MP Board Class 12th Special Hindi स्वाति कवि परिचय (Chapter 6-10)

11. बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ [2017]

  • जीवन परिचय

बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ का काव्य राष्ट्रीय चेतना और जनजागृति का काव्य है। इन्होंने जहाँ परतन्त्र भारत के सोते हुए लोगों को जगाने का काम किया वहीं मानवीय भावना से ओतप्रोत प्रेमाकुल काव्य की रचना भी की। इन्होंने वीर एवं श्रृंगार दोनों में समान रूप से लिखकर हिन्दी काव्य को अमर रचनाएँ प्रदान की।

राष्ट्रवादी चिन्तक, जुझारु पत्रकार एवं ओजस्वी कवि पंडित बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ का जन्म सन् 1897 ई. में शाजापुर जिले के शुजालपुर के मयाना गाँव में हुआ था। इन्होंने गणेश शंकर विद्यार्थी के सानिध्य में पत्रकारिता और महात्मा गाँधी के सम्पर्क में गाँधीवादी विचारों को अपनाया। नवीनजी ने स्वतन्त्रता आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभायी, साथ ही भारतीय संस्कृति, राष्ट्रीय चेतना और नवयुवकों को प्रेरणा देने वाली ओजस्वी रचनाओं को भी लिखते रहे। इन्होंने प्रेम व श्रृंगारपरक गीत भी लिखे। नवीनजी भारतीय संविधान निर्मात्री परिषद के सदस्य भी रहे। संविधान में हिन्दी को राजभाषा का पद दिलाने में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। 1952 से 1960 ई. तक ये संसद सदस्य भी रहे। 1960 में भारत सरकार ने इन्हें ‘पद्म विभूषण’ की उपाधि से विभूषित किया। सन् 1960 में हृदय गति रुक जाने से इनका देहावसान हो गया।

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  • साहित्य सेवा

नवीनजी ने अपना साहित्यिक जीवन पत्रकारिता से प्रारम्भ किया। गणेशशंकर विद्यार्थी के सम्पर्क में आने के बाद ‘प्रताप के प्रधान सम्पादक बने। राष्ट्रीय स्वर को प्रधानता देने वाली पत्रिका ‘प्रभा’ के भी ये सम्पादक रहे। इन्होंने प्रेम, श्रृंगार, राष्ट्रीय भावना, भारतीय संस्कृति, भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन आदि विषयों पर ओजस्वी रचनाएँ लिखीं। प्रकृति के विभिन्न रूपों के चित्रण के साथ उनके काव्य में रहस्यवादी भावना के दर्शन भी होते हैं।

  • रचनाएँ
  1. उर्मिला इसमें उर्मिला के जन्म से लेकर लक्ष्मण से पुनर्मिलन तक की कथा वर्णित है। इस काव्य में उर्मिला का विरह वर्णन बड़ा ही मार्मिक है।
  2. रश्मि रेखा-प्रेम, कला तथा संवेदना की दृष्टि से यह उत्कृष्ट काव्य है।
  3. कुंकुम इस गीत संग्रह में यौवन और प्रखर राष्ट्रीयता का स्वर मुखरित है।
  4. अपलक, क्वासि इनमें प्रेम और भक्ति से पूर्ण कविताएँ संकलित हैं।
  5. प्राणार्पण यह गणेशशंकर विद्यार्थी के बलिदान पर लिखा गया खण्डकाव्य है।
  6. विनोवा स्तवन-इसमें विनोवा भावे के भूदान यज्ञ की प्रशस्ति में लिखे गये पद हैं।
  • भाव-पक्ष
  1. देश-प्रेम की भावना-इनकी कविताओं में देश-प्रेम की भावना उत्कृष्ट रूप से उजागर हुई है।
  2. क्रान्ति भावना-नवीन जी की कविताओं में स्वतन्त्रता संग्राम के दौर में भोगे हुए अनुभव जीवन्त हैं और उनसे उपजे जागृति के स्वर भी मुखर हैं।
  3. प्रेम व भक्ति-भावना-देश-प्रेम और राष्ट्रीय चेतना से स्फूर्त होने के परिणामस्वरूप रचनाओं में ओज प्रखर है तो प्रेम प्रवण अभिव्यक्ति में कोमलता निहित है। प्रेमाकुल संवेदनाएँ मानवीय भावनाओं से सराबोर हैं।
  • कला पक्ष
  1. भाषा शैली-नवीनजी की तत्सम शब्द प्रधान भावानुकूल भाषा है। इनकी शैली ओजपूर्ण एवं प्रबन्ध है।
  2. छन्द योजना-भावों के अनुकूल छन्द योजना उत्कृष्ट बन पड़ी है।
  3. प्रकृति चित्रण-प्रकृति के विविध रूप यत्र-तत्र दृष्टव्य हैं।
  • साहित्य में स्थान

बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ के काव्य में राष्ट्र प्रेम.मानव प्रेम.लौकिक प्रेम तथा अलौकिक प्रेम का प्रस्फुटन एक साथ हुआ है। नवीनजी छायावाद के समानान्तर बहने वाली प्रेम और श्रृंगार की धारा के कवि हैं। इनका अधिकांश काव्य मानवता तथा राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत है,जिसके कारण हिन्दी साहित्य में इनको सम्माननीय स्थान प्राप्त है।

12. श्रीकृष्ण सरल [2015]

  • जीवन परिचय

श्रीकृष्ण सरल का जन्म 9 जून, 1921 ई. को मध्यप्रदेश के अशोक नगर में हुआ था। बचपन से ही ये कविताएँ लिखने लगे थे। यद्यपि उन्होंने गद्य की सभी विधाओं में लिखा है, फिर भी मूल रूप से वह कवि थे।

इनके हृदय में क्रान्तिकारियों के प्रति अनुराग था। प्रमुख क्रान्तिकारियों के ऊपर इन्होंने महाकाव्य लिखे। देश-भक्ति की भावना से ओतप्रोत सरलजी ने देश-भक्तों को ही लेखन का केन्द्र बनाया। उनकी ‘क्रान्ति कथाएँ’ भारतीय क्रान्तिकारियों की ‘एनसाइक्लोपीडिया’ है जिसमें लगभग दो हजार क्रान्तिकारियों के जीवन-वृत्तान्त सम्मिलित हैं। गद्य के क्षेत्र में इन्होंने कहानियाँ, उपन्यास,एकांकी,जीवनियाँ और निबन्ध लिखे। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस पर इन्होंने पन्द्रह ग्रन्थों का प्रणयन किया। उनका कार्यस्थल उज्जैन रहा। इन्होंने बी. ए. तक शिक्षा प्राप्त की। फिर अध्यापन का कार्य किया। सरलजी का देहान्त 2 सितम्बर,2000 ई.को उज्जैन में हुआ।

  • साहित्य सेवा

सरलजी का लेखन इतिहास जैसा प्रामाणिक और शोधपूर्ण है। लेखन के लिए इन्होंने देश के भीतर और देश के बाहर अनेक यात्राएँ की। उनका सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र के लिए समर्पित था। उन्होंने स्वयं लिखा है

“कर्त्तव्य राष्ट्र के लिए समर्पित हों अपने,
हो इसी दिशा में उत्प्रेरित चिन्तन धारा,
हर धड़कन में हो राष्ट्र, राष्ट्र हो साँसों में,
हो राष्ट्र-समर्पित मरण और जीवन सारा।”

  • रचनाएँ
  1. महाकाव्य-शहीद भगतसिंह, अजेय सेनानी चन्द्रशेखर आजाद, सुभाषचन्द्र, जय सुभाष,शहीद अशफाक उल्ला खाँ,विवेक श्री, स्वराज तिलक,क्रान्ति ज्वाला,बागी कर्तार।
  2. गद्य रचनाएँ–’कालजयी सुभाष’,क्रान्ति कथाएँ।
  3. कविताएँ-आँसू,छोड़ो लीक पुरानी,जवानी खुद अपनी पहचान, देश के सपने फूलें फलें,देश से प्यार, धरा की माटी बहुत महान, नेतृत्व,प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है,पीड़ा का आनन्द, प्रेम की पावन धारा,मत ठहरो, मुझमें ज्योति और जीवन है, वीर की तरह,शहीद,सैनिक।
  • भाव पक्ष
  1. देश-विदेश भ्रमण के बाद उन अनुभूतियों को अपने काव्य में मूर्तिरूप प्रदान किया।
  2. राष्ट्रवाद एवं क्रान्तिकारी भावों का अपने काव्य में प्रणयन किया।
  3. राष्ट्र-प्रेम की अभिव्यक्ति सरल जी का हृदय राष्ट्र-प्रेम की भावनाओं से भरपूर था। क्रान्तिकारियों के प्रति इनके हृदय का अनुराग इनके काव्य में परिलक्षित होता है।
  4. कर्त्तव्य और भारतीय संस्कृति में रुचि इनकी अपने कर्त्तव्य और भारतीय संस्कृति में आस्था थी,जो काव्य के रूप में प्रकट हुई। एक उदाहरण देखिए

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“कर्त्तव्य राष्ट्र के लिए समर्पित हों अपने,
हो इसी दिशा में उत्प्रेरित चिन्तन धारा।”

  • कला पक्ष
  1. भाषा-सरल जी की भाषा ओजपूर्ण है। देश के प्रति अथाह प्रेम इनकी भाषा में देखने को मिलता है। गद्य और पद्य दोनों में इन्होंने अपनी लेखनी चलाई है। भाषा शुद्ध एवं परिमार्जित है।
  2. अलंकार योजना यथास्थान इन्होंने अलंकारों का प्रयोग भी किया है। वह अनूठा बन पड़ा है। प्रतीकों के माध्यम से अपने भावों को पाठकों तक पहुँचाया है।
  3. रस योजना-सरलजी ने प्राय: वीर रस को ही अपनाया है। इनकी कविताएँ वीर रस में डूबी हुई हैं और ओजस्वी भाषा में नवयुवकों को प्रेरणा दे रही हैं। एक उदाहरण देखिए राष्ट्र के श्रृंगार ! मेरे देश के साकार सपनो ! देश की स्वाधीनता पर आँच तुम आने न देना। जिन शहीदों के लहू से लहलहाया चमन अपना उन वतन के लाड़लों की याद तुम मुझाने न देना।
  • साहित्य में स्थान

श्रीकृष्ण ‘सरल’ ने अपने क्रान्तिकारी लेखन से विश्व में कीर्तिमान स्थापित किया। ‘सरल जी’ का लेखन इतिहास जैसा प्रामाणिक और शोधपूर्ण है। उनकी साहित्य साधना गहन तपस्या थी। राष्ट्र उनकी साँसों में बसता था। यद्यपि इन्होंने गद्य की सभी विधाओं में लिखा है, फिर भी मूल रूप से वह कवि थे। अपनी उत्कृष्ट सेवा के लिए साहित्य में उनका सम्माननीय स्थान है।

13. गोस्वामी तुलसीदास [2014, 17]

  • जीवन परिचय

गोस्वामी तुलसीदास एक सिद्ध कवि हैं जो देश-काल की सीमाओं से परे हैं। मानव प्रकृति के जिन रूपों का हृदयग्राही वर्णन तुलसी के काव्य में मिलता है, वैसा अन्यत्र उपलब्ध नहीं। गोस्वामी तुलसीदास का कोई प्रामाणिक जीवन परिचय उपलब्ध नहीं है। उनकी जन्म-तिथि,जन्म-स्थान, माता-पिता और विवाहादि के सम्बन्ध में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद हैं। फिर भी तुलसी के जीवन-वृत्त से सम्बन्धित जो भी सामग्री मिलती है उसके आधार पर कहा जाता है कि उनका जन्म संवत् 1589 वि.में बाँदा जिले के राजापुर नामक स्थान में हुआ था। परन्तु कुछ लोग सोरों (एटा) को इनका जन्म स्थान मानते हैं। इनके पिता का नाम आत्माराम और माता का नाम हुलसी था। कहा जाता है कि इनका जन्म अभुक्तमूल नामक अनिष्टकारी नक्षत्र में होने के कारण इनके माता-पिता ने इन्हें जन्म होते ही त्याग दिया था। स्वामी नरहरिदास के सानिध्य में इन्होंने वेद-पुराण एवं अन्य शास्त्रों का अध्ययन किया। तुलसीदास का विवाह दीनबन्धु पाठक की सुन्दर कन्या रत्नावली के साथ हुआ। किंवदन्ती है कि रलावली के व्यंग्य वाणों से आहत होकर ही तुलसी को संसार और सांसारिक ऐश्वर्यों से विरक्ति हो गई और सब कुछ छोड़कर वह काशी चले गए। वहाँ इन्होंने नाना पुराण निगमागम का गहन अध्यन किया,साथ ही रामकथा कहते रहे। काशी छोड़कर तुलसीदास अयोध्या चले गए और वहीं पर ‘रामचरितमानस’ का प्रणयन किया। तुलसी ने संसार तो त्याग ही दिया था। वे राम के चरित गायन में लग गए और स्वयं को अपने आराध्य राम की भक्ति में समर्पित कर दिया। संवत् 1680 वि.में इस महात्मा ने शरीर के बन्धनों को तोड़ दिया और परमतत्व में विलीन हो गए।

तुलसी के काव्य में प्रेम की उन्मत्तता,उत्कृष्ट वैराग्य,राम की अनन्य भक्ति एवं लोकमंगल की भावना भरी हुई थी।

  • साहित्य सेवा

तुलसी के काव्य में लोकमंगल की भावना परिपूर्ण थी। तुलसी ने राम के लोकमंगलकारी रूप को अपनी लोकपावनी कृतियों के सामने प्रतिष्ठापित किया है। तुलसी ने अपनी साहित्यिक कृतियों के माध्यम से समाजगत,राजनीतिक, आर्थिक स्थितिपरक तथा विविध जातिगत सम्बन्धों और उनके एकीकरण का अन्यतम प्रयास किया है। प्रत्येक तरह की एवं प्रत्येक क्षेत्र की समस्याओं का समाधान ढूँढ़ने का तर्कसंगत उपाय तुलसी ने प्रत्येक वर्ग के लिए अपने ही सृजित साहित्य में यथास्थान प्रस्तुत किया है।

  • रचनाएँ

उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं-दोहावली,कवितावली,रामचरित मानस,विनय पत्रिका,रामाज्ञा प्रश्न, हनुमान बाहुक,रामलला,नहछू,पार्वती मंगल,बरबै रामायण,संदीपनी तथा गीतावली। रामचरित मानस हिन्दी साहित्य का सर्वोत्कृष्ट महाकाव्य है। सोहर छन्दों में लिखे हुए ‘नहछ’, ‘जानकी मंगल’ और ‘पार्वती मंगल’ अच्छे खण्डकाव्य हैं। ‘गीतावली’, ‘कृष्ण गीतावली’, ‘विनय पत्रिका’ हिन्दी के सर्वोत्तम गीतिकाव्यों में से है। ‘विनय पत्रिका’ हिन्दी के . विनय काव्यों में श्रेष्ठ है। ‘कवितावली’ मुक्तक काव्य परम्परा की उत्कृष्ट रचना है।

  • भाव पक्ष

(1) भक्ति-भावना-तुलसी ‘रामभक्ति शाखा के प्रमुख कवि थे। धार्मिक दृष्टि से उदार होने का परिचय उन्होंने शिव, दुर्गा, गणेश आदि सभी देवी देवताओं की स्तुति करके दिया है। राम के प्रति तुलसी की भक्ति सेव्य-सेवक भाव की है। राम ही उनका एकमात्र बल, एकमात्र आशा और एकमात्र विश्वास है।
उदाहरण देखिए-

“एक भरोसो एक बल, एक आस विश्वास।
एक राम घनस्याम हित, चातक तुलसीदास॥”

(2) समन्वयवादी दृष्टिकोण तुलसी का दृष्टिकोण अत्यन्त व्यापक एवं समन्वयवादी था। उन्होंने राम के भक्त होते हुए भी अन्य देवी-देवताओं की वन्दना की। तुलसी की रचनाओं में भारतीय संस्कृति एवं धार्मिक विचारधारा पूर्णतः दिखाई देती है। वह प्रत्येक धर्म पद्धति को भगवान की प्राप्ति का साधन मानते हैं। विभिन्न क्षेत्रों में समन्वय के प्रति तुलसी इतने सचेष्ट थे कि अपने आराध्य राम में भी उन्होंने शक्ति, शील और सौन्दर्य का अद्भुत समन्वय प्रस्तुत किया है।

(3) दार्शनिक भाव-तुलसी ने अपनी भक्ति का निरूपण यद्यपि दार्शनिक आधार पर किया है, किन्तु उनकी दार्शनिक विचारधारा किसी मत या वाद से परे है। तुलसी की दृष्टि में राम साक्षात् परमब्रह्म हैं। संसार क्षणभंगुर और असत्य है। भवसागर को पार करने के दो ही साधन हैं-ज्ञान और भक्ति। वह ज्ञान और भक्ति में कोई भेद नहीं मानते-

“ज्ञानहिं भक्तिहिं नहिं कछु भेदा।
उभय हरहिं भव संभव खेदा॥”

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(4) लोकहित की भावना-तुलसीदास की भक्ति लोकमंगल की भावना से प्रेरित है। राम लोकपालक भगवान विष्णु के अवतार हैं। वे लोकहितकारी मानवता के उच्चतम आदर्श और मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। तुलसी के रामराज्य की कल्पना एक आदर्श है। उन्होंने मानवीय सिद्धान्तों पर आधारित समाज और शासन पद्धति के वृहद् स्वरूप को प्रस्तुत किया है।

(5) रससिद्धता तुलसी रससिद्ध कवि थे। उनकी कविताओं में श्रृंगार,शान्त, वीर रसों का समन्वय है। श्रृंगार रस के दोनों पक्षों संयोग और वियोग का बड़ा ही सजीव निरूपण किया है। रौद्र,करुण, अद्भुत रसों का बड़ा ही सुन्दर वर्णन हुआ है।

  • कला पक्ष

(1) भाषा तुलसी ने अपनी काव्याभिव्यक्ति हेतु उस काल में प्रचलित दोनों प्रमुख भाषाओं ब्रज और अवधी को अपनाया है। तुलसी मुख्य रूप से अवधी भाषा के कवि हैं। उनकी भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों की प्रचुरता है। रामचरित मानस अवधी में तथा कवितावली, गीतावली और विनय पत्रिका ब्रजभाषा में लिखी हैं। उनकी भाषा में सरलता, बोधगम्यता, सौन्दर्य,चमत्कार,प्रसाद,माधुर्य, ओज आदि सभी गुणों का समावेश है।

(2) शैली-तुलसी ने अपने युग में प्रचलित सभी शैलियों में काव्य रचना की। सभी मतों,सम्प्रदायों और सिद्धान्तों की कटुता को मिटाकर उनमें समन्वयवादी प्रवृत्ति को अपनाया है। उन्होंने अवधी,ब्रजभाषा में समान रूप से रचनाएँ लिखीं। जहाँ-तहाँ अरबी, फारसी,भोजपुरी और बुन्देलखण्डी भाषाओं के शब्द भी मिल जाते हैं। यत्र-तत्र मुहावरे और लोकोक्तियों ने उनकी भाषा को और भी सरस बना दिया है।

(3) छन्द योजना—तुलसी ने जायसी की दोहा-चौपाई छन्दों में ‘रामचरित मानस’ की रचना की। सरदास की पद शैली को उन्होंने विनय पत्रिका और गीतावली में अपनाया। कवितावली को उन्होंने सवैया शैली में लिखा। दोहावली में उन्होंने दोहा छन्द का प्रयोग किया।

(4) अलंकार योजना-तुलसी का अलंकार विधान अत्यन्त रोचक है। उनकी उपमाएँ अत्यन्त मनोहर हैं। उनके उपमा अलंकार को ही हम कहीं रूपक,कहीं उत्प्रेक्षा तो कहीं दृष्टांत के रूप में देखते हैं। उनके अलंकार काव्य का वास्तविक सौन्दर्य उजागर करने के लिए प्रयुक्त हुए हैं।

  • साहित्य में स्थान

गोस्वामी तुलसीदास लोक कवि हैं। उनके काव्य से जीने की कला सीखी जा सकती है। उनके काव्य का बहिःपक्ष जितना सबल है,उसका अन्तःपक्ष उससे भी सबल है। अयोध्यासिंह उपाध्याय ने उनके बारे में लिखा है
“कविता करके तुलसी न लसै, कविता लसी या तुलसी की कला।”

14. मैथिलीशरण गुप्त [2009, 12]

  • जीवन परिचय

अपने साहित्य से राष्ट्रीय चेतना जाग्रत करने वाले महान् कवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म चिरगाँव जिला झाँसी में सन् 1886 में हुआ था। इनके पिता का नाम सेठ रामचरण गुप्त था। वह वैष्णव होने के साथ-साथ एक अच्छे कवि भी थे। गुप्तजी को कविता के संस्कार अपने पिता से ही प्राप्त हुए। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा चिरगाँव में ही हुई। बाद में वे 9वीं कक्षा तक झाँसी में पढ़े। स्कूली शिक्षा में मन न लगने के कारण उन्होंने स्कूल छोड़ दिया और घर पर ही स्वाध्याय किया।

कुछ समय बाद गुप्तजी आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में आए। द्विवेदीजी की प्रेरणा से उनके मन-मानस में कवि का स्फुरण हुआ। पहले उनकी रचनाएँ ‘सरस्वती’ में छपी। सन् 1923 में गुप्तजी की भारत भारती’ नामक काव्यकृति प्रकाशित हुई जिसने उन्हें साहित्य जगत में प्रसिद्धि दी। सन् 1952 से 1964 तक राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहे। गुप्तजी को भारत का राष्ट्रकवि होने का गौरव प्राप्त रहा। सन् 1964 में हिन्दी के इस महान् कवि का स्वर्गवास हो गया।

  • साहित्य सेवा

मैथिलीशरण गुप्त ने अपने साहित्य से राष्ट्रीय चेतना जाग्रत की। उन्होंने भारतवासियों में एकता स्थापित करने तथा सद्भाव, सौजन्य व सौहार्द्र विकसित करने के लिए आजीवन साहित्य रचना की। उनका काव्य रामभक्ति व राष्ट्र भक्ति का अनूठा संगम है।

  • रचनाएँ

गुप्तजी ने प्रबन्ध और मुक्तक दोनों ही प्रकार के काव्य लिखे हैं। उनकी रचनाओं को चार भागों में बाँटा जा सकता है खण्डकाव्य, महाकाव्य, गीतिकाव्य और गीतिनाट्य। उन्होंने संस्कृत, बंगला और अंग्रेजी की कुछ रचनाओं का हिन्दी में अनुवाद भी किया है। गुप्तजी की मौलिक रचनाएँ निम्न हैं रंग में भंग, जयद्रथ वध, पद्य प्रबन्ध, भारत-भारती, शकुन्तला, तिलोत्तमा, चन्द्रहास,पंचवटी, स्वदेश-संगीत, हिन्दू सैरन्ध्री, वन वैभव, गुरुकुल, साकेत, यशोधरा, द्वापर, सिद्धिराज, मंगल घट, नहुष, कुणाल गीत, अर्जुन और विसर्जन, काबा और कर्बला, विश्ववेदना, अजित, प्रदक्षिणा, पृथ्वी पुत्र, हिडिम्बा, अंजुली और अर्घ्य, जय भारत, युद्ध और
शान्ति,विष्णुप्रिया। साकेत महाकाव्य है। यशोधरा,द्वापर, विष्णुप्रिया,पंचवटी तथा भारत-भारती उनके प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं।

  • भाव पक्ष

(1) भारतीय संस्कृति के पक्षधर-प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रति उनका आस्था असीम है। उनकी अधिकांश रचनाएँ अतीतकालीन सभ्यता और संस्कृति का गौरव लिए हुए हैं। प्राचीन भारतीय संस्कृति के स्वर्णिम चित्रों से उनके काव्य भरे पड़े हैं।

(2) राष्ट्र-प्रेम की अभिव्यक्ति-प्राचीन भारतीय संस्कृति में गहन आस्था रखने के साथ-साथ गुप्तजी का हृदय राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत है। उनके समय भारत अंग्रेजों का गुलाम था। भारतीय समाज की दशा अत्यन्त दयनीय थी। भारतीय अपने प्राचीन गौरवशाली आदर्शों को भूलते जा रहे थे। अपनी ‘भारत-भारती’ में वह भारतीयों का आह्वान करते हैं

“हम कौन थे, क्या हो गए है और क्या होंगे अभी।
आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी।”

(3) राम की अनन्य भक्ति-गुप्त जी सगुणोपासक वैष्णव कवि हैं। अन्य धर्मों के प्रति समुचित आदर रखते हुए वह राम के ही अनन्य भक्त हैं। काव्यों में उन्होंने मंगलाचरण के रूप में राम की स्तुति की है। कृष्ण चरित्र पर केन्द्रित द्वापर’ में वह इसी भाव को व्यक्त करते हुए कहते हैं-

“धनुर्बाण या वेणु लो, श्याम रूप के संग।
मुझ पर चढ़ने से रहा, राम दूसरा रंग।”

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(4) मानवतावादी दृष्टिकोण भारतीय संस्कृति मानवतावादी है। उनकी दृष्टि में सम्पूर्ण संसार एक कुटुम्ब के समान है।। गुप्तजी पूर्णतः मानवतावादी हैं। विश्व-प्रेम एवं लोक-सेवा के माध्यम से उन्होंने अपने काव्य में इसी विचारधारा को व्यक्त किया है।

(5) गाँधीवादी दृष्टिकोण-गुप्त जी गाँधीजी द्वारा चलाए गए स्वतन्त्रता आन्दोलन से भी जडे रहे थे। अतः उन पर गाँधीवादी विचारधारा का प्रभाव पड़ा। उनके काव्य में अहिंसा, सत्य, राष्ट-प्रेम,समाज सुधार, हरिजनोद्धार,स्वदेशी से सम्बन्धित जो दृष्टिकोण मिलता है वह अधिकतर गाँधीजी के विचारों से प्रेरित है।

(6) नारी के प्रति सम्मान गुप्तजी के हृदय में नारी जाति के प्रति आदर का भाव और उसकी वर्तमान करुण अवस्था के प्रति गहरी करुणा का भाव है। भारतीय समाज में नारी की स्थिति अत्यन्त दयनीय है। गुप्तजी का हृदय भारतीय नारी की दयनीय अवस्था पर अत्यन्त दुःखी होता है

“अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,
आँचल में है दूध और आँखों में पानी।”

(7) समन्वयवाद के पक्षधर-गुप्तजी को प्रायः समन्वयवादी कवि कहा जाता है। उनके काव्य में अतीत और वर्तमान, सगुण और निर्गुण, भक्ति और ज्ञान,सत और असत,व्यक्ति और समाज.धर्म और कर्म आदि जीवन के विभिन्न विरोधी पक्षों का अदभुत समन्वय है। रामचन्द्र शक्ल ने उनके बारे में लिखा है-“गुप्तजी वास्तव में सामंजस्यवादी कवि हैं। सब प्रकार उच्चता से प्रभावित होने वाला हृदय उन्हें प्राप्त है। प्राचीन के प्रति पूज्य भाव और नवीन के प्रति उत्साह दोनों इनमें हैं।”

  • कला पक्ष
  1. भाषा-गुप्तजी की काव्य की भाषा खड़ी बोली हिन्दी है। उनकी भाषा शुद्ध और परिमार्जित हिन्दी है, जिसमें संस्कृत शब्दों की बहुलता है। लेकिन भाषा क्लिष्ट नहीं होने पायी है। यथास्थान मुहावरे और लोकोक्तियों का प्रयोग हुआ है। सौन्दर्य और सजीवता के साथ-साथ उनकी भाषा में माधुर्य,ओज और प्रसाद गुणों का भी समावेश हुआ है।
  2. अलंकार योजना-गुप्तजी के काव्य में शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों ही प्रकार के अलंकारों का प्रयोग हुआ है। प्राचीन अलंकारों के साथ ही उन्होंने मानवीकरण, विश्लेषण-विपर्यय और ध्वन्यार्थ व्यंजना जैसे पाश्चात्य अलंकारों को भी अपनाया है। उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, विभावना, सन्देह आदि अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है।
  3. छन्द योजना-गुप्तजी के काव्य में छन्द विधान में पर्याप्त विविधता दिखाई देती है। या, छप्पय,घनाक्षरी,शिखरिणी,द्रुत विलम्बित; मालिनी आदि अनेक प्रकार के छन्दों का प्रयोग उन्होंने अपने काव्य में किया है।
  4. रस योजना-मैथिलीशरण गुप्त ने अपने काव्य में प्रायः सभी रसों का नियोजन किया है। उनमें श्रृंगार,करुण, वीर और वात्सल्य रसों की अधिकता है।
  5. शैली-गुप्तजी ने अपने काव्य में प्रमुखतः भावात्मक शैली का प्रयोग किया है। इसी शैली के अन्तर्गत उनके काव्य में विचारात्मक, आत्मकथात्मक, आत्माभिव्यंजक, सूक्ति आदि शैलियों का प्रयोग हुआ है।
  • साहित्य में स्थान

गुप्तजी को साहित्यिक और राष्ट्रीय दोनों ही स्तरों पर पर्याप्त सम्मान मिला। अपने जीवन काल में वह अनेक उपाधियों और पारितोषिकों आदि से विभूषित किये गये। आगरा विश्वविद्यालय ने उन्हें डी. लिट् की उपाधि प्रदान की और ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ ने उन्हें ‘साहित्य वाचस्पति’ की उपाधि से विभूषित किया। वे सन् 1952 से 1964 तक राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहे।

15. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ [2010]

  • जीवन परिचय

सुमन जी छायावाद के अन्तिम चरण में काव्य-क्षेत्र में आए और प्रारम्भ में प्रेमगीत लिखते रहे। प्रकृति के विशाल क्षेत्र से उठती हुई मानवता की कराहट को सुनकर वह राष्ट्रीय आन्दोलन से प्रभावित हुए और इनके मन में भी क्रान्ति की ज्वाला धधक उठी। शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ का जन्म उन्नाव (उत्तर प्रदेश) के झगरपुर नामक गाँव में सन् 1915 ई. में हुआ था। ‘सुमन’ बाल्यावस्था में ही ग्वालियर चले आए और यहीं उनकी शिक्षा सम्पन्न हुई। उन्होंने ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज से बी.ए.किया। 1940 में एम.ए. और डी.लिट् की उपाधियाँ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से प्राप्त की। उनकी नियुक्ति नेपाल स्थित दूतावास में सांस्कृतिक सहायक के रूप में हो गई। 1961 में माधव कॉलेज, उज्जैन के प्राचार्य नियुक्त हुए तथा कुछ वर्षों के बाद उन्होंने विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में उपकुलपति के रूप में कार्यभार संभाल लिया। उनको भारत सरकार द्वारा ‘पद्मश्री’ की उपाधि से विभूषित किया गया। उपकुलपति के पद से अवकाश लेकर साहित्य सेवा में रत हुए। सन् 2002 ई. में उनका निधन हो गया।

  • साहित्य सेवा

सुमन जी की कविता सामाजिक जीवन तथा राष्ट्रीय चेतना से जुड़ी हुई हैं। इन्होंने प्रारम्भ में प्रेमभाव पर आधारित अनेक गीत लिखे। स्वाधीनता आन्दोलन और शोषित वर्ग की पीड़ा ने इनके काव्य-सृजन की दिशा बदल दी। सुमन जी प्रगतिवादी काव्यधारा के प्रमुख कवि हैं। अपने काव्य के माध्यम से ‘सुमन’ जी ने पूँजीवादी व्यवस्था पर प्रबल प्रहार किए और पीड़ित मानवता को वाणी दी। साम्यवाद के साथ ही गाँधीवाद में भी इनकी अटूट निष्ठा रही। इनकी कविताओं में जागरण और निर्माण का सन्देश है।

  • रचनाएँ

सुमन जी की रचनाएँ अग्रलिखित हैं

  1. हिल्लोल-यह सुमन जी के प्रेमगीतों का प्रथम काव्य-संग्रह है।
  2. आँखें भरी नहीं में मिलन की आकांक्षा, सौन्दर्य तथा प्रेम का मनोहारी चित्रण है।
  3. जीवन के गान’, प्रलय सृजन’, ‘विश्वास बढ़ता ही गया’-सुमन जी की क्रान्तिकारी भावनाओं से भरे हुए रचना संग्रह हैं।
  4. विंध्य हिमालय-इसमें सुमन जी की देश-प्रेम और राष्ट्रीय भावनाओं वाली कविताएँ संगृहीत हैं।
  5. माटी की बारात-इसमें इनको साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया गया है।
  • भाव पक्ष
  1. प्रेम-सुमन जी छायावाद के अन्तिम चरण में काव्य क्षेत्र में आए। प्रारम्भ में इन्होंने प्रेमगीत लिखे। धीरे-धीरे इनका ध्यान समाज के प्रति अपने कर्तव्य की ओर गया। प्रकृति के विस्तृत क्षेत्र से उठती हुई त्रस्त मानवता के दुःख ने इनका ध्यान आकर्षित किया और वे देश के राष्ट्रीय आन्दोलन में शामिल हो गए।
  2. साम्यवाद सुमन जी को रस की नवीन अर्थव्यवस्था ने बहुत आकर्षित किया। अतः इनका झुकाव साम्यवाद की ओर रहा।
  3. पूँजीवाद का विरोध-सुमन जी के मन में क्रान्ति की ज्वाला जल रही थी। इनका मन पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के प्रति विरक्ति के भाव से भर उठा। अत: इनकी कविताओं में साम्राज्यवाद के विरुद्ध आवाज उठाई गई।
  4. सत्य और अहिंसा-सुमन जी की निष्ठा गाँधीजी के सत्य और अहिंसा के सिद्धान्तों पर दृढ़ रही। इसी कारण इनकी कविताओं में क्रान्तिकारी स्वर पाया जाता है।
  5. जीवन दर्शन-इनके काव्य में इनका स्वयं का पुष्ट जीवन दर्शन स्पष्ट दृष्टिगत है जिसमें वर्तमान के हर्ष पुलक,राग विराग और आशा उत्साह के स्वर भी मुखरित हुए।

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  • कला पक्ष
  1. भाषा-सुमन जी की भाषा सरल एवं व्यावहारिक है। उनकी खड़ी बोली में संस्कृत के सरल तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है। साथ ही उर्दू के शब्द भी यत्र-तत्र मिल जाते हैं। सुमन जी एक प्रखर एवं ओजस्वी वक्ता भी थे। अतः उनकी भाषा जनभाषा कही जा सकती है।
  2. शैली इनकी शैली पर इनके व्यक्तित्व की छाप है। उनकी शैली में सरलता, स्वाभाविकता, ओज, माधुर्य और प्रसाद गुणों का समावेश है। उनके गीतों में स्वाभाविकता, संगीतात्मकता,मस्ती और लयबद्धता है।
  3. अलंकार योजना इनकी कविता में अलंकार अपने आप ही आ गए हैं। नए-नए उपमानों के माध्यम से उन्होंने अपनी बात बड़ी ही कुशलता से कह दी है।
  4. छन्द विधान-सुमन जी ने मुक्त छन्द लिखे हैं और परम्परागत शब्दों की समृद्धि में सहयोग दिया है।
  • साहित्य में स्थान

सुमन जी उत्तर छायावादी युग के प्रगतिशील प्रयोगवादी कवियों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। वे एक सुललित गीतकार, महान् प्रगतिवादी एवं वर्तमान युग के कवियों में अग्रगण्य हैं। हिन्दी साहित्य की प्रगति में इनका सहयोग अतुलनीय है।

16. विष्णुकान्त शास्त्री

  • जीवन परिचय

आचार्य विष्णुकांत शास्त्री का जन्म 2 मई, 1929 को कलकत्ता (कोलकाता) में हुआ। इनके पिता का नाम गंगेय नरोत्तम शास्त्री और माता का नाम श्रीमती रूपेश्वरी देवी था। इन्होंने एम.ए,एल.एल.बी.तक शिक्षा प्राप्त की। 1953 में इनका विवाह श्रीमती इन्दिरा देवी से हुआ। इनको बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से और छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय कानपुर से डी. लिट् की उपाधि प्रदान की गई। विष्णुकान्त शास्त्री जी 1953 से 1994 तक कोलकाता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक रहे। अवकाश प्राप्त करने के उपरान्त वे भारत भवन, भोपाल में न्यासी सचिव के पद पर रहे तथा उत्तर प्रदेश के राज्यपाल के पद को भी इन्होंने सुशोभित किया। 17 अप्रैल,2005 में इनका स्वर्गवास हो गया।

  • साहित्य सेवा

विष्णुकान्त शास्त्री ने हिन्दी की अनेक पुस्तकें लिखकर साहित्य सेवा की। अनेक बंगाली और अंग्रेजी कविताओं का हिन्दी में अनुवाद किया। ‘उपमा कालिदासस्य’ का बंगला से हिन्दी में अनुवाद किया। बंगला की कविताओं का हिन्दी में अनुवाद किया और ‘महात्मा गाँधी का समाज दर्शन’ का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद किया। डॉ. शास्त्री द्वारा लिखी गई कविताएँ जीवन के संवेदनशील क्षणों की भावना-प्रधान अभिव्यक्ति हैं।

  • रचनाएँ
  1. ‘कवि निराला की वेदना तथा अन्य निबन्ध’, ‘कुछ चन्दन की कुछ कपूर की’, ‘चिन्तन मुद्रा’, ‘अनुचिन्तन’ आदि उनके द्वारा रचित साहित्यिक समीक्षाएँ हैं।
  2. ‘बांग्लादेश के सन्दर्भ में’–उनका रिपोर्ताज है।
  3. ‘भक्ति और शरणागति’, ‘सुधियाँ उस चन्दन के वन की’ ये उनके द्वारा लिखित संस्मरण हैं।
  4. ‘उपमा कालिदासस्य’ बांग्ला से हिन्दी में अनूदित है।
  5. ‘महात्मा गाँधी का समाज दर्शन’ अंग्रेजी से हिन्दी में अनूदित ग्रन्थ है।
  6. ‘दर्शक और आज का हिन्दी रंगमंच’, ‘बालमुकुन्द गुप्त का एक मूल्यांकन’, ‘बांग्लादेश संस्कृति और साहित्य’, ‘तुलसीदास आज के सन्दर्भ में ये इनके द्वारा सम्पादित ग्रन्थ हैं।
  7. ‘जीवन पथ पर चलते-चलते’ उनका काव्य संकलन है।
  • भाव पक्ष
  1. संवेदनशीलता-डॉ. शास्त्री द्वारा लिखी गई कविताएँ जीवन के संवेदनशील क्षणों की भावना-प्रधान अभिव्यक्ति हैं।
  2. भारतीय संस्कृति में आस्था-विष्णुकांत शास्त्री की भारतीय संस्कृति में गहन आस्था रही। ये देश की स्वतन्त्रता के पक्षधर रहे हैं। उदाहरण देखिए“विजय पथ पर बढ़ सिपाही
    विजय है तेरी सुनिश्चित।
    लोटती है विजय चरणों पर उन्हीं के, जो बढ़े हैं।
    तुच्छ कर सब आपदाएँ, धर्मपथ पर जो अड़े हैं।”
  3. राष्ट्र-प्रेम की अभिव्यक्ति इन्होंने अपनी रचनाओं में राष्ट्र-प्रेम को आदर्श रूप में माना है। इनका राष्ट्र-प्रेम व्यापक और उदार है। एक उदाहरण देखिए”गगन गायेगा गरज कर गर्व से तेरी कहानी
    वक्ष पर पदचिह्न लेगी धन्य हो धरती पुरानी।
    कर रहा तू गौरवोज्ज्वल त्यागमय इतिहास निर्मित।
    विजय है तेरी सुनिश्चित।”
  4. जीवन जीने की शैली जीवन में जैसे-जैसे मोड़ आते गये कविता उन्हीं के अनुरूप मुखरित होती गई। जीवन के अनुरूप गुणों,जैसे–स्नेह, भक्ति,प्रेरणा आदि का समावेश इनकी कविताओं में देखा जा सकता है।

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  • कला पक्ष
  1. भाषा-डॉ. विष्णुकान्त शास्त्री की भाषा ओजस्वी है। इसमें तत्सम शब्दों की बहुलता है। वीर रस की कविताओं में ओजगुण-प्रधान शब्दावली का प्रयोग है तथा शान्त रस की कविताओं में माधुर्य एवं प्रसाद गुणों का सहज समावेश है।
  2. अलंकार योजना-विष्णुकान्त शास्त्री की कविताओं में अलंकार स्वयं प्रविष्ट हो गए हैं। रूपक,उपमा व अनुप्रास की छटा स्थान-स्थान पर सहज ही दृष्टिगत होती है।
  3. रस निरूपण-डॉ.विष्णुकान्त शास्त्री ने अपनी कविताएँ मुख्यत: वीर रस और शान्त रस में लिखी हैं। वीर रस में ओज-प्रधान शब्दावली है और शान्त रस में माधुर्य और प्रसाद गुण झलकता है।
  • साहित्य में स्थान

शास्त्रीजी को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल सम्मान, साहित्य भूषण सम्मान, डॉ. राममनोहर लोहिया सम्मान तथा राजर्षि टंडन हिन्दी सेवी सम्मान प्राप्त हुए। भावों के आधार पर उनकी कविताओं को राष्ट्रीय, विविधा,प्रेरणा व प्यार,भक्ति एवं काव्यानुवाद के रूप में विभाजित किया जा सकता है। हिन्दी साहित्य में इनका स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

17. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ [2009, 11, 13]

  • जीवन परिचय

सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ एक युगान्तकारी कवि हैं। छायावाद के प्रमुख स्तम्भ और आधुनिक काव्य में क्रान्ति के अग्रदूत निराला का जन्म मेदिनीपुर (बंगाल) के महिषादल राज्य में सन् 1897 में हुआ था। इनके पिता रामसहाय त्रिपाठी महिषादल राज्य के कर्मचारी थे। इस प्रकार निराला जी का बचपन बंगाल की शस्य-श्यामला धरती पर व्यतीत हुआ। इनकी स्कूली शिक्षा केवल मैट्रिक तक हुई। कालान्तर में उन्होंने हिन्दी, संस्कृत, उर्दू तथा अंग्रेजी भाषा तथा साहित्य का बहुत अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। निरालाजी का जीवन दुःख और संघर्षों में ही बीता। जीविकोपार्जन के लिए उन्होंने कलकत्ता में रामकृष्ण आश्रम में रहकर ‘समन्वय’ का कार्य किया। मतवाला (कलकत्ता) एवं सुधा (लखनऊ) का सम्पादन किया। 15 अक्टूबर,1961 को इनका स्वर्गवास हो गया।

  • साहित्य सेवा

निराला जी का साहित्य बहुमुखी और विपुल है। उन्होंने कविता, उपन्यास, कहानियाँ, निबन्ध,रेखाचित्र,जीवनियाँ,आलोचनात्मक निबन्ध आदि सभी कुछ लिखे हैं। निराला का काव्य दार्शनिक विचारधारा, गम्भीर चिन्तन और भाव सौन्दर्य की अमूल्य निधि है। विवेकानन्द का प्रभाव उन पर सुस्पष्ट है। उनके काव्य में कहीं विराट की ओर रहस्यात्मक संकेत है तो कहीं सामान्य जन के उत्पीड़न के चित्र हैं,कहीं कथा मुखर है तो कहीं गीत माधुरी।

  • रचनाएँ

समर्थ कवि होने के साथ-साथ निराला ने उपन्यास,कहानियाँ, रेखाचित्र,नाटक,जीवनियाँ और निबन्धों की रचना की। अंग्रेजी,बंगला तथा संस्कृत के ग्रन्थों के अनुवाद भी किये। परिमल, अनामिका, गीतिका, कुकुरमुत्ता, अणिमा, बेला, नये पत्ते, अर्चना, आराधना, गीतकुंज तथा सान्ध्य काकली ये काव्य कृतियाँ हैं। राम की शक्ति पूजा, तुलसीदास उनकी लम्बी कविताएँ हैं, जो अपनी विशिष्टताओं के कारण खण्डकाव्य मानी गई हैं। ‘सरोज स्मृति हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ शोकगीत माना गया है।

  • भाव पक्ष

(1) प्रेम और सौन्दर्य-छायावाद के उन्नायक कवि होने के कारण निराला के काव्य में प्रेम तथा सौन्दर्य के मोहक चित्र प्राप्त होते हैं। उनका सौन्दर्य चित्रण आकर्षक एवं अद्भुत है। उदाहरण के लिए निम्न पंक्तियाँ देखिए

“नयनों का नयनों से गोपन प्रिय संभाषण,
पलकों पर नव पलकों का प्रथमोत्थान पतन।”

निराला के काव्य में श्रृंगार के मादक एवं सजीव चित्र भी प्राप्त होते हैं।

(2) भक्ति एवं रहस्य भावना निराला जी के काव्य में भक्ति एवं रहस्य, भावनापरक रचनाएँ भी प्राप्त होती हैं। उन्होंने आत्मा तथा परमात्मा की एकता का प्रतिपादन किया है। निराला जी की भक्तिपरक रचनाओं में सगुण भक्तों का सा आत्मसमर्पण, तल्लीनता तथा हृदय की आर्त भावना परिलक्षित होती हैं।

“उन चरणों में मुझे दो शरण,
इस जीवन को करो हे वरण
x x x
दलित जनों पर करो करुणा
दीनता पर उतर आये
प्रभु तुम्हारी शक्ति अरुणा।”

(3) प्रकृति चित्रण-निराला जी के काव्य में प्रकृति चित्रण के विविध रूप प्राप्त होते हैं। उनका प्रकृति चित्रण अत्यन्त मधुर और सजीव है। उन्होंने प्रकृति में मानवीय भावों तथा क्रिया-कलापों का आरोप किया है। जैसे

“सखि बसन्त आया,
आवृत्त सरसी-उर सरसिज उठे,
केशर के केश कली से छूटे
स्वर्ण-शस्य अंचल
पृथ्वी का लहराया।”

(4) राष्ट्रीयता निराला जी का काव्य देश-प्रेम और राष्ट्रीयता की भावनाओं से ओतप्रोत है। उनकी कविताओं में ओज स्पष्ट दिखाई देता है। ‘जागो फिर एक बार’ कविता में कवि ने भारतीयों को जाग जाने का उद्बोधन किया है। जैसे

“जागो फिर एक बार प्यारे जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें।
अरुण-पंख-तरुण किरण खड़ी खोल रही है द्वार।”

(5) प्रगतिवादी दृष्टिकोण छायावाद का कवि होते हुए भी निराला जी को प्रगतिवाद का भी प्रथम कवि माना जाता है। उनके काव्य में सामाजिक तथा आर्थिक विषमता के प्रति विद्रोह तथा समाज के दलित एवं शोषित वर्ग के प्रति करुणा का भाव है। निम्न वर्ग के जीवन को उन्होंने यथा तथ्य चित्रण किया है। कुकुरमुत्ता कविता में उनका प्रगतिवादी स्वर देखिए

“अबे, सुन बे गुलाब,
भल मत गर पायी खशब रंगो आब
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट
डाल पर इतरा रहा कैपीटलिस्ट।”

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  • कला पक्ष

(1) भाषा-निराला जी की भाषा भावों के अनुरूप है। देश-प्रेम तथा भक्तिपरक व्यंग्यात्मक कविताओं में उनकी भाषा सरल एवं व्यावहारिक है। गम्भीर रचनाओं में उनकी भाषा क्लिष्ट, संस्कृतनिष्ठ एवं दुरूह हो गई है। निराला जी की भाषा में उर्दू, फारसी एवं बंगला शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। उन्होंने कुछ नवीन शब्दों का गठन भी किया है। निराला जी की काव्य भाषा भावानुकूल, चित्रात्मक, गत्यात्मक तथा ध्वन्यात्मक गुणों से समन्वित है। जैसे

“है अमा निशा, उगलता गगन घन अन्धकार
खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन चार।
अप्रतिहत गरज रहा पीछे, अम्बुधि विशाल
भूधर त्यों ध्यानमग्न, केवल जलती मशाल।”

(2) शैली-निराला जी की दो शैलियाँ हैं-

  • उत्कृष्ट छायावादी गीतों में प्रयुक्त दुरूह शैली।
  • सरल,प्रवाहपूर्ण,प्रचलित उर्दू के शब्द लिए व्यंग्यपूर्ण और चुटीली शैली।

(3) छन्द योजना-निराला जी ने नए-नए छन्दों का प्रयोग किया है। उन्होंने तुकान्त और अतुकान्त दोनों प्रकार के छन्द लिखे हैं। निराला जी ‘मुक्त छन्द’ के प्रवर्तक माने जाते हैं। मुक्त

छन्द में मात्राओं तथा वर्णों का बन्धन नहीं होता। केवल ध्वनि तथा प्रवाह का ध्यान रखा जाता है। मुक्त छन्द का उदाहरण देखिए-

“रे प्यारे को सेज पास
नम्रमुख हँसी-खिली,
खेल रंग प्यारे संग।”

(4) अलंकार विधान-निराला जी की अलंकार योजना उच्चकोटि की है। उनके काव्य में अलंकारों की प्रचुरता है। उन्होंने नवीन और प्राचीन दोनों प्रकार के उपमान खोजे हैं। उन्होंने उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक,मानवीकरण, विशेषण, विपर्यय, पुनरुक्तिप्रकाश आदि अलंकारों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया है। मानवीकरण का एक उदाहरण देखिए-

“किसलय वसना नव-वय लतिका
मिली मधुर प्रिया उर-तरु-पतिका।”

  • साहित्य में स्थान

आधुनिक कवियों में निराला का उत्कृष्ट स्थान है। वे मुक्तक के जनक थे। उन्होंने हिन्दी कविता को नयी दिशा प्रदान की। हिन्दी साहित्य में निराला के कृतित्व को उनके व्यक्तित्व ने और भी अधिक महान बनाया है। निराला जी हिन्दी के मूर्धन्य रचनाकार हैं।

18. गजानन माधव मुक्तिबोध’

  • जीवन परिचय

नई कविता के सशक्त कवि गजानन ‘मुक्तिबोध’ का जन्म 13 अक्टूबर, 1917 को मुरैना जनपद के श्योपुर कस्बे में हुआ था। उन्होंने उज्जैन के माधव विद्यालय से हाईस्कूल की परीक्षा पास की तथा इन्दौर के होल्कर कॉलेज से बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। आर्थिक विपन्नता के कारण पढ़ाई बन्द करके शुजालपुर के शारदा शिक्षा सदन में शिक्षक हो गये। सन् 1942 में उज्जैन के मॉडल स्कूल में शिक्षक रहे। सन् 1948 में नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. किया तथा राजनन्द गाँव के दिग्विजय महाविद्यालय में प्राध्यापक हो गये। उन्होंने ‘हंस’ (वाराणसी) तथा.’समता’ (जबलपुर) मासिक पत्रों में भी कार्य किया। असाध्य रोगों से जूझते हुए सन् 1964 में उनका देहान्त हो गया।

  • साहित्य सेवा

उन्होंने पद्य और गद्य साहित्य दोनों में रचनाएँ लिखीं। मुक्तिबोध की कविताओं का भाव पक्ष उन्नत तथा समसामयिक है। इनकी भाषा परिमार्जित, प्रौढ़ तथा सबल है। मुक्तिबोध ने काव्य के माध्यम से जन को जन-जन तथा मन को मानवीय बनाने की चेष्टा की है।

  • रचनाएँ

‘चाँद का मुँह टेड़ा है’ तार सप्तक में छपने वाली कविताएँ हैं। ‘काठ का सपना’, सतह से उठता हुआ आदमी’ इनके महत्वपूर्ण काव्य संग्रह हैं। ‘नए साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’, भारतीय इतिहास’, ‘कामायनी-एक पुनर्विचार’, संस्कृति एवं नई कविता का आत्मसंघर्ष’ इनकी जानी मानी गद्य रचनाएँ हैं।

  • भाव पक्ष

मुक्तिबोध की कविताओं के भाव पक्ष की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. इनकी कविता के वर्ण्य विषय जीवन तथा समाज के यथार्थ से सम्बन्ध रखते हैं। इन्होंने अपनी कविता में समाज की विपन्नता,विवशता तथा विसंगतियों को चित्रित किया है।
  2. मुक्तिबोध के काव्य में मानवतावाद का स्वर स्पष्ट रूप से मुखरित हुआ है। मुक्ति बोध ने लघु मानव की खोज की है तथा उसके प्रति पूर्ण आस्था प्रकट की है। जैसे“जिन्दगी के दलदल के कीचड़ में फंसकर
    वृक्ष तक पानी में फंसकर
    मैं यह कमल तोड़ लाया हूँ।”
  3. उनकी कविता में आधुनिक भाव बोध की सशक्त अभिव्यंजना है।
  4. उनकी काव्य-चेतना में चिन्तन की प्रचुरता है। उनका यह चिन्तन जलते हुए अंगारे पर चलने वाले व्यक्ति की मनस्थिति का चिन्तन है।
  • कला पक्ष

(1) भाषा-इनकी भाषा परिमार्जित,प्रौढ़ तथा पुष्ट है। सामान्य बोलचाल की भाषा के अतिरिक्त संस्कृतनिष्ठ सामासिक पदावली से युक्त उनकी भाषा सरल एवं प्रवाहमय है। भाषा की शक्ति उनके प्रत्येक वर्णन को अर्थपूर्ण तथा चित्रमय बना देती है। मुक्तिबोध की भाषा में प्रांजलता,शब्द चयन की सहजता,सार्थकता के साथ-साथ युग बोध के अनुरूप कथ्य को प्रकट करने की पूर्ण सामर्थ्य है। उनकी भाषा में कहीं पर बनावट तथा अस्वाभाविकता नहीं है।

(2) शैली-मुक्तिबोध की अधिकांश कविताएँ लम्बी हैं। उनकी काव्य शैली बिम्ब तथा प्रतीक प्रधान है। उनके काव्य-बिम्ब तथा प्रतीक नये जीवन-सन्दों से युक्त हैं। वे सहज जीवन को व्यक्त करने के कारण सरलता से ग्राह्य हैं। उनकी शैली सबसे अलग नवीन प्रतीक और नये सन्दर्भो से युक्त है। उन्होंने कविता को एक नया आयाम दिया है।

  • साहित्य में स्थान

गजानन माधव मुक्तिबोध नई कविता के प्रतिनिधि कवि हैं और जीवन मूल्यों के प्रयोग करने वाले कवि भी हैं। नई कविता को स्वरूप प्रदान करने में उनका विशिष्ट स्थान है।

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19. सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’

  • जीवन परिचय

अज्ञेयजी हिन्दी में प्रयोगवादी कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। उन्होंने ‘तार-सप्तक’ का प्रकाशन करके हिन्दी में प्रयोगवाद का सूत्रपात किया। अज्ञेय जी का जन्म सन् 1911 में पंजाब के करतारपुर नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता श्री हीरानन्द शास्त्री थे। पिता भारत के प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता थे। इनका बचपन अपने पिता के साथ कश्मीर, लखनऊ, बिहार तथा मद्रास में व्यतीत हुआ। बी. एस-सी. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद एम.ए.(अंग्रेजी) में प्रवेश लिया। राजनैतिक आन्दोलन में सम्मिलित होने के कारण पढ़ाई का कार्यक्रम बीच में ही छूट गया। देश सेवा में लगे रहने के कारण इन्हें कारावास भी भोगना पड़ा। अज्ञेयजी ने कुछ समय तक अमेरिका में भारतीय साहित्य तथा संस्कृत के अध्यापक के रूप में कार्य किया। इसके बाद जोधपुर विश्वविद्यालय में तुलनात्मक साहित्य और भाषा अनशीलन विभाग के निदेशक पद पर कार्य किया। 4 अप्रैल,1987 को इस साहित्यकार का निधन हो गया।

  • साहित्य सेवा

अज्ञेयजी का जीवन एक साधक का जीवन था। इन्होंने सन् 1934 ई.के लगभग लेखन कार्य आरम्भ किया। उन्होंने गद्य और पद्य दोनों में लेखन कार्य किया। उन्होंने निबन्ध, यात्रा-साहित्य, उपन्यास, कहानी, नाटक,संस्मरण,आलोचना आदि विविध विधाओं में साहित्य सृजन किया। सम्पादक और पत्रकार के रूप में उन्हें ख्याति प्राप्त थी। उन्होंने कई ग्रन्थों एवं पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया। तार-सप्तक का प्रकाशन करके नये युग को जन्म दिया। उन्होंने ‘सैनिक’, ‘विशाल भारत’, ‘प्रतीक’, ‘दिनमान’, ‘वाक’ (अंग्रेजी) पत्रों का बड़ी कुशलतापूर्वक सम्पादन किया। उनकी पहली कविता सन् 1927 में कॉलेज पत्रिका में प्रकाशित हुई। चित्रकारी,मृत्तिका-शिल्प,चर्म-शिल्प,काष्ठ-शिल्प, फोटोग्राफी,बागवानी,पर्वतारोहण आदि में उनकी विशेष रुचि थी। अज्ञेयजी प्रकृति तथा व्यवस्था प्रेमी व्यक्ति थे। उनकी साहित्यिक सेवाएँ सदैव चिर स्मरणीय रहेंगी।

  • रचनाएँ

अज्ञेयजी प्रतिभा सम्पन्न कवि थे। उनकी प्रमुख रचनाओं का विवरण निम्नवत् है

  1. काव्य-अरी ओ करुणा प्रभामय, आँगन के पार द्वार, हरी घास पर क्षणभर, बावरा अहेरी,इन्द्रधनु रौंदे हुए,कितनी नावों में कितनी बार, इत्यलम,सुनहले शैवाल,चिन्ता तथा पूर्वा।
  2. आलोचना-त्रिशंकु, हिन्दी-साहित्य : एक आधुनिक परिदृश्य, तीनों तार सप्तकों की भूमिकाएँ आदि।
  3. नाटक-उत्तर प्रियदर्शी।
  4. कहानी संग्रह-विपथगा, शरणार्थी,जयदोल, तेरे ये प्रतिरूप, अमर बल्लरी, परम्परा आदि।
  5. निबन्ध-संग्रह-आत्मनेपद,लिखि कागद कोरे,सबरंग और कुछ राग आदि।
  6. उपन्यास-शेखर : एक जीवनी (भाग 1 तथा 2), नदी के द्वीप, अपने-अपने अजनबी।
  7. यात्रा-साहित्य-एक बूंद सहसा उछली, अरे यायावर रहेगा याद।
  8. सम्पादन सैनिक, विशाल भारत,प्रतीक, दिनमान,वाक् (अंग्रेजी)।
  • भाव पक्ष

उनकी कविता में जीवन की गहरी अनुभूति तथा कल्पना की ऊँची उड़ान का सुन्दर समन्वय हुआ है। अज्ञेयजी ने एक नवीन काव्य धारा का प्रवर्तन किया। उनकी निजी अनुभूतियाँ प्रयोगवादी कविता के रूप में प्रकट हुईं।

  1. प्रकृति चित्रण-अज्ञेयजी प्रकृति प्रेमी कवि हैं। कवि ने प्रकृति का आलम्बन और उद्दीपन दोनों रूपों में प्रयोग किया है। प्रकृति के मानवीकरण रूप का प्रयोग अपने काव्य में किया है। अज्ञेयजी प्रकृति के पारखी कवि हैं। कहीं-कहीं प्रकृति के मनोरम चित्रों को उभारा है। कहीं-कहीं प्रकृति के भयंकर पक्ष का भी चित्रण किया है।
  2. प्रेम निरूपण-प्रेम के सम्बन्ध में उनका विचार है कि प्रेम यज्ञ की ज्वाला के समान है। उनके प्रेम निरूपण में एक ओर प्रिया के सौन्दर्य का वर्णन किया है। वहीं दूसरी ओर मन की व्याकुलता दिखायी देती है। इनकी प्रारम्भिक रचनाओं में प्रेम की अनुभूति का वर्णन पर्याप्त रूप में किया गया है।
  3. व्यक्तिगत भावनाओं की अभिव्यक्ति-अज्ञेयजी ने अपनी कविताओं में मानव स्वभाव का वर्णन किया है। वे समाज के महत्त्व को स्वीकार करते हैं। व्यक्ति के विकास द्वारा ही समाज का विकास सम्भव है। उनका विचार है मानव के विकास के लिए मानसिक विकास भी आवश्यक है। अतः उन्होंने अपने काव्य में व्यक्ति के विकास को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है।
  4. बौद्धिकता कवि ने बौद्धिकता पर विशेष बल दिया है। उनकी कविताओं में बुद्धि का विकास अधिक है। उनकी कविताएँ अतिशय बौद्धिकता का खजाना बन कर रह गयी हैं। अत्यधिक बौद्धिकता ने रस का अभाव उत्पन्न कर दिया है। उनकी कविताओं में सर्वत्र बौद्धिकता के ही दर्शन होते हैं।
  5. क्षणवादी जीवन दृष्टि जीवन क्षणभंगुर है। इस कविता में क्षणवाद का प्रबल विरोध किया है। प्रयोगवादी कवि प्रति क्षण की अनुभूतियों को महत्त्वपूर्ण मानता है। वह क्षण को सत्य मानता है। अतः इसका उपभोग करना चाहता है।
  6. नवीन उपमानों का प्रयोग-प्रयोगवादी कवि नवीनता का पोषक है। उनका विचार है कि पुराने शब्दों में नये अर्थों को प्रकट करने की क्षमता नहीं रही। अत: नये-नये शब्दों का प्रयोग होना चाहिए। नये विषय, नया शिल्प, नवीन भाषा, नए प्रतीक एवं नये उपमान इन कविताओं में प्रयुक्त किये गये हैं। इन नवीन उपमानों में नये सौन्दर्य बोध के दर्शन होते हैं।
  7. रहस्य भावना-अज्ञेय जी के काव्य में रहस्य की प्रधानता है। हरे भरे खेत,सागर, सुन्दर घाटियाँ, मनुष्य की मुस्कान,प्रेम तथा श्रद्धा आदि सभी में उस विराट ईश्वरीय सत्ता के दर्शन होते हैं। ये सभी उस ईश्वर की ही देन हैं। कवि,ईश्वर से समन्वय स्थापित करना चाहता है। अज्ञेयजी के काव्य में सर्वत्र रहस्य भावना दृष्टिगोचर होती है।
  • कला पक्ष
  1. भाषा-अज्ञेयजी का भाषा पर पूर्ण अधिकार था। विषय के अनुसार आपकी भाषा बदलती रहती है। आपकी भाषा शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली से युक्त है। भावों को व्यक्त करने में जो भाषा आपको अच्छी लगी, आपने उस भाषा का ही प्रयोग किया है। कहीं-कहीं अंग्रेजी तथा उर्दू के शब्दों का प्रयोग भी अज्ञेयजी ने किया है। उनकी भाषा में नूतनता, लाक्षणिकता तथा प्रतीकात्मकता के गुण विद्यमान हैं। देशज शब्दों का प्रयोग भी किया है। भाषा में चित्रात्मकता तथा बिम्ब विधान के भी दर्शन होते हैं। भाषा में चटकीलापन लाने के लिए उन्होंने लोकोक्तियों एवं मुहावरों का प्रयोग भी किया है।
  2. शैली अज्ञेयजी का व्यक्तित्व गम्भीर था। व्यक्तित्व की छाप उनकी शैली पर दिखायी देती है। इनकी शैली में बौद्धिकता और गम्भीरता की प्रधानता है। इन्होंने गद्य में आलोचनात्मक शैली, वर्णनात्मक शैली, विवरणात्मक शैली, सम्वादात्मक शैली, विवेचनात्मक शैली, भावात्मक शैली तथा सम्बोधन शैली का प्रयोग किया है। अज्ञेयजी ने व्यंग्य-प्रधान रचनाओं में व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग किया है। शैली भाषा तथा भावों के अनुकूल है।
  3. छन्द योजना-अज्ञेयजी ने छन्द मुक्त तथा छन्दबद्ध दोनों रूपों में रचनाएं की हैं। एक ओर उन्होंने छन्द के बन्धन को स्वीकारा है तथा दूसरी ओर छन्द के बन्धन को नकारा है। लय, स्वर तथा गेयता के तत्त्व विद्यमान हैं। छन्दों के प्रयोग द्वारा उनके काव्य में शब्द चित्र का अंकन किया गया है। कवि में गहन भावों को व्यक्त करने की शक्ति है।
  4. अलंकार योजना-अज्ञेयजी ने अपने काव्य में परम्परागत अलंकारों का प्रयोग किया है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग किया है। प्रकृति चित्रण में मानवीकरण अलंकार का प्रयोग मिलता है। ध्वन्यर्थव्यंजना, विशेषण विपर्यय जैसे नवीन अलंकारों का प्रयोग किया है।

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उदाहरणार्थ-

उपमा-यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है।
रूपक-मैं कब कहता हूँ, जीवन मरु नंदन कानन का फूल बने।

  • साहित्य में स्थान

अज्ञेयजी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। अज्ञेयजी हिन्दी साहित्य के लिए वरदान हैं। वे प्रतिभा सम्पन्न कवि हैं। अज्ञेयजी ने कविता का संस्कार किया है। कवि ने काव्य को नवीनता प्रदान की। वे मानवतावादी कवि हैं। उनकी कविताएँ बुद्धि को भी झकझोर देती हैं। वे प्रयोगवाद के प्रवर्तक के रूप में सदैव स्मरणीय रहेंगे। नई कविता को शिल्पगत रूप देने में अज्ञेयजी का सर्वाधिक योगदान है। वर्तमान युग में अपने व्यक्तित्व तथा कृतित्व दोनों की विविधता के कारण काफी चर्चित रहे। साहित्य-सेवी अज्ञेयजी का हिन्दी जगत में विशिष्ट स्थान है।

20. वीरेन्द्र मिश्र

  • जीवन परिचय

वीरेन्द्र मिश्र का स्थान नवगीतकारों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनकी लेखनी में तथा कण्ठ में एक अजीव-सा माधुर्य है। मिश्रजी सरस्वती के वरद पुत्र हैं। कवि तथा गीतकार वीरेन्द्र मिश्र का जन्म दिसम्बर,1927 को ग्वालियर में हुआ था। श्री मिश्रजी ने जीवन-पर्यन्त मानव मूल्यों की स्थापना की। शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने पूरी तरह स्वयं को लेखन कार्य में तल्लीन कर दिया। उनका स्वभाव सरल तथा विनम्र था। अपने बड़ों का सम्मान करते थे। छोटों को स्नेह करते थे। वे संघर्ष की साक्षात् मूर्ति थे। स्वाभिमान तथा दृढ़ निश्चय उनके स्वभाव का प्रधान गुण था। उस समय कवि सम्मेलन उनके बिना अधूरे समझे जाते थे। अतः मिश्रजी कवि सम्मेलनों की शान थे। जून, 1975 में यह गीतकार सदैव के लिए हमसे दूर हो गया।

  • साहित्य सेवा

मिश्रजी ने अनेक रूपों में माँ भारती की सेवा की। वे गीतकार तथा गद्य लेखक के साथ-साथ एक सफल पत्रकार थे। वीरेन्द्र मिश्र आधुनिक कविता की वर्तमान पीढी के सबसे अधिक लोकप्रिय कवि माने जाते हैं। मिश्र जी छायावादोत्तर गीतकार हैं। उनके गीतों में समय तथा समाज की प्रगतिशील आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति मिलती है। उनकी रचनाओं में सामाजिक,सांस्कृतिक तथा राष्ट्रीय धरातल अत्यन्त सबल है। उन्होंने अपने गीतों के माध्यम से जनमानस में आस्था और विश्वास को जाग्रत किया है। उनके गीतों में जहाँ एक ओर भावुक प्रेमी के प्रणय की गूंज हैं,वहीं दूसरी ओर व्यथा एवं पीड़ा के मार्मिक स्वर भी विद्यमान हैं। उनके गीतों में राष्ट्रीय गौरव के स्वर मुखरित हुए हैं। अन्याय,शोषण और विषमता के विरुद्ध सच्ची मानवीय चिन्ता के दर्शन होते हैं।

  • रचनाएँ

वीरेन्द्र मिश्र की प्रमुख रचनाएँ हैं गीतम, मधुवंती, गीत पंचम, उत्सव गीतों की लाश पर,वाणी के कर्णधार,धरती,गीताम्बरा, शांति गन्धर्व आदि प्रमुख हैं। उन्होंने गीत, नवगीत, राष्ट्रीय गीत, मुक्तक के अतिरिक्त रेडियो नाटक एवं बाल साहित्य की रचना की।

  • भाव पक्ष

(1) सरस तथा सफल गीतकार-वीरेन्द्र मिश्र मूलतः गीतकार हैं। उनकी रचनाओं का सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय धरातल अत्यन्त व्यापक है। जनसाधारण उनके प्रेरणा स्रोत हैं। मिश्रजी सदैव सामाजिक समस्याओं के प्रति जागरूक रहे हैं। हमेशा ही युग चेतना का संचार किया है। काव्य का मर्म वही समझ सकता है जिसमें उत्सर्ग एवं त्याग की भावना निहित हो। गीतकार के भाव जगत में किसी प्रकार का कोई अभाव नहीं है।

(2) कल्पना और यथार्थ का समन्वय-वीरेन्द्र मिश्र की कविताओं में कल्पना और यथार्थ का सुन्दर समन्वय देखने को मिलता है। जीवन के शाश्वत सत्य से विमुख रहकर कल्पना लोक में विचरण करना कवि को रुचिकर नहीं लगता। कल्पना के माध्यम से कवि हृदय की अनुभूति कराता है। सत्य,सौन्दर्य और कल्पना की गहराई के दर्शन होते हैं। उनमें ऐसी कल्पना शक्ति है जिसके द्वारा एक सफल रचनाकार सिद्ध हुए हैं। सुधी पाठक और श्रोता उनकी कविताओं में तल्लीन हो जाता है। धरातल के वास्तविक यथार्थ को भी कवि प्रस्तुत करता है।

(3) वेदना की प्रधानता–मिश्रजी के काव्य में वेदना का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। कवि का व्यक्तिगत जीवन सुख-दुःख तथा आनन्द से पूर्ण रहा है। एक घटना ने तो उनके जीवन को ही बदल दिया। यह घटना उनके व्यक्तिगत जीवन की है। उनके बड़े भाई का असामयिक निधन हो गया। उनकी रचनाओं में सूनेपन का अनुभव होने लगा। मिश्रजी की व्यक्तिगत वेदना पूरे संसार की वेदना हो गयी। कहीं-कहीं हर्षातिरेक भी काव्य में दृष्टिगोचर होता है। उनके काव्य में विरह पीड़ित मानव की विकलता तथा उत्कण्ठा के दर्शन होते हैं। कवि की आँखों से प्रवाहित आँसू उसकी मर्म व्यथा के परिचायक हैं–

क्या तुम्हें कुछ भी पता है,
अश्रु में क्या-क्या व्यथा है?

(4) सत्यम् के सफल गायक कवि केवल कल्पना में ही विचरण नहीं करता अपितु वह सत्य के ठोस धरातल पर आधारित है। वे सत्य और ईमान के मार्ग पर हमें चलने के लिए प्रेरित करते हैं। सत्य सदैव आदरणीय है। कभी-कभी कठोर सत्य का भी समाज सम्मान करता है। कवि मानवीय जीवन के कटु सत्यों से हमें अवगत कराते हैं। यदा-कदा सुखद स्वप्न अतीत में विलीन हो जाता है।

(5) संघर्षों के कवि-संघर्ष मानव जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है। जीवन में पग-पग पर बाधाएँ एवं संघर्ष हैं। इन संघर्षों से निकलना तथा टकराना ही सच्चा जीवन है। जीवन के कटु अनुभवों को प्राप्त करके जो कर्त्तव्य-पथ पर आगे बढ़ा है,वह दूसरों के लिए सदैव पथ-प्रदर्शक है। कवि ने अपने गीतों में जीवन की गतिशीलता का वर्णन किया है। कवि के गीतों में चिर शान्ति; प्रेम प्रकट होता है।

(6) युद्ध की विभीषिका का प्रबल विरोध-युद्ध देश के विकास में बाधक होते हैं। युद्ध सदैव ही मानवता के शत्रु हैं। युद्ध में विजय किसी की भी हो या पराजय किसी की हो, हानि तो प्राणिमात्र को पहुँचती ही है। पाकिस्तान द्वारा कश्मीर पर आक्रमण ने कवि की आत्मा को झकझोर कर रख दिया। चीन ने भी जबरन भारत को युद्ध की आग में झोंक दिया। इससे अपार धन-जन की हानि हुई। कवि को युद्ध बुरा लगता है। वह चाहे अपने देश से हो अथवा किसी अन्य देश से। युद्धों से जनसामान्य को प्रदूषण, चीत्कार,विनाश और बेकारी ही मिलती है।

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  • कला पक्ष

(1) भाषा-मिश्रजी ने अपने काव्य में तत्सम शब्दों का प्रयोग किया है। कवि ने अपने काव्य में परिमार्जित खड़ी बोली का प्रयोग किया है। चित्रात्मकता आपकी भाषा की प्रमुख विशेषता पायी जाती है। आपकी भाषा में कहीं-कहीं उर्दू-फारसी के शब्दों का प्रयोग स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। भाषा-सौष्ठव की गहराई पायी जाती है। कवि की रचनाएँ प्रसाद, ओज तथा माधुर्य गुण से परिपूर्ण हैं। भाषा लक्षणा तथा व्यंजना शब्द शक्ति से पूर्ण है।

(2) शैली-मिश्रजी का काव्य गेयतात्मकता का श्रेष्ठ उदाहरण है। काव्य में संगीतात्मकता भी पायी जाती है। संगीत की प्रधानता तथा गेयता के कारण ही मिश्रजी की कविताएँ मंच पर लोकप्रियता को प्राप्त हुई। प्रत्येक घर में उनके गीतों को बड़े ही चाव से गुनगुनाया जाता है। मिश्रजी की कविता में अनुपम प्रवाह,सहज माधुर्य तथा अदभुत लालित्य है। प्रतीक तथा बिम्ब विधान का प्रयोग स्थान-स्थान पर मिलता है। मिश्रजी की शैली में गीति काव्य का नवीनतम विकास प्राप्त होता है।

(3) छन्द योजना कवि ने छोटे-छोटे छन्दों का प्रयोग किया है। उनका काव्य नवीन प्रकार के छन्द,धुने तथा सुरों का एक विशाल सागर है। मिश्रजी ने गीत की नवीनतम् परम्परा को जन्म दिया है। कवि स्वच्छन्द प्रवाह का पोषक है। उनका विचार है कि छन्दबद्धता स्वाभाविकता को समाप्त कर देती है।

मिश्रजी ने तुकान्त तथा अतुकान्त दोनों प्रकार के छन्दों में गीत लिखे हैं। ‘गीतम’ सर्वाधिक लयात्मक कृति है। कवि ने जन-जन की वाणी को छन्दोबद्ध किया है। लयात्मकता, गतिशीलता,प्रवाहिकता आपके छन्दों की प्रमुख विशेषता है।

(4) अलंकार योजना मिश्रजी ने अपने काव्य में लगभग सभी प्रकार के अलंकारों का प्रयोग किया है। अलंकार साधन के रूप में प्रयुक्त किये हैं; साध्य के रूप में नहीं। परम्परागत अलंकारों का प्रयोग भी कम किया है। यमक, अनुप्रास, रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, प्रतीप तथा विरोधाभास आदि अलंकार ढूँढ़ने पर यत्र-तत्र मिल जाते हैं। प्रकृति चित्रण में मानवीकरण अलंकार का प्रयोग किया है।

  • साहित्य में स्थान

मिश्रजी छायावादोत्तर प्रमुख गीतकार हैं। उन्होंने 1940 से काव्य रचना का प्रयास किया। कवि को अपने देश की सभ्यता तथा संस्कृति से विशेष लगाव है। वे ग्रामीण संस्कृति के उपासक थे। वे देश की समसामयिक समस्याओं, साम्प्रदायिक एकता के समर्थक हैं। वे कुशल तथा लोकप्रिय गीतकार हैं। वे जनसाधारण के मनोबल में वृद्धि करते हैं। उनका विचार है कि उत्साह और आत्मबल को अपनायें तो निश्चय ही तूफान भी अपनी दिशा परिवर्तित कर लेंगे। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण मिश्रजी का हिन्दी साहित्य में विशेष स्थान है। वे माँ भारती के सच्चे अर्थों में सपूत हैं।

महत्त्वपूर्ण वस्तुनिष्ठ प्रश्न
[2010]

  • बहु-विकल्पीय प्रश्न

1. निम्नलिखित में मीराबाई की रचना है
(अ) रसिक प्रिया, (ब) राग गोविन्द, (स) साहित्य लहरी, (द) मदनाष्टक।

2. केशवदास का काल है
(अ) भक्तिकाल, (ब) आदिकाल, (स) रीतिकाल, (द) आधुनिक काल।

3. सूरदास के साहित्य की भाषा है
(अ) अवधी, (ब) ब्रजभाषा, (स) खड़ी बोली, (द) उर्दू।

4. मैथिलीशरण गुप्त ने काव्य की रचना की है
(अ) अवधी में, (ब) ब्रज में, (स) खड़ी बोली में, (द) मालवी में।

5. रत्नाकर का देहावसान हुआ
(अ) हरिद्वार में, (ब) कानपुर में, (स) फतेहपुर में, (द) प्रयाग में।

6. बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ का जन्म हुआ
(अ) सन् 1921 में, (ब) सन् 1897 में, (स) सन् 1905 में, (द) सन् 1895 में।

7. श्रीकृष्ण सरल के लेखन का विषय है
(अ) राष्ट्रवाद एवं क्रान्तिकारी. (ब) छायावाद, (स) भक्तिपूर्ण, (द) रहस्यवाद।

8. जयशंकर प्रसाद के पिता का नाम था
(अ) यायावर, (ब) रामरख, (स) सुंघनी साहू, (द) ब्रजनाथ।

9. ‘अनाम तुम आते हो’ के रचयिता हैं
(अ) घनानन्द, (ब) जयशंकर प्रसाद, (स) केशव देव, (द) भवानी प्रसाद मिश्र।

10. कबीर की भाषा को कहा जाता है
(अ) ब्रज भाषा, (ब) बुन्देलखण्डी भाषा, (स) सधुक्कड़ी भाषा, (द) परिष्कृत भाषा।
उत्तर-
1.(ब), 2. (स), 3.(ब), 4. (स), 5. (अ), 6. (ब), 7.(अ), 8. (स), 9.(द), 10. (स)।

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  • रिक्त स्थानों की पूर्ति

1. बिहारी की प्रसिद्ध रचना ……….. है।
2. तुलसीदास द्वारा रचित कवितावली’ ………. परम्परा की उत्कृष्ट रचना है।
3. मैथिलीशरण गुप्त के पिता का नाम ……….. था।
4. ‘पर आँखें नहीं भरौं’ ………. की प्रसिद्ध रचना है।
5. आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री का जन्म …………. हुआ।
6. निराला का बचपन बंगाल की …… धरती पर बीता।
7. मुक्तिबोध को …………. विषमताओं के कारण अपना अध्ययन बीच में ही रोकना पड़ा।
8. अज्ञेय का पूरा नाम …………. है।
9. वीरेन्द्र मिश्र …………. परम्परा के विशिष्ट कवि माने जाते हैं।
10. मीरा का विवाह उदयपुर के महाराज …………. से सम्पन्न हुआ।
11. ‘रामचन्द्रिका’ के रचयिता …………. हैं। [2009]
12. ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ …………. की रचना है। [2009]
13. श्रीकृष्ण के प्रति ……….. का दाम्पत्य भाव है। [2009]
14. ‘सूर्य का स्वागत’ …………. की रचना है। [2009]
15. ‘जहाँगीर जस चन्द्रिका’ के रचयिता …………. हैं। [2009]
16. मीराबाई ……… की कवयित्री हैं। [2009]
17. …………. को ‘हृदयहीन कवि’ कहा जाता है। [2009]
18. ………. वात्सल्य के कुशल चितेरे हैं। [2009]
19. काव्य में सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग ……… ने किया। [2009, 14]
उत्तर-
1. सतसैया, 2. मुक्तक काव्य, 3. सेठ रामचरण शुक्ल, 4. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, 5. कोलकाता, 6. शस्य-श्यामला, 7. आर्थिक, 8. सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, 9. नवगीत, 10. भोजराज, 11. केशवदास, 12. गजानन माधव मुक्तिबोध’,13. मीरा,14. दुष्यन्त कुमार,15. केशवदास,16. कृष्णभक्ति शाखा,17. केशव,18. सूरदास,19. कबीरदास।

  • सत्य/असत्य

1. मीरा की भक्ति-भावना हृदय से स्फूर्त है।
2. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार केशवदास का जन्मकाल सन् 1555 ई.माना गया है।
3. सूरदास का उद्धव प्रसंग’ भक्तिपूर्ण रचना है।
4. गोपाल सिंह नेपाली के पिता राय बहादुर ‘गोरखा रायफल’ में सैनिक थे।
5. ‘सुजान’ को श्रृंगार पक्ष में नायक और भक्ति पक्ष में दुर्गा मान लेना उचित होगा।
6. जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’ ने क्वीन्स कॉलेज इलाहाबाद से बी.ए. पास किया।
7. बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ आधुनिक युग के ऊर्जावान कवि हैं। [2014]
8. श्रीकृष्ण सरल कहते हैं कि देश की सम्पूर्ण समृद्धि का भवन शहीदों के उत्सर्ग की नींव पर खड़ा है।
9. ‘कामायनी’ के रचयिता सुमित्रानन्दन पन्त हैं।
10. भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म उत्तर प्रदेश के झाँसी नगर में हुआ था।
11. कबीर प्रेमाश्रयी शाखा के कवि हैं। [2009]
12. केशवदास भक्तिकाल के प्रमुख कवि हैं। [2009]
13. घनानन्द रीतिसिद्ध कवि हैं। [2009]
14. मीराबाई रामभक्ति शाखा की प्रमुख कवयित्री हैं। [2009]
15. केशव रीतिमुक्त कवि हैं। [2012]
उत्तर-
1. सत्य, 2. सत्य, 3. असत्य, 4. सत्य,5. असत्य, 6. असत्य, 7. सत्य,8. सत्य, 9. असत्य, 10. असत्य, 11. असत्य,12. असत्य, 13. सत्य, 14. असत्य, 15. असत्य। सही जोड़ी मिलाइए

I. ‘क’
(1) मीराबाई की रचना – (अ) सुजान
(2) केशवदास – (ब) भक्तिकाल
(3) सूरदास का काल – (स) सन् 1903 में
(4) गोपाल सिंह नेपाली का जन्म – (द) रामचन्द्रिका
(5) घनानन्द की प्रेमिका [2012] – (इ) गीत गोविन्द की टीका
उत्तर-
(1), → (इ),
(2) → (द),
(3) → (ब),
(4) → (स),
(5) → (अ)।

II. ‘क’
(1) कठिन काव्य का प्रेत कहा जाता है [2009] – (अ) सूरदास
(2) बाललीला वात्सल्य के चितेरे [2009] – (ब) छायावाद
(3) जयशंकर प्रसाद – (स) केशवदास
(4) तुलसीदास – (द) मैथिलीशरण गुप्त
(5) साकेत [2014] – (इ) सन्त कवि
उत्तर-
(1) → (स),
(2) → (अ),
(3) → (ब),
(4) → (इ),
(5) → (द)।

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III.
(1) काव्य में सर्वाधिक छंदों का प्रयोग किया है [2009] – (अ) मीरा ने
(2) काव्य में भाव-विह्वलता कूट-कूट कर भरी है [2009] – (ब) केशव ने
(3) राष्ट्रीय चेतना जाग्रत करने वाले कवि हैं [2009] – (स) घनानन्द
(4) रीतिमुक्त काव्यधारा के कवि हैं [2009] – (द) जगन्नाथदास रत्नाकर
(5) ‘उद्धव प्रसंग’ नामक कविता के रचयिता हैं [2009] – (इ) गोपाल सिंह नेपाली
उत्तर-
(1) → (ब),
(2) → (अ),
(3) → (इ),
(4) → (स),
(5) → (द)।

  • एक शब्द/वाक्य में उत्तर

प्रश्न 1.
कबीर ने अद्वैत से क्या अर्थ ग्रहण किया?
उत्तर-
ब्रह्म एक है द्वितीय नहीं।

प्रश्न 2.
बिहारी किस काल के कवि थे?
उत्तर-
रीतिकाल।

प्रश्न 3.
“विनय पत्रिका’ किस कवि की रचना है?
उत्तर-
तुलसीदास।

प्रश्न 4.
मैथिलीशरण गुप्त ने किस भाषा में काव्य रचना की?
उत्तर-
खड़ी बोली में।

प्रश्न 5.
किस कवि की शैली माधुर्य, प्रसाद और ओज गुणों से सम्पन है?
उत्तर-
शिवमंगल सिंह ‘सुमन’।

प्रश्न 6.
विष्णुकान्त शास्त्री का ‘उपमा कालिदासस्य’ किस भाषा से किस भाषा में अनूदित है-
उत्तर-
बांग्ला से हिन्दी में।

प्रश्न 7.
छायावाद के प्रमुख स्तम्भ और आधुनिक काव्य में क्रान्ति के अग्रदूत किस कवि को माना जाता है?
उत्तर-
सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’।

प्रश्न 8.
‘काठ का सपना’ किस कवि की रचना है?
उत्तर-
गजानन माधव मुक्तिबोध’।

प्रश्न 9.
प्रयोगवाद किस कवि की सूझ की उपज है?
उत्तर-
सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’।

प्रश्न 10.
‘वाणी के कर्णधार’ किस कवि की रचना है?
उत्तर-
वीरेन्द्र मिश्र।

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प्रश्न 11.
सूरदास के पदों की भाषा कौन-सी है? [2009]
उत्तर-
ब्रजभाषा।

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