MP Board Class 12th Special Hindi काव्य-बोध अलंकार

1. यमक अलंकार।

यमक का सामान्य अर्थ है दो। अत: जब एक ही शब्द की भिन्न अर्थ में आवृत्ति होती है, वहाँ यमक अलंकार होता है।
जैसे-

(1) कनक-कनक ते सौ गुणी मादकता अधिकाय।
या पाये बौरात नर वा खाये बौराय॥ [2014]

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यहाँ कनक शब्द दो बार आया है। एक कनक का अर्थ है सोना और दूसरे कनक का अर्थ है धतूरा।

(2) मूरति मधुर मनोहर देखी।
भयउ विदेह विदेह विसेखी।

जहाँ एक विदेह का अर्थ है राजा जनक और दूसरे विदेह का अर्थ है देह रहित अर्थात् शरीर की सुधबुध खो देना।

(3) ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहनहारी,
ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहाती हैं।
कन्द-मूल भोग करें, कन्द मूल भोग करें,
तीन बेर खाती थीं वे तीन बेर खाती हैं।
भूखन सिथिल अंग, भूखन सिथिल अंग,
विजन डुलाती थीं वे विजन डुलाती हैं।
भूखन भणत सिवराज वीर तेरे त्रास,
नगन जड़ाती थीं वे नगन जड़ाती हैं।

पद या वाक्य खण्ड बार-बार आये पर अर्थ भिन्न हो।

(4) बसन हमारौ, करहु बस; बस न लेहु प्रिय लाज,
बसन देहु ब्रज में हमें, बसन देहु ब्रजराज।

यहाँ बस और बस में अधिकार तथा समाप्ति का अर्थ है। बसन अर्थात् वस्त्र और बसन-निवास करना।

यमक का प्रयोग कभी-कभी एक-से पदों को भंग करके उनके अर्थ करने में होता है।

जैसे-
वर जीते सर मैन के ऐसे देखे मैं न।
हरिनी के नैनान तें हरी नीके ये नैन।

मैन = कामदेव। मैं न = मैंने नहीं। हरिणी = मृगी के। हरी नीके = हरि (कृष्ण) अच्छे हैं।

2. श्लेष अलंकार

काव्य में जहाँ एक शब्द के एक से अधिक अर्थ निकलते हैं वहाँ श्लेष अलंकार होता है। श्लेष शब्द का अर्थ है चिपका हुआ अर्थात् एक से अधिक अर्थ चिपके रहते हैं। जैसे
(1) रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे मोती मानस चून॥ [2015]

इस दोहे में पानी के तीन अर्थ हैं।
1. मोती का पानी = मोती की आभा या चमक।
2. मनुष्य का पानी = मनुष्य की आभा या चमक प्रतिष्ठा।
3. चूने का पानी = चूने में पानी (बिना पानी के चूना सूखकर व्यर्थ हो जाता है)।

(2) चरण धरत चिला करत चितवत चारिहूँ ओर।
सुबरन की चोरी करत कवि व्यभिचारी चोर॥

यहाँ ‘चरण’ और ‘सुबरन’ में श्लेष है।

(3) अज्यौं तरौ ना ही रह्यो, स्रुति सेवत इक अंग।
नाक बास बेसर लह्यौ, बसि मुकतनु के संग॥

इसमें इस प्रकार दो अर्थ हैं। तरौ ना ही = तरौना नामक कर्णाभूषण तथा तरा नहीं = मोक्ष नहीं पाया। स्रुति = वेद,कान। नाक = नासिका,स्वर्ग। बेसर = नथ कान का आभूषण, अनुपम। मुकतनु = मोती, मुक्त पुरुषों के संग।

(4) चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गम्भीर।
को घटि ये वृषभानुजा, ये हलधर के बीर।

1. वृषभ+ अनुजा = बैल की बहन।
2. वृषभानु + जा = वृषभानु की पुत्री राधा।
3. हलधर के बीर = हल धारण करने वाले बैल के भाई। हलधर के बीर = बलदाऊ के भाई कृष्ण। राधा कृष्ण से परिहास किया है।

(5) गुन ते लेत रहीमजन सलिल कूप ते काढ़ि।
कूपहूँ ते कहुँ होत है, मन काहुँ को बाढ़ि।
यहाँ गुन शब्द के दो अर्थ हैं-सद्गुण और रस्सी।

3. व्याजस्तुति। [2011, 13, 16]

जिस वर्णन में देखने में तो निन्दा-सी प्रतीत होती है,पर वास्तव में उसके विपरीत स्तुति का तात्पर्य हो उसे व्याजस्तुति अलंकार कहते हैं। व्याज अर्थात् बहाने, स्तुति यानी प्रशंसा।
जैसे-
“जमुना तुम अविवेकिनी,
कौन लियौ यह ढंग।
पापिन सौं निज बन्धु को,
मान करावति भंग॥”

इस वर्णन में शब्दों के अर्थों से तो यमुनाजी की निन्दा प्रतीत होती है,जो पापियों से अपने भाई यमराज का मान भंग कराती है,पर वास्तव में पुण्य-सलिला यमुना की महिमा का वर्णन है, जिसमें स्नान करने से पापियों के पापों का हरण हो जाता है और वे यमलोक या नरक में नहीं जाते।

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4. व्याजनिन्दा [2011]

जिस वर्णन में देखने में स्तुति प्रतीत हो,पर वास्तव में उसमें विपरीत निन्दा का तात्पर्य हो, उसे व्याजनिन्दा अलंकार कहते हैं। जैसे
नाक कान बिनु भगिनि तिहारी,
छमा कीन्ह तुम धर्म विचारी।
लाजवन्त तुम सहज सुभाऊ,
निज गुन निज मुख कहसिन काऊ॥

हनुमानजी के इस कथन से स्तुति-सी प्रतीत होती है, पर यथार्थ में इसमें कायर और निर्लज्ज होने का तात्पर्य निकलता है, जिसमें निन्दा है।

5. अन्योक्ति

जहाँ किसी अन्य व्यक्ति या वस्तु को लक्ष्य में रखकर कोई बात किसी दूसरे के लिए कही जाती है, वहाँ अन्योक्ति अलंकार होता है। जैसे
(1) स्वारथ सुकृत न श्रम वृथा देखि विहंग विचारि।
बाज पराए पानि परि तूं पच्छीनु न मारि॥

हे बाज पक्षी ! रों के हाथ में पड़कर पक्षियों को मत मार। इससे तेरा न तो कोई स्वार्थ सिद्ध होता है और न तुझे पुण्य मिलता है। तेरा यह श्रम व्यर्थ ही है।

बिहारी कवि का यह कथन राजा जयसिंह के लिए है,जो औरंगजेब की ओर से हिन्दुओं के विरुद्ध युद्ध करते थे। सीधे न कहकर भ्रमर के माध्यम से कहा है :

(2) नहीं परागु, नहिं मधुर-मधु, नहिं विकास, इहिं काल।
अली कली ही सौं बिंध्यौ, आगे कौन हवाल॥

(3) करि फुलैल की आचमनु मीठो कहत सराहि।
ए गन्धी ! मतिमन्ध तू इतर दिखावत काहि।

यहाँ कवि का प्रस्तुत विषय तो यह है कि कोई गुणी व्यक्ति मूों के समाज में पहुँच गया है और उन मों को उपदेश दे रहा है जो उसे समझते नहीं। पर कवि इस बात को सीधे न कहकर किसी इत्र बेचने वाले के माध्यम से कह रहा है।

(4) माली आवत देखकर कलियन करी पुकार।
फूले-फूले चुन लिए, कालि हमारी बार॥

यहाँ कबीरदास जी ने नश्वर जीवन के बारे में कली और फूल के माध्यम से अपनी बात कही है। एक न एक दिन सबको जाना है।

6. विभावना [2010]

जहाँ कारण के बिना या कारण के विपरीत कार्य की उत्पत्ति का वर्णन किया जाये, वहाँ विभावना अलंकार होता है। जैसे

(1) बिनु पद चलै, सुने बिनु काना,
कर बिनु करम करै विधि नाना।
आनन-रहित सकल रस भोगी,
बिनु बानी बकता बड़ जोगी।

चलना, सुनना,करना और खाना ये सब पैर,हाथ,कान,सुख के काम हैं। यहाँ बिना कारण के कार्य है।

(2) सखि, इन नैनन,ते घन हारे,
बिनु ही रितु बरसत निसि-बासर, सदा मलिन दोऊ तारे।

यहाँ पर वर्षा ऋतु के न होने पर भी नेत्रों से आँसुओं की वर्षा हो रही है।

(3) बिनु घनस्याम धामु धामु ब्रज मण्डल के
ऊधो नित बसति बहार वर्षा की।

वर्षा के लिए मेघों का कारण आवश्यक है परन्तु यहाँ बिना बादलों के ही ब्रज के घर-घर में वर्षा होती है। यहाँ घनश्याम से अर्थ श्रीकृष्ण तथा घने श्यामवर्ण बादल से है।

7. व्यतिरेक।

जहाँ उपमेय को उपमान से भी श्रेष्ठ बताया जाये,वहाँ व्यतिरेक अलंकार होता है। जैसे
(1) स्वर्ग की तुलना उचित ही है यहाँ,
किन्तु सुरसरिता कहाँ, सरयू कहाँ?
वह मरों को मात्र पार उतारती,
यह यहीं से जीवितों को तारती।

(2) जनम सिन्धु पुनि बन्धु विषु,
दिन मलीन सकलंक॥
सिय मुख ममता पाव किमि,
चन्द बापुरो रंक॥

(3) सन्त-हृदय नवनीत समाना,
कहौं कवनि पर कहै न जाना।
निज परिताप द्रवै नवनीता,
पर दुःख द्रवै सुसंत पुनीता॥

यहाँ सन्तों (उपमेय) को नवनीत (उपमान) से श्रेष्ठ प्रतिपादित किया गया है।

(4) सिय सुबरन, सुखमाकर, सुखद न थोर
सीय अंग सखि ! कोमल कनक कठोर।

यहाँ सीता के शरीर को सुवर्ण के समान बताकर भी सीता के अंग में स्वर्ण की अपेक्षा कोमलता की विशेषता बतायी है।

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(5) सिय मुख सरद कपल जिमि किमि कहि जाय।
निसी मलीन वह निसिदन यह विगसाय।

शरद कमल तो रात्रि में मुरझा जाता है किन्तु सीता का मुख दिन-रात खिला रहता है।

8. विशेषोक्ति [2010]

जहाँ कारण के उपस्थित होने पर भी कार्य नहीं होता,वहाँ विशेषोक्ति अलंकार होता है।

जैसे-
(1) अब छूटता नहीं छुड़ाये, रंग गया हृदय है ऐसा,
आँसू से धुला निखरता यह रंग अनौखा कैसा।

(2) इन नैननि को कछु उपजी बड़ी बलाय,
नीर भरे नित प्रति रहें, तऊ न प्यास बुझाय।

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