MP Board Class 12th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 5 तिमिर गेह में किरण आचरण (ललित निबंध, डॉ. श्यामसुन्दर दुबे)

तिमिर गेह में किरण आचरण अभ्यास

तिमिर गेह में किरण आचरण अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
लेखक का बचपन कहाँ गुम हो गया है? (2016)
उत्तर:
पुराने घर की जर्जर दीवारों में ही लेखक का बचपन गुम हो गया है।

प्रश्न 2.
गाँव की संध्या में पूजा भाव किन ध्वनियों में प्रकट होता है?
उत्तर:
गाँव की संध्या में पूजा भाव घण्टियों की टनटनाहट और शंख घड़ियालों की मिली-जुली स्वर लहरी में स्पंदित होकर प्रकट होता है।

प्रश्न 3.
खेत में किस चीज को ढूंढ़ लेना परम सुख की प्राप्ति जैसा था?
उत्तर:
खेत में एक पकी कचरिया को ढूँढ़ लेना ही परम सुख की प्राप्ति थी।

प्रश्न 4.
घर खुलते ही लेखक को कैसा लगने लगा था?
उत्तर:
घर खुलते ही लेखक को लगा जैसे ताले के साथ ही उनके भीतर कुछ स्मृतियाँ खुलती जा रही थीं।

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तिमिर गेह में किरण आचरण लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
बचपन के अनुभव, स्मृति में क्यों स्थायी होते हैं?
उत्तर:
बचपन के खरे और करारे अनुभव ताजी और पहलौटी अनुभूति के कारण स्मृति में सदैव घर किये रहते हैं। धीरे-धीरे मन का पानी उतर जाता है। मन स्वाद के बारे में रसहीन हो जाता है, हम जड़ होते जाते हैं। केवल बचपन की वस्तुओं से टकराकर ही हम उस सुख-बिन्दु की स्थायी स्मृति में आ जाते हैं।

प्रश्न 2.
उन तीन पारम्परिक चीजों के नाम लिखिए जो गाँव के जीवन से गायब हो रही (2009)
उत्तर:
गाँव के जीवन से अनेक पारम्परिक चीजें गायब हो रही हैं, जिनमें से तीन निम्नलिखित हैं-

  1. हलों के साथ टिप्पे की टिटकारें।
  2. तालाब जैसे भरे बंधान।
  3. टिमटिमाते दीयों की रोशनी।

प्रश्न 3.
आले में गेहूँ के दानों के अंकुरित होने को लेखक ने किस प्रेरणा से जोड़ा है?
उत्तर:
आले में गेहूँ के दानों के अंकुरित होने को लेखक ने जीवन की सृजनात्मक प्रेरणा से जोड़ा है। सृजन का प्रकाश ही जीवन का दूसरा नाम है। आदमी का आचरण, शील,श्रम, विवेक और भावना जिसे छू लें, वह प्रकाशित हो जाता है। यह प्रकाशवान सृजन कभी रुकता नहीं। सृजन दीपक के प्रकाश के समान स्वयं भी प्रकाशित होता है और दूसरों को भी प्रकाशित करता है।

तिमिर गेह में किरण आचरण दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
लेखक ने जीवन में प्रकाश को किन-किन सन्दर्भो में प्रकट किया है?
उत्तर:
ललित निबन्ध शैली में लिखे गये प्रस्तुत निबन्ध ‘तिमिर गेह में किरण आचरण’ में लेखक ने आचरण को जीवन के दीपक का प्रकाश बताते हुए अनेक सन्दर्भो में प्रस्तुत किया है। प्रकाश दीपक या बल्ब का ही नहीं, ज्ञान व विकास का प्रकाश भी जीवन में अनिवार्य है। आगे बताया गया है कि प्राकृतिक प्रकाश से भी अधिक शक्तिशाली होता है,स्मृतियों का प्रकाश, जो क्षणिक दुःख में सुख का आभास कराता है। सृजन व निर्झर भी प्रकाश के प्रतीक हैं जो जीवन को विकास व ऊर्ध्वगमन की शक्ति देते हैं। आस्था भी प्रकाश का ही एक रूप है,जो आत्मा को मजबूत करती है। सद् आचरण, शील, श्रम, विवेक, सत्य, ईमानदारी, कर्मठता सब जीवन में प्रकाश के रूप हैं। लेखक कहता है कि प्रकाश जीवन का ही दूसरा नाम है। एकांकी और वीराने में भी व्यक्ति चारित्रिक प्रकाश का आनन्द अनुभव करता है। प्रकाशित व्यक्ति जब दूसरों को छूता है, तो दूसरा व्यक्ति भी प्रकाशित, यानि ज्ञानवान् व सुखी हो जाता है।

प्रश्न 2.
स्वयं प्रकाशित होकर दूसरों को प्रकाशित करने की क्षमता मनुष्य में किन विशेषताओं से आती है?
उत्तर:
जीवन सरल नहीं होता है। इसमें अनेक मुसीबतें, कठिनाइयाँ, दुःख, रुकावटें, आपत्तियाँ आती रहती हैं। जो व्यक्ति जीवन के असली प्रकाश को अपने में जाग्रत कर लेता है-अर्थात् सृजन का प्रकाश भर लेता है, वह बड़े-बड़े अँधेरों को तराशकर प्रकाश निर्झर से धरती की प्यास बुझा देता है। सृजन का विकास उन्हीं व्यक्तियों में प्रकाशित होता है। जो आचरणवान, शीलवान, ईमानदार,सत्यवादी,परिश्रमी, विवेकी, दूसरों की भावनाओं को छूने वाले होते हैं। साथ ही वे आस्थावान तथा निष्ठावान भी होते हैं। वे अकेले और वीराने में भी सृजन की भावना से आश्वस्त होते हैं। ऐसे व्यक्ति स्वयं तो प्रकाशित होते ही हैं, जिनको वे छू देते हैं, वे भी प्रकाशित हो जाते हैं, जिनमें सृजन की भावना नहीं है, उनमें भी सृजन का मन्त्र फूंक देते हैं। दीपकों की पंक्तियाँ प्रकाशित होकर दीपावली मनाने लगती हैं। श्रेष्ठ व चरित्रवान गुणों वाले व्यक्ति में ही सृजन का प्रकाश जागता है, तब ही वह स्वयं प्रकाशित होकर दूसरों को प्रकाशित करने की क्षमता रखता है।

प्रश्न 3.
लेखक को अपने गाँव लौटने पर क्या-क्या परिवर्तन दिखाई दिए?
उत्तर:
लेखक को अपने गाँव लौटने पर गाँव में अप्रत्याशित परिवर्तन दिखाई दिया। जिन हलों के साथ टिप्पे की टिटकारें सुनायी देती थीं उनके स्थान पर फटफटाते ट्रेक्टर खेतों की छाती चीर रहे थे,तालाब जैसे भरे बंधान गायब थे,बदले में बरसात कम होने के कारण ट्यूबवैल धरती का पेट चीरकर पानी खींच रहे थे। भभकती सिंचाई-मशीनें हड़बड़ा रही थीं। बिजली गाँव को चौंधिया रही थी। टिमटिमाते दीपक गायब थे। न ढोर,न बछेरू और गोचर भूमि गायब थी। न कउड़े न लोग, न मन्दिर की घंटियों की टनटनाहट और न शंख-घड़ियाल की सुरीली आवाज ही सुनाई पड़ती थी। रामधुनों और भजनों के ढोल-मंजीरों का स्थान टी.वी. के पास चला गया था। चोरी, डकैती, मुकदमों ने गाँव की चौपाल तोड़ दी थी। आत्मीयता नष्ट हो गई थी। सब अपने स्वार्थ साधन में लगे थे। इज्जत-आबरू दाँव पर थी। राजनीति ने ऐसा हड़कम्प मचाया है कि तीन घरों का गाँव भी तीन पार्टियों में बँट गया था।

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प्रश्न 4.
लेखक ने घर का वास्तविक रूप किन शब्दों में व्यक्त किया है?
उत्तर:
लेखक ने बहुत दिनों के बाद लौटकर अपने पुस्तैनी घर को देखा तो पाया कि वर्षा के कारण दीवारों का प्लास्टर जहाँ-तहाँ से उखड़ गया है, जिस कारण दीवारों पर चित्र से बने लगते हैं। चबूतरे पर गायों के खड़े होने के कारण पैरों के निशान बन गये हैं, जो अस्त-व्यस्त व्यंजनों के समान दिखाई देते हैं। घर का नक्शा ही बदल गया है। जिस कारण वह घर एक ऐतिहासिक इमारत-सा लग रहा है, ऐसी इमारत जो जर्जर हो उठी है। किवाड़ों पर मकड़ियों ने जाले बना लिये हैं, चारों ओर धूल का साम्राज्य है। यह तो घर का भौतिक रूप है। इसके साथ घर का एक और अमूर्त रूप है, जिसमें लेखक की आत्मा स्मृतियों में खोई है। लेखक का बचपन इसी घर में बीता है। लेखक की किलकारियाँ, हँसना, रोना, ममत्व,क्रोध आदि इन्हीं दीवारों से जुड़ा है। माता-पिता तथा बहनों की आत्मीयता बिखर गयी है। घर का खुलना-घर का खुलना नहीं था बल्कि लेखक के मन में स्मृतियों का पर्दा खुलता चला जा रहा था। ईंट-पत्थर से बनी इमारत घर नहीं होती । घर होता है व्यक्ति की भावनाओं, प्रेम, स्नेह, ममत्व आदि के संयोग से।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिये
(1) दीवारों पर वर्षा ने …………… बदल गया हो।
(2) मेरी किलकारियाँ …………. जा रहा है।
(3) असल प्रकाश ……… नहीं रोका जा सकता।
(4) मुझे लगा हमारे भीतर की ………… केन्द्र बन सकेंगे।
(5) जीवन बहुत सरल ……….. कर सकोगे।
उत्तर:
प्रस्तुत गद्यांशों की व्याख्या पाठ के ‘व्याख्या हेतु गद्यांश’ भाग में देखिए।

तिमिर गेह में किरण आचरण भाषा अध्ययन

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के हिन्दी मानक रूप लिखिए
उजास, कसैला, किवाड़, चतेवरी।
उत्तर:
उजाला, कड़वा, दरवाजा, चित्रकारी।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित शब्दों के दो-दो पर्यायवाची शब्द लिखिए
निर्झर, कर्कश, प्रकाश, उल्लास।
उत्तर:

  1. निर्झर – झरना, प्रपात।
  2. कर्कश – कठोर, तीखी।
  3. प्रकाश – आलोक,प्रभा।
  4. उल्लास – खुशी,प्रसन्नता।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित वाक्यों को शुद्ध कीजिये

  1. उसकी आयु बीस वर्ष है।
  2. गुरु के ऊपर श्रद्धा रखनी चाहिए।
  3. यहाँ केशरिया दही की लस्सी मिलती है।
  4. भाषा का माधुर्यता बस देखते ही बनती है।

उत्तर:

  1. वह बीस वर्ष का है।
  2. गुरु पर श्रद्धा रखनी चाहिए।
  3. यहाँ केसरिया दही की लस्सी मिलती है।
  4. भाषा का माधुर्य देखते ही बनता है।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित शब्द युग्मों में से पूर्ण पुनरुक्त, अपूर्ण पुनरुक्त, प्रति ध्वन्यात्मक शब्द और भिन्नात्मक शब्दों को पृथक्-पृथक् लिखिए.
तीज-त्यौहार, छानी-छप्पर, आल-जाल, छोटी-मोटी, प्रचार-प्रसार, उर्दू-फारसी, खेलते-खेलते।
उत्तर:
पूर्ण पुनरुक्त शब्द – खेलते – खेलते-खेलते।
अपूर्ण पुनरुक्त शब्द – तीज-त्यौहार,छानी-छप्पर,प्रचार-प्रसार।
प्रतिध्वन्यात्मक शब्द – आल-जाल,छोटी-मोटी।
भिन्नात्मक शब्द – उर्दू-फारसी।

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प्रश्न 5.
दिये गये वाक्यों का भाव विस्तार कीजिये-
(1) कउड़े को आग के ताप से दिपदिपाते चेहरों की प्रसन्नता अँधेरों में भी खनक जाती है।
(2) जवारों जैसे पीताभ गेहूँ के पौधे क्या यह संदेश नहीं देते कि सृजन की यात्रा कभी रुकती नहीं?
उत्तर:
(1) सर्दियों के मौसम में दिनभर कठोर परिश्रम करने के बाद लोग शाम को अलाव जलाकर उसकी गरमाई के चारों ओर बैठकर अपनी दिनभर की थकान उतारते हैं तथा वार्तालाप, हँसी-मजाक, समस्याओं के समाधान आदि से उनके चेहरे पर अन्धकार में भी छायी प्रसन्नता, उनकी बोली से स्पष्ट हो जाती है। यह सुख आज के वैज्ञानिक युग में समाप्त हो गया है।

(2) गेहूँ का पौधा बढ़कर मनुष्य को प्रेरणा देता है कि निर्माण सदैव विकास की ओर जाता है। सृजन को अँधेरे-बन्द कमरों में बन्द नहीं किया जा सकता है। जैसे-छोटे से दीपक की लौ दूर-दूर तक प्रकाश फैलाती है, उसी प्रकार सृजन का प्रकाश फैलता ही जाता है। व्यक्ति का आचरण,शील, विवेक,मेहनत, ईमानदारी,आस्था, निष्ठा आदि गुण सृजन की यात्रा को आगे की ओर ले जाते हैं। आले में अंकुरित गेहूँ के पौधे मनुष्य को यही प्रेरणा देते हैं।

प्रश्न 6.
मातृभाषा की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
जिस क्षेत्र विशेष में जो भाषा बोली जाती है तथा बालक अपनी माँ के मुँह से जो सुनता है,वही मातृभाषा है। सर्वप्रथम मातृभाषा ही शिशु के इस दुनिया में आँख खोलने के साथ ही कानों में पड़ती है तथा हर समय हमारे सम्पर्क में रहती है। मातृभाषा सीखने और समझने में सरल लगती है। इसके माध्यम से विचारों का प्रदान-प्रदान करना सरल होता है और भावों की अभिव्यक्ति सहज होती है। मातृभाषा में आत्मीयता होती है।

तिमिर गेह में किरण आचरण पाठ का सारांश

सुविख्यात कवि,निबन्धकार, कथाकार एवं उच्च कोटि के आलोचक ‘डॉ. श्यामसुन्दर दुबे’ द्वारा लिखित प्रस्तुत निबन्ध ‘तिमिर गेह में किरण-आचरण’ में लेखक ने बताया है कि अज्ञान व दुःख के निवारण का साधन प्राणी का सद् आचरण है। सुख का प्रकाश बाहर से नहीं वह तो आचरण और आत्म-चेतना से फैलता है। इसलिए मनुष्य को सदैव अपने भीतर खोए बचपन की तलाश करते रहना चाहिए। बचपन की संवेदनाएँ ही आत्मीय संसार को दृढ़ बनाती हैं। सृजनशीलता प्रदान करती हैं।

प्रस्तुत निबन्ध आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया है। लेखक बहत समय के बाद अपने बचपन के घर पर लौटता है तो देखता है ताले पर जंग है, दीवारों के टूटे प्लास्टर चित्रकारी जैसे लगते हैं। चबूतरे पर धूल है। मकड़ियों के जाले हैं। घर की इस बदसूरती को देखकर बचपन की याद आती है, जिसमें माता-पिता तथा बहनों की आत्मीयता है। घर के बाद लेखक गाँव व खेत में अपने बचपन को तलाशता है। मन्दिरों की घण्टियों,शंख-घड़ियालों की आवाज,अलाव की गर्मी, ज्वार-बाजरे के खेतों के सौन्दर्य का सुख भूल चुका है।

समय परिवर्तनशील है। खेतों में हल के स्थान पर ट्रैक्टर, तालाब के स्थान पर ट्यूबवैल, दीपक के स्थान पर बिजली के बल्ब, चौपाल का रूप चोरी, डकैती और मुकदमों ने ले लिया है। रामधुन व भजन टी.वी. बन गया है। सब अपने स्वार्थ में लगे हैं। राजनीति का प्रकोप है। इस कारण जीवन के सुख रूपी घर में दुःख रूपी चूहे-छिपकलियाँ कूदते हैं। लेखक ने दुःख के अन्धकार को दूर करने का तरीका बताया है वह है-सृजन का प्रकाश। आदमी का आचरण, आदमी का शील, आदमी का भ्रम, आदमी का विवेक जिसे छू ले, वह प्रकाशित हो जाये। लाख अँधेरे आयें, लाख आपत्तियाँ आयें, यदि व्यक्ति अपने प्रति आस्थावान, निष्ठावान, परिश्रमी और सदाचारी है तो वह स्वयं भी सुख के प्रकाश से दीप्त होता है तथा दूसरों को भी करता है। यही दीपावली का दिन है,यही प्रकाशोत्सव है। आज मनुष्य हिंसा, प्रतिहिंसा, स्वार्थ, छल, फरेब, दगाबाजी आदि के अँधेरे में फँसा है। इन अँधेरों को दूर करके ही हम शाश्वत प्रकाश के केन्द्र बन सकते हैं।

“सजन की झाड़ से अज्ञान के अँधेरे को दूर किया जा सकता है। वो माचिस की तीलियाँ स्वयं प्रकाशित हो उठेगी।” लोक बोली के अनेक शब्दों से भाषा का प्रवाह बढ़ा है। व्यास शैली व उदाहरण शैली ने निबन्ध को बोधगम्य बना दिया है। सत्य है, सृजन ही जीवन का प्रकाश है।

तिमिर गेह में किरण आचरण कठिन शब्दार्थ

चतेवरी = चित्रकारी। अतीत = बीता हुआ। प्रहारों = चोटों। हिलबिलान = खो जाना। स्पंदित = धड़कना। कउड़े = अलाव। निबिड़ता = अन्धकार। बिसर = भूलना। पहलौटी = पहला। अनुभूति = एहसास। झकझकाती = चमकती। पसरा = फैला। मद्धिम = धीमी। हडकंप = भाग-दौड़। भाराक्रांत = भार से दबा हुआ। स्मृतियों = यादों। उजास = उजाला। ऊर्ध्वमुखी = ऊपर मुख किये हुए। विकीर्ण = फैलाना। पीताभ = पीली चमक वाला। वीराने = सुनसान। सृजन = रचना। समूचे = पूरे। फरेब = कपट। दगाबाजी = धोखा। शाश्वत = हमेशा रहने वाला।

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तिमिर गेह में किरण आचरण संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

(1) दीवारों पर वर्षा ने ऊबड़-खाबड़ चतेवरी अंकित कर दी थी। दरवाजे के सामने वाले चबूतरे पर गौ-खुरों की रूदन-बूंदन से अटपटी वर्णमाला लिख गई थी। घर का समूचा नाक-नक्शा ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे अतीत के प्रहारों को झेलते-झेलते वह झुर्रियों के इतिहास में बदल गया हो।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक के ललित निबन्ध ‘तिमिर गेह में किरण-आचरण’ से उद्धृत हैं। इसके लेखक ‘डॉ. श्यामसुन्दर दुबे’ हैं।

प्रसंग :
समय बीतने पर हर सुन्दर वस्तु असुन्दर बन जाती है। उस पर बनी अतीत की लकीरें उसके इतिहास को बदल देती हैं।

व्याख्या :
आत्म कथात्मक शैली में अपनी स्मृतियों का वर्णन करते हुए लेखक कहता है कि जब वह एक लम्बे अन्तराल के बाद अपने गाँव के मकान पर लौटता है तो पाता है कि वर्षा के कारण मकान की दीवारों का प्लास्टर उखड़ गया है जिससे दीवारें चित्रकारी-सी की हुई प्रतीत होती हैं। मुख्य दरवाजे के सामने बने चबूतरे पर गायों को रौंदने से जमीन पर पशुओं के खुरों के निशान बन गये हैं,जो हिन्दी की वर्णमाला के समान दिखाई देते हैं। पूरे घर का नक्शा बदल गया है; जैसे मनुष्य समय की चोट खा-खाकर बूढ़ा हो जाता है, उसके शरीर पर पड़ी झुर्रियाँ उसे बदसूरत बना देती हैं, उसी प्रकार लेखक का मकान भी समय बीतने के साथ जर्जर हो गया था। उसी घर में लेखक यादों के सहारे सृजनात्मक कार्य के लिये आया था।

विशेष :

  1. पुराने घर में अपनत्व को ढूँढ़ता लेखक।
  2. साधारण-सरल खड़ी बोली, जिसमें ऊबड़-खाबड़, चतेवरी जैसे आंचलिक शब्दों का प्रयोग।
  3. पुनरुक्त शब्दों का प्रयोग, जैसे-झेलते-झेलते,ऊबड़-खाबड़।।
  4. संस्कृत के तत्सम शब्दों को भी लिया गया है, जैसे-अंकित, अतीत।
  5. व्यास शैली।

(2) मेरी किलकारियाँ और रोदन, मेरा क्रोध और मेरा ममत्व, इसी के भीतर किस कोने में अटके हैं? माता-पिता और बहिनों की आत्मीयता दरवाजों के भीतर से हमकती-सी लगती है। मेरा अतीत ढोता यह घर, जिसका ताला खोलने में ही मुझे आधा घण्टा लग गया, मेरे सामने खुला पड़ा था। घर नहीं खुला था, लगा किं जैसे ताले के साथ ही मेरे भीतर कुछ खुलता जा रहा है।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
डॉ. श्यामसुन्दर दुबे जब अपने मकान का ताला खोलते हैं तो उनका मन बचपन की यादों से भावुक हो उठता है क्योंकि इसी घर में उनका बचपन बीता था।

व्याख्या :
घर के दरवाजे पर लगे ताले पर जंग लग गयी थी, जिसके कारण लेखक को ताला खोलने में लगभग आधा घण्टा लगा। ताला खुलते ही घर के दृश्य को देखकर लेखक का बचपन साकार हो उठा और उन्हें लगा कि इसी घर में उनकी बचपन की किलकारियाँ,रोना, गुस्सा करना,क्रोध करना छिपा है। साथ ही,परिवार के साथ ममत्व भी दीवारों के बीच छिपा है। उनको महसूस होता है कि माता-पिता तथा बहिनों का प्यार मानो दरवाजों में से आवाज दे रहा है अर्थात् उन्हें पारिवारिक जनों के लाड़-प्यार, दुलार की स्मृति हो आती है। इसी घर में लेखक का बचपन बीता था घर के खुलने के साथ-साथ उनके हृदय में यादों के दरवाजे भी खुल गये, जिन्होंने लेखक को विचलित कर दिया। इस प्रकार दरवाजा खुलते ही लेखक अतीत के संसार में चला गया।

विशेष :

  1. बचपन की मधुर स्मृतियों का हृदयस्पर्शी शब्दों में चित्रण है।
  2. हुमकती जैसे शब्दों के प्रयोग से भाषा में आंचलिकता आ गई है।
  3. सरल खड़ी बोली है, जिसमें संस्कृत के तत्सम शब्द हैं।
  4. व्यास व उद्धरण शैली का प्रयोग है।

(3) चीजें ही बदल रही हैं तो बचपन को पाना कठिन होता जाता है। जिन हलों के साथ टिप्पे की टिटकारें सुनी थीं, वे हल चूल्हे की आग बन गये। फटफटाते ट्रैक्टर खेतों की छाती चीर रहे हैं। तालाब जैसे भरे बंधान गायब हैं, बरसात ही कम हो रही है तो कहाँ से भरें खेत? धरती का पेट चीरकर पानी खींचा जा रहा है। भभकती सिंचाई-मशीनें, हड़बड़ा रही हैं। झकझकाती बिजली गाँव को चौंधिया रही है।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
लेखक गाँव में पहँच कर पाता है कि गाँव आधुनिक साधनों से पूर्ण है। बचपन का कोई भी चिह्न उसे दिखाई नहीं देता है। इस बदलाव से उसकी आत्मा जैसे बिखर जाती है।

व्याख्या :
जिस बचपन को ढूँढने लेखक अपने गाँव गया था। वह बचपन उसे नहीं मिला। पूरा गाँव आधुनिकता में डूब गया था। बचपन में खेत जोतने के लिए हलों का प्रयोग किया जाता था, उस हल की लकड़ी जला दी गयी थी। उसके स्थान पर ट्रेक्टर खेतों को जोत रहे थे। सिंचाई के लिए तालाबों में पानी भरा रहता था अब वह तालाब वर्षा कम होने के कारण सूख गये थे। जमीन को खोदकर ट्यूबबैल बनाये जा रहे जिसने पृथ्वी की सरसता को कम कर प्राकृतिक आपदाओं को जन्म दिया है। दीपक की रोशनी का स्थान चमकती बिजली ने ले लिया था। सम्पूर्ण ग्रामीण जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन आ गया था। ऐसे में लेखक को अपना बचपन न मिलने के कारण उसका हृदय भर आया था।

विशेष :

  1. गाँव में विज्ञान की प्रगति का साक्षात्कार है।
  2. सरल खड़ी बोली में स्थानीय शब्दों की बहुलता है।
  3. व्यास शैली व उद्धरण शैली के माध्यम से बदलते परिवेश का चित्रण है।

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(4) असल प्रकाश तो हमारे जीवन में छिपा हुआ है-सृजन का प्रकाश! आदमी का आचरण, आदमी का शील, आदमी का श्रम, आदमी का विवेक और आदमी की भावना जिसे छ लें, वह प्रकाशित हो जाये। बड़े-बड़े अंधेरों को तराशकर ये प्रकाश-निर्झर बहा दें। जवारों जैसे पीताभ गेहूँ के पौधे क्या यह संदेश नहीं देते कि सृजन की यात्रा कभी रुकती नहीं ? उसे अँधेरे बन्द कमरों में भी नहीं रोका जा सकता। (2009, 11, 14, 17)

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
अन्धकार का विलोम प्रकाश है और प्रकाश जीवन का दूसरा नाम है। दीपक या बिजली के बल्ब का प्रकाश तो प्रकाश का आभास है, वास्तविक प्रकाश प्राणी के कर्म और आचरण में होता है।

व्याख्या :
लेखक प्रकाश यानि उजाले के वास्तविक रूप को बताते हुए कहता है कि प्रकाश बाहर की वस्तु न होकर जीवन में चरितार्थ होने वाली वस्तु है, वह है अच्छाई-सत्य व कर्म को अपनाकर नवीनता का निर्माण करना। निर्माण कार्य वही प्राणी कर सकता है, जिसका आचरण शुद्ध हो, विचार अच्छे हों। प्राणी की विनम्रता, परिश्रम, अच्छे-बुरे की पहचान कर अच्छाई के मार्ग पर चलना,दूसरे के दुःखों,वेदनाओं,पीड़ाओं आदि को समझकर सहभागी बनने वाला व्यक्ति ही सृजन कार्य कर सकता है।

ऐसा ही व्यक्ति जीवन के अँधेरों रूपी दुःखों को सुख रूपी जल की धारा में बदल सकता है। खेतों में उगने वाले पौधा जो कभी तिल जैसा बीज था, विकसित होकर पौधा बनता है तथा संसार को भोजन के रूप में जीवन देता है। यह पौधा मनुष्य को संदेश देता है कि विकास की गति, निर्माण की गति कभी नहीं रुकती है। विकास को कमरों में या किसी अन्धकार में बन्द करके, नहीं रखा जा सकता है। विकास जल की वह धारा है जो निरन्तर बहती रहती है।

विशेष :

  1. वास्तविक प्रकाश निर्माण व रचना है।
  2. सरल खड़ी बोली में तत्सम शब्दों के साथ प्रादेशिक शब्दों का प्रयोग है।
  3. उदाहरण के द्वारा कथन का स्पष्टीकरण है।

(5) जीवन बहुत सरल नहीं है। मेहनत और ईमानदारी ही ऊर्जा बढ़ाते हैं। लाख अँधेरे आएँ, लाख आपत्तियाँ आएँ, तुम यदि अपने प्रति आस्थावान्, निष्ठावान् रहोगे, तो स्वयं प्रकाशित होकर दूसरों को भी प्रकाशित कर सकोगे।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
लेखक बचपन के घर में अकेला अँधेरे में खड़ा होने पर भी निरुत्साही न होकर आत्मविश्वास के साथ निर्माण के प्रकाश से प्रसन्न है। उसी समय उसे अपने पिता के द्वारा कही गयी बातें याद आती हैं-कर्मठ व्यक्ति ही निर्माण रूपी प्रकाश से संसार को सुख देता है।

व्याख्या :
लेखक के पिता ने कहा था-संसार में रहकर सुखों की प्राप्ति करना कोई सरल काम नहीं है। श्रम और ईमानदारी ही प्राणी में काम करने की शक्ति देते हैं। कर्मठता ही वह अग्नि है जो सुख रूपी भोजन को स्वादिष्ट बनाती है तब काम करने की शक्ति मिलती है। प्राणी के जीवन में चाहे अनगिनत दुःख,मुसीबतें या रुकावटें आयें परन्तु वह अपने कर्म,मेहनत, सत्य और ईमानदारी पर आस्थावान है, तो उसके विकास को कोई नहीं रोक सकता है।

वह स्वयं का ही विकास नहीं करता बल्कि जो उसके सम्पर्क में आता है उन्हें भी प्रकाश देता है, अर्थात् सुख देता है, उन्हें कर्मठ बनने की प्रेरणा देता है। यही प्रेरणा जीवन का सच्चा प्रकाश है और यही प्रकाश दीपावली के दीपक का प्रकाश है। जिस दिन मनुष्य स्वयं कर्मठ बन कर दूसरों को कर्मठ बनायेगा। वही दिन दीपावली का दिन होगा। असंख्य दीपक जलकर प्रकाश फैलायेंगे,मानव जाति निर्माण पथ पर चल पड़ेगी, तब सुख ही सुख का साम्राज्य होगा।

विशेष :

  1. कर्म और ईमानदारी ही सुख के साधन हैं,सफलता के फल हैं।
  2. छोटी-छोटी उक्तियों के माध्यम से प्राणी को अच्छाई का संदेश दिया गया है।
  3. संस्कृत गर्भित शब्दावली के साथ उर्दू के शब्दों का भी बाहुल्य है।
  4. व्यास व उद्धरण शैली का प्रयोग है।

(6) मुझे लगा हमारे भीतर की सृजन-चेतना समाप्त होती जा रही है। हिंसा, प्रतिहिंसा, स्वार्थ, छल, फरेब, दगाबाजी न जाने क्या-क्या हमारे भीतर डेरा डालकर घुप्प अँधेरे में मकड़जाल बुन रहे हैं। मन के इस अँधेरे में भटकते हम एक-दूसरे को लहूलुहान करने पर तुले हैं। इस अँधेरे को दूर करके ही हम मानवता के प्रकाश को फैला पायेंगे; तभी दीए भी हमारे लिये शाश्वत प्रकाश केन्द्र बन सकेंगे।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
निबन्ध के अन्तिम गद्यांशों में लेखक ने बताया है कि मनुष्य में आज कर्मठता, ईमानदारी,निष्ठा, आस्था आदि समाप्त हो गई है,जो समस्त दुःखों का कारण है।

व्याख्या :
डॉ. दुबे कहते हैं कि मनुष्य के दुःख का कारण उसके अपने ही अवगुण हैं। आज का प्राणी स्वार्थी,धन का लोलुप,आलसी, असत्यवादी,बेईमान बन गया है। जैसे अँधेरे में चूहे, छिपकलियाँ,मकड़ी अपना आधिपत्य जमा लेते हैं। उसी प्रकार सृजन के प्रकाश के अभाव में मनुष्य की मनोवृत्ति दूसरों को सताने, अपने स्वार्थ को सिद्ध करने, छल-कपट, धोखा करने में व्यस्त हो गयी है। इन अवगुणों के कारण दूसरे लोगों को सताने में ही आज प्राणी सुख अनुभव करता है। जिस दिन ये बुराइयाँ मनुष्य में से निकल जायेंगी या मनुष्य इन पर विजय प्राप्त कर लेगा। उसी दिन सृजन का प्रकाश फैल जायेगा और वह दिन सुख की दीपावली का दिन होगा। सद्गुणों के दीए हमेशा जलने लगेंगे। तब ही मानव जाति को जीवन का सच्चा सुख मिलेगा। इसलिए प्राणी को कर्मठ, ईमानदार, सत्यवादी, आस्थावान व निष्ठावान बनाना अनिवार्य है।

विशेष :

  1. मनुष्य को सद्गुणों से युक्त होने की प्रेरणा दी गई है।
  2. सद्गुणों से ही मनुष्य के जीवन में सृजन का प्रकाश होता है।
  3. तत्सम शब्दावली के साथ उर्दू व देशज शब्दों का प्रयोग है।
  4. शैली व्याख्यात्मक तथा उद्धरण है।

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