MP Board Class 6th Hindi Bhasha Bharti Solutions Chapter 22 मैं श्रीमद्भगवद्गीता हूँ
MP Board Class 6th Hindi Bhasha Bharti Chapter 22 पाठ का अभ्यास
प्रश्न 1.
सही विकल्प चुनकर लिखिए
(क) गीता का जन्म हुआ
(i) ऋषि आश्रम में
(ii) राज परिवार में
(iii) युद्धभूमि में
(iv) अस्पताल में।
उत्तर
(iii) युद्धभूमि में
(ख) पाण्डवों-कौरवों के मध्य राज्य प्राप्ति के लिए
युद्ध हुआ, लगभग
(i) पचास हजार वर्ष पूर्व
(ii) पाँच सौ वर्ष पूर्व
(iii) दो हजार वर्ष पूर्व
(iv) पाँच हजार वर्ष पूर्व
उत्तर
(ii) पाँच सौ वर्ष पूर्व
(ग) अपने सगे-सम्बन्धियों को देखकर मोह उत्पन्न हुआ
(i) श्रीकृष्ण के मन में
(ii) अर्जुन के मन में
(iii) गुरुओं के मन में
(iv) पितामह के मन में।
उत्तर
(ii) अर्जुन के मन में
(घ) श्रीमद्भगवद्गीता में अध्यायों की संख्या
(i) आठ
(ii) तेरह
(iii) अठारह
(iv) चौबीस
उत्तर
(iii) अठारह।
प्रश्न 2.
रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए
(क) कुरुक्षेत्र वर्तमान में …………. राज्य में है।
(ख) अर्जुन के धनुष का नाम ………. था।
(ग) समर भूमि में धीर-गम्भीर योद्धा को …………. हुए बिना युद्ध करना चाहिए।
(घ) अर्जुन के सारथी …………….. थे।
(ङ) मैं मनुष्य मात्र को ………………. का संदेश देती हूँ।
उत्तर
(क) हरियाणा
(ख) गाण्डीव
(ग) विचलित
(घ) श्रीकृष्ण
(ङ) स्वधर्म पालन।
प्रश्न 3.
एक या दो वाक्यों में उत्तर दीजिए
(क) कौरव-पाण्डवों के बीच युद्ध क्यों हुआ?
उत्तर
आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व कौरवों और पाण्डवों के बीच राज्य-प्राप्ति के लिए युद्ध हुआ था। पाण्डव अपना अधिकार चाहते थे जबकि कौरवों के पास सत्ता बल था।
(ख) श्रीकृष्ण ने ज्ञान का उपदेश किसे दिया ?
उत्तर
युद्धभूमि में किंकर्तव्यविमूढ़ शोक मान खड़े अर्जुन को स्वधर्म का मार्ग बतलाने और उसे मोह तथा अज्ञान से मुक्त कराने के लिए श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ज्ञान युक्त उपदेश दिया।
(ग) नाशवान कौन-कौन हैं?
उत्तर
श्रीकृष्ण के अनुसार संसार की प्रत्येक वस्तु नाशवान है। उन्होंने अर्जुन से कहा कि उसके चारों ओर खड़े उसके अपने स्वजन भी नाशवान हैं।
(घ) गीता ने किस स्वभाव के व्यक्ति को नापसन्द किया है?
उत्तर
गीता ने आसुरी स्वभाव के व्यक्ति को नापसन्द किया है।
प्रश्न 4.
तीन से पाँच वाक्यों में उत्तर दीजिए
(क) मोक्ष के योग्य व्यक्ति कौन होता है?
उत्तर
गीता के अनुसार धैर्यवान पुरुष और सुख-दुःख को समान समझने वाले व्यक्ति को इन्द्रियों और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते। ऐसा व्यक्ति मोक्ष के योग्य होता है।
(ख) श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता के माध्यम से क्या उपदेश दिया?
उत्तर
श्रीमद्भगवद्गीता, जिसे गीता के नाम से भी जाना जाता है, में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से पुरुषार्थी बनने के लिए कहा। उन्होंने कहा कि पलायन कभी भी मनुष्य के यश में वृद्धि नहीं कर सकता। मनुष्य को सत्य, न्याय और अधिकार की रक्षा के लिए आवश्यकता पड़ने पर युद्ध के लिए तत्पर रहना चाहिए। उन्होंने कहा कि आत्मा अजर एवं अमर है, उसे कोई नष्ट नहीं कर सकता। अतः, परिजन-मोह त्यागकर उसे अपने क्षत्रिय-धर्म के अनुपालनार्थ युद्ध करना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से बिना फल की इच्छा किए कर्म करते रहने का आह्वान किया। उन्होंने आत्मा के अतिरिक्त सभी वस्तुओं को नाशवान बताया। उन्होंने बताया कि एक क्षत्रिय के लिए युद्ध से अधिक श्रेष्ठ और कल्याणकारी कर्त्तव्य कोई दूसरा नहीं है। श्रीकृष्ण के अनुसार जीवन की सार्थकता मोह से प्रभावित हुए बिना कर्म करने और कायरता को त्यागने में है।
(ग) गीता को परमात्मा की वाणी क्यों कहा गया है?
उत्तर
श्रीमद्भगवद्गीता जिसे गीता के नाम से भी जाना जाता है, में भगवान श्रीकृष्ण ने मोहग्रसित अर्जुन को कर्म का महान् उपदेश दिया। यह उपदेश उन्होंने अर्जुन को महाभारत युद्ध के दौरान दिया। साक्षात् भगवान श्रीकृष्ण के श्रीमुख से निसृत होने के कारण गीता को परमात्मा की वाणी भी कहा जाता है।
(घ) युद्धभूमि में अर्जुन के भ्रमित होने का क्या कारण था?
उत्तर
कौरवों और पाण्डवों के मध्य सुलह-समझौते की तमाम कोशिशें असफल सिद्ध हुई थीं। अब युद्ध निश्चित था।
कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध का बिगुल बज उठा। ऐसी युद्धभूमि में अर्जुन ने श्रीकृष्ण से, जो उनके रथ के सारथी भी थे, अपना रथ दोनों सेनाओं के बीच ले चलने के लिए कहा। श्रीकृष्ण ने ऐसा ही किया और अर्जुन का रथ दोनों सेनाओं के ठीक मध्य में लाकर खड़ा कर दिया। अर्जुन ने जब दोनों ओर मरने-मारने को तैयार अपने सगे-सम्बन्धियों, परिवारजनों, प्रियजनों को खड़े देखा तो वह मोहपाश में जकड़कर भ्रमित हो गया।
(ङ) आज भी श्रीमद्भगवद्गीता क्यों प्रासंगिक है?
उत्तर
महाभारत काल में युद्ध के मैदान में भगवान श्रीकृष्ण के श्रीमुख से निकले श्रीमद्भगवद्गीता के उपदेश वर्तमान समय में भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने कि तब थे। आज भी न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म का युद्ध व्यक्ति के अन्दर चल रहा है। स्वार्थ और आसुरी वृत्तियाँ आज भी समाज में संघर्ष, तनाव तथा भय पैदा करती रहती हैं। मोह-ममता से ग्रसित व्यक्ति आज भी कर्तव्य पालन से कतराता है। वह सत्य व्यवहार नहीं करता। अतः वर्तमान समय में भी श्रीमद्भगवद्गीता की प्रासंगिकता स्पष्ट है।
प्रश्न 5.
सोचिए और बताइए
(क) जब गीता नहीं थी तो लोगों को जीवन जीने की कला की शिक्षा कहाँ से प्राप्त होती होगी?
उत्तर
जब गीता नहीं थी तो लोगों को जीवन जीने की कला की शिक्षा सम्भवतया हमारे वेदों एवं पुराणों से प्राप्त होती रही होगी। ऋषि-मुनि एवं साधु-सन्त तब के लोगों को उत्तम और सार्थक जीवन जीने के लिए प्रेरणा स्रोत का कार्य करते रहे होंगे। साथ ही, मनुष्य अपने पूर्वजों के उच्च आदर्शों का अनुकरण करते हुए अपने जीवन को धन्य बनाता रहा होगा।
(ख) गीता ने कहा है कि सात सौ श्लोक मेरे सन्देशवाहक हैं। कैसे?
उत्तर
गीता युद्ध काल में लिखी गई एक अनुपम कृति है। गीता राग-द्वेष रहित होकर जीवन जीने और आसुरी प्रवृत्तियों का विरोध करने की शिक्षा देती है। वास्तव में गीता की सम्पूर्ण शिक्षाएँ कुल अठारह अध्यायों में संरक्षित हैं। ये शिक्षाएँ इन अठारह अध्यायों में सात सौ श्लोकों में विद्यमान हैं। इन सात सौ श्लोकों में से प्रत्येक श्लोक मानव-जीवन के कल्याण हेतु अमृत-तुल्य है। अत: यह कहना बिल्कुल ठीक है कि गीता के सात सौ श्लोक उसके उपदेशों अथवा शिक्षाओं के सन्देशवाहक हैं।
(ग) कौरवों और पाण्डवों के बीच हुए युद्ध को न्याय-अन्याय के बीच युद्ध क्यों कहा गया है ?
उत्तर
आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व पाण्डवों और कौरवों के मध्य महाभारत नामक एक भयंकर युद्ध हुआ। पाण्डव जहाँ सत्य और न्याय के पक्षधर थे वहीं कौरवों के राज्य में अन्यायऔर अधर्म का बोलबाला था। पाण्डव अपना नैतिक एवं जायज अधिकार चाहते थे जबकि कौरव उन्हें सुई की नोंक के बराबर भूमि भी देने को तैयार न थे। श्रीकृष्ण ने स्वयं पहल करते हुए समझौते कराने एवं युद्ध टालने के भरसक प्रयास किये किन्तु अधर्मी कौरवों ने उनकी एक बात न मानी। ऐसे में युद्ध आवश्यक हो गया। पाण्डव अपना अधिकार चाहते थे जबकि कौरवों के पास सत्ता-बल था। अतः, इस युद्ध को न्याय-अन्याय के बीच युद्ध अथवा धर्म-अधर्म के बीच युद्ध कहा गया।
(घ) यदि हम आसक्ति भाव से कर्म करेंगे तो क्या होगा?
उत्तर
गीता मनुष्य को अनासक्त भाव से कर्म करने की प्रेरणा देती है। यदि हम आसक्ति भाव से कर्म करेंगे तो हमारा ध्यान कर्म पर न लगकर उससे प्राप्त होने वाले परिणाम पर केन्द्रित रहेगा जिसके परिणामस्वरूप न तो हम अपनी पूरी योग्यता और दक्षता से अपने कर्म को सम्पादित कर पायेंगे और न ही हमें ऐसे कर्म के वांछित परिणाम ही प्राप्त होंगे। साथ ही, वांछित परिणाम प्राप्त न होने पर मनुष्य के मन में हीन भावना एवं अवसाद के भाव उत्पन्न होंगे। इसीलिए गीता हमें सदैव बिना फल की चिन्ता किये लगातार कर्म करते रहने की प्रेरणा देती है।
प्रश्न 6.
अनुमान और कल्पना के आधार पर उत्तर दीजिए
(क) यदि कौरव और पाण्डवों में युद्ध न हुआ होता तो क्या होता?
उत्तर
यदि कौरवों और पाण्डवों के बीच युद्ध न हुआ होता तो एक ओर तो मानव सभ्यता महाभारत जैसे युद्ध की विभीषिका से बच जाती किन्तु दूसरी ओर उसे मानव-कल्याण रूपी गीता जैसे अमृत-ग्रन्थ की प्राप्ति भी न हो पाती। वास्तव में, गीता जैसी महान कृति का जन्म महाभारत युद्ध के दौरान ही हुआ था।
(ख) यदि अर्जुन के मन में मोह उत्पन्न न हुआ होता तो क्या होता?
उत्तर
कुरुक्षेत्र के मैदान में दोनों सेनाओं में अपने नातेरिश्तेदारों और सगे-सम्बन्धियों को देखकर अर्जुन के मन में अचानक ही उनके प्रति मोह उत्पन्न हो गया और वह युद्ध न करने की बात करने लगा। अर्जुन की कायरता को देखकर भगवान श्रीकृष्ण ने उसे गीता के उपदेश सुनाकर उसके अकारण परिजन-मोह को दूर किया।
स्पष्ट है कि यदि युद्ध के दौरान अर्जुन के मन में मोह उत्पन्न न हुआ होता तो गीता जैसे महान ग्रन्थ की रचना भी नहीं हुई होती और मानव सभ्यता गीता के उपदेशों और उसकी उच्च शिक्षाओं से वंचित रह जाती।
(ग) यदि अर्जुन की जगह तुम होते तो युद्ध करते या नहीं?
उत्तर
यदि अर्जुन के स्थान पर मैं होता और मुझे भगवान श्रीकृष्ण का साथ मिलता तो मैं अवश्य युद्ध करता। मैं कायरता के भाव को अपने मन में न आने देता और अपने क्षत्रिय-धर्म का बखूबी पालन करता।
(घ) यदि कृष्ण, अर्जुन के सखा एवं हितैषी न होते तो क्या होता?
उत्तर
यदि कृष्ण, अर्जुन के सखा एवं हितैषी न होते तो मोहवश अपने क्षत्रिय धर्म से विमुख अर्जुन को उसके कर्म का भान भला कौन कराता? ऐसे में न सिर्फ उसकी अपितु पाण्डवों की उज्ज्वल छवि धूमिल हो जाती। इतिहास में उसका नाम एक वीर योद्धा के रूप में दर्ज न होकर युद्ध से पलायन करने वाले एवं मोह-माया में जकड़े एक कायर के रूप में लिखा होता।
(ङ) यदि दुर्योधन किसी तरह राज्य का उत्तराधिकारी बन गया होता तो क्या होता?
उत्तर
यदि कौरव-पाण्डवों के युद्ध में कौरवों को विजय मिलती और दुर्योधन राज्य का उत्तराधिकारी बन जाता तो चारों ओर अन्याय और अधर्म का राज्य होता। ऐसे में सत्य और धर्म का आचरण करने वालों का जीवन जीना कठिन हो जाता। चारों ओर लूट-खसोट और अराजकता फैल जाती। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि दुर्योधन के राज्य का उत्तराधिकारी बनने पर राज ‘कुराज’ में बदल जाता और ऐसे में मानव-मात्र का जीवन खतरे में पड़ जाता।
भाषा की बात
प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों का शुद्ध उच्चारण कीजिए
भ्रमित, वितृष्णा, विरक्ति, हतप्रभ, किंकर्तव्यविमूढ़, अनासक्त, संन्यास, तात्विक, विश्वात्मा, व्याप्त, सम्मत, संघर्ष।
उत्तर
उपरोक्त सभी खण्डों को त्रुटिरहित उच्चरित कीजिए।
प्रश्न 2.
निम्नलिखित शब्दों की वर्तनी शुद्ध कीजिए
भूमति, वित्रष्णा, विरक्ती, किंकतळ, हतपृभ, सन्यास, तातविक, सममत, सनघर्ष, व्यापत।
उत्तर
प्रश्न 3.
‘त्व’ प्रत्यय लगाकर निम्नलिखित शब्दों से नए शब्द बनाइए
गुरु, पुरुष, कृति।
उत्तर
प्रश्न 4.
निम्नलिखित शब्दों का वाक्यों में प्रयोग कीजिए
राज्य प्राप्ति, युद्धभूमि, कारागार, मोर्चा, शिथिल।
उत्तर
(क) राज्य प्राप्ति – कौरवों को महाभारत के युद्ध में पराजित कर पाण्डवों को राज्य प्राप्ति हुई।
(ख) युद्धभूमि – कुरुक्षेत्र महाभारत काल की प्रसिद्ध युद्धभूमि है।
(ग) कारागार – श्रीकृष्ण का जन्म कारागार में हुआ था।
(घ) मोर्चा – रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के विरुद्ध स्वयं युद्ध का मोर्चा संभाला।
(छ) शिथिल – ठण्ड के कारण बुजुर्ग महिला के सभी अंग शिथिल पड़ गये थे।
प्रश्न 5.
अपठित गद्यांश
‘गीता शास्त्रों का दोहन है। मैंने कहीं पढ़ा था कि सारे उपनिषदों का निचोड़ उसके सात सौ श्लोकों में आ जाता है। इसलिए मैंने निश्चय किया कि कुछ न हो सके तो भी गीता का ज्ञान प्राप्त कर लें। आज गीता मेरे लिए केवल बाइबिल नहीं है, केवल कुरान नहीं है, मेरे लिए वह माता हो गई है। मुझे जन्म देने वाली माता तो चली गई, पर संकट के समय गीता माता के पास जाना मैं सीख गया हूँ। मैंने देखा है जो कोई इस माता की शरण में जाता है, उसे ज्ञानामृत से वह तृप्त करती है।-मो. क. गाँधी उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर दीजिए
(1) गाँधीजी के अनुसार गीता क्या है ?
(2) गाँधीजी संकट के समय किसके पास जाते थे?
(3) अपनी शरण में आने वालों को गीता क्या लाभ पहुँचाती है?
(4) गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
उत्तर
- गाँधीजी के अनुसार गीता उनके लिए मात्र कोई धार्मिक ग्रन्थ नहीं है, अपितु वह उनकी माता के समान है।
- गाँधीजी संकट के समय गीता-माता के पास जाते थे।
- अपनी शरण में आने वाले को गीता ज्ञानामृत से तृप्त करती है।
- शीर्षक : ‘गाँधी और गीता’।
मैं श्रीमद्भगवद्गीता हूँ परीक्षोपयोगी गद्यांशों की व्याख्या
(1) जानते हो मेरा जन्म कहाँ हुआ ? मेरा जन्म किसी राजपरिवार अथवा ऋषि आश्रम में नहीं हुआ अपितु युद्ध भूमि में हुआ वैसे ही जैसे श्रीकृष्ण का जन्म कारागार में हुआ था। यह युद्ध भूमि कुरुक्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध है जो वर्तमान में हरियाणा राज्य में अवस्थित है।
सन्दर्भ-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘भाषा-भारती’ के ‘मैं श्रीमद्भगवद्गीता हूँ’ नामक पाठ से लिया है। इसकी लेखिका डॉ. लता अग्रवाल हैं।
प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश में ‘गीता’ स्वयं अपनी उत्पत्ति के स्थान का वर्णन कर रही है।
व्याख्या-भगवान श्रीकृष्ण के श्रीमुख से निकली गीता अपने उत्पत्ति स्थान एवं परिवेश की जानकारी देते हुए कह रही है कि उसका जन्म किसी राजा के कुल अथवा किसी महान ऋषि की तपोभूमि पर नहीं हुआ है, अर्थात् उसको किसी राजा के दरबारी अथवा ऋषि-मुनि ने नहीं लिखा है। उसका जन्म तो युद्ध के मैदान में हुआ है, ठीक वैसे ही जैसे भगवान श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा स्थित कारावास में हुआ था। गीता बताती है कि मरने-मारने पर उतारू कौरवों और पाण्डवों की सेना के मध्य, वर्तमान हरियाणा राज्य में स्थित कुरुक्षेत्र नामक स्थान पर उसकी उत्पत्ति हुई और वह स्वयं भगवान श्रीकृष्ण द्वारा रची गई है।
(2) अर्जुन ने जब दोनों ओर युद्ध के लिए तैयार सगे सम्बन्धियों, परिवारजनों, प्रियजनों को देखा तो वह मोहपाश में जकड़कर भ्रमित हो गया। अर्जुन के मन में युद्ध के प्रति वितृष्णा होने लगी। युद्धभूमि के दृश्य को देखकर वह हतप्रभ रह गया। उसके अंग शिथिल होने लगे। हाथों से उसका धनुष गाण्डीव गिरने लगा। वह खड़ा होने में भी असमर्थ हो रहा था।
सन्दर्भ-पूर्व की तरह।
प्रसंग-प्रस्तुत पंक्तियों में कुरुक्षेत्र के मैदान में परिजन-मोह से ग्रसित अर्जुन की दशा का सजीव वर्णन किया गया है।
व्याख्या-समझौते की तमाम कोशिशों के असफल होने के बाद जब कौरवों और पाण्डवों में युद्ध का बिगुल बजा तो अर्जुन ने श्रीकृष्ण से अपना सारथी बनने का अनुरोध किया। श्रीकृष्ण ने इस पर अपनी सहमति प्रकट की। युद्ध के मैदान में लड़ाई के लिए तत्पर दोनों सेनाओं के बीच जब श्रीकृष्ण ने अर्जुन के रथ को ले जाकर खड़ा कर दिया तो अर्जुन ने अपने चारों ओर एक दृष्टि डाली। दोनों सेनाओं में मरने-मारने को उतारू अपने सगेसम्बन्धियों, नाते-रिश्तेदारों, गुरुजनों, सखाओं और बन्धु-बान्धवों को देखकर उसका गला सूख गया।
उसे परिजन-मोह हो गया। वह अपने क्षत्रिय धर्म को भूलकर दर्शन की बात करने लगा। उसके मन में अचानक युद्ध के प्रति घृणा उत्पन्न हो गई। वह युद्ध को मानवता के लिए विनाशकारी कहने लगा। युद्धभूमि के दृश्य को देखकर वह महायोद्धा अत्यन्त विचलित हो गया। उसके सभी अंगों ने मानो एक साथ काम करना बन्द कर दिया हो, उसे ऐसा अनुभव होने लगा कि उसके हाथों से उसका प्रिय धनुष’गाण्डीव’ गिरने लगा। वह सूखे पत्ते की तरह काँपने लगा। उसके पैरों में शरीर का बोझ उठाने तक की क्षमता नहीं बची।
(3) मैंने अर्जुन से कहा कि वह पुरुषार्थी बने। पलायन कभी भी मनुष्य के यश में वृद्धि नहीं कर सकता। मैंने कहा कि जब न्याय और अधिकार प्राप्त करने के लिए कोई मार्ग नबचे और युद्ध ही करना पड़े तब हृदय और मन की सम्पूर्ण दुर्बलताओं को त्यागकर समर भूमि में धीर, गंभीर योद्धा को विचलित हुए बिना युद्ध करना चाहिए। मैंने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति की मृत्यु निश्चित है।
सन्दर्भ-पूर्व की तरह।
प्रसंग-इन पंक्तियों में युद्धभूमि के दृश्य को देखकर विचलित अर्जुन को उसके क्षत्रिय-धर्म की याद दिलाने की कोशिश की गई है।
व्याख्या-कुरुक्षेत्र के मैदान में दोनों सेनाओं में अपने सगे-सम्बन्धियों को खड़ा देख जब अर्जुन अपने क्षत्रिय-धर्म से विमुख हो युद्ध न करने की बात करने लगा, तो भगवान श्रीकृष्ण ने गीता रूपी उपदेश के माध्यम से अर्जुन को समझाया कि वह पुरुषार्थी बने, अर्थात् बिना फल की इच्छा किये अपने धर्म-सम्मत कार्य को अपनी पूर्ण निष्ठा और क्षमता से करे।
कार्य के परिणाम की सोचकर उससे पलायन कर जाना कभी भी मनुष्य की कीर्ति को बढ़ाने वाला नहीं हो सकता। श्रीकृष्ण ने बेहाल अर्जुन को प्रेरित करते हुए आगे कहा कि जब सत्य, न्याय और अपना वैधानिक अधिकार प्राप्त करने के लिए कोई रास्ता न बचे और युद्ध आवश्यक हो जाये तो बिना युद्ध के परिणाम की चिन्ता किये युद्ध अवश्य करना चाहिए। इस क्रम में अपने हृदय और मन की सभी कमजोरियों, मोह इत्यादि को त्यागकर युद्धभूमि में एक वीर योद्धा की तरह अपने धर्म का पालन करना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उसके परिजन-मोह से उबारने के लिए कहा कि जन्म लेने वाले प्रत्येक मनुष्य की मृत्यु तो निश्चित है। अत: उसे अपने क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए एक योद्धा की भाँति युद्ध करना चाहिए।
(4) धैर्यवान पुरुष और सुख-दुःख को समान समझने वाले व्यक्ति को इन्द्रियों और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते। ऐसा व्यक्ति मोक्ष के योग्य होता है। हे अर्जुन ! सुन, तू युद्ध कर या न कर, ये सभी नाशवान हैं, केवल वहनाशरहित है जिसमें यह सम्पूर्ण विश्व समाहित है। यह जो चारों ओर तू अपने स्वजनों को देखकर विचलित हो रहा है ये सब नाशवान हैं। इन सबको नष्ट होना ही है। केवल आत्मा अमर है। वही नित्य है। अत: हे अर्जुन ! तू समर भूमि में शोक रहित होकर अपने धर्म को पहचान। तू क्षत्रिय है, तेरे लिए युद्ध से अधिक श्रेष्ठकोई कल्याणकारी कर्त्तव्य नहीं हैयही तेरा स्वधर्म है अत: तू युद्ध कर।
सन्दर्भ-पूर्व की तरह।
प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को आत्मा की अमरता एवं अजरता रूपी तत्वज्ञान प्रदान करने की बात कही गई है।
व्याख्या-कुरुक्षेत्र के मैदान में दोनों सेनाओं के मध्य खड़े रथ में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को गीता का महान उपदेश देते हए कहते हैं कि मनुष्य को सदैव सुख और दुःख को समान रूप में लेना चाहिए। ऐसे धैर्यवान मनुष्य कभी भी अपने कर्तव्य-पथ से नहीं डिगते और न ही उन्हें मोह-माया अथवा इन्द्रियों की कमजोरी व्याकुल कर पाती है। भावनाओं, इन्द्रियों और परिस्थितियों के चंगुल-प्रलोभन से परे व्यक्ति मोक्ष के योग्य होता है। श्रीकृष्ण अर्जुन को सम्बोधित करते हुए आगे कहते हैं कि हे अर्जुन ! अपने चारों ओर खड़े जिन परिजनों को देखकर जो तू इतना उदास हो चला है वे सभी नाशवान हैं। तू भले ही इनके मोह से वशीभूत हो युद्ध से पलायन कर इन्हें न मार किन्तु ये सभी तो नाशवान हैं।
इन सबको तो नष्ट होना ही है। यही क्या संसार में सभी प्राणी, जिनका जन्म हुआ है, उन्हें मरना है। मृत्यु ही इनकी नियति है। सिर्फ आत्मा अजर और अमर है। वही सनातन है और सत्य भी। वह नाशरहित है, कोई उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। अत: हे अर्जुन | तू जल्द से जल्द अपनी इस इन्द्रिय-दुर्बलता को त्यागकर अपने क्षत्रिय-धर्म का पालन कर और युद्ध कर क्योंकि एक क्षत्रिय के लिए युद्ध से अधिक महान एवं कल्याणकारी कर्त्तव्य दूसरा नहीं है। अतः, तू अपने निज धर्म के पालनार्थ मोह-माया से परे होकर निडरता एवं निर्भीकता के साथ युद्ध कर।