारी होता जाएगा।

प्रश्न 6.
इन पंक्तियों की मात्राएँ गिनकर, छन्द की पहचान कीजिए।
उत्तर:
MP Board Class 9th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 4 नीति - धारा img 1
प्रश्न 7.
हिन्दी में कई कवियों ने मुक्तक काव्य लिखे हैं। आप कुछ मुक्तक काव्यों के नाम उनके रचनाकारों के नाम के साथ लिखिए।
उत्तर:
MP Board Class 9th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 4 नीति - धारा img 2

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रहीम के दोहे संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

अमर बेलि बिनु मूल की, प्रतिपालत है ताहि।।
रहिमन ऐसे प्रभुहि तजि, खोजत फिरिये काहि ॥ 1 ॥

कठिन शब्दार्थ :
बिनु = बिना; प्रतिपालत = पालता है; ताहि = उसी को; काहि = किसको; तजि = छोड़कर।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत दोहा ‘नीति-धारा’ के ‘रहीम के दोहे’ शीर्षक से लिया गया है। इसके कवि रहीम हैं।

प्रसंग :
इस दोहे में ईश्वर की कृपा का वर्णन किया गया है।

व्याख्या :
कविवर रहीम कहते हैं कि ईश्वर कितना महान् और दयालु है। वह बिना जड़ वाली अमरबेल को भी पालता रहा है। अतः हे मनुष्य! ऐसे उदार भगवान को छोड़कर और किसको खोजता फिर रहा है? अर्थात् तेरा किसी और को खोजना व्यर्थ है। तू तो केवल ईश्वर का ही ध्यान कर।

विशेष :

  1. ईश्वर की कृपा का वर्णन है।
  2. दोहा छन्द है।
  3. ब्रजभाषा है।

रहिमन चुप है बैठिये, देखि दिनन को फेर।
जब नीके दिन आइहैं, बनत न लागिहै देर ॥ 2 ॥

कठिन शब्दार्थ :
चुप लै = चुप होकर; दिनन को फेर = बुरे दिन आने पर; नीके = अच्छे; बनत = काम बनने में।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस दोहे में कवि ने उपदेश दिया है कि बुरे दिन आने पर मनुष्य को चुप होकर बैठ जाना चाहिए।

व्याख्या :
कविवर रहीम कहते हैं कि जब भी मनुष्य के बुरे दिन आयें तो उसे चुप होकर बैठ जाना चाहिए। जब अच्छे दिन आयेंगे तो फिर किसी काम के बनने में जरा-सी देर नहीं लगेगी।

विशेष :

  1. अच्छे दिनों की मनुष्य को प्रतीक्षा करनी चाहिए।
  2. दोहा छन्द।
  3. भाषा-ब्रज।

खीरा सिर तै काटिये, मलियत लोन लगाय।
रहिमन कडुवेमुखन को, चहिअत यही सजाय ॥ 3 ॥

कठिन शब्दार्थ :
मलियत = मलना चाहिए; लोन = नमक; कडुवे मुखन = कड़वी बातें बोलने वाले को; सजाय = सजा देनी चाहिए।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि का कथन है कि कड़वा वचन बोलने वालों को कठोर दण्ड देना चाहिए।

व्याख्या :
रहीम कहते हैं कि खीरा का सिर काटकर उस पर नमक लगाकर रगड़ा जाता है ताकि उसके अन्दर का जहर बाहर निकल जाए। उसी तरह कड़वे वचन बोलने वाले व्यक्ति को भी सिर काटकर सजा देनी चाहिए।

विशेष :

  1. कड़वे वचन बोलने वाले को सावधान किया
  2. दोहा छन्द।
  3. भाषा-ब्रज।

बिगरी बात बनै नहीं, लाख करौ किन कोय।
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय ॥ 4 ॥

कठिन शब्दार्थ :
बिगरी = बिगड़ी हुई; लाख करौ किन कोय = कोई लाखों प्रयत्न कर ले; फाटे = फटे हुए।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि का कथन है कि बिगड़ा कार्य आसानी से नहीं बनता है।

व्याख्या :
कविवर रहीम कहते हैं कि बिगड़ी हुई बात फिर बनती नहीं है चाहे कोई लाखों प्रयत्न क्यों न कर ले। उदाहरण द्वारा कवि समझाता है कि जिस प्रकार फटे हुए दूध से कोई लाखों बार मथने पर भी मक्खन नहीं निकाल पाता है।

विशेष :

  1. कवि का उपदेश है कि हमें कोई काम बिगाड़ना नहीं चाहिए।
  2. दृष्टान्त अलंकार।
  3. भाषा-ब्रज।
  4. छन्द-दोहा।

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काज परै कछु और है, काज सरै कछु और।
रहिमन भंवरी के. भये, नदी सिरावत मौर ॥ 5 ॥

कठिन शब्दार्थ :
काज परै = काम पड़ने पर; काज सरै = काम निकल जाने पर; भंवरी = हिन्दुओं में विवाह के समय दूल्हा-दुल्हन के द्वारा किये जाने वाले सात फेरे, भाँवर; सिरावत = नदी में बहा देते हैं; मौर = बरात के समय लड़की के दरवाजे पर जाते समय दूल्हा अपने सिर पर मौर पहनता है।’

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि कहते हैं कि जब किसी का कोई काम अटक जाता है तब उसका व्यवहार बड़ा शालीन हो जाता है और काम निकल जाने पर वही व्यक्ति अशिष्ट हो जाता है।

व्याख्या :
कविवर रहीम कहते हैं कि काम पड़ने पर व्यक्ति का व्यवहार बड़ा ही शालीन हो जाता है और काम निकल जाने पर उसका व्यवहार बदल जाता है। उदाहरण देकर वे बताते हैं कि जब दूल्हा बरात लेकर जाता है तो अपने सिर पर मौर को बड़े ही सम्मान के साथ धारण करता है और जब दुल्हन के साथ भाँवरें पड़ जाती हैं तब उसी मौर को नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है।

विशेष :

  1. कवि ने समय का महत्त्व बताया है।
  2. दृष्टान्त अलंकार।
  3. भाषा-ब्रज।

एक साधै सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय ॥ 6 ॥

कठिन शब्दार्थ :
एक = एक को; साथै = साधने पर; मूलहिं = जड़ को; अघाय = तृप्त होना।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि कहते हैं कि हमें पूरी तरह से एक की ही साधना करनी चाहिए। इधर-उधर नहीं भटकना चाहिए।

व्याख्या :
कवि रहीम कहते हैं कि एक के साधन पर सब सध जाते हैं और जो व्यक्ति सभी को साधना चाहता है उसका काम बिगड़ जाता है। आगे वे कहते हैं कि यदि तुम जड़ को सींचोगे तो पेड़-पत्ते एवं फल सभी प्राप्त हो जायेंगे और तुम सन्तुष्ट हो पाओगे।

विशेष :

  1. मन से एक को ही साधने की बात कही गई है।
  2. भाषा-ब्रज।
  3. छन्द-दोहा।

कदली, सीप, भुजंग-मुख,स्वाति एक गुन तीन।
जैसी संगति बैठिये, तैसोई फल दीन ॥ 7 ॥

कठिन शब्दार्थ :
कदली = केला; भुजंग = सर्प; स्वाति = स्वाति नक्षत्र में गिरने वाली बूंद; संगति = सौबत, साथ उठना-बैठना।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्। प्रसंग-इस दोहे में कवि ने संगत का प्रभाव बताया है।

व्याख्या :
कविवर रहीम कहते हैं कि मनुष्य जैसी संगत करेगा उसका फल भी उसको वैसा ही मिलेगा। कवि उदाहरण देते हुए कहता है कि स्वाति नक्षत्र में बादलों से टपकने वाली बूंद तो एक ही होती है पर संगत के प्रभाव से उसका प्रभाव अलग-अलग पड़ता है अर्थात् यदि वह केले के पत्ते पर गिरेगी तो कपूर बन जाएगी, सीप में गिरेगी तो मोती बन जाएगी और सर्प के मुख पर गिरेगी तो मणि बन जाएगी।

विशेष :

  1. कवि ने संगत का महत्त्व बताया है।
  2. उपमा अलंकार।
  3. भाषा-ब्रज।
  4. छन्द-दोहा।

कहि रहीम सम्पत्ति सगैं, बनत बहुत यह रीति।
बिपति कसौटी जे कसे, ते ही साँचे मीत ॥ 8 ॥

कठिन शब्दार्थ :
सम्पत्ति = धन के कारण; सगैं = खास, विशेष; बहुत रीति = अनेक प्रकार से; विपति = मुसीबत, संकट; ते = वे; साँचे = सच्चे; मीत = मित्र।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि का कथन है कि अच्छे दिनों में तो सब सगे बन जाते हैं पर विपत्ति में जो संग देते हैं, वे ही सच्चे मित्र हैं।

व्याख्या :
कवि रहीम कहते हैं कि सम्पत्ति अर्थात् खुशहाली में तो सभी लोग सम्पत्ति वाले के सगे हो जाते हैं पर विपत्ति रूपी कसौटी पर जो कसे जाते हैं, वे ही सच्चे मित्र होते हैं। कहने का भाव यह है कि विपत्ति में जो साथ देते हैं, वे ही सच्चे मित्र होते हैं।

विशेष :

  1. सच्चे मित्र के लक्षण बताये हैं।
  2. भाषा-ब्रज।
  3. छन्द-दोहा।

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रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर न मिले, मिले गाँठ पड़ जाय ॥ 9 ॥

कठिन शब्दार्थ :
धागा = सूत का डोरा; चटकाय = चटकाकर।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्। प्रसंग-कवि सच्चे प्रेम को न तोड़ने की सलाह दे रहे हैं।

व्याख्या :
रहीम कवि कहते हैं कि यह प्रेम का धागा अर्थात् डोरी है, इसे चटका कर मत तोड़ो। यदि यह टूट जाएगा तो फिर इसे जोड़ने पर इसमें गाँठ पड़ जाएगी। कहने का भाव यह है कि सच्चे प्रेम में कोई विघ्न मत डालो।

विशेष :

  1. सच्चा प्रेम निश्छल होता है।
  2. भाषा-ब्रज।
  3. छन्द-दोहा।

धनि रहीम जल पंक को, लघुजिय पिअत अघाय।
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पिआसो जाय॥ 10 ॥

कठिन शब्दार्थ :
धनि = धन्य; पंक = कीचड़; लघु जिय = छोटे-छोटे प्राणी; अघाय = तृप्त होते हैं; उदधि = समुद्र; जगत् = संसार।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि कहता है कि जो परोपकार के काम आता है, वास्तव में वही धन्य है।

व्याख्या :
रहीम कवि कहते हैं कि उस कीचड़ के पानी को धन्य है जिसको पीकर छोटे-छोटे प्राणी तृप्त हो जाते हैं। उस महान समुद्र की क्या बड़ाई है अर्थात् कोई बड़ाई (प्रशंसा) नहीं है क्योंकि उसके खारे पानी से सारा संसार प्यासा ही रह जाता है अर्थात् उसे कोई पीता ही नहीं है।

विशेष :

  1. परोपकारी व्यक्ति ही महान् है।
  2. उपमा अलंकार।
  3. भाषा-ब्रज।
  4. छन्द-दोहा।

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वृन्द के दोहे संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

उद्यम कबहुँ न छाँड़िये पर आसा के मोद।
गागरि कैसे फोरिये, उनयो देखि पयोद ॥ 1 ॥

कठिन शब्दार्थ :
उद्यम = परिश्रम; कबहुँ = कभी भी; आसा = आशा; मोद = प्रसन्नता में; उनयो = आकाश में चमकते हुए; पयोद = बादल।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत दोहा ‘वृन्द के दोहे’ शीर्षक से लिया गया है। इसके कवि वृन्द हैं।

प्रसंग :
इसमें कवि ने कहा है कि भविष्य में कुछ होगा इस आशा में अपने प्रयास नहीं रोक देने चाहिए।

व्याख्या :
कविवर वृन्द कहते हैं कि भविष्य में कुछ अच्छा होने की आशा की खुशी में मनुष्य को अपने परिश्रम (प्रयत्न) को शिथिल महीं कर देना चाहिए। उदाहरण देते हुए कवि कहते हैं कि घुमड़ते हुए बादलों को देखकर उनसे प्राप्त होने वाले पानी की खुशी में अपने घर में रखी हुई पानी की गागर को नहीं फोड़ देना चाहिए।

विशेष :

  1. भविष्य में अच्छे होने की आशा में हमें प्रयत्न करना नहीं छोड़ देना चाहिए।
  2. भाषा-ब्रज।
  3. छन्द-दोहा।

कुल सपूत जान्यो परै, लखि सुभ लच्छन गात।
होनहार बिरवान के, होत चीकने पात ॥ 2 ॥

कठिन शब्दार्थ :
सपूत = सुपुत्र; जान्यौ परै = जान पड़ता है; लखि = देखकर; सुभ = शुभ; लच्छन = गुण; गात = शरीर में; बिरवान = वृक्ष; पात = पत्ते।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि का कथन है कि सुपुत्र के लक्षण उसके शरीर से ही प्रकट होने लगते हैं।

व्याख्या :
कविवर वृन्द कहते हैं कि कुल में सपत्र की पहचान उसके शरीर में पाये जाने वाले लक्षणों से हो जाती है। जो पौधा कालान्तर में अच्छा वृक्ष बन जाएगा उसकी पहचान उसके चिकने पत्तों को देखकर हो जाती है।

विशेष :

  1. कवि ने ‘पूत के पाँव पालने में दिखाई दे जाते हैं’ इस कहावत को स्पष्ट किया है।
  2. दूसरी पंक्ति में होनहार बिरवान के होत चीकने पात’ वाली कहावत को स्पष्ट किया है।
  3. भाषा-ब्रज।
  4. छन्द-दोहा।

अपनी पहुँच बिचारि कै, करतब करिये दौर।
तेते पाँव पसारिये, जेती लांबी सौर ॥ 3 ॥

कठिन शब्दार्थ :
विचारि कै = सोचकर; अपनी पहुँच = अपनी सामर्थ्य या शक्ति; करतब = कर्त्तव्य; दौर = दौड़कर; तेते = उतने; पसारिये = फैलाइये; जेती = जितनी; सौर = रजाई, लिहाफ।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत दोहे में कवि ने यह उपदेश दिया है कि हमें अपनी शक्ति के अनुसार ही कार्य करना चाहिए।

व्याख्या :
कविवर वृन्द कहते हैं कि हमें अपनी शक्ति और सामर्थ्य के हिसाब से ही किसी कार्य को दौड़कर करना चाहिए। कहावत भी है कि हमें सोते समय उतने ही पैर फैलाने चाहिए जितनी कि रजाई लम्बी हो।

विशेष :

  1. कवि का सन्देश है कि शक्ति और सामर्थ्य से अधिक कार्य करने पर निराशा ही मिलती है।
  2. भाषा-ब्रज।
  3. छन्द-दोहा।
  4. मुहावरों का प्रयोग।
  5. उपमा अलंकार।

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उत्तम विद्या लीजिये, जदपि नीच पै होय।
पर्यो अपावन ठौर में, कंचन तजत न कोय ॥ 4 ॥

कठिन शब्दार्थ :
जदपि = यद्यपि; नीच पै होय = नीच या छोटे व्यक्ति पर होवे; पर्यो = पड़ा हुआ;अपावन = अपवित्र, गन्दी; ठौर = जगह; कंचन = सोना; तजत = छोड़ता है; कोय = कोई भी।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि ने उत्तम विद्या जहाँ से भी मिले उससे ले लेनी चाहिए, इसका संकेत किया है।

व्याख्या :
कविवर वृन्द कहते हैं कि हमें अपने जीवन में सदैव उत्तम विद्या को ग्रहण करना चाहिए चाहे वह उत्तम विद्या निम्न श्रेणी के व्यक्ति के ही पास क्यों न हो। जिस प्रकार अशुद्ध या गन्दगी में भी पड़े हुए सोने को कोई भी व्यक्ति त्यागता नहीं है अर्थात् उसे उठाकर अपने पास रख लेता है, उसी तरह गुण चाहे किसी भी नीच व्यक्ति के पास क्यों न हों, हमें उसे ग्रहण कर लेना चाहिए।

विशेष :

  1. उत्तम विद्या को ग्रहण करने का उपदेश है।
  2. मुहावरों का प्रयोग।
  3. उपमा अलंकार।
  4. ब्रजभाषा का प्रयोग।

मनभावन के मिलन के, सुख को नाहिन छोर।
बोल उठि, नचि नचि उठे, मोर सुनत घनघोर ॥ 5 ॥

कठिन शब्दार्थ :
मनभावन = मन को प्रिय लगने वाले; नाहिन = नहीं है; छोर = किनारा; नचि-नचि उठै = नाचने लग जाते हैं; घनघोर = बादलों की गर्जना।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि का कथन है कि प्रियतम के मिलन में जो सुख प्राप्त होता है, वह असीमित है।

व्याख्या :
कविवर वृन्द कहते हैं कि मन को प्रिय लगने वाले के मिलने से जो सुख प्राप्त होता है, उसका कोई ओर-छोर नहीं है। जिस प्रकार आकाश में मेघों की गर्जना सुनकर मोर कूकने लगते हैं और नाचने लग जाते हैं।

विशेष :

  1. प्रियतम के मिलन सुख को बहुत अच्छा बताया है।
  2. अनुप्रास अलंकार का प्रयोग।
  3. ब्रजभाषा का प्रयोग।

करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते, सिल पर परत निसान ॥ 6 ॥

कठिन शब्दार्थ :
करत-करत = करते-करते; अभ्यास = प्रयत्न; रसरी = रस्सी; जड़मति = मूर्ख बुद्धि वाला भी; सुजान = चतुर।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि ने जीवन में अभ्यास का महत्व बताया है।

व्याख्या :
कवि वृन्द कहते हैं कि हमें जीवन में सदैव अभ्यास करते रहना चाहिए। निरन्तर अभ्यास करने से जड़मति अर्थात् मूर्ख व्यक्ति भी चतुर हो जाते हैं। कवि उदाहरण देते हुए कहते हैं कि कुएँ पर रखी शिला (बड़े पत्थर) पर भी जब लोग पानी खींचते है तो उस पत्थर पर रस्सी की बार-बार रगड से बड़े-बड़े गड्ढे बन जाते हैं। कहने का भाव यह है कि जब पत्थर जैसा कठोर पदार्थ भी बार-बार के अभ्यास से अपना रूप बदल लेता है तो चेतन व्यक्ति तो निरन्तर के अभ्यास से अवश्य ही चतुर बन जाएगा।

विशेष :

  1. कवि ने मनुष्यों को अभ्यास करने की सीख दी है।
  2. अनुप्रास एवं पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार।
  3. ब्रजभाषा का प्रयोग है।
  4. कहावत का प्रयोग है।

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अति परिचै ते होत हैं, अरुचि अनादर भाय।
मलयागिरि की भीलनी, चंदन देत जराय ॥ 7 ॥

कठिन शब्दार्थ :
परिचै = परिचय; ते = से; भाय = भाव; मलयागिरि = मलयाचल पर्वत; जराय = जला देना।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि ने बताया है कि अत्यधिक परिचय से कभी-कभी मनुष्यों में एक-दूसरे के प्रति अनादर का भाव पैदा हो जाता है।

व्याख्या :
कविवर वृन्द कहते हैं कि अत्यधिक परिचय से अरुचि और अनादर का भाव जाग जाता है। जैसे कि मलयाचल की रहने वाली भीलनी चन्दन को साधारण लकड़ी के रूप में जला देती है।

विशेष :

  1. अत्यधिक परिचय से कभी-कभी मनुष्य दूसरों का अनादर करने लग जाते हैं।
  2. चन्दन के पेड़ मलयाचल पर्वत पर भी उगते हैं।
  3. अनुप्रास अलंकार।
  4. भाषा-ब्रज।

भले बुरे सब एक से, जौं लौं बोलत नाहिं।
जान परतु है काक पिक, रितु बसंत के माहि ॥ 8 ॥

कठिन शब्दार्थ :
भले = अच्छे; बुरे = दुष्ट; जौं लौं = जब तक; काक = कौआ; पिक = कोयल; माहिं = बीच में।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि का कथन है कि रंग और वर्ण से किसी भी अच्छे और बुरे विद्वान और मूर्ख की पहचान नहीं होती है।

व्याख्या :
कविवर वृन्द कहते हैं कि अच्छे और दुष्ट मनुष्यों में कोई अन्तर नहीं दिखाई देता है, जब तक कि वे बोलते या व्यवहार नहीं करते हैं। कौआ और कोयल वर्ण से एक से ही लगते हैं, दोनों में कोई अन्तर नहीं दिखाई देता है पर बसंत ऋतु के आते ही दोनों में अन्तर स्पष्ट ज्ञात हो जाता है। कहने का भाव यह है कि कौआ तो वही अपनी कर्कश ध्वनि काँव-काँव निकालेगा और कोयल अपना मधुर गीत छेड़ेगी।

विशेष :

  1. व्यवहार और बातचीत से ही अच्छे-बुरे और विद्वान-मूर्ख की पहचान होती है।
  2. अनुप्रास अलंकार।
  3. ब्रजभाषा का प्रयोग।

सबै सहायक सबल के, कोउन निबल सहाय।
पवन जगावत आग कौं, दीपहिं देत बुझाय ॥ 9 ॥

कठिन शब्दार्थ :
सबल = ताकतवर के निबल = दुर्बल; सहाय = सहायता करने वाला; पवन = हवा।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि का कथन है कि इस संसार में सभी ताकतवर का साथ देते हैं निर्बल का कोई साथ नहीं देता है।

व्याख्या :
कविवर वृन्द कहते हैं कि संसार में सभी लोग ताकतवर के सहायक होते हैं और निर्बल का सहायक कोई नहीं होता है। जैसे कि वायु आग को तो अपने वेग से और अधिक जगा देता है पर वही पवन दीपक को बुझा देता है।

विशेष :

  1. ताकतवर के सभी साथी बन जाते हैं परन्तु निर्बल का कोई नहीं होता।
  2. उपमा एवं अनुप्रासं-अलंकार।
  3. भाषा-ब्रज।

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अति हठमत कर हठबढ़े, बात न करिहैकोय।
ज्यों-ज्यों भीजे कामरी, त्यों-त्यौं भारी होय ॥ 10 ॥

कठिन शब्दार्थ :
हठ = जिद्द; हठ बढ़े = जिद्द करने से काम बिगड़ जाते हैं; कोय = कोई भी; कामरी = कम्बल।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि का उपदेश है कि मनुष्य को हठ नहीं करनी चाहिए।

व्याख्या :
कविवर वृन्द कहते हैं कि हे मनुष्यो! तुम जीवन में हठ करना छोड़ दो। हठ करना कोई अच्छी बात नहीं है बल्कि इससे तो बात बिगड़ती है, बनती नहीं। उदाहरण देते हुए कवि कहते हैं कि जैसे-जैसे कम्बल भीगता जाएगा वैसे ही वैसे वह भारी होता जायेगा।

विशेष :

  1. कवि ने हठ त्याग करने का उपदेश दिया है।
  2. उपमा अलंकार तथा ज्यों-ज्यौं, त्यों-त्यों में पुनरुक्ति प्रकाश।
  3. भाषा-ब्रज।

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MP Board Class 9th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 3 प्रेम और सौन्दर्य

MP Board Class 9th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 3 प्रेम और सौन्दर्य

प्रेम और सौन्दर्य अभ्यास

बोध प्रश्न

प्रेम और सौन्दर्य अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
‘सुजान अनीत करौ’ से कवि का क्या तात्पर्य
उत्तर:
कवि का तात्पर्य यह है कि हे प्रेमिका सुजान! ऐसा अनीति का कार्य मत करो कि मैं तुम्हारे दर्शन के लिए लालायित रहता हूँ और तुम मुझे जरा भी दर्शन नहीं देती हो।

प्रश्न 2.
प्रेम के मार्ग के विषय में कवि का क्या मत है?
उत्तर:
प्रेम के मार्ग के विषय में कवि का मत है कि यह मार्ग बहुत ही सहज और सरल है इसमें सयानापन नहीं चलता है।

प्रश्न 3.
प्रिय के बोलने में कवि को किस की वर्षा होती दिखाई देती है?
उत्तर:
प्रिय के बोलने में कवि को फूलों की वर्षा होती दिखाई देती है।

प्रश्न 4.
मोहनमयी कौन हो गई है?
उत्तर:
राधा मोहनमयी हो गई है।

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प्रेम और सौन्दर्य लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कवि ने सुजान का नाम लेकर क्यों उलाहना दिया है?
उत्तर:
कवि ने सुजान का नाम लेकर उलाहना इसलिए दिया है कि पहले तो वह घनानन्द से बहुत प्रेम करती थी पर बाद में वह उसकी उपेक्षा करने लगी थी। पर कवि के मन में उसके लिए पहले जैसा ही प्यार था।

प्रश्न 2.
कवि ने स्नेह के मार्ग को किस तरह का बताया है और क्यों?
उत्तर:
कवि ने स्नेह के मार्ग को सहज और सरल बताया है उसमें सयानेपन को कहीं भी स्थान नहीं है। जो सच्चे प्रेमी होते हैं वे अपनापन भूलकर उस मार्ग पर चलते हैं जबकि कपटी लोग इस पर चलने में झिझकते हैं।

प्रश्न 3.
“दोउन को रूप-गुन दोउ वरनत फिरै” की स्थिति में कौन-कौन हैं और क्यों?
उत्तर:
दोउन को रूप-गुन में श्रीकृष्ण एवं श्रीराधाजी हैं। वे दोनों एक-दूसरे के रूप की परस्पर सराहना करते हैं और दोनों एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं, अलग नहीं होते हैं।

प्रेम और सौन्दर्य दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
घनानन्द की विरह वेदना को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
घनानन्द प्रेम के कवि हैं। उन्होंने प्रेम के संयोग और वियोग के सुन्दर चित्र उतारे हैं। उनकी वियोग पीड़ा मानव के हृदय के अन्तरतम का स्पर्श करती है। सहृदय पाठक इसको पढ़कर विरह वेदना की भावुकता का अनुभव करने लग जाता है। नायिका अपने प्रियतम की प्रतीक्षा सांझ से लेकर भोर तक करती है, वह सब कुछ न्यौछावर करके भी अपने प्रिय के पास पहुँचना चाहती है। उनकी यह विरह वेदना अलौकिक इष्ट तक पहुँचने का साधन है।

प्रश्न 2.
घनानन्द के प्रिय के सौन्दर्य का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
घनानन्द ने अपने प्रिय के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कहा कि उसका मुख मंडल सुशोभित है, वह गौरवर्ण तथा विशाल नेत्र वाला है, उसके हँसने में फूलों की वर्षा होती है। उसके बालों की लटें गालों पर गिरकर बहुत शोभा पा रही हैं। इस प्रकार प्रिय के अंग-प्रत्यंग में कान्ति की तरंगें हिलोरें ले रही हैं।

प्रश्न 3.
श्रीकृष्ण की बाल छवि का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
कविवर देव ने श्रीकृष्ण की बाल छवि का वर्णन करते हुए कहा है कि उनके पैरों में सुन्दर नूपुर बज रहे हैं, कमर से करधनी की मधुर ध्वनि सुनाई दे रही है। उनके साँवले रंग पर पीला वस्त्र और गले में वनमाला शोभा दे रही है। उनके माथे पर मुकुट है, उनके नेत्र बड़े चंचल हैं तथा मुख पर हँसी चन्द्रमा की चाँदनी जैसी लग रही है।

प्रश्न 4.
राधा और श्रीकृष्ण के संयोग की स्थिति में उनके हाव-भावों का वर्णन अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
राधा और श्रीकृष्ण संयोग की स्थिति में परस्पर एक-दूसरे से वार्तालाप करते हैं, कभी-कभी हँसी का ठहाका लगाते हैं। दीर्घ श्वास लेकर हे देव! हे देव! पुकारते हैं। कभी वे पंजों के बल पर खड़े होकर आश्चर्य में डूब जाते हैं। उन दोनों का मन एक-दूसरे में रच-पच गया है। श्रीकृष्ण का मन राधामय हो गया है और श्रीराधा का मन कृष्णमय हो गया है। इस प्रकार दोनों एक-दूसरे में समा गये हैं।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित काव्यांश की प्रसंग सहित व्याख्या कीजिए-
(अ) झलकै अति ……….. जाती है है।
उत्तर:
कविवर घनानन्द कहते हैं कि नायिका का गौरवर्णी मुख अत्यधिक सुन्दरता से झलमला रहा है। प्रियतम के नेत्र प्रियतमा के कान तक फैले हुए विशाल नेत्रों की सुन्दरता को देखकर तृप्त हो गये हैं। कहने का भाव यह है कि वह नायिका विशाल नेत्रों वाली है। वह नायिका जब मुस्कराकर बोलती है और हँसकर बातें करती है तो ऐसा लगता है मानो फूलों की वर्षा उसके वक्षस्थल पर हो रही है। हिलते हुए केशों की लटें नायिका के कपोलों पर क्रीड़ा कर रही हैं। उनका सुन्दर कंठ दो कमल पंक्तियों में बदल जाता है। उस नायिका के अंग-प्रत्यंग में कान्ति की लहरें उत्पन्न हो रही हैं। उससे ऐसा लगता है कि मानो उसका रूप इसी क्षण पृथ्वी पर टपकने वाला हो रहा है।

(ब) साँझ ते ………… औसर गारति।
उत्तर:
कविवर घनानन्द कहते हैं कि बाबली प्रेमिका प्रात:काल से लेकर सन्ध्या काल तक वन-उपवन की ओर देखती रहती है। वह वन की ओर गये हुए अपने प्रियतम के लौट आने की प्रतीक्षा में है, वह इस कार्य में तनिक भी थकान का अनुभव नहीं करती है। वह सांयकाल से लेकर प्रात:काल तक अपनी आँखों के तारों से आकाश के तारागणों को टकटकी लगाकर देखती रहती है और जब कभी उसे अपना प्रिय दिखाई दे जाता है तो उसे अत्यधिक आनन्द का अनुभव होने लगता है और इसी समय प्रसन्नता के आँसू भी गिरना आरम्भ कर देते हैं। सामने खड़े हुए मोहन को देखने की उत्कट अभिलाषा नायिका के नेत्रों और मन में प्रत्येक क्षण समाई रहती है। नायक से भेंट न होने की दशा में उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता है।

(स) अति सूधो …………. छटाँक नहीं।
उत्तर:
कविवर घनानन्द कहते हैं कि प्रेम का मार्ग अत्यधिक सहज और सरल होता है उसमें सयानेपन की जरा भी गुंजाइश नहीं होती है। इस प्रेम मार्ग में सच्चे लोग अपनापन छोड़कर अर्थात् सर्वस्व त्याग की भावना से चलते हैं.और जो कपटी तथा चालबाज होते हैं वे इस पर चलने में झिझकते हैं। कवि कहता है कि हे प्यारे सुजान! तुम अच्छी तरह सुन लो, हमारे मन में तुम्हारे अतिरिक्त और किसी का नाम भी नहीं है। हे लाल! तुम ये कौन-सी पट्टी पढ़कर आये हो कि हमारा तो पूरा मन अपने वश में कर लेते हो और हमें अपने रूप का जरा भी दर्शन नहीं कराते हो।

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प्रेम और सौन्दर्य काव्य-सौन्दर्य

प्रश्न 1.
घनानन्द के छन्दों की भाषागत विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
कविवर घनानन्द ने अपनी कविता में कवित्त, दोहा और सवैया आदि छन्दों का प्रयोग किया है। उनके छन्दों में ब्रज-भाषा का शुद्ध साहित्यिक रूप प्रयुक्त हुआ है। ब्रजभाषा में भी आपने कहावतों और मुहावरों के प्रयोग द्वारा भाषा में चार चाँद लगा दिए हैं। उनके छन्दों की भाषा भावानुकूल एवं मधुर व्यंजना वाली है। भाषा में सरसता, मधुरता एवं प्रभावोत्पादकता पाई जाती है।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित काव्यांश में अलंकार पहचान कर लिखिए

  1. अंग-अंग ………… धर च्वै।
  2. सांझ ते …………. न टारति।
  3. मोहन-सोहन …………… उर आरति।
  4. तुम कौन धौं …………. छटाँक नहीं।

उत्तर:

  1. उत्प्रेक्षा अलंकार
  2. अनुप्रास अलंकार
  3. अनुप्रास एवं पदमैत्री
  4. श्लेष अलंकार।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित मुहावरों का वाक्य प्रयोग कीजिए
उत्तर:

  1. अनीति करना-घनानन्द की प्रेमिका सुजान ने घनानन्द के साथ अनीति की थी।
  2. हा-हा खाना-घनानन्द अपनी प्रेमिका से मिलने के लिए हा-हा खाता रहता था।
  3. दुहाई देना-घनानन्द अपनी प्रेमिका के सामने अपने अनन्य प्रेम की दुहाई दिया करता था।
  4. टेक लेना-जब किसी का कार्य बिगड़ने लगता है तो वह व्यक्ति दूसरों की टेक लिया करता है।
  5. प्यासा मारना-घनानन्द कवि अपनी प्रेमिका से कहते हैं कि तुम तो मेरे जीवन की मूल हो फिर तुम मुझे प्यासा क्यों मार रही हो।
  6. बाँकन होना (नाम भर को भी क्षुद्रता न होना)-सच्चे प्रेम में तनिक भी सयानापन अथवा बाँक नहीं होना चाहिए।
  7. मन लेना-प्रेमिका सुजान ने घनानन्द का मन तो ले लिया था पर उसे अपने रूप की छटा का एक अंश भी नहीं दिखाना चाहती है।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित ब्रजभाषा शब्दों के हिन्दी मानक रूप लिखिए
पाँयनि, हिये, छके, सूधौ, धौ।
उत्तर:
MP Board Class 9th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 3 प्रेम और सौन्दर्य img 1

प्रश्न 5.
घनानन्द और देव के छन्दों में कौन-सा रस है? समझाकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
घनानन्द कवि ने वियोग श्रृंगार का अधिक वर्णन किया है जबकि देव कवि ने वात्सल्य रस का।

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घनानन्द माधुरी संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

(1) भोर ते साँझ लौ कानन-ओर निहारति बावरी नेकु न हारति।
साँझ ते भोर लो तारनि ताकिबो-तारनि सों इकतार न टारति।
जौ कहूँ भावतो दीठि परै घनआनंद आँसुनि औसर गारति।
मोहन-सोहन जोहन की लगियै रहै आँखिन के उर आरति॥

कठिन शब्दार्थ :
भोर = प्रात:काल; ते = से; लौं = तक; कानन = उपवन; निहारति = देखती है; बावरी = बाबली, पागल; नेकु = जरा भी; तकिबो = देखती है; इकतार = निरन्तरता; भावतो = अच्छा लगने वाला, प्रिय; दीठि = दृष्टि; औसर = अवसर; गारति = गलाती है; सोहन = सामने; जोहन = देखने की; आरति = लालसा, इच्छा।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश ‘प्रेम और सौन्दर्य’ के ‘घनानन्द माधुरी’ शीर्षक से लिया गया है। इसके रचियता कवि घनानन्द हैं।

प्रसंग :
प्रेमिका के हृदय में प्रियतम से मिलने की उत्कट अभिलाषा है। इसी कारण वह रात-दिन उनके आने की राह देखती रहती है।

व्याख्या :
कविवर घनानन्द कहते हैं कि बाबली प्रेमिका प्रात:काल से लेकर सन्ध्या काल तक वन-उपवन की ओर देखती रहती है। वह वन की ओर गये हुए अपने प्रियतम के लौट आने की प्रतीक्षा में है, वह इस कार्य में तनिक भी थकान का अनुभव नहीं करती है। वह सांयकाल से लेकर प्रात:काल तक अपनी आँखों के तारों से आकाश के तारागणों को टकटकी लगाकर देखती रहती है और जब कभी उसे अपना प्रिय दिखाई दे जाता है तो उसे अत्यधिक आनन्द का अनुभव होने लगता है और इसी समय प्रसन्नता के आँसू भी गिरना आरम्भ कर देते हैं। सामने खड़े हुए मोहन को देखने की उत्कट अभिलाषा नायिका के नेत्रों और मन में प्रत्येक क्षण समाई रहती है। नायक से भेंट न होने की दशा में उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता है।

विशेष :

  1. शृंगार रस का चित्रण।
  2. अनुप्रास एवं यमक अलंकारों का प्रयोग।
  3. भाषा-ब्रजभाषा।

(2) मीत सुजान अनीति करौं जिन-हा न हूजियै मोहि अमोही।
दीठि की और कहूँ नहिं ठौर, फिरी दृग रावरे रूप की दोही।
एक बिसास की टेक गहें लगि आस रहै बसि प्रान-बटोही।
हौ घनआनंद जीवनमूल दई, कति प्यासनि मारत मोही॥

कठिन शब्दार्थ :
मीत = मित्र; सुजान = घनानन्द कवि की प्रेमिका; जिनहा = मुझे त्यागने वाले अर्थात् मुझसे विमुख होने वाले न हूजियै = मत होओ; मोहि = मुझे अमोही = प्रेम न करने वाले; दीठि = दृष्टि; ठौर = स्थान; फिरी दृग = नेत्र फेर लिए; रावरे = आपके; दोही = द्रोह करने वाली; बिसास = विश्वास; टेक = सहारा; गहें = लेकर; लगि आस रहै = आशा लगी रहे; प्रान-बटोही = प्राण रूपी रास्तागीर; बसि = रहते हुए; दई = देव; जीवनमूल = जीवन का आधार; कति = क्यों; मोही = हे मोह (प्रेम) करने वाले।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
घनानन्द कविवर ने इस पद में श्रीकृष्ण के अलौकिक प्रेम का वर्णन किया है। उन्हें विश्वास है कि प्रियतम श्रीकृष्ण एक दिन उन्हें अवश्य ही दर्शन देंगे।

व्याख्या :
कविवर घनानन्द कहते हैं कि हे प्रिय सुजान! मेरे साथ जो तुम अनीति का व्यवहार कर रही हो, वह उचित नहीं है। तुम मुझसे पीछा छुड़ाने वाले मत बनो। मेरे साथ इस निष्ठुरता का व्यवहार कर तुम अनीति क्यों कर रहे हो? मेरे प्राणरूपी रास्तागीर को केवल तुम्हारे विश्वास का सहारा है और उसी की आशा में अब तक जिन्दा है। तुम तो आनन्द रूपी घन हो जो जीवन का प्रदाता है। अतः हे देव! मोही होकर भी तुम मुझे अपने दर्शनों के लिए इस तरह क्यों तड़पा रहे हो? अर्थात् मुझे शीघ्र ही अपने दर्शन दे दो।

विशेष :

  1. वियोग श्रृंगार का वर्णन है।
  2. श्लेष एवं रूपक अलंकारों का प्रयोग।
  3. ब्रजभाषा का प्रयोग।

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(3) अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।
तहाँ साँचे चलें तजि आपनपौ झझक कपटी जे निसाँक नहीं।
घनआनंद प्यारे सुजान सुनौ यहाँ एक तें दूसरों आँक नहीं।
तुम कौन धौ पाटी पढ़े हो लला मन लेहुँ पै देहु छटाँक नहीं।

कठिन शब्दार्थ :
सनेह = प्रेम का; नेकु = जरा भी; सयानप = सयानापन, चालाकी; बाँक नहीं = उसमें बाँकापन अर्थात् क्षुद्रता नाम भर को भी नहीं है; आपनपौ = अपनापन; झझक = झिझकते हैं; निसाँक नहीं = जो शुद्ध पवित्र नहीं है; आँक = अक्षर, प्रेम का; कौन धौ = कौन सी; पाटी = पट्टी; मनलेहु = (1) मन भर लेते हो, (2) हमारा मन तो ले लेते हो; छटाँक = (1) तोल में छटाँक भर, (2) अपने रूप की झाँकी।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद में कवि ने बताया है कि प्रेम का मार्ग तो बड़ा ही सच्चा होता है उसमें छल-प्रपंच कुछ नहीं होता है।

व्याख्या :
कविवर घनानन्द कहते हैं कि प्रेम का मार्ग अत्यधिक सहज और सरल होता है उसमें सयानेपन की जरा भी गुंजाइश नहीं होती है। इस प्रेम मार्ग में सच्चे लोग अपनापन छोड़कर अर्थात् सर्वस्व त्याग की भावना से चलते हैं.और जो कपटी तथा चालबाज होते हैं वे इस पर चलने में झिझकते हैं। कवि कहता है कि हे प्यारे सुजान! तुम अच्छी तरह सुन लो, हमारे मन में तुम्हारे अतिरिक्त और किसी का नाम भी नहीं है। हे लाल! तुम ये कौन-सी पट्टी पढ़कर आये हो कि हमारा तो पूरा मन अपने वश में कर लेते हो और हमें अपने रूप का जरा भी दर्शन नहीं कराते हो।

विशेष :

  1. प्रेम की निश्छलता का वर्णन है।
  2. अन्तिम पंक्तियों में श्लेष अलंकार।
  3. भाषा-ब्रजभाषा।

(4) झलकै अति सुन्दर आनन गौर, छके दृग राजत काननि छ्वै।
हँसि बोलनि मैं छबि-फूलन की बरषा, उर ऊपर जाति है है।
लट लोल कपोल कलोल करै, कल कंठ बनी जलजावलि द्वै।
अंग-अंग तरंग उठै दुति की, परिहै मनौ रूप अबै धर च्वै॥

कठिन शब्दार्थ :
आनन = मुख; गौर = गौर वर्ण का; छके = तृप्त हो गए; दृग = नेत्र; राजत = अच्छे लगते हैं; काननि छ्वै = कानों को छूने वाले अर्थात् कान तक फैले हुए बड़े नेत्र; छवि = शोभा; है है = हो जाती है; लट = केश; लोल = चंचल; कपोल = गालों पर; कलोल = क्रीड़ा; कलकंठ = सुन्दर गला; जलजावलि = कमल की पंक्ति; द्वै = दो; दुति की = कान्ति की; परहै = गिर पड़ेगा; अबै = इसी समय; धर च्वै = चू पड़ेगा, बह निकलेगा।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद में कविवर घनानन्द ने नायिका सुजान के सौन्दर्य का वर्णन किया है।

व्याख्या :
कविवर घनानन्द कहते हैं कि नायिका का गौरवर्णी मुख अत्यधिक सुन्दरता से झलमला रहा है। प्रियतम के नेत्र प्रियतमा के कान तक फैले हुए विशाल नेत्रों की सुन्दरता को देखकर तृप्त हो गये हैं। कहने का भाव यह है कि वह नायिका विशाल नेत्रों वाली है। वह नायिका जब मुस्कराकर बोलती है और हँसकर बातें करती है तो ऐसा लगता है मानो फूलों की वर्षा उसके वक्षस्थल पर हो रही है। हिलते हुए केशों की लटें नायिका के कपोलों पर क्रीड़ा कर रही हैं। उनका सुन्दर कंठ दो कमल पंक्तियों में बदल जाता है। उस नायिका के अंग-प्रत्यंग में कान्ति की लहरें उत्पन्न हो रही हैं। उससे ऐसा लगता है कि मानो उसका रूप इसी क्षण पृथ्वी पर टपकने वाला हो रहा है।

विशेष :

  1. शृंगार रस का प्रयोग
  2. रूपक, श्लेष, उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग
  3. भाषा-ब्रजभाषा।

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देवसुधा संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

(1) पाँयनि नूपुर मंजु बजै, कटि किंकिन मैं धुनि की मधुराई।
साँवरे अंग लगै पट-पीत हिये हुलसै बनमाल सुहाई॥
माथे किरीट, बड़े दृग चंचल, मन्द हंसी मुख-चन्द-जुन्हाई।
जै जग-मन्दिर-दीपक सुन्दर श्रीब्रजदूलह ‘देव’-सहाई॥

कठिन शब्दार्थ :
पाँयनि = पैरों में; नूपुर = धुंघरू; मंजु = सुन्दर; कटि = कमर; किंकिन = करघनी; मधुराई = मधुरता; साँवरै = श्यामल; पट-पीत = पीले वस्त्र; हिये = हृदय, वक्षस्थल; हुलसै = प्रसन्नता दे रही है; सुहाई = शोभा दे रही है; किरीट = मुकुट; दृग = नेत्र; चन्द जुन्हाई = चन्द्रमा की चाँदनी; जग मन्दिर = संसार रूपी मन्दिर में; ब्रज दूलह = ब्रजवल्लभ श्रीकृष्ण; सहाई = सहायता करते हैं।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश प्रेम और सौन्दर्य के ‘देवसुधा’ शीर्षक से लिया गया है। इसके रचियता महाकवि देव हैं।

प्रसंग :
इसमें बालक कृष्ण की मनोहारी छवि का वर्णन किया गया है।

व्याख्या :
देव कवि कहते हैं कि बालक श्रीकृष्ण जिस समय नन्द बाबा के आँगन में विचरण करते हैं तब उनके पैरों के धुंघरू सुन्दर आवाज करते हैं, उनकी कमर में करधनी बँधी हुई है वह भी मधुर ध्वनि कर रही है। श्रीकृष्ण के साँवले शरीर पर पीला वस्त्र तथा वक्षस्थल पर वनमाला सुशोभित हो रही है। उनके माथे पर मुकुट है, उनके नेत्र बड़े एवं चंचल हैं, साथ ही उनके मुख पर मन्द हँसी चन्द्रमा की चाँदनी जैसी लग रही है। इस विश्व रूपी मन्दिर में सुन्दर दीपक के रूप में ब्रजवल्लभ श्रीकृष्ण की जय-जयकार हो रही है। ऐसे देव हमारी सहायता करें।

विशेष :

  1. कृष्ण के बालरूप का सुन्दर चित्रण है।
  2. तीसरी पंक्ति में उपमा और चौथी पंक्ति में रूपक अलंकार।
  3. ब्रजभाषा का प्रयोग है।

(2) रीझि-रीझि रहिसि-रहिसि हँस-हँसि उठे,
साँसै भरि आँसै भरि कहत ‘दई-दई’।
चौकि-चौंकि चकि-चकि, उचकि-उचकि ‘देव’
जकि-जकि, बकि-बकि परत बई-बई॥
दोउन को रूप-गुन दोउ बरनत फिरें,
घर न थिरात, रीति नेह की नई-नई।
मोहि-मोहि मोहन को मन भयो राधा-मय,
राधा मन मोहि-मोहि मोहनमयी भई॥

कठिन शब्दार्थ :
रीझि-रीझि = रीझकर; रहिसि-रहिसि = आनंदित होकर; दई-दई = हे देव, हे भगवान; चकि-चकि = आश्चर्य चकित होकर; जकि-जकि बकि-बकि = प्रेम में पागल होकर जक्री और बक्री करना, उलटा सीधा बोलना; दोउन को = श्रीकृष्ण और राधा को; थिरात = स्थिर रहना; रीति = ढंग; नेह = प्रेम; नई-नई = नया-नया; राधामय = राधा के संग एक सार हो गया; मोहनमयी = कृष्ण के संग एकाकार हो गयीं राधाजी।।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद में कवि ने राधाकृष्ण की युगल जोड़ी का वर्णन करते हुए कहा है कि वे दोनों एक-दूसरे में समाये हुए थे।

व्याख्या :
देव कवि कहते हैं कि राधाजी और कृष्ण में अनन्य प्रेम है। इसी प्रेम के वशीभूत होकर वे दोनों एक-दूसरे पर रीझते हैं और आनन्दित होकर हँस-हँस पड़ते हैं। आशा से परिपूर्ण उनकी साँसें हे ईश्वर! हे ईश्वर! पुकारती फिरती हैं। देव कवि कहते हैं कि वे दोनों एक-दूसरे को देखकर कभी तो चौंक पड़ते हैं, कभी आश्चर्यचकित हो उठते हैं और कभी पंजों के बल खड़े होकर एक-दूसरे की सुन्दरता को देखने लग जाते हैं। परस्पर प्रेम की प्रगाढ़ता के कारण वे कभी जक्री-बक्री करने लग जाते हैं अर्थात् उलटा-सीधा बोलने लग जाते हैं। इस प्रकार वे दोनों एक-दूसरे के रूप गुणों का वर्णन करते हुए फिर रहे हैं। वे एक स्थान पर स्थिर नहीं रहते हैं। उनमें प्रेम की रीति नित्य नये-नये रूपों में उत्पन्न होती रहती है। मोहित हुए मोहन अर्थात् श्रीकृष्ण का मन राधामय हो गया है अर्थात् कृष्ण राधा में निमग्न हो गये हैं और राधा का मन मोहित होकर कृष्णमय हो गया है।

विशेष :

  1. राधाकृष्ण के अनन्य प्रेम की झाँकी कवि ने कराई है।
  2. इस प्रकार का वर्णन युगल छवि वर्णन कहलाता है।
  3. पुनरुक्ति और अनुप्रास अलंकारों का प्रयोग है।
  4. हृदयगत संचारी भावों का सुन्दर वर्णन हुआ है।

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(3) डार-द्रुम पलना, बिछौना नवपल्लव के,
सुमन झंगूला सोहै तन छवि भारी दै।
पवन झुलावै, केकी कीर बहरावै, ‘देव’;
कोकिल हलावै, हुलसावै करतारी दै॥
पूरित पराग सौं उतारौ करै राई-लोन,
कंजकली-नायिका लतानि सिर सारी दै।
मदन महीपजू को बालक बसंत, ताहि,
प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी दै॥

कठिन शब्दार्थ :
डार-दूम = वृक्षों की डालियों पर; नवपल्लव = नये-नये पत्ते; सुमन = फूल; झंगूला = छोटे बालकों को पहनाये जाने वाले ढीले-ढाले वस्त्र; सोहै = शोभा दे रहे हैं; छवि = सुन्दरता; केकी = मोर; कीर = तोता; बहरावै = लोरी गा-गाकर सुना रहे हैं; हुलसावै = खुशी प्रदान कर रही है; करतारी = हाथ की ताली बजाकर; उतारौ करै राई-लोन = किसी की नजर लग जाने पर उसके प्रभाव को कम करने या खत्म करने के लिए राई-नमक आग पर डालकर उतारा किया जाता है; कंजकली = कमल की कली जैसी; लतानि = बेलों से; सारी = साड़ी; मदन महीपजू = कामदेव रूपी राजा का; चटकारी दै = चाँटा मारकर, या छेड़छाड़ करके।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद में कवि ने बसन्त आगमन के समय होने वाली प्राकृतिक शोभा का वर्णन किया है।

व्याख्या :
कविवर देव कहते हैं कि पेड़ों की डालियाँ उस बसन्त रूपी बालक की पालना बन चुकी है; उस पालने में नवीन कोमल पत्तों का बिछौना बिछा हुआ है। फूलों का झंगला उस बसन्त रूपी बालक के शरीर पर अत्यधिक रूप से सुशोभित हो रहा है। बहता हुआ पवन उसे झुलाने का कार्य कर रहा है। मयूर एवं तोते लोरी गा-गाकर उसे सुना रहे हैं। कोयल पालने को झुलाते हुए अपनी कूक से हाथों की ताली बजाकर प्रसन्नता का अनुभव कर रही है। परागयुक्त पुष्पों की पंखुड़ियों रूपी राई और नमक से बालक रूपी बसन्त की नजर उतारी जा रही है। कमल की कलियाँ रूपी नायिका लता रूपी साड़ियों को अपने सिर पर धारण किये हुए हैं। इस प्रकार कामदेव राजा के बालक रूपी बसन्त को प्रात:काल पुष्पित गुलाब चटकारी देकर जगाने का प्रयत्न कर रहा है।

विशेष :

  1. बसन्त ऋतु का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया गया है।
  2. मुहावरों का सुन्दर प्रयोग है।
  3. रूपक एवं अनुप्रास की छटा।
  4. ब्रजभाषा का प्रयोग।

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MP Board Class 9th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 2 वात्सल्य भाव

MP Board Class 9th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 2 वात्सल्य भाव

वात्सल्य भाव अभ्यास

बोध प्रश्न

वात्सल्य भाव अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कवि ने कौए के भाग्य की सराहना क्यों की है?
उत्तर:
कवि ने कौए के भाग्य की सराहना इसलिए की है कि कौए को भगवान का साक्षात् स्पर्श प्राप्त हो गया जबकि बड़े-बड़े भक्तों को यह प्राप्त नहीं होता है।

प्रश्न 2.
डिठौना किसे कहते हैं?
उत्तर:
माताएँ अपने छोटे शिशु को दूसरों की नजर न लग जाए इसलिए उनके माथे पर काजल का एक ऐसा घेरा-सा बना देती हैं। इसे ही डिठौना कहा जाता है।

प्रश्न 3.
बचपन की याद किसे आ रही है?
उत्तर:
बचपन की याद कवयित्री श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान को आ रही है।

प्रश्न 4.
बच्ची माँ को क्या खिलाने आई थी?
उत्तर:
बच्ची माँ को मिट्टी खिलाने आई थी।

प्रश्न 5.
ऊँच-नीच का भेद किसे नहीं है? और क्यों?
उत्तर:
छोटे बच्चों को ऊँच-नीच के भेद का ज्ञान नहीं होता है क्योंकि उनकी बुद्धि निर्मल एवं पवित्र होती है।

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वात्सल्य भाव लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कवि रसखान बालकृष्ण की छवि पर क्या न्यौछावर कर देना चाहते हैं?
उत्तर:
कवि रसखान धूल से सने हुए बालक कृष्ण की उस छवि को देखते हैं जिन्होंने सुन्दर चोटी गुँथा रखी है, पीले रंग की कछौटी पहन रखी है और पैरों में पायल बज रही है तो वे करोड़ों कामदेवों के सौन्दर्य को उन पर निछावर कर देना चाहते हैं।

प्रश्न 2.
कवयित्री ने बचपन के आनन्द को पुनः कैसे पाया?
उत्तर:
कवयित्री ने बचपन के आनन्द को अपनी बेटी के रूप में प्राप्त किया। वह अपनी बेटी के साथ पुनः खेलने लग जाती है, उसी के साथ खाती है और उसी के समान तुतली बोली बोलती है।

प्रश्न 3.
उन पंक्तियों को लिखिए जिनका आशय है-
(क) सुखी जसौदा का पुत्र करोड़ों वर्ष जीवित रहे।
(ख) बचपन के आनन्द को कैसे भूला जा सकता है?
उत्तर:
(क) बाको जियौ जुग लाख करोर।
(ख) कैसे भूला जा सकता है, बचपन का अतुलित आनन्द।

वात्सल्य भाव दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
यशोदा माँ बालक कृष्ण को किस प्रकार सजाती-सँभालती हैं?
उत्तर:
यशोदा माँ बालक कृष्ण को स्नान कराती हैं, तेल की मालिश करती हैं, आँखों में काजल लगाती हैं, उनकी भौहें बनाती हैं तथा माथे पर काजल का डिठौना लगा देती हैं।

प्रश्न 2.
धूल में लिपटे बालकृष्ण की शोभा का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
धूल में लिपटे बालकृष्ण बड़े ही सुन्दर लग रहे हैं, वैसी ही सुन्दर उनकी चुटिया बनी हुई है, वे नन्द बाबा के आँगन में खेलते हैं और खाते हैं, उनके पैरों में पैंजनी बज रही है तथा उन्होंने पीली कछौटी पहन रखी है।

प्रश्न 3.
मेरा नया बचपन’ कविता का मुख्य भाव अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने ‘मेरा नया बचपन’ नामक कविता में वात्सल्य भाव को बड़ी सहजता से प्रस्तुत किया है। उन्हें अपनी बिटिया की वात्सल्य चेष्टाओं को देखकर अपना बचपन याद आ जाता है और उसे ही उन्होंने इस कविता में प्रस्तुत किया है।

प्रश्न 4.
रसखान और सुभद्रा कुमारी चौहान के वात्सल्य’ में क्या अन्तर है?
उत्तर:
रसखान ने धूल में लिपटे बालकृष्ण के सौन्दर्य का वर्णन किया है जबकि सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपनी बिटिया की बाल चेष्टाओं को देखकर ही ‘वात्सल्य भाव का चित्रण किया है।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित काव्यांश की प्रसंग सहित व्याख्या कीजिए-
(अ) वह भोली सी ………… मन का सन्ताप।
उत्तर:
कवयित्री कहती हैं कि बचपन में मैं भोली-भाली मधुरता का अनुभव करती थी। उस समय मेरा जीवन पूरी तरह पाप रहित था। हे मेरे बचपन! क्या तू पुनः मेरे जीवन में आ सकेगा और आकर के वर्तमान जीवन में जो दुःख हैं उनको मिटा सकेगा? कवयित्री कहती हैं कि जिस समय मैं अपने बीते हुए बचपन को याद कर रही थी उसी समय मेरी बेटी बोल उठी। बेटी की बोली सुनकर मेरी छोटी-सी कुटिया देवताओं के वन जैसी प्रसन्न हो उठी।

(आ) मैं भी उसके साथ …………… बन जाती हूँ।
उत्तर:
कवयित्री कहती हैं कि मेरी बेटी के रूप में मैंने अपना खोया हुआ बचपन फिर से पा लिया है। उसकी सुन्दर मूर्ति देखकर मुझमें नया जीवन आ गया है। आज मैं अपनी बेटी के साथ खेलती हूँ, खाती हूँ और उसी के समान तुतली बोली बोलती हूँ, मैं उसके साथ मिलकर स्वयं बच्ची बन जाती हूँ।

(इ) आज गई हुती भोर …………… कह्यौ नहि।
उत्तर:
एक गोपी दूसरी गोपी से कहती है कि मैं आज। प्रात:काल होते ही नन्द बाबा के भवन को चली गई और मैं वही बनी रही। यशोदा माता का वह लाल लाखों-करोड़ों वर्ष तक जीवित रहे। कृष्ण के साथ यशोदा माता को जो सुख एवं आनन्द प्राप्त हो रहा है वह किसी से कहते नहीं बनता है। यशोदा माता अपने पुत्र श्रीकृष्ण को पहले तो तेल लगाती हैं फिर उनके नेत्रों में काजल लगाती हैं, उनकी भौहों को बनाती हैं और फिर माथे पर दूसरों की नजर से बचाने के लिए डिठौना (काला टीका) लगाती हैं। सोने के हार को पहने हुए श्रीकृष्ण की शोभा को मैं देखती हूँ और माता द्वारा पुत्र श्रीकृष्ण को पुचकारते हुए देखती हूँ, तो उस दृश्य पर मैं न्यौछावर हो जाती हूँ।

प्रश्न 6.
कवयित्री ने बचपन के आनन्द को अतुलित आनन्द क्यों कहा है?
उत्तर:
कवयित्री ने बचपन के आनन्द को अतुलित इसलिए कहा है क्योंकि बचपन में जो आनन्द प्राप्त होता है उसकी किसी से भी तुलना नहीं की जा सकती। बचपन निष्पाप होता है उसमें न तो ऊँच-नीच का भाव होता है और न छोटे-बड़े का। बचपन में बालक निडर एवं मनमौजी हुआ करते हैं। बच्चों की किलकारी परिवार के सभी लोगों को आनन्द का अनुभव कराती रहती है।

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वात्सल्य भाव काव्य-सौन्दर्य

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के हिन्दी मानक रूप लिखिए-
हौं, जियो, जुग, आजु, काओ।
उत्तर:

शब्दहिन्दी मानक रूप
हौंमैं
जियौजीवौ, जीवित रहो जुग
जुगयुग
आजुआज
काओखाओ

प्रश्न 2.
निम्नलिखित शब्दों के विलोम शब्द लिखिएजीवन, ऊँच, पाप।
उत्तर:

शब्दविलोम
जीवनमृत्यु
ऊँचनीच
पापपुण्य

प्रश्न 3.
निम्नलिखित पंक्तियों में अलंकार पहचान कर लिखिए
(क) नन्दन वन-सी …………. कुटिया मेरी।
(ख) बार-बार आती ………….. तेरी।
(ग) मैं बचपन को …………. मेरी।
(घ) धूरि भरे ………….. सुन्दर चोटी।
उत्तर:
(क) उपमा अलंकार
(ख) पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार
(ग) मानवीकरण
(घ) अनुप्रास,अलंकार।।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित काव्य पंक्तियों का भाव सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए-
(क) काग के भाग …………. रोटी।
उत्तर:
भाव सौन्दर्य-इस पंक्ति में कविवर रसखान कौए के भाग्य को मनुष्य के भाग्य से भी ऊँचा मानते हैं क्योंकि भगवान का स्पर्श जो उसने प्राप्त कर लिया है। बड़े-बड़े भक्त भी भगवान का दर्शन तक नहीं पा पाते हैं, स्पर्श तो बहुत दूर की बात है।

(ख) डारि हमेलनि ………….. छौनहि।
उत्तर:
भाव सौन्दर्य-इस पंक्ति में कविवर रसखान बालक कृष्ण की सुन्दर छवि को देखकर आई हुई सखियों के वार्तालाप को प्रस्तुत कर रहे हैं कि एक सखी ने जब यशोदा माता को बालकृष्ण को सजाते हुए तथा उसको पुचकारते हुए देखा तो उस दृश्य पर आनन्दित होकर वह कह उठती है कि हम ऐसे दृश्य को देखकर उस पर स्वर्ण जड़ित हारों को न्यौछावर करती हैं।

(ग) पाया बचपन ………….. बन आया।
उत्तर:
भाव सौन्दर्य-इस पंक्ति में कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान अपने बचपन को अपनी बिटिया के बचपन में देखकर आनन्दित हो उठी हैं और मन ही मन वह सोचने लगती हैं कि मैंने अपनी बिटिया के रूप में ही अपने खोये हुए बचपन को पा लिया है और मेरा वह बचपन बिटिया बनकर आ गया है।

(घ) बड़े-बड़े मोती …………. पहनाते थे।
उत्तर:
भाव सौन्दर्य-कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान इस पंक्ति में बचपन की उन मधुर स्मृतियों का वर्णन कर रही हैं जब बालक रूप में किसी बात पर नाराज होकर वह रोने लग जाया करती थीं और उस समय आँखों से निकले बड़े-बड़े आँसू मोती जैसे लगते थे और उनकी निरन्तरता से वे आँसू एक जयमाला जैसे बन जाते थे।

प्रश्न 5.
कविता में उपमा अलंकार की बहुलता है। पढ़िए और उपमा अलंकार रेखांकित कीजिए।
उत्तर:

  1. बड़े-बड़े मोती से आँसू
  2. वह भोली-सी मधुर सरलता
  3. नन्दन वन सी।

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रसखान के सवैये संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

(1) आजु गई हुती भोर ही हौं, रसखानि रई वहि नंदके भौनहिं।
वाको जियौ जुग लाख करोर, जसोमति को सुख जात कयौ नहिं।
तेल लगाई लगाइ कै अंजन, भौहैं बनाइ बनाइ डिठौनहिं।
डारि हमेलनि हार निहारत वारत ज्यौं पुचकारत छौनहिं॥

कठिन शब्दार्थ :
आजु = आज; गई हुती = गयी हुई थी; हौं = मैं; रई = रही; वहि = उसी; नंद के भौनहिं = नन्द के भवन में; जुग = युग; करोर = करोड़ों; कह्यौ नहिं = कहा नहीं जाता; अंजन = काजल; डिठौनहिं = नजर का टीका; हमेलनि = सोने के; निहारत = देखती हूँ; वारत = न्यौछावर होती हूँ; छौनहिं = पुत्र।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद ‘वात्सल्य भाव’ के शीर्षक ‘रसखान के सवैये’ से लिया गया है। इसके रचयिता रसखान हैं।

प्रसंग :
कोई गोपी नन्द बाबा के घर जाकर कृष्ण को देखती है। वहाँ यशोदा माता कृष्ण का श्रृंगार कर रही हैं। इस दृश्य को देखकर वह गोपिका अपने आपको न्यौछावर कर देती है।

व्याख्या :
एक गोपी दूसरी गोपी से कहती है कि मैं आज। प्रात:काल होते ही नन्द बाबा के भवन को चली गई और मैं वही बनी रही। यशोदा माता का वह लाल लाखों-करोड़ों वर्ष तक जीवित रहे। कृष्ण के साथ यशोदा माता को जो सुख एवं आनन्द प्राप्त हो रहा है वह किसी से कहते नहीं बनता है। यशोदा माता अपने पुत्र श्रीकृष्ण को पहले तो तेल लगाती हैं फिर उनके नेत्रों में काजल लगाती हैं, उनकी भौहों को बनाती हैं और फिर माथे पर दूसरों की नजर से बचाने के लिए डिठौना (काला टीका) लगाती हैं। सोने के हार को पहने हुए श्रीकृष्ण की शोभा को मैं देखती हूँ और माता द्वारा पुत्र श्रीकृष्ण को पुचकारते हुए देखती हूँ, तो उस दृश्य पर मैं न्यौछावर हो जाती हूँ।

विशेष:

  1. वात्सल्य रस का वर्णन है।
  2. अनुप्रास अलंकार का प्रयोग हुआ है।
  3. ब्रजभाषा का प्रयोग किया गया है।

(2) धूरि भरे अति सोभित स्यामजू, तैसी बनी सिर सुंदर चोटी।
खेलत खात फिरै अँगना, पग पैंजनी बाजति पीरी कछोटी॥
वा छबि को रसखानि बिलोकत, वारत काम कला निज कोटी।
काग के भाग बड़े सजनी हरि-हाथ सों लै गयौ माखन-रोटी॥

कठिन शब्दार्थ :
धूरि = धूल; सोभित = शोभित हो रहे हैं; पग = पैरों में; पैंजनी = पायल; पीरी = पीली; कछौटी = लंगोटी; वा छवि = उस सुन्दरता को; विलोकत = देखने पर; वारत = न्यौछावर; काम = कामदेव; कोटी = करोड़ों; काग = कौआ; सजनी = हे सखि; हरिहाथ = भगवान श्रीकृष्ण के हाथ से।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद में धूल में सने हुए श्रीकृष्ण की अनुपम शोभा का वर्णन किया गया है।

व्याख्या :
रसखान कवि कहते हैं कि धूल से सने हुए श्रीकृष्ण बहुत शोभित हो रहे हैं। वैसी ही उनके सिर पर सुन्दर चोटी गुंथी हुई है। वे नन्द बाबा के आँगन में खेलते हुए एवं खाते हुए फिर रहे हैं। उनके पैरों में पायल बज रही है तथा उन्होंने अपनी कमर में पीली लंगोटी पहन रखी है। उस छवि को देखकर करोड़ों कामदेव अपनी कलाओं को न्यौछावर कर देते हैं। एक गोपी दूसरी गोपी से कहती है कि हे सखि! उस कौए का भाग्य बहुत अच्छा है जो बालक कृष्ण के हाथ से माखन और रोटी छीनकर ले गया।

विशेष :

  1. बालक कृष्ण के अनुपम सौन्दर्य का वर्णन है।
  2. अनुप्रास अलंकार की छटा।
  3. ब्रजभाषा का प्रयोग।

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मेरा नया बचपन संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

(1) बार-बार आती है मुझको, मधुर याद बचपन तेरी।
गया, ले गया तू जीवन की, सबसे मस्त खुशी मेरी॥
चिन्ता रहित खेलना खाना, फिर फिरना निर्भय स्वच्छन्द।
कैसे भूला जा सकता है, बचपन का अतुलित आनन्द।

कठिन शब्दार्थ :
मधुर = मीठी; खुशी, प्रसन्नता; निर्भय = निडर होकर; स्वच्छन्द = स्वतन्त्र; अतुलित = जिसकी तुलना न की जा सके।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पंक्तियाँ मेरा नया बचपन’ शीर्षक कविता से अवतरित हैं। इसकी रचयिता श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान हैं।

प्रसंग :
इन पंक्तियों में कवयित्री ने अपने बचपन की मधुर स्मृतियों को अपनी बेटी की बाल चेष्टाओं के माध्यम से व्यक्त किया है।

व्याख्या :
कवयित्री कहती हैं कि हे मेरे प्यारे बचपन तुम्हारी याद मुझे बार-बार आती है। तू समय आने पर चला गया पर तू मेरे जीवन की सबसे अधिक मस्त खुशियों को अपने साथ ले गया। बचपन के उन दिनों में बिना किसी चिन्ता के खेलती और खाती रहती थी तथा निडर होकर स्वतन्त्र रूप से घूमती रहती थी। ऐसा अतुलनीय बचपन का आनन्द भला कैसे भूला जा सकता है अर्थात् उस आनन्द को मैं कभी नहीं भूल सकती।

विशेष :

  1. वात्सल्य भावना का वर्णन है।
  2. अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है।
  3. सरल, सुबोध शब्दों का प्रयोग।

(2) ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था, छुआछूत किसने जानी।
बनी हुई थी आह झोंपड़ी, और चीथड़ों में रानी॥
रोना और मचल जाना भी, क्या आनन्द दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती से आँस, जयमाला पहनाते थे।

कठिन शब्दार्थ :
ऊँच-नीच = छोटे-बड़े का; आह = ओ हो; जयमाला = विजय पाने की माला।

सन्दर्भ एवं प्रसंग :
पूर्ववत्।

व्याख्या :
कवयित्री कहती हैं कि उस बचपन में मेरे मन में ऊँच-नीच की भावना नहीं थी अर्थात् मैं बिना किसी छोटे-बड़े के भेद के सबके साथ खेला करती थी और न ही मैं छुआछूत जानती थी। मैं उस समय झोंपड़ी में रहते हुए तथा चीथड़े पहने रहने पर भी रानी जैसी बनी हुई थी। उस समय बात-बात पर मैं रोने लग जाती थी और किसी बात का हठ करके मचल उठती थी, ये दोनों बातें मुझे बहुत आनन्द देती थीं। कभी-कभी मेरी आँखों से निकलने वाले बड़े-बड़े आँसू मोती बनकर मेरे गालों पर जयमाला पहना दिया करते थे।

विशेष :

  1. बचपन की मधुर स्मृतियों का वर्णन।
  2. ‘मोती से आँसू’ में उपमा अलंकार।
  3. भाषा सहज एवं सरल, खड़ी बोली।

(3) वह भोली-सी मधुर सरलता, वह प्यारा जीवन निष्पाप।
क्या फिर आकर मिटा सकेगा, त मेरे मन का सन्ताप?
मैं बचपन को बुला रही थी, बोल उठी बिटिया मेरी।
नन्दन-वन-सी फूल उठी वह, छोटी-सी कुटिया मेरी॥

कठिन शब्दार्थ :
मधुर = मीठी; निष्पाप = बिना पाप के; सन्ताप = दुःख; नन्दन वन = देवताओं के वन; कुटिया = छोटी झोंपड़ी; फूल उठी = प्रसन्न हो उठी।

सन्दर्भ एवं प्रसंग :
पूर्ववत्।

व्याख्या :
कवयित्री कहती हैं कि बचपन में मैं भोली-भाली मधुरता का अनुभव करती थी। उस समय मेरा जीवन पूरी तरह पाप रहित था। हे मेरे बचपन! क्या तू पुनः मेरे जीवन में आ सकेगा और आकर के वर्तमान जीवन में जो दुःख हैं उनको मिटा सकेगा? कवयित्री कहती हैं कि जिस समय मैं अपने बीते हुए बचपन को याद कर रही थी उसी समय मेरी बेटी बोल उठी। बेटी की बोली सुनकर मेरी छोटी-सी कुटिया देवताओं के वन जैसी प्रसन्न हो उठी।

विशेष :

  1. वात्सल्य भाव का वर्णन।
  2. ‘नन्दन वन सी’ में उपमा अलंकार।
  3. बचपन का मानवीकरण।

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(4) ‘माँ ओ’ कहकर बुला रही थी, मिट्टी खाकर आई थी।
कुछ मुँह में कुछ लिए हाथ में, मुझे खिलाने लाई थी॥
मैंने पूछा- “यह क्या लाई ?” बोल उठी वह “माँ, काओ।”
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से, मैंने कहा, “तुम्ही काओ॥”

कठिन शब्दार्थ :
माँ काओ = माँ तुम खालो; प्रफुल्लित = खुश।

सन्दर्भ एवं प्रसंग :
पूर्ववत्।।

व्याख्या :
कवयित्री कह रही हैं कि वह मेरी बिटिया-‘हे माँ’ कहकर मुझे बुला रही थी और उस समय वह जमीन से मिट्टी उठाकर तथा खाकर आई थी। कुछ मिट्टी उसके मुँह में लगी हुई थी और कुछ मिट्टी हाथ में लिए थी जो मुझे खिलाने के लिए लाई थी। मैंने जब उससे पूछा कि तू क्या लाई है तो वह तुरन्त बोल उठी कि माँ इसे तुम भी खाओ। अपनी बिटिया की इस तुतली बोली को सुनकर मेरा हृदय खुशी से झूम उठा और फिर मैंने भी उससे तुतली बोली में कहा कि इसे तुम ही खा लो।

विशेष :

  1. बालक की चेष्टाओं का वर्णन है।
  2. माँ काओ’ तुतली बोली में माँ खाओ’ के लिए कहा है।
  3. भाषा सहज एवं सरल।

(5) पाया बचपन फिर से मैंने, बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर, मुझमें नव जीवन आया॥
मैं भी उसके साथ खेलती, खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं, मैं भी बच्ची बन जाती हूँ।

कठिन शब्दार्थ :
मंजुल = सुन्दर; नवजीवन = नया जीवन स्वयं = खुद।

सन्दर्भ एवं प्रसंग :
पूर्ववत्।

व्याख्या :
कवयित्री कहती हैं कि मेरी बेटी के रूप में मैंने अपना खोया हुआ बचपन फिर से पा लिया है। उसकी सुन्दर मूर्ति देखकर मुझमें नया जीवन आ गया है। आज मैं अपनी बेटी के साथ खेलती हूँ, खाती हूँ और उसी के समान तुतली बोली बोलती हूँ, मैं उसके साथ मिलकर स्वयं बच्ची बन जाती हूँ।

विशेष :

  1. बचपन की यादों का वर्णन है।
  2. अनुप्रास अलंकार का प्रयोग।
  3. भाषा सरस एवं सरल है।

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MP Board Class 9th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 1 भक्ति धारा

MP Board Class 9th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 1 भक्ति धारा

भक्ति धारा अभ्यास

बोध प्रश्न

भक्ति धारा अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
रैदास की प्रभु भक्ति किस भाव की है?
उत्तर:
दास्य (सेवक) भाव की।

प्रश्न 2.
रैदास ने प्रभु से अपना सम्बन्ध किस रूप में निरूपित किया है?
उत्तर:
रैदास ने प्रभु से अपना सम्बन्ध चन्दन और पानी के रूप में निरूपित किया है।

प्रश्न 3.
मीराबाई को कौन-सा रत्न प्राप्त हुआ था?
उत्तर:
मीराबाई को ‘राम नाम रूपी रत्न’ प्राप्त हुआ था।

प्रश्न 4.
मीरा कहाँ चढ़कर प्रभु की बाट देख रही है?
उत्तर:
मीरा अपने महल पर चढ़कर प्रभु की बाट देख रही है।

प्रश्न 5.
मीरा के नेत्र क्यों दुःखने लगे हैं?
उत्तर:
प्रभु के दर्शन के बिना मीरा के नेत्र दुःखने लगे हैं।

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भक्ति धारा लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
रैदास ने बुद्धि को चंचल क्यों कहा है?
उत्तर:
रैदास ने बुद्धि को चंचल इसलिए कहा है कि यद्यपि आप सबके घट-घट में निवास करने वाले हो तब भी मैं अपनी इस चंचल बुद्धि के कारण आपको देख नहीं पाता हूँ।

प्रश्न 2.
‘जाकी छोति जगत कउलागे ता पर तुही ढरै’-से रैदास का क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
इस पंक्ति से रैदास का तात्पर्य यह है कि जिस प्रभु के छूने मात्र से जगत् का कल्याण हो जाता है, हे मूर्ख जीव! तू उसी करुणामय भगवान से दूर भागता है।

प्रश्न 3.
मीरा ने संसार रूपी सागर को पार करने के लिए क्या उपाय बताया है?
उत्तर:
मीरा ने संसार रूपी सागर को पार करने का एक ही उपाय बताया है और वह है, सद्गुरु का सच्चे मन से स्मरण।

प्रश्न 4.
रैदास एवं मीरा की भक्ति की तुलना कीजिए।
उत्तर:
रैदास की भक्ति निर्गुण निराकार ईश्वर की है जबकि मीरा की भक्ति सगुण साकार कृष्ण की भक्ति है।

प्रश्न 5.
‘प्रेम-बेलि’ के रूपक को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रेम-बेलि’ को मीरा ने विरह से उत्पन्न हुए आँसुओं के जल से निरन्तर सींचते हुए पल्लवित किया है। अब तो यह प्रेम-बेलि बहुत अधिक विकसित हो गई है और चारों ओर फैल गई है। अब यह आशा लग रही है कि इस बेल पर प्रियतम-मिलन से उत्पन्न हुए आनन्द रूपी फल आने शुरू होंगे। इस तरह विरह का अपार कष्ट दूर हो जाएगा; तो निश्चय ही प्रियतमा (भक्त मीरा) का मिलन आराध्य श्रीकृष्ण से हो जाएगा। प्रियतम श्रीकृष्ण के प्रति मीरा का प्रेम एक लता (बेल) है। प्रस्तुत प्रसंग में प्रेम उपमेय है और बेल आगमन रूप में प्रयुक्त है।

भक्ति धारा दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मीरा को रामरतन धन प्राप्त होने से क्या-क्या लाभ प्राप्त हुए हैं?
उत्तर:
मीरा को रामरतन धन प्राप्त होने से जन्म-जन्मान्तर से खोई हुई पूँजी प्राप्त हो गई और यह पूँजी ऐसी विलक्षण है कि न तो यह खर्च होती है और न ही चोर इसको चुराकर ले जाते हैं अपितु यह तो नित्य सवा गुनी होकर बढ़ती ही रहती है।

प्रश्न 2.
प्रभु दर्शन के बिना मीरा की कैसी दशा हो गई है?
उत्तर:
प्रभु दर्शन के बिना मीरा के नेत्र दुखने लगे। उनके शब्द उसकी छाती में बार-बार सुनाई पड़ रहे हैं और उसकी वाणी उनका स्मरण कर काँपने लगी है। वह प्रतिक्षण प्रभु की बाट जोहती रहती है, प्रभु के बिना उसे चैन ही नहीं पड़ता है।

प्रश्न 3.
“रैदास के पदों में भक्ति भाव भरा हुआ है।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
रैदास के पदों में भक्ति भाव भरा हुआ है। वह भगवान को गरीब निवाज एवं गुसाईं बताते हैं। उनकी मान्यता है कि भगवान की कृपा से नीच व्यक्ति उच्च पद को प्राप्त कर लेता है। इतनी बड़ी कृपा भगवान के अतिरिक्त और कौन कर सकता है? अर्थात् कोई नहीं।

प्रश्न 4.
भक्त और भगवान के सम्बन्ध में रैदास ने अलग-अलग क्या भाव व्यक्त किए हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
रैदास ने भक्त और भगवान के सम्बन्ध में कहा है-वह प्रभु को चन्दन बताते हैं तो स्वयं को पानी। इसी पानी के साथ घिस-घिसकर वह चन्दन की सुगन्ध को प्राप्त करना चाहते हैं। वह भगवान को घन मानते हैं तो स्वयं को बादल, वह भगवान को दीपक तो अपने को उसकी बाती, भगवान को मोती तो स्वयं को धागा, भगवान को स्वामी तो अपने को दास मानते हैं।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित पंक्तियों की सन्दर्भ सहित व्याख्या कीजिए-
(अ) विरह कथा ………..”दख मेटण सुख दैन।।
उत्तर:
मीरा जी कहती हैं कि हे प्रभुजी! आपके दर्शनों के बिना मेरे नेत्र दुखने लगे हैं। हे प्रभुजी! जब से आप मुझसे बिछुड़े हैं तब से आज तक मुझे चैन नहीं मिला है। आपके द्वारा बोले गये शब्द मेरी छाती के अन्दर समाये हुए हैं और मेरी मीठी बोली भी अब काँप रही है। मुझे एक पल को भी आपके दर्शन के बिना चैन नहीं मिल रहा है। मैं बार-बार आपके आने का मार्ग देखती रहती हूँ। मेरे लिए यह वियोग (बिछोह) की अवधि छ: महीने की रात के बराबर हो गयी है। हे सखि! मैं अपनी इस विरह व्यथा को किससे कहूँ वह तो मेरे लिए आरे की मशीन के समान कष्ट देने वाली हो गयी है। कहने का अर्थ यह है कि जिस प्रकार कोई योगी अपने शरीर को आरे से चिरा कर मोक्ष प्राप्त करने में जितना कष्ट पाता है वैसा ही कष्ट प्रभुजी के दर्शन के बिना मुझे हो रहा है। मीरा जी कहती हैं कि हे प्रभु जी! मेरी इस वियोग दशा को दूर करने तथा सुख देने के लिए आप कब दर्शन देंगे? अर्थात् आप शीघ्र ही मुझे दर्शन प्रदान करें।

(आ) पायो जी मैंने ………… सभी खोवायौ॥
उत्तर:
मीराबाई कहती हैं कि हे संसारी लोगों! मैंने राम रत्न रूपी धन पा लिया है। मेरे सद्गुरु ने मुझे यह रामरत्न रूपी धन के रूप में अमूल्य वस्तु प्रदान की है। उस सद्गुरु ने मुझे कृपा करके अपना लिया है, अर्थात् अपना भक्त बना लिया है। इसके माध्यम से मैंने अनेक जन्मों की पूँजी प्राप्त कर ली है कहने का अर्थ यह है कि यह राम रत्न रूपी धन अनेक जन्मों की तपस्या के बाद मुझे प्राप्त हुआ है। मैंने तो यह धन पा लिया है जबकि संसार के अन्य सभी लोग इसे खोते रहते हैं। यह धन अनौखे रूप का है। यह खर्च करने से कम नहीं होता है और न ही चोर इसे चुरा सकते हैं। इसके विपरीत यह नित्य प्रति सवाया होकर बढ़ता रहता है। सत्य की नौका (नाव) का खेवनहार सद्गुरु है। वही इस संसार रूपी समुद्र से हमको पार लगायेगा। मीरा के स्वामी तो गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण हैं। मैं खुश होकर उनका यश गाती रहती हूँ।

(इ) प्रभुजी तुम चंदन ………. चंद चकोरा॥
उत्तर:
सन्त कवि रैदास भक्त और भगवान् के मध्य स्थित सम्बन्ध की चर्चा करते हुए कहते हैं कि हे प्रभुजी! यदि आप चन्दन हैं तो हम पानी बनकर, चन्दन को घिस-घिस कर उसकी सुगन्ध को प्राप्त कर लेंगे और इस प्रकार भगवान् की सुगन्ध हमारे शरीर के प्रत्येक अंग में समा जायेगी।

आगे वे कहते हैं कि हे प्रभु जी! आप तो बादलों के समान हैं और हम उन वर्षाकालीन धूम-धुआँरे बादलों को देखकर नाच करने वाले मोर बने हए हैं। हम आपकी ओर टकटकी लगाकर वैसे ही देखते रहते हैं जैसे कि चकोर पक्षी चन्द्रमा को देखता फिरता है। हे भगवान्! आप यदि दीपक हैं तो हम भक्त उस दीपक में जलने वाली बाती हैं। आपकी यह शाश्वत ज्योति दिन-रात जलती रहती है। हे भगवान्! आप तो मोती के समान हैं और हम उन मोतियों को पिरोने वाले धागे हैं। जिस प्रकार सुहागा मिलकर सोने की चमक को कई गुना बढ़ा देता है वैसे ही आपका स्पर्श या संसर्ग पाकर हमारा सम्मान बढ़ जाता है। हे भगवान्! आप स्वामी हैं और हम आपके दास हैं। हम आपसे यही विनती करते हैं कि आप मुझ रैदास को इसी प्रकार भक्ति देकर कृतार्थ करते रहो।

(ई) नरहरि चंचल ……….. मैं तेरी॥
उत्तर:
भक्त रैदास कहते हैं कि हे भगवान्! मेरी बुद्धि चंचल है, वह किसी भी प्रकार एकाग्र नहीं हो पाती है। बिना एकाग्र हुए मैं तेरी भक्ति कैसे कर पाऊँगा। कहने का भाव यह है कि भक्ति के लिए मन की एकाग्रता बहुत जरूरी है। मैं आपको देखता हूँ और आप मुझे देखते हो इस नाते हम दोनों में आपस में प्रेम हो गया है। तू मुझे देखे और मैं यदि तुझे न देखू तो इस स्थिति में मेरी बुद्धि पथ भ्रमित हो जाती है। हे भगवान्! आप तो घट-घट वासी हैं अर्थात् आप तो प्रत्येक के हृदय में निवास करते हैं फिर भी अपनी अज्ञानता के कारण मैं आपको अपने अन्दर नहीं देख पाता हूँ। हे भगवान् ! आप तो सभी गुणों से पूर्ण हो और मैं अज्ञानी, मूर्ख सभी अवगुणों से पूर्ण हूँ। मैं इतना कृतघ्न हूँ कि आपने मानव जन्म देकर मेरे साथ जो महान् उपकार किया है, मैं उसे भी नहीं जानता हूँ। यह मेरा है, यह तेरा है इसी मैं-मैं, तैं-तैं के चक्कर में मेरी बुद्धि भटक गयी है फिर भला बताओ कैसे मेरा उद्धार हो? भक्त रैदास जी कहते हैं कि भगवान कृष्ण करुणामयी हैं, दयालु हैं उनकी जय-जयकार हो, वे ही वास्तव में जगत् के आधार हैं अर्थात् सम्पूर्ण संसार उन्हीं के ऊपर टिका हुआ है।

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भक्ति धारा काव्य सौन्दर्य

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के हिन्दी मानक रूप लिखिए
उत्तर:
MP Board Class 9th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 1 भक्ति धारा img 1

प्रश्न 2.
निम्नलिखित के तीन-तीन पर्यायवाची शब्द लिखिए-
मोर, कोयल, इन्द्र, चन्द्र, ईश्वर, नैन।
उत्तर:
मोर-मयूर, सारंग, केकी। कोयल-पिक, कोकिल, स्यामा। इन्द्र-सुरेश, सुरेन्द्र, देवेश। चन्द्र-विधु, शशि, राकेश। ईश्वर-भगवान, प्रभु, परमात्मा। नैन-नेत्र, चक्षु, अक्षि।

प्रश्न 3.
इस पाठ की उन पंक्तियों को छाँटकर लिखिए जिनमें अनुप्रास अलंकार है।
उत्तर:

  1. कह रैदासा’ कृष्ण करुणामय! जै-जै जगत-अधारा।
  2. कहि रविदास सुनहु रे संतहुँ हरि जीउ ते सभै सटै।
  3. बिरह कथा काँसू कहूँ सजनी वह गयी करवत ऐन।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित पंक्तियों में अलंकार पहचान कर लिखिए
(क) पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
(ख) मैं, तँ तोरि, मोरि असमझि सौं कैसे करि निस्तारा।
(ग) सत की नाव खेवटिया सतगुरु भवसागर तर आयो।
उत्तर:
(क) रूपक अलंकार
(ख) अनुप्रास अलंकार
(ग) रूपक अलंकार।

प्रश्न 5.
‘दरस बिन दूखण लागे नैन’-पद में प्रयुक्त रस और स्थायी भाव का नाम लिखिए।
उत्तर:
इस पद में वियोग शृंगार नामक रस है तथा इसका स्थायी भाव ‘रति’ है।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित पंक्तियों का भाव सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए
(अ) तँ मोहि देखै, हौं तोहि देखें, प्रीति परस्पर होई।
(आ) प्रभुजी तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती।
(इ) खरचै नहिं कोई चोर नलेवै दिन-दिन बढ़त सवायौ।
उत्तर:
(अ) भक्त कवि रैदास परमात्मा (तू) तत्व को सर्वद्रष्टा और आत्मा (हौं) को एक ही तत्व में देखते हैं। परन्तु जगत में भौतिक बुद्ध प्रभाव से उनके एकत्व में भी विभेद उत्पन्न हो गया है। परमात्मा और जीवात्मा सम्बन्धी एकरूपता के भाव की हानि भक्त को बौद्धिक भ्रम से हो गई है। कबीर ने भी परमात्मा रूपी प्रियतम को प्रियतमा ने अपने नयनों के बीच स्थान देकर दुनिया के द्वारा न देखे जाने की बात कही है। कवि का यह रहस्यवाद अभी भी लोगों को चमत्कृत करता है।

(आ) ईश्वरीय ज्ञान की ज्योति भक्त को उत्तम भक्ति मार्ग को दिखाती है। उस दशा में भक्त अपने मार्ग से इधर-उधर नहीं भटकता। अतः ईश्वर ज्ञान ज्योति के भण्डार रूपी दीपक के समान है जिसमें जीवात्मा की बत्ती निरन्तर प्रज्ज्वलित होती रहती है और अपने अस्तित्व को मिटाकर पूर्ण समर्पण से, स्नेह भाव से सम्पृक्त हो उठती है और वह जीवात्मा स्नेह (तैल), ज्ञान और तप के बल से भक्त स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।

(इ) भक्त मीरा ‘रामरतन धन’ को प्राप्त करके परम सुख की अनुभूति करती है। उन्होंने सांसारिक सम्पदा का त्याग कर दिया और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति को स्वीकार किया। यह भक्ति रूपी धन कभी भी नष्ट न होने वाला है। यह कितना ही खर्च किया जाए, फिर भी खर्च नहीं होता है। कोई भी चोर इसे चुरा नहीं सकता, क्योंकि यह अदृश्य भाव से विद्यमान है। प्रभु भक्ति से ‘राम नाम’ का धन सवाये रूप से निरन्तर बढ़ता ही जाता है।

मीरा का ‘रामरतन धन’ अमूल्य है, अलौकिक है। अक्षुण्ण है अर्थात् परमात्मा अविनाशी है, सर्वव्यापी है और सर्व तथा समद्रष्टा है। आराध्य के प्रति भक्त का समर्पण स्तुत्य है, महत्वपूर्ण है।

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रैदास के पद संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

(1) प्रभुजी तुम चंदन हम पानी, जाकी अंग-अंग बास समानी।
प्रभुजी तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा।
प्रभुजी तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरे दिन राती।
प्रभुजी तुम मोती हम धागा, जैसे सोनहिं मिलत सोहागा।
प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै ‘रैदासा’।

कठिन शब्दार्थ :
अंग-अंग = प्रत्येक अंग में; बास = सुगंध; घन = बादल; मोरा = मोर; चितवत = देखता है; चकोरा = चकोर पक्षी; जोति = प्रकाश; बरे = जलती है; दिन राती = रात-दिन; सोनहिं = सोने की; दासा = दास, सेवक।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश भक्तिधारा’ के ‘रैदास के पद’ शीर्षक से लिया गया है। इसके रचयिता रैदास जी हैं।

प्रसंग :
इस पद में सन्त कवि रैदास ने भक्त और भगवान में क्या रिश्ता होता है, उसका विविध प्रकार से वर्णन किया है।

व्याख्या :
सन्त कवि रैदास भक्त और भगवान् के मध्य स्थित सम्बन्ध की चर्चा करते हुए कहते हैं कि हे प्रभुजी! यदि आप चन्दन हैं तो हम पानी बनकर, चन्दन को घिस-घिस कर उसकी सुगन्ध को प्राप्त कर लेंगे और इस प्रकार भगवान् की सुगन्ध हमारे शरीर के प्रत्येक अंग में समा जायेगी।

आगे वे कहते हैं कि हे प्रभु जी! आप तो बादलों के समान हैं और हम उन वर्षाकालीन धूम-धुआँरे बादलों को देखकर नाच करने वाले मोर बने हए हैं। हम आपकी ओर टकटकी लगाकर वैसे ही देखते रहते हैं जैसे कि चकोर पक्षी चन्द्रमा को देखता फिरता है। हे भगवान्! आप यदि दीपक हैं तो हम भक्त उस दीपक में जलने वाली बाती हैं। आपकी यह शाश्वत ज्योति दिन-रात जलती रहती है। हे भगवान्! आप तो मोती के समान हैं और हम उन मोतियों को पिरोने वाले धागे हैं। जिस प्रकार सुहागा मिलकर सोने की चमक को कई गुना बढ़ा देता है वैसे ही आपका स्पर्श या संसर्ग पाकर हमारा सम्मान बढ़ जाता है। हे भगवान्! आप स्वामी हैं और हम आपके दास हैं। हम आपसे यही विनती करते हैं कि आप मुझ रैदास को इसी प्रकार भक्ति देकर कृतार्थ करते रहो।

विशेष :

  1. सम्पूर्ण पद में रूपक अलंकार है।
  2. मुहावरों व कहावतों का सजीव ढंग से चित्रण किया गया है। ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।

(2) नरहरि! चंचल है मति मेरी,
कैसे भगति करूं मैं तेरी।
तू मोहि देखै, हौँ तोहि देखू,
प्रीति परस्पर होई। तू मोहि देखै,
तोहि न देखू, यह मति सब बुधि खोई॥
सब घट अंतर रमसि निरंतर मैं देखन नहिं जाना।
गुन सब तोर, मोर सब औगुन, कृत उपकार न माना॥
मैं, तँ तोरि-मोरि असमझि सौं, कैसे करि निस्तारा।
कहै ‘रैदासा’ कृष्ण करुणामय! जै-जै जगत अधारा॥

कठिन शब्दार्थ :
नरहरि = ईश्वर; चंचल = चलायमान, अस्थिर, एक बात पर न टिकने वाली; भगति = भक्ति; परस्पर = आपस में; बुधि = बुद्धि; घट = प्राण, जीव; रमसि = रमण करता है, निवास करता है; औगुन = अवगुण; उपकार = भलाई; कृत = की गयी; निस्तारा = उद्धार; जगत-अधारा = संसार के आश्रय स्थल।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद में भक्त रैदास भगवान् से प्रार्थना करते हैं कि हे भगवान्! मेरी मति चंचल है। फिर चंचल मन से मैं तेरी भक्ति किस प्रकार करूँ?

व्याख्या :
भक्त रैदास कहते हैं कि हे भगवान्! मेरी बुद्धि चंचल है, वह किसी भी प्रकार एकाग्र नहीं हो पाती है। बिना एकाग्र हुए मैं तेरी भक्ति कैसे कर पाऊँगा। कहने का भाव यह है कि भक्ति के लिए मन की एकाग्रता बहुत जरूरी है। मैं आपको देखता हूँ और आप मुझे देखते हो इस नाते हम दोनों में आपस में प्रेम हो गया है। तू मुझे देखे और मैं यदि तुझे न देखू तो इस स्थिति में मेरी बुद्धि पथ भ्रमित हो जाती है। हे भगवान्! आप तो घट-घट वासी हैं अर्थात् आप तो प्रत्येक के हृदय में निवास करते हैं फिर भी अपनी अज्ञानता के कारण मैं आपको अपने अन्दर नहीं देख पाता हूँ। हे भगवान्! आप तो सभी गुणों से पूर्ण हो और मैं अज्ञानी, मूर्ख सभी अवगुणों से पूर्ण हूँ। मैं इतना कृतघ्न हूँ कि आपने मानव जन्म देकर मेरे साथ जो महान् उपकार किया है, मैं उसे भी नहीं जानता हूँ। यह मेरा है, यह तेरा है इसी मैं-मैं, तैं-तैं के चक्कर में मेरी बुद्धि भटक गयी है फिर भला बताओ कैसे मेरा उद्धार हो? भक्त रैदास जी कहते हैं कि भगवान कृष्ण करुणामयी हैं, दयालु हैं उनकी जय-जयकार हो, वे ही वास्तव में जगत् के आधार हैं अर्थात् सम्पूर्ण संसार उन्हीं के ऊपर टिका हुआ है।

विशेष:

  1. रैदास अपनी मति को चंचल मानते हैं। इस चंचल मन में भगवान की भक्ति नहीं हो सकती।
  2. ईश्वर घट-घट वासी है।
  3. अन्तिम पंक्ति में अनुप्रास अलंकार है।

(3) ऐसी लाल तुझ बिन कउनु करै।
गरीब निवाजु गुसईंआ मेरा माथै शत्रु धरै।
जाकी छोति जगत कउ लागै ता पर तुहीं ढरै।
नीचह ऊँच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै।
नामदेव, कबीरु, त्रिलोचन, सधना सैनु तरै।
कहि रविदास, सुनहु रे संतह हरि जीउ तै सभै सरै॥

कठिन शब्दार्थ :
लाल = यहाँ भगवान, स्वामी के लिए आया है; कउनु = कौन; निवाजु = करुणा; गुसईंया = गोस्वामी, मालिक, ईश्वर; शत्रु धरै = शत्रुओं को नष्ट करता है; छोति = छूने भर से; कउ = को; सैनु तरै = आँखों के इशारे से तार दिया, उद्धार कर दिया; सभै सरै = सबका कल्याण होता है।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद में भक्त रैदास कहते हैं कि उस ईश्वर की मर्जी के बिना कुछ भी नहीं हो सकता है। वह चाहे तो सभी जीवों का उद्धार कर दे।

व्याख्या :
भक्त रैदास कहते हैं कि हे लाल! अर्थात् भगवान! तुम्हारे बिना हम भक्तों की विपत्तियों का निस्तारण और कौन कर सकता है? अर्थात् कोई नहीं हे भगवान! आप गरीबों पर कृपा करने वाले हो, आप हमारे गोस्वामी अर्थात् मालिक हो। आप मेरा मस्तक हो अर्थात् मैं आपको अपने माथे पर बिठाता हूँ और आप मेरे शत्रुओं को ठिकाने लगाने वाले हो। आप खेल-खेल में ही नीच एवं पतित व्यक्ति को बहुत ऊँचा पद प्रदान कर देते हो। मेरा वह गोविन्द किसी से भी नहीं डरता है। नामदेव, कबीर, त्रिलोचन और सधना आदि भक्तों को उसने अपने नेत्रों के इशारे से ही तार दिया अर्थात् उनका उद्धार कर दिया। सन्त रैदास जी कहते हैं कि हे सन्तो! सुनो! भगवान में इतनी शक्ति है कि वह सभी जीवों का उद्धार कर सकते हैं।

विशेष :

  1. इस पद में ‘लाल’ भगवान के लिए प्रयुक्त हुआ है।
  2. रैदास ने भगवान को गरीब निवाज, गोस्वामी आदि कहा है।
  3. अन्तिम पंक्ति में अनुपास की छटा है।

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पदावली संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

(1) पायो जी मैंने राम रतन धन पायौ।
वस्तु अमोलक दी मेरे सद्गुरु, किरपा करि अपनायौ।
जनम-जनम की पूँजी पाई, जग में सभी खोवायौ।
खरचै नहिं कोई चोर न लैवै, दिन-दिन बढ़ती सवायौ।
सत की नाव खेवटिया सतगुरु, भव सागर तर आयौ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, हरख-हरख जस गायौ।

कठिन शब्दार्थ :
रतन = रत्न; अमोलक = अमूल्य; किरपा = कृपा; अपनायौ = अपना लिया, अपना बना लिया; सवायौ = सवा गुना; खेवटिया = खेवनहार; भव सागर = संसार रूपी समुद्र; तर आयौ = तार दिया; गिरधर नागर = गोवर्धन धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण; हरख-हरख = खुश होकर।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश ‘भक्तिधारा के ‘पदावली’ शीर्षक से लिया गया है। इसकी रचयिता मीराबाई हैं।

प्रसंग :
इस पद में कवयित्री मीराबाई रामरत्न रूपी धन को पाकर अपने जीवन को धन्य मानती हैं।

व्याख्या :
मीराबाई कहती हैं कि हे संसारी लोगों! मैंने राम रत्न रूपी धन पा लिया है। मेरे सद्गुरु ने मुझे यह रामरत्न रूपी धन के रूप में अमूल्य वस्तु प्रदान की है। उस सद्गुरु ने मुझे कृपा करके अपना लिया है, अर्थात् अपना भक्त बना लिया है। इसके माध्यम से मैंने अनेक जन्मों की पूँजी प्राप्त कर ली है कहने का अर्थ यह है कि यह राम रत्न रूपी धन अनेक जन्मों की तपस्या के बाद मुझे प्राप्त हुआ है। मैंने तो यह धन पा लिया है जबकि संसार के अन्य सभी लोग इसे खोते रहते हैं। यह धन अनौखे रूप का है। यह खर्च करने से कम नहीं होता है और न ही चोर इसे चुरा सकते हैं। इसके विपरीत यह नित्य प्रति सवाया होकर बढ़ता रहता है। सत्य की नौका (नाव) का खेवनहार सद्गुरु है। वही इस संसार रूपी समुद्र से हमको पार लगायेगा। मीरा के स्वामी तो गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण हैं। मैं खुश होकर उनका यश गाती रहती हूँ।

विशेष :

  1. मीरा भगवान के नाम को सबसे बड़ा धन मानती हैं।
  2. राम रतन धन में रूपक, ‘सत की नाव …….. तर आयौ’-में सांगरूपक अलंकार का प्रयोग हुआ है।

(2) सुनी हो मैं हरि आवनि की आवाज।
महले चढ़े चढ़ि जोऊँ सजनी, कब आवै महाराज॥
दादुर मोर पपइया बोलै, कोइल मधुरे साज।
मग्यो इन्द्र चहूँ दिस बरसे, दामणि छोड़े लाज।
धरती रूप नवा नवा धरिया, इन्द्र मिलण कै काज।
मीरों के प्रभु हरि अविनासी, बेग मिलो महाराज।

कठिन शब्दार्थ :
हरि आवनि = भगवान के आने की; जोऊ = देखती हूँ; सजनी = सखि; दादुर = दादुर, मेंढक; पपइया = पपीहा; कोइल = कोयल; मग्यो = मग्न होकर, मस्त होकर; चहूँ दिस = चारों दिशाओं में; दामणि = बिजली; नवानवा = नया-नया; अविनाशी = कभी नष्ट न होने वाले, शाश्वत; वेग = शीघ्र।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद में उस समय का वर्णन किया गया है जब मीराबाई को प्रभु के आगमन की आवाज सुनाई दी।

व्याख्या :
मीराबाई कहती हैं कि मैंने प्रभु के आगमन की आवाज सुन ली है। हे सखि! मैं अपने महलों के ऊपर चढ़-चढ़कर यह देख रही हूँ कि प्रभु जी हमारे घर कब पधारेंगे? प्रभु के आगमन की इस शुभ घड़ी पर दादुर (मेंढक), मोर, पपीहा आनन्द में मग्न होकर अपनी बोली बोल रहे हैं। इसी समय कोयल भी मधुर-मधुर बोली बोल रही है। आनन्द से भरकर इन्द्र देवता चारों दिशाओं में वर्षा कर रहे हैं और बिजली भी अपनी लज्जा को छोड़कर बार-बार बादलों में गरज रही है। पृथ्वी पर वर्षा के फलस्वरूप नयी-नयी वनस्पतियाँ उग आयी हैं जिससे पृथ्वी नये-नये रूपों में सजी हुई दिखाई दे रही है। संभवतः पृथ्वी अपनी साज-सज्जा इन्द्र से मिलने के लिए कर रही है। मीराबाई कहती हैं कि हे प्रभु जी ! आपतो अविनाशी हैं अर्थात् शाश्वत् रूप से सदैव विद्यमान रहने वाले हैं। आप कृपा करके मुझ भक्त से जल्दी आकर मिल जाओ।

विशेष :

  1. मीरा की प्रभु से मिलने की तीव्र अभिलाषा है।
  2. चढ़ि-चढ़ि, नवा-नवा में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।

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(3) दरस बिन दूखण लागै नैन।
अब के तु बिछरे, प्रभु मोरे कबहुँ न पायौ चैन।
सबद गुणत मेरी छतिया, काँपै मीठे-मीठे बैन।
कल न परत पल, हरि मग जोवत, भई छमासी रैन।
बिरह कथा काँसूकहूँ, सजनी वह गयी करवत ऐन।
मीरों के प्रभु कबहे मिलोगे, दुख मेटण सुख दैन।

कठिन शब्दार्थ :
दरस = दर्शन; दूखण = दुखने लगे; चैन = शान्ति; बैन = वचन, बोल; कल = चैन, शान्ति; जोवत = देखती रहती हूँ; छमासी रैन = छः मास तक निरन्तर अँधकार बना रहा; काँसू = किससे; दुख मेटण = दुख नष्ट करने; करवत = करपत्र अर्थात् आरे की मशीन।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
मीरा प्रभु के दर्शन न पाकर अत्यधिक बेचैन हो उठती है अतः वह प्रभु से दर्शन देने की विनती कर रही है।

व्याख्या :
मीरा जी कहती हैं कि हे प्रभुजी! आपके दर्शनों के बिना मेरे नेत्र दुखने लगे हैं। हे प्रभुजी! जब से आप मुझसे बिछुड़े हैं तब से आज तक मुझे चैन नहीं मिला है। आपके द्वारा बोले गये शब्द मेरी छाती के अन्दर समाये हुए हैं और मेरी मीठी बोली भी अब काँप रही है। मुझे एक पल को भी आपके दर्शन के बिना चैन नहीं मिल रहा है। मैं बार-बार आपके आने का मार्ग देखती रहती हूँ। मेरे लिए यह वियोग (बिछोह) की अवधि छ: महीने की रात के बराबर हो गयी है। हे सखि! मैं अपनी इस विरह व्यथा को किससे कहूँ वह तो मेरे लिए आरे की मशीन के समान कष्ट देने वाली हो गयी है। कहने का अर्थ यह है कि जिस प्रकार कोई योगी अपने शरीर को आरे से चिरा कर मोक्ष प्राप्त करने में जितना कष्ट पाता है वैसा ही कष्ट प्रभुजी के दर्शन के बिना मुझे हो रहा है। मीरा जी कहती हैं कि हे प्रभु जी! मेरी इस वियोग दशा को दूर करने तथा सुख देने के लिए आप कब दर्शन देंगे ? अर्थात् आप शीघ्र ही मुझे दर्शन प्रदान करें।

विशेष :

  1. ‘कथा काँसू कहूँ’ में अनुप्रास अलंकार है।
  2. वियोग शृंगार का वर्णन है।

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MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3

MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3

Question 1.
A survey conducted by an organisation for the cause of illness and death among the women between the ages 15 – 44 (in years) worldwide, found the following figures (in %):
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-1

  1. Represent the information given above graphically.
  2. Which condition is the major cause of women’s ill health and death worldwide?
  3. Try to find out, with the help of your teacher, any two factors which play a major role in the cause in (ii) above being the major cause.

Solution:
1.
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-2
2. Major cause of women’s ill health and death worldwide is reproductive health conditions (RHC).
3. Try to do it with the help of your teacher.

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Question 2.
The following data on the number of girls (to the nearest ten) per thousand boys in different sections of Indian society is given below.
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-3

  1. Represent the information above by a bar graph.
  2. In the classroom discuss what conclusions can be arrived at from the graph.

Solution:
1.
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-4
2. From the graph we can say that ratio of girls/boys is more in sched¬uled tribe of Indian society.

Question 3.
Given below are the seats won by different political parties in the polling outcome of a state assembly elections:
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-5

  1. Draw a bar graph to represent the polling results,
  2. Which political party woe the maximum number of seats? Sol. (0

Solution:
1.
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-6
2. Political party ‘A’ won the maximum number of seats.

Question 4.
The length of 40 leaves of a plant are measured correct to one millimetre, and the obtained data is represented in the following table:
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-7

  1. Draw a histogram to represent the given data.
  2. Is there any other suitable graphical representation for the same data?
  3. Is it correct to conclude that the maximum number of leaves are 153 mm long? Why?

Solution:
1. The given frequency distribution is in discontinuous (inclusive) form. To draw histogram, first it is to be converted into continuous form as given in the table below:
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-8
Histogram is shown in Fig.
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-9
2. Frequency polygon.
3. No.

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Question 5.
The following table gives the life times of 400 neon lamps:
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-10

  1. Represent the given information with the help of a histogram.
  2. How many lamps have a life time of more than 700 hours?

Solution:
1.
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-11
2. No. of lamps having a life time more than 700 h = 74 + 62 + 48 = 184.

Question 6.
The following table gives the distribution of students of two sections according to the marks obtained by them:
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-12
Represent the marks of the students of both the sections on the same graph by two frequency polygons. From the two polygons compare the performance of the two sections.
Solution:
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-13
As the marks cannot be negative, we will not join the lines to – 5 but will end on the Y – axis as shown in the figure.
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-14

Question 7.
The runs scored by two teams A and B on the first 60 balls in a cricket match are given below:
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-15
Represent the data of both the teams on the same graph by frequency polygons.
Solution:
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-16
As the runs scored cannot be negative, we will not join the lines to – 2.5 but will end on the Y – axis as shown in the figure.
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-17

Question 8.
A random survey of the number of children of various age groups playing in a park was found as follows:
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-18
Draw a histogram to represent the data above.
Solution:
As the class sizes are different, we have to adjust the frequency and histogram is drawn by taking age in X-axis and ajiusted frequency in E-axis on a suitable scale.
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-19
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-20

Question 9.
100 surnames were randomly picked up from a local telephone directory and a frequency distribution of the number of letters in the English alphabet in the surnames was found as follows:
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-21

  1. Draw a histogram to depict the given information.
  2. Write the class interval in which the maximum number of surnames lie.

Solution:
1.
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-22
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-23
2. The class interval in which the maximum number of surnames lie is 6-8.

Graphical Representation Of Statistical Data:
Through classification and tabulation, we present the data in such a way that the essential characteristics of the raw data become readily under¬stood. The further step in analysis is to represent the statistical data in either of the two ways:

  1. Diagrams
  2. Graphs

Diagrams and graphs appeal to the eyes and mind of every man. This is the reason why newspapers and periodicals represent diagram in advertisements. There are many different methods used to represent data by means of pictures.

Graphs: The important types of graphs are as follows:

  1. Bar Diagram
  2. Histogram or frequency histogram
  3. Frequency polygon
  4. Cumulative frequency curve or an ogive.

1. Bar Diagram:
This is common type of representation used by businessmen and economists. Census uses it to denote population density etc. in different states. If we have to compare simple magnitudes, we use this graphical representation.

As the name suggests, it consists of wide thick lines whose width is not taken into account. It is only the length of the bar which gives comparative analysis. It is for this reason that we call it one dimensional.

2. Histogram or Frequency Histogram:
A histogram is a graph which represents the class frequencies in grouped frequency distribution by vertical adjacent rectangles with class- intervals as bases and the corresponding frequencies as heights.

Drawing of Histogram:
To draw the histogram of a given frequency distribution, we go through the following steps:

  • We represent the class-limits along T – axis on a suitable scale.
  • We represent the frequencies along Y – axis on a suitable scale.
  • We construct rectangles with bases along X – axis and heights of X – axis.

3. Frequency Polygon
A frequency polygon is a graphical representation of a frequency distribution in which the mid-points of the class-intervals represent the entire class-intervals.

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Drawing of Frequency Polygon:
When a grouped frequency distri – bution with equal class-intervals is being given, then to draw the frequency polygon, we go through the following steps:

  • We represent the class marks along Y – axis on a suitable scale.
  • We represent the frequencies along Y – axis on a suitable scale.
  • Plot these points and join them by a straight line.
  • We complete the diagram in the form of a polygon by taking two more classes, one at the beginning and the other at the end.

4. Cumulative Frequency Curve or an Ogive:
The cumulative frequency curve or an ogive is a graph of cumulative frequency distribution. To represent an ogive or cumulative frequency curve, we mark the upper class limits along the X – axis and the cumulative frequencies along the Y – axis. Plot the points and join them by a free hand smooth curve. This graph is a rising curve.

Drawing an Ogive or Cumulative Frequency Curve:
There are two types of methods to constructing an ogive or cumulative frequency curve:

  • Less than method
  • More than method.

Example 5:
The birth per thousand in five countries over a period of time is shown below:
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-24
Solution:
Take country on X – axis and birth rate per thousand on Y – axis. Bar graph is shown in Fig.
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-25

Example 6:
The time taken, in seconds, to solve a problem for each of 25 pupils is as follows:
20, 52, 64, 60, 59, 58, 53, 50, 49, 48, 46, 46, 46, 46, 43, 42, 40, 38, 37, 33, 30, 28, 27, 26, 20, 16

  1. Construct a frequency distribution for these data, using a class – interval of 10 seconds.
  2. Draw a histogram to represent the frequency distribution.

Solution:
1. The required frequency distribution table is given below:
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-26
2. Bar Diagram
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-27

Example 7:
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-28
Draw a histogram and a frequency polygon to represent the above data.
Solution:
Now first we convert the given class-intervals into continuous class-intervals. Then the given frequency distribution takes the following form:
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-29
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-30

Example 8:
The following table shows the yield of pulses, mustard and cotton in the year 2000-2001 in the State of U.P. Prepare a bar diagram.
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-31
Solution:

1. Draw a horizontal line on a sheet of paper (or graph paper). It is called Y – axis.
2. Leaving little space on the left draw a line perpendicular to the horizontal line. It is called Y – axis.
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-32

3. On the horizontal line i.e., X-axis, mark number of points equal to number of items (in the given question only three) at the equal distances.

4. Write down items (in the given question i.e., mustard, cotton and pulse) on the X-axis i.e., horizontal line below marked points.

5. Show the other variable, after taking suitable scale, on the vertical line i. e., Y-axis. The biggest number to be shown is 10 metric ton. So we take 10 small divisions i.e., 1 cm on Y-axis equal 2000 metric ton.

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Example 9:
Heights of 100 persons (in cm) are given below. Show this by a histogram.
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-33
Solution:
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-34

Example 10:
Weights of 60 persons (in kg) are given below. Show this by a frequency polygon.
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-35
Solution:
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-36

Example 11:
Make a cumulative frequency curve of the following data:
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-37
Solution:
Cumulative frequency table
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-38

Example 12:
Make a cumulative frequency curve for following distribution
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-39
Solution:
The cumulative frequency table for the given distribution is as under:
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-40

Example 13:
Following are the date of births of students of class 9, born different months, show it by a bar graph.
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-41
Solution:
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-42

Measures Of Central Tendency:
An average of a data is the value of the variable which describes the characteristics of the entire data and representative of entire distribution. An average is called measure of central tendency because its values lie between two extremes, largest and smallest observation. The measures of central tendency which are useful for analyzing data are.

  1. Mean
  2. Median
  3. Mode.

1. Mean:
The sum of the values of all the observations divided by the total number of observations.
It is denoted by the symbol \(\overline { x } \), read as x bar.

Example 14:
Find the mean of the numbers 96, 98, 100, 102, 104.
Solution:
Here number of observations are x = 5, and given numbers are 96, 98, 100, 102, 104.
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-43

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Example 15:
The following table shows the age distribution of cases of a certain disease reported during a year is a particular city.
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-44
Find the average age (in years) per case reported.
Solution:
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-45
Hence, average age per case reported is 34.88 years.

2. Median:
The median is that value of the given number of observa-tions, which divides it into exeactly two parts. After arranging the given data in ascending or descending order of magnitude, the middle value of the observation is called the median.

  • Arrange the given data is ascending or descending order.
  • Find the total no of observations (n) in the given data.
  • In case of odd observation (n)

Median = Value of (\(\frac{n+1}{2}\)) observation
In case of even number observation (n)
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-46

Example 16:
Find the median of the following values of a variable:
5, 10, 3, 7, 2, 9, 6, 2, 11
Solution:
Arranging the data in ascending order, we get
2, 2, 3, 5, 6, 7, 9, 10, 11
Here, n = 9, which is odd
Median = Value of (\(\frac{n+1}{2}\))th term
= Value of (\(\frac{9+1}{2}\))th term = Value of 5th term
Thus the median of given data is 6.

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Example 17:
Find the median of the following data:
38, 70, 48, 34, 42, 55, 63, 46, 54, 44
Solution:
Arranging the data is ascending order, we get 34, 38, 42, 44, 46, 48, 54, 55, 63, 70
Here, n = 10, which is even
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-47
Thus, the median of given data is 47.

Example 18:
The following frequency distribution gives the monthly consumption of electricity of 68 consumers of a locality. Find the median.
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-48
Solution:
Here, N = 68. i.e., Value of (\(\frac{N}{2}\))th term = 34
So, median class is 125 – 145,
l = 125, F = 22, h = 20
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-49

Example 19:
Obtain the median for the following distribution:
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-50
Solution:
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-51
Here, N = 130, so Value of (\(\frac{N}{2}\))th term = 65.
The cumulative frequency just greater than 65 is 90 in the table and the variable corresponding to 90 is 4. Hence, median is 4.

3. Mode:
The mode is that value of observation which occurs most frequently i.e., an observation with maximum frequency is called the mode.

Example 20:
Find the mode for the following data:
110, 120, 130, 120, 110, 140, 130, 120, 140, 120
Solution:
Arranging the data is the form of a frequency table
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-52
Since the value 120 occurs maximum number of items, i.e., 4. Hence the modal value is 120.

Example 21:
A survey conducted on 20 households in the following frequency table for the number of family members.
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-53
Find die mode of above data.
Solution:
Here, Maximum frequency = 8
The corresponding class interval = 3 – 5
So, for the given table, we have
l1 = lower limit of modal class = 3
h = Class size = 2
f1 = frequency of modal class = 8
f0 = frequency of class preceding the modal class = 7
f2 = frequency of class succeeding the modal class = 2
We know that,
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.3 img-54

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MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.4

MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.4

Question 1.
The following number of goals were scored by a team in a series of 10 matches:
2, 3, 4, 5, 0, 1, 3, 3, 4, 3
Find the mean, median and mode of these scores.
Solution:
1.
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.4 img-1
2. Arranging the data in ascending order, we get
0, 1, 2, 3, 3, 3, 3, 4, 4, 5
n = 10 (even)
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.4 img-2
3. As 3 is repeated maximum number of times i. e., 4 times.
∴ Mode = 3

Question 2.
In a mathematics test given to 15 students, the following marks (out of 100) are recorded:
41, 39, 48, 52, 46, 62, 54, 40, 96, 52, 98, 40, 42, 52, 60
Find the mean, median and mode of this data.
Solution:
1. Mean
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.4 img-3
2. Arranging the data in ascending order, we get
39, 40, 40, 41, 42, 46, 48, 52, 52, 52, 54, 60, 62, 96, 98
n = 15 (odd)
Median = (\(\frac{n+1}{2}\))th obseravation
= (\(\frac{15+1}{2}\))th observation = 8th obseravation
= 52.

3. As 52 is repeated maximum number of times i.e., 3 times
∴ Mode = 52

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Question 3.
The following observations have been arranged in ascending order. If the median of the data is 63, find the value of x.
29, 32, 48, 50, x, x + 2, 72, 78, 84, 95
Solution:
Median = 63 (given)
n = 10 (even)
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.4 img4
2 x 63 = 2x + 2
⇒ 126 = 2x + 2
⇒ 126 – 2 = 2x
⇒ 7x = 124
x = 62

Question 4.
Find the mode of 14, 25, 14, 28, 18, 17, 18, 14, 23, 22, 14, 18.
Solution:
As 14 repeated maximum number of times, mode =14.

Question 5.
Find the mean salary of 60 workers of a factory from the following table:
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.4 img 5
Solution:
MP Board Class 9th Maths Solutions Chapter 14 Statistics Ex 14.4 img5

Question 6.
Give one example of a situation in which

  1. The mean is an appropriate measure of central tendency.
  2. The mean is not an appropriate measure of central tendency but the median is an appropriate measure of central tendency.

Solution:
1. Mean is a quantitative central tendency of a data.
Example:
For measuring central tendency of marks of a test we find the mean of the data.

2. Median is a qualitative central tendency of a data.
Example:
For measuring central tendency of beauty of a group of women, we determine the median of the data.

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