MP Board Class 9th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 3 प्रेम और सौन्दर्य
प्रेम और सौन्दर्य अभ्यास
बोध प्रश्न
प्रेम और सौन्दर्य अति लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
‘सुजान अनीत करौ’ से कवि का क्या तात्पर्य
उत्तर:
कवि का तात्पर्य यह है कि हे प्रेमिका सुजान! ऐसा अनीति का कार्य मत करो कि मैं तुम्हारे दर्शन के लिए लालायित रहता हूँ और तुम मुझे जरा भी दर्शन नहीं देती हो।
प्रश्न 2.
प्रेम के मार्ग के विषय में कवि का क्या मत है?
उत्तर:
प्रेम के मार्ग के विषय में कवि का मत है कि यह मार्ग बहुत ही सहज और सरल है इसमें सयानापन नहीं चलता है।
प्रश्न 3.
प्रिय के बोलने में कवि को किस की वर्षा होती दिखाई देती है?
उत्तर:
प्रिय के बोलने में कवि को फूलों की वर्षा होती दिखाई देती है।
प्रश्न 4.
मोहनमयी कौन हो गई है?
उत्तर:
राधा मोहनमयी हो गई है।
प्रेम और सौन्दर्य लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
कवि ने सुजान का नाम लेकर क्यों उलाहना दिया है?
उत्तर:
कवि ने सुजान का नाम लेकर उलाहना इसलिए दिया है कि पहले तो वह घनानन्द से बहुत प्रेम करती थी पर बाद में वह उसकी उपेक्षा करने लगी थी। पर कवि के मन में उसके लिए पहले जैसा ही प्यार था।
प्रश्न 2.
कवि ने स्नेह के मार्ग को किस तरह का बताया है और क्यों?
उत्तर:
कवि ने स्नेह के मार्ग को सहज और सरल बताया है उसमें सयानेपन को कहीं भी स्थान नहीं है। जो सच्चे प्रेमी होते हैं वे अपनापन भूलकर उस मार्ग पर चलते हैं जबकि कपटी लोग इस पर चलने में झिझकते हैं।
प्रश्न 3.
“दोउन को रूप-गुन दोउ वरनत फिरै” की स्थिति में कौन-कौन हैं और क्यों?
उत्तर:
दोउन को रूप-गुन में श्रीकृष्ण एवं श्रीराधाजी हैं। वे दोनों एक-दूसरे के रूप की परस्पर सराहना करते हैं और दोनों एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं, अलग नहीं होते हैं।
प्रेम और सौन्दर्य दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
घनानन्द की विरह वेदना को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
घनानन्द प्रेम के कवि हैं। उन्होंने प्रेम के संयोग और वियोग के सुन्दर चित्र उतारे हैं। उनकी वियोग पीड़ा मानव के हृदय के अन्तरतम का स्पर्श करती है। सहृदय पाठक इसको पढ़कर विरह वेदना की भावुकता का अनुभव करने लग जाता है। नायिका अपने प्रियतम की प्रतीक्षा सांझ से लेकर भोर तक करती है, वह सब कुछ न्यौछावर करके भी अपने प्रिय के पास पहुँचना चाहती है। उनकी यह विरह वेदना अलौकिक इष्ट तक पहुँचने का साधन है।
प्रश्न 2.
घनानन्द के प्रिय के सौन्दर्य का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
घनानन्द ने अपने प्रिय के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कहा कि उसका मुख मंडल सुशोभित है, वह गौरवर्ण तथा विशाल नेत्र वाला है, उसके हँसने में फूलों की वर्षा होती है। उसके बालों की लटें गालों पर गिरकर बहुत शोभा पा रही हैं। इस प्रकार प्रिय के अंग-प्रत्यंग में कान्ति की तरंगें हिलोरें ले रही हैं।
प्रश्न 3.
श्रीकृष्ण की बाल छवि का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
कविवर देव ने श्रीकृष्ण की बाल छवि का वर्णन करते हुए कहा है कि उनके पैरों में सुन्दर नूपुर बज रहे हैं, कमर से करधनी की मधुर ध्वनि सुनाई दे रही है। उनके साँवले रंग पर पीला वस्त्र और गले में वनमाला शोभा दे रही है। उनके माथे पर मुकुट है, उनके नेत्र बड़े चंचल हैं तथा मुख पर हँसी चन्द्रमा की चाँदनी जैसी लग रही है।
प्रश्न 4.
राधा और श्रीकृष्ण के संयोग की स्थिति में उनके हाव-भावों का वर्णन अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
राधा और श्रीकृष्ण संयोग की स्थिति में परस्पर एक-दूसरे से वार्तालाप करते हैं, कभी-कभी हँसी का ठहाका लगाते हैं। दीर्घ श्वास लेकर हे देव! हे देव! पुकारते हैं। कभी वे पंजों के बल पर खड़े होकर आश्चर्य में डूब जाते हैं। उन दोनों का मन एक-दूसरे में रच-पच गया है। श्रीकृष्ण का मन राधामय हो गया है और श्रीराधा का मन कृष्णमय हो गया है। इस प्रकार दोनों एक-दूसरे में समा गये हैं।
प्रश्न 5.
निम्नलिखित काव्यांश की प्रसंग सहित व्याख्या कीजिए-
(अ) झलकै अति ……….. जाती है है।
उत्तर:
कविवर घनानन्द कहते हैं कि नायिका का गौरवर्णी मुख अत्यधिक सुन्दरता से झलमला रहा है। प्रियतम के नेत्र प्रियतमा के कान तक फैले हुए विशाल नेत्रों की सुन्दरता को देखकर तृप्त हो गये हैं। कहने का भाव यह है कि वह नायिका विशाल नेत्रों वाली है। वह नायिका जब मुस्कराकर बोलती है और हँसकर बातें करती है तो ऐसा लगता है मानो फूलों की वर्षा उसके वक्षस्थल पर हो रही है। हिलते हुए केशों की लटें नायिका के कपोलों पर क्रीड़ा कर रही हैं। उनका सुन्दर कंठ दो कमल पंक्तियों में बदल जाता है। उस नायिका के अंग-प्रत्यंग में कान्ति की लहरें उत्पन्न हो रही हैं। उससे ऐसा लगता है कि मानो उसका रूप इसी क्षण पृथ्वी पर टपकने वाला हो रहा है।
(ब) साँझ ते ………… औसर गारति।
उत्तर:
कविवर घनानन्द कहते हैं कि बाबली प्रेमिका प्रात:काल से लेकर सन्ध्या काल तक वन-उपवन की ओर देखती रहती है। वह वन की ओर गये हुए अपने प्रियतम के लौट आने की प्रतीक्षा में है, वह इस कार्य में तनिक भी थकान का अनुभव नहीं करती है। वह सांयकाल से लेकर प्रात:काल तक अपनी आँखों के तारों से आकाश के तारागणों को टकटकी लगाकर देखती रहती है और जब कभी उसे अपना प्रिय दिखाई दे जाता है तो उसे अत्यधिक आनन्द का अनुभव होने लगता है और इसी समय प्रसन्नता के आँसू भी गिरना आरम्भ कर देते हैं। सामने खड़े हुए मोहन को देखने की उत्कट अभिलाषा नायिका के नेत्रों और मन में प्रत्येक क्षण समाई रहती है। नायक से भेंट न होने की दशा में उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता है।
(स) अति सूधो …………. छटाँक नहीं।
उत्तर:
कविवर घनानन्द कहते हैं कि प्रेम का मार्ग अत्यधिक सहज और सरल होता है उसमें सयानेपन की जरा भी गुंजाइश नहीं होती है। इस प्रेम मार्ग में सच्चे लोग अपनापन छोड़कर अर्थात् सर्वस्व त्याग की भावना से चलते हैं.और जो कपटी तथा चालबाज होते हैं वे इस पर चलने में झिझकते हैं। कवि कहता है कि हे प्यारे सुजान! तुम अच्छी तरह सुन लो, हमारे मन में तुम्हारे अतिरिक्त और किसी का नाम भी नहीं है। हे लाल! तुम ये कौन-सी पट्टी पढ़कर आये हो कि हमारा तो पूरा मन अपने वश में कर लेते हो और हमें अपने रूप का जरा भी दर्शन नहीं कराते हो।
प्रेम और सौन्दर्य काव्य-सौन्दर्य
प्रश्न 1.
घनानन्द के छन्दों की भाषागत विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
कविवर घनानन्द ने अपनी कविता में कवित्त, दोहा और सवैया आदि छन्दों का प्रयोग किया है। उनके छन्दों में ब्रज-भाषा का शुद्ध साहित्यिक रूप प्रयुक्त हुआ है। ब्रजभाषा में भी आपने कहावतों और मुहावरों के प्रयोग द्वारा भाषा में चार चाँद लगा दिए हैं। उनके छन्दों की भाषा भावानुकूल एवं मधुर व्यंजना वाली है। भाषा में सरसता, मधुरता एवं प्रभावोत्पादकता पाई जाती है।
प्रश्न 2.
निम्नलिखित काव्यांश में अलंकार पहचान कर लिखिए
- अंग-अंग ………… धर च्वै।
- सांझ ते …………. न टारति।
- मोहन-सोहन …………… उर आरति।
- तुम कौन धौं …………. छटाँक नहीं।
उत्तर:
- उत्प्रेक्षा अलंकार
- अनुप्रास अलंकार
- अनुप्रास एवं पदमैत्री
- श्लेष अलंकार।
प्रश्न 3.
निम्नलिखित मुहावरों का वाक्य प्रयोग कीजिए
उत्तर:
- अनीति करना-घनानन्द की प्रेमिका सुजान ने घनानन्द के साथ अनीति की थी।
- हा-हा खाना-घनानन्द अपनी प्रेमिका से मिलने के लिए हा-हा खाता रहता था।
- दुहाई देना-घनानन्द अपनी प्रेमिका के सामने अपने अनन्य प्रेम की दुहाई दिया करता था।
- टेक लेना-जब किसी का कार्य बिगड़ने लगता है तो वह व्यक्ति दूसरों की टेक लिया करता है।
- प्यासा मारना-घनानन्द कवि अपनी प्रेमिका से कहते हैं कि तुम तो मेरे जीवन की मूल हो फिर तुम मुझे प्यासा क्यों मार रही हो।
- बाँकन होना (नाम भर को भी क्षुद्रता न होना)-सच्चे प्रेम में तनिक भी सयानापन अथवा बाँक नहीं होना चाहिए।
- मन लेना-प्रेमिका सुजान ने घनानन्द का मन तो ले लिया था पर उसे अपने रूप की छटा का एक अंश भी नहीं दिखाना चाहती है।
प्रश्न 4.
निम्नलिखित ब्रजभाषा शब्दों के हिन्दी मानक रूप लिखिए
पाँयनि, हिये, छके, सूधौ, धौ।
उत्तर:
प्रश्न 5.
घनानन्द और देव के छन्दों में कौन-सा रस है? समझाकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
घनानन्द कवि ने वियोग श्रृंगार का अधिक वर्णन किया है जबकि देव कवि ने वात्सल्य रस का।
घनानन्द माधुरी संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या
(1) भोर ते साँझ लौ कानन-ओर निहारति बावरी नेकु न हारति।
साँझ ते भोर लो तारनि ताकिबो-तारनि सों इकतार न टारति।
जौ कहूँ भावतो दीठि परै घनआनंद आँसुनि औसर गारति।
मोहन-सोहन जोहन की लगियै रहै आँखिन के उर आरति॥
कठिन शब्दार्थ :
भोर = प्रात:काल; ते = से; लौं = तक; कानन = उपवन; निहारति = देखती है; बावरी = बाबली, पागल; नेकु = जरा भी; तकिबो = देखती है; इकतार = निरन्तरता; भावतो = अच्छा लगने वाला, प्रिय; दीठि = दृष्टि; औसर = अवसर; गारति = गलाती है; सोहन = सामने; जोहन = देखने की; आरति = लालसा, इच्छा।
सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश ‘प्रेम और सौन्दर्य’ के ‘घनानन्द माधुरी’ शीर्षक से लिया गया है। इसके रचियता कवि घनानन्द हैं।
प्रसंग :
प्रेमिका के हृदय में प्रियतम से मिलने की उत्कट अभिलाषा है। इसी कारण वह रात-दिन उनके आने की राह देखती रहती है।
व्याख्या :
कविवर घनानन्द कहते हैं कि बाबली प्रेमिका प्रात:काल से लेकर सन्ध्या काल तक वन-उपवन की ओर देखती रहती है। वह वन की ओर गये हुए अपने प्रियतम के लौट आने की प्रतीक्षा में है, वह इस कार्य में तनिक भी थकान का अनुभव नहीं करती है। वह सांयकाल से लेकर प्रात:काल तक अपनी आँखों के तारों से आकाश के तारागणों को टकटकी लगाकर देखती रहती है और जब कभी उसे अपना प्रिय दिखाई दे जाता है तो उसे अत्यधिक आनन्द का अनुभव होने लगता है और इसी समय प्रसन्नता के आँसू भी गिरना आरम्भ कर देते हैं। सामने खड़े हुए मोहन को देखने की उत्कट अभिलाषा नायिका के नेत्रों और मन में प्रत्येक क्षण समाई रहती है। नायक से भेंट न होने की दशा में उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता है।
विशेष :
- शृंगार रस का चित्रण।
- अनुप्रास एवं यमक अलंकारों का प्रयोग।
- भाषा-ब्रजभाषा।
(2) मीत सुजान अनीति करौं जिन-हा न हूजियै मोहि अमोही।
दीठि की और कहूँ नहिं ठौर, फिरी दृग रावरे रूप की दोही।
एक बिसास की टेक गहें लगि आस रहै बसि प्रान-बटोही।
हौ घनआनंद जीवनमूल दई, कति प्यासनि मारत मोही॥
कठिन शब्दार्थ :
मीत = मित्र; सुजान = घनानन्द कवि की प्रेमिका; जिनहा = मुझे त्यागने वाले अर्थात् मुझसे विमुख होने वाले न हूजियै = मत होओ; मोहि = मुझे अमोही = प्रेम न करने वाले; दीठि = दृष्टि; ठौर = स्थान; फिरी दृग = नेत्र फेर लिए; रावरे = आपके; दोही = द्रोह करने वाली; बिसास = विश्वास; टेक = सहारा; गहें = लेकर; लगि आस रहै = आशा लगी रहे; प्रान-बटोही = प्राण रूपी रास्तागीर; बसि = रहते हुए; दई = देव; जीवनमूल = जीवन का आधार; कति = क्यों; मोही = हे मोह (प्रेम) करने वाले।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
घनानन्द कविवर ने इस पद में श्रीकृष्ण के अलौकिक प्रेम का वर्णन किया है। उन्हें विश्वास है कि प्रियतम श्रीकृष्ण एक दिन उन्हें अवश्य ही दर्शन देंगे।
व्याख्या :
कविवर घनानन्द कहते हैं कि हे प्रिय सुजान! मेरे साथ जो तुम अनीति का व्यवहार कर रही हो, वह उचित नहीं है। तुम मुझसे पीछा छुड़ाने वाले मत बनो। मेरे साथ इस निष्ठुरता का व्यवहार कर तुम अनीति क्यों कर रहे हो? मेरे प्राणरूपी रास्तागीर को केवल तुम्हारे विश्वास का सहारा है और उसी की आशा में अब तक जिन्दा है। तुम तो आनन्द रूपी घन हो जो जीवन का प्रदाता है। अतः हे देव! मोही होकर भी तुम मुझे अपने दर्शनों के लिए इस तरह क्यों तड़पा रहे हो? अर्थात् मुझे शीघ्र ही अपने दर्शन दे दो।
विशेष :
- वियोग श्रृंगार का वर्णन है।
- श्लेष एवं रूपक अलंकारों का प्रयोग।
- ब्रजभाषा का प्रयोग।
(3) अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।
तहाँ साँचे चलें तजि आपनपौ झझक कपटी जे निसाँक नहीं।
घनआनंद प्यारे सुजान सुनौ यहाँ एक तें दूसरों आँक नहीं।
तुम कौन धौ पाटी पढ़े हो लला मन लेहुँ पै देहु छटाँक नहीं।
कठिन शब्दार्थ :
सनेह = प्रेम का; नेकु = जरा भी; सयानप = सयानापन, चालाकी; बाँक नहीं = उसमें बाँकापन अर्थात् क्षुद्रता नाम भर को भी नहीं है; आपनपौ = अपनापन; झझक = झिझकते हैं; निसाँक नहीं = जो शुद्ध पवित्र नहीं है; आँक = अक्षर, प्रेम का; कौन धौ = कौन सी; पाटी = पट्टी; मनलेहु = (1) मन भर लेते हो, (2) हमारा मन तो ले लेते हो; छटाँक = (1) तोल में छटाँक भर, (2) अपने रूप की झाँकी।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
इस पद में कवि ने बताया है कि प्रेम का मार्ग तो बड़ा ही सच्चा होता है उसमें छल-प्रपंच कुछ नहीं होता है।
व्याख्या :
कविवर घनानन्द कहते हैं कि प्रेम का मार्ग अत्यधिक सहज और सरल होता है उसमें सयानेपन की जरा भी गुंजाइश नहीं होती है। इस प्रेम मार्ग में सच्चे लोग अपनापन छोड़कर अर्थात् सर्वस्व त्याग की भावना से चलते हैं.और जो कपटी तथा चालबाज होते हैं वे इस पर चलने में झिझकते हैं। कवि कहता है कि हे प्यारे सुजान! तुम अच्छी तरह सुन लो, हमारे मन में तुम्हारे अतिरिक्त और किसी का नाम भी नहीं है। हे लाल! तुम ये कौन-सी पट्टी पढ़कर आये हो कि हमारा तो पूरा मन अपने वश में कर लेते हो और हमें अपने रूप का जरा भी दर्शन नहीं कराते हो।
विशेष :
- प्रेम की निश्छलता का वर्णन है।
- अन्तिम पंक्तियों में श्लेष अलंकार।
- भाषा-ब्रजभाषा।
(4) झलकै अति सुन्दर आनन गौर, छके दृग राजत काननि छ्वै।
हँसि बोलनि मैं छबि-फूलन की बरषा, उर ऊपर जाति है है।
लट लोल कपोल कलोल करै, कल कंठ बनी जलजावलि द्वै।
अंग-अंग तरंग उठै दुति की, परिहै मनौ रूप अबै धर च्वै॥
कठिन शब्दार्थ :
आनन = मुख; गौर = गौर वर्ण का; छके = तृप्त हो गए; दृग = नेत्र; राजत = अच्छे लगते हैं; काननि छ्वै = कानों को छूने वाले अर्थात् कान तक फैले हुए बड़े नेत्र; छवि = शोभा; है है = हो जाती है; लट = केश; लोल = चंचल; कपोल = गालों पर; कलोल = क्रीड़ा; कलकंठ = सुन्दर गला; जलजावलि = कमल की पंक्ति; द्वै = दो; दुति की = कान्ति की; परहै = गिर पड़ेगा; अबै = इसी समय; धर च्वै = चू पड़ेगा, बह निकलेगा।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
इस पद में कविवर घनानन्द ने नायिका सुजान के सौन्दर्य का वर्णन किया है।
व्याख्या :
कविवर घनानन्द कहते हैं कि नायिका का गौरवर्णी मुख अत्यधिक सुन्दरता से झलमला रहा है। प्रियतम के नेत्र प्रियतमा के कान तक फैले हुए विशाल नेत्रों की सुन्दरता को देखकर तृप्त हो गये हैं। कहने का भाव यह है कि वह नायिका विशाल नेत्रों वाली है। वह नायिका जब मुस्कराकर बोलती है और हँसकर बातें करती है तो ऐसा लगता है मानो फूलों की वर्षा उसके वक्षस्थल पर हो रही है। हिलते हुए केशों की लटें नायिका के कपोलों पर क्रीड़ा कर रही हैं। उनका सुन्दर कंठ दो कमल पंक्तियों में बदल जाता है। उस नायिका के अंग-प्रत्यंग में कान्ति की लहरें उत्पन्न हो रही हैं। उससे ऐसा लगता है कि मानो उसका रूप इसी क्षण पृथ्वी पर टपकने वाला हो रहा है।
विशेष :
- शृंगार रस का प्रयोग
- रूपक, श्लेष, उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग
- भाषा-ब्रजभाषा।
देवसुधा संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या
(1) पाँयनि नूपुर मंजु बजै, कटि किंकिन मैं धुनि की मधुराई।
साँवरे अंग लगै पट-पीत हिये हुलसै बनमाल सुहाई॥
माथे किरीट, बड़े दृग चंचल, मन्द हंसी मुख-चन्द-जुन्हाई।
जै जग-मन्दिर-दीपक सुन्दर श्रीब्रजदूलह ‘देव’-सहाई॥
कठिन शब्दार्थ :
पाँयनि = पैरों में; नूपुर = धुंघरू; मंजु = सुन्दर; कटि = कमर; किंकिन = करघनी; मधुराई = मधुरता; साँवरै = श्यामल; पट-पीत = पीले वस्त्र; हिये = हृदय, वक्षस्थल; हुलसै = प्रसन्नता दे रही है; सुहाई = शोभा दे रही है; किरीट = मुकुट; दृग = नेत्र; चन्द जुन्हाई = चन्द्रमा की चाँदनी; जग मन्दिर = संसार रूपी मन्दिर में; ब्रज दूलह = ब्रजवल्लभ श्रीकृष्ण; सहाई = सहायता करते हैं।
सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश प्रेम और सौन्दर्य के ‘देवसुधा’ शीर्षक से लिया गया है। इसके रचियता महाकवि देव हैं।
प्रसंग :
इसमें बालक कृष्ण की मनोहारी छवि का वर्णन किया गया है।
व्याख्या :
देव कवि कहते हैं कि बालक श्रीकृष्ण जिस समय नन्द बाबा के आँगन में विचरण करते हैं तब उनके पैरों के धुंघरू सुन्दर आवाज करते हैं, उनकी कमर में करधनी बँधी हुई है वह भी मधुर ध्वनि कर रही है। श्रीकृष्ण के साँवले शरीर पर पीला वस्त्र तथा वक्षस्थल पर वनमाला सुशोभित हो रही है। उनके माथे पर मुकुट है, उनके नेत्र बड़े एवं चंचल हैं, साथ ही उनके मुख पर मन्द हँसी चन्द्रमा की चाँदनी जैसी लग रही है। इस विश्व रूपी मन्दिर में सुन्दर दीपक के रूप में ब्रजवल्लभ श्रीकृष्ण की जय-जयकार हो रही है। ऐसे देव हमारी सहायता करें।
विशेष :
- कृष्ण के बालरूप का सुन्दर चित्रण है।
- तीसरी पंक्ति में उपमा और चौथी पंक्ति में रूपक अलंकार।
- ब्रजभाषा का प्रयोग है।
(2) रीझि-रीझि रहिसि-रहिसि हँस-हँसि उठे,
साँसै भरि आँसै भरि कहत ‘दई-दई’।
चौकि-चौंकि चकि-चकि, उचकि-उचकि ‘देव’
जकि-जकि, बकि-बकि परत बई-बई॥
दोउन को रूप-गुन दोउ बरनत फिरें,
घर न थिरात, रीति नेह की नई-नई।
मोहि-मोहि मोहन को मन भयो राधा-मय,
राधा मन मोहि-मोहि मोहनमयी भई॥
कठिन शब्दार्थ :
रीझि-रीझि = रीझकर; रहिसि-रहिसि = आनंदित होकर; दई-दई = हे देव, हे भगवान; चकि-चकि = आश्चर्य चकित होकर; जकि-जकि बकि-बकि = प्रेम में पागल होकर जक्री और बक्री करना, उलटा सीधा बोलना; दोउन को = श्रीकृष्ण और राधा को; थिरात = स्थिर रहना; रीति = ढंग; नेह = प्रेम; नई-नई = नया-नया; राधामय = राधा के संग एक सार हो गया; मोहनमयी = कृष्ण के संग एकाकार हो गयीं राधाजी।।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
इस पद में कवि ने राधाकृष्ण की युगल जोड़ी का वर्णन करते हुए कहा है कि वे दोनों एक-दूसरे में समाये हुए थे।
व्याख्या :
देव कवि कहते हैं कि राधाजी और कृष्ण में अनन्य प्रेम है। इसी प्रेम के वशीभूत होकर वे दोनों एक-दूसरे पर रीझते हैं और आनन्दित होकर हँस-हँस पड़ते हैं। आशा से परिपूर्ण उनकी साँसें हे ईश्वर! हे ईश्वर! पुकारती फिरती हैं। देव कवि कहते हैं कि वे दोनों एक-दूसरे को देखकर कभी तो चौंक पड़ते हैं, कभी आश्चर्यचकित हो उठते हैं और कभी पंजों के बल खड़े होकर एक-दूसरे की सुन्दरता को देखने लग जाते हैं। परस्पर प्रेम की प्रगाढ़ता के कारण वे कभी जक्री-बक्री करने लग जाते हैं अर्थात् उलटा-सीधा बोलने लग जाते हैं। इस प्रकार वे दोनों एक-दूसरे के रूप गुणों का वर्णन करते हुए फिर रहे हैं। वे एक स्थान पर स्थिर नहीं रहते हैं। उनमें प्रेम की रीति नित्य नये-नये रूपों में उत्पन्न होती रहती है। मोहित हुए मोहन अर्थात् श्रीकृष्ण का मन राधामय हो गया है अर्थात् कृष्ण राधा में निमग्न हो गये हैं और राधा का मन मोहित होकर कृष्णमय हो गया है।
विशेष :
- राधाकृष्ण के अनन्य प्रेम की झाँकी कवि ने कराई है।
- इस प्रकार का वर्णन युगल छवि वर्णन कहलाता है।
- पुनरुक्ति और अनुप्रास अलंकारों का प्रयोग है।
- हृदयगत संचारी भावों का सुन्दर वर्णन हुआ है।
(3) डार-द्रुम पलना, बिछौना नवपल्लव के,
सुमन झंगूला सोहै तन छवि भारी दै।
पवन झुलावै, केकी कीर बहरावै, ‘देव’;
कोकिल हलावै, हुलसावै करतारी दै॥
पूरित पराग सौं उतारौ करै राई-लोन,
कंजकली-नायिका लतानि सिर सारी दै।
मदन महीपजू को बालक बसंत, ताहि,
प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी दै॥
कठिन शब्दार्थ :
डार-दूम = वृक्षों की डालियों पर; नवपल्लव = नये-नये पत्ते; सुमन = फूल; झंगूला = छोटे बालकों को पहनाये जाने वाले ढीले-ढाले वस्त्र; सोहै = शोभा दे रहे हैं; छवि = सुन्दरता; केकी = मोर; कीर = तोता; बहरावै = लोरी गा-गाकर सुना रहे हैं; हुलसावै = खुशी प्रदान कर रही है; करतारी = हाथ की ताली बजाकर; उतारौ करै राई-लोन = किसी की नजर लग जाने पर उसके प्रभाव को कम करने या खत्म करने के लिए राई-नमक आग पर डालकर उतारा किया जाता है; कंजकली = कमल की कली जैसी; लतानि = बेलों से; सारी = साड़ी; मदन महीपजू = कामदेव रूपी राजा का; चटकारी दै = चाँटा मारकर, या छेड़छाड़ करके।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
इस पद में कवि ने बसन्त आगमन के समय होने वाली प्राकृतिक शोभा का वर्णन किया है।
व्याख्या :
कविवर देव कहते हैं कि पेड़ों की डालियाँ उस बसन्त रूपी बालक की पालना बन चुकी है; उस पालने में नवीन कोमल पत्तों का बिछौना बिछा हुआ है। फूलों का झंगला उस बसन्त रूपी बालक के शरीर पर अत्यधिक रूप से सुशोभित हो रहा है। बहता हुआ पवन उसे झुलाने का कार्य कर रहा है। मयूर एवं तोते लोरी गा-गाकर उसे सुना रहे हैं। कोयल पालने को झुलाते हुए अपनी कूक से हाथों की ताली बजाकर प्रसन्नता का अनुभव कर रही है। परागयुक्त पुष्पों की पंखुड़ियों रूपी राई और नमक से बालक रूपी बसन्त की नजर उतारी जा रही है। कमल की कलियाँ रूपी नायिका लता रूपी साड़ियों को अपने सिर पर धारण किये हुए हैं। इस प्रकार कामदेव राजा के बालक रूपी बसन्त को प्रात:काल पुष्पित गुलाब चटकारी देकर जगाने का प्रयत्न कर रहा है।
विशेष :
- बसन्त ऋतु का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया गया है।
- मुहावरों का सुन्दर प्रयोग है।
- रूपक एवं अनुप्रास की छटा।
- ब्रजभाषा का प्रयोग।