MP Board Class 11th Special Hindi अलंकार
काव्य की शोभा में वृद्धि करने वाले साधनों को अलंकार कहते हैं। अलंकार से काव्य में रोचकता, चमत्कार और सुन्दरता उत्पन्न होती है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अलंकार.को काव्य की आत्मा ठहराया है।
1. भ्रान्तिमान अलंकार [2010]
जहाँ प्रस्तुत वस्तु को देखकर किसी विशेष समानता के कारण किसी दूसरी वस्तु का भ्रम हो जाये, वहाँ भ्रान्तिमान अलंकार होता है। जैसे
(1) जान स्याम घनस्याम को, नाच उठे वन मोर।
(2) चंद के भरम होत, मोद है कुमोदिनी को।
(3) नाक का मोती अधर की कांति से,
बीज दाडिम का समझकर भ्रान्ति से,
देखकर सहसा हुआ शुक मौन है,
सोचता है, अन्य शुक यह कौन है?
(4) कपि करि हृदय विचार, दीन्ह मुद्रिका डारि तब।
जनु अशोक अंगार, दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ।।
(5) चाहत चकोर सूर ओर, दृग छोर करि।
चकवा की छाती तजि धीर धसकति है।।
2. सन्देह अलंकार
[2008]
जहाँ रूप, रंग और गुण की समानता के कारण किसी वस्तु को देखकर यह निश्चय न हो कि यह वही वस्तु है, वहाँ सन्देह अलंकार होता है। इसमें अन्त तक संशय बना रहता है।
(1) सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है।
कि सारी ही की नारी है कि नारी ही की सारी है।।
(2) परत चन्द्र प्रतिबिम्ब कहुँ जलनिधि चमकायो,
कै तरंग कर मुकुर लिए, शोभित छवि छायो।
कै रास-रमन में हरि मुकुट आभा जल बिखरात है,
कै जल-उर हरि मूरति बसत ना प्रतिबिम्ब लखात है।
(3) तारे आसमान के हैं आये मेहमान बनि, केशों में निशाने मुक्तावलि सजाई है।
बिखर गई है चूर-चूर के चन्द कैधों, कैधों घर-घर दीपमालिका सुहाई है।।
(4) दिग्दाही से धूम उठे या जलधर उठे क्षितिज तट के।
सन्देह और भ्रान्तिमान में अन्तर [2008]
भ्रान्तिमान में एक वस्तु में दूसरी वस्तु का झूठा निश्चय हो जाता है, जबकि सन्देह में अनिश्चय बना रहता है कि ये है कि नहीं? तर्क-वितर्क की भावना बनी रहती है। भ्रान्तिमान में हम स्वयं भ्रम दूर नहीं कर पाते, जबकि सन्देह में कर लेते हैं।
3. विरोधाभास अलंकार
[2008, 09]
जहाँ किसी पदार्थ, गुण या क्रिया में वास्तविक विरोध न होते हुए भी विरोध का आभास हो, वहाँ पर विरोधाभास अलंकार होता है।
(1) ‘वा मुख की मधुराई कहा कहौं,
मीठी लगे अँखियान लनाई।
(2) शीतल ज्वाला जलती है,
ईंधन होता दृग-जल का।
यह व्यर्थ साँस चल-चलकर,
करती है काम अनिल का।।
(3) मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ।
(4) तन्त्री-नाद, कवित्त रस; सरस राग रति-रंग।
अनबूड़े बूड़े तिरे, जे बूड़े सब अंग।।
(5) या अनुरागी चित्त की, गति समुझे नहीं कोय।।
ज्यों-ज्यों बूढ़े श्याम रंग, त्यों-त्यों उज्ज्वल होय।।
(6) शाप हूँ जो बन गया वरदान जीवन में।
(7) नीर भरी अँखियाँ रहे तऊ न प्यास बुझाय।
4. अपहृति अलंकार
[2008, 11]
उपमेय का निषेध कर उसमें उपमान का आरोप किया जाये तो अपहृति अलंकार होता है।
अपहृति का अर्थ है छिपाना, निषेध करना। इस अलंकार में प्रायः निषेध आरोप करते हैं।
जैसे-
(1) सत्य कहहुँ हाँ दीनदयाल।
बन्धु न होय मोर यह काला।
(2) फूलों पत्तों सकल पर हैं वारि-बूंदें लखाती।
रोते हैं या निपट सब यों आँसुओं को दिखाके।।
(3) अंग-अंग जारत अरि, तीछन ज्वाला-जाल।
सिन्धु उठि बड़वाग्नि यह, नहीं इन्दु भव-भाल।।
(4) छग जल युक्त वदन मण्डल को अलकें श्यामल थीं घेरे।
ओस-भरे पंकज ऊपर थे मधुकर माला के डेरे।।
(5) ये न मग हैं तब चरण रेखियों है?