MP Board Class 11th Samanya Hindi अपठित बोध Important Questions

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MP Board Class 11th Samanya Hindi Important Questions अपठित गद्यांश

निम्नलिखित गद्यांशों को सावधानीपूर्वक पढ़िए और उसके नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर दीजिये

1. यदि हम निरन्तर प्रयत्न करेंगे तो निश्चय ही अपने सभी लक्ष्यों को प्राप्त कर लेंगे, किन्तु प्रायः देखा जाता है कि अधिक आशावादी लोग थोड़ा-सा प्रयत्न करके अधिक फल की कामना करने लगते हैं और मनोवांछित फल प्राप्त न होने पर निराश हो जाते हैं, अत: जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए परिस्थितियों के समक्ष घुटने न टेंकें, बल्कि हिम्मत से उनका मुकाबला करें। याद रखें, जितना कठोर हमारा परिश्रम होगा उसका फल भी उतना ही मीठा होगा।”

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प्रश्न-
(i) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ii) उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
(iii) कम प्रयत्न के बावजूद अधिक फल की कामना कौन करता है?
उत्तर-
(i) शीर्षक-“परिश्रम एवं सफलता।”
(ii) कर्म करने से सफलता मिलती है। कम श्रम से अधिक सफलता की कामना करने वालों के हाथ असफलता ही लगती है। सफलता प्राप्त करने का मूल मंत्र है-हार न मानना और कठोर परिश्रम।
(ii) आशावादी लोग कम प्रयत्न करके अधिक फल की कामना करते हैं।

2. “उदारता का अभिप्राय केवल नि: संकोच भाव से किसी को धन दे डालना ही नहीं वरन् दूसरों के प्रति उदार भाव रखना भी है। उदार पुरुष सदा दूसरों के विचारों का आदर करता है और समाज में सेवक भाव से रहता है यह न समझो कि केवल धन से उदारता हो सकती है सच्ची उदारता इस बात में है, कि मनुष्य को मनुष्य समझा जाये। धन की उदारता के साथ सबसे बड़ी एक और उदारता की आवश्यकता है। वह यह है कि उपकृत के प्रति किसी प्रकार का अहसान न जताया जाए। अहसान दिखाना उपकृत को नीचा दिखाना है। अहसान जताकर उपकार करना अनुपकार है।” (म. प्र. 2011)

प्रश्न-
(i) उपर्युक्त गद्यांश का एक उचित शीर्षक दीजिए।
(ii) उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिये।
उत्तर-
(i) शीर्षक-“उदारता का वास्तविक अभिप्राय।”
(ii) सारांश-उदारता मनुष्य के जीवन के लिए आवश्यक है। उदारता के अंतर्गत केवल किसी को धन दे डालना ही उदारता नही, बल्कि उदार पुरुष सदा दूसरों के विचारों को आदर एवं सम्मान की दृष्टि से देखता है। सच्ची उदारता इस बात में है कि मनुष्य को मनुष्य समझा जाये। तथा उनके लिए किसी भी प्रकार की मदद निःस्वार्थ रूप से व्यक्त की जाये। कविवर तुलसीदास ने कहा है-

परहित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अध माई।।

अर्थात उदारता एवं परोपकार से बढ़कर कोई धर्म नहीं एवं दूसरों को पीड़ा पहुँचाने से बढ़कर कोई अधर्म नहीं।

3. संस्कार ही शिक्षा है। शिक्षा मानव को मानव बनाती है। आज के भौतिकवादी युग में शिक्षा का मुख्य उद्देश्य सुख पाना रह गया है। अंग्रेजों ने इस देश में अपना शासन व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए ऐसी शिक्षा को उपयुक्त समझा किन्तु यह विचारधारा हमारी मान्यता के विपरीत है। आज की शिक्षा प्रणाली एकाकी है, उसमें व्यावहारिकता का अभाव और काम के प्रति निष्ठा नहीं है। प्राचीन शिक्षा प्रणाली में आध्यात्मिक एवं व्यावहारिक जीवन की प्रधानता थी। यह शिक्षा केवल नौकरी के लिए नहीं जीवन को सही दिशा प्रदान करने के लिए भी थी। अत: आज के परिवेश में यह आवश्यक हो गया है, कि इन दोषों को दूर किया जाए। अन्यथा यह दोष हमारे सामाजिक जीवन को निगल जाएगा।

प्रश्न-
(i) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
(ii) गद्यांश का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
(iii) भौतिकवादी युग से क्या तात्पर्य है?
(iv) वर्तमान शिक्षा प्रणाली को दोषपूर्ण क्यों कहा गया है?
उत्तर-
(i) उचित शीर्षक–“शिक्षा”।
(ii) शिक्षा हमें सम्पूर्ण मानव बनाती है आज की शिक्षा प्रणाली में समग्रता का अभाव है तथा एकाकी पन को बढ़ावा देने का भाव है। आज जरूरत इस बात की है कि शिक्षा नौकरी का माध्यम न होकर ज्ञान और विवेक का माध्यम बने।
(iii) भौतिकवादी युग से तात्पर्य सुख पाना मात्र रह गया है।
(iv) वर्तमान शिक्षा प्रणाली हमें सम्पूर्ण मनुष्य न बनाकर केवल नौकरी पाना तक ही सीमित कर देती है। इसलिए वर्तमान शिक्षा प्रणाली को दोषपूर्ण कहा गया है।

4. अपने उत्तरदायित्व का ज्ञान बहुधा हमारे संकुचित व्यवहारों का सुधारक होता है। जब हम राह भूलकर भटकने लगते हैं, तब यही ज्ञान हमारा विश्वसनीय पथ-प्रदर्शक बन जाता है। पत्र-सम्पादक अपनी शांत कुटी में बैठा हुआ स्पष्टता और स्वतंत्रता के साथ अपनी प्रबल लेखनी से मंत्रिमण्डल पर आक्रमण करता है, परन्तु ऐसे अवसर भी आते हैं, जब वह स्वयं मंत्रिमण्डल में सम्मिलित होता है। मण्डल के भवन में पग रखते ही उसकी लेखनी कितनी मर्मज्ञ, विचारशील, कितनी न्यायपरक हो जाती है। (Imp.)

प्रश्न-
(i) उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक दीजिए। (म. प्र. 1994)
(ii) उपर्युक्त गद्यांश का सारांश अपने शब्दों में लिखिये।
(iii) हमारा पथ-प्रदर्शक कौन होता है?
उत्तर-
(i) शीर्षक- “उत्तरदायित्व का ज्ञान।”
(ii) सारांश-मनुष्य के जीवन में उत्तरदायित्व का स्थान महत्त्वपूर्ण है। जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए उत्तरदायित्व का ज्ञान आवश्यक है। उत्तरदायित्व का ज्ञान होने पर मनुष्य बुद्धिमान हो जाता है। लेखक ने एक उदाहरण दिया है कि एक आलोचक, सम्पादक जब मंत्रिमण्डल में पद प्राप्त कर लेता है तो उसकी लेखनी भी उत्तरदायित्व के भार से दब जाती है।
(iii) उत्तरदायित्व का ज्ञान हमारा विश्वसनीय पथ-प्रदर्शक होता है।

5. पर्यावरण-प्रदूषण परमात्माकृत नहीं अपितु मानवकृत है। जिसे उसने प्रगति के नाम पर किये गये आविष्कारों द्वारा निर्मित किया है। आज जल, वायु सभी कुछ प्रदूषित हो चुका है। शोर, धुंआ, अवांछनीय गैसों का मिश्रण एक गंभीर समस्या बन चुका है। यह सम्पूर्ण मानवता के लिए एक खुली चुनौती है और यह समस्या मानवता के जीवन और मरण से सम्बन्धित है। इसके समक्ष मानवता बौनी बन चुकी है। (म. प्र. 2006, 13, 15)

प्रश्न-
(i) उपर्युक्त गद्यांश का उपर्युक्त शीर्षक लिखिए।
(ii) प्रस्तुत गद्यांश का सारांश लिखिए।
(iii) प्रदूषण का प्रभाव किन-किन चीजों पर पड़ा है?
उत्तर-
(i) शीर्षक-“पर्यावरण प्रदूषण के कुप्रभाव।”।
(ii) सारांश आज पर्यावरण प्रदूषण मनुष्य द्वारा आविष्कृत एक गंभीर समस्या के रूप में विद्यमान है। यह एक ऐसी गंभीर समस्या है, जो मानवता को खुली चुनौती देती हुई उसे बौनी बना रही है।
(iii) जल, वायु, ध्वनि प्रदूषण ने वायुमण्डल को दूषित कर दिया है।

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6. मनुष्य की शारीरिक शक्तियाँ इतनी प्रबल नहीं होती, जितनी आत्मविश्वास की शक्ति। आत्मविश्वास बहुत बड़ी शक्ति है। कई बार व्यक्ति शारीरिक रूप से सक्षम होता है, किन्तु मानसिक रूप से कमजोर होता है इससे उसमें आत्मविश्वास की कमी आ जाती है। इस कारण वह अपनी शारीरिक शक्तियों का समुचित उपयोग नहीं कर पाता। शारीरिक शक्ति का भरपूर उपयोग करने के लिए मानसिक शक्ति का विकास करना नितांत आवश्यक होता है (म. प्र. 2010)

प्रश्न-
(i) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ii) प्रस्तुत गद्यांश का सारांश लिखिए।
उत्तर-
(i) शीर्षक-“शारीरिक एवं मानसिक शक्ति का विकास।”
(ii) सारांश- मानव के अंदर आत्मिक शक्ति प्रबल होती है जो मनुष्य के अंदर आत्मविश्वास को बढ़ाती है। कई बार शारीरिक रूप से परिपक्व दिखने वाला मनुष्य अंदर से कमजोर होता है। उसमें आत्म विश्वास की कमी पायी जाती है जिसके कारण वह ठोस निर्णय नहीं ले पाता है। शारीरिक शक्ति का समुचित उपयोग हेतु मानसिक विकास या मानसिक शक्ति का विकास होना अनिवार्य है। तभी वह व्यवस्थित एवं सुदृढ़ आधार तक पहुँच सकते हैं।

MP Board Class 11th Samanya Hindi Important Questions अपठित पद्यांश

अधोलिखित अपठित पद्यांश को पढ़कर दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-

संकटों से वीर घबराते नहीं,
आपदाएँ देख छिप जाते नहीं।
लग गए जिस काम में, पूरा किया
काम करके व्यर्थ पछताते नहीं।
हो सरल अथवा कठिन हो रास्ता
कर्मवीरों को न इससे वास्ता। (म. प्र. 2009, 10, 13, 15)

प्रश्न-
(i) उपर्युक्त पद्यांश का शीर्षक दीजिए।
(ii) उपर्युक्त पद्यांश का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
(i) शीर्षक-“कर्म वीर।”
(ii) भावार्थ-वीर पुरुष संकट एवं विपत्ति से बिल्कुल नहीं घबराते। जिस कार्य को वे हाथ में लेते हैं उसे पूरा करते हैं तथा बाद में किए गए कार्य के लिए उनके मन में कोई पछतावा भी नहीं रहता। कर्मवीर सिर्फ . कर्म करते हैं, रास्ते की कठिनता एवं सरलता पर भी वे विचार नहीं करते।

2. आजीवन उसको गिनें,
सकल अवनि सिरमौर
जन्मभूमि जलजात के
बने रहैं जन भौर।
फलद कल्पतरु तुल्य है
सारे विटप बबूल
हरिपद रज सो पूत है
जन्म धरा की धूल है।

प्रश्न-
(i) उपर्युक्त पद्यांश का एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ii) उपर्युक्त पद्यांश का भाव स्पष्ट कीजिए।
(iii) जन्मभूमि किस प्रकार फलदायिनी है?
उत्तर-
(i) शीर्षक-“जन्मभूमि’।
(ii) भावार्थ-प्रस्तुत पद्य में कवि जन्मभूमि के महत्व को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि अपनी जन्मभूमि को हमें सारी पृथ्वी का सिरमौर मानना चाहिए। मनुष्य को चाहिए कि वह जन्मभूमि रूपी कमल का भौंरा बना रहे। जन्मभूमि हमारे लिए कल्प-तरु की तरह फलदायिनी है और अन्य सब बबूल के पेड़ की तरह हैं। भगवान के पैरों की धूल की तरह जन्मभूमि की धूल पावन है।
(iii) जन्मभूमि कल्प-तरु की तरह फलदायिनी है।

3. जो बात गई सो बीत गई जीवन में एक सितारा था माना वह बेहद प्यारा था वो टूट गया सो टूट गया अंबर के इस आनन को देखो इसके कितने तारे टूटे इसके कितने प्यारे छूटे पर इन टूटे तारों पर अंबर कब शोक मनाता है। (Imp.)

प्रश्न-
(i) उपर्युक्त पद्यांश का एक उपर्युक्त शीर्षक दीजिए।
(ii) उपर्युक्त पद्यांश का भाव स्पष्ट कीजिए?
(ii) बीती बातों के लिए कवि क्या कहता है?
उत्तर-
(i) शीर्षक- “अम्बर”
(ii) भावार्थ-संसार का प्रमुख ध्येय आना और जाना है, इस संसार में सभी मनुष्य साधारण रूप से आते हैं किन्तु कोई अपने साथ यश, कीर्ति, अमरता आदि लेकर जाते हैं और कोई ऐसे ही साधारण रूप से चले जाते हैं। ऐसे ही कीर्ति प्राप्त व्यक्तियों की उपमा कवि अंबर के सितारे के साथ देते हुए कहते हैं जो बात बीत गई उस पर ध्यान मत दो जीवन में यदि कोई बहुत ही महत्वपूर्ण है और यदि वह हमें छोड़कर चला गया तो उसके लिए शोक नहीं करना चाहिए। इस आकाश को देखो न जाने इसके कितने तारे टूट चुके हैं कितने प्यारे छूट गये हैं पर इन सबके लिए आकाश शोक नहीं मनाता।
(iii) बीती बातों को कवि भूलने के लिए कहता है।

4. वन-उपवन पनप गए सब। (म. प्र. 2011)
कितने नव अंकुर आए।
वे पीले-पीले पल्लव,
फिर से हरियाली लाए।
वन में मयूर, अब नाचें।
हँस-हँस आनंद मनाएँ,
उनकी छबि देख रही है,
नभ की घनघोर घटाएँ।

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प्रश्न-
(i) उक्त पद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
(ii) मोर अपनी प्रसन्नता किस प्रकार व्यक्त करता है?
(iii) आकाश से बरसाती बादल कौन-सा दृश्य देख रहे हैं?
उत्तर-
(i) उचित शीर्षक-“पावस ऋतु” या “वर्षा ऋतु”।
(ii) मोर अपनी प्रसन्नता नृत्य करके व्यक्त करता है।
(iii) आकाश से बरसाती बादल वन-उपवन में नए अंकुरों पीले-पीले पत्तों, हरियाली तथा मोर के सुन्दर नृत्य का दृश्य देख रहे हैं।

MP Board Class 11th General Hindi Important Questions

MP Board Class 11th Samanya Hindi Important Questions हिन्दी साहित्य का इतिहास

MP Board Class 11th Samanya Hindi Important Questions हिन्दी साहित्य का इतिहास

प्रश्न 1.
कहानी की परिभाषाएँ लिखिए एवं दो प्रसिद्ध कहानीकारों के नाम लिखिए। (म. प्र. 2011, 12)
उत्तर–
कहानी की परिभाषा – कहानी गद्य की कथात्मक विधा है। एलेन पो ने कहानी की परिभाषा इस प्रकार दी है – “कहानी एक ऐसा आख्यान है जो इतना छोटा है कि एक बैठक में पढ़ा जा सके और जो पाठक पर एक ही प्रभाव उत्पन्न करने के लिए लिखा गया हो।”

“कहानी वास्तविक जीवन की ऐसी काल्पनिक कथा है जो छोटी होते हुए भी स्वतः पूर्ण एवं सुसंगठित होती है।”

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“कहानी में मानव जीवन की किसी एक घटना अथवा व्यक्तित्व के किसी एक पक्ष का मनोरम चित्रण रहता है। उसका उद्देश्य केवल एक – ही प्रभाव को उत्पन्न करना होता है।”

वस्तुतः कहानी एक कथात्मक गद्य विधा है, जिसमें किसी एक घटना या जीवन के मार्मिक अंश का वर्णन पूर्ण अन्विति के साथ होता है।

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार के अनुसार – “घटनात्मक इकहरे चित्रण का नाम कहानी है। साहित्य के सभी अंगों के समान रस उसका आवश्यक गुण है।”

हड्सन (पाश्चात्य समीक्षक) के अनुसार – “कहानी में चरित्र व्यक्त होता है।”

प्रेमचन्द के अनुसार – “कहानी में बहुत विस्तृत विश्लेषण की गुंजाइश नहीं होती। यहाँ हमारा उद्देश्य सम्पूर्ण मनुष्य को चित्रित करना नहीं वरन् उसके चरित्र का एक अंग दिखाना है।”

कहानीकारों के नाम –
(1) मुंशी प्रेमचंद
(2) जयशंकर प्रसाद।

प्रश्न 2.
हिन्दी कहानी के प्रमुख तत्वों का वर्णन कीजिए। (म. प्र. 2009,10, 15)
उत्तर–
कहानी के तत्व – कहानी के निम्नलिखित छः तत्व माने गये हैं

  • कथावस्तु,
  • चरित्र – चित्रण या पात्र,
  • संवाद योजना या कथोपकथन,
  • वातावरण,
  • भाषा शैली,
  • उद्देश्य।

1. कथावस्तु – कथावस्तु के आधार पर ही कहानी का ढाँचा खड़ा होता है। कथा में प्रायः तीन मोड़ होते हैं – आरम्भ, चरम स्थिति तथा समापन या अन्त। इसका आरम्भ कौतूहलपूर्ण होता है। इसकी चरम स्थिति वह बिन्दु है जहाँ पहुँचकर कहानी द्वन्द्व, घटनाक्रम, उद्देश्य आदि अपनी चरमता पर पहुँच जाते हैं और कहानी के अन्त का पाठक या तो पूर्वानुमान कर लेता है या बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगता है।

कहानी का अंत भाग उद्देश्य की स्पष्टता तथा कथावस्तु की अन्तिम परिणति है। इस तरह कहानी की कथावस्तु संक्षिप्त, सजीव, उत्सुकता बढ़ाने वाली तथा स्वाभाविकता एवं द्वन्द से पूर्ण होती है।

2. चरित्र – चित्रण – कहानी में पात्रों की संख्या कम होती है। इन पात्रों का चरित्र – चित्रण विविध कार्य व्यापारों द्वारा तथा पात्रों के कथोपकथन के माध्यम से किया जाता है। पात्रों के व्यक्तित्व का सहज विकास तथा विश्वसनीयता बहुत आवश्यक है। पात्रों के चरित्र की संक्षिप्त, स्पष्ट और संकेतात्मक अभिव्यक्ति कहानी के गुण हैं।

3.संवाद योजना – संवाद योजना कहानी को रोचक, सजीव बनाती है। संवाद छोटे होने चाहिए। लम्बे तथा बोझिल वाक्यों का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। संवाद की भाषा चुस्त एवं अभिव्यंजनापूर्ण होनी चाहिए। संवादों के माध्यम से घटना – क्रम का विकास, पात्रों के चरित्रों पर प्रकाश पड़ना चाहिए।

4. वातावरण – कहानी की कथावस्तु किसी – न – किसी देश – काल से सम्बद्ध होती है। अतः देश – काल के अनुसार कहानी का वातावरण स्वाभाविक होना चाहिए। कथाकार घटना, पात्र, प्रकृति – सौन्दर्य से सम्बद्ध स्थानों आदि का ऐसा चित्रण करता है जो सहज होता है तथा कहानी को प्रभावपूर्ण बनाता है। यथा, ‘उसने कहा था’ कहानी का आरम्भ ही अमृतसर के बाजार से होता है, जिसमें लहनासिंह का सम्पूर्ण पंजाबी परिवेश सरसता के साथ रूपायित हो उठता है।

5. भाषा – शैली कहानी की भाषा, विषय एवं पात्र के अनुकूल होती है। मुसलमान पात्र उर्दू शब्द का अधिक प्रयोग करता है तथा पंडितजी संस्कृतनिष्ठ हिन्दी अधिक बोलते हैं। भाषा सरल, चुस्त एवं छोटे – छोटे वाक्य में गठित होती है। भाषा भावों, द्वन्द्व को अभिव्यक्त करने में सक्षम होनी चाहिए।

कहानी लेखन की अनेक शैलियाँ हो सकती हैं – वर्णनात्मक, संवादात्मक, आत्मकथात्मक, पत्रात्मक डायरी शैली आदि। एक – ही कहानी में एक – से – अधिक शैली का प्रयोग किया जा सकता है। आंचलिकता, हास्य – व्यंग्य, चित्रोपमता, प्रकृति का मानवीकरण आदि आयोजनों के द्वारा भाषा – शैली में सौन्दर्य – वृद्धि की जाती है।

6. उद्देश्य – प्रत्येक रचना में एकाधिक उद्देश्य निहित होते हैं। केवल मनोरंजन करना ही कहानी का उद्देश्य नहीं होता। कहानी की घटनाओं, पात्रों के संवादों आदि माध्यमों से कहानी का उद्देश्य व्यंजित होता है। कभी कहानी का उद्देश्य सामाजिक विद्रुपताओं पर प्रहार होता है तो कभी समाज, व्यक्ति के आचरणों में सुधार लाना होता है।

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प्रश्न 3.
हिन्दी कहानी के विविध प्रकारों का उल्लेख कीजिए। (म. प्र. 2013)
उत्तर–
कहानी के प्रकार – विषय, चरित्र, शैली आदि तत्त्वों के आधार पर कहानी के निम्नलिखित प्रमुख प्रकार हैं
(1) घटना प्रधान,
(2) चरित्र प्रधान,
(3) भाव प्रधान तथा
(4) वातावरण प्रधान कहानी।

(1) घटना प्रधान कहानी में घटनाओं की श्रृंखला होती है तथा किस्सा गोई की शैली में लिखी जाती है।
(2) चरित्र प्रधान कहानी में कहानी लेखक का अधिक ध्यान पात्रों के चरित्र – चित्रण पर ही अधिक रहता है। उसने कहा था’ कहानी चरित्र प्रधान है, जिसमें लहनासिंह का चरित्र प्रमुख है।
(3) भाव प्रधान कहानी में घटना गौण और भाव प्रधान होता है। संवदिया कहानी इसी प्रकार की है।
(4) वातावरण प्रधान कहानी में देश – काल के चित्रण पर ही अधिक ध्यान दिया जाता है। ऐतिहासिक कहानी कुछ इसी प्रकार की होती है।

प्रश्न 4.
हिन्दी कहानी के विकासक्रम को रेखांकित कीजिए। (म. प्र. 2009, 15)
उत्तर–
हिन्दी कहानी का विकासक्रम – हिन्दी साहित्य में कहानी का जन्म भारतेन्दु युग में हुआ। ‘सरस्वती’ पत्रिका के प्रकाशन से कहानी के क्षेत्र में क्रांति – सी आ गयी। इसके विकास को चार युगों में विभाजित किया जा सकता है
(1) प्रारम्भिक प्रयोगकाल – (सन् 1900 से 1910)
(2) विकास काल (पूर्वार्द्ध) – (सन् 1910 से 1936)
(3) विकास काल (उत्तरार्द्ध) – (सन् 1936 से 1947)
(4) स्वातन्त्रोत्तर काल – (सन् 1947 से अब तक)

1. प्रारम्भिक काल
कहानीकार – कहानियाँ
1. श्री किशोरी लाल गोस्वामी – इन्दुमती।
2. बंग महिला – दुलाई वाली।
3. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल – ग्यारह वर्ष का समय।
4. माधव राव सप्रे – टोकरी भर मिट्टी।
5. गिरिजा दत्त बाजपेयी – पंडित और पंडिताइन।

2. विकास काल (पूर्वार्द्ध) – इस युग को हिन्दी का ‘स्वर्ण युग’ कहा जाता है।
कहानीकार – कहानियाँ
1. प्रेमचन्द – पंच परमेश्वर, पूस की रात, बड़े घर की बेटी, शतरंज के खिलाड़ी, कफन।
2. जयशंकर प्रसाद – आकाशदीप, पुरस्कार, गुण्डा।
3. पं. चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ – उसने कहा था, बुद्ध का काँटा, सुखमय जीवन।
4. भगवती प्रसाद बाजपेयी – मिठाई वाला, सूखी लकड़ी।
5. विश्वम्भर नाथ शर्मा ‘कौशिक’ – ताई, रक्षाबन्धन, चित्रशाला।

अन्य कहानीकार – वृन्दावनलाल वर्मा, सियाराम शरण गुप्त, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, सुदर्शन, निराला, विनोद शंकर व्यास, चण्डी प्रसाद हृदयेश।

3. विकास काल (उत्तरार्द्ध)
कहानीकार – कहानियाँ
1. जैनेन्द्र कुमार – अपना – अपना भाग्य, पार्जण।
2. अज्ञेय – रोज, अमर वल्लरी, कोठरी की बात।
3. इलाचन्द्र जोशी – आहुति, छाया, दीवाली।
4. भगवतीचरण वर्मा – प्रायश्चित, दो बाँके।
5. यशपाल – पराया सुख, परदा, दु:ख।

अन्य कहानीकार – रांगेय राघव, विष्णु प्रभाकर, धर्मवीर भारती, अमृतराय, अमृतलाल नागर, चन्द्रगुप्त विद्यालंकार, महादेवी वर्मा, श्रीराम शर्मा, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’।

4.स्वातन्त्रोत्तर काल – इस युग में कहानी के क्षेत्र में नयी कहानी, ‘सचेतन कहानी’ तथा ‘समानान्तर कहानी’ आदि नामों से अनेक आन्दोलन हुए।
कहानीकार – कहानियाँ
1. मोहन राकेश – सौदा, एक और जिन्दगी।
2. कमलेश्वर – साँप, खोई हुई दिशाएँ।
3. राजेन्द्र यादव – किनारे से किनारे तक, छोटे – छोटे ताजमहल।
4. मन्नू भंडारी – सजा, यही है जिन्दगी।
5. फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ – संवदिया, ठेस, लाल पान की बेगम।

अन्य कहानीकार – शिवानी, निर्मल वर्मा, उषा प्रियंवदा, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, श्रीकान्त वर्मा, कृष्णा सोबती, भीष्म साहनी आदि।
इस प्रकार हिन्दी कहानी सतत् अपनी विकास यात्रा पर अग्रसर है।

प्रश्न 5.
एकांकी की परिभाषाएँ लिखिए। (Imp.)
उत्तर–
परिभाषा – एकांकी ऐसी नाट्य विधा है जो एक अंक में रचित होती है। इसमें एक ही घटना तथा एक प्रभावान्विति होती है। एकांकी न तो नाटक का संक्षिप्त रूप है न वह नाटक का एक अंक है। एकांकी स्वयं में पूर्ण रचना है।

डॉ. नगेन्द्र के अनुसार – “एकांकी में एक, विस्तार की सीमा कहानी जैसी, जीवन का एक पहलू, एक महत्वपूर्ण घटना, एक विशेष परिस्थिति अथवा उदीप्त क्षण, एकता, एकाग्रता और आकस्मिकता की अनिवार्यता, संकलन त्रय का साधारणत: पालन, कथावस्तु का ऐक्य होना चाहिए।”

उदयशंकर भट्ट के अनुसार – – “एकांकी में जीवन का एक अंश, परिवर्तन का एक क्षण, सब प्रकार के वातावरण से प्रेरित, एक झोंका, दिन में एक घंटे की तरह मेघ में बिजली की तरह, बसंत में फूल के ह्रास की तरह व्यक्त होता है।”

प्रश्न 6.
एकांकी के विविध तत्वों का वर्णन कीजिए। (म. प्र. 2009, 12, 13)
उत्तर–
परिभाषा – एकांकी ऐसी नाट्य विधा है जो एक अंक में रचित होती है। इसमें एक ही घटना तथा एक प्रभावान्विति होती है। एकांकी न तो नाटक का संक्षिप्त रूप है और न वह नाटक का एक अंक है। एकांकी स्वयं में पूर्ण रचना है।

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एकांकी के तत्व –

  1. कथावस्तु,
  2. पात्र या चरित्र – चित्रण,
  3. कथोपकथन,
  4. संकलन त्रय या वातावरण,
  5. संघर्ष,
  6. भाषा – शैली,
  7. अभिनेयता,
  8. उद्देश्य या प्रभावान्विति।

1. कथावस्तु – एकांकी की कथावस्तु छोटी तथा किसी एक मार्मिक घटना पर आधारित होती है। इसमें आरम्भ, विकास तथा चरम परिणति तीन मोड़ होते हैं। इसका आरम्भ कौतूहलपूर्ण होता है। मार्मिकता, परिधि संकोच या संक्षिप्तता, प्रभावान्विति या उद्देश्य कथावस्तु के अनिवार्य तत्व होते हैं। यह कथावस्तु एक अंक तथा कई दृश्यों में होती है।
2. पात्र या चरित्र – चित्रण – एकांकी में पात्रों की संख्या कम होती है। इसमें एक प्रधान पात्र होता है जिसके इर्द – गिर्द दूसरे पात्र होते हैं। पात्रों के क्रिया – कलापों के द्वारा, कथन के द्वारा, पात्रों के चरित्र का चित्रण किया जाता है।
3. कथोपकथन – एकांकी की संवाद – योजना, बहुत – ही चुस्त, संक्षिप्त, सजीव, सरस तथा गतिशील होती है। इसके माध्यम से कथा का विकास एवं चरित्रों के ऊपर प्रभाव पड़ता है। वस्तुतः एकांकी संवाद प्रमुख रचना है। (म. प्र. 2010)
4. संकलन त्रय या वातावरण – संकलन त्रय का अर्थ है देश, काल तथा घटनाओं की अन्विति अर्थात् एकांकी की घटना एक देश, एक काल तथा एक प्रभावान्विति से युक्त होनी चाहिए तभी उसके वातावरण में स्वाभाविकता, सजीवता तथा सहजता आती है जो एकांकी को प्रभावपूर्ण बनाती है।
5.संघर्ष – आधुनिक एकांकी में घात – प्रतिघात तथा द्वन्द्व या मनोदशाओं का चित्रण अनिवार्य होता है।
6. भाषा – शैली – एकांकी की भाषा सरल तथा पात्रों के अनुकूल होती है। विषय की गम्भीरता के अनुकूल भाषा भी गम्भीर होती है।
7. अभिनेयता – अभिनेयता किसी भी नाट्य – रचना की जान होती है। एकांकी में दृश्यों का संयोजन इस प्रकार किया जाना चाहिए जिससे कि वह रंगमंच पर अभिनीत हो सके। इसलिए एकांकी की संवाद – योजना, रंग – विधान, अभिनेयता की दृष्टि से योजित होते हैं।
8. उद्देश्य या प्रभावान्विति – एकांकी में कोई – न – कोई एक उद्देश्य होता है या प्रभावान्विति होती है। यह प्रभावान्विति एकांकी की चरम सीमा पर जाकर व्यक्त होती है। .

प्रश्न 7.
हिन्दी एकांकी के विविध प्रकारों का उल्लेख कीजिए। (म. प्र. 2015)
उत्तर–
एकांकी के प्रकार – विषय की दृष्टि से एकांकी कई प्रकार के होते हैं। जैसे – सामाजिक, धार्मिक, व्यंग्यपूर्ण, ऐतिहासिक, राजनीतिक, पौराणिक आदि।

शैली की दृष्टि से एकांकी के निम्नलिखित प्रकार हो सकते हैं –

  1. स्वप्न रूप,
  2. प्रहसन,
  3. काव्य एकांकी,
  4. रेडियो रूपक,
  5. ध्वनि रूपक,
  6. वृत्त रूपक।

प्रश्न 8.
हिन्दी एकांकी के विकास को कितने भागों में बाँटा गया है? (म. प्र. 2010, 13)
उत्तर–
(1) भारतेन्दु युग – सन् 1872 से 1910 तक – (सामाजिक कुरीतियाँ, आत्म गौरव का भाव)
(2) प्रसाद युग सन् 1911 से 1930 तक – (राष्ट्रीय, सामाजिक, नैतिक, आदर्शवादी)
(3) रामकुमार वर्मा युग सन् 1930 से 1947 तक – (शिल्प की दृष्टि से नयापन)
(4) स्वातन्त्रयोत्तर युग – सन् 1947 से अब तक। (विषय – वस्तु की दृष्टि से विविधता)

प्रश्न 9.
हिन्दी साहित्य के इतिहास को कितने भागों में बाँटा गया है? प्रत्येक का नाम तथा सन् व एक – एक कवि का उल्लेख कीजिए।
उत्तर–
हिन्दी साहित्य के इतिहास को चार भागों में बाँटा गया है
(1) वीरगाथा काल – सन् 1050 से 1375 तक
(2) भक्तिकाल – सन् 1375 से 1700 तक
(3) रीतिकाल – सन् 1700 से 1900 तक
(4) आधुनिक काल – सन् 1900 से अब तक।

प्रत्येक के एक – एक कवि –
(1) चन्द बरदायी, नरपति नाल्ह
(2) सूरदास, तुलसीदास, कबीर, जायसी
(3) बिहारी, भूषण
(4) प्रसाद, पन्त, निराला।

प्रश्न 10.
हिन्दी के प्रमुख चार एकांकीकारों का नाम एवं उनकी एक – एक रचनाएँ लिखिए। (म. प्र. 2011, 12, 15)
उत्तर–
हिन्दी साहित्य का प्रथम एकांकीकार जयशंकर प्रसाद को माना जाता है। उनका ‘एक घुट’ प्रथम एकांकी है। वैसे तो यह माना जाता है कि एकांकियों की रचना अंग्रेजी साहित्य के अनुकरण पर हुई थी, परन्तु संस्कृत साहित्य में अनेक एकांकी मिलते हैं।

एकांकीकार – प्रसिद्ध एकांकियाँ
1. डॉ. रामकुमार वर्मा – दीपदान, रेशमी टाई, पृथ्वीराज की आँखें।
2. विष्णु प्रभाकर – वापसी, हब्बा के बाद।
3. भगवतीचरण वर्मा – सबसे बड़ा आदमी, दो कलाकार।
4. उदयशंकर भट्ट – नये मेहमान, नकली और असली।
5. भुवनेश्वर प्रसाद – कारवाँ, ऊसर।
6. सेठ गोविन्द दास – केरल का सुदामा।
7. जगदीशचन्द्र माथुर – रीढ़ की हड्डी, भोर का तारा।
8. उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ – सूखी डाली, पापी।

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अन्य एकांकीकार – गिरिजा कुमार माथुर, वृन्दावन लाल वर्मा, धर्मवीर भारती, विनोद रस्तोगी, हरिकृष्ण प्रेमी, लक्ष्मी नारायण मिश्र, लक्ष्मी नारायण लाल।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के एक अंक वाले नाटक ‘भारत दुर्दशा’, ‘अंधेर नगरी’ – इन्हें आधुनिक ढंग का एकांकी नहीं माना जा सकता।

एकांकी आधुनिक युग की ही उपज है। हिन्दी एकांकी विधा का इतिहास अत्यन्त अल्पकालिक है।

प्रश्न 11.
जगदीश चंद्र माथुर एवं रामकुमार वर्मा की दो – दो एकांकी के नाम लिखिए।
उत्तर–
(1) जगदीश चंद्र माथुर –

  • रीढ़ की हड्डी,
  • भोर का तारा।

(2) डॉ. रामकुमार वर्मा –

  • दीपदान,
  • पृथ्वीराज की आँखें।

प्रश्न 12.
स्वातन्त्रोत्तर काल में लिखी गई कहानी एवं कहानीकार के नाम लिखिए।
उत्तर–
कहानीकार – कहानियाँ
1. मोहन राकेश – सौदा, एक और जिन्दगी
2. कमलेश्वर – साँप, खोई हुई दिशाएँ
3. राजेन्द्र यादव – किनारे से किनारे तक
4. मन्नू भण्डारी – सजा
5. फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ – ठेस, संवदिया।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1.
हिन्दी कहानी एवं एकांकी के दो समान तत्व कौन – कौन से हैं?
उत्तर–
कथानक, संकलन – त्रय।

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प्रश्न 2.
भारतेन्दु युग का नामकरण किस साहित्यकार के नाम पर किया गया है?
उत्तर–
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र।

MP Board Class 11th General Hindi Important Questions

MP Board Class 11th Samanya Hindi गद्य खण्ड Important Questions

MP Board Class 11th Samanya Hindi गद्य खण्ड Important Questions

1. शिक्षा

– स्वामी विवेकानंद

ससंदर्भ व्याख्या कीजिए

1. “मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है। ज्ञान मनुष्य में स्वभाव सिद्ध है, कोई भी ज्ञान बाहर से नहीं आता; सब अंदर ही है। हम जो कहते हैं कि मनुष्य जानता’ है, यथार्थ में, मानसशास्त्र – संगत भाषा में, हमें कहना चाहिए कि वह आविष्कार करता है, “अनावृत’ या ‘प्रकट’ करता है।”

शब्दार्थ – अन्तर्निहित = मन में विद्यमान, अभिव्यक्त = प्रकट, अनावृत्त = जो ढंका हुआ न हो। संदर्भ – प्रस्तुत गद्यांश स्वामी विवेकानंद के ‘शिक्षा’ पाठ से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग – स्वामी विवेकानंद ने ज्ञान को पहले से संचित बताया है।

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व्याख्या – स्वामी विवेकानंद के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार ज्ञान से परिपूर्ण रहता है। मन में विद्यमान ज्ञान जब फूटकर बाहर आता है तो उसे शिक्षा कहते हैं। ज्ञान व्यक्तिगत एवं आंतरिक चीज है, वह बाहर से ग्रहण नहीं किया जा सकता। मनुष्य का सब कुछ जानना’ ज्ञान का सार्वजनिक प्रकटीकरण है। अंदर की वस्तु को बाहर ला देने की प्रक्रिया आविष्कार है। ज्ञान अन्तर्निहित है, शिक्षा उसी का प्रकटीकरण है। शिक्षक भी स्वयं के ढंके हुए ज्ञान को खोल देता है।

विशेष – तत्सम भाषा का प्रयोग है। तथ्यात्मक एवं तर्कसंगत शैली का प्रयोग है। निगमन शैली में सूत्र को समझाया गया है।

2. “समस्त ज्ञान, चाहे वह लौकिक हो अथवा अध्यात्मिक, मनुष्य के मन में है। बहुधा वह प्रकाशित न होकर ढंका रहता है और जब आवरण धीरे – धीरे हटता है, तो हम कहते हैं कि ‘हम सीख रहे हैं।’ ज्यों – ज्यों आविष्करण की क्रिया बढ़ती जाती है, त्यों – त्यों हमारे ज्ञान की वृद्धि होती जाती है। जिस मनुष्य पर से यह आवरण उठता जा रहा है, वह अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक ज्ञानी है, और जिस पर यह आवरण तह पर तह पड़ा हुआ है, वह अज्ञानी है।”

शब्दार्थ – लौकिक = सांसारिक, आवरण = पर्दा, आविष्करण = खोज का प्रकटीकरण। संदर्भ – प्रस्तुत गद्यांश स्वामी विवेकानंद के ‘शिक्षा’ पाठ से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश में ज्ञानी एवं अज्ञानी के बीच अन्तर स्पष्ट किया गया है।

व्याख्या – स्वामी विवेकानंद का मानना है कि सांसारिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान मनुष्य के मन की गहराई में संचित होता है। वह ज्ञान सबके सामने न होकर ढंका रहता है, उस पर एक झीना परदा पड़ा रहता है। परदा का हटना सीखने की प्रक्रिया कही जा सकती है। पर्दा हटने की प्रक्रिया और खोजों के बाहर आने की प्रक्रिया जितनी तेज होती है, ज्ञान का प्रकटीकरण भी उतना ही तेजी से होता है। संचित ज्ञान से पर्दा न उठना अज्ञानता है। परत – दर – परत परदा ढंका रहना घोर अज्ञानता है।

विशेष – तत्सम भाषा का प्रयोग है। ज्ञान एवं ज्ञानी की नई परिभाषा प्रस्तुत की गई है।

3. “शिक्षा विविध जानकारियों का ढेर नहीं है, जो तुम्हारे मस्तिष्क में लूंस दिया गया है और जो आत्मसात हुए बिना वहाँ आजन्म पड़ा रहकर गड़बड़ मचाया करता है। हमें उन विचारों की अनुभूति कर लेने की आवश्यकता है, जो जीवन निर्माण, मनुष्य निर्माण तथा चरित्र – निर्माण में सहायक हों।”

शब्दार्थ – आत्मसात = आत्मा में उतारा हुआ, आजन्म = सम्पूर्ण जीवन। संदर्भ – प्रस्तुत गद्यांश स्वामी विवेकानंद के ‘शिक्षा’ पाठ से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग – स्वामी विवेकानंद के अनुसार तथ्यात्मक ज्ञान शिक्षा नहीं है।

व्याख्या – स्वामी विवेकानंद के अनुसार किसी भी विषय पर बहुत सारी जानकारी रखना ज्ञान नहीं है। जिस ज्ञान को हम अन्तर्मन में उतार न सकें, वह हमारे किसी काम का नहीं हो सकता। बहुतायत में एकत्र किया तथ्यात्मक ज्ञान मस्तिष्क को कचरे का ढेर बना देता है। जीवन – यापन, मानवता के विकास एवं चरित्र – उत्थान में शिक्षा का योग होना चाहिए। कुछेक विचारों को जीवन में उतारकर भी हम परमज्ञानी बन सकते हैं। तर्क प्रधान शिक्षा से जीवन का कल्याण हो सकता है।

विशेष – तत्सम भाषा की प्रधानता है। ज्ञान की नई परिभाषा प्रस्तुत की गई है। तथ्यात्मक ज्ञान पर बल दिया गया है।

  • वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
सही जोड़ी बनाइए
1. मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति – (क) जीवाणुकोश में
2. गुरुत्वाकर्षण का आविष्कार किया था (म. प्र. 2013) – (ख) शिक्षा है
3. विशाल बुद्धि सिमटी होती है (म. प्र. 2013) – (ग) चरित्र निर्माण करना
4. शिक्षा का उद्देश्य है (म. प्र. 2013) – (घ) न्यूटन ने।
उत्तर –
1. (ख), 2. (घ), 3. (क), 4. (ग)।

प्रश्न 2.
विवेकानंद का जन्म किस सन् में हुआ था?
उत्तर –
1863 में।

प्रश्न 3.
विवेकानंद का बचपन का नाम क्या था? (म. प्र. 2009, 11, 13)
उत्तर –
नरेन्द्रनाथ।

प्रश्न 4.
‘शिक्षा’ किस विधा की रचना है?(म. प्र. 2009, 12)
उत्तर –
निबंध।

प्रश्न 5.
ज्ञान का मूल उद्गम स्थान ………… है। (मन/ हृदय) (म. प्र. 2010, 11)
उत्तर –
मन।

प्रश्न 6.
जो बीत चुका , ऐसा समय ……. कहलाता है। (आगत/अतीत) (म. प्र. 2010)
उत्तर –
अतीत।

प्रश्न 7.
काँच के समान पारदर्शी किसे कहा गया है? (म. प्र. 2015)
उत्तर –
काँच के समान पारदर्शी स्वामी रामकृष्ण परमहंस को कहा गया है।

  • दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
शिक्षा मनुष्य की अंतर्निहित पूर्णता को किस प्रकार अभिव्यक्त करती है?
उत्तर –
ज्ञान मनुष्य में स्वभावतः निहित होता है। ज्ञान बाहर से नहीं आता, सब अंदर ही होता है। मनुष्य जो कुछ ‘जानता’ है, यथार्थ में वह आविष्कार करता है। अंतर्निहित ज्ञान से वह पर्दा हटाता है। अनन्त ज्ञान स्वरूप आत्मा से पतला झीना परदा हटा लेना ज्ञान का प्रकटीकरण है।

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प्रश्न 2.
सुधार के लिए बलात् उद्योग करने का परिणाम सदैव उल्टा ही क्यों होता है?
उत्तर –
निषेधात्मक विचार लोगों को दुर्बल बना देते हैं। सुधार के लिए बल प्रयोग का उल्टा प्रभाव पड़ता है। हमें यह मानना होगा कि गधे को पीटने से वह घोड़ा तो नहीं बन सकता किन्तु मर अवश्य सकता है। माता पिता के अनुचित दबाव व बल प्रयोग से बालकों के विकास का स्वतंत्र अवसर समाप्त हो जाता है। सुधार के लिए बलात् उद्योग करने का परिणाम सदैव उलटा ही होता है। यदि तुम किसी को सिंह न बनने दोगे तो वह सियार ही बनेगा।

प्रश्न 3.
मनुष्य निर्माण, जीवन निर्माण और चरित्र – निर्माण कैसे किया जा सकता है?
उत्तर –
शिक्षा बहुत – सी जानकारियाँ एकत्रित करना मात्र नहीं है। जानकारियों को आत्मसात कर किसी निष्कर्ष पर पहुँचना आवश्यक है। बिना आत्मसात किया हुआ ज्ञान कभी – भी मनुष्य निर्माण, जीवन निर्माण एवं चरित्र निर्माण में सहायक नहीं हो सकता। जानकारियों के ढेर से अच्छे पाँच सुविचार हैं, जिन्हें हम आत्मसात कर जीवन में उतार सकें। पूरे ग्रंथालय एवं विश्व कोशों को रटने मात्र से मनुष्य निर्माण, जीवन निर्माण और चरित्र – निर्माण कदापि नहीं हो सकता।

प्रश्न 4.
“तुम केवल बाधाओं को हटा सकते हो और ज्ञान अपने स्वाभाविक रूप में प्रकट हो जाएगा” इस उक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर –
बालक को यदि शिक्षित करना है तो शिक्षा के मार्ग की बाधाओं को दूर करना आवश्यक है। बालक अपने को स्वयं शिक्षित कर लेगा। ज्ञान का यह स्वाभाविक स्वरूप होगा। पौधे के विकास के लिए जमीन को कुछ पोली बनाना होता है। रक्षा के लिए घेरा बनाना होता है। मनुष्य पौधे के लिए मिट्टी, पानी एवं समुचित वायु का प्रबंध करता है। यहीं मनुष्य का कार्य समाप्त हो जाता है। पौधा अपनी प्रकृति के अनुसार जो आवश्यक होगा ले लेगा। ठीक यही बात विद्यार्थी पर लागू होती है। वातावरण एवं संसाधन उपलब्ध कराकर हम ज्ञान के मार्ग की बाधा दूर करते हैं।

प्रश्न 5.
पाठ के आधार पर ज्ञानी और अज्ञानी में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर –
मनुष्य के अन्तर्मन में ज्ञान संचित रहता है। सीखने की प्रक्रिया में आविष्करण की क्रिया बढ़ती जाती है। इससे ज्ञान में वृद्धि होती है। अन्तर्मन में संचित ज्ञान से जितना ज्यादा आवरण उठ जाता है, अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा वह व्यक्ति अधिक ज्ञानी है। जिस पर यह आवरण तह – पर – तह पड़ा हुआ है, वह अज्ञानी है।

प्रश्न 6.
व्यक्ति सर्वज्ञ सर्वदर्शी कब बनता है? (म. प्र. 2011)
उत्तर –
व्यक्ति सर्वज्ञ सर्वदर्शी तब बनता है जब उसके मन में मौजूद ज्ञान पर पड़ा हुआ पर्दा पूरी तरह से हट जाता है। जब तक यह पर्दा पड़ा रहता है, तब तक वह अज्ञानी बना रहता है।

2. दो बैलों की कथा

– प्रेमचंद

ससंदर्भ व्याख्या कीजिए
1. “बहुत दिनों साथ रहते – रहते दोनों में भाई – चारा हो गया था। दोनों आमने – सामने या आस – पास बैठे हुए एक – दूसरे से मूक – भाषा में विचार – विनिमय करते थे। एक – दूसरे के मन की बात कैसे समझ जाता था? हम नहीं कह सकते। अवश्य ही उनमें कोई ऐसी गुप्त शक्ति थी, जिससे जीवों में श्रेष्ठता का दावा करने वाला मनुष्य वंचित है।”

शब्दार्थ – भाई – चारा = भाई जैसा प्रेम, मूक = चुप, विनिमय = लेन – देन, गुप्त = छिपी, वंचित = न पाना। संदर्भ प्रस्तुत गद्यांश मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘दो बैलों की कथा’ से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग – प्रेमचंद ने यहाँ पर हीरा – मोती नामक बैलों के स्नेह का चित्रांकन किया है।

व्याख्या – प्रेमचंद कहते हैं कि हीरा – मोती की जोड़ी बहुत दिनों से साथ थी जिसके कारण दोनों एक दूसरे को सगे – भाइयों की तरह चाहने लगे थे। उन्हें जब विश्राम के लिए एक साथ बाँध दिया जाता था तो शायद पशुओं की किसी गुप्त भाषा में चुपचाप विचारों का लेन – देन परस्पर किया करते थे। लेखक के अनुसार मनुष्य जीवों मे सर्वश्रेष्ठ है किन्तु ऐसा स्नेह, प्रेम, तालमेल मनुष्यों के समाज में देखने को नहीं मिलता। पशु की तुलना मनुष्यों में ज्यादा मारकाट मची हुई है।

विशेष – प्रेमचन्द की पशुओं के प्रति गहन अन्तर्दृष्टि प्रकट हुई है। प्रेमचन्द ने पशु समाज को मनुष्य समाज से श्रेष्ठ बताया है।

2. “दढ़ियल झल्लाकर बैलों को जबरदस्ती पकड़ ले जाने के लिए बढ़ा। उसी वक्त मोती ने सींग चलाया, दढ़ियल पीछे हटा। मोती ने पीछा किया।दढ़ियल भागा। मोती पीछे दौड़ा। गाँव के बाहर निकल जाने पर वह रुका पर खड़ा दढ़ियल का रास्ता देख रहा था। दढ़ियल दूर खड़ा धमकियाँ दे रहा था, गालियाँ निकाल रहा था, पत्थर फेंक रहा था और मोती विजयी शूर की भाँति उसका रास्ता रोके खड़ा था। गाँव के लोग यह तमाशा देखते थे और हँसते थे।

शब्दार्थ – दढ़ियल = दाढ़ी वाला पुरुष, शूर = वीर। संदर्भ – प्रस्तुत गद्यांश मुंशी प्रेमचन्द की कहानी ‘दो बैलों की कथा’ से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग – दढ़ियल मियाँ द्वारा बैलों को खरीदने की स्थिति में पुराने मालिक झूरी को देखकर हीरा – मोती की प्रतिक्रिया प्रकट की गई है। .

व्याख्या – मुंशी प्रेमचंद के अनुसार झूरी ने दाढ़ी वाले पुरुष के हाथों में अपने प्यारे बैलों को देखा। उसने हीरा – मोती पर अधिकार जताया किन्तु, दढियल मियाँ बैल वापस करने से इंकार कर देता है तथा उन्हें नीलामी में खरीदने की बात बताता है। कोई चारा न देखकर हीरा एवं मोती दुःखित होते हैं। अन्ततः मोती का सब्र टूट जाता है। वह दढ़ियल को मारने के लिए दौड़ाता है। मोती के आक्रमक रूप को देखकर दढ़ियल भागता है किन्तु मोती उसका पीछा नहीं छोड़ता व उसे गाँव के बाहर खदेड़ कर ही दम लेता है। दढ़ियल का मोती पर कोई वश नहीं चलता। वह मोती पर पत्थर इत्यादि फेंककर थक जाता है। दढियल एवं मोती के युद्ध में मोती विजयी होता है। गाँव के लोग इस अद्भुत तमाशे का खूब मजा लेते हैं।

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विशेष – वर्णनात्मक शैली में चित्रण किया गया है। भाषा सरल एवं प्रसंगानुकूल है।

  • लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
झूरी के बैल किस नस्ल के थे?
उत्तर –
पछाई नस्ल।

प्रश्न 2.
गोंई को झूरी ने कहाँ भेज दिया?
उत्तर –
ससुराल।

प्रश्न 3.
मुंशी प्रेमचंद की कहानियों के संग्रह का क्या नाम है?
उत्तर –
मानसरोवर।

प्रश्न 4.
‘दो बैलों की कथा’ में बैलों का क्या नाम था? (म. प्र. 2013)
उत्तर –
हीरा – मोती।

प्रश्न 5.
गया के घर में हीरा – मोती को सर्वाधिक प्रेम कौन करता था?
उत्तर –
लड़की।

प्रश्न 6.
कहानी सम्राट किसे कहा जाता है?
उत्तर –
मुंशी प्रमेचंद को।

प्रश्न 7.
उपन्यास सम्राट के नाम से विख्यात कौन है?
उत्तर –
मुंशी प्रेमचंद।

प्रश्न 8.
झूरी के बैल ………….जाति के थे। (जर्सी/पछाई) (म. प्र. 2010, 15)
उत्तर –
पछाई

प्रश्न 9.
सही जोड़ी बनाइए
1. झूरी – (क) कैसे नमक – हराम बैल हैं
2. बालिका – (ख) चारा मिलता तो क्या भागते
3. मजूर – (ग) दोनों फूफा वाले बैल भागे जा रहे हैं
4. झूरी की पत्नी – (घ) मालकिन मुझे मार ही डालेगी।
उत्तर –
1. (ख), 2. (ग), 3. (घ), 4. (क)।

प्रश्न 10.
गया के घर जाकर दोनों बैलों ने नाँद में मुँह क्यों नहीं डाला? (म. प्र. 2015)
उत्तर –
गया के घर जाकर दोनों बैलों ने नाँद में मुँह नहीं डाला। यह इसलिए कि उनका अपना घर छूट गया था। यह तो पराया घर था। वहाँ के लोग उन्हें बेगाने लग रहे थे। उन्हें वहाँ का खाना, पीना और रहना तनिक भी रास नहीं आया।

  • दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
झरी के घर प्रातः काल लौटे बैलों का किसने स्वागत किया?
अथवा
कैसे प्रातःकाल झूरी के घर वापस आने पर बैलों का स्वागत किस प्रकार किया गया?
उत्तर –
झूरी प्रात:काल बैलों को देखकर स्नेह से गदगद हो गया। दौड़कर उन्हें गले लगा लिया। प्रेमालिंगन और चुम्बन का वह दृश्य अत्यंत मनोहारी था। घर और गाँव के लड़कों ने तालियाँ बजा – बजाकर उनका स्वागत किया। दोनों पशु वीरों को अभिनन्दन स्वरूप कोई अपने घर से रोटियाँ लाया, कोई गुड़, कोई चोकर और कोई भूसी लाकर खिलाया।

प्रश्न 2.
गया के घर से भाग आने पर बैलों के साथ कैसा व्यवहार किया गया?
उत्तर –
गया के घर से भाग आने पर बैलों के लिए झूरी की पत्नी ने कहा – “कैसे नमक हराम बैल हैं कि एक दिन वहाँ काम न किया, भाग खड़े हुए।” झूरी की पत्नी ने बैलों को काम चोर’ कहा और उन्हें खली, चोकर देना बंद कर दिया। सूखे भूसे के सिवा उन्हें कुछ नहीं दिया गया। रसहीन भूसा में हीरा – मोती ने मुँह तक नहीं डाला।

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प्रश्न 3.
दोनों बैलों ने आजादी के लिए क्या – क्या प्रयास किए?
उत्तर –
दोनों बैलों ने गया को इधर – उधर दौड़ाकर थका डाला। उसके घर जाने पर उन्होंने कामचोरी का व्रत धारण कर लिया। अन्ततः अपनी उपेक्षा से आहत होकर पगहा तुड़ाकर दोनों झूरी के घर भाग गए। दोनों के मन में गया या बालिका को चोट पहुँचाने का भी विचार आया किन्तु हीरा की समझाइश पर मोती ने यह विचार त्याग दिया। दूसरी बार जब गया उन्हें फिर अपने यहाँ लेकर आता है तो रस्सियाँ चबाकर उसे तोड़ना चाहते हैं किन्तु रस्सी मोटी होने के कारण उनके मुँह में नहीं आती। दढ़ियल मियाँ को भी मोती मारने का भय पैदा कर स्वतंत्र हो जाता है।

प्रश्न 4.
हीरा – मोती के पारस्परिक प्रेम का वर्णन कीजिए। (Imp.)
उत्तर –
हीरा – मोती में परस्पर भाईचारा था। एक – दूसरे से दोनों भूक भाषा में विचार – विनिमय किया करते थे। दोनों एक – दूसरे को सूंघकर एवं चाटकर अपना प्रेम प्रकट किया करते थे। कभी – कभी स्नेहवश दोनों सींग भी मिला लिया करते थे। दोनों में विनोदप्रियता, आत्मीयता एवं गजब का सामंजस्य था। हीरा मोती को अनुचित काम करने से रोकता भी था।

प्रश्न 5.
भैरों की लड़की की बैलों से आत्मीयता क्यों हो गई थी? (म. प्र. 2011)
उत्तर –
भैरों की लड़की दोनों बैलों को दो रोटियाँ चोरी से खिलाती थी। दोनों बैलों को इससे बहुत संतोष प्राप्त होता था। उन्हें लगता था कि ‘यहाँ भी किसी सज्जन का वास है।’ भैरों के लड़की की माँ मर चुकी थी। सौतेली माँ उसे मारती रहती थी, इसलिए इन बैलों से उसे एक प्रकार की आत्मीयता स्थापित हो गई थ बालिका के प्रेम के प्रसाद से दोनों अथक परिश्रम के बाद भी दुर्बल नहीं हुई।

प्रश्न 6.
दोनों बैल दढ़ियल व्यक्ति को देखकर क्यों काँप उठे?
उत्तर –
हीरा – मोती को दढ़ियल व्यक्ति अत्यंत क्रूर दिखाई पड़ा। उसकी आँखें लाल तथा मुद्रा अत्यन्त कठोर थी। उसने हीरा – मोती के कूल्हों में उँगलियाँ गोदकर उनके शरीर में मांस का अनुमान लगाया। उसका चेहरा देखकर अन्तर्ज्ञान से दोनों मित्र के दिल काँप उठे। उन्हें मन ही मन पक्का विश्वास हो गया कि उनका अन्त अत्यंत निकट है।

प्रश्न 7.
सिद्ध कीजिए कि कहानी अपने उद्देश्य में सफल रही है? (म. प्र. 2009)
उत्तर –
‘दो बैलों की कथा’ में कथाकार ने मानवीय आचरण और अनुभूति को केवल मनुष्य केन्द्रित नहीं माना है। वे मानते हैं कि ये विशेषताएँ पशुओं में भी होती हैं। सामान्य मनुष्य की तरह पशुओं में भी हर्ष, उल्लास, सुख – दुःख और अपने – पराए का बोध होता है। मनुष्य एवं पशु के बीच के संवेदनात्मक संबंध को भी कहानी में उजागर करने का प्रयास है। पशुओं के साथ मनुष्य द्वारा किया जाने वाला आत्मीय व्यवहार जहाँ इस कहानी में भारतीय व्यक्ति की करुणा के विस्तार को व्यक्त करता है, वहीं उनके साथ किया जाने वाला क्रूरता एवं दुर्व्यवहार, मनुष्य के व्यवसायगत उपयोगितावादी दृष्टिकोण को भी प्रकट करता है। कहानी अपने उद्देश्य में अत्यंत सफल रही है।

3. मिठाई वाला

– भगवती प्रसाद वाजपेयी

ससंदर्भ व्याख्या कीजिए
1. “मेरा वह सोने का संसार था। बाहर संपत्ति का वैभव था, भीतर सांसारिक सुख था। स्त्री सुंदर थी, मेरी प्राण थी, बच्चे ऐसे सुन्दर थे, जैसे सोने के सजीव खिलौने। उनकी अठखेलियों के मारे घर में कोलाहल मचा रहता था। समय की गति। विधाता की लीला अब कोई नहीं है।”

शब्दार्थ – वैभव = सम्पन्नता, सांसारिक = संसार संबंधी, सजीव = जीव युक्त, अठखेलियाँ = चंचलता, कोलाहल = शोर, विधाता = ईश्वर। संदर्भ – प्रस्तुत गद्यांश भगवती प्रसाद वाजपेयी की कहानी ‘मिठाई वाला’ से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग – मिठाई वाला दादी को अपने जीवन की दारुण घटना से अवगत करा रहा है।

व्याख्या – मिठाई वाला अपने अतीत को याद कर रहा है। वह दादी को बताता है कि वह भी एक नगर का सम्मानित व्यक्ति था। उसके भी स्त्री व बच्चे थे। उसका जीवन सुखमय एवं स्वर्णिम था। जीवन में धन सम्पत्ति की कोई कमी नहीं थी। सांसारिकता में जकड़ा हुआ वह भी सुख महसूस करता था। सुन्दर स्त्री व सुन्दर बच्चे उसके प्राण थे। कुंदन के समान रूपवान थे। बच्चों की चंचलता से घर में दिन भर कोहराम मचा रहता था किन्तु ईश्वर को शायद यह मंजूर नहीं था। सब दिवंगत हो गए। उसके जीवन में अब कोई नहीं है। अपने दिवंगत बच्चों की छबि वह मिठाई खरीदने वाले बच्चों में महसूस किया करता है।

विशेष – संस्मरणात्मक कथन है। अतीत की स्मृतियों एवं दुःख का चित्रांकन है। भाग्यवाद एवं ईश्वरीय सत्ता पर विश्वास व्यक्त किया गया है।

2. “प्राण निकाले नहीं निकले, इसीलिए अपने बच्चों की खोज में निकला हूँ। वे सब अंत में होंगे तो यही कहीं। आखिर, कहीं – न – कहीं जन्में ही होंगे। उस तरह रहता तो घुल – घुल कर मरता। इस तरह सुख – संतोष के साथ मरूँगा। इस तरह के जीवन में कभी – कभी अपने उन बच्चों की एक झलक – सी मिल जाती है।”

संदर्भ – प्रस्तुत गद्यांश भगवती चरण वर्मा की कहानी ‘मिठाई वाला’ से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग – मिठाई वाला द्वारा अपने जीवन जीने का स्पष्टीकरण प्रस्तुत किया गया है।

व्याख्या – मिठाई वाला दादी को बताता है कि जीवन बोझ अवश्य है, किन्तु चाहकर भी मृत्यु नहीं आती। अपने दिवंगत बच्चों की खोज में गली – गली भटकता रहता हूँ। मेरे बच्चे कहीं – न – कहीं जन्म अवश्य लिए होंगे। बच्चों की याद में यदि मैं खोया रहता तो तड़प – तड़प कर मरना होता! मिठाई बेचकर बच्चों का सामीप्य प्राप्त कर जब भी मरूँगा तो सुख एवं संतोष के साथ मर सकूँगा। मिठाई वाला के रूप में गली – गली घूमते हुए विभिन्न बच्चों से हँसी – मजाक करते हुए मुझे महसूस नहीं हो पाता कि मेरे अपने बच्चे दिवंगत हो चुके हैं। मैं इन्हीं बच्चों में अपने बच्चों का प्रतिरूप पाता हूँ।

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विशेष – करुणाजनक स्थिति का चित्रांकन है। पुनर्जन्म के प्रति आस्था प्रकट की गई है। अतीत की स्मृतियों का चित्रांकन प्रभावी ढंग से है।

  • वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
निम्नलिखित कथनों का पात्रों से संबंध स्थापित कीजिए
कथन – पात्र
1. अब इस बार ये पैसे न लूँगा। – (क) विजय बाबू
2. तुम लोगों को झूठ बोलने की – (ख) दादी माँ आदत ही होती है।
3. ऐ मिठाई वाले, इधर आना। – (ग) रोहिणी
4. इन व्यवसायों में भला तुम्हें क्या मिलता होगा – (घ) मिठाईवाला।
उत्तर –
1. (घ), 2. (क), 3. (ख), 4. (ग)।

प्रश्न 2.
भगवती प्रसाद वाजपेयी के एक कहानी संग्रह का नाम लिखिए।
उत्तर –
स्नेह।

प्रश्न 3.
‘मिठाईवाला’ किस विधा की रचना है? (म. प्र. 2009, 12)
उत्तर –
कहानी।

प्रश्न 4.
भगवती प्रसाद वाजपेयी ने कौन – सी सरकारी नौकरी की थी?
उत्तर –
अध्यापन।

प्रश्न 5.
खिलौने वाले की आवाज ……… थी। (मादक – मधुर/कठोर – कर्कश) (म. प्र. 2009)
उत्तर –
मादक – मधुर।

प्रश्न 6.
मुरली वाले का व्यक्तित्व कैसा था? (म. प्र. 2015)
उत्तर –
मुरली वाले का व्यक्तित्व बड़ा सरल और रोचक था।

प्रश्न 7.
निम्न कथन सत्य है अथवा असत्य
1. मिठाई वाला, मुरली वाला, खिलौने वाला, अलग – अलग व्यक्ति हैं। (म. प्र. 2013)
2. मिठाई वाला धनी व्यक्ति था, इसलिए उसने मुफ्त में दादी को मिठाई दी।
3. जयशंकर प्रसाद को कहानी सम्राट कहा जाता है।
उत्तर –
1. असत्य, 2. असत्य, 3. असत्य।

  • दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मुरली वाले के भाव सुनकर विजय बाबू ने क्या प्रतिक्रिया व्यक्त की?
उत्तर –
मुरली वाला विजय बाबू को कहता है कि सबको तीन – तीन पैसे के हिसाब से मुरली दी है, किन्तु आपको दो – दो पैसे में ही दे दूँगा। विजय बाबू मुस्कुरा उठते हैं। सोचते हैं कि मुरली वाला ठग है। दो पैसे का एहसान लादना चाहता है। स्वयं का भाव कम करके एक पैसे का एहसान लादना चाहता है। उन्होंने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा – “तुम लोगों को झूठ बोलने की आदत ही होती है। देते होंगे सभी को दो – दो पैसे में पर एहसान का बोझा मेरे ही ऊपर लाद रहे हो।”

प्रश्न 2.
मुरली वाले के अनुसार ग्राहकों के क्या दस्तूर हैं?
उत्तर –
मुरली वाले के अनुसार – “ग्राहकों का दस्तूर होता है कि दुकानदार चाहे हानि ही उठाकर चीज क्यों न बेचें, पर ग्राहक यही समझते हैं – दुकानदार मुझे लूट रहा है।” अविश्वास की गहरी छाया क्रेता एवं विक्रेता के बीच पाई जाती है।

प्रश्न 3.
“तुम्हारी माँ के पास पैसे नहीं है अच्छा, तुम भी यह लो।” इस कथन से मुरली वाले की किस स्वभावगत विशेषता का पता चलता है?
उत्तर –
इस कथन में बच्चों के प्रति स्नेह, ममत्व एवं उदारता की भावना प्रकट हुई है। मुरली वाला प्रत्येक बच्चे को अपना समझता है एवं उनसे स्नेहभाव रखता है। कुछ बच्चे ऐसे भी होते हैं जिनके पास पैसे नहीं होते। उन्हें पहले तो वह घर से पैसे लाने को कहता है किन्तु जब वह पैसे नहीं ला पाते तो उन्हें वह मुफ्त में मुरली देकर चला जाता है। इससे पता चलता है कि उस मुरली वाले पर व्यावसायिकता हावी नहीं है।

प्रश्न 4.
मिठाई वाला दादी को अपनी मिठाइयों की क्या – क्या विशेषताएँ बताता है? (म. प्र. 2011, 12)
उत्तर –
दादी को मिठाई वाला इन शब्दों में अपने मिठाइयों की विशेषताएँ बताता है—“रंग – बिरंगी, कुछ खट्टी, कुछ – कुछ मीठी, जायकेदार, बड़ी देर तक मुँह में टिकती है। जल्दी नहीं घुलती। बच्चे इन्हें बड़े चाव से चूसते हैं। इन गुणों के सिवा ये खाँसी भी दूर करती हैं। कितनी दूँ? चपटी, गोल, पहलदार गोलियाँ हैं।”

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प्रश्न 5.
कहानी के आधार पर मिठाई वाला की चारित्रिक विशेषताएँ लिखिए। (म. प्र. 2010)
उत्तर –
मिठाई वाला वात्सल्य भाव से ओत – प्रोत समर्पणशील व्यक्ति है। विविध व्यवसायों का उद्देश्य बच्चों का सामीप्य प्राप्त करना है। अपने दिवंगत बच्चों की छवि नगर के बच्चों में महसूस किया करता है। उन्हें सस्ती चीजें उपलब्ध कराता है। किसी – किसी बच्चे को मुफ्त में भी सामग्रियाँ दिया करता है। वस्तुतः उसमें व्यावसायिकता हावी नहीं है। धन – प्राप्ति उसके व्यवसाय का उद्देश्य नहीं। दु:ख एवं करुणा से ओतप्रोत मिठाई वाले के हृदय में बच्चों के प्रति अपार स्नेह, ममत्व एवं उदारता समाहित है।

प्रश्न 6.
अन्य दुकानदारों और मिठाई वाले में क्या अन्तर है?
उत्तर –
अन्य दुकानदरों पर व्यावसायिकता हावी रहती है। अधिक धन अर्जन करना उनका मुख्य उद्देश्य होता है। बच्चों की सुकोमल भावनाओं का परितोष इनके पास नहीं हो सकता। जबकि मिठाई वाला शुद्ध व्यावसायिक व्यक्ति नहीं है। धनार्जन भी उसका उद्देश्य नहीं है। वात्सल्य, स्नेह, ममत्व से परिपूरित इस व्यक्ति के जीवन का उद्देश्य बच्चों का सामीप्य सुख है।

प्रश्न 7.
मिठाई वाले ने रोहिणी से पैसे क्यों नहीं लिए?
उत्तर –
मिठाई वाले के दु:ख एवं करुणा को पहली बार रोहिणी ने स्पर्श किया था। इससे मिठाई वाले को अद्भुत संतोष एवं धीरज प्राप्त हुआ। रोहिणी के घर में अपने अतीत को बताकर भी उसके हृदय का बोझ कम हुआ। अन्ध व्यावसायिकता की होड़ में भी संवेदनशील इंसानों का अभाव नहीं है। रोहिणी को एक नेक दिल एवं संवेदनशील महिला समझकर उसने पैसे नहीं लिए।

4. प्रताप प्रतिज्ञा

– जगन्नाथ प्रसाद मिलिन्द’

ससंदर्भ व्याख्या कीजिए

1. “आ! काँटों के ताज! संकट के स्नेही! मेवाड़ के राजमुकुट! आ! तुझे आज एक तुच्छ सैनिक धारण कर रहा है। इसलिए नहीं कि तू वैभव का राजमार्ग है बल्कि इसलिए कि आज तू देश पर मर मिटने वालों का मुक्तिद्वार है। आ! मेरी साधना के अन्तिम साधन! इस अवनत मस्तक को माँ के लिए कट – मरने का गौरव प्रदान कर।”

शब्दार्थ – तुच्छ = छोटा, वैभव = धन, राजमार्ग = राजमहल की ओर जाने वाली सड़क, अवनत = झुका हुआ, गौरव = महत्ता।

संदर्भ – प्रस्तुत गद्यांश जगन्नाथ प्रसाद मिलिन्द’ की एकांकी ‘प्रताप प्रतिज्ञा’ से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश में चन्द्रावत द्वारा राजमुकुट धारण करने का चित्रांकन किया गया है।

व्याख्या – ‘मिलिन्द’ जी लिखते हैं कि चन्द्रावत राजमुकुट को धारण करना आसान नहीं समझता। वह प्रलाप करता हुआ कहता है कि इस राजमुकुट के भार को एक छोटा सैनिक किस प्रकार सँभाल सकेगा। यह वैभव भोग का राजमुकुट नहीं है, अपितु काँटों मय ताज है। चन्द्रावत यह भी कहता है कि मैं जानता हूँ जो भी इस राजमुकुट को धारण करेगा उसे देश के लिए शहीद होने का अवसर अवश्य मिलेगा। शहीद होने से बड़ी मुक्ति मनुष्य की नहीं है। चन्द्रावत देश की तस्वीर राजमुकुट धारण करने के लिए अपना सिर झुका देता है।

विशेष – भाषा तत्सम प्रधान है। मातृभूमि एवं देश के प्रति उदात्त भावना प्रकट हुई है। वर्णनात्मक शैली है।

2. “आँखें खोलकर मेवाड़ी वीरों का बलिदान देखने से इस युद्ध ने कान मलकर मुझे बता दिया कि मेरा अहंकार व्यर्थ है। मुझसे कई गुनी वीरता, कई गुनी देश – भक्ति और कई गुना त्याग मेवाड़ के एक – एक सैनिक हृदय में हिलोरें ले रहा है।”

शब्दार्थ – बलिदान = त्याग, कान मलकर बताना = साफ – साफ कहना, व्यर्थ = वेकार, हिलोर = लहर।

संदर्भ – प्रस्तुत गद्यांश जगन्नाथ प्रसाद मिलिन्द की एकांकी ‘प्रताप प्रतिज्ञा’ से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग – शक्ति सिंह का देश – भक्त सैनिकों के प्रति सम्मान व्यक्त हुआ है।

व्याख्या – ‘मिलिन्द’ जी कहते हैं कि शक्तिसिंह आत्मालाप कर रहा है। वह कहता है कि मुझे इस हल्दीघाटी के युद्ध से बिल्कुल साफ – साफ पता चल गया है कि मेरा घमण्ड वेकार ही था। मैं भ्रम एवं भूलवश स्वयं को बहुत कुछ समझ बैठा था, वस्तुत: मेवाड़ का प्रत्येक सैनिक देश के लिए कुर्बान होने को तत्पर है। मेवाड़ी सैनिकों की देश के प्रति वफादारी एवं त्याग की तुलना हो ही नहीं सकती। देश – भक्ति की अजस्त्र धारा उन सैनिकों के हृदय में तरंग पैदा कर रही है।

विशेष – तत्सम भाषा एवं भाव प्रबलता है। देश – भक्ति की अजस्र सरिता प्रवाहमान दिखाई दे रही है।

  • वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
महाराणा प्रताप और अकबर के बीच निम्न में से कौन – सा युद्ध हुआ था – (म. प्र. 2015)
(क) हल्दी घाटी का युद्ध (ख) पानीपत का युद्ध (ग) बक्सर का युद्ध (घ) प्लासी का युद्ध।
उत्तर –
(क) हल्दी घाटी का युद्ध।

प्रश्न 2.
महाराणा प्रताप निम्न में से कहाँ के शासक थे (म. प्र. 2013)
(क) दौलताबाद के (ख) मेवाड़ के (ग) ग्वालियर के (घ) दिल्ली के।
उत्तर –
(ख) मेवाड़ के।

प्रश्न 3.
महाराणा प्रताप के घोड़े का क्या नाम था
(क) ऐरावत (ख) रफ्तार (ग) चेतक (घ) शेरा।
उत्तर –
(ग) चेतक।

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प्रश्न 4.
जगन्नाथ प्रसाद ‘मिलिन्द’ का जन्म किस स्थान पर हुआ था
(क) मेरठ (ख) कलकत्ता (ग) सागर (घ) ग्वालियर।
उत्तर –
(घ) ग्वालियर।

प्रश्न 5.
………… को अधिक होता है। (शक्तिहीन/शक्तिवान) (म. प्र. 2009)
उत्तर –
शक्तिवान।

प्रश्न 6.
प्रताप प्रतिज्ञा किस विधा की रचना है? (म. प्र. 2009)
उत्तर –
एकांकी।

प्रश्न 7.
अपनी पाठ्य – पुस्तक के किसी एक एकांकी का नाम लिखिए। (म. प्र. 2011)
उत्तर –
प्रताप – प्रतिज्ञा।

  • दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
महाराणा प्रताप की चारित्रिक विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर –
महाराणा प्रताप मेवाड़ की अस्मिता की रक्षा के लिए संघर्ष करने वाले असाधारण योद्धा हैं। वीरता, देश – भक्ति एवं त्याग की अजस्र सरिता उनके हृदय में प्रवाहमान है। मेवाड़ वासियों को उनके नेतृत्व पर दृढ़ विश्वास है। उनकी नेतृत्व क्षमता एवं वीरता के प्रदर्शन से मेवाड़ के सैनिकों को प्रेरणा मिलती है। जनता के सुयोग्य प्रतिनिधि, चित्तौड़ के उद्धारक, संजीवनी शक्ति दाता, देश की आशा एवं स्वाभिमानी व्यक्तित्व के धनी महाराणा प्रताप हैं।

प्रश्न 2.
शक्तिसिंह स्वयं को क्यों धिक्कारता है?
उत्तर –
शक्तिसिंह स्वयं को इसलिए धिक्कारता है कि महाराणा प्रताप जैसे असाधारण योद्धा, देश – भक्त, मानी और कर्तव्यनिष्ठ का भाई होकर भी देश के प्रति वफादार नहीं हैं। स्वयं के स्वार्थ एवं पदलोलुपता पर भी उसे पश्चाताप होता है।

प्रश्न 3.
महाराणा प्रताप ने चेतक के प्रति अपनी संवेदना किस प्रकार व्यक्त की? (म. प्र. 2010,11)
उत्तर –
महाराणा प्रताप ने चेतक के प्रति संवेदना इन शब्दों में व्यक्त की – “चेतक! प्यारे चेतक! तुम राह ही में चल बसे। तुम्हारी अकाल मृत्यु देखने के पहले ही ये आँखें क्यों न सदा को मुंद गई। मेरे प्यारे सुख – दु:ख के साथी, तुम्हें छोड़कर मेवाड़ में पैर रखने को जी नहीं करता शरीर का रोम – रोम घायल हो गया है, प्राण कंठ में आ रहे हैं, एक कदम चलना भी दूभर है, फिर भी इच्छा होती है कि तुम्हारें शव के पास दौड़ता हुआ लौट आऊँ, तुमसे लिपटकर जी भरकर रो लूँ और वहीं चट्टानों से सिर टकराकर प्राण दे दूँ। अपने प्राण देकर प्रताप के प्राण बचाने वाले मूक प्राणी! तुम अपना कर्तव्य पूरा कर गए पर मैं संसार से मुंह दिखाने योग्य न रहा। हाय, मेरे पापी प्राणों से तुमने किस दुर्दिन में प्रेम करना सीखा था। चेतक, चेतक प्यारे चेतक!

प्रश्न 4.
शक्तिसिंह के स्वभाव में परिवर्तन क्यों आया? (म. प्र. 2009, 12)
उत्तर –
शक्ति सिंह ने मेवाड़ के सैनिकों का बलिदान देखा तो उसके स्वभाव में परिवर्तन आया। उसे अपना अहंकार निरर्थक लगने लगा। मेवाड़ के सैनिकों की तुलना में उसे अपनी वीरता, देश – भक्ति, त्याग तुच्छ प्रतीत होने लगा।

प्रश्न 5.
एकांकी के आधार पर सच्चे सैनिक किसे कहेंगे?
उत्तर –
‘प्रताप प्रतिज्ञा’ एकांकी में सच्चा सैनिक चन्द्रावत है। उसने मातृभूमि की रक्षा एवं कर्त्तव्य निर्वाह के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। चन्द्रावत की वीरता, त्याग एवं देश – भक्ति की भावना समाज के लिए अनुकरणीय है।

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प्रश्न 6.
प्रताप की बातें शक्तिसिंह को हृदय बेधक क्यों लगी? (म. प्र. 2015)
उत्तर –
शक्तिसिंह प्रताप को हृदय – बेधक बातें कहने के लिए उत्प्रेरित करता है। शक्तिसिंह के शब्दों में—“मेरे पापों का कड़वा फल है। मैं मेवाड़ को भूल गया था। भारतीयता को खो बैठा था। देश – भक्ति को ठुकरा चुका था। उसी का यह दण्ड है। कहो, हाँ, खूब कहो, ऐसी हृदय बेधक बातें कहो, भाई, अपराधी को खूब दण्ड मिलने दो। बिना प्रायश्चित पूरा हुए पापी की आत्मा को शान्ति नहीं मिली।।

प्रश्न 7.
युद्ध – भूमि में महाराणा प्रताप को किस विकट स्थिति का सामना करना पड़ा? (Imp.)
उत्तर –
युद्ध – भूमि में महाराणा प्रताप मुगल सेना से चारों ओर से घिर गए। उनके वार से वे घायल हो गए। उनके शरीर से खून की धारा बहने लगी। तलवार चलाते – चलाते उनके दोनों हाथ थक गए। चेतक घोड़ा मृतप्राय हो गया, फिर भी उन्हें पागलों की तरह लड़ना पड़ा था।

5. देश – प्रेम

– आचार्य रामचन्द्र शुक्ल

ससंदर्भ व्याख्या कीजिए

1. “भाइयों! बिना रूप – परिचय का यह प्रेम कैसा? जिनके सुख – दुःख के तुम कभी साथी नहीं हुए, उन्हें तुम सुखी देखना चाहते हो, यह कैसे समझे? उनसे कोसों दूर बैठे – बैठे, पड़े – पड़े या खड़े – खड़े तुम विलायती बोली में ‘अर्थशास्त्र’ की दुहाई दिया करो, पर प्रेम का नाम उसके साथ न घसीटो। प्रेम हिसाब – किताब नहीं है। हिसाब – किताब करने वाले भाड़े पर भी मिल सकते हैं, पर प्रेम करने वाले नहीं।”

शब्दार्थ – रूप – परिचय = प्रत्यक्ष देखना, विलायती बोली = विदेशी भाषा, भाड़े = किराया।

संदर्भ – प्रस्तुत गद्यांश आचार्य रामचन्द्र शुक्ल निबंध के ‘देश – प्रेम’ से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश में आचार्य शुक्ल ने प्रेम करने के लिए रूप – परिचय को आवश्यक बताया है।

व्याख्या – देशभक्तों! बिना प्रत्यक्ष, साकार दर्शन के प्रेम उत्पन्न नहीं हो सकता। देश के प्रति प्रेम होने का दावा करने के पहले देश जिन चीजों से बनता है, उनके दर्शन करना आवश्यक है। देश के लोगों से प्रेम का दावा भी नहीं किया जा सकता क्योंकि ऐसा दावा करने से पहले देशवासियों के सुख – द:ख में शामिल होना अ है। विदेशी भाषा, में अर्थशास्त्र के फार्मूले के आधार पर सुखी एवं दु:खी के वर्ग में विभाजित करने वाले देश – प्रेमी नहीं हो सकते। झूठे प्रेम की दुहाई भले ही दो किन्तु बिना सुख – दुःख में शामिल हुए ‘देश – प्रेम’ मात्र ढोंग है। अर्थशास्त्रीय फार्मूले के आधार पर अमीर – गरीब, सुखी – दुःखी बताने वाले तो किराये पर भी उपलब्ध हो जाते हैं, किन्तु क्या उन्हें देश की वास्तविक दशा का ज्ञान कभी हो सकता है न ही वे सच्चे देश – प्रेमी हो सकते हैं।

विशेष – सच्चे देश प्रेमियों की पहचान बताई गई है। व्यंग्यात्मक भाषा – शैली है।

2. “रसखान तो किसी की ‘लकुटी अरु कामरिया पर तीनों पुरों का राजसिंहासन तक त्यागने को तैयार थे, पर देश – प्रेम की दुहाई देने वालों में से कितने अपने किसी थके – माँदे भाई के फटे – पुराने कपड़ों पर रीझकर या कम से कम न खीझकर बिना मन मैला किए कमरे का फर्श भी मैला होने देंगे? मोटे आदमियों! तुम जरा – सा दुबले हो जाते, अपने अंदेशे से ही सही, तो न जाने कितनी ठठरियों पर मांस चढ़ जाता है।”

शब्दार्थ – लकुटी = लकड़ी, कामरिया = कमली या काँवर, अंदेशे = आशंका, ठठरियों = हड्डी।

संदर्भ – प्रस्तुत गद्यांश आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के निबंध ‘देश – प्रेम’ से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग – आचार्य शुक्ल ने दीनों – हीनों एवं गरीबों के लिए त्याग करने को कह रहे हैं। व्याख्या – आचार्य शुक्ल लिखते हैं कि भक्तिकालीन कृष्णभक्त कवि रसखान ने अपने एक पद में कृष्ण के सामीप्य के लिए, लकड़ी एवं काँवर के लिए, तीनों लोकों का राजसिंहासन छोड़ने को तत्पर दिखाई देते हैं। आचार्य शुक्ल व्यंग्य करते हुए कथित देशप्रेमियों से कहते हैं कि अरे अमीरों ! फटे – पुराने चिथड़ों में लिपटे अपने भाइयों की दुर्दशा पर भी कभी ध्यान दिया है। उन्हें कभी अपने ऊँचे प्रसादों में स्थान दिया है। या फिर फर्श गंदा होने के भय से उनकी ओर कभी हाथ बढ़ाया अरे धनिकों! तुम्हारी थोड़ी – सी चर्बी आशंका के कारण ही सही कुछ कम होती तो गरीबों की सूखी हड्डियों पर मांस की पतली परत चढ़ जाती।

विशेष – व्यंग्यात्मक भाषा का प्रयोग है। तीक्ष्ण एवं मारक शैली है।

  • वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
साँची क्यों प्रसिद्ध है?
उत्तर –
स्तूप के कारण।

प्रश्न 2.
लेखक ने किस मौसम में साँची की यात्रा की थी?
उत्तर –
बसंत ऋतु।

प्रश्न 3.
रामचन्द्र शुक्ल के निबंध संग्रह का क्या नाम है?
उत्तर –
चिन्तामणि।

प्रश्न 4.
दिए गए शब्दों से वाक्य पूरा कीजिए (रूप परिचय, देहाती, परिचय, आम)

1. यहाँ महुए – सहुए का नाम न लीजिए, लोग ………… समझेंगे। (म. प्र. 2013)
2. बिना ………… का यह प्रेम कैसा?
3. गेहूँ का पेड़ ………… के पेड़ से बड़ा होता है।
4. यह परचना ही ………… है।
5. साँची की प्रसिद्धि का कारण यहाँ के ………… हैं। (म. प्र. 2011)
उत्तर –
1. देहाती, 2. रूप परिचय, 3. आम, 4. परिचय, 5. स्तूप।

प्रश्न 5.
देश प्रेम रचना गद्य की इस विद्या में है (म. प्र. 2011)
(क) निबंध (ख) संस्मरण (ग) कहानी (घ) एकांकी।
उत्तर –
(क) निबंध।

  • लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने किस मौसम में साँची की यात्रा की थी?
उत्तर –
लेखक ने बसन्तु ऋतु में साँची की यात्रा की थी।

  • दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
ला.देश – प्रेम को साहचर्य प्रेम क्यों कहा गया है? (म. प्र. 2011)
उत्तर –
जिनके बीच हम रहते हैं, जिन्हें बराबर आँखों से देखते हैं, जिनकी बातें बराबर सुनते रहते हैं, जिनका हमारा हर घड़ी का साथ रहता है। जिनके सान्निध्य का हमें अभ्यास पड़ जाता है। उनके प्रति लोभ या राग ही हो सकता है। इसे ही साहचर्य से उपजा देश – प्रेम कह सकते हैं।

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प्रश्न 2.
रसखान ने ब्रज भूमि के प्रेम के संबंध में क्या कहा है? (म. प्र. 2012)
उत्तर –
रसखान ने ब्रजभूमि के संबंध में प्रेम व्यक्त करते हुए लिखा है

“नैनन सों, ‘रसखान’ जबै ब्रज के वन, बाग, तड़ाग, निहारौं,
केतिक वे कल धौत के धाम करील, के कुंजन ऊपर वारौं।’

प्रश्न 3.
देश के स्वरूप से परिचित होने के लिए लेखक ने किन – किन बातों पर बल दिया है? (म. प्र. 2009)
उत्तर –
देश के स्वरूप से परिचित होने के लिए खेतों की हरियाली, नालों के कलकल प्रवाह, पलाश के लाल – लाल फूलों, कछार में पशुओं के चरते हुए झुण्डों के बीच चरवाहों की तानें, आम के बगीचों से झाँकते ग्रामों, आम के पेड़ के नीचे की बैठकों का स्वरूप दर्शन करना होगा।

प्रश्न 4.
गेहूँ का पेड़ आम के पेड़ से छोटा होता है या बड़ा। यह कथन किस संदर्भ में कहा गया है?
उत्तर –
लखनऊ के नवाब जमीनी नहीं थे। कोई आश्चर्य नहीं कि कोई पूछ लें कि “गेहूँ का पेड़ आम के पेड़ से छोटा होता है या बड़ा।” हिन्दुस्तान में भी देशीपन एवं ग्राम्यता को लोग अपनी तौहीन समझते हैं। बाबूपन में बट्टा यहाँ कोई नहीं लगाना चाहता।

प्रश्न 5.
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास को कितने भागों में बाँटा है?
उत्तर –
शुक्लजी ने हिन्दी साहित्य के इतिहास को चार भागों में बाँटा है

  1. आदिकाल,
  2. भक्तिकाल,
  3. रीतिकाल,
  4. आधुनिक काल।

प्रश्न 6.
अपने स्वरूप को भूलने पर हमारी कैसी दशा होगी?
उत्तर –
अपने स्वरूप को भूलने पर हमारी दशा अपनी परम्परा से संबंध तोड़कर नई उभरी हुई इतिहास शून्य जातियों के समान होगी।

6. राजेन्द्र बाबू

– महादेवी वर्मा

ससंदर्भ व्याख्या कीजिए

1. “राजेन्द्र बाबू की मुखाकृति ही नहीं, उनके शरीर के सम्पूर्ण गठन में एक सामान्य भारतीय जन की आकृति और गठन की छाया थी, अतः उन्हें देखने वाले को कोई – न – कोई आकृति या व्यक्ति स्मरण हो जाता था और वह अनुभव करने लगता था कि इस प्रकार के व्यक्ति पहले भी कहीं देखा है। आकृति तथा वेशभूषा के समान ही वे अपने स्वभाव और रहन – सहन में सामान्य भारतीय या भारतीय कृषक का ही प्रतिनिधित्व करते थे। प्रतिभा और बुद्धि की विशिष्टता के साथ – साथ उन्हें जो गम्भीर संवेदना प्राप्त हुई थी, वही उनकी सामान्यता को गरिमा प्रदान करती थीं।”

शब्दार्थ – मुखाकृत्ति = मुँह की बनावट, स्मरण = याद, वेशभूषा = पहनावा, प्रतिभा = बुद्धि की प्रखरता, विशिष्टता = विशेषता, संवेदना = दु:ख में भागीदार, गरिमा = गौरव।

संदर्भ प्रस्तुत गद्यांश महादेवी वर्मा के संस्मरण ‘राजेन्द्र बाबू’ से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग – महादेवी वर्मा ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला है।

व्याख्या – डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का चेहरा – मोहरा, शरीर की बनावट आम भारतीय नागरिक के समान थी। आमतौर पर समाज में हर दूसरा – तीसरा व्यक्ति राजेन्द्र बाबू जैसा ठेठ होता है। उन्हें देखकर इसीलिए भ्रम हो जाता था कि कहीं पहले देखा है। आम भारतीय किसान के समान उनका रहन – सहन एवं स्वभाव था। कृषक वर्ग के वे प्रतिनिधि लगते थे। ज्ञान की आभा एवं बुद्धि की तीक्ष्णता का प्रभाव उनके चेहरे पर विद्यमान रहता था। वे एक संवेदनशील इंसान थे। सभी व्यक्तियों में ऐसी संवेदनशीलता नहीं पाई जाती। इन्हीं गुणों के कारण वे सामान्य होते हुए विशिष्ट थे।

विशेष – चित्रात्मक शैली। तत्सम भाषा। भावात्मकता के साथ व्यक्तित्व का विश्लेषण है।

2. “जीवन मूल्यों की परख करने वाली दृष्टि के कारण उन्हें देश रत्न’ की उपाधि मिली और मन की सरल स्वच्छता ने उन्हें अजात शत्रु बना दिया। अनेक बार प्रश्न उठता है, क्या वह साँचा टूट गया जिसमें ऐसे कठिन कोमल चरित्र ढलते थे।”

शब्दार्थ – परख = पहचान, उपाधि = सम्मान, अजात शत्रु = शत्रु विहीन, साँचा = प्रतिरूप तैयार करने हेतु पूर्व निर्मित आकार।

संदर्भ – प्रस्तुत गद्यांश महादेवी वर्मा के संस्मरण ‘राजेन्द्र बाबू’ से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग – इसमें लेखिका ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की महानता का उल्लेख किया है।

व्याख्या – लेखिका महादेवी वर्मा ने लिखा है कि दया, प्रेम, सहयोग, करुणा इत्यादि मानवीय मूल्य राजेन्द्र बाबू के व्यक्त्वि में निहित थे। इन्हीं सद्गुणों के कारण उन्हें ‘देश रत्न’ की पदवी प्रदान की गई थी। राजेन्द्र बाबू अत्यंत सरल, स्वच्छ एवं निष्कपट व्यक्ति थे, इसी कारण उनका कोई भी शत्रु नहीं था। आज समाज एवं राजनीति के क्षेत्र में इस प्रकार के मानवीय मूल्यों को धारण करे वाले सरल एवं स्वच्छ राजनेताओं का अभाव हो गया है। राजेन्द्र बाबू का प्रतिरूपी तैयार करने वाला साँचा शायद नष्ट हो चुका है। तभी तो वैसे इंसान अब नहीं हुआ करते।

विशेष – तत्सम शब्दावली का प्रयोग है। राजेन्द्र बाबू की महानता के कारणों को उद्धृत किया गया है। वर्णनात्मक शैली का प्रयोग है।

  • वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
राजेन्द्र बाबू को निम्न में से कौन – सी उपाधि प्राप्त हुई थी (म. प्र. 2011)
(क) पद्म भूषण (ख) भारत रत्न (ग) देश रत्न (घ) भारत पुरुष।
उत्तर –
(ग) देश रत्न।

प्रश्न 2.
राजेन्द्र बाबू देश के किस सर्वोच्च पद पर कार्यरत हुए
(क) प्रधानमंत्री (ख) मुख्य न्यायाधीश (ग) मुख्यमंत्री (घ) राष्ट्रपति।
उत्तर –
(घ) राष्ट्रपति।

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प्रश्न 3.
राजेन्द्र बाबू के प्रथम दर्शन लेखिका ने कहाँ किए (म. प्र. 2015)
(क) राष्ट्रपति भवन (ख) पटना के रेल्वे स्टेशन (ग) बनारस (घ) भोपाल।
उत्तर –
(ख) पटना के रेल्वे स्टेशन।

प्रश्न 4.
‘राजेन्द्र बाबू’ महादेवी वर्मा की किस विधा की रचना है (म. प्र. 2009, 13)
(क) संस्मरण (ख) रेखाचित्र (ग) आत्मकथा (घ) रिपोर्ताज।
उत्तर –
(क) संस्मरण।

  • दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राजेन्द्र बाबू के व्यक्तित्व के उन कतिपय पहचान चिन्हों का उल्लेख कीजिए जो भारतीय जन की आकृति को व्यक्त करते हैं?
उत्तर –
राजेन्द्र बाबू की मुखाकृति, शारीरिक गठन साधारण भारतीय जन की मुखाकृति एवं शारीरिक गठन से मेल खाती थी। उन्हें देखने वाले को कोई – न – कोई आकृति या व्यक्ति स्मरण हो आता था। उन्हें अनुभूत होता था कि इन्हें कहीं देखा है। आकृति एवं वेशभूषा के समान ही वे अपने स्वभाव और रहन – सहन में भी साधारण भारतीय या भारतीय किसान का प्रतिनीधित्व करते थे। उनकी संवेदनशीलता उनकी सामान्यता को गरिमा प्रदान करती थी।।

प्रश्न 2.
राजेन्द्र बाबू की सहधर्मिणी के गुणों का उल्लेख कीजिए। (Imp.)
उत्तर –
राजेन्द्र बाबू की सहधर्मिणी जमींदार परिवार से थी। राजेन्द्र बाबू की पत्नी होने का घमण्ड उन्हें कभी नहीं रहा। उनके मन में कोई मानसिक दंभ नहीं था। सबके प्रति वे समान ध्यान रखती थी। राष्ट्रपति भवन में भोजन बनाना, आम भारतीय गृहिणी की तरह परिजनों को भोजन कराना उनकी दिनचर्या में शामिल था। सप्ताह में एक दिन वे उपवास अवश्य रखती थीं।

प्रश्न 3.
पाठ के आधार पर राजेन्द्र बाबू की चारित्रिक विशेषताएँ लिखिए। (म. प्र. 2015)
उत्तर –
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की शारीरिक बनावट तथा मुखाकृति आम भारतीय जन या कृषक की थी। ग्राम्यता से उन्हें विशेष रुचि थी। भारतीयता की झलक उनके व्यक्तित्व में दिखाई देती थी। सरलता, स्वच्छता, जीवन मूल्यों के प्रति सजगता, प्रतिभा, बुद्धि में विशिष्टता तथा संवेदनशीलता उनके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ थीं।

प्रश्न 4.
राजेन्द्र बाबू को अजातशत्रु किस संदर्भ में कहा जाता है? (म. प्र. 2009, 13)
उत्तर –
राजेन्द्र बाबू का मन अत्यंत सरल एवं स्वच्छ था। इन्हीं गुणों के कारण इन्हें लोग पसंद करते थे। उनका सामान्य एवं राजनैतिक जीवन में कोई दुश्मन नहीं था। इसीलिए उन्हें अजातशत्रु कहते थे।

प्रश्न 5.
सामान्यतः हमारा उपवास कैसा होता है?
उत्तर –
सामान्यत: उपवास में हम आम दिनों की अपेक्षा कुछ अधिक स्वादिष्ट सामग्री ग्रहण कर लेते हैं।
फल – फूल, दूध – दही, तली – भुनी सामग्रियों से उपवास का जायका कुछ ज्यादा हो जाता है, जबकि उपवास में काम चलाऊ, साधारण अल्पाहार करना चाहिए।

7. हिम प्रलय

– डॉ. जयन्त नार्लीकर

ससंदर्भ व्याख्या कीजिए

1. “उनकी एकता और अनुशासन यदि मानव जाति में होती तो विभिन्न देशों में भारी भगदड़ न मची होती। तकनीकी लिहाज से जापान, यूरोप, रूस, कनाडा जैसे प्रगत राष्ट्र भी इस हिमपात का मुकाबला नहीं कर सके। अनेक शहरों में पाँच से छः मीटर तक बर्फ गिरी थी। इतने भीषण हिमपात ने चारों तरफ तबाही मचा दी।”

शब्दार्थ – भगदड़ = अस्थिरता, लिहाज = दृष्टि से, प्रगत = विकसित, हिमपात = बर्फ का गिरना, तबाही = बर्बादी।

संदर्भ – प्रस्तुत गद्यांश डॉ. जयन्त नार्लीकर की विज्ञान कथा ‘हिम प्रलय’ से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग – डॉ. जयन्त नार्लीकर ने मानव समुदाय के मदभेद को पतन का कारण बताया है।

व्याख्या – पशु – पक्षी परस्पर एकता एवं अनुशासन में बँधे होते हैं। प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ मनुष्य इन पशु पक्षियों से सीख क्यों नहीं लेता? पशु – पक्षी खतरे का अनुमान कर सांकेतिक भाषा में सबको एकत्र कर सुरक्षित स्थानों पर चले जाते हैं। मनुष्य में भी अनुकरण, एकता एवं अनुशासन की भावना होती तो वे भी प्राकृतिक कोपों से बच सकते थे। जापान, यूरोप, रूस, कनाडा इत्यादि देशों को विकसित माना जाता है किन्तु इन देशों ने भी भारी बर्फ गिरने का अनुमान नहीं किया। असाधारण बर्फबारी के बाद सड़कों पर पाँच – छ: मीटर मोटी बर्फ की परत चढ़ गई। सर्वत्र खूब तबाही हुई। बच गए तो सिर्फ पशु – पक्षी।

विशेष – भाषा तत्सम एवं शैली वर्णनात्मक है। हिमपात को रुचिवर्द्धक एवं ज्ञानवर्द्धक तरीके से समझाया गया है। मनुष्य को पशु – पक्षियों से एकता एवं अनुशासन की सीख लेने को कहा गया है।

2. “प्रकृति और इंसान के बीच छिड़े युद्ध में इंसान की जीत तो हुई थी, लेकिन अब उसे अनेक समस्याओं का सामाना करना था। बर्फ पिघलने से ‘न भूतो न भविष्यति’ बाढ़ आने वाली थी। पृथ्वी की जनसंख्या आधी हो चुकी थी। अनेक बहुमूल्य चीजें इसी आक्रमण में नष्ट हो गई थी। जिस एकता का परिचय इंसान ने इन्द्र पर आक्रमण के दौरान दिया था, क्या ……?”

शब्दार्थ – ‘भूतो न भविष्यति’ = न हुआ है और न होगा, बहुमूल्य = कीमती, आक्रमण = हमला।

संदर्भ – प्रस्तुत गद्यांश डॉ. जयंत नार्लीकर की विज्ञान – कथा हिम – प्रलय से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग – हिमपात पर मानव मस्तिष्क के विजय का वर्णन किया गया है।

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व्याख्या – प्रकृति ने भारी तबाही मचाई। हिमपात से धरती ढंक गई तब डॉ. चिटणीस के लेख – ‘अभियानः इन्द्र पर आक्रमण के आधार पर अग्निबाणों, उपग्रहों से हमला किया। मनुष्य ने प्रकृति पर जीत हासिल की। बर्फबारी रुक गई। प्रकृति ने मानव सभ्यता के लिए अनेक समस्याएँ पैदा कर दी। हिमपात से गिरी बर्फ पिघलकर पानी बनने लगी और भयंकर बाढ़ का सामना करना पड़ा। धरती पर मनुष्य काल – कवलित होने लगे। आबादी घटकर आधी रह गई। मानव सभ्यता की कीमती चीजें बर्फ बारी की भेंट चढ़ गई। इन्द्र पर आक्रमण करने की बात पर जिस प्रकार सब एकमत हुए, उसी प्रकार डॉ. चिटणीस की चेतावनियों पर किसी ने भी यदि ध्यान दिया होता तो यह ध्वंस ही क्यों होता?

विशेष – संस्कृतनिष्ठ, तत्सम भाषा की प्रधानता है। वर्णनात्मक शैली का प्रयोग है। वैज्ञानिक चेतावनियों के उल्लंघन की समस्या का अंकन है।

  • वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
डॉ. जयंत नार्लीकर मुख्य रूप से क्या थे
(क) साहित्यकार (ख) समाजसेवी (ग) वैज्ञानिक (घ) संस्कृति कर्मी।
उत्तर –
(ग) वैज्ञानिक।

प्रश्न 2.
‘अभियानः इन्द्र पर आक्रमण’ किसका लेख था
(क) डॉ. चिटणीस (ख) न्यूटन (ग) सी.बी.रमन (घ) डॉ. अरविंद।
उत्तर –
(क) डॉ. चिटणीस।

प्रश्न 3.
‘हिम प्रलय’ को निम्न में से किस विधा में रखा जा सकता है (म. प्र. 2012)
(क) खोज (ख) वैज्ञानिक कथा (ग) मिथ्या कल्पना (घ) अनुमान।
उत्तर –
(ख) वैज्ञानिक कथा।

प्रश्न 4.
डॉ. चिटणीस का पूरा नाम क्या था?
उत्तर –
डॉ. बसंत चिटणीस।।

प्रश्न 5.
डॉ. जयंत नार्लीकर को भारत सरकार ने कौन – सा सम्मान दिया था?
उत्तर –
‘पद्म विभूषण’।

  • दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
हिमपात से बचने की डॉ. चिटणीस की क्या योजना थी? (म. प्र. 2010, 12)
उत्तर –
“हिम प्रलय प्रतिबंधक उपाय है, वह मँहगा है लेकिन फिर भी उस पर अभी से अमल कीजिए। डॉ. चिटणीस की इसी सलाह को बाद में मानना पड़ा। अग्निबाणों, प्रक्षेपास्त्रों के हमले कर हिमपात रोकने की डॉ. चिटणीस की योजना थी।

प्रश्न 2.
डॉ. बसंत चिटणीस ने क्या चेतावनी दी थी? (म. प्र. 2011)
उत्तर –
“अब की गर्मियों में इस बर्फ को भूलिए नहीं क्योंकि अगली सर्दियाँ इतनी भयंकर होंगी कि बर्फ पिघलने का नाम ही नहीं लेगी। हिम प्रलय प्रति बंधक उपाय है, वह मँहगा है, लेकिन फिर भी उस पर अभी से अमल कीजिए।”

प्रश्न 3.
अन्य वैज्ञानिकों ने डॉ. बसंत की बात पर ध्यान क्यों नहीं दिया?
उत्तर –
अन्य वैज्ञानिकों को डॉ. बसंत चिटणीस का सिद्धान्त मान्य नहीं था। वे मानते थे कि शीत लहर प्राकृतिक है। जैसे आई है वैसे ही चली जाएगी। तापमान सामान्य करने हेतु अग्निबाण या प्रक्षेपास्त्र दागने की कोई जरूरत नहीं है किन्तु हिमपात प्रभावित देशों ने डॉ. चिटणीस की बात को माना और उन्हें शीतलहर से मुक्ति मिली।

प्रश्न 4.
डॉ. बसंत को टैलेक्स से क्या संदेश मिला?
उत्तर –
डॉ. बसंत चिटणीस को टैलेक्स से संदेश मिला कि – “आपके कथनानुसार अंटार्कटिक में बर्फ के फैलाव में वृद्धि हुई है और वहाँ के पानी की परत का तापमान भी दो अंश कम पाया गया है। अपने सर्वेक्षण के आधार पर मैं यह कह सकता हूँ कि यह परिवर्तन पिछले दो वर्षों में हुआ है।”

प्रश्न 5.
डॉ. बसंत ने राजीव शाह को कहाँ और क्यों जाने की सलाह दी?
उत्तर –
डॉ. बसंत ने राजीव शाह को अगले साल इंडोनेशिया चले जाने की सलाह दी। यह इसलिए की भूमध्य रेखा के पास ही बचने की कुछ गुंजाइश है।।

प्रश्न 6.
हिमपात का मुकाबला कौन – कौन से देश नहीं कर सके थे? (म. प्र. 2015)
उत्तर –
हिमपात का मुकाबला जापान, यूरोप, रूस, कनाडा जैसे प्रगत राष्ट्र नहीं कर सके एवं हिमपात की चपेट में आये तथा काफी नुकसान हुआ।

8. धर्म की झाँकी

– महात्मा गाँधी

ससंदर्भ व्याख्या कीजिए

1. “धर्म का उदार अर्थ करना चाहिए। धर्म अर्थात् आत्मबोध, आत्मज्ञान। मैं वैष्णव सम्प्रदाय में जन्मा था, इसलिए हवेली में जाने के प्रसंग बार – बार आते थे, पर उसके प्रति श्रद्धा उत्पन्न नहीं हुई। हवेली का वैभव मुझे अच्छा नहीं लगा। हवेली में चलने वाली अनीति की बातें सुनकर मन उसके प्रति उदासीन बन गया। वहाँ से मुझे कुछ भी न मिला।”

शब्दार्थ – उदार = सख्ती विहीन, आत्मबोध = स्वयं ज्ञान, अनीति = अन्याय, वैभव = सम्पत्ति।

संदर्भ – प्रस्तुत गद्यांश महात्मा गाँधी की आत्मकथा ‘धर्म की झाँकी’ से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग – लेखन ने धर्म के वास्तविक स्वरूप पर प्रकाश डाला है।

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व्याख्या – मनुष्यों में धार्मिक कट्टरता के गाँधी जी सख्त विरोधी थे। वे धर्म के उदार, परोपकारी, दयालु, परदुःख – कातर स्वरूप को स्वीकार करते थे। धर्म वह जो मनुष्य के मन में स्वतः ज्ञान पैदा कर दे। उचित अनुचित का बोध उसे स्वतः होने लगे। वैष्णव धर्मी गाँधी जी हवेली में जाते थे किन्तु उन्होंने वहाँ धर्म एवं धन का जो घाल – मेल देखा वह उन्हें स्वीकार्य नहीं था। एक ओर धर्म की बातें की जाएँ व दूसरी ओर अन्याय का प्रसार किया जाए, यह कहाँ तक उचित है? अन्याय से पोषित धर्म के गाँधी जी विरूद्ध थे। ऐसे धर्म को उन्होंने कभी प्रश्रय नहीं दिया। हवेली में गाँधी जी को कुछ भी नहीं मिला बल्कि वहाँ उन्होंने धर्म का विकृत स्वरूप देखा।

विशेष – भाषा सरल एवं सुबोध है। धर्म एवं धन के समन्वय का विरोध किया गया है। शैली वर्णनात्मक है।

2. “भागवत एक ऐसा ग्रंथ है जिसके पाठ से धर्म – रस उत्पन्न किया जा सकता है। मैंने तो उसे गुजराती में बड़े चाव से पढ़ा है। लेकिन इक्कीस दिन के अपने उपवास काल में भारत – भूषण मदनमोहन मालवीय जी के शुभ मुख से मूल संस्कृत के कुछ अंश जब सुने तो ख्याल हुआ कि बचपन में उनके समान भगवद् – भक्त के मुँह से भागवत सुनी होती, तो उस पर उसी उमर में मेरा प्रगाढ़ प्रेम हो जाता। बचपन में पड़े हुए शुभ – अशुभ संस्कार बहुत गहरी जड़े जमाते हैं, इसे मैं खूब अनुभव करता हूँ और इस कारण उस उमर में मुझे कई उत्तम ग्रंथ सुनने का लाभ नहीं मिला, सो अब अखरता है।”

शब्दार्थ – चाव = रुचि, प्रगाढ़ = गहरा, अखरता = अफसोस होना।

संदर्भ – प्रस्तुत गद्यांश महात्मा गाँधी की आत्मकथा ‘धर्म की झाँकी’ से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग – यहाँ गाँधी जी ने भागवत की महत्ता प्रतिपादित की है।

व्याख्या – गाँधी जी का विचार है कि भागवत एक महान ग्रंथ है। नियमित अध्ययन से व्यक्ति में धार्मिक भाव उत्पन्न किए जा सकते हैं। गाँधी जी ने स्वयं गुजराती में लिखित भागवत् का अध्ययन बचपन में किया था। गाँधी जी ने जब इक्कीस दिन का उपवास रखा तब मालवीय जी ने उन्हें मूल संस्कृत भागवत् सुनाई तो उन्हें भागवत् ग्रंथ की महत्ता समझ में आई। उन्हें पछतावा हुआ कि अगर वे इसे अपने बचपन में इस तरह सुने होते तो उसी समय इससे लगाव हो जाता। जीवन का काफी लम्बा समय व्यर्थ ही बर्बाद हुआ। बचपन की अच्छी या बुरी आदत व्यक्तित्व में गहरे तक जड़ जमाती है। गाँधी जी को भी बचपन में अच्छे – अच्छे ग्रंथों के अध्ययन का विशेष अवसर नहीं मिल पाया, इस पर उन्हें अफसोस तो है ही साथ ही समाज के लिए प्रेरणा है कि बचपन से ही बच्चों को सद्ग्रंथ पढ़ाए जाएँ।

विशेष – भाषा सरल एवं आत्म कथात्मक शैली का प्रयोग है। श्री मद्भागवत् की महत्ता का प्रतिपादन है। शैशवावस्था से ही संस्कार विकसित करने के लिए श्रेष्ठ ग्रंथों का अध्ययन आवश्यक है।

  • वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
सही तिथियाँ चुनकर रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए (2 अक्टूबर, 1869, 15 अगस्त, 1947, 30 जनवरी, 1948)
1. भारत को आजादी ………. को मिली।
2. गाँधी जी का जन्म ………. को हुआ। (म. प्र. 2013)
3. गाँधी जी की हत्या ………… को हुई।
उत्तर –
1. 15 अगस्त, 1947,
2. 2 अक्टूबर, 1969
3. 30 जनवरी, 1948।

प्रश्न 2.
गाँधी जी के मन पर किस चीज का गहरा असर पड़ा?
उत्तर –
रामायाण पाठ का।

प्रश्न 3.
गाँधी जी ने इक्कीस दिन के उपवास काल में किन महोदय से भागवत कथा सुनी?
उत्तर –
पं. मदन मोहन मालवीय।

प्रश्न 4.
भूत – प्रेत के भय को दूर करने के लिए गाँधी जी ने किसका सहारा लिया? (म. प्र. 2011)
उत्तर –
राम नाम।

  • दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
गाँधी जी के अनुसार धर्म का अर्थ क्या है? (म. प्र. 2010, 13)
उत्तर –
गाँधी जी ने धर्म का उदार अर्थ प्रस्तुत किया है। गाँधी जी ने लिखा है –
“धर्म अर्थात् आत्मबोध, आत्म ज्ञान” अर्थात् धर्म की उपयोगिता तभी है जब वह व्यक्ति में स्वयं ज्ञान उत्पन्न कर दे।

प्रश्न 2.
गाँधी जी के भीतर रामायण – श्रवण और रामायण के प्रति प्रेम की बुनियाद किस घटना ने रखी थी?
उत्तर –
गाँधी जी पोरबन्दर में अपने पिताजी के साथ राम मन्दिर में रात को बीलेश्वर लाघा महाराज से रामायण कथा सुनते थे। राम के परम भक्त लाघा महाराज को कोढ़ की बीमारी हुई। इलाज के बदले उन्होंने बीलेश्वर महादेव पर चढ़े हुए बेल पत्र कोढ़ वाले अंग पर बाँधे और केवल राम नाम का जप शुरू किया। उनका कोढ़ समाप्त हो गया। लाघा महाराज सुमधुर कण्ठ में रामायण का पाठ करते थे। बचपन में कोढ़ वाली घटना एवं लाघा महाराज के मधुर कंठ ने गाँधी जी को आकृष्ट किया। यहीं से रामायण प्रेम की बुनियाद पड़ी।

प्रश्न 3.
गाँधीजी की दृष्टि में सर्वधर्म समभाव का उदय किन प्रसंगों की प्रेरणा से हुआ था? (म. प्र. 2011)
उत्तर –
गाँधीजी के पिताजी के पास जैन धर्माचार्य आते – जाते रहते थे। दान के अतिरिक्त वे उनसे धर्म चर्चा भी किया करते थे। गाँधी जी के पिता जी के कई मुसलमान और पारसी मित्र थे जिनसे वे धर्म चर्चाएँ किया करते थे। गाँधी जी को पिता जी के सान्निध्य में ही विविध धर्मों के संबंध में जानकारी हुई। विविध धर्मों के प्रति पिता जी के आदर को देखते हुए उनके मन में भी सर्वधर्म समभाव की भावना विकसित हुई।

  • भाव विस्तार कीजिए

प्रश्न 1.
“बचपन में जो बीज बोया गया, वह नष्ट नहीं हुआ।” विचार का विस्तार कीजिए।
उत्तर –
गाँधी जी ने ‘धर्म की झाँकी’ नामक आत्मकथा में लिखा है कि बचपन के संस्कार अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं। उनके प्रभाव परवर्ती जीवन पर पड़ता है। इस कथन में उपदेशात्मक तथ्य भी छिपे हुए हैं। गाँधीजी यह कहना चाहते हैं कि हमें बच्चों को अच्छे संस्कार देने चाहिए ताकि नई पीढ़ी अच्छी तैयार हो सके। गाँधी जी को सर्वधर्म समभाव का संस्कार बचपन में अपने पिता से प्राप्त हुआ था। भागवत एवं रामायण के प्रति रूझान भी उन्हें बचपन से ही हो गया था।

प्रश्न 2.
“बचपन में पड़े हुए शुभ – अशुभ संस्कार बहुत गहरी जड़ें जमाते हैं।” समझाइये। (Imp.)
उत्तर –
महात्मा गाँधी जी ने ‘धर्म का झाँकी’ नामक आत्मकथा में लिखा है कि बचपन की आदतें व्यक्ति में स्थाई निवास बना लेती हैं। युवावस्था तक बचपन की अच्छी या बुरी आदत साथ नहीं छोड़ती। हमें चाहिए कि श्रेष्ठ एवं अच्छे संस्कार बच्चों को प्रदान करें। शुभ संस्कारों के कारण आगामी जीवन जगमगा उठता है। अशुभ संस्कारों से जीवन का उपकार होता है एवं सर्वत्र अंधेरा छा जाता है।

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9. रुपया तुम्हें खा गया

– भगवती चरण वर्मा

ससंदर्भ व्याख्या कीजिए

1. “बीमारी का अन्त होता है, बीमारी में सुधार नहीं हुआ करता। जितने दिन तक बीमारी चलती है, वह बीमारी की अवधि कहलाती है। उस अवधि में उतार – चढ़ाव होते रहते हैं, अगर सुधार हो तब तो बीमारी अच्छी ही हो गई।”

शब्दार्थ – अवधि = समय, उतार – चढ़ाव = कम – अधिक।

संदर्भ – प्रस्तुत गद्यांश भगवती चरण वर्मा की एकांकी ‘रुपया तुम्हें खा गया’ से उधत किया गया है।

प्रसंग – डॉ. जयलाल के द्वारा बीमारी को समझाया जा रहा।

व्याख्या – लेखक के अनुसार डॉ. जयलाल का विचार है कि बीमारी कम या ज्यादा नहीं हुआ करती। बीमारी इलाज के बाद खत्म हो जाती है, कम नहीं होती। किसी भी बीमारी की एक निश्चित समयावधि हुआ करती है। इलाज के कराने पर, समुचित दवा करने पर वह जड़ से समाप्त हो जाती है। इलाज की समयावधि में जरूर बीमारी में कमी आती है। बीमारी में कमी आना सुधार होने का उपक्रम है। समझ लीजिए कि रोग समाप्ति की ओर है।

विशेष – भाषा सरल एवं प्रवाहमय है। बीमारी ठीक होने की प्रक्रिया को समझाया जा सकता है।

2. “धोखा मैं तुम्हें नहीं दे रहा हूँ, धोखा तुम अपने को दे रहे हो। तुम्हारी सुख – शान्ति अर्थ के पिशाच ने तुमसे छीन ली, तुम्हारा संतोष उसने नष्ट कर दिया। उस दिन जब तुम दस हजार रुपया चुराकर लाए थे। तब तुमने समझा था कि तुम रुपया खा गए ……. लेकिन तुमने गलत समझा था।”

शब्दार्थ – पिशाच = भूत – प्रेत, अर्थ = धन। संदर्भ – प्रस्तुत गद्यांश भगवती चरण वर्मा की एकांकी ‘रुपया तुम्हें खा गया’ से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग – यहाँ मानिकचंद की अज्ञानता को स्पष्ट किया गया है।।

व्याख्या – किशोरीलाल मानिकचंद से कहता है कि मैंने तुम्हारे साथ कोई छल – कपट नहीं किया है। धन के अधीन होकर तुमने जीवन के मर्म को समझने में चूक की है। धन मनुष्य के जीवन की सुख – शान्ति छीनने की क्षमता रखता है। धन से मनुष्य को कभी संतोष प्राप्त नहीं होता। दस हजार रुपए चुराकर तुम स्वयं की बुद्धि को शाबासी दे रहे थे, आत्म – प्रसंशा की स्थिति में थे। तुमने यहीं भूल की, तुमने रुपया नहीं खाया बल्कि रुपया तुम्हारे सम्पूर्ण चरित्र को कलंकित कर गया।

विशेष – अर्थलिप्सा की निन्दा की गई है। भाषा सरल एवं प्रवाहमय है। शैली में व्यंग्य छुपा हुआ है।

  • वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
‘रुपया तुम्हें खा गया’ निम्न में से किस विधा की रचना है
(क) नाटक (ख) उपन्यास (ग) एकांकी (घ) कहानी।
उत्तर –
(ग) एकांकी।

प्रश्न 2.
जयलाल के पिता का क्या नाम था?
उत्तर –
किशोरी लाल।

प्रश्न 3.
रुपया चुराने के जुल्म में किसे सजा हुई थी?
उत्तर –
किशोरी लाल को।

प्रश्न 4.
जयलाल का क्या पेशा था? (म. प्र. 2012)
उत्तर –
डॉक्टरी।

प्रश्न 5.
‘रुपया तुम्हें खा गया’ यह किसका कथन है
(क) जयलाल (ख) मानिकचंद (ग) रानी (घ) मदन।
उत्तर –
(ख) मानिकचंद।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित कथनों में से सत्य/ असत्य कथन छाँटिए (म. प्र. 2010)
1. जयलाल वकील था।
2. ‘आँख का तारा’ मुहावरे का अर्थ है। बहुत प्रिय।
3. ‘देश में सर्वत्र शांती है’ यह वाक्य शुद्ध है?
4. ‘सम्मान’ शब्द का विलोम शब्द ‘अपयश’ है।
उत्तर –
1. असत्य,
2. सत्य,
3. असत्य,
4. असत्य।

  • दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
किशोरीलाल के जेल जाने पर परिवार ने अपना जीवन निर्वाह किस प्रकार किया?
उत्तर –
किशोरीलाल के जेल जाने पर जीवन निर्वाह के चक्कर में उसकी पत्नी के जेवर बिक गए। किशोरीलाल की लड़की ने चक्की चलाई तथा पड़ोस के कपड़े सिलकर धनार्जन किया। कमाया हुआ सारा धन बेटे की पढ़ाई पर खर्च हुआ।

प्रश्न 2.
मानिकचंद अपनी सेफ (तिजोरी)की चाबी अपने पुत्र मदन को क्यों नहीं देना चाहता है?
उत्तर –
मानिकचंद अपने जीते – जी अपनी सम्पत्ति का मालिक अपने पुत्र मदन को नहीं बनाना चाहता था। अपनी सेफ की चाबी देकर वह अपनी पत्नी और बेटे के अधीन होकर नहीं जीना चाहता था।

प्रश्न 3.
मानिकचंद को अपनी भूल का अहसास कैसे होता है? (म. प्र. 2010, 13)
उत्तर –
जब किशोरीलाल मानिकचंद को यह कहता है कि ‘रुपया तुम्हें खा गया’। तब मानिकचंद को अपनी भूल का अहसास होता है। मानिकचंद अर्थ – पिशाच, से पीड़ित व्यक्ति है। जीवन के उच्चतर मूल्य दया, प्रेम, ममता एवं मानवता का उसके जीवन में कोई स्थान नहीं है।

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प्रश्न 4.
‘रुपया तुम्हें खा गया’ एकांकी का उद्देश्य क्या है? (म. प्र. 2011)
उत्तर –
इस एकांकी में व्यक्ति की अर्थ – लालसा को प्रकट किया गया है। धन के चक्कर में मनुष्य सामाजिक एवं पारिवारिक रिश्तों को भी भुला बैठता है। जबकि धन मनुष्य के जीवन की सुख – शान्ति एवं संतोष का हरण करता है। जीवन में उच्च मानवीय मूल्यों का महत्व है, धन उसके समक्ष तुच्छ है। मानवीय मूल्यों की स्थापना से जीवन में सुकून का वास होता है।

प्रश्न 5.
एकांकी के आधार पर मानिकचंद का चरित्र चित्रण कीजिए।
उत्तर –
रुपया तुम्हें खा गया’ के मानिकचंद में निम्नलिखित गुण – अवगुण विद्यमान हैं

  1. धन – लिप्सा।
  2. अनैतिक विचारों का पोषक।
  3. पारिवारिक एवं सामाजिक संबंधों को धन के समक्ष हे य मानना।
  4. उच्चतर मानवीय मूल्यों की उपेक्षा।
  5. अविश्वास की भावना।
  6. समय बीतने पर पछताना।

प्रश्न 6.
मदन को संपत्ति का मालिक बनाने की बात पर मानिकचंद ने क्या कहा?
उत्तर –
मदन को संपत्ति का मालिक बनाने की बात पर मानिकचंद ने यह कहा – “मेरे मरने के बाद ही उसके पहले नहीं। और मेरे मरने के लिए तुम दोनों माला फेरो, पूजा – पाठ कराओ ……… यहाँ से …….. जाओ तुम दोनों।”

प्रश्न 7.
सजा काटने के पश्चात् किशोरी लाल की मनोदशा का वर्णन कीजिए। (म. प्र. 2015)
उत्तर –
सजा काटने के पश्चात् किशोरी लाल की मनोदशा काफी बिगड़ चुकी थी। वह अपने उजड़े हुए घर परिवार को देखकर अशांत हो गया था। उसने अपनी बीवी अपने बच्चों के कुपोषण को देखा। इससे वह एकदम घबरा गया। उसने लोगों से होने वाले अनादर और उपेक्षा को देखा। घर के घोर अभाव को देखा। इन सब दुखों को देखकर वह काँप गया। उसके बाप – दादा का पुराना मकान कर्ज से दब चुका था। उसे बेचकर वह वहाँ से भाग खड़ा हुआ और दूसरे शहर को चला गया।

10. अंतिम संदेश

– राम प्रसाद ‘बिस्मिल’

ससंदर्भ व्याख्या कीजिए

1. “हमारी मृत्यु से किसी को क्षति और उत्तेजना हुई हो, तो उसको सहसा उतावलेपन से कोई ऐसा कार्य न कर डालना चाहिए कि जिससे मेरी आत्मा को कष्ट पहुँचे। यह समझकर कि अमुक ने मुखबरी कर दी अथवा अमुक पुलिस से मिल गया या गवाही दी, इसलिए किसी की हत्या कर दी जाए या किसी को कोई आघात पहुँचाया जाए , मेरे विचार में ऐसा करना सर्वथा अनुचित तथा मेरे प्रति अन्याय होगा। क्योंकि जिस किसी ने भी मेरे प्रति शत्रुता का व्यवहार किया है और यदि क्षमा कोई वस्तु है तो मैंने उन सबको अपनी ओर से क्षमा किया।”

शब्दार्थ – क्षति = नुकसान, उत्तेजना = जोश, सहसा = एकाएक, अमुक = पहचान सूचक शब्द, मुखबरी = भेदिया, आघात = चोट, सर्वथा = हर प्रकार से।

संदर्भ – प्रस्तुत गद्यांश शहीद राम प्रसाद बिस्मिल लिखित ‘अंतिम संदेश’ शीर्षक से उद्धृत किया गया

प्रसंग – प्रस्तुत प्रकरण माँ के लिए लिखे पत्रों का अंश है। नवयुवकों को होश में रहकर काम करने का संदेश दिया गया है।

व्याख्या – ‘बिस्मिल’ लिखते हैं कि मुझे फाँसी दिया जाना तय है। मेरी फाँसी से किसी को अतिरिक्त जोश में आने की आवश्यकता नहीं है। यदि देश का कोई भी नागरिक मेरी फाँसी से उद्वेलित होकर विध्वंसक कार्य करता है, तो मेरी मृतात्मा को शान्ति नहीं मिलेगी। किसी को भी भेदिया मानकर उस पर जुल्म नहीं किया जाना चाहिए। मेरी फाँसी के मुद्दे पर देश के किसी भी नागरिक को जिम्मेदार न ठहराया जाए या उसकी हत्या न की जाए। यदि ऐसा किया जाता है तो यह सही एवं नीति संगत नहीं होगा। इस मानवीय समाज में क्षमा सबसे बड़ी चीज है। मैंने अपने दुश्मन को, जिसके कारण मैं फाँसी के फंदे तक पहुँचा हूँ , क्षमा करता हूँ। देश के दुश्मनों की सजा ईश्वर ही निर्धारित कर सकता है।

विशेष – देश भक्ति का जज्बा प्रकट हुआ है। क्षमा को उच्चतर मानवीय मूल्य बताया गया है। तत्सम एवं संस्कृतनिष्ठ भाषा है।

  • वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
राम प्रसाद बिस्मिल’ ने अंतिम संदेश पत्र किसे लिखा? (म. प्र. 2009)
उत्तर –
माता को।

प्रश्न 2.
‘सरफरोशी की तमन्ना’ किसका लिखा हुआ गीत है? (म. प्र. 2011)
उत्तर –
राम प्रसाद ‘बिस्मिल’।

प्रश्न 3.
अंतिम संदेश’ किस विधा की रचना है?
उत्तर –
पत्र।

प्रश्न 4.
फाँसी के पूर्व राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ किस जेल में कैद थे? (म. प्र. 2013)
उत्तर –
गोरखपुर।

प्रश्न 5.
राम प्रसाद बिस्मिल अनुयायी थे (म. प्र. 2010)
(क) महर्षि दयानंद के (ख) स्वामी विवेकानंद के (ग) स्वामी विद्यानंद के (घ) स्वामी रामानंद के।
उत्तर –
(क) महर्षि दयानंद के।

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  • दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ ने अपने पत्र में अपने शत्रु को क्षमा करने के कौन से दो कारण बताए (म. प्र. 2010)
उत्तर –
(1) भारत का वायुमण्डल एवं परिस्थितियाँ इस प्रकार की हैं कि इसमें अभी दृढ प्रतिज्ञ व्यक्ति बहुत कम उत्पन्न होते हैं।
(2) महर्षि दयानन्द सरस्वती ने स्वयं को जहर देने वाले को रुपये देकर भाग जाने को कहा था, तो मैं अपने शत्रु को क्यों नहीं क्षमा कर सकता हूँ।

प्रश्न 2.
राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ के अनुसार नवयुवकों को क्या करना चाहिए? (म. प्र. 2009, 13, 15)
उत्तर –
राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ के अनुसार नवयुवकों को गाँव – गाँव में जाकर ग्रामीणों एवं कृषकों की दशा सुधारने हेतु काम करने को कहा। मजदूरों एवं रोजमर्रा की जिन्दगी जीने वालों की जीवन दशा सुखद बनाने का प्रयास करना चाहिए। सामान्यजन को शिक्षित करने , दलितों का उद्धार करने, सुख – शान्ति एवं भाई – चारे के वातावरण का निर्माण करने एवं प्रेम और सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करने के लिए उन्होंने नवयुवकों से कहा।

प्रश्न 3.
वे क्रान्तिकारियों के विरुद्ध गवाही देने वालों के साथ कैसा व्यवहार करने को कहते हैं?
उत्तर –
राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ क्रान्तिकारियों के विरुद्ध गवाही देने वालों को क्षमा करने की बात कहते हैं। उनके प्रति दया की भावना भी होनी चाहिए। उन्होंने अपने पत्र में लिखा है कि यदि “हमारी मृत्यु से किसी को क्षति और उत्तेजना हुई हो, तो उसको सहसा उतावलेपन से कोई ऐसा कार्य न कर डालना चाहिए कि जिससे मेरी आत्मा को कष्ट पहुँचे।”

11. भगत जी

– रामकुमार ‘भ्रमर’

ससंदर्भ व्याख्या कीजिए

1. “उन्हें चुनाव लड़ने की इच्छा नहीं, अभिनय की उत्कंठा नहीं, पर उन्हें चाह है खिले गुलाब की नाजुक पंखुड़ियों जैसे हँसते – खेलते बच्चों की और उन्हें उत्कंठा है हरी – भरी लहलहाती धरती की शान्ति की।”

शब्दार्थ – अभिनय – रंगमंच पर पात्र की भूमिका, उत्कंठा = इच्छा।

संदर्भ – प्रस्तुत गद्यांश रामकुमार ‘भ्रमर’ की कहानी भगत जी से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग – यहाँ भगत जी के निर्मल हृदय की चर्चा की गई है।

व्याख्या – ‘भ्रमर’ जी लिखते हैं कि भगत जी निर्मल हृदय के व्यक्ति हैं। कोई भी काम निर्विकार हृदय से करते हैं। वे नेता भी नहीं हैं, न ही भविष्य में कोई चुनाव लड़ने की योजना है। समाजसेवा एवं सादगी उनके सरल व्यवहार का अंग है। वे दिखावे या अभिनय के लिए भी कोई काम नहीं करते। यश प्राप्ति की कामना भी के हृदय में नहीं है। वे संसार के नन्हें – मन्हें बच्चों को प्रसन्नचित एवं खिला हआ देखना – चाहते हैं। किसानों की फसल को लहलहाते देखकर, धरती पर सर्वत्र सुख – शान्ति देखकर, वे खुश हो जाते हैं।

विशेष – तत्सम प्रधान शब्दों का प्रयोग है। गुमनाम समाज सेवकों पर प्रकाश डाला गया है। उच्चतम मानवीय मूल्यों के विकास पर बल दिया गया है।

2. “कुंभाराम का सिर शर्म से झुक गया। उसे लगा कि वह मंदिर में पहुँच गया है और ईश्वर की मूरत की जगह भगतजी को देख रहा है। पश्चाताप और ग्लानि से उसका कंठ अवरुद्ध हो गया। भगतजी कहे जा रहे थे, “तुम मेरे मंदिर न जाने पर नाराज हो गए? चलो, मैं अभी मन्दिर चलता हूँ। चलो न!” उन्होंने कुंभाराम का हाथ पकड़कर खींचा, पर कुंभाराम बुत की तरह मौन था।”

शब्दार्थ – मूरत = मूर्ति, पश्चाताप = पछतावा, ग्लानि = दु:ख, अवरुद्ध = रुक जाना, बुत = पुतला।

संदर्भ – प्रस्तुत गद्यांश रामकुमार ‘भ्रमर’ की कहानी ‘भगत जी’ से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग – कुंभाराम की आत्मग्लानि का चित्रांकन किया गया है।

व्याख्या – भगतजी जब कुंभाराम को बताते हैं कि दीना की दवा देने ठण्ड में इक्कीस मील दूर जाना था इसलिए वे मंदिर नहीं जा सके तो कुंभाराम शर्म से पानी – पानी हो जाता है। उसे लगता है कि वह व्यर्थ ही मन्दिर में भगवान के दर्शन के लिए जाता है, जीता – जागता भगतजी तो स्वयं भगवान के प्रतिरूप हैं। कुंभाराम को अपने पूर्व व्यवहार पर पछतावा एवं दुःख होता है। दूसरी ओर भगतजी सरलता एवं सादगी से उस दिन मन्दिर न जा पाने की प्रतिपूर्ति आज मंदिर जाकर देना चाहता है। कुंभाराम लज्जित होता है। वह ‘काटों तो खून नहीं’ की स्थिति में पहुँच जाता है।

विशेष – भावात्मक एवं चित्रात्मक शैली का प्रयोग है। मर्मस्पर्शी, भावपूर्ण चित्रण है। मन्दिर की निःसारता एवं उच्च मानवीय मूल्यों के सत्कार की बात कही गई है।

  • वस्तुनष्ठि प्रश्न

प्रश्न 1.
भगत जी की उपेक्षा मन्दिर के नाम पर किसने की? (म. प्र. 2013)
उत्तर –
कुंभाराम ने।

प्रश्न 2.
भगत जी को किसकी दवा पहुँचानी थी?
उत्तर –
दीना।

प्रश्न 3.
क्या भगत जी नास्तिक थे? (म. प्र. 2009)
उत्तर –
नहीं।

प्रश्न 4.
किसने किससे कहा
(क) “तुम नास्तिक जो हो।”
(ख) “दीना मर जाता है तो उसके बाल – बच्चों का क्या होता?”
(ग) “क्यों भगत जी, मन्दिर चल रहे हो दर्शन करने।”
उत्तर –
(क) कुंभाराम ने भगत जी से कहा।
(ख) कुंभाराम से भगत जी ने कहा।
(ग) कुंभाराम ने भगत जी से कहा।

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  • दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भगत जी का गाँव वालों के साथ किस तरह का व्यवहार था?
उत्तर –
भगत जी का गाँव वालों के साथ अत्यंत आत्मीय, भाई – चारा, स्नेह, सहानुभूति सहृदयता, मानवीयता एवं सहयोगी का संबंध था।

प्रश्न 2.
भगत जी का नाम भगत जी क्यों पड़ा? (म. प्र. 2009)
उत्तर –
भगत जी सच्चे अर्थों में भगत थे। भले ही वे मन्दिरों में ज्यादा समय व्यतीत नहीं करते थे, किन्तु मानव – मात्र की सेवा में उनकी गहरी रुचि थी।

प्रश्न 3.
“मानव सेवा ही सच्ची ईश्वर सेवा है।” कथा वस्तु के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर –
भ्रमर जी का मत है कि इस विशाल संसार में अनेक प्राणी दु:खी हैं। उनके साथ हमें आत्मीयता के साथ मानवतापूर्ण व्यवहार करना चाहिए। परस्पर एक – दूसरे के सहयोग से मानवता एवं सहानुभूति का विकास होता है। ईश्वर की मंशा भी संसार में सुख – शान्ति की स्थापना है। जब हम मानव मात्र के सुख – दुःख में शामिल होंगे तो वह सच्ची ईश्वर सेवा होगी। ईश्वर की सेवा मन्दिर में जाने से नहीं होगी। मानव के प्रति आदर की भावना ही सच्ची ईश्वर सेवा है।

प्रश्न 4.
भगत जी के चरित्र की कौन – कौन सी विशेषताएँ थीं? (म. प्र. 2013)
उत्तर –
सहानुभूति, परदुःख कातरता, परोपकार, करुणा, सदाशयता, सहजता, सरलता, निष्कपटता, कर्त्तव्यपरायणता, सहनशीलता, निरभिमानी एवं मनुष्य मात्र का आदर करने की प्रवृत्तियाँ भगत जी के चरित्र में विद्यमान थीं।

प्रश्न 5.
कुंभाराम स्वयं को आस्तिक क्यों मानता था? (म. प्र. 2010, 15)
उत्तर –
कुंभाराम प्रतिदिन मन्दिर जाता था। उसने मन्दिर का निर्माण कराया था। प्रतिदिन स्नान करने के बाद वह श्लोक पाठ करता था। तुलसी, रुद्राक्ष आदि की मालाएँ धारण करता था। त्रिपुंड लगाता था अत: वह अपने को धर्म का ठेकेदार व आस्तिकं समझता था।

प्रश्न 6.
कुंभाराम स्वयं को नास्तिक मानता था यह कथन सत्य है, या असत्य बताइये। (म. प्र. 2011)
उत्तर –
असत्य।

प्रश्न 7.
‘भगत जी’ कहानी के माध्यम से लेखक क्या कहना चाहते हैं? (म. प्र. 2013)
उत्तर –
‘भगत जी’ कहानी के माध्यम से लेखक यह कहना चाहते हैं कि आज समाज में ‘भगत जी’ की तरह लोगों की आवश्यकता है साथ ही कहानी के माध्यम से लेखक मानवीय मूल्यों को स्थापित करना चाहते हैं। भगत जी का चरित्र साधारणता में असाधारणता का बोध कराता है जिसमें आत्मीयता के साथ मानवीयता जीवित है।

लेखक ने स्पष्ट शब्दों में भगत जी के व्यक्तित्व, कार्य व्यवहार एवं सदाशयता की चर्चा की है। भगत जी इंसानियत की कीमत पर मान मर्यादा की चिंता नहीं करते उन्हें ज्ञानी होने का दर्प नहीं, सबके दुख को अपना दुख मानकर पीड़ा का अनुभव करना वह अपना कर्तव्य समझते थे। वे दीन, दुखी की दवा लेने इक्कीस मील चलकर शहर जाते थे। कहानी में वे नाम के भगत जी नहीं वरन् इंसानियत के भगत दिखाई देते हैं आज हमें भगत जी’ के चरित्र एवं आदर्शों को अपने जीवन में अपनाना एवं अनुकरण करना ही हमारा दायित्व है।

12. अथ काटना कुत्ते का भइया जी को

– डॉ. गंगा प्रसाद गुप्त ‘बरसैंया’

ससंदर्भ व्याख्या कीजिए

1. “सुख – दुःख के प्रसंगही आत्मीयता प्रमाणित करने के सबसे अनुकूल सार्वजनिक अवसर होते हैं। वह जमाना गया जब भीतर – ही – भीतर आत्मीयता, स्नेह और श्रद्धा की भावना रखी जाती थी।अब तो बाहर का महत्व है। भीतर का क्या भरोसा? भीतर कुछ, बाहर कुछ।”

शब्दार्थ – आत्मीयता = अपनापन, स्नेह = प्रेम।

संदर्भ – प्रस्तुत गद्यांश डॉ. गंगा प्रसाद गुप्त ‘बरसैंया’ के व्यंग्य “अथ काटना कुत्ते का भईया जी को” से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग – लेखक ने औपचारिकता वश दुःख प्रकट करने वालों पर व्यंग्य किया है।

व्याख्या – समाज में जब किसी मनुष्य पर सुख या दुःख पड़ता है, तब करीबी शुभचिंतक अपनापन प्रकट करने के लिए इकट्ठा हो जाते हैं। संवेदना प्रकट करने का ऐसा सार्वजनिक मौका मौकापरस्त समाज का कोई भी व्यक्ति छोड़ना नहीं चाहता। वस्तुत: आत्मीयता, प्रेम एवं श्रद्धा किसी के प्रति किसी के हृदय में रह ही नहीं गई है। व्यक्ति अवसर की ताक में रहता है कि कब उसे अपनापन, प्रेम एवं श्रद्धा प्रकट करने का मौका मिले। व्यक्ति को किसी के सुख – दुःख से कोई सरोकार नहीं रह गया है। आत्मीयता, स्नेह एवं श्रद्धा व्यक्ति के अन्तर्मन में रहने वाली चीज है, किन्तु इस कृत्रिम समाज में इसके बहिरंग स्वरूप का महत्व रह गया है। व्यक्ति दोमुँहा हो गया है। उसके मन में कुछ, बाहर कुछ होता है।

विशेष – कृत्रिम संवेदना पर तीक्ष्ण व्यंग्य है। भाषा सहज एवं सरल है। भाव रोचक एवं सरस है।

2. “आजकल साहित्यकार सत्ता और समर्थकों का गायक बनकर सम्मान और पैसे के पीछे भाग रहा है। दीन – हीन शोषितों की बिरादरी का यह रचनाकार सुखभोगी बनकर भ्रष्ट हो रहा है। अतः इसे सचेत कर सही मार्ग पर लाना जरूरी है। मुझे भईया जी को कुत्ते द्वारा काटे जाने का कारण और समाधान मिल गया। मैं कुत्तों की ओर से अपने साहित्यकार बंधुओं को आगाह करता हूँ कि वे पद, पुरस्कार और सम्मान की ओर भागकर अपने को पथभ्रष्ट न करें। सत्यमार्ग पर चलें। जरूरतमंदों और शोषितों के साथी बनकर समाज की विसंगतियों पर प्रहार करें। अन्यथा उन्हें कुत्तों के प्रहार से नहीं बचाया जा सकता। झाड़ – फूंक और इंजेक्शन भी उनकी रक्षा नहीं कर सकेंगे।”

शब्दार्थ – सत्ता = सरकार, गायक = गाने वाला, समाधान = निराकरण, पथभ्रष्ट = राह से भटका हुआ, विसंगतियों = विषमताओं, प्रहार = चोट।

संदर्भ – प्रस्तुत गद्यांश डॉ. गंगाप्रसाद गुप्त ‘बरसैंया’ के व्यंग्य ‘अथ काटना कुत्ते का भईया जी को’ से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग – साहित्यकारों की पदलोलुपता एवं मौकापरस्ती पर प्रहार किया गया है।

व्याख्या – वर्तमान समय में साहित्यकार राजनेताओं की चाटुकारिता कर पैसा कमाने के चक्कर में लगा हुआ है। दुःखी, शोषित जनता की मूक पीड़ा को वाणी देने वाला साहित्यकार रास्ते से भटक गया है। उसे अपने दायित्व का आभास नहीं है। जरूरत है साहित्यकार को सही रास्ता दिखाने की। साहित्यकार पथभ्रष्ट रहेगा, तो उसे कुत्ते काटते ही रहेंगे। ‘बरसैंया जी’ साहित्यिक बिरादरी के लोगों को सचेत करते हुए कहते हैं कि पद के प्रति लगाव, पुरस्कार के प्राप्त करने का मोह और सम्मान की लालसा के कारण साहित्यकार अपने उद्देश्य से भटक गया है। उसे सत्य का मार्ग अपनाना चाहिए। समाज के शोषित, उपेक्षित एवं दीन – हीनों की आवाज को साहित्य के माध्यम से स्वर देना चाहिए। यदि वे ऐसा नहीं करेंगे। तो पागल कुत्तों का शिकार होने से उन्हें कोई नहीं बचा सकता। कुत्तों का काटना उनका दण्ड कहलायेगा। कुत्ते के काटने का इलाज तो झाँड़ – फूंक एवं इंजेक्शन से हो जाता है किन्तु इन परिस्थितियों में किसी प्रकार का इलाज सम्भव नहीं है।

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विशेष – शैली व्यंगात्मक है। पद लोलुप, सुविधाभोगी, पथ भ्रष्ट साहित्य पर करारा व्यंग्य है। व्यंजना शब्द शक्ति के माध्यम से बात कही गई है।

  • वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
“अथ काटना कुत्ते का भइया जी को” निम्न में से किस विधा की रचना है
(क) व्यंग्य (ख) कहानी (ग) एकांकी (घ) रिपोर्ताज।
उत्तर –
(क) व्यंग्य।

प्रश्न 2.
भइया जी को काटा था (म. प्र. 2010)
(क) साँप ने (ख) बिच्छु ने (ग) कुत्ते ने (घ) नेवले ने।
उत्तर –
(ग) कुत्ते ने।

प्रश्न 3.
“घर में इन्हीं की झंझट क्या कम है कि एक और मुसीबत मोल ले ली जाए।” किसके द्वारा कहा गया वाक्य है?
उत्तर –
धर्मपत्नी के।

प्रश्न 4.
(अ) सही जोड़ी बनाइये (म. प्र. 2010)
1. धर्म की झाँकी – (क) एकांकी
2. रुपया तुम्हें खा गया – (ख) कविता
3. भगत जी – (ग) निबंध
4. विप्लव गान – (घ) आत्मकथा
5. देश प्रेम – (ङ) कहानी।
उत्तर –
1. (घ), 2. (क), 3. (ङ), 4. (ख), 5. (ग)।

प्रश्न (ब) सही जोड़ी बनाइये
1. राजेन्द्र बाबू – (क) डॉ. जयन्त नार्लीकर
2. भू का त्रास हरो – (ख) मुंशी प्रेमचंद
3. नई इबारत – (ग) श्रीमती महादेवी वर्मा
4. हिम – प्रलय – (घ) श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’
5. दो बैलों की कथा – (ङ) भवानी प्रसाद मिश्र।
उत्तर –
1. (ग), 2. (घ), 3. (ङ), 4. (क), 5. (ख)।

  • दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कुत्ता काटने की घटना का वर्णन श्रोतागण भइया जी से किस – किस प्रकार सुनते हैं?
उत्तर –
भईया जी ने श्रोताओं को बताया कि – “भइया जी ने खचाखच भरे दरबार में अपना फटा कुरता और पाजामा तथा मलहम पट्टी लगे हाथ – पाँव और कंधों को प्रदर्शित करते हुए सबकी जिज्ञासा शान्ति के लिये बताया कि रात के अंधेरे में वह जब टॉर्च लेकर एक सामाजिक कार्यक्रम की शोभा बढ़ाने जा रहे थे, तभी निर्धन . परिवार के एक कुत्ते ने उन्हें काट लिया। वह कुत्ता कैसे पीछे से उन पर झपटा, कैसे उन्होंने दुतकारा, कैसे वे भागे, कैसे गिरे, फिर उठकर कुत्ते का मुकाबला कैसे किया और कहाँ – कहाँ कुत्ते ने काटा इस सवका पूरे अभिनय के साथ सविस्तार वर्णन जब भइया जी ने किया तो स्वाभाविक है कि सहानुभूति प्रदर्शकों ने भरे गले में अपनी आत्मीय वेदना व्यक्त की।

‘प्रश्न 2.
कुत्ते के काटने पर भइया जी को उनके शुभचिन्तकों ने किस तरह के सुझाव दिए? (म. प्र. 2011, 12, 15)
उत्तर –
भइया जी को शुभचिन्तकों ने सुझाव दिया कि कुत्ते के मालिक के विरुद्ध पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराना चाहिए। अन्धविश्वासी व्यक्तियों ने कुत्ते को दस दिन बाँधकर रखने एवं निगरानी करने का सुझाव दिया। दस कुँए झकवाने, झाँड़ – फूंक करवाने एवं तीन हजार रुपए का एक इंजेक्शन लगवाने के सुझाव भी लोगों ने दिए।

प्रश्न 3.
कुत्ते की उस मानसिक स्थिति का वर्णन कीजिए, जिससे उत्तेजित होकर उसने भइया जी को काटने का निश्चय किया।
उत्तर –
भइया जी सफेद कपड़ों में थे, कुत्ते पर टॉर्च की रोशनी डाली। कुत्ते को लगा कि मुझ निर्धन बस्ती के कुत्ते को यह सम्पन्न व्यक्ति अपनी चमक और रोशनी से चकाचौंध करना चाहता है। मेरा मालिक दिनभर परिश्रम कर पसीने से लथपथ फटे, मैले, कुचैले कपड़ों पर आता है और इनके कपड़ों पर एक दाग भी नहीं? हम दर – दर की ठोकरें खाएँ और ये तथा इनके कुत्ते मालपुएँ खाएँ। गाड़ियों में घूमें। झकाझक कपड़ों की शान बघारें। आदमी – आदमी तथा कुत्ते – कुत्ते में भेद पैदा करें। अपमान की इन्हीं व्यथाओं से पीड़ित होकर कुत्ते ने भइया जी को काटने का निश्चय किया।

प्रश्न 4.
प्रस्तुत व्यंग्य के माध्यम से लेखक साहित्यकारों को क्या संदेश देना चाहता है?
उत्तर –
‘बरसैंया जी’ साहित्यकारों को प्रस्तुत व्यंग्य के माध्यम से संदेश देना चाहते हैं कि वे सत्ता और समर्थकों के गायक न बनें। धन कमाना उनका उद्देश्य नहीं होना चाहिए। शोषितों की आवाज को साहित्य में स्वर प्रदान करें। पद, पुरस्कार एवं सम्मान साहित्यकार का उद्देश्य नहीं होना चाहिए। वे सत्यमार्ग पर चलकर जरूरतमंदों और शोषितों का साथ समाज की विसंगितयों पर प्रहार करें।

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प्रश्न 5.
कुत्ते का मालिक तो कुत्ते से भी ज्यादा खतरनाक है। आशय स्पष्ट कीजिए। (म. प्र. 2009, 13)
उत्तर –
किसी सहृदय ने भइया जी को सुझाव दिया कि कुत्ते के मालिक के विरुद्ध पुलिस में रिपोर्ट लिखाई जाना चाहिए। तब किसी ने बताया कि कुत्ते का मालिक रसूखदार व्यक्ति है। कुत्ते ने तो सिर्फ काटा है, उसका मालिक तो भइया जी की कौन – कौन सी दुर्गत कर देगा क्या मालूम?

प्रश्न 6.
“आजकल साहित्यकार सत्ता और समर्थों का गायक बनकर सम्मान और पैसे के पीछे भाग रहा है” इन पंक्तियों में निहित व्यंग्य को स्पष्ट कीजिए (म. प्र. 2010)
उत्तर –
“आजकल साहित्यकार सत्ता और समर्थों का गायक बनाकर सम्मान और पैसे के पीछे भाग रहा उपर्युक्त पंक्तियों में निहित व्यंग्य यह है कि आज का साहित्यकार साहित्य रचना के सत्य मार्ग को छोड़ चुका है। वह सुख – सुविधाओं के पीछे भाग रहा है। राजनेताओं अधिकारियों और धनपतियों को देवता भागवत के रूप में देख समझ रहा है। फिर उनकी प्रशंसा में वह रात – दिन लगा रहता है। यह इसलिए ऐसा करके ही वह सुख – सुविधामय जीवन बीता सकता है। वह यह अच्छी तरह से जानता है कि सत् साहित्य की रचना करके उसे कुछ भी सुख सुविधाओं का नसीब नहीं हो सकता है, बल्कि उसे तो शोषण, उपेक्षा और अभावों का शिकार होना पड़ेगा। इस प्रकार आजकल का साहित्यकार, साहित्यकार न होकर सत्ता और अधिकारियों का चापलूस, पिछलग्गू और उपासक पुजारी बनकर रह गया है जो हर प्रकार निंदनीय और हेय है।

13. कर्म कौशल

– डॉ. रघुवीर प्रसाद गोस्वामी

  • अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
नैसर्गिक नियमों को क्या कहा जाता है?
उत्तर –
प्रत्येक के जीवन – संचालन हेतु जो नैसर्गिक नियम बने उन्हें प्राकृतिक नियम कहा गया।

प्रश्न 2.
किस ग्रन्थ में विवेचित कर्म सिद्धांत की विशिष्ट पहचान है?
उत्तर –
श्रीमद्भगवद्गीता में विवेचित कर्म – सिद्धांत की आज विश्व में विशिष्ट पहचान है।

प्रश्न 3.
कर्ता को किस प्रकार का कार्य करना चाहिए?
उत्तर –
कर्म की आचरण प्रक्रिया पर विचार करते समय स्वाभाविक रूप से कर्म, संकल्प एवं कर्ता के स्वरूप निर्धारण पर विचार करना चाहिए।

प्रश्न 4.
किस कारण से मनुष्य स्वयं को कर्ता मानने लगता है?
उत्तर –
अज्ञान एवं मिथ्या अभिमान से ही मनुष्य स्वयं को कर्ता मानने लगता है।

  • लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
जीव समुदाय से क्या तात्पर्य है?
उत्तर –
प्रत्येक अनेकानेक जीव समुदाय से परिपूर्ण है। जीव समुदाय का तात्पर्य है – वृक्ष, वनस्पति, जीव – जन्तु और मानव संतति।

प्रश्न 2. कर्म के पाँच कारण कौन – कौन से होते हैं?
उत्तर –
गीता में कहा गया है कि संपन्न किये जाने वाले किसी भी कर्म के पाँच कारण होते हैं – – अधिष्ठान, कर्ता, कारण (इन्द्रियाँ) चेष्टाएँ तथा दैव शक्ति (सर्वोपरि शक्ति)।

प्रश्न 3.
युद्ध के लिये प्रेरित करते हुए योगेश्वर ने अर्जुन से क्या कहा?
उत्तर –
योगेश्वर कृष्ण ने अर्जुन से यह स्पष्ट कहा था कि परिणाम पर दृष्टि न रखते हुए मनुष्यों को अपना कर्म अत्यन्त श्रद्धा एवं पूर्ण समर्पण भाव से करना चाहिए।

प्रश्न 4.
किस कारण से कर्ता का समय व्यर्थ नष्ट हो जाता है?
उत्तर –
केवल फल प्राप्ति का चिन्तन करने से कर्ता का समय व्यर्थ नष्ट हो जाता है और फलप्राप्ति होने पर वह उसी फल भोग में उलझ कर रह जाता है।

प्रश्न 5.
श्रेष्ठ व्यक्ति का चरित्र कैसा होता है?
उत्तर –
श्रेष्ठ व्यक्ति का चरित्र अन्य व्यक्तियों के लिये अनुकरणीय होता है और वही लोक में प्रमाण बन जाता है।

  • दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सबसे प्रमुख सावधानी की ओर अर्जुन का ध्यान आकृष्ट करते हुए श्रीकृष्ण ने क्या कहा?
उत्तर –
गीताकार ने स्पष्ट किया है कि कर्म करते समय निम्नलिखित सावधानियाँ बरतनी चाहिए। सबसे पहले सावधानी की ओर उन्होंने अर्जुन का ध्यान आकृष्ट करते हुए कहा है कि किसी सिद्धि और असिद्धि तथा अनुकूलता और प्रतिकूलता में समान भाव रखकर मन, वाणी और क्रिया के पूर्ण भाव से युक्त होकर कर्म करें साथ ही जीवन संग्राम में जय है और पराजय भी, लाभ है और हानि भी, सुख है और दुख भी तुम इन द्वन्द्वों से अनासक्त भावपूर्वक ऊपर उठो।

प्रश्न 2.
फल प्राप्ति में संदेह का प्रश्न किस स्थिति में नहीं रहता है?
उत्तर –
किये गये कर्म में यदि पूर्ण शुद्ध दृष्टि या भाव है तो उसके फल – प्राप्ति में संदेह का प्रश्न ही नहीं रहता। किन्तु इसके लिये वृद्धि की पूर्णता का समावेश भी नितान्त आवश्यक है।

प्रश्न 3.
अपने संकल्प से विपरीत होने पर भी मनुष्य को कर्म करना पड़ता है?
उत्तर –
मनुष्य अपने स्वभावजन्य कर्म से बँधा हुआ होने के कारण पराधीन है। अपने संकल्प से विपरीत होने पर भी उसे कर्म करना पड़ता है, और प्रकृति अथवा पूर्वोक्त पाँच तत्वों का सूमह उसे कर्म में प्रवृत्त करता है। इस कारण कोई भी व्यक्ति यथा निर्धारित कर्म त्याग नहीं कर सकता। यदि कर्म त्याग असंभव है एवं मनुष्य को कर्म करना ही पड़ता है तो उचित यही है कि मनुष्य अपने स्वधर्म अर्थात् सत्कर्म का पालन करें।

कवियों एवं लेखकों का संक्षिप्त जीवन – परिचय

(1) तुलसीदास – जन्म – सं. 1589 में बाँदा जिले के राजापुर ग्राम में।
मृत्यु – सं. 1680 में काशी में।
रचनाएँ – रामचरित मानस, विनय पत्रिका, कवितावली, गीतावली, दोहावली, जानकी मंगल, पार्वती मंगल, रामलला नहहू, रामाज्ञा प्रश्न, बरवै रामायण।
भाव – पक्ष – प्रमुख रामभक्त कवि एवं समन्वयवादी कवि के रूप में विख्यात।

(2) स्वामी विवेकानन्द – जन्म – 12 जनवरी, 1863 को कलकत्ता में।
मृत्यु – सन् 1902 में।
भाव – पक्ष – पाश्चात्य देशों में सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति का जोरदार प्रचार – प्रसार।

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(3) प्रेमचंद – जन्म – 31 जुलाई, 1880 को वाराणसी जिले के लमही ग्राम में।
मृत्यु – 8 अक्टूबर, 1936 को।
रचनाएँ – गोदान, गबन, कर्मभूमि, रंगभूमि, निर्मला, कायाकल्प, प्रेमाश्रम, वरदान, मंगलसूत्र, मानसरोवर 8 भाग में, कर्बला, संग्राम, प्रेम की वेदी इत्यादि।
भाव – पक्ष – आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद के प्रणेता। ग्राम्य जीवन के प्रमुख कथाकार।

(4) सुमित्रानन्दन पंत – जन्म – 20 मई, 1900 को उ.प्र. के कुमायूँ अंचल के कौसानी गाँव में।
मृत्यु – 28 दिसम्बर, 1977 में।
रचनाएँ – ग्राम्या, युगान्त, वीणा, पल्लव, गुंजन, स्वर्णकिरण, स्वर्णधूलि, चिदम्बरा, लोकायतन इत्यादि।
भाव – पक्ष – प्रकृति के सुकुमार कल्पनाओं के कवि।

(5) भगवती प्रसाद वाजपेयी – जन्म – 1899 में कानपुर (उ.प्र.) के मंगलपुर ग्राम में।
रचनाएँ – प्रेमपथ, त्यागमयी, मनुष्य और देवता, विश्वास का बल, मधुपर्क, हिलोर, दीपमलिका, मेरे सपने, बाती और लौ, उपहार आदि।
भाव – पक्ष – सामाजिक, मनोवैज्ञानिक एवं बालोपयोगी साहित्य का सृजन।

(6) श्रीकृष्ण सरल – जन्म – 1 जनवरी, 1919 को म. प्र. के गुना जिले के अशोकनगर में।
रचनाएँ – भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, सुभाषचन्द्र बोस, मुक्तिगान, स्मृति पूजा, बच्चों की फुलवारी, संसार की प्राचीन समस्याएँ, सुभाष – दर्शन आदि।
भाव – पक्ष – राष्ट्रीय विचार – प्रधान रचनाकार। भारतीय संस्कृति के अमर गायक।

(7) जगन्नाथ प्रसाद मिलिन्द’ – जन्म – 1907 में मुरार ग्वालियर (म. प्र.) में।
रचनाएँ – जीवन संगीत, नवयुग के गान, बलिपथ के गीत, भूमि की अनुभूति, मुक्तिका, चिन्तनकण, सांस्कृतिक प्रश्न, विनोद कथा, बिल्लों का नकछेदन आदि।
भाव – पक्ष – देश – भक्ति एवं देश – प्रेम के अतिरिक्त बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न साहित्यकार।

(8) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल – जन्म – (उ.प्र.) बस्ती के अगोना ग्राम में 1884 में।
मृत्यु – 8 फरवरी, 1941 में।
रचनाएँ – चिन्तामणि, हिन्दी शब्द सागर, त्रिवेणी,
विचार – वीथी, जायसी, सूर और तुलसी पर श्रेष्ठ आलोचनाएँ, हिन्दी साहित्य का इतिहास इत्यादि।
भाव – पक्ष – मुख्यतः भाव एवं विचार प्रधान निबंधकार। युगप्रवर्तक समीक्षक के रूप में विख्यात।

(9) भवानी प्रसाद मिश्र – जन्म – 28 मार्च, 1914 को म. प्र. होशंगाबाद के टिगरिया गाँव में।
मृत्यु – 20 फरवरी, 1985 में।
रचनाएँ – गीतफरोश, खुशबू के शिलालेख, बुनी हुई रस्सी, शतदल गाँधी पंचदशी, त्रिकाल संध्या आदि।
भाव – पक्ष – सहजता, सरलता और ताजगी। तरक्की की बातें करना। प्रमुख गाँधीवादी कवि।

(10) महादेवी वर्मा – जन्म – 26 मार्च, 1907 को उ. प्र. के फारुखाबाद जिले में।
मृत्यु – 11 सितम्बर, 1987 को।
रचनाएँ – नीहार, नीरजा, दीपाशीखा, यामा।
भाव – पक्ष – वेदना एवं करुणा की कवयित्री। प्रमुख रेखाचित्रकार।

(11) डॉ. जयन्त नार्लीकर – जन्म – 1938 में कोल्हापुर (महाराष्ट्र)।
रचनाएँ – आगन्तुक, धूमकेतु, विज्ञान, मानव, ब्रम्हाण्ड।
उपलब्धियाँ – वैज्ञानिक खोजों के लिए अनेक पुरस्कार। पद्म विभूषः। सम्मानित वैज्ञानिक।

(12) बिहारी – जन्म – 1595 में ग्वालियर के पास बसुआ, गोविन्दपुर गाँव में!
मृत्यु – 1663 ई. में।
रचनाएँ – बिहारी सतसई।
भाव – पक्ष – श्रृंगार, नीति एवं भक्ति के दोहे लिखने में प्रवीणता।
नारी – सौन्दर्य एवं नख – शिख चित्रण में महारथ।

(13) महात्मा गाँधी – जन्म – 2 अक्टूबर, 1869 को गुजरात के पोरबन्दर में।
मृत्यु – 30 जनवरी, 1948 को गोली मारकर हत्या।
रचनाएँ – हिन्द स्वराज्य, हरी पुस्तक, यंग इंडिया एवं हरिजन नामक पत्र, सत्य के प्रयोग।
महत्व – सत्य, अहिंसा एवं समाज सेवा की प्रतिमूर्ति। राष्ट्रीय आन्दोलन के नायक व भारत के राष्ट्रपिता।

(14) भगवतीचरण वर्मा – जन्म – सन् 1903 में उ. प्र. के उन्नाव जिले के शफीपुर ग्राम में।
रचनाएँ – इंस्टालमेंट, दो बाँके, राख, चिनगारी, मधुकण, प्रेमसंगीत, मानव, टेढ़े – मेढ़े रास्ते, चित्रलेखा, भूले – बिसरे चित्र।
भाव – पक्ष – भारतीय गाँव और शहर के परिवेश एवं समस्याओं के कुशल चितेरे।
सहज – सरल साहित्यकार।

(15) माखनलाल चतुर्वेदी – जन्म – 4 अप्रैल, 1889 को म. प्र. के होशंगाबाद के बाबई में।
मृत्यु – 30 जनवरी, 1968 को।।
रचनाएँ – हिमकिरीटनी, हिमतरंगिनी, माता, युगचरण, समर्पण, वेणु , लो गूंजे धरा, साहित्य देवता, वनवासी और कला का अनुवाद, कृष्णार्जुन युद्ध।
भाव – पक्ष – राष्ट्रीय चेतना के ओजस्वी कवि एवं एक भारतीय आत्मा के नाम से विख्यात।

(16) रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ – जन्म – 4 जून, 1887 को उ. प्र. के मैनपुरी जिले में।
मृत्यु – 19 दिसम्बर , 1927 को गोरखपुर जेल में फाँसी।
रचनाएँ – सरफरोशी की तमन्ना …….। एवं बलिदानी गीत व संस्मरण।
महत्व – स्वतंत्रता आन्दोलन के शहीद सिपाही।

(17) रामकुमार ‘भ्रमर’ – जन्म – 2 फरवरी, 1938 को म. प्र. के ग्वालियर जिले में।
रचनाएँ – कच्ची – पक्की दीवारें, सेतुकथा, फौलाद और आदमी, महाभारत तथा श्रीकृष्ण के जीवन पर 12 तथा 10 खण्डीय उपन्यास।
भाव – पक्ष – अतीतकालीन मूल्यों को व्याख्यायित किया। राष्ट्रीय, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं मानवता के साहित्यकार।

(18) बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’—जन्म – 8 दिसम्बर, 1987 म. प्र. के शाजापुर के भयाना गाँव में।
मृत्यु – 29 अप्रैल, 1960।
रचनाएँ – कुंकुम, रश्मिरेखा, अपलक, क्वासि, विनोवा, स्तवन, प्राणार्पण।
भाव – पक्ष – उदार, फक्कड़, आवेशी तथा मस्त भाव के कवि। सम्पूर्ण क्रान्ति, राष्ट्रीय चेतना, शोषणयुक्त समाज के कवि।

(19) डॉ. गंगा प्रसाद गुप्त ‘बरसैंया’
जन्म – 6 फरवरी, 1937 को उ. प्र. बाँदा के भौंरी ग्राम में।
रचनाएँ – हिन्दी साहित्य में निबंध और निबन्धकार, हिन्दी के प्रमुख एकांकी और एकांकीकार, छत्तीसगढ़ का साहित्य और साहित्यकार, आधुनिक काव्य, संदर्भ और प्रकृति, रस विलास, वीर विलास, सुदामा चरित, चिन्तन – अनुचिन्तन, बुन्देलखण्ड के अज्ञात रचनाकार, अरमान वर पाने का, निंदक नियरे राखिए।
महत्व – समीक्षा, व्यंग्य, काव्य लेखन में पारंगत। लोक बोलियों को महत्व प्रदान किया।

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(20) रामधारी सिंह ‘दिनकर’.
जन्म – 30 सितम्बर, 1908 को बिहार के सेमरिया ग्राम में।
मृत्यु – 24 अप्रैल, 1974 को।
रचनाएँ – कुरुक्षेत्र, उर्वशी, प्राणभंग, रश्मिरथी, वारदोली विजय, द्वन्द्वगीत, रसवंती, रेणुका, हुंकार, दिल्ली, नीलकुसुम, इतिहास के आँसू, नीम के पत्ते, सीपी और शंख, परशुराम की प्रतिज्ञा, सामधेनी, कलिंग विजय, मिट्टी की ओर, संस्कृति के चार अध्याय, पंत प्रसाद, गुप्त हिन्दी साहित्य की भूमिका , अर्द्धनारीश्वर, शुद्ध कविता की खोज में।
भाव – पक्ष – वीर एवं ओज की प्रधानता। राष्ट्रीय चेतना एवं प्रगतिवादी कवि।

MP Board Class 11th General Hindi Important Questions

MP Board Class 11th Samanya Hindi पद्य खण्ड Important Questions

MP Board Class 11th Samanya Hindi पद्य खण्ड Important Questions

1. बाल लीला

ससंदर्भ व्याख्या कीजिए

-तुलसीदास

1. कब ससि माँगत आरि करै, कबहूँ प्रतिबिम्ब निहारि डरें। (म. प्र. 2010,11, 15)
कबहूँ करताल बजाइकै नाचत, मातु सबै मन मोद भरैं।
कबहूँ रिसि आई कहैं हठिकै, पुनि लेत सोई जेहि लागि रैं।
अवधेस के बालक चारि सदा, तुलसी-मन-मंदिर में बिहरैं।

शब्दार्थ-आरि = अड़ना, निहारि = देखकर, मोद = प्रसन्नता, रिसिआई = गुस्सा होकर, अरै = अड़ जाना, बिहरै = विचरण करना।

संदर्भ-प्रस्तुत पद्यांश तुलसीदास के ‘बाललीला’ से उद्धृत किया गया है। प्रसंग-प्रस्तुत पद्यांश में राम की बाल-सुलभ चंचलता का वर्णन किया गया है।

व्याख्या-तुलसीदास जी कहते हैं कि भगवान राम बाल-सुलभ चंचलता के कारण कभी चन्द्रमा माँगने की जिद कर लेते हैं। इसके लिए वे अड़ जाते हैं। कभी अपने शरीर का प्रतिबिम्ब अर्थात् परछाईं देखकर भयभीत हो जाते हैं। कभी प्रसन्न होकर तालियाँ बजाकर नाचने लगते हैं। उनकी उपर्युक्त क्रियाओं को माता देख रही हैं एवं प्रसन्न हो रही हैं। भगवान राम कभी रूठ जाते हैं तो कभी जिद करने लगते हैं। वह वस्तु लेकर ही मानते हैं जिसके लिए जिद ठान लेते हैं। राजा दशरथ के चारों पुत्र कवि तुलसीदास के मन-मंदिर में विचरण करते रहते हैं।

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विशेष-अलंकार-रूपक, अनुप्रास, रस-वात्सल्य, भाषा-अवधी, अत्यंत मोहक एवं स्वाभाविक बाल चित्रण हैं।

  • वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
कवि तुलसीदास ने किसके बाल रूप का वर्णन किया है (म. प्र. 2011, 13)
(क) राम (ख) कृष्ण (ग) सीता (घ) राधा।
उत्तर-
(क) राम।

प्रश्न 2.
निम्न रचनाओं में से कौन तुलसीदास की नहीं है
(क) रामचरित मानस (ख) विनय पत्रिका (ग) दोहावली (घ) पद्मावत।
उत्तर-
(घ) पद्मावत।

प्रश्न 3.
बालक राम किसको देखकर डर जाते हैं (म. प्र. 2009, 13)
(क) हाथी (ख) भूत (ग) राक्षस (घ) परछाई।
उत्तर-
(घ) परछाई।

प्रश्न 4.
भक्तिकाल में किसकी आराधना की गई? उत्तर-ईश्वर।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित कथन में से सत्य/असत्य छाँटिए (म. प्र. 2011)
(1) सूरदास जी ने राम की सम्पूर्ण लीलाओं का वर्णन किया है।
उत्तर-
असत्य।

  • दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कविता के आधार पर बालक राम की सुंदरता का वर्णन कीजिए। (म. प्र. 2011)
उत्तर-
बालक राम की सुंदरता विविध प्रकार से तुलसीदास ने वर्णित की है। राम के सौन्दर्य से लोग ठगे से रह जाते हैं। उनकी आँखों में काजल आपूरित है। चन्द्रमा के समान मुख मण्डल है। विकसित नील-कमल के समान राम प्रतीत हो रहे हैं। पाँवों में नुपूर, हाथों में पहुँची, गले में मणियों की माला, शरीर पर पीला-वस्त्र, धूल-धूसरित शरीर, दाँतों की चमक, बाल-सुलभ चंचलता से पूर्ण श्री राम अत्यंत शोभित हो रहे हैं। तुलसीदास स्वयं राम के इस सौन्दर्य पर स्वयं को न्यौछावर करने के लिए तत्पर दिखाई देते हैं। राम के सौन्दर्य के सम्मुख कामदेव का सौन्दर्य भी फीका है।

प्रश्न 2.
कवि के अनुसार जीवन का सर्वोत्तम फल क्या है? (म. प्र. 2009)
उत्तर-
कवि तुलसीदास बाल-रूप राम के सौन्दर्य पर आसक्त हो जाते हैं। राम के चरणों में नपर और हाथ में पहनी हुई पहुँची, गले में मणियों की माला, श्यामल शरीर पर पीला वस्त्र अत्यंत शोभित हो रहा है। ऐसे सुन्दर बालक को गोद में लेकर राजा दशरथ दुलार रहे हैं एवं प्रसन्न हो रहे हैं। कमल के समान मुखमण्डल, रसपान किए हुए भँवरे के समान नेत्र अत्यंत शोभायमान हो रहे हैं। तुलसीदासजी कहते हैं कि भगवान राम का यह बाल रूप मेरे मन में रम गया है। राम के बाल रूप के दर्शन से जिस फल की प्राप्ति होगी वैसी प्राप्ति का आनंद धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष में भी नहीं है। सांसारिक मनुष्य इन्हीं चार फलों की प्राप्ति के लिए अपना सारा जीवन खपा देता है।

प्रश्न 3.
पाठ में आई तीन उपमाओं को उनके भाव सहित लिखिए। उत्तर-प्रस्तुत पाठ में निम्नांकित तीन उपमाएँ प्रयुक्त हुई हैं
(i) “नवनील सरोरुह से बिकसे” अर्थात् राम शैशवावस्था में ऐसे प्रतीत हो रहे हैं मानो कि नील कमल अभी-अभी विकसित हुआ हो।
(ii) “अरबिंदु सो आनन” अर्थात् राम का मुख-मण्डल कमल के समान प्रतीत हो रहा है।
(iii) “तन की दुति स्याम सरोरुह” अर्थात् राम के शरीर की कांति या आभा नील-कमल के समान है।

प्रश्न 4.
वात्सल्य सम्राट ……………….. को माना जाता है। (तुलसीदास/सूरदास) (म. प्र. 2015)
उत्तर-
सूरदास।

2. ग्राम श्री

-सुमित्रानंदन पंत

ससंदर्भ व्याख्या कीजिए-

1. फैली खेतों में दूर तलक, (Imp.)
मखमल-सी कोमल हरियाली।
लिपटी जिससे रवि की किरणें,
चाँदी की-सी उजली जाली॥

शब्दार्थ-तलक = तक, रवि = सूर्य। संदर्भ-प्रस्तुत पद्यांश सुमित्रानंदन पंत की कविता ‘ग्राम श्री’ से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग-प्रस्तुत पद्यांश में पंतजी ने ग्राम-सौन्दर्य का चित्रण किया है।

व्याख्या-पंतजी कहते हैं कि ग्राम सौन्दर्य के भण्डार होते हैं। जहाँ तक दृष्टि जाती है सर्वत्र हरियाली ही-हरियाली खेतों में पसरी दिखाई देती है। हरी-भरी घास मखमल-सी सुकोमल हैं। सूर्य की प्रातः कालीन चमकीली किरणें घासों से लिपटकर चाँदी के तारों का घासों से उलझे रहने का भ्रम पैदा करती हैं।

विशेष-मोहक प्रकृति चित्रण है। अलंकार-उपमा अलंकार। कवि का ग्राम्य-प्रेम झलक रहा है।

2. रोमांचित सी लगती वसुधा, (Imp.)
आई जौ-गेहूँ में बाली।
अरहर सनई की सोने की,
किंकणियाँ हैं शोभाशाली॥

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शब्दार्थ-रोमांचित = पुलकित, वसुधा = धरती, बाली = फलियाँ, सनई = सन की फसल, किंकणियाँ = धनी में लगे छोटे-छोटे घुघरु।

संदर्भ-प्रस्तुत पद्यांश सुमित्रानंदन पंत की कविता ‘ग्राम श्री’ से उद्धृत किया गया है। प्रसंग-प्रस्तुत पद्यांश में पंतजी ने फसलों से लदी धरती के सौन्दर्य का चित्रण किया है।

व्याख्या-पंतजी कहते हैं कि धरती पुलकित एवं प्रसन्न दिखाई पड़ रही है। धरती की पुलक को जौ एवं गेहूँ के फसलों में निकली बालियाँ स्वर प्रदान कर रही हैं। खेतों में राहर एवं सन की फसलें, धनी में लगे छोटे छोटे घुघरु शोभाशाली एवं सौभाग्यवर्द्धक प्रतीत हो रहे हैं। जौ, गेहूँ, राहर एवं सन की फसलों के कारण धरती की शोभा और बढ़ गई है।

विशेष-अलंकार-उपमा एवं अनुप्रास। ग्राम्य वातावरण का मोहक चित्रण।

  • वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
पाठ में आई पंक्तियों के आधार पर सही जोड़ी बनाइए
(क) हरियाली – बालू के साँपों-सी
(ख) रवि की किरणें – मोती के दानों-सी
(ग) आम्र-तरू – मखमल सी
(घ) गंगा की रेती – चाँदी की-सी
(ङ) हिमकन – रजत स्वर्ण मंजरियों से।
उत्तर-
(क) हरियाली – मखमल-सी
(ख) रवि की किरणें – चाँदी की-सी
(ग) आम्र-तरू – रजत स्वर्ण मंजरियों से
(घ) गंगा की रेती – बालू के साँपों सी
(ङ) हिमकन – मोती के दानों-सी।

प्रश्न 2.
निम्नांकित रचनाओं में से कौन-सी रचना पंत जी की नहीं है
(क) लोकायतन (ख) युगांतर (ग) ग्राम्या (घ) कामायनी।
उत्तर-
(घ) कामायनी।।

प्रश्न 3.
कवि ने सोने की किंकणियाँ किसको कहा है
(क) गेहूँ की बाली (ख) धान की फसल (ग) अरहर एवं सन (घ) सरसों के खेतों।
उत्तर-
(ग) अरहर एवं सन।।

प्रश्न 4.
‘ग्राम श्री कविता के रचयिता हैं (म. प्र. 2010, 12)
(क) तुलसीदास (ख) श्रीकृष्ण सरल (ग) सुमित्रानंदन पंत (घ) भवानी प्रसाद मिश्र।।
उत्तर-
(ग) सुमित्रानंदन पंत को।

प्रश्न 5.
खेतों पर पड़ती सूर्य की किरणें……….. की उजली जाली-सी प्रतीत हो रही हैं। (सोने/चाँदी) (म. प्र. 2010)
उत्तर-
चाँदी।

प्रश्न 6.
‘प्रकृति के सुकुमार कवि’ इन्हें कहा जाता है (म. प्र. 2011)
(क) श्री सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला को। (ख) सूरदास को। (ग) सुमित्रानंदन पंत को। (घ) कबीर को।
उत्तर-
(ग)सुमित्रानंदन पंत को।

  • दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कविता में वर्णित खेतों के सौन्दर्य का वर्णन कीजिए। (म. प्र. 2012)
उत्तर-
सुमित्रानंदन पंत जी ने खेतों में फैली हरियाली का वर्णन अत्यंत सुकुमारता के साथ किया है। हरितिमा के साथ सूर्य की स्वर्णिम किरणें लिपटकर अद्भुत वातावरण निर्मित करती हैं। चाँदी की उजली जाली तनी हुई प्रतीत होती है। वसुधा के हरे-हरे शरीर में वायु प्रवाहित होने से स्पन्दन हो रहा है। ऐसा लगता है मानो हरित रक्त हरे शरीर में प्रवाहित हो रहा है। धरती पुलकित दिखाई दे रही है। खेतों में जौ एवं गेहूँ की फसलें लहलहा रही हैं। सन एवं अरहर के खेतों में धनी में लगे छोटे-छोटे घुघरू सौभाग्यशाली प्रतीत हो रहे हैं। सरसों के खेतों में पीले-फूल आ गए हैं। अलसी में नीले फूल आ गए हैं। सरसों एवं अलसी की तेल युक्त गंध वातावरण में फैली हुई है। सम्पूर्ण प्रकृति अत्यंत मोहक दिखाई दे रही है।

प्रश्न 2.
भू पर आकाश उतरने का अनुभव कब होता है? (म. प्र. 2010,11)
उत्तर-
सुमित्रानंदन पंत लिखते हैं कि एक स्थिति ऐसी भी आती है जब मनुष्य को दूसरा मनुष्य दिखाई नहीं देता। कुँहासा अपने आगोश में सारी सृष्टि को लेता है। कुँहासे में प्रकृति की सारी सुन्दरता भी खो जाती है। कुँहासों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानों कि आकाश ने धरती का स्पर्श कर लिया हो। आकाश एवं धरती का यह मिलन भी अत्यंत मोहक होता है। प्रकृति में शामिल सारे उपादान किसानों के खेत, वाटिकाएँ एवं बाग, मनुष्यों के घर एवं सुन्दर जंगलों को कुहरा अपने आगोश में ले लेता है।

प्रश्न 3.
कवि ने ग्राम की तुलना मरकत डिब्बे से क्यों की है? (म. प्र. 2009, 13, 15)
उत्तर-
मरकत का तात्पर्य नीलमणि से है। साफ-स्वच्छ वातावरण में नीला-आकाश का वितान ग्राम को ढंका रहता है। आकाश में टिमटिमाते नक्षत्र नीलमणियों के समान प्रतीत होते हैं। स्वच्छ नीला आकाश में टिमटिमाते तारों की उपमा के लिए कवि के पास शब्द नहीं होते। कवि को ग्राम बर्फ की ठंडक में लिपटा हुआ, चिकना, अत्यंत शांत प्रतीत होता है। अद्वितीय प्राकृतिक सौन्दर्य से सम्पूर्ण ग्राम शोभा को प्राप्त हो रहा है। सर्वत्र खुशियाली का मोहक वातावरण है। ग्राम के सभी लोग प्रमुदित हैं।

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3. अपना देश सँवारे हम

-श्रीकृष्ण सरल

ससंदर्भ व्याख्या कीजिए-

1. हम प्रतिरूप नए युग के हैं, (Imp.)
सूरज नूतन क्षमता के,
नए क्षितिज के अन्वेषी हम,
पोषक हम जन-समता के।
अपना, सबका, मानवता का मिल-जुल पंथ बुहारें हम।
अपना देश सँवारे हम।

शब्दार्थ-प्रतिरूप = समान रूप, नूतन = नया, क्षितिज = धरती एवं आकाश का काल्पनिक मिलन स्थल, अन्वेषी = खोजने वाला, पोषक = पालने वाला, समता = बराबरी, बुहारें = झाड़ना।

संदर्भ-प्रस्तुत पद्यांश श्री कृष्ण सरल की कविता ‘अपना देश सँवारे हम’ से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग-प्रस्तुत कविता में कवि ने कहा है कि नौजवान जन-समता को पोषित करते हुए मानवता का मार्ग बाधारहित बनाते हुए अपने देश को समृद्ध कर सकते हैं।

व्याख्या देश के नौजवानों को लक्ष्य करके श्री कृष्ण सरल लिखते हैं कि नए युग की प्रतिच्छाया नौजवान हैं। नए युग के समान-रूपी नवयुवक हैं। इन नौजवानों में अनेक सम्भावनाएँ हैं। सूरज के समान आभा एवं क्षमता इन नवयुवकों में निहित हैं। नवयुवकों के मन में नई-नई परिकल्पनाएँ हैं। वे चाहें तो क्षितिज तक पहुँचने की सामर्थ्य इनमें है। समाज में समानता की स्थापना एवं वर्गभेद मिटाने में नवयुवकों का अभूतपूर्व योगदान हो सकता है। कवि नवयुवकों का आह्वान करते हुए कहता है कि अपना, समाज का, मानवता के पथ पर पड़ी धूल को झाड़ने की आवश्यकता है। देश तभी सँवरा हआ, सुसज्जित लगेगा।

विशेष-ओज की प्रधानता। राष्ट्रप्रेम की भावना बलवती है। नवयुवकों से नए समाज की स्थापना का आह्वान है।

  • वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
श्री कृष्ण सरल का जन्म कहाँ हुआ था (म. प्र. 2013)
(क) उज्जैन (ख) अशोक नगर (ग) मक्सी (घ) भोपाल।
उत्तर-
(ख) अशोक नगर।

प्रश्न 2.
श्री कृष्ण सरल की एक रचना का नाम लिखिए।
उत्तर-
मुक्तिगान।

प्रश्न 3.
‘अपना देश सँवारे हम’ में सूरज प्रतीक है (म. प्र. 2009)
(क) नई आशा (ख) नया सृजन (ग) नया क्षितिज (घ) नई क्षमता।
उत्तर-
(घ) नई क्षमता।

प्रश्न 4.
रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए
1. अपना ………….. सँवारे हम।
2. कर्म बने ………… शत्रु की।
3. प्रतिकूल हवाओं से हमें ………… की रक्षा करनी है। (म. प्र. 2010)
उत्तर-
1. देश, 2. तलवार, 3. देश।

  • दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सृजन के संवाहक से क्या तात्पर्य है? (म. प्र. 2009, 11, 13, 15)
उत्तर-
कवि श्री कृष्ण सरल ने देश के नौजवानों को सृजन का संवाहक कहा है। देश के नौजवानों के हाथों से देश का नव-निर्माण होना है। देश के रूप को सँवारने एवं निखारने का दायित्व नौजवानों का है। देश को प्रगति के रास्ते पर ले जाने की गुरुत्तर दायित्व नौजवानों का है। देश की रक्षा का भार एवं प्रत्येक चुनौती का प्रति उत्तर उन्हें ही देना है। समाज में समता एवं मानवता की स्थापना भी नौजवानों के माध्यम से सम्भव है। अत: कवि ने नौजवानों को सृजन का संवाहक कहा है।

प्रश्न 2.
चुनौतियों को स्वीकार करने के लिए हमारी तैयारी कैसी हो?। (म. प्र. 2012)
उत्तर-
कवि श्री कृष्ण सरल ने देश के समक्ष उपस्थित प्रत्येक चुनौती का डटकर मुकाबला करने का आह्वान किया है। हम ही देश के कर्णधार हैं। देश के पहरुए हम ही हैं। युद्ध-क्षेत्र के सन्नद्ध सिपाही हम ही हैं। अत: कवि आह्वान करता है कि-

“नए सृजन के संवाहक हम
प्रगति-पंथ के राही हैं,
हम प्रतिबद्ध पहरुए युग के
हम सन्नद्ध सिपाही हैं।
जो भी मिले चुनौती उत्तर दें उसको स्वीकारें हम !
अपना देश सँवारे हम।

प्रश्न 3.
कर्म को कवि ने किन रूपों में व्यक्त किया है?
उत्तर-
कवि श्री कृष्ण सरल ने कर्म को निम्न रूपों में व्यक्त किया है-

कर्म हमारे बनें कुदाली
कर्म हलों के फाल बने,
कर्म बनें तलवार शत्रु की
कर्म देश की ढाल बनें।

अर्थात् श्रमिक की चलती हुई कुदाली कर्म का पर्याय है। खेत जोतता किसान भी श्रम एवं कर्म का पर्याय है। युद्ध क्षेत्र में योद्धा के तलवारों की टकराहट महान कर्म है। प्रत्येक वह कर्म जिससे देश की रक्षा एवं देश का कल्याण हो महान कर्म कहा जाएगा।

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प्रश्न 4.
कविता में निहित संदेश को स्पष्ट कीजिए। (म. प्र. 2010)
उत्तर-
कवि श्री कृष्ण सरल ने अपना देश सँवारे हम’ कविता के माध्यम से नौजवानों में ओज एवं वीरता का संचार करना चाहते हैं। कवि ने संदेश देना चाहा है कि नौजवान ही सृजन एवं प्रगति के संवाहक हैं। आज नवयुवकों को कर्म-पथ पर सतत चलने का व्रत लेकर चुनौतियों का सामना करने की आवश्यकता है। नौजवान जन-समता एवं मानवता को पोषित करते हुए अपने देश को समृद्ध कर सकते हैं। कवि ने नवयुवकों से देश की रक्षा का गुरुत्तर दायित्व उठाने का संदेश भी दिया है।

प्रश्न 5.
“नए भागीरथ बन वैचारिक गंगा नई उतारे हम” के भाव को स्पष्ट कीजिए। (म. प्र. 2015)
उत्तर-
“नए भागीरथ बन वैचारिक गंगा नई उतारे हम” का भाव नए युग की माँग के अनुसार देश समाज का कायाकल्प करना है। कवि का यह कहना है कि हमें देश और समाज के नव निर्माण के लिए नए भाव, विचार और नए प्रयास करने चाहिए। इसे सभी देशवासियों को अपना पुनीत कर्तव्य समझकर करना चाहिए।

4. नई इबारत

– भवानीप्रसाद मिश्र

ससंदर्भ व्याख्या कीजिए

1. जैसा उठा वैसा गिरा जाकर बिछौने पर,
तिफल जैसा प्यार यह जीवन खिलौने पर,
बिना समझे बिना बूझे खेलते जाना,
एक जिद को जकड़ लेकर ठेलते जाना,
गलत है बेसूद है कुछ रचके सो, कुछ गढ़के सो,
तू जिस जगह जागा सबेरे उस जगह से बढ़के सो।

शब्दार्थ-तिफल = बच्चा, बेसूद = निरर्थक/व्यर्थ। संदर्भ प्रस्तुत पद्यांश भवानीप्रसाद मिश्र की कविता ‘नई इबारत’ से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग-कवि भवानीप्रसाद मिश्र ने प्रस्तुत पंक्तियों में निरन्तर आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा दी है।

व्याख्या-कवि भवानीप्रसाद मिश्र कहते हैं कि जिस स्थिति में हम सुबह जागते हैं, उसी स्थिति में यदि रात्रि को सो जाते हैं, तो हमारा जीवन अर्थपूर्ण नहीं हो पाता है। जिन्दगी ज्यों का त्यों बिस्तर पर सोने का नाम नहीं है। जिस प्रकार बच्चा अपने खिलौने पर मोहित रहता है, उसी प्रकार हमें जीवन रूपी खिलौने पर अत्यधिक मोहित होने की आवश्यकता नहीं है। जीवन समझदारी का नाम है। जीवन का प्रत्येक पग समझदारी से उठना चाहिए। जीवन के किसी भी क्रिया-व्यापार में समझदारी आवश्यक है। जिंदगी में अनावश्यक हठ को छोड़ देना समझदारी है। जिद से ही मनुष्य में मूढ़ता का विकास होता है। जिद एकदम गलत एवं व्यर्थ की भावना है। जिंदगी में रचनात्मक बनो एवं सर्जनात्मक कार्यों से जग में नाम कमाओ। जिंदगी बढ़ते रहने के लिए है। जिस जगह आज सुबह जागे थे, उसके आगे सोने के लिए जिंदगी नहीं है। बढ़ना एवं प्रगति करना जिंदगी है। \

विशेष-अलंकार-उपमा, रूपक एवं अनुप्रास। ओजमय संदेश निहित है। कवि की प्रगतिशील भावना प्रकट हुई है।

  • वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
‘नई इबारत’ किसकी कविता है? (म. प्र. 2012, 13)
उत्तर-
भवानी प्रसाद मिश्र।।

प्रश्न 2.
निम्नांकित कथन सत्य हैं अथवा असत्य
1. कवि ने ‘नई इबारत’ में सोने के पहले कुछ रचने गढ़ने की प्रेरणा दी है।
2. खेल बिना समझे-बूझे भी खेला जा सकता है।
3. ‘नई इबारत’ कविता में खेतों को कवि ने धान से युक्त बताया है।
उत्तर-
1. सत्य,
2. असत्य,
3. सत्य।

प्रश्न 3.
‘गीत फरोश’ किसकी रचना है?
उत्तर-
भवानी प्रसाद मिश्र।

प्रश्न 4.
काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्व को क्या कहते हैं?
उत्तर-
अलंकार।

प्रश्न 5.
कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने सोने से पहले कौन-सा काम करने को प्रेरित किया है? (म. प्र. 2010)
उत्तर-
कवि ने सोने से पहले ‘कुछ लिख के और कुछ पढ़के ये दो काम के लिए प्रेरित किया है।

  • दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कविता के माध्यम से कवि क्या संदेश देना चाहता है? (म. प्र. 2010, 11, 13, 15)
उत्तर-
कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने ‘नई इबारत’ कविता में जीवन में उत्साह का संचार करते हुए निरंतर आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा दी है। उनके अनुसार जिस स्थिति में हम सुबह जागते हैं, उसी स्थिति में यदि रात्रि को सो जाते हैं, तो हमारा जीवन अर्थपूर्ण नहीं हो पाता है। निरर्थक जिद किए बगैर कुछ रचके, कुछ गढ़के ही जीवन को सृजनात्मक बनाया जा सकता है। प्रकृति का संपूर्ण कार्य-व्यापार जीवन के नए पृष्ठ खोलने वाला है। प्रकृति की इस कर्मशीलता से प्रेरणा लेकर जीवन में कठिनाइयों का सामना किया जाना ही उपयुक्त है। इस तरह के दृढ़ निश्चय से ही जीवन के महत्व को प्रतिपादित किया जा सकता है।

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प्रश्न 2.
कविता में प्रकृति के माध्यम से कवि ने कुछ संदेश व्यक्त किए हैं, उनमें से किन्हीं दो को स्पष्ट कीजिए। (म. प्र. 2009)
उत्तर-
कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने ‘नई इबारत’ कविता में प्रकृति के माध्यम से जीवन में आगे बढ़ते रहने का संदेश प्रेषित करना चाहा है। सूर्य जैसी प्रखरता एवं निश्चितता के आगे व्यक्ति को निरन्तर आगे बढ़ते रहना चाहिए। सूर्य का जागना एवं सोना निश्चित समय से बद्ध है। उसमें एक अद्भुत कांति, शोभा, आभा एवं प्रखरता सन्निहित है। संसार का कल्याण करने के उपरांत, समस्त मानव सृष्टि की सेवा करने के उपरांत ही वह विश्राम करने जाता है। अतः मनुष्य को सूर्य से प्रेरणा लेनी चाहिए। इसी प्रकार वायु सुख-सुकून का संचार सृष्टि में करती है। वायु ही बादलों को इधर से उधर उड़ाकर ले जाती है ताकि सर्वत्र बरसात हो सके। नदियों में जल आपूरित तभी हो पाता है, जब वायु अपना कर्म करती है। वायु प्रवाहित होकर संसार के प्रत्येक प्राणी को सुख प्रदान करती है। मनुष्य को भी समष्टिगत भावना के साथ सूर्य एवं वायु के समान निरन्तर कर्मशील रहना चाहिए।

प्रश्न 3.
निष्क्रियता के संबंध में कवि ने कैसे संकेत किया है?
उत्तर-
‘नई इबारत’ कविता की निष्क्रियता के संबंध में कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं

“जैसे उठा वैसा गिरा जाकर बिछौने पर,
तिफ्ल जैसा प्यार यह जीवन खिलौने पर,
बिना समझे बिना बूझे खेलते जाना
एक जिद को जकड़ कर ठेलते जाना,
गलत है बेसूद है कुछ रचके सो कुछ गढ़के सो,
तू जिस तरह जागा सबेरे उस जगह से बढ़के सो।”

अर्थात् मनुष्य जागने एवं सोने के बीच कम से कम कार्यशील रहे। जीवन से अधिक मोह न पाले। समझ बूझ कर, जिद को छोड़कर कर्मशील रहे। अकर्मण्यता का जीवन में कोई स्थान नहीं है। व्यक्ति को सर्जनात्मक एवं रचनात्मक होना चाहिए। प्रगतिशीलता जीवन में हमेशा दिखाई देना चाहिए। पिछली नींद से जागने एवं अगली नींद लेने के बीच में बढ़त होनी चाहिए।

5. बिहारी के दोहे
प्रकृति

ससंदर्भ व्याख्या कीजिए

1. “कहलाने एकत बसत, अहि, मयूर, मृग, बाघ।
जगत तपोवन सो कियो, दीरघ, दाघ, निदाघ॥” (म. प्र. 2012, 13)

शब्दार्थ-बसत = रहना, अहि = सर्प, मयूर = मोर, निदाघ = गरमी।

संदर्भ-प्रस्तुत पद्यांश कवि बिहारी द्वारा रचित है। ‘बिहारी के दोहे’ के उपभाग ‘प्रकृति’ से इसे उद्धृत किया गया है।

प्रसंग-प्रस्तुत दोहे में प्रकृति के प्रभाव को चित्रित किया गया है।

व्याख्या-कवि बिहारी कहते हैं कि एक ही वन में नदी के किनारे मोर और सर्प तथा हिरण और शेर बसेरा लिए हुआ है। नदी के किनारे के इस परिदृश्य को देखकर किसी को भी भ्रम हो सकता है कि यह कहीं तपोवन तो नहीं है? जहाँ विरोधी प्रकृति के जीव एक साथ बसेरा लिए हुए हैं। वस्तुत: भीषण गर्मी के कारण नदी के किनारे ये समस्त जीव बसेरा लिए हुए हैं। प्रकृति की उग्रता के कारण इन जीवों ने अपना परम्परागत विरोध भी भुला दिया है।

विशेष-
1. ग्रीष्म की प्रखरता का प्रभावी चित्रण है।
2. बिहारी की बहुज्ञता दृष्टव्य है।
3. एकावली अलंकार है।

नीति

ससंदर्भ व्याख्या कीजिए
1. स्वारथ, सुकृत, न श्रम वृथा, देखि विहंग विचारि।
बाज पराए पानि परि तूं पच्छीनु न मारि॥

शब्दार्थ-स्वारथ = स्वार्थ, सुकृत = अच्छा कार्य, वृथा = व्यर्थ, विहंग = पक्षी, पानि = हाथ, पच्छीनु = पक्षियों। . संदर्भप्रस्तुत पद्यांश कवि बिहारी द्वारा रचित है। ‘बिहारी के दोहे’ के उपभाग ‘नीति’ से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग-इस दोहे में सजातीय बंधुओं पर अन्यथा प्रेरणा से प्रहार करने से मना किया गया है।

व्याख्या-कवि बिहारी शिवाजी को लक्ष्य करके लिखते हैं कि छोटे-छोटे देशी हिन्दू राजा मुगल अत्याचार के कारण उनका कहना मानकर उनके लिए युद्ध कर रहे हैं, जबकि वे राजा तुम्हारे ही जाति के हैं। उनका वर्तमान आचरण उनकी मजबूरी है। वीर शिवाजी के द्वारा यदि उनका वध किया जाता है तो इससे शिवाजी का न तो कोई स्वार्थ सिद्ध होगा, न ही यह अच्छा कार्य कहा जाएगा। देशी हिन्दू शासकों को मारने से श्रम ही व्यर्थ होगा। अतः हे शिवाजी दूसरों के कहने में न आकर स्वविवेक से काम लें। पक्षियों रूपी छोटे राजाओं के लिए तुम्हें बाज नहीं बनना चाहिए।

विशेष-रस-वीर। अलंकार-अन्योक्ति एवं रूपक। जातीय गौरव जगाने का उपक्रम है।

2. सोहत ओढ़े पीतु पट, स्याम सलोने गात। (म. प्र. 2015)
मनौं नील मनि-सैल पर, आतपु परपौ प्रभात॥

शब्दार्थ-सोहत = शोभायमान, ओढै = धारण करने पर, पीतु = पीला, पट्ट = वस्त्र, मनौं = मानो, आतपु = धूप, परयो = पड़ा।

प्रसंग-यह दोहा हमारी पाठ्य-पुस्तक सामान्य हिन्दी भाग 1 में संकलित तथा कविवर बिहारी द्वारा विरचित ‘सतसई के भक्ति शीर्षक से उद्धत है इसमें कवि ने श्रीकृष्ण के शारीरिक सौन्दर्य का चित्रण करते हुए कहा है।

व्याख्या-श्रीकृष्ण साँवले हैं। उन्होंने पीताम्बर धारण किया है। उनको इस तरह देखकर ऐसा लगता है, मानो नीलमणि पर्वत पर सुबह-सुबह सूर्य की किरणें पड़ रही हैं। दूसरे शब्दों में पीताम्बर धारण किए हुए साँवले श्रीकृष्ण सुबह की पड़ती हुई सूर्य की किरणों से सुशोभित नीलमणि पर्वत के समान बहुत ही सुन्दर लग रहे हैं।

विशेष-
(i) चित्रात्मक शैली है।
(ii) ब्रजभाषा की शब्दावली है।
(iii) श्रीकृष्ण के अद्भुत सौन्दर्य का चित्रण है।
(iv) श्रृंगार रस है।

  • वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
‘बिहारी सतसई’ में कितने दोहे संगृहीत हैं
(क) 700 (ख) 7000 (ग) 77 (घ) 1277.
उत्तर-
(क) 700.

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प्रश्न 2.
बिहारी किस राजा के राज्याश्रयी कवि थे
(क) बहादुर शाह रंगीले (ख) अकबर (ग) राजा जयसिंह (घ) पृथ्वीराज।
उत्तर-
(ग) राजा जयसिंह।

प्रश्न 3.
इस तिथि को सूर्य और चंद्र एक साथ होते हैं (म. प्र. 2011)
(क) द्वितीया को (ख) पूर्णिमा को (ग) अष्टमी को (घ) अमावस्या को।।
उत्तर-
(घ) अमावस्या को।

प्रश्न 4.
‘गागर में सागर’ किस कवि की रचनाओं में है?
उत्तर-
बिहारी।

प्रश्न 5.
कविता में प्रत्ययांत का क्या अर्थ होता है?
उत्तर-
प्रत्यय से होने वाले अंत को प्रत्ययांत कहते हैं।

  • दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
बाज के माध्यम से कवि ने किसके आचरण को लक्षित किया है और क्यों?
उत्तर-
कवि बिहारी ने बाज के माध्यम से वीर शिवाजी के आचरण को लक्षित किया है। वीर शिवाजी ऐसे देशी हिन्दू शासकों का लगातार वध करते चले जा रहे थे जो मजबूरी या कमजोरीवश मुगलों की अधीनता स्वीकार कर चुके थे। कवि ने अपने दोहे के माध्यम से सचेत करते हुए कहा कि- “बाज पराए पानि परि, तू पच्छीनु न मारि!”

प्रश्न 2.
सज्जन के प्रेम की क्या विशेषताएँ हैं? (Imp.)
उत्तर-
कवि बिहारी ने लिखा है
चटक न छाँड़तु घटत हूँ, सज्जन-नेहुँ गंभीरू।
फीकौ परै न, बरू फटै, रंग्यौ चोल-रंग चीरू।

अर्थात् सज्जन पुरुषों का प्रेम उपर्युक्त विशेषताओं से युक्त होता है। सज्जन व्यक्ति के प्रेम का चटकीलापन कभी समाप्त नहीं होता। ऐसे व्यक्तियों का प्रेम मंजीठे पर रंगा हुआ वह कपड़ा है, जो फट भले ही जाए किन्तु रंग न उतरे।

प्रश्न 3.
मित्रता सदैव चलती रहे, इस हेतु क्या सावधानी बरतनी चाहिए? (म. प्र. 2010)
उत्तर–
कवि बिहारी के अनुसार सच्ची मित्रता वह है जिसकी गर्मी एवं चटकीलापन कभी समाप्त नहीं होता। मित्र परस्पर एक-दूसरे के प्रति हृदय में दुरभाव नहीं आने देते। उनके चित्त संकुचित एवं मैले नहीं होते। मित्रता से आपूरित चिकने एवं पवित्र हृदय पर धूल का कण भी नहीं ठहर सकता।

प्रश्न 4.
श्री कृष्ण की बंशी इन्द्रधनुष के समान क्यों लगती है? (म. प्र. 2013)
उत्तर-
श्री कृष्ण के गुलाबी होठ, नेत्रों का काला एवं सफेद रंग, पहने हुए वस्त्रों का पीला रंग एवं हरे बाँस से बनाई हुई बाँसुरी का हरा रंग मिलकर इन्द्रधनुषी वातावरण निर्मित कर रहे हैं। वर्ण-संयोजन को कवि बिहारी ने इन शब्दों में व्यक्त किया है

“अधर धरत हरि कै परत, ओठ, दीठि-पट-जोति।
हरित बाँस की बाँसुरी, इन्द्र धनुष-रंग होति॥

6. उलाहना

– माखनलाल चतुर्वेदी

ससंदर्भ व्याख्या कीजिए

1. बड़े रस्ते, बड़े पुल, बाँध, क्या कहने।
बड़े ही कारखाने हैं, इमारत हैं,
जरा पोछु इन्हें आँसू उभर आये,
बड़प्पन यह न छोटों की इबादत है।

शब्दार्थ-बड़प्पन = बड़ा होने का भाव, इबादत = पूजा। संदर्भ-प्रस्तुत पद्यांश माखनलाल चतुर्वेदी की कविता ‘उलाहना’ से उद्धृत किया गया है। प्रसंग-कवि ने भौतिक तरक्की के साथ-साथ मानवीय संवेदना के विकास को भी आवश्यक माना है।

व्याख्या-कवि माखनलाल चतुर्वेदी जी कहते हैं कि हमने भौतिक तरक्की खूब कर ली है। देश में अनेक बड़े-बड़े रास्ते, बड़े पुल, बड़े बाँधों का निर्माण हुआ है। अनेक बड़े-बड़े कारखाने एवं भवन निर्मित हुए हैं। श्रमिक एवं सर्वहारा वर्ग के पसीने से यह भौतिक समृद्धि तर है। सर्वहारा वर्ग का विकास योजनाओं में पर्याप्त शोषण किया गया है। अब इनके आँसू पोछने का वक्त आ गया है। अपने बड़प्पन में मगरूर रहना बड़प्पन नहीं है, बल्कि श्रम-साधकों की संवेदना में भागीदार बनना बड़प्पन है। समाज के निम्नतर लोगों की संवेदना के साथ तादात्म्य ही सच्चा विकास है।

विशेष-सर्वहारा वर्ग के प्रति कवि की सहानुभूति व्यक्त हुई है। मार्क्सवादी चेतना का प्रकटीकरण है।

2. उठो, कारा बनाओ इस गरीबी की, (म. प्र. 2011)
रहो मत दूर अपनों के निकट आओ,
बड़े गहरे लगे हैं, घाव सदियों के,
मसीहा इनको ममता भर के सहलाओ।

शब्दार्थ-कारा = जेल, मसीहा = अवतारी पुरुष, ममता = ममत्वपूर्ण प्रेम। संदर्भ-प्रस्तुत पद्यांश माखनलाल चतुर्वेदी की कविता ‘उलाहना’ से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग-कवि माखनलाल चतुर्वेदी सर्वहारा वर्ग के करीब आने का आह्वान कर रहे हैं।

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व्याख्या-कवि माखन लाल चतुर्वेदी कहते हैं कि इस देश की गरीबी को कारावास में बंद करना होगा, तभी देश से गरीबी दूर होगी। गरीब लोग भी मनुष्य हैं उनके निकट जाकर उनके प्रति सहानुभूति, प्रेम एवं सहयोग की भावना प्रकट करने की आवश्यकता है। लम्बे समय से समाज का यह वर्ग शोषण का शिकार रहा है। शोषण के कारण इस वर्ग की अन्तर्रात्मा आहत हो चुकी है। किसी अवतारी पुरुष की भाँति, ममत्वमय स्नेहिल स्पर्श की आवश्यकता इन्हें है।

विशेष-सामाजिक वर्गभेद मिटाने के प्रति प्रतिबद्धता दृष्टिगोचर हो रही है। प्रगतिवादी सोच की मुखर अभिव्यक्ति है।

3. भुला दी सूलियाँ? जैसे सभी कुछ (म. प्र. 2010)
जमाने से तालियों से पा लिया तुमने
न तुम बहले, न युग बहला, भले साथी
बताओ तो किसे बहला लिया तुमने।

संदर्भ-प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक सामान्य हिन्दी भाग -1 से संकलित तथा माखन लाल चतुर्वेदी विरचित ‘उलाहना’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।

प्रसंग-प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने अमीर वर्ग के प्रति जन सामान्य के उलाहना को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। अमीर वर्ग को उलाहना देते हुए जनसामान्य कह रहा है।

व्याख्या-कवि का कहना है—तुमने देश के आन पर मर मिटने वाले अमर देश भक्तों की पवित्र यादों को भुला दिया है। अपने चापलूसों और पिछलग्गुओं द्वारा वाह वाही की तालियों को बजवाकर मानों तुमने सब कुछ पा लिया है। इस प्रकार की सोच रखने वाले क्या तुम यह बतलाओगे कि अगर तुम बहके नहीं हो और न जमाना ही बहका है, तो फिर तुम्हे किसने बहका लिया है।

विशेष-
(1) अमीर वर्ग से खास तौर से देश के गद्दारों का उल्लेख है।
(2) व्यंग्यात्मक शैली है।
(3) तुकांत शब्दावली है।
(4) यह अंश मार्मिक है।
(5) ‘बलिदान का मंदिर’ में रूपक अलंकार है।

  • वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए
1. तुम्ही जब …………….. टीसें भुलाते हो।
2. बड़े सब …………….. छोटे सलामत हैं।
3. उलाहना में रमलू भगत …………….. का प्रतीक है। (म. प्र. 2009, 12; Imp.)
4. माखनलाल चतुर्वेदी की एक कृति का नाम …………….. है। (म. प्र. 2013)
5. माखनलाल चतुर्वेदी को …………….. के नाम से भी जाना जाता है। (म. प्र. 2011)
6. उलाहना कविता ……………. को लक्ष्य कर लिखी गई है।
7. काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्व को ……………. कहते हैं। (अलंकार / रस)
उत्तर-
1. याद, 2. मिट गए , 3. निम्न वर्ग, 4. हिमकिरीटनी, 5. एक भारतीय आत्मा, 6. राजनेताओं 7. अलंकार।

प्रश्न 2.
‘उलाहना’ क्या है? (म. प्र. 2009)
उत्तर-
कविता।

प्रश्न 3.
रमलू भगत किसका प्रतीक है? (म. प्र. 2011)
उत्तर-
सर्वहारा वर्ग का।

प्रश्न 4.
उलाहना’ कविता में कवि ने गरीबी की कारा बनाने की प्रेरणा दी है, निम्न कथन सत्य है या असत्य। (म. प्र. 2010)
उत्तर-
सत्य।

  • दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
छोटे अपने किन गुणों के कारण सलामत रह जाते हैं? (म. प्र. 2009, 12, 15)
उत्तर-
कवि माखनलाल चतुर्वेदी ने लिखा है
“सदा सहना, सदा श्रम-साधना मर-मर,
वहीं हैं जो लिए छोटों का मृत-वृत हैं,
तनिक छोटों से घुल-मिलकर रहो जीवन,
बड़े सब मिट गए, छोटे सलामत हैं।”

बड़ों के अत्याचार सहना छोटों की नियति है। निरन्तर श्रम में संलग्न रहना उनका जीवन है। अपने वर्ग के प्रत्येक व्यक्ति का साथ देने का उनका संकल्प है। बड़ों का अनुशरण करना एवं उनके सम्मान के लिए स्वयं को न्यौछावर कर देना छोटों का स्वभाव है। उपर्युक्त कारणों से छोटे आज भी सलामत हैं।

प्रश्न 2.
कवि अमीरों से उनके जीवन में किस तरह के परिवर्तन की आकांक्षा करता है?
उत्तर-
कवि अमीरों से कहता है कि

“तुम्हारी चरण रेखा देखते हैं वे,
उन्हें भी देखने का तुम समय पाओ,
तुम्हारी आन पर कुर्बान जाते हैं,
अमीरी से जरा नीचे उतर आओ।”

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अमीरी को छोड़कर अपना स्नेहिल हाथ गरीबों के सिर पर फेरना होगा। रमलू भगत की झोपड़ी में जाकर प्रेमभाव से दलिया ग्रहण करना होगा। जब अमीर गरीबों के आँस पोछने के लिए तत्पर रहेगा तभी समाज में परिवर्तन की बयार चलती दिखाई देगी।

प्रश्न 3.
कविता में ‘कुटिया निवासी’ बनने का क्या तात्पर्य है? (Imp.)
उत्तर-
कवि ने ‘उलाहना’ कविता में अमीरों का आह्वान करते हुए कहा है कि

“तुम्हारी बाँह में बल है जमाने का,
तुम्हारे बोल में जादू जगत का है,
कभी कुटिया निवासी बन जरा देखो,
कि दलिया न्यौतता रमलू भगत का है।”

कवि का मानना है कि अमीरों के हाथ में सभी प्रकार की शक्तियाँ केन्द्रित हो गई हैं। अमीरों की एक आवाज पर समाज में उलट-पुलट हो सकता है। गरीब की कुटिया में आकर और वहाँ का रुखा-सूखा भोजन ग्रहण करने से अन्य लोगों को भी प्रेरणा मिल सकेगी एवं समाज से वर्ग भेद मिटाया जा सकेगा।

7. विप्लव गायन

– बालकृष्ण शर्मा नवीन

ससंदर्भ व्याख्या कीजिए

1. “प्राणों के लाले पड़ जायें, त्राहि-त्राहि रवनभ में छाएँ,
नाश और सत्यानाशों का धुंआधार जग में छा जाए,
बरसे आग, जलद जल जाए, भस्मसात भूधर हो जाएँ,
पाप-पुण्य सद् सद्भावों की, धूल उड़ उठे दाएँ-बाएँ।” (म. प्र. 2009, 13)

शब्दार्थ-रव = ध्वनि, जलद = बादल, भस्मसात = राख में मिल जाना, भूधर = पहाड़। संदर्भ-प्रस्तुत पद्यांश बालकृष्ण शर्मा नवीन की कविता ‘विप्लव गायन’ से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग-कवि नवीन क्रांति एवं प्रखरता के गीत गाने का आह्वान कर रहे हैं।

व्याख्या-कवि नवीन जी कहते हैं कि कवियों को ऐसे गीत रचने चाहिए, जिसे सुनकर समाज में खलबली मच जाए। लोग मरने-मारने को तत्पर हो जाए। सम्पूर्ण क्रांति की प्रखर ध्वनि से आकाश गूंजने लगे। सर्वत्र विनाश की स्थिति निर्मित हो जाए। विनाश के धुआँधार में कुछ भी दिखाई न दे। आकाश से आग बरसे, बादल और पहाड़ जलकर राख हो जाएँ। पाप-पुण्य जैसे सैकड़ो भावों का अन्तर लोगों को समझ में न आए। ऐसा तभी संभव है जब सम्पूर्ण क्रांति का आह्वान होगा। विचारकों, समीक्षकों एवं कवियों के माध्यम से ही ऐसी क्रांति आएगी।

विशेष-
1. सम्पूर्ण क्रांति का आह्वान किया गया है।
2. वीर रस एवं ओजपूर्ण शैली है।
3. प्रगतिवादी विचारधारा का प्रकटीकरण है।

  • वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
विप्लव गायन कविता के रचयिता हैं (म. प्र. 2009)
(क) श्रीकृष्ण सरल (ख) माखन लाल चतुर्वेदी (ग) बालकृष्ण शर्मा नवीन (घ) भवानी प्रसाद मिश्र।
उत्तर-
(ग) बाल कृष्ण शर्मा ‘नवीन’।

प्रश्न 2.
बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ विधानसभा के सदस्य थे अथवा संसद सदस्य थे?
उत्तर-
संसद सदस्य।

प्रश्न 3.
कवि की तान से कौन भस्मसात् हो रहे हैं? (म. प्र. 2011)
उत्तर-
कवि की तान से पहाड़ भस्मसात् हो रहे हैं।

प्रश्न 4.
सही जोड़ी बनाइए
1. माता की छाती का अमृतमय – (क) अचल शिला विचलित हो जाए
2. आँखों का पानी सूखे – (ख) गतानुगति विगलित हो जाए
3. एक ओर कायरता काँपे – (ग) वे शोणित के घूटे हो जाए
4. अन्धे मूढ़ विचारों की (म. प्र. 2013) – (घ) पय काल कूट हो जाए
5. ‘विप्लव गायन’ पाठ के कवि (म. प्र. 2015) – (ङ) बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’।
उत्तर-
1. (घ), 2. (ग), 3. (ख), 4. (क), 5. (ङ)।

  • दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
विप्लव गायन से क्या तात्पर्य है? कवि ने विप्लव के कौन-कौन से लक्षण गिनाए हैं? (म. प्र. 2013)
उत्तर-
रूढ़ एवं जीर्ण-शीर्ण समाज ध्वंस करने के लिए विप्लव गान आवश्यक है। सम्पूर्ण क्रांति, सम्पूर्ण परिवर्तन विप्लव गायन से संभव है। समाज में उथल-पुथल, प्राणों के लाले, त्राहि-त्राहि मचने, नाश एवं सत्यानाश का धुआँधार छाने, आग बरसने, बादल भस्म होने, पाप एवं पुण्य जैसे सत-असत भावों की धूल उड़ने, धरती का वक्ष स्थल फटने, नक्षत्रों के टुकड़े-टुकड़े हो जाने पर हमें मान लेना चाहिए कि समाज में कवि ने सम्पूर्ण क्रांति, सम्पूर्ण परिवर्तन का विप्लव गान गाकर जागृति ला दी है। समाज को विप्लवगान के बाद बदलने से कोई नहीं रोक सकता।

प्रश्न 2.
कवि किन-किन रूढ़ियों को समाप्त करना चाहता है? (म. प्र. 2010,11,12)
उत्तर-
कवि चाहता है कि माता अपने आँचल में छिपाकर बच्चे को दूध न पिलाए बल्कि उसे विष पीने के लिए भी तत्पर रखे। पुत्र के दुःख में वह आँसू न बहाए बल्कि दुश्मन का सामना करते हुए अपने पुत्र को देखकर आँखों में खून उतर आए। देश को कायर पुत्रों की आवश्यकता नहीं है। रूढ़िवादिता, मूढ़ता जैसे विचार जो बहुत गहरे तक हममें स्थापित हैं, पिघल जाएँ। सम्पूर्ण ब्रह्मांड में नाश करने वाली गर्जना गूंजने लगे। कवि समाज में वर्षों से स्थापित सारी रूढ़ियों को ‘विप्लव गान’ के माध्यम से समाप्त कर देना चाहता है।

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प्रश्न 3.
नये सृजन के लिए ध्वंस की आवश्यकता क्या है-इस कथन के आधार पर कवि द्वारा वर्णित तथ्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
कवि बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ की मान्यता है कि नाश में ही निर्माण के बीज छिपे रहते हैं। कवि विप्लव गान के माध्यम से रूढ़ एवं जीर्ण-शीर्ण समाज का ध्वंस करना चाहता है। कवि के गीतों में युग परिवर्तन की शक्ति समायी होती है। प्रलय की प्रेरणाएँ भी उसके गीतों में निहित होती हैं। एक ओर ध्वंस और दूसरी ओर सृजन की सामर्थ्य को अपनी कविता में केन्द्रीभूत करने वाले कवि ने जागृति का गीत गाया है। रूढ़ियों, अंध विचारों एवं कायरता की समाप्ति के लिए ध्वंस आवश्यक है। नए युग की परिस्थितियों के अनुसार निर्माण की सामर्थ्य एवं प्रेरणा भी इस कविता में निहित है।

प्रश्न 4.
“प्रलयंकारी आँख खुल जाए” से क्या तात्पर्य है? (म. प्र. 2015)
उत्तर-
प्रलयंकारी आँख खुल जाए से तात्पर्य है-सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रलयंकारी क्रांति का आना बेहद जरूरी है। उससे ही आमूलचूल अपेक्षित परिवर्तन सम्भव हैं।

8. भू का त्रास हरो

– रामधारी सिंह ‘दिनकर’

ससंदर्भ व्याख्या कीजिए

1. रोक-टोक से नहीं सुनेगा, नृप समाज अविचारी है,
ग्रीवाहर निष्ठुर कुठार का, यह मदान्ध अधिकारी है।
इसीलिए तो मैं कहता हूँ, अरे ज्ञानियों खड्ग धरो,
हर न सका जिसको कोई भी, भू का वह तुम त्रास हो।

शब्दार्थ-नृप = राजा, अविचारी = विचारहीन, ग्रीवाहर = गर्दन काटने वाला, कुठार = कुल्हाड़ी, मदान्ध = नशे में अन्धा, खड्ग = तलवार, भू = धरती, त्रास = कष्ट, दु:ख।

संदर्भ-प्रस्तुत पद्यांश रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की कविता ‘भू का त्रास हरो’ से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग-कवि की मान्यता है कि नीति विमुख राजसत्ता को सख्ती से सुधारकर संसार का कष्ट दूर किया जा सकता है।

व्याख्या-कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ कहते हैं कि राज-समाज विचारहीन हैं। रोक-टोक का असर उस पर नहीं होगा। नशे में डूबे इन लोगों पर किसी भी चीज का प्रभाव नहीं पड़ने वाला है। इनका दण्ड यही है कि कुल्हाड़ी से इनकी गर्दन काट ली जाए। समाज तभी सुख का अनुभव कर सकेगा। जब समाज के चरित्रवान कवि, कलाकारों और ज्ञानियों द्वारा तलवार धारण की जाएगी। इस धरती का दुःख एवं कष्ट तभी दूर हो सकेगा जब कुविचारी एवं मदान्ध राजा मारे जाएँगे। धरती की मुक्ति तभी हो सकेगी।

विशेष-वीर रस की प्रधानता है। सामाजिक अव्यवस्था के प्रति क्षोभ प्रकट हुआ है। ओज गुण प्रधान है।

  • लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
‘भूका त्रास हरो’ कविता में मदान्ध शासकों को सबक सिखाने के लिए क्या धारण करने को कवि कहता है?
उत्तर-
तलवार।

प्रश्न 2.
‘दिनकर’ का शाब्दिक अर्थ क्या होता है? (म. प्र. 2009)
उत्तर-
सूर्य।

प्रश्न 3.
कवि ‘दिनकर’ राज्यसभा में किस सन् में मनोनीत हुए?
उत्तर-
19521

प्रश्न 4.
‘उर्वशी’ के लिए ‘दिनकर’ को कौन-सा सम्मान मिला था?
उत्तर-
ज्ञानपीठ पुरस्कार।

प्रश्न 5.
भू का त्रास कविता में नृप समाज का उल्लेख किस रूप में हुआ है? (म. प्र. 2009)
उत्तर-
मदांध शासक।

  • दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कवि का भोगी भूप से क्या आशय है? (म. प्र. 2013, 15)
उत्तर-
कवि ‘दिनकर’ ने भोगी भूप ऐसे राजाओं को कहा है जो अविचारी एवं विलासी हैं। ऐसे राजा प्रजाहित में कार्य नहीं करते और तलवार की ताकत से अपनी सत्ता को सुरक्षित रखते हैं। ऐसे राजा न तो नीति निपुण होते हैं, न ही उनमें त्याग व तप की भावना होती है।

प्रश्न 2.
कवि ने अविचारी नृप समाज के साथ कैसा व्यवहार करने के लिए प्रेरित किया है? (म. प्र. 2010, 12)
उत्तर-
कवि ‘दिनकर’ ने लिखा है…

रोक-टोक से नहीं सुनेगा, नृप समाज अविचारी है,
ग्रीवाहर निष्ठुर कुठार का यह मदान्ध अधिकारी है।

अर्थात् अविचारी एवं मदान्ध राजाओं के सिर कुल्हाड़ी से कलम कर देना चाहिए। भोग-विलास में डूबे रहने वाले राजाओं के सिर कलम करने की जिम्मेदारी कवि, ज्ञानी, वैज्ञानिकों, कलाकारों एवं पंडितों पर है।

प्रश्न 3.
आग में पड़ी धरती से कवि का क्या तात्पर्य है? (म. प्र. 2011)
उत्तर-
आग में पड़ी धरती के संबंध में कवि ‘दिनकर’ ने लिखा है

“तब तक पड़ी आग में धरती, इसी तरह अकुलायेगी,
चाहे जो भी करे, दु:खों से छूट नहीं वह पायेगी।
अर्थात् इस समाज में जब तक कवियों, ज्ञानियों,
वैज्ञानिकों, कलाकारों एवं पंडितों का मोल नहीं पहचाना जाएगा,

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जब तक उज्ज्वल चरित्र के अभिमानी लोगों को सम्मान नहीं मिलेगा तब तक धरती आग में जलती हुई व्याकुल रहेगी। भोगी, मदान्ध एवं अविचारी राजाओं के सिर कलम करते ही उनके खून से धरती की आग भी ठंडी होगी।

प्रश्न 4.
कवि दिनकर ज्ञानियों को क्या धारण करने का उपदेश देते हैं?
उत्तर-
कवि दिनकर कहते हैं, “हे ज्ञानियों ! तुम जब तक अपने हाथ में तलवार धारण नहीं करोगे तब तक इस धरती का कष्ट कम नहीं होगा।”

प्रश्न 5.
कवि दिनकर के अनुसार राजाओं से भी अधिक पूज्य कौन है? (म. प्र. 2010)
उत्तर-
कवि के अनुसार राजाओं से भी पूज्य कवि, कलाकार और ज्ञानीजन हैं। अर्थात् राजाओं की पूजा केवल देश में होती है जबकि कवि, कलाकार और ज्ञानीजन को संपूर्ण विश्व में श्रेष्ठ माना जाता है एवं उन्हें सबसे पहले आदर दिया जाता है। इसलिये राजाओं से पूज्य ये सब माने गये हैं।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
दिये गए विकल्पों में से सही विकल्प चुनकर लिखिए

1. ‘उलाहना’ कविता में रमलू भगत किसका प्रतीक है (म. प्र. 2015)
(क) गरीब का (ख) अमीर का (ग) शोषक का (घ) कृषक का।

2. ‘मिठाई वाला’ पाठ किस विधा में है-
(क) जीवनी (ख) निबंध (ग) कहानी (घ) आत्मकथा।

3. ‘अंतिम संदेश पत्र शहीद रामप्रसाद बिस्मिल द्वारा किसे लिखा गया था
(क) माँ (ख) पिता (ग) बहिन (घ) मित्र।

4. प्रकृति के सुकुमार कवि हैं
(क) बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ (ख) रामधारी सिंह ‘दिनकर’ (ग) सुमित्रानंदन पंत (घ) श्रीकृष्ण सरल।

5. शब्द के प्रारंभ में जुड़ने वाला शब्दांश क्या कहलाता है
(क) उपसर्ग (ख) प्रत्यय (ग) संधि (घ) समास।
उत्तर-
1. (क), 2. (ग), 3. (क), 4. (ग), 5. (क)।

प्रश्न 2.
सही जोड़ी बनाइये (म. प्र. 2015)
1. रुपया तुम्हें खा गया – (क) भवानी प्रसाद मिश्र
2. गीत फरोस पंचदशी रचनाएँ – (ख) स्वामी विवेकानंद
3. जयपाल था – (ग) भगवती चरण वर्मा
4. ‘शिक्षा’ निबंध के लेखक – (घ) डॉक्टर
5. रात-दिन – (ङ) संधि (च) समास।
उत्तर-
1. (ग), 2. (क), 3. (घ), 4. (ख), 5. (च).

प्रश्न 3.
निम्नलिखित कथनों में से सत्य/असत्य छाँटिए (म. प्र. 2015)
1. रमेश में स्वर संधि है।
2. कवि की तान से भूधर भस्मसात् हो रहे हैं।
3. सर्प, मोर, हिरण और सिंह तपोवन में एक साथ रह सकते हैं।
4. मुहावरा वाक्य है।
5. क्या राम पढ़ता है? वाक्य विधिवाचक है।
उत्तर-
1. सत्य, 2. सत्य, 3. सत्य, 4. असत्य, 5. असत्य।

प्रश्न 4.
एक शब्द अथवा वाक्य में उत्तर लिखिए
1. प्रतिदिन शब्द में कौन-सा समाज है?
2. जिसका शत्रु न हो।
3. जगदीश शब्द में कौन-सी संधि है?
4. दिनकर जी का पूरा नाम क्या है?
उत्तर-
1. अव्ययी भाव समास,
2. अजातशत्रु,
3. व्यंजन संधि,
4. रामधारी सिंह ‘दिनकर’।

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प्रश्न 5.
‘कब तक योगी भूप प्रजाओं के नेता कहलाएँगे’ का भाव पल्लवन कीजिए। (म. प्र. 2015)
उत्तर-
‘कब तक भोगी भूप प्रजाओं के नेता कहलाएँगे’ का भाव यह है कि जब तक अविचारी और विलासी शासक प्रजाहित में कार्य नहीं करेगा, तब तक कवियों, कलाकारों और ज्ञानियों को मान-सम्मान प्राप्त नहीं होगा। चारों ओर अत्याचार और दुःखद वातावरण बना रहेगा। उससे जीवन खतरे में पड़ जायेगा।

MP Board Class 11th General Hindi Important Questions

MP Board Class 11th Special Hindi प्रायोजना कार्य

MP Board Class 11th Special Hindi प्रायोजना कार्य

अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अभाव में नवीन चिन्तन, नवीन विचार, नवीन धारणाएँ आकार नहीं ले पाती, न कोई सृजन हो पाता है। छात्र इस स्तर तक आते-आते क्रमशः अपनी भाषा के विकास के क्रम में इतना सक्षम हो जाता है कि वह अपने सबसे प्रभावशाली साधन बोली का उपयोग करे। अपने अनुभव एवं अपने विचार व्यक्त करे। क्षेत्रीय बोली की कहावतें, चुटकुलों और लोकगीतों का संग्रह कर उनका परिचय प्राप्त करे। अपने क्षेत्र की पत्र-पत्रिकाओं का पाठ्य-पुस्तकों के अलावा अध्ययन करे।

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1. भाषा के विविध क्षेत्रों का परिचय भाषा के चार मुख्य क्षेत्र हैं-

  • सुनना-श्रवण,
  • बोलना-भाषण,
  • पढ़ना-पठन,
  • लिखना-लेखन।

इस विषय का समावेश पाठ्यक्रम में इसलिए किया गया है कि बालक कक्षा 11वीं के स्तर तक भाषा के इन चारों स्तरों से भली-भाँति परिचित हो जाता है। अब उन्हें शिक्षकों द्वारा अपनी इन भाषायी योग्यता के विस्तार की प्रेरणा देना है। वह अपनी इस योग्यता से पाठ्य-पुस्तक के अतिरिक्त भी कुछ पढ़े-लिखे और इस क्रिया में रुचि उत्पन्न करने के लिए शिक्षक छात्रों को यह गृह कार्य दें कि वे अपने-अपने क्षेत्र की बोली की कहावतें, चुटकुले और लोकगीतों का संग्रह करें। इसके अतिरिक्त छात्रों को कक्षा में तथा गृह कार्य के रूप में यह लेखन कार्य दिया जाये कि वे अपने क्षेत्र की पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ें और उसमें उन्हें जो भी विवरण रोचक लगे उसे अपने शब्दों में लिखें। इससे उनका पठन-कौशल और लेखन-कौशल विकसित होगा।

छात्र के श्रवण कौशल को विकसित करने के लिए वह दूरदर्शन के रोचक कार्यक्रमों को सुने और उसे जो भी कार्यक्रम रुचिकर लगे उसे लिखे।

इस प्रकार छात्रों को पाठ्य-पुस्तक के अतिरिक्त अपनी भाषायी योग्यता विस्तार का अवसर प्राप्त होगा।

मध्य प्रदेश देश का सबसे बड़ा वह राज्य है जिसकी सीमाओं को सात प्रदेश घेरे हैं। अतः मध्य प्रदेश में सर्वाधिक क्षेत्रीय भाषा या बोलियाँ अस्तित्व में हैं।

शिक्षक अपने-अपने क्षेत्र की भाषा के लोकगीतों एवं कहावतों का संग्रह छात्रों से करवायें। हमारे प्रदेश में मुख्य रूप से मालवी, निमाड़ी, बुन्देलखण्डी, बघेलखण्डी, छत्तीसगढ़ी, मराठी, गुजराती, मारवाड़ी बोली जाती हैं, अतएव इनके चुटकुले, गीत, कविता, कहावतें एकत्रित करें। उदाहरण के तौर पर मालवा, निमाड़ क्षेत्र का मुख्य समाचार-पत्र है ‘नई दुनियाँ’, जो इन्दौर से प्रकाशित होता है। उसमें प्रत्येक बुधवार को इस तरह की रचनाएँ प्रकाशित होती हैं। इस क्षेत्र के छात्र उनका संग्रह कर सकते हैं।

मध्य प्रदेश में चालीस से अधिक जनजातियाँ निवास करती हैं। जिनकी अलग-अलग बोलियाँ हैं। झाबुआ के निवासी भील हैं और इनकी भीली बोली में मुहावरों का अत्यधिक प्रचलन है। हम यहाँ कुछ भीली मुहावरे और उनका हिन्दी अर्थ दे रहे हैं। छात्र अपने अध्यापकों की सहायता से अपने आस-पास बसने वाले आदिवासियों की लोक कथाएँ, कविता, मुहावरे, कहावतें संकलित कर उनका हिन्दी अनुवाद करें।

सुबह, दोपहर, शाम समय की सूचना वाले मुहावरे

भीली बोली पर मालवी, राजस्थानी, गुजराती भाषाओं का पर्याप्त प्रभाव है।
भीली कहावतें

  1. भूखला तो भूखला सूकला खरी-भूखा ही सही पर सुखी तो हूँ।
  2. भील भोला ने चेला-भील भोले होते हैं।
  3. खारड़ा माँ काँटो, भील माँ आटो भील में बदले की भावना रहती है।
  4. पाली पपोली मनाव राखवू घणो मसकल है. भील को खुशामद से मनाना बहुत मुश्किल है।
  5. ढोली नौ सौरो गाद्यो नी मरे न भील, सौरो रोद्यो नी मरे-ढोली का लड़का गाने से और भील का लड़का रोने से नहीं मरता-वे अभावों से जूझते रहते हैं।
  6. भील भाई ने डगले दीवो-भील भले ही अभावग्रस्त रहे, वह सदा निश्चिन्त रहता है।

कुछ बुन्देली बोली की कहावतें

  1. खीर सों सौजं, महेरी को न्यारे।
  2. पराई पातर को बरा बड़ो।
  3. पराये बघार में जिया मगन।
  4. देवी फिरै बिपत की मारी पण्डा कहै करो सहाय।
  5. रौन कुमरई की कुतिया (लोककथन)।
  6. नौनी के नौ मायके, गली-गली सुसरार।
  7. जौन डुकरिया के मारे न्यारे भए बई हिस्सा में परी।
  8. माँगे को मठा मोल पर गौ।
  9. कानी अपने टेण्ट तो निहारत नईया दूसरे की फुली पर पर के देखत।
  10. कनबेरी देवो।
  11. मर गई किल्ली काजर खों।

2. पहेलियाँ

1. भीली भाषा – उत्तर
1. गाय वाकड़ी ने बेटी डाकणी – तीर-कमान
2. धवल्या बुकड़ा ने बारेह खाल – प्याज
3. औंधे बाटके ने दही लटके – कपास
4. भूत्या हेलग्या ने पेटा में दाँत – कद्दू
5. छोटी-सी दड़ी, दगड़-सी लड़ी – सुपारी

2. बुन्देली
1. थोड़ो सो सोनो, घर भर नोनो – दीपक
2. दीवार पर धरो टका, ऊको तुम उठा पाओ न बाप न कका – चन्द्रमा
3. ठाड़े हैं तो ठाड़े हैं, बैठे हैं तो ठाड़े हैं। – सींग
4. सीताजी की गोल-गोल, शिवजी को आड़ो – सीताजी की गोल बिंदिया
बूझो पहेली मोरी रामजी को – शिवजी का आड़ा त्रिपुण्ड और रामजी
ठाँड़ों। – का खड़ा रामनामी तिलक।

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3. निमाड़ी
1. एक बाई असा कि सरकजड नी – दीवाल
2. काली गाय काँटा खाय, पाणी देखे बिचकी जाय जूता

4. बघेली
अड़ी हयन, खड़ी हयन, लाख मोती जड़ी हयन बाबा केरे बाग में दुशाला ओढ़े पड़ी हयन – भुट्टा मक्के का

5. छत्तीसगढ़ी
पेट चिरहा, पीठ कुबरा – कौड़ी

6. मालवी
नानो सो चुन्नू भाय, लम्बी सारी पूँछ नी चाल्या चुन्नू भाया, पकड़ी लाओ पूँछ – सुई धागा

3. चुटकुले

  1. न्यायाधीश-तुम चार साल पूर्व भी एक ओवर कोट चुराने के अपराध में इस अदालत में आ चुके हो।।
    अपराधी-आप ठीक कहते हैं। लेकिन ओवर कोट इससे अधिक चलता भी कहाँ है।
  2. मजदूर–क्या मालिक ! गधे के समान काम कराया और एक रुपया दे रहे। कुछ तो न्याय करना चाहिए।
    मालिक-न्याय ! हाँ तुम ठीक कहते हो। मुनीम जी, इसका रुपया छीन लो और बाँध कर इसके सामने थोड़ी सी घास डाल दो।
  3. पिता-हमारा लड़का आजकल बहुत तरक्की कर रहा है। पड़ोसी-अच्छा, कैसे?
    पिता–पुलिस ने उस पर घोषित इनाम की रकम पाँच हजार से बढ़ाकर दस हजार कर दी है।

4. लोकगीत

निमाड़ी कवाड़ा
बड़ा-बड़ा तो वई गया
ढोली कय कि पार उतार
वई का वई गया ना
उतरई की उतरई लगी
एकली कुतरी कई भुख
न कई कंसुऱ्या ले
फट्या कपड़ा बुड्ढा ढोर
इनका दाम लई गया चोर
ऊँट थारो कई वाको
ऊँच कय सब वाको
थारी बइगण म्हारी छाछ
भली बघार म्हारी माय

प्रस्तुति : हरीश दुबे

कसा भनई रिया हो?
मास्टर बा तम
असा-कसा भनइ रिया हो,
छातरवती दई ने
अँगूठा लगवई रिया हो।

-दिनेश दर्पण

साथन : निमाड़ी

‘मँहगई’
एको राज ओको राज
हुया मँहगा अनाज।
काँ छे घोटालो,
समझ मज आव नी
उनकी वात!
हम, पाँच बरस तक
देखाँ, रामराज की वाट

-अखिलेश जोशी

विश्वास
आस बाँधी ने
दो कदम
चाल्यौ थो
कि
टाँग धैची लिदी।
पाछै
फरीने दैख्यौ आपणा वारा पे भी
विश्वास नी करनो कदी।।

-जगदीश सस्मरा

वात कई कयj
बैल गाड़ी की वात कई कयj
खेत वाड़ी की वात कई कयj
मीठा लागज जुवार का रोटा
नऽ अमाड़ी की वात कई कयj
जे खड़ बुनकर वणा व मयसर का
उनी साड़ी की वात कई कयणुं
दूध-घी की कमी नि होणऽ दे
भैस-पाड़ी की वात कई कयj
घर क राखज चगन-मगन केतरो
छोटी लाड़ी की वात कई कयj
गाँव मऽ उनको बड़ो नाव वजज
माय माता की वात कई कयj
वोली न अपणी जगा सब छे ‘हरिश’
पण निमाड़ी की वात कई कयणुं।

– हरीश दुबे

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गजल
हुण रे भाया म्हारी वात।
हद की दी मनखौं की जात।
जणी जण्या पारया पोस्या,
अब लगावे वण पे घात।
वा, दर-दर की माँगे भीख
जण के जीवे बेटा हात।
लाड्या की होरयां बारी,
मंगता अशो करयो उत्पाद।
मनखाँ ती वंची ने रो
झूठी कोनी या केवात॥

– प्रमोद रामावत

फागुण का दोहा
फागुण का पगल्या पड्या, बदल्या सारा रंग।
ढोलक बजी चौपाल पऽ खडक्या खड़-खड़ चंग॥
सरसों पीली हुई गई, मुहवो वारऽगन्ध।
फूल-फूल पऽ भैरा दौड़, पीणऽख मकरन्द॥
अम्बा भी बौरइ गया, फूल्या घणा पलास।
कोयलिया की कूक की, प्यारी लाग मिठास॥
अबीर गुलाल का साथ मैंs, रंग की उड़ी फुहार।
हिली-मिली न मनवाँ, आवो यो तेव्हार।।

-चन्द्रकान्त सेन

एल्याँग ………. वोल्याँग
एल्यांग गुरुजी
पकावणऽ लग्या
दलिया न दाल
वोल्याँग हुई
शिक्षा-बे-हाल
शेर की सी उनकी नियति
एकाजऽ लेण
जिन्दगी अकेलीज बीती
वोटर सी पूछो
ईज सरकार रखोगा
कि बदलोगा?
बोल्या अगला
को काई भरोसा?
ऊ एतरी धाँधली
चलन दे कि नई?

-ललित नारायण उपाध्याय

ऊँचो मोल को है तमारो पसीनो

साथे लइला हिम्मत ने हेली-मेली ताकत,
तमारा आगे माथो टेकी ऊबी रेगा आफत,

काय को डर धरती रो घर अन से भरया चालो।
चालो भरयां चालो, चालो मरदाँ चालो।

घणो ऊँचों मोल को है तमारो पसीनो
आलसी के समझावो के कसो होय है जीनो।
स्वास्थ छोड़ी मजदूरी री पूजा करदाँ चालो।
चालो मरदाँ चालो, चालो मरदाँ चालो।

गाँवों में कबीर पंथ आज भी तो गावे है
परेम से तो मारा भाई दुनिया जीती जावे है
लड़ता-मरता आदमी ने आपण वरजाँ चालो
चालो मरदाँ चालो, चालो मरदाँ चालो

-मोहन अम्बर

सन्दर्भ : होली

कई हँसो बाबूजी!
यूँ दूर ऊबा
नाक सिकोड़ी के
कई हँसो ओ बाबूजी,
हमारे
कीचड़ का अबीर गुलाल से
होली खेलता देखि के।
हमारो तो
योज बड़ो तीवार है
यो
कीचड़ को जरूर है, बाबूजी
पणे
तमारी जग-मग दीवाली से
घणों अच्छो है,
देखिलो
दोल्यो/धुल्यो
दोड़ी-दोड़ी के
खाँकरा की केशूड़ी को
सन्तरिया रंग के
एक-दुसरा का ऊपर ढोलिरिया
मन का बन्द किमाड़
खोलीरिया
आत्मा से घीरणा को
कीचड़ धुइरिया है
काल तक जो प्यासा था
एक दूसरा का खून का
बाबूजी
आज ऊई पाछा
एक दुइरिया है।

-बंशीधर बन्धु’

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अजगर से बड़ा साँपजी

थोड़ी-घणी लिखी या पाती,
आखी समजो बाप जी।

यो कई हुई रियो इनी दुनियाँ में,
कई करूँ इको जाप जी।

तम भी पड्या हो ईका चक्कर में
घणा ईमानदार था साबजी।

भेती गंगा में जो हाथ नी धोया तो
जनम भर होयगो भोत संतापजी।

तूज अकेली जेरीलो नी हे धरती पे,
बेठ्या हे, अजगर से बड़ा साँपजी।

घणी देर से सोया हो, अब तो जागो,
जगावा को कद से करि रियो हूँ अलापजी।

कई लाया था ने कई ली जावगा,
आता-जाता को मत करो विलापजी।

-हुकुमचन्द मालवीय

खोटो नरियल होली में !
मन में आदर भाव नी रियो, राम नी रियो बोली में,
नगद माल सब जेब हवाले, खोटो नारियल होली में।
स्वारथ आगे सब कईं भूल्या, कितरा कड़वा हुईग्या हो,
फिर भी थोड़ी तो मिठास है पाकी लीम लिम्बोड़ी में।

कई गावाँ कई ढोल बजावाँ, कई स्वागत सत्कार करौं,
डण्डा-झण्डा साते लइनें, नेता निकले टोली में।

कुरसी मिली तो मोटरगाड़ी से, तम नीचे नी उतरो,
नेताजी वी दन भूलीग्या, रेता था जद खोली में।

खन, पसीना, साँते बईग्यो, पेट पीठ से चोंटीग्यो,
सपनो हुईग्यो धान ने दलियो, टाबर रोवे झोली में।

कुल की लाज बहू ने बेटी, भूल्या सगली मरयादा,
बहू की जगे दहेज बठीग्यो, अब दुल्हन की डोली में।

नारी को सम्मान घणों है, भाषण लम्बा-चौड़ा दो,
पण मौका पे चूको नी तम, भावज बणाओ ठिठोली में।

-ओमप्रकाश पंड्या

तम देखी लेजो
बन्द कोठड़ी म
गरम गोदड़ी ओढ़ेल
सोचतो मनख;
कस लिखी सकग
ठण्ड न कड़ायलां गीत,
फटेल चादरा का दरद
अन टूटेल झोपड़ा की वारता?
कसा कई सकग
फटेल हाथ-पाँव की
बिवई न में
खोयेल नरमई,
अन सियालां म।
बगलेलो
डोलची दाजी को दम !
भई,
तम कोशिश करी न
देखी ले जो;
पन असली वात न क
कभी नी कई सकग।।

-शरद क्षीरसागर

जीवन कँई हे?
जीवन एक मेंकतो
हुवो फूल हे
हवेरा, खिले अरु हाँजे
मुरजई जावे
समजी नी जिने
जीवन की परिभासा
ऊ कदी रोवे
कदी खिलखिलावे
जीवन पाणी को
ऊठतो हुवो बुलबुलो हे,
देखतां-देखतां
जिको नामो निसान मिटी जावे
फिर बी हम
जीवन को अरथ नी जाणां
तपतो हुवो सूरज बी
हाँजे ठण्डो वई जावे।

-कन्हैयालाल गौड़

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5. लोक कथाएँ

लोक कथाओं में मानव का सुकोमल एवं हृदय को छू जाने वाला इतिहास अंकित है। आदमी ने जो कुछ किया, उसका लेखा-जोखा तो इतिहास में दर्ज है, लेकिन अपने मनोजगत में उसने जो कुछ भी सोचा, विचारा, रंगीन कल्पनाओं का ताना-बाना बुना, सुन्दर सपने संजोए उन सबका विवरण इन लोक कथाओं में सुरक्षित है।

सदियों से ये लोक कथाएँ मनुष्य का मनोरंजन करती आयी हैं। इनमें कुछ भी असम्भव नहीं होता है। इनमें शेर और साँप भी दोस्ती निभाते, पक्षी सन्देश पहुँचाते और जरूरत पड़ने पर चित्र भी बोलने लगते हैं। इनमें मनुष्य सोचने के साथ ही सात समुद्र पार पहुँच जाता है, क्षण में पृथ्वी की परिक्रमा कर लेता है और किसी द्वीप की असीम सुन्दरी से शादी करता है।

इनकी जो सबसे बड़ी विशेषता है वह यह है कि ये मानवीय तत्त्वों से भरपूर हैं। इनमें देवी-देवता के माध्यम से भी मानव जीवन की कहानी कही गयी है। चाहे सूर्य हो या ब्रह्मा, सावित्री, वे सब यहाँ मानवीय स्वरूप लेकर और पारिवारिक प्रतीकों के सहारे सामाजिक जीवन को समृद्ध कर अपना योगदान देते हैं।

इन कथाओं में व्यक्ति, स्थान या समय का कोई महत्त्व नहीं होता। इनकी उँगली पकड़ कर ही आदमी ने सदियों की दूरी को लाँघा, देश-विदेश की यात्राएँ की और सुदूर रेगिस्तान से लगाकर अपने खेत-खलिहान और घर के आँगन के सहारे सारी रात जागकर बिता दी है। इन्होंने निराशा के क्षणों में मनुष्य के मन में अमिट आशा का संचार किया है।

(क) छत्तीसगढ़ी कहानी
नियाय के गोठ

चैतू ठाकुर बिमार हावे। गाँव के सबो झन झोला देख देख के जावत हैं। तीर तिखार के गाँव के कतको सज्जन अऊ बड़े किसान किसनहा झोला देखे बार आता हे। आखर कावर नइ आहीं ओखर सुझाव सब झन बर गुरतर हावे दूरिहा दूरिया के मन ऐला जानाथे। चाहे कइसनो मुशकुल बात होय ठाकुर ओला दुइच छिन में निबटा देय। वइसे ओखर तीर कोनो बड़े जइदाद, नइहे नहिं सोना चाँदी के खजाना। ओखर तीर सिरिफ दुठन बांही के भरोसा हावे। एक छोटे असन घर बाड़ी थोरकिन खेत अउ गिनती ढोर डंगर। रात दिन मिहनत करना ओखर नियम है।

एक जमाना रिहिस के वोहा गरीब रिहिस। मजदूरी करके अपन पेट ला चलाय। तब तो हा परम संतोषी रिहिस अऊ आजो भी बोला। चिटिक मात्र घमण्ड नहीं हे यही कारण है कि गाँव भर के मन वोला मानये।

आज वो ही हा बिमार हे त पूरा गाँव दुखी है। सबो झन भगवान ले पराथना करत है कि ठाकुर जल्दी बने हो जाय।

ठाकुर परिवार में कुल चार पराणी हावे। ठाकुर ओखर घरवाली ओखर बेटा अउ अनाथ भांचा। हावो तो भांचा फेर ठाकुर बोला अपने बेटा ले चिटिक मात्र कमती नहीं समझे। ऊखर असन बेटा बीस बरस के लगभग अउ भांचा मोहन अठरह बरस के लगभग हावे। बड़ मिहनती हे। बलराम कोनो काम बूता म ओखर आगू नई टिकै।

बलराम के सगई होने। ठाकुर सोचे कि मोहन बर भी कहूँ बात चलाये जाय त दूनो के बिहाव एक संग निपट जाही। ठकुराइन के मन मां घलो यही बिचार उठे।

फेर एकोती बलराम बड़ा उलझन अउ उदंड होगे। न माँ के सुनय न बाप के सुनय कभू भूले भटके खेत के मेड नहीं खूदय न खलिहान में बैठय। लोगन कहिये कि बलराम ताश पत्ती खेले बर सीखेगे हे। कोनोन कहाय कि ससुराल वाला मन बोला बहिकाल फुसलात हावे। ससुराल वाला मन डरावत हे कि कहूँ मोहन का बलराम के हिस्सा में बाँटा झन ले लय।

चैतू ठाकुर ये सब चाल ल समझत हावे फिर मोहन ल ये पाय कि नइ भाय कि वा हा भांचा हे फेर ये पाय के चाहे कि ओखर माँ बाप गरगे हे, बल्कि ठाकुर ओखर मिहनत देख खुश होवय।
खेती बारी के संगे वो हा घर के चेता सुरता रखथे। ठाकुर ठकुरइन की कतेक सेवा कर थे।

ये बात ठीक है कि बलराम ऊखर बेटा है फेर कतेक मुरुख। काम देखता बोला जर आ जाये। भेजबे उत्तर दिशा व वोहा जाये दक्षिण दिशा। वोहा ठीक से अपने चारों खेत ला छलख नई जानय कालि के दिन वोला खेत दे दिए जाय त का होही?

ठाकुर बीमार हावे। बलराम ला ओखर ससुराल वाला मन बलवा ले हय। अभी तक ले लहुट के नई आये है। खबर भिजवाय गय हय, फिर ससुराल ले कोनो मनख नइ आय हे।

संझा के बेरा बलराम अपना दलदल के संग ठाकुर के आगु में अइस। राम राम के बाद ससुराल पक्ष के जन विहिस कि ठाकुर अब ये थोरे दिन के मेहमान हावस ऐखर सेती तोला अपन संपत्ति ला बलराम के नाम देना चाही।

ये सुनके ठाकुर ला कोनो अचंभा नइ होइस। अइसन बात के खियाल ओला आगु ले रिहिस। बोलिन”तुम्हार बात तो ठीक फिर बलराम अभी लइका है। काम धाम के सूझ अभी
बने अइसन नइ है।”

अतका सुनके रिहिस बलराम भड़क गये-बापू के त बुध सठिया गेहे। जब देख बेत मोला लइका समझते अऊ ये सब मोहन के सेती होवत हे। माहा घलो ओखरे पक्ष ले थे। फेर बापू आज त तोला फइसला करेच बर पड़ ही।

ठाकुरहा जल्दी ले गाँव के पाँच पंचु बुलबइस फिर ठकुराइन ले पूछिस मोहन कहाँ है? ठकुरइन बतइस-वो हा मंझनिया के जंगल चल दे हावे। एक ठन बइला बीमार हावेले तेखर बर जड़ी बुटी लाने बर गये है।

ठाकुर हां पंच मन ला बलराम के मंशा बतलइस। सबला बड़ अचंभा होइस फेर बलराम के संग ओखर ससुरारी मन ला देख के चुप रहिगे। ठाकुर बाते बात में बलराम लातियारिस बेटा थोरकिन खलिहान में जाके देख आतो धान मिजाइ के कुछ उड़ल हे या नइ। बलराम भागत गइस अउ आके बतइस कि खलिहान म दूनों नौकर बइठे बीड़ी पियत हावे।

ठाकुर फेर विहिस-ऊखर ले पूछ नइ लेतेस बेटा के दौरी कतेक बेर म चल ही। बलराम हा आज्ञाकारी बेटा अइसन फेर गइस अऊ आके खबर दइस कि अभीत सबो बाइला नइ आये हे। ठाकुर पूछिस”आखिर कतका बइला कमती पड़त हे?”

बलराम गल्ती कबूलिस के बापू में तो गिनती करे बार भुला गये। अभीच जाके पता करथ हंव।

बलराम लहुटके बड़ा घमण्ड करके बतइस दुबइला कमती है। अऊ तब ठाकुर हा पूछिस”उहां अभी कुल कतका बइला है।”

अऊ लोगन देखिन कि बलराम फेर बइका के गिनती करे बर भागिस।

ओतकेच बार मोहन आगे। वे हा सब झन के पांव परिस अऊ चले ल धरिस। तब ठाकुर बोलिस-बेटा थोरकिन पता लगा के आ धान वे भिंजइ होही के नई।

तभेच बलराम आके बइला के संख्या बताय लगिस। सब चुप रहिन। थोरिक देर बाद मोहन आके बतइस कि कंगलू अउ मंगलू इनो मिल के पझ डार डाले हावे। ढेर लगा चुके है। दु बइला के कमी रिहिस त बहू झगरू देके गेहे। रात के खां पी के दौरी शुरू हो जाही। फिकर के कोनो बात नइहे।

ऐखर बाद कोनो कुछु नई बोलिन। ठाकुर पारी पारी से सबके मुंह ला देखे लगिस। अऊ आखिर में बलराम ले बोलिस कुछ समझ में आइस बेटा, तोर अऊ मोहन में का फरक हे? तें घंकभु ये समझे के कोशि नई करेस के भुइयां ह मेहनत चाहथे। खेती-बारी करना हंसी-ठट्ठा नोहे। बड़ सूझ के काम हे। मोहन तो ले के छोटे हे फेर कतेक लायक हे अऊ तेहा कतेक नालयक पहिले मोर विचार रिहिस कि तुम दूनो ला संपत्ति के आधा-आधा हिस्सा दे दवं, फेर अब एक अ रास्ते रही कि तोता ईमानदार किसान बने बर पड़ही जइसे ते मोहन ला देखत हस। तबहि तेहां आधा हिस्सा के हकदार होबे।

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ठाकुर के फइसला सबके समझ में आ गइस। आज ये फेर साबित होंगे कि ठाकुर हमेशा नियाय के ही बात कहिये।

खड़ी बोली में अनुवाद

न्याय की बात
चैतू ठाकुर बीमार हैं। गाँव के सब लोग उन्हें देखकर जा चुके हैं। आस-पास के गाँवों से भी अनेक प्रतिष्ठित किसान उन्हें देखने आ रहे हैं। आखिर क्यों न हो? उनका व्यवहार सबके लिए इतना नम्र रहा है कि दूर-दूर तक लोग उन्हें जान गए हैं। चाहे कैसी भी उलझी समस्या क्यों न हो, चैतू ठाकुर अपनी सूझ-बूझ से उसे आनन-फानन में सुलझा देते हैं। वैसे उनके पास लम्बी चौड़ी जायदाद नहीं हैं, न ही सोने-चाँदी के अनगिनत सिक्के हैं। उन्हें तो केवल अपनी बाँहों का भरोसा है। एक छोटा-सा घर है। बाड़ी है कुछ खेत हैं और गिनती के ढोर-डांगर हैं। रात-दिन मेहनत करना ही उनका नियम है।

एक समय था कि वे गरीब थे। मजदूरी करके अपना पेट भरते थे। अब भी वे परम संतोषी हैं और आज भी घमण्ड उन्हें छू तक नहीं गया। यही कारण है कि गाँव के लोग उन्हें मानते हैं।

आज वे बीमार हैं, तो सारा गाँव दु:खी है। ईश्वर से सब के सब यही प्रार्थना कर रहे हैं कि वे जल्दी अच्छे हो जायें।

उनके परिवार में कुल चार प्राणी हैं। वे उनकी पत्नी, उनका बेटा और अनाथ भांजा। है तो भांजा, पर वे उसे अपने बेटे से जरा भी कम नहीं मानते। उनका अपना बेटा बलराम लगभग बीस साल का है। भांजे का नाम है मोहन, यही कोई सत्रह-अठारह वर्ष का होगा। बड़ा मेहनती है। बलराम तो उसके किसी काम में भी नहीं ठहर सकता।

बलराम की सगाई हो चुकी है। ठाकुर सोचते हैं कि मोहन के लिए भी कहीं बात हो जाय तो दोनों का विवाह एक साथ ही निपटा दें। ठकुराइन के मन में भी यही बात है।

परन्तु बलराम इधर बड़ा मनमौजी हो गया है। न माँ की बात मानता है, न बाप की सुनता है। खेत पर कभी भूलकर भी नहीं जाता है और न ही घड़ी भर खलिहान में बैठता है। लोग कहते हैं कि बलराम आजकल ताश खेलने लगा है। कुछ लोगों का यह भी ख्याल है कि उसके ससुराल वाले उसे बहका रहे हैं। ससुराल वालों को शायद यह डर है कि कहीं मोहन बलराम का हिस्सा न बँटा ले।

चैतू ठाकुर यह सब समझते हैं। वे मोहन को केवल इसलिए नहीं चाहते कि वह उनका भांजा है, उसके माँ-बाप मर गए हैं, बल्कि ठाकुर उसकी मेहनत देखकर खुश हैं। खेती-बारी के साथ-साथ वह घर का भी कितना ध्यान रखता है। उन दोनों की कितनी सेवा करता है।

ठीक है कि बलराम उनका बेटा है किन्तु कितना मूर्ख है। काम के नाम से ही ज्वर आ जाता है। भेजो उत्तर दिशा की ओर तो दक्षिण चला जाता है। उसे तो ठीक से अपने चार खेतों का भी ज्ञान नहीं है और कल यदि उसे सारे खेत दे दिये जाएँ तो क्या होगा?

ठाकुर बीमार है। बलराम को उसकी ससुराल वालों ने बुलवा लिया है। अभी तक वह लौटकर नहीं आया। सूचना भिजाई गई थी, परन्तु उसकी ससुराल से भी कोई नहीं आया।

दूसरे दिन सुबह बलराम आ गया। ठाकुर ने सुना कि उसके साथ कुछ लोग भी आए हैं, पर अभी तक कोई सामने नहीं आया।

शाम के समय बलराम अपने दल के साथ ठाकुर के सामने आया। राम-राम के बाद ससुराल पक्ष के एक आदमी ने कहा कि ठाकुर अब तो थोड़े ही दिन के मेहमान हैं, इसलिए उन्हें अपनी सम्पत्ति बलराम के नाम लिख देनी चाहिए।

यह सुनकर ठाकुर को कोई आश्चर्य नहीं हुआ। इस बात की कल्पना उन्हें पहले से ही थी। बोले “बात तो ठीक है, किन्तु बलराम अभी बच्चा है। काम-धाम की सूझ अभी उसे नहीं है।”

इतना सुनना था कि बलराम उबल पड़ा “बापू की तो बुद्धि सठिया गई है। जब देखो तब मुझे बच्चा ही समझते हैं और यह सब उस मोहन के कारण ही है। माँ भी उसका ही पक्ष लेती है, लेकिन आज तो बाबू को फैसला करना ही पड़ेगा।”

ठाकुर ने शीघ्र ही गाँव के पंच बुलवा लिए। फिर ठकुराइन से पूछा “मोहन कहाँ है?” ठकुराइन बोली- “वह तो दोपहर से ही जंगल चला गया है एक बैल बीमार है, उसी के लिए कुछ जड़ी-बूटी चाहिए थी।”

ठाकुर ने पंचों से बलराम की इच्छा कह सुनाई। सबको बड़ा अचम्भा हुआ, परन्तु बलराम के साथ उसकी ससुराल वालों को देखकर चुप रह गए। ठाकुर ने बात ही बात में बलराम से कहा- “बेटे जरा खलिहान जाकर देख तो आओ धान मिजाई का कुछ डौल है या नहीं।”

बलराम भागकर गया और आकर बताया कि खलिहान में दो नौकर बैठे बीड़ी पी रहे हैं। ठाकुर ने कहा, “उनसे पूछ नहीं लिया बेटा कि कितनी देर बाद दौरी चलेगी?”

बलराम एक आज्ञाकारी पुत्र की तरह फिर गया और जाकर उसने सूचना दी कि अभी तो पूरे बैल ही नहीं आये।

ठाकुर ने फिर पूछा-“आखिर कितने बैल कम पड़ते हैं?” बलराम ने अपनी भूल स्वीकारते हुए कहा-“बापू मैं तो गिनती करना ही भूल गया। अभी जाकर पता लगाता हूँ।”

बलराम ने लौटकर गर्व के साथ बताया कि दो बैल कम पड़ते हैं। तभी ठाकुर ने पूछ लिया “वहाँ अभी कुल जमा बैल कितने हैं?”

और लोगों ने देखा कि बलराम बैलों की गिनती करने फिर खलिहान की ओर भागा जा रहा है।

तभी मोहन आ गया। उसने सबके पाँव छुए और चलने लगा। ठाकुर बोले-“बेटे, जरा पता तो लगाओ कि आज धान की मिजाई हो सकेगी या नहीं।”

तभी बलराम आकर बैलों की संख्या बताने लगा। सब चुप रहे। जरा देर बाद मोहन ने आकर बताया कि कंगलू और मंगलू दोनों मिलकर पैर डाल चुके हैं, ढेर लगा चुके हैं, दो बैलों की कमी थी सो अभी झगरू दे गया है। रात को खा-पीकर दौरी शुरू हो जायेगी। चिन्ता की कोई बात नहीं।

इसके बाद कोई कुछ नहीं बोला। ठाकुर बारी-बारी से सबका चेहरा देखने लगे और अन्त में बलराम से बोले-कुछ समझ में आया बेटे, तुममें और मोहन में क्या फर्क है? तूने कभी यह समझने की कोशिश ही नहीं कि जमीन मेहनत माँगती है। खेती बारी करना कोई हँसी-ठट्ठा नहीं है। बड़ी सूझबूझ का काम है। मोहन तुझसे छोटा है, पर कितना लायक है और तू कितना नालायक है। पहले मेरा विचार था कि तुम दोनों को मैं अपनी सम्पत्ति का आधा-आधा हिस्सा दे दूँ, किन्तु अब एक शर्त यह भी रहेगी कि तुझे ईमानदार किसान बनना होगा, जिस प्रकार तू मोहन को देख रहा है, तभी तू आधे हिस्से का हकदार होगा।

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ठाकुर का फैसला सबकी समझ में आ चुका था। आज यह बात पूरी तरह से सिद्ध हो गयी कि ठाकुर हमेशा न्याय की ही बात कहते हैं।

(ख) निमाड़ी लोक कथा’
झूठी मंजरी

एक थी चिड़ई, एक थो कबूतर, एक थो कुत्तो और एक थी मांजरी। सबइ न विचार करयो कि अपुण खीर बणावा।
कोई लायो लक्कड़, कोई लायो पाणी, कोई लायो शक्कर, कोई लायो दूध उन खीर तैयार हुई गई।

कहयो चलो सब खाई लेवां, मांजरी न कहयो-म्हारा तो डोला आई गयाज। उन उडोला न पर पट्टी बांधी न सोई गई।

सबन अपणे अपणा वाटड की खीर खाई न बचेल का ढाकी न धरी दियो।

सब अपणा, अपणा काम न पर चली गया, तंवज मांजरी उठी उन सबका वाय की खीर खाई न डोला न पर पट्टी बांधी न सोई गई। सांझ ख जंव सबई काम पर सी आया तो देख्यो खीर को बासरण खाली थो।

एक एक सी पूछयो क्यों भाई तुम न खीर खाई ज।

सबई न न मना करी दियो। मांजरी से पूछ्यो तो वा बोलो हऊँ काई जाणु म्हारो तो डोला आयाज। हऊ दिन भर सी पट्टी बांधी न पड़ोज। सब न तै करयो कि एक सूखा कुआ पर झूलो बांध्यो सब ओपर बारी-बारी सी बढ़ी न कहे कि मन खीर होय तो झूलो टूटी जाये। जेन खीर खाई हायेगा ओकी बखत झूला टूटी जायगा। पहली चिड़ी बठी बोली-“ची, ची, मन खीर खाई हो तो झूलो टूटी जाय, झूलो न टूटयो।”

फिर कबूतर बठ्यो बोल्यो गुटरू गूं-गुटर गूं, मन खीर खाई होय तो झूलो टूटी जाय। झूलो ना टूटयो।

फिरी कुतरो बठ्यो बोल्या–भों-भों, मन खीर खाई होय तो झूलो टूटी जाय। झूलो ना टूटयो।

फिर मांजरी बठी बोली–म्यांउ म्यांउ मन खीर खाई होय तो झूलो टूटी जाय।

झूलो तो टूटी गयो अन मांजरी सूखा कूआ म पड़ी गई। खेल खतम पैसा हजम।

खड़ी बोली में अनुवाद

झठी बिल्ली

एक थी चिड़िया, एक था कबूतर, एक था कुत्ता और एक थी बिल्ली। सबने मिलकर विचार किया कि अपनी खीर बनायें।

कोई लाया लकड़ी, कोई लाया पानी, कोई लाया शक्कर, कोई लाया दूध और खीर बनकर तैयार हो गई।

कहा, चलो सब खा लें। बिल्ली ने कहा- “मेरी तो आँखें आई हैं” और वह आँखों पर पट्टी बाँध कर सो गई।

सबने अपने-अपने हिस्से की खीर खाई और शेष बची हुई खीर को शाम के लिए ढाँक कर रख दिया।

सब अपने-अपने काम पर चले गये। तब बिल्ली उठी और सबके हिस्से की खीर खाकर फिर आँखों पर पट्टी बाँधकर सो गई।

शाम को जब सब काम पर से आये, तो देखा, खीर का बरतन खाली था। हर एक से पूछा-“क्यों भाई तुमने खीर खायी है?” सबने इनकार किया।

बिल्ली से पूछा, वह भी बोली- “मैं क्या जाने? मेरी आँखें आयी हैं,सुबह से पट्टी बाँधे पड़ी हूँ।” तब सबने विचार किया कि एक सूखे कुएँ पर कच्चे धागे से झूला बाँधा जाये। सब बारी-बारी से उस पर बैठे और कहें-“मैंने खीर खायी हो तो झूला टूट जाये।” जिसने खीर खायी होगी, उसकी बार झूला टूट जायेगा।

पहले चिड़िया बैठी-“ची-ची, मैंने खीर खायी हो, तो झूला टूट जाय।” झूला नहीं टूटा। फिर कबूतर बैठा, बोला-“गुटर गूं-गुटर पूँ, मैंने खीर खायी हो, तो झूला टूट जाय।”

झूला नहीं टूटा। फिर कुत्ता बैठा, बोला-“ौं-भौं, मैंने खीर खायी हो, तो झूला टूट जाय।”

झूला नहीं टूटा। फिर बिल्ली बैठी, बोली-“म्याऊँ-म्याऊँ, मैंने खीर खायी हो तो झूला टूट जाय।”

झूला था सो टूट गया और बिल्ली थी सो कुएँ में गिर गयी। खेल खतम-पैसा हजम।

(ग) मालवी कहानी
पीपल तुलसी

कणी गाम माय सासू अर बऊ रेती थी। एक दिन सासू ने बऊ तो कियो के मू तीरथ कारवा सारू जरूरी हूँ, तुम अपणे याँ जो दूध दही होवे है ऊ बेची-बेची के रुपया भेलाकर लीयो। अतरो कइके सासू चलीगी।

चैत-बैसाख को माइनो आया तो बऊ सगलो दूध-दई लई जई के पीपल अर तुलसी म सीची देती अर फेरी खाली बासन लइके घर मेली देती। सास तीरथ करी के पीछे घरे अई तो बीने बऊती दूध अर दई का रुप्या मांग्या। बऊ ने क्यो के बई मूं तो सगली दूध अर दई पीपल तुलसी म सींचत री हूँ, म्हारा कन रुप्या नी है। पण सासू ने कियो कई बी होवे जो-वी हो म्हारे तो रुप्या देणा पड़ेगा। तो बऊ पीपल अर तुलसी का कने जइके बैठीगी, अर वीनती बोलो के म्हारी सासू म्हार ती दूध दही का पइसा माँगे है। पीपल-तुलसी ने कियो के बेटी-म्हारा कन रुप्या-पइसा काँ है? इ भाटा कोंकरिया जरूर पड़िया है इनके भलाई-उठई के लई जा। बऊ सगला कोंकरिया भाटा उठई के घेर लई अर अई घरे लइके अपण कोठा माय मेली दिया। दूसरा दन सासू ने फेरी रुप्या मांग्या तो बऊ ने अपणो कोठो खोल्यो। बऊ ने देख्यो कि सगला कोंकरिया भाटा का हीरा-मोती वणी ग्या है अर कोठी जगमग इरियो है। बऊ ने सास ती कियो के सासू जी अपणा रुप्या लइलो। हीरा-मोती देखी के सासु का मन-म-लालच अईग्यो। उने कियो के D वी पीपल अर तुलसी सोचूँगी।

दूसरा दन से सासू जद दूध-दई बेची के जाती तो खाली वासन माय पाणी भरी के पीपल अर तुसी म कूढ़ी आती। जद थोड़ा दन ऐसो करता-करता वइग्या तो एक दिन सासू न बऊ तो क्यों के त म्हारती दूध दई का रुप्या मांग। सासू केवा तो बऊ ने रुप्या मांग्या तो सासू बोली के म्हारा कन रुप्या कां है? मूं तो दूध-दई ती पीपल अर तुलसी के सींचती री हूँ। मेरा सासू जइके पीपल अर तुलसी का हेटे बैठी गी अर बोली के म्हारी बऊ दूध-दई का रुप्या माँगे है। पीपल तुलसी ने जवाब दियो के हमारा कन रुप्या कां है? इ कोंकरिया–भाटा पड्या है चावो तो भला ही लई जावो। सासू कोंकरिया-भाटा लइके खुशी-खुशी घरे अई अर बीने कोंकरिया-भाटा लइके अपणा कोठा माय मेली दिया। दूसरा दन जद कोठी खेल्यो ग्यो तो सासू कई देखे है के पूरो कोठो सांप पर विछू तो भरियो पड्यो है।

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सासू ने बऊ ते पूछयो-के बऊ, या कंई बात है? तू तो कोंकरिया-भाटा उठई के लई थो वीनका तो हीरा मोती वणीग्या अर मूंजो कोंकरिया-भाटा उठई के लई वीनका सांप विछ्वणी गया? बऊ ने सरल भाव ती जवाब दियो के सासू जी मने पीपल-तुलसी के साफ मन तो सींच्यो थो अणी सासू कोंकरिया भाटा का हीरा-मोती वणीग्य अर थाने लालच म ऐसो करियो यो अणी वास्ते था का लाया हुआ कोंकरिया-भाटा का सांप बिछु वणीग्या।

खड़ी बोली में अनुवाद

पीपल-तुलसी

किसी गाँव में सास और बहू रहती थीं। एक दिन सास ने बहू से कहा कि मैं तीर्थाटन के लिए जा रही हूँ, तुम अपने यहाँ जो दूध-दही होता है वह बेच-बेचकर रुपये इकट्ठे कर लेना। इतना कहकर सास चली गयी।

चैत-बैसाख का महीना आया तो बहू सारा दूध-दही ले जाकर पीपल और तुलसी को सींच देती और फिर खाली बर्तन लाकर घर रख देती। सास तीर्थाटन से वापस घर आयी तो उसने बहू से दूध और दही के पैसे माँगे। बहू ने कहा कि मैं तो सारा दूध और दही पीपल-तुलसी में सींचती रही हूँ मेरे पास रुपये नहीं हैं, लेकिन सास ने कहा कि चाहे जो भी हो मुझे तो रुपये देने पड़ेंगे। तब बहू पीपल और तुलसी के पास जाकर बैठ गयी और उनसे बोली कि मेरी सास मुझसे दूध-दही के पैसे माँगती है। पीपल-तुलसी ने कहा कि बेटी, हमारे पास रुपये पैसे कहाँ हैं, ये कंकड़-पत्थर अवश्य पड़े हैं इन्हें भले उठाकर ले जा। बहू सारे कंकड़-पत्थर उठाकर धर लायी और घर लाकर अपने कमरे में रख दिये। दूसरे दिन सास ने फिर से पैसे माँगे तो बहू ने अपना कमरा खोला। बहू ने देखा कि सारे कंकड़-पत्थरों के हीरे-मोती बन गये और कमरा जगमगा रहा है। बहू ने सास से कहा कि सास जी, अपने रुपये ले लो। हीरे-मोती आदि देखकर सास के मन में लालच आ गया। उसने कहा कि मैं भी पीपल और तुलसी सीनूंगी।

दूसरे दिन सास जब दूध-दही बेचकर लौटती तो खाली बर्तनों में पानी भरकर पीपल और तुलसी में डाल आती। जब कुछ दिन ऐसा करते-करते हो गये तो एक दिन सास ने बहू से कहा कि मुझसे दूध-दही के पैसे माँग। सास के कहने पर बहू ने पैसे माँगे तो सास बोली कि मेरे पास रुपये कहाँ हैं? मैं तो दूध-दही से पीपल और तुलसी को सींचती रही हूँ। फिर सास जाकर पीपल और तुलसी के नीचे बैठ गयी और बोली कि मेरी बहू दूध-दही के पैसे माँगती है। पीपल-तुलसी ने उत्तर दिया कि हमारे पास रुपये कहाँ हैं? ये कंकड़-पत्थर पड़े हैं चाहे तो इन्हें भले ही ले जाओ। सास कंकड़-पत्थर लेकर खुशी-खुशी घर आयी और उसने कंकड़-पत्थर लाकर अपने कमरे में रख दिये। दूसरे दिन जब कमरा खोला गया तो सास क्या देखती है कि सारा कमरा साँप और बिच्छुओं से भरा पड़ा है।

सास ने बहू से पूछा कि बहू, यह क्या बात है? तू जो कंकड़-पत्थर उठाकर लायी थी उनके तो हीरे-मोती बन गये और मैं जो कंकड़-पत्थर उठाकर लायी उनके साँप-बिच्छु बन गये? बहू ने सहज भाव से उत्तर दिया कि सास जी मैंने पीपल-तुलसी को शुद्ध मन से सींचा था, इसलिए कंकड़-पत्थर के हीरे-मोती बन गये और आपने लालचवश ऐसा किया था, अतः आपके लाये हुए कंकड़-पत्थरों के साँप-बिच्छू बन गये।

6. दूरदर्शन और आकाशवाणी के कार्यक्रम
दूरदर्शन

वैसे तो दूरदर्शन पर आजकल हर समय कोई न कोई कार्यक्रम दिखाया जाता है तथापि प्रमुख व लोकप्रिय कार्यक्रम इस प्रकार हैं-

सुबह सवेरे, समाचार, रंगोली, महादेव, मैट्रो समाचार, जय बजरंगबली, चित्रहार, सांई बाबा, चिड़ियाघर, टॉम एण्ड जैरी, कलश, चन्द्रगुप्त, कृषि दर्शन, पोकेमॉन, विरासत, हिटलर दीदी, शाका लाका बूम बूम, वाइल्ड डिस्कवरी, सी. आई. डी., घर एक सपना, बालिका वधू, डिजनी जादू, सा रे गा मा, वीर शिवाजी, सोनपरी, बूगी बूगी, ग्रेट इंडियन लाफ्टर चेलेंज एवं लापतागंज।

दूरदर्शन के कार्यक्रमों को देखकर छात्रों को उनका विवरण लिखने की प्रेरणा-लिखित भाषा की शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य छात्रों को अपने भाव, विचार तथा अनुभवों को लिखित रूप में प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करने योग्य बनाना है.–

  1. छात्रों को सुन्दर, परिमार्जित एवं स्पष्ट लेख लिखने की प्रेरणा देना।
  2. छात्रों के शब्द-कोष को सक्रिय रूप देना।
  3. छात्रों को विराम चिह्नों का उचित प्रयोग सिखाना और अपने भावों को अनुच्छेदों में सजाने का अभ्यास कराना।
  4. छात्रों की अवलोकन (निरीक्षण) शक्ति, कल्पना शक्ति और तर्क शक्ति का विकास करना।
  5. छात्रों की विचारधारा में परिपक्वता लाना।

दूरदर्शन एक ऐसा माध्यम है जिससे छात्रों की श्रवणेन्द्रियों के साथ दृश्येन्द्रियाँ भी क्रियाशील रहती हैं। छात्र दूरदर्शन में वार्ता सुनने के साथ कार्यक्रम में भाग लेने वालों को देख सकते हैं और वे उनके हाव-भाव के साथ बोलना, अभिनय करना, भाषण देना सीख कर स्वरों के उचित उतार-चढ़ाव के द्वारा बात को शीघ्र ग्रहण कर सकते हैं। वे दूरदर्शन के कार्यक्रमों पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं क्योंकि दूरदर्शन ज्ञानवर्धन और मनोरंजन का सबल माध्यम है। वे सब कुछ समझकर अन्त में उस कार्यक्रम के समग्र प्रभाव की चर्चा करें।

शिक्षक छात्रों को दूरदर्शन के किसी विशिष्ट कार्यक्रम पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने को कहें। इससे वे लेखन-कौशल में तो पारंगत होंगे ही साथ ही उन्हें विवेचना और समीक्षा करने का भी अवसर मिलेगा। कार्यक्रम के गुण-दोष दोनों पर प्रकाश डालने के लिए छात्रों को स्वतन्त्र अवसर प्रदान करना होगा। इससे उनकी प्रतिभा के विकास के साथ चिन्तन, मनन एवं स्वाध्याय की प्रवृत्ति का पल्लवन तथा उन्नयन भी होगा।

7. हिन्दी साहित्य का स्वतन्त्र पठन

मनुष्य का सबसे बड़ा अलंकार उसकी वाणी है। वाणी जितनी शुद्ध और परिष्कृत होती है, व्यक्ति उतना ही सुसंस्कृत समझा जाता है। सम्पूर्ण मानव समाज अपने भावों और विचारों को दो रूपों में व्यक्त करता है. मौखिक और लिखित। इन दोनों रूपों में भाषा उसका प्रमुख साधन है। यहाँ मौखिक अभिव्यक्ति सम्बन्धी कुछ महत्त्वपूर्ण प्रकारों पर विचार करते हैं।

(i) टिप्पणियाँ किसी सुने गए अथवा पढ़े गए भाषण, वार्तालाप, पत्र, लेख, कविता, ग्रन्थ आदि देखे गए दृश्य तथा घटना पर अपना मत मौखिक अथवा लिखित रूप में प्रकट करना ही टिप्पणी कही जाती है। आकार की दृष्टि से टिप्पणी की यद्यपि कोई निश्चित सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती, किन्तु संक्षिप्त टिप्पणी अच्छी समझी जाती है। मोटे तौर पर टिप्पणियाँ तीन प्रकार की हो सकती हैं
(अ) कार्यालयी टिप्पणी, (ब) सम्पादकीय टिप्पणी, (स) सामान्य टिप्पणी।

(ii) प्रेरणाएँ साहित्य में प्रेरणा से आशय उन रचनाओं अथवा कृतियों से है जो पाठक को जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर उनका मार्गदर्शन करती हैं इसके अन्तर्गत मुख्यत: उन कहानियों आदि को शामिल किया जाता है जो इस उद्देश्य को लेकर लिखी जाती हैं अथवा इस उद्देश्य को पूरा करती हैं। परन्तु इन कहानियों आदि के विषय में यह महत्त्वपूर्ण है कि ये इतनी बड़ी न हों कि पाठक पढ़ते-पढ़ते कहानी के उद्देश्य से भटक जाय। एक ही बैठक में पूरी पढ़ी जाने वाली कहानियाँ ही इसके लिए उपयुक्त मानी जाती है।

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8. हस्तलिखित पत्रिका तैयार करना

छात्र आपस में मिलकर हस्तलिखित पत्रिका तैयार कर सकते हैं जिसमें सर्वप्रथम सभी संकलित अथवा स्वयं के लिखे लेख, कहानियों, कविताओं के अतिरिक्त चुटकुले आदि भी हो सकते हैं, को सूचीबद्ध किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त इस सूची में उसके लेखक अथवा उसके संकलनकर्ता का नाम दिया जा सकता है।

इसके बाद सम्पादक की ओर से अपने साथियों को धन्यवाद ज्ञापन के साथ पाठकों को इस पत्रिका से परिचित कराते हुए इसके लिखित अथवा संकलित लेखों आदि पर प्रकाश डाल सकते हैं। तत्पश्चात् इन लेखों आदि को बड़े रोचक रूप में समग्रता से प्रस्तुत किया जा सकता है।

ध्यान रखने लायक बात है कि कोई भी लेख बहुत छोटा व बहुत ही बड़ा न हो जाय, जो पत्रिका में रोचकता समाप्त करे।

9. क्षेत्रीय पत्र-पत्रिकाएँ।

मालवा अंचल

  • इन्दौर-नई दुनिया, इन्दौर समाचार, नवभारत, दैनिक भास्कर, स्वदेश, भावताव, जागरण।
  • उज्जैन-विक्रम दर्शन, अवन्तिका, अग्नि बाण, भास्कर, प्रजादूत, जलती मशाल।
  • रतलाम-जनवृत, जनमत टाइम्स, प्रसारण, हमदेश। नीमच-नई विधा।
  • देवास-देवास दर्पण, देवास दूत। मंदसौर-दशपुर दर्शन, कीर्तिमान, ध्वज।
  • शाजापुर-नन्दनवन।

बघेलखण्ड अंचल

  • रीवा-बांधवीय समाचार, आलोक, जागरण।
  • सतना-जवान भारत, सतना समाचार।
  • शहडोल-विंध्यवाणी, भारती समय, जनबोध।

बुन्देलखण्ड अंचल

  • कटनी–महाकौशल केशरी, भारती, जनमेजय।
  • सागर–न्यू राकेट टाइम्स, आचरण, राही, जन-जन की पुकार।
  • टीकमगढ़-ओरछा टाइम्स।
  • छतरपुर-क्रान्ति कृष्ण, प्रचण्ड ज्वाला।
  • जबलपुर-नवभारत, नवीन दुनिया, युगधर्म, दैनिक भास्कर, नर्मदा ज्योति, देशबन्धु, लोकसेवा।

निमाड़ अंचल

  • खण्डवा-विंध्याचल, लाजवाब।
  • बुरहानपुर-वीर सन्तरी।
  • बड़वानी-निमाड़ एक्सप्रेस।

छत्तीसगढ़ अंचल

  • बिलासपुर-लोकस्वर, नवभारत, भास्कर।
  • दुर्ग-ज्योति जनता, छत्तीसगढ़ टाइम्स।
  • रायपुर-देशबन्धु, नवभारत, भास्कर, स्वदेश।

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MP Board Class 11th Special Hindi अलंकार

MP Board Class 11th Special Hindi अलंकार

काव्य की शोभा में वृद्धि करने वाले साधनों को अलंकार कहते हैं। अलंकार से काव्य में रोचकता, चमत्कार और सुन्दरता उत्पन्न होती है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अलंकार.को काव्य की आत्मा ठहराया है।

1. भ्रान्तिमान अलंकार [2010]

जहाँ प्रस्तुत वस्तु को देखकर किसी विशेष समानता के कारण किसी दूसरी वस्तु का भ्रम हो जाये, वहाँ भ्रान्तिमान अलंकार होता है। जैसे
(1) जान स्याम घनस्याम को, नाच उठे वन मोर।
(2) चंद के भरम होत, मोद है कुमोदिनी को।
(3) नाक का मोती अधर की कांति से,
बीज दाडिम का समझकर भ्रान्ति से,
देखकर सहसा हुआ शुक मौन है,
सोचता है, अन्य शुक यह कौन है?

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(4) कपि करि हृदय विचार, दीन्ह मुद्रिका डारि तब।
जनु अशोक अंगार, दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ।।

(5) चाहत चकोर सूर ओर, दृग छोर करि।
चकवा की छाती तजि धीर धसकति है।।

2. सन्देह अलंकार
[2008]

जहाँ रूप, रंग और गुण की समानता के कारण किसी वस्तु को देखकर यह निश्चय न हो कि यह वही वस्तु है, वहाँ सन्देह अलंकार होता है। इसमें अन्त तक संशय बना रहता है।
(1) सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है।
कि सारी ही की नारी है कि नारी ही की सारी है।।

(2) परत चन्द्र प्रतिबिम्ब कहुँ जलनिधि चमकायो,
कै तरंग कर मुकुर लिए, शोभित छवि छायो।
कै रास-रमन में हरि मुकुट आभा जल बिखरात है,
कै जल-उर हरि मूरति बसत ना प्रतिबिम्ब लखात है।

(3) तारे आसमान के हैं आये मेहमान बनि, केशों में निशाने मुक्तावलि सजाई है।
बिखर गई है चूर-चूर के चन्द कैधों, कैधों घर-घर दीपमालिका सुहाई है।।

(4) दिग्दाही से धूम उठे या जलधर उठे क्षितिज तट के।

सन्देह और भ्रान्तिमान में अन्तर [2008]
भ्रान्तिमान में एक वस्तु में दूसरी वस्तु का झूठा निश्चय हो जाता है, जबकि सन्देह में अनिश्चय बना रहता है कि ये है कि नहीं? तर्क-वितर्क की भावना बनी रहती है। भ्रान्तिमान में हम स्वयं भ्रम दूर नहीं कर पाते, जबकि सन्देह में कर लेते हैं।

3. विरोधाभास अलंकार
[2008, 09]

जहाँ किसी पदार्थ, गुण या क्रिया में वास्तविक विरोध न होते हुए भी विरोध का आभास हो, वहाँ पर विरोधाभास अलंकार होता है।
(1) ‘वा मुख की मधुराई कहा कहौं,
मीठी लगे अँखियान लनाई।

(2) शीतल ज्वाला जलती है,
ईंधन होता दृग-जल का।
यह व्यर्थ साँस चल-चलकर,
करती है काम अनिल का।।

(3) मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ।

(4) तन्त्री-नाद, कवित्त रस; सरस राग रति-रंग।
अनबूड़े बूड़े तिरे, जे बूड़े सब अंग।।

(5) या अनुरागी चित्त की, गति समुझे नहीं कोय।।
ज्यों-ज्यों बूढ़े श्याम रंग, त्यों-त्यों उज्ज्वल होय।।

(6) शाप हूँ जो बन गया वरदान जीवन में।
(7) नीर भरी अँखियाँ रहे तऊ न प्यास बुझाय।

4. अपहृति अलंकार
[2008, 11]

उपमेय का निषेध कर उसमें उपमान का आरोप किया जाये तो अपहृति अलंकार होता है।

अपहृति का अर्थ है छिपाना, निषेध करना। इस अलंकार में प्रायः निषेध आरोप करते हैं।
जैसे-
(1) सत्य कहहुँ हाँ दीनदयाल।
बन्धु न होय मोर यह काला।

(2) फूलों पत्तों सकल पर हैं वारि-बूंदें लखाती।
रोते हैं या निपट सब यों आँसुओं को दिखाके।।

(3) अंग-अंग जारत अरि, तीछन ज्वाला-जाल।
सिन्धु उठि बड़वाग्नि यह, नहीं इन्दु भव-भाल।।

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(4) छग जल युक्त वदन मण्डल को अलकें श्यामल थीं घेरे।
ओस-भरे पंकज ऊपर थे मधुकर माला के डेरे।।

(5) ये न मग हैं तब चरण रेखियों है?

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MP Board Class 11th Special Hindi काव्य की परिभाषा एवं लक्षण

MP Board Class 11th Special Hindi काव्य की परिभाषा एवं लक्षण

(1) काव्य की परिभाषा एवं लक्षण समस्त भाव प्रधान साहित्य को काव्य कहते हैं। विभिन्न विद्वानों ने काव्य के विभिन्न लक्षण बताये हैं-साहित्य दर्पण के प्रणेता आचार्य विश्वनाथ ने “रसात्मकं वाक्यं काव्यम्” कहा है। पण्डितराज जगन्नाथ ने ‘रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्’ कहा है। कुन्तक ने ‘वक्रोक्ति काव्यस्य जीवितम्’ कहा है और आनन्दवर्धन तथा अभिनवगुप्त ‘ध्वनिरात्मा काव्यस्य’ कहते हैं। मम्मट ने काव्य को हृदय की “सगुणावलंकृतौ पुन: क्वापि” कहा है।

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आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में, “कविता शेष सृष्टि के साथ हमारे रागात्मक सम्बन्धों की रक्षा और निर्वाह का साधन है। वह उस जगत के अनन्त रूपों, अनन्त व्यापारों और अनन्त चेष्टाओं के साथ हमारे मन की भावनाओं को जोड़ने का काम करती है।” इस प्रकार हम देखते हैं कि काव्य हृदय को आनन्द देता है।

  • काव्य के भेद

(1) मुक्तक काव्य-गीत, कविता, दोहा और पद एवं आधुनिक चतुष्पदी तथा मुक्त छन्द मुक्तक काव्य कहलाता है। मुक्तक काव्य का तात्पर्य है कि बिना पूर्वापर-सम्बन्ध के वह पद्य या छन्द अपने आप में पूर्ण एक स्वतन्त्र भाव लिये हो जिसके पढ़ने मात्र से उसका भाव भली प्रकार समझ में आ जाये। सूरदास, मीरा आदि कवियों के गेय पद और बिहारी सतसई तथा आधुनिक गीत इसके अन्तर्गत आते हैं।

(2) प्रबन्ध काव्य-प्रबन्ध काव्य वह रचना होती है जिसमें कोई एक कथा आद्योपान्त क्रमबद्ध रूप से गठित हो एवं उसमें कहीं भी तारतम्य न टूटता हो, वरन् उस कथा को पुष्ट करने उसमें अन्य कई अन्तर्कथाएँ भी हो सकती हैं। प्रबन्ध काव्य विस्तृत होता है, उसमें जीवन की विभिन्न झाँकियाँ रहती हैं। प्रबन्ध काव्य में कथानक को लेकर पात्रों के चरित्रों में घटनाओं और भावों के संघर्ष द्वारा काव्य-वस्तु रखी जाती है। इसके मुख्य दो भेद होते हैं

(i) महाकाव्य और
(ii) खण्डकाव्य।

(i) महाकाव्य-यह एक विशिष्ट गुण युक्त वृहत् आकार वाला ग्रन्थ होता है। यह सर्गों या अध्यायों में विभक्त रहता है। इसका नायक उदात्त गुणों युक्त कोई कुलीन होता है। वीर, श्रृंगार अथवा शान्त रस में से किसी एक रस की प्रधानता रहती है। अन्य रस गौण रूप में आते हैं। महाकाव्य का कथानक प्रसिद्ध होता है अथवा उसमें किसी ऐतिहासिक या पौराणिक पुरुष के चरित्र का वर्णन किया जाता है। प्रत्येक सर्ग की रचना एक ही प्रकार के छन्द में होती है, किन्तु सर्ग के अन्त में छन्द बदल जाता है। सर्गों की संख्या आठ या आठ से अधिक होती है, सर्ग के अन्त में आगामी कथानक की सूचना दी जाती है। महाकाव्य में सन्ध्या, सूर्योदय, चन्द्रोदय, रात, प्रदोष, अन्धकार, वन, ऋतु, समुद्र, पर्वत, नदी आदि प्राकृतिक पदार्थों का वर्णन होता है। जैसे—रामचरितमानस, पद्मावत, साकेत आदि।

(ii) खण्डकाव्य आचार्य विश्वनाथ के अनुसार, “खण्डकाव्य महाकाव्य के एक देश या अंश का अनुसरण करने वाला है।” यह जीवन के समस्त पक्षों का उद्घाटन नहीं करता है, अपितु केवल एक पक्ष पर प्रकाश डालता है। रुद्रट के अनुसार लघु प्रबन्धों में चतुर्वर्ग में से एक ही वर्ग रहा करता है। उसमें अनेक रस असमग्र रूप से होते हैं अथवा एक रस समग्र रूप में होता है। हेमचन्द्र ने अपने ग्रन्थ ‘काव्यानुशासन’ में कहा है कि “जब कवि एक ही विषय को एक ही छन्द में आद्यन्त वर्णन करता है, तब उसे सन्धान कोटि का काव्य कहते हैं।” खण्डकाव्य अन्तस्तत्व के उद्वेलन से पूरित और रसमय होता है। उसमें किसी की जीवन-कथा का विवरण न होकर भाव व्यंजना होती है। खण्डकाव्य गीतिकाव्य भी हो सकता है। खण्डकाव्य कथा के आंशिक आधार के साथ मूलत: गीतिकाव्य बन जाते हैं। इसमें सरस-ललित पदयोजना होती है। इसमें कथावस्तु प्राय: काल्पनिक भी हो सकती है। वह खण्डों में विभक्त हो सकता है। खण्डकाव्य में प्राकृतिक दृश्यों का अंकन समयानुसार और विषयानुसार तथा संक्षिप्त होना चाहिए। खण्डकाव्य तब तक सफल नहीं होगा, जब तक वह अपने लक्ष्य में पूर्ण न हो और जिस भी भाव को लेकर लिखा जाय वह अपने आप में पूर्ण हो, क्योंकि उसमें विस्तार की सुविधा नहीं रहती है। इसमें एक ही भाव की अनुभूतिमयी अभिव्यंजना होती है; जैसे—सुदामाचरित, पंचवटी। – उपर्युक्त सभी प्रकार के काव्य श्रव्य-काव्य के अन्तर्गत आते हैं। श्रव्य-काव्य में पठनीय और श्रवणीय महाकाव्य से लेकर मुक्तक और गीतों की भी गणना की जाती है। श्रव्य-काव्य वह होता है, जिसके सुनने से अथवा स्वयं पढ़ने से रसास्वादन प्राप्त हो।

(3) दृश्य-काव्य–दृश्य-काव्य के अन्तर्गत नाटक और प्रहसन आते हैं जिनका अभिनय रंगमंच पर पात्रों द्वारा किया जाता है। इसमें गद्य के सम्भाषण के अतिरिक्त गेय गीतों, छन्दों अथवा प्रसंगानुकूल नृत्यों की योजना रहती है। दृश्य-काव्य के अन्तर्गत अधिक रमणीयता होती है क्योंकि दर्शक उसकी प्रत्यक्षानुभूति करता है। कलाकार अपनी प्रभावशील अभिनय कला द्वारा हृदय पर सीधा प्रभाव डालते हैं। दृश्य-काव्य निश्चय ही श्रव्य-काव्य से श्रेष्ठ होता है, क्योंकि उसका आनन्द पढ़कर एवं देखकर दोनों रूपों में प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु श्रव्य-काव्य का आनन्द केवल सुनकर ही लिया जा सकता है। नाटक में साहित्य के अन्य तत्वों के अतिरिक्त अभिनय तत्व भी होता है, जैसे-नाटक, एकांकी आदि।

(2) शब्द-शक्ति मनुष्य अपने मनोगत विचारों को दूसरों पर जिस भाषा के माध्यम से लिखकर या बोलकर प्रकट करते हैं, वह भाषा शब्दों के समूह से मिलकर बनती है। शब्द दो प्रकार के होते हैं सार्थक एवं निरर्थक। साहित्य या काव्य में सार्थक शब्द ही अपेक्षित हैं। सार्थक शब्द के कई अर्थ साहित्यिक दृष्टि से निकलते हैं—

  • वाचक,
  • लक्षण और
  • व्यंजक।

ये तीन सार्थक शब्द हैं और क्रमशः इनके तीन अर्थ निकलते हैं—

  • वाच्यार्थ,
  • लक्ष्यार्थ और
  • व्यंग्यार्थ।

शब्दों के विभिन्न अर्थ बतलाने वाले व्यापार अथवा साधन को शब्द-शक्ति कहते हैं। शब्द-कोष के मतानुसार, “शब्द की शक्ति उसके अन्तर्निहित अर्थ को व्यक्त करने का व्यापार है। यह तीन प्रकार की होती है।”

(1) अभिधा शक्ति—जिस शब्द के श्रवण मात्र से उसका परम्परागत प्रसिद्ध अर्थ सरलता से समझ में आ जाए उसे अभिधा शब्द-शक्ति कहते हैं। इस अर्थ को वाच्यार्थ, मुख्यार्थ और अभिधेयार्थ के नामों से भी जाना जाता है। अभिधा के इस अर्थ का ग्रहण जाति के नाम से, स्वतन्त्र नाम से, धर्मों से गुण यानी रंग, रूप, रस, गन्ध के नाम से और क्रिया के नाम से होता है।

जैसे—

  • ‘बैल’ बड़ा उपयोगी पशु है।
  • रमेश के ‘कान’ में पीड़ा है। इन वाक्यों में ‘बैल’ का अर्थ पशु विशेष और ‘कान’ का अर्थ श्रवणेन्द्रिय से ही होता है, जो इन शब्दों के प्रचलित अर्थ हैं। शब्द और अर्थ का ज्ञान इन कारणों से होता है व्याकरण से, उपमान से, प्रसिद्ध शब्द के सादृश्य से, शब्दकोष से, प्रामाणिक वक्ता के आप्तवाक्य से एवं सर्वव्यापक कारण है व्यवहार।

(2) लक्षणा शक्ति-लक्षणा शक्ति-शब्द के वाच्यार्थ या मुख्यार्थ से भिन्न है, परन्तु उनके समान अन्य अर्थ को प्रकट करती है। जब किसी शब्द का अभिधा के द्वारा मुख्यार्थ का बोध नहीं हो पाता, अथवा ‘मुख्यार्थ’ समझने में बाधा हो जाती है, तब उस शब्द के अर्थ का बोध कराने वाली शक्ति को लाक्षणिक शक्ति कहते हैं, जैसे-

  • सुदेश ‘बैल’ है।
  • रमेश के ‘कान’ नहीं हैं।

इन वाक्यों में सुदेश मनुष्य है पशु नहीं है, किन्तु उसे बैल कहने का तात्पर्य है. बैल के समान बुद्धि शून्य है जो दूसरों के नियन्त्रण में रहता है। इसी प्रकार रमेश के कान नहीं हैं उसका मतलब होता है कि वह सुनता नहीं है। यहाँ उक्त शब्दों का अर्थ अभिधा शक्ति द्वारा प्रकट न होकर ‘लक्षणा शक्ति’ के द्वारा प्रकट होता है।

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लक्षणा के दो मुख्य भेद हैं रूढ़ि और प्रयोजनवती। जिसमें मुख्यार्थ का बोध न होने पर जिसकी लोक में प्रसिद्धि हो, उसे रूढ़ि लक्षणा कहते हैं, जैसे “वह चौकन्ना रहता है।” यहाँ चौकन्ना का अर्थ चार कान वाला नहीं वरन् ‘सतर्क’ रूढ़ हो गया है, अत: वही अर्थ होगा। इसी प्रकार ‘तेल’ शब्द का अर्थ तो होता है तिल से निकला पदार्थ, किन्तु तरल चिकने पदार्थ के लिए रूढ़ हो जाने से तेल किसी भी तरल पदार्थ को कह देते हैं।

दूसरा प्रकार है प्रयोजनवती लक्षणा। जब मुख्यार्थ से कथन का अभिप्राय बोधगम्य न हो, तब किसी खास प्रयोजन के कारण दूसरा ऐसा अर्थ ले लिया जाये, जिसका मुख्य अर्थ से सम्बन्ध हो, उसे प्रयोजनवती लक्षणा कहते हैं, जैसे—’गंगा में साधु’ हैं।’ यहाँ पर गंगा का अर्थ गंगा नदी नहीं, वरन् गंगा का तट ही अपेक्षित अर्थ है। प्रयोजन से अभीष्ट अर्थ निकाल लिया गया। गंगा के मुख्यार्थ में बाधा पड़ी तथा प्रयोजन में उसके समीप का अर्थ ग्रहण कर लिया अतः यह प्रयोजनवती लक्षणा हुई।

(3) व्यंजना शक्ति–व्यंजना से जाने हुए अर्थ को व्यंग्यार्थ, ध्वन्यार्थ या प्रतीयमान अर्थ कहते हैं और उस शब्द को व्यंजक कहते हैं। जब अभिधा और लक्षणा शक्ति से किसी शब्द का अर्थ नहीं निकल पाता है और शब्द के वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ से भिन्न कोई अन्य विशिष्ट अर्थ या कई भिन्न-भिन्न ध्वनियाँ निकलती हैं, तब व्यंजना शक्ति की सहायता से अर्थ ज्ञात किया जाता है। वाच्यार्थ से भिन्न निकलने वाला विलक्षण अर्थ व्यंग्यार्थ’ होता है। इसको ध्वनि कहते हैं। श्रेष्ठ कवियों और साहित्यकारों की रचनाओं में ध्वनि का कारण ही विशेष चमत्कार होता है।

यह व्यंजना वृत्ति दो प्रकार की होती है-
(i) शाब्दी व्यंजना और
(ii) आर्थी व्यंजना।

(i) शाब्दी व्यंजना-इसमें व्यंजना का आधार वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ के भेद से प्रयुक्त शब्द के सम्बन्ध से होता है। अभिधा के द्वारा शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, जैसे—’इन्दौर मध्य प्रदेश की मुम्बई है।” इसमें मुम्बई शब्द में ऐश्वर्य, सम्पन्नता की जो ध्वनि है, वही इन्दौर के लिए भी समीचीन प्रतीत होती है।

(ii) आर्थी व्यंजना–जहाँ देशकाल, परिस्थिति या कण्ठ-ध्वनि और विशेष शब्द पर जोर से कोई विशेष अर्थ निकले, वहाँ आर्थी व्यंजना होती है। एक ही वाक्य के सन्दर्भानुसार अनेक अर्थ होते हैं; जैसे..”सन्ध्या हो गयी”-इसी वाक्य को माता पुत्री से कहे तो अर्थ होगा प्रकाश कर दो। सेवक स्वामी से कहे तो अर्थ,होगा-उसके अवकाश का समय हो गया और एक मित्र दूसरे मित्र से कहे तो तात्पर्य होगा चलचित्र का समय हो गया। गुरु शिष्य से कहे तो तात्पर्य है अध्ययन का समय हो गया।

विद्वानों ने तो ‘ध्वनिरात्मा काव्यस्य’ कहा है। ध्वन्यात्मक काव्य उत्कृष्ट काव्य है। इस प्रकार शब्द-शक्तियों के अध्ययन से हम रस का पूर्ण आस्वादन कर सकते हैं। वस्तुतः उक्त तीनों शब्द शक्तियों का विवेचन एक प्राचीन संस्कृताचार्य ने निम्नांकित श्लोकों में पूर्ण रूप से कर दिया है। उसका कथन है कि

“अभिधां वदन्ति सरला।
लक्षणा नागराजनाः।
व्यंजना नर्म मर्मज्ञः।
कवयाः, कमनाजनाः।।”

तात्पर्य यह है कि सीधे-सादे, भोले-भाले सरल व्यक्ति या ग्रामीण व्यक्ति अभिधा शक्ति का प्रयोग करते हैं, क्योंकि वे जो कहेंगे उसका वही अर्थ होगा। नगरवासी शिक्षित सभ्य पुरुष अधिकतर लक्षणा शक्ति का प्रयोग करते हैं, जिसमें कई रूढ़ि शब्द होते हैं और कई शब्दों का प्रयोजन से अर्थ होता है। शेष बचे सहृदय, रसिकजनक, कवि, प्रेमी, उत्कृष्ट जन-वर्ग सदैव व्यंजना वृत्ति अपनाते हैं, जिनकी बात में चमत्कार होता है और जो आनन्दायिनी रहती है।

(3) शब्द गुण (काव्य गुण) कविता-कामिनी को अलंकारों से सुसज्जित कर भी विद्वानों ने उसके आन्तरिक रूप को ही महत्त्व दिया है। अलंकार, छन्द से काव्य का बाह्य रूप सजता है किन्तु सुन्दर सजीला तन भावपूर्ण मन के बिना तथा गुण रहित होने से व्यर्थ होता है। कहा भी है कि “गुणीनां च निर्गुणनां च दृश्यते महदन्तरम्।” अत: मानवोचित गुणों के अनुकूल ही काव्य गुण भी होते हैं। आचार्य दण्डी ने दस काव्य गुणों का उल्लेख किया है और भोज ने चौबीस गुणों का। किन्तु साहित्य में काव्य के तीन ही गुण प्रमुख माने गये हैं। उसी वर्गीकरण के अन्तर्गत इन्हीं तीनों में अन्य सभी गुण समाहित कर लिए हैं। इन गुणों का काव्य में किस प्रकार प्रणयन होता है तथा गुणयुक्त काव्य श्रोता या पाठक पर किस प्रकार प्रभावशील होता है, उनके लिए कुछ नियम हैं।

मुख्य तीन गुण हैं—

  • माधुर्य,
  • ओज,
  • प्रसाद।

(1) माधुर्य गुण–मधुरता के भाव को माधुर्य कहते हैं। मिठास अर्थात् कर्णप्रियता ही इसका मुख्य भाव है। जिस काव्य के श्रवण से आत्मा द्रवित हो जाये, मन आप्लावित और कानों में मधु घुल जाये वही माधुर्य गुणयुक्त है। यह गुण विशेष रूप से श्रृंगार, शान्त एवं करुण रस में पाया जाता है। माधुर्य गुण की रचना में

  • कठोर वर्ण यानि सम्पूर्ण ट वर्ग (ट, ठ, ड, ढ, ण) के शब्द नहीं होने चाहिए।
  • अनुनासिक वर्गों से युक्त अत्यन्त दीर्घ संयुक्ताक्षर नहीं होना चाहिए।
  • लम्बे-लम्बे सामासिक पदों का प्रयोग भी वर्जित है।
  • कोमलकांत मृदु पदावली का एवं मधुर वर्णों (क, ग, ज,द आदि) का प्रयोग होना चाहिए।

उदाहरण—
(1) ‘छाया करती रहे सदा, तुझ पर सुहाग की छाँह।
सुख-दुख में ग्रीवा के नीचे हो, प्रियतम की बाँह।।

(2) अनुराग भरे हरि बागन में,
सखि रागत राग अचूकनि सों।

(3) लेकर इतना रूप कहो तुम, दीख पड़े क्यों मुझे छली?
चले प्रभात बात फिर भी क्या खिले न कोमल कमल कली?

(4) बसो मोरे नैनन में नन्दलाल
मोहिनी मूरत साँवरी सूरत नैना बने बिसाल।

(2) ओज गुण-जिस काव्य-रचना को सुनने से मन में उत्तेजना पैदा होती है, उस कविता में ओजगुण होता है। ओज का सम्बन्ध चित्त की उत्तेजना वृत्ति से है। इसलिए जिस काव्य को पढ़ने या सुनने से पढ़ने वाले के हृदय में उत्तेजना आ जाती है, वही ओजगुण प्रधान रचना होती है। वीर रस रचना के लिए इस गुण की आवश्यकता होती है। इस गुण को उत्पन्न करने के लिए विद्वानों ने निम्नलिखित गुणों का विधान किया है-

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  • रचना की शैली एवं शब्द योजना दोनों का ही सुगठित एवं सुनियोजित होना आवश्यक
  • पंक्ति अथवा छन्द की रचना में कहीं भी शिथिलता होना अनपेक्षित है।
  • रचना में ट वर्ग (ट, ठ, ड, ढ, ण) और सभी कठोर व्यंजनों का आधिक्य होना चाहिए।
  • र के संयोग से बने शब्द प्रथम एवं तृतीय, द्वितीय और चतुर्थ वर्गों का प्रयोग होते संयोजन तथा रेफ युक्त शब्द प्रभावशाली हैं।
  • लम्बे-लम्बे समासों से युक्त शब्दों का प्रयोग होना चाहिए। अधिकाधिक संयुक्ताक्षरों का प्रयोग होना चाहिए।

उदाहरण-
(1) अमर राष्ट्र, उदण्ड राष्ट्र, उन्मुक्त राष्ट्र-यह मेरी बोली।
यह ‘सुधार’, ‘समझौते’ वाली मुझको भाती नहीं ठिठोली।।

(2) निकसत म्यान तें मयूखै प्रलै भानु कैसी,
फारै तम-तोम से गयंदन के जाल को।

(3) महलों ने दी आग, झोंपड़ियों में ज्वाला सुलगाई थी
वह स्वतन्त्रता की चिनगारी, अन्तरतम से आई थी।

(4) हिमाद्रि तुंग शृंग पर, प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्वला, स्वतन्त्रता पुकारती।

(3) प्रसाद गुण—प्रसाद का अर्थ है—प्रसन्नता या निर्मलता। जिस काव्य को सुनते या पढ़ते समय वह हृदय पर छा जाये और बुद्धि शब्दों के दुरूह जाल में या क्लिष्ट अर्थों की कलुषता में मलिन न होकर एकदम प्रभावित हो जाये, मन खिल जाये, उसे प्रसाद गुण कहते हैं। कवि का उद्देश्य होता है मानव हृदय को प्रभावित करना। प्रेमी की बात प्रिय पात्र के हृदय को रस से सराबोर न कर दे, ममता वात्सल्य को आहूदित न कर पाये, करुणा नयनों के कोरों को यदि अविरल न कर पाये और वीरता का उत्साह यदि ओजित न कर पाये-ये सभी यदि शब्दों की भूलभुलैया में पड़कर क्लिष्टता के अस्त-व्यस्त मार्ग पर चल पड़े तो काव्य ब्रह्मानन्द सहोदर न होकर मस्तक की पीड़ा बन जायेगा। व्यस्तता के इस गुण में हमें आज प्रसाद गुण युक्त काव्य की आवश्यकता है। यही गुण अधिक समय तक प्रभावशाली रह सकता है, क्योंकि यह सीधे हृदय पर छाप छोड़ता है। सभी रसों की रचना प्रसाद गुण युक्त हो सकती है। प्रसाद गुण का सम्बन्ध सभी रसों से है। उक्त दोनों गुणों की तरह यह गुण किसी रस विशेष से नियन्त्रित नहीं है। शब्दों के साथ अर्थ का भी सरल होना आवश्यक है। इसमें जो बात कही जाये, उसका वही अर्थ होता है। ‘साहित्य-दर्पण’ के प्रणेता आचार्य विश्वनाथ का कथन है कि-“समस्त रसों और रचनाओं में जो चित्र को सूखे ईंधन में अग्नि के समान शीघ्र व्याप्त करे—वह प्रसाद गुण है।”

उदाहरण-
(1) “चुप रहो जरा सपना पूरा हो जाने दो,
घर की मैना को जरा प्रभाती गाने दो,
ये फूल सेज के चरणों पर धर देने दो,
मुझको आँचल में हरसिंगार भर लेने दो।”

(2) मानुस हौं तो वही रसखान
बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।

(3) तन भी सुन्दर मन भी सुन्दर
प्रभु मेरा जीवन हो सुन्दर।

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(4) हे प्रभो आनन्द दाता ! ज्ञान हमको दीजिए।
(5) आशीषों का आँचल भर कर, प्यारे बच्चो लाई हूँ।
युग जननी मैं भारत माता द्वार तुम्हारे आई हूँ।

-बालकृष्ण बैरागी

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MP Board Class 11th Special Hindi गद्य साहित्य : विविध विधाएँ

MP Board Class 11th Special Hindi गद्य साहित्य : विविध विधाएँ

1. निबन्ध

निबन्ध गद्य रचना का एक प्रधान भेद है। गद्य साहित्य का सबसे परिष्कृत और प्रौढ़ रूप निबन्ध में ही उभरता है।

परिभाषा-निबन्ध वह रचना है जिसमें किसी गहन विषय पर विस्तार और पाण्डित्यपूर्ण विचार किया जाता है। वास्तव में, निबन्ध शब्द का अर्थ है-बन्धन। यह बन्धन विविध विचारों का होता है, जो एक-दूसरे से गुंथे होते हैं और किसी विषय की व्याख्या करते हैं।

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आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में, “यदि गद्य कवियों या लेखकों की कसौटी है, तो निबन्ध गद्य की कसौटी है।”

जयनाथ नलिन के शब्दों में, “निबन्ध स्वाधीन चिन्तन और निश्छल अनुभूतियों का सरस, सजीव और मर्यादित गद्यात्मक प्रकाशन है।”

भाषा की पूर्ण शक्ति भी निबन्धों में ही दिखाई पड़ती है। साहित्य के अन्य विविध क्षेत्रों के विषय में गहन जानकारी भी निबन्धों द्वारा ही प्राप्त होती है। निबन्ध ही मनुष्य के मस्तिष्क का सारा ज्ञानकोश उभारकर रख देते हैं। वह गद्य साहित्य का ऐसा अंग है जो अपने में अत्यधिक पूर्ण और उपयोगी है। निबन्ध साहित्य की एक ऐसी रचना है जो पाठक के मन में आनन्द और अनुभूति उत्पन्न करने में साहित्य की अन्य विधाओं से अधिक सक्षम है।

  • निबन्ध के तत्त्व

निबन्ध को समझने और उसका रसास्वादन करने के लिए निम्नलिखित तीन बातों पर ध्यान देना आवश्यक है

  1. निबन्ध की विषय-वस्तु,
  2. विषय-वस्तु को प्रस्तुत करने का उद्देश्य,
  3. निबन्ध की शैली।

निबन्ध के लिए स्वीकृत विषयों की कोई सीमा नहीं है। अभिव्यक्त विषय में किसी भाव, दृश्य आदि का चित्रण है अथवा किसी घटना मात्र का वर्णन है, किसी मनोविकार आदि का निरूपण विश्लेषण हुआ है या किसी प्रसंग का भावात्मक विवरण है।

इसके पश्चात् उद्देश्य की ओर. ध्यान देना चाहिए। लेखक कभी कुछ तथ्यों, दृश्यों या क्रिया-कलापों का विवरण देकर पाठक का ज्ञानवर्द्धन करना चाहता है तो कभी किसी दृश्य या अतीत की स्मृति को भावात्मक शैली से रमाना चाहता है; कभी वह पाठकों को कुछ प्रेरणा देना चाहता है तो कभी किसी सीख या निष्कर्ष तक ले चलना उसका उद्देश्य होता है। इस प्रकार विषय-वस्तु और उद्देश्य निबन्ध के दो ऐसे तत्त्व हैं जिनसे निबन्ध को समझने में सहायता मिलती है।

निबन्ध में लेखक का दृष्टिकोण सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। वस्तुतः इसी आधार भूमि पर अवस्थित होकर निबन्ध के विवरणों का सर्वेक्षण किया जाता है। अतः निबन्ध में जो मूल्य, तथ्य, आवेश-संवेग, स्मृतियाँ अथवा पूर्वाग्रह आते हैं वे इसी पर आश्रित होते हैं, इसी के द्वारा उन्हें जाना जा सकता है। रामचन्द्र शुक्ल ने जिन संस्मरणों का संकेत अपने विचार प्रधान निबन्धों में किया है वे उनके विषय सम्बन्धी दृष्टिकोण को ही सचित करते हैं। निबन्ध में आत्मपरकता का समावेश इसी के द्वारा होता है।

निबन्धकार का कौशल उसकी अभिव्यंजना शैली में निहित होता है। निबन्ध को समझने और सराहने के लिए मुख्य रूप से यह देखना होगा कि विषय-वस्तु को अभिप्रेत उद्देश्य के लिए किस ढंग से प्रस्तुत किया गया है। किसी भी विषय के सम्बन्ध में अनेक छोटे-बड़े विवरण हो सकते हैं। लेखक अपने उद्देश्य के लिए उनमें से आवश्यक का चयन कर लेता है। अत: निबन्ध के अर्थबोध के लिए चयन और नियोजन को ध्यान रखना आवश्यक है।

भाषा के विविध स्तर भी मूल आशय का प्रतिपादन करने में सहायक होते हैं। भाषा की प्रांजलता और समृद्धि केवल शब्द चयन पर ही निर्भर नहीं है। विचारों को सुस्पष्ट वाक्यों और स्वाभाविक शैली में उपस्थित करना और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसके लिए मुहावरों,लोकोक्तियों आदि का समीचीन प्रयोग निबन्ध को अर्थवत्ता प्रदान करता है। निबन्ध में गृहीत बिम्बों, उदाहरणों एवं सन्दर्भो को भी प्रतिपाद्य विषय से सम्बद्ध करके देखना चाहिए।

  • निबन्धों के भेद [2008]

विद्वानों ने प्रमुख रूप से निबन्धों को चार कोटियों में विभाजित किया है, जो निम्न प्रकार हैं
(1) भावात्मक,
(2) विचारात्मक,
(3) वर्णनात्मक,
(4) विवरणात्मक।

(1) भावात्मक निबन्ध-उसे कहते हैं जो किसी विषय का भावना प्रधान चित्र प्रस्तुत करते हैं तथा उसमें विषय की गम्भीर विवेचना नहीं की जाती। इनमें कल्पना का स्थान महत्त्वपूर्ण होता है। निबन्धकार के हृदय से भाव स्वतः कल्पना का रंगीन आवरण ओढ़े अबाध गति से निःसृत होते हैं। विषय के चित्र की रेखाएँ उभरती चलती हैं और निबन्ध की समाप्ति पर एक आकर्षक एवं मार्मिक चित्र उपस्थित हो जाता है। इसमें गहन अनुभूतियों की अभिव्यक्ति होती है।

(2) विचारात्मक निबन्ध-इनमें भावों की अपेक्षा विचारों की प्रधानता रहती है। उनका सम्बन्ध हदय से न होकर मस्तिष्क से होता है। उनमें विषय की व्याख्या, विवेचन और विश्लेषण सभी कुछ बुद्धि-प्रसूत रहता है। स्वाभाविक है कि ऐसे निबन्धों में विचारों की गहनता होती है। विचारात्मक निबन्धों का क्षेत्र जीवन की प्रत्येक समस्या से सम्बन्धित होता है। विचारात्मक निबन्धों में भी भावों का अस्तित्व होता है किन्तु प्रधानता विचारों की रहती है। विचारात्मक निबन्ध मस्तिष्क-प्रधान होते हैं जबकि भावात्मक निबन्ध हदय-प्रधान होते हैं।

(3) वर्णनात्मक निबन्ध-ये भावात्मक निबन्धों से बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं। इसमें विषय का वर्णन आकर्षक ढंग से किया जाता है। किसी भी ऐतिहासिक स्थान, किसी भी कलाकृति, किसी भी प्रकृति के उपादान या वस्तु विशेष को लेकर निबन्धकार सुन्दर भाषा में उसका वर्णन करता है। भारत की सांस्कृतिक एकता इसका उदाहरण है।

(4) विवरणात्मक निबन्ध-इन निबन्धों में किसी वस्तु, घटना या स्थान आदि का विवरण उपस्थित किया जाता है। उदाहरण के लिए, हम किसी यात्रा या नौका विहार को या किसी मेले, उत्सव को लें। उसका विवरण निबन्धकार इतने आकर्षक ढंग से देता चलेगा और अन्त तक वह अपने प्रभाव की छाप हमारे हृदय पर छोड़ देगा। इनमें सारा ध्यान निबन्धकार का प्रमुख विषय पर होता है।

  • निबन्ध रचना की शैली के प्रकार

निबन्धों की विषय-वस्तु को सजाने के तरीके का नाम शैली है। शैली से आशय है भाषागत शैली, जिसमें भाषा के बाह्य और आन्तरिक रूपों का समावेश होता है। प्रायः निबन्ध में निम्नांकित शैली रूपों का ही अधिक प्रयोग होता है

  1. व्यास शैली-इसमें भाव व विचार का विस्तार अत्यन्त सरल और रोचक ढंग से किया जाता है। सरलता, स्पष्टता और स्वाभाविकता इस शैली की विशेषताएँ हैं। कथात्मक (विवरणात्मक) और वर्णनात्मक निबन्ध इसी शैली में लिखे जाते हैं। इसे प्रसाद शैली भी कहते हैं।
  2. समास शैली-समास का अर्थ है-संक्षिप्त। कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कहना इस शैली की विशेषता है। इस शैली का उपयोग विचारात्मक निबन्धों में अधिक होता है।
  3. विवेचना शैली-इसमें लेखक तर्क-वितर्क, प्रमाण, पुष्टि, व्याख्या एवं निर्णय आदि का सहारा लेते हुए विषय का प्रतिपादन करता है। गहन अध्ययन, मनन और चिन्तन के आधार पर लेखक अपनी बात समझाता है। इसमें कभी-कभी क्लिष्टता आ जाती है। विचारात्मक निबन्ध इसी शैली में आते हैं। शुक्लजी के निबन्ध इस शैली के श्रेष्ठ उदाहरण हैं।
  4. व्यंग्य शैली-इसमें व्यंग्य-विनोद के माध्यम से महत्त्वपूर्ण तत्त्वों का उदघाटन किया जाता है। इसमें कभी-कभी मनोरंजन, कभी तीखी चुभन और कभी गुदगुदी-सी होती है।
  5. आवेश शैली-इसमें लेखक भावावेश में विचारों की अभिव्यक्ति करता है। भाव प्रवाह अनुकूल भाषा और शब्द नियोजन के माध्यम से निबन्ध अपने आप आगे बढ़ता है। इसी को धारा शैली या प्रवाह शैली भी कहते हैं।
  6. संलाप शैली-संलाप शैली का अर्थ है-वार्तालाप । इसमें भावनाओं और विचारों की अभिव्यक्ति संवादों के माध्यम से होती है।
  7. प्रलापशैली-कभी-कभी लेखक आन्तरिक आवेश के कारण भावों पर नियन्त्रण न रख सकने के कारण आवेश की सी मानसिक स्थिति से गुजरता हुआ लिखता है। इसमें भावाभिव्यक्ति अस्त-व्यस्त हो जाती है।
    कभी-कभी विषय के प्रतिपादन की दृष्टि से व्याख्या की दो शैलियों का उपयोग होता है।
  8. निगमन शैली-इसमें पहले विचारों को सूत्र रूप में रखकर फिर उसकी विस्तृत व्याख्या करके समझाया जाता है जिसमें उदाहरणों का भी उपयोग होता है।
  9. आगमन शैली-इसमें विचारों को पहले विस्तारपूर्वक व्याख्या करके बाद में उसका सारांश सूत्र या सिद्धान्त रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
  • निबन्ध का विकास

हिन्दी निबन्ध साहित्य का विकास आधुनिक काल की देन है। इसके विकास क्रमाको निम्नवत् चार युगों में विभाजित किया जा सकता है

  1. भारतेन्दु युग,
  2. द्विवेदी युग,
  3. शुक्ल युग एवं
  4. शुक्लोत्तर युग (वर्तमान युग)।

प्रारम्भ में पत्र सम्पादक स्वयं निबन्ध लिखने की कला में प्रवीण थे। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द ने निबन्ध लिखने का कार्य भी बड़े ही कौशल से किया है। भारतेन्दु युग में अनेक गद्य रूपों का विकास हुआ है।

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(1) भारतेन्दु युग-भारतेन्दु युग हिन्दी गद्य का शैशवकाल है। भारतेन्दु आधुनिक काल के जन्मदाता हैं उनके युग को भारतेन्दु युग के नाम से सम्बोधित किया जाता है। भारतेन्दु युग को ऐसी मजबूत नींव के समान माना जाता है, जिस पर आगे चलकर क्रमशः एक-एक मंजिल बनती चली गई थी।

  • विशेषताएँ
  1. निबन्धों के कलेवर में पत्रकारिता का युग समाविष्ट है।
  2. सड़ी-गली मान्यताओं एवं रूढ़ियों का प्रबल विरोध है।
  3. निबन्धकारों के मस्त एवं मनमौजी व्यक्तित्व की निबन्धों में छाप है।
  4. निबन्धों में राजनैतिक चेतना, समाज सुधार की आकांक्षा के फलस्वरूप यत्र-तत्र भाषा में शिथिलता अवलोकनीय है।
  5. शैली सरस, हदयस्पर्शी एवं मनभावन है।
  6. हास्य व्यंग्य के छोटे निबन्ध की दुरूहता को कुछ कम कर देते हैं। चुभते हुए व्यंग्य एवं विनोदप्रियता के दर्शन होते हैं।
  7. भाषा, भाव एवं शैली में नवीनता का समावेश है। संस्कृत तद्भव एवं तत्सम शब्दों की भरमार है।
  8. निबन्धकार अंधानुकरण के घोर विरोधी थे।
  9. साहित्यिक रूपों की विवेचना इसी युग में प्रारम्भ हुई।
  10. पाश्चात्य शैली के अध्ययन के माध्यम से नए आदर्श अवलोकनीय हैं।
  • प्रमुख निबन्धकार

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, बालमुकुन्द गुप्त एवं बद्रीनारायण चौधरी आदि प्रमुख निबन्धकार हुए।
निष्कर्ष-भारतेन्दु युग हिन्दी साहित्य का प्रवेश द्वार है। इस युग को हम ‘सन्धि युग’ भी कह सकते हैं।

(2) द्विवेदी युग (सन् 1900 से 1920 तक)-
भारतेन्दु युग के पश्चात् आधुनिक काल का द्वितीय चरण द्विवेदी युग के नाम से जाना जाता है। सरस्वती पत्रिका का सम्पादन करके द्विवेदी जी ने हिन्दी गद्य को उन्नत एवं व्यवस्थित किया। हिन्दी साहित्य सम्मेलन, काशी नागरी प्रचारिणी सभा का गद्य साहित्य के विकास में विशेष योगदान है। द्विवेदी जी के कुशल निर्देशन में न जाने कितने कलाकार साहित्य जगत में उजागर हुए जिनकी सफल कीर्ति आज भी फैली है। द्विवेदी युग तैयारी का युग था जिसमें आधुनिक साहित्य-शैली का निर्माण हो रहा था।

  • प्रमुख निबन्धकार [2008]

महावीर प्रसाद द्विवेदी, पद्मसिंह शर्मा, सरदार पूर्णसिंह, बालमुकुन्द गुप्त, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी इस युग के प्रमुख निबन्धकार हैं।

  • विशेषताएँ [2008]
  1. भाषा को व्यवस्थित एवं सुगठित किया गया। भाषा में अभिव्यंजना शक्ति का भी पर्याप्त विकास हुआ।
  2. जीवनोपयोगी विषयों पर निबन्ध लिखे गये हैं।
  3. निबन्धों में गम्भीरता का समावेश है।
  4. साहित्य समालोचना, संस्कृति इतिहास एवं विभिन्न विषयों पर सफल निबन्ध लिखे गये हैं।
  5. निबन्धों में यत्र-तत्र दुरूहता का समावेश है।
  6. निबन्धों की भाषा प्रांजल एवं परिमार्जित है। विभक्तियों का उचित प्रयोग है।
  7. हिन्दी में समालोचना शैली का सूत्रपात भी इस युग में हुआ।
  8. सरल तथा प्रचलित शब्दावली में कहीं-कहीं करारा व्यंग्य है।

निष्कर्ष-द्विवेदी जैसा साहित्य का प्रहरी निरन्तर हिन्दी भाषा एवं साहित्य को परिष्कार कर, उसे आदर्श की ओर उन्मुख करने में दत्त-चित्त रहा। गद्य साहित्य सर्वांगीण तथा बहुमुखी बन गया।

(3) शुक्ल युग (सन् 1920 से 1945 तक)-
द्विवेदी युग के बाद आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का नाम हिन्दी निबन्धकारों में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन्होंने हिन्दी को महत्त्वपूर्ण मौलिक कृतियाँ दी, इसी हेतु इस युग को शुक्ल युग के नाम से जाना जाता है।

  • प्रमुख निबन्धकार

श्यामसुन्दर दास, गुलाबराय, वियोगी हरि, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, जयशंकर प्रसाद, रायकृष्ण दास, सियाराम शरण गुप्त, डॉ. रघुवीर सिंह।
विशेषताएँ

  1. भाषा शक्ति सम्पन्न एवं कलात्मक बनी।
  2. विविध प्रकार के साहित्य की रचना हुई।
  3. भाषा भावों की अनुगामिनी है।
  4. भारतीय एवं पाश्चात्य समीक्षा का तर्कसंगत समन्वय है।
  5. समसामयिक समस्याओं का निरूपण है।
  6. नाटक के क्षेत्र में जयशंकर प्रसाद का अपूर्व योगदान है।
  7. प्रेमचन्द्र ने कहानी एवं उपन्यास के क्षेत्र में व्यावहारिक एवं सरल शैली का प्रयोग किया है।
  8. मार्क्सवाद के प्रभाव के फलस्वरूप जनवादी चेतना पर आधारित निबन्ध लिखे गए हैं।
  9. स्वतंत्रता संग्राम एवं राष्ट्रीय स्वाभिमान से जुड़े मनोभावों को निबन्धों के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है।
  10. छायावाद के संदर्भ में तर्कपूर्ण विवेचना है।
  11. निबन्धों की शैली परिमार्जित एवं विषयों के अनुरूप है।
  12. यत्र-तत्र गाँधीवाद का प्रभाव भी अवलोकनीय है।
  13. द्विवेदी युगीन व्यास प्रधान शैली के स्थान पर समास प्रधान शैली का प्रचलन हुआ।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि शुक्ल जी ने सरल एवं मिश्रित गद्य का ऐसा स्वरूप उपस्थित किया जो जन साधारण की भाषा का रूप था।

(4) शुक्लोत्तर युग (सन् 1945 से आज तक)-
शुक्ल युग के पश्चात् का युग शुक्लोत्तर युग के नाम से सम्बोधित किया जाता है। इसे वर्तमान युग’ भी कहा जाता है।

  • प्रमुख निबन्धकार

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, बाबू गुलाबराय, डॉ. रामविलास शर्मा, डॉ. नगेन्द्र, नन्ददुलारे वाजपेयी, रामवृक्ष बेनीपुरी, हरिशंकर परसाई,शान्तिप्रिय द्विवेदी, वासुदेवशरण अग्रवाल,रामधारीसिंह ‘दिनकर’, शिवदान सिंह चौहान, महादेवी वर्मा, भगवतशरण उपाध्याय, विजयमोहन शर्मा,धर्मवीर भारती, प्रभाकर माचवे आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

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विशेषताएँ

  1. इस युग के समस्त निबन्धों में चिन्तन के साथ-साथ गहराई का पुट है।
  2. भाषा शैली प्रौढ़ एवं प्रांजल है।
  3. भाषा व्यावहारिक है।
  4. निबन्धों में यत्र-तत्र व्यंग्य का पुट भी अवलोकनीय है।
  5. ‘खरगोश के सींग’ नामक निबन्ध जिसके लेखक प्रभाकर माचवे हैं,व्यंग्य का सजीव उदाहरण है।
  6. हरिशंकर परसाई एवं के. वी. सक्सेना ने भी व्यंग्यात्मक लेख लिखे हैं।
  7. निबन्धों में प्रगतिवादी विचारधारा भी परिलक्षित है।
  8. महादेवी वर्मा के संस्मरणात्मक निबन्ध भी बहुत ही सरस एवं सराहनीय हैं।
  9. जनेन्द्र कुमार ने गाँधीवादी विचारधारा को अपने निबन्धों में अभिव्यक्त किया है।
  10. सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक धरातल पर आधारित निबन्धों की रचना भी की गयी है।

प्रमुख निबन्धकार एवं उनकी रचनाएँ

भारतेन्दु युग
द्विवेदी युग

2. कहानी

संसार के सभी लिखित-अलिखित साहित्य में कहानी सबसे प्राचीनतम रूप है। कहानी पढ़ने या सुनने की प्रवृत्ति केवल बच्चों में ही नहीं, वयस्कों में भी होती है। आज के व्यस्त जीवन में कहानी की लोकप्रियता का कारण है उसका छोटा होना।

परिभाषा-“कहानी वास्तविक जीवन की ऐसी काल्पनिक कथा है जो छोटी होते हए भी स्वतः पूर्ण और सुसंगठित होती है।”
“कहानी में मानव जीवन की किसी एक घटना अथवा व्यक्तित्व के किसी एक पक्ष का मनोरम चित्रण रहता है। उसका उद्देश्य केवल एक भी प्रभाव को उत्पन्न करना होता है।”
डॉ. श्यामसुन्दर दास के शब्दों में, “आख्यायिका एक निश्चित लक्ष्य के प्रभाव को लेकर नाटकीय आख्यान है।”

“कहानी ऐसी रचना है जिसमें जीवन के किसी एक अंग या किसी एक मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य रहता है। उसके चरित्र, उसकी शैली, उनका कथा-विन्यास सभी उसी एक भाव को पुष्ट करते हैं।

“कहानी ऐसा रमणीक उद्यान नहीं है जिसमें भाँति-भाँति के फूल, बेलबूटे सजे हों, बल्कि वह एक गमला है जिसमें एक ही पौधे का माधुर्य और सौन्दर्य अपने समुचित रूप में दृष्टिगोचर होता है।”

कहानी के तत्त्च [2008]

  1. कथावस्तु,
  2. चरित्र-चित्रण अथवा पात्र,
  3. कथोपकथन या संवाद,
  4. देशकाल व परिस्थिति,
  5. उद्देश्य,
  6. शैली और शिल्प।

(1) कथावस्तु-कहानी में कथावस्तु या कथानक कहानी का मुख्य ढाँचा होता है। विषय की दृष्टि से कहानी में सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक आदि में से किसी भी प्रकार का कथानक अपनाया जा सकता है। किन्तु यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि कहानी में जीवन की बाह्य घटनाओं की ही अभिव्यक्ति नहीं होती, मानव हृदय का भी उद्घाटन होता है। उदाहरण के लिए ‘संवदिया’ कहानी में घटनाओं का वर्णन कम, पर बड़ी बहू और संवदिया के मन का रहस्योद्घाटन करने की सफल चेष्टा की गयी है।

मानव जीवन के सुख-दुःख दोनों पक्षों की चर्चा के लिए कहानीकार के केवल घटनाओं का आयोजन ही नहीं करता, वह व्यक्ति के हृदय और मन की भावना और अन्तर्द्वन्द्व को पर्याप्त प्रमुखता देता है। कहानी की घटनाएँ अनायास ही घटित नहीं होती, कथा का विकास धीरे-धीरे होता है। इस कथा विकास की निम्नलिखित चार स्थितियाँ होती हैं

(अ) आरम्भ-कहानी के शीर्षक और प्रारम्भ में कथासूत्रों से अवगत करा दिया जाता है। कहानी आरम्भ करने के लिए अनेक विधियाँ हो सकती हैं-किसी पात्र के परिचय से, पात्रों के पारस्परिक वार्तालाप से अथवा वातावरण विशेष के चित्रण से। यदि कथा के आरम्भ में ही पाठक के मन में कौतूहल अथवा जिज्ञासा उत्पन्न हो जाय तो ‘आरम्भ’ सफल कहा जायेगा।

(आ) आरोह-सामान्य जानकारी के बाद आरोह की अथवा विकास की ओर ध्यान दिया जाता है। कथावस्तु के प्रवाह की दृष्टि से यह स्थिति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह कहानी का मध्य भाग होता है।

(इ) चरम स्थिति-कथानक के जिस स्थल द्वारा पाठक के मन में कौतूहल अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच जाय, उसे चरम स्थिति कहते हैं। इसमें पाठक उत्सुकता, आशा और आशंका के बीच उलझता हुआ कथानक के अन्तिम मोड़ के लिए लालायित हो उठता है।

(ई) अवरोह-अवरोह अथवा अन्त सबसे महत्त्वपूर्ण होता है क्योंकि कहानी का मूल उद्देश्य या भाव यहीं प्रतिफलित होता है। इस ओर उचित ध्यान न देने पर कहानी शिथिल हो जाती है और अपूर्ण प्रतीत होती है। कहानी के अवरोह में संक्षिप्तता और मार्मिकता पर विशेष बल रहता है।

(2) चरित्र-चित्रण एवं पात्र-योजना-कथा का विकास पात्रों द्वारा ही होता है। चरित्र-चित्रण के लिए अनेक प्रणालियाँ अपनायी जाती हैं, लेखक के द्वारा पात्र का प्रत्यक्ष वर्णन करके या पात्र के क्रिया-कलापों द्वारा। कभी-कभी कथोपकथन के माध्यम से भी पात्रों के व्यक्तित्व का उद्घाटन किया जाता है। पात्रों की परस्पर तुलना, प्रासंगिक घटनाओं के माध्यम से चरित्र की व्यंजना, अन्तर्द्वन्द्व की अवतरणा आदि चरित्र-चित्रण की प्रचलित शैलियाँ हैं। पात्रों के व्यक्तित्व की संक्षिप्त, स्पष्ट और संकेतात्मक अभिव्यक्ति कहानी का गुण है।

(3) कथोपकथन अथवा संवाद-कथा-सौन्दर्य की संवृद्धि में और पात्रों के निरूपण के लिए कथोपकथन का निश्चित योग है। संवाद रहित कहानियाँ अथवा. कम संवाद वाली कहानियों में उपयुक्त प्रभाव उत्पन्न नहीं हो पाता। संवादों में रोचकता, सजीवता और स्वाभाविकता का होना आवश्यक है। संवादों की गरिमा के लिए उन्हें पात्र, वातावरण, स्थान और समय के अनुकूल रखा जाता है। संवादों में पात्र के मानसिक अन्तर्द्वन्द्व अथवा अन्य मनोभावों को प्रकट करने की शक्ति होनी चाहिए और यह भी आवश्यक है कि वे संक्षिप्त हों क्योंकि बड़े-बड़े संवाद प्रापः बोझिल और कृत्रिम प्रतीत होने लगते हैं।

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(4) देशकाल और परिस्थिति, वातावरण-कहानी का कथानक और उसके पात्र किसी न किसी देश और काल से जुड़े रहते हैं। प्रभाव वृद्धि के लिए आवश्यक है कि कहानी का अपना एक वातावरण भी हो। वातावरण के उपयुक्त चित्रण से कथात्मक रचनाओं में रस निष्पत्ति और मनोवैज्ञानिक प्रभाव की सृष्टि में विशेष सुविधा रहती है। कहानीकार घटनाओं, प्रकृति सौन्दर्य एवं पात्रों से सम्बद्ध स्थानों आदि का युगानुरूप चित्रण करते हैं। कुछ लेखक कहानी का आरम्भ ही वातावरण के चित्रण से करते हैं। जैसे “उसने कहा था” कहानी के प्रारम्भ में ही अमृतसर के बाजार का, वहाँ के वातावरण का बड़ा ही सजीव चित्रण है।

(5) उद्देश्य-आधुनिक कहानी का उद्देश्य केवल मनोरंजन ही नहीं। वह हमें कोई सन्देश भी देती है। उसमें कुछ उद्देश्य भी निहित रहता है। कहानी के उद्देश्य से हमारा तात्पर्य कहानीकार के दृष्टिकोण से है। कहानी में जीवन की मार्मिक अनुभूतियों की सहज व्याख्या बड़े ही उद्देश्यपूर्ण ढंग से प्रस्तुत की जाती है। प्रगतिवादी, सुधारवादी आदि विभिन्न कहानियाँ विभिन्न उद्देश्यों के परिणामस्वरूप लिखी जाती हैं। कहानी में उद्देश्य को उपदेश रूप से प्रस्तुत नहीं किया जाता। प्रत्यक्ष स्थापना न करके उसका संकेत भर दिया जाता है।

(6) शैली और शिल्प-शैली से तात्पर्य लेखक द्वारा कथा वर्णन के लिए अपनायी गयी विशिष्ट पद्धति है। कहानी लेखन की अनेक शैलियाँ हो सकती हैं–लेखक अपनी सुविधा अनुसार वर्णनात्मक, आत्मकथात्मक, संवादात्मक, पत्रात्मक और डायरी शैली अपना सकता है। कला की दृष्टि से कहानी के सौन्दर्य का विधान शैली के माध्यम से ही होता है। शैली सौष्ठव के लिए लेखक अलंकार, लोकोक्ति, प्रतीक आदि उपकरणों की सहायता लेता है। कभी-कभी ग्रामीण पात्रों के लिए या तुतलाते बच्चों के लिए, आंचलिकता में सजीवता लाने के लिए वह उन्हीं की बोली का उपयोग भी करता है। यदि भाषा भाव के अनुसार न हो तो उपयुक्त प्रभाव का संचार नहीं हो पाता। इसी प्रकार हास्य, व्यंग्य, चित्रोपमता, प्रकृति के मानवीकरण से कहानी के सौन्दर्य में वृद्धि होती है।

कहानी के विविध रूप [2008]
विभिन्न तत्त्वों की प्रधानता की दृष्टि से कहानी के चार प्रमुख भेद किये जा सकते हैं-

  1. घटना प्रधान कहानी,
  2. चरित्र प्रधान कहानी,
  3. वातावरण प्रधान कहानी,
  4. भाव प्रधान कहानी।

(1) घटना प्रधान कहानी-इसमें क्रमशः अनेक घटनाओं को एक सूत्र में पिरोते हुए कथानक का विकास किया जाता है।
(2) चरित्र प्रधान कहानी-इसमें लेखक का ध्यान पात्रों के चरित्र-निरूपण की ओर ही अधिक रहता है। इसमें मनोविज्ञान की पृष्ठभूमि में चरित्र की विभिन्न सूक्ष्मताओं का उद्घाटन लेखक या पात्र स्वयं करता है। कभी-कभी दूसरे पात्रों के माध्यम से भी मुख्य पात्र की चरित्रगत विशेषताएँ उभरकर सामने आती हैं।
(3) वातावरण प्रधान कहानी-इन कहानियों में वातावरण पर अधिक ध्यान दिया जाता है। विशेषतः ऐतिहासिक कहानियों में वातावरण को विशेष रूप से चित्रित किया जाता है क्योंकि यहाँ किसी युग विशेष का, उसकी संस्कृति, सभ्यता आदि का आभास वर्णन और संवाद द्वारा करना होता है।
(4) भाव प्रधान कहानी-इन कहानियों में एक भाव या विचार के आधार पर कथानक का विकास किया जाता है। इस कोटि में गद्य काव्य से मिलती-जुलती लघु कथाएँ, प्रेम कहानियाँ और प्रतीक कथाएँ आती हैं। ये प्रायः दृष्टांत के रूप में होती हैं और इनका अध्ययन जीवन के लिए प्रेरणादायक होता है। इस तरह कहानियाँ विचारों को प्रबुद्ध करती हैं और चिरकाल तक हृदय पर अमिट छाप छोड़ती हैं। इन कथाओं को लिखने में चित्र शैली को अपनाया जाता है।

  • हिन्दी कहानी का विकासक्रम

कहानी का अभ्युदय भारतेन्दु युग में हुआ। इसके विकास को निम्न प्रकार चार युगों में विभक्त कर सकते हैं

  1. प्रारम्भिक प्रयोगकाल – (सन् 1900 से 1910)
  2. विकास काल (पूर्वार्द्ध) – (सन् 1910 से 1936)
  3. विकास काल (उत्तरार्द्ध) – (सन् 1936 से 1947)
  4. स्वातन्त्रोतर काल – (सन् 1947 से अब तक)

1. प्रारम्भिक काल इस युग की कहानियों में कथावस्तु, देशकाल, उद्देश्य आदि तत्त्वों का समावेश है। कहानी के शिल्प विधान को भी महत्व दिया गया है।
प्रमुख कहानीकार – कहानियाँ [2008]

  1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल – ग्यारह वर्ष का समय
  2. गिरिजा दत्त बाजपेयी – पंडित और पंडिताइन
  3. श्री किशोरीलाल गोस्वामी – इन्दुमती
  4. माधव राव सप्रे – टोकरी भर मिट्टी
  5. बंग महिला – दुलाई वाली

2. विकास काल (पूर्वाद्ध) इस युग में हिन्दी कहानी के क्षेत्र में एक नवीन युग का शुभारम्भ हुआ। चरित्र-चित्रण एवं कथा संगठन पर विशेष ध्यान केन्द्रित किया गया है। कहानी के कलेवर में आदर्श एवं यथार्थ के समन्वय के साथ ही इतिहास एवं कल्पना के समन्वय का प्रशंसनीय प्रयास है।

कहानियाँ
प्रमुख कहानीकार

  1. पं. चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ – उसने कहा था, बुद्ध का कांटा, सुखमय जीवन।
  2. जयशंकर प्रसाद – गुण्डा, पुरस्कार, आकाशदीप।
  3. भगवती प्रसाद बाजपेयी – सूखी लगड़ी, मिठाई वाला।
  4. प्रेमचन्द – बड़े घर की बेटी, पंच परमेश्वर, पूस की रात, कफन, शतरंज के खिलाड़ी।
  5. विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक’ – चित्रशाला, रक्षाबन्धन, ताई।

अन्य कहानीकार-सियाराम शरण गुप्त, विनोद शंकर व्यास, निराला, वृन्दावनलाल शर्मा, चण्डीप्रसाद हृदयेश, सुदर्शन।

3. विकास काल (उत्तराद्ध)

इस काल की कहानियों के कलेवर में प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक फ्रायड की मनोविज्ञान विषयक मान्यताओं एवं धारणाओं का विशेष प्रभाव परिलक्षित है। हास्य एवं व्यंग्य के छींटे कहानी को एक नया रूप प्रदान करते हैं। इस युग की कहानियों का विवरण निम्नवत् है

  1. अज्ञेय – कोठरी की बात, रोज, अमर वल्लरी।
  2. भगवती चरण वर्मा – दो बाँके, प्रायश्चित।
  3. जैनेन्द्र कुमार – पाजेब, अपना-अपना भाग्य।
  4. इलाचन्द्र जोशी – दीवाली, छाया, आहुति।
  5. यशपाल – दुःख, पराया सुख, परदा।

अन्य कहानीकार- महादेवी वर्मा, अमृतराय, विष्णु प्रभाकर, धर्मवीर भारती, अमृतलाल नागर, रांगेय राघव, उपेन्द्रनाथ अश्क’, चन्द्रगुप्त विद्यालंकार।

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4. स्वातंत्रोत्तर काल कहानी के क्षेत्र में अल्पजीवी आन्दोलन के फलस्वरूप सचेतन कहानी,समानान्तर कहानी, अकहानी एवं नयी कहानी आदि नामों से अस्तित्व में आयीं।

  1. राजेन्द्र यादव – छोटे-छोटे ताजमहल, किनारे से किनारे तक।
  2. मोहन राकेश – एक और जिन्दगी, सौदा।
  3. फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ – लाल पान की बेगम, संवदिया, ठेस।
  4. कमलेश्वर – खोई हुई दिशाएँ, साँप।
  5. मन्नू भण्डारी – यही है जिन्दगी, सजा।

अन्य कहानीकार-निर्मल वर्मा, हरिशंकर परसाई, भीष्म साहनी, श्रीकान्त वर्मा, शिवानी, कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा आदि।

आज की कहानियों में कलात्मकता अवलोकनीय है। भाषा-भाव का सुन्दर समन्वय है। प्रेम तथा साहस का मनभावन सामंजस्य है।

3. एकांकी

यह गद्य की प्रमुख विधा है। विद्वानों के मत में इसकी परिभाषा अवलोकनीय है।

परिभाषा-डॉ. नगेन्द्र के अनुसार, “एकांकी में हमें जीवन का क्रमबद्ध विवेचन मिलकर उसके एक पहल, एक महत्त्वपूर्ण घटना, एक विशेष परिस्थिति अथवा एक उद्दीप्त क्षण का चित्रण मिलेगा। अत: उसके लिए एकता अनिवार्य है।”

एकांकी नाटक का एक प्रकार है। एकांकी और नाटक में वही अन्तर है जो कहानी और उपन्यास में होता है। एकांकी में जीवन का खण्ड-दृश्य अंकित किया जाता है जो अपने में पूर्ण होता है।

एकांकीकार अपनी रचना द्वारा एक ही उद्देश्य को व्यक्त करता है। विचार की अभिव्यक्ति, कथावस्तु, पात्र, संवाद आदि के माध्यम से होती है और एक विशेष उद्देश्य की अभिव्यक्ति करते हुए केवल एक ही प्रभाव की सृष्टि की जाती है।

  • एकांकी के तत्त्व

एकांकी के छः तत्त्व होते हैं

  1. कथावस्तु,
  2. पात्र,
  3. संवाद,
  4. वातावरण,
  5. भाषा-शैली,
  6. अभिनेयता।

(1) कथावस्तु-कथा और कथावस्तु में अन्तर होता है। केवल क्रमबद्ध कथा लिखने से उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकती। लेखक के मन में सर्वप्रथम कोई भाव आता है जिससे कथा बनती है। कभी-कभी किसी कथा से ही भाव स्फर्त होता है। एकांकीकार कथा के क्रम में आवश्यक परिवर्तन करता है, एक घटना को दूसरी घटना या क्रिया से जोड़ता है, अन्तर्द्वन्द्व की सृष्टि करता है, किसी पात्र का चमत्कारपूर्ण ढंग से प्रवेश कराता है। नयी-नयी नाटकीय परिस्थितियों की योजना करता है। यही रचनात्मक तन्त्र कथावस्तु है।

एकांकी की कथावस्तु को तीन भागों में विभाजित किया जाता है-

  1. प्रारम्भ,
  2. विकास,
  3. चर्मोत्कर्ष।

सामान्यतः पात्रों का परिचय, उनके पारस्परिक सम्बन्धों के निर्देश प्रारम्भ में होते हैं। विकास या कार्य-व्यापार से संघर्ष आरम्भ होता है। संघर्ष दो विरोधी स्थितियों, सिद्धान्तों, आदर्शों आदि में होता है। एकांकी देखते या पढ़ते समय कथानक के विकास के उपरान्त दर्शक के मन में एक स्थिति ऐसी आती है, जब उसका कौतूहल चरम बिन्दु तक पहुँच जाता है। इस स्थिति को चर्मोत्कर्ष की स्थिति कहते हैं। एकांकी में जब कौतूहल चरम सीमा पर पहुँच जाये तब उसे समाप्त हो जाना चाहिए।

(2) पात्र-एकांकी में पात्रों की संख्या जितनी सीमित होती है, परिस्थिति का रंग उतना ही उभरकर सामने आता है। एकांकी का प्रमुख पात्र नाटक के प्रारम्भ से अन्त तक प्राणवन्त बनाता है। एकांकी की मूल भावना को उद्दीप्त करने के लिए एक दो गौण पात्रों की भी योजना की जाती है। गौण पात्रों के चयन में यह ध्यान रखा जाता है कि उनके चरित्र में विशेषता हो। नाटक में नायक और उसके सहायक पात्रों का चरित्र-चित्रण मूलत: घटनाओं के माध्यम से किया जाता है। किन्तु एकांकी में पात्रों का चरित्र नाटकीय परिस्थितियों और भीतर-बाहर के संघर्षों के सहारे चलता है। एकांकी में चरित्र के किसी एक पहलू का ही चित्र प्रस्तुत किया जाता है।

(3) संवाद-संवाद के माध्यम से ही एकांकी प्रस्तुत होता है। संवाद से कथावस्तु में गतिशीलता आती है और पात्रों की चरित्रगत विशेषताओं का उद्घाटन होता है। एक पात्र जो कुछ कहता है, वह अर्थपूर्ण होता है। इस तरह कथा आगे बढ़ती और दर्शकों या पाठकों के मन में जिज्ञासा पैदा करती है। एकांकी का विस्तार बहुत कम होता है, इसलिए थोड़े शब्दों में अधिक
भाव की अभिव्यक्ति की चेष्टा रहती है।।

(4) वातावरण-कहा जाता है कि जिस एकांकी में देश-काल और वातावरण की अन्विति पूर्ण रूप से पायी जाती है, वही एकांकी सर्वाधिक सफल माना जाता है। देश की अन्विति का अर्थ है सम्पूर्ण घटना एक ही स्थान पर घटित हो और उसमें दृश्य परिवर्तन कम से कम हों।

(5) भाषा-शैली-सभी विधाओं की भाषा-शैली अलग-अलग होती है। एकांकी की भाषा-शैली में इस बात का ध्यान रखा जाता है कि भाषा का प्रयोग पात्र की शिक्षा, संस्कृति, वातावरण, परिस्थिति के अनुरूप होना चाहिए। यदि पात्र का सांस्कृतिक स्तर ऊँचा है तो उसकी

भाषा शिष्ट और शैली परिष्कृत होगी। यदि उसका वातावरण दूषित है, सांस्कृतिक परिवेश भी उच्च स्तर का नहीं है तो भाषा में निखार और शैली में परिष्कार दिखायी नहीं देगा। इसलिए एकांकीकार अशिक्षित या अर्द्ध-शिक्षित पात्रों के मुँह से प्रायः भाषा का अनगढ़ रूपाचा स्थानीय बोली का रूप ही प्रस्तुत करता है।

(6) अभिनेयता-एकांकी वस्तुतः अभिनीत करने के लिए लिखा जाता है। रंगमंच पर अभिनय करने के लिए एकांकीकार को रंगमंच की विशेषताओं की जानकारी अवश्य होनी चाहिए। एकांकी के सफल अभिनय के लिए उपयुक्त मंचसज्जा और कुशल अभिनेताओं का होना अनिवार्य है। इन सबके अतिरिक्त ध्वनि और प्रकाश का संयोजन भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। यथा अवसर वाद्य-यन्त्र और संगीत का समायोजन होना चाहिए।

प्रकार-एकांकी कई प्रकार के होते हैं। विषय की दृष्टि से ऐतिहासिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं पौराणिक-ये भेद किये जा सकते हैं।
शैली की दृष्टि से एकांकी को कई श्रेणियों में बाँटा जा सकता है-

  1. स्वप्नरूप,
  2. प्रहसन,
  3. काव्य-एकांकी,
  4. रेडियो रूपक,
  5. ध्वनि-रूपक,
  6. वृत्त रूपक।
  • एकांकी का विकासक्रम

एकांकी का विकास आधुनिक युग में माना गया है। पश्चिमी देशों से प्रभावित होकर हमारे राष्ट्र में भी एकांकी का पल्लवन एवं विकास हुआ।

  • हिन्दी का प्रथम एकांकी

कुछ मनीषियों ने जयशंकर प्रसाद द्वारा लिखित ‘एक घुट’ को हिन्दी का प्रथम एकांकी ठहराया है। इसकी रचना लगभग सन् 1930 में हुई थी।

प्रसाद के बाद एकांकी के क्षेत्र में डॉ. रामकुमार वर्मा का पदार्पण हुआ। ‘बादल की मृत्यु नामक एकांकी, ‘एक बूंट’ ‘नामक एकांकी के समकक्ष माना जाता है।
कतिपय विद्वान भुवनेश्वर प्रसाद का सन् 1935 में कारवाँ’ नामक एकांकी संग्रह प्रकाशित हुआ। इस पर पाश्चात्य तकनीक का प्रभाव परिलक्षित है। शिल्प की दृष्टि से कुछ आलोचक इसे भी हिन्दी के प्रथम एकांकी की श्रेणी में रखते हैं।

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विगत अनेक सालों से हिन्दी का एकांकी कलेवर अपने युग के अनुरूप परिवर्तित होता रहा है। साठ-पैंसठ वर्षों में एकांकीकारों ने पारिवारिक, राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक, धार्मिक तथा व्यक्तिगत समस्याओं को यथार्थ के धरातल पर अंकित किया है। रेडियो रूपक के रूप में भी एकांकी को अनेक नवीन दिशा प्राप्त हुई है।

  • प्रमुख एकांकीकार

एकांकीकार – प्रसिद्ध एकांकी

  1. उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ – अधिकार का रक्षक, सूखी डाली, पापी।
  2. डॉ. रामकुमार वर्मा – रेशमी टाई, पृथ्वीराज की आँखें, दीपदान, चारुमित्रा।
  3. उदयशंकर भट्ट – नये मेहमान, नकली और असली।
  4. सेठ गोविन्द दास – केरल का सुदामा।
  5. भगवती चरण वर्मा – सबसे बड़ा आदमी, दो कलाकार।
  6. विष्णु प्रभाकर – वापसी, हब्बा के बाद।
  7. जगदीश चन्द्र माथुर – रीढ़ की हड्डी, भोर का तारा।
  8. भुवनेश्वर प्रसाद – ऊसर, कारवाँ।।

अन्य एकांकीकार-लक्ष्मीनारायण मिश्र, वृन्दावनलाल वर्मा, विनोद रस्तोगी, गिरिजा कुमार माथुर, धर्मवीर भारती, लक्ष्मीनारायण लाल, हरिकृष्ण प्रेमी।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के एक अंक वाले नाटक ‘अंधेर नगरी’, ‘भारत दुर्दशा’ इनको आधुनिक प्रकार का एकांकी नहीं माना जा सकता। एकांकी आधुनिक युग की ही उपज है।

4. आलोचना

आलोचना भी गद्य की एक सशक्त विधा है। इसे समालोचना, समीक्षा, विवेचना, मीमांसा और अनुशीलन भी कहा जाता है। समालोचना में किसी विषय के गम्भीर अध्ययनपूर्ण विवेचना का भाव होता है। आलोचना सामान्य विवेचन का ही संकेत करती है। अत: हम कह सकते हैं कि किसी विषय की पूर्ण जानकारी प्राप्त कर उस पर विचार-विमर्श करना, उसको स्पष्ट करना, उसके गुण-दोषों की विवेचना कर उन पर अपना मंतव्य प्रकट करना आलोचना कहलाती है।

आलोचना साहित्य की किसी भी विधा की, की जा सकती है।

आलोचना के प्रकार-आलोचना के दो भेद किये जाते हैं-
(1) सैद्धान्तिक,
(2) प्रयोगात्मक। सैद्धान्तिक समीक्षा में अनेक सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला जाता है। प्रयोगात्मक समीक्षा पश्चिम की देन है। रचनाओं की पूर्ण विवेचना के साथ ही साहित्य सम्बन्धी धारणाओं के निर्माण का प्रयास पाश्चात्य साहित्य में ही अधिक दिखाई देता है। हिन्दी में भी यह प्रभाव अब स्पष्टतः दिखाई देने लगा है।

5. पत्र

पत्र-साहित्य भी गद्य की एक सशक्त विधा है। उर्दू में ‘गुबारे खातिर’ (आजाद का पत्र संग्रह) और रूसी भाषा में ‘टालस्टॉय की डायरी’ स्थायी साहित्य की निधि हैं। पत्र के द्वारा आत्म-प्रदर्शन, विचारों की अभिव्यक्ति को अच्छी दिशा प्राप्त होती है। हिन्दी में द्विवेदी पत्रावली, द्विवेदी युग के साहित्यकारों के पत्र, पिता के पत्र पुत्री के नाम आदि रचनाएँ उल्लेखनीय हैं। इस विधा के प्रवर्तन में बैजनाथ सिंह, विनोद, बनारसीदास चतुर्वेदी , जवाहरलाल नेहरू आदि का योगदान महत्त्वपूर्ण है।

6. रिपोर्ताज

यह गद्य की एक नई विधा है। द्वितीय महायुद्ध के समय इस विधा का प्रचलन हुआ।
रिपोर्ताज शब्द का विकास रिपोर्ट शब्द से स्वीकारा गया है। रिपोर्ट का आशय है घटना का यथार्थ अंकन। युद्ध की विभीषिका का अनुभव कराने के लिए युद्ध का जो आँखों देखा हाल लिखा जाता था उसे रिपोर्ताज नाम दिया गया। इसमें घटना, दृश्य या वस्तु का चित्रण होता है। उसकी भाषा अत्यन्त ही सजीव और रोचक होती है। आँखों देखी कानों सुनी घटनाओं पर ही रिपोर्ताज लिखी जाती है। इस विधा का शुभारम्भ शिवदान सिंह चौहान की लक्ष्मीपुरा’ से हुआ। साहित्य के इस क्षेत्र में रांगेय राघव, वेद राही, प्रभाकर माचवे, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, अमृतराय, उपेन्द्रनाथ अश्क आदि का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

7. रेखाचित्र

इसे अंग्रेजी में स्कैच कहा जाता है। चित्रकार जिस प्रकार अपनी तूलिका से चित्र बनाता है उसी प्रकार लेखक अपने शब्दों के रंगों के द्वारा ऐसे चित्र उपस्थित करता है जिससे वर्णन योग्य वस्तु की आकृति का चित्र हमारी आँखों के सामने घूमने लगे। चित्रकार की सफलता उसके रेखांकन तथा रंगों के तालमेल पर निर्भर करती है, जबकि रेखाचित्र के लेखक की उसके शब्दों को गूंथने की कला पर। रेखाचित्र का लेखक अपने शब्दों से ऐसा चित्र बनाता है जो हमारे मानस पटल पर उभरकर मूर्त रूप धारण कर लेता है। इस विधा के प्रमुख लेखक हैं श्रीराम शर्मा, बनारसीदास चतुर्वेदी, रामवृक्ष बेनीपुरी, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, निराला तथा महादेवी वर्मा।

8. संस्मरण

संस्मरण आत्मकथा के ही क्षेत्र से निकली हुई विधा है, किन्तु आत्मकथा और संस्मरण में गहरा अन्तर होता है। आत्मकथा का प्रमुख पात्र लेखक स्वयं होता है, किन्तु संस्मरण के अन्तर्गत लेखक जो कुछ देखता है, अनुभव करता है, उसे भावात्मक प्रणाली के द्वारा प्रकट करता है। ऐसे लेखन में सम्पूर्ण जीवन का चित्र न होकर किसी एक या एकाधिकार घटनाओं का रोचक वर्णन रहता है। स्मृति पटल पर आने वाले का अंकन करते हुए वह खुद ही अंकित हो जाता है। संस्मरण का क्षेत्र अन्तर्जगत न होकर बहिर्जगत का होता है। संस्मरण लेखकों में पद्मसिंह शर्मा ‘कमलेश’, महादेवी वर्मा, बनारसीदास चतुर्वेदी, रामवृक्ष बेनीपुरी तथा शान्तिप्रिय द्विवेदी, देवेन्द्र सत्यार्थी आदि प्रमुख हैं। हिन्दी में आदर्श संस्मरण की रचना छायावादोत्तर युग में हुई।

9. जीवनी या आत्मकथा

जीवन चरित्र और आत्मकथा के रूप परस्पर भिन्न होते हैं। आत्मकथा स्वयं लिखी जाती है, जीवनी कोई दूसरा लिखता है। हिन्दी में जीवन चरित्र के लेखक अनेक हैं। आत्मकथाओं में गाँधीजी के ‘सत्य के प्रयोग’, नेहरूजी की ‘मेरी कहानी’ तथा राजेन्द्र प्रसाद बाबू की आत्मकथा’ प्रसिद्ध हैं।

10. डायरी

अपने जीवन के दैनिक प्रसंगों को या किसी प्रसंग विशेष को डायरी के रूप में लिखा जाता है। इनमें जीवन की यथार्थ घटनाओं का वर्णन संक्षेप में रहता है। व्यंजना, व्यंग्य और वर्णन डायरी
की विशेषताएँ हैं।

नित्यप्रति के जीवन की कुछ विशिष्ट घटनाओं के सुख-दुःखात्मक रूपों की मार्मिक स्थितियों को लेखक अपनी प्रतिक्रिया के साथ कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करता है तो डायरी साहित्य की रचना होती है। इसमें तिथि, स्थान आदि का सत्य उल्लेख होता है। इसका आकार लघु अथवा विशद दोनों प्रकार का हो सकता है। धीरेन्द्र वर्मा, प्रभाकर माचवे, घनश्याम दास बिड़ला, सुन्दरलाल त्रिपाठी हिन्दी के श्रेष्ठ डायरी लेखक हैं।

11. इण्टरव्यू (साक्षात्कार)

इण्टरव्यू वह रचना है जिसमें लेखक किसी व्यक्ति विशेष से साक्षात्कार करके उसके सम्बन्ध में कतिपय जानकारियों को तथा उसके सम्बन्ध में अपनी क्रिया-प्रतिक्रियाओं को अपनी पूर्व धारणाओं, आस्थाओं और रुचियों से रंजित कर सरस एवं भावपूर्ण शैली में व्यक्त करता है। यह एक प्रकार से संस्मरण का ही रूप है।

12. उपन्यास

उपन्यास में कल्पना का पूरा संयम और व्यायाम रहता है। उपन्यासकार विश्वामित्र की सी सृष्टि बनाता है, किन्तु ब्रह्मा की सृष्टि के नियमों में भी बँधा रहता है। उपन्यास में सुख-दुःख, प्रेम, ईर्ष्या-द्वेष, आशा, अभिलाषा, महत्त्वाकांक्षा, चरित्रों के उत्थान-पतन आदि जीवन के सभी दृश्यों का समावेश रहता है। उपन्यास में नाटक की अपेक्षा अधिक स्वतन्त्रता है, किन्तु नाटक के मूर्त साधनों के अभाव में उपन्यासकार इस कमी को शब्दचित्रों द्वारा पूरा करता है। उपन्यासकार को जीवन का सजीव चित्र अंकित करना पड़ता है। उपन्यास एक प्रकार का जेबी थियेटर बन जाता है। उसके लिए घर से बाहर जाने की आवश्यकता नहीं। घर, वन, उपवन सब कहीं उसका आनन्द लिया जा सकता है किन्तु इस आनन्द दान के लिए उपन्यासकार को शुद्ध चित्रों का सहारा लेना पड़ता है। डॉ. श्यामसुन्दर दास ने उपन्यास को मानव के वास्तविक जीवन की काल्पनिक कथा कहा है।

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उपन्यास जीवन का चित्र है, प्रतिबिम्ब नहीं। प्रतिबिम्ब कभी-कभी पूरा नहीं होता। उपन्यासकार जीवन के निकट-से-निकट आता है, किन्तु उसे जीवन में से बहुत कुछ छोड़ना पड़ता है और अपनी तरफ से जोड़ना भी पड़ता है। उपन्यास में व्यक्ति की अधिक प्रधानता होती है। वह सत्य का आदर करता हुआ भी अपने आदर्शों की पूर्ति करने तथा कथा को अधिक रोचक तथा प्रभावशाली बनाने के लिए कल्पना से काम लेता है। उसमें सत्य को सुन्दर और रोचक रूप में देखने की प्रवृत्ति रहती है। उपन्यास एक ओर इतिहास या जीवनी की तरह वास्तविकता का अनुकरण करता है। दूसरी ओर उसमें काव्य का कल्पना का-सा पुट, भावों का परिपोषण और शैली का सौन्दर्य रहता है। एक ओर उसमें दार्शनिक-सी जीवन मीमांसा और तथ्य उद्घाटन की प्रवृत्ति रहती है तो दूसरी ओर समाचार-पत्रों की-सी कौतूहल वृत्ति और वाचालता भी रहती है।

  • उपन्यास के तत्त्व

कथावस्तु, पात्र और चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, वातावरण, विचार और उद्देश्य, रस और भाव तथा शैली।

(1) कथानक-यह उपन्यास का मूल तत्व है। कथानक कार्यकारण श्रृंखला में बँधा हुआ होना चाहिए। उसका उचित विन्यास हो ताकि वह पाठकों की रुचि के अनुकूल हो सके। अच्छे कथानक में मौलिकता, कौशल, सम्भवता, सुसंगठितता और रोचकता की आवश्यकता है।

(2) पात्र और चरित्र-चित्रण-उपन्यास का विषय मनुष्य है। अत: चरित्र-चित्रण उपन्यास का महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। चरित्र के द्वारा मनुष्य के व्यक्तित्व को प्रकाश में लाया जाता है। यह व्यक्तित्व दो प्रकार का होता है-बाहरी और आन्तरिक। बाहरी व्यक्तित्व में मनुष्य का आकार-प्रकार, वेश-भूषा, आचार-विचार, रहन-सहन, चाल-ढाल, बातचीत के विशेष ढंग और कार्यकलाप आ जाते हैं। आन्तरिक व्यक्तित्व में बाहरी परिस्थितियों के प्रति संवेदनशीलता, उसके राग-विराग, महत्त्वाकांक्षाएँ, अन्धविश्वास, पक्षपात, मानसिक संघर्ष, दया, करुणा, उदारता आदि मानवीय गुण तथा नृशंसता, क्रूरता, अनुदारता आदि सभी दुर्गुणों का चित्रण रहता है।

(3) विचार और उद्देश्य-उपन्यास कहानी मात्र नहीं है, उसमें पात्रों के भाव और विचार भी रहते हैं। पात्रों के विचार लेखक के विचारों की प्रतिध्वनि होते हैं। लेखक का जीवन के प्रति एक विशेष दृष्टिकोण होता है। उसी दृष्टिकोण से वह जीवन की व्याख्या करता है। उसमें जीवन तथ्य सूक्ति रूप में बिखरे रह सकते हैं, किन्तु उपन्यासकार को उपदेशक नहीं बन जाना चाहिए। उपन्यासकार के विचार, परोक्ष रूप से व्यंजित होने चाहिए जिससे उपन्यास की स्वाभाविकता में किसी प्रकार की बाधा न पड़े।

(4) भाव या रस-हमारे विचार जीवन के प्रति रागात्मक या विरागात्मक दृष्टिकोण के ही फल-फूल होते हैं। उपन्यासों में भी महाकाव्य का-सा शृंगार, वीर, हास्य, करुण रस का समावेश होना चाहिए।

(5) शैली-उपन्यास की शैली का प्रमुख गुण है प्रसाद, ओज और माधुर्य का भी विषयानुकूल समावेश उसमें होना चाहिए। भाषा मुहावरेदार हो। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि का चमत्कार शैली को उचित मात्रा में आकर्षक बनाता है।

13. नाटक

नाटक के मुख्य तत्त्व हैं-कथावस्तु, नायक और रस। वैसे तो नाटक के भी वे ही तत्व होते हैं जो कहानी, उपन्यास आदि के होते हैं, किन्तु नाटकों में रस की प्रधानता होती है। नाटक काव्य की वह विधा है जिसमें लोक-परलोक की घटित-अपघटित घटनाओं का दृश्य दिखाने का आयोजन किया जाता है। इस कार्य के लिए अभिनय की सहायता ली जाती है। शास्त्रीय परिभाषा में नाटक को रूपक कहा जाता है। सफल नाटक का रूप और आकार, दृश्यों और अंकों का उपयुक्त विभाजन, रस का साधारणीकरण, क्रिया व्यापार, प्रवेग तथा प्रवाह, अनुभावों और सात्विक भावों का निदर्शन, संवादों की कसावट, नृत्य और गीत, भाव, भाषा और साहित्यिक अलंकरण, वर्जित दृश्यों का अप्रदर्शन, सुरुचिपूर्ण प्रदर्शन, आलेखन, अलंकरण तथा परिधान
और प्रकाश की व्यवस्था आवश्यक होती है।

14. लोक साहित्य

लोक साहित्य अंचल विशेष में रचा गया साहित्य है। यह अंचल विशेष वह भूखंड होता है, जो एक सांस्कृतिक इकाई के रूप में विकसित होकर, अपनी बोली और जीवन-पद्धति को अपनी लोकपरक चेतना में ढालता है। इस साहित्य में प्रकृति सम्बन्धी उक्तियों की अधिकता है। इसके अन्तर्गत लोकगीत, लोककथाओं, लोकोक्तियों और कहावतों को शामिल किया जा सकता है। लोक साहित्य हमारी परम्पराओं और मूल्यवान धरोहरों को अपनी विषय वस्तु में समेटे है।

प्रश्नोत्तर

  • लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
निबन्ध किसे कहते हैं? बाबू गुलाबराय के अनुसार निबन्ध की परिभाषा
अथवा [2009]
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने निबन्ध की क्या परिभाषा दी है?
उल्लेख कीजिए तथा निबन्ध के प्रमुख भेद बताइए।
अथवा [2011]
निबन्ध की परिभाषा एवं निबन्ध के प्रकारों का वर्णन कीजिए। [2017]
अथवा
निबन्ध के कितने भेद होते हैं? नाम लिखिए। [2008, 15]
अथवा
निबन्ध के प्रमुख भेद कौन-से हैं? नाम सहित लिखें। भावात्मक निबन्ध किसे कहते हैं?
उदाहरणस्वरूप एक भावात्मक निबंध का नाम लेखक के नाम सहित लिखिए। [2012]
उत्तर-
निबन्ध हिन्दी साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण विधा है। अंग्रेजी में निबन्ध को ऐसे’ (Essay) कहते हैं। निबन्ध का अर्थ है-“विधिवत् कसा हुआ अथवा बँधा हुआ।”

परिभाषा-बाबू गुलाबराय के अनुसार, “निबन्ध गद्य रचना को कहते हैं जिसमें एक सीमित आकार के भीतर किसी विषय का वर्णन या प्रतिपादन एक विशेष निजीपन, स्वच्छन्दता, सौष्ठव और सजीवता व आवश्यक संगति और सम्बद्धता के साथ किया गया हो।” . परिभाषा-आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, “यदि गद्य कवियों या लेखकों की कसौटी है, तो निबन्ध गद्य की कसौटी है।”

निबन्ध के भेद-निबन्ध-लेखक के व्यक्तित्व के अनुसार निबन्ध रचना के अनेक प्रकार हो सकते हैं। सुविधा की दृष्टि से मोटे तौर पर इसे चार भागों में विभाजित किया जा सकता

(1) वर्णनात्मक-यह निबन्ध का प्रमुख प्रकार है। निबन्ध किसी दर्शनीय स्थल, मेले, तीर्थस्थान तथा प्राकृतिक दृश्य से सम्बन्धित होते हैं। इनमें भाषा में सरसता, सजीवता तथा चित्रात्मकता होती है।
(2) विवरणात्मक निबन्ध-इन निबन्धों में यात्रा, युद्ध घटनाओं, आत्मकथा अथवा काल्पनिक घटनाक्रम का विवरण दिया जाता है। मन की माँग में भी ये निबन्ध लिखे जाते हैं।
(3) विचारात्मक निबन्ध-इस निबन्ध में किसी विषय पर सुव्यवस्थित प्रस्तुति होती है। इनमें तर्क, चिन्तन की प्रधानता होती है। बुद्धि तत्व भी प्रदान होता है। शुक्ल जी का ‘कविता क्या है’ इसी प्रकार का निबन्ध है।
(4) भावात्मक निबन्ध-ये निबन्ध भाव, काव्यतत्व, कल्पनाप्रधान होते हैं। कभी-कभी लेखक इतना भावुक हो जाता है कि वह मूल विषय से भी भटक जाता है। सरदार पूर्णसिंह का ‘सच्ची वीरता’ श्रेष्ठ भावात्मक निबन्ध है।

प्रश्न 2.
निबन्ध का स्वरूप स्पष्ट करते हुए हिन्दी निबन्ध के विकास पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए। [2013]
उत्तर-
स्वरूप-किसी विषय को व्यवस्थित ढंग से क्रमबद्ध रूप में सुगठित भाषा में प्रस्तुत करने वाली गद्य रचना निबन्ध कहलाती है। निबन्ध किसी भी विषय पर लिखा जा सकता है। इसमें लेखक का व्यक्तित्व प्रतिबिम्बित होता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल मानते हैं कि “यदि गद्य काव्य की कसौटी है तो निबन्ध गद्य की कसौटी है।”

विकाश-हिन्दी निबन्ध का विकास आधुनिक काल में इस प्रकार हुआ है-

  1. भारतेन्दु युग-भारतेन्दु युग से ही हिन्दी निबन्ध लेखन प्रारम्भ हुआ। इस युग में धर्म, समाज, राजनीति, शिक्षा, प्रकृति आदि सभी विषयों पर निबन्ध लिखे गये। बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, बालमुकुंद गुप्त आदि श्रेष्ठ निबन्धकार हुए।
  2. द्विवेदी युग-द्विवेदी युग में विषय तथा भाषा के परिमार्जन का उल्लेखनीय कार्य हुआ। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती’ पत्रिका के द्वारा लेखकों का मार्गदर्शन किया। श्यामसुन्दर दास, सरदार पूर्णसिंह, माधव प्रसाद मिश्र आदि इस युग के प्रमुख निबन्धकार हैं।
  3. शुक्ल युग-आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी निबन्ध को चरम उत्कर्ष पर पहुँचाने का सराहनीय कार्य किया । विषय तथा भाषा-शैली की प्रौढ़ता उस युग के निबन्धों में देखी जा सकती है। बाबू गुलाब राय, वियोगी हरि, वासुदेव शरण अग्रवाल आदि इस युग के निबन्धकार
  4. शुक्लोत्तर युग-इस युग में इस विधा को व्यापक रूप प्राप्त हुआ है। मनोविज्ञान, विज्ञान, राजनीति, समीक्षा आदि विषयों पर निबन्ध लिखे गये हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा, विद्यानिवास मिश्र आदि इस युग के प्रमुख मिबन्धकार हैं।

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प्रश्न 3.
भारतेन्दु युग के निबन्ध की किन्हीं चार विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-

  1. निबन्धों के कलेवर में पत्रकारिता का पुट समाविष्ट है।
  2. सड़ी-गली मान्यताओं एवं रूढ़ियों का प्रबल विरोध है।
  3. शैली सरस, हदयस्पर्शी एवं मनभावन है।
  4. निबन्धकार अंधानुकरण के घोर विरोधी थे।

प्रश्न 4.
भारतेन्दु युग के प्रमुख चार निबन्धकारों के नामों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-

  1. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र,
  2. प्रताप नारायण मिश्र,
  3. बाल मुकुन्द गुप्त,
  4. बद्रीनारायण चौधरी।

प्रश्न 5.
द्विवेदी युग का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर-
भारतेन्दु युग के पश्चात् आधुनिक काल का द्वितीय चरण द्विवेदी युग के नाम से जाना जाता है। द्विवेदी जी के कुशल निर्देशन में न जाने कितने कलाकार साहित्य जगत् में उजागर हुए जिनकी सफल कीर्ति आज भी फैली है।

प्रश्न 6.
द्विवेदी युग के निबन्धों की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-

  1. निबन्धों में गम्भीरता का समावेश है।
  2. निबन्धों की भाषा प्रांजल एवं परिमार्जित है।
  3. हिन्दी में समालोचना शैली का सूत्रपात भी इसी युग में हुआ।
  4. सरल एवं प्रचलित शब्दावली में कहीं-कहीं करारा व्यंग्य है।

प्रश्न 7.
शुक्ल युग के निबन्धों की किन्हीं पाँच विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-

  1. भाषा शक्ति सम्पन्न एवं कलात्मक बनी।
  2. भारतीय एवं पाश्चात्य समीक्षा का तर्कसंगत समन्वय है।
  3. छायावाद के संदर्भ में तर्कपूर्ण विवेचना है।
  4. निबन्धों की शैली परिमार्जित एवं विषयों के अनुरूप है।
  5. यत्र-तत्र गाँधीवाद का प्रभाव भी अवलोकनीय है।

प्रश्न 8.
शुक्लोत्तर युग का सामान्य परिचय एवं प्रमुख निबन्धकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
सामान्य परिचय-शुक्ल युग के पश्चात् का युग शुक्लोत्तर युग के नाम से जाना जाता है। इसे ‘वर्तमान युग’ भी कहा जाता है।
प्रमुख निबन्धकार-आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, बाबू गुलाबराय, डॉ. मगेन्द्र, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, शिवदानसिंह चौहान, महादेवी वर्मा, धर्मवीर भारती, भगवतशरण उपाध्याय, प्रभाकर माचवे आदि।

प्रश्न 9.
कहानी की परिभाषा देते हुए उसके तत्त्व बताइए। (2008, 10)
अथवा
कहानी के तत्त्व लिखते हुए। किन्हीं दो कहानीकारों के नाम एवं उनकी एक-एक रचना लिखिए। [2013]
उत्तर-
परिभाषा-कहानी वास्तविक जीवन की ऐसी काल्पनिक कथा है जो छोटी होते हुए भी स्वतः पूर्ण और सुसंगठित होती है। कहानी के छः तत्त्व स्वीकार किये गये हैं जो निम्न प्रकार हैं
(1) कथानक-कथानक कहानी का मूल आधार होता है। कहानी की कथावस्तु ऐतिहासिक, पौराणिक, राजनीतिक, पारिवारिक, मनोवैज्ञानिक, काल्पनिक हो सकती है। कथानक में भी तीन चरण होते हैं-आरम्भ, मध्य और अन्त । कथानक का आरम्भ आकर्षक होना चाहिए जिसमें जिज्ञासा का भाव होना चाहिए और उसका अन्त प्रभावी होना चाहिए।

(2) पात्र और चरित्र-चित्रण-कहानी पात्रों के चरित्र-चित्रण के आधार पर ही आगे बढ़ती है। जब हमारे चरित्र इतने सजीव और आकर्षक होते हैं कि पाठक स्वयं को उनके स्थान पर समझ लेता है तो पाठक को कहानी में आनन्द आता है। जब कहानीकार इस तरह की सहानुभूति उपस्थित कर देता है, तो उसे अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त होती है। कहानी में पात्रों की संख्या सीमित होनी चाहिए।

(3) कथोपकथन या संवाद-पात्र अपने संवादों के माध्यम से कहानी को गति प्रदान करते हैं। संवादों के माध्यम से पात्र जीवन्त होते हैं। कहानी में कथोपकथन पात्रों के अनुकूल, संक्षिप्त, सरल और कौतूहलपूर्ण होने चाहिए।

(4) देशकाल या वातावरण-कहानी में देशकाल या वातावरण जीवंतता लाता है। वेश-भूषा, रीति-रिवाज, बिचार एवं भाषा-शैली युग के अनुरूप होनी चाहिए। ऐतिहासिक कहानियों, ग्रामीण परिवेश की कहानियों या विदेशी कहानियों में वातावरण का विशेष ध्यान रखा जाता है।

(5) भाषा-शैली-कहानी में भाषा-शैली का विशेष महत्त्व है। सहज एवं सुगठित भाषा वातावरण को चित्रित करने में सहयोगी होती है। कहानी में उस भाषा का प्रयोग होना चाहिए जो जनजीवन के निकट हो। भाषा देशकाल एवं वातावरण के अनुकूल होनी चाहिए। कहानी में चार प्रकार की शैलियाँ प्रचलित हैं-

  • ऐतिहासिक शैली,
  • आत्म चरित्र शैली,
  • डायरी शैली,
  • पत्रात्मक शैली।

(6) उद्देश्य-वैसे तो कथा साहित्य का उद्देश्य मनोरंजन माना जाता है, किन्तु मनोरंजन ही साहित्य की सार्थकता को नष्ट कर देता है। कहानी में ऐसी मूल संवेदना होती है जिसका अनुभव करके पाठक उसके बारे में सोचता है। उद्देश्य कहानी का प्राणतत्त्व है।

दो कहानीकार मुंशी प्रेमचन्द (कफन) एवं जयशंकर प्रसाद (आकाशदीप) हैं।

प्रश्न 10.
कहानी में कथावस्तु का क्या महत्त्व है?
उत्तर-
कहानी में कथावस्तु या कथानक मुख्य ढाँचा होता है। विषय की दृष्टि से कहानी में सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक आदि में से किसी भी प्रकार का कथानक अपनाया जा सकता है, किन्तु यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि कहानी में जीवन की बाहरी घटना का प्रकाशन न होकर मानव हृदय का भी उद्घाटन होता है।

प्रश्न 11.
एकांकी की परिभाषा लिखिए।
उत्तर-
परिभाषा-डॉ. नगेन्द्र के अनुसार, “एकांकी में हमें जीवन का क्रमबद्ध विवेचन मिलकर उसके एक पहलू, एक महत्त्वपूर्ण घटना, एक विशेष परिस्थिति अथवा एक उद्दीप्त क्षण का चित्रण मिलेगा। अतः उसके लिए एकता अनिवार्य है।”

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प्रश्न 12.
रेखाचित्र से क्या आशय है?
उत्तर-
इसे अंग्रेजी में स्कैच कहा जाता है। चित्रकार जिस प्रकार अपनी तूलिका से चित्र बनाता है उसी प्रकार लेखक अपने शब्दों के रंगों के द्वारा ऐसे चित्र उपस्थित करता है जिससे वर्णन योग्य वस्तु की आकृति का चित्र हमारी आँखों के सामने घूमने लगे।

प्रश्न 13.
संस्मरण की परिभाषा दीजिए। दो प्रमुख रचनाकारों के नाम लिखिए। [2009]
उत्तर-
संस्मरण आत्मकथा के क्षेत्र से निकली हुई विधा है, किन्तु आत्मकथा एवं संस्मरण में गहरा अन्तर होता है। आत्मकथा का प्रमुख पात्र लेखक स्वयं होता है, किन्तु संस्मरण के अंतर्गत लेखक जो कुछ भी देखता है उसे भावात्मक प्रणाली के द्वारा व्यक्त करता है। इसके अन्तर्गत सम्पूर्ण जीवन का चित्र न होकर किसी एक या एकाधिक घटनाओं का रोचक वर्णन रहता है। महादेवी वर्मा, रामवृक्ष बेनीपुरी प्रमुख रचनाकार हैं।

प्रश्न 14.
रेखाचित्र एवं संस्मरण में अन्तर बताइए। [2010, 16]
उत्तर-
रेखाचित्र एवं संस्मरण निकट होते हुए भी दो अलग-अलग गद्य रूप हैं। रेखाचित्र में किसी व्यक्ति, वस्तु या घटना का कलात्मक प्रस्तुतीकरण किया जाता है जबकि संस्मरण में किसी महान व्यक्ति के प्रत्यक्ष संसर्ग को यथार्थ के सहारे अंकित किया जाता है।

श्रीराम शर्मा, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, महादेवी वर्मा, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ आदि प्रमुख रेखाचित्रकार हैं तथा पद्म सिंह शर्मा, रामवृक्ष बेनीपुरी, महादेवी वर्मा, बनारसीदास चतुर्वेदी आदि प्रमुख संस्मरण लेखक हैं।

प्रश्न 15.
उपन्यास की परिभाषा देते हुए उपन्यास के तत्त्वों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
उपन्यास जीवन का चित्र है, प्रतिबिम्ब नहीं । कथा मात्र को उपन्यास नहीं माना जा सकता है। उपन्यास लेखन की एक विशिष्ट शैली होती है। उपन्यास के प्रमुख तत्त्व इस प्रकार हैं-

  • कथानक,
  • पात्र एवं चरित्र-चित्रण,
  • उद्देश्य,
  • शैली,
  • भाव या रस।

प्रश्न 16.
जीवनी और आत्मकथा में क्या अन्तर है? तीन जीवनी लेखकों के नाम लिखिए।
अथवा [2008]
आत्मकथा और जीवनी में अन्तर समझाते हुए किन्हीं दो आत्मकथाकारों के नाम लिखिए।
अथवा [2009, 14]
नीवनी और आत्मकथा में अंतर लिखते हुए एक-एक रचना एवं रचनाकारों के नाम लिखिए। [2017]
उत्तर-
‘जीवनी’ तथा ‘आत्मकथा’ गद्य की प्रमुख विधाएँ हैं। किसी व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के जीवनवृत्त को रोचक साहित्यिक ढंग से प्रस्तुत किया जाए तो वह जीवनी कहलायेगी एवं जब लेखक अपने जीवनवृत को स्वयं ही प्रस्तुत करे तब वह आत्मकथा मानी जाएगी।

जीवनी में विवरण एवं तथ्यों पर ध्यान रहता है, जबकि आत्मकथा में अनुभूति की गहराई अधिक होती है।

हिन्दी के जीवनी लेखकों में डॉ. रामविलास शर्मा, (निराला की साहित्य साधना),अमृतराय (कलम का सिपाही) तथा विष्णु प्रभाकर (आवारा मसीहा) के नाम प्रमुख हैं। आत्मकथा लेखकों में वियोगी हरि ( मेरा जीवन प्रवाह), गुलाबराय ( मेरी असफलताएँ) तथा हरिवंश राय ‘बच्चन’ (क्या भूलूँ क्या याद करूँ) प्रसिद्ध हैं।

प्रश्न 17.
नाटक एवं एकांकी में अन्तर बताते हुए प्रमुख लेखकों के नाम लिखिए। [2009]
उत्तर-
नाटक एवं एकांकी दोनों का सम्बन्ध रंगमंच से है किन्तु दोनों में पर्याप्त अन्तर है

  1. नाटक का आकार विस्तृत होता है। उसमें कई अंक तथा अंकों के दृश्य होते हैं जबकि एकांकी का आकार छोटा होता है तथा इसमें मात्र एक अंक होता है।
  2. नाटक की तीन या इससे भी अधिक घण्टे की समय सीमा होती है जबकि एकांकी आधा घण्टे की समयावधि में समाप्त हो जाता है।
  3. नाटक में अधिक पात्र तथा विस्तृत मंच सज्जा होती है जबकि एकांकी में सीमित पात्र तथा सीमित मंच सज्जा होती है। वस्तुतः नाटक का लघु रूप एकांकी है। प्रमुख लेखकों में जयशंकर प्रसाद, हरिकृष्ण प्रेमी, राजकुमार वर्मा, उदयशंकर भट्ट, उपेन्द्रनाथ अश्क, मोहन राकेश, विष्णु प्रभाकर, धर्मवीर भारती आदि हैं।

प्रश्न 18.
कहानी और नाटक में कोई चार अन्तर लिखिए। (2015)
उत्तर-
कहानी और नाटक में चार अन्तर इस प्रकार हैं-
(1) कहानी श्रव्य साहित्य है जबकि नाटक दृश्य साहित्य के अन्तर्गत आता है।
(2) कहानी को पाठक पढ़कर आनन्द लेता है जबकि नाटक अभिनय के द्वारा प्रस्तुत होता है। (3) कहानी का आकार छोटा होता है जबकि नाटक बड़े होते हैं। (4) कहानी किसी शैली में लिखी जा सकती है जबकि नाटक में संवाद शैली का प्रयोग होता है।

प्रश्न 19.
रिपोर्ताज किसे कहते हैं? कोई दो विशेषताएँ लिखिए। (2015)
उत्तर-
रिपोर्ताज में किसी आँखों देखी घटना, स्थिति, प्रकृति आदि का सरस, स्वाभाविक, वास्तविक एवं रोचक वर्णन किया जाता है। रिपोर्ताज की दो विशेषताएँ इस प्रकार हैं (1) रिपोर्ताज में किसी आँखों देखी घटना, स्थिति आदि का वर्णन होता है। (2) यह वर्णन सत्य होता है, इसमें कल्पना का प्रयोग नहीं किया जाता है।

प्रश्न 20.
गद्य की विधाओं में से आपको कौन-सी विधा अच्छी लगती है और क्यों? [2008]
उत्तर-
हिन्दी साहित्य की विविध विधाएँ समृद्धशाली हैं-नाटक, एकांकी, उपन्यास, कहानी, आलोचना, निबन्ध, जीवनी, आत्मकथा, यात्रावृत्त, गद्य काव्य, संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, डायरी तथा रेडियो रूपक आदि।

मुझे इन विधाओं में से कहानी अच्छी लगती है। यह गद्य विधा जीवन के किसी एक संक्षिप्त प्रसंग को उद्देश्य सहित प्रस्तुत करती है। लेखक कल्पना के सहारे उसे पाठकों के समक्ष रखता है। कहानी में आदर्श और यथार्थ का सुन्दर समन्वय होता है। इसमें कम-से-कम घटनाओं और प्रसंगों के माध्यम से अधिक-से-अधिक प्रभाव की सृष्टि करता है। कहानी में मानवीय संवेदनाओं को बड़ी ही बारीकी से उजागर किया जाता है। मानवीय मूल्यों को स्थापित करना कहानीकार का मूल उद्देश्य होता है। यद्यपि साहित्य की सभी विधाएँ सौद्देश्य होती हैं तथापि कहानी अल्प समय में पाठकों को उसके उद्देश्य से अवगत करा देती है। जीवन की किसी घटना या चरित्र का रोचक एवं प्रभावशाली चित्रण होता है। कहानी में चरित्र अत्यन्त ही सजीव और आकर्षक होते हैं। पाठक चरित्रों के माध्यम से उद्देश्य को समझने में तत्पर रहता है। पात्रों की सहानुभूति पाठकों को प्राप्त होती है।

कहानी का शुभारम्भ आकर्षक तथा जिज्ञासापूर्ण होता है। जिसमें विषय की विषयवस्तु समायी रहती है। ऐतिहासिक कहानी में वातावरण या घटनाओं का महत्त्व होता है। ऐतिहासिक कहानी हमें अतीत के गौरव का स्मरण कराती है जिससे देशभक्ति की भावना जाग्रत होती है। बालक के कोमल मन पर कहानी अपना अमिट प्रभाव छोड़ती है। पाठक कहानी के उद्देश्य के विषय में सोचने को विवश होता है।

प्रश्न 21.
उपन्यास और कहानी में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2011, 16]
उत्तर-
(1) उपन्यास का आकार बड़ा होता है जबकि कहानी छोटे आकार की होती है।
(2) उपन्यास में समस्त जीवन का अंकन होता है जबकि कहानी में जीवन का खण्ड चित्रण होता है।
(3) उपन्यास की अपेक्षा कहानी में पात्र कम होते हैं।
(4) उपन्यास में कई कथाएँ जुड़ जाती हैं जबकि कहानी में एक ही कथा होती है।

प्रश्न 22.
लोक साहित्य किसे कहते हैं? लोकगीत अथवा लोककथा का परिचय दीजिए। [2012, 14]
उत्तर-
लोक भाषा के माध्यम से जनसामान्य की अनुभूति को प्रस्तुत करने वाला साहित्य लोक साहित्य कहलाता है।

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लोकगीत-सामान्य समाज की अनुभूति को उन्हीं की भाषा में गेय रूप में व्यक्त करने वाला साहित्य लोकगीत कहलाता है। इसमें जीवन के यथार्थ का अनुभव भरा होता है।

लोकगाथा-जनसाधारण के अनुभवों पर आधारित वे कथाएँ जो जनभाषा में होती हैं वे लोकगाथा कही जाती हैं। ये समाज के मनोरंजन का श्रेष्ठ माध्यम होती हैं।

  • अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
एकांकी में संवाद का क्या महत्त्व है?
उत्तर-
संवाद से कथावस्तु में गतिशीलता आती है और पात्रों की चरित्रगत विशेषताओं का उद्घाटन होता है।

प्रश्न 2. एकांकी कितने प्रकार की होती है?
उत्तर-
एकांकी निम्न प्रकार की होती है-

  1. स्वप्नरूप,
  2. प्रहसन,
  3. काव्य एकांकी,
  4. रेडियो रूपक,
  5. ध्वनि रूपक,
  6. वृत्त रूपक।

प्रश्न 3.
आलोचना के कितने भेद किये जा सकते हैं?
उत्तर-
आलोचना के प्रमुख दो भेद हैं
(1) सैद्धान्तिक आलोचना,
(2) प्रयोगात्मक आलोचना।

प्रश्न 4.
पत्र विधा के प्रमुख लेखकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
बैजनाथ सिंह, विनोद, बनारसीदास चतुर्वेदी, जवाहरलाल नेहरू आदि।

सम्पूर्ण अध्याय पर आधारित महत्त्वपूर्ण वस्तुनिष्ठ प्रश्न

  • बहु-विकल्पीय प्रश्न

1. आधुनिक काल की सबसे लोकप्रिय विधा है
(i) कहानी, (ii) निबन्ध, (iii) उपन्यास,

2. भारतेन्दुयुगीन निबन्धों की विशेषता नहीं है [2012]
(i) हास्य व्यंग्य, (ii) समाज सुधार, (iii) मनमौजीपन, (iv) ज्ञान-विज्ञान युक्त विषय।

3. लेखक के स्वयं के जीवन-वृत्त को प्रस्तुत करने वाली रचना कहलाती है
(i) संस्मरण, (ii) उपन्यास, (iii) रेखाचित्र, (iv) आत्मकथा।

4. ‘भोलासम का जीव’ किस विधा की रचना है?
(i) संस्मरण, (ii) व्यंग्य, (iii) जीवनी, (iv) आत्मकथा।

5. खड़ी बोली गद्य का प्रारम्भ किस युग से माना जाता है?
(i) भारतेन्दु युग, (ii) द्विवेदी युग, (iii) शुक्ल युग, (iv) प्रगतिवादी युग।

6. ‘रेखाचित्रों की सिद्ध लेखिका हैं [2008]
(i) मालती जोशी, (ii) शिवानी, (ii) महादेवी वर्मा, (iv) महाश्वेता देवी।

7. पाठक को झकझोरने तथा सोचने के लिए बाध्य करने वाली विधा है- [2008]
(i) हास्य, (ii) व्यंग्य, (iii) नाटक, (iv) एकांकी।

8. ‘पूस की रात’ कहानी के लेखक हैं
(i) यशपाल, (ii) भगवतीचरण वर्मा, (ii) प्रेमचन्द, (iv) अमृतलाल नागर।
उत्तर-
1. (i), 2. (iv), 3. (iv), 4. (ii), 5. (i), 6. (ii), 7.(ii), 8. (iii)।

  • रिक्त स्थान पूर्ति

1. ‘भोर का तारा’ प्रसिद्ध ………….. है। [2009]
2. ……. नाटक सम्राट कहलाते हैं।
3. ‘इन्दुमती’ कहानी के लेखक ………… हैं।
4. कहानी के तत्वों की संख्या ………..” मानी जाती है। [2009]
5. ‘असफलता दिखाती है नयी राह, ……….. विधा की रचना है।
6. ‘सवा सेर गेहूँ’ के लेखक ………..” हैं।
7. उपन्यास शब्द का शाब्दिक अर्थ ………….[2012]
8. परीक्षा नामक निबन्ध …………. ने लिखा है।
9. ‘कवि वचन सुधा’ पत्रिका के सम्पादक का नाम …………. है।
उत्तर-
1. एकांकी,
2. जयशंकर प्रसाद,
3. किशोरीलाल गोस्वामी, 4. छ:,
5. आत्मकथा,
6. प्रेमचन्द,
7. समीप रखना,
8. प्रतापनारायण मिश्र,
9. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र।

  • सत्य/असत्य

1. हजारीप्रसाद द्विवेदी ‘द्विवेदी युग’ के लेखक हैं। [2009, 10]
2. विद्यानिवास मिश्र ललित निबन्धकार हैं।
3. प्रेमचन्द ने मात्र नगरीय जीवन पर कहानियाँ लिखी हैं।
4. ‘मैला आँचल’ आंचलिक उपन्यास है।
5. आत्मकथा लेखक स्वयं लिखता है। [2009]
6. ‘उसने कहा था’ कहानी के लेखक प्रेमचन्द हैं।
7. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल एक कवि थे। [2009]
उत्तर-
1. असत्य,
2. सत्य,
3. असत्य,
4. सत्य,
5. सत्य,
6. असत्य,
7. असत्य।

  • जोड़ी मिलाइए

I.
1. गद्य का प्रथम उत्थान काल [2008] – (क) महादेवी वर्मा
2. रेखाचित्र [2010] – (ख) भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
3. ‘सत्य के प्रयोग’ आत्मकथा के लेखक हैं [2009] – (ग) मुंशी प्रेमचन्द
4. उपन्यास सम्राट [2008] – (घ) महात्मा गाँधी
5. आत्मकथा [2012] – (ङ) मेरे बचपन के दिन
6. संस्मरण [2013] – (च) हरिवंश राय बच्चन’
उत्तर-
1. → (ख),
2.→ (क),
3.→ (घ),
4.→ (ग),
5.→ (च),
6.→
(ङ)।

II.
1. ‘सरस्वती’ पत्रिका के प्रथम सम्पादक [2009] – (क) सरदार पूर्णसिंह
2. द्विवेदी युग के प्रसिद्ध निबन्धकार हैं [2008] – (ख) महावीर प्रसाद द्विवेदी
3. व्यंग्य – (ग) मोहन राकेश
4. ‘एक और जिन्दगी’ [2009] – (घ) हरिशंकर परसाई
उत्तर-
1. → (ख),
2. → (क),
3.→ (घ),
4. → (ग)।

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  • एक शब्द/वाक्य में उत्तर

1. खड़ी बोली हिन्दी गद्य का प्रारम्भ किस काल में हुआ?
2. उत्साह किस प्रकार का निबन्ध है?
3. ‘गोदान’ के लेखक कौन हैं?
4. ‘कोणार्क’ के लेखक का नाम बताइए।
5. गद्य में रचित किसी विशिष्ट व्यक्ति का साक्षात्कार किस विधा में आता है?
6. हिन्दी की प्रथम कहानी कौन-सी मानी गई है? [2009]
7. एक अंक वाली नाट्य कृति क्या कहलाती है?
8. ‘कर्त्तव्य और सत्यता’ नामक निबन्ध के लेखक कौन हैं?
9. ‘आकाशदीप’ कहानी किसने लिखी है?
10. कहानी (गद्य विधा) के कितने तत्व होते हैं? [2015]
उत्तर-
1. ‘आधुनिक काल’,
2. मनोविकार सम्बन्धी,
3. प्रेमचन्द,
4. गिरिजाकुमार माथुर,
5. भेंटवार्ता,
6. इन्दुमती,
7. एकांकी,
8. श्यामसुन्दर दास,
9. जयशंकर प्रसाद,
10. छः।

MP Board Class 11th Hindi Solutions

MP Board Class 11th Special Hindi पद्य साहित्य का इतिहास

MP Board Class 11th Special Hindi पद्य साहित्य का इतिहास

वीरगाथा काल (आदिकाल)

समाज की विविध मनोवृत्ति की झलक हमें यथातथ्य रूप में साहित्य में दिखाई देती है। परिवर्तनशील मन-अवस्था का चित्रण विविध समय में विविध रूपों में होता रहा है। जिस काल-विशेष में जिस भावना-विशेष की प्रधानता रही, उसके आधार पर इतिहासकारों ने उस काल का नामकरण या वर्गीकरण कर दिया। विक्रम सम्वत् 1050 से 1375 तक हिन्दी साहित्य में को झकार एवं कोलाहल विद्यमान है। इस काल में एकता के अभाव में युद्धों की प्रधानता रही। उस समय के कवियों में वीरभाव के प्रति विशेष आग्रह रहा, किन्तु ये कवि शृंगार रस से भी विमुख नहीं थे। इस काल के प्रमुख ग्रन्थ निम्नांकित हैं-

  1. विजयपाल रासो,
  2. हम्मीर रासो,
  3. कीर्तिलता,
  4. कीर्तिपताका,
  5. खुमान रासो,
  6. बीसलदेव रासो,
  7. पृथ्वीराज रासो,
  8. जयचन्द्र प्रकाश,
  9. जयमयंक चन्द्रिका,
  10. खुसरो की पहेलियाँ,
  11. विद्यापति की पदावलियाँ,
  12. परमाल रासो।

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इन ग्रन्थों में अधिकांश वीरगाथाएँ हैं, अतएव इस काल का नामकरण वीरगाथा काल हुआ। वीरगाथाएँ मुक्तक एवं प्रबन्ध काव्य के रूप में लिखी गयीं। जगनिक कवि का परमाल रासो’ या आल्हा एवं नरपतिनाल्ह का ‘बीसलदेव रासो’ मुक्तक हैं। प्रबन्ध काव्य में दलपति विजय का ‘खुमान रासो’, चन्दबरदाई का ‘पृथ्वीराज रासो’ बहुत प्रसिद्ध है। वीरगाथा काल के प्रमुख विषय शौर्य, प्रेम और कीर्ति रहे, जो अपभ्रंश और प्राचीन हिन्दी में वीर और श्रृंगार रस के माध्यम से अभिव्यक्त हुए। इस काल के प्रमुख छन्द थे-दूहा (दोहा), गाथा, त्रोटक, तोमर, छप्पय, आल्हा, वीर और आर्या। कवि लोग प्रायः राज्याश्रित रहते थे तथा अपने राजाओं की प्रशंसा गा-गाकर किया करते थे। वे भाट और चारण कहलाते थे। अपने राजाओं की शौर्य-गाथा का वर्णन करते-करते कवि अतिशयोक्ति एवं वर्णन की नीरस सूची से नहीं बच पाया। अतएव इन रचनाओं में राष्ट्रीय भावना एवं ऐतिहासिक प्रामाणिकता का अभाव ही है। वीरगाथाकाल में जिन युद्धों का वर्णन है, वे पारस्परिक वैमनस्य एवं सुन्दरियों को लेकर होते थे। अतएव कवि सुन्दर नायिकाओं का वर्णन कर श्रृंगार रस का समावेश कर लिया करते थे। इस काल की भाषा सर्वथा भावानुरूप थी। डिंगल भाषा में हुए अभूतपूर्व युद्ध-वर्णन ही वीरगाथा काल को चमत्कृत किये हुए हैं। छन्दों का प्रयोग रसानुभूति एवं भावाभिव्यंजना में सहायक है। इस काल का प्रिय अलंकार यद्यपि अतिशयोक्ति और अनुप्रास रहा है, फिर भी उपमा, रूपक, सन्देह, उत्प्रेक्षा का प्रयोग भी उपयुक्त व सफल है। इस युग की प्रमुख धारणा मनोरंजन की थी। विद्यापति की पदावलियाँ भक्ति-शृंगार से ओत-प्रोत हैं। सिद्धों और नाथों की रचनाओं में भक्ति के तत्व विद्यमान थे। यही हिन्दी का आदिकाल है।

वीरगाथा काल (आदिकाल) की प्रमुख प्रवृत्तियाँ और विशेषताएँ

  1. राज्याश्रित चारण कवि,
  2. आश्रयदाता राजाओं की प्रशंसा,
  3. सजीव युद्ध वर्णन,
  4. चरित काव्यों की रचना,
  5. वीर तथा श्रृंगार रसों की प्रधानता,
  6. राजस्थानी, अपभ्रंश खड़ी बोली तथा मैथिली मिश्रित भाषा,
  7. छप्पय और दोहा छन्द।
  • प्रमुख कवि और उनकी रचनाएँ

कवि – रचनाएँ
दलपति विजय – खुमान रासो
नरपति नाल्ह – बीसलदेव रासो
चन्दबरदाई – पृथ्वीराज रासो
जगनिक – परमाल रासो (आल्हा खण्ड)
अमीर खुसरो – पहेलियाँ, दोहे
नल्लसिंह – विजयपाल रासो
विद्यापति – कीर्तिलता, पदावली

भक्तिकाल
भक्तिकाल सम्वत् 1375 से प्रारम्भ होकर सम्वत् 1700 तक समाप्त हुआ। वीरगाथा काल की युद्ध विभीषिका से त्रस्त मानव हृदय शान्ति की खोज में भटकने लगा। हिन्दू-मुस्लिम के मध्य विद्वेष की भावना को दूर कर उन्हें एकता के सूत्र में आबद्ध करने हेतु पण्डितों और मौलवियों दोनों ने ही जनता में भक्ति का प्रसार कर असीम की छत्रछाया की ओर संकेत किया। धर्म ने मस्तिष्क से हटकर हृदय में आश्रय लिया, वह भावाकुल हो उठा। बस, इसी बिन्दु से भक्ति का उन्मेष हुआ। इसलिए इस युग का नाम भक्तिकाल पड़ा। सगुण भक्ति का प्रतिपादन हुआ, जो आगे चलकर राम-भक्ति और कृष्ण-भक्ति दो धाराओं में विभाजित हो गयी। दूसरी ओर ब्रह्म उपासना या एकेश्वरवाद के प्रतिपादकों ने अपने काव्य में एक ऐसे ईश्वर की उपासना की, जो हिन्दू तथा मुसलमानों को समान रूप से मान्य हो। इस निर्गुण धारा की भी ज्ञानमार्गी और प्रेममार्गी दो शाखाएँ हुईं।

(1) भक्तिकालीन निर्गुण प्रेममार्गी शाखा-इस शाखा में प्रेम-प्रधान निराकार ब्रह्म की उपासना का प्राधान्य था। इसमें प्रबन्ध काव्यों की रचना हुई, जिसमें मलिक मुहम्मद जायसी का ‘पद्मावत’ ग्रन्थ बहुत प्रसिद्ध हुआ। प्रमुख छन्द, सोरठा, दोहा, चौपाई हैं। अवधी और फारसी भाषा का प्रयोग है तथा मसनवी शैली है। इस काल में सूफी कवियों ने आत्मा को प्रियतम मानकर हिन्दू प्रेम कहानियों का वर्णन किया है। हिन्दू-मुस्लिम एकता इस शाखा की प्रमुखता है। कवि कुतुबन, मंझन, उस्मान एवं जायसी ने प्रेमगाथाओं को काव्य-रूप में गूंथ दिया। पद्मावत के अतिरिक्त स्वप्नवती, मुग्धावती एवं मृगावती आदि प्रमुख काव्य ग्रन्थ हैं। मधु मालती कवि मंझन का सुन्दर प्रेम काव्य है। ये सभी काव्य श्रृंगार रस के भण्डार हैं जिसके संयोग और विप्रलम्भ दो तट हैं। इस काल के काव्य ग्रन्थ उत्कृष्ट एवं अलौकिक प्रेम तत्व से परिपूर्ण हैं। इन सूफी काव्यों की रचना-शैली दोहा-चौपाई है और इसमें कथा को आदि से अन्त तक लिखा जाता है। इनकी भाषा-शैली बड़ी ही हृदयस्पर्शी एवं भावभीनी है। इस काल के सभी महाकाव्य प्रेम कथाओं पर आधारित हैं, जो शास्त्रीय कसौटी पर खरे उतरते हैं। इन काव्यों में कवि ने कल्पना की चादर ओढ़कर इतिहास की पृष्ठभूमि पर लेखनी चलाकर भावपूर्ण चित्र अंकित किए हैं।

3 इस काल के काव्य में कला-पक्ष के अतिरिक्त भाव-पक्ष भी सबल है। श्रृंगार रस के दोनों पक्षों पर कवियों ने समान ध्यान दिया है, किन्तु रस-प्रयोग में शृंगार में कहीं-कहीं जुगुप्सा का भाव मिलता है। इसके अतिरिक्त करुण, रौद्र के भी दर्शन होते हैं। इस काल में यदि किसी रस का अभाव है, तो वह है-वात्सल्य। इस काल की भाषा ठेठ अवधी है। काव्य में रहस्यवाद, एकेश्वरवाद के समन्वय के दर्शन होते हैं, जो अत्यन्त प्रभावशाली है।

(2) भक्तिकालीन ज्ञानमार्गी निर्गुण शाखा–भक्ति की इस शाखा में केवल ज्ञानप्रधान निराकार ब्रह्म की उपासना की प्रधानता है। इसमें प्रायः मुक्तक काव्य रचे गये। दोहा और पद आदि स्फुट छन्दों का प्रयोग हुआ है। भाषा खिचड़ी एवं सधुक्कड़ी है। भारतीय दर्शन के आधार पर आत्मा को प्रियतमा मानकर आत्मा-परमात्मा के विरह-मिलन का वर्णन है। राम और रहीम की एकता का प्रतिपादन है। इस काल में आडम्बरों का घोर विरोध किया गया और हिन्दू-मुस्लिम एकता पर जोर दिया गया। इस समय का प्रमुख रस शान्त रस है।।

इस बात की प्रमुख विशेषता एक ऐसे ईश्वर की उपासना है जो हिन्दू-मुस्लिम दोनों को समान रूप से मान्य हो। इन कवियों के मतानुसार ईश्वर का वास आत्मा में है, न कि बाहरी साज-सज्जा में। ईश्वर के केवल तात्विक स्वरूप की ही मीमांसा की गई है। इस काल की एक और विशेषता है-‘रहस्यवाद’। इस शाखा के कवि साम्प्रदायिकता और वर्णाश्रम धर्म के विरोधी थे। वे इन्द्रिय-निग्रह और साधना पर जोर देते थे।

इस काल के मुख्य कवि कबीरदास हैं। इनके अतिरिक्त अन्य मुख्य कवि सुन्दरलाल, मलूकदास, गुरुनानक, रैदास, दादू दयाल एवं पलटू साहब हैं।

इस शाखा के कवि सन्त कवि कहलाते हैं, क्योंकि उनके काव्यों की प्रमुख विशेषता उसमें निहित उदात्त भावों की प्रधानता है। जिसका न केवल विशुद्ध जीवन के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है, अपितु जिनकी अभिव्यक्ति भी प्रधानतः ऐसे कवियों के द्वारा की गयी-जिन्होंने स्वानुभूति की प्रयोगशाला में उनका मूल्यांकन एवं सत्यापन कर लिया था।

(3) भक्तिकालीन सगुण रामभक्ति शाखा [2008]-इस काल में भगवान श्रीराम के सत्य, शील एवं सौन्दर्य प्रधान अवतार की उपासना की गयी है। राम के सम्पूर्ण जीवन चरित का आधार लेकर इस काल में प्रबन्ध एवं मुक्तक काव्य दोनों प्रकार के काव्यों की रचना की गयी। इस काल में प्रमुख रूप से दोनों अवधी और ब्रजभाषा का उपयोग हआ और कई छन्दों में रचनाएँ . हुईं। दोहा, चौपाई,कवित्त,सवैया, बरवै,रोला, तोमर, त्रोटक,गीतिका,हरिगीतिका और पद आदि प्रमख छन्द हैं। तत्कालीन कवियों ने मर्यादित भक्ति एवं भारतीय संस्कृति के पुनःनिर्माण की भावना के साथ रामकथा का वर्णन किया। कवियों की विनय भावना में परम दैन्य के दर्शन होते हैं। इस काल के काव्य में सभी रसों का समावेश हुआ,किन्तु शान्त और श्रृंगार प्रधान रस हैं। रामचरितमानस’ इस काल का सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है। इसके रचयिता तुलसीदास हैं। तुलसीदास ही इस काल के प्रमुख कवि हैं। इसके अतिरिक्त नाभादास, प्राणचन्द चौहान, हृदयराम, रघुराज सिंह और केशवदास के नाम उल्लेखनीय हैं। रामभक्ति शाखा के प्रवर्तक रामानन्द हैं। उन्होंने रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा में भक्ति को ब्रह्म प्राप्ति का परम साधन बताया और सभी रामाश्रयी भक्तिकालीन कवियों ने इसी भक्ति मार्ग को अपनाया। उन्होंने भगवान राम की लोकमंगलकारी शक्ति का निरूपण किया। दास्य रूप में रामभक्ति का प्रारम्भ काव्य में तुलसीदास द्वारा ही हुआ।

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अन्य कवियों ने भी लिखा है, किन्तु तुलसी ने राम के बारे में इतना अधिक लिखकर राम-जीवन के सभी पक्षों का उद्घाटन किया कि और लोगों को लिखने के लिए कुछ भी शेषनरहा। रामकाव्य की मुख्य तीन विशेषताएँ हैं। वैष्णव धर्म को सामने रखकर भक्ति के सेव्य-सेवक रूप पर ही ध्यान दिया गया। इस काल में ज्ञान और कर्म से भक्ति की श्रेष्ठता दर्शायी है और जो सबसे प्रभावशाली बना है, वह है रचना-शैली। रामभक्त कवि किसी एक परिपाटी में नहीं बँधे। उन्होंने विभिन्न रचना-शैलियों का प्रयोग किया है। दृश्य, श्रव्य, मुक्तक और प्रबन्ध काव्य सभी की रचना हुई है। इस काल का काव्य स्वतन्त्र वातावरण में विकसित हुआ। कवियों पर किसी राजा का नियन्त्रण नहीं था, अतएव किसी की प्रशंसा करना या धनोपार्जन करना कवियों का उद्देश्य नहीं था। कवियों ने राम को अपना इष्टदेव माना और अपने हृदय का उल्लास, विनय तथा आत्म-निवेदन करना उनका मुख्य उद्देश्य था। अत: कवियों की कविता स्वान्तः सुखाय है। परम प्रतिभासम्पन्न, आदर्श भक्त एवं लोकनायक तुलसी ने लोक कल्याणार्थ कविता की रचना की। उन्होंने बारम्बार अपने काव्य में ज्ञान से भक्ति की श्रेष्ठता प्रतिपादित की है। इस काल के काव्य का भाव-पक्ष और कला-पक्षदोनों ही सबल हैं। काव्य में अति स्वाभाविक और सौन्दर्यवर्द्धक अलंकार योजना है, जिससे यत्र-तत्र सभी रस प्रवाहित हैं।

(4) भक्तिकालीन सगुण कृष्णभक्ति शाखा-कृष्णभक्ति शाखा में भगवान विष्णु के कृष्णावतार की उपासना है। इस शाखा में केवल मुक्तक काव्यों की रचना हुई। भगवान कृष्ण की भक्ति के सभी पद ब्रजभाषा की माधुरी से ओत-प्रोत हैं। केवल ‘पद’ छन्द का ही प्रयोग हुआ। इन पदों का मुख्य विषय-राधाकृष्ण की प्रेमपूर्ण उपासना है, किन्तु सूरदास ने कृष्ण की बाल-लीलाओं का भी वर्णन किया है, जो स्वाभाविक और हृदयस्पर्शी है। इस काल के प्रमुख रस भंगार के दोनों पक्ष और वात्सल्य रस हैं। प्रमुख कवि सूरदास द्वारा रचित सूरसागर ही प्रमुख ग्रन्थ है।

कृष्णभक्ति काव्य के प्रमुख प्रवर्तक बल्लभाचार्य हैं। इन्होंने कृष्णभक्ति में माधुर्य भाव को ही प्रधानता दी है। माधुर्य भाव की प्रधानता होने से कृष्ण के केवल लोकरंजक रूप का ही प्राधान्य है। किन्तु कहीं लोकरक्षक रूप का भी आभास होता है। इस काल में केवल मुक्तक रचनाएँ हुई हैं और प्रबन्ध काव्य का सर्वथा अभाव है। किन्तु ये मुक्तक भी इतने मर्मस्पर्शी हैं कि एक-एक पद पढ़कर पाठक भावानुकूल हो जाते हैं, जो स्मृति पटल में न जाने कितना विस्तार कल्पना के लिए छोड़ जाते हैं। सर्वत्र स्वतन्त्र प्रेम की झलक प्राप्त होती है, इसलिए लोक-जीवन की प्रायः अवहेलना ही हो गयी है। यदि कहीं लोक-जीवन का सामान्य-सा चित्रण है भी तो वह रस की पुष्टि के अर्थ में चित्रित है। पद-शैली में संगीत की विभिन्न राग-रागनियों का अच्छा समायोजन है। इसी से कृष्णभक्ति के अधिक पद गाये जाते हैं, जिसमें उत्कृष्ट माधुर्य भावना है। इस मधुरता को रक्षित करने के लिए ही मानो कृष्ण भक्त कवियों ने केवल एकमात्र माधुरी ब्रजभाषा को अपनाया है। अलंकारों का सुन्दर स्वाभाविक प्रयोग है।

कृष्णभक्ति काल की रचनाओं में एक और बात जो ध्यान आकर्षित करती है, वह है-कृष्ण काव्य की व्यंग्यात्मक उपालम्भ शैली। विप्रलम्भ श्रृंगार इस काल में अपने चरमोत्कर्ष को प्राप्त कर चुका है। भ्रमर गीतों की अनूठी परम्परा इस रसराज की पोषक है। केवल मीराबाई ने कृष्ण की एकभाव से प्रेमिका के रूप में उपासना की है।

कृष्णकाव्य के प्रसंग में हमें ‘अष्टछाप’ को विस्मृत नहीं करना चाहिए। बल्लभाचार्य के पश्चात् उनके उत्तराधिकारी विट्ठलनाथजी थे। उनके समय तक कृष्ण की पुष्टिमार्ग के सिद्धान्तानुसार भक्ति करने वाले कवि अनेक थे। उन कवियों में से जिन आठ कवियों के काव्य का संग्रह विट्ठलनाथ ने किया, वह ‘अष्टछाप’ कहलाता है।

ये आठ कवि हैं-

  1. सूरदास,
  2. नन्ददास,
  3. कुम्भनदास,
  4. परमानन्ददास,
  5. चतुर्भुजदास,
  6. छीत स्वामी,
  7. गोविन्द स्वामी और
  8. कृष्णदास।

सूरदास व नन्ददास इनमें श्रेष्ठ हैं। इसके अतिरिक्त कुछ कवि और भी हुए, जिन्होंने स्वतन्त्र रूप से कृष्णभक्ति की कविताएँ लिखीं। मीराबाई, रसखान, नरोत्तमदास आदि की कृष्ण सम्बन्धी कविताएँ भावों की व्यंजना से पूर्ण हैं। रसखान मुस्लिम कवि थे, जो अपनी तन्मयता के लिए प्रसिद्ध थे। ‘सुजान रसखान’ और ‘प्रेमवाटिका’ इनके दो ग्रन्थ हैं। मीराबाई जोधपुर की राजकुमारी थीं। ये कृष्ण-प्रेम की मतवाली थीं और गा-गाकर नाचा करती थीं। ‘मीरा की पदावली’ में इनके पदों का संग्रह है। इनकी प्रेमवाणी हिन्दी-साहित्य में अनुपम है।

नरोत्तमदास का ‘सुदामा चरित्र’ ब्रजभाषा का खण्डकाव्य है।

जिस प्रकार राम चरित्र का गान करने वाले भक्त कवियों में गोस्वामी तुलसीदासजी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। उसी प्रकार कृष्ण चरित्र गाने वालों में भक्त कवि सूरदासजी का शीर्षस्थ स्थान है। इन्हीं के काव्यों की सरसता से हिन्दी काव्य का स्रोत अविरल प्रवाहित है। सूरदास जन्मान्ध थे; किन्तु कृष्ण की बाल-लीलाओं का जो सजीव वर्णन है, वह कोई आँख वाला कवि भी नहीं कर सकता। जीवन भर सूरदास ने कृष्ण लीलाओं का गायन किया। ‘सूरसागर’, ‘सूरसारावली’ एवं ‘साहित्य लहरी’ इनके रचित ग्रन्थ हैं। बताया जाता है कि सूर ने सवा लाख पदों की रचना की। सूरदास वात्सल्य रस के सम्राट कहे जाते हैं। अंगार और शान्त रसों का भी वर्णन किया है। सूरदास बालक बनकर एक सखा की भाँति बालकृष्ण के साथ खेलते हैं। इनकी भक्ति सखा भाव की है। विनय के पदों में सूर ने सच्चे मानव जीवन की छवि अंकित की है। वह मार्मिक चित्रण शान्त रस का उत्कृष्ट उदाहरण है। सूर एक भक्ति कवि हैं। उनके काव्य का मुख्य गुण है सरलता और स्वाभाविकता। श्रृंगार के विप्रलम्भ पक्ष का अद्वितीय वर्णन भ्रमरगीत में है। इसमें सन्देह नहीं कि कृष्ण परम्परा में कवियों ने गीतिकाव्य को इतना सम्पन्न किया जो अक्षय है। यद्यपि रचनाएँ एकांगी हैं, उनमें बहुरूपता नहीं, तब भी सरस हैं।

(5) भक्तिकाल की स्फुट शाखा-भक्ति का जो प्रवाह उमड़ा वह राजाओं और शासकों के प्रोत्साहन पर अवलम्बित नहीं था। वह जनता की प्रवृत्ति का द्योतक था। उसी प्रवाहकाल के बीच अकबर जैसे शासक द्वारा स्थापित शान्तिसुख के परिणामस्वरूप जो रचनाएँ लिखी गईं वह दूसरे प्रकार की थीं। नरहरि, गंग, रहीम जैसे सुकवि और तानसेन जैसे गायक अकबरी दरबार की शोभा बढ़ाते थे। इस काल में मुक्तक कविता की रचना हुई दोहा, कवित्त आदि स्फुट छन्दों का प्रयोग हुआ। ब्रजभाषा के साथ अन्य बोलियों के शब्दों का भी निर्माण हुआ। स्फुट रूप में सभी रसों का समावेश हुआ। दरबारी कविता, नीति कविता, रीति कविता और प्रकृति की कविताएँ लिखी गयीं। प्रमुख कवि रहीम, गंग, सेनापति आदि थे। इनके अतिरिक्त कृपाराम, नरहरि, बन्दीजन, नरोत्तमदास, आलम, टोडरमल, बीरबल, मनोहर, बलभद्र मिश्र, जमाल, केशवदास, मुबारक, बनारसीदास, पुहुकर, लालचन्द या लक्षोदय और सुन्दर आदि कवियों का उल्लेख भी आचार्य शुक्ल ने अपने इतिहास ग्रन्थ में किया है।

रहीम अरबी, फारसी और संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे। इन्होंने चार ग्रन्थ लिखे। गंग अकबर के दरबारी कवि थे। सेनापति ने ‘कविता रत्नाकर’ और ‘काव्य कल्पद्रुम’ दो ग्रन्थ लिखे। ‘ऋतु वर्णन ‘हिन्दी साहित्य में अद्वितीय है। केशवदास भक्तिकाल और रीतिकाल के बीच की कड़ी हैं।

  • भक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ और विशेषताएँ
  1. ईश्वरभक्ति,
  2. गुरु महिमा,
  3. सादा जीवन,
  4. समन्वय की भावना,
  5. राज्याश्रय से मुक्ति,
  6. विविध रसों का परिपाक,
  7. भाषा की विविधता।

प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएँ
MP Board Class 11th Special Hindi पद्य साहित्य का इतिहास 1

रीतिकाल रीतिकाल का समय सम्वत् 1700 से सम्वत् 1900 तक (सन् 1643 से 1843 ई.) तक है। काल की काव्यगत रीतिबद्धता की मूल प्रवृत्ति के कारण इसे रीतिकाल कहा है।

इस काल में मुगलों का क्रमशः पतन हो रहा था, जिसके फलस्वरूप देश में छोटे-छोटे राजाओं ने अपनी रियासतें स्थापित करना शुरू कर दिया। इन राजाओं के आश्रय में कवि रहा करते थे। कवि अपने आश्रयदाताओं के मनोरंजनार्थ काव्य की रचना करते थे। इन कवियों को विषय भक्तिकाल से सहज रूप में मिल गये थे। भक्तिकाल के अलौकिक और आध्यात्मिक आराध्य राधाकृष्ण को रीतिकालीन कवियों ने बौद्धिक स्तर पर उनके लौकिक रूप को अपनी काव्य रचना में स्थान दिया। इस काल में रस, छन्द, अलंकार के शास्त्रीय पक्ष को विशेष बल मिला। रस में श्रृंगार रस के संयोग और वियोग दोनों बहिर्मुखी रूप में व्यंजित हुए। यही कारण है कि इन कवियों में नारी विषयक दृष्टिकोण में अन्तर आ गया। अलंकारों को इतना अधिक महत्त्व दिया कि काव्य का भाव-पक्ष उतना उभरकर सामने नहीं आ पाया। इससे बौद्धिक व्यायाम का रूप बढ़ता गया और रीतिकालीन कविता का भाव ग्रहण करने में कष्ट और परिश्रम की आवश्यकता पड़ी।

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रीतिकालीन काव्य की विशेषताएँ-

  1. सांसारिक सुख का प्राधान्य-यह समय विलास और समृद्धि का था। जीवन क्षणभंगुर है, अत: जितने दिन सुख भोग सके उतना ही अच्छा है। अत: काव्य रचना का उद्देश्य सुख प्राप्ति माना गया।
  2. कविराज्याश्रित होने के कारण कविता भरण-पोषण और धन-प्राप्ति का साधन बनी।
  3. मुक्तक काव्य और गीतिकाव्य-इस काल में मुक्तक रचनाएँ ही अधिक लिखी गयीं, जो काव्यात्मक हैं। कवित्त, सवैया, बरवै, दोहा, छन्द, मुक्तक लिखने के लिए अनुकूल थे।
  4. श्रृंगार और नखशिख वर्णन-इनकी श्रृंगार विषयक धारा में राम, कृष्ण जो भगवान थे, वे भी अछूते नहीं रहे। नायिकाओं के अंग-अंग और हर अदा का वर्णन बहुत ही लालित्यपूर्ण और विशुद्ध शृंगारपरक है।
  5. नायिका भेद-काव्य-कला की दृष्टि से उत्कृष्ट नायिका भेद का वर्णन है, किन्तु यह काव्य विलास की वस्तु बन गया।
  6. प्रकृति-चित्रण-प्रकृति वर्णन अधिक नहीं हुआ, पर प्रकृति प्रायः विप्रलम्भ श्रृंगार के उद्दीपन के अर्थों में ही अधिक प्रयुक्त हुई। फिर भी प्रकृति वर्णन उपेक्षित नहीं है। जहाँ कहीं भी प्रकृति वर्णन हुआ है, बहुत ही उत्कृष्ट कोटि का बन पड़ा है। नये-नये उपमानों का प्रयोग हुआ है।
  7. रीतिकालीन कविता में कला-पक्ष की प्रधानता रही। इस कला के प्रदर्शन में संस्कृत की सभी परम्पराओं का प्रभाव स्पष्ट है। कई रीति ग्रन्थ भी लिखे गये। भाषा मे शब्दो का चमत्कार और अलंकारों की विविधता है।
  8. विरह-वर्णन में फारसी शैली का प्रभाव है। सूक्ष्म भाव-निरूपण नहीं हुआ है।
  9. भाषा-रीतिकाल की भाषा प्रायः ब्रजभाषा ही है। कुछ कवियों ने फारसी के शब्द अपनाये और कुछ ने संस्कृत के शब्द तथा पद अपनाये।
  10. रस-वीर और श्रृंगार रस के अतिरिक्त जीवन के सन्ध्याकाल में कवियों ने शान्त रस की भी अच्छी रचनाएँ की।
  11. भाव-पक्ष कला-पक्ष से बोझिल है। इस काल के कुछ प्रेमी कवियों ने भावनाओं का हृदयस्पर्शी चित्रण किया है।
  12. छन्द-हिन्दी के प्रचलित छन्दों के अतिरिक्त संस्कृत के कुछ छन्दों को भी अपनाया गया।
  13. संस्कृत साहित्य का अत्यधिक प्रभाव-इस काल के कवि पण्डित और विद्वान थे। इनका गहन अध्ययन था। संस्कृत के ‘अमरूकशतक’ आदि के आधार पर भावों को ग्रहण कर सतसई आदि लिखी और संस्कृत के लहरी काव्य के अनुसार ‘गंगालहरी’, ‘यमुनालहरी’ आदि भी लिखी गईं।

इस काल के प्रमुख कवि हैं-केशव, बिहारी, देव, घनानन्द आदि। घनानन्द रीतिमुक्त काव्यधारा के कवि हैं। रीतिबद्ध कवियों की अपेक्षा रीतिमुक्त कवियों के काव्य में अधिक भावुकता तथा मार्मिकता पायी जाती है।

  • प्रमुख कवि और उनकी रचनाएँ

कवि – रचनाएँ
केशवदास – रसिकप्रिया, कविप्रिया, रामचन्द्रिका
मतिराम – रसराज, ललित ललाम
भूषण – शिवराजभूषण, शिवाबावनी, छत्रसाल दशक
बिहारी – बिहारी सतसई
देव – भाव-विलास, रस-विलास
सेनापति – कवित्त रत्नाकर
पद्माकर – जगद्विनोद, गंगालहरी, पद्माभरण
घनानन्द – सुजानसागर, विरह लीला
गिरधर कविराय – नीति की कुण्डलियाँ

आधुनिक काल की कविता (1900 से अब तक) ‘उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं सामाजिक आन्दोलनों के फलस्वरूप हिन्दी काव्य में नई चेतना तथा विचारों ने जन्म लिया और साहित्य बहुआयामी क्षेत्रों को संस्पर्श करने लगा। भारतेन्दु युग हिन्दी कविता का जागरण काल है। देशोद्धार, राष्ट्र-प्रेम, अतीत-गरिमा आदि विषयों की ओर ध्यान दिया गया और कवियों की वाणी में राष्ट्रीयता का स्वर निनादित होने लगा। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रतापनारायण मिश्र, चौधरी बद्रीनारायण ‘प्रेमघन’, लाला सीताराम आदि प्रमुख रचनाकार हुए।

द्विवेदी युग में खड़ी बोली कविता की सम्वाहिका बनी। काव्य में सामाजिक तथा पौराणिक विषयों का विस्तार हुआ। श्रीधर पाठक, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ मैथिलीशरण गुप्त, गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’, रामचरित उपाध्याय, रामनरेश त्रिपाठी, गोपालशरण सिंह, जगन्नाथ प्रसाद ‘रत्नाकर’, सत्यनारायण ‘कविरत्न’ आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। …

हिन्दी कविता में आधुनिकता तथा नवीन युग के सूत्रपात का श्रेय छायावादी युग को प्रदान किया जाता है।

छायावादी कविता (1920-1935) परिभाषा-डॉ. नगेन्द्र के शब्दों में, “छायावाद स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह था।””

अंग्रेजी शिक्षा के फलस्वरूप हिन्दी कवि अंग्रेजी के स्वच्छन्दतावादी काव्य के सम्पर्क में आये और कवीन्द्र-रवीन्द्र की नोबुल पुरस्कार प्राप्त ‘गीतांजलि’ ने भी छायावादी कविता को प्रभावित किया।

छायावादी काव्य की प्रवृत्तियाँ व प्रमुख विशेषताएँ

  1. बाह्यार्थ निरूपण के स्थान पर स्वानुभूति-निरूपण की प्रमुखता।
  2. सौन्दर्य तथा प्रणय-भावनाओं का प्राधान्य।
  3. कल्पना का उन्मुक्त प्रयोग।
  4. करुणा और वेदना की प्रवृत्ति।
  5. प्रकृति का सजीव सत्य के रूप में चित्रण तथा प्रकृति पर कवि द्वारा अपने भावों का आरोपण।
  6. प्रगीतों का आधिक्य।
  7. छन्द-विधान में नूतनता।
  8. भाषा में माधुर्य।
  9. भाषा में लाक्षणिकता तथा वक्रता की प्रमुखता।
  10. प्रतीक-विधान।
  11. उपमा, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों की अपेक्षा अन्योक्ति, समासोक्ति आदि व्यंग्य-मूलक अलंकारों की प्रमुखता के साथ-ही-साथ विशेषता विपर्यय, मानवीकरण आदि पाश्चात्य साहित्य के अलंकारों का प्रयोग।

छायावादी काव्यधारा के कवियों में जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवी वर्मा और अन्य कवियों में मुकुटधर पाण्डेय तथा डॉ. रामकुमार वर्मा के नाम उल्लेखनीय हैं। छायावाद-युग की राष्ट्रीय, सांस्कृतिक काव्यधारा में माखनलाल चतुर्वेदी ‘एक भारतीय आत्मा’, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ और सुभद्रा कुमारी चौहान के नाम उल्लेखनीय हैं। जयशंकर प्रसाद मूलतः सौन्दर्य, प्रेम, यौवन और श्रृंगार के कवि हैं, उनकी ‘कामायनी’ शैव दर्शन के आनन्दवाद तथा समरसता पर आधारित छायावादी काव्य है, जो आधुनिक हिन्दी-साहित्य का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है। सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ ने ‘राम की शक्ति पूजा’, ‘तुलसीदास’, ‘कुकुरमुत्ता’, ‘नये पत्ते’ आदि अपनी प्रमुख कृतियों में पौरुष, क्रान्ति तथा विद्रोह के स्वर प्रदान किये हैं। ‘निराला’ की महत्वपूर्ण देन मुक्त छन्द है। सुमित्रानन्दन पन्त प्रकृति तथा रोमांटिक काव्य के पुरस्कर्ता हैं। उन पर गाँधीवाद, मार्क्सवाद तथा अरविन्द दर्शन का प्रभाव पड़ा। ‘वीणा’, ‘पल्लव’, ‘स्वर्ण किरण’, ‘युगान्त’, ‘ग्राम्या’,’लोकायतन’ उनकी महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं। महादेवी वर्मा के काव्य में प्रधान रूप से विरह और वेदना के स्वर मिलते हैं। ‘एक भारतीय आत्मा’ और ‘नवीन’ ने राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रियतापूर्वक भाग लेकर राष्ट्रीय काव्य को बहुमुखी बनाया उत्तर छायावादी काव्य में सियारामशरण गुप्त तथा रामधारीसिंह ‘दिनकर’ के नाम अत्यन्त आदर से लिये जाते हैं।

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रहस्यवादी कविता
परिभाषा-आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में, “चिन्तन के क्षेत्र में जो अद्वैतवाद है वही भावना के क्षेत्र में रहस्यवाद है।”

हिन्दी की रहस्यवादी कविता अपना आदि स्रोत कबीर तथा जायसी में पाती है। आधुनिक काल में रहस्यवादी कविता व्यापक स्वच्छन्दतावादी काव्य-क्षेत्र के अन्तर्गत समाविष्ट है। रहस्यवादी कविता में विस्मय, जिज्ञासा, व्यथा तथा आध्यात्मिकता के तत्व मिलते हैं। इस कविता में अप्रस्तुत योजना की न्यूनता है। छायावादी कवियों में रहस्य भावना की व्यापक छाप महादेवी वर्मा की कविता में मिलती है। उनके प्रमुख काव्य-संग्रह ‘नीहार’,’रश्मि’, ‘नीरजा’ और ‘सांध्यगीत’ में अनुभूति तथा विचार के धरातल पर एकान्विति मिलती है। प्रतिपाद्य गीतकाव्य है जिसमें भावप्रधानता के अतिरिक्त व्यथा, पीड़ा, आशा, अज्ञात प्रिय के प्रति प्रणय निवेदन और साधना की विविध अनुभूतियों के स्वर मुखरित हुए हैं। महादेवी ने अज्ञात प्रियतम के प्रति प्रणय-निवेदन किया है, किन्तु उनका प्रणय दुःख प्रधान है। हिन्दी के रहस्यवादी काव्य को बौद्ध दर्शन के अतिरिक्त, उपनिषदों, सर्ववादी दर्शन आदि ने प्रभावित किया है। महादेवी वर्मा ने मध्यकालीन रहस्य-साधना की परम्परा को स्वीकार कर और उसे लोक-कल्याण से सम्पृक्त कर अपने युगबोध के अनुकूल निर्मित करने का प्रयास किया है। यह रहस्यवाद का एक अभिनव अध्याय है जिसके उद्घाटन का सम्पूर्ण श्रेय महादेवी को है। महादेवी के अतिरिक्त प्रसाद, निराला, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, रामकुमार वर्मा, मोहनलाल महतो ‘वियोगी’, लक्ष्मीनारायण मिश्र, जनार्दन झा ‘द्विज’ आदि में भी रहस्य साधना के अनेक रूप विद्यमान हैं।

उन्मुक्त प्रेम काव्य
इस श्रेणी के प्रमुख कवियों में भगवतीचरण वर्मा, डॉ. हरिवंशराय बच्चन, नरेन्द्र शर्मा, गोपालसिंह ‘नेपाली’, रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’, हरिकृष्ण प्रेमी’, हृदयनारायण ‘हृदयेश’ आदि परिगणित हैं। इस काव्य में लाचारी तथा कर्म से विमुखता है। छायावादी कविता व्यक्ति चेतना से ऊपर उठकर मन एवं फिर आत्मा को संस्पर्श करती हैं परन्तु प्रेम तथा मस्ती के काव्य गायकों की व्यक्तिनिष्ठ चेतना मुख्य रूप में शरीर तथा मन के स्तर पर ही अभिव्यक्त होती रही है। इनके लिए प्रणय मार्ग न होकर मंजिल है। ये कवि मात्र प्रणय में तल्लीन होना चाहते हैं। मादकता, मदिरा आदि में व्यक्ति-स्वातन्त्र्य की भावना प्रकट हुई है। करुणा तथा हालावाद को भी प्रमुख वाणी मिली।

प्रगतिवादी कविता (1936-1943)
परिभाषा-“राजनीति के क्षेत्र में जो साम्यवाद है,वह काव्य के क्षेत्र में प्रगतिवाद है।” प्रगतिवादी काव्य की संज्ञा उस कविता को प्रदान की गई जो.कि छायावाद के समापन काल में सन् 1936 के आस-पास सामाजिक चेतना को लेकर अग्रसर हुआ। प्रगतिवादी कविता में राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक शोषण से मुक्ति का स्वर प्रमुख है। इस कविता पर मार्क्सवाद का प्रभाव है। रूस के नये संविधान और सन् 1905 में लखनऊ में भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ की प्रेमचन्द की अध्यक्षता में हुई सभा इसके विकास-क्रम के महत्वपूर्ण सोपान हैं। प्रगतिवाद की प्रमुख विशिष्टताएँ अग्रलिखित हैं-

  1. यथार्थवाद की ओर झुकाव।
  2. भाव प्रवणता के स्थान पर बौद्धिकता की प्रमुखता।
  3. श्रद्धा एवं आध्यात्मिकता का विरोध।
  4. रूढ़ियों का विरोध और समस्त क्षेत्रों में क्रान्ति की भावना।
  5. पूँजीवाद का विरोध, शोषकों के प्रति आक्रोश और शोषितों के प्रति सहानुभूति संवेदना।
  6. सुबोध तथा सहज भाषा-शैली।
  7. मार्क्सवादी विचारधारा का पल्लवन।

प्रगतिवाद ने साहित्य को सोद्देश्य रूप में स्वीकार किया और किसी विशेष दृष्टि से कला की साधना करना आवश्यक माना। उसने सौन्दर्य को नये दृष्टिकोण से देखा-परखा और उसे जन-जीवन में खोजा। प्रगतिवादी काव्य के शिल्प में सामाजिक जीवन की वास्तविकता के प्रति आग्रह और जनता के जीवन की बात को जनता तक पहुँचाने के कारण, उसकी भाषा सुस्पष्ट, सामान्य और प्रचलित रूप लेकर चली। उसने प्रतीक, बिम्ब, शब्द, मुहावरे और चित्र सभी जन-सामान्य के बीच से लिये। अतएव, एक अत्यन्त जीवन्त भाषा को प्रमुखता मिली। बाद में कविता प्रचारात्मक, अभिधात्मक और सपाट होती चली गई। इसमें कोई सन्देह नहीं कि प्रगतिवाद ने भाषा को कृत्रिमता के कुहरे से निकालकर सामान्य धरातल पर प्रतिष्ठित किया। ‘निराला’, सुमित्रानन्दन पन्त, केदारनाथ अग्रवाल, रामविलास शर्मा, नागार्जुन, डॉ. रांगेय राघव, डॉ. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, त्रिलोचन, मुक्तिबोध आदि इस धारा के प्रमुख कवि हैं।

प्रयोगवादी कविता (1943-1950)-
‘प्रयोगवाद’ उन कविताओं के लिए प्रमुख सम्बोधन बना जो कतिपय नूतन बोधों, संवेदनाओं, शिल्पगत चमत्कारों को लेकर, प्रारम्भ में तार सप्तक’ के माध्यम से सन् 1943 में प्रकाश में आईं। इसके उन्नायक सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ स्वीकार किये गये। यह वर्ग अंग्रेजी के कवियों यथा टी. एस. इलियट, ऐजरा पाउण्ड, लारेंस आदि से प्रभावित हुआ। इस क्षेत्र में अनेक वर्ग के कवियों ने अपना योगदान दिया है तथा विचारों से समाजवादी किन्तु संस्कारों से व्यष्टिपरक, जैसे-शमशेर बहादुर सिंह, नरेश मेहता और नेमिचन्द्र जैन, विचारों और क्रियाओं, दोनों से समाजवादी, जैसे-रामविलास शर्मा तथा गजानन माधव मुक्तिबोध। प्रयोगवादी कविता में हासोन्मुख मध्यमवर्गीय समाज के जीवन का चित्र मिलता है। इन कवियों ने नये सत्य के शोध तथा प्रेषण के नूतन माध्यम की खोज की। प्रयोगवादी कवि जन-जीवन के प्रवाह से कटकर उसी के मध्य नदी के द्वीप की भाँति अपनी इकाई में संस्थित रहता है। उनमें गहरा तथा सजग पीड़ा का बोध है।

प्रयोगवादी कवि यथार्थवादी होने के साथ ही साथ भावुकता के स्थान पर बौद्धिकता को विशेष रूप से ग्रहण करते हैं। ये कवि मध्यमवर्गीय व्यक्ति-जीवन की समूची कुण्ठा, पराजय, मानसिक संघर्ष तथा जड़ता को बड़ी बौद्धिकता के साथ प्रकट करते है। फ्रॉयड के काम सिद्धान्त को सिरमौर बनाया गया। छायावादी कवि कल्पना लोक में नारी के साथ तादात्म्य स्थापित कर अपनी पिपासा को शान्त करता है, परन्तु प्रयोगवादी कवियों ने कल्पना के रंगीन आवरण को उच्छेद कर, अवदमित यौनाकांक्षाओं को खुले रूप में भास्वर बना दिया। अज्ञेय, शमशेर बहादुर सिंह, गिरिजा कुमार माथुर और डॉ. धर्मवीर भारती ने स्पष्ट या बारीक प्रतीकों, बिम्बों एवं माध्यमों से उलझी हुई संवेदनाओं को मूर्त किया। प्रयोगवादी काव्य महान् संघर्षों तथा जीवन प्रसंगों से न जुड़कर व्यक्ति के अन्तः संघर्षों और मन की विविध स्थितियों के प्रति प्रतिबद्ध होकर, छोटी, तीव्र तथा प्रभावशाली कवियों का स्रष्टा बना। उसने लघु मानव के प्रति सहानुभूति का मार्ग अपनाया। प्रयोग के नाम पर भाव, विचार, प्रक्रिया, छन्द, प्रतीक, अलंकार आदि सब में परिवर्तन करने की प्रवृत्ति इस दशक की कविता में प्रचुरता पा गई।

नई कविता (1950 से अब तक)
नई कविता भारतीय स्वाधीनता के अनन्तर लिखी गई उन कविताओं को कहा गया जिन्होंने नये भावबोध, नये मूल्यों और नूतन शिल्पविधान को अन्वेषित तथा स्थापित किया। नई कविता अपनी वस्तु-छवि तथा रूपायन में पूर्ववर्ती प्रगतिवाद तथा प्रयोगवाद की विकासान्विति होकर भी अपने में सर्वथा विशिष्ट तथा असामान्य है।

नई कविता की प्रमुख प्रवृत्तियों में आज की क्षणवादी, लघु मानववादी जीवन दृष्टि के प्रति नकार-निषेध नहीं अपितु स्वीकार सहमति के साथ जीवन को पूर्णतया स्वीकार करके उसके भोगने की आकांक्षा है। नई कविता क्षणों की अनुभूतियों में अपनी आस्था प्रकट करती है जो कि समस्त जीवनानुभूतियों के लिए अवरोध न बनकर सहायक होते हैं। नई कविता, लघु मानवत्व को स्वीकार करती है जिसका तात्पर्य है सामान्य मनुष्य की अपेक्षित समूची संवेदनाओं और मानसिकता की खोज या प्रतिष्ठा करना। नई कविता कोई वाद नहीं है। उसमें सर्व महान् विशिष्ट कश्य की व्यापकता तथा सृष्टि की उन्मुक्तता है। नई कविता के दो प्रमुख घटक हैं-

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(क) अनुभूति की सच्चाई और
(ख) बुद्धि की यथार्थवादी दृष्टि।

नई कविता जीवन के प्रत्येक क्षण को सत्य मानती है। आन्तरिक और मार्मिकता के कारण नई कविता में जीवन के अति साधारण सन्दर्भ अथवा क्रिया-कलाप नूतन अर्थ तथा छवि पा लेते हैं। नई कविता में क्षणों की अनुभूति को लेकर अनेकानेक मार्मिक एवं विचारोत्तेजक कविताएँ लिखी गई हैं जो कि अपने लघु आकार के बावजूद प्रभावोत्पादकता में अत्यन्त तीव्र तथा सघन हैं। नई कविता की वाणी अपने परिवेश की जीवानुभूतियों से संसिक्त है। अज्ञेय के अनुभव-क्षेत्र तथा परिवेश में ग्राम एवं नगर, दोनों ही समाहित हैं। शहरी परिवेश के साथ जुड़ने वाले रचनाकारों में बालकृष्ण राव,शमशेर बहादुर सिंह, गिरिजाकुमार माथुर, कुँवर नारायण, डॉ. धर्मवीर भारती, डॉ. प्रभाकर माचवे, विजयदेव नारायण साही, रघुवीर सहाय आदि कवि आते हैं परन्तु भवानीप्रसाद मिश्र, केदारनाथ सिंह, शम्भूनाथ सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल आदि ऐसे सृजनकर्ता हैं जिन्होंने मुख्यतः ग्रामीण संस्कारों को अभिव्यक्ति दी। मदन वात्स्यायन में यान्त्रिक परिवेश और ठाकुर प्रसाद सिंह में संथाली जीवन का वातावरण आर्द्र हो गया है। नई कविता में जीवन मूल्यों की पुन: परीक्षा की गई है। प्रगतिवाद में लोक जीवन एक आन्दोलन के रूप में आया, प्रयोगवाद में वह कट गया परन्तु सम्प्रक्ति नई कविता की एक प्रमुख विशेषता बन गई। नई कविता के शिल्प को भी लोक-जीवन ने प्रभावित किया। उसने लोक-जीवन से बिम्बों, प्रतीकों, शब्दों तथा उपमानों को चुनकर निजी संवेदनाओं तथा सजीवता को द्विगुणित किया। नई कविता अपनी अन्तर्लय, बिम्बात्मकता, नव प्रतीक योजना, नये विशेषणों के प्रयोग, नव उपमान-संघटना के कारण प्रयोगवाद से अपना पृथक् अस्तित्व भी सिद्ध करती है।

प्रयोगवाद बोझिल शब्दावली को लेकर चलता है, परन्तु नई कविता ने प्रगतिवाद की तरह विशेष क्षेत्रों के विशिष्ट सन्दर्भ के लिए ही लोक शब्द नहीं लिये, परन्तु समस्त प्रकार के प्रसंगों के लिए लोक शब्दों का चयन किया। नई कविता की भाषा में एक खुलापन और ताजगी है।

निष्कर्षत: नई कविता मानव मूल्यों एवं संवेदनाओं की नूतन तलाश की कविता है।

प्रश्नोत्तर

  • लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
हिन्दी साहित्य के प्रथम युग का नाम वीरगाथा काल क्यों पड़ा?
उत्तर-
इस काल के राज्याश्रित चारण कवियों ने वीर रस के फुटकर दोहे लिखे हैं। श्रृंगार के साथ वीर रस प्रधान है। वीर रस की प्रधानता के कारण कतिपय विद्वान इसे वीरगाथा काल कहते हैं। शस्त्रों की झंकार तथा युद्धों का नाद है।

प्रश्न 2.
वीरगाथा काल की कोई तीन विशेषताएँ लिखते हुए इस युग के प्रमुख कवि एवं उनकी रचना का नाम लिखिए। [2017]
उत्तर-
पृष्ठ 2 देखें।

प्रश्न 3.
भक्तिकाल को हिन्दी साहित्य का स्वर्णयुग क्यों कहा जाता है? [2008, 15]
उत्तर-
निम्नलिखित कारणों से भक्तिकाल को हिन्दी साहित्य का स्वर्णयुग कहा जाता है-

  1. लोक मंगल तथा समन्वय की भावना।
  2. भक्ति भाव का प्राधान्य।।
  3. स्वान्त सुखाय काव्य साधना।
  4. भाव एवं कलापक्ष का मणिकांचन योग।
  5. निराशा में आशा का स्वर्णिम प्रकाश है।

प्रश्न 4.
भक्तिकाल की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए उस काल के दो कवियों के नाम लिखिए। [2011, 17]
उत्तर-
भक्तिकाल की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं –

  1. ईश्वर भक्ति,
  2. गुरु महिमा,
  3. सादा जीवन,
  4. समन्वय की भावना,
  5. राज्याश्रय से मुक्ति,
  6. विविध रसों का परिपाक,
  7. भाषा की विविधता।

प्रमुख दो कवि-

  1. तुलसीदास,
  2. सूरदास।

प्रश्न 5.
भक्तिकाल की प्रमुख शाखाओं के नाम बताइए तथा उन शाखाओं के प्रवर्तक का नाम लिखिए।
अथवा [2010]
भक्तिकाल का वर्गीकरण कर प्रत्येक शाखा के प्रमुख कवि एवं उनकी एक-एक रचना का नाम लिखिए। [2016]
उत्तर-
भक्तिकाल की प्रमुख शाखाओं तथा उनके प्रवर्तकों के नाम निम्न प्रकार हैं-
MP Board Class 11th Special Hindi पद्य साहित्य का इतिहास 2

प्रश्न 6.
निर्गुण काव्य धारा के प्रकार बताते हुए उनके प्रमुख दो कवियों के नाम लिखिए। [2008, 09]
उत्तर-
भक्तिकाल हिन्दी साहित्य का स्वर्णिम काल है। भक्तिकाल को प्रमुख दो रूपों में बाँटा जा सकता है-
(क) निर्गुण काव्य धारा एवं
(ख) सगुण काव्य धारा।

(क) निर्गुण काव्य धारा-इसे निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया गया है
(1) ज्ञानमार्गी शाखा-यह काव्य धारा बाह्य आडम्बर पर विश्वास नहीं करती। इस धारा के कवि आन्तरिक शुद्धता पर विशेष बल देते हैं। इन्होंने जीवन को सरल तथा निर्मल बनाने पर बल दिया है। जाति भेद, वर्ण भेद को समाप्त करने के लिए विभिन्न प्रकार के दोहे तथा पदों की रचना की है। इस धारा के प्रमुख कवि थे-कबीरदास, दादू दयाल, गुरु नानक देव तथा रैदास
(2) प्रेममार्गी शाखा-इस काव्य धारा को सूफी या प्रेममार्गी काव्य धारा कहते हैं। इस काव्य धारा में मुसलमान सन्त कवि सम्मिलित थे। इन कवियों ने अद्वैतवाद पर अपनी लेखनी चलायी है। प्रेम का रहस्यमयी रूप प्रेममार्गी, शाखा में देखने को मिलता है। इनमें भारतीय लोकगाथाओं को आधार बनाया गया है। लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक प्रेम की अभिव्यक्ति की गयी है। हिन्दू-मुस्लिम एकता पर विशेष बल दिया गया है। दोहा, चौपाई तथा मसनवी शैली में सूफी कवियों ने आध्यात्मिक प्रेम की अभिव्यक्ति की है। इस शाखा के कवियों ने जीव को ब्रह्म का अंश माना है। संसार में अज्ञानता को दूर करने का सशक्त माध्यम गुरु है।

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जायसी, कुतुबन, मंझन, आलम, उस्मान तथा शेखनवी इसके प्रमुख कवि हैं।

प्रश्न 7.
निर्गुण भक्ति धारा की कोई तीन विशेषताएँ लिखते हुए निर्गुण भक्ति धारा के किन्हीं दो कवियों के नाम लिखिए। [2013]
उत्तर-
निर्गुण भक्ति धारा की तीन विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

  1. निर्गुण ब्रह्म में विश्वास रखने वाले ये कवि गुरु को ईश्वर के समान मानते हैं।
  2. इस धारा के कवियों ने रूढ़ियों, छुआछूत, कुरीतियों पर प्रहार किये हैं।
  3. इस धारा के कवियों ने अवधी, सधुक्कड़ी (मिश्रित) भाषा अपनाई है।

दो कवि-कबीर तथा जायसी निर्गुण भक्ति धारा के श्रेष्ठ कवि हैं।

प्रश्न 8.
भक्तिकाल की निर्गुण प्रेममार्गी शाखा की चार विशेषताएँ लिखिए। [2008, 14]
उत्तर-

  1. इस काल के काव्य में कलापक्ष के अतिरिक्त भावपक्ष भी सबल है।
  2. प्रमुख छन्द दोहा, सोरठा एवं चौपाई का प्रयोग किया गया है।
  3. अवधी और फारसी भाषा का प्रयोग है तथा मसनवी शैली है।
  4. कवि कुतुबन, मंझन एवं जायसी ने प्रेमगाथाओं को काव्य रूप में गूंथ लिया।

प्रश्न 9.
भक्तिकाल की निर्गुण धारा का परिचय देते हुए ज्ञानमार्गी शाखा की दो विशेषताएँ एवं दो प्रमुख कवियों के नाम लिखिए। [2012]
उत्तर-
भक्तिकाल में निराकार ब्रह्म में विश्वास रखने वाले कवि निर्गुण धारा के माने जाते हैं। इनके ब्रह्म घट-घट वासी हैं। ये अवतार नहीं लेते हैं। गुरु के प्रति गहरी आस्था रखने वाले इस धारा के कवि मानते हैं कि गुरु के द्वारा बताये गये ज्ञान के मार्ग पर चलकर ही मुक्ति मिल सकती है। इस धारा की दो विशेषताएँ इस प्रकार हैं
1. निर्गुण ब्रह्म में विश्वास-निर्गुण भक्तिधारा के कवि निर्गुण ब्रह्म में विश्वास रखते हैं। इनके ब्रह्म आकार रहित हैं, वे घट-घट वासी हैं।
2. गुरु की महत्ता-इस धारा के कवि गुरु का बहुत महत्व मानते हैं। गुरु की कृपा से ही सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है।

प्रमुख कवि-कबीर एवं दादू दयाल दो प्रमुख कवि हैं।

प्रश्न 10.
निर्गुण धारा और सगुण धारा में अन्तर स्पष्ट कीजिए। (कोई तीन) [2015]
उत्तर-
निर्गुण धारा एवं सगुण धारा भक्तिकाल के काव्य के दो रूप हैं। इन दोनों धाराओं में तीन अन्तर इस प्रकार हैं-

  1. निर्गुण धारा के काव्य में निराकार ब्रह्म की आराधना की गई है जबकि सगुण धारा के काव्य में साकार (राम एवं कृष्ण) परमात्मा की भक्ति का अंकन किया गया है।
  2. निर्गुण धारा के कवियों ने जाति-पाँति, रूढ़ियों का विरोध कर समाज सुधार पर बल दिया है जबकि सगुण भक्ति धारा के कवियों ने राम और कृष्ण के लोकरंजक रूपों का वर्णन करके लोक मंगल पर बल दिया है।
  3. निर्गुण धारा के काव्य में रहस्यवाद एवं मसनवी शैली को अपनाया गया है जबकि सगुण धारा के काव्य में समन्वय एवं सौन्दर्य अंकन की प्रधानता है।

प्रश्न 11.
ज्ञानमार्गी शाखा की दो विशेषताएँ लिखते हुए इसके प्रवर्तक कवि का नाम एक रचना सहित लिखिए। [2010]
उत्तर-

  1. ज्ञानमार्गी शाखा में केवल ज्ञान प्रधान निराकार ब्रह्म की उपासना की प्रधानता है।
  2. इस काल की प्रमुख विशेषता एक ऐसे ईश्वर की उपासना है जो हिन्दू-मुस्लिम दोनों को समान रूप से मान्य हो।

इसके प्रवर्तक कवि कबीरदास हैं तथा इनकी प्रमुख रचना ‘बीजक’ है।

प्रश्न 12.
रीतिकाल का नाम ‘रीतिकाल’ क्यों पड़ा? इस युग की कोई तीन प्रवृत्तियों को समझाइए।
अथवा
रीतिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ लिखिए। [2008, 15]
अथवा
रीतिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियों का उल्लेख करते हुए दो कवियों के नाम लिखिए।
अथवा [2009, 11]
रीतिकाल की तीन विशेषताएँ तथा इस युग के प्रमुख कवि एवं उनकी एक-एक रचना का नाम लिखिए। [2016]
उत्तर-
नामकरण का कारण-कवियों ने रीति अर्थात् संस्कृत साहित्य के लक्षण ग्रन्थों की बँधी-बँधायी लीक का अनुसरण किया है। परिणामस्वरूप रीतिबद्ध रचनाओं के लेखन के फलस्वरूप इस काल को रीतिकाल नाम से जाना गया।

प्रमुख प्रवृत्तियाँ (विशेषताएँ)-

  1. सांसारिक सुख का प्राधान्य-यह समय विलास और समृद्धि का था। जीवन क्षणभंगुर है, अत: जितने दिन सुख भोग सके उतना ही अच्छा है।
  2. राज्याश्रित होने के कारण कविता भरण-पोषण और धन-प्राप्ति का साधन बनी।
  3. रीतिकालीन कविता में कलापक्ष की प्रधानता रही। इस कला के प्रदर्शन में संस्कृत की सभी परम्पराओं को प्रभाव स्पष्ट है। रीतिग्रन्थ भी लिखे गये, भाषा में शब्दों का चमत्कार और अलंकारों की विविधता है।

प्रमुख कवि-भूषण (शिवा वावनी),बिहारी (सतसई), पद्माकर (पद्माभरण), केशवदास (रामचन्द्रिका) आदि।

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प्रश्न 13.
रीतिकाल को श्रृंगार काल क्यों कहा जाता है? रीतिकाल के किन्हीं दो कवियों के नाम एवं उनकी एक-एक रचना लिखिए। [2009, 13]
उत्तर-
17वीं शताब्दी के मध्य से उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक का काल हिन्दी साहित्य के इतिहास का उत्तर-मध्य काल कहलाता है। इस काल को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने रीतिकाल नाम दिया। सामंतों और राजाओं के इस काल में अधिकांश कवि राज्याश्रित थे। वे राजदरबार में रहते थे। अतः राजाओं को प्रसन्न करने के लिए कवियों का श्रृंगार प्रधान काव्य रचना करना स्वाभाविक ही था। नायक-नायिका भेद के साथ, प्रकृति के उद्दीपन रूप में भी श्रृंगारिकता के दर्शन होते हैं। इस काल की रचनाओं में श्रृंगार रस की प्रधानता रही। अतः मिश्र बंधुओं ने इसे ‘शृंगार काल’ कहा।

कवि एवं उनकी रचना-

  • बिहारी (बिहारी सतसई);
  • भूषण (छत्रसाल दशक)।

प्रश्न 14.
भारतेन्दु युग हिन्दी कविता का जागरण काल क्यों कहा जाता है? [2009]
उत्तर-
भारतेन्दु युग के कवियों की कविता में देशोद्धार, राष्ट्र प्रेम, अतीत गरिमा आदि विषयों की ओर ध्यान दिया गया है। कवियों की वाणी में राष्ट्रीयता के स्वर मुखरित हैं। सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं सामाजिक आन्दोलनों के फलस्वरूप हिन्दी काव्य में नयी चेतना तथा विचारों का समावेश हुआ।

प्रश्न 15.
छायावादी कविता की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2014, 15]
अथवा
छायावाद की चार विशेषताएँ तथा प्रमुख छायावादी कवियों के नाम लिखिए।
अथवा [2009]
छायावाद के सम्बन्ध में दो विचारकों का कथन देते हुए छायावाद की प्रमुख प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए। [2009]
उत्तर-

  1. डॉ. नगेन्द्र के शब्दों में, “छायावाद स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह है।”
  2. डॉ. रामकुमार वर्मा के अनुसार, “परमात्मा की छाया आत्मा में पड़ने लगती है और आत्मा की छाया परमात्मा में, यही छायावाद है।”

विशेषताएँ-

  1. सौन्दर्य तथा प्रणय-भावनाओं का प्राधान्य।
  2. भाषा में लाक्षणिकता तथा वक्रता की प्रमुखता।
  3. बाह्यार्थ निरूपण के स्थान पर स्वानुभूति निरूपण की प्रमुखता।
  4. प्रकृति का सजीव सत्य के रूप में चित्रण तथा प्रकृति पर कवि द्वारा अपने भावों का आरोपण।
  5. छन्द विधान में नूतनता। प्रमुख कवि-जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवी वर्मा, रामकुमार वर्मा आदि।

प्रश्न 16.
रहस्यवाद की परिभाषा देते हुए रहस्यवादी कविता की चार विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-

  1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में, “चिन्तन के क्षेत्र में जो अद्वैतवाद है वही भावना के क्षेत्र में रहस्यवाद है।”
  2. आधुनिक काल में रहस्यवादी कविता व्यापक स्वच्छन्दतावादी काव्य क्षेत्र के अन्तर्गत समाविष्ट है।
  3. कविता में अप्रस्तुत योजना की नूतनता है।
  4. रहस्यवादी कविता में बौद्ध दर्शन के अतिरिक्त उपनिषदों का प्रभाव भी परिलक्षित है।

प्रश्न 17.
प्रयोगवादी कविता की चार विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर-

  1. प्रयोगवादी कविता पर मार्क्सवादी प्रभाव परिलक्षित है।
  2. इस काव्य में सजग एवं गहरी पीड़ा का बोध है।
  3. प्रयोगवादी कविता भावुकता के स्थान पर बौद्धिकता पर विशेष बल देती है।
  4. फ्रायड के काम सिद्धान्त को सर्वोपरि रूप में स्वीकार किया गया है।

प्रश्न 18.
प्रगतिवादी कविता की चार विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर-

  1. प्रगतिवादी कविता में दीन-हीन श्रमिक तथा पद-दलित मानवों का सजीव चित्रण है।
  2. मजदूरों के शोषण के प्रति विद्रोह के स्वर हैं।
  3. प्रगतिवादी काव्य की भाषा जन सामान्य की सरल एवं सामान्य भाषा है।
  4. मार्क्सवादी विचारधारा का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित है।

प्रश्न 19.
नई कविता की चार विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर-

  1. नई कविता जीवन के हर क्षण को सत्य ठहराती है।
  2. नई कविता की वाणी अपने परिवेश के जीवन अनुभव पर आधारित है।
  3. नई कविता लघु मानवत्व को स्वीकार करती है।
  4. नई कविता में जीवन मूल्यों की पुनः परीक्षा की गयी है।

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प्रश्न 20.
नई कविता एवं प्रयोगवादी कविता में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
नई कविता ने प्रगतिवाद की तरह विशेष क्षेत्रों में विशिष्ट शब्द नहीं लिए हैं। समस्त प्रकार के प्रश्नों हेतु लोक शब्दों का चयन किया है। प्रयोगवाद बोझिल शब्दावली को लेकर चलता है। प्रयोगवादी कविता में मध्यमवर्गीय जीवन के संघर्ष को बौद्धिकता के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है।

  • अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पृथ्वीराज रासो की रचना किस काव्य में हुई?
उत्तर-
‘पृथ्वीराज रासो’ प्रबन्ध काव्य में रचित है।

प्रश्न 2.
वीरगाथा काल के कवि किसके आश्रय में रहते थे?
उत्तर-
वीरगाथा काल के कवि राज्याश्रय में रहते थे।

प्रश्न 3.
वीरगाथाकालीन कवियों के काव्य की रचना का प्रमुख विषय क्या था?
उत्तर-
वीरगाथाकालीन कवि अपने राजाओं की शौर्य गाथा को अपने काव्य का विषय बनाते थे।

प्रश्न 4.
वीरगाथा काल का मुख्य रस कौन- था?
उत्तर-
वीरगाथा काल का मुख्य रस वीर रस था।

प्रश्न 5.
भक्तिकाल का प्रारम्भ कब हुआ?
उत्तर-
भक्तिकाल का प्रारम्भ सम्वत् 1375 में हुआ।

प्रश्न 6.
सूफी कवियों ने आत्मा का किस रूप में वर्णन किया है?
उत्तर-
सूफी कवियों ने आत्मा को प्रियतम मानकर हिन्दू प्रेम कहानियों का वर्णन किया है।

प्रश्न 7.
सूफी काव्यों की रचना किन छन्दों में की गयी है?
उत्तर-
रचना शैली दोहा एवं चौपाई है।

प्रश्न 8.
निर्गुण प्रेममार्गी शाखा में कौन-सी भाषा एवं शैली प्रयुक्त है?
उत्तर-
निर्गुण प्रेममार्गी शाखा में अरबी एवं फारसी भाषा तथा मसनवी शैली का प्रयोग है।

प्रश्न 9.
प्रेममार्गी शाखा के महाकाव्य कौन-सी कथाओं पर आधारित हैं?
उत्तर-
प्रेम कथाओं पर आधारित हैं।

प्रश्न 10.
प्रेममार्गी शाखा में प्रमुख रूप से किस रस का प्रयोग है?
उत्तर-
शृंगार रस।

प्रश्न 11.
भक्तिकालीन ज्ञानमार्गी शाखा में कौन-सी भाषा का प्रयोग किया है?
उत्तर-
खिचड़ी एवं सधुक्कड़ी।

प्रश्न 12.
ज्ञानमार्गी शाखा के कवियों ने आत्मा एवं परमात्मा का वर्णन किस रूप में किया है?
उत्तर-
आत्मा को प्रियतमा मानकर आत्मा एवं परमात्मा के विरह मिलन का वर्णन है।

प्रश्न 13.
रामचरितमानस के रचयिता कौन हैं?
उत्तर-
तुलसीदास।

प्रश्न 14.
राम भक्ति शाखा के प्रवर्तक कौन हैं?
उत्तर-
रामानन्द।

प्रश्न 15.
तुलसी ने राम की किस रूप में उपासना की है?
उत्तर-
तुलसी ने राम को स्वामी तथा स्वयं को दास स्वीकार किया है।

प्रश्न 16.
राम भक्ति शाखा के कवियों ने किसे अपना इष्ट देव माना है?
उत्तर-
राम को।

प्रश्न 17.
राम भक्ति शाखा में किस प्रकार के काव्य लिखे गये हैं?
उत्तर-
प्रबन्ध एवं मुक्तक काव्य। ,

प्रश्न 18.
राम भक्ति शाखा के कवियों ने प्रमुख रूप से किस भाषा का प्रयोग किया है?
उत्तर-
ब्रजभाषा एवं अवधी।

प्रश्न 19.
कृष्ण भक्ति शाखा के मुख्य प्रवर्तक कौन हैं?
उत्तर-
बल्लभाचार्य।

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प्रश्न 20.
कृष्ण भक्ति शाखा के एक कवि का नाम क्या लिखिए।
उत्तर-
सूरदास।

प्रश्न 21.
सूरदास के काव्य में प्रमुख रूप से किन रसों का प्रयोग है?
उत्तर-
शृंगार एवं वात्सल्य रस।

प्रश्न 22.
कृष्ण भक्ति शाखा में कवियों ने प्रमुख रूप से किस भाषा का प्रयोग किया है?
उत्तर-
ब्रजभाषा एवं अन्य बोलियों का प्रयोग किया है।

प्रश्न 23.
भक्तिकाल की स्फुट शाखा में किस प्रकार की कविता की रचना
उत्तर-
मुक्तक काव्य की रचना हुई है।

प्रश्न 24.
स्फुट शाखा के तीन कवियों के नाम बताइए।
उत्तर-

  • रहीम,
  • गंग तथा
  • सेनापति।

प्रश्न 25.
रीतिकालीन काव्य में प्रमुख रूप से किस भाषा का प्रयोग है?
उत्तर-
ब्रजभाषा का प्रयोग है।

प्रश्न 26.
रीतिकाल में प्रयुक्त प्रमुख रसों के नाम बताइए।
उत्तर-
वीर एवं श्रृंगार के अतिरिक्त शान्त रस का प्रयोग है।

प्रश्न 27.
रीतिकालीन कवियों ने अपने जीवनयापन के लिए किसका आश्रय लिया?
उत्तर-
राजाओं का आश्रय लिया।

प्रश्न 28.
रीतिकाल के प्रमुख तीन कवियों के नाम बताइए। [2008]
उत्तर-

  • देव,
  • बिहारी एवं
  • घनानन्द।

प्रश्न 29.
रीतिकाल में कवियों ने अपनी कविता में किन-किन छन्दों का प्रयोग किया है?
उत्तर-
कवित्त, सवैया, बरवै, दोहा आदि छन्दों का प्रयोग किया है।

प्रश्न 30.
रीतिकाल के कवियों ने संस्कृत के लहरी काव्य के अनुसार किन दो ग्रन्थों की रचना की है?
उत्तर-

  • गंगा लहरी,
  • यमुना लहरी।

प्रश्न 31.
भारतेन्दु युग के कवियों की वाणी में कौन-सा स्वर मुखरित है?
उत्तर-
राष्ट्रीयता का स्वर।।

प्रश्न 32.
भारतेन्दु युग के दो लेखकों के नाम लिखो।
उत्तर-

  • प्रताप नारायण मिश्र,
  • चौधरी बद्रीनारायण ‘प्रेमघन’।

प्रश्न 33.
द्विवेदी युग के तीन साहित्यकारों के नामों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-

  • रामनरेश त्रिपाठी,
  • गोपाल शरण सिंह,
  • जगन्नाथ प्रसाद ‘रत्नाकरा

प्रश्न 34.
हिन्दी कविता में नवीन युग के सूत्रपात का श्रेय किस युग को प्रदान किया जाता है?
उत्तर-
छायावादी युग।

प्रश्न 35.
छायावादी कवियों के दो नाम बताइए।
उत्तर-

  • सुमित्रानन्दन पन्त,
  • महादेवी वर्मा।

प्रश्न 36.
महादेवी वर्मा के काव्य में प्रधान रूप से कौनसे स्वर मुखरित हैं?
उत्तर-
विरह-वेदना।

प्रश्न 37.
छायावादी युग के किस कवि ने क्रान्ति एवं विद्रोह का स्वर निनादित किया है?
उत्तर-
सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’।

सम्पूर्ण अध्याय पर आधारित महत्वपूर्ण वस्तुनिष्ठ प्रश्न

  • बहु-विकल्पीय

प्रश्न
1. हिन्दी पद्य साहित्य को बाँटा गया है
(i) चार कालों में, (ii) तीन कालों में, (iii) पाँच कालों में, (iv) छ: कालों में।

2. वीरगाथा काल की प्रसिद्ध रचना है
(i) रामचरितमानस, (ii) पद्मावत, (iii) पृथ्वीराज रासो, (iv) साकेत।

3. आदिकाल के कवि हैं
(i) सूरदास, (ii) कबीरदास, (i) चन्दबरदाई (iv) भूषण।

4. भक्तिकाल के लोकनायक कवि हैं
(i) मीराबाई, (ii) तुलसीदास, (iii) रसखान, (iv) रहीम।

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5. हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग कहलाता है [2009]
(i) वीरगाथा काल, (ii) रीतिकाल, (iii) भक्तिकाल, (iv) आधुनिक काल।

6. लौकिक प्रेम से अलौकिक प्रेम की अवधारणा देखने को मिलती है- [2008]
(i) ज्ञानमार्गी शाखा में, (ii) प्रेममार्गी शाखा में, (ii)रीतिकालीन कविता में, (iv) आधुनिक कविता में।

7. विराट के प्रति जिज्ञासा की भावना मिलती है [2010]
(i) प्रगतिवाद में, (ii) छायावाद में, (iii) प्रयोगवाद में, (iv) नर्य कविता में।

8. रीतिकाल की प्रतिनिधि रचना है
(iii) बिहारी सतसई, (iv) प्रेम माधुरी।

9. रीतिकालीन कवि हैं [2013]
(i) सुमित्रानन्दन पन्त, (ii) भूषण, (iii)दिनकर, (iv) हरिऔध।

10. पद्माकर कवि हैं [2015]
(i) भक्तिकाल के, (ii) आधुनिक काल के, (iii) रीतिकाल के, (iv) आदिकाल के।

11. हिन्दी कविता का जागरण काल किस युग को माना जाता है? [2009]
(i) द्विवेदी युग, (ii) भारतेन्दु युग, (iii) शुक्ल युग, (iv) प्रसाद युग।

12. नई कविता का समय माना जाता है
(i) सन् 1900 से, (ii) 1936-1943, (iii) 1943-1950, (iv) 1950 से अब तक।

13. ‘महाप्राण’ के नाम से प्रख्यात कवि हैं [2011]
(i) जवाहरलाल नेहरू, (i) लाल बहादुर शास्त्री, (iii) सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ (iv) महात्मा गाँधी।

14. कबीर को हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कहा है
(i) भाषा का डिक्टेटर, (ii) सधुक्कड़ी भाषी, (iii) खिचड़ी भाषी, (iv) सहज भाषी।
उत्तर-
1. (i), 2. (iii), 3. (iii), 4.(ii), 5. (iii), 6. (ii), 7.(ii), 8. (iii), 9.(ii), 10. (iii), 11. (ii), 12. (iv), 13. (iii), 14. (i).

  • रिक्त स्थान पूर्ति

1. वीरगाथा काल के काव्य की भाषा प्रमुखतः ……….’ है।
2. आदिकाल में प्रमुख रूप से ……….. का सजीव वर्णन हुआ है।
3. भक्तिकाल की प्रेममार्गी काव्यधारा के प्रमुख कवि ……….’ हैं। [2009]
4. भक्तिकाल के प्रसिद्ध ग्रन्थ का नाम ………. है।
5. ………… रीतिकाल में वीर रस के कवि हुए। [2008]
6. सूरदास ………… के कवि हैं। [2009]
7. नागार्जुन ………. के कवि हैं। [2009]
8. भक्तिकाल संवत् ……….’ तक माना जाता है। [2009]
9. रीतिकाल के प्रतिनिधि कवि ……….’ हैं।
10. …………. ग्रन्थ में पारिवारिक मर्यादा का सर्वोत्तम उदाहरण देखने को मिलता है। [2015]
11. निर्गुण काव्य धारा के मत के अनुसार ईश्वर ………..’ है। [2015]
उत्तर-
1. डिंगल, 2. युद्धों, 3. जायसी, 4. रामचरितमानस, 5. भूषण, 6. सगुण धारा, 7. प्रगतिवाद, 8. 1375 से 1700, 9. बिहारी, 10. रामचरितमानस, 11. निराकार।

  • सत्य/असत्य

1. वीरगाथा काल का प्रिय अलंकार अतिशयोक्ति है।
2. आदिकाल के काव्य की रचना हरिगीतिका छन्द में हुई है। [2009]
3. कबीर के काव्य में रूढ़ियों का खुलकर विरोध हुआ है।
4. जायसी ने ब्रजभाषा में काव्य रचना की है।
5. तुलसीदास रामभक्ति शाखा के श्रेष्ठ कवि हैं। [2009]
6. रीतिकाल में मात्र रीतिबद्ध रचनाएँ की गईं।
7. सूरदास की श्रेष्ठ रचना का नाम ‘सूरसागर’ है।
8. उत्तर मध्यकाल या रीतिकाल संवत् 1050 से 1375 तक है। [2009]
9. शोषकों के प्रति घृणा और शोषितों के प्रति करुणा प्रगतिवाद है। [2009]
10. जयशंकर प्रसाद छायावादी कवि हैं। [2009]
11. प्रयोगवादी कवियों ने प्रकृति का मानवीकरण किया है। [2008]
12. छायावादी कवियों ने प्रकृति का मानवीकरण किया है। [2008]
13. लौकिक साहित्य आदिकाल की विशेष उपलब्धि है। [2012]
14. भूषण रीतिकाल के कवि थे। [2012]
15. हिन्दी साहित्य का स्वर्णयुग रीतिकाल को कहा जाता है। [2016]
उत्तर-
1. सत्य, 2. असत्य, 3. सत्य, 4. असत्य, 5. सत्य, 6. असत्य, 7. सत्य, 8. असत्य, 9. सत्य, 10. सत्य, 11. असत्य, 12. सत्य, 13. सत्य, 14. सत्य, 15. असत्य।

  • जोड़ी मिलाइए

I.
1. हिन्दी कविता का जागरण काल [2010] – (क) तुलसीदास
2. भक्तिकाल के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि हैं [2009] – (ख) भारतेन्दु युग
3. ज्ञानमार्गी शाखा [2008] – (ग) महावीर प्रसाद द्विवेदी
4. कृष्णभक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि हैं [2009] – (घ) रीतिकाल
5. श्रृंगार काल [2010] – (ङ) कबीरदास
6. द्विवेदी युग के प्रवर्तक [2011] – (च) सूरदास
उत्तर-
1. → (ख),
2. → (क),
3. → (ङ),
4. → (च),
5. → (घ),
6. → (ग)।

II.
1. हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग (2008, 09, 13) – (क) जायसी
2. छायावाद के प्रवर्तक कवि [2008] – (ख) भक्तिकाल
3. प्रेममार्गी शाखा [2008] – (ग) जयशंकर प्रसाद
4. प्रगतिवाद [2008] – (घ) तुलसीदास
5. रीतिकाल की मुख्य भाषा है [2009] – (ङ) रामधारी सिंह ‘दिनकर’
6. रामभक्ति शाखा [2011] – (च) ब्रजभाषा
उत्तर-
1. → (ख),
2. → (ग),
3. → (क),
4. → (ङ),
5. → (च),
6. → (घ)।

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  • एक शब्द/वाक्य में उत्तर

1. पृथ्वीराज रासो का काव्य रूप क्या है?
2. जगनिक द्वारा रचित कृति का क्या नाम है?
3. ‘पद्मावत’ किस कवि की रचना है?
4. ज्ञानमार्गी शाखा में किस उपासना की प्रधानता है?
5. कृष्णभक्ति काव्य में किस भाव की प्रधानता है?
6. रीतिकालीन कविता में भावपक्ष प्रबल है या कलापक्ष?
7. बिहारी सतसई किस काल की रचना है? [2009]
8. रीतिकाल को अन्य नाम क्या दिया गया है?
9. तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ की रचना किस भाषा में की है?
10. सूरदास की काव्य भाषा कौन-सी है?
उत्तर-
1. महाकाव्य,
2. परमाल रासो,
3. मलिक मुहम्मद जायसी,
4. निर्गुण ब्रह्म की,
5. माधुर्य भाव की,
6. कलापक्ष,
7. रीतिकाल,
8. शृंगारकाल,
9. अवधी,
10. ब्रजभाषा।

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MP Board Class 11th Special Hindi विचार एवं भाव-विस्तार

MP Board Class 11th Special Hindi विचार एवं भाव-विस्तार

थोड़े में कही हुई बात को विस्तार से व्याख्या करके समझाना ही भाव-विस्तार है। संक्षेप में जो बात कही जाती है, उसमें अलंकृत भाषा शैली का उपयोग होता है। जीवन का गम्भीर अनुभव उसमें छिपा रहता है। उस अनुभव को समझकर ही उसे समझाया जा सकता है। अतः भाव-विस्तार करते समय हमें इन बातों पर ध्यान देना चाहिए

  1. पहले पढ़कर समझ लेना चाहिए कि वाक्य में जीवन के किस महत्त्वपूर्ण तथ्य का उल्लेख है।
  2. फिर यह ज्ञात करें कि वह तथ्य कब और किस दशा में गठित होगा।
  3. फिर विचार कीजिए कि क्या उस वाक्य में, रूपक, लोकोक्ति, उपमा अथवा मुहावरे का प्रयोग हुआ है।
  4. अब सोची हुई बात को क्रम से व्यवस्थित करके समझाते हुए लिखिए।
  5. भाव विस्तार 5-6 पंक्तियों के आस-पास होना चाहिए।
  6. उसमें कोई कठिन या महत्त्वपूर्ण शब्द हो तो उस पर विशेष ध्यान देकर उसकी व्याख्या करनी चाहिए।

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कुछ चुने हुए भाव-विस्तार
(1) समन्वय युक्त जीवन ही राष्ट्र का सुखदायी रूप है। [2009]
एक राष्ट्र के अन्तर्गत विभिन्न भाषाएँ, संस्कृतियाँ एवं धर्म होते हैं। जब तक इन सबके मध्य प्रेम, सहयोग, सद्भावना एवं सामंजस्य नहीं होगा तब तक राष्ट्र का सुखदायी स्वरूप निर्मित नहीं हो सकता, राष्ट्र में सुख चैन तथा बन्धुत्व की भावना का विकास होना नितान्त असम्भव है। जिस राष्ट्र में द्वेष, कलह एवं अशान्ति होगी, वहाँ दुःख का ही वातावरण दृष्टिगोचर होगा। जिस प्रकार अनेक नदियाँ सागर में एकाकार हो जाती हैं तदनुसार भिन्न-भिन्न संस्कृतियाँ राष्ट्रीय संस्कृति में विलीन हो जाती हैं।

(2) जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ हैं। [2010]
इस संसार में जन्म देने की जननी (माँ) होती है और संसार में आने के पश्चात् पालन-पोषण करने वाली जन्मभूमि होती है। इस प्रकार जननी और जन्मभूमि सबसे श्रेष्ठ होती है। इन दोनों के बिना मनुष्य का जन्म तथा जीवन सम्भव नहीं है। ईश्वर के बाद जननी ही पूज्य तथा श्रद्धेय होती है। हम जन्मभूमि पर निवास करते हैं, उसी के अन्न, फल, दूध आदि से हमारा शरीर पुष्ट होता है। इसीलिए जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ हैं।

(3) बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है। [2017]
बैर क्रोध का स्थिर रूप है जिस प्रकार आँवले या आम का मुरब्बा आम या आँवले की तुलना में अधिक टिकाऊ होता है। तद्नुसार बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है। जब किसी के प्रति मन में क्रोध हो लेकिन उसका प्रदर्शन न किया जाये तो वह मनुष्य के मन में टिक जाता है। वह मौके की तलाश में रहता है। जैसे ही स्वयं के लक्ष्य को देखता है अपना प्रतिकार चुका लेता है। यही प्रतिकार (बदला) बैर की कोटि में आता है।

(4) अज्ञान सर्वत्र आदमी को पछाड़ता है।
आदमी की जिन्दगी में अज्ञानता सबसे बड़ा अभिशाप है। ज्ञान की पगडंडी पर ही कदम बढ़ाकर ही सत् एवं असत्, शुभ एवं अशुभ की परख करने की क्षमता उत्पन्न हुई है। अज्ञानता विकास के मार्ग को अवरुद्ध करती है अतः यह कथन सत्य है कि अज्ञान सर्वत्र आदमी को पछाड़ता है।

(5) क्रोध अन्धा होता है।
अन्धा का आशय है कि बिना सोचे-विचारे काम में जुट जाना। उदाहरणस्वरूप जैसे अन्धा मानव पथ पर अग्रसर होने पर ठोकर खाता है। तद्नुसार बिना विचारे काम करने वाला इन्सान यत्र- तत्र भटकता फिरता है। क्रोध का संचार बहुत ही तेज गति से होता है। क्रोधी व्यक्ति में सोचने-विचारने की शक्ति नहीं रहती है। इसलिए क्रोध को अन्धा कहा गया है।

(6) जीवन के विटप का पुष्य संस्कृति है।
संस्कृति मानव जीवन का सर्वोत्तम रूप है अथवा जीवन का पुष्प है जिस भाँति बीज अंकुर से विशाल वृक्ष बनता है। तद्नुसार मनुष्य अपने समाज में निवास करके स्वयं के सुख के साथ-साथ समाज की सुविधा के लिए सोचता-विचारता है, कुछ नियमों का समाज में रहकर पालन करना अनिवार्य है। ये सामाजिक नियम परिपालन संस्कृति कहलाते हैं। इस भाँति जिस प्रकार वृक्ष का परिणाम पुष्प है उसी भाँति संस्कृति मानव-जीवन का सर्वोत्तम परिणाम है। इस हेतु सदृश्य के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जीवन रूपी वृक्ष का पुष्प संस्कृति है। सांस्कृतिक सुषमा और सुगन्ध ही राष्ट्रीय सौन्दर्य का आधार है।

(7) चरित्र सबसे बड़ा धन है।। [2012]
उत्तर-
जीवन में चरित्र का बहुत महत्त्व है। इसीलिए चरित्र की सुरक्षा सर्वोपरि मानी गयी है। चरित्र के आधार पर ही मनुष्य का मूल्यांकन होता है। जिनका चरित्र श्रेष्ठ होता है ध व्यक्ति महान होते हैं। लक्ष्मी तो आती-जाती रहती है किन्तु चरित्र एक बार गिर जाने पर फिर नहीं उठता है। इसीलिए माना गया है कि ‘धन जाने पर कुछ नष्ट नहीं होता, स्वास्थ्य जाने पर कुछ नष्ट होता है किन्तु चरित्र जाने पर सब कुछ नष्ट हो जाता है। यही कारण है कि चरित्र सबसे बड़ा धन है जिसकी रक्षा हर हाल में करनी चाहिए।

(8) दूर के ढोल सुहावने होते हैं। [2016]
उत्तर-
दूर के ढोल सुहावने होते हैं क्योंकि उनकी तीव्र ध्वनि की कर्कशता दूर तक नहीं पहुँच पाती है। इसके विपरीत ढोल के पास बैठने वाले लोगों के कानों के पर्दे फटते रहते हैं। दूर किसी मनोरम स्थान पर शाम के समय बजने वाले ढोलों की आवाज अपनी मधुरता के साथ पहुँचती है तो सुनने वाले के मन में विवाहोत्सव का मनोरम चित्र उभर आता है। शोर-शराबे के बीच घर के एक कोने में बैठी लाजवंती नव-वधू की कल्पना से उसका हृदय आनंदित होने लगता है। प्रेम, उल्लास आदि के भाव उसके मन में उठने लगते हैं। इस प्रकार पास के लोगों को कटु लगने वाली ढोल की आवाज दूर पहुँचकर मधुर बन जाती है।

प्रश्नोत्तर

  • लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
अल्पविराम किसे कहते हैं? इसका प्रयोग कहाँ होता है? उदाहरण देकर समझाइए। [2016]
उत्तर-
अल्पविराम एक विराम चिह्न है जिसका प्रयोग बहुत थोड़ी देर रुकने के संकेत के लिए होता है। जैसे-शिवाजी, महाराणा प्रताप हमारे आदर्श पुरुष हैं।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित गद्यांश में उचित विराम चिह्न लगाइए- [2013]
बसें बदलता हुआ रात भर का सफर तय करके अगले दिन सुबह ही मैं रामेश्वरम् पहुँच गया मेरे पिताजी बहुत देर तक मेरा हाथ थामे रहे उनकी आँखों में आँसू नहीं थे क्या तुम नहीं देखते अबुल ईश्वर किस प्रकार अँधेरा कर देता है
उत्तर-
बसें बदलता हुआ रात भर का सफर तय करके अगले दिन सुबह ही मैं रामेश्वरम् पहुँच गया, मेरे पिताजी बहुत देर तक मेरा हाथ थामे रहे, उनकी आँखों में आँसू नहीं थे। क्या तुम नहीं देखते अबुल? ईश्वर किस प्रकार अँधेरा कर देता है?

प्रश्न 3.
निम्नांकित गद्यांश में विराम चिह्नों का यथास्थान प्रयोग कीजिए [2009]
बड़प्पन कहीं रहने या नहीं रहने से नहीं आता है, आता है दूसरे को बड़प्पन देने से दूसरे के दुःख को अपना दुःख मानने से अपभ्रंश का एक पुराना दोहा है जिसका भावार्थ है यदि तुम पूछते हो बड़ा घर कौन है तो देखो वह छोटी सी टूटी-फूटी झोंपड़ी उसमें सबके प्यारे बन्धु रहते हैं जो कोई भी कष्ट में हो उसके कष्ट का निवारण करने के लिए तत्पर रहते हैं।
उत्तर-
बड़प्पन कहीं रहने या नहीं रहने से नहीं आता है, आता है दूसरे को बड़प्पन देने से। दूसरे के दुःख को अपना दुःख मानने से। अपभ्रंश का एक पुराना दोहा है जिसका अर्थ है यदि तुम पूछते हो बड़ा घर कौन है तो देखो वह छोटी सी टूटी-फूटी झोंपड़ी। उसमें सबके प्यारे बन्धु रहते हैं। जो कोई भी कष्ट में हो, उसके कष्ट का निवारण करने के लिए तत्पर रहते हैं।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित अनुच्छेद में विराम चिह्नों का यथास्थान प्रयोग कीजिए [2008]
कभी कभार वह भी घर आ जाती पर पहले का सा तूफान नहीं करती हँसती खिलखिलाती पर उसमें पहले की सी जीवंतता नहीं थी जब वह चली जाती तो यह कहते कहा था साथ चली जाओ तब नहीं मानी पैसे का मुँह देखती रही अब मन ही मन घुल रही है।
उत्तर-
कभी कभार वह भी घर आ जाती, पर पहले का सा तूफान नहीं करती। हँसती खिलखिलाती, पर उसमें पहले की-सी जीवंतता नहीं थी। जब वह चली जाती तो यह कहते, “कहा था साथ चली जाओ। तब नहीं मानी, पैसे का मुँह देखती रही। अब मन ही मन घुल रही है।”

प्रश्न 5.
निम्नलिखित वाक्यों में उचित विराम चिह्न लगाइए
(1) देवेन्द्र श्याम अनुपम इन्दौर ग्वालियर जबलपुर होकर आज ही लौटे हैं। [2008]
(2) मेरा मित्र अभी आएगा पर रुकेगा नहीं [2008]
(3) हे ईश्वर उसकी रक्षा करो [2008]
(4) हाय यह तो बहुत बुरा हुआ [2008]
(5) आपका पत्र क्यों नहीं मिला [2012]
(6) अनेक बार मैंने उसे समझाया हठ न करो [2012]
उत्तर-
(1) देवेन्द्र, श्याम, अनुपम इन्दौर, ग्वालियर, जबलपुर होकर आज ही लौटे हैं।
(2) मेरा मित्र अभी आएगा, पर रुकेगा नहीं।
(3) हे ईश्वर ! उसकी रक्षा करो।
(4) हाय ! यह तो बहुत बुरा हुआ।
(5) आपका पत्र क्यों नहीं मिला?
(6) अनेक बार मैंने उसे समझाया, हठ न करो।

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प्रश्न 6.
कोई तीन विराम चिह्नों का वर्णन करते हुए वाक्य में प्रयोग कीजिए। [2017]
उत्तर-
पूर्ण विराम वाक्य के पूर्ण होने पर लगाते हैं, अल्प विराम थोड़ी-सी देर रुकने को लगाते हैं और प्रश्नवाचक चिह्न प्रश्नवाचक वाक्यों के अन्त में लगाया जाता है।
उदाहरण वाक्य-अच्छा जी आप दु:खी हुए न? क्या करूँ, बिना चोरी किए इस बेरोजगारी में काम नहीं चलता।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित वाक्यों को शुद्ध कीजिए
(1) श्रीकृष्ण के अनेकों नाम हैं। [2009, 13]
(2) आपका पत्र सधन्यवाद मिला।
(3) क्या आप देवनागरी भाषा जानते हैं। [2009]
(4) भाषा की माधुर्यता बस देखते ही बनती है। [2013]
(5) कृपया शीघ्र पत्र देने की कृपा करें। [2016]
(6) मेले में भारी भीड़ थी। [2016]
उत्तर-
(1) श्रीकृष्ण के अनेक नाम हैं।
(2) आपका पत्र मिला, धन्यवाद।
(3) क्या आप देवनागरी लिपि जानते हैं?
(4) भाषा की मधुरता, बस देखते ही बनती है।
(5) शीघ्र पत्र देने की कृपा करें।
(6) मेले में बहुत भीड़ थी।

प्रश्न 8.
निम्नलिखित वाक्यों को शुद्ध कीजिए-
(1) उसे अनुत्तीर्ण होने की आशा है। [2009, 14]
(2) तुम्हारा सब काम गलत होता है। [2012, 14]
(3) मेरे को खाना खाना है। [2012]
(4) हत्यारे को मृत्युदण्ड की सजा मिली है।
(5) मुझे तुम्हारी पदोन्नति की आशंका है। [2012]
उत्तर-
(1) उसे अनुत्तीर्ण होने की आशंका है।
(2) तुम्हारे सब काम गलत होते हैं।
(3) मुझे खाना खाना है।
(4) हत्यारे को मृत्युदण्ड मिला है।
(5) मुझे तुम्हारी पदोन्नति की आशा है।

प्रश्न 9.
निम्नांकित वाक्यों की अशुद्धियाँ दूर कीजिए
(1) किरन एक मोतियों का हार पहिने है।
(2) प्रधानाचार्य को प्रार्थना करनी चाहिए।
(3) मैंने कल पुस्तकें खरीदा।
(4) रामा एक विद्वान छात्रा है।
उत्तर-
(1) किरन मोतियों का एक हार पहने है।
(2) प्रधानाचार्य से प्रार्थना करनी चाहिए।
(3) मैंने कल पुस्तकें खरीदी।
(4) रामा एक विदुषी छात्रा है।

प्रश्न 10.
मुहावरे और लोकोक्ति में क्या अन्तर है? स्पष्ट कीजिए। [2014]
उत्तर-
ऐसा वाक्यांश, जो सामान्य अर्थ का बोध न कराकर किसी विशेष अर्थ का आभास दे, उसे मुहावरा कहते हैं। लोकोक्तियाँ किसी विशेष घटना या कहानी से निकलकर प्रचलित होती हैं। इनमें लोक अनुभव छिपा होता है।

प्रश्न 11.
निम्नलिखित मुहावरों का अर्थ बताते हुए वाक्य प्रयोग कीजिए
अन्धे की लकड़ी, ईद का चाँद होना, छप्पर फाड़ कर देना, पेट में चूहे कूदना।
उत्तर-
अन्धे की लकड़ी (एक ही सहारा)-श्रवण कुमार अपने माता-पिता की अंधे की लकड़ी थे।
ईद का चाँद होना (बहुत दिनों में दिखना) श्याम, तुम्हें देखने को आँखें तरस गईं, तुम तो ईद का चाँद हो गए।
छप्पर फाड़कर देना (बिना परिश्रम के अनायास प्राप्ति)-भगवान देता है तो छप्पर फाड़कर देता है।
पेट में चूहे कूदना (जोर से भूख लगना)-पेट में चूहे कूद रहे हैं, पहले कुछ खा लें तब काम निपटायेंगे।

प्रश्न 12.
निम्नलिखित का अर्थ बताते हुए वाक्य प्रयोग कीजिए
नौ-दो ग्यारह होना, पौ बारह होना, ऊँची दुकान फीका पकवान, आँख के अन्धे गाँठ के पूरे।
उत्तर-
नौ-दो ग्यारह होना (चम्पत हो जाना)-जगार पड़ते ही चोर नौ-दो ग्यारह हो गए।
पौ बारह होना (खूब लाभ)-आजकल जमीन के व्यापार में पौ बारह है।
ऊँची दुकान फीका पकवान (दिखावा मात्र) यह शुद्ध घी का विज्ञापन करने वाले के यहाँ रेपसीड का सामान पकड़ा गया है तो सभी कहने लगे इसकी तो ऊँची दुकान और फीका पकवान है।
आँख के अन्धे, गाँठ के पूरे (मूर्ख धनवान) वकीलों के क्या कहने उनके यहाँ तो आँख के अन्धे और गाँठ के पूरे आते ही रहते हैं।

प्रश्न 13.
“सब उन्नतियों का मूल धर्म है” का भाव विस्तार कीजिए।
उत्तर-
प्रस्तुत कथन भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का है। उन्होंने देशोपकारिणी सभा में भाषण करते हुए भारतवासियों को राष्ट्र के प्रति सजग किया था। भारतेन्दु जी मानते थे कि सभी प्रकार की उन्नतियों का आधार धर्म होता है। धर्म में समाज गठन की अनेक नीतियाँ हैं। धार्मिक अनुष्ठान, त्यौहार आदि समाज को उन्नत बनाने के लिए हैं। हमारे यहाँ धर्म और समाज सुधार दूध तथा पानी के समान मिले हुए हैं। धर्म समाज सुधार के लिए होता है। धर्म समाज में अनुशासन, व्यवस्था तथा पवित्र भावनाओं का विकास करता है। अत: राष्ट्र, समाज तथा व्यक्ति का हित धर्म के अनुसार कार्य करने में है। मंगलकारी भावना से किए गए कार्य विकास की ओर ले जाने वाले होते हैं। ऐसे कार्यों से हमारा ध्यान समाज कल्याण तथा विश्व बन्धुत्व पर केन्द्रित होगा। इससे मानव मात्र का मंगल विधान होगा। इसीलिए धर्म को सभी प्रकार की उन्नतियों का मूल आधार माना गया है।

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प्रश्न 14.
“उत्साह की गिनती अच्छे गुणों में होती है।”का भाव विस्तार कीजिए। [2009]
उत्तर-
गुण अच्छे तथा बुरे दो प्रकार के माने गये हैं। भाव का अच्छा या बुरा होना उसकी प्रवृत्ति के अच्छे या बुरे फल के आधार पर निश्चित होता है। इस प्रकार देखें तो उत्साह अच्छे गुणों की कोटि में आता है। उत्साह की प्रशंसा तभी होती है, जब वह करने के योग्य कर्मों में दिखाया जाता है। न करने योग्य कामों के प्रति होने वाला उत्साह उतना प्रशंसनीय नहीं होता है।

प्रश्न 15.
“साँझ की आँखों में करुणा क्यों उभर आती है” का भाव विस्तार कीजिए। [2009]
उत्तर-
घर लौटते निरीह वनवासियों की पगड़ी पर तथा वनवासी स्त्रियों की चूनर पर दो चार फूल-पत्ते गिर जाते हैं। यह देखकर साँझ की आँखों में करुणा उभर आती है। यह करुणा ओस की बूंद रूपी आँसुओं में प्रकट होती है।

प्रश्न 16.
“प्रेम की भाषा शब्द रहित है” का भाव विस्तार कीजिए।
उत्तर-
प्रस्तुत उक्ति सरदार पूर्णसिंह के आचरण की सभ्यता’ निबन्ध की है। भावात्मक निबन्धों के श्रेष्ठ रचनाकार ने यहाँ पर प्रेम की सहज अभिव्यक्ति के विषय में बताया है। प्रेम सहज सम्प्रेषित होने वाला भाव है। बिना शब्दों के हाव-भावों द्वारा ही प्रेम की अभिव्यक्ति हो जाती है। नेत्र, कपोल, मस्तक आदि की चेष्टाएँ प्रेम को व्यक्त करने में समर्थ हैं। प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए वाक्यों से निर्मित भाषा के प्रयोग की आवश्यकता नहीं पड़ती है। शब्द तो मात्र साधारण विषयों को ही सम्प्रेषित कर पाते हैं। प्रेम एक विशिष्ट स्तर का भाव है इसलिए इसकी अभिव्यक्ति भाषा नहीं कर सकती है। इसकी भाषा शब्दों से परे होती है।

प्रश्न 17.
“साहसपूर्ण आनन्द की उमंग का नाम उत्साह है” का भाव विस्तार कीजिए। [2011, 14]
उत्तर-
गम्भीर विचारक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के ‘उत्साह’ निबन्ध में यह कथन आया है। उत्साह का स्थान आनन्द वर्ग में माना गया है क्योंकि ‘उत्साही’ कर्म सौन्दर्य के उपासक होते हैं। वे कठिन स्थिति के बीच भी साहसपूर्ण उल्लास के साथ कर्म में प्रवृत्त होते हैं। कठिन स्थिति आने से भयभीत होकर प्रायः उससे बचने का प्रयास करते हैं। लेकिन कठिनतम स्थिति में भी साहस के साथ आनन्द का अनुभव करते हुए उल्लासपूर्वक कार्य में लगने का प्रयत्न करते हैं वे प्रशंसा के योग्य होते हैं। वे सच्चे उत्साही कहे जाते हैं। उत्साह में साहसमय आनन्द के भाव का होना आवश्यक है।

प्रश्न 18.
“कला जीवन भी है और जीवनयापन का साधन भी।” का भाव विस्तार कीजिए। [2008, 13]
उत्तर-
कला ही जीवन है। जीवन जीने की शैली को कला कहते हैं। हम पल-पल जो कुछ भी सीखते हैं। उन सभी में किसी-न-किसी रूप में कला के दर्शन होते हैं। कला में संघर्ष करने की शक्ति, कर्त्तव्यनिष्ठा, दयालुता आदि मानवीय गुण पाये जाते हैं। कला रोजी-रोटी का साधन है। कला से सम्बन्धित विभिन्न कार्यों के द्वारा जीवनयापन करना सीखते हैं। कला सम्पूर्ण जीवन का प्रतिबिम्ब है।

प्रश्न 19.
“मुल्क बदल जाए वतन तो वतन होता है” का भाव पल्लवन कीजिए। [2015]
उत्तर-
विदेश में निवास करने वाला व्यक्ति कहता है कि रहें कहीं पर, किन्तु अपना वतन तो अपना ही होता है। भाव यह है कि जिस धरती पर जन्म लिया है, जिसके अन्न-जल से यह शरीर पुष्ट हुआ, उसे भला कैसे भुलाया जा सकता है? विविध प्रकार के कार्यों से, आवश्यकताओं से, विवशता से अनेक देशों में जाया जा सकता है, किन्तु वहाँ जाने पर भी अपना निजी देश तो हृदय में समाया रहता है। रहने से देश तो बदल सकते हैं, किन्तु जन्म का देश नहीं बदला जा सकता है। उसके प्रति तो अटूट भाव रहेगा ही।

प्रश्न 20.
“आज तो मर्यादाओं को फिर से पहचानना है।” पंक्ति का भाव पल्लवन कीजिए। [2008, 15
उत्तर-
‘आज तो मर्यादाओं को फिर से पहचानना है।’ का भाव है कि वर्तमान अर्थप्रधान युग में मर्यादाएँ समाप्त हो रही हैं। स्वार्थग्रस्त होकर मनुष्य सामाजिक मान्यताओं को त्याग रहा है। जिन मर्यादाओं ने परिवार को संगठित और खुशहाल रखा, आज वे चरमरा रही हैं। मर्यादा एकांकी में जगदीश के भाई स्वार्थ हित के कारण अलग हो जाते हैं, बँधा-बँधाया परिवार बिखर जाता है तभी जगदीश अनुभव करते हैं कि हमें आज की परिस्थितियों में पारिवारिक मर्यादाओं को पहचानना होगा। तभी संयुक्त परिवार चल पायेंगे।

प्रश्न 21.
निम्नलिखित शब्दों के दो-दो पर्यायवाची शब्द लिखिए- [2015] पृथ्वी, आँख, पुष्प, कमल।
उत्तर-
पृथ्वी-भू, भूमि; आँख-नेत्र, नयन; पुष्प-फूल, सुमन; कमल-जलज, पंकज।

प्रश्न 22.
निम्नलिखित शब्दों के हिन्दी मानक रूप लिखिए [2015]
सांझ, न्हात, जरी, बिगरी।
उत्तर-
संध्या, स्नान, जड़ी, बिगड़ी।

प्रश्न 23.
निम्नलिखित शब्दों के विलोम शब्द लिखिए-(कोई दो) [2015]
भय, शत्रु, उपस्थित, अल्पज्ञ।
उत्तर-
निर्भय, मित्र, अनुपस्थित, सर्वज्ञ।

  • अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
निम्नलिखित गद्यांश में उचित विराम चिह्न लगाइए
(अ) अच्छा महोदय आपको कष्ट हुआ न क्या करूँ बिना भीख माँगे इस सर्दी में पेट गालियाँ देने लगता है [2010]
उत्तर-
अच्छा महोदय, आपको कष्ट हुआ न, क्या करूँ? बिना भीख माँगे इस सर्दी में पेट गालियाँ देने लगता है।

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(ब) मनुष्य मनुष्य का विश्वास नहीं कर सका इसीलिए तो एक सुखी दूसरे दु:खी की ओर घृणा से देखता था दु:ख ने ईश्वर का अवलम्बन लिया तो भी भगवान ने संसार के दुःखों की सृष्टि बन्द कर दी क्या। . उत्तर-मनुष्य मनुष्य का विश्वास नहीं कर सका। इसीलिए तो एक सुखी दूसरे दुःखी की ओर घृणा से देखता था। दुःख ने ईश्वर का अवलम्बन लिया तो भी भगवान ने संसार के दुःखों की सृष्टि बन्द कर दी क्या?

प्रश्न 2.
हिन्दी में विराम चिह्नों का क्या महत्व है? हिन्दी में प्रयोग किए जाने वाले दो विराम चिह्नों के नाम लिखिए। [2014]
उत्तर-
भाषा एक व्यक्ति के विचारों को दूसरे तक पहुँचाने का माध्यम है। सही विचार सम्प्रेषित करने के लिए बोलने में रुकना पड़ता है। इस रुकने को इंगित करने के लिए विराम चिह्नों का प्रयोग होता है। यदि विराम चिह्नों का सही प्रयोग नहीं है तो बात का भाव बदल जाता है। अत: भाव सम्प्रेषण के लिए हिन्दी में विराम चिह्नों का बहुत महत्व है। पूर्ण विराम (1) तथा अर्द्ध विराम (,) हिन्दी के दो प्रमुख विराम चिह्न हैं।

प्रश्न 3.
विराम चिह्नों के प्रयोग से भाषा की शुद्धता पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर-
विराम चिह्नों के प्रयोग से भाषा शुद्ध हो जाती है।

प्रश्न 4.
हर्ष,शोक, विस्मय आदि को प्रकट करने वाले वाक्यों में कौन-सा विराम चिह्न प्रयोग किया जाता है?
उत्तर-
हर्ष, शोक, विस्मय आदि को प्रकट करने वाले वाक्यों में (!) विराम चिह्न का प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित मुहावरों के अर्थ बताइए कलम तोड़ना, खेत रहना।
उत्तर-
कलम तोड़ना-अच्छा लिखना। खेत रहना-वीरगति प्राप्त करना।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित मुहावरों का वाक्य प्रयोग कीजिए
(i) खाक छानना,
(ii) पट्टी पढ़ाना।
उत्तर-
(i) नौकरी के लिए वह खाक छानता फिर रहा है।
(ii) आपने राकेश को क्या पट्टी पढ़ा दी है, वह घर जाने का नाम ही नहीं लेता है।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित लोकोक्तियों के अर्थ लिखिए-
(i) आँख का अंधा नाम नयनसुख,
(ii) नाच न जाने आँगन टेढ़ा।
उत्तर-
(i) आँख का अन्धा नाम नयनसुख….गुण के विपरीत नाम।
(ii) नाच न जाने आँगन टेढ़ा-काम न जानना और बहाना बनाना।

प्रश्न 8.
निम्नलिखित मुहावरों का अर्थ लिखिए
(i) अपना उल्लू सीधा करना,
(ii) उन्नीस-बीस होना।
उत्तर-
(i) अपना उल्लू सीधा करना-अपना काम निकालना।
(ii) उन्नीस-बीस होना-मामूली अन्तर।

प्रश्न 9.
निम्नलिखित मुहावरों का वाक्य प्रयोग कीजिए
(i) गाल बजाना,
(ii) जान पर खेलना।
उत्तर-
(i) गाल बजाने से कुछ नहीं होता, काम तो करने से ही होता है।
(ii) भारतीय सैनिक देश की रक्षा के लिए जान पर खेल जाते हैं।

प्रश्न 10.
‘नाक नचाना’ का अर्थ बताते हुए वाक्य में प्रयोग कीजिए
उत्तर-
नाक नचाना (तंग करना)-चिन्मय अपनी माँ को सारे दिन नाक नचाता है।

प्रश्न 11.
निम्नलिखित लोकोक्ति का अर्थ वाक्य प्रयोग द्वारा स्पष्ट कीजिए-
आगे नाथ न पीछे पगहा।। उत्तर…तुम्हारे तो आगे नाथ न पीछे पगहा, इसीलिए घूमते रहते हो।

प्रश्न 12.
“कान देना’ मुहावरे का अर्थ वाक्य प्रयोग द्वारा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
शिक्षकों की बातों पर कान देना आवश्यक है।

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प्रश्न 13.
‘सिर पीटना’ का वाक्य में प्रयोग करके अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
अब सिर पीटने से क्या होता है, सारा माल तो चला गया।

प्रश्न 14.
‘चाँदी का जूता मारना’ लोकोक्ति का सही अर्थ बताइए।
उत्तर-
चाँदी का जूता मारना-पैसे के बल पर काम कराना।

प्रश्न 15.
‘आग में घी डालना’ मुहावरे का अर्थ वाक्य प्रयोगद्वारा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
श्याम ने आग में घी डालकर झगड़ा बढ़ा दिया नहीं तो दोनों शान्त हो रहे थे।

प्रश्न 16.
भाव विस्तार से क्या आशय है?
उत्तर-
सूत्र रूप में कही गई बात को विस्तार से समझाना, भाव विस्तार कहलाता है।

प्रश्न 17.
भाव विस्तार की क्या उपयोगिता है? संक्षेप में लिखिए।
उत्तर-
भाव विस्तार से गूढ कथन का अर्थ उजागर होता है। उस कथन के सभी पक्ष समझ में आ जाते हैं।

सम्पूर्ण अध्याय पर आधारित महत्वपूर्ण वस्तुनिष्ठ प्रश्न |

  • बहु-विकल्पीय प्रश्न

1. ‘क्या तुम घर जाओगे’ वाक्य के अन्त में कौन-सा विराम चिह्न लगेगा?
(i) ,
(ii) ।
(ii) ?
(iv) !

2. पूर्णविराम चिह्न होता है
(i) () (ii)। (iii) ; (iv) !

3. निम्नलिखित में उद्धरण विराम चिह्न कौन-सा है?
(i) “” (ii)? (iii) () (iv) ………..

4. “इस नगर में अनेकों आदमी रहते हैं।” का शुद्ध रूप है-
(i) इस नगर में रहते हैं अनेकों आदमी,
(ii) अनेकों आदमी रहते हैं, इस नगर में,
(iii) इस नगर में अनेक आदमी रहते हैं,
(iv) इस नगर में अनेकों सज्जन रहते हैं।

5. “भारत में अनेकों पर्व मनाये जाते हैं।”का शुद्ध वाक्य है- [2011]
(i) भारत भर में अनेकों पर्व मनाये जाते हैं,
(ii) भारत में अनेकों त्यौहार मनाये जाते हैं,
(iii) भारत में अनेक पर्व मनाये जाते हैं,
(iv) भारत में नाना पर्व मनाये जाते हैं।

6. “सोहन अगले वर्ष भोपाल गया था।” में अशुद्धि है [2014]
(i) काल सम्बन्धी, (ii) वर्तनी सम्बन्धी, (iii) वचन सम्बन्धी, (iv) कर्ता सम्बन्धी।

7. ‘टेढ़ी खीर’ मुहावरे का अर्थ है [2016]
(i) खीर खाना, (ii) मीठी खीर, (iii) सरल कार्य, (iv) कठिन कार्य।

8. ‘सब धान बाईस पसेरी’ का अर्थ है
(i) बहुत सस्ता होना, (ii) बहुत महँगा होना, (iii) अधिक से सुविधा, (iv) अच्छे-बुरे को समान समझना।

9. ‘मँह में राम बगल में छुरी’ का अर्थ है
(i) कठोर स्वभाव, (ii) कपटपूर्ण व्यवहार, (iii) कोमल स्वभाव, (iv) राम-राम जपने वाला।

10. ‘ईद का चाँद’ का अर्थ है… [2009]
(i) ईद पर मिलना, (ii) बहुत दिन बाद मिलना, (iii) ईद पर खुश होना, (iv) ईद पर चाँद दिखना।

11. ‘कवित्री’ शब्द की सही वर्तनी होगी [2017]
(i) कवीत्री, (ii) कवीयत्री, (iii) कवयित्री, (iv) कवयीत्री।
उत्तर-
1. (iii), 2. (ii), 3. (i), 4. (iii), 5. (iii), 6. (i), 7. (iv), 8. (iv), 9. (ii), 10. (ii), 11.(iii)।

  • रिक्त स्थान पूर्ति

1. क्या भोपाल सुन्दर शहर है ……….।
2. वाक्य के अन्त में ………….’ लगाया जाता है। [2017]
3. ‘हानि’ का विलोम शब्द ‘………….. ‘ है। [2015]
4. ‘एक पंथ ………….. ‘ प्रसिद्ध मुहावरा है।
5. ‘ऊँट के मुँह में जीरा’ का अर्थ ………….. है।
6. ‘आम के आम …………..’ प्रचलित लोकोक्ति है।
7. माधुर्यता का शुद्ध रूप ………….’ है।
8. ‘अनेकों’ का शुद्ध ………….. होता है।
9. ‘आस्तीन का साँप’ मुहावरे का अर्थ ………… है। [2009]
10. ‘सब धान बाईस पसेरी’ मुहावरे का अर्थ ……. है। [2014]
11. ‘ईद का चाँद होना’ मुहावरे का अर्थ है ………….. | [2016]
उत्तर-
1. ?, 2. पूर्णविराम, 3. लाभ, 4. दो काज, 5. बहुत कम, 6. गुठलियों के दाम, 7. माधुर्य, 8. अनेक, 9. कपटी मित्र, 10. अच्छे-बुरे को समान समझना, 11. कभी-कभी दिखना।

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  • सत्य असत्य

1. प्रश्नवाचक वाक्य के अन्त में (?) विराम चिह्न लगाया जाता है।
2. ‘नाक रगड़ना’ का अर्थ खुशामद करना है।
3. ‘लोहा लेना’ मुहावरे का अर्थ युद्ध करना है। [2017]
4. ‘टेढ़ी खीर’ मुहावरे का अर्थ खीर खाना है।
5. ‘उज्ज्वल’ शब्द पूर्ण शुद्ध है। [2013]
6. पूर्ण विराम का प्रयोग किसी कथन के पूर्ण होने पर किया जाता है। [2008]
7. लोक + उक्ति से लोकोक्ति शब्द की उत्पत्ति हुई है। [2008, 14]
8. यह चिन्ह्न ! प्रश्नवाचक चिह्न के लिए प्रयोग किया जाता है। [2008]
9. “अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग” यह एक लोकोक्ति है। [2008]
10. लोकोक्ति पूर्ण स्वतन्त्र होती है जबकि मुहावरा पूर्ण स्वतन्त्र नहीं होता। [2008]
11. लोकोक्ति को कहावत भी कहते हैं। [2010, 16]
12. मुहावरे का प्रयोग भाषा में चमत्कार उत्पन्न करता है। [2011]
उत्तर-
1. सत्य, 2. सत्य, 3. सत्य, 4. सत्य, 5. सत्य, 6. सत्य, 7. सत्य, 8. असत्य, 9. सत्य, 10. सत्य, 11. सत्य, 12. सत्य।

  • जोड़ी मिलाइए

I. 1. रात-दिन [2015] – (क) विस्मयादिबोधक
2. ‘हे राम ! क्या-क्या सहना पड़ेगा?’ वाक्य है – (ख) द्वन्द्व समास
3. ‘दाँत खट्टे करना’ का अर्थ है – (ग) प्रश्नवाचक वाक्य
4. ‘पौन’ का तत्सम है [2015] – (घ) परास्त करना
5. वह कहाँ जा रहा है? [2017] – (ङ) पवन
उत्तर-
1.→ (ख),
2. → (क),
3. → (घ),
4.→ (ङ),
5. → (ग)।

II.
1. तुम तो कुर्सी में बैठे हो वाक्य है – (क) अशुद्ध
2. ‘एक मात्र सहारा’ के लिए मुहावरा है – (ख) बिखर जाना
3. तीन तेरह होना [2014, 17] – (ग) अन्धे की लकड़ी
4. ‘चार चाँद लगाना’ का अर्थ है – (घ) मुँह मोड़ना
5. उपेक्षा के लिए मुहावरा है – (ङ) शोभा बढ़ाना
उत्तर-
1. → (क),
2. → (ग),
3. → (ख),
4. → (ङ),
5. → (घ)।

  • एक शब्द /वाक्य में उत्तर

1. जो समाज की सेवा करता है। [2008]
2. जो हमेशा सत्य बोलता है। [2008]
3. जिसे पराजित न किया जा सके। [2008, 09]
4. जहाँ से चार रास्ते जाते हों। [2008]
5. जो सब कुछ सहन कर लेता है। [2008]
6. जिसका अस्तित्व लोक में न हो। [2008, 09]
7. जिसकी धर्म में आस्था हो। [2008]
8. जिसका विश्वास ईश्वर में न हो। [2008, 09, 16]
9. जो देश पर बलिदान हो गया हो। [2008]
10. जिनकी गिनती न की जा सके। [2008]
11. जो आदर के योग्य हो। [2008]
12. जिसे देखा न जा सके। [2008, 09]
13. जिसकी ईश्वर में आस्था हो। [2008]
14. जिस पर नियन्त्रण न हो। [2008]
15. जिसे विभाजित न किया जा सके। [2008]
16. किये गये उपकार को मानने वाला। [2009]
17. जिसके आने की तिथि ज्ञात न हो। [2010]
18. जो सबसे श्रेष्ठ हो। [2010]
19. जो उच्च कुल में पैदा हुआ हो। [2010]
20. जिसके पास धन नहीं है। [2010]

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21. तपस्या करने वाला। [2010]
22. जिसका कोई शुल्क न देना पड़े। [2011, 15, 16]
23. परिश्रम करने वाला। [2011]
24. जिसका क्षय न हो। [2011]
25. जिसका कोई शत्रु न हो। [2011]
26. जिसे क्षमा न किया जा सके। [2011]
27. जो वेतन लेकर काम करता है। [2013]
28. जो कम बोलता हो। [2013]
29. जो समाज की सेवा करता है, उसे क्या कहते हैं? [2014]
30. जिसके समान कोई दूसरा न हो। [2015]
31. व्यवसाय से सम्बन्धित। [2016]
32. जिसकी कोई उपमा न हो। [2017]
33. आकाश को छूने वाला। [2017]
34. ‘मोहन को गर्म भैंस का दूध पिलाओ’-वाक्य शुद्ध कीजिए। [2016]
35. ‘मुझे केवल मात्र पाँच रुपये चाहिए।’ वाक्य को शुद्ध करके लिखिए। [2017]
उत्तर-
1. समाजसेवक, 2. सत्यवादी, 3. अपराजेय, 4. चौराहा, 5. सहनशील, 6. अलौकिक,7. धार्मिक,8. नास्तिक,9.शहीद, 10. अनगिनत, 11. आदरणीय, 12. अदृश्य, 13. आस्तिक, 14. अनियन्त्रित, 15. अविभाज्य, 16. कृतज्ञ, 17. अतिथि, 18. सर्वश्रेष्ठ, 19. कुलीन, 20.निर्धन, 21.तपस्वी, 22. निःशुल्क, 23. परिश्रमी, 24. अक्षय, 25. अजातशत्रु, 26. अक्षम्य, 27. वैतनिक, 28. अल्पभाषी, 29. समाजसेवी, 30. अद्वितीय, 31. व्यावसायिक, 32. अनुपमेय, 33. गगनचुम्बी, 34. मोहन को भैंस का गर्म दूध पिलाओ, 35. मुझे मात्र पाँच रुपये चाहिए।

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