MP Board Class 12th Special Hindi स्वाति कवि परिचय (Chapter 6-10)

MP Board Class 12th Special Hindi स्वाति कवि परिचय (Chapter 6-10)

11. बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ [2017]

  • जीवन परिचय

बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ का काव्य राष्ट्रीय चेतना और जनजागृति का काव्य है। इन्होंने जहाँ परतन्त्र भारत के सोते हुए लोगों को जगाने का काम किया वहीं मानवीय भावना से ओतप्रोत प्रेमाकुल काव्य की रचना भी की। इन्होंने वीर एवं श्रृंगार दोनों में समान रूप से लिखकर हिन्दी काव्य को अमर रचनाएँ प्रदान की।

राष्ट्रवादी चिन्तक, जुझारु पत्रकार एवं ओजस्वी कवि पंडित बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ का जन्म सन् 1897 ई. में शाजापुर जिले के शुजालपुर के मयाना गाँव में हुआ था। इन्होंने गणेश शंकर विद्यार्थी के सानिध्य में पत्रकारिता और महात्मा गाँधी के सम्पर्क में गाँधीवादी विचारों को अपनाया। नवीनजी ने स्वतन्त्रता आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभायी, साथ ही भारतीय संस्कृति, राष्ट्रीय चेतना और नवयुवकों को प्रेरणा देने वाली ओजस्वी रचनाओं को भी लिखते रहे। इन्होंने प्रेम व श्रृंगारपरक गीत भी लिखे। नवीनजी भारतीय संविधान निर्मात्री परिषद के सदस्य भी रहे। संविधान में हिन्दी को राजभाषा का पद दिलाने में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। 1952 से 1960 ई. तक ये संसद सदस्य भी रहे। 1960 में भारत सरकार ने इन्हें ‘पद्म विभूषण’ की उपाधि से विभूषित किया। सन् 1960 में हृदय गति रुक जाने से इनका देहावसान हो गया।

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  • साहित्य सेवा

नवीनजी ने अपना साहित्यिक जीवन पत्रकारिता से प्रारम्भ किया। गणेशशंकर विद्यार्थी के सम्पर्क में आने के बाद ‘प्रताप के प्रधान सम्पादक बने। राष्ट्रीय स्वर को प्रधानता देने वाली पत्रिका ‘प्रभा’ के भी ये सम्पादक रहे। इन्होंने प्रेम, श्रृंगार, राष्ट्रीय भावना, भारतीय संस्कृति, भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन आदि विषयों पर ओजस्वी रचनाएँ लिखीं। प्रकृति के विभिन्न रूपों के चित्रण के साथ उनके काव्य में रहस्यवादी भावना के दर्शन भी होते हैं।

  • रचनाएँ
  1. उर्मिला इसमें उर्मिला के जन्म से लेकर लक्ष्मण से पुनर्मिलन तक की कथा वर्णित है। इस काव्य में उर्मिला का विरह वर्णन बड़ा ही मार्मिक है।
  2. रश्मि रेखा-प्रेम, कला तथा संवेदना की दृष्टि से यह उत्कृष्ट काव्य है।
  3. कुंकुम इस गीत संग्रह में यौवन और प्रखर राष्ट्रीयता का स्वर मुखरित है।
  4. अपलक, क्वासि इनमें प्रेम और भक्ति से पूर्ण कविताएँ संकलित हैं।
  5. प्राणार्पण यह गणेशशंकर विद्यार्थी के बलिदान पर लिखा गया खण्डकाव्य है।
  6. विनोवा स्तवन-इसमें विनोवा भावे के भूदान यज्ञ की प्रशस्ति में लिखे गये पद हैं।
  • भाव-पक्ष
  1. देश-प्रेम की भावना-इनकी कविताओं में देश-प्रेम की भावना उत्कृष्ट रूप से उजागर हुई है।
  2. क्रान्ति भावना-नवीन जी की कविताओं में स्वतन्त्रता संग्राम के दौर में भोगे हुए अनुभव जीवन्त हैं और उनसे उपजे जागृति के स्वर भी मुखर हैं।
  3. प्रेम व भक्ति-भावना-देश-प्रेम और राष्ट्रीय चेतना से स्फूर्त होने के परिणामस्वरूप रचनाओं में ओज प्रखर है तो प्रेम प्रवण अभिव्यक्ति में कोमलता निहित है। प्रेमाकुल संवेदनाएँ मानवीय भावनाओं से सराबोर हैं।
  • कला पक्ष
  1. भाषा शैली-नवीनजी की तत्सम शब्द प्रधान भावानुकूल भाषा है। इनकी शैली ओजपूर्ण एवं प्रबन्ध है।
  2. छन्द योजना-भावों के अनुकूल छन्द योजना उत्कृष्ट बन पड़ी है।
  3. प्रकृति चित्रण-प्रकृति के विविध रूप यत्र-तत्र दृष्टव्य हैं।
  • साहित्य में स्थान

बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ के काव्य में राष्ट्र प्रेम.मानव प्रेम.लौकिक प्रेम तथा अलौकिक प्रेम का प्रस्फुटन एक साथ हुआ है। नवीनजी छायावाद के समानान्तर बहने वाली प्रेम और श्रृंगार की धारा के कवि हैं। इनका अधिकांश काव्य मानवता तथा राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत है,जिसके कारण हिन्दी साहित्य में इनको सम्माननीय स्थान प्राप्त है।

12. श्रीकृष्ण सरल [2015]

  • जीवन परिचय

श्रीकृष्ण सरल का जन्म 9 जून, 1921 ई. को मध्यप्रदेश के अशोक नगर में हुआ था। बचपन से ही ये कविताएँ लिखने लगे थे। यद्यपि उन्होंने गद्य की सभी विधाओं में लिखा है, फिर भी मूल रूप से वह कवि थे।

इनके हृदय में क्रान्तिकारियों के प्रति अनुराग था। प्रमुख क्रान्तिकारियों के ऊपर इन्होंने महाकाव्य लिखे। देश-भक्ति की भावना से ओतप्रोत सरलजी ने देश-भक्तों को ही लेखन का केन्द्र बनाया। उनकी ‘क्रान्ति कथाएँ’ भारतीय क्रान्तिकारियों की ‘एनसाइक्लोपीडिया’ है जिसमें लगभग दो हजार क्रान्तिकारियों के जीवन-वृत्तान्त सम्मिलित हैं। गद्य के क्षेत्र में इन्होंने कहानियाँ, उपन्यास,एकांकी,जीवनियाँ और निबन्ध लिखे। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस पर इन्होंने पन्द्रह ग्रन्थों का प्रणयन किया। उनका कार्यस्थल उज्जैन रहा। इन्होंने बी. ए. तक शिक्षा प्राप्त की। फिर अध्यापन का कार्य किया। सरलजी का देहान्त 2 सितम्बर,2000 ई.को उज्जैन में हुआ।

  • साहित्य सेवा

सरलजी का लेखन इतिहास जैसा प्रामाणिक और शोधपूर्ण है। लेखन के लिए इन्होंने देश के भीतर और देश के बाहर अनेक यात्राएँ की। उनका सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र के लिए समर्पित था। उन्होंने स्वयं लिखा है

“कर्त्तव्य राष्ट्र के लिए समर्पित हों अपने,
हो इसी दिशा में उत्प्रेरित चिन्तन धारा,
हर धड़कन में हो राष्ट्र, राष्ट्र हो साँसों में,
हो राष्ट्र-समर्पित मरण और जीवन सारा।”

  • रचनाएँ
  1. महाकाव्य-शहीद भगतसिंह, अजेय सेनानी चन्द्रशेखर आजाद, सुभाषचन्द्र, जय सुभाष,शहीद अशफाक उल्ला खाँ,विवेक श्री, स्वराज तिलक,क्रान्ति ज्वाला,बागी कर्तार।
  2. गद्य रचनाएँ–’कालजयी सुभाष’,क्रान्ति कथाएँ।
  3. कविताएँ-आँसू,छोड़ो लीक पुरानी,जवानी खुद अपनी पहचान, देश के सपने फूलें फलें,देश से प्यार, धरा की माटी बहुत महान, नेतृत्व,प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है,पीड़ा का आनन्द, प्रेम की पावन धारा,मत ठहरो, मुझमें ज्योति और जीवन है, वीर की तरह,शहीद,सैनिक।
  • भाव पक्ष
  1. देश-विदेश भ्रमण के बाद उन अनुभूतियों को अपने काव्य में मूर्तिरूप प्रदान किया।
  2. राष्ट्रवाद एवं क्रान्तिकारी भावों का अपने काव्य में प्रणयन किया।
  3. राष्ट्र-प्रेम की अभिव्यक्ति सरल जी का हृदय राष्ट्र-प्रेम की भावनाओं से भरपूर था। क्रान्तिकारियों के प्रति इनके हृदय का अनुराग इनके काव्य में परिलक्षित होता है।
  4. कर्त्तव्य और भारतीय संस्कृति में रुचि इनकी अपने कर्त्तव्य और भारतीय संस्कृति में आस्था थी,जो काव्य के रूप में प्रकट हुई। एक उदाहरण देखिए

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“कर्त्तव्य राष्ट्र के लिए समर्पित हों अपने,
हो इसी दिशा में उत्प्रेरित चिन्तन धारा।”

  • कला पक्ष
  1. भाषा-सरल जी की भाषा ओजपूर्ण है। देश के प्रति अथाह प्रेम इनकी भाषा में देखने को मिलता है। गद्य और पद्य दोनों में इन्होंने अपनी लेखनी चलाई है। भाषा शुद्ध एवं परिमार्जित है।
  2. अलंकार योजना यथास्थान इन्होंने अलंकारों का प्रयोग भी किया है। वह अनूठा बन पड़ा है। प्रतीकों के माध्यम से अपने भावों को पाठकों तक पहुँचाया है।
  3. रस योजना-सरलजी ने प्राय: वीर रस को ही अपनाया है। इनकी कविताएँ वीर रस में डूबी हुई हैं और ओजस्वी भाषा में नवयुवकों को प्रेरणा दे रही हैं। एक उदाहरण देखिए राष्ट्र के श्रृंगार ! मेरे देश के साकार सपनो ! देश की स्वाधीनता पर आँच तुम आने न देना। जिन शहीदों के लहू से लहलहाया चमन अपना उन वतन के लाड़लों की याद तुम मुझाने न देना।
  • साहित्य में स्थान

श्रीकृष्ण ‘सरल’ ने अपने क्रान्तिकारी लेखन से विश्व में कीर्तिमान स्थापित किया। ‘सरल जी’ का लेखन इतिहास जैसा प्रामाणिक और शोधपूर्ण है। उनकी साहित्य साधना गहन तपस्या थी। राष्ट्र उनकी साँसों में बसता था। यद्यपि इन्होंने गद्य की सभी विधाओं में लिखा है, फिर भी मूल रूप से वह कवि थे। अपनी उत्कृष्ट सेवा के लिए साहित्य में उनका सम्माननीय स्थान है।

13. गोस्वामी तुलसीदास [2014, 17]

  • जीवन परिचय

गोस्वामी तुलसीदास एक सिद्ध कवि हैं जो देश-काल की सीमाओं से परे हैं। मानव प्रकृति के जिन रूपों का हृदयग्राही वर्णन तुलसी के काव्य में मिलता है, वैसा अन्यत्र उपलब्ध नहीं। गोस्वामी तुलसीदास का कोई प्रामाणिक जीवन परिचय उपलब्ध नहीं है। उनकी जन्म-तिथि,जन्म-स्थान, माता-पिता और विवाहादि के सम्बन्ध में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद हैं। फिर भी तुलसी के जीवन-वृत्त से सम्बन्धित जो भी सामग्री मिलती है उसके आधार पर कहा जाता है कि उनका जन्म संवत् 1589 वि.में बाँदा जिले के राजापुर नामक स्थान में हुआ था। परन्तु कुछ लोग सोरों (एटा) को इनका जन्म स्थान मानते हैं। इनके पिता का नाम आत्माराम और माता का नाम हुलसी था। कहा जाता है कि इनका जन्म अभुक्तमूल नामक अनिष्टकारी नक्षत्र में होने के कारण इनके माता-पिता ने इन्हें जन्म होते ही त्याग दिया था। स्वामी नरहरिदास के सानिध्य में इन्होंने वेद-पुराण एवं अन्य शास्त्रों का अध्ययन किया। तुलसीदास का विवाह दीनबन्धु पाठक की सुन्दर कन्या रत्नावली के साथ हुआ। किंवदन्ती है कि रलावली के व्यंग्य वाणों से आहत होकर ही तुलसी को संसार और सांसारिक ऐश्वर्यों से विरक्ति हो गई और सब कुछ छोड़कर वह काशी चले गए। वहाँ इन्होंने नाना पुराण निगमागम का गहन अध्यन किया,साथ ही रामकथा कहते रहे। काशी छोड़कर तुलसीदास अयोध्या चले गए और वहीं पर ‘रामचरितमानस’ का प्रणयन किया। तुलसी ने संसार तो त्याग ही दिया था। वे राम के चरित गायन में लग गए और स्वयं को अपने आराध्य राम की भक्ति में समर्पित कर दिया। संवत् 1680 वि.में इस महात्मा ने शरीर के बन्धनों को तोड़ दिया और परमतत्व में विलीन हो गए।

तुलसी के काव्य में प्रेम की उन्मत्तता,उत्कृष्ट वैराग्य,राम की अनन्य भक्ति एवं लोकमंगल की भावना भरी हुई थी।

  • साहित्य सेवा

तुलसी के काव्य में लोकमंगल की भावना परिपूर्ण थी। तुलसी ने राम के लोकमंगलकारी रूप को अपनी लोकपावनी कृतियों के सामने प्रतिष्ठापित किया है। तुलसी ने अपनी साहित्यिक कृतियों के माध्यम से समाजगत,राजनीतिक, आर्थिक स्थितिपरक तथा विविध जातिगत सम्बन्धों और उनके एकीकरण का अन्यतम प्रयास किया है। प्रत्येक तरह की एवं प्रत्येक क्षेत्र की समस्याओं का समाधान ढूँढ़ने का तर्कसंगत उपाय तुलसी ने प्रत्येक वर्ग के लिए अपने ही सृजित साहित्य में यथास्थान प्रस्तुत किया है।

  • रचनाएँ

उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं-दोहावली,कवितावली,रामचरित मानस,विनय पत्रिका,रामाज्ञा प्रश्न, हनुमान बाहुक,रामलला,नहछू,पार्वती मंगल,बरबै रामायण,संदीपनी तथा गीतावली। रामचरित मानस हिन्दी साहित्य का सर्वोत्कृष्ट महाकाव्य है। सोहर छन्दों में लिखे हुए ‘नहछ’, ‘जानकी मंगल’ और ‘पार्वती मंगल’ अच्छे खण्डकाव्य हैं। ‘गीतावली’, ‘कृष्ण गीतावली’, ‘विनय पत्रिका’ हिन्दी के सर्वोत्तम गीतिकाव्यों में से है। ‘विनय पत्रिका’ हिन्दी के . विनय काव्यों में श्रेष्ठ है। ‘कवितावली’ मुक्तक काव्य परम्परा की उत्कृष्ट रचना है।

  • भाव पक्ष

(1) भक्ति-भावना-तुलसी ‘रामभक्ति शाखा के प्रमुख कवि थे। धार्मिक दृष्टि से उदार होने का परिचय उन्होंने शिव, दुर्गा, गणेश आदि सभी देवी देवताओं की स्तुति करके दिया है। राम के प्रति तुलसी की भक्ति सेव्य-सेवक भाव की है। राम ही उनका एकमात्र बल, एकमात्र आशा और एकमात्र विश्वास है।
उदाहरण देखिए-

“एक भरोसो एक बल, एक आस विश्वास।
एक राम घनस्याम हित, चातक तुलसीदास॥”

(2) समन्वयवादी दृष्टिकोण तुलसी का दृष्टिकोण अत्यन्त व्यापक एवं समन्वयवादी था। उन्होंने राम के भक्त होते हुए भी अन्य देवी-देवताओं की वन्दना की। तुलसी की रचनाओं में भारतीय संस्कृति एवं धार्मिक विचारधारा पूर्णतः दिखाई देती है। वह प्रत्येक धर्म पद्धति को भगवान की प्राप्ति का साधन मानते हैं। विभिन्न क्षेत्रों में समन्वय के प्रति तुलसी इतने सचेष्ट थे कि अपने आराध्य राम में भी उन्होंने शक्ति, शील और सौन्दर्य का अद्भुत समन्वय प्रस्तुत किया है।

(3) दार्शनिक भाव-तुलसी ने अपनी भक्ति का निरूपण यद्यपि दार्शनिक आधार पर किया है, किन्तु उनकी दार्शनिक विचारधारा किसी मत या वाद से परे है। तुलसी की दृष्टि में राम साक्षात् परमब्रह्म हैं। संसार क्षणभंगुर और असत्य है। भवसागर को पार करने के दो ही साधन हैं-ज्ञान और भक्ति। वह ज्ञान और भक्ति में कोई भेद नहीं मानते-

“ज्ञानहिं भक्तिहिं नहिं कछु भेदा।
उभय हरहिं भव संभव खेदा॥”

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(4) लोकहित की भावना-तुलसीदास की भक्ति लोकमंगल की भावना से प्रेरित है। राम लोकपालक भगवान विष्णु के अवतार हैं। वे लोकहितकारी मानवता के उच्चतम आदर्श और मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। तुलसी के रामराज्य की कल्पना एक आदर्श है। उन्होंने मानवीय सिद्धान्तों पर आधारित समाज और शासन पद्धति के वृहद् स्वरूप को प्रस्तुत किया है।

(5) रससिद्धता तुलसी रससिद्ध कवि थे। उनकी कविताओं में श्रृंगार,शान्त, वीर रसों का समन्वय है। श्रृंगार रस के दोनों पक्षों संयोग और वियोग का बड़ा ही सजीव निरूपण किया है। रौद्र,करुण, अद्भुत रसों का बड़ा ही सुन्दर वर्णन हुआ है।

  • कला पक्ष

(1) भाषा तुलसी ने अपनी काव्याभिव्यक्ति हेतु उस काल में प्रचलित दोनों प्रमुख भाषाओं ब्रज और अवधी को अपनाया है। तुलसी मुख्य रूप से अवधी भाषा के कवि हैं। उनकी भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों की प्रचुरता है। रामचरित मानस अवधी में तथा कवितावली, गीतावली और विनय पत्रिका ब्रजभाषा में लिखी हैं। उनकी भाषा में सरलता, बोधगम्यता, सौन्दर्य,चमत्कार,प्रसाद,माधुर्य, ओज आदि सभी गुणों का समावेश है।

(2) शैली-तुलसी ने अपने युग में प्रचलित सभी शैलियों में काव्य रचना की। सभी मतों,सम्प्रदायों और सिद्धान्तों की कटुता को मिटाकर उनमें समन्वयवादी प्रवृत्ति को अपनाया है। उन्होंने अवधी,ब्रजभाषा में समान रूप से रचनाएँ लिखीं। जहाँ-तहाँ अरबी, फारसी,भोजपुरी और बुन्देलखण्डी भाषाओं के शब्द भी मिल जाते हैं। यत्र-तत्र मुहावरे और लोकोक्तियों ने उनकी भाषा को और भी सरस बना दिया है।

(3) छन्द योजना—तुलसी ने जायसी की दोहा-चौपाई छन्दों में ‘रामचरित मानस’ की रचना की। सरदास की पद शैली को उन्होंने विनय पत्रिका और गीतावली में अपनाया। कवितावली को उन्होंने सवैया शैली में लिखा। दोहावली में उन्होंने दोहा छन्द का प्रयोग किया।

(4) अलंकार योजना-तुलसी का अलंकार विधान अत्यन्त रोचक है। उनकी उपमाएँ अत्यन्त मनोहर हैं। उनके उपमा अलंकार को ही हम कहीं रूपक,कहीं उत्प्रेक्षा तो कहीं दृष्टांत के रूप में देखते हैं। उनके अलंकार काव्य का वास्तविक सौन्दर्य उजागर करने के लिए प्रयुक्त हुए हैं।

  • साहित्य में स्थान

गोस्वामी तुलसीदास लोक कवि हैं। उनके काव्य से जीने की कला सीखी जा सकती है। उनके काव्य का बहिःपक्ष जितना सबल है,उसका अन्तःपक्ष उससे भी सबल है। अयोध्यासिंह उपाध्याय ने उनके बारे में लिखा है
“कविता करके तुलसी न लसै, कविता लसी या तुलसी की कला।”

14. मैथिलीशरण गुप्त [2009, 12]

  • जीवन परिचय

अपने साहित्य से राष्ट्रीय चेतना जाग्रत करने वाले महान् कवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म चिरगाँव जिला झाँसी में सन् 1886 में हुआ था। इनके पिता का नाम सेठ रामचरण गुप्त था। वह वैष्णव होने के साथ-साथ एक अच्छे कवि भी थे। गुप्तजी को कविता के संस्कार अपने पिता से ही प्राप्त हुए। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा चिरगाँव में ही हुई। बाद में वे 9वीं कक्षा तक झाँसी में पढ़े। स्कूली शिक्षा में मन न लगने के कारण उन्होंने स्कूल छोड़ दिया और घर पर ही स्वाध्याय किया।

कुछ समय बाद गुप्तजी आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में आए। द्विवेदीजी की प्रेरणा से उनके मन-मानस में कवि का स्फुरण हुआ। पहले उनकी रचनाएँ ‘सरस्वती’ में छपी। सन् 1923 में गुप्तजी की भारत भारती’ नामक काव्यकृति प्रकाशित हुई जिसने उन्हें साहित्य जगत में प्रसिद्धि दी। सन् 1952 से 1964 तक राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहे। गुप्तजी को भारत का राष्ट्रकवि होने का गौरव प्राप्त रहा। सन् 1964 में हिन्दी के इस महान् कवि का स्वर्गवास हो गया।

  • साहित्य सेवा

मैथिलीशरण गुप्त ने अपने साहित्य से राष्ट्रीय चेतना जाग्रत की। उन्होंने भारतवासियों में एकता स्थापित करने तथा सद्भाव, सौजन्य व सौहार्द्र विकसित करने के लिए आजीवन साहित्य रचना की। उनका काव्य रामभक्ति व राष्ट्र भक्ति का अनूठा संगम है।

  • रचनाएँ

गुप्तजी ने प्रबन्ध और मुक्तक दोनों ही प्रकार के काव्य लिखे हैं। उनकी रचनाओं को चार भागों में बाँटा जा सकता है खण्डकाव्य, महाकाव्य, गीतिकाव्य और गीतिनाट्य। उन्होंने संस्कृत, बंगला और अंग्रेजी की कुछ रचनाओं का हिन्दी में अनुवाद भी किया है। गुप्तजी की मौलिक रचनाएँ निम्न हैं रंग में भंग, जयद्रथ वध, पद्य प्रबन्ध, भारत-भारती, शकुन्तला, तिलोत्तमा, चन्द्रहास,पंचवटी, स्वदेश-संगीत, हिन्दू सैरन्ध्री, वन वैभव, गुरुकुल, साकेत, यशोधरा, द्वापर, सिद्धिराज, मंगल घट, नहुष, कुणाल गीत, अर्जुन और विसर्जन, काबा और कर्बला, विश्ववेदना, अजित, प्रदक्षिणा, पृथ्वी पुत्र, हिडिम्बा, अंजुली और अर्घ्य, जय भारत, युद्ध और
शान्ति,विष्णुप्रिया। साकेत महाकाव्य है। यशोधरा,द्वापर, विष्णुप्रिया,पंचवटी तथा भारत-भारती उनके प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं।

  • भाव पक्ष

(1) भारतीय संस्कृति के पक्षधर-प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रति उनका आस्था असीम है। उनकी अधिकांश रचनाएँ अतीतकालीन सभ्यता और संस्कृति का गौरव लिए हुए हैं। प्राचीन भारतीय संस्कृति के स्वर्णिम चित्रों से उनके काव्य भरे पड़े हैं।

(2) राष्ट्र-प्रेम की अभिव्यक्ति-प्राचीन भारतीय संस्कृति में गहन आस्था रखने के साथ-साथ गुप्तजी का हृदय राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत है। उनके समय भारत अंग्रेजों का गुलाम था। भारतीय समाज की दशा अत्यन्त दयनीय थी। भारतीय अपने प्राचीन गौरवशाली आदर्शों को भूलते जा रहे थे। अपनी ‘भारत-भारती’ में वह भारतीयों का आह्वान करते हैं

“हम कौन थे, क्या हो गए है और क्या होंगे अभी।
आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी।”

(3) राम की अनन्य भक्ति-गुप्त जी सगुणोपासक वैष्णव कवि हैं। अन्य धर्मों के प्रति समुचित आदर रखते हुए वह राम के ही अनन्य भक्त हैं। काव्यों में उन्होंने मंगलाचरण के रूप में राम की स्तुति की है। कृष्ण चरित्र पर केन्द्रित द्वापर’ में वह इसी भाव को व्यक्त करते हुए कहते हैं-

“धनुर्बाण या वेणु लो, श्याम रूप के संग।
मुझ पर चढ़ने से रहा, राम दूसरा रंग।”

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(4) मानवतावादी दृष्टिकोण भारतीय संस्कृति मानवतावादी है। उनकी दृष्टि में सम्पूर्ण संसार एक कुटुम्ब के समान है।। गुप्तजी पूर्णतः मानवतावादी हैं। विश्व-प्रेम एवं लोक-सेवा के माध्यम से उन्होंने अपने काव्य में इसी विचारधारा को व्यक्त किया है।

(5) गाँधीवादी दृष्टिकोण-गुप्त जी गाँधीजी द्वारा चलाए गए स्वतन्त्रता आन्दोलन से भी जडे रहे थे। अतः उन पर गाँधीवादी विचारधारा का प्रभाव पड़ा। उनके काव्य में अहिंसा, सत्य, राष्ट-प्रेम,समाज सुधार, हरिजनोद्धार,स्वदेशी से सम्बन्धित जो दृष्टिकोण मिलता है वह अधिकतर गाँधीजी के विचारों से प्रेरित है।

(6) नारी के प्रति सम्मान गुप्तजी के हृदय में नारी जाति के प्रति आदर का भाव और उसकी वर्तमान करुण अवस्था के प्रति गहरी करुणा का भाव है। भारतीय समाज में नारी की स्थिति अत्यन्त दयनीय है। गुप्तजी का हृदय भारतीय नारी की दयनीय अवस्था पर अत्यन्त दुःखी होता है

“अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,
आँचल में है दूध और आँखों में पानी।”

(7) समन्वयवाद के पक्षधर-गुप्तजी को प्रायः समन्वयवादी कवि कहा जाता है। उनके काव्य में अतीत और वर्तमान, सगुण और निर्गुण, भक्ति और ज्ञान,सत और असत,व्यक्ति और समाज.धर्म और कर्म आदि जीवन के विभिन्न विरोधी पक्षों का अदभुत समन्वय है। रामचन्द्र शक्ल ने उनके बारे में लिखा है-“गुप्तजी वास्तव में सामंजस्यवादी कवि हैं। सब प्रकार उच्चता से प्रभावित होने वाला हृदय उन्हें प्राप्त है। प्राचीन के प्रति पूज्य भाव और नवीन के प्रति उत्साह दोनों इनमें हैं।”

  • कला पक्ष
  1. भाषा-गुप्तजी की काव्य की भाषा खड़ी बोली हिन्दी है। उनकी भाषा शुद्ध और परिमार्जित हिन्दी है, जिसमें संस्कृत शब्दों की बहुलता है। लेकिन भाषा क्लिष्ट नहीं होने पायी है। यथास्थान मुहावरे और लोकोक्तियों का प्रयोग हुआ है। सौन्दर्य और सजीवता के साथ-साथ उनकी भाषा में माधुर्य,ओज और प्रसाद गुणों का भी समावेश हुआ है।
  2. अलंकार योजना-गुप्तजी के काव्य में शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों ही प्रकार के अलंकारों का प्रयोग हुआ है। प्राचीन अलंकारों के साथ ही उन्होंने मानवीकरण, विश्लेषण-विपर्यय और ध्वन्यार्थ व्यंजना जैसे पाश्चात्य अलंकारों को भी अपनाया है। उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, विभावना, सन्देह आदि अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है।
  3. छन्द योजना-गुप्तजी के काव्य में छन्द विधान में पर्याप्त विविधता दिखाई देती है। या, छप्पय,घनाक्षरी,शिखरिणी,द्रुत विलम्बित; मालिनी आदि अनेक प्रकार के छन्दों का प्रयोग उन्होंने अपने काव्य में किया है।
  4. रस योजना-मैथिलीशरण गुप्त ने अपने काव्य में प्रायः सभी रसों का नियोजन किया है। उनमें श्रृंगार,करुण, वीर और वात्सल्य रसों की अधिकता है।
  5. शैली-गुप्तजी ने अपने काव्य में प्रमुखतः भावात्मक शैली का प्रयोग किया है। इसी शैली के अन्तर्गत उनके काव्य में विचारात्मक, आत्मकथात्मक, आत्माभिव्यंजक, सूक्ति आदि शैलियों का प्रयोग हुआ है।
  • साहित्य में स्थान

गुप्तजी को साहित्यिक और राष्ट्रीय दोनों ही स्तरों पर पर्याप्त सम्मान मिला। अपने जीवन काल में वह अनेक उपाधियों और पारितोषिकों आदि से विभूषित किये गये। आगरा विश्वविद्यालय ने उन्हें डी. लिट् की उपाधि प्रदान की और ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ ने उन्हें ‘साहित्य वाचस्पति’ की उपाधि से विभूषित किया। वे सन् 1952 से 1964 तक राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहे।

15. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ [2010]

  • जीवन परिचय

सुमन जी छायावाद के अन्तिम चरण में काव्य-क्षेत्र में आए और प्रारम्भ में प्रेमगीत लिखते रहे। प्रकृति के विशाल क्षेत्र से उठती हुई मानवता की कराहट को सुनकर वह राष्ट्रीय आन्दोलन से प्रभावित हुए और इनके मन में भी क्रान्ति की ज्वाला धधक उठी। शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ का जन्म उन्नाव (उत्तर प्रदेश) के झगरपुर नामक गाँव में सन् 1915 ई. में हुआ था। ‘सुमन’ बाल्यावस्था में ही ग्वालियर चले आए और यहीं उनकी शिक्षा सम्पन्न हुई। उन्होंने ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज से बी.ए.किया। 1940 में एम.ए. और डी.लिट् की उपाधियाँ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से प्राप्त की। उनकी नियुक्ति नेपाल स्थित दूतावास में सांस्कृतिक सहायक के रूप में हो गई। 1961 में माधव कॉलेज, उज्जैन के प्राचार्य नियुक्त हुए तथा कुछ वर्षों के बाद उन्होंने विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में उपकुलपति के रूप में कार्यभार संभाल लिया। उनको भारत सरकार द्वारा ‘पद्मश्री’ की उपाधि से विभूषित किया गया। उपकुलपति के पद से अवकाश लेकर साहित्य सेवा में रत हुए। सन् 2002 ई. में उनका निधन हो गया।

  • साहित्य सेवा

सुमन जी की कविता सामाजिक जीवन तथा राष्ट्रीय चेतना से जुड़ी हुई हैं। इन्होंने प्रारम्भ में प्रेमभाव पर आधारित अनेक गीत लिखे। स्वाधीनता आन्दोलन और शोषित वर्ग की पीड़ा ने इनके काव्य-सृजन की दिशा बदल दी। सुमन जी प्रगतिवादी काव्यधारा के प्रमुख कवि हैं। अपने काव्य के माध्यम से ‘सुमन’ जी ने पूँजीवादी व्यवस्था पर प्रबल प्रहार किए और पीड़ित मानवता को वाणी दी। साम्यवाद के साथ ही गाँधीवाद में भी इनकी अटूट निष्ठा रही। इनकी कविताओं में जागरण और निर्माण का सन्देश है।

  • रचनाएँ

सुमन जी की रचनाएँ अग्रलिखित हैं

  1. हिल्लोल-यह सुमन जी के प्रेमगीतों का प्रथम काव्य-संग्रह है।
  2. आँखें भरी नहीं में मिलन की आकांक्षा, सौन्दर्य तथा प्रेम का मनोहारी चित्रण है।
  3. जीवन के गान’, प्रलय सृजन’, ‘विश्वास बढ़ता ही गया’-सुमन जी की क्रान्तिकारी भावनाओं से भरे हुए रचना संग्रह हैं।
  4. विंध्य हिमालय-इसमें सुमन जी की देश-प्रेम और राष्ट्रीय भावनाओं वाली कविताएँ संगृहीत हैं।
  5. माटी की बारात-इसमें इनको साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया गया है।
  • भाव पक्ष
  1. प्रेम-सुमन जी छायावाद के अन्तिम चरण में काव्य क्षेत्र में आए। प्रारम्भ में इन्होंने प्रेमगीत लिखे। धीरे-धीरे इनका ध्यान समाज के प्रति अपने कर्तव्य की ओर गया। प्रकृति के विस्तृत क्षेत्र से उठती हुई त्रस्त मानवता के दुःख ने इनका ध्यान आकर्षित किया और वे देश के राष्ट्रीय आन्दोलन में शामिल हो गए।
  2. साम्यवाद सुमन जी को रस की नवीन अर्थव्यवस्था ने बहुत आकर्षित किया। अतः इनका झुकाव साम्यवाद की ओर रहा।
  3. पूँजीवाद का विरोध-सुमन जी के मन में क्रान्ति की ज्वाला जल रही थी। इनका मन पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के प्रति विरक्ति के भाव से भर उठा। अत: इनकी कविताओं में साम्राज्यवाद के विरुद्ध आवाज उठाई गई।
  4. सत्य और अहिंसा-सुमन जी की निष्ठा गाँधीजी के सत्य और अहिंसा के सिद्धान्तों पर दृढ़ रही। इसी कारण इनकी कविताओं में क्रान्तिकारी स्वर पाया जाता है।
  5. जीवन दर्शन-इनके काव्य में इनका स्वयं का पुष्ट जीवन दर्शन स्पष्ट दृष्टिगत है जिसमें वर्तमान के हर्ष पुलक,राग विराग और आशा उत्साह के स्वर भी मुखरित हुए।

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  • कला पक्ष
  1. भाषा-सुमन जी की भाषा सरल एवं व्यावहारिक है। उनकी खड़ी बोली में संस्कृत के सरल तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है। साथ ही उर्दू के शब्द भी यत्र-तत्र मिल जाते हैं। सुमन जी एक प्रखर एवं ओजस्वी वक्ता भी थे। अतः उनकी भाषा जनभाषा कही जा सकती है।
  2. शैली इनकी शैली पर इनके व्यक्तित्व की छाप है। उनकी शैली में सरलता, स्वाभाविकता, ओज, माधुर्य और प्रसाद गुणों का समावेश है। उनके गीतों में स्वाभाविकता, संगीतात्मकता,मस्ती और लयबद्धता है।
  3. अलंकार योजना इनकी कविता में अलंकार अपने आप ही आ गए हैं। नए-नए उपमानों के माध्यम से उन्होंने अपनी बात बड़ी ही कुशलता से कह दी है।
  4. छन्द विधान-सुमन जी ने मुक्त छन्द लिखे हैं और परम्परागत शब्दों की समृद्धि में सहयोग दिया है।
  • साहित्य में स्थान

सुमन जी उत्तर छायावादी युग के प्रगतिशील प्रयोगवादी कवियों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। वे एक सुललित गीतकार, महान् प्रगतिवादी एवं वर्तमान युग के कवियों में अग्रगण्य हैं। हिन्दी साहित्य की प्रगति में इनका सहयोग अतुलनीय है।

16. विष्णुकान्त शास्त्री

  • जीवन परिचय

आचार्य विष्णुकांत शास्त्री का जन्म 2 मई, 1929 को कलकत्ता (कोलकाता) में हुआ। इनके पिता का नाम गंगेय नरोत्तम शास्त्री और माता का नाम श्रीमती रूपेश्वरी देवी था। इन्होंने एम.ए,एल.एल.बी.तक शिक्षा प्राप्त की। 1953 में इनका विवाह श्रीमती इन्दिरा देवी से हुआ। इनको बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से और छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय कानपुर से डी. लिट् की उपाधि प्रदान की गई। विष्णुकान्त शास्त्री जी 1953 से 1994 तक कोलकाता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक रहे। अवकाश प्राप्त करने के उपरान्त वे भारत भवन, भोपाल में न्यासी सचिव के पद पर रहे तथा उत्तर प्रदेश के राज्यपाल के पद को भी इन्होंने सुशोभित किया। 17 अप्रैल,2005 में इनका स्वर्गवास हो गया।

  • साहित्य सेवा

विष्णुकान्त शास्त्री ने हिन्दी की अनेक पुस्तकें लिखकर साहित्य सेवा की। अनेक बंगाली और अंग्रेजी कविताओं का हिन्दी में अनुवाद किया। ‘उपमा कालिदासस्य’ का बंगला से हिन्दी में अनुवाद किया। बंगला की कविताओं का हिन्दी में अनुवाद किया और ‘महात्मा गाँधी का समाज दर्शन’ का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद किया। डॉ. शास्त्री द्वारा लिखी गई कविताएँ जीवन के संवेदनशील क्षणों की भावना-प्रधान अभिव्यक्ति हैं।

  • रचनाएँ
  1. ‘कवि निराला की वेदना तथा अन्य निबन्ध’, ‘कुछ चन्दन की कुछ कपूर की’, ‘चिन्तन मुद्रा’, ‘अनुचिन्तन’ आदि उनके द्वारा रचित साहित्यिक समीक्षाएँ हैं।
  2. ‘बांग्लादेश के सन्दर्भ में’–उनका रिपोर्ताज है।
  3. ‘भक्ति और शरणागति’, ‘सुधियाँ उस चन्दन के वन की’ ये उनके द्वारा लिखित संस्मरण हैं।
  4. ‘उपमा कालिदासस्य’ बांग्ला से हिन्दी में अनूदित है।
  5. ‘महात्मा गाँधी का समाज दर्शन’ अंग्रेजी से हिन्दी में अनूदित ग्रन्थ है।
  6. ‘दर्शक और आज का हिन्दी रंगमंच’, ‘बालमुकुन्द गुप्त का एक मूल्यांकन’, ‘बांग्लादेश संस्कृति और साहित्य’, ‘तुलसीदास आज के सन्दर्भ में ये इनके द्वारा सम्पादित ग्रन्थ हैं।
  7. ‘जीवन पथ पर चलते-चलते’ उनका काव्य संकलन है।
  • भाव पक्ष
  1. संवेदनशीलता-डॉ. शास्त्री द्वारा लिखी गई कविताएँ जीवन के संवेदनशील क्षणों की भावना-प्रधान अभिव्यक्ति हैं।
  2. भारतीय संस्कृति में आस्था-विष्णुकांत शास्त्री की भारतीय संस्कृति में गहन आस्था रही। ये देश की स्वतन्त्रता के पक्षधर रहे हैं। उदाहरण देखिए“विजय पथ पर बढ़ सिपाही
    विजय है तेरी सुनिश्चित।
    लोटती है विजय चरणों पर उन्हीं के, जो बढ़े हैं।
    तुच्छ कर सब आपदाएँ, धर्मपथ पर जो अड़े हैं।”
  3. राष्ट्र-प्रेम की अभिव्यक्ति इन्होंने अपनी रचनाओं में राष्ट्र-प्रेम को आदर्श रूप में माना है। इनका राष्ट्र-प्रेम व्यापक और उदार है। एक उदाहरण देखिए”गगन गायेगा गरज कर गर्व से तेरी कहानी
    वक्ष पर पदचिह्न लेगी धन्य हो धरती पुरानी।
    कर रहा तू गौरवोज्ज्वल त्यागमय इतिहास निर्मित।
    विजय है तेरी सुनिश्चित।”
  4. जीवन जीने की शैली जीवन में जैसे-जैसे मोड़ आते गये कविता उन्हीं के अनुरूप मुखरित होती गई। जीवन के अनुरूप गुणों,जैसे–स्नेह, भक्ति,प्रेरणा आदि का समावेश इनकी कविताओं में देखा जा सकता है।

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  • कला पक्ष
  1. भाषा-डॉ. विष्णुकान्त शास्त्री की भाषा ओजस्वी है। इसमें तत्सम शब्दों की बहुलता है। वीर रस की कविताओं में ओजगुण-प्रधान शब्दावली का प्रयोग है तथा शान्त रस की कविताओं में माधुर्य एवं प्रसाद गुणों का सहज समावेश है।
  2. अलंकार योजना-विष्णुकान्त शास्त्री की कविताओं में अलंकार स्वयं प्रविष्ट हो गए हैं। रूपक,उपमा व अनुप्रास की छटा स्थान-स्थान पर सहज ही दृष्टिगत होती है।
  3. रस निरूपण-डॉ.विष्णुकान्त शास्त्री ने अपनी कविताएँ मुख्यत: वीर रस और शान्त रस में लिखी हैं। वीर रस में ओज-प्रधान शब्दावली है और शान्त रस में माधुर्य और प्रसाद गुण झलकता है।
  • साहित्य में स्थान

शास्त्रीजी को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल सम्मान, साहित्य भूषण सम्मान, डॉ. राममनोहर लोहिया सम्मान तथा राजर्षि टंडन हिन्दी सेवी सम्मान प्राप्त हुए। भावों के आधार पर उनकी कविताओं को राष्ट्रीय, विविधा,प्रेरणा व प्यार,भक्ति एवं काव्यानुवाद के रूप में विभाजित किया जा सकता है। हिन्दी साहित्य में इनका स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

17. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ [2009, 11, 13]

  • जीवन परिचय

सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ एक युगान्तकारी कवि हैं। छायावाद के प्रमुख स्तम्भ और आधुनिक काव्य में क्रान्ति के अग्रदूत निराला का जन्म मेदिनीपुर (बंगाल) के महिषादल राज्य में सन् 1897 में हुआ था। इनके पिता रामसहाय त्रिपाठी महिषादल राज्य के कर्मचारी थे। इस प्रकार निराला जी का बचपन बंगाल की शस्य-श्यामला धरती पर व्यतीत हुआ। इनकी स्कूली शिक्षा केवल मैट्रिक तक हुई। कालान्तर में उन्होंने हिन्दी, संस्कृत, उर्दू तथा अंग्रेजी भाषा तथा साहित्य का बहुत अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। निरालाजी का जीवन दुःख और संघर्षों में ही बीता। जीविकोपार्जन के लिए उन्होंने कलकत्ता में रामकृष्ण आश्रम में रहकर ‘समन्वय’ का कार्य किया। मतवाला (कलकत्ता) एवं सुधा (लखनऊ) का सम्पादन किया। 15 अक्टूबर,1961 को इनका स्वर्गवास हो गया।

  • साहित्य सेवा

निराला जी का साहित्य बहुमुखी और विपुल है। उन्होंने कविता, उपन्यास, कहानियाँ, निबन्ध,रेखाचित्र,जीवनियाँ,आलोचनात्मक निबन्ध आदि सभी कुछ लिखे हैं। निराला का काव्य दार्शनिक विचारधारा, गम्भीर चिन्तन और भाव सौन्दर्य की अमूल्य निधि है। विवेकानन्द का प्रभाव उन पर सुस्पष्ट है। उनके काव्य में कहीं विराट की ओर रहस्यात्मक संकेत है तो कहीं सामान्य जन के उत्पीड़न के चित्र हैं,कहीं कथा मुखर है तो कहीं गीत माधुरी।

  • रचनाएँ

समर्थ कवि होने के साथ-साथ निराला ने उपन्यास,कहानियाँ, रेखाचित्र,नाटक,जीवनियाँ और निबन्धों की रचना की। अंग्रेजी,बंगला तथा संस्कृत के ग्रन्थों के अनुवाद भी किये। परिमल, अनामिका, गीतिका, कुकुरमुत्ता, अणिमा, बेला, नये पत्ते, अर्चना, आराधना, गीतकुंज तथा सान्ध्य काकली ये काव्य कृतियाँ हैं। राम की शक्ति पूजा, तुलसीदास उनकी लम्बी कविताएँ हैं, जो अपनी विशिष्टताओं के कारण खण्डकाव्य मानी गई हैं। ‘सरोज स्मृति हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ शोकगीत माना गया है।

  • भाव पक्ष

(1) प्रेम और सौन्दर्य-छायावाद के उन्नायक कवि होने के कारण निराला के काव्य में प्रेम तथा सौन्दर्य के मोहक चित्र प्राप्त होते हैं। उनका सौन्दर्य चित्रण आकर्षक एवं अद्भुत है। उदाहरण के लिए निम्न पंक्तियाँ देखिए

“नयनों का नयनों से गोपन प्रिय संभाषण,
पलकों पर नव पलकों का प्रथमोत्थान पतन।”

निराला के काव्य में श्रृंगार के मादक एवं सजीव चित्र भी प्राप्त होते हैं।

(2) भक्ति एवं रहस्य भावना निराला जी के काव्य में भक्ति एवं रहस्य, भावनापरक रचनाएँ भी प्राप्त होती हैं। उन्होंने आत्मा तथा परमात्मा की एकता का प्रतिपादन किया है। निराला जी की भक्तिपरक रचनाओं में सगुण भक्तों का सा आत्मसमर्पण, तल्लीनता तथा हृदय की आर्त भावना परिलक्षित होती हैं।

“उन चरणों में मुझे दो शरण,
इस जीवन को करो हे वरण
x x x
दलित जनों पर करो करुणा
दीनता पर उतर आये
प्रभु तुम्हारी शक्ति अरुणा।”

(3) प्रकृति चित्रण-निराला जी के काव्य में प्रकृति चित्रण के विविध रूप प्राप्त होते हैं। उनका प्रकृति चित्रण अत्यन्त मधुर और सजीव है। उन्होंने प्रकृति में मानवीय भावों तथा क्रिया-कलापों का आरोप किया है। जैसे

“सखि बसन्त आया,
आवृत्त सरसी-उर सरसिज उठे,
केशर के केश कली से छूटे
स्वर्ण-शस्य अंचल
पृथ्वी का लहराया।”

(4) राष्ट्रीयता निराला जी का काव्य देश-प्रेम और राष्ट्रीयता की भावनाओं से ओतप्रोत है। उनकी कविताओं में ओज स्पष्ट दिखाई देता है। ‘जागो फिर एक बार’ कविता में कवि ने भारतीयों को जाग जाने का उद्बोधन किया है। जैसे

“जागो फिर एक बार प्यारे जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें।
अरुण-पंख-तरुण किरण खड़ी खोल रही है द्वार।”

(5) प्रगतिवादी दृष्टिकोण छायावाद का कवि होते हुए भी निराला जी को प्रगतिवाद का भी प्रथम कवि माना जाता है। उनके काव्य में सामाजिक तथा आर्थिक विषमता के प्रति विद्रोह तथा समाज के दलित एवं शोषित वर्ग के प्रति करुणा का भाव है। निम्न वर्ग के जीवन को उन्होंने यथा तथ्य चित्रण किया है। कुकुरमुत्ता कविता में उनका प्रगतिवादी स्वर देखिए

“अबे, सुन बे गुलाब,
भल मत गर पायी खशब रंगो आब
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट
डाल पर इतरा रहा कैपीटलिस्ट।”

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  • कला पक्ष

(1) भाषा-निराला जी की भाषा भावों के अनुरूप है। देश-प्रेम तथा भक्तिपरक व्यंग्यात्मक कविताओं में उनकी भाषा सरल एवं व्यावहारिक है। गम्भीर रचनाओं में उनकी भाषा क्लिष्ट, संस्कृतनिष्ठ एवं दुरूह हो गई है। निराला जी की भाषा में उर्दू, फारसी एवं बंगला शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। उन्होंने कुछ नवीन शब्दों का गठन भी किया है। निराला जी की काव्य भाषा भावानुकूल, चित्रात्मक, गत्यात्मक तथा ध्वन्यात्मक गुणों से समन्वित है। जैसे

“है अमा निशा, उगलता गगन घन अन्धकार
खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन चार।
अप्रतिहत गरज रहा पीछे, अम्बुधि विशाल
भूधर त्यों ध्यानमग्न, केवल जलती मशाल।”

(2) शैली-निराला जी की दो शैलियाँ हैं-

  • उत्कृष्ट छायावादी गीतों में प्रयुक्त दुरूह शैली।
  • सरल,प्रवाहपूर्ण,प्रचलित उर्दू के शब्द लिए व्यंग्यपूर्ण और चुटीली शैली।

(3) छन्द योजना-निराला जी ने नए-नए छन्दों का प्रयोग किया है। उन्होंने तुकान्त और अतुकान्त दोनों प्रकार के छन्द लिखे हैं। निराला जी ‘मुक्त छन्द’ के प्रवर्तक माने जाते हैं। मुक्त

छन्द में मात्राओं तथा वर्णों का बन्धन नहीं होता। केवल ध्वनि तथा प्रवाह का ध्यान रखा जाता है। मुक्त छन्द का उदाहरण देखिए-

“रे प्यारे को सेज पास
नम्रमुख हँसी-खिली,
खेल रंग प्यारे संग।”

(4) अलंकार विधान-निराला जी की अलंकार योजना उच्चकोटि की है। उनके काव्य में अलंकारों की प्रचुरता है। उन्होंने नवीन और प्राचीन दोनों प्रकार के उपमान खोजे हैं। उन्होंने उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक,मानवीकरण, विशेषण, विपर्यय, पुनरुक्तिप्रकाश आदि अलंकारों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया है। मानवीकरण का एक उदाहरण देखिए-

“किसलय वसना नव-वय लतिका
मिली मधुर प्रिया उर-तरु-पतिका।”

  • साहित्य में स्थान

आधुनिक कवियों में निराला का उत्कृष्ट स्थान है। वे मुक्तक के जनक थे। उन्होंने हिन्दी कविता को नयी दिशा प्रदान की। हिन्दी साहित्य में निराला के कृतित्व को उनके व्यक्तित्व ने और भी अधिक महान बनाया है। निराला जी हिन्दी के मूर्धन्य रचनाकार हैं।

18. गजानन माधव मुक्तिबोध’

  • जीवन परिचय

नई कविता के सशक्त कवि गजानन ‘मुक्तिबोध’ का जन्म 13 अक्टूबर, 1917 को मुरैना जनपद के श्योपुर कस्बे में हुआ था। उन्होंने उज्जैन के माधव विद्यालय से हाईस्कूल की परीक्षा पास की तथा इन्दौर के होल्कर कॉलेज से बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। आर्थिक विपन्नता के कारण पढ़ाई बन्द करके शुजालपुर के शारदा शिक्षा सदन में शिक्षक हो गये। सन् 1942 में उज्जैन के मॉडल स्कूल में शिक्षक रहे। सन् 1948 में नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. किया तथा राजनन्द गाँव के दिग्विजय महाविद्यालय में प्राध्यापक हो गये। उन्होंने ‘हंस’ (वाराणसी) तथा.’समता’ (जबलपुर) मासिक पत्रों में भी कार्य किया। असाध्य रोगों से जूझते हुए सन् 1964 में उनका देहान्त हो गया।

  • साहित्य सेवा

उन्होंने पद्य और गद्य साहित्य दोनों में रचनाएँ लिखीं। मुक्तिबोध की कविताओं का भाव पक्ष उन्नत तथा समसामयिक है। इनकी भाषा परिमार्जित, प्रौढ़ तथा सबल है। मुक्तिबोध ने काव्य के माध्यम से जन को जन-जन तथा मन को मानवीय बनाने की चेष्टा की है।

  • रचनाएँ

‘चाँद का मुँह टेड़ा है’ तार सप्तक में छपने वाली कविताएँ हैं। ‘काठ का सपना’, सतह से उठता हुआ आदमी’ इनके महत्वपूर्ण काव्य संग्रह हैं। ‘नए साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’, भारतीय इतिहास’, ‘कामायनी-एक पुनर्विचार’, संस्कृति एवं नई कविता का आत्मसंघर्ष’ इनकी जानी मानी गद्य रचनाएँ हैं।

  • भाव पक्ष

मुक्तिबोध की कविताओं के भाव पक्ष की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. इनकी कविता के वर्ण्य विषय जीवन तथा समाज के यथार्थ से सम्बन्ध रखते हैं। इन्होंने अपनी कविता में समाज की विपन्नता,विवशता तथा विसंगतियों को चित्रित किया है।
  2. मुक्तिबोध के काव्य में मानवतावाद का स्वर स्पष्ट रूप से मुखरित हुआ है। मुक्ति बोध ने लघु मानव की खोज की है तथा उसके प्रति पूर्ण आस्था प्रकट की है। जैसे“जिन्दगी के दलदल के कीचड़ में फंसकर
    वृक्ष तक पानी में फंसकर
    मैं यह कमल तोड़ लाया हूँ।”
  3. उनकी कविता में आधुनिक भाव बोध की सशक्त अभिव्यंजना है।
  4. उनकी काव्य-चेतना में चिन्तन की प्रचुरता है। उनका यह चिन्तन जलते हुए अंगारे पर चलने वाले व्यक्ति की मनस्थिति का चिन्तन है।
  • कला पक्ष

(1) भाषा-इनकी भाषा परिमार्जित,प्रौढ़ तथा पुष्ट है। सामान्य बोलचाल की भाषा के अतिरिक्त संस्कृतनिष्ठ सामासिक पदावली से युक्त उनकी भाषा सरल एवं प्रवाहमय है। भाषा की शक्ति उनके प्रत्येक वर्णन को अर्थपूर्ण तथा चित्रमय बना देती है। मुक्तिबोध की भाषा में प्रांजलता,शब्द चयन की सहजता,सार्थकता के साथ-साथ युग बोध के अनुरूप कथ्य को प्रकट करने की पूर्ण सामर्थ्य है। उनकी भाषा में कहीं पर बनावट तथा अस्वाभाविकता नहीं है।

(2) शैली-मुक्तिबोध की अधिकांश कविताएँ लम्बी हैं। उनकी काव्य शैली बिम्ब तथा प्रतीक प्रधान है। उनके काव्य-बिम्ब तथा प्रतीक नये जीवन-सन्दों से युक्त हैं। वे सहज जीवन को व्यक्त करने के कारण सरलता से ग्राह्य हैं। उनकी शैली सबसे अलग नवीन प्रतीक और नये सन्दर्भो से युक्त है। उन्होंने कविता को एक नया आयाम दिया है।

  • साहित्य में स्थान

गजानन माधव मुक्तिबोध नई कविता के प्रतिनिधि कवि हैं और जीवन मूल्यों के प्रयोग करने वाले कवि भी हैं। नई कविता को स्वरूप प्रदान करने में उनका विशिष्ट स्थान है।

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19. सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’

  • जीवन परिचय

अज्ञेयजी हिन्दी में प्रयोगवादी कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। उन्होंने ‘तार-सप्तक’ का प्रकाशन करके हिन्दी में प्रयोगवाद का सूत्रपात किया। अज्ञेय जी का जन्म सन् 1911 में पंजाब के करतारपुर नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता श्री हीरानन्द शास्त्री थे। पिता भारत के प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता थे। इनका बचपन अपने पिता के साथ कश्मीर, लखनऊ, बिहार तथा मद्रास में व्यतीत हुआ। बी. एस-सी. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद एम.ए.(अंग्रेजी) में प्रवेश लिया। राजनैतिक आन्दोलन में सम्मिलित होने के कारण पढ़ाई का कार्यक्रम बीच में ही छूट गया। देश सेवा में लगे रहने के कारण इन्हें कारावास भी भोगना पड़ा। अज्ञेयजी ने कुछ समय तक अमेरिका में भारतीय साहित्य तथा संस्कृत के अध्यापक के रूप में कार्य किया। इसके बाद जोधपुर विश्वविद्यालय में तुलनात्मक साहित्य और भाषा अनशीलन विभाग के निदेशक पद पर कार्य किया। 4 अप्रैल,1987 को इस साहित्यकार का निधन हो गया।

  • साहित्य सेवा

अज्ञेयजी का जीवन एक साधक का जीवन था। इन्होंने सन् 1934 ई.के लगभग लेखन कार्य आरम्भ किया। उन्होंने गद्य और पद्य दोनों में लेखन कार्य किया। उन्होंने निबन्ध, यात्रा-साहित्य, उपन्यास, कहानी, नाटक,संस्मरण,आलोचना आदि विविध विधाओं में साहित्य सृजन किया। सम्पादक और पत्रकार के रूप में उन्हें ख्याति प्राप्त थी। उन्होंने कई ग्रन्थों एवं पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया। तार-सप्तक का प्रकाशन करके नये युग को जन्म दिया। उन्होंने ‘सैनिक’, ‘विशाल भारत’, ‘प्रतीक’, ‘दिनमान’, ‘वाक’ (अंग्रेजी) पत्रों का बड़ी कुशलतापूर्वक सम्पादन किया। उनकी पहली कविता सन् 1927 में कॉलेज पत्रिका में प्रकाशित हुई। चित्रकारी,मृत्तिका-शिल्प,चर्म-शिल्प,काष्ठ-शिल्प, फोटोग्राफी,बागवानी,पर्वतारोहण आदि में उनकी विशेष रुचि थी। अज्ञेयजी प्रकृति तथा व्यवस्था प्रेमी व्यक्ति थे। उनकी साहित्यिक सेवाएँ सदैव चिर स्मरणीय रहेंगी।

  • रचनाएँ

अज्ञेयजी प्रतिभा सम्पन्न कवि थे। उनकी प्रमुख रचनाओं का विवरण निम्नवत् है

  1. काव्य-अरी ओ करुणा प्रभामय, आँगन के पार द्वार, हरी घास पर क्षणभर, बावरा अहेरी,इन्द्रधनु रौंदे हुए,कितनी नावों में कितनी बार, इत्यलम,सुनहले शैवाल,चिन्ता तथा पूर्वा।
  2. आलोचना-त्रिशंकु, हिन्दी-साहित्य : एक आधुनिक परिदृश्य, तीनों तार सप्तकों की भूमिकाएँ आदि।
  3. नाटक-उत्तर प्रियदर्शी।
  4. कहानी संग्रह-विपथगा, शरणार्थी,जयदोल, तेरे ये प्रतिरूप, अमर बल्लरी, परम्परा आदि।
  5. निबन्ध-संग्रह-आत्मनेपद,लिखि कागद कोरे,सबरंग और कुछ राग आदि।
  6. उपन्यास-शेखर : एक जीवनी (भाग 1 तथा 2), नदी के द्वीप, अपने-अपने अजनबी।
  7. यात्रा-साहित्य-एक बूंद सहसा उछली, अरे यायावर रहेगा याद।
  8. सम्पादन सैनिक, विशाल भारत,प्रतीक, दिनमान,वाक् (अंग्रेजी)।
  • भाव पक्ष

उनकी कविता में जीवन की गहरी अनुभूति तथा कल्पना की ऊँची उड़ान का सुन्दर समन्वय हुआ है। अज्ञेयजी ने एक नवीन काव्य धारा का प्रवर्तन किया। उनकी निजी अनुभूतियाँ प्रयोगवादी कविता के रूप में प्रकट हुईं।

  1. प्रकृति चित्रण-अज्ञेयजी प्रकृति प्रेमी कवि हैं। कवि ने प्रकृति का आलम्बन और उद्दीपन दोनों रूपों में प्रयोग किया है। प्रकृति के मानवीकरण रूप का प्रयोग अपने काव्य में किया है। अज्ञेयजी प्रकृति के पारखी कवि हैं। कहीं-कहीं प्रकृति के मनोरम चित्रों को उभारा है। कहीं-कहीं प्रकृति के भयंकर पक्ष का भी चित्रण किया है।
  2. प्रेम निरूपण-प्रेम के सम्बन्ध में उनका विचार है कि प्रेम यज्ञ की ज्वाला के समान है। उनके प्रेम निरूपण में एक ओर प्रिया के सौन्दर्य का वर्णन किया है। वहीं दूसरी ओर मन की व्याकुलता दिखायी देती है। इनकी प्रारम्भिक रचनाओं में प्रेम की अनुभूति का वर्णन पर्याप्त रूप में किया गया है।
  3. व्यक्तिगत भावनाओं की अभिव्यक्ति-अज्ञेयजी ने अपनी कविताओं में मानव स्वभाव का वर्णन किया है। वे समाज के महत्त्व को स्वीकार करते हैं। व्यक्ति के विकास द्वारा ही समाज का विकास सम्भव है। उनका विचार है मानव के विकास के लिए मानसिक विकास भी आवश्यक है। अतः उन्होंने अपने काव्य में व्यक्ति के विकास को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है।
  4. बौद्धिकता कवि ने बौद्धिकता पर विशेष बल दिया है। उनकी कविताओं में बुद्धि का विकास अधिक है। उनकी कविताएँ अतिशय बौद्धिकता का खजाना बन कर रह गयी हैं। अत्यधिक बौद्धिकता ने रस का अभाव उत्पन्न कर दिया है। उनकी कविताओं में सर्वत्र बौद्धिकता के ही दर्शन होते हैं।
  5. क्षणवादी जीवन दृष्टि जीवन क्षणभंगुर है। इस कविता में क्षणवाद का प्रबल विरोध किया है। प्रयोगवादी कवि प्रति क्षण की अनुभूतियों को महत्त्वपूर्ण मानता है। वह क्षण को सत्य मानता है। अतः इसका उपभोग करना चाहता है।
  6. नवीन उपमानों का प्रयोग-प्रयोगवादी कवि नवीनता का पोषक है। उनका विचार है कि पुराने शब्दों में नये अर्थों को प्रकट करने की क्षमता नहीं रही। अत: नये-नये शब्दों का प्रयोग होना चाहिए। नये विषय, नया शिल्प, नवीन भाषा, नए प्रतीक एवं नये उपमान इन कविताओं में प्रयुक्त किये गये हैं। इन नवीन उपमानों में नये सौन्दर्य बोध के दर्शन होते हैं।
  7. रहस्य भावना-अज्ञेय जी के काव्य में रहस्य की प्रधानता है। हरे भरे खेत,सागर, सुन्दर घाटियाँ, मनुष्य की मुस्कान,प्रेम तथा श्रद्धा आदि सभी में उस विराट ईश्वरीय सत्ता के दर्शन होते हैं। ये सभी उस ईश्वर की ही देन हैं। कवि,ईश्वर से समन्वय स्थापित करना चाहता है। अज्ञेयजी के काव्य में सर्वत्र रहस्य भावना दृष्टिगोचर होती है।
  • कला पक्ष
  1. भाषा-अज्ञेयजी का भाषा पर पूर्ण अधिकार था। विषय के अनुसार आपकी भाषा बदलती रहती है। आपकी भाषा शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली से युक्त है। भावों को व्यक्त करने में जो भाषा आपको अच्छी लगी, आपने उस भाषा का ही प्रयोग किया है। कहीं-कहीं अंग्रेजी तथा उर्दू के शब्दों का प्रयोग भी अज्ञेयजी ने किया है। उनकी भाषा में नूतनता, लाक्षणिकता तथा प्रतीकात्मकता के गुण विद्यमान हैं। देशज शब्दों का प्रयोग भी किया है। भाषा में चित्रात्मकता तथा बिम्ब विधान के भी दर्शन होते हैं। भाषा में चटकीलापन लाने के लिए उन्होंने लोकोक्तियों एवं मुहावरों का प्रयोग भी किया है।
  2. शैली अज्ञेयजी का व्यक्तित्व गम्भीर था। व्यक्तित्व की छाप उनकी शैली पर दिखायी देती है। इनकी शैली में बौद्धिकता और गम्भीरता की प्रधानता है। इन्होंने गद्य में आलोचनात्मक शैली, वर्णनात्मक शैली, विवरणात्मक शैली, सम्वादात्मक शैली, विवेचनात्मक शैली, भावात्मक शैली तथा सम्बोधन शैली का प्रयोग किया है। अज्ञेयजी ने व्यंग्य-प्रधान रचनाओं में व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग किया है। शैली भाषा तथा भावों के अनुकूल है।
  3. छन्द योजना-अज्ञेयजी ने छन्द मुक्त तथा छन्दबद्ध दोनों रूपों में रचनाएं की हैं। एक ओर उन्होंने छन्द के बन्धन को स्वीकारा है तथा दूसरी ओर छन्द के बन्धन को नकारा है। लय, स्वर तथा गेयता के तत्त्व विद्यमान हैं। छन्दों के प्रयोग द्वारा उनके काव्य में शब्द चित्र का अंकन किया गया है। कवि में गहन भावों को व्यक्त करने की शक्ति है।
  4. अलंकार योजना-अज्ञेयजी ने अपने काव्य में परम्परागत अलंकारों का प्रयोग किया है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग किया है। प्रकृति चित्रण में मानवीकरण अलंकार का प्रयोग मिलता है। ध्वन्यर्थव्यंजना, विशेषण विपर्यय जैसे नवीन अलंकारों का प्रयोग किया है।

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उदाहरणार्थ-

उपमा-यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है।
रूपक-मैं कब कहता हूँ, जीवन मरु नंदन कानन का फूल बने।

  • साहित्य में स्थान

अज्ञेयजी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। अज्ञेयजी हिन्दी साहित्य के लिए वरदान हैं। वे प्रतिभा सम्पन्न कवि हैं। अज्ञेयजी ने कविता का संस्कार किया है। कवि ने काव्य को नवीनता प्रदान की। वे मानवतावादी कवि हैं। उनकी कविताएँ बुद्धि को भी झकझोर देती हैं। वे प्रयोगवाद के प्रवर्तक के रूप में सदैव स्मरणीय रहेंगे। नई कविता को शिल्पगत रूप देने में अज्ञेयजी का सर्वाधिक योगदान है। वर्तमान युग में अपने व्यक्तित्व तथा कृतित्व दोनों की विविधता के कारण काफी चर्चित रहे। साहित्य-सेवी अज्ञेयजी का हिन्दी जगत में विशिष्ट स्थान है।

20. वीरेन्द्र मिश्र

  • जीवन परिचय

वीरेन्द्र मिश्र का स्थान नवगीतकारों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनकी लेखनी में तथा कण्ठ में एक अजीव-सा माधुर्य है। मिश्रजी सरस्वती के वरद पुत्र हैं। कवि तथा गीतकार वीरेन्द्र मिश्र का जन्म दिसम्बर,1927 को ग्वालियर में हुआ था। श्री मिश्रजी ने जीवन-पर्यन्त मानव मूल्यों की स्थापना की। शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने पूरी तरह स्वयं को लेखन कार्य में तल्लीन कर दिया। उनका स्वभाव सरल तथा विनम्र था। अपने बड़ों का सम्मान करते थे। छोटों को स्नेह करते थे। वे संघर्ष की साक्षात् मूर्ति थे। स्वाभिमान तथा दृढ़ निश्चय उनके स्वभाव का प्रधान गुण था। उस समय कवि सम्मेलन उनके बिना अधूरे समझे जाते थे। अतः मिश्रजी कवि सम्मेलनों की शान थे। जून, 1975 में यह गीतकार सदैव के लिए हमसे दूर हो गया।

  • साहित्य सेवा

मिश्रजी ने अनेक रूपों में माँ भारती की सेवा की। वे गीतकार तथा गद्य लेखक के साथ-साथ एक सफल पत्रकार थे। वीरेन्द्र मिश्र आधुनिक कविता की वर्तमान पीढी के सबसे अधिक लोकप्रिय कवि माने जाते हैं। मिश्र जी छायावादोत्तर गीतकार हैं। उनके गीतों में समय तथा समाज की प्रगतिशील आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति मिलती है। उनकी रचनाओं में सामाजिक,सांस्कृतिक तथा राष्ट्रीय धरातल अत्यन्त सबल है। उन्होंने अपने गीतों के माध्यम से जनमानस में आस्था और विश्वास को जाग्रत किया है। उनके गीतों में जहाँ एक ओर भावुक प्रेमी के प्रणय की गूंज हैं,वहीं दूसरी ओर व्यथा एवं पीड़ा के मार्मिक स्वर भी विद्यमान हैं। उनके गीतों में राष्ट्रीय गौरव के स्वर मुखरित हुए हैं। अन्याय,शोषण और विषमता के विरुद्ध सच्ची मानवीय चिन्ता के दर्शन होते हैं।

  • रचनाएँ

वीरेन्द्र मिश्र की प्रमुख रचनाएँ हैं गीतम, मधुवंती, गीत पंचम, उत्सव गीतों की लाश पर,वाणी के कर्णधार,धरती,गीताम्बरा, शांति गन्धर्व आदि प्रमुख हैं। उन्होंने गीत, नवगीत, राष्ट्रीय गीत, मुक्तक के अतिरिक्त रेडियो नाटक एवं बाल साहित्य की रचना की।

  • भाव पक्ष

(1) सरस तथा सफल गीतकार-वीरेन्द्र मिश्र मूलतः गीतकार हैं। उनकी रचनाओं का सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय धरातल अत्यन्त व्यापक है। जनसाधारण उनके प्रेरणा स्रोत हैं। मिश्रजी सदैव सामाजिक समस्याओं के प्रति जागरूक रहे हैं। हमेशा ही युग चेतना का संचार किया है। काव्य का मर्म वही समझ सकता है जिसमें उत्सर्ग एवं त्याग की भावना निहित हो। गीतकार के भाव जगत में किसी प्रकार का कोई अभाव नहीं है।

(2) कल्पना और यथार्थ का समन्वय-वीरेन्द्र मिश्र की कविताओं में कल्पना और यथार्थ का सुन्दर समन्वय देखने को मिलता है। जीवन के शाश्वत सत्य से विमुख रहकर कल्पना लोक में विचरण करना कवि को रुचिकर नहीं लगता। कल्पना के माध्यम से कवि हृदय की अनुभूति कराता है। सत्य,सौन्दर्य और कल्पना की गहराई के दर्शन होते हैं। उनमें ऐसी कल्पना शक्ति है जिसके द्वारा एक सफल रचनाकार सिद्ध हुए हैं। सुधी पाठक और श्रोता उनकी कविताओं में तल्लीन हो जाता है। धरातल के वास्तविक यथार्थ को भी कवि प्रस्तुत करता है।

(3) वेदना की प्रधानता–मिश्रजी के काव्य में वेदना का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। कवि का व्यक्तिगत जीवन सुख-दुःख तथा आनन्द से पूर्ण रहा है। एक घटना ने तो उनके जीवन को ही बदल दिया। यह घटना उनके व्यक्तिगत जीवन की है। उनके बड़े भाई का असामयिक निधन हो गया। उनकी रचनाओं में सूनेपन का अनुभव होने लगा। मिश्रजी की व्यक्तिगत वेदना पूरे संसार की वेदना हो गयी। कहीं-कहीं हर्षातिरेक भी काव्य में दृष्टिगोचर होता है। उनके काव्य में विरह पीड़ित मानव की विकलता तथा उत्कण्ठा के दर्शन होते हैं। कवि की आँखों से प्रवाहित आँसू उसकी मर्म व्यथा के परिचायक हैं–

क्या तुम्हें कुछ भी पता है,
अश्रु में क्या-क्या व्यथा है?

(4) सत्यम् के सफल गायक कवि केवल कल्पना में ही विचरण नहीं करता अपितु वह सत्य के ठोस धरातल पर आधारित है। वे सत्य और ईमान के मार्ग पर हमें चलने के लिए प्रेरित करते हैं। सत्य सदैव आदरणीय है। कभी-कभी कठोर सत्य का भी समाज सम्मान करता है। कवि मानवीय जीवन के कटु सत्यों से हमें अवगत कराते हैं। यदा-कदा सुखद स्वप्न अतीत में विलीन हो जाता है।

(5) संघर्षों के कवि-संघर्ष मानव जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है। जीवन में पग-पग पर बाधाएँ एवं संघर्ष हैं। इन संघर्षों से निकलना तथा टकराना ही सच्चा जीवन है। जीवन के कटु अनुभवों को प्राप्त करके जो कर्त्तव्य-पथ पर आगे बढ़ा है,वह दूसरों के लिए सदैव पथ-प्रदर्शक है। कवि ने अपने गीतों में जीवन की गतिशीलता का वर्णन किया है। कवि के गीतों में चिर शान्ति; प्रेम प्रकट होता है।

(6) युद्ध की विभीषिका का प्रबल विरोध-युद्ध देश के विकास में बाधक होते हैं। युद्ध सदैव ही मानवता के शत्रु हैं। युद्ध में विजय किसी की भी हो या पराजय किसी की हो, हानि तो प्राणिमात्र को पहुँचती ही है। पाकिस्तान द्वारा कश्मीर पर आक्रमण ने कवि की आत्मा को झकझोर कर रख दिया। चीन ने भी जबरन भारत को युद्ध की आग में झोंक दिया। इससे अपार धन-जन की हानि हुई। कवि को युद्ध बुरा लगता है। वह चाहे अपने देश से हो अथवा किसी अन्य देश से। युद्धों से जनसामान्य को प्रदूषण, चीत्कार,विनाश और बेकारी ही मिलती है।

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  • कला पक्ष

(1) भाषा-मिश्रजी ने अपने काव्य में तत्सम शब्दों का प्रयोग किया है। कवि ने अपने काव्य में परिमार्जित खड़ी बोली का प्रयोग किया है। चित्रात्मकता आपकी भाषा की प्रमुख विशेषता पायी जाती है। आपकी भाषा में कहीं-कहीं उर्दू-फारसी के शब्दों का प्रयोग स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। भाषा-सौष्ठव की गहराई पायी जाती है। कवि की रचनाएँ प्रसाद, ओज तथा माधुर्य गुण से परिपूर्ण हैं। भाषा लक्षणा तथा व्यंजना शब्द शक्ति से पूर्ण है।

(2) शैली-मिश्रजी का काव्य गेयतात्मकता का श्रेष्ठ उदाहरण है। काव्य में संगीतात्मकता भी पायी जाती है। संगीत की प्रधानता तथा गेयता के कारण ही मिश्रजी की कविताएँ मंच पर लोकप्रियता को प्राप्त हुई। प्रत्येक घर में उनके गीतों को बड़े ही चाव से गुनगुनाया जाता है। मिश्रजी की कविता में अनुपम प्रवाह,सहज माधुर्य तथा अदभुत लालित्य है। प्रतीक तथा बिम्ब विधान का प्रयोग स्थान-स्थान पर मिलता है। मिश्रजी की शैली में गीति काव्य का नवीनतम विकास प्राप्त होता है।

(3) छन्द योजना कवि ने छोटे-छोटे छन्दों का प्रयोग किया है। उनका काव्य नवीन प्रकार के छन्द,धुने तथा सुरों का एक विशाल सागर है। मिश्रजी ने गीत की नवीनतम् परम्परा को जन्म दिया है। कवि स्वच्छन्द प्रवाह का पोषक है। उनका विचार है कि छन्दबद्धता स्वाभाविकता को समाप्त कर देती है।

मिश्रजी ने तुकान्त तथा अतुकान्त दोनों प्रकार के छन्दों में गीत लिखे हैं। ‘गीतम’ सर्वाधिक लयात्मक कृति है। कवि ने जन-जन की वाणी को छन्दोबद्ध किया है। लयात्मकता, गतिशीलता,प्रवाहिकता आपके छन्दों की प्रमुख विशेषता है।

(4) अलंकार योजना मिश्रजी ने अपने काव्य में लगभग सभी प्रकार के अलंकारों का प्रयोग किया है। अलंकार साधन के रूप में प्रयुक्त किये हैं; साध्य के रूप में नहीं। परम्परागत अलंकारों का प्रयोग भी कम किया है। यमक, अनुप्रास, रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, प्रतीप तथा विरोधाभास आदि अलंकार ढूँढ़ने पर यत्र-तत्र मिल जाते हैं। प्रकृति चित्रण में मानवीकरण अलंकार का प्रयोग किया है।

  • साहित्य में स्थान

मिश्रजी छायावादोत्तर प्रमुख गीतकार हैं। उन्होंने 1940 से काव्य रचना का प्रयास किया। कवि को अपने देश की सभ्यता तथा संस्कृति से विशेष लगाव है। वे ग्रामीण संस्कृति के उपासक थे। वे देश की समसामयिक समस्याओं, साम्प्रदायिक एकता के समर्थक हैं। वे कुशल तथा लोकप्रिय गीतकार हैं। वे जनसाधारण के मनोबल में वृद्धि करते हैं। उनका विचार है कि उत्साह और आत्मबल को अपनायें तो निश्चय ही तूफान भी अपनी दिशा परिवर्तित कर लेंगे। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण मिश्रजी का हिन्दी साहित्य में विशेष स्थान है। वे माँ भारती के सच्चे अर्थों में सपूत हैं।

महत्त्वपूर्ण वस्तुनिष्ठ प्रश्न
[2010]

  • बहु-विकल्पीय प्रश्न

1. निम्नलिखित में मीराबाई की रचना है
(अ) रसिक प्रिया, (ब) राग गोविन्द, (स) साहित्य लहरी, (द) मदनाष्टक।

2. केशवदास का काल है
(अ) भक्तिकाल, (ब) आदिकाल, (स) रीतिकाल, (द) आधुनिक काल।

3. सूरदास के साहित्य की भाषा है
(अ) अवधी, (ब) ब्रजभाषा, (स) खड़ी बोली, (द) उर्दू।

4. मैथिलीशरण गुप्त ने काव्य की रचना की है
(अ) अवधी में, (ब) ब्रज में, (स) खड़ी बोली में, (द) मालवी में।

5. रत्नाकर का देहावसान हुआ
(अ) हरिद्वार में, (ब) कानपुर में, (स) फतेहपुर में, (द) प्रयाग में।

6. बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ का जन्म हुआ
(अ) सन् 1921 में, (ब) सन् 1897 में, (स) सन् 1905 में, (द) सन् 1895 में।

7. श्रीकृष्ण सरल के लेखन का विषय है
(अ) राष्ट्रवाद एवं क्रान्तिकारी. (ब) छायावाद, (स) भक्तिपूर्ण, (द) रहस्यवाद।

8. जयशंकर प्रसाद के पिता का नाम था
(अ) यायावर, (ब) रामरख, (स) सुंघनी साहू, (द) ब्रजनाथ।

9. ‘अनाम तुम आते हो’ के रचयिता हैं
(अ) घनानन्द, (ब) जयशंकर प्रसाद, (स) केशव देव, (द) भवानी प्रसाद मिश्र।

10. कबीर की भाषा को कहा जाता है
(अ) ब्रज भाषा, (ब) बुन्देलखण्डी भाषा, (स) सधुक्कड़ी भाषा, (द) परिष्कृत भाषा।
उत्तर-
1.(ब), 2. (स), 3.(ब), 4. (स), 5. (अ), 6. (ब), 7.(अ), 8. (स), 9.(द), 10. (स)।

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  • रिक्त स्थानों की पूर्ति

1. बिहारी की प्रसिद्ध रचना ……….. है।
2. तुलसीदास द्वारा रचित कवितावली’ ………. परम्परा की उत्कृष्ट रचना है।
3. मैथिलीशरण गुप्त के पिता का नाम ……….. था।
4. ‘पर आँखें नहीं भरौं’ ………. की प्रसिद्ध रचना है।
5. आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री का जन्म …………. हुआ।
6. निराला का बचपन बंगाल की …… धरती पर बीता।
7. मुक्तिबोध को …………. विषमताओं के कारण अपना अध्ययन बीच में ही रोकना पड़ा।
8. अज्ञेय का पूरा नाम …………. है।
9. वीरेन्द्र मिश्र …………. परम्परा के विशिष्ट कवि माने जाते हैं।
10. मीरा का विवाह उदयपुर के महाराज …………. से सम्पन्न हुआ।
11. ‘रामचन्द्रिका’ के रचयिता …………. हैं। [2009]
12. ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ …………. की रचना है। [2009]
13. श्रीकृष्ण के प्रति ……….. का दाम्पत्य भाव है। [2009]
14. ‘सूर्य का स्वागत’ …………. की रचना है। [2009]
15. ‘जहाँगीर जस चन्द्रिका’ के रचयिता …………. हैं। [2009]
16. मीराबाई ……… की कवयित्री हैं। [2009]
17. …………. को ‘हृदयहीन कवि’ कहा जाता है। [2009]
18. ………. वात्सल्य के कुशल चितेरे हैं। [2009]
19. काव्य में सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग ……… ने किया। [2009, 14]
उत्तर-
1. सतसैया, 2. मुक्तक काव्य, 3. सेठ रामचरण शुक्ल, 4. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, 5. कोलकाता, 6. शस्य-श्यामला, 7. आर्थिक, 8. सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, 9. नवगीत, 10. भोजराज, 11. केशवदास, 12. गजानन माधव मुक्तिबोध’,13. मीरा,14. दुष्यन्त कुमार,15. केशवदास,16. कृष्णभक्ति शाखा,17. केशव,18. सूरदास,19. कबीरदास।

  • सत्य/असत्य

1. मीरा की भक्ति-भावना हृदय से स्फूर्त है।
2. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार केशवदास का जन्मकाल सन् 1555 ई.माना गया है।
3. सूरदास का उद्धव प्रसंग’ भक्तिपूर्ण रचना है।
4. गोपाल सिंह नेपाली के पिता राय बहादुर ‘गोरखा रायफल’ में सैनिक थे।
5. ‘सुजान’ को श्रृंगार पक्ष में नायक और भक्ति पक्ष में दुर्गा मान लेना उचित होगा।
6. जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’ ने क्वीन्स कॉलेज इलाहाबाद से बी.ए. पास किया।
7. बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ आधुनिक युग के ऊर्जावान कवि हैं। [2014]
8. श्रीकृष्ण सरल कहते हैं कि देश की सम्पूर्ण समृद्धि का भवन शहीदों के उत्सर्ग की नींव पर खड़ा है।
9. ‘कामायनी’ के रचयिता सुमित्रानन्दन पन्त हैं।
10. भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म उत्तर प्रदेश के झाँसी नगर में हुआ था।
11. कबीर प्रेमाश्रयी शाखा के कवि हैं। [2009]
12. केशवदास भक्तिकाल के प्रमुख कवि हैं। [2009]
13. घनानन्द रीतिसिद्ध कवि हैं। [2009]
14. मीराबाई रामभक्ति शाखा की प्रमुख कवयित्री हैं। [2009]
15. केशव रीतिमुक्त कवि हैं। [2012]
उत्तर-
1. सत्य, 2. सत्य, 3. असत्य, 4. सत्य,5. असत्य, 6. असत्य, 7. सत्य,8. सत्य, 9. असत्य, 10. असत्य, 11. असत्य,12. असत्य, 13. सत्य, 14. असत्य, 15. असत्य। सही जोड़ी मिलाइए

I. ‘क’
(1) मीराबाई की रचना – (अ) सुजान
(2) केशवदास – (ब) भक्तिकाल
(3) सूरदास का काल – (स) सन् 1903 में
(4) गोपाल सिंह नेपाली का जन्म – (द) रामचन्द्रिका
(5) घनानन्द की प्रेमिका [2012] – (इ) गीत गोविन्द की टीका
उत्तर-
(1), → (इ),
(2) → (द),
(3) → (ब),
(4) → (स),
(5) → (अ)।

II. ‘क’
(1) कठिन काव्य का प्रेत कहा जाता है [2009] – (अ) सूरदास
(2) बाललीला वात्सल्य के चितेरे [2009] – (ब) छायावाद
(3) जयशंकर प्रसाद – (स) केशवदास
(4) तुलसीदास – (द) मैथिलीशरण गुप्त
(5) साकेत [2014] – (इ) सन्त कवि
उत्तर-
(1) → (स),
(2) → (अ),
(3) → (ब),
(4) → (इ),
(5) → (द)।

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III.
(1) काव्य में सर्वाधिक छंदों का प्रयोग किया है [2009] – (अ) मीरा ने
(2) काव्य में भाव-विह्वलता कूट-कूट कर भरी है [2009] – (ब) केशव ने
(3) राष्ट्रीय चेतना जाग्रत करने वाले कवि हैं [2009] – (स) घनानन्द
(4) रीतिमुक्त काव्यधारा के कवि हैं [2009] – (द) जगन्नाथदास रत्नाकर
(5) ‘उद्धव प्रसंग’ नामक कविता के रचयिता हैं [2009] – (इ) गोपाल सिंह नेपाली
उत्तर-
(1) → (ब),
(2) → (अ),
(3) → (इ),
(4) → (स),
(5) → (द)।

  • एक शब्द/वाक्य में उत्तर

प्रश्न 1.
कबीर ने अद्वैत से क्या अर्थ ग्रहण किया?
उत्तर-
ब्रह्म एक है द्वितीय नहीं।

प्रश्न 2.
बिहारी किस काल के कवि थे?
उत्तर-
रीतिकाल।

प्रश्न 3.
“विनय पत्रिका’ किस कवि की रचना है?
उत्तर-
तुलसीदास।

प्रश्न 4.
मैथिलीशरण गुप्त ने किस भाषा में काव्य रचना की?
उत्तर-
खड़ी बोली में।

प्रश्न 5.
किस कवि की शैली माधुर्य, प्रसाद और ओज गुणों से सम्पन है?
उत्तर-
शिवमंगल सिंह ‘सुमन’।

प्रश्न 6.
विष्णुकान्त शास्त्री का ‘उपमा कालिदासस्य’ किस भाषा से किस भाषा में अनूदित है-
उत्तर-
बांग्ला से हिन्दी में।

प्रश्न 7.
छायावाद के प्रमुख स्तम्भ और आधुनिक काव्य में क्रान्ति के अग्रदूत किस कवि को माना जाता है?
उत्तर-
सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’।

प्रश्न 8.
‘काठ का सपना’ किस कवि की रचना है?
उत्तर-
गजानन माधव मुक्तिबोध’।

प्रश्न 9.
प्रयोगवाद किस कवि की सूझ की उपज है?
उत्तर-
सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’।

प्रश्न 10.
‘वाणी के कर्णधार’ किस कवि की रचना है?
उत्तर-
वीरेन्द्र मिश्र।

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प्रश्न 11.
सूरदास के पदों की भाषा कौन-सी है? [2009]
उत्तर-
ब्रजभाषा।

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MP Board Class 12th Special Hindi स्वाति कवि परिचय (Chapter 1-5)

MP Board Class 12th Special Hindi स्वाति कवि परिचय (Chapter 1-5)

1. मीराबाई

जीवन परिचय

हिन्दी साहित्य में मीराबाई का विशेष महत्व है। मीरा भक्त कवयित्री हैं। उनकी रचनाएँ हृदय की अनुभूति मात्र हैं।

मीराबाई का जन्म राजस्थान में जोधपुर के मेड़ता के निकट चौकड़ी ग्राम में सन् 1503 ई. (संवत् 1560 ई) में हुआ था। वे राठौर रत्नसिंह की पुत्री थीं। बचपन में ही मीरा की माता का निधन हो गया था। इस कारण ये अपने पितामह राव दूदाजी के साथ रहती थीं। राव दूदा कृष्ण भक्त थे। अत: मीरा भी कृष्ण भक्ति में रंग गई। मीरा का विवाह उदयपुर के महाराज भोजराज के साथ हुआ था। विवाह के कुछ वर्ष उपरान्त ही इनके पति का स्वर्गवास हो गया। इस असह्य कष्ट ने इनके हृदय को भारी आघात पहुँचाया। इससे उनमें विरक्ति का भाव पैदा हो गया। वे साधु सेवा में ही जीवन-यापन करने लगीं। वे राजमहल से निकलकर मंदिरों में जाने लगी और साधु संगति में कृष्ण-कीर्तन करने लगीं। इनकी अनन्य कृष्ण भक्ति और संत समागम से राणा परिवार रुष्ट हो गया। इससे चित्तौड़ के तत्कालीन राणा ने उन्हें भाँति-भाँति की यातनाएँ देना शुरू कर दिया। कहते हैं कि एक बार मीरा को विष भी दिया गया, किन्तु उन पर उसका असर नहीं हुआ। राणा की यातनाओं से ऊब कर ये कृष्ण की लीलाभूमि मथुरा-वृन्दावन चली गईं और वहीं शेष जीवन व्यतीत किया। मीरा की भक्ति-भावना बढ़ती गई और वे प्रभु प्रेम में दीवानी बन गईं। संसार से विरक्त, कृष्ण भक्ति में लीन मीरा की वियोग भावना ही इनके साहित्य का मूल आधार है। मीरा अपने अन्तिम दिनों में द्वारका चली गईं। वहाँ ही सन् 1546 ई.(संवत् 1603 वि) में वे स्वर्ग सिधार गईं।

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  • साहित्य सेवा

मीराबाई द्वारा लिखित काव्य उनके हृदय की मर्मस्पर्शी वेदना है और भक्ति की तल्लीनता है। उन्होंने सीधे सरल भाव से अपने हृदय के भावों को कविता के रूप में व्यक्त कर दिया है। उनका साहित्य भक्ति के आवरण में वाणी की पवित्रता है और संगीत का माधुर्य है। मन की शान्ति के लिए और भक्ति मार्ग को पुष्ट करने के लिए मीरा की साहित्य सेवा सर्वोच्च

  • रचनाएँ

मीराबाई के नाम से जिन कृतियों का उल्लेख मिलता है उनके नाम हैं-‘नरसी जी को माहेरो’, ‘गीत गोविन्द की टीका’, ‘राग-गोविन्द’, ‘राग-सोरठा के पद’, ‘मीराबाई का मलार’, ‘गर्वागीत’, ‘राग विहाग’ और फुटकर पद। भौतिक जीवन से निराश मीरा की एकान्त निष्ठा गिरधर गोपाल में केन्द्रित है। ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’ कहकर मीरा ने कृष्ण के प्रति अपना समर्पण भाव व्यक्त किया है। भक्ति का यह भी एक लक्षण है।

  • भाव पक्ष

मीराबाई द्वारा रचित काव्य साहित्य में उनके हृदय की मर्मस्पर्शिनी वेदना है, प्रेम की आकुलता है तथा भक्ति की तल्लीनता है। उन्होंने अपने मन की अनुभूति को सीधे ही सरल, सहज भाव में अपने पदों में अभिव्यक्ति दे दी है। मीरा के पदों के वाचन और गायन से संकेत मिलता है कि मीरा की भक्ति-भावना अन्तःकरण से स्फूर्त है। उन्होंने मुक्त भाव से सभी भक्ति सम्प्रदायों से प्रभाव ग्रहण किया है।

उनकी रचनाओं में माधुर्य समन्वित दाम्पत्य भाव है। मीरा का विरह पक्ष साहित्य की दृष्टि से मार्मिक है। उनके आराध्य तो सगुण साकार श्रीकृष्ण हैं। मीरा के बहुत से पदों में रहस्यवाद स्पष्ट दिखाई देता है। रहस्यवाद में प्रिय के प्रति उत्सुकता, मिलन और वियोग के चित्र हैं।

  • कला पक्ष
  1. भाषा-मीरा की भाषा राजस्थानी और ब्रजभाषा है, किन्तु पदों की रचना ब्रजभाषा में ही है। उनके कुछ पदों में भोजपुरी भी दिखाई देती है। मीरा की भाषा शुद्ध साहित्यिक भाषा न रहकर जनभाषा ही रही।
  2. शैली-मीरा ने मुक्तक शैली का प्रयोग किया है। उनके पदों में गेयता है। भाव सम्प्रेषणता मीरा की गीति शैली की प्रधान विशेषता है।
  3. अलंकार इनकी रचनाओं में अधिकतर उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास आदि अलंकारों को सर्वत्र देखा जा सकता है।
  • साहित्य में स्थान

मीरा ने अपने हृदय में व्याप्त वेदना और पीड़ा को बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। भक्तिकाल के स्वर्ण युग में मीरा के भक्ति भाव से सम्पन्न पद आज भी अलग ही जगमगाते दिखाई देते हैं।

2. केशवदास

जीवन परिचय
हिन्दी साहित्य के कवियों एवं आचार्यों में केशव का साहित्य विलक्षण एवं प्रभावशाली है। इन्हें रीतिकाल का प्रवर्तक माना जाता है। केशवदास के जन्मकाल के सम्बन्ध में विद्वान एकमत नहीं हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार इनका जन्मकाल सन् 1555 ई. (संवत् 1612) तथा मृत्यु सन् 1617 ई. (संवत् 1674) माना गया है। इनका जन्म स्थान ओरछा, मध्यप्रदेश है। ये दरबारी कवि थे। इन्हें ओरछा नरेश महाराजा रामसिंह के दरबार में विशेष सम्मान प्राप्त था। नीति निपुण एवं स्पष्टवादी केशव की प्रतिभा बहुमुखी है। उनकी रचनाओं में उनके आचार्य, महाकवि और इतिहासकार का रूप दिखाई देता है। आचार्य का आसन ग्रहण करने पर इन्हें संस्कृत की शास्त्रीय पद्धति को हिन्दी में प्रचलित करने की चिन्ता हई जो जीवन के अन्त तक बनी रही। इनके पहले भी रीतिग्रन्थ लिखे गए किन्तु व्यवस्थित और सर्वांगीण ग्रन्थ सबसे पहले इन्होंने ही प्रस्तुत किए। अनुप्रास,यमक और श्लेष अलंकारों के ये विशेष प्रेमी थे। इनके श्लेष संस्कृत पदावली के हैं। अलंकार सम्बन्धी इनकी कल्पना अद्भुत है।

  • साहित्य सेवा

केशवदास ने लक्षण ग्रन्थ,प्रबन्ध काव्य, मुक्तक सभी प्रकार के ग्रन्थों की रचना की है। ‘रसिक प्रिया’,’कवि प्रिया’ और ‘छन्दमाला’ उनके लक्षण ग्रन्थ हैं। रीतिग्रन्थों की रचना इनके कवि रूप में आविर्भाव से पूर्ण भी होती रही। परन्तु जिस तरह के व्यवस्थित और समय ग्रन्थ इन्होंने प्रस्तुत किए, वैसे अन्य कोई कवि रीति ग्रन्थ प्रस्तुत करने में सफल नहीं हुआ।

इनका कवि रूप इनकी प्रबन्ध एवं मुक्तक दोनों प्रकार की रचनाओं में दृष्टिगोचर होता है। संवादों के उपयुक्त विधान का इनमें विशिष्ट गुण है। मानवीय मनोभावों की इन्होंने सुन्दर व्यंजना की है। संवादों में इनकी उक्तियाँ विशेष मार्मिक हैं तथापि प्रबन्ध के बीच अनावश्यक उपदेशात्मक प्रसंगों का नियोजन उसके वैशिष्ट्य में व्यवधान उपस्थित करता है। इनके प्रशस्ति काव्यों में इतिहास की सामग्री प्रचुर मात्रा में है। मध्यकाल में किसी के पांडित्य अथवा विद्वता की परख की कसौटी थी-केशव की कविता। केशव यदि ‘रसिक प्रिया’ जैसी भाषा लिखते रहते तो वे कठिन काव्य के प्रेत’ कहलाने से बच जाते। कल्पना शक्ति-सम्पन्न और काव्यभाषा

में प्रवीण होने पर भी केशव पाण्डित्य प्रदर्शन का लोभ संवरण नहीं कर सके।

  • रचनाएँ –

‘रसिक प्रिया’, कवि प्रिया’, ‘रामचन्द्रिका’, ‘वीर चरित्र’, विज्ञान गीता’ और ‘जहाँगीर जस चन्द्रिका’,इनकी महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं। संस्कृत के ‘प्रबोध चन्द्रोदय’ नाटक के आधार पर विज्ञान गीता’ निर्मित हुई है। ‘जहाँगीर जस चन्द्रिका’ में जहाँगीर के दरबार का वर्णन है। जनश्रुति है कि रामचन्द्रिका का सृजन उन्होंने गोस्वामी तुलसीदास के कहने से किया।

  • भाव पक्ष
  1. रस-केशवदास की रचनाओं में परिस्थिति के अनुसार रसों की निष्पत्ति हुई है। श्रृंगार का वर्णन उत्तम है। वियोग और संयोग दोनों पक्षों का वर्णन उत्कृष्ट है। वीर रस का प्रयोग पात्रों के सम्वादों से हुआ है। शान्त रस निर्वेद की दशा में है।
  2. अर्थ गाम्भीर्य केशवदास द्वारा प्रयुक्त सम्वादों के अर्थ में गम्भीरता है।
  3. नीति तत्व केशव दरबारी कवि थे। अतः उनकी रचनाओं में नीति तत्व की प्रधानता है। इनकी कविता में नैतिक मूल्यों की रक्षा की गई है।
  • कला पक्ष
  1. भाषा केशव ने अपने ग्रन्थों की रचना ब्रजभाषा में ही की है। कुछ रचनाओं में संस्कृत के प्रभाव दृष्टिगोचर होते हैं। कहीं-कहीं इनकी रचनाओं में दुरूहता आ गई है।
  2. शैली इन्होंने अपनी रचनाओं में प्रबन्ध शैली एवं मुक्तक शैली को अपनाया है। अलंकारप्रधान और व्यंग्यप्रधान शैली को स्थान दिया गया है।
  3. अलंकार-केशव ने उपमा,रूपक,उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति आदि अलंकारों का प्रयोग किया है।
  4. छन्द इन्होंने दोहा, कवित्त,सवैया,चौपाई, सोरठा आदि का प्रयोग किया है। केशव लक्षण ग्रन्थों के रचयिता रहे हैं। अतः उन्होंने छन्दों,शैली, रस निष्पत्ति आदि पर नए-नए प्रयोग किए हैं।
  5. सम्वाद योजना केशव की सम्वाद योजना बेजोड़ है। पात्र सम्वादों के माध्यम से परस्पर भावजगत की भी अभिव्यक्ति करते चलते हैं।

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  • साहित्य में स्थान

केशवदासजी हिन्दी के प्रमुख आचार्य हैं। उनकी समस्त रचनाएँ शास्त्रीय रीतिबद्ध हैं। ये उच्चकोटि के रसिक थे,पर उनकी आस्तिकता में कमी नहीं आने पाई है। नीतिनिपुण, निर्भीक एवं स्पष्टवादी केशव की प्रतिभा सर्वतोमुखी है। अपने लक्षण ग्रन्थों के लिए वे सदा स्मरणीय रहेंगे।

3. सूरदास [2009, 13, 15]

जीवन परिचय
मध्यकालीन वैष्णव भक्त कवियों में सूरदास का स्थान श्रेष्ठ है। सूरदास ने भक्तिधारा को जनभाषा के व्यापक धरातल पर अवतरित करके संगीत और माधुर्य से मंडित किया। सूरदास विट्ठलनाथ द्वारा स्थापित अष्टछाप के अग्रणी भक्त कवि हैं। इनका जन्म सन् 1478 ई.(संवत् 1535 वि) में आगरा के समीप रुनकता नामक गाँव में हुआ था। कुछ विद्वान दिल्ली के समीप ‘सीही नामक स्थान को इनका जन्मस्थान मानते हैं। बल्लभाचार्य जी ने इन्हें दीक्षा प्रदान की और गोवर्धन स्थित श्रीनाथ जी के मन्दिर में इनको कीर्तन करने के लिए नियुक्त कर दिया। इस प्रकार आप आजीवन गऊघाट पर रहते हुए श्रीमद्भागवत के आधार पर श्रीकृष्ण लीला से सम्बन्धित पदों की रचना करते रहे और मधुर स्वर से उनका गायन करते रहे।

महात्मा सूरदास का जन्मान्ध होना विवादास्पद है। सूर की रचनाएँ यह सिद्ध करती हैं कि एक जन्मान्ध कवि इतना सजीव और उच्चकोटि का वर्णन नहीं कर सकता। सूरदास की मृत्यु सन् 1583 ई.(सं.1640 वि) में मथुरा के समीप पारसोली नामक ग्राम में विट्ठलनाथ जी की उपस्थिति में हुई। कहा जाता है कि अपने परलोक गमन के समय सूरदास “खंजन नैन रूप रस माते” पद का गान अपने तानपूरे पर अत्यन्त मधुर स्वर में कर रहे थे।

सूरदास की भाषा ललित और कोमलकान्त पदावली से युक्त ब्रजभाषा है जिसमें सरलता के साथ-साथ प्रभावोत्पादकता भी मिलती है। सूरदास हिन्दी काव्याकाश के सूर्य हैं जिन्होंने अपने काव्य-कौशल से हिन्दी साहित्य की अप्रतिम सेवा की और बल्लभाचार्य से दीक्षा ग्रहण करने के बाद दास्यभाव और दैन्यभाव के पदों के स्थान पर वात्सल्य और प्रधान सखाभाव की भक्ति के पदों की रचना करना शुरू कर दिया।

  • साहित्य सेवा

सूरदास हिन्दी काव्याकाश के सूर्य हैं, जिन्होंने अपने काव्य-कौशल से हिन्दी साहित्य की अप्रतिम सेवा की। इनके गुरु बल्लभाचार्य थे। दीक्षा ग्रहण कर इन्होंने दैन्यभाव के पदों की रचना छोड़कर सखाभाव की भक्ति के पदों की रचना करना शुरू कर दिया। अष्टछाप के भक्त कवियों में सूरदास अगणी कवि थे। उनके काव्य का मुख्य उद्देश्य कृष्ण भक्ति का प्रचार करना था। वात्सल्य वर्णन को हिन्दी की अमूल्य निधि कहा जाता है जो सूरदास की रचनाओं में मिलता है। बाल मनोविज्ञान के तो सूरदास अद्वितीय पारखी थे।

  • रचनाएँ

विद्वानों के अनुसार सूरदास ने तीन कृतियों का सृजन किया था—
(1) सूरसागर,
(2) सूरसारावली,
(3) साहित्य लहरी।

(1) सूरसागर ही इनकी अमर कृति है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं के सवा लाख गेय पद हैं,परन्तु अभी तक 6 या 7 हजार के लगभग पद प्राप्त हैं।
(2) सूर सारावली में ग्यारह सौ छन्द संगृहीत हैं। यह सूरसागर का सार रूप ग्रन्थ है।
(3) साहित्य लहरी में एक सौ अठारह पद संगृहीत हैं। इन सभी पदों में सूर के दृष्ट-कूट पद सम्मिलित हैं। इन पदों में रस का सर्वश्रेष्ठ सृजन हुआ है।

सूरदास सगुण भक्तिधारा कृष्णोपासक कवियों में श्रेष्ठ कवि हैं।

  • भाव पक्ष
  1. भक्तिभाव-सूरदास कृष्ण भक्त थे। काव्य ही उनका भगवत् भजन था। उनके काव्य में एक भक्त हृदय की अभिव्यक्ति सहज ही दिखाई देती है। सूर की भक्ति सखा-भाव लिए हुए थी। कृष्ण को सखा मानकर ही उन्होंने अपने आराध्य की समस्त बाल-लीलाओं और प्रेम लीलाओं का वर्णन किया है।
  2. भावुकता एवं सहृदयता-सूरदास ने अपने पदों में मानव मन के अनेक भावों का वर्णन किया है। उनके वर्णन में गोप-बालकों के,माता यशोदा के और पिता नन्द के विविध भावों की यथार्थता और मार्मिकता मिलती है।
  3. श्रेष्ठ रस संयोजना—सूर की उत्कृष्ट रस संयोजना के आधार पर डॉ.श्यामसुन्दर दास ने उन्हें रससिद्ध कवि’ कह कर पुकारा है। सूर के काव्य मैं शान्त, शृंगार और वात्सल्य रस स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
  4. अद्वितीय वात्सल्य-सूरदास ने कृष्ण के बाल चरित्र, शरीर सौन्दर्य, माता-पिता के हृदय वात्सल्य का जैसा स्वाभाविक, अनूठा एवं मनोवैज्ञानिक सरस वर्णन किया है, वैसा वर्णन सम्पूर्ण विश्व के साहित्य में दुर्लभ है। सूर वात्सल्य रस के सर्वोत्कृष्ट कवि हैं।
  5. श्रृंगार रस का वर्णन-सूरदास ने अपनी रचनाओं में श्रृंगार के दोनों पक्षों संयोग और वियोग का मार्मिक चित्रण करके उसे रसराज सिद्ध कर दिया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है-“श्रृंगार का रस-राजत्व यदि हिन्दी में कहीं मिलता है तो केवल सूर में।”
  • कला पक्ष
  1. लालित्यप्रधान ब्रजभाषा-सूरदास ने बोलचाल की ब्रजभाषा को लालित्य-प्रधान ब्रजभाषा बना दिया है। उनकी प्रयुक्त भाषा सरल, सरस एवं प्रभावशाली है जिससे भाव प्रकाशन की क्षमता का आभास होता है। सूरदास ने अवधी और फारसी के शब्दों और लोकोक्तियों के प्रयोग से अपनी भाषा में चमत्कार उत्पन्न कर दिया है। भाषा में माधुर्य सर्वत्र दिखाई देता है।
  2. गेय पद शैली-सूरदास ने अपनी काव्य रचना गेय पद शैली में की है। माधुर्य और प्रसाद गुण-सम्पन्न शैली वर्णनात्मक है। उनकी शैली में वचनवक्रता और वाग्विदग्धता उनकी एक विशेषता है।
  3. अलंकारों की सहज आवृत्ति-सूरदास की रचनाओं में अलंकार अपने स्वाभाविक सौन्दर्य के साथ प्रविष्ट हो जाते हैं। डॉ. हजारी प्रसाद के शब्दों के अनुसार, “अलंकारशास्त्र तो सूर के द्वारा अपना विषय वर्णन शुरू करते ही उनके पीछे हाथ जोड़कर दौड़ पड़ता है, उपमानों की बाढ़ आ जाती है। रूपकों की वर्षा होने लगती है।”
  4. छंद योजना की संगीतात्मकता-सूरदास ने मुक्तक गेय पदों की रचना की है। उनके पदों में संगीतात्मकता सर्वत्र परिलक्षित होती है।
  • साहित्य में स्थान

सूरदास अष्टछाप के ब्रजभाषा कवियों में सर्वोत्कृष्ट कवि हैं। इनका बाल प्रकृति-चित्रण, वात्सल्य तथा श्रृंगार का वर्णन अद्वितीय है। सूर का क्षेत्र सीमित है,पर उसके वे एकछत्र सम्राट हैं। वे अपनी काव्यकला और साहित्यिक प्रतिभा के बल पर हिन्दी साहित्य जगत के सूर्य माने जाते हैं। जब तक सूर की प्रेमासिक्त वाणी का सुधा प्रवाह है, तब तक हिन्दू जीवन से समरसता का स्रोत कभी सूखने नहीं पाएगा।

4. गोपाल सिंह नेपाली

  • जीवन परिचय

राष्ट्रीय भावों से ओतप्रोत गोपाल सिंह नेपाली का जन्म बेतिया (बिहार) में 11 अगस्त सन् 1903 को हुआ था। इनके पिता रायबहादुर गोरखा रायफल में सैनिक थे। देश-प्रेम और मानवता की भावना इन्हें विरासत में प्राप्त थीं। 14 वर्ष की आयु से ही ये कविता लिखने की ओर आकर्षित हुए। इन्होंने विभिन्न नेपाली पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन और कवि सम्मेलनों में अपने गीतों से विशिष्ट पहचान बनाई। नेपाली जी रतलाम टाइम्स (मालवा), चित्रपट (दिल्ली), सुधा (लखनऊ) और योगी (साप्ताहिक,पटना) के सम्पादन विभाग में रहे। अनेक चलचित्रों में इन्होंने अपने गीत लिखे। 50 से अधिक फिल्मों में इन्होंने गीत लिखे हैं। 1962 के चीनी आक्रमण के समय इन्होंने देश में जगह-जगह घूम कर गीतों का गायन किया और देश-भक्ति की भावना जाग्रत की।

  • साहित्य सेवा

नेपाली जी अपनी रचनाओं में प्रकृति के रम्य रूप और मनोहर छवियों को प्रस्तुत करते हैं जिसमें एक ओर प्रणय और सौन्दर्य प्रकट है तो दूसरी ओर राष्ट्र-प्रेम उत्कट है। शोषित के प्रति सहानुभूति और स्थितियों से जूझने का सन्देश उनमें मुखर हो उठा है। भाई-बहन के प्रेम को देश-प्रेम में परिवर्तित कर दिया गया है तथा जिसके माध्यम से हमारे हृदय में देश-भक्ति जाग्रत होने का संदेश दिया गया है।

  • रचनाएँ

‘उमंगें’, ‘पंछी’, ‘रागिनी’, नीलिमा’, ‘पंचमी’, ‘सावन’, ‘कल्पना’, ‘आँचल’, ‘रिमझिम’, ‘नवीन’,’हिन्दुस्तान’, ‘हिमालय पुकार रहा है’,आदि इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं।

  • भाव पक्ष
  1. देश-प्रेम-गोपाल सिंह नेपाली ने अपनी कविताओं में देश-प्रेम पर ही मुख्य रूप से जोर दिया है। इन्होंने अपनी कविताओं में राष्ट्रीय चेतना के साथ-साथ मानवीय जीवन की अनुभूतियों का प्रभावशाली वर्णन किया है।
  2. सहृदयता और भावुकता-भाई-बहन कविता में भाई-बहन के बीच के प्रेम को राष्ट्रीय प्रेम के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है। हृदय के भाव राष्ट्र प्रेम को समर्पित हैं।
  3. उत्कृष्ट रस योजना-गोपाल सिंह नेपाली की कविताएँ देश-भक्ति पर आधारित होने के कारण वीर रस को ही इंगित करती हैं। नए-नए प्रतीकों एवं बिम्बों के माध्यम से अपने भावों को अभिव्यक्त किया है।
  • कला पक्ष
  1. भाषा-गोपाल सिंह नेपाली की भाषा साहित्यिक होने के साथ-साथ व्यावहारिक है। इनके भाव जनमानस के निकट,सरल और सहज हैं। इनके द्वारा प्रयुक्त भाषा सरल, सहज एवं प्रभावशाली है।
  2. अनुप्रास और पुनरुक्तिप्रकाश का सुन्दर प्रयोग किया है।
  3. बिम्बों के माध्यम से भाव प्रकाश में अनूठापन आ गया है।
  • साहित्य में स्थान

नेपाली जी की रचनाओं में राष्ट्र-प्रेम उत्कट है। शोषित के प्रति सहानुभूति और स्थितियों से जूझने का सन्देश इनकी कविताओं में दिखाई देता है। नेपाली जी की गणना विशिष्ट राष्ट्रीय कवियों में की जाती है। उन्होंने मानवीय रिश्तों को आधार बनाकर काव्य रचना की है। गीतधारा को आगे बढ़ाने में उन्होंने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

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5. घनानन्द

  • जीवन परिचय

घनानन्द हिन्दी की रीति मुक्तकाव्य धारा के कवि हैं। इनका जन्म 1658 ई. और मृत्यु 1739 ई.में मानी जाती है। हिन्दी में घनानन्द और आनन्दघन नाम के दोनों रचनाकारों को पहले एक ही माना जाता था, लेकिन आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने दोनों कवियों का भिन्न-भिन्न होना मान्य कर दिया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने घनानन्द को रीतिमुक्त काव्यधारा का श्रेष्ठ रचनाकार कहा है। रीतिमुक्त काव्यधारा के श्रेष्ठ कवि घनानन्द साक्षात् रसमूर्ति हैं। किवदन्तियों के अनुसार घनानन्द मुहम्मदशाह रंगीले के मीर मुंशी थे। सन् 1739 ई.में नादिरशाह द्वारा किए गए कत्लेआम में ये मारे गए।

  • साहित्य सेवा

घनानन्द लौकिक प्रेम के अनुपमेय कवि थे। विरहजन्य प्रेम की पीर के ये अमर गायक रहे। इनकी वेदना का मूल कारण उनकी प्रेयसी ‘सुजान’ रही है। भक्तिपरक कविताओं में ‘सुजान’ श्रीकृष्ण के सम्बोधन के लिए प्रयोग किया गया है। स्वानुभूत विरह वेदना की विविध स्थितियों के हृदयस्पर्शी चित्र इनके काव्य में अंकित हैं।

  • रचनाएँ

घनानन्द की रचनाएँ अधिकतर मुक्तक रूप में मिलती हैं। इनकी कुछ रचनाएँ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने ‘सुन्दरी तिलक’ पत्रिका में छापी। 1870 में उन्होंने ‘सुजान शतक’ नाम के इनके 119 कवित्त प्रकाशित किए। इसके पश्चात् जगन्नाथ दास रत्नाकर ने सन् 1897 में इनकी ‘वियोग बेलि’ और ‘विरह लीला’ नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित की। ‘घनानन्द कवित्त’, ‘कवित्त संग्रह’, ‘सुजान-विनोद’, ‘सुजान हित’, ‘वियोग बेलि’, ‘आनन्द घन जू’, ‘इश्क लता’, ‘जमुना जल’ और ‘वृन्दावन सत’ आदि इनकी रचनाएँ हैं।

  • भाव पक्ष

(1) इनकी कविता में रसद शृंगार है जिसमें संयोग और वियोग दोनों पक्षों का सटीक वर्णन है। उन्हें संयोग में भी वियोग दिखाई देता है।

“यह कैसो संयोग न जानि परै जु वियोग न क्यों विछोहत है।” घनानन्द के काव्य में संयोग का चित्रण अति अल्प है। उनके काव्य में वियोग की सभी अवस्थाओं,दशाओं, स्थितियों आदि का स्वाभाविक चित्रण हुआ है।

इन्होंने शब्दों के भावों का हृदय से साक्षात्कार किया है। कला पक्ष

  1. भाषा-उनकी भाषा ब्रज है जो सजीव,लाक्षणिक,व्यंजना प्रचुर तथा व्याकरणसम्मत है। उनकी भाषा फारसी काव्य से प्रभावित होते हुए भी मौलिक है।
  2. ध्वन्यात्मक शब्दों का प्रयोग किया है।
  3. अलंकार-इनकी रचनाओं में अनुप्रास एवं रूपक का प्रयोग सुन्दर रूप में हुआ है।

इस प्रकार भाषा, छन्द, शैली अलंकार और उसके अनुप्रयोग की दृष्टि से घनानन्द की रचनाएँ अत्यन्त सरस एवं प्रौढ़ हैं।

  • साहित्य में स्थान

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार घनानन्द रीतिमुक्त काव्यधारा के श्रेष्ठ कवि हैं। घनानन्द ने अपने पदों में ‘सुजान’ का इतनी तन्मयता से उल्लेख किया है कि उसका आध्यात्मीकरण हो गया है। सुजान का उनकी प्रेयसी होना ही अधिक उपयुक्त लगता है। सुजान को श्रृंगार पक्ष में नायिका और भक्ति पक्ष में कृष्ण मान लेना उचित होगा।

6. जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’

जीवन परिचय
जगन्नाथदास रत्नाकर’ आधुनिक काल के ब्रजभाषा के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। इन्होंने अपने काव्य में मध्ययुगीन काव्य परम्परा के साथ-साथ भक्ति युग के भाव और रीतिकाल की कला का समन्वय किया है। कविवर रत्नाकर का जन्म सन् 1886 ई.में काशी के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में हुआ था। बचपन में उर्दू, फारसी, अंग्रेजी की शिक्षा मिली। बी.ए., एल एल.बी.के बाद एम.ए. की पढ़ाई इनकी माता के निधन के कारण पूरी नहीं हो पाई। इनके पिता पुरुषोत्तमदास फारसी भाषा के विद्वान एवं काव्य मर्मज्ञ थे। आपका घर साहित्यकारों का संगम स्थल था। आपको भारतेन्दुजी का सान्निध्य मिला इसके फलस्वरूप इन्होंने उर्दू-फारसी में कविता करना प्रारम्भ कर दिया। 21 जून सन् 1932 को हरिद्वार में इनका देहावसान हो गया।

  • साहित्य सेवा

रत्नाकर द्वारा लिखे गए ऐतिहासिक लेखों, मौलिक कृतियों की रचना और महत्वपूर्ण ग्रन्थों के सम्पादन से उनके गंभीर अध्ययन और मौलिक प्रतिभा का पता चलता है। उन्होंने साहित्य सुधा निधि तथा सरस्वती पत्रिकाओं का सम्पादन किया। रसिक मंडल, प्रयाग तथा काशी नागरी प्रचारणी सभा की स्थापना व विकास में योगदान दिया।

  • रचनाएँ

इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं-‘उद्धव शतक’, ‘गंगावतरण, ‘वीराष्टक’, ‘शृंगार लहरी’, ‘गंगा लहरी’, ‘विष्णु लहरी’ ‘हिंडोला’, ‘कलकाशी’, ‘रत्नाष्टक’ आदि। इनके सम्पादित ग्रन्थ हैं ‘बिहारी रत्नाकर’,’हित तरंगिणी’, ‘सूरसागर’ आदि।

  • भाव पक्ष

जगन्नाथदास रत्नाकर ब्रजभाषा के उत्कृष्ट कवि हैं। इनके काव्य में भाों की मार्मिकता तथा कला की अभिव्यंजना परिलक्षित होती है।

  1. रस योजना ब्रजभाषा के भावुक कवि ‘रत्नाकर’ में श्रृंगार रस की प्रधानता मिलती है। उनके प्रमुख काव्य ‘उद्धव शतक’ का मूल रस श्रृंगार ही है। वियोग पक्ष में गोपियों ने उद्धव से कहा है”टूक-टूक है है मन मुकुर हमारौ हाय, चूँकि हूँ कठोर-बैन-पाहन चलावौ ना।” ‘वीराष्टक’ तथा ‘गंगावतरण’ में रौद्र रस की योजना दर्शनीय है। शान्त, करुणा,वात्सल्य, वीभत्स रसों की संयोजना भी दिखाई देती है।
  2. अनुभाव विधानरत्नाकर ने भावों को सबलता प्रदान करने के लिए पात्रों की चेष्टाओं आदि का सुन्दर वर्णन किया है। श्रीकृष्ण का संदेश सुनने के लिए कृष्ण प्रेम में व्याकुल गोपियों की आकुलता देखिए”उझकि-उझकि पद-कंजनि के पंजनि पै, पेखि-पेखि पाती छाटी छोहनि छबै लगी।”
  3. भक्ति-भावना रत्नाकर के काव्य में श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति-भावना की अभिव्यक्ति हुई है। गोपियाँ अपने आराध्य के प्रति पूर्ण समर्पित हैं। उद्धव का ज्ञान गोपियों की सगुण भक्ति के सामने पराजित हो जाता है।
  4. प्रकृति चित्रण-रत्नाकर’ ने अपने काव्य में प्रकृति के अनेक रूप चित्रित किए हैं। प्रकृति के आलम्बन का एक दृश्य देखिए-

“स्वाति घटा घहराति मुक्ति-पानिप सों पूरी।
कैचों धावति झुकति सुभ्र आमा रुचि रुरी।”

  • कला पक्ष
  1. भाषा रत्नाकर ने अपने काव्य की रचना ब्रजभाषा में की है। भाव के अनुरूप अभिव्यक्ति देने में यह भाषा सक्षम है। इनके काव्य में अर्थ की गम्भीरता, पद विन्यास, वाक् चातुर्य,चमत्कार सौष्ठव,समाहार शक्ति विद्यमान है।
  2. चित्रोपम वर्णन शैली-रत्नाकर’ जी में चित्रात्मक वर्णन शैली के द्वारा विषय को साकार करने की अद्भुत शक्ति है। उदाहरण देखिए
    “कोऊ सेद-सानी, कोऊ भरि दृग पानी रह कोऊ घूमि-घूमि परी भूमि मुरझानी हैं।”
  3. अलंकार विधान-रूपक, यमक, श्लेष, उत्प्रेक्षा आदि सभी अलंकारों की शोभा चमत्कारपूर्ण है। ‘रत्नाकर’ का काव्य गत्यात्मक संगीतमय छन्दों में रचित है। कवित्त, रोला, सवैया, दोहा,छप्पय उनके प्रिय छन्द हैं।
  • साहित्य में स्थान

रत्नाकर द्वारा लिखे गए साहित्यिक ऐतिहासिक लेखों मौलिक कतियों और महत्वपर्ण ग्रन्थों के सम्पादन से उनके गम्भीर अध्ययन, अद्वितीय प्रतिभा और सूक्ष्म दृष्टि का अवलोकन होता है। उन्होंने ‘साहित्य सुधानिधि’ तथा ‘सरस्वती’ पत्रिकाओं का सम्पादन किया। रसिक मंडल,प्रयाग तथा काशी नागरी प्रचारणी सभा की स्थापना व उनके विकास में योगदान दिया। ‘रत्नाकर ब्रजभाषा काव्य की महान् विभूति हैं। बाबू श्यामसुन्दरदास ने कहा है “एक विशेष पथ पर परिश्रमपूर्वक चलते-चलते रत्नाकरजी साहित्य में अपनी एक अलग लीक बना गए हैं। इस दृष्टि से वे हिन्दी के एक ऐतिहासिक पुरुष ठहरते हैं।”

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8. कबीरदास [2009, 16]

  • जीवन परिचय

जनभाषा में भक्ति, नीति और दर्शन प्रस्तुत करने वाले कवियों में कबीर अग्रगण्य हैं। कबीरदास जी निर्गुण काव्यधारा के ज्ञानमार्गी शाखा के कवि थे। इनका जन्म काशी में सन् 1398 ई.में हुआ। इनकी रचनाओं से प्रतीत होता है कि इनके माता-पिता जुलाहे थे। जनश्रुति है कि कबीर एक विधवा ब्राह्मणी की परित्यक्त संतान थे। इनका पालन-पोषण एक जुलाहा दम्पत्ति ने किया। इस नि:सन्तान जुलाहा दम्पत्ति नीरू और नीमा ने इस बालक का नाम कबीर रखा। कबीर की शिक्षा विधिवत् नहीं हुई। उन्हें तो सत्संगति की अनंत पाठशाला में आत्मज्ञान और ईश्वर प्रेम का पाठ पढ़ाया गया। स्वयं कबीर कहते हैं-“मसि कागद छुऔ नहीं, कलम गही नहिं हाथ।”

कबीर गृहस्थ थे। इनको स्वामी रामानन्द से ‘राम’ नाम का गुरुमंत्र मिला। उनकी पत्नी का नाम लोई, पुत्र का नाम कमाल और पुत्री का नाम कमाली था। कबीर पाखण्ड और अन्धविश्वासों के घोर विरोधी थे। कबीर का बचपन मगहर में बीता, परन्तु बाद में काशी में जाकर रहने लगे। जीवन के अन्तिम दिनों में ये पुनः मगहर चले गए। इस प्रकार 120 वर्ष की आयु में सन् 1518 ई. में इनका देहावसान हो गया।

  • साहित्य सेवा

अशिक्षित होते हुए भी कबीरदास अद्भुत प्रतिभा के धनी थे। उनकी रचनाओं को धर्मदास नामक प्रमुख शिष्य ने ‘बीजक’ नाम से संग्रह किया है। डॉ.श्यामसुन्दर दास ने कबीर की रचनाओं को कबीर ग्रन्थावली’ में संगृहीत करके सम्पादित किया है। खुले आकाश के नीचे आस-पास खड़े व बैठे लोगों के बीच अपने अनुभवों को अभिव्यक्त करना ही उनकी उत्कृष्ट साहित्य सेवा थी।

  • रचनाएँ

कबीर की अभिव्यक्तियों को शिष्यों द्वारा तीन रूप में संकलित किया गया है-

  1. साखी,
  2. सबद,
  3. रमैनी।

(1) साखी कबीर की शिक्षाओं और सिद्धान्तों का प्रस्तुतीकरण ‘साखी’ में हुआ है। इसमें दोहा छन्द का प्रयोग हुआ है।
(2) सबद-इसमें कबीर के गेय पद संगृहीत हैं। गेय पद होने के कारण इसमें संगीतात्मकता है। इनमें कबीर ने भक्ति-भावना, समाज सुधार और रहस्यवादी भावनाओं का वर्णन किया है।
(3) रमैनी-रमैनी चौपाई छन्द में है। इनमें कबीर का रहस्यवाद और दार्शनिक विचार व्यक्त हुए हैं।

  • भाव पक्ष
  1. निर्गुण ब्रह्म की उपासना—कबीर निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे। उनका उपास्य, अरूप, अनाम, अनुपम सूक्ष्म तत्व है। इसे वे ‘राम’ नाम से पुकारते थे। कबीर के ‘राम’ निर्गुण निराकार परमब्रह्म हैं।
  2. प्रेम भावना और भक्ति कबीर ने ज्ञान को महत्व दिया। उनकी कविता में स्थान-स्थान पर प्रेम और भक्ति की उत्कृष्ट भावना परिलक्षित होती है। उनका कहना है-“यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं” और “ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पण्डित होय।” इत्यादि।
  3. रहस्य भावना-परमात्मा से विविध सम्बन्ध जोड़कर अन्त में ब्रह्म में लीन हो जाने के भाव अपनी कविता में कबीर ने व्यक्त किए हैं। जैसे – “राम मोरे पिऊ मैं राम की बहुरिया।”
  4. समाज सुधार और नीति उपदेश सामाजिक जीवन में फैली बुराइयों को मिटाने के लिए कबीर की वाणी कर्कश हो उठी। कबीर ने समाजगत बुराइयों का खण्डन तो किया ही, साथ-साथ आदर्श जीवन के लिए नीतिपूर्ण उपदेश भी दिया। कबीर के काव्य में इस्लाम के एकेश्वरवाद, भारतीय द्वैतवाद,योग साधना, अहिंसा, सूफियों की प्रेम साधना आदि का समन्वित रूप दिखाई देता है।

इनके काव्य में शान्त रस की प्रधानता है। आत्मा-परमात्मा के मिलन का श्रृंगार भी शान्त रस ही बन गया है।

  • कला पक्ष
  1. अकृत्रिम भाषा कबीर की भाषा अपरिष्कृत है। उसमें कृत्रिमता का अंश भी नहीं है। स्थानीय बोलचाल के शब्दों की प्रधानता दिखाई देती है। उसमें पंजाबी, राजस्थानी, उर्द, फारसी आदि भाषाओं के शब्दों का विकृत रूप प्रयोग किया गया है। इससे भाषा में विचित्रता आ गई है। कबीर की भाषा में भाव प्रकट करने की सामर्थ्य विद्यमान है। इनकी भाषा को पंचमेल खिचड़ी अथवा सधुक्कड़ी भी कहा जाता है।
  2. सहज निर्द्वन्द्व शैली-कबीर ने सहज, सरल व सरस शैली में अपने उपदेश दिए हैं। भाव प्रकट करने की दृष्टि से कबीर की भाषा पूर्णतः सक्षम है। काव्य में विरोधाभास,दुर्बोधता एवं व्यंग्यात्मकता विद्यमान है।
  3. अलंकार-कबीर के काव्य में स्वभावतः अलंकारिता आ गई है। उपमा, रूपक, सांगरूपक, अन्योक्ति,उत्प्रेक्षा,विरोधाभास आदि अलंकारों की प्रचुरता है।
  4. छन्द कबीर की साखियों में दोहा छन्द का प्रयोग हुआ है। ‘सबद’ पद है तथा ‘रनी’ चौपाई छन्दों में मिलते हैं। ‘कहरवाँ’ छन्द भी उनकी रचनाओं में मिलता है। इन छन्दों का प्रयोग सदोष ही है।
  • साहित्य में स्थान

कबीर समाज सुधारक एवं युग निर्माता के रूप में सदैव स्मरण किए जायेंगे। उनके काव्य में निहित सन्देश और उपदेश के आधार पर नवीन समन्वित समाज की संरचना सम्भव है। डॉ. द्वारका प्रसाद सक्सैना ने लिखा है-“कबीर एक उच्चकोटि के साधक, सत्य के उपासक और ज्ञान के अन्वेषक थे। उनका समस्त साहित्य एक जीवन मुक्त सन्त के गूढ़ एवं गम्भीर अनुभवों का भण्डार है।”

8. बिहारीलाल [2010]

  • जीवन परिचय

रीतिकाल के प्रतिनिधि कवियों में बिहारी की गणना बड़े सम्मान के साथ की जाती है। श्रृंगार रस के वर्णन में ये निस्संदेह अद्वितीय कवि हैं। कविवर बिहारी का जन्म संवत् 1652 वि. (सन् 1595 ई) में हुआ। बिहारी के जीवनवृत्त के बारे में उनका निम्न दोहा देखिए-

“जन्म ग्वालियर जानिये, खण्ड बुन्देले बाल।
तरुनाई आई सुखद, मथुरा बसि ससुराल॥”

इनका जन्म गोविन्दपुर नामक ग्राम में हुआ। इनके पिता का नाम केशवराय था। इनका बचपन बुन्देलखण्ड में बीता। इनका विवाह मथुरा में हुआ और युवावस्था में ससुराल में ही रहे।

बिहारी के गुरु बाबा नरहरदास थे। उन्होंने बिहारी का परिचय सम्राट जहाँगीर से कराया। कुछ समय बाद बिहारी जयपुर चले गए। उन दिनों जयपुर के प्रौढ़ महाराजा जयसिंह ने एक अल्पवयस्का से नया-नया विवाह किया था और राजकाज से विमुख हो गए थे। ऐसी स्थिति में बिहारी ने अग्र दोहा उनके पास पहुँचाया-

“नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास इहि काल।
अली कली ही सौं बिंध्यो, आगे कौन हवाल॥”

इस दोहे का राजा जयसिंह पर अनुकूल प्रभाव पड़ा और पुनः राजकाज पर ध्यान देने लगे। बिहारी को दरबार में सम्मानपूर्वक स्थान दिया गया। यहाँ रहते हुए बिहारी ने सात सौ तेरह दोहों की रचना की। प्रत्येक दोहे पर उनको एक स्वर्ण मुद्रा प्राप्त होती थी। सं.1720 वि. (सन् 1663 ई) में इनका देहावसान हो गया।

  • साहित्य सेवा

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इनकी एक ही रचना ‘सतसैया’ मिलती है। हिन्दी में समास पद्धति की शक्ति का परिचय सबसे पहले बिहारी ने दिया। श्रृंगार रस के ग्रन्थों से ‘बिहारी सतसई’ सर्वोत्कृष्ट रचना है। श्रृंगारिकता के अतिरिक्त इसमें भक्ति और नीति के दोहों का भी अदभुत समन्वय मिलता है।

  • रचनाएँ

बिहारी ने अपने जीवनकाल में 713 दोहों की रचना की है, जिन्हें ‘बिहारी सतसई’ के नाम से संकलित किया गया। यह अकेला ग्रन्थ ही कवि के रूप में बिहारी की कीर्ति का स्रोत है।

  • भाव पक्ष

विषय-वस्तु के आधार पर बिहारी के दोहों को चार भागों में बाँटा जा सकता है-
(1) शृंगारपरक,
(2) भक्तिपरक,
(3) नीतिपरक,
(4) प्रकृति चित्रण सम्बन्धी।

(1) श्रृंगारपरक दोहे-अधिकतर दोहे शृंगाररस प्रधान हैं। इन्होंने श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों ही पक्षों को अपने काव्य में स्थान दिया है। बिहारी की नायिका का मुख पूर्णचन्द्र के समान प्रकाशित है और उसके प्रकाश के कारण उसके घर के आस-पास पूर्णिमा ही रहती है। उदाहरण देखिए-

“पत्रा ही तिथि पाइये, वा घर के चहुँ पास।
नित प्रति पून्यों ही रहत, आनन ओप उजास॥”

(2) भक्ति भावना वृद्धावस्था में बिहारी का मन संसार से विरक्त होकर प्रभु-चरणों में लग जाता है। इस प्रकार के दोहों में शान्त रस प्रधान है। सगुण ब्रह्म के कृष्ण रूप ने उन्हें अधिक आकर्षित किया है

“मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोय।
जा तन की झाईं परै, स्याम हरित दुति होय॥”

(3) नीतिपरक दोहेइनके अनेक दोहे नीति और उपदेश को लिए हुए हैं। इन्होंने अपने नीतिपरक दोहों में जीवन की गहरी नीतियों को सरल ढंग से व्यक्त किया है

“दीरघ साँस न लेह, दुःख सुख साँइहि न भूलि।
दई दई क्यों करत है, दई दई सु कबूलि॥”

(4) प्रकृति चित्रण-अपने श्रृंगार चित्रण में बिहारी ने प्रकृति को अधिकतर उद्दीपन के रूप में लिया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने प्रकृति को आलम्बन रूप में भी प्रस्तुत किया है, वे प्रकृति के कुशल पर्यवेक्षक हैं। जेठ की दोपहरी का एक दृश्य देखिए-

“बैठ रही अति सघन वन, पैठ सदन तन माह।
देखि दुपहरी जेठ की, छाँहौ चाहति छाँह।।”

  • कला पक्ष
  1. भाषा-बिहारी की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। यह सामान्य जन के लिए भी दुर्बोध नहीं है। इसमें कहीं-कहीं बुन्देलखण्डी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। इसके अतिरिक्त बिहारी ने पूर्वी, अवधी और अरबी-फारसी के प्रचलित शब्दों को भी अपने काव्य में स्थान दिया है। बिहारी की भाषा सामासिक भाषा है, जिसमें थोड़े में बहुत कुछ कह देनी की सामर्थ्य है।
  2. अलंकार योजना–अन्य रीतिकाल के कवियों की भाँति बिहारी ने भी प्रायः सभी प्रकार के अलंकारों का प्रयोग किया है। लेकिन बिहारी की भाषा में अलंकार भार बनकर नहीं आए हैं। रूपक, उपमा, श्लेष, यमक, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, अन्योक्ति आदि अलंकारों को बड़े स्वाभाविक रूप में अपने काव्य में प्रयुक्त किया है।
  3. छन्द विधान–बिहारी ने अपने काव्य में दोहा छन्द को ही अपनाया है। दो पंक्तियों के छोटे से छन्द में इन्होंने गागर में सागर भर दिया है।
  • साहित्य में स्थान

बिहारी की काव्य प्रतिभा बहुमुखी थी। नख-शिख वर्णन,नायिका भेद,प्रकृति चित्रण,रस, अलंकार सभी कुछ बिहारी के काव्य में उत्कृष्ट है। रचनाओं में कवित्त शक्ति और काव्य रीतियों का जैसा सुन्दर सम्मिश्रण बिहारी में है वैसा किसी अन्य रीतिकालीन कवि में दुर्लभ है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने बिहारी के विषय में सत्य ही कहा है-“जिस कवि में कल्पना की समाहार शक्ति के साथ भाषा की समास शक्ति जितनी ही अधिक होगी, उतनी ही उसकी मुक्तक रचना सफल होगी। यह क्षमता बिहारी में पूर्ण रूप से विद्यमान थी।” बिहारी के काव्य में भाव पक्ष और कला पक्ष का अद्भुत सामंजस्य है। उनका हर दोहा ‘गागर में सागर’ है।

9. जयशंकर प्रसाद [2009, 11, 14]

जीवन परिचय
छायावादी काव्य के आधार स्तम्भ जयशंकर प्रसाद का जन्म सन् 1889 में वाराणसी,उत्तर प्रदेश में हुआ था। इनके पिता सुंघनी शाहू वैभवशाली व्यक्ति थे। विलक्षण प्रतिभा के धनी प्रसादजी एक साथ कवि, नाटककार, कहानीकार, उपन्यासकार तथा निबंधकार थे। इनके बाल्यकाल में ही इनके पिता तथा बड़े भाई स्वर्गवासी हो गए। परिणामस्वरूप अल्पावस्था में ही प्रसादजी को घर का सारा भार वहन करना पड़ा। इन्होंने स्कूली शिक्षा छोड़कर घर पर ही अंग्रेजी, हिन्दी, बंगला तथा संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त किया। सुस्थिर होकर कुशलतापूर्वक अपने व्यापार और परिवार को सँभाला और आजीवन अपने उत्तरदायित्व का सफलतापूर्वक निर्वाह करते रहे। साथ-साथ साहित्य सृजन भी करते रहे और अपनी उत्कृष्ट रचनाओं से हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया। इनका देहावसान 15 नवम्बर,सन् 1937 को हुआ।

  • साहित्य सेवा

जयशंकर ‘प्रसाद’ आधुनिक हिन्दी काव्य के सर्वप्रथम कवि थे। सूक्ष्म अनुभूति और रहस्यवादी चित्रण इनके काव्य की विशेषता है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में नया युग ‘छायावादी युग’ के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार जयशंकर प्रसाद छायावादी युग के प्रवर्तक थे। प्रेम और सौन्दर्य इनके काव्य के प्रमुख विषय रहे।

  • रचनाएँ

प्रसाद जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार थे। गद्य और पद्य,प्रबन्ध और मुक्तक, खण्डकाव्य और प्रबन्ध काव्य और कहानी, नाटक, उपन्यास, निबन्ध तथा आलोचना, कहने का आशय यह है कि साहित्य का कोई भी पक्ष उनसे अछूता नहीं बचा और इन सभी रूपों में उन्होंने अत्यन्त उत्कृष्ट कोटि के साहित्य का प्रणयन किया है। प्रसाद जी की काव्य कृतियाँ निम्नलिखित हैं

  1. चित्राधार,
  2. कानन कुसुम,
  3. करुणालय,
  4. महाराणा का महत्व,
  5. प्रेम पथिक,
  6. झरना,
  7. आँसू,
  8. लहर,
  9. कामायनी।

‘कामायनी’ छायावाद का महाकाव्य है और ‘आँसू’ प्रसादजी का लोकप्रिय विरह काव्य है।

  • भाव पक्ष
  1. दार्शनिक विचारधारा प्रसाद एक दार्शनिक कवि हैं। उनके महाकाव्य ‘कामायनी’ में आनन्दवाद की प्रतिष्ठा की गई है। यह ग्रन्थ अपनी अद्भुत छटा बिखेरता हुआ भ्रमित मनुष्यों का पथ प्रदर्शन कर रहा है।
  2. प्रेम और सौन्दर्य की विवेचना-प्रसादजी प्रमुखतया प्रेम और सौन्दर्य के उपासक हैं। छायावादी कवि प्रकृति की हर वस्तु में सुन्दरता के दर्शन करता है। प्रसाद द्वारा निरूपित प्रेम में प्रधानता सर्वत्र मानसिक पक्ष की ही है। प्रसाद के द्वारा व्यक्त सौन्दर्य में बाह्य सौन्दर्य और शारीरिक सौन्दर्य का अदभुत सामंजस्य है।

कामायनी का उदाहरण देखिए-

“नील परिधान बीच सुकुमार,
खुला था मृदुल अधखुला अंग,
खिला हो ज्यों बिजली का फूल,
मेघ वन बीच गुलाबी रंग।”

(3) अनुभूतिपूर्ण काव्य-अनुभूति की गहनता काव्य की श्रेष्ठता को प्रदर्शित करती है। प्रसादजी के काव्य में हमें यही गहराई दिखाई देती है। आँसू में प्रेमानुभूति देखिए-

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“रो रो कर सिसक सिसक कर
कहता मैं करुण कहानी,
तुम सुमन नोचते सुनते,
करते जाते अनजानी।”

(4) वेदना की अभिव्यक्ति प्रसाद के काव्य में सर्वत्र एक गहन वेदना की अभिव्यक्ति मिलती है। ‘आँसू’ में तो उनकी गहन वेदनाभूति अपनी सम्पूर्ण गहराई से व्यक्त हुई है, जिसकी पीड़ा पाठक के हृदय को छू जाती है।
(5) कल्पना का अतिरेक व रहस्यवाद-भावानुभूति के साथ-साथ प्रसाद की कविताओं में कल्पना की अधिकता भी है। कंटकाकीर्ण कठोर यथार्थ के सामने अपनी कल्पना का जगत उसे अत्यन्त मधुर प्रतीत होता है। रहस्य की ओर आकर्षण छायावादी कवियों की प्रमुख विशेषताओं में से एक है। प्रसाद जी प्रकृति के कण-कण में रहस्यमयी सत्ता का आभास पाते और अनुभव करते हैं। पर इस रहस्यमयी सत्ता का रहस्य आखिर में रहस्य ही रहता है।

कामायनी का उदाहरण देखिए-

“हे अनन्त रमणीय ! कौन तुम,
यह मैं कैसे कह सकता, कैसे हो?
क्या हो इसका तो,
भार विचार न सह सकता।”

(6) प्रकृति चित्रण-प्रसादजी के काव्य में प्रकृति के सभी मनोहारी रूपों का बड़ा ही रमणीय चित्रण हुआ है। प्रसाद जी ने प्रकृति को जड़वस्तु के रूप में ग्रहण न कर जीवित और चैतन्य सत्ता के रूप में ग्रहण किया है।
(7) नारी के प्रति श्रद्धा भाव छायावादी कवियों ने नारी को पूर्ण सम्मान दिया है। प्रसादजी ने भी अपने काव्य में नारी के सभी रूपों को दर्शाते हुए इस बात का ध्यान रखा है कि उसके सम्मान में कहीं कमी न आने पाए।

  • कला पक्ष
  1. भाषा-प्रसादजी के काव्य की भाषा व्याकरणसम्मत, परिष्कृत एवं परिमार्जित खड़ी बोली है। संस्कृत शब्दों की बहुलता होने पर भी भाषा क्लिष्ट अथवा दुरूह नहीं हुई है। भावों की गहराई और कवि कौशल के कारण प्रसादजी की लाक्षणिक और व्यंजनामयी भाषा में चित्रोपमता आ गई है।
  2. अलंकारों का प्रयोग-प्रसादजी की भाषा में अलंकारों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुआ है। उनका प्रयोग इतना सहज है कि वे सर्वत्र काव्य के सौन्दर्य को स्पष्ट करते हैं। शब्दालंकारों और अर्थालंकारों के साथ-साथ उन्होंने मानवीकरण, विशेषण विपर्यय और ध्वन्यार्थ व्यंजना आदि पाश्चात्य अलंकारों को भी मुक्त हृदय से अपनाया है।
  3. छन्द योजना प्रसादजी ने अपने काव्य में परम्परागत छन्दों के साथ ही साथ नये-नये छन्दों को लिखकर मौलिकता का परिचय दिया है। ‘आँसू’ में प्रयुक्त छन्द आँसू छन्द ही कहा जाने लगा।
  • साहित्य में स्थान

भाव पक्ष और कला पक्ष की दृष्टि से प्रसादजी का काव्य उच्चकोटि का है। निःसन्देह प्रसाद हिन्दी के युग प्रवर्तक साहित्यकार एवं छायावादी कवि हैं। नूतनता की काव्यधारा को प्रवाहित करने का श्रेय जयशंकर प्रसाद को ही है। प्रसादजी की शैली काव्यात्मक चमत्कारों से परिपूर्ण है।

10. भवानी प्रसाद मिश्र [2016]

जीवन परिचय
भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म सन 1913 में मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया ग्राम में हुआ था। कविता और साहित्य के साथ-साथ राष्ट्रीय आन्दोलन में जिन कवियों की भागीदारी थी उनमें श्री मिश्रजी प्रमुख थे। इनके पिता का नाम श्री सीताराम मिश्र तथा माँ का नाम श्रीमती गोमती देवी था। इन्होंने खण्डवा, बैतूल आदि से प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त कर जबलपुर के ऐवर्टसन कालेज से बी.ए.परीक्षा पास की। स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए सन् 1942 ई.में इन्होंने जेल यात्रा की। प्रारम्भ में इन्होंने वर्धा में महिला आश्रम में अध्यापन कार्य किया तथा ‘कल्पना’ नामक पत्रिका का सम्पादन किया। तत्पश्चात् आकाशवाणी में सेवारत रहे। 1985 ई.में इनका देहावसान हो गया।

  • साहित्य सेवा

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता हिन्दी की सहज लय की कविता है। भाषा में भावाभिव्यक्ति की अपूर्व क्षमता है। इनकी रचनाएँ मुक्त छंद में लिखी गई हैं। मिश्रजी को सच्चा कवि हृदय प्राप्त है। हिन्दी के नए कवियों में इनका महत्वपूर्ण स्थान है। गाँधीवाद से प्रभावित मिश्रजी के काव्य में मानव कल्याण के स्वर मुखरित हुए हैं। प्रयोगवाद एवं नयी कविता के कवियों में इनका सम्माननीय स्थान है।

  • रचनाएँ

भवानी प्रसाद मिश्र की प्रमुख काव्य रचनाएँ हैं—’गीत फरोश’, ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘सन्नाटा’, ‘चकित है दुःख’, बनी हुई रस्सी’,’खुशबू के शिलालेख’, अनाम तुम आते हो’, इन्द्र कुसुम’, ‘गाँधी पचशती’, ‘त्रिकाल संध्या’, ‘कालजयी’, ‘संप्रति’, ‘जल रही हैं सड़कों पर बत्तियाँ’ आदि।

  • भाव पक्ष
  1. भाषा-मिश्रजी की भाषा सहज एवं सरल है। उनकी भाषा भावाभिव्यक्ति में सशक्त है। इन्होंने अपने काव्य में मुक्त छन्द को अपनाया है। अपने भावों को सहज, सरल भाषा शैली में व्यक्त करने में मिश्रजी कुशल रहे हैं।
  2. अपूर्व प्रकृति चित्रण-इनकी कविताओं में अनुपम प्रकृति चित्रण को भी स्थान दिया गया है। सतपुड़ा के जंगल इनको प्रभावित करते हैं।
  3. अनुभूतिपूर्ण काव्य-इनकी कविताओं में अपनी अनुभूति को कल्पना का जामा पहनाकर अभूतपूर्व बना दिया गया है। इनके काव्य में भावाभिव्यक्ति की सशक्त योजना है।
  4. वेदना की अभिव्यक्ति-इनके काव्य में कहीं-कहीं वेदना की अभिव्यक्ति बड़ी अनूठी बन पड़ी है जो पाठकों के हृदय तक पहुँचने में समर्थ है। प्रतीकों का प्रयोग भी मार्मिक बन पड़ा है।
  • कला पक्ष
  1. अभिव्यक्ति की कशलता मिश्रजी की भाषा में सहजता और सरलता मिलती है। भाषा में भावाभिव्यक्ति की अपूर्व क्षमता है। इनके भावों में गहराई होते हुए भी वे सरलता लिए हुए है। चिन्तनशीलता इनकी रचनाओं का विशिष्ट गुण है। अपने नए-नए भावों को कविता की पंक्तियों में पिरोकर पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है।
  2. अलंकारों और महावरों का प्रयोग मिश्रजी ने अपनी कविता में अलंकारों, लोकोक्तियों और मुहावरों का प्रयोग किया है। अनेक प्रतीकों के माध्यम से नए-नए विचारों को समझाने का कार्य किया है।
  3. गाँधीवादी विचारधारा-मिश्रजी ने गाँधीवादी विचारधारा से प्रभावित होने के कारण अपनी कविताओं में गाँधी दर्शन का प्रभाव छोड़ा है। इनकी कविताओं में वैयक्तिकता और आत्मानुभूति दृष्टिगोचर होती है। इनकी गीतफरोश नामक कविता अत्यन्त चर्चित रही।

उसकी कुछ पंक्तियाँ देखिए-

“जी हाँ हुजूर मैं गीत बेचता हूँ।
मैं तरह-तरह के किसिम किसिम के गीत बेचता हूँ।
जी पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको
पर पीछे-पीछे अकल जगी मुझको
जी लोगों ने तो बेच दिए ईमान
जी आप न हों सुनकर ज्यादा हैरान
मैं सोच समझकर आखिर
अपने गीत बेचता हूँ।”

  • साहित्य में स्थान

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पं. भवानी प्रसाद मिश्र प्रयोगशील एवं नई कविता के लोकप्रिय कवि हैं। इनकी कविताओं में एक ऐसी सरलता और ताजगी है.जो आज के किसी अन्य कवि में दिखाई नहीं देती। गाँधीवाद से प्रभावित मिश्रजी की कविताओं में मानव कल्याण के स्वर मुखरित हुए हैं। प्रयोगवाद एवं नयी कविता के कवियों में इनका प्रशंसनीय स्थान है। इन्होंने सहज और सरल भाषा शैली में अपने विचारों को व्यक्त करके अपनी कविता को आत्मीय वार्तालाप तथा आत्मानुभव के रूप में प्रतिष्ठित किया है।

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MP Board Class 12th Special Hindi काव्य-बोध छन्द

MP Board Class 12th Special Hindi काव्य-बोध छन्द

छन्द दो प्रकार के होते हैं :

  1. मात्रिक छन्द,
  2. वर्णिक छन्द।

(1) मात्रिक छन्द-पहले प्रकार के छन्द में मात्राएँ गिनी जाती हैं जिन्हें मात्रिक छन्द कहते हैं। इसमें इस प्रकार की मात्राएँ होती हैं
लघु मात्रा – ।
गुरु मात्रा – ऽ

लघु मात्रा को गिनते समय 1 और गुरु मात्रा को 2 माना जाता है। अब लघु और दीर्घ किसे कहेंगे। वह समझ लें।
“सानुस्वारश्च दीर्घश्च विसर्गी च गुरुर्भवेत्, वर्ण: संयोग पूर्वाश्च पादान्त गोऽपि वा।”

तात्पर्य यह कि बिना मात्रा या छोटी (ह्रस्व) मात्रा के अक्षर को लघु मानेंगे तथा अनुस्वार वाले, विसर्ग वाले, दीर्घ मात्रा वाले, संयुक्त अक्षर के पहले का अक्षर तथा कभी-कभी अन्तिम चरण का अन्तिम अभार ‘गुरु’ ऽ मात्रा वाला कहलाता है।

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जैसे-
।।। ऽ।। ऽ।
कमल यह 3 मात्रा मानेंगे। चंचल यह 4 मात्रा होगी। दुःख यह भी विसर्ग के कारण
ऽऽऽ
दो अक्षर होने पर 3 मात्रा गिनेंगे। सम्पत्ति = छ: मात्रा होंगी, क्योंकि स पर मात्रा नहीं है फिर भी आगे संयुक्त अभार होने से सऽ गुरु माना जायेगा।

(2) वर्णिक छन्द-वर्णिक छन्द में मात्रा तो वैसे ही गिनते हैं, किन्तु इसमें गण होते हैं। इसे आप इस सूत्र से याद रख सकते हैं :

  • ‘यमाताराजभानसलगा।
  • प्रत्येक गण तीन अक्षर होता है।
  • यगण (यमाता) ।ऽऽ
  • मगण (मातारा) ऽऽऽ
  • तगण (ताराज) ऽऽ।
  • रगण (राजभा) ऽ।ऽ
  • जगण (जभान) ।ऽ।
  • भगण (भानस) ऽ।।
  • नगण (नसल)।।।
  • सगण (सलगा)।।ऽ

और अन्त में ल= लघु के लिए एवं गा (गुरु के लिए) प्रयुक्त है।

1. कवित्त [2009, 16]

इसके अनेक रूप हैं। कवित्त या मनहरण के प्रत्येक चरण में इकत्तीस वर्ण होते हैं,सोलह और पन्द्रह वर्गों पर विराम होता है। चरण के अन्त में गुरु रहता है।

उदाहरण-
झहरि-झहरि झीनी बूंद हैं परति मानो,
घहरि-घहरि घटा घेरी है गगन में।
आनि कयौं स्याम मोसों चलौ झूलिबे को आज,
फूलि न समानी भई, ऐसी हौं मगन में।
चाहति उद्योई उठि गयी सो निगोड़ी नींद,
सोय गए भाग मेरे जागि वा जगन में।
ऑखि खोल देखौ तौ न घन हैं न घनस्याम,
वेई छाई बूंदें मेरे आँसू है दृगन में।

2. सवैया [2009]

सवैया गण छन्द है। बाइस से लेकर छब्बीस वर्षों तक के वृत्त सवैया कहलाते हैं। इस छन्द के मुख्य भेद मदिरा, चकोर,मत्तगयंद,अरसात, किरीट, दुर्मिल, सुन्दरी, मुक्तहरा आदि 7-8 प्रकार के होते हैं।

यहाँ दुर्मिल सवैया का उदाहरण दिया जा रहा है, जिसके प्रत्येक चरण में आठ सगण होते हैं। इसका दूसरा नाम ‘चन्द्रकला’ भी है।

उदाहरण-
पुर से निकसी रघुवीर-वधू धरि-धीर दये मग में डग द्वै।
झलकी भरि भाल कनी जल की, पुट सूखि गये मधुराधर द्वै।
फिर बूझति हैं चलनौ अब केतकि पर्णकुटी करिहौ कित है।
तिय की लखि आतुरता पिय की अँखियाँ अति चारु चली जल च्वै॥

(1) मत्तगयंद सवैया [2010, 12]
इसके प्रत्येक चरण में सात भगण और दो गुरु होते हैं।

उदाहरण-
या लकुटी अरु कमरिया पर राज तिहुँपुर को तज डारौं।
आठहुँ सिद्धि नवौं निधि को सुख नन्द की गाय चराइ विसारौं।
रसखान कबौं इन आँखिन सौं ब्रज के वन बाग तड़ाग निहारौं।
कौटिक हूँ कलधौत के धाम, करील के कुंजन ऊपर बारौं।।

(2) दुर्मिल सवैया दुर्मिल सवैया के हर चरण में आठ सगण पाये जाते हैं। वर्ण संख्या 24 मानी गयी है। इसका दूसरा नाम चन्द्रकला भी है।

उदाहरण-
इसके अनुरूप कहैं किसको, वह कौन सुदेश समुन्नत है।
समझे सुरलोक समान इसे, उनका अनुमान असंगत है।
कवि कोविद वृन्द बखान रहे, सबका अनुभूत यही मत है।
उपमान विहीन रचा विधि ने, बस भारत के सम भारत है।

3. छप्पय [2009]
छप्पय छन्द रोला और उल्लाला छन्दों के मिलने से बनता है। प्रथम चार चरण रोला छन्द के और शेष दो चरण उल्लाला छन्द के होते हैं। इस प्रकार,प्रथम चार चरणों में 24-24 मात्रायें होती हैं और 11-13 पर यति होती है। अन्तिम दोनों चरणों में 28-28 मात्रायें होती हैं और 15-13 पर यति होती है।

उदाहरण-
(1) सर्वभूत हित महामन्त्र का सबल प्रचारक।
सदय हृदय से एक-एक जन का उपकारक।
सत्यभाव से विश्व-बन्धुता का अनुरागी।
सकल सिद्धि सर्वस्व सर्वगत सच्चा त्यागी।
उसकी विचारधारा धरा के धर्मों में है वही। उल्लाला
सब सार्वभौम सिद्धान्त का आदि प्रवर्तक है वही॥

(2) नीलाम्बर परिधान, हरित पट पर सुन्दर है,
सूर्य-चन्द्र युग-मुकुट, मेखला रत्नाकर है।
नदियाँ प्रेम-प्रवाह, फूल तारे मण्डप है,
बन्दीजन खग-वृन्दृ शेष फन सिंहासन है।
करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस देश की,
हे मातृभूमि ! तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की।

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(3) निर्मल तेरा नीर अमृत के सम उत्तम है,
शीतल मन्द सुगन्ध पवन हर लेता श्रम है।
षट ऋतुओं का विविध दृश्ययुत अद्भुत क्रम है,
हरियाली का फर्श नहीं मखमल से कम है।
शुचि सुधा सींचता रात में, तुझ पर चन्द्रप्रकाश,
हे मातृभूमि दिन में परणि करता तम का नाश।

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MP Board Class 12th Special Hindi काव्य-बोध अलंकार

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1. यमक अलंकार।

यमक का सामान्य अर्थ है दो। अत: जब एक ही शब्द की भिन्न अर्थ में आवृत्ति होती है, वहाँ यमक अलंकार होता है।
जैसे-

(1) कनक-कनक ते सौ गुणी मादकता अधिकाय।
या पाये बौरात नर वा खाये बौराय॥ [2014]

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यहाँ कनक शब्द दो बार आया है। एक कनक का अर्थ है सोना और दूसरे कनक का अर्थ है धतूरा।

(2) मूरति मधुर मनोहर देखी।
भयउ विदेह विदेह विसेखी।

जहाँ एक विदेह का अर्थ है राजा जनक और दूसरे विदेह का अर्थ है देह रहित अर्थात् शरीर की सुधबुध खो देना।

(3) ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहनहारी,
ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहाती हैं।
कन्द-मूल भोग करें, कन्द मूल भोग करें,
तीन बेर खाती थीं वे तीन बेर खाती हैं।
भूखन सिथिल अंग, भूखन सिथिल अंग,
विजन डुलाती थीं वे विजन डुलाती हैं।
भूखन भणत सिवराज वीर तेरे त्रास,
नगन जड़ाती थीं वे नगन जड़ाती हैं।

पद या वाक्य खण्ड बार-बार आये पर अर्थ भिन्न हो।

(4) बसन हमारौ, करहु बस; बस न लेहु प्रिय लाज,
बसन देहु ब्रज में हमें, बसन देहु ब्रजराज।

यहाँ बस और बस में अधिकार तथा समाप्ति का अर्थ है। बसन अर्थात् वस्त्र और बसन-निवास करना।

यमक का प्रयोग कभी-कभी एक-से पदों को भंग करके उनके अर्थ करने में होता है।

जैसे-
वर जीते सर मैन के ऐसे देखे मैं न।
हरिनी के नैनान तें हरी नीके ये नैन।

मैन = कामदेव। मैं न = मैंने नहीं। हरिणी = मृगी के। हरी नीके = हरि (कृष्ण) अच्छे हैं।

2. श्लेष अलंकार

काव्य में जहाँ एक शब्द के एक से अधिक अर्थ निकलते हैं वहाँ श्लेष अलंकार होता है। श्लेष शब्द का अर्थ है चिपका हुआ अर्थात् एक से अधिक अर्थ चिपके रहते हैं। जैसे
(1) रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे मोती मानस चून॥ [2015]

इस दोहे में पानी के तीन अर्थ हैं।
1. मोती का पानी = मोती की आभा या चमक।
2. मनुष्य का पानी = मनुष्य की आभा या चमक प्रतिष्ठा।
3. चूने का पानी = चूने में पानी (बिना पानी के चूना सूखकर व्यर्थ हो जाता है)।

(2) चरण धरत चिला करत चितवत चारिहूँ ओर।
सुबरन की चोरी करत कवि व्यभिचारी चोर॥

यहाँ ‘चरण’ और ‘सुबरन’ में श्लेष है।

(3) अज्यौं तरौ ना ही रह्यो, स्रुति सेवत इक अंग।
नाक बास बेसर लह्यौ, बसि मुकतनु के संग॥

इसमें इस प्रकार दो अर्थ हैं। तरौ ना ही = तरौना नामक कर्णाभूषण तथा तरा नहीं = मोक्ष नहीं पाया। स्रुति = वेद,कान। नाक = नासिका,स्वर्ग। बेसर = नथ कान का आभूषण, अनुपम। मुकतनु = मोती, मुक्त पुरुषों के संग।

(4) चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गम्भीर।
को घटि ये वृषभानुजा, ये हलधर के बीर।

1. वृषभ+ अनुजा = बैल की बहन।
2. वृषभानु + जा = वृषभानु की पुत्री राधा।
3. हलधर के बीर = हल धारण करने वाले बैल के भाई। हलधर के बीर = बलदाऊ के भाई कृष्ण। राधा कृष्ण से परिहास किया है।

(5) गुन ते लेत रहीमजन सलिल कूप ते काढ़ि।
कूपहूँ ते कहुँ होत है, मन काहुँ को बाढ़ि।
यहाँ गुन शब्द के दो अर्थ हैं-सद्गुण और रस्सी।

3. व्याजस्तुति। [2011, 13, 16]

जिस वर्णन में देखने में तो निन्दा-सी प्रतीत होती है,पर वास्तव में उसके विपरीत स्तुति का तात्पर्य हो उसे व्याजस्तुति अलंकार कहते हैं। व्याज अर्थात् बहाने, स्तुति यानी प्रशंसा।
जैसे-
“जमुना तुम अविवेकिनी,
कौन लियौ यह ढंग।
पापिन सौं निज बन्धु को,
मान करावति भंग॥”

इस वर्णन में शब्दों के अर्थों से तो यमुनाजी की निन्दा प्रतीत होती है,जो पापियों से अपने भाई यमराज का मान भंग कराती है,पर वास्तव में पुण्य-सलिला यमुना की महिमा का वर्णन है, जिसमें स्नान करने से पापियों के पापों का हरण हो जाता है और वे यमलोक या नरक में नहीं जाते।

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4. व्याजनिन्दा [2011]

जिस वर्णन में देखने में स्तुति प्रतीत हो,पर वास्तव में उसमें विपरीत निन्दा का तात्पर्य हो, उसे व्याजनिन्दा अलंकार कहते हैं। जैसे
नाक कान बिनु भगिनि तिहारी,
छमा कीन्ह तुम धर्म विचारी।
लाजवन्त तुम सहज सुभाऊ,
निज गुन निज मुख कहसिन काऊ॥

हनुमानजी के इस कथन से स्तुति-सी प्रतीत होती है, पर यथार्थ में इसमें कायर और निर्लज्ज होने का तात्पर्य निकलता है, जिसमें निन्दा है।

5. अन्योक्ति

जहाँ किसी अन्य व्यक्ति या वस्तु को लक्ष्य में रखकर कोई बात किसी दूसरे के लिए कही जाती है, वहाँ अन्योक्ति अलंकार होता है। जैसे
(1) स्वारथ सुकृत न श्रम वृथा देखि विहंग विचारि।
बाज पराए पानि परि तूं पच्छीनु न मारि॥

हे बाज पक्षी ! रों के हाथ में पड़कर पक्षियों को मत मार। इससे तेरा न तो कोई स्वार्थ सिद्ध होता है और न तुझे पुण्य मिलता है। तेरा यह श्रम व्यर्थ ही है।

बिहारी कवि का यह कथन राजा जयसिंह के लिए है,जो औरंगजेब की ओर से हिन्दुओं के विरुद्ध युद्ध करते थे। सीधे न कहकर भ्रमर के माध्यम से कहा है :

(2) नहीं परागु, नहिं मधुर-मधु, नहिं विकास, इहिं काल।
अली कली ही सौं बिंध्यौ, आगे कौन हवाल॥

(3) करि फुलैल की आचमनु मीठो कहत सराहि।
ए गन्धी ! मतिमन्ध तू इतर दिखावत काहि।

यहाँ कवि का प्रस्तुत विषय तो यह है कि कोई गुणी व्यक्ति मूों के समाज में पहुँच गया है और उन मों को उपदेश दे रहा है जो उसे समझते नहीं। पर कवि इस बात को सीधे न कहकर किसी इत्र बेचने वाले के माध्यम से कह रहा है।

(4) माली आवत देखकर कलियन करी पुकार।
फूले-फूले चुन लिए, कालि हमारी बार॥

यहाँ कबीरदास जी ने नश्वर जीवन के बारे में कली और फूल के माध्यम से अपनी बात कही है। एक न एक दिन सबको जाना है।

6. विभावना [2010]

जहाँ कारण के बिना या कारण के विपरीत कार्य की उत्पत्ति का वर्णन किया जाये, वहाँ विभावना अलंकार होता है। जैसे

(1) बिनु पद चलै, सुने बिनु काना,
कर बिनु करम करै विधि नाना।
आनन-रहित सकल रस भोगी,
बिनु बानी बकता बड़ जोगी।

चलना, सुनना,करना और खाना ये सब पैर,हाथ,कान,सुख के काम हैं। यहाँ बिना कारण के कार्य है।

(2) सखि, इन नैनन,ते घन हारे,
बिनु ही रितु बरसत निसि-बासर, सदा मलिन दोऊ तारे।

यहाँ पर वर्षा ऋतु के न होने पर भी नेत्रों से आँसुओं की वर्षा हो रही है।

(3) बिनु घनस्याम धामु धामु ब्रज मण्डल के
ऊधो नित बसति बहार वर्षा की।

वर्षा के लिए मेघों का कारण आवश्यक है परन्तु यहाँ बिना बादलों के ही ब्रज के घर-घर में वर्षा होती है। यहाँ घनश्याम से अर्थ श्रीकृष्ण तथा घने श्यामवर्ण बादल से है।

7. व्यतिरेक।

जहाँ उपमेय को उपमान से भी श्रेष्ठ बताया जाये,वहाँ व्यतिरेक अलंकार होता है। जैसे
(1) स्वर्ग की तुलना उचित ही है यहाँ,
किन्तु सुरसरिता कहाँ, सरयू कहाँ?
वह मरों को मात्र पार उतारती,
यह यहीं से जीवितों को तारती।

(2) जनम सिन्धु पुनि बन्धु विषु,
दिन मलीन सकलंक॥
सिय मुख ममता पाव किमि,
चन्द बापुरो रंक॥

(3) सन्त-हृदय नवनीत समाना,
कहौं कवनि पर कहै न जाना।
निज परिताप द्रवै नवनीता,
पर दुःख द्रवै सुसंत पुनीता॥

यहाँ सन्तों (उपमेय) को नवनीत (उपमान) से श्रेष्ठ प्रतिपादित किया गया है।

(4) सिय सुबरन, सुखमाकर, सुखद न थोर
सीय अंग सखि ! कोमल कनक कठोर।

यहाँ सीता के शरीर को सुवर्ण के समान बताकर भी सीता के अंग में स्वर्ण की अपेक्षा कोमलता की विशेषता बतायी है।

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(5) सिय मुख सरद कपल जिमि किमि कहि जाय।
निसी मलीन वह निसिदन यह विगसाय।

शरद कमल तो रात्रि में मुरझा जाता है किन्तु सीता का मुख दिन-रात खिला रहता है।

8. विशेषोक्ति [2010]

जहाँ कारण के उपस्थित होने पर भी कार्य नहीं होता,वहाँ विशेषोक्ति अलंकार होता है।

जैसे-
(1) अब छूटता नहीं छुड़ाये, रंग गया हृदय है ऐसा,
आँसू से धुला निखरता यह रंग अनौखा कैसा।

(2) इन नैननि को कछु उपजी बड़ी बलाय,
नीर भरे नित प्रति रहें, तऊ न प्यास बुझाय।

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MP Board Class 12th Special Hindi काव्य-बोध रस

MP Board Class 12th Special Hindi काव्य-बोध रस

भारतीय जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में ‘रस’ शब्द का प्रयोग सर्वोत्कृष्ट तत्त्व के लिए होता है। खाद्य पदार्थों और फलों के क्षेत्र में रस मधुरतम तरल पदार्थ का द्योतक है। संगीत के क्षेत्र में कर्णेन्द्रिय द्वारा प्राप्त ‘आनन्द’ का नाम ‘रस’ है। अध्यात्म के क्षेत्र में स्वयं परमात्मा को ही रस माना है या रस को ही परमात्मा घोषित किया है-“रसौ वै सः” अर्थात् रस ही परमात्मा है। इसी प्रकार साहित्य के क्षेत्र में भी काव्य के आस्वादन से प्राप्त आनन्दानुभूति को ही रस की संज्ञा दी गयी है। काव्यानन्द को ही ‘रस’ कहा गया है।

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रस के अवयव अथवा रस-निष्पत्ति

स्थायीभाव आश्रय के हृदय में आलम्बन के द्वारा उत्तेजित होकर उद्दीपन के प्रभाव से उद्दीप्त होकर, संचारी भावों से पुष्ट होता हुआ अनुभावों के माध्यम से व्यक्त होता है। जब काव्यगत स्थायी भाव की अनुभूति पाठक को होती है तो वही रसानुभूति’ या ‘रस-निष्पत्ति’ कहलाती है।

भरत मुनि ने कहा है–“विभावानुभावव्यभिचारी संयोगाद्रसनिष्पत्तिः।” भावों के उद्वेलन के लिए उसके चार अवयव हैं-

  1. स्थायी भाव,
  2. विभाव,
  3. अनुभाव,
  4. संचारी या व्यभिचारी भाव।

उत्तेजना के मूल कारण को विभाव कहते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं-आलम्बन और उद्दीपन। मानव हृदय में भावनाओं का प्रस्फुटन किसी बाह्य वस्तु, दृश्य या किसी परिस्थिति विशेष की कल्पना द्वारा ही होता है। इसी प्रमुख कारण को आलम्बन कहते हैं। भावोद्वेलन के लिए परिस्थिति की अनुकूलता भी अपेक्षित है। इसी को ‘उद्दीपन’ कहा जाता है। आलम्बन यदि आग है, जो अंगारे के रूप में आग लगाता है, तो उद्दीपन हवा की भाँति अनुकूलता बढ़ाती है। जिस व्यक्ति के हृदय में उसका प्रभाव होता है, उसे आश्रय कहा जाता है। इन भावनाओं के परिवर्तन के द्योतक चिह्नों को अनुभाव की संज्ञा दी गयी है। हृदय में रहने वाले भावों की व्यंजना अनुभावों के माध्यम से होती है। भावनाओं का रूप अत्यन्त सूक्ष्म होता है जिनका वर्णन काव्य में नहीं किया जा सकता। अतः काव्य में अनुभावों की व्यंजना आवश्यक मानी गयी है। “एक ही स्थायी भाव के बीच-बीच में परिस्थितिवश अनेक भावों का भी संचार होता है। इन्हें संचारी भाव कहते हैं।” संचारी भाव स्थायी भाव के विकास में सहायक होते हैं। किन्तु यदि प्रतिकूल रूप में हों तो वे बाधक बन जाते हैं।

स्थायी भाव-मानव-हृदय में वासना-रूप में रहने वाले मनोविकारों को काव्य में ‘स्थायी. भाव’ कहा जाता है। ये स्थायी भाव स्थायी रूप से चित्त में स्थित रहते हैं, इसी कारण इन्हें स्थायी भाव कहते हैं।

जैसे-
प्रीति, हँसी, अरु, सोक पुनि, रिस, उछाह भै भित्त।
घिन, बिसमै, थिर भाव ए, आठ बसें सुभचित।

इन आठ स्थायी भावों के अतिरिक्त एक और भी स्थायी भाव है-निर्वेद। इस प्रकार कुल मिलाकर निम्नलिखित नौ स्थायी भाव हैं, जो रसों में इस प्रकार स्थित हैं-
MP Board Class 12th Special Hindi काव्य-बोध रस 1

आचार्यों ने दसवाँ रस वात्सल्य रस’ माना है जिसका स्थायी भाव सन्तान प्रेम है।

संचारी भाव-

ये तैंतीस माने गये हैं,जो निम्नलिखित हैं
ग्लानि, दैन्य अरु शंका,श्रम, मन्द और अमर्ष।
स्वप्न, मोह, शान्त, चिन्ता, त्रास, उग्रता, हर्ष।
आवेग अरु निद्रा, स्मृति, जड़ता ब्रीड़ा, धर्म।
अपस्मार, वितर्क, मरण, व्याधि और चापल्य।
अवहित्था, आलस्य पुनि, गर्व,विबोध, विषाद।
औत्युक्य, अरु असूया, निर्वेद अरु उन्माद।

रस के भेद
1. शृंगार रस

शृंगार का आधार प्रेम-भाव है। शृंगार को रसराज कहा है। इसमें नारी-पुरुष के अनुराग का वर्णन आता है।

इसके संयोग और वियोग के कारण दो भेद होते हैं-
(1) संयोग शृंगार,
(2) विप्रलम्भ या वियोग श्रृंगार।

(1) संयोग श्रृंगार स्थायी भाव-रति। आलम्बन नायक या नायिका। उद्दीपन नायक या नायिका का मोहक रूप, एकान्त, नदी का किनारा, चाँदनी रात, फुलवारी आदि। अनुभाव-अपलक निहारना, रोमांच दर्शन, स्पर्श, स्वर-भंग, हास्य कटाक्ष, संकेत, मुस्काना आदि। संचारी भाव हर्ष,संकोच आदि।

उदाहरण-
(1) राम को रूप निहारति जानकी, कंकन के नग की परछाहीं।
यातें सबै सुधि भूलि गयी, कर टेकि रही पल टारत नाहीं।

स्थायी भाव-रति। आश्रय-सीता। आलम्बन-राम। उद्दीपन-राम का रूप। अनुभाव रूप निहारना, सुधि भूल जाना। संचारी भाव-सुधि भूलना।
(2) एक पल मेरे प्रिया के दृग-पलक
थे उठे ऊपर सहज नीचे गिरे
चपलता ने इस विकंपित पुलक से
दृढ़ किया मानो प्रणय सम्बन्ध था।

स्थायी भाव रति। आलम्बन–धरातल। उद्दीपन-निशा-सेज। अनुभाव-बैठना, संकुचित होना,मान करना,स्मरण करना। संचारी भाव- हृदय में हलचल।

(3) एक बार चुनि कुसुम सुहाये
निजकर भूषन राम बनाये।
सीतहिं पहिराये प्रभुनागर
बैठे फटिक सिला परमादर।

(2) वियोग शृंगार

उदाहरण-
(1) उनका यह कुंज-कुटीर, वहीं झरना उडु, अंशु अबीर जहाँ,
अलि कोकिल, कीर शिखी सब हैं, सुन चाकत की रहि पीव कहाँ?
अब भी सब साज-समान वही, तब भी सब आज अनाथ यहाँ,
सखि, जा पहुंचे सुधि-संग वही, यह अन्ध सुगन्ध समीर वहाँ।

स्थायी भाव-रति। आश्रय-यशोधरा। आलम्बन-सिद्धार्थ। उद्दीपन–कुंज कुटीर, किरणे कोकिल, भौंरों, पपीहे की ध्वनि। अनुभाव-विषाद भरे स्वर में कथन। संचारी भाव-स्मृति, मोह, विषाद, धृति हैं।

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(2) कबहुँ नयन मम सीतल ताता,
होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता।
वचन न आव नयन भरे बारी।
अतह नाथ मुहिं निपट बिसारी।

(3) बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजैं।
तब ये लता लगत अति शीतल, अब भई विषम ज्वाल की पुंजें।

2. हास्य रस।

सहृदय के हृदय में स्थित हास्य नामक स्थायी भाव का जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से संयोग हो जाता है तो वह हास्य रस कहलाता है।

उदाहरण-
(1) इस दौड़-धूप में क्या रखा आराम करो, आराम करो।
आराम जिन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है।
आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है।
आराम शब्द में राम छिपा, जो भव-बन्धन को खोता है।
आराम शब्द का ज्ञाता तो बिरला ही योगी होता है।
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो।

यहाँ हास स्थायी भाव, हास्य पात्र आलम्बन, व्यंगोक्ति उद्दीपन विभाव, खिलखिलाना अनुभाव एवं हर्ष,चपलता,निर्लज्जता संचारी भाव हैं।

(2) विन्ध्य के वासी उदासी तपोव्रतधारी महा बिनु नारि दुखारे।
गौतम तिय तरी, तुलसी सो कथा सुनि भे मुनि वृन्द सुखारे।
है हैं सिला सब चन्द्रमुखी परसे पद मंजुल कंज तिहारे।
कीन्हीं भली रघुनायक जू ! करुना करि कानन को पगु धारे।

3. करुण रस [2009]

सहदय के हृदय में शोक नामक स्थित भाव का जब विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के साथ संयोग होता है तो वह करुण रस का रूप ग्रहण कर लेता है।
उदाहरण-
(1) जा थल कीन्हें बिहार अनेकन ता थल काँकरि बैठि चुन्यौ करै।
जा रसना ते करी बहुबातन ता रसना ते चरित्र गुन्यों करै।
‘आलम’ जौन से कुंजन में करि केलि तहाँ अब सीस धुन्यों करै।
नैनन में जो सदा रहते तिनकी, अब कान कहानी सुन्यौ करे।

स्थायी भाव-शोक। आश्रय-प्रियतमा। आलम्बन-प्रिय मरण। उद्दीपन-दयनीय दशा, करुण विलाप। अनुभाव-अश्रु, निःश्वास, प्रलाप। संचारी भाव-स्मृति, दैन्य, आवेश, विषाद।

(2) अभी तो मुकुट बंधा था माथ
हुए कल ही हल्दी के हाथ।
खिले भी न थे लाज के बोल।
खिले भीन चुम्बन-शून्य कपोल।
हाय ! रुक गया यही संसार,
बना सन्दूर अंगार।

(3) प्रिय पति वह मेरा प्राण-प्यारा कहाँ है?
दुःख जलनिधि डूबी का सहारा कहाँ है !
लख सुख जिसका मैं आज लौ जी सकी हूँ
वह हृदय हमारा नैन-तारा कहाँ है?

(4) फिर पीटकर सिर और छाती अश्रु बरसाती हुई।
कुररी सदृश सकरुण गिरा से दैत्य दरसाती हुई।
बहुविध विलाप प्रलाप वह करने लगी उस शोक में।
निज प्रिय वियोग समान दुःख होता न कोई लोक में।

(5) देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिके करुणानिधि रोए।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैननि के जल सों पग धोए।

4. वीर रस

सहृदय के हृदय में स्थित उत्साह नामक स्थायीकरण का जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से संयोग हो जाता है,तो वह वीर रस का रूप ग्रहण कर लेता है। वीर रस’ में वीरता, बलिदान,राष्ट्रीयता जैसे सदगुणों का संचार होता है। दान, दया,धर्म,युद्ध एवं वीरता के भाव वीर रस की विशेषताएँ हैं।

उदाहरण-
(1) देखि पवनसुत कटक बिसाला। क्रोधवन्त जनु धायउ काला।
महा सैल इक तुरत उखारा। अति रिस मेघनाद पर डारा।

(2) सिंहासन हिल उठे,राजवंशों ने भृकुटी तानी थी।
बूढ़े भारत में भी आई,फिर से नई जवानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो, झाँसी वाली रानी थी।

स्थायी भाव-उत्साह। आश्रय हनुमान। आलम्बन-मेघनाथ। उद्दीपन-कटक की विह्वल दशा। अनुभाव-महान् शैल को उखाड़ना और फेंकना। संचारी भाव-स्वप्न की चिन्ता, शत्रु पर रिस (क्रोध, अमर्ष),उग्रता तथा चपलता।

5. रौद्र रस

सहृदय का क्रोध नामक स्थायी भाव विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से रौद्र रस का रूप ग्रहण कर लेता है।

उदाहरण-
श्रीकृष्ण के सुन वचन, अर्जुन क्रोध से जलने लगे।
सब शोक अपना भूलकर, करतल-युगल मलने लगे।
संसार देखे अब हमारे, शत्रु रण में मृत पड़े।
करते हुए यह घोषणा, वे हो गये उठकर खड़े।
उस काल मारे क्रोध के तन काँपने उनका लगा।
मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा॥

स्थायी भाव क्रोध। आश्रय-अर्जुन। आलम्बन-शत्रु। अनुभाव-क्रोधपूर्ण घोषणा, शरीर काँपना। उद्दीपन श्रीकृष्ण के वचन। संचारी भाव-आवेग, चपलता,श्रम,उग्रता आदि।

6. भयानक रस

भय नामक स्थायी भाव का जब विभाव,अनुभाव,संचारी भाव से संयोग होता है, तब वह भयानक रस का रूप ग्रहण कर लेता है।

उदाहरण-
(1) नभ से झपटत बाज लखि, भूल्यो सकल प्रपंच।
कंपति तन व्याकुल नयन,लावक हिल्यो न च॥

स्थायी भाव-भय। आश्रय लावा पक्षी। आलम्बन-बाज। उद्दीपन-बाज का झपटना। अनुभाव-शरीर का काँपना,नेत्रों की व्याकुलता। संचारी भाव-दैन्य,विषाद,काँपना, अपने स्थान से रंचमात्र नहीं हिलना, अर्थात् मूर्छा की,जड़ता की स्थिति।

(2) लपट कराल, ज्वाल, माल चहुँ दिशि
धूम अकुलाने, पहिचाने कौन काहि रे।

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7. वीभत्स रस

सहदय के हृदय में स्थित जुगुप्सा (घृणा) नामक स्थायी भाव का जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से संयोग हो जाता है तो वह वीभत्स रस का रूप ग्रहण कर लेता है।

उदाहरण-
(1) सिर पर बैठ्यो काग, ऑखि दोऊ खात निकारत।
खींचत जीभहिं स्यार, अतिहि आनन्द उर धारत॥
बहु चील्ह नोच लै जात मोद बढ़ौ सब को हियौ।
मनु ब्रह्म भोज जिजमान कोऊ आज भिखारिन कह दियो।

(2) कोउ अंतड़िन की पहिरिमाल इतरात दिखावत।
कोउ चरबी लै चोप सहित निज अंगनि लावत॥
कोउ मुण्डनि लै मानि मोद कन्दुक लौं डारत।
कोउ रुंडनि पै बैठि करै जौ फारि निकारत।

स्थायी भाव-जुगुप्सा (घृणा)। आलम्बन श्मशान का दृश्य। उद्दीपन-अंतड़ी की माला पहनना, चर्बी शरीर पर पोतना, नर-मुण्डों को गेंद की तरह उछालना,धड़ पर बैठकर कलेजा फाड़कर निकालना उद्दीपन विभाव हैं। संचारी भाव-निर्वेद ग्लानि,दीनता से संचारी भाव हैं।

8. अदभुत रस [2009]

विस्मय नामक स्थायी भाव विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से संयुक्त होकर जिस भाव का उद्रेक होता है वह अद्भुत रस ग्रहण कर लेता है।।

उदाहरण-
अखिल भुवन चर-अचर सब, हरिमुख में लखि मातु।
चकित भई गद्गद् वचन, विकसित दृग पुलकातु॥

भगवान श्रीकृष्ण के मुख में सम्पूर्ण विश्व के दर्शन करने के बाद माता यशोदा आश्चर्यचकित रह गयीं।

स्थायी भाव-विस्मय। आलम्बन श्रीकृष्ण का मुख। आश्रय-माता यशोदा। उद्दीपन-मुख में भुवनों का दिखना। अनुभाव-नेत्र विकास, गद्गद् स्वर,रोमांच, बुद्धि का नष्ट हो जाना। संचारी भाव त्रास और जड़ता, चेतना खोना (मूर्छा की स्थिति) और नेत्र अचंचल होना।

9. शान्त रस [2009]

इसका स्थायी भाव निर्वेद है। सांसारिक सुख तथा देह की क्षणभंगुरता का ज्ञान, सन्त समागम, शास्त्र चिन्तन और योग आदि उसके विभाव हैं। सब प्राणियों पर दया, परमानन्द की उपलब्धि से मग्नता और आप्तकाम होकर असंग रहना इसके अनुभाव हैं। मति, धृति और हर्ष आदि इसके संचारी भाव हैं।

उदाहरण-
(1) मन रे ! परस हरि के चरण
सुभग सीतल कमल कोमल,
त्रिविध ज्वाला हरण।

(2) सुत बनितादि जानि स्वारथरत न करह नेह सबही ते।
अन्तहि तोहि तजेंगे पामर ! तू न तजै अबही ते॥
अब नाथहिं अनुराग जागु जड़, त्यागु दुरासा जी ते।
बुझे न काम-अगिनि तुलसी कहूँ विषय भोग बहु घी ते।।

निर्वेद स्थायी भाव है। अनित्य संसार आलम्बन। भक्त हृदय-आश्रय। उद्दीपन है-अनुराग, भोग,विषय,काम। उन्हें छोड़ देने का कथन अनुभाव है। धृति,मति, विमर्ष संचारी भाव हैं।

3) बन बितान रवि सीस दिया,
फल भख सलिल प्रवाह।
अवनि सेज पंखा पवन,
अब न कछू परवाह ॥

10 वात्सल्य रस

सहृदय के मन में वात्सल्य-प्रेम नामक स्थायी भाव से जब अनुभाव, विभाव और संचारी भाव मिलते हैं, तब वह वात्सल्य रस का रूप ग्रहण कर लेता है।

उदाहरण-
(1) बैठि सगुन मनावति माता।
कब ऐहें मेरे लाल कुसल घर, कहह काग फुरि बाता।
दूध-भात की दोनी दैहों, सोने चोंच महों।
जब सिय-समेत बिलोकि नयनभरि राम लखन उर लेंहों।

(2) जसोदा हरि पालने झुलावै।
हलरावै, दुलराइ, मल्हावै, जोइ सोइ कछु गावै॥
मेरे लाल को आउ निंदरिया, काहे न आनि सुलावै।
तू काहे नहिं बेगहिं आवत, तोकौं कान्ह बुलावै।।
कबहूँ पलक हरि मूंद लेत, कबहुँ अधर फरकावै।
सोवत जानि मौन है कै रहि, करि-करि सैन बतावै॥

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वात्सल्य-स्थायी भाव। यशोदा-आश्रय। कृष्ण को सुलाना, पलक मूंदना-उद्दीपन विभाव। यशोदा की क्रियाएँ-अनुभाव। शंका, हर्ष आदि संचारी भाव हैं।
MP Board Class 12th Special Hindi काव्य-बोध रस 2

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MP Board Class 12th Special Hindi काव्य की परिभाषा एवं लक्षण, भेद, गुण

MP Board Class 12th Special Hindi काव्य की परिभाषा एवं लक्षण, भेद, गुण

1. काव्य की परिभाषा एवं लक्षण

समस्त भाव प्रधान साहित्य को काव्य कहते हैं। विभिन्न विद्वानों ने काव्य के विभिन्न लक्षण बताये हैं-साहित्य दर्पण के प्रणेता आचार्य विश्वनाथ ने ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’ कहा है। पण्डितराज जगन्नाथ ने ‘रमणीयार्थ प्रतिपादक: शब्दः काव्यम्’ कहा है। कुन्तक ने ‘वक्रोक्ति काव्यस्य जीवितम्’ कहा है और आनन्दवर्धन तथा अभिनव गुप्त ‘ध्वनिरात्मा काव्यस्य’ कहते हैं। मम्मट ने काव्य को हृदय की ‘सगुणावलंकृतौ पुन: क्वापि’ कहा है। इस प्रकार हम देखते हैं कि काव्य हृदय को आनन्द देता है।

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2. काव्य के भेद

(1) मुक्तक पद्य-काव्यं गीत,कविता,दोहा और पद तथा आधुनिक चतुष्पदी तथा मुक्त छन्द मुक्तक काव्य कहलाता है। मुक्तक काव्य का तात्पर्य है कि बिना पूर्वापर सम्बन्ध के वह पद्य या छन्द अपने आप में पूर्ण एक स्वतन्त्र भाव लिये हो जिसके पड़ने मात्र से उसका भाव समझ में आ जाये और किसी भी रस-विशेष की अनुभूति हो सके। सूरदास,मीरा आदि कवियों के गेय पद और बिहारी सतसई,आधुनिक गीत इसके अन्तर्गत आते हैं।

(2) प्रबन्ध काव्य-प्रबन्ध काव्य वह रचना होती है, जिसमें कोई एक कथा आद्योपान्त क्रमबद्ध रूप से गठित हो एवं उसमें कहीं भी तारतम्य न टूटता हो, वरने उस कथा को पुष्ट करने के लिए उसमें अन्य अन्तर्कथाएँ भी हो सकती हैं। प्रबन्ध काव्य विस्तृत होता है, उसमें जीवन की विभिन्न झाँकियाँ रहती हैं। प्रबन्ध काव्य में कथानक को लेकर पात्रों के चरित्रों में घटनाओं और भावों के संघर्ष द्वारा काव्य-वस्तु संजोयी जाती है। प्रबन्ध काव्य के निम्नवत् दो उपभेद स्वीकारे

(1) महाकाव्य,
(2) खण्डकाव्य।

(1) महाकाव्य
आदिकवि वाल्मीकि कृत रामायण के पश्चात् अनेक महाकाव्यों की रचना सम्पन्न हो चुकी है।

आचार्य विश्वनाथ के अनुसार महाकाव्य के लक्षण निम्नवत् हैं-

  1. महाकाव्य सर्गबद्ध तथा सप्रबन्ध रचना है।
  2. आठ तथा उससे अधिक सर्ग होना आवश्यक है।
  3. प्रत्येक सर्ग उत्तरोत्तर सम्बद्ध तथा विभिन्न छन्दों में होना चाहिए।
  4. महाकाव्य का नायक धीरोदात्त गुणों से समन्वित देवता अथवा कुलीन वंश का होना चाहिए।
  5. शान्त, वीर अथवा श्रृंगार रस प्रधान हो तथा अन्य रस सहायक रूप में प्रयुक्त होने चाहिए।
  6. कथानक ऐतिहासिक या सज्जन चरित्र से जुड़ा होना चाहिए।
  7. देश-काल तथा वातावरण का चित्रण अपेक्षित है।
  8. महाकाव्य के उद्देश्य चतुर्वर्ग की प्राप्ति होनी चाहिए।
  9. नामकरण नायक,नायिका,घटना,उद्देश्य अथवा स्थान के आधार पर होना चाहिए।

उपर्युक्त मत के अनुरूप महाकाव्य के चार अनिवार्य लक्षण निम्नवत् ठहराये जा सकते

  1. धीरोदात्त नायक।
  2. रसों की निष्पत्ति।
  3. चतुर्वर्ग की प्राप्ति।
  4. कथानक की ऐतिहासिकता।
  5. भारतीय महाकाव्य में रस निष्पत्ति अनिवार्य रूप से स्वीकारी गई है।
  6. आस्तिकता को भी महाकाव्य में अनिवार्य मानना चाहिए।
  7. भारतीय कण-कण में भगवान को व्याप्त मानते हैं, आत्मा को परमात्मा का अंश ठहराते हैं।
  8. आनन्द स्वरूप में मिल जाना ही भारतीय जीवन का चरम लक्ष्य है। इसी कारण सुखान्त साहित्य को हमारे देश में विशेष स्थान दिया गया है।

उपर्युक्त तत्वों से समन्वित महाकाव्य को सफल महाकाव्य ठहराया जा सकता है।
निष्कर्ष निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि महाकाव्य एक छन्दोबद्ध कथा प्रधान रचना होती है। इस कलेवर में समस्त युग जीवन का अंकन किसी उदात्त उद्देश्य से प्रेरणा ग्रहण करके सरस एवं प्रवाहमयी शैली में प्रभावान्वित के साथ सम्पन्न किया जाता है।
मलिक मुहम्मद जायसी का ‘पद्मावत’, तुलसीदास का ‘रामचरितमानस’, मैथिलीशरण गुप्त का ‘साकेत’ तथा जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ रचनाएँ महाकाव्य हैं।

(2) खण्डकाव्य

परिभाषा-खण्डकाव्य में नायक के जीवन की किसी एक घटना अथवा हृदयस्पर्शी अंश का पूर्णता के साथ अंकन किया जाता है। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार-“खण्डकाव्य महाकाव्य के एक देश या अंश का अनुसरण करने वाला है।”

खण्डकाव्य महाकाव्य का खण्ड मात्र भी नहीं है। खण्डकाव्य में जिन्दगी का खण्डित अथवा बिखरा रूप भी चित्रित नहीं किया जाता, इसमें जीवन के सांगोपांग चित्रण के स्थान पर उसके किसी एक पहलू का पूर्ण अंकन होता है। यद्यपि इसका कलेवर सीमित होता है लेकिन स्वतः पूर्णता इसका अपेक्षित धर्म है। यथा-श्यामनारायण पाण्डेय का ‘हल्दी घाटी का युद्ध’, नरोत्तमदास का ‘सुदामा चरित’,रामनरेश त्रिपाठी का ‘पथिक’, मैथिलीशरण गुप्त की ‘पंचवटी’ रचनाएँ खण्डकाव्य की कोटि में आती हैं।

महाकाव्य तथा खण्डकाव्य में अन्तर

  1. महाकाव्य में जीवन का अथवा घटना विशेष का सांगोपांग चित्रण होता है, जबकि खण्डकाव्य में किसी एक घटना या जीवन के एक अंश का चित्रण किया जाता है।
  2. महाकाव्य का नायक उदात्त तथा महान् होता है। खण्डकाव्य के नायक में इस गुण का पाया जाना अनिवार्य नहीं है। खण्डकाव्य में युग जीवन का एकाधिक रूप ही प्रस्तुत किया जाता है लेकिन महाकाव्य में समग्र युगीन जीवन प्रतिबिम्बित होता है।
  3. महाकाव्य का शिल्प उत्कृष्ट एवं उदात्त होता है लेकिन खण्डकाव्य में इसका पाया जाना अनिवार्य नहीं ठहराया गया है।
  4. खण्डकाव्य का कलेवर सीमित होता है, परन्तु महाकाव्य का कलेवर विस्तृत होता है।
  5. महाकाव्य में कम-से-कम आठ सर्ग होते हैं लेकिन खण्डकाव्य में सर्गों की संख्या नियत नहीं होती।

(3) दृश्य-काव्य-

दृश्य-काव्य के अन्तर्गत नाटक और प्रहसन आते हैं जिनका अभिनय रंगमंच पर पात्रों द्वारा किया जाता है। इसमें गद्य के सम्भाषण के अतिरिक्त गेय गीतों, छन्दों अथवा प्रसंगानुकूल नृत्यों की योजना रहती है। दृश्य-काव्य के अन्तर्गत अधिक रमणीयता होती है, क्योंकि दर्शक उसकी प्रत्यक्षानुभूति करता है। कलाकार अपनी प्रभावशील अभिनय कला द्वारा हृदय पर सीधा प्रभाव डालते हैं। दृश्य-काव्य निश्चय ही श्रव्य-काव्य से श्रेष्ठ होता है, क्योंकि उसका आनन्द पढ़कर एवं देखकर दोनों रूपों में प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु श्रव्य-काव्य का आनन्द केवल सुनकर ही लिया जा सकता है। नाटक में साहित्य के अन्य तत्वों के अतिरिक्त अभिनय तत्व भी आवश्यक होता है।

(4) चम्पू काव्य-

जिसमें गद्य तथा पद्य मिश्रित रूप से प्रयुक्त होता है, उसे चम्पू काव्य कहते हैं। इसका प्रचलन संस्कृत साहित्य में था, हिन्दी में कहीं-कहीं देखने को मिलता है। मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘सिद्धराज’ प्रसिद्ध चम्पू काव्य है।

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3. काव्य गुण

कविता-कामिनी को अलंकारों से सुसज्जित कर विद्वानों ने उसके आन्तरिक रूप को ही महत्त्व दिया है। अलंकार, छन्द से काव्य का बाह्य रूप सजता है किन्तु सुन्दर सजीला तन भावपूर्ण मन के बिना तथा गुण रहित होने से व्यर्थ होता है। कहा भी है कि “गुणीनां च निर्गुणनां च दृश्यते महदन्तरम्।” अतः मानवोचित गुणों के अनुकूल ही काव्य गुण भी होते हैं। आचार्य दण्डी ने दस काव्य गुणों का उल्लेख किया है और भोज ने चौबीस गुणों का। किन्तु साहित्य में काव्य के तीन गुण ही प्रमुख माने गये हैं। उसी वर्गीकरण के अन्तर्गत इन्हीं तीनों में अन्य सभी गुण समाहित कर लिए हैं। इन गुणों का काव्य में किस प्रकार प्रणयन होता है तथा गुणयुक्त काव्य श्रोता या पाठक पर किस प्रकार प्रभावशील होता है, उनके लिए कुछ नियम हैं।

मुख्य तीन गुण हैं-
(1) माधुर्य,
(2) ओज,
(3) प्रसाद।

(1) माधुर्य गुण-मधुरता के भाव को माधुर्य कहते हैं। मिठास अर्थात् कर्णप्रियता ही इसका मुख्य भाव है। जिस काव्य के श्रवण से आत्मा द्रवित हो जाये,मन आप्लावित और कानों में मधु घुल जाये,वही माधुर्य गुणयुक्त है। यह गुण विशेष रूप से श्रृंगार,शान्त एवं करुण रस में पाया जाता है। माधुर्य गुण की रचना में-

  • कठोर वर्ण यानि सम्पूर्ण ट वर्ग (ट,ठ,ड,ढ, ण) के शब्द नहीं होने चाहिए।
  • अनुनासिक वर्णों से युक्त अत्यन्त दीर्घ संयुक्ताक्षर नहीं होना चाहिए।
  • लम्बे-लम्बे सामासिक पदों का प्रयोग भी वर्जित है।।
  • कोमलकांत मृदु पदावली का एवं मधुर वर्णों (क, ग, ज, द आदि) का प्रयोग होना चाहिए।

उदाहरण-
(1) ‘छाया करती रहे सदा, तुझ पर सुहाग की छाँह।
सुख-दुःख में ग्रीवा के नीचे हो, प्रियतम की बाँह ॥

(2) अनुराग भरे हरि बागन में,
सखि रागत राग अचूकनि सों।

(3) लेकर इतना रूप कहो तुम, दीख पड़े क्यों मुझे छली?
चले प्रभात बात फिर भी क्या खिले न कोमल कमल कली?

(4) बसो मोरे नैनन में नन्दलाल।
मोहिनी मूरत साँवरी सूरत नैना बने बिसाल।

(2) ओज गुण-जिस काव्य-रचना को सुनने से मन में उत्तेजना पैदा होती है,उस कविता में ओजगुण होता है। ओज का सम्बन्ध चित्त की उत्तेजना वृत्ति से है। इसलिए जिस काव्य को पढ़ने से या सुनने से पढ़ने वाले के हृदय में उत्तेजना आ जाती है,वही ओजगुण प्रधान रचना होती है। वीर रस रचना के लिए इस गुण की आवश्यकता होती है। इस गुण को उत्पन्न करने के लिए विद्वानों ने निम्न गुणों का विधान किया है-

  • रचना की शैली एवं शब्द योजना दोनों का ही सुगठित एवं सुनियोजित होना आवश्यक है।
  • पंक्ति अथवा छन्द की रचना में कहीं भी शिथिलता होना अनपेक्षित है।
  • रचना में ट वर्ग (ट,ठ,ड,ढ,ण) और सभी कठोर व्यंजनों का आधिक्य होना चाहिए।
  • र के संयोग से बने शब्द प्रथम एवं तृतीय, द्वितीय और चतुर्थ वर्गों का प्रयोग होते संयोजन तथा रेफ युक्त शब्द प्रभावशाली हैं।
  • लम्बे-लम्बे समासों से युक्त शब्दों का प्रयोग होना चाहिए। अधिकाधिक संयुक्ताक्षरों का प्रयोग होना चाहिए।

उदाहरण-
(1) अमर राष्ट्र, उदण्ड राष्ट्र, उन्मुक्त राष्ट्र-यह मेरी बोली।
यह ‘सुधार’, ‘समझौते’ वाली मुझको भाती नहीं ठिठोली।।

(2) निकसत म्यान तें मयूखै प्रलै भानु कैसी,
फारै तम-तोम से गयंदन के जाल को।

(3) महलों ने दी आग, झोंपड़ियों में ज्वाला सुलगाई थी,
वह स्वतन्त्रता की चिनगारी, अन्तरतम् से आई थी।

(4) हिमाद्रि तुंग शृंग पर, प्रबुद्ध शुद्ध भारती,
स्वयंप्रभा समुज्वला, स्वतन्त्रता पुकारती।

(3) प्रसाद गुण प्रसाद का अर्थ है-प्रसन्नता या निर्मलता। जिस काव्य को सुनते या पढ़ते समय वह हृदय पर छा जाये और बुद्धि शब्दों के दुरूह जाल में या क्लिष्ट अर्थों की कलुषता में मलिन न होकर एकदम प्रभावित हो जाये,मन खिल जाये,उसे प्रसाद गुण कहते हैं। कवि का उद्देश्य होता है-मानव हृदय को प्रभावित करना। प्रेमी की बात प्रिय पात्र के हृदय को रस से सराबोर न कर दे, ममता वात्सल्य को आह्लादित न कर पाये, करुणा नयनों के कोरों को यदि अविरल न कर पाये और वीरता का उत्साह यदि ओजित न कर पाये-ये सभी यदि शब्दों की भूलभुलैया में पड़कर क्लिष्टता के अस्त-व्यस्त मार्ग पर चल पड़े तो काव्य ब्रह्मानन्द सहोदर न होकर मस्तक की पीड़ा बन जायेगा। व्यस्तता के इस युग में हमें आज प्रसाद गुण युक्त काव्य की आवश्यकता है। यही गुण अधिक समय तक प्रभावशाली रह सकता है, क्योंकि यह सीधे हृदय पर छाप छोड़ता है। सभी रसों की रचना प्रसाद गुण युक्त हो सकती है। प्रसाद गुण का सम्बन्ध सभी रसों से है। उक्त दोनों गुणों की तरह यह गुण किसी रस विशेष से नियन्त्रित नहीं है। शब्दों के साथ अर्थ का भी सरल होना आवश्यक है। इसमें जो बात कही जाये,उसका वही अर्थ होता है। ‘साहित्य-दर्पण’ के प्रणेता आचार्य विश्वनाथ का कथन है कि-“समस्त रसों और रचनाओं में जो चित्त को सूखे ईंधन में अग्नि के समान शीघ्र व्याप्त करे-वह प्रसाद गुण है।”

उदाहरण-
(1) “चुप रहो जरा सपना पूरा हो जाने दो,
घर की मैना को जरा प्रभाती गाने दो,
ये फूल सेज के चरणों पर धर देने दो,
मुझको आँचल में हरसिंगार भर लेने दो।”

(2) मानुस हौं तो वही रसखान
बसौं बज गोकुल गाँव के ग्वारन।

(3) तन भी सुन्दर मन भी सुन्दर
प्रभु मेरा जीवन हो सुन्दर।।

(4) हे प्रभो आनन्द दाता ! ज्ञान हमको दीजिए।

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(5) आशीषों का आँचल भर कर, प्यारे बच्चो लाई हूँ।
युग जननी मैं भारत माता द्वार तुम्हारे आई हूँ।

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MP Board Class 12th Special Hindi अपठित गद्यांश

MP Board Class 12th Special Hindi अपठित गद्यांश

अपठित का अर्थ है,जो पहले पढ़ा हुआ नहीं हो। इसके द्वारा छात्रों की बौद्धिक क्षमता तथा पाठ्यक्रम के अतिरिक्त उनके पठन-पाठन का पता चलता है। भाषा को पढ़कर समझना तथा उसके भावार्थ को ग्रहण कर संक्षेप में लिखना,वह अंश किस विषय का वर्णन करता है, यह समझना ही अपठित का उद्देश्य है। जिस छात्र का भाषा-ज्ञान जितना परिपक्व होगा, वह अपठित गद्यांश को उतनी ही सरलता से ग्रहण कर उत्तर लिख सकेगा।

अपठित गद्यांश हल करते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए :

  1. मूल अवतरण को बड़ी एकाग्रता से पूरा पढ़ लेना चाहिए। तीन-चार बार पढ़ने से उसका भाव स्वत: ही समझ में आ जाता है।
  2. मूल भाव से शीर्षक का पता चल जाता है कि गद्यांश किस विषय पर लिखा गया है। अत: उसे अलग से लिख लेना चाहिए।
  3. दिये गये प्रश्नों के उत्तर भी उसी गद्यांश में निहित होते हैं। उसे पढ़कर अपनी भाषा में उत्तर देना चाहिए।
  4. गद्यांश का एक-तिहाई सारांश देना चाहिए। संक्षेप में सभी मुख्य बातें आ जायें।
  5. लिखते समय वर्तनी की शुद्धता पर भी ध्यान देना चाहिए।
  6. शीर्षक सरल,संक्षिप्त और सारगर्भित होना चाहिए।

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MP Board Class 12th Special Hindi अपठित गद्यांश

नारी सृष्टि का आधार है। नारी के बिना संसार की हर रचना अपूर्ण तथा रंगतहीन है। वह मृदु होते हुए भी कठोर है, उसमें पृथ्वी जैसी सहनशीलता, सूर्य जैसा ओज तथा सागर जैसा गाम्भीर्य एक साथ दृष्टिगोचर होता है। नारी के अनेक रूप हैं, वह समाज कभी उन्नति नहीं कर सकता, जहाँ नारी को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता। नर और नारी गृहस्थी रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं। इन दोनों के तालमेल से ही गृहस्थी का रथ सुचारु रूप से गतिमान रहता है।

प्रश्न
1. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
2. उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
3. सृष्टि का आधार किसे कहा गया है?
4. गृहस्थी रूपी गाड़ी के दो पहियों में से एक नर है, दूसरा कौन है?
उत्तर-
1. शीर्षक नारी की महत्ता।
2. सारांश-नारी सृष्टि का मूल आधार है। उसके अभाव में संसार की प्रत्येक रचना अधूरी है। वह कोमल होते हुए भी कठोर है। उसके मन-मानस में सूर्य के समान तेज है तथा सागर जैसी गम्भीरता है। पुरुष एवं नारी के तालमेल के बिना गृहस्थी का रथ भली प्रकार संचालित नहीं हो सकता।
3. सृष्टि का आधार नारी को कहा गया है।
4. गृहस्थी रूपी गाड़ी के दो पहियों में से एक नर है तथा दूसरा नारी है।

2. संस्कार ही शिक्षा है। शिक्षा इंसान को इंसान बनाती है। आज के भौतिकवादी युग में शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य सुख पाना रह गया है। अंग्रेजों ने इस देश में अपना शासन व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए ऐसी शिक्षा को उपयुक्त समझा, किन्तु यह विचारधारा हमारी मान्यता की विपरीत है। आज की शिक्षा प्रणाली एकाकी है, इसमें व्यावहारिकता का अभाव है, श्रम के प्रति निष्ठा नहीं है। प्राचीन शिक्षा प्रणाली में आध्यात्मिक एवं व्यावहारिक जीवन की प्रधानता थी। यह शिक्षा केवल नौकरी के लिए नहीं, जीवन को सही दिशा प्रदान करने के लिए थी। अत: आज के परिवेश में यह आवश्यक हो गया है कि इन दोषों को दूर किया जाय अन्यथा यह दोष सुरसा के समान हमारे सामाजिक जीवन को निगल जायेगा।। [2009]

प्रश्न
1. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
2. उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
3. अंग्रेजी शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य क्या है?
उत्तर-
1. शीर्षक-शिक्षा का उद्देश्य।
2. सारांश-श्रम के प्रति निष्ठा,नैतिक मूल्यों के प्रति आस्था तथा जीवन को व्यावहारिक बनाना ही शिक्षा का मूल उद्देश्य है। अंग्रेजी शासनकाल में भौतिक सुख की प्राप्ति ही शिक्षा का उद्देश्य समझा जाने लगा। इससे शिक्षा में अनेक दोष पैदा हो गये। आज इन दोषों को दूर कर उसमें आध्यात्मिक एवं व्यावहारिक जीवन का समन्वय करना होगा।
3. अंग्रेजी शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य नौकरी प्राप्त करना एवं सुख पाना है।

3. अपनी ही भाषा के अध्ययन पर विशेष जोर देने के कारण कुछ लोग समझते हैं कि मैं विदेशी भाषाएँ सीखने के विरुद्ध हूँ। मेरा यह मतलब कदापि नहीं है कि विदेशी भाषाएँ सीखनी ही नहीं चाहिए। अपनी आवश्यकता, रुचि की अनुकूलता, अध्ययन के अवसर और अन्य आवश्यक कार्यों में आवश्यक होने पर हमें एक नहीं, अनेक भाषाएँ सीखकर ज्ञान अर्जित करना चाहिए। द्वेष किसी भाषा से नहीं करना चाहिए। ज्ञान किसी भी भाषा में मिलता हो उसे ग्रहण करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। विदेशी भाषा सीखने के बारे में संकीर्ण मनोवृत्ति और संकुचित दृष्टिकोण रखने वाली जातियाँ कुएँ में मेंढक के समान अल्पज्ञ रह जाती हैं।

प्रश्न
1. किसी भाषा से द्वेष क्यों नहीं करना चाहिए?
2. संकीर्ण मनोवृत्ति वालों की उपमा किससे दी है?
3. उपर्युक्त गद्यांश का एक उचित शीर्षक लिखिए।
4. उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
उत्तर-
1. किसी भी भाषा से द्वेष इसलिए नहीं करना चाहिए कि ज्ञान किसी भी भाषा में मिले उसे ग्रहण करना चाहिए।
2. संकीर्ण मनोवृत्ति वाले तो कुएँ में मेंढक के समान होते हैं।
3. शीर्षक-‘विविध भाषाओं का ज्ञान’।
4. सारांश-अपनी भाषा सीखना आवश्यक है। लेकिन अन्य भाषाओं से द्वेष नहीं रखना चाहिए अपितु उन्हें सीखने की कोशिश करनी चाहिए। अन्य भाषाओं के प्रति द्वेष एवं संकीर्ण भाव रखने वाला व्यक्ति कुएँ में मेंढक के समान अल्पज्ञ रह जाता है।

4. कर्मठता लक्ष्य की निश्चितता, उत्कृष्ट अभिलाषा एवं सतत् प्रयत्न के समन्वित स्वरूप का नाम है। कोरा श्रमसाध्य नहीं, यह तो बालकों के खेल और पशुओं की दौड़ में भी होता है। सही श्रम तो वही है जो कुछ ठोस परिणाम देता है। मेरी दृष्टि से यही कर्मठता है। जिस देश में कर्मठजनों का जितना प्रतिशत होता है, वह देश तदनुकूल ही प्रगति अथवा अवनति करता है। अतः शिक्षण का सही उद्देश्य देश में ऐसे कर्मठजनों का निर्माण एवं उत्तरोत्तर उनका प्रतिशत बढ़ाना है। [2014]

प्रश्न
1. सही श्रम किसे कहते हैं?
2. शिक्षण का सही उद्देश्य बताइए।
3. उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
4. उपर्युक्त गद्यांश का एक उचित शीर्षक दीजिए।
उत्तर-
1. सही श्रम वह है जो कुछ वांछित परिणाम दे।
2. शिक्षण का सही उद्देश्य कर्त्तव्यपरायण मानवों का निर्माण है।
3. सारांश-सोद्देश्य श्रम ही कर्मठता है। कर्मठ व्यक्तियों से ही देश प्रगति करता है, अतः सही शिक्षण द्वारा व्यक्तियों को कर्मठ बनाना आवश्यक है।
4. शीर्षक-शिक्षा का उद्देश्य।

5. पर्यावरण प्रदूषण परमात्माकृत नहीं, अपितु मानवकृत है जो उसने प्रगति के नाम पर किये गये आविष्कारों द्वारा निर्मित किया है। आज जल, वायु सभी कुछ प्रदूषित हो चुका है। शोर, धुआँ, अवांछनीय गैसों का मिश्रण एक गम्भीर समस्या बन चुका है। यह सम्पूर्ण मानवता के लिए एक खुली चुनौती है और एक समस्या है जो सम्पूर्ण मानवता के जीवन और मरण से सम्बन्धित है। इसके समक्ष मानवता बौनी बन चुकी है। [2010]

प्रश्न
1. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
2. उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
3. प्रदूषण किसके कारण निर्मित है?
उत्तर-
1. शीर्षक-पर्यावरण प्रदूषण की समस्या।
2. सारांश-पर्यावरण को मानव द्वारा प्रदूषित किया गया है और वही उसके बुरे परिणाम भी भुगत रहा है। यह समस्या इतनी बढ़ गयी है कि अब इससे निकल पाना अत्यधिक कठिन हो गया है। यह विनाश की ओर ले जा रही है।
3. प्रदूषण मानव के नित नये आविष्कारों के कारण निर्मित है।

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6. साहित्य मानव समाज का सर्वोत्तम फल है। समाज एवं परिस्थितियाँ ही साहित्यकार के व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं। साहित्यकार की अनुभूति समाज एवं परिस्थितियों की देन होती है। ज्ञान-राशि के संचित कोष का नाम ही साहित्य है। साहित्य और समाज अन्योन्याश्रित है। साहित्य समाज का दर्पण है। मनुष्य जिस वातावरण में रहता है, उसका प्रभाव भी उस पर पड़ता है। समाज की ओर से आँखें मूंदकर साहित्यकार नहीं चल सकता। साहित्य समाज का दर्पण होने के नाते समयुगीन-परिस्थितियों का चित्र भी प्रतिबिम्बित करता है। साहित्यकार का कर्तव्य है कि वह अपने देशकाल एवं परिस्थितियों का सच्चा चित्र प्रस्तुत कर उसमें कल्पना का इन्द्रधनुषी रंग भर दे।

प्रश्न
1. साहित्य किसे कहते हैं?
2. साहित्यकार का क्या कर्त्तव्य है?
3. उपर्युक्त गद्यांश का एक उचित शीर्षक लिखिए।
4. उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
उत्तर-
1. ज्ञान राशि के संचित कोष को साहित्य कहते हैं।
2. साहित्यकार का कर्तव्य है कि वह देशकाल एवं परिस्थिति का सच्चा एवं यथार्थ चित्र प्रस्तुत करे परन्तु साथ ही कल्पना का सतरंगी ताना-बाना भी बुने।
3. शीर्षक साहित्य और समाज।
4. सारांश-साहित्य और समाज का घनिष्ठ सम्बन्ध है। समाज तथा समय की परिस्थितियाँ साहित्यकार को प्रभावित करती हैं, साहित्यकार उनकी अपेक्षा नहीं कर सकता। इसलिए साहित्यकार का यह दायित्व है कि वह अपने युग का वास्तविक वर्णन अपनी कल्पना के साथ करे।

7. अहिंसा भी सत्य का पूरक रूप है। अहिंसा में दूसरे के अधिकारों की, विशेषकर जीवधारियों की स्वीकृति रहती है। अहिंसा मन, वचन और कर्म तीनों से होती है। अहिंसा के पीछे ‘जिओ और जीने दो’ का सिद्धान्त कार्य करता है। जहाँ अहिंसा का मान नहीं, वहाँ मानवता नहीं। अहिंसा मानवता का पर्याय है। मनुष्य को उस जीवन को छीनने का कोई अधिकार नहीं, जिसको वह दे नहीं सकता। हिंसा केवल जान लेने में नहीं, वरन दूसरों के स्वत्वों और स्वाभिमान को आघात पहुँचाने में भी होती है। [2012]

प्रश्न
1. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
2. अहिंसा किस सिद्धान्त पर कार्य करती है?
3. मानवता का पर्याय किसे कहा गया है?
4. उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
उत्तर-
1. शीर्षक-अहिंसा का अर्थ।
2. अहिंसा के पीछे ‘जिओ और जीने दो’ का सिद्धान्त कार्य करता है।
3. मानवता का पर्याय अहिंसा को कहा गया है।
4. सारांश-अहिंसा सत्य का पूरक है। अहिंसा मन,वचन और कर्म से तथा जिओ और जीने दो’ के सिद्धान्त पर कार्य करती है। दूसरों के अधिकारों तथा स्वाभिमान को चोट पहुँचाना भी हिंसा है।

8. किसी भी काल का समाज साहित्य के प्रभाव से अछूता नहीं रह सकता। समाज को अपनी आवश्यकताओं की पर्ति के लिए साहित्य पर आश्रित रहना पड़ता है। शाश्वत साहित्य समाज के स्वरूप में परिवर्तन कर देता है। साहित्य में जो शक्ति छिपी है वह तोप, तलवार और बम के गोले में नहीं पायी जाती।

हिन्दी साहित्य के वीरगाथा काल का वातावरण युद्ध और अशान्ति का था। वीरता प्रदर्शन ही जीवन का महत्त्व था। युद्ध अधिकतर विवाहों के पीछे होते थे। इसकी प्रधान प्रकृति वीर और श्रृंगार की है इसलिए इस साहित्य की रचना हुई। भक्तिकाल के आते-आते विदेशियों का शासन स्थापित हो गया था। निराशा के वातावरण में हिन्दू जनता को भक्ति आन्दोलन की सशक्त लहरी ने जीवनदायिनी शीतलता प्रदान की। इस समय की साहित्यधारा ज्ञान और प्रेम के रूप में प्रवाहित हुई। रीतिकाल तक सम्पूर्ण भारत पर यवनों का शासन स्थापित हो गया था। काव्य का सृजन राजाश्रय में हो रहा था। कवि नारी के अंगों का मादक चित्रण करने में लगे थे। आधुनिक युग के आगमन के साथ ही भारतीय समाज पर पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव पड़ा। नवजागृति से प्रेरित होकर साहित्य की धारा शृंगारादि से निकलकर राष्ट्रीयता और समाज-सुधार की ओर चल पड़ी।

प्रश्न
1. उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
2. इस गद्यांश का एक उचित शीर्षक दीजिए।
3. कौन-सा साहित्य समाज के लिए हितकारी है?
4. भक्ति-आन्दोलन का जन्म क्यों हुआ?
उत्तर-
1. सारांश-साहित्य और समाज का घनिष्ठ सम्बन्ध है। साहित्य अपने समय के समाज पर अपना प्रभाव डाल कर उसके रूप में परिवर्तन करता है। समाज अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए साहित्य पर निर्भर रहता है। इसलिए साहित्य को अत्यन्त शक्तिशाली एवं प्रभावोत्पादक माना जाता है।
2. शीर्षक-साहित्य और समाज।
3. शाश्वत साहित्य समाज के लिए हितकारी होता है, क्योंकि वह समाज के स्वरूप में समयानुकूल परिवर्तन करता है।
4. निराशा में निमग्न हिन्दू जनता में जीवनदायिनी आशा का संचार करने के लिए भक्ति-आन्दोलन का जन्म हुआ।

9. बढ़ती हुई आबादी की समस्या मानव की न्यूनतम आवश्यकताओं-रोटी, कपड़ा और मकान की कमी उत्पन्न करेगी, जीवन स्तर को गिराएगी, देश में हो रहे विकास कार्यों का लाभ जन-जन तक पहुँचाने में रोड़ा अटकायेगी, राष्ट्र की प्रगति पर प्रश्नचिह्न लगायेगी तथा असामाजिक तत्वों का निर्माण कर जीवन-मूल्यों का गला घोंट देगी। भारत को इन समस्त समस्याओं का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि निरन्तर बढ़ रही जनसंख्या चट्टान बनकर सामने खड़ी है।

प्रश्न
1. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
2. उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
3. मानव की मूलभूत आवश्यकताएँ कौन-कौन-सी हैं?
4. भारत की प्रमुख समस्या क्या है?
उत्तर-
1. शीर्षक-जनसंख्या वृद्धि से हानियाँ।
2. सारांश-जनसंख्या वृद्धि से देश में समस्याएँ बढ़ेगी। इससे रोटी, कपड़ा और मकान की मूलभूत आवश्यकता की पूर्ति में कमी होगी, देश के विकास कार्यों में बाधा पहुँचेगी, असामाजिक तत्त्व पनपेंगे तथा जीवन मूल्यों का ह्रास होगा।
3. मानव की मूलभूत आवश्यकताएँ हैं-रोटी, कपड़ा और मकान।
4. भारत की एक बड़ी एवं प्रमुख समस्या बढ़ती हुई आबादी है।

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10. वर्तमान युग संघर्ष और प्रतिस्पर्धा का है। मानव जीवन में सुख और सन्तोष में जो गिरावट आयी है उससे परस्पर मानव व्यवहारों में असन्तुलन दिखायी देता है। जीवन-स्तर को उन्नत करने के लिए प्रतिस्पर्धी हो रही है। नैतिक और सामाजिक मूल्य पतित हो रहे हैं। भोजन, वस्त्र, आवास जैसी बुनियादी सुविधाएँ दूभर हो रही हैं। व्यक्ति अपने स्वार्थ की सीमाओं में ही कैद हो गया है।

प्रश्न
1. उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
2. सारांश लिखिए।
3. वर्तमान युग में किस प्रकार का संघर्ष है?
4. वर्तमान युग में किन मूल्यों के पतित होने की बात कही गयी है?
उत्तर-
1. शीर्षक-संघर्ष एवं प्रतिस्पर्धा।
2. सारांश-आज का मानव प्रतिस्पर्धा एवं संघर्ष से बुरी तरह ग्रस्त है। नैतिक एवं सामाजिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है। बुनियादी समस्याएँ गूलर का फूल हो गई हैं। व्यक्तिगत स्वार्थ सब पर हावी है।
3. वर्तमान युग में जीवन-स्तर को अधिकाधिक उन्नत करने का संघर्ष अवलोकनीय है।
4. वर्तमान युग में नैतिक और सामाजिक मूल्यों के पतित होने की बात कही गयी है।

11. राष्ट्रीय चरित्र का विकास ही प्रजातन्त्र का आधार है। किसी भी राष्ट्र की नींव उसके राष्ट्रवासियों के चरित्र पर आधारित है। जिस राष्ट्र के नागरिकों का चरित्र जितना महान होगा उसका भविष्य भी उतना ही महान होगा। प्रजातन्त्र के क्रियान्वयन में राष्ट्र के चरित्र की रक्षा आवश्यक है। चरित्र से नैतिकता का विकास होता है और नैतिकता प्रजातन्त्र की रक्षा कर उसे सफल बनाती है। राष्ट्रीय चरित्र से राष्ट्र के गौरव में वृद्धि होती है। यही कारण है कि भारत अपने राष्ट्रीय चरित्र के नाम पर विश्व के समक्ष अपना मस्तक ऊंचा किये हुए है। [2013]

प्रश्न
1. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिये।
2. उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिये।
3. राष्ट्रीय चरित्र के विकास को किसका आधार कहा गया है?
4. चरित्र से किसका विकास होता है?
उत्तर-
1. शीर्षक राष्ट्रीय चरित्र की उपादेयता।
2. सारांश-राष्टवासियों के चरित्र पर राष्ट की आधारशिला अवलम्बित होती है। उज्ज्वल चरित्र स्वर्णिम भविष्य का नियामक है। चरित्र से नैतिकता एवं मानव मूल्यों की वृद्धि होती है। राष्ट्रीय चरित्र के बलबूते पर ही आज भारत विश्व रंगमंच पर अपना गौरवपूर्ण स्थान रखता है।
3. राष्ट्रीय चरित्र के विकास को प्रजातन्त्र का आधार कहा गया है।
4. चरित्र से नैतिकता का विकास होता है।

12. देश की उन्नति के लिए हम अपने व्यवहार में ईमानदारी और सच्चाई का आदर्श उपस्थित करें। हमें अपने वायदे के पक्के और अपनी जबान के सच्चे बनना चाहिये जिससे कि कोई हम पर उँगली न उठा सके। जिस माल का भाव करें, वही माल दें। ऐसी बातों से देश की साख बढ़ती है। हम अपने वैयक्तिक लाभ की ओर ध्यान न देकर देश की साख पर विचार करें। हमें चाहिए कि अपने को लोभ और लालच से बचायें। विशेषकर उन कार्यों में जहाँ देश के हित का सीधा सम्बन्ध हो। बहुत-से लोग व्यक्तिगत लाभ के लिए देश के हित की परवाह नहीं करते हैं। इस सम्बन्ध में ‘मॉडर्न रिव्यू के सम्पादक श्री रामानन्द चटर्जी ने बड़ा ऊंचा आदर्श स्थापित किया था। वे पहले महायुद्ध के बाद ‘लीग ऑफ नेशन्स’ के अधिवेशन में गये थे। वहाँ उनको आठ हजार रुपये मार्ग व्यय के रूप में भेंट किये गये; किन्तु उन्होंने केवल इसलिए स्वीकार नहीं किये कि उनके स्वीकार कर लेने पर वे उसके सम्बन्ध में स्वतन्त्र और निर्भीक आलोचना न कर सकेंगे। ऐसी बातों से देश का नैतिक नाम बढ़ता है।

प्रश्न
1. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
2. सारांश लिखिये।
3. ‘मार्डन रिव्यू’ के सम्पादक कौन थे?
4. व्यक्तिगत लाभ तथा देश हित में से क्या सर्वोपरि है?
उत्तर-
1. शीर्षक–व्यवहार में ईमानदारी’।
2. सारांश हमारे देश की उन्नति तभी होगी जब यहाँ के नागरिक ईमानदार और सच्चे व्यवहार वाले होंगे। लोभ और स्वार्थ से ऊपर उठकर देश के सम्मान और गौरव की रक्षा के काम करेंगे। श्री रामानन्द चटर्जी का उदाहरण यहाँ के प्रत्येक नागरिक के लिए एक आदर्श प्रस्तुत करता है। मनुष्य के चरित्र को बल मिलता है। नैतिक रूप से उत्थान प्राप्त व्यक्ति सर्वत्र सफल और विजयी होता है।
3. ‘मॉर्डन रिव्यू’ के सम्पादक श्री रामानन्द चटर्जी थे।
4. व्यक्तिगत लाभ तथा देश हित में से निश्चित ही देश हित सर्वोपरि है।

13. धन का व्यय विलास में करने से केवल क्षणिक आनन्द की प्राप्ति होती है यह धन का दुरुपयोग है किन्तु धन का सदुपयोग सुख और शान्ति देता है। धन के द्वारा जो सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य हो सकता है वह है परोपकार। भूखों को अन्न, नंगों को वस्त्र, रोगियों को दवा, अनाथों को घर द्वार, लूले-लंगड़ों और अपाहिजों के लिए आराम के साधन, विद्यार्थियों के लिए पाठशालाएँ इत्यादि वस्तुएँ धन के द्वारा जुटाई जा सकती हैं। धन रहने के कारण एक अमीर आदमी को लोगों की भलाई करने के अनेक अवसर प्राप्त होते हैं, जो कि एक गरीब आदमी को उपलब्ध नहीं हैं चाहे वह इसके लिए कितना ही इच्छुक क्यों न हो, पर संसार में ऐसे आदमी बहुत ही कम हैं जो अपना भोग-विलास त्यागकर अपने धन को परोपकार में लगाते हैं।

प्रश्न
1. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
2. उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
3. धन के सदुपयोग से क्या प्राप्त होता है?
4. धन द्वारा किया जा सकने वाला कोई एक महत्वपूर्ण कार्य बताइए।
उत्तर-
1. शीर्षक-‘धन का सदुपयोग।।
2. सारांश-धन का व्यय यदि विलास कार्य के लिए किया जाता है तो इससे तो क्षणभर का आनन्द प्राप्त होता है। इससे धन का दुरुपयोग होता है। धन का सदुपयोग तो वह है जो भूखे-नंगों,गरीब और अनाथों, अपाहिजों और विद्यार्थियों के कल्याण के लिए व्यय करके किया जाता है। किन्तु संसार में ऐसे धनवान कम हैं जो धन का उपयोग स्वयं के भोग-विलास के लिए – न करके पर-कल्याण के लिए करते हैं।
3. धन के सदुपयोग से सुख और शान्ति प्राप्त होती है।
4. धन के द्वारा जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण कार्य हो सकता है, वह है-—’परोपकार’।

14. सर्वोत्तम कविता की यह पहचान है कि उसके पढ़ने या सुनने से पाठक या श्रोता का मन कवि के भाव में लीन हो जाता है। कवि के हृदय का भाव पाठक या श्रोता के हृदय का भाव बन जाता है। जिस कवि में अपने हृदय के भाव को यथार्थ रूप में पाठक या श्रोता के हृदय में पहुँचाने की जितनी अधिक प्रतिभा होती है, उसकी कविता उतनी ही अधिक प्रभाव तथा रसमग्न करने वाली होती है। ऐसे ही कवियों की कविता का सदैव आदर होता है। [2009]

प्रश्न
1. उपर्यक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
2. उपर्युक्त गद्यांश का भावार्थ अपने शब्दों में लिखिए।
3. कैसे कवियों की कविता का सदैव आदर होता है?
उत्तर-
1. शीर्षक-‘सर्वोत्तम कविता’।
2. सारांश-सबसे अधिक प्रभावशाली कविता वह है जिसे सुनने अथवा पढ़ने मात्र से उसके सुनने अथवा पढ़ने वाले के मन पर गहरा असर पड़े। उस कविता में व्यक्त किये गये कवि के मन के भाव श्रोता को स्वयं के ही मन के भाव प्रतीत हों। वास्तव में, जिस कवि में अपनी बात अथवा भाव को कविता के माध्यम से सम्प्रेषित करने का अद्भुत कौशल होता है,वह कवि महान बन जाता है और उसकी रचनाओं को लोग लम्बे समय तक आदर के साथ याद रखते हैं।
3. जिस कवि में अपने हृदय के भाव को यथार्थ रूप में पाठक या श्रोता के हृदय में पहुँचाने की जितनी अधिक प्रतिभा होती है, उसकी कविता उतनी ही अधिक प्रभाव तथा रसमग्न करने वाली होती है। ऐसे ही कवियों की कविता का सदैव आदर होता है।

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15. ज्ञान राशि के संचित कोष का ही नाम साहित्य है। प्रत्येक भाषा का अपना साहित्य होता है। जिस भाषा का अपना साहित्य नहीं होता है, वह रूपवती भिखारिणी के समान कदापि आदरणीय नहीं हो सकती। भाषा की शोभा, उसकी श्री सम्पन्नता उसके साहित्य पर ही निर्भर करती है। साहित्य में जो शक्ति छिपी रहती है वह तोप, तलवार और बम के गोलों में भी नहीं पायी जाती। साहित्य सर्वशक्तिमान होता है। अत: सक्षम होकर भी जो व्यक्ति ऐसे साहित्य की सेवा और अभिवृद्धि नहीं करता वह आत्महन्ता, समाजद्रोही और देशद्रोही है। साहित्य समाज का सर्वोत्तम फल है। इसका निर्माण और रसास्वादन करना हम सभी का परम दायित्व है। [2003, 04, 11]

प्रश्न
1. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
2. गद्यांश का सारांश लिखिए।
3. साहित्य किसे कहते हैं?
उत्तर-
1. उचित शीर्षक-साहित्य।
2. सारांश-वही भाषा सर्वोत्तम एवं आदर्श मानी जाती है, जिसका खुद का साहित्य होता है। तोप-तलवार तथा बम भी साहित्य की शक्ति के सामने तुच्छ हैं। साहित्य समाज का वह सर्वोत्तम मीठा फल है जिसका रसास्वादन जीवनदायक होता है। साहित्य में समाज के लिए संजीवनी व्याप्त होती है।
3. ज्ञानराशि के संचित कोष का नाम ही साहित्य है। साहित्य में सबका हित निहित है। समाज को सत्साहस से भरने की सर्वश्रेष्ठ अपराजेय शक्ति साहित्य में होती है।

16. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज से अलग उसके अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। परिचित तो बहुत होते हैं, पर मित्र बहुत कम हो पाते हैं, क्योंकि मैत्री एक ऐसा भाव है, जिसमें प्रेम के साथ समर्पण और त्याग की भावना मुख्य होती है। मैत्री में सबसे आवश्यक है-परस्पर विश्वास। मित्र एक ऐसा सखा, गुरु तथा माता है जो सबके स्थानों को पूर्ण करता है। [2007, 15]

प्रश्न
1. उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक लिखिए।
2. मनुष्य एक कैसा प्राणी है?
3. समाज से अलग किसके अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती?
4. मित्र किस-किस के स्थानों की पूर्ति करता है?
5. मित्रता के लिए किस बात की आवश्यकता होती है?
उत्तर-
1. शीर्षक ‘सच्चा मित्र’।
2. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।
3. समाज से अलग मनुष्य के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
4. एक सच्चा मित्र सखा, गुरु तथा माता,सभी के स्थानों की पूर्ति करता है।
5. मित्रता के लिए प्रेम के साथ-साथ समर्पण तथा त्याग की भावना की बहुत आवश्यकता होती है।

17. सफलता प्राप्ति का मूल मन्त्र है-अपने समय का सदुपयोग करना। सदुपयोग का अर्थ है-सही उपयोग। कार्य को समझ कर तुरन्त कार्य में लग जाना। जीवन में अनेक दबाव आते हैं, अनेक व्यस्तताएँ आती हैं। व्यस्तताओं से अधिक मन को आलस्य घेरता है। जो व्यक्ति व्यस्तताओं का बहाना बनाकर या आलस्य में घिरकर शुभ कार्यों को टाल देता है, उसकी सफलता भी टल जाती है। इसके विपरीत जो व्यक्ति सोच-समझकर योजनापूर्वक शुभ कार्यों की ओर निरन्तर कदम बढ़ाता चलता है, एक न एक दिन सफलता उसके चरण चूम लेती है। आज के काम को कल पर टालने की प्रवृत्ति सबसे घातक है। इस प्रवृत्ति के कारण मन में असन्तोष बना रहता है,अनेक कामों का बोझ बना रहता है और काम को टालने की ऐसी आदत बन जाती है कि शुभ कार्य करने की घड़ी आती ही नहीं। [2016]

प्रश्न
1. सफलता प्राप्ति का मूल मन्त्र क्या है?
2. मनुष्य की सफलता क्यों टल जाती है?
3. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
4. उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
उत्तर-
1. सफलता प्राप्ति का मूल मन्त्र है-अपने समय का सदुपयोग करना।
2. जो व्यक्ति व्यस्तताओं का बहाना बनाकर या आलस्य में घिरकर शुभ कार्यों को टाल देता है,उसकी सफलता भी टल जाती है।
3. शीर्षक ‘समय का सदुपयोग।
4. सारांश व्यक्ति के जीवन में समय का बहुत महत्व है। साथ ही, मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु कोई और नहीं उसका स्वयं का आलस्य है। यदि व्यक्ति आलस्य का त्याग करके अपने समय का सदुपयोग करता है तो उसकी सफलता सुनिश्चित है। अंग्रेजी की एक कहावत ‘DO IT NOW’ की तर्ज पर हमें भी आज के काम को आज ही निबटाने का प्रयास करना चाहिए। आलस्य के वशीभूत हो कार्यों को टालने की आदत अत्यन्त घातक है।

18. भारतीय संस्कृति में पर्यों का अत्यधिक महत्त्व है। पर्व किसी भी संस्कृति के वह अंग हैं, जिनके बिना वह संस्कृति अधूरी रह जाती है। पर्व हमें ऐसा अवकाश प्रदान करते हैं कि जब हम अपने जीवन के विषय में अच्छा सोच सकते हैं। जीवन प्रवाह को सही दिशा देने वाले पर्व ही होते हैं। जीवन व्यवहार की समस्त कटुताएँ भी पर्व के द्वारा ही समाप्त हो सकती हैं। पर्व जीवन में ऊर्जा उद्दीप्त करते हैं, रिश्तों में मधुर रस घोलते हैं,प्रेम और करुणा की सद्भावना जीवन में नियोजित करते हैं, ज्ञान, आचरण, विश्वास को परिमार्जित करने का प्रयास करते हैं अतः सभी धार्मिक, राष्ट्रीय पर्यों को उल्लास के साथ मर्यादा में रहकर मनाना चाहिए। [2017]

प्रश्न
1. उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक लिखिए।
2. जीवन प्रवाह को सही दिशा कौन देता है?
3. उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
उत्तर-
1. शीर्षक-‘पर्वो का महत्व।
2. जीवन प्रवाह को सही दिशा पर्व देते हैं।
3. सारांश-भारतीय संस्कृति में पर्वो को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। पर्व हमें जिन्दगी की भाग-दौड़ के बीच फुरसत के कुछ ऐसे पल प्रदान करते हैं जब हम रुककर अपने विषय में सोच सकते हैं। पर्व ही जीवन-प्रवाह को सही दिशा देते हैं। इनसे व्यवहार में अनायास प्रविष्ट हुई कटुताएँ समाप्त हो जाती हैं। ये जीवन में नई ऊर्जा, स्फूर्ति,प्रेम,करुणा और परस्पर सम्बन्धों के मध्य मधुरता का रस घोलते हैं। पर्व ही तो हैं जो जीवन में ज्ञान,धर्म,संस्कृति आचरण और विश्वास को संबल प्रदान करते हैं। अतः सभी को विभिन्न पर्वो को उल्लासपूर्वक सादगी के साथ मनाना चाहिए।

अभ्यासार्थ गद्यांश

1. विज्ञान के द्वारा जीवन में विशाल परिवर्तन हुए हैं, यद्यपि वे सभी मानव जाति के लिए कल्याणकारी सिद्ध नहीं हुए हैं, किन्तु उन परिवर्तनों में सबसे मुख्य और आशाप्रद परिवर्तन है वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास। विज्ञान के प्रभाव से मनुष्य वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रयोग करना भूल जाते हैं। केवल वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही मनुष्य जाति को कुछ आशा हो सकती है और उसके द्वारा ही क्लेशों का अन्त हो सकता है। संसार में परस्पर विरोधी शक्तियों के संघर्ष चल रहे हैं। उनका विश्लेषण किया जाता है और उन्हें भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है, लेकिन जो वास्तविक और प्रधान संघर्ष है, वह वैज्ञानिक और अवैज्ञानिक दृष्टिकोण का ही संघर्ष है।

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प्रश्न
1. उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
2. गद्यांश का सारांश लिखिए।
3. वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास किसकी देन है?
4. मनुष्य जाति को सर्वाधिक आशाएँ किससे हैं?

MP Board Class 12th Hindi Solutions

MP Board Class 12th Special Hindi अपठित पद्यांश

MP Board Class 12th Special Hindi अपठित पद्यांश

MP Board Class 12th Special Hindi अपठित पद्यांश

1. “तुम हो धरती के पुत्र न हिम्मत हारो,
श्रम की पूँजी से अपना काज सँवारो।
श्रम की सीपी में ही वैभव पलता है,
तब स्वाभिमान का दीप स्वयं ही जलता है।
मिट जाता है दैन्य स्वयं क्षण में,
छा जाती है नव दीप्ति धरा के कण में,
जागो, जागो श्रम से नाता तुम जोड़ो,
पथ चुनो काम का, आलस भाव तुम छोड़ो।”

MP Board Solutions

प्रश्न
1. प्रस्तुत पद्यांश का भाव स्पष्ट कीजिए।
2. प्रस्तुत पद्यांश का शीर्षक लिखिए।
3. कवि ने किस पूँजी से अपने बिगड़े कार्य सँवारने की बात कही है?
4. कवि ने किस भाव को त्यागने की बात कही है?
उत्तर-
1. कवि कहता है कि जिस प्रकार से सृष्टि में परिवर्तन होता है, उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में भी निरन्तर परिवर्तन होता है। अतः व्यक्ति को जीवन में निराश नहीं होना चाहिये। सदैव स्वाभिमान के साथ परिश्रम करते हुए उद्यम के मार्ग को ही अपनाना चाहिए। वास्तव में उद्यम ही सुख की निधि है। श्रम वैभव का प्रवेश द्वार है इसी के कारण स्वाभिमान की भावना जागृत होती है तथा निर्धनता समाप्त हो जाती है। मानव को प्रमाद त्यागकर श्रम करना चाहिए।
2. शीर्षक-‘श्रम की महत्ता’।
3. कवि ने परिश्रम की पूँजी से अपने बिगड़े कार्य सँवारने की बात कही है।
4. कवि ने आलस्य-भाव को त्यागने की बात कही है।

2. “प्राचीन हो या नवीन छोड़ो रूढ़ियाँ जो हों बुरी,
बनकर विवेकी तुम दिखाओ हँस जैसी चातुरी।
प्राचीन बातें ही भली हैं यह विचारो अलीक है,
जैसी अवस्था हो जहाँ, तैसी व्यवस्था ठीक है।
सर्वज्ञ एक अपूर्व युग का हो रहा संचार है,
देखो दिनों दिन बढ़ रहा विज्ञान का विस्तार है।
अब तो उठो क्यों पड़ रहे हो व्यर्थ सोच विचार में,
सुख दूर जीना भी कठिन है श्रम बिना संसार में।”

प्रश्न
1. इस पद्यांश का भाव स्पष्ट कीजिए।
2. इस पद्यांश का शीर्षक बताइये।
3. कवि ने किन्हें छोड़ने की बात की है?
4. सुख प्राप्त करने के लिए क्या आवश्यक है?
उत्तर-
1. हंस का नीर क्षीर विषय ज्ञान विश्व विख्यात है। कवि के मतानुसार मानव को प्राचीन अथवा नवीन रूढ़ियाँ जो उसकी उन्नति में बाधक हैं, उन्हें त्यागकर कल्याणकारी नीतियाँ ग्रहण करनी चाहिये तथा सड़ी-गली रूढ़ियों का मोह त्याग देना चाहिये।
2. शीर्षक प्रगतिशील दृष्टिकोण’।
3. कवि ने बुरी रूढ़ियों को छोड़ने की बात की है।
4. सुख प्राप्त करने के लिए कठिन परिश्रम आवश्यक है।

अभ्यासार्थ पद्यांश

“अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।
सरस तामरस गर्भ विभा पर-नाच रही तरु शिखा मनोहर
छिटका जीवन-हरियाली पर-मंगल कुंकुम-सारा
अरुण यह मधुमय देश हमारा।”

MP Board Solutions

प्रश्न
1. प्रस्तुत पद्यांश का भाव स्पष्ट कीजिए।
2. प्रस्तुत पद्यांश का शीर्षक लिखिए।
3. अपने देश को क्या कहा गया है?
4. देश के सौन्दर्य का वर्णन दो वाक्यों में कीजिए।

MP Board Class 12th Hindi Solutions

MP Board Class 12th Special Hindi निबन्ध-लेखन

MP Board Class 12th Special Hindi निबन्ध-लेखन

निबन्ध आधुनिक साहित्य की अत्यन्त लोकप्रिय गद्य – विधा है। अंग्रेजी में इसे ‘Essay’ कहते हैं,जो ‘एसाई’ शब्द से बना है। इस शब्द का अंग्रेजी में अर्थ होता है—अपने मन के भावों को व्यक्त करने का प्रयास करना। निबन्ध मन की एक शिथिल विचार तरंग है, जो असंगठित, अपूर्व और अव्यवस्थित होती है। इसे जब व्यवस्थित रूप में संगतिपूर्ण शब्दों के माध्यम से लिपिबद्ध किया जाता है, तब यह निबन्ध होता है। लेखक के मन की विशेष भाव – श्रृंखला की अभिव्यक्ति ही निबन्ध है। सभी व्यक्तित्व भिन्न – भिन्न प्रकृति के होते हैं और उनकी अपनी – अपनी शैली होती है। शैली में व्यक्तित्व की स्पष्ट झलक होती है। इसीलिए एक ही विषय पर लोग भिन्न – भिन्न प्रकार से विचार व्यक्त करते हैं। यही कारण है कि निबन्ध को हम सीमित नहीं कर सकते कि अमुक विषय पर बस इसी एक ही प्रकार से निबन्ध लिखा जाये। प्रत्येक छात्र की उस समय की मनोदशा, उसका अपना अनुभव, अपनी भाषा – शैली और व्यक्तित्व तथा शब्द – चयन निबन्ध में व्यक्त होता है। छात्र विशेष को शब्द – योजना और वाक्य – रचना का किस सीमा तक ज्ञान है, क्या वह मुहावरेदार भाषा का प्रयोग करता है या सरल भाषा का, यह सब उसके कौशल पर निर्भर करता है।

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निबन्ध विद्यार्थियों के भाषा – ज्ञान को परखने की कसौटी है। निबन्ध ही परीक्षा का वह प्रश्न है जिससे बालक की लेखन – शैली के कौशल का विास परखा जाता है। परीक्षक यह देखना चाहता है कि अपने ज्ञान को संयोजित कर छात्र किस प्रकार उसे सरस, व्यवस्थित प्रभावशाली भाषा – शैली में व्यक्त कर सकता है।

छात्रों को यह जानना अति आवश्यक है कि वे सीमित समय में सीमित शब्दों में अच्छा निबन्ध किस प्रकार लिखें।

हम अच्छा निबन्ध कैसे लिखें?
निबन्ध लिखने में मुख्य रूप से हमें विचार – समूह अर्थात् आधार – सामग्री पर ध्यान देना आवश्यक है और फिर भाषा – शैली तथा वाक्य – गठन भी भावानुकूल होना चाहिए।

निबन्ध लिखने से पहले हमें भली – भाँति विषय का सही चुनाव करना चाहिए। ऐसा विषय चुनना चाहिए जिसके बारे में भली – भाँति जानकारी हो। निबन्ध की भाषा रोचक होनी चाहिए। भाषा में प्रवाह और बोधगम्यता होनी चाहिए।

सबसे पहले हमें निबन्ध की रूपरेखा सुव्यवस्थित रोचक ढंग से तैयार कर लेनी चाहिए। रूपरेखा पूरी बन जाने के बाद उसके आधार पर निबन्ध लिखना चाहिए।

भाषा – लेखन में सतर्कतापूर्वक वर्तनी की अशुद्धियों पर विशेष ध्यान देकर शुद्ध लिखना चाहिए। विराम – चिह्नों का समुचित प्रयोग आवश्यक है। निबन्ध में आवश्यकतानुसार अनुच्छेद का परिवर्तन एक भाव या विचार समाप्त होने पर करना चाहिए। एक बिन्दु को एक अनुच्छेद में पूर्ण रूप से अभिव्यक्त करना चाहिए। निबन्ध के बीच – बीच में अपनी बात की पुष्टि के लिए या विचारों में दृढ़ता लाने के लिए प्रमाणस्वरूप यथास्थान विद्वानों के उद्धरण चाहे वे किसी भी भाषा में हों ज्यों के त्यों लिखना चाहिए। उद्धरण को अवतरण चिह्न “………..” के मध्य मूल भाषा में ही लिखना चाहिए। यदि मूल रूप से याद न हो तो विद्वानों के उन विचारों को अपनी भाषा में भी लिख सकते हैं,तब अवतरण चिह्न का प्रयोग न करें।

भाषा के प्रयोग में एक आवश्यक सावधानी रखें कि किसी भी शब्द या वाक्य की पुनरावृत्ति न हो, अन्यथा भाषा का लालित्य समाप्त होकर निबन्ध प्रभावशाली नहीं रह पायेगा।

निबन्ध के अंग –
ये मुख्य रूप से तीन होते हैं—
(1) प्रस्तावना,
(2) विषय – विस्तार और
(3) उपसंहार।

(1) प्रस्तावना – प्राय: छात्रों को यह दुविधा रहती है कि निबन्ध किस प्रकार प्रारम्भ करें। अतएव अच्छे आरम्भ के लिए कुछ बातें ध्यान में रखें क्योंकि यदि प्रारम्भ ही गलत दिशा में हो गया तो पूरे निबन्ध का ढाँचा बिगड़ जाता है।

प्रारम्भ यदि किसी विद्वान के उद्धरण से करें तो उचित होता है। प्रारम्भ में किस विषय पर आप निबन्ध लिख रहे हैं वह क्या है? उसकी परिभाषा या विषय का स्पष्टीकरण और उसके स्वरूप का विवेचन कर दें। उस समय विशेष का हमारे जीवन में, हमारे समाज में या वर्तमान सन्दर्भो में उसकी क्या समसामयिक उपयोगिता है? यह लिखें। फिर प्राचीनकाल में इस सम्बन्ध में क्या विचार थे या क्या स्थिति थी और उसमें क्यों और कैसे परिवर्तन आया? यह लिखें।

(2) विषय – विस्तार–प्रस्तावना की सृष्टि होने पर हम निबन्ध के विषय के जितने क्षेत्र और पक्ष हो सकते हैं,उनके आधार पर निबन्ध आगे बढ़ाते हैं। इसमें भी पुनरावृत्ति से बचना चाहिए। एक स्वतन्त्र बात या विचार को एक अनुच्छेद में रखें। विषय से सम्बन्धित जो भी बात हो, वह छूटने न पाये। विषय के बारे में जो भी जानकारी हो, वह व्यवस्थित रूप में लिखनी चाहिए। किसी भी विषय के बारे में उसके भूतकाल,वर्तमान स्वरूप और भविष्य की क्या रूपरेखा होगी, यह लिख देना चाहिए। उदाहरण के लिए विज्ञान के विषय में प्राचीनकाल में उसकी क्या स्थिति थी। वर्तमान समय में उसकी क्या गतिविधि है और जीवन को क्या लाभ है? यह लिखकर भविष्य की सम्भावनाएँ लिख देनी चाहिए। इस प्रकार आसानी से किसी भी विषय पर निबन्ध लिखा जा सकता है। भाषा – शैली रोचक होनी चाहिए। महापुरुषों के उद्धरण भी लिख देने चाहिए। उससे हमारी बात में दृढ़ता आ जाती है।

निबन्ध के मध्य में ही लेखक पाठक को अपने तर्क समझाने का प्रयत्न करता है। यही भाग निबन्ध का सबसे अधिक विस्तृत भाग होता है। प्रारम्भ से इस भाग का सम्बन्धित होना आवश्यक है और इसके सभी सिद्धान्त वाक्य अन्त की ओर उन्मुख होने चाहिए।

(3) उपसंहार – यह निबन्ध का अन्तिम भाग है। लेखक को यह भाग अति सावधानी से पूरा करना चाहिए। उपसंहार की सफलता पर ही निबन्ध की सफलता निर्भर करती है। भूमिका के समान ही उपसंहार का महत्व होता है। निबन्ध का उपसंहार आकर्षक और सारगर्भित होना चाहिए। हमें निबन्ध का अन्त वहाँ करना चाहिए,जहाँ विषय का विवेचन हमारी जिज्ञासा को पूरी तरह सन्तुष्ट कर दे। उपसंहार में जो कुछ हमने निबन्ध में लिखा है, उसका सारांश संक्षेप में एक अनुच्छेद में लिखना है।

निबन्ध के अन्तिम अंश में ऐसा न लगे कि निबन्ध अनायास समाप्त हो गया है। निबन्ध के समाप्त होने पर भी लेखक की विचारधारा का मूल भाव पाठक के मन में बार – बार आता रहे। वही सफल अन्त है, जिसमें पढ़ने वाले का ध्यान लेखक के तर्कपूर्ण संगत भावों की ओर आकर्षित हो जाये और वह विषय के गुण – दोष दोनों को जानकर अपना एक मत निश्चित कर सके। उक्त प्रकार से लिखा गया निबन्ध उत्कृष्ट होगा।

निबन्ध के प्रकार –

प्रमुख रूप से निबन्ध चार प्रकार के होते हैं –
(1) वर्णनात्मक,
(2) विवरणात्मक,
(3) विवेचनात्मक,
(4) आलोचनात्मक।

(1) वर्णनात्मक – वे निबन्ध जिनमें किसी देखी हुई वस्तु या दृश्य का वर्णन होता है उन्हें हम वर्णनात्मक निबन्ध कहते हैं; जैसे – यात्रा,पर्व, मेला, नदी,पर्वत, समुद्र, पशु – पक्षी,ग्राम,रेलवे स्टेशन आदि का वर्णन।
(2) विवरणात्मक – इसका अन्य नाम चरित्रात्मक भी है। इस प्रकार के निबन्धों में ऐतिहासिक घटनाओं, ऐतिहासिक यात्राओं तथा महान पुरुषों की जीवनियों एवं आत्मकथा आदि का वर्णन होता है।
(3) विवेचनात्मक – इसका अन्य नाम विचारात्मक भी है। इन निबन्धों में विचारों की प्रमुख रूप से प्रधानता होती है। इसीलिये इन्हें विचारात्मक या विवेचनात्मक निबन्ध कहते हैं। इस प्रकार के निबन्धों में भावनात्मक विषयों पर भी लेखनी चलाई जाती है। जैसे—करुणा,क्रोध, श्रद्धा – भक्ति, अहिंसा, सत्संगति, परोपकार आदि विषयों पर लिखे गये निबन्ध इस श्रेणी में आते हैं।
(4) आलोचनात्मक – इस प्रकार के निबन्धों के अन्तर्गत सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, धार्मिक एवं साहित्यिक समस्त प्रकार के निबन्ध आते हैं। इस प्रकार के निबन्धों में तर्क – वितर्क द्वारा पक्ष – विपक्ष को प्रस्तुत किया जाता है।

समसामयिक समस्याओं से सम्बन्धित निबन्ध में यथा आतंकवाद, महँगाई की समस्या, साम्प्रदायिकता, जनसंख्या विस्फोट,बेरोजगारी एवं आरक्षण आदि की समसामयिक समस्याएँ सम्मिलित हैं।

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1. राष्ट्र निर्माण में छात्रों का योगदान [2009]

“चाहे जो हो धर्म तुम्हारा, चाहे जो वादी हो।
नहीं जी रहे अगर देश हित, तो निश्चय ही अपराधी हो।”

विस्तृत रूपरेखा –
(1) प्रस्तावना,
(2) छात्रों का उचित निर्देशन आवश्यक,
(3) एकनिष्ठ भाव से अध्ययन,
(4) छात्र देश का अविभाज्य अंग,
(5) छात्र देश के भावी कर्णधार,
(6) देश के प्रति छात्रों के कर्त्तव्य,
(7) प्रस्तावना। [2014]

प्रस्तावना – राष्ट्र का वास्तविक अर्थ उस देश की भूमि नहीं वरन् देश की भूमि में रहने वाली जनता है। जनता की सुख – समृद्धि ही राष्ट्र की सच्ची प्रगति है। आज के विद्यार्थी कल देश के नागरिक होंगे। अतएव छात्र – जीवन में ही उनके मन में राष्ट्र के प्रति प्रेम की भावना यदि भर दी जाय तो वे राष्ट्र की उन्नति में सहायक होते हैं। जिस मातृभूमि की गोद में हमने जन्म लिया, जिसकी धरती से हमारा पालन – पोषण हुआ उस देश की सेवा,प्रगति में कुछ विशिष्ट लोगों का हाथ हो यह ठीक नहीं, वरन आज के छात्रों को भी इस प्रगति में पूर्ण सहयोग देना चाहिए। छात्रों को न केवल अपने अधिकारों के बारे में सचेत रहना चाहिए वरन् उन्हें अपने कर्तव्य के प्रति भी उतनी ही निष्ठा रखनी चाहिए।

छात्रों को उचित निर्देशन आवश्यक – किशोरावस्था तथा युवावस्था में आत्म – विवेक नहीं रहता और इसके अभाव में आत्म – नियन्त्रण,भी नहीं रहता। अतएव छात्रों को देश की प्रगति के बारे में बताना होगा। देश का प्रत्येक निवासी जो जिस स्थान पर है, जिस स्थिति में है वह वहीं रहकर देश की सेवा कर रहा है—किसान अपने खेतों और खलिहानों में, व्यापारी – व्यापार में, साहित्यकार सृजन में,डॉक्टर, वैद्य अस्पतालों में, सैनिक युद्ध के मोर्चे पर तथा विद्यार्थी अपने विद्यालयों में अध्ययन करके। जिस व्यक्ति का जो काम है वह उसे एकाग्रता से निष्ठापूर्वक करे तो देश की प्रगति होगी। इसके विपरीत यदि छात्र असफल राजनीतिज्ञों,छात्र नेताओं के गलत पथ – प्रदर्शन को अपना लेते हैं तो प्रगति के नाम पर पतन के रास्ते पर चल पड़ते हैं। अधिकारों के नाम पर हड़ताल, प्रदर्शन, सत्याग्रह, आन्दोलन, धरना, घिराव इन सब गतिविधियों में भाग लेकर वे अपना भी नुकसान करते हैं और यह सब राष्ट्र की प्रगति में बाधक है।

एकनिष्ठ भाव से अध्ययन – देश की प्रगति में छात्रों के योगदान का आशय है एकनिष्ठ भाव से विद्याध्ययन करना क्योंकि विद्या प्राप्ति के लिए एक अवस्था और एक समय निश्चित है। यदि इस अवस्था में एकनिष्ठता का अभाव रहा तो भावी जीवन के उद्देश्यों की पूर्ति सम्भव नहीं है। भावी जीवन की नींव ही यदि कमजोर हुई तो उस पर जो भवन खड़ा होगा वह सुदृढ़ और स्थायी नहीं रह पायेगा। वह केवल लड़खड़ाते हुए अपनी जिन्दगी काटेगा। यदि छात्र सम्पूर्ण तन्मयता से एक शिष्ट सुसंस्कृत सभ्य नागरिक बनने की तैयारी कर रहे हैं तो यही देश सेवा है। छात्र चाहे तो कुशल व्यवसायी, विद्वान् प्रवक्ता, सफल वकील,प्रसिद्ध डॉक्टर, निपुण कलाकार, कर्मठ शिल्पी कुछ भी बन सकता है और यही आज का छात्र कल का सभ्य नागरिक बनकर देश की प्रगति में सहायक होगा।

छात्र देश का अविभाज्य अंग – छात्र देश के कर्णधार हैं। समाज व्यक्ति से ही बनता है, वह बहुत – सी इकाइयों का समूह है और छात्र देश के अविभाज्य अंग हैं। छात्रों का प्रत्येक निष्ठापूर्वक किया हुआ कार्य देश को, देश के चरित्र को, देश के मान – सम्मान और गौरव को बढ़ाता है और इनके ही कृत्यों द्वारा देश बदनाम होता है, उसकी अवनति होती है। छात्रों की प्रत्येक गतिविधि की परछाईं देश के चरित्र में स्पष्ट झलकती है। हमारी प्रगति ही देश की प्रगति है, इस बात को भली प्रकार समझ लेना चाहिए।

छात्र देश के भावी कर्णधार छात्रों का स्वाध्याय, चिन्तन – मनन, उनके शिष्ट व्यवहार, मधर सम्भाषण यह सब देश की प्रगति का सचक है। छात्र और जनता अच्छी होगी तो देश अच्छा कहलायेगा, यदि छात्र अनुशासित होंगे तो देश अनुशासित कहलायेगा। ईमानदारी, सच्चाई और दूसरों के क्रिया – कलाप में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करना ही एक प्रगतिशील राष्ट्र की निशानी है। छात्र शान्त – चित्त और अनन्य श्रद्धा से शिक्षा ग्रहण करें यही देश की प्रगति में महत्त्वपूर्ण योगदान है क्योंकि ये ही देश के भावी कर्णधार हैं और देश को महान् बनाने के कर्म में लगे हुए हैं।

शिक्षण और स्वाध्याय से जो समय बचे उसका छात्रों को सदुपयोग करना चाहिए।

देश के प्रति छात्रों के कर्त्तव्य छात्र प्रौढ़ शिक्षा एवं साक्षरता आन्दोलन में भाग लेकर अशिक्षितों को शिक्षित बनाने का काम कर सकते हैं। सार्वजनिक रूप से गोष्ठियों, व्याख्यान मालाओं का आयोजन कर देश के चरित्र को ऊँचा उठाने में नैतिक मूल्यों की.मानवीयता की धर्मनिरपेक्षता की शिक्षा का प्रचार कर एकता का प्रयास कर सकते हैं। अकालग्रस्त या भूकम्प पीड़ित, ओलावृष्टि से प्रभावित क्षेत्रों के लिए टोलियाँ बनाकर धन – सामग्री एकत्रित कर उनकी सहायता कर सकते हैं। बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में जाकर डूबने वाले व्यक्तियों को बचा सकते हैं। स्वयंसेवी संस्थाओं का निर्माण भी कर सकते हैं जो दैवी विपत्ति के समय हरदम मदद को तैयार रहें। अवकाश के समय गाँवों में जाकर श्रमदान द्वारा सड़क निर्माण, कुओं की सफाई,परिसर की स्वच्छता के लिए प्रयास कर सकते हैं। कृषि की उन्नति में नवीन वैज्ञानिक साधनों की, उन्नत बीजों की,खाद,दवा की जानकारी दे सकते हैं। गाँव वालों को सौर ऊर्जा,उन्नत चूल्हे,धूम्ररहित चूल्हे, परिवार नियोजन, अल्प – बचत योजना तथा पोलियो आदि के टीकाकरण के सम्बन्ध में जानकारी दे सकते हैं। अन्ध – विश्वासों व रूढ़िवादिता से छुटकारा दिला सकते हैं।

इंजीनियरिंग तथा मेडीकल के छात्र भी ग्रीष्मावकाश में गाँवों जाकर सेवा – कार्य कर सकते हैं। देश की प्राचीन संस्कृति, सभ्यता, प्रजातन्त्र का महत्त्व, मतदान की गरिमा, नागरिक के अधिकार, कर्त्तव्य, ऋण – योजना एवं बीमा आदि के बारे में अन्य विषय के छात्र जानकारी दे सकते हैं।

उपसंहार – छात्र – जीवन विद्यार्थी की वह अवस्था होती है, जिसमें मनुष्य अटूट शक्ति – सम्पन्न होता है। उनमें कार्य सम्पादन की अभूतपूर्व क्षमता होती है,मन – मस्तिष्क तेज होते हैं। यदि उन्हें सही दिशा मिले और उनकी शक्ति का उचित मार्गान्तरीकरण हो तो वे देश की प्रगति में अत्यन्त लाभप्रद सिद्ध होंगे। भारतीय छात्र पूर्ण शक्ति और सामर्थ्य से देश को आगे बढ़ायें।

2. समय का सदुपयोग [2017]

“समय लाभ सम लाभ नहिं, समय चूक सम चूक।
चतुरन चिंत रहिमन लगी, समय चूक की हूक ॥”

विस्तृत रूपरेखा
(1) प्रस्तावना,
(2) समय जीवन सफलता का मापदण्ड,
(3) समय के सदुपयोग से लाभ,
(4) परिश्रम एवं तपस्या ही जीवन का मूल्यांकन है,
(5) उपसंहार।।

प्रस्तावना – नष्ट हुई सम्पत्ति और खोये हुए वैभव को पुनः प्राप्त करने के लिए मनुष्य निरन्तर मेहनत करता है। एक दिन उसे सफलता मिल जाती है। खोया हुआ स्वास्थ्य और नष्ट हुआ धन पुनः प्राप्त किया जा सकता है। किन्तु खोया हुआ क्षण फिर वापस नहीं आता। समय न तो मनुष्य की प्रतीक्षा करता है और न परवाह। समय का रथ तो तेजी से चल रहा है उसे कोई भी रोक नहीं सकता। इसीलिए कहा है :

क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थं च साधयेत्।
क्षणे नष्टे कुतो विद्या, कण नष्ट कुतो धनम्।

प्रत्येक क्षण में विद्या (ज्ञान) प्राप्त करो और कण – कण जोड़कर धन पाओ। क्षण भर का समय नष्ट हो जाय तो विद्या कहाँ और कण नष्ट हो जाय तो धन नहीं। तुलसीदास जी ने भी कहा है :

‘दिवस जात नहीं लागत बारा’

दिन जाते देर नहीं लगती,जो समय पर जाग नहीं सका,वही पीछे रह गया।
नदी बहती है, घड़ी चलती है, सूरज, चाँद तारे भी विश्राम नहीं करते तो हम क्यों आराम करें। समय को व्यर्थ न गँवायें उसका सदुपयोग करें।

काव्यशास्त्र विनोदेन काल: गच्छति धीमताम्
व्यसनेन च मूर्खाणां, निद्रया कलहेन वा

समय जीवन – सफलता का मापदण्ड – जीवन की सफलता का रहस्य समय के सही उपयोग में निहित है। संसार के सभी प्राणियों का समय पर समान रूप से अधिकार है। समय की उपयोगिता साधारण से साधारण व्यक्ति को भी महान् बनाती है। महापुरुषों के चरित्र से हमें प्रेरणा मिलती है,उन्होंने एक – एक क्षण का उपयोग किया तभी जीवन में उन्हें सफलता मिली। हमें प्रात: शीघ्र उठकर दिनभर के कार्यक्रम की रूपरेखा बना लेनी चाहिए और आज के कार्यों को आज ही सम्पन्न कर लेना चाहिए। जो व्यक्ति निश्चित उद्देश्य को सामने रखता है उसे अपना रास्ता स्पष्ट दिखायी देता है। वह उलझन में नहीं रहता और पूर्ण मनोयोग से उस कार्य की ओर बढ़ता है।

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समय के महत्त्व को समझने वाला दुःखी नहीं होता। समय के सदुपयोग का तात्पर्य है नियमित होना। जो अपनी दिनचर्या नियमित रखते हैं वे ही कुछ कर पाते हैं। समय से सोना, समय से उठना, भोजन, अध्ययन, भ्रमण, मनोरंजन, पूजन आदि का समय निश्चित करें। अपने बुजुर्गों के पास बैठे,उनकी सेवा करें। जो व्यक्ति काम टालने वाले होते हैं वे सदैव पछताते हैं।

कबीरदासजी ने कहा है :

काल करै सो आज कर, आज करै सो अब।
पल में परलय होयगी, बहुरि करैगो कब।।

समय के सदपयोग से लाभ – समय के सदपयोग से व्यक्ति की उन्नति होती है अतएव बचपन से ही हमें समय के मूल्य का ध्यान रखना चाहिए। शारीरिक स्वास्थ्य के लिए नियमित होना आवश्यक है और अपने मानसिक स्वास्थ्य के लिए हमें अपने खाली समय में स्वाध्याय हेतु अच्छे – अच्छे ग्रन्थों को पढ़ना चाहिए। अपने से अधिक बुद्धिमान लोगों से चर्चा करनी चाहिए। कभी किसी काम को देर से शुरू न करें,क्योंकि प्रारम्भ की देरी से बाद में भी विलम्ब हो जाता है और फिर उसके बाद के अन्य कामों की सब व्यवस्था अस्त – व्यस्त हो जाती है। पल के अंश में क्या हो जायेगा क्या पता। कहा गया है :

का जाने होइ है पल के चौथे भाग।
अतएव हर पल का उपयोग करें।

परिश्रम एवं तपस्या ही जीवन का मूल्यांकन है देश और समाज के प्रति भी हमारा कर्त्तव्य है। हमें सेवा, परोपकार हेतु भी समय निश्चित रखना चाहिए जिससे देश और समाज की भी उन्नति हो। वर्तमान में विज्ञान का युग होने से हमारी दैनिक जिन्दगी में समय की बचत होने लगी है। यात्रा,लेखन कार्य, भोजन सभी क्षेत्रों में समय बचने लगा है। घण्टों का काम मिनटों में सम्पन्न हो जाता है। समय का सदुपयोग करने वाला व्यक्ति सदैव प्रसन्न रहता है। उसे चिन्ता नहीं रहती कि उसका कोई काम अधूरा है। थोड़े समय में वह अधिकाधिक काम कर लेता है। जो लोग बेकार बैठे रहते हैं,वे समाज में परेशानी पैदा करते हैं,जैसे उन्हें यदि पैसों की जरूरत है तो वे काम न करके जेब काटेंगे या चोरी करेंगे। पर जिसके पास समय की कीमत है वह व्यर्थ की बातों में समय न गँवाकर काम करके पैसा कमाता है और अपनी आवश्यकता पूरी करता है।

ऐसे व्यक्ति का सभी आदर करते हैं। समय का सदुपयोग करने वाला व्यक्ति जीवन में उन्नति करता है क्योंकि परिश्रम और तपस्या से ही किसी व्यक्ति का मूल्यांकन किया जाता है कि वह अपना समय कैसे बिताता है। सत्पुरुष स्वयं सद्मार्ग पर चलकर दूसरों को भी समय बचाने की प्रेरणा देते हैं ताकि चूक जाने पर पछताना न पड़े।

भारत में जीवन के समय को चार भागों में बाँटा गया है और उस समय नियत कार्य ही समय का सदुपयोग है।

प्रथमे नार्जिते विद्या, द्वितीये नार्जिते धनं।
तृतीय नार्जिते पुण्यं, चतुर्थ किम करिष्यति?

अर्थात् जीवन के प्रथम भाग में यदि विद्याध्ययन न किया, द्वितीय भाग में धन नहीं कमाया और प्रौढ़ावस्था में परोपकार या पालन – पोषण कर पुण्य नहीं कमाया तो जीवन के अन्तिम चरण में क्या कर लोगे?

उपसंहार – हमें समय का सदुपयोग करना चाहिए तथा उन लोगों से बचना चाहिए जो समय के शत्रु हैं। आलस्य,स्वार्थीपन, बुरी संगति तथा दीर्घसूत्री (काम टालना) ये सब शत्रु हैं। इन्हें पास नहीं फटकने देना चाहिए।

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महारिपु।
आलसी व्यक्ति कल’ कहता है अतएव आज’ कहना प्रारम्भ करो। व्यर्थ की गपशप,घण्टों तक दुर्व्यसन,लड़ाई – झगड़ा या सोये रहना – ये सब समय का दुरुपयोग हैं। जब प्रकृति,पशु – पक्षी सब में समय की नियमितता है तो हम तो मनुष्य हैं। अत: आज से ही समय का सदुपयोग करें,यही सफलता की कुंजी है। सफलता का वास्तविक रहस्य समय के सदुपयोग में निहित है।

3. वनों का महत्त्व अथवा वन महोत्सव
अथवा
वृक्षारोपण या वन संरक्षण

“धरती का श्रृंगार वृक्ष, वृक्षों से इसे सजाओ।
हरियाली से चमक उठे जग, दस – दस वृक्ष लगाओ।”

विस्तृत रूपरेखा
(1) प्रस्तावना,
(2) प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति में वृक्षों की महत्ता,
(3) वृक्षों की उपासना का प्रचलन,
(4) वृक्ष धरती की उर्वरा शक्ति के परिचायक,
(5) वृक्षों से लाभ,
(6) उपसंहार।

प्रस्तावना – भारतवर्ष का मौसम और जलवायु विश्व में सर्वश्रेष्ठ है। इसकी प्राकृतिक रमणीयता और हरित वैभव विश्व – विख्यात है। विदेशी पर्यटक यहाँ की मनोहारी प्राकृतिक सुषमा देखकर मोहित हो जाते हैं।

प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति में वृक्षों की महत्ता हमारे देश की प्राचीन संस्कृति में वृक्षों की पूजा और आराधना की जाती है तथा उन्हें देवत्व की उपाधि दी जाती है। वृक्षों को प्रकृति ने मानव की मूल आवश्यकताओं से जोड़ा है। किसी ने कहा है – वृक्ष ही जल है,जल ही अन्न है और अन्न ही जीवन है। यदि वृक्ष न होते तो नदी और जलाशय न होते,वृक्षों की जड़ों के साथ वर्षा का अपार जल जमीन के भीतर पहुँचकर अक्षय भण्डार के रूप में एकत्र रहता है। वन हमारी सभ्यता और संस्कृति के रक्षक हैं। शान्ति और एकान्त की खोज में हमारे ऋषि – मुनि वनों में रहते थे। वहीं उन्होंने तत्त्व ज्ञान प्राप्त किया और वहीं विश्व कल्याण के उपाय सोचे। वहीं गुरुकुल होते थे, जिसमें भावी राजा, दार्शनिक, पण्डित आदि शिक्षा ग्रहण करते थे। आयुर्वेद के अनुसार पेड़ – पौधों की सहायता से मानव को स्वस्थ एवं दीर्घायु किया जा सकता है। तीव्र गति से जनसंख्या बढ़ने तथा राष्ट्रों के औद्योगिक विकास कार्यक्रमों के कारण पर्यावरण की समस्या गम्भीर हो रही है। प्राकृतिक साधनों के अधिकाधिक उपयोग से पर्यावरण बिगड़ता जा रहा है। वृक्षों की भारी तादाद में कटाई से जलवायु बदल रही है। ताप की मात्रा बढ़ती जा रही है,नदियों का जल दूषित हो रहा है,वायुमण्डल में कार्बन डाइ – ऑक्साइड गैस की मात्रा बढ़ रही है। इससे भावी पीढ़ी के स्वास्थ्य को खतरा है। जलवायु की नीरसता और शुष्कता को दूर करके पुनः प्राकृतिक सुरम्यता और रमणीयता लाने हेतु भारत सरकार ने 1950 में वन महोत्सव की योजना प्रारम्भ की। नये वृक्ष लगाये जाने लगे और वृक्षारोपण की एक क्रमबद्ध योजना प्रारम्भ हुई।

वृक्षों की उपासना का प्रचलन वृक्षों के महत्त्व एवं गौरव को समझते हुए हमारी प्राचीन परम्परा में इनकी आराधना पर बल दिया गया। पीपल के वृक्ष की पूजा करना,व्रत रखकर उसकी परिक्रमा करना,जल अर्पण करना और पीपल को काटना पाप करने के समान है,यह धारणा वृक्षों की सम्पत्ति की रक्षा का भाव प्रकट करती है। प्रत्येक हिन्दू घर के आँगन में तुलसी का पौधा अवश्य पाया जाता है। तुलसी पत्र का सेवन प्रसाद में आवश्यक माना गया है। बेल के वृक्ष,फल और बेलपत्र की महिमा इतनी है कि वे शिवजी पर चढ़ाये जाते हैं। ‘सर्वरोगहरो निम्बः’ यह नीम वृक्ष का महत्त्व है। कदम्ब वृक्ष को श्रीकृष्ण का प्रिय पेड़ बताया है तथा अशोक के वृक्ष शुभ और मंगलदायक हैं। इन वृक्षों की रक्षा हेतु कहते हैं कि हरे वृक्षों को काटना पाप है। सायंकाल किसी वृक्ष के पत्ते तोड़ना मना है—कहते हैं कि वृक्ष सो जाते हैं। जो व्यक्ति हरे वृक्ष को काटता है उसकी सन्तान मर जाती है। ये सब हैं हमारी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के प्रतीक जिसमें वृक्षों को ईश्वर स्वरूप,वन को सम्पदा और वृक्षों के काटने वालों को अपराधी कहा जाता है।

वृक्ष धरती की उर्वरा शक्ति के परिचायक – वृक्षों की अधिकता पृथ्वी की उपजाऊ शक्ति को भी बढ़ाती है। मरुस्थल को रोकने के लिए वृक्षारोपण की महती आवश्यकता है। भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ का जन – जीवन खेती पर निर्भर रहता है, खेती के लिए जल की आवश्यकता होती है। सिंचाई का उत्तम साधन बारिश का जल है। यदि वर्षा न हो तो नदी, जलाशय, झरने, ट्यूबवेल इत्यादि भी सूख जायें। इनके जल की पूर्ति भी वर्षा करती है। अनुकूल वर्षा होती है तो हम उसे ईश्वर की कृपा समझकर प्रसन्न होते हैं और तृप्ति का अनुभव करते हैं।

वृक्ष वर्षा के पानी को सोखकर धरती के भीतर पहुँचा देते हैं। इसी से धरती उपजाऊ होती है।

वृक्षों से लाभ – वृक्षों से स्वास्थ्य लाभ होता है क्योंकि मनुष्य की श्वास प्रक्रिया से जो दूषित हवा बाहर निकलती है, वृक्ष उन्हें ग्रहण कर हमें बदले में स्वच्छ हवा देते हैं। आँखों की थकान दूर करने और तनाव से छुटकारा पाने के लिए विस्तृत वनों की हरियाली हमें शान्ति प्रदान कर आँखों की ज्योति को बढ़ाती है। वृक्ष बालक से लेकर बुजुर्गों तक सभी के मन को भाते हैं। इसीलिए हम अपने घरों में छोटे – छोटे पेड़ – पौधे लगाते हैं। वृक्षों पर अनेक प्रकार के पक्षी अपना घोंसला बनाकर रहते हैं और उनकी कल – कल मधुर ध्वनि पर्यावरण में मधुरता घोलती है। वृक्षों से अनेक प्रकार के स्वाद के फल हमारे भोजन को रसमय और स्वादिष्ट बनाते हैं। इनकी छाल और जड़ों से दवाइयाँ बनती हैं। अनेक पशु वृक्षों से अपना आहार ग्रहण करते हैं।

वृक्षों से मानव को अनेक लाभ हैं – ये वर्षा कराने में सहायक होते हैं। वृक्षों के अभाव में वर्षा नहीं होती और वर्षा के अभाव में अन्न का उत्पादन नहीं हो पाता। ग्रीष्मकाल में वृक्ष हमें सुखद छाया और मन्द पवन देते हैं। सूखे वृक्ष ईंधन के काम आते हैं। गृह निर्माण,गृह सज्जा, फर्नीचर,काष्ठ शिल्प के लिए हमें वृक्षों से ही लकड़ी मिलती है। कागज, गोंद आदि भी वृक्ष से कच्चा माल ग्रहण करके बनते हैं। कई सुगन्ध, तेल,खाद्य सामग्री में सुगन्ध ये सब भी वृक्षों से प्राप्त होते हैं। आँवला – चमेली का तेल, गुलाब,केवड़े का इत्र,जल,खस की खुशबू ये सभी वृक्षों और उनकी जड़ों से बनते हैं।

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उपसंहार – वृक्षों से हमें नैतिकता, परोपकार और विनम्रता की शिक्षा मिलती है। फल को स्वयं वृक्ष नहीं खाता। वह जितना अधिक फल – फूलों से लदा होगा उतना ही झुका हुआ रहता है। हम जब देखते हैं कि सूखा कटा हुआ पेड़ भी कुछ दिनों में हरा – भरा हो जाता है जो जीवन में आशा का संचार कर धैर्य और साहस का भाव जगाता है। हमें अधिक से अधिक वृक्षारोपण करना चाहिए। वृक्षारोपण करके ही हम अपनी भावी पीढ़ी के लिए जीवनदायी वातावरण सृजित कर सकते हैं।

4. पुस्तकालय

“ज्ञान का भंडार संचित, ज्ञान का प्रसाद पाओ।
पुस्तकालय ज्ञान राशि है, आकर ज्ञान बढ़ाओ॥

विस्तृत रूपरेखा –
(1) प्रस्तावना,
(2) पुस्तकालय का आशय,
(3) मानसिक स्वास्थ्य की पृष्ठभूमि,
(4) पुस्तकालय के प्रकार,
(5) सार्वजनिक पुस्तकालय,
(6) उपसंहार।

प्रस्तावना – पुस्तकें हमारी उत्कृष्ट पथ – प्रदर्शक हैं। हम अकेले में इनसे बातें कर सकते हैं, समय का सदुपयोग कर सकते हैं। महान् आत्माओं के दर्शन कर सकते हैं।

जिज्ञासा,कौतूहल,नित नवीन ज्ञान की प्राप्ति ये मानव स्वभाव के अंग हैं एवं उसकी मूल प्रवृत्ति हैं और पुस्तकें सर्वश्रेष्ठ साधन हैं। छात्र अपनी पाठ्य – पुस्तकों के माध्यम से अपनी सभी जिज्ञासाओं को पूरी नहीं कर पाते, अतएव वे अन्य पुस्तकों को भी पढ़ना चाहते हैं और प्रत्येक व्यक्ति इतना सम्पन्न नहीं होता कि सभी किताबें खरीद सके, अतएव पुस्तकालय का प्रचलन हुआ।

पुस्तकालय का आशय – पुस्तकालय दो शब्दों से मिलकर बना है – पुस्तक+ आलय। इसका तात्पर्य है – वह स्थान या भवन है जहाँ पुस्तकों का संग्रह होता है। पुस्तकों का घर पुस्तकालय है। पुस्तकालयों में अनेक विद्याओं एवं विषयों की किताबें रहती हैं। साहित्य, धर्म, राजनीति, इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र,कानून शिक्षा, दर्शन, विज्ञान की पुस्तकें और साहित्यकोष, ज्ञानकोष,शब्दकोष रहते हैं।

मानसिक स्वास्थ्य की पृष्ठभूमि – शारीरिक स्वास्थ्य के लिए जिस प्रकार मनुष्य को पौष्टिक भोजन की जरूरत होती है उसी प्रकार नवीन ज्ञान की प्राप्ति के लिए नयी पुस्तकें अपेक्षित हैं। ये सब हमारे मानसिक स्वास्थ्य के लिए जरूरी हैं। अपने मस्तिष्क को सक्रिय रखने के लिए उसे शुद्ध ज्ञान की खुराक देते रहना चाहिए। इस ज्ञान की उपासना के दो स्थान हैं – एक विद्यालय दूसरा पुस्तकालय। पुस्तकालय में हम ज्ञान के व्यापक क्षेत्र का रसास्वादन कर सकते हैं। यहाँ सभी की रुचि के एवं सभी प्रकार के ग्रन्थ सरलता से मिल जाते हैं। यहाँ के शान्त वातावरण में हम अपने जीवन की अशान्ति और संघर्ष से छुटकारा पा सकते हैं। प्रायः पुस्तकालयों के साथ वाचनालय भी होते हैं। जहाँ प्रत्येक व्यक्ति अपनी – अपनी पसन्द की पुस्तक निकालकर पढ़ सकते हैं और उसमें से आवश्यक महत्त्वपूर्ण नोट भी बना सकते हैं।

पुस्तकालय के प्रकार – पुस्तकालय अनेक प्रकार के हो सकते हैं। हमारी शाला. महाविद्यालय या विश्वविद्यालय के पुस्तकालयों में छात्रों की रुचि की, उनको प्रेरणा देने वाली तथा उनके अध्ययन विषयों में सहायता कर उनके ज्ञान को परिपक्व बनाने में सहायक पुस्तकें होती हैं। इनका कार्य – क्षेत्र सीमित होता है। केवल छात्र और अध्यापक ही इसका लाभ ले पाते हैं। इन पुस्तकालयों का महत्त्व सर्वोपरि है क्योंकि ये छात्रों की ज्ञान वृद्धि में सहायक होते हैं। वे छात्र जो पुस्तकें खरीदने की क्षमता नहीं रखते या वे जो ज्ञान के भण्डार को और बढ़ाना चाहते हैं, एवं एक विषय के लिए अनेक पुस्तकों में अध्ययन करते हैं, उनके लिए ये संस्थागत पुस्तकालय अमूल्य सेवा देकर छात्रों को शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ने का अवसर देते हैं।

दूसरे प्रकार के पुस्तकालय वे होते हैं जो व्यक्तिगत कहलाते हैं। अनेक विद्यानुरागी विद्वान् जो धन की दृष्टि से सक्षम हैं वे भी चुन – चुनकर अनेक विषयों की एवं अनेक प्रकार की पुस्तकें स्वयं खरीद कर उनका संग्रह करके एक यादगार पुस्तकालय बनाते हैं। इनमें प्राचीन और नवीन सभी प्रकार की पुस्तकें होती हैं। उनके निकटतम मित्र व सम्बन्धी इसका लाभ उठा सकते हैं। प्रत्येक वह व्यक्ति जिसे नये ज्ञान के प्रति कौतूहल हो वह अपनी रुचि एवं अपनी क्षमता के अनुसार छोटा या बड़ा पुस्तकालय अपने घर पर अपनी अलमारी में बना सकते हैं। विद्या प्रेमी व्यक्तियों की यही सम्पदा है।

कई शासकीय पुस्तकालय भी होते हैं जो भव्य एवं विशाल भवनों में स्थित होते हैं। यहाँ धन की कमी न होने से बड़े से बड़े दुर्लभ ग्रन्थों का रख – रखाव प्रशिक्षित एवं विद्वान पुस्तकालयाध्यक्षों की देख – रेख में होता है। इन पुस्तकालयों की व्यवस्था सरकार करती है और यहाँ की व्यवस्था बनाये रखने के लिए अनेक कर्मचारी तैनात रहते हैं, पर ये पुस्तकालय जन – साधारण की पहुँच से बाहर होते हैं। इनमें प्रवेश के और पुस्तक प्राप्त करने के कठिन नियमों के कारण ये केवल विशेष वर्ग के उपयोग हेतु सीमित रहते हैं।

सार्वजनिक पुस्तकालय सार्वजनिक पुस्तकालय अत्यधिक लोकप्रिय एवं लाभप्रद हैं। ये सार्वजनिक धन से बनाये जाते हैं। सार्वजनिक पुस्तकालयों की पुस्तकें सभी लोगों की रुचि को ध्यान में रखकर संग्रहीत की जाती हैं। ये सम्पूर्ण समाज को लाभ पहुँचाती हैं। छोटा बड़ा कोई भी व्यक्ति यहाँ से मनपसन्द पुस्तक निकलवाकर पढ़ सकता है। कुछ शुल्क नियत होता है जिससे हम इन पुस्तकालयों की सदस्यता ग्रहण कर सकते हैं और फिर कोई भी पाठक इन पुस्तकों को निश्चित सीमावधि के लिए घर ले जाकर सपरिवार पढ़ सकते हैं। ऐसे पुस्तकालयों में जो सार्वजनिक वाचनालय होता है वहाँ अनेक प्रकार की पत्र – पत्रिकाएँ और दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, त्रैमासिक समाचार – पत्र भी मँगवाये जाते हैं जिन्हें कोई भी पढ़ सकता है और अपना ज्ञान बढ़ाने के साथ समाज,राज्य,राजनीति की दिन – प्रतिदिन घटित होने वाली समस्याओं से अवगत हो सकता है। कई बुजुर्ग लोग सुबह – शाम व्यर्थ का समय न गवाकर इन वाचनालयों एवं पुस्तकालयों में अपना समय बिताते हैं, वहाँ से बाहर निकलकर ज्ञान चर्चा करते हैं और उन्हें सत्संगति का समागम सुख भी प्राप्त होता है।

उपसंहार—यथार्थ में पुस्तकें मनुष्य की सच्ची सुख मित्र,पथ – प्रदर्शक और साथी हैं। अतः गाँव – गाँब में ऐसे पुस्तकालयों की स्थापना जरूरी है। इससे ग्रामवासियों में पढ़ने के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न होगी, उनका ज्ञान बढ़ेगा और इस प्रकार देश में योग्य और सक्षम लोगों की अधिकता स्वयमेव होगी जो देश के सुखद भविष्य का द्योतक होगी।

5. भारत की साम्प्रदायिक एकता
अथवा
राष्ट्रीय एकता (2009, 11)

“मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना।
हिन्दी हैं हम वतन हैं हिन्दोस्तां हमारा ॥”

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विस्तृत रूपरेखा ([2017] –
(1) प्रस्तावना,
(2) भारतवर्ष विस्तृत भूखंड है,
(3) अनेकता में एकता भारत की विशेषता,
(4) राष्ट्रीय हित सर्वोपरि,
(5) साम्प्रदायिक सद्भावना अपेक्षित,
(6) प्रान्तीयता की भावना राष्ट्रीय एकता में बाधक,
(7) सर्वधर्म समभाव अपेक्षित,
(8) साम्प्रदायिक एकता के निमित्त प्रयास,
(9) जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी,
(10) उपसंहार।]

प्रस्तावना – ‘भारत की साम्प्रदायिक एकता’ यहाँ के निवासियों की भावनात्मक प्रवृत्ति को स्पष्ट कर देती है जिसमें सबके एक होने (एकत्वभाव) का अर्थ समाहित है। अतः सम्पूर्ण देश के सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक,आर्थिक,सांस्कृतिक, भौगोलिक तथा साहित्यिक दृष्टि से एक होने का अभिप्राय व्यक्त होता है। साम्प्रदायिक एकता और राष्ट्रीयता में भारत राष्ट्र की अनेकता में एकता छिपी हुई है। उपर्युक्त दृष्टि से अनेकता से संयुक्त भारत एकता के सूत्र में बँधा हुआ है। बाहरी रूप से अनेकता (विविधता) लिए हुए भारतवर्ष वैचारिक दृष्टिकोण में एकता धारण किये हुए है। यही एकता में अनेकता और अनेकता में एकता भारत की प्रमुख विशेषता है।

भारतवर्ष विस्तृत भूखंड है – भारतवर्ष एक विशद भूखण्ड (उपमहाद्वीपीय) परिक्षेत्र में फैला हुआ राष्ट्र है जिससे अलगाववादी प्रवृत्तियाँ दूर हैं। यहाँ के निवासी हिन्दू, मुसलमान,ईसाई, पारसी तथा सिख सब बराबर हैं। वे अपने हित को राष्ट्र के हित से अलग नहीं मानते हैं।

अनेकता में एकता भारत की विशेषता भारतवर्ष के सामाजिक परिवेश में अनेक जातियाँ – उपजातियाँ, गोत्र – वर्ण आदि अनेकता लिए हुए होकर भी समाज को एकरूपता देते हैं। अनेक धर्म और सम्प्रदाय अपने अवान्तर भेदों से संयुक्त हैं। सांस्कृतिक रूप में उन सबका रहना – सहना, वेशभूषा, पूजा – पाठ आदि की विविधता ‘एकता’ लिए हुए है। राजनैतिक क्षेत्र में भी समाजवाद, साम्यवाद, गाँधीवाद आदि विविध विचारधाराएँ राष्ट्रवाद से अलग नहीं हैं। साहित्यिक क्षेत्र में भी प्राचीन और नवीन भाषा सम्बन्धी विविध शैलियाँ पल्लवित हैं लेकिन उन सबका ध्येय साहित्यिक समन्वय ही है। आर्थिक दृष्टिकोण भी अनेकता प्रधान है परन्तु उसमें भारत राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को सन्तुलित रखने का प्रयासमात्र है जो राष्ट्रीय एकता को स्थापित करता है। भौगोलिक दृष्टि से भी भारतवर्ष एक लघु विश्व है जिसमें प्राकृतिक विविधता के दर्शन होते हैं। ऋतु परिवर्तन की छटा, पहाड़ों और पठारों के ऊँचे – नीचे शिखर, कहीं बर्फ की चादर ओढ़े हुए और कहीं अपने नंगे प्रकृत स्वरूप में हमारी चेतना पर विपरीत प्रभाव डालती प्रकृति अपने मनोरम स्वरूप में सबको आकर्षित करती है। भारत वसुन्धरा विविध वस्तुओं (रत्नों) को अपने अन्तर में छिपाये हुए है जो भारतीय समृद्धि के एकत्व प्रधान स्वरूप को प्रकट करती है।

राष्ट्रीय हित सर्वोपरि राष्ट्रीय एकता को पल्लवित करने के लिए अलगाववादी प्रवृत्ति को दूर रखना चाहिए। सभी को यहाँ अपने – अपने सम्प्रदाय और धर्मों के प्रति अटूट आस्था रखने की अनुमति दी गई है। परन्तु राष्ट्रीय हित सर्वोपरि है जो साम्प्रदायिक और धार्मिक अवान्तरों के पालन से ऊपर है। सभी धर्मों का मूल एक है – उस असीम सत्ता की प्राप्ति। अतः राष्ट्रीय स्तर पर साम्प्रदायिक सामंजस्य कायम रखने के लिए धर्म – सहिष्णुता की भावना विकसित करना परमावश्यक है। भारत के अनेक राज्य मिलकर भारत को सबल स्वतन्त्र राजनैतिक इकाई के रूप में स्थिर करते हैं जिनका राजनीतिक और साम्प्रदायिक स्वरूप भारत राष्ट्र का अभिन्न अंग बनकर राष्ट्रीयता की मूल भावना को सुदृढ़ करता है।

साम्प्रदायिक सद्भावना अपेक्षित – साम्प्रदायिकता की भावना अपने सम्प्रदाय के विश्वासों और आस्था को पल्लवित करने की अनुमति देती है परन्तु उस भावना में अन्य सम्प्रदायों की अपेक्षा अधिक अधिकार की इच्छा करना अनुचित है। अपने विश्वासों और धार्मिक आस्थाओं का अविरोध पालन करना साम्प्रदायिकता नहीं है। परन्तु जब अपने विशेष धर्म अथवा सम्प्रदाय के सिद्धान्तों को बलपूर्वक किसी पर थोपना और अन्य धर्मावलम्बियों की सुविधा को अपनी सुविधा के लिए बाधित करना ही साम्प्रदायिकता है। इस तरह की भावना दूषित है और वह पृथकतावादी सिद्धान्त पर विकसित सम्प्रदाय कहा जायेगा जो घृणा के भाव को जन्म देकर राष्ट्र की एकता के विपरीत धारा बहाने में सहायक बनता है। आजादी से पूर्व हिन्दू और मुस्लिम के हीन साम्प्रदायिक सिद्धान्त पर द्विराष्ट्रीय भावना के कारण वृहत्तर भारत का विभाजन हुआ था। इस कारण लोगों को अनेक कष्ट भोगने पड़े।

धर्म एक ऐसा साधन है जिससे एकता की भावना विकसित होती है। साम्प्रदायिकता की दूषित भावना अलगाव को जन्म देती है। परन्तु प्रत्येक धर्म का मौलिक स्वरूप एक है। इस आधार पर लोगों में भेद होना अथवा विरोध होना उचित नहीं है। क्योंकि इस राष्ट्र के निवासी वहाँ की राष्ट्रीयता के अभिन्न अंग हैं। इस अभिन्नता से ही राष्ट्रहित प्राप्त किया जा सकता है।

प्रान्तीयता की भावना राष्ट्रीय एकता में बाधक – क्षेत्रीयता अथवा प्रान्तीयता की भावना भी राष्ट्र की एकता में बाधक है। इससे पृथक राज्य स्थापित करने की अलगाववादी भावना बल पकड़ जाती है। यह अलगाववादी क्षेत्रीयता उग्ररूप धारण करके आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देती है जिससे जनजीवन अस्तव्यस्त होने लग जाता है तथा भारत की राष्ट्रीय एकता के विकास के लिए एक बाधा उत्पन्न हो जाती है। भाषावाद से भी राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को भारी धक्का लगा है। भारत राष्ट्र की राष्ट्रभाषा हिन्दी है जिसे कुछ प्रान्तों के अलगाववादी तत्व स्वीकार नहीं करते। जातीय कट्टरवाद देश की राष्ट्रीय एकता को झकझोर रहा है।

सर्वधर्म समभाव अपेक्षित – वर्तमान परिस्थितियों में राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ रखने के लिए सभी लोगों में सर्वधर्म समभाव की भावना विकसित होनी चाहिए। व्यष्टिवादी दृष्टिकोण से हटकर समष्टि भाव अपनाना आवश्यक है जिससे सभी लोग धर्म, क्षेत्र, भाषा तथा जाति के संकुचित दायरे से ऊपर उठकर ‘राष्ट्र’ हित साधन में अपना सहयोग देंगे। भारतीय परिवेश में व्याप्त बाह्य विविधता सभी नागरिकों के अन्तर्मन की एकता को विकास देगी जिसके लिए शिक्षा के प्रसार की अत्यधिक आवश्यकता है। भारत की जनसंख्या का आधा भाग अशिक्षा के घोर अन्धकार में डूबा हुआ है। उस अन्धकार को दूर करने के प्रयास ही भारत की एकता को सुदृढ़ता प्रदान कर सकेंगे।

स्वार्थी राजनेताओं को अपने छलछदम त्यागने होंगे। उन्हें साम्प्रदायिक विद्वेष, घृणा फैलाने से बाज आना चाहिये। तभी भारतराष्ट्र की एकता सुदृढ़ रूप से पल्लवित हो सकेगी।

साम्प्रदायिक एकता के निमित्त प्रयास साम्प्रदायिक एकता के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए समय – समय पर राष्ट्रीय स्तर की समितियाँ गठित की गई हैं जो अपने सुझाव देती हैं कि राष्ट्रीय एकता बनाये रखने के लिए किन – किन उपायों को अपनाना चाहिए। ईश्वर की कृपा से इन विविधताओं के होते हुए भी सभी भारतीय राष्ट्रकों (नागरिकों) में एकता का अदृश सूत्र समाया हुआ है जो उन सबको एकता में बाँधे हुए है। विविधता में एकता ही हमारी शक्ति है। गाँधीजी के आन्दोलनों के समय भी हमने विदेशियों से अपनी एकता के आधार पर ही आजादी प्राप्त की थी। भारत माता के प्रति भक्ति की भावना हमें एक बनाये हुए है। क्योंकि – ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।’ हमारे लिए तो – सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ इत्यादि स्वर लहरियाँ उद्दाम देश – प्रेम को सभी के हृदयों में उड़ेल रहा है।

उपसंहार – अपने बालक – बालिकाओं में राष्ट्रीय चेतना की अनुभूति के लिए इतिहास और भूगोल का अध्ययन कराना होगा। धनवान और निर्धन के बीच की खाई पाटनी होगी। एक राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी का अध्ययन अनिवार्य रूप से करना होगा। तब ही सभी नागरिक सामान्य संस्कृति की अनुभूति कर सकेंगे। अपने सीमान्त प्रदेशों के प्रति सचेत रहना होगा तथा राष्ट्रीय भावना की पहचान बनाये रखने के प्रति हमें सावधान रहना होगा। हमें एक राष्ट्र के रूप में क्रियाशील होना चाहिए। यही एक भाव है राष्ट्रीय अखण्डता का, एकता का। “राष्ट्रीयता की यह वो हस्ती विकसित हो जो मिटाये मिटे नहीं।”

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6. आतंकवाद
अथवा
आतंकवाद : अन्तर्राष्ट्रीय समस्या [2009]
अथवा
‘आतंकवाद – एक विभीषिका
अथवा
आतंकवाद और राष्ट्रीय अखण्डता [2009]

“कराह उठी है मानवता, आतंकवाद हटाओ।
जहर है यह मानवता का, इसको दूर भगाओ।”

विस्तृत रूपरेखा
(1) प्रस्तावना,
(2) आतंकवाद का जाल विश्व स्तर पर,
(3) भारत एवं आतंकवाद,
(4) कश्मीर घाटी में भी आतंकवाद,
(5) पंजाब में आतंकवाद का कुचक्र,
(6) आतंकवाद का समाधान,
(7) उपसंहार।

प्रस्तावना – आतंकवाद से तात्पर्य अपनी स्वार्थपूर्ण कुत्सित इच्छाओं की पूर्ति हेतु हिंसा का सहारा लेना है। इन सभी कामों में असामाजिक तत्व सक्रिय रहते हैं और अपनी घृणित क्रियाओं से अमनप्रिय लोगों को भयभीत करके अपने स्वार्थों की पूर्ति करना ही उनका ध्येय होता है। इन सभी कामों को हिंसक क्रियाओं के माध्यम से अंजाम दिया जाता है।

आतंक के पथ पर कदम बढ़ाने वालों की हिंसा तथा बल प्रयोग पर आस्था होती है। इस प्रकार के बल प्रयोग को अन्य वर्ग – सम्प्रदाय व समुदाय को भयभीत करने तथा उन पर अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए किया करते हैं। इन आतंकवादियों के द्वारा अपने राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति की जाती है। हिंसक गतिविधियों से सरकार को गिराया जाता है तथा समग्र शासनतन्त्र को पंगु बना दिया जाता है। उन पर अपना आधिपत्य जमा लेने का प्रयास किया जाता है।

आतंकवाद का जाल विश्व – स्तर पर – आतंकवादी लोग आज लगभग विश्व के सभी देशों में अपनी आतंकवादी प्रक्रियाओं को अंजाम दे रहे हैं। ये लोग राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति कर लेते हैं; इसके लिए वे सार्वजनिक तौर पर हिंसा और हत्याओं का सहारा लेते हैं। यह आतंकवाद आज भौतिक रूप से समृद्ध और विकसित देशों में अपने विकराल स्वरूप को दिखा रहा है। ये आतंकवादी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर संगठित हो रहे हैं और यह आतंक अन्तर्राष्ट्रीय रूप को धारण करता जा रहा है; जो अब और अधिक प्रबल तथा सक्रिय हो गया है। विश्व के कुछ ऐसे भी देश हैं जो इन आतंकवादी गुटों को अकेला समर्थन ही नहीं, अपितु सहायता भी दे रहे हैं। इन आतंकियों की प्रक्रियाओं का स्वरूप निम्नलिखित रूप में देखा जा सकता है (1) राजनयिकों की हत्याएँ करना, (2) विमान अपहरण की क्रियाओं का सम्पादन, (3) रासायनिक हथियारों के प्रयोग से अत्यधिक जान – माल की हानि करना। देश में आतंकवादियों के पीछे विदेशियों का हाथ है। वे धन का प्रलोभन देकर हिंसा करवा रहे हैं।

भारत एवं आतंकवाद–भारत ने सन् 1947 ई. में 15 अगस्त को आजादी प्राप्त की। इसके पश्चात् भारत के विभिन्न हिस्सों में आतंकवादी गतिविधियों को इन आतंकी संगठनों ने अंजाम देना शुरू कर दिया। बड़े – बड़े सरकारी पदों पर तैनात अधिकारियों को इस आतंकवादी क्रियाओं का शिकार होना पड़ा। उन्हें मार डाला गया। इस भय से आतंकित लोगों ने अपने पदों से त्याग – पत्र दे दिया। आतंकवादी क्रियाओं (हिंसा आदि) की काली छाया भारत के पूर्वी राज्यों (नागा प्रदेश, मिजोरम,मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल और असम) में दिखाई देने लगी। असम में बोडो आतंकवाद अभी भी फैला हुआ है। उपर्युक्त शेष सभी राज्यों का आतंकवाद शान्त है। बंगाल के नक्सलवाड़ी से फैला आतंक बंगाल से बाहर भी खूब फैला। नक्सलवादी आतंक ने अपना अति भयावह रूप दिखाया। आज भी नक्सलवादी आतंक बिहार तथा आंध्र प्रदेश में अपने रौद्र स्वरूप को दिखा रहा है। उस समय के रेलमन्त्री ललित नारायण मिश्र को भाषण देते समय मार दिया गया तथा अन्य बहुत से राजनयिकों की निर्मम हत्या कर दी गई।

कश्मीर घाटी में भी आतंकवाद – यह राष्ट्रीय पर्वो – 15 अगस्त, 2 अक्टूबर तथा 26 जनवरी के अवसर पर भयंकर हत्याकाण्ड करके अपने परचम को लहरा रहा है। सन् 1990 में एच.एम.टी.के मुख्य प्रबन्धक एम. एल.खेड़ा की तथा कश्मीर विश्वविद्यालय के कुलपति श्री मुशीर – उल – हक की आतंकवादियों ने नृशंस हत्या कर दी। अब निरन्तर ही इन आतंकियों द्वारा निर्दोष लोगों की हत्या की जा रही है। उनके भय के कारण वहाँ के निवासी अपने घर – दुकान – कारखाने आदि सब को छोड़कर वहाँ से भाग निकले हैं।

पंजाब में आतंकवाद का कुचक्र – पंजाब के आतंकवाद ने तो भारत के प्रत्येक नागरिक को हतप्रभ कर दिया है। पंजाब के आतंकवाद में तो धर्म और राजनीति का गड्ड – मड स्वरूप दिखाई देने लगा। भाषायी आधार पर इन आतंकी संगठनों ने पंजाबी सूबे की माँग कर दी और अन्तत: 8 जून, 1966 को तत्कालीन पंजाब का विभाजन कर दिया गया तथा उसका हिन्दी भाषी हिस्सा ‘हरियाणा प्रदेश’ नाम से अलग कर दिया गया। साथ ही पंजाबीभाषी लोगों ने ‘सिख होमलैण्ड’ की माँग उठा दी। इस तरह इन पंजाबीभाषी लोगों ने अपनी माँगें और बढ़ा दीं। अप्रैल 1978 से लगातार – माइक की आवाज कम करने, धूम्रपान न करने, तम्बाकू का व्यापार मत करो – आदि के नारे लगाने के बहाने ये आतंकवादी निर्दोष लोगों की छटपुट हत्यायें करने लगे। इन आतंकियों ने भिखारी से लेकर धनवान लोगों तक अपने हाथ पसार दिये। सन् 1981 ई.में हिन्द – समाचार – पत्र समूह के स्वामी लाला जगतनारायण की हत्या कर डाली। विदेश में रहने वाले डॉ. जगजीतसिंह चौहान ने स्वयं को आतंकियों द्वारा प्रस्तावित ‘खालिस्तान’ राष्ट्र का राष्ट्रपति घोषित कर दिया और भारत सरकार पर स्वतन्त्र खालिस्तान की स्थापना करने के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया और उग्रवादियों ने हिंसा का सहारा लेना भी शुरू कर दिया। इस कुत्सित कार्य में सहायता देने वाले देश – इंग्लैण्ड, कनाडा, आस्ट्रेलिया, अमेरिका, चीन, नार्वे तथा पाकिस्तान थे। इन देशों से उन्हें धन व शस्त्रास्त्र प्राप्त होने लगे तथा स्वर्ण मन्दिर इन आतंकियों की गतिविधियों का केन्द्र बन गया।

भारत सरकार ने 4 जून, 1984 को स्वर्ण मन्दिर में सेना को प्रवेश करने के आदेश दे दिये। उग्रवादी तत्वों को नष्ट करने के लिए ‘ऑपरेशन ब्लू – स्टार’ चलाया गया। सैनिक कार्यवाहियों में अनेक आतंकवादी मारे गये और शेष को बन्दी बनाया गया। सरकार की इस कार्यवाही का स्वागत हुआ, लेकिन कुछ लोगों ने इस कार्यवाही को धार्मिक कार्य में हस्तक्षेप माना और अपनी तीखी प्रतिक्रिया की। उदार सिखों ने तथा धर्मनिरपेक्ष समाजसेवियों ने ‘कार – सेवा’ करके स्वर्ण मन्दिर की पवित्रता को बहाल किया। इन उग्रवादियों के विदेशी षड्यन्त्र के तहत 31 अक्टूबर, 1984 को तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी की उनके निवास पर ही उनके ही पहरेदार ने हत्या कर दी। 10 अगस्त, 1986 को भूतपूर्व सेनाध्यक्ष श्री अरुण श्रीधर वैद्य की हत्या कर दी। इसी तरह पंजाब के अनेक हिन्दू पंजाबी पत्रकारों को इन आतंकियों ने मार दिया। अभी भी वह आतंकवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। राजधानी दिल्ली के ग्रेटर कैलाश में जन्मदिन के समारोह में भाग लेते निर्दोष 14 लोगों को गोली से उड़ा दिया। रेलवे स्टेशनों,बस अड्डों पर आतंकी प्रभाव दिखाई पड़ा। 21 मई,1991 को भूतपूर्व प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी की निर्मम हत्या कर दी गई जिससे सारा संसार दहल गया। आतंकवाद को निम्न रूपों में देखा जा सकता है

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(1) एक विशेष वर्ग को अन्य लोगों के वर्ग से अलग कर देना और हिंसा द्वारा उनके मध्य व्याप्त मैत्री सम्बन्धों को खत्म कर देना।
(2) अत्यधिक हानि पहुँचाने के लिए ज्वलनशील बम आदि आग्नेयास्त्रों का प्रयोग करके लोगों में भय पैदा करना।
(3) हिंसक कार्यवाही करके प्रमुख व्यक्तियों का अपहरण, हत्या आदि करके अनिवार्य सेवाओं को प्रभावित करना।
(4) फिरौती आदि के रूप में उचित या अनुचित माँगें मनवाने की शर्ते रखना, वायुयानों का अपहरण कर लेना तथा बैंकों में डकैती आदि डालकर लोगों में विभीषिका पैदा करना।

आज कश्मीर घाटी इन आतंकियों की बन्दूकों की गोलियों और बम के गोलों के धमाकों से थरथर काँप उठी है। सेना और आतंकियों के मध्य अनेक झड़पें होती हैं और सैनिक वीरों की आहुतियों ने इस समग्र क्षेत्र को अत्यधिक संवेदनशील बना दिया है। 13 दिसम्बर, 2001 को भारतीय संसद पर किया गया हमला आतंकियों की बर्बरता का सुबूत है। अक्षरधाम मन्दिर सहित अनेक धार्मिक पवित्र स्थलों की पवित्रता को नष्ट किया है। परन्तु भारतीय राष्ट्रीय वीर सैनिकों ने इन आतंकियों को प्रत्येक बार मार – मारकर धूल चटा दी है।

आतंकवाद का समाधान – आतंकवाद की समस्या के समाधान के लिए कुछ सुझाव इस तरह प्रस्तुत हैं
(1) राजनैतिक दलों को अपनी पार्टी के लाभ की आशा में साम्प्रदायिक सौहार्द्र को नष्ट नहीं होने देना चाहिए।
(2) सीमा पार से प्रवेश करने वाले प्रशिक्षित आतंकवादियों को रोकना चाहिए।
(3) अलगाववादी दृष्टिकोण वाले युवकों को संविधान की सीमाओं के अन्तर्गत सुविधाएँ देकर राष्ट्रीय मुख्यधारा में मिलाये जाने के प्रयास करने चाहिए।

उपसंहार – आवश्यकता इस बात की है कि सरकार के साथ देश का प्रत्येक नागरिक आतंकवाद को कुचलने का बीड़ा उठायेगा तभी रामराज्य की कल्पना साकार होगी।

7. दूरदर्शन

“दूरदर्शन विज्ञान का अनुपम उपहार है,
विश्व चित्र सम्मुख आ जाते चित्रों का यह हार है।”

विस्तृत रूपरेखा [2016] –
(1) प्रस्तावना,
(2) विज्ञान की अपूर्व देन,
(3) दूरदर्शन का आविष्कार,
(4) भारतवर्ष में दूरदर्शन का प्रथम शुभारम्भ,
(5) दूरदर्शन से लाभ,
(6) विभिन्न वर्गों के लिए लाभप्रद,
(7) मनोरंजन का सुलभ साधन,
(8) भावात्मक एकता का पोषक,
(9) उपसंहार।।

प्रस्तावना दिवस के अवसान और सन्ध्या के समय सुबह से शाम तक थका हुआ मानव शारीरिक विश्राम के साथ मानसिक आराम भी चाहता है जिससे उसकी थकान मिट जाये और मन पुलकित हो उठे। इसके लिए वह जो भी उपाय अपनाता है उसे कहते हैं मनोरंजन। मानव सभ्यता के विकास के साथ – साथ मनोरंजन के साधनों में भी परिवर्तन हुए हैं। पहले कुछ दृश्य साधन थे, कुछ श्रव्य। या तो वह तस्वीरें देखता था या रेडियो, टेप सुनता। घर बैठे या लेटे – लेटे यदि मनोरंजन हो तो क्या बात है? प्राचीनकाल में धृतराष्ट्र अपने महल में बैठे – बैठे जैसे संजय द्वारा कुरुक्षेत्र के मैदान का आँखों देखा हाल सुनते थे वैसे ही दूरदर्शन के आविष्कार से हमें भी यह दृश्य – श्रव्य उपकरण लाभ पहुंचाता है।

विज्ञान की अपूर्व देन – दूरदर्शन विज्ञान का एक अनुपम उपहार है। इसने मानव जीवन में एक हलचल पैदा कर दी है और समाज को थोड़े ही समय में तीव्र गति से विकास की ओर अग्रसर किया है।

दूरदर्शन का आविष्कार – दूरदर्शन का आविष्कार सर्वप्रथम जॉन लागी बेअर्ड महोदय ने 1926 में किया था। ये स्कॉटलैण्ड के रहने वाले थे। इन्होंने टेली कैमरे का आविष्कार किया तथा इसका सफल प्रदर्शन कर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया। यह फोटो इलेक्ट्रिक सेल की सहायता से कार्य करता है। रेडियो तरंगों की भाँति ही प्रकाश को विद्युत तरंगों में रूपान्तरित कर दूर तक प्रसारित किया जाता है और रिसीविंग सेट उसे ग्रहण करके प्रकाश में चित्रों को परिवर्तित कर स्क्रीन या परदे पर उतार देता है। पहले ये दृश्य काले, सफेद हुआ करते थे। अब ये रंगीन दृश्य संसार में कहीं भी देखे जा सकते हैं। जीवन्त प्रसारण में तत्कालीन दृश्य ज्यों के त्यों प्रसारित किये जाते हैं।

भारतवर्ष में दूरदर्शन का प्रथम शुभारम्भ हमारे देश में दूरदर्शन का प्रथम प्रसारण 1958 में दिल्ली में हुआ। उस समय दिल्ली में औद्योगिक एवं विज्ञान प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। उस समय भारतीयों के लिए यह एक कौतुक भरी घटना थी। धीरे – धीरे इसका प्रचार – प्रसार होता गया। बाद में 1972 में मुम्बई में,1973 में कश्मीर में दूरदर्शन केन्द्रों की स्थापना हुई। मध्य प्रदेश में 1978 में छत्तीसगढ़ जिले में दूरदर्शन आया तथा उपग्रह द्वारा कार्यक्रमों का प्रसारण हुआ। उन दिनों अधिकांश कार्यक्रम शैक्षिक और ग्रामीण जीवन पर आधारित होते थे।

दूरदर्शन से लाभ – दूरदर्शन के अनेक लाभ हैं, मुख्यतः इसके कुछ उद्देश्य स्पष्ट हैं। सर्वप्रथम यह मनोरंजन का प्रमुख साधन है। इससे हमें ध्वनि, प्रकाश और फोटोग्राफी का चमत्कार देखने को मिलता है। दूरदर्शन की निरन्तर बढ़ती हुईलोकप्रियता का कारण यह है कि इसमें समाज के प्रत्येक वर्ग, आयु और व्यवसाय के अनुरूप अनेक कार्यक्रमों का प्रसारण होता है। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी रुचि और आवश्यकता होती है और दूरदर्शन ही एक ऐसा साधन है जो प्रातः से अर्द्धरात्रि तक अपने कार्यक्रमों के माध्यम से सभी की जरूरतें पूरी करता है। बच्चों, किशोर, प्रौढ़, बुजुर्ग और महिलाओं के लिए अलग – अलग कार्यक्रम हैं। इसी प्रकार भिन्न व्यवसाय एवं रुचि वाले लोगों की भी मनोरंजन – तृप्ति दूरदर्शन से ही होती है।

विभिन्न वर्गों के लिए लाभप्रद बच्चों के लिए कार्टून फिल्में, किशोरों के लिए प्रश्न – मंच आदि कार्यक्रम। छात्रों के लिए यू.जी.सी. तथा इन्दिरा गाँधी मुक्त विश्वविद्यालय के शैक्षिक कार्यक्रम, विज्ञान, इतिहास, राजनीति से सम्बन्धित कार्यक्रम। देश – विदेश में खेले जा रहे अनेक प्रकार की खेल प्रतियोगिताओं का जीवन्त प्रसारण। गीत, नृत्य या फिल्मी संगीत में रुचि रखने वालों के लिए कार्यक्रम। साहित्यिक रुचि वालों के लिए मुशायरा, कवि सम्मेलन, साहित्यकारों का परिचय – परिचर्चा का प्रसारण। महिलाओं की प्रगति एवं जागृति के अनेक कार्यक्रम। ग्रामीण से लेकर शहरी महिलाओं के लिए अनेकानेक प्रकार के हस्तशिल्प उद्योग – धन्धों की जानकारी। भोजन या विविध व्यंजनों को बनाने की विधियों पर आधारित कई कार्यक्रम, घरेलू दवाओं, नुस्खों का ज्ञान। बुजुर्गों के लिए धार्मिक सन्त महात्माओं के प्रवचन। आप घर बैठे सत्संग का लाभ उठा सकते हैं।

राजनीति में रुचि रखने वालों के लिए तो दूरदर्शन जीवन का एक आवश्यक अंग बन गया है। देश – विदेश की खबरें, चुनाव – चर्चा, सभी पार्टियों का आँकलन, क्रिया – कलाप और समस्त राजनैतिक व्यक्तियों की समग्र जानकारी हमें दूरदर्शन से प्राप्त होती है।

कहा जाता है कि केवल सुनकर बात हृदयंगम नहीं होती। यदि वह दिखायी दे तो सहजता से ग्रहण होती है। अतः छात्रों को यदि दूरदर्शन के माध्यम से शिक्षा दी जाय तो अधिक लाभ होगा। शासन यदि अधिक से अधिक शैक्षिक कार्यक्रमों का प्रसारण करे।

विभिन्न प्रकार की मौसम सम्बन्धी जानकारी हमें प्राप्त होती है। आँधी, तूफान, वर्षा, भूकम्प आदि से सम्बन्धित पूर्व सूचनाएँ हमें दूरदर्शन से मिलती हैं।

मनोरंजन का सुलभ साधन – यह मनोरंजन का सबसे सस्ता एवं सुविधाजनक उपकरण है। अफगान – अमेरिका का युद्ध हो या जापान की जीवन झाँकी, आस्ट्रेलिया का क्रिकेट मैच हो या ओलम्पिक.देश में गणतन्त्र दिवस की परेड हो या चुनाव की हलचल सभी कुछ दूरदर्शन पर देखना सुलभ हैं। दूरदर्शन में विज्ञापनों के माध्यम से हमें अनेकानेक नवीन उपकरणों और वस्तुओं के आविष्कार की जानकारी मिलती है। यह विज्ञान का सशक्त जरिया है। इससे व्यापार बढ़ाने के अवसर मिलते हैं।

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भावात्मक एकता का पोषक – दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों से सामाजिक सुधार को दिशा मिलती है। सभी धर्मों के त्यौहारों का सजीव दृश्य हम दूरदर्शन के माध्यम से देखकर जानकारी प्राप्त करते हैं.इससे भावनात्मक एकता सुदृढ़ होती है। कई कार्यक्रम तो इतने लोकप्रिय हुए कि सभी धर्म,जाति तथा उम्र के लोग उसे बड़े चाव से देखते थे; जैसे – रामायण, श्रीकृष्ण, महाभारत, टीपू सुल्तान आदि। इनके प्रसारण के समय शहर सुनसान हो जाता था। आज का किशोर दूरदर्शन के कार्यक्रमों को देखने में व्यस्त हो जाता है तो समाज में अपराध और लड़ाई – झगड़े कम होते हैं। किसी वस्तु को हम पूरी तरह से अच्छा या बुरा नहीं कह सकते। हम उसका उपयोग किस प्रकार करते हैं उस पर उसकी महत्ता निर्भर करती है। दूरदर्शन से जहाँ अनेक लाभ हैं वहाँ कुछ हानि भी हैं। किन्तु यदि छात्र यह बात ध्यान में रखें कि ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’। यानि हर समय दूरदर्शन के सामने न बैठे रहें,उससे आँखों पर तो बुरा प्रभाव पड़ता है,साथ ही समय भी नष्ट होता है और अनेक जरूरी काम रह जाते हैं। इसलिए वे अपनी रुचि और उपयोगिता के अनुसार कुछ कार्यक्रम पसन्द कर लें और केवल उन्हीं को देखें। विज्ञान तथा सामान्य ज्ञान के प्रश्न मंच तथा परिचर्चा देखें। शैक्षिक प्रसारण से लाभ लें।

उपसंहार – यदि दूरदर्शन पर स्वस्थ,शालीन कार्यक्रमों का प्रसारण हो तो ऐसे उपयोगी ज्ञानवर्द्धक सूचनाओं से गुणात्मक विकास होगा। विवेक और संयम से तथा अभिभावकों की अनुमति तथा सलाह से यदि छात्र दूरदर्शन का उपयोग करेंगे तो वह उनकी जीवन की प्रगति में सहायक होगा।

8. भारत में प्रजातन्त्र का भविष्य

विस्तृत रूपरेखा
(1) प्रस्तावना,
(2) प्राचीन शासन – व्यवस्था,
(3) प्रजातन्त्र का स्वरूप,
(4) भारत में प्रजातान्त्रिक शासन,
(5) प्रजातन्त्र के क्रियान्वयन की अपेक्षाएँ,
(6) उपसंहार।

प्रस्तावना – भारत की सभ्यता अत्यन्त प्राचीन एवं समृद्ध है। इसके इतिहास को पढ़ने से यह ज्ञात होता है कि यहाँ के शासनतन्त्र में अनेक उतार – चढ़ाव रहे हैं। लेकिन अधिकांशतः यहाँ राजतन्त्र शासन प्रणाली ही प्रचलित रही है। परन्तु प्राचीन भारत के राजा सार्वभौम शक्ति – सम्पन्न होते हुए भी निरंकुश और तानाशाह नहीं होते थे।

प्राचीन शासन – व्यवस्था – मध्यकाल के कुछ भारतीय राज्यों में गणतन्त्र शासन – व्यवस्था भी थी,जिन्हें हम नगर राज्य भी कह सकते हैं। लेकिन राजतन्त्र की विशाल शक्ति के समक्ष यह शासन – व्यवस्था अधिक टिक न सकी। राजाओं का कार्य विलासमय जीवन के अतिरिक्त कुछ न था। विदेशियों का शासन अत्यन्त क्रूर और अत्याचारी था। प्रजा इन अत्याचारों को सहन न कर सकी। उसने ऐसे शासकों का विरोध किया। परिणामस्वरूप राजा और प्रजा में संघर्ष प्रारम्भ हो गया। इसी का परिणाम प्रजातन्त्र के रूप में अवलोकनीय है।

प्रजातन्त्र का स्वरूप – प्रजातन्त्र की अनेक परिभाषाएँ विद्वानों ने दी हैं, पर प्रजातन्त्र का सीधा – सादा अर्थ किसी व्यक्ति विशेष का शासन न होकर प्रजा के शासन से है। इस शासन – तन्त्र में जनता के ही निर्वाचित प्रतिनिधियों का हाथ रहता है। प्रजातन्त्र के सम्बन्ध में जॉन स्टुअर्ट मिल का कथन है – “प्रजातन्त्र जनसाधारण को नागरिकता की शिक्षा प्रदान करता है। यह नागरिकता का शिक्षणार्थ सर्वश्रेष्ठ विद्यालय है।” प्रजातन्त्र की सबसे अधिक व्यवस्थित, स्पष्ट और लघु परिभाषा अमरीका के 16वें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने इस प्रकार की है – “प्रजातन्त्र एक ऐसा शासन है जो जनता के लिए,जनता द्वारा,जनता पर किया जाता है।”

भारत में प्रजातान्त्रिक शासन – भारत अपनी दीर्घकालीन पराधीनता के पश्चात 15 अगस्त, सन् 1947 को स्वतन्त्र हुआ। अनेक वर्षों तक उसे विदेशी शासकों की कठोर – यातनाएँ सहन करनी पड़ी। स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए भारत को कठोर संघर्ष करना पड़ा।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् हमने अपना संविधान बनाया,जो 26 जनवरी, 1950 से लागू किया गया। इस संविधान द्वारा भारत में जनता का शासन स्थापित किया गया।

प्रजातन्त्र की सफलता उस राष्ट्र में निवास करने वाले नागरिकों में निहित होती है। भारत विश्व का सबसे अधिक विलक्षण देश है। यहाँ अनेक धर्म, जातियाँ, संस्कृतियाँ, सम्प्रदाय और राजनीतिक दल हैं। इन सभी को सन्तुष्ट करना सम्भव नहीं हो सकता। इन सभी के बीच भारत के प्रजातन्त्र का स्वरूप अस्थिर हो गया। विघटनकारी तत्त्वों के नारों और भाषणों से यहाँ की जन – भावनाओं को विपरीत दिशा में मोड़ने का कार्य प्रारम्भ कर दिया है। लूट – खसोट,तोड़ – फोड़, घिराव,आन्दोलन,हड़ताल आदि का बोलबाला हो गया है। समस्त जनजीवन त्रस्त और भयभीत है। असुरक्षा और अव्यवस्था ने देश के प्रजातन्त्र की नींव को हिला दिया है। महँगाई, कालाबाजारी,जमाखोरी,तस्करी आदि कुप्रवृत्तियों से अर्थव्यवस्था का ढाँचा नष्ट हो रहा है। ऐसी विषम स्थिति में देश तथा लोकतन्त्र को बचाने का गुरुतर दायित्व हमारी नयी पीढ़ी पर है।

प्रजातन्त्र के क्रियान्वयन की अपेक्षाएँ – एक सफल प्रजातन्त्र के लिए कुछ आवश्यक शर्ते हैं जो प्रजातन्त्र के क्रियान्वयन के लिए आवश्यक हैं। उसके लिए सर्वप्रथम जनता का शिक्षित होना अनिवार्य है। शिक्षित जनता ही प्रजातन्त्र के उद्देश्य को समझ सकती है। इसके लिए शिक्षा का अधिकाधिक प्रसार होना चाहिए ताकि निर्वाचित व्यक्ति शासकीय गतिविधियों को भली – भाँति समझ सके और उनके अनुकूल आचरण कर सके तथा जनता भी योग्य व्यक्तियों का चुनाव कर सके।

निष्पक्ष मतदान प्रजातन्त्र के भविष्य के लिए अनिवार्य शर्त है। मतदान ही निर्वाचन का आधार होता है। आज भारत ही नहीं अपितु संसार में सबसे अधिक संख्या साधारण व्यक्तियों की है। ये व्यक्ति या तो कम पढ़े – लिखे हैं या बिल्कुल पढ़े – लिखे नहीं हैं। इनमें विचारशीलता का अभाव है। इनको किसी भी बहाने से फुसलाया जा सकता है। प्रायः धनवान व्यक्ति ऐसे व्यक्तियों से धनादि का लोभ देकर मत प्राप्त कर लेते हैं। इतना ही नहीं कहीं – कहीं तो निर्वाचन में गड़बड़ी,जाली और जबर्दस्ती मत डलवा कर भी लोग चुनाव जीत जाते हैं।

गरीबी, पिछड़ापन, अन्धविश्वास और जातिगत भावना भी प्रजातन्त्र में बाधक होती है। बहुत – से व्यक्ति जातीय आधार पर निर्वाचित कर लिये जाते हैं जबकि उनमें कोई योग्यता नहीं होती। राजनीति में गुण्डागर्दी का बोलबाला है, अतः अधिकांश व्यक्ति निर्वाचन में रुचि नहीं लेते हैं। वे केवल अपना कर्त्तव्य पूर्ण करने के लिए किसी न किसी बक्से में अपना मत डाल आते हैं। गरीब व्यक्ति को जब कोई प्रत्याशी मोटर में बिठाकर मत डालने ले जाता है तो वह उसी को मत डाल देता है। इससे योग्य व्यक्ति का चयन नहीं हो पाता। इसके लिए मताधिकार के नियमों में परिवर्तन की आवश्यकता है।

विरोधी दलों की संख्या अधिक होने से भी प्रजातन्त्र का सही क्रियान्वयन नहीं हो पाता। विरोधी दल अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति न होने पर सत्ताधारी दल की आलोचना करता है और अपने दल के सिद्धान्तों को सरकार पर थोपने के लिए अनुचित साधनों का प्रयोग करता है। इससे प्रजातन्त्र खतरे में पड़ जाता है। दूसरी ओर सत्ताधारी दल अपनी शक्ति के बल पर विपक्ष की उपेक्षा करता है और अपने स्वार्थ को वरीयता देकर प्रस्तावों को भी पारित करता है। इससे देश की सृजन शक्ति का क्षय होता है। अतः प्रजातन्त्र के लिए यह आवश्यक है कि सत्ताधारी दल प्रत्येक निर्णय पर विरोधी दलों के देशहित के सुझावों पर विचार करे और उचित होने पर उन्हें क्रियान्वित करे।

नागरिकता की भावना का विकास करना भी प्रजातन्त्र के भविष्य के लिए आवश्यक है। प्रत्येक भारतीय को सच्चा नागरिक बनाने के लिए उसे नागरिकता की शिक्षा देना आवश्यक है।

आज स्थिति यह है कि देश का नागरिक अपने व्यक्तिगत हित के लिए देश.समाज और जाति के हितों की उपेक्षा कर सकता है। इस अनर्थ से बचने के लिए प्रत्येक देशवासी को नागरिकता की शिक्षा देना आवश्यक है। अगर स्वतन्त्र होकर भी हमारे देशवासी सच्चे नागरिक नहीं बन पाये,तो प्रजातन्त्र की कल्पना स्वप्नवत् होगी।

राष्ट्रीय चरित्र का विकास भी प्रजातन्त्र का आधार है। किसी भी राष्ट्र की नींव उसके राष्ट्रवासियों के चरित्र पर आधारित है। जिस राष्ट्र के नागरिकों का चरित्र जितना उन्नत होगा उस देश का भविष्य उतना ही महान् होगा। प्रजातन्त्र के क्रियान्वयन में राष्ट्र के चरित्र की रक्षा आवश्यक है। चरित्र से नैतिकता का विकास होता है और नैतिकता प्रजातन्त्र की रक्षा कर उसे सफल बनाती है। राष्ट्रीय चरित्र ही राष्ट्र के गौरव में वृद्धि करता है। भारत आज अपने राष्ट्रीय चरित्र के नाम पर विश्व के समक्ष अपना मस्तक उठाये हुए है।

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हमारे देश में प्रजातन्त्र का भविष्य पूर्णरूपेण सुरक्षित है। वस्तुतः प्रजातान्त्रिक प्रणाली भारत के लिए सर्वथा उपयुक्त है। आज भारतीय प्रजातन्त्र जिस आदर्श को लेकर चल रहा है वह भारत के लिए नहीं अपितु विश्व की चिरस्थायी शान्ति और व्यवस्था का आदर्श है। भारत की पंचशील आदि विश्व शान्ति की नीतियों ने तृतीय विश्वयुद्ध की सम्भावनाओं को धूमिल बना दिया है।

उपसंहार – इस प्रकार भारत ने आज जिन विरोधी शक्तियों और परिस्थितियों के बीच प्रजातान्त्रिक प्रणाली की रक्षा करते हुए जो उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं उनसे स्पष्ट है कि भारत में प्रजातन्त्र का भविष्य उज्ज्वल है। भारत ने सामाजिक, आर्थिक, औद्योगिक, कृषि, चिकित्सा एवं विज्ञान आदि के क्षेत्र में जो प्रगति की है,वह इसके प्रजातन्त्र को सफलता का ज्वलन्त प्रमाण है। भारत ने संसार में प्रजातन्त्र का आदर्श रूप प्रस्तुत किया है, जो उसके स्वर्णिम भविष्य का प्रतीक है। अत: देश में जब प्रजातन्त्र का आदर्श स्वरूप स्थापित हो जाएगा तो भारत को हम नीति और आदर्श में पुनः जगद्गुरु की संज्ञा से विभूषित कर सकेंगे।

9. प्रदूषण : कारण और निदान [2009, 11]
अथवा
पर्यावरण प्रदूषण : समस्या और निदान [2013]

“साँस लेना भी अब मुश्किल हो गया है।
वातावरण इतना प्रदूषित हो गया है।”

विस्तृत रूपरेखा –
(1) प्रस्तावना,
(2) प्रदूषण के विभिन्न प्रकार,
(3) प्रदूषण की समस्या का समाधान,
(4) उपसंहार [2014]

प्रस्तावना – प्रदूषण का अर्थ – प्रदूषण पर्यावरण में फैलकर उसे प्रदूषित बनाता है और इसका प्रभाव हमारे स्वास्थ्य पर उल्टा पड़ता है। इसलिए हमारे आस – पास की बाहरी परिस्थितियाँ जिनमें वायु, जल, भोजन और सामाजिक परिस्थितियाँ आती हैं; वे हमारे ऊपर अपना प्रभाव डालती हैं। प्रदूषण एक अवांछनीय परिवर्तन है; जो वायु, जल, भोजन, स्थल के भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों पर विरोधी प्रभाव डालकर उनको मनुष्य व अन्य प्राणियों के लिए हानिकारक एवं अनुपयोगी बना डालता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जीवधारियों के समग्र विकास के लिए और जीवनक्रम को व्यवस्थित करने के लिए वातावरण को शुद्ध बनाये रखना परम आवश्यक है। इस शुद्ध और सन्तुलित वातावरण में उपर्युक्त घटकों की मात्रा निश्चित होनी चाहिए। अगर यह जल, वायु, भोजनादि तथा सामाजिक परिस्थितियाँ अपने असन्तुलित रूप में होती हैं; अथवा उनकी मात्रा कम या अधिक हो जाती है,तो वातावरण प्रदूषित हो जाता है तथा जीवधारियों के लिए किसी न किसी रूप में हानिकारक होता है। इसे ही प्रदूषण कहते हैं।

प्रदूषण के विभिन्न प्रकार – प्रदूषण निम्नलिखित रूप में अपना प्रभाव दिखाते हैं –

(1) वायु प्रदूषण – वायुमण्डल में गैस एक निश्चित अनुपात में मिश्रित होती है और जीवधारी अपनी क्रियाओं तथा साँस के द्वारा ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड का सन्तुलन बनाये रखते हैं। परन्तु आज मनुष्य अज्ञानवश आवश्यकता के नाम पर इन सभी गैसों के सन्तुलन को नष्ट कर रहा है। आवश्यकता दिखाकर वह वनों को काटता है जिससे वातावरण में ऑक्सीजन कम होती है, मिलों की चिमनियों के धुएँ से निकलने वाली कार्बन डाइ ऑक्साइड,क्लोराइड,सल्फर डाइ – ऑक्साइड आदि भिन्न – भिन्न गैसें वातावरण में बढ़ जाती हैं। वे विभिन्न प्रकार के प्रभाव मानव शरीर पर ही नहीं वस्त्र, धातुओं तथा इमारतों तक पर डालती हैं।

यह प्रदूषण फेफड़ों में कैंसर, अस्थमा तथा नाड़ीमण्डल के रोग, हृदय सम्बन्धी रोग, आँखों के रोग, एक्जिमा तथा मुहासे इत्यादि रोग फैलाता है।

(2) जल – प्रदूषण – जल के बिना कोई भी जीवधारी,पेड़ – पौधे जीवित नहीं रह सकते। इस जल में भिन्न – भिन्न खनिज तत्व, कार्बनिक और अकार्बनिक पदार्थ तथा गैसें घुली रहती हैं, जो एक विशेष अनुपात में होती हैं, तो वे सभी के लिए लाभकारी होती हैं। लेकिन जब इनकी मात्रा अनुपात से अधिक हो जाती है; तो जल प्रदूषित हो जाता है और हानिकारक बन जाता है। जल के प्रदूषण के कारण अनेक रोग पैदा करने वाले जीवाणु, वायरस, औद्योगिक संस्थानों से निकले पदार्थ, कार्बनिक पदार्थ, रासायनिक पदार्थ, खाद आदि हैं। सीवेज को जलाशय में डालकर उपस्थित जीवाणु कार्बनिक पदार्थों का ऑक्सीकरण करके ऑक्सीजन का उपयोग कर लेते हैं जिससे ऑक्सीजन की कमी हो जाती है और उन जलाशयों में मौजूद मछली आदि जीव मरने लगते हैं। ऐसे प्रदूषित जल से टॉयफाइड,पेचिस,पीलिया,मलेरिया इत्यादि अनेक रोग फैल जाते हैं। हमारे देश के अनेक शहरों को पेयजल निकटवर्ती नदियों से पहुँचाया जाता है और उसी नदी में आकर शहर के गन्दे नाले, कारखानों का बेकार पदार्थ, कचरा आदि डाला जाता है, जो पूर्णतः उन नदियों के जल को प्रदूषित बना देता है।

(3) रेडियोधर्मी प्रदूषण – परमाणु शक्ति उत्पादन केन्द्रों और परमाणु परीक्षणों से जल, वायु तथा पृथ्वी का सम्पूर्ण पर्यावरण प्रदूषित हो जाता है और वह वर्तमान पीढ़ी को ही नहीं, बल्कि भविष्य में आने वाली पीढ़ी के लिए भी हानिकारक सिद्ध हुआ है। इससे धातुएँ पिघल जाती हैं और वह वायु में फैलकर उसके झोंकों के साथ सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त हो जाते हैं तथा भिन्न – भिन्न रोगों से लोगों को ग्रसित बना देती हैं।

(4) ध्वनि प्रदूषण आज ध्वनि प्रदूषण से मनुष्य की सुनने की शक्ति कम हो रही है। उसकी नींद बाधित हो रही है, जिससे नाड़ी संस्थान सम्बन्धी और नींद न आने के रोग उत्पन्न हो रहे हैं। मोटरकार, बस,जैट – विमान, ट्रैक्टर, लाउडस्पीकर, बाजे, सायरन और मशीनें अपनी ध्वनि से सम्पूर्ण पर्यावरण को प्रदूषित बना रहे हैं। इससे छोटे – छोटे कीटाणु नष्ट हो रहे हैं और बहुत – से पदार्थों का प्राकृतिक स्वरूप भी नष्ट हो रहा है।

(5) रासायनिक प्रदूषण – आज कृषक अपनी कृषि की पैदावार बढ़ाने के लिए अनेक प्रकार के रासायनिक खादों का,कीटनाशक और रोगनाशक दवाइयों का प्रयोग कर रहा है, जिससे वर्षा के समय इन खेतों से बहकर आने वाला जल, नदियों और समुद्रों में पहुँचकर भिन्न – भिन्न जीवों के ऊपर घातक प्रभाव डालता है और उनके शारीरिक विकास पर भी इसका दुष्परिणाम पहुँच रहा है।

प्रदूषण की समस्या का समाधान – आज औद्योगीकरण ने इस प्रदूषण की समस्या को अति गम्भीर बना दिया है। इस औद्योगीकरण तथा जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न प्रदूषण को व्यक्तिगत और शासकीय दोनों ही स्तर पर रोकने के प्रयास आवश्यक हैं। भारत सरकार ने सन् 1974 ई. में जल प्रदूषण निवारण एवं नियन्त्रण अधिनियम लागू कर दिया है जिसके अन्तर्गत प्रदूषण को रोकने के लिए अनेक योजनाएँ बनायी गई हैं।

सबसे महत्त्वपूर्ण उपाय प्रदूषण को रोकने का ढूँढा गया है, वनों का संरक्षण। साथ ही,नये वनों का लगाया जाना तथा उनका विकास करना। जन – सामान्य में वृक्षारोपण की प्रेरणा दिया जाना, इत्यादि प्रदूषण की रोकथाम के सरकारी कदम हैं। इस बढ़ते हुए प्रदूषण के निवारण के लिए सभी लोगों में जागृति पैदा करना भी महत्त्वपूर्ण कदम है; जिससे जानकारी प्राप्त कर उस प्रदूषण को दूर करने के समन्वित प्रयास किये जा सकते हैं।

नगरों, कस्बों और गाँवों में स्वच्छता बनाये रखने के लिए सही प्रयास किये जायें। बढ़ती हुई आबादी के निवास के लिए समुचित और सुनियोजित भवन – निर्माण की योजना प्रस्तावित की जाय। प्राकृतिक संसाधनों का लाभकारी उपयोग करने तथा पर्यावरणीय विशुद्धता बनाये रखने के उपायों की जानकारी विद्यालयों में पाठ्यक्रम के माध्यम से शिक्षार्थियों को दिये जाने की व्यवस्था की जानी चाहिए।

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उपसंहार – इस प्रकार सरकारी और गैर – सरकारी संस्थाओं के द्वारा पर्यावरण की विशुद्धि के लिए समन्वित प्रयास किये जायेंगे, तो मानव – समाज (सर्वे सन्तु निरामया) वेद वाक्य की अवधारणा को विकसित करके सभी जीवमात्र के सुख – समृद्धि की कामना कर सकता है।

10. भारत में कृषि का महत्त्व

“कृषि प्रधान इस देश की, कृषि से ही पहचान है।
कृषि कर्म कर कृषक, देश की धरती का वरदान है।”

विस्तृत रूपरेखा –
(1) प्रस्तावना,
(2) कृषि आत्म – निर्भरता का आशय,
(3) देश में कृषि के पिछड़ेपन के कारण,
(4) कृषि विकास के प्रयास,
(5) हरित क्रान्ति के दुष्परिणाम,
(6) उपसंहार

प्रस्तावना – भारत एक कृषि प्रधान देश है। कृषि केवल जीविकोपार्जन का साधन ही नहीं अपितु देश की सभी गतिविधियों का केन्द्र – बिन्दु है। यह भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। इसका महत्त्व इसलिए अधिक है क्योंकि राष्ट्रीय आय का मुख्य स्रोत है। राष्ट्रीय आय में 50% कृषि का भाग है। 80% रोजगार प्राप्त करने का साधन है। अनेक उद्योग – धन्धों का मूलाधार है। देश की सौ करोड़ आबादी के लिए खाद्यान्नों की पूर्ति का साधन है। प्रति वर्ष 400 करोड़ रुपये की आमदनी भू – राजस्व एवं कृषि आय – कर के रूप में प्राप्त होती है। विदेशी व्यापार – आयात में महत्त्वपूर्ण घटक है। पशुपालन व्यवसाय में कृषि का अपूर्व योगदान है। सरकार के बजट पर महत्त्वपूर्ण प्रभावशाली,राजनैतिक स्थिरता और आर्थिक विकास में सहयोग अन्तर्राष्ट्रीय जगत में देश को महत्त्वपूर्ण स्थान दिलाने में सहायक है।

कृषि आत्म – निर्भरता का आशय – कृषि आत्म – निर्भरता का आशय एक ऐसी स्थिति से है जिसमें कोई देश अपने निवासियों के लिए पर्याप्त खाद्यान्न का उत्पादन करने में पूर्णतः सक्षम हो। स्वदेशी कृषि उद्योगों को कच्चा माल अन्य किसी देश से न मँगवाया जाये। कृषि अधिकांश लोगों की जीविका का साधन है। भारत में यह परम्परागत और पिछड़ी स्थिति में है जिसे अब मशीनीकृत के माध्यम से उन्नत बनाने का प्रयास किया जा रहा है।

देश में कृषि के पिछड़ेपन के कारण भारत में कृषि के पिछड़ेपन के अनेक कारण हैं। कृषि की वर्षा पर निर्भरता। सिंचाई के पर्याप्त साधन का नहीं होना। आधुनिक खाद – बीज, उपकरणों आदि के उपयोग का अभाव। कृषकों की ऋणग्रस्तता और पर्याप्त कृषि साख का उपलब्ध न होना। अविकसित कृषि – भूमि। कृषि के लिए भू – स्वामित्व एवं भू – धारण नियम विधान की कमियाँ। कृषि एवं ग्रामीण विकास हेतु पंचवर्षीय योजनाओं का लाभ पूरी तरह कृषकों तक न पहुँच पाना। लाभकारी एवं व्यावसायिक वस्तुओं का कम उत्पादन। विद्युत आपूर्ति की कमी। कृषि उपज से सम्बन्धित उद्योगों का अल्प – विकसित होना। कृषि उपज विपणन में बाधाएँ। जहाँ किसान मण्डी में अपनी उपज बेचने जाते हैं वहाँ उचित ढंग से मूल्य – निर्धारण न होने से भी किसानों को नुकसान होता है। किसानों का निरक्षर और अनपढ़ होना भी सबसे बड़ी कमी है। इन सभी दोषों को दूर करने के तथा कृषि के विकास एवं आधुनिकीकरण के प्रयास देश में काफी तेजी से किये जा रहे हैं।

कृषि विकास के प्रयास – कृषि विकास के लिए भारत में कुछ ठोस कदम उठाये गये हैं। सबसे पहले तो भू – स्वामित्व में सुधार के लिए भारत में जमींदारी – प्रथा समाप्त की गयी। चकबन्दी कार्यक्रम द्वारा भूमि – व्यवस्था में सुधार किया गया। सिंचाई के साधनों का विकास कर सिंचित भूमि के क्षेत्रफल में वृद्धि की गयी। खाद का उपभोग करके भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ायी गयी। उन्नत बीजों और उन्नत किस्म के आधुनिक कृषि उपकरणों का प्रयोग किया जाने लगा। भण्डारण की स्थिति में सुधार किया गया। विपणन सुविधाओं में वृद्धि तथा कृषि उपज को उचित मूल्य में बेचने की सुविधा के लिए मूल्य – निर्धारण पद्धति का आरम्भ किया गया। स्वाधीनता के बाद कृषि में आत्मनिर्भर होने के लिए भूमिहीन किसानों को भूमि का मालिक बनाया गया। पिछड़े और उपेक्षित वर्ग को इसका पर्याप्त लाभ मिला। अब किसान के पास अपनी भूमि होने से वह खाद – बीज तथा उर्वरकों का प्रयोग करने लगा। इस सबके कारण खेतिहर मजदूरों की मजदूरी बढ़ी। 1980 के बाद भारत खाद्यान्नों में आत्मनिर्भर तो हुआ ही वरन् दाल और तिलहन को छोड़कर खाद्यान्न निर्यात करने की स्थिति में भी सक्षम हो गया है।

हरित – क्रान्ति के दुष्परिणाम – इस हरित – क्रान्ति से लाभ तो हुआ पर उसके कुछ दुष्परिणाम भी हुए; जैसे—धनी किसान और अधिक धनवान हो गया, पर गरीब किसान निर्धन रह गया। कृषि में मशीनों के उपयोग से गाँव में बेरोजगारी बढ़ी। ग्रामीण नगर में आने लगे,वहाँ घनी आबादी के कारण आवास – आपूर्ति, प्रदूषण एवं पर्यावरण पर प्रभाव पड़ा। उत्पादन लागत तो बढ़ी पर किसान को उचित मूल्य नहीं मिला। इससे असन्तोष छा गया।

उपसंहार—समग्र रूपेण कृषि भारत देश के लिए वरदान है। देश का स्वर्णिम भविष्य खेतों तथा खलिहानों में मुस्करा रहा है। देश का किसान उन्नत तथा समृद्ध होगा तो निम्न तराना गजेगा

“सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।”

11. परोपकार [2017]
अथवा
परहित सरिस,धरम नहिं भाई [2009, 14]

“काँटा चुभा किसी के, तड़फे हम मीर
सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है।”

विस्तत रूपरेखा –
(1) प्रस्तावना.
(2) धर्म का व्यापक रूप
(3) परोपकार हेत आवश्यक तथ्य,
(4) प्रकृति का उदात्त स्वरूप,
(5) मानव एवं पशु में भेद,
(6) भारतीय संस्कृति का आदर्श,
(7) मानव जीवन का उद्देश्य,
(8) कष्ट सहन करने की क्षमता,
(9) परोपकार के अनेक रूप,
(10) उपसंहार।

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प्रस्तावना – दुनिया में हर इंसान सुख एवं शान्तिपूर्वक जीवन जीना चाहता है। लेकिन मानव शरीर प्राप्त करके उसका जीना ही सार्थक है जो परोपकार की भावना अपने मन – मानस में गहराई से छिपाए हुए हो। गोस्वामी तुलसीदास ने अपने पावन ग्रन्थ ‘रामचरित मानस’ में इसी सत्य का उल्लेख निम्नवत् किया है देखिए

“परहित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ॥”

इसका आशय यह है – सर्वोत्तम धर्म परोपकार है एवं सबसे बड़ा पाप दूसरों को पीड़ा पहुँचाना है। परहित के लिए खुद का बलिदान ही भारतीय संस्कृति का लक्ष्य एवं आदर्श है। धर्म का व्यापक रूप – धर्म को यदि हम व्यापक रूप में परिभाषित करें तो यह कर्म की परिधि में ही समाहित है। इस प्रकार जो वर्जित कार्य हैं वे अधर्म ठहराए गए हैं। इसके विपरीत जो करने योग्य कर्म हैं उन्हें धर्म स्वीकारा गया है। अतः हमारा यह दृढ़ नियम होना चाहिए कि जहाँ तक हो सकेगा हम परहित भावना से निरन्तर जुड़े रहें।

परोपकार हेतु आवश्यक तथ्य – परोपकार के लिए सबसे आवश्यक बात यह है कि मनुष्य को उदार मन होना चाहिए। स्वार्थ का नामोनिशान भी मन में नहीं होना चाहिए। स्वार्थ एवं परोपकार दोनों एक – दूसरे के विपरीत हैं। स्वार्थी इंसान कभी भी परोपकारी प्रमाणित नहीं हो सकता। आज मानव कर्म क्षेत्र में कूदने से पूर्व ही लाभ को अपनी दृष्टि में संजो लेता है। यदि लाभ मिलता है तो वह आगे बढ़ता है, इसके विपरीत हानि की आशंका मात्र से उसके कदम रुक जाते हैं। . परोपकार में जुटा रहना कोई खेल नहीं है। इसके लिए दधीचि के सदृश दृढ़ एवं स्वयं के बलिदान होने की क्षमता होनी चाहिए। बाज के हमले से डरा हुआ कबूतर,शरण पाने की कामना से राजा शिवि की गोद में आ बैठा। इसी बीच बाज भी वहाँ आ गया तथा राजा से कपोत की माँग दुहराने लगा। शिवि ने कबूतर के बराबर माँस अपने शरीर से काटकर बाज को दे दिया। यही बात मैथिलीशरण की निम्न पंक्तियों में अवलोकनीय है

“निज हेतु बरसता नहीं व्योम से पानी।
हम हों समष्टि के लिए व्यष्टि बलिदानी।”

प्रकृति का उदात्त स्वरूप प्रकृति निरन्तर परोपकार में निरत है। सरिताएँ सुबह से शाम तक अथाह जल – समूह को धारण करके निरन्तर प्रवाहित होती रहती हैं। उनका एकमात्र ध्येय धरती की प्यास को बुझाकर दूसरों का हित करना है। वृक्ष रात – दिन,आँधी,तूफान तथा झंझावातों की मार सहकर भी अपने स्थान पर अडिग खड़े रहते हैं।

उनकी यह इच्छा रहती है कि हारे – थके राहगीर आकर उनकी छाया में घड़ी भर विश्राम तथा शान्ति का अनुभव कर सकें। भूख से व्याकुल होने पर मधुर फलों का रसास्वादन भी करें।

मानव एवं पशु में भेद – पशु भी हमारी तरह अपने दैनिक क्रिया – कलापों में जुटे रहते हैं। दोनों के मध्य भेद इस आधार पर किया जा सकता है कि मानव के मन – मानस में परोपकार की भावना विद्यमान रहती है, वहीं पशु इस भावना से कोसों दूर होते हैं। पशुओं के सारे काम स्वयं के हित के लिए होते हैं। गाय अथवा कुत्ते की सन्तान जरा से भोजन के लिए आपस में लड़ने के लिए कटिबद्ध हो जाते हैं। उनके अन्तस में मात्र अपना स्वार्थ ही समाया रहता है। यह प्रश्न विचारणीय है कि यदि मानव भी पशु की तरह जंगली तथा असभ्य व्यवहार करने लगे तो समाज का कितना अहित होगा, यह सोचकर ही मन प्रकम्पित हो जाता है।

भारतीय संस्कृति का आदर्श – भारतीय संस्कृति के मूल में मानव कल्याण की भावना कूट – कूट कर भरी हुई है। इस धरती पर समस्त कार्य स्वयं की संकुचित भावना से ऊपर उठकर सम्पूर्ण मानव समाज की भलाई के लिए सम्पादित किए जाते हैं। हमारा लक्ष्य निम्नवत् अवलोकनीय है

“सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत्॥”

अर्थात् सभी सुखी हों,सब निरोग हों, कोई भी दुःख का भागी न हो।
इस प्रकार के उच्चादर्श हमारे देश में सदैव से ही पल्लवित एवं साकार होते रहे हैं। मानव जीवन का उद्देश्य मानव जीवन का उद्देश्य मात्र भोग एवं खाओ, पीओ, मौज उड़ाओ तक ही सीमित नहीं है। जीवन को सफल बनाने के लिए परमात्मा का सुमिरन तथा भजन करना परमावश्यक है।

कष्ट सहन करने की क्षमता – परोपकारी मनुष्य में कष्ट सहन करने की क्षमता होनी चाहिए। जो मनुष्य जरा – सी तकलीफ में कराहने लगता है तथा जीवन को बोझ समझ बैठता है भला वह परोपकार की डगर पर किस प्रकार कदम बढ़ा सकता है? उसे वृक्षों की भाँति सर्वस्व बलिदान करने के लिए सर्वथा उद्यत रहना चाहिए। देखिए, वृक्षों की त्याग एवं बलिदान की भावना

“तरुवर फल नहिं खात हैं, सरवर पियहिं न पानि।
कह रहीम परकाज हित, सम्पत्ति संचय सुजान।”

परोपकार के अनेक रूप – परोपकार का क्षेत्र अति व्यापक है। किसी भी क्षेत्र में इस भावना का प्रदर्शन किया जा सकता है। पड़ोस में रुग्ण बीमार व्यक्ति को चिकित्सालय पहुँचाना, भटके हुए राहगीर को राह बतलाना, अंधे तथा लाचार मानव की सहायता करना, निर्धन को आर्थिक सहायता देना, विकलांग को सहारा देना तथा गिरते हुए को उठाना आदि अनेक ऐसे कार्य हैं जिनको सम्पादित करके मानव आत्मिक सुख तथा शान्ति का अनुभव कर सकता है।

उपसंहार विश्व के सभी धर्मों के अन्तर्गत परोपकार की महिमा को उजागर किया गया है। धर्म के समस्त गुण परोपकार की परिधि में समाहित हैं। परोपकार करने के लिए असीम धैर्य, त्याग, तपस्या तथा बलिदान की परमावश्यकता है। भारत तो दया तथा परहिताय भावना का प्राचीन काल से ही प्रबल पक्षधर रहा है। अतः आइए हम सब भी इस पुनीत भाव को हृदय में धारण करके मानव की सेवा तथा भलाई का व्रत लें तभी सच्चे सुख एवं शान्ति की अनुभूति सम्भव है।

12 विज्ञान : वरदान या अभिशाप [2009]
अथवा
विज्ञान : विकास या विनाश
अथवा
भारत में विज्ञान के बढ़ते चरण [2009]

“शूल को इतना सहो जो फूल बनकर खिल उठे,
और दिल को स्नेह दो इतना कि दीपक जल उठे
प्यार हर इंसान को इतना लुटा दो आज तुम।
आदमी भगवान, मन्दिर आज बन हर दिल उठे।”

विस्तृत रूपरेखा –
(1) प्रस्तावना,
(2) विज्ञान की देन,
(3) चिकित्सा के क्षेत्र में विज्ञान की देन,
(4) कृषि के क्षेत्र में,
(5) मनोरंजन के साधन,
(6) अभिशाप,
(7) उपसंहार। [2014]

प्रस्तावना किसी वस्तु विशेष के एक पक्ष को जब हम देखते हैं तो उसके अन्तर्गत बसन्त कलित क्रीड़ा करता हुआ दृष्टिगोचर होता है लेकिन जब उसके दूसरे पक्ष को देखते हैं तो उसमें अभिशापों की काली छाया मँडराती रहती है। जब हम किसी वस्तु को प्रयोग की कसौटी पर कसते हैं तभी उसके स्वरूप का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। वैसे विष प्राणघातक होता है, लेकिन जब कोई चिकित्सक उसका शोधन करके औषधि के रूप में प्रयोग करता है तब वही विष प्राणदायक संजीवनी का काम करता है। इस प्रकार हम विष पर दोषारोपण नहीं कर सकते हैं। ज्ञान का प्रयोग ही उसके परिणाम का उद्घोषक होता है। विज्ञान को भी हम एक विशिष्ट विज्ञान के अन्तर्गत स्वीकारते हैं। यह हमारे ऊपर निर्भर है कि चाहे हम विज्ञान को विनाशकारी रूप दें अथवा मंगलकारी भव्य रूप प्रदत्त करें।

विज्ञान की देन – विज्ञान ने मानव को जो सुख,मनोरंजन तथा अन्य साधन प्रदत्त किए हैं वे अनगिनत हैं। गर्मी एवं शीत दोनों पर विज्ञान का आधिपत्य है। आज ग्रीष्म ऋतु शीत तथा शीत ऋतु में गर्मी का भरपूर आनन्द ग्रहण किया जा सकता है। रेल,वायुयान,स्कूटर,मोटर कार तथा अन्य शीघ्रगामी साधनों के फलस्वरूप यात्रा बहुत ही सुगम तथा आरामदायक हो गयी है।

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चिकित्सा के क्षेत्र में विज्ञान की देन – आज चिकित्सा के क्षेत्र में भी विज्ञान की अभूतपूर्वक देन है। शल्य चिकित्सा, एक्स – रे तथा हृदय प्रत्यारोपण इस बात के ज्वलन्त प्रमाण हैं। प्लास्टिक सर्जरी एवं कृत्रिम अंगों का प्रत्यारोपण भी आज सफलतापूर्वक किया जा रहा है। असाध्य रोगों पर विज्ञान द्वारा आविष्कृत औषधियाँ मानव को नया जीवन प्रदान कर रही हैं।

कृषि के क्षेत्र में कृषि के क्षेत्र में भी विज्ञान ने नवीनतम आविष्कारों के माध्यम से कृषकों में एक नवीन आशा तथा उत्साह का संचार किया है। विभिन्न प्रकार की रासायनिक खादों से खेतों में आशातीत अन्न उत्पन्न हो रहा है। थेसर, ट्रैक्टर आदि यन्त्रों के माध्यम से खेतों में बोआई,कटाई सुविधापूर्वक एवं कम समय में सम्पन्न हो रही है।

मनोरंजन के साधन – विज्ञान ने आज के मानव को मनोरंजन के साधन भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध कराये हैं। सिनेमा, रेडियो, टेलीविजन एवं टेप रिकार्डर मनोरंजन के सुलभ तथा मनभावन साधन हैं। आप यदि उदासीन एवं चिन्ताग्रस्त हैं तो सिनेमा हाल में तीन घण्टे बैठकर चिन्ताओं से मुक्त हो सकते हैं। दूरदर्शन के माध्यम से यह आनन्द सपरिवार घर पर कमरे में बैठकर ही ग्रहण किया जा सकता है, साथ ही विश्व में घटित होने वाली घटनाओं को भी अपने नेत्रों में साक्षात् निहार सकते हैं।

अभिशाप – हर वस्तु के दो पहलू होते हैं। एक ओर जहाँ उसमें वरदानों का जाल बिछा रहता है, वहीं दूसरी ओर अभिशापों की काली छाया भी मँडराती है। विज्ञान द्वारा आविष्कृत, अभिशाप के साधन अनगिनत हैं। उनका दुरुपयोग किया जाए तो मानव सभ्यता एवं संस्कृति धराशायी हो जायेगी। जापान के हिरोशिमा एवं नागासाकी नगर इसके ज्वलन्त प्रमाण हैं।

हाइड्रोजन बम, एटम बम, न्यूट्रान बम अलमारी में सजाने के लिए नहीं बनाये गये हैं, निश्चित रूप से इनका विस्फोट होगा। विषैली गैसें वातावरण को दूषित तथा विषाक्त बना रही हैं। प्रदूषण तथा शोरगुल भी बढ़ा है। विज्ञान ने मानव के सुख – साधनों में वृद्धि की है, फलतः आज का मानव विलास – प्रिय हो गया है।

उपसंहार – विज्ञान स्वयं में शक्ति नहीं है, वह मानव के हाथ में पड़कर ही शक्ति प्राप्त करता है। इस प्रकार विज्ञान वरदान अथवा अभिशाप कुछ न होकर मानव के उपयोग पर ही आधारित है। विज्ञान पर दोषारोपण करना उसी प्रकार निरर्थक है जिस प्रकार चलनी में दूध दुहना तथा कर्मों को दोष देना। भगवान मानव को सदबुद्धि प्रदान करे जिससे वह विज्ञान को मानव के कल्याण के लिए प्रयुक्त करे। विज्ञान का कल्याणमय स्वरूप विश्व के कल्याण के लिए है और विनाशमय स्वरूप विनाश के लिए। अतः विश्व कल्याण के लिए ही विज्ञान का प्रयोग किया जाना चाहिए।

13. दहेज प्रथा : एक सामाजिक अभिशाप [2013]

“अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी ॥”

विस्तृत रूपरेखा
(1) प्रस्तावना,
(2) दहेज का आशय एवं स्वरूप,
(3) दहेज प्रथा का आविर्भाव,
(4) दहेज के दुष्परिणाम,
(5) नौजवानों का कर्त्तव्य,
(6) उपसंहार।]

प्रस्तावना – समाज के अन्तर्गत समस्याओं का विकराल जाल फैला हुआ है। ये तुच्छ तथा साधारण समस्याएँ कभी – कभी जी का जंजाल बन जाती हैं। लाड़ – प्यार तथा स्नेह से पालित – पोषित शिशु कभी – कभी बड़ा होकर जिस प्रकार माता – पिता के लिए बोझ बन जाता है तदनुसार ये समस्याएँ भी असाध्य रोग का रूप धारण कर लेती हैं तथा समाज के रूप को विकृत तथा घिनौना बना देती हैं। उन समस्याओं में से एक विकराल समस्या है दहेज प्रथा जो समाज की जड़ों को ही खोखला किए दे रही है। इससे समाज तथा व्यक्तिगत प्रगति पर विराम – सा लग रहा है। अनुराग एवं वात्सल्य का प्रतीक दहेज युग परिवर्तन के साथ खुद भी परिवर्तित होकर विकराल रूप में उपस्थित है।

दहेज का आशय एवं स्वरूप – साधारण रूप में दहेज वह सम्पत्ति है जिसे पिता अपनी बेटी के पाणिग्रहण संस्कार के समय अपनी पुत्री को इच्छानुकूल प्रदान करता है। पुराने समय से ही दहेज प्रथा का प्रचलन चला आ रहा है। इसके अन्तर्गत विवाह के समय कन्या पक्ष द्वारा वर पक्ष को आभूषण, वस्त्र एवं रुपये सहर्ष दान रूप में प्रदत्त किए जाते थे परन्तु समय के साथ – साथ यह परम्परा एवं प्रवृत्ति अपरिहार्य तथा आवश्यक बन गई। आज वर पक्ष दहेज के रूप में टी.वी., फ्रिज, स्कूटर एवं कार आदि की नि:संकोच माँग करता है। इनके अभाव में सुशिक्षित एवं योग्य कन्या को मनचाहा जीवन साथी नहीं मिल पाता। इस स्थिति में निर्धन पिता की पुत्री या तो अविवाहित रहकर पिता तथा परिवार के लिए बोझ बन जाती है अथवा बेमेल एवं अयोग्य वर के साथ जीवन जीने के लिए विवश होती है। दहेज की कुप्रथा ने अनेक युवतियों को काल के गाल में ढकेल दिया है। समाचार – पत्र आए दिन इस प्रकार की अवांछनीय घटनाओं से भरे रहते हैं। रावण ने तो मात्र एक सीता का अपहरण करके उसकी जिन्दगी को अभिशप्त, दुःखप्रद तथा आँसुओं की गाथा बनाया था परन्तु दहेज रूपी रावण ने असंख्य कन्याओं के सौभाग्य सिन्दूर को पोंछकर उनकी जिन्दगी को पीड़ाओं की अमर गाथा बना दिया है।

दहेज प्रथा का आविर्भाव यदि इतिहास की धुंधली दूरबीन उठाकर भूतकाल की क्षीण पगडंडी पर दृष्टिपात करते हैं तो यह बात स्पष्ट होती है कि दहेज प्रथा का प्रचलन सामन्ती युग में भी था। सामन्त अपनी बेटियों की शादी में अश्व, आभूषण एवं दास – दासियाँ उपहार अथवा भेंट के रूप में प्रदत्त किया करते थे। शनै – शनैः इस बुरी प्रथा ने सम्पूर्ण समाज को ही अपनी परिधि में समेट लिया। इस कुप्रथा के लिए झूठी शान,रूढ़िवादिता तथा धर्म का अंधानुकरण उत्तरदायी है।

दहेज के दुष्परिणाम दहेज के फलस्वरूप आज सामाजिक वातावरण विषैला, दूषित एवं घृणित हो गया है। अनमेल विवाहों की भरमार है जिसके कारण परिवार एवं घर में प्रतिपल संघर्ष एवं कोहराम मचा रहता है। जिस बहू के घर से दहेज में यथेष्ट धन नहीं दिया जाता, ससुराल में आकर उसे जो पीड़ा एवं ताने मिलते हैं, उसकी कल्पना मात्र से शरीर सिहरने लगता है। कभी कभी उसे ससुराल वालों द्वारा जहर दे दिया जाता है अथवा जलाकर मार दिया जाता है। मनुष्य क्षण भर के लिए यह सोचने के लिए विवश हो जाता है कि आदर्श भारत का जिन्दगी का रथ किस ओर अग्रसर हो रहा है। प्रणय सूत्र में बंधने के पश्चात् जहाँ सम्बन्ध स्नेह, अनुराग एवं भाईचारे के होने चाहिए वहाँ आज कटुता एवं शत्रुता पैर – पसारे हुए है।

नौजवानों का कर्त्तव्य – दहेज प्रथा समस्या का निराकरण समाज एवं सरकार के बूते का कार्य नहीं है। इसके लिए तो युवक एवं युवतियों को स्वयं आगे बढ़कर दहेज न लेने एवं देने की दृढ़ प्रतिज्ञा करनी चाहिए। मात्र कानून बनाने से इस समस्या का निराकरण नहीं हो सकता। जितने कानून निर्मित किए जा रहे हैं, दहेज लेने एवं देने वाले भी शोध ग्रन्थों की तरह नए – नए उपाय खोजने में सफल हो रहे हैं। इस कुप्रथा को समाप्त करने के लिए महिलाओं को इस सन्दर्भ में प्रयास करना चाहिए। इसके लिए एक प्रभावी आन्दोलन भी चलाना चाहिए। सरकार को भी कठोर कानून बनाकर इस बुरी प्रथा पर प्रतिबन्ध लगाना चाहिए। शासन ने सन् 1961 में दहेज विरोधी कानून पारित किया। सन् 1976 में इसमें कुछ संशोधन भी किए गए थे किन्तु फिर भी दहेज पर अंकुश नहीं लग सका। समाज सुधारक भी इस दिशा में पर्याप्त सहयोग दे सकते हैं। दहेज लेने वालों का सामाजिक बहिष्कार आवश्यक है। सहशिक्षा भी दहेज प्रथा को रोकने में सक्षम है। सामाजिक चेतना को जाग्रत करना भी आवश्यक है।

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उपसंहार – विगत अनेक वर्षों से इस बुरी प्रथा को समाप्त करने के लिए भागीरथ प्रयास किया जा रहा है लेकिन दहेज का कैंसर ठीक होने के स्थान पर निरन्तर विकराल रूप धारण करता जा रहा है। इस कुप्रथा का तभी समापन होगा जब वर पक्ष एवं कन्या पक्ष सम्मिलित रूप से इस प्रथा को समाप्त करने में सक्षम होंगे। यदि इस दिशा में जरा भी उपेक्षा अपनायी गयी तो यह ऐसा कोढ़ है जो समाज रूपी शरीर को विकृत एवं दुर्गन्ध से आपूरित कर देगा। समाज एवं शासन दोनों को जोरदार तरीके से दहेज विरोधी अभियान प्रारम्भ करना परमावश्यक है। अब तो एक ही नारा होना चाहिए। “दुल्हन ही दहेज है” यह नारा मात्र कल्पना की भूमि पर विहार करने वाला न होकर समाज की यथार्थ धरती पर स्थित होना चाहिए तभी भारत के कण – कण से सावित्री,सीता एवं गार्गी तुल्य कन्याओं की यह ध्वनि गुंजित होगी।

“सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।”

14. साहित्य और समाज [2009, 15]
अथवा
साहित्य समाज का दर्पण है

“प्राचीन से अधुनातन समाज में,
जो कुछ होता आया है।
साहित्य समाज का दर्पण है,
प्रतिबिम्बित सबकी छाया है।”

विस्तृत रूपरेखा [2017]
(1) प्रस्तावना,
(2) साहित्य और समाज का सम्बन्ध,
(3) समृद्ध साहित्य उन्नति की आधारशिला,
(4) साहित्य का समाज पर प्रभाव,
(5) उपसंहार।]

प्रस्तावना – साहित्य एवं समाज दोनों अटूट रूप में एक – दूसरे से बँधे हुए हैं। साहित्य समाज में ही पल्लवित, पुष्पित तथा विकसित होता है एवं समाज भी साहित्य के प्रकाश में स्वयं को जीवन्त,ऊर्जा सम्पन्न,गतिमान या सजग बनाता है। समाज मानव सम्बन्धों का ताना – बाना है तथा साहित्यकार उसमें एक अपरिहार्य सूत्र होता है। इस प्रकार साहित्य एवं समाज दोनों की प्रगति एक – दूसरे पर आश्रित है। इन दोनों में से एक का भी पतन दूसरे के विनाश का सूचक होता है। साहित्य का समाज के नव निर्माण में अपूर्व योगदान है। तद्नुरूप समाज के माध्यम से ही साहित्य का पादप विकसित एवं हरा – भरा रहता है।

जीवन को सरस, आनन्दमय तथा सुखमय बनाने के लिए मानव ने साहित्य का निर्माण किया है। मानव की तरह साहित्य भी हित – चिन्तन करता है लेकिन इन दोनों में आकाश – पाताल का अन्तर है। सामान्यतः मानव का हित – चिन्तन संकुचित तथा अपने तक सीमित होता है। परन्तु साहित्य का हित – चिन्तन समस्त मानव जगत की कल्याण भावना से ओत – प्रोत होता है। इसी सत्य को दृष्टि – पथ में रखकर मनीषियों ने ज्ञान – राशि के संचित कोष को साहित्य के नाम से सम्बोधित किया है। कविवर रवीन्द्र के शब्दों में – “साहित्य शब्द से साहित्य शब्द में मिलने (अर्थात् एक साथ होने) का भाव निहारा जा सकता है। वह केवल भाव – भाव का,भाषा – भाषा का, ग्रन्थ – ग्रन्थ का मिलन नहीं है – दूर के साथ निकट का यह अत्यन्त अन्तरंग मिलन भी है, जो साहित्य के अलावा अन्य से सम्भव नहीं है।”

साहित्य और समाज का सम्बन्ध समाज निर्माण के पश्चात् साहित्य की रचना की जाती है। समाज तथा साहित्य एक – दूसरे पर अपना प्रभाव डालते हैं। समाज के विभिन्न प्रकार के क्रिया – कलापों का साहित्य में चित्रण किया जाता है। साहित्यकार अपने वर्णन – विषयों को समाज के धरातल से ही चयन करता है। साहित्य समाज की विभिन्न प्रवृत्तियों,रुचियों तथा परम्पराओं का विश्लेषण करता है तथा उनको भली प्रकार सुरक्षित रखने तथा सँवारने का भी प्रयास करता है। इसी के अनुरूप समाज भी यथाशक्ति साहित्य को सुरक्षित रखने में तत्पर रहता है। इस प्रकार साहित्य तथा समाज का गहरा तथा अटूट सम्बन्ध है।

समाज की सभ्यता, संस्कृति, आचार – विचार, परम्परा, नैतिकता तथा मानवीय मूल्यों का निर्देशक साहित्य को ठहराया गया है। यदि, हम पुरातन समाज का ज्ञान प्राप्त करना चाहें तो तत्कालीन साहित्य का ही आश्रय लेना पड़ेगा। तत्कालीन समाज का हर्ष – विषाद, उत्थान – पतन, रीति – रिवाज एवं आचार – विचार साहित्य के कलेवर में ही प्रतिबिम्बित होंगे।

समृद्ध साहित्य उन्नति की आधारशिला हजारों साल पहले भारत शिक्षा तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रगति की चरम सीमा पर विराजमान था। हमारे पूर्वजों के प्रशंसनीय तथा अनुकरणनीय कार्य आज भी हमारे प्रेरणा के स्रोत हैं। कवि वाल्मीकि तथा तुलसी की पावन वाणी जन – जन के मानस में उल्लास – भक्ति तथा ज्ञान की मन्दाकिनी प्रवाहित कर रही है। गोस्वामी तुलसीदास जी का ‘रामचरितमानस’ नामक ग्रन्थ अज्ञान – तिमिर में भटकने वाले कोटि – कोटि प्राणियों के लिए आज भी आकाशदीप की भाँति मार्गदर्शन कर रहा है।

जिस देश तथा जाति के पास जितना समृद्ध तथा उन्नत साहित्य होगा वह जाति उतनी ही समृद्धशाली ठहरायी जायेगी। यदि हमारे पास समृद्ध साहित्य नहीं होता तो हमारे अस्तित्व को ही खतरा उत्पन्न हो जाता। साहित्य समाज रूपी शरीर में आत्मा की तरह प्रतिष्ठित है। यह समाज की जीवनदायिनी शक्ति के रूप में विराजमान है। इस सन्दर्भ में निम्न कथन दृष्टव्य है

“अन्धकार है वहाँ जहाँ आदित्य नहीं है।
ह देश जहाँ साहित्य नहीं है।”

समाज का साहित्य पर प्रभाव – साहित्य की तरह समाज का भी साहित्य पर प्रभाव पड़ता है। प्राचीन साहित्य के अध्ययन से यह बात ज्ञात होती है कि तत्कालीन समाज में प्रकृति पूजा का विधान था।

सविता,वरुण तथा उषा आदि देवों की पूजा तथा अर्चना का भी प्रचलन था। हमारा देश कृषि प्रधान देश है। कृषि में गोवंश की उपयोगिता को दृष्टि – पथ में रखकर गायों की माता के समान पूजा की जाती थी। वीरगाथा काल की रचनाओं में श्रृंगार,प्रेम,युद्ध तथा मारकाट के वर्णन हैं। भारत अनेक राज्यों में विभाजित था। शासकों में आपस में हेल – मेल नहीं था। वे आनन्द, विलास तथा मनोरंजन में ही जीवन का सौन्दर्य निहारते थे। रीतिकालीन साहित्य तात्कालिक समाज की प्रवृत्तियों का जीता – जागता दर्पण है। कवि राज्याश्रय में रहकर विलासमय जीवन – यापन कर रहे थे। समाज की ओर से उन्होंने आँख बन्द कर ली थीं। नायिका के नख – शिख वर्णन तक ही उनकी लेखनी सीमित थी। नायिका के सौन्दर्य पर टीका रचकर उसके रूप का बखान करना ही उन्होंने कला का लक्ष्य स्वीकारा था। यद्यपि बिहारी तथा देव आदि कवियों ने भक्तिपरक रचनाओं का निर्माण भी किया, लेकिन अत्यल्प।

साहित्य का समाज पर प्रभाव – समाज को साहित्य प्रेरणा देता है। जो कार्य अस्त्र – शस्त्र नहीं कर पाते वह कार्य साहित्य सुगमतापूर्वक सम्पन्न कर लेता है। बिहारी के मात्र एक दोहे ने विलासिता के सागर में गोते लगाते हुए महाराज जयसिंह को कर्त्तव्य के पथ पर अग्रसर कर दिया। तुलसीदास ने राम को भगवान के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। साहित्य का प्रमुख उद्देश्य है आनन्द प्रदत्त करना तथा समाज का प्रमुख आदर्श है आनन्द की अनवरत खोज। इस तरह दोनों अभिन्न रूप से जुड़े हैं। साहित्य में जब तक विकास होता रहता है तब तक वह जीवित रहता है। विकास गति अवरुद्ध हो जाती है तब उसे मृत साहित्य की संज्ञा दी जाती है। समाज के वातावरण की नींव पर साहित्य का भवन खड़ा किया जाता है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का यह कथन अक्षरशः सत्य है कि “साहित्य समाज का दर्पण है।” संसार में जितनी भी क्रान्तियाँ हुईं,वे वहाँ के साहित्यकारों की लेखनी के माध्यम से ही सम्पन्न हुई।

उपसंहार – निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि समाज साहित्य को तथा साहित्य समाज को प्रतिपल प्रभावित करते रहते हैं। उससे अछूता रहना दोनों के लिए असम्भव है। साहित्य समाज की प्रतिध्वनि है। साहित्य की प्रेरणा से समाज का रूप परिवर्तित होता है तथा वह नया कलेवर धारण करता है। साहित्य युग – युगों से समाज – सुधार का प्रबल साधन प्रमाणित हुआ है। साहित्य राष्ट्रीय चेतना के क्षेत्र में ही नहीं वरन् सामाजिक विषमता को समाप्त करने में भी अग्रणी रहा है। साहित्य विगत समय का लेखा – जोखा है। सनातन मूल्यों का पोषक है। वर्सफील्ड के शब्दों में – “साहित्य मानव समाज का मस्तिष्क है।”

साहित्यकार का सबसे पावन कर्त्तव्य है समाज को प्रेरणा देना, नई ऊर्जा शक्ति प्रदान करना तथा जीवन – पथ को आलोकित करना। तभी निम्न स्वर सुनाई पड़ेंगे। देखिए

“जिन मुश्किलों में मुस्कुराना हो मना।
उन मुश्किलों में मुस्कुराना धर्म है।”

15. जीवन में खेलों का महत्त्व | [2013, 17]

“शक्ति बढ़े फुर्ती लहे, चोट न अधिक पिराय।।
अन्न पचे, चंगा रहे, खेल हैं सदा सहाय ॥”

विस्तृत रूपरेखा
(1) प्रस्तावना,
(2) विकास का साधन,
(3) खेलों से सामाजिकता की भावना का विकास,
(4) विद्यार्थी जीवन में खेल की आवश्यकता,
(5) मनोरंजन का साधन,
(6) उपसंहार।

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प्रस्तावना जिस प्रकार स्वस्थ शरीर के लिए खाना – पीना आवश्यक है, उसी प्रकार शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए जीवन में खेलों का भी अत्यन्त महत्त्व है। मनुष्य यदि केवल खाता – पीता ही रहे तो वह स्वस्थ नहीं रह सकता, अपितु उस खाये – पिये को पचाने के लिए, अच्छी भूख लगाने के लिए और शरीर के रक्त संचार आदि को उचित रखने के लिए व्यायाम करना अथवा खेलना अत्यन्त आवश्यक है।

विकास का साधन – मनुष्य के सर्वांगीण विकास में खेलों का अत्यन्त महत्त्व है। खेलने से मनुष्य के मन में स्फूर्ति और उत्साह उत्पन्न होता है जिससे जीवन की अनेक चिन्ताओं और तनावों से मुक्ति पाकर उसका मन अत्यन्त प्रसन्न हो जाता है। इसका प्रभाव मनुष्य के तन और मन पर स्पष्ट रूप से पड़ता है। इससे मनुष्य का मनोबल ऊँचा होता है व उसमें आगे बढ़ने की ललक उत्पन्न होती है। उसके विचारों में निश्चितता और दृढ़ता आती है। इसी के साथ संसार में स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए मन में महत्त्वाकांक्षा भी उत्पन्न होती है। आज हमारे देश ने क्रिकेट, कबड्डी,टेनिस आदि खेलों में विश्व में अपना उच्चस्तरीय स्थान बनाया है। देश का प्रतिनिधित्व करने वाले खिलाड़ियों को देखकर अन्य खिलाड़ियों में भी जोश उत्पन्न होता है तथा खेलों में प्रतिस्पर्धा की भावना से उनका उत्तरोत्तर विकास होता है।

खेलों से सामाजिकता की भावना का विकास – खेल मनुष्य में सामाजिकता की भावना का अभ्युदय करते हैं। उदाहरणतः जब भारत की टीम और पाकिस्तान की टीम साथ – साथ खेल खेलती हैं,तो मन के अन्दर की अलगाव और कटुता की भावना स्वतः ही समाप्त हो जाती है और उनमें परस्पर सौहार्द्र और बन्धुत्व की भावना का विकास होता है।

विद्यार्थी जीवन में खेल की आवश्यकता विद्यार्थी जीवन में खेल की अत्यन्त आवश्यकता है। खेल से विद्यार्थी के मन में स्फूर्ति और ताजगी उत्पन्न होती है। इससे वह अपना अध्ययन कार्य अच्छी तरह करता है। परस्पर खेलों में स्पर्धा होने से उनके तन और मन की’ क्षमता और कुशलता में भी अभिवृद्धि होती है।

मनोरंजन का साधन – दिनभर कोल्हू के बैल की तरह काम करने वाला मानव या शिक्षा के बोझ से दबा हुआ विद्यार्थी शारीरिक और मानसिक श्रम से इतना अधिक श्रान्त हो जाता है कि उसे कुछ मनोरंजन की आवश्यकता होती है। ऐसे में खेल उसका भरपूर मनोरंजन करते हैं। जब खिलाड़ी खेल के मैदान में अपने करतब दिखाते हैं तब दर्शकगण भी उत्साह से आह्लादित हो उठते हैं। वे अपनी थकान, तनाव आदि भूलकर खेलों के आनन्द में डूब जाते हैं।

उपसंहार – इस प्रकार खेल मनुष्य के मन और तन को प्रसन्न तथा स्वस्थ रखते हैं। जीवन में सामाजिकता, मित्रता, भाईचारे आदि की भावना का विकास खेलों से ही होता है। अतः जिस प्रकार जीवन में खाना – पीना, पढ़ना – लिखना आवश्यक है उसी प्रकार तन – मन को स्वस्थ, प्रसन्न
और आह्लादित रखने के लिए खेलों का अत्यन्त महत्त्व है।
अतः यदि हम सब खेलों के महत्त्व को स्वीकार करेंगे तभी खिलाड़ियों के निम्न स्वर ध्वनित होंगे –

“क्या कहूँ कुछ और अब मैं सिर्फ इतना जानता हूँ।
राह पर चलती हमारे साथ ही मंजिल हमारी ॥”

16. आरक्षण नीति

“एक समय जो हितकर होता दूजे समय विनाशक।
आरक्षण का हाल यही है एक समय था रक्षक ॥
लेकिन आज विनाशक बनकर महाकाल बन आया।
योग्य युवा की आशाओं को ग्रास बनाकर खाया।”

विस्तृत रूपरेखा
(1) प्रस्तावना,
(2) वर्तमान समय में आरक्षण का बिगडता स्वरूप,
(3) वर्तमान समय में आरक्षण की आवश्यकता,
(4) उपसंहार।]

प्रस्तावना – जब भारत अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुआ तब देश में अपना संविधान लागू हुआ। उस समय देश में दलित वर्ग की स्थिति अत्यन्त दयनीय थी। उन्हें न तो राजनीति में कोई स्थान प्राप्त था और न समाज में। समाज में तो उन्हें अत्यन्त हेय दृष्टि से देखा जाता था। ऐसी स्थितियों को देखकर उनका उत्थान करने की भावना को दृष्टिपथ में रखते हुए देश के संविधान निर्माताओं ने उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था की।

वर्तमान समय में आरक्षण का बिगड़ता स्वरूप – देश के संविधान निर्माताओं ने दलित वर्ग के उत्थान के लिए जिस आरक्षण नीति का सूत्रपात किया,कालान्तर में वही नीति स्वार्थी और भ्रष्टाचारी नेताओं की लिप्सा पूर्ति का साधन बन गई। जातीय आधार पर किए गए आरक्षण के कारण आरक्षण के अन्तर्गत आने वाले समृद्धशाली लोगों ने इसका खूब फायदा उठाया। निर्धन सवर्ण अपने सामने अपने सपनों पर समृद्ध आरक्षित वर्ग का अधिकार देखता रहा। अयोग्य लोग चुन – चुनकर राजकीय सेवाओं में पहुँच गए। योग्य सवर्ण असहाय दृष्टि से केवल देखता ही रह गया। आरक्षण के दानव ने उसका भविष्य निगल लिया। स्वार्थी अयोग्य किन्तु आरक्षित वर्ग में आने वाला धनाढ्य सरकारी खजाने का,जो उस पर लुटाए जा रहे थे,उपभोग करता रहा। निर्धन और योग्य सवर्ण इससे वंचित हुआ, ठगा – सा अपनी जाति को कोसता रहा। काश ! वह भी दलित और पिछड़े वर्ग में पैदा हुआ होता तो सरकार की कृपा उस पर भी होती। इस प्रकार आरक्षण जनहित की भावना को लेकर बनाई गई योजना थी किन्तु इसका स्वरूप बिगड़कर यह जनविनाश की भावना से कार्य करने लगी।

वर्ष 1953 में प्रथम आयोग का गठन किया गया था। इसके अध्यक्ष काका कालेलकर थे। इस आयोग ने अनुसूचित जाति,अनुसूचित जनजाति के साथ ऐसी जातियों को सूची में रखने का अनुमोदन किया जो सामाजिक,शैक्षिक और सरकारी सेवाओं के क्षेत्र में अत्यन्त पिछड़ी थीं।

तदनन्तर मंडल आयोग का गठन किया गया। इसमें पिछड़ी जातियों को 27% आरक्षण देने की सिफारिश की गई। इसे तत्कालीन प्रधानमन्त्री वी. पी. सिंह ने लागू करने का प्रयास किया। तब इसके विरोध में युवावर्ग ने भयानक रूप धारण कर लिया। कई युवाओं ने आत्मदाह तक करने का प्रयास किया।

वर्तमान समय में आरक्षण की आवश्यकता – देश में जब आरक्षण नीति लागू की गई थी तब से लेकर आज वर्तमान समय में देश की परिस्थितियाँ परिवर्तित हो चुकी हैं। उस समय ज़ातिगत आरक्षण की आवश्यकता थी किन्तु आज के परिप्रेक्ष्य में आर्थिक आधार पर आरक्षण की आवश्यकता है। यद्यपि जब संविधान में आरक्षण की व्यवस्था केवल दस वर्ष तक के लिए की गई थी किन्तु राजनयिकों ने अपनी कुर्सी मजबूत करने के उद्देश्य से इस व्यवस्था को आज आजादी के साठ वर्षों बाद भी कायम रखा है। इससे लाभ कम और हानि अधिक हुई। आज समाज में ऊँच – नीच और भेदभाव की भावना डालने में जातिगत आरक्षण का बहुत बड़ा हाथ है। व्यावहारिक रूप में समाज में अब जातिगत भेदभाव नहीं रह गया है किन्तु आरक्षण का काँटा सवर्णों के हृदय को निरन्तर वेधता रहता है। इसी कारण आरक्षित वर्ग आज उनकी ईर्ष्या और द्वेष का शिकार हो जाता है।

उपसंहार यदि कोई समस्या होती है तो उसका समाधान भी अवश्य है। आरक्षण की समस्या का समाधान है कि संविधान में संशोधन करके आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की जाए। जातिगत आरक्षण समाप्त कर दिया जाए। इससे एक तो समाज से परस्पर वैमनस्य की भावना दूर होगी। दूसरे योग्य और निर्धन सवर्ण बेरोजगारों को भी सरकारी सेवा में आने का उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अवसर प्राप्त होगा। देश की कुंठित और अवसादग्रस्त प्रतिभाएँ फिर से प्रस्फुटित होंगी और देश अयोग्यों के हाथ की कठपुतली बनने से बच जाएगा। तभी देश का वास्तविक रूप से विकास भी होगा। देश का विकास युवाओं की उन्नति और विकास पर ही निर्भर है अतः तब खुला आसमान सबके लिए बिना किसी पक्षपात की भावना के उपलब्ध हो सकेगा।

17. शिक्षित बेरोजगारी की समस्या

“पढ़ा लिखा है युवा, नौकरी नहीं देश में।
जीवन गुजर रहा मर्मान्तक पीड़ा में।
अब आशा की किरण दिखाए कौन कहाँ से।
बड़े – बड़े नेता रहते अपनी ही दुनिया में ॥”

विस्तृत रूपरेखा [2015] –
(1) प्रस्तावना,
(2) शिक्षित बेरोजगारी के प्रमुख कारण – धन सम्बन्धी समस्या, धर्म की समस्या, राजनीतिक समस्या, दोषपूर्ण – शिक्षा पद्धति,
(3) उपसंहार।

प्रस्तावना – आज हमारे देश में बेरोजगारी एक ज्वलंत समस्या के रूप में उभर कर देश के युवा भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रही है। पढ़े – लिखे युवा दर – दर भटक रहे हैं। भिक्षा की भाँति नौकरी माँग रहे हैं किन्तु शासन आँख और कान बन्द करके अन्धे और बहरे की भाँति सब अनदेखा और अनसुना कर रहा है। बड़े – बड़े पूंजीपतियों को भी युवारक्त को चूसने की आदत पड़ गई है। वह नौकरी देते हैं तो इतने कम पैसों पर कि महीने का वेतन चार दिन भी कठिनाई से चल पाता है। युवा प्रातः से सायं तक जी तोड़ परिश्रम करता है,ऊपर से कब नौकरी चली जाए, इसकी सूली भी सदैव उसके सिर पर लटकती रहती है।

शिक्षित बेरोजगारी के प्रमुख कारण धन सम्बन्धी समस्या यह सत्य है कि धन के बिना मनुष्य प्रगति नहीं कर सकता। शिक्षित बेरोजगारी का यह एक मुख्य कारण है – देश में धन का अभाव, चाहे वह कृत्रिम हो अथवा वास्तविक,रोजगार के अवसर कम कर देता है। देश के धन पर वर्ग विशेष का आधिपत्य होने से जो धन रोजगार दे सकता है,वह केवल उनकी महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति में व्यय हो रहा है।

धर्म की समस्या देश में बेरोजगारी के प्रमुख कारणों में धार्मिक कारण भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। यहाँ के धर्मभीरू मनुष्य भाग्यवाद पर विश्वास करके हाथ पर हाथ रखे बैठे रहते हैं। उनके अनुसार “अजगर करे न चाकरी,पंक्षी करे न काम। दास मलूका कह गए, सबके दाता राम ॥” वाली कहावत सत्य है। वे कार्य करने का प्रयास नहीं करते और यह कहकर सन्तोष कर लेते हैं कि वह उनके भाग्य में ही नहीं था।

राजनीतिक समस्या बेकारी का प्रमुख कारण राजनीति भी है। यहाँ लोग राजनीति में आकर स्वयं और स्वयं के परिवार के लिए धन कमाना चाहते हैं। दूसरों को प्रलोभन देकर उनसे धन लूटकर अपने बैंक के खाते भरते हैं और इतना धन एकत्र कर लेते हैं कि उनकी कई पीढ़ियाँ बिना कोई काम करके आराम और वैभव से अपना जीवन गुजार सकती हैं। इनके पास देश का इतना धन एकत्र होता है कि यदि इनके बैंक के खाते जनता के लिए खोल दिये जाएँ तो देश से निर्धनता और बेरोजगारी स्वतः समाप्त हो जाए।

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दोषपूर्ण – शिक्षा पद्धति–भारत की शिक्षा पद्धति व्यवसायमूलक न होकर पुस्तकीय है। इस कारण छात्र जीवन की वास्तविकताओं का सामना करने में असमर्थ रहता है। वह अध्ययन करने में अपना बहुत समय व्यतीत कर देता है किन्तु इससे उसे जब रोजगार नहीं मिल पाता तब वह अत्यन्त निराशा की स्थिति को प्राप्त हो जाता है।

उपसंहार – समाज से शिक्षित बेरोजगारी को दूर करने का उपाय है कि शिक्षा मनुष्य को वास्तविक जीवन का सामना करने की क्षमता प्रदान करे,रोजगार – परक हो। युवा भी परिश्रम करने की आदत विकसित करें। कर्म में विश्वास करके छोटा, बड़ा जैसा भी कार्य मिले उसका पूरी निष्ठा,परिश्रम और ईमानदारी से निर्वाह करें। दूसरों के द्वारा दिए गए प्रलोभन में न फंसकर स्वयं रोजगार के अवसरों की तलाश करें। अतः स्वविवेक और क्षमता के अनुसार कार्य करने वाला मनुष्य कभी बेरोजगार नहीं रह सकता है। कहा भी गया है – “चरन् वै मधुविन्दन्ति चरन् स्वादुमुदुम्बरं पश्य सूर्यस्य श्रेमाणं यो न तन्द्रयते चरन्।” अर्थात् निरन्तर कार्य करने वाला मनुष्य ही जीवन के मधुर फल का आस्वादन करता है। सूर्य को देखिए वह चमकने में कभी प्रमाद नहीं करता।

18. भ्रष्टाचार : समस्या और निदान [2014]

“आचार संहिता के भारत में कैसा कलयुग आया
देव सदृश मानव था उसमें घोर पतन है आया।
राजनीति में और समाज में चहुँओर वही है छाया
भ्रष्टाचार – लिप्त जनमानस कैसा दुर्दिन आया।”

विस्तृत रूपरेखा
(1) प्रस्तावना,
(2) भ्रष्टाचार का कारण,
(3) भ्रष्टाचार के निवारण के उपाय,
(4) उपसंहार।

प्रस्तावना – भारत आचार संहिता का जनक कहा जाता है। जब विश्व में अज्ञान का अन्धकार छाया था तब भारत ने ही उनमें ज्ञान,नीति और आचार का प्रबोध कर प्रकाश जगाया। विश्व को आचार का पाठ पढ़ाने वाले भारत के ऐसे भी दुर्दिन आएँगे सम्भवतः तत्कालीन नीति – विशारदों ने इसकी कल्पना भी नहीं की होगी। आज जब हम अपने देश के किसी भी क्षेत्र में चाहे वह राजनीतिक हो, सामाजिक हो,शैक्षिक हो अथवा आर्थिक, दृष्टि डालें तो हर स्थान पर भ्रष्टाचार का बोलबाला दिखाई देता है। आज कोई भी कार्य कराना सरल बात नहीं है। नौकरी पानी है तो मोटी रकम रिश्वत में दो। स्थानान्तरण कराना है तो पहले सम्बन्धित अधिकारियों का मुँह पैसे से भरो। किसी कार्य हेतु अनापत्ति प्रमाण – पत्र लेना हो तो श्रृंखलाबद्ध तरीके से अधिकारियों की मुट्ठी गरम करो, महीनों प्रतीक्षा करो, तब जाकर कहीं कोई कार्य सम्पन्न हो सकता है।

भ्रष्टाचार का कारण – आज भ्रष्टाचार समाज में एक जटिल समस्या के रूप में फल – फूल रहा है। रक्तबीज की भाँति जन – जन के भीतर उत्पन्न होता जा रहा है। यह सब देखकर प्रश्न उठता है कि भ्रष्टाचार का कारण क्या है? इस प्रश्न पर विचार करने के लिए हमें समाज की स्थिति के विषय में जानकारी लेना अति आवश्यक है। इसको पनपाने में देश के नेता,उद्योगपति और पूँजीपति जिम्मेदार हैं। श्रमिकों के घोर परिश्रम की कमाई पर अधिकार उद्योगपति जमाता है और उसको केवल उतना देता है जिससे वह केवल प्राणधारण किए रह सके। अपने अधभूखे और अधनंगे परिवार को देखकर उसके मन में विद्रोह की ज्वाला सुलगनी स्वाभाविक है। नेता जनता का धन चूसकर स्वयं ऐशो – आराम की जिन्दगी जीते हैं और अपनी आगे वाली पीढ़ियों के लिए भी धन सुरक्षित करके रख लेते हैं। ऐसे में कुछ लोग उन शोषित लोगों की भावनाओं का लाभ उठाकर उनसे धन लेकर उन्हें अच्छी – अच्छी नौकरियों का प्रलोभन देते हैं। एक व्यक्ति जब किसी से धोखा खाता है तब बदले की भावना से वह दूसरे के साथ भी वही करता है जो उसके साथ हुआ। परिणामतः लोगों की आत्मा मरती गई और स्वेच्छाचार बढ़ता गया। देखते – देखते पूरा समाज भ्रष्टाचार के दलदल में लिप्त हो गया और अब तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह जीवन का एक अनिवार्य अंग बन गया है। बिना पैसे दिये हमारे देश में कम से कम कोई कार्य हो नहीं सकता।

भ्रष्टाचार के निवारण के उपाय – भ्रष्टाचार का निवारण हो सके इसके लिए सबसे पहले शिक्षा में सुधार होना अति आवश्यक है। मानव अपने – अपने आचरण को सुधारे जिसे वह पुस्तकों में पढ़ता है उसे जीवन में उतारना सीखे। अतः आवश्यकता है कि मनुष्य अपनी योग्यताओं, क्षमताओं को पहचाने और झूठे प्रलोभन में न फंसकर ईमानदारी पर डटा रहै। अपने चरित्रबल को प्रमुखता दे। कहा भी गया है कि यदि धन गया तो कुछ नहीं गया। यदि स्वास्थ्य गया तो कुछ हानि हुई किन्तु यदि चरित्र नष्ट हो गया तो इन्सान जीते जी ही मर गया। अतः मनुष्य को अपने चरित्र को ऊँचा उठाने के लिए भरसक प्रयत्न करना चाहिए।

उपसंहार – जिस प्रकार समाज में भ्रष्टाचार की जड़ें फैलाने वाले हम लोग ही हैं। उसी प्रकार उसका मूलोच्छेदन करने वाले भी हम ही होंगे। कहते हैं यदि सुबह का भूला शाम को घर वापस आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते। इसी प्रकार पहले हम चाहें कैसे भी रहे हों किन्तु आज से ही यदि हम अपने – अपने सुधार का संकल्प ले लें तो भ्रष्टाचार स्वयमेव ही समाप्त हो जाएगा। कहा भी गया है कि

“अपना अपना करो सुधार। तभी मिटेगा भ्रष्टाचार॥”

19. महँगाई की समस्या [2016]

“जब आदमी के हाल पे आती है मुफलिसी।
किस – किस तरह से उसको सताती है मुफलिसी॥”

विस्तृत रूपरेखा –
(1) प्रस्तावना,
(2) कृषि – उत्पादन,
(3) प्रशासन की उदासीनता,
(4) आयात नीति,
(5) जनसंख्या में वृद्धि,
(6) मुद्रा का प्रसार,
(7) घाटे का बजट,
(8) अव्यवस्थित वितरण प्रणाली,
(9) धन का असमान वितरण,
(10) समस्या का निदान,
(11) उपसंहार।

प्रस्तावना – भारत में इस समय जो आर्थिक समस्याएँ विद्यमान हैं, उनमें महँगाई एक प्रमुख समस्या है। भारत में पिछले दो दशकों में सभी वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों में अत्यन्त तीव्रता से वृद्धि हुई है। वृद्धि का यह चक्र आज भी गतिवान है।

भारत में अधिकांश वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि के बहुत से कारण हैं। इन कारणों में अधिकांश आर्थिक कारण हैं,किन्तु कुछ कारण गैर – आर्थिक भी हैं। इन कारणों में से प्रमुख रूप से उल्लेखनीय कारण निम्नलिखित हैं

कषि – उत्पादन – कृषि पदार्थों की कीमतों में निरन्तर वृद्धि का एक प्रमुख कारण उन समस्त वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों में वृद्धि है जो कृषि के लिए आवश्यक है। कृषि उर्वरकों के मूल्यों में वृद्धि, सिंचाई की दरों में वृद्धि, बीज के दामों में वृद्धि, कृषि मजदूरों की मजदूरी की दर में वृद्धि आदि कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिनमें वृद्धि होने से स्वाभाविक रूप से ही उसका प्रभाव कृषि – पदार्थों पर पड़ता है।

भारत में अधिकांश वस्तुओं का मूल्य प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कृषि पदार्थों के मूल्यों से सम्बन्धित है। यही कारण है कि जब किसी भी कारण से या कई कारणों से कृषि होती है तो उसके परिणामस्वरूप देश में अधिकांश वस्तुओं के मूल्य प्रभावित हो जाते हैं।

प्रशासन की उदासीनता – साधारणतः प्रशासन के स्वरूप पर यह निर्भर करता है कि देश में अर्थव्यवस्था एवं मूल्य – स्तर सन्तुलित होगा या नहीं। प्रभावशाली प्रशासक होने से कृत्रिम रूप से वस्तुओं और सेवाओं की पूर्ति में कमी करना व्यापारियों के लिए कठिन हो जाता है। अतः उस परिस्थिति में कीमतों में निरन्तर एवं अनियन्त्रित रूप में वृद्धि करना अत्यन्त कठिन हो जाता है।

आयात नीति – कभी – कभी आयात सम्बन्धी गलत नीति के फलस्वरूप भी देश में वस्तुओं की कमी एवं कीमतों में अत्यधिक वृद्धि हो जाती है। यह सही है कि देश में जहाँ तक सम्भव हो, आयात कम होना चाहिए विशेष रूप में उपयोग की वस्तुओं का आयात अधिक नहीं होना चाहिए। किन्तु यदि देश में वस्तुओं की पूर्ति माँग की तुलना में कम हो तो आयात की आवश्यकता होती है। यदि इन वस्तुओं का आयात न किया जाये तो माँग और पूर्ति में असन्तुलन होगा। पूर्ति जितनी कम होगी,वस्तुओं के दाम उतने ही बढ़ेंगे।

जनसंख्या में वृद्धि – भारत में जनसंख्या तीव्रता से एवं अनियन्त्रित रूप में बढ़ रही है। जनसंख्या के इस विशाल आकार की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सभी वस्तुओं और सेवाओं का बड़े आकार में होना अनिवार्य है। दुर्भाग्य से,भारत में कृषि और उद्योग के क्षेत्र में उतनी तीव्रता से उन्नति एवं उत्पादन की वृद्धि नहीं हो रही, जितनी की जनसंख्या में वृद्धि हो रही है। इसका स्वाभाविक परिणाम अधिकांश वस्तुओं और सेवाओं की कमी है, इसी के परिणामस्वरूप अधिकांश वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों में निरन्तर वृद्धि जारी है।

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मुद्रा का प्रसार भारत में मुद्रा – प्रसार की प्रवृत्ति तृतीय योजना के प्रारम्भिक काल से ही बनी हुई है। मुद्रा – प्रसार के बहुत से कारण रहे हैं, किन्तु उसका परिणाम एक ही रहा है – मूल्यों में वृद्धि। यद्यपि सरकार की ओर से बार – बार यह आश्वासन दिया जाता रहा है कि मुद्रा – प्रसार को अब कम कर दिया जायेगा एवं इस प्रवृत्ति को रोका जायेगा। किन्तु अभी तक इस दिशा में कोई महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हो सक – प्रसार को यदि नियन्त्रण में कर लिया जाये तो उससे मूल्य – स्तर को नियन्त्रण में रखना सरल हो जाता है।

घाटे का बजट – भारत में बजट और पूँजी – निर्माण की जो स्थिति है वह योजनाओं को पूरा करने के लिए बिल्कुल पर्याप्त नहीं है। अतः इस कमी को दूर करने के लिए, अन्य उपायों के अतिरिक्त घाटे की बजट प्रणाली को अपनाया जाने लगा है। पिछले कई बजटों में इस पद्धति को अपनाया गया है, जिससे अधिकांश वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों में तेजी से वृद्धि हुई है।

अव्यवस्थित वितरण प्रणाली – भारत में अधिकतर विक्रेता संगठित हैं। इसके परिणामस्वरूप वह आपस में मिलकर वस्तुओं की खरीद,संचय एवं बिक्री के विषय की नीति का निश्चय करते हैं। धीरे – धीरे वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि होने लगती है। यदि सरकार इन प्रवृत्तियों को रोकने में असमर्थ होती है तो यह संस्थाएँ मूल्यों को निरन्तर बढ़ाती जाती हैं, जिससे उपभोक्ताओं को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

धन का असमान वितरण – भारत में आर्थिक असमानता बहुत बड़े आकार में विद्यमान है। धन के असमान वितरण का विशेष रूप से उन वस्तुओं के मूल्यों पर प्रभाव पड़ता है जिनकी माँग तो बहुत अधिक है, किन्तु पूर्ति अत्यन्त सीमित। इनमें विलासिता की वस्तुएँ एवं कीमती वस्तुएँ भी शामिल हैं। रोजगार की कमी एवं मूल्यों में वृद्धि से निर्धनों को जीवन – यापन की अधिकतर वस्तुओं और साधनों को जुटाना कठिन हो जाता है।

समस्या का निदान –
(1) कृषि पर अधिक ध्यान देना,
(2) सिंचाई की सुविधा,
(3) वितरण प्रणाली में बदलाव,
(4) भ्रष्टाचार पर अंकुश।

उपसंहार कृत्रिम अभाव के सृजन एवं मूल्यों में निरन्तर वृद्धि से कालाबाजारी एवं अत्यधिक लाभ कमाने की प्रवृत्ति बढ़ती है। भारत में भी यह प्रवृत्ति अभी तक विद्यमान है। यह दोनों ही प्रवृत्तियाँ देश की अर्थव्यवस्था को अवांछित रूप से प्रभावित करती हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि सरकार की ओर से प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रयासों के द्वारा इन प्रवृत्तियों को रोकने का बराबर प्रयास किया जा रहा है, किन्तु इस दिशा में अभी पूरी सफलता प्राप्त नहीं हो सकी है। लोकमंगल की भावना एवं पवित्र मन से यथार्थ प्रयास करने से ही इसका निदान सम्भव है। यदि हम सभी परिश्रम से कार्य करें, उत्पादन अधिक बढ़ाएँ और मितव्ययिता से जीवन को चलाने की आदत डालें,तो महँगाई की समस्या का हल हमें अपने आप ही मिल सकता है।

20. भारतीय समाज में नारी का स्थान
अथवा [2009, 12, 14, 15, 17]
भारतीय नारी

“नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत पग – पग तल में।
पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में।”

विस्तृत रूपरेखा
(1) प्रस्तावना,
(2) प्राचीन भारतीय नारी,
(3) मध्यकाल में नारी,
(4) आधुनिक नारी,
(5) उपसंहार।]

प्रस्तावना – सृष्टि के आदिकाल से ही नारी की महत्ता अक्षुण्ण है। नारी सृजन की पूर्णता है। उसके अभाव में मानवता के विकास की कल्पना असम्भव है। समाज के रचना – विधान में नारी के माँ,प्रेयसी, पुत्री एवं पली अनेक रूप हैं। वह सम परिस्थितियों में देवी है, तो विषम परिस्थितियों में दुर्गा भवानी। वह समाज रूपी गाड़ी का एक पहिया है जिसके बिना समग्र जीवन ही पंगु है। सृष्टि चक्र में स्त्री – पुरुष एक – दूसरे के पूरक हैं।

मानव जाति के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होगा कि जीवन में कौटुम्बिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, साहित्यिक, धार्मिक सभी क्षेत्रों में प्रारम्भ से ही नारी की अपेक्षा पुरुष का आधिपत्य रहा है। पुरुष ने अपनी इस श्रेष्ठता और शक्ति – सम्पन्नता का लाभ उठाकर स्त्री जाति पर मनमाने अत्याचार किये हैं। उसने नारी की स्वतन्त्रता का अपहरण कर उसे पराधीन बना दिया। सहयोगिनी या सहचरी के स्थान पर उसे अनुचरी बना दिया और स्वयं उसका पति, स्वामी, नाथ, पथ – प्रदर्शक और साक्षात् ईश्वर बन गया।

प्राचीन भारतीय नारी – प्राचीन भारतीय समाज में नारी – जीवन के स्वरूप की व्याख्या करें तो हमें ज्ञात होगा कि वैदिक काल में नारी को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। वह सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक सभी क्षेत्रों में पुरुष के साथ मिलकर कार्य करती थी। रोमशा और लोपामुद्रा आदि अनेक नारियों ने ऋग्वेद के सूत्रों की रचना की थी। रामायण काल (त्रेता) में भी नारी की महत्ता अक्षुण्ण रही। रानी कैकेयी ने राजा दशरथ के साथ युद्ध – भूमि में जाकर उनकी सहायता की। इस युग में सीता, अनुसुइया एवं सुलोचना आदि आदर्श नारी हुईं। महाभारत काल (द्वापर) में नारी पारिवारिक, सामाजिक एवं राजनीतिक गतिविधियों में पुरुष के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने लगीं। इस युग में नारी समस्त गतिविधियों के संचालन की केन्द्र – बिन्दु थी। द्रोपदी,गान्धारी और कुन्ती इस युग की शक्ति थीं।

मध्यकाल में नारी – मध्य युग तक आते – आते नारी की सामाजिक स्थिति दयनीय बन गयी। भगवान बुद्ध द्वारा नारी को सम्मान दिये जाने पर भी भारतीय समाज में नारी के गौरव का ह्रास होने लगा था। फिर भी वह पुरुष के समान ही सामाजिक कार्यों में भाग लेती थी। सहभागिनी और समानाधिकारिणी का उसका रूप पूरी तरह लुप्त नहीं हो पाया था। मध्यकाल में शासकों की काम – लोलुप दृष्टि से नारी को बचाने के लिए प्रयत्न किये जाने लगे। परिणामस्वरूप उसका अस्तित्व घर की चहारदीवारी तक ही सिमट कर रह गया। वह कन्या रूप में पिता पर, पत्नी के रूप में पति और माँ के रूप में पुत्र पर आश्रित होती चली गयी। यद्यपि इस युग में कुछ नारियाँ अपवाद रूप में शक्ति – सम्पन्न एवं स्वावलम्बी थीं; फिर भी समाज सामान्य नारी को दृढ़ से दृढ़तर बन्धनों में जकड़ता ही चला गया। मध्यकाल में आकर शक्ति स्वरूपा नारी ‘अबला’ बनकर रह गयी। मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में –

“अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,
आँचल में है दूध और आँखों में पानी।”

भक्ति काल में नारी जन – जीवन के लिए इतनी तिरस्कृत, क्षुद्र और उपेक्षित बन गयी थी कि कबीर, सूर, तुलसी जैसे महान् कवियों ने उसकी संवेदना और सहानुभूति में दो शब्द तक नहीं कहे। कबीर ने नारी को ‘महाविकार’, ‘नागिन’ आदि कहकर उसकी घोर निन्दा की। तुलसी ने नारी को गँवार, शूद्र, पशु के समान ताड़ना का अधिकारी कहा –

‘ढोल गँवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी।

आधुनिक नारी – आधुनिक काल के आते – आते नारी चेतना का भाव उत्कृष्ट रूप से जाग्रत हुआ। युग – युग की दासता से पीड़ित नारी के प्रति एक व्यापक सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण अपनाया जाने लगा। बंगाल में राजा राममोहन राय और उत्तर भारत में महर्षि दयानन्द सरस्वती ने नारी को पुरुषों के अनाचार की छाया से मुक्त करने को क्रान्ति का बिगुल बजाया। अनेक कवियों की वाणी भी इन दुःखी नारियों की सहानुभूति के लिए अवलोकनीय है। कविवर सुमित्रानन्दन पन्त ने तीव्र स्वर में नारी स्वतन्त्रता की माँग की –

“मुक्त करो नारी को मानव, चिर बन्दिनी नारी को।
युग – युग की निर्मम कारा से, जननी, सखि, प्यारी को।”

आधुनिक युग में नारी को विलासिनी और अनुचरी के स्थान पर देवी, माँ, सहचरी और प्रेयसी के गौरवपूर्ण पद प्राप्त हुए। नारियों ने सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक एवं साहित्यिक सभी क्षेत्रों में आगे बढ़कर कार्य किया। विजयलक्ष्मी पण्डित कमला नेहरू,सुचेता कृपलानी,सरोजिनी नायडू, इन्दिरा गाँधी,सुभद्राकुमारी चौहान,महादेवी वर्मा आदि के नाम विशेष सम्मानपूर्ण हैं।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत सरकार ने नारियों की स्थिति सुधारने के लिए अनेक प्रयल किये हैं। हिन्दू विवाह और कानून में सुधार करके उसने नारी और पुरुष को समान भूमि पर लाकर खड़ा कर दिया। दहेज विरोधी कानून बनाकर उसने नारी की स्थिति में और भी सुधार कर दिया। लेकिन सामाजिक एवं आर्थिक स्वतन्त्रता ने उसे भोगवाद की ओर प्रेरित किया है। आधुनिकता के मोह में पड़कर वह आज पतन की ओर जा रही है।

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उपसंहार – इस प्रकार उपर्युक्त वर्णन से हमें वैदिक काल से लेकर आज तक नारी के विविध रूपों और स्थितियों का आभास मिल जाता है। वैदिक काल की नारी ने शौर्य, त्याग, समर्पण, विश्वास एवं शक्ति आदि का आदर्श प्रस्तुत किया। पूर्व मध्यकाल की नारी ने इन्हीं गुणों का अनुसरण कर अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखा। उत्तर – मध्यकाल में अवश्य नारी की स्थिति दयनीय रही, परन्तु आधुनिक काल में उसने अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त कर लिया है। उपनिषद,पुराण,स्मृति तथा सम्पूर्ण साहित्य में नारी की महत्ता अक्षुण्ण है। वैदिक युग में शिव की कल्पना ही ‘अर्द्ध नारीश्वर’ रूप में की गयी। मनु ने प्राचीन भारतीय नारी के आदर्श एवं महान् रूप की व्यंजना की है। “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता…” अर्थात् जहाँ पर स्त्रियों का पूजन होता है वहाँ देवता निवास करते हैं। जहाँ स्त्रियों का अनादर होता है, वहाँ नियोजित होने वाली क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं। स्त्री अनेक कल्याण का भाजन है। वह पूजा के योग्य है। स्त्री घर की ज्योति है। स्त्री गृह की साक्षात् लक्ष्मी है। यद्यपि भोगवाद के आकर्षण में आधुनिक नारी पतन की ओर जा रही है, लेकिन भारत के जन – जीवन में यह परम्परा प्रतिष्ठित नहीं हो पायी है। आशा है भारतीय नारी का उत्थान भारतीय संस्कृति की परिधि में हो। वह पश्चिम की नारी का अनुकरण न करके अपनी मौलिकता का परिचय दे।

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MP Board Class 12th General Hindi Model Question Paper

MP Board Class 12th General Hindi Model Question Paper

Time : 3 Hours
Maximum Marks: 100

निर्देशः

  • सभी प्रश्न अनिवार्य हैं।
  • प्रश्न क्रमांक 1 से 5 तक वस्तुनिष्ठ प्रश्न हैं। प्रत्येक प्रश्न के लिए 5 अंक आवंटित हैं। उपप्रश्न पर 1 अंक आवंटित है।
  • प्रश्न क्रमांक 6 से 15 तक प्रत्येक प्रश्न के लिए 2-2 अंक आवंटित हैं। प्रत्येक का उत्तर लगभग 30 शब्दों में लिखिए।
  • प्रश्न क्रमांक 16 से 21 तक प्रत्येक प्रश्न के लिए 3-3 अंक आवंटित हैं। प्रत्येक का उत्तर लगभग 75 शब्दों में लिखिए।
  • प्रश्न क्रमांक 22 से 24 तक प्रत्येक प्रश्न के लिए 4-4 अंक आवंटित हैं। प्रत्येक का उत्तर लगभग 120 शब्दों में लिखिए।
  • प्रश्न क्रमांक 25 से 27 तक के लिए 5-5 अंक आवंटित हैं। प्रत्येक का उत्तर लगभग 150 शब्दों में लिखिए।
  • प्रश्न क्रमांक 28 के लिए 10 अंक आवंटित हैं। शब्द सीमा लगभग 200-250 शब्द है।

1. उचित शब्दों का चयन कर रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए: [1 x 5 = 5]
(i) सूरदास की भक्ति ____________ भाव की है। (दास्य/साख्य)
(ii) नगर शोभा में दोहों की संख्या ____________ है। (142/152)
(iii) सुभद्रा कुमारी चौहान का काव्य संग्रह ह ____________ (त्रिधारा/पंचधारा)
(iv) हिन्दी निबन्ध का उद्भव काल ____________ युग है। (भारतेन्दु/द्विवेदी)
(v) एक से अधिक अर्थ देने वाले शब्द ____________ कहलाते हैं। (एकार्थी/अनेकार्थी)
उत्तर-
(i) साख्य
(ii) 142
(iii) त्रिधारा
(iv) भारतेन्दु
(v) अनेकार्थी

2. सही विकल्प चुनकर लिखिए: [1 x 5 = 5]
(i) गोपालसिंह नेपाली का जन्म सन् है
(अ) 1932 (ब) 1902 (स) 1904 (द) 1911
(ii) सवा-सवा लाख पर एक को चढ़ाने की घोषणा की
(अ) गुरु नानक (ब) अर्जुन सिंह (स) गोविन्द सिंह (द) तेग बहादुर
(iii) साठ हजार हाथियों से अधिक बलराशि का स्वामी
(अ) दारा (ब) शाहजहाँ (स) औरंगजेब (द) हुमायू
(iv) कर्मधारय समास का उदाहरण है
(अ) अष्टांग (ब) दोराहा (स) माता-पिता (द) कनकलता
(v) ‘बाल बाँका न होना’ का अर्थ है
(अ) हानि होते होते बचना (ब) कुछ भी हानि न होना (स) कुछ भी असर न होना (द) कम असर होना
उत्तर-
(i) 1902
(ii) गोविन्द सिंह
(iii) दारा
(iv) कनकलता
(v) कुछ भी हानि न होना

3. सत्य/असत्य का चयन कर लिखिए: [1 x 5 = 5]
(i) ‘प्रभावती’ निराला का काव्य संकलन है।
(ii) मेषमाता बकरी को कहते हैं।
(iii) निष्ठामूर्ति कस्तूरबा संस्मरण विधा है।
(iv) निबन्ध मन की सहज और उन्मुक्त उड़ान है।
(v) अड्यार पुस्तकालय केरल में है।
उत्तर-
(i) असत्य
(ii) असत्य
(ii) सत्य
(iv) सत्य
(v) सत्य

4. सही जोड़ी बनाइये: [1 x 5 = 5]

5. एक वाक्य में उत्तर दीजिए: [1 x 5 = 5]
(i) धरती का ताज किसे कहा है
(ii) देवेन्द्र दीपक का जन्म किस सन् में हुआ?
(iii) प्रक्रिया सामग्री का तकनीकी शब्द क्या है?
(iv) अर्थ की दृष्टि से वाक्य के कितने भेद होते हैं?
(v) ‘दक्षिण भारत की एक झलक’ के लेखक कौन हैं?
उत्तर-
(i) हिमालय
(ii) 31 जुलाई 1934
(iii) सॉफ्टवेयर
(iv) आठ
(v) आचार्य विनय मोहन शर्मा

6. निम्नलिखित शब्दों के दो-दो पर्यायवाची शब्द लिखिए:
चंद्रमा, बादल, हवा, पानी
उत्तर-
पर्यायवाची शब्द
(i) चंद्रमा → निशाकर, मयंक।
(ii) बादल → मेघ, नीरद।
(iii) हवा → पवन, वायु।
(iv) पानी → नीर, जल।
अथवा

निर्देशानुसार वाक्य परिवर्तन कीजिए:
(i) वह फल खरीदने के लिए बाजार गया। (संयुक्त वाक्य)
(ii) स्वावलंबी व्यक्ति सदा सुखी रहते हैं। (संयुक्त वाक्य)
उत्तर-
(i) उसे फल खरीदने थे, इसलिए वह बाजार गया।
(ii) जो व्यक्ति स्वावलंबी होते हैं, वे सदा सुखी रहते हैं।

7. समास विग्रह कर नाम लिखिए: (कोई दो)
(i) सत्यग्रह
(ii) कमलचयन
(iii) माता-पिता
(iv) नवरत्न
उत्तर-
(i) सत्याग्रह = सत्य के लिए आग्रह (तत्पुरुष समास)
(ii) कमलनयन = कमल के समान नयन (कर्मधारय समास)
(iii) माता-पिता = माता और पिता (द्वन्द्व समास)
(iv) नवरत्न = नौ रत्नों का समूह (द्विगु समास)
अथवा

मुहावरों का अर्थ लिखकर वाक्य में प्रयोग कीजिए: (कोई दो)
(i) गज भर की छाती होना
(ii) सूरज को दीपक दिखाना
(ii) सिर धुनना
उत्तर-
(i) गज भर की छाती होना = बलवान होना।
वाक्य प्रयोग-रमेश की गज भर की छाती है।

(ii) सूरज को दीपक दिखाना = मूर्खतापूर्ण व्यवहार करना।
वाक्य प्रयोग-विश्वविख्यात कथावाचक के सम्मुख मुकेश ने कुछ तर्क
किया, जो सूरज को दीपक दिखाने जैसा हुआ

(iii) सिर धुनना = पश्चाताप करना।
वाक्य प्रयोग-हायर सेकेण्ड्री की परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने पर अरुण ने अपना सिर धुन लिया।
मकरंद : हिंदी सामान्य

8. संक्षेपण किसे कहते हैं?
उत्तर-
संक्षेपण की परिभाषा-संक्षेपण वह कला है जिसके द्वारा किसी वक्तव्य को, किसी विषय को कम-से-कम शब्दों में प्रस्तुत किया जाए तो भी वह स्वयं में पूर्ण हो। उसमें मूल का न कोई अंश छूटता है और न ही उसक
अनिवार्य आशय के समझने में कोई न्यूनता आती है।
अथवा
भाव पल्लवन कीजिए:
“दूर के ढोल सुहावने होते हैं”
उत्तर-
भाव पल्लवनः आज के परिवेश में आधुनिकता की मानसिकता, फैशन, बनावटी दिखावा से घिरे हुए व्यक्ति की वास्तविकता का सम्यक् पता नहीं चल पाता। हम उसके बाह्य स्वरूप को देखकर आकर्षित हो जाते हैं। उसके मौलिक, विचारों, गुणों से पूर्णतः अनभिज्ञ रहते हैं।

9. अशुद्ध वाक्यों को शुद्ध कीजिए:
(i) रानी पन्द्रह अगस्त में भाषण बोलेगी।
(ii) मैं गीता पढ़ा हूँ
उत्तर-
(i) रानी पन्द्रह अगस्त को भाषण देगी।
(ii) मैंने गीता पढ़ी है।

अथवा
रचना के आधार पर वाक्य के कितने भेद होते हैं नाम लिखिए।
उत्तर-
रचना के आधार पर वाक्य तीन प्रकार के होते हैं
(i) साधारण वाक्य
(ii) संयुक्त वाक्य
(iii) मिश्र वाक्य

10. कोई चार तकनीकी शब्द लिखिए।
उत्तर-
(i) अनुवांशिकी
(ii) पारिस्थितिकी
(iii) जीवाश्म
(iv) विकिरण।
अथवा
निम्नलिखित शब्दों के विलोम शब्द लिखिए:
(i) आवश्यक
(ii) परिष्कृत
(iii) स्वाधीन
(iv) प्रशंसा
उत्तर-
विलोम शब्दः
(i) आवश्यक = अनावश्यक
(ii) परिष्कृत = दूषित
(iii) स्वाधीन = पराधीन
(iv) प्रशंसा = निंदा।

11. अनेकार्थी शब्दों के अलग-अलग अर्थ लिखकर वाक्यों में प्रयोग कीजिए:
(i) घटा (ii) अंक
उत्तर-
(i) घटा = बादल
वाक्य प्रयोग- आकाश में घटा छाई है।
घटा = कम हुआ
वाक्य प्रयोग- अब जाके दाल का मूल्य घटा।

(ii) अंक = गोद
वाक्य प्रयोग- माँ शिशु को अंक में बिठाए हुए है।

अंक = अध्याय
वाक्य प्रयोग- इस नाटक के सात अंक हैं।
अथवा
समोच्चारित शब्दों का अर्थ लिखकर वाक्य में प्रयोग कीजिए: –
(i) अवधि – अवधी
(ii) अविराम – अभिराम
उत्तर-
(i) अवधि = समय
वाक्य प्रयोग- प्रश्न पत्र हल करने की अवधि 3 घंटे की है।

अवधी = एक भाषा
वाक्य प्रयोग- तुलसीदास अवधी भाषा के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं।

अविराम = लगातार
वाक्य प्रयोग- मोहन ने अविराम चलकर अल्प समय में अपने गन्तव्य पर पहुँच गया।

अभिराम = सुंदर
वाक्य प्रयोग- कमलों से युक्त यह सरोवर अभिराम लग रहा है।

12. सिरचन कौन सी वस्तुएँ बनाना जानता था?
उत्तर-
सिरचन मोथी घास और पटेर की रंगीन शीतलपाटी, बाँस की तीलियों की झिलमिलाती चिक, मोढ़े, मूंज की रस्सी के बड़े-बड़े जाले, ताल के पत्तों की छतरी-टोपी आदि बनाना जानता था।
अगवा
बाबू गुलाबराय ने किन परिस्थितियों में स्वयं को नारायण कहा है?
उत्तर-
नारायण का निवास स्थान जल में है और बाबू गुलाबराय का घर भी वर्षा के कारण जल में डूबा हुआ था, ऐसी स्थिति में लेखक स्वयं को नारायण समझने लगा था।

13. चन्द्रकांत किस सभ्यता व रहन-सहन का प्रेमी था?
उत्तर-
चंद्रकांत अंग्रेजी सभ्यता व रहन-सहन का प्रेमी था।
अथवा
मंत्री जी उदास क्यों थे?
उत्तर-
देश के राजा नि:संतान चल बसे थे। तब राजा किसे चुना जाए, इसी फ़िक्र में मंत्री जी उदास थे।

14. विषय के आधार पर निबन्ध को कितने भागों में बाँटा गया है? नाम लि खिए।
2 उत्तर-
निबंध के प्रकार
(i) साहित्यिक (ii) सांस्कृतिक (iii) सामाजिक (iv) ऐतिहासिक (v) व्यक्तिनिष्ठ (vi) वस्तुनिष्ठ
अथवा
हिन्दी निबन्ध का विकास क्रम लिखिए।
उत्तर-
हिन्दी निबंध का विकास क्रम
(i) भारतेंदुयुगीन निबंध
(ii) द्विवेदीयुगीन निबंध
(iii) शुक्लयुगीन निबंध
(iv) शुक्लयुगोत्तर निबंध
(v) सामयिक निबंध – 1940 से अब तक।

15. व्यास शैली से क्या आशय है?
उत्तर-
व्यास शैली में लेखक निबंधों के तथ्यों को खोलता हुआ चला जाता है। उन्हें विभिन्न तर्को उदाहरणों के द्वारा व्याख्यायित करता चला जाता है। वर्णनात्मक और तुलनात्मक तथा विवरणात्मक निबंधों में निबंधकार इसी प्रकार की शैली का प्रयोग करता है।
अथवा
किन्हीं चार अप्रवासी हिन्दी निबन्धकारों के नाम लिखिए।
उत्तर-
निबंधकारों के नाम
(i) प्रभाकर श्रोत्रिय
(ii) प्रदीप मांडव
(iii) चंद्रकांत वांदिवडेकर
(iv) सुधीश पचौरी

16. यशोदा ने देवकी को क्या संदेशा भेजा?
उत्तर-
यशोदा ने देवकी को संदेश भेजा कि मैं तो कृष्ण का पालन-पोषण करने वाली धाय हूँ। मेरी आपसे विनती है कि आप कृष्ण पर ममता, दया करती रहना। उसके प्रति कठोरता का व्यवहार कभी न करना। कृष्ण को उसका प्रिय माखन-रोटी ही खाने को देना। वह बड़ी मुश्किल से स्नान करता है, अतः उसकी सभी फरमाइशों को पूरा करके स्नान कराना। कृष्ण संकोची स्वभाव का है। वह कुछ नहीं बोलेगा, अतः उसकी मनोवृत्ति व आदतों का ध्यान रखना।

अथवा
रहीम ने समुद्र के जल की अपेक्षा कुएँ के जल को श्रेष्ठ क्यों बताया है?
उत्तर-
रहीम ने समुद्र और कुएँ के जल में कुएँ के जल को श्रेष्ठ बताया है। उन्होंने कहा- यद्यपि कुआँ आकार में छोटा होता है, लेकिन प्यासा कुएँ के पास ही जाकर अपनी प्यास बुझाता है। समुद्र आकार में बड़ा है, लेकिन प्यासा उसके जल से प्यास नहीं बुझा सकता है, वह प्यासा ही रह जाता है। अतः कवि ने समुद्र जल की अपेक्षा कुएँ को श्रेष्ठ बताया है।

17. छत्रसाल की बरछी की विशेषताएँ लिखिए?
उत्तर-
विशेषताएँ-छत्रसाल की बरछी नागिन के समान है। वह अपने शत्रुओं की चुन-चुनकर मारती है। वह अपने शत्रुओं के बख्तर को फाड़कर उनके शरीर में इस प्रकार घुस जाती है, जैसे मछली जल की धारा को चीरकर आगे बढ़ जाती है।
अथवा
“हम कहाँ जा रहे हैं” कविता के माध्यम से कवि क्या संदेश देना चाहते हैं? उत्तर ‘हम कहाँ जा रहे हैं’ से कवि संदेश देना चाहता है कि भारतीय सभ्यता, संस्कृति, उसकी परंपराएँ, व्यवहार, उपलब्धियाँ और जीवन मूल्य सर्वश्रेष्ठ हैं। हमें पाश्चात्य जीवन-शैली और वस्तुओं को नहीं अपनाना चाहिए। हमें भारतीय ही बने रहना चाहिए, क्योंकि इसी में हमारा कल्याण है।

18. कवि गोपालसिंह नेपाली ने गंगाजल की क्या विशेषताएँ बतलाई हैं?
उत्तर-
गंगाजल की बहत बडी विशेषता है कि वह बहत ही पवित्र है। उसको पीने वाला दुःख में भी मुस्कुराता रहता है। यही नहीं, इसको पीने वाला तो हर प्रकार के दुःखों को हँसते-हँसते सहन कर जाता है।
अथवा
पंचतत्व के किन गुणों को माँ धारण किए हुए है?
उत्तर-
पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल और वायु पाँच तत्व होते हैं। माँ इन सभी गुणों को धारण किए हुए है। माँ पृथ्वी का गुण धैर्य, आकाश के गुण चैतन्य अथवा प्रकाश को, अग्नि के गुण तीव्रता, पवन की गतिमयी व्यापकता तथा जल के गुण गंभीरता को धारण किए हुए हैं।

19. मोमबत्ती बुझने के बाद परिवेश में क्या-क्या परिवर्तन हुआ?
उत्तर-
मोमबत्ती बुझने के बाद पूर्णिमा के चाँद की चाँदनी दरवाजे और खिड़की से झाँकती हुई पूरे कमरे में फैल गई। सारा परिवेश प्रकाशमय हो गया।
अथवा
दुनिया में कौन सी दो अमोघ शक्तियाँ मानी गई हैं? कस्तूरबा की निष्ठा किसमें अधिक थी?
उत्तर-
दुनिया में शब्द और कृति दो अमोघ शक्तियाँ मानी गई हैं। शब्दों ने तो सारी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। किंतु अंतिम शक्ति तो ‘कृति’ की है। कस्तूरबा ने इन दोनों शक्तियों से ही अधिक श्रेष्ठ शक्ति कृति की नम्रता के साथ उपासना करके संतोष माना और जीवन सिद्धि प्राप्त की।

20. अखबार में जबलपुर की कौन सी घटना छपी थी?
उत्तर-
अखबार में जबलपुर की घटना छपी थी कि कल रात एकाएक खूब पानी बरसा। जेल के पास के नाले में तीन गरीब बच्चे बह गए। उन तीनों की लाशें मिलीं। बहुत कोशिश करने पर भी इनकी शिनाख्त नहीं हो सकी दो लड़कियाँ हैं और एक लड़का। ऐसा सुना गया है कि वे गाना गाकर भीख माँगा करते थे।
अथवा
देवेन्द्र दीपक के अनुसार पुस्तक की समीक्षा किस प्रकार की जाती है?
उत्तर-
लेखक देवेन्द्र दीपक के अनुसार पुस्तक की समीक्षा बेबाक होती है और प्रायः – प्रायोजित होती है। समीक्षा में अक्सर एक अनावश्यक लंबी भूमिका होती है। इसमें पुस्तक के अंदर जो कुछ भी है, उसकी चर्चा कम होती है तथा जो नहीं है उसकी चर्चा अधिक होती है। दूसरे शब्दों में पुस्तक की समीक्षा ठीक प्रकार से नहीं होती है।

21. गाँधीजी का शिक्षा के प्रति क्या दृष्टिकोण था?
उत्तर-
गाँधी जी का शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण था कि जो शिक्षा चरित्र निर्माण की भावना और कर्तव्य की भावना उत्पन्न करे, वही सर्वश्रेष्ठ है। केवल अक्षर ज्ञान शिक्षा नहीं है। सच्ची शिक्षा तो चरित्र-निर्माण और कर्त्तव्य-बोध है।
अथवा
स्थितप्रज्ञता कैसे प्राप्त होती है?
उत्तर-
मन को किसी परम उच्च में लगा देने से स्थिर प्रज्ञता प्राप्त होती है। जैसे लोक-संग्रह के कार्य में, राष्ट्रभक्ति में, दीन-दु:खियों की सेवा में।

22. शरीरबल और आत्मबल में लेखक ने किसे श्रेष्ठ माना है आज विश्व कल्याण के लिए दोनों में से कौन सा अधिक उपयोगी है
उत्तर-
शरीरबल और आत्मबल में से आत्मबल को लेखक ने श्रेष्ठ माना है। आज विश्वकल्याण के लिए दोनों में से आत्मबल सर्वाधिक उपयोगी है।
अथवा
केरल के गाँवों की कौन सी विशेषताएँ हैं उत्तर-केरल के गाँव की विशेषताएँ-केरल के गाँव की गलियाँ साफ-सुथरी रहती हैं। केरल के गाँवों में बिजली की पूर्ण व्यवस्था है। गाँव बिजली की रोशनी से चमचमाते रहते हैं। केरल के गाँवों में डाकखाना, दवाखाना, और स्कूल की समुचित व्यवस्था है। केरल के गाँवों में हिन्दी का प्रचार और प्रसार बहुत है। यहाँ हिन्दी परीक्षा की अनिवार्य भाषा है।

23. “माँ बस यह वरदान चाहिए” कविता में देश की जय के लिए कवि किस भाव के आकांक्षी हैं?
उत्तर-
‘माँ बस यह वरदान चाहिए’ कविता में कवि देश की जय के लिए अपनी हार, स्वार्थ, त्याग, और बलिदान के भाव का आकांक्षी है।
अथवा
कवि जागो फिर एक बार में क्या उद्बोधन देते हैं?
उत्तर-
कवि ने ‘जागो फिर एक बार’ कविता में भारतीयों को उद्बोधन दिया है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के महासंग्राम में योद्धा की तरह संघर्ष करो। अपनी परिवर्ती परंपरा को अक्षुण्ण रखने वाले भारतीय को अपनी संपूर्ण कायरता को त्यागकर अपने पराक्रमी और पुरुषार्थी स्वरूप को जाग्रत करो। अपनी दासता के सम्पूर्ण बंधनों को तोड़ने के लिए उसे जागृत करना आवश्यक है।

24. निम्नलिखित पद्यांश की सन्दर्भ, प्रसंग सहित व्याख्या कीजिए:
साजि चतुरंग सैन अंग मैं उमंग धारि,
सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत हैं।
भूषन भनत नाद विहद नगारन के,
नदी नद मद गैबरन के रलत हैं।
ऐलफैल खैलभैल खलक में गैलगैल,
गजन की छैलपैल सैल उलसत हैं।
तारा सो तरनि धूरिधारा में लगत जिमि,
थारा पर पारा पारावार यों हलत है ॥
उत्तर-
इसी पुस्तक का पृष्ठ संख्या 89-90 देखें।
अथवा
तप मेरे मोहन का उद्धव धूल उड़ाता आया,
हाय विभूति रमाने का भी मैंने योग न पाया,
सूखा कण्ठ, पसीना छूटा मृग-तृष्णा की माया,
झुलसी दृष्टि, अँधेरा दीखा, टूट गई वह छाया,
मेरा ताप और तप उनका
जलती है यह जठर मही॥
उत्तर-
इसी पुस्तक का पृष्ठ संख्या 218-219 देखें।

25. निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर दिये गये प्रश्नों के उत्तर दीजिए: [1 + 1 + 1 + 235]
समय एक अमूल्य निधि है, जीवन संग्राम में सफल होने के लिए समय का सदुपयोग परम आवश्यक है। अक्सर लोग समय की तुलना धन से करते हैं, लेकिन समय धन से अधिक मूल्यवान है। धन तो एक साधन मात्र है, परन्तु समय सब कुछ है। धन नष्ट भी हो जाये तो पुनः प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु नष्ट किए समय को प्राप्त करना असंभव है। जो मनुष्य समय नष्ट करता है समय उसे नष्ट कर देता है।
(i) उपर्युक्त गद्यांश का सार्थक शीर्षक लिखिए।
(ii) जीवन में सफल होने के लिए क्या आवश्यक है
(iii) सबसे अधिक मूल्यवान क्या है
(iv) उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
उत्तर-
(i) गद्यांश का शीर्षक – समय का सदुपयोग।
(ii) जीवन में सफल होने के लिए समय का सदुपयोग परम आवश्यक है।
(iii) सबसे अधिक मूल्यवान धन नहीं समय है।
(iv) सारांश-समय अमूल्यनिधि है। समय की तुलना धन से नहीं की जा सकती। नष्ट धन की तो दुबारा प्राप्त कर सकते हैं, समय को नहीं। अतः समय का सदुपयोग करना परमावश्यक हैं।

26. निम्नलिखित अपठित पद्यांश को पढ़कर प्रश्नों के उत्तर दीजिए: [2 + 1 + 2 = 5]
रवि जग में शोभा सरसाता,
सोम सुधा बरसाता,
सब हैं जग कर्म में कोई,
निष्क्रिय दृष्टि न आता,
है उद्देश्य नितान्त तुच्छ,
तृण के भी लघु जीवन का
उसी पूर्ति में वह करता है,
अंत कर्ममय तन का।
(i) उपर्युक्त पद्यांश का शीर्षक लिखिए।
(ii) तृण का जीवन कैसा है
(iii) उपर्युक्त पद्यांश का सारांश लिखिए।
उत्तर-
(i) पद्यांश का शीर्षक-कर्म की प्रधानता।
(ii) तृण का जीवन तुच्छ है।
(iii) सारांश-संसार में छोटा-बड़ा सभी प्राणी कर्मरत है। प्रकृति भी कर्मरत – है। कोई कहीं खाली नहीं बैठा। सब अपने कार्य का निर्वाह करते हैं, मरते दम तक।

27. थाना प्रभारी को पत्र लिखकर ध्वनि विस्तारक यंत्रों पर रोक लगाने का अनुरोध कीजिए।
उत्तर-
सेवा में,
थाना प्रभारी, सदर बाजार
जबलपुर (म.प्र.)
विषय-ध्वनि विस्तारक यंत्रों पर रोक लगाने हेतु प्रार्थना-पत्र।

महोदय,
निवेदन है कि मैं सदर बाजार जबलपुर का निवासी महेश चंद्र आपसे अनुरोध करता हूँ कि मैं आई.ए.एस. परीक्षा की तैयारी कर रहा हूँ, साथ ही अन्य छात्र भी अपनी-अपनी कक्षाओं की पढ़ाई में लगे हैं। ऐसे में आए दिन प्रचार-प्रसार की गाड़ियाँ, जगह-जगह पर होने वाले कार्यक्रमों में बजने वाले ध्वनि विस्तारक यंत्रों की तेज आवाज हमारी पढ़ाई में व्यवधान डालते हैं, अत: इन पर कुछ रोक लगाने की कृपा करें, ताकि हम अपनी पढ़ाई कर सकें। अति कृपा होगी।

भवदीय
महेश चंद्र
निवास-ए-120 सदर बाजार
जबलपुर (म.प्र.)

दिनांक: 02. 04. 20xx

अथवा

परीक्षा की तैयारी की सूचना हेतु मित्र को पत्र लिखिए।
उत्तर-
175, शिवाजी मार्ग
भोपाल (म.प्र.)
05. 06. 20xx
प्रिय मित्र अंकुर

सप्रेम नमस्कार!
आपका पत्र मुझे दिनांक 25. 05. 20xx को प्राप्त हुआ। पढ़कर मन प्रसन्न हुआ। मैं यहाँ सकुशल हूँ। आशा है आप भी ईश्वर की कृपा से प्रसन्न होंगे। मित्रवर! आजकल मैं अपनी परीक्षा की तैयारी में व्यस्त हूँ। मेरी सी.ए. की मकरंद हिंदी सामान्य परीक्षा जुलाई मास में होने वाली है। मैंने पाठ्यक्रम की सम्यक् तैयारी कर ली है। इस आधार पर मैं आपको विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि मैं प्रथम श्रेणी में अच्छे अंक लेकर उत्तीर्ण होऊँगा। आशा है कि इससे आप भी प्रसन्न होंगे।
आपके माता-पिता को मेरा सादर प्रणाम।

आपका मित्र
सौरभ
वर्मा 28.

(अ) किसी एक विषय पर लगभग 200 से 250 शब्दों में निबन्ध लिखिए: [7 + 3 = 10]
(i) पर्यावरण संरक्षण : हमारा दायित्व
(ii) स्वच्छ भारत अभियान
(iii) स्वदेश प्रेम
(iv) स्वावलंबन
(v) राष्ट्र निर्माण में युवकों का योगदान
उत्तर-
इसी पुस्तक का निबंध वाला भाग देखें।
(ब) किसी एक विषय की रूपरेखा लिखिए :
(i) मेरे सपनों का भारत
(ii) राष्ट्रीय त्यौहार
(iii) जल ही जीवन है
(iv) महिला सशक्तिकरण
(v) विद्यार्थी और अनुशासन
उत्तर-
इसी पुस्तक का निबंध वाला भाग देखें।

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