MP Board Class 8th Hindi Bhasha Bharti Solutions महत्त्वपूर्ण पाठों के सारांश

1. आत्मविश्वास

जीवन में सफलता प्राप्त करने का एक शक्तिशाली मन्त्र है-आत्मविश्वास। जीवन के प्रत्येक पग पर हमें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। वही मनुष्य जीवन में सफलता प्राप्त करता है, जिसे अपनी शक्ति एवं प्रयासों में पूर्ण विश्वास होता है।

अपने सद्प्रयासों और शक्तियों में विश्वास ही हमारे विरोध आत्महीनता, कायरता और कुसंस्कार उसकी शक्ति और मनोबल को आधा करके असफलता की ओर ले जाते हैं। मनुष्य में परिस्थितिजन्य भय उसे आत्मविश्वासहीन कर देता है। अपनी क्षमता पर विश्वास हमारे लिए सफलता को निश्चित करता है। केवल इस शर्त पर कि हमारे अन्दर अपनी क्षमता और सफलता में अखण्ड विश्वास हो। हमारे अन्दर भय, शंका और अधीरता से विश्वास डिग जाता है।

मनुष्य को सदैव ऐसे व्यक्तियों की संगति से दूर रहना वे सदैव असफल होने के भय से आक्रान्त रहते हैं। अपने आत्मगौरव और आत्मविश्वास की भावना को खण्डित होने से बचाए रखना चाहिए। मनुष्य किसी भी काम को हाथ में लेने से यह अनुभव करता है कि वह अवश्य सफल होगा, तो इससे बड़ा मन्त्र कोई नहीं है। जो व्यक्ति सफलता और विजय प्राप्त करने के प्रतिकूल (विरुद्ध) भाव रखता है, उसे सफलता कभी भी मिल ही नहीं सकती।

मनुष्य के विचार श्रेष्ठ हैं, सफलता के हैं, सौभाग्य के हैं, तो उसे सफलता, सौभाग्य और श्रेष्ठता आगे ही बढ़ाती जायेगी। निराश और निष्क्रिय व्यक्ति निठल्ले बैठकर सफल और श्रेष्ठ कार्य करने वाले व्यक्तियों को कोसते रहते हैं। हमारे सद्प्रयास सदैव सुख के द्वार को खोलते रहते हैं। खतरों से खेलने वाले व्यक्तियों के गले में ही विजयमाला पड़ती है।

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2. प्राण जाएँ पर वृक्ष न जाएँ

प्रस्तुत पाठ में पर्यावरण की रक्षा का महत्व समझाया गया है। पर्यावरण की शुद्धता को बनाए रखने में पेड़ों का बड़ा महत्व है। पेड़ों में अपने जैसा ही जीव होता है। अत: उनकी सुरक्षा अपने प्राण देकर भी करनी चाहिए। यही इस पाठ का मूल भाव है। साथ ही पर्यावरण की रक्षा के प्रति छात्रों में जागरूकता पैदा करना इस पाठ का मूल ध्येय है।

सम्पूर्ण विश्व चिन्ता में डूबा हुआ है क्योंकि वृक्षों की लगातार कटाई ने पर्यावरण को बिगाड़ दिया है। इसलिए सभी देशों की सरकारों ने वृक्षों के काटने पर रोक लगा दी है। आज से 500 वर्ष पूर्व सन् 1485 ई. में भगवान जम्भेश्वर ने विश्नोई समाज की स्थापना की। उन्होंने 29 नियमों का पालन करने का उपदेश दिया। इन्हीं नियमों में से वृक्षों की रक्षा और सभी जीवों पर दया करना एक मुख्य नियम था। इस नियम का पालन करना ही विश्नोई समाज की आन, बान, शान व पहचान है।

अमृतादेवी विश्नोई ने तथा 362 अन्य विश्नोइयों ने वृक्षों को काटे जाने से बचाने के लिए अपने आपको शहीद कर दिया। जोधपुर के राजा अभय सिंह ने अपने महल के निर्माण के लिए खेजड़ली गाँव से पेड़ काटकर लाने का आदेश अपने सिपाहियों को दे दिया। उन्होंने वहाँ जाकर विश्नोइयों के विरोध को अनदेखा कर दिया। अनेक विश्नोई पेड़ों से लिपट गए। वे पेड़ों को काटने से बचाने के लिए अपना बलिदान देने को तत्पर हो गए। वे नारा लगा रहे थे, “सिर साँटे पर रूख रहे।” अमृता देवी के बलिदान से प्रेरित 362 विश्नोई नर-नारी स्वयं कट गए पर एक भी वृक्ष नहीं कटने दिया।

इस समाचार को सुनकर राजा अभयसिंह दुःखी हुए और खेजड़ली ग्राम आए। अपनी सेना के कुकृत्य के लिए क्षमा माँगी। ताम्रपत्र पर आज्ञा जारी की गई कि कोई भी व्यक्ति पेड़ नहीं काटेगा। यदि काटेगा तो वह राजदण्ड का भागी होगा। इसी तरह हरिणों की रक्षा के लिए अनेक विश्नोइयों ने अपना बलिदान कर दिया। सन् 1996 के अक्टूबर महीने में राजस्थान के चुरू जिले में हरिणों की रक्षा करते हुए श्री निहालचन्द विश्नोई शहीद हो गए। भारत सरकार ने उन्हें मरणोपरान्त शौर्यचक्र से सम्मानित किया। गैर-सैनिक निहालचन्द को यह सम्मान प्राप्त हुआ। मूक हरिण भी अपने रक्षकों को अच्छी तरह पहचानते हैं। विश्नोइयों के आगे-पीछे हरिण बकरियों की तरह घूमते हैं।

वृक्षों और जीवों की रक्षा करने का संकल्प तथा नए वृक्ष लगाने और उनकी रक्षा करना ही शहीद विश्नोइयों के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धा होगी।

भारत सरकार ने शहीद अमृता देवी तथा 362 अन्य शहीदों की स्मृति में राष्ट्रीय पर्यावरण पुरस्कार प्रस्तावित किए हैं। मध्य प्रदेश सरकार ने वन सम्वर्द्धन के लिए प्रत्येक ग्राम पंचायत अथवा किसी भी संस्था को एक लाख रुपये का पुरस्कार प्रस्तावित किया है। साथ ही अमृता देवी विश्नोई के नाम से दो व्यक्तिगत पुरस्कार भी चलाए हैं। ये सभी पुरस्कार उसे दिए जाते हैं जो वन सम्बर्द्धन और जीव रक्षा में उत्कृष्ट कार्य करता है।

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3. पथिक से

एक पथिक अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की ओर उस दिशा में आगे बढ़ता है लेकिन लक्ष्य प्राप्ति का मार्ग अनेक बाधाओं रूपी काँटों से भरा होता है। इसके अतिरिक्त लक्ष्य मार्ग में – अनेक आकर्षक वस्तुएँ भी होती हैं, जिन्हें हम प्रकृति के विविध उपादान कह सकते हैं। इन उपादानों में सुहावने दृश्य, नदियाँ, झरने, पहाड़ और वन उस पथिक को आकर्षित कर सकते हैं। उनका सौन्दर्य एकदम अनुपम होता है। इस सौन्दर्य से प्रभावित होकर वह यात्री (पथिक) यात्रा-पथ पर आगे बढ़ने की अपेक्षा रुक जाता है।

साधारण यात्रा की जो दशा होती है, वही दशा जीवन-यात्रा की भी होती है। सांसारिक समस्याएँ मनुष्य को अपने कर्त्तव्य से विमुख बना देती हैं। दुःख, शोक और हताशा उसे कर्त्तव्य के प्रति उदासीन कर देते हैं। कवि डॉ. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ – अपनी इस कविता के माध्यम से जीवन-पथ के बने पथिक को : सचेत करते हैं और सद्परामर्श भी देते हैं कि इन सभी बाधाओं का साहस से और स्व-विवेक शक्ति से सामना करना चाहिए। इस प्रकार निरन्तर ही अपने कर्तव्य मार्ग पर आगे ही आगे बढ़ते 1 जाना चाहिए। अपनी कल्पनाओं को साकार करते जाना चाहिए।

जीवन-पथ की विफलताएँ तुम्हें अपने मार्ग से भटका न दें। उस विफलता के समय में अपने लोग भी पराये हो जाते हैं। घोर निराशा छा सकती है। उस अकेले पथिक को उचित मार्ग से – भटकाकर हताश न कर दें।
रणक्षेत्र की ओर जाने वाले जीवन-पथ पर अग्रसर होने की रणभेरी बज चुकी है अर्थात् कर्त्तव्य पालन का समुचित समय आगे आ चुका है। इस अवसर पर प्रेम और आकर्षण का कुमकुम तुम्हें कर्त्तव्य से विमुख न बना दे और अपने मार्ग से विमुख मत हो जाना। असमंजस की दशा में अपने कर्तव्य-पथ से मत भटक जाना। यही कविता का सार है।

4. युद्ध-गीता

राम को केन्द्र में रखकर अनेक ग्रन्थों की रचना की गई है। इन कविताओं में आदि कवि वाल्मीकि सबसे पहले हैं। कालिदास और भवभूति भी इसी परम्परा के पालन करने वाले कवि रहे हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने भी ‘रामचरितमानस’, ‘कवितावली, ‘गीतावली’ आदि ग्रन्थों की रचना करके इसी परम्परा का पालन किया है। इसके सन्दर्भ में यह बात कही जा सकती है कि भूत, भविष्य और वर्तमान तथा देशकाल की सभी सीमाएँ समाप्त हो जाती हैं।

देखिए, लंका-युद्ध श्रीराम और रावण के बीच लड़ा जा रहा है। रावण युद्ध करने के लिए अपने रथ पर आरूढ़ होकर चला आ रहा है। उसकी सेना भी शक्तिशाली है और विशाल है। उसके युद्ध सम्बन्धी साधन भी अपार हैं। दूसरे उसने युद्ध की तैयारी भी ठीक तरह से की हुई है।

विभीषण राम का मित्र है। वह अपने भाई रावण की दोषपूर्ण नीतियों के कारण उससे विमुख होकर राम से आ मिला है। वह मन में बहुत अधिक आशंकित है और विचार करता है कि राम के पास ऐसे कोई भी साधन नहीं हैं, जिनकी सहायता से वे रावण को पराजित कर पायेंगे। अपनी इस शंका को संशय को, विभीषण राम के सम्मुख रखता है। राम भी उसकी शंकाओं का समाधान करते हैं।

वे कहते हैं कि धर्म के कुछ आधारभूत तत्व होते हैं; ये तत्व हैं-शौर्य, धैर्य, सत्य, शील, साहस, यम-नियम, दम, दया तथा परोपकार। धर्म के इन आधारभूत तत्वों का सन्दर्भ देते हुए श्रीराम कहते हैं कि सद्गुण रूपी धर्मरथ पर चढ़कर ही हम अपने आन्तरिक और बाहरी शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। तुलसीदास द्वारा राम के मुख से वर्णित धर्मरथ के रूपक को श्रीमद्भगवद्गीता के युद्ध सूत्रों द्वारा भी प्रतिपादित किया गया है। राम के धर्मरथ के उपांग-शौर्य और धैर्य (दो पहिए), सत्य और शील (ध्वजा-पताका), बल, विवेक, दम, परोपकार (चार घोड़े), क्षमा, दया, समता रस्से (डोरी), ईशभजन (सारथी), वैराग्य, सन्तोष, दान, बुद्धि, विज्ञान [युद्ध के हथियार (आयुध)], निर्मल और अचलमन (तरकश) हैं। यम-नियम और संयम (बाण) हैं।

ब्राह्मणों और गुरुओं की पूजा ही (कवच) है। कौरवों की विशाल सेना, युद्ध सामग्री आदि को देखकर अर्जुन भी अपनी आशंकाओं को भगवान श्रीकृष्ण के सम्मुख कहते हैं। श्रीकृष्ण उस कायर बने अर्जुन को अपने कौशल से । उत्साहित कर देते हैं और युद्ध में विजयी होते हैं। ठीक इसी तरह राम भी विभीषण को आश्वस्त कर देते हैं कि वे (राम) अवश्य । ही रावण पर विजय प्राप्त कर सकेंगे।

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