MP Board Class 9th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 7 सामाजिक समरसता
सामाजिक समरसता अभ्यास
बोध प्रश्न
सामाजिक समरसता अति लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
कृष्ण और सुदामा कौन थे?
उत्तर:
कृष्ण और सुदामा बाल्यावस्था के घनिष्ठ मित्र थे।
प्रश्न 2.
सुदामा की पत्नी ने उन्हें क्या सलाह दी?
उत्तर:
सुदामा की पत्नी ने सुदामा को यह सलाह दी कि तुम्हारे बचपन के मित्र श्रीकृष्ण द्वारिका के राजा हैं अतः इस विपत्ति में तुम उनके पास चले जाओ, वे तुम्हारी सहायता करेंगे।
प्रश्न 3.
शबरी के आश्रम में कौन आये थे?
उत्तर:
शबरी के आश्रम में राम और लक्ष्मण दोनों भाई आये थे।
प्रश्न 4.
शबरी ने राम को प्रेम सहित खाने को क्या दिया?
उत्तर:
शबरी ने राम को प्रेम सहित कन्द, मूल एवं फल खाने को दिए।
प्रश्न 5.
शबरी के मुँह से शब्द क्यों नहीं निकल पा रहे थे?
उत्तर:
शबरी श्रीराम के प्रेम में इतनी मग्न हो गई थी कि उसके मुँह से शब्द तक नहीं निकल पा रहे थे।
सामाजिक समरसता लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
शबरी ने अपने आश्रम में श्रीराम का किस प्रकार स्वागत किया?
उत्तर:
शबरी ने अपने आश्रम में राम का प्रेमपूर्वक स्वागत किया। उसने आदर के साथ जल लेकर प्रभु के चरण पखारे तत्पश्चात् उन्हें सुन्दर आसन पर बैठाया।
प्रश्न 2.
द्वारपाल द्वारा वर्णित सुदामा का चित्र अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
द्वारपाल ने जाकर श्रीकृष्ण से कहा कि हे प्रभु! एक अनजान व्यक्ति आया हुआ है, उसके सिर पर न तो पगड़ी है, और न शरीर पर झंगा है। न मालूम वह किस गाँव का रहने वाला है। उसकी धोती फटी हुई है और उसका दुपट्टा भी जीर्ण-शीर्ण है। वह अपने पैरों में जूते भी नहीं पहने हुए हैं। बड़े आश्चर्य से आपके महलों को देख रहा है और अपना नाम सुदामा बता रहा है।
प्रश्न 3.
सुदामा द्वारा पोटली न दिये जाने पर कृष्ण ने कौन-सी बातें याद दिलाईं ?
उत्तर:
सुदामा द्वारा सुदामा की पत्नी द्वारा भेजे गये चार मुट्ठी चावलों की पोटली न दिये जाने पर कृष्ण ने कहा कि हे मित्र! तुम चोरी की कला में बचपन से ही निपुण हो। जब बचपन में गुरुमाता ने हमें चबाने के लिए चने दिये थे तो तुमने चुपचाप चोरी से खा लिये थे संभवत: तुम्हारी वही चोरी की आदत आज भी नहीं छूटी है तभी तो तुम भाभी द्वारा दिये गये चावलों की पोटली को काँख में छिपाए हए हो।
प्रश्न 4.
बिना भक्ति के मनुष्य की स्थिति किस प्रकार की हो जाती है?
उत्तर:
बिना भक्ति के मनुष्य की स्थिति जलरहित बादलों के समान होती है अर्थात् जैसे जलरहित बादल किसी काम में नहीं आते हैं उसी तरह भक्ति रहित मनुष्य भी संसार में किसी के काम नहीं आता है।
प्रश्न 5.
शबरी और राम प्रसंग सामाजिक समरसता का अनूठा उदाहरण है, समझाइए।
उत्तर:
शबरी निम्न जाति की भीलनी थी और राम चक्रवर्ती सम्राट दशरथ के पुत्र थे पर जब श्रीराम वन में शबरी के आश्रम पर पहुँचे तो उसके आतिथ्य को बड़े ही प्रेम से स्वीकारा। उसके द्वारा परोसे गये कन्द, मूल और फलों को प्रेम से खाया। उन्होंने जाति-पाँति का भेद न करके प्रेम को महत्त्व प्रदान किया। इस प्रकार शबरी और राम प्रसंग सामाजिक समरसता का अनूठा उदाहरण है।
सामाजिक समरसता दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
श्रीकृष्ण और सुदामा की मैत्री का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर:
श्रीकृष्ण और सुदामा की मैत्री सच्ची थी। यह मैत्री बचपन में ही पाठशाला से शुरू होती है और जीवन भर चलती है। संयोग से कृष्ण द्वारिका के राजा बन जाते हैं और सुदामा दरिद्र बनकर भीख माँगकर अपना पेट पालता है। एक दिन सुदामा की पत्नी ने राजा श्रीकृष्ण के पास जाने की बात कही। पत्नी की बात मानकर सुदामा द्वारिका पहुँच जाते हैं। जब द्वारपाल के द्वारा सुदामा के आने की सूचना मिलती है, तो वे अपना राज-काज छोड़कर अपने मित्र का स्वागत करते हैं। मित्र सुदामा की दीन दशा देखकर वे अपने नेत्रों के आँसुओं से ही उनके पैर धो देते हैं। बिना सुदामा को बताये वे सुदामा को भी अपने समान सम्पन्न बना देते हैं।
प्रश्न 2.
सुदामा ने जब द्वारिका का वैभव देखा तो उनके मन में क्या विचार आए?
उत्तर:
सुदामा ने जब द्वारिका का वैभव देखा तो उनकी दृष्टि स्वर्ण निर्मित भवनों को देखकर चौंधिया गई। वहाँ उन्होंने देखा कि एक से बढ़कर एक द्वारिका के भवन हैं। वहाँ बिना पूछे कोई किसी से बात तक नहीं कर रहा है, ऐसा लगता है कि वहाँ के सभी लोग मौन साधकर देवताओं की तरह बैठे हुए हैं।
प्रश्न 3.
नवधा भक्ति समझाइए।
उत्तर:
श्रीराम ने भक्ति के नौ प्रकार बताए हैं, ये नौ प्रकार ही नवधा भक्ति के नाम से जाने जाते हैं। यह उपदेश श्रीराम ने शबरी को देते हुए कहा है कि प्रथम प्रकार की भक्ति संत पुरुषों की संगति है। दूसरी प्रकार की भक्ति मेरी कथा में प्रीति रखना है, तीसरी भक्ति गुरु के चरण कमलों की निरभिमान भाव से सेवा करना है। चौथी भक्ति कपट त्यागकर निश्छल हृदय से मेरा गुणगान करना है। पाँचवीं भक्ति मंत्रों का जाप करना, मुझ पर दृढ़ विश्वास करना और वेद विहित कर्म करना है।
छठी भक्ति इन्द्रियों को वश में रखना, शील धारण करना, सकाम कर्मों से विरक्त रहना और सज्जनों के धर्म का अनुसरण करना है। सातवीं प्रकार की भक्ति सारे संसार को मेरे स्वरूप में देखना, सब में समान भाव रखना तथा मुझसे भी अधिक सन्तपुरुषों को सम्मान देना है। आठवीं भक्ति जथा लाभ संतोष करना, स्वप्न में भी दूसरों के दोष न देखना है। नवीं भक्ति सबसे सरलता का व्यवहार करना, निष्कपट होना, मुझ पर अटूट श्रद्धा रखना, हृदय में प्रसन्नता का भाव रखना और स्वयं को दीनहीन न समझना है। आगे श्रीराम कहते हैं कि इन नौ प्रकार की भक्ति में से जिनके पास कोई एक भी हो, तो वह मनुष्य मुझे सम्पूर्ण संसार में प्रिय है।
प्रश्न 4.
निम्नलिखित काव्यांश की सप्रसंग व्याख्या कीजिए
(क) ऐसे बेहाल…………….पग धोए।
उत्तर:
कवि कहता है कि जब श्रीकृष्ण ने सुदामा की दयनीय दशा को देखा तो वे भावविह्वल हो उठे। वे उनके पैरों की बिवाइयों एवं पैरों में चुभे हुए काँटों को देखकर दुःखी हो उठे और फिर उन्होंने अपने मित्र से कहा कि हे मित्र! तुमने इतना कष्ट उठाया? तुम इधर अर्थात् हमारे पास क्यों नहीं आए? इतने दिन तक तुम कहाँ रहे? सुदामा की इस दीन दशा को देखकर करुणा के सागर श्रीकृष्ण अत्यन्त दुःख करके रोने लगे। सुदामा के पैरों को धोने के लिए परात में रखे हुए पानी को तो उन्होंने हाथ भी नहीं लगाया तथा अपने नेत्रों से झरने वाले आँसुओं से ही सुदामा के चरण धो डाले।
सामाजिक समरसता काव्य सौन्दर्य
प्रश्न 1.
रूढ़, यौगिक और योगरूढ़ शब्द छाँटिए-
पंकज, मित्र, गुरुबंधु, दीनबंधु, धर, मुकुट, किनारीदार, राजधर्म।
उत्तर:
रूढ़ शब्द-मित्र, धर, मुकुट। यौगिक शब्द-गुरुबंधु, दीनबंधु, किनारीदार। योगरूढ़ शब्द-पंकज, राजधर्म।
प्रश्न 2.
दिये गये शब्दों में उपसर्ग और प्रत्यय छाँटिए-
सुशील, परलोक, अनाथन, अधीर, बेहाल, चतुराई।
उत्तर:
उपसर्ग – सु + शील, पर + लोक, अ + धीर, बे + हाल।
प्रत्यय – अनाथन (न प्रत्यय), चतुराई (आई प्रत्यय।)
प्रश्न 3.
निम्नलिखित शब्दों के विलोम शब्द लिखिएसत्य, धर्म, प्रिय, सुलभ, सुमति, अहित, सुअवसर, संत।
उत्तर:
सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म, प्रिय-अप्रिय, सुलभ-दुर्लभ, सुमति-कुमति, अहित-हित, सुअवसरकुअवसर, संत-दुष्ट, असंत।
प्रश्न 4.
निम्नलिखित शब्दों के तीन-तीन पर्यायवाची शब्द लिखिए।
नभ, कमल, लोचन, जग, पिता।
उत्तर:
नभ – गगन, अम्बर, आकाश।
कमल – सरसिज, पंकज, वारिज।
लोचन – नेत्र, चक्षु, अक्षि।
जग – जगत्, संसार, लोक।
पिता – जनक; तात, पितृ।
प्रश्न 5.
ते दोउ बंधु………………तब कीन्हीं॥
चापत चरन………………जल जाता॥
उठे लषनु………………..राम सुजान।
(1) यह प्रसंग किस काव्य से लिया गया है?
उत्तर:
उपर्युक्त तीनों प्रसंग गोस्वामी तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस’ से लिए गये हैं।
(2) ‘रामचरितमानस’ के उपर्युक्त अंश में कौन-से छन्द आये हैं?
उत्तर:
‘रामचरितमानस’ के उपर्युक्त अंश में से प्रथम दो में चौपाई छन्द तथा अन्तिम में दोहा छन्द है।
(3) चौपाई और दोहा छन्द की क्या पहचान है?
उत्तर:
चौपाई-यह एक मात्रिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राएँ होती हैं। पहले तुक चरण की दूसरे चरण से और तीसरे चरण की चौथे चरण से मिलती है।
दोहा-यह एक मात्रिक छन्द है। इसके विषम चरणों में 13-13 मात्राएँ और सम चरणों में 11-11 मात्राएँ होती हैं। कुल 48 मात्राएँ होती हैं।
प्रश्न 6.
इस पाठ में किन-किन छन्दों को तुलसीदास ने अपनाया है ? प्रत्येक छन्द का इसी पाठ से एक-एक उदाहरण लिखिए।
उत्तर:
इस पाठ में तुलसीदास ने दोहा एवं चौपाई छन्दों को अपनाया है। उदाहरण प्रस्तुत हैं-
चौपाई-
जाति-पाँति कुल धर्म बड़ाई। धनबल परिजन गुन चतुराई।
भगतिहीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल वारिद देखिअ जैसा।
दोहा-
गुरु पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥
सुदामा चरित संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या
विप्र सुदामा बसत हो, सदा आपने धाम।
भीग माँगी भोजन करे, हिये जपत हरि नाम।
ताकी घरनी पतिव्रता, गहै वेद की रीति।
सलज सुसील सुबुद्धि अति, पति-सेवा सौं प्रीति॥
कहो, सुदामा एक दिन, कृष्ण हमारे मित्र।
करत रहित उपदेश तिय, ऐसो परम विचित्र ॥1॥
कठिन शब्दार्थ :
विप्र = ब्राह्मण; धाम = घर; हिये = हृदय में; घरनी = पत्नी; गहै = ग्रहण करती है, चलती है; सलज = लज्जाशील; सुबुद्धि = अच्छी बुद्धिवाली; सौं = से; प्रीति = प्रेम; तिय = पत्नी से।
सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश कविवर नरोत्तमदास रचित ‘सुदामा चरित्र’ से लिया गया है।
प्रसंग :
प्रस्तुत पद्य में कवि ने सुदामा की स्थिति और दिनचर्या का वर्णन किया है।
व्याख्या :
कविवर नरोत्तमदास जी कहते हैं कि ब्राह्मण सुदामा अपने घर में रहता था, वह भीख माँगकर भोजन करता था और अपने हृदय में हरि नाम का जाप करता रहता था। उनकी पत्नी बड़ी ही पतिव्रता थी और वह सदैव वेदों के बताये मार्ग पर चलती थी। वह लज्जाशील, सुशील एवं अच्छी बुद्धि वाली थी तथा सदैव पति की सेवा में लगी रहती थी। एक दिन सुदामा ने अपनी पत्नी से कहा कि कृष्ण मेरे मित्र हैं। इस मित्रता की बातें वह नित्य अपनी पत्नी से किया करता था।
विशेष :
- सुदामा कृष्ण के बाल सखा एवं सहपाठी थे।
- वे सन्तोषी ब्राह्मण थे तथा भिक्षाटन किया करते थे।
- सलज सुसील सुबुद्धि-में अनुप्रास अलंकार।
- भाषा सहज एवं सरल है।
स्त्री
लोचन-कमल दुख-मोचन तिलक भाल,
स्रबननि कुंडल मुकुट धरे माथ है।
ओढ़े पीत बसन गरे मैं, बैजयंती माल,
संख चक्र गदा और पदम लिय हाथ है।
कहत नरोतम संदीपनि गुरु के पास।
तुम ही कहत हम पढ़े एक साथ हैं।
द्वारिका के गए हरि दारिद हरेंगे पिय,
द्वारिका के नाथ वै अनाथन के नाथ हैं ॥2॥
कठिन शब्दार्थ :
लोचन = नेत्र; दुख मोचन = दुखों को दूर करने वाला; सवननि – कानों में; माथ = माथे पर; पीत बसन = पीले वस्त्र कर = हाथ; पद्म = कमल; संदीपनि गुरु = इन्हीं गुरु के आश्रम में कृष्ण और सुदामा सहपाठी थे; हरि = भगवान; दारिद = दरिद्रता; अनाथन = गरीबों के।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग ;
प्रस्तुत पद्यांश के पूर्वार्द्ध में सुदामा की पत्नी भगवान की रूप छवि का वर्णन करती है फिर वह अपने पति से द्वारिका जाने का आग्रह करती है।।
व्याख्या :
कविवर नरोत्तमदास जी कहते हैं कि सुदामा की पत्नी पहले तो भगवान की रूप छवि का वर्णन करती है कि भगवान के नेत्र कमल जैसे हैं और उनके माथे पर जो तिलक लगा हुआ है वह दु:खों का नाश करने वाला है। उनके कानों में कुंडल लटक रहे हैं तथा माथे पर मुकुट धारण किये हुए हैं। वे पीत वस्त्र ओढ़े हुए हैं तथा उनके गले में वैजयन्ती माला शोभा दे रही है। उनके चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा और कमल रखे हुए हैं।
नरोत्तम कवि कहते हैं कि सुदामा की पत्नी सुदामा से कहती है कि तुम्ही हमें यह बताया करते हो कि हम दोनों संदीपन गुरु के आश्रम में एक साथ ही पढ़ते थे। हे प्रियतम! श्रीकृष्ण तुम्हारे मित्र हैं तो तुम निश्चय ही द्वारका को चले जाओ। तुम्हारी दीन दशा देखकर वे तुम्हारे दरिद्रों को दूर कर देंगे। हे प्रिय! द्वारिका के नाथ भगवान श्रीकृष्ण अनाथों एवं बेसहारा लोगों के नाथ हैं अर्थात् उनको सहायता प्रदान करने वाले हैं।
विशेष :
- कवि ने पद के पूर्वार्द्ध में चतुर्भुज भगवान की मोहक रूप छवि का वर्णन किया है।
- श्रीकृष्ण और सुदामा संदीपन गुरु के आश्रम में एक साथ पढ़े थे।
- अनुप्रास अलंकार।
- भाषा सहज एवं सरल।
सुदामा
सिच्छक हौं सिगरे जग को तिय, ताको कहा अब देति है सिच्छा
जे तप ते परलोक सुधारत, संपति की तिनके नहि इच्छा
मेरे हिये हरि के पद पंकज, बार हजार लै देखि परीच्छा।
औरन को धन चाहिए, बावरि, बामन को धन केवल भिच्छा ॥3॥
कठिन शब्दार्थ :
सिच्छक = शिक्षक: सिगरे = सम्पूर्णः तिय = पत्नी; हिये = हृदय में; पद पंकज = चरण रूपी कमल; परीच्छा = परीक्षा; बावरि = पगली; बामन = ब्राह्मण।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
इस पद में सुदामा अपनी पत्नी को समझाते हुए कहता है कि ब्राह्मण को कभी धन की इच्छा नहीं करनी चाहिए।
व्याख्या :
हे प्रिय! तू जो बार-बार श्रीकृष्ण के पास द्वारिका जाने की शिक्षा दे रही है सो तो ठीक है पर तू यह भी अच्छी तरह से जान ले कि मैं ब्राह्मण होने के नाते सारे संसार का शिक्षक हूँ और अब तू उसी ब्राह्मण को इस प्रकार की शिक्षा दे रही है। हम ब्राह्मणों का धर्म तो तपस्या करके अपने परलोक को सुधारना है और साथ ही हममें सम्पत्ति एवं धन के लिए नाममात्र की भी इच्छा नहीं है।
हे प्रिय! मेरे हृदय में तो सदैव भगवान के चरण-कमल विराजे रहते हैं चाहे तू हजार बार मेरी परीक्षा लेकर देख ले। हे पगली स्त्री! धन की चाहना तो और जाति के लोग करते हैं हमारा धन तो केवल भिक्षा ही है।
विशेष :
- सुदामा एक संतोषी ब्राह्मण थे। उन्हें भौतिक सुखों से कोई लगाव नहीं था।
- पद पंकज में रूपक, अन्यत्र-अनुप्रास अलंकार।
- भाषा सहज एवं सरल।
स्त्री
कोदा सवाँ जुरतो भरि पेट, न चाहति हौं दधि दूध मिठौती।
सीत वितीत कियो सिसयातहि हों, हठती मैं तुम्हें न हठौती॥
जो जनती न हित हरि सों तुम्हें काहे को द्वारके पेलि पठौती।
या घर तें न गयौ कबहूँ पिय, टूटो तवा अरू फूटी कठौती ॥4॥
शब्दार्थ :
कोदा सवाँ = चावल की सबसे घटिया किस्म; मिठौती = मिष्ठान्न; सीत = जाड़ा; वितीत = बिता दिया; सिसयातहि = ठिठुरते हुए; हठती = अपनी जिद्द से हट जाती; न हठौती = तुम्हें तुम्हारी जिद्द से न हटाती; हितू = मित्रता; पेलि पठौती = जबरन भेजती; अरु = और; कठौती = काठ (लकड़ी) की परात जिसमें आटा गूंथा जाता है।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
प्रस्तुत पद में सुदामा की पत्नी अपनी दयनीय दशा का वर्णन करते हुए सुदामा को कृष्ण के पास जाने का आग्रह करती है।
व्याख्या :
सुदामा की पत्नी सुदामा से कह रही है कि यदि मुझे भर पेट कोदों और सवों के चावल भी मिल जाते तो मैं कभी भी दही, दूध और मिठाई की चाहना न करती। जाड़े की रातें मैंने ठिठुरते हुए ही बिता दीं। मैं अपनी जिद्द (कि तुम द्वारिका चले जाओ) से हट जाती पर तुम्हें तुम्हारी जिद्द से न हटाती। यदि मुझे यह पता न होता कि श्रीकृष्ण से तुम्हारी मित्रता है तो मैं तुम्हें जबरन द्वारिका भेजने की जिद्द न करती। हे पतिदेव! हमारा तो यह दुर्भाग्य है कि इस घर से कभी भी टूटा हुआ तवा और फूटी हुई कठौती नहीं गई।
विशेष :
- गरीबी की दयनीय दशा का वर्णन है।
- सुदामा की पत्नी कष्टों को सहने वाली है।
- भाषा सहज एवं सरल।
सुदामा
छोड़ि सबै जक तोहिं लगी बक, आठहु जाम यहै जक ठानी।
जातहि देहें लदाय लढ़ा भरि, लैहों लदाय यह जिय जानी॥
पार्वै कहां ते अटारी अटा, जिनके विधि दीन्हीं है टूटी-सी छानी।
जो पै दरिद्र लिखो है ललाट तो, काहू पै मेटि न जात अजानी ॥5॥
कठिन शब्दार्थ :
जक = बातें; बक= वे सिर पैर की बातें कहना; आठहु जाम = आठों पहर अर्थात् चौबीस घण्टे; जक = जिद्द, जातहिं = जाते ही; लढ़ा = बैलगाड़ी; लैहों लदाय = मैं लदा लूँगा, भर लूँगा; यहै= यही बात; जिय जानी = अपने हृदय में मान लिया है; अटारी अटा = ऊँची-ऊँची हवेलियाँ, महल; विधि = भाग्य में; छानी = छप्पर; दरिद्र = गरीबी; ललाट = भाग्य में; अजानी = हे अज्ञानी स्त्री।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
कवि कहता है कि पत्नी की द्वारिका (श्रीकृष्ण के पास) जाने की जिद्द का उत्तर देते हुए सुदामा कहते हैं।
व्याख्या :
कवि कहता है कि सुदामा अपनी पत्नी से कहते हैं कि तूने और सब सार्थक बातें करना तो छोड़ दिया है केवल निराधार एक ही बात की रट लगाये हुए है, अब तू चौबीस घण्टे केवल एक ही बात को लेकर अड़ गयी है। तू यह समझती है कि जैसे ही मैं द्वारिका पहुँचूँगा तो वे गाड़ी भरकर मुझे दे देंगे और मैं उस धन सम्पत्ति को लदाकर तेरे पास आ जाऊँगा। हे बावली स्त्री! तू यह क्यों नहीं सोचती है कि विधाता ने जिनके भाग्य में टूटा-सा छप्पर दिया है, वे ऊँचे-ऊँचे महल और हवेलियाँ कहाँ से प्राप्त कर लेंगे। हे अज्ञानी स्त्री ! जिनके भाग्य में दरिद्रता लिखी हुई है वह किसी से भी मिटाये नहीं मिटती है।
विशेष :
- सुदामा भाग्यवादी है।
- पत्नी अपने मन में यह समझती है कि कृष्ण मित्र सुदामा को धन वैभव से सम्पन्न कर देंगे।
- अनुप्रास अलंकार की छटा।
स्त्री
बिप्र के भगत हरि जगत विदित बंधु,
लेत सब ही की सुध ऐसे महादानि हैं।
पढ़े एक चटसार कहीं तुम कैयो बार,
लोचन-अपार वै तुम्हें न पहिचानि हैं,
एक दीनबंधु, कृपासिंधु फेरि गुरुबंधु,
तुम-सम कौन दीन जाको जिय जानी है?
नाम लेत चौगुनी, गए तें द्वारा सोगुनी सो,
देखत सहस्र गुनी प्रीति प्रभु मानि है ॥6॥
कठिन शब्दार्थ :
विप्र के भगत = ब्राह्मणों के भक्त; हरि = श्रीकृष्ण; जगत् = संसार में; विदित = जाने जाते हैं; सुधि = खबर; चटसार = पाठशाला में; कैयो बार = अनेक बार; लोचन-अपार = उनकी दृष्टि महान् एवं दूरदर्शी है; दीनबंधु = गरीबों के भाई; कृपासिंधु = कृपा के सागर; सम= समान; सहस्त्र = हजार गुनी।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
सुदामा के वचनों का उत्तर देती हुई उनकी पत्नी कहती है।
व्याख्या :
सुदामा की पत्नी सुदामा से कहती है कि भगवान श्रीकृष्ण ब्राह्मणों के भक्त हैं, वे एक श्रेष्ठ बंधु हैं यह बात सारा संसार जानता है। वे तो ऐसे महादानी हैं कि वे सभी प्राणियों की खबर लेते रहते हैं। तुमने तो मुझसे अनेक बार कहा है कि तुम श्रीकृष्ण के साथ एक ही पाठशाला में पढ़े हो, उनकी दृष्टि बड़ी अपार है, फिर वे तुम्हें क्यों नहीं पहचान लेंगे ? अर्थात् अवश्य पहचान लेंगे। एक तो वे श्रीकृष्ण दीन लोगों के सच्चे बंधु हैं, वे कृपा के सागर हैं और फिर तुम्हारे तो वे गुरुभाई हैं। इस समय तुम्हारे समान दुनिया में कौन दीन है जिसको वे अपने हृदय में नहीं जानते होंगे ? अर्थात् वे तुम्हारी दीनता को अवश्य ही जानते होंगे। अंत में सुदामा की पत्नी सुदामा से कहती है कि प्रभु श्रीकृष्ण का नाम लेते ही प्रभु भक्त के प्रेमभाव को चौगुना, उनके यहाँ जाने पर प्रेमभाव को सौ गुना और उनका दर्शन करते ही प्रेमभाव को वे हजार गुना मानते हैं।
विशेष :
- अपने वाक् चातुर्य से सुदामा की पत्नी सुदामा को निरुत्तर कर देती है।
- अनुप्रास की छटा।
- भाषा सहज, सरल एवं भावानुकूल है।
सुदामा
द्वारिका जाहु जू द्वारिका जाहू जू, आठहु जाम यहै जक तेरे।
जौ न कहो करिए तो बड़ो दुख, जैए कहाँ अपनी गति हेरे॥
द्वार खरे प्रभु के छरिया, तहं भूपति जान न पावत नेरे।
पाँच सुपारी तें देंखु विचारिक, भेंट को चारि न चाउर मेरे॥
यह सुनिके तब ब्राह्मनी, गई परोसिनि-पास।
पाव-सेर चाउर लिए, आई संहित हुलास॥
सिद्धि करी गनपति सुमिरि, बांधि दुपटिया खूट।
मांगत खात चले तहाँ, मारग बाली-बूट॥
दीठि चकचौँधि गई देखते सुबर्नमई,
एक तें सरस एक द्वारिका के भौन हैं।
पूछे बिन कोऊ कहूं काहू सौं न करें बात,
देवता से बैठे सब साधि-साधि मौन हैं।
देखत सुदामें धाय पौरजन गहे पाय,
कृपा करि कहौ विप्र कहाँ कीन्ह गौन है?
धीरज अधीर के, हरन पर पीर के,
बताओ बलबीर के महल यहाँ कौन है? ॥7॥
कठिन शब्दार्थ :
जक = जिद्द; जैए कहाँ = कहाँ जाएँ; गति = दशा; हेरे = देखें; छरिया = हाथ में दण्ड धारण किये हुए; तहँ = उस स्थान पर; भूपति = राजा लोग; जान न पावत = जा नहीं पाते हैं; नेरे = समीप; चाउर = चावल; ब्राह्मनी = ब्राह्मण सुदामा की पत्नी; सहित हुलास = आनन्द के साथ; गनपति = गणेशजी; सुमिरि = स्मरण करके; दुपटिया = दुपट्टे में; छूट = गाँठ; दीठि= दृष्टि; चकचौंधि = चौंधिया गई; सुबर्नमई = स्वर्ण से बनी हुई; सरस = सुन्दर; भौन = भवन, महल; साधि-साधि मौन है = मौन धारण कर सब बैठे हुए हैं; धाय = दौड़कर; पौर जन = नगर निवासी; गहे पाय = चरण पकड़ लिए; विप्र = ब्राह्मण; गौन = गमन, जाना; धीरज अधीर के = अधीर लोगों को धीरज देने वाले; हरन पर पीर के = दूसरों की पीड़ा को हरने वाले बलबीर = बलदाऊ के भाई अर्थात् श्रीकृष्ण।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
सुदामा अपनी पत्नी द्वारा बार-बार कहे जाने पर विवश होकर द्वारिका जाने को तैयार हो जाते हैं, उसी समय का वर्णन है।
व्याख्या :
सुदामा जी अपनी पत्नी से कहते हैं कि तुमने तो द्वारिका जाने की एक तरह से आठों पहर रट लगा रखी है। यदि मैं तुम्हारी बात नहीं मानता हूँ तो तुम्हें बहुत दुःख होगा और यदि मैं तुम्हारी बात मानकर द्वारिका चला भी जाऊँ तो मेरी स्थिति कैसी होगी, यह तुम नहीं जानती हो। जब मैं वहाँ पहुँचूँगा तो श्रीकृष्ण के महल के बाहर दण्डधारी द्वारपाल खड़े मिलेंगे, उस जगह बड़े-बड़े राजा भी सरलता से नहीं जा सकते हैं फिर मेरी तो बिसात ही क्या है? शायद तुम यह भी नहीं जानती हो कि राजा के पास कभी भी खाली हाथ नहीं जाया जाता है। वहाँ जाने के लिए कम-से-कम पाँच सुपाड़ी तो होनी ही चाहिए जो मेरे पास नहीं है। इतना ही नहीं यदि पाँच सुपाड़ी न भी हों तो कम से कम चार मुट्ठी चावल तो होना ही चाहिए, संयोग से वह भी हमारे घर नहीं है। तो सोचो ऐसी दशा में वहाँ जाना कैसे सम्भव है।
सुदामा के मुख से यह बात सुनकर तब सुदामा की पत्नी अपनी पड़ोसिन के पास गई और उससे पाव भर चावल उधार लेकर बड़े ही उल्लास एवं उमंग के साथ आ गई। सबसे पहले भगवान! गणेश का स्मरण कर और अपने दुपट्टे के एक छोर में चावल रखकर तथा उसमें गाँठ लगाकर और उसे कन्धे पर रखकर माँग कर खाते हुए वे द्वारिका के मार्ग पर चल निकले।
सुदामा जी बीहड़ मार्ग को पार कर जैसे ही द्वारिका नगरी में पहुँचते हैं तो वहाँ के स्वर्ण निर्मित जगमगाते हुए भवनों को देखकर जो एक से एक सुन्दर हैं, उनकी दृष्टि चौंधिया जाती है। वहाँ के लोगों की एक विचित्र दशा यह है कि कोई भी व्यक्ति बिना पूछे किसी से कोई बात ही नहीं कर रहा है तथा वे सभी लोग अपना-अपना मौन साधकर देवता जैसे बैठे हए हैं।
जैसे ही द्वारिका के नागरिकों ने सुदामा को देखा तो उन्होंने दौड़कर सुदामा के पैर पकड़ लिए और विनती करके कहने लगे कि हे विप्रवर! कृपा करके यह बतलाएँ कि आपको कहाँ जाना है? यह बात सुनकर सुदामा बोले कि जो अधीर लोगों को धैर्य धारण कराते हैं, दूसरों की पीड़ा को हरते हैं तथा जो बलराम के भाई हैं, उन्हीं का घर कृपया बता दीजिए।
विशेष :
- सुदामा की सहज भावना का वर्णन किया गया है।
- अनुप्रास की छटा है।
- भाषा सहज, सरल एवं भावानुकूल है।
- शास्त्रों के अनुसार मान्यता है कि राजा एवं गुरु के पास कभी भी खाली हाथ नहीं जाना चाहिए।
द्वारपाल
सीस पगा न झगा तन पै, प्रभु जाने को आहि, बसै केहि ग्रामा।
धोती फटी सी लटी दुपटी, अरूपाय उपानह की नहि सामा॥
द्वार खरौ द्विज दुर्बल एक, रह्यो चकि सौ बसुधा अभिरामा।
पूछत दीनदयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा ॥8॥
कठिन शब्दाधं :
सीस = सिर पर; पगा = पगड़ी; झगा = झंगा एक प्रकार का कुर्ता; आहि = है; बसै = रहता है; केहि= कौन से; ग्रामा = गाँव में; लटी दुपटी = दुपट्टा जीर्ण-शीर्ण है; अरु = और; उपानह = जूता; सामा = सामर्थ्य; खरौ = खड़ा है; दुर्बल = कमजोर; चकि = चकित होकर; वसुधा = पृथ्वी; अभिरामा = सुन्दर; धाम = भवन।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
सुदामा के द्वारिका पहुँचने पर श्रीकृष्ण का द्वारपाल श्रीकृष्ण को सुदामा की वेशभूषा के बारे में बताता है।
व्याख्या ;
द्वारपाल ने श्रीकृष्ण से कहा कि हे प्रभु! कोई एक अनजान व्यक्ति आपसे मिलता चाहता है। उसके सिर पर न तो पगड़ी है और न शरीर पर झंगा ही है। न जाने वह कौन है और किस गाँव में रहता है। उसकी धोती फटी हुई है और उसका दुपट्टा भी चीथड़ा बना हुआ है। उसके पैरों में जूते भी नहीं हैं। हे प्रभु! द्वार पर इस प्रकार का एक अत्यन्त दीन एवं कृशकाय ब्राह्मण खड़ा हुआ है। वह बड़े आश्चर्य से इस सुन्दर भूमि को देख रहा है। वह दीनदयाल श्रीकृष्ण अर्थात् आपका भवन पूछ रहा है और अपना नाम सुदामा बता रहा है।
विशेष :
- कवि ने सुदामा की दीन-हीन दशा का बड़ा ही मार्मिक वर्णन किया है।
- अनुप्रास अलंकार की छटा।
- भाषा सहज, सरल एवं भावानुकूल।
बोल्यौ द्वारपालक सुदामा नाम पांडे,
सुनि, छांड़े राज-काज ऐसे जी की गति जाने को?
द्वारिका के नाथ हाथ जोरि धाय गहे पाँय,
भेंट लपटाय करि ऐसे दुख सानै को?
नैन दोऊ जल भरि पूछत कुसल हरि,
बिप्र बौल्यौ बिपदा में मोहि पहिचाने को?
जैसी तुम करी तैसी करै को कृपा के सिन्धु।
ऐसी प्रीति दीनबंधु दीनन सो माने को? ॥9॥
कठिन शब्दार्थ :
छांड़े = छोड़ दिए; गति = दशा; को = कौन; धाय = दौड़कर; भेंट = गले लगना; विपदा = विपत्ति; मोहि = मुझे कृपा के सिंधु = दया के सागर; दीनबन्धु = दीनों के बंधु; दीनन = गरीबों से।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यांश में उस समय का वर्णन है जब द्वारपाल ने श्रीकृष्ण के पास जाकर सुदामा नाम बताया तो श्रीकृष्ण राज-काज छोड़कर सुदामा से मिलने के लिए पैदल ही दौड़ पड़े।
व्याख्या :
कवि कहता है कि जैसे ही द्वारपाल ने श्रीकृष्ण को यह बताया कि कोई सुदामा नाम का ब्राह्मण आपका धाम पूछ रहा है तो श्रीकृष्ण राज-काज को छोड़कर सुदामा से मिलने के लिए व्याकुल हो उठे। उस समय उनके हृदय की गति को कोई नहीं समझ सकता। द्वारिका के नाथ श्रीकृष्ण ने हाथ जोड़कर तथा दौड़कर सुदामा के पैर पकड़ लिए और फिर उन्हें गले से लगाकर उनकी दुःखभरी दीन स्थिति को देखकर दोनों नेत्रों में जल भरकर सुदामा की कुशल क्षेम पूछने लगे। श्रीकृष्ण से इतना अधिक प्रेम पाकर सुदामा भाव-विभोर होकर श्रीकृष्ण से कहने लगे कि हे प्रभु! इस विपत्ति काल में मुझे कौन पहचानता है? अर्थात् कोई नहीं। किन्तु हे दया के सागर ! जिस प्रकार से आपने मेरा सम्मान किया और कुशल क्षेम पूछी, इस प्रकार की प्रीति आपके अतिरिक्त और कौन कर सकता है? अर्थात् कोई नहीं। आप दीनों के बंधु हैं, दीनों की कुशल क्षेम पूछते हैं अन्यथा अन्य कोई तो दीनों को समझता ही कहाँ है?
विशेष :
- दीन सुदामा और दीनबन्धु श्रीकृष्ण की भेंट का बड़ा ही भावपूर्ण चित्रण हुआ है।
- कृष्ण एवं सुदामा की मानसिक दशा का सूक्ष्म वर्णन हुआ है।
- अनुप्रास अलंकार।
- सहज एवं सरल ब्रजभाषा का प्रयोग।
ऐसे बेहाल बेवाइन सों, पग कंटक जाल लगे पुनि जोए।
हाय महादुख पायो सखा, तुम आए इतै न कितै दिन खोए।।
देखि सुदामा की दीनं दसा, करुना करिकै करुनानिधि रोए।
पानी परात को हाथ छुयौ नहिं, नैनन के जल सों पग धोए ॥10॥
कठिन शब्दार्थ :
बेहाल = बुरी दशा में; बेवाइन = फटे हुए पैरों के घाव; कंटक जाल = काँटों का झुण्ड; जोए = देखने लगे; इतै = इधर; कितै = किधर; दीन दसा = दयनीय दशा; करुणानिधि = करुणा के सागर; नैनन के जल = आँसुओं से; पग = पैर।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
श्रीकृष्ण और सुदामा की भेंट होने पर सुदामा की दीनदशा, फटी हुई बिवाइयों एवं पैरों में लगे हुए काँटों को देखकर श्रीकृष्ण भाव विह्वल हो उठते हैं। उसी का यहाँ वर्णन है।
व्याख्या :
कवि कहता है कि जब श्रीकृष्ण ने सुदामा की दयनीय दशा को देखा तो वे भावविह्वल हो उठे। वे उनके पैरों की बिवाइयों एवं पैरों में चुभे हुए काँटों को देखकर दुःखी हो उठे और फिर उन्होंने अपने मित्र से कहा कि हे मित्र! तुमने इतना कष्ट उठाया? तुम इधर अर्थात् हमारे पास क्यों नहीं आए? इतने दिन तक तुम कहाँ रहे? सुदामा की इस दीन दशा को देखकर करुणा के सागर श्रीकृष्ण अत्यन्त दुःख करके रोने लगे। सुदामा के पैरों को धोने के लिए परात में रखे हुए पानी को तो उन्होंने हाथ भी नहीं लगाया तथा अपने नेत्रों से झरने वाले आँसुओं से ही सुदामा के चरण धो डाले।
विशेष :
- कवि ने कृष्ण सुदामा की सच्ची मित्रता का अत्यन्त भावग्राही चित्रण किया है।
- भगवान तो वास्तव में सच्ची भक्ति के वश में रहते हैं। इसी भाव का यहाँ अंकन हुआ है।
- पानी परात को हाथ छुओ नहिं नैनन के जल सों पग धोए-में अतिशयोक्ति अलंकार।
- भाषा सहज, सरल एवं भावानुकूल है।
श्रीकृष्ण
कछु भाभी हमको दियो, सो तुम काहे न देत।
चाँपी पोटरी काँख में, रहे कहो केहि हेत॥
आगे चना गुरु-माता देत ते लए तुम चाबि हमें नहिं दीने।
स्याम कहो मुसुकाय सुदामा सों, चोरी की बानि मैं हो जू प्रबीने॥
पोटरी काँख में चाँपि रहे तुम, खोलत नाहिं सुधा-रस भीने।
पाछिली बानि अजौ न तजौ तुम, तैसेइ भाभी के तंदुल कीने॥
देनो हुतो तो दे चुके, बिप्र न जानी गाथ।
चलती बेर गोपालजू, कछु न दीन्हौ हाथ ॥11॥
कठिन शब्दार्थ :
चाँपी = दबा रखी है; पोटरी = पुटरिया; = केहि हेत = किस लिए; गुरु माता = संदीपनि गुरु की धर्म पत्नी; चाबि = चबा कर खा लिए; बानि = आदत; प्रबीने = चतुर; सुधारस भीने = अमृत रस से सिक्त; पाछिली = पुरानी; अजौ = अब भी; तंदुल = चावल; गाथ = कहानी; बेर = समय।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
सुदामा श्रीकृष्ण की भेंट के समय यद्यपि अपनी पत्नी के हाथ से चार मुट्ठी चावल श्रीकृष्ण को देने के लिए लाये थे, पर वे संकोचवश उन्हें नहीं दे सके तो श्रीकृष्ण ने उनकी काँख में दबी हुई पोटली के बारे में पूछ ही लिया, उसी का यहाँ वर्णन है।
व्याख्या :
कवि कहता है कि श्रीकृष्ण ने अपने मित्र सुदामा से पूछा कि क्या मेरी भाभी ने हमारे लिए कुछ भेंट के रूप में भेजा है? जो हमारी भाभी ने मेरे लिए भेंट भेजी है उसे तुम मुझे क्यों नहीं देते हो? बताओ तो सही भाभी द्वारा दी हुई भेंट की पोटरी को तुम काँख में किसलिए छिपाए हुए हो?
फिर श्रीकृष्ण बचपन की एक घटना सुदामा को स्मरण दिलाते हुए सुनाते हैं कि बचपन में जब हम तुम एक साथ पाठशाला में पढ़ते थे तो गुरुमाता ने जंगल से ईंधन लाने के लिए हम दोनों को भेजा था और साथ ही गुरुमाता ने चबाने के लिए कुछ भुने हुए चने भी बाँधकर तुम्हें दे दिए थे कि जब भूख लगे तो तुम दोनों खा लेना लेकिन तुमने मेरे साथ कपट किया और अकेले ही उन चनों को चबा लिया था। फिर श्रीकृष्ण मुस्कराकर सुदामा से कहते हैं कि हे मित्र! तुम तो बचपन से ही चोरी की कला में चतुर रहे हो। तुम काँख में दबी हुई उस पोटरी को क्यों नहीं खोल रहे हो जिसमें अमृत रस से भीगे हुए चावल रखे हुए हैं। ऐसा लगता है कि तुमने अपनी पिछली चोरी की आदत आज भी नहीं छोड़ी है और इसी कारण मेरी भाभी द्वारा भेजे. चावलों को भी तुम मुझसे छिपा रहे हो। – इस प्रकार अपने मित्र के दुःखों को दूर करने हेतु श्रीकृष्ण जो कुछ भी दे सकते थे वह उन्होंने बिना सुदामा को बताये दे दिया लेकिन प्रत्यक्ष रूप में गोपाल जी ने उनके हाथ में कुछ नहीं दिया।
विशेष :
- अन्तिम दो पंक्तियों में श्रीकृष्ण ने प्रत्यक्ष रूप में तो सुदामा को कुछ नहीं दिया पर अप्रत्यक्ष रूप से उन्हें दो लोक का स्वामी बना दिया है।
- अनुप्रास अलंकार की छटा।
- भाषा, सहज, सरल एवं भावानुकूल है।
सुदामा
वह पुलकनि वह उठि मिलनी, वह आदर की भांति।
यह पठवनि गोपाल की, कछु न जानी जाति॥
घर-घर कर ओड़त फिरे, तनक दही के काज।
कहो भयौ जो अब भयौ, हरिको राज-समाज॥
हौं कब इत आवत हुतौ, बाही पठयौ ठेलि।
कहिहौ धन सो जाइकै, अब धन धरौ सकेलि ॥12॥
कठिन शब्दार्थ :
पुलकनि = पुलकित दशा, रोमांचित होना; पठवनि = भेजना; घर-घर = द्वार-द्वार पर; ओड़त-फिरे = माँगते फिरते हैं; तनक= थोड़े; कहो भयौ = जो कुछ मैं कहता था; जो अब भयौ = वही हो गया; इत = इधर; आवत हुतौ = आना चाह रहा था; बाही = उसी ने अर्थात् मेरी पत्नी ने; पठ्यौ ठेलि= जबरदस्ती भेज दिया; धरौ सकेलि = इकट्ठा करके धर लो।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
प्रकट में श्रीकृष्ण ने जब सुदामा को कुछ नहीं दिया तो सुदामा हतोत्साहित होकर अपनी व्यथा का वर्णन करते हैं।
व्याख्या :
कवि कहता है कि सुदामा श्रीकृष्ण की भेंट के समय दोनों में कैसी पुलकन थी, कैसा दोनों का उठना-बैठना और मिलना था और कैसा श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया आदर-सम्मान था? श्रीकृष्ण ने जब सुदामा को विदा किया तो कैसे किया? ये बातें कोई भी जान नहीं सका अर्थात् श्रीकृष्ण ने अपने मित्र की दशा देखकर उन्हें जो दो लोकों का राज्य दे दिया उसे केवल श्रीकृष्ण के अलावा कोई नहीं जानता था।
सुदामा निराश होकर कहने लग जाते हैं कि मैं तो थोड़े-से दही की चाहना में द्वार-द्वार भीख माँगता फिरता था लेकिन उस दशा में भी मैं सन्तुष्ट था लेकिन पत्नी की हठ के कारण यहाँ श्रीकृष्ण की द्वारिका में आकर मुझे क्या प्राप्त हुआ अर्थात् कुछ भी नहीं। राजाओं के राज-समाज की तो अनोखी गति होती है। मैं तो इधर किसी भी कीमत पर आना नहीं चाहता था पर मेरी उस घरवाली ने मुझे जबरन जिद्द करके इधर द्वारिका भेज दिया। अब मैं घर लौटकर अपनी गृहिणी से कहूँगा कि मैं जो अपने साथ बहुत सारा धन लेकर आया हूँ उसे तुम भली-भाँति सजाकर रख लो।
विशेष :
- सुदामा की खीझ का वर्णन है।
- अनुप्रास की छटा।
- भाषा सहज, सरल एवं भावानुकूल।
वैसेई राज-समाज बने, गज-बाजि घने, मन संभ्रम छायौ।
वैसेई कंचन के सब धाम है, द्वारिकै माहि नौं फिरी आयो।
भौन बिलोकि ये को मन लोचत-सोचत ही सब गाँव मँझायो।
पूछत पांडे फिर सबसों, पर झोंपरी को कहुँ खोज न पायो।। ॥13॥
कठिन शब्दार्थ ;
वैसेई = वैसे ही; गज-बाजि = हाथी घोड़े; घने = बहुत अधिक; संभ्रम = धोखा, भ्रम; कंचन = सोना; धाम = महल; बिलोकि = देखकर, मंझायो = ढूँढ़ डाला।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
यहां उस समय का वर्णन है जब सुदामा लौटकर अपने घर आ जाते हैं पर यहाँ के ठाठ-बाट देखकर वे चकरा जाते हैं कि कहीं मैं पुनः लौटकर द्वारिका तो नहीं पहुँच गया।
व्याख्या :
कवि कहता है कि जब सुदामा द्वारिका से लौटकर अपने घर वापस आते हैं तो उन्हें वैसे ही ठाठ-बाट यहाँ देखने को मिलते हैं। वे देखते हैं कि यहाँ भी वैसा ही राज-समाज बैठा हुआ है जैसा कि द्वारिका में था। वैसे ही हाथी, घोड़े और सोने के महल हैं। सुदामा को लगता है कि कहीं वह भूलकर फिर से द्वारिका तो नहीं आ गया है। सारे भवनों को देखते-देखते उन्होंने पूरा गाँव घूम लिया वे सभी लोगों से अपनी पुरानी झोंपड़ी के बारे में पूछते हैं पर उन्हें अपनी वह पुरानी झोंपड़ी नहीं मिली।
विशेष :
- अपने घर की नई बसावट एवं सजावट देखकर सुदामा को भ्रम उत्पन्न हो जाता है कि कहीं वे लौटकर फिर द्वारिका तो नहीं आ गये।
- भाषा सहज, सरल एवं भावपूर्ण है।
कनक दंड कर में लिए, द्वारपाल है द्वार।
जाय दिखायौ सबनि लै, या है महल तुम्हार॥
टूटी-सी मडैया मेरी परी हुती याही ठौर,
तामै परो दु:ख काटौं हेम-धाम री।
जेवर-जराऊ तुम साजे प्रति अंग-अंग,
सखी सोहें, संग वह छूछी हुती छाम री॥
तुम तौ पटंबर री ओढ़े हो किनारीदार।
सारी जरतारी, वह ओढ़े कारी कामरी।
मेरी वा पँडाइन तिहानी अनुहार ही पै,
विपदा-सताई वह पाई कहाँ पामरी।। ॥14॥
कठिन शब्दार्थ :
कनक दंड = सोने का दण्डा; सबनि = सबने; मडैया = छाया हुआ छोटा-सा छप्पर; परी-हुती = पड़ी हुई थी; याही ठौर = इसी स्थान पर; हेम-धाम = स्वर्ण निर्मित महल; जेवर-जराऊ = जड़े हुए जेवर; साजे = सज रहे हैं; प्रति अंग-अंग = हर अंग में; छूछी हुती = बिना आभूषण के; छामरी = पतली दुबली; पटंबर = ऊपरी वस्त्र; सारी = साड़ी; जरतारी = जरदोई के काम वाली; कारी कामरी = काला कम्बल; पँडाइन = पंडिताइन; अनुहार ही पै = तुम्हारी जैसी ही; विपदा = विपत्ति; पामरी = बेचारी।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग ;
सुदामा जी द्वारिका से जब अपने घर लौटते हैं तो वहाँ की भव्य अभिराम छवि को देखकर वे हक्के-बक्के रह जाते हैं और अपनी टूटी-सी छानी तथा अपनी पंडिताइन को ढूँढ़ते फिरते हैं, इसी का यहाँ वर्णन है।
व्याख्या :
कवि कहता है कि जब सुदामा श्रीकृष्ण से भेंट करने के पश्चात् द्वारिका से अपने घर वापस आते हैं तो भगवान की कृपा से सुदामा के घर पर कंचन बरसने लगता है। उनके मकान आदि भी वैसे ही भव्य हो जाते हैं जैसे कि द्वारिका में थे तो वे आश्चर्य चकित होकर कहने लगते हैं कि यहाँ तो द्वार पर खड़े द्वारपाल अपने हाथों में स्वर्ण निर्मित डण्डा लिए हुए हैं। फिर नगर के अन्य लोगों ने सुदामा को ले जाकर उन्हें बताया कि यही तुम्हारा महल है।
इस पर सुदामा कहने लगते हैं कि मेरी तो इस स्थान पर टूटी सी मडैया खड़ी हुई थी, उसी में मैं अपने दुःखों को काटता रहता था, पर अब यहाँ स्वर्ण निर्मित भवन कहाँ से आ गये? उसी घर पर एक स्त्री खड़ी हुई मिलती है उसे देखकर सुसुदामा जी कहते हैं कि हे भाग्यवती! तुम्हारे अंग-प्रत्यंग पर तो जड़ाऊ जेवर शोभा दे रहे हैं साथ ही तुम्हारे साथ तो सखियाँ भी हैं लेकिन मेरी वह पंडिताइन तो बिना किसी आभूषण के पतली-दुबली सी थी। तुम तो किनारीदार पटंबर पहने हुए हो साथ ही तुम्हारी साड़ी भी जरदोई के काम से युक्त है लेकिन मेरी पंडिताइन तो केवल काली कामरी ओढ़े रहती थी। इतना अवश्य है कि मेरी वह पंडिताइन तुम जैसी ही लगती थी। विपत्ति ने मेरा साथ नहीं छोड़ा है। मैं अपनी उस भोली-भाली पंडिताइन को कहाँ से पा सकूँगा।
विशेष :
- भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी कृपा से सुदामा को भी राजसी ठाठ-बाट प्रदान कर दिए हैं पर भगवान ने अपना रहस्य सुदामा को नहीं बताया था इसीलिए वह दिग्भ्रम हो रहा है।
- भाषा, सहज, सरल एवं भावानुकूल है।
कै वह टूटी-सी छानी, हती, कहै कंचन के सब धाम सुहावत।
कै पग मैं पनही न हती, कहै लै गजराजहु ठाढ़े महावत॥
भूमि कठोर पै रात कटै, कै कोमल सेज पै नींद न आवत।
के जुरतो नहीं कोदो सवाँ, प्रभु के परताप तैदाख न भावत ॥15॥
कठिन शब्दार्थ :
कै= कहाँ छानी = टूटी झोंपड़ी, छप्पर; हती = थी; कंचन = सोने के; धाम = महल; सुहावत = शोभा दे रहे हैं; पनहीं = जूते; जुरतो नहीं = जुड़ता नहीं था, मिलता नहीं था; कोदों सवाँ = चावल की सस्ती एवं मोटी जाति; परताप = महिमा; तै = से; दाख = अंगूर।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
इस अंश में बताया गया है कि भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से सुदामा के बुरे दिन फिर गये।
व्याख्या :
कवि कहता है कि सुदामा कहते हैं कि जहाँ वह टूटी-सी झोंपड़ी पड़ी हुई थी अब वहीं पर सुन्दर-सुन्दर सोने के महल शोभायमान हो रहे हैं। कहाँ तो सुदामा के पैरों में जूता तक न था अब भगवान की कृपा से उन्हें ले जाने के लिए गजराजों के साथ महावत खड़े हुए हैं। कहाँ तो कठोर भूमि पर (बिना बिस्तरों के) रात कट जाती थी कहाँ अब कोमल शैया पर भी नींद नहीं आ रही है। कहाँ खाने के लिए कोदों और सवाँ के चावल भी नहीं मिलते थे और कहाँ अब ईश्वर की महिमा से अंगूर भी नहीं खाये जा रहे हैं।
विशेष :
- भगवान की कृपा से भक्तों के दिन फिर जाते हैं जैसे कि सुदामा के।
- प्रभु की महिमा का बखान है।
- भाषा सहज, सरल एवं भावानुकूल है।
- अनुप्रास की छटा।
शबरी प्रसंग संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या
कहि निज धर्म ताहि समुझावा। निज पद प्रीति देखि मनभावा॥
रघुपति चरन कमल सिरु नाई। गयऊ गगन आपनि गति पाई॥
ताहि देइ गति राम उदारा। सबरी के आश्रम पगु धारा॥
सबरी देखि राम गृह आए। मुनि के वचन समुझि जिय भाए।
सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर वनमाला॥
स्याम गौर सुन्दर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई॥
प्रेम मगन मुख वचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा॥
सादर जल लैं चरन पखारे। पुनि सुन्दर आसन बैठारे॥
दोहा-कंद मूल फल सुरस अति दिएराम कहूँ आनि।
प्रेम सहित प्रभुः खाए बारंबार बखानि ॥1॥
कठिन शब्दार्थ-निज धर्म = भागवत धर्म; आपनि गति = गन्धर्व का स्वरूप; उदारा = दयालु; सरसिज = कमल; लोचन = नेत्र; सरोज = कमल; पुनि = पुनः; सुरस = रसपूर्ण; बारंबार = बार-बार।
सन्दर्भ :
प्रस्तुत अंश ‘सामाजिक समरसता’ के शीर्षक ‘शबरी प्रसंग’ से लिया गया है। इसके रचयिता महाकवि तुलसी दास हैं। यह प्रसंग मूलतः ‘अरण्य काण्ड’ से लिया गया है।
प्रसंग :
गिद्धराज जटायु का अन्तिम संस्कार करने के पश्चात् सीताजी की खोज में दोनों भाई आगे चले। उस मार्ग में कबंध नामक राक्षस जब सामने आया तो श्रीराम ने उसका वध कर डाला। कबंध राक्षस ने अपने शाप की बात श्रीराम से कही। श्रीराम ने कबंध से कहा हे, गंधर्व। सुनो, मैं तुमसे कुछ कहता हूँ
व्याख्या :
कविवर तुलसीदास कहते हैं कि तब श्रीराम ने उसे (कबंध को) अपना भागवत धर्म समझाते हुए कहा। अपने चरणों में प्रेम देखकर वह उनके मन को अच्छा लगा। तत्पश्चात् श्रीरघुनाथ जी के चरण कमलों में सिर नवाकर वह अपनी गति (गन्धर्व स्वरूप) पाकर आकाश में चला गया। उदार श्रीराम जी उसे गति देकर शबरी के आश्रम में पधारे। शबरी ने श्रीरामचन्द्र जी को घर में आते देखा. तो मुनि मतंग जी के वचनों को याद करके उनका मन प्रसन्न हो गया।
कमल जैसे नेत्र और विशाल भुजा वाले, सिर पर जटाओं का मुकुट और हृदय पर वनमाला धारण किये हुए सुन्दर साँवले और गोरे दोनों भाइयों के चरणों में शबरी लिपट गयीं। वे प्रेम में इतनी डूब गयीं कि उनके मुख से वचन तक नहीं निकला। वे बार-बार प्रभु के चरण-कमलों में सिर झुका रही हैं। इसके पश्चात् उन्होंने जल लेकर आदरपूर्वक दोनों भाइयों के चरण धोये फिर उन्हें सुन्दर आसानों पर बैठाया। शबरी ने अत्यन्त रसदार और स्वादिष्ट कन्द, मूल और फल लाकर श्रीराम जी को दिए। प्रभु ने बार-बार प्रशंसा करके उन्हें प्रेम सहित खाया।
विशेष :
- श्रीराम भक्तवत्सल हैं। शबरी की भक्ति भावना देखकर वे उसके आश्रम पर जाते हैं तथा उसके द्वारा दिये गये कन्द, मूल और फलों को प्रेम सहित खाते हैं।
- भाषा अवधी है।
- उपमा, रूपक एवं अनुप्रास अलंकारों का प्रयोग।
- दोहा चौपाई छन्द का प्रयोग।
जातिपाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई।
भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा॥
नवधा भगति कहऊँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरू मन माहीं॥
प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंग।
दोहा-गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान ॥2॥
कठिन शब्दार्थ :
भगतिहीन = भक्ति भावना से रहित; वारिद = बादल; नवधा = नौ प्रकार की; रति = प्रेम; पद पंकज = चरण कमल; मम = मेरे।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
इस अंश में भक्ति की महिमा का बखान किया गया है। भक्ति के आगे जाति, पाँति, कुल धर्म आदि का कोई महत्त्व नहीं है।
व्याख्या :
कविवर तुलसीदास जी कहते हैं भगवान श्रीराम शबरी को भक्ति की महिमा बताते हुए कहते हैं कि जाति-पाँति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुरता इन सबके होने पर भी भक्ति रहित मनुष्य कैसा लगता है जैसे जलहीन बादल दिखाई पड़ता है।
आगे श्रीराम कहते हैं कि मैं तुमसे अब नवधा भक्ति के बारे में बताता हूँ। तुम सावधान होकर सुनो और मन में धारण करो। पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम। तीसरी भक्ति अभिमान रहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति है कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करना।
विशेष :
- भगवान भक्ति को बहुत महत्त्व देते हैं।
- इस अंश में कवि ने नवधा भक्ति में से चार प्रकार की भक्ति का वर्णन किया है।
- उपमा एवं रूपक अलंकार।
- अवधी भाषा का प्रयोग।
मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥
सातवें सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा।
आठवें सम जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा।
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
नव महुँ एकउ जिन्ह के होई। नारि पुरुष सचराचर कोई॥
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें॥
जोकि बंद दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सलभ भई सोई॥
मन दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा॥
जनकसुता कइ सुधि भामिनी। जानहि कहु करिबरगामिनी॥
पंपा सरहि जाहु रघुराई। तहँ होइहि सुग्रीव मिताई॥
सो सब कहि देव रघुवीरा। जानतहूँ पूछहु मतिधीरा ॥3॥
कठिन शब्दार्थ :
प्रकासा = प्रसिद्ध है; विरति = विरक्ति; जथालाभ = जो कुछ मिल जाए; परदोषा= दूसरों के दोष; सब सन = सबके साथ; करिबर गामिनी = गज गामिनी।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
प्रस्तुत अंश में कवि ने श्रीराम के मुख से शबरी को नवधा भक्ति का ज्ञान कराया है।
व्याख्या :
कविवर तुलसी कहते हैं कि श्रीराम जी शबरी से कहते हैं कि मंत्र जाप करना, मुझ पर दृढ़ विश्वास रखना तथा वेद विहित कर्मकाण्ड करना पंचम प्रकार की भक्ति है। इन्द्रियों को वश में करना, शील व्यवहार बनाये रखना, सकाम कर्मों से विरक्त रहना और निरन्तर सज्जनों के धर्म का अनुकरण करना मेरी छठवीं प्रकार की भक्ति है। सातवीं प्रकार की भक्ति के अन्तर्गत सम्पूर्ण संसार को मेरे स्वरूप में देखना, सब में समान भाव रखना तथा मुझसे अधिक सन्त पुरुषों को सम्मान देना है। आठवीं प्रकार की भक्ति है-जितना मिले उतने में ही संतोष करना तथा स्वप्न में भी किसी दूसरे के दोषों को न देखना है।
सबसे सरलता तथा निष्कपट व्यवहार, मुझ पर अटूट विश्वास, हृदय में प्रसन्नता का भाव तथा स्वयं को कभी दीन-हीन न समझना मेरी नवम् प्रकार की भक्ति है। इन नौ भक्तियों में से जिनके पास एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़ चेतन कोई भी हो, हे भामिनि (शबरी)! मुझे वही अत्यन्त प्रिय है। फिर तुममें तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गयी है। मेरे दर्शन का परम अनुपम फल यह है कि जीव अपने सहज स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। हे भामिनि (शबरी)! अब यदि तुम गजगामिनी जानकी की कुछ खबर जानती हो तो बताओ।
इस पर शबरी ने कहा-हे रघुनाथ जी! आप पंपा नामक सरोवर को जाइए, वहाँ आपकी सुग्रीव से मित्रता होगी। हे देव! हे रघुवर! वह सब हाल बता देगा। हे धीर बुद्धि! आप सब जानते हुए भी मुझसे पूछते हैं।
विशेष :
- इस अंश में श्रीराम ने भक्ति के अन्य प्रकारों का सहज रूप में वर्णन किया है।
- सम्पूर्ण विश्व को राममय देखना ही राम की भक्ति है।
- अवधी भाषा का प्रयोग।
- दोहा, चौपाइ छन्द का प्रयोग।
- शान्त रस।