MP Board Class 11th Special Hindi काव्य की परिभाषा एवं लक्षण

(1) काव्य की परिभाषा एवं लक्षण समस्त भाव प्रधान साहित्य को काव्य कहते हैं। विभिन्न विद्वानों ने काव्य के विभिन्न लक्षण बताये हैं-साहित्य दर्पण के प्रणेता आचार्य विश्वनाथ ने “रसात्मकं वाक्यं काव्यम्” कहा है। पण्डितराज जगन्नाथ ने ‘रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्’ कहा है। कुन्तक ने ‘वक्रोक्ति काव्यस्य जीवितम्’ कहा है और आनन्दवर्धन तथा अभिनवगुप्त ‘ध्वनिरात्मा काव्यस्य’ कहते हैं। मम्मट ने काव्य को हृदय की “सगुणावलंकृतौ पुन: क्वापि” कहा है।

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आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में, “कविता शेष सृष्टि के साथ हमारे रागात्मक सम्बन्धों की रक्षा और निर्वाह का साधन है। वह उस जगत के अनन्त रूपों, अनन्त व्यापारों और अनन्त चेष्टाओं के साथ हमारे मन की भावनाओं को जोड़ने का काम करती है।” इस प्रकार हम देखते हैं कि काव्य हृदय को आनन्द देता है।

  • काव्य के भेद

(1) मुक्तक काव्य-गीत, कविता, दोहा और पद एवं आधुनिक चतुष्पदी तथा मुक्त छन्द मुक्तक काव्य कहलाता है। मुक्तक काव्य का तात्पर्य है कि बिना पूर्वापर-सम्बन्ध के वह पद्य या छन्द अपने आप में पूर्ण एक स्वतन्त्र भाव लिये हो जिसके पढ़ने मात्र से उसका भाव भली प्रकार समझ में आ जाये। सूरदास, मीरा आदि कवियों के गेय पद और बिहारी सतसई तथा आधुनिक गीत इसके अन्तर्गत आते हैं।

(2) प्रबन्ध काव्य-प्रबन्ध काव्य वह रचना होती है जिसमें कोई एक कथा आद्योपान्त क्रमबद्ध रूप से गठित हो एवं उसमें कहीं भी तारतम्य न टूटता हो, वरन् उस कथा को पुष्ट करने उसमें अन्य कई अन्तर्कथाएँ भी हो सकती हैं। प्रबन्ध काव्य विस्तृत होता है, उसमें जीवन की विभिन्न झाँकियाँ रहती हैं। प्रबन्ध काव्य में कथानक को लेकर पात्रों के चरित्रों में घटनाओं और भावों के संघर्ष द्वारा काव्य-वस्तु रखी जाती है। इसके मुख्य दो भेद होते हैं

(i) महाकाव्य और
(ii) खण्डकाव्य।

(i) महाकाव्य-यह एक विशिष्ट गुण युक्त वृहत् आकार वाला ग्रन्थ होता है। यह सर्गों या अध्यायों में विभक्त रहता है। इसका नायक उदात्त गुणों युक्त कोई कुलीन होता है। वीर, श्रृंगार अथवा शान्त रस में से किसी एक रस की प्रधानता रहती है। अन्य रस गौण रूप में आते हैं। महाकाव्य का कथानक प्रसिद्ध होता है अथवा उसमें किसी ऐतिहासिक या पौराणिक पुरुष के चरित्र का वर्णन किया जाता है। प्रत्येक सर्ग की रचना एक ही प्रकार के छन्द में होती है, किन्तु सर्ग के अन्त में छन्द बदल जाता है। सर्गों की संख्या आठ या आठ से अधिक होती है, सर्ग के अन्त में आगामी कथानक की सूचना दी जाती है। महाकाव्य में सन्ध्या, सूर्योदय, चन्द्रोदय, रात, प्रदोष, अन्धकार, वन, ऋतु, समुद्र, पर्वत, नदी आदि प्राकृतिक पदार्थों का वर्णन होता है। जैसे—रामचरितमानस, पद्मावत, साकेत आदि।

(ii) खण्डकाव्य आचार्य विश्वनाथ के अनुसार, “खण्डकाव्य महाकाव्य के एक देश या अंश का अनुसरण करने वाला है।” यह जीवन के समस्त पक्षों का उद्घाटन नहीं करता है, अपितु केवल एक पक्ष पर प्रकाश डालता है। रुद्रट के अनुसार लघु प्रबन्धों में चतुर्वर्ग में से एक ही वर्ग रहा करता है। उसमें अनेक रस असमग्र रूप से होते हैं अथवा एक रस समग्र रूप में होता है। हेमचन्द्र ने अपने ग्रन्थ ‘काव्यानुशासन’ में कहा है कि “जब कवि एक ही विषय को एक ही छन्द में आद्यन्त वर्णन करता है, तब उसे सन्धान कोटि का काव्य कहते हैं।” खण्डकाव्य अन्तस्तत्व के उद्वेलन से पूरित और रसमय होता है। उसमें किसी की जीवन-कथा का विवरण न होकर भाव व्यंजना होती है। खण्डकाव्य गीतिकाव्य भी हो सकता है। खण्डकाव्य कथा के आंशिक आधार के साथ मूलत: गीतिकाव्य बन जाते हैं। इसमें सरस-ललित पदयोजना होती है। इसमें कथावस्तु प्राय: काल्पनिक भी हो सकती है। वह खण्डों में विभक्त हो सकता है। खण्डकाव्य में प्राकृतिक दृश्यों का अंकन समयानुसार और विषयानुसार तथा संक्षिप्त होना चाहिए। खण्डकाव्य तब तक सफल नहीं होगा, जब तक वह अपने लक्ष्य में पूर्ण न हो और जिस भी भाव को लेकर लिखा जाय वह अपने आप में पूर्ण हो, क्योंकि उसमें विस्तार की सुविधा नहीं रहती है। इसमें एक ही भाव की अनुभूतिमयी अभिव्यंजना होती है; जैसे—सुदामाचरित, पंचवटी। – उपर्युक्त सभी प्रकार के काव्य श्रव्य-काव्य के अन्तर्गत आते हैं। श्रव्य-काव्य में पठनीय और श्रवणीय महाकाव्य से लेकर मुक्तक और गीतों की भी गणना की जाती है। श्रव्य-काव्य वह होता है, जिसके सुनने से अथवा स्वयं पढ़ने से रसास्वादन प्राप्त हो।

(3) दृश्य-काव्य–दृश्य-काव्य के अन्तर्गत नाटक और प्रहसन आते हैं जिनका अभिनय रंगमंच पर पात्रों द्वारा किया जाता है। इसमें गद्य के सम्भाषण के अतिरिक्त गेय गीतों, छन्दों अथवा प्रसंगानुकूल नृत्यों की योजना रहती है। दृश्य-काव्य के अन्तर्गत अधिक रमणीयता होती है क्योंकि दर्शक उसकी प्रत्यक्षानुभूति करता है। कलाकार अपनी प्रभावशील अभिनय कला द्वारा हृदय पर सीधा प्रभाव डालते हैं। दृश्य-काव्य निश्चय ही श्रव्य-काव्य से श्रेष्ठ होता है, क्योंकि उसका आनन्द पढ़कर एवं देखकर दोनों रूपों में प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु श्रव्य-काव्य का आनन्द केवल सुनकर ही लिया जा सकता है। नाटक में साहित्य के अन्य तत्वों के अतिरिक्त अभिनय तत्व भी होता है, जैसे-नाटक, एकांकी आदि।

(2) शब्द-शक्ति मनुष्य अपने मनोगत विचारों को दूसरों पर जिस भाषा के माध्यम से लिखकर या बोलकर प्रकट करते हैं, वह भाषा शब्दों के समूह से मिलकर बनती है। शब्द दो प्रकार के होते हैं सार्थक एवं निरर्थक। साहित्य या काव्य में सार्थक शब्द ही अपेक्षित हैं। सार्थक शब्द के कई अर्थ साहित्यिक दृष्टि से निकलते हैं—

  • वाचक,
  • लक्षण और
  • व्यंजक।

ये तीन सार्थक शब्द हैं और क्रमशः इनके तीन अर्थ निकलते हैं—

  • वाच्यार्थ,
  • लक्ष्यार्थ और
  • व्यंग्यार्थ।

शब्दों के विभिन्न अर्थ बतलाने वाले व्यापार अथवा साधन को शब्द-शक्ति कहते हैं। शब्द-कोष के मतानुसार, “शब्द की शक्ति उसके अन्तर्निहित अर्थ को व्यक्त करने का व्यापार है। यह तीन प्रकार की होती है।”

(1) अभिधा शक्ति—जिस शब्द के श्रवण मात्र से उसका परम्परागत प्रसिद्ध अर्थ सरलता से समझ में आ जाए उसे अभिधा शब्द-शक्ति कहते हैं। इस अर्थ को वाच्यार्थ, मुख्यार्थ और अभिधेयार्थ के नामों से भी जाना जाता है। अभिधा के इस अर्थ का ग्रहण जाति के नाम से, स्वतन्त्र नाम से, धर्मों से गुण यानी रंग, रूप, रस, गन्ध के नाम से और क्रिया के नाम से होता है।

जैसे—

  • ‘बैल’ बड़ा उपयोगी पशु है।
  • रमेश के ‘कान’ में पीड़ा है। इन वाक्यों में ‘बैल’ का अर्थ पशु विशेष और ‘कान’ का अर्थ श्रवणेन्द्रिय से ही होता है, जो इन शब्दों के प्रचलित अर्थ हैं। शब्द और अर्थ का ज्ञान इन कारणों से होता है व्याकरण से, उपमान से, प्रसिद्ध शब्द के सादृश्य से, शब्दकोष से, प्रामाणिक वक्ता के आप्तवाक्य से एवं सर्वव्यापक कारण है व्यवहार।

(2) लक्षणा शक्ति-लक्षणा शक्ति-शब्द के वाच्यार्थ या मुख्यार्थ से भिन्न है, परन्तु उनके समान अन्य अर्थ को प्रकट करती है। जब किसी शब्द का अभिधा के द्वारा मुख्यार्थ का बोध नहीं हो पाता, अथवा ‘मुख्यार्थ’ समझने में बाधा हो जाती है, तब उस शब्द के अर्थ का बोध कराने वाली शक्ति को लाक्षणिक शक्ति कहते हैं, जैसे-

  • सुदेश ‘बैल’ है।
  • रमेश के ‘कान’ नहीं हैं।

इन वाक्यों में सुदेश मनुष्य है पशु नहीं है, किन्तु उसे बैल कहने का तात्पर्य है. बैल के समान बुद्धि शून्य है जो दूसरों के नियन्त्रण में रहता है। इसी प्रकार रमेश के कान नहीं हैं उसका मतलब होता है कि वह सुनता नहीं है। यहाँ उक्त शब्दों का अर्थ अभिधा शक्ति द्वारा प्रकट न होकर ‘लक्षणा शक्ति’ के द्वारा प्रकट होता है।

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लक्षणा के दो मुख्य भेद हैं रूढ़ि और प्रयोजनवती। जिसमें मुख्यार्थ का बोध न होने पर जिसकी लोक में प्रसिद्धि हो, उसे रूढ़ि लक्षणा कहते हैं, जैसे “वह चौकन्ना रहता है।” यहाँ चौकन्ना का अर्थ चार कान वाला नहीं वरन् ‘सतर्क’ रूढ़ हो गया है, अत: वही अर्थ होगा। इसी प्रकार ‘तेल’ शब्द का अर्थ तो होता है तिल से निकला पदार्थ, किन्तु तरल चिकने पदार्थ के लिए रूढ़ हो जाने से तेल किसी भी तरल पदार्थ को कह देते हैं।

दूसरा प्रकार है प्रयोजनवती लक्षणा। जब मुख्यार्थ से कथन का अभिप्राय बोधगम्य न हो, तब किसी खास प्रयोजन के कारण दूसरा ऐसा अर्थ ले लिया जाये, जिसका मुख्य अर्थ से सम्बन्ध हो, उसे प्रयोजनवती लक्षणा कहते हैं, जैसे—’गंगा में साधु’ हैं।’ यहाँ पर गंगा का अर्थ गंगा नदी नहीं, वरन् गंगा का तट ही अपेक्षित अर्थ है। प्रयोजन से अभीष्ट अर्थ निकाल लिया गया। गंगा के मुख्यार्थ में बाधा पड़ी तथा प्रयोजन में उसके समीप का अर्थ ग्रहण कर लिया अतः यह प्रयोजनवती लक्षणा हुई।

(3) व्यंजना शक्ति–व्यंजना से जाने हुए अर्थ को व्यंग्यार्थ, ध्वन्यार्थ या प्रतीयमान अर्थ कहते हैं और उस शब्द को व्यंजक कहते हैं। जब अभिधा और लक्षणा शक्ति से किसी शब्द का अर्थ नहीं निकल पाता है और शब्द के वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ से भिन्न कोई अन्य विशिष्ट अर्थ या कई भिन्न-भिन्न ध्वनियाँ निकलती हैं, तब व्यंजना शक्ति की सहायता से अर्थ ज्ञात किया जाता है। वाच्यार्थ से भिन्न निकलने वाला विलक्षण अर्थ व्यंग्यार्थ’ होता है। इसको ध्वनि कहते हैं। श्रेष्ठ कवियों और साहित्यकारों की रचनाओं में ध्वनि का कारण ही विशेष चमत्कार होता है।

यह व्यंजना वृत्ति दो प्रकार की होती है-
(i) शाब्दी व्यंजना और
(ii) आर्थी व्यंजना।

(i) शाब्दी व्यंजना-इसमें व्यंजना का आधार वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ के भेद से प्रयुक्त शब्द के सम्बन्ध से होता है। अभिधा के द्वारा शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, जैसे—’इन्दौर मध्य प्रदेश की मुम्बई है।” इसमें मुम्बई शब्द में ऐश्वर्य, सम्पन्नता की जो ध्वनि है, वही इन्दौर के लिए भी समीचीन प्रतीत होती है।

(ii) आर्थी व्यंजना–जहाँ देशकाल, परिस्थिति या कण्ठ-ध्वनि और विशेष शब्द पर जोर से कोई विशेष अर्थ निकले, वहाँ आर्थी व्यंजना होती है। एक ही वाक्य के सन्दर्भानुसार अनेक अर्थ होते हैं; जैसे..”सन्ध्या हो गयी”-इसी वाक्य को माता पुत्री से कहे तो अर्थ होगा प्रकाश कर दो। सेवक स्वामी से कहे तो अर्थ,होगा-उसके अवकाश का समय हो गया और एक मित्र दूसरे मित्र से कहे तो तात्पर्य होगा चलचित्र का समय हो गया। गुरु शिष्य से कहे तो तात्पर्य है अध्ययन का समय हो गया।

विद्वानों ने तो ‘ध्वनिरात्मा काव्यस्य’ कहा है। ध्वन्यात्मक काव्य उत्कृष्ट काव्य है। इस प्रकार शब्द-शक्तियों के अध्ययन से हम रस का पूर्ण आस्वादन कर सकते हैं। वस्तुतः उक्त तीनों शब्द शक्तियों का विवेचन एक प्राचीन संस्कृताचार्य ने निम्नांकित श्लोकों में पूर्ण रूप से कर दिया है। उसका कथन है कि

“अभिधां वदन्ति सरला।
लक्षणा नागराजनाः।
व्यंजना नर्म मर्मज्ञः।
कवयाः, कमनाजनाः।।”

तात्पर्य यह है कि सीधे-सादे, भोले-भाले सरल व्यक्ति या ग्रामीण व्यक्ति अभिधा शक्ति का प्रयोग करते हैं, क्योंकि वे जो कहेंगे उसका वही अर्थ होगा। नगरवासी शिक्षित सभ्य पुरुष अधिकतर लक्षणा शक्ति का प्रयोग करते हैं, जिसमें कई रूढ़ि शब्द होते हैं और कई शब्दों का प्रयोजन से अर्थ होता है। शेष बचे सहृदय, रसिकजनक, कवि, प्रेमी, उत्कृष्ट जन-वर्ग सदैव व्यंजना वृत्ति अपनाते हैं, जिनकी बात में चमत्कार होता है और जो आनन्दायिनी रहती है।

(3) शब्द गुण (काव्य गुण) कविता-कामिनी को अलंकारों से सुसज्जित कर भी विद्वानों ने उसके आन्तरिक रूप को ही महत्त्व दिया है। अलंकार, छन्द से काव्य का बाह्य रूप सजता है किन्तु सुन्दर सजीला तन भावपूर्ण मन के बिना तथा गुण रहित होने से व्यर्थ होता है। कहा भी है कि “गुणीनां च निर्गुणनां च दृश्यते महदन्तरम्।” अत: मानवोचित गुणों के अनुकूल ही काव्य गुण भी होते हैं। आचार्य दण्डी ने दस काव्य गुणों का उल्लेख किया है और भोज ने चौबीस गुणों का। किन्तु साहित्य में काव्य के तीन ही गुण प्रमुख माने गये हैं। उसी वर्गीकरण के अन्तर्गत इन्हीं तीनों में अन्य सभी गुण समाहित कर लिए हैं। इन गुणों का काव्य में किस प्रकार प्रणयन होता है तथा गुणयुक्त काव्य श्रोता या पाठक पर किस प्रकार प्रभावशील होता है, उनके लिए कुछ नियम हैं।

मुख्य तीन गुण हैं—

  • माधुर्य,
  • ओज,
  • प्रसाद।

(1) माधुर्य गुण–मधुरता के भाव को माधुर्य कहते हैं। मिठास अर्थात् कर्णप्रियता ही इसका मुख्य भाव है। जिस काव्य के श्रवण से आत्मा द्रवित हो जाये, मन आप्लावित और कानों में मधु घुल जाये वही माधुर्य गुणयुक्त है। यह गुण विशेष रूप से श्रृंगार, शान्त एवं करुण रस में पाया जाता है। माधुर्य गुण की रचना में

  • कठोर वर्ण यानि सम्पूर्ण ट वर्ग (ट, ठ, ड, ढ, ण) के शब्द नहीं होने चाहिए।
  • अनुनासिक वर्गों से युक्त अत्यन्त दीर्घ संयुक्ताक्षर नहीं होना चाहिए।
  • लम्बे-लम्बे सामासिक पदों का प्रयोग भी वर्जित है।
  • कोमलकांत मृदु पदावली का एवं मधुर वर्णों (क, ग, ज,द आदि) का प्रयोग होना चाहिए।

उदाहरण—
(1) ‘छाया करती रहे सदा, तुझ पर सुहाग की छाँह।
सुख-दुख में ग्रीवा के नीचे हो, प्रियतम की बाँह।।

(2) अनुराग भरे हरि बागन में,
सखि रागत राग अचूकनि सों।

(3) लेकर इतना रूप कहो तुम, दीख पड़े क्यों मुझे छली?
चले प्रभात बात फिर भी क्या खिले न कोमल कमल कली?

(4) बसो मोरे नैनन में नन्दलाल
मोहिनी मूरत साँवरी सूरत नैना बने बिसाल।

(2) ओज गुण-जिस काव्य-रचना को सुनने से मन में उत्तेजना पैदा होती है, उस कविता में ओजगुण होता है। ओज का सम्बन्ध चित्त की उत्तेजना वृत्ति से है। इसलिए जिस काव्य को पढ़ने या सुनने से पढ़ने वाले के हृदय में उत्तेजना आ जाती है, वही ओजगुण प्रधान रचना होती है। वीर रस रचना के लिए इस गुण की आवश्यकता होती है। इस गुण को उत्पन्न करने के लिए विद्वानों ने निम्नलिखित गुणों का विधान किया है-

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  • रचना की शैली एवं शब्द योजना दोनों का ही सुगठित एवं सुनियोजित होना आवश्यक
  • पंक्ति अथवा छन्द की रचना में कहीं भी शिथिलता होना अनपेक्षित है।
  • रचना में ट वर्ग (ट, ठ, ड, ढ, ण) और सभी कठोर व्यंजनों का आधिक्य होना चाहिए।
  • र के संयोग से बने शब्द प्रथम एवं तृतीय, द्वितीय और चतुर्थ वर्गों का प्रयोग होते संयोजन तथा रेफ युक्त शब्द प्रभावशाली हैं।
  • लम्बे-लम्बे समासों से युक्त शब्दों का प्रयोग होना चाहिए। अधिकाधिक संयुक्ताक्षरों का प्रयोग होना चाहिए।

उदाहरण-
(1) अमर राष्ट्र, उदण्ड राष्ट्र, उन्मुक्त राष्ट्र-यह मेरी बोली।
यह ‘सुधार’, ‘समझौते’ वाली मुझको भाती नहीं ठिठोली।।

(2) निकसत म्यान तें मयूखै प्रलै भानु कैसी,
फारै तम-तोम से गयंदन के जाल को।

(3) महलों ने दी आग, झोंपड़ियों में ज्वाला सुलगाई थी
वह स्वतन्त्रता की चिनगारी, अन्तरतम से आई थी।

(4) हिमाद्रि तुंग शृंग पर, प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्वला, स्वतन्त्रता पुकारती।

(3) प्रसाद गुण—प्रसाद का अर्थ है—प्रसन्नता या निर्मलता। जिस काव्य को सुनते या पढ़ते समय वह हृदय पर छा जाये और बुद्धि शब्दों के दुरूह जाल में या क्लिष्ट अर्थों की कलुषता में मलिन न होकर एकदम प्रभावित हो जाये, मन खिल जाये, उसे प्रसाद गुण कहते हैं। कवि का उद्देश्य होता है मानव हृदय को प्रभावित करना। प्रेमी की बात प्रिय पात्र के हृदय को रस से सराबोर न कर दे, ममता वात्सल्य को आहूदित न कर पाये, करुणा नयनों के कोरों को यदि अविरल न कर पाये और वीरता का उत्साह यदि ओजित न कर पाये-ये सभी यदि शब्दों की भूलभुलैया में पड़कर क्लिष्टता के अस्त-व्यस्त मार्ग पर चल पड़े तो काव्य ब्रह्मानन्द सहोदर न होकर मस्तक की पीड़ा बन जायेगा। व्यस्तता के इस गुण में हमें आज प्रसाद गुण युक्त काव्य की आवश्यकता है। यही गुण अधिक समय तक प्रभावशाली रह सकता है, क्योंकि यह सीधे हृदय पर छाप छोड़ता है। सभी रसों की रचना प्रसाद गुण युक्त हो सकती है। प्रसाद गुण का सम्बन्ध सभी रसों से है। उक्त दोनों गुणों की तरह यह गुण किसी रस विशेष से नियन्त्रित नहीं है। शब्दों के साथ अर्थ का भी सरल होना आवश्यक है। इसमें जो बात कही जाये, उसका वही अर्थ होता है। ‘साहित्य-दर्पण’ के प्रणेता आचार्य विश्वनाथ का कथन है कि-“समस्त रसों और रचनाओं में जो चित्र को सूखे ईंधन में अग्नि के समान शीघ्र व्याप्त करे—वह प्रसाद गुण है।”

उदाहरण-
(1) “चुप रहो जरा सपना पूरा हो जाने दो,
घर की मैना को जरा प्रभाती गाने दो,
ये फूल सेज के चरणों पर धर देने दो,
मुझको आँचल में हरसिंगार भर लेने दो।”

(2) मानुस हौं तो वही रसखान
बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।

(3) तन भी सुन्दर मन भी सुन्दर
प्रभु मेरा जीवन हो सुन्दर।

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(4) हे प्रभो आनन्द दाता ! ज्ञान हमको दीजिए।
(5) आशीषों का आँचल भर कर, प्यारे बच्चो लाई हूँ।
युग जननी मैं भारत माता द्वार तुम्हारे आई हूँ।

-बालकृष्ण बैरागी

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