MP Board Class 12th Special Hindi अपठित गद्यांश

MP Board Class 12th Special Hindi अपठित गद्यांश

अपठित का अर्थ है,जो पहले पढ़ा हुआ नहीं हो। इसके द्वारा छात्रों की बौद्धिक क्षमता तथा पाठ्यक्रम के अतिरिक्त उनके पठन-पाठन का पता चलता है। भाषा को पढ़कर समझना तथा उसके भावार्थ को ग्रहण कर संक्षेप में लिखना,वह अंश किस विषय का वर्णन करता है, यह समझना ही अपठित का उद्देश्य है। जिस छात्र का भाषा-ज्ञान जितना परिपक्व होगा, वह अपठित गद्यांश को उतनी ही सरलता से ग्रहण कर उत्तर लिख सकेगा।

अपठित गद्यांश हल करते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए :

  1. मूल अवतरण को बड़ी एकाग्रता से पूरा पढ़ लेना चाहिए। तीन-चार बार पढ़ने से उसका भाव स्वत: ही समझ में आ जाता है।
  2. मूल भाव से शीर्षक का पता चल जाता है कि गद्यांश किस विषय पर लिखा गया है। अत: उसे अलग से लिख लेना चाहिए।
  3. दिये गये प्रश्नों के उत्तर भी उसी गद्यांश में निहित होते हैं। उसे पढ़कर अपनी भाषा में उत्तर देना चाहिए।
  4. गद्यांश का एक-तिहाई सारांश देना चाहिए। संक्षेप में सभी मुख्य बातें आ जायें।
  5. लिखते समय वर्तनी की शुद्धता पर भी ध्यान देना चाहिए।
  6. शीर्षक सरल,संक्षिप्त और सारगर्भित होना चाहिए।

MP Board Solutions

MP Board Class 12th Special Hindi अपठित गद्यांश

नारी सृष्टि का आधार है। नारी के बिना संसार की हर रचना अपूर्ण तथा रंगतहीन है। वह मृदु होते हुए भी कठोर है, उसमें पृथ्वी जैसी सहनशीलता, सूर्य जैसा ओज तथा सागर जैसा गाम्भीर्य एक साथ दृष्टिगोचर होता है। नारी के अनेक रूप हैं, वह समाज कभी उन्नति नहीं कर सकता, जहाँ नारी को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता। नर और नारी गृहस्थी रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं। इन दोनों के तालमेल से ही गृहस्थी का रथ सुचारु रूप से गतिमान रहता है।

प्रश्न
1. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
2. उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
3. सृष्टि का आधार किसे कहा गया है?
4. गृहस्थी रूपी गाड़ी के दो पहियों में से एक नर है, दूसरा कौन है?
उत्तर-
1. शीर्षक नारी की महत्ता।
2. सारांश-नारी सृष्टि का मूल आधार है। उसके अभाव में संसार की प्रत्येक रचना अधूरी है। वह कोमल होते हुए भी कठोर है। उसके मन-मानस में सूर्य के समान तेज है तथा सागर जैसी गम्भीरता है। पुरुष एवं नारी के तालमेल के बिना गृहस्थी का रथ भली प्रकार संचालित नहीं हो सकता।
3. सृष्टि का आधार नारी को कहा गया है।
4. गृहस्थी रूपी गाड़ी के दो पहियों में से एक नर है तथा दूसरा नारी है।

2. संस्कार ही शिक्षा है। शिक्षा इंसान को इंसान बनाती है। आज के भौतिकवादी युग में शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य सुख पाना रह गया है। अंग्रेजों ने इस देश में अपना शासन व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए ऐसी शिक्षा को उपयुक्त समझा, किन्तु यह विचारधारा हमारी मान्यता की विपरीत है। आज की शिक्षा प्रणाली एकाकी है, इसमें व्यावहारिकता का अभाव है, श्रम के प्रति निष्ठा नहीं है। प्राचीन शिक्षा प्रणाली में आध्यात्मिक एवं व्यावहारिक जीवन की प्रधानता थी। यह शिक्षा केवल नौकरी के लिए नहीं, जीवन को सही दिशा प्रदान करने के लिए थी। अत: आज के परिवेश में यह आवश्यक हो गया है कि इन दोषों को दूर किया जाय अन्यथा यह दोष सुरसा के समान हमारे सामाजिक जीवन को निगल जायेगा।। [2009]

प्रश्न
1. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
2. उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
3. अंग्रेजी शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य क्या है?
उत्तर-
1. शीर्षक-शिक्षा का उद्देश्य।
2. सारांश-श्रम के प्रति निष्ठा,नैतिक मूल्यों के प्रति आस्था तथा जीवन को व्यावहारिक बनाना ही शिक्षा का मूल उद्देश्य है। अंग्रेजी शासनकाल में भौतिक सुख की प्राप्ति ही शिक्षा का उद्देश्य समझा जाने लगा। इससे शिक्षा में अनेक दोष पैदा हो गये। आज इन दोषों को दूर कर उसमें आध्यात्मिक एवं व्यावहारिक जीवन का समन्वय करना होगा।
3. अंग्रेजी शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य नौकरी प्राप्त करना एवं सुख पाना है।

3. अपनी ही भाषा के अध्ययन पर विशेष जोर देने के कारण कुछ लोग समझते हैं कि मैं विदेशी भाषाएँ सीखने के विरुद्ध हूँ। मेरा यह मतलब कदापि नहीं है कि विदेशी भाषाएँ सीखनी ही नहीं चाहिए। अपनी आवश्यकता, रुचि की अनुकूलता, अध्ययन के अवसर और अन्य आवश्यक कार्यों में आवश्यक होने पर हमें एक नहीं, अनेक भाषाएँ सीखकर ज्ञान अर्जित करना चाहिए। द्वेष किसी भाषा से नहीं करना चाहिए। ज्ञान किसी भी भाषा में मिलता हो उसे ग्रहण करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। विदेशी भाषा सीखने के बारे में संकीर्ण मनोवृत्ति और संकुचित दृष्टिकोण रखने वाली जातियाँ कुएँ में मेंढक के समान अल्पज्ञ रह जाती हैं।

प्रश्न
1. किसी भाषा से द्वेष क्यों नहीं करना चाहिए?
2. संकीर्ण मनोवृत्ति वालों की उपमा किससे दी है?
3. उपर्युक्त गद्यांश का एक उचित शीर्षक लिखिए।
4. उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
उत्तर-
1. किसी भी भाषा से द्वेष इसलिए नहीं करना चाहिए कि ज्ञान किसी भी भाषा में मिले उसे ग्रहण करना चाहिए।
2. संकीर्ण मनोवृत्ति वाले तो कुएँ में मेंढक के समान होते हैं।
3. शीर्षक-‘विविध भाषाओं का ज्ञान’।
4. सारांश-अपनी भाषा सीखना आवश्यक है। लेकिन अन्य भाषाओं से द्वेष नहीं रखना चाहिए अपितु उन्हें सीखने की कोशिश करनी चाहिए। अन्य भाषाओं के प्रति द्वेष एवं संकीर्ण भाव रखने वाला व्यक्ति कुएँ में मेंढक के समान अल्पज्ञ रह जाता है।

4. कर्मठता लक्ष्य की निश्चितता, उत्कृष्ट अभिलाषा एवं सतत् प्रयत्न के समन्वित स्वरूप का नाम है। कोरा श्रमसाध्य नहीं, यह तो बालकों के खेल और पशुओं की दौड़ में भी होता है। सही श्रम तो वही है जो कुछ ठोस परिणाम देता है। मेरी दृष्टि से यही कर्मठता है। जिस देश में कर्मठजनों का जितना प्रतिशत होता है, वह देश तदनुकूल ही प्रगति अथवा अवनति करता है। अतः शिक्षण का सही उद्देश्य देश में ऐसे कर्मठजनों का निर्माण एवं उत्तरोत्तर उनका प्रतिशत बढ़ाना है। [2014]

प्रश्न
1. सही श्रम किसे कहते हैं?
2. शिक्षण का सही उद्देश्य बताइए।
3. उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
4. उपर्युक्त गद्यांश का एक उचित शीर्षक दीजिए।
उत्तर-
1. सही श्रम वह है जो कुछ वांछित परिणाम दे।
2. शिक्षण का सही उद्देश्य कर्त्तव्यपरायण मानवों का निर्माण है।
3. सारांश-सोद्देश्य श्रम ही कर्मठता है। कर्मठ व्यक्तियों से ही देश प्रगति करता है, अतः सही शिक्षण द्वारा व्यक्तियों को कर्मठ बनाना आवश्यक है।
4. शीर्षक-शिक्षा का उद्देश्य।

5. पर्यावरण प्रदूषण परमात्माकृत नहीं, अपितु मानवकृत है जो उसने प्रगति के नाम पर किये गये आविष्कारों द्वारा निर्मित किया है। आज जल, वायु सभी कुछ प्रदूषित हो चुका है। शोर, धुआँ, अवांछनीय गैसों का मिश्रण एक गम्भीर समस्या बन चुका है। यह सम्पूर्ण मानवता के लिए एक खुली चुनौती है और एक समस्या है जो सम्पूर्ण मानवता के जीवन और मरण से सम्बन्धित है। इसके समक्ष मानवता बौनी बन चुकी है। [2010]

प्रश्न
1. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
2. उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
3. प्रदूषण किसके कारण निर्मित है?
उत्तर-
1. शीर्षक-पर्यावरण प्रदूषण की समस्या।
2. सारांश-पर्यावरण को मानव द्वारा प्रदूषित किया गया है और वही उसके बुरे परिणाम भी भुगत रहा है। यह समस्या इतनी बढ़ गयी है कि अब इससे निकल पाना अत्यधिक कठिन हो गया है। यह विनाश की ओर ले जा रही है।
3. प्रदूषण मानव के नित नये आविष्कारों के कारण निर्मित है।

MP Board Solutions

6. साहित्य मानव समाज का सर्वोत्तम फल है। समाज एवं परिस्थितियाँ ही साहित्यकार के व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं। साहित्यकार की अनुभूति समाज एवं परिस्थितियों की देन होती है। ज्ञान-राशि के संचित कोष का नाम ही साहित्य है। साहित्य और समाज अन्योन्याश्रित है। साहित्य समाज का दर्पण है। मनुष्य जिस वातावरण में रहता है, उसका प्रभाव भी उस पर पड़ता है। समाज की ओर से आँखें मूंदकर साहित्यकार नहीं चल सकता। साहित्य समाज का दर्पण होने के नाते समयुगीन-परिस्थितियों का चित्र भी प्रतिबिम्बित करता है। साहित्यकार का कर्तव्य है कि वह अपने देशकाल एवं परिस्थितियों का सच्चा चित्र प्रस्तुत कर उसमें कल्पना का इन्द्रधनुषी रंग भर दे।

प्रश्न
1. साहित्य किसे कहते हैं?
2. साहित्यकार का क्या कर्त्तव्य है?
3. उपर्युक्त गद्यांश का एक उचित शीर्षक लिखिए।
4. उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
उत्तर-
1. ज्ञान राशि के संचित कोष को साहित्य कहते हैं।
2. साहित्यकार का कर्तव्य है कि वह देशकाल एवं परिस्थिति का सच्चा एवं यथार्थ चित्र प्रस्तुत करे परन्तु साथ ही कल्पना का सतरंगी ताना-बाना भी बुने।
3. शीर्षक साहित्य और समाज।
4. सारांश-साहित्य और समाज का घनिष्ठ सम्बन्ध है। समाज तथा समय की परिस्थितियाँ साहित्यकार को प्रभावित करती हैं, साहित्यकार उनकी अपेक्षा नहीं कर सकता। इसलिए साहित्यकार का यह दायित्व है कि वह अपने युग का वास्तविक वर्णन अपनी कल्पना के साथ करे।

7. अहिंसा भी सत्य का पूरक रूप है। अहिंसा में दूसरे के अधिकारों की, विशेषकर जीवधारियों की स्वीकृति रहती है। अहिंसा मन, वचन और कर्म तीनों से होती है। अहिंसा के पीछे ‘जिओ और जीने दो’ का सिद्धान्त कार्य करता है। जहाँ अहिंसा का मान नहीं, वहाँ मानवता नहीं। अहिंसा मानवता का पर्याय है। मनुष्य को उस जीवन को छीनने का कोई अधिकार नहीं, जिसको वह दे नहीं सकता। हिंसा केवल जान लेने में नहीं, वरन दूसरों के स्वत्वों और स्वाभिमान को आघात पहुँचाने में भी होती है। [2012]

प्रश्न
1. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
2. अहिंसा किस सिद्धान्त पर कार्य करती है?
3. मानवता का पर्याय किसे कहा गया है?
4. उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
उत्तर-
1. शीर्षक-अहिंसा का अर्थ।
2. अहिंसा के पीछे ‘जिओ और जीने दो’ का सिद्धान्त कार्य करता है।
3. मानवता का पर्याय अहिंसा को कहा गया है।
4. सारांश-अहिंसा सत्य का पूरक है। अहिंसा मन,वचन और कर्म से तथा जिओ और जीने दो’ के सिद्धान्त पर कार्य करती है। दूसरों के अधिकारों तथा स्वाभिमान को चोट पहुँचाना भी हिंसा है।

8. किसी भी काल का समाज साहित्य के प्रभाव से अछूता नहीं रह सकता। समाज को अपनी आवश्यकताओं की पर्ति के लिए साहित्य पर आश्रित रहना पड़ता है। शाश्वत साहित्य समाज के स्वरूप में परिवर्तन कर देता है। साहित्य में जो शक्ति छिपी है वह तोप, तलवार और बम के गोले में नहीं पायी जाती।

हिन्दी साहित्य के वीरगाथा काल का वातावरण युद्ध और अशान्ति का था। वीरता प्रदर्शन ही जीवन का महत्त्व था। युद्ध अधिकतर विवाहों के पीछे होते थे। इसकी प्रधान प्रकृति वीर और श्रृंगार की है इसलिए इस साहित्य की रचना हुई। भक्तिकाल के आते-आते विदेशियों का शासन स्थापित हो गया था। निराशा के वातावरण में हिन्दू जनता को भक्ति आन्दोलन की सशक्त लहरी ने जीवनदायिनी शीतलता प्रदान की। इस समय की साहित्यधारा ज्ञान और प्रेम के रूप में प्रवाहित हुई। रीतिकाल तक सम्पूर्ण भारत पर यवनों का शासन स्थापित हो गया था। काव्य का सृजन राजाश्रय में हो रहा था। कवि नारी के अंगों का मादक चित्रण करने में लगे थे। आधुनिक युग के आगमन के साथ ही भारतीय समाज पर पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव पड़ा। नवजागृति से प्रेरित होकर साहित्य की धारा शृंगारादि से निकलकर राष्ट्रीयता और समाज-सुधार की ओर चल पड़ी।

प्रश्न
1. उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
2. इस गद्यांश का एक उचित शीर्षक दीजिए।
3. कौन-सा साहित्य समाज के लिए हितकारी है?
4. भक्ति-आन्दोलन का जन्म क्यों हुआ?
उत्तर-
1. सारांश-साहित्य और समाज का घनिष्ठ सम्बन्ध है। साहित्य अपने समय के समाज पर अपना प्रभाव डाल कर उसके रूप में परिवर्तन करता है। समाज अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए साहित्य पर निर्भर रहता है। इसलिए साहित्य को अत्यन्त शक्तिशाली एवं प्रभावोत्पादक माना जाता है।
2. शीर्षक-साहित्य और समाज।
3. शाश्वत साहित्य समाज के लिए हितकारी होता है, क्योंकि वह समाज के स्वरूप में समयानुकूल परिवर्तन करता है।
4. निराशा में निमग्न हिन्दू जनता में जीवनदायिनी आशा का संचार करने के लिए भक्ति-आन्दोलन का जन्म हुआ।

9. बढ़ती हुई आबादी की समस्या मानव की न्यूनतम आवश्यकताओं-रोटी, कपड़ा और मकान की कमी उत्पन्न करेगी, जीवन स्तर को गिराएगी, देश में हो रहे विकास कार्यों का लाभ जन-जन तक पहुँचाने में रोड़ा अटकायेगी, राष्ट्र की प्रगति पर प्रश्नचिह्न लगायेगी तथा असामाजिक तत्वों का निर्माण कर जीवन-मूल्यों का गला घोंट देगी। भारत को इन समस्त समस्याओं का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि निरन्तर बढ़ रही जनसंख्या चट्टान बनकर सामने खड़ी है।

प्रश्न
1. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
2. उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
3. मानव की मूलभूत आवश्यकताएँ कौन-कौन-सी हैं?
4. भारत की प्रमुख समस्या क्या है?
उत्तर-
1. शीर्षक-जनसंख्या वृद्धि से हानियाँ।
2. सारांश-जनसंख्या वृद्धि से देश में समस्याएँ बढ़ेगी। इससे रोटी, कपड़ा और मकान की मूलभूत आवश्यकता की पूर्ति में कमी होगी, देश के विकास कार्यों में बाधा पहुँचेगी, असामाजिक तत्त्व पनपेंगे तथा जीवन मूल्यों का ह्रास होगा।
3. मानव की मूलभूत आवश्यकताएँ हैं-रोटी, कपड़ा और मकान।
4. भारत की एक बड़ी एवं प्रमुख समस्या बढ़ती हुई आबादी है।

MP Board Solutions

10. वर्तमान युग संघर्ष और प्रतिस्पर्धा का है। मानव जीवन में सुख और सन्तोष में जो गिरावट आयी है उससे परस्पर मानव व्यवहारों में असन्तुलन दिखायी देता है। जीवन-स्तर को उन्नत करने के लिए प्रतिस्पर्धी हो रही है। नैतिक और सामाजिक मूल्य पतित हो रहे हैं। भोजन, वस्त्र, आवास जैसी बुनियादी सुविधाएँ दूभर हो रही हैं। व्यक्ति अपने स्वार्थ की सीमाओं में ही कैद हो गया है।

प्रश्न
1. उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
2. सारांश लिखिए।
3. वर्तमान युग में किस प्रकार का संघर्ष है?
4. वर्तमान युग में किन मूल्यों के पतित होने की बात कही गयी है?
उत्तर-
1. शीर्षक-संघर्ष एवं प्रतिस्पर्धा।
2. सारांश-आज का मानव प्रतिस्पर्धा एवं संघर्ष से बुरी तरह ग्रस्त है। नैतिक एवं सामाजिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है। बुनियादी समस्याएँ गूलर का फूल हो गई हैं। व्यक्तिगत स्वार्थ सब पर हावी है।
3. वर्तमान युग में जीवन-स्तर को अधिकाधिक उन्नत करने का संघर्ष अवलोकनीय है।
4. वर्तमान युग में नैतिक और सामाजिक मूल्यों के पतित होने की बात कही गयी है।

11. राष्ट्रीय चरित्र का विकास ही प्रजातन्त्र का आधार है। किसी भी राष्ट्र की नींव उसके राष्ट्रवासियों के चरित्र पर आधारित है। जिस राष्ट्र के नागरिकों का चरित्र जितना महान होगा उसका भविष्य भी उतना ही महान होगा। प्रजातन्त्र के क्रियान्वयन में राष्ट्र के चरित्र की रक्षा आवश्यक है। चरित्र से नैतिकता का विकास होता है और नैतिकता प्रजातन्त्र की रक्षा कर उसे सफल बनाती है। राष्ट्रीय चरित्र से राष्ट्र के गौरव में वृद्धि होती है। यही कारण है कि भारत अपने राष्ट्रीय चरित्र के नाम पर विश्व के समक्ष अपना मस्तक ऊंचा किये हुए है। [2013]

प्रश्न
1. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिये।
2. उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिये।
3. राष्ट्रीय चरित्र के विकास को किसका आधार कहा गया है?
4. चरित्र से किसका विकास होता है?
उत्तर-
1. शीर्षक राष्ट्रीय चरित्र की उपादेयता।
2. सारांश-राष्टवासियों के चरित्र पर राष्ट की आधारशिला अवलम्बित होती है। उज्ज्वल चरित्र स्वर्णिम भविष्य का नियामक है। चरित्र से नैतिकता एवं मानव मूल्यों की वृद्धि होती है। राष्ट्रीय चरित्र के बलबूते पर ही आज भारत विश्व रंगमंच पर अपना गौरवपूर्ण स्थान रखता है।
3. राष्ट्रीय चरित्र के विकास को प्रजातन्त्र का आधार कहा गया है।
4. चरित्र से नैतिकता का विकास होता है।

12. देश की उन्नति के लिए हम अपने व्यवहार में ईमानदारी और सच्चाई का आदर्श उपस्थित करें। हमें अपने वायदे के पक्के और अपनी जबान के सच्चे बनना चाहिये जिससे कि कोई हम पर उँगली न उठा सके। जिस माल का भाव करें, वही माल दें। ऐसी बातों से देश की साख बढ़ती है। हम अपने वैयक्तिक लाभ की ओर ध्यान न देकर देश की साख पर विचार करें। हमें चाहिए कि अपने को लोभ और लालच से बचायें। विशेषकर उन कार्यों में जहाँ देश के हित का सीधा सम्बन्ध हो। बहुत-से लोग व्यक्तिगत लाभ के लिए देश के हित की परवाह नहीं करते हैं। इस सम्बन्ध में ‘मॉडर्न रिव्यू के सम्पादक श्री रामानन्द चटर्जी ने बड़ा ऊंचा आदर्श स्थापित किया था। वे पहले महायुद्ध के बाद ‘लीग ऑफ नेशन्स’ के अधिवेशन में गये थे। वहाँ उनको आठ हजार रुपये मार्ग व्यय के रूप में भेंट किये गये; किन्तु उन्होंने केवल इसलिए स्वीकार नहीं किये कि उनके स्वीकार कर लेने पर वे उसके सम्बन्ध में स्वतन्त्र और निर्भीक आलोचना न कर सकेंगे। ऐसी बातों से देश का नैतिक नाम बढ़ता है।

प्रश्न
1. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
2. सारांश लिखिये।
3. ‘मार्डन रिव्यू’ के सम्पादक कौन थे?
4. व्यक्तिगत लाभ तथा देश हित में से क्या सर्वोपरि है?
उत्तर-
1. शीर्षक–व्यवहार में ईमानदारी’।
2. सारांश हमारे देश की उन्नति तभी होगी जब यहाँ के नागरिक ईमानदार और सच्चे व्यवहार वाले होंगे। लोभ और स्वार्थ से ऊपर उठकर देश के सम्मान और गौरव की रक्षा के काम करेंगे। श्री रामानन्द चटर्जी का उदाहरण यहाँ के प्रत्येक नागरिक के लिए एक आदर्श प्रस्तुत करता है। मनुष्य के चरित्र को बल मिलता है। नैतिक रूप से उत्थान प्राप्त व्यक्ति सर्वत्र सफल और विजयी होता है।
3. ‘मॉर्डन रिव्यू’ के सम्पादक श्री रामानन्द चटर्जी थे।
4. व्यक्तिगत लाभ तथा देश हित में से निश्चित ही देश हित सर्वोपरि है।

13. धन का व्यय विलास में करने से केवल क्षणिक आनन्द की प्राप्ति होती है यह धन का दुरुपयोग है किन्तु धन का सदुपयोग सुख और शान्ति देता है। धन के द्वारा जो सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य हो सकता है वह है परोपकार। भूखों को अन्न, नंगों को वस्त्र, रोगियों को दवा, अनाथों को घर द्वार, लूले-लंगड़ों और अपाहिजों के लिए आराम के साधन, विद्यार्थियों के लिए पाठशालाएँ इत्यादि वस्तुएँ धन के द्वारा जुटाई जा सकती हैं। धन रहने के कारण एक अमीर आदमी को लोगों की भलाई करने के अनेक अवसर प्राप्त होते हैं, जो कि एक गरीब आदमी को उपलब्ध नहीं हैं चाहे वह इसके लिए कितना ही इच्छुक क्यों न हो, पर संसार में ऐसे आदमी बहुत ही कम हैं जो अपना भोग-विलास त्यागकर अपने धन को परोपकार में लगाते हैं।

प्रश्न
1. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
2. उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
3. धन के सदुपयोग से क्या प्राप्त होता है?
4. धन द्वारा किया जा सकने वाला कोई एक महत्वपूर्ण कार्य बताइए।
उत्तर-
1. शीर्षक-‘धन का सदुपयोग।।
2. सारांश-धन का व्यय यदि विलास कार्य के लिए किया जाता है तो इससे तो क्षणभर का आनन्द प्राप्त होता है। इससे धन का दुरुपयोग होता है। धन का सदुपयोग तो वह है जो भूखे-नंगों,गरीब और अनाथों, अपाहिजों और विद्यार्थियों के कल्याण के लिए व्यय करके किया जाता है। किन्तु संसार में ऐसे धनवान कम हैं जो धन का उपयोग स्वयं के भोग-विलास के लिए – न करके पर-कल्याण के लिए करते हैं।
3. धन के सदुपयोग से सुख और शान्ति प्राप्त होती है।
4. धन के द्वारा जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण कार्य हो सकता है, वह है-—’परोपकार’।

14. सर्वोत्तम कविता की यह पहचान है कि उसके पढ़ने या सुनने से पाठक या श्रोता का मन कवि के भाव में लीन हो जाता है। कवि के हृदय का भाव पाठक या श्रोता के हृदय का भाव बन जाता है। जिस कवि में अपने हृदय के भाव को यथार्थ रूप में पाठक या श्रोता के हृदय में पहुँचाने की जितनी अधिक प्रतिभा होती है, उसकी कविता उतनी ही अधिक प्रभाव तथा रसमग्न करने वाली होती है। ऐसे ही कवियों की कविता का सदैव आदर होता है। [2009]

प्रश्न
1. उपर्यक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
2. उपर्युक्त गद्यांश का भावार्थ अपने शब्दों में लिखिए।
3. कैसे कवियों की कविता का सदैव आदर होता है?
उत्तर-
1. शीर्षक-‘सर्वोत्तम कविता’।
2. सारांश-सबसे अधिक प्रभावशाली कविता वह है जिसे सुनने अथवा पढ़ने मात्र से उसके सुनने अथवा पढ़ने वाले के मन पर गहरा असर पड़े। उस कविता में व्यक्त किये गये कवि के मन के भाव श्रोता को स्वयं के ही मन के भाव प्रतीत हों। वास्तव में, जिस कवि में अपनी बात अथवा भाव को कविता के माध्यम से सम्प्रेषित करने का अद्भुत कौशल होता है,वह कवि महान बन जाता है और उसकी रचनाओं को लोग लम्बे समय तक आदर के साथ याद रखते हैं।
3. जिस कवि में अपने हृदय के भाव को यथार्थ रूप में पाठक या श्रोता के हृदय में पहुँचाने की जितनी अधिक प्रतिभा होती है, उसकी कविता उतनी ही अधिक प्रभाव तथा रसमग्न करने वाली होती है। ऐसे ही कवियों की कविता का सदैव आदर होता है।

MP Board Solutions

15. ज्ञान राशि के संचित कोष का ही नाम साहित्य है। प्रत्येक भाषा का अपना साहित्य होता है। जिस भाषा का अपना साहित्य नहीं होता है, वह रूपवती भिखारिणी के समान कदापि आदरणीय नहीं हो सकती। भाषा की शोभा, उसकी श्री सम्पन्नता उसके साहित्य पर ही निर्भर करती है। साहित्य में जो शक्ति छिपी रहती है वह तोप, तलवार और बम के गोलों में भी नहीं पायी जाती। साहित्य सर्वशक्तिमान होता है। अत: सक्षम होकर भी जो व्यक्ति ऐसे साहित्य की सेवा और अभिवृद्धि नहीं करता वह आत्महन्ता, समाजद्रोही और देशद्रोही है। साहित्य समाज का सर्वोत्तम फल है। इसका निर्माण और रसास्वादन करना हम सभी का परम दायित्व है। [2003, 04, 11]

प्रश्न
1. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
2. गद्यांश का सारांश लिखिए।
3. साहित्य किसे कहते हैं?
उत्तर-
1. उचित शीर्षक-साहित्य।
2. सारांश-वही भाषा सर्वोत्तम एवं आदर्श मानी जाती है, जिसका खुद का साहित्य होता है। तोप-तलवार तथा बम भी साहित्य की शक्ति के सामने तुच्छ हैं। साहित्य समाज का वह सर्वोत्तम मीठा फल है जिसका रसास्वादन जीवनदायक होता है। साहित्य में समाज के लिए संजीवनी व्याप्त होती है।
3. ज्ञानराशि के संचित कोष का नाम ही साहित्य है। साहित्य में सबका हित निहित है। समाज को सत्साहस से भरने की सर्वश्रेष्ठ अपराजेय शक्ति साहित्य में होती है।

16. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज से अलग उसके अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। परिचित तो बहुत होते हैं, पर मित्र बहुत कम हो पाते हैं, क्योंकि मैत्री एक ऐसा भाव है, जिसमें प्रेम के साथ समर्पण और त्याग की भावना मुख्य होती है। मैत्री में सबसे आवश्यक है-परस्पर विश्वास। मित्र एक ऐसा सखा, गुरु तथा माता है जो सबके स्थानों को पूर्ण करता है। [2007, 15]

प्रश्न
1. उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक लिखिए।
2. मनुष्य एक कैसा प्राणी है?
3. समाज से अलग किसके अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती?
4. मित्र किस-किस के स्थानों की पूर्ति करता है?
5. मित्रता के लिए किस बात की आवश्यकता होती है?
उत्तर-
1. शीर्षक ‘सच्चा मित्र’।
2. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।
3. समाज से अलग मनुष्य के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
4. एक सच्चा मित्र सखा, गुरु तथा माता,सभी के स्थानों की पूर्ति करता है।
5. मित्रता के लिए प्रेम के साथ-साथ समर्पण तथा त्याग की भावना की बहुत आवश्यकता होती है।

17. सफलता प्राप्ति का मूल मन्त्र है-अपने समय का सदुपयोग करना। सदुपयोग का अर्थ है-सही उपयोग। कार्य को समझ कर तुरन्त कार्य में लग जाना। जीवन में अनेक दबाव आते हैं, अनेक व्यस्तताएँ आती हैं। व्यस्तताओं से अधिक मन को आलस्य घेरता है। जो व्यक्ति व्यस्तताओं का बहाना बनाकर या आलस्य में घिरकर शुभ कार्यों को टाल देता है, उसकी सफलता भी टल जाती है। इसके विपरीत जो व्यक्ति सोच-समझकर योजनापूर्वक शुभ कार्यों की ओर निरन्तर कदम बढ़ाता चलता है, एक न एक दिन सफलता उसके चरण चूम लेती है। आज के काम को कल पर टालने की प्रवृत्ति सबसे घातक है। इस प्रवृत्ति के कारण मन में असन्तोष बना रहता है,अनेक कामों का बोझ बना रहता है और काम को टालने की ऐसी आदत बन जाती है कि शुभ कार्य करने की घड़ी आती ही नहीं। [2016]

प्रश्न
1. सफलता प्राप्ति का मूल मन्त्र क्या है?
2. मनुष्य की सफलता क्यों टल जाती है?
3. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
4. उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
उत्तर-
1. सफलता प्राप्ति का मूल मन्त्र है-अपने समय का सदुपयोग करना।
2. जो व्यक्ति व्यस्तताओं का बहाना बनाकर या आलस्य में घिरकर शुभ कार्यों को टाल देता है,उसकी सफलता भी टल जाती है।
3. शीर्षक ‘समय का सदुपयोग।
4. सारांश व्यक्ति के जीवन में समय का बहुत महत्व है। साथ ही, मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु कोई और नहीं उसका स्वयं का आलस्य है। यदि व्यक्ति आलस्य का त्याग करके अपने समय का सदुपयोग करता है तो उसकी सफलता सुनिश्चित है। अंग्रेजी की एक कहावत ‘DO IT NOW’ की तर्ज पर हमें भी आज के काम को आज ही निबटाने का प्रयास करना चाहिए। आलस्य के वशीभूत हो कार्यों को टालने की आदत अत्यन्त घातक है।

18. भारतीय संस्कृति में पर्यों का अत्यधिक महत्त्व है। पर्व किसी भी संस्कृति के वह अंग हैं, जिनके बिना वह संस्कृति अधूरी रह जाती है। पर्व हमें ऐसा अवकाश प्रदान करते हैं कि जब हम अपने जीवन के विषय में अच्छा सोच सकते हैं। जीवन प्रवाह को सही दिशा देने वाले पर्व ही होते हैं। जीवन व्यवहार की समस्त कटुताएँ भी पर्व के द्वारा ही समाप्त हो सकती हैं। पर्व जीवन में ऊर्जा उद्दीप्त करते हैं, रिश्तों में मधुर रस घोलते हैं,प्रेम और करुणा की सद्भावना जीवन में नियोजित करते हैं, ज्ञान, आचरण, विश्वास को परिमार्जित करने का प्रयास करते हैं अतः सभी धार्मिक, राष्ट्रीय पर्यों को उल्लास के साथ मर्यादा में रहकर मनाना चाहिए। [2017]

प्रश्न
1. उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक लिखिए।
2. जीवन प्रवाह को सही दिशा कौन देता है?
3. उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
उत्तर-
1. शीर्षक-‘पर्वो का महत्व।
2. जीवन प्रवाह को सही दिशा पर्व देते हैं।
3. सारांश-भारतीय संस्कृति में पर्वो को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। पर्व हमें जिन्दगी की भाग-दौड़ के बीच फुरसत के कुछ ऐसे पल प्रदान करते हैं जब हम रुककर अपने विषय में सोच सकते हैं। पर्व ही जीवन-प्रवाह को सही दिशा देते हैं। इनसे व्यवहार में अनायास प्रविष्ट हुई कटुताएँ समाप्त हो जाती हैं। ये जीवन में नई ऊर्जा, स्फूर्ति,प्रेम,करुणा और परस्पर सम्बन्धों के मध्य मधुरता का रस घोलते हैं। पर्व ही तो हैं जो जीवन में ज्ञान,धर्म,संस्कृति आचरण और विश्वास को संबल प्रदान करते हैं। अतः सभी को विभिन्न पर्वो को उल्लासपूर्वक सादगी के साथ मनाना चाहिए।

अभ्यासार्थ गद्यांश

1. विज्ञान के द्वारा जीवन में विशाल परिवर्तन हुए हैं, यद्यपि वे सभी मानव जाति के लिए कल्याणकारी सिद्ध नहीं हुए हैं, किन्तु उन परिवर्तनों में सबसे मुख्य और आशाप्रद परिवर्तन है वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास। विज्ञान के प्रभाव से मनुष्य वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रयोग करना भूल जाते हैं। केवल वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही मनुष्य जाति को कुछ आशा हो सकती है और उसके द्वारा ही क्लेशों का अन्त हो सकता है। संसार में परस्पर विरोधी शक्तियों के संघर्ष चल रहे हैं। उनका विश्लेषण किया जाता है और उन्हें भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है, लेकिन जो वास्तविक और प्रधान संघर्ष है, वह वैज्ञानिक और अवैज्ञानिक दृष्टिकोण का ही संघर्ष है।

MP Board Solutions

प्रश्न
1. उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
2. गद्यांश का सारांश लिखिए।
3. वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास किसकी देन है?
4. मनुष्य जाति को सर्वाधिक आशाएँ किससे हैं?

MP Board Class 12th Hindi Solutions

MP Board Class 12th Special Hindi अपठित पद्यांश

MP Board Class 12th Special Hindi अपठित पद्यांश

MP Board Class 12th Special Hindi अपठित पद्यांश

1. “तुम हो धरती के पुत्र न हिम्मत हारो,
श्रम की पूँजी से अपना काज सँवारो।
श्रम की सीपी में ही वैभव पलता है,
तब स्वाभिमान का दीप स्वयं ही जलता है।
मिट जाता है दैन्य स्वयं क्षण में,
छा जाती है नव दीप्ति धरा के कण में,
जागो, जागो श्रम से नाता तुम जोड़ो,
पथ चुनो काम का, आलस भाव तुम छोड़ो।”

MP Board Solutions

प्रश्न
1. प्रस्तुत पद्यांश का भाव स्पष्ट कीजिए।
2. प्रस्तुत पद्यांश का शीर्षक लिखिए।
3. कवि ने किस पूँजी से अपने बिगड़े कार्य सँवारने की बात कही है?
4. कवि ने किस भाव को त्यागने की बात कही है?
उत्तर-
1. कवि कहता है कि जिस प्रकार से सृष्टि में परिवर्तन होता है, उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में भी निरन्तर परिवर्तन होता है। अतः व्यक्ति को जीवन में निराश नहीं होना चाहिये। सदैव स्वाभिमान के साथ परिश्रम करते हुए उद्यम के मार्ग को ही अपनाना चाहिए। वास्तव में उद्यम ही सुख की निधि है। श्रम वैभव का प्रवेश द्वार है इसी के कारण स्वाभिमान की भावना जागृत होती है तथा निर्धनता समाप्त हो जाती है। मानव को प्रमाद त्यागकर श्रम करना चाहिए।
2. शीर्षक-‘श्रम की महत्ता’।
3. कवि ने परिश्रम की पूँजी से अपने बिगड़े कार्य सँवारने की बात कही है।
4. कवि ने आलस्य-भाव को त्यागने की बात कही है।

2. “प्राचीन हो या नवीन छोड़ो रूढ़ियाँ जो हों बुरी,
बनकर विवेकी तुम दिखाओ हँस जैसी चातुरी।
प्राचीन बातें ही भली हैं यह विचारो अलीक है,
जैसी अवस्था हो जहाँ, तैसी व्यवस्था ठीक है।
सर्वज्ञ एक अपूर्व युग का हो रहा संचार है,
देखो दिनों दिन बढ़ रहा विज्ञान का विस्तार है।
अब तो उठो क्यों पड़ रहे हो व्यर्थ सोच विचार में,
सुख दूर जीना भी कठिन है श्रम बिना संसार में।”

प्रश्न
1. इस पद्यांश का भाव स्पष्ट कीजिए।
2. इस पद्यांश का शीर्षक बताइये।
3. कवि ने किन्हें छोड़ने की बात की है?
4. सुख प्राप्त करने के लिए क्या आवश्यक है?
उत्तर-
1. हंस का नीर क्षीर विषय ज्ञान विश्व विख्यात है। कवि के मतानुसार मानव को प्राचीन अथवा नवीन रूढ़ियाँ जो उसकी उन्नति में बाधक हैं, उन्हें त्यागकर कल्याणकारी नीतियाँ ग्रहण करनी चाहिये तथा सड़ी-गली रूढ़ियों का मोह त्याग देना चाहिये।
2. शीर्षक प्रगतिशील दृष्टिकोण’।
3. कवि ने बुरी रूढ़ियों को छोड़ने की बात की है।
4. सुख प्राप्त करने के लिए कठिन परिश्रम आवश्यक है।

अभ्यासार्थ पद्यांश

“अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।
सरस तामरस गर्भ विभा पर-नाच रही तरु शिखा मनोहर
छिटका जीवन-हरियाली पर-मंगल कुंकुम-सारा
अरुण यह मधुमय देश हमारा।”

MP Board Solutions

प्रश्न
1. प्रस्तुत पद्यांश का भाव स्पष्ट कीजिए।
2. प्रस्तुत पद्यांश का शीर्षक लिखिए।
3. अपने देश को क्या कहा गया है?
4. देश के सौन्दर्य का वर्णन दो वाक्यों में कीजिए।

MP Board Class 12th Hindi Solutions

MP Board Class 12th Special Hindi निबन्ध-लेखन

MP Board Class 12th Special Hindi निबन्ध-लेखन

निबन्ध आधुनिक साहित्य की अत्यन्त लोकप्रिय गद्य – विधा है। अंग्रेजी में इसे ‘Essay’ कहते हैं,जो ‘एसाई’ शब्द से बना है। इस शब्द का अंग्रेजी में अर्थ होता है—अपने मन के भावों को व्यक्त करने का प्रयास करना। निबन्ध मन की एक शिथिल विचार तरंग है, जो असंगठित, अपूर्व और अव्यवस्थित होती है। इसे जब व्यवस्थित रूप में संगतिपूर्ण शब्दों के माध्यम से लिपिबद्ध किया जाता है, तब यह निबन्ध होता है। लेखक के मन की विशेष भाव – श्रृंखला की अभिव्यक्ति ही निबन्ध है। सभी व्यक्तित्व भिन्न – भिन्न प्रकृति के होते हैं और उनकी अपनी – अपनी शैली होती है। शैली में व्यक्तित्व की स्पष्ट झलक होती है। इसीलिए एक ही विषय पर लोग भिन्न – भिन्न प्रकार से विचार व्यक्त करते हैं। यही कारण है कि निबन्ध को हम सीमित नहीं कर सकते कि अमुक विषय पर बस इसी एक ही प्रकार से निबन्ध लिखा जाये। प्रत्येक छात्र की उस समय की मनोदशा, उसका अपना अनुभव, अपनी भाषा – शैली और व्यक्तित्व तथा शब्द – चयन निबन्ध में व्यक्त होता है। छात्र विशेष को शब्द – योजना और वाक्य – रचना का किस सीमा तक ज्ञान है, क्या वह मुहावरेदार भाषा का प्रयोग करता है या सरल भाषा का, यह सब उसके कौशल पर निर्भर करता है।

MP Board Solutions

निबन्ध विद्यार्थियों के भाषा – ज्ञान को परखने की कसौटी है। निबन्ध ही परीक्षा का वह प्रश्न है जिससे बालक की लेखन – शैली के कौशल का विास परखा जाता है। परीक्षक यह देखना चाहता है कि अपने ज्ञान को संयोजित कर छात्र किस प्रकार उसे सरस, व्यवस्थित प्रभावशाली भाषा – शैली में व्यक्त कर सकता है।

छात्रों को यह जानना अति आवश्यक है कि वे सीमित समय में सीमित शब्दों में अच्छा निबन्ध किस प्रकार लिखें।

हम अच्छा निबन्ध कैसे लिखें?
निबन्ध लिखने में मुख्य रूप से हमें विचार – समूह अर्थात् आधार – सामग्री पर ध्यान देना आवश्यक है और फिर भाषा – शैली तथा वाक्य – गठन भी भावानुकूल होना चाहिए।

निबन्ध लिखने से पहले हमें भली – भाँति विषय का सही चुनाव करना चाहिए। ऐसा विषय चुनना चाहिए जिसके बारे में भली – भाँति जानकारी हो। निबन्ध की भाषा रोचक होनी चाहिए। भाषा में प्रवाह और बोधगम्यता होनी चाहिए।

सबसे पहले हमें निबन्ध की रूपरेखा सुव्यवस्थित रोचक ढंग से तैयार कर लेनी चाहिए। रूपरेखा पूरी बन जाने के बाद उसके आधार पर निबन्ध लिखना चाहिए।

भाषा – लेखन में सतर्कतापूर्वक वर्तनी की अशुद्धियों पर विशेष ध्यान देकर शुद्ध लिखना चाहिए। विराम – चिह्नों का समुचित प्रयोग आवश्यक है। निबन्ध में आवश्यकतानुसार अनुच्छेद का परिवर्तन एक भाव या विचार समाप्त होने पर करना चाहिए। एक बिन्दु को एक अनुच्छेद में पूर्ण रूप से अभिव्यक्त करना चाहिए। निबन्ध के बीच – बीच में अपनी बात की पुष्टि के लिए या विचारों में दृढ़ता लाने के लिए प्रमाणस्वरूप यथास्थान विद्वानों के उद्धरण चाहे वे किसी भी भाषा में हों ज्यों के त्यों लिखना चाहिए। उद्धरण को अवतरण चिह्न “………..” के मध्य मूल भाषा में ही लिखना चाहिए। यदि मूल रूप से याद न हो तो विद्वानों के उन विचारों को अपनी भाषा में भी लिख सकते हैं,तब अवतरण चिह्न का प्रयोग न करें।

भाषा के प्रयोग में एक आवश्यक सावधानी रखें कि किसी भी शब्द या वाक्य की पुनरावृत्ति न हो, अन्यथा भाषा का लालित्य समाप्त होकर निबन्ध प्रभावशाली नहीं रह पायेगा।

निबन्ध के अंग –
ये मुख्य रूप से तीन होते हैं—
(1) प्रस्तावना,
(2) विषय – विस्तार और
(3) उपसंहार।

(1) प्रस्तावना – प्राय: छात्रों को यह दुविधा रहती है कि निबन्ध किस प्रकार प्रारम्भ करें। अतएव अच्छे आरम्भ के लिए कुछ बातें ध्यान में रखें क्योंकि यदि प्रारम्भ ही गलत दिशा में हो गया तो पूरे निबन्ध का ढाँचा बिगड़ जाता है।

प्रारम्भ यदि किसी विद्वान के उद्धरण से करें तो उचित होता है। प्रारम्भ में किस विषय पर आप निबन्ध लिख रहे हैं वह क्या है? उसकी परिभाषा या विषय का स्पष्टीकरण और उसके स्वरूप का विवेचन कर दें। उस समय विशेष का हमारे जीवन में, हमारे समाज में या वर्तमान सन्दर्भो में उसकी क्या समसामयिक उपयोगिता है? यह लिखें। फिर प्राचीनकाल में इस सम्बन्ध में क्या विचार थे या क्या स्थिति थी और उसमें क्यों और कैसे परिवर्तन आया? यह लिखें।

(2) विषय – विस्तार–प्रस्तावना की सृष्टि होने पर हम निबन्ध के विषय के जितने क्षेत्र और पक्ष हो सकते हैं,उनके आधार पर निबन्ध आगे बढ़ाते हैं। इसमें भी पुनरावृत्ति से बचना चाहिए। एक स्वतन्त्र बात या विचार को एक अनुच्छेद में रखें। विषय से सम्बन्धित जो भी बात हो, वह छूटने न पाये। विषय के बारे में जो भी जानकारी हो, वह व्यवस्थित रूप में लिखनी चाहिए। किसी भी विषय के बारे में उसके भूतकाल,वर्तमान स्वरूप और भविष्य की क्या रूपरेखा होगी, यह लिख देना चाहिए। उदाहरण के लिए विज्ञान के विषय में प्राचीनकाल में उसकी क्या स्थिति थी। वर्तमान समय में उसकी क्या गतिविधि है और जीवन को क्या लाभ है? यह लिखकर भविष्य की सम्भावनाएँ लिख देनी चाहिए। इस प्रकार आसानी से किसी भी विषय पर निबन्ध लिखा जा सकता है। भाषा – शैली रोचक होनी चाहिए। महापुरुषों के उद्धरण भी लिख देने चाहिए। उससे हमारी बात में दृढ़ता आ जाती है।

निबन्ध के मध्य में ही लेखक पाठक को अपने तर्क समझाने का प्रयत्न करता है। यही भाग निबन्ध का सबसे अधिक विस्तृत भाग होता है। प्रारम्भ से इस भाग का सम्बन्धित होना आवश्यक है और इसके सभी सिद्धान्त वाक्य अन्त की ओर उन्मुख होने चाहिए।

(3) उपसंहार – यह निबन्ध का अन्तिम भाग है। लेखक को यह भाग अति सावधानी से पूरा करना चाहिए। उपसंहार की सफलता पर ही निबन्ध की सफलता निर्भर करती है। भूमिका के समान ही उपसंहार का महत्व होता है। निबन्ध का उपसंहार आकर्षक और सारगर्भित होना चाहिए। हमें निबन्ध का अन्त वहाँ करना चाहिए,जहाँ विषय का विवेचन हमारी जिज्ञासा को पूरी तरह सन्तुष्ट कर दे। उपसंहार में जो कुछ हमने निबन्ध में लिखा है, उसका सारांश संक्षेप में एक अनुच्छेद में लिखना है।

निबन्ध के अन्तिम अंश में ऐसा न लगे कि निबन्ध अनायास समाप्त हो गया है। निबन्ध के समाप्त होने पर भी लेखक की विचारधारा का मूल भाव पाठक के मन में बार – बार आता रहे। वही सफल अन्त है, जिसमें पढ़ने वाले का ध्यान लेखक के तर्कपूर्ण संगत भावों की ओर आकर्षित हो जाये और वह विषय के गुण – दोष दोनों को जानकर अपना एक मत निश्चित कर सके। उक्त प्रकार से लिखा गया निबन्ध उत्कृष्ट होगा।

निबन्ध के प्रकार –

प्रमुख रूप से निबन्ध चार प्रकार के होते हैं –
(1) वर्णनात्मक,
(2) विवरणात्मक,
(3) विवेचनात्मक,
(4) आलोचनात्मक।

(1) वर्णनात्मक – वे निबन्ध जिनमें किसी देखी हुई वस्तु या दृश्य का वर्णन होता है उन्हें हम वर्णनात्मक निबन्ध कहते हैं; जैसे – यात्रा,पर्व, मेला, नदी,पर्वत, समुद्र, पशु – पक्षी,ग्राम,रेलवे स्टेशन आदि का वर्णन।
(2) विवरणात्मक – इसका अन्य नाम चरित्रात्मक भी है। इस प्रकार के निबन्धों में ऐतिहासिक घटनाओं, ऐतिहासिक यात्राओं तथा महान पुरुषों की जीवनियों एवं आत्मकथा आदि का वर्णन होता है।
(3) विवेचनात्मक – इसका अन्य नाम विचारात्मक भी है। इन निबन्धों में विचारों की प्रमुख रूप से प्रधानता होती है। इसीलिये इन्हें विचारात्मक या विवेचनात्मक निबन्ध कहते हैं। इस प्रकार के निबन्धों में भावनात्मक विषयों पर भी लेखनी चलाई जाती है। जैसे—करुणा,क्रोध, श्रद्धा – भक्ति, अहिंसा, सत्संगति, परोपकार आदि विषयों पर लिखे गये निबन्ध इस श्रेणी में आते हैं।
(4) आलोचनात्मक – इस प्रकार के निबन्धों के अन्तर्गत सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, धार्मिक एवं साहित्यिक समस्त प्रकार के निबन्ध आते हैं। इस प्रकार के निबन्धों में तर्क – वितर्क द्वारा पक्ष – विपक्ष को प्रस्तुत किया जाता है।

समसामयिक समस्याओं से सम्बन्धित निबन्ध में यथा आतंकवाद, महँगाई की समस्या, साम्प्रदायिकता, जनसंख्या विस्फोट,बेरोजगारी एवं आरक्षण आदि की समसामयिक समस्याएँ सम्मिलित हैं।

MP Board Solutions

1. राष्ट्र निर्माण में छात्रों का योगदान [2009]

“चाहे जो हो धर्म तुम्हारा, चाहे जो वादी हो।
नहीं जी रहे अगर देश हित, तो निश्चय ही अपराधी हो।”

विस्तृत रूपरेखा –
(1) प्रस्तावना,
(2) छात्रों का उचित निर्देशन आवश्यक,
(3) एकनिष्ठ भाव से अध्ययन,
(4) छात्र देश का अविभाज्य अंग,
(5) छात्र देश के भावी कर्णधार,
(6) देश के प्रति छात्रों के कर्त्तव्य,
(7) प्रस्तावना। [2014]

प्रस्तावना – राष्ट्र का वास्तविक अर्थ उस देश की भूमि नहीं वरन् देश की भूमि में रहने वाली जनता है। जनता की सुख – समृद्धि ही राष्ट्र की सच्ची प्रगति है। आज के विद्यार्थी कल देश के नागरिक होंगे। अतएव छात्र – जीवन में ही उनके मन में राष्ट्र के प्रति प्रेम की भावना यदि भर दी जाय तो वे राष्ट्र की उन्नति में सहायक होते हैं। जिस मातृभूमि की गोद में हमने जन्म लिया, जिसकी धरती से हमारा पालन – पोषण हुआ उस देश की सेवा,प्रगति में कुछ विशिष्ट लोगों का हाथ हो यह ठीक नहीं, वरन आज के छात्रों को भी इस प्रगति में पूर्ण सहयोग देना चाहिए। छात्रों को न केवल अपने अधिकारों के बारे में सचेत रहना चाहिए वरन् उन्हें अपने कर्तव्य के प्रति भी उतनी ही निष्ठा रखनी चाहिए।

छात्रों को उचित निर्देशन आवश्यक – किशोरावस्था तथा युवावस्था में आत्म – विवेक नहीं रहता और इसके अभाव में आत्म – नियन्त्रण,भी नहीं रहता। अतएव छात्रों को देश की प्रगति के बारे में बताना होगा। देश का प्रत्येक निवासी जो जिस स्थान पर है, जिस स्थिति में है वह वहीं रहकर देश की सेवा कर रहा है—किसान अपने खेतों और खलिहानों में, व्यापारी – व्यापार में, साहित्यकार सृजन में,डॉक्टर, वैद्य अस्पतालों में, सैनिक युद्ध के मोर्चे पर तथा विद्यार्थी अपने विद्यालयों में अध्ययन करके। जिस व्यक्ति का जो काम है वह उसे एकाग्रता से निष्ठापूर्वक करे तो देश की प्रगति होगी। इसके विपरीत यदि छात्र असफल राजनीतिज्ञों,छात्र नेताओं के गलत पथ – प्रदर्शन को अपना लेते हैं तो प्रगति के नाम पर पतन के रास्ते पर चल पड़ते हैं। अधिकारों के नाम पर हड़ताल, प्रदर्शन, सत्याग्रह, आन्दोलन, धरना, घिराव इन सब गतिविधियों में भाग लेकर वे अपना भी नुकसान करते हैं और यह सब राष्ट्र की प्रगति में बाधक है।

एकनिष्ठ भाव से अध्ययन – देश की प्रगति में छात्रों के योगदान का आशय है एकनिष्ठ भाव से विद्याध्ययन करना क्योंकि विद्या प्राप्ति के लिए एक अवस्था और एक समय निश्चित है। यदि इस अवस्था में एकनिष्ठता का अभाव रहा तो भावी जीवन के उद्देश्यों की पूर्ति सम्भव नहीं है। भावी जीवन की नींव ही यदि कमजोर हुई तो उस पर जो भवन खड़ा होगा वह सुदृढ़ और स्थायी नहीं रह पायेगा। वह केवल लड़खड़ाते हुए अपनी जिन्दगी काटेगा। यदि छात्र सम्पूर्ण तन्मयता से एक शिष्ट सुसंस्कृत सभ्य नागरिक बनने की तैयारी कर रहे हैं तो यही देश सेवा है। छात्र चाहे तो कुशल व्यवसायी, विद्वान् प्रवक्ता, सफल वकील,प्रसिद्ध डॉक्टर, निपुण कलाकार, कर्मठ शिल्पी कुछ भी बन सकता है और यही आज का छात्र कल का सभ्य नागरिक बनकर देश की प्रगति में सहायक होगा।

छात्र देश का अविभाज्य अंग – छात्र देश के कर्णधार हैं। समाज व्यक्ति से ही बनता है, वह बहुत – सी इकाइयों का समूह है और छात्र देश के अविभाज्य अंग हैं। छात्रों का प्रत्येक निष्ठापूर्वक किया हुआ कार्य देश को, देश के चरित्र को, देश के मान – सम्मान और गौरव को बढ़ाता है और इनके ही कृत्यों द्वारा देश बदनाम होता है, उसकी अवनति होती है। छात्रों की प्रत्येक गतिविधि की परछाईं देश के चरित्र में स्पष्ट झलकती है। हमारी प्रगति ही देश की प्रगति है, इस बात को भली प्रकार समझ लेना चाहिए।

छात्र देश के भावी कर्णधार छात्रों का स्वाध्याय, चिन्तन – मनन, उनके शिष्ट व्यवहार, मधर सम्भाषण यह सब देश की प्रगति का सचक है। छात्र और जनता अच्छी होगी तो देश अच्छा कहलायेगा, यदि छात्र अनुशासित होंगे तो देश अनुशासित कहलायेगा। ईमानदारी, सच्चाई और दूसरों के क्रिया – कलाप में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करना ही एक प्रगतिशील राष्ट्र की निशानी है। छात्र शान्त – चित्त और अनन्य श्रद्धा से शिक्षा ग्रहण करें यही देश की प्रगति में महत्त्वपूर्ण योगदान है क्योंकि ये ही देश के भावी कर्णधार हैं और देश को महान् बनाने के कर्म में लगे हुए हैं।

शिक्षण और स्वाध्याय से जो समय बचे उसका छात्रों को सदुपयोग करना चाहिए।

देश के प्रति छात्रों के कर्त्तव्य छात्र प्रौढ़ शिक्षा एवं साक्षरता आन्दोलन में भाग लेकर अशिक्षितों को शिक्षित बनाने का काम कर सकते हैं। सार्वजनिक रूप से गोष्ठियों, व्याख्यान मालाओं का आयोजन कर देश के चरित्र को ऊँचा उठाने में नैतिक मूल्यों की.मानवीयता की धर्मनिरपेक्षता की शिक्षा का प्रचार कर एकता का प्रयास कर सकते हैं। अकालग्रस्त या भूकम्प पीड़ित, ओलावृष्टि से प्रभावित क्षेत्रों के लिए टोलियाँ बनाकर धन – सामग्री एकत्रित कर उनकी सहायता कर सकते हैं। बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में जाकर डूबने वाले व्यक्तियों को बचा सकते हैं। स्वयंसेवी संस्थाओं का निर्माण भी कर सकते हैं जो दैवी विपत्ति के समय हरदम मदद को तैयार रहें। अवकाश के समय गाँवों में जाकर श्रमदान द्वारा सड़क निर्माण, कुओं की सफाई,परिसर की स्वच्छता के लिए प्रयास कर सकते हैं। कृषि की उन्नति में नवीन वैज्ञानिक साधनों की, उन्नत बीजों की,खाद,दवा की जानकारी दे सकते हैं। गाँव वालों को सौर ऊर्जा,उन्नत चूल्हे,धूम्ररहित चूल्हे, परिवार नियोजन, अल्प – बचत योजना तथा पोलियो आदि के टीकाकरण के सम्बन्ध में जानकारी दे सकते हैं। अन्ध – विश्वासों व रूढ़िवादिता से छुटकारा दिला सकते हैं।

इंजीनियरिंग तथा मेडीकल के छात्र भी ग्रीष्मावकाश में गाँवों जाकर सेवा – कार्य कर सकते हैं। देश की प्राचीन संस्कृति, सभ्यता, प्रजातन्त्र का महत्त्व, मतदान की गरिमा, नागरिक के अधिकार, कर्त्तव्य, ऋण – योजना एवं बीमा आदि के बारे में अन्य विषय के छात्र जानकारी दे सकते हैं।

उपसंहार – छात्र – जीवन विद्यार्थी की वह अवस्था होती है, जिसमें मनुष्य अटूट शक्ति – सम्पन्न होता है। उनमें कार्य सम्पादन की अभूतपूर्व क्षमता होती है,मन – मस्तिष्क तेज होते हैं। यदि उन्हें सही दिशा मिले और उनकी शक्ति का उचित मार्गान्तरीकरण हो तो वे देश की प्रगति में अत्यन्त लाभप्रद सिद्ध होंगे। भारतीय छात्र पूर्ण शक्ति और सामर्थ्य से देश को आगे बढ़ायें।

2. समय का सदुपयोग [2017]

“समय लाभ सम लाभ नहिं, समय चूक सम चूक।
चतुरन चिंत रहिमन लगी, समय चूक की हूक ॥”

विस्तृत रूपरेखा
(1) प्रस्तावना,
(2) समय जीवन सफलता का मापदण्ड,
(3) समय के सदुपयोग से लाभ,
(4) परिश्रम एवं तपस्या ही जीवन का मूल्यांकन है,
(5) उपसंहार।।

प्रस्तावना – नष्ट हुई सम्पत्ति और खोये हुए वैभव को पुनः प्राप्त करने के लिए मनुष्य निरन्तर मेहनत करता है। एक दिन उसे सफलता मिल जाती है। खोया हुआ स्वास्थ्य और नष्ट हुआ धन पुनः प्राप्त किया जा सकता है। किन्तु खोया हुआ क्षण फिर वापस नहीं आता। समय न तो मनुष्य की प्रतीक्षा करता है और न परवाह। समय का रथ तो तेजी से चल रहा है उसे कोई भी रोक नहीं सकता। इसीलिए कहा है :

क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थं च साधयेत्।
क्षणे नष्टे कुतो विद्या, कण नष्ट कुतो धनम्।

प्रत्येक क्षण में विद्या (ज्ञान) प्राप्त करो और कण – कण जोड़कर धन पाओ। क्षण भर का समय नष्ट हो जाय तो विद्या कहाँ और कण नष्ट हो जाय तो धन नहीं। तुलसीदास जी ने भी कहा है :

‘दिवस जात नहीं लागत बारा’

दिन जाते देर नहीं लगती,जो समय पर जाग नहीं सका,वही पीछे रह गया।
नदी बहती है, घड़ी चलती है, सूरज, चाँद तारे भी विश्राम नहीं करते तो हम क्यों आराम करें। समय को व्यर्थ न गँवायें उसका सदुपयोग करें।

काव्यशास्त्र विनोदेन काल: गच्छति धीमताम्
व्यसनेन च मूर्खाणां, निद्रया कलहेन वा

समय जीवन – सफलता का मापदण्ड – जीवन की सफलता का रहस्य समय के सही उपयोग में निहित है। संसार के सभी प्राणियों का समय पर समान रूप से अधिकार है। समय की उपयोगिता साधारण से साधारण व्यक्ति को भी महान् बनाती है। महापुरुषों के चरित्र से हमें प्रेरणा मिलती है,उन्होंने एक – एक क्षण का उपयोग किया तभी जीवन में उन्हें सफलता मिली। हमें प्रात: शीघ्र उठकर दिनभर के कार्यक्रम की रूपरेखा बना लेनी चाहिए और आज के कार्यों को आज ही सम्पन्न कर लेना चाहिए। जो व्यक्ति निश्चित उद्देश्य को सामने रखता है उसे अपना रास्ता स्पष्ट दिखायी देता है। वह उलझन में नहीं रहता और पूर्ण मनोयोग से उस कार्य की ओर बढ़ता है।

MP Board Solutions

समय के महत्त्व को समझने वाला दुःखी नहीं होता। समय के सदुपयोग का तात्पर्य है नियमित होना। जो अपनी दिनचर्या नियमित रखते हैं वे ही कुछ कर पाते हैं। समय से सोना, समय से उठना, भोजन, अध्ययन, भ्रमण, मनोरंजन, पूजन आदि का समय निश्चित करें। अपने बुजुर्गों के पास बैठे,उनकी सेवा करें। जो व्यक्ति काम टालने वाले होते हैं वे सदैव पछताते हैं।

कबीरदासजी ने कहा है :

काल करै सो आज कर, आज करै सो अब।
पल में परलय होयगी, बहुरि करैगो कब।।

समय के सदपयोग से लाभ – समय के सदपयोग से व्यक्ति की उन्नति होती है अतएव बचपन से ही हमें समय के मूल्य का ध्यान रखना चाहिए। शारीरिक स्वास्थ्य के लिए नियमित होना आवश्यक है और अपने मानसिक स्वास्थ्य के लिए हमें अपने खाली समय में स्वाध्याय हेतु अच्छे – अच्छे ग्रन्थों को पढ़ना चाहिए। अपने से अधिक बुद्धिमान लोगों से चर्चा करनी चाहिए। कभी किसी काम को देर से शुरू न करें,क्योंकि प्रारम्भ की देरी से बाद में भी विलम्ब हो जाता है और फिर उसके बाद के अन्य कामों की सब व्यवस्था अस्त – व्यस्त हो जाती है। पल के अंश में क्या हो जायेगा क्या पता। कहा गया है :

का जाने होइ है पल के चौथे भाग।
अतएव हर पल का उपयोग करें।

परिश्रम एवं तपस्या ही जीवन का मूल्यांकन है देश और समाज के प्रति भी हमारा कर्त्तव्य है। हमें सेवा, परोपकार हेतु भी समय निश्चित रखना चाहिए जिससे देश और समाज की भी उन्नति हो। वर्तमान में विज्ञान का युग होने से हमारी दैनिक जिन्दगी में समय की बचत होने लगी है। यात्रा,लेखन कार्य, भोजन सभी क्षेत्रों में समय बचने लगा है। घण्टों का काम मिनटों में सम्पन्न हो जाता है। समय का सदुपयोग करने वाला व्यक्ति सदैव प्रसन्न रहता है। उसे चिन्ता नहीं रहती कि उसका कोई काम अधूरा है। थोड़े समय में वह अधिकाधिक काम कर लेता है। जो लोग बेकार बैठे रहते हैं,वे समाज में परेशानी पैदा करते हैं,जैसे उन्हें यदि पैसों की जरूरत है तो वे काम न करके जेब काटेंगे या चोरी करेंगे। पर जिसके पास समय की कीमत है वह व्यर्थ की बातों में समय न गँवाकर काम करके पैसा कमाता है और अपनी आवश्यकता पूरी करता है।

ऐसे व्यक्ति का सभी आदर करते हैं। समय का सदुपयोग करने वाला व्यक्ति जीवन में उन्नति करता है क्योंकि परिश्रम और तपस्या से ही किसी व्यक्ति का मूल्यांकन किया जाता है कि वह अपना समय कैसे बिताता है। सत्पुरुष स्वयं सद्मार्ग पर चलकर दूसरों को भी समय बचाने की प्रेरणा देते हैं ताकि चूक जाने पर पछताना न पड़े।

भारत में जीवन के समय को चार भागों में बाँटा गया है और उस समय नियत कार्य ही समय का सदुपयोग है।

प्रथमे नार्जिते विद्या, द्वितीये नार्जिते धनं।
तृतीय नार्जिते पुण्यं, चतुर्थ किम करिष्यति?

अर्थात् जीवन के प्रथम भाग में यदि विद्याध्ययन न किया, द्वितीय भाग में धन नहीं कमाया और प्रौढ़ावस्था में परोपकार या पालन – पोषण कर पुण्य नहीं कमाया तो जीवन के अन्तिम चरण में क्या कर लोगे?

उपसंहार – हमें समय का सदुपयोग करना चाहिए तथा उन लोगों से बचना चाहिए जो समय के शत्रु हैं। आलस्य,स्वार्थीपन, बुरी संगति तथा दीर्घसूत्री (काम टालना) ये सब शत्रु हैं। इन्हें पास नहीं फटकने देना चाहिए।

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महारिपु।
आलसी व्यक्ति कल’ कहता है अतएव आज’ कहना प्रारम्भ करो। व्यर्थ की गपशप,घण्टों तक दुर्व्यसन,लड़ाई – झगड़ा या सोये रहना – ये सब समय का दुरुपयोग हैं। जब प्रकृति,पशु – पक्षी सब में समय की नियमितता है तो हम तो मनुष्य हैं। अत: आज से ही समय का सदुपयोग करें,यही सफलता की कुंजी है। सफलता का वास्तविक रहस्य समय के सदुपयोग में निहित है।

3. वनों का महत्त्व अथवा वन महोत्सव
अथवा
वृक्षारोपण या वन संरक्षण

“धरती का श्रृंगार वृक्ष, वृक्षों से इसे सजाओ।
हरियाली से चमक उठे जग, दस – दस वृक्ष लगाओ।”

विस्तृत रूपरेखा
(1) प्रस्तावना,
(2) प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति में वृक्षों की महत्ता,
(3) वृक्षों की उपासना का प्रचलन,
(4) वृक्ष धरती की उर्वरा शक्ति के परिचायक,
(5) वृक्षों से लाभ,
(6) उपसंहार।

प्रस्तावना – भारतवर्ष का मौसम और जलवायु विश्व में सर्वश्रेष्ठ है। इसकी प्राकृतिक रमणीयता और हरित वैभव विश्व – विख्यात है। विदेशी पर्यटक यहाँ की मनोहारी प्राकृतिक सुषमा देखकर मोहित हो जाते हैं।

प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति में वृक्षों की महत्ता हमारे देश की प्राचीन संस्कृति में वृक्षों की पूजा और आराधना की जाती है तथा उन्हें देवत्व की उपाधि दी जाती है। वृक्षों को प्रकृति ने मानव की मूल आवश्यकताओं से जोड़ा है। किसी ने कहा है – वृक्ष ही जल है,जल ही अन्न है और अन्न ही जीवन है। यदि वृक्ष न होते तो नदी और जलाशय न होते,वृक्षों की जड़ों के साथ वर्षा का अपार जल जमीन के भीतर पहुँचकर अक्षय भण्डार के रूप में एकत्र रहता है। वन हमारी सभ्यता और संस्कृति के रक्षक हैं। शान्ति और एकान्त की खोज में हमारे ऋषि – मुनि वनों में रहते थे। वहीं उन्होंने तत्त्व ज्ञान प्राप्त किया और वहीं विश्व कल्याण के उपाय सोचे। वहीं गुरुकुल होते थे, जिसमें भावी राजा, दार्शनिक, पण्डित आदि शिक्षा ग्रहण करते थे। आयुर्वेद के अनुसार पेड़ – पौधों की सहायता से मानव को स्वस्थ एवं दीर्घायु किया जा सकता है। तीव्र गति से जनसंख्या बढ़ने तथा राष्ट्रों के औद्योगिक विकास कार्यक्रमों के कारण पर्यावरण की समस्या गम्भीर हो रही है। प्राकृतिक साधनों के अधिकाधिक उपयोग से पर्यावरण बिगड़ता जा रहा है। वृक्षों की भारी तादाद में कटाई से जलवायु बदल रही है। ताप की मात्रा बढ़ती जा रही है,नदियों का जल दूषित हो रहा है,वायुमण्डल में कार्बन डाइ – ऑक्साइड गैस की मात्रा बढ़ रही है। इससे भावी पीढ़ी के स्वास्थ्य को खतरा है। जलवायु की नीरसता और शुष्कता को दूर करके पुनः प्राकृतिक सुरम्यता और रमणीयता लाने हेतु भारत सरकार ने 1950 में वन महोत्सव की योजना प्रारम्भ की। नये वृक्ष लगाये जाने लगे और वृक्षारोपण की एक क्रमबद्ध योजना प्रारम्भ हुई।

वृक्षों की उपासना का प्रचलन वृक्षों के महत्त्व एवं गौरव को समझते हुए हमारी प्राचीन परम्परा में इनकी आराधना पर बल दिया गया। पीपल के वृक्ष की पूजा करना,व्रत रखकर उसकी परिक्रमा करना,जल अर्पण करना और पीपल को काटना पाप करने के समान है,यह धारणा वृक्षों की सम्पत्ति की रक्षा का भाव प्रकट करती है। प्रत्येक हिन्दू घर के आँगन में तुलसी का पौधा अवश्य पाया जाता है। तुलसी पत्र का सेवन प्रसाद में आवश्यक माना गया है। बेल के वृक्ष,फल और बेलपत्र की महिमा इतनी है कि वे शिवजी पर चढ़ाये जाते हैं। ‘सर्वरोगहरो निम्बः’ यह नीम वृक्ष का महत्त्व है। कदम्ब वृक्ष को श्रीकृष्ण का प्रिय पेड़ बताया है तथा अशोक के वृक्ष शुभ और मंगलदायक हैं। इन वृक्षों की रक्षा हेतु कहते हैं कि हरे वृक्षों को काटना पाप है। सायंकाल किसी वृक्ष के पत्ते तोड़ना मना है—कहते हैं कि वृक्ष सो जाते हैं। जो व्यक्ति हरे वृक्ष को काटता है उसकी सन्तान मर जाती है। ये सब हैं हमारी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के प्रतीक जिसमें वृक्षों को ईश्वर स्वरूप,वन को सम्पदा और वृक्षों के काटने वालों को अपराधी कहा जाता है।

वृक्ष धरती की उर्वरा शक्ति के परिचायक – वृक्षों की अधिकता पृथ्वी की उपजाऊ शक्ति को भी बढ़ाती है। मरुस्थल को रोकने के लिए वृक्षारोपण की महती आवश्यकता है। भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ का जन – जीवन खेती पर निर्भर रहता है, खेती के लिए जल की आवश्यकता होती है। सिंचाई का उत्तम साधन बारिश का जल है। यदि वर्षा न हो तो नदी, जलाशय, झरने, ट्यूबवेल इत्यादि भी सूख जायें। इनके जल की पूर्ति भी वर्षा करती है। अनुकूल वर्षा होती है तो हम उसे ईश्वर की कृपा समझकर प्रसन्न होते हैं और तृप्ति का अनुभव करते हैं।

वृक्ष वर्षा के पानी को सोखकर धरती के भीतर पहुँचा देते हैं। इसी से धरती उपजाऊ होती है।

वृक्षों से लाभ – वृक्षों से स्वास्थ्य लाभ होता है क्योंकि मनुष्य की श्वास प्रक्रिया से जो दूषित हवा बाहर निकलती है, वृक्ष उन्हें ग्रहण कर हमें बदले में स्वच्छ हवा देते हैं। आँखों की थकान दूर करने और तनाव से छुटकारा पाने के लिए विस्तृत वनों की हरियाली हमें शान्ति प्रदान कर आँखों की ज्योति को बढ़ाती है। वृक्ष बालक से लेकर बुजुर्गों तक सभी के मन को भाते हैं। इसीलिए हम अपने घरों में छोटे – छोटे पेड़ – पौधे लगाते हैं। वृक्षों पर अनेक प्रकार के पक्षी अपना घोंसला बनाकर रहते हैं और उनकी कल – कल मधुर ध्वनि पर्यावरण में मधुरता घोलती है। वृक्षों से अनेक प्रकार के स्वाद के फल हमारे भोजन को रसमय और स्वादिष्ट बनाते हैं। इनकी छाल और जड़ों से दवाइयाँ बनती हैं। अनेक पशु वृक्षों से अपना आहार ग्रहण करते हैं।

वृक्षों से मानव को अनेक लाभ हैं – ये वर्षा कराने में सहायक होते हैं। वृक्षों के अभाव में वर्षा नहीं होती और वर्षा के अभाव में अन्न का उत्पादन नहीं हो पाता। ग्रीष्मकाल में वृक्ष हमें सुखद छाया और मन्द पवन देते हैं। सूखे वृक्ष ईंधन के काम आते हैं। गृह निर्माण,गृह सज्जा, फर्नीचर,काष्ठ शिल्प के लिए हमें वृक्षों से ही लकड़ी मिलती है। कागज, गोंद आदि भी वृक्ष से कच्चा माल ग्रहण करके बनते हैं। कई सुगन्ध, तेल,खाद्य सामग्री में सुगन्ध ये सब भी वृक्षों से प्राप्त होते हैं। आँवला – चमेली का तेल, गुलाब,केवड़े का इत्र,जल,खस की खुशबू ये सभी वृक्षों और उनकी जड़ों से बनते हैं।

MP Board Solutions

उपसंहार – वृक्षों से हमें नैतिकता, परोपकार और विनम्रता की शिक्षा मिलती है। फल को स्वयं वृक्ष नहीं खाता। वह जितना अधिक फल – फूलों से लदा होगा उतना ही झुका हुआ रहता है। हम जब देखते हैं कि सूखा कटा हुआ पेड़ भी कुछ दिनों में हरा – भरा हो जाता है जो जीवन में आशा का संचार कर धैर्य और साहस का भाव जगाता है। हमें अधिक से अधिक वृक्षारोपण करना चाहिए। वृक्षारोपण करके ही हम अपनी भावी पीढ़ी के लिए जीवनदायी वातावरण सृजित कर सकते हैं।

4. पुस्तकालय

“ज्ञान का भंडार संचित, ज्ञान का प्रसाद पाओ।
पुस्तकालय ज्ञान राशि है, आकर ज्ञान बढ़ाओ॥

विस्तृत रूपरेखा –
(1) प्रस्तावना,
(2) पुस्तकालय का आशय,
(3) मानसिक स्वास्थ्य की पृष्ठभूमि,
(4) पुस्तकालय के प्रकार,
(5) सार्वजनिक पुस्तकालय,
(6) उपसंहार।

प्रस्तावना – पुस्तकें हमारी उत्कृष्ट पथ – प्रदर्शक हैं। हम अकेले में इनसे बातें कर सकते हैं, समय का सदुपयोग कर सकते हैं। महान् आत्माओं के दर्शन कर सकते हैं।

जिज्ञासा,कौतूहल,नित नवीन ज्ञान की प्राप्ति ये मानव स्वभाव के अंग हैं एवं उसकी मूल प्रवृत्ति हैं और पुस्तकें सर्वश्रेष्ठ साधन हैं। छात्र अपनी पाठ्य – पुस्तकों के माध्यम से अपनी सभी जिज्ञासाओं को पूरी नहीं कर पाते, अतएव वे अन्य पुस्तकों को भी पढ़ना चाहते हैं और प्रत्येक व्यक्ति इतना सम्पन्न नहीं होता कि सभी किताबें खरीद सके, अतएव पुस्तकालय का प्रचलन हुआ।

पुस्तकालय का आशय – पुस्तकालय दो शब्दों से मिलकर बना है – पुस्तक+ आलय। इसका तात्पर्य है – वह स्थान या भवन है जहाँ पुस्तकों का संग्रह होता है। पुस्तकों का घर पुस्तकालय है। पुस्तकालयों में अनेक विद्याओं एवं विषयों की किताबें रहती हैं। साहित्य, धर्म, राजनीति, इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र,कानून शिक्षा, दर्शन, विज्ञान की पुस्तकें और साहित्यकोष, ज्ञानकोष,शब्दकोष रहते हैं।

मानसिक स्वास्थ्य की पृष्ठभूमि – शारीरिक स्वास्थ्य के लिए जिस प्रकार मनुष्य को पौष्टिक भोजन की जरूरत होती है उसी प्रकार नवीन ज्ञान की प्राप्ति के लिए नयी पुस्तकें अपेक्षित हैं। ये सब हमारे मानसिक स्वास्थ्य के लिए जरूरी हैं। अपने मस्तिष्क को सक्रिय रखने के लिए उसे शुद्ध ज्ञान की खुराक देते रहना चाहिए। इस ज्ञान की उपासना के दो स्थान हैं – एक विद्यालय दूसरा पुस्तकालय। पुस्तकालय में हम ज्ञान के व्यापक क्षेत्र का रसास्वादन कर सकते हैं। यहाँ सभी की रुचि के एवं सभी प्रकार के ग्रन्थ सरलता से मिल जाते हैं। यहाँ के शान्त वातावरण में हम अपने जीवन की अशान्ति और संघर्ष से छुटकारा पा सकते हैं। प्रायः पुस्तकालयों के साथ वाचनालय भी होते हैं। जहाँ प्रत्येक व्यक्ति अपनी – अपनी पसन्द की पुस्तक निकालकर पढ़ सकते हैं और उसमें से आवश्यक महत्त्वपूर्ण नोट भी बना सकते हैं।

पुस्तकालय के प्रकार – पुस्तकालय अनेक प्रकार के हो सकते हैं। हमारी शाला. महाविद्यालय या विश्वविद्यालय के पुस्तकालयों में छात्रों की रुचि की, उनको प्रेरणा देने वाली तथा उनके अध्ययन विषयों में सहायता कर उनके ज्ञान को परिपक्व बनाने में सहायक पुस्तकें होती हैं। इनका कार्य – क्षेत्र सीमित होता है। केवल छात्र और अध्यापक ही इसका लाभ ले पाते हैं। इन पुस्तकालयों का महत्त्व सर्वोपरि है क्योंकि ये छात्रों की ज्ञान वृद्धि में सहायक होते हैं। वे छात्र जो पुस्तकें खरीदने की क्षमता नहीं रखते या वे जो ज्ञान के भण्डार को और बढ़ाना चाहते हैं, एवं एक विषय के लिए अनेक पुस्तकों में अध्ययन करते हैं, उनके लिए ये संस्थागत पुस्तकालय अमूल्य सेवा देकर छात्रों को शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ने का अवसर देते हैं।

दूसरे प्रकार के पुस्तकालय वे होते हैं जो व्यक्तिगत कहलाते हैं। अनेक विद्यानुरागी विद्वान् जो धन की दृष्टि से सक्षम हैं वे भी चुन – चुनकर अनेक विषयों की एवं अनेक प्रकार की पुस्तकें स्वयं खरीद कर उनका संग्रह करके एक यादगार पुस्तकालय बनाते हैं। इनमें प्राचीन और नवीन सभी प्रकार की पुस्तकें होती हैं। उनके निकटतम मित्र व सम्बन्धी इसका लाभ उठा सकते हैं। प्रत्येक वह व्यक्ति जिसे नये ज्ञान के प्रति कौतूहल हो वह अपनी रुचि एवं अपनी क्षमता के अनुसार छोटा या बड़ा पुस्तकालय अपने घर पर अपनी अलमारी में बना सकते हैं। विद्या प्रेमी व्यक्तियों की यही सम्पदा है।

कई शासकीय पुस्तकालय भी होते हैं जो भव्य एवं विशाल भवनों में स्थित होते हैं। यहाँ धन की कमी न होने से बड़े से बड़े दुर्लभ ग्रन्थों का रख – रखाव प्रशिक्षित एवं विद्वान पुस्तकालयाध्यक्षों की देख – रेख में होता है। इन पुस्तकालयों की व्यवस्था सरकार करती है और यहाँ की व्यवस्था बनाये रखने के लिए अनेक कर्मचारी तैनात रहते हैं, पर ये पुस्तकालय जन – साधारण की पहुँच से बाहर होते हैं। इनमें प्रवेश के और पुस्तक प्राप्त करने के कठिन नियमों के कारण ये केवल विशेष वर्ग के उपयोग हेतु सीमित रहते हैं।

सार्वजनिक पुस्तकालय सार्वजनिक पुस्तकालय अत्यधिक लोकप्रिय एवं लाभप्रद हैं। ये सार्वजनिक धन से बनाये जाते हैं। सार्वजनिक पुस्तकालयों की पुस्तकें सभी लोगों की रुचि को ध्यान में रखकर संग्रहीत की जाती हैं। ये सम्पूर्ण समाज को लाभ पहुँचाती हैं। छोटा बड़ा कोई भी व्यक्ति यहाँ से मनपसन्द पुस्तक निकलवाकर पढ़ सकता है। कुछ शुल्क नियत होता है जिससे हम इन पुस्तकालयों की सदस्यता ग्रहण कर सकते हैं और फिर कोई भी पाठक इन पुस्तकों को निश्चित सीमावधि के लिए घर ले जाकर सपरिवार पढ़ सकते हैं। ऐसे पुस्तकालयों में जो सार्वजनिक वाचनालय होता है वहाँ अनेक प्रकार की पत्र – पत्रिकाएँ और दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, त्रैमासिक समाचार – पत्र भी मँगवाये जाते हैं जिन्हें कोई भी पढ़ सकता है और अपना ज्ञान बढ़ाने के साथ समाज,राज्य,राजनीति की दिन – प्रतिदिन घटित होने वाली समस्याओं से अवगत हो सकता है। कई बुजुर्ग लोग सुबह – शाम व्यर्थ का समय न गवाकर इन वाचनालयों एवं पुस्तकालयों में अपना समय बिताते हैं, वहाँ से बाहर निकलकर ज्ञान चर्चा करते हैं और उन्हें सत्संगति का समागम सुख भी प्राप्त होता है।

उपसंहार—यथार्थ में पुस्तकें मनुष्य की सच्ची सुख मित्र,पथ – प्रदर्शक और साथी हैं। अतः गाँव – गाँब में ऐसे पुस्तकालयों की स्थापना जरूरी है। इससे ग्रामवासियों में पढ़ने के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न होगी, उनका ज्ञान बढ़ेगा और इस प्रकार देश में योग्य और सक्षम लोगों की अधिकता स्वयमेव होगी जो देश के सुखद भविष्य का द्योतक होगी।

5. भारत की साम्प्रदायिक एकता
अथवा
राष्ट्रीय एकता (2009, 11)

“मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना।
हिन्दी हैं हम वतन हैं हिन्दोस्तां हमारा ॥”

MP Board Solutions

विस्तृत रूपरेखा ([2017] –
(1) प्रस्तावना,
(2) भारतवर्ष विस्तृत भूखंड है,
(3) अनेकता में एकता भारत की विशेषता,
(4) राष्ट्रीय हित सर्वोपरि,
(5) साम्प्रदायिक सद्भावना अपेक्षित,
(6) प्रान्तीयता की भावना राष्ट्रीय एकता में बाधक,
(7) सर्वधर्म समभाव अपेक्षित,
(8) साम्प्रदायिक एकता के निमित्त प्रयास,
(9) जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी,
(10) उपसंहार।]

प्रस्तावना – ‘भारत की साम्प्रदायिक एकता’ यहाँ के निवासियों की भावनात्मक प्रवृत्ति को स्पष्ट कर देती है जिसमें सबके एक होने (एकत्वभाव) का अर्थ समाहित है। अतः सम्पूर्ण देश के सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक,आर्थिक,सांस्कृतिक, भौगोलिक तथा साहित्यिक दृष्टि से एक होने का अभिप्राय व्यक्त होता है। साम्प्रदायिक एकता और राष्ट्रीयता में भारत राष्ट्र की अनेकता में एकता छिपी हुई है। उपर्युक्त दृष्टि से अनेकता से संयुक्त भारत एकता के सूत्र में बँधा हुआ है। बाहरी रूप से अनेकता (विविधता) लिए हुए भारतवर्ष वैचारिक दृष्टिकोण में एकता धारण किये हुए है। यही एकता में अनेकता और अनेकता में एकता भारत की प्रमुख विशेषता है।

भारतवर्ष विस्तृत भूखंड है – भारतवर्ष एक विशद भूखण्ड (उपमहाद्वीपीय) परिक्षेत्र में फैला हुआ राष्ट्र है जिससे अलगाववादी प्रवृत्तियाँ दूर हैं। यहाँ के निवासी हिन्दू, मुसलमान,ईसाई, पारसी तथा सिख सब बराबर हैं। वे अपने हित को राष्ट्र के हित से अलग नहीं मानते हैं।

अनेकता में एकता भारत की विशेषता भारतवर्ष के सामाजिक परिवेश में अनेक जातियाँ – उपजातियाँ, गोत्र – वर्ण आदि अनेकता लिए हुए होकर भी समाज को एकरूपता देते हैं। अनेक धर्म और सम्प्रदाय अपने अवान्तर भेदों से संयुक्त हैं। सांस्कृतिक रूप में उन सबका रहना – सहना, वेशभूषा, पूजा – पाठ आदि की विविधता ‘एकता’ लिए हुए है। राजनैतिक क्षेत्र में भी समाजवाद, साम्यवाद, गाँधीवाद आदि विविध विचारधाराएँ राष्ट्रवाद से अलग नहीं हैं। साहित्यिक क्षेत्र में भी प्राचीन और नवीन भाषा सम्बन्धी विविध शैलियाँ पल्लवित हैं लेकिन उन सबका ध्येय साहित्यिक समन्वय ही है। आर्थिक दृष्टिकोण भी अनेकता प्रधान है परन्तु उसमें भारत राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को सन्तुलित रखने का प्रयासमात्र है जो राष्ट्रीय एकता को स्थापित करता है। भौगोलिक दृष्टि से भी भारतवर्ष एक लघु विश्व है जिसमें प्राकृतिक विविधता के दर्शन होते हैं। ऋतु परिवर्तन की छटा, पहाड़ों और पठारों के ऊँचे – नीचे शिखर, कहीं बर्फ की चादर ओढ़े हुए और कहीं अपने नंगे प्रकृत स्वरूप में हमारी चेतना पर विपरीत प्रभाव डालती प्रकृति अपने मनोरम स्वरूप में सबको आकर्षित करती है। भारत वसुन्धरा विविध वस्तुओं (रत्नों) को अपने अन्तर में छिपाये हुए है जो भारतीय समृद्धि के एकत्व प्रधान स्वरूप को प्रकट करती है।

राष्ट्रीय हित सर्वोपरि राष्ट्रीय एकता को पल्लवित करने के लिए अलगाववादी प्रवृत्ति को दूर रखना चाहिए। सभी को यहाँ अपने – अपने सम्प्रदाय और धर्मों के प्रति अटूट आस्था रखने की अनुमति दी गई है। परन्तु राष्ट्रीय हित सर्वोपरि है जो साम्प्रदायिक और धार्मिक अवान्तरों के पालन से ऊपर है। सभी धर्मों का मूल एक है – उस असीम सत्ता की प्राप्ति। अतः राष्ट्रीय स्तर पर साम्प्रदायिक सामंजस्य कायम रखने के लिए धर्म – सहिष्णुता की भावना विकसित करना परमावश्यक है। भारत के अनेक राज्य मिलकर भारत को सबल स्वतन्त्र राजनैतिक इकाई के रूप में स्थिर करते हैं जिनका राजनीतिक और साम्प्रदायिक स्वरूप भारत राष्ट्र का अभिन्न अंग बनकर राष्ट्रीयता की मूल भावना को सुदृढ़ करता है।

साम्प्रदायिक सद्भावना अपेक्षित – साम्प्रदायिकता की भावना अपने सम्प्रदाय के विश्वासों और आस्था को पल्लवित करने की अनुमति देती है परन्तु उस भावना में अन्य सम्प्रदायों की अपेक्षा अधिक अधिकार की इच्छा करना अनुचित है। अपने विश्वासों और धार्मिक आस्थाओं का अविरोध पालन करना साम्प्रदायिकता नहीं है। परन्तु जब अपने विशेष धर्म अथवा सम्प्रदाय के सिद्धान्तों को बलपूर्वक किसी पर थोपना और अन्य धर्मावलम्बियों की सुविधा को अपनी सुविधा के लिए बाधित करना ही साम्प्रदायिकता है। इस तरह की भावना दूषित है और वह पृथकतावादी सिद्धान्त पर विकसित सम्प्रदाय कहा जायेगा जो घृणा के भाव को जन्म देकर राष्ट्र की एकता के विपरीत धारा बहाने में सहायक बनता है। आजादी से पूर्व हिन्दू और मुस्लिम के हीन साम्प्रदायिक सिद्धान्त पर द्विराष्ट्रीय भावना के कारण वृहत्तर भारत का विभाजन हुआ था। इस कारण लोगों को अनेक कष्ट भोगने पड़े।

धर्म एक ऐसा साधन है जिससे एकता की भावना विकसित होती है। साम्प्रदायिकता की दूषित भावना अलगाव को जन्म देती है। परन्तु प्रत्येक धर्म का मौलिक स्वरूप एक है। इस आधार पर लोगों में भेद होना अथवा विरोध होना उचित नहीं है। क्योंकि इस राष्ट्र के निवासी वहाँ की राष्ट्रीयता के अभिन्न अंग हैं। इस अभिन्नता से ही राष्ट्रहित प्राप्त किया जा सकता है।

प्रान्तीयता की भावना राष्ट्रीय एकता में बाधक – क्षेत्रीयता अथवा प्रान्तीयता की भावना भी राष्ट्र की एकता में बाधक है। इससे पृथक राज्य स्थापित करने की अलगाववादी भावना बल पकड़ जाती है। यह अलगाववादी क्षेत्रीयता उग्ररूप धारण करके आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देती है जिससे जनजीवन अस्तव्यस्त होने लग जाता है तथा भारत की राष्ट्रीय एकता के विकास के लिए एक बाधा उत्पन्न हो जाती है। भाषावाद से भी राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को भारी धक्का लगा है। भारत राष्ट्र की राष्ट्रभाषा हिन्दी है जिसे कुछ प्रान्तों के अलगाववादी तत्व स्वीकार नहीं करते। जातीय कट्टरवाद देश की राष्ट्रीय एकता को झकझोर रहा है।

सर्वधर्म समभाव अपेक्षित – वर्तमान परिस्थितियों में राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ रखने के लिए सभी लोगों में सर्वधर्म समभाव की भावना विकसित होनी चाहिए। व्यष्टिवादी दृष्टिकोण से हटकर समष्टि भाव अपनाना आवश्यक है जिससे सभी लोग धर्म, क्षेत्र, भाषा तथा जाति के संकुचित दायरे से ऊपर उठकर ‘राष्ट्र’ हित साधन में अपना सहयोग देंगे। भारतीय परिवेश में व्याप्त बाह्य विविधता सभी नागरिकों के अन्तर्मन की एकता को विकास देगी जिसके लिए शिक्षा के प्रसार की अत्यधिक आवश्यकता है। भारत की जनसंख्या का आधा भाग अशिक्षा के घोर अन्धकार में डूबा हुआ है। उस अन्धकार को दूर करने के प्रयास ही भारत की एकता को सुदृढ़ता प्रदान कर सकेंगे।

स्वार्थी राजनेताओं को अपने छलछदम त्यागने होंगे। उन्हें साम्प्रदायिक विद्वेष, घृणा फैलाने से बाज आना चाहिये। तभी भारतराष्ट्र की एकता सुदृढ़ रूप से पल्लवित हो सकेगी।

साम्प्रदायिक एकता के निमित्त प्रयास साम्प्रदायिक एकता के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए समय – समय पर राष्ट्रीय स्तर की समितियाँ गठित की गई हैं जो अपने सुझाव देती हैं कि राष्ट्रीय एकता बनाये रखने के लिए किन – किन उपायों को अपनाना चाहिए। ईश्वर की कृपा से इन विविधताओं के होते हुए भी सभी भारतीय राष्ट्रकों (नागरिकों) में एकता का अदृश सूत्र समाया हुआ है जो उन सबको एकता में बाँधे हुए है। विविधता में एकता ही हमारी शक्ति है। गाँधीजी के आन्दोलनों के समय भी हमने विदेशियों से अपनी एकता के आधार पर ही आजादी प्राप्त की थी। भारत माता के प्रति भक्ति की भावना हमें एक बनाये हुए है। क्योंकि – ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।’ हमारे लिए तो – सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ इत्यादि स्वर लहरियाँ उद्दाम देश – प्रेम को सभी के हृदयों में उड़ेल रहा है।

उपसंहार – अपने बालक – बालिकाओं में राष्ट्रीय चेतना की अनुभूति के लिए इतिहास और भूगोल का अध्ययन कराना होगा। धनवान और निर्धन के बीच की खाई पाटनी होगी। एक राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी का अध्ययन अनिवार्य रूप से करना होगा। तब ही सभी नागरिक सामान्य संस्कृति की अनुभूति कर सकेंगे। अपने सीमान्त प्रदेशों के प्रति सचेत रहना होगा तथा राष्ट्रीय भावना की पहचान बनाये रखने के प्रति हमें सावधान रहना होगा। हमें एक राष्ट्र के रूप में क्रियाशील होना चाहिए। यही एक भाव है राष्ट्रीय अखण्डता का, एकता का। “राष्ट्रीयता की यह वो हस्ती विकसित हो जो मिटाये मिटे नहीं।”

MP Board Solutions

6. आतंकवाद
अथवा
आतंकवाद : अन्तर्राष्ट्रीय समस्या [2009]
अथवा
‘आतंकवाद – एक विभीषिका
अथवा
आतंकवाद और राष्ट्रीय अखण्डता [2009]

“कराह उठी है मानवता, आतंकवाद हटाओ।
जहर है यह मानवता का, इसको दूर भगाओ।”

विस्तृत रूपरेखा
(1) प्रस्तावना,
(2) आतंकवाद का जाल विश्व स्तर पर,
(3) भारत एवं आतंकवाद,
(4) कश्मीर घाटी में भी आतंकवाद,
(5) पंजाब में आतंकवाद का कुचक्र,
(6) आतंकवाद का समाधान,
(7) उपसंहार।

प्रस्तावना – आतंकवाद से तात्पर्य अपनी स्वार्थपूर्ण कुत्सित इच्छाओं की पूर्ति हेतु हिंसा का सहारा लेना है। इन सभी कामों में असामाजिक तत्व सक्रिय रहते हैं और अपनी घृणित क्रियाओं से अमनप्रिय लोगों को भयभीत करके अपने स्वार्थों की पूर्ति करना ही उनका ध्येय होता है। इन सभी कामों को हिंसक क्रियाओं के माध्यम से अंजाम दिया जाता है।

आतंक के पथ पर कदम बढ़ाने वालों की हिंसा तथा बल प्रयोग पर आस्था होती है। इस प्रकार के बल प्रयोग को अन्य वर्ग – सम्प्रदाय व समुदाय को भयभीत करने तथा उन पर अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए किया करते हैं। इन आतंकवादियों के द्वारा अपने राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति की जाती है। हिंसक गतिविधियों से सरकार को गिराया जाता है तथा समग्र शासनतन्त्र को पंगु बना दिया जाता है। उन पर अपना आधिपत्य जमा लेने का प्रयास किया जाता है।

आतंकवाद का जाल विश्व – स्तर पर – आतंकवादी लोग आज लगभग विश्व के सभी देशों में अपनी आतंकवादी प्रक्रियाओं को अंजाम दे रहे हैं। ये लोग राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति कर लेते हैं; इसके लिए वे सार्वजनिक तौर पर हिंसा और हत्याओं का सहारा लेते हैं। यह आतंकवाद आज भौतिक रूप से समृद्ध और विकसित देशों में अपने विकराल स्वरूप को दिखा रहा है। ये आतंकवादी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर संगठित हो रहे हैं और यह आतंक अन्तर्राष्ट्रीय रूप को धारण करता जा रहा है; जो अब और अधिक प्रबल तथा सक्रिय हो गया है। विश्व के कुछ ऐसे भी देश हैं जो इन आतंकवादी गुटों को अकेला समर्थन ही नहीं, अपितु सहायता भी दे रहे हैं। इन आतंकियों की प्रक्रियाओं का स्वरूप निम्नलिखित रूप में देखा जा सकता है (1) राजनयिकों की हत्याएँ करना, (2) विमान अपहरण की क्रियाओं का सम्पादन, (3) रासायनिक हथियारों के प्रयोग से अत्यधिक जान – माल की हानि करना। देश में आतंकवादियों के पीछे विदेशियों का हाथ है। वे धन का प्रलोभन देकर हिंसा करवा रहे हैं।

भारत एवं आतंकवाद–भारत ने सन् 1947 ई. में 15 अगस्त को आजादी प्राप्त की। इसके पश्चात् भारत के विभिन्न हिस्सों में आतंकवादी गतिविधियों को इन आतंकी संगठनों ने अंजाम देना शुरू कर दिया। बड़े – बड़े सरकारी पदों पर तैनात अधिकारियों को इस आतंकवादी क्रियाओं का शिकार होना पड़ा। उन्हें मार डाला गया। इस भय से आतंकित लोगों ने अपने पदों से त्याग – पत्र दे दिया। आतंकवादी क्रियाओं (हिंसा आदि) की काली छाया भारत के पूर्वी राज्यों (नागा प्रदेश, मिजोरम,मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल और असम) में दिखाई देने लगी। असम में बोडो आतंकवाद अभी भी फैला हुआ है। उपर्युक्त शेष सभी राज्यों का आतंकवाद शान्त है। बंगाल के नक्सलवाड़ी से फैला आतंक बंगाल से बाहर भी खूब फैला। नक्सलवादी आतंक ने अपना अति भयावह रूप दिखाया। आज भी नक्सलवादी आतंक बिहार तथा आंध्र प्रदेश में अपने रौद्र स्वरूप को दिखा रहा है। उस समय के रेलमन्त्री ललित नारायण मिश्र को भाषण देते समय मार दिया गया तथा अन्य बहुत से राजनयिकों की निर्मम हत्या कर दी गई।

कश्मीर घाटी में भी आतंकवाद – यह राष्ट्रीय पर्वो – 15 अगस्त, 2 अक्टूबर तथा 26 जनवरी के अवसर पर भयंकर हत्याकाण्ड करके अपने परचम को लहरा रहा है। सन् 1990 में एच.एम.टी.के मुख्य प्रबन्धक एम. एल.खेड़ा की तथा कश्मीर विश्वविद्यालय के कुलपति श्री मुशीर – उल – हक की आतंकवादियों ने नृशंस हत्या कर दी। अब निरन्तर ही इन आतंकियों द्वारा निर्दोष लोगों की हत्या की जा रही है। उनके भय के कारण वहाँ के निवासी अपने घर – दुकान – कारखाने आदि सब को छोड़कर वहाँ से भाग निकले हैं।

पंजाब में आतंकवाद का कुचक्र – पंजाब के आतंकवाद ने तो भारत के प्रत्येक नागरिक को हतप्रभ कर दिया है। पंजाब के आतंकवाद में तो धर्म और राजनीति का गड्ड – मड स्वरूप दिखाई देने लगा। भाषायी आधार पर इन आतंकी संगठनों ने पंजाबी सूबे की माँग कर दी और अन्तत: 8 जून, 1966 को तत्कालीन पंजाब का विभाजन कर दिया गया तथा उसका हिन्दी भाषी हिस्सा ‘हरियाणा प्रदेश’ नाम से अलग कर दिया गया। साथ ही पंजाबीभाषी लोगों ने ‘सिख होमलैण्ड’ की माँग उठा दी। इस तरह इन पंजाबीभाषी लोगों ने अपनी माँगें और बढ़ा दीं। अप्रैल 1978 से लगातार – माइक की आवाज कम करने, धूम्रपान न करने, तम्बाकू का व्यापार मत करो – आदि के नारे लगाने के बहाने ये आतंकवादी निर्दोष लोगों की छटपुट हत्यायें करने लगे। इन आतंकियों ने भिखारी से लेकर धनवान लोगों तक अपने हाथ पसार दिये। सन् 1981 ई.में हिन्द – समाचार – पत्र समूह के स्वामी लाला जगतनारायण की हत्या कर डाली। विदेश में रहने वाले डॉ. जगजीतसिंह चौहान ने स्वयं को आतंकियों द्वारा प्रस्तावित ‘खालिस्तान’ राष्ट्र का राष्ट्रपति घोषित कर दिया और भारत सरकार पर स्वतन्त्र खालिस्तान की स्थापना करने के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया और उग्रवादियों ने हिंसा का सहारा लेना भी शुरू कर दिया। इस कुत्सित कार्य में सहायता देने वाले देश – इंग्लैण्ड, कनाडा, आस्ट्रेलिया, अमेरिका, चीन, नार्वे तथा पाकिस्तान थे। इन देशों से उन्हें धन व शस्त्रास्त्र प्राप्त होने लगे तथा स्वर्ण मन्दिर इन आतंकियों की गतिविधियों का केन्द्र बन गया।

भारत सरकार ने 4 जून, 1984 को स्वर्ण मन्दिर में सेना को प्रवेश करने के आदेश दे दिये। उग्रवादी तत्वों को नष्ट करने के लिए ‘ऑपरेशन ब्लू – स्टार’ चलाया गया। सैनिक कार्यवाहियों में अनेक आतंकवादी मारे गये और शेष को बन्दी बनाया गया। सरकार की इस कार्यवाही का स्वागत हुआ, लेकिन कुछ लोगों ने इस कार्यवाही को धार्मिक कार्य में हस्तक्षेप माना और अपनी तीखी प्रतिक्रिया की। उदार सिखों ने तथा धर्मनिरपेक्ष समाजसेवियों ने ‘कार – सेवा’ करके स्वर्ण मन्दिर की पवित्रता को बहाल किया। इन उग्रवादियों के विदेशी षड्यन्त्र के तहत 31 अक्टूबर, 1984 को तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी की उनके निवास पर ही उनके ही पहरेदार ने हत्या कर दी। 10 अगस्त, 1986 को भूतपूर्व सेनाध्यक्ष श्री अरुण श्रीधर वैद्य की हत्या कर दी। इसी तरह पंजाब के अनेक हिन्दू पंजाबी पत्रकारों को इन आतंकियों ने मार दिया। अभी भी वह आतंकवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। राजधानी दिल्ली के ग्रेटर कैलाश में जन्मदिन के समारोह में भाग लेते निर्दोष 14 लोगों को गोली से उड़ा दिया। रेलवे स्टेशनों,बस अड्डों पर आतंकी प्रभाव दिखाई पड़ा। 21 मई,1991 को भूतपूर्व प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी की निर्मम हत्या कर दी गई जिससे सारा संसार दहल गया। आतंकवाद को निम्न रूपों में देखा जा सकता है

MP Board Solutions

(1) एक विशेष वर्ग को अन्य लोगों के वर्ग से अलग कर देना और हिंसा द्वारा उनके मध्य व्याप्त मैत्री सम्बन्धों को खत्म कर देना।
(2) अत्यधिक हानि पहुँचाने के लिए ज्वलनशील बम आदि आग्नेयास्त्रों का प्रयोग करके लोगों में भय पैदा करना।
(3) हिंसक कार्यवाही करके प्रमुख व्यक्तियों का अपहरण, हत्या आदि करके अनिवार्य सेवाओं को प्रभावित करना।
(4) फिरौती आदि के रूप में उचित या अनुचित माँगें मनवाने की शर्ते रखना, वायुयानों का अपहरण कर लेना तथा बैंकों में डकैती आदि डालकर लोगों में विभीषिका पैदा करना।

आज कश्मीर घाटी इन आतंकियों की बन्दूकों की गोलियों और बम के गोलों के धमाकों से थरथर काँप उठी है। सेना और आतंकियों के मध्य अनेक झड़पें होती हैं और सैनिक वीरों की आहुतियों ने इस समग्र क्षेत्र को अत्यधिक संवेदनशील बना दिया है। 13 दिसम्बर, 2001 को भारतीय संसद पर किया गया हमला आतंकियों की बर्बरता का सुबूत है। अक्षरधाम मन्दिर सहित अनेक धार्मिक पवित्र स्थलों की पवित्रता को नष्ट किया है। परन्तु भारतीय राष्ट्रीय वीर सैनिकों ने इन आतंकियों को प्रत्येक बार मार – मारकर धूल चटा दी है।

आतंकवाद का समाधान – आतंकवाद की समस्या के समाधान के लिए कुछ सुझाव इस तरह प्रस्तुत हैं
(1) राजनैतिक दलों को अपनी पार्टी के लाभ की आशा में साम्प्रदायिक सौहार्द्र को नष्ट नहीं होने देना चाहिए।
(2) सीमा पार से प्रवेश करने वाले प्रशिक्षित आतंकवादियों को रोकना चाहिए।
(3) अलगाववादी दृष्टिकोण वाले युवकों को संविधान की सीमाओं के अन्तर्गत सुविधाएँ देकर राष्ट्रीय मुख्यधारा में मिलाये जाने के प्रयास करने चाहिए।

उपसंहार – आवश्यकता इस बात की है कि सरकार के साथ देश का प्रत्येक नागरिक आतंकवाद को कुचलने का बीड़ा उठायेगा तभी रामराज्य की कल्पना साकार होगी।

7. दूरदर्शन

“दूरदर्शन विज्ञान का अनुपम उपहार है,
विश्व चित्र सम्मुख आ जाते चित्रों का यह हार है।”

विस्तृत रूपरेखा [2016] –
(1) प्रस्तावना,
(2) विज्ञान की अपूर्व देन,
(3) दूरदर्शन का आविष्कार,
(4) भारतवर्ष में दूरदर्शन का प्रथम शुभारम्भ,
(5) दूरदर्शन से लाभ,
(6) विभिन्न वर्गों के लिए लाभप्रद,
(7) मनोरंजन का सुलभ साधन,
(8) भावात्मक एकता का पोषक,
(9) उपसंहार।।

प्रस्तावना दिवस के अवसान और सन्ध्या के समय सुबह से शाम तक थका हुआ मानव शारीरिक विश्राम के साथ मानसिक आराम भी चाहता है जिससे उसकी थकान मिट जाये और मन पुलकित हो उठे। इसके लिए वह जो भी उपाय अपनाता है उसे कहते हैं मनोरंजन। मानव सभ्यता के विकास के साथ – साथ मनोरंजन के साधनों में भी परिवर्तन हुए हैं। पहले कुछ दृश्य साधन थे, कुछ श्रव्य। या तो वह तस्वीरें देखता था या रेडियो, टेप सुनता। घर बैठे या लेटे – लेटे यदि मनोरंजन हो तो क्या बात है? प्राचीनकाल में धृतराष्ट्र अपने महल में बैठे – बैठे जैसे संजय द्वारा कुरुक्षेत्र के मैदान का आँखों देखा हाल सुनते थे वैसे ही दूरदर्शन के आविष्कार से हमें भी यह दृश्य – श्रव्य उपकरण लाभ पहुंचाता है।

विज्ञान की अपूर्व देन – दूरदर्शन विज्ञान का एक अनुपम उपहार है। इसने मानव जीवन में एक हलचल पैदा कर दी है और समाज को थोड़े ही समय में तीव्र गति से विकास की ओर अग्रसर किया है।

दूरदर्शन का आविष्कार – दूरदर्शन का आविष्कार सर्वप्रथम जॉन लागी बेअर्ड महोदय ने 1926 में किया था। ये स्कॉटलैण्ड के रहने वाले थे। इन्होंने टेली कैमरे का आविष्कार किया तथा इसका सफल प्रदर्शन कर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया। यह फोटो इलेक्ट्रिक सेल की सहायता से कार्य करता है। रेडियो तरंगों की भाँति ही प्रकाश को विद्युत तरंगों में रूपान्तरित कर दूर तक प्रसारित किया जाता है और रिसीविंग सेट उसे ग्रहण करके प्रकाश में चित्रों को परिवर्तित कर स्क्रीन या परदे पर उतार देता है। पहले ये दृश्य काले, सफेद हुआ करते थे। अब ये रंगीन दृश्य संसार में कहीं भी देखे जा सकते हैं। जीवन्त प्रसारण में तत्कालीन दृश्य ज्यों के त्यों प्रसारित किये जाते हैं।

भारतवर्ष में दूरदर्शन का प्रथम शुभारम्भ हमारे देश में दूरदर्शन का प्रथम प्रसारण 1958 में दिल्ली में हुआ। उस समय दिल्ली में औद्योगिक एवं विज्ञान प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। उस समय भारतीयों के लिए यह एक कौतुक भरी घटना थी। धीरे – धीरे इसका प्रचार – प्रसार होता गया। बाद में 1972 में मुम्बई में,1973 में कश्मीर में दूरदर्शन केन्द्रों की स्थापना हुई। मध्य प्रदेश में 1978 में छत्तीसगढ़ जिले में दूरदर्शन आया तथा उपग्रह द्वारा कार्यक्रमों का प्रसारण हुआ। उन दिनों अधिकांश कार्यक्रम शैक्षिक और ग्रामीण जीवन पर आधारित होते थे।

दूरदर्शन से लाभ – दूरदर्शन के अनेक लाभ हैं, मुख्यतः इसके कुछ उद्देश्य स्पष्ट हैं। सर्वप्रथम यह मनोरंजन का प्रमुख साधन है। इससे हमें ध्वनि, प्रकाश और फोटोग्राफी का चमत्कार देखने को मिलता है। दूरदर्शन की निरन्तर बढ़ती हुईलोकप्रियता का कारण यह है कि इसमें समाज के प्रत्येक वर्ग, आयु और व्यवसाय के अनुरूप अनेक कार्यक्रमों का प्रसारण होता है। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी रुचि और आवश्यकता होती है और दूरदर्शन ही एक ऐसा साधन है जो प्रातः से अर्द्धरात्रि तक अपने कार्यक्रमों के माध्यम से सभी की जरूरतें पूरी करता है। बच्चों, किशोर, प्रौढ़, बुजुर्ग और महिलाओं के लिए अलग – अलग कार्यक्रम हैं। इसी प्रकार भिन्न व्यवसाय एवं रुचि वाले लोगों की भी मनोरंजन – तृप्ति दूरदर्शन से ही होती है।

विभिन्न वर्गों के लिए लाभप्रद बच्चों के लिए कार्टून फिल्में, किशोरों के लिए प्रश्न – मंच आदि कार्यक्रम। छात्रों के लिए यू.जी.सी. तथा इन्दिरा गाँधी मुक्त विश्वविद्यालय के शैक्षिक कार्यक्रम, विज्ञान, इतिहास, राजनीति से सम्बन्धित कार्यक्रम। देश – विदेश में खेले जा रहे अनेक प्रकार की खेल प्रतियोगिताओं का जीवन्त प्रसारण। गीत, नृत्य या फिल्मी संगीत में रुचि रखने वालों के लिए कार्यक्रम। साहित्यिक रुचि वालों के लिए मुशायरा, कवि सम्मेलन, साहित्यकारों का परिचय – परिचर्चा का प्रसारण। महिलाओं की प्रगति एवं जागृति के अनेक कार्यक्रम। ग्रामीण से लेकर शहरी महिलाओं के लिए अनेकानेक प्रकार के हस्तशिल्प उद्योग – धन्धों की जानकारी। भोजन या विविध व्यंजनों को बनाने की विधियों पर आधारित कई कार्यक्रम, घरेलू दवाओं, नुस्खों का ज्ञान। बुजुर्गों के लिए धार्मिक सन्त महात्माओं के प्रवचन। आप घर बैठे सत्संग का लाभ उठा सकते हैं।

राजनीति में रुचि रखने वालों के लिए तो दूरदर्शन जीवन का एक आवश्यक अंग बन गया है। देश – विदेश की खबरें, चुनाव – चर्चा, सभी पार्टियों का आँकलन, क्रिया – कलाप और समस्त राजनैतिक व्यक्तियों की समग्र जानकारी हमें दूरदर्शन से प्राप्त होती है।

कहा जाता है कि केवल सुनकर बात हृदयंगम नहीं होती। यदि वह दिखायी दे तो सहजता से ग्रहण होती है। अतः छात्रों को यदि दूरदर्शन के माध्यम से शिक्षा दी जाय तो अधिक लाभ होगा। शासन यदि अधिक से अधिक शैक्षिक कार्यक्रमों का प्रसारण करे।

विभिन्न प्रकार की मौसम सम्बन्धी जानकारी हमें प्राप्त होती है। आँधी, तूफान, वर्षा, भूकम्प आदि से सम्बन्धित पूर्व सूचनाएँ हमें दूरदर्शन से मिलती हैं।

मनोरंजन का सुलभ साधन – यह मनोरंजन का सबसे सस्ता एवं सुविधाजनक उपकरण है। अफगान – अमेरिका का युद्ध हो या जापान की जीवन झाँकी, आस्ट्रेलिया का क्रिकेट मैच हो या ओलम्पिक.देश में गणतन्त्र दिवस की परेड हो या चुनाव की हलचल सभी कुछ दूरदर्शन पर देखना सुलभ हैं। दूरदर्शन में विज्ञापनों के माध्यम से हमें अनेकानेक नवीन उपकरणों और वस्तुओं के आविष्कार की जानकारी मिलती है। यह विज्ञान का सशक्त जरिया है। इससे व्यापार बढ़ाने के अवसर मिलते हैं।

MP Board Solutions

भावात्मक एकता का पोषक – दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों से सामाजिक सुधार को दिशा मिलती है। सभी धर्मों के त्यौहारों का सजीव दृश्य हम दूरदर्शन के माध्यम से देखकर जानकारी प्राप्त करते हैं.इससे भावनात्मक एकता सुदृढ़ होती है। कई कार्यक्रम तो इतने लोकप्रिय हुए कि सभी धर्म,जाति तथा उम्र के लोग उसे बड़े चाव से देखते थे; जैसे – रामायण, श्रीकृष्ण, महाभारत, टीपू सुल्तान आदि। इनके प्रसारण के समय शहर सुनसान हो जाता था। आज का किशोर दूरदर्शन के कार्यक्रमों को देखने में व्यस्त हो जाता है तो समाज में अपराध और लड़ाई – झगड़े कम होते हैं। किसी वस्तु को हम पूरी तरह से अच्छा या बुरा नहीं कह सकते। हम उसका उपयोग किस प्रकार करते हैं उस पर उसकी महत्ता निर्भर करती है। दूरदर्शन से जहाँ अनेक लाभ हैं वहाँ कुछ हानि भी हैं। किन्तु यदि छात्र यह बात ध्यान में रखें कि ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’। यानि हर समय दूरदर्शन के सामने न बैठे रहें,उससे आँखों पर तो बुरा प्रभाव पड़ता है,साथ ही समय भी नष्ट होता है और अनेक जरूरी काम रह जाते हैं। इसलिए वे अपनी रुचि और उपयोगिता के अनुसार कुछ कार्यक्रम पसन्द कर लें और केवल उन्हीं को देखें। विज्ञान तथा सामान्य ज्ञान के प्रश्न मंच तथा परिचर्चा देखें। शैक्षिक प्रसारण से लाभ लें।

उपसंहार – यदि दूरदर्शन पर स्वस्थ,शालीन कार्यक्रमों का प्रसारण हो तो ऐसे उपयोगी ज्ञानवर्द्धक सूचनाओं से गुणात्मक विकास होगा। विवेक और संयम से तथा अभिभावकों की अनुमति तथा सलाह से यदि छात्र दूरदर्शन का उपयोग करेंगे तो वह उनकी जीवन की प्रगति में सहायक होगा।

8. भारत में प्रजातन्त्र का भविष्य

विस्तृत रूपरेखा
(1) प्रस्तावना,
(2) प्राचीन शासन – व्यवस्था,
(3) प्रजातन्त्र का स्वरूप,
(4) भारत में प्रजातान्त्रिक शासन,
(5) प्रजातन्त्र के क्रियान्वयन की अपेक्षाएँ,
(6) उपसंहार।

प्रस्तावना – भारत की सभ्यता अत्यन्त प्राचीन एवं समृद्ध है। इसके इतिहास को पढ़ने से यह ज्ञात होता है कि यहाँ के शासनतन्त्र में अनेक उतार – चढ़ाव रहे हैं। लेकिन अधिकांशतः यहाँ राजतन्त्र शासन प्रणाली ही प्रचलित रही है। परन्तु प्राचीन भारत के राजा सार्वभौम शक्ति – सम्पन्न होते हुए भी निरंकुश और तानाशाह नहीं होते थे।

प्राचीन शासन – व्यवस्था – मध्यकाल के कुछ भारतीय राज्यों में गणतन्त्र शासन – व्यवस्था भी थी,जिन्हें हम नगर राज्य भी कह सकते हैं। लेकिन राजतन्त्र की विशाल शक्ति के समक्ष यह शासन – व्यवस्था अधिक टिक न सकी। राजाओं का कार्य विलासमय जीवन के अतिरिक्त कुछ न था। विदेशियों का शासन अत्यन्त क्रूर और अत्याचारी था। प्रजा इन अत्याचारों को सहन न कर सकी। उसने ऐसे शासकों का विरोध किया। परिणामस्वरूप राजा और प्रजा में संघर्ष प्रारम्भ हो गया। इसी का परिणाम प्रजातन्त्र के रूप में अवलोकनीय है।

प्रजातन्त्र का स्वरूप – प्रजातन्त्र की अनेक परिभाषाएँ विद्वानों ने दी हैं, पर प्रजातन्त्र का सीधा – सादा अर्थ किसी व्यक्ति विशेष का शासन न होकर प्रजा के शासन से है। इस शासन – तन्त्र में जनता के ही निर्वाचित प्रतिनिधियों का हाथ रहता है। प्रजातन्त्र के सम्बन्ध में जॉन स्टुअर्ट मिल का कथन है – “प्रजातन्त्र जनसाधारण को नागरिकता की शिक्षा प्रदान करता है। यह नागरिकता का शिक्षणार्थ सर्वश्रेष्ठ विद्यालय है।” प्रजातन्त्र की सबसे अधिक व्यवस्थित, स्पष्ट और लघु परिभाषा अमरीका के 16वें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने इस प्रकार की है – “प्रजातन्त्र एक ऐसा शासन है जो जनता के लिए,जनता द्वारा,जनता पर किया जाता है।”

भारत में प्रजातान्त्रिक शासन – भारत अपनी दीर्घकालीन पराधीनता के पश्चात 15 अगस्त, सन् 1947 को स्वतन्त्र हुआ। अनेक वर्षों तक उसे विदेशी शासकों की कठोर – यातनाएँ सहन करनी पड़ी। स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए भारत को कठोर संघर्ष करना पड़ा।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् हमने अपना संविधान बनाया,जो 26 जनवरी, 1950 से लागू किया गया। इस संविधान द्वारा भारत में जनता का शासन स्थापित किया गया।

प्रजातन्त्र की सफलता उस राष्ट्र में निवास करने वाले नागरिकों में निहित होती है। भारत विश्व का सबसे अधिक विलक्षण देश है। यहाँ अनेक धर्म, जातियाँ, संस्कृतियाँ, सम्प्रदाय और राजनीतिक दल हैं। इन सभी को सन्तुष्ट करना सम्भव नहीं हो सकता। इन सभी के बीच भारत के प्रजातन्त्र का स्वरूप अस्थिर हो गया। विघटनकारी तत्त्वों के नारों और भाषणों से यहाँ की जन – भावनाओं को विपरीत दिशा में मोड़ने का कार्य प्रारम्भ कर दिया है। लूट – खसोट,तोड़ – फोड़, घिराव,आन्दोलन,हड़ताल आदि का बोलबाला हो गया है। समस्त जनजीवन त्रस्त और भयभीत है। असुरक्षा और अव्यवस्था ने देश के प्रजातन्त्र की नींव को हिला दिया है। महँगाई, कालाबाजारी,जमाखोरी,तस्करी आदि कुप्रवृत्तियों से अर्थव्यवस्था का ढाँचा नष्ट हो रहा है। ऐसी विषम स्थिति में देश तथा लोकतन्त्र को बचाने का गुरुतर दायित्व हमारी नयी पीढ़ी पर है।

प्रजातन्त्र के क्रियान्वयन की अपेक्षाएँ – एक सफल प्रजातन्त्र के लिए कुछ आवश्यक शर्ते हैं जो प्रजातन्त्र के क्रियान्वयन के लिए आवश्यक हैं। उसके लिए सर्वप्रथम जनता का शिक्षित होना अनिवार्य है। शिक्षित जनता ही प्रजातन्त्र के उद्देश्य को समझ सकती है। इसके लिए शिक्षा का अधिकाधिक प्रसार होना चाहिए ताकि निर्वाचित व्यक्ति शासकीय गतिविधियों को भली – भाँति समझ सके और उनके अनुकूल आचरण कर सके तथा जनता भी योग्य व्यक्तियों का चुनाव कर सके।

निष्पक्ष मतदान प्रजातन्त्र के भविष्य के लिए अनिवार्य शर्त है। मतदान ही निर्वाचन का आधार होता है। आज भारत ही नहीं अपितु संसार में सबसे अधिक संख्या साधारण व्यक्तियों की है। ये व्यक्ति या तो कम पढ़े – लिखे हैं या बिल्कुल पढ़े – लिखे नहीं हैं। इनमें विचारशीलता का अभाव है। इनको किसी भी बहाने से फुसलाया जा सकता है। प्रायः धनवान व्यक्ति ऐसे व्यक्तियों से धनादि का लोभ देकर मत प्राप्त कर लेते हैं। इतना ही नहीं कहीं – कहीं तो निर्वाचन में गड़बड़ी,जाली और जबर्दस्ती मत डलवा कर भी लोग चुनाव जीत जाते हैं।

गरीबी, पिछड़ापन, अन्धविश्वास और जातिगत भावना भी प्रजातन्त्र में बाधक होती है। बहुत – से व्यक्ति जातीय आधार पर निर्वाचित कर लिये जाते हैं जबकि उनमें कोई योग्यता नहीं होती। राजनीति में गुण्डागर्दी का बोलबाला है, अतः अधिकांश व्यक्ति निर्वाचन में रुचि नहीं लेते हैं। वे केवल अपना कर्त्तव्य पूर्ण करने के लिए किसी न किसी बक्से में अपना मत डाल आते हैं। गरीब व्यक्ति को जब कोई प्रत्याशी मोटर में बिठाकर मत डालने ले जाता है तो वह उसी को मत डाल देता है। इससे योग्य व्यक्ति का चयन नहीं हो पाता। इसके लिए मताधिकार के नियमों में परिवर्तन की आवश्यकता है।

विरोधी दलों की संख्या अधिक होने से भी प्रजातन्त्र का सही क्रियान्वयन नहीं हो पाता। विरोधी दल अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति न होने पर सत्ताधारी दल की आलोचना करता है और अपने दल के सिद्धान्तों को सरकार पर थोपने के लिए अनुचित साधनों का प्रयोग करता है। इससे प्रजातन्त्र खतरे में पड़ जाता है। दूसरी ओर सत्ताधारी दल अपनी शक्ति के बल पर विपक्ष की उपेक्षा करता है और अपने स्वार्थ को वरीयता देकर प्रस्तावों को भी पारित करता है। इससे देश की सृजन शक्ति का क्षय होता है। अतः प्रजातन्त्र के लिए यह आवश्यक है कि सत्ताधारी दल प्रत्येक निर्णय पर विरोधी दलों के देशहित के सुझावों पर विचार करे और उचित होने पर उन्हें क्रियान्वित करे।

नागरिकता की भावना का विकास करना भी प्रजातन्त्र के भविष्य के लिए आवश्यक है। प्रत्येक भारतीय को सच्चा नागरिक बनाने के लिए उसे नागरिकता की शिक्षा देना आवश्यक है।

आज स्थिति यह है कि देश का नागरिक अपने व्यक्तिगत हित के लिए देश.समाज और जाति के हितों की उपेक्षा कर सकता है। इस अनर्थ से बचने के लिए प्रत्येक देशवासी को नागरिकता की शिक्षा देना आवश्यक है। अगर स्वतन्त्र होकर भी हमारे देशवासी सच्चे नागरिक नहीं बन पाये,तो प्रजातन्त्र की कल्पना स्वप्नवत् होगी।

राष्ट्रीय चरित्र का विकास भी प्रजातन्त्र का आधार है। किसी भी राष्ट्र की नींव उसके राष्ट्रवासियों के चरित्र पर आधारित है। जिस राष्ट्र के नागरिकों का चरित्र जितना उन्नत होगा उस देश का भविष्य उतना ही महान् होगा। प्रजातन्त्र के क्रियान्वयन में राष्ट्र के चरित्र की रक्षा आवश्यक है। चरित्र से नैतिकता का विकास होता है और नैतिकता प्रजातन्त्र की रक्षा कर उसे सफल बनाती है। राष्ट्रीय चरित्र ही राष्ट्र के गौरव में वृद्धि करता है। भारत आज अपने राष्ट्रीय चरित्र के नाम पर विश्व के समक्ष अपना मस्तक उठाये हुए है।

MP Board Solutions

हमारे देश में प्रजातन्त्र का भविष्य पूर्णरूपेण सुरक्षित है। वस्तुतः प्रजातान्त्रिक प्रणाली भारत के लिए सर्वथा उपयुक्त है। आज भारतीय प्रजातन्त्र जिस आदर्श को लेकर चल रहा है वह भारत के लिए नहीं अपितु विश्व की चिरस्थायी शान्ति और व्यवस्था का आदर्श है। भारत की पंचशील आदि विश्व शान्ति की नीतियों ने तृतीय विश्वयुद्ध की सम्भावनाओं को धूमिल बना दिया है।

उपसंहार – इस प्रकार भारत ने आज जिन विरोधी शक्तियों और परिस्थितियों के बीच प्रजातान्त्रिक प्रणाली की रक्षा करते हुए जो उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं उनसे स्पष्ट है कि भारत में प्रजातन्त्र का भविष्य उज्ज्वल है। भारत ने सामाजिक, आर्थिक, औद्योगिक, कृषि, चिकित्सा एवं विज्ञान आदि के क्षेत्र में जो प्रगति की है,वह इसके प्रजातन्त्र को सफलता का ज्वलन्त प्रमाण है। भारत ने संसार में प्रजातन्त्र का आदर्श रूप प्रस्तुत किया है, जो उसके स्वर्णिम भविष्य का प्रतीक है। अत: देश में जब प्रजातन्त्र का आदर्श स्वरूप स्थापित हो जाएगा तो भारत को हम नीति और आदर्श में पुनः जगद्गुरु की संज्ञा से विभूषित कर सकेंगे।

9. प्रदूषण : कारण और निदान [2009, 11]
अथवा
पर्यावरण प्रदूषण : समस्या और निदान [2013]

“साँस लेना भी अब मुश्किल हो गया है।
वातावरण इतना प्रदूषित हो गया है।”

विस्तृत रूपरेखा –
(1) प्रस्तावना,
(2) प्रदूषण के विभिन्न प्रकार,
(3) प्रदूषण की समस्या का समाधान,
(4) उपसंहार [2014]

प्रस्तावना – प्रदूषण का अर्थ – प्रदूषण पर्यावरण में फैलकर उसे प्रदूषित बनाता है और इसका प्रभाव हमारे स्वास्थ्य पर उल्टा पड़ता है। इसलिए हमारे आस – पास की बाहरी परिस्थितियाँ जिनमें वायु, जल, भोजन और सामाजिक परिस्थितियाँ आती हैं; वे हमारे ऊपर अपना प्रभाव डालती हैं। प्रदूषण एक अवांछनीय परिवर्तन है; जो वायु, जल, भोजन, स्थल के भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों पर विरोधी प्रभाव डालकर उनको मनुष्य व अन्य प्राणियों के लिए हानिकारक एवं अनुपयोगी बना डालता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जीवधारियों के समग्र विकास के लिए और जीवनक्रम को व्यवस्थित करने के लिए वातावरण को शुद्ध बनाये रखना परम आवश्यक है। इस शुद्ध और सन्तुलित वातावरण में उपर्युक्त घटकों की मात्रा निश्चित होनी चाहिए। अगर यह जल, वायु, भोजनादि तथा सामाजिक परिस्थितियाँ अपने असन्तुलित रूप में होती हैं; अथवा उनकी मात्रा कम या अधिक हो जाती है,तो वातावरण प्रदूषित हो जाता है तथा जीवधारियों के लिए किसी न किसी रूप में हानिकारक होता है। इसे ही प्रदूषण कहते हैं।

प्रदूषण के विभिन्न प्रकार – प्रदूषण निम्नलिखित रूप में अपना प्रभाव दिखाते हैं –

(1) वायु प्रदूषण – वायुमण्डल में गैस एक निश्चित अनुपात में मिश्रित होती है और जीवधारी अपनी क्रियाओं तथा साँस के द्वारा ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड का सन्तुलन बनाये रखते हैं। परन्तु आज मनुष्य अज्ञानवश आवश्यकता के नाम पर इन सभी गैसों के सन्तुलन को नष्ट कर रहा है। आवश्यकता दिखाकर वह वनों को काटता है जिससे वातावरण में ऑक्सीजन कम होती है, मिलों की चिमनियों के धुएँ से निकलने वाली कार्बन डाइ ऑक्साइड,क्लोराइड,सल्फर डाइ – ऑक्साइड आदि भिन्न – भिन्न गैसें वातावरण में बढ़ जाती हैं। वे विभिन्न प्रकार के प्रभाव मानव शरीर पर ही नहीं वस्त्र, धातुओं तथा इमारतों तक पर डालती हैं।

यह प्रदूषण फेफड़ों में कैंसर, अस्थमा तथा नाड़ीमण्डल के रोग, हृदय सम्बन्धी रोग, आँखों के रोग, एक्जिमा तथा मुहासे इत्यादि रोग फैलाता है।

(2) जल – प्रदूषण – जल के बिना कोई भी जीवधारी,पेड़ – पौधे जीवित नहीं रह सकते। इस जल में भिन्न – भिन्न खनिज तत्व, कार्बनिक और अकार्बनिक पदार्थ तथा गैसें घुली रहती हैं, जो एक विशेष अनुपात में होती हैं, तो वे सभी के लिए लाभकारी होती हैं। लेकिन जब इनकी मात्रा अनुपात से अधिक हो जाती है; तो जल प्रदूषित हो जाता है और हानिकारक बन जाता है। जल के प्रदूषण के कारण अनेक रोग पैदा करने वाले जीवाणु, वायरस, औद्योगिक संस्थानों से निकले पदार्थ, कार्बनिक पदार्थ, रासायनिक पदार्थ, खाद आदि हैं। सीवेज को जलाशय में डालकर उपस्थित जीवाणु कार्बनिक पदार्थों का ऑक्सीकरण करके ऑक्सीजन का उपयोग कर लेते हैं जिससे ऑक्सीजन की कमी हो जाती है और उन जलाशयों में मौजूद मछली आदि जीव मरने लगते हैं। ऐसे प्रदूषित जल से टॉयफाइड,पेचिस,पीलिया,मलेरिया इत्यादि अनेक रोग फैल जाते हैं। हमारे देश के अनेक शहरों को पेयजल निकटवर्ती नदियों से पहुँचाया जाता है और उसी नदी में आकर शहर के गन्दे नाले, कारखानों का बेकार पदार्थ, कचरा आदि डाला जाता है, जो पूर्णतः उन नदियों के जल को प्रदूषित बना देता है।

(3) रेडियोधर्मी प्रदूषण – परमाणु शक्ति उत्पादन केन्द्रों और परमाणु परीक्षणों से जल, वायु तथा पृथ्वी का सम्पूर्ण पर्यावरण प्रदूषित हो जाता है और वह वर्तमान पीढ़ी को ही नहीं, बल्कि भविष्य में आने वाली पीढ़ी के लिए भी हानिकारक सिद्ध हुआ है। इससे धातुएँ पिघल जाती हैं और वह वायु में फैलकर उसके झोंकों के साथ सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त हो जाते हैं तथा भिन्न – भिन्न रोगों से लोगों को ग्रसित बना देती हैं।

(4) ध्वनि प्रदूषण आज ध्वनि प्रदूषण से मनुष्य की सुनने की शक्ति कम हो रही है। उसकी नींद बाधित हो रही है, जिससे नाड़ी संस्थान सम्बन्धी और नींद न आने के रोग उत्पन्न हो रहे हैं। मोटरकार, बस,जैट – विमान, ट्रैक्टर, लाउडस्पीकर, बाजे, सायरन और मशीनें अपनी ध्वनि से सम्पूर्ण पर्यावरण को प्रदूषित बना रहे हैं। इससे छोटे – छोटे कीटाणु नष्ट हो रहे हैं और बहुत – से पदार्थों का प्राकृतिक स्वरूप भी नष्ट हो रहा है।

(5) रासायनिक प्रदूषण – आज कृषक अपनी कृषि की पैदावार बढ़ाने के लिए अनेक प्रकार के रासायनिक खादों का,कीटनाशक और रोगनाशक दवाइयों का प्रयोग कर रहा है, जिससे वर्षा के समय इन खेतों से बहकर आने वाला जल, नदियों और समुद्रों में पहुँचकर भिन्न – भिन्न जीवों के ऊपर घातक प्रभाव डालता है और उनके शारीरिक विकास पर भी इसका दुष्परिणाम पहुँच रहा है।

प्रदूषण की समस्या का समाधान – आज औद्योगीकरण ने इस प्रदूषण की समस्या को अति गम्भीर बना दिया है। इस औद्योगीकरण तथा जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न प्रदूषण को व्यक्तिगत और शासकीय दोनों ही स्तर पर रोकने के प्रयास आवश्यक हैं। भारत सरकार ने सन् 1974 ई. में जल प्रदूषण निवारण एवं नियन्त्रण अधिनियम लागू कर दिया है जिसके अन्तर्गत प्रदूषण को रोकने के लिए अनेक योजनाएँ बनायी गई हैं।

सबसे महत्त्वपूर्ण उपाय प्रदूषण को रोकने का ढूँढा गया है, वनों का संरक्षण। साथ ही,नये वनों का लगाया जाना तथा उनका विकास करना। जन – सामान्य में वृक्षारोपण की प्रेरणा दिया जाना, इत्यादि प्रदूषण की रोकथाम के सरकारी कदम हैं। इस बढ़ते हुए प्रदूषण के निवारण के लिए सभी लोगों में जागृति पैदा करना भी महत्त्वपूर्ण कदम है; जिससे जानकारी प्राप्त कर उस प्रदूषण को दूर करने के समन्वित प्रयास किये जा सकते हैं।

नगरों, कस्बों और गाँवों में स्वच्छता बनाये रखने के लिए सही प्रयास किये जायें। बढ़ती हुई आबादी के निवास के लिए समुचित और सुनियोजित भवन – निर्माण की योजना प्रस्तावित की जाय। प्राकृतिक संसाधनों का लाभकारी उपयोग करने तथा पर्यावरणीय विशुद्धता बनाये रखने के उपायों की जानकारी विद्यालयों में पाठ्यक्रम के माध्यम से शिक्षार्थियों को दिये जाने की व्यवस्था की जानी चाहिए।

MP Board Solutions

उपसंहार – इस प्रकार सरकारी और गैर – सरकारी संस्थाओं के द्वारा पर्यावरण की विशुद्धि के लिए समन्वित प्रयास किये जायेंगे, तो मानव – समाज (सर्वे सन्तु निरामया) वेद वाक्य की अवधारणा को विकसित करके सभी जीवमात्र के सुख – समृद्धि की कामना कर सकता है।

10. भारत में कृषि का महत्त्व

“कृषि प्रधान इस देश की, कृषि से ही पहचान है।
कृषि कर्म कर कृषक, देश की धरती का वरदान है।”

विस्तृत रूपरेखा –
(1) प्रस्तावना,
(2) कृषि आत्म – निर्भरता का आशय,
(3) देश में कृषि के पिछड़ेपन के कारण,
(4) कृषि विकास के प्रयास,
(5) हरित क्रान्ति के दुष्परिणाम,
(6) उपसंहार

प्रस्तावना – भारत एक कृषि प्रधान देश है। कृषि केवल जीविकोपार्जन का साधन ही नहीं अपितु देश की सभी गतिविधियों का केन्द्र – बिन्दु है। यह भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। इसका महत्त्व इसलिए अधिक है क्योंकि राष्ट्रीय आय का मुख्य स्रोत है। राष्ट्रीय आय में 50% कृषि का भाग है। 80% रोजगार प्राप्त करने का साधन है। अनेक उद्योग – धन्धों का मूलाधार है। देश की सौ करोड़ आबादी के लिए खाद्यान्नों की पूर्ति का साधन है। प्रति वर्ष 400 करोड़ रुपये की आमदनी भू – राजस्व एवं कृषि आय – कर के रूप में प्राप्त होती है। विदेशी व्यापार – आयात में महत्त्वपूर्ण घटक है। पशुपालन व्यवसाय में कृषि का अपूर्व योगदान है। सरकार के बजट पर महत्त्वपूर्ण प्रभावशाली,राजनैतिक स्थिरता और आर्थिक विकास में सहयोग अन्तर्राष्ट्रीय जगत में देश को महत्त्वपूर्ण स्थान दिलाने में सहायक है।

कृषि आत्म – निर्भरता का आशय – कृषि आत्म – निर्भरता का आशय एक ऐसी स्थिति से है जिसमें कोई देश अपने निवासियों के लिए पर्याप्त खाद्यान्न का उत्पादन करने में पूर्णतः सक्षम हो। स्वदेशी कृषि उद्योगों को कच्चा माल अन्य किसी देश से न मँगवाया जाये। कृषि अधिकांश लोगों की जीविका का साधन है। भारत में यह परम्परागत और पिछड़ी स्थिति में है जिसे अब मशीनीकृत के माध्यम से उन्नत बनाने का प्रयास किया जा रहा है।

देश में कृषि के पिछड़ेपन के कारण भारत में कृषि के पिछड़ेपन के अनेक कारण हैं। कृषि की वर्षा पर निर्भरता। सिंचाई के पर्याप्त साधन का नहीं होना। आधुनिक खाद – बीज, उपकरणों आदि के उपयोग का अभाव। कृषकों की ऋणग्रस्तता और पर्याप्त कृषि साख का उपलब्ध न होना। अविकसित कृषि – भूमि। कृषि के लिए भू – स्वामित्व एवं भू – धारण नियम विधान की कमियाँ। कृषि एवं ग्रामीण विकास हेतु पंचवर्षीय योजनाओं का लाभ पूरी तरह कृषकों तक न पहुँच पाना। लाभकारी एवं व्यावसायिक वस्तुओं का कम उत्पादन। विद्युत आपूर्ति की कमी। कृषि उपज से सम्बन्धित उद्योगों का अल्प – विकसित होना। कृषि उपज विपणन में बाधाएँ। जहाँ किसान मण्डी में अपनी उपज बेचने जाते हैं वहाँ उचित ढंग से मूल्य – निर्धारण न होने से भी किसानों को नुकसान होता है। किसानों का निरक्षर और अनपढ़ होना भी सबसे बड़ी कमी है। इन सभी दोषों को दूर करने के तथा कृषि के विकास एवं आधुनिकीकरण के प्रयास देश में काफी तेजी से किये जा रहे हैं।

कृषि विकास के प्रयास – कृषि विकास के लिए भारत में कुछ ठोस कदम उठाये गये हैं। सबसे पहले तो भू – स्वामित्व में सुधार के लिए भारत में जमींदारी – प्रथा समाप्त की गयी। चकबन्दी कार्यक्रम द्वारा भूमि – व्यवस्था में सुधार किया गया। सिंचाई के साधनों का विकास कर सिंचित भूमि के क्षेत्रफल में वृद्धि की गयी। खाद का उपभोग करके भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ायी गयी। उन्नत बीजों और उन्नत किस्म के आधुनिक कृषि उपकरणों का प्रयोग किया जाने लगा। भण्डारण की स्थिति में सुधार किया गया। विपणन सुविधाओं में वृद्धि तथा कृषि उपज को उचित मूल्य में बेचने की सुविधा के लिए मूल्य – निर्धारण पद्धति का आरम्भ किया गया। स्वाधीनता के बाद कृषि में आत्मनिर्भर होने के लिए भूमिहीन किसानों को भूमि का मालिक बनाया गया। पिछड़े और उपेक्षित वर्ग को इसका पर्याप्त लाभ मिला। अब किसान के पास अपनी भूमि होने से वह खाद – बीज तथा उर्वरकों का प्रयोग करने लगा। इस सबके कारण खेतिहर मजदूरों की मजदूरी बढ़ी। 1980 के बाद भारत खाद्यान्नों में आत्मनिर्भर तो हुआ ही वरन् दाल और तिलहन को छोड़कर खाद्यान्न निर्यात करने की स्थिति में भी सक्षम हो गया है।

हरित – क्रान्ति के दुष्परिणाम – इस हरित – क्रान्ति से लाभ तो हुआ पर उसके कुछ दुष्परिणाम भी हुए; जैसे—धनी किसान और अधिक धनवान हो गया, पर गरीब किसान निर्धन रह गया। कृषि में मशीनों के उपयोग से गाँव में बेरोजगारी बढ़ी। ग्रामीण नगर में आने लगे,वहाँ घनी आबादी के कारण आवास – आपूर्ति, प्रदूषण एवं पर्यावरण पर प्रभाव पड़ा। उत्पादन लागत तो बढ़ी पर किसान को उचित मूल्य नहीं मिला। इससे असन्तोष छा गया।

उपसंहार—समग्र रूपेण कृषि भारत देश के लिए वरदान है। देश का स्वर्णिम भविष्य खेतों तथा खलिहानों में मुस्करा रहा है। देश का किसान उन्नत तथा समृद्ध होगा तो निम्न तराना गजेगा

“सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।”

11. परोपकार [2017]
अथवा
परहित सरिस,धरम नहिं भाई [2009, 14]

“काँटा चुभा किसी के, तड़फे हम मीर
सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है।”

विस्तत रूपरेखा –
(1) प्रस्तावना.
(2) धर्म का व्यापक रूप
(3) परोपकार हेत आवश्यक तथ्य,
(4) प्रकृति का उदात्त स्वरूप,
(5) मानव एवं पशु में भेद,
(6) भारतीय संस्कृति का आदर्श,
(7) मानव जीवन का उद्देश्य,
(8) कष्ट सहन करने की क्षमता,
(9) परोपकार के अनेक रूप,
(10) उपसंहार।

MP Board Solutions

प्रस्तावना – दुनिया में हर इंसान सुख एवं शान्तिपूर्वक जीवन जीना चाहता है। लेकिन मानव शरीर प्राप्त करके उसका जीना ही सार्थक है जो परोपकार की भावना अपने मन – मानस में गहराई से छिपाए हुए हो। गोस्वामी तुलसीदास ने अपने पावन ग्रन्थ ‘रामचरित मानस’ में इसी सत्य का उल्लेख निम्नवत् किया है देखिए

“परहित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ॥”

इसका आशय यह है – सर्वोत्तम धर्म परोपकार है एवं सबसे बड़ा पाप दूसरों को पीड़ा पहुँचाना है। परहित के लिए खुद का बलिदान ही भारतीय संस्कृति का लक्ष्य एवं आदर्श है। धर्म का व्यापक रूप – धर्म को यदि हम व्यापक रूप में परिभाषित करें तो यह कर्म की परिधि में ही समाहित है। इस प्रकार जो वर्जित कार्य हैं वे अधर्म ठहराए गए हैं। इसके विपरीत जो करने योग्य कर्म हैं उन्हें धर्म स्वीकारा गया है। अतः हमारा यह दृढ़ नियम होना चाहिए कि जहाँ तक हो सकेगा हम परहित भावना से निरन्तर जुड़े रहें।

परोपकार हेतु आवश्यक तथ्य – परोपकार के लिए सबसे आवश्यक बात यह है कि मनुष्य को उदार मन होना चाहिए। स्वार्थ का नामोनिशान भी मन में नहीं होना चाहिए। स्वार्थ एवं परोपकार दोनों एक – दूसरे के विपरीत हैं। स्वार्थी इंसान कभी भी परोपकारी प्रमाणित नहीं हो सकता। आज मानव कर्म क्षेत्र में कूदने से पूर्व ही लाभ को अपनी दृष्टि में संजो लेता है। यदि लाभ मिलता है तो वह आगे बढ़ता है, इसके विपरीत हानि की आशंका मात्र से उसके कदम रुक जाते हैं। . परोपकार में जुटा रहना कोई खेल नहीं है। इसके लिए दधीचि के सदृश दृढ़ एवं स्वयं के बलिदान होने की क्षमता होनी चाहिए। बाज के हमले से डरा हुआ कबूतर,शरण पाने की कामना से राजा शिवि की गोद में आ बैठा। इसी बीच बाज भी वहाँ आ गया तथा राजा से कपोत की माँग दुहराने लगा। शिवि ने कबूतर के बराबर माँस अपने शरीर से काटकर बाज को दे दिया। यही बात मैथिलीशरण की निम्न पंक्तियों में अवलोकनीय है

“निज हेतु बरसता नहीं व्योम से पानी।
हम हों समष्टि के लिए व्यष्टि बलिदानी।”

प्रकृति का उदात्त स्वरूप प्रकृति निरन्तर परोपकार में निरत है। सरिताएँ सुबह से शाम तक अथाह जल – समूह को धारण करके निरन्तर प्रवाहित होती रहती हैं। उनका एकमात्र ध्येय धरती की प्यास को बुझाकर दूसरों का हित करना है। वृक्ष रात – दिन,आँधी,तूफान तथा झंझावातों की मार सहकर भी अपने स्थान पर अडिग खड़े रहते हैं।

उनकी यह इच्छा रहती है कि हारे – थके राहगीर आकर उनकी छाया में घड़ी भर विश्राम तथा शान्ति का अनुभव कर सकें। भूख से व्याकुल होने पर मधुर फलों का रसास्वादन भी करें।

मानव एवं पशु में भेद – पशु भी हमारी तरह अपने दैनिक क्रिया – कलापों में जुटे रहते हैं। दोनों के मध्य भेद इस आधार पर किया जा सकता है कि मानव के मन – मानस में परोपकार की भावना विद्यमान रहती है, वहीं पशु इस भावना से कोसों दूर होते हैं। पशुओं के सारे काम स्वयं के हित के लिए होते हैं। गाय अथवा कुत्ते की सन्तान जरा से भोजन के लिए आपस में लड़ने के लिए कटिबद्ध हो जाते हैं। उनके अन्तस में मात्र अपना स्वार्थ ही समाया रहता है। यह प्रश्न विचारणीय है कि यदि मानव भी पशु की तरह जंगली तथा असभ्य व्यवहार करने लगे तो समाज का कितना अहित होगा, यह सोचकर ही मन प्रकम्पित हो जाता है।

भारतीय संस्कृति का आदर्श – भारतीय संस्कृति के मूल में मानव कल्याण की भावना कूट – कूट कर भरी हुई है। इस धरती पर समस्त कार्य स्वयं की संकुचित भावना से ऊपर उठकर सम्पूर्ण मानव समाज की भलाई के लिए सम्पादित किए जाते हैं। हमारा लक्ष्य निम्नवत् अवलोकनीय है

“सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत्॥”

अर्थात् सभी सुखी हों,सब निरोग हों, कोई भी दुःख का भागी न हो।
इस प्रकार के उच्चादर्श हमारे देश में सदैव से ही पल्लवित एवं साकार होते रहे हैं। मानव जीवन का उद्देश्य मानव जीवन का उद्देश्य मात्र भोग एवं खाओ, पीओ, मौज उड़ाओ तक ही सीमित नहीं है। जीवन को सफल बनाने के लिए परमात्मा का सुमिरन तथा भजन करना परमावश्यक है।

कष्ट सहन करने की क्षमता – परोपकारी मनुष्य में कष्ट सहन करने की क्षमता होनी चाहिए। जो मनुष्य जरा – सी तकलीफ में कराहने लगता है तथा जीवन को बोझ समझ बैठता है भला वह परोपकार की डगर पर किस प्रकार कदम बढ़ा सकता है? उसे वृक्षों की भाँति सर्वस्व बलिदान करने के लिए सर्वथा उद्यत रहना चाहिए। देखिए, वृक्षों की त्याग एवं बलिदान की भावना

“तरुवर फल नहिं खात हैं, सरवर पियहिं न पानि।
कह रहीम परकाज हित, सम्पत्ति संचय सुजान।”

परोपकार के अनेक रूप – परोपकार का क्षेत्र अति व्यापक है। किसी भी क्षेत्र में इस भावना का प्रदर्शन किया जा सकता है। पड़ोस में रुग्ण बीमार व्यक्ति को चिकित्सालय पहुँचाना, भटके हुए राहगीर को राह बतलाना, अंधे तथा लाचार मानव की सहायता करना, निर्धन को आर्थिक सहायता देना, विकलांग को सहारा देना तथा गिरते हुए को उठाना आदि अनेक ऐसे कार्य हैं जिनको सम्पादित करके मानव आत्मिक सुख तथा शान्ति का अनुभव कर सकता है।

उपसंहार विश्व के सभी धर्मों के अन्तर्गत परोपकार की महिमा को उजागर किया गया है। धर्म के समस्त गुण परोपकार की परिधि में समाहित हैं। परोपकार करने के लिए असीम धैर्य, त्याग, तपस्या तथा बलिदान की परमावश्यकता है। भारत तो दया तथा परहिताय भावना का प्राचीन काल से ही प्रबल पक्षधर रहा है। अतः आइए हम सब भी इस पुनीत भाव को हृदय में धारण करके मानव की सेवा तथा भलाई का व्रत लें तभी सच्चे सुख एवं शान्ति की अनुभूति सम्भव है।

12 विज्ञान : वरदान या अभिशाप [2009]
अथवा
विज्ञान : विकास या विनाश
अथवा
भारत में विज्ञान के बढ़ते चरण [2009]

“शूल को इतना सहो जो फूल बनकर खिल उठे,
और दिल को स्नेह दो इतना कि दीपक जल उठे
प्यार हर इंसान को इतना लुटा दो आज तुम।
आदमी भगवान, मन्दिर आज बन हर दिल उठे।”

विस्तृत रूपरेखा –
(1) प्रस्तावना,
(2) विज्ञान की देन,
(3) चिकित्सा के क्षेत्र में विज्ञान की देन,
(4) कृषि के क्षेत्र में,
(5) मनोरंजन के साधन,
(6) अभिशाप,
(7) उपसंहार। [2014]

प्रस्तावना किसी वस्तु विशेष के एक पक्ष को जब हम देखते हैं तो उसके अन्तर्गत बसन्त कलित क्रीड़ा करता हुआ दृष्टिगोचर होता है लेकिन जब उसके दूसरे पक्ष को देखते हैं तो उसमें अभिशापों की काली छाया मँडराती रहती है। जब हम किसी वस्तु को प्रयोग की कसौटी पर कसते हैं तभी उसके स्वरूप का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। वैसे विष प्राणघातक होता है, लेकिन जब कोई चिकित्सक उसका शोधन करके औषधि के रूप में प्रयोग करता है तब वही विष प्राणदायक संजीवनी का काम करता है। इस प्रकार हम विष पर दोषारोपण नहीं कर सकते हैं। ज्ञान का प्रयोग ही उसके परिणाम का उद्घोषक होता है। विज्ञान को भी हम एक विशिष्ट विज्ञान के अन्तर्गत स्वीकारते हैं। यह हमारे ऊपर निर्भर है कि चाहे हम विज्ञान को विनाशकारी रूप दें अथवा मंगलकारी भव्य रूप प्रदत्त करें।

विज्ञान की देन – विज्ञान ने मानव को जो सुख,मनोरंजन तथा अन्य साधन प्रदत्त किए हैं वे अनगिनत हैं। गर्मी एवं शीत दोनों पर विज्ञान का आधिपत्य है। आज ग्रीष्म ऋतु शीत तथा शीत ऋतु में गर्मी का भरपूर आनन्द ग्रहण किया जा सकता है। रेल,वायुयान,स्कूटर,मोटर कार तथा अन्य शीघ्रगामी साधनों के फलस्वरूप यात्रा बहुत ही सुगम तथा आरामदायक हो गयी है।

MP Board Solutions

चिकित्सा के क्षेत्र में विज्ञान की देन – आज चिकित्सा के क्षेत्र में भी विज्ञान की अभूतपूर्वक देन है। शल्य चिकित्सा, एक्स – रे तथा हृदय प्रत्यारोपण इस बात के ज्वलन्त प्रमाण हैं। प्लास्टिक सर्जरी एवं कृत्रिम अंगों का प्रत्यारोपण भी आज सफलतापूर्वक किया जा रहा है। असाध्य रोगों पर विज्ञान द्वारा आविष्कृत औषधियाँ मानव को नया जीवन प्रदान कर रही हैं।

कृषि के क्षेत्र में कृषि के क्षेत्र में भी विज्ञान ने नवीनतम आविष्कारों के माध्यम से कृषकों में एक नवीन आशा तथा उत्साह का संचार किया है। विभिन्न प्रकार की रासायनिक खादों से खेतों में आशातीत अन्न उत्पन्न हो रहा है। थेसर, ट्रैक्टर आदि यन्त्रों के माध्यम से खेतों में बोआई,कटाई सुविधापूर्वक एवं कम समय में सम्पन्न हो रही है।

मनोरंजन के साधन – विज्ञान ने आज के मानव को मनोरंजन के साधन भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध कराये हैं। सिनेमा, रेडियो, टेलीविजन एवं टेप रिकार्डर मनोरंजन के सुलभ तथा मनभावन साधन हैं। आप यदि उदासीन एवं चिन्ताग्रस्त हैं तो सिनेमा हाल में तीन घण्टे बैठकर चिन्ताओं से मुक्त हो सकते हैं। दूरदर्शन के माध्यम से यह आनन्द सपरिवार घर पर कमरे में बैठकर ही ग्रहण किया जा सकता है, साथ ही विश्व में घटित होने वाली घटनाओं को भी अपने नेत्रों में साक्षात् निहार सकते हैं।

अभिशाप – हर वस्तु के दो पहलू होते हैं। एक ओर जहाँ उसमें वरदानों का जाल बिछा रहता है, वहीं दूसरी ओर अभिशापों की काली छाया भी मँडराती है। विज्ञान द्वारा आविष्कृत, अभिशाप के साधन अनगिनत हैं। उनका दुरुपयोग किया जाए तो मानव सभ्यता एवं संस्कृति धराशायी हो जायेगी। जापान के हिरोशिमा एवं नागासाकी नगर इसके ज्वलन्त प्रमाण हैं।

हाइड्रोजन बम, एटम बम, न्यूट्रान बम अलमारी में सजाने के लिए नहीं बनाये गये हैं, निश्चित रूप से इनका विस्फोट होगा। विषैली गैसें वातावरण को दूषित तथा विषाक्त बना रही हैं। प्रदूषण तथा शोरगुल भी बढ़ा है। विज्ञान ने मानव के सुख – साधनों में वृद्धि की है, फलतः आज का मानव विलास – प्रिय हो गया है।

उपसंहार – विज्ञान स्वयं में शक्ति नहीं है, वह मानव के हाथ में पड़कर ही शक्ति प्राप्त करता है। इस प्रकार विज्ञान वरदान अथवा अभिशाप कुछ न होकर मानव के उपयोग पर ही आधारित है। विज्ञान पर दोषारोपण करना उसी प्रकार निरर्थक है जिस प्रकार चलनी में दूध दुहना तथा कर्मों को दोष देना। भगवान मानव को सदबुद्धि प्रदान करे जिससे वह विज्ञान को मानव के कल्याण के लिए प्रयुक्त करे। विज्ञान का कल्याणमय स्वरूप विश्व के कल्याण के लिए है और विनाशमय स्वरूप विनाश के लिए। अतः विश्व कल्याण के लिए ही विज्ञान का प्रयोग किया जाना चाहिए।

13. दहेज प्रथा : एक सामाजिक अभिशाप [2013]

“अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी ॥”

विस्तृत रूपरेखा
(1) प्रस्तावना,
(2) दहेज का आशय एवं स्वरूप,
(3) दहेज प्रथा का आविर्भाव,
(4) दहेज के दुष्परिणाम,
(5) नौजवानों का कर्त्तव्य,
(6) उपसंहार।]

प्रस्तावना – समाज के अन्तर्गत समस्याओं का विकराल जाल फैला हुआ है। ये तुच्छ तथा साधारण समस्याएँ कभी – कभी जी का जंजाल बन जाती हैं। लाड़ – प्यार तथा स्नेह से पालित – पोषित शिशु कभी – कभी बड़ा होकर जिस प्रकार माता – पिता के लिए बोझ बन जाता है तदनुसार ये समस्याएँ भी असाध्य रोग का रूप धारण कर लेती हैं तथा समाज के रूप को विकृत तथा घिनौना बना देती हैं। उन समस्याओं में से एक विकराल समस्या है दहेज प्रथा जो समाज की जड़ों को ही खोखला किए दे रही है। इससे समाज तथा व्यक्तिगत प्रगति पर विराम – सा लग रहा है। अनुराग एवं वात्सल्य का प्रतीक दहेज युग परिवर्तन के साथ खुद भी परिवर्तित होकर विकराल रूप में उपस्थित है।

दहेज का आशय एवं स्वरूप – साधारण रूप में दहेज वह सम्पत्ति है जिसे पिता अपनी बेटी के पाणिग्रहण संस्कार के समय अपनी पुत्री को इच्छानुकूल प्रदान करता है। पुराने समय से ही दहेज प्रथा का प्रचलन चला आ रहा है। इसके अन्तर्गत विवाह के समय कन्या पक्ष द्वारा वर पक्ष को आभूषण, वस्त्र एवं रुपये सहर्ष दान रूप में प्रदत्त किए जाते थे परन्तु समय के साथ – साथ यह परम्परा एवं प्रवृत्ति अपरिहार्य तथा आवश्यक बन गई। आज वर पक्ष दहेज के रूप में टी.वी., फ्रिज, स्कूटर एवं कार आदि की नि:संकोच माँग करता है। इनके अभाव में सुशिक्षित एवं योग्य कन्या को मनचाहा जीवन साथी नहीं मिल पाता। इस स्थिति में निर्धन पिता की पुत्री या तो अविवाहित रहकर पिता तथा परिवार के लिए बोझ बन जाती है अथवा बेमेल एवं अयोग्य वर के साथ जीवन जीने के लिए विवश होती है। दहेज की कुप्रथा ने अनेक युवतियों को काल के गाल में ढकेल दिया है। समाचार – पत्र आए दिन इस प्रकार की अवांछनीय घटनाओं से भरे रहते हैं। रावण ने तो मात्र एक सीता का अपहरण करके उसकी जिन्दगी को अभिशप्त, दुःखप्रद तथा आँसुओं की गाथा बनाया था परन्तु दहेज रूपी रावण ने असंख्य कन्याओं के सौभाग्य सिन्दूर को पोंछकर उनकी जिन्दगी को पीड़ाओं की अमर गाथा बना दिया है।

दहेज प्रथा का आविर्भाव यदि इतिहास की धुंधली दूरबीन उठाकर भूतकाल की क्षीण पगडंडी पर दृष्टिपात करते हैं तो यह बात स्पष्ट होती है कि दहेज प्रथा का प्रचलन सामन्ती युग में भी था। सामन्त अपनी बेटियों की शादी में अश्व, आभूषण एवं दास – दासियाँ उपहार अथवा भेंट के रूप में प्रदत्त किया करते थे। शनै – शनैः इस बुरी प्रथा ने सम्पूर्ण समाज को ही अपनी परिधि में समेट लिया। इस कुप्रथा के लिए झूठी शान,रूढ़िवादिता तथा धर्म का अंधानुकरण उत्तरदायी है।

दहेज के दुष्परिणाम दहेज के फलस्वरूप आज सामाजिक वातावरण विषैला, दूषित एवं घृणित हो गया है। अनमेल विवाहों की भरमार है जिसके कारण परिवार एवं घर में प्रतिपल संघर्ष एवं कोहराम मचा रहता है। जिस बहू के घर से दहेज में यथेष्ट धन नहीं दिया जाता, ससुराल में आकर उसे जो पीड़ा एवं ताने मिलते हैं, उसकी कल्पना मात्र से शरीर सिहरने लगता है। कभी कभी उसे ससुराल वालों द्वारा जहर दे दिया जाता है अथवा जलाकर मार दिया जाता है। मनुष्य क्षण भर के लिए यह सोचने के लिए विवश हो जाता है कि आदर्श भारत का जिन्दगी का रथ किस ओर अग्रसर हो रहा है। प्रणय सूत्र में बंधने के पश्चात् जहाँ सम्बन्ध स्नेह, अनुराग एवं भाईचारे के होने चाहिए वहाँ आज कटुता एवं शत्रुता पैर – पसारे हुए है।

नौजवानों का कर्त्तव्य – दहेज प्रथा समस्या का निराकरण समाज एवं सरकार के बूते का कार्य नहीं है। इसके लिए तो युवक एवं युवतियों को स्वयं आगे बढ़कर दहेज न लेने एवं देने की दृढ़ प्रतिज्ञा करनी चाहिए। मात्र कानून बनाने से इस समस्या का निराकरण नहीं हो सकता। जितने कानून निर्मित किए जा रहे हैं, दहेज लेने एवं देने वाले भी शोध ग्रन्थों की तरह नए – नए उपाय खोजने में सफल हो रहे हैं। इस कुप्रथा को समाप्त करने के लिए महिलाओं को इस सन्दर्भ में प्रयास करना चाहिए। इसके लिए एक प्रभावी आन्दोलन भी चलाना चाहिए। सरकार को भी कठोर कानून बनाकर इस बुरी प्रथा पर प्रतिबन्ध लगाना चाहिए। शासन ने सन् 1961 में दहेज विरोधी कानून पारित किया। सन् 1976 में इसमें कुछ संशोधन भी किए गए थे किन्तु फिर भी दहेज पर अंकुश नहीं लग सका। समाज सुधारक भी इस दिशा में पर्याप्त सहयोग दे सकते हैं। दहेज लेने वालों का सामाजिक बहिष्कार आवश्यक है। सहशिक्षा भी दहेज प्रथा को रोकने में सक्षम है। सामाजिक चेतना को जाग्रत करना भी आवश्यक है।

MP Board Solutions

उपसंहार – विगत अनेक वर्षों से इस बुरी प्रथा को समाप्त करने के लिए भागीरथ प्रयास किया जा रहा है लेकिन दहेज का कैंसर ठीक होने के स्थान पर निरन्तर विकराल रूप धारण करता जा रहा है। इस कुप्रथा का तभी समापन होगा जब वर पक्ष एवं कन्या पक्ष सम्मिलित रूप से इस प्रथा को समाप्त करने में सक्षम होंगे। यदि इस दिशा में जरा भी उपेक्षा अपनायी गयी तो यह ऐसा कोढ़ है जो समाज रूपी शरीर को विकृत एवं दुर्गन्ध से आपूरित कर देगा। समाज एवं शासन दोनों को जोरदार तरीके से दहेज विरोधी अभियान प्रारम्भ करना परमावश्यक है। अब तो एक ही नारा होना चाहिए। “दुल्हन ही दहेज है” यह नारा मात्र कल्पना की भूमि पर विहार करने वाला न होकर समाज की यथार्थ धरती पर स्थित होना चाहिए तभी भारत के कण – कण से सावित्री,सीता एवं गार्गी तुल्य कन्याओं की यह ध्वनि गुंजित होगी।

“सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।”

14. साहित्य और समाज [2009, 15]
अथवा
साहित्य समाज का दर्पण है

“प्राचीन से अधुनातन समाज में,
जो कुछ होता आया है।
साहित्य समाज का दर्पण है,
प्रतिबिम्बित सबकी छाया है।”

विस्तृत रूपरेखा [2017]
(1) प्रस्तावना,
(2) साहित्य और समाज का सम्बन्ध,
(3) समृद्ध साहित्य उन्नति की आधारशिला,
(4) साहित्य का समाज पर प्रभाव,
(5) उपसंहार।]

प्रस्तावना – साहित्य एवं समाज दोनों अटूट रूप में एक – दूसरे से बँधे हुए हैं। साहित्य समाज में ही पल्लवित, पुष्पित तथा विकसित होता है एवं समाज भी साहित्य के प्रकाश में स्वयं को जीवन्त,ऊर्जा सम्पन्न,गतिमान या सजग बनाता है। समाज मानव सम्बन्धों का ताना – बाना है तथा साहित्यकार उसमें एक अपरिहार्य सूत्र होता है। इस प्रकार साहित्य एवं समाज दोनों की प्रगति एक – दूसरे पर आश्रित है। इन दोनों में से एक का भी पतन दूसरे के विनाश का सूचक होता है। साहित्य का समाज के नव निर्माण में अपूर्व योगदान है। तद्नुरूप समाज के माध्यम से ही साहित्य का पादप विकसित एवं हरा – भरा रहता है।

जीवन को सरस, आनन्दमय तथा सुखमय बनाने के लिए मानव ने साहित्य का निर्माण किया है। मानव की तरह साहित्य भी हित – चिन्तन करता है लेकिन इन दोनों में आकाश – पाताल का अन्तर है। सामान्यतः मानव का हित – चिन्तन संकुचित तथा अपने तक सीमित होता है। परन्तु साहित्य का हित – चिन्तन समस्त मानव जगत की कल्याण भावना से ओत – प्रोत होता है। इसी सत्य को दृष्टि – पथ में रखकर मनीषियों ने ज्ञान – राशि के संचित कोष को साहित्य के नाम से सम्बोधित किया है। कविवर रवीन्द्र के शब्दों में – “साहित्य शब्द से साहित्य शब्द में मिलने (अर्थात् एक साथ होने) का भाव निहारा जा सकता है। वह केवल भाव – भाव का,भाषा – भाषा का, ग्रन्थ – ग्रन्थ का मिलन नहीं है – दूर के साथ निकट का यह अत्यन्त अन्तरंग मिलन भी है, जो साहित्य के अलावा अन्य से सम्भव नहीं है।”

साहित्य और समाज का सम्बन्ध समाज निर्माण के पश्चात् साहित्य की रचना की जाती है। समाज तथा साहित्य एक – दूसरे पर अपना प्रभाव डालते हैं। समाज के विभिन्न प्रकार के क्रिया – कलापों का साहित्य में चित्रण किया जाता है। साहित्यकार अपने वर्णन – विषयों को समाज के धरातल से ही चयन करता है। साहित्य समाज की विभिन्न प्रवृत्तियों,रुचियों तथा परम्पराओं का विश्लेषण करता है तथा उनको भली प्रकार सुरक्षित रखने तथा सँवारने का भी प्रयास करता है। इसी के अनुरूप समाज भी यथाशक्ति साहित्य को सुरक्षित रखने में तत्पर रहता है। इस प्रकार साहित्य तथा समाज का गहरा तथा अटूट सम्बन्ध है।

समाज की सभ्यता, संस्कृति, आचार – विचार, परम्परा, नैतिकता तथा मानवीय मूल्यों का निर्देशक साहित्य को ठहराया गया है। यदि, हम पुरातन समाज का ज्ञान प्राप्त करना चाहें तो तत्कालीन साहित्य का ही आश्रय लेना पड़ेगा। तत्कालीन समाज का हर्ष – विषाद, उत्थान – पतन, रीति – रिवाज एवं आचार – विचार साहित्य के कलेवर में ही प्रतिबिम्बित होंगे।

समृद्ध साहित्य उन्नति की आधारशिला हजारों साल पहले भारत शिक्षा तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रगति की चरम सीमा पर विराजमान था। हमारे पूर्वजों के प्रशंसनीय तथा अनुकरणनीय कार्य आज भी हमारे प्रेरणा के स्रोत हैं। कवि वाल्मीकि तथा तुलसी की पावन वाणी जन – जन के मानस में उल्लास – भक्ति तथा ज्ञान की मन्दाकिनी प्रवाहित कर रही है। गोस्वामी तुलसीदास जी का ‘रामचरितमानस’ नामक ग्रन्थ अज्ञान – तिमिर में भटकने वाले कोटि – कोटि प्राणियों के लिए आज भी आकाशदीप की भाँति मार्गदर्शन कर रहा है।

जिस देश तथा जाति के पास जितना समृद्ध तथा उन्नत साहित्य होगा वह जाति उतनी ही समृद्धशाली ठहरायी जायेगी। यदि हमारे पास समृद्ध साहित्य नहीं होता तो हमारे अस्तित्व को ही खतरा उत्पन्न हो जाता। साहित्य समाज रूपी शरीर में आत्मा की तरह प्रतिष्ठित है। यह समाज की जीवनदायिनी शक्ति के रूप में विराजमान है। इस सन्दर्भ में निम्न कथन दृष्टव्य है

“अन्धकार है वहाँ जहाँ आदित्य नहीं है।
ह देश जहाँ साहित्य नहीं है।”

समाज का साहित्य पर प्रभाव – साहित्य की तरह समाज का भी साहित्य पर प्रभाव पड़ता है। प्राचीन साहित्य के अध्ययन से यह बात ज्ञात होती है कि तत्कालीन समाज में प्रकृति पूजा का विधान था।

सविता,वरुण तथा उषा आदि देवों की पूजा तथा अर्चना का भी प्रचलन था। हमारा देश कृषि प्रधान देश है। कृषि में गोवंश की उपयोगिता को दृष्टि – पथ में रखकर गायों की माता के समान पूजा की जाती थी। वीरगाथा काल की रचनाओं में श्रृंगार,प्रेम,युद्ध तथा मारकाट के वर्णन हैं। भारत अनेक राज्यों में विभाजित था। शासकों में आपस में हेल – मेल नहीं था। वे आनन्द, विलास तथा मनोरंजन में ही जीवन का सौन्दर्य निहारते थे। रीतिकालीन साहित्य तात्कालिक समाज की प्रवृत्तियों का जीता – जागता दर्पण है। कवि राज्याश्रय में रहकर विलासमय जीवन – यापन कर रहे थे। समाज की ओर से उन्होंने आँख बन्द कर ली थीं। नायिका के नख – शिख वर्णन तक ही उनकी लेखनी सीमित थी। नायिका के सौन्दर्य पर टीका रचकर उसके रूप का बखान करना ही उन्होंने कला का लक्ष्य स्वीकारा था। यद्यपि बिहारी तथा देव आदि कवियों ने भक्तिपरक रचनाओं का निर्माण भी किया, लेकिन अत्यल्प।

साहित्य का समाज पर प्रभाव – समाज को साहित्य प्रेरणा देता है। जो कार्य अस्त्र – शस्त्र नहीं कर पाते वह कार्य साहित्य सुगमतापूर्वक सम्पन्न कर लेता है। बिहारी के मात्र एक दोहे ने विलासिता के सागर में गोते लगाते हुए महाराज जयसिंह को कर्त्तव्य के पथ पर अग्रसर कर दिया। तुलसीदास ने राम को भगवान के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। साहित्य का प्रमुख उद्देश्य है आनन्द प्रदत्त करना तथा समाज का प्रमुख आदर्श है आनन्द की अनवरत खोज। इस तरह दोनों अभिन्न रूप से जुड़े हैं। साहित्य में जब तक विकास होता रहता है तब तक वह जीवित रहता है। विकास गति अवरुद्ध हो जाती है तब उसे मृत साहित्य की संज्ञा दी जाती है। समाज के वातावरण की नींव पर साहित्य का भवन खड़ा किया जाता है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का यह कथन अक्षरशः सत्य है कि “साहित्य समाज का दर्पण है।” संसार में जितनी भी क्रान्तियाँ हुईं,वे वहाँ के साहित्यकारों की लेखनी के माध्यम से ही सम्पन्न हुई।

उपसंहार – निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि समाज साहित्य को तथा साहित्य समाज को प्रतिपल प्रभावित करते रहते हैं। उससे अछूता रहना दोनों के लिए असम्भव है। साहित्य समाज की प्रतिध्वनि है। साहित्य की प्रेरणा से समाज का रूप परिवर्तित होता है तथा वह नया कलेवर धारण करता है। साहित्य युग – युगों से समाज – सुधार का प्रबल साधन प्रमाणित हुआ है। साहित्य राष्ट्रीय चेतना के क्षेत्र में ही नहीं वरन् सामाजिक विषमता को समाप्त करने में भी अग्रणी रहा है। साहित्य विगत समय का लेखा – जोखा है। सनातन मूल्यों का पोषक है। वर्सफील्ड के शब्दों में – “साहित्य मानव समाज का मस्तिष्क है।”

साहित्यकार का सबसे पावन कर्त्तव्य है समाज को प्रेरणा देना, नई ऊर्जा शक्ति प्रदान करना तथा जीवन – पथ को आलोकित करना। तभी निम्न स्वर सुनाई पड़ेंगे। देखिए

“जिन मुश्किलों में मुस्कुराना हो मना।
उन मुश्किलों में मुस्कुराना धर्म है।”

15. जीवन में खेलों का महत्त्व | [2013, 17]

“शक्ति बढ़े फुर्ती लहे, चोट न अधिक पिराय।।
अन्न पचे, चंगा रहे, खेल हैं सदा सहाय ॥”

विस्तृत रूपरेखा
(1) प्रस्तावना,
(2) विकास का साधन,
(3) खेलों से सामाजिकता की भावना का विकास,
(4) विद्यार्थी जीवन में खेल की आवश्यकता,
(5) मनोरंजन का साधन,
(6) उपसंहार।

MP Board Solutions

प्रस्तावना जिस प्रकार स्वस्थ शरीर के लिए खाना – पीना आवश्यक है, उसी प्रकार शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए जीवन में खेलों का भी अत्यन्त महत्त्व है। मनुष्य यदि केवल खाता – पीता ही रहे तो वह स्वस्थ नहीं रह सकता, अपितु उस खाये – पिये को पचाने के लिए, अच्छी भूख लगाने के लिए और शरीर के रक्त संचार आदि को उचित रखने के लिए व्यायाम करना अथवा खेलना अत्यन्त आवश्यक है।

विकास का साधन – मनुष्य के सर्वांगीण विकास में खेलों का अत्यन्त महत्त्व है। खेलने से मनुष्य के मन में स्फूर्ति और उत्साह उत्पन्न होता है जिससे जीवन की अनेक चिन्ताओं और तनावों से मुक्ति पाकर उसका मन अत्यन्त प्रसन्न हो जाता है। इसका प्रभाव मनुष्य के तन और मन पर स्पष्ट रूप से पड़ता है। इससे मनुष्य का मनोबल ऊँचा होता है व उसमें आगे बढ़ने की ललक उत्पन्न होती है। उसके विचारों में निश्चितता और दृढ़ता आती है। इसी के साथ संसार में स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए मन में महत्त्वाकांक्षा भी उत्पन्न होती है। आज हमारे देश ने क्रिकेट, कबड्डी,टेनिस आदि खेलों में विश्व में अपना उच्चस्तरीय स्थान बनाया है। देश का प्रतिनिधित्व करने वाले खिलाड़ियों को देखकर अन्य खिलाड़ियों में भी जोश उत्पन्न होता है तथा खेलों में प्रतिस्पर्धा की भावना से उनका उत्तरोत्तर विकास होता है।

खेलों से सामाजिकता की भावना का विकास – खेल मनुष्य में सामाजिकता की भावना का अभ्युदय करते हैं। उदाहरणतः जब भारत की टीम और पाकिस्तान की टीम साथ – साथ खेल खेलती हैं,तो मन के अन्दर की अलगाव और कटुता की भावना स्वतः ही समाप्त हो जाती है और उनमें परस्पर सौहार्द्र और बन्धुत्व की भावना का विकास होता है।

विद्यार्थी जीवन में खेल की आवश्यकता विद्यार्थी जीवन में खेल की अत्यन्त आवश्यकता है। खेल से विद्यार्थी के मन में स्फूर्ति और ताजगी उत्पन्न होती है। इससे वह अपना अध्ययन कार्य अच्छी तरह करता है। परस्पर खेलों में स्पर्धा होने से उनके तन और मन की’ क्षमता और कुशलता में भी अभिवृद्धि होती है।

मनोरंजन का साधन – दिनभर कोल्हू के बैल की तरह काम करने वाला मानव या शिक्षा के बोझ से दबा हुआ विद्यार्थी शारीरिक और मानसिक श्रम से इतना अधिक श्रान्त हो जाता है कि उसे कुछ मनोरंजन की आवश्यकता होती है। ऐसे में खेल उसका भरपूर मनोरंजन करते हैं। जब खिलाड़ी खेल के मैदान में अपने करतब दिखाते हैं तब दर्शकगण भी उत्साह से आह्लादित हो उठते हैं। वे अपनी थकान, तनाव आदि भूलकर खेलों के आनन्द में डूब जाते हैं।

उपसंहार – इस प्रकार खेल मनुष्य के मन और तन को प्रसन्न तथा स्वस्थ रखते हैं। जीवन में सामाजिकता, मित्रता, भाईचारे आदि की भावना का विकास खेलों से ही होता है। अतः जिस प्रकार जीवन में खाना – पीना, पढ़ना – लिखना आवश्यक है उसी प्रकार तन – मन को स्वस्थ, प्रसन्न
और आह्लादित रखने के लिए खेलों का अत्यन्त महत्त्व है।
अतः यदि हम सब खेलों के महत्त्व को स्वीकार करेंगे तभी खिलाड़ियों के निम्न स्वर ध्वनित होंगे –

“क्या कहूँ कुछ और अब मैं सिर्फ इतना जानता हूँ।
राह पर चलती हमारे साथ ही मंजिल हमारी ॥”

16. आरक्षण नीति

“एक समय जो हितकर होता दूजे समय विनाशक।
आरक्षण का हाल यही है एक समय था रक्षक ॥
लेकिन आज विनाशक बनकर महाकाल बन आया।
योग्य युवा की आशाओं को ग्रास बनाकर खाया।”

विस्तृत रूपरेखा
(1) प्रस्तावना,
(2) वर्तमान समय में आरक्षण का बिगडता स्वरूप,
(3) वर्तमान समय में आरक्षण की आवश्यकता,
(4) उपसंहार।]

प्रस्तावना – जब भारत अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुआ तब देश में अपना संविधान लागू हुआ। उस समय देश में दलित वर्ग की स्थिति अत्यन्त दयनीय थी। उन्हें न तो राजनीति में कोई स्थान प्राप्त था और न समाज में। समाज में तो उन्हें अत्यन्त हेय दृष्टि से देखा जाता था। ऐसी स्थितियों को देखकर उनका उत्थान करने की भावना को दृष्टिपथ में रखते हुए देश के संविधान निर्माताओं ने उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था की।

वर्तमान समय में आरक्षण का बिगड़ता स्वरूप – देश के संविधान निर्माताओं ने दलित वर्ग के उत्थान के लिए जिस आरक्षण नीति का सूत्रपात किया,कालान्तर में वही नीति स्वार्थी और भ्रष्टाचारी नेताओं की लिप्सा पूर्ति का साधन बन गई। जातीय आधार पर किए गए आरक्षण के कारण आरक्षण के अन्तर्गत आने वाले समृद्धशाली लोगों ने इसका खूब फायदा उठाया। निर्धन सवर्ण अपने सामने अपने सपनों पर समृद्ध आरक्षित वर्ग का अधिकार देखता रहा। अयोग्य लोग चुन – चुनकर राजकीय सेवाओं में पहुँच गए। योग्य सवर्ण असहाय दृष्टि से केवल देखता ही रह गया। आरक्षण के दानव ने उसका भविष्य निगल लिया। स्वार्थी अयोग्य किन्तु आरक्षित वर्ग में आने वाला धनाढ्य सरकारी खजाने का,जो उस पर लुटाए जा रहे थे,उपभोग करता रहा। निर्धन और योग्य सवर्ण इससे वंचित हुआ, ठगा – सा अपनी जाति को कोसता रहा। काश ! वह भी दलित और पिछड़े वर्ग में पैदा हुआ होता तो सरकार की कृपा उस पर भी होती। इस प्रकार आरक्षण जनहित की भावना को लेकर बनाई गई योजना थी किन्तु इसका स्वरूप बिगड़कर यह जनविनाश की भावना से कार्य करने लगी।

वर्ष 1953 में प्रथम आयोग का गठन किया गया था। इसके अध्यक्ष काका कालेलकर थे। इस आयोग ने अनुसूचित जाति,अनुसूचित जनजाति के साथ ऐसी जातियों को सूची में रखने का अनुमोदन किया जो सामाजिक,शैक्षिक और सरकारी सेवाओं के क्षेत्र में अत्यन्त पिछड़ी थीं।

तदनन्तर मंडल आयोग का गठन किया गया। इसमें पिछड़ी जातियों को 27% आरक्षण देने की सिफारिश की गई। इसे तत्कालीन प्रधानमन्त्री वी. पी. सिंह ने लागू करने का प्रयास किया। तब इसके विरोध में युवावर्ग ने भयानक रूप धारण कर लिया। कई युवाओं ने आत्मदाह तक करने का प्रयास किया।

वर्तमान समय में आरक्षण की आवश्यकता – देश में जब आरक्षण नीति लागू की गई थी तब से लेकर आज वर्तमान समय में देश की परिस्थितियाँ परिवर्तित हो चुकी हैं। उस समय ज़ातिगत आरक्षण की आवश्यकता थी किन्तु आज के परिप्रेक्ष्य में आर्थिक आधार पर आरक्षण की आवश्यकता है। यद्यपि जब संविधान में आरक्षण की व्यवस्था केवल दस वर्ष तक के लिए की गई थी किन्तु राजनयिकों ने अपनी कुर्सी मजबूत करने के उद्देश्य से इस व्यवस्था को आज आजादी के साठ वर्षों बाद भी कायम रखा है। इससे लाभ कम और हानि अधिक हुई। आज समाज में ऊँच – नीच और भेदभाव की भावना डालने में जातिगत आरक्षण का बहुत बड़ा हाथ है। व्यावहारिक रूप में समाज में अब जातिगत भेदभाव नहीं रह गया है किन्तु आरक्षण का काँटा सवर्णों के हृदय को निरन्तर वेधता रहता है। इसी कारण आरक्षित वर्ग आज उनकी ईर्ष्या और द्वेष का शिकार हो जाता है।

उपसंहार यदि कोई समस्या होती है तो उसका समाधान भी अवश्य है। आरक्षण की समस्या का समाधान है कि संविधान में संशोधन करके आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की जाए। जातिगत आरक्षण समाप्त कर दिया जाए। इससे एक तो समाज से परस्पर वैमनस्य की भावना दूर होगी। दूसरे योग्य और निर्धन सवर्ण बेरोजगारों को भी सरकारी सेवा में आने का उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अवसर प्राप्त होगा। देश की कुंठित और अवसादग्रस्त प्रतिभाएँ फिर से प्रस्फुटित होंगी और देश अयोग्यों के हाथ की कठपुतली बनने से बच जाएगा। तभी देश का वास्तविक रूप से विकास भी होगा। देश का विकास युवाओं की उन्नति और विकास पर ही निर्भर है अतः तब खुला आसमान सबके लिए बिना किसी पक्षपात की भावना के उपलब्ध हो सकेगा।

17. शिक्षित बेरोजगारी की समस्या

“पढ़ा लिखा है युवा, नौकरी नहीं देश में।
जीवन गुजर रहा मर्मान्तक पीड़ा में।
अब आशा की किरण दिखाए कौन कहाँ से।
बड़े – बड़े नेता रहते अपनी ही दुनिया में ॥”

विस्तृत रूपरेखा [2015] –
(1) प्रस्तावना,
(2) शिक्षित बेरोजगारी के प्रमुख कारण – धन सम्बन्धी समस्या, धर्म की समस्या, राजनीतिक समस्या, दोषपूर्ण – शिक्षा पद्धति,
(3) उपसंहार।

प्रस्तावना – आज हमारे देश में बेरोजगारी एक ज्वलंत समस्या के रूप में उभर कर देश के युवा भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रही है। पढ़े – लिखे युवा दर – दर भटक रहे हैं। भिक्षा की भाँति नौकरी माँग रहे हैं किन्तु शासन आँख और कान बन्द करके अन्धे और बहरे की भाँति सब अनदेखा और अनसुना कर रहा है। बड़े – बड़े पूंजीपतियों को भी युवारक्त को चूसने की आदत पड़ गई है। वह नौकरी देते हैं तो इतने कम पैसों पर कि महीने का वेतन चार दिन भी कठिनाई से चल पाता है। युवा प्रातः से सायं तक जी तोड़ परिश्रम करता है,ऊपर से कब नौकरी चली जाए, इसकी सूली भी सदैव उसके सिर पर लटकती रहती है।

शिक्षित बेरोजगारी के प्रमुख कारण धन सम्बन्धी समस्या यह सत्य है कि धन के बिना मनुष्य प्रगति नहीं कर सकता। शिक्षित बेरोजगारी का यह एक मुख्य कारण है – देश में धन का अभाव, चाहे वह कृत्रिम हो अथवा वास्तविक,रोजगार के अवसर कम कर देता है। देश के धन पर वर्ग विशेष का आधिपत्य होने से जो धन रोजगार दे सकता है,वह केवल उनकी महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति में व्यय हो रहा है।

धर्म की समस्या देश में बेरोजगारी के प्रमुख कारणों में धार्मिक कारण भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। यहाँ के धर्मभीरू मनुष्य भाग्यवाद पर विश्वास करके हाथ पर हाथ रखे बैठे रहते हैं। उनके अनुसार “अजगर करे न चाकरी,पंक्षी करे न काम। दास मलूका कह गए, सबके दाता राम ॥” वाली कहावत सत्य है। वे कार्य करने का प्रयास नहीं करते और यह कहकर सन्तोष कर लेते हैं कि वह उनके भाग्य में ही नहीं था।

राजनीतिक समस्या बेकारी का प्रमुख कारण राजनीति भी है। यहाँ लोग राजनीति में आकर स्वयं और स्वयं के परिवार के लिए धन कमाना चाहते हैं। दूसरों को प्रलोभन देकर उनसे धन लूटकर अपने बैंक के खाते भरते हैं और इतना धन एकत्र कर लेते हैं कि उनकी कई पीढ़ियाँ बिना कोई काम करके आराम और वैभव से अपना जीवन गुजार सकती हैं। इनके पास देश का इतना धन एकत्र होता है कि यदि इनके बैंक के खाते जनता के लिए खोल दिये जाएँ तो देश से निर्धनता और बेरोजगारी स्वतः समाप्त हो जाए।

MP Board Solutions

दोषपूर्ण – शिक्षा पद्धति–भारत की शिक्षा पद्धति व्यवसायमूलक न होकर पुस्तकीय है। इस कारण छात्र जीवन की वास्तविकताओं का सामना करने में असमर्थ रहता है। वह अध्ययन करने में अपना बहुत समय व्यतीत कर देता है किन्तु इससे उसे जब रोजगार नहीं मिल पाता तब वह अत्यन्त निराशा की स्थिति को प्राप्त हो जाता है।

उपसंहार – समाज से शिक्षित बेरोजगारी को दूर करने का उपाय है कि शिक्षा मनुष्य को वास्तविक जीवन का सामना करने की क्षमता प्रदान करे,रोजगार – परक हो। युवा भी परिश्रम करने की आदत विकसित करें। कर्म में विश्वास करके छोटा, बड़ा जैसा भी कार्य मिले उसका पूरी निष्ठा,परिश्रम और ईमानदारी से निर्वाह करें। दूसरों के द्वारा दिए गए प्रलोभन में न फंसकर स्वयं रोजगार के अवसरों की तलाश करें। अतः स्वविवेक और क्षमता के अनुसार कार्य करने वाला मनुष्य कभी बेरोजगार नहीं रह सकता है। कहा भी गया है – “चरन् वै मधुविन्दन्ति चरन् स्वादुमुदुम्बरं पश्य सूर्यस्य श्रेमाणं यो न तन्द्रयते चरन्।” अर्थात् निरन्तर कार्य करने वाला मनुष्य ही जीवन के मधुर फल का आस्वादन करता है। सूर्य को देखिए वह चमकने में कभी प्रमाद नहीं करता।

18. भ्रष्टाचार : समस्या और निदान [2014]

“आचार संहिता के भारत में कैसा कलयुग आया
देव सदृश मानव था उसमें घोर पतन है आया।
राजनीति में और समाज में चहुँओर वही है छाया
भ्रष्टाचार – लिप्त जनमानस कैसा दुर्दिन आया।”

विस्तृत रूपरेखा
(1) प्रस्तावना,
(2) भ्रष्टाचार का कारण,
(3) भ्रष्टाचार के निवारण के उपाय,
(4) उपसंहार।

प्रस्तावना – भारत आचार संहिता का जनक कहा जाता है। जब विश्व में अज्ञान का अन्धकार छाया था तब भारत ने ही उनमें ज्ञान,नीति और आचार का प्रबोध कर प्रकाश जगाया। विश्व को आचार का पाठ पढ़ाने वाले भारत के ऐसे भी दुर्दिन आएँगे सम्भवतः तत्कालीन नीति – विशारदों ने इसकी कल्पना भी नहीं की होगी। आज जब हम अपने देश के किसी भी क्षेत्र में चाहे वह राजनीतिक हो, सामाजिक हो,शैक्षिक हो अथवा आर्थिक, दृष्टि डालें तो हर स्थान पर भ्रष्टाचार का बोलबाला दिखाई देता है। आज कोई भी कार्य कराना सरल बात नहीं है। नौकरी पानी है तो मोटी रकम रिश्वत में दो। स्थानान्तरण कराना है तो पहले सम्बन्धित अधिकारियों का मुँह पैसे से भरो। किसी कार्य हेतु अनापत्ति प्रमाण – पत्र लेना हो तो श्रृंखलाबद्ध तरीके से अधिकारियों की मुट्ठी गरम करो, महीनों प्रतीक्षा करो, तब जाकर कहीं कोई कार्य सम्पन्न हो सकता है।

भ्रष्टाचार का कारण – आज भ्रष्टाचार समाज में एक जटिल समस्या के रूप में फल – फूल रहा है। रक्तबीज की भाँति जन – जन के भीतर उत्पन्न होता जा रहा है। यह सब देखकर प्रश्न उठता है कि भ्रष्टाचार का कारण क्या है? इस प्रश्न पर विचार करने के लिए हमें समाज की स्थिति के विषय में जानकारी लेना अति आवश्यक है। इसको पनपाने में देश के नेता,उद्योगपति और पूँजीपति जिम्मेदार हैं। श्रमिकों के घोर परिश्रम की कमाई पर अधिकार उद्योगपति जमाता है और उसको केवल उतना देता है जिससे वह केवल प्राणधारण किए रह सके। अपने अधभूखे और अधनंगे परिवार को देखकर उसके मन में विद्रोह की ज्वाला सुलगनी स्वाभाविक है। नेता जनता का धन चूसकर स्वयं ऐशो – आराम की जिन्दगी जीते हैं और अपनी आगे वाली पीढ़ियों के लिए भी धन सुरक्षित करके रख लेते हैं। ऐसे में कुछ लोग उन शोषित लोगों की भावनाओं का लाभ उठाकर उनसे धन लेकर उन्हें अच्छी – अच्छी नौकरियों का प्रलोभन देते हैं। एक व्यक्ति जब किसी से धोखा खाता है तब बदले की भावना से वह दूसरे के साथ भी वही करता है जो उसके साथ हुआ। परिणामतः लोगों की आत्मा मरती गई और स्वेच्छाचार बढ़ता गया। देखते – देखते पूरा समाज भ्रष्टाचार के दलदल में लिप्त हो गया और अब तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह जीवन का एक अनिवार्य अंग बन गया है। बिना पैसे दिये हमारे देश में कम से कम कोई कार्य हो नहीं सकता।

भ्रष्टाचार के निवारण के उपाय – भ्रष्टाचार का निवारण हो सके इसके लिए सबसे पहले शिक्षा में सुधार होना अति आवश्यक है। मानव अपने – अपने आचरण को सुधारे जिसे वह पुस्तकों में पढ़ता है उसे जीवन में उतारना सीखे। अतः आवश्यकता है कि मनुष्य अपनी योग्यताओं, क्षमताओं को पहचाने और झूठे प्रलोभन में न फंसकर ईमानदारी पर डटा रहै। अपने चरित्रबल को प्रमुखता दे। कहा भी गया है कि यदि धन गया तो कुछ नहीं गया। यदि स्वास्थ्य गया तो कुछ हानि हुई किन्तु यदि चरित्र नष्ट हो गया तो इन्सान जीते जी ही मर गया। अतः मनुष्य को अपने चरित्र को ऊँचा उठाने के लिए भरसक प्रयत्न करना चाहिए।

उपसंहार – जिस प्रकार समाज में भ्रष्टाचार की जड़ें फैलाने वाले हम लोग ही हैं। उसी प्रकार उसका मूलोच्छेदन करने वाले भी हम ही होंगे। कहते हैं यदि सुबह का भूला शाम को घर वापस आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते। इसी प्रकार पहले हम चाहें कैसे भी रहे हों किन्तु आज से ही यदि हम अपने – अपने सुधार का संकल्प ले लें तो भ्रष्टाचार स्वयमेव ही समाप्त हो जाएगा। कहा भी गया है कि

“अपना अपना करो सुधार। तभी मिटेगा भ्रष्टाचार॥”

19. महँगाई की समस्या [2016]

“जब आदमी के हाल पे आती है मुफलिसी।
किस – किस तरह से उसको सताती है मुफलिसी॥”

विस्तृत रूपरेखा –
(1) प्रस्तावना,
(2) कृषि – उत्पादन,
(3) प्रशासन की उदासीनता,
(4) आयात नीति,
(5) जनसंख्या में वृद्धि,
(6) मुद्रा का प्रसार,
(7) घाटे का बजट,
(8) अव्यवस्थित वितरण प्रणाली,
(9) धन का असमान वितरण,
(10) समस्या का निदान,
(11) उपसंहार।

प्रस्तावना – भारत में इस समय जो आर्थिक समस्याएँ विद्यमान हैं, उनमें महँगाई एक प्रमुख समस्या है। भारत में पिछले दो दशकों में सभी वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों में अत्यन्त तीव्रता से वृद्धि हुई है। वृद्धि का यह चक्र आज भी गतिवान है।

भारत में अधिकांश वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि के बहुत से कारण हैं। इन कारणों में अधिकांश आर्थिक कारण हैं,किन्तु कुछ कारण गैर – आर्थिक भी हैं। इन कारणों में से प्रमुख रूप से उल्लेखनीय कारण निम्नलिखित हैं

कषि – उत्पादन – कृषि पदार्थों की कीमतों में निरन्तर वृद्धि का एक प्रमुख कारण उन समस्त वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों में वृद्धि है जो कृषि के लिए आवश्यक है। कृषि उर्वरकों के मूल्यों में वृद्धि, सिंचाई की दरों में वृद्धि, बीज के दामों में वृद्धि, कृषि मजदूरों की मजदूरी की दर में वृद्धि आदि कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिनमें वृद्धि होने से स्वाभाविक रूप से ही उसका प्रभाव कृषि – पदार्थों पर पड़ता है।

भारत में अधिकांश वस्तुओं का मूल्य प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कृषि पदार्थों के मूल्यों से सम्बन्धित है। यही कारण है कि जब किसी भी कारण से या कई कारणों से कृषि होती है तो उसके परिणामस्वरूप देश में अधिकांश वस्तुओं के मूल्य प्रभावित हो जाते हैं।

प्रशासन की उदासीनता – साधारणतः प्रशासन के स्वरूप पर यह निर्भर करता है कि देश में अर्थव्यवस्था एवं मूल्य – स्तर सन्तुलित होगा या नहीं। प्रभावशाली प्रशासक होने से कृत्रिम रूप से वस्तुओं और सेवाओं की पूर्ति में कमी करना व्यापारियों के लिए कठिन हो जाता है। अतः उस परिस्थिति में कीमतों में निरन्तर एवं अनियन्त्रित रूप में वृद्धि करना अत्यन्त कठिन हो जाता है।

आयात नीति – कभी – कभी आयात सम्बन्धी गलत नीति के फलस्वरूप भी देश में वस्तुओं की कमी एवं कीमतों में अत्यधिक वृद्धि हो जाती है। यह सही है कि देश में जहाँ तक सम्भव हो, आयात कम होना चाहिए विशेष रूप में उपयोग की वस्तुओं का आयात अधिक नहीं होना चाहिए। किन्तु यदि देश में वस्तुओं की पूर्ति माँग की तुलना में कम हो तो आयात की आवश्यकता होती है। यदि इन वस्तुओं का आयात न किया जाये तो माँग और पूर्ति में असन्तुलन होगा। पूर्ति जितनी कम होगी,वस्तुओं के दाम उतने ही बढ़ेंगे।

जनसंख्या में वृद्धि – भारत में जनसंख्या तीव्रता से एवं अनियन्त्रित रूप में बढ़ रही है। जनसंख्या के इस विशाल आकार की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सभी वस्तुओं और सेवाओं का बड़े आकार में होना अनिवार्य है। दुर्भाग्य से,भारत में कृषि और उद्योग के क्षेत्र में उतनी तीव्रता से उन्नति एवं उत्पादन की वृद्धि नहीं हो रही, जितनी की जनसंख्या में वृद्धि हो रही है। इसका स्वाभाविक परिणाम अधिकांश वस्तुओं और सेवाओं की कमी है, इसी के परिणामस्वरूप अधिकांश वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों में निरन्तर वृद्धि जारी है।

MP Board Solutions

मुद्रा का प्रसार भारत में मुद्रा – प्रसार की प्रवृत्ति तृतीय योजना के प्रारम्भिक काल से ही बनी हुई है। मुद्रा – प्रसार के बहुत से कारण रहे हैं, किन्तु उसका परिणाम एक ही रहा है – मूल्यों में वृद्धि। यद्यपि सरकार की ओर से बार – बार यह आश्वासन दिया जाता रहा है कि मुद्रा – प्रसार को अब कम कर दिया जायेगा एवं इस प्रवृत्ति को रोका जायेगा। किन्तु अभी तक इस दिशा में कोई महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हो सक – प्रसार को यदि नियन्त्रण में कर लिया जाये तो उससे मूल्य – स्तर को नियन्त्रण में रखना सरल हो जाता है।

घाटे का बजट – भारत में बजट और पूँजी – निर्माण की जो स्थिति है वह योजनाओं को पूरा करने के लिए बिल्कुल पर्याप्त नहीं है। अतः इस कमी को दूर करने के लिए, अन्य उपायों के अतिरिक्त घाटे की बजट प्रणाली को अपनाया जाने लगा है। पिछले कई बजटों में इस पद्धति को अपनाया गया है, जिससे अधिकांश वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों में तेजी से वृद्धि हुई है।

अव्यवस्थित वितरण प्रणाली – भारत में अधिकतर विक्रेता संगठित हैं। इसके परिणामस्वरूप वह आपस में मिलकर वस्तुओं की खरीद,संचय एवं बिक्री के विषय की नीति का निश्चय करते हैं। धीरे – धीरे वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि होने लगती है। यदि सरकार इन प्रवृत्तियों को रोकने में असमर्थ होती है तो यह संस्थाएँ मूल्यों को निरन्तर बढ़ाती जाती हैं, जिससे उपभोक्ताओं को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

धन का असमान वितरण – भारत में आर्थिक असमानता बहुत बड़े आकार में विद्यमान है। धन के असमान वितरण का विशेष रूप से उन वस्तुओं के मूल्यों पर प्रभाव पड़ता है जिनकी माँग तो बहुत अधिक है, किन्तु पूर्ति अत्यन्त सीमित। इनमें विलासिता की वस्तुएँ एवं कीमती वस्तुएँ भी शामिल हैं। रोजगार की कमी एवं मूल्यों में वृद्धि से निर्धनों को जीवन – यापन की अधिकतर वस्तुओं और साधनों को जुटाना कठिन हो जाता है।

समस्या का निदान –
(1) कृषि पर अधिक ध्यान देना,
(2) सिंचाई की सुविधा,
(3) वितरण प्रणाली में बदलाव,
(4) भ्रष्टाचार पर अंकुश।

उपसंहार कृत्रिम अभाव के सृजन एवं मूल्यों में निरन्तर वृद्धि से कालाबाजारी एवं अत्यधिक लाभ कमाने की प्रवृत्ति बढ़ती है। भारत में भी यह प्रवृत्ति अभी तक विद्यमान है। यह दोनों ही प्रवृत्तियाँ देश की अर्थव्यवस्था को अवांछित रूप से प्रभावित करती हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि सरकार की ओर से प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रयासों के द्वारा इन प्रवृत्तियों को रोकने का बराबर प्रयास किया जा रहा है, किन्तु इस दिशा में अभी पूरी सफलता प्राप्त नहीं हो सकी है। लोकमंगल की भावना एवं पवित्र मन से यथार्थ प्रयास करने से ही इसका निदान सम्भव है। यदि हम सभी परिश्रम से कार्य करें, उत्पादन अधिक बढ़ाएँ और मितव्ययिता से जीवन को चलाने की आदत डालें,तो महँगाई की समस्या का हल हमें अपने आप ही मिल सकता है।

20. भारतीय समाज में नारी का स्थान
अथवा [2009, 12, 14, 15, 17]
भारतीय नारी

“नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत पग – पग तल में।
पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में।”

विस्तृत रूपरेखा
(1) प्रस्तावना,
(2) प्राचीन भारतीय नारी,
(3) मध्यकाल में नारी,
(4) आधुनिक नारी,
(5) उपसंहार।]

प्रस्तावना – सृष्टि के आदिकाल से ही नारी की महत्ता अक्षुण्ण है। नारी सृजन की पूर्णता है। उसके अभाव में मानवता के विकास की कल्पना असम्भव है। समाज के रचना – विधान में नारी के माँ,प्रेयसी, पुत्री एवं पली अनेक रूप हैं। वह सम परिस्थितियों में देवी है, तो विषम परिस्थितियों में दुर्गा भवानी। वह समाज रूपी गाड़ी का एक पहिया है जिसके बिना समग्र जीवन ही पंगु है। सृष्टि चक्र में स्त्री – पुरुष एक – दूसरे के पूरक हैं।

मानव जाति के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होगा कि जीवन में कौटुम्बिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, साहित्यिक, धार्मिक सभी क्षेत्रों में प्रारम्भ से ही नारी की अपेक्षा पुरुष का आधिपत्य रहा है। पुरुष ने अपनी इस श्रेष्ठता और शक्ति – सम्पन्नता का लाभ उठाकर स्त्री जाति पर मनमाने अत्याचार किये हैं। उसने नारी की स्वतन्त्रता का अपहरण कर उसे पराधीन बना दिया। सहयोगिनी या सहचरी के स्थान पर उसे अनुचरी बना दिया और स्वयं उसका पति, स्वामी, नाथ, पथ – प्रदर्शक और साक्षात् ईश्वर बन गया।

प्राचीन भारतीय नारी – प्राचीन भारतीय समाज में नारी – जीवन के स्वरूप की व्याख्या करें तो हमें ज्ञात होगा कि वैदिक काल में नारी को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। वह सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक सभी क्षेत्रों में पुरुष के साथ मिलकर कार्य करती थी। रोमशा और लोपामुद्रा आदि अनेक नारियों ने ऋग्वेद के सूत्रों की रचना की थी। रामायण काल (त्रेता) में भी नारी की महत्ता अक्षुण्ण रही। रानी कैकेयी ने राजा दशरथ के साथ युद्ध – भूमि में जाकर उनकी सहायता की। इस युग में सीता, अनुसुइया एवं सुलोचना आदि आदर्श नारी हुईं। महाभारत काल (द्वापर) में नारी पारिवारिक, सामाजिक एवं राजनीतिक गतिविधियों में पुरुष के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने लगीं। इस युग में नारी समस्त गतिविधियों के संचालन की केन्द्र – बिन्दु थी। द्रोपदी,गान्धारी और कुन्ती इस युग की शक्ति थीं।

मध्यकाल में नारी – मध्य युग तक आते – आते नारी की सामाजिक स्थिति दयनीय बन गयी। भगवान बुद्ध द्वारा नारी को सम्मान दिये जाने पर भी भारतीय समाज में नारी के गौरव का ह्रास होने लगा था। फिर भी वह पुरुष के समान ही सामाजिक कार्यों में भाग लेती थी। सहभागिनी और समानाधिकारिणी का उसका रूप पूरी तरह लुप्त नहीं हो पाया था। मध्यकाल में शासकों की काम – लोलुप दृष्टि से नारी को बचाने के लिए प्रयत्न किये जाने लगे। परिणामस्वरूप उसका अस्तित्व घर की चहारदीवारी तक ही सिमट कर रह गया। वह कन्या रूप में पिता पर, पत्नी के रूप में पति और माँ के रूप में पुत्र पर आश्रित होती चली गयी। यद्यपि इस युग में कुछ नारियाँ अपवाद रूप में शक्ति – सम्पन्न एवं स्वावलम्बी थीं; फिर भी समाज सामान्य नारी को दृढ़ से दृढ़तर बन्धनों में जकड़ता ही चला गया। मध्यकाल में आकर शक्ति स्वरूपा नारी ‘अबला’ बनकर रह गयी। मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में –

“अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,
आँचल में है दूध और आँखों में पानी।”

भक्ति काल में नारी जन – जीवन के लिए इतनी तिरस्कृत, क्षुद्र और उपेक्षित बन गयी थी कि कबीर, सूर, तुलसी जैसे महान् कवियों ने उसकी संवेदना और सहानुभूति में दो शब्द तक नहीं कहे। कबीर ने नारी को ‘महाविकार’, ‘नागिन’ आदि कहकर उसकी घोर निन्दा की। तुलसी ने नारी को गँवार, शूद्र, पशु के समान ताड़ना का अधिकारी कहा –

‘ढोल गँवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी।

आधुनिक नारी – आधुनिक काल के आते – आते नारी चेतना का भाव उत्कृष्ट रूप से जाग्रत हुआ। युग – युग की दासता से पीड़ित नारी के प्रति एक व्यापक सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण अपनाया जाने लगा। बंगाल में राजा राममोहन राय और उत्तर भारत में महर्षि दयानन्द सरस्वती ने नारी को पुरुषों के अनाचार की छाया से मुक्त करने को क्रान्ति का बिगुल बजाया। अनेक कवियों की वाणी भी इन दुःखी नारियों की सहानुभूति के लिए अवलोकनीय है। कविवर सुमित्रानन्दन पन्त ने तीव्र स्वर में नारी स्वतन्त्रता की माँग की –

“मुक्त करो नारी को मानव, चिर बन्दिनी नारी को।
युग – युग की निर्मम कारा से, जननी, सखि, प्यारी को।”

आधुनिक युग में नारी को विलासिनी और अनुचरी के स्थान पर देवी, माँ, सहचरी और प्रेयसी के गौरवपूर्ण पद प्राप्त हुए। नारियों ने सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक एवं साहित्यिक सभी क्षेत्रों में आगे बढ़कर कार्य किया। विजयलक्ष्मी पण्डित कमला नेहरू,सुचेता कृपलानी,सरोजिनी नायडू, इन्दिरा गाँधी,सुभद्राकुमारी चौहान,महादेवी वर्मा आदि के नाम विशेष सम्मानपूर्ण हैं।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत सरकार ने नारियों की स्थिति सुधारने के लिए अनेक प्रयल किये हैं। हिन्दू विवाह और कानून में सुधार करके उसने नारी और पुरुष को समान भूमि पर लाकर खड़ा कर दिया। दहेज विरोधी कानून बनाकर उसने नारी की स्थिति में और भी सुधार कर दिया। लेकिन सामाजिक एवं आर्थिक स्वतन्त्रता ने उसे भोगवाद की ओर प्रेरित किया है। आधुनिकता के मोह में पड़कर वह आज पतन की ओर जा रही है।

MP Board Solutions

उपसंहार – इस प्रकार उपर्युक्त वर्णन से हमें वैदिक काल से लेकर आज तक नारी के विविध रूपों और स्थितियों का आभास मिल जाता है। वैदिक काल की नारी ने शौर्य, त्याग, समर्पण, विश्वास एवं शक्ति आदि का आदर्श प्रस्तुत किया। पूर्व मध्यकाल की नारी ने इन्हीं गुणों का अनुसरण कर अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखा। उत्तर – मध्यकाल में अवश्य नारी की स्थिति दयनीय रही, परन्तु आधुनिक काल में उसने अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त कर लिया है। उपनिषद,पुराण,स्मृति तथा सम्पूर्ण साहित्य में नारी की महत्ता अक्षुण्ण है। वैदिक युग में शिव की कल्पना ही ‘अर्द्ध नारीश्वर’ रूप में की गयी। मनु ने प्राचीन भारतीय नारी के आदर्श एवं महान् रूप की व्यंजना की है। “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता…” अर्थात् जहाँ पर स्त्रियों का पूजन होता है वहाँ देवता निवास करते हैं। जहाँ स्त्रियों का अनादर होता है, वहाँ नियोजित होने वाली क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं। स्त्री अनेक कल्याण का भाजन है। वह पूजा के योग्य है। स्त्री घर की ज्योति है। स्त्री गृह की साक्षात् लक्ष्मी है। यद्यपि भोगवाद के आकर्षण में आधुनिक नारी पतन की ओर जा रही है, लेकिन भारत के जन – जीवन में यह परम्परा प्रतिष्ठित नहीं हो पायी है। आशा है भारतीय नारी का उत्थान भारतीय संस्कृति की परिधि में हो। वह पश्चिम की नारी का अनुकरण न करके अपनी मौलिकता का परिचय दे।

MP Board Class 12th Hindi Solutions

MP Board Class 12th General Hindi Model Question Paper

MP Board Class 12th General Hindi Model Question Paper

Time : 3 Hours
Maximum Marks: 100

निर्देशः

  • सभी प्रश्न अनिवार्य हैं।
  • प्रश्न क्रमांक 1 से 5 तक वस्तुनिष्ठ प्रश्न हैं। प्रत्येक प्रश्न के लिए 5 अंक आवंटित हैं। उपप्रश्न पर 1 अंक आवंटित है।
  • प्रश्न क्रमांक 6 से 15 तक प्रत्येक प्रश्न के लिए 2-2 अंक आवंटित हैं। प्रत्येक का उत्तर लगभग 30 शब्दों में लिखिए।
  • प्रश्न क्रमांक 16 से 21 तक प्रत्येक प्रश्न के लिए 3-3 अंक आवंटित हैं। प्रत्येक का उत्तर लगभग 75 शब्दों में लिखिए।
  • प्रश्न क्रमांक 22 से 24 तक प्रत्येक प्रश्न के लिए 4-4 अंक आवंटित हैं। प्रत्येक का उत्तर लगभग 120 शब्दों में लिखिए।
  • प्रश्न क्रमांक 25 से 27 तक के लिए 5-5 अंक आवंटित हैं। प्रत्येक का उत्तर लगभग 150 शब्दों में लिखिए।
  • प्रश्न क्रमांक 28 के लिए 10 अंक आवंटित हैं। शब्द सीमा लगभग 200-250 शब्द है।

1. उचित शब्दों का चयन कर रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए: [1 x 5 = 5]
(i) सूरदास की भक्ति ____________ भाव की है। (दास्य/साख्य)
(ii) नगर शोभा में दोहों की संख्या ____________ है। (142/152)
(iii) सुभद्रा कुमारी चौहान का काव्य संग्रह ह ____________ (त्रिधारा/पंचधारा)
(iv) हिन्दी निबन्ध का उद्भव काल ____________ युग है। (भारतेन्दु/द्विवेदी)
(v) एक से अधिक अर्थ देने वाले शब्द ____________ कहलाते हैं। (एकार्थी/अनेकार्थी)
उत्तर-
(i) साख्य
(ii) 142
(iii) त्रिधारा
(iv) भारतेन्दु
(v) अनेकार्थी

2. सही विकल्प चुनकर लिखिए: [1 x 5 = 5]
(i) गोपालसिंह नेपाली का जन्म सन् है
(अ) 1932 (ब) 1902 (स) 1904 (द) 1911
(ii) सवा-सवा लाख पर एक को चढ़ाने की घोषणा की
(अ) गुरु नानक (ब) अर्जुन सिंह (स) गोविन्द सिंह (द) तेग बहादुर
(iii) साठ हजार हाथियों से अधिक बलराशि का स्वामी
(अ) दारा (ब) शाहजहाँ (स) औरंगजेब (द) हुमायू
(iv) कर्मधारय समास का उदाहरण है
(अ) अष्टांग (ब) दोराहा (स) माता-पिता (द) कनकलता
(v) ‘बाल बाँका न होना’ का अर्थ है
(अ) हानि होते होते बचना (ब) कुछ भी हानि न होना (स) कुछ भी असर न होना (द) कम असर होना
उत्तर-
(i) 1902
(ii) गोविन्द सिंह
(iii) दारा
(iv) कनकलता
(v) कुछ भी हानि न होना

3. सत्य/असत्य का चयन कर लिखिए: [1 x 5 = 5]
(i) ‘प्रभावती’ निराला का काव्य संकलन है।
(ii) मेषमाता बकरी को कहते हैं।
(iii) निष्ठामूर्ति कस्तूरबा संस्मरण विधा है।
(iv) निबन्ध मन की सहज और उन्मुक्त उड़ान है।
(v) अड्यार पुस्तकालय केरल में है।
उत्तर-
(i) असत्य
(ii) असत्य
(ii) सत्य
(iv) सत्य
(v) सत्य

4. सही जोड़ी बनाइये: [1 x 5 = 5]

5. एक वाक्य में उत्तर दीजिए: [1 x 5 = 5]
(i) धरती का ताज किसे कहा है
(ii) देवेन्द्र दीपक का जन्म किस सन् में हुआ?
(iii) प्रक्रिया सामग्री का तकनीकी शब्द क्या है?
(iv) अर्थ की दृष्टि से वाक्य के कितने भेद होते हैं?
(v) ‘दक्षिण भारत की एक झलक’ के लेखक कौन हैं?
उत्तर-
(i) हिमालय
(ii) 31 जुलाई 1934
(iii) सॉफ्टवेयर
(iv) आठ
(v) आचार्य विनय मोहन शर्मा

6. निम्नलिखित शब्दों के दो-दो पर्यायवाची शब्द लिखिए:
चंद्रमा, बादल, हवा, पानी
उत्तर-
पर्यायवाची शब्द
(i) चंद्रमा → निशाकर, मयंक।
(ii) बादल → मेघ, नीरद।
(iii) हवा → पवन, वायु।
(iv) पानी → नीर, जल।
अथवा

निर्देशानुसार वाक्य परिवर्तन कीजिए:
(i) वह फल खरीदने के लिए बाजार गया। (संयुक्त वाक्य)
(ii) स्वावलंबी व्यक्ति सदा सुखी रहते हैं। (संयुक्त वाक्य)
उत्तर-
(i) उसे फल खरीदने थे, इसलिए वह बाजार गया।
(ii) जो व्यक्ति स्वावलंबी होते हैं, वे सदा सुखी रहते हैं।

7. समास विग्रह कर नाम लिखिए: (कोई दो)
(i) सत्यग्रह
(ii) कमलचयन
(iii) माता-पिता
(iv) नवरत्न
उत्तर-
(i) सत्याग्रह = सत्य के लिए आग्रह (तत्पुरुष समास)
(ii) कमलनयन = कमल के समान नयन (कर्मधारय समास)
(iii) माता-पिता = माता और पिता (द्वन्द्व समास)
(iv) नवरत्न = नौ रत्नों का समूह (द्विगु समास)
अथवा

मुहावरों का अर्थ लिखकर वाक्य में प्रयोग कीजिए: (कोई दो)
(i) गज भर की छाती होना
(ii) सूरज को दीपक दिखाना
(ii) सिर धुनना
उत्तर-
(i) गज भर की छाती होना = बलवान होना।
वाक्य प्रयोग-रमेश की गज भर की छाती है।

(ii) सूरज को दीपक दिखाना = मूर्खतापूर्ण व्यवहार करना।
वाक्य प्रयोग-विश्वविख्यात कथावाचक के सम्मुख मुकेश ने कुछ तर्क
किया, जो सूरज को दीपक दिखाने जैसा हुआ

(iii) सिर धुनना = पश्चाताप करना।
वाक्य प्रयोग-हायर सेकेण्ड्री की परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने पर अरुण ने अपना सिर धुन लिया।
मकरंद : हिंदी सामान्य

8. संक्षेपण किसे कहते हैं?
उत्तर-
संक्षेपण की परिभाषा-संक्षेपण वह कला है जिसके द्वारा किसी वक्तव्य को, किसी विषय को कम-से-कम शब्दों में प्रस्तुत किया जाए तो भी वह स्वयं में पूर्ण हो। उसमें मूल का न कोई अंश छूटता है और न ही उसक
अनिवार्य आशय के समझने में कोई न्यूनता आती है।
अथवा
भाव पल्लवन कीजिए:
“दूर के ढोल सुहावने होते हैं”
उत्तर-
भाव पल्लवनः आज के परिवेश में आधुनिकता की मानसिकता, फैशन, बनावटी दिखावा से घिरे हुए व्यक्ति की वास्तविकता का सम्यक् पता नहीं चल पाता। हम उसके बाह्य स्वरूप को देखकर आकर्षित हो जाते हैं। उसके मौलिक, विचारों, गुणों से पूर्णतः अनभिज्ञ रहते हैं।

9. अशुद्ध वाक्यों को शुद्ध कीजिए:
(i) रानी पन्द्रह अगस्त में भाषण बोलेगी।
(ii) मैं गीता पढ़ा हूँ
उत्तर-
(i) रानी पन्द्रह अगस्त को भाषण देगी।
(ii) मैंने गीता पढ़ी है।

अथवा
रचना के आधार पर वाक्य के कितने भेद होते हैं नाम लिखिए।
उत्तर-
रचना के आधार पर वाक्य तीन प्रकार के होते हैं
(i) साधारण वाक्य
(ii) संयुक्त वाक्य
(iii) मिश्र वाक्य

10. कोई चार तकनीकी शब्द लिखिए।
उत्तर-
(i) अनुवांशिकी
(ii) पारिस्थितिकी
(iii) जीवाश्म
(iv) विकिरण।
अथवा
निम्नलिखित शब्दों के विलोम शब्द लिखिए:
(i) आवश्यक
(ii) परिष्कृत
(iii) स्वाधीन
(iv) प्रशंसा
उत्तर-
विलोम शब्दः
(i) आवश्यक = अनावश्यक
(ii) परिष्कृत = दूषित
(iii) स्वाधीन = पराधीन
(iv) प्रशंसा = निंदा।

11. अनेकार्थी शब्दों के अलग-अलग अर्थ लिखकर वाक्यों में प्रयोग कीजिए:
(i) घटा (ii) अंक
उत्तर-
(i) घटा = बादल
वाक्य प्रयोग- आकाश में घटा छाई है।
घटा = कम हुआ
वाक्य प्रयोग- अब जाके दाल का मूल्य घटा।

(ii) अंक = गोद
वाक्य प्रयोग- माँ शिशु को अंक में बिठाए हुए है।

अंक = अध्याय
वाक्य प्रयोग- इस नाटक के सात अंक हैं।
अथवा
समोच्चारित शब्दों का अर्थ लिखकर वाक्य में प्रयोग कीजिए: –
(i) अवधि – अवधी
(ii) अविराम – अभिराम
उत्तर-
(i) अवधि = समय
वाक्य प्रयोग- प्रश्न पत्र हल करने की अवधि 3 घंटे की है।

अवधी = एक भाषा
वाक्य प्रयोग- तुलसीदास अवधी भाषा के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं।

अविराम = लगातार
वाक्य प्रयोग- मोहन ने अविराम चलकर अल्प समय में अपने गन्तव्य पर पहुँच गया।

अभिराम = सुंदर
वाक्य प्रयोग- कमलों से युक्त यह सरोवर अभिराम लग रहा है।

12. सिरचन कौन सी वस्तुएँ बनाना जानता था?
उत्तर-
सिरचन मोथी घास और पटेर की रंगीन शीतलपाटी, बाँस की तीलियों की झिलमिलाती चिक, मोढ़े, मूंज की रस्सी के बड़े-बड़े जाले, ताल के पत्तों की छतरी-टोपी आदि बनाना जानता था।
अगवा
बाबू गुलाबराय ने किन परिस्थितियों में स्वयं को नारायण कहा है?
उत्तर-
नारायण का निवास स्थान जल में है और बाबू गुलाबराय का घर भी वर्षा के कारण जल में डूबा हुआ था, ऐसी स्थिति में लेखक स्वयं को नारायण समझने लगा था।

13. चन्द्रकांत किस सभ्यता व रहन-सहन का प्रेमी था?
उत्तर-
चंद्रकांत अंग्रेजी सभ्यता व रहन-सहन का प्रेमी था।
अथवा
मंत्री जी उदास क्यों थे?
उत्तर-
देश के राजा नि:संतान चल बसे थे। तब राजा किसे चुना जाए, इसी फ़िक्र में मंत्री जी उदास थे।

14. विषय के आधार पर निबन्ध को कितने भागों में बाँटा गया है? नाम लि खिए।
2 उत्तर-
निबंध के प्रकार
(i) साहित्यिक (ii) सांस्कृतिक (iii) सामाजिक (iv) ऐतिहासिक (v) व्यक्तिनिष्ठ (vi) वस्तुनिष्ठ
अथवा
हिन्दी निबन्ध का विकास क्रम लिखिए।
उत्तर-
हिन्दी निबंध का विकास क्रम
(i) भारतेंदुयुगीन निबंध
(ii) द्विवेदीयुगीन निबंध
(iii) शुक्लयुगीन निबंध
(iv) शुक्लयुगोत्तर निबंध
(v) सामयिक निबंध – 1940 से अब तक।

15. व्यास शैली से क्या आशय है?
उत्तर-
व्यास शैली में लेखक निबंधों के तथ्यों को खोलता हुआ चला जाता है। उन्हें विभिन्न तर्को उदाहरणों के द्वारा व्याख्यायित करता चला जाता है। वर्णनात्मक और तुलनात्मक तथा विवरणात्मक निबंधों में निबंधकार इसी प्रकार की शैली का प्रयोग करता है।
अथवा
किन्हीं चार अप्रवासी हिन्दी निबन्धकारों के नाम लिखिए।
उत्तर-
निबंधकारों के नाम
(i) प्रभाकर श्रोत्रिय
(ii) प्रदीप मांडव
(iii) चंद्रकांत वांदिवडेकर
(iv) सुधीश पचौरी

16. यशोदा ने देवकी को क्या संदेशा भेजा?
उत्तर-
यशोदा ने देवकी को संदेश भेजा कि मैं तो कृष्ण का पालन-पोषण करने वाली धाय हूँ। मेरी आपसे विनती है कि आप कृष्ण पर ममता, दया करती रहना। उसके प्रति कठोरता का व्यवहार कभी न करना। कृष्ण को उसका प्रिय माखन-रोटी ही खाने को देना। वह बड़ी मुश्किल से स्नान करता है, अतः उसकी सभी फरमाइशों को पूरा करके स्नान कराना। कृष्ण संकोची स्वभाव का है। वह कुछ नहीं बोलेगा, अतः उसकी मनोवृत्ति व आदतों का ध्यान रखना।

अथवा
रहीम ने समुद्र के जल की अपेक्षा कुएँ के जल को श्रेष्ठ क्यों बताया है?
उत्तर-
रहीम ने समुद्र और कुएँ के जल में कुएँ के जल को श्रेष्ठ बताया है। उन्होंने कहा- यद्यपि कुआँ आकार में छोटा होता है, लेकिन प्यासा कुएँ के पास ही जाकर अपनी प्यास बुझाता है। समुद्र आकार में बड़ा है, लेकिन प्यासा उसके जल से प्यास नहीं बुझा सकता है, वह प्यासा ही रह जाता है। अतः कवि ने समुद्र जल की अपेक्षा कुएँ को श्रेष्ठ बताया है।

17. छत्रसाल की बरछी की विशेषताएँ लिखिए?
उत्तर-
विशेषताएँ-छत्रसाल की बरछी नागिन के समान है। वह अपने शत्रुओं की चुन-चुनकर मारती है। वह अपने शत्रुओं के बख्तर को फाड़कर उनके शरीर में इस प्रकार घुस जाती है, जैसे मछली जल की धारा को चीरकर आगे बढ़ जाती है।
अथवा
“हम कहाँ जा रहे हैं” कविता के माध्यम से कवि क्या संदेश देना चाहते हैं? उत्तर ‘हम कहाँ जा रहे हैं’ से कवि संदेश देना चाहता है कि भारतीय सभ्यता, संस्कृति, उसकी परंपराएँ, व्यवहार, उपलब्धियाँ और जीवन मूल्य सर्वश्रेष्ठ हैं। हमें पाश्चात्य जीवन-शैली और वस्तुओं को नहीं अपनाना चाहिए। हमें भारतीय ही बने रहना चाहिए, क्योंकि इसी में हमारा कल्याण है।

18. कवि गोपालसिंह नेपाली ने गंगाजल की क्या विशेषताएँ बतलाई हैं?
उत्तर-
गंगाजल की बहत बडी विशेषता है कि वह बहत ही पवित्र है। उसको पीने वाला दुःख में भी मुस्कुराता रहता है। यही नहीं, इसको पीने वाला तो हर प्रकार के दुःखों को हँसते-हँसते सहन कर जाता है।
अथवा
पंचतत्व के किन गुणों को माँ धारण किए हुए है?
उत्तर-
पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल और वायु पाँच तत्व होते हैं। माँ इन सभी गुणों को धारण किए हुए है। माँ पृथ्वी का गुण धैर्य, आकाश के गुण चैतन्य अथवा प्रकाश को, अग्नि के गुण तीव्रता, पवन की गतिमयी व्यापकता तथा जल के गुण गंभीरता को धारण किए हुए हैं।

19. मोमबत्ती बुझने के बाद परिवेश में क्या-क्या परिवर्तन हुआ?
उत्तर-
मोमबत्ती बुझने के बाद पूर्णिमा के चाँद की चाँदनी दरवाजे और खिड़की से झाँकती हुई पूरे कमरे में फैल गई। सारा परिवेश प्रकाशमय हो गया।
अथवा
दुनिया में कौन सी दो अमोघ शक्तियाँ मानी गई हैं? कस्तूरबा की निष्ठा किसमें अधिक थी?
उत्तर-
दुनिया में शब्द और कृति दो अमोघ शक्तियाँ मानी गई हैं। शब्दों ने तो सारी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। किंतु अंतिम शक्ति तो ‘कृति’ की है। कस्तूरबा ने इन दोनों शक्तियों से ही अधिक श्रेष्ठ शक्ति कृति की नम्रता के साथ उपासना करके संतोष माना और जीवन सिद्धि प्राप्त की।

20. अखबार में जबलपुर की कौन सी घटना छपी थी?
उत्तर-
अखबार में जबलपुर की घटना छपी थी कि कल रात एकाएक खूब पानी बरसा। जेल के पास के नाले में तीन गरीब बच्चे बह गए। उन तीनों की लाशें मिलीं। बहुत कोशिश करने पर भी इनकी शिनाख्त नहीं हो सकी दो लड़कियाँ हैं और एक लड़का। ऐसा सुना गया है कि वे गाना गाकर भीख माँगा करते थे।
अथवा
देवेन्द्र दीपक के अनुसार पुस्तक की समीक्षा किस प्रकार की जाती है?
उत्तर-
लेखक देवेन्द्र दीपक के अनुसार पुस्तक की समीक्षा बेबाक होती है और प्रायः – प्रायोजित होती है। समीक्षा में अक्सर एक अनावश्यक लंबी भूमिका होती है। इसमें पुस्तक के अंदर जो कुछ भी है, उसकी चर्चा कम होती है तथा जो नहीं है उसकी चर्चा अधिक होती है। दूसरे शब्दों में पुस्तक की समीक्षा ठीक प्रकार से नहीं होती है।

21. गाँधीजी का शिक्षा के प्रति क्या दृष्टिकोण था?
उत्तर-
गाँधी जी का शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण था कि जो शिक्षा चरित्र निर्माण की भावना और कर्तव्य की भावना उत्पन्न करे, वही सर्वश्रेष्ठ है। केवल अक्षर ज्ञान शिक्षा नहीं है। सच्ची शिक्षा तो चरित्र-निर्माण और कर्त्तव्य-बोध है।
अथवा
स्थितप्रज्ञता कैसे प्राप्त होती है?
उत्तर-
मन को किसी परम उच्च में लगा देने से स्थिर प्रज्ञता प्राप्त होती है। जैसे लोक-संग्रह के कार्य में, राष्ट्रभक्ति में, दीन-दु:खियों की सेवा में।

22. शरीरबल और आत्मबल में लेखक ने किसे श्रेष्ठ माना है आज विश्व कल्याण के लिए दोनों में से कौन सा अधिक उपयोगी है
उत्तर-
शरीरबल और आत्मबल में से आत्मबल को लेखक ने श्रेष्ठ माना है। आज विश्वकल्याण के लिए दोनों में से आत्मबल सर्वाधिक उपयोगी है।
अथवा
केरल के गाँवों की कौन सी विशेषताएँ हैं उत्तर-केरल के गाँव की विशेषताएँ-केरल के गाँव की गलियाँ साफ-सुथरी रहती हैं। केरल के गाँवों में बिजली की पूर्ण व्यवस्था है। गाँव बिजली की रोशनी से चमचमाते रहते हैं। केरल के गाँवों में डाकखाना, दवाखाना, और स्कूल की समुचित व्यवस्था है। केरल के गाँवों में हिन्दी का प्रचार और प्रसार बहुत है। यहाँ हिन्दी परीक्षा की अनिवार्य भाषा है।

23. “माँ बस यह वरदान चाहिए” कविता में देश की जय के लिए कवि किस भाव के आकांक्षी हैं?
उत्तर-
‘माँ बस यह वरदान चाहिए’ कविता में कवि देश की जय के लिए अपनी हार, स्वार्थ, त्याग, और बलिदान के भाव का आकांक्षी है।
अथवा
कवि जागो फिर एक बार में क्या उद्बोधन देते हैं?
उत्तर-
कवि ने ‘जागो फिर एक बार’ कविता में भारतीयों को उद्बोधन दिया है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के महासंग्राम में योद्धा की तरह संघर्ष करो। अपनी परिवर्ती परंपरा को अक्षुण्ण रखने वाले भारतीय को अपनी संपूर्ण कायरता को त्यागकर अपने पराक्रमी और पुरुषार्थी स्वरूप को जाग्रत करो। अपनी दासता के सम्पूर्ण बंधनों को तोड़ने के लिए उसे जागृत करना आवश्यक है।

24. निम्नलिखित पद्यांश की सन्दर्भ, प्रसंग सहित व्याख्या कीजिए:
साजि चतुरंग सैन अंग मैं उमंग धारि,
सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत हैं।
भूषन भनत नाद विहद नगारन के,
नदी नद मद गैबरन के रलत हैं।
ऐलफैल खैलभैल खलक में गैलगैल,
गजन की छैलपैल सैल उलसत हैं।
तारा सो तरनि धूरिधारा में लगत जिमि,
थारा पर पारा पारावार यों हलत है ॥
उत्तर-
इसी पुस्तक का पृष्ठ संख्या 89-90 देखें।
अथवा
तप मेरे मोहन का उद्धव धूल उड़ाता आया,
हाय विभूति रमाने का भी मैंने योग न पाया,
सूखा कण्ठ, पसीना छूटा मृग-तृष्णा की माया,
झुलसी दृष्टि, अँधेरा दीखा, टूट गई वह छाया,
मेरा ताप और तप उनका
जलती है यह जठर मही॥
उत्तर-
इसी पुस्तक का पृष्ठ संख्या 218-219 देखें।

25. निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर दिये गये प्रश्नों के उत्तर दीजिए: [1 + 1 + 1 + 235]
समय एक अमूल्य निधि है, जीवन संग्राम में सफल होने के लिए समय का सदुपयोग परम आवश्यक है। अक्सर लोग समय की तुलना धन से करते हैं, लेकिन समय धन से अधिक मूल्यवान है। धन तो एक साधन मात्र है, परन्तु समय सब कुछ है। धन नष्ट भी हो जाये तो पुनः प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु नष्ट किए समय को प्राप्त करना असंभव है। जो मनुष्य समय नष्ट करता है समय उसे नष्ट कर देता है।
(i) उपर्युक्त गद्यांश का सार्थक शीर्षक लिखिए।
(ii) जीवन में सफल होने के लिए क्या आवश्यक है
(iii) सबसे अधिक मूल्यवान क्या है
(iv) उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
उत्तर-
(i) गद्यांश का शीर्षक – समय का सदुपयोग।
(ii) जीवन में सफल होने के लिए समय का सदुपयोग परम आवश्यक है।
(iii) सबसे अधिक मूल्यवान धन नहीं समय है।
(iv) सारांश-समय अमूल्यनिधि है। समय की तुलना धन से नहीं की जा सकती। नष्ट धन की तो दुबारा प्राप्त कर सकते हैं, समय को नहीं। अतः समय का सदुपयोग करना परमावश्यक हैं।

26. निम्नलिखित अपठित पद्यांश को पढ़कर प्रश्नों के उत्तर दीजिए: [2 + 1 + 2 = 5]
रवि जग में शोभा सरसाता,
सोम सुधा बरसाता,
सब हैं जग कर्म में कोई,
निष्क्रिय दृष्टि न आता,
है उद्देश्य नितान्त तुच्छ,
तृण के भी लघु जीवन का
उसी पूर्ति में वह करता है,
अंत कर्ममय तन का।
(i) उपर्युक्त पद्यांश का शीर्षक लिखिए।
(ii) तृण का जीवन कैसा है
(iii) उपर्युक्त पद्यांश का सारांश लिखिए।
उत्तर-
(i) पद्यांश का शीर्षक-कर्म की प्रधानता।
(ii) तृण का जीवन तुच्छ है।
(iii) सारांश-संसार में छोटा-बड़ा सभी प्राणी कर्मरत है। प्रकृति भी कर्मरत – है। कोई कहीं खाली नहीं बैठा। सब अपने कार्य का निर्वाह करते हैं, मरते दम तक।

27. थाना प्रभारी को पत्र लिखकर ध्वनि विस्तारक यंत्रों पर रोक लगाने का अनुरोध कीजिए।
उत्तर-
सेवा में,
थाना प्रभारी, सदर बाजार
जबलपुर (म.प्र.)
विषय-ध्वनि विस्तारक यंत्रों पर रोक लगाने हेतु प्रार्थना-पत्र।

महोदय,
निवेदन है कि मैं सदर बाजार जबलपुर का निवासी महेश चंद्र आपसे अनुरोध करता हूँ कि मैं आई.ए.एस. परीक्षा की तैयारी कर रहा हूँ, साथ ही अन्य छात्र भी अपनी-अपनी कक्षाओं की पढ़ाई में लगे हैं। ऐसे में आए दिन प्रचार-प्रसार की गाड़ियाँ, जगह-जगह पर होने वाले कार्यक्रमों में बजने वाले ध्वनि विस्तारक यंत्रों की तेज आवाज हमारी पढ़ाई में व्यवधान डालते हैं, अत: इन पर कुछ रोक लगाने की कृपा करें, ताकि हम अपनी पढ़ाई कर सकें। अति कृपा होगी।

भवदीय
महेश चंद्र
निवास-ए-120 सदर बाजार
जबलपुर (म.प्र.)

दिनांक: 02. 04. 20xx

अथवा

परीक्षा की तैयारी की सूचना हेतु मित्र को पत्र लिखिए।
उत्तर-
175, शिवाजी मार्ग
भोपाल (म.प्र.)
05. 06. 20xx
प्रिय मित्र अंकुर

सप्रेम नमस्कार!
आपका पत्र मुझे दिनांक 25. 05. 20xx को प्राप्त हुआ। पढ़कर मन प्रसन्न हुआ। मैं यहाँ सकुशल हूँ। आशा है आप भी ईश्वर की कृपा से प्रसन्न होंगे। मित्रवर! आजकल मैं अपनी परीक्षा की तैयारी में व्यस्त हूँ। मेरी सी.ए. की मकरंद हिंदी सामान्य परीक्षा जुलाई मास में होने वाली है। मैंने पाठ्यक्रम की सम्यक् तैयारी कर ली है। इस आधार पर मैं आपको विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि मैं प्रथम श्रेणी में अच्छे अंक लेकर उत्तीर्ण होऊँगा। आशा है कि इससे आप भी प्रसन्न होंगे।
आपके माता-पिता को मेरा सादर प्रणाम।

आपका मित्र
सौरभ
वर्मा 28.

(अ) किसी एक विषय पर लगभग 200 से 250 शब्दों में निबन्ध लिखिए: [7 + 3 = 10]
(i) पर्यावरण संरक्षण : हमारा दायित्व
(ii) स्वच्छ भारत अभियान
(iii) स्वदेश प्रेम
(iv) स्वावलंबन
(v) राष्ट्र निर्माण में युवकों का योगदान
उत्तर-
इसी पुस्तक का निबंध वाला भाग देखें।
(ब) किसी एक विषय की रूपरेखा लिखिए :
(i) मेरे सपनों का भारत
(ii) राष्ट्रीय त्यौहार
(iii) जल ही जीवन है
(iv) महिला सशक्तिकरण
(v) विद्यार्थी और अनुशासन
उत्तर-
इसी पुस्तक का निबंध वाला भाग देखें।

MP Board Class 12th Hindi Solutions

MP Board Class 12th General Hindi पत्र-लेखन

MP Board Class 12th General Hindi पत्र-लेखन

पत्र-लेखन की आवश्यकता-हम सब अपने निकट संबंधियों, इष्ट मित्रों से बराबर सम्पर्क रखना चाहते हैं। जो हमारे, पास में ही रहते हैं, उनसे तो हम मिलते रहते हैं, किंतु जो हमसे दूर दूसरे नगर या गाँव में रहते हैं, उनको तो हम लिखकर ही अपनी कुशल-क्षेम भेज सकते हैं और लिखकर ही उनकी कुशल-क्षेम मँगा सकते हैं। इस प्रकार लिखकर विचारों का जो आदान-प्रदान किया जाता है, उसे पत्र-लेखन कहते हैं। विद्यालय में भी कई अवसरों पर हमें अपने प्राचार्य को प्रार्थना-पत्र लिखने पड़ते हैं। कभी-कभी हम अपने गाँव या नगर के बाहर के किसी पुस्तक विक्रेता से अपनी जरूरत की पुस्तकें भी मँगाते हैं। इसके लिए भी हमें पत्र लिखना पड़ता है। इस तरह हम यह कह सकते हैं कि पत्र व्यवहार हम सबके लिए अनिवार्य हो गया हैं।

MP Board Solutions

पत्र के प्रकार-पत्र के कई प्रकार हो सकते हैं, जिनमें निम्नलिखित प्रमुख

  1. निजी पत्र या घरेलू पत्र,
  2. कार्यालयीन पत्र,
  3. शासकीय पत्र,
  4. व्यापारिक पत्र।

1. कार्यालयीन पत्र-अपने संबंधियों, मित्रों को लिखे गए पत्र इसी श्रेणी में आते हैं। निमंत्रण-पत्र भी इसी श्रेणी में आते हैं।
2. कार्यालयीन पत्र-जिस कार्यालय में व्यक्ति काम करता है अथवा विद्यालय में अध्ययन कहता है, उस कार्यालय प्रधान या विद्यालय में प्राचार्य/प्राचार्या को लिखे जाने वाले पत्र इस श्रेणी में आते हैं।
3. शासकीय पत्र-शासकीय अधिकारियों को लिखे गए प्रार्थना-पत्र/आवेदन-पत्र, शिकायत-पत्र शासकीय आदेश आदि इस श्रेणी में आते हैं।
4. व्यापारिक पत्र-व्यापारियों को लिखे गए पत्र, सामान भेजने या मँगाने के लिए लिखे गए पत्र इस श्रेणी में आते हैं।
पत्र के भाग-साधारणतः पत्र के निम्नलिखित भाग होते हैं :

(क) पत्र भेजनेवाले का पता एवं तिथि-यह पत्र के प्रारंभ में दाहिनी ओर लिखा जाता है। उसके नीचे पत्र भेजने की तिथि लिखी जाती है,
जैसे-

89/19, तुलसीनगर,
भोपाल
25, दिसंबर, 2204

(ख) संबोधन तथा अभिवादन शब्द-जिस व्यक्ति को पत्र लिखा जाता है, उसे आदरसूचक, आशीर्वादसूचक शब्द के साथ अभिवादन या आशीर्वचन लिखा जाता है। यह पत्र के बायीं ओर लिखा जाता है। (अभिवादन और आशीर्वचन के विषय में आगे लिखा जा रहा है।)
(ग) विषय-यह पत्र का मुख्य अंग है। पत्र का विषय सरल भाषा में स्पष्ट रूप में लिखा जाना चाहिए। विषय को अनावश्यक विस्तार न दिया जाय।
(घ) पत्र के अंत में पत्र लिखनेवाला जिसे पत्र लिखता है, उसके प्रति, संबंधसूचक शब्द लिखकर अपना नाम लिखता है।
(ङ) पाने वाले का पता-पता पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय पत्र अथवा लिफाफे पर निश्चित स्थान पर लिखा जाता है। पता बिल्कुल शुद्ध और स्पष्ट होना चाहिए। पते के दो नमूने यहाँ दिए जा रहे हैं-
श्री आनन्द मोहन माथुर – श्री राधेश्याम शर्मा
आनन्द नगर, रेलवे कॉलोनी, – गाँव/पत्रालय कमतरी,
खण्डवा, पिन-450001 जिला आगरा (उ.प्र.)

पत्र का आरंभ, पत्र समाप्त करने की औपचारिक तालिका-
MP Board Class 12th General Hindi पत्र-लेखन img-1

प्राचार्य/प्राचार्या को लिखे जाने वाले आवेदन-पत्र

1. अपने विद्यालय के प्राचार्य को दो दिन का बीमारी के कारण अवकाश देने के लिए प्रार्थना-पत्र लिखिए।
सेवा में,
श्रीमान प्राचार्य महोदय,
शासकीय सुभाष उ.मा.वि.
शिवाजी नगर, भोपाल।

महोदय,
निवेदन है कि गत रात्रि से मैं सर्दी और बुखार से पीड़ित हूँ। डॉक्टर ने मुझे दो दिन पूर्ण विश्राम के लिए सलाह दी है। अतः मैं दो दिन विद्यालय में उपस्थित नहीं हो सकूँगा। कृपया दिनांक 8 एवं 9 अगस्त का अवकाश स्वीकृत करने का कष्ट करें।

धन्यवाद!

आपका आज्ञाकारी शिष्य
परसराम पाण्डेय,
कक्षा 9-ब

8-12-2004

MP Board Solutions

2. ‘वार्षिक परीक्षा की तैयारी की सूचना हेतु पिताजी को पत्र’

175, शिवाजी मार्ग
भोपाल
10-5-2004

पूज्य पिताजी!

सादर चरण-स्पर्श,
आपका कृपापत्र हमें 8-5-2004 को मिला। पढ़कर मन खुश हुआ। मैं आप सब पूज्य-वृन्दों के आशीर्वाद से सकुशल हूँ। आशा है कि आप सब भी परमात्मा की महाकृपा से ठीक से होंगे।

पूज्य पिताजी! आजकल मैं अपनी वार्षिक परीक्षा की तैयारी में अति व्यस्त हूँ। मेरी वार्षिक परीक्षा 20-5-2004 से आरंभ होने वाली है। अब तक मैंने हिंदी, अंग्रेजी, गणित, विज्ञान और सामाजिक विषयों की पूरी तरह से तैयारी कर ली है परीक्षा के दिन तक तो मुझे सारे विषय कंठस्थ हो जाएँगे। इस आधार पर मैं आपको यह विश्वास दिला रहा हूँ कि मैं प्रथम श्रेणी में अवश्य उत्तीर्ण हो जाऊँगा। आशा है कि इससे आप सबको आनंद और उल्लास होगा।

पूज्य माताजी को सादर चरण-स्पर्श और अनुज शशि को शुभाशीर्वाद।

आपका आज्ञाकारी पुत्र
‘रवि’

3. शाला (विद्यालय छोड़ने का प्रमाण-पत्र प्राप्त करने हेतु प्राचार्य महोदय को एक प्रार्थना-पत्र लिखिए।
विषय-शाला (विद्यालय) छोड़ने का प्रमाण-पत्र हेतु प्राचार्य को प्रार्थना-पत्र।

सेवा में,
प्राचार्य
राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय,
भोपाल (म.प्र.)

सविनय निवेदन है कि प्रार्थी आपके विद्यालय की कक्षा 9वीं ‘अ’ अनुक्रमांक 11 का भूतपूर्व छात्र है। प्रार्थी ने आपके विद्यालय से उपर्युक्त कक्षा को द्वितीय श्रेणी से उत्तीर्ण करके अध्ययन छोड़ दिया है जिसके प्रमाण-पत्र की आज अत्यंत आवश्यकता आ गई है। – अतः आपसे प्रार्थना है कि आप उपर्युक्त प्रमाण-पत्र देने की कृपा करें।

प्रार्थी
सुरेन्द्र कुमार
कक्षा 9 ‘अ’
अनुक्रमांक 11

दिनांक 4-4-2002

4. अपने पिताजी को पत्र लिखिए तथा उसमें मासिक जेब खर्च बढ़ाने की मांग कीजिए।
विषय-जेब खर्च बढ़ाने हेतु पिताजी को पत्र।

विष्णु गार्डन,
भोपाल
3-3-200…

पूज्य पिताजो,

सादर चरण-स्पर्श
आप सब सकुशल हैं, इसके लिए मैं परमात्मा से सदैव प्रार्थी हूँ, आपके पत्र की प्रतीक्षा करके मैं यह पत्र लिख रहा हूँ। आपको यह ज्ञात हो कि मेरी परीक्षा आगामी माह की 15वीं तारीख से आरंभ होने वाली है। इसके लिए मैंने जी-जान से अध्ययन आरंभ कर दिया है। कुछ पुस्तकें, कापियाँ और कुछ परीक्षोपयोगी आवश्यकताएँ आ गई हैं। इसलिए आप अब 50 रुपये और अधिक भेजते जाइएगा। ऐसा इसलिए कि परीक्षा खर्च के साथ-साथ आवागमन और सम्पर्क हेतु भी पैसे खर्च होंगे। अतएव आप 500 रुपये तो अवश्य बढ़ाकर भेजते रहियेगा। अन्यथा परीक्षा की तैयारी अधूरी रह जाएगी।

माताजी को सादर चरण-स्पर्श, अनुज, दिव्या को शुभाशीर्वाद

आपका आज्ञाकारी पुत्र
‘प्रभाकर’

5. अपने विद्यालय के प्राचार्य को निर्धन छात्र को पुस्तकालय से पुस्तकें प्रदान करने विषयक प्रार्थना-पत्र लिखिए।
विषय-प्राचार्य को निर्धन छात्र को पुस्तकालय से पुस्तकें हेतु प्रार्थना-पत्र।

सेवा में,
प्राचार्य राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय
इन्दौर (म.प्र.)

महोदय,
सविनय निवेदन है कि प्रार्थी आपके विद्यालय की कक्षा 9वीं ‘द’ का एक छात्र प्रतिनिधि है। प्रार्थी की कक्षा का एक छात्र ‘रमेश’ जिसका अनुक्रमांक 30 है। यह छात्र अत्यंत निर्धन है। यह अनाथ है। जिस किसी तरह से हिम्मत बाँधकर यह अपनी पढ़ाई कर रहा है। पढ़ने में तेज है। यह पुस्तकें खरीदने में असमर्थ है। अतः इसे पुस्तकालय से पुस्तकें दिलवाने की कृपा करें।

आपका आज्ञाकारी छात्र
सुरेश
कक्षा 9वीं ‘द’
अनुक्रमांक 23

दिनांक 22-5-200…

MP Board Solutions

6. शिक्षक पद हेतु एक आवेदन-पत्र संचालक शिक्षा विभाग के नाम लिखिए।

श्रीमान् संयुक्त संचालक महोदय,
शिक्षा विभाग
संभाग ग्वालियर (म.प्र.)
दिनांक 15-10-200…

सेवा में,
विषय-शिक्षक पद पर नियुक्ति हेतु आवेदन-पत्र।

महोदय,
सेवा में सविनय निवेदन है कि प्रार्थी को दैनिक-पत्र आचरण व स्वदेश में प्रकाशित एक विज्ञापन से ज्ञात हुआ है कि आपके अधीनस्थ ग्रामीण अंचलों के प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षकों के पद रिक्त हैं। अतः माध्यमिक विद्यालय हेतु शिक्षक पद पर नियुक्ति के लिए मैं अपना आवेदन-पत्र कर रहा हूँ। अतः आपसे अनुरोध है कि मेरी निम्नलिखित योग्यताओं को देखते हुए आप मेरी नियुक्ति शिक्षक पद पर करने की कृपा करें।

मेरी शैक्षणिक योग्यता का विवरण इस प्रकार है-
(1) शैक्षणिक योग्यता-बी.एस.सी.-द्वितीय श्रेणी
(2) प्रशिक्षण योग्यता-बी.एड.-द्वितीय श्रेणी
(3) हायर सेकेण्ड्री परीक्षा-प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण
(4) अन्य योग्यता-हॉकी व क्रिकेट खेल में विशेष रुचि
(5) प्रार्थी की जन्मतिथि एवं चरित्र का प्रमाण-पत्र प्रार्थना-पत्र के साथ संलग्न है। अतः श्रीमान् से पुनः निवेदन है कि प्रार्थी को विभाग में सेवा का अवसर प्रदान करें।
पता
दर्पण कॉलोनी ठाठीपुर मुरार।

प्रार्थी
कमल किशोर अष्ठाना

7. पाठ्य-पुस्तक निगम भोपाल से निर्धारित पाठ्य पुस्तकें मँगवाने हेतु एक पत्र संचालक के नाम लिखिए।

सुभाष उच्चतर माध्यमिक विद्यालय
रतलाम
दिनांक 7-7-200

श्रीमान् संचालक महोदय,
पाठ्य-पुस्तक महोदय,
भोपाल (म.प्र.)

महोदय,
सेवा में निवेदन है कि पाठ्य-पुस्तक निगम भोपाल (म.प्र.) द्वारा प्रकाशित कक्षा 9 की पुस्तकें हैं हमारे नगर के पुस्तक विक्रेताओं के पास उपलब्ध नहीं हैं। जिन दुकानों पर कुछ पुस्तकें हैं वे दुकानदार अधिक मूल्य पर पुस्तकें बेचना चाहते हैं। अतः आपसे निवेदन है कि निम्नलिखित विषयों की पुस्तकें शासकीय दर पर कमीशन काट कर भेजने की कृपा करें।

  1. विशिष्ट हिंदी कक्षा IX 1 प्रति
  2. विशिष्ट अंग्रेजी कक्षा IX 1 प्रति
  3. गणित कक्षा IX 1 प्रति
  4. भौतिक शास्त्र कक्षा IX 1 प्रति
  5. रसायन शास्त्र कक्षा IX 1 प्रति

भवदीय
अशोक कुमार गौड़

8. विद्यालय के प्राचार्य को एक आवेदन-पत्र अपनी शुल्क मुक्ति के लिए लिखिए।
श्रीमान् प्राचार्य महोदय
शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय जबलपुर

महोदय,
सेवा में सविनय निवेदन है कि प्रार्थी कक्षा IX’ब’ का नियमित छात्र है। इस वर्ष मैंने माध्यमिक शिक्षा मण्डल भोपाल द्वारा संचालित कक्षा IX की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की है। भौतिक शास्त्र और रसायन शास्त्र में मैंने विशेष योग्यता प्राप्त कर अपने विद्यालय का गौरव बढ़ाया है। . मैं एक निर्धन छात्र हूँ। पिताजी शासकीय सेवा से निवृत हो चुके हैं। परिवार में आय का साधन नहीं है। पूरा परिवार पिताजी की पेंशन शक्ति पर ही निर्भर है। इस कारण परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। अतः आपसे करबद्ध प्रार्थना है कि मुझे विद्यालय के शुल्क से मुक्त करने की कृपा करें।

आशा है कि आप मेरी निर्धन अवस्था पर ध्यानपूर्वक विचार कर मुझे कक्षा के सम्पूर्ण शुल्क से मुक्त करने की कृपा करेंगे।।

आपका आज्ञाकारी छात्र
मुरली मनोहर
पाठक
कक्षा IX ‘ब’

9. जन्मदिवस समारोह में सम्मिलित होने के लिए अपने मित्र को आमंत्रण पत्र लिखिए।

17/15 तिलक नगर
ग्वालियर
4 फरवरी, 200…

प्रिय मोहन,
तुम्हें यह जानकर प्रसन्नता होगी कि मैं दिनांक 6 फरवरी को अपना जन्मदिवस मना रहा। घर में इसके लिए अच्छी तैयारियाँ की गई हैं। इस अवसर पर चाय तथा संगीत पार्टी का भी आयोजन किया गया है। गत वर्ष तुम इस अवसर पर बीमार होने के कारण नहीं आ सके परंतु इस बार अवश्य आना। तुम्हारे बिना पार्टी का रंग फीका पड़ जाएगा। आशा है तुम समय से पूर्व आकर काम में भी हाथ बँटाओगे।

पूज्य पिताजी और माताजी को मेरा प्रणाम कहना।

तुम्हारा अभिन्न मित्र
रविन्द्र सिंह

MP Board Solutions

10. अपने क्षेत्र के स्वास्थ्याधिकारी के नाम क्षेत्र की गंदगी दूर करने के विषय में पत्र लिखिए।
विशेष-स्वास्थ्य अधिकारी को पत्र।

WZ-125, विष्णु गार्डन, भोपाल।

सेवा में,
स्वास्थ्य अधिकारी जी,
भोपाल नगर निगम,
क्षेत्रीय कार्यालय,
भोपाल।

मान्यवर,
मैं आपका ध्यान विष्णु गार्डन कॉलोनी की ओर दिलाना चाहता हूँ। इस कॉलोनी में आजकल गंदगी का साम्राज्य है। स्थान-स्थान पर कूड़े के ढेर लगे हुए हैं। नालियों में पानी सड़ रहा है। सड़क पर जगह-जगह गड्ढे हैं जिनमें वाहन फँस जाते हैं और पैदल चलने वाले ठोकर खाकर गिर जाते हैं। चारों ओर बदबू, गंदगी और मक्खी -मच्छरों का राज्य है। ऐसे वातावरण में हैजा और मलेरिया का डर है। सफाई कर्मचारी अपने काम में लापरवाही दिखा रहे हैं।।

आपसे अनुरोध है कि आप स्वयं इस क्षेत्र की सफाई व्यवस्था का निरीक्षण करें और उचित कार्यवाही के लिए निर्देश दें।

भवदीय
सुजान सिंह
मंत्री, ब्लाक समिति
विष्णु गार्डन, भोपाल।

11. क्षेत्रीय डाक मास्टर को अनियमित डाक के संबंध में शिकायती पत्र लिखिए।
विशेष-पोस्ट मास्टर को एक शिकायती पत्र अनियमित डाक के संबंध में। सेवा में,
पोस्ट मास्टर जनरल,
जनरल पोस्ट ऑफिस,
शिकनी नगर भोपाल,
विषय-डाक वितरण में अनियमतता।

महोदय,
इस पत्र के माध्यम से मैं आपका ध्यान अरेरा कॉलोनी क्षेत्र में डाक वितरण की अनियमितता के विषय में दिलाना चाहता हूँ। इस क्षेत्र में पिछले कई मास से डाक वितरण में अनियमितता देखने को मिल रही है। समय पर डाक न मिलने से बड़ी कठिनाई होती है।

इस क्षेत्र में नियुक्त पोस्ट मैन डाक वितरण कार्य ठीक प्रकार नहीं करता। वह प्रायः दो-तीन दिन में पत्र एक साथ ही डालता है। कभी-कभी आवश्यक पत्र भी बाहर बरामदे में फेंक देता है। वह पत्रों को खेलते हुए बच्चों के हाथ में फेंककर चला जाता है।

मुझे आशा है कि आप इस ओर समुचित ध्यान देकर डाक वितरण की अनियमितता को समाप्त करेंगे।

भवदीय
क ख ग
अरेरा कॉलोनी सुधार समिति
भोपाल

दिनांक-7-4-200…

12. पिता को पत्र लिखिए, जिसमें 300 रुपये पुस्तकों में और अन्य खर्चे के लिए मनीऑर्डर द्वारा मँगाइए।

15 टी.टी. नगर
भोपाल
दिनांक : 15-1-200…..

पूजनीय पिताजी,

सादर चरण-स्पर्श।
मैं यहाँ सकुशल हूँ। आशा करता हूँ कि आप सब लोग सकुशल होंगे। आपके निर्देशों का मैं पूरी तरह पालन कर रहा हूँ। मेरा ध्यान ठीक चल रहा है। मेरी छ:माही परीक्षाएँ 15-12 से हो रही हैं। मुझे कुछ पुस्तकें और स्टेशनरी आदि खरीदनी हैं। पढ़ाई के लिए मैं एक छोटा टेबिल लैंप भी लेना चाहता हूँ। इन सबके लिए लगभग : 300 रुपये की आवश्यकता पड़ेगी। अतः कृपया उक्त धनराशि यथाशीघ्र मनीऑर्डर द्वारा भेजने का कष्ट करिएगा।

शेष कुशल है। मधु को प्यार और माताजी को चरण-स्पर्श।

आपका आज्ञाकारी पुत्र
अमित

MP Board Solutions

13. फीस माफ कराने के लिए एक प्रार्थना-पत्र अपने विद्यालय के प्रधानाचार्य के नाम लिखिए।

सेवा में,
श्रीमान् प्रधानाचार्य जी,
रा.उ.मा. विद्यालय,
भोपाल।

महोदय,
नम्र निवेदन है कि मैं 9वीं कक्षा का एक परिश्रमी व मेधावी छात्र हूँ। गत वर्ष 8वीं कक्षा में मैंने सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया था। साथ ही मैं हॉकी टीम का कप्तान भी रह चुका हूँ। गत वर्ष मुझे हॉकी टूर्नामेंट में भेजा गया था। मुझे पढ़ने का अत्यंत शौक है। परंतु मेरे पिताजी मेरी पढ़ाई पर व्यय नहीं कर पाएँगे। क्योंकि उनकी मासिक आय केवल 400 रुपये है। घर के पाँच सदस्यों का जीवननिर्वाह बड़ी कठिनाई से चलता है। उनकी स्थिति बहुत ही दयनीय है। मैं पिताजी से फीस के पैसे माँगने की हिम्मत नहीं जुटा पाता क्योंकि वह पहले ही बड़ी कठिनाई में हैं। अतः आपसे करबद्ध प्रार्थना है कि मुझे पूर्ण शुल्कमुक्ति प्रदान करके मुझे इस संकट से उभारें। आपकी अनुकम्पा मेरे लिए वरदान बन सकती है। ऐसा मेरा विश्वास है आप मेरी सहायता अवश्य करेंगे।

धन्यवाद।
दिनांक : 20 जुलाई 200………….

आपका आज्ञाकारी शिष्य
क ख ग

MP Board Class 12th Hindi Solutions

MP Board Class 12th General Hindi निबंध-लेखन

MP Board Class 12th General Hindi निबंध-लेखन

1. दशहरा (विजयादशमी) अथवा एक भारतीय त्योहार

हमारे देश में विभिन्न धर्मों और जातियों के लोग रहते हैं। उनके विविध कर्म-संस्कार होते हैं। वे अपने कर्मों और संस्कारों को समय-समय पर विशेष रूप से प्रकट करते रहते हैं। इन रूपों को हम आए दिन, त्योहारों, पर्यो, आयोजनों में देखा करते हैं। इस प्रकार के अधिकांश तिथि, पर्व, त्योहार, आयोजन, उत्सव आदि सर्वाधिक हिंदुओं में होते हैं। हिंदुओं के जितने तिथि, त्योहार, पर्व, उत्सव आदि हैं उनमें दशहरा (विजयादशमी) का महत्त्व अधिक बढ़कर है। यह भी कहा जाना कोई अनुचित या अतिशयोक्ति नहीं है कि दशहरा (विजयादशमी) हिंदुओं का सर्वश्रेष्ठ पर्व, त्योहार या उत्सव है।

MP Board Solutions

दशहरा (विजयादशमी) का त्योहार सम्पूर्ण भारत में ही नहीं अपितु पूरे विश्व में हिंदू धर्म-मत के अनुयायी बड़े ही उल्लास और प्रयत्न के साथ मनाते हैं। यह आश्विन (क्वार) मास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा (एकम्) से पूर्णिमा (पूर्णमासी) तक बड़ी धूमधाम के साथ मनाया जाता है। अंग्रेजी तिथि-गणना के अनुसार यह त्योहार अक्टूबर माह में पड़ता है।

दशहरा (विजयादशमी) का त्योहार-उत्सव मनाने के कई कारण और मत हैं। प्रायः सभी हिंदु धर्मावलंबी इस धारण से इसे मनाते हैं कि इसी समय भगवान श्रीराम ने युग-युग सर्वाधिक अत्याचारी लंका नरेश रावण का अंत करके उसकी स्वर्णमयी नगरी लंका पर विजय प्राप्त की थी। चूँकि प्रतिपदा (एकम्) से लेकर दशमी तक (दस दिनों तक) लगातार भयंकर युद्ध करने के उपरांत ही श्रीराम ने रावण पर विजय प्राप्त की थी, इसलिए इसे विजयादशमी भी कहा जाता है। ‘दशहरा’ शब्द भी ‘विजयादशमी’ शब्द का पर्याय और प्रतीक है।

दशहरा (विजयादशमी) त्योहार, पर्व और पुण्य-तिथि के भी रूप में मनाया जाता है। मुख्य रूप से बंगाल-निवासी इसे महाशक्ति की उपासना-आराधना के रूप में मनाते हैं। उनका यह घोर विश्वास होता है कि इसी समय महाशक्ति दुर्गा ने असुरों का विध्वंस करके कैलाश पर्वत को प्रस्थान किया था। महाशक्ति की पूजा-उपासना, ध्यान-भक्ति आदि के द्वारा वे लगातार नौ दिनों तक अखंड पाठ और नवरातों तक पूजा के दीप जलाया करते हैं। इसलिए इसे लोग ‘नवरात’ भी कहते हैं। दुर्गा के अतिरिक्त अन्य देवी-देवताओं के भी व्रत, उपासना, पाठ, संकीर्तन आदि पुण्य कार्य-विधान इसी समय सभी श्रद्धालु अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए निष्ठा से करते हैं।

इस त्योहार के समय सबमें अद्भुत खुशी और उमंग की झलक होती है। प्रकृति देवी अपनी सुंदरता को सुखद हवा, वनस्पतियों के रंग-बिरंगे फूलों फसलों, फलों, और सभी जीवधारियों विशेष रूप से मनुष्यों के रौनकता और चंचलता के रूप में प्रकट करती हुई दिखाई पड़ती है। उधर मनुष्य भी अपनी विविध सौंदर्य-सज्जा से पीछे नहीं रहता है। दशहरा (विजयादशमी) के समय जगह-जगह मेलों, दंगलों, सभाओं,

हिन्दी व्याकरण
उद्घाटनों, प्रीतिभोजों, समारोहों आदि के कारण सारा वातावरण अपने आप में बन-ठनकर अधिक रोचक दिखाई देने लगता है।

दशहरा (विजयादशमी) के त्योहार का बहुत बड़ा संदेश है। वह यह कि सत्य और सदाचार की असत्य और दुराचार पर निश्चय ही विजय होती है। यह त्योहार हमें यह सिखलाता है कि हमें पूरी निष्ठा और श्रद्धा बनाए रखनी चाहिए। भारतीय सांस्कृतिक चेतना का अगर कोई वास्तविक त्योहार है तो सबसे पहले दशहरा (विजयादशमी) ही है।

2. समय का सदुपयोग (समय बहुमूल्य है)

महाकवि तलसी ने समय का महत्त्वांकन करते हुए लिखा है-

“का वर्षा जब कृषि सुखानी। समय चूकि पुनि का पछतानी।।”

अर्थात् समय के बीत जाने पर पछताने से कोई लाभ नहीं। दूसरे शब्दों में समय के रहते ही कुछ कर लेने का लाभ होता है। अन्यथा समय बार-बार नहीं मिलता गोस्वामी तुलसीदास के उपर्युक्त उपदेश पर विचारने से यह स्पष्ट हो जाता है कि समय का महत्त्व समय के सदुपयोग करने से ही होता है। केवल कथा-वार्ता, चर्चा, घटना-व्यापार आदि के अनुभवों के द्वारा हम अच्छी तरह से समझ जाते हैं कि समय का प्रभाव सबसे बड़ा होता है। दूसरे शब्दों में यह कि समय सबको प्रभावित करता है। समय के उपयोग से गरीबी अमीरी में बदल जाती है। असत्य सत्य सिद्ध हो जाता है। लघुता प्रभुता में बदल जाती है। इसी प्रकार यह कहा जा सकता है कि असंभव संभव में बदल जाता है। इसीलिए कोई भी प्रयत्नशील व्यक्ति-प्राणी समय का सदुपयोग करके मनोनुकूल दशा को प्राप्त करके चमत्कार उत्पन्न कर सकता है।

समय का प्रवाह बहते हुए जल-प्रवाह के समान होता है जिसे रोक पाना सर्वथा कठिन और असंभव होता है। इस तथ्य को बड़े ही सुस्पष्ट रूप से एक अंग्रेज विचारक ने इस प्रकार से व्यक्त किया है-

“Time and Tide wait for none.”

इसी प्रकार से समय के प्रभाव को स्पष्ट कर हए किसी अन्य अंग्रेज चिंतक ने ठीक ही सुझाव किया है कि समय सबसे बड़ा ध पर्म है। यही सबसे बड़ी पजा है। इसलिए सब प्रकार से महान् और सफल जीवन बिताने के लिए समय की पूजा-आराधना करने के सिवा और कोई चारा नहीं है-

“No religion is greater than time, time is the greatest dharma. So believe the time, worship the time if you want to live and if you want to survive.”

समय के महत्त्व को सभी महापुरुषों ने सिद्ध किया है। भगवान् श्रीकृष्ण सदुपदेश देते हुए स्वयं को सम्य (काल) की संज्ञा दी है। काल ही विश्व का कारण है। वही विश्व की रचना करता है, विकास करता है और वही इसका विनाश भी करता है। अतः काल ही काल का कारण है। काल ही महाकाल है। महाकाल ही अतिकाल है और अतिकाल ही विनाश, सर्वनाश, विध्वंस और नाश-विनाश को भी सदैव के लिए स्वाहा करने वाला है। इसलिए यह किसी प्रकार से आश्चर्य नहीं कि काल का अभिन्न स्वरूप सभी देव-शक्तियाँ, ब्रह्मा, विष्णु और महेश काल भी काल के प्रभाव से कभी दूषित, खोटे और निंदनीय कर्म में लिप्त होने से बच नहीं पाते हैं। फिर सामान्य प्राणी जनों की काल के सामने क्या बिसात है।

हम यह देखते हैं और अनुभव करते हैं कि काल अर्थात् समय का सदुपयोग करने वाले विश्व के एक से एक महापुरुषों ने समय के सदुपयोग को आदर्श रूप में व्यक्त किया है। समय का सदुपयोग ही अनंत संभावनाओं के द्वार को खोलता है और अनंत समस्याओं के समाधान को भी प्रस्तुत करता है। यही कारण है कि आज के वैज्ञानिकों ने अनंत असंभावनाओं को संभावनाओं में बदलते हुए सबके कान खड़े कर दिए हैं। इस प्रकार से यह कहा जा सकता है कि संभावनाओं की ओर आकर्षित होकर समय का सदुपयोग करने वाले निरंतर ही समय के एक-एक अल्पांश को किसी प्रकार से हाथ से निकलने नहीं देते हैं। ऐसा इसलिए कि वे भली-भाँति इस तथ्य के अनुभवी होते हैं-

“मुख से निकली बात और धनुष से निकला तीर कभी वापस नहीं आते।”

इसलिए समय का सदुपयोग करने से हमें कभी भी कोई चूक नहीं करनी चाहिए अन्यथा हाथ मल-मल कर पश्चाताप करने के सिवा और कुछ नहीं हो सकता हैं-

“अब पछताए क्या होत है, जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत।”

3. सिनेमा या चलचित्र

प्राचीन काल से लेकर अब तक मनुष्य ने अपने शारीरिक और मानसिक थकान और ऊब को दूर करने के लिए विभिन्न प्रकार के साधनों को तैयार किया है। प्राचीन काल में मनुष्य कथा, वार्ता, खेल-कूद और नाच-गाने आदि के द्वारा अपने तन और मन की थकान और ऊब को शांत किया करता था। धीरे-धीरे युग का परिवर्तन हुआ और मनुष्य के प्राचीन मनोरंजन और विनोद के साधनों में बढ़ोत्तरी हुई। आज विज्ञान के बढ़ते-चढ़ते प्रभाव के फलस्वरूप मनोरंजन के क्षेत्र में प्राचीन काल की अपेक्षा कई गुना वृद्धि हुई। पत्र, पत्रिकाएँ, नाटक, ग्रामोफोन, रेडियो, दूरदर्शन, टेपरिकॉर्डर, वी.सी.आर., वी.डी.ओ., फोटो कैमरा, वायरलेस, टेलीफोन सहित ताश, शतरंज, नौकायन, पिकनिक, टेबिल टेनिस, फुटबाल, वालीवाल, हॉकी, क्रिकेट सहित अनेक प्रकार की कलाएँ और प्रदर्शनों ने मानव द्वारा मनोरंजन हेतु आविष्कृत चौंसठ कलाओं में संवृद्धि की है। दूसरे शब्दों में कहना कि पूर्वकालीन मनोरंजन के साधन यथा-कथा, वार्ता, वाद-विवाद, कविता, संगीत, वादन, गोष्ठी, सभा या प्रदर्शन तो अब भी मनोरंजनार्थ हैं ही, इनके साथ ही कुछ अत्याधुनिक और नयी तकनीक से बने हुए मनोरंजन भी हमारे लिए अधिक उपयोगी हो रहे हैं। इन्हीं में से सिनेमा या चलचित्र भी हमारे मनोरंजन का बहुत बड़ा आधार है।

सिनेमा’ अंग्रेजी का मूल शब्द है जिसका हिंदी अनुवाद चलचित्र है अर्थात् चलते हुए चित्र। आज विज्ञान ने जितने भी हमें मनोरंजन के विभिन्न स्वरूप प्रदान किए हैं उनमें सिनेमा की लोकप्रियता बहुत अधिक है। इससे हम अब तक संतुष्ट नहीं हुए हैं और शायद अभी और कुछ युगों तक हम इसी तरह से संतुष्ट नहीं हो पाएँगे तो कोई आश्चर्य नहीं। कहने का भाव यह कि सिनेमा से हमारी रुचि बढ़ती ही जा रही है। इससे हमारा मन शायद ही कभी ऊब सके।

चलचित्र या सिनेमा का आविष्कार 19वीं शताब्दी में हुआ। इसके आविष्कारक टामस एल्बा एडिसन अमेरिका निवासी थे जिन्होंने 1890 में इसको हमारे सामने प्रस्तुत किया था। पहले-पहल सिनेमा लंदन में ‘कुमैर’ नामक वैज्ञानिक द्वारा दिखाया गया था। भारत में चलचित्र दादा साहब फाल्के के द्वारा सन् 1913 में बनाया गया। उसकी काफी प्रशंसा की गई। फिर इसके बाद न जाने आज तक कितने चलचित्र बने और कितनी धनराशि खर्च हुई; यह कहना कठिन है। लेकिन यह तो ध्यान देने का विषय है कि भारत का स्थान चलचित्र की दिशा में अमेरिका के बाद दूसरा अवश्य है। कुछ समय बाद यह सर्वप्रथम हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं।

अब सिनेमा पूर्वापेक्षा रंगीन और आकर्षक हो गया है। इसका स्वरूप अब न केवल नैतिक ही रह गया है अपितु विविध भद्र और अभद्र सभी अंगों को स्पर्श कर गया है। अतः सिनेमा स्वयं में बहुविविधता भरा एक अत्यंत संतोषजनक मनोरंजन का साधन सिद्ध होकर हमारे जीवन और दिलो-दिमाग में भली भाँति छा गया है, सिनेमा से हम इतने बंध गए हैं कि इससे हम किसी प्रकार मुक्त नहीं हो पाते हैं। हम भरपेट भोजन की चिंता न करके सिनेमा की चिंता करते हैं। तन की एक-एक आवश्यकता को भूलकर या तिलांजलि देकर हम सिनेमा देखने से बाज नहीं आते हैं। इस प्रकार सिनेमा आज हमारे जीवन को दुष्प्रभावित कर रहा है। इसके भद्दे, अश्लील और दुरुपयोगी चित्र समाज के सभी वर्गों को विनाश की ओर लिये जा रहे हैं। अतः समाज के सभी वर्ग बच्चा, युवा और वृद्ध, शिक्षित और अशिक्षित सभी भ्रष्टता के शिकार होने से किसी प्रकार बच नहीं पा रहे हैं।

MP Board Solutions

आवश्यकता इस बात की है कि हमें अच्छे चलचित्र को ही देखना चाहिए। बुरे चलचित्रों से दूर रहने की पूरी कोशिश करनी चाहिए। यही नहीं चरित्र को बर्बाद करने वाले चलचित्रों को विरोध करने में किसी प्रकार से संकोच नहीं करना चाहिए। यह भाव सबमें पैदा करना चाहिए कि चलचित्र हमारे सुख के लिए ही है।

4. किसी यात्रा का रोचक वर्णन या किसी पर्वतीय स्थान का वर्णन

जीवन में कुछ ऐसे भी क्षण आते हैं जिन्हें भूल पाना बड़ा कठिन हो जाता है। दूसरी बात यह कि जीवन में कुछ ऐसे भी अवसर मिलते हैं। जो अत्यधिक रोचक और आनंददायक बन जाते हैं। सभी की तरह मेरे भी जीवन में कुछ ऐसे अवसर अवश्य आए हैं जिनकी स्मृति कर आज भी मेरा मन बाग-बाग हो उठता है। उन रोचक और सरस क्षणों में एक क्षण मुझे ऐसा मिला जब मैंने जीवन में पहली बार एक पर्वतीय स्थान की सैर की।

छात्रावस्था से ही मुझे प्रकृति के प्रति प्रेमाकर्षण, प्रकृति के कवियों की रचनाओं को पढ़ने से पूर्वापेक्षा अधिक बढ़ता गया। प्रसाद, महादेवी, मुकुटधर पांडेय आदि की तरह कविवर सुमित्रानंदन पंत की रचनाओं ने हमारे बचपन में अंकुरित प्रकृति के प्रति प्रेम-मोह के जाल को और अधिक फैला दिया। इसमें मैं इतना फँसता गया कि मैंने यह निश्चय कर लिया कि कविवर सुमित्रानंदन पंत का पहाड़ी गाँव कौसानी एक बार अवश्य देखने जाऊँगा। ‘अगर मंसूबे मजबूत हों तो उनके पूरे होने में कोई कसर नहीं रहती है। यह बात मुझे तब समझ में आ गई जब मैंने एक दिन कौसानी के लिए यात्रा करने का निश्चय कर ही लिया।

गर्मी की छुट्टियाँ आ गई थीं। स्कूल दो माह के लिए बंद हो गया था। एक दिन मैंने अपने इष्ट मित्रों से कोई रोचक यात्रा करने की बात शुरू कर दी। किसी ने कुछ और किसी ने कुछ सुझाव दिया। मैंने सबको कौसानी नामक पहाड़ी गाँव की सैर करने की बात इस तरह से समझा दी कि इसके लिए सभी राजी हो गए। एक सुनिश्चित दिन में हम चार मित्र कविवर पंत की जन्मस्थली ‘कौसानी’ को देखने के लिए चल दिए। रेल और पैदल सफर करके हम लोग दिल्ली से सुबह चलकर ‘कौसानी’ को पहुंच गए। – हम लोगों ने देखा कि ‘कौसानी गाँव एक मैदानी गाँव की तरह न होकर बहुत टेढ़ा-मेढ़ा, ऊपर-नीचे बसा हुआ तंग गाँव है। तंग इस अर्थ में कि स्थान की कमी मैदानी गाँव की तुलना में बहुत कम है। यह बड़ी अच्छी बात रही कि हम लोगों का एक सुपरिचित और कुछ समय का सहपाठी कौसानी में ही मिल गया। अतएव उसने हम लोगों को इस पहाड़ी क्षेत्र की रोचक सैर करने में अच्छा दिशा-निर्देश दिया।

हम लोगों ने देखा इस पर्वतीय क्षेत्र-पर केवल पत्थरों का ही साम्राज्य है। लंबे-लंबे पेड़ों के सिर आसमान के करीब पहुँचते हुए दिखाई दे रहे थे। कहीं-कहीं लघु आकार में खेतों में कुछ फसलें थोड़ी-बहुत हरीतिमा लिये हुए थी; बिना मेहनत और संरक्षण के पौधों से फूलों के रंग-बिरंगे रूप मन को अधिक लुभा रहे थे। झाड़ियों के नामों-निशान कम थे फिर भी पत्थरों की गोद में कहीं-न-कहीं कोई झाड़ी अवश्य दीख जाती थी जिसमें पहाड़ी जीव-जंतुओं के होने का पता चलता था। उस पहाड़ी क्षेत्र में सैर के लिए बढ़ते हुए हम बहुत पतले और घुमावदार रास्ते पर ही जा रहे थे। ऐसा कोई रास्ता नहीं था जिसमें कोई चार पहिए वाला वाहन आ-जा सके। बहुत दूर एक ही ऐसी सड़क दिखाई पड़ी थी।

इस पर्वतीय क्षेत्र के निवासी हम लोगों को बड़ी ही हैरानी से देख रहे थे। उनका पत्थर जैसा शरीर बलिष्ठ और चिकना दिखाई देता था। वे बहुत सभ्य और सुशील दिखाई दे रहे थे। घूमते-टहलते हुए हम लोग एक बाजार में गए। वहाँ पर कुछ हम लोगों ने जलपान किया। उस जलपान की खुशी यह थी कि दिल्ली और दूसरे मैदानी शहरों-गाँवों की अपेक्षा सभी सामान सस्ते और साफ-सुथरे थे। धीरे-धीरे शाम हो गई। सूरज की डूबती किरणें सभी पर्वतीय अंग को अपनी लालिमा की चादर से ढक रही थीं। रात होते-होते एक गहरी चुप्पी और उदासी छा गई। सुबह उठते ही हम लोगों ने देखा कि वह सारा पर्वतीय स्थल बर्फ में कैद हो गया है। आसमान में रुई-सी बर्फ उड़ रही है। सूरज की आँखें उन्हें देर तक चमका रही थीं। कुछ धूप निकलने पर हम लोग वापस आ गए। आज भी उस यात्रा के स्मरण से मन मचल उठता है।

5. समाचार-पत्र या समाचार-पत्र का महत्त्व

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज की प्रत्येक स्थिति से प्रभावित होता है। दूसरी ओर वह भी अपनी गतिविधियों से समाज को प्रभावित करता है। आए दिन समाज में कोई घटना, व्यापार या प्रतिक्रिया अवश्य होती है। इन सबकी जानकारी देने में समाचार-पत्र की भूमिका बहुत बड़ी है। यह सत्य है कि इस प्रकार की खबरें तो हमें आज विज्ञान की कृपा से रेडियो, टेलीप्रिंटर, टेलीफोन और टेलीविजन के द्वारा अवश्य प्राप्त होती हैं। लेकिन समाचार-पत्र की तरह उनसे एक-एक खबर का हवाला संभव नहीं होता है। यही कारण आज विभिन्न प्रकार के संचार-संदेश के साधनों के होते हुए भी समाचार-पत्र का महत्त्व सर्वाधिक है।

समाचार-पत्र के जन्म के विषय यह आमतौर पर कहा जाता है कि इसका शुभारंभ सातवीं सदी में चीन में हुआ था। यह तो सत्य ही है कि हमारे देश में समाचार पत्र का शुभारंभ 18वीं शताब्दी में हुआ था। सन् 1780 ई. में बंगाल में ‘बंगाल गजट’ नामक समाचार पत्र प्रकाशित हुआ था। इसके बाद धीरे-धीरे हमारे देश के विभिन्न भागों से समाचार-पत्र निकलने लगे थे। यह निर्विवाद सत्य है कि हमारे देश में समाचार-पत्रों की संख्या युग-प्रवर्तक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के प्रचार-प्रसार के फलस्वरूप बढ़ती गई। सबसे अधिक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के हिंदी महत्त्व के लिए किए गए योगदानों के परिणामों से हिंदी समाचार-पत्रों की गति और संख्या में वृद्धि हुई।

हमारे देश में स्वतंत्रता के पश्चात् समाचार-पत्रों की संख्या में पूर्वापेक्षा दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि हुई। आज हमारे देश में समाचार-पत्रों की संख्या बहुत अधिक है। देश की प्रायः सभी भाषाओं में समाचार-पत्र आज धड़ल्ले से निकलते जा रहे हैं। आज के प्रमुख समाचार-पत्रों के कई रूप, प्रतिरूप दिखाई दे रहे हैं : दैनिक, सांध्य दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक-त्रैमासिक और छमाही (अर्द्धवार्षिक) सहित कुछ वार्षिक समाचार-पत्र भी प्रकाशित हो रहे हैं। मुख्य रूप से ‘नवभारत टाइम्स, ‘जनसत्ता’, ‘हिंदुस्तान’, ‘पंजाब केसरी’, ‘राष्ट्रीय सहारा’, ‘दैनिक ट्रिब्यून’, ‘अमृत बाजार पत्रिका’, ‘इंडियन एक्सप्रेस’, ‘स्टेट्समैन’, ‘वीर अर्जुन’, ‘राजस्थान पत्रिका’, ‘नयी दुनिया’, ‘समाचार मेल’, ‘आज’, ‘दैनिक जागरण’ आदि दैनिक पत्रों की बड़ी धूम है। ‘सांध्य टाइम्स’ आदि सांध्य-दैनिकों की बड़ी लोकप्रियता है। इसी तरह से समाचारों को प्रस्तुत करने वाली पत्रिकाओं की भी भरमार है। इनमें धर्मयुग, ब्लिट्स, सरिता, इंडिया टुडे, . माया, मनोहर कहानियाँ आदि हैं।

समाचार-पत्रों की उपयोगिता दिन-प्रतिदिन बढती जा रही है। समाचार-पत्रों के माध्यम से हमें न केवल राजनीतिक जानकारी हासिल होती है, अपितु सामाजिक, साहित्यिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक आदि गतिविधियों का भी ज्ञान हो जाता है। यही नहीं हमें देश और विदेश की पूरी छवि समाचार-पत्रों में साफ-साफ दिखाई देती है। इससे हम अपने जीवन से संबंधित किसी भी दशा से अछूते नहीं रह पाते हैं। इस प्रकार से हम यह कह सकते हैं कि समाचार-पत्र की उपयोगिता और महत्त्व निःसंदेह है। अतएव हमें समाचार-पत्र से अवश्य लाभ उठाना चाहिए।

6. विद्यार्थी और अनुशासन

मनुष्य समाज में रहता है। उसे समाज के नियमों और दायित्वों के अनुसार रहना पड़ता है। जो इस प्रकार से रहता है उसे अनुशासित कहते हैं। इस प्रकार के नियम और दायित्व को अनुशासन कहते हैं।

अनुशासन जीवन के प्रारंभ से ही शुरू हो जाता है। यह अनुशासन घर से शुरू होता है। बच्चे को उसके संरक्षक उचित और आवश्यक अनुशासन में रखने लगते हैं। इसे पारिवारिक अनुशासन कहते हैं। बच्चा जब बड़ा हो जाता है तब वह शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश करता है। उसे शैक्षिक नियमों-निर्देशों का पालन करना पड़ता है। इस प्रकार के नियम-निर्देश को ‘विद्यार्थी-अनुशासन’ कहा जाता है।

विद्यार्थी-अनुशासन का शुभारंभ विद्यालय या पाठशाला ही है। वह शिक्षा के सुंदर और शुद्ध वातावरण में पल्लवित और विकसित होता है। यहाँ विद्यार्थी को शिष्ट हिन्दी व्याकरण गुरुजनों की छत्रछाया में रहकर अनुशासित होकर रहना पड़ता है। यहाँ विद्यार्थी को अपने परिवार के अनुशासन से कहीं अधिक कड़े अनुशासन में रहना पड़ता है। इस प्रकार के अनुशासन में रहकर विद्यार्थी जीवन भर अनुशासित रहने का आदी बैन जाता है। इससे विद्यार्थी अपने गुरु की तरह योग्य और महान बनने की कोशिश करने लगता है। उसे किसी प्रकार के कड़े निर्देश-नियम या आदेश धीरे-धीरे सुखद और रोचक लगने लगते हैं। कुछ समय बाद वह जब अपनी पूरी शिक्षा पूरी कर लेता है तब वह समाज में प्रविष्ट होकर समाज को अनुशासित करने लगता है। इस प्रकार से विद्यार्थी जीवन का अनुशासन समाज को एक स्वस्थ और सबल अनुशासित स्वरूप देने में बहुत बड़ी भूमिका निभाता है।

MP Board Solutions

विद्यार्थी अनुशासन के कई अंग-स्वरूप होते हैं-नियमित और ठीक समय पर विद्यालय जाना प्रार्थना सभा में पहुंचना, कक्षा में प्रवेश करना, कक्षा में आते ही गुरुओं के प्रति अभिवादन, प्रणाम, साष्टांग दंडवत करना, कक्षा में पूरे मनोयोग से अध्ययन-मनन करना, बाल-सभा, खेल-कूद वाद-विवाद, जल-क्रीड़ा, गीत संगीत आदि में सनियम सक्रिय भाग लेना आदि विद्यार्थी-अनुशासन के ही अभिन्न अंग हैं। इससे विद्यार्थी अनुशासन की आग में पूरी तरह से तपता है। इससे विद्यार्थी पके हुए घड़े के समान टिकाऊ बनकर समाज को अपने अंतर्गत अनुशासन में मीठे जल का मधुर पान कराता है। इस प्रकार से विद्यार्थी-अनुशासन के द्वारा समाज एक सही और निश्चित दिशा की ओर ही बढ़ता है। वह अपने पूर्ववर्ती कुसंस्कारों और त्रुटियों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है। एक अपेक्षित सुंदर और सुखद स्थिति को प्राप्त कर अपने भविष्य को उज्ज्वल और समृद्ध बनाता है। यह ध्यान देने का विषय है कि विद्यार्थी अनुशासन को पाकर समाज के सभी वर्ग बालक, युवा और वृद्ध एवं शिक्षित व अशिक्षित सभी में एक अपूर्व सुधार-चमत्कार आ जाता है।

विद्यार्थी अनुशासन हमारे जीवन का सबसे प्रथम और महत्त्वपूर्ण अंग है। यह हमारे समाज की उपयोगिता की दृष्टि से तो और अधिक मूल्यवान और अपेक्षित है। अतएव हमें इस प्रकार से विद्यार्थी-अनुशासन में विश्वास और उत्साह दिखाना चाहिए। यह पक्का इरादा और समझ रखनी चाहिए कि विद्यार्थी-अनुशासन सभी प्रकार के अनुशासन का सम्राट है। यह अनुशासन सर्वोच्च है, यह अनुशासन सर्वव्यापी है। यह अनुशासन सर्वकालिक है। अतएव इसकी पवित्रता और महानता के प्रति समाज के सभी वर्गों को पूर्ण-रूप से प्रयत्नशील रहना चाहिए।

7. खेलों का महत्त्व

जिस प्रकार से शिक्षा मनुष्य के सांस्कृतिक और बौद्धिक मानस को पुष्ट . और संवृद्ध करती है उसी प्रकार से खेलकूद उसकी शारीरिक संरचना को अधिक प्रौढ़ और शक्तिशाली बनाते हैं। इन दोनों ही प्रकार के तथ्यों की पुष्टि करते हुए एक बार महात्मा गांधी ने कहा था-“By education, I mean, all round development of a child”. इस प्रकार के कथन का अभिप्राय यही है कि बच्चों का सर्वांगीण विकास होना चाहिए, अर्थात् बच्चों को शैक्षिक और सांस्कृतिक वातावरण के साथ-साथ शारीरिक वृद्धि हेतु खेल-कूद, व्यायाम आदि के वातावरण का भी होना आवश्यक है। इस तरह के विचारों को अनेक शिक्षाविदों, चिंतकों और समाज-सुधारकों ने व्यक्त किया है।

जीवन में खेलों के महत्त्व अधिक-से-अधिक रूप में दिखाई देते हैं। खेलों के द्वारा हमारे सम्पूर्ण अंगों की अच्छी-खासी कसरत हो जाती है। सभी मांसपेशियों पर बल पड़ता है। थकान तो अवश्य होती है। लेकिन इस थकान को दूर करने के लिए जब हम कुछ विश्राम कर लेते हैं तब हमारे अंदर एक अद्भुत चुस्ती और चंचलता आ जाती है। फिर हम कोई भी काम बड़ी स्फूर्ति और मनोवेगपूर्वक करने लगते हैं। खेलों से हमारी खेलों में अभिरुचि बढ़ती जाती है। इस प्रकार से हम श्रेष्ठ खिलाड़ी बनने का प्रयास निरंतर करते रहते हैं। खेलों को खेलने से न केवल खेलों के प्रति ही अभिरुचि बढ़ती है अपितु शिक्षा, कृषि, व्यवसाय, पर्यटन, वार्तालाप, ध्यान-पूजा आदि के प्रति भी हमारा मन एकदम केंद्रित होने लगता है।

खेलों के द्वारा हमारा मनोरंजन होता है। खेलों के द्वारा हमारा अच्छा व्यायाम . होता है। हमारे अंदर सहनशक्ति आने लगती है। हम संघर्षशील होने लगते हैं। ऐसा इसलिए कि खेलों को खेलते समय हमारे खेल के साथी हमको पराजित करना चाहते हैं और हम उन्हें पराजित कर अपनी विजय हासिल करना चाहते हैं। इस प्रकार से हम जब तक विजय नहीं प्राप्त करते हैं तब तक इसके लिए हम निरंतर संघर्षशील बने रहते हैं। इस तरह खेलों को खेलने से हमारी हिम्मत बढ़ती है। हम निराश नहीं होते हैं। हम आशावान बनकर एक कठिन और दुर्लभ वस्तु की प्राप्ति के लिए अपने विश्वास, अपने बल-तेज और अपने प्रयत्न को बढ़ाते चलते हैं। इस प्रकार इतने अपने पक्के इरादों की दौड़ से किसी अपने मंसूबों की प्राप्ति करके फूले नहीं समाते हैं। – खेलों के खेलने से हमारा अधिक और अपेक्षित मनोरंजन होता है। इससे हमारा चिड़चिड़ापन दूर हो जाता है। हमारे अंदर सरसता और मधुरता आ जाती है। हम अधिक विवकेशील, सरल और सहनशील बन जाते हैं। खेलों के खेलने से हमारा परस्पर सम्पर्क अधिक सुदृढ़ और घनिष्ठ बनता जाता है। फलतः हम एक उच्चस्तरीय प्राणी बन जाते हैं।

खेलों के खेलने से हमारे अंदर अनुशासन का वह अंकुर उठने लगता है जो जीवन भर पल्लवित और फलित होने से कभी रुकता नहीं है। ठीक समय से खेलना, नियमबद्ध होकर खेलना और ठीक समय पर खेले से मुक्त होना आदि सब कुछ नियम अनुशासन के सच्चे पाठ पढ़ाते हैं।

हम देखते हैं कि प्राचीनकालीन खेलों के अतिरिक्त मूर्तिकला, चित्रकला, नाट्यकला, संगीतकला आदि कलाएँ भी एक विशेष प्रकार के खेल ही हैं। जिनसे हमारा बौद्धिक और शारीरिक सभी प्रकार के विकास होते हैं। इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि विविध प्रकार के खेलों के द्वारा हमारा जीवन सम्पूर्ण रूप से महान् विकसित और कल्याणप्रद बन जाता है। इसलिए निःसंदेह हमारे जीवन में खेलों के अत्यधिक महत्त्व हैं। अतएव हमें किसी-न-किसी प्रकार के खेल में सक्रिय भाग लेकर अपने जीवन को समुन्नत और सर्वोपयोगी बनाना चाहिए।

8. विद्यालय का वार्षिकोत्सव

विद्यालय का वार्षिकोत्सव अन्य वार्षिकोत्सव के समान ही व्यापक स्तर पर होता है। यह उत्सव प्रतिवर्ष एक निश्चित समय पर ही होता है। इसके लिए सभी विद्यालय के ही सदस्य नहीं अपितु इससे संबंधित सभी सामाजिक प्राणी भी तैयार रहते हैं।

हमारे विद्यालय का वार्षिकोत्सव प्रति वर्ष 13 अप्रैल की बैसाखी के शुभावसर हिन्दी व्याकरण पर होता है। इसके लिए लगभग पंद्रह दिनों से ही तैयारी शुरू हो जाती है। हमारे . कक्षाध्यापक इसके लिए काफी प्रयास किया करते हैं। वे प्रतिदिन की होने वाली तैयारी और आगामी तैयारी के विषय में सूचनापट्ट पर लिख देते हैं। हमारे कक्षाध्यापक विद्यालय के वार्षिकोत्सव के लिए नाटक, निबंध, एकांकी, कविता, वाद-विवाद, खेल आदि के लिए प्रमुख और योग्य विद्यार्थियों के चुनाव कर लेते हैं। कई दिनों के अभ्यास के उपरांत वे योग्य और कुशल विद्यार्थियों का चुनाव कर लेते हैं। इस चुनाव के बाद वे पुनः छात्रों को बार-बार उनके प्रदत्त कार्यों का अभ्यास कराते रहते हैं।

प्रतिवर्ष की भाँति इस वर्ष भी हमारे विद्यालय के वार्षिकोत्सव के विषय में प्रमुख दैनिक समाचार-पत्रों में समाचार प्रकाशित हो गया। इससे पूर्व विद्यालय के निकटवर्ती सदस्यों को इस विषय में सूचित करते हुए उन्हें आमंत्रित कर दिया गया। प्रदेश के शिक्षामंत्री को प्रमुख अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया। जिलाधिकारी को सभा का अध्यक्ष बनाया गया। विद्यालय के प्रधानाचार्य को अतिथि-स्वागताध्यक्ष का पदभार दिया गया। हमारे कक्षाध्यापक को सभा का संचालक पद दिया गया।

विद्यालय के सभी छात्रों, अध्यापकों और सदस्यों को विद्यालय की पूरी साज-सज्जा और तैयारी के लिए नियुक्त किया गया। इस प्रकार के विद्यालय के वार्षिकोत्सव की तैयारी में कोई त्रुटि नहीं रहने पर इसकी पूरी सतर्कता रखी गई।

विद्यालय के वार्षिकोत्सव के दिन अर्थात् 13 अप्रैल बैसाखी के शुभ अवसर पर प्रातः 7 बजे से ही विद्यालय की साज-सज्जा और तैयारी होने लगती है। 8 बजते ही सभी छात्र, अध्यापक और सदस्य अपने-अपने सौंपे हुए दायित्वों को सँभालने लगते हैं। अतिथियों का आना-जाना शुरू हो गया। वे एक निश्चित सजे हुए तोरण द्वार से प्रवेश करके पंक्तिबद्ध कुर्सियों पर जाकर बैठने लगे थे। उन्हें सप्रेम बैठाया जाता था। कार्यक्रम के लिए एक बहुत बड़ा मंच बनाया गया था। वहाँ कई कुर्सियाँ और टेबल अलग-अलग श्रेणी के थे। लाउडस्पीकर के द्वारा कार्यक्रम के संबंध में बार-बार सूचना दी जा रही थी।

ठीक 10 बजे हमारे मुख्य अतिथि प्रदेश के शिक्षामंत्री, सभाध्यक्ष जिलाधिकारी और उनके संरक्षकों की हमारे स्वागताध्यक्ष प्रधानाचार्य ने बड़े ही प्रेम के साथ आवभगत की और उन्हें उचित आसन प्रदान किया। हमारे कक्षाध्यापक ने सभा का संचालन करते हुए विद्यालय से कार्यक्रम संबंधित सूचना दी। इसके उपरांत प्रमुख अतिथि शिक्षामंत्री से वक्तव्य देने के लिए आग्रह किया। प्रमुख अतिथि के रूप में माननीय शिक्षामंत्री ने सबके प्रति उचित आभार व्यक्त करते हुए शिक्षा के महत्त्व पर प्रकाश डाला। विद्यार्थियों को उचित दिशाबोध देकर विद्यालय के एक निश्चित अनुदान की घोषणा की जिसे सुनकर तालियों की गड़गड़ाहट से सारा वातावरण गूंज उठा। इसके बाद संचालक महोदय के आग्रह पर सभाध्यक्ष जिलाधिकारी ने संक्षिप्त वक्तव्य दिया। फिर संचालक महोदय के आग्रह पर स्वागताध्यक्ष हमारे प्रधानाचार्य ने सबके प्रति आभार व्यक्त करते हुए विद्यालय की प्रगति का विस्तार से उल्लेख किया। बाद में संचालक महोदय ने मुख्य अतिथि से आग्रह करके पुरस्कार के घोषित छात्रों को पुरस्कृत करवाया अंत में सबको धन्यवाद दिया। सबसे अंत में मिष्ठान वितरण हुआ।

दूसरे दिन सभी दैनिक समाचार-पत्रों में हमारे विद्यालय के वार्षिकोत्सव का महत्त्व प्रकाशित हुआ जिसे हम सबने ही नहीं प्रायः सभी अभिभावकों, संरक्षकों ने गर्व का अनुभव किया।

हिन्दी व्याकरण 9 राष्ट्रपिता महात्मा गांधी . समय-समय पर भारत में महान आत्माओं ने जन्म लिया है। गौतम बुद्ध, महावीर, अशोक, नानक, नामदेव, कबीर जैसे महान त्यागी और आध्यात्मिक पुरुषों के कारण ही भारत भूमि संत और महात्माओं का देश कहलाती है। ऐसे ही महान व्यक्तियों के परम्परा में महात्मा गांधी ने भारत में जन्म लिया। सत्य, अहिंसा और मानवता के इस पुजारी ने न केवल धार्मिक क्षेत्र में ही हम भारतवासियों का नेतृत्व किया, बल्कि राजनीति को भी प्रभावित किया। सदियों से परतंत्र भारत माता के बंधनों को काट गिराया। आज महात्मा गांधी के प्रयत्नों से हम भारतवासी स्वतंत्रता की खली वायु. में साँस ले रहे हैं।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जन्म पोरबंदर (कठियावाड़) में 2 अक्टूबर, 1869 को हुआ था। उनके पिता राजकोट के दीवान थे। इनका बचपन का नाम मोहनदास – था। इन पर बचपन से ही आदर्श माता और सिद्धांतवादी पिता का पूरा-पूरा प्रभाव पड़ा।

MP Board Solutions

गांधी जी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा राजकोट में प्राप्त की। 13 वर्ष की अल्पआयु में ही इनका विवाह हो गया था। इनकी पत्नी का नाम कस्तूरबा था। मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद में वकालत की शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड चले गए। वे 3 वर्ष तक इंग्लैंड में रहे। वकालत पास करने के बाद वे भारत वापस आ गए। वे आरंभ से ही सत्य में विश्वास रखते थे। भारत में वकालत करते हुए अभी थोड़ा ही समय हुआ था कि उन्हें एक भारतीय व्यापारी द्वारा दक्षिण अफ्रीका बुलाया गया। वहाँ उन्होंने भारतीयों की अत्यंत शोचनीय दशा देखी। गांधी जी ने भारतवासियों के अधिकारों के लिए संघर्ष आरंभ कर दिया।

दक्षिण अफ्रीका से लौटकर गांधी जी ने अहिंसात्मक तरीके से भारतीयों के अधिकारों के लिए लड़ने का निश्चय किया। उस समय भारत में तिलक, गोखले, लाला लाजपतराय आदि नेता कांग्रेस पार्टी के माध्यम से आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। गांधी जी पर उनका अत्यधिक प्रभाव पड़ा।

1921 में गांधी जी ने असहयोग आंदोलन चलाया। गांधी जी धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत में प्रसिद्ध हो गए। अंग्रेजी सरकार ने आंदोलन को दबाने का प्रयास किया। भारतवासियों पर तरह-तरह के अत्याचार किए। गांधी जी ने 1930 में नमक सत्याग्रह और 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन चलाए। भारत के सभी नर-नारी उनकी एक आवाज पर उनके साथ बलिदान देने के लिए तैयार थे। – गांधी जी को अंग्रेजों ने बहुत बार जेल में बंद किया। गांधी जी ने अछूतोद्धार के लिए कार्य किया। स्त्री-शिक्षा और राष्ट्रभाषा हिंदी का प्रचार किया। हरिजनों के उत्थान के लिए काम किया। स्वदेशी आंदोलन और चरखा आंदोलन चलाया। गांधी जी के प्रयत्नों से भारत 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्र हुआ।

सत्य, अहिंसा और मानवता के इस पुजारी की 30 जनवरी, 1948 को नाथू राम गोडसे ने गोली मारकर हत्या कर दी। इससे सारा विश्व विकल हो उठा।

10. बाल दिवस

हमारे विद्यालय में प्रतिवर्ष 14 नवंबर को बाल दिवस का आयोजन किया जाता है। बाल दिवस पूज्य चाचा नेहरू का जन्मदिवस है। चाचा नेहरू भारत के प्रथम प्रधानमंत्री थे। वे स्वतंत्रता संग्राम के महान् सेनानी थे। उन्होंने अपने देश की आजादी के लिए सर्वस्व न्योछावर कर दिया। अपने जीवन के अनेक अमूल्य वर्ष देश की सेवा में बिताए। अनेक वर्षों तक विदेशी शासकों ने उन्हें जेल में बंद रखा। उन्होंने साहस नहीं छोड़ा और देशवासियों को आगे बढ़ने की प्रेरणा देते रहे। .. . पं. नेहरू बच्चों के प्रिय नेता थे। बच्चे उन्हें प्यार से ‘चाचा’ कहकर संबोधित करते थे। उन्होंने देश में बच्चों के लिए शिक्षा सुविधाओं का विस्तार कराया। उनके अच्छे भविष्य के लिए अनेक योजनाएँ आरंभ की। वे कहा करते थे ‘कि आज के बच्चे ही कल के नागरिक बनेंगे। यदि आज उनकी अच्छी देखभाल की जाएगी तो आगे आने वाले समय में वे अच्छे डॉक्टर, इंजीनियर, सैनिक, विद्वान, लेखक और वैज्ञानिक बनेंगे। इसी कारण उन्होंने बाल कल्याण की अनेक योजनाएँ बनाईं। अनेक नगरों में बालघर और मनोरंजन केंद्र बनवाए। प्रतिवर्ष बाल दिवस पर डाक टिकटों का प्रचलन किया। बालकों के लिए अनेक प्रतियोगिताएँ आरंभ कराईं। वे देश-विदेश में जहाँ भी जाते बच्चे उन्हें घेर लेते थे। उनके जन्मदिवस को भारत में बाल-दिवस के रूप में मनाया जाता है। – हमारे विद्यालय में प्रतिवर्ष बाल-दिवस के अवसर पर बाल मेले का आयोजन किया जाता है। बच्चे अपनी छोटी-छोटी दुकानें लगाते हैं। विभिन्न प्रकार की विक्रय योग्य वस्तुएँ अपने हाथ से तैयार करते हैं। बच्चों के माता-पिता और मित्र उस अवसर पर खरीददारी करते हैं। सारे विद्यालय को अच्छी प्रकार सजाया जाता है। विद्यालय को झंडियों, चित्रों और रंगों की सहायता से आकर्षक रूप दिया जाता है।

बाल दिवस के अवसर पर खेल-कूद प्रतियोगिता और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी आयोजन किया जाता है। बच्चे मंच पर आकर नाटक, गीत, कविता, नृत्य और फैंसी ड्रेस शो का प्रदर्शन करते हैं। सहगान, बाँसुरी वादन का कार्यक्रम दर्शकों का मन मोह लेता है। तत्पश्चात् सफल और अच्छा प्रदर्शन करने वाले छात्र-छात्राओं को पुरस्कार वितरण किए जाते हैं। बच्चों को मिठाई का भी वितरण किया जाता है। इस प्रकार दिवस विद्यालय का एक प्रमुख उत्सव बन जाता है।

11. विज्ञान की देन या विज्ञान वरदान है या विज्ञान का महत्त्व

आधुनिक युग विज्ञान का युग है। विज्ञान ने मनुष्य के जीवन में महान परिवर्तन ला दिया है। मनुष्य के जीवन को नये-नये वैज्ञानिक आविष्कारों से सुख-सुविधा प्राप्त हुई है। प्रायः असंभव कही जाने वाली बातें भी संभव प्रतीत होने लगी हैं। मनुष्य विज्ञान के सहारे आज चंद्रमा तक पहुँच सका है। सागर की गहराइयों में जाकर उसके रहस्य को भी खोज लाया है। भीषण ज्वालामुखी के मुँह में प्रवेश कर सका है; पृथ्वी की परिक्रमा कर चुका है। बंजर भूमि को हरा-भरा बनाकर भरपूर फसलें उगा सका है।

विज्ञान की सहायता से मनुष्य का जीवन सुखमय हो गया है। आज घरों में विज्ञान की देन हीटर, पंखे, रेफ्रिजरेटर, टेलीविजन, गैस, स्टोव, रेडियो, टेपरिकॉर्डर, टेलीफोन, स्कूटर आदि वस्तुएं दिखाई देती हैं। गृहिणियों के अनेक कार्य आज विज्ञान की सहायता से सरल बन गए हैं।

विज्ञान की सहायता से आज समय और दूरी का महत्त्व घट गया है। आज हजारों मील की दूरी पर बैठा हुआ मनुष्य अपने मित्रों और संबंधियों से इस प्रकार हिन्दी व्याकरण : बात कर सकता है जैसे कि सामने बैठा हुआ हो। आज दिल्ली में चाय पीकर, भोजन बंबई में और रात्रि विश्राम लंदन में कर सकना संभव है। ध्वनि की गति से तेज चलने वाले ऐसे विमान और एयर बस हैं जिनकी सहायता से हजारों मील का सफर एक दिन में किया जाना संभव है। रेल, मोटर, ट्राम, जहाज, स्कूटर आदि आने-जाने में सुविधा प्रदान करते हैं।

टेलीप्रिंटर, टेलीफोन, टेलीविजन’ मनुष्य के लिए बड़े उपयोगी साधन सिद्ध हुए हैं। विज्ञान की सहायता से समाचार एक स्थान से दूसरे स्थान पर शीघ्र-से-शीघ्र पहुँचाए जा सकते हैं। रेडियो-फोटो की सहायता से चित्र भेजे जा सकते हैं। लाहौर में खेला जाने वाला क्रिकेट मैच दिल्ली में देखा जा सकता है। एक घंटे में एक पुस्तक की हजारों प्रतियाँ छापी जा सकती हैं। आवाज को टेपरिकॉर्डर और ग्रामोफोन रिकॉर्ड पर कैद किया जा सकता है।

चिकित्सा के क्षेत्र में विज्ञान की देन भुलाई नहीं जा सकती। एक्स-रे मशीन की सहायता से शरीर के अंदर के भागों का रहस्य जाना जा सकता है। शरीर के किसी भी भाग का ऑपरेशन किया जा सकना संभव है। शरीर के अंग बदले जा सकते हैं। खून-परिवर्तन किया जा सकता है। प्लास्टिक सर्जरी से चेहरे को ठीक किया जा सकता है। भयानक बीमारियों के लिए दवाएँ और इंजेक्शन खोजे जा चुके हैं।

कृषि के क्षेत्र में नवीन वैज्ञानिक आविष्कारों ने कृषि उत्पादन में तो वृद्धि की ही है, साथ ही भारी-भारी कार्यों को सरल भी बना दिया है। कृषि, यातायात, संदेशवाहन, संचार, मनोरंजन और स्वास्थ्य के क्षेत्र में विज्ञान की देन अमूल्य है।

12. परोपकार

परोपकार की भावना एक पवित्र भावना है। मनुष्य वास्तव में वही है जो दूसरों का उपकार करता है। यदि मनुष्य में दया, ममता, परोपकार और सहानुभूति की भावना न हो तो पशु और मनुष्य में कोई अंतर नहीं रहता। मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में, ‘मनुष्य है वही जो मनुष्य के लिए मरे।’ मनुष्य का यह परम कर्तव्य है कि वह अपने विषय में न सोचकर दूसरों के विषय में ही सोचे, दूसरों की पीड़ा हरे, दूसरों के दुख दूर करने का प्रयत्न करे।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है कि ‘परहित सरस धर्म नहिं भाई।’ दूसरों की भलाई करने से अच्छा कोई धर्म नहीं है। दूसरों को पीड़ा पहुँचाना पाप है और परोपकार करना पुण्य है।

परोपकार शब्द ‘पर + उपकार’ से मिलकर बना है। स्वयं को सुखी बनाने के लिए तो सभी प्रयत्न करते हैं परंतु दूसरों के कष्टों को दूर कर उन्हें सुखी बनाने का कार्य जो सज्जन करते हैं वे ही परोपकारी होते हैं। परोपकार एक अच्छे चरित्रवान व्यक्ति की विशेषता है। परोपकारी स्वयं कष्ट उठाता है लेकिन दुखी और पीड़ित मानवता के कष्ट को दूर करने में पीछे नहीं हटता। जिस कार्य को अपने स्वार्थ की दृष्टि से किया जाता है वह परोपकार नहीं है।

परोपकारी व्यक्ति अपने और पराये का भेद नहीं करता। वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते, नदियाँ अपना जल स्वयं काम में न लेतीं। चंदन अपनी सुगंध दूसरों को देता है। सूर्य और चंद्रमा अपना प्रकाश दूसरों को देते हैं। नदी, कुएँ और तालाब दूसरों के लिए हैं। यहाँ तक कि पशु भी अपना दूध मनुष्य को देते हैं और बदले हिन्दी व्याकरण में कुछ नहीं चाहते। यह है परोपकार की भावना। इस भावना के मूल में स्वार्थ का नाम भी नहीं है।

भारत तथा विश्व का इतिहास परोपकार के लिए अपने प्राण न्योछावर करने वाले व्यक्तियों के उदाहरणों से भरा पड़ा है। स्वामी दयानंद, महात्मा गांधी, ईसा मसीह, दधीचि, स्वामी विवेकानंद, गुरु नानक सभी महान् परोपकारी थे। परोपकार की भावना के पीछे ही अनेक वीरों ने यातनाएँ सहीं और स्वतंत्रता के लिए फाँसी पर चढ़ गए। अपने जीवन का त्याग किया और देश को स्वतंत्र कराया।

परोपकार एक सच्ची भावना है। यह चरित्र का बल है। यह निःस्वार्थ सेवा है, यह आत्मसमर्पण है। परोपकार ही अंत में समाज का कल्याण करता है। उनका नाम इतिहास में अमर होता है।

13. वृक्षारोपण

हमारे देश में ही नहीं अपितु पूरे विश्व में भी वनों का विशेष महत्त्व है। बन ही प्रकृति की महान् शोभा के भंडार हैं। वनों के द्वारा प्रकृति का जो रूप खिलता है वह मनुष्य को प्रेरित करता है। दूसरी बात यह है कि वन ही मनुष्य, पशु-पक्षी, जीव-जंतुओं आदि के आधार हैं, वन के द्वारा ही सबके स्वास्थ्य की रक्षा होती है। वन इस प्रकार से हमारे जीवन की प्रमुख आवश्यकता है। अगर वन न रहें तो हम नहीं रहेंगे और यदि वन रहेंगे तो हम रहेंगे। कहने का तात्पर्य यह है कि वनं से हमारा अभिन्न संबंध है जो निरंतर है और सबसे बड़ा है। इस प्रकार से हमें वनों की आवश्यकता सर्वोपरि होने के कारण हमें इसकी रक्षा की भी आवश्यकता सबसे बढ़कर है।

MP Board Solutions

वृक्षारोपण की आवश्यकता हमारे देश में आदिकाल से ही रही है। बड़े-बड़े ऋषियों-मुनियों के आश्रम के वृक्ष-वन वृक्षारोपण के द्वारा ही तैयार किए गए हैं, महाकवि . कालिदास ने ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ के अंतर्गत महर्षि कण्व के शिष्यों के द्वारा वृक्षारोपण किए जाने का उल्लेख किया है। इस प्रकार से हम देखते हैं कि वृक्षारोपण की आवश्यकता प्राचीन काल से ही समझी जाती रही है और आज भी इसकी आवश्यकता ज्यों-की-त्यों बनी हुई है।

अब प्रश्न है कि वृक्षारोपण की आवश्यकता आखिर क्यों होती है? इसके उत्तर में हम यह कह सकते हैं कि वृक्षारोपण की आवश्यकता इसीलिए होती है कि वृक्ष सुरक्षित रहें, वृक्ष या वन नहीं रहेंगे तो हमारा जीवन शून्य होने लगेगा। एक समय ऐसा आ जाएगा कि हम जी भी न पाएँगे। वनों के अभाव में प्रकृति का संतुलन बिगड़ जाएगा। प्रकृति का संतुलन जब बिगड़ जाएगा तब सम्पूर्ण वातावरण इतना दूषित और अशुद्ध हो जाएगा कि हम न ठीक से साँस ले सकेंगे और न ठीक से अन्न-जल ही ग्रहण कर पाएँगे। वातावरण के दूषित और अशुद्ध होने से हमारा मानसिक, शारीरिक और आत्मिक विकास कुछ न हो सकेगा। इस प्रकार से वृक्षारोपण की आवश्यकता हमें सम्पूर्ण रूप से प्रभावित करती हुई हमारे जीवन के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध होती है। वृक्षारोपण की आवश्यकता की पूर्ति होने से हमारे जीवन और प्रकृति का परस्पर संतुलन क्रम बना रहता है।

वनों के होने से हमें ईंधन के लिए पर्याप्त रूप से लकड़ियाँ प्राप्त हो जाती . . हैं। बांस की लकड़ी और घास से हमें कागज प्राप्त हो जाता है जो हमारे कागज उद्योग का मुख्याधार है। वनों की पत्तियों, घास, पौधे, झाड़ियों की अधिकता के कारण तीव्र वर्षा से भूमि का कटाव तीव्र गति से न होकर मंद गति से होता है या नहीं के बराबर होता है। वनों के द्वारा वर्षा का संतुलन बना रहता है जिससे हमारी कृषि संपन्न होती है। वन ही बाढ़ के प्रकोप को रोकते हैं, वन ही बढ़ते हुए और उड़ते हुए रेत-कणों को कम करते हुए भूमि का संतुलन बनाए रखते हैं।

यह सौभाग्य का विषय है कि 1952 में सरकार ने ‘नयी वन नीति’ की घोषणा करके वन महोत्सव की प्रेरणा दी है जिससे वन रोपण के कार्य में तेजी आई है। इस प्रकार से हमारा ध्यान अगर वन सुरक्षा की ओर लगा रहेगा तो हमें वनों से होने वाले, लाभ, जैसे-जड़ी-बूटियों की प्राप्ति, पर्यटन की सुविधा, जंगली पशु-पक्षियों का सुदर्शन, इनकी खाल, पंख या बाल से प्राप्त विभिन्न आकर्षक वस्तुओं का निर्माण आदि सब कुछ हमें प्राप्त होते रहेंगे। अगर प्रकृति देवी का यह अद्भुत स्वरूप वन, सम्पदा नष्ट हो जाएगी तो हमें प्रकृति के कोष से बचना असंभव हो जाएगा।

14. दूरदर्शन से लाभ और हानियाँ

विज्ञान के द्वारा मनुष्य ने जिन चमत्कारों को प्राप्त किया है। उनमें दूरदर्शन का स्थान अत्यंत महान् और उच्च है। दूरदर्शन का आविष्कार 19वीं शताब्दी के आस-पास ही समझना चाहिए। टेलीविजन दूरदर्शन का अंग्रेजी नाम है। टेलीविजन का आविष्कार महान वैज्ञानिक वेयर्ड ने किया है। टेलीविजन को सर्वप्रथम लंदन में सन् 1925 में देखा गया। लंदन के बाद ही इसका प्रचार-प्रसार इतना बढ़ता गया है कि आज यह विश्व के प्रत्येक भाग में बहुत लोकप्रिय हो गया है। भारत में टेलीविजन का आरंभ 15 सितंबर, सन् 1959 को हुआ। तत्कालीन राष्ट्रपति ने आकाशवाणी के टेलीविजन विभाग का उद्घाटन किया था।

टेलीविजन या दूरदर्शन का शाब्दिक अर्थ है-दूर की वस्तुओं या पदार्थों का ज्यों-का-त्यों आँखों द्वारा दर्शन करना। टेलीविजन का प्रवेश आज घर-घर हो रहा है। इसकी लोकप्रियता के कई कारणों में से एक कारण यह है कि यह एक रेडियो कैबिनेट के आकार-प्रकार से तनिक बड़ा होता है। इसके सभी सेट रेडियो के सेट से मिलते-जुलते हैं। इसे आसानी से एक जगह से दूसरी जगह या स्थान पर रख सकते हैं। इसे देखने के लिए हमें न किसी विशेष प्रकार के चश्मे या मानभाव या अध्ययन आदि की आवश्यकताएँ पड़ती हैं। इसे देखने वालों के लिए भी किसी विशेष वर्ग के दर्शक या श्रोता के चयन करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। अपितु इसे देखने वाले सभी वर्ग या श्रेणी के लोग हो सकते हैं।

टेलीविजन हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को बड़ी ही गंभीरतापूर्वक प्रभावित करता है। यह हमारे जीवन के काम आने वाली हर वस्तु या पदार्थ की न केवल जानकारी देता है अपितु उनके कार्य-व्यापार, नीति-ढंग और उपाय को भी क्रमशः बड़ी ही आसानीपूर्वक हमें दिखाता है। इस प्रकार से दूरदर्शन हमें एक-से एक बढ़कर जीवन की समस्याओं और घटनाओं को बड़ी ही सरलता और आवश्यकता के रूप में प्रस्तुत करता है। जीवन से संबंधित ये घटनाएँ-व्यापार-कार्य आदि सभी कुछ न केवल हमारे आस-पास पड़ोस के ही होते हैं अपितु दूर-दराज के देशों और भागों से भी जुड़े होते हैं जो किसी-न-किसी प्रकार से हमारे जीवनोपयोगी ही सिद्ध होते हैं। इस दृष्टिकोण से हम कह सकते हैं कि दूरदर्शन हमारे लिए ज्ञानवर्द्धन का बहुत बड़ा साधन है।

यह ज्ञान की सामान्य रूपरेखा से लेकर गंभीर और विशिष्ट रूपरेखा को बड़ी ही सुगमतापूर्वक प्रस्तुत करता है। इस अर्थ से दूरदर्शन हमारे घर के चूल्हा-चाकी से लेकर अंतरिक्ष के कठिन ज्ञान की पूरी-पूरी जानकारी देता रहता है।

दूरदर्शन द्वारा हमें जो ज्ञान-विज्ञान प्राप्त होते हैं उनमें कृषि के ज्ञान-विज्ञान का कम स्थान नहीं है। आधुनिक कृषि यंत्रों से होने वाली कृषि से संबंधित जानकारी का लाभ शहरी कृषक से बढ़कर ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले कृषक अधिक उठाते हैं। इसी तरह से कृषि क्षेत्र में होने वाले नवीन आविष्कारों, उपयोगिताओं, विभिन्न प्रकार के बीज, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, वनस्पतियाँ आदि का पूरा विवरण हमें दूरदर्शन ही दिया करता है।

दूरदर्शन के द्वारा पर्यो, त्योहारों, मौसमों, खेल-तमाशे, नाच, गाने-बजाने, कला, संगीत, पर्यटन, व्यापार, साहित्य, धर्म, दर्शन, राजनीति, अध्याय आदि लोक-परलोक के ज्ञान-विज्ञान के रहस्य एक-एक करके खुलते जाते हैं। दूरदर्शन इन सभी प्रकार के तथ्यों का ज्ञान हमें प्रदान करते हुए इनकी कठिनाइयों को हमें एक-एक करके बतलाता है और इसका समाधान भी करता है।

दूरदर्शन से सबसे बड़ा लाभ तो यह है कि इसके द्वारा हमारा पूर्ण रूप से मनोरंजन हो जाता है। प्रतिदिन किसी-न-किसी प्रकार के विशेष आयोजित और प्रायोजित कार्यक्रमों के द्वारा हम अपना मनोरंजन करके विशेष उत्साह और प्रेरणा प्राप्त करते हैं। दूरदर्शन पर दिखाई जाने वाली फिल्मों से हमारा मनोरंजन तो होता ही है इसके साथ-ही-साथ विविध प्रकार के दिखाए जाने वाले धारावाहिकों से भी हमारा कम मनोरंजन नहीं होता है। इसी तरह से बाल-बच्चों, वृद्धों, युवकों सहित विशेष प्रकार के शिक्षित और अशिक्षित वर्गों के लिए दिखाए जाने वाले दूरदर्शन के कार्यक्रम हमारा मनोरंजन बार-बार करते हैं जिससे ज्ञान प्रकाश की किरणें भी फूटती हैं।

.हाँ, अच्छाई में बुराई होती है और कहीं-कहीं फूल में काँटे भी होते हैं। इसी तरह से जहाँ और जितनी दूरदर्शन में अच्छाई है वहाँ उतनी उसमें बुराई भी कही जा सकती है। हम भले ही इसे सुविधा सम्पन्न होने के कारण भूल जाएँ लेकिन दूरदर्शन के लाभों के साथ-साथ इससे होने वाली कुछ ऐसी हानियाँ हैं जिन्हें हम अनदेखी नहीं कर सकते हैं। दूरदर्शन के बार-बार देखने से हमारी आँखों में रोशनी मंद होती है। इसके मनोहर और आकर्षक कार्यक्रम को छोड़कर हम अपने और इससे कहीं अधिक आवश्यक कार्यों को भूल जाते हैं या छोड़ देते हैं। समय की बरबादी के साथ-साथ हम आलसी और कामचोर हो जाते हैं। दूरदर्शन से प्रसारित कार्यक्रम कुछ तो इतने अश्लील होते हैं कि इनसे न केवल हमारे युवा पीढ़ी का मन बिगड़ता है अपितु हमारे अबोध और नाबालिक बच्चे भी इसके दुष्प्रभाव से नहीं बच पाते हैं। दूरदर्शन के खराब होने से इनकी मरम्मत कराने में काफी खर्च भी पड़ जाता है। इस प्रकार दूरदर्शन से बहुत हानियाँ और बुराइयाँ हैं, फिर भी इससे लाभ अधिक हैं, इसी कारण है कि यह अधिक लोकप्रिय हो रहा है।

15. प्रदूषण की समस्या और समाधान

आज मनुष्य ने इतना विकास कर लिया है कि वह अब मनुष्य से बढ़कर देवताओं की शक्तियों के समान शक्तिशाली हो गया। मनुष्य ने यह विकास और महत्त्व विज्ञान के द्वारा प्राप्त किया है। विज्ञान का आविष्कार करके मनुष्य ने चारों हिन्दी व्याकरण ओर से प्रकृति को परास्त करने का कदम बढ़ा लिया है। देखते-देखते प्रकृति धीरे-धीरे मनुष्य की दासी बनती जा रही है। आज प्रकृति मनुष्य के अधीन बन गई है। इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि मनुष्य ने प्रकृति को अपने अनुकूल बनाने के लिए कोई कसर न छोडने का निश्चय कर लिया है।

जिस प्रकार मनुष्य मनुष्य का और राष्ट्र राष्ट्र का शोषण करते रहे हैं, उसी . प्रकार मनुष्य प्रकृति का भी शोषण करता रहा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रकृति में कोई गंदगी नहीं है। प्रकृति में बस जीव-जंतु, प्राणी तथा वनस्पति-जगत् परस्पर मिलकर समतोल में रहते हैं। प्रत्येक का अपना विशिष्ट कार्य है जिससे सड़ने वाले पदार्थों की अवस्था तेजी से बदले और वह फिर वनस्पति जगत् तथा उसके द्वारा जीवन-जगत की खुराक बन सके अर्थात प्रकृति में ब्रह्मा, विष्णु और महेश का काम अपने स्वाभाविक रूप में बराबर चलता रहता है। जब तक मनुष्य का हस्तक्षेप नहीं होता तब तक न गंदगी होती है और न रोग। जब मनुष्य प्रकृति के कार्य में हस्तक्षेप करता है तब प्रकृति का समतोल बिगड़ता है और इससे सारी सृष्टि का स्वास्थ्य बिगड़ जाता है।

MP Board Solutions

आज का युग औद्योगिक युग है। औद्योगीकरण के फलस्वरूप वायु-प्रदूषण बहुत तेजी से बढ़ रहा है। ऊर्जा तथा उष्णता पैदा करने वाले संयंत्रों से गरमी निकलती है। यह उद्योग जितने बड़े होंगे और जितना बढ़ेंगे उतनी ज्यादा गरमी फैलाएँगे। इसके अतिरिक्त ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए जो ईंधन प्रयोग में लाया जाता है वह प्रायः पूरी तरह नहीं जल पाता। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि धुएँ में कार्बन मोनोक्साइड काफी मात्रा में निकलती है। आज मोटर वाहनों का यातायात तेजी से बढ़ रहा है। 960 किलोमीटर की यात्रा में एक मोटर वाहन उतनी ऑक्सीजन का उपयोग करता है जितनी एक आदमी को एक वर्ष में चाहिए। दुनिया के हर अंचल में मोटर वाहनों का प्रदूषण फैलता जा रहा है। रेल का यातायात भी आशातीत रूप से बढ़ रहा है। हवाई जहाजों का चलन भी सभी देशों में हो चुका है। तेल-शोधन, चीनी-मिट्टी की मिलें, चमड़ा, कागज, रबर के कारखाने तेजी से बढ़ रहे हैं। रंग, वार्निश, प्लास्टिक, कुम्हारी चीनी के कारखाने बढ़ते जा रहे हैं। इस प्रकार के यंत्र बनाने के कारखाने बढ़ रहे हैं यह सब ऊर्जा-उत्पादन के लिए किसी-न-किसी रूप में ईंधन को फूंकते हैं और अपने धुएँ से सारे वातावरण को दूषित करते हैं। यह प्रदूषण जहाँ पैदा होता है वहीं पर स्थिर नहीं रहता। वायु के प्रवाह में वह सारी दुनिया में फैलता रहता है।

सन् 1968 में ब्रिटेन में लाल धूल गिरने लगी, वह सहारा रेगिस्तान से उड़कर आई। जब उत्तरी अफ्रीका में टैंकों का युद्ध चल रहा था तब वहाँ से धूल उड़कर कैरीबियन समुद्र तक पहुंच गई थी।

आजकल लोग घरों, कारखानों, मोटरों और विमानों के माध्यम से हवा, मिट्टी और पानी में अंधाधुंध दूषित पदार्थ प्रवाहित कर रहे हैं। विकास के क्रम में प्रकृति अपने लिए ऐसी परिस्थितियाँ बनाती है जो उसके लिए आवश्यक है इसलिए इन व्यवस्थाओं में मनुष्य का हस्तक्षेप सब प्राणियों के लिए घातक होता है। प्रदूषण का मुख्य खतरा इसी से है कि इससे परिस्थितीय संस्थान पर दबाव पड़ता है। घनी आबादी के क्षेत्रों में कार्बन मोनोक्साइड की वजह से रक्त-संचार में 5-10 प्रतिशत आक्सीजन कम हो जाती है। शरीर के ऊतकों को 25 प्रतिशत आक्सीजन की आवश्यकता होती है। आक्सीजन की तुलना में कार्बन मोनोक्साइड लाल रुधिर कोशिकाओं के साथ ज्यादा मिल जाती है, इससे यह हानि होती है कि ये कोशिकाएँ ऑक्सीजन को अपनी पूरी मात्रा में सँभालने में असमर्थ रहती हैं। लंदन में चार घंटों तक ट्रैफिक सँभालने के काम पर रहने वाले पुलिस के सिपाही के फेफड़ों में इतना विष भर जाता है मानो उसने 105 सिगरेट पी हों।

आराम की स्थिति में मनुष्य को दस लीटर हवा की आवश्यकता होती है। कड़ी मेहनत पर उससे दस गुना ज्यादा चाहिए लेकिन एक दिन में एक दिमाग को इतनी ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है जितनी कि 17,000 हेक्टेयर वन में पैदा होती है। मिट्टी में बढ़ते हुए विष से वनस्पति की निरंतर कमी महासागरों के प्रदूषण आदि की वजह से ऑक्सीजन की उत्पत्ति में कमी होती रही है। इसके अतिरिक्त प्रतिवर्ष हम वायुमंडल में अस्सी अरब टन.धुआँ फेंकते हैं। कारों तथा विमानों से दूषित गैस निकलती है। मनुष्य और प्राणियों के साँस से जो कार्बन डाइआक्साइड निकलती है वह अलग प्रदूषण फैलाती है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि वातावरण के प्रदूषण से वर्तमान रफ्तार से 30 वर्ष में जीवन-मंडल (बायोस्फियर) जिस पर प्राण और वनस्पति निर्भर हैं समाप्त हो जाएगा। पशु, पौधे और मनुष्यों का अस्तित्व नहीं रहेगा। सारी पृथ्वी की जलवायु बदल जाएगी, संभव है बरफ का युग फिर से आए। 30 साल के बाद हम कुछ नहीं कर पाएंगे। उस समय तक पृथ्वी का वातावरण नदियाँ और महासमुद्र सब विषैले हो जाएँगे।

यदि मनुष्य प्रकृति के नियमों को समझकर, प्रकृति को गुरु मानकर उसके साथ सहयोग करता और विशेष करके सब अवशिष्टों की प्रकृति को लौटाता है तो सृष्टि और मनुष्य स्वस्थ्य. रह सकते हैं, नहीं तो लंबे, अर्से में अणु विस्फोट के खतरे की अपेक्षा प्रकृति के कार्य में मनुष्य का कृत्रिम हस्तक्षेप कम खतरनाक नहीं है।

अतएव हमें प्रकृति के शोषण क्रम को कम करना होगा। अन्यथा हमारा जीवन पानी के बुलबुले के समान बेवजह समाप्त हो जाएगा और हमारे सारे विकास-कार्य ज्यों-के-त्यों पड़े रह जाएँगे।

16. ‘दहेज प्रथा’ एक सामाजिक बुराई

पंचतंत्र में लिखा है-

पुत्रीति जाता महतीह, चिन्ताकस्मैप्रदेयोति महानवितकैः।
दत्त्वा सुखं प्राप्तयस्यति वानवेति, कन्यापितृत्वंखलुनाम कष्टम।।

अर्थात् पुत्री उत्पन्न हुई, यह बड़ी चिंता है। यह किसको दी जाएगी और देने के बाद भी वह सुख पाएगी या नहीं, यह बड़ा वितर्क रहता है। कन्या का पितृत्व निश्चय ही कष्टपूर्ण होता है।।

इस श्लेष से ऐसा लगता है कि अति प्राचीन काल से ही दहेज की प्रथा हमारे देश में रही है। दहेज इस समय निश्चित ही इतना कष्टदायक और विपत्तिसूचक होने के साथ-ही-साथ इस तरह प्राणहारी न था जितना कि आज है। यही कारण है कि आज दहेज-प्रथा को एक सामाजिक बुराई के रूप में देखा और समझा जा रहा आज दहेज-प्रथा एक सामाजिक बुराई क्यों है? इस प्रश्न के उत्तर में यह कहना बहुत ही सार्थक होगा कि आज दहेज का रूप अत्यंत विकृत और कुत्सित हो गया है। यद्यपि प्राचीन काल में भी दहेज की प्रथा थी लेकिन वह इतनी भयानक और प्राण संकटापन्न स्थिति को उत्पन्न करने वाली न थी। उस समय दहेज स्वच्छंदपूर्वक था। दहेज लिया नहीं जाता था अपितु दहेज दिया जाता था। दहेज प्राप्त करने वाले के मन में स्वार्थ की कहीं कोई खोट न थी। उसे जो कुछ भी मिलता था उसे वह सहर्ष अपना लेता था लेकिन आज दहेज की स्थिति इसके ठीक विपरीत हो गई है।

आज दहेज एक दानव के रूप में जीवित होकर साक्षात् हो गया है। दहेज एक विषधर साँप के समान एक-एक करके बंधुओं को डंस रहा है। कोई इससे बच नहीं पाता है, धन की लोलुपता और असंतोष की प्रवृत्ति तो इस दहेज के प्राण हैं। दहेज का अस्तित्व इसी से है। इसी ने मानव समाज को पशु समाज में बदल दिया है। दहेज न मिलने अर्थात् धन न मिलने से बार-बार संकटापन्न स्थिति का उत्पन्न होना कोई आश्चर्य की बात नहीं होती है। इसी के कारण कन्यापक्ष को झुकना पड़ता है। नीचा बनना पड़ता है। हर कोशिश करके वरपक्ष और वर की माँग को पूरा करना पड़ता है। आवश्यकता पड़ जाने पर घर-बार भी बेच देना पड़ता है। घर की लाज भी नहीं बच पाती है।

दहेज के अभाव में सबसे अधिक वधू (कन्या) को दुःख उठाना पड़ता है। उसे जली-कटी, ऊटपटाँग बद्दुआ, झूठे अभियोग से मढ़ा जाना और तरह-तरह के दोषारोपण करके आत्महत्या के लिए विवश किया जाता है। दहेज के कुप्रभाव से केवल वर-वधू ही नहीं प्रभावित होते हैं, अपितु इनसे संबंधित व्यक्तियों को भी इसकी लपट में झुलसना पड़ता है। इससे दोनों के दूर-दूर के संबंध बिगड़ने के साथ-साथ मान-अपमान दुखद वातावरण फैल जाता है जो आने वाली पीढ़ी को एक मानसिक विकृति और दुष्प्रभाव को जन्माता है।

दहेज के कुप्रभाव से मानसिक अव्यस्तता बनी रहती है। कभी-कभी तो यह भी देखने में आता है कि दहेज के अभाव में प्रताडित वधु ने आत्महत्या कर ली है, या उसे जला-डूबाकर मार दिया गया है जिसके परिणामस्वरूप कानून की गिरफ्त में दोनों परिवार के लोग आ जाते हैं, पैसे बेशुमार लग जाते हैं, शारीरिक दंड अलग मिलते हैं। काम ठंडे अलग से पड़ते हैं और इतना होने के साथ अपमान और असम्मान, आलोचना भरपूर सहने को मिलते हैं।

दहेज प्रथा सामाजिक बुराई के रूप में उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर सिद्ध की जा चुकी है। अब दहेज प्रथा को दूर करने के मुख्य मुद्दों पर विचारना अति आवश्यक प्रतीत हो रहा है।

इस बुरी दहेज-प्रथा को तभी जड़ से उखाड़ा जा सकता है जब सामाजिक स्तर पर जागृति अभियान चलाया जाए। इसके कार्यकर्ता अगर इसके भुक्त-भोगी लोग हों तो यह प्रथा यथाशीघ्र समाप्त हो सकती है। ऐसा सामाजिक संगठन का होना जरूरी है जो भुक्त-भोगी या आंशिक भोगी महिलाओं के द्वारा संगठित हो। सरकारी सहयोग होना भी जरूरी है क्योंकि जब तक दोषी व्यक्ति को सख्त कानूनी कार्यवाही करके दंड न दिया जाए तब तक इस प्रथा को बेदम नहीं किया जा सकता। संतोष . की बात है कि सरकारी सहयोग के द्वारा सामाजिक जागृति आई है। यह प्रथा निकट भविष्य में अवश्य समाप्त हो जाएगी।

17. अगर मैं प्रधानमंत्री होता

किसी आजाद मुल्क का नागरिक अपनी योग्यताओं का विस्तार करके अपनी आकांक्षाओं को पूरा कर सकता है, वह कोई भी पद, स्थान या अवस्था को प्राप्त कर सकता है, उसको ऐसा होने का अधिकार उसका संविधान प्रदान करता है। भारत जैसे विशाल राष्ट्र में प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के पद को प्राप्त करना यों तोआकाश कसम तोड़ने के समान है फिर भी ‘जहाँ चाह वहाँ राह’ के अनुसार यहाँ का अत्यंत सामान्य नागरिक भी प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बन सकता है। लालबहादुर शास्त्री और ज्ञानी जैलसिंह इसके प्रमाण हैं।

यहाँ प्रतिपाद्य विषय का उल्लेख प्रस्तुत है कि ‘अगर मैं प्रधानमंत्री होता’ तो क्या करता? मैं यह भली-भाँति जानता हूँ कि प्रधानमंत्री का पद अत्यंत विशिष्ट और महान् उत्तरदायित्वपूर्ण पद है। इसकी गरिमा और महानता को बनाए रखने में किसी एक सामान्य और भावुक व्यक्ति के लिए संभव नहीं है फिर मैं महत्त्वाकांक्षी हूँ और अगर मैं प्रधानमंत्री बन गया तो निश्चय समूचे राष्ट्र की काया पलट कर दूंगा। मैं क्या-क्या राष्ट्रोस्थान के लिए कदम उठाऊँगा, उसे मैं प्रस्तुत करना पहला कर्तव्य मानता हूँ जिससे मैं लगातार इस पद पर बना रहूँ।

सबसे पहले शिक्षा-नीति में आमूल चूल परिवर्तन लाऊँगा। मुझे सुविज्ञात है कि हमारी कोई स्थायी शिक्षा नीति नहीं है जिससे शिक्षा का स्तर दिनोंदिन गिरता जा रहा है, यही कारण है कि अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण से हम शिक्षा के क्षेत्र में बहुत पीछे हैं, बेरोजगारी की जो आज विभीषिका आज के शिक्षित युवकों को त्रस्त कर रही है, उनका मुख्य कारण हमारी बुनियादी शिक्षा की कमजोरी, प्राचीन काल की गरु-शिष्य परंपरा की गुरुकुल परिपाटी की शुरुआत नये सिरे से करके धर्म और राजनीति के समन्वय से आधुनिक शिक्षा का सूत्रपात कराना चाहूँगा। राष्ट्र को बाह्य शक्तियों के आक्रमण का खतरा आज भी बना हुआ है। हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा अभी अपेक्षित रूप में नहीं है। इसके लिए अत्याधुनिक युद्ध के उपकरणों का आयात बढ़ाना होगा। मैं खुले आम न्यूक्लीयर विस्फोट का उपयोग सृजनात्मक कार्यों के लिए ही करना चाहूँगा। मैं किसी प्रकार ढुलमुल राजनीति का शिकार नहीं बनूँगा अगर कोई राष्ट्र हमारे राष्ट्र की ओर आँख उठाकर देखें तो मैं उसक हतोड़ जवाब देने में संकोच नहीं करूंगा। मैं अपने वीर सैनिकों का उत्साहवर्द्धन करते हुए उनके जीवन को अत्यधिक संपन्न और खुशहाल बनाने के लिए उन्हें पूरी समुचित सुविधाएँ प्रदान कराऊँगा जिससे वे राष्ट्र की आन-मान पर न्योछावर होने में पीछे नहीं हटेंगे।

MP Board Solutions

हमारे देश की खाद्य समस्या सर्वाधिक जटिल और दुखद समस्या है। कृषि प्रधान राष्ट्र होने के बावजूद यहाँ खाद्य संकट हमेशा मँडराया करता है। इसको ध्यान में रखते हुए मैं नवीनतम कृषि यंत्रों, उपकरणों और रासायनिक खादों और सिंचाई के विभिन्न साधनों के द्वारा कृषि-दशा की दयनीय स्थिति को सबल बनाऊँगा। देश की जो बंजर और बेकार भूमि है उसका पूर्ण उपयोग कृषि के लिए करवाते हुए कृषकों को एक- से – एक बढ़कर उन्नतिशील बीज उपलब्ध कराके उनकी अपेक्षित सहायता सुलभ कराऊँगा।

यदि मैं प्रधानमंत्री हूँगा तो देश में फैलती हुई राजनीतिक अस्थिरता पर कड़ा अंकुश लगाकर दलों के दलदल को रोक दूंगा। राष्ट्र को पतन की ओर ले जाने वाली राजनीतिक अस्थिरता के फलस्वरूप प्रतिदिन होने वाले आंदोलनों, काम-रोको और विरोध दिवस बंद को समाप्त करने के लिए पूरा प्रयास करूंगा। देश में गिरती हुई अर्थव्यवस्था के कारण मुद्रा प्रसार पर रोक लगाना अपना मैं प्रमुख कर्तव्य समझूगा।

उत्पादन, उपभोग और विनियम की व्यवस्था को पूरी तरह से बदलकर देश को आर्थिक दृष्टि से अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व प्रदान कराऊँगा।

देश को विकलांग करने वाले तत्त्वों, जैसे-मुनाफाखोरी और भ्रष्टाचार ही नव अवगुणों की जड़ है। इसको जड़मूल से समाप्त करने के लिए अपराधी तत्त्वों को कड़ी-से-कड़ी सजा दिलाकर समस्त वातावरण को शिष्ट और स्वच्छ व्यवहारों से भरने की मेरी सबल कोशिश होगी। यहीं आज धर्म और जाति को लेकर तो साम्प्रदायिकता फैलाई जा रही है वह राष्ट्र को पराधीनता की ओर ढकेलने के ही अर्थ में हैं, इसलिए ऐसी राष्ट्र विरोधी शक्तियों को आज दंड की सजा देने के लिए मैं सबसे संसद के दोनों सदनों से अधिक-से-अधिक मतों से इस प्रस्ताव को पारित करा करके राष्ट्रपति से सिफारिश करके संविधान में परिवर्तन के बाद एक विशेष अधिनियम जारी कराऊंगा जिससे विदेशी हाथ अपना बटोर सकें।

संक्षेप में यही कहना चाहता हूँ कि यदि मैं प्रधानमंत्री हँगा तो राष्ट्र और समाज के कल्याण और पूरे उत्थान के लिए मैं एड़ी-चोटी का प्रयास करके प्रधानमंत्रियों की परम्परा और इतिहास में अपना सबसे अधिक लोकापेक्षित नाम स्थापित करूँगा। भारत को सोने की चिड़िया बनाने वाला यदि मैं प्रधानमंत्री होता तो कथनी और करनी को साकार कर देता।

18. परिश्रम अथवा परिश्रम का महत्त्व अथवा परिश्रम ही जीवन है।

संस्कृत का एक सुप्रसिद्ध श्लोक है-

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य, प्रविशन्ति मुखे मृगाः।।

अर्थात् परिश्रम से ही कार्य होते हैं, इच्छा से नहीं। सोते हुए सिंह के मुँह में पशु स्वयं नहीं आ गिरते। इससे स्पष्ट है कि कार्य-सिद्धि के लिए परिश्रम बहुत आवश्यक है।

सृष्टि के आरंभ से लेकर आज तक मनुष्य ने जो भी विकास किया है, वह सब परिश्रम की ही देन है। जब मानव जंगल अवस्था में था, तब वह घोर परिश्रमी था। उसे खाने-पीने, सोने, पहनने आदि के लिए जी-तोड़ मेहनत करनी पड़ती थी। आज, जबकि युग बहुत विकसित हो चुका है, परिश्रम की महिमा कम नहीं हुई है। बड़े-बड़े बाँधों का निर्माण देखिए, अनेक मंजिले भवन देखिए, खदानों की खुदाई, पहाड़ों की कटाई, समुद्र की गोताखोरी या आकाश-मंडल की यात्रा का अध्ययन कीजिए। सब जगह मानव के परिश्रम की गाथा सुनाई पड़ेगी। एक कहावत है- ‘स्वर्ग क्या है, अपनी मेहनत से रची गई सष्टि। नरक क्या है? अपने आप बन गई दुरवस्था।’ आशय यह है कि स्वर्गीय सुखों को पाने के लिए तथा विकास करने के लिए मेहनत अनिवार्य है। इसीलिए मैथिलीशरण गुप्त ने कहा है-

पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो,
सफलता वर-तुल्य वरो, उठो,
अपुरुषार्थ भयंकर पाप है,
न उसमें यश है, न प्रताप है।।

केवल शारीरिक परिश्रम ही परिश्रम नहीं है। कार्यालय में बैठे हुए प्राचार्य, लिपिक या मैनेजर केवल लेखनी चलाकर या परामर्श देकर भी जी-तोड़ मेहनत करते हैं। जिस क्रिया में कुछ काम करना पड़े, जोर लगाना पड़े, तनाव मोल लेना पड़े, वह मेहनत कहलाती है। महात्मा गांधी दिन-भर सलाह-मशविरे में लगे रहते थे, परंतु वे घोर परिश्रमी थे।

पुरुषार्थ का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इससे सफलता मिलती है। परिश्रम ही सफलता की ओर जाने वाली सड़क है। परिश्रम से आत्मविश्वास पैदा होता है। मेहनती आदमी को व्यर्थ में किसी की जी-हजूरी नहीं करनी पड़ती, बल्कि लोग उसकी जी-हजूरी करते हैं। तीसरे, मेहनती आदमी का स्वास्थ्य सदा ठीक रहता है। चौथे, मेहनत करने से गहरा आनंद मिलता है। उससे मन में यह शांति होती है कि मैं निठल्ला नहीं बैठा। किसी विद्वान का कथन है-जब तुम्हारे जीवन में घोर आपत्ति और दुख आ जाएँ तो व्याकुल और निराश मत बनो; अपितु तुरंत काम में जुट जाओ। स्वयं को कार्य में तल्लीन कर दो तो तुम्हें वास्तविक शांति और नवीन प्रकाश की प्राप्ति होगी।

राबर्ट कोलियार कहते हैं- ‘मनुष्य का सर्वोत्तम मित्र उसकी दस अंगुलियाँ हैं।’ अतः हमें जीवन का एक-एक क्षण परिश्रम करने में बिताना चाहिए। श्रम मानव-जीवन का सच्चा सौंदर्य है।

19. साक्षरता से देश प्रगति करेगा
अथवा
साक्षरता आंदोलन

साक्षरता का तात्पर्य है-अक्षर-ज्ञान का होना। दूसरे शब्दों में, व्यक्ति का पढ़ने-लिखने में समर्थ होना साक्षर होना कहलाता है। इस बात में कोई दो मत नहीं हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को अक्षर-ज्ञान होना चाहिए। अक्षर – ज्ञान व्यक्ति के लिए उतना ही अनिवार्य है जितना कि अँधेरे कमरे के लिए प्रकाश; या अंधे के लिए आँखें।

वर्तमान सभ्यता काफी उन्नत हो चुकी है। इस उन्नति का एक मूलभूत आधार है-शिक्षा। शिक्षा के बिना प्रगति का पहिया एक इंच भी नहीं सरक सकता। यदि शिक्षा प्राप्त करनी है तो अक्षर-ज्ञान अनिवार्य है। आज की समूची शिक्षा अक्षर-ज्ञान पर आधारित है। भारतीय मनीषियों ने तो अक्षर को ‘ब्रह्म’ माना है। आज ज्ञान-विज्ञान ने जितनी उन्नति की है, उसका लेखा-जोखा हमारे स्वर्णिम ग्रंथों में सुरक्षित है। अतः उस ज्ञान को पाने के लिए साक्षर होना पड़ेगा।

निरक्षर व्यक्ति जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पिछड़ जाता है। वह छोटी-छोटी बातों के लिए दूसरों पर निर्भर बना रहता है। उसे पत्र पढ़ने, बस-रेलगाड़ी की सूचनाएँ पढ़ने के लिए भी लोगों का मुँ ताकना पड़ता है। परिणमास्वरूप उसके आत्मविश्वास में कमी आ जाती है। यहाँ तक कि वह समाचार-पत्र पढ़कर दैनंदिन गतिविधियों को भी नहीं जान पाता। इस प्रकार वह विश्व की प्रगतिशील धारा से कट कर रह जाता है। रोज-रोज होने वाले नये आविष्कार उसके लिए बेमानी हो जाते हैं।

दुर्भाग्य से भारत में निरक्षरता का अंधकार बहुत अधिक छाया हुआ है। अभी यहाँ करोड़ों लोग वर्तमान सभ्यता से एकदम अनजान हैं। ईश्वर ने उन्हें जो-जो शक्तियाँ प्रदान की हैं, वे भी सोई पड़ी हैं। अगरबत्ती की सुगंध की भाँति उनकी प्रतिभा उन्हीं. में खोई पड़ी है। अगर ज्ञान की लौ लग जाए, साक्षरता का दीप जल जाए तो समूचा हिंदुस्तान उनकी सुगंध से महमह कर उठेगा। तब हमारे वनवासी बंधु, जो अज्ञान के कारण अपनी वन-संपदा के महत्त्व को नहीं जानते, उसके महत्त्व को जानेंगे; अपनी वन-भूमि का चहुंमुखी विकास करेंगे। परिणामस्वरूप नये उद्योग-धंधों से भारतवर्ष तो फलेगा-फूलेगा ही; उनके सूखे चेहरों पर भी रंगत आएगी। अतः साक्षरता आज का युगधर्म है। उसे प्रथम महत्त्व देकर अपनाना चाहिए।

20. विज्ञान-वरदान या अभिशाप

विज्ञान एक शक्ति है, जो नित नये आविष्कार करती है। वह शक्ति न तो अच्छी है, न बुरी, वह तो केवल शक्ति है। अगर हम उस शक्ति से मानव-कल्याण के कार्य करें तो वह ‘वरदान’ प्रतीत होती है। अगर उसी से विनाश करना शुरू कर दें तो वह ‘अभिशाप’ लगने लगती है।

विज्ञान ने अंधों को आँखें दी हैं, बहरों को सुनने की ताकत। लाइलाज रोगों की रोकथाम की है तथा अकाल मृत्यु पर विजय पाई है। विज्ञान की सहायता से यह युग बटन-युग बन गया है। बटन दबाते ही वायु देवता पंखे को लिये हमारी सेवा करने लगते हैं, इंद्र देवता वर्षा करने लगते हैं, कहीं प्रकाश जगमगाने लगता है तो कहीं शीत-उष्ण वायु के झोंके सुख पहुँचाने लगते हैं। बस, गाड़ी, वायुयान आदि ने स्थान की दूरी को बाँध दिया है। टेलीफोन द्वारा तो हम सारी वसुधा से बातचीत करके उसे वास्तव में कुटुंब बना लेते हैं। हमने समुद्र की गहराइयाँ भी नाप डाली हैं और आकाश की ऊँचाइयाँ भी। हमारे टी.वी., रेडियो, वीडियो में सभी मनोरंजन के साधन कैद हैं। सचमुच विज्ञान ‘वरदान’ ही तो है।

मनुष्य ने जहाँ विज्ञान से सुख के साधन जुटाए हैं, वहाँ दुःख के अंबार भी खड़े कर लिए हैं। विज्ञान के द्वारा हमने अणुबम, परमाणु बम तथा अन्य ध्वंसकारी शस्त्र-अस्त्रों का निर्माण कर लिया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि अब दुनिया में इतनी विनाशकारी सामग्री इकट्ठी को चुकी है कि उससे सारी पृथ्वी को पंद्रह बार नष्ट किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त प्रदूषण की समस्या बहुत बुरी तरह फैल गई है। नित्य नये असाध्य रोग पैदा होते जा रहे हैं, जो वैज्ञानिक साधनों के अंधाधुंध प्रयोग करने के दुष्परिणाम हैं।

MP Board Solutions

वैज्ञानिक प्रगति का सबसे बड़ा दुष्परिणाम मानव-मन पर हुआ है। पहले जो मानव निष्कपट था, निःस्वार्थ था, भोला था, मस्त और बेपरवाह था, अब वह छली, स्वार्थी, चालाक, भौतिकवादी तथा तनावग्रस्त हो गया है। उसके जीवन में से संगीत गायब हो गया है, धन की प्यास जाग गई है। नैतिक मूल्य नष्ट हो गए हैं। जीवन में संघर्ष-ही-संघर्ष रह गए हैं। कविवर जगदीश गुप्त के शब्दों में-

संसार सारा आदमी की चाल देख हआ चकित।
पर झाँक कर देखो दृगों में, हैं सभी प्यासे थकित।।

वास्तव में विज्ञान को वरदान या अभिशाप बनाने वाला मनुष्य है। जैसे अग्नि से हम रसोई भी बना सकते हैं और किसी का घर भी जला सकते हैं; जैसे चाकू से हम फलों का स्वाद भी ले सकते हैं और किसी की हत्या भी कर सकते हैं; उसी प्रकार विज्ञान से हम सुख के साधन भी जुटा सकते हैं और मानव का विनाश भी कर सकते हैं। अतः विज्ञान को वरदान या अभिशाप बनाना मानव के हाथ में है। इस संदर्भ में एक उक्ति याद रखनी चाहिए ‘विज्ञान अच्छा सेवक है लेकिन बुरा हथियार।’

MP Board Class 12th Hindi Solutions

MP Board Class 12th General Hindi परिपत्र

MP Board Class 12th General Hindi परिपत्र

प्रपत्र-पाठ्यक्रम के अनुसार कुछ महत्त्वपूर्ण प्रपत्रों के नमूनों की जानकारी भी छात्रों के लिए आवश्यक है। इन प्रपत्रों की जानकारी की जरूरत हमारे दैनिक जीवन में हमेशा होती हैं। इनमें रेलवे आरक्षण, मनीऑर्डर, टेलिग्राम (तार पत्र), बैंक से रकम निकासी या जमा करने का प्रपत्र ज्यादा जरूरी है। उदाहरणस्वरूप इनके नमूने भी इसी अध्याय में दिए गए हैं।

MP Board Solutions

बैंक में पैसे/चेक जमा कराने का प्रारूप
MP Board Class 12th General Hindi परिपत्र img-1

बैंक से पैसे निकालने का प्रारूप
MP Board Class 12th General Hindi परिपत्र img-2

रेलवे आरक्षण का प्रारूप
MP Board Class 12th General Hindi परिपत्र img-3

MP Board Solutions

भारतीय डाक-मनीऑर्डर भरपि।
MP Board Class 12th General Hindi परिपत्र img-4

MP Board Class 12th Hindi Solutions

MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण शब्द-युग्म

MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण शब्द-युग्म

शब्द युग्म का अर्थ और परिभाषा

युग्म का अर्थ है जोड़ा। जोड़ा अर्थात् दो का सह अस्तित्व। अतः शब्द युग्म ऐसे शब्दों को कहते हैं जो ऐसे दो शब्द होते हैं जिनके लिखने और उच्चारण में सूक्ष्म अन्तर होता है ये शब्द एक स्थान पर होने पर दूसरे के होने का भ्रम पैदा करते हैं।

डॉ. हरदेव बाहरी ने लिखा है कि ऐसे शब्दों के प्रयोग के बारे में विशेष सावधानी बरतने की ज़रूरत है। ये ऐसे शब्द होते हैं जिनका उच्चारणू एक आध अक्षर (स्वर, स्वर की मात्रा या व्यंजन के हेर-फेर के कारण धोखे में डाल सकता है।

MP Board Solutions

यों तो युग्म दो शब्दों का होता है पर कुछ शब्द तीन-तीन और थोड़े समूह चार-चार समोच्चारित शब्दों के भी मिल जाते हैं, जिनमें अर्थ भेद स्पष्टतः देखा जा सकता है।

शब्दों का महत्त्व या उपयोगिता : शब्दों के उच्चारण और लेखन की समानता, असमानता व अर्थ भिन्नता के प्रति अगर पाठक या लेखक सावधान नहीं रहता तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है। अतः शुद्ध भाषा के लेखन के लिए शब्द युग्मों से परिचित होना अनिवार्य है।

शब्द युग्मों के प्रकार या भेद शब्द युग्मों को भाषाविज्ञानियों ने चार भागों में विभाजित किया है। यह विभाजन इस प्रकार है :

  1. पुनरुक्त शब्द युग्म
  2. अनुकरणात्मक शब्द युग्म
  3. अनुसरणात्मक शब्द युग्म
  4. भिन्न उच्चारण और भिन्न वर्तनी वाले शब्द युग्म।

1. पुनरुक्त शब्द युग्म : जब एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होती है तो उसे पुनरुक्त शब्द युग्म कहते हैं। जैसे-अभी-अभी, कभी-कभी, वाह-वाह, जाते-जाते, आते-आते। लिखते-लिखते आदि।
2. अनुकरणात्मक शब्द युग्म : जब पहले शब्द के अनुकरण पर दूसरा शब्द गढ़ लिया जाता है तो तब अनुकरणात्मक शब्द युग्म कहलाता है। जैसे-पानी-वानी, दाल-वाल, रोटी-वोटी, चाय-वाय, हाई फाई, ऐसा-वैसा, जैसे-तैसे। यहाँ-वहाँ आदि।।
3. अनुसरणात्मक शब्द युग्म : इस श्रेणी में दोनों ही शब्द एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं लेकिन संयोग सार्थक होता है। जैसे-फटा-फट, तड़ा-तड़, टर-टर, चट-चट आदि।
4. भिन्न उच्चारण और भिन्न वर्तनी वाले शब्द युग्म : जो दोनों ही शब्द उच्चारण व भिन्न वर्तनी और अर्थ वर्तनी की दृष्टि से भिन्न होते हैं। जैसे-अस्त्र-शस्त्र, आधि-व्याधि, तंद्रा-निद्रा, अवस्था-वायु, अभिमान – अहंकार, ऋद्धि-सिद्धि आदि।

युग्म शब्दों का प्रयोग करते समय बरतने वाली सावधानियाँ

अगर आप अपने लेखन में युग्म शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं तो आपको अतिरिक्त सावधान रहने की आवश्यकता है क्योंकि आपकी जरा-सी लापरवाही वाक्य का अनर्थ कर सकती है। वस्तुतः जिन शब्दों में, उच्चारण की दृष्टि से बहुत कम अन्तर होता है वे शब्द युग्म अधिक भ्रम पैदा करते हैं, अतः इनका प्रयोग और शुद्ध लेखन में अतिरिक्त सावधानी बरतने की आवश्यकता है।

समध्वनि भिन्नार्थक युग्म शब्द

1. उत्तर : प्रश्न का उत्तर।
: मुझे अभी तक मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं मिला।
उत्तर : दिशा विशेष।
यह गाड़ी उत्तर दिशा में जा रही है।
उतर : नीचे उतरने का भाव।
: अब वह सूर्यास्त देखकर नीचे उतर रही थी।

2. काफी : एक पेय पदार्थ।
: क्या आप मुझे एक प्याली गर्म काफी पिला सकते हो?
काफी : पर्याप्त।
: राम को काफी समय दिया गया किंतु तब भी प्रश्न नहीं लिखा।

3. ग्रह : नक्षत्र।
: आजकल उसके ग्रह खराब चल रहे हैं।
घर : रहने की जगह।
: अभी तक शीला घर नहीं पहुंची थी।

4. अंगद : बाजूबन्द।
: अश्व पर उछलती हुई राजकुमारी का अंगद गिर गया।
अगद : रोग रहित।
: दवाई लेने पर वह अगद हो गया।

5. अंटी : कमर पर धोती की लपेट।
: ग्रामीण अंटी में पैसे रखते हैं।
अंडी : एरंड का तेल।
: अंडी कई रोगों में रामबाण साबित हो चुका है।

6. अगम : जहाँ कोई पहुँच न सके।
: यह स्थान अगम है।
आगम: शास्त्र।
: शिवपुराण, निगम पुराण आदि सब आगम ग्रंथ हैं।

7. आकर : खान खजाना।
: मेरे पिता जी गुणाकर हैं।
आचार : रीति, व्यवहार।
: व्यक्ति आचार अच्छा हो तो सर्वत्र पूजनीय होता है।

8. आदि : वगैरह।
: राम सीता व लक्ष्मण आदि सभी का अभिनय अच्छा था। आदी
: वह नशे की बुरी तरह आदी है।

9. इंदिरा : लक्ष्मी।
: विष्णु के साथ सती सावित्री इंदिरा के दर्शन हुए।
इंद्रा : इंद्र की पत्नी।
: इंद्रा की पत्नी का नाम शची भी है।
इत्र : एक सुगंधित पदार्थ।
: वह इत्र बेचने का काम करता है।

MP Board Solutions

10. कंकड़ी : छोटा कांकड़।
: मुझे सोहन ने कंकड़ी मार कर जगा दिया। ककड़ी : एक फल।
: क्या आप ककड़ी खाने के बाद पानी पी गए थे?

11. कमल : एक फूल का नाम।
: सरोवर में सुंदर कमल खिले थे।
कंवल : गर्म कपड़ा।
: एक ही कंबल में पूरा परिवार जाड़े की रात काट रहा था।

12. क्षति : हानि।
: उसे इस खेल में दो लाख की क्षति उठानी पड़ी।
क्षात्र : क्षत्रीय धर्म।
: पांडवों ने क्षात्र धर्म का पालन किया।

13. खरा : शुद्ध।
: वह खरा आदमी है।
खर्रा : चिट्ठा।
: मजदूरों की मजदूरी का खर्रा तैयार हो गया है।

14. गगरा : घड़ा।
: गगरा भर कर पनिहारिन घर की ओर चली।
गड़ना : धंसना।
: उसके पाँव में कांटे गड़ने लगे थे।

15. ग्रंथ : पुस्तक।
: यह ग्रंथ कब तैयार हुआ मल्लिका?
ग्रंथि : गांठ।
: हमारे शरीर में बहुत-सी ग्रंथियाँ है।

16. घोल : घुला मिश्रण।।
: दवा घोल कर पी लो।
घोर : बहुत अधिक।
: उस पर घोर तकलीफों का पहाड़ टूट गया।

17. चिर : लंबे समय तक।
: पुत्र को चिरजीवी रहने का आदेश दिया पिता ने।
चीर : वस्त्र।
: दुर्योधन और खींच रहा था और खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था।

18. छत : पाटन।
: वह मकान की छत पर चढ़ गया था।
क्षत : जख्मी।
: छाती पर गोली लगते ही वीर क्षत-विक्षत हो गया।
19. तक्र : छाछः
: महाराष्ट्र में भोजन के साथ तक्र अवश्य परोसा जाता है।
तर्क : दलील।
: आपका कोई भी तर्क मेरे गले नहीं उतर रहा था।

20. तर : गीला।
: श्याम पसीने से तर था।
मकरंद : हिंदी सामान्य
तरु : पेड़।
: एक भी तरु पर पंछी नहीं था।

21. दंश : डंसने।
: वह सर्पदंश से दम तोड़ गया।
दश : दस की संख्या
: पुस्तक का अध्याय दश अधिक लंबा लिखा गया है।

22. दायी ; देने वाला।
: दायी के आते ही घर के लोग स्वागत के लिए उठे खड़े हुए।
दाई : दासी।
: दाई के आते ही सारा घर साफ हो गया।

23. धन : रुपया पैसा।
: आपके पास कम धन तो नहीं है?
धन्य : पुण्यवान्
: आपको पुस्तक मिली है, आप धन्य हैं।

24. नहर : बनावटी नदी।
: इस नहर का क्या नाम है?
नाहर : सिंह।
: आजकल भारत में नाहरों की संख्या कम होती जा रही है।

25. पति : घरवाला।
: क्या शीला का पति भी काम करता है?
पत्ति : हिस्सा।
: इस कारोबार में मेरी दस पैसे की पत्ती है।

26. पानी : जल।
: प्यासे को पानी पिलाना पुण्य का काम है।
पाणि : विवाह।
: राधा का पाणिग्रहण सोमवार को है।

27. प्रसाद : पुजारी से मिलने वाला पदार्थ।
: रमेश मंगलवार को प्रतिदिन प्रसाद लाता है।
प्रासाद : भवन।
: सुदामा का प्रासाद देखकर नगरवासियों को ईर्ष्या हो रही थी।

MP Board Solutions

28. पूर : बाढ़।
: गंगा के पूर से आस-पास की बस्तियाँ डूब गईं।
पूरी : पकवान।
: जीते जी जिसे रोटी नहीं दी उस पिता की बरसी पर गाँव के मुखिया पूरी खिला रहे थे।

29. प्रकार : तरह।
: इस अलंकार के पाँच प्रकार हैं।
प्राकार : चार दीवारी।
: भवन की प्राकार ऊँची बनाई गई।

30. प्रमाण : सुबूत।
: आखिर इसका क्या प्रमाण है आपके पास?
प्रणाम : नमस्कार।
: सुबह उठकर वह पिता को प्रणाम करता था।

31. प्राप्त : मिलना।
: आपको. जो भी प्राप्त हुआ, अच्छा था।
पर्याप्तः काफी।
: आपके लिए इतना भोजन पर्याप्त रहेगा।

32. बंदी : कैदी।
: बंदी ने आंखें खोली तो सामने राजकुमार खड़ा था।
वंदी : वंदना करने वाले।
: राजा के आते ही वंदीगण विरुदावली गाने लगे।

33. वार : दिन।
: आज सोमवार है।
वार : चोट।
: तलवार के एक ही वार से वह धराशायी हो गया।

34. मांस : गोश्त।
: हम मांसाहारी नहीं है भाई। मास : महीना।
: एक मास बीत गया, हमारा काम नहीं हुआ।

35. मेघ : बादल।
: गगन में श्याम मेघ घिर आए थे।
मेध : यज्ञ।
: अश्वमेध कब करना होगा आर्यपुत्र?

36. युक्त : उचित।
: युक्त आहार मनुष्य को सुखी रखता है।
मुक्त : बरी।
: आज वह अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो गया।

37. योगीश्वरः योगियों में श्रेष्ठ।
: गोरखनाथ को योगीश्वर कहा जाता है।
योगेश्वर : महादेव।
: योगेश्वर के विवाह पर सभी देवताओं को निमंत्रण भेजा गया।
: योगेश्वर भोलेनाथ की जय।

38. रत : लीन।
: वह प्रभु भक्ति में रत है।
रक्त : खून।
: पिता के माथे से रक्त देखकर पुत्र आवेश में आ गया।

39. लक्ष : लाख।
: राणा ने दो लक्ष मुद्राएं कवि को पुरस्कार में दी।
लक्ष्य : उद्देश्य।
: मेरा एक ही लक्ष्य है वह है मुक्ति प्राप्त करना।

MP Board Solutions

40. रेचक : दस्तावर।
: कब्ज के लिए कोई रेचक दवा लेना उचित रहेगा।
रोचक : मन को भाने वाले।
: आप रोचक किस्से सुनाते रहे, दिन कट गया।

MP Board Class 12th Hindi Solutions

MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण पारिभाषिक एवं तकनीकी शब्द

MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण पारिभाषिक एवं तकनीकी शब्द

पारिभाषिक शब्द का अर्थ और स्वरूप
उपयोगिता और महत्त्व

भाषा के अनेक पक्ष होते हैं। उनमें एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है : पारिभाषिक और तकनीकी शब्द। विभिन्न विज्ञानों और शास्त्रों में प्रयुक्त होने वाले पारिभाषिक शब्दों का विशेष महत्त्व है। इसके . प्रयोग से विषय – विशेष के संदर्भ में भाषा व्यवहार की प्रयोजनपरकता बढ़ती है। विषय का विशिष्ट ज्ञान उभरता है, किंतु पारिभाषिक शब्द ऐसा तकनीकी विषय है जो स्वयं में कई आयाम लिए हुए

MP Board Solutions

मानव अपने भावों या विचारों को अथवा संकल्पनाओं को भाषा के माध्यम से व्यक्त करता है। वह समाज में रहते हुए भाषा सीखता है, समाज में उसका प्रयोग करता है। भाषा सार्थक शब्दों की समूह होती है और इसका कार्य अर्थ की प्रतीति कराना होता है। यह अर्थ बोध भाषा को जानने वालों को होता है। शब्द जहाँ सांकेतिक अर्थ का बोध कराके वाच्यार्थ को व्यक्त करते हैं वहीं लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ के रूप में इससे भिन्न अर्थ का भी बोध कराते हैं। वह अलग – अलग संदर्भो में लक्ष्यार्थ की प्रतीति भी करा सकता है और व्यंग्यार्थ की भी, किंतु मूलतः वह वाचक होता है। इसलिए शब्द में अर्थ बोध कराने की शक्ति होती है। यह भाषा की महत्त्वपूर्ण इकाई है। भाषा विशेष में शब्दों की अधिकता उतने ही अधिक अर्थ क्षेत्रों को व्यक्त करने की क्षमता को सिद्ध करती है।

पारिभाषिक शब्द की व्युत्पत्ति व परिभाषा

साहित्य जगत् – चाहे वह ज्ञानात्मक साहित्य से संबंधित हो अथवा आनंद के साहित्य से – शब्दों के संदर्भ में प्रयुक्त होने वाला पारिभाषिक शब्द अंग्रेजी के Technical Terms शब्द के समान व्यहार में लाया जाता है। पारिभाषिक शब्द एक विश्लेषण है जिसकी रचना परिभाषा शब्द में इक प्रत्यय से हुई है। इस तरह परिभाषिक का अर्थ है परिभाषा संबंधी अर्थात् जिसकी परिभाषा की जा सके अथवा जिसकी परिभाषा देने की आवश्यकता हो। जहाँ तक परिभाषा – शब्द का संबंध है तो इसकी व्युत्पत्ति भाष् धातु में परि उपसर्ग जोड़कर हुई है। भाष धातु कथन का और परि उपसर्ग विशिष्टता (अथवा विशेष अथ) का द्योतक है। इस प्रकार परिभाषा विशिष्ट ” भाष् अर्थात् . किसी पद, शब्द, या कथन की पहचान के स्पष्टीकरण से संबंधित है। इस विशिष्ट कथन का संबंध किसी भी विषय, वस्तु, अर्थ, क्षेत्र अथवा संदर्भ हो सकता है। इस प्रकार पारिभाषिक शब्द विशिष्ट विचारों को व्यक्त करने वाले विशिष्ट शब्द हैं। परिभाषा या विशिष्ट संदर्भ से जुड़े पारिभाषिक शब्दों (अथवा पारिभाषिक शब्दावली) का प्रयोग किसी परिभाषा युक्त कथन के सूत्र में किया जाता है। साथ ही, ये शब्द किसी भी भाषा की विभिन्न प्रयुक्तियों अथवा प्रयोजनमूलक रूपों में विशिष्ट अवधारणाओं के अभिव्यंजक होते हैं और स्वयं में तत्संबंधी व्याख्या समाहित किए हुए होते हैं।

पारिभाषिक शब्दों के अर्थ तत्त्व के बोध के लिए तत्संबंधी परिभाषा अथवा व्याख्या पर समुचित ध्यान दिया जाना अपेक्षित है। रैंडम हाउस ने पारिभाषिक शब्द की परिभाषा इस प्रकार दी है : ‘A word of phrase used in definite or precise sense in some particular subject as a science or art a technical impression (more fully term of art) विशिष्ट विषय जैसे विज्ञान अथवा कला विषय की तकनीकी अभिव्यक्ति के लिए निश्चित अथवा विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त एक शब्द अधिकांशतः कला का शब्द।।

डॉ. रघुवीर ने पारिभाषिक शब्द को इस प्रकार परिभाषित किया है, “ पारिभाषिक शब्द किसको कहते हैं? जिसकी परिभाषा की गई हो। पारिभाषिक शब्द का अर्थ है : जिसकी सीमा बांध दी गई हो। जिन शब्दों की सीमा बांध दी जाती है वे पारिभाषिक शब्द हो जाते हैं।”

पाठ्यक्रम में निर्धारित पारिभाषिक एवं तकनीकी शब्द में पारिभाषिक शब्द की परिभाषा इस प्रकार दी है : जो शब्द विभिन्न शास्त्रों और विज्ञानों में ही प्रयुक्त होते हैं तथा संबद्ध शास्त्र या विज्ञान के प्रसंग में जिनकी परिभाषा दी जा सके, पारिभाषिक शब्द कहलाते हैं।

पारिभाषिक शब्दों के प्रकार

भाषा व्यवहार में देखा जाता है कि प्रयोग के आधार पर शब्द के तीन भेद होते हैं : सामान्य शब्द, अर्द्ध पारिभाषिक शब्द और पारिभाषिक शब्द। इसके विपरीत कुछ भाषाविज्ञानी पारिभाषिक शब्दों के दो ही प्रकार मानते हैं।

1. सामान्य शब्द : सामान्य शब्द वे होते हैं जिन शब्दों में कोई तकनीकी पक्ष समाहित नहीं होता। इनके विषय में कुछ भी स्पष्ट कहने की आवश्यकता नहीं होती। जैसे मीठा, कलम, ठोस
आदि।

2. अर्द्ध पारिभाषिक शब्द वे कहलाते हैं जो सामान्य और पारिभाषिक शब्दों के बीच के शब्द होते हैं। अभिप्राय यह है कि ये शब्द अर्द्ध पारिभाषिक शब्द और सामान्य पारिभाषिक शब्दों के रूप में प्रयुक्त होने वाले होते हैं। इनका प्रयोग सामान्य जीवन व्यवहार में तो होता ही है साथ ही किसी भी विशिष्ट ज्ञान के संदर्भ में भी होता है। इन शब्दों की विशेषता यह होती है कि इनका पारिभाषिक अर्थ व्याख्या, लोक प्रयोग, अर्थ विस्तार, अर्थादेश, अर्थ संकोच से सिद्ध होता है। लोक व्यवहार और शास्त्र/विज्ञान विशेष में प्रयुक्त होने के स्तर पर इन शब्दों के रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता। ये केवल नया अर्थ लिए होते हैं

जैसे – आवेश, भिन्न, रस, संधि, पुष्प, हस्ताक्षर आदि। पाठ्यक्रम लेखक ने अर्द्ध पारिभाषिक शब्द के संबंध में यह कहा है, “ऐसे शब्द हैं जो कभी तो पारिभाषिक शब्द के रूप में प्रयुक्त होते हैं और कभी सामान्य रूप में। ऐसे शब्दों को अर्द्ध प्रामाणिक शब्द कहा जाता है। जैसे व्याकरण में क्रिया पारिभाषिक शब्द है। किंतु अन्यत्र इसका सामान्य अर्थ में प्रयोग किया जाता है।” इसी प्रकार अलंकार काव्यशास्त्र में पारिभाषिक शब्द है किंतु सामान्य अर्थ में यह आभूषण के लिए प्रयुक्त किया जाता है।

3. पारिभाषिक शब्द या पूर्ण पारिभाषिक शब्द : पारिभाषिक या पूर्ण पारिभाषिक शब्द वे कहलाते हैं जो ज्ञान व आनंद के साहित्य में टेक्नीकल टर्म के रूप में प्रयोग किए जाते हैं। इन्हें पूर्ण पारिभाषिक शब्द भी कहा जाता है। पाठ्यक्रम लेखक ने पारिभाषिक शब्द को पूर्ण पारिभाषिक शब्द कहा है और इसकी परिभाषा इस प्रकार दी है : “ऐसे शब्द जो पूर्णतः परिभाषा देते हैं। इनका प्रयोग सामान्य अर्थ में नहीं होता। जैसे काव्यशास्त्र में ‘रस निष्पत्ति’ शब्द पूर्णतः पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ है हृदय में स्थित भाव, रस के रूप में अनुभूत होते हैं।’ इसका सामान्य अर्थ में प्रयोग नहीं होता। इसी प्रकार भाषाविज्ञान का स्वनिम विशेष अर्थ देता है सामान्य अर्थ नहीं। चिकित्सा के राज्यक्ष्मा और शल्य क्रिया, न्यायालय के पेशी और जमानत, वाण्ज्यि के धारक और प्रीमियम शब्द विशेष अर्थ के बोधक हैं।

पारिभाषिक शब्द की विशेषताएँ
(क) पारिभाषिक शब्द का अर्थ सुनिश्चित होता है। जैसे संसद, विधानसभा, मानदेय आदि।
(ख) एक विषय या सिद्धांत में पारिभाषिक शब्द का एक ही अर्थ होता है जैसेः समाजवाद, बहीखाता, द्विआंकन प्रणाली।
(ग) पारिभाषिक शब्द सीमित आकार में होता है जैसे – स्वन, अभिभावक।
(घ) पारिभाषिक शब्द मूल या रूढ़ होता है, व्याख्यात्मक नहीं होता जैसे – दूरदर्शन, निवेशक, श्रमजीवी।
(ङ) पारिभाषिक शब्द मूल या रूढ़ होता है। यह व्याख्यात्मक नहीं होता। जैसे – विधान। इससे अनेक शब्द निर्मित किए जा सकते हैं: जैसे – विधान परिषद्, विधान सभा आदि।

पारिभाषिक शब्द निर्माण पद्धति या प्रणाली :
पारिभाषिक शब्दों का निर्माण कई प्रकार से किया जाता है।
1. उपसर्ग से पारिभाषिक शब्दों का निर्माण : इस तरह के शब्द तद्भव, तत्स आगत शब्दों में उपसर्ग जोड़कर बनाए जाते हैं :

  • अधि + कार – अधिकार
  • अति + क्रमण – अतिक्रमण
  • उप + मंत्रालय – उपमंत्रालय
  • सं + चार – संचार
  • बा + कायदा – बाकायदा
  • ना + लायक – नालायक
  • रि + साइकिल – रिसाइकिल
  • रि + ‘माइण्ड – रिमाइण्ड

2. प्रत्यय द्वारा पारिभाषिक शब्दों का निर्माण :
तत्सम तद्भव, विदेशी/ आगत शब्दों में प्रत्यय जोड़कर पारिभाषिक शब्द बनाए जाते हैं :

  • इतिहास + इक – ऐतिहासिक
  • रूप + इम – रूपिम।
  • दुकान + दार – दुकानदार
  • दम + दार – दमदार।
  • चलन + इया – चलनिया
  • फिर + औती – फिरौती
  • कलेक् + शन – कलेक्शन
  • एक्जामिन + एशन – एक्जामिनेशन

MP Board Solutions

3. समास से पारिभाषिक शब्दों का निर्माण :
तद्भव, तत्सम और विदेशी/आगत शब्दों के सामासिक प्रयोगों से पारिभाषिक शब्द बनाए जाते हैं :

  • तत्सम + तत्सम : ग्राम पंचायत, आकाशवाणी
  • तत्सम + तद्भव : जलपरी, रक्षा + चौंकी।
  • तत्सम + विदेशी : सहकारी + बैंक।
  • तद्भव + तद्भव : हाथ + घड़ा।
  • तद्भव + विदेशी : किताब + घर।
  • देशज + तद्भव : जच्चा + घर
  • विदेशी + विदेशी : ग्रीन + हॉल।

संधि से पारिभाषिक शब्दों का निर्माण : संधि प्रक्रिया से भी पारिभाषिक शब्दों का निर्माण किया जाता है :

  • अभि + आवेदन : अभ्यावेदन
  • जिला + अधिकारी : जिलाधिकारी
  • कुल + अधिपति : कुलाधिपति

विदेशी भाषा से यथावत ग्रहीत शब्द : पारिभाषिक शब्दों के निर्माण के लिए विदेशी या आगत शब्दों को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया जाता है।
बुलेटिन, बजट, रबर, ग्लूकोज, होमियोग्लोबिन, टेंप्रेचर।
अनुकूलन द्वारा पारिभाषिक शब्द निर्माण : विदेशी या आगत शब्दों में कुछ बदलाव लाकर हिंदी शैली में शब्दों को ढाल लिया जाता है।

  • ट्रेजेडी – त्रासदी
  • एकेडेमी – अकादमी

कुछ ऐसे शब्द भी हैं जो विशेष अर्थ में प्रयुक्त नहीं होते। उन्हें अपरिभाषिक या सामान्य शब्दों की श्रेणी में रखा जाता है जैसे पहाड़ियाँ, तलैया।

पारिभाषिक शब्द बनाने के लिए भारत सरकार के वैज्ञानिक तकनीकी शब्दावली आयोग की ओर से प्रकाशित पारिभाषिक शब्दकोश से ही पारिभाषिक शब्दों का निर्माण करना चाहिए। पारिभाषिक शब्दों के निर्माण में जिस भाषा में जो भी शब्द उपलब्ध है उसे ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेना चाहिए।

तकनीकी शब्दावली पारिभाषिक शब्द के लिए तकनीकी शब्द भी : पारिभाषिक शब्द के पर्याय के रूप में तकनीकी शब्द का प्रयोग किया जाता है। जैसे तकनीक शब्द Technical’ ध्वनि – साम्य के आधार पर निर्मित पर्याय है। अंग्रेजी का Technical’ शब्द भी Technique’ शब्द से बना है। यह मूल अंग्रेजी शब्द ग्रीक भाषा के Technician ‘से व्यत्पन्न है, जिसका अर्थ है कला या शिल्प का और इक का अर्थ है, इसका। (इससे संबद्ध) इस प्रकार ‘टेक्नी’ शब्द का अभिप्राय हुआ कला अथवा शिल्प का अथवा इससे संबद्ध। ग्रीक में टेक्टोन ‘Tectonic’ का अर्थ है बढ़ई अथवा निर्माता (Builder)। लेटिन में टैक्सीयर Tex ere’ को बुनना अथवा बनाने या . निर्माण करने के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। इस तरह यह ग्रीक शब्द किसी चीज़ को बनाने अथवा तैयार करने के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। इस तरह या ग्रीक शब्द किसी चीज को बनाने अथवा तैयार करने की कला या शिल्प है। अंग्रेजी के Technique’ शब्द में भी यही अर्थ उजागर होता है। फादर कामिल बुल्के ने इंगलिश हिंदी डिक्शनरी के अनुसार ‘Technical’ शब्द का शाब्दिक अभिप्राय बताया है, ‘of a particular art, science, craft or about art.’ अर्थात् विशेष कला का अथवा विज्ञान का अथवा कला के बारे में’। स्पष्ट है कि ‘Technical’ तकनीकी शब्द बनाने, तैयार करने के अर्थ को वहन करता है। इससे इस अर्थ को शब्द के Terms’ के साथ प्रयोग करने पर अर्थात् Technical Terms’ तकनीकी शब्द लिखने पर इसमें तात्पर्य निहित हो जाता है कि यह मानव द्वारा निर्मित अथवा अभिकल्पित अथवा अन्वेषित भाव विचार अथवा वस्तु को उजागर करने वाला शब्द है।

पाठ्यक्रम में निर्धारित तकनीकी शब्द की परिभाषा इस प्रकार दी गई है: तकनीकी वह शब्द है जो किसी निर्मित अथवा खोजी गई वस्तु अथवा विचार को व्यक्त करता हो। कोश ग्रंथों के अनुसार तकनीक शब्द किसी ज्ञान विज्ञान के विशेष क्षेत्र में एक विशिष्ट तथा निश्चित अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है।

MP Board Solutions

वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली का संबंध अधिकांश रूप से अंग्रेजी और अंतरराष्ट्रीय शब्दावली से है। सन् 1961 में वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली की स्थापना की गई। तब जाकर तकनीकी शब्दावली का विकास हुआ।

पारिभाषिक और तकनीकी शब्दावली में अंतर

पारिभाषिक व तकनीकी शब्दावली में सूक्ष्म अन्तर है। पारिभाषिक शब्द साहित्यिक और गैर – साहित्यिक विज्ञान आदि दोनों विषयों में हो सकते हैं पर तकनीकी शब्द से केवल तकनीकी टेक्निकल सब्जेक्ट के होते हैं। जैसे रस, गुण, अलंकार आदि साहित्यिक शब्द हैं जबकि राडार, नाइट्रोजन आदि तकनीकी विषयों के पारिभाषिक शब्द हैं।

भारत शासन के वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग ने विभिन्न विषयों को लगभग बीस शब्दावलियाँ प्रकाशित की हैं। इन्हीं शब्दावलियों से निम्नलिखित पारिभाषिक/ तकनीकी शब्दों का चयन किया गया है –
MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण पारिभाषिक एवं तकनीकी शब्द img-1
MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण पारिभाषिक एवं तकनीकी शब्द img-2

MP Board Class 12th Hindi Solutions

MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण संक्षेपण

MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण संक्षेपण

संक्षेपण का अर्थ और स्वरूप 

संक्षेपण या संक्षेपीकरण अथवा संक्षिप्तीकरण प्रेसी (Precis) का भाषा अनुवाद है। लेटिन भाषा के प्रेसीडर (Praecidere) से प्रेसी शब्द बना है जिसका अर्थ होता है काँट-छाँट कर छोटा करना। संक्षेपण या संक्षेपीकरण शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है। संक्षेपीकरण की तरह सारांश, सरलीकरण, भावार्थ, मुख्यार्थ, आशय आदि में भी संक्षिप्त रूप में लिखने पर बल दिया जाता है, पर संक्षेप इनसे स्वतंत्र कला है। इसकी अपनी शैली है।

संक्षेपण वह कला है जिसमें संक्षेपक का ध्यान सार-ग्रहण की ओर रहता है और वह आसार को छोड़ता चला जाता है। ऐसा करने में वह संक्षेपण की विधि और प्रक्रिया का ध्यान रखता है।

MP Board Solutions

संक्षेपण वह कला है जिसके द्वारा किसी वक्तव्य को, किसी विषय को कम-से-कम शब्दों … में प्रस्तुत किया जाए तो भी स्वयं में पूर्ण हो। उसमें मूल का न कोई अंश छूटता है और न ही उसके अनिवार्य आशय के समझने में कोई न्यूनता आती है।

संक्षेपण में पदान्वय के समान मूल वक्तव्य का संपूर्ण ब्यौरा नहीं रहता और न ही वह मूल ‘अंश के समान आकार वाला होता है। संक्षेपण मूल वक्तव्य से सदैव आकार में छोटा होता है। समास और व्यास शैली आदि भेद के कारण यद्यपि कोई नियम तय नहीं होता तथापि मूल का लगभग एक तिहाई भाग ही होता है।

संक्षेपण से किसी भी लेख, भाषण, अवतरण के मल तत्त्वों का ज्ञान तो होता ही है. साथ ही इस माध्यम से अभिव्यंजना और आलोचना में विशेष सहायता प्राप्त होती है। संक्षेपण करने में संक्षेपक लाक्षणिक शैली का प्रयोग नहीं करता। इसमें वह स्वाभाविक शैली व सीधे-साधे शब्दों का प्रयोग करता है।

संक्षेपक संक्षेपण करते समय औचित्य के लिए मूल अवतरण या विषय के क्रम में परिवर्तन कर उसे अधिक संगत बना देता है। इसके साथ ही संक्षेपण करते समय वाक्यों की संगति रखना भी आवश्यक होता है जिससे विचारों के तारत्य में अन्तर न आ जाए।

सार यह है कि संक्षेपण वह कला या रचना है जिसमें किसी वक्तव्य, लेख. अनच्छेद. आदि में व्यक्त भावों को मूल की अपेक्षा कम शब्दों में प्रतिपादित किया जाए। संक्षेपण में मूल का लगभग एक तिहाई भाग होता है।

महत्त्व और उपयोगिता

आज के व्यस्त जीवन में सब जगह संक्षेपण का महत्त्व है। यों भी जीवन में ऐसे व्यक्ति को महत्त्व दिया जाता है, जो संक्षेप में बात कहता है और व्यर्थ में अपने कथन को विस्तार नहीं देता। साहित्यकारों में गागर में सागर भरने की प्रवृत्ति इसी कारण है। संक्षिप्तता को वाग्वैदग्ध्य की आत्मा कहा जाता है।

संक्षेपण की कला की अपनी उपयोगिता है। इस कला से विद्यार्थी में स्वतंत्र निर्णय लेने की योग्यता बढ़ती है। वह असार छोड़कर सार ग्रहण करने में समर्थ होता है। किंतु इसके लिए अभ्यास की परम आवश्यकता है। संक्षेपण से भाषा लिखने का सामर्थ्य आता है। संक्षेपण से लेखक की योग्यता का विकास होता है। संक्षेपण कार्यालयों में कार्यप्रणाली का प्रमुख हिस्सा है। इसके बिना कार्यालय का काम-काज ठप्प हो सकता है। पत्रकारों और संवाददाताओं के लिए भी इस कला का बहुत महत्त्व है।

संक्षेपण के गुण या तत्त्व

व्यावहारिक जगत् में, विविध कार्यालयों में, प्रेस कांफ्रेंस आदि में विस्तृत वक्तव्य या अवतरण की रूपरेखा संक्षिप्त करना आजकल आवश्यक है। संक्षेपण के अभाव में ऐसा करना असंभव है। इसके लिए आधारभूत निम्न तत्त्व कहे गए हैं। इन्हें ही गुण भी कह दिया जाता है :

  1. पूर्णता : संक्षेपण अपने आप में पूर्ण होना चाहिए। पढ़ने के बाद ऐसा लगना चाहिए कि उसका कोई मुद्दा छूटा नहीं है।
  2. संक्षिप्तता : संक्षेपण करते समय मूल अवतरण के दृष्टांत, व्याख्या और अलंकारिकता आदि उससे अलग कर देने चाहिए। साधारणतः संक्षेपण का एक तिहाई भाग स्वीकृत माना जाता है।
  3. स्पष्टता : संक्षेपण का पाठक मूल अनुच्छेद नहीं पढ़ता, इसलिए इसमें कोई मुद्दा नहीं छूटना चाहिए। अगर इसमें व्यर्थ का विस्तार किया जाता है तो इससे अस्पष्टता आ जाती है।
  4. तारतम्य : अच्छे संक्षेपण में एक तारतम्य होना चाहिए। विचारों में असम्बद्धता नहीं होनी चाहिए। इसमें एकसूत्रता होनी चाहिए। प्रत्येक वाक्य में शृंखलाबद्धता होनी चाहिए जिससे क्रम में हानि न हो।
  5. प्रभावोत्पादकता : मू वतरण के बिखरे क्रम में परिवर्तनकर उसे प्रभावोत्पादक बनाया जाता है। यह अच्छे संक्षेपक का गुण है। भावों की क्रमबद्धता अच्छे संक्षेपण में प्रभाव पैदा करने की क्षमता रखती है।
  6. सारता : अच्छा संक्षेपण मूल अवतरण का सारमात्र होना चाहिए, अतः अनुच्छेद से न कुछ कम होना चाहिए और न विस्तार होना चाहिए।

इन तत्त्वों के अतिरिक्त संक्षेपण अप्रत्यक्ष कथन शैली में किया जाना चाहिए, मूल अनुच्छेद के शब्दों तथा वाक्यों का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। आकार की वृद्धि रोकने के लिए मुहावरे, लोकोक्तियां व दृष्टांत आदि निकाल देने चाहिए। विशेषणों और क्रिया विशेषणों को हटा देना चाहिए। टीका-टिप्पणी निकाल देनी चाहिए। भूमिका व उपसंहार आदि का भी महत्त्व नहीं है।

इस प्रकार इन सब तत्त्वों या गुणों को ध्यान में रखकर संक्षेपण करना चाहिए।

संक्षेपण की विधि

संक्षेपण करते समय संक्षेपण लेखक को इसके गुणों अथवा तत्त्वों को ध्यान में रखना चाहिए और लिखने के लिए पूर्ण मनोयोग के साथ बैठना चाहिए। संक्षेपक संक्षेपण करते समय निम्नलिखित विधि अथवा प्रणाली अपना सकता है:

MP Board Solutions

1. मूल अनुच्छेद का पठन : संक्षेपण करते समय संक्षेपक को मूल अवतरण कम-से-कम तीन बार पढ़ना चाहिए। पढ़ते हुए उसे विशिष्ट वाक्यों को रेखाकिंत कर लेना चाहिए अथवा असार वाक्यों को रेखाकिंत करना चाहिए। अगर किसी शब्द का ज्ञान नहीं है तो उसे शब्द कोश का आश्रय लेना चाहिए।

2. शीर्षक का चुनाव : प्रायः शीर्षक अवतरण के केन्द्रीय भाव से जुड़ा होता है। यह आकार में लघु होना चाहिए अथवा कुछ शब्दों में होना चाहिए। यह एक पंक्ति से बड़ा नहीं होना चाहिए। यह कथ्य के साथ मेल खाने वाला होना चाहिए। इस शीर्षक में गंभीरता होनी चाहिए। यदि आवश्यक हो तो संक्षेपक दो-तीन शीर्षक का चुनाव कर सकता है और उसमें भी सबसे उपयुक्त का चुनाव कर सकता है।

शीर्षक प्रायः अनुच्छेद के आरम्भ में एक शब्द से सूचित होता है। कभी-कभी यह भूमिका .. अथवा उपसंहार में होता है। कभी शीर्षक अवतरण के मध्य होता है। कभी यह अवतरण के अन्त में होता है। यदि इनमें भी शीर्षक न मिले तो मूल कथ्य को पढ़कर शीर्षक तैयार किया जा सकता है।

3. शब्द संख्या से संक्षेपण के आकार का निर्माण : शब्द संख्या से संक्षेपण के आकार का निर्माण किया जाता है। संक्षेपक मूल अनुच्छेद को पढ़कर और उसके शब्दों की गणना कर, मूल अनुच्छेद के एक-तिहाई शब्दों में (थोड़ा बहुत या अधिक) संक्षेपण करे। शब्द गणना करते समय अगर विभक्तियाँ शब्दों के साथ जुड़ी हुई हों तो उस रूप में और अलग हों तो उस रूप में गणना करे। प्रायः परीक्षा में संकेत दे दिया जाता है कि संक्षेपण इतने शब्दों में किया जाना चाहिए। अगर ऐसा संकेत न हो तो एक पंक्ति के शब्दों की गणना कर उन्हें कुल पंक्तियों से गुणा कर शब्द संख्या निकाल लेनी चाहिए।

4. संक्षेपण के प्रारूप का निर्माण : अगर विद्यार्थी के पास समय हो तो संक्षेपण का पहले प्रारूप तैयार करना चाहिए। यह मूल अनुच्छेद के आधे के बराबर होना चाहिए। प्रारूप में अन्य पुरुष का प्रयोग किया जाना चाहिए। इस प्रारूप में विशेषणों, कहावतों व मुहावरे आदि को निकाल देना चाहिए। क्रिया विशेषणों को भी अलग कर देना चाहिए।

5. तथ्यात्मकता का प्रारूप : शीर्षक चुनाव के बाद मुख्य विषय से संबंधित सामग्री का चुनाव करना चाहिए। इसके लिए मुख्य तत्त्वों को रेखांकित करना चाहिए अथवा अनावश्यक सामग्री को रेखांकित करना चाहिए। इन दोनों प्रकारों में एक को अपनाकर संक्षेपण तैयार करना चाहिए। किंतु मूल कथ्य में ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

6. लेखन : लेखन संक्षेपण का मूल अन्तिम सोपान है। इससे पूर्व में जो प्रारूप तैयार किया जाता है उसे संक्षिप्त करने और केंद्रीय भाव को ध्यान में रखकर संक्षिप्तता, एकसूत्रता और प्रभावोत्पादकता बनाए रखना चाहिए। लेखन की भाषा सहज और स्वाभाविक होनी चाहिए। उसमें किसी तरह कोई आडम्बर नहीं दिखना चाहिए।

संक्षेपण के प्रकार

संक्षेपण के कई प्रकार हैं :

  1. संवादों का संक्षेपण : प्रत्येक संवाद का संक्षेपण आवश्यक नहीं होता, जहाँ नई बात हो वही रेखांकित की जानी चाहिए। प्रत्यक्ष कथन को अप्रत्यक्ष कथन में कहना चाहिए। पात्रों की भाव-भंगिमा तथा मनोदशा के सूचक शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। उद्धरण चिह्नों को हटा देना चाहिए। संज्ञाओं के स्थान पर सर्वनामों का प्रयोग करना चाहिए।
  2. समाचारों का संक्षेपण : प्रत्येक संवादों के सक्षेपण में तिथि, स्थान तथा संबद्ध व्यक्तियों का नामोल्लेख किया जाना चाहिए। इस प्रकार के संक्षेपणों में शीर्षक प्रभावी होना चाहिए।
  3. पत्रचारों का संक्षेपण : सभी कार्यालयों में पत्राचारों के संक्षेपण की आवश्यकता होती है। कार्यालयों के पत्राचारों में समानता होने के कारण प्रायः विषमताओं को उभारना चाहिए।

पत्राचारों के संक्षेपण के दो प्रकार हैं : सामान्य संक्षेपण और सूचीकरण संक्षेपण। सामान्य . संक्षेपण को विस्तृत रूप से संक्षिप्त करना होता है जबकि सूचीकरण संक्षेपण में कमसंख्या, पत्रसंख्या, दिनांक, प्रेषक, प्रेषिती और पत्र के विषय का ध्यान रखा जाता है।

संक्षेपण के कुछेक उदाहरण

1. भारत के पास कुछ ऐसी संपदाएँ हैं तथा लाभ हैं जिनके बारे में विश्व के कुछ देश गर्व से दावा कर सकते हैं। हमें अपने गौरवशाली अतीत और वर्तमान योगदानों तथा अपने भविष्य की रूपरेखा बनाने के लिए प्राप्त प्रतिस्पर्धात्मक लाभ को पहचानना चाहिए। विश्व एक बौद्धिक समाज में परिवर्तित हो रहा है, जहाँ समन्वित ज्ञानराशि तथा धन का स्रोत होगा। यही वह समय है, जब भारत खुद को एक बौद्धिक शक्ति में बदलने और फिर अगले दो दशकों के भीतर एक विकसित देश बनने के लिए इस अवसर का लाभ उठा सकता है। इस रूपांतरण के लिए यह जानना आवश्यक है कि हम प्रतिस्पर्धात्मकता के मामले में कहाँ हैं जो एक बौद्धिक शक्ति बनाने की दिशा में अग्रसर होने के लिए वास्तविक इंजन है।

शब्द संख्या : 122

संक्षेपण

शीर्षक

प्रतिस्पर्धा की पहचान
संक्षेपण : भारतीय को गौरवमय अतीत, वर्तमान उपलब्धियों व भविष्य के प्रारूप को जानने की आवश्यकता है क्योंकि संसार बौद्धिक होता जा रहा है और ज्ञानशक्ति व धन का स्रोत . बनता जा रहा है। विकास के लिए उसे प्रतिस्पर्धा में स्वयं को पहचानना होगा कि वह कहाँ है।

– शब्द संख्या : 40

2. इन सब के पीछे राजनीति है। यह कोई नई बात नहीं है। नालंदा विश्वविद्यालय की कई महिमा रही है। शिक्षा के क्षेत्र में बड़ा दबदबा रहा है नालंदा का। दस हजार विद्यार्थी और पन्द्रह सौ आचार्य थे। बौद्ध दर्शन, दर्शन, इतिहास, निरुक्त, वेद, हेतुविद्या, न्याय शास्त्र, व्याकरण, चिकित्सा शास्त्र, ज्योतिष आदि के शिक्षण की व्यवस्था। इस विश्वविद्यालय में। आचार्य शीलभद्र, नागार्जुन, आचार्य धर्म कीर्ति, आचार्य ज्ञानश्री, आचार्य बुद्ध भद्र, आचार्य गुणपति, आचार्य स्थिरमति, आचार्य सागरमति जैसे विख्यात आचार्यों का नाम नालंदा से जुड़ा रहा। लेकिन नालन्दा के इतिहास में काला धब्बा भी लग गया है। यह काला धब्बा नालंदा के पुस्तकालय को लेकर है। बख्तियार खिलजी के आक्रमणों से देश की जो सबसे बड़ी हानि हई, वह थी वहाँ के इन पुस्तकालयों को आग के हवाले करना। इस अग्निकाण्ड में वे अमूल्य ग्रन्थ सदा के लिए भस्म हो गए। जिनका उल्लेख मात्र तिब्बती और चीनी ग्रंथों में मिलता है। युवानच्चाङ ने नालंदा के पुस्तकालय का बड़ा गौरवपूर्ण उल्लेख किया है। तिब्बती विवरणों से पता चलता है कि नालंदा में पुस्तकालयों का एक विशिष्ट क्षेत्र था। उसे वह ‘धर्मगंज’ कहते थे। इसमें ‘रत्नसागर’, ‘रत्नोदधि’ और रत्नंजक नामक तीन विशाल पुस्तकालय थे। ‘रत्नसागर’ का भवन नौ-मंजिला. था।

शब्द संख्या : 193

संक्षेपण

शीर्षक-
नालंदा विश्वविद्यालय की महिमा

नालंदा विश्वविद्यालय की शिक्षा के क्षेत्र में कभी धाक रही है। यहाँ बौद्ध दर्शन, दर्शन, इतिहास, निरुक्त, वेद शास्त्र, हेतु विद्या, न्याय शास्त्र, व्याकरण, चिकित्सा, ज्योतिष आदि तत्कालीन सभी विषयों की उत्तम व्यवस्था थी। कई नामी शिक्षक थे किंत बख्यिार खिलजी के आक्रमणों के समय इसके पुस्तकालयों को जला दिया गया जिसके कारण इसमें स्थित अमूल्य ग्रंथ नष्ट हो गए जिनकी चर्चा केवल तिब्बती और चीनी ग्रंथों में होती है।

शब्द संख्या : 72.

MP Board Solutions

3. मन की एकाग्रता की समस्या सनातन है। आज के प्रौद्योगिकी युग में जहाँ भौतिक उन्नति की संभावनाएँ अपार हैं ऐसे में छात्र जब अध्ययन करने बैठता है, तब उसके मन को अनेक तरह के विचार घेरने लगते हैं। वह सोचता है इस अर्थ प्रधान युग में मुझे उत्कृष्ट पद प्राप्ति के लिए एकाग्र मन से पढ़कर परीक्षा में उच्चतम श्रेणी प्राप्त करना आवश्यक है। लेकिन वह जब पढ़ने बैठता है तो क्रिकेट, सिनेमा या मित्र-मण्डली की मौज-मस्ती के विचार में उसका मन भटकने लगता है। मन का यह विचलन बुद्धि की एकाग्रता भंग कर देता है। यह घबरा कर सोचता है, परीक्षा तिथि पास है, मन उद्विग्न है, कैसे अध्ययन करूँ? क्या करूँ? व्यर्थ के विचारचक्र से बुद्धि अस्थिर और मन चंचल बना रहता है। वह सोचता है यदि परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गया तो सब कुछ नष्ट हो जाएगा। पद, प्रतिष्ठा, वैभव कुछ नहीं मिलेगा, जीवन बोझ बन जाएगा, वह बार-बार हताशा से घिर जाता है। अनियंत्रित मन और एकाग्रहीनता उसे चिंताओं में डुबा देती है। अर्जुन की यह स्वीकारोक्ति कि ‘चंचल मन का निग्रह वायु की गति रोकने के समान दुष्कर है उसे उचित प्रतीत होने लगता है।’

शब्द संख्या : 198

संक्षेपण

शीर्षक
मन की एकाग्रता
मन की एकाग्रता की समस्या सदा से रही है। छात्र पढ़ने बैठता है तो उसके मन में अनेक विचार घूमने लगते हैं। उन्नति के लिए वह एकाग्र करने का मन बनाता है पर मनोरंजन के साधन उसे भटका देते हैं। मन की एकाग्रहीनता उसे चिंतामग्न कर देती है। अनुभव करने लगता है कि चंचल मन को एकाग्र करना दुष्कर है।
शब्द संख्या : 61

MP Board Class 12th Hindi Solutions