MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 3 प्रेम और सौन्दर्य

प्रेम और सौन्दर्य अभ्यास

प्रेम और सौन्दर्य अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 2.
पदमाकर की गोपियों को सुबह-शाम और घर-बाहर अच्छा क्यों नहीं लगता है?
उत्तर:
पद्माकर की गोपियों को सुबह-शाम और घर-बाहर अच्छा नहीं लगता क्योंकि उनका मन श्रीकृष्ण से लग गया है। अत: उनके बिना गोपियों को संसार की कोई भी वस्तु अच्छी नहीं लगती है।

प्रश्न 3.
गोप-सुता पार्वती माँ से क्या वरदान माँगती है? (2016)
उत्तर:
गोप-सुता पार्वती माँ से यह वरदान माँगती है कि उसे सुन्दर, साँवला नन्दकुमार (अर्थात् कृष्ण) वर के रूप में चाहिए।

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प्रश्न 4.
“वा मुख की मधुराई कहाँ-कहौ ?” में मतिराम ने किस मुख की ओर संकेत किया है?
उत्तर:
उक्त पद में मतिराम ने श्रीकृष्ण के सुन्दर मुख की ओर संकेत किया है।

प्रश्न 5.
श्रीकृष्ण के मुकुट में कौन-सी वस्तु लगी है?
उत्तर:
श्रीकृष्ण के मुकुट में मोर का पंख लगा हुआ है।

प्रेम और सौन्दर्य लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
गोपियों पर श्रीकृष्ण की वंशी का क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
गोपियाँ श्रीकृष्ण की वंशी के मधुर स्वर को सुनकर अपनी सुध-बुध को भूल गयीं उन्हें अपने बूंघट का भी ध्यान न रहा। वे न तो घाट की रहीं और न अपने घर की।

प्रश्न 2.
‘मान रहोई नहीं मनमोहन मानिनी होय सो मानै मनायो’ का आशय स्पष्ट कीजिए। (2014)
उत्तर:
आशय- यहाँ पर पूर्ण समर्पित रूठी हुई नायिका नायक श्रीकृष्ण के देर से आने पर उन्हें उपालम्भ देती हुई कहती है कि उन्हें कसमें खाने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह तो कभी कोई अपराध नहीं करते। उसे तो कोई मानगुमान नहीं है। जो कोई मानिनी हो उसे मनाया जाए, वह तो मानिनी नहीं है। उसका तो मान रह ही नहीं गया इसलिए उसे मनाने की क्या आवश्यकता है।

प्रश्न 3.
मतिराम के शब्दों में श्रीकृष्ण की छवि का मोहक वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मतिराम ने श्रीकृष्ण के रंग को सोने से भी अधिक सुन्दर बताया है। उनके मुकुट में मोर का पंख है। गले में सुन्दर माला है। कानों में गोल कुण्डल पहने हैं। जब कुण्डल हिलते हैं तो कृष्ण के गालों की सुन्दरता बढ़ जाती है। उनके नेत्र लाल रंग के हैं। वे सदैव मुस्कराते हैं। अतः हमारे नेत्रों को प्रिय लगते हैं।

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प्रेम और सौन्दर्य दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
गोपिका श्रीकृष्ण की छवि को नेत्रों से बाहर निकालने में क्यों असमर्थ है? (2009)
उत्तर:
गोपिका श्रीकृष्ण की छवि को नेत्रों से बाहर निकालने में इसलिए असमर्थ है, क्योंकि गोपिका के नेत्रों में गुलाल व नन्दलाल दोनों ही समाए हुए हैं। मैं तो जल द्वारा नेत्रों को धो-धोकर परेशान हो गयी हूँ। मैं कहाँ जाऊँ और किस प्रकार का प्रयास करूं, क्योंकि आँखें बार-बार धोने से मेरी पीड़ा बढ़ रही है। अतः इस कृष्ण को जो कि मेरे नेत्रों में समा गया है, उसे निकालना मेरी सामर्थ्य के परे हैं।

प्रश्न 2.
‘को बिन मोल बिकात नहीं कवि ने ऐसा क्यों कहा है? समझाइए। (2009)
उत्तर:
मतिराम कवि ने श्रीकृष्ण के अनुपम सौन्दर्य का वर्णन किया है। उन्होंने यह बताने का प्रयास किया है कि कृष्ण का रूप मन को प्रसन्न करने वाला है। श्रीकृष्ण का सुन्दर रूप नेत्रों में बस गया है। कुछ वस्तुएँ तो बिकाऊ होती हैं और व्यक्ति उन वस्तुओं का मूल्य चुकाकर उन्हें खरीद सकता है, लेकिन कृष्ण का यह अद्भुत सौन्दर्य बिना मूल्य का है। इसको कभी भी बेचा नहीं जा सकता है, लेकिन फिर भी यह मूल्यवान है। ईश्वर का कोई मूल्य नहीं है। वह तो अनमोल है। इस प्रकार कवि ने ईश्वर की महिमा का वर्णन किया है।

प्रश्न 3.
आशय स्पष्ट कीजिए
(क) कुन्दन को रंग फीको लागै झलकै अति अंगन चारु गुराई।
उत्तर:
आशय-नायिका गौर वर्ण की है। उसका सौन्दर्य अभूतपूर्व है। उसके सौन्दर्य के समक्ष सोना भी तुच्छ प्रतीत होता है। अंग से झलकने वाली सुषमा मन को मोहित करने वाली है।

(ख) एक पग भीतर औ एक देहरी पै धरै।
एक कर कंज, एक कर है किबार पर।।
उत्तर:
आशय-नायिका नायक के लिए प्रतीक्षारत है। वह अपनी सुध-बुध भूलकर नायक की प्रतीक्षा में व्याकुल है। उसका एक पैर घर के भीतर है, दूसरा दरवाजे पर है। उसके एक हाथ में कमल का पुष्प है और दूसरा हाथ किवाड़ पर रखे हुए वह विरह में विदग्धा नायिका खड़ी हुई है।

(ग) नेह सरसावन में मेह बरसावन में,
सावन में झूलियों सुहावनो लगत है।
उत्तर:
आशय-यहाँ नायिका सावन में झूला झूलने के आनन्द का वर्णन करती हुई कहती है कि हृदय में प्रेम रस हिलोरे ले रहा है, मेघ बरस रहे हैं। ऐसे में हे सखी ! झूला झूलना अत्यन्त सुखकर प्रतीत होता है।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित काव्यांश की प्रसंग सहित व्याख्या कीजिए
(अ) कैसी करो कहाँ जाऊँ कासौं कहौं कौन सुने,
कोउ तौ निकासौ जाते दरद बढ़े नहीं।
एरी मेरी वीर ! जैसे तैसे इन आँखिन तें
कढ़िगो अबीर पै अहीर तो कढ़े नहीं।
(आ) कुन्दन को रंग फीको लागै, छलके अति अंगन चारु गुराई,
आँखिन में अलसनि चितौन में मंजु विलासन की सरसाई।
को बिन मोल बिकात नहीं, मतिराम लहै मुसकानि मिठाई,
ज्यौं-ज्यौं निहारिए नेरे कै नैनहिं, त्यों-त्यौं खरी निकरै सी निकाई।।
उत्तर:
(अ) सन्दर्भ :
प्रस्तुत छन्द हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘प्रेम और सौन्दर्य’ पाठ के ‘पद्माकर के छन्द’ शीर्षक से अवतरित हैं। इसके रचयिता पद्माकर हैं।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्य में गोपियों एवं श्रीकृष्ण के फाग (होली) खेलने का वर्णन किया गया है।

व्याख्या :
फाग खेलते समय गुलाल उड़ रहा है। इसके फलस्वरूप श्रीकृष्ण एवं गुलाल चारों ओर धूम मचा रहे हैं। नेत्रों में जो आनन्द भर गया है। वह समा नहीं रहा है। गोपी कह रही है कि हे सखी ! तुम्हारी शपथ खाकर कहती हूँ कि आँखों को धो-धोकर हार गई और अब तो कोई उपाय शेष नहीं बचा है। अब मैं अपनी व्यथा को कैसे दूर करूँ, किस स्थान पर जाऊँ, किससे कहूँ, कोई सुनने वाला भी नहीं है। अब कोई तो मेरी आँखों से इसे निकाले जिससे दर्द नहीं बढ़े। हे मेरी सखी ! मैंने यत्न करके किसी प्रकार आँखों से गुलाल को तो निकाल लिया किन्तु जो आँखों में बसा हुआ अहीर अर्थात् श्रीकृष्ण है वह किसी भाँति नहीं निकल रहा।

(आ) सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्य ‘प्रेम और सौन्दर्य’ पाठ के ‘मतिराम के छन्द’ शीर्षक से उद्धत है। इसके रचयिता मतिराम हैं।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद में कवि ने नायिका के शारीरिक सौष्ठव का वर्णन किया है।

व्याख्या :
कवि कहता है कि नायिका के अंग-अंग में झलकने वाले सौन्दर्य के आगे स्वर्ण (सोने) की छवि भी फीकी लगती है। उसके नेत्र अलसाए हुए हैं और उसकी चितवन में मधुर विलास का सौन्दर्य है। मतिराम कहते हैं कि उसकी मुस्कान इतनी मधुर है कि देखने वाला ऐसा कौन है जो बिना मोल नहीं बिक जाता है अर्थात् जो उसके सौन्दर्य को देखता है वही मोहित हो जाता है। जैसे-जैसे निकट जाकर उसके नेत्रों को निहारो वैसे-वैसे ही उसकी सुन्दरता और अधिक बढ़ती जाती है।

प्रेम और सौन्दर्य काव्य सौन्दर्य

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के तत्सम रूप लिखिए
मोल, नेरे, मूरति, सनेह, घरी, देहरी, किबार, सौंह, घूघट।
उत्तर:
तत्सम शब्द-मूल्य, निकट, मूर्ति, स्नेह, घड़ी, देहली, किबाड़, सौं, चूंघट।

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकार, उनके सामने दिए गए विकल्पों में से छाँटकर लिखिए
(अ) घट की न औघट की, घाट की न घर की। (यमक, श्लेष, अनुमास)
उत्तर:
अनुप्रास।

(आ) छाजत छबीले छिति छहरि हरा के छोर। (अनुप्रास, यमक, श्लेष)
उत्तर:
अनुप्रास।

(इ) ज्यों-ज्यों निहारिए नेरे डै नैनहिं। त्यों-त्यों खरी निकरै सी निकाई। (उपमा, पुनरुक्ति, रूपक)
उत्तर:
पुनरुक्ति।

(ई) एक घरी घन से तन सौं, अँखियान घनो घनसार सौ दैगो। (उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा)
उत्तर:
उपमा।

प्रश्न 3.
काव्य में भाव-सौन्दर्य और शब्द विन्यास का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध रहता है, एक के बिना दूसरे की कल्पना करना कठिन हो जाता है। ऐसे स्थल मतिराम जैसे कवियों की रचनाओं में कलात्मक उपलब्धि की दृष्टि से बहुत श्रेष्ठ बन पड़े हैं। ऐसा ही भाव सौन्दर्य और शब्द सौन्दर्य का उदाहरण देखिए-
“मान रहोई नहीं मनमोहन मानिनी होय सो मनायो।”
इस प्रकार के अन्य उदाहरण इस संकलन से चुनकर लिखिए।
उत्तर:
(1) को बिन मोल बिकात नहीं मतिराम लहै मुसकानि मिठाई।
(2) काहे को सौंहे हजार करौ, तुम तो कबहूँ अपराध न ठायो।
सोवन दीजै, न दीजै हमें दु:ख, यों ही कहा रसवाद बढ़ायो।।
(3) लाल विलोचनि कौलनि सौं मुसकाइ इतै अरुझाइ चितैगो।
एक घरी घन से तन सौं अँखियान घनो घनसार सो दैगो।
(4) वा मुख की मधुराई कहा कहाँ ? मीठी लगै अँखियान लुनाई।

प्रश्न 4.
पद्माकर के संकलित छन्दों में से रूप घनाक्षरी छन्द को पहचानकर लिखिए।
उत्तर:
लक्षण-वर्ण संख्या 32 चरण के अन्त में गुरु और लघु (51) तथा यति 16, 16 पद।
भौरन को गुंजन विहार वन कुंजन में,
मंजुल मलहारन को गावनो लगत है।
कहैं ‘पद्माकर’ गुमान हूँ ते मानहूँ ते
प्राण हूँ नैं प्यारो मनभावनो लगत है।
भौरन कौ सोर घनघोर चहुँ ओर न।
हिंडोरन को वृन्द छवि छावनो लगत है।
नेह सरसावन में मेह बरसावन में,
सावन में झूलियों सुहावनो लगत है।।

पद्माकर के छन्द भाव सारांश

प्रस्तुत पदों में पद्माकर ने श्रीकृष्ण और राधा को प्रेमी-प्रेमिका के रूप में चित्रित करके उनकी शृंगारिक चेष्टाओं का हृदयस्पर्शी वर्णन किया है। यहाँ बताया गया है कि श्रीकृष्ण फाग खेलते हैं, राधा वह दृश्य देखती हैं। फाग का अबीर तो झड़ जाता है किन्तु कृष्ण की छवि आँखों से धोए नहीं धुलती। मोहन की बाँसुरी सुनकर राधा सुध-बुध खो बैठती है। सावन के झूलों में राधा-कृष्ण का प्रेम विकसित होता है। पद्माकर ने राधा-कृष्ण के प्रेम की दशा का अत्यन्त मनोवैज्ञानिक, सूक्ष्म और हृदयग्राही चित्र प्रस्तुत किया है।

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पद्माकर के छन्द संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

[1] एकै संग धाय नन्दलाल औ गुलाल दोऊ।
दृगनि गए जुभरि आनन्द मढ़े नहीं।
धो-धोइ हारी पद्माकर, तिहारी सौं।
अब तो उपाय एकौ चित पै चट्टै नहीं।
कैसी करो कहाँ जाऊँ, कासौ कहौं कौन सुने।
कोऊ तो निकासौ जासौ दरद बढ़े नहीं॥
ऐरी मेरी वीर ! जैसे तैसे इन आँखनि तें।
कढिगो अबीर पै अहीर तो कट्टै नहीं। (2010, 13)

शब्दार्थ :
संग = साथ; धाय = दौड़कर; गुलाल = अबीर; दोऊ = दोनों; दुगनि = नेत्रों में, आँखों में; तिहारी = तुम्हारी; कासौ = किससे; कोऊ = कोई; निकासौ = निकाले; जासौ = जिससे; दरद = पीड़ा; कढ़िगो = निकलेगा।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत छन्द हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘प्रेम और सौन्दर्य’ पाठ के ‘पद्माकर के छन्द’ शीर्षक से अवतरित हैं। इसके रचयिता पद्माकर हैं।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्य में गोपियों एवं श्रीकृष्ण के फाग (होली) खेलने का वर्णन किया गया है।

व्याख्या :
फाग खेलते समय गुलाल उड़ रहा है। इसके फलस्वरूप श्रीकृष्ण एवं गुलाल चारों ओर धूम मचा रहे हैं। नेत्रों में जो आनन्द भर गया है। वह समा नहीं रहा है। गोपी कह रही है कि हे सखी ! तुम्हारी शपथ खाकर कहती हूँ कि आँखों को धो-धोकर हार गई और अब तो कोई उपाय शेष नहीं बचा है। अब मैं अपनी व्यथा को कैसे दूर करूँ, किस स्थान पर जाऊँ, किससे कहूँ, कोई सुनने वाला भी नहीं है। अब कोई तो मेरी आँखों से इसे निकाले जिससे दर्द नहीं बढ़े। हे मेरी सखी ! मैंने यत्न करके किसी प्रकार आँखों से गुलाल को तो निकाल लिया किन्तु जो आँखों में बसा हुआ अहीर अर्थात् श्रीकृष्ण है वह किसी भाँति नहीं निकल रहा।

काव्य सौन्दर्य :

  1. शृंगार रस, ब्रजभाषा, माधुर्य गुण, सरस और ललित शब्दावली का प्रयोग।
  2. कैसी करो-पंक्ति में अनुप्रास अलंकार है।

[2] आई संग आलिन के ननद पठाई नीठि।
सोहति सुहाई सीस ईडुरी सुघट की।
कहै पद्माकर गम्भीर, जमुना के तीर।
नीर लागी भरन नवेली नेह अरकी।
ताही समै मोहन सु बाँसुरी बजाई।
तामै मधुर मलार गाई ओर बंसीवट की।
तल लगि लटकी रहीं न सुधि पूंघट की।
घट की न औघट की घाट की न घर की।

शब्दार्थ :
आलिन = सखियों; सोहति = सुन्दर लगती है, सुशोभित होती है; सीस= सिर; ईडुरी= सिर पर रखने की; नीर = जल; नवेली = नई; नेह = स्नेह; ताही = उस; समै = समय, तामै = उसमें; मलार = गीत; सुधि = याद, स्मृति।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ पर कवि ने यमुना तट पर पानी भरने आई गोपिका की कृष्ण की बाँसुरी सुनने के बाद हुई मनोदशा का वर्णन किया है।

व्याख्या :
हे सखी ! मैं सखियों के साथ पनघट पर आई हूँ, मुझे मेरी ननद ने समझा-बुझाकर भेजा है। सिर पर घट रखने की ईडुरी शोभित हो रही है। पद्माकर कहते हैं कि गहरी यमुना के किनारे नई नवेली नवयुवती पानी भरने लगी उसका हृदय कृष्ण के प्रेम से भरा हुआ था। उसी समय श्रीकृष्ण ने मधुर स्वरों में बाँसुरी बजाई। उन्होंने वंशीवट की ओर मुँह करके मधुर मल्हार गाना शुरू किया। तब वह गोपी जैसी स्थिति में थी वैसी ही रह गई। उसने अपने घूघट को भी नहीं सम्भाला, न तो उसे घट भरने की सुध रही, न ही घाट की और न घर का ही ज्ञान रह गया। वह तो बंशी की धुन में मग्न हो गयी।

काव्य सौन्दर्य :

  1. शृंगार रस, माधुर्य गुण, ब्रजभाषा।
  2. सोहति सुहाइ………..और घट की न और घर की…………पंक्तियों में अनुप्रास अलंकार है।
  3. कोमलकान्त पदावली का प्रयोग है।

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[3] भौरन को गुंजन विहार वन कुंजन में।
मंजुल मलहारन को गावनो लगत हैं।
कहै पद्माकर गुमान हूँ तो मानहुँ ते।
प्राण हूँ मैं प्यारो मन भावनों लगत है।
भोरन को सोर घनघोर चहुँ ओरन।
हिंडोरन को वृन्द छवि छावनो लगत है।
नेह सरसावन में मेह बरसावन में।
सावन में झूलियों सुहावनो लगत है।।

शब्दार्थ :
भौरन = भँवरे; गुंजन = आवाज; विहार = विचरण करना; वन कुंजन = उपवन में; मंजुल = सुन्दर; मलहारन = एक प्रकार के गीत; गावनो = गाते हैं; मन भावनों = मन को अच्छा लगने वाला; भोरन = प्रातः; सोर = शोर, कोलाहल; चहुँ = चारों; ओरन = ओर; हिंडोरन = झूले वृन्द= समूह; मेह= वर्षा; सावन = एक माह का नाम; सुहावनो लगतं = सुन्दर लगना, अच्छा लगना।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग:
यहाँ पर कवि ने सावन के माह में गोपियों के झूला झूलने का चित्रण किया है।

व्याख्या :
गोपियाँ कहती हैं कि भौरों का गूंजना, कुञ्जवनों में विहार करना, सुन्दर मधुर मल्हारों को गाना अच्छा लगता है। पद्माकर कहते हैं कि अपने स्वाभिमान अथवा मान-सम्मान की अपेक्षा मनभावन कृष्ण प्यारा लगता है जो प्राणों से भी प्यारा है। भ्रमरों का गुंजन और बादलों का घनघोर गर्जन है। ऐसे मनमोहक वातावरण में झूलों के समूह अत्यधिक सुन्दर प्रतीत हो रहे हैं। सावन के महीने में जबकि स्नेह की वर्षा हो रही हो और मेघों की वर्षा हो रही है, ऐसे समय में झूला-झूलना अत्यन्त सुखकर लगता है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. शृंगार रस, माधुर्य गुण, ब्रजभाषा कोमलकान्त पदावली।
  2. मंजुल मलहारन में अनुप्रास अलंकार है।
  3. प्रिय की मनोदशा का मनोवैज्ञानिक चित्रण है।

[4] घर न सुहात न सुहात वन बाहिर है।
बागन सुहात जो खुसाल सुख बोही सों।
कहै पद्माकर घनेरे धन धाम त्यौं ही।
चैन न सुहात चाँदनी हूँ जोग जोही सों।
साँझ हूँ सुहात न सुहात दिन माँझ कछु।
ब्याही यह बात सो बखानत हो तोही सों।
साँझ हूँ सुहात न सुहात परभात आली।
जब मन लागि जात काई निरमोही सौं।।

शब्दार्थ :
सुहात = अच्छा; बागन = बगीचा; खुसाल = प्रसन्न; सुख बोही = प्रसन्नता से सराबोर; धन = सम्पत्ति; धाम = घर; जोग = योग; बखानत = वर्णन करना; तोही = तुझसे; परभात = प्रातः, आली = सखि; काई = कोई; निरमोही = निष्ठुर।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ पर कवि ने बताया है कि श्रीकृष्ण के प्रेम में गोपियाँ आकण्ठ निमग्न हैं। उनकी मनोदशा इस प्रकार है।

व्याख्या :
गोपियाँ कहती हैं कि श्रीकृष्ण के प्रेम के समक्ष उन्हें न घर, न बाहर, कहीं अच्छा नहीं लगता है। जो बाग पहले प्रसन्नता देते थे जिनमें बहुत सुख प्राप्त होता था वह अब नहीं मिलता। पद्माकर कहते हैं कि इसी प्रकार न तो धन सुहाता है और न आलीशान महल ही सुहाते हैं। चाँदनी में भी सुख का अनुभव नहीं होता है। न संध्या काल रुचिकर लगता है और न दिन अच्छा लगता है। हे सखी ! यह बात मैं तुझसे ही कहती हूँ कि न साँझ सुहाती है, न प्रभात सुहाता है जब मन किसी निष्ठुर से लग जाता है अर्थात् मेरा मन उस निष्ठुर श्रीकृष्ण से लग गया है। अब उसके बिना मुझे संसार की कोई वस्तु अच्छी नहीं लगती है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. शृंगार रस है। माधुर्य गुण तथा ब्रजभाषा के ललित शब्दों का प्रयोग है।
  2. साँझ हूँ सुहात न पंक्ति में अनुप्रास अलंकार है।
  3. विरह की मनोदशा का मनोवैज्ञानिक चित्रण है।

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[5] “आरस सो आरत सम्हारत न सीस-पट,
गजब गुजारति गरीवन की धार पर।
कहें पद्माकर सुरासो सरसार तैसे,
बिथुरि बिराजै बार हीरन के हार पर।
छाजत छबीले छिति छहरि हरा के छोर,
भोर उठि आई केलि-मन्दिर के द्वार पर।
एक पग भीतर औ एक देहरी पै धरै,
एक कर कंज, एक कर है किबार पर।।”

शब्दार्थ :
आरस = आलस्य; आरत = आर्त्त; सीस = सिर; पट = वस्त्र; बिथुरि = बिखरा हुआ; गजब = अनोखा, अद्भुत; गुजारति = व्यतीत करती; हीरन = हीरा एक रत्न; हार = माला, छिति = भूमि; भोर = प्रात:काल; केलि = क्रीड़ा; पग = पाँव; देहरी = देहली; कर = हाथ; किबार = किबाड़।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्। प्रसंग-यहाँ कवि ने नायिका की विरह अवस्था का वर्णन किया है।

व्याख्या :
नायिका नायक के विरह में इतनी व्यग्र है कि उसे अपने तन की सुध-बुध नहीं रही है। दुःख के कारण निढाल हुई नायिका अपने शीश के वस्त्र को नहीं सम्भाल पा रही है। वह बेचारी अपने समय को अत्यन्त दुःखावस्था में व्यतीत करती है। पद्माकर कहते हैं कि नायिका जैसे मद्य के रस में डूबी हुई हो। उसे अपने शरीर का होश नहीं रहा है। उसके बाल बिखरे हुए हैं और हीरे के हार पर अस्त-व्यस्त से पड़े हुए हैं। उसके बाल पृथ्वी के छोर तक पहुंच रहे हैं। वह प्रातः होते ही अपने क्रीड़ा-मन्दिर के द्वार पर आकर खड़ी हो गई है। उसका एक पैर घर के भीतर है और एक देहली पर रखा हुआ है। उसके एक हाथ में कमल का फूल है और दूसरा हाथ उसने किबाड़ पर रखा हुआ है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. प्रस्तुत पद्य में प्रोषितपतिका नायिका की विदग्धावस्था का मार्मिक और मनोवैज्ञानिक चित्रण किया गया है।
  2. ब्रजभाषा है, माधुर्य गुण और शृंगार रस के विरह पक्ष की व्यंजना हुई है।
  3. आरस सो आरत, गजब गुजारति, गरीवन, सुरासो सरसार, बिथुरि बिराजै बार, छाजतछबीले, छिति-छहरि आदि में अनुप्रास अलंकार है।

मतिराम के छन्द भाव सारांश

प्रेम और शृंगार के वर्णन में मतिराम अद्वितीय हैं। उन्होंने अपने काव्य में राधा-कृष्ण के प्रेम, सौन्दर्य, शील, चेष्टाओं अनुरागमयी लीलाओं और परस्पर मान-मनुहार का हृदयग्राही चित्र प्रस्तुत किया है। नायक-नायिका के मिलन-वियोग का छवि ने सूक्ष्म और एकान्तिक चित्रण किया है।

मतिराम के छन्द संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

[1] कुन्दन को रंग फीको लागै, झलकै अति अंगन चारु गुराई।
आँखिन में अलसानि चितौन में मंजु बिलासन की सरसाई।।
को बिन मोल बिकात नहीं मतिराम लहै मुसकानि मिठाई।
ज्यों ज्यों निहारिए नेरे है नैनहि, त्यों त्यों खरी निकरै सी निकाई।। (2009, 17)

शब्दार्थ :
कुन्दन = सोना; फीकौ = रंगहीन, प्रभावहीन, कान्तिहीन; झलकै = कुछ आभास होना, दिखलाना; चारु = सुन्दर; गुराई = गोरापन; आँखिन = नेत्रों में; अलसानि = आलस्य होना; चितौन = चितवन, मंजु = सुन्दर; बिलासन = शोभा देना, योग देना; सरसाई = सुन्दरता, शोभा; बिन = बिना; मोल = मूल्य; बिकात = बिक जाना होना; निहारिए = देखिए; नेरे = समीप; नैनहिं = नेत्रों को, निकाई = सुन्दरता, अच्छाई।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्य ‘प्रेम और सौन्दर्य’ पाठ के ‘मतिराम के छन्द’ शीर्षक से उद्धत है। इसके रचयिता मतिराम हैं।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद में कवि ने नायिका के शारीरिक सौष्ठव का वर्णन किया है।

व्याख्या :
कवि कहता है कि नायिका के अंग-अंग में झलकने वाले सौन्दर्य के आगे स्वर्ण (सोने) की छवि भी फीकी लगती है। उसके नेत्र अलसाए हुए हैं और उसकी चितवन में मधुर विलास का सौन्दर्य है। मतिराम कहते हैं कि उसकी मुस्कान इतनी मधुर है कि देखने वाला ऐसा कौन है जो बिना मोल नहीं बिक जाता है अर्थात् जो उसके सौन्दर्य को देखता है वही मोहित हो जाता है। जैसे-जैसे निकट जाकर उसके नेत्रों को निहारो वैसे-वैसे ही उसकी सुन्दरता और अधिक बढ़ती जाती है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. शृंगार रस, माधुर्य गुण, ब्रजभाषा है।
  2. कुन्दन को रंग फीकौ लगै………में व्यतिरेक अलंकार है।
  3. आँखिन अलसान ज्यों-ज्यों, त्यों-त्यों में अनुप्रास अलंकार है।
  4. बिन मोल बिकात’ में लोकोक्ति का प्रयोग है।

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[2] कोऊ नहीं बरजै मतिराम रहो तितही जितही मन भायो।
काहे कौ सौहे हजार करो, तुम तो कबहूँ अपराध न ठायो।।
सोवन दीजै, न दीजै हमें दुःख, यों ही कहा रसवाद बढ़ायो।
मान रहोई नहीं मनमोहन मानिनी होय सो मानै मनायो।। (2009)

शब्दार्थ :
बरजै = मना करना, रोकना; मन भायो = मन को अच्छा लगना; कबहूँ = कभी; अपराध = अनुचित कार्य; सोवन = सोने का भाव; दीजै = देना; दुःख = अवसाद; मान = मर्यादा; मनमोहन = मन को अच्छा लगना; मानिनी = हठी।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ कवि ने मानिनी नायिका का वर्णन किया है जो श्रीकृष्ण को उपालम्भ दे रही है।

व्याख्या :
मतिराम कहते हैं कि नायिका नायक से कह रही है कि तुम्हें कोई भी नहीं रोक रहा है। तुम्हारी जहाँ इच्छा हो तुम वहीं निवास करो। तुम व्यर्थ में हजारों शपथ क्यों खा रहे हो ? तुमने तो कभी कोई अपराध ही नहीं किया है। आप हमें सोने दीजिए हमें कोई दु:ख मत पहुँचाइए। तुम व्यर्थ में ही प्रेम में विवाद क्यों बढ़ा रहे हो। हे मनमोहन ! जब हमने तुम्हारे प्रेम में समर्पण कर दिया है तो मान तो पहले ही नहीं रहा। ये तो कोई मानिनी हो उसे मनाया जाए। मैं कोई मानिनी नहीं हूँ।

काव्य सौन्दर्य :

  1. नायिका की नायक के प्रति खीझ का मनोवैज्ञानिक चित्रण है।
  2. मनमोहन मानिनी में अनुप्रास अलंकार है।
  3. वक्रोक्ति अलंकार का सुन्दर प्रयोग है।
  4. माधुर्य गुण, ब्रजभाषा में कोमलकान्त पदावली का प्रयोग किया है।

[3] मोर-पखा ‘मतिराम’ किरीट मनोहर मूरति सौ मन लैगो।
कुण्डल डोलनि, गोल कपोलनि बोल सनेह के बीज से बैगो।।
लाल बिलोचनि कौलनि सो मुसकाइ इतै अरुझाइ चितैगो।
एक घरी घन से तन सौं अँखियान घनो घनसार सो दैगो।।

शब्दार्थ :
किरीट = मुकुट; मनोहर = सुन्दर; कुण्डल = कान का आभूषण; डोलनि = हिलना; कपोलनि = गालों पर; सनेह = प्रेम; मुसकाइ = मुस्कराना; इतै = यहाँ, अरुझाइ = उलझाना; घरी = घड़ी; घन = मेघ; घनो = गहरा; तन = शरीर; अँखियान = आँखों से।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ नायिका का श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम का चित्रण है।

व्याख्या :
नायिका कहती है कि वह श्रीकृष्ण जिन के सिर पर मोरपंखी से युक्त मुकुट सुशोभित है, वह मनोहर मूर्ति वाले श्रीकृष्ण मेरा मन ले गये हैं। उनके कानों में कुण्डल हिल रहे हैं, गाल गोलाकार हैं। वे बोलकर मानो स्नेह के बीज बो गये हैं। लाल नेत्रों के विलास से मुस्कराकर वह मेरा चित्त अपने में उलझा गये हैं। एक घड़ी के मिलन से मेघ के सदृश आनन्द देकर वह मेरे नेत्रों को घनघोर वर्षा से पूर्ण कर गये हैं अर्थात् उसके विरह में मेरी आँखें निरन्तर बरसती रहती हैं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. वियोग शृंगार का वर्णन है। नायिका की विरह व्यथा का भावपूर्ण चित्रण है।
  2. ब्रजभाषा सरल, सरस एवं मधुर पदावली से युक्त है।
  3. घनो घनसार …….. अनुप्रास अलंकार है।

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[4] मोर-पखा ‘मतिराम’ किरीट में कण्ठ बनी वनमाल सुहाई।
मोहन की मुसकानि मनोहर कुण्डल डोलनि मैं छवि छाई।।
लोचन लोल बिसाल बिलोकनि को न बिलोकि भयो बस माई।
वा मुख की मधुराई कहाँ कहौं? मीठी लगै अँखियान लुनाई।। (2008)

शब्दार्थ :
कण्ठ = गले; सुहाई = अच्छी लगी; मोहन = श्रीकृष्ण; मनोहर = सुन्दर; छवि = रूप; छाई = फैली; लोचन = नेत्र; बिसाल = बड़े; बिलोकनि = देखना; मुख = मुँह; वा = उस; मीठी = मधुर।

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