MP Board Class 11th Special Hindi सहायक वाचन Solutions Chapter 2 सवा सेर गेहूँ

सवा सेर गेहूँ अभ्यास प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लिखिए

प्रश्न 1.
सवा सेर गेहूँ उधार लेने के बाद शंकर को क्या-क्या कष्ट सहने पड़े? (2009, 13, 15)
उत्तर:
प्रस्तावना :
अतिथियों की सेवा और भक्ति के लिए शंकर, एक दिन अपने घर पर आए हुए महात्माओं को भोजन कराने के लिए गाँव के महाराज से सवा सेर गेहूँ लेकर आया। उसकी पत्नी ने गेहूँ पीसे और गेहूँ के आटे का भोजन उन महात्माओं को कराया। अगले दिन प्रात:काल महात्मा तो आशीर्वाद देकर चलते बने। लेकिन शंकर की घरेलू दशा इस तरह खराब हुई कि उस पर आठ-आठ आँसू रोना आता है। क्योंकि महाराज के सवा सेर गेहूँ साढ़े पाँच मन में बदल गये थे।

पारिवारिक विघटन :
शंकर का छोटा भाई मंगल अलग हो गया। घर का बँटवारा हो गया। साथ रहकर दोनों किसान थे। अब दोनों ही मजूर (मजदूर) हो गए। चूल्हे अलग-अलग जलने लगे। भाई-भाई शत्रु बन गए। प्रेम, खून और दूध के बन्धन टूट गए। कुल मर्यादा का स्थापित वृक्ष सूखने लगा। कई दिन तक शंकर को भूख-प्यास और नींद नहीं आई। शारीरिक रूप से दुर्बल हो गया। बीमारी ने जकड़ लिया। खेती केवल मर्यादा भर के लिए रह गई थी।

शंकर :
एक बन्धुआ मजदूर-महाराज से महाजन बने महाराज के यहाँ ऋण न चुका पाने की दशा में शंकर को बंधुआ मजदूर होना पड़ा। उसे आधा सेर जौ प्रतिदिन, एक कम्बल और मिरजई वर्ष में एक बार दिया जाने लगा।

उपसंहार :
शंकर को बीस वर्ष तक बंधुआ मजदूर की तरह काम करना पड़ा महाराज महाजन के यहाँ, फिर भी एक सौ बीस रुपये का ऋण उसके सिर बाकी रहा। शंकर के जवान बेटे को गरदन पकड़कर उस ऋण की अदायगी के लिए बंधुआ मजदूर बनाया गया। जब तक. शंकर जीवित रहा तब तक महाराज के सवा सेर गेहूँ किसी देवता के अभिशाप के दाने की तरह उसके सिर से नहीं उतरे।

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प्रश्न 2.
‘महाराज’ के चरित्र की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
महाराज :
एक सहायक के रूप में-शंकर के गाँव का महाराज गाँव के लोगों की सहायता आवश्यकता पड़ने पर किया करता था। शंकर को जब गेहूँ की जरूरत पड़ी तो वह उसे सवा सेर गेहूँ देता है और उसकी सहायता समय पर कर देता है।

खलिहानी लेने वाला महाराज :
महाराज अपने गाँव के किसानों से वर्ष में दो बार खलिहानी माँगने जाता है। प्रत्येक किसान आदरपूर्वक श्रद्धा से खलिहानी में अच्छी तौल का अन्न देते हैं। शंकर तो उसे बेहिसाब खलिहानी देता है।

गाँव का अकेला महाजन महाराज :
गाँव के किसी भी जरूरतमंद व्यक्ति की सहायता अन्न या धन देकर करता रहता है। गाँव में वह ऐसा अकेला ही व्यक्ति है, जो सभी किसानों की जरूरत के समय सहायता करने को तैयार रहता है। लेकिन सभी से ऊँचे दर का मूद वसूल करता है।

लोभी लालची महाजन :
शंकर के गाँव का महाजन लोभी और लालची है। वह किसी भी व्यक्ति को अपने लालच के चंगुल में फंसाकर उसे शीघ्र मुक्ति नहीं देता। स्वयं शंकर उससे सवा सेर गेहूँ उधार लेता है। सात वर्ष में उस सवा सेर गेहूँ का साढ़े पाँच मन गेहूँ के ऋण का बोझ शंकर पर डाल देता है। जीवन भर उसके ऋण को शंकर चुका नहीं पाता।

निर्दयी और कठोर हृदय महाराज :
महाराज सूदखोर होने के साथ-साथ निर्दयी भी है और कठोर हृदय भी। शंकर के बीमार होने की दशा में भी वह उसे अपने यहाँ काम करने से मुक्ति नहीं देता है। अन्त में शंकर इस संसार से विदा लेता है। उसके बाद भी एक सौ बीस रुपये का ऋण शेष बताकर उसके (शंकर के) जवान बेटे को भी बंधुआ मजदूरी करने के लिए पकड़ लेता है। उसमें दीन-दुःखियों के प्रति कोई भी सहृदयता और सहानुभूति नहीं है।

एहसान न मानने वाला बेईमान महाराज :
शंकर अपने खेतों से महाराज को जी खोलकर खलिहानी देता है। वह सोचता है कि मैं इनके सवा सेर गेहूँ को अलग से क्या दूँ? वह सोचता है कि महाराज भी इसी तरह समझ लेंगे, जिस तरह मैं सोच रहा हूँ। लेकिन शंकर की उदारता का लाभ वह महाराज लेता रहा और उसके ऊपर सवा सेर गेहूँ के बदले साढ़े पाँच मन गेहूँ के ऋण का बोझ रख दिया। महाराज एहसान फरामोश और बेईमान व्यक्ति है।

लोगों की श्रद्धा और भक्ति का लाभ लेना :
महाराज शंकर के गाँव के सभी किसानों की श्रद्धा और भक्ति की भावना का लाभ स्वयं लेता रहा। प्रत्येक किसान उस महाराज को वर्ष में खेती पकने पर दो बार खलिहानी देते हैं। वे उसके प्रति अंधी भक्ति रखते हैं। उन लोगों को अगले जन्म में ऋण चुकता करने का भय दिखाकर सरल और उदार हृदय लोगों का शोषण करता है।

उपसंहार :
शंकर के गाँव का महाराज एक चालाक, धोखेबाज, सूदखोर व्यक्ति है जो प्रत्येक क्षण लोगों के शोषण का नया मार्ग अपनाता रहता है।

प्रश्न 3.
“शंकर एक गरीब किसान होते हुए भी समस्याओं से कभी घबराता नहीं था।” उदाहरण देकर समझाइए।
उत्तर:
प्रस्तावना :
शंकर गाँव का किसान है। सीधा सादा व्यक्ति है। आहार-व्यवहार में भी भोला-भाला। वह यदि ठगा भी गया, तो भी खुश ही रहा। भाग्य और जन्म-जन्मान्तर के खेल में वह विश्वास करता था। उसके दरवाजे पर आये हुए अतिथि भगवान होते थे। उनकी खातिर में सब कुछ खर्च कर देता था। वह विश्वास करता था कि ‘साधु न भूखा जाय’, का सिद्धान्त उसके लिए सर्वोपरि था।

महात्माओं का आना :
शंकर के घर में आर्थिक तंगी थी। दोनों समय भोजन मिलने में भी कोताही। परन्तु महात्माओं के लिए गाँव के महाराज से सवा सेर गेहूँ उधार लाया और फिर उन अतिथियों को छककर भोजन कराया गया। महात्मा आशीष देकर विदा हुए।

सवा सेर गेहूँ का ऋण बना पहाड़ जैसा भार :
शंकर गाँव के महाराज को खलिहानी में वर्ष में दो बार अन्न देता रहा। वह भी पाँच सेर से बढ़कर। फिर भी महाराज ने अपने सवा सेर गेहूँ के ऋण को द्रोपदी का चीर बना दिया। अपने सवा सेर गेहूँ के बदले उसने शंकर पर साढ़े पाँच मन गेहूँ का ऋण लाद दिया।

बंधुआ मजदूर बना शंकर :
शंकर महाराज के ऋण को चुकाने की स्थिति में नहीं रहता। सूद के रूप में वह मजदूर बनकर महाराज के यहाँ काम करता है। घर के खर्चे के लिए उसकी पत्नी और बच्चे मजदूरी करते हैं। इतना सब कुछ होने की दशा में शंकर बिल्कुल भी नहीं घबराता। महाराज की प्रत्येक बात को अपना संस्कार और पूर्वजन्म का प्रभाव समझकर स्वीकार कर लेता है।

शंकर का अन्त और पुत्र का बंधुआ मजदूर होना :
शंकर महाराज के यहाँ बीस वर्ष तक बंधुआ मजदूर की तरह कार्य करता है। अन्त में उसकी मृत्यु हो जाती है। फिर भी “एक सौ बीस रुपये” का ऋण अपने सिर छोड़कर दूसरी दुनिया में चला जाता है। महाराज उसके जवान बेटे को गरदन पकड़कर अपने घर बंधुआ मजदूर बनाकर रखता है।

उपसंहार :
इस दुनिया में शंकर जैसे परिश्रमी, ईमानदार लोग पूर्व संस्कारों और अगले जन्म के भय के वशीभूत होकर सवा सेर गेहूँ के ऋण को किसी देवता के “अभिशाप के दाने की तरह” भोगते रहते हैं।

प्रश्न 4.
“यह कहानी प्राचीन भारत में किसानों के होने वाले शोषण को उजागर करती है।” इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
उत्तर:
प्रस्तावना-शंकर एक गरीब किसान अपने गाँव में कृषि करता है। वे दो भाई हैं। उसका दूसरा भाई मंगल है। दोनों भाइयों का परिवार सन्तोष और धैर्य से गरीबी में भी एक इज्जतदार कृषक परिवार के सम्मान को पाया हुआ है। दो बैलों से किसानी करते हैं। निर्धनता का यह आलम है कि शंकर को भोजन मिला तो खाया, न भी मिला तो भला, चना-चबैना से गुजर हुई-पानी पिया सो गया। ‘राम’ का जाप करते नींद आयी।

लेकिन उस शंकर में अतिथियों, महात्माओं के प्रति बड़ी श्रद्धा थी, भक्ति थी। उनके आने पर उनका आतिथ्य अच्छे भोजन से कराया जाना नहीं भूलता। वह स्वयं भूखा सो सकता था, लेकिन साधू को कैसे भूखा सुलाता क्योंकि भगवान के भक्त जो ठहरे।

एक दिन संध्या समय कुछ साधु-महात्मा आए। सन्ध्या समय भोजन आदि का इन्तजाम करने की चिन्ता में शंकर गाँव में गया। किसी ने भी गेहूँ का आटा नहीं दिया। देते भी कहाँ से, उनके घर में जौ के अलावा कोई अन्य अन्न होता ही नहीं। चिन्तित शंकर को गाँव के महाराज के यहाँ से सवा सेर गेहूँ उधार मिल गए। उसकी पत्नी ने गेहूँ पीसा और साधु महात्माओं को भोजन कराया। प्रातः हुई और महात्मा आशीष देकर चले गये।

महाराज रूपी महाजन :
शंकर ने महाराज को खलिहानी के रूप में कुछ ज्यादा खलिहानी दे देना उचित समझा कि सवा सेर गेहूँ क्या लौटाऊँ ? पसेरी के बदले कुछ ज्यादा ही खलिहानी दे दी गई। वर्ष में दो बार खलिहानी उगाहने का रिवाज इन महाराज महोदय ने पनपा लिया था। प्रति किसान दो बार खलिहानी से वर्ष में काफी अन्न प्राप्त होता रहा। ये लोग बिना परिश्रम किए ही मुफ्त में अन्न धन प्राप्त करते रहे। ये सब होता था किसानों की उदारता और दरियादिली के कारण।

शोषण की स्थिति :
कृषक के कृषि उत्पादन पर न जाने कितने प्रकार की रीति-रिवाजों और सामाजिक व्यवस्था के चलते निकम्मे लोगों के पोषण का भार होता था। इसका प्रभाव सीधा कृषक की आर्थिक दशा पर पड़ता था। कथित महाराज भी इन्हीं निकम्मे लोगों का प्रतीक है जिसने शंकर जैसे सीधे भोले-भाले कृषक को अपने चंगुल में फंसाया हुआ है।

शंकर को दिए गये सवा सेर गेहूँ का ऋण जीवन के बीस वर्ष तक बंधुआ मजदूर के रूप में महाराज के यहाँ मजदूरी करते-करते चुकता नहीं होता है। उसे अगले जन्म में चुकाने का भय दिखाकर, शंकर जैसे भोले और अशिक्षित किसानों को चतुर चालाक निकम्मे व्यक्ति ठगते रहते हैं।

महाराज से बना महाजन सवा सेर गेहूँ के बदले साढ़े पाँच मन गेहूँ का ऋण वसूलता है। सूद में सारे जीवन भर मजदूरी कराता है, बेगार लेता है। अन्त में बीस वर्ष की बंधुआ मजदूरी में, रोगी होकर, तिल-तिल जलती जिन्दगी से मुक्ति पाता हुआ शंकर दूसरी दुनिया में चला जाता है।

तात्पर्य है कि किसान ऋण में ही पैदा हुआ, ऋण में ही जीवन जीता रहा और ऋण में ही मृत्यु को प्राप्त हुआ। फिर भी ऋण का चुकता नहीं हुआ। शंकर सम्पूर्ण किसान जाति का प्रतीक है। महाराज रूपी महाजन उसके जवान पुत्र को भी एक सौ बीस रुपये का ऋण जिसे उसका बाप चुका नहीं पाया, बंधुआ मजदूर के रूप में चुकाने को मजबूर करता है।

अतः किसान का शोषण अन्तहीन हो गया। वह ऋण पीढ़ी-दर-पीढ़ी चुकाने के लिए ये महाराज रूपी महाजन अपने जाल बुनते रहते थे।

उपसंहार :
“यह कहानी प्राचीन भारत में किसानों के ऊपर होने वाले शोषण को उजागर करती है” इस कथन से हम पूर्णतः सहमत हैं। भारत के कुछ क्षेत्रों में यह शोषण अभी भी चालू है। सरकार इस तरह के शोषण के विरुद्ध सख्त कार्यवाही करे और ऐसे कदम उठाए जिससे किसानों को उनकी आवश्यकता का ऋण समय पर उपलब्ध हो सके। साथ ही किसानों को भी अपने भले-बुरे का ज्ञान होना चाहिए। उन्हें भी शिक्षित होकर इन महाजन रूपी दैत्यों के चंगुल से बचे रहने की कोशिश करनी चाहिए।

प्रश्न 5.
प्रस्तुत कहानी में आपको किस पात्र ने अधिक प्रभावित किया है? और क्यों? लिखिए।
उत्तर:
प्रस्तावना :
एक गाँव है किसानों का। प्रायः सभी कृषि कर्म करते हैं। अपने-अपने कार्य में लगे रहकर, दीनता की पराकाष्ठा तक पहुँचकर भी स्वयं को धन्य, संतुष्ट और भाग्यशाली समझते हैं। भाग्य भरोसे और जन्म-जन्मान्तर के भोग और संस्कारों का प्रतिफल मानते हुए इस जीवन के घोर नरकतुल्य अवसादों की जिन्दगी जीते हैं।

पात्र परिचय :
प्रस्तुत कहानी में-शंकर, महाराज (महाजन), महात्मा (अतिथि), मंगल (शंकर का भाई), शंकर की पत्नी, उसका बेटा और मंगल की पत्नी और बच्चे, सभी पात्र हैं जो भारतीय कृषक गाँवों के निवासी किसान हैं। सभी अशिक्षित, महाजन (महाराज) की ठगी के शिकार, साधु-महात्माओं के आतिथ्य में बढ़-चढ़कर सामर्थ्य से अधिक खर्च करके स्वयं को ईश भक्तों की कतार में खड़ा करने की होड़ वाले हैं। इनका प्रतीक पात्र शंकर है। शंकर अपनी सीधी-सादगी भरी जिन्दगी, कर्मठ, अशिक्षा के कारण ठगी का शिकार होता है। जीवन भर शोषित ही रहकर संसार से विदा लेता है। उसका परिवार विघटित हो जाता है। दोनों भाई इज्जतदार किसान से मजदूर होकर दैन्य जीवन गुजारते हैं। प्रतिष्ठा दाँव पर लगा दी जाती है।

उपर्युक्त निर्दिष्ट पात्रों में मुझे प्रभावित किया है शंकर ने। इस पात्र ने मुझे क्यों प्रभावित किया है-इसका उत्तर भी इसी शोषित शंकर की पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक दशा के चित्रण के संदर्भ में दे दिया जाएगा।

शंकर और मंगल निर्धन और शोषित कृषक परिवार के सदस्य हैं। लेकिन अपनी सीधी व सादगी भरी जिन्दगी की गाड़ी परिश्रम करके खींच रहे हैं। सामाजिक रूप से थोड़ा अधिक सम्मान पाने वाला अशिक्षित व्यक्ति दिखावे और बड़प्पन के चक्कर में पड़कर विपत्तियों और कष्टों को आमंत्रित करता रहता है। यही इस शंकर ने किया, स्वयं को अतिथि सत्कार करने में श्रेष्ठ, ईश भक्तों में श्रेष्ठ प्रदर्शित करने की आदत वाला अशिक्षित व्यक्ति साहूकारों से प्राप्त ऋण के चंगुल में पड़कर अपना सर्वस्व गँवा बैठता है।

महात्मा को गेहूँ का श्रेष्ठ भोजन कराने के चक्कर में सवा सेर गेहूँ का साढ़े पाँच मन गेहूँ हो जाता है और उस पहाड़ जैसे ऋण के चुकाने में सारा जीवन बंधुआ मजदूर के रूप में व्यतीत करता है। बड़े धैर्य से इसको सहन करते हुए अपनी पत्नी और पुत्र को भी ऋण चुकाने के चक्कर में कष्ट की चक्की में पिसने को मजबूर कर देता है।

यह शंकर ही है, जो प्रत्येक नई समस्या पैदा करता है अपने परिवार के लिए और स्वयं अविचलित होते हुए उस समस्याग्रस्त जीवन में फंसा रहता है। अपनी श्रेष्ठता को कायम रखने के कारण उसका और उसके भाई मंगल का आपसी विभाजन हुआ। स्वयं ने कड़े परिश्रम से परिवार के वृक्ष को रोपा, सींचा, बड़ा किया परन्तु अन्त में उसको काटने के लिए भी स्वयं महाजन के ऋण को अस्त्र रूप में प्रयोग करता है।

वर्ष में दो बार खलिहानी लेने वाला महाराज रूपी महाजन उसकी उदारता, सहृदयता, भोलेपन, श्रद्धा और भक्ति का लाभ उठाता है। शंकर ऐसे ठग की चालों में अपनी उदारता का प्रभाव देखना चाहता है। इसे चाहिए था पहली बार की ही खलिहानी पर सवा सेर गेहूँ अलग से अधिक दे देता है। परन्तु अपनी अव्यावहारिक नीति के कारण अपने परिवार के सदस्यों को भी कष्ट में झोंक देता है। स्वयं भी बीस वर्ष बंधुआ मजदूर की जिन्दगी भोगता हुआ चल बसता है।

उपर्युक्त सभी कारण ऐसे हैं जिनसे प्रभावित होकर शंकर सभी पाठकों का प्रिय पात्र बन जाता है। सभी इसके प्रति सहानुभूति रखते हैं।

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प्रश्न 6.
‘सवा सेर गेहूँ’ कहानी के आधार पर शंकर का चरित्र-चित्रण कीजिए।
अथवा
‘सवा सेर गेहूँ’ कहानी के आधार पर शंकर के चरित्र की दो विशेषताएँ लिखिए। (2017)
उत्तर:
प्रस्तावना :
‘सवा सेर गेहूँ’ मुंशी प्रेमचन्द की सामाजिक विरसता को अभिव्यक्ति देने वाली श्रेष्ठ कहानी है। कहानीकार ने इस कहानी में पात्रों का चयन एक खास वर्ग से किया है जिसकी करतूतों से समस्त भारतीय कृषक समुदाय सदैव से त्रस्त रहा है। आजादी के बाद लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था कायम होने के उपरान्त भी इस शोषक, शोषित और शोषण की अवस्था में कोई भी फर्क नहीं दीख पड़ा है। मुंशी प्रेमचन्द अपनी कहानियों में किसी एक समस्या को प्रधान रूप से इंगित करके जरूर चलते हैं लेकिन उसके परिप्रेक्ष्य में अन्य समस्याएँ उत्पन्न होकर समाज को जड़ समेत उखाड़ती-सी प्रतीत होती हैं।

शंकर एक प्रमुख पात्र :
‘सवा सेर गेहूँ’ कहानी का प्रमुख पात्र शंकर है। सम्पूर्ण कहानी का घटना चक्र उसके चारों ओर घूमता है। अब यहाँ उसके चरित्र की कुछ विशेषताओं का उल्लेख करते हैं

(1) शंकर का आतिथ्य भाव :
शंकर अपने द्वार पर आए किसी भी महात्मा, साधु, संन्यासी या अन्य अतिथियों का आतिथ्य भक्ति और श्रद्धा से करता है। उसके लिए वह कोई कोर कसर नहीं छोड़ता। घर में महात्मा को सांध्यकालीन भोजन में गेहूँ के आटे का उत्तम भोजन देकर, पुण्य अर्जन की कामना करता है। इसके निमित्त अपने ही गाँव के महाराज (महाजन) से सवा सेर गेहूँ उधार लाता है। उसकी पत्नी गेहूँ पीसती है, फिर भोजन तैयार होता है। इस अतिथि सत्कार के कार्यक्रम में शंकर के घर के सभी सदस्य अपना योग देते हैं। परन्तु स्वयं अपने और घर के : सदस्यों के लिए सम्भवत: चना-चबैना खाकर या पानी पीकर ही रात्रि गुजारना उनकी नियति था। आतिथ्य सत्कार का पुण्य और श्रेष्ठ गृहस्थी के जीवन का सपना कंगाली की कराहट में विभाजन तक पहुँच जाता है।

(2) अपने परिवार के प्रति समर्पित :
शंकर अपने परिवार के प्रति पूर्णतः समर्पित है। वह सप्रयास दोनों भाइयों के परिवार को सम्मिलित रूप में खड़ा करता है। वह परिवार रोपे गये, सींचे गए वृक्ष की तरह पल्लवित हुआ है। परन्तु दीनता की आरी ने असमय में काटना प्रारम्भ कर दिया जिससे शंकर की दर्द भरी चीख उठती है। लेकिन रात्रि के अन्धकार में अपने दुपट्टे से मुँह बाँधकर हफ्तों तक भूखे रहते समय बिताता है। वह नहीं चाहता कि उसका समृद्ध वृक्ष-परिवार विभाजित हो।

(3) सादगी भरा शंकर :
शंकर अपने व्यवहार और आचरण में सीधा-सादा और सादगी भरा है। वह ठग विद्या नहीं जानता। अतः वह स्वयं जैसा है, वैसे ही व्यवहार की आशा अन्य लोगों से करता है। महाराज (महाजन) अपनी चालों से, ठगी के पेंचों से ‘सवा सेर गेहूँ’ देकर ‘साढ़े पाँच मन’ गेहूँ के पहाड़ सरीखे कर्ज में डुबो देता है। यदि वह चालबाज होता, ठग विद्या अपनाने वाला होता तो निश्चय ही उसका परिवार कर्ज के सागर में न डूबता।

(4) अशिक्षित :
शंकर अशिक्षित किसान है। शिक्षित होता तो वह किसी भी तरह महाजन द्वारा ठगाई में नहीं आता और ‘सवा सेर गेहूँ’ का कर्ज तिल से ताड़ नहीं बनने देता।

(5) बंधुआ मजदूर :
शंकर महाजन (महाराज) की कुचालों में फंसकर उसका बँधुआ मजदूर होकर पूरी जिन्दगी बिता देता है। फिर भी उसका एक सौ बीस रुपये का ऋण शेष रह जाता है जिसे चुकता करने के लिए शंकर का नौजवान बेटा उसी राक्षस वृत्ति वाले निर्दयी महाराज द्वारा बंधुआ मजदूर बनाया जाता है।

(6) पति और पिता के रूप में शंकर :
शंकर एक पति के रूप में अपनी पत्नी के प्रति व्यवहार में श्रेष्ठता अपनाता है। वह नहीं चाहता कि उसकी पत्नी उसके कारण हुए कर्ज को चुकाने के लिए कष्ट भोगे।।

शंकर एक पिता के रूप में खरा उतरता है। वह स्वयं निर्धनता के अनेक कष्ट भोगता हुआ भी अपने पुत्र को इन सभी कष्टों का आभास तक नहीं होने देता।

(7) सहृदय भाई :
शंकर एक सहृदय भ्राता है। जब उसका भाई मंगल पारिवारिक रूप से अलग होकर रहने लगता है, तो घर के इस विभाजन को बड़ी मुश्किल से सहन कर पाता है। विघटन और विभाजन को रोकने का उसका प्रयास विफल हो जाता है। अन्त में वह स्वयं इस विभाजन से टूट जाता है।

(8) शंकर की उदारता :
शंकर सहृदय और उदार है। सबसे पहले तो वह अपने परिवार के प्रति उदारता का व्यवहार करता है। दूसरे, घर के द्वार पर आए हुए अतिथियों का अपनी शक्ति से ऊपर होकर सत्कार करता है। साथ ही ठग और चालबाज महाराज को भी खलिहानी के रूप में अधिक अन्न देता है। यह सब शंकर के हृदय की उदारता ही है।

(9) उपसंहार :
शंकर सीधा, सरल व्यवहार वाला किसान है। किसान प्रकृति से सहनशील, कष्ट-सहिष्णु, भाग्यवादी और पूर्वजन्म के संस्कारों के प्रभाव से प्रभावित होते रहते हैं। ये सभी गुण शंकर में एक साथ विद्यमान हैं।

सवा सेर गेहूँ अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
शंकर के द्वार पर पधारे महात्मा की वेशभूषा कैसी थी?
उत्तर:
संध्या समय शंकर के द्वार पर एक महात्मा पधारे। वह तेजस्वी मूर्ति थे, पीताम्बर गले में, जटा सिर पर, पीतल का कमंडल हाथ में, खड़ाऊँ पैर में, ऐनक आँखों पर, सम्पूर्ण वेष महात्माओं का सा था।

प्रश्न 2.
शंकर ने किससे, कितना और क्यों गेहूँ उधार लिया था?
उत्तर:
गरीब किसान शंकर ने गाँव के महाराज से सवा सेर गेहूँ उधार लिये थे क्योंकि एक दिन उसके द्वार पर एक महात्मा आ पहुँचे थे और उसके पास उन्हें खिलाने के लिए गेहूँ का एक दाना तक न था।

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सवा सेर गेहूँ पाठ का सारांश

शंकर एक किसान :
किसी गाँव में शंकर नाम का एक किसान था। वह अपने काम से काम रखता था, वह सीधा सादा और गरीब था। वह किसी के भी लेन-देन से दूर रहता था। व्यवहार में सरल; भोजन-अशन में सादा, जो मिला खा लिया। परन्तु द्वार पर आए अतिथि उसके लिए भगवान थे। स्वयं भूखा रह लेता, परन्तु आगन्तुक साधु-संन्यासियों की सेवा में दत्तचित्त रहता था। एक दिन घर आए हए महात्माओं के लिए घर में गेहूँ का आटा नहीं था। घर में सिर्फ जौ का ही आटा था। अतिथियों को तो गेहूँ का ही भोजन कराना है। अतः वह गाँव भर में आटे की तलाश में गया। पूरे गाँव में आटा नहीं मिला।

गाँव का महाराज :
गाँव के महाराज से सवा सेर गेहूँ लिए, स्त्री ने आटा तैयार किया। महात्मा लोग भोजन करके आशीर्वाद देकर अगले दिन प्रात:काल चल दिए।

महाराज की खलिहानी :
महाराज वर्ष में दो बार खलिहानी लेते थे। शंकर ने सोचा कि इन्हें सेवा सेर गेहूँ क्या हूँ, पसेरी भर से ज्यादा खलिहानी दे दूँगा। दोनों ही आपस में समझ लेंगे। चैत के महीने में महाराज पहुँचे, डेढ़ पसेरी गेहूँ दे दिए गए। शंकर ने सवा सेर गेहूँ से स्वयं को उऋण समझ लिया। सवा सेर गेहूँ की चर्चा महाराज ने कभी नहीं की। महाराज अब महाजन होने लगे।

शंकर के घर की दशा :
शंकर किसान से मजदूर हो गया। छोटा भाई मंगल अलग हो गया। भाई के अलग होने पर शंकर फूट-फूट कर रोने लगा। कुल मर्यादा का वृक्ष उखड़ने लग गया। सात दिन लगातार एक दाना भी उसके मुंह तक नहीं गया। दिन में धूप में काम करता। मुँह लपेटकर रात को सोता। रक्त जल गया मांस मञ्जा घुल चुकी। खेती मान-मर्यादा के लिए रह गई। सब चौपट हो चला। सात वर्ष बीत चुके। शंकर मजदूरी से लौटकर आ रहा था। महाराज ने बुलाया और कहा कि तू अपने बोज-बेंग का हिसाब कर ले। तेरे हिसाब में साढ़े पाँच मन गेहूँ बाकी पड़े हैं। तू देने का नाम ही नहीं लेता, हजम करना चाहता है।

सवा सेर का साढ़े पाँच मन गेहूँ :
शंकर को अचम्भा हुआ। उसने कहा कि मैंने तुमसे कब गेहूँ लिए जो साढ़े पाँच मन हो गए। मुझ पर किसी का भी एक दाना व एक पैसा भी उधार नहीं है। महाराज ने कहा कि तुम अपनी नीयत के कारण कष्ट भोग रहे हो तभी तो खाने को नहीं जुड़ता। तब फिर महाराज ने सवा सेर गेहूँ का जिक्र किया।

शंकर ने कहा कि मैं बढ़-चढ़कर खलिहानी देता रहा। तुम्हारे सवा सेर गेहूँ अभी चुकता नहीं हुए। महाराज ने कहा-बख्शीस सौ-सौ हिसाब जौ-जौ। व्यर्थ की बहस छोड़, मेरा उधार दे।

बंधुआ मजदूर :
शंकर काँप गया। मेहनत मजदूरी करके साल भर में 60 रुपये जुड़े, उन्हें जमा करा दिया, शेष रुपया दो-तीन माह में लौटा देने का वादा किया। पन्द्रह रुपए शेष रह गए। उन्हें चुका नहीं सका। शंकर महाराज के यहाँ बंधक मजदूर हो गया। उसे आधा सेर जौ रोज कलेवा के लिए, ओढ़ने को साल में एक कम्बल मिला करता। एक मिरजई बनवा देता। शंकर महाराज की गुलामी में बँध गया। सवा सेर गेहूँ की बदौलत उम्र भर के लिए गुलामी की बेड़ियों में बँध गया।

उपसंहार :
शंकर इस सब को पूर्व जन्म का संस्कार मानता था। वे गेहूँ के दाने किसी देवता के शाप की भाँति पूरे जीवन उसके सिर से नहीं उतरे। शंकर महाराज के यहाँ बीस वर्ष तक गुलामी करता रहा। संसार से चल बसा। फिर भी एक सौ बीस रुपये उसके सिर पर सवार थे। शंकर के जवान बेटे को गरदन पकड़कर अपने यहाँ शंकर के ऋण को चुकाने के लिए बंधक मजदूर बनाया। वह आज भी काम करता है। ऐसे शंकरों और महाराजों से दुनिया भरी पड़ी है।

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