MP Board Class 12th Economics Important Questions Unit 7 आय एवं रोजगार का निर्धारण
आय एवं रोजगार का निर्धारण Important Questions
आय एवं रोजगार का निर्धारण वस्तुनिष्ठ प्रश्न
आय और रोजगार का निर्धारण MP Board Class 12th Economics प्रश्न 1.
सही विकल्प चुनकर लिखिए
आय और रोजगार का सिद्धांत MP Board Class 12th Economics प्रश्न (a)
आय तथा रोजगार का निर्धारण होता है –
(a) कुल माँग द्वारा
(b) कुल पूर्ति द्वारा
(C) कुल माँग तथा कुल पूर्ति दोनों के द्वारा
(d) बाजार माँग द्वारा।
उत्तर:
(C) कुल माँग तथा कुल पूर्ति दोनों के द्वारा
आय एवं रोजगार का सिद्धांत MP Board Class 12th Economics प्रश्न (b)
बचत तथा उपभोग के बीच संबंध होता है –
(a) विपरीत
(b) प्रत्यक्ष
(c) विपरीत तथा प्रत्यक्ष दोनों
(d) न तो विपरीत न ही प्रत्यक्ष।
उत्तर:
(a) विपरीत
आय तथा रोजगार का निर्धारण MP Board Class 12th Economics प्रश्न (c)
जब अर्थव्यवस्था अपनी सारी अतिरिक्त आय बचाने का फैसला करता है तो विनियोग गुणक होगा –
(a) 1
(b) अनिश्चित
(c) 0
(d) अपरिमित।
उत्तर:
(a) 1
आय एवं रोजगार का निर्धारण MP Board Class 12th Economics प्रश्न (d)
“पूर्ति अपना माँग स्वयं उत्पन्न कर लेती है।” कथन देने वाले अर्थशास्त्री हैं –
(a) कीन्स
(b) पीगू
(c) जे. बी. से
(d) एडम स्मिथ।
उत्तर:
(c) जे. बी. से
आय तथा रोजगार का निर्धारण In English MP Board Class 12th Economics प्रश्न (e)
क्लासिकल विचारधारा निम्न में से किस तथ्य पर आधारित है –
(a) से’ का बाजार नियम
(b) मजदूरी दर की पूर्ण लोचशीलता
(c) ब्याज दर की पूर्ण लोचशीलता
(d) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(d) उपर्युक्त सभी।
आय तथा रोजगार का निर्धारण Meaning In English MP Board प्रश्न 2.
रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए –
- अतिरिक्त विनियोग की प्रत्याशित लाभप्रदता …………………………….. कहलाती है।
- अवस्फीतिक अन्तराल …………………………… माँग की माप है।
- न्यून माँग …………………………………. अंतराल को बताती है।
- माँग आधिक्य की दशा में बैंक दर में ………………………………. करनी चाहिए।
- गुणक उल्टी दिशा में कार्य ………………………………… सकता है।
- जिस बिन्दु पर समग्र माँग एवं समग्र आपूर्ति बराबर होती है, उसे …………………………………. कहा जाता है।
- अपूर्ण रोजगार …………………………………….. माँग का परिणाम है।
- उपभोग प्रवृत्ति विवरण योग्य आय तथा ……………………………………. में संबंध दर्शाती है।
उत्तर:
- पूँजी की सीमान्त क्षमता
- न्यून
- अवस्फीतिक
- वृद्धि
- कर
- प्रभावपूर्ण माँग
- अभावी
- उपभोग।
प्रश्न 3.
सत्य /असत्य बताइये –
- पूर्ण रोजगार का आशय शून्य बेरोजगारी नहीं होता है।
- भविष्य में ब्याज दर में वृद्धि, बचतों को कम कर देती है।
- जिस अनुपात में आय बढ़ती है उसी अनुपात में उपभोग व्यय नहीं बढ़ता है।
- रोजगार के सिद्धांत का प्रतिपादन सर्वप्रथम मार्शल ने किया था।
- अपूर्ण रोजगार न्यून माँग का परिणाम है।
- अर्द्धविकसित देशों में कीन्स का सिद्धांत लागू होता है।
- कीन्स का सिद्धान्त पूर्ण प्रतियोगिता पर आधारित है।
उत्तर:
- सत्य
- असत्य
- सत्य
- असत्य
- असत्य
- असत्य
- सत्य।
प्रश्न 4.
सही जोड़ियाँ बनाइये –
उत्तर:
- (d)
- (a)
- (c)
- (f)
- (b)
- (e).
प्रश्न 5.
एक शब्द/वाक्य में उत्तर दीजिये –
- गुणक के रिसाव अधिक होने पर गुणक का प्रभाव कैसा होगा?
- माँग आधिक्य किसे जन्म देता है?
- अभावी माँग को संतुलित करने का सर्वोत्तम उपाय क्या है?
- बेरोजगारी का न्यून माँग सिद्धांत किसने प्रतिपादित किया?
- प्रो. कीन्स द्वारा प्रतिपादित ब्याज के सिद्धांत का नाम बताइए?
- अभावी माँग को संतुलित करने का सर्वोत्तम उपाय क्या है?
उत्तर:
- कम
- मुद्रा स्फीति
- सार्वजनिक व्यय में वृद्धि
- कीन्स
- तरलता पसंदगी
- निर्यात में वृद्धि करना।
आय एवं रोजगार का निर्धारण लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
आय व रोजगार के परम्परावादी सिद्धान्त की विशेषताएँ लिखिए?
उत्तर:
आय व रोजगार के परम्परावादी सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
1. माँग एवं पूर्ति में स्वतः
सन्तुलन – प्रो. जे. बी. से का विचार था कि, यदि अर्थशास्त्र में अनावश्यक सरकारी या अर्द्ध-सरकारी हस्तक्षेप न हो, तो माँग व पूर्ति का स्वतः सन्तुलन हो जाता है।
2. बेरोजगारी की कल्पना निराधार:
परम्परावादी अर्थशास्त्री बेरोजगारी की समस्या से भयभीत नहीं थे। चूँकि अति – उत्पादन असम्भव है, अतः सामान्य बेरोजगारी भी असंभव होगी।
3. हस्तक्षेप रहित आर्थिक समाज:
परम्परावादी अर्थशास्त्रियों के अनुसार, अर्थव्यवस्था में एक ऐसी लोच होती है, जो बाह्य हस्तक्षेप को किसी दशा में स्वीकार नहीं करती है। यदि अर्थव्यवस्था में सरकारी या अर्द्धसरकारी हस्तक्षेप किया गया तो अवश्य बेरोजगारी उत्पन्न होगी।
4. रोजगार दिलाने वाली लागत का स्वतः
प्रकट होना – परम्परावादी अर्थशास्त्रियों की धारणा है कि, जब बेकार पड़े साधनों को काम पर लगाया जाता है, तब इनसे वस्तुओं का उत्पादन बढ़ जाता है। नये साधनों को विशेषकर श्रमिक को आय प्राप्त होती है, नये – नये साधनों को रोजगार प्राप्त होता है। इस क्रिया से रोजगार तथा आय-स्तर में वृद्धि होने लगती है।
प्रश्न 2.
कीन्स के अनुसार बेरोजगारी क्यों होती है?
उत्त:
कीन्स के अनुसार कुल माँग तथा पूर्ण रोजगार में स्वतः साम्य स्थापित नहीं हो सकता है। इसलिए पूर्ण रोजगार की स्थिति कभी-कभी मुश्किल से पाई जाती है। यह संभव है कि कुल माँग कुल पूर्ति से कम रहे और इस कारण पूर्ण रोजगार की स्थिति गड़बड़ा जाये । कीन्स का विचार है कि अर्थव्यवस्था में अनैच्छिक बेरोजगारी की स्थिति रहती है। कीन्स का कहना है कि बेरोजगारी प्रभावपूर्ण माँग की कमी तथा उपभोग एवं विनियोग पर व्यय की कमी के कारण होती है।
प्रश्न 3.
आय एवं रोजगार के परम्परावादी सिद्धांत की मान्यताएँ लिखिए?
उत्तर:
आय व रोजगार के परंपरावादी सिद्धांत की प्रमुख मान्यताएँ निम्न हैं –
- स्वतंत्र प्रतियोगिता तथा स्वतंत्र व्यापार की दशा उपस्थित हो।
- बाजार के विस्तार की पूर्ण संभावना हो।
- सरकारी व गैर – सरकारी हस्तक्षेप को समाप्त कर दिया गया है तथा संरक्षण नहीं दिया जाता है।
- बंद अर्थव्यवस्था का होना।
- मुद्रा का न होना । समाज द्वारा अर्जित संपूर्ण आय को उपभोग में व्यय कर देना।
प्रश्न 4.
समग्र माँग के कोई चार घटक बताइये?
उत्तर:
समग्र माँग – समग्र माँग से तात्पर्य एक अर्थव्यवस्था में एक वर्ष में वस्तुओं एवं सेवाओं की माँगी गई कुल मात्रा से है, अर्थात् समग्र माँग से तात्पर्य उस राशि से होता है जो उत्पादक रोजगार के निश्चित स्तर पर उत्पादित वस्तुओं की बिक्री से प्राप्त होने की आशा करते हैं।
घटक – समग्र माँग के घटक निम्नलिखित हैं –
1. निजी उपभोग की माँग:
एक देश के सभी परिवारों द्वारा अपने निजी उपभोग पर जो कुछ व्यय किया जाता है उसे निजी उपभोग व्यय कहा जाता है। चूँकि व्यय ही माँग को जन्म देता है अत: निजी उपभोग व्यय ही उस देश की निजी उपभोग माँग बन जाती है।
2. निजी विनियोग की माँग:
निजी विनियोग माँग से तात्पर्य निजी विनियोग कर्ताओं के द्वारा की जाने वाली पूँजीगत वस्तुओं की माँग से है। निजी विनियोग की माँग दो तत्वों पर निर्भर करती है –
- पूँजी की सीमान्त कुशलता एवं
- ब्याज की दर।
3. सरकार द्वारा वस्तुओं एवं सेवाओं की माँग:
सरकार के द्वारा भी विभिन्न प्रकार की वस्तुओं एवं सेवाओं की खरीदी की जाती है। अतः सरकार द्वारा खरीदी जाने वाली वस्तुएँ एवं सेवाएँ ही सरकारी माँग कहलाती हैं।
4. विशुद्ध निर्यात माँग:
जब एक देश दूसरे देश को वस्तुओं का निर्यात करता है तो यह विदेशियों द्वारा उस देश में उत्पादित वस्तुओं की माँग को बतलाता है। अतः निर्यात से देश में आय, उत्पादन एवं रोजगार को प्रोत्साहन मिलता है। इसके विपरीत जब देश दूसरे देशों से आयात करता है तो इससे देश की आय विदेशों को चली जाती है। अतः आयात देश में रोजगार बढ़ाने में सहायक नहीं होते हैं। अत: देश की समग्र माँग को ज्ञात करने के लिए विशुद्ध निर्यात माँग को शामिल किया जाता है, अर्थात् निर्यातों में आयातों को घटाया जाता है।
प्रश्न 5.
संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए” –
- पूर्ण रोजगार से क्या आशय है?
- अपूर्ण रोजगार से क्या आशय है?
उत्तर:
- किसी अर्थव्यवस्था में कार्य करने के इच्छुक व्यक्ति को समर्थ प्रचलित मजदूरी दरों पर काम मिलना ही पूर्ण रोजगार है।
- अर्थव्यवस्था में कार्य करने के इच्छुक व्यक्ति को प्रचलित मजदूरी दरों पर कार्य न मिलना ही अपूर्ण रोजगार है।
प्रश्न 6.
अत्यधिक माँग को ठीक करने के उपाय बताइए?
उत्तर:
अत्यधिक माँग को ठीक करने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं –
- मुद्रा निर्गम सम्बन्धी नियमों को कठोर बनाना: अत्यधिक माँग की मात्रा कम करने के लिए यह आवश्यक है कि सरकार मुद्रा निकालने सम्बन्धी नियमों को कड़ा करे ताकि केन्द्रीय बैंक को अतिरिक्त मुद्रा निकालने में अधिक कठिनाई हो।
- पुरानी मुद्रा वापस लेकर नई मुद्रा देना: अत्यधिक माँग की दशा में साधारण उपचार उपयोगी नहीं हो सकते, अतः पुरानी सब मुद्राएँ समाप्त कर उनके बदले में नई मुद्राएँ दे दी जाती हैं।
- साख – स्फीति को कम करना: अत्यधिक माँग अथवा स्फीति को कम करने के लिए साख – स्फीति को कम करना आवश्यक है।
- बचत का बजट बनाना: अत्यधिक माँग की स्थिति में सरकार को बचत का बजट बनाना चाहिए। बचत का बजट उसे कहते हैं, जिससे सार्वजनिक व्यय की तुलना में सार्वजनिक आय अधिक होती है।
- सार्वजनिक व्यय पर नियंत्रण: अत्यधिक माँग की दशा में सरकार को सड़कें बनाने, नहर व बाँधों का निर्माण करने, स्कूल, अस्पताल एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य जैसे कामों पर सार्वजनिक व्यय को कम कर देना चाहिए तथा साथ ही सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में भी विनियोग को कम ही रखना चाहिए।
प्रश्न 7.
समग्र माँग तथा समग्र पूर्ति में अंतर स्पष्ट कीजिए?
उत्तर:
समग्र माँग तथा समग्र पूर्ति में अंतर –
समग्र माँग:
- समग्र पूर्ति से अभिप्राय एक लेखा वर्ष के दौरान देश में उत्पादित समस्त वस्तुओं पर किए जाने वाले व्यय के योग से है।
- समग्र माँग का मापन वस्तुओं और सेवाओं पर समुदाय द्वारा कुल व्यय पर किया जाता है।
- इनमें निम्न दरें शामिल होती हैं –
- परिवार द्वारा उपभोग पर नियोजित व्यय
- फर्म के निवेश व्यय
- सरकार का नियोजित व्यय।
समग्र पूर्ति:
- समग्र पूर्ति से अभिप्राय अर्थव्यवस्था में दिए हुए समय में खरीदने के लिए उपलब्ध उत्पाद से है।
- समग्र पूर्ति वस्तुओं और सेवाओं के कुल उत्पादन को भी कहते हैं।
- इसमें केवल उपभोग तथा पूर्ति शामिल होते हैं।
प्रश्न 8.
प्रेरित निवेश तथा स्वतंत्र निवेश में अंतर स्पष्ट्र कीजिए?
उत्तर:
प्रेरित निवेश तथा स्वतंत्र निवेश में अंतर –
प्रेरित निवेश:
- यह आय पर निर्भर होता है।
- यह आय लोच होता है।
- यह सामान्यतया निजी क्षेत्र के द्वारा किया जाता है।
- प्रेरित निवेश वक्र बायें से दायें ऊपर की ओर जाता है।
स्वतंत्र निवेश:
- इसका आय से संबंध नहीं होता है अर्थात् स्वतंत्र होता है।
- यह आय लोच नहीं होता है।
- यह सामान्यतया सरकार द्वारा किया जाता है।
- स्वतंत्र निवेश वक्र OX वक्र के समान्तर ही बनता है।
प्रश्न 9.
मितव्ययिता के विरोधाभास की व्याख्या कीजिए?
उत्तर:
बचत (मितव्ययिता) का विरोधाभास यह बताता है कि यदि एक अर्थव्यवस्था में सभी लोग अपनी आय का अधिक भाग बचत करना आरंभ कर देते हैं तो कुल बचत का स्तर या तो स्थिर रहेगा या कम हो जायेगा। दूसरे शब्दों में, यदि अर्थव्यवस्था में सभी लोग अपनी आय का कम बचाना आरंभ कर देते हैं तो अर्थव्यवस्था में कुल बचत का स्तर बढ़ जायेगा। इस बात को इस प्रकार भी कह सकते हैं कि यदि लोग ज्यादा मित्तव्ययी हो जाते हैं तो या तो वे अपने आय का पूर्व स्तर रखेंगे या उनकी आय का स्तर गिर जायेगा।
प्रश्न 10.
‘प्रभावी माँग’ क्या है? जब अंतिम वस्तुओं की कीमत और ब्याज की दर दी हुई हो, तब आप स्वायत्त व्यय गुणक कैसे प्राप्त करेंगे?
उत्तर:
प्रभावी माँग का आशय:
यदि आपूर्ति लोच पूर्णतया लोचदार है तो दी गई कीमत पर उत्पाद का निर्धारण पूर्णतः सामूहिक माँग पर निर्भर करता है। इसे प्रभावी माँग कहते हैं। दी गई कीमत पर साम्य उत्पाद, सामूहिक माँग और ब्याज की दर का निर्धारण निम्न समीकरण द्वारा किया जा सकता है –
स्वायत्त व्यय गुणक = \(\frac { \triangle Y }{ \triangle \bar { A } } \) = \(\frac{1}{1 – C}\)
यहाँ ∆Y = अन्तिम वस्तु उत्पाद की कुल वृद्धि
∆\(\bar { A } \) = स्वायत्त व्यय में वृद्धि
C = सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति।
प्रश्न 11.
जब स्वायत्त निवेश और उपभोग व्यय (A) ₹ 50 करोड़ हो और सीमांत बचत प्रवृत्ति (MPS) 0.2 तथा आय (Y) का स्तर ₹ 4,000 – 00 करोड़ हो, तो प्रत्याशित समस्त माँग ज्ञात कीजिए। यह भी बताएँ कि अर्थव्यवस्था संतुलन में है या नहीं। कारण भी बताएँ?
हलः
दिया है –
स्वायत्त उपभोग (A) = ₹ 50 करोड़
MPS = 0.2
AS/ (आय) Y = ₹ 4,000 करोड़
AD = A + CY
C = 1 – MPS तथा Y का मान रखने पर,
AD = 50 + (1 – 0.2) 4,000
= 50 + 0.8 x 4,000
= 50 + 3,200 = ₹ 3,250 करोड़
अत: AD < AS ( ∵ 3,250 < 4,000)
अर्थव्यवस्था संतुलन की स्थिति में तब होती है जब AD तथा AS बराबर होते हैं, क्योंकि यहाँ AD < AS अतः अर्थव्यवस्था संतुलन में नहीं है।
प्रश्न 12.
सीमांत उपभोग प्रवृत्ति किसे कहते हैं? यह किस प्रकार सीमांत बचत प्रवृत्ति से संबंधित है?
उत्तर:
आय में परिवर्तन व उपभोग में परिवर्तन के अनुपात को सीमांत उपभोग प्रवृत्ति कहा जाता है। जिसे निम्न सूत्र द्वारा प्रदर्शित किया जाता है –
उत्तर:
MPC = \(\frac{∆C}{∆Y}\)
जहाँ MPC = सीमांत उपभोग प्रवृत्ति
∆C = उपभोग में परिवर्तन
∆Y = आय में परिवर्तन
सीमांत उपभोग प्रवृत्ति तथा सीमांत प्रवृत्ति में संबंध:
बचत में परिवर्तन तथा आय में परिवर्तन का अनुपात सीमांत बचत प्रवृत्ति कहलाता है। जिसे निम्न सूत्र द्वारा प्रदर्शित किया जाता है –
MPS = \(\frac{∆S}{∆Y}\)
जहाँ MPS = सीमांत बचत प्रवृत्ति
∆S = बचत में परिवर्तन
∆Y = आय में परिवर्तन।
सीमांत उपभोग प्रवृत्ति तथा सीमान्त बचत प्रवृत्ति का योग सदैव इकाई – (1) के बराबर होता है। अर्थात् –
MPC + MPS = 1
यदि MPC या MPS में किसी एक का मूल्य घटता है तो दूसरे के मूल्य में वृद्धि होती है।
आय एवं रोजगार का निर्धारण दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
आय एवं रोजगार के सिद्धान्त के बारे में परम्परावादी अर्थशास्त्रियों एवं कीन्स के विचारों की तुलना कीजिए?
उत्तर:
परम्परावादी सिद्धान्त तथा कीन्स के सिद्धान्त में अंतर –
परम्परावादी सिद्धान्त:
- इस सिद्धान्त के अनुसार, आय तथा रोजगार का निर्धारण केवल पूर्ण रोजगार स्तर पर होता है।
- यह सिद्धांत प्रो. जे. बी. से के बाजार नियम की मान्यताओं पर आधारित है।
- इस सिद्धांत के अनुसार, बचत और विनियोग में समानता ब्याज की दर में परिवर्तन द्वारा स्थापित की जाती है।
- यह सिद्धांत दीर्घकालीन मान्यता पर आधारित है।
- इस सिद्धांत के अनुसार, अर्थव्यवस्था में सामान्य, अति उत्पादन तथा सामान्य बेरोजगारी की कोई संभावना नहीं हो सकती।
कीन्स का सिद्धान्त:
- इस सिद्धान्त के अनुसार, आय तथा रोजगार स्तर का निर्धारण उस बिन्दु पर होगा, जहाँ पर सामूहिक माँग, सामूहिक पूर्ति के बराबर होती है। इसके लिए पूर्ण रोजगार स्तर का होना आवश्यक नहीं है।
- यह सिद्धांत उपभोग के मनोवैज्ञानिक नियम पर आधारित है। इस सिद्धांत के अनुसार, बचत और विनियोग में समानता आय में परिवर्तन द्वारा स्थापित होती है।
- यह सिद्धान्त अल्पकालीन मान्यता पर आधारित है।
- यह सिद्धांत अल्पकालीन मान्यता पर आधारित है।
- इस सिद्धांत के अनुसार, अपूर्ण रोजगार संतुलन की एक सामान्य स्थिति है। पूर्ण रोजगार की स्थिति तो एक आदर्श एवं विशेष स्थिति है।
- इस सिद्धांत के अनुसार, सामान्य, अति उत्पादन तथा सामान्य बेरोजगारी संभव है।
प्रश्न 2.
गुणक की धारणा को समझाइए?
उत्तर:
गुणक का सिद्धांत:
कीन्स के रोजगार सिद्धांत का एक महत्वपूर्ण अंग गुणक है, लेकिन कीन्स का गुणक ‘विनियोग गुणक’ है। गुणक विनियोग की प्रारंभिक वृद्धि तथा आय की कुल अंतिम वृद्धि के बीच आनुपातिक संबंध को बताता है। कीन्स का विचार है कि जब किसी देश की अर्थव्यवस्था में विनियोग की मात्रा में वृद्धि की जाती है तो उस देश की आय में केवल विनियोग की मात्रा की तुलना में जितने गुना वृद्धि होती है, उसे ही कीन्स ने ‘गुणक’ कहा है।
सूत्र के रूप में,
K = \(\frac { \triangle Y }{ \triangle I } \)
यदि गुणक का मूल्य दिया है तो विनियोग में वृद्धि किये जाने से आय में कितनी वृद्धि होगी? यह सरलतापूर्वक निकाली जा सकती है। इसका सूत्र है –
∆Y = K . ∆I
सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति का आकार जितना बड़ा होगा गुणक का मूल्य भी अधिक होगा। गुणक के गुणक द्वारा कीन्स ने यह बलताया है कि सरकार विनियोग में जिस अनुपात में वृद्धि करती है। गुणक के कारण आय कई गुना बढ़ जाती है। इससे अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी को दूर किया जा सकता है।
प्रश्न 3.
पूँजी की सीमांत कुशलता को निर्धारित करने वाले तत्वों को लिखिए?
उत्तर:
पूँजी की सीमांत कुशलता को निर्धारित करने वाले तत्व निम्नलिखित हैं –
1. माँग की प्रवृत्ति:
यदि किसी वस्तु की माँग की आशंका भविष्य में अधिक बढ़ने की है तो पूँजी की सीमांत कुशलता भी ऊँची होगी। जिसके परिणामस्वरूप विनियोग बढ़ जायेगा। इसके विपरीत अगर भविष्य में वस्तुओं की माँग घटने की आशंका है तो पूँजी की सीमांत कुशलता भी घट जायेगा और विनियोग भी कम हो जाएगा।
2. लागतें एवं कीमतें:
यदि भविष्य में वस्तु की उत्पादन लागत बढ़ने की तथा उनकी कीमतों में गिरावट.की सम्भावना है तो पूँजी की सीमांत कुशलता गिर जायेगी। इससे विनियोग की मात्रा भी कम हो जायेगी। इसके विपरीत भविष्य में वस्तु की लागतों में कमी और कीमतों में वृद्धि होने की संभावना है तो पूँजी की सीमांत कुशलता भी बढ़ेगी और विनियोग भी बढ़ेगा।
3. तरल परिसम्पत्तियों में परिवर्तन:
जब एक साहसी के पास विभिन्न प्रकार की परिसम्पत्तियाँ बड़ी मात्रा में नगदी (तरल) के रूप में रहती है तब वह नये-नये विनियोग से लाभ उठाना चाहता है। ऐसी परिस्थिति में पूँजी की सीमांत कुशलता में वृद्धि होगी। इसके विपरीत जब परिसम्पत्तियाँ नगदी के रूप में नहीं होती हैं, तब नये विनियोग अवसरों का लाभ उठाने में कठिनाइयाँ आती हैं। इससे पूँजी की सीमांत कुशलता घट जाती है।
4. आय में परिवर्तन:
अप्रत्याशित लाभ अथवा हानियों के कारण हुए आय में आकस्मिक परिवर्तन तथा भारी कराधान अथवा कर रियायतों के कारणों से आय में जो परिवर्तन होता है उसका भी पूँजी की सीमांत कुशलता पर प्रभाव पड़ता है।
5. उपभोग प्रवृत्ति:
यदि उपभोग प्रवृत्ति अल्पकाल में ऊँची है तो इससे पूँजी की सीमांत कुशलता बढ़ जायेगी। इसके विपरीत उपभोग की प्रवृत्ति कम है तो पूँजी की सीमांत कुशलता घट जाएगी।
प्रश्न 4.
समग्र माँग एवं समग्र पूर्ति द्वारा आय व रोजगार के संतुलन स्तर को तालिका व रेखाचित्र द्वारा स्पष्ट कीजिए?
उत्तर:
कीन्स के अनुसार, आय तथा रोजगार के संतुलन स्तर का निर्धारण वहाँ होता है, जहाँ पर सामूहिक माँग तथा सामूहिक पूर्ति बराबर होते हैं। यहाँ सामूहिक माँग तथा सामूहिक पूर्ति का तात्पर्य समग्र माँग एवं समग्र पूर्ति से है। आय के संतुलन – स्तर के निर्धारण की व्याख्या समग्र माँग तथा समग्र पूर्ति की एक काल्पनिक तालिका की सहायता से की जा सकती है।
तालिका के द्वारा स्पष्टीकरण (र करोड़ में) आय उपभोग विनियोग। बचत समग्र माँग समग्र पर्ति विवरण (C)
उपर्युक्त तालिका में राष्ट्रीय आय के ₹ 400 करोड़ के स्तर पर समग्र माँग तथा समग्र पूर्ति बराबर हैं। दोनों ₹400 करोड़ के स्तर पर हैं। इस संतुलन – स्तर पर बचत भी विनियोग के बराबर है। इस संतुलन – स्तर में किसी भी प्रकार का परिवर्तन स्थायी नहीं होगा। उदाहरणस्वरूप, ₹ 400 करोड़ के आय – स्तर से पूर्व कोई भी आय – स्तर है, तो समग्र माँग, समग्र पूर्ति से अधिक होगी। जिसका अर्थ यह है कि उद्यमी अधिक लाभ प्राप्त करने हेतु उत्पादन के साधनों को अधिक रोजगार देंगे तथा उत्पादन का स्तर बढ़ायेंगे, जिसके फलस्वरूप राष्ट्रीय आय बढ़ेगी।
यह तब तक बढ़ेगी, जब तक कि आय के संतुलन बिन्दु तक न पहुँच जाएँ। इसके विपरीत, यदि आयस्तर ₹ 400 करोड़ से अधिक है तो लोग उद्यमियों को प्राप्त होने वाली न्यूनतम राशि से कम व्यय करने को तैयार हैं अर्थात् माँग समस्त पूर्ति से कम होगी। इस स्थिति में उद्यमियों को हानि उठानी होगी, क्योंकि उनका पूरा उत्पादन नहीं बिक सकेगा। ऐसी स्थिति में आय तथा रोजगार का संतुलन उस बिन्दु पर आधारित होगा, जहाँ पर समग्र माँग तथा समग्र पूर्ति एक – दूसरे के बराबर होगी।
रेखाचित्र द्वारा स्पष्टीकरण –
प्रस्तुत रेखाचित्र में समग्र माँग वक्र, समग्र पूर्ति वक्र को बिन्दु E पर काटता है। इस बिन्दु पर आय का। संतुलन स्तर ₹ 400 करोड़ निर्धारित होता है। आय में हुए किसी प्रकार के परिवर्तन की आय के संतुलन स्तर की ओर आने की प्रवृत्ति होगी। रेखाचित्र का निचला भाग (भाग – B) आय के इसी स्तर पर बचत और विनियोग को प्रदर्शित करता है। आय के संतुलन – स्तर पर समग्र माँग की मात्रा को कीन्स ने प्रभावपूर्ण माँग कहा है। कीन्स के अनुसार “सामूहिक माँग या समग्र माँग वक्र के जिस बिन्दु पर सामूहिक पूर्ति या समग्र पूर्ति वक्र उसे काटता है, उस बिन्दु का मूल्य ही प्रभावपूर्ण माँग कहलायेगा।”
प्रश्न 5.
उपभोग प्रवृत्ति को निर्धारित करने वाले पाँच तत्व लिखिए?
उत्तर:
उपभोग प्रवृत्ति को निर्धारित करने वाले तत्व निम्नलिखित हैं –
- मौद्रिक आय: समाज में रहने वाले व्यक्तियों की जब मौद्रिक आय बढ़ जाती है, तो उपभोग प्रवृत्ति भी बढ़ जाती है। इसके विपरीत मौद्रिक आय में कमी होने पर उपभोग प्रवृत्ति भी घट जायेगी।
- राजस्व नीति: यदि सरकार करों की दरों में वृद्धि करती है तो उपभोग प्रवृत्ति घट जाएगी और यदि कल्याणकारी योजनाओं पर अधिक व्यय करती है तो उपभोग प्रवृत्ति में वृद्धि हो जायेगी।
- ब्याज की दर: ब्याज की दर में वृद्धि होने पर लोग उपभोग में कमी करेंगे और बचत में वृद्धि करेंगे। इसके विपरीत ब्याज की दर में कमी आने पर बचत कम होगी और उपभोग प्रवृत्ति में वृद्धि होगी।
- आय का वितरण: समाज में आय का वितरण असमान होने पर उपभोग प्रवृत्ति कम होती है और समाज में यदि आय का वितरण समान है तो उपभोग प्रवृत्ति में वृद्धि होगी।
- प्रदर्शन प्रभाव: जिन राष्ट्रों में समाज में प्रदर्शन प्रभाव या दिखावा अधिक होता है वहाँ के लोगों में उपभोग प्रवृत्ति अधिक होता है।
प्रश्न 6.
पूर्ण रोजगार एवं अनैच्छिक बेरोजगारी की धारणा पर प्रकाश डालिए?
उत्तर:
1. पूर्ण रोजगार से आशय:
साधारण अर्थों में पूर्ण रोजगार से आशय, उस स्थिति से है, जिसमें कोई भी व्यक्ति बेरोजगार न हो, श्रम की माँग और पूर्ति बराबर हो। समष्टि अर्थशास्त्र के आधार पर, पूर्ण रोजगार से आशय है, किसी दिए हुए वास्तविक मजदूरी स्तर पर श्रम की माँग, श्रम की उपलब्ध पूर्ति के बराबर होती है।
परंपरावादी परिभाषा:
लर्नर के अनुसार “पूर्ण रोजगार वह अवस्था है जिसमें वे सब लोग जो मजदूरी की वर्तमान दरों पर काम करने के है योग्य तथा इच्छुक हैं, बिना किसी कठिनाई के काम प्राप्त करते हैं।”
आधुनिक परिभाषा:
स्पेन्सर के अनुसार, “पूर्ण रोजगार वह स्थिति है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति जो काम करना चाहता है, काम कर रहा है सिवाय उनके जो संघर्षात्मक तथा संरचनात्मक बेरोजगार हैं।” उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि पूर्ण रोजगार की स्थिति शून्य बेरोजगारी की स्थिति नहीं है। यह बेरोजगारी की प्राकृतिक दर की स्थिति है।
2. अनैच्छिक बेरोजगारी:
अनैच्छिक बेरोजगारी वह स्थिति है, जिसमें लोगों को रोजगार के अवसर के अभाव में बेरोजगार रहना पड़ता है। जब लोग मजदूरी की वर्तमान दर पर काम करने को तैयार हैं, लेकिन उन्हें काम नहीं मिलता तो उसे अनैच्छिक बेरोजगारी कहा जाता है।
प्रस्तुत रेखाचित्र में E बिन्दु पूर्ण रोजगार की बिन्दु है। इस बिन्दु पर श्रम की माँग व पूर्ति दोनों बराबर हैं। किन्तु ON2, मजदूरी पर ON, श्रमिक काम करने को इच्छुक हैं । जबकि उत्पादकों द्वारा केवल ON2, श्रमिकों की माँग की जाएगी। इस प्रकार N,N2, श्रम की मात्रा अनैच्छिक रूप से बेरोजगार कहलाएगी।
प्रश्न 7.
अभावी माँग का देश के उत्पादन, रोजगार एवं मूल्यों पर प्रभाव बताइए?
उत्तर:
1. अभावी माँग का उत्पादन पर प्रभाव:
यदि अर्थव्यवस्था में कुल पूर्ति की तुलना में कुल माँग कम हो तो इसका आशय यह होगा कि देश में वस्तुओं एवं सेवाओं की जितनी मात्रा उपलब्ध है, उतनी माँग नहीं है। इससे अर्थव्यवस्था में कुल उत्पादन पर पड़ने वाले प्रभाव निम्न हैं –
- माँग की कमी के कारण उत्पादक वस्तुओं का उत्पादन घटाने के लिए बाध्य होंगे।
- इस कारण वे अपनी वर्तमान उत्पादन क्षमता का पूर्ण उपयोग नहीं कर पायेंगे।
- इसका प्रभाव यह होगा कि देश की उत्पत्ति के साधनों का पूर्ण उपयोग नहीं हो पायेगा।
- इसके कारण कुछ वर्तमान फर्मे अपना कार्यकी बन्द करना शुरू कर देगी तथा कई फर्मे बाजार में प्रवेश नहीं कर पायेंगी –
- परिणामस्वरूप उत्पादन की लागत में वृद्धि हो जायेगी।
2. अभावी माँग का रोजगार पर प्रभाव:
जब किसी अर्थव्यवस्था में अभावी माँग (माँग की कमी) की स्थिति होती है, तो उसका देश के रोजगार स्तर पर निम्न प्रभाव पड़ता है –
- माँग की कमी के कारण उत्पादकों को वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन में कमी करनी पड़ेगी, जिससे देश में रोजगार स्तर में कमी आ जायेगी, क्योंकि उन्हें आवश्यक मात्रा में उत्पादन करने के लिए पहले से कम श्रमिकों की आवश्यकता पड़ेगी।
- यदि देश में अपूर्ण रोजगार की स्थिति है तो इसका प्रभाव यह होगा कि कुछ लोगों को रोजगार से हाथ धोना पड़ेगा।
- यदि देश में पहले से ही अल्प रोजगार की स्थिति है तो इसका अर्थ यह होगा कि यह स्थिति और विकट हो जायेगी।
3. अभावी माँग का मूल्यों पर प्रभाव:
जब किसी अर्थव्यवस्था में अभावी माँग की स्थिति होती है तो उसका अर्थव्यवस्था की कीमतों पर निम्न प्रभाव पड़ता है –
- यदि देश कुल माँग, कुल पूर्ति की तुलना में कम है तो इसका सामान्य प्रभाव यह होगा कि देश में मूल्य – स्तर में कमी आ जायेगी।
- मूल्य – स्तर में कमी आने से उत्पादकों के लाभ के अन्तर में कमी आ जायेगी।
- इस स्थिति का लाभ उपभोक्ताओं को मिलेगा, क्योंकि उन्हें कम मूल्य पर वस्तुएँ एवं सेवाएँ प्राप्त हो सकेंगी।
प्रश्न 8.
प्रभावपूर्ण माँग के निर्धारण को समझाइए?
उत्तर:
किसी अर्थव्यवस्था में एक वर्ष में आम जनता द्वारा वस्तुओं एवं सेवाओं पर किया जाने वाला कुल व्यय जो उपभोग की मात्रा को प्रदर्शित करता है प्रभावपूर्ण समग्र माँग कहलाती है।
प्रभावपूर्ण समग्र माँग दो तत्वों पर निर्भर करती है –
- उपभोग माँग
- निवेश माँग।
उपभोग माँग वक्र आय के बढ़ने से ऊपर की ओर चढ़ता है और आय के घटने से गिरता है लेकिन इसे प्रवृत्ति के स्थिर रहने की दशा में सीमांत उपभोग प्रवृत्ति घटने से उपभोग माँग गिरता हुआ दिखाई देता है। इसी प्रकार विनियोग माँग ब्याज की दर एवं पूँजी की सीमांत उत्पादकता पर निर्भर करती है। ब्याज दर कम है तो निवेश की माँग अधिक होगी एवं ब्याज दर अधिक है तो निवेश की माँग कम होगी।
प्रश्न 9.
प्रभावपूर्ण माँग का महत्व बताइये? (कोई चार बिन्दु)
उत्तर:
प्रभावपूर्ण माँग का महत्व
1. रोजगार का निर्धारण:
कीन्स के अनुसार, रोजगार की मात्रा प्रभावपूर्ण माँग पर निर्भर करती है और कुल माँग, कुल आय के बराबर होती है, अतः रोजगार की मात्रा एक ओर उत्पादन की मात्रा को निर्धारित करती है तथा दूसरी ओर उत्पन्न होने वाली आय को भी निर्धारित करती है।
2. आय की प्राप्ति:
प्रभावपूर्ण माँग आय का भी निर्धारण करता है। प्रभावपूर्ण माँग से श्रमिकों को रोजगार की प्राप्ति होती है। रोजगार प्राप्ति से श्रमिकों को आय की प्राप्ति होती है वह प्रभावपूर्ण माँग का ही परिणाम है।
3. विनियोग का महत्व:
प्रभावपूर्ण माँग विनियोग का भी निर्धारण करता है। प्रभावपूर्ण माँग के कारण उत्पादकों को उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन मिलता है। उत्पादन में वृद्धि करने के लिए विनियोगकर्ता या उत्पादक नये – नये पूँजीगत संसाधनों में विनियोग करने के लिए प्रोत्साहित होते हैं।
4. पूर्ण रोजगार की मान्यता का खण्डन:
प्रभावपूर्ण माँग पूर्ण रोजगार की मान्यता का भी खण्डन करता है। पूर्ण रोजगार का तात्पर्य है कार्य करने योग्य सभी व्यक्तियों को प्रचलित मजदूरी पर रोजगार की प्राप्ति होना। लेकिन वास्तव में व्यावहारिक जीवन में रोजगार की प्राप्ति प्रभावपूर्ण माँग पर निर्भर करता है।
प्रभावपूर्ण माँग बढने पर रोजगार में वृद्धि होती है, लोगों को रोजगार प्राप्त होता है जिससे धीरे – धीरे बेरोजगारी कम होती है। इसके विपरीत प्रभावपूर्ण माँग में कमी होने से रोजगार का स्तर घटने लगता है। समाज में बेरोजगारी फैलती है। तब इन परिस्थितियों में चाहे कितना भी योग्य व्यक्ति या श्रमिक हो उसकी छटनी होने लगती है और वे बेरोजगार हो जाते हैं। वैसे भी व्यावहारिक जीवन में पूर्ण रोजगार की मान्यता नहीं पायी जाती।
प्रश्न 10.
अभावी माँग का क्या आशय है तथा अभावी माँग के उत्पन्न होने के क्या कारण हैं?
उत्तर:
अभावी माँग का अर्थ:
अभावी माँग से अभिप्राय, उस स्थिति से है, जब पूर्ण रोजगार स्तर पर कुल माँग, कुल पूर्ति से कम होती है। अर्थात् जब अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार स्तर बनाये रखने के लिए जितना व्यय आवश्यक होता है, उतना नहीं होता तो इसे अभावी माँग की स्थिति कहेंगे। ऐसी स्थिति में, कुल माँग व कुल पूर्ति रोजगार स्तर से पूर्व ही बराबर (संतुलन) होती है अर्थात् कुल माँग पूर्ण रोजगार स्तर बनाये रखने के लिए कम होती है। अभावी माँग के कारण – किसी भी अर्थव्यवस्था में अभावी माँग की स्थिति निम्नलिखित कारणों से उत्पन्न हो सकती है –
1. सरकार द्वारा करेंसी की पूर्ति में कमी या बैंकों द्वारा साख निर्माण को घटाना:
जब देश का केन्द्रीय बैंक चलन में मुद्रा की मात्रा कम कर देता है तो इसके कारण मुद्रा व साख की मात्रा कम हो जाती है। अतः इसके कारण कुल व्यय, कुल आय से कम हो जाती है, जिसके कारण अभावी माँग उत्पन्न हो जाती है।
2. बचत प्रवृत्ति में वृद्धि के कारण उपभोग माँग में कमी:
सामूहिक माँग (समग्र माँग) के कम होने के कारण वस्तुओं व सेवाओं की कीमत में कमी आने लगती है जिसके कारण मुद्रा का मूल्य बढ़ जाता है। अत: व्यक्ति मुद्रा का संचय अधिक करते हैं और व्यय कम करते हैं।
3. करारोपण नीति:
जब सरकार अपने कर नीति में कर की दर वस्तुओं व व्यक्तियों पर अत्यधिक लगाती है तो स्वाभाविक है कि लोगों की उपभोग व्यय की प्रवृत्ति कम हो जाती है और अभावी माँग उत्पन्न हो जाती है।
4. सार्वजनिक व्यय में कमी:
जब सरकार अपने व्ययों में कटौती करती है और योजनागत व्यय या उत्पादकीय कार्यों को भी कम करना प्रारंभ कर देती है, तो सामूहिक माँग कम हो जाती है और अभावी माँग की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
5. मुद्रा के चलन वेग में कमी:
व्यक्तियों की उपभोग प्रवृत्ति घटने और लाभ की आशा कम होने के कारण मुद्रा का चलन वेग घट जाता है और समस्त माँग कम हो जाती है जिसके कारण अभावी माँग उत्पन्न हो जाती है।
प्रश्न 11.
अत्यधिक माँग से क्या आशय है? इसके कारणों पर प्रकाश डालिए?
उत्तर:
किसी भी अर्थव्यवस्था में रोजगार एवं आय का संतुलन उस पर होता है, जहाँ पर कुल माँग एवं कुल पूर्ति बराबर हो। अर्थात् यह आवश्यक नहीं है कि कुल माँग व कुल पूर्ति सदैव बराबर हो। कभी कुल माँग अधिक होती है तो कभी कुल पूर्ति। जब कुल पूर्ति माँग अधिक होती और कुल पूर्ति कम होती है तो इस स्थिति को अत्यधिक माँग कहते हैं।
उदाहरणार्थ, मान लीजिए कि किसी अर्थव्यवस्था में एक निश्चित समयावधि पर कुल माँग ₹ 500 करोड़ है। अब यदि इसकी कुल पूर्ति भी ₹ 500 करोड़ है तो यह कहा जाएगा कि अर्थव्यवस्था संतुलन की स्थिति में है। अब कल्पना कीजिए कि कुल पूर्ति केवल ₹ 400 करोड़ है तो इसका अर्थ यह होगा कि कुल माँग, कुल पूर्ति की तुलना में ₹ 100 करोड़ अधिक है। इसी को अत्यधिक माँग कहते हैं। कीन्स के शब्दों में “अत्यधिक माँग वह स्थिति है जबकि वर्तमान कीमतों पर वस्तुओं और सेवाओं की कुल माँग उपलब्ध कुल पूर्ति से बढ़ जाती है।”
अत्यधिक माँग के कारण:
अत्यधिक माँग के निम्नलिखित कारण हैं –
1. मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि:
अर्थव्यवस्था में मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि होने से और उत्पादन की मात्रा में वृद्धि न होने के कारण देश में माँग प्रेरित मुद्रा स्फीति उत्पन्न होती है।
2. प्रयोज्य आय में वृद्धि:
जब लोगों की प्रयोज्य आय में वूद्धि होती है तो भी उपभोग व्यय में वृद्धि हो जाती है। परिणामस्वरूप मुद्रा स्फीति की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
3. घाटे की वित्त व्यवस्था:
वर्तमान समय में कल्याणकारी सरकारें घाटे की वित्त व्यवस्था अपनाकर सार्वजनिक व्यय में वृद्धि करती है, तो लोगों के पास एक ओर उपभोग आय में वृद्धि हो जाती है और दूसरी ओर वस्तुओं के न होने के
कारण अत्यधिक माँग की स्थिति उत्पन्न हो जाती है और मूल्य में वृद्धि हो जाती है।
4. विनियोग में वृद्धि:
व्यावसायिक फर्मे ऋण प्राप्त करके नये उपकरणों, मशीनों तथा अन्य क्षेत्रों में विनियोग में वृद्धि करती हैं जिसके परिणामस्वरूप माँग में वृद्धि होती है।
5. वस्तुओं का विदेशों में निर्यात:
वस्तुओं का विदेशों में निर्यात के कारण भी अर्थव्यवस्था में पूर्ति की कमी और माँग में अतिरेक की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, परिणामस्वरूप मूल्य – स्तर में वृद्धि होती है।
प्रश्न 12.
अत्यधिक माँग में सुधार के उपायों का वर्णन कीजिए?
उत्तर:
अत्यधिक माँग में सुधार के उपाय:
जव अर्थव्यवस्था में अत्यधिक माँग की दशा उत्पन्न हो जाती है तो उसे निम्नलिखित उपायों से ठीक किया जा सकता है –
(अ) मौद्रिक उपाय
(ब) राजकोषीय उपाय एवं
(स) अन्य उपाय।
(अ) मौद्रिक उपाय:
अत्यधिक माँग को ठीक करने के लिए कुल मुद्रा पूर्ति को कम करना चाहिए। इस दृष्टिकोण से निम्नलिखित उपाय हैं –
1. मुद्रा निर्गम संबंधी नियमों को कठोर बनाना:
अत्यधिक माँग को ठीक करने के लिए यह आवश्यक है कि सरकार मुद्रा निकालने संबंधी नियमों को कड़ा करें ताकि केन्द्रीय बैंक को अतिरिक्त मुद्रा निकालने में अधिक कठिनाई हो।
2. पुरानी मुद्रा वापस लेकर नई मुद्रा देना:
अत्यधिक माँग की दशा में साधारण उपचार उपयोगी नहीं हो सकते, अतः पुरानी सब मुद्राएँ समाप्त कर उनके बदले में नई मुद्राएँ दे दी जाती हैं। प्रथम महायुद्ध के पश्चात् 1924 में जर्मनी की अनियंत्रित मुद्रा – स्फीति को समाप्त करने के लिये 10 खरब मुद्राओं के बदले में एक नयी मुद्रा दी गयी थी।
3. साख स्फीति को कम करना:
अत्यधिक माँग अथवा स्फीति को कम करने के लिए साख स्फीति को कम करना आवश्यक है इसके लिए केन्द्रीय बैंक द्वारा बैंक दर बढ़ाकर, प्रतिभूतियाँ बेचकर तथा बैंकों से अधिक कोष माँगकर, साख कम की
जा सकती है।
(ब) राजकोषीय उपाय:
इसमें निम्नलिखित उपाय हैं –
1. बचत का बजट बनाना:
अत्यधिक माँग की स्थिति में सरकार को बजट, बचत का बनाना चाहिए। इसका तात्पर्य है, जिससे सार्वजनिक व्यय की तुलना में सार्वजनिक आय अधिक होती है।
2. ऋण प्राप्ति:
अत्यधिक माँग को ठीक करने के लिए सरकार को ऋण पत्र बेचनी चाहिए और जनता को यह ऋण – पत्र खरीदने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।
3. बचतों को प्रोत्साहन:
अत्यधिक माँग को ठीक करने के लिए सरकार को बैंकों एवं डाकघरों के माध्यम से ऐसी नीतियाँ कार्यान्वित करनी चाहिए जिससे लोग बचत के लिए प्रोत्साहित हो। इसके लिए आकर्षक ब्याज की दर अपनानी चाहिए।
(स) अन्य उपाय:
अन्य उपाय इस प्रकार हैं –
- अत्यधिक माँग को ठीक करने के लिए आयात में वृद्धि और निर्यात में कमी करनी चाहिए।
- अत्यधिक माँग को ठीक करने के लिए उद्योगों में उचित विनियोग नीति अपनायी जानी चाहिए।
- सरकार को मूल्यों में सहायता करनी चाहिए।
प्रश्न 13.
“किसी रेखा में पैरामेट्रिक शिफ्ट” से आप क्या समझते हैं? रेखा में किस प्रकार शिफ्ट होता है जब इसकी
- ढाल घटती है और
- इसके अंतः खंड में वृद्धि होती है।
उत्तर:
हम दो सरल रेखाएँ लेते हैं, जो एक – दूसरे की अपेक्षा अधिक खड़े ढाल वाली हैं। सत्ताएँ: और m को आरेख का पैरामीटर कहते हैं। जैसे – जैसे m बढ़ता है सरल रेखा ऊपर की ओर बढ़ती है। इसे सरल रेखा में पैरामैट्रिक शिफ्ट कहते हैं।
1. ढाल घटती है:
y = mx + ε के रूप में ε सरल रेखीय समीकरण को दर्शाने वाले आरेख पर क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर अक्षों पर x और y दो परिवर्तों को रेखाचित्र में दर्शाया गया है। यहाँ m सरल रेखा की प्रवणता (ढाल) है और Σ ऊर्ध्वाधर अक्ष पर अन्तः खण्ड है। जब x में एक इकाई की वृद्धि होती है, तो y के मूल्य 10 में m इकाइयों की वृद्धि हो जाती है। जब रेखा की 5प्रवणता (ढाल) घटती है, तो सरल रेखा में ऋणात्मक शिफ्ट होता है। निम्नांकित चित्र से स्पष्ट हो रहा है कि जैसे – जैसे m का। मूल्य घट रहा है अर्थात् m का मूल्य 1 से कम करके 0.5 करने पर। सरल रेखा नीचे की ओर शिफ्ट हो रही है जिससे इसकी ढाल घट जाती है। इसे पैरामैट्रिक शिफ्ट कहते हैं।
2. रेखा के अन्तः खण्ड में वृद्धि होती है:
जब सरल रेखा के अंत:खण्ड में वृद्धि होती है तब सरल रेखा समान्तर रूप से शिफ्ट होती है। यदि समीकरण y = 0.5 x + Σ में का मान 2 से बढ़ाकर 3 कर दिया जाये तो सरल रेखा समान्तर रूप से ऊपर की ओर शिफ्ट हो जायेगी। इसे निम्न चित्र में दर्शाया गया है –
रेखाचित्र में Σ के अंत:खण्ड में 2 से 3 तक वृद्धि करने पर सरल रेखा समान्तर रूप से ऊपर की ओर शिफ्ट हो जाती है।
प्रश्न 14.
कीन्स के रोजगार सिद्धांत को समझाइये?
उत्तर:
कीन्स का रोजगार सिद्धांत:
कोन्स ने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘सामान्य सिद्धांत’ में आय एवं रोजगार के सामान्य सिद्धांत का क्रमबद्ध एवं वैज्ञानिक विश्लेषण किया है। तीसा को महामन्दी (सन् 1930) में इन्होंने अपने सिद्धांत का प्रतिपादन किया था। उनके अनुसार एक अर्थव्यवस्था में आय एवं रोजगार का स्तर मुख्य रूप से प्रभावपूर्ण माँग’ के द्वारा निर्धारित होता है। प्रभावपूर्ण माँग में कमी ही बेरोजगारी का कारण होता है किन्तु प्रभावपूर्ण माँग का निर्धारण दो तत्वों के द्वारा होता है –
- सामूहिक माँग और
- सामूहिक पूर्ति।
सामूहिक पूर्ति और सामूहिक माँग जहाँ एक – दूसरे के बराबर होते हैं, वहीं साम्य बिन्दु प्रभावपूर्ण माँग का बिन्दु भी होता है। इसी प्रभावपूर्ण माँग के बिन्दु पर अर्थव्यवस्था में उत्पादन की मात्रा तथा रोजगार की कुल संख्या का निर्धारण होता है। अत: कीन्स का रोजगार का सिद्धांत समझने के लिए निम्न रेखाचित्र को समझना होगा –
प्रभावपूर्ण माँग = कुल उत्पादन = कुल आय = रोजगार
उक्त अनुसार उत्पादन प्रभावपूर्ण माँग के कारण होता है, माँगें कुल माँग द्वारा शासित होती हैं।