MP Board Class 11th Special Hindi सहायक वाचन Solutions Chapter 10 प्रेरक प्रसंग
प्रेरक प्रसंग अभ्यास प्रश्न
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लिखिए
प्रश्न 1.
सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ ने वृद्धा को अपनी रॉयल्टी के सारे पैसे किस भाव से दिये थे? (2010)
उत्तर:
सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ ने वृद्धा भिखारिन को अपनी रॉयल्टी के सारे पैसे इस भाव से दिये थे कि वह फिर कभी भी भीख नहीं माँगेगी। वह इस राशि से कोई भी धन्धा कर लेगी। उसने ऐसा संकल्प लेते हुए कहा। ‘निराला’ जी ने उस बुढ़िया भिखारिन को एक सौ चार रुपये जो रॉयल्टी के मिले थे, वे सब उसे दे दिए और स्वयं खाली हाथ इक्के में बैठकर महादेवी के घर की ओर चल पड़े। इक्के का किराया भी महादेवी ने चुकाया।
प्रश्न 2.
‘गरीबों का मसीहा’ कहानी से हमें क्या शिक्षा मिलती है? (2008)
उत्तर:
‘गरीबों का मसीहा’ कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि इस समस्त मानव समाज में गरीबी और अमीरी की विषमता को दूर करने के लिए हम सभी को प्रयास करना चाहिए। जिससे हमारे बीच धनवान् और निर्धन का भेद मिट जाये। कोई भी व्यक्ति गरीब न रहे। इस गरीबी के कारण न जाने कितने इस मनुष्य समाज में अपराध किये जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी भूख मिटाने के लिए भीख माँगने को अपना धन्धा न बनाये। तब ही ‘गरीबों का मसीहा’ का उद्देश्य सफल हो सकेगा। अन्यथा गरीबी में धनवान् बनकर मसीहा कोई भी नहीं बन सकता। उस व्यक्ति को त्याग करना पड़ता है, परिश्रम करना पड़ता है। परिश्रम से प्राप्त धन गरीबों में वितरित किया जाये, तभी गरीबों का मसीहा स्वयं को सिद्ध कर सकता है। मसीहा कभी भी अपने साथी मनुष्यों की गरीबी को देख नहीं सकता। गरीबी में मसीहा को तो गरीब बनकर ही जीना पड़ता है क्योंकि उनकी गरीबी, उनकी दरिद्रता उनसे (मसीहा से) देखी कहाँ जाती है?
प्रश्न 3.
आपके मतानुसार निराला जी का रॉयल्टी के सारे पैसे देने का निर्णय सही था या गलत, कारण सहित बताइए।
उत्तर:
हमारा मत है कि निराला जी द्वारा रॉयल्टी के सारे पैसे वृद्धा भिखारिन को दिया जाने का निर्णय गलत था। इसके सन्दर्भ में निम्नलिखित कारण स्पष्ट रूप से दिये जा रहे हैं-
(1) ‘निराला’ जी ने अपनी रॉयल्टी के सारे रुपये (एक सौ चार) भीख माँगने वाली वृद्धा को इस संकल्प के साथ दिये कि वह फिर कभी भी भीख नहीं माँगेगी। वह उन रुपयों से कोई धन्धा कर लेगी।
अब यहाँ यह विचार करना है कि वह बूढ़ी भिखारिन कौन-सा कार्य कर सकती है जिससे उसका स्वयं का भरण-पोषण हो सके। उस वृद्ध अवस्था में उसके हाथ-पैर चलते नहीं हैं, निश्चय ही वह कोई भी कार्य नहीं कर पायेगी। रॉयल्टी के दिये गये रुपयों को अपनी निकम्मी सन्तान के ऊपर ही खर्च कर डालेगी और उन पैसों को खर्च कर देने के उपरान्त भीख माँगने के लिए सड़क के किनारे फिर बैठ जायेगी।
(2) उस वृद्धा से उन रुपयों को उसकी सन्तान छीन लेगी और उस वृद्धा को पुनः भीख माँगने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।
(3) प्रायः देखा गया है कि इन भिखारिन बनी औरतों पर कोई अभाव नहीं होता। वे भीख माँगने की आदत से मजबूर हो जाती हैं और बदस्तूर भीख माँगती रहती हैं।
(4) ऐसे भिखारी अपने भीख माँगने के स्थान को बदल देते हैं लेकिन अपने भीख माँगने के धन्धे को नहीं बदलते।
(5) मैंने खुद ऐसे भिखारियों को देखा है, जो भीख न माँगने का वायदा करते रहे हैं; परन्तु उन्होंने अपने इस काम को नहीं छोड़ा है। इस भीख माँगने को उन्होंने अपना व्यवसाय बना रखा है। वे अपने असली रूप को भिखारी के वेश में बदल देते हैं और समाज के लोगों को निर्धनता के होने का स्वांग करते हुए प्रदर्शित करते हैं।
(6) इन भिखारी बने लोगों को किसी भी तरह के रोजगार से लगाने की आपकी चेष्टा अवश्य विफल होगी। इसके कारण हैं-एक तो वे काम न करने की आदत में ढल गये हैं। दूसरे वे जहाँ भी रोजगार प्राप्त करने जाते हैं, वहाँ से चोरी करके भाग जाते हैं, या काम पर लौटकर नहीं आते।
इस तरह इन भीख माँगने वाले लोगों ने पूरे भारतीय समाज को कलंकित किया हुआ है। अतः मेरा मत तो यही है कि निराला द्वारा दिया गया रॉयल्टी का पैसा व्यर्थ गया। उनका निर्णय परिस्थितियों के प्रतिकूल था, अव्यावहारिक था। इस दिए गये दान का कोई सुफल प्राप्त होने का नहीं दिखता।
प्रश्न 4.
“अर्थोपार्जन मेरा ध्येय नहीं है। गरीबी मेरी शान है।” इस कथन के भाव अपने शब्दों में लिखिए। (2016)
उत्तर:
“अर्थोपार्जन मेरा ध्येय नहीं है। गरीबी मेरी शान है।” इस कथन को स्पष्ट करते हुए यह कहा जा सकता है कि जहाँ तक धन कमाने का प्रश्न है, धन तो कमाया जा सकता है। लेकिन धन को कमाने के उपाय कैसे होंगे, इन अपनाये गये उपायों का स्वरूप कैसा होगा इसका निर्धारण करना महत्त्वपूर्ण बात है।
श्री बालमुकुन्द गुप्त ‘भारत-मित्र’ नामक दैनिक मित्र के सम्पादक हैं। उनकी साख एक ईमानदार एवं परिश्रमी सम्पादक की है। लोग उनके सच्चे सम्पादकत्व में बेईमानी अथवा भ्रष्टता की दुर्गन्ध होने का विश्वास नहीं करते। अतः अपने परिष्कृत एवं परिमार्जित सम्पादकत्व की गरिमा को उन्होंने अपने सदाचार और परिश्रम से सुरक्षित किया है। वे धन कमाने का ध्येय बनाते तो कोई भी गलत आचरण का उपयोग करके धन अर्जित कर सकते थे, लेकिन अपने स्थापित आदर्शों के परिपालन के लिए उन्होंने गरीबी में जीवनयापन करना उचित समझा। यह निर्धनता कोई ऐसी खराब अवस्था नहीं होती जिससे व्यक्ति व्यथित होकर गलत आचरण करे। ईमानदारी से परिपूर्ण एवं सच्ची लगन से किये गये परिश्रम से उस निर्धनता को दूर किया जा सकता है और वह व्यक्ति समाज में शानदार और इज्जतदार व्यक्ति का सम्मान पा सकता है।
गरीबी में अच्छे-अच्छे महान् कार्यों का सम्पादन करते हुए लोगों को देखा है। उन्होंने अपने आदर्शों का पालन किया है। वे समाज के लिए बड़े ही उपयोगी सिद्ध हुए हैं।
श्री बालमुकुन्द जी गुप्त ने इस गरीबी को अपना प्राण और शान के रूप में धारण किया है, वरण किया है, स्वीकार किया है क्योंकि वे समाज के लोगों से अपने आपको अलग प्रदर्शित करते हुए जीवित रहना नहीं चाहते। भारत का आम नागरिक गरीब है। सम्पादक जी अपने पत्र में अपने इस ईमानदार पेशे से लोगों को सच्ची सूचना देकर उन्हें गुमराह करना नहीं चाहते। एक सम्पादक समाज और देश का सजग प्रहरी होता है। देश के प्रत्येक नागरिक को सही दिशा निर्दिष्ट करता है। उन्हें इंगित करता है कि उचित मार्ग क्या है? सच्ची घटना क्या है? वे चाहते तो कितना ही मनमाना धन अर्जित कर सकते, केवल अपने आदर्श को छोड़कर, सिद्धान्तों में परिवर्तन करके। उनमें इस बात की चाहना है, एक ललक है कि आम नागरिक के दुःख-दर्द को एक सम्पादक समझे और अनुभव करे। यही अनुभव उनके साहित्य को सप्राणता प्रदान करते हैं। अत: गरीबी की अनुभूति समाज के स्तर पर, उसके सतही रूप में गहरी अनुभूति देती है जो व्यक्ति की शान के रूप में उसके चरित्र को उभारकर रखती है।
प्रश्न 5.
“बालमुकुन्द जी भारत के एक आम नागरिक का जीवन जीना चाहते थे।” इस कहानी के आधार पर वर्णन कीजिए।
उत्तर:
श्री बालमुकुन्द गुप्त ‘भारत-मित्र’ जैसे प्रतिष्ठित अखबार के सम्पादक हैं। वे फटेहाली का जीवन जी रहे हैं। वे बहत सस्ते और कम कीमत के वस्त्र पहनते हैं और अपने घर के सभी सदस्यों को मितव्ययिता से जीवन बिताने की सुशिक्षा देते हैं। वे फिजूलखर्ची को अच्छी आदत नहीं मानते हैं। धन को तो किसी भी तरह कमाया जा सकता है, लेकिन फिजूलखर्ची से उसका उपयोग अच्छे रूप में नहीं किया जा सकता, ऐसा उनका मत है।
वे जो भी सिद्धान्त या आदर्श स्थापित करते हैं, या उनको प्रस्तावित करते हैं, वे सबसे पहले अपने ऊपर, अपने परिवार के सदस्यों के ऊपर व्यवहार में लाये जाते हैं। इसका एक कारण है, वह है एक सजग सम्पादक जो अपने परिवेश अपने समाज और देश (राष्ट्र) की नीति और रीति से जुड़ा रहता है। इसके विपरीत चलने पर वह अपने आम नागरिक होने के सिद्धान्त का कोरा ढिंढोरा ही पीटता रहता है।
एक सम्पादक का उत्तरदायित्व होता है आम नागरिक के दुःख-दर्द को समझने का, उन दुःख-दर्दी में अनुभूतिपरक सहयोग का। इन सभी दशाओं में एक सुयोग, सफल और सच्चा सम्पादक वही है जो आम नागरिक को कम से कम परिस्थिति के अनुसार उचित मार्ग निर्देशन देकर सहयोग करे। यही अनुभव सम्पादकीय साहित्य में संजीवनी घोलते हैं और सम्पूर्ण समाज को सचेष्ट और क्रियाशील बनाते हैं। वे एक सच्चे नागरिक के रूप में उभर कर आते हैं तथा राष्ट्र रूपी भवन की ऊँचाइयों को प्राप्त करने के लिए मजबूत स्तम्भ सिद्ध होते हैं।
आम नागरिक का जीवन किसी भी व्यक्ति को चाहे वह साहित्यकार हो या समाज सेवी हो या संस्थागत कर्मचारी-उन सभी का यह सद्कर्त्तव्य होता है कि वे अपने आचरण से, व्यवहार से, लोगों को सच्ची दिशा इंगित करते चलें। अन्याय के कुमार्ग से बचते हुए सन्मार्ग के पथिक होकर वास्तविकताओं को स्वीकारते हुए विकास पथ का अनुसरण करें। आम नागरिक का जीवन इन सभी सामाजिक संस्थानों के सेवकों के आचरण-व्यवहार से प्रभावित होता है। आम नागरिक वस्तुतः गरीबी, साधनहीनता, अशिक्षा के अभिशाप से संतृप्त है, तो फिर बताइये बालमुकुन्द गुप्त जैसे सचेष्ट, सजग सम्पादक स्वयं किस तरह आम नागरिक से अलग प्रभाव से प्रभावित हों। अशिक्षा को मिटाने का उनका ध्येय पूर्ण हो सकेगा, लोग गरीबी से मुक्ति पायेंगे, उनकी समृद्धि के साधन जुटाये जायेंगे-केवल उन्हें सुदिशा, इंगित की जाए। उन्हें सच्ची और सही सूचना प्रदान की जाये।
सही दिशा निर्दिष्ट करना, सच्ची, सही सूचना देना एक सम्पादक का सद्धर्म है। अतः अन्याय से बचकर न्यायमार्ग का अनुसरण करके ही आम आदमी (नागरिक) का जीवन जीवित रहा जा सकता है।
प्रेरक प्रसंग अति लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
कवि ‘निराला’ के अनुसार मानवता कहाँ से आती है?
उत्तर:
कवि ‘निराला’ के अनुसार मानवता हृदय की विशालता से आती है, भौतिक सम्पन्नता से नहीं।
प्रश्न 2.
‘गुप्त जी’ का पूरा नाम क्या था? वह किस अखबार के सम्पादक थे?
उत्तर:
‘गुप्त जी’ का पूरा नाम श्री बालमुकुन्द गुप्त था। वह भारत मित्र’ नामक हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र के सम्पादक थे।
प्रेरक प्रसंग पाठ का सारांश
1. गरीबों का मसीहा पाठ का सारांश
प्रस्तावना-ईश्वर की सृष्टि में विषमता :
निर्धनता सिर पर चढ़कर बोलती है। इस संसार में कोई धनवान है, तो कोई निर्धन। कोई कुछ भी काम नहीं करता फिर भी मौज की जिन्दगी जीता है और कोई दिन-रात परिश्रम करते-करते दो जून की रोटी को तरसता है। परिस्थितियों से समझौता, उसकी लाचारी है। इस संसार में यह विषमता कब तक चलती रहेगी, इसका उत्तर किसी के पास भी नहीं है।
सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ :
गरीबों के मसीहा-निराला जी कई दिनों से उपवास कर रहे थे और पैदल भी चले जा रहे थे। वे दुनिया से दीनता, गरीबी को मिटाने सम्बन्धी विचारों जिससे इक्का ताँगा कर लेते। वे गरीबों के मसीहा थे। अत: उन्हें भी गरीब बनकर जीना है। वे गरीबों की दरिद्रता देख नहीं सकते थे। स्वयं मौज मारे, दूसरे भाई भूखे नंगे रहे, ऐसा वे स्वप्न में
भिखारिन की सहायता :
वे भूखे थे, लीडर प्रेस-दारागंज चले जा रहे थे। सोचते थे कि प्रेस से रॉयल्टी के कुछ पैसे मिलें, तो वे अपनी भूख मिटाएँ। रॉयल्टी के 104 रुपये प्राप्त हुए; इक्के पर सवार हो लिए और अपनी मुँह बोली बहन महादेवी के घर पहुँचने ही वाले थे कि एक करुण पुकार उनके कानों में पड़ी, तो इक्का रुकवाया, स्वयं उतरे और सड़क किनारे बैठी भिखारिन के पास जा पहुंचे। उनके हृदय में करुणा जाग गई, बोले माँ! हमारे रहते तुम्हें भीख माँगनी पड़ती है, ऐसा नहीं हो सकता।
भीख न माँगने का संकल्प :
बुढ़िया ने अपने कमजोर स्वर में कहा कि मैं बुढ़ापे की कमजोरी में कुछ कर नहीं सकती। सन्तान ने दूध से निकाली मक्खी की तरह मुझे फेंक दिया है। विवशता से भीख माँगकर खाती हूँ। कवि ने कहा कि एक रुपया दूं तो कब तक भीख नहीं माँगोगी। यदि पाँच रुपये दूं तो कब तक ? बुढ़िया ने उत्तर दिया एक दिन और पाँच दिन क्रमशः
इस पर कवि निराला ने कहा कि यदि एक सौ चार रुपये दे दिये जाएँ तो कब तक भीख नहीं माँगनी पड़ेगी? बुढ़िया का उत्तर था कभी नहीं। वह कोई धन्धा कर लेगी। इसका संकल्प उस बुढ़िया ने ले लिया।
उपसंहार :
निराला जी, खाली जेब ही महादेवी के घर पहुँचे और इक्के का भाड़ा भी महादेवी को देना पड़ा क्योंकि उनके पास फूटी कौड़ी भी नहीं थी। उनकी आत्मा आज भी दहाड़ मारती हुई कहती है कि मानवता हृदय की विशालता से आती है; भौतिक सम्पन्नता से नहीं।
2. आदर्शवादी बिक नहीं सकता पाठ का सारांश
प्रस्तावना :
श्री बालमुकुन्द गुप्त ‘भारत-मित्र’ जैसे प्रतिष्ठित अखबार के सम्पादक थे। उनके दरवाजे को किसी ने खटखटाया। अन्दर कमरे में नीचे फर्श पर दरी बिछाकर बैठे हुए श्रीगुप्त जी चौकी पर कागज रखकर लिख रहे थे। तब उन्होंने छोटे पुत्र को आवाज दी और कहा, “देखना बेटा! कौन आये हैं?”
छोटे बेटे ने दरवाजा खोला और एक सज्जन अन्दर प्रविष्ट हुए। गुप्त जी उन्हें देखकर खड़े हो गये और पूछा कि हे मित्र! बहुत दिन बाद दिखाई दिए हो, आजकल कहाँ हो और क्या कर रहे हो?
आगन्तुक पुराने मित्र :
जो सज्जन आये हुए थे, वे गुप्तजी के पुराने मित्र थे। भारत-मित्र’ हिन्दी दैनिक के सम्पादक श्री बालमुकुन्द गुप्त की कमीज पीछे दीवार पर खूटी पर टंगी हुई थी। वह कमीज बहुत हल्के और सस्ते कपड़े की सिली हुई थी। गुप्त जी मोटी निब वाली सस्ते दामों वाली कलम से लिख रहे थे।
आगन्तुक महोदय ने सभी वस्तुओं को, घर के वातावरण को बड़ी बारीकी से देखा। सज्जन अपने मन्तव्य की बात कहना ही चाहते थे कि गुप्त के ज्येष्ठ पुत्र ने कमरे में प्रवेश किया और बाजार से खरीद कर लाई गई दो कमीजों को अपने पिताजी श्री गुप्त जी के सामने रखा।
मितव्ययिता की सीख :
गुप्त जी ने कहा कि कमीज तो अच्छी है लेकिन है कितने की? बेटे ने कमीज का मूल्य बताया चार रुपये ! गुप्त जी को विस्मय हुआ और आपत्ति के स्वर में कहा कि कमीज को इतना महँगा क्यों खरीदा? इतने रुपये में तो घर के सभी सदस्यों के लिए कपड़े बन सकते थे। इसी बीच आगन्तुक महादेय ने कहा कि गुप्त जी बच्चे हैं, “यदि वे इस समय नहीं खायेंगे, नहीं पीयेंगे और नहीं पहनेंगे, तो फिर ये कब खाएँगे और पहनेंगे।”
फिजूलखर्ची को रोकना :
गुप्तजी ने कहा- यह तो सरासर फिजूलखर्ची है। महँगे कपड़े पहनने की सामर्थ्य हमारे परिवार में नहीं है। रह जाती है बात खाने-पीने की उम्र का सम्बन्ध भी मितव्ययिता से होना चाहिए। मितव्ययिता भी इसी समय सीखनी है।
धन की कमी की पूर्ति :
आगन्तुक महोदय बोले कि धन की कमी से होने वाली कठिनाई को तो मैं दूर करे देता हूँ। मैं इसलिए ही तो आपके पास आया हूँ। इतना कहते ही आगन्तुक मित्र महोदय ने पाँच हजार रुपये उनकी चौकी पर रख दिये।
विस्मय :
गुप्त जी यह देखकर चौंक पड़े और लगा कि उनके शरीर पर सैकड़ों साँप और बिच्छू रेंग गये हों। विस्मय से फटे नेत्र वाले गुप्त जी ने यह देखते हुए कहा-क्या मतलब?
दो धनवानों के बीच मुकद्दमा :
आपको विहित है कि यहाँ की फौजदारी की अदालत में दो धनवान व्यक्तियों के बीच मुकद्दमा चल रहा है। दोनों पक्षों से सम्बन्धित सनसनीपूर्ण विवरणों द्वारा अपने पत्र के माध्यम से उनका समर्थन करें, तो उन लोगों को लाभ मिल सकता है। इसी के लिए उनकी ओर से आपके पास भेंट लेकर आया हूँ।
गरीबी मेरी शान है :
गुप्त जी ने धीरे से लेकिन गम्भीर स्वर में कहा-‘मित्र ! तुम गलत समझते हो। अगर धन कमाना ही मेरा ध्येय रहा होता; तो आप जो अभी चारों ओर घूर-चूर कर देख रहे थे और मेरी गरीबी पर आश्चर्य कर रहे थे। वह नहीं होता। गरीबी मेरी शान है। मैंने अपनी इच्छा से ही इसका (गरीबी का) वरण किया है। इसका कारण यह है कि मैं आम नागरिक से एक होकर जीवन जीना चाहता हूँ। उसके दुःख-दर्द को समझने की और अनुभव करने की ललक है। यही अनुभव मेरे साहित्य को प्राण देते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो गरीबी मेरे प्राण हैं। यह भी अन्याय की खातिर कदापि सम्भव नहीं।”
उपसंहार :
गरीबी की गरिमा का गान सुनकर बेचारे मित्र महोदय, अपना रुपया उठाकर चलते बने और गुप्त जी पुनः लेखन में व्यस्त हो गये।