MP Board Class 12th Special Hindi स्वाति लेखक परिचय (Chapter 6-11)

MP Board Class 12th Special Hindi स्वाति लेखक परिचय (Chapter 6-11)

6. डॉ. सुरेश शुक्ल ‘चन्द्र’
[2010]

  • जीवन परिचय

साठोत्तरी हिन्दी नाटककारों में डॉ. सुरेश शुक्ल ‘चन्द्र’ अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। आपका जन्म 8 फरवरी,सन् 1936 को उन्नाव (उत्तर प्रदेश) जिले के राजापुर गढ़ेवा ग्राम में हुआ था। आपने एम. ए. और पी-एच.डी. तक शिक्षा ग्रहण की है।

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  • साहित्य सेवा

डॉ. सुरेश शुक्ल ‘चन्द्र’ आधुनिक नाट्यशास्त्र को नई दिशा की ओर मोड़ने वाले एक प्रतिभासम्पन्न नाटककार के रूप में सुविख्यात हैं। आपने अब तक सोलह नाटक, चार एकांकी संग्रह,दो कविता-संग्रह,एक उपन्यास,आत्मकथा तथा समीक्षात्मक ग्रन्थ लिखे हैं। लेखन का यह तीव्र क्रम वर्तमान में भी जारी है।

  • रचनाएँ

इनकी अनेक रचनाएँ हैं, जिनमें ऐतिहासिक तथा समाज की विसंगतियों का सरलता से बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया गया है। इनके द्वारा लिखे गये एकांकियों में ‘स्वप्न का सत्य’, ‘टूटते हुए’,’बहुरुपिए’, ‘मुखौटे बोलते हैं’, ‘गृह कलह’, कायाकल्प’,’समर्पण’,’प्रायश्चित’ आदि प्रमुख।

  • वर्ण्य विषय

इनके नाटक व एकांकी सम-सामायिक समाज की स्थिति तथा ऐतिहासिकता को लेकर रचे गये हैं, जिनके पात्र भी ऐतिहासिक व सत्य हैं। सामाजिक रचनाओं में इन्होंने समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, अनैतिकता और अन्धविश्वास पर करारा व्यंग्य किया है।

  • भाषा

इनकी भाषा सरल, अभिनेय और मंचीय है। वाक्य छोटे होने के साथ बोधगम्य तथा सरल हैं। भाषा में प्रवाह है तथा वह संवाद तथा कथ्य को आगे बढ़ाने में पूर्णतः समर्थ है। कहीं-कहीं संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है। कथ्य को प्रभावशाली बनाने के लिए विदेशी, देशज इत्यादि शब्दों का आवश्यकतानुसार प्रयोग किया गया है। भाषा में महावरों तथा कहावतों का प्रयोग भी देखने को मिलता है; जैसे—आस्तीन का साँप, इज्जत धूल में मिलाना इत्यादि। भाषा पात्रों के अनुकूल है।

  • शैली

जहाँ एक ओर आपने सामाजिक बुराइयों को उजागर कर उन्हें दूर करने के लिए व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग किया गया है वहीं दूसरी ओर आपने अपने समस्त नाटक नाट्य-शैली में प्रस्तुत किये हैं। संवादों की लघुता, भावों की गहराई का परिचय देती है। एकांकियों की शैली मंचीय है। व्यंग्यात्मक स्थानों में उद्धरण, व्याख्या, व्यास और सूक्ति शैली को अपनाया गया है।

  • साहित्य में स्थान

नई पीढ़ी के नाटककारों में डॉ. सुरेश शुक्ल ‘चन्द्र’ को एक विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। आपने नाटक,कहानी,एकांकी, कविता, उपन्यास, आत्मकथा तथा समीक्षात्मक विधाओं में हिन्दी साहित्य को अनुपम कृतियाँ प्रदान की हैं। कृतियों की मौलिकता के कारण डॉ.शक्ल अग्रणी साहित्यकारों में गिने जाते हैं।

7. पं. रामनारायण उपाध्याय
[2009, 11, 14, 17]

घर के विद्वत् वातावरण तथा संस्कृतनिष्ठ संस्कारों से युक्त पं. रामनारायण उपाध्याय ने मध्य प्रदेश की आदिवासी संस्कृति को साहित्य में उतारने का प्रशंसनीय कार्य किया है। उनका साहित्य ग्रामीण को उजागर करने में सफल रहा है। वह अपने पाठकों को अपनी बात बताने में सहजता की डोर पकड़े रहते हैं।

  • जीवन परिचय

पं.रामनारायण उपाध्याय का जन्म 20 मई,सन् 1918 को कालमुखी नामक ग्राम,जिला (खण्डवा) मध्य प्रदेश में हुआ था। आपके पिता का नाम श्री सिद्धनाथ तथा माता का नाम दुर्गादेवी था। आपने साहित्य वाचस्पति की उपाधि प्राप्त की और पण्डित कहलाने लगे। आपने अंग्रेजी-हिन्दी का विशद अध्ययन किया जिस कारण आपका जीवन दृष्टिकोण भी अति उदार तथा विशाल बना। आप ग्रामीण जीवन व माटी से जुड़े रहे। यही ग्रामीण वातावरण आपके साहित्य में परिलक्षित होता है। आप गाँधीवादी विचारधारा से पूरी तरह प्रभावित थे। आपकी लेखनी सत्य और मानव कल्याण के लिये थी। ग्राम संस्कृति के चितेरे पं.रामनारायण उपाध्याय 20 जून,सन् 2001 को स्वर्गवासी हए।

  • साहित्य सेवा

निमाडी लोक साहित्य के मर्मज्ञ पं. उपाध्यायजी जन्मजात प्रतिभासम्पन्न साहित्यकार थे। ‘ अत: लिखने के लिए एकान्त के अतिरिक्त उन्हें किसी वस्तु व साधन की आवश्यकता नहीं थी। वे ‘मध्य प्रदेश आदिवासी लोक कला परिषद्-भोपाल’ तथा ‘राष्ट्र भाषा परिषद भोपाल’ के संस्थापक सदस्य रहे। आपने अपनी पत्नी शकुन्तला देवी की स्मृति में ‘लोक-संस्कृति न्यास की स्थापना 27 नवम्बर, सन् 1989 को की। आपको लोक संस्कृति शोध संस्थान, चुरू (राजस्थान) द्वारा ‘निमाड़ का सांस्कृतिक इतिहास’ पर झवेर चन्द मेधाणी स्वर्णपदक (1982) में, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा सम्मान (1986) में, इंडियन फोकलोर सोसायटी, कलकत्ता द्वारा भोजपुरी सम्मेलन, रेणुकूट, वाराणसी में हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद द्वारा ‘साहित्य वाचस्पति’ (1993) में,तथा मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन भोपाल द्वारा 11000 रुपये का भवभूति अलंकरण’ (1996) में प्राप्त हुआ। पंडितजी की प्रकाशित रचनाओं की संख्या चालीस से अधिक है। ‘कुंकुम-कलश और आम्रपल्लव’, ‘हम तो बाबुल तोरे बाग की चिड़िया’, ‘कथाओं की अन्तर्कथाएँ’, ‘चतुर चिडिया’ तथा ‘निमाड़ का लोक-साहित्य और उसका इतिहास’ उनकी पुरस्कृत रचनाएँ हैं।

  • रचनाएँ

पं. उपाध्याय जी ने साहित्य की विविध विधाओं; जैसे-व्यंग्य, निबन्ध, संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज,लघु कथाएँ आदि में लिखा।

  1. संस्मरण-कथाओं की अन्तर्कथाएँ’, जिन्हें भूल न सका।
  2. व्यंग्य–’बख्शीश नामा’, ‘घुघराले काँच की दीवार’।
  3. ललित निबन्ध–’जनम-जनम के फेरे’, ‘आओ अब घर चलें’ ‘आस्थाओं की जमीन’।
  4. लोक साहित्य-निमाड़ का सांस्कृतिक इतिहास’, ‘लोक जीवन में राम’।
  5. पत्र-संग्रह–’चिट्ठी-पत्री’।
  6. व्यक्तित्व-कृतित्व-‘मामूली आदमी’, ‘धरती का बेटा’। वर्ण्य विषय बहुमुखी प्रतिभा के धनी पं.उपाध्याय जी को अपने गाँव से ही साहित्य रचने की प्रेरणा मिली। उनकी सम्पर्क-शीलता, जनसाधारण से पत्र-व्यवहार और परिचय की व्यापकता ने

उन्हें साहित्य रचना का वर्ण्य-विषय प्रदान किया। निमाड़ी लोक-जीवन को साहित्य में उतारने का सराहनीय कार्य पंडितजी ने किया। एक सच्चे किसान की भावुकता,सहृदयता और क्रियाशीलता उनके साहित्य में सर्वज्ञ दिखाई देती है। गाँधीवादी जीवन और विचारधारा के साथ ग्राम और ग्राम्य संस्कृति उनकी रचनाओं के आधार हैं।

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  • भाषा

लोक साहित्यविद् पंडितजी की भाषा भी लोकभाषा ही है। लेकिन संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली में विदेशी शब्द, जैसे-ऑर्डर, स्टेशन इत्यादि का प्रयोग है। साथ ही, साधारण बोलचाल के आंचलिक शब्दों का प्रयोग भाषा को मधुरता देता है। पंडितजी को शब्दों से मोह नहीं है। वह तो यन्त्र के पुजों की तरह फिट बैठने वाले शब्दों का प्रयोग करते हैं। कहीं-कहीं वाक्यों में सूत्रता आ जाती है। अधिकतर वाक्य छोटे व विचारपूर्ण हैं। परन्तु लघु गद्यांश रूप में भी वाक्यों का प्रयोग करने में वे नहीं चूकते। इस प्रकार उनकी भाषा प्रवाहपूर्ण तथा बोधगम्यतापूर्ण है।

  • शैली

पं.रामनारायण उपाध्याय जी की शैली में विविधता है। “मैं क्यों लिखता हूँ?” निबन्ध में उन्होंने आत्मपरक शैली को अपनाया। लोक साहित्य में वर्णनात्मक शैली को निभाया। इस शैली की भाषा सरल व प्रवाहपूर्ण है। अपनी बात को प्रभावशाली बनाने के लिए उन्होंने यत्र-तत्र सूत्रात्मक शैली को अपनाया है। व्यंग्यात्मक निबन्धों में व्यंग्यात्मक शैली को अपनाया तो संस्मरणों में भावात्मक शैली को। इस प्रकार लेखक ने समय के अनुसार विविध शैलियों का प्रयोग करके अपने साहित्य का कलेवर सजाया है।

  • साहित्य में स्थान

लोक-संस्कृति-पुरुष के रूप में पंडित जी ने पर्याप्त ख्याति प्राप्त की है। हिन्दी साहित्य के भण्डार को विविध साहित्यिक विधाओं से भरने के कारण उनका एक विशिष्ट स्थान है। ग्रामीण जीवन की अभिव्यक्ति ने उनके साहित्य को अनुपम बना दिया है। हिन्दी गद्य साहित्य सदैव उनका ऋणी रहेगा।

8. डॉ. रघुवीर सिंह [2009, 11, 12, 13]

इतिहास को साहित्य में पिरोने वाले डॉ.रघुवीर सिंह इतिहास एवं संस्कृति के प्रवक्ता के रूप में जाने जाते हैं। एक राजघराने में जन्म लेकर भी आप साहित्य-सृजन के कष्टपूर्ण और तपस्या के मार्ग पर बड़ी सफलता से आगे बढ़े। इनके भावात्मक निबन्धों के लिए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं-~-“ये हृदय के मर्मस्थल से निकले हैं और सहृदयों के शिरीष-कोमल अन्तस्तल में सीधे जाकर सुखपूर्वक आसन जमाएँगे।”

  • जीवन परिचय

डॉ. रघुवीर सिंह का जन्म सन् 1908 ई. में मन्दसौर जिले के सीतामऊ के राजघराने में हुआ था। इनके पिता मालवा की सीतामऊ रियासत के महाराज थे। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर तथा उच्च शिक्षा होल्कर कॉलेज, इन्दौर में हुई। आपने आगरा विश्वविद्यालय से एम.ए. तथा एल. एल. बी. की परीक्षाएँ उत्तीर्ण की। ‘मालवा में युगान्तर’ नामक शोधग्रन्थ पर आगरा विश्वविद्यालय ने इन्हें डी.लिट. की उपाधि प्रदान की। सन् 1991 में इनका निधन हो गया।

  • साहित्य सेवा

राजघराने से सम्बन्धित होते हुए भी रघुवीर सिंह ने साहित्य-साधना के कठिन मार्ग को अपनाया। ये प्रमुख रूप से निबन्ध लेखक थे। इनके निबन्धों की शैली सजीव एवं ओजपूर्ण है। ‘शेष स्मृतियाँ’ इनकी सर्वाधिक लोकप्रिय पुस्तक है। ‘ताज’, ‘फतेहपुर सीकरी’ पर आलंकारिक शैली में निबन्ध लिखकर इन्होंने पर्याप्त ख्याति अर्जित की।

• रचनाएँ
(1) इतिहास सम्बन्धी रचनाएँ–’पूर्व मध्यकालीन भारत’, ‘मालवा में युगान्तर’, ‘पूर्व आधुनिक राजस्थान’।
(2) साहित्यिक कृतियाँ-‘शेष स्मृतियाँ’, ‘सप्तदीप’,’बिखरे फूल’ तथा ‘जीवन कण’।

• वर्ण्य विषय
रघुवीर सिंह प्रसिद्ध इतिहास लेखक तथा गद्यकाव्य सर्जक हैं। ‘मध्य युग का इतिहास’ उनके साहित्य का विषय था। इतिहास के ज्ञाता होने के साथ-साथ तथा सहृदय सौन्दर्य उपासक होने के कारण वे साहित्य में भी अपनी गहरी पैठ बना सके। आप हिन्दी साहित्य में ऐतिहासिक निबन्धकार के रूप में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इसी कारण इनके साहित्यिक निबन्धों में भी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का आश्रय विद्यमान है, जिसमें तत्कालीन युग-जीवन मुखर है। सर्वाधिक लोकप्रिय पुस्तक ‘शेष स्मृतियाँ’ ऐतिहासिक आधार पर लिखे गये भावात्मक निबन्धों का संग्रह है।

  • भाषा

डॉ. रघुवीर सिंह की भाषा सरल, स्पष्ट और सुबोध है। यद्यपि भाषा संस्कृतनिष्ठ शब्दावली से युक्त है तथापि यथावसर उर्दू शब्दों के प्रयोग से भी परहेज नहीं किया गया है। इसी कारण विषय-प्रतिपादन में प्रवाह और प्रभावोत्पादकता आ गई है। भाषा ललित हो गई है जो सहज ही पाठक को भाव-प्रवण और संवेदनशील बना देती है। तत्सम शब्दों की प्रधानता है, जैसे-द्युति, स्मृति, विरक्त, तृप्त आदि। कहावतों,मुहावरों और अलंकारों के प्रयोग ने भाषा को गति प्रदान की है। ‘प्यार की ठण्डी दुलारी बयार’ जैसे शब्द-समूहों के प्रयोग से भाषा सजीव हो उठी है। भावों की अभिव्यक्ति के लिए कहावतों,मुहावरों का सटीक चयन किया गया है।

  • शैली

डॉ. रघुवीर सिंह की शैली की प्रमुख विशेषता-रोचकता, चित्रात्मकता, भावुकता तथा अलंकार योजना है।

  1. भावात्मक शैली–अधिकांश निबन्ध भावात्मक शैली में हैं जिनकी भाषा काव्यात्मक एवं सरस हो गई है; जैसे- “दिवस भर के उत्थान के बाद संध्या समय अपने पतन पर क्षुब्ध मरीत्तिमाली जब प्रतीची के पादप पुंज में अपना मुख छिपाने को दौड़ पड़ते हैं और विदा होने से पूर्व अश्रुपूर्ण नेत्रों से जब वे उस अमर करुण कहानी की ओर एक निराशपूर्ण दृष्टिं डालते हैं तब तो वह पुराना किला रो पड़ता है।”
  2. चित्रात्मक शैली इस शैली का सहारा लेकर एक चित्रकार की भाँति इन्होंने अपने भावों को पाठकों के समक्ष रखा है; जैसे-“सन्दरता में ताज का प्रतियोगी. एत्मादोला का मकबरा, भाग्य की चंचलता का मूर्तिमान रूप है।”
  3. आलंकारिक शैली-आलंकारिक शैली के प्रयोग से इनके निबन्धों में सजीवता तथा प्रभावोत्पादकता आ गई है। उपमा, रूपक, अतिश्योक्ति इत्यादि अलंकारों का प्रयोग दर्शनीय है। विरोधाभास अलंकार का उदाहरण देखिए-यशोधरा कहती है, “हिमालय की छाँह में रहकर भी मेरा यह ताप किसी प्रकार घटता नहीं है।”
  4. विचारात्मक शैली-गम्भीर विषयों की विवेचना में संस्कृतनिष्ठ शब्दावली का सहारा लिया गया है; जैसे-“मानव जीवन एक पहेली है और उससे भी अधिक अनबूझ वस्तु है विधि का विधान।”
  5. वर्णनात्मक शैली इतिहासकार होने के कारण आपकी रचनाओं में वर्णनात्मक शैली का प्रयोग स्वाभाविक ही है।

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  • साहित्य में स्थान

रघुवीर सिंह मुख्यतः ऐतिहासिक विषयों के निबन्धकार माने जाते हैं। इनके निबन्ध दार्शनिक चिन्तन,शोधपरक अनुसन्धान और सांस्कृतिक आलोचना की छत्र-छाया माने जाते हैं। इनकी इस शोध चिन्तन एवं सांस्कृतिक साहित्यिक अभिरुचि का मूर्तरूप ‘नटनागर शोध संस्थान, सीतामऊ’ है। यहाँ साहित्य, इतिहास एवं संस्कृति में शोध की अनेक सुविधाएँ उपलब्ध हैं। इनके निबन्धों को वर्णन, चित्र एवं भाव-निरूपण की दृष्टि से अमूल्य समझा जाता है। हिन्दी साहित्य में इनकी उत्कृष्ट कृतियों के कारण इन्हें प्रतिभाशाली साहित्यकार के रूप में माना जाता है।

9. जैनेन्द्र कुमार

आधुनिक हिन्दी गद्य साहित्य में उपन्यास एवं कहानियों के लेखन में जैनेन्द्रजी अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। ये प्रेमचन्दोत्तर युग के श्रेष्ठ कथाकार माने जाते हैं। ये हिन्दी साहित्य में मनोविश्लेषणात्मक लेखन के पुरोधा हैं।

  • जीवन परिचय

गहन चिन्तनशील जैनेन्द्र कुमार का जन्म अलीगढ़ जिले के कौड़ियागंज नामक कस्बे में सन् 1905 ई.में हुआ। इनके पिता का नाम श्री प्यारेलाल और माता का नाम श्रीमती रामदेवी था। पिता की मृत्यु के समय ये मात्र दो वर्ष के थे। इनका पालन-पोषण माताजी तथा नानाजी ने किया। इनका बचपन का नाम आनन्दीलाल था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा हस्तिनापुर के जैन गुरुकुल “ऋषि ब्रह्मचर्य आश्रम” में हुई और यहीं इनका नाम जैनेन्द्र कुमार रखा गया। सन् 1912 में गुरुकुल छोड़कर 1919 में पंजाब से मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की और काशी विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। सन् 1921 में पढ़ाई छोड़कर असहयोग आन्दोलन तथा स्वतन्त्रता संग्राम आन्दोलन में भाग लेने के कारण इन्हें अनेक बार जेल जाना पड़ा। इन्होंने माताजी की सहायता से व्यापार भी किया परन्तु असफल होने पर साहित्य क्षेत्र में प्रवेश किया। दिल्ली में रहकर स्वतन्त्र रूप से साहित्य सेवा करते हुए 24 दिसम्बर, सन् 1988 को इनका देहान्त हो गया।

  • साहित्य सेवा

इनकी प्रथम कहानी ‘खेल’ सन् 1928 ई.में ‘विशाल भारत’ में छपी थी। सन् 1929 में इनका पहला उपन्यास ‘परख’ प्रकाशित हुआ जिस पर साहित्य अकादमी ने 500 रुपये का पुरस्कार प्रदान किया। जीवन-पर्यन्त साहित्य साधना में संलग्न रहकर जैनेन्द्र जी ने हिन्दी साहित्य को उपन्यास,कहानी, निबन्ध,संस्मरण, अनुवाद और विविध विधाओं की रचना से धनी बनाया।

  • रचनाएँ

प्रेमचन्द के बाद जैनेन्द्र ही कथा साहित्य के सरताज हैं। परन्तु यश उन्हें निबन्ध के क्षेत्र में ही मिला।

  1. कहानी-संग्रह–फाँसी’, ‘एक रात’, ‘स्पर्धा’, ‘पाजेब’, ‘वातायण’, ‘नीलम देश की राजकन्या’, ‘ध्रुवयात्रा’, ‘दो चिडिया’ आदि। ‘जैनेन्द्र की कहानियाँ’ नाम से दस भागों में आपकी कहानियाँ संगृहीत हैं।
  2. उपन्यास-परख’, ‘सुनीता’, ‘त्याग-पत्र’, कल्याणी’, ‘विवर्त’, ‘सुखदा’ ‘व्यतीत’, ‘मुक्तिबोध’।
  3. निबन्ध-संग्रह–’प्रस्तुत प्रश्न’, पूर्वोदय’, ‘जड़ की बात’,’साहित्य का श्रेय और प्रेम’, ‘मन्थन’,’गाँधी-नीति’,’काम-प्रेम और परिवार’ आदि।
  4. संस्मरण ‘ये और वे’।
  5. अनुवाद–’मंदालिनी’ (नाटक), पाप और प्रकाश’ (नाटक), प्रेम और भगवान’ (कहानी)।
  • वर्ण्य विषय

बहुमुखी प्रतिभा के धनी जैनेन्द्र जी ने कहानी, उपन्यास, निबन्ध,संस्करण, अनुवाद आदि अनेक गद्य विधाओं को अपना वर्ण्य विषय बनाया। एक ओर उनकी रचनाओं में पात्रों के अन्तर्मन एवं बाह्य रूप की झाँकी में दार्शनिकता मिलती है तो दूसरी ओर मानव जीवन के वर्तमान समय में उपस्थित विविध प्रश्नों के साथ-साथ उसकी शाश्वत समस्याओं का उद्घाटन भी मिलता है। उनके निबन्धों का वर्ण्य विषय साहित्य,समाज,राजनीति, धर्म,संस्कृति आदि है। आपका दृष्टिकोण मानवतावादी है। मनोवैज्ञानिकता आपकी रचनाओं का आधार थी। हाड़-माँस के पात्र जो अच्छाइयों और बुराइयों के समवेत पुंज हैं, इनकी रचनाओं के वर्ण्य विषय हैं। इन पात्रों के चरित्र की आधारशिला बुद्ध की करुणा, महावीर की अहिंसा और महात्मा गाँधी की सहनशीलता है। इसी कारण इनकी कथावस्तु संक्षिप्त और पात्र कम होते हैं। इनकी तुलना प्रेमचन्द से की जाती है। प्रेमचन्द का रचना-क्षेत्र ग्रामीण समाज और उसके शोषण पर केन्द्रित था, परन्तु जैनेन्द्र शहरी समाज की मनोवैज्ञानिक ग्रन्थियों पर कलम चलाते हैं।

  • भाषा

उनकी भाषा के कई रूप हैं—पहला, उनके उपन्यासों और कहानियों में है। जो सरल, सुबोध और संस्कृतनिष्ठ है। दूसरा रूप निबन्धों में है जिसमें गम्भीरता व दुरूहता आ गई है। इनकी भाषा विषय के अनुकूल परिवर्तित हो जाती है। भाषा की गम्भीरता के समय वाक्य बड़े तथा तत्सम शब्दावली से युक्त हैं। वर्णनात्मकता के समय वाक्य छोटे और अन्य भाषाओं के शब्दों से युक्त हैं, जैसे-“वायसरायगिरी करते हैं जो बेहद जिम्मेदारी का काम है।” दूसरी भाषाओं, जैसे-अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत के शब्दों को अपनाने में उदारता है। भाषा में प्रभाव व चमत्कार उत्पन्न करने के लिए मुहावरे और कहावतों का भी प्रयोग है, जैसे-दर-दर भटकना, ठन-ठन गोपाल होना,पूँछ हिलाना आदि।

  • शैली

जैनेन्द्रजी की शैली के निम्नलिखित तीन रूप देखने को मिलते हैं

  1. विचार-प्रधान विवेचनात्मक शैली-इनका रूप निबन्धों में देखने को मिलता है, जिसमें विचारों की गम्भीरता और चिन्तन की दुरूहता है। “पर अहंकार हवा में थोड़े उड़ जाता है। साधना से उसे धीमे-धीमे हल्का और व्यापक बनाना होता है।”
  2. मनोविश्लेषणात्मक शैली कहानी और उपन्यास के पात्रों के अन्तर्द्वन्द्व और बहिर्द्वन्द्व की अनुभूतियों को स्पष्ट करने के लिए इस शैली का प्रयोग किया गया है।
  3. व्यावहारिक शैली कथा में जीवन्तता लाने के लिए इस शैली का प्रयोग किया गया है। वार्तालाप के माधुर्य और सहज व्यंग्यात्मकता के कारण इसमें रोचकता आ गयी है। प्रसादगुण इस शैली की विशेषता है। इसमें वाक्य छोटे व सहज हैं।
  • साहित्य में स्थान

गहन चिन्तनशील जैनेन्द्रजी ने मनोवैज्ञानिकता प्रधान उपन्यास और कहानी की एक विशेष धारा प्रारम्भ की थी। आपके चिन्तन तथा नवीन शैली विधान ने हिन्दी साहित्य को एक नई दिशा प्रदान की है। आपका सरल, सुबोध अभिव्यक्ति-कौशल, कथा को मार्मिक और प्रभावपूर्ण बनाता है। अपने इसी विशिष्ट रचना-कौशल और सामाजिक सम्बद्धता के बल पर आपने हिन्दी साहित्य में एक विशिष्ट स्थान बनाया है।

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10. डॉ. शिवप्रसाद सिंह
[2009]

प्रेमचन्द की परम्परा को पुनः जीवित करके उसे आधुनिक मान देने वाले डॉ. शिवप्रसाद सिंह हिन्दी साहित्य में अपनी बहुमुखी प्रतिभा और लेखन-सामर्थ्य का परिचय देने वाले हैं।

  • जीवन परिचय

डॉ.शिवप्रसाद सिंह का जन्म 19 अगस्त,सन् 1929 ई.में वाराणसी जनपद के एक कृषक परिवार में हुआ। इनकी शिक्षा वाराणसी के उदय प्रताप विद्यालय और हिन्दू विश्वविद्यालय में सम्पन्न हुई। इन्होंने एम. ए. करने के पश्चात् पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। इन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में रीडर पद पर अध्यापन कार्य किया तथा हिन्दी विभागाध्यक्ष रहे और उसी पद से सेवानिवृत्त हुए।

  • साहित्य सेवा

डॉ. शिवप्रसाद सिंह का लेखन-क्षेत्र बहुत व्यापक है। इन्होंने कहानी, उपन्यास, निबन्ध, नाटक,जीवनी, आलोचना एवं सम्पादन इत्यादि सभी विधाओं में लेखन-कार्य किया है। आपको ‘नीला चाँद’ उपन्यास के लिए 1992 में व्यास सम्मान से सम्मानित किया गया। ‘अलग-अलग वैतरणी’ उपन्यास ने उन्हें साहित्य जगत् में चर्चा का केन्द्र बनाया। उनकी कहानियाँ चरित्र-प्रधान होने के साथ-साथ अतीत से प्रेरणा ग्रहण करती हैं। उनके ललित निबन्धों में उनकी संवेदनशील आध्यात्मिक व्यक्तित्व की छवि है।

  • रचनाएँ

डॉ.शिवप्रसाद सिंह ने साहित्य की विविध विधाओं पर अपनी लेखनी चलायी। उनकी रचनाएँ इस प्रकार हैं

  1. कहानी-‘आर-पार की माला’, ‘कर्मनाशा की हार’, ‘मुरदा सराय’, इन्हें भी इन्तजार है’, भेड़िया’ तथा ‘अंधेरा हँसता है’ प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं।
  2. उपन्यास–अलग-अलग वैतरणी’, ‘गली आगे मुड़ती है’, ‘वैश्वानर’, ‘चाँद फिर उगा’, ‘नीला चाँद’ आदि प्रमुख उपन्यास हैं।
  3. नाटक-‘घंटिया गूंजती हैं।
  4. निबन्ध-संग्रह-‘शिखरों के सेतु’,’चतुर्दिक’, कस्तूरी मृग’ इत्यादि निबन्ध-संग्रह हैं।
  5. समीक्षा-‘कीर्तिलता’, विद्यापति’, लेखन और नवालेखन’ आदि आलोचनाएँ हैं।
  6. सम्पादन–आपने ‘शिवालिक’ और ‘कल्पना’ का सम्पादन भी किया।
  • वर्ण्य विषय

बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ.शिवप्रसाद सिंह ने साहित्य की विभिन्न विधाओं पर लेखनी चलाई। कहानी, उपन्यास, नाटक, निबन्ध, समीक्षा, सम्पादन आदि सभी पर लिखा। मनुष्य और मनुष्यता के विविध सन्दर्भ और रूप उनके लेखन को व्यापकता प्रदान करते हैं। मनुष्य और प्रकृति का तादात्म्य उनकी रचनाओं में देखने को मिलता है। यथार्थ के उद्घाटन में व्यंग्य का धरातल है। कहानियों में ग्राम्य कथानक के साथ सामाजिक समस्याओं का भी समाधान है। डॉ. शिवप्रसाद सिंह ने अपने साहित्य-सृजन में बदलते मूल्यों को स्वीकार किया है।

  • भाषा

डॉ.शिवप्रसाद सिंह की भाषा शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली है,जिसमें मुहावरों का सटीक प्रयोग विद्यमान है; जैसे-रंग जमता है,रंग उखड़ता है,रंग चढ़ता है,दाल में काला होना,खाक छानना इत्यादि। संस्कृत शब्दावली के प्रयोग से भाव-ग्रहण में कहीं-कहीं क्लिष्टता आ गई है; जैसे-स्निग्धाभिन्नाञ्जनाभा, विद्रुमभंगलोहित, श्वेत-तुषार-मण्डित। उर्दू के भी प्रचलित शब्दों का प्रयोग है; जैसे—मजेदार, चीजें, खूब, सैलाब, हौसला आदि। आंचलिक अथवा ग्रामीण शब्दावली है; जैसे–मानुष,डीह,टेस, बिरबा, चौरा आदि।

इस प्रकार भाषा में विभिन्न शब्दों के प्रयोग से प्रसंगों को जीवन्त और प्रवाहपूर्ण बनाते हुए भाषा को सजीवता प्रदान की गई है।

  • शैली

डॉ.शिवप्रसाद सिंह ने शैली के निम्नलिखित कई रूपों को अपनाया है-

  1. उद्धरण शैली-डॉ. शिवप्रसाद सिंह ने अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए स्थान-स्थान पर संस्कृत व हिन्दी के लेखकों के अनेकों उदाहरण दिये हैं; जैसे-तुलसी-‘गिरा अनयन नयन बिनु पानी’। इसमें लघु वाक्यों का सुन्दर प्रयोग किया गया है।
  2. सामासिक पद शैली-इनकी शैली में सामासिक पद शैली के द्वारा विचारों को स्पष्ट करने का सफल प्रयास परिलक्षित होता है; जैसे—“रंग-भ्रान्ति और रंग-परिवर्तन विर-वर्णनों में स्वभावतः अधिक दिखाई पड़ते हैं।” इस शैली के माध्यम से वाक्य की संक्षिप्तता सौन्दर्य को बढ़ाने में सहायक है।
  3. भावात्मक शैली-इस शैली का प्रयोग कहानियों में किया गया है। इस शैली में भाषा अपेक्षाकृत कठिन हो जाती है। ‘कर्मनाशा की हार’ कहानी में भावात्मक शैली के दर्शन होते हैं।
  • साहित्य में स्थान

कहानीकार, उपन्यासकार, नाटककार, निबन्धकार एवं समीक्षक डॉ. शिवप्रसाद सिंह ने अपनी प्रबल लेखनी के जाद से हिन्दी गद्य साहित्य को एक नया रूप प्रदान किया है। आपने अब तक अनछुए विषयों पर लिखकर अपनी लेखन कुशलता का परिचय दिया है। रचनाओं की मौलिकता तथा अभिव्यक्ति के कारण डॉ.शिवप्रसाद सिंह वर्तमान युग के अग्रणी साहित्यकार माने जाते हैं।

11. आचार्य विनोबा भावे

  • जीवन परिचय

आचार्य विनोबा भावे का जन्म 11 सितम्बर,1895 को महाराष्ट्र में कोंकण क्षेत्र के एक छोटे से गाँव नागोदा में हुआ था। आपका मूल नाम विनायक नरहरि भावे था। माता का नाम रुक्मिणी था जो एक विदुषी तथा धार्मिक महिला थीं तथा पिता नरहरि भावे को गणित एवं विज्ञान के प्रति गहन अनुराग था। माँ उन्हें प्यार से विन्या पुकारती थीं। आपने सन् 1915 में हाईस्कूल पास किया। बम्बई में इण्टर करने गये परन्तु पढ़ाई पूरी नहीं कर सके। माँ से भक्ति-आध्यात्म चिन्तन मिला,पिता से वैज्ञानिक सूझ-बूझ तो गुरु रामदास,संत ज्ञानेश्वर तथा शंकराचार्य से ब्रह्मचर्य पालन व संन्यास की प्रेरणा मिली और सन्त विनोबा बने। आपने किसानों के लिए एक स्वप्न देखा कि प्रत्येक किसान के पास एक जमीन का टुकड़ा हो। इसके लिए आपने एक ‘भूदान आन्दोलन’ शुरू किया। आप एक आदर्श नेता एवं संगठनकर्ता भी थे। जीवन का संध्याकाल पुनार (महाराष्ट्र) के आश्रम में गुजारते हुए आप 15 नवम्बर,1982 को अनन्त में विलीन हो गए।

  • साहित्य सेवा

विनोबा भावे एक आदर्श छात्र, विचारक, लेखक, दर्शनशास्त्री, प्रवचनकर्ता थे तो एक अनुवादक तथा भाषाविद भी थे। संस्कृत ग्रन्थों के अनुवाद के द्वारा आपने दर्शन को आम आदमी तक पहुँचाया। मराठी, हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत एवं कन्नड़ पर उनका पूर्ण अधिकार था। कन्नड़ को वह सभी भाषाओं की रानी कहते थे। उन्होंने भगवद्गीता को अपने जीवन की सास मानते हुए उसकी व्याख्या व आलोचना की तथा उसके दर्शन को जनता तक पहुंचाया। आपने आदिगुरु शंकराचार्य, बाईबिल तथा कुरान पर भी कार्य किया। संत ज्ञानेश्वर की कविताओं पर गहन अध्ययन किया। ‘गीता प्रवचन’ तथा ‘संतप्रसाद’ जैसी पुस्तकें उनकी मौलिकता का परिचय देती हैं। सन् 1931 में माँ के कहने पर आपने गीता का मराठी में अनुवाद किया। आपने वर्धा आश्रम में ‘महाराष्ट्र धर्म’ पत्रिका का सम्पादन किया। आप देवनागरी को सम्पर्क लिपि के रूप में विकसित करने के पक्षधर थे। इस हेतु आपने ‘नागरी लिपि संगम’ की स्थापना की। इस प्रकार साहित्य जगत में मूल रूप से न रहते हुए भी आपने साहित्य की अनुपम सेवा की।

  • रचनाएँ

भगवद्गीता, बाईबिल तथा कुरान जैसे अनेक धार्मिक ग्रन्थों पर कार्य करके उनके दर्शन व रहस्य को बताने वाले विनोबा भावे ने अनेक पुस्तकें लिखीं तथा संस्कृत की अनेक पुस्तकों का मराठी में अनुवाद किया। हिन्दी में निबन्ध लिखे। आपकी रचनाएँ निम्नवत् हैं ‘गीता प्रवचन’, गीता का मराठी में अनुवाद, संतप्रसाद’, ‘गीताई’, ‘महाराष्ट्र धर्म’ पत्रिका का सम्पादन, The Essence of Quran (कुरान का सार), The Essence of Christian Teachings (ईसाई शिक्षाओं का सार), Thoughts of Education (शिक्षा पर विचार), ‘स्वराज्य शास्त्र’।

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  • वर्ण्य विषय

आध्यात्म चेतना के साधक विनोबा भावे का प्रिय विषय दर्शनशास्त्र था। कशाग्र बद्धि विनोबा भावे ने गणित, कविता तथा आध्यात्म को अपना वर्ण्य विषय बनाया। संन्यासी जीवन व्यतीत करते हुए अपरिग्रह, अस्तेय,निस्पृह, निर्लिप्त जीवन की व्याख्या उनके निबन्धों में मिलती है। गीता उन्हें बचपन से कण्ठस्थ थी, अत : गीता का मराठी में अनुवाद, हिन्दी में निबन्ध तथा प्रवचन साधारण मनुष्य को जीवन का संदेश देते हैं। उन्होंने ब्रह्म-जगत-सत्य-संन्यास पर चर्चा की। मात्र 21 वर्ष की अल्पायु में अद्वैतवाद पर बहस की। आदर्श समाज सुधारक के रूप में ‘भूदान आन्दोलन’ चलाया। भारतीय दर्शन की सरल भाषा में व्याख्या करके आपने उसे सामान्य जनता तक पहुँचाया। इसी कारण से आपके निबन्ध, व्याख्या, आलोचना, कविता, अनुवाद, प्रवचन, सम्पादन आदि भारतीय जन को प्रभावित करते हैं।

  • भाषा

एक सरल हृदय विचारक की भाषा भी सरल ही होती है। मराठी, हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत तथा कन्नड़ भाषाओं पर आपको अद्भुत अधिकार प्राप्त था। इसी कारण आपको भाषाविद् भी कहा जाता है। आपकी भाषा में संस्कृत शब्दों का बाहुल्य है। इसकी वजह से भाषा क्लिष्ट तथा गंभीर हो गई है। अनेक स्थानों पर आपकी भाषा काव्यमयी हो गई है। अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए आपने मुहावरों का प्रयोग कर भाषा को सजीव व चुटीला बनाया है। स्वजनासक्ति जैसे संस्कृत के सामासिक शब्दों के प्रयोग के साथ रूपक व उपमा अलंकार के प्रयोग ने आपके गद्य को भी काव्यमय बना दिया है। लघु वाक्य सूत्र का सा आभास देते हैं। इस प्रकार आपकी भाषा में अपार प्रवाह युक्त आकर्षण है।

  • शैली

कलम के धनी विनोबा जी की शैली व्याख्यात्मक तथा उदाहरण शैली का नमूना है। आपने निबन्धों में विवरणात्मक शैली को अपनाया है। उर्दू आदि के शब्द प्रयोग से शैली में सरलता आ गई है। अति सूक्ष्म रूप में उपदेशात्मक शैली का भी प्रयोग हुआ है। वाक्य भावों के अनुरूप अति लघु व विस्तृत हो गए हैं। दर्शन और आलोचनात्मक निबन्धों में गवेषणात्मक शैली के दर्शन होते हैं। विनोबा भावे चिन्तनशील निबन्धकार हैं। आपकी रचनाओं में विचार प्रधान, पांडित्यपूर्ण, प्रौढ़ एवं परिमार्जित शैली विद्यमान है। चिन्तन की उदात्तता पाठक को प्रभावित किए बिना नहीं रहती।

  • साहित्य में स्थान

आचार्य विनोबा भावे अनेक भाषाओं के विद्वान, कुशल राजनीतिज्ञ, मर्मज्ञ साहित्यकार, भारतीय संस्कृति एवं दर्शन के ज्ञाता, गम्भीर विचारक तथा जागरूक समाज सुधारक के रूप में सामने आते हैं। उनके नाम पर हजारी बाग (झारखण्ड) में विनोबा भावे विश्वविद्यालय स्थापित किया गया है। केरल राज्य में उन्होंने स्वयं 7 ‘विनोबा भावे आश्रम’ तथा 7 ‘विनोबा निकेतन’ स्थापित किए। सम्पादन के क्षेत्र में आपका अद्वितीय स्थान है। आपकी कृतियों में चिन्तन,मनन और अनुशीलता के बिम्ब दृष्टिगोचर होते हैं। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि मूलतः साहित्यकार न होते हुए भी विनोबा भावे का साहित्य में उच्च स्थान है

महत्वपूर्ण वस्तुनिष्ठ प्रश्न

  • बहु-विकल्पीय प्रश्न

1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का जन्म हुआ था
(अ) आगरा में, (ब) अगोना में, (स) अजमेर में, (द) अलीगढ़ में।

2. ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ सर्वप्रथम लिखा
(अ) मोहन राकेश ने, (ब) श्यामसुन्दर दास ने, (स) रामचन्द्र शुक्ल ने. (द) डॉ. रघुवीर सिंह ने।

3. उषा प्रियंवदा ने इस विद्यालय से अंग्रेजी में स्नातकोत्तर की उपाधि अर्जित की है
(अ) सागर विश्वविद्यालय, (ब) अम्बेडकर विश्वविद्यालय, (स) इलाहाबाद विश्वविद्यालय, (द) दिल्ली विश्वविद्यालय।

4. ‘पचपन खम्भे लाल दीवार’ किसकी रचना है [2012]
(अ) महादेवी वर्मा की,
(ब) मृणाल पाण्डे की, (स) शिवानी की, (द) उषा प्रियंवदा की।

5. सन् 1923 में जीविका की तलाश में उदयशंकर भट्ट गये
(अ) लाहौर, (ब) चटगाँव, (स) इस्लामाबाद, (द) शक्करपुर।

6. उदयशंकर भट्ट ने नागपुर और जयपुर रेडियो केन्द्रों पर इस रूप में कार्य किया
(अ) न्यूज रीडर, (ब) प्रोड्यूसर, (स) स्क्रिप्ट राइटर, (द) संवाददाता।

7. शरद जोशी प्रसिद्ध हैं [2011]
(अ) कवि के रूप में, (ब) गजलकार के रूप में, (स) व्यंग्यन लेखक के रूप में, (द) इतिहासकार के रूप में।

8. प्रसिद्ध व्यंग्य संग्रह ‘जीप पर सवार इल्लियाँ’ किस लेखक की रचना है?
(अ) हरिशंकर परसाई, (ब) शरद जोशी, (स) धर्मवीर भारती, (द) निर्मल वर्मा।

9. डॉ. श्यामसुन्दर दुबे की लगभग कितनी पुस्तकें प्रकाशित हैं?
(अ) पाँच, (ब) पच्चीस, (स) पाँच सौ, (द) सौ।

10. डॉ. श्यामसुन्दर दुबे के लेखन का इस संस्कृति से गहरा तादात्म्य था
(अ) नागरीय संस्कृति, (ब)लोकसंस्कृति, (स) पाश्चात्य संस्कृति, (द) पूर्वी संस्कृति।

11. डॉ. सुरेश शुक्ल ‘चन्द्र’ ने मूलत: हिन्दी साहित्य की इस विधा को अपनी लेखनी का
विषय बनाया (अ) उपन्यास, (ब) संस्मरण, (स) नाटक, (द) रिपोर्ताज।

12. डॉ. सुरेश शुक्ल ‘चन्द्र’ द्वारा लिखित ‘तात्या टोपे’ किस प्रकार का एकांकी है?
(अ) सामाजिक, (ब) ऐतिहासिक, (स) राजनैतिक, (द) आर्थिक।

13. ‘निमाड़ी लोक साहित्य’ के मर्मज्ञ गद्य-लेखक कौन थे?
(अ) प्रेमचन्द, (ब) शिवप्रसाद सिंह, (स) जैनेन्द्र, (द) रामनारायण उपाध्याय।

14. रामनारायण उपाध्याय इस महापुरुष के जीवन व विचारधारा से प्रभावित थे
(अ) गाँधीजी, (ब) कार्ल मार्क्स, (स) हिटलर, (द) विनोबा भावे।

15. प्रसिद्ध गद्यकाव्य लेखक हैं
(अ) जैनेन्द्र, (ब) रामचन्द्र शुक्ल, (स) शरद जोशी, (द)डॉ.रघुवीर सिंह।

16. डॉ. रघुवीर सिंह इस विषय के प्रवक्ता के रूप में जाने जाते हैं
(अ) हिन्दी, (ब) इतिहास, (स) गणित, (द) संस्कृत।

17. जैनेन्द्र कुमार की तुलना किस महान् गद्य लेखक से की जाती है?
(अ) प्रेमचन्द, (ब) बाबू गुलाबराय, (स) हजारी प्रसाद द्विवेदी, (द) वियोगी हरि।

18. प्रसिद्ध उपन्यास ‘परख’ के लेखक हैं
(अ) जैनेन्द्र कुमार, (ब) यशपाल, (स) भीष्म साहनी, (द) अमरकान्त।

19. डॉ. शिवप्रसाद सिंह किस विश्वविद्यालय में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे?
(अ) अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, (ब) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, (स) अम्बेडकर विश्वविद्यालय, (द) दिल्ली विश्वविद्यालय।

20. ललित निबन्ध ‘रंगोली’ के लेखक हैं
(अ) डॉ.शिवप्रसाद सिंह, (ब) हजारी प्रसाद द्विवेदी, (स) महादेवी वर्मा, (द) वासुदेवशरण अग्रवाल।

21. ‘महाराष्ट्र धर्म’ पत्रिका का सम्पादन किया
(अ) विनोबा भावे, (ब)रामचन्द्र शुक्ल, (स) धर्मवीर भारती, (द) डॉ.रघुवीर सिंह।

22. ‘गीता प्रवचन’ के लेखक हैं
(अ) वाल्मीकि, (ब) तुलसीदास, (स) आचार्य विनोबा भावे, (द) महर्षि रमण।
उत्तर-
1.(ब), 2. (ब), 3. (स), 4. (द), 5. (अ), 6. (ब), 7. (स), 8. (ब), 9.(ब), 10. (ब), 11. (स), 12. (ब), 13. (द), 14. (अ), 15. (द), 16. (ब), 17. (अ), 18. (अ), 19. (ब), 20. (अ), 21. (अ), 22. (स)।

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  • रिक्त स्थानों की पूर्ति

1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की प्रारम्भिक शिक्षा …….. में हुई।
2. सूत्रात्मक शैली के प्रणेता ……. हैं। [2013]
3. ‘रुकोगी नहीं राधिका’ उपन्यास की लेखिका ……… हैं।
4. ‘फिर बसन्त आया’ ……. का कहानी संग्रह है। [2009]
5. रेडियो प्रसारण की दृष्टि से उदयशंकर भट्ट के ……. अत्यधिक सफल हुए हैं।
6. उदयशंकर भट्ट का जन्म उत्तर प्रदेश के ……..” नगर में हुआ।
7. व्यंग्य नाटक ‘एक था गधा’ के लेखक ……. हैं।
8. शरद जोशी हिन्दी के सुप्रसिद्ध ……… लेखक हैं।
9. डॉ.श्यामसुन्दर दुबे शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय के पद से सेवानिवृत्त हुए।
10. ‘कालमृगया’ डॉ.श्यामसुन्दर दुबे का …… संकलन है।
11. डॉ.सुरेश शुक्ल ‘चन्द्र’ का जन्म ……… के राजापुर गढ़ेवा गाँव में हुआ था।
12. ‘मुखौटे बोलते हैं’,एकांकी के लेखक …….. हैं।
13. ……… रामनारायण उपाध्याय की पुरस्कृत कृति है।
14. ……… में एक सच्चे किसान की सी भावुकता एवं कर्मठता थी।
15. डॉ.रघुवीर सिंह ……. एवं संस्कृति के प्रवक्ता के रूप में प्रसिद्ध हैं।
16. …… “डॉ. रघुवीर सिंह का उच्चकोटि का गद्यकाव्य है।
17. जैनेन्द्र कुमार की प्रथम कहानी ….. है।
18. जैनेन्द्र कुमार ने अपनी रचनाएँ …. आधार पर लिखी हैं।
19. आधुनिक प्रेमचंद ………. को कहते हैं। [2014]
20. ‘कस्तूरी मृग’ डॉ.शिवप्रसाद सिंह का प्रसिद्ध ……… है।
21. साहित्य में चर्चा का केन्द्र ……… उपन्यास है।
22. विनोबा भावे का जन्म 11 सितम्बर ……. को हुआ था।
23. गीता का मराठी भाषा में अनुवाद ………….” ने किया।
उत्तर-
1. हमीरपुर, 2. रामचन्द्र शुक्ल, 3. उषा प्रियंवदा, 4. उषा प्रियंवदा, 5. गीतिनाट्य, 6. इटावा, 7. शरद जोशी,
8. हास्य-व्यंग्य, 9. प्राचार्य, 10. ललित निबन्ध, 11. उन्नाव जिले, 12. डॉ. सुरेश शुक्ल ‘चन्द्र’, 13. चतुर चिड़िया,
14. रामनारायण उपाध्याय, 15. इतिहास, 16. यशोधरा, 17. खेल, 18. मनोवैज्ञानिक, 19. जैनेन्द्र कुमार,
20. निबन्ध संग्रह, 21. अलग-अलग वैतरणी, 22. 1895, 23. आचार्य विनोबा भावे।

  • सत्य/असत्य

1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी शब्द सागर का सम्पादन कार्य किया।
2. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का जन्म सन् 1940 में हुआ।
3. उषा प्रियंवदा का स्वदेश की संस्कृति से तनिक भी लगाव न था।
4. उषा प्रियंवदा के उपन्यासों में निम्न-मध्यवर्गीय समाज की विसंगतियाँ देखने को मिलती
5. उदयशंकर भट्ट आधुनिक युग के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं।
6. 14 वर्ष की अल्पायु में ही उदयशंकर भट्ट अनाथ हो गये।
7. शरद जोशी प्रसिद्ध व्यंग्यकार हैं। [2009]
8. 1990 में शरद जोशी को पदमश्री से विभूषित किया गया।
9. ललित निबन्ध ‘तिमिर गेह में किरण-आचरण’ में बताया गया है कि आदमी का सदआचरण और श्रम उसे पतन की ओर ले जाता है।
10. मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन का ‘वागीश्वरी’ पुरस्कार डॉ. श्यामसुन्दर दुबे को मिला।
11. साठोत्तरी हिन्दी नाटककारों में डॉ.सुरेश शुक्ल ‘चन्द्र’ का अपना विशिष्ट स्थान है।
12. डॉ.सुरेश शुक्ल ‘चन्द्र’ के एकांकी कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टि से नीरस हैं।
13. रामनारायण उपाध्याय ने ‘लोक संस्कृति’ न्यास की स्थापना अपने माता-पिता की मधुर स्मृति में की।
14. उपाध्यायजी की रचनाएँ ग्राम और ग्राम संस्कृति से पूर्ण नहीं थीं।
15. डॉ.रघुवीर सिंह ने इतिहासपरक रचनाएँ लिखीं।
16. ‘मालवा में युगान्तर’ डॉ. रघुवीर सिंह की एक व्यंग्य रचना है।
17. जैनेन्द्र कुमार की शिक्षा-दीक्षा ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में हुई।
18. ‘फाँसी’ जैनेन्द्र का प्रसिद्ध सामाजिक उपन्यास है।
19. ‘रंगोली’ डॉ.शिवप्रसाद सिंह का प्रसिद्ध ललित निबन्ध है।
20. ‘कीर्तिलता’ तथा ‘विद्यापति’ डॉ.शिवप्रसाद सिंह की समीक्षात्मक कृतियाँ हैं।
21. आचार्य विनोबा भाबे की शैली व्यंग्यात्मक थी।
22. कुरान का सार (The Essence of Quran) आचार्य विनोबा भावे कृत रचना है।
उत्तर-
1. सत्य, 2. असत्य, 3. असत्य, 4. सत्य, 5. असत्य, 6. सत्य, 7. सत्य, 8. असत्य, 9. असत्य,10. सत्य,11. सत्य,12. असत्य,13. असत्य,14. असत्य,15. सत्य, 16. असत्य, 17. असत्य, 18. असत्य, 19. सत्य, 20. सत्य, 21. असत्य, 22. सत्य।

  • सही जोड़ी मिलाइए

I. ‘क’
(1) रुकोगी नहीं राधिका – (अ) एकांकी
(2) रामचन्द्र शुक्ल [2011] – (ब) विक्रम और बेताल
(3) समस्या का अन्त – (स) बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ पुरस्कार
(4) शरद जोशी – (द) उपन्यास
(5) डॉ.श्यामसुन्दर दुबे – (इ) चिन्तामणि
उत्तर-
(1) → (द),
(2) → (इ),
(3) → (अ),
(4) → (ब),
(5) → (स)।

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(1) डॉ.सुरेश शुक्ल ‘चन्द्र’ – (अ) लोक-संस्कृति पुरुष
(2) आधुनिक युग का प्रेमचन्द (2012, 15) – (ब) ऐतिहासिक निबन्धकार
(3) रामनारायण उपाध्याय – (स) गृह कलह
(4) डॉ.शिवप्रसाद सिंह – (द) जैनेन्द्र कुमार
(5) डॉ.रघुवीर सिंह – (इ) आदर्श अध्यापक
(6) आचार्य विनोबा भावे – (ई) समाज सुधारक एवं दर्शनशास्त्री
उत्तर-
(1) → (स),
(2) → (द),
(3) → (अ),
(4) → (इ),
(5) → (ब),
(6) → (ई)।

  • एक शब्द/वाक्य में उत्तर

प्रश्न 1.
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल किस विश्वविद्यालय में कार्यरत थे?
उत्तर-
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय।।

प्रश्न 2.
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के निबन्धों में किन दो निबन्ध शैलियों का समन्वय है?
उत्तर-
भारतीय एवं पाश्चात्य।

प्रश्न 3.
उषा प्रियंवदा लिखित किसी एक कहानी का नाम क्या है?
उत्तर-
वापसी।

प्रश्न 4.
उषा प्रियंवदा के शोध ग्रन्थ का क्या नाम है?
उत्तर-
आधुनिक अमरीकी साहित्य।।

प्रश्न 5.
उदयशंकर भट्ट लाहौर के एक विश्वविद्यालय में कौन-से विषय पढ़ाते थे?
उत्तर-
हिन्दी और संस्कृत।

प्रश्न 6.
उदयशंकर भट्ट ने अपने नाटकों के लिए किस प्रकार के परिवारों की समस्याओं को चुना है?
उत्तर-
निम्न-मध्यमवर्गीय परिवार।

प्रश्न 7.
शरद जोशी ने मध्य प्रदेश सूचना विभाग में कितने वर्षों तक सेवा की?
उत्तर-
10 वर्षों तक।

प्रश्न 8.
शरद जोशी लिखित नाटक ‘अन्धों का हाथी’ साहित्य की किस विधा के अन्तर्गत आता है?
उत्तर-
व्यंग्य नाटक।

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प्रश्न 9.
डॉ. श्यामसुन्दर दुबे की रचना ‘दाखिल खारिज’ साहित्य की किस विधा को दर्शाती है?
उत्तर-
उपन्यास।

प्रश्न 10.
‘तिमिर गेह में किरण आचरण’ ललित निबन्ध के लेखक कौन हैं? [2009]
उत्तर-
डॉ.श्यामसुन्दर दुबे।।

प्रश्न 11.
‘तात्या टोपे’ रचना लेखन की कौन-सी विधा है?
उत्तर-
एकांकी।

प्रश्न 12.
‘स्वप्न का सत्य’ के लेखक कौन हैं?
उत्तर-
डॉ.सुरेश शुक्ल ‘चन्द्र’।

प्रश्न 13.
‘निमाड़ी लोक-साहित्य’ रचना के लेखक कौन हैं?
उत्तर-
रामनारायण उपाध्याय।

प्रश्न 14.
रामनारायण उपाध्याय की माताजी का नाम क्या था?
उत्तर-
दुर्गावती।

प्रश्न 15.
डॉ. रघुवीर सिंह का जन्म कहाँ हुआ? \
उत्तर-
सीतामऊ।

प्रश्न 16.
डॉ. रघुवीर सिंह की शोध, चिन्तन एवं साहित्यिक अभिरुचि का मूर्त रूप क्या है?
उत्तर-
नटनागर शोध संस्थान, सीतामऊ।

प्रश्न 17.
आधुनिक युग का प्रेमचन्द किसे कहा जाता है? [2011]
उत्तर-
जैनेन्द्र कुमार को।

प्रश्न 18.
जैनेन्द्र कुमार ने किस समाज की ग्रन्थियों को खोला है?
उत्तर-
शहरी समाज।

प्रश्न 19.
‘कर्मनाशा की हार’ कहानी के लेखक कौन हैं?
उत्तर-
डॉ.शिवप्रसाद सिंह।

प्रश्न 20.
डॉ. शिवप्रसाद सिंह किस विश्वविद्यालय में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे?
उत्तर-
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय।

प्रश्न 21.
आचार्य विनोबा भावे के नाम पर स्थापित ‘विनोबा भावे विश्वविद्यालय’ कहाँ स्थित है?
उत्तर-
हज़ारी बाग (झारखण्ड)।

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प्रश्न 22.
‘गीता प्रवचन’ तथा ‘संतप्रसाद’ पुस्तकों के लेखक कौन हैं?
उत्तर-
आचार्य विनोबा भावे।

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MP Board Class 12th Special Hindi स्वाति लेखक परिचय (Chapter 1-5)

MP Board Class 12th Special Hindi स्वाति लेखक परिचय (Chapter 1-5)

1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल [2009, 10, 12, 15, 17]

  • जीवन परिचय

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का जन्म 11 अक्टूबर,सन् 1884 को उत्तर प्रदेश के बस्ती जनपद के अगोना ग्राम में हुआ था। आपके पिता पं. चन्द्रबलि शुक्ल सुपरवाइजर कानूनगो थे। शुक्लजी ने एफ.ए.(इण्टर) तक की शिक्षा प्राप्त की। शिक्षा समाप्ति पर जीविकोपार्जन के लिए मिर्जापुर के मिशन स्कूल में ड्राइंग के शिक्षक हो गये। इस समय तक इनके लेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे। जब नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी द्वारा ‘हिन्दी शब्द सागर’ नाम से शब्द-कोश के निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया गया,तब शुक्लजी मात्र छब्बीस वर्ष की अवस्था में उसके सहायक सम्पादक नियुक्त किये गये। उसके बाद हिन्दू विश्वविद्यालय,वाराणसी में आप हिन्दी विभाग में प्राध्यापक हो गये। सन 1937 में आप वहाँ हिन्दी विभाग के अध्यक्ष हो गये। 2 फरवरी,सन् 1940 को आपका निधन हो गया।

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  • साहित्य सेवा

आचार्य शुक्लजी की प्रतिभा बहुमुखी थी। वे कवि, निबन्धकार, आलोचक, सम्पादक तथा अनुवादक अनेक रूपों में हमारे सामने आते हैं। आपने ‘हिन्दी शब्द सागर’ और ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ का सम्पादन किया। उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन में हिन्दी को उच्चकोटि के निबन्ध, वैज्ञानिक समालोचनाएँ,साहित्यिक ग्रन्थ एवं सरल कविताएँ प्रदान की। शुक्ल जी ने हिन्दी में समालोचना और निबन्ध कला का उच्च आदर्श स्थापित किया। उनसे पहले की समालोचनाओं में गुण-दोष विवेचन की ही प्रधानता थी। उन्होंने वैज्ञानिक ढंग की व्याख्यात्मक आलोचना-पद्धति की नींव डाली और जायसी,तुलसी तथा सूर के काव्यों पर उत्कृष्ट व्याख्यात्मक आलोचनाएँ लिखीं। आपने करुणा, उत्साह,क्रोध,श्रद्धा और भक्ति आदि मनोविकारों पर सुन्दर निबन्ध लिखे। उनके निबन्ध ‘चिन्तामणि’ नामक पुस्तक में संग्रहीत हैं। ‘चिन्तामणि’ पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ओर से आपको ‘मंगलाप्रसाद पारितोषिक’ प्राप्त हुआ। उन्होंने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ नामक गवेषणापूर्ण प्रामाणिक ग्रन्थ लिखा, जिस पर हिन्दुस्तानी एकेडमी, प्रयाग ने पुरस्कार प्रदान किया।

  • रचनाएँ

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की प्रमुख रचनाएँ अग्र प्रकार हैं
(1) निबन्ध-संग्रह-‘चिन्तामणि, ‘विचार-वीथी’।
(2) आलोचना-‘त्रिवेणी, ‘रस-मीमांसा’।
(3) इतिहास–’हिन्दी साहित्य का इतिहास’।

  • वर्ण्य विषय

साहित्य के समस्त क्षेत्रों को स्पर्श करने वाली शुक्लजी की प्रतिभा समालोचना एवं निबन्ध के क्षेत्र में भी प्रखरता के साथ परिलक्षित होती है। निबन्ध एवं आलोचना दोनों ही क्षेत्रों में शुक्लजी ने लोक मंगल एवं नैतिक आदर्श को प्रमुख स्थान दिया है। निबन्ध-रचना के क्षेत्र में उन्होंने सामाजिक उपयोगिता से सम्बन्धित मानव-मनोभावों पर सुन्दर निबन्ध लिखे। शुक्लजी ने मनोभावों सम्बन्धी निबन्धों के साथ ही समीक्षात्मक एवं सैद्धान्तिक निबन्धों की भी रचना की।

  • भाषा

आचार्य शुक्लजी की भाषा परिष्कृत, प्रौढ़ एवं साहित्यिक खड़ी बोली है। इस भाषा में सौष्ठव है तथा उसमें गम्भीर विवेचन की अपूर्व शक्ति है। शुक्लजी की भाषा में व्यर्थ का शब्दाडम्बर नहीं मिलता। भाव और विषय के अनुकूल होने के कारण वह सर्वथा सजीव और स्वाभाविक है। गूढ़ विषयों के प्रतिपादन में भाषा अपेक्षाकृत क्लिष्ट है। उसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की बहुलता है। वाक्य-विन्यास भी कुछ लम्बे हैं। सामान्य विचारों के विवेचन में भाषा सरल एवं व्यावहारिक है। कहावतों एवं मुहावरों के प्रयोग से उसमें सरसता आ गयी है। शुक्लजी की भाषा व्यवस्थित तथा पूर्ण व्याकरण सम्मत है तथा उसमें कहीं भी शिथिलता देखने को नहीं मिलती। भाषा की इसी कसावट के कारण उसमें समास शक्ति पायी जाती है तथा कहीं-कहीं तो भाषा सूक्तिमयी बन गयी है; जैसे—“बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है।”

  • शैली

शुक्लजी अपनी शैली के स्वयं निर्माता थे। उनकी शैली समास के रूप से प्रारम्भ होकर व्यास शैली के रूप में समाप्त होती है अर्थात् एक विचार को सूत्र रूप में कहकर फिर उसकी व्याख्या कर देते हैं। मुख्य रूप से शुक्लजी की शैली चार प्रकार की है-

  1. समीक्षात्मक शैली-शुक्लजी ने व्यावहारिक, समीक्षात्मक एवं समालोचनात्मक निबन्धों में इस शैली का प्रयोग किया है। इस शैली में वाक्य छोटे,संयत एवं गम्भीर हैं। इसमें विषय का प्रतिपादन सरलता के साथ इस प्रकार किया गया है कि सहज ही हृदयंगम हो जाता है।
  2. गवेषणात्मक-अनुसन्धानपरक तथा सैद्धान्तिक समीक्षा सम्बन्धी तथा तथ्यों के विश्लेषण-निरूपण में शुक्लजी ने इस शैली का प्रयोग किया है। यह शैली गम्भीर तथा कुछ सीमा तक दुरूह है। शब्द-विन्यास क्लिष्ट तथा वाक्य-विन्यास जटिल है। यह शैली सामान्य पाठकों के लिए बोधगम्य नहीं है।
  3. भावात्मक शैली-इस शैली में वाक्य कहीं छोटे तथा कहीं लम्बे हैं तथा भाषा कुछ-कुछ अलंकारिक हो गयी है। इसमें भावनाओं का धाराप्रवाह रूप मिलता है।
  4. हास्य-विनोद एवं व्यंग्य प्रधान शैली-इस शैली के दर्शन मनोविकारों तथा समीक्षात्मक निबन्धों में यत्र-यत्र ही होते हैं, क्योंकि हास्य तथा व्यंग्य शुक्लजी के निबन्धों का मुख्य विषय नहीं है, फिर भी इस शैली के प्रयोग से निबन्धों में रोचकता आ गयी है।
  • साहित्य में स्थान

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपनी असाधारण प्रतिभा द्वारा साहित्य की अनेक विधाओं में सृजन किया। लेकिन उनकी विशेष ख्याति निबन्धकार, समालोचक तथा इतिहासकार के रूप में है। उन्होंने हिन्दी में वैज्ञानिक आलोचना-प्रणाली को जन्म दिया, निबन्ध-साहित्य को समृद्ध किया तथा हिन्दी साहित्य के इतिहास-लेखन के लिए एक आधार प्रदान किया। शुक्लजी की भाषा तथा शैली आने वाले साहित्यकारों के लिए आदर्श रूप है। वे युग प्रवर्तक निबन्धकार हैं।

2. उषा प्रियंवदा
[2016]

  • जीवन परिचय

यथार्थ के बेजोड़ अंकन में शीर्षस्थ स्थान रखने वाली कहानीकार उषा प्रियंवदा का जन्म 24 दिसम्बर,सन् 1931 को इलाहाबाद में हुआ। आपने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही अंग्रेजी में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। तत्पश्चात् पी-एच.डी.करके आपने अपनी योग्यता को और आगे बढ़ाया। अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी से भी आपका अनुराग लगातार बना रहा और आप हिन्दी में भी निरन्तर लिखती रहीं। हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू तथा संस्कृत पर आपका समान व पूर्ण अधिकार रहा है। लेखन के साथ-साथ आपका मुख्य कार्यक्षेत्र अध्यापन ही रहा है। आपने ‘आधुनिक अमरीकी साहित्य’ पर इंडियाना विश्वविद्यालय से शोधकार्य किया। आप संयुक्त राज्य अमरीका के विस्कांसिन विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग की विभागाध्यक्षा रहीं। हिन्दी की सेवा में आपके उत्कृष्ट योगदान को प्रमाणित करते हुए उत्तर प्रदेश सरकार ने आपको सम्मानित किया।

  • साहित्य सेवा

साहित्यिक रुचि सम्पन्न उषा प्रियंवदा ने मुख्यतः उपन्यास और कहानियाँ लिखी हैं। उनके साहित्य में भारतीय और अमरीकी संस्कृति का समन्वय स्पष्ट दिखाई देता है। उनकी प्रथम कहानी ‘लाल चूनर’ थी। लम्बे समय तक अमरीका में निवास होने के कारण आपके चिन्तन में तुलनात्मक दृष्टि नजर आती है। स्वतन्त्रता के पश्चात् के भारतीय जीवन की विश्रृंखलताएँ आपके साहित्य में स्पष्ट देखी जा सकती हैं।

  • रचनाएँ

उषा प्रियंवदा मूलत: एक कहानीकार एवं उपन्यासकार रही हैं। आपकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं-

  1. उपन्यास-पचपन खम्भे लाल दीवारें’ [1961]: इस उपन्यास का प्रदर्शन दूरदर्शन पर होने के कारण यह अत्यधिक प्रसिद्ध रहा, ‘रुकोगी नहीं राधिका’ [1968], ‘शेष यात्रा’ [1984]।
  2. कहानी-संग्रह ‘जिन्दगी और गुलाब’ [1961], ‘फिर बसन्त आया’ [1961], ‘एक कोई दूसरा’ [1966], ‘कितना बड़ा झूठ’ [1973], ‘मेरी प्रिय कहानियाँ’ [1974]।
  • वर्ण्य विषय

कथा साहित्य की प्रेमिका उषा प्रियंवदा की कहानियों के पीछे एक बीज जरूर होता है,जो उनके एक विचार, एक इमेज, एक अनुभव या अनुभूति को लेखन के रूप में साकार करता है। चुनौतियाँ उन्हें उत्साहित करती हैं, ‘डेड लाइन्स’ उन्हें प्रेरित करती हैं। इन्हीं चुनौतियों और ‘डेड लाइन्स’ के सम्बन्ध और प्रतिध्वनियाँ उनके वर्ण्य विषय हैं। आधुनिक भौतिकवादी, वैयक्तिक तथा एकान्तिक विचारधारा ने भारतीय समाज व परम्पराओं को तोड़कर विसंगतियों तथा मानसिक कुण्ठाओं के साथ पारिवारिक विघटन की नींव डाली है,यह सब मनोवैज्ञानिक परिवर्तन उनकी कहानियों व उपन्यासों में स्पष्ट झलकता है। नई पीढ़ी की टीस पाठक को व्यथित कर देती है। मानव मूल्यों की अनदेखी करना उनकी कहानियों की मार्मिक पहचान है। उनकी रचनाओं का विषय अधिकतर निम्न मध्यवर्गीय समाज की पीड़ा तथा नारी-पुरुष के आयु भेद रहे है।

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  • भाषा

उषा प्रियंवदा ने सरल, सुस्थिर, संयत एवं बोधगम्य खड़ी बोली का प्रयोग किया है। संस्कृत की ज्ञाता लेखिका आकांक्षी,कुण्ठित,अस्थायित्व जैसे शब्दों का प्रयोग कर भाषा को और अधिक सुन्दर बनाती हैं। मर्तबान,कनस्तर,खटिया जैसे प्रचलित शब्द भाषा को सहज बनाते हैं। रिटायर, क्वार्टर, पैसेन्जर जैसे शब्दों के प्रयोग से लेखिका का प्रवास झलकता है। वाजिब, जिम्मेदार, सिर्फ जैसे उर्दू के शब्द भाषा को बोधगम्य बनाने में पूर्णतः सक्षम हैं। लघु वाक्य-विन्यास,कहावतों तथा मुहावरों का प्रयोग भाषा का सरल रूप है। शब्दों के सामासिक प्रयोग से उषा प्रियंवदा के साहित्य की भाषा में कसावट विद्यमान रहती है।

  • शैली

उषा प्रियंवदाजी की शैली भावात्मक विवरणात्मक तथा व्यंग्यात्मक है। उनके उपन्यासों में विवरण शैली के दर्शन होते हैं,तो कहानियों में भावात्मकता तथा व्यंग्य परिलक्षित हैं। उनकी सहज कथन शैली तथा यथार्थ का चित्रण बेजोड़ है। भावुकता,माधुर्य और प्रवाह उनकी शैली की विशेषता है। उनके व्यंग्य चुटीले व सार्थक हैं, जिनमें विदेशी शब्दों की सहायता से पीड़ा व कराहट का अनुभव होता है। इस प्रकार उनकी शैली वर्ण्य-विषय के सर्वथा अनुकूल है।

  • साहित्य में स्थान

हिन्दी कथा साहित्य में लेखिका का विशिष्ट स्थान होने का प्रमुख कारण है-वर्तमान में नष्ट होते हुए भारतीय मूल्यों का सटीक चित्रण।

वर्तमान जीवन की विसंगतियों और उनकी विशृंखलताओं का सामाजिक व मनोवैज्ञानिक स्तर पर यथार्थ व सजीव चित्रण करके लेखिका हिन्दी कथा साहित्य में अपना उच्च स्थान स्वयं निर्धारित करती हैं। उनकी कथाएँ पारिवारिक विघटन को रोकने का संदेश देती हैं। सच्चे अर्थों में उषा प्रियंवदा आधुनिक समाज की एक आदर्श कथाकार हैं।

3. उदयशंकर भट्ट [2014, 16]

  • जीवन परिचय

एकांकी और नाटक के सिद्धहस्त लेखक उदयशंकर भट्ट का जन्म 3 अगस्त, सन् 1898 में उत्तर-प्रदेश के इटावा नगर में हुआ था। इटावा में आपकी ननिहाल भी थी। आपका परिवार साहित्यिक गतिविधियों में गहरी रुचि रखता था। आपने संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी की शिक्षा इटावा में ही प्राप्त की। जब ये मात्र चौदह वर्ष की अल्पायु के थे, इनके सिर से माँ-बाप का साया उठ गया। आपने काशी विश्वविद्यालय से बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। तत्पश्चात् पंजाब से शास्त्री की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके पश्चात आपने कलकत्ता से काव्यतीर्थ की उपाधि अर्जित की। 1923 में जीविका की तलाश में आप लाहौर चले गये तथा वहाँ संस्कृत और हिन्दी का अध्यापन-कार्य किया। साथ ही, इस दौरान आप अपने अध्ययन में भी रत रहे। जब भारत का बँटवारा हुआ तो भट्टजी लाहौर छोड़कर दिल्ली आकर बस गये। आपने आकाशवाणी में सलाहकार के पद को सुशोभित किया। कुछ वर्षों तक आप आकाशवाणी के नागपुर और जयपुर केन्द्रों पर ‘प्रोड्यूसर’ रहे। सेवानिवृत्ति के पश्चात् आपने स्वतन्त्र रूप से कहानी, उपन्यास, आलोचना और नाटक इत्यादि का लेखन कार्य किया। 22 फरवरी,1966 को आपका देहावसान हो गया।

  • साहित्य सेवा एवं रचनाएँ

भट्टजी का प्रथम एकांकी संग्रह, अभिनव एकांकी’ के नाम से सन् 1940 में प्रकाशित हुआ था। इसके पश्चात् इन्होंने सामाजिक, ऐतिहासिक, पौराणिक, मनोवैज्ञानिक इत्यादि अनेक विषयों पर एकांकियों की रचना की, जिनमें ‘समस्या का अन्त’, ‘परदे के पीछे’, ‘अभिनव एकांकी’, ‘अस्तोदय’, ‘धूपशिखा’, ‘वापसी’, ‘चार एकांकी’ इत्यादि आपके प्रतिनिधि एकांकी संग्रह माने जाते हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी उदयशंकर भट्टजी ने नाटक, कविता तथा उपन्यासों की रचना की है।

  • वर्ण्य विषय

भट्टजी ने पौराणिक, समस्या-प्रधान, हास्य-प्रधान, प्रतीकात्मक एवं सामाजिक समस्याओं से सम्बन्धित एकांकियों की रचना की है। आपने वैदिक काल से लेकर वर्तमान काल तक की भारतीय जीवन संवेदना को चित्रित किया है। आपकी रचनाओं में विभिन्न समस्याओं को जीवन्त रूप से उजागर किया गया है। युग की प्रवृत्तियों और सामाजिक परिवर्तनों से आपने सदैव संगति बनाए रखी।

  • भाषा व शैली

भट्टजी ने अपने साहित्य सृजन में सरल, स्थिर व चुलबुली बोधगम्य भाषा का प्रयोग किया है। भाव व पात्रों के अनुसार उनकी भाषा का रूप बदलता रहता है। उनकी भाषा में उर्दू के शब्दों का बाहुल्य है; जैसे-ओफ, फ़ायदा, बेहद, हर्ष इत्यादि। संस्कृत शब्दावली का प्रयोग यत्र-तत्र दिखाई पड़ता है; जैसे-गृहस्थ,सुसंस्कृति, निर्दयी इत्यादि। संवाद सरल व छोटे-छोटे वाक्यों वाले हैं। भट्टजी की लेखन-शैली की एक विशेषता प्रश्नों के माध्यम से भावाभिव्यक्ति है; जैसे-क्या छत तुम्हारे लिए है ? कहो तो मैं कहूँ ? क्या फ़ायदा ? इत्यादि। कहीं-कहीं वाक्य सूक्ति का-सा आभास कराते हैं।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि भट्टजी की भाषा सरल व शैली व्याख्यात्मक है।

  • साहित्य में स्थान

एक सफल नाटककार के रूप में अपनी विशिष्ट छवि बनाने वाले उदयशंकर भट्ट प्रख्यात एकांकीकार भी हैं। उन्होंने युग के अनुरूप चरित्र-सृष्टियों की रचना की है। उनके एकांकी रंगमंचीय होने तथा जीवन की मौलिक समस्याओं से सम्बन्धित होने के कारण मर्मस्पर्शी हैं। आधुनिक हिन्दी एकांकीकारों में भट्टजी का एक महत्वपूर्ण एवं विशिष्ट स्थान है। हिन्दी एकांकी साहित्य उनके योगदान को सदैव याद रखेगा।

4. शरद जोशी
[2009, 13, 15]

चाय की दुकान से लेकर राष्ट्रपति भवन तक अपनी लेखनी की आवाज को पहुँचाने वाले शरद जोशी को साधारण व्यक्ति से लेकर बुद्धिजीवी वर्ग तक अपना समझता है। इसी कारण उनकी तुलना कबीर और मार्क ट्वेन से की गई है।

  • जीवन परिचय

हिन्दी के प्रसिद्ध हास्य-व्यंग्य लेखक शरद जोशी का जन्म 23 मई,सन् 1931 को उज्जैन में मगर मुहे की गली में हुआ था। इनके पिता का नाम श्रीनिवास और माता का नाम शान्ति था। विद्यार्थी जीवन से ही इनकी रुचि लेखन में थी। इन्होंने होल्कर कॉलेज, इन्दौर से बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। सन् 1958 में इन्होंने इरफाना सिद्दिकी से प्रेम-विवाह किया। एक स्क्रिप्ट राइटर के रूप में आप आकाशवाणी इन्दौर से लम्बे समय तक जुड़े रहे तथा मध्य प्रदेश सूचना विभाग में दस वर्षों तक जनसम्पर्क अधिकारी के रूप में सेवारत रहे। तत्पश्चात् वे बम्बई चले गये और वहाँ पर सतत् लेखन कार्य करते हुए आपने 5 सितम्बर, सन् 1991 को अपना नश्वर शरीर त्याग दिया।

  • साहित्य सेवा

राजनीतिज्ञों पर लगातार करारे व्यंग्य और प्रहार करने वाले शरद जोशी की 18 पुस्तकें प्रकाशित हैं। उन्होंने 1953-54 में लोगों के बीच एक लेखक के रूप में अपनी जगह बना ली। उनका सबसे पहला व्यंग्य लेख ‘नई दुनिया के ‘परिक्रमा’ स्तम्भ में छपा था। उनके लघु व्यंग्य-लेख नई दुनिया, धर्मयुग, रविवार, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बरी, ज्ञानोदय आदि पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से छपते थे। नवभारत टाइम्स के प्रतिदिन’ नामक स्तम्भ के लिए आपने 7 वर्षों तक लिखा। ‘जीप पर सवार इल्लियाँ’ उनका सरकारी अफसरों द्वारा सरकारी वाहनों पर की गई सवारी पर करारा व्यंग्य है। उन्होंने लगभग 35 वर्षों तक गद्य को कवि-सम्मेलन के मंच पर जोर-शोर से जमाये रखा। शरद जोशी को भारत सरकार ने सन् 1990 में पद्मश्री से विभूषित कर सम्मानित किया। शरदजी के कई नाटक जापान में वहाँ की स्थानीय भाषा में अनुवादित होकर मंचित किये गये।

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  • रचनाएँ

शरद जोशी की रचनाएँ निम्नलिखित हैं

  1. व्यंग्य रचनाएँ-‘पिछले दिनों’, ‘तिलिस्म’, ‘रहा किनारे बैठ’, ‘जीप पर सवार इल्लियाँ’, ‘किसी बहाने’, ‘यथासम्भव’, ‘नावक के तीर’ आदि अनेक प्रसिद्ध व्यंग्य संग्रह हैं।
  2. लघु उपन्यास–’मैं-मैं और केवल मैं’ उनका लोकप्रिय लघु उपन्यास है।
  3. नाटक ‘अन्धों का हाथी’, ‘एक था गधा उर्फ अलादत खान’।
  4. संवाद-शरद जी ने कई फिल्मों के लिए संवाद-लेखन का कार्य भी किया-‘छोटी सी बात’, ‘क्षितिज’, ‘साँच को आँच क्या’, ‘गोधूलि’, ‘उत्सव’, ‘नाम’, ‘चमेली की शादी’, मेरा दामाद’, ‘दिल है कि मानता नहीं’, ‘उड़ान’ आदि।
  5. टी. वी. सीरियल्स-श्याम तेरे कितने नाम’, ‘ये जो है जिन्दगी’, ‘विक्रम और बेताल’, ‘वाह जनाब’, ‘दाने अनार के’, ‘श्रीमती जी’,’सिंहासन बत्तीसी’, ‘ये दुनिया है गजब की’, ‘प्याले में तूफान’, ‘मालगुढी डेज’, गुलदस्ता आदि।
  • वर्ण्य विषय

जोशीजी ने साहित्य की व्यंग्य विधा को अपना विशेष क्षेत्र बनाया। उनके व्यंग्य में हास्य भी मिश्रित था। शरद जोशी एक व्यक्ति नहीं विचारधारा का नाम है। उनकी व्यंग्य विधा को पैनी धार धर्मयुग’ और ‘धर्मवीर भारती’ जैसे साप्ताहिकों-पत्रिकाओं ने दी। उनके व्यंग्य-लेखन के प्रमुख विषय थे-आपातकाल, नौकरशाही, अखबार, राजनीति, सरकारी अफसर, चिन्तन के नाम पर राजनेताओं की ऐय्याशी, पुलिस-हड़ताल, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री इत्यादि। इन्दिरा गाँधी से लेकर जयप्रकाश नारायण तक सभी उनके व्यंग्य-बाणों के निशाने पर रहे हैं। समाज के विभिन्न क्षेत्रों में पाई जाने वाली विसंगतियों का मार्मिक चित्रण कर शरदजी ने पाठकों को स्तम्भित कर दिया है।

  • भाषा

शरदजी की भाषा अत्यन्त सरस व सरल है। शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली में सहजता है। देशज व विदेशी शब्दों के प्रयोग से भाषा बोधगम्य बन गई है। भाषा में एक विशिष्ट प्रवाह है। शब्दों का चयन सटीक है। स्थान-स्थान पर मुहावरों के प्रयोग से भाषा में हास्य व चंचलता आ गई है। शरदजी व्यंग्य के भाषागत सौन्दर्य को अपनी छोटी-छोटी उक्तियों के माध्यम से प्रभावशाली बनाने में सफल रहे हैं। उनकी भाषा में सरसता के साथ-साथ चुटीलापन भी दृष्टिगोचर होता है।

  • शैली

शरदजी की शैली मुख्य रूप से हास्य-व्यंग्य प्रधान है। उन्होंने सामाजिक विडम्बनाओं और उसके अन्तर्विरोधों को आधार मानकर व्यंग्य किये हैं। वे अपनी चमत्कारिक उत्प्रेक्षाओं से व्यंग्य की सर्जना करते हैं। भेटवार्ता जैसे प्रसंगों पर संवाद शैली में गुदगुदाने वाला हास्य और उसके परोक्ष में छिपा व्यंग्य,श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध कर देता था। उनकी आलोचनात्मक शैली भी व्यंग्य से पूर्ण है। वे राजनीतिज्ञों की आलोचना में भी व्यंग्य करने से नहीं चूकते। उनके हर व्यंग्य में ओज का पुट मौजूद मिलता है। इसीलिए बुद्धिजीवी उनके तर्क,शब्द-शैली, भाषा-शैली और विचारों की पकड़ का लोहा मानते हैं।

  • साहित्य में स्थान

शरदजी के ओजपूर्ण व्यंग्यों ने अपने समय में लोकप्रियता की चरम सीमा को पार किया। उन्होंने अनेक पत्रिकाओं के माध्यम से सारे देश को एकसूत्र में जोड़ दिया था। जोशीजी ने हिन्दी के गम्भीर व्यंग्य को लाखों-करोड़ों लोगों तक पहुँचाया। इस प्रकार हिन्दी गद्य साहित्य शरद जोशी को सदैव याद रखेगा।

5. डॉ. श्यामसुन्दर दुबे

  • जीवन परिचय

ललित निबन्धों में परम्परा और आधुनिकता को निभाने वाले डॉ. श्यामसुन्दर दुबे का जन्म 12 दिसम्बर, सन् 1944 को मध्यप्रदेश (हटा, दमोह) के बर्तलाई ग्राम में हुआ था। आपने एम. ए. पी-एच.डी. तक शिक्षा प्राप्त की है। ग्रामीण अंचल आपकी रचनाओं का स्रोत रहा है। आप हिन्दी साहित्य के समर्थ निबन्धकार,कवि, आलोचक होते हुए एक कुशल अध्यापक भी हैं। आप मध्यप्रदेश के विभिन्न महाविद्यालयों में लम्बे समय तक प्राध्यापक पद पर रहे हैं। शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय के प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त होकर वर्तमान में आप निदेशक, मुक्तिबोध सृजनपीठ डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय,सागर में कार्यरत हैं।

  • साहित्य सेवा

डॉ. श्यामसुन्दर दुबे साहित्यिक अभिरुचि रखने के कारण एक श्रेष्ठ गद्यकार माने जाते हैं। डॉ. दुबे को उनकी विभिन्न रचनाओं पर अनेक सम्मान तथा पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी का ‘बालकृष्ण शर्मा नवीन’ पुरस्कार,मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन का वागीश्वरी’ पुरस्कार, छत्तीसगढ़ शासन का ‘लोक-संस्कृति’ केन्द्रित सम्मान, डॉ. शम्भूनाथ सिंह रिसर्च फाउण्डेशन, वाराणसी का ‘डॉ. शम्भूनाथ सिंह अखिल भारतीय नवगीत’ पुरस्कार इत्यादि पुरस्कारों से आपको सम्मानित किया जा चुका है। वर्तमान में भी आप हिन्दी साहित्य की सेवा में सागर विश्वविद्यालय के माध्यम से रत् हैं।

  • रचनाएँ

डॉ. श्यामसुन्दर दुबे ने निबन्ध, कथा, आलोचना और लोकविद् साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनकी लगभग 25 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें से कुछ निम्न प्रकार हैं

  1. ललित निबन्ध संकलन-कालमृगया’, ‘विषाद बांसुरी की टेर’, ‘कोई खिड़की इसी दीवार से।
  2. काव्य संकलन-रीते खेत में बिजूका’, ऋतुएँ जो आदमी के भीतर हैं’, ‘धरती के अनन्त चक्करों में’।
  3. उपन्यास–’दाखिल खारिज’, ‘मरे न माहुर खाये’।
  4. लोक संस्कृति के रूप में-‘लोक : परम्परा, पहचान एवं प्रवाह’, ‘लोक चित्रकला : परम्परा और रचना दृष्टि’, ‘लोक में जल’, भारत की नदियाँ’।
  • वर्ण्य विषय

लोक संस्कृति से सम्बन्ध रखने वाले डॉ.दुबे की समस्त रचनाओं में भारतीयता के उन तत्वों का समावेश है,जिनकी आज के वैज्ञानिक युग में महती आवश्यकता है। आधुनिक जीवन को जीते हुए भी भारतीय ग्रामीण जीवन से अपना सम्बन्ध बनाये रखना ही उनके साहित्य का मूल विषय है। इसी को आधार मानकर डॉ.दुबे ने स्वयं को साहित्य की विभिन्न विधाओं में उतारा। आपने ललित निबन्ध, आत्माभिव्यंजना प्रधान निबन्ध, कविताएँ, कहानियाँ, आलोचना आदि रचनात्मक विधाओं के अतिरिक्त ग्रामीण लोक-संस्कृति को लोक साहित्य के आंचल में बाँधा है। इनकी विद्वता पाठक के हृदय पर गहरा प्रभाव डालती है।

  • भाषा

आपने देशज शब्दों से युक्त संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का प्रयोग किया है। प्रकृति के सौन्दर्य का अंकन करते समय आपकी भाषा जगह-जगह काव्यमयी हो गई है,जैसे-“हलदिया पीलापन ऊर्ध्वमुखी होकर अंधेरे में दिपदिपा रहा था।”…..”अब जलाओ दिया,… करो प्रकाश”। डॉ. दुबे ने शब्दों के प्रयोग में स्वच्छन्दता बरती है तथा चतेवरी, पहलौरी जैसे देशज शब्दों; ट्रेक्टर, ट्रांजिस्टर, टी. वी. जैसे प्रचलित अंग्रेजी शब्दों; इज्जत-आबरू, दाँव जैसे उर्दू शब्दों तथा वानस्पतिक, उल्लास, वंचित जैसे संस्कृत शब्दों के प्रयोग से भाषा को सजाया है। वाक्यों में लघुता के कारण उनका प्रभाव चिरस्थायी हो उठा है।

  • शैली

डॉ. श्यामसुन्दर दुबे व्यास-शैली तथा उद्धरण शैली के माध्यम से विषय को स्पष्ट करते हैं। उनके द्वारा लिखित कहानियों व निबन्धों में विवरणात्मक शैली देखने को मिलती है। बीच-बीच में प्रचलित महावरों, जैसे-ढाक के तीन पात आदि का भी प्रयोग किया गया है। अति सूक्ष्म रूप में उपदेशात्मक शैली का भी प्रयोग हुआ है, जैसे-“बस इसी तरह जगमगाओ”…… “अपनी ज्योति का स्पर्श दो” आदि। यत्र-तत्र व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग भी देखने को मिलता है।

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  • साहित्य में स्थान

बुद्धि और संवेदना के स्वस्थ समन्वय ने डॉ.दुबे को हिन्दी साहित्य में उच्च स्थान दिलाया है। उन्हें लोक-संस्कृति के प्रचारक के रूप में विशेष ख्याति प्राप्त हुई है। डॉ. दुबे की रचनाओं में कवि हृदय की भावात्मक अनुभूति एवं कथात्मक अभिव्यक्ति के दर्शन होने के कारण हिन्दी के क्षेत्र में उनका एक विशिष्ट स्थान है।

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MP Board Class 12th Special Hindi स्वाति कवि परिचय (Chapter 6-10)

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11. बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ [2017]

  • जीवन परिचय

बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ का काव्य राष्ट्रीय चेतना और जनजागृति का काव्य है। इन्होंने जहाँ परतन्त्र भारत के सोते हुए लोगों को जगाने का काम किया वहीं मानवीय भावना से ओतप्रोत प्रेमाकुल काव्य की रचना भी की। इन्होंने वीर एवं श्रृंगार दोनों में समान रूप से लिखकर हिन्दी काव्य को अमर रचनाएँ प्रदान की।

राष्ट्रवादी चिन्तक, जुझारु पत्रकार एवं ओजस्वी कवि पंडित बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ का जन्म सन् 1897 ई. में शाजापुर जिले के शुजालपुर के मयाना गाँव में हुआ था। इन्होंने गणेश शंकर विद्यार्थी के सानिध्य में पत्रकारिता और महात्मा गाँधी के सम्पर्क में गाँधीवादी विचारों को अपनाया। नवीनजी ने स्वतन्त्रता आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभायी, साथ ही भारतीय संस्कृति, राष्ट्रीय चेतना और नवयुवकों को प्रेरणा देने वाली ओजस्वी रचनाओं को भी लिखते रहे। इन्होंने प्रेम व श्रृंगारपरक गीत भी लिखे। नवीनजी भारतीय संविधान निर्मात्री परिषद के सदस्य भी रहे। संविधान में हिन्दी को राजभाषा का पद दिलाने में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। 1952 से 1960 ई. तक ये संसद सदस्य भी रहे। 1960 में भारत सरकार ने इन्हें ‘पद्म विभूषण’ की उपाधि से विभूषित किया। सन् 1960 में हृदय गति रुक जाने से इनका देहावसान हो गया।

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  • साहित्य सेवा

नवीनजी ने अपना साहित्यिक जीवन पत्रकारिता से प्रारम्भ किया। गणेशशंकर विद्यार्थी के सम्पर्क में आने के बाद ‘प्रताप के प्रधान सम्पादक बने। राष्ट्रीय स्वर को प्रधानता देने वाली पत्रिका ‘प्रभा’ के भी ये सम्पादक रहे। इन्होंने प्रेम, श्रृंगार, राष्ट्रीय भावना, भारतीय संस्कृति, भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन आदि विषयों पर ओजस्वी रचनाएँ लिखीं। प्रकृति के विभिन्न रूपों के चित्रण के साथ उनके काव्य में रहस्यवादी भावना के दर्शन भी होते हैं।

  • रचनाएँ
  1. उर्मिला इसमें उर्मिला के जन्म से लेकर लक्ष्मण से पुनर्मिलन तक की कथा वर्णित है। इस काव्य में उर्मिला का विरह वर्णन बड़ा ही मार्मिक है।
  2. रश्मि रेखा-प्रेम, कला तथा संवेदना की दृष्टि से यह उत्कृष्ट काव्य है।
  3. कुंकुम इस गीत संग्रह में यौवन और प्रखर राष्ट्रीयता का स्वर मुखरित है।
  4. अपलक, क्वासि इनमें प्रेम और भक्ति से पूर्ण कविताएँ संकलित हैं।
  5. प्राणार्पण यह गणेशशंकर विद्यार्थी के बलिदान पर लिखा गया खण्डकाव्य है।
  6. विनोवा स्तवन-इसमें विनोवा भावे के भूदान यज्ञ की प्रशस्ति में लिखे गये पद हैं।
  • भाव-पक्ष
  1. देश-प्रेम की भावना-इनकी कविताओं में देश-प्रेम की भावना उत्कृष्ट रूप से उजागर हुई है।
  2. क्रान्ति भावना-नवीन जी की कविताओं में स्वतन्त्रता संग्राम के दौर में भोगे हुए अनुभव जीवन्त हैं और उनसे उपजे जागृति के स्वर भी मुखर हैं।
  3. प्रेम व भक्ति-भावना-देश-प्रेम और राष्ट्रीय चेतना से स्फूर्त होने के परिणामस्वरूप रचनाओं में ओज प्रखर है तो प्रेम प्रवण अभिव्यक्ति में कोमलता निहित है। प्रेमाकुल संवेदनाएँ मानवीय भावनाओं से सराबोर हैं।
  • कला पक्ष
  1. भाषा शैली-नवीनजी की तत्सम शब्द प्रधान भावानुकूल भाषा है। इनकी शैली ओजपूर्ण एवं प्रबन्ध है।
  2. छन्द योजना-भावों के अनुकूल छन्द योजना उत्कृष्ट बन पड़ी है।
  3. प्रकृति चित्रण-प्रकृति के विविध रूप यत्र-तत्र दृष्टव्य हैं।
  • साहित्य में स्थान

बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ के काव्य में राष्ट्र प्रेम.मानव प्रेम.लौकिक प्रेम तथा अलौकिक प्रेम का प्रस्फुटन एक साथ हुआ है। नवीनजी छायावाद के समानान्तर बहने वाली प्रेम और श्रृंगार की धारा के कवि हैं। इनका अधिकांश काव्य मानवता तथा राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत है,जिसके कारण हिन्दी साहित्य में इनको सम्माननीय स्थान प्राप्त है।

12. श्रीकृष्ण सरल [2015]

  • जीवन परिचय

श्रीकृष्ण सरल का जन्म 9 जून, 1921 ई. को मध्यप्रदेश के अशोक नगर में हुआ था। बचपन से ही ये कविताएँ लिखने लगे थे। यद्यपि उन्होंने गद्य की सभी विधाओं में लिखा है, फिर भी मूल रूप से वह कवि थे।

इनके हृदय में क्रान्तिकारियों के प्रति अनुराग था। प्रमुख क्रान्तिकारियों के ऊपर इन्होंने महाकाव्य लिखे। देश-भक्ति की भावना से ओतप्रोत सरलजी ने देश-भक्तों को ही लेखन का केन्द्र बनाया। उनकी ‘क्रान्ति कथाएँ’ भारतीय क्रान्तिकारियों की ‘एनसाइक्लोपीडिया’ है जिसमें लगभग दो हजार क्रान्तिकारियों के जीवन-वृत्तान्त सम्मिलित हैं। गद्य के क्षेत्र में इन्होंने कहानियाँ, उपन्यास,एकांकी,जीवनियाँ और निबन्ध लिखे। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस पर इन्होंने पन्द्रह ग्रन्थों का प्रणयन किया। उनका कार्यस्थल उज्जैन रहा। इन्होंने बी. ए. तक शिक्षा प्राप्त की। फिर अध्यापन का कार्य किया। सरलजी का देहान्त 2 सितम्बर,2000 ई.को उज्जैन में हुआ।

  • साहित्य सेवा

सरलजी का लेखन इतिहास जैसा प्रामाणिक और शोधपूर्ण है। लेखन के लिए इन्होंने देश के भीतर और देश के बाहर अनेक यात्राएँ की। उनका सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र के लिए समर्पित था। उन्होंने स्वयं लिखा है

“कर्त्तव्य राष्ट्र के लिए समर्पित हों अपने,
हो इसी दिशा में उत्प्रेरित चिन्तन धारा,
हर धड़कन में हो राष्ट्र, राष्ट्र हो साँसों में,
हो राष्ट्र-समर्पित मरण और जीवन सारा।”

  • रचनाएँ
  1. महाकाव्य-शहीद भगतसिंह, अजेय सेनानी चन्द्रशेखर आजाद, सुभाषचन्द्र, जय सुभाष,शहीद अशफाक उल्ला खाँ,विवेक श्री, स्वराज तिलक,क्रान्ति ज्वाला,बागी कर्तार।
  2. गद्य रचनाएँ–’कालजयी सुभाष’,क्रान्ति कथाएँ।
  3. कविताएँ-आँसू,छोड़ो लीक पुरानी,जवानी खुद अपनी पहचान, देश के सपने फूलें फलें,देश से प्यार, धरा की माटी बहुत महान, नेतृत्व,प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है,पीड़ा का आनन्द, प्रेम की पावन धारा,मत ठहरो, मुझमें ज्योति और जीवन है, वीर की तरह,शहीद,सैनिक।
  • भाव पक्ष
  1. देश-विदेश भ्रमण के बाद उन अनुभूतियों को अपने काव्य में मूर्तिरूप प्रदान किया।
  2. राष्ट्रवाद एवं क्रान्तिकारी भावों का अपने काव्य में प्रणयन किया।
  3. राष्ट्र-प्रेम की अभिव्यक्ति सरल जी का हृदय राष्ट्र-प्रेम की भावनाओं से भरपूर था। क्रान्तिकारियों के प्रति इनके हृदय का अनुराग इनके काव्य में परिलक्षित होता है।
  4. कर्त्तव्य और भारतीय संस्कृति में रुचि इनकी अपने कर्त्तव्य और भारतीय संस्कृति में आस्था थी,जो काव्य के रूप में प्रकट हुई। एक उदाहरण देखिए

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“कर्त्तव्य राष्ट्र के लिए समर्पित हों अपने,
हो इसी दिशा में उत्प्रेरित चिन्तन धारा।”

  • कला पक्ष
  1. भाषा-सरल जी की भाषा ओजपूर्ण है। देश के प्रति अथाह प्रेम इनकी भाषा में देखने को मिलता है। गद्य और पद्य दोनों में इन्होंने अपनी लेखनी चलाई है। भाषा शुद्ध एवं परिमार्जित है।
  2. अलंकार योजना यथास्थान इन्होंने अलंकारों का प्रयोग भी किया है। वह अनूठा बन पड़ा है। प्रतीकों के माध्यम से अपने भावों को पाठकों तक पहुँचाया है।
  3. रस योजना-सरलजी ने प्राय: वीर रस को ही अपनाया है। इनकी कविताएँ वीर रस में डूबी हुई हैं और ओजस्वी भाषा में नवयुवकों को प्रेरणा दे रही हैं। एक उदाहरण देखिए राष्ट्र के श्रृंगार ! मेरे देश के साकार सपनो ! देश की स्वाधीनता पर आँच तुम आने न देना। जिन शहीदों के लहू से लहलहाया चमन अपना उन वतन के लाड़लों की याद तुम मुझाने न देना।
  • साहित्य में स्थान

श्रीकृष्ण ‘सरल’ ने अपने क्रान्तिकारी लेखन से विश्व में कीर्तिमान स्थापित किया। ‘सरल जी’ का लेखन इतिहास जैसा प्रामाणिक और शोधपूर्ण है। उनकी साहित्य साधना गहन तपस्या थी। राष्ट्र उनकी साँसों में बसता था। यद्यपि इन्होंने गद्य की सभी विधाओं में लिखा है, फिर भी मूल रूप से वह कवि थे। अपनी उत्कृष्ट सेवा के लिए साहित्य में उनका सम्माननीय स्थान है।

13. गोस्वामी तुलसीदास [2014, 17]

  • जीवन परिचय

गोस्वामी तुलसीदास एक सिद्ध कवि हैं जो देश-काल की सीमाओं से परे हैं। मानव प्रकृति के जिन रूपों का हृदयग्राही वर्णन तुलसी के काव्य में मिलता है, वैसा अन्यत्र उपलब्ध नहीं। गोस्वामी तुलसीदास का कोई प्रामाणिक जीवन परिचय उपलब्ध नहीं है। उनकी जन्म-तिथि,जन्म-स्थान, माता-पिता और विवाहादि के सम्बन्ध में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद हैं। फिर भी तुलसी के जीवन-वृत्त से सम्बन्धित जो भी सामग्री मिलती है उसके आधार पर कहा जाता है कि उनका जन्म संवत् 1589 वि.में बाँदा जिले के राजापुर नामक स्थान में हुआ था। परन्तु कुछ लोग सोरों (एटा) को इनका जन्म स्थान मानते हैं। इनके पिता का नाम आत्माराम और माता का नाम हुलसी था। कहा जाता है कि इनका जन्म अभुक्तमूल नामक अनिष्टकारी नक्षत्र में होने के कारण इनके माता-पिता ने इन्हें जन्म होते ही त्याग दिया था। स्वामी नरहरिदास के सानिध्य में इन्होंने वेद-पुराण एवं अन्य शास्त्रों का अध्ययन किया। तुलसीदास का विवाह दीनबन्धु पाठक की सुन्दर कन्या रत्नावली के साथ हुआ। किंवदन्ती है कि रलावली के व्यंग्य वाणों से आहत होकर ही तुलसी को संसार और सांसारिक ऐश्वर्यों से विरक्ति हो गई और सब कुछ छोड़कर वह काशी चले गए। वहाँ इन्होंने नाना पुराण निगमागम का गहन अध्यन किया,साथ ही रामकथा कहते रहे। काशी छोड़कर तुलसीदास अयोध्या चले गए और वहीं पर ‘रामचरितमानस’ का प्रणयन किया। तुलसी ने संसार तो त्याग ही दिया था। वे राम के चरित गायन में लग गए और स्वयं को अपने आराध्य राम की भक्ति में समर्पित कर दिया। संवत् 1680 वि.में इस महात्मा ने शरीर के बन्धनों को तोड़ दिया और परमतत्व में विलीन हो गए।

तुलसी के काव्य में प्रेम की उन्मत्तता,उत्कृष्ट वैराग्य,राम की अनन्य भक्ति एवं लोकमंगल की भावना भरी हुई थी।

  • साहित्य सेवा

तुलसी के काव्य में लोकमंगल की भावना परिपूर्ण थी। तुलसी ने राम के लोकमंगलकारी रूप को अपनी लोकपावनी कृतियों के सामने प्रतिष्ठापित किया है। तुलसी ने अपनी साहित्यिक कृतियों के माध्यम से समाजगत,राजनीतिक, आर्थिक स्थितिपरक तथा विविध जातिगत सम्बन्धों और उनके एकीकरण का अन्यतम प्रयास किया है। प्रत्येक तरह की एवं प्रत्येक क्षेत्र की समस्याओं का समाधान ढूँढ़ने का तर्कसंगत उपाय तुलसी ने प्रत्येक वर्ग के लिए अपने ही सृजित साहित्य में यथास्थान प्रस्तुत किया है।

  • रचनाएँ

उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं-दोहावली,कवितावली,रामचरित मानस,विनय पत्रिका,रामाज्ञा प्रश्न, हनुमान बाहुक,रामलला,नहछू,पार्वती मंगल,बरबै रामायण,संदीपनी तथा गीतावली। रामचरित मानस हिन्दी साहित्य का सर्वोत्कृष्ट महाकाव्य है। सोहर छन्दों में लिखे हुए ‘नहछ’, ‘जानकी मंगल’ और ‘पार्वती मंगल’ अच्छे खण्डकाव्य हैं। ‘गीतावली’, ‘कृष्ण गीतावली’, ‘विनय पत्रिका’ हिन्दी के सर्वोत्तम गीतिकाव्यों में से है। ‘विनय पत्रिका’ हिन्दी के . विनय काव्यों में श्रेष्ठ है। ‘कवितावली’ मुक्तक काव्य परम्परा की उत्कृष्ट रचना है।

  • भाव पक्ष

(1) भक्ति-भावना-तुलसी ‘रामभक्ति शाखा के प्रमुख कवि थे। धार्मिक दृष्टि से उदार होने का परिचय उन्होंने शिव, दुर्गा, गणेश आदि सभी देवी देवताओं की स्तुति करके दिया है। राम के प्रति तुलसी की भक्ति सेव्य-सेवक भाव की है। राम ही उनका एकमात्र बल, एकमात्र आशा और एकमात्र विश्वास है।
उदाहरण देखिए-

“एक भरोसो एक बल, एक आस विश्वास।
एक राम घनस्याम हित, चातक तुलसीदास॥”

(2) समन्वयवादी दृष्टिकोण तुलसी का दृष्टिकोण अत्यन्त व्यापक एवं समन्वयवादी था। उन्होंने राम के भक्त होते हुए भी अन्य देवी-देवताओं की वन्दना की। तुलसी की रचनाओं में भारतीय संस्कृति एवं धार्मिक विचारधारा पूर्णतः दिखाई देती है। वह प्रत्येक धर्म पद्धति को भगवान की प्राप्ति का साधन मानते हैं। विभिन्न क्षेत्रों में समन्वय के प्रति तुलसी इतने सचेष्ट थे कि अपने आराध्य राम में भी उन्होंने शक्ति, शील और सौन्दर्य का अद्भुत समन्वय प्रस्तुत किया है।

(3) दार्शनिक भाव-तुलसी ने अपनी भक्ति का निरूपण यद्यपि दार्शनिक आधार पर किया है, किन्तु उनकी दार्शनिक विचारधारा किसी मत या वाद से परे है। तुलसी की दृष्टि में राम साक्षात् परमब्रह्म हैं। संसार क्षणभंगुर और असत्य है। भवसागर को पार करने के दो ही साधन हैं-ज्ञान और भक्ति। वह ज्ञान और भक्ति में कोई भेद नहीं मानते-

“ज्ञानहिं भक्तिहिं नहिं कछु भेदा।
उभय हरहिं भव संभव खेदा॥”

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(4) लोकहित की भावना-तुलसीदास की भक्ति लोकमंगल की भावना से प्रेरित है। राम लोकपालक भगवान विष्णु के अवतार हैं। वे लोकहितकारी मानवता के उच्चतम आदर्श और मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। तुलसी के रामराज्य की कल्पना एक आदर्श है। उन्होंने मानवीय सिद्धान्तों पर आधारित समाज और शासन पद्धति के वृहद् स्वरूप को प्रस्तुत किया है।

(5) रससिद्धता तुलसी रससिद्ध कवि थे। उनकी कविताओं में श्रृंगार,शान्त, वीर रसों का समन्वय है। श्रृंगार रस के दोनों पक्षों संयोग और वियोग का बड़ा ही सजीव निरूपण किया है। रौद्र,करुण, अद्भुत रसों का बड़ा ही सुन्दर वर्णन हुआ है।

  • कला पक्ष

(1) भाषा तुलसी ने अपनी काव्याभिव्यक्ति हेतु उस काल में प्रचलित दोनों प्रमुख भाषाओं ब्रज और अवधी को अपनाया है। तुलसी मुख्य रूप से अवधी भाषा के कवि हैं। उनकी भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों की प्रचुरता है। रामचरित मानस अवधी में तथा कवितावली, गीतावली और विनय पत्रिका ब्रजभाषा में लिखी हैं। उनकी भाषा में सरलता, बोधगम्यता, सौन्दर्य,चमत्कार,प्रसाद,माधुर्य, ओज आदि सभी गुणों का समावेश है।

(2) शैली-तुलसी ने अपने युग में प्रचलित सभी शैलियों में काव्य रचना की। सभी मतों,सम्प्रदायों और सिद्धान्तों की कटुता को मिटाकर उनमें समन्वयवादी प्रवृत्ति को अपनाया है। उन्होंने अवधी,ब्रजभाषा में समान रूप से रचनाएँ लिखीं। जहाँ-तहाँ अरबी, फारसी,भोजपुरी और बुन्देलखण्डी भाषाओं के शब्द भी मिल जाते हैं। यत्र-तत्र मुहावरे और लोकोक्तियों ने उनकी भाषा को और भी सरस बना दिया है।

(3) छन्द योजना—तुलसी ने जायसी की दोहा-चौपाई छन्दों में ‘रामचरित मानस’ की रचना की। सरदास की पद शैली को उन्होंने विनय पत्रिका और गीतावली में अपनाया। कवितावली को उन्होंने सवैया शैली में लिखा। दोहावली में उन्होंने दोहा छन्द का प्रयोग किया।

(4) अलंकार योजना-तुलसी का अलंकार विधान अत्यन्त रोचक है। उनकी उपमाएँ अत्यन्त मनोहर हैं। उनके उपमा अलंकार को ही हम कहीं रूपक,कहीं उत्प्रेक्षा तो कहीं दृष्टांत के रूप में देखते हैं। उनके अलंकार काव्य का वास्तविक सौन्दर्य उजागर करने के लिए प्रयुक्त हुए हैं।

  • साहित्य में स्थान

गोस्वामी तुलसीदास लोक कवि हैं। उनके काव्य से जीने की कला सीखी जा सकती है। उनके काव्य का बहिःपक्ष जितना सबल है,उसका अन्तःपक्ष उससे भी सबल है। अयोध्यासिंह उपाध्याय ने उनके बारे में लिखा है
“कविता करके तुलसी न लसै, कविता लसी या तुलसी की कला।”

14. मैथिलीशरण गुप्त [2009, 12]

  • जीवन परिचय

अपने साहित्य से राष्ट्रीय चेतना जाग्रत करने वाले महान् कवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म चिरगाँव जिला झाँसी में सन् 1886 में हुआ था। इनके पिता का नाम सेठ रामचरण गुप्त था। वह वैष्णव होने के साथ-साथ एक अच्छे कवि भी थे। गुप्तजी को कविता के संस्कार अपने पिता से ही प्राप्त हुए। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा चिरगाँव में ही हुई। बाद में वे 9वीं कक्षा तक झाँसी में पढ़े। स्कूली शिक्षा में मन न लगने के कारण उन्होंने स्कूल छोड़ दिया और घर पर ही स्वाध्याय किया।

कुछ समय बाद गुप्तजी आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में आए। द्विवेदीजी की प्रेरणा से उनके मन-मानस में कवि का स्फुरण हुआ। पहले उनकी रचनाएँ ‘सरस्वती’ में छपी। सन् 1923 में गुप्तजी की भारत भारती’ नामक काव्यकृति प्रकाशित हुई जिसने उन्हें साहित्य जगत में प्रसिद्धि दी। सन् 1952 से 1964 तक राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहे। गुप्तजी को भारत का राष्ट्रकवि होने का गौरव प्राप्त रहा। सन् 1964 में हिन्दी के इस महान् कवि का स्वर्गवास हो गया।

  • साहित्य सेवा

मैथिलीशरण गुप्त ने अपने साहित्य से राष्ट्रीय चेतना जाग्रत की। उन्होंने भारतवासियों में एकता स्थापित करने तथा सद्भाव, सौजन्य व सौहार्द्र विकसित करने के लिए आजीवन साहित्य रचना की। उनका काव्य रामभक्ति व राष्ट्र भक्ति का अनूठा संगम है।

  • रचनाएँ

गुप्तजी ने प्रबन्ध और मुक्तक दोनों ही प्रकार के काव्य लिखे हैं। उनकी रचनाओं को चार भागों में बाँटा जा सकता है खण्डकाव्य, महाकाव्य, गीतिकाव्य और गीतिनाट्य। उन्होंने संस्कृत, बंगला और अंग्रेजी की कुछ रचनाओं का हिन्दी में अनुवाद भी किया है। गुप्तजी की मौलिक रचनाएँ निम्न हैं रंग में भंग, जयद्रथ वध, पद्य प्रबन्ध, भारत-भारती, शकुन्तला, तिलोत्तमा, चन्द्रहास,पंचवटी, स्वदेश-संगीत, हिन्दू सैरन्ध्री, वन वैभव, गुरुकुल, साकेत, यशोधरा, द्वापर, सिद्धिराज, मंगल घट, नहुष, कुणाल गीत, अर्जुन और विसर्जन, काबा और कर्बला, विश्ववेदना, अजित, प्रदक्षिणा, पृथ्वी पुत्र, हिडिम्बा, अंजुली और अर्घ्य, जय भारत, युद्ध और
शान्ति,विष्णुप्रिया। साकेत महाकाव्य है। यशोधरा,द्वापर, विष्णुप्रिया,पंचवटी तथा भारत-भारती उनके प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं।

  • भाव पक्ष

(1) भारतीय संस्कृति के पक्षधर-प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रति उनका आस्था असीम है। उनकी अधिकांश रचनाएँ अतीतकालीन सभ्यता और संस्कृति का गौरव लिए हुए हैं। प्राचीन भारतीय संस्कृति के स्वर्णिम चित्रों से उनके काव्य भरे पड़े हैं।

(2) राष्ट्र-प्रेम की अभिव्यक्ति-प्राचीन भारतीय संस्कृति में गहन आस्था रखने के साथ-साथ गुप्तजी का हृदय राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत है। उनके समय भारत अंग्रेजों का गुलाम था। भारतीय समाज की दशा अत्यन्त दयनीय थी। भारतीय अपने प्राचीन गौरवशाली आदर्शों को भूलते जा रहे थे। अपनी ‘भारत-भारती’ में वह भारतीयों का आह्वान करते हैं

“हम कौन थे, क्या हो गए है और क्या होंगे अभी।
आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी।”

(3) राम की अनन्य भक्ति-गुप्त जी सगुणोपासक वैष्णव कवि हैं। अन्य धर्मों के प्रति समुचित आदर रखते हुए वह राम के ही अनन्य भक्त हैं। काव्यों में उन्होंने मंगलाचरण के रूप में राम की स्तुति की है। कृष्ण चरित्र पर केन्द्रित द्वापर’ में वह इसी भाव को व्यक्त करते हुए कहते हैं-

“धनुर्बाण या वेणु लो, श्याम रूप के संग।
मुझ पर चढ़ने से रहा, राम दूसरा रंग।”

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(4) मानवतावादी दृष्टिकोण भारतीय संस्कृति मानवतावादी है। उनकी दृष्टि में सम्पूर्ण संसार एक कुटुम्ब के समान है।। गुप्तजी पूर्णतः मानवतावादी हैं। विश्व-प्रेम एवं लोक-सेवा के माध्यम से उन्होंने अपने काव्य में इसी विचारधारा को व्यक्त किया है।

(5) गाँधीवादी दृष्टिकोण-गुप्त जी गाँधीजी द्वारा चलाए गए स्वतन्त्रता आन्दोलन से भी जडे रहे थे। अतः उन पर गाँधीवादी विचारधारा का प्रभाव पड़ा। उनके काव्य में अहिंसा, सत्य, राष्ट-प्रेम,समाज सुधार, हरिजनोद्धार,स्वदेशी से सम्बन्धित जो दृष्टिकोण मिलता है वह अधिकतर गाँधीजी के विचारों से प्रेरित है।

(6) नारी के प्रति सम्मान गुप्तजी के हृदय में नारी जाति के प्रति आदर का भाव और उसकी वर्तमान करुण अवस्था के प्रति गहरी करुणा का भाव है। भारतीय समाज में नारी की स्थिति अत्यन्त दयनीय है। गुप्तजी का हृदय भारतीय नारी की दयनीय अवस्था पर अत्यन्त दुःखी होता है

“अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,
आँचल में है दूध और आँखों में पानी।”

(7) समन्वयवाद के पक्षधर-गुप्तजी को प्रायः समन्वयवादी कवि कहा जाता है। उनके काव्य में अतीत और वर्तमान, सगुण और निर्गुण, भक्ति और ज्ञान,सत और असत,व्यक्ति और समाज.धर्म और कर्म आदि जीवन के विभिन्न विरोधी पक्षों का अदभुत समन्वय है। रामचन्द्र शक्ल ने उनके बारे में लिखा है-“गुप्तजी वास्तव में सामंजस्यवादी कवि हैं। सब प्रकार उच्चता से प्रभावित होने वाला हृदय उन्हें प्राप्त है। प्राचीन के प्रति पूज्य भाव और नवीन के प्रति उत्साह दोनों इनमें हैं।”

  • कला पक्ष
  1. भाषा-गुप्तजी की काव्य की भाषा खड़ी बोली हिन्दी है। उनकी भाषा शुद्ध और परिमार्जित हिन्दी है, जिसमें संस्कृत शब्दों की बहुलता है। लेकिन भाषा क्लिष्ट नहीं होने पायी है। यथास्थान मुहावरे और लोकोक्तियों का प्रयोग हुआ है। सौन्दर्य और सजीवता के साथ-साथ उनकी भाषा में माधुर्य,ओज और प्रसाद गुणों का भी समावेश हुआ है।
  2. अलंकार योजना-गुप्तजी के काव्य में शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों ही प्रकार के अलंकारों का प्रयोग हुआ है। प्राचीन अलंकारों के साथ ही उन्होंने मानवीकरण, विश्लेषण-विपर्यय और ध्वन्यार्थ व्यंजना जैसे पाश्चात्य अलंकारों को भी अपनाया है। उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, विभावना, सन्देह आदि अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है।
  3. छन्द योजना-गुप्तजी के काव्य में छन्द विधान में पर्याप्त विविधता दिखाई देती है। या, छप्पय,घनाक्षरी,शिखरिणी,द्रुत विलम्बित; मालिनी आदि अनेक प्रकार के छन्दों का प्रयोग उन्होंने अपने काव्य में किया है।
  4. रस योजना-मैथिलीशरण गुप्त ने अपने काव्य में प्रायः सभी रसों का नियोजन किया है। उनमें श्रृंगार,करुण, वीर और वात्सल्य रसों की अधिकता है।
  5. शैली-गुप्तजी ने अपने काव्य में प्रमुखतः भावात्मक शैली का प्रयोग किया है। इसी शैली के अन्तर्गत उनके काव्य में विचारात्मक, आत्मकथात्मक, आत्माभिव्यंजक, सूक्ति आदि शैलियों का प्रयोग हुआ है।
  • साहित्य में स्थान

गुप्तजी को साहित्यिक और राष्ट्रीय दोनों ही स्तरों पर पर्याप्त सम्मान मिला। अपने जीवन काल में वह अनेक उपाधियों और पारितोषिकों आदि से विभूषित किये गये। आगरा विश्वविद्यालय ने उन्हें डी. लिट् की उपाधि प्रदान की और ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ ने उन्हें ‘साहित्य वाचस्पति’ की उपाधि से विभूषित किया। वे सन् 1952 से 1964 तक राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहे।

15. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ [2010]

  • जीवन परिचय

सुमन जी छायावाद के अन्तिम चरण में काव्य-क्षेत्र में आए और प्रारम्भ में प्रेमगीत लिखते रहे। प्रकृति के विशाल क्षेत्र से उठती हुई मानवता की कराहट को सुनकर वह राष्ट्रीय आन्दोलन से प्रभावित हुए और इनके मन में भी क्रान्ति की ज्वाला धधक उठी। शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ का जन्म उन्नाव (उत्तर प्रदेश) के झगरपुर नामक गाँव में सन् 1915 ई. में हुआ था। ‘सुमन’ बाल्यावस्था में ही ग्वालियर चले आए और यहीं उनकी शिक्षा सम्पन्न हुई। उन्होंने ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज से बी.ए.किया। 1940 में एम.ए. और डी.लिट् की उपाधियाँ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से प्राप्त की। उनकी नियुक्ति नेपाल स्थित दूतावास में सांस्कृतिक सहायक के रूप में हो गई। 1961 में माधव कॉलेज, उज्जैन के प्राचार्य नियुक्त हुए तथा कुछ वर्षों के बाद उन्होंने विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में उपकुलपति के रूप में कार्यभार संभाल लिया। उनको भारत सरकार द्वारा ‘पद्मश्री’ की उपाधि से विभूषित किया गया। उपकुलपति के पद से अवकाश लेकर साहित्य सेवा में रत हुए। सन् 2002 ई. में उनका निधन हो गया।

  • साहित्य सेवा

सुमन जी की कविता सामाजिक जीवन तथा राष्ट्रीय चेतना से जुड़ी हुई हैं। इन्होंने प्रारम्भ में प्रेमभाव पर आधारित अनेक गीत लिखे। स्वाधीनता आन्दोलन और शोषित वर्ग की पीड़ा ने इनके काव्य-सृजन की दिशा बदल दी। सुमन जी प्रगतिवादी काव्यधारा के प्रमुख कवि हैं। अपने काव्य के माध्यम से ‘सुमन’ जी ने पूँजीवादी व्यवस्था पर प्रबल प्रहार किए और पीड़ित मानवता को वाणी दी। साम्यवाद के साथ ही गाँधीवाद में भी इनकी अटूट निष्ठा रही। इनकी कविताओं में जागरण और निर्माण का सन्देश है।

  • रचनाएँ

सुमन जी की रचनाएँ अग्रलिखित हैं

  1. हिल्लोल-यह सुमन जी के प्रेमगीतों का प्रथम काव्य-संग्रह है।
  2. आँखें भरी नहीं में मिलन की आकांक्षा, सौन्दर्य तथा प्रेम का मनोहारी चित्रण है।
  3. जीवन के गान’, प्रलय सृजन’, ‘विश्वास बढ़ता ही गया’-सुमन जी की क्रान्तिकारी भावनाओं से भरे हुए रचना संग्रह हैं।
  4. विंध्य हिमालय-इसमें सुमन जी की देश-प्रेम और राष्ट्रीय भावनाओं वाली कविताएँ संगृहीत हैं।
  5. माटी की बारात-इसमें इनको साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया गया है।
  • भाव पक्ष
  1. प्रेम-सुमन जी छायावाद के अन्तिम चरण में काव्य क्षेत्र में आए। प्रारम्भ में इन्होंने प्रेमगीत लिखे। धीरे-धीरे इनका ध्यान समाज के प्रति अपने कर्तव्य की ओर गया। प्रकृति के विस्तृत क्षेत्र से उठती हुई त्रस्त मानवता के दुःख ने इनका ध्यान आकर्षित किया और वे देश के राष्ट्रीय आन्दोलन में शामिल हो गए।
  2. साम्यवाद सुमन जी को रस की नवीन अर्थव्यवस्था ने बहुत आकर्षित किया। अतः इनका झुकाव साम्यवाद की ओर रहा।
  3. पूँजीवाद का विरोध-सुमन जी के मन में क्रान्ति की ज्वाला जल रही थी। इनका मन पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के प्रति विरक्ति के भाव से भर उठा। अत: इनकी कविताओं में साम्राज्यवाद के विरुद्ध आवाज उठाई गई।
  4. सत्य और अहिंसा-सुमन जी की निष्ठा गाँधीजी के सत्य और अहिंसा के सिद्धान्तों पर दृढ़ रही। इसी कारण इनकी कविताओं में क्रान्तिकारी स्वर पाया जाता है।
  5. जीवन दर्शन-इनके काव्य में इनका स्वयं का पुष्ट जीवन दर्शन स्पष्ट दृष्टिगत है जिसमें वर्तमान के हर्ष पुलक,राग विराग और आशा उत्साह के स्वर भी मुखरित हुए।

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  • कला पक्ष
  1. भाषा-सुमन जी की भाषा सरल एवं व्यावहारिक है। उनकी खड़ी बोली में संस्कृत के सरल तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है। साथ ही उर्दू के शब्द भी यत्र-तत्र मिल जाते हैं। सुमन जी एक प्रखर एवं ओजस्वी वक्ता भी थे। अतः उनकी भाषा जनभाषा कही जा सकती है।
  2. शैली इनकी शैली पर इनके व्यक्तित्व की छाप है। उनकी शैली में सरलता, स्वाभाविकता, ओज, माधुर्य और प्रसाद गुणों का समावेश है। उनके गीतों में स्वाभाविकता, संगीतात्मकता,मस्ती और लयबद्धता है।
  3. अलंकार योजना इनकी कविता में अलंकार अपने आप ही आ गए हैं। नए-नए उपमानों के माध्यम से उन्होंने अपनी बात बड़ी ही कुशलता से कह दी है।
  4. छन्द विधान-सुमन जी ने मुक्त छन्द लिखे हैं और परम्परागत शब्दों की समृद्धि में सहयोग दिया है।
  • साहित्य में स्थान

सुमन जी उत्तर छायावादी युग के प्रगतिशील प्रयोगवादी कवियों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। वे एक सुललित गीतकार, महान् प्रगतिवादी एवं वर्तमान युग के कवियों में अग्रगण्य हैं। हिन्दी साहित्य की प्रगति में इनका सहयोग अतुलनीय है।

16. विष्णुकान्त शास्त्री

  • जीवन परिचय

आचार्य विष्णुकांत शास्त्री का जन्म 2 मई, 1929 को कलकत्ता (कोलकाता) में हुआ। इनके पिता का नाम गंगेय नरोत्तम शास्त्री और माता का नाम श्रीमती रूपेश्वरी देवी था। इन्होंने एम.ए,एल.एल.बी.तक शिक्षा प्राप्त की। 1953 में इनका विवाह श्रीमती इन्दिरा देवी से हुआ। इनको बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से और छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय कानपुर से डी. लिट् की उपाधि प्रदान की गई। विष्णुकान्त शास्त्री जी 1953 से 1994 तक कोलकाता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक रहे। अवकाश प्राप्त करने के उपरान्त वे भारत भवन, भोपाल में न्यासी सचिव के पद पर रहे तथा उत्तर प्रदेश के राज्यपाल के पद को भी इन्होंने सुशोभित किया। 17 अप्रैल,2005 में इनका स्वर्गवास हो गया।

  • साहित्य सेवा

विष्णुकान्त शास्त्री ने हिन्दी की अनेक पुस्तकें लिखकर साहित्य सेवा की। अनेक बंगाली और अंग्रेजी कविताओं का हिन्दी में अनुवाद किया। ‘उपमा कालिदासस्य’ का बंगला से हिन्दी में अनुवाद किया। बंगला की कविताओं का हिन्दी में अनुवाद किया और ‘महात्मा गाँधी का समाज दर्शन’ का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद किया। डॉ. शास्त्री द्वारा लिखी गई कविताएँ जीवन के संवेदनशील क्षणों की भावना-प्रधान अभिव्यक्ति हैं।

  • रचनाएँ
  1. ‘कवि निराला की वेदना तथा अन्य निबन्ध’, ‘कुछ चन्दन की कुछ कपूर की’, ‘चिन्तन मुद्रा’, ‘अनुचिन्तन’ आदि उनके द्वारा रचित साहित्यिक समीक्षाएँ हैं।
  2. ‘बांग्लादेश के सन्दर्भ में’–उनका रिपोर्ताज है।
  3. ‘भक्ति और शरणागति’, ‘सुधियाँ उस चन्दन के वन की’ ये उनके द्वारा लिखित संस्मरण हैं।
  4. ‘उपमा कालिदासस्य’ बांग्ला से हिन्दी में अनूदित है।
  5. ‘महात्मा गाँधी का समाज दर्शन’ अंग्रेजी से हिन्दी में अनूदित ग्रन्थ है।
  6. ‘दर्शक और आज का हिन्दी रंगमंच’, ‘बालमुकुन्द गुप्त का एक मूल्यांकन’, ‘बांग्लादेश संस्कृति और साहित्य’, ‘तुलसीदास आज के सन्दर्भ में ये इनके द्वारा सम्पादित ग्रन्थ हैं।
  7. ‘जीवन पथ पर चलते-चलते’ उनका काव्य संकलन है।
  • भाव पक्ष
  1. संवेदनशीलता-डॉ. शास्त्री द्वारा लिखी गई कविताएँ जीवन के संवेदनशील क्षणों की भावना-प्रधान अभिव्यक्ति हैं।
  2. भारतीय संस्कृति में आस्था-विष्णुकांत शास्त्री की भारतीय संस्कृति में गहन आस्था रही। ये देश की स्वतन्त्रता के पक्षधर रहे हैं। उदाहरण देखिए“विजय पथ पर बढ़ सिपाही
    विजय है तेरी सुनिश्चित।
    लोटती है विजय चरणों पर उन्हीं के, जो बढ़े हैं।
    तुच्छ कर सब आपदाएँ, धर्मपथ पर जो अड़े हैं।”
  3. राष्ट्र-प्रेम की अभिव्यक्ति इन्होंने अपनी रचनाओं में राष्ट्र-प्रेम को आदर्श रूप में माना है। इनका राष्ट्र-प्रेम व्यापक और उदार है। एक उदाहरण देखिए”गगन गायेगा गरज कर गर्व से तेरी कहानी
    वक्ष पर पदचिह्न लेगी धन्य हो धरती पुरानी।
    कर रहा तू गौरवोज्ज्वल त्यागमय इतिहास निर्मित।
    विजय है तेरी सुनिश्चित।”
  4. जीवन जीने की शैली जीवन में जैसे-जैसे मोड़ आते गये कविता उन्हीं के अनुरूप मुखरित होती गई। जीवन के अनुरूप गुणों,जैसे–स्नेह, भक्ति,प्रेरणा आदि का समावेश इनकी कविताओं में देखा जा सकता है।

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  • कला पक्ष
  1. भाषा-डॉ. विष्णुकान्त शास्त्री की भाषा ओजस्वी है। इसमें तत्सम शब्दों की बहुलता है। वीर रस की कविताओं में ओजगुण-प्रधान शब्दावली का प्रयोग है तथा शान्त रस की कविताओं में माधुर्य एवं प्रसाद गुणों का सहज समावेश है।
  2. अलंकार योजना-विष्णुकान्त शास्त्री की कविताओं में अलंकार स्वयं प्रविष्ट हो गए हैं। रूपक,उपमा व अनुप्रास की छटा स्थान-स्थान पर सहज ही दृष्टिगत होती है।
  3. रस निरूपण-डॉ.विष्णुकान्त शास्त्री ने अपनी कविताएँ मुख्यत: वीर रस और शान्त रस में लिखी हैं। वीर रस में ओज-प्रधान शब्दावली है और शान्त रस में माधुर्य और प्रसाद गुण झलकता है।
  • साहित्य में स्थान

शास्त्रीजी को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल सम्मान, साहित्य भूषण सम्मान, डॉ. राममनोहर लोहिया सम्मान तथा राजर्षि टंडन हिन्दी सेवी सम्मान प्राप्त हुए। भावों के आधार पर उनकी कविताओं को राष्ट्रीय, विविधा,प्रेरणा व प्यार,भक्ति एवं काव्यानुवाद के रूप में विभाजित किया जा सकता है। हिन्दी साहित्य में इनका स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

17. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ [2009, 11, 13]

  • जीवन परिचय

सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ एक युगान्तकारी कवि हैं। छायावाद के प्रमुख स्तम्भ और आधुनिक काव्य में क्रान्ति के अग्रदूत निराला का जन्म मेदिनीपुर (बंगाल) के महिषादल राज्य में सन् 1897 में हुआ था। इनके पिता रामसहाय त्रिपाठी महिषादल राज्य के कर्मचारी थे। इस प्रकार निराला जी का बचपन बंगाल की शस्य-श्यामला धरती पर व्यतीत हुआ। इनकी स्कूली शिक्षा केवल मैट्रिक तक हुई। कालान्तर में उन्होंने हिन्दी, संस्कृत, उर्दू तथा अंग्रेजी भाषा तथा साहित्य का बहुत अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। निरालाजी का जीवन दुःख और संघर्षों में ही बीता। जीविकोपार्जन के लिए उन्होंने कलकत्ता में रामकृष्ण आश्रम में रहकर ‘समन्वय’ का कार्य किया। मतवाला (कलकत्ता) एवं सुधा (लखनऊ) का सम्पादन किया। 15 अक्टूबर,1961 को इनका स्वर्गवास हो गया।

  • साहित्य सेवा

निराला जी का साहित्य बहुमुखी और विपुल है। उन्होंने कविता, उपन्यास, कहानियाँ, निबन्ध,रेखाचित्र,जीवनियाँ,आलोचनात्मक निबन्ध आदि सभी कुछ लिखे हैं। निराला का काव्य दार्शनिक विचारधारा, गम्भीर चिन्तन और भाव सौन्दर्य की अमूल्य निधि है। विवेकानन्द का प्रभाव उन पर सुस्पष्ट है। उनके काव्य में कहीं विराट की ओर रहस्यात्मक संकेत है तो कहीं सामान्य जन के उत्पीड़न के चित्र हैं,कहीं कथा मुखर है तो कहीं गीत माधुरी।

  • रचनाएँ

समर्थ कवि होने के साथ-साथ निराला ने उपन्यास,कहानियाँ, रेखाचित्र,नाटक,जीवनियाँ और निबन्धों की रचना की। अंग्रेजी,बंगला तथा संस्कृत के ग्रन्थों के अनुवाद भी किये। परिमल, अनामिका, गीतिका, कुकुरमुत्ता, अणिमा, बेला, नये पत्ते, अर्चना, आराधना, गीतकुंज तथा सान्ध्य काकली ये काव्य कृतियाँ हैं। राम की शक्ति पूजा, तुलसीदास उनकी लम्बी कविताएँ हैं, जो अपनी विशिष्टताओं के कारण खण्डकाव्य मानी गई हैं। ‘सरोज स्मृति हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ शोकगीत माना गया है।

  • भाव पक्ष

(1) प्रेम और सौन्दर्य-छायावाद के उन्नायक कवि होने के कारण निराला के काव्य में प्रेम तथा सौन्दर्य के मोहक चित्र प्राप्त होते हैं। उनका सौन्दर्य चित्रण आकर्षक एवं अद्भुत है। उदाहरण के लिए निम्न पंक्तियाँ देखिए

“नयनों का नयनों से गोपन प्रिय संभाषण,
पलकों पर नव पलकों का प्रथमोत्थान पतन।”

निराला के काव्य में श्रृंगार के मादक एवं सजीव चित्र भी प्राप्त होते हैं।

(2) भक्ति एवं रहस्य भावना निराला जी के काव्य में भक्ति एवं रहस्य, भावनापरक रचनाएँ भी प्राप्त होती हैं। उन्होंने आत्मा तथा परमात्मा की एकता का प्रतिपादन किया है। निराला जी की भक्तिपरक रचनाओं में सगुण भक्तों का सा आत्मसमर्पण, तल्लीनता तथा हृदय की आर्त भावना परिलक्षित होती हैं।

“उन चरणों में मुझे दो शरण,
इस जीवन को करो हे वरण
x x x
दलित जनों पर करो करुणा
दीनता पर उतर आये
प्रभु तुम्हारी शक्ति अरुणा।”

(3) प्रकृति चित्रण-निराला जी के काव्य में प्रकृति चित्रण के विविध रूप प्राप्त होते हैं। उनका प्रकृति चित्रण अत्यन्त मधुर और सजीव है। उन्होंने प्रकृति में मानवीय भावों तथा क्रिया-कलापों का आरोप किया है। जैसे

“सखि बसन्त आया,
आवृत्त सरसी-उर सरसिज उठे,
केशर के केश कली से छूटे
स्वर्ण-शस्य अंचल
पृथ्वी का लहराया।”

(4) राष्ट्रीयता निराला जी का काव्य देश-प्रेम और राष्ट्रीयता की भावनाओं से ओतप्रोत है। उनकी कविताओं में ओज स्पष्ट दिखाई देता है। ‘जागो फिर एक बार’ कविता में कवि ने भारतीयों को जाग जाने का उद्बोधन किया है। जैसे

“जागो फिर एक बार प्यारे जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें।
अरुण-पंख-तरुण किरण खड़ी खोल रही है द्वार।”

(5) प्रगतिवादी दृष्टिकोण छायावाद का कवि होते हुए भी निराला जी को प्रगतिवाद का भी प्रथम कवि माना जाता है। उनके काव्य में सामाजिक तथा आर्थिक विषमता के प्रति विद्रोह तथा समाज के दलित एवं शोषित वर्ग के प्रति करुणा का भाव है। निम्न वर्ग के जीवन को उन्होंने यथा तथ्य चित्रण किया है। कुकुरमुत्ता कविता में उनका प्रगतिवादी स्वर देखिए

“अबे, सुन बे गुलाब,
भल मत गर पायी खशब रंगो आब
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट
डाल पर इतरा रहा कैपीटलिस्ट।”

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  • कला पक्ष

(1) भाषा-निराला जी की भाषा भावों के अनुरूप है। देश-प्रेम तथा भक्तिपरक व्यंग्यात्मक कविताओं में उनकी भाषा सरल एवं व्यावहारिक है। गम्भीर रचनाओं में उनकी भाषा क्लिष्ट, संस्कृतनिष्ठ एवं दुरूह हो गई है। निराला जी की भाषा में उर्दू, फारसी एवं बंगला शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। उन्होंने कुछ नवीन शब्दों का गठन भी किया है। निराला जी की काव्य भाषा भावानुकूल, चित्रात्मक, गत्यात्मक तथा ध्वन्यात्मक गुणों से समन्वित है। जैसे

“है अमा निशा, उगलता गगन घन अन्धकार
खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन चार।
अप्रतिहत गरज रहा पीछे, अम्बुधि विशाल
भूधर त्यों ध्यानमग्न, केवल जलती मशाल।”

(2) शैली-निराला जी की दो शैलियाँ हैं-

  • उत्कृष्ट छायावादी गीतों में प्रयुक्त दुरूह शैली।
  • सरल,प्रवाहपूर्ण,प्रचलित उर्दू के शब्द लिए व्यंग्यपूर्ण और चुटीली शैली।

(3) छन्द योजना-निराला जी ने नए-नए छन्दों का प्रयोग किया है। उन्होंने तुकान्त और अतुकान्त दोनों प्रकार के छन्द लिखे हैं। निराला जी ‘मुक्त छन्द’ के प्रवर्तक माने जाते हैं। मुक्त

छन्द में मात्राओं तथा वर्णों का बन्धन नहीं होता। केवल ध्वनि तथा प्रवाह का ध्यान रखा जाता है। मुक्त छन्द का उदाहरण देखिए-

“रे प्यारे को सेज पास
नम्रमुख हँसी-खिली,
खेल रंग प्यारे संग।”

(4) अलंकार विधान-निराला जी की अलंकार योजना उच्चकोटि की है। उनके काव्य में अलंकारों की प्रचुरता है। उन्होंने नवीन और प्राचीन दोनों प्रकार के उपमान खोजे हैं। उन्होंने उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक,मानवीकरण, विशेषण, विपर्यय, पुनरुक्तिप्रकाश आदि अलंकारों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया है। मानवीकरण का एक उदाहरण देखिए-

“किसलय वसना नव-वय लतिका
मिली मधुर प्रिया उर-तरु-पतिका।”

  • साहित्य में स्थान

आधुनिक कवियों में निराला का उत्कृष्ट स्थान है। वे मुक्तक के जनक थे। उन्होंने हिन्दी कविता को नयी दिशा प्रदान की। हिन्दी साहित्य में निराला के कृतित्व को उनके व्यक्तित्व ने और भी अधिक महान बनाया है। निराला जी हिन्दी के मूर्धन्य रचनाकार हैं।

18. गजानन माधव मुक्तिबोध’

  • जीवन परिचय

नई कविता के सशक्त कवि गजानन ‘मुक्तिबोध’ का जन्म 13 अक्टूबर, 1917 को मुरैना जनपद के श्योपुर कस्बे में हुआ था। उन्होंने उज्जैन के माधव विद्यालय से हाईस्कूल की परीक्षा पास की तथा इन्दौर के होल्कर कॉलेज से बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। आर्थिक विपन्नता के कारण पढ़ाई बन्द करके शुजालपुर के शारदा शिक्षा सदन में शिक्षक हो गये। सन् 1942 में उज्जैन के मॉडल स्कूल में शिक्षक रहे। सन् 1948 में नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. किया तथा राजनन्द गाँव के दिग्विजय महाविद्यालय में प्राध्यापक हो गये। उन्होंने ‘हंस’ (वाराणसी) तथा.’समता’ (जबलपुर) मासिक पत्रों में भी कार्य किया। असाध्य रोगों से जूझते हुए सन् 1964 में उनका देहान्त हो गया।

  • साहित्य सेवा

उन्होंने पद्य और गद्य साहित्य दोनों में रचनाएँ लिखीं। मुक्तिबोध की कविताओं का भाव पक्ष उन्नत तथा समसामयिक है। इनकी भाषा परिमार्जित, प्रौढ़ तथा सबल है। मुक्तिबोध ने काव्य के माध्यम से जन को जन-जन तथा मन को मानवीय बनाने की चेष्टा की है।

  • रचनाएँ

‘चाँद का मुँह टेड़ा है’ तार सप्तक में छपने वाली कविताएँ हैं। ‘काठ का सपना’, सतह से उठता हुआ आदमी’ इनके महत्वपूर्ण काव्य संग्रह हैं। ‘नए साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’, भारतीय इतिहास’, ‘कामायनी-एक पुनर्विचार’, संस्कृति एवं नई कविता का आत्मसंघर्ष’ इनकी जानी मानी गद्य रचनाएँ हैं।

  • भाव पक्ष

मुक्तिबोध की कविताओं के भाव पक्ष की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. इनकी कविता के वर्ण्य विषय जीवन तथा समाज के यथार्थ से सम्बन्ध रखते हैं। इन्होंने अपनी कविता में समाज की विपन्नता,विवशता तथा विसंगतियों को चित्रित किया है।
  2. मुक्तिबोध के काव्य में मानवतावाद का स्वर स्पष्ट रूप से मुखरित हुआ है। मुक्ति बोध ने लघु मानव की खोज की है तथा उसके प्रति पूर्ण आस्था प्रकट की है। जैसे“जिन्दगी के दलदल के कीचड़ में फंसकर
    वृक्ष तक पानी में फंसकर
    मैं यह कमल तोड़ लाया हूँ।”
  3. उनकी कविता में आधुनिक भाव बोध की सशक्त अभिव्यंजना है।
  4. उनकी काव्य-चेतना में चिन्तन की प्रचुरता है। उनका यह चिन्तन जलते हुए अंगारे पर चलने वाले व्यक्ति की मनस्थिति का चिन्तन है।
  • कला पक्ष

(1) भाषा-इनकी भाषा परिमार्जित,प्रौढ़ तथा पुष्ट है। सामान्य बोलचाल की भाषा के अतिरिक्त संस्कृतनिष्ठ सामासिक पदावली से युक्त उनकी भाषा सरल एवं प्रवाहमय है। भाषा की शक्ति उनके प्रत्येक वर्णन को अर्थपूर्ण तथा चित्रमय बना देती है। मुक्तिबोध की भाषा में प्रांजलता,शब्द चयन की सहजता,सार्थकता के साथ-साथ युग बोध के अनुरूप कथ्य को प्रकट करने की पूर्ण सामर्थ्य है। उनकी भाषा में कहीं पर बनावट तथा अस्वाभाविकता नहीं है।

(2) शैली-मुक्तिबोध की अधिकांश कविताएँ लम्बी हैं। उनकी काव्य शैली बिम्ब तथा प्रतीक प्रधान है। उनके काव्य-बिम्ब तथा प्रतीक नये जीवन-सन्दों से युक्त हैं। वे सहज जीवन को व्यक्त करने के कारण सरलता से ग्राह्य हैं। उनकी शैली सबसे अलग नवीन प्रतीक और नये सन्दर्भो से युक्त है। उन्होंने कविता को एक नया आयाम दिया है।

  • साहित्य में स्थान

गजानन माधव मुक्तिबोध नई कविता के प्रतिनिधि कवि हैं और जीवन मूल्यों के प्रयोग करने वाले कवि भी हैं। नई कविता को स्वरूप प्रदान करने में उनका विशिष्ट स्थान है।

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19. सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’

  • जीवन परिचय

अज्ञेयजी हिन्दी में प्रयोगवादी कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। उन्होंने ‘तार-सप्तक’ का प्रकाशन करके हिन्दी में प्रयोगवाद का सूत्रपात किया। अज्ञेय जी का जन्म सन् 1911 में पंजाब के करतारपुर नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता श्री हीरानन्द शास्त्री थे। पिता भारत के प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता थे। इनका बचपन अपने पिता के साथ कश्मीर, लखनऊ, बिहार तथा मद्रास में व्यतीत हुआ। बी. एस-सी. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद एम.ए.(अंग्रेजी) में प्रवेश लिया। राजनैतिक आन्दोलन में सम्मिलित होने के कारण पढ़ाई का कार्यक्रम बीच में ही छूट गया। देश सेवा में लगे रहने के कारण इन्हें कारावास भी भोगना पड़ा। अज्ञेयजी ने कुछ समय तक अमेरिका में भारतीय साहित्य तथा संस्कृत के अध्यापक के रूप में कार्य किया। इसके बाद जोधपुर विश्वविद्यालय में तुलनात्मक साहित्य और भाषा अनशीलन विभाग के निदेशक पद पर कार्य किया। 4 अप्रैल,1987 को इस साहित्यकार का निधन हो गया।

  • साहित्य सेवा

अज्ञेयजी का जीवन एक साधक का जीवन था। इन्होंने सन् 1934 ई.के लगभग लेखन कार्य आरम्भ किया। उन्होंने गद्य और पद्य दोनों में लेखन कार्य किया। उन्होंने निबन्ध, यात्रा-साहित्य, उपन्यास, कहानी, नाटक,संस्मरण,आलोचना आदि विविध विधाओं में साहित्य सृजन किया। सम्पादक और पत्रकार के रूप में उन्हें ख्याति प्राप्त थी। उन्होंने कई ग्रन्थों एवं पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया। तार-सप्तक का प्रकाशन करके नये युग को जन्म दिया। उन्होंने ‘सैनिक’, ‘विशाल भारत’, ‘प्रतीक’, ‘दिनमान’, ‘वाक’ (अंग्रेजी) पत्रों का बड़ी कुशलतापूर्वक सम्पादन किया। उनकी पहली कविता सन् 1927 में कॉलेज पत्रिका में प्रकाशित हुई। चित्रकारी,मृत्तिका-शिल्प,चर्म-शिल्प,काष्ठ-शिल्प, फोटोग्राफी,बागवानी,पर्वतारोहण आदि में उनकी विशेष रुचि थी। अज्ञेयजी प्रकृति तथा व्यवस्था प्रेमी व्यक्ति थे। उनकी साहित्यिक सेवाएँ सदैव चिर स्मरणीय रहेंगी।

  • रचनाएँ

अज्ञेयजी प्रतिभा सम्पन्न कवि थे। उनकी प्रमुख रचनाओं का विवरण निम्नवत् है

  1. काव्य-अरी ओ करुणा प्रभामय, आँगन के पार द्वार, हरी घास पर क्षणभर, बावरा अहेरी,इन्द्रधनु रौंदे हुए,कितनी नावों में कितनी बार, इत्यलम,सुनहले शैवाल,चिन्ता तथा पूर्वा।
  2. आलोचना-त्रिशंकु, हिन्दी-साहित्य : एक आधुनिक परिदृश्य, तीनों तार सप्तकों की भूमिकाएँ आदि।
  3. नाटक-उत्तर प्रियदर्शी।
  4. कहानी संग्रह-विपथगा, शरणार्थी,जयदोल, तेरे ये प्रतिरूप, अमर बल्लरी, परम्परा आदि।
  5. निबन्ध-संग्रह-आत्मनेपद,लिखि कागद कोरे,सबरंग और कुछ राग आदि।
  6. उपन्यास-शेखर : एक जीवनी (भाग 1 तथा 2), नदी के द्वीप, अपने-अपने अजनबी।
  7. यात्रा-साहित्य-एक बूंद सहसा उछली, अरे यायावर रहेगा याद।
  8. सम्पादन सैनिक, विशाल भारत,प्रतीक, दिनमान,वाक् (अंग्रेजी)।
  • भाव पक्ष

उनकी कविता में जीवन की गहरी अनुभूति तथा कल्पना की ऊँची उड़ान का सुन्दर समन्वय हुआ है। अज्ञेयजी ने एक नवीन काव्य धारा का प्रवर्तन किया। उनकी निजी अनुभूतियाँ प्रयोगवादी कविता के रूप में प्रकट हुईं।

  1. प्रकृति चित्रण-अज्ञेयजी प्रकृति प्रेमी कवि हैं। कवि ने प्रकृति का आलम्बन और उद्दीपन दोनों रूपों में प्रयोग किया है। प्रकृति के मानवीकरण रूप का प्रयोग अपने काव्य में किया है। अज्ञेयजी प्रकृति के पारखी कवि हैं। कहीं-कहीं प्रकृति के मनोरम चित्रों को उभारा है। कहीं-कहीं प्रकृति के भयंकर पक्ष का भी चित्रण किया है।
  2. प्रेम निरूपण-प्रेम के सम्बन्ध में उनका विचार है कि प्रेम यज्ञ की ज्वाला के समान है। उनके प्रेम निरूपण में एक ओर प्रिया के सौन्दर्य का वर्णन किया है। वहीं दूसरी ओर मन की व्याकुलता दिखायी देती है। इनकी प्रारम्भिक रचनाओं में प्रेम की अनुभूति का वर्णन पर्याप्त रूप में किया गया है।
  3. व्यक्तिगत भावनाओं की अभिव्यक्ति-अज्ञेयजी ने अपनी कविताओं में मानव स्वभाव का वर्णन किया है। वे समाज के महत्त्व को स्वीकार करते हैं। व्यक्ति के विकास द्वारा ही समाज का विकास सम्भव है। उनका विचार है मानव के विकास के लिए मानसिक विकास भी आवश्यक है। अतः उन्होंने अपने काव्य में व्यक्ति के विकास को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है।
  4. बौद्धिकता कवि ने बौद्धिकता पर विशेष बल दिया है। उनकी कविताओं में बुद्धि का विकास अधिक है। उनकी कविताएँ अतिशय बौद्धिकता का खजाना बन कर रह गयी हैं। अत्यधिक बौद्धिकता ने रस का अभाव उत्पन्न कर दिया है। उनकी कविताओं में सर्वत्र बौद्धिकता के ही दर्शन होते हैं।
  5. क्षणवादी जीवन दृष्टि जीवन क्षणभंगुर है। इस कविता में क्षणवाद का प्रबल विरोध किया है। प्रयोगवादी कवि प्रति क्षण की अनुभूतियों को महत्त्वपूर्ण मानता है। वह क्षण को सत्य मानता है। अतः इसका उपभोग करना चाहता है।
  6. नवीन उपमानों का प्रयोग-प्रयोगवादी कवि नवीनता का पोषक है। उनका विचार है कि पुराने शब्दों में नये अर्थों को प्रकट करने की क्षमता नहीं रही। अत: नये-नये शब्दों का प्रयोग होना चाहिए। नये विषय, नया शिल्प, नवीन भाषा, नए प्रतीक एवं नये उपमान इन कविताओं में प्रयुक्त किये गये हैं। इन नवीन उपमानों में नये सौन्दर्य बोध के दर्शन होते हैं।
  7. रहस्य भावना-अज्ञेय जी के काव्य में रहस्य की प्रधानता है। हरे भरे खेत,सागर, सुन्दर घाटियाँ, मनुष्य की मुस्कान,प्रेम तथा श्रद्धा आदि सभी में उस विराट ईश्वरीय सत्ता के दर्शन होते हैं। ये सभी उस ईश्वर की ही देन हैं। कवि,ईश्वर से समन्वय स्थापित करना चाहता है। अज्ञेयजी के काव्य में सर्वत्र रहस्य भावना दृष्टिगोचर होती है।
  • कला पक्ष
  1. भाषा-अज्ञेयजी का भाषा पर पूर्ण अधिकार था। विषय के अनुसार आपकी भाषा बदलती रहती है। आपकी भाषा शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली से युक्त है। भावों को व्यक्त करने में जो भाषा आपको अच्छी लगी, आपने उस भाषा का ही प्रयोग किया है। कहीं-कहीं अंग्रेजी तथा उर्दू के शब्दों का प्रयोग भी अज्ञेयजी ने किया है। उनकी भाषा में नूतनता, लाक्षणिकता तथा प्रतीकात्मकता के गुण विद्यमान हैं। देशज शब्दों का प्रयोग भी किया है। भाषा में चित्रात्मकता तथा बिम्ब विधान के भी दर्शन होते हैं। भाषा में चटकीलापन लाने के लिए उन्होंने लोकोक्तियों एवं मुहावरों का प्रयोग भी किया है।
  2. शैली अज्ञेयजी का व्यक्तित्व गम्भीर था। व्यक्तित्व की छाप उनकी शैली पर दिखायी देती है। इनकी शैली में बौद्धिकता और गम्भीरता की प्रधानता है। इन्होंने गद्य में आलोचनात्मक शैली, वर्णनात्मक शैली, विवरणात्मक शैली, सम्वादात्मक शैली, विवेचनात्मक शैली, भावात्मक शैली तथा सम्बोधन शैली का प्रयोग किया है। अज्ञेयजी ने व्यंग्य-प्रधान रचनाओं में व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग किया है। शैली भाषा तथा भावों के अनुकूल है।
  3. छन्द योजना-अज्ञेयजी ने छन्द मुक्त तथा छन्दबद्ध दोनों रूपों में रचनाएं की हैं। एक ओर उन्होंने छन्द के बन्धन को स्वीकारा है तथा दूसरी ओर छन्द के बन्धन को नकारा है। लय, स्वर तथा गेयता के तत्त्व विद्यमान हैं। छन्दों के प्रयोग द्वारा उनके काव्य में शब्द चित्र का अंकन किया गया है। कवि में गहन भावों को व्यक्त करने की शक्ति है।
  4. अलंकार योजना-अज्ञेयजी ने अपने काव्य में परम्परागत अलंकारों का प्रयोग किया है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग किया है। प्रकृति चित्रण में मानवीकरण अलंकार का प्रयोग मिलता है। ध्वन्यर्थव्यंजना, विशेषण विपर्यय जैसे नवीन अलंकारों का प्रयोग किया है।

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उदाहरणार्थ-

उपमा-यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है।
रूपक-मैं कब कहता हूँ, जीवन मरु नंदन कानन का फूल बने।

  • साहित्य में स्थान

अज्ञेयजी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। अज्ञेयजी हिन्दी साहित्य के लिए वरदान हैं। वे प्रतिभा सम्पन्न कवि हैं। अज्ञेयजी ने कविता का संस्कार किया है। कवि ने काव्य को नवीनता प्रदान की। वे मानवतावादी कवि हैं। उनकी कविताएँ बुद्धि को भी झकझोर देती हैं। वे प्रयोगवाद के प्रवर्तक के रूप में सदैव स्मरणीय रहेंगे। नई कविता को शिल्पगत रूप देने में अज्ञेयजी का सर्वाधिक योगदान है। वर्तमान युग में अपने व्यक्तित्व तथा कृतित्व दोनों की विविधता के कारण काफी चर्चित रहे। साहित्य-सेवी अज्ञेयजी का हिन्दी जगत में विशिष्ट स्थान है।

20. वीरेन्द्र मिश्र

  • जीवन परिचय

वीरेन्द्र मिश्र का स्थान नवगीतकारों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनकी लेखनी में तथा कण्ठ में एक अजीव-सा माधुर्य है। मिश्रजी सरस्वती के वरद पुत्र हैं। कवि तथा गीतकार वीरेन्द्र मिश्र का जन्म दिसम्बर,1927 को ग्वालियर में हुआ था। श्री मिश्रजी ने जीवन-पर्यन्त मानव मूल्यों की स्थापना की। शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने पूरी तरह स्वयं को लेखन कार्य में तल्लीन कर दिया। उनका स्वभाव सरल तथा विनम्र था। अपने बड़ों का सम्मान करते थे। छोटों को स्नेह करते थे। वे संघर्ष की साक्षात् मूर्ति थे। स्वाभिमान तथा दृढ़ निश्चय उनके स्वभाव का प्रधान गुण था। उस समय कवि सम्मेलन उनके बिना अधूरे समझे जाते थे। अतः मिश्रजी कवि सम्मेलनों की शान थे। जून, 1975 में यह गीतकार सदैव के लिए हमसे दूर हो गया।

  • साहित्य सेवा

मिश्रजी ने अनेक रूपों में माँ भारती की सेवा की। वे गीतकार तथा गद्य लेखक के साथ-साथ एक सफल पत्रकार थे। वीरेन्द्र मिश्र आधुनिक कविता की वर्तमान पीढी के सबसे अधिक लोकप्रिय कवि माने जाते हैं। मिश्र जी छायावादोत्तर गीतकार हैं। उनके गीतों में समय तथा समाज की प्रगतिशील आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति मिलती है। उनकी रचनाओं में सामाजिक,सांस्कृतिक तथा राष्ट्रीय धरातल अत्यन्त सबल है। उन्होंने अपने गीतों के माध्यम से जनमानस में आस्था और विश्वास को जाग्रत किया है। उनके गीतों में जहाँ एक ओर भावुक प्रेमी के प्रणय की गूंज हैं,वहीं दूसरी ओर व्यथा एवं पीड़ा के मार्मिक स्वर भी विद्यमान हैं। उनके गीतों में राष्ट्रीय गौरव के स्वर मुखरित हुए हैं। अन्याय,शोषण और विषमता के विरुद्ध सच्ची मानवीय चिन्ता के दर्शन होते हैं।

  • रचनाएँ

वीरेन्द्र मिश्र की प्रमुख रचनाएँ हैं गीतम, मधुवंती, गीत पंचम, उत्सव गीतों की लाश पर,वाणी के कर्णधार,धरती,गीताम्बरा, शांति गन्धर्व आदि प्रमुख हैं। उन्होंने गीत, नवगीत, राष्ट्रीय गीत, मुक्तक के अतिरिक्त रेडियो नाटक एवं बाल साहित्य की रचना की।

  • भाव पक्ष

(1) सरस तथा सफल गीतकार-वीरेन्द्र मिश्र मूलतः गीतकार हैं। उनकी रचनाओं का सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय धरातल अत्यन्त व्यापक है। जनसाधारण उनके प्रेरणा स्रोत हैं। मिश्रजी सदैव सामाजिक समस्याओं के प्रति जागरूक रहे हैं। हमेशा ही युग चेतना का संचार किया है। काव्य का मर्म वही समझ सकता है जिसमें उत्सर्ग एवं त्याग की भावना निहित हो। गीतकार के भाव जगत में किसी प्रकार का कोई अभाव नहीं है।

(2) कल्पना और यथार्थ का समन्वय-वीरेन्द्र मिश्र की कविताओं में कल्पना और यथार्थ का सुन्दर समन्वय देखने को मिलता है। जीवन के शाश्वत सत्य से विमुख रहकर कल्पना लोक में विचरण करना कवि को रुचिकर नहीं लगता। कल्पना के माध्यम से कवि हृदय की अनुभूति कराता है। सत्य,सौन्दर्य और कल्पना की गहराई के दर्शन होते हैं। उनमें ऐसी कल्पना शक्ति है जिसके द्वारा एक सफल रचनाकार सिद्ध हुए हैं। सुधी पाठक और श्रोता उनकी कविताओं में तल्लीन हो जाता है। धरातल के वास्तविक यथार्थ को भी कवि प्रस्तुत करता है।

(3) वेदना की प्रधानता–मिश्रजी के काव्य में वेदना का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। कवि का व्यक्तिगत जीवन सुख-दुःख तथा आनन्द से पूर्ण रहा है। एक घटना ने तो उनके जीवन को ही बदल दिया। यह घटना उनके व्यक्तिगत जीवन की है। उनके बड़े भाई का असामयिक निधन हो गया। उनकी रचनाओं में सूनेपन का अनुभव होने लगा। मिश्रजी की व्यक्तिगत वेदना पूरे संसार की वेदना हो गयी। कहीं-कहीं हर्षातिरेक भी काव्य में दृष्टिगोचर होता है। उनके काव्य में विरह पीड़ित मानव की विकलता तथा उत्कण्ठा के दर्शन होते हैं। कवि की आँखों से प्रवाहित आँसू उसकी मर्म व्यथा के परिचायक हैं–

क्या तुम्हें कुछ भी पता है,
अश्रु में क्या-क्या व्यथा है?

(4) सत्यम् के सफल गायक कवि केवल कल्पना में ही विचरण नहीं करता अपितु वह सत्य के ठोस धरातल पर आधारित है। वे सत्य और ईमान के मार्ग पर हमें चलने के लिए प्रेरित करते हैं। सत्य सदैव आदरणीय है। कभी-कभी कठोर सत्य का भी समाज सम्मान करता है। कवि मानवीय जीवन के कटु सत्यों से हमें अवगत कराते हैं। यदा-कदा सुखद स्वप्न अतीत में विलीन हो जाता है।

(5) संघर्षों के कवि-संघर्ष मानव जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है। जीवन में पग-पग पर बाधाएँ एवं संघर्ष हैं। इन संघर्षों से निकलना तथा टकराना ही सच्चा जीवन है। जीवन के कटु अनुभवों को प्राप्त करके जो कर्त्तव्य-पथ पर आगे बढ़ा है,वह दूसरों के लिए सदैव पथ-प्रदर्शक है। कवि ने अपने गीतों में जीवन की गतिशीलता का वर्णन किया है। कवि के गीतों में चिर शान्ति; प्रेम प्रकट होता है।

(6) युद्ध की विभीषिका का प्रबल विरोध-युद्ध देश के विकास में बाधक होते हैं। युद्ध सदैव ही मानवता के शत्रु हैं। युद्ध में विजय किसी की भी हो या पराजय किसी की हो, हानि तो प्राणिमात्र को पहुँचती ही है। पाकिस्तान द्वारा कश्मीर पर आक्रमण ने कवि की आत्मा को झकझोर कर रख दिया। चीन ने भी जबरन भारत को युद्ध की आग में झोंक दिया। इससे अपार धन-जन की हानि हुई। कवि को युद्ध बुरा लगता है। वह चाहे अपने देश से हो अथवा किसी अन्य देश से। युद्धों से जनसामान्य को प्रदूषण, चीत्कार,विनाश और बेकारी ही मिलती है।

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  • कला पक्ष

(1) भाषा-मिश्रजी ने अपने काव्य में तत्सम शब्दों का प्रयोग किया है। कवि ने अपने काव्य में परिमार्जित खड़ी बोली का प्रयोग किया है। चित्रात्मकता आपकी भाषा की प्रमुख विशेषता पायी जाती है। आपकी भाषा में कहीं-कहीं उर्दू-फारसी के शब्दों का प्रयोग स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। भाषा-सौष्ठव की गहराई पायी जाती है। कवि की रचनाएँ प्रसाद, ओज तथा माधुर्य गुण से परिपूर्ण हैं। भाषा लक्षणा तथा व्यंजना शब्द शक्ति से पूर्ण है।

(2) शैली-मिश्रजी का काव्य गेयतात्मकता का श्रेष्ठ उदाहरण है। काव्य में संगीतात्मकता भी पायी जाती है। संगीत की प्रधानता तथा गेयता के कारण ही मिश्रजी की कविताएँ मंच पर लोकप्रियता को प्राप्त हुई। प्रत्येक घर में उनके गीतों को बड़े ही चाव से गुनगुनाया जाता है। मिश्रजी की कविता में अनुपम प्रवाह,सहज माधुर्य तथा अदभुत लालित्य है। प्रतीक तथा बिम्ब विधान का प्रयोग स्थान-स्थान पर मिलता है। मिश्रजी की शैली में गीति काव्य का नवीनतम विकास प्राप्त होता है।

(3) छन्द योजना कवि ने छोटे-छोटे छन्दों का प्रयोग किया है। उनका काव्य नवीन प्रकार के छन्द,धुने तथा सुरों का एक विशाल सागर है। मिश्रजी ने गीत की नवीनतम् परम्परा को जन्म दिया है। कवि स्वच्छन्द प्रवाह का पोषक है। उनका विचार है कि छन्दबद्धता स्वाभाविकता को समाप्त कर देती है।

मिश्रजी ने तुकान्त तथा अतुकान्त दोनों प्रकार के छन्दों में गीत लिखे हैं। ‘गीतम’ सर्वाधिक लयात्मक कृति है। कवि ने जन-जन की वाणी को छन्दोबद्ध किया है। लयात्मकता, गतिशीलता,प्रवाहिकता आपके छन्दों की प्रमुख विशेषता है।

(4) अलंकार योजना मिश्रजी ने अपने काव्य में लगभग सभी प्रकार के अलंकारों का प्रयोग किया है। अलंकार साधन के रूप में प्रयुक्त किये हैं; साध्य के रूप में नहीं। परम्परागत अलंकारों का प्रयोग भी कम किया है। यमक, अनुप्रास, रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, प्रतीप तथा विरोधाभास आदि अलंकार ढूँढ़ने पर यत्र-तत्र मिल जाते हैं। प्रकृति चित्रण में मानवीकरण अलंकार का प्रयोग किया है।

  • साहित्य में स्थान

मिश्रजी छायावादोत्तर प्रमुख गीतकार हैं। उन्होंने 1940 से काव्य रचना का प्रयास किया। कवि को अपने देश की सभ्यता तथा संस्कृति से विशेष लगाव है। वे ग्रामीण संस्कृति के उपासक थे। वे देश की समसामयिक समस्याओं, साम्प्रदायिक एकता के समर्थक हैं। वे कुशल तथा लोकप्रिय गीतकार हैं। वे जनसाधारण के मनोबल में वृद्धि करते हैं। उनका विचार है कि उत्साह और आत्मबल को अपनायें तो निश्चय ही तूफान भी अपनी दिशा परिवर्तित कर लेंगे। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण मिश्रजी का हिन्दी साहित्य में विशेष स्थान है। वे माँ भारती के सच्चे अर्थों में सपूत हैं।

महत्त्वपूर्ण वस्तुनिष्ठ प्रश्न
[2010]

  • बहु-विकल्पीय प्रश्न

1. निम्नलिखित में मीराबाई की रचना है
(अ) रसिक प्रिया, (ब) राग गोविन्द, (स) साहित्य लहरी, (द) मदनाष्टक।

2. केशवदास का काल है
(अ) भक्तिकाल, (ब) आदिकाल, (स) रीतिकाल, (द) आधुनिक काल।

3. सूरदास के साहित्य की भाषा है
(अ) अवधी, (ब) ब्रजभाषा, (स) खड़ी बोली, (द) उर्दू।

4. मैथिलीशरण गुप्त ने काव्य की रचना की है
(अ) अवधी में, (ब) ब्रज में, (स) खड़ी बोली में, (द) मालवी में।

5. रत्नाकर का देहावसान हुआ
(अ) हरिद्वार में, (ब) कानपुर में, (स) फतेहपुर में, (द) प्रयाग में।

6. बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ का जन्म हुआ
(अ) सन् 1921 में, (ब) सन् 1897 में, (स) सन् 1905 में, (द) सन् 1895 में।

7. श्रीकृष्ण सरल के लेखन का विषय है
(अ) राष्ट्रवाद एवं क्रान्तिकारी. (ब) छायावाद, (स) भक्तिपूर्ण, (द) रहस्यवाद।

8. जयशंकर प्रसाद के पिता का नाम था
(अ) यायावर, (ब) रामरख, (स) सुंघनी साहू, (द) ब्रजनाथ।

9. ‘अनाम तुम आते हो’ के रचयिता हैं
(अ) घनानन्द, (ब) जयशंकर प्रसाद, (स) केशव देव, (द) भवानी प्रसाद मिश्र।

10. कबीर की भाषा को कहा जाता है
(अ) ब्रज भाषा, (ब) बुन्देलखण्डी भाषा, (स) सधुक्कड़ी भाषा, (द) परिष्कृत भाषा।
उत्तर-
1.(ब), 2. (स), 3.(ब), 4. (स), 5. (अ), 6. (ब), 7.(अ), 8. (स), 9.(द), 10. (स)।

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  • रिक्त स्थानों की पूर्ति

1. बिहारी की प्रसिद्ध रचना ……….. है।
2. तुलसीदास द्वारा रचित कवितावली’ ………. परम्परा की उत्कृष्ट रचना है।
3. मैथिलीशरण गुप्त के पिता का नाम ……….. था।
4. ‘पर आँखें नहीं भरौं’ ………. की प्रसिद्ध रचना है।
5. आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री का जन्म …………. हुआ।
6. निराला का बचपन बंगाल की …… धरती पर बीता।
7. मुक्तिबोध को …………. विषमताओं के कारण अपना अध्ययन बीच में ही रोकना पड़ा।
8. अज्ञेय का पूरा नाम …………. है।
9. वीरेन्द्र मिश्र …………. परम्परा के विशिष्ट कवि माने जाते हैं।
10. मीरा का विवाह उदयपुर के महाराज …………. से सम्पन्न हुआ।
11. ‘रामचन्द्रिका’ के रचयिता …………. हैं। [2009]
12. ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ …………. की रचना है। [2009]
13. श्रीकृष्ण के प्रति ……….. का दाम्पत्य भाव है। [2009]
14. ‘सूर्य का स्वागत’ …………. की रचना है। [2009]
15. ‘जहाँगीर जस चन्द्रिका’ के रचयिता …………. हैं। [2009]
16. मीराबाई ……… की कवयित्री हैं। [2009]
17. …………. को ‘हृदयहीन कवि’ कहा जाता है। [2009]
18. ………. वात्सल्य के कुशल चितेरे हैं। [2009]
19. काव्य में सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग ……… ने किया। [2009, 14]
उत्तर-
1. सतसैया, 2. मुक्तक काव्य, 3. सेठ रामचरण शुक्ल, 4. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, 5. कोलकाता, 6. शस्य-श्यामला, 7. आर्थिक, 8. सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, 9. नवगीत, 10. भोजराज, 11. केशवदास, 12. गजानन माधव मुक्तिबोध’,13. मीरा,14. दुष्यन्त कुमार,15. केशवदास,16. कृष्णभक्ति शाखा,17. केशव,18. सूरदास,19. कबीरदास।

  • सत्य/असत्य

1. मीरा की भक्ति-भावना हृदय से स्फूर्त है।
2. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार केशवदास का जन्मकाल सन् 1555 ई.माना गया है।
3. सूरदास का उद्धव प्रसंग’ भक्तिपूर्ण रचना है।
4. गोपाल सिंह नेपाली के पिता राय बहादुर ‘गोरखा रायफल’ में सैनिक थे।
5. ‘सुजान’ को श्रृंगार पक्ष में नायक और भक्ति पक्ष में दुर्गा मान लेना उचित होगा।
6. जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’ ने क्वीन्स कॉलेज इलाहाबाद से बी.ए. पास किया।
7. बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ आधुनिक युग के ऊर्जावान कवि हैं। [2014]
8. श्रीकृष्ण सरल कहते हैं कि देश की सम्पूर्ण समृद्धि का भवन शहीदों के उत्सर्ग की नींव पर खड़ा है।
9. ‘कामायनी’ के रचयिता सुमित्रानन्दन पन्त हैं।
10. भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म उत्तर प्रदेश के झाँसी नगर में हुआ था।
11. कबीर प्रेमाश्रयी शाखा के कवि हैं। [2009]
12. केशवदास भक्तिकाल के प्रमुख कवि हैं। [2009]
13. घनानन्द रीतिसिद्ध कवि हैं। [2009]
14. मीराबाई रामभक्ति शाखा की प्रमुख कवयित्री हैं। [2009]
15. केशव रीतिमुक्त कवि हैं। [2012]
उत्तर-
1. सत्य, 2. सत्य, 3. असत्य, 4. सत्य,5. असत्य, 6. असत्य, 7. सत्य,8. सत्य, 9. असत्य, 10. असत्य, 11. असत्य,12. असत्य, 13. सत्य, 14. असत्य, 15. असत्य। सही जोड़ी मिलाइए

I. ‘क’
(1) मीराबाई की रचना – (अ) सुजान
(2) केशवदास – (ब) भक्तिकाल
(3) सूरदास का काल – (स) सन् 1903 में
(4) गोपाल सिंह नेपाली का जन्म – (द) रामचन्द्रिका
(5) घनानन्द की प्रेमिका [2012] – (इ) गीत गोविन्द की टीका
उत्तर-
(1), → (इ),
(2) → (द),
(3) → (ब),
(4) → (स),
(5) → (अ)।

II. ‘क’
(1) कठिन काव्य का प्रेत कहा जाता है [2009] – (अ) सूरदास
(2) बाललीला वात्सल्य के चितेरे [2009] – (ब) छायावाद
(3) जयशंकर प्रसाद – (स) केशवदास
(4) तुलसीदास – (द) मैथिलीशरण गुप्त
(5) साकेत [2014] – (इ) सन्त कवि
उत्तर-
(1) → (स),
(2) → (अ),
(3) → (ब),
(4) → (इ),
(5) → (द)।

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III.
(1) काव्य में सर्वाधिक छंदों का प्रयोग किया है [2009] – (अ) मीरा ने
(2) काव्य में भाव-विह्वलता कूट-कूट कर भरी है [2009] – (ब) केशव ने
(3) राष्ट्रीय चेतना जाग्रत करने वाले कवि हैं [2009] – (स) घनानन्द
(4) रीतिमुक्त काव्यधारा के कवि हैं [2009] – (द) जगन्नाथदास रत्नाकर
(5) ‘उद्धव प्रसंग’ नामक कविता के रचयिता हैं [2009] – (इ) गोपाल सिंह नेपाली
उत्तर-
(1) → (ब),
(2) → (अ),
(3) → (इ),
(4) → (स),
(5) → (द)।

  • एक शब्द/वाक्य में उत्तर

प्रश्न 1.
कबीर ने अद्वैत से क्या अर्थ ग्रहण किया?
उत्तर-
ब्रह्म एक है द्वितीय नहीं।

प्रश्न 2.
बिहारी किस काल के कवि थे?
उत्तर-
रीतिकाल।

प्रश्न 3.
“विनय पत्रिका’ किस कवि की रचना है?
उत्तर-
तुलसीदास।

प्रश्न 4.
मैथिलीशरण गुप्त ने किस भाषा में काव्य रचना की?
उत्तर-
खड़ी बोली में।

प्रश्न 5.
किस कवि की शैली माधुर्य, प्रसाद और ओज गुणों से सम्पन है?
उत्तर-
शिवमंगल सिंह ‘सुमन’।

प्रश्न 6.
विष्णुकान्त शास्त्री का ‘उपमा कालिदासस्य’ किस भाषा से किस भाषा में अनूदित है-
उत्तर-
बांग्ला से हिन्दी में।

प्रश्न 7.
छायावाद के प्रमुख स्तम्भ और आधुनिक काव्य में क्रान्ति के अग्रदूत किस कवि को माना जाता है?
उत्तर-
सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’।

प्रश्न 8.
‘काठ का सपना’ किस कवि की रचना है?
उत्तर-
गजानन माधव मुक्तिबोध’।

प्रश्न 9.
प्रयोगवाद किस कवि की सूझ की उपज है?
उत्तर-
सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’।

प्रश्न 10.
‘वाणी के कर्णधार’ किस कवि की रचना है?
उत्तर-
वीरेन्द्र मिश्र।

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प्रश्न 11.
सूरदास के पदों की भाषा कौन-सी है? [2009]
उत्तर-
ब्रजभाषा।

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MP Board Class 12th Special Hindi स्वाति कवि परिचय (Chapter 1-5)

MP Board Class 12th Special Hindi स्वाति कवि परिचय (Chapter 1-5)

1. मीराबाई

जीवन परिचय

हिन्दी साहित्य में मीराबाई का विशेष महत्व है। मीरा भक्त कवयित्री हैं। उनकी रचनाएँ हृदय की अनुभूति मात्र हैं।

मीराबाई का जन्म राजस्थान में जोधपुर के मेड़ता के निकट चौकड़ी ग्राम में सन् 1503 ई. (संवत् 1560 ई) में हुआ था। वे राठौर रत्नसिंह की पुत्री थीं। बचपन में ही मीरा की माता का निधन हो गया था। इस कारण ये अपने पितामह राव दूदाजी के साथ रहती थीं। राव दूदा कृष्ण भक्त थे। अत: मीरा भी कृष्ण भक्ति में रंग गई। मीरा का विवाह उदयपुर के महाराज भोजराज के साथ हुआ था। विवाह के कुछ वर्ष उपरान्त ही इनके पति का स्वर्गवास हो गया। इस असह्य कष्ट ने इनके हृदय को भारी आघात पहुँचाया। इससे उनमें विरक्ति का भाव पैदा हो गया। वे साधु सेवा में ही जीवन-यापन करने लगीं। वे राजमहल से निकलकर मंदिरों में जाने लगी और साधु संगति में कृष्ण-कीर्तन करने लगीं। इनकी अनन्य कृष्ण भक्ति और संत समागम से राणा परिवार रुष्ट हो गया। इससे चित्तौड़ के तत्कालीन राणा ने उन्हें भाँति-भाँति की यातनाएँ देना शुरू कर दिया। कहते हैं कि एक बार मीरा को विष भी दिया गया, किन्तु उन पर उसका असर नहीं हुआ। राणा की यातनाओं से ऊब कर ये कृष्ण की लीलाभूमि मथुरा-वृन्दावन चली गईं और वहीं शेष जीवन व्यतीत किया। मीरा की भक्ति-भावना बढ़ती गई और वे प्रभु प्रेम में दीवानी बन गईं। संसार से विरक्त, कृष्ण भक्ति में लीन मीरा की वियोग भावना ही इनके साहित्य का मूल आधार है। मीरा अपने अन्तिम दिनों में द्वारका चली गईं। वहाँ ही सन् 1546 ई.(संवत् 1603 वि) में वे स्वर्ग सिधार गईं।

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  • साहित्य सेवा

मीराबाई द्वारा लिखित काव्य उनके हृदय की मर्मस्पर्शी वेदना है और भक्ति की तल्लीनता है। उन्होंने सीधे सरल भाव से अपने हृदय के भावों को कविता के रूप में व्यक्त कर दिया है। उनका साहित्य भक्ति के आवरण में वाणी की पवित्रता है और संगीत का माधुर्य है। मन की शान्ति के लिए और भक्ति मार्ग को पुष्ट करने के लिए मीरा की साहित्य सेवा सर्वोच्च

  • रचनाएँ

मीराबाई के नाम से जिन कृतियों का उल्लेख मिलता है उनके नाम हैं-‘नरसी जी को माहेरो’, ‘गीत गोविन्द की टीका’, ‘राग-गोविन्द’, ‘राग-सोरठा के पद’, ‘मीराबाई का मलार’, ‘गर्वागीत’, ‘राग विहाग’ और फुटकर पद। भौतिक जीवन से निराश मीरा की एकान्त निष्ठा गिरधर गोपाल में केन्द्रित है। ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’ कहकर मीरा ने कृष्ण के प्रति अपना समर्पण भाव व्यक्त किया है। भक्ति का यह भी एक लक्षण है।

  • भाव पक्ष

मीराबाई द्वारा रचित काव्य साहित्य में उनके हृदय की मर्मस्पर्शिनी वेदना है, प्रेम की आकुलता है तथा भक्ति की तल्लीनता है। उन्होंने अपने मन की अनुभूति को सीधे ही सरल, सहज भाव में अपने पदों में अभिव्यक्ति दे दी है। मीरा के पदों के वाचन और गायन से संकेत मिलता है कि मीरा की भक्ति-भावना अन्तःकरण से स्फूर्त है। उन्होंने मुक्त भाव से सभी भक्ति सम्प्रदायों से प्रभाव ग्रहण किया है।

उनकी रचनाओं में माधुर्य समन्वित दाम्पत्य भाव है। मीरा का विरह पक्ष साहित्य की दृष्टि से मार्मिक है। उनके आराध्य तो सगुण साकार श्रीकृष्ण हैं। मीरा के बहुत से पदों में रहस्यवाद स्पष्ट दिखाई देता है। रहस्यवाद में प्रिय के प्रति उत्सुकता, मिलन और वियोग के चित्र हैं।

  • कला पक्ष
  1. भाषा-मीरा की भाषा राजस्थानी और ब्रजभाषा है, किन्तु पदों की रचना ब्रजभाषा में ही है। उनके कुछ पदों में भोजपुरी भी दिखाई देती है। मीरा की भाषा शुद्ध साहित्यिक भाषा न रहकर जनभाषा ही रही।
  2. शैली-मीरा ने मुक्तक शैली का प्रयोग किया है। उनके पदों में गेयता है। भाव सम्प्रेषणता मीरा की गीति शैली की प्रधान विशेषता है।
  3. अलंकार इनकी रचनाओं में अधिकतर उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास आदि अलंकारों को सर्वत्र देखा जा सकता है।
  • साहित्य में स्थान

मीरा ने अपने हृदय में व्याप्त वेदना और पीड़ा को बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। भक्तिकाल के स्वर्ण युग में मीरा के भक्ति भाव से सम्पन्न पद आज भी अलग ही जगमगाते दिखाई देते हैं।

2. केशवदास

जीवन परिचय
हिन्दी साहित्य के कवियों एवं आचार्यों में केशव का साहित्य विलक्षण एवं प्रभावशाली है। इन्हें रीतिकाल का प्रवर्तक माना जाता है। केशवदास के जन्मकाल के सम्बन्ध में विद्वान एकमत नहीं हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार इनका जन्मकाल सन् 1555 ई. (संवत् 1612) तथा मृत्यु सन् 1617 ई. (संवत् 1674) माना गया है। इनका जन्म स्थान ओरछा, मध्यप्रदेश है। ये दरबारी कवि थे। इन्हें ओरछा नरेश महाराजा रामसिंह के दरबार में विशेष सम्मान प्राप्त था। नीति निपुण एवं स्पष्टवादी केशव की प्रतिभा बहुमुखी है। उनकी रचनाओं में उनके आचार्य, महाकवि और इतिहासकार का रूप दिखाई देता है। आचार्य का आसन ग्रहण करने पर इन्हें संस्कृत की शास्त्रीय पद्धति को हिन्दी में प्रचलित करने की चिन्ता हई जो जीवन के अन्त तक बनी रही। इनके पहले भी रीतिग्रन्थ लिखे गए किन्तु व्यवस्थित और सर्वांगीण ग्रन्थ सबसे पहले इन्होंने ही प्रस्तुत किए। अनुप्रास,यमक और श्लेष अलंकारों के ये विशेष प्रेमी थे। इनके श्लेष संस्कृत पदावली के हैं। अलंकार सम्बन्धी इनकी कल्पना अद्भुत है।

  • साहित्य सेवा

केशवदास ने लक्षण ग्रन्थ,प्रबन्ध काव्य, मुक्तक सभी प्रकार के ग्रन्थों की रचना की है। ‘रसिक प्रिया’,’कवि प्रिया’ और ‘छन्दमाला’ उनके लक्षण ग्रन्थ हैं। रीतिग्रन्थों की रचना इनके कवि रूप में आविर्भाव से पूर्ण भी होती रही। परन्तु जिस तरह के व्यवस्थित और समय ग्रन्थ इन्होंने प्रस्तुत किए, वैसे अन्य कोई कवि रीति ग्रन्थ प्रस्तुत करने में सफल नहीं हुआ।

इनका कवि रूप इनकी प्रबन्ध एवं मुक्तक दोनों प्रकार की रचनाओं में दृष्टिगोचर होता है। संवादों के उपयुक्त विधान का इनमें विशिष्ट गुण है। मानवीय मनोभावों की इन्होंने सुन्दर व्यंजना की है। संवादों में इनकी उक्तियाँ विशेष मार्मिक हैं तथापि प्रबन्ध के बीच अनावश्यक उपदेशात्मक प्रसंगों का नियोजन उसके वैशिष्ट्य में व्यवधान उपस्थित करता है। इनके प्रशस्ति काव्यों में इतिहास की सामग्री प्रचुर मात्रा में है। मध्यकाल में किसी के पांडित्य अथवा विद्वता की परख की कसौटी थी-केशव की कविता। केशव यदि ‘रसिक प्रिया’ जैसी भाषा लिखते रहते तो वे कठिन काव्य के प्रेत’ कहलाने से बच जाते। कल्पना शक्ति-सम्पन्न और काव्यभाषा

में प्रवीण होने पर भी केशव पाण्डित्य प्रदर्शन का लोभ संवरण नहीं कर सके।

  • रचनाएँ –

‘रसिक प्रिया’, कवि प्रिया’, ‘रामचन्द्रिका’, ‘वीर चरित्र’, विज्ञान गीता’ और ‘जहाँगीर जस चन्द्रिका’,इनकी महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं। संस्कृत के ‘प्रबोध चन्द्रोदय’ नाटक के आधार पर विज्ञान गीता’ निर्मित हुई है। ‘जहाँगीर जस चन्द्रिका’ में जहाँगीर के दरबार का वर्णन है। जनश्रुति है कि रामचन्द्रिका का सृजन उन्होंने गोस्वामी तुलसीदास के कहने से किया।

  • भाव पक्ष
  1. रस-केशवदास की रचनाओं में परिस्थिति के अनुसार रसों की निष्पत्ति हुई है। श्रृंगार का वर्णन उत्तम है। वियोग और संयोग दोनों पक्षों का वर्णन उत्कृष्ट है। वीर रस का प्रयोग पात्रों के सम्वादों से हुआ है। शान्त रस निर्वेद की दशा में है।
  2. अर्थ गाम्भीर्य केशवदास द्वारा प्रयुक्त सम्वादों के अर्थ में गम्भीरता है।
  3. नीति तत्व केशव दरबारी कवि थे। अतः उनकी रचनाओं में नीति तत्व की प्रधानता है। इनकी कविता में नैतिक मूल्यों की रक्षा की गई है।
  • कला पक्ष
  1. भाषा केशव ने अपने ग्रन्थों की रचना ब्रजभाषा में ही की है। कुछ रचनाओं में संस्कृत के प्रभाव दृष्टिगोचर होते हैं। कहीं-कहीं इनकी रचनाओं में दुरूहता आ गई है।
  2. शैली इन्होंने अपनी रचनाओं में प्रबन्ध शैली एवं मुक्तक शैली को अपनाया है। अलंकारप्रधान और व्यंग्यप्रधान शैली को स्थान दिया गया है।
  3. अलंकार-केशव ने उपमा,रूपक,उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति आदि अलंकारों का प्रयोग किया है।
  4. छन्द इन्होंने दोहा, कवित्त,सवैया,चौपाई, सोरठा आदि का प्रयोग किया है। केशव लक्षण ग्रन्थों के रचयिता रहे हैं। अतः उन्होंने छन्दों,शैली, रस निष्पत्ति आदि पर नए-नए प्रयोग किए हैं।
  5. सम्वाद योजना केशव की सम्वाद योजना बेजोड़ है। पात्र सम्वादों के माध्यम से परस्पर भावजगत की भी अभिव्यक्ति करते चलते हैं।

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  • साहित्य में स्थान

केशवदासजी हिन्दी के प्रमुख आचार्य हैं। उनकी समस्त रचनाएँ शास्त्रीय रीतिबद्ध हैं। ये उच्चकोटि के रसिक थे,पर उनकी आस्तिकता में कमी नहीं आने पाई है। नीतिनिपुण, निर्भीक एवं स्पष्टवादी केशव की प्रतिभा सर्वतोमुखी है। अपने लक्षण ग्रन्थों के लिए वे सदा स्मरणीय रहेंगे।

3. सूरदास [2009, 13, 15]

जीवन परिचय
मध्यकालीन वैष्णव भक्त कवियों में सूरदास का स्थान श्रेष्ठ है। सूरदास ने भक्तिधारा को जनभाषा के व्यापक धरातल पर अवतरित करके संगीत और माधुर्य से मंडित किया। सूरदास विट्ठलनाथ द्वारा स्थापित अष्टछाप के अग्रणी भक्त कवि हैं। इनका जन्म सन् 1478 ई.(संवत् 1535 वि) में आगरा के समीप रुनकता नामक गाँव में हुआ था। कुछ विद्वान दिल्ली के समीप ‘सीही नामक स्थान को इनका जन्मस्थान मानते हैं। बल्लभाचार्य जी ने इन्हें दीक्षा प्रदान की और गोवर्धन स्थित श्रीनाथ जी के मन्दिर में इनको कीर्तन करने के लिए नियुक्त कर दिया। इस प्रकार आप आजीवन गऊघाट पर रहते हुए श्रीमद्भागवत के आधार पर श्रीकृष्ण लीला से सम्बन्धित पदों की रचना करते रहे और मधुर स्वर से उनका गायन करते रहे।

महात्मा सूरदास का जन्मान्ध होना विवादास्पद है। सूर की रचनाएँ यह सिद्ध करती हैं कि एक जन्मान्ध कवि इतना सजीव और उच्चकोटि का वर्णन नहीं कर सकता। सूरदास की मृत्यु सन् 1583 ई.(सं.1640 वि) में मथुरा के समीप पारसोली नामक ग्राम में विट्ठलनाथ जी की उपस्थिति में हुई। कहा जाता है कि अपने परलोक गमन के समय सूरदास “खंजन नैन रूप रस माते” पद का गान अपने तानपूरे पर अत्यन्त मधुर स्वर में कर रहे थे।

सूरदास की भाषा ललित और कोमलकान्त पदावली से युक्त ब्रजभाषा है जिसमें सरलता के साथ-साथ प्रभावोत्पादकता भी मिलती है। सूरदास हिन्दी काव्याकाश के सूर्य हैं जिन्होंने अपने काव्य-कौशल से हिन्दी साहित्य की अप्रतिम सेवा की और बल्लभाचार्य से दीक्षा ग्रहण करने के बाद दास्यभाव और दैन्यभाव के पदों के स्थान पर वात्सल्य और प्रधान सखाभाव की भक्ति के पदों की रचना करना शुरू कर दिया।

  • साहित्य सेवा

सूरदास हिन्दी काव्याकाश के सूर्य हैं, जिन्होंने अपने काव्य-कौशल से हिन्दी साहित्य की अप्रतिम सेवा की। इनके गुरु बल्लभाचार्य थे। दीक्षा ग्रहण कर इन्होंने दैन्यभाव के पदों की रचना छोड़कर सखाभाव की भक्ति के पदों की रचना करना शुरू कर दिया। अष्टछाप के भक्त कवियों में सूरदास अगणी कवि थे। उनके काव्य का मुख्य उद्देश्य कृष्ण भक्ति का प्रचार करना था। वात्सल्य वर्णन को हिन्दी की अमूल्य निधि कहा जाता है जो सूरदास की रचनाओं में मिलता है। बाल मनोविज्ञान के तो सूरदास अद्वितीय पारखी थे।

  • रचनाएँ

विद्वानों के अनुसार सूरदास ने तीन कृतियों का सृजन किया था—
(1) सूरसागर,
(2) सूरसारावली,
(3) साहित्य लहरी।

(1) सूरसागर ही इनकी अमर कृति है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं के सवा लाख गेय पद हैं,परन्तु अभी तक 6 या 7 हजार के लगभग पद प्राप्त हैं।
(2) सूर सारावली में ग्यारह सौ छन्द संगृहीत हैं। यह सूरसागर का सार रूप ग्रन्थ है।
(3) साहित्य लहरी में एक सौ अठारह पद संगृहीत हैं। इन सभी पदों में सूर के दृष्ट-कूट पद सम्मिलित हैं। इन पदों में रस का सर्वश्रेष्ठ सृजन हुआ है।

सूरदास सगुण भक्तिधारा कृष्णोपासक कवियों में श्रेष्ठ कवि हैं।

  • भाव पक्ष
  1. भक्तिभाव-सूरदास कृष्ण भक्त थे। काव्य ही उनका भगवत् भजन था। उनके काव्य में एक भक्त हृदय की अभिव्यक्ति सहज ही दिखाई देती है। सूर की भक्ति सखा-भाव लिए हुए थी। कृष्ण को सखा मानकर ही उन्होंने अपने आराध्य की समस्त बाल-लीलाओं और प्रेम लीलाओं का वर्णन किया है।
  2. भावुकता एवं सहृदयता-सूरदास ने अपने पदों में मानव मन के अनेक भावों का वर्णन किया है। उनके वर्णन में गोप-बालकों के,माता यशोदा के और पिता नन्द के विविध भावों की यथार्थता और मार्मिकता मिलती है।
  3. श्रेष्ठ रस संयोजना—सूर की उत्कृष्ट रस संयोजना के आधार पर डॉ.श्यामसुन्दर दास ने उन्हें रससिद्ध कवि’ कह कर पुकारा है। सूर के काव्य मैं शान्त, शृंगार और वात्सल्य रस स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
  4. अद्वितीय वात्सल्य-सूरदास ने कृष्ण के बाल चरित्र, शरीर सौन्दर्य, माता-पिता के हृदय वात्सल्य का जैसा स्वाभाविक, अनूठा एवं मनोवैज्ञानिक सरस वर्णन किया है, वैसा वर्णन सम्पूर्ण विश्व के साहित्य में दुर्लभ है। सूर वात्सल्य रस के सर्वोत्कृष्ट कवि हैं।
  5. श्रृंगार रस का वर्णन-सूरदास ने अपनी रचनाओं में श्रृंगार के दोनों पक्षों संयोग और वियोग का मार्मिक चित्रण करके उसे रसराज सिद्ध कर दिया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है-“श्रृंगार का रस-राजत्व यदि हिन्दी में कहीं मिलता है तो केवल सूर में।”
  • कला पक्ष
  1. लालित्यप्रधान ब्रजभाषा-सूरदास ने बोलचाल की ब्रजभाषा को लालित्य-प्रधान ब्रजभाषा बना दिया है। उनकी प्रयुक्त भाषा सरल, सरस एवं प्रभावशाली है जिससे भाव प्रकाशन की क्षमता का आभास होता है। सूरदास ने अवधी और फारसी के शब्दों और लोकोक्तियों के प्रयोग से अपनी भाषा में चमत्कार उत्पन्न कर दिया है। भाषा में माधुर्य सर्वत्र दिखाई देता है।
  2. गेय पद शैली-सूरदास ने अपनी काव्य रचना गेय पद शैली में की है। माधुर्य और प्रसाद गुण-सम्पन्न शैली वर्णनात्मक है। उनकी शैली में वचनवक्रता और वाग्विदग्धता उनकी एक विशेषता है।
  3. अलंकारों की सहज आवृत्ति-सूरदास की रचनाओं में अलंकार अपने स्वाभाविक सौन्दर्य के साथ प्रविष्ट हो जाते हैं। डॉ. हजारी प्रसाद के शब्दों के अनुसार, “अलंकारशास्त्र तो सूर के द्वारा अपना विषय वर्णन शुरू करते ही उनके पीछे हाथ जोड़कर दौड़ पड़ता है, उपमानों की बाढ़ आ जाती है। रूपकों की वर्षा होने लगती है।”
  4. छंद योजना की संगीतात्मकता-सूरदास ने मुक्तक गेय पदों की रचना की है। उनके पदों में संगीतात्मकता सर्वत्र परिलक्षित होती है।
  • साहित्य में स्थान

सूरदास अष्टछाप के ब्रजभाषा कवियों में सर्वोत्कृष्ट कवि हैं। इनका बाल प्रकृति-चित्रण, वात्सल्य तथा श्रृंगार का वर्णन अद्वितीय है। सूर का क्षेत्र सीमित है,पर उसके वे एकछत्र सम्राट हैं। वे अपनी काव्यकला और साहित्यिक प्रतिभा के बल पर हिन्दी साहित्य जगत के सूर्य माने जाते हैं। जब तक सूर की प्रेमासिक्त वाणी का सुधा प्रवाह है, तब तक हिन्दू जीवन से समरसता का स्रोत कभी सूखने नहीं पाएगा।

4. गोपाल सिंह नेपाली

  • जीवन परिचय

राष्ट्रीय भावों से ओतप्रोत गोपाल सिंह नेपाली का जन्म बेतिया (बिहार) में 11 अगस्त सन् 1903 को हुआ था। इनके पिता रायबहादुर गोरखा रायफल में सैनिक थे। देश-प्रेम और मानवता की भावना इन्हें विरासत में प्राप्त थीं। 14 वर्ष की आयु से ही ये कविता लिखने की ओर आकर्षित हुए। इन्होंने विभिन्न नेपाली पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन और कवि सम्मेलनों में अपने गीतों से विशिष्ट पहचान बनाई। नेपाली जी रतलाम टाइम्स (मालवा), चित्रपट (दिल्ली), सुधा (लखनऊ) और योगी (साप्ताहिक,पटना) के सम्पादन विभाग में रहे। अनेक चलचित्रों में इन्होंने अपने गीत लिखे। 50 से अधिक फिल्मों में इन्होंने गीत लिखे हैं। 1962 के चीनी आक्रमण के समय इन्होंने देश में जगह-जगह घूम कर गीतों का गायन किया और देश-भक्ति की भावना जाग्रत की।

  • साहित्य सेवा

नेपाली जी अपनी रचनाओं में प्रकृति के रम्य रूप और मनोहर छवियों को प्रस्तुत करते हैं जिसमें एक ओर प्रणय और सौन्दर्य प्रकट है तो दूसरी ओर राष्ट्र-प्रेम उत्कट है। शोषित के प्रति सहानुभूति और स्थितियों से जूझने का सन्देश उनमें मुखर हो उठा है। भाई-बहन के प्रेम को देश-प्रेम में परिवर्तित कर दिया गया है तथा जिसके माध्यम से हमारे हृदय में देश-भक्ति जाग्रत होने का संदेश दिया गया है।

  • रचनाएँ

‘उमंगें’, ‘पंछी’, ‘रागिनी’, नीलिमा’, ‘पंचमी’, ‘सावन’, ‘कल्पना’, ‘आँचल’, ‘रिमझिम’, ‘नवीन’,’हिन्दुस्तान’, ‘हिमालय पुकार रहा है’,आदि इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं।

  • भाव पक्ष
  1. देश-प्रेम-गोपाल सिंह नेपाली ने अपनी कविताओं में देश-प्रेम पर ही मुख्य रूप से जोर दिया है। इन्होंने अपनी कविताओं में राष्ट्रीय चेतना के साथ-साथ मानवीय जीवन की अनुभूतियों का प्रभावशाली वर्णन किया है।
  2. सहृदयता और भावुकता-भाई-बहन कविता में भाई-बहन के बीच के प्रेम को राष्ट्रीय प्रेम के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है। हृदय के भाव राष्ट्र प्रेम को समर्पित हैं।
  3. उत्कृष्ट रस योजना-गोपाल सिंह नेपाली की कविताएँ देश-भक्ति पर आधारित होने के कारण वीर रस को ही इंगित करती हैं। नए-नए प्रतीकों एवं बिम्बों के माध्यम से अपने भावों को अभिव्यक्त किया है।
  • कला पक्ष
  1. भाषा-गोपाल सिंह नेपाली की भाषा साहित्यिक होने के साथ-साथ व्यावहारिक है। इनके भाव जनमानस के निकट,सरल और सहज हैं। इनके द्वारा प्रयुक्त भाषा सरल, सहज एवं प्रभावशाली है।
  2. अनुप्रास और पुनरुक्तिप्रकाश का सुन्दर प्रयोग किया है।
  3. बिम्बों के माध्यम से भाव प्रकाश में अनूठापन आ गया है।
  • साहित्य में स्थान

नेपाली जी की रचनाओं में राष्ट्र-प्रेम उत्कट है। शोषित के प्रति सहानुभूति और स्थितियों से जूझने का सन्देश इनकी कविताओं में दिखाई देता है। नेपाली जी की गणना विशिष्ट राष्ट्रीय कवियों में की जाती है। उन्होंने मानवीय रिश्तों को आधार बनाकर काव्य रचना की है। गीतधारा को आगे बढ़ाने में उन्होंने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

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5. घनानन्द

  • जीवन परिचय

घनानन्द हिन्दी की रीति मुक्तकाव्य धारा के कवि हैं। इनका जन्म 1658 ई. और मृत्यु 1739 ई.में मानी जाती है। हिन्दी में घनानन्द और आनन्दघन नाम के दोनों रचनाकारों को पहले एक ही माना जाता था, लेकिन आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने दोनों कवियों का भिन्न-भिन्न होना मान्य कर दिया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने घनानन्द को रीतिमुक्त काव्यधारा का श्रेष्ठ रचनाकार कहा है। रीतिमुक्त काव्यधारा के श्रेष्ठ कवि घनानन्द साक्षात् रसमूर्ति हैं। किवदन्तियों के अनुसार घनानन्द मुहम्मदशाह रंगीले के मीर मुंशी थे। सन् 1739 ई.में नादिरशाह द्वारा किए गए कत्लेआम में ये मारे गए।

  • साहित्य सेवा

घनानन्द लौकिक प्रेम के अनुपमेय कवि थे। विरहजन्य प्रेम की पीर के ये अमर गायक रहे। इनकी वेदना का मूल कारण उनकी प्रेयसी ‘सुजान’ रही है। भक्तिपरक कविताओं में ‘सुजान’ श्रीकृष्ण के सम्बोधन के लिए प्रयोग किया गया है। स्वानुभूत विरह वेदना की विविध स्थितियों के हृदयस्पर्शी चित्र इनके काव्य में अंकित हैं।

  • रचनाएँ

घनानन्द की रचनाएँ अधिकतर मुक्तक रूप में मिलती हैं। इनकी कुछ रचनाएँ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने ‘सुन्दरी तिलक’ पत्रिका में छापी। 1870 में उन्होंने ‘सुजान शतक’ नाम के इनके 119 कवित्त प्रकाशित किए। इसके पश्चात् जगन्नाथ दास रत्नाकर ने सन् 1897 में इनकी ‘वियोग बेलि’ और ‘विरह लीला’ नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित की। ‘घनानन्द कवित्त’, ‘कवित्त संग्रह’, ‘सुजान-विनोद’, ‘सुजान हित’, ‘वियोग बेलि’, ‘आनन्द घन जू’, ‘इश्क लता’, ‘जमुना जल’ और ‘वृन्दावन सत’ आदि इनकी रचनाएँ हैं।

  • भाव पक्ष

(1) इनकी कविता में रसद शृंगार है जिसमें संयोग और वियोग दोनों पक्षों का सटीक वर्णन है। उन्हें संयोग में भी वियोग दिखाई देता है।

“यह कैसो संयोग न जानि परै जु वियोग न क्यों विछोहत है।” घनानन्द के काव्य में संयोग का चित्रण अति अल्प है। उनके काव्य में वियोग की सभी अवस्थाओं,दशाओं, स्थितियों आदि का स्वाभाविक चित्रण हुआ है।

इन्होंने शब्दों के भावों का हृदय से साक्षात्कार किया है। कला पक्ष

  1. भाषा-उनकी भाषा ब्रज है जो सजीव,लाक्षणिक,व्यंजना प्रचुर तथा व्याकरणसम्मत है। उनकी भाषा फारसी काव्य से प्रभावित होते हुए भी मौलिक है।
  2. ध्वन्यात्मक शब्दों का प्रयोग किया है।
  3. अलंकार-इनकी रचनाओं में अनुप्रास एवं रूपक का प्रयोग सुन्दर रूप में हुआ है।

इस प्रकार भाषा, छन्द, शैली अलंकार और उसके अनुप्रयोग की दृष्टि से घनानन्द की रचनाएँ अत्यन्त सरस एवं प्रौढ़ हैं।

  • साहित्य में स्थान

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार घनानन्द रीतिमुक्त काव्यधारा के श्रेष्ठ कवि हैं। घनानन्द ने अपने पदों में ‘सुजान’ का इतनी तन्मयता से उल्लेख किया है कि उसका आध्यात्मीकरण हो गया है। सुजान का उनकी प्रेयसी होना ही अधिक उपयुक्त लगता है। सुजान को श्रृंगार पक्ष में नायिका और भक्ति पक्ष में कृष्ण मान लेना उचित होगा।

6. जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’

जीवन परिचय
जगन्नाथदास रत्नाकर’ आधुनिक काल के ब्रजभाषा के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। इन्होंने अपने काव्य में मध्ययुगीन काव्य परम्परा के साथ-साथ भक्ति युग के भाव और रीतिकाल की कला का समन्वय किया है। कविवर रत्नाकर का जन्म सन् 1886 ई.में काशी के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में हुआ था। बचपन में उर्दू, फारसी, अंग्रेजी की शिक्षा मिली। बी.ए., एल एल.बी.के बाद एम.ए. की पढ़ाई इनकी माता के निधन के कारण पूरी नहीं हो पाई। इनके पिता पुरुषोत्तमदास फारसी भाषा के विद्वान एवं काव्य मर्मज्ञ थे। आपका घर साहित्यकारों का संगम स्थल था। आपको भारतेन्दुजी का सान्निध्य मिला इसके फलस्वरूप इन्होंने उर्दू-फारसी में कविता करना प्रारम्भ कर दिया। 21 जून सन् 1932 को हरिद्वार में इनका देहावसान हो गया।

  • साहित्य सेवा

रत्नाकर द्वारा लिखे गए ऐतिहासिक लेखों, मौलिक कृतियों की रचना और महत्वपूर्ण ग्रन्थों के सम्पादन से उनके गंभीर अध्ययन और मौलिक प्रतिभा का पता चलता है। उन्होंने साहित्य सुधा निधि तथा सरस्वती पत्रिकाओं का सम्पादन किया। रसिक मंडल, प्रयाग तथा काशी नागरी प्रचारणी सभा की स्थापना व विकास में योगदान दिया।

  • रचनाएँ

इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं-‘उद्धव शतक’, ‘गंगावतरण, ‘वीराष्टक’, ‘शृंगार लहरी’, ‘गंगा लहरी’, ‘विष्णु लहरी’ ‘हिंडोला’, ‘कलकाशी’, ‘रत्नाष्टक’ आदि। इनके सम्पादित ग्रन्थ हैं ‘बिहारी रत्नाकर’,’हित तरंगिणी’, ‘सूरसागर’ आदि।

  • भाव पक्ष

जगन्नाथदास रत्नाकर ब्रजभाषा के उत्कृष्ट कवि हैं। इनके काव्य में भाों की मार्मिकता तथा कला की अभिव्यंजना परिलक्षित होती है।

  1. रस योजना ब्रजभाषा के भावुक कवि ‘रत्नाकर’ में श्रृंगार रस की प्रधानता मिलती है। उनके प्रमुख काव्य ‘उद्धव शतक’ का मूल रस श्रृंगार ही है। वियोग पक्ष में गोपियों ने उद्धव से कहा है”टूक-टूक है है मन मुकुर हमारौ हाय, चूँकि हूँ कठोर-बैन-पाहन चलावौ ना।” ‘वीराष्टक’ तथा ‘गंगावतरण’ में रौद्र रस की योजना दर्शनीय है। शान्त, करुणा,वात्सल्य, वीभत्स रसों की संयोजना भी दिखाई देती है।
  2. अनुभाव विधानरत्नाकर ने भावों को सबलता प्रदान करने के लिए पात्रों की चेष्टाओं आदि का सुन्दर वर्णन किया है। श्रीकृष्ण का संदेश सुनने के लिए कृष्ण प्रेम में व्याकुल गोपियों की आकुलता देखिए”उझकि-उझकि पद-कंजनि के पंजनि पै, पेखि-पेखि पाती छाटी छोहनि छबै लगी।”
  3. भक्ति-भावना रत्नाकर के काव्य में श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति-भावना की अभिव्यक्ति हुई है। गोपियाँ अपने आराध्य के प्रति पूर्ण समर्पित हैं। उद्धव का ज्ञान गोपियों की सगुण भक्ति के सामने पराजित हो जाता है।
  4. प्रकृति चित्रण-रत्नाकर’ ने अपने काव्य में प्रकृति के अनेक रूप चित्रित किए हैं। प्रकृति के आलम्बन का एक दृश्य देखिए-

“स्वाति घटा घहराति मुक्ति-पानिप सों पूरी।
कैचों धावति झुकति सुभ्र आमा रुचि रुरी।”

  • कला पक्ष
  1. भाषा रत्नाकर ने अपने काव्य की रचना ब्रजभाषा में की है। भाव के अनुरूप अभिव्यक्ति देने में यह भाषा सक्षम है। इनके काव्य में अर्थ की गम्भीरता, पद विन्यास, वाक् चातुर्य,चमत्कार सौष्ठव,समाहार शक्ति विद्यमान है।
  2. चित्रोपम वर्णन शैली-रत्नाकर’ जी में चित्रात्मक वर्णन शैली के द्वारा विषय को साकार करने की अद्भुत शक्ति है। उदाहरण देखिए
    “कोऊ सेद-सानी, कोऊ भरि दृग पानी रह कोऊ घूमि-घूमि परी भूमि मुरझानी हैं।”
  3. अलंकार विधान-रूपक, यमक, श्लेष, उत्प्रेक्षा आदि सभी अलंकारों की शोभा चमत्कारपूर्ण है। ‘रत्नाकर’ का काव्य गत्यात्मक संगीतमय छन्दों में रचित है। कवित्त, रोला, सवैया, दोहा,छप्पय उनके प्रिय छन्द हैं।
  • साहित्य में स्थान

रत्नाकर द्वारा लिखे गए साहित्यिक ऐतिहासिक लेखों मौलिक कतियों और महत्वपर्ण ग्रन्थों के सम्पादन से उनके गम्भीर अध्ययन, अद्वितीय प्रतिभा और सूक्ष्म दृष्टि का अवलोकन होता है। उन्होंने ‘साहित्य सुधानिधि’ तथा ‘सरस्वती’ पत्रिकाओं का सम्पादन किया। रसिक मंडल,प्रयाग तथा काशी नागरी प्रचारणी सभा की स्थापना व उनके विकास में योगदान दिया। ‘रत्नाकर ब्रजभाषा काव्य की महान् विभूति हैं। बाबू श्यामसुन्दरदास ने कहा है “एक विशेष पथ पर परिश्रमपूर्वक चलते-चलते रत्नाकरजी साहित्य में अपनी एक अलग लीक बना गए हैं। इस दृष्टि से वे हिन्दी के एक ऐतिहासिक पुरुष ठहरते हैं।”

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8. कबीरदास [2009, 16]

  • जीवन परिचय

जनभाषा में भक्ति, नीति और दर्शन प्रस्तुत करने वाले कवियों में कबीर अग्रगण्य हैं। कबीरदास जी निर्गुण काव्यधारा के ज्ञानमार्गी शाखा के कवि थे। इनका जन्म काशी में सन् 1398 ई.में हुआ। इनकी रचनाओं से प्रतीत होता है कि इनके माता-पिता जुलाहे थे। जनश्रुति है कि कबीर एक विधवा ब्राह्मणी की परित्यक्त संतान थे। इनका पालन-पोषण एक जुलाहा दम्पत्ति ने किया। इस नि:सन्तान जुलाहा दम्पत्ति नीरू और नीमा ने इस बालक का नाम कबीर रखा। कबीर की शिक्षा विधिवत् नहीं हुई। उन्हें तो सत्संगति की अनंत पाठशाला में आत्मज्ञान और ईश्वर प्रेम का पाठ पढ़ाया गया। स्वयं कबीर कहते हैं-“मसि कागद छुऔ नहीं, कलम गही नहिं हाथ।”

कबीर गृहस्थ थे। इनको स्वामी रामानन्द से ‘राम’ नाम का गुरुमंत्र मिला। उनकी पत्नी का नाम लोई, पुत्र का नाम कमाल और पुत्री का नाम कमाली था। कबीर पाखण्ड और अन्धविश्वासों के घोर विरोधी थे। कबीर का बचपन मगहर में बीता, परन्तु बाद में काशी में जाकर रहने लगे। जीवन के अन्तिम दिनों में ये पुनः मगहर चले गए। इस प्रकार 120 वर्ष की आयु में सन् 1518 ई. में इनका देहावसान हो गया।

  • साहित्य सेवा

अशिक्षित होते हुए भी कबीरदास अद्भुत प्रतिभा के धनी थे। उनकी रचनाओं को धर्मदास नामक प्रमुख शिष्य ने ‘बीजक’ नाम से संग्रह किया है। डॉ.श्यामसुन्दर दास ने कबीर की रचनाओं को कबीर ग्रन्थावली’ में संगृहीत करके सम्पादित किया है। खुले आकाश के नीचे आस-पास खड़े व बैठे लोगों के बीच अपने अनुभवों को अभिव्यक्त करना ही उनकी उत्कृष्ट साहित्य सेवा थी।

  • रचनाएँ

कबीर की अभिव्यक्तियों को शिष्यों द्वारा तीन रूप में संकलित किया गया है-

  1. साखी,
  2. सबद,
  3. रमैनी।

(1) साखी कबीर की शिक्षाओं और सिद्धान्तों का प्रस्तुतीकरण ‘साखी’ में हुआ है। इसमें दोहा छन्द का प्रयोग हुआ है।
(2) सबद-इसमें कबीर के गेय पद संगृहीत हैं। गेय पद होने के कारण इसमें संगीतात्मकता है। इनमें कबीर ने भक्ति-भावना, समाज सुधार और रहस्यवादी भावनाओं का वर्णन किया है।
(3) रमैनी-रमैनी चौपाई छन्द में है। इनमें कबीर का रहस्यवाद और दार्शनिक विचार व्यक्त हुए हैं।

  • भाव पक्ष
  1. निर्गुण ब्रह्म की उपासना—कबीर निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे। उनका उपास्य, अरूप, अनाम, अनुपम सूक्ष्म तत्व है। इसे वे ‘राम’ नाम से पुकारते थे। कबीर के ‘राम’ निर्गुण निराकार परमब्रह्म हैं।
  2. प्रेम भावना और भक्ति कबीर ने ज्ञान को महत्व दिया। उनकी कविता में स्थान-स्थान पर प्रेम और भक्ति की उत्कृष्ट भावना परिलक्षित होती है। उनका कहना है-“यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं” और “ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पण्डित होय।” इत्यादि।
  3. रहस्य भावना-परमात्मा से विविध सम्बन्ध जोड़कर अन्त में ब्रह्म में लीन हो जाने के भाव अपनी कविता में कबीर ने व्यक्त किए हैं। जैसे – “राम मोरे पिऊ मैं राम की बहुरिया।”
  4. समाज सुधार और नीति उपदेश सामाजिक जीवन में फैली बुराइयों को मिटाने के लिए कबीर की वाणी कर्कश हो उठी। कबीर ने समाजगत बुराइयों का खण्डन तो किया ही, साथ-साथ आदर्श जीवन के लिए नीतिपूर्ण उपदेश भी दिया। कबीर के काव्य में इस्लाम के एकेश्वरवाद, भारतीय द्वैतवाद,योग साधना, अहिंसा, सूफियों की प्रेम साधना आदि का समन्वित रूप दिखाई देता है।

इनके काव्य में शान्त रस की प्रधानता है। आत्मा-परमात्मा के मिलन का श्रृंगार भी शान्त रस ही बन गया है।

  • कला पक्ष
  1. अकृत्रिम भाषा कबीर की भाषा अपरिष्कृत है। उसमें कृत्रिमता का अंश भी नहीं है। स्थानीय बोलचाल के शब्दों की प्रधानता दिखाई देती है। उसमें पंजाबी, राजस्थानी, उर्द, फारसी आदि भाषाओं के शब्दों का विकृत रूप प्रयोग किया गया है। इससे भाषा में विचित्रता आ गई है। कबीर की भाषा में भाव प्रकट करने की सामर्थ्य विद्यमान है। इनकी भाषा को पंचमेल खिचड़ी अथवा सधुक्कड़ी भी कहा जाता है।
  2. सहज निर्द्वन्द्व शैली-कबीर ने सहज, सरल व सरस शैली में अपने उपदेश दिए हैं। भाव प्रकट करने की दृष्टि से कबीर की भाषा पूर्णतः सक्षम है। काव्य में विरोधाभास,दुर्बोधता एवं व्यंग्यात्मकता विद्यमान है।
  3. अलंकार-कबीर के काव्य में स्वभावतः अलंकारिता आ गई है। उपमा, रूपक, सांगरूपक, अन्योक्ति,उत्प्रेक्षा,विरोधाभास आदि अलंकारों की प्रचुरता है।
  4. छन्द कबीर की साखियों में दोहा छन्द का प्रयोग हुआ है। ‘सबद’ पद है तथा ‘रनी’ चौपाई छन्दों में मिलते हैं। ‘कहरवाँ’ छन्द भी उनकी रचनाओं में मिलता है। इन छन्दों का प्रयोग सदोष ही है।
  • साहित्य में स्थान

कबीर समाज सुधारक एवं युग निर्माता के रूप में सदैव स्मरण किए जायेंगे। उनके काव्य में निहित सन्देश और उपदेश के आधार पर नवीन समन्वित समाज की संरचना सम्भव है। डॉ. द्वारका प्रसाद सक्सैना ने लिखा है-“कबीर एक उच्चकोटि के साधक, सत्य के उपासक और ज्ञान के अन्वेषक थे। उनका समस्त साहित्य एक जीवन मुक्त सन्त के गूढ़ एवं गम्भीर अनुभवों का भण्डार है।”

8. बिहारीलाल [2010]

  • जीवन परिचय

रीतिकाल के प्रतिनिधि कवियों में बिहारी की गणना बड़े सम्मान के साथ की जाती है। श्रृंगार रस के वर्णन में ये निस्संदेह अद्वितीय कवि हैं। कविवर बिहारी का जन्म संवत् 1652 वि. (सन् 1595 ई) में हुआ। बिहारी के जीवनवृत्त के बारे में उनका निम्न दोहा देखिए-

“जन्म ग्वालियर जानिये, खण्ड बुन्देले बाल।
तरुनाई आई सुखद, मथुरा बसि ससुराल॥”

इनका जन्म गोविन्दपुर नामक ग्राम में हुआ। इनके पिता का नाम केशवराय था। इनका बचपन बुन्देलखण्ड में बीता। इनका विवाह मथुरा में हुआ और युवावस्था में ससुराल में ही रहे।

बिहारी के गुरु बाबा नरहरदास थे। उन्होंने बिहारी का परिचय सम्राट जहाँगीर से कराया। कुछ समय बाद बिहारी जयपुर चले गए। उन दिनों जयपुर के प्रौढ़ महाराजा जयसिंह ने एक अल्पवयस्का से नया-नया विवाह किया था और राजकाज से विमुख हो गए थे। ऐसी स्थिति में बिहारी ने अग्र दोहा उनके पास पहुँचाया-

“नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास इहि काल।
अली कली ही सौं बिंध्यो, आगे कौन हवाल॥”

इस दोहे का राजा जयसिंह पर अनुकूल प्रभाव पड़ा और पुनः राजकाज पर ध्यान देने लगे। बिहारी को दरबार में सम्मानपूर्वक स्थान दिया गया। यहाँ रहते हुए बिहारी ने सात सौ तेरह दोहों की रचना की। प्रत्येक दोहे पर उनको एक स्वर्ण मुद्रा प्राप्त होती थी। सं.1720 वि. (सन् 1663 ई) में इनका देहावसान हो गया।

  • साहित्य सेवा

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इनकी एक ही रचना ‘सतसैया’ मिलती है। हिन्दी में समास पद्धति की शक्ति का परिचय सबसे पहले बिहारी ने दिया। श्रृंगार रस के ग्रन्थों से ‘बिहारी सतसई’ सर्वोत्कृष्ट रचना है। श्रृंगारिकता के अतिरिक्त इसमें भक्ति और नीति के दोहों का भी अदभुत समन्वय मिलता है।

  • रचनाएँ

बिहारी ने अपने जीवनकाल में 713 दोहों की रचना की है, जिन्हें ‘बिहारी सतसई’ के नाम से संकलित किया गया। यह अकेला ग्रन्थ ही कवि के रूप में बिहारी की कीर्ति का स्रोत है।

  • भाव पक्ष

विषय-वस्तु के आधार पर बिहारी के दोहों को चार भागों में बाँटा जा सकता है-
(1) शृंगारपरक,
(2) भक्तिपरक,
(3) नीतिपरक,
(4) प्रकृति चित्रण सम्बन्धी।

(1) श्रृंगारपरक दोहे-अधिकतर दोहे शृंगाररस प्रधान हैं। इन्होंने श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों ही पक्षों को अपने काव्य में स्थान दिया है। बिहारी की नायिका का मुख पूर्णचन्द्र के समान प्रकाशित है और उसके प्रकाश के कारण उसके घर के आस-पास पूर्णिमा ही रहती है। उदाहरण देखिए-

“पत्रा ही तिथि पाइये, वा घर के चहुँ पास।
नित प्रति पून्यों ही रहत, आनन ओप उजास॥”

(2) भक्ति भावना वृद्धावस्था में बिहारी का मन संसार से विरक्त होकर प्रभु-चरणों में लग जाता है। इस प्रकार के दोहों में शान्त रस प्रधान है। सगुण ब्रह्म के कृष्ण रूप ने उन्हें अधिक आकर्षित किया है

“मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोय।
जा तन की झाईं परै, स्याम हरित दुति होय॥”

(3) नीतिपरक दोहेइनके अनेक दोहे नीति और उपदेश को लिए हुए हैं। इन्होंने अपने नीतिपरक दोहों में जीवन की गहरी नीतियों को सरल ढंग से व्यक्त किया है

“दीरघ साँस न लेह, दुःख सुख साँइहि न भूलि।
दई दई क्यों करत है, दई दई सु कबूलि॥”

(4) प्रकृति चित्रण-अपने श्रृंगार चित्रण में बिहारी ने प्रकृति को अधिकतर उद्दीपन के रूप में लिया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने प्रकृति को आलम्बन रूप में भी प्रस्तुत किया है, वे प्रकृति के कुशल पर्यवेक्षक हैं। जेठ की दोपहरी का एक दृश्य देखिए-

“बैठ रही अति सघन वन, पैठ सदन तन माह।
देखि दुपहरी जेठ की, छाँहौ चाहति छाँह।।”

  • कला पक्ष
  1. भाषा-बिहारी की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। यह सामान्य जन के लिए भी दुर्बोध नहीं है। इसमें कहीं-कहीं बुन्देलखण्डी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। इसके अतिरिक्त बिहारी ने पूर्वी, अवधी और अरबी-फारसी के प्रचलित शब्दों को भी अपने काव्य में स्थान दिया है। बिहारी की भाषा सामासिक भाषा है, जिसमें थोड़े में बहुत कुछ कह देनी की सामर्थ्य है।
  2. अलंकार योजना–अन्य रीतिकाल के कवियों की भाँति बिहारी ने भी प्रायः सभी प्रकार के अलंकारों का प्रयोग किया है। लेकिन बिहारी की भाषा में अलंकार भार बनकर नहीं आए हैं। रूपक, उपमा, श्लेष, यमक, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, अन्योक्ति आदि अलंकारों को बड़े स्वाभाविक रूप में अपने काव्य में प्रयुक्त किया है।
  3. छन्द विधान–बिहारी ने अपने काव्य में दोहा छन्द को ही अपनाया है। दो पंक्तियों के छोटे से छन्द में इन्होंने गागर में सागर भर दिया है।
  • साहित्य में स्थान

बिहारी की काव्य प्रतिभा बहुमुखी थी। नख-शिख वर्णन,नायिका भेद,प्रकृति चित्रण,रस, अलंकार सभी कुछ बिहारी के काव्य में उत्कृष्ट है। रचनाओं में कवित्त शक्ति और काव्य रीतियों का जैसा सुन्दर सम्मिश्रण बिहारी में है वैसा किसी अन्य रीतिकालीन कवि में दुर्लभ है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने बिहारी के विषय में सत्य ही कहा है-“जिस कवि में कल्पना की समाहार शक्ति के साथ भाषा की समास शक्ति जितनी ही अधिक होगी, उतनी ही उसकी मुक्तक रचना सफल होगी। यह क्षमता बिहारी में पूर्ण रूप से विद्यमान थी।” बिहारी के काव्य में भाव पक्ष और कला पक्ष का अद्भुत सामंजस्य है। उनका हर दोहा ‘गागर में सागर’ है।

9. जयशंकर प्रसाद [2009, 11, 14]

जीवन परिचय
छायावादी काव्य के आधार स्तम्भ जयशंकर प्रसाद का जन्म सन् 1889 में वाराणसी,उत्तर प्रदेश में हुआ था। इनके पिता सुंघनी शाहू वैभवशाली व्यक्ति थे। विलक्षण प्रतिभा के धनी प्रसादजी एक साथ कवि, नाटककार, कहानीकार, उपन्यासकार तथा निबंधकार थे। इनके बाल्यकाल में ही इनके पिता तथा बड़े भाई स्वर्गवासी हो गए। परिणामस्वरूप अल्पावस्था में ही प्रसादजी को घर का सारा भार वहन करना पड़ा। इन्होंने स्कूली शिक्षा छोड़कर घर पर ही अंग्रेजी, हिन्दी, बंगला तथा संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त किया। सुस्थिर होकर कुशलतापूर्वक अपने व्यापार और परिवार को सँभाला और आजीवन अपने उत्तरदायित्व का सफलतापूर्वक निर्वाह करते रहे। साथ-साथ साहित्य सृजन भी करते रहे और अपनी उत्कृष्ट रचनाओं से हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया। इनका देहावसान 15 नवम्बर,सन् 1937 को हुआ।

  • साहित्य सेवा

जयशंकर ‘प्रसाद’ आधुनिक हिन्दी काव्य के सर्वप्रथम कवि थे। सूक्ष्म अनुभूति और रहस्यवादी चित्रण इनके काव्य की विशेषता है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में नया युग ‘छायावादी युग’ के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार जयशंकर प्रसाद छायावादी युग के प्रवर्तक थे। प्रेम और सौन्दर्य इनके काव्य के प्रमुख विषय रहे।

  • रचनाएँ

प्रसाद जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार थे। गद्य और पद्य,प्रबन्ध और मुक्तक, खण्डकाव्य और प्रबन्ध काव्य और कहानी, नाटक, उपन्यास, निबन्ध तथा आलोचना, कहने का आशय यह है कि साहित्य का कोई भी पक्ष उनसे अछूता नहीं बचा और इन सभी रूपों में उन्होंने अत्यन्त उत्कृष्ट कोटि के साहित्य का प्रणयन किया है। प्रसाद जी की काव्य कृतियाँ निम्नलिखित हैं

  1. चित्राधार,
  2. कानन कुसुम,
  3. करुणालय,
  4. महाराणा का महत्व,
  5. प्रेम पथिक,
  6. झरना,
  7. आँसू,
  8. लहर,
  9. कामायनी।

‘कामायनी’ छायावाद का महाकाव्य है और ‘आँसू’ प्रसादजी का लोकप्रिय विरह काव्य है।

  • भाव पक्ष
  1. दार्शनिक विचारधारा प्रसाद एक दार्शनिक कवि हैं। उनके महाकाव्य ‘कामायनी’ में आनन्दवाद की प्रतिष्ठा की गई है। यह ग्रन्थ अपनी अद्भुत छटा बिखेरता हुआ भ्रमित मनुष्यों का पथ प्रदर्शन कर रहा है।
  2. प्रेम और सौन्दर्य की विवेचना-प्रसादजी प्रमुखतया प्रेम और सौन्दर्य के उपासक हैं। छायावादी कवि प्रकृति की हर वस्तु में सुन्दरता के दर्शन करता है। प्रसाद द्वारा निरूपित प्रेम में प्रधानता सर्वत्र मानसिक पक्ष की ही है। प्रसाद के द्वारा व्यक्त सौन्दर्य में बाह्य सौन्दर्य और शारीरिक सौन्दर्य का अदभुत सामंजस्य है।

कामायनी का उदाहरण देखिए-

“नील परिधान बीच सुकुमार,
खुला था मृदुल अधखुला अंग,
खिला हो ज्यों बिजली का फूल,
मेघ वन बीच गुलाबी रंग।”

(3) अनुभूतिपूर्ण काव्य-अनुभूति की गहनता काव्य की श्रेष्ठता को प्रदर्शित करती है। प्रसादजी के काव्य में हमें यही गहराई दिखाई देती है। आँसू में प्रेमानुभूति देखिए-

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“रो रो कर सिसक सिसक कर
कहता मैं करुण कहानी,
तुम सुमन नोचते सुनते,
करते जाते अनजानी।”

(4) वेदना की अभिव्यक्ति प्रसाद के काव्य में सर्वत्र एक गहन वेदना की अभिव्यक्ति मिलती है। ‘आँसू’ में तो उनकी गहन वेदनाभूति अपनी सम्पूर्ण गहराई से व्यक्त हुई है, जिसकी पीड़ा पाठक के हृदय को छू जाती है।
(5) कल्पना का अतिरेक व रहस्यवाद-भावानुभूति के साथ-साथ प्रसाद की कविताओं में कल्पना की अधिकता भी है। कंटकाकीर्ण कठोर यथार्थ के सामने अपनी कल्पना का जगत उसे अत्यन्त मधुर प्रतीत होता है। रहस्य की ओर आकर्षण छायावादी कवियों की प्रमुख विशेषताओं में से एक है। प्रसाद जी प्रकृति के कण-कण में रहस्यमयी सत्ता का आभास पाते और अनुभव करते हैं। पर इस रहस्यमयी सत्ता का रहस्य आखिर में रहस्य ही रहता है।

कामायनी का उदाहरण देखिए-

“हे अनन्त रमणीय ! कौन तुम,
यह मैं कैसे कह सकता, कैसे हो?
क्या हो इसका तो,
भार विचार न सह सकता।”

(6) प्रकृति चित्रण-प्रसादजी के काव्य में प्रकृति के सभी मनोहारी रूपों का बड़ा ही रमणीय चित्रण हुआ है। प्रसाद जी ने प्रकृति को जड़वस्तु के रूप में ग्रहण न कर जीवित और चैतन्य सत्ता के रूप में ग्रहण किया है।
(7) नारी के प्रति श्रद्धा भाव छायावादी कवियों ने नारी को पूर्ण सम्मान दिया है। प्रसादजी ने भी अपने काव्य में नारी के सभी रूपों को दर्शाते हुए इस बात का ध्यान रखा है कि उसके सम्मान में कहीं कमी न आने पाए।

  • कला पक्ष
  1. भाषा-प्रसादजी के काव्य की भाषा व्याकरणसम्मत, परिष्कृत एवं परिमार्जित खड़ी बोली है। संस्कृत शब्दों की बहुलता होने पर भी भाषा क्लिष्ट अथवा दुरूह नहीं हुई है। भावों की गहराई और कवि कौशल के कारण प्रसादजी की लाक्षणिक और व्यंजनामयी भाषा में चित्रोपमता आ गई है।
  2. अलंकारों का प्रयोग-प्रसादजी की भाषा में अलंकारों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुआ है। उनका प्रयोग इतना सहज है कि वे सर्वत्र काव्य के सौन्दर्य को स्पष्ट करते हैं। शब्दालंकारों और अर्थालंकारों के साथ-साथ उन्होंने मानवीकरण, विशेषण विपर्यय और ध्वन्यार्थ व्यंजना आदि पाश्चात्य अलंकारों को भी मुक्त हृदय से अपनाया है।
  3. छन्द योजना प्रसादजी ने अपने काव्य में परम्परागत छन्दों के साथ ही साथ नये-नये छन्दों को लिखकर मौलिकता का परिचय दिया है। ‘आँसू’ में प्रयुक्त छन्द आँसू छन्द ही कहा जाने लगा।
  • साहित्य में स्थान

भाव पक्ष और कला पक्ष की दृष्टि से प्रसादजी का काव्य उच्चकोटि का है। निःसन्देह प्रसाद हिन्दी के युग प्रवर्तक साहित्यकार एवं छायावादी कवि हैं। नूतनता की काव्यधारा को प्रवाहित करने का श्रेय जयशंकर प्रसाद को ही है। प्रसादजी की शैली काव्यात्मक चमत्कारों से परिपूर्ण है।

10. भवानी प्रसाद मिश्र [2016]

जीवन परिचय
भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म सन 1913 में मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया ग्राम में हुआ था। कविता और साहित्य के साथ-साथ राष्ट्रीय आन्दोलन में जिन कवियों की भागीदारी थी उनमें श्री मिश्रजी प्रमुख थे। इनके पिता का नाम श्री सीताराम मिश्र तथा माँ का नाम श्रीमती गोमती देवी था। इन्होंने खण्डवा, बैतूल आदि से प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त कर जबलपुर के ऐवर्टसन कालेज से बी.ए.परीक्षा पास की। स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए सन् 1942 ई.में इन्होंने जेल यात्रा की। प्रारम्भ में इन्होंने वर्धा में महिला आश्रम में अध्यापन कार्य किया तथा ‘कल्पना’ नामक पत्रिका का सम्पादन किया। तत्पश्चात् आकाशवाणी में सेवारत रहे। 1985 ई.में इनका देहावसान हो गया।

  • साहित्य सेवा

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता हिन्दी की सहज लय की कविता है। भाषा में भावाभिव्यक्ति की अपूर्व क्षमता है। इनकी रचनाएँ मुक्त छंद में लिखी गई हैं। मिश्रजी को सच्चा कवि हृदय प्राप्त है। हिन्दी के नए कवियों में इनका महत्वपूर्ण स्थान है। गाँधीवाद से प्रभावित मिश्रजी के काव्य में मानव कल्याण के स्वर मुखरित हुए हैं। प्रयोगवाद एवं नयी कविता के कवियों में इनका सम्माननीय स्थान है।

  • रचनाएँ

भवानी प्रसाद मिश्र की प्रमुख काव्य रचनाएँ हैं—’गीत फरोश’, ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘सन्नाटा’, ‘चकित है दुःख’, बनी हुई रस्सी’,’खुशबू के शिलालेख’, अनाम तुम आते हो’, इन्द्र कुसुम’, ‘गाँधी पचशती’, ‘त्रिकाल संध्या’, ‘कालजयी’, ‘संप्रति’, ‘जल रही हैं सड़कों पर बत्तियाँ’ आदि।

  • भाव पक्ष
  1. भाषा-मिश्रजी की भाषा सहज एवं सरल है। उनकी भाषा भावाभिव्यक्ति में सशक्त है। इन्होंने अपने काव्य में मुक्त छन्द को अपनाया है। अपने भावों को सहज, सरल भाषा शैली में व्यक्त करने में मिश्रजी कुशल रहे हैं।
  2. अपूर्व प्रकृति चित्रण-इनकी कविताओं में अनुपम प्रकृति चित्रण को भी स्थान दिया गया है। सतपुड़ा के जंगल इनको प्रभावित करते हैं।
  3. अनुभूतिपूर्ण काव्य-इनकी कविताओं में अपनी अनुभूति को कल्पना का जामा पहनाकर अभूतपूर्व बना दिया गया है। इनके काव्य में भावाभिव्यक्ति की सशक्त योजना है।
  4. वेदना की अभिव्यक्ति-इनके काव्य में कहीं-कहीं वेदना की अभिव्यक्ति बड़ी अनूठी बन पड़ी है जो पाठकों के हृदय तक पहुँचने में समर्थ है। प्रतीकों का प्रयोग भी मार्मिक बन पड़ा है।
  • कला पक्ष
  1. अभिव्यक्ति की कशलता मिश्रजी की भाषा में सहजता और सरलता मिलती है। भाषा में भावाभिव्यक्ति की अपूर्व क्षमता है। इनके भावों में गहराई होते हुए भी वे सरलता लिए हुए है। चिन्तनशीलता इनकी रचनाओं का विशिष्ट गुण है। अपने नए-नए भावों को कविता की पंक्तियों में पिरोकर पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है।
  2. अलंकारों और महावरों का प्रयोग मिश्रजी ने अपनी कविता में अलंकारों, लोकोक्तियों और मुहावरों का प्रयोग किया है। अनेक प्रतीकों के माध्यम से नए-नए विचारों को समझाने का कार्य किया है।
  3. गाँधीवादी विचारधारा-मिश्रजी ने गाँधीवादी विचारधारा से प्रभावित होने के कारण अपनी कविताओं में गाँधी दर्शन का प्रभाव छोड़ा है। इनकी कविताओं में वैयक्तिकता और आत्मानुभूति दृष्टिगोचर होती है। इनकी गीतफरोश नामक कविता अत्यन्त चर्चित रही।

उसकी कुछ पंक्तियाँ देखिए-

“जी हाँ हुजूर मैं गीत बेचता हूँ।
मैं तरह-तरह के किसिम किसिम के गीत बेचता हूँ।
जी पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको
पर पीछे-पीछे अकल जगी मुझको
जी लोगों ने तो बेच दिए ईमान
जी आप न हों सुनकर ज्यादा हैरान
मैं सोच समझकर आखिर
अपने गीत बेचता हूँ।”

  • साहित्य में स्थान

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पं. भवानी प्रसाद मिश्र प्रयोगशील एवं नई कविता के लोकप्रिय कवि हैं। इनकी कविताओं में एक ऐसी सरलता और ताजगी है.जो आज के किसी अन्य कवि में दिखाई नहीं देती। गाँधीवाद से प्रभावित मिश्रजी की कविताओं में मानव कल्याण के स्वर मुखरित हुए हैं। प्रयोगवाद एवं नयी कविता के कवियों में इनका प्रशंसनीय स्थान है। इन्होंने सहज और सरल भाषा शैली में अपने विचारों को व्यक्त करके अपनी कविता को आत्मीय वार्तालाप तथा आत्मानुभव के रूप में प्रतिष्ठित किया है।

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MP Board Class 12th Hindi Makrand Solutions Chapter 4 रहिमन विलास

MP Board Class 12th Hindi Makrand Solutions Chapter 4 रहिमन विलास (कविता, रहीम)

रहिमन विलास पाठ्य-पुस्तक पर आधारित प्रश्न

रहिमन विलास लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
आँखों से बहने वाले आँसू क्या व्यक्त कर देते हैं? (M.P. 2010)
उत्तर:
आँखों से बहने वाले आँसू मनुष्य के मन का दुख व्यक्त कर देते हैं।

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प्रश्न 2.
बिन पानी के कौन महत्त्वहीन हो जाते हैं? (M.P. 2009)
उत्तर:
बिन पानी के मोती, मनुष्य और चून महत्त्वहीन हो जाते हैं।

प्रश्न 3.
कवि ने सच्चा मित्र किसे कहा है? (M.P. 2011)
उत्तर:
कवि में सच्चा मित्र उसे कहा है, जो संकटकाल या विषम परिस्थिति में भी मित्र के साथ रहता है।

प्रश्न 4.
छोटों के प्रति बड़ों का क्या कर्तव्य है?
उत्तर:
छोटों के प्रति बड़ों का कर्तव्य है कि वे छोटों के उपद्रव (गलतियों) को क्षमा कर दें।

प्रश्न 5.
कवि ने जीवन की सार्थकता के संबंध में क्या कहा है?
उत्तर:
कवि ने कहा है कि जीवन की सार्थकता देने के भाव में ही है।

रहिमन विलास दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
समुद्र के जल की अपेक्षा कुएँ के जल की प्रशंसा क्यों की है? (M.P. 2010; 2012)
उत्तर:
कुएँ के जल को पीकर प्यासे की प्यास बुझती है। उसके हृदय को संतोष का अनुभव होता है जबकि समुद्र के जल से प्यासा प्यास नहीं बुझा पाता है। वह प्यासा ही रह जाता है। अतः कुएँ का जल संतोषदायक है इसीलिए उसकी प्रशंसा की है।

प्रश्न 2.
कुशलता की कामना कब निष्फल हो जाती है?
उत्तर:
कुशलता की कामना उस समय निष्फल हो जाती है, जब मनुष्य कुसंगति में पड़ जाता है। कुसंगति के कारण मनुष्य की कुशलता में बाधा उत्पन्न होती है। कुसंगत और कुशलता दोनों साथ-साथ नहीं हो सकते।

प्रश्न 3.
कवि रहीम ने किसे समझाना उचित नहीं माना है?
उत्तर:
कवि रहीम ने ऐसे व्यक्ति को समझाना उचित नहीं माना है, जो रात-दिन, सोते-जागते अनकही अर्थात् बिना सर-पैर की निरर्थक बातें करता रहता है।

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प्रश्न 4.
कवि मोतियों के हार के माध्यम से क्या संदेश देना चाहता है? (M.P. 2009)
उत्तर:
कवि मोतियों के हार के माध्यम से संदेश देना चाहता है कि श्रेष्ठ लोगों अथवा अपने लोगों के रूठ जाने पर उन्हें बार-बार मना लेना चाहिए। प्रेम से साथ रहने पर ही शोभा होती है।

प्रश्न 5.
रहीम ने धन को महत्त्व क्यों दिया है?
उत्तर:
रहीम ने धन को इसलिए महत्त्व दिया है क्योंकि धन से मित्र बनते हैं। धन में ही मित्र बनाने की शक्ति होती है। निर्धन के कम मित्र बनते हैं।

प्रश्न 6.
“लोग भरम हम पै.धरें, याते नीचे नैन”क्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
इस पंक्ति का आशय है-लोग भ्रमवश रहीम को दाता मानकर उनकी जय-जयकार करते हैं। इसी कारण कवि के मन में संकोच उत्पन्न होता है। उसे लज्जा आती है कि देने वाला तो ईश्वर है। मैं तो एक साधारण व्यक्ति हूँ। यह सोचकर ही दान देने वाले कवि रहीम सदा अपनी आँखें नीची किए रहते हैं।

रहिमन विलास भाव-पल्लवन

प्रश्न 1.
निम्नलिखित पंक्तियों का भाव-पल्लवन कीजिए।

प्रश्न 1.
“जाहि निकारो गेह ते, कस न भेद कहि देई।”
उत्तर:
जब किसी को घर से निकाला जाएगा, तो वह घर का भेद दूसरों से क्यों नहीं कहेगा। इस प्रकार घर के सारे भेद दूसरों तक पहुँच जाएँगे। घर का भेदी कभी अच्छा नहीं होता। जब तक वह घर में रहता है तो सारे भेद घर तक सीमित रहते हैं, लेकिन उसको घर से निकालते ही सारे भेद दूसरों तक पहुँच जाते हैं। रामायण में रावण अपने छोटे भाई विभीषण को लंका से निकाल देता है। विभीषण घर से निकाले जाने के बाद राम से आ मिलता है। उसी ने राम को लंका के सारे भेद तथा रावण की मृत्यु का रहस्य भी बता दिया, इसी से जनता में कहावत भी प्रचलित है-घर का भेदी लंका ढावै।

प्रश्न 2.
“खग मृग बसत आरोग्य वन, हरि अनाथ के नाथ।” (M.P. 2011)
उत्तर:
समस्त पशु और पक्षी वन में प्राकृतिक वातावरण में रहते हैं। वन में उन्हें शुद्ध जल और वायु मिलती है। वे साफ पानी पीते हैं और शुद्ध साँस लेते हैं। वन के ही फल-फूल और पत्तियाँ खाकर अपना पेट भरते हैं। वे कभी रोगग्रसित नहीं होते। सदा निरोग रहते हैं। उन्हें औषधियों की आवश्यकता नहीं होती। प्राकृतिक जीवन स्वास्थ्यवर्धक होता है। वन में कोई चिकित्सक नहीं होता। उनके स्वास्थ्य की रक्षा तो ईश्वर ही करता है। अतः स्वस्थ व निरोग रहने के लिए प्राकृतिक वातावरण से ज्यादा से ज्यादा जुड़े रहना चाहिए।

रहिमन विलास भाषा-अनुशीलन

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के हिंदी मानक रूप लिखिएछिमा, गेह, माखन, मीत, रावन।
उत्तर:
क्षमा, गृह, मक्खन, मित्र, रावण।

प्रश्न 2.
समानार्थी शब्दों की सही जोड़ियाँ बनाइए –

  • खग – कमल
  • उदधि – जल
  • अंबु – समुद्र
  • अंबुज – पक्षी

उत्तर :

  • खग – पक्षी
  • उदधि – समुद्र
  • अंबु – जल
  • अंबुज – कमल

प्रश्न 3.
उदाहरण के अनुसार दिए गए शब्द युग्मों का वाक्यों में प्रयोग कीजिए –
दिन-दीन:
आज का दिन सुहावना है।
दीन व्यक्ति दया का पात्र है।
कुल-कूल, अंक-अंक, हंस-हँस, वात-बात, खल-खाल।
उत्तर:

  • कुल – ऊँचे कुल में जन्म लेने से ही मनुष्य उच्च नहीं बन जाता।
    कूल – यमुना कूल पर मेला लगा हुआ है।
  • अंक – प्रसन्नता से उसने मुझो अंक में भर लिया।
    अंक – अंक से अंक मिलाकर एक बड़ी विषम संख्या बनाओ।
  • हंस – पक्षियों का राजा होता है।
    हँस – उसने मेरी बात हँस कर उड़ा दी।
  • वात – वह वात रोग से पीड़ित है।
    बात – वह बात करने योग्य नहीं है।
  • खल – खल के साथ न मित्रता अच्छी होती है और न शत्रुता।
    खाल – पशुओं की तो खाल भी काम में आ जाती है।

रहिमन विलास योग्यता-विस्तार

प्रश्न 1.
नीति से संबंधित काव्य लिखने वाले कवियों के चित्रों को संकलन कर उनके बारे में अधिक जानकारी प्राप्त कीजिए।
उत्तर:
छात्र स्वयं करें।

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प्रश्न 2.
अन्य कवियों के नीति सम्बन्धी दोहों का संकलन कीजिए।
उत्तर:
छात्र अपने विद्यालय के पुस्तकालय से पुस्तकें लेकर स्वयं संकलन करें।

प्रश्न 3.
यदि आपके पड़ोस में कोई कवि हिंदी में काव्य रचना करता हो तो उससे रचना प्राप्त कर पढ़िए।
उत्तर:
छात्र स्वयं करें।

प्रश्न 4.
यदि आपके कुटुम्बीजन आपसे रूठ गए हों तो आप क्या करेंगे? लिखिए।
उत्तर:
छात्र स्वयं करें।

रहिमन विलास परीक्षोपयोगी अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर –

प्रश्न 1.
आरोग्य बनाने की शक्ति होती है –
(क) नगरीय जीवन में
(ख) प्राकृतिक जीवन में
(ग) ग्रामीण जीवन में
(घ) कृत्रिम जीवन में
उत्तर:
(ख) प्राकृतिक जीवन में।

प्रश्न 2.
कुसंग से कौन-सी अभिलाषा पूरी नहीं होती –
(क) धन-संपत्ति प्राप्ति की
(ख) सुख-शांति प्राप्ति की
(ग) कुशलता प्राप्ति की
(घ) ईश्वर प्राप्ति की
उत्तर:
(ग) कुशलता प्राप्ति की।

प्रश्न 3.
‘देनहार कोउ और है’ के द्वारा संकेत किया गया है – (M.P. 2009)
(क) ईश्वर की ओर
(ख) सम्राट अकबर की ओर
(ग) जनता की ओर
(घ) संसार की ओर
उत्तर:
(क) ईश्वर की ओर।

प्रश्न 4.
रहीम ने किसके जल को धन्य कहा है –
(क) समुद्र के
(ख) तालाब के
(ग) नदी के
(घ) कुएँ के
उत्तर:
(घ) कुएँ के।

प्रश्न 5.
घर की बात घर में ही रखने का संकेत निम्नलिखित दोहे में किया है –
(क) रहिमन अँसुआ नैन गरि
(ख) देनहार कोउ और है
(ग) तौ ही लो जीवो भलो
(घ) छिमा बड़ेन को चाहिए
उत्तर:
(क) रहिमन अँसुआ नैन ढरि।

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प्रश्न 6.
खग मृग बसत आरोग बन, हरि अनाथ के नाथ में अलंकार है –
(क) अनुप्रास अलंकार
(ख) उत्प्रेक्षा अलंकार
(ग) उपमा अलंकार
(घ) दृष्टांत अलंकार
उत्तर:
(घ) दृष्टांत अलंकार।

प्रश्न 7.
रहिमन अंबुज अंबु बिनु में प्रयुक्त अलंकार कौन-सा है?
(क) रूपक अलंकार
(ख) वक्रोक्ति अलंकार
(ग) उदाहरण अलंकार
(घ) अनुप्रास अलंकार
उत्तर:
(घ) अनुप्रास अलंकार।

प्रश्न 8.
सूर्य भी रक्षा नहीं कर सकता किसकी?
(क) जलहीन कमल की
(ख) कर्महीन व्यक्ति की
(ग) कुसंगी व्यक्ति की
(घ) धोखेबाज मित्र की
उत्तर:
(क) जलहीन कमल की।

प्रश्न 9.
श्रेष्ठ मनुष्यों की समानता की गई है –
(क) मोतियों से
(ख) फूलों से
(ग) सीपियों से
(घ) रत्नों से
उत्तर:
(क) मोतियों से।

प्रश्न 10.
बड़े लोगों के व्यक्तित्व शोभा होती है –
(क) दया
(ख) क्षमा
(ग) उत्पात
(घ) अभिमान
उत्तर:
(ख) क्षमा।

प्रश्न 11.
‘देनहार कोउ और है’ के द्वारा रहीमदास ने संकेत किया है – (M.P. 2009)
(क) ईश्वर की ओर
(ख) सम्राट की ओर
(ग) जनता की ओर
(घ) संसार की ओर
उत्तर:
(क) ईश्वर की ओर।

II. रिक्त स्थानों की पूर्ति दिए गए विकल्पों के आधार पर करें –

  1. खग-मृग बसत ……… हरि अनाथ के नाथ। (नंदनवन, आरोग्यवन)
  2. महिमा घटी समुद्र की ………. वस्यो पड़ोस। (राक्षस, रावन)
  3. रहीम का पूरा नाम ………. था। (अर्द्धरहीम खानखाना, रहीमदास)
  4. रहीम का जन्म सन् ………. में हुआ था। (1556 ई, 1456 ई.)
  5. रहीम की मृत्यु सन् ………. में हुई। (1620 ई०, 1626 ई०)

उत्तर:

  1. आरोग्य वन
  2. रावन
  3. अर्दुरहीम खानखाना
  4. 1556 ई.
  5. 1626 ई०

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III. निम्नलिखित कथनों में सत्य असत्य छाँटिए – (M.P.2009)

  1. आँखों से बहने वाले आँसू सुख व्यक्त कर देते हैं।
  2. मथते-मथते दही और मठा एक हो जाते हैं।
  3. समुद्र के जल से कुएँ का जल श्रेष्ठ है।
  4. धन में मित्र बनाने की शक्ति नहीं होती है।
  5. भगवान अनाथ के नाथ हैं।

उत्तर:

  1. असत्य
  2. असत्य
  3. सत्य
  4. असत्य
  5. सत्य।

IV. निम्नलिखित के सही जोड़े मिलाइए –

प्रश्न 1.
MP Board Class 12th Hindi Makrand Solutions Chapter 4 रहिमन विलास img-1
उत्तर:

(i) (ङ)
(ii) (ग)
(iii) (घ)
(iv) (ख)
(v) (क)

V. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक शब्द या एक वाक्य में दीजिए –

प्रश्न 1.
कौन निरोग रहते हैं?
उत्तर:
पशु-पक्षी निरोग रहते हैं।

प्रश्न 2.
समुद्र और कुएँ में से किसका जल धन्य है?
उत्तर:
कुएँ का।

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प्रश्न 3.
समुद्र की महिमा क्यों घटी?
उत्तर:
समुद्र की महिमा पड़ोस में रावण के होने से घटी।

प्रश्न 4.
बिनु पानी के कौन महत्त्वहीन हो जाते हैं? (M.P.2009)
उत्तर:
मोती, मनुष्य और चूना।

प्रश्न 5.
कवि ने सच्चा मित्र किसे कहा है?
उत्तर:
संकट के समय सहायता करने वाले को।

रहिमन विलास लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
अनेक इलाज करने पर भी व्याधि साथ क्यों नहीं छोड़ती?
उत्तर:
क्योंकि आज के युग में मनुष्य प्राकृतिक वातावरण को छोड़कर कृत्रिम वातावरण में रहना ज्यादा पसंद करता है। इसलिए अनेक इलाज करते हुए भी व्याधि मनुष्य का साथ नहीं छोड़ती।

प्रश्न 2.
मन के दुख को कौन व्यक्त कर देते हैं?
उत्तर:
आँख से निकले आँसू मन के दुख को व्यक्त कर देते हैं।

प्रश्न 3.
‘टूटे सुजन मनाइए, जौ टूटें सौ बार’ में कवि ने किस बात पर बल दिया है?
उत्तर:
इसमें कवि ने इस बात पर बल दिया है कि सज्जनों (श्रेष्ठ व्यक्तियों) तथा अपने आत्मीयजनों के रूठ जाने पर उन्हें बार-बार मनाना चाहिए।

प्रश्न 4.
समुद्र की महिमा किसके कारण घटी?
उत्तर:
समुद्र की महिमा कुसंग के कारण घटी। उसके पड़ोस में अन्यायी और अहंकारी रावण के बसने (रहने) के कारण ही समुद्र को बँधना पड़ा।

प्रश्न 5.
पशु-पक्षी क्यों निरोग रहते हैं?
उत्तर:
पशु-पक्षी निरोग रहते हैं, क्योंकि उनके स्वामी स्वयं ईश्वर हैं तथा वे प्राकृतिक वातावरण के बीच रहते हैं।

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प्रश्न 6.
अपने लोगों के नाराज होने पर हमें क्या करना चाहिए?
उत्तर:
अपने लोगों के नाराज होने पर हमें उन्हें मना लेना चाहिए।

प्रश्न 7.
इस संसार में जीवित रहना कब अनुचित है?
उत्तर:
इस संसार में जीवित रहना तब अनुचित है, जब देने का भाव धीमा पड़ने लगता है या समाप्त होने लगता है।

रहिमन विलास दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
आत्मसम्मान की रक्षा क्यों की जानी चाहिए?
उत्तर:
मनुष्य को अपने आत्मसम्मान की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि सम्मान के बिना समाज में व्यक्ति का कोई महत्त्व नहीं रहता। सम्मानहीन होने पर मनुष्य का महत्त्व समाप्त हो जाता है।

प्रश्न 2.
अच्छे मित्र की क्या पहचान है?
उत्तर:
अच्छे मित्र की पहचान यह है कि विपत्ति के समय भी अपने मित्र का साथ नहीं छोड़ता। वह विपत्ति में अपने मित्र का साथ देता है। जबकि अन्य उसका साथ छोड़कर चले जाते हैं।

प्रश्न 3.
रहीम ने कुएँ और समुद्र में से किसके जल को धन्य कहा है और क्यों? (M.P. 2010, 2012)
उत्तर:
रहीम ने कुएँ और समुद्र में से कुएँ के जल को धन्य कहा है क्योंकि यद्यपि कुआँ आकार में छोटा होता है लेकिन प्यासा व्यक्ति उसके जल को पीकर हृदय में तृप्ति का अनुभव करता है जबकि सेमुद्र आकार में विशाल होता है, परंतु व्यक्ति उसका जल पीकर प्यास नहीं बुझा पाता। वह प्यासा ही रह जाता है।

प्रश्न 4.
कवि मोतियों के हार के माध्यम से क्या संदेश देना चाहता है?
उत्तर:
कवि मोतियों के हार के माध्यम से यह संदेश देना चाहता है कि जिस प्रकार कीमती मोतियों का हार टूट जाता है, तो उसे फिर दूसरे धागे में गूंथकर पहनने योग्य बना लिया जाता है, ठीक उसी प्रकार सच्चे मित्रों से, सज्जनों से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाने पर उन्हें मनाने का प्रयास करना चाहिए।

प्रश्न 5.
कवि की दृष्टि में धन का महत्त्व क्यों है?
उत्तर:
कवि की दृष्टि में धन का महत्त्व इसलिए है कि धन में बड़ी शक्ति होती है। उससे मित्र बनते हैं। इस प्रकार धन के बिना मित्र भी नहीं बनते हैं। इसलिए धन ही बहुत उपयोगी है।

रहिमन विलास कवि-परिचय

प्रश्न 1.
कवि रहीम का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
जीवन-परिचय:
कवि रहीम का जन्म लाहौर (वर्तमान पाकिस्तान) में सन् 1556 ई० में हुआ था। पाँच वर्ष की आयु में इनके पिता की मृत्यु हो गई। इनका पालन-पोषण सम्राट अकबर की देख-रेख में हुआ। इनकी कार्यक्षमता से प्रभावित होकर अकबर ने 1572 ई० इन्हें पाटननगर की जागीर और सन् 1576 ई० में गुजरात विजय के बाद गुजरात की सूबेदारी प्रदान की। सन् 1579 ई० में इन्हें ‘मीरअर्ज’ का पद दिया गया। सन् 1583 ई० में इन्होंने जब गुजरात के उपद्रव का दमन किया, तब सम्राट अकबर ने प्रसन्न होकर इन्हें ‘खानखाना’ की उपाधि से नवाजा और पाँच हज़ारी का मनसब बना दिया। सन् 1589 ई० में इन्हें ‘वकील’ की पदवी से सम्मानित किया गया। सन् 1626 ई० में इनका निधन हो गया।

साहित्यिक विशेषताएँ;
रहीम, सम्राट अकबर के नवरत्नों में से एक थे। वे अरबी, तुर्की, फारसी, संस्कृत और हिंदी के अच्छे ज्ञाता थे, हिन्दुओं के परिचित थे। शास्त्र, लोक संस्कृति और लोक व्यवहार में उन्हें दक्षता प्राप्त थी। वे.कलम के साथ-साथ तलवार के धनी भी थे। वे कवि, योद्धा और दानवीर थे। उनके व्यक्तित्व और काव्य में उदारता, सच्चरित्रता, सहजता और विनम्रता के गुण थे। उनके काव्य का मुख्य विषय श्रृंगार, नीति और भक्ति है। उनकी नीति और शृंगार परक रचनाएँ दरबारी वातावरण के अनुकूल थीं। उन्होंने अपने जीवन के उतार-चढ़ावों से प्राप्त भावों और विचारों को बड़ी सहजता से अपने काव्य में प्रस्तुत किया है।

रचनाएँ:
उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं – ‘दोहावली’, ‘नगर शोभा’, ‘बरवै नायिका भेद’ और ‘शृंगार सोरण’।

भाषा-शैली:
रहीम ने अरबी, फारसी के विद्वान होते हुए भी ब्रज और अवधी में काव्य रचना की। अवधी भाषा में लिखा गया ‘बरवै नायिका भेद’ उनका सर्वोत्तम ग्रंथ है। उन्होंने दोहा, सोरठा शैली को अपनाया। इनके नीति पर लिखे दोहे बहुत प्रसिद्ध हैं।

महत्त्व:
मुसलमान होते हुए ब्रज और अवधी भाषा में काव्य-रचना करने के कारण हिंदी साहित्य में इन्हें सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है।

रहिमन विलासपाठ का सारांश

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प्रश्न 1.
रहीम के दोहों का सार संक्षेप में अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
रहीम द्वारा रचित नीतिगत दोहे व्यावहारिक पक्ष से संबंधित हैं। पहले दोहे में बताया गया है कि प्राकृतिक जीवन आरोग्यवर्द्धक है। दूसरे दोहे में संदेश दिया गया है कि तृप्ति प्रदान करने वाली वस्तु ही महत्त्वपूर्ण होती है। तीसरे दोहे में संदेश दिया गया है कि कुसंग से बदनामी होती। चौथे दोहे के अनुसार घर का भेदी कभी अच्छा नहीं होता। पाँचवें दोहे में कहा गया है कि संपत्ति में मित्र बनाने की क्षमता होती है।

छठे दोहे में अनुचित बातें करने वाले व्यक्ति को ठीक नहीं बताया गया है। सातवें दोहे में ईश्वर को दानी कहा गया है। आठवें दोहे में बड़े लोगों के व्यक्तित्व की शोभा को क्षमा कहा गया है। नौवें दोहे में सज्जनों के प्रेम व्यवहार की महिमा का वर्णन किया गया है। दसवें दोहे में आत्मसम्मान के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। ग्यारहवें दोहे में सच्चे मित्र की पहचान बताई गई है। सच्चा मित्र वही है, जो विपत्ति में भी सहयोग देता है। इस प्रकार कवि ने अपने दोहों में सत्संगति, मित्रता, सज्जनता आदि के महत्त्व को दर्शाया है।

रहिमन विलास संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

प्रश्न 1.
रहिमन बह भेषज करत, व्याधि न छाँड़त साथ।
खग मृग बसत आरोग्य बन, हरि अनाथ के नाथ॥ (M.P. 2011)

शब्दार्थ:

  • बहु – विभिन्न प्रकार की।
  • भेषज – औषधि, दवाई।
  • व्याधि – रोग।
  • खग – पक्षी।
  • मृगं – हिरण।
  • बसत – रहते हैं।
  • आरोग्य – निरोग।
  • हरि – ईश्वर।
  • नाथ – स्वामी।

प्रसंग:
प्रस्तुत दोहा कवि रहीम द्वारा रचित ‘रहिमन-विलास’ से लिया गया है। इस दोहे में रहीम प्राकृतिक वातावरण में रहने के महत्त्व को बताते हुए कहते हैं –

व्याख्या:
रहीमजी जीवन के व्यावहारिक पक्ष पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि मनुष्य अनेक प्रकार की दवाइयों का प्रयोग स्वस्थ रहने के लिए करता है; फिर भी वह अस्वस्थ ही रहता है। रोग साथ नहीं छोड़ते हैं। पक्षी, हिरण आदि पशु-पक्षी वन में रहते हैं। वे सदा निरोग रहते हैं। रोग उनके निकट नहीं आते; क्योंकि उन अनाथों के स्वामी स्वयं ईश्वर हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि प्राकृतिक वातावरण में रहने से स्वास्थ्य में वृद्धि होती है। अतः मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिए प्राकृतिक वातावरण में रहना चाहिए।

विशेष:

  1. कवि ने मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिए प्राकृतिक वातावरण में रहने का परामर्श दिया है।
  2. अवधी भाषा का प्रयोग हुआ है।
  3. बहु भेषज, व्याधि, खग, मृग, हीर आदि तत्सम शब्द हैं।
  4. दोहा, छंद का प्रयोग हुआ है।
  5. दृष्टांत अलंकार है।

काव्यांश पर आधारित विषय-वस्तु संबंधित प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
इस दोहे में कवि ने क्या संदेश दिया है?
उत्तर:
इस दोहे में कवि ने प्राकृतिक वातावरण में रहने का संदेश दिया है; क्योंकि ऐसा करने से स्वास्थ्य में वृद्धि होती है। अतः मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिए प्रकृति के निकट रहना चाहिए।

प्रश्न (ii)
पशु-पक्षी बीमार क्यों नहीं पड़ते हैं?
उत्तर:
पशु-पक्षी बीमार इसलिए नहीं पड़ते हैं कि वे प्राकृतिक वातावरण में रहते हैं। इससे वे सदा निरोग रहते हैं।

प्रश्न (iii)
मनुष्य इतनी दवाइयों के सेवन के बाद भी रोगी क्यों बना रहता है?
उत्तर:
मनुष्य इतनी अधिक दवाइयों के सेवने के बाद भी रोगी बना रहता है; क्योंकि वह प्राकृतिक वातावरण से दूर रहता है।

काव्यांश पर आधारित सौंदर्य-बोध संबंधित प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
इस दोहे का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भाव-सौंदर्य:
इस दोहे का भाव-सौंदर्य यह है कि प्राकृतिक वातावरण में रहने से आरोग्य में वृद्धि होती है। इसलिए मनुष्य को प्राकृतिक वातावरण में रहना चाहिए। पशु-पक्षी प्राकृतिक वातावरण में रहने के कारण स्वस्थ रहते हैं, जबकि मनुष्य कृत्रिम वातावरण में रहता है और बीमार रहता है। बहुत अधिक दवाइयों के सेवन पर भी बीमारियाँ उसका पीछा नहीं छोड़तीं।

प्रश्न (ii)
इस दोहे का शिल्प-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
शिल्प-सौंदर्य:
कवि ने मनुष्य को निरोग रहने के लिए प्राकृतिक वातावरण में रहने का परामर्श दिया है। यह दोहा अवधी भाषा और तत्सम शब्दों से युक्त है। दृष्टांत अलंकार का प्रयोग हुआ है। गेयता का गुण है। दोहा छंद है।

प्रश्न 2.
धन रहीम जल कूप को, लघु जिय पियत अपाय।
उदधि बड़ाई कौन है, जगत् पिआसो जाय॥ (Page 2)

शब्दार्थ:

  • धन – धन्य।
  • कूप – कुआँ।
  • लघु – छोटा।
  • पियत – पीकर।
  • अपाय – तृप्त।
  • उदधि – समुद्र।
  • जगत् – संसार, दुनिया।

प्रसंग:
प्रस्तुत दोहा रहीमजी द्वारा रचित ‘रहिमन-विलास’ से लिया गया है। रहीमजी कहते हैं कि छोटा होने से किसी का महत्त्व कम नहीं हो जाता। मनुष्य को तृप्ति प्रदान करने वाली वस्तु ही महत्त्वपूर्ण होती है।

व्याख्या:
रहीमजी कह रहे हैं कि एक छोटे-से कुएँ का जल धन्य है क्योंकि उस छोटे आकार के कुएँ का जल पीने से प्राणी अपनी प्यास बुझाकर संतुष्ट हो जाते हैं। इसलिए उसका अपना महत्त्व है। इसके विपरीत सागर चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो, वह संसार की प्यास नहीं बुझा पाता है। इसलिए उसका कोई महत्त्व नहीं है। इस प्रकार जो दूसरों के काम आता है, वही बड़ा होता है। संतुष्ट करने वाली वस्तु ही महत्त्वपूर्ण होती है। अतः बड़े समुद्र की अपेक्षा छोटे कुएँ के जल का अधिक महत्त्व है।

विशेष:

  1. प्यासे को तृप्ति प्रदान करने वाले कुएँ का महत्त्व समुद्र से अधिक है।
  2. उदधि बड़ाई कौन में कथन की भंगिमा दर्शनीय है।
  3. अवधी भाषा है। दोहा, छंद है।
  4. वक्रोति और दृष्टांत अलंकार है।
  5. नीतिं संबंधी बातों को अत्यंत सहजता से कहां गया है।

काव्यांश पर आधारित विषय-वस्तु संबंधित प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
कवि ने कुएँ के जल को धन्य क्यों कहा है?
उत्तर:
कवि ने कुएँ के जल को धन्य कहा है, क्योंकि उसके जल को पीने से प्यासा तृप्त हो जाता है।

प्रश्न (ii)
सागर और कुएँ में से बड़ा कौन है?
उत्तर:
सागर और कुएँ में आकार की दृष्टि से सागर बड़ा है किंतु महत्त्व और उपयोगिता की दृष्टिं से कुआँ बड़ा है। जो दूसरों के काम आता है, वही बड़ा होता है। कुएँ का जल पीने से प्यासा संतोष का अनुभव करता है इसलिए कुआँ बना है।

प्रश्न (iii)
सागर बड़ा होने पर भी व्यक्ति की प्यास क्यों नहीं बुझा पाता?
उत्तर:
सागर बड़ा होता है। उसमें अथाह जल होता है, किंतु उसका जल खारा होता है और उस खारे जल से प्यास नहीं वुझाई जा सकती।

काव्यांश पर आधारित सौंदर्य-बोध संबंधित प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
दोहे का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भाव-सौंदर्य:
कवि ने इसमें बताया है कि छोटा होने से कोई कम महत्त्वपूर्ण नहीं हो जाता। कुआँ छोटे आकार का होता है, किंतु उसका जल पीने से प्यासे को संतोष का अनुभव होता है। अतः सागर की तुलना में कुएँ का महत्त्व अधिक है।

प्रश्न (ii)
काव्यांश का शिल्प-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्यासे को संतोष का अनुभव करने वाले कुएँ का महत्त्व सागर से अधिक है। ‘उदधि-बड़ाई कौन’ में कथन की भंगिमा देखने योग्य है। वक्रोति और दृष्टांत अलंकार है। अवधी भाषा है। दोहा, छंद है। नीति संबंधी बात को अत्यंत सहजता से व्यक्त किया गया है। पद में गेयता का गुण है।

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प्रश्न 3.
बसि कुसंग चाहत कुसल, यह रहीम जिय सोस।
महिमा घटी समुद्र की, रावन बस्यो परोस॥ (Page 16) (M.P. 2010)

शब्दार्थ:

  • बसि – बसना, रहना।
  • कुसंग – बुरी संगति।
  • कुसल – हित चाहना, कुशलता चाहना।
  • जिय – हृदय।
  • सोस – अफसोस।
  • महिमा – गर्व।
  • रावन – रावण।
  • परोस – पड़ोस में।

प्रसंग:
प्रस्तुत दोहा रहीमजी द्वारा रचित ‘रहिमन-विलास’ से लिया गया है। इसमें कवि ने कुसंगति के प्रभाव का वर्णन किया है। उनका कहना है कि कुसंग से यश में वृद्धि नहीं होती।

व्याख्या:
रहीमजी कहते हैं कि मनुष्य, दुर्जन लोगों की संगति करता है। वह बुरे लोगों के साथ रहने पर भी हृदय से अपनी कुशलता चाहता है, यह बड़े अफसोस अर्थात् दुख की बात है। लंका में रावण के रहने के कारण ही समुद्र की महिमा कम हुई; अर्थात् दुराचारी रावण के पास बसने पर ही समुद्र का बड़प्पन घटा। लंका पर चढ़ाई करने के लिए समुद्र में पुल बनाया गया। कहने का भाव यह है कि कुसंग से यश में वृद्धि नहीं होती, अपितु यश कम होता है। अतः कुसंगति से बचना चाहिए।

विशेष:

  1. कुसंगति के प्रभाव का वर्णन किया गया है।
  2. दोहा, छंद है और अवधी भाषा है।
  3. दृष्टांत अलंकार का प्रयोग किया गया है।
  4. नीति-रीति की बात को अत्यंत सहजता से व्यक्त करने की क्षमता देखने योग्य है।

काव्यांश पर आधारित विषय-वस्तु संबंधित प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
प्रस्तुत दोहे में किसके प्रभाव का वर्णन किया गया है?
उत्तर:
प्रस्तुत दोहे में कुसंगति के प्रभाव का वर्णन किया गया है। कुसंग के प्रभाव से यश में वृद्धि नहीं होती है।

प्रश्न (ii)
कवि ने किस बात पर दुख व्यक्त किया है?
उत्तर:
कवि इस बात पर दुख व्यक्त किया है कि मनुष्य बुरे लोगों की संगति करता है और हृदय से अपनी कुशलता चाहता है, जो असंभव है।

प्रश्न (iii)
रावण के पड़ोस में बसने का दंड किसे भोगना पड़ा था?
उत्तर:
रावण के पड़ोस में लसने का दंड समुद्र को भोगना पड़ा था। श्रीराम ने लंका पर आक्रमण के लिए समुद्र में पुल बनाया था।

प्रश्न (iv)
कवि ने किससे बचने का परामर्श दिया है?
उत्तर:
कवि ने कुसंगति से बचने का परामर्श दिया है।

काव्यांश पर आधारित सौंदर्य-बोध संबंधित प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
प्रस्तुत दोहे का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भाव-सौंदर्य:
मनुष्य को कुसंगति से बचना चाहिए, क्योंकि कुसंग में रहने से व्यक्ति के यश में कमी आती है। बुरे लोगों के साथ रहने वाले का कल्याण नहीं हो सकता। रावण के पड़ोस में रहने से समुद्र को दंड भुगतना पड़ा।

प्रश्न (ii)
प्रस्तुत दोहे का शिल्प-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कवि ने कुसंगति के प्रभाव का वर्णन किया है। दृष्टांत अलंकार है। नीति-रीति की बात को अत्यंत सहज ढंग से व्यक्त किया है। गेयता का गुण है। अवधी भापाहै।

प्रश्न 4.
रहिमन अँसुआ नैन ढरि, जिय दुख प्रगट करेइ।
जाहि निकारो गेह ते, कस न भेद कहि देइ॥ (Page 16)

शब्दार्थ:

  • अँसुआ – आँसू।
  • नैन – नेत्र, आँखें।
  • ढर – दुलकंकर।
  • जिय – हृदय।
  • गेह – गृह, घर।
  • कस – क्यों।

प्रसंग:
प्रस्तुत दोहा रहीमजी द्वारा रचित ‘रहिमन-विलास’ से लिया गया है। रहीमजी ने इस दोहे में आँसुओं के द्वारा मन का दुख प्रकट होने की बात से घर की बात घर के अंदर ही रखने का संदेश दिया है। घर का भेदी कभी अच्छा नहीं होता।

व्याख्या:
रहीमजी कहते हैं कि जिस प्रकार आँखों से आँसू निकलकर व्यक्ति के हृदय की पीड़ा को (दुख को) व्यक्त कर देते हैं। उसी प्रकार जब किसी को घर से निकाला जाता है, तो वह अपने घर के भेद को दूसरों को बता देता है।

विशेष:

  1. रामकथा में रावण द्वारा अपने छोटे भाई विभीषण को लंका से निकाल देने के प्रसंग की ओर संकेत किया गया है। विभीपण ने ही राम को लंका के सारे भेद और राटण की मृत्यु का भेद बताया था। इसी कारण यह कहावत प्रचलित हो गई-घर का भेदी लंका ढाए।
  2. दोहा, छंद है। अवधी भाषा है।
  3. नीति संबंधी बात को अत्यंत सहजता से व्यक्त करने की क्षमता दर्शनीय है।

काव्यांश पर आधारित विषय-वस्तु संबंधित प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
प्रस्तुत दोहे में कवि ने क्या संदेश दिया है?
उत्तर:
प्रस्तुत दोहे में कवि ने आँसुओं को आँखों में रोकने का संदेश देकर घर की बात घर में ही रखने का संदेश दिया है। घर का भेदी कभी अच्छा नहीं होता।

प्रश्न (ii)
इस दोहे में किस प्रसंग की ओर संकेत किया गया है?
उत्तर:
इस दोहे में कवि ने रावण द्वारा विभीषण को घर से निकाल देने के प्रसंग की ओर संकेत किया है।

काव्यांश पर आधारित सौंदर्य-बोध संबंधित प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
प्रस्तुत दोहे का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भाव-सौंदर्य:
कवि ने आँसुओं को आँखों में ही रोकने का परामर्श दिया है; क्योंकि जिस प्रकार आँखों के आँसू हृदय की वेदना को प्रदर्शित करते हैं उसी प्रकार घर से निकाला हुआ व्यक्ति घर की गोपनीय बातें दूसरों के समक्ष प्रकट कर देता है, इसलिए घर का भेदी कभी अच्छा नहीं होता।

प्रश्न (ii)
प्रस्तुत काव्यांश का शिल्प-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
शिल्प-सौंदर्य:
‘घर का भेदी लंका ढाए’ कहावत को चरितार्थ किया गया है। नीति संबंधी बातों को अत्यंत सहजता,से व्यक्त करने की क्षमता दर्शनीय है। गेयता का गुण है। दोहा, छंद है और अवधी भाषा है। रामायण के प्रसंग का सदुपयोग किया गया है।

प्रश्न 5.
जब लगि वित्त न आपने, तब लगि मित्र न कोय।
रहिमन अंबुज अंबु बिनु, रवि नाहिन हित होय॥ (Page 16)

शब्दार्थ:

  • लगि – तक।
  • वित्त – धन।
  • कोय – कोई भी।
  • अंबुज – कमल।
  • अंबु – पानी।

प्रसंग:
प्रस्तुत दोहा रहीमजी द्वारा रचित ‘रहिमन-विलास’ से लिया गया है। इस दोहे में कवि ने कहा है कि धन में ही मित्र बनाने की शक्ति होती है, किंतु क्या सभी मित्र, मित्रता की कसौटी पर खरे उतरते हैं ऐसा संभव नहीं।

व्याख्या:
रहीमजी कहते हैं कि जब तक व्यक्ति के पास न नहीं होता, तब तक कोई मित्र नहीं होता। अर्थात् जब व्यक्ति के पास धन आता है, तो अनेक लोग उसके मित्र बन जाते हैं, परंतु सभी मित्र, मित्रता पर खरे नहीं उतरते। जिस. प्रकार कमल पानी में उत्पन्न होता है किंतु पानी के बिना कमल उत्पन्न नहीं होता। पानी के बिना सूर्य भी उसकी भलाई नहीं कर सकता; अर्थात् जलहीन कमल की रक्षा सूर्य भी नहीं कर पाता। उसी प्रकार धनहीन का कोई मित्र नहीं होता।

विशेष:

  1. कवि ने धन के महत्त्व को प्रतिपादित किया है। उसे मित्र बनाने में सहायक बताया है।
  2. दोहा, छंद है। अवधी भाषा है।
  3. अंबुज अंबु, हित होय में अनुप्रास अलंकार है।
  4. दृष्टांत अलंकार का सुंदर प्रयोग किया गया है।
  5. नीति संबंधी बातों को अत्यंत सहजता से कह देने की क्षमता देखने योग्य है।
  6. साम्यभाव पंक्तियाँ:
    रहिमन संपति के सगे, बनत बहत बहरीत।
    विपत कसौटी जे कसे, तेई साँचे मीत॥

काव्यांश पर आधारित विषय-वस्तु संबंधित प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
कवि ने मित्र बनाने की शक्ति किसमें बताई है?
उत्तर:
कवि ने मित्र बनाने की शक्ति धन में बताई है क्योंकि धन आने पर मित्र बन जाते हैं। धन की महत्ता को प्रतिपादित किया गया है।

प्रश्न (ii)
जलहीन कमल की रक्षा कौन और क्यों नहीं कर पाता?
उत्तर:
कमल जल में उत्पन्न होता है, किंतु पानी के बिना कमल की रक्षा सूर्य भी नहीं कर पाता। ऐसा इसलिए कि जल ही कमल का जीवन है। वह तो पानी के बिना कमल मुरझाकर समाप्त हो जाएगा।

काव्यांश पर आधारित सौंदर्य-बोध संबंधित प्रश्नोतर

प्रश्न (i)
दोहे का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भाव-सौंदर्य:
कवि ने धन के महत्त्व को स्पष्ट किया है। व्यक्ति के पास धन आने पर अनेक मित्र बन जाते हैं, किंतु हर मित्र मित्रता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। धनविहीन व्यक्ति का कोई मित्र नहीं होता। जलहीन कमल की तो सूर्य भी रक्षा नहीं कर सकता।

प्रश्न (ii)
काव्यांश का शिल्प-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
शिल्प-सौंदर्य:
कवि ने धन के महत्त्व को प्रतिपादित किया है। अंवुज, अंबु, हित होय में अनुप्रास अलंकार है। दृष्टांत अलंकार का सुंदर प्रयोग किया गया है। अवधी भाषा है। दोहा, छंद है। नीति संबंधी बातों को अत्यंत सहजता से प्रकट किया गया है।

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प्रश्न 6.
अन कीन्ही बातें करै, सोवंत जागै जोय।
ताहि सिखाय जगायबो, रहिमन उचित न होय ॥ (Page 16)

शब्दार्थ:

  • अन कीन्ही – बिना कही हुई, बिना मतलब की, निरर्थक बातें।
  • सोवत-जागै – सोते-जागते हुए।
  • जोय – देखता है (जानता है)।
  • सिखाय – सिखाना।
  • जगायबो – सोते से उठाना, जागने को प्रेरित करना।
  • होय – होता है।

प्रसंग:
प्रस्तुत दोहा रहीमजी द्वारा रचित ‘रहिमन-विलास’ से लिया गया है। रहीमजी कहते हैं कि सोते-जागते हुए निरर्थक बातें करने वाला व्यक्ति को समझाना उचित नहीं है। यही नीति सम्मत बात उन्होंने इस दोहे में व्यक्त की है।

व्याख्या:
रहीमजी कहते हैं कि जो व्यक्ति सोते और जागते हुए अनकही अर्थात् निरर्थक बातें करता है, उस व्यक्ति को समझाना उचित नहीं होता है; क्योंकि ऐसे व्यक्ति को किसी भी प्रकार से समझाया नहीं जा सकता है।

विशेष:

  1. निरर्थक बातें करने वाले व्यक्ति को समझाना मुश्किल है। यह बात कवि ने इस दोहे में व्यक्त की है।
  2. दोहा, छंद है। अवधी भाषा है।
  3. ‘जागे-जोय’ में अनुप्रास अलंकार है।
  4. नीति सम्मत बात को अत्यंत सहजता से अभिव्यक्ति दी गई है।

काव्यांश पर आधा विषय-वस्तु संबंधित प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
कवि कैसे व्यक्ति को समझाना उचित नहीं समझता?
उत्तर:
कवि सोते-जागते, बिना सर-पैर की निरर्थक बातें करने वाले व्यक्ति को समझाना उचित नहीं मानता; क्योंकि ऐसे व्यक्ति को समझाना बड़ा कठिन होता है।

काव्यांश पर आधारित सौंदर्य-बोध संबंधित प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
दोहे का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भाव-सौंदर्य:
कवि ने नीति संबंधी विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि सोते-जागते हुए निरर्थक बातें करने वाले व्यक्ति को समझाना सच में ही कठिन है।

प्रश्न (ii)
दोहे का शिल्प-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
शिल्प-सौंदर्य:
नीति संबंधी गंभीर बातों को सहजता से व्यक्त किया गया है। ‘जागे-जोय’ में अनुप्रास अलंकार है। अवधी भाषा है। दोहा, छंद है। गेयता है।

प्रश्न 7.
देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन-रैन।
लोग भरम हम पै धरै, याते नीचे नैन॥ (Page 16) (M.P. 2012)

शब्दार्थ:

  • देनहार – देने वाला।
  • कोउ – कोई।
  • और है – दूसरा है।
  • भेजत – भेजता है।
  • दिन-रैन – दिन-रात।
  • भरम – संदेह।
  • याते – इसी कारण।

प्रसंग:
प्रस्तुत दोहा रहीमजी द्वारा रचित ‘रहिमन-विलास’ से लिया गया है। रहीमजी बड़े दानी थे। वे गरीबों को दान देते रहते थे। लोग भ्रमवश यह समझते थे कि रहीमजी ही देते हैं। इसी कारण उनकी आँखें सदा झुकी रहती थीं।

व्याख्या:
रहीमजी कहते हैं कि धन-संपत्ति देने वाला कोई दूसरा है; अर्थात् ईश्वर ही धन-संपत्ति देने वाले हैं और वह रात-दिन देते ही रहते हैं। रहीम उस धन-संपत्ति को दान में बाँटते रहते हैं। दान प्राप्त करने वाले भ्रमवश यह समझते हैं कि रहीमजी ही हमें देने वाले हैं। इसी कारण उनके नेत्र सदा नीचे झुके रहते हैं अर्थात् उनको ही अपना सब कुछ मानते थे।

विशेष:

  1. कवि ने अपनी आँखें झुके रहने का कारण स्पष्ट किया है। वह ईश्वर को ही देने वाला मानता है।
  2. दोहा, छंद है। अवधी भाषा है।
  3. ‘नीचे. नैन’ में अनुप्रास अलंकार है।
  4. दोहे में गेयता का गुण विद्यमान है।

काव्यांश पर आधारित विषय-वस्तु संबंधित प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
रहीमजी ने ‘देनहार कोउ और है’ के द्वारा किसकी ओर संकेत किया है?
उत्तर:
रहीमजी ने इसके द्वारा ईश्वर की ओर संकेत किया है। उनके अनुसार धन-सम्पत्ति देने वाले ईश्वर हैं, जो दिन-रात देते रहते हैं।

प्रश्न (ii)
रहीमजी के नेत्र नीचे क्यों झुके रहते थे?
उत्तर:
रहीमजी गरीबों को दान देते रहते थे। दान प्राप्त करने वाले भ्रमवश यह समझते थे कि रहीम ही हमें देने वाले हैं इसीलिए उनके नेत्र झुके रहते थे।

काव्यांश पर आधारित सौंदर्य-बोध संबंधित प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
प्रस्तुत दोहे का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भाव-सौंदर्य:
रहीमजी दानी थे। वे गरीबों को दान देते रहते थे। उनका मानना था कि ईश्वर ही देने वाले हैं, जबकि दान लेने वाले यह समझते थे कि रहीमजी ही दे रहे हैं। इस शर्म से उनके नेत्र झके रहते हैं।

प्रश्न (ii)
प्रस्तुत दोहे का शिल्प-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कवि ने आँखें झुके रहने का कारण स्पष्ट किया है। ‘नीचे नैन’ में अनुप्रास अलंकार है। दोहा, छंद है। अवधी भाषा है। सरल भाषा में कवि ने गंभीर भावों को व्यक्त किया है।

प्रश्न 8.
छिमा बड़ेन को चाहिए, छोटन को उत्पात।
का रहीम हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात॥ (Page 17)

शब्दार्थ:

  • छिमा – क्षमा करना।
  • बड़ेन – बड़े लोग।
  • छोटन – छोटे लोगों।
  • उत्पात – उपद्रव, ऊधम।
  • का – क्या।
  • घट्यो – कम हो गया।
  • हरि – भगवान विष्णु।
  • भृगु – एक षि जो ब्रह्मा के पुत्र माने जाते हैं।
  • लात – पैर।

प्रसंग:
प्रस्तुत दोहा रहीमजी द्वारा रचित ‘रहिमन-विलास’ से लिया गया है। कवि ने बड़े लोगों की क्षमा करने की प्रवृत्ति को ही उनके व्यक्तित्व की शोभा बताया –

व्याख्या:
रहीमजी कहते हैं कि बड़े लोगों के व्यक्तित्व की शोभा क्षमा से होती है, और छोटों अर्थात् बच्चों की ऊधम (उपद्रव) करने में होती है। बड़े लोगों को छोटों के उपद्रव को क्षमा कर देना चाहिए। इसमें उनका बड़प्पन है। इसमें उनकी शोभा है। रहीमजी कहते हैं कि भगवान विष्णु की कौन-सी कीर्ति कम हो गई जब भृगु ऋषि ने उन पर पैर से आघात किया। भृगु ऋषि भगवान विष्णु से छोटे थे, उनके ऊधम (गलती) भगवान ने उन्हें क्षमा कर दिया क्योंकि बड़े लोगों को क्षमा ही शोभा देती है।

विशेष:

  1. बड़े लोगों को छोटों को क्षमा करना ही शोभा देता है। यही भाव व्यक्त किया गया है।
  2. दोहा, छंद है। अवधी भाषा है।
  3. नीति संबंधी बातों को सहजता से कहने की क्षमता दर्शनीय है।
  4. उदाहरण अलंकार है।

काव्यांश पर आधारित विषय-वस्तु संबंधित प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
बड़े, लोगों के व्यक्तित्व की शोभा किससे होती है?
उत्तर:
बड़े लोगों के व्यक्तित्व की शोभा छोटे के उपद्रव को क्षमा करने से ही होती है।

प्रश्न (ii)
छोटों के प्रति बड़ों का क्या कर्तव्य है?
उत्तर:
छोटों के प्रति बड़ों का कर्तव्य है कि वे उनके ऊधम (गलती) को क्षमा कर दें। उनकी बातों को गंभीरता से न लें।

काव्यांश पर आधारित सौंदर्य-बोध संबंधित प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
प्रस्तुत दोहे का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भाव-सौंदर्य:
बड़े लोगों को छोटों को क्षमा करना ही शोभा देता है। यही उनके व्यक्तित्व की शोभा है और यही उनका कर्तव्य है।

प्रश्न (ii)
प्रस्तुत दोहे का शिल्प-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कवि ने बड़े सहज ढंग से बड़ों के प्रति कर्तव्य को समझाया है। उदाहरण अलंकार है। दोहा, छंद है। अवधी भाषा है। गेयता का गुण है।

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प्रश्न 9.
टूटे सुजन मनाइए, जौ टूटे सौ बार।
रहिमन फिरि-फिरि पोइए, टूटे मुक्ताहार॥ (Page 17)

शब्दार्थ:

  • सुजन – स्वजन (अच्छे लोग)।
  • पोइए – पिरोइए (पिरोते हैं)।
  • मुक्ताहार – मोतियों का हार।

प्रसंग:
प्रस्तुत दोहा रहीमजी द्वारा रचित ‘रहिमन-विलास’ से लिया गया है। इस दोहे में रहीम ने सज्जनों तथा अपने लोगों के रूठ जाने पर बार-बार मनाने पखल दिया है।

व्याख्या:
रहीमजी कहते हैं कि जिस प्रकार मोतियों के हार के टूट जाने पर मोतियों को फेंका नहीं जाता, बल्कि उन्हें बार-बार धागे में पिरोकर फिर से हार बना लिया जाता है, उसी प्रकारं श्रेष्ठ लोगों तथा अपने लोगों (कुटुम्बी, संबंधी, मित्र आदि) के रूठने या नाराज होने पर उन्हें हर बार मना लेना चाहिए। क्योंकि वे ही हमारे मार्गदर्शक तथा सुख-दुख के साथी होते हैं।

विशेष:

  1. बहुत सादा और सरल तरीके से लोक-व्यवहार की नीति को व्यक्त किया गया है।
  2. ‘सुजन’ में श्लेष अलंकार है।
  3. श्रेष्ठ मनुष्यों की मोतियों से उपमां सुंदर है। यहाँ उपमा अलंकार है। ‘फिरि-फिरि’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  4. दोहा, छंद है। अवधी भाषा है।

काव्यांश पर आधारित विषय-वस्तु संबंधित प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
कवि ने सज्जनों के प्रेम की क्या विशेषता बताई है?
उत्तर:
कवि ने सज्जनों के प्रेम की यह विशेषता बताई है कि उनका प्रेम टूटकर भी जुड़ जाता है।

प्रश्न (ii)
रहीमजी ने मनुष्य को क्या सलाह दी है?
उत्तर:
रहीमजी ने मनुष्य को सलाह दी है कि सज्जनों तथा अपने लोगों के रूट जाने पर उन्हें बार-बार मना लेना चाहिए।

प्रश्न (iii)
कवि ने सज्जनों के प्रेम की तुलना किससे और क्यों की है?
उत्तर:
कवि ने सज्जनों के प्रेम की तुलना मोतियों के हार से की है। जिस प्रकार मोतियों के हार के टूटने पर मोती फेंके नहीं जाते, उन्हें बार-बार धागे में पिरोकर फिर से हार बना लिया जाता है, उसी प्रकार श्रेष्ठ तथा अपने लोगों को नाराज होने पर मना लेना चाहिए।

काव्यांश पर आधारित सौंदर्य-बोध संबंधित प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
प्रस्तुत दोहे का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भाव-सौंदर्य:
रहीम ने सज्जनों तथा अपने कुटुंबी, संवंधी, मित्र आदि के नाराज होने पर उन्हें बार-बार मना लेने की सलाह दी है; क्योंकि सज्जनों का प्रेम टूटकर भी जुड़ जाता है।

प्रश्न (ii)
प्रस्तुत दोहे का शिल्प-सौंदर्य लिखिए।
उत्तर:
‘सुजन’ में श्लेष अलंकार है। श्रेष्ट व्यक्तियों का मोतियों से उपमा सुंदर है। उपमा अलंकार है। ‘फिरि-फिरि’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है। दोहा, छंद है। अवधी भाषा है। गेयता का गुण है।

प्रश्न 10.
रहिमन पानी राखिए, बिनु पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरै, मोती मानुष चून॥ (Page 17)

शब्दार्थ:

  • पानी – चमक, सम्मान, जल।
  • सून – सूना।
  • मानुष – मनुष्य।
  • चून – चूना।

प्रसंग:
प्रस्तुत दोहा रहीमजी द्वारा रचित ‘रहिमन-विलास’ से लिया गया है। इस दोहे में रहीम ने कहा है कि व्यक्ति को अपना आत्मसम्मान सदैव बनाए रखना चाहिए।

व्याख्या:
रहीमजी ने यहाँ पानी की तुलना चभक, सम्मान तथा जल से की है। पानी के बिना सब सूना है। पानी के बिना मोती, मनुष्य तथा चूना किसी काम के नहीं हैं। बिना चमक के मोती की कोई कीमत नहीं। चमकहीन माती को कोई नहीं पूछता। बिना सम्मान के मनुष्य जीवन का कोई महत्त्व नहीं है तथा बिना पानी के चूने का उपयोग नहीं किया जा सकता। अतः मनुष्य को सदा अपना आत्मसम्मान बनाए रखना चाहिए। सम्मानरहित मनुष्य का समाज में कोई महत्त्व नहीं होता।

विशेष:

  1. बहुत सहज ढंग से कवि ने आत्मसम्मान के महत्त्व को व्यक्त किया है।
  2. ‘पानी’ में श्लेष अलंकार है।
  3. ‘सब सून, मोती मानुष’ में अनुप्रास अलंकार है।
  4. दोहा, छंद है। अवधी भाषा है।

काव्यांश पर आधारित विषय-वस्तु संबंधित प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
प्रस्तुत दोहे में कवि ने मनुष्य को क्या संदेश दिया?
उत्तर:
प्रस्तुत दोहे में कवि ने मनुष्य को सदैव आत्मसम्मान बनाए रखने का संदेश दिया है; क्योंकि आत्मसम्मान रहित मनुष्य का समाज में कोई महत्त्व नहीं रह जाता। बिना आत्मसम्मान के मुनष्य समाज में नहीं जी सकता है।

प्रश्न (ii)
मोती, मनुष्य और चून के संबंध में पानी के महत्त्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पानी का प्रयोग तीन अर्थों में प्रयोग किया गया है। मोती के संबंध में, आत्मसम्मान और चूने के संबंध में जल, मोती चमक के अभाव में, मनुष्य आत्मसम्मान के बिना तथा जल के बिना चूना अपना महत्त्व खो देते हैं। तीनों के लिए पानी का बड़ा महत्त्व है।

काव्यांश पर आधारित सौंदर्य-बोध संबंधित प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
प्रस्तुत दोहे का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भाव-सौंदर्य:
मनुष्य को अपना आत्मसम्मान सदैव बनाए रखना चाहिए। आत्मसम्मान के बिना मनुष्य का समाज में वैसे ही महत्त्व घट जाता है, जिस प्रकार चमक के अभाव में मोती का और पानी के बिना चूने का। ये तीनों पानी के बिना व्यर्थ हैं।

प्रश्न (ii)
प्रस्तुत दोहे का शिल्प-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
शिल्प-सौंदर्य:
कवि ने अत्यंत सहज ढंग से आत्मसम्मान के महत्त्व को स्पष्ट किया है। ‘पानी’ में श्लेष अलंकार है। ‘सव सून, मोती मानुष’ में अनुप्रास अलंकार है। दोहा, छंद है। अवधी भाषा है। गेयता का गुण है। मुक्तक शैली है।

प्रश्न 11.
मथत-मथत माखन रहै, दही मही बिलगाय।
रहिमान सोई मीत है, भीर परे ठहराय॥ (Page 17)

शब्दार्थ:

  • मथत-मथत – मथ-मथकर।
  • मही – छाछ, मट्ठा, गोरस।
  • बिलगाय – अलग करना।
  • सोई – वही।
  • मीत – मित्र।
  • भीर – संकटकाल में।
  • ठहराय – ठहरता है।

प्रसंग:
प्रस्तुत दोहा रहीमजी द्वारा रचित ‘रहिमन-विलास’ से लिया गया है। इस दोहे में रहीम सच्चे मित्र की पहचान बता रहे हैं।

व्याख्या:
रहीमजी कहते हैं कि जिस प्रकार दही को मथ-मथकर छाछ या मट्ठे में से मक्खन निकालकर अलग कर लिया जाता है, उसी प्रकार अनेक मित्रों के मध्य सच्चे मित्र की अलग पहचान हो जाती है। जो मित्र संकट के समय मित्र के साथ खड़ा रहता है, उसका साथ नहीं छोड़ता, वही सच्चा मित्र होता है।

विशेष:

  1. कवि ने अत्यंत सहज ढंग से सच्चे मित्र की पहचान बताई है।
  2. मथत-मथत में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  3. ‘मथत-मथत माखन’ में अनुप्रास अलंकार है।
  4. दोहा, छंद है। अवधी भाषा है।

काव्यांश पर आधारित विषय-वस्तु संबंधित प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
कवि ने सच्चे मित्र की क्या पहचान बताई है?
उत्तर:
कवि ने सच्चे मित्र की यह पहचान बताई है कि सच्चा मित्र संकट के समय में भी मित्र के साथ खड़ा रहता है। संकट में मित्र को छोड़कर नहीं जाता है।

प्रश्न (ii)
सच्चे मित्र की तलना किससे की गई है?
उत्तर:
सच्चे मित्र की तुलना मक्खन से की गई है। जिस प्रकार दही को मथकर उसके बीच से मक्खन निकाल लिया जाता है, उसी प्रकार मित्रों के मध्य से सच्चे मित्र की भी अलग पहचान हो जाती है।

काव्यांश पर आधारित सौंदर्य-बोध संबंधित प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
प्रस्तुत दोहे का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भाव-सौंदर्य-दोहे में सच्चे मित्र की पहचान बताई गई है। सच्चा मित्र वही होता है जो संकट के समय में भी मित्र को नहीं छोड़ता, मित्र के साथ खड़ा रहता है।

प्रश्न (ii)
प्रस्तुत दोहे का शिल्प-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कवि ने अत्यंत सहज ढंग से सच्चे मित्र की पहचान बताई है। ‘मथत-मथत’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है। ‘मथत-मथत माखन’ में अनुप्रास अलंकार है। दोहा, छंद है। अवधी भाषा है। गेयता का गुण है।

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प्रश्न 12.
तौ ही लौ जीबोभलौ, दीबो होय न धीम।
जग में रहिबो कुचित गति, उचित न होय रहीम॥ (Page 17)

शब्दार्थ:

  • तों ही – जब तक ही।
  • जीबो -ज ीवित रहना।
  • भलौ – अच्छा है।
  • दीबो – देने की क्रिया या भाव।
  • धीम – धीमा, लुप्त।
  • जग – दुनिया, संसार।
  • कुचित – अनुचित।
  • होय – होता है।

प्रसंग:
प्रस्तुत दोहा रहीमजी द्वारा रचित ‘रहिमन-विलास’ से लिया गया है। इस दोहे में कवि ने जीवन की सार्थकता के संबंध में उचित-अनुचित को स्पष्ट किया है।

व्याख्या:
रहीमजी कहते हैं कि इस संसार में जीवित रहना तभी तक सार्थक रहता है जब तक देने का भाव बना रहता है। देने का भाव धीमा पड़ने या लुप्त हो जाने पर जीवित रहना अनुचित है। क्योंकि देने के भाव में ही जीवन की सार्थकता छिपी रहती है।

विशेष:

  1. कवि ने अपने जीवन अनुभव को बड़ी सरलता से व्यक्त किया है।
  2. जीवन की सार्थकता देते रहने में ही है।
  3. दोहा, छंद है। अवधी भाषा है।

काव्यांश पर आधारित विषय-वस्तु संबंधित प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
इस संसार में जीवित रहना कब तक उचित है?
उत्तर:
इस संसार में जीवित रहना तभी तक सार्थक रहता है जब तक व्यक्ति में देने का भाव बना रहता है। देने का भाव धीमा पड़ने या लुप्त हो जाने पर जीवित रहना अनुचित है। क्योंकि बिना इसके जीवन जीना पशु के जीवन जीने के समान है।

प्रश्न (ii)
जीवन की सार्थकता किसमें है?
उत्तर:
जीवन की सार्थकता देने के भाव में है, लेने के भाव में नहीं है।

काव्यांश पर आधारित सौंदर्य-बोध संबंधित प्रश्नोत्तर

प्रश्न (iii)
प्रस्तत दोहे का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भाव-सौंदर्य:
इस दोहे में कवि ने जीवित रहने की सार्थकता तभी तक बताई है जब तक व्यक्ति में देने का भाव बना रहे। देने का भाव समाप्त होने पर जीवित रहना अनुचित है।

प्रश्न (iii)
प्रस्तुत दोहे का शिल्प-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
शिल्प-सौंदर्य:
कवि ने अपने जीवन के अनुभव को बड़ी सरलता से व्यक्त किया है। सरल अवधी भाषा है। दोहा, छंद है। गेयता का गुण है। मुक्तक शैली है।

MP Board Class 12th Hindi Solutions

MP Board Class 12th Special Hindi काव्य-बोध छन्द

MP Board Class 12th Special Hindi काव्य-बोध छन्द

छन्द दो प्रकार के होते हैं :

  1. मात्रिक छन्द,
  2. वर्णिक छन्द।

(1) मात्रिक छन्द-पहले प्रकार के छन्द में मात्राएँ गिनी जाती हैं जिन्हें मात्रिक छन्द कहते हैं। इसमें इस प्रकार की मात्राएँ होती हैं
लघु मात्रा – ।
गुरु मात्रा – ऽ

लघु मात्रा को गिनते समय 1 और गुरु मात्रा को 2 माना जाता है। अब लघु और दीर्घ किसे कहेंगे। वह समझ लें।
“सानुस्वारश्च दीर्घश्च विसर्गी च गुरुर्भवेत्, वर्ण: संयोग पूर्वाश्च पादान्त गोऽपि वा।”

तात्पर्य यह कि बिना मात्रा या छोटी (ह्रस्व) मात्रा के अक्षर को लघु मानेंगे तथा अनुस्वार वाले, विसर्ग वाले, दीर्घ मात्रा वाले, संयुक्त अक्षर के पहले का अक्षर तथा कभी-कभी अन्तिम चरण का अन्तिम अभार ‘गुरु’ ऽ मात्रा वाला कहलाता है।

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जैसे-
।।। ऽ।। ऽ।
कमल यह 3 मात्रा मानेंगे। चंचल यह 4 मात्रा होगी। दुःख यह भी विसर्ग के कारण
ऽऽऽ
दो अक्षर होने पर 3 मात्रा गिनेंगे। सम्पत्ति = छ: मात्रा होंगी, क्योंकि स पर मात्रा नहीं है फिर भी आगे संयुक्त अभार होने से सऽ गुरु माना जायेगा।

(2) वर्णिक छन्द-वर्णिक छन्द में मात्रा तो वैसे ही गिनते हैं, किन्तु इसमें गण होते हैं। इसे आप इस सूत्र से याद रख सकते हैं :

  • ‘यमाताराजभानसलगा।
  • प्रत्येक गण तीन अक्षर होता है।
  • यगण (यमाता) ।ऽऽ
  • मगण (मातारा) ऽऽऽ
  • तगण (ताराज) ऽऽ।
  • रगण (राजभा) ऽ।ऽ
  • जगण (जभान) ।ऽ।
  • भगण (भानस) ऽ।।
  • नगण (नसल)।।।
  • सगण (सलगा)।।ऽ

और अन्त में ल= लघु के लिए एवं गा (गुरु के लिए) प्रयुक्त है।

1. कवित्त [2009, 16]

इसके अनेक रूप हैं। कवित्त या मनहरण के प्रत्येक चरण में इकत्तीस वर्ण होते हैं,सोलह और पन्द्रह वर्गों पर विराम होता है। चरण के अन्त में गुरु रहता है।

उदाहरण-
झहरि-झहरि झीनी बूंद हैं परति मानो,
घहरि-घहरि घटा घेरी है गगन में।
आनि कयौं स्याम मोसों चलौ झूलिबे को आज,
फूलि न समानी भई, ऐसी हौं मगन में।
चाहति उद्योई उठि गयी सो निगोड़ी नींद,
सोय गए भाग मेरे जागि वा जगन में।
ऑखि खोल देखौ तौ न घन हैं न घनस्याम,
वेई छाई बूंदें मेरे आँसू है दृगन में।

2. सवैया [2009]

सवैया गण छन्द है। बाइस से लेकर छब्बीस वर्षों तक के वृत्त सवैया कहलाते हैं। इस छन्द के मुख्य भेद मदिरा, चकोर,मत्तगयंद,अरसात, किरीट, दुर्मिल, सुन्दरी, मुक्तहरा आदि 7-8 प्रकार के होते हैं।

यहाँ दुर्मिल सवैया का उदाहरण दिया जा रहा है, जिसके प्रत्येक चरण में आठ सगण होते हैं। इसका दूसरा नाम ‘चन्द्रकला’ भी है।

उदाहरण-
पुर से निकसी रघुवीर-वधू धरि-धीर दये मग में डग द्वै।
झलकी भरि भाल कनी जल की, पुट सूखि गये मधुराधर द्वै।
फिर बूझति हैं चलनौ अब केतकि पर्णकुटी करिहौ कित है।
तिय की लखि आतुरता पिय की अँखियाँ अति चारु चली जल च्वै॥

(1) मत्तगयंद सवैया [2010, 12]
इसके प्रत्येक चरण में सात भगण और दो गुरु होते हैं।

उदाहरण-
या लकुटी अरु कमरिया पर राज तिहुँपुर को तज डारौं।
आठहुँ सिद्धि नवौं निधि को सुख नन्द की गाय चराइ विसारौं।
रसखान कबौं इन आँखिन सौं ब्रज के वन बाग तड़ाग निहारौं।
कौटिक हूँ कलधौत के धाम, करील के कुंजन ऊपर बारौं।।

(2) दुर्मिल सवैया दुर्मिल सवैया के हर चरण में आठ सगण पाये जाते हैं। वर्ण संख्या 24 मानी गयी है। इसका दूसरा नाम चन्द्रकला भी है।

उदाहरण-
इसके अनुरूप कहैं किसको, वह कौन सुदेश समुन्नत है।
समझे सुरलोक समान इसे, उनका अनुमान असंगत है।
कवि कोविद वृन्द बखान रहे, सबका अनुभूत यही मत है।
उपमान विहीन रचा विधि ने, बस भारत के सम भारत है।

3. छप्पय [2009]
छप्पय छन्द रोला और उल्लाला छन्दों के मिलने से बनता है। प्रथम चार चरण रोला छन्द के और शेष दो चरण उल्लाला छन्द के होते हैं। इस प्रकार,प्रथम चार चरणों में 24-24 मात्रायें होती हैं और 11-13 पर यति होती है। अन्तिम दोनों चरणों में 28-28 मात्रायें होती हैं और 15-13 पर यति होती है।

उदाहरण-
(1) सर्वभूत हित महामन्त्र का सबल प्रचारक।
सदय हृदय से एक-एक जन का उपकारक।
सत्यभाव से विश्व-बन्धुता का अनुरागी।
सकल सिद्धि सर्वस्व सर्वगत सच्चा त्यागी।
उसकी विचारधारा धरा के धर्मों में है वही। उल्लाला
सब सार्वभौम सिद्धान्त का आदि प्रवर्तक है वही॥

(2) नीलाम्बर परिधान, हरित पट पर सुन्दर है,
सूर्य-चन्द्र युग-मुकुट, मेखला रत्नाकर है।
नदियाँ प्रेम-प्रवाह, फूल तारे मण्डप है,
बन्दीजन खग-वृन्दृ शेष फन सिंहासन है।
करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस देश की,
हे मातृभूमि ! तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की।

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(3) निर्मल तेरा नीर अमृत के सम उत्तम है,
शीतल मन्द सुगन्ध पवन हर लेता श्रम है।
षट ऋतुओं का विविध दृश्ययुत अद्भुत क्रम है,
हरियाली का फर्श नहीं मखमल से कम है।
शुचि सुधा सींचता रात में, तुझ पर चन्द्रप्रकाश,
हे मातृभूमि दिन में परणि करता तम का नाश।

MP Board Class 12th Hindi Solutions

MP Board Class 12th Special Hindi काव्य-बोध अलंकार

MP Board Class 12th Special Hindi काव्य-बोध अलंकार

1. यमक अलंकार।

यमक का सामान्य अर्थ है दो। अत: जब एक ही शब्द की भिन्न अर्थ में आवृत्ति होती है, वहाँ यमक अलंकार होता है।
जैसे-

(1) कनक-कनक ते सौ गुणी मादकता अधिकाय।
या पाये बौरात नर वा खाये बौराय॥ [2014]

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यहाँ कनक शब्द दो बार आया है। एक कनक का अर्थ है सोना और दूसरे कनक का अर्थ है धतूरा।

(2) मूरति मधुर मनोहर देखी।
भयउ विदेह विदेह विसेखी।

जहाँ एक विदेह का अर्थ है राजा जनक और दूसरे विदेह का अर्थ है देह रहित अर्थात् शरीर की सुधबुध खो देना।

(3) ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहनहारी,
ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहाती हैं।
कन्द-मूल भोग करें, कन्द मूल भोग करें,
तीन बेर खाती थीं वे तीन बेर खाती हैं।
भूखन सिथिल अंग, भूखन सिथिल अंग,
विजन डुलाती थीं वे विजन डुलाती हैं।
भूखन भणत सिवराज वीर तेरे त्रास,
नगन जड़ाती थीं वे नगन जड़ाती हैं।

पद या वाक्य खण्ड बार-बार आये पर अर्थ भिन्न हो।

(4) बसन हमारौ, करहु बस; बस न लेहु प्रिय लाज,
बसन देहु ब्रज में हमें, बसन देहु ब्रजराज।

यहाँ बस और बस में अधिकार तथा समाप्ति का अर्थ है। बसन अर्थात् वस्त्र और बसन-निवास करना।

यमक का प्रयोग कभी-कभी एक-से पदों को भंग करके उनके अर्थ करने में होता है।

जैसे-
वर जीते सर मैन के ऐसे देखे मैं न।
हरिनी के नैनान तें हरी नीके ये नैन।

मैन = कामदेव। मैं न = मैंने नहीं। हरिणी = मृगी के। हरी नीके = हरि (कृष्ण) अच्छे हैं।

2. श्लेष अलंकार

काव्य में जहाँ एक शब्द के एक से अधिक अर्थ निकलते हैं वहाँ श्लेष अलंकार होता है। श्लेष शब्द का अर्थ है चिपका हुआ अर्थात् एक से अधिक अर्थ चिपके रहते हैं। जैसे
(1) रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे मोती मानस चून॥ [2015]

इस दोहे में पानी के तीन अर्थ हैं।
1. मोती का पानी = मोती की आभा या चमक।
2. मनुष्य का पानी = मनुष्य की आभा या चमक प्रतिष्ठा।
3. चूने का पानी = चूने में पानी (बिना पानी के चूना सूखकर व्यर्थ हो जाता है)।

(2) चरण धरत चिला करत चितवत चारिहूँ ओर।
सुबरन की चोरी करत कवि व्यभिचारी चोर॥

यहाँ ‘चरण’ और ‘सुबरन’ में श्लेष है।

(3) अज्यौं तरौ ना ही रह्यो, स्रुति सेवत इक अंग।
नाक बास बेसर लह्यौ, बसि मुकतनु के संग॥

इसमें इस प्रकार दो अर्थ हैं। तरौ ना ही = तरौना नामक कर्णाभूषण तथा तरा नहीं = मोक्ष नहीं पाया। स्रुति = वेद,कान। नाक = नासिका,स्वर्ग। बेसर = नथ कान का आभूषण, अनुपम। मुकतनु = मोती, मुक्त पुरुषों के संग।

(4) चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गम्भीर।
को घटि ये वृषभानुजा, ये हलधर के बीर।

1. वृषभ+ अनुजा = बैल की बहन।
2. वृषभानु + जा = वृषभानु की पुत्री राधा।
3. हलधर के बीर = हल धारण करने वाले बैल के भाई। हलधर के बीर = बलदाऊ के भाई कृष्ण। राधा कृष्ण से परिहास किया है।

(5) गुन ते लेत रहीमजन सलिल कूप ते काढ़ि।
कूपहूँ ते कहुँ होत है, मन काहुँ को बाढ़ि।
यहाँ गुन शब्द के दो अर्थ हैं-सद्गुण और रस्सी।

3. व्याजस्तुति। [2011, 13, 16]

जिस वर्णन में देखने में तो निन्दा-सी प्रतीत होती है,पर वास्तव में उसके विपरीत स्तुति का तात्पर्य हो उसे व्याजस्तुति अलंकार कहते हैं। व्याज अर्थात् बहाने, स्तुति यानी प्रशंसा।
जैसे-
“जमुना तुम अविवेकिनी,
कौन लियौ यह ढंग।
पापिन सौं निज बन्धु को,
मान करावति भंग॥”

इस वर्णन में शब्दों के अर्थों से तो यमुनाजी की निन्दा प्रतीत होती है,जो पापियों से अपने भाई यमराज का मान भंग कराती है,पर वास्तव में पुण्य-सलिला यमुना की महिमा का वर्णन है, जिसमें स्नान करने से पापियों के पापों का हरण हो जाता है और वे यमलोक या नरक में नहीं जाते।

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4. व्याजनिन्दा [2011]

जिस वर्णन में देखने में स्तुति प्रतीत हो,पर वास्तव में उसमें विपरीत निन्दा का तात्पर्य हो, उसे व्याजनिन्दा अलंकार कहते हैं। जैसे
नाक कान बिनु भगिनि तिहारी,
छमा कीन्ह तुम धर्म विचारी।
लाजवन्त तुम सहज सुभाऊ,
निज गुन निज मुख कहसिन काऊ॥

हनुमानजी के इस कथन से स्तुति-सी प्रतीत होती है, पर यथार्थ में इसमें कायर और निर्लज्ज होने का तात्पर्य निकलता है, जिसमें निन्दा है।

5. अन्योक्ति

जहाँ किसी अन्य व्यक्ति या वस्तु को लक्ष्य में रखकर कोई बात किसी दूसरे के लिए कही जाती है, वहाँ अन्योक्ति अलंकार होता है। जैसे
(1) स्वारथ सुकृत न श्रम वृथा देखि विहंग विचारि।
बाज पराए पानि परि तूं पच्छीनु न मारि॥

हे बाज पक्षी ! रों के हाथ में पड़कर पक्षियों को मत मार। इससे तेरा न तो कोई स्वार्थ सिद्ध होता है और न तुझे पुण्य मिलता है। तेरा यह श्रम व्यर्थ ही है।

बिहारी कवि का यह कथन राजा जयसिंह के लिए है,जो औरंगजेब की ओर से हिन्दुओं के विरुद्ध युद्ध करते थे। सीधे न कहकर भ्रमर के माध्यम से कहा है :

(2) नहीं परागु, नहिं मधुर-मधु, नहिं विकास, इहिं काल।
अली कली ही सौं बिंध्यौ, आगे कौन हवाल॥

(3) करि फुलैल की आचमनु मीठो कहत सराहि।
ए गन्धी ! मतिमन्ध तू इतर दिखावत काहि।

यहाँ कवि का प्रस्तुत विषय तो यह है कि कोई गुणी व्यक्ति मूों के समाज में पहुँच गया है और उन मों को उपदेश दे रहा है जो उसे समझते नहीं। पर कवि इस बात को सीधे न कहकर किसी इत्र बेचने वाले के माध्यम से कह रहा है।

(4) माली आवत देखकर कलियन करी पुकार।
फूले-फूले चुन लिए, कालि हमारी बार॥

यहाँ कबीरदास जी ने नश्वर जीवन के बारे में कली और फूल के माध्यम से अपनी बात कही है। एक न एक दिन सबको जाना है।

6. विभावना [2010]

जहाँ कारण के बिना या कारण के विपरीत कार्य की उत्पत्ति का वर्णन किया जाये, वहाँ विभावना अलंकार होता है। जैसे

(1) बिनु पद चलै, सुने बिनु काना,
कर बिनु करम करै विधि नाना।
आनन-रहित सकल रस भोगी,
बिनु बानी बकता बड़ जोगी।

चलना, सुनना,करना और खाना ये सब पैर,हाथ,कान,सुख के काम हैं। यहाँ बिना कारण के कार्य है।

(2) सखि, इन नैनन,ते घन हारे,
बिनु ही रितु बरसत निसि-बासर, सदा मलिन दोऊ तारे।

यहाँ पर वर्षा ऋतु के न होने पर भी नेत्रों से आँसुओं की वर्षा हो रही है।

(3) बिनु घनस्याम धामु धामु ब्रज मण्डल के
ऊधो नित बसति बहार वर्षा की।

वर्षा के लिए मेघों का कारण आवश्यक है परन्तु यहाँ बिना बादलों के ही ब्रज के घर-घर में वर्षा होती है। यहाँ घनश्याम से अर्थ श्रीकृष्ण तथा घने श्यामवर्ण बादल से है।

7. व्यतिरेक।

जहाँ उपमेय को उपमान से भी श्रेष्ठ बताया जाये,वहाँ व्यतिरेक अलंकार होता है। जैसे
(1) स्वर्ग की तुलना उचित ही है यहाँ,
किन्तु सुरसरिता कहाँ, सरयू कहाँ?
वह मरों को मात्र पार उतारती,
यह यहीं से जीवितों को तारती।

(2) जनम सिन्धु पुनि बन्धु विषु,
दिन मलीन सकलंक॥
सिय मुख ममता पाव किमि,
चन्द बापुरो रंक॥

(3) सन्त-हृदय नवनीत समाना,
कहौं कवनि पर कहै न जाना।
निज परिताप द्रवै नवनीता,
पर दुःख द्रवै सुसंत पुनीता॥

यहाँ सन्तों (उपमेय) को नवनीत (उपमान) से श्रेष्ठ प्रतिपादित किया गया है।

(4) सिय सुबरन, सुखमाकर, सुखद न थोर
सीय अंग सखि ! कोमल कनक कठोर।

यहाँ सीता के शरीर को सुवर्ण के समान बताकर भी सीता के अंग में स्वर्ण की अपेक्षा कोमलता की विशेषता बतायी है।

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(5) सिय मुख सरद कपल जिमि किमि कहि जाय।
निसी मलीन वह निसिदन यह विगसाय।

शरद कमल तो रात्रि में मुरझा जाता है किन्तु सीता का मुख दिन-रात खिला रहता है।

8. विशेषोक्ति [2010]

जहाँ कारण के उपस्थित होने पर भी कार्य नहीं होता,वहाँ विशेषोक्ति अलंकार होता है।

जैसे-
(1) अब छूटता नहीं छुड़ाये, रंग गया हृदय है ऐसा,
आँसू से धुला निखरता यह रंग अनौखा कैसा।

(2) इन नैननि को कछु उपजी बड़ी बलाय,
नीर भरे नित प्रति रहें, तऊ न प्यास बुझाय।

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MP Board Class 12th Special Hindi काव्य-बोध रस

MP Board Class 12th Special Hindi काव्य-बोध रस

भारतीय जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में ‘रस’ शब्द का प्रयोग सर्वोत्कृष्ट तत्त्व के लिए होता है। खाद्य पदार्थों और फलों के क्षेत्र में रस मधुरतम तरल पदार्थ का द्योतक है। संगीत के क्षेत्र में कर्णेन्द्रिय द्वारा प्राप्त ‘आनन्द’ का नाम ‘रस’ है। अध्यात्म के क्षेत्र में स्वयं परमात्मा को ही रस माना है या रस को ही परमात्मा घोषित किया है-“रसौ वै सः” अर्थात् रस ही परमात्मा है। इसी प्रकार साहित्य के क्षेत्र में भी काव्य के आस्वादन से प्राप्त आनन्दानुभूति को ही रस की संज्ञा दी गयी है। काव्यानन्द को ही ‘रस’ कहा गया है।

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रस के अवयव अथवा रस-निष्पत्ति

स्थायीभाव आश्रय के हृदय में आलम्बन के द्वारा उत्तेजित होकर उद्दीपन के प्रभाव से उद्दीप्त होकर, संचारी भावों से पुष्ट होता हुआ अनुभावों के माध्यम से व्यक्त होता है। जब काव्यगत स्थायी भाव की अनुभूति पाठक को होती है तो वही रसानुभूति’ या ‘रस-निष्पत्ति’ कहलाती है।

भरत मुनि ने कहा है–“विभावानुभावव्यभिचारी संयोगाद्रसनिष्पत्तिः।” भावों के उद्वेलन के लिए उसके चार अवयव हैं-

  1. स्थायी भाव,
  2. विभाव,
  3. अनुभाव,
  4. संचारी या व्यभिचारी भाव।

उत्तेजना के मूल कारण को विभाव कहते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं-आलम्बन और उद्दीपन। मानव हृदय में भावनाओं का प्रस्फुटन किसी बाह्य वस्तु, दृश्य या किसी परिस्थिति विशेष की कल्पना द्वारा ही होता है। इसी प्रमुख कारण को आलम्बन कहते हैं। भावोद्वेलन के लिए परिस्थिति की अनुकूलता भी अपेक्षित है। इसी को ‘उद्दीपन’ कहा जाता है। आलम्बन यदि आग है, जो अंगारे के रूप में आग लगाता है, तो उद्दीपन हवा की भाँति अनुकूलता बढ़ाती है। जिस व्यक्ति के हृदय में उसका प्रभाव होता है, उसे आश्रय कहा जाता है। इन भावनाओं के परिवर्तन के द्योतक चिह्नों को अनुभाव की संज्ञा दी गयी है। हृदय में रहने वाले भावों की व्यंजना अनुभावों के माध्यम से होती है। भावनाओं का रूप अत्यन्त सूक्ष्म होता है जिनका वर्णन काव्य में नहीं किया जा सकता। अतः काव्य में अनुभावों की व्यंजना आवश्यक मानी गयी है। “एक ही स्थायी भाव के बीच-बीच में परिस्थितिवश अनेक भावों का भी संचार होता है। इन्हें संचारी भाव कहते हैं।” संचारी भाव स्थायी भाव के विकास में सहायक होते हैं। किन्तु यदि प्रतिकूल रूप में हों तो वे बाधक बन जाते हैं।

स्थायी भाव-मानव-हृदय में वासना-रूप में रहने वाले मनोविकारों को काव्य में ‘स्थायी. भाव’ कहा जाता है। ये स्थायी भाव स्थायी रूप से चित्त में स्थित रहते हैं, इसी कारण इन्हें स्थायी भाव कहते हैं।

जैसे-
प्रीति, हँसी, अरु, सोक पुनि, रिस, उछाह भै भित्त।
घिन, बिसमै, थिर भाव ए, आठ बसें सुभचित।

इन आठ स्थायी भावों के अतिरिक्त एक और भी स्थायी भाव है-निर्वेद। इस प्रकार कुल मिलाकर निम्नलिखित नौ स्थायी भाव हैं, जो रसों में इस प्रकार स्थित हैं-
MP Board Class 12th Special Hindi काव्य-बोध रस 1

आचार्यों ने दसवाँ रस वात्सल्य रस’ माना है जिसका स्थायी भाव सन्तान प्रेम है।

संचारी भाव-

ये तैंतीस माने गये हैं,जो निम्नलिखित हैं
ग्लानि, दैन्य अरु शंका,श्रम, मन्द और अमर्ष।
स्वप्न, मोह, शान्त, चिन्ता, त्रास, उग्रता, हर्ष।
आवेग अरु निद्रा, स्मृति, जड़ता ब्रीड़ा, धर्म।
अपस्मार, वितर्क, मरण, व्याधि और चापल्य।
अवहित्था, आलस्य पुनि, गर्व,विबोध, विषाद।
औत्युक्य, अरु असूया, निर्वेद अरु उन्माद।

रस के भेद
1. शृंगार रस

शृंगार का आधार प्रेम-भाव है। शृंगार को रसराज कहा है। इसमें नारी-पुरुष के अनुराग का वर्णन आता है।

इसके संयोग और वियोग के कारण दो भेद होते हैं-
(1) संयोग शृंगार,
(2) विप्रलम्भ या वियोग श्रृंगार।

(1) संयोग श्रृंगार स्थायी भाव-रति। आलम्बन नायक या नायिका। उद्दीपन नायक या नायिका का मोहक रूप, एकान्त, नदी का किनारा, चाँदनी रात, फुलवारी आदि। अनुभाव-अपलक निहारना, रोमांच दर्शन, स्पर्श, स्वर-भंग, हास्य कटाक्ष, संकेत, मुस्काना आदि। संचारी भाव हर्ष,संकोच आदि।

उदाहरण-
(1) राम को रूप निहारति जानकी, कंकन के नग की परछाहीं।
यातें सबै सुधि भूलि गयी, कर टेकि रही पल टारत नाहीं।

स्थायी भाव-रति। आश्रय-सीता। आलम्बन-राम। उद्दीपन-राम का रूप। अनुभाव रूप निहारना, सुधि भूल जाना। संचारी भाव-सुधि भूलना।
(2) एक पल मेरे प्रिया के दृग-पलक
थे उठे ऊपर सहज नीचे गिरे
चपलता ने इस विकंपित पुलक से
दृढ़ किया मानो प्रणय सम्बन्ध था।

स्थायी भाव रति। आलम्बन–धरातल। उद्दीपन-निशा-सेज। अनुभाव-बैठना, संकुचित होना,मान करना,स्मरण करना। संचारी भाव- हृदय में हलचल।

(3) एक बार चुनि कुसुम सुहाये
निजकर भूषन राम बनाये।
सीतहिं पहिराये प्रभुनागर
बैठे फटिक सिला परमादर।

(2) वियोग शृंगार

उदाहरण-
(1) उनका यह कुंज-कुटीर, वहीं झरना उडु, अंशु अबीर जहाँ,
अलि कोकिल, कीर शिखी सब हैं, सुन चाकत की रहि पीव कहाँ?
अब भी सब साज-समान वही, तब भी सब आज अनाथ यहाँ,
सखि, जा पहुंचे सुधि-संग वही, यह अन्ध सुगन्ध समीर वहाँ।

स्थायी भाव-रति। आश्रय-यशोधरा। आलम्बन-सिद्धार्थ। उद्दीपन–कुंज कुटीर, किरणे कोकिल, भौंरों, पपीहे की ध्वनि। अनुभाव-विषाद भरे स्वर में कथन। संचारी भाव-स्मृति, मोह, विषाद, धृति हैं।

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(2) कबहुँ नयन मम सीतल ताता,
होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता।
वचन न आव नयन भरे बारी।
अतह नाथ मुहिं निपट बिसारी।

(3) बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजैं।
तब ये लता लगत अति शीतल, अब भई विषम ज्वाल की पुंजें।

2. हास्य रस।

सहृदय के हृदय में स्थित हास्य नामक स्थायी भाव का जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से संयोग हो जाता है तो वह हास्य रस कहलाता है।

उदाहरण-
(1) इस दौड़-धूप में क्या रखा आराम करो, आराम करो।
आराम जिन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है।
आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है।
आराम शब्द में राम छिपा, जो भव-बन्धन को खोता है।
आराम शब्द का ज्ञाता तो बिरला ही योगी होता है।
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो।

यहाँ हास स्थायी भाव, हास्य पात्र आलम्बन, व्यंगोक्ति उद्दीपन विभाव, खिलखिलाना अनुभाव एवं हर्ष,चपलता,निर्लज्जता संचारी भाव हैं।

(2) विन्ध्य के वासी उदासी तपोव्रतधारी महा बिनु नारि दुखारे।
गौतम तिय तरी, तुलसी सो कथा सुनि भे मुनि वृन्द सुखारे।
है हैं सिला सब चन्द्रमुखी परसे पद मंजुल कंज तिहारे।
कीन्हीं भली रघुनायक जू ! करुना करि कानन को पगु धारे।

3. करुण रस [2009]

सहदय के हृदय में शोक नामक स्थित भाव का जब विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के साथ संयोग होता है तो वह करुण रस का रूप ग्रहण कर लेता है।
उदाहरण-
(1) जा थल कीन्हें बिहार अनेकन ता थल काँकरि बैठि चुन्यौ करै।
जा रसना ते करी बहुबातन ता रसना ते चरित्र गुन्यों करै।
‘आलम’ जौन से कुंजन में करि केलि तहाँ अब सीस धुन्यों करै।
नैनन में जो सदा रहते तिनकी, अब कान कहानी सुन्यौ करे।

स्थायी भाव-शोक। आश्रय-प्रियतमा। आलम्बन-प्रिय मरण। उद्दीपन-दयनीय दशा, करुण विलाप। अनुभाव-अश्रु, निःश्वास, प्रलाप। संचारी भाव-स्मृति, दैन्य, आवेश, विषाद।

(2) अभी तो मुकुट बंधा था माथ
हुए कल ही हल्दी के हाथ।
खिले भी न थे लाज के बोल।
खिले भीन चुम्बन-शून्य कपोल।
हाय ! रुक गया यही संसार,
बना सन्दूर अंगार।

(3) प्रिय पति वह मेरा प्राण-प्यारा कहाँ है?
दुःख जलनिधि डूबी का सहारा कहाँ है !
लख सुख जिसका मैं आज लौ जी सकी हूँ
वह हृदय हमारा नैन-तारा कहाँ है?

(4) फिर पीटकर सिर और छाती अश्रु बरसाती हुई।
कुररी सदृश सकरुण गिरा से दैत्य दरसाती हुई।
बहुविध विलाप प्रलाप वह करने लगी उस शोक में।
निज प्रिय वियोग समान दुःख होता न कोई लोक में।

(5) देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिके करुणानिधि रोए।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैननि के जल सों पग धोए।

4. वीर रस

सहृदय के हृदय में स्थित उत्साह नामक स्थायीकरण का जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से संयोग हो जाता है,तो वह वीर रस का रूप ग्रहण कर लेता है। वीर रस’ में वीरता, बलिदान,राष्ट्रीयता जैसे सदगुणों का संचार होता है। दान, दया,धर्म,युद्ध एवं वीरता के भाव वीर रस की विशेषताएँ हैं।

उदाहरण-
(1) देखि पवनसुत कटक बिसाला। क्रोधवन्त जनु धायउ काला।
महा सैल इक तुरत उखारा। अति रिस मेघनाद पर डारा।

(2) सिंहासन हिल उठे,राजवंशों ने भृकुटी तानी थी।
बूढ़े भारत में भी आई,फिर से नई जवानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो, झाँसी वाली रानी थी।

स्थायी भाव-उत्साह। आश्रय हनुमान। आलम्बन-मेघनाथ। उद्दीपन-कटक की विह्वल दशा। अनुभाव-महान् शैल को उखाड़ना और फेंकना। संचारी भाव-स्वप्न की चिन्ता, शत्रु पर रिस (क्रोध, अमर्ष),उग्रता तथा चपलता।

5. रौद्र रस

सहृदय का क्रोध नामक स्थायी भाव विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से रौद्र रस का रूप ग्रहण कर लेता है।

उदाहरण-
श्रीकृष्ण के सुन वचन, अर्जुन क्रोध से जलने लगे।
सब शोक अपना भूलकर, करतल-युगल मलने लगे।
संसार देखे अब हमारे, शत्रु रण में मृत पड़े।
करते हुए यह घोषणा, वे हो गये उठकर खड़े।
उस काल मारे क्रोध के तन काँपने उनका लगा।
मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा॥

स्थायी भाव क्रोध। आश्रय-अर्जुन। आलम्बन-शत्रु। अनुभाव-क्रोधपूर्ण घोषणा, शरीर काँपना। उद्दीपन श्रीकृष्ण के वचन। संचारी भाव-आवेग, चपलता,श्रम,उग्रता आदि।

6. भयानक रस

भय नामक स्थायी भाव का जब विभाव,अनुभाव,संचारी भाव से संयोग होता है, तब वह भयानक रस का रूप ग्रहण कर लेता है।

उदाहरण-
(1) नभ से झपटत बाज लखि, भूल्यो सकल प्रपंच।
कंपति तन व्याकुल नयन,लावक हिल्यो न च॥

स्थायी भाव-भय। आश्रय लावा पक्षी। आलम्बन-बाज। उद्दीपन-बाज का झपटना। अनुभाव-शरीर का काँपना,नेत्रों की व्याकुलता। संचारी भाव-दैन्य,विषाद,काँपना, अपने स्थान से रंचमात्र नहीं हिलना, अर्थात् मूर्छा की,जड़ता की स्थिति।

(2) लपट कराल, ज्वाल, माल चहुँ दिशि
धूम अकुलाने, पहिचाने कौन काहि रे।

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7. वीभत्स रस

सहदय के हृदय में स्थित जुगुप्सा (घृणा) नामक स्थायी भाव का जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से संयोग हो जाता है तो वह वीभत्स रस का रूप ग्रहण कर लेता है।

उदाहरण-
(1) सिर पर बैठ्यो काग, ऑखि दोऊ खात निकारत।
खींचत जीभहिं स्यार, अतिहि आनन्द उर धारत॥
बहु चील्ह नोच लै जात मोद बढ़ौ सब को हियौ।
मनु ब्रह्म भोज जिजमान कोऊ आज भिखारिन कह दियो।

(2) कोउ अंतड़िन की पहिरिमाल इतरात दिखावत।
कोउ चरबी लै चोप सहित निज अंगनि लावत॥
कोउ मुण्डनि लै मानि मोद कन्दुक लौं डारत।
कोउ रुंडनि पै बैठि करै जौ फारि निकारत।

स्थायी भाव-जुगुप्सा (घृणा)। आलम्बन श्मशान का दृश्य। उद्दीपन-अंतड़ी की माला पहनना, चर्बी शरीर पर पोतना, नर-मुण्डों को गेंद की तरह उछालना,धड़ पर बैठकर कलेजा फाड़कर निकालना उद्दीपन विभाव हैं। संचारी भाव-निर्वेद ग्लानि,दीनता से संचारी भाव हैं।

8. अदभुत रस [2009]

विस्मय नामक स्थायी भाव विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से संयुक्त होकर जिस भाव का उद्रेक होता है वह अद्भुत रस ग्रहण कर लेता है।।

उदाहरण-
अखिल भुवन चर-अचर सब, हरिमुख में लखि मातु।
चकित भई गद्गद् वचन, विकसित दृग पुलकातु॥

भगवान श्रीकृष्ण के मुख में सम्पूर्ण विश्व के दर्शन करने के बाद माता यशोदा आश्चर्यचकित रह गयीं।

स्थायी भाव-विस्मय। आलम्बन श्रीकृष्ण का मुख। आश्रय-माता यशोदा। उद्दीपन-मुख में भुवनों का दिखना। अनुभाव-नेत्र विकास, गद्गद् स्वर,रोमांच, बुद्धि का नष्ट हो जाना। संचारी भाव त्रास और जड़ता, चेतना खोना (मूर्छा की स्थिति) और नेत्र अचंचल होना।

9. शान्त रस [2009]

इसका स्थायी भाव निर्वेद है। सांसारिक सुख तथा देह की क्षणभंगुरता का ज्ञान, सन्त समागम, शास्त्र चिन्तन और योग आदि उसके विभाव हैं। सब प्राणियों पर दया, परमानन्द की उपलब्धि से मग्नता और आप्तकाम होकर असंग रहना इसके अनुभाव हैं। मति, धृति और हर्ष आदि इसके संचारी भाव हैं।

उदाहरण-
(1) मन रे ! परस हरि के चरण
सुभग सीतल कमल कोमल,
त्रिविध ज्वाला हरण।

(2) सुत बनितादि जानि स्वारथरत न करह नेह सबही ते।
अन्तहि तोहि तजेंगे पामर ! तू न तजै अबही ते॥
अब नाथहिं अनुराग जागु जड़, त्यागु दुरासा जी ते।
बुझे न काम-अगिनि तुलसी कहूँ विषय भोग बहु घी ते।।

निर्वेद स्थायी भाव है। अनित्य संसार आलम्बन। भक्त हृदय-आश्रय। उद्दीपन है-अनुराग, भोग,विषय,काम। उन्हें छोड़ देने का कथन अनुभाव है। धृति,मति, विमर्ष संचारी भाव हैं।

3) बन बितान रवि सीस दिया,
फल भख सलिल प्रवाह।
अवनि सेज पंखा पवन,
अब न कछू परवाह ॥

10 वात्सल्य रस

सहृदय के मन में वात्सल्य-प्रेम नामक स्थायी भाव से जब अनुभाव, विभाव और संचारी भाव मिलते हैं, तब वह वात्सल्य रस का रूप ग्रहण कर लेता है।

उदाहरण-
(1) बैठि सगुन मनावति माता।
कब ऐहें मेरे लाल कुसल घर, कहह काग फुरि बाता।
दूध-भात की दोनी दैहों, सोने चोंच महों।
जब सिय-समेत बिलोकि नयनभरि राम लखन उर लेंहों।

(2) जसोदा हरि पालने झुलावै।
हलरावै, दुलराइ, मल्हावै, जोइ सोइ कछु गावै॥
मेरे लाल को आउ निंदरिया, काहे न आनि सुलावै।
तू काहे नहिं बेगहिं आवत, तोकौं कान्ह बुलावै।।
कबहूँ पलक हरि मूंद लेत, कबहुँ अधर फरकावै।
सोवत जानि मौन है कै रहि, करि-करि सैन बतावै॥

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वात्सल्य-स्थायी भाव। यशोदा-आश्रय। कृष्ण को सुलाना, पलक मूंदना-उद्दीपन विभाव। यशोदा की क्रियाएँ-अनुभाव। शंका, हर्ष आदि संचारी भाव हैं।
MP Board Class 12th Special Hindi काव्य-बोध रस 2

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MP Board Class 12th Special Hindi काव्य की परिभाषा एवं लक्षण, भेद, गुण

MP Board Class 12th Special Hindi काव्य की परिभाषा एवं लक्षण, भेद, गुण

1. काव्य की परिभाषा एवं लक्षण

समस्त भाव प्रधान साहित्य को काव्य कहते हैं। विभिन्न विद्वानों ने काव्य के विभिन्न लक्षण बताये हैं-साहित्य दर्पण के प्रणेता आचार्य विश्वनाथ ने ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’ कहा है। पण्डितराज जगन्नाथ ने ‘रमणीयार्थ प्रतिपादक: शब्दः काव्यम्’ कहा है। कुन्तक ने ‘वक्रोक्ति काव्यस्य जीवितम्’ कहा है और आनन्दवर्धन तथा अभिनव गुप्त ‘ध्वनिरात्मा काव्यस्य’ कहते हैं। मम्मट ने काव्य को हृदय की ‘सगुणावलंकृतौ पुन: क्वापि’ कहा है। इस प्रकार हम देखते हैं कि काव्य हृदय को आनन्द देता है।

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2. काव्य के भेद

(1) मुक्तक पद्य-काव्यं गीत,कविता,दोहा और पद तथा आधुनिक चतुष्पदी तथा मुक्त छन्द मुक्तक काव्य कहलाता है। मुक्तक काव्य का तात्पर्य है कि बिना पूर्वापर सम्बन्ध के वह पद्य या छन्द अपने आप में पूर्ण एक स्वतन्त्र भाव लिये हो जिसके पड़ने मात्र से उसका भाव समझ में आ जाये और किसी भी रस-विशेष की अनुभूति हो सके। सूरदास,मीरा आदि कवियों के गेय पद और बिहारी सतसई,आधुनिक गीत इसके अन्तर्गत आते हैं।

(2) प्रबन्ध काव्य-प्रबन्ध काव्य वह रचना होती है, जिसमें कोई एक कथा आद्योपान्त क्रमबद्ध रूप से गठित हो एवं उसमें कहीं भी तारतम्य न टूटता हो, वरने उस कथा को पुष्ट करने के लिए उसमें अन्य अन्तर्कथाएँ भी हो सकती हैं। प्रबन्ध काव्य विस्तृत होता है, उसमें जीवन की विभिन्न झाँकियाँ रहती हैं। प्रबन्ध काव्य में कथानक को लेकर पात्रों के चरित्रों में घटनाओं और भावों के संघर्ष द्वारा काव्य-वस्तु संजोयी जाती है। प्रबन्ध काव्य के निम्नवत् दो उपभेद स्वीकारे

(1) महाकाव्य,
(2) खण्डकाव्य।

(1) महाकाव्य
आदिकवि वाल्मीकि कृत रामायण के पश्चात् अनेक महाकाव्यों की रचना सम्पन्न हो चुकी है।

आचार्य विश्वनाथ के अनुसार महाकाव्य के लक्षण निम्नवत् हैं-

  1. महाकाव्य सर्गबद्ध तथा सप्रबन्ध रचना है।
  2. आठ तथा उससे अधिक सर्ग होना आवश्यक है।
  3. प्रत्येक सर्ग उत्तरोत्तर सम्बद्ध तथा विभिन्न छन्दों में होना चाहिए।
  4. महाकाव्य का नायक धीरोदात्त गुणों से समन्वित देवता अथवा कुलीन वंश का होना चाहिए।
  5. शान्त, वीर अथवा श्रृंगार रस प्रधान हो तथा अन्य रस सहायक रूप में प्रयुक्त होने चाहिए।
  6. कथानक ऐतिहासिक या सज्जन चरित्र से जुड़ा होना चाहिए।
  7. देश-काल तथा वातावरण का चित्रण अपेक्षित है।
  8. महाकाव्य के उद्देश्य चतुर्वर्ग की प्राप्ति होनी चाहिए।
  9. नामकरण नायक,नायिका,घटना,उद्देश्य अथवा स्थान के आधार पर होना चाहिए।

उपर्युक्त मत के अनुरूप महाकाव्य के चार अनिवार्य लक्षण निम्नवत् ठहराये जा सकते

  1. धीरोदात्त नायक।
  2. रसों की निष्पत्ति।
  3. चतुर्वर्ग की प्राप्ति।
  4. कथानक की ऐतिहासिकता।
  5. भारतीय महाकाव्य में रस निष्पत्ति अनिवार्य रूप से स्वीकारी गई है।
  6. आस्तिकता को भी महाकाव्य में अनिवार्य मानना चाहिए।
  7. भारतीय कण-कण में भगवान को व्याप्त मानते हैं, आत्मा को परमात्मा का अंश ठहराते हैं।
  8. आनन्द स्वरूप में मिल जाना ही भारतीय जीवन का चरम लक्ष्य है। इसी कारण सुखान्त साहित्य को हमारे देश में विशेष स्थान दिया गया है।

उपर्युक्त तत्वों से समन्वित महाकाव्य को सफल महाकाव्य ठहराया जा सकता है।
निष्कर्ष निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि महाकाव्य एक छन्दोबद्ध कथा प्रधान रचना होती है। इस कलेवर में समस्त युग जीवन का अंकन किसी उदात्त उद्देश्य से प्रेरणा ग्रहण करके सरस एवं प्रवाहमयी शैली में प्रभावान्वित के साथ सम्पन्न किया जाता है।
मलिक मुहम्मद जायसी का ‘पद्मावत’, तुलसीदास का ‘रामचरितमानस’, मैथिलीशरण गुप्त का ‘साकेत’ तथा जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ रचनाएँ महाकाव्य हैं।

(2) खण्डकाव्य

परिभाषा-खण्डकाव्य में नायक के जीवन की किसी एक घटना अथवा हृदयस्पर्शी अंश का पूर्णता के साथ अंकन किया जाता है। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार-“खण्डकाव्य महाकाव्य के एक देश या अंश का अनुसरण करने वाला है।”

खण्डकाव्य महाकाव्य का खण्ड मात्र भी नहीं है। खण्डकाव्य में जिन्दगी का खण्डित अथवा बिखरा रूप भी चित्रित नहीं किया जाता, इसमें जीवन के सांगोपांग चित्रण के स्थान पर उसके किसी एक पहलू का पूर्ण अंकन होता है। यद्यपि इसका कलेवर सीमित होता है लेकिन स्वतः पूर्णता इसका अपेक्षित धर्म है। यथा-श्यामनारायण पाण्डेय का ‘हल्दी घाटी का युद्ध’, नरोत्तमदास का ‘सुदामा चरित’,रामनरेश त्रिपाठी का ‘पथिक’, मैथिलीशरण गुप्त की ‘पंचवटी’ रचनाएँ खण्डकाव्य की कोटि में आती हैं।

महाकाव्य तथा खण्डकाव्य में अन्तर

  1. महाकाव्य में जीवन का अथवा घटना विशेष का सांगोपांग चित्रण होता है, जबकि खण्डकाव्य में किसी एक घटना या जीवन के एक अंश का चित्रण किया जाता है।
  2. महाकाव्य का नायक उदात्त तथा महान् होता है। खण्डकाव्य के नायक में इस गुण का पाया जाना अनिवार्य नहीं है। खण्डकाव्य में युग जीवन का एकाधिक रूप ही प्रस्तुत किया जाता है लेकिन महाकाव्य में समग्र युगीन जीवन प्रतिबिम्बित होता है।
  3. महाकाव्य का शिल्प उत्कृष्ट एवं उदात्त होता है लेकिन खण्डकाव्य में इसका पाया जाना अनिवार्य नहीं ठहराया गया है।
  4. खण्डकाव्य का कलेवर सीमित होता है, परन्तु महाकाव्य का कलेवर विस्तृत होता है।
  5. महाकाव्य में कम-से-कम आठ सर्ग होते हैं लेकिन खण्डकाव्य में सर्गों की संख्या नियत नहीं होती।

(3) दृश्य-काव्य-

दृश्य-काव्य के अन्तर्गत नाटक और प्रहसन आते हैं जिनका अभिनय रंगमंच पर पात्रों द्वारा किया जाता है। इसमें गद्य के सम्भाषण के अतिरिक्त गेय गीतों, छन्दों अथवा प्रसंगानुकूल नृत्यों की योजना रहती है। दृश्य-काव्य के अन्तर्गत अधिक रमणीयता होती है, क्योंकि दर्शक उसकी प्रत्यक्षानुभूति करता है। कलाकार अपनी प्रभावशील अभिनय कला द्वारा हृदय पर सीधा प्रभाव डालते हैं। दृश्य-काव्य निश्चय ही श्रव्य-काव्य से श्रेष्ठ होता है, क्योंकि उसका आनन्द पढ़कर एवं देखकर दोनों रूपों में प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु श्रव्य-काव्य का आनन्द केवल सुनकर ही लिया जा सकता है। नाटक में साहित्य के अन्य तत्वों के अतिरिक्त अभिनय तत्व भी आवश्यक होता है।

(4) चम्पू काव्य-

जिसमें गद्य तथा पद्य मिश्रित रूप से प्रयुक्त होता है, उसे चम्पू काव्य कहते हैं। इसका प्रचलन संस्कृत साहित्य में था, हिन्दी में कहीं-कहीं देखने को मिलता है। मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘सिद्धराज’ प्रसिद्ध चम्पू काव्य है।

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3. काव्य गुण

कविता-कामिनी को अलंकारों से सुसज्जित कर विद्वानों ने उसके आन्तरिक रूप को ही महत्त्व दिया है। अलंकार, छन्द से काव्य का बाह्य रूप सजता है किन्तु सुन्दर सजीला तन भावपूर्ण मन के बिना तथा गुण रहित होने से व्यर्थ होता है। कहा भी है कि “गुणीनां च निर्गुणनां च दृश्यते महदन्तरम्।” अतः मानवोचित गुणों के अनुकूल ही काव्य गुण भी होते हैं। आचार्य दण्डी ने दस काव्य गुणों का उल्लेख किया है और भोज ने चौबीस गुणों का। किन्तु साहित्य में काव्य के तीन गुण ही प्रमुख माने गये हैं। उसी वर्गीकरण के अन्तर्गत इन्हीं तीनों में अन्य सभी गुण समाहित कर लिए हैं। इन गुणों का काव्य में किस प्रकार प्रणयन होता है तथा गुणयुक्त काव्य श्रोता या पाठक पर किस प्रकार प्रभावशील होता है, उनके लिए कुछ नियम हैं।

मुख्य तीन गुण हैं-
(1) माधुर्य,
(2) ओज,
(3) प्रसाद।

(1) माधुर्य गुण-मधुरता के भाव को माधुर्य कहते हैं। मिठास अर्थात् कर्णप्रियता ही इसका मुख्य भाव है। जिस काव्य के श्रवण से आत्मा द्रवित हो जाये,मन आप्लावित और कानों में मधु घुल जाये,वही माधुर्य गुणयुक्त है। यह गुण विशेष रूप से श्रृंगार,शान्त एवं करुण रस में पाया जाता है। माधुर्य गुण की रचना में-

  • कठोर वर्ण यानि सम्पूर्ण ट वर्ग (ट,ठ,ड,ढ, ण) के शब्द नहीं होने चाहिए।
  • अनुनासिक वर्णों से युक्त अत्यन्त दीर्घ संयुक्ताक्षर नहीं होना चाहिए।
  • लम्बे-लम्बे सामासिक पदों का प्रयोग भी वर्जित है।।
  • कोमलकांत मृदु पदावली का एवं मधुर वर्णों (क, ग, ज, द आदि) का प्रयोग होना चाहिए।

उदाहरण-
(1) ‘छाया करती रहे सदा, तुझ पर सुहाग की छाँह।
सुख-दुःख में ग्रीवा के नीचे हो, प्रियतम की बाँह ॥

(2) अनुराग भरे हरि बागन में,
सखि रागत राग अचूकनि सों।

(3) लेकर इतना रूप कहो तुम, दीख पड़े क्यों मुझे छली?
चले प्रभात बात फिर भी क्या खिले न कोमल कमल कली?

(4) बसो मोरे नैनन में नन्दलाल।
मोहिनी मूरत साँवरी सूरत नैना बने बिसाल।

(2) ओज गुण-जिस काव्य-रचना को सुनने से मन में उत्तेजना पैदा होती है,उस कविता में ओजगुण होता है। ओज का सम्बन्ध चित्त की उत्तेजना वृत्ति से है। इसलिए जिस काव्य को पढ़ने से या सुनने से पढ़ने वाले के हृदय में उत्तेजना आ जाती है,वही ओजगुण प्रधान रचना होती है। वीर रस रचना के लिए इस गुण की आवश्यकता होती है। इस गुण को उत्पन्न करने के लिए विद्वानों ने निम्न गुणों का विधान किया है-

  • रचना की शैली एवं शब्द योजना दोनों का ही सुगठित एवं सुनियोजित होना आवश्यक है।
  • पंक्ति अथवा छन्द की रचना में कहीं भी शिथिलता होना अनपेक्षित है।
  • रचना में ट वर्ग (ट,ठ,ड,ढ,ण) और सभी कठोर व्यंजनों का आधिक्य होना चाहिए।
  • र के संयोग से बने शब्द प्रथम एवं तृतीय, द्वितीय और चतुर्थ वर्गों का प्रयोग होते संयोजन तथा रेफ युक्त शब्द प्रभावशाली हैं।
  • लम्बे-लम्बे समासों से युक्त शब्दों का प्रयोग होना चाहिए। अधिकाधिक संयुक्ताक्षरों का प्रयोग होना चाहिए।

उदाहरण-
(1) अमर राष्ट्र, उदण्ड राष्ट्र, उन्मुक्त राष्ट्र-यह मेरी बोली।
यह ‘सुधार’, ‘समझौते’ वाली मुझको भाती नहीं ठिठोली।।

(2) निकसत म्यान तें मयूखै प्रलै भानु कैसी,
फारै तम-तोम से गयंदन के जाल को।

(3) महलों ने दी आग, झोंपड़ियों में ज्वाला सुलगाई थी,
वह स्वतन्त्रता की चिनगारी, अन्तरतम् से आई थी।

(4) हिमाद्रि तुंग शृंग पर, प्रबुद्ध शुद्ध भारती,
स्वयंप्रभा समुज्वला, स्वतन्त्रता पुकारती।

(3) प्रसाद गुण प्रसाद का अर्थ है-प्रसन्नता या निर्मलता। जिस काव्य को सुनते या पढ़ते समय वह हृदय पर छा जाये और बुद्धि शब्दों के दुरूह जाल में या क्लिष्ट अर्थों की कलुषता में मलिन न होकर एकदम प्रभावित हो जाये,मन खिल जाये,उसे प्रसाद गुण कहते हैं। कवि का उद्देश्य होता है-मानव हृदय को प्रभावित करना। प्रेमी की बात प्रिय पात्र के हृदय को रस से सराबोर न कर दे, ममता वात्सल्य को आह्लादित न कर पाये, करुणा नयनों के कोरों को यदि अविरल न कर पाये और वीरता का उत्साह यदि ओजित न कर पाये-ये सभी यदि शब्दों की भूलभुलैया में पड़कर क्लिष्टता के अस्त-व्यस्त मार्ग पर चल पड़े तो काव्य ब्रह्मानन्द सहोदर न होकर मस्तक की पीड़ा बन जायेगा। व्यस्तता के इस युग में हमें आज प्रसाद गुण युक्त काव्य की आवश्यकता है। यही गुण अधिक समय तक प्रभावशाली रह सकता है, क्योंकि यह सीधे हृदय पर छाप छोड़ता है। सभी रसों की रचना प्रसाद गुण युक्त हो सकती है। प्रसाद गुण का सम्बन्ध सभी रसों से है। उक्त दोनों गुणों की तरह यह गुण किसी रस विशेष से नियन्त्रित नहीं है। शब्दों के साथ अर्थ का भी सरल होना आवश्यक है। इसमें जो बात कही जाये,उसका वही अर्थ होता है। ‘साहित्य-दर्पण’ के प्रणेता आचार्य विश्वनाथ का कथन है कि-“समस्त रसों और रचनाओं में जो चित्त को सूखे ईंधन में अग्नि के समान शीघ्र व्याप्त करे-वह प्रसाद गुण है।”

उदाहरण-
(1) “चुप रहो जरा सपना पूरा हो जाने दो,
घर की मैना को जरा प्रभाती गाने दो,
ये फूल सेज के चरणों पर धर देने दो,
मुझको आँचल में हरसिंगार भर लेने दो।”

(2) मानुस हौं तो वही रसखान
बसौं बज गोकुल गाँव के ग्वारन।

(3) तन भी सुन्दर मन भी सुन्दर
प्रभु मेरा जीवन हो सुन्दर।।

(4) हे प्रभो आनन्द दाता ! ज्ञान हमको दीजिए।

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(5) आशीषों का आँचल भर कर, प्यारे बच्चो लाई हूँ।
युग जननी मैं भारत माता द्वार तुम्हारे आई हूँ।

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MP Board Class 12th Hindi Makrand Solutions Chapter 2 नर से नारायण

MP Board Class 12th Hindi Makrand Solutions Chapter 2 नर से नारायण (निबन्ध, बाबू गुलाबराय)

नर से नारायण पाठ्य-पुस्तक पर आधारित प्रश्न

नर से नारायण लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
त्राहि-त्राहि क्यों मची हुई थी? (M.P. 2009, 2012)
उत्तर:
अवर्षा के कारण सूखे की स्थिति हो गई थी, इसीलिए त्राहि-त्राहि मची हुई थी।

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प्रश्न 2.
बच्चे क्यों प्रसन्न थे?
उत्तर:
लेखक के घर के पीछे वर्षा का पानी भर गया था और बच्चे उस घर की गंगा में कागज की नावें तैराने के कारण प्रसन्न थे।

प्रश्न 3.
लेखक ने किन परिस्थितियों में स्वयं को नारायण कहा है?
उत्तर:
नारायण का निवास स्थान जल में है और उसका घर भी वर्षा के कारण जल में डूबा हुआ था, ऐसी स्थिति में लेखक स्वयं को नारायण समझने लगा था।

प्रश्न 4.
लेखक ने अपने को अनंत का उपासक क्यों कहा है?
उत्तर:
लेखक सीमाओं को क्षुद्र समझता था अतः उसने अपने घर के चारों ओर दीवार नहीं बनाई थी। इसी कारण उसने स्वयं को अनंत का उपासक कहा है।

प्रश्न 5.
बाईबल के किस आदर्श का उल्लेख किया है?
उत्तर:
दान गुप्त होना चाहिए। एक हाथ से दान देते समय दूसरे हाथ को भी पता नहीं होना चाहिए।

प्रश्न 6.
नाइग्राफाल सा किसे कहा गया है?
उत्तर:
रोशनदानों से तहखाने में गिरते पानी को नाइग्रा फाल कहा गया है।

नर से नारायण दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
वर्षा न होने के कारण लेखक ने अपनी वेदना को किस प्रकार व्यक्त किया है?
उत्तर:
ज्वार की पत्तियाँ ऐंठ-ऐंठकर बत्तियाँ बन गई थीं और नए छोटे-छोटे पौधे मुरझाने को विवश हो रहे थे। वर्षा न होने के कारण लेखक निराश था क्योंकि उसकी गाढ़ी कमाई के बीस रुपये बरबाद हो रहे थे क्योंकि इन रुपयों से उसने खेत में चरी बो रखी थी। वर्षा नहीं होने के कारण वे भी मुरझाने लगे थे।

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प्रश्न 2.
भीषण गर्मी के बाद प्रथम वर्षा के सुखद प्रभाव का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भीषण गर्मी के बाद प्रथम वर्षा की बूंदों से मनुष्य का मन प्रसन्न हो उठता है। वह वर्षा की छोटी-छोटी बूंदों के सुख देने वाले शीतल स्पर्श से पुलकित हो जाता है। सड़कें धुलकर साफ़-सुथरी और चिकनी हो जाती हैं। चारों ओर प्रकृति की छटा दर्शनीय हो जाती है। खेतों में हरियाली छा जाती है।

प्रश्न 3.
‘दिग्दाहों से धूम उठे या जलधर उठे क्षितिज तट के’ इस पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भीषण गर्मी के कारण दिशाओं के जलने के कारण धुआँ उठा अर्थात् क्षितिज के किनारों पर बादल उठे। लेखक इस बात का निर्णय नहीं कर पा रहा है कि क्षितिज पर भीषण गर्मी से जलने के कारण धुआँ उठ रहा है या क्षितिज से बादल उठ रहे हैं।

प्रश्न 4.
लेखक का आनंद आशंका में क्यों बदल गया? (M.P. 2011)
उत्तर:
लेखक का आनंद आशंका में इसलिए बदल गया क्योंकि उसके मकान के पीछे एक फुट पानी भर गया था और वह धीरे-धीरे बढ़ता ही जा रहा था। पानी बढ़ने के साथ-साथ लेखक की आशंका भी बढ़ती जा रही थी।

प्रश्न 5.
जब बिजली चली गई तब लेखक को किन-किन कठिनाइयों का सामना करना है? (M.P. 2011)
उत्तर:
बिजली के गुल हो जाने पर चारों तरफ घुप अँधेरा हो गया। सारा घर गहन अंधकार में डूब गया। हाथ को हाथ सुझाई नहीं देता था। सर से सर टकराने की स्थिति आ गई। लालटेन ढूँढ़ी गई तो उसमें तेल नहीं था। घर में माचिस तक न मिली। एक टूटी-फूटी टॉर्च भी थी जिसे ढूँढ़ना कठिन था। रोशनदानों से तहखाने में पानी गिर रहा था। जैसे-तैसे दीपक जलाया गया लेकिन वह तेज हवा के कारण बुझ गया। लेखक के नौकर पड़ोस से लालटेन माँगकर लाए। इस प्रकार जैसे ही रोशनी की व्यवस्था हुई सब लोग घर के भीतर बैठ गए।

प्रश्न 6.
बाढ़-पीड़ितों की सहायता किस प्रकार की गई?
उत्तर:
बाढ़-पीड़ितों को शिक्षण संस्थाओं में आश्रय दिया गया। लोगों ने अन्न, वस्त्रादि देकर उनकी प्राथमिक आवश्यकताएँ पूरी की। उनके घरों के पास वाढ़ के पानी को निकाला गया और मिट्टी डाली गई।

नर से नारायण भाव-विस्तार/पल्लवन

प्रश्न 1.
निम्नलिखित पंक्तियों का भाव विस्तार कीजिए –

प्रश्न 1.
‘नारासु अयनं यस्य सः नारायणः’।
उत्तर:
जिसका घर नार (जल) में हो वही नारायण है। नारायण पोषण करने वाले हैं। वर्षा का जल सृष्टि का पोषणकर्ता है। नारायण का घर समुद्र में है जहाँ चारों ओर पानी ही पानी है। वर्षा से उत्पन्न जलभराव के कारण लेखक के घर के चारों ओर पानी भर गया है इसलिए वह बिना किसी करनी के ही स्वयं को नारायण समझने लगा।

प्रश्न 2.
दियासलाई ज्योतिस्वरूप परमात्मा बन गई।
उत्तर:
एकाएक बिजली के गुल होने से गहन अंधकार छा गया। अंधकार में दियासलाई को ढूँढ़ा गया। लेकिन अँधेरे में दियासलाई का मिलना एक टेढ़ी खीर थी। दियासलाई का मिलना ऐसा था जैसे ज्योतिस्वरूप एवं ज्योतिस्रोत ईश्वर का मिलना। इस प्रकार दियासलाई का मिलना परमात्मा के मिलने के समान हो गया था। उस समय घरवालों के लिए दियासलाई ज्योतिस्वरूप परमात्मा के समान बन गई थी।

नर से नारायण भाषा-अनुशीलन

प्रश्न 1.
निम्नलिखित का समास-विग्रह कर समास का नाम लिखिए –
मन-मयूर, श्रेय-प्रेय, चिंताग्रस्त, नयनाभिराम, जल-प्लावन, सायंकाल, जीव-दया, सुमनवर्षा, जलबाधा, स्नेहशून्य।
उत्तर:
MP Board Class 12th Hindi Makrand Solutions Chapter 2 नर से नारायण img-1

प्रश्न 2.
उदाहरण के अनुसार निम्नलिखित अनेकार्थी शब्दों का वाक्यों में प्रयोग कीजिए –
अंक, अर्थ, उत्तर, गुरु, फल।
उदाहरणः

  1. स्नेह-शून्य दीपक कब तक जल पाएगा?
  2. दीनों के प्रति स्नेह-शून्य व्यवहार मत करो।

उत्तर:

  • अंक – इस नाटक में कुल पाँच अंक हैं। बच्चे को रोता देख माँ ने उसे अंक में उठा लिया। रमेश ने परीक्षा में बहुत कम अंक प्राप्त किए हैं।
  • अर्थ – भाई-भाई के बीच में बोलने का तुम्हारा अर्थ क्या है? आजकल तो अर्थ के बिना कोई नहीं पूछता।
  • उत्तर – हिमालय पर्वत उत्तर दिशा में है। मैंने उत्तर लिख दिया है।
  • गुरु – बच्चो! गुरुजी की आज्ञा का पालन करो। मजदूरनी गुरु हथौड़ा हाथ में लिये पत्थर तोड़ रही है।
  • फल – बुरे कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। आम का फल बड़ा रसीला होता है।

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प्रश्न 3.
निम्नलिखित शब्द-युग्मों का वाक्य में प्रयोग कीजिए –
तन-मन, श्रेय-प्रेय, हँसता-खेलता, टूटी-फूटी, बचा-खुचा।
उत्तर:

  • तन-मन – मैंने उस असहाय बीमार की तन-मन से सेवा की।
  • श्रेय-प्रेय – लेखक आनंद और कर्त्तव्यं तथा श्रेय-प्रेय का समन्वय करने कॉलेज भी गया।
  • हँसता-खेलता – बच्चा हँसता-खेलता ही प्रिय लगता है।
  • टूटी-फूटी – अंग्रेज टूटी-फूटी हिंदी में भी बात कर लेते हैं।
  • बचा-खुचा – नौकर ने बचा-खुचा खाना भिखारी को दे दिया।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित भिन्नार्थी शब्दों के पृथक-पृथक वाक्यों में प्रयोग कीजिए –
वात-बात, वन-बन, अपेक्षा-उपेक्षा, चिंता-चिता, ओर-और, तरणी-तरणि, सुत-सूत, क्षात्र-छात्र। (M.P. 2010)
उत्तर:

  • वात – वह वात रोग से पीड़ित है।
    बात – रोगी से अधिक बात मत कीजिए।
  • वन – राम वन गए।
    बन – बात बन गई है।
  • अपेक्षा – सोहन से परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करने की अपेक्षा की जाती है।
    उपेक्षा – हमें अपने माता-पिता की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
  • चिंता – पुत्र को बीमार देखकर माँ का मनचिंता से अनायास भर उठा।
    चिता – चिता की अग्नि धधक उठी।
  • ओर – सूर्य पूर्व दिशा की ओर से उगता है।
    और – धर्म और कर्म ही मनुष्य के साथ जाते हैं।
  • तरणी – भक्ति रूपी तरणी से भवसागर पार किया जा सकता है।
    तरणि – तरणि का तेज देखते ही बनता है! (M.P. 2010)
  • सुत – मेरा ही सुत मुझे आँखें दिखा रहा है।
    सूत – गाँधीजी सूत कातते थे। (M.P. 2010)
  • क्षात्र – क्षात्र को खुला मत छोड़ना।
    छात्र – यह छात्र बहुत परिश्रमी है।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित मुहावरों का अर्थ स्पष्ट करते हुए वाक्यों में प्रयोग कीजिए –
कान में भनक पड़ना, त्राहि-त्राहि मचना, दो-चार आँसू बहाना, घर फूंक तमाशा देखना, भगीरथ प्रयत्न करना।
उत्तर:

  • कान में भनक पड़ना – (निंदा, बुराई अथवा षड्यंत्र की बात सुनने में आना) आतंकी योजना की कान में भनक पड़ने ही पुलिस सजग हो गई।
  • त्राहि-त्राहि मचना – (हाहाकार होना) महँगाई से सारे देश में त्राहि-त्राहि मची हुई है। (M.P. 2009)
  • दो-चार आँसू बहाना – (दख प्रकट करना) महँगाई के नाम पर नेतागण दो-चार आँसू बहा लेते हैं।
  • घर फूंक तमाशा देखना – (हानि उठाकर प्रसन्न होना) दीपावली पर पटाखे चलाना घर फूंक तमाशा देखने के बराबर है।
  • भगीरथ प्रयत्न करना – (अत्यधिक प्रयास करना) आई.ए.एस. बनने के लिए भगीरथ प्रयत्न करना पड़ता है।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित लोकोक्तियों का वाक्यों में प्रयोग कीजिए –

  1. का वर्षा जब कृषि सुखानी।
  2. सिमिटि-सिमिटि जल भरहिं तलाबा।

उत्तर:

  1. जब आतंकवादी शहर में विस्फोट करने में सफल हो गए तब पुलिस पहुँची। टीक ही कहा गया है-का वर्षा जब कृषि सुखानी।
  2. लेखक के घर के चारों ओर सिमिटि-सिमिटि जब भरहिं तलाबा वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित वाक्यों को निर्देशानुसार रूपांतरित कीजिए –

  1. बच्चे भी घर की गंगाजी में कागज की नावें तैराकर खुश हो रहे थे। (संयुक्त वाक्य)
  2. मेरी सौंदर्योपासना अविचलित रही, क्योंकि ऐसा कई बार हो चुका था। (सरल वाक्य)
  3. सुबह उठकर जलप्लावन का व्यापक एवं भयंकर दृश्य देखा। (मिश्र वाक्य)

उत्तर:

  1. बच्चे भी घर की गंगाजी में कागज की नावें तैरा रहे थे और खुश हो रहे थे।
  2. ऐसा कई बार होने के कारण मेरी सौंदर्योपासना अविचलित रही।
  3. जो सुबह उठकर जलप्लावन का दृश्य देखा, वह व्यापक एवं भयंकर था।
    या
    जब सुबह उठा तब जलप्लावन का व्यापक एवं भयंकर दृश्य देखा।

नर से नारायण योग्यता-विस्तार

प्रश्न 1.
यदि आपके गाँव या नगर में बाढ़ आ जाए तो आप बाढ़ पीड़ितों के लिए क्या-क्या उपाय करेंगे? लिपिबद्ध कीजिए।
उत्तर:
यदि हमारे गाँव या नगर में बाढ़ आ जाए तो हम बाढ़ पीड़ितों को उस गाँव या नगर के सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाएँगे और उनकी अन्न, वस्त्र और औषधियों से खूब सहायता करेंगे। उनके घरों के पास से पानी निकालने में प्रशासन की सहायता करेंगे। उनके पशुओं के लिए चारे का प्रबंध करेंगे। पशुओं को भी सुरक्षित स्थानों पर ले जाएँगे।

प्रश्न 2.
प्राकृतिक आपदाओं के संबंध में जानकारी प्राप्त कर कक्षा में चर्चा कीजिए।
उत्तर:
बाढ़, भूकंप, सूखा आदि प्राकृतिक आपदाएँ हैं। छात्र इनके संबंध में स्वयं जानकारी प्राप्त कर चर्चा करें।

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प्रश्न 3.
‘वर्षा-ऋतु’ अथवा ‘जल ही जीवन है’ विषय पर 150 शब्दों में निबंध लिखिए। (M.P. 2011)
उत्तर:
छात्र स्वयं लिखें। निबन्ध खण्ड में देखें।

नर से नारायण परीक्षोपयोगी अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर –

प्रश्न 1.
‘नर से नारायण’ निबंध का लेखक कौन है?
(क) हजारी प्रसाद द्विवेदी
(ख) आचार्य रामचंद्र शुक्ल
(ग) बाबू गुलाबराय
(घ) आचार्य नरेंद्र देव
उत्तर:
(ग) बाबू गुलाबराय।

प्रश्न 2.
निबंध में किस ऋतु के प्रभाव का वर्णन किया गया है?
(क) ग्रीष्म ऋतु
(ख) वर्षा ऋतु
(ग) वसंत ऋतु
(घ) शरद ऋतु
उत्तर:
(ख) वर्षा ऋतु।

प्रश्न 3.
स्वयं को नारायण कौन समझने लगा?
(क) बनर्जी साहब
(ख) रणधीर जी
(ग) मंगलदेव जी
(घ) लेखक बाबू गुलाबराय
उत्तर:
(घ) लेखक बाबू गुलाबराय।

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प्रश्न 4.
लेखक ने बनर्जी साहब का निमंत्रण कब स्वीकार किया? (M.P. 2009)
(क) जब बिजली गुल हो गई
(ख) जब बरामदे और शयनागार का फर्श बैठ गया
(ग) जब तहखाने में साँप आ गया
(घ) जब उनका घर जलमग्न हो गया
उत्तर:
(ख) जब बरामदे और शयनागार का फर्श बैठ गया।

प्रश्न 5.
लेखक ने किस काम को संदल घिसने की भाँति सरदर्द वाला बताया है?
(क) लालटेन ढूँढ़ने के काम को
(ख) दियासलाई ढूँढ़ने के काम को
(ग) टॉर्च ढूँढ़ने के काम को
(घ) दीपक जलाने के काम को
उत्तर:
(ग) टॉर्च ढूँढ़ने के काम को।

प्रश्न 6.
लेखक ने अपने किस पड़ोसी की व्यवहारकुशलता की प्रशंसा की है?
(क) बनर्जी साहब की
(ख) मंगलदेव की
(ग) काछी-कुम्हार की
(घ) रणधीर की
उत्तर:
(क) बनर्जी साहब की

प्रश्न 7.
लेखक ने वरुण-रस किसे कहा है?
(क) वर्षा के जल को
(ख) कुएँ के पानी को
(ग) तालाब के जल को
(घ) समुद्र के जल को
उत्तर:
(क) वर्षा के जल को।

प्रश्न 8.
लेखक ने किस रस के लौकिक अनुभव की पुनरावृत्ति न कराने की प्रार्थनकी?
(क) रौद्र रस की
(ख) करुण रस की
(ग) शांत रस की
(घ) वरुण रस की
उत्तर:
(घ) वरुण रस की।

II. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें –

  1. ‘नर से नारायण’ निबन्ध के लेखक ………. हैं। (गुलाबराय रामचन्द्र शुक्ल) (M.P. 2009)
  2. लेखक गुलाबराय ……… के भूतपूर्व सदस्य थे। (जीव-दया प्रचारिणी सभा/महासभा)
  3. ………. के महीने में पानी की त्राहि-त्राहि मची हुई थी। (अगस्त सितम्बर)
  4. लेखक के माली का नाम ………. था। (रविदेव/मंगलदेव)
  5. लेखक के पड़ोसी का नाम ……… था। (श्री बनर्जी साहब/श्री चटर्जी साहब)

उत्तर:

  1. गुलाबराय
  2. जीवन-दया प्रचारिणी सभा
  3. सितम्बर
  4. मंगलदेव
  5. श्री बनर्जी साहब।

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III. निम्नलिखित कथन के लिए सही विकल्प चुनिए –

प्रश्न 1.
‘नर से नारायण’ निबन्ध में लेखक ने बीस रुपये किस पर खर्च किए थे?
(क) लालटेन खरीदने में
(ख) फसल बोने में
(ग) तहखाने का रोशनदान बनवाने में
(घ) माली से पौधे लगवाने में
उत्तर:
(ख) फसल बोने में

IV. निम्नलिखित कथनों में सत्य असत्य छाँटिए –

  1. ‘नर से नारायण’ शीर्षक निबन्ध की भाषा संस्कृत प्रधान है।
  2. लेखक को अपने तहखाने के रोशनदानों पर काफी गर्व था।
  3. बिजली गुल होते ही सभी घर से बाहर निकल पड़े।
  4. लालटेन में तेल भरा हुआ था।
  5. लेखक वर्षा के सौंदर्य रूप से अधिक प्रभावित था।
  6. ‘नर से नारायण’ निबंध लेखक बाबू गुलाबराय हैं। (M.P. 2012)

उत्तर:

  1. सत्य
  2. सत्य
  3. असत्य
  4. असत्य
  5. सत्य
  6. सत्य।

V. निम्न के सही जोड़े मिलाइए –

प्रश्न 1.
MP Board Class 12th Hindi Makrand Solutions Chapter 2 नर से नारायण img-2
उत्तर:

(क) (iii)
(ख) (i)
(ग) (v)
(घ) (ii)
(ङ) (iv)

VI. निम्न प्रश्नों के एक शब्द या एक वाक्य में उत्तर दीजिए –

प्रश्न 1.
श्री बनर्जी साहब कौन थे?
उत्तर:
श्री बनर्जी साहब लेखक गुलाबराय के पड़ोसी थे।

प्रश्न 2.
त्राहि-त्राहि क्यों मची हुई थी? (M.P. Board 2009)
उत्तर:
अवर्षा की स्थिति के कारण त्राहि-त्राहि मची हुई थी।

प्रश्न 3.
लेखक ने खेत में क्या बो रखी थी?
उत्तर:
लेखक ने खेत में चरी बो रखी थी।

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प्रश्न 4.
लेखक को कहाँ पर आश्रय मिला था?
उत्तर:
लेखक को जैन बोर्डिंग में आश्रय मिला था।

प्रश्न 5.
लेखक को तहखाने के रोशनदानों पर क्यों गर्व था?
उत्तर:
क्योंकि लेखक सायंकाल को भी वहाँ बैठकर लिख-पढ़ सकता था।

नर से नारायण लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
लेखक पहले किस स्थिति से दुखी था?
उत्तर:
लेखक पहले अवर्षा की स्थिति से दुखी था।

प्रश्न 2.
गरीब किसानों की भस्म करने वाली आहों का क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
गरीब किसानों की भस्म करने वाली आहों के प्रभाव से आकाश में बादल – बनते दिखाई देने लगे।

प्रश्न 3.
लेखक को स्फूर्ति क्यों आई और उसने क्या किया?
उत्तर:
वर्षा के कारण लेखक के शरीर में स्फूर्ति आई और वह लिखने बैठ गया।

प्रश्न 4.
लेखक ने बेरोजगारी की समस्या पर क्या चुटकी ली है?
उत्तर:
लेखक ने बेरोजगारी की समस्या पर चुटकी लेते हुए कहा है कि आजकल के युग में बेकारों की अर्जियों से दफ्तर बन जाते हैं।

प्रश्न 5.
अगस्त्य ऋषि का यांत्रिक अवतार किसे कहा गया है?
उत्तर:
फायर बिग्रेड को अगस्त्य ऋषि का यांत्रिक अवतार कहा गया है।

प्रश्न 6.
त्राहि-त्राहि क्यों मची हुई थी? (M.P. 2009)
उत्तर:
सितम्बर महीने तक बारीश न होने से त्राहि-त्राहि मची हुई थी।

प्रश्न 7.
लेखक को तहखाने में बने रोशनदानों पर क्यों गर्व था?
उत्तर:
लेखक को तहखाने में बने रोशनदानों पर इसलिए गर्व था कि उनसे प्रकाश के साथ-साथ वायु का भी आर-पार संचार होता था।

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प्रश्न 8.
लेखक को जल-बाधा से कितने दिन बाद मुक्ति मिली?
उत्तर:
लेखक को पूरे सप्ताह अर्थात् सात दिन बाद जल-बाधा से मुक्ति मिली।

नर से नारायण दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
लेखक ने वर्षा के प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद कैसे लिया?
उत्तर:
लेखक ने वर्षा के दौरान कमरे से बाहर जाकर मेघाच्छादित गगन मंडल की शोभा निहारकर, बगीचे में जाकर शेफाली के गिरते फूलों को देखते हुए तथा धोए-धोए पत्तों वाली हरित-ललित-यौवनभरी लहलहाती लताओं के सौंदर्य का अपने नेत्रों से पान करके प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लिया।

प्रश्न 2.
लेखक के मकान को वर्षा ने क्या-क्या हानि पहुँचाई?
उत्तर:
लेखक के मकान के तहखाने में पानी भर गया। कमरों तथा बरामदे के फर्श बैठ गए और भैंस बाँधने का छप्पर जलमग्न हो गया। उसके मकान के चारों ओर पानी भर गया।

प्रश्न 3.
बाढ़ का प्रभाव किन-किन स्थानों पर हुआ?
उत्तर:
बाढ़ का प्रभाव लेखक के मकान और उसके पड़ोसियों पर भी पड़ा। जेल के पास नाव चलने की नौबत आ गई। सेंट जोंस गर्ल्स स्कूल जलमग्न हो गया। गाँव के गाँव जलमग्न हो गए। काफी लोगों की मृत्यु हो गई। जो लोग घर से बाहर गए थे उनके लिए लौटना मुश्किल हो गया। आगरा फोर्ट के पास सड़क फट गई। बिजली के खंभे उखड़ गए। इस प्रकार कई स्थान बाढ़ की चपेट में बुरी तरह आ गए।

प्रश्न 4.
लेखक स्वयं को कब नारायण समझने लगा था?
उत्तर:
लेखक यह जानता था कि जल ही नारायण का निवास स्थान है। चूंकि अत्यधिक वर्षा के कारण उसके घर के चारों ओर तथा तहखाने में पानी भर गया था। इस दशा को देखकर वह स्वयं को नारायण समझने लगा था।

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प्रश्न 5.
लेखक अपने घर को मनु की नौका क्यों समझ रहा था?
उत्तर:
चूँकि बारिश बहुत हुई थी। उससे लेखक के घर के चारों ओर पानी भर गया। इससे सारा घर क्षतिग्रस्त हो गया था। इस टूटे-फूटे और जल में डूबते हुए अपने घर को देखकर लेखक उसे मनु की नौका समझ रहा था।

नर से नारायण लेखक-परिचय

प्रश्न 1.
बाबू गुलाबराय का संक्षिप्त जीवन-परिचय देते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
जीवन-परिचय:
बाबू गुलाबराय हिंदी के प्रसिद्ध समालोचक एवं निबंधकार थे। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के इटावा नगर में सन् 1888 ई० में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले में हुई जो काफी सुदृढ़ और नियमित थी। बाद में वे आगरा विश्वविद्यालय के छात्र हो गए और वहाँ से उन्होंने दर्शनशास्त्र में एम.ए. करने के बाद एल.एल.बी. की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद वे छतरपुर के महाराज के निजी सचिव के रूप में कार्य करते रहे। इसके बाद आप एक रियासत के दीवान रहे और इस पद पर कुशलतापूर्वक कार्य किया।

महाराज के निधन के पश्चात् आप आगरा के सेंट जॉन्स कॉलेज में अध्यापन-कार्य करने लगे। आपने आगरा से निकलने वाले ‘साहित्य-संदेश’ के संपादक के रूप में कार्य करते हुए अपने चिंतन की प्रखरता और गंभीरता से साहित्य जगत् में अपना विशिष्ट स्थान बनाया था। उनकी विशिष्ट साहित्यिक सेवाओं के लिए आगरा विश्वविद्यालय ने इन्हें डी-लिट. की मानद उपाधि से सम्मानित किया था। इनका निधन 13 अप्रैल, सन् 1963 ई० में आगरा में हुआ।

साहित्यिक विशेषताएँ:
बाबू गुलाबराय का साहित्य विविधताओं से भरा हुआ है। उनकी रचनाओं में तर्कपूर्ण विश्लेषण के साथ-साथ भारतीय सिद्धांतों की सूक्ष्म विवेचना मिलती है। उन्होंने धर्म, दर्शन एवं साहित्य से संबंधित कई महत्त्वपूर्ण विषयों पर निबंध लिखे हैं। उनके निबंध वर्णनात्मक, विवेचनात्मक और भावात्मक होने के साथ-साथ मनोवैज्ञानिकता से भरपूर हैं। उनके निबंधों में गंभीरता के साथ-साथ व्यंग्य और विनोद का पुट भी मिलता है। उनकी रचनाओं में एक विचित्र रस है जो पाठक और श्रोता को बाँधे रखता है। वे द्विवेदी युग के एक सशक्त एवं परिपक्व गद्यकार हैं। द्विवेदी युग में ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में गंभीर विवेचन करने वाले विद्वानों में आपका सर्वोच्च स्थान है।

रचनाएँ:
बाबू गुलाबराय ने गद्य-साहित्य की अनेक विधाओं पर अपनी लेखनी चलाई है। उनकी रचनाओं में मुख्य हैं –

  • काव्य-शास्त्र – नवरस, सिद्धांत और अध्ययन, काव्य के रूप, हिंदी नाट्य-विमर्श।
  • साहित्य का इतिहास – हिंदी साहित्य का सुबोध इतिहास।
  • आलोचना – अध्ययन और आस्वाद, हिंदी काव्य-विमर्श।
  • निबंध-संकलन – फिर निराश क्यों, मेरे निबंध, मनोवैज्ञानिक निबंध, जीवन-रश्मियाँ, व्यंग्य-ठलुआ क्लब, डॉक्टर साहब।
  • जीवनीपरक – मेरी असफलताएँ।

भाषा-शैली:
आपकी भाषा-शैली सरल, सुबोध एवं व्यावहारिक है। आपने गंभीर विषयों में संस्कृत प्रधान भाषा का प्रयोग किया है। उन्होंने अपनी रचनाओं में अरबी, फारसी, अंग्रेजी का प्रयोग किया है। मुहावरों और कहावतों के सटीक प्रयोग करने में आप सिद्धहस्त हैं।

महत्त्व:
हिंदी गद्य साहित्य में बाबू गुलाबराय का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने गद्य साहित्य की अनेक विधाओं की रचना कर, सशक्त और परिपक्व गद्यकार के रूप में अपनी पहचान बनाई। उन्होंने हिंदी आलोचना और निबंध के क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान कर हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है।

‘नर से नारायण’ पाठ का सारांश ।

प्रश्न 2.
बाबू गुलाबराय द्वारा लिखित निबंध ‘नर से नारायण’ का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
इस निबंध की विषय-वस्तु ‘वर्षा’ केंद्रित है किंतु निबंधकार ने अपने आत्मगत विस्तार में अनेक विषयों का स्पर्श किया है। निबंध के प्रारंभ में अवर्षा की स्थिति से प्रभावित प्रकृति की ओर संकेत किया गया है, और बाद में अति वर्षा के कारण घर-गृहस्थी पर पड़ने वाले प्रभाव को व्यक्त किया है। सितंबर महीने में सब तरफ पानी का अभाव था लेकिन लेखक ने बीस रुपये व्यय करके खेत में चरी बो दी।

पानी की कमी के कारण चरी के नए पौधे सूखने लगे। खैर, किसानों की आह से आकाश में बादल उमड़ने-घुमड़ने लगे। आकाश में बादल का छाना क्या था, लेखक का मन प्रफुल्लित हो उठा। वह उनकी उपयोगिता की अपेक्षा उनके सौंदर्य से अधिक प्रभावित हुआ। वह घर से बाहर निकलकर वर्षा की छोटी-छोटी बूंदों का आनंद लेता हुआ इधर-उधर घूमने लगा। वर्षा की छटा और खेती के फलने-फूलने के उत्साह से भरा वह घर लौटा।

वर्षा में भीगने के कारण शरीर में स्फूर्ति का संचार हुआ और उससे प्रेरित होकर वह फौरन लिखने बैठ गया। कभी बाहर जाकर बादलों से घिरे आकाश का सौंदर्य निहारता तो कभी बगीचे में उगे शेफानी के फूलों ओर लताओं के सौंदर्य पर निगाह डालता। सचमुच वह बहुत प्रसन्न था। वर्षा लगातार हो रही थी। बहुत जल्दी घर के पीछे की ओर एक फुट पानी भर गया था, परंतु लेखक के लिए यह चिंता का विषय नहीं था। लेकिन जब घर के चारों ओर पानी भर गया तो उसके मन में आशंका उत्पन्न हो गई कि पानी के तालाब में कहीं बाढ़ आ गई तो? शीघ्र ही पास की जमीन का पानी लेखक की जमीन में आ गया।

पानी थोड़ी देर में रोशनदानों के मुँह तक पहुँच गया और पानी घर के अंदर गिरने लगा। लेखक को अपने घर के तहखाने के रोशनदानों पर बड़ा गर्व था। वह सभी आने वाले के सामने तहखाने में आर-पार वायु संचार की व्यवस्था का और टूटी-फूटी शान और स्वास्थ्य-विज्ञान संबंधी ज्ञान का प्रदर्शन करता था। इन्हीं रोशनदानों से तहखाने में पानी के झरने गिरने लगे। वर्षा के इस दौर में बिजली चली गई। चारों ओर घुप अंधकार हो गया। हाथ को हाथ नहीं सूझता था। लालटेन की खोज होने लगी। अँधेरे के कारण घर में दियासलाई मिलनी भी मुश्किल थी। जैसे-तैसे तेलरहि लालटेन मिली। एक टूटी-फूटी टॉर्च थी किंतु उसे ढूँढ़ना कठिन था। लेखक को लगा कि सेलरों से गिरते निर्झर उसकी मूर्खता की घोषणा कर रहे हों। घर के नौकर पड़ोस से लालटेन ले आए और हम सब शांतिपूर्वक घर में बैठ गए।

अभी तक लेखक को कोई खास चिंता नहीं थी। थोड़ी देर में पास के कमरे से आवाज आई, ‘चलियो’ नौकर ने चिल्लाकर कहा, ‘बाबूजी उधर ही रहना’, जमीन बैठ गई थी तथा फर्श के पत्थर आपस में सर से सर मिलाकर खड़े हो गए थे। भैंस का छप्पर भी तालाब बन चुका था। लेखक के पड़ोसी ने उनसे कहा कि कोई तकलीफ हो तो इधर आ जाना। थोड़ी देर में बरामदे और शयन कक्ष का फर्श भी बैट गया। बाद में पड़ोसी के घर में शरण ली। उन्होंने भैंस को भी अपने यहाँ आश्रय दिया। रात वहीं गुज़री। सुबह जब लेखक उठा तो उसे बाढ़ का भयंकर दृश्य दिखाई दिया। लेखक करुण हास्य के साथ जल-प्रवाह देखने लगा और स्वयं को कामायनी का मन ही नहीं नारायण समझने लगा। इस प्रकार लेखक बिना किए ही नर से नारायण बन गया।

उस दिन लेखक को सभी की सहानुभूति मिली। वर्षा के बाद घर से पानी निकालने का प्रयास असफल हो गया। अगले फायर ब्रिगेड ने पानी निकालने का असफल प्र किया। पाँचवें दिन इंजन लगाकर पानी निकाला गया। कोठी के चारों ओर मिट्टी डाली गई। इस प्रकार पूरे एक सप्ताह बाद जल-बाधा दूर हुई। – लेखक के घर का ही यह हाल नहीं था अपितु कई स्थानों पर ऐसा ही दृश्य दिखाई दे रहा था। बाढ़ में गाँव के गाँव जलमग्न हो गए। अनेक लोग मौत के शिकार हो गए। जो लोग घर से बाहर गए हुए थे उनको घर लौटना मुश्किल हो गया। सड़कें टूट गईं, पुल बह गए। सभी शिक्षा संस्थाओं में बाढ़-पीड़ितों को आश्रय दिया गया। सभी बाढ़-पीड़ितों की सहायता कर रहे थे। लेखक के परिवार को भी जैन बोर्डिंग में आश्रय मिला। लेखक ईश्वर से प्रार्थना करता है कि वह इस बाढ़ की पुनरावृत्ति न कराए।

नर से नारायण संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

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प्रश्न 1.
सितंबर के महीने में, पानी की त्राहि-त्राहि मची हुई थी। मैंने भी धर्म-पालन के लिए पास के एक खेत में चरी बो रखी थी। ज्वार की पत्तियाँ ऐंठ-ऐंठकर बत्तियाँ बन गई थीं। मैं भी जीव-दया प्रचारिणी सभा का भूतपूर्व मेम्बर होने के नाते नौनिहाल, किंतु अब तन-मन मुाए हुए नव-उम्र पौधों की बेकसी पर और अपनी गाढ़ी कमाई के बीस रुपयों की बरबादी पर दो-चार आँसू बहा देता। लेकिन उनसे होता क्या? यदि वे रीतिकालीन काव्यों की विरहिणी गोपिकाओं के समान भी होते, जिनसे कि समुद्र का पानी खारा हो गया था, तो भी वे खारा होने के कारण सिंचाई का काम न देते। खैर, फिर भी गरीब किसानों की सार को भस्म करने वाली आहों के बादल बनते दिखाई दिए, ‘दिग्दाहों से धूम उठे या जलधर उठे क्षितिज तट के।

ऐसा मालूम होने लगा कि अब दीनदयाल के कान में भनक पड़ी और शायद यह न कहना पड़े ‘का वर्षा जब कृषि सुखानी’। ‘धूम-धुआँरे कारे कजरारे’ श्याम घनों को देखकर मेरा। मन-मयूर नृत्य करने लगा। बादलों की उपयोगिता की अपेक्षा मैं उनके सौन्दर्य से अधिक प्रभावित होता हूँ। बाहर घूमता फिरा, नन्हीं-नन्हीं बूंदों के सुखद शीतल स्पर्श से पुलकित हुआ। आनंद और कर्त्तव्य तथा श्रेय-प्रेय का समन्वय करने कॉलेज भी गया। यद्यपि मेरी सदा छुट्टी-सी रहती है तो भी वर्षा के कारण कॉलेज बंद हो जाने से बालकपन के संस्कारोंवश प्रसन्नता का अनुभव किया। धुली-धुलाई सड़कों की स्निग्ध चमकीली छटा तथा चारों ओर के नयनाभिराम छायावादी आर्द्र सौंदर्य का आस्वादन करता हुआ हँसता-खेलता, खेती की ओर हर्ष-पूर्ण दृष्टिपात करता हुआ उमंगभरे हृदय के साथ घर लौटा। (Page 5)

शब्दार्थ:

  • त्राहि-त्राहि करना – किसी आपदा के समय रक्षा के लिए प्रार्थना करना, गुहार लगाना।
  • जीव-दया – जीवों पर दया करना।
  • बेबसी – विवशता।
  • गाढ़ी कमाई – परिश्रम की कमाई।
  • आँसू बहाना – दुख व्यक्त करना।
  • विरहिणी – वियोगिनी।
  • सार – किसी पदार्थ का मुख्य या मूल भाग।
  • दिग्दाह – दिशाओं का जलना।
  • जलघर – बादल।
  • क्षितिज – वह काल्पनिक रेखा जहाँ पृथ्वी और आकाश मिलते प्रतीत होते हैं।
  • दीनदयाल – ईश्वर, भगवान।
  • कान में भनक पड़ना – जानकारी होना।
  • का वर्षा जब कृषि सुखानी – खेती सूखने पर वर्षा होने का क्या लाभ।
  • श्याम घन – काले बादल।
  • पुलकित – आनंदित होना, प्रसन्न होना।
  • छटा – शोभा।
  • उमंग – उत्साह।
  • स्निग्ध – चिकनी।

प्रसंग:
प्रस्तुत गद्यांश बाबू गुलाबराय द्वारा लिखित निबंध ‘नर से नारायण’ से उद्धृत है। इस पद में लेखक ने अवर्षा की स्थिति से प्रभावित प्रकृति की ओर संकेत किया है। बाद में आकाश में बादल छा जाते हैं। लेखक प्रफुल्लित हो जाता है। अपनी मनःस्थिति का वर्णन करते हुए वह कहता है –

व्याख्या:
सितंबर महीने तक वर्षा न होने के कारण पानी की कमी के कारण सभी इंद्रदेवता से सूखे से रक्षा करने के लिए गुहार लगा रहे थे। लेखक कहता है कि उसने भी धर्म का पालन करने के लिए पास के एक खेत में चरी बो रखी थी। पानी की कमी के कारण खेत में खड़ी ज्वार के पौधों की पत्तियाँ सूखकर, ऐंठकर बत्तियों-सी बन गई थीं। अर्थात् ज्वार की फसल सूखकर नष्ट हो रही थी। लेखक जीवों पर दया करने का प्रचार करने वाली संस्था का भूतपूर्व नौजवान सदस्य था। किंतु अब सूखे की स्थिति के कारण खेत में उत्पन्न नए-नए पौधों के तन-मन से मुरझाते जाने की विवशता और अपनी मेहनत से कमाये गए बीस रुपयों के बरबाद होते चले जाने पर आँसू बहाकर दुख व्यक्त कर रहा था।

अर्थात् लेखक ने अपनी मेहनत की कमाई के बीस रुपयों से चरी के बीज खेत में बोए थे। उनमें अंकुर फूटकर पौंधे बन गए थे किंतु पानी के अभाव के कारण चरी के वे नए पौधे सूखने लगे थे। लेखक को अपने बीस रुपये बरबाद होने का दुख हो रहा था। परंतु उसके दुख व्यक्त करने से कुछ होने वाला नहीं था। यदि उसके आँसू रीतिकालीन काव्यों की वियोगिनी नायिकाओं की भाँति भी होते, जिनके आँसुओं के कारण समुद्र का पानी खारा हो गया था, तो भी आँसुओं के खारा होने के कारण सिंचाई के काम न आते। इस प्रकार रीतिकालीन कवियों ने वियोगिनी नायिकाओं के आँसुओं का बढ़ा-चढ़ा कर वर्णन किया है। उनके आँसुओं के समुद्र में मिलने के कारण समुद्र का पानी खारा हो गया था।

फिर भी गरीब किसानों की किसी पदार्थ को भस्म करने वाली आहों (कराहने की आवाज) से आकाश में बादल छाते दिखाई पड़ने लगे। उन किसानों की आहों से दिशाओं के जलने से धुआँ उठा या क्षितिज के किनारे बादल उठे, यह निश्चित नहीं हो रहा था। लेकिन आकाश में उठे बादलों को देखकर ऐसा लगता था कि दीन-दुखियों पर दया करने वाले ईश्वर के कानों में अब उनकी आवाज पहुँच गई है और संभवतः यह न कहना पड़ेगा कि कृषि (खेती) सूखने पर वर्षा होने का क्या लाभ? निस्संदेह काले बादलों को देखकर लगता था कि अब वर्षा होगी और खेती सूखने से बच जाएगी। लेखक कहता है कि आकाश में काजल के समान काले-काले बादलों को उमड़ते-घुमड़ते देखकर उसका मन प्रसन्नता से झूम उठा।

वह बादलों की उपयोगिता के स्थान पर उनकी सुंदरता से अधिक प्रभावित होता है। वह वर्षा की छोटी-छोटी बूंदों का आनंद लेते हुए घर से बाहर निकल पड़ता है। घूमते-फिरते बूंदों के सुख देने वाले ठंडे स्पर्श से प्रसन्न हो उठा। आनंद और कर्त्तव्य तथा श्रेय-प्रेय का समन्वय करने के लिए वर्षा में ही कॉलेज भी चला गया। यह बात अलग है कि उसकी तो सदा छुट्टी ही रहती है तब भी वर्षा में कॉलेज बंद हो जाने के कारण बालकपन के संस्कारों के कारण प्रसन्नता का अनुभव किया।

अर्थात् जैसे बालकपन में वर्षा के कारण स्कूल बंद होने पर आनंद का, प्रसन्नता का अनुभव होता था उसी प्रकार अब कॉलेज के बंद होने पर प्रसन्नता का अनुभव हुआ। वर्षा के कारण धुलकर साफ़-सुथरी हुई सड़कों की चमकीली शोभा तथा प्रकृति में चारों ओर प्राकृतिक सौंदर्य का रसपान करता हुआ तथा हँसता-खेलता हुआ, खेतों की ओर प्रसन्नतापूर्वक देखता हुआ, उत्साहभरे हृदय से वापस आया।

विशेष:

  1. इन पंक्तियों में लेखक ने अवर्षा के प्रभाव का वर्णन किया है। बाद में वर्षा होने के प्रभाव को व्यक्त किया है। वर्षा के प्राकृतिक सौंदर्य का आकर्षक चित्रण किया गया है।
  2. भाषा संस्कृत प्रधान है।
  3. शैली वर्णनात्मक एवं आत्मनिष्ठ है।
  4. मुहावरों और लोकोक्तियों के कारण गद्यांश आकर्षक बन पड़ा है।
  5. लोकोक्तियों के प्रयोग से सजीवता आ गई है।

गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
लेखक ने किस धर्म-पालन की बात की है?
उत्तर:
लेखक ने खेती करने के धर्म-पालन की बात की है। धर्म-पालन के लिए उसने खेत में चरी बोई थी।

प्रश्न (ii)
ज्वार की पत्तियाँ ऐंठ-ऐंठकर बत्तियाँ क्यों बन गई थीं?
उत्तर:
पानी की कमी के कारण ज्वार की पत्तियाँ ऐंठकर बत्तियाँ बन गई थीं।

प्रश्न (iii)
किसानों की आहों का क्या प्रभाव हुआ?
उत्तर:
किसानों की आहों का यह असर हुआ कि आकाश में बादल उमड़ने-घुमड़ने लगे।

गद्यांश पर आधारित बोधात्मक प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
लेखक किंस संस्था का भूतपूर्व सदस्य था?
उत्तर:
लेखक जीव-दया प्रचारिणी सभा का भूतपूर्व सदस्य था।

प्रश्न (ii)
आँसुओं का पानी कैसा होता है?
उत्तर:
आँसुओं का पानी खारा होता है। इस कारण सिंचाई के काम नहीं आ सकता।

प्रश्न (iii)
लेखक बादलों के किस रूप से प्रभावित होता है?
उत्तर:
लेखक बादलों के सौंदर्य रूप से अधिक प्रभावित होता है।

प्रश्न 2.
मैं अपने तहखाने के रोशनदानों पर गर्व किया करता था कि मैं उनके कारण सायंकाल को भी वहाँ बैठकर लिख-पढ़ सकता था। जो महाशय मेरा मकान देखने की कृपा करते, उनसे मैं आर-पार वायु संचार की तारीफ बड़ी प्रसन्नता के साथ करता था, क्योंकि उससे मुझे अपनी टूटी-फूटी शान और स्वास्थ्य-विज्ञान संबंधी ज्ञान के प्रदर्शन का मौका मिल जाता। सौंदर्यप्रिय होते हुए भी तहखाने के झरनों के पुष्ट मांसल सौंदर्य का आस्वादन न कर सका। यदि घर फूंक तमाशा भी देखना चाहता तो नामुमकिन हो गया था।

एक साथ बिजली ठप्प हो गई। घर फूंक तमाशा देखने वाले को कम से कम प्रकाश की तो जरूरत नहीं होती। यहाँ तो पूर्व जन्म के पापों के उदय होने के कारण ‘असूर्या नाम ते लोकाः अन्धेन तमसावृताः’ का दृश्य. उपस्थित हो गया। घनी कालिमा बिना स्तर-स्तर जमे ही पीन होने लगी। सूची-भेद्य अंधकार का साम्राज्य हो गया। हाथ को हाथ नहीं सूझता था। बाइबिल के आदर्श दानी की भाँति दायाँ हाथ बाएँ हाथ की बात नहीं जान सकता था। सर से सर टकराने की नौबत आ गई थी। लालटेन की पुकार होने लगी। (Pages 5-6)

शब्दार्थ:

  • तहखाना – जमीन के नीचे बना हुआ कमरा।
  • गर्व – घमंड, अभिमान।
  • तारीफ़ – प्रशंसा।
  • मांसल – मांस से भरा हुआ, पुष्ट।
  • आस्वादन – स्वाद लेना।
  • नामुमकिन – असंभव।
  • पीन-भरा – पूरा, स्थूल।
  • नौबत – स्थिति।

प्रसंग:
प्रस्तुत गद्यांश बाबू गुलाबराय द्वारा लिखित निबंध ‘नर से नारायण’ से लिया गया है। लेखक अपनी कोठी में बने तहखाने का वर्णन करने के साथ-साथ, वर्षा के प्रभाव का वर्णन कर रहा है।

व्याख्या:
लेखक कहता है कि कोठी में जमीन के अंदर बने कमरे (तहखाने) के रोशनदानों पर उसे बड़ा घमंड था, क्योंकि इन रोशनदानों से रोशनी के साथ-साथ वायु का आवागमन निरंतर होता रहता था। इन्हीं रोशनदानों के कारण वह तहखाने में बैठकर शाम को भी लेखन-कार्य कर सकता था। जो भी व्यक्ति लेखक का मकान देखने आता, लेखक उन्हें अपने तहखाने को दिखाता और उसमें वायु के आने-जाने के लिए बने रोशनदानों की बड़ाई करता। वायु संचार की व्यवस्था बताता। इसके कारण लेखक को अपनी झूठी शान और स्वास्थ्य-विज्ञान संबंधी अपनी शान का दिखावा करने का अवसर मिलता था।

लेखक कहता है कि वह सौंदर्यप्रिय होते हुए भी तहखाने के रोशनदानों से तहखाने के अंदर गिरने वाले बाढ़ के पानी के झरनों के मांस से भरे हुए अर्थात् पुष्ट सौंदर्य के स्वाद का आनंद नहीं ले सका। परंतु यदि वह हानि उठाकर प्रसन्न होना चाहता तो भी यह असंभव हो गया था। अर्थात् तहखाने में रोशनदानों से बाढ़ का पानी भर गया था, अतः उसमें गिरने वाले बाढ़ के पानी के झरनों के सौंदर्य का आनंद लेना संभव नहीं था।

हानि उठाकर प्रसन्न होने के लिए प्रकाश की आवश्यकता होती है क्योंकि अंधकार में सौंदर्य को नहीं देखा जा सकता। यहाँ तो स्थिति यह हो गई थी कि पिछले जन्म के पापों के कारण असूर्या के नाम लेने मात्र से ही जैसे संसार में अंधकार फैल जाता है, उसी प्रकार पूरे मकान में बिजली चली जाने के कारण अंधकार फैल जाने का दृश्य उपस्थित हो गया था।

अँधेरे के कारण हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था। बाइबिल में वर्णित दानी की तरह दायाँ हाथ बाएँ हाथ की बात नहीं जान सकता था। अर्थात् बाइबिल में कहा गया है. कि दान देते समय एक हाथ दूसरे हाथ की बात न जान पाए, वही श्रेष्ठ दान होता है। अंधकार के कारण घर के सदस्यों के बीच परस्पर टकराने की स्थिति आ गई थी। कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। ऐसी स्थिति में लालटेन की तलाश होने लगी।

विशेष:

  1. लेखक ने मकान में बने तहखाने के हवा और प्रकाशयुक्त होने का वर्णन करने के साथ-साथ उसमें बने रोशनदानों से बाढ़ का पानी अंदर घुसने का वर्णन किया है।
  2. बिजली जाने की स्थिति का वर्णन किया है।
  3. भाषा संस्कृत प्रधान है।
  4. मुहावरों और लोकोक्तियों का सटीक प्रयोग किया गया है।
  5. वर्णनात्मक शैली के साथ-साथ उदाहरण शैली प्रयुक्त है।

गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
लेखक को किस पर और क्यों गर्व था?
उत्तर:
लेखक को तहखाने में बने रोशनदानों पर बड़ा गर्व था क्योंकि उनसे प्रकाश के साथ-साथ वायु का आर-पार संचार होता था।

प्रश्न (ii)
तहखाने के झरने किसे कहा गया है?
उत्तर:
तहखाने के रोशनदानों से उसके अंदर गिरते बाढ़ के पानी की धाराओं को तहखाने के झरने कहा गया है।

प्रश्न (iii)
‘हाथ को हाथ न सूझना’ मुहावरे का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
गहन अंधकार होना।

गद्यांश पर आधारित बोधात्मक प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
तहखाने में अंधकार क्यों हो गया था?
उत्तर:
बिजली गुल हो जाने के कारण तहखाने में क्या पूरे घर में अंधकार हो गया था।

प्रश्न (ii)
किसको प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती?
उत्तर:
घर फूंककर तमाशा देखने वाले को प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती।

प्रश्न (iii)
लालटेन की पुकार क्यों होने लगी?
उत्तर:
बिजली गुल होने के कारण गहनं अंधकार हो गया, किसी को कुछ दिखाई नहीं दे रहा था, इसलिए लालटेन की पुकार होने लगी।

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प्रश्न 3.
मैं अपने हाल को नूह की किश्ती या मनु की नौका समझ रहा था। उस समय तक भी, चिंता की प्रथम रेखा मेरे ललाट के प्रांगण में खेलती हुई नहीं दिखाई दी, किंतु थोड़ी ही देर में पास के कमरे से ‘चलियो’ की आवाज आई। मेरे बाग के माली श्री मंगलदेव जी मेरे मंगल-विधान में सदा दत्तचित्त रहते थेचिल्ला उठे, ‘बाबू जी उधर ही रहना।’ मैं समझा कहीं से साँप आ गया। खैर, यह भी सही। मेरे दूसरे चाकर देव श्री रणधीर जी ने बड़ी धीरतापूर्वक कहा कि कुछ नहीं, जमीन बैठ गई है। बड़े आदमियों की भाँति उसकी बात भी आधी सच थी।

जमीन बैठी थी और फर्श के पत्थर आपस में सर से सर मिलाकर खड़े हो गए थे, मानो वे सचेत होकर मेरे परित्राण का उपाय सोच रहे हों। उसी समय मेरी गुर्विणी महिषी (भैंस) की, जिसको कलियुग के व्यास जी ने अपनी कविता से अमर कर दिया है, समस्या मेरे सामने आई। उसका छप्पर भी तालाब बन चुका था। उस पर भी एक त्रिपाल डालकर उसे दरवाजे पर खड़ा किया। बहुत कोशिश करने पर . भी बरामदे में पैर न रखा, शायद वह जानती थी कि उसका भी फर्श धसकेगा। (Page 6) (M.P 2009)

शब्दार्थ:

  • नूह – आदम से दसवीं पीढ़ी में पैदा हुए एक पैगंबर (जिनके समय में एक ऐसा तूफान आया था कि सारी सृष्टि जलमग्न हो गई थी। उस समय अपने परिवार तथा जानवरों के एक-एक जोड़े के साथ स्वनिर्मित नौका में बैठाकर इन्होंने सबके प्राण बचाए थे और उन्हीं से पुनः सृष्टि चली।
  • मनु – ब्रह्म के मानस पुत्र आदि प्रजापति।
  • किश्ती – नौका।
  • ललाट – माथा।
  • चाकर – नौकर, सेवक।
  • परित्राण – रक्षा।

प्रसंग:
प्रस्तुत गद्यांश बाबू गुलाबराय द्वारा लिखित निबंध ‘नर से नारायण’ से लिया गया है। इन पंक्तियों में अति बारिश के कारण लेखक के मकान पर होने वाले प्रभाव का वर्णन किया गया है। वर्षा ने उसके घर को बुरी तरह क्षतिग्रस्त कर दिया है।

व्याख्या:
वर्षा की अधिकता के कारण लेखक के मकान के चारों ओर पानी भर गया और पूरा घर जगह-जगह से क्षतिग्रस्त हो गया। कहीं फर्श टूट गया तो कहीं जमीन धंस गई। लेखक स्वयं को इस स्थिति में अपने जलमग्न घर को नूह की नौका अथवा मनु की नौका समझ रहा था। नूह और मनु ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने जल प्रलय की स्थिति में नौका में बैठकर अपने प्राण बचाए थे और उन्हीं से सृष्टि चली थी। जब तक घर चारों ओर से जलमग्न हो रहा था तब तक लेखक के माथे पर चिंता की एक भी रेखा दिखाई नहीं दी थी, किंतु जब पास के कमरे से चलियो’ की आवाज आई तो वह चिंतित हो उठा।

उसके बाग की देखभाल करने वाले माली मंगलदेव जी जो उसके हित के लिए सदैव दत्तचित्त होकर काम में लगे रहते थे, उन्होंने चिल्लाकर कहा, “बाबूजी उधर ही रहना।” लेखक को कुछ स्पष्ट समझ नहीं आया। उसे लगा कि कोई साँप आ गया होगा, जिसके कारण मंगलदेव ने उधर आने से मना किया होगा। लेखक ने सोचा, चलो यह भी होना था। उनके दूसरे सेवक जिसका नाम रणधीर था, अपने नाम को सार्थक करते हुए बड़े धैर्य के साथ कहा कि कुछ नहीं हुआ, केवल जमीन बैठ गई है। लेखक कहता है जिस प्रकार बड़े आदमियों की बात आधी ही सच होती है, उसी प्रकार मेरे नौकर की बात भी आधी सच थी। जमीन तो धंसी ही थी उसके साथ फर्श भी बैठ गया था। फर्श के पत्थर उखड़कर एक-दूसरे के किनारे से मिलकर खड़े हो गए।

अर्थात् फर्श भी टूट-फूट गया था। फर्श के खड़े हुए पत्थर ऐसे प्रतीत होते थे, मानो वे खड़े होकर लेखक की रक्षा का उपाय सोच रहे हों। उसी समय लेखक की गुणवंती भैंस, जिसको कलयुग के व्यासजी ने अपनी कविताओं का विषय बनाकर अमर बना दिया है, की समस्या उसके सामने उत्पन्न हो गई। भैंस को जिस छप्पर में बाँधा जाता था वह छप्पर भी अतिवर्षा से तालाब बन गया। अतः भैंस पर एक त्रिपाल डालकर घर के दरवाजे पर खड़ा किया गया। उसे बरामदे में बाँधने का बहुत प्रयत्न किया गया, परंतु उसने बरामदे में पैर नहीं रखा। संभवतः वह जानती थी कि उसका फर्श भी नीचे धंस जाएगा। बाद में बरामदे का फर्श भी बैठ गया।

विशेष:

  1. लेखक ने अतिवर्षा के कारण क्षतिग्रस्त हुए मकान की दुर्दशा का वर्णन किया है। नूह और मनु जैसे पौराणिक पात्रों की ओर संकेत किया गया है।
  2. भाषा संस्कृत प्रधान है।
  3. मुहावरों का सटीक प्रयोग हुआ है।
  4. वर्णनात्मक और उदाहरण शैली है।
  5. व्यंग्यात्मकता का समावेश है।

गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
लेखक के ललाट पर किस समय तक चिंता की प्रथम रेखा नहींदिखाई दी।
उत्तर:
जब लेखक का पूरा मकान बाढ़ के पानी में घिरता रहा, तब तक उसके ललाट पर चिंता की एक रेखा नहीं दिखाई दी।

प्रश्न (ii)
लेखक ने स्वयं के हाल को नूह की किश्ती या मनु की नौका क्यों समझता रहा था?
उत्तर:
प्रलयकाल में जब सारी पृथ्वी जलमग्न हो गई थी तो नूह अथवा मनु ने नाव में बैठकर जल-प्रवाह से अपने प्राणों की रक्षा की थी। लेखक भी जिस हाल में बैठा था, उसे ही प्राणों की रक्षा करने वाली नौका समझ रहा था।

प्रश्न (iii)
माली मंगलदेव के चिल्लाने का लेखन ने क्या अर्थ निकाला?
उत्तर:
माली मंगलदेव के चिल्लाने का लेखक ने अर्थ निकाला कि कोई साँप आ गया होगा।

गद्यांश पर आधारित बोधात्मक प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
लेखक ने अपने नौकर रणधीर की किस बात पर व्यंग्य किया है?
उत्तर:
लेखक ने रणधीर द्वारा बड़े धैर्य के साथ कही गई इस बात पर व्यंग्य किया है कि कुछ नहीं हुआ, जमीन बैठ गई है। अर्थात् नौकर की दृष्टि में जमीन बैठना कोई बड़ी बात नहीं थी।

प्रश्न (ii)
कलियुग का व्यास किसे कहा गया है?
उत्तर:
कलियुग का व्यास आजकल के कवियों को कहा गया है।

प्रश्न (iii)
लेखक के सामने भैंस की क्या समस्या आई?
उत्तर:
भैंस को जिस छप्पर में रखा जाता था, वह भी जलमग्न होकर तालाब बन गया था। अब लेखक के सामने भैंस को बचाने की समस्या उत्पन्न हो गई।

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प्रश्न 4.
मेरे एक पड़ोसी श्री बनर्जी साहब अपनी व्यवहार-कुशलता की दिव्य दृष्टि से मेरा भविष्य देख चुके थे। वे शाम को ही कह गए थे कि यदि कोई तकलीफ ही तो उनका मकान मेरे ‘डिसपोजल’ पर है। उस समय तो मैंने उनका सहानुभूतिपूर्ण निमंत्रण स्वीकार नहीं किया था, किंतु जब मेरे घर के सामने भी पानी बहने लगा और मेरा मकान प्रायद्वीप बन गया, बरामदे और शयनागार का भी फर्श बैठ गया और उनकी टाइलें मेरे बैठते हुए दिल की समता करने लगी तब जल्दी से मैंने बनर्जी साहब का निमंत्रण स्वीकार किया।

मकान में ताला लगाकर उनका द्वार खटखटाया। उन्होंने मुझे, मेरे नौकर तथा मेरी भैंस को अपने यहाँ आश्रय दिया। चिंता-ग्रस्त मनुष्य को जितनी निद्रा आ सकती है, उतनी ही नहीं उससे कुछ अधिक निद्रा मुझे आई, क्योंकि कोठी के लिए तो मैंने कड़ा जी कर मन में सोच लिया था, ‘इदन्न मम, इदं वरुणाय।’ निद्रा भंग करने की यदि कोई बात थी तो पड़ोस के सज्जनों और सज्जनाओं की करुण पुकार थी। मेरी भैंस तो सुरक्षित थी किंतु गरीब लोगों के जानवर चिल्ला रहे थे। बहुत कोशिश करने पर भी मैं उनकी कुछ सहायता न कर सका। अंधकार और जल के कारण ‘समुझ परहिं नहि पंथ’ की बात हो रही थी। (Page 6)

शब्दार्थ:

  • व्यवहार-कुशलता – आचरण की निपुणता।
  • दिव्य दृष्टि – सूक्ष्म दृष्टि, आंतरिक दृष्टि।
  • डिसपोजल – व्यवस्था, प्रबंध, अधिकार।
  • प्रायद्वीप – पानी से चारों ओर से घिरी भूमि।
  • निद्रा – नींद।
  • शयनागार – शयन कक्ष।
  • समता – समानता।
  • करुण – दयनीय।

प्रसंग:
प्रस्तुत गद्यांश बाबू गुलाबराय द्वारा लिखित निबंध ‘नर से नारायण’ से लिया गया है। लेखक का मकान बाढ़ के पानी से घिर गया था। कहीं जमीन धंस गई थी । तो कहीं फर्श बैठ गया था। उनके पड़ोसी बनर्जी ने लेखक से किसी भी तकलीफ में अपने घर में आश्रय लेने का प्रस्ताव रखा था। अंत में लेखक के परिवार को उनके घर में शरण लेनी पड़ी। इसी घटना का वर्णन उपर्युक्त पंक्तियों में किया गया है।

व्याख्या:
मेरे एक पड़ोसी श्री बनर्जी साहब अपनी आचार निपुणता की आंतरिक दृष्टि से मेरा भविष्य देख चुके थे। अर्थात् बनर्जी साहब लेखक के मकान की क्षतिग्रस्त स्थिति का अनुमान लगा चुके थे। इसीलिए एक पड़ोसी के नाते लेखक के घर आकर कह गए थे कि यदि कोई कठिनाई हो तो उनके घर का प्रयोग कर सकते हैं। उनका मकान लेखक के लिए प्रस्तुत है। उस समय तो लेखक ने उनका सहानुभूति से भरा निमंत्रण ठुकरा दिया था परंतु जब लेखक के घर के सामने भी पानी बहने लगा और उसके घर के चारों ओर पानी भरने से उसका घर प्रायद्वीप जैसा बन गया, उसके रहने, बैठने और सोने के लिए कोई स्थान नहीं रहा तब उसके निराश हृदय ने शीघ्रता से अपने पड़ोसी का निमंत्रण स्वीकार कर लिया।

वह अपने मकान में ताला लगाकर पड़ोसी के घर परिवार सहित पहुँचा और उनका दरवाजा खटखटाया। पड़ोसी ने लेखक और उनके सेवकों और उनकी भैंस को शरण दी। चिंता में डूबे मनुष्य को जितनी नींद आ सकती है, उससे अधिक नींद लेखक को आई क्योंकि उन्होंने अपनी कोठी के संबंध में अपना मन दृढ़ कर सोच लिया था कि यह मेरा नहीं है, यह इंद्र का है। लेखक कहता है कि यदि नींद भंग होने या करने की कोई बात अथवा कारण था तो पड़ोस में काछी और कुम्हार स्त्री-पुरुष की करुण पुकार थी। लेखक की भैंस तो सुरक्षित थी किंतु उन गरीब लोगों के जानवर डूबने के भय से चिल्ला रहे थे। लेखक कहता है कि मैं प्रयास करने के बाद भी उनकी जरा भी मदद नहीं कर पाया। अंधकार और पानी के भर जाने के कारण दूसरों के लिए कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था।

विशेष:

  1. लेखक ने अपने पड़ोसी की व्यवहार-कुशलता का परिचय दिया है। पड़ोसी ने लेखक को अपने घर में आश्रय देकर अच्छे पड़ोसी होने का कर्त्तव्य निभाया है।
  2. भाषा संस्कृत प्रधान है। संस्कृत के पूरे-पूरे वाक्य का भी प्रयोग किया गया है। भाषा में अंग्रेजी शब्द ‘डिसपोजल’ का भी प्रयोग हुआ है।
  3. भाषा में मुहावरों का भी सटीक प्रयोग हुआ है।
  4. वर्णनात्मक और उद्धरणात्मक शैली है।

गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
बनर्जी साहब लेखक का क्या भविष्य देख चके थे?
उत्तर:
वे लेखक के घर की स्थिति देखकर अनुमान लगा चुके थे कि उन्हें भविष्य में कष्ट होने वाला है।

प्रश्न (ii)
बनर्जी ने लेखक के सामने क्या प्रस्ताव रखा?
उत्तर:
लेखक के सामने बनर्जी ने प्रस्ताव रखा कि बाढ़ के प्रकोप से बचने के लिए वे सपरिवार उसके घर में आश्रय ले सकते हैं।

प्रश्न (iii)
लेखक ने अपने पड़ोसी बनर्जी के घर में आश्रय क्यों लिया?
उत्तर:
लेखक का घर पानी से घिर गया था। उसके तहखाने में पानी भर गया था तथा बरामदे और शयन कक्ष का फर्श बैठ गया था। उनके सुरक्षित रहने के लिए कोई स्थान नहीं बचा था। इसलिए लेखक ने पड़ोसी के घर में आश्रय लिया था।

गद्यांश पर आधारित बोधात्मक प्रश्नोत्तर

प्रश्न (i)
लेखक के पड़ोसी कौन थे?
उत्तर:
लेखक के पड़ोसी श्री बनर्जी साहब थे।

प्रश्न (ii)
पड़ोसी के घर में लेखक को कैसी नींद आई?
उत्तर:
पड़ोसी के घर में लेखक को चिंता में डूबे व्यक्ति से कुछ अधिक नींद आई।

प्रश्न (iii)
लेखक ने नींद भंग करने के क्या कारण बत 7 हैं?
उत्तर:
लेखक ने गरीब काछी-कुम्हारों की स्त्री-पुरुषों की क प पुकार और उनके जानवरों के चिल्लाने की आवाजों को नींद भंग करने के कारण बताए हैं।

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