MP Board Class 12th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 3 प्रेम और सौन्दर्य

प्रेम और सौन्दर्य अभ्यास

प्रेम और सौन्दर्य अति लघु उत्तरीय प्रश्न

घनानंद के पदों की व्याख्या Class 12 MP Board प्रश्न 1.
चातक को घातक क्यों कहा गया है? (2015)
उत्तर:
चातक अपनी बोली के द्वारा विरही हृदय को चोट (दुःख) पहुँचा रहा है इसलिए कवि ने उसे घातक कहकर सम्बोधित किया है।

Ghananand Ke Pad Ki Vyakhya Class 12 MP Board प्रश्न 2.
विश्वास में विष घोलने का काम किसने किया है?
उत्तर:
विश्वास में विष घोलने का काम ‘सुजान’ ने किया है। पहले तो उसने दर्शन देने की आशा दिलाकर विश्वास दिया फिर मना करके उस विश्वास को तोड़ दिया।

घनानंद के पदों की व्याख्या Class 12 MP Board प्रश्न 3.
मथुरा से योग सिखाने कौन गये थे?
उत्तर:
मथुरा से गोपियों को योग सिखाने श्रीकृष्ण के मित्र उद्धवजी ब्रज क्षेत्र में गये थे।

उद्धव प्रसंग कक्षा 12 MP Board प्रश्न 4.
नंद के आँगन में गोपियाँ क्यों एकत्र हुईं? (2014)
उत्तर:
गोपियों ने यह सुना कि मथुरा से कोई कृष्ण का संदेश लेकर आया है, तो प्रेम में मदमाती सभी गोपियाँ यह जानने के लिए नन्द के आँगन में एकत्रित हुईं कि उनके लिए क्या लिखा है।

विश्वास में विष घोलने का काम किसने किया MP Board Class 12 प्रश्न 5.
कुटीर कौन-सी नदी के किनारे बनाने की बात कही गई है?
उत्तर:
कृष्ण के सखा उद्धव अपना कुटीर यमुना नदी के किनारे बनाने की बात कहते हैं।

प्रेम और सौन्दर्य लघु उत्तरीय प्रश्न

उद्धव-प्रसंग व्याख्या Class 12 MP Board प्रश्न 1.
‘तिरछे करि नैननि नेह के चाव मैं’ का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
इस पंक्ति के माध्यम से कवि घनानन्द अपनी प्रेयसी सुजान की उदासीनता व निष्ठुरता की अभिव्यक्ति करते हुए कहते हैं कि कवि प्रेम के बदले प्रेम की कामना करता है किन्तु प्रेयसी अपनी आँखें फेरकर उसके प्रेम के प्रति अस्वीकृति प्रकट करती है। प्रेयसी का यह निष्ठुर वहार कवि के हृदय को गहरा आघात पहुँचाता है और वह वेदना से भर जाता है।

प्रश्न 2.
घनानन्द सुजान को क्या उलाहना देते हैं? (2016)
उत्तर:
घनानन्द अपनी प्रियतमा ‘सुजान’ को यह उलाहना देते हैं कि पहले तो मुझे तुमने प्रेम से अपनाया फिर स्नेह को तोड़कर मुझे मँझधार में बिना आधार के क्यों छोड़ दिया? चातक की आन से कुछ सीख कर मुझे बेसहारा मत छोड़िए। प्रेम का रस पिलाने की आशा बँधा कर विश्वास में विष मत दीजिये।

प्रश्न 3.
रत्नाकर की गोपियों के मन में कौन बसा है? उनके विचार स्पष्ट कीजिए। (2017)
उत्तर:
रत्नाकर की गोपियों के मन में श्रीकृष्ण बसे हैं। वह उनके मन में इस तरह बस गये हैं कि अब निकालने से भी नहीं निकलते। उनका सन्देश आने की खबर सुन कर सभी दौड़-दौड़ कर नन्द के घर आने लगीं। उन्होंने उद्धव से कहा कि हमारे मन रूपी शीशे में कृष्ण बसे हुए हैं। तुम अपने कठोर वचन रूपी पत्थर चलाकर हमारे मनरूपी शीशे को तोड़कर अनेक मोहन (कृष्ण) हमारे हृदय में मत बसाओ। अनेक मोहन हमारे हृदय में बस कर अधिक दुःख देंगे।

प्रश्न 4.
रत्नाकर के अनुसार गोपी-ग्वालवालों की मनोदशा को समझाइए।
उत्तर:
ब्रज में गोपी-ग्वाल सभी कृष्ण के वियोग में कृशगात हो गये हैं। कृष्ण का संदेश जानने के लिए अत्यन्त व्याकुल रहते हैं। जैसे ही गोपियों ने कृष्ण का सन्देश आने की बात सुनी तो वे दौड़-दौड़ कर नन्द के घर में इकट्ठी हो गईं। प्रेमातुर गोपियाँ कमल जैसे कोमल पैरों के पंजों पर खड़ी होकर उचक-उचक कर पत्र को देखने लगीं। लेकिन जब उन्होंने उद्धव द्वारा अकथनीय बातें सनीं तो गस्से में बडबडाने लगीं.कोई पसीने से तर हो गई.कोई मच्छित होकर गिर पड़ी। उनकी व्यथा का वर्णन बड़ा कठिन है। उन्होंने उद्धव के वचनों की कठोर पाहन (पत्थर) की उपमा दी जो उनके मन-मुकुर को तोड़कर अनेक मनमोहन बसा देंगे। जब एक कृष्ण के जाने से इतना कष्ट हो रहा है तो अनेक मनमोहन हमारा सर्वनाश कर देंगे। स्वयं उद्धव ने कृष्ण से कहा है कि गोपी-ग्वालों के आँसुओं से ब्रज में बाढ़-सी आ गई है। वे सभी कृष्ण के वियोग में परम दुःखी हैं।

प्रश्न 5.
उद्धव के ब्रज आगमन की गोपियों पर क्या प्रतिक्रिया हुई?
अथवा
उद्धव के ब्रज आगमन पर गोपियों की आतुरता का वर्णन कीजिए। (2010)
उत्तर:
कृष्ण के सखा उद्धव के ब्रज में आगमन की खबर सब जगह फैल गई। जैसे ही गोपियों ने श्रीकृष्ण के सखा उद्धव के आने का समाचार सुना गोपियों के झुण्ड के झुण्ड नन्द के द्वार पर इकट्ठे होने लगे। अपने कमल से कोमल पैरों के पंजों से उचक-उचक कर पत्री को देखने लगीं। कोई तो उस पत्री को अपने हृदय से स्पर्श कराने लगी। सभी एक-दूसरे से पूछने लगी कि हमारे लिए श्रीकृष्ण ने क्या लिखा है। श्रीकृष्ण के विरह में व्यथित सभी गोपियों की हालत ऐसी है जैसे वे दुःख की पराकाष्ठा पर पहुँच गई हों। संदेश की खबर ने जितना सुख उनको दिया उससे कहीं अधिक दुःख संदेश के ज्ञान ने दिया।

प्रेम और सौन्दर्य दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संकलित कविता के आधार पर “प्रेम और सौन्दर्य” पर घनानन्द के विचार लिखिए।
उत्तर:
घनानन्द का विरह वर्णन सूरदास के भ्रमरगीत के समकक्ष है। घनानन्द की कविताओं में ‘सुजान’ का उनकी प्रेयसी होना ही अधिक समीचीन है। सुजान को श्रृंगार पक्ष के नायक और भक्ति पक्ष में कृष्ण मान लेना ही उचित दिखाई देता है। उनके प्रेम का संयोग सुजान नामक वेश्या से प्रारम्भ हुआ है जो अल्पकाल में ही वियोग में परिणत हो गया। उनकी कविता प्रिय सुजान की कठोरता के कारण प्रेमी हृदय की मार्मिकता से उमड़े आँसुओं का सागर है। वे सच्चे,सरल तथा साहित्यिक प्रेम के समर्थक हैं-
“अति सूधौ सनेह को मारग है, जहँ नेकू सयानप बाँक नहीं।
तहँ साँचे चलें तजि आपनपो, झिझकैं कपटी जो निसाँक नहीं।”

घनानन्द के संयोग का चित्रण अति अल्प है। इससे स्पष्ट होता है कि उन्हें सुजान के सामीप्य से उनकी सुन्दरता का आभास रहा है। संयोग के सुख का उल्लास देखिए जिसमें उनका हृदय आनन्द से सिक्त है। देखिए-
“डगमगी डगनि धरनि छवि ही के भार,
ढरनि छबीले उर आछी वनमाल की।”

पहले अपनाने के बाद छोड़ देना घनानन्द को अच्छा नहीं लगा-
“पहिले अपनाय सुजान सनेह सौं,
क्यों फिर नेह कै तोरियो जू।”

प्रिय के अपने पास न होने से विरह का दुःख उमड़ पड़ता है। सुख के प्रतीक भी उस विरह-जन्य कवि को दुःख ही दे रहे हैं।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित अंशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए-
(अ) पहिले अपनाय सुजान सनेह सौं.
क्यों फिर नेह के तोरियै जू।
निरधार अधार है धार मॅझार,
दई, गहि बाँह न बोरियै जू।।

(आ) आए हो सिखावन कौं जोग मथुरा तैं तोपै
ऊधो ये बियोग के बचन बतरावौ ना।
कहें ‘रत्नाकर’ दया करि दरस दीन्यौ
दुःख दरिबै कौं, तोपै अधिक बढ़ावौ ना।
उत्तर:
(अ) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ कवि अपनी प्रेयसी सुजान से प्रेम को न तोड़ने के लिए प्रार्थना कर रहा है।

व्याख्या :
कविवर घनानन्द कहते हैं कि हे सुजान ! पहले तो तुमने मुझे प्रेमवश अपना लिया अर्थात् मुझसे प्रेम किया परन्तु अब क्यों उस प्रेम को तोड़ दिया? मैं इस प्रेम की मँझधार में बिना किसी आधार के हूँ। ऐसी स्थिति में मेरी बाँह पकड़कर उसे छोड़ो नहीं। अर्थात् इस प्रेम मार्ग में तुम्हारे अतिरिक्त कोई और नहीं है इसलिए मेरा हाथ पकड़कर बीच राह में मेरा साथ मत छोड़ो। चातक के आनन्द धन अपने चातक के गुणों को ग्रहण करके अर्थात् उसकी टेक का ध्यान करके मेरे साथ प्रेम करना छोड़ो मत। जिस प्रकार चातक अपने प्रिय घन (बादल) को देखकर हर्षित हो जाता है। उसकी टेक है कि वह स्वाति नक्षत्र की वर्षा का जल ही पीता है। गगन में घुमड़ते घन उसको आनन्द देते हैं। इसी प्रकार कवि का चातक रूपी मन सुजान रूपी घन की ओर ही टकटकी लगाए है। मुझे प्रेम रस पिलाकर और मेरी आशा को बढ़ाकर मेरे प्रेम-रस में विष (धोखा) घोलकर न पिलाओ अर्थात् मेरे विश्वास में विश्वासघात मत करो।

(आ) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ पर गोपियाँ उद्धव के कथन ‘योग’ का श्लेष अर्थ करते हुए अनेक उलाहने उद्धव को देती हैं।

व्याख्या :
गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव ! जब आप मथुरा से योग (मिलन) का उपदेश देने के लिए यहाँ पधारे हो तो हमसे वियोग की कठोर बातें क्यों करते हो? कविवर रत्नाकर कहते हैं कि गोपियों ने पुनः उद्धव से प्रार्थना की कि हे उद्धव ! हमारे कष्ट को दूर करने के लिए यहाँ आकर हमें दर्शन देकर आपने बड़ी कृपा की,तो फिर ये वियोग (बिछड़ने) की बातें सुनाकर हमारे दुःख को और मत बढ़ाओ। आपसे विनम्र निवेदन है कि आप अपने ज्ञानोपदेश के कठोर वचन रूपी पत्थर भूलकर भी मत चलाना, अन्यथा हमारा मन रूपी दर्पण चूर-चूर हो जायेगा। हमारा कोमल हृदय रूपी दर्पण इतने बड़े प्रहार को सहन नहीं कर पायेगा। एक मनमोहन ने तो हमारे मन में निवास करके हमें नष्ट कर दिया है। हमें उनके विरह का दुःख भोगने के लिए छोड़ दिया है। यदि तुमने हमारे मन रूपी दर्पण को तोड़ दिया तो इस दर्पण के अनेक टुकड़ों में हमें अनेक कृष्ण दिखाई देंगे। ऐसी स्थिति में हमारी क्या दशा होगी यह अकथनीय है। इसलिए तुम हमारे मन को तोड़कर उसमें अनेक मनमोहन मत बसाओ।

प्रश्न 3.
घनानन्द को ‘प्रेम की पीर’ कहना कहाँ तक उचित है?
उत्तर:
घनानन्द प्रेम की पीर के अमर गायक हैं। उनके प्रेम का प्रारम्भ ‘सुजान’ नामक वेश्या से हुआ, लेकिन उनका प्रेम अल्पकाल में ही वियोग में परिणत हो गया। उनकी कविता प्रिय सुजान कठोरता के कारण प्रेमी हृदय की मार्मिक व्यथा से उमड़े आँसुओं का सागर है। घनानन्द की कविता में प्रिय की निष्ठुरता,प्रेमी की सहनशीलता तथा प्रकृति का विरहोद्दीपक रूप का बड़ा ही सुन्दर वर्णन हुआ है। घनानन्द तो सच्चे सरल प्रेम के समर्थक थे, लेकिन उनकी प्रियतमा के मन में सयानापन और टेढ़ापन था, जो उनके प्यार को रास नहीं आया। देखिए-
“अति सूधौ सनेह को मारग है, जहँ नेकु सयानप बाँक नहीं।
तहँ साँचे चलें तजि आपनपो, झिझक कपटी जो निसाँक नहीं।”

घनानन्द के काव्य में संयोग पक्ष का चित्रण अति अल्प है। इससे ज्ञात होता है कि सुजान का सामीप्य चाहे कम प्राप्त हुआ हो, पर रहा अवश्य है। संयोग सुख का उल्लास देखिए-
“डगमगी डगनि धरनि छवि ही के भार,
ढरनि छबीले उर आछी वन माल की।”

घनानन्द के संयोग में भी वियोग निहित है। उन्हें संयोग में भी वियोग की शंका दुःख देती है।
“यह कैसी संयोग न जानि परै जु वियोग न क्यों हूँ विछोहत है।”

घनानन्द के प्रेम में कृत्रिमता जरा भी नहीं है। अपनी प्रेयसी ‘सुजान’ विरह से जागृत हृदय की उद्दाम आकांक्षा का प्राधान्य है। डॉ. कृष्णचन्द्र वर्मा के शब्दों में “घनानन्द का सारा काव्य सुजान की बेवफाई का शिकार होने और बलि चढ़ जाने की कहानी है जो आँसुओं में लिखी गयी है और भावों की भाषा में गायी गयी है।”

प्रश्न 4.
‘उद्धव शतक’ के आधार पर सिद्ध कीजिये कि रत्नाकर को मार्मिक स्थलों की भली-भाँति पहचान है।
उत्तर:
जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’ ने ब्रजभाषा में उत्कृष्ट काव्य का सृजन किया है। भाव की मार्मिकता तथा कला की अभिव्यंजना में इनका काव्य अनुपम है। ब्रजभाषा के भावुक एवं रसिक कवि ‘रत्नाकर’ के काव्य में श्रृंगार रस की प्रधानता मिलती है। उद्धव शतक का मूल रस श्रृंगार रस है। श्रीकृष्ण की एकनिष्ठ प्रेमिका गोपियों पर उद्धव का ज्ञानोपदेश मार्मिक प्रहार करता है-
“टूक-टूक है है मन-मुकुर हमारौ हाय,
चूकि हूँ कठोर-बैन-पाहन चलावौ ना॥
एक मनमोहन तो बसिकै उजारयौ मोहि,
हिय में अनेक मनमोहन बसावौ ना।”

कृष्ण के सन्देश आने का समाचार गोपियों के तप्त हृदय को सान्त्वना प्रदान करता है, लेकिन संदेश का ज्ञान उन्हें पुनः वियोग के सागर में डुबो देता है। उद्धव की अकथनीय कहानी सुनकर गोपियों की हालत दयनीय हो गई। कोई तो काँपने लगी,कोई बेहोश हो गई और किसी को पसीना आ गया। गोपियों के उत्तर ने उद्धव को निरुत्तर कर दिया।-
“आये हौ सिखावन कौं जोग मथुरा तैं तोपै,
ऊधौ ये बियोग के बचन बतरावौ ना।”

रत्नाकर के काव्य में रत्नाकर की भाषा का उत्कर्ष रूप देखा जा सकता है। इनके काव्य में ब्रजभाषा के अर्थगाम्भीर्य, पद-विन्यास, वाक्य चातुर्य, चमत्कार सौष्ठव आदि वैशिष्ट्य विद्यमान हैं। उदाहरण देखिए-
“छावते कटीर कहँ रम्य जमुना के तीर,
गौन रौन-रेती सों कदापि करते नहीं।
कहैं रत्नाकर बिहाइ प्रेम गाथा गूढ़
स्रोंन रसना में रस और भरते नहीं।”

प्रेम और सौन्दर्य काव्य सौन्दर्य

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के पर्यायवाची शब्द लिखिए
नेत्र,मार्ग,आनन्द, दया, कठोर।
उत्तर:
नेत्र – दृग, लोचन, नयन।
मार्ग – पथ,मग,राह।
आनन्द – आमोद,प्रमोद, उल्लास।
दया – कृपा, करुणा,रहम।
कठोर – कराल,निष्ठुर, कठिन।

प्रश्न 2.
घनानन्द के संकलित छंदों में कौन-सा रस है?
उत्तर:
घनानन्द के संकलित छंदों में शृंगार रस है।

प्रश्न 3.
रत्नाकर की भाषा के सम्बन्ध में अपने विचार लिखिए।
उत्तर:
रत्नाकर’ की कविता भक्तिकालीन भावधारा एवं रीतिकालीन कला का पुट मिलने पर जीवन्त हो गई है। रचना कौशल के साथ चित्रोपमता भी अनोखी है। अनुभावों का मर्मस्पर्शी अंकन है। भाषा शुद्ध एवं कोमल है। वह दुरूह नहीं है। इनकी भाषा ब्रज है जिसमें मधुरता, सरलता, भाव सबलता,मार्मिकता एवं कोमलता है। इनकी भाषा स्वाभाविक, गहन तथा मर्मस्पर्शी है। इनकी भाषा में पद माधुर्य, भाव अभिव्यक्ति की समर्थता और भाषा की उत्कृष्टता देखी जा सकती है। इनके काव्य में ब्रजभाषा के अर्थगाम्भीर्य, पद-विन्यास, वाक्-चातुर्य, चमत्कार सौष्ठव, समाहार शक्ति आदि वैशिष्ट्य विद्यमान हैं।
उदाहरण देखिए-
“छावते कुटीर कहूँ रम्य जमुना के तीर,
गौन रौन-रेती सों कदापि करते नहीं।
कह रत्नाकर बिहाइ प्रेम गाथा गूढ़
स्त्रोंन रसना में रस और भरते नहीं।”

प्रश्न 4.
निम्नलिखित काव्य पंक्तियों में अलंकार पहचान कर लिखिए
(अ) निरधार अधार है धार मँझार।
(आ) हिय में अनेक मनमोहन बसावौ ना।
(इ) टूक-टूक है है मन-मुकुर हमारौ हाय।
(ई) एक मनमोहन तौ बसिकै उजार्यो मोहिं।
(उ) उझकि-उझकि पद कंजनि के पंजनि पै।
उत्तर:
(अ) विरोधाभास।
(आ) श्लेष।
(इ) टूक-टूक = पुनरुक्तिप्रकाश, मन-मुकुर = रूपक।
(ई) विरोधाभास।
(उ) पुनरुक्तिप्रकाश, रूपक।

प्रश्न 5.
छप्पय किन मात्रिक छंदों के योग से बनता है? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
छप्पय इस विषम मात्रिक छंद में छह चरण होते हैं। इसके प्रथम चार चरण रोला और दो चरण उल्लाला के होते हैं। रोला के प्रत्येक चरण में 11-13 की यति पर 24 मात्राएँ और उल्लाला के हर चरण में 15-13 की यति पर 28 मात्राएँ होती हैं।
उदाहरण-
जहाँ स्वतन्त्र विचार न बदलें मन में मुख में,
जहाँ न बाधक बनें सबल निबलों के सुख में।
सबको जहाँ समान निजोन्नति का अवसर हो।
शान्तिदायिनी निशा, हर्ष सूचक वासर हो।
सब भाँति सुशासित हों जहाँ, समता के सुखकर नियम।
बस उसी स्वशासित देश में जागे हे जगदीश हम॥
(रोला + उल्लाला = छप्पय)

घनानंद के पद भाव सारांश

‘घनानन्द के पद’ नामक कविता के रचयिता रीतिमुक्त कवि ‘घनानन्द’ हैं। उन्होंने अपनी प्रियतमा ‘सुजान’ के वियोग में इन पदों को लिखा है। इनमें कवि के प्रेम की परिशुद्ध भावना के दर्शन होते हैं।

घनानन्द का प्रेम अनुभूतिपरक है। वे वियोग श्रृंगार के कवि हैं। प्रिय की स्मृतियों का भावना-ग्राही रूप उनके काव्य का प्राण है। प्रस्तुत पदों में वे प्रेम के स्वरूप की चर्चा करते हैं। वे कहते हैं कि ‘अति सूधो सनेह को मारग है’। सच्चा प्रेम हृदय से किया जाता है। वे बार-बार उसके रूप को, चेष्टाओं को और उसके स्वभाव को याद करते हैं ! प्रिय द्वारा किये गये उपेक्षा-भाव की चर्चा करते हुए वे प्राकृतिक उपादानों के रूप में कोयल, वर्षा और बादलों को विरह के उद्दीपकों की तरह चित्रित करते हैं, जैसे-कारी करि कोकिल! कहाँ को बैर काढ़ति री, कृकि कूकि अबहीं करेजो किन कोरि लै। घनानन्द की उपमाएँ एकदम नवीन हैं।

घनानंद के पद संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

(1) आपुहि तो मन हेरि हँसे
तिरछे करि नैननि नेह के चाव मैं।
हाय दई ! सुविसारि दई सुधि,
कैसी करें, सौ कहौ कित जावँ मैं।।
मीत सुजान, अनीति कहा यह,
ऐसी न चाहिए प्रीति के भाव मैं।
मोहन मूरति देखिबे को,
तरसावत हौ बसि एक ही गाँव मैं॥

शब्दार्थ :
हेरि = चुराना; तिरछे = टेढ़े नेह = प्रेम; चाव = शौक; दई = भगवान, देना; सुधि = याद; करें = कहना; कित = कहाँ; अनीति = अन्याय; बसि = निवास करना।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत सवैया रीतिकालीन कवि घनानन्द द्वारा रचित ‘घनानन्द के पद’ नामक काव्य से लिया गया है।

प्रसंग :
इस सवैया में रीतिकालीन मुक्तक काव्यधारा के श्रेष्ठ कवि घनानन्द ने अपनी प्रेयसी सुजान को उलाहना देते हुए उसे निष्ठुर कहा है।

व्याख्या :
कवि घनानन्द अपनी प्रेयसी सुजान के रूखेपन से व्याकुल हो उसे उलाहना देते हुए कहते हैं कि पहले तो तुमने मेरे मन (हृदय) को ले लिया (चुरा लिया) और अब हँसकर मेरा और मेरे प्रेम का मजाक बनाती हो। तुम अपने नेत्रों को टेढ़ा करके तथा प्रेम का प्रतिदान न करके उसे अस्वीकार करती हो। निराश कवि भगवान से कहता है कि उसकी प्रेयसी ने उसकी स्मृति को बिसरा दिया है। वह सुजान से भी पूछता है कि वह अपना प्रेम कैसे व्यक्त करे और सुजान को छोड़कर कहाँ जाये। कवि अपनी प्रेमिका को मोहन शब्द से सम्बोधित करके अपने प्रेम की व्यापकता का परिचय देता है। वह कहते हैं कि मित्र सुजान ! तुम मेरे साथ ऐसा अन्यायपूर्ण व्यवहार क्यों करती हो, जबकि प्रेम में ऐसा नहीं होता है। कवि प्रेयसी की सूरत देखने को अत्यन्त आकुल है तथा उससे मिलने की इच्छा उसके मन में और बलवती हो उठती है। कवि कहता है कि उसकी प्रेयसी एक ही गाँव, अर्थात् मुहम्मदशाह रंगीले के दरबार में नर्तकी के रूप में उपस्थित होते हुए भी, जहाँ कवि स्वयं एक दरबारी कवि है, उससे बहुत दूरी बनाये रहती है। प्रेयसी सुजान की यही निष्ठुरता कवि के लिए असहनीय है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. ब्रजभाषा का सुन्दर उपयोग हुआ है।
  2. सवैया छन्द, मुक्त शैली, वियोग शृंगार रस, अनुप्रास व यमक अलंकार दृष्टव्य हैं।
  3. कवि की विरह भावना व सुजान की निष्ठुरता का सजीव चित्रण है।
  4. यहाँ मोहन शब्द भगवान कृष्ण व सुजान, दोनों के लिए उपयोग किया गया है।

(2) पहिले अपनाय सुजान सनेह सौं,
क्यों फिरि नेह के तोरियै जू।
निरधार अधार है धार मँझार,
दई, गहि बाँह न बोरियै ज॥
घन आनन्द अपने चातक कौं,
गुन बाँधि लै मोह न छोरियै जू।
रस प्याय कै ज्याय बढ़ाय कै आस,
बिसास में यौं विष घोरियै जू॥

शब्दार्थ :
अपनाय = अपनाकर; नेह = प्रेम; धार मँझार = धारा के मध्य में; गहि = पकड़कर; बोरियै = डुबाना; मोह = प्रेम; बिसास = विश्वास। विष = जहर।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ कवि अपनी प्रेयसी सुजान से प्रेम को न तोड़ने के लिए प्रार्थना कर रहा है।

व्याख्या :
कविवर घनानन्द कहते हैं कि हे सुजान ! पहले तो तुमने मुझे प्रेमवश अपना लिया अर्थात् मुझसे प्रेम किया परन्तु अब क्यों उस प्रेम को तोड़ दिया? मैं इस प्रेम की मँझधार में बिना किसी आधार के हूँ। ऐसी स्थिति में मेरी बाँह पकड़कर उसे छोड़ो नहीं। अर्थात् इस प्रेम मार्ग में तुम्हारे अतिरिक्त कोई और नहीं है इसलिए मेरा हाथ पकड़कर बीच राह में मेरा साथ मत छोड़ो। चातक के आनन्द धन अपने चातक के गुणों को ग्रहण करके अर्थात् उसकी टेक का ध्यान करके मेरे साथ प्रेम करना छोड़ो मत। जिस प्रकार चातक अपने प्रिय घन (बादल) को देखकर हर्षित हो जाता है। उसकी टेक है कि वह स्वाति नक्षत्र की वर्षा का जल ही पीता है। गगन में घुमड़ते घन उसको आनन्द देते हैं। इसी प्रकार कवि का चातक रूपी मन सुजान रूपी घन की ओर ही टकटकी लगाए है। मुझे प्रेम रस पिलाकर और मेरी आशा को बढ़ाकर मेरे प्रेम-रस में विष (धोखा) घोलकर न पिलाओ अर्थात् मेरे विश्वास में विश्वासघात मत करो।

काव्य सौन्दर्य :

  1. ब्रज भाषा का सुन्दर प्रयोग हुआ है।
  2. देशज शब्दों का प्रयोग बड़ा सटीक लगता है।
  3. ‘चातक की टेक’ जैसी उक्ति का सुन्दर प्रयोग हुआ।
  4. श्लेष और अनुप्रास अलंकार की छटा प्रशंसनीय है।

(3) कारी कूरि कोकिल ! कहाँ को बैर काढ़ति री,
कूकि कूकि अबहीं करेजो किन कोरि लै।
पैड़े परे पापी ये कलापी निसि-द्यौस ज्यों ही,
चातक ! रे घातक है तू हू कान फोरि लै।
आनन्द के घन प्रानजीवन सुजान बिना,
जानि कै अकेली सब घेरो दल जोरि लै।
जोलौं करें आवन विनोद बरसावन वे,
तो लौं रे डरारे बजमारे घन ! घोरि लै॥

शब्दार्थ :
कूर = कठोर; कोकिल = कोयल; बैर = दुश्मनी; काढ़ति री = निकालती है; कूकि-कूकि = कूज-कूज कर; किन कोरि लै = खरोंच कर निकाल क्यों नहीं लेती; पैड़े परे = पीछे परे हैं; कलापी = मोर; निसि-द्यौस = रात-दिन; घातक = भयानक,घात करने वाला; डरारे = डरा लें; बजमारे = वज्राहत,बहुत दुष्ट; घोरि = गर्जना।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रकृति के मनभावन प्रतीक भी विरह में दग्ध कवि को प्रियतम सुजान के वियोग में कष्ट दे रहे हैं।

व्याख्या :
विरह जन्य पीड़ा से पीड़ित घनानन्द कवि आनन्द की प्रतीक कोयल से कहते हैं कि हे कोयल ! तेरी मधुर आवाज भी मुझे कष्ट दे रही है। हे कोयल ! तू कौन-सा बैर मुझसे निकाल रही है। कूक-कूक कर मेरे कलेजे को ही क्यों न निकाल ले? ये पापी मोर मेरे पीछे पडे हैं जो कि रात-दिन केउ,केउ कर मेरे कष्ट को और भी बढ़ा रहे हैं। चातक जो कभी प्रिय लगता था आज वह अपनी आवाज से मेरे कान फोड़े दे रहा है। आनन्द के धन प्रानजीवन सुजान के बिना मुझे अकेली जान कर सभी ने दल बना लिए हैं और मुझे घेर कर दुःख दे रहे हैं। जब तक मेरे विनोद के देने वाले सुजान (दूसरे भक्ति के अर्थ में श्रीकृष्ण) नहीं आते, तभी तक हे दुष्ट घन (बादल) सब मिलकर गर्जना कर मुझे डरा लो यहाँ बताया गया है कि संयोग श्रृंगार में जो प्रकृति के प्रतीक सुखदायी होते हैं वे ही प्रतीक वियोग शृंगार में दुःखदायी प्रतीत होते हैं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. प्रकृति के प्रतीकों का वैचित्र्य दिखाया गया है।
  2. ब्रजभाषा का प्रभावशाली वर्णन हुआ है।
  3. देशज शब्दों का प्रयोग रोचक लगता है।
  4. अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश और श्लेष अलंकार हैं।

उद्धव प्रसंग भाव सारांश

‘उद्धव प्रसंग’नामक कविता के रचयिता ‘जगन्नाथ दास रत्नाकर’ हैं। कृष्ण और गोपियों के प्रेम का भावनामय वर्णन उनकी संकलित कविता में है। उद्धव प्रसंग प्रेम से भरा हुआ भावुक प्रसंग है।

रीतिकाल और आधुनिक काल की देहरी पर स्थित कवि जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’ ने वियोग श्रृंगार को अपने काव्य का आधार बनाया है। कृष्ण और गोपियों के प्रेम का भावनामय चित्रण यहाँ पर हुआ है। गोपियों में कृष्ण द्वारा भेजे गये पत्र को पढ़ने की आतुरता, उनकी विरहजन्य दशा,उनका कृष्ण के प्रति अतिशय समर्पण का अति सुन्दर वर्णन है। रत्नाकर के पदों में शब्दालंकार के साथ रूपक और प्रतीकों का प्रयोग हुआ है। योग सिखाने आये उद्धव की दशा गोपियों के तर्क के सामने मूक हो जाती है। अन्त में उद्धव को मानना पड़ता है कि सच्चा प्रेम तो गोपियों में ही देखने को मिलता है। कृष्ण के पास जाकर उद्धव कहते हैं कि यदि आपको देखने का चाव मन में न होता तो में इधर न आकर यमुना के किनारे झोपड़ी बनाकर रहता।

उद्धव प्रसंग संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

(1) भेजे मनभावन के उद्धव के आवन की,
सुधि ब्रज-गाँवनि में पावन जब लगी।
कहैं ‘रतनाकर’ गुवालिनी की झौरि-झौरि,
दौरि-दौरि नंद-पौरि आवन तबै लगीं।
उझकि-उझकि पद कंजनि के पंजनि पै,
पेखि-पेखि पाती छाती छोहनि छबै लगीं।
हमकौं लिख्यौ है कहा, हमकौं लिख्यौ है कहा,
हमकौं लिख्यौ है कहा कहन सबै लगीं।

शब्दार्थ :
झौरि-झौरि = झुंड के झुंड। दौरि-दौरि = दौड़-दौड़ कर। नंद पौरि = नन्द के आँगन। उझकि-उझकि = उझक-उझक कर, ऐड़ी उठा-उठा कर देखना पखि-पेखि = देख-देखकर। छाती छोहनि छबै लगी = हृदय से स्पर्श करने लगीं।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश कवि जगन्नाथदास रत्नाकर द्वारा रचित ‘उद्धव प्रसंग’ से अवतरित है।

प्रसंग :
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने उद्धव के ब्रज आगमन की बात सुनकर कृष्ण के संदेश को सुनने के लिए आ रही गोपियों की आतुरता का अनुपम वर्णन किया है।

व्याख्या :
जब ब्रज के गाँव में श्रीकृष्ण के मित्र उद्धव के आगमन का समाचार मिला तो गोपियों के समूह दौड़-दौड़ कर नन्द के द्वार पर एकत्रित होने लगे। गोपियों में कृष्ण के सन्देश को जानने की आतुरता तो देखते ही बनती है। कविवर रत्नाकर कहते हैं कि नन्द के वर पहुँची प्रेमातुर गोपियाँ अपने कमल जैसे कोमल पैरों के पंजों के बल खड़ी होकर उचक-उचक कर श्रीकृष्ण द्वारा भेजे गये पत्र को देखने लगीं। उनका हृदय सन्देश जानने की उत्कंठा से भर गया। बार-बार पत्र को देखकर हृदय से स्पर्श कराने लगीं। सभी गोपियाँ उद्धव से बार-बार यही पूछ रही हैं कि श्रीकृष्ण ने हमारे लिए क्या लिखा है, हमारे लिए क्या लिखा है, हमारे लिए क्या लिखा है?

काव्य सौन्दर्य :

  1. गोपियों की आतुरता का सजीव चित्रण किया गया है।
  2. अनुभावों और संचारी भावों की सुन्दर योजना है।
  3. सरल, सुबोध ब्रजभाषा का प्रयोग।
  4. श्रृंगार रस का अनूठा वर्णन।
  5. रूपक (पद कंजनि पै), पुनरुक्ति (दौरि-दौरि) अलंकारों का प्रयोग।

(2) सुनि सुनि ऊधव की अकह कहानी कान,
कोऊ थहरानी कोऊ थानहिं थिरानी हैं।
कहैं ‘रत्नाकर’ रिसानी, बररानी कोऊ
कोऊ बिलखानी, विकलानी, विधकानी हैं।
कोऊ सेद-सानी, कोऊ भरि दृग पानी रही,
कोऊ घूमि-घूमि परी भूमि मुरझानी हैं।
कोऊ स्याम-स्याम कह बहकि बिललानी कोऊ
कोमल करेजो थामि सहमि सुखानी हैं।

शब्दार्थ :
अकह = जो कही न जाय; थहरानी = काँप गईं; थानहिं = स्थान पर; थिरानी = स्थिर रह गईं; रिसाई = क्रोधित हुई; बररानी = गुस्से में बड़बड़ाने लगी; बिथकानी = थकी-थकी सी हो गई; सेदसानी = पसीने में भीग गई; मुरझानी = बेहोश हो गईं; बिललानी = छटपटाने लगीं; सहमि सुखानी = सहम कर मानो सूख गई हो।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
उद्धव ने ब्रज में गोपियों को कृष्ण के प्रति प्रेम त्यागकर योग साधना द्वारा ब्रह्म प्राप्ति का उपदेश दिया जिसे सुनते ही विरह संतप्त गोपियाँ व्याकुल हो गईं। प्रस्तुत पद्यांश में गोपियों की इसी विकलता का सजीव वर्णन हुआ है।

व्याख्या :
उद्धव की उस ब्रह्म की अकथनीय कहानी को सुन-सुन कर गोपियाँ बेहाल हो गईं। कोई गोपी तो काँप गई और कोई अपने ही स्थान पर जड़वत् स्थिर रह गई। किसी किसी को उद्धव पर क्रोध आने लगा और कोई गुस्से में बड़बड़ाने लगी। कोई बिलख उठी, कोई व्याकुल हो उठी और कोई शिथिल होकर शरीर से थकी-थकी सी-दिखाई देने लगी। उस असह्य व्यथा के कारण किसी-किसी का शरीर तो पसीने से तर हो गया, किसी के नेत्र आँसुओं के जल से छलछला उठे। कोई-कोई चक्कर खाकर जमीन पर गिर पड़ी और मूर्च्छित हो गई। कोई बावली सी ‘स्याम-स्याम’ की रट लगाने लगी और बहक कर बड़बड़ाने लगी। कोई सहम कर सूखी हुई सी अपना कोमल हृदय थाम कर रह गई।

काव्य सौन्दर्य :

  1. उद्धव के आगमन पर ‘योग’ की बातें सुनकर गोपियों के हृदय का मार्मिक चित्रण हुआ है।
  2. रत्नाकर अनुभवों का वर्णन करने में सिद्धहस्त हैं।
  3. अनुप्रास, पुनरुक्ति, विरोधाभास (अकह कहानी) लोकोक्ति (करेजौ थामि) अलंकारों की छटा दृष्टव्य है।

3. आए हौ सिखावन कौं जोग मथुरा तैं तोपै,
ऊधौ ये बियोग के बचन बतरावौ ना।
कहैं. रत्नाकर’ दया करि दरस दीन्यौ,
दुःख दरिबै कौं, तोपै अधिक बढ़ावौ ना।।
टूक-टूक है है मन-मुकुर हमारी हाय,
चकि हँ कठोर-बैन-पाहन चलावौ ना।
एक मनमोहन तौ बसिकै उजार्यो मोहिं
हिय में अनेक मनमोहन बसावौ ना॥ (2009)

शब्दार्थ :
जोग = योग शास्त्र; दरस = दर्शन; टूक-टूक = टुकड़े-टुकड़े मन-मुकुर = मन रूपी दर्पण; बैन-पाहन = वचनों के पत्थर; मनमोहन = श्रीकृष्ण।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ पर गोपियाँ उद्धव के कथन ‘योग’ का श्लेष अर्थ करते हुए अनेक उलाहने उद्धव को देती हैं।

व्याख्या :
गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव ! जब आप मथुरा से योग (मिलन) का उपदेश देने के लिए यहाँ पधारे हो तो हमसे वियोग की कठोर बातें क्यों करते हो? कविवर रत्नाकर कहते हैं कि गोपियों ने पुनः उद्धव से प्रार्थना की कि हे उद्धव ! हमारे कष्ट को दूर करने के लिए यहाँ आकर हमें दर्शन देकर आपने बड़ी कृपा की,तो फिर ये वियोग (बिछड़ने) की बातें सुनाकर हमारे दुःख को और मत बढ़ाओ। आपसे विनम्र निवेदन है कि आप अपने ज्ञानोपदेश के कठोर वचन रूपी पत्थर भूलकर भी मत चलाना, अन्यथा हमारा मन रूपी दर्पण चूर-चूर हो जायेगा। हमारा कोमल हृदय रूपी दर्पण इतने बड़े प्रहार को सहन नहीं कर पायेगा। एक मनमोहन ने तो हमारे मन में निवास करके हमें नष्ट कर दिया है। हमें उनके विरह का दुःख भोगने के लिए छोड़ दिया है। यदि तुमने हमारे मन रूपी दर्पण को तोड़ दिया तो इस दर्पण के अनेक टुकड़ों में हमें अनेक कृष्ण दिखाई देंगे। ऐसी स्थिति में हमारी क्या दशा होगी यह अकथनीय है। इसलिए तुम हमारे मन को तोड़कर उसमें अनेक मनमोहन मत बसाओ।

काव्य सौन्दर्य :

  1. इस कविता में मानव,मनोविज्ञान का सुन्दर चित्रण हुआ है। गोपियों ने ‘योग’ का अर्थ मिलन लिया जो उनकी बुद्धि में सहज समा गया।
  2. मुहावरों का सुन्दर व सार्थक प्रयोग।
  3. व्याकरण सम्मत ब्रजभाषा एवं व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग।
  4. वियोग श्रृंगार का वर्णन। श्लेष (जोग) पुनरुक्तिप्रकाश (टूक-टूक) और रूपक अलंकारों का प्रयोग।

(4) छावते कुटीर कहूँ रम्य जमुना कै तीर,
गौन रौन-रेती सों कदापि करते नहीं।
कहैं ‘रतनाकर’ बिहाइ प्रेम गाथा गूढ
स्त्रोंन रसना में रस और भरते नहीं।
गोपी ग्वाल बालनि के उमड़त आँसू देखि
लेखि प्रलयागम हैं नैंक डरते नहीं।
होतो चित चाब जौ न रावरे चितावन को,
तजि ब्रज-गाँव इतै पाँव धरते नहीं।

शब्दार्थ :
छावते कुटीर = कुटिया बना लेते; रम्य = सुन्दर; रौनरेती = रमणरेती; गौन = गमन; बिहाइ = छोड़कर; गूढ़ = गम्भीर; स्रोन = कान; रसना = जीभ; लखि = देखकर; प्रलयागम = प्रलय का आना; चितावन = देखने की लालसा।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पंक्तियों में उद्धव की ब्रज के प्रति अनुराग की सुन्दर व्यंजना हुई है। उद्धव श्रीकृष्ण को सम्बोधित करते हुए कहते हैं।

व्याख्या :
उद्धव कहते हैं कि हे श्रीकृष्ण ! यदि मेरे मन में गोपियों की दशा बताने का उत्साह न होता तो हम ब्रज छोड़कर इधर की तरफ पैर भी नहीं रखते। चाहे हमें किसी भी परिस्थिति का सामना करना पड़ता, हम ब्रज में रमणीय यमुना के किनारे किसी स्थान पर कुटी बनाकर रहते और रमणरेती से इधर की ओर गमन नहीं करते। रत्नाकर कवि कहते हैं उद्धव ने कृष्ण को समझाया कि हम अपने कानों से प्रेम की गम्भीर गाथा सुनते और अपनी रसना से उसी प्रेम-रस का गुणगान करते। हम तो श्रीकृष्ण-प्रेम की कथा ही सुनते और उसे ही गाते। गोपी-ग्वालाओं के उमड़ते हुए आंसुओं को देखकर प्रलय आने की सम्मावना से भी नहीं डरते। यदि आपको देखने की लालसा न होती तो हम ब्रज छोड़कर इधर पैर भी नहीं रखते।

काव्य सौन्दर्य :

  1. उद्धव का ब्रज के प्रति अनुराग का सच्चा स्वरूप व्यक्त हुआ है।
  2. व्याकरणसम्मत मुहावरेदार ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।
  3. पदमैत्री एवं अनुप्रास अलंकार।

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