MP Board Class 11th Special Hindi मुहावरे एवं लोकोक्तियों का अर्थ एवं प्रयोग

MP Board Class 11th Special Hindi मुहावरे एवं लोकोक्तियों का अर्थ एवं प्रयोग

(क) मुहावरे

वे छोटे-छोटे वाक्यांश हैं जिनके प्रयोग से भाषा में सौन्दर्य, प्रभाव, चमत्कार और विलक्षणता आती है। महावरा वाक्यांश होता है, अतः इसका स्वतन्त्र प्रयोग न होकर वाक्य के बीच में उपयोग किया जाता है। मुहावरे के वास्तविक अर्थ का ज्ञान होने पर ही इसका सही उपयोग हो सकता है। इसका सामान्य अर्थ न लेकर इसके गूढ़ अर्थ या व्यंजना से अर्थ समझना चाहिए। इसका उपयोग करने में इन बातों का ध्यान रखना चाहिए

  1. मुहावरे को पढ़कर उसमें छिपे अर्थ को समझने का प्रयास करना चाहिए।
  2. उसी के अर्थ से मिलती-जुलती घटना या बात को चुनकर संक्षेप में लिखना चाहिए।
  3. मुहावरे को उसी वाक्य में मिलाकर उसी काल की क्रिया में रख देना चाहिए।
  4. यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि मुहावरा प्रयोग करने से अनेक रूप ले सकता है, क्योंकि उसमें थोड़ा परिवर्तन हो जाता है।
  5. मुहावरे के मूल अर्थ में ही उसका प्रयोग नहीं होता। जैसे-अंगारों पर पैर रखना = संकट में पड़ जाना। आई. ए. एस. की परीक्षा में बैठना और सफलता पाना अंगारे पर पैर रखने जैसा है। अंगारे पर पैर रखने में जितना कष्ट होता है, उतना ही प्रशासनिक परीक्षा की तैयारी और परीक्षा उत्तीर्ण करने में होता है।

MP Board Solutions

यहाँ कुछ मुहावरे, उनके अर्थ और प्रयोग क्रमशः दिये जा रहे हैं
(1) अपना उल्लू सीधा करना (अपना मतलब सिद्ध करना)-ममता मेरी हिन्दी की कॉपी ले गयी, अपना उल्लू तो सीधा कर लिया, पर मैंने इतिहास की किताब माँगी तो मना कर दिया। [2013]
(2) अक्ल पर पत्थर पड़ना (बुद्धि भ्रष्ट हो जाना)-परीक्षा के समय वह रोजाना दिन में सो जाती थी, मानो उसकी अक्ल पर पत्थर पड़ गये हों।
(3) अन्धे की लाठी (एकमात्र आश्रय)-राकेश अपने बूढ़े बाप की अन्धे की लाठी [2009]
(4) अन्धेरे घर का उजाला (एकमात्र पुत्र)-दीपक शर्माजी के अन्धेरे घर का उजाला है।
(5) अक्ल चकराना (विस्मित होना, बात समझ में न आना)-रामबाबू के निधन का समाचार सुनकर तो अक्ल चकरा गयी।
(6) अलग-अलग खिचड़ी पकाना (सबसे अलग-अलग)-संगीता और अनुराधा दिन भर न जाने क्या अपनी अलग-अलग खिचड़ी पकाती रहती हैं।
(7) अंगार उगलना (कटु वचन बोलना)-जीजी या तो बोलती नहीं, जब बोलेंगी तो अंगार उगलेंगी।
(8) अगर-मगर करना (टालने का प्रयत्न करना)-भाभी से जब भी कमला की शादी की बात करो, वे अगर-मगर करने लगती हैं।
(9) अंग-अंग ढीला हो जाना (थक जाना)-ऑपरेशन होने के बाद से तो ऐसा लगता है कि अंग-अंग ढीले हो गये।
(10) अंकुश देना (वश में रखना)-पिताजी तीनों लड़कों पर सदैव अंकुश दिये रहते हैं।

(11) अपने मुँह मियाँ मिट्ठ (अपनी प्रशंसा आप करना)-अरुण हमेशा अपने मुँह मियाँ मिट्ठ बना रहता है।
(12) अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना (स्वयं की हानि करना)-रश्मि पढ़ाई अधूरी छोड़कर चली गयी, उसने अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार ली। [2009]
(13) अपना गला फँसाना (स्वयं को संकट में डालना)-मंजू की सगाई करके मैंने अपना गला फंसा दिया। [2009]
(14) अन्धे को दिया दिखाना (मूर्ख को उपदेश देना)-गाँव वालों से प्रौढ़ शिक्षा की बात करना अन्धे को दिया दिखाने जैसा है।
(15) अंगद का पैर होना (दृढ़ निश्चय से जम जाना)-राजीव तो अंगद के पैर की तरह जम गया है।
(16) अँगूठा दिखाना (साफ मना करना)-रानी से काम करने को कहा तो वह अंगूठा दिखाकर भाग गयी।
(17) अक्ल.के घोड़े दौड़ाना (अटकलें लगाना)-जब माला से पूछा कि सप्तर्षि कहाँ है तो वह अक्ल के घोड़े दौड़ाने लगी।
(18) अक्लमन्द की दुम बनना (मूर्ख होकर बुद्धिमानी की बात करना)-कमल व्यवसाय के बारे में कुछ बात समझता तो है नहीं, फिर भी अक्लमन्द की दुम बना रहता है।
(19) अपना-सा मुँह लेकर रहना (असफल होकर लज्जित होना)-जब मीनू निकी को छोड़कर सिनेमा चली गयी तो निकी अपना-सा मुँह लेकर रह गयी।
(20) अरण्यरोदन करना (निरर्थक बात करना)-नेताओं के वक्तव्य अरण्यरोदन की तरह हो गये हैं।

(21) आँखों का तारा होना (अत्यन्त प्रिय होना)-रुचि अपनी मम्मी की आँख का तारा है।
(22) आँख का किरकिरा होना (सदा खटकते रहना)-सुधीर की जब से पदोन्नति हुई है, वह सबकी आँख का किरकिरा हो गया।
(23) आँखों में पानी न रहना (बेशर्म हो जाना)-वह दिन भर व्यर्थ ही घूमता रहता है, उसकी आँखों में पानी ही नहीं रहा।
(24) आँख मूंद लेना (उदासीन होना, मर जाना)-अपना मकान बन जाने के बाद बड़े भैया ने हम सबकी तरफ से आँख मूंद ली।
(25) आड़े हाथ लेना (भर्त्सना करना, फटकारना)-इस बार जब सन्तोष फिर उपदेश देने लगा तो मैंने उसे आड़े हाथों लिया।
(26) नौ-नौ आँसू रोना (अधिक दुःखी होना)-शास्त्रीजी के निधन से देशवासी नौ-नौ आँसू रोये।
(27) आपे से बाहर होना (क्रोधित होना)-बिहारी छोटी-सी बात पर भी आपे से बाहर हो जाता है।
(28) आटे-दाल का भाव मालूम होना (विषम परिस्थितियों में यथार्थ ज्ञान मिलना)-सुरेशजी, शादी होने दो, फिर मालूम होगा आटे-दाल का भाव।
(29) आकाश के तारे तोड़ना (दुर्लभ वस्तु प्राप्त करना)-वह प्रीति को इतना प्यार करता है कि उसके लिए आकाश के तारे भी तोड़ सकता है।
(30) आसमान सिर पर उठाना (कोलाहल करना)-निष्ठा गुड़िया लेकर भागी तो जमाते ने रो-रोकर आसमान सिर पर उठा लिया।

(31) आकाश से बातें करना (ऊँचे उठते जाना)-सौरभ की पतंग आकाश से बातें करने लगी तो वह बहुत खुश हो गया।
(32) आँखें लाल-पीली करना (क्रोध करना)-उत्सव के मन की न हो तो वह प्रायः आँखें लाल-पीली करने लगता है।
(33) आँख का बिछाना (प्यार से स्वागत करना)-दीपावली पर सुधा ने लिखा; आओ, हम आँखें बिछाये बैठे हैं।
(34) आँख का काजल निकालना (ठग लेना)-प्रफुल्ल इतना चतुर है कि वह आँख का काजल निकाल ले और पता ही न चले।
(35) आग में घी पड़ना (क्रोधित का क्रोध बढ़ाना)-जब माताजी को राजू समझाने लगा तो पिताजी बोले-अरे, क्यों आग में घी डालता है?
(36) आकाश-पाताल का अन्तर (अत्यधिक फर्क होना)-नीता और गीता की आदत में आकाश-पाताल का अन्तर है।
(37) उड़ती चिड़िया पकड़ना (मन की बात आनना)-शास्त्री जी के पास जाओ, वे उड़ती चिड़ियाँ पकड़ लेते हैं।
(38) कान का कच्चा (अफवाहों पर विश्वास करना)-श्रीवास्तव जी कान के कच्चे हैं, तभी तो रावत की बातों को सत्य मान लेते हैं।
(39) कान में तेल डालना (अनसुनी करना)-क्यों विमला, आज कान मे तेल डालकर बैठी हो क्या?
(40) चेहरे पर हवाइयाँ उड़ना (सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाना)-जब जयकुमार से पूछा-कहाँ से आ रहे हो तो उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं।

MP Board Solutions

(41) हाथों के तोड़े उड़ जाना (होश उड़ना)-विष्णु घर से क्या गया, नीलिमा के हाथों के तोते उड़ गये।
(42) न तीन में न तेरह में (किसी के बीच में न पड़ना)-विभाग की कार्यवाही में कितनी ही गड़बड़ हुई, पर रमेश को क्या वह न तीन में न तेरह में।
(43) सूरज को दीपक दिखाना (ज्ञानवान को ज्ञान देना)-सन्ध्या जब हॉस्टल से घर आई तो नई-नई बातें बताकर सूरज को दीपक दिखा रही थी।
(44) पहाड़ टूट पड़ना (मुसीबत आ पड़ना)-पेट्रोल के दाम क्या बढ़े, जनता पर पहाड़ टूट पड़ा। [2012]
(45) ईद का चाँद होना (बहुत दिनों में दीखना)-स्वाति जब छुट्टियाँ मनाकर आई तो नीलम बोली, ‘अरे ! वाह तुम तो ईद का चाँद हो गयी।’
(46) हाथ कंगन को आरसी क्या? (प्रत्यक्ष को प्रमाण की जरूरत नहीं)-रेखा की चित्रकला के लिए हाथ कंगन को आरसी क्या? पूरा घर चित्रों से भरा है।
(47) चोली-दामन का साथ (घनिष्ठ सम्बन्ध)-प्रूफ रीडर और प्रकाशक का तो चोली-दामन का साथ है।
(48) जी चुराना (काम न करना, काम से डरना)-काशीराम हमेशा काम से जी चुराता है।
(49) कलम तोड़ना (अच्छी रचना करना)-आकाश जी जब कविता लिखते हैं, कलम तोड़ देते हैं।
(50) धूप में बाल सफेद करना (अनुभवहीन ज्ञान)-दादी ने रोहन को डाँटकर कहा, तुम मेरी बात मानने को तैयार नहीं हो क्या मैंने धूप में बाल सफेद किये हैं।

(51) बाल-बाँका न होना (हानि न होना)-विपत्ति में पड़ने पर धैर्य नहीं खोना चाहिये धैर्यवान व्यक्ति का बाल भी बाँका न होगा।
(52) सिर धुनना (पछताना)-दीपक ने अपनी सारी आदमनी जुये में गँवा दी अब सिर धुन रहा है।
(53) सिर पर कफन बाँधना (मरने से न डरना)-देश के वीर सिपाही युद्ध के लिये सिर पर कफन बाँधकर चलते हैं।
(54) आँखों में धूल झोंकना (धोखा देना)-आजकल ठग आँखों में धूल झोंककर किसी भी व्यक्ति को आसानी से लूट लेते हैं।
(55) कान खड़े करना (सतर्क रहना)-युद्ध स्थल में सैनिकों को सदैव कान खड़े रखना चाहिये।
(56) नाकों चने चबाना (तंग करना)-सीमा ने उधार के रुपये लौटाने में मुझे नाकों चने चबवा दिये।
(57) मुँह की खाना (पराजित होना)-भारत को क्रिकेट विश्व में मुंह की खानी पड़ी।
(58) दाँत खट्टे करना (हरा देना)- भारतीय सैनिकों ने कारगिल के युद्ध में पाकिस्तानी सेना के दाँत खट्टे कर दिये।
(59) छाती पर मूंग दलना (जान-बूझकर तंग करना)-सुरेश ने रमेश से कहा तुम अपना काम देखो व्यर्थ में मेरी छाती पर क्यों मूंग दल रहे हो। [2009]
(60) छाती पर साँप लोटना (ईर्ष्या करना)-पड़ोसी की सम्पन्नता को देखकर उसकी छाती पर साँप लोट गया।

(61) पेट में चूहे दौड़ना (भूख लगना)- गरीबों के धन अभाव के कारण पेट में चूहे दौड़ते रहते हैं।
(62) हथेली पर सरसों उगाना (जल्दी करना)-देवेन्द्र तुम कुछ देर प्रतीक्षा करो हथेली पर सरसों उगाने से क्या लाभ?
(63) हाथ पीले करना (विवाह सम्पन्न करना)-आधुनिक युग में दहेज प्रथा के कारण बेटी के हाथ पीले करना पिता के लिये कठिन समस्या है।
(64) हाथ धोकर पीछे पड़ना (बुरी तरह पीछे लगना)-बहुत से लोगों की आदत होती है कि वे अपनी स्वार्थपूर्ति के लिये व्यर्थ हाथ धोकर पीछे पड़ जाते हैं। [2012]
(65) होम करते हाथ जलना (अच्छे काम में बदनामी)-समाज सेवा ऐसा कार्य है जिसमें होम करते हाथ जलने की सम्भावना बनी रहती है।
(66) मुट्ठी गरम करना (भेंट देना)-आजकल मुट्ठी गर्म किये बिना कोई भी कार्य नहीं होता है।
(67) टेढ़ी अँगुली से घी निकालना (सीधे काम नहीं बनता)-दुष्ट व्यक्ति से कोई भी कार्य टेढ़ी अँगुली से घी निकालने के समान है।
(68) पाँचों अंगुलियाँ घी में (सब प्रकार से सुख)-लॉटरी निकलने के बाद रमेश की पाँचों अँगुलियाँ घी में हैं।
(69) कमर टूटना (थक जाना)-श्रमिकों की घोर परिश्रम के कारण कमर टूट जाती है।
(70) फॅक-फूंककर पैर रखना (सावधानी से चलना)-आज की स्पर्धा के युग में व्यापारी को अपनी उन्नति के लिये फूंक-फूंककर पैर रखना चाहिये।

(71) आँख लगना (झपकी आना)-टी. वी. देखते-देखते अचानक मेरी आँख लग गयी और चोर चोरी कर ले गये।
(72) आँखें दिखाना (क्रोध करना)-तुम मुझे आँखें दिखाकर भयभीत नहीं कर सकते। . (73) आँखों से गिर जाना (सम्मान खो देना)-लोग झूठ बोलने के कारण दूसरों को आँखों से गिर जाते हैं।
(74) आग लगाना (भड़काना)-कुछ लोगों की आदत आग लगाकर तमाशा देखने की होती है।
(75) आँसू पीना (दुःख में विवशता का अनुभव करना)-पुत्र की मृत्यु के बाद पिता को आँसू पीकर मौन रहना पड़ा।
(76) आँसू पोंछना (धीरज देना)-हमारा कर्त्तव्य है कि दुःख पड़ने पर सदैव दूसरों के आँसू पोंछने का प्रयास करें।
(77) आकाश कुसुम (अनहोनी, असम्भव बात)-सीमा के लिये पूरे उत्तर प्रदेश में प्रथम स्थान प्राप्त करना आकाश कुसुम के समान प्रमाणित हुआ।
(78) आस्तीन का साँप (विश्वासघाती)-आज के युग में प्रत्येक क्षेत्र में आस्तीन के साँप विद्यमान हैं। अत: उनसे सतर्क रहने की आवश्यकता है।
(79) आग बबूला होना (क्रोधित होना)-परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने पर राजू के पिता उस पर आग बबूला हो उठे। [2013]
(80) उल्टी गंगा बहना (विपरीत काम करना)- यह कार्य मेरे वश के बाहर है तुम तो सदैव उल्टी गंगा बहाते हो।

(81) उधेड़-बुन में पड़ना (दुविधा में पड़ना)-कार्य का अत्यधिक बोझ होने के कारण दीपक उधेड़-बुन में पड़ा है कि कौन-सा कार्य पहले पूरा करे।
(82) उल्लू बनाना (मूर्ख बनाना)-सोहन ने मोहन से कहा तुम कैसे धोखा खा गये तुम तो सबको उल्लू बनाने में माहिर हो।
(83) ऊँच-नीच समझना (भले-बुरे का विवेक होना)-बुद्धिमान व्यक्ति ऊँच-नीच समझकर अपना कार्य सम्पन्न करते हैं।
(84) एक आँख से देखना (समदर्शी)-माता-पिता को पुत्र एवं पुत्री को एक आँख से देखना चाहिये।
(85) एक लाठी से हाँकना (अच्छे-बुरे का अन्तर न करना)-सज्जन एवं दुर्जन को एक लाठी से हाँकना अनुचित है।
(86) कगार पर खड़े होना (मृत्यु के समीप)-व्यक्ति को कगार पर खड़े होने के समय ईश्वर याद आता है।
(87) कचूमर निकालना (अत्यधिक पिटाई करना)-पुलिस ने चोर को इतना प्रताड़ित किया कि उसका कचूमर निकल गया।
(88) कच्चा चिट्टा खोलना (पोल खोलना)-हत्यारे को पकड़ लिये जाने पर उसने अपने अपराध का कच्चा चिट्ठा खोल दिया।
(89) कदम चूमना (खुशामद करना)-आजकल लोग आगे बढ़ने के लिये अधिकारियों के कदम चूमते है।
(90) कलेजा जलना (असन्तोष से दुःख होना)-दूसरों की प्रगति देखकर अपना कलेजा जलाना मूर्खता है।

(91) कलेजा फटना (दुःखी होना)-पति की मृत्यु के बाद सीमा का कलेजा फट गया।
(92) कलेजे पर पत्थर रखना (दुःख में धैर्य रखना)-व्यापार में घाटा आने पर मोहन ने कलेजे पर पत्थर रखकर नौकरी करना शुरू कर दी।
(93) कान कतरना (किसी से बढ़कर काम दिखाना)-प्रवीण की पुत्रवधू प्रत्येक बात में इतनी निपुण है कि वह अच्छे-अच्छों का कान कतरती है।
(94) कान भरना (चुगली करना)-पड़ोसियों के कान भरना रीमा की पुरानी आदत है। [2012]
(95) कानाफूसी करना (आपस में चुपचाप सलाह करना)-विवाह में व्यवधान आने पर रोहित ने अपने सम्बन्धियों से कानाफूसी करना प्रारम्भ कर दी।
(96) कानों कान खबर न लगना (पता न लग पाना)-जनता पार्टी के चुनाव में जीत जाने की किसी को कानों कान खबर न थी। [2009]
(97) कान पर न रेंगना (तनिक भी प्रभाव न पड़ना)-मालिक ने नौकर से कहा कि मैं तुम्हें इतनी देर से बुला रहा हूँ पर तुम्हारे कान पर जूं नहीं रेंगती।
(98) कुत्ते की मौत मरना (बुरी मौत मरना)-पुलिस मुठभेड़ में दुर्दान्त डाकू कुत्ते की मौत मारा गया।
(99) कोरा जवाब देना (स्पष्ट मना करना)-विपत्ति के समय किसी को कोरा जवाब देना अच्छा नहीं है।
(100) कोल्हू का बैल (दिन-रात परिश्रम करना)-पिता ने पुत्र से कहा तुम इस नौकरी को छोड़ दो, दिन-रात कोल्हू के बैल की तरह पिले रहते हो फिर भी कुछ नहीं मिलता।

MP Board Solutions

(101) कौड़ी का न पूछना (तनिक भी सम्मान न करना)-आजकल के पुत्र वृद्ध होने पर माता-पिता को कौड़ी का भी नहीं पूछते हैं।
(102) कौड़ी-कौड़ी को मुहताज होना (अत्यधिक गरीब)-मोहन के घर चोरी हो जाने पर वह कौड़ी-कौड़ी को मुहताज हो गया।
(103) खटाई में पड़ना (काम रुक जाना)-चुनाव के कारण सड़क निर्माण का कार्य खटाई में पड़ गया।
(104) खाने को दौड़ना (क्रोध करना)-राम ने अपने पड़ोसी से कहा तुम व्यर्थ ही खाने को दौड़ रहे हो मैंने तुमसे क्या कहा है?
(105) खून खौलना (अत्यधिक क्रोधित होना)-पुत्र की शरारत को देखकर पिता का खून खौल गया।
(106) खयाली पुलाव पकाना (मन ही मन कल्पना करना)-खयाली पुलाव पकाने से कोई भी काम नहीं होता परिश्रम ही सफलता की कुंजी है।
(107) गरम होना (क्रोध आना)-आजकल के नवयुवकों में बात-बात पर गर्म होने की आदत है।
(108) गऊ होना (अत्यन्त सीधा होना)-रोहन का स्वभाव गऊ के समान है।
(109) गागर में सागर भरना (थोड़े में बहुत कहना)-बिहारी ने अपने दोहों में गागर में सागर भर दिया। [2017]
(110) गाल बजाना (बकवास करना)-परिश्रम करने से फल मिलेगा गाल बजाने से नहीं।

(111) गाल फुलाना (गुस्से में चुप होना)-सीमा ने गीता से कहा तुम तो हर समय गाल फुलाये रहती हो तुमसे कौन बात करेगा?
(112) गूलर का फूल होना (दर्शन न होना)-आज के युग में आदर्श व्यक्ति एक प्रकार से गूलर के फूल के समान हो गये हैं।
(113) गुड़ गोबर होना (बना बनाया काम बिगाड़ देना)-कार्य पूर्ण होने से पहले ही विनोद ने सब गुड़ गोबर कर दिया।
(114) गुलछरें उड़ाना (मौज मस्ती करना)-सोहन अपने पिता की मृत्यु के बाद उनकी सम्पत्ति से गुलछर्रे उड़ा रहा है।
(115) गोल-माल करना (घपला करना)-आजकल समाचार-पत्रों में सब गोल-माल के समाचार निकलते रहते हैं।
(116) गुल खिलना (रहस्य पता चलना)-पुलिस द्वारा पकड़े जाने पर पता चला कि देवेन्द्र ने कौन-कौनसे गुल खिलाये थे।
(117) घड़ों पानी पड़ना (लज्जित होना)-अपने पुत्र की करतूतों को सुनकर सोहन के पिता पर घड़ों पानी पड़ गया।
(118) घर फंक तमाशा देखना (अपनी परिस्थिति से अधिक व्यय करना)-घर फूंक तमाशा देखने वाले कभी जीवन में सफल नहीं होते।
(119) घाव पर नमक छिड़कना (दुःख में और दुःखी करना)-राम ने मोहन से कहा मैं तो खुद ही परेशान हूँ। तुम मेरे घावों पर नमक क्यों छिड़क रहे हो?
(120) घास खोदना (व्यर्थ समय गँवाना)-अध्यापक ने छात्र से कहा कि इतने सरल प्रश्न भी नहीं कर पा रहे हो साल भर क्या घास खोदते रहे?

(121) चम्पत हो जाना (गायब हो जाना)-पुलिस को देखकर अपराधी चम्पत हो जाते हैं।
(122) चिकना घड़ा होना (किसी बात का असर न होना)-श्याम को कितना ही समझाओ लेकिन वह तो चिकना घड़ा हो गया है। किसी की बात सुनता ही नहीं।
(123) चिकनी-चुपड़ी बातें करना (बनावटी प्रेम दिखाना)-आजकल का युग चिकनी-चुपड़ी बातें करके काम बनाने का हो गया है।
(124) चित्त कर देना (हराना)-हॉकी के खेल में सेन्ट पीटर्स स्कूल के छात्रों ने राधा बल्लभ स्कूल के छात्रों को चित्त कर दिया।
(125) चुल्लू भर पानी में डूब मरना (अत्यन्त लज्जित होना)-परीक्षा में बार-बार अनुत्तीर्ण होने पर पिता ने पुत्र से कहा तुम चुल्लू भर पानी में डूब मरो।
(126) चेहरे का रंग उतरना (निराशा का अनुभव होना)-चोरी पकड़े जाने पर सुरेश के चेहरे का रंग उतर गया।
(127) चैन की बंशी बजाना (सुखपूर्वक रहना)-लॉटरी निकल आने पर महेश चैन की बंशी बजा रहा है।
(128) छक्के छूटना (पराजित होना)-भारतीय सैनिकों के समक्ष पाकिस्तान की सेना के छक्के छूट गये।
(129) छक्के छुड़ाना (निरुत्साह करना)-लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये।
(130) छक्के पंजे करना (मौज मनाना)-पूँजीपति बिना श्रम के छक्के पंजे करते रहते हैं।

(131) छठी का दूध याद आना (अत्यधिक परेशानी का अनुभव करना)-पर्वतारोहियों को दुर्गम चढ़ाई चढ़ने में छठी का दूध याद आ गया।
(132) छाती पर साँप लोटना (ईर्ष्यावश दुःखी होना)-पड़ोसी की प्रगति को देखकर रवीन्द्र की छाती पर साँप लोटने लगा है।
(133) छिद्रान्वेषण करना (दोष ढूँढ़ना)-मित्रों का छिद्रान्वेषण करना उचित नहीं होता है।
(134) छापा मारना (छिपकर आक्रमण करना)-विद्युत् विभाग ने बड़े-बड़े व्यापारियों पर छापा मारना शुरू कर दिया।
(135) छींटाकशी करना (व्यंग करना)-बहुत-से लोगों की प्रवृत्ति दूसरों पर छींटाकशी करके प्रसन्न होने की होती है।
(136) छाया करना (संरक्षण देना)-पिता पुत्र के निमित्त सदैव छाया बनकर रहता है।
(137) जबान में लगाम रखना (सम्भल कर बात करना)-बड़ों के समक्ष हमेशा जबान में लगाम रखकर बात करनी चाहिये।
(138) जबान चलना (जरूरत से ज्यादा बोलना)-तुम चुप क्यों नहीं रहते व्यर्थ में जबान चला रहे हो।
(139) जबानी जमा खर्च (व्यर्थ की बातें)-विकास कार्य की योजनाएँ आजकल जबानी जमा खर्च तक सीमित रह गयी हैं।
(140) जमीन-आसमान एक करना (सीमा से अधिक कर गुजरना)-परीक्षा के समय विद्यार्थी जमीन-आसमान एक कर देते हैं।

(141) जमीन पर पाँव न रखना (अभिमान करना)-अचानक धन प्राप्त होने पर महेश के पाँव जमीन पर नहीं पड़ते।
(142) जली-कटी सुनाना (भली-बुरी कहना)-नौकर के उचित प्रकार काम न करने पर मालिक ने उसे जली-कटी सुनाना प्रारम्भ कर दिया।
(143) जड़ खोदना (समूल नष्ट करना)-चाणक्य ने अपनी कूटनीति से नन्दवंश की जड़ खोद दी।
(144) जड़ तक पहुँचना (कारण का पता लगा लेना)-हमें बात की जड़ तक पहुँचे बिना किसी पर आरोप नहीं लगाना चाहिये।
(145) जहर बोना (दूसरे के लिये संकट उत्पन्न करना)-बहुत से लोगों का स्वभाव जहर बोकर दूसरों को कष्ट पहुँचाने का होता है।
(146) जहर उगलना (उग्र बातें करना)-पाकिस्तानी शासक हमेशा भारत के विरुद्ध जहर उगलते रहते हैं।
(147) जहर का यूंट पीना (क्रोध रोके रहना)-झगड़ा हो जाने पर रमेश जहर का यूंट पीकर रह गया।
(148) जान पर खेलना (जोखिम का काम करना)-सुरेश ने अपनी जान पर खेलकर डूबते बच्चे की जान बचायी।
(149) जान में जान आना (भय टल जाना)- भूकम्प समाप्त होने पर लोगों की जान में जान आ गयी।
(150) जान के लाले पड़ना (संकट पड़ना)-अकालग्रस्त क्षेत्र में अन्न के अभाव के कारण जान के लाले पड़ जाते हैं।

(151) आपे से बाहर होना (क्रोध में होश खो बैठना)-जगदीश ने श्याम से कहा मेरी जरा सी भूल पर तुम आपे से बाहर क्यों हो रहे हो?
(152) जी हल्का होना (शान्ति प्राप्त होना)-पुत्र को रोग से मुक्त देखकर माँ का जी हल्का हो गया।
(153) जी छोटा करना (निराश होना)-रमेश ने मोहन से कहा मैं तुम्हारी सहायता के लिये तैयार हूँ तुम जी छोटा क्यों करते हो?
(154) जी खट्टा होना (स्नेह कम होना)-पैतृक सम्पत्ति में विधिवत् विभाजन न होने पर भाइयों का आपस में जी खट्टा हो गया।
(155) जी का जंजाल (परेशानी का कारण)-दुष्ट का संग जी का जंजाल होता है।
(156) जीती बाजी हारना (काम बनते-बनते बिगड़ जाना)-सचिन के चोट लगने के कारण भारतीय टीम जीती बाजी हार गयी।
(157) झाँसा देना (धोखा देना)-अपराधी पुलिस वाले को झांसा देकर भाग गया।
(158) टकटकी बाँधना (एकटक देखना)-पपीहा स्वाति नक्षत्र के बादलों को टकटकी लगाकर देखता रहता है।
(159) टस से मस न होना (अड़े रहना)-रावण विभीषण के लाख समझाने पर भी टस से मस नहीं हुआ।
(160) टाँग अड़ाना (बाधा डालना)-पिता ने पुत्र को समझाते हुए कहा बड़ों के बीच में टाँग अड़ाना अनुचित है।

MP Board Solutions

(161) टाँग पसार कर सोना (निश्चिन्त होना)-बेटी का विवाह सम्पन्न होने पर माता-पिता टाँग पसार कर सोते हैं।
(162) टोपी उछालना (अपमान करना)-बरात को लौटाकर वर पक्ष ने कन्या के पिता की टोपी उछालकर अच्छा नहीं किया।
(163) ठोकना बजाना (पूर्णतः परख के देखना)-आधुनिक युग में नौकरों को ठोक बजाकर ही काम पर रखना चाहिये।
(164) डंके की चोट पर कहना (खुलेआम दृढ़तापूर्वक कहना)-प्रत्येक भारतीय डंके की चोट पर कहता है कि कश्मीर हमारा है।
(165) डींग हाँकना (झूठी शेखी बघारना)-बहुत से लोगों की व्यर्थ में ही डींग मारने की आदत होती है।
(166) ढिंढोरा पीटना (व्यर्थ प्रचार करना)-नौकरी मिलने से पूर्व ही मोहन ने ढिंढोरा पीटना प्रारम्भ कर दिया कि वह एक उच्च अधिकारी बन गया है।
(167) ढोल में पोल होना (सारहीन सिद्ध होना)-आजकल के नेताओं के कथन ढोल में पोल सिद्ध होते हैं।
(168) ढाल बनना (सहारा बनना)-पत्नी के लिये पति ढाल के समान होता है।।
(169) दुलमुल होना (अनिश्चय)-व्यक्ति को जीवन में सफलता प्राप्त करनी हो तो ढुलमुल नीति से नहीं चलना चाहिये।
(170) ढील देना (छूट देना)-माता-पिता द्वारा बच्चों को अधिक ढील देना हानिकारक सहा

(171) तलवे चाटना (खुशामद)-आजकल बहुत से लोग दूसरों के तलवे चाटकर अपना काम बना लेते हैं।
(172) तारे गिनना (नींद न आना)-सीताजी राम के विरह में तारे गिन-गिन कर अपना समय व्यतीत करती थीं।
(173) तिल का ताड़ बनाना (छोटी बात को बढ़ा-चढ़ाकर कहना)-राम ने मोहन से कहा तुमने तिल का ताड़ बनाकर बने काम को बिगाड़ दिया।
(174) तिलांजलि देना (पूरी तरह त्याग देना)-झूठ को तिलांजलि देना सफलता का द्योतक है।
(175) तितर-बितर होना (अलग-अलग होना)-पुलिस को देखकर जुआरी तितर-बितर हो गये।
(176) तीन तेरह होना (तितर-बितर होना)-पिता की मृत्यु के उपरान्त सम्पूर्ण परिवार तीन तेरह हो गया। [2013]
(177) तूती बोलना (अधिक प्रभावशाली होना)-.-आजकल देश में आतंकवादियों की तूती बोल रही है।
(178) थूक कर चाटना (बात कहकर मुकर जाना)-पाकिस्तानी शासकों का स्वभाव थूक कर चाटने जैसा है।
(179) दम मारना (थोड़ा विश्राम करना)-परीक्षा समाप्त होने के उपरान्त विद्यार्थियों को दम मारने की फुरसत मिली।
(180) माथा ठनकना (पहले से ही विपरीत बात होने की आशंका)–पिता को अत्यधिक रोगग्रस्त देखकर मृत्यु की आशंका से पुत्र का माथा ठनक गया।

(181) कपाल क्रिया करना (मार डालना)-वीर युद्धभूमि में शत्रुओं की कपाल क्रिया करके ही चैन की साँस लेते हैं।
(182) भाग्य फूटना (दुर्भाग्य का आना)-एकमात्र पुत्र का निधन होने पर उसकी माँ के भाग्य ही फूट गये।
(183) नमक हलाली करना (ईमानदारी बरतना)-स्वामिभक्त सेवक नमक हलाली करके अपनी वफादारी का परिचय देते हैं।
(184) बाल-बाल बचना (परेशानी आने से बचना)-ट्रक की चपेट में आने पर भी वह मौत से बाल-बाल बच गया।
(185) नाक भौं सिकोड़ना (अप्रसन्नता प्रकट करना)-जरा-जरा सी बात पर नाक भौं सिकोड़ना उचित नहीं है।
(186) छोटे मुँह बड़ी बात (सीमा से अधिक कहना)-स्वामी ने नौकर से कहा छोटे मुँह बड़ी बात अच्छी नहीं होती।
(187) दाँतों तले उँगली दबाना (चकित होना) ताजमहल के सौन्दर्य को देखकर विदेशी दाँतों तले उँगली दबाते हैं।
(188) अँगुली उठाना (दोषारोपण करना)-बिना सोचे-समझे दूसरों पर अंगुली उठाकर लोग अपने दोषों पर पर्दा डालते हैं।
(189) ऐड़ी-चोटी का पसीना एक करना (भरपूर परिश्रम करना)-परीक्षा के समय छात्र ऐड़ी-चोटी का पसीना एक करके ही दम लेते हैं।
(190) गढ़े मुर्दे उखाड़ना (बीती बातें याद करना)-बहुत से लोगों का स्वभाव गढ़े मुर्दे उखाड़ना होता है।

(191) अंधेर मचाना (खुला अन्याय करना)-आजकल आतंकवादियों ने अंधेर मचा रखा है।
(192) अन्धा धन्ध (बिना रोक-टोक के)-अन्धा धुन्ध वाहन चलाने के कारण दुर्घटनाएँ घटित हो रही हैं।
(193) अपनी पड़ना (अपनी चिन्ता)-भूकम्प आने पर सबको अपनी-अपनी पड़ रही थी।
(194) अचकचाना (भ्रमित होना)-मानसिक दृष्टि से दुर्बल व्यक्ति प्रत्येक कार्य में अचकचाते रहते हैं।
(195) उखाड़-पछाड़ करना (आगे-पीछे की बातों को याद करके संघर्ष करना) उखाड़-पछाड़ करने से झगड़ा शान्त होने के बजाय और बढ़ जाता है।
(196) उठान रखना (पूर्ण प्रयास करना)-विपत्ति के समय उठान रखकर ही व्यक्ति को विपत्ति से मुक्ति मिलती है।
(197) कलेजा मुँह को आना (अत्यधिक दुःखी होना)-श्रवण कुमार की मृत्यु का समाचार सुनकर उसके माँ-बाप का कलेजा मुँह को आ गया।
(198) कलेजे पर हाथ रखना (अपने आप विचार करना)-विपत्ति पड़ने पर मोहन ने सोहन से कहा कि तुम अपने कलेजे पर हाथ रखकर देखो तब पता चलेगा।
(199) कान खड़े होना (सतर्क होना)-पुलिस के आने पर चारों के कान खड़े हो गये।
(200) काम आना (युद्ध में वीर गति को प्राप्त होना)-देश के वीर युद्धभूमि में काम आकर अमर हो जाते हैं।

(201) घमण्ड चूर करना (परास्त करना)-कारगिल के छद्म युद्ध में भारत ने पाकिस्तान का घमण्ड चूर कर दिया। [2015]
(202) मुँह छिपाना (काम से भागना)-राष्ट्रीय हित में प्रत्येक नागरिक को अपने कर्तव्य से मुँह नहीं छिपाना चाहिए। [2015]
(203) राह पर चलना (ठीक व्यवहार करना)-जीवन में मिली एक असफलता ने सुरेश को राह पर चलना सिखा दिया। [2015]
(204) हार न मानना (डटे रहना)-युद्धभूमि में भारतीय बहादुर सैनिक कभी भी हार नहीं मानते हैं। [2017]

(ख) लोकोक्ति या कहावतें

मनुष्य का जीवन अनुभवों से भरा है। कभी-कभी एक ही अनुभव कई लोगों को होता है और उनके मुँह से जो बातें निकलती हैं वे प्रचलित होकर कहावत बन जाती हैं। लोक + उक्ति = लोकोक्ति, लोगों द्वारा कहा गया कथन है। ये लोकोक्तियाँ प्रायः नीति, व्यंग्य, चेतावनी, उपालम्भ आदि से सम्बन्धित होती हैं। अपनी बात की पुष्टि के लिए लोग लोकोक्ति का सहारा लेते हैं। कभी-कभी बिना असली बात कहे हुए भी लोग लोकोक्ति बोल देते हैं और वास्तविक अर्थ प्रसंग से समझ लिया जाता है।

लोकोक्तियाँ मुहावरे की अपेक्षा विस्तृत होती हैं। ये क्रियार्थक नहीं होती। ये अविकारी होती हैं, इन्हें लिंग, वचन के अनुसार बदलते नहीं हैं। इन्हें वाक्यों में प्रयुक्त नहीं किया जा सकता। ये वाक्य रूप में ही अपने आप में पूर्ण होती हैं। लोकोक्तियाँ लेखकों के लेखन या भाषणकर्ताओं से निसृत होकर प्रचलित होती हैं। लोकोक्ति साहित्य का गौरव है। इन्हें समझने के लिए इनका सही अर्थ जानना आवश्यक है, तभी इनका प्रयोग सफल होगा।

लोकोक्ति का प्रयोग करते समय इन बातों को ध्यान में रखना चाहिए-
(1) लोकोक्ति पढ़ते-पढ़ते ऐसे विस्तृत अनुभव को पकड़ने का प्रयास करना चाहिए, जिसका प्रतिनिधि बनकर लोकोक्ति का शब्द और अर्थ प्रयोग में लाया जाये।
(2) उस अनुभव वाले अर्थ को संक्षिप्त में एक वाक्य में स्पष्ट कर देना चाहिए।
(3) वर्तमान परिस्थिति में उस अनुभव को घटित करने वाली घटना और लोकोक्ति के अनुभव वाले अर्थ को फिर देख लेना चाहिए कि दोनों समानता रखते हों।
(4) अब उक्त घटना को एक या दो वाक्यों में लिखकर उसके अन्त में समर्थन रूप में लोकोक्ति लिखनी चाहिए।

इसी प्रकार कुछ लोकोक्तियाँ और उनके अर्थ इस प्रकार हैं-
(1) अपना हाथ जगन्नाथ-अपने हाथ से काम करने में ईश्वरीय शक्ति है।
(2) अपने मरे सरग दिखता है स्वयं कार्य करने से ही काम बनता है।।
(3) अपने लड़के को काना कौन कहता है अपनी वस्तु सभी को सुन्दर लगती है।
(4) अपना दाम खोटा तो परखैया क्या करे-जब स्वयं में दोष हो तो दूसरे भी बुरा कहेंगे।
(5) अपनी करनी पार उतरनी-अपने ही परिश्रम से सफलता मिलती है।
(6) अपनी ढपली अपना राग-अपनी ही बातों को महत्ता देना।
(7) अपने ही शालिग्राम डिब्बे में नहीं समाते-जो अपना ही काम पूरी तरह नहीं कर पाता, वह दूसरों की क्या मदद करेगा।
(8) अन्धी पीसे कुत्ता खाय-नासमझ के कामों का लाभ चतुर उठाते हैं।
(9) अतिसय रगर करे जो कोई, अनल प्रकट चन्दन ते होई अधिक परिश्रम से कठिन काम भी सिद्ध होते हैं या अधिक छेड़ने से शान्त पुरुष भी गरम हो जाता है।
(10) अब पछताय होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत-हानि होने से पहले रक्षा का प्रबन्ध करना चाहिए।

MP Board Solutions

(11) अन्धा क्या चाहे दो आँखें-मनचाही वस्तु देने वाले से और कुछ नहीं चाहिए।
(12) अक्ल बड़ी या भैंस (वयस = उम्र)-उम्र के बड़प्पन से बुद्धि की श्रेष्ठता अधिक अच्छी है।
(13) आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास-ऊँचे उद्देश्य की तैयारी करके साधारण काम में जुट जाना।
(14) आम के आम गुठलियों के दाम-किसी वस्तु से दुहरा लाभ होना।
(15) आँख का अन्धा गाँठ का पूरा-नासमझ धनी पुरुष जो ठगी में पड़कर हानि उठाता है।
(16) आँख के अन्धे नाम नयनसुख-ऊँचा पद और प्रसिद्धि पाने पर भी उतनी योग्यता न रखना।
(17) आधी रात खाँसी आए, शाम से मुँह फैलाये काम का समय आने के बहुत पहले से ही चिन्ता करने लगना।
(18) आधा तेल आधा पानी-ऐसी मिलावट जो अनुपयोगी हो।
(19) इधर कुआँ उधर खाई दुविधा की स्थिति। दोनों तरफ से हानि की सम्भावना।
(20) ईश्वर देता है तो छप्पर फाड़ के अकस्मात् अत्यधिक लाभ हो जाना।

(21) उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे-अनुचित काम करके भी न दबना।
(22) ऊखल में सिर देकर मूसलों का क्या डर-एक बार किसी मार्ग पर चल पड़ो तो फिर संकटों से घबराना नहीं चाहिए।
(23) ऊसर में मूसर-व्यर्थ ही बीच में अड़ना।
(24) एक साधै, सब सधै, सब साधै सब जाय-एक ही काम मन लगाकर करना चाहिए, यदि निश्चय डिग गया तो सब नष्ट हो जायेगा।
(25) एक चना क्या भाड़ फोड़ेगा-अकेला व्यक्ति बड़ी योजना सफल नहीं बना पाता।
(26) एक हाथ से ताली नहीं बजती-लड़ाई या मित्रता अकेले सम्भव नहीं।
(27) एक मछली सारे तालाब को गन्दा करती है एक के दुष्कर्म से सहकर्मी बदनाम होते हैं।
(28) ओछे की प्रीति बालू की भीति-तुच्छ व्यक्ति की मित्रता स्थायी नहीं होती।
(29) आधी छोड़ सबको धावै, आधी जाय न सबरी पावै-लालची व्यक्ति के हाथ कुछ नहीं आता।
(30) काठ के उल्लू-निकम्मा आदमी, किसी काम का नहीं।

(31) कर नहीं तो डर नहीं-बुरा न किया तो किसी से डरना कैसा।
(32) कड़वा करेला नीम चढ़ा-दुष्ट व्यक्ति को दुष्ट की संगति मिल जाये तो वह और अधिक दुष्ट हो जाता है।
(33) कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा-इधर-उधर की वस्तुओं से काम चलाना।
(34) काम परै कछु और है, काम सरै कुछ और-स्वार्थ पूरा होने पर आदमी बदल जाता है।
(35) काजी घर के चूहे सयाने चतुर लोगों की संगति में छोटे लोग भी चतुराई सीख जाते हैं।
(36) काजर की कोठरी में कैसहू सयानो जाय, एक लीक काजर को लागि है सो लागि है-कुसंगति से कुछ न कुछ हानि अवश्य होती है।
(37) कभी गाड़ी नाव पर, कभी नाव गाड़ी पर सभी को सभी से काम पड़ता है।
(38) खोदा पहाड़ निकली चुहिया-बड़े श्रम से थोड़ा लाभ।
(39) खरगोश के सींग-असम्भव बात, जो न देखी न सुनी।
(40) गुरु गुड़ हो रहे चेला शक्कर हो गये-जिससे कोई गुण सीखा हो, उसकी अपेक्षा अधिक चतुराई दिखाना।
(41) घर का जोगी जोगना, आन गाँव का सिद्ध-समीप रहने वाले गुणी को लोग महत्त्व नहीं देते, दूर वाले को सम्मान करते हैं।
(42) गिलोय और नीम चढ़ी-दुर्गुणों में और वृद्धि हो जाना, दो-दो दुर्गुण।

MP Board Class 11th Hindi Solutions

MP Board Class 11th Special Hindi विराम चिह्नों का उपयोग

MP Board Class 11th Special Hindi विराम चिह्नों का उपयोग

1. विराम चिह्नों का उपयोग :

बोलना एक विशिष्ट कला है, जिसका आवश्यक गुण यह है कि सुनने वाला या सुनने वाले बोलने वाले के भाव को अच्छी तरह समझ सकें। इसके लिए यह अनिवार्य है कि बोलने वाला बीच-बीच में आवश्यकतानुसार कुछ-कुछ ठहरकर बोले। यही क्रम बोलने में होता भी है। वह किसी पद, वाक्यांश या वाक्य को बोलते समय ठहरता जाता है। इस विश्राम को व्याकरण में ‘विराम’ कहते हैं। लिखते समय ऐसे स्थानों पर कुछ चिह्न लगा दिये जाते हैं। इन चिह्नों को ‘विराम चिह्न’ कहते हैं। शाब्दिक अर्थ के अनुसार ‘विराम’ का अर्थ है रुकाव, ठहराव अथवा विश्राम। बोलने में कहीं कम समय लगता है और कहीं ज्यादा। इसी दृष्टि से चिह्न भी कम समय और अधिक समय के अनुसार अलग-अलग होते हैं। इनके अतिरिक्त कुछ और भी चिह्न होते हैं, जिनका अध्ययन साहित्य के विद्यार्थी के लिए अत्यन्त अनिवार्य है।

MP Board Solutions

चिह्नों का महत्त्व इतना अधिक है कि भूल से गलत स्थान पर चिह्न लगा देने से वाक्य का अर्थ बदल जाता है, अतः चिह्न लगाने में पूर्ण सावधानी रखना आवश्यक है, जैसे
रुको मत जाओ। (कोई चिह्न नहीं) रुको, मत जाओ। (जाने का निषेध)

राष्ट्र भाषा हिन्दी में आजकल उसके विकास के साथ-साथ विराम चिह्नों की संख्या और प्रयोग बढ़ता जा रहा है। प्रमुख विराम चिह्न जिनका आजकल प्रयोग बहुतायत से होता है, निम्नानुसार हैं
MP Board Class 11th Special Hindi विराम चिह्नों का उपयोग img 1
MP Board Class 11th Special Hindi विराम चिह्नों का उपयोग img 2

(1) अल्प विराम (,)
यह चिह्न उस स्थान पर लगाया जाता है, जहाँ वक्ता बहुत ही थोड़े समय के लिए रुके। जैसे
हेमलता, शारदा, वेदश्री और जयश्री उज्जैन, देवास और महू होकर आज ही लौटी हैं। वह आयेगा, परन्तु रुकेगा नहीं।

(2) अर्द्ध विराम (;)
अर्द्ध विराम के चिह्न का प्रयोग उस समय किया जाता है, जबकि अल्प विराम से कुछ अधिक समय तक रुकना हो। इसका प्रयोग प्राय: दो स्वतन्त्र उपवाक्यों को अलग करने के लिए किया जाता है। जैसे
मैंने गोली चलने की आवाज सुनी; चार पक्षी फड़फड़ाकर जमीन पर गिर पड़े।

(3) पूर्ण विराम (।)
वाक्य पूरा होने पर कुछ अधिक समय के लिए रुकना होता है, इसलिए प्रत्येक वाक्य की पूर्णता पर इस चिह्न का प्रयोग करते हैं। जैसे
बांग्लादेश आजाद हो गया।

संकेत-कुछ लोग इस चिह्न को पूर्ण विराम के स्थान पर केवल ‘विराम’ कहते हैं और पूर्ण विराम के चिह्न दो खड़ी लकीर ( ॥) को मानते हैं। साधारणतः दो खड़ी लकीर वाले इस चिह्न का प्रयोग पद्य की पूर्णता पर किया जाता है। जैसे

देख्यो रूप अपार, मोहन सुन्दर श्याम को।
वह ब्रज राजकुमार, हिय-जिय नैनन में बस्यो।।

(4) प्रश्न चिह्न (?)
प्रश्नवाचक चिह्न, प्रश्नसूचक वाक्यों के अन्त में पूर्ण विराम के स्थान पर आता है। जैसे
1. यह किसका घर है?
2. वह कहाँ जा रहा है?

(5) विस्मयादि बोधक चिह्न (!)
इस चिह्न का प्रयोग विस्मयादि सूचक शब्दों या वाक्यों के अन्त में किया जाता है। सम्बोधन कारक की संज्ञा के अन्त में भी इसे लगाया जाता है। जैसे
1. अरे ! वहाँ कौन खड़ा है।
2. हाय ! इसका बुरा हुआ।
3. हे ईश्वर ! उसकी रक्षा करो।

(6) संयोजक चिह्न (-)
इसे सामासिक चिह्न भी कहते हैं। इस चिह्न का प्रयोग सामासिक शब्दों के मध्य में होता है। जैसे
हे ! हर-हार-अहार-सुत, मैं विनवत हूँ तोय।

(7) निर्देशक चिह्न (-) (:-)
इस चिह्न का दूसरा नाम विवरण चिह्न भी है। इसका प्रयोग उस स्थिति में किया जाता है, जबकि किसी वाक्य के आगे कई बातें क्रम से लिखी जाती हैं। इसे आदेश चिह्न भी कहते हैं।
निम्नलिखित शब्दों की परिभाषा लिखो
संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया। कभी-कभी (:-)
इस चिह्न के स्थान पर डेश (-) का भी प्रयोग कर लिया जाता है।

(8) कोष्ठक ()[ ]
कोष्ठक का प्रयोग निम्न प्रकार से किया जाता है
1. किसी विषय के क्रम बतलाने के लिए अक्षरों या अंकों के साथ इसका प्रयोग होता है। जैसे
(क) व्यक्ति वाचक संख्या।
(ख) जाति वाचक संख्या।
(1) एशिया
(2) यूरोप

2. वाक्य के मध्य में किसी शब्द के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए इसका प्रयोग होता है।
जैसे- हे कोन्तेय, (अर्जुन) तू क्लेव्यता (कायरता) को प्राप्त न हो।

MP Board Solutions

3. नाटकों में अभिनय को प्रकट करने के लिए भी कोष्ठकों का प्रयोग किया जाता है।
जैसे- महाराणा प्रताप-(क्रोध से) नहीं, ऐसा कदापि नहीं हो सकता।
मानसिंह-(नम्रता से) राणा ! हठ न करो। बात के मान लेने में तुम्हारा हित है।

(9) उद्धरण या अवतरण चिह्न ()(“”)
हिन्दी में इस चिह्न के अन्य नाम भी हैं। जैसे-उल्टा विराम, युगल-पाश, आदि। इस चिह्न का प्रयोग उस समय किया जाता है जबकि किसी व्यक्ति की बात या कथन को उसी के शब्दों में लिखना होता है। यह चिह्न वाक्य के आदि और अन्त में लगाया जाता है। इकहरे और दोहरे चिह्नों में यह अन्तर है कि जब किसी उद्धरण को लिखना होता है तो दोहरे चिह्न लगाये जाते हैं, किन्तु वाक्य के मध्य में यदि आवश्यकता हुई तो इकहरे उद्धरण चिह्न को लगाया जाता है।

जैसे-
अकबर ने उस दिन प्रार्थना के स्वर में कहा, “हे विश्वनियन्ता ! तू सत्य है; तू ही राम; तू ही रहीम है।” उसने आगे कहा, “दुनिया में सच्चा ईमान ‘मानव धर्म’ है।”

(10) लोप निर्देशक चिह्न (x x x) (………)
इन चिह्नों का प्रयोग तब होता है, जबकि कोई लेखक किसी का उद्धरण देते समय कुछ अंश छोड़ना चाहता है। इनका प्रयोग निम्नानुसार किया जाता है

1. उस स्थिति में जबकि लेखक किसी लम्बे विवरण को छोड़कर आगे की बात लिखना चाहता है, तब वह चार-पाँच ऐसे निशान लगा देता है। जैसे
आग का वह दृश्य क्या था, सर्वस्व नाश की विभीषिका थी। चारों ओर से लोग दौड़ रहे थे। x x x सम्पूर्ण गाँव जलकर स्वाहा हो गया।

2. जब कुछ शब्द या वाक्य छोड़ने होते हैं, तो ‘……….’ इसका प्रयोग करते हैं। जैसे-मुम्बई ………… नगर है। रिक्त स्थान की पूर्ति करो।

(11) आदेश चिह्न (: -)
जब प्रश्न न पूछा जाकर आदेश दिया जाये वहाँ आदेश चिह्न लगाया जाता है, जैसे-किन्हीं पाँच चीनी यात्रियों का नाम लिखिए :

(12) लाघव चिह्न (०)
जब किसी प्रसिद्ध शब्द को पूरा न लिखकर संक्षेप में लिखा जाता है, तब उसका प्रारम्भिक अक्षर लिखकर लाघव चिह्न (०) लगा दिया जाता है। जैसे
हिन्दी साहित्य सम्मेलन-हि० सा० स०
मध्य प्रदेश राज्य-म० प्र० राज्य
नागरी प्रचारिणी सभा, काशी-ना० प्र० सं०, काशी

(13) हंस पद (^)
इस चिह्न का प्रयोग उस समय किया जाता है, जबकि कोई शब्द या बात वाक्य लिखते समय मध्य में छूट जाय। उस स्थिति में नीचे इस चिह्न को लगाकर ऊपर वह शब्द लिख दिया जाता है। जैसे
वह
“मैंने पास जाकर देखा ^ गुलाब का फूल था।”

(14) बराबर सूचक चिह्न (=)
इस चिह्न को तुल्यता सूचक चिह्न भी कहते हैं। इसका प्रयोग समानता दिखलाने के लिए किया जाता है। जैसे-
विद्या + आलय = विद्यालय

(15) पुनरुक्ति बोध चिह्न (,)
उस स्थिति में जबकि ऊपर कही हुई बात अथवा शब्द को नीचे की ओर उसी रूप में लिखना होता है, तो इस चिह्न को लगा देते हैं, जिसका मतलब होता है-‘यह वही शब्द है जो
ऊपर लिखा हुआ है। जैसे
5 आदमी एक काम 15 दिन में करते हैं-
MP Board Class 11th Special Hindi विराम चिह्नों का उपयोग img 3
MP Board Solutions

(16) समाप्ति सूचक चिह्न (- : x : -)
इस चिह्न का प्रयोग उस समय किया जाता है, जबकि कोई लेख, अध्याय, परिच्छेद, पुस्तक आदि समाप्त हो गई हो। जैसे-
और इस प्रकार भारत देश आजाद हुआ।
– : x : –

MP Board Class 11th Hindi Solutions

MP Board Class 11th Special Hindi निबन्ध-लेखन

MP Board Class 11th Special Hindi निबन्ध-लेखन

रचना का अर्थ होता है किसी चीज का स्वयं निर्माण। कक्षा 11वीं के उच्चतर माध्यमिक स्तर पर हिन्दी (विशिष्ट) के शिक्षण का उद्देश्य छात्रों में विविध व्यवहारों सुनने, बोलने, पढ़ने और लिखने का विकास करना है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए लिखने की क्षमता का समुचित विकास करने के लिए रचना का प्रावधान है।

MP Board Solutions

इस स्तर तक आते-आते छात्र का शब्द-भण्डार, भाषा सम्बन्धी ज्ञान तथा अन्य साहित्यिक विधाओं की जानकारी पर्याप्त हो जाती है और वह स्वतन्त्र लेखन में सक्षम हो जाता है। अतएव स्तरानुकूल रचना-कौशल के विकास के लिए तथा उदात्त भावों और सद्वृत्तियों के विकास के लिए रचना का पाठ्यक्रम में समावेश किया जाता है।

निबन्ध क्या है?

निबन्ध आधुनिक साहित्य की अत्यन्त लोकप्रिय गद्य-विधा है। अंग्रेजी में इसे ‘Essay’ कहते हैं, जो ‘एसाई’ शब्द से बना है। इस शब्द का अंग्रेजी में अर्थ होता है. अपने मन के भावों को व्यक्त करने का प्रयास करना। निबन्ध मन की एक शिथिल विचार तरंग है, जो असंगठित, अपूर्व और अव्यवस्थित होती है। इसे जब व्यवस्थित रूप में संगतिपूर्ण शब्दों के माध्यम से लिपिबद्ध किया जाता है, तब यह निबन्ध होता है। लेखक के मन की विशेष भाव-श्रृंखला की अभिव्यक्ति ही निबन्ध है। सभी व्यक्तित्व भिन्न-भिन्न प्रकृति के होते हैं और उनकी अपनी-अपनी शैली होती है। शैली में व्यक्तित्व की स्पष्ट झलक होती है। इसीलिए एक ही विषय पर लोग भिन्न-भिन्न प्रकार से विचार व्यक्त करते हैं। यही कारण है कि निबन्ध को हम सीमित नहीं कर सकते कि अमुक विषय पर बस इसी एक ही प्रकार से निबन्ध लिखा जाये। प्रत्येक छात्र की उस समय की मनोदशा, उसका अपना अनुभव, अपनी भाषा-शैली और व्यक्तित्व तथा शब्द-चयन निबन्ध में व्यक्त होता है। छात्र विशेष को शब्द-योजना और वाक्य-रचना का किस सीमा तक ज्ञान है, क्या वह मुहावरेदार भाषा का प्रयोग करता है या सरल भाषा का, यह सब व्यक्ति-विशेष पर निर्भर करता है।

निबन्ध विद्यार्थियों के भाषा-ज्ञान को परखने की कसौटी है। निबन्ध ही परीक्षा का वह प्रश्न है जिससे बालक की लेखन-शैली के कौशल का विकास परखा जाता है। परीक्षक यह देखना चाहता है कि अपने ज्ञान को संयोजित कर छात्र किस प्रकार उसे सरस, व्यवस्थित प्रभावशाली भाषा-शैली में व्यक्त कर सकता है।

छात्रों को यह जानना अति आवश्यक है कि वे सीमित समय में सीमित शब्दों में अच्छा निबन्ध किस प्रकार लिखें।

निबन्ध-लेखन 483 हम अच्छा निबन्ध कैसे लिखें? निबन्ध लिखने में मुख्य रूप से हमें विचार-समूह अर्थात् आधार-सामग्री पर ध्यान देना आवश्यक है और फिर भाषा-शैली तथा वाक्य-गठन भी भावानुकूल होना चाहिए।

निबन्ध लिखने के पहले हमें भली-भाँति विषय का सही चुनाव करना चाहिए। ऐसा विषय चुनना चाहिए जिसके बारे में भली-भाँति जानकारी हो। निबन्ध की भाषा रोचक होनी चाहिए। भाषा में प्रवाह और बोधगम्यता होनी चाहिए।

सबसे पहले हमें निबन्ध की रूपरेखा सुव्यवस्थित रोचक ढंग से तैयार कर लेनी चाहिए। रूपरेखा पूरी बन जाने के बाद उसके आधार पर निबन्ध लिखना चाहिए।

भाषा-लेखन में सतर्कतापूर्वक वर्तनी की अशुद्धियों पर विशेष ध्यान देकर शुद्ध लिखना चाहिए। विराम चिह्नों का समुचित प्रयोग आवश्यक है। निबन्ध में आवश्यकतानुसार अनुच्छेद का परिवर्तन एक भाव या विचार समाप्त होने पर करना चाहिए। एक बिन्दु को एक अनुच्छेद में पूर्ण रूप से अभिव्यक्त करना चाहिए। निबन्ध के बीच-बीच में अपनी बात की पुष्टि के लिए या विचारों में दृढ़ता लाने के लिए प्रमाणस्वरूप यथास्थान विद्वानों के उद्धरण चाहे वे किसी भी भाषा में हों ज्यों के त्यों लिखना चाहिए। उद्धरण को अवतरण चिह्न “…………..।” के मध्य मूल भाषा में ही लिखना चाहिए। यदि मूल रूप से याद न हो तो विद्वानों के उन विचारों को अपनी भाषा में भी लिख सकते हैं, तब अवतरण चिह्न का प्रयोग न करें।

भाषा के प्रयोग में एक आवश्यक सावधानी रखें कि किसी भी शब्द. या वाक्य की पुनरावृत्ति न हो, अन्यथा भाषा का लालित्य समाप्त होकर निबन्ध प्रभावशाली नहीं रह पायेगा।
निबन्ध के अंग ये मुख्य रूप से तीन होते हैं—
(1) प्रस्तावना,
(2) विषय-विस्तार और
(3) उपसंहार।

(1) प्रस्तावना-प्रायः छात्रों को यह दुविधा रहती है कि निबन्ध किस प्रकार प्रारम्भ करें। अतएव अच्छे आरम्भ के लिए कुछ बातें ध्यान में रखें क्योंकि यदि प्रारम्भ ही गलत दिशा में हो गया तो पूरे निबन्ध का ढाँचा बिगड़ जाता है।

प्रारम्भ यदि किसी विद्वान के उद्धरण से करें तः उचित होता है। प्रारम्भ में किस विषय पर आप निबन्ध लिख रहे हैं वह क्या है? उसकी परिभाषा या विषय का स्पष्टीकरण और उसके स्वरूप का विवेचन कर दें। उस समय विशेष का हमारे जीवन में, हमारे समाज में या वर्तमान सन्दर्भो में उसकी क्या समसामयिक उपयोगिता है? यह लिखें। फिर प्राचीनकाल में इस सम्बन्ध में क्या विचार थे या क्या स्थिति थी और उसमें क्यों और कैसे परिवर्तन आया? यह लिखें।

(2) विषय-विस्तार—प्रस्तावना की सृष्टि होने पर हम निबन्ध के विषय के जितने क्षेत्र और पक्ष हो सकते हैं, उनके आधार पर निबन्ध आगे बढ़ाते हैं। इसमें भी पुनरावृत्ति से बचना चाहिए। एक स्वतन्त्र बात या विचार को एक अनुच्छेद में रखें। विषय से सम्बन्धित जो भी बात हो, वह छूटने न पाये। विषय के बारे में जो भी जानकारी हो, वह व्यवस्थित रूप में लिखनी चाहिए। किसी भी विषय के बारे में उसके भूतकाल, वर्तमान स्वरूप और भविष्य की क्या रूपरेखा होगी, यह लिख देना चाहिए। उदाहरण के लिए विज्ञान के विषय में प्राचीनकाल में उसकी क्या स्थिति थी। वर्तमान समय में उसकी क्या गतिविधि है और जीवन को क्या लाभ है? यह लिखकर भविष्य की सम्भावनाएँ लिख देनी चाहिए। इस प्रकार आसानी से किसी भी विषय पर निबन्ध लिखा जा सकता है। भाषा-शैली रोचक होनी चाहिए। महापुरुषों के उद्धरण भी लिख देने चाहिए। उससे हमारी बात में दृढ़ता आ जाती है।

निबन्ध के मध्य में ही लेखक पाठक को अपने तर्क समझाने का प्रयत्न करता है। यही भाग निबन्ध का सबसे अधिक विस्तृत भाग होता है। प्रारम्भ से इस भाग का सम्बन्धित होना
आवश्यक है और इसके सभी सिद्धान्त वाक्य अन्त की ओर उन्मुख होने चाहिए।

MP Board Solutions

(3) उपसंहार-यह निबन्ध का अन्तिम भाग है। लेखक को यह भाग अति सावधानी से पूरा करना चाहिए। उपसंहार की सफलता पर,ही निबन्ध की सफलता निर्भर करती है। भूमिका के समान ही उपसंहार का महत्त्व होता है। निबन्ध का उपसंहार आकर्षक और सारगर्भित होना चाहिए। हमें निबन्ध का अन्त वहाँ करना चाहिए, जहाँ विषय का विवेचन हमारी जिज्ञासा को पूरी तरह सन्तुष्ट कर दे। उपसंहार में जो कुछ हमने निबन्ध में लिखा है, उसका सारांश संक्षेप में एक अनुच्छेद में लिखना है।

निबन्ध के अन्तिम अंश में ऐसा न लगे कि निबन्ध अनायास समाप्त हो गया है। निबन्ध के समाप्त होने पर भी लेखक की विचारधारा का मूल भाव पाठक के मन में बार-बार आता रहे। वही सफल अन्त है, जिसमें पढ़ने वाले का ध्यान लेखक के तर्कपूर्ण संगत भावों की ओर आकर्षित हो जाये और वह विषय के गुण-दोष दोनों को जानकर अपना एक मत निश्चित कर सके। पूरे विषय के हानि-लाभ हमें इस अनुच्छेद में लिखकर किसी अच्छे उद्धरण या कविता की पंक्ति या श्लोक की पंक्ति से अपना निबन्ध प्रभावपूर्ण ढंग से समाप्त कर देना चाहिए।

उक्त प्रकार लिखा गया निबन्ध उत्कृष्ट होगा।

निबन्ध के प्रकार प्रमुख रूप से निबन्ध चार प्रकार के होते हैं-
(1) वर्णनात्मक,
(2) विवरणात्मक,
(3) विवेचनात्मक,
(4) आलोचनात्मक।

(1) वर्णनात्मक-वे निबन्ध जिनमें किसी देखी हुई वस्तु या दृश्य का वर्णन होता है उन्हें हम वर्णनात्मक निबन्ध कहते हैं; जैसे—यात्रा, पर्व, मेला, नदी, पर्वत, समुद्र, पशु-पक्षी, ग्राम, रेलवे स्टेशन आदि का वर्णन।
(2) विवरणात्मक-इसका अन्य नाम चरित्रात्मक भी है। इस प्रकार के निबन्धों में ऐतिहासिक घटनाओं, ऐतिहासिक यात्राओं तथा महान् पुरुषों की जीवनियों एवं आत्मकथा आदि का वर्णन होता है।
(3) विवेचनात्मक-इस का अन्य नाम विचारात्मक भी है। इन निबन्धों में विचारों की प्रमुख रूप से प्रधानता होती है। इसीलिये इन्हें विचारात्मक या विवेचनात्मक निबन्ध कहते हैं। इस प्रकार के निबन्धों में भावनात्मक विषयों पर भी लेखनी चलाई जाती है; जैसे—करुणा, क्रोध, श्रद्धा-भक्ति, अहिंसा, सत्संगति, परोपकार आदि विषयों पर लिखे गये निबन्ध इस श्रेणी में
आते हैं।
(4) आलोचनात्मक-इस प्रकार के निबन्धों के अन्तर्गत सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, धार्मिक एवं साहित्यिक समस्त प्रकार के निबन्ध आते हैं। इस प्रकार के निबन्धों में तर्क-वितर्क द्वारा पक्ष-विपक्ष को प्रस्तुत किया जाता है।

समसमायिक समस्याओं से सम्बन्धित निबन्ध में यथा आतंकवाद, महँगाई की समस्या, साम्प्रदायिकता, जनसंख्या विस्फोट, बेरोजगारी एवं आरक्षण आदि की समसमायिक समस्याएँ सम्मिलित हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण विषयों पर आदर्श निबन्ध प्रस्तुत हैं।

1. साहित्य और समाज [2008, 09, 13, 16]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. साहित्य तथा समाज का सम्बन्ध,
  3. समाज का साहित्य पर प्रभाव,
  4. साहित्य का समाज पर प्रभाव,
  5. समाज के उत्थान में साहित्य का योगदान,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना-

“अन्धकार है वहाँ, जहाँ आदित्य नहीं है।
मुर्दा है वह देश, जहाँ साहित्य नहीं है।”

जिस प्रकार सूर्य की किरणों से जगत में प्रकाश फैलता है, उसी प्रकार साहित्य के आलोक से समाज में चेतना का संचार होता है। साहित्य ही अज्ञान के अन्धकार को मिटाकर समाज का मार्गदर्शन करता है। बाबू श्यामसुन्दर दास जी का यह कथन सत्य है कि ‘सामाजिक मस्तिष्क अपने पोषण के लिए जो भाव-सामग्री निकाल कर समाज को सौंपता है, उसी के संचित भण्डार का नाम साहित्य है।” साहित्य के अभाव में राष्ट्र एवं समाज शक्तिहीन हो जाते हैं। अत: साहित्य समाज की गतिविधियों को अभिव्यक्त करने का एक सशक्त साधन है।

MP Board Solutions

साहित्य तथा समाज का सम्बन्ध साहित्य और समाज का एक-दूसरे से अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है। साहित्य में मानव समाज के भाव निहित होते हैं। इसी आधार पर कुछ विद्वानों ने साहित्य को ‘समाज का दीपक’, ‘समाज का मस्तिष्क’ और ‘समाज का दर्पण’ माना है। वास्तव में, समाज की प्रबल एवं वेगवती मनोवृत्तियों की झलक साहित्य में दिखायी पड़ती है। विश्व के महान् साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में अपने-अपने समाज का सच्चा स्वरूप अंकित किया है।

समाज का साहित्य पर प्रभाव-समाज का प्रभाव ग्रहण किये बिना आदर्श साहित्य की रचना असम्भव है। साहित्यकार त्रिकालदर्शी होता है, इसलिए वह अतीत के परिप्रेक्ष्य में वर्तमान का अंकन भविष्य के दिशा निर्देश के लिए करता है। साहित्य में समाज की समस्याएँ और उनके समाधान निहित रहते हैं। अत: साहित्य और समाज दोनों ही एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। सामाजिक परम्पराएँ, घटनाएँ, परिस्थितियाँ आदि समाज के प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित करती हैं। साहित्यकार भी समाज का प्राणी है, अत: वह इस प्रभाव से अछूता नहीं रह सकता है। वह अपेक्षाकृत अधिक संवेदनशील होने के कारण समाज की परिस्थितियों से अधिक प्रभावित होता है। वह जो कुछ समाज में देखता है, उसी को अपने साहित्य में अभिव्यक्त करता है। इस प्रकार साहित्य समाज से प्रभावित होता है।

साहित्य का समाज पर प्रभाव-किसी भी काल का समाज साहित्य के प्रभाव से अछूता नहीं रह सकता। समाज को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए साहित्य पर आश्रित रहना पड़ता है। श्रेष्ठ साहित्य समाज के स्वरूप में परिवर्तन कर देता है। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि-“साहित्य में जो शक्ति छिपी है वह तोप, तलवार और बम के गोले में नहीं पायी जाती है।” समाज का प्रभाव पहले साहित्य पर पड़ता है फिर समाज स्वयं साहित्य से प्रभावित होता है।

हिन्दी-साहित्य के इतिहास पर दृष्टिपात करने से यह बात स्वयं स्पष्ट हो जाती है। वीरगाथा-काल का वातावरण युद्ध एवं अशान्ति का था। वीरता प्रदर्शन ही जीवन का महत्त्व था। युद्ध अधिकतर विवादों के पीछे होते थे। उस युग के वातावरण के अनुकूल ही चारण कवियों ने काव्य रचना की है। इस काल की प्रधान प्रकृति वीर और श्रृंगार की है। इसीलिए इस साहित्य की रचना हुई। भक्तिकाल के आते-आते विदेशियों का शासन स्थापित हो गया था। धीरे-धीरे भारत की संस्कृति एवं कला ध्वस्त होने लगी थी। निराशा के वातावरण में जनता को भक्ति आन्दोलन की सशक्त लहरी ने जीवनदायिनी शीतलता प्रदान की थी। इस समय की साहित्यधारा ज्ञान और प्रेम के रूप में प्रवाहित हुई। इसी समय में कुछ सन्तों ने राम और कृष्ण के लोकमंगलकारी रूपों के सहारे समाज को धैर्य प्रदान किया। इन कवियों के प्रयत्न से समाज में चेतना का संचार हुआ और निराशा से छुटकारा मिला। रीतिकाल में काव्य का सृजन राज्याश्रय में हो रहा था। दरबारी विलासिता से प्रभावित होकर बिहारी और देव जैसे प्रतिभावान कवि नारी के अंगों के मादक चित्रण करने में लगे थे। समय के अनुरूप विभिन्न प्रकार से कविता-कामिनी अपना श्रृंगार करने लगी थी। आधुनिक काल के आगमन के साथ ही भारतीय समाज पर पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव पड़ा। विज्ञान ने समाज और साहित्य में क्रान्तिकारी परिवर्तन कर दिये। नव-जागृति से प्रेरित होकर साहित्य की धारा राष्ट्रीयता एवं समाज सुधार की ओर चल पड़ी। ‘वह हृदय नहीं पत्थर है जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं’ आदि उद्बोधनों ने भारतीयों में राष्ट्रीयता का संचार किया। कवियों की वाणी रोजी, रोटी, शोषण आदि की युगीन समस्याओं को स्वर देने लगी। समाज अपने अनुकूल साहित्य को परिवर्तित करता है तो साहित्य समाज को बदलने की कोशिश करता है।

समाज के उत्थान में साहित्य का योगदान—समाज और जीवन की चिन्ता करने से ही साहित्य में निखार आता है। साहित्य की सार्थकता जीवन के लिए होने में ही निहित है। गोस्वामी तुलसीदास ने ठीक ही लिखा है-

“कीरति भणिति भूति भल सोई।
सुरसरि सम सब कहँ हित होई।”

समाज की मनोवृत्तियों, परिवर्तनों एवं मान्यताओं का साहित्य पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता। किन्तु साहित्यकार को केवल समाज को यथार्थ अभिव्यक्ति तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। उसे यह भी बताना चाहिए कि समाज के आदर्श का स्वरूप क्या है, उसे भविष्य में किस ओर उन्मुख होना है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने साहित्य का आदर्श निश्चित करते हुए लिखा है

“हो रहा है जो जहाँ, वह हो रहा,
यदि वही हमने कहा तो क्या कहा?

किन्तु होना चाहिए कब, क्या कहाँ, व्यक्त करती हैं कला ही वह, वहाँ।” उपसंहार-जीवन में साहित्य की महत्ता अपरिहार्य है। साहित्य मानव-जीवन को वाणी देने के साथ-साथ समाज का पथ-प्रदर्शन भी करता है। साहित्य मानव-जीवन के अतीत का ज्ञान करता है, वर्तमान का चित्रण करता है और भविष्य निर्माण की प्रेरणा देता है। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि साहित्य और समाज का अटूट सम्बन्ध है।

साहित्य में जो अन्त:पीड़ा एवं हृदय की ठोस प्रतिध्वनित होती है वह जातीय भावों का साकार रूप है।

साहित्य मस्तिष्क का भोजन है। साहित्य मानव की रुचि का पूर्णतः परिष्कार करके उसमें निरन्तर उदात्त मनोवृत्तियों को जाग्रत करता है। जब साहित्य का पतन होने लगता है, तब समाज भी रसातल को चला जाता है। इस प्रकार साहित्य समाज के लिए प्रकाश-स्तम्भ का कार्य करता है। वह जन-जीवन की विभूति है। उसका ध्येय प्रशंसनीय है। साहित्य सामाजिक परिवर्तन का प्रबल उत्तम साधन है। स्वस्थ साहित्य समाज के मार्गदर्शक का कार्य करता है।

2. वनों का महत्त्व [2010]
अथवा
वृक्षारोपण का महत्त्व रूपरेखा [2017]

  1. प्रस्तावना,
  2. वनों की महिमा,
  3. वनों की उपयोगिता,
  4. वनों का विनाश : एक अशुभ कर्म,
  5. वनों का विकास : समय की पुकार,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना-
प्राकृतिक शोभा के अक्षय भण्डार वनों का मानव-जीवन से अटूट सम्बन्ध है। आदिकाल से ही वन मानव-सुख साधनों के स्रोत रहे हैं। आदिम सभ्यता में रहने वाले मानव को संरक्षण और भरण-पोषण में सहयोग देने वाले वन आधुनिक वैज्ञानिक युग में भी मानव जीवन के साथ सह-अस्तित्व बनाए हुए हैं।

MP Board Solutions

वनों की महिमा-वनों में धरती तथा वृक्ष हरियाली की चादर ओढ़े रहते हैं। भाँति-भाँति के पक्षियों का कलरव मन-मानस को प्रमुदित करता है। जंगली जीव तथा जानवर वन की गोद में वास करके निर्भयता तथा आनन्द का जीवन बिताते हैं। भारत की सभ्यता तथा संस्कृति का जन्म भी वन की गोद में ही हुआ है। यहाँ वृक्षों की सघन छाया में बैठकर ऋषियों तथा सिद्ध पुरुषों ने ज्ञान के अनमोल रत्न दिये हैं।

वनों को पेड़-पौधों तथा वनस्पतियों का भण्डार मात्र न मानकर सभ्यता के विकास का अमूल्य साधन कहा जा सकता है। इनकी उपयोगिता अनेक रूपों में हमें दिखायी देती है। वैदिक काल में वन-देवता तथा वन-देवियों का वर्णन हुआ है, वनोत्सव तथा वन महोत्सवों का उल्लेख भी किया गया है।

वनों की उपयोगिता वन महोत्सव का आधुनिक अभिप्राय वृक्षारोपण या वृक्ष लगाना है। भारत एक कृषि प्रधान देश है और यहाँ की कृषि बहुत कुछ वर्षा की अनुकूलता पर निर्भर करती है। वर्षा वनों के कारण ही अधिक होती है। अत: वनों की उपयोगिता इस दृष्टि से स्वतः सिद्ध है।

केवल हमारे देश में ही नहीं, विश्व भर में वृक्षों को आश्रयदाता के रूप में माना जाता है। भारतीय संस्कृति में तो वनों का और भी अधिक महत्त्व है और वृक्षों की पूजा की जाती है, कहा भी गया है-

“तरुवर तास विलंबिये, बारह मास फलंत।
सीतल छाया गहर फल, पंछी केलि करत॥”

इसके अतिरिक्त पीपल, बरगद, आँवला, केला, तुलसी आदि की पूजा का भाव सर्वविदित है। विद्वानों ने वृक्षों को मित्र, सहायक और शिक्षक का स्थान दिया है। 1950 ई. में तत्कालीन खाद्य मंत्री श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने जुलाई मास में वन महोत्सव का शुभारम्भ किया था। इस दृष्टि से यह कार्य एक आन्दोलन के रूप में प्रचलित हुआ और प्रतिवर्ष जुलाई मास में वृक्षारोपण का कार्य किया जाने लगा है। इस सम्बन्ध में कुछ नारे भी प्रचलित हुए

“वृक्ष धरा के भूषण हैं, करते दूर प्रदूषण हैं।”
“बंजर धरती करे पुकार, कम बच्चे हों वृक्ष हजार॥”

वनों का विनाश : एक अशुभ कर्म-आधुनिक सुख-सुविधा और विलासिता के मद में मानव वृक्षों की कटाई करके वनों के विनाश में संलग्न हुआ है। यह एक अशुभ कार्य है और मानवता तथा प्राणि-जगत के लिए अमंगलकारी है, क्योंकि वृक्षों का जीवन तो होता ही परोपकार के लिए…”परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः।” प्रथम पंचवर्षीय योजना में तीस करोड़ नए वृक्षों के लगाने तथा पुराने वृक्षों और वनों की रक्षा का लक्ष्य था। अत: वनों का संरक्षण आज की एक ज्वलन्त समस्या है और इसके समाधान के लिए देश के प्रत्येक नागरिक को नए पौधों के आरोपण और वन-सम्पदा के रक्षण का व्रत लेना चाहिए।

वनों का विकास : समय की पुकार–वनों के संरक्षण के साथ-साथ वनों का विकास आज के भौतिकवादी समय की एक पुकार है। इसके लिए वन महोत्सव की उपादेयता एक वरदान है। इससे हमें दो प्रकार के लाभ हैं धार्मिक लाभ एवं भौतिक लाभ। पौराणिक मान्यता के अनुसार, अपने जीवन में पाँच वृक्ष लगाने वाले व्यक्ति को स्वर्ग-लाभ होता है। भौतिक दृष्टि से वृक्ष हमें प्राण वायु प्रदान करते हैं तथा फल, फूल, गोंद, रबर और जीवनोपयोगी औषधियाँ भी इनसे प्राप्त होती हैं।

जागरूकता शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ जनता में वन महोत्सव के प्रति जागरूकता आती जा रही है। सरकार द्वारा इस दिशा में प्रयास किए जा रहे हैं और जन जीवन में भी यह प्रवृत्ति पनपने लगी है। प्रत्येक व्यक्ति का यह एक पुनीत कर्त्तव्य है और मानवता के हित में वन-महोत्सव एक सौभाग्यपूर्ण कदम है।

उपसंहार-वृक्षों का काटना अभिशाप माना जाय। प्रत्येक खाली स्थल पर वृक्षों की हरियाली दृष्टिगोचर हो। हर बगिया में रंग-बिरंगे पुष्प मन का हरण करते हों। कोयल मधुर ध्वनि में वृक्षों पर राग अलापती हो तथा पक्षी कलरव करते हों तभी देश उन्नति के मार्ग पर निरन्तर अग्रसर होगा।

3. इक्कीसवीं सदी का भारत
[2010]

“हाँ ! वृद्ध भारतवर्ष ही संसार का सिरमौर है।
ऐसा पुरातन देश कोई विश्व में क्या और है?”

रूपरेखा

  1. प्रस्तावना,
  2. बीसवीं सदी एवं भारत,
  3. विज्ञान की प्रगति,
  4. भौतिकवाद एवं आध्यात्मवाद का समन्वय,
  5. रोजगारपरक शिक्षा,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना—इक्कीसवीं सदी हमारे देश के लिए सुनहरा अवसर उज्ज्वल भविष्य तथा अनेक आशाओं तथा आकांक्षाओं के दीप सँजोकर लाने के लिए लालायित है। इक्कीसवीं सदी के भारत में शान्ति, प्रेम तथा बन्धुत्व की मंदाकिनी देश के प्रत्येक कोने में प्रवाहित होगी। प्रत्येक भारतवासी के मुख मण्डल पर मुस्कान बिखरी हुई दृष्टिगोचर होगी।

बीसवीं सदी एवं भारत-बीसवीं सदी में भारतवासियों ने गुलामी के घोर कष्टों को भोगा है। अनवरत साधना तथा संघर्ष के पश्चात् स्वतन्त्रता देवी की आरती उतारकर स्वाभिमान तथा आनन्द का अनुभव भी किया है। भारत माता को दो भागों में विभक्त होते हुए भी निहारा है।

विज्ञान की प्रगति-इस दौर में हमारे देश में विज्ञान के क्षेत्र में भी आशातीत सफलता प्राप्त की है। परमाणु शक्ति के क्षेत्र में भी भारत एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभरकर सामने आया है।

भौतिकवाद एवं आध्यात्मवाद का समन्वय…इक्कीसवीं सदी के भारत में यहाँ के निवासी भौतिकवाद में उन्नति करने के साथ ही आध्यात्मिकता को भी अपने जीवन में प्रमुख स्थान प्रदान करेंगे।

MP Board Solutions

इस सदी में यहाँ के नागरिक अपने विचारों को व्यक्त करने में पूर्णरूपेण स्वतन्त्र होंगे। शासक तथा जनता के बीच भेद की खाई नहीं रहेगी। गाँधीजी जिस रामराज्य का सपना सँजोया करते थे, उसे पूर्ण करने का भरसक प्रयास किया जायेगा। जन जीवन से खिलवाड़ करने वाले तथा स्वार्थी राजनीतिज्ञों को दूध से मक्खी की तरह निकालकर बाहर फेंक दिया जायेगा।

रोजगारपरक शिक्षा इक्कीसवीं सदी में रोजगारपरक शिक्षा की व्यवस्था होगी। प्रौढ़ शिक्षा तथा बुनियादी शिक्षा को प्रोत्साहन दिया जायेगा। शिक्षा भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को बढ़ावा देने वाली होगी।

छात्रों के आचार, व्यवहार तथा चरित्र को उन्नत बनाने में भी शिक्षा महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करेगी।

प्रकृति का पल्लवन-देश को बाढ़, प्रदूषण तथा भूकम्प से बचाने के लिए प्रकृति का पल्लवन करके हरियाली तथा वृक्षों को विशाल पैमाने पर लगाया जायेगा।।

उपसंहार-21वीं सदी का भारत सही अर्थों में भारतीय आदर्शों के अनुरूप होगा, इसमें अपने देश, भाषा, संस्कृति आदि के पुजारी होंगे। ऊँच-नीच, छुआछूत आदि का वहाँ नाम भी न होगा। हर हाथ को काम होगा तथा हर चेहरे पर मुस्कान होगी। यहाँ के निवासी मन, वचन, कर्म की एकरूपता से प्रेरित सद्गुणी तथा सद्कामी होंगे। मेरे सपनों का भारत अनूठा देश होगा।

इसकी गोद में अनेकता में एकता के दर्शन होंगे। “सादा जीवन उच्च विचार” के आदर्श प्रतिष्ठित होंगे। 21वीं सदी के भारत में कोयल अमराई की बगियों में मधुर स्वर में कूहकेगी कि

“सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा।
हम बुलबुले हैं इसकी, यह गुलिस्तां हमारा॥”

4. प्रदूषण की समस्या
अथवा
पर्यावरण प्रदूषण [2008, 09]
अथवा
पर्यावरण संरक्षण हमारा दायित्व [2012]
अथवा
पर्यावरण का जीवन में महत्व [2014]

“गंगा का निर्मल जल दूषित हो गया, आसमान जहरीली हवाओं से ओत-प्रोत है, वातावरण विषाक्त है। हवाओं में घुटन तथा जहर घुला है।”

रूपरेखा [2015, 16]

  1. प्रस्तावना,
  2. प्रदूषण का अर्थ एवं अभिप्राय,
  3. प्रदूषण के प्रकार,
  4. प्रदूषण की समस्या का वर्तमान रूप,
  5. प्रदूषण की समस्या की रोकथाम के उपाय,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना-विज्ञान की प्रगति ने मानव-जाति को जहाँ अनेक वरदान दिये हैं, वहीं उसके कुछ अभिशाप भी हैं। इन अभिशापों में एक है—प्रदूषण। प्रदूषण की समस्या ने पिछले कुछ वर्षों में इतना उग्र रूप धारण कर लिया है कि इसकी वजह से दुनिया के वैज्ञानिक और विचारक गहरी चिन्ता में पड़ गये हैं। वैज्ञानिकों का विचार है कि इस समस्या का यदि शीघ्र ही कोई हल न खोजा गया तो सम्पूर्ण मानव जाति का विनाश सुनिश्चित है। प्रगति एवं भौतिकवाद की अंधी दौड़ में पर्यावरण प्रतिपल दूषित हो रहा है जो विनाश का सूचक है।

प्रदूषण का अर्थ एवं अभिप्राय प्रदूषण का अर्थ है दोष उत्पन्न होना। इसी आधार पर प्रदूषण शब्द से यहाँ हमारा अभिप्राय है वायु, जल एवं स्थल की भौतिक, रासायनिक एवं जैविक विशेषताओं में अवांछनीय परिवर्तन द्वारा दोष उत्पन्न हो जाना। इसे यों भी समझा जा सकता है कि जब हवा, पानी, मिट्टी, रोशनी, समुद्र, पहाड़, रेगिस्तान, जंगल और नदी आदि की स्वाभाविक स्थिति में दोष उत्पन्न हो जाता है, तब प्रदूषण की स्थिति बन जाती है। कोयला, पेट्रोलियम आदि ऊर्जा के प्राकृतिक भण्डारों के अत्यधिक प्रयोग से उत्पन्न धुआँ और मलवा वातावरण को दूषित कर प्रदूषण की समस्या को जन्म देता है। प्रदूषण मनुष्यों और सभी प्रकार के जीवधारियों तथा वनस्पतियों के लिए अत्यन्त हानिकारक है।

प्रदूषण के प्रकार-प्रदूषण प्रमुखतः पाँच प्रकार का होता है-

  1. पर्यावरण प्रदूषण,
  2. जल-प्रदूषण,
  3. थल-प्रदूषण,
  4. ध्वनि-प्रदूषण और
  5. रेडियोधर्मी प्रदूषण।

(1) पर्यावरण प्रदूषण पर्यावरण प्रदूषण को वातावरण प्रदूषण भी कहते हैं। वातावरण का अर्थ है-वायु का आवरण। हमारी धरती हर ओर से वायु की एक बहुत मोटी पर्त से ढकी हुई है, जो कुछ ऊँचाई के बाद क्रमशः पतली होती गयी है। यह वायु अनेक प्रकार की गैसों से मिलकर बनी है। ये गैसें वायु में एक निश्चित अनुपात में होती हैं। उनके अनुपात में कोई भी गड़बड़ी प्रकृति और जीवन के सन्तुलन को बिगाड़ सकती है। हम अपनी साँस द्वारा हवा से

ऑक्सीजन लेते हैं और कार्बन डाइऑक्साइड गैस छोड़ते हैं। कार्बन डाइऑक्साइड बहुत जहरीली गैस होती है। धरती पर यह पेड़-पौधों द्वारा ग्रहण कर ली जाती है। पेड़-पौधे कार्बन डाइऑक्साइड को साँस के रूप में ग्रहण करते हैं और ऑक्सीजन बाहर निकालते हैं। इस प्रकार वायुमण्डल में इन दोनों गैसों का सन्तुलन बना रहता है। वायुमण्डल में किसी कारण से जब कार्बन डाइऑक्साइड जैसी जहरीली गैसों का अनुपात आवश्यकता से अधिक हो जाता है तो वातावरण प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो जाती है। ईंधनों के जलाये जाने से उत्पन्न धुआँ वातावरण प्रदूषण का मुख्य कारण है।

MP Board Solutions

पर्यावरण या वातावरण प्रदूषण सभी प्रकार के प्रदूषणों का मुख्य आधार और सर्वाधिक हानिकारक प्रदूषण है। विषैली गैसों की अधिकता के कारण धरती का वायुमण्डल गर्म हो जाता है और धरती के तापमान में वृद्धि हो जाती है। इससे ध्रुवीय बर्फ पिघलने लगती है जिससे समुद्र का स्तर ऊँचा उठ जाता है। इससे समुद्रतटीय नगरों के डूबने और बाढ़ आदि का खतरा पैदा हो जाता है। विषैली हवा में साँस लेने के कारण दमा, तपेदिक और फेफड़ों का कैंसर जैसे भयानक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। मनुष्य की जीवनी-शक्ति कम हो जाने के कारण अनेक प्रकार की महामारियाँ आदि फैलती हैं।

(2) जल-प्रदूषण-पानी के दूषित हो जाने को जल-प्रदूषण कहते हैं। जल में अनेक प्रकार के खनिज पदार्थ एक निश्चित अनुपात में होते हैं। जब इनके अनुपात में गड़बड़ हो जाती है और जल में हानिकारक तत्त्वों की संख्या बढ़ जाती है, तब जल-प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो जाती है। जल में मल-मूत्र तथा कल-कारखानों द्वारा दूषित रासायनिक पदार्थों का विसर्जन जल-प्रदूषण उत्पन्न करता है।

जल-प्रदूषण होने से समुद्र, अर्थात् खारे पानी और मीठे पानी का सन्तुलन बिगड़ जाता है। नदियों में बहाये गये हानिकारक रासायनिक तत्त्व समुद्र में पहुँचकर समुद्र के जन्तुओं के लिए संकट उपस्थित कर देते हैं जिससे समुद्र का सन्तुलन बिगड़ जाता है। अशुद्ध जल के प्रयोग से अनेक प्रकार की संक्रामक बीमारियाँ हो जाती हैं और भूमि की उर्वरा-शक्ति कम हो जाती है।

(3) थल-प्रदूषण-मिट्टी में दोष उत्पन्न हो जाना थल-प्रदूषण के अन्तर्गत है। पेड़-पौधों और खाद्य-पदार्थों आदि को कीड़े-मकोड़ों और अन्य जानवरों से बचाने के लिए डी. डी. टी. आदि तथा खेतों में रासायनिक खाद के प्रयोग से थल-प्रदूषण उत्पन्न होता है। इससे धरती की उर्वरा-शक्ति में कमी आ जाती है। प्रयोग करने वाले के भी लिए यह घातक सिद्ध हो सकता है।

(4) ध्वनि-प्रदूषण-ध्वनि सम्बन्धी प्रदूषण को ध्वनि-प्रदूषण कहते हैं। मोटरकार, स्कूटर, हवाई जहाज आदि वाहनों, मशीनों के इन्जनों और रेडियो तथा लाउडस्पीकर आदि से उत्पन्न होने वाला असहनीय शोर ध्वनि प्रदूषण को जन्म देता है। यह मनुष्य की पाचन-शक्ति पर भी प्रभाव डालता है। इससे ऊँचा सुनना, अनिद्रा और पागलपन तक जैसे रोग हो सकते हैं। जरूरत से ज्यादा शोर दिमागी तनाव को बढ़ाता है।

(5) रेडियोधर्मी प्रदूषण-परमाणु शक्ति के प्रयोग एवं परमाणु विस्फोटों से मलवे के रूप में रेडियोधर्मी कणों का विसर्जन होता है। यही रेडियोधर्मी प्रदूषण को उत्पन्न करता है। जब कोई परमाणु विस्फोट होता है तो बहुत गर्म किरणें निकलती हैं। वे वातावरण में भी रच-बस जाती हैं। उस स्थान की वायु विषैली हो जाती है जो आगे आने वाली संतति तक पर प्रभाव डालती है। इससे वायुमण्डल और मौसमों तक का सन्तुलन बिगड़ जाता है।

प्रदूषण की समस्या का वर्तमान रूप—प्रदूषण की समस्या आधुनिक औद्योगिक एवं वैज्ञानिक युग की देन है। इस समस्या का जन्म औद्योगिक क्रान्ति से हुआ। आज धरती पर लाखों कारखाने वातावरण में विषैली गैसों का विसर्जन कर उसे गन्दा बना रहे हैं। कारखानों और मोटर वाहनों से विसर्जित जहरीली गैसों के कारण पृथ्वी का वायुमण्डल गर्म होता जा रहा है। प्रदूषण अगर इसी तरह बढ़ता गया तो वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सन् 2100 तक वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा अब से चार गुना हो जायेगी जिससे पृथ्वी का तापमान लगभग 6° से. बढ़ जायेगा। ऐसी स्थिति में ध्रुवीय बर्फ पिघल जायेगी जिससे समुद्र तल ऊँचा हो जायेगा और अनेक समुद्रतटीय नगर डूब जायेंगे। बाढ़े आयेंगी, धरती की उर्वरा-शक्ति कम हो जायेगी और अनेक प्रकार के रोग तथा महामारियाँ फैलेंगी। 20वीं सदी के प्रारम्भ में परमाणु शक्ति के आविष्कार ने प्रदूषण के खतरे को चरम सीमा पर पहुँचा दिया है। पिछले 40 वर्षों के दौरान विश्व में लगभग 1200 परमाणु विस्फोट किये जा चुके हैं। इनके रेडियोधर्मी प्रदूषण से कितनी हानि हो चुकी है, कितनी हो रही है और भविष्य में कितनी हानि होगी, इसका अन्दाजा लगाना भी मुश्किल है। इन परमाणु विस्फोटों से ऋतुओं का सन्तुलन भी डगमगा गया है। मौसमों का बदलाव आदि इन परमाणु विस्फोटों का ही दुष्परिणाम है। इस प्रकार आज धरती का सारा वातावरण विषाक्त हो चुका है। कल-कारखानों से विसर्जित हानिकारक रासायनिक तत्त्व जल-प्रदूषण उत्पन्न कर रहे हैं जिससे फसलों और जीवों में अनेक प्रकार के रोग पनप रहे हैं। मोटर वाहनों आदि के भयानक शोर ने आदमी का चैन हराम कर दिया है। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रदूषण की समस्या आज अपनी चरमसीमा पर है। भारत जैसे विकासशील देश में तो यह समस्या और भी भयावह रूप धारण कर चुकी है।

प्रदूषण की समस्या की रोकथाम के उपाय-आज सारा विश्व प्रदूषण की समस्या से ग्रसित एवं चिन्तित है और हर देश इसकी रोकथाम में लगा हुआ है। ब्रिटेन, अमरीका, फ्रांस आदि विकसित देशों में तेज आवाज करने वाले वाहनों में ध्वनि नियन्त्रक यन्त्र लगाये गये हैं। कारखानों द्वारा विसर्जित हानिकारक रासायनिक तत्त्वों को ये देश नदियों में नहीं बहाते, बल्कि उन्हें नष्ट कर देते हैं। परमाणु विस्फोटों के प्रतिबन्ध और परिसीमा पर भी विश्व में विचार हो रहा है। दुर्भाग्य से भारत जैसे विकासशील देशों में अब भी प्रदूषण की रोकथाम की दिशा में कोई ठोस काम नहीं हो रहा है। हमारे यहाँ अब भी मल-मूत्र और रासायनिक मलवे को नदियों में बहा दिया जाता है। यहाँ की नदियों के किनारे स्थित स्थान जल-प्रदूषण की समस्या से बुरी तरह ग्रस्त हैं। अन्य प्रकार के प्रदूषण भी हमें आक्रान्त किये हुए हैं।

भोपाल गैस काण्ड भी हमारे समक्ष एक चुनौती के रूप में उपस्थित है जिसमें अनेक लोग मौत की गोद में सो गये।

इस समस्या के निराकरण का सर्वोत्तम साधन वनों की रक्षा और वृक्षारोपण है, क्योंकि पेड़-पौधों से ही ऑक्सीजन और कार्बन-डाइऑक्साइड का सन्तुलन बना रहता है। वृक्षारोपण के अतिरिक्त परमाणु विस्फोटों पर प्रतिबन्ध, कारखानों की चिमनियों में फिल्टर का प्रयोग, मोटर वाहनों में ध्वनि नियन्त्रक यन्त्रों का प्रयोग, मल-मूत्र और कचरे आदि को नदियों में बहाने के स्थान पर उन्हें अन्य तरीकों से नष्ट कर देना आदि वे साधन हैं, जिनसे प्रदूषण की समस्या पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है।

उपसंहार-प्रदूषण की समस्या आज एक देश की समस्या नहीं, सम्पूर्ण विश्व तथा समूची मानव जाति की है। यदि समय रहते इस समस्या को हल करने के लिए सामूहिक प्रयास नहीं किये गये तो सम्पूर्ण मानव जाति का भविष्य अन्धकारमय है। भगीरथी प्रयासों के बावजूद इस समस्या के निराकरण के आसार ही दिखाई नहीं दे रहे हैं। पर्यावरण की स्वच्छता में ही मानव की सुख एवं शान्ति निहित है।

5. समाज में नारी का स्थान
अथवा
भारतीय समाज में नारी [2008, 09, 13]

“नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत पग-पग तल में।
पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में।”

रूपरेखा [2016]-

  1. प्रस्तावना,
  2. प्राचीन भारतीय नारी,
  3. मध्यकाल में नारी की स्थिति,
  4. आधुनिक नारी,
  5. उपसंहार।]

प्रस्तावना-सृष्टि के आदिकाल से ही नारी की महत्ता अक्षुण्ण है। नारी सृजन की पूर्णता है। उसके अभाव में मानवता के विकास की कल्पना असम्भव है। समाज के रचना-विधान में नारी के माँ, प्रेयसी, पुत्री एवं पत्नी अनेक रूप हैं। वह सम परिस्थितियों में देवी है तो विषम परिस्थितियों में दुर्गा भवानी। वह समाज रूपी गाड़ी का एक पहिया है जिसके बिना समग्र जीवन ही पंगु है। सृष्टि चक्र में स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के पूरक हैं।

MP Board Solutions

मानव जाति के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होगा कि जीवन में कौटुम्बिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, साहित्यिक, धार्मिक सभी क्षेत्रों में प्रारम्भ से ही नारी की अपेक्षा पुरुष का आधिपत्य रहा है। पुरुष ने अपनी इस श्रेष्ठता और शक्ति-सम्पन्नता का लाभ उठाकर स्त्री जाति पर मनमाने अत्याचार किये हैं। उसने नारी की स्वतन्त्रता का अपहरण कर उसे पराधीन बना दिया। सहयोगिनी या सहचरी के स्थान पर उसे अनुचरी बना दिया और स्वयं उसका पति, स्वामी, नाथ, पथ-प्रदर्शक और साक्षात् ईश्वर बन गया। इस प्रकार मानव जाति के इतिहास में नारी की स्थिति दयनीय बन कर रह गयी है। उसकी जीवन धारा रेगिस्तान एवं हरे-भरे बगीचों के मध्य से प्रतिपल प्रवाहमान है।

प्राचीन भारतीय नारी-प्राचीन भारतीय समाज में नारी-जीवन के स्वरूप की व्याख्या करें तो हमें ज्ञात होगा कि वैदिक काल में नारी को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। वह सामाजिक धार्मिक और आध्यात्मिक सभी क्षेत्रों में पुरुष के साथ मिलकर कार्य करती थी। रोमशा और लोपामुद्रा आदि अनेक नारियों ने ऋग्वेद के सूत्रों की रचना की थी। रानी कैकेयी ने राजा दशरथ के साथ युद्ध-भूमि में जाकर, उनकी सहायता की। रामायण काल (त्रेता) में भी नारी की महत्ता अक्षुण्ण रही। इस युग में सीता, अनुसुइया एवं सुलोचना आदि आदर्श नारी हुईं। महाभारत काल (द्वापर) में नारी पारिवारिक, सामाजिक एवं राजनीतिक गतिविधियों में पुरुष के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने लगीं। इस युग में नारी समस्त गतिविधियों के संचालन की केन्द्रीय बिन्दु थी। द्रोपदी, गान्धारी और कुन्ती इस युग की शक्ति थीं।

मध्यकाल में नारी की स्थिति-मध्य युग तक आते-आते नारी की सामाजिक स्थिति दयनीय बन गयी। भगवान बुद्ध द्वारा नारी को सम्मान दिये जाने पर भी भारतीय समाज में नारी के गौरव का ह्रास होने लगा था। फिर भी वह पुरुष के समान ही सामाजिक कार्यों में भाग लेती थी। सहभागिनी और समानाधिकारिणी का उसका रूप पूरी तरह लुप्त नहीं हो पाया था। मध्यकाल में शासकों की काम-लोलुप दृष्टि से नारी को बचाने के लिए प्रयत्न किये जाने लगे। परिणामस्वरूप उसका अस्तित्व घर की चहारदीवारी तक ही सिमट कर रह गया। वह कन्या रूप में पिता पर, पत्नी के रूप में पति और माँ के रूप में पुत्र पर आश्रित होती चली गयी। यद्यपि इस युग में कुछ नारियाँ अपवाद रूप में शक्ति-सम्पन्न एवं स्वावलम्बी थीं; फिर भी समाज सामान्य नारी को दृढ़ से दृढ़तर बन्धनों में जकड़ता ही चला गया। मध्यकाल में आकर शक्ति स्वरूपा नारी ‘अबला’ बनकर रह गयी। मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में

“अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,
आँचल में है दूध और आँखों में पानी।”

भक्ति काल में नारी जन-जीवन के लिए इतनी तिरस्कृत, क्षुद्र और उपेक्षित बन गयी थी कि कबीर, सूर, तुलसी जैसे महान कवियों ने उसकी संवेदना और सहानुभूति में दो शब्द तक नहीं कहे। कबीर ने नारी को ‘महाविकार’, ‘नागिन’ आदि कहकर उसकी घोर निन्दा की। तुलसी ने नारी को गँवार, शूद्र, पशु के समान ताड़न का अधिकारी कहा

‘ढोल गँवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी।’

आधुनिक नारी—आधुनिक काल के आते-आते नारी चेतना का भाव उत्कृष्ट रूप से जाग्रत हुआ। युग-युग की दासता से पीड़ित नारी के प्रति एक व्यापक सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण अपनाया जाने लगा। बंगाल में राजा राममोहन राय और उत्तर भारत में महर्षि दयानन्द सरस्वती ने नारी को पुरुषों के अनाचार की छाया से मुक्त करने को क्रान्ति का बिगुल बजाया। अनेक कवियों की वाणी भी इन दु:खी नारियों की सहानुभूति के लिए अवलोकनीय है। कविवर सुमित्रानन्दन पन्त ने तीव्र स्वर में नारी स्वतन्त्रता की माँग की–

“मुक्त करो नारी को मानव, चिर वन्दिनी नारी को।
युग-युग की निर्मम कारा से, जननी, सखि, प्यारी को॥”

आधुनिक युग में नारी को विलासिनी और अनुचरी के स्थान पर देवी, माँ, सहचरी और प्रेयसी के गौरवपूर्ण पद प्राप्त हुए। नारियों ने सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक एवं साहित्यिक सभी क्षेत्रों में आगे बढ़कर कार्य किया। विजयलक्ष्मी पण्डित, कमला नेहरू, सुचेता कृपलानी, सरोजिनी नायडू, इन्दिरा गाँधी, सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा आदि के नाम विशेष सम्मानपूर्ण हैं।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत ने नारियों की स्थिति सुधारने के लिए अनेक प्रयत्न किये हैं। हिन्दू विवाह और कानून में सुधार करके उसने नारी और पुरुष को समान भूमि पर लाकर खड़ा कर दिया। दहेज विरोधी कानून बनाकर उसने नारी की स्थिति में और भी सुधार कर दिया। लेकिन सामाजिक एवं आर्थिक स्वतन्त्रता ने उसे भोगवाद की ओर प्रेरित किया है।

आधुनिकता के मोह में पड़कर वह आज पतन की ओर जा रही है।

उपसंहार—इस प्रकार उपर्युक्त वर्णन से हमें वैदिक काल से लेकर आज तक नारी के विविध रूपों और स्थितियों का आभास मिल जाता है। वैदिक काल की नारी ने शौर्य, त्याग, समर्पण, विश्वास एवं शक्ति आदि का आदर्श प्रस्तुत किया। पूर्व मध्यकाल की नारी ने इन्हीं गुणों का अनुसरण कर अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखा। उत्तर-मध्यकाल में अवश्य नारी की स्थिति दयनीय रही, परन्तु आधुनिक काल में उसने अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त कर लिया है। उपनिषद, पुराण, स्मृति तथा सम्पूर्ण साहित्य में नारी की महत्ता अक्षुण्ण है। वैदिक युग में शिव की कल्पना ही ‘अर्द्ध नारीश्वर’ रूप में की गयी। मनु ने प्राचीन भारतीय नारी के आदर्श एवं महान रूप की व्यंजना की है। “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता…” अर्थात् जहाँ पर स्त्रियों का पूजन होता है वहाँ देवता निवास करते हैं। जहाँ स्त्रियों का अनादर होता है, वहाँ नियोजित होने वाली क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं। स्त्री अनेक कल्याण का भाजन है। वह पूजा के योग्य है। स्त्री घर की ज्योति है। स्त्री गृह की साक्षात् लक्ष्मी है। यद्यपि भोगवाद के आकर्षण में आधुनिक नारी पतन की ओर जा रही है, लेकिन भारत के जन-जीवन में यह परम्परा प्रतिष्ठित नहीं हो पायी है। आशा है भारतीय नारी का उत्थान भारतीय संस्कृति की परिधि में हो। वह पश्चिम की नारी का अनुकरण न करके अपनी मौलिकता का परिचय दे।

6. समाचार-पत्रों की उपयोगिता [2010, 14, 17]
अथवा
समाचार-पत्र समाज के सजग प्रहरी [2008]

“तुम जब दो आवाज, पहाड़ों की बोली मिट्टी बोले,
तुम जब छेड़ो तान, चाँदनी घट-घट में चन्दन घोले।”

रूपरेखा

  1. प्रस्तावना,
  2. प्राचीनकाल में समाचार-पत्रों का रूप,
  3. समाचार पत्रों के भेद,
  4. समाचार-पत्रों की उपयोगिता,
  5. समाचार-पत्रों के अनियन्त्रित प्रकाशन से हानियाँ,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना-आदि काल से ही मानव की जिज्ञासा रही है कि वह अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करे। विभिन्न स्थानों के क्रिया-कलापों से वह अवगत होता रहे। मस्तिष्क की भूख मिटाने के लिए मनुष्य के सम्मुख एक ही तरीका है.समाचार-पत्र। इनके माध्यम से देश-विदेशों के राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक दशा तथा परिवर्तन का हम ज्ञान प्राप्त करते हैं। यह जनता जनार्दन की वाणी है, उसके हाथों का अमोघ अस्त्र है।

MP Board Solutions

प्राचीनकाल में समाचार-पत्रों का रूप—समाचार-पत्रों का समाज में समाचार लेकर उपस्थित होना कोई नवीन रूप नहीं है। प्राचीनकाल में भी समाचारों का आदान-प्रदान सन्देश-वाहकों से होता था, चाहे वे सन्देश-वाहक मानव हों, पशु हों या पक्षी। ये समाचार एक स्थान से दूसरे स्थान तक व्यक्तिगत सन्देश के रूप में भेजे जाते थे। उन्हीं में समाज की स्थिति का भी कभी-कभी वर्णन कर दिया जाता था।

सर्वप्रथम समाचार-पत्र का जन्म इटली में हुआ था। इटली के वेनिस प्रान्त में एक स्थान से दूसरे स्थान तक विचारों के आदान-प्रदान के लिए समाचार-पत्रों का प्रयोग होने लगा। सत्रहवीं शताब्दी में ही इस परम्परा से प्रभावित होकर इंग्लैण्ड में भी समाचार-पत्रों का प्रकाशन प्रारम्भ हो गया। इस प्रकार यह प्रक्रिया देश-देशान्तरों में वृद्धि को प्राप्त होने लगी।

भारतवर्ष में समाचार-पत्रों का प्रादुर्भाव मुगल काल में ही हो चुका था। “अखबारात ई-मुअल्ले” नामक समाचार-पत्र का उल्लेख हमें उस काल में मिलता है। हिन्दी में सबसे पहला अखबार कलकत्ता से प्रकाशित हुआ था। इस समाचार-पत्र का नाम था “उदन्त मार्तण्ड”। भारतीय समाज-सुधारकों ने समाचार-पत्रों के प्रकाशन को समाज के लिए एक आवश्यक अंग माना था। इस दिशा में राजा राममोहन राय तथा ईश्वरचन्द्र विद्यासागर आदि ने प्रशंसनीय कार्य किया।

समाचार-पत्रों के भेद-प्रत्येक प्रबन्धक या सम्पादक अपने समाचार-पत्रों को समयावधि के अनुसार प्रकाशित करता है। इस समयावधि में प्रकाशन के आधार पर ही समाचार-पत्रों के विभिन्न रूप हैं। उदाहरण के लिए-दैनिक (जो समाचार-पत्र प्रतिदिन प्रकाशित हो), साप्ताहिक (जो समाचार-पत्र सप्ताह में एक बार प्रकाशित हो), पाक्षिक (एक माह में दो बार प्रकाशित हो), मासिक, त्रैमासिक, अर्द्ध-वार्षिक या षट्-मासिक और वार्षिक। यह विभाजन समय के आधार पर किया गया है। लेकिन विभिन्न विषयों के आधार पर इन्हीं समयावधि में प्रकाशित होने वाले समाचार-पत्र हो सकते हैं। इनको स्थान विशेष के आधार पर भी वर्गीकृत किया जा सकता है। क्षेत्र की दृष्टि से इनका वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है—
(क) अन्तर्राष्ट्रीय,
(ख) राष्ट्रीय,
(ग) प्रादेशिक,
(घ) स्थानीय। विषय की दृष्टि से इनका और भी विभाजन किया जा सकता है

  1. राजनीतिक,
  2. आर्थिक,
  3. सामाजिक,
  4. धार्मिक,
  5. साहित्यिक,
  6. नैतिक,
  7. सांस्कृतिक,
  8. क्रीड़ा,
  9. मनोरंजन आदि।

इस प्रकार हम देखते हैं कि समाचार-पत्रों का एक विशाल क्षेत्र है।

समाचार-पत्रों की उपयोगिता-जैसा कि समाचार-पत्रों के वर्गीकरण में बताया जा चुका है, विविध विषयों पर समाचार-पत्रों का प्रकाशन होता है, इनमें समाज और समय की माँग के अनुसार ही प्रकाशन होते हैं।

प्रत्येक व्यक्ति को समाचार-पत्रों के माध्यम से उसकी अभिरुचि के अनुसार सामग्री प्राप्त हो जाती है। किसी भी बात की सम्पूर्ण जानकारी समाचार-पत्रों के माध्यम से ही प्राप्त हो पाती है। आज की स्थिति में समाचार-पत्रों की उपयोगिता और अधिक बढ़ती जा रही है। संसार की गतिविधियों का सम्यक् ज्ञान इनसे होता है। आज मानव इतना अधिक जाग्रत हो गया है कि उसकी उत्सुकता तभी शान्त होती है जब वह परिस्थितियों से अवगत हो जाता है।

समाचार-पत्रों के माध्यम से विभिन्न रोजगार सम्बन्धी समाचार भी प्राप्त होते हैं। व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाओं से व्यापार सम्बन्धी ज्ञान भी हमको प्राप्त होता है। समाचार-पत्रों में मनोरंजन के लिए कुछ स्तम्भ भी निकलते हैं। मनोरंजन के साथ-साथ संसार में होने वाले खेल-कूदों के विस्तृत विवरण भी हमको समाचार-पत्रों से प्राप्त होते हैं। इस प्रकार से व्यक्ति के मनोरंजन का एक प्रमुख साधन समाचार-पत्र ही है। सामाजिक हित को ध्यान में रखकर प्रकाशित होने वाली बातों के लिए भी सर्वोत्तम साधन समाचार-पत्र ही है। यह एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा राष्ट्रीय चेतना को पैदा किया जा सकता है जिससे नवीन समाज का निर्माण होता है।

समाचार-पत्रों के द्वारा हम लोकतन्त्र में विभिन्न प्रकार के सुझाव, सम्मति तथा आलोचना से अपने राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक हितों की रक्षा करते हैं। इससे जनता को जागरूक एवं योग्य बनाया जा सकता है। समाज में व्याप्त कुरीतियों, भ्रष्टाचार और अन्याय की अपील, सरकार से कर सकते हैं। समाचार-पत्रों के माध्यम से इनका पर्दाफाश कर सकते हैं।

समाचार-पत्र मनुष्य के सर्वांगीण विकास का एक माध्यम है। इनसे जो विचार हम ग्रहण करते हैं उनसे चिन्तन शक्ति की वृद्धि होती है। श्रमिकों और श्रमजीवियों के लिए यह रोजी-रोटी का एक साधन भी है।

समाचार-पत्रों के अनियन्त्रित प्रकाशन से हानियाँ समाचार-पत्रों से जहाँ इतने लाभ हैं वहाँ हानियाँ भी हैं। जब प्रकाशन पर नियन्त्रण कम हो जाता है तो कुछ राजनीतिक पत्र सनसनी पैदा करने के लिए कुछ छोटे और हल्के समाचारों को अधिक महत्त्व देते हैं जिससे समाज पर कुप्रभाव पड़ता है। समाचार-पत्र आकर्षण की दृष्टि से अश्लील चित्र प्रकाशित करते हैं। इससे पाठकों के विचार दूषित होते हैं। असत्य और भ्रामक विचारों को प्रकाशित करने से भी समाज, राज्य और राष्ट्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। ऐसे विचार राष्ट्रोन्नति में बाधक होते।

उपसंहार-समाचार प्रकाशन पर उचित नियन्त्रण होना चाहिए। अश्लील एवं सस्ते साहित्य और उसके प्रकाशन पर पूर्ण पाबन्दी होनी चाहिए। समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता केवल राष्ट्र-हित, समाज-हित और मानव-कल्याण के समाचार प्रकाशन में होनी चाहिए क्योंकि ये राष्ट्र के लिए अपरिहार्य रूप सृजन-शक्ति है। आशा है कि समाचार-पत्र एक शान्त, समृद्ध एवं सुखी दुनिया के निर्माण में अपनी पावन भूमिका का निर्वाह करेंगे।

किसी शायर के शब्दों में,

“खींचो न कमानों को, न तलवार निकालो
जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो।”

7. अनुशासन का महत्त्व [2008]
अथवा
विद्यार्थी और अनुशासन [2009, 15, 17]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. अनुशासन की आवश्यकता,
  3. अनुशासन के लाभ,
  4. छात्रानुशासन,
  5. उपसंहार।

MP Board Solutions

प्रस्तावना-अनुशासन शब्द अनु + शासन के योग से बना है। शासन का अर्थ है नियम, आज्ञा तथा अनु का अर्थ है पीछे चलना, पालन करना। इस प्रकार अनुशासन का अर्थ शासन का अनुसरण करना है। किन्तु इसे परतन्त्रता मान लेना नितान्त अनुचित है। विकास के लिए तो नियमों का पालन आवश्यक है। युवक की सुख शान्तिमय प्रगतिशीलता का संसार छात्रावस्था पर अवलम्बित है। अनुशासन आत्मानुशासन का ही एक अंग है।

अनुशासन की आवश्यकता—जीवन की सफलता का मूलाधार अनुशासन है। समस्त प्रकृति अनुशासन में बँधकर गतिवान रहती है। सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र, सागर, नदी, झरने, गर्मी, सर्दी, वर्षा एवं वनस्पतियाँ आदि सभी अनुशासित हैं।

अनुशासन सरकार, समाज तथा व्यक्ति तीन स्तरों पर होता है। सरकार के नियमों का पालन करने के लिए पुलिस, न्याय, दण्ड, पुरस्कार आदि की व्यवस्था रहती है। ये सभी शासकीय नियमों में बँधकर कार्य करते हैं। सभी बुद्धिमान व्यक्ति उन नियमों पर चलते हैं तथा जो उन नियमों का पालन नहीं करते हैं, वे दण्ड के भागी होते हैं।

सामाजिक व्यवस्था हेतु धर्म, समाज आदि द्वारा बनाये गये नियमों का पालन करने वाले व्यक्ति सभ्य, सुशील तथा विनम्र होते हैं। जो लोग अनुशासनहीन होते हैं, वे असभ्य एवं उद्दण्ड की संज्ञा से अभिहित किये जाते हैं तथा दण्ड के भागी होते हैं। अनुशासन न मानने वाले व्यक्ति को समाज में हीन तथा बुरा माना जाता है। व्यक्ति स्वयं अनुशासित रहे तो उसका जीवन स्वस्थ, स्वच्छ तथा सामर्थ्यवान बनता है। वह स्वयं तो प्रसन्न रहता है, दूसरों को भी अपने अनुशासित होने के कारण प्रसन्न रखता है।

ऋषि-महर्षि अध्ययन के बाद अपने शिष्यों को विदा करते समय अनुशासित रहने पर बल देते थे। वे जानते थे कि अनुशासित व्यक्ति ही किसी उत्तरदायित्व को वहन कर सकता है। अनुशासित जीवन व्यतीत करना वस्तुत: दूसरे के अनुभवों से लाभ उठाना है। समाज ने जो नियम बनाये हैं वे वर्षों के अनुभव के बाद सुनिश्चित किये गये हैं। भारतीय मुनियों ने अनुशासन को अपरिहार्य माना, ताकि व्यक्ति का समुचित विकास हो सके। आदेश देने वाला व्यक्ति प्रायः आज्ञा दिये गये व्यक्ति का हित चाहता है। अतएव अनुशासन में रहना तथा अनुशासन को अपने आचरण में ढाल लेना आवश्यक है।

अनुशासन से लाभ–अनुशासन के असीमित लाभ हैं। प्रत्येक स्तर की व्यवस्था के लिए अनुशासन आवश्यक है। राणा प्रताप, शिवाजी, सुभाषचन्द्र बोस, महात्मा गाँधी आदि ने इसी के बल पर सफलता प्राप्त की। इसके बिना बहुत हानि होती है। सन् 1857 में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े गये स्वतन्त्रता संग्राम की असफलता का कारण अनुशासनहीनता थी। 31 मई को सम्पूर्ण उत्तर भारत में विद्रोह करने का निश्चय था, लेकिन मेरठ की सेनाओं ने 10 मई को ही विद्रोह कर दिया, जिससे अनुशासन भंग हो गया। इसका परिणाम सारे देश को भोगना पड़ा। सब जगह एक साथ विद्रोह न होने के कारण फिरंगियों ने विद्रोह को कुचल दिया।

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने शान्तिपूर्वक विशाल अंग्रेजी साम्राज्यवाद की नींव हिला दी थी। उसका एकमात्र कारण अनुशासन की भावना थी। महात्मा गांधी की आवाज पर सम्पूर्ण देश सत्याग्रह के लिए चल देता था। अनेकानेक कष्टों को भोगते हुए भी देशवासियों ने सत्य और अहिंसा का मार्ग नहीं छोड़ा। पहली बार जब कुछ सत्याग्रहियों ने पुलिस के साथ मारपीट तथा दंगा कर डाला तो महात्माजी ने तुरन्त सत्याग्रह बन्द करने की आज्ञा देते हुए कहा कि “अभी देश सत्याग्रह के योग्य नहीं है। लोगों में अनुशासन की कमी है।” उन्होंने तब तक पुनः सत्याग्रह प्रारम्भ नहीं किया, जब तक उन्हें लोगों के अनुशासन के बारे में विश्वास नहीं हो गया। अतएव अनुशासन द्वारा लोगों में विश्वास की भावना पैदा की जाती है। अनुशासन विश्वास का एक महामंत्र है।

सेना की सफलता का आधार अनुशासन होता है। सेना और भीड़ में अन्तर ही यह है कि भीड़ में कोई अनुशासन नहीं होता जबकि सेना अनुशासित होती है। नेपोलियन, समुद्रगुप्त तथा सिकन्दर आदि महान कहे जाने वाले सेनानायकों ने जो विजय पर विजय प्राप्त की, उनके मूल में उनकी सेनाओं का अनुशासित होना ही था।

यातायात, अध्ययन, वार्तालाप आदि में भी अनुशासन आवश्यक है। रेल ड्राइवर सिगनल होने पर ही गाड़ी आगे बढ़ाता है। अनुशासन के द्वारा ही एक अध्यापक पचास-साठ छात्रों की कक्षा को अकेले पढ़ाता है। राष्ट्रपति से लेकर निम्नतम कर्मचारी तक सारी शासन-व्यवस्था अनुशासन से ही संचालित रहती है। शरीर में किंचित अव्यवस्था होते ही रोग लग जाता है।

छात्रानुशासन–अनुशासन विद्यार्थी जीवन का तो अपरिहार्य अंग है। चूँकि विद्यार्थी देश के भावी कर्णधार होते हैं, देश का भविष्य उन्हीं पर अवलम्बित होता है। उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे स्वयं अनुशासित, नियन्त्रित तथा कर्त्तव्यपरायण होकर देश की जनता को मार्गदर्शन करें, उसे अन्धकार के गर्त से निकालकर प्रकाश की ओर ले जायें। अत: उनके लिए अनुशासित होना आवश्यक है।

अनुशासन के सन्दर्भ में मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जीवन प्रेरणादायी है। अनुशासन में रहने के कारण ही राम मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाने के अधिकारी हुए। अनुशासन के अधीन वे राजतिलक त्यागकर वनवासी बन जाते हैं तथा अपनी पत्नी का परित्याग कर प्रजा की आज्ञा का पालन करते हैं। इस सबका कारण है उनका अनुशासित जीवन।

उपसंहार-निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जीवन में महान् बनने के लिए अनुशासन आवश्यक है। बिना अनुशासन के कुछ भी कर पाना असम्भव है। अनुशासन से व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है तथा समाज को शुभ दिशा मिलती है। वस्तुतः अनुशासित जीवन ही जीवन है। अनुशासित जीवन के अभाव में हमारी जिन्दगी दिशाहीन एवं निरर्थक हो जायेगी।

8. राष्ट्र निर्माण में युवाओं की भूमिका [2011]
अथवा
राष्ट्रहित में विद्यार्थियों का योगदान रूपरेखा

  1. प्रस्तावना,
  2. युवकों की स्थिति,
  3. राष्ट्र निर्माण में अपेक्षाएँ,
  4. युवाशक्ति का योगदान,
  5. उपसंहार।

प्रस्तावना मानव जीवन की स्वर्णिम अवस्था युवा शक्ति का सागर होती है। इसमें मनुष्य का तन तथा मन उल्लास, आवेग तथा ऊर्जा से भरा रहता है। ज्ञानार्जन की भी यही अवस्था होती है। विद्या मानव के विविध स्रोतों को संचालित करती है। उसमें सोचने-समझने तथा निर्णय लेने की क्षमता आती है। विद्या अध्ययन करने वाले विद्यार्थी का जीवन तथा जगत आदि सम्बन्धी चिन्तन स्पष्ट तथा सम्यक होता है। प्रत्येक देश में अभाव, असमानताएँ, गरीबी, सामाजिक अन्याय, साम्प्रदायिकता आदि सम्बन्धी समस्याएँ होती ही हैं। उन समस्याओं से मुक्ति प्राप्त किए बिना कोई देश प्रगति नहीं कर सकता है। इन सभी प्रकार की समस्याओं के सन्दर्भ में ही विद्यार्थी का उत्तरदायित्व बढ़ जाता है। छात्र जगत प्रतिपल अपने कर्म में रत है।

“कर्म-रत जग, हर दिशा से, कर्म की आवाज आती।
काल की गति एक क्षण, को भी नहीं विश्राम पाती।”

युवकों की स्थिति आज का युवा कल का नागरिक होगा तथा समस्त देश का भार उसके कन्धों पर होगा। अत: आज का बालक जितना प्रबुद्ध, कुशल, सूक्ष्मदर्शी तथा प्रतिभा सम्पन्न होगा, उतना ही देश का भविष्य उज्ज्वल होगा। बौद्धिक विकास के लिए शिक्षा सर्वाधिक उत्तरदायी होती है। यही कारण है कि मनुष्य के जीवन की आधारशिला विद्यार्थी जीवन होता है। जो इस समय जितना सजग, कार्यशील तथा अध्यवसायी बना रहेगा उतना ही वह देश का उपकार करने में समर्थ होगा।

राष्ट्र निर्माण में अपेक्षाएँ-स्वतन्त्र भारत के बहुमुखी विकास के लिए युवाओं (विद्यार्थी) से अपेक्षा की जाती है कि वह समाज का प्रबुद्ध प्राणी होने के कारण समाज को उचित दिशा-निर्देश करे, जिससे जो गुमराह, भटका हुआ तथा दिशाहीन समाज है वह सन्मार्ग पर आ सके। वर्षों की गुलामी के वातावरण में विकसित होने वाला समाज स्वतन्त्रता की विविध अनुभूतियों से शून्य है। उसको समझाकर उसे स्वच्छन्द रूप से अपने जीवन के विकास की ओर उन्मुख करने में विद्यार्थी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। बन्धनों की जकड़न के कारण भारतीय समाज के अनेक विकास द्वार बन्द हो गये थे, आज वे सभी मुक्त हैं, उनका ज्ञान कराना आवश्यक है।

MP Board Solutions

युवा शक्ति का योगदान—युवाशक्ति में असीमित ऊर्जा होती है। युवा राष्ट्र निर्माण का गुरुतर कार्य आसानी से कर सकता है। विद्यार्थी का परम कर्त्तव्य होता है कि अपनी शिक्षा को सभी प्रकार से सुविकसित करना, किन्तु आधुनिक सन्दर्भो में उसका रूप परिवर्तित हो गया है आज का विद्यार्थी प्राचीनकाल के विद्यार्थी के समान आश्रमों में रहकर सादा जीवन-यापन करते हुए ऋषि-मुनियों के निर्देशन में शिक्षा प्राप्त नहीं करता है। उसे गृहस्थ में साथ रहकर समस्त घटनाओं से परिचित रहते हुए अपना अध्ययन करना पड़ता है। अत: विद्यार्थी का कर्तव्य और अधिक कठोर हो जाता है कि वह समाज की सभी स्थितियों में भी एकाग्र रहकर अपनी शिक्षा को नियमित रूप से चालू रखे।

आज के युग में तीव्र गतिशीलता है। विश्व में तेज प्रतियोगिता चल रही है। उसमें स्वयं को सम्मिलित करने के लिए यह आवश्यक है कि आज का युवा विद्यार्थी सामाजिक क्रियाकलापों के प्रति सजग रहे। अध्ययन के अतिरिक्त विद्यार्थी को संसार की अन्यत्र बातों की ओर भी सजग रहना आवश्यक है। वर्तमान युग में भौतिक तुष्टियों का पूरक विज्ञान है। जितनी प्रगति विज्ञान में हो जायेगी उतना ही वह राष्ट्र महान हो जायेगा। अत: आज के विद्यार्थी तथा भावी वैज्ञानिक के लिए यह आवश्यक हो गया है कि वह अनुसंधान रत हो। चिकित्सा, तकनीकी, आण्विक, सूचना प्रौद्योगिकी, कम्प्यूटर, कृषि, उद्योग आदि सम्बन्धी प्रगति के लिए शोध आवश्यक है। ये सभी कार्य चरित्र निर्माण करते हुए कर्त्तव्यनिष्ठ होकर ही किए जा सकते हैं।

राष्ट्र के हित के लिए समाज, परिवार, व्यक्ति सभी का हित ध्यान में रखना है। अपना घर बनाकर ही राष्ट्र के निर्माण की दिशा में बढ़ा जा सकता है। स्वार्थ से ऊपर उठकर कल्याणकारी योजनाओं में सक्रिय होकर ही युवाशक्ति राष्ट्र की नींव मजबूत कर सकती है।

उपसंहार-वर्तमान में युवाशक्ति (विद्यार्थी) को अनुशासित रहकर संसार पर दृष्टि रखते हुए देश के विकास की गति को बढ़ाना है। स्वार्थहीनता, लोलुपता त्यागकर अपने दायित्व को समझकर अपनी ऊर्जा का प्रयोग रचनात्मक कार्यों में करना है। शिक्षा-दीक्षा पूर्ण कर युवा वर्ग राष्ट्र के हित में अपने जीवन को अर्पित करने का संकल्प लेंगे तभी राष्ट्र का तथा स्वयं उनका मंगलकारी भविष्य हो सकेगा।

9. महँगाई की समस्या
[2015]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. मूल्य वृद्धि के कारण-कृषि उत्पादन, प्रशासन की उदासीनता, आयात नीति, जनसंख्या में वृद्धि, घाटे का बजट, अव्यवस्थित वितरण प्रणाली,
  3. समस्या का निदान,
  4. उपसंहार।

प्रस्तावना-भारत में इस समय जो आर्थिक समस्याएँ विद्यमान हैं, उनमें महँगाई एक प्रमुख समस्या है। भारत में पिछले दो दशकों में सभी वस्तुओं और सेवाओं में मूल्यों में अत्यन्त तीव्रता से वृद्धि हुई है। वृद्धि का यह चक्र आज भी गतिवान है।

मूल्य वृद्धि के कारण-भारत में अधिकांश वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि के बहुत से कारण हैं। इन कारणों में से प्रमुख रूप से उल्लेखनीय कारण निम्नलिखित हैं

(1) कृषि उत्पादन-कृषि पदार्थों की कीमतों में निरन्तर वृद्धि का एक प्रमुख कारण उन समस्त वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों में वृद्धि है जो कृषि के लिए आवश्यक हैं। कृषि उर्वरकों के मूल्यों में वृद्धि, सिंचाई की दरों में वृद्धि, बीज के दामों में वृद्धि, कृषि मजदूरों की मजदूरी की दर में वृद्धि कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिनमें वृद्धि होने से स्वाभाविक रूप से ही उसका प्रभाव कृषि-पदार्थों पर पड़ता है।

(2) प्रशासन की उदासीनता-साधारणतः प्रशासन के स्वरूप पर यह निर्भर करता है कि देश में अर्थव्यवस्था एवं मूल्य-स्तर सन्तुलित होगा या नहीं। प्रभावशाली प्रशासक होने से कृत्रिम रूप से वस्तुओं और सेवाओं की पूर्ति में कमी करना व्यापारियों के लिए कठिन हो जाता है।

(3) आयात नीति-कभी-कभी आयात सम्बन्धी गलत नीति के कारण वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि हो जाती है। यह सही है कि देश में जहाँ तक सम्भव हो, आयात कम होना चाहिए-विशेष रूप में उपभोग की वस्तुओं का आयात अधिक नहीं होना चाहिए।

(4) जनसंख्या में वृद्धि-भारत में जनसंख्या तीव्रता से एवं अनियन्त्रित रूप में बढ़ रही है। जनसंख्या के इस विशाल आकार की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सभी वस्तुओं और सेवाओं का बड़े आकार में होना अनिवार्य है। दुर्भाग्य से भारत में आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं की कमी है, इसी के परिणामस्वरूप अधिकांश वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों में निरन्तर वृद्धि जारी है।

(5) घाटे का बजट-भारत में बजट और पूँजी-निर्माण की जो स्थिति है वह योजनाओं को पूरा करने के लिए बिल्कुल पर्याप्त नहीं है। अतः इस कमी को दूर करने के लिए, अन्य उपायों के अतिरिक्त घाटे की बजट प्रणाली को अपनाया जाने लगा है, जिससे अधिकांश वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों में तेजी से वृद्धि हुई है।

(6) अव्यवस्थित वितरण प्रणाली- भारत में अधिकतर विक्रेता संगठित हैं। इसके परिणामस्वरूप वह आपस में मिलकर वस्तुओं की खरीद, संचय एवं बिक्री के विषय में नीति का निश्चय करते हैं। धीरे-धीरे वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि होने लगती है। यदि सरकार इन प्रवृत्तियों को रोकने में असमर्थ होती है तो यह संस्थाएँ मूल्यों को निरन्तर बढ़ाती जाती हैं, जिससे उपभोक्ताओं को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

समस्या का निदान-

  1. कृषि पर अधिक ध्यान देना,
  2. सिंचाई की सुविधा,
  3. वितरण प्रणाली में बदलाव,
  4. भ्रष्टाचार पर अंकुश।

उपसंहार-कृत्रिम अभाव के सजन एवं मल्यों में निरन्तर वद्धि से कालाबाजारी एवं अत्यधिक लाभ कमाने की प्रवृत्ति बढ़ती है। भारत में भी यह प्रवृत्ति अभी तक विद्यमान है। यह दोनों ही प्रवृत्तियाँ देश की अर्थव्यवस्था को अवांछित रूप से प्रभावित करती हैं और मूल्य वृद्धि को बढ़ावा देती हैं। सरकार को इन पर प्रभावी रोक हेतु आवश्यक कदम अविलम्ब उठाने चाहिए।

MP Board Solutions

10. जीवन में खेलों का महत्त्व
[2008, 09, 15]

“मन को सदा प्रसन्न करे जो तन को स्वस्थ बनाए।
खेलों का महत्त्व जीवन में वर्णन किया न जाए॥”

रूपरेखा [2016]

  1. प्रस्तावना,
  2. आवश्यकता,
  3. खेलों का महत्त्व,
  4. आर्थिक लाभ,
  5. उपसंहार।

प्रस्तावना-खेल का सम्बन्ध मानव के साथ जन्मजात होता है। बच्चा जन्म लेते ही हाथ-पैर फेंकने लगता है। उस समय उसके हाथ-पैर फेंकने की प्रक्रिया का सम्बन्ध भी खेल से ही होता है। इसके बाद बड़ा होकर वह स्वयं ही खेल में रुचि लेने लगता है। यह प्रकृति प्रदत्त है। जो बच्चे खेल में रुचि लेते हैं वह स्वस्थ, हँसमुख व जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उत्साहित से रहते हुए सफलता प्राप्त करते जाते हैं। किन्तु जो बच्चे खेल में रुचि नहीं लेते वह निरुत्साहित व सुस्त नजर आते हैं।

आवश्यकता किसी भी देश की वास्तविक सम्पदा वहाँ के स्वस्थ नागरिक होते हैं और किसी भी देश की उन्नति वहाँ के स्वस्थ नागरिकों पर निर्भर होती है। खेल हमारे जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। खेलों के माध्यम से हमें अन्य लोगों से मिलने-जुलने के व उनके साथ रहने के अवसर प्राप्त होते हैं और दूसरे देशों में जाने का व दूसरे देशों की सभ्यता व संस्कृति का ज्ञान होता है। उनकी उन्नतिशील संस्कृति अपनाकर हम अपने जीवन व उसके साथ जुड़े देश की उन्नति भी कर सकते हैं। खेल हमारे जीवन की उदासीनता को दूर कर जीवन में आशा की ज्योति जलाते हैं।

खेलों का महत्त्व-खेलों के माध्यम से अपने जीवन के उन्नत लक्ष्यों की प्राप्ति कर प्रसिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। जिस तरह अभी चीन में हुए ओलम्पिक में अभिनव बिन्द्रा ने 10 मीटर रायफल में गोल्ड मैडल जीतकर व बॉक्सिंग में विजेन्दर व कुश्ती में सुशील कुमार ने कांस्य पदक जीतकर विश्व में अपना परिचय स्वयं ही दिया, उन्हें किसी के द्वारा परिचय देने की आवश्यकता नहीं। कल तक हमारे देश के अनजान बच्चों ने पूरे विश्व में अपने देश को खेलों में अपने प्रदर्शन द्वारा गौरवान्वित किया है।

आज खेलों का महत्त्व इसी बात से दिखता है कि प्रत्येक देश में खेलों से सम्बन्धित अलग मन्त्रालय होता है जिसका कार्य अपने देश में खेलों का विकास करना और उनसे सम्बन्धित समस्याओं को दूर करना है। इन्हीं खेलों के महत्त्व को देखते हुए हम अपने बच्चों को यह नहीं पढ़ा सकते कि

“पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब
खेलोगे कूदोगे बनोगे खराब।”

इसके लिए आवश्यक है कि बच्चों के विद्यालयों में प्रवेश के साथ ही उनकी रुचि के अनुसार विद्यार्थियों को विशेष प्रशिक्षण देकर उन्हें प्रशिक्षित करने की सुविधा दें क्योंकि आज विश्व के समस्त देशों की सरकारें भी अपने राज्य कर्मचारियों के लिए हर विभाग में खिलाड़ियों के लिए कोटा निर्धारित करती हैं। हमारे देश में भी अर्जुन पुरस्कार खेलों में प्रवीण व्यक्तियों को नौकरियों में आरक्षण दिया जाता है। आज हर विद्यालय व कॉलेजों में इन प्रतियोगिताओं का आयोजन पहले जिला स्तरीय, फिर राज्य स्तरीय, फिर देश स्तरीय व विश्वस्तरीय होता है जिसमें भाग लेकर नागरिक अपना व अपने देश का नाम गौरवान्वित करते हैं।

आर्थिक लाभ-आज के युग में खेलों के साथ आर्थिक पहलू भी जुड़ गया है। कई बड़े-बड़े उद्योगपति भी अपनी प्रसिद्धि के लिए खेलों व खेल प्रतियोगिताओं का सहारा लेते हैं। किन्तु खेल में भाग लेने वाले खिलाड़ी अपने परिचय के लिए किसी के भी मोहताज नहीं हैं। आज सचिन तेन्दुलकर, अभिनव बिन्द्रा, गीत सेठी ने अपनी पहचान अथवा परिचय अपनी-अपनी रुचि के खेलों में प्रशिक्षण प्राप्त कर चरमोत्कर्ष पर पहुँच कर दिया और इन खिलाड़ियों को कोई भी विश्वस्तरीय कम्पनी अपना ब्राण्ड एम्बेसडर मुँहमाँगी कीमत पर बनाने को तैयार है।

उपसंहार-आज सामान्य नागरिक को किसी दूसरे देश में प्रवेश के लिए अनेक औपचारिकताओं; जैसे—बीजा, परमिट आदि से गुजरना पड़ता है जिसके लिए उन्हें अपना काफी समय व धन लगाना पड़ता है किन्तु किसी भी प्रशिक्षित खिलाड़ी को उनकी अपनी सरकार वी. आई. पी. कोटे द्वारा खेल प्रतियोगिता में सम्मिलित होने के लिए स्वयं ही प्रबन्ध करती है। इस तरह आज चीन जैसे देश जिसे विश्व के निम्न स्तरीय देशों में गिना जाता था किन्तु बीजिंग में ओलम्पिक 2008 होने से विश्व के समस्त देशों की ईर्ष्या का कारण बन गया है। अतः आज आवश्यक है कि खेलों के महत्त्व को जानते हुए उनके प्रशिक्षण की विशेष सुविधा का प्रबन्ध किया जाए।

11. जल और जंगल का संरक्षण [2008, 12]
अथवा
वन संरक्षण का महत्त्व [2013]

“जल का संरक्षण वन करते
जल से हरा भरा वन हो।
जल जंगल को संरक्षित कर
जीवन सुखमय सुन्दर हो।”

जल-आधुनिक समय में मनुष्य के लिए जल का होना अत्यावश्यक हो गया है। हम इस बात को मानते हैं कि प्रत्येक युग में जल की आवश्यकता मनुष्य को रही है परन्तु आज के समय में जल की कमी को देखकर ऐसा महसूस होता है कि पानी के बिना मनुष्य का जीवन असम्भव सा है। आज के राजस्थान वाले शहरों में ही नहीं बल्कि चाहे किसी भी शहर में पानी की कमी दिखाई देती है और इसीलिए आज यह आवश्यक हो गया है कि हमें एक-एक पैसे की तरह पानी की एक-एक बूंद का संरक्षण करना चाहिए। पानी को व्यर्थ में बहते रहने देना नहीं चाहिए। अगर हम जल का संरक्षण या संग्रह नहीं करेंगे तो हमें हमारे शरीर के लिए पर्याप्त मात्रा में जल की प्राप्ति नहीं हो सकेगी और जब हमारे शरीर को पूरी मात्रा में जल नहीं मिलेगा तो हमारा शरीर रोगों से ग्रस्त हो जायेगा क्योंकि हमारे शरीर में जल की मात्रा अधिक पहुँचनी चाहिए तभी हमारा शरीर स्वस्थ रह सकेगा इसीलिए हमें अपने शरीर को स्वस्थ रखने के लिए जल का संरक्षण करना होगा। कहा भी गया है

“जल से जीवन, जीवन जल से, जल जीवन का दाता है।
जल संरक्षण कर ले मानव, यही भविष्य निर्माता है।”

जंगल का संरक्षण-वृक्ष मनुष्य के सबसे अधिक विश्वस्त मित्र होते हैं और यदि हम अपने देश को सँवारना और सुधारना चाहते हैं तो हमें वृक्षों का विशेष ध्यान रखना होगा। जंगलों से हमें अनेक प्रकार की आयुर्वेदिक दवा बनाने के लिए जड़ी-बूटियाँ प्राप्त होती हैं जो हम सभी को अनेक भयंकर रोगों से बचाने में सहायक होती हैं। अत: इन सभी उपलब्धियों को प्राप्त करने के लिए हमें जंगलों को सुरक्षित रखना होगा और ये जंगल तभी सुरक्षित रह सकते हैं जब उनको पानी उनकी आवश्यकता के अनुसार मिलेगा। लेकिन यदि उन्हें जल उनकी मात्रा के अनुरूप नहीं मिलेगा तो जंगलों में सारे वृक्ष सूख जायेंगे।

जंगल तो एक ऐसा भण्डार या गोदाम होता है जहाँ से हमें भोजन बनाने के लिए ईंधन प्राप्त होता है तथा जंगलों में उगने वाले वृक्ष हमारे जीवन का एक मुख्य अंग होते हैं। इनके द्वारा ही हम अपने जीवन में साँस ले सकते हैं क्योंकि ये वृक्ष अपने अन्दर कार्बन डाइऑक्साइड ग्रहण करते हैं और हमारे लिए ऑक्सीजन निकालते हैं जिसके द्वारा हम साँस लेते हैं। अत: जल की तरह ही जंगल भी सुरक्षित रखना हमारे लिए अत्यन्त आवश्यक होता है।

MP Board Solutions

जंगलों द्वारा ही अनेक बेरोजगारों को रोजगार मिलते हैं क्योंकि जंगलों से प्राप्त वस्तुओं का उपयोग करके हमारे भारत में अनेक लघु तथा कुटीर उद्योगों की स्थापना की जाती है। ऐसा अनुमान है कि भारत के लगभग 80 करोड़ व्यक्तियों की जीविका जंगलों पर ही आश्रित है। हमारा देश कृषि प्रधान देश है और कृषि कार्य को सम्पन्न करने के लिए स्वस्थ पशुओं की आवश्यकता होती है और स्वस्थ पशु तब ही हो पाते हैं जब उनको हरा चारा पेट भर कर मिले और यह चारा उन्हें जंगलों से ही प्राप्त होता है। अतः अन्त में हम यही कहना चाहेंगे कि व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन और जीविका जल का और जंगल का संरक्षण करके ही सुरक्षित रह सकती है। कहा भी गया है

“यदि वृक्ष हैं तो जीवन है, जीवन है तो इन्सान है।
आने वाले जीवन की वृक्षों से ही पहचान है।”

12. विज्ञान एवं मानव [2017]
अथवा
विज्ञान के बढ़ते चरण [2011]
अथवा
विज्ञान आज के युग में [2015]

“बाहु में वरदान भर निर्माण के,
लोचनों में खण्ड शत दिनमान के॥”

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. संचार के क्षेत्र में,
  3. चिकित्सा के क्षेत्र में,
  4. मनोरंजन के क्षेत्र में,
  5. विज्ञान की अन्य देन,
  6. कृषि के क्षेत्र में,
  7. विज्ञान वरदान के रूप में,
  8. विज्ञान अभिशाप के रूप में,
  9. उपसंहार।

प्रस्तावना-आज विज्ञान का युग है, विज्ञान आज मानव जीवन का पर्याय बन गया है। आधुनिक युग में विज्ञान विहीन मानव की कल्पना संजोना व्यर्थ है। विज्ञान, हमारी समस्त दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति का अमोघ साधन बन गया है। विज्ञान जीवन का आधार है, सुख का स्रोत है। आज विज्ञान दुनिया पर पूर्णरूपेण छाया हुआ है।

संचार के क्षेत्र में विज्ञान ने संचार क्षेत्र में नये आयाम स्थापित किये हैं। रेडियो से दूर की खबरें सुनी जा सकती हैं। टेलीविजन से दूर बैठे अपने सम्बन्धी का चित्र देखिए, टेलीफोन से बातचीत कर लीजिए, सेल्यूलर फोन भी संचार के क्षेत्र में महान उपलब्धि है। इससे संसार की समस्त दूरियाँ सिमटी हैं।

चिकित्सा के क्षेत्र में एक्स-रे के माध्यम से शरीर के आन्तरिक भागों का भली प्रकार निरीक्षण किया जा सकता है। रोगों के निवारण के लिए अनेक प्रकार के टीकों का भी आविष्कार हुआ है। आविष्कृत औषधियों ने काल की छाती पर करारा चूसा मारा है।

मनोरंजन के क्षेत्र में रेडियो, सिनेमा, टेलीविजन एवं टेपरिकॉर्डर आज मनोरंजन की वस्तुएँ विज्ञान ने मानव को प्रदान की हैं। इनके माध्यम से इन्सान की जिन्दगी में नयी आशा की किरणें जगी हैं।

विज्ञान की अन्य देन—बिजली का पंखा, गैस का चूल्हा एवं रेफ्रीजरेटर दैनिक उपयोग की वस्तुएँ विज्ञान की देन हैं। विशाल मशीनों के माध्यम से उत्पादन में आशातीत वृद्धि हुई है।

कृषि के क्षेत्र में ट्रेक्टर, थ्रेसर एवं बुलडोजर कृषि के क्षेत्र में विज्ञान की अद्भुत देन है। नई-नई खादें एवं वैज्ञानिक मशीनों से पैदावार में आशातीत बढ़ोत्तरी हुई है।

विज्ञान वरदान के रूप में आज विज्ञान ने मनुष्य को तर्क एवं बुद्धि के सन्दर्भ में नवीन दृष्टि प्रदान की है। टेपरिकॉर्डर, टी. वी. आदि ने मनुष्य को ज्ञान के क्षेत्र में बहुत आगे बढ़ाया है। मानव की जीवन-शैली में अत्यधिक परिवर्तन आया है। मानव की सुख-सुविधा में विज्ञान ने महत्त्वपूर्ण सहयोग प्रदान किया है। मनुष्य को सभ्य एवं उदार दृष्टिकोण वाला बनाया है।

विज्ञान अभिशाप के रूप में विज्ञान द्वारा निर्मित भयंकर अस्त्र-शस्त्र मनुष्य के लिए प्राणघातक प्रमाणित हो रहे हैं। प्रक्षेपास्त्रों, रॉकेटों, विनाशकारी बमों के आक्रमण मानव की जीवन लीला को समाप्त कर रहे हैं। इन्सानियत की भावनाएँ अन्तिम साँसें ले रही हैं। सारी दुनिया भयंकर विनाश लीला के विषय में सोचकर गहरे अवसाद में निमग्न हो जाती है।

उपसंहार-विज्ञान में जहाँ अभिशापों की काली छाया मँडरा रही है वहीं बसन्त की सुषमा की कलित क्रीड़ा भी अवलोकनीय है। यह मनुष्य की बुद्धि पर निर्भर है कि वह विज्ञान का प्रयोग मानव कल्याण के लिए करता है अथवा विनाश के लिए। भगवान मानव को ऐसी सद्बुद्धि प्रदान करें जिससे वह वैज्ञानिक आविष्कारों का मानव के कल्याण के लिए प्रयोग करे। इसी में मानव के सुनहरे भविष्य का रहस्य निहित है। जब मानव विज्ञान का मानव कल्याण के लिए प्रयोग करेगा तभी वसुधा के कण-कण से शान्ति, मानवता तथा बन्धुत्व के स्वर ध्वनित होंगे।

13. राष्ट्रीय एकता [2009, 12, 14]
अथवा
राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता [2008, 09]

“भारत सबसे बड़ा रहेगा,
सबसे ऊँची लिए पताका,
सदा हिमालय खड़ा रहेगा।”

रूपरेखा [2015]-

  1. प्रस्तावना,
  2. राष्ट्रीय एकता में बाधक तत्त्व,
  3. जातिवाद,
  4. विभिन्न भाषाएँ,
  5. प्रान्तीयता की भावना,
  6. संकुचित राजनैतिक दृष्टिकोण,
  7. राष्ट्रीय एकता के तत्त्व,
  8. समस्या का निराकरण,
  9. उपसंहार।

MP Board Solutions

प्रस्तावना—हमारे भारत देश में विभिन्न धर्म, सम्प्रदाय एवं बहुभाषी मनुष्य निवास करते हैं। सदियाँ बीत गयीं, इस वृहद् देश में सभी जाति एवं धर्म के लोग प्रेम, सद्भावना एवं भाई-चारे के सूत्र में बँधकर जीवनयापन करते चले आ रहे हैं। अंग्रेजों की कूटनीति के फलस्वरूप भारत माता के दो टुकड़े हो गये। इसके पश्चात् साम्प्रदायिक दंगों का जहरीला नाग अपना फन फहराने लगा, जो आज तक सक्रिय है।

राष्ट्रीय एकता में बाधक तत्त्व-जातिवाद, भाषावाद, प्रान्तवाद, सम्प्रदायवाद आदि राष्ट्रीय एकता में बाधा डालने वाले तत्त्व हैं।

जातिवाद-जातिवाद भारत की एकता के तारों को छिन्न-भिन्न कर रहा है। जातिवाद के फलस्वरूप घृणा, बैर तथा ऊँच-नीच की भावना पनपी है।

विभिन्न भाषाएँ-भारतवर्ष में अनेक भाषाएँ प्रयोग की जाती हैं। भाषावाद को माध्यम बनाकर संघर्षों का भी आविर्भाव हो रहा है, जो देश के लिए घातक है।

प्रान्तीयता की भावना दूषित क्षेत्रीय राजनीति के फलस्वरूप हमारी राष्ट्रीय एकता पर विनाशकारी बादल मँडरा रहे हैं। झारखण्ड, बंगाल, खालिस्तान क्षेत्रवाद की अनुदार एवं क्षुद्र प्रान्तीयता की भावना के शिकार हैं। इसके दुष्परिणाम राष्ट्र अनेक बार देख चुका है। भविष्य पर भी काली छाया मँडरा रही है।

संकुचित राजनैतिक दृष्टिकोण-वोट प्राप्त करने के लिए राजनैतिक दल हरिजन, आदिवासी, मुस्लिम एवं पिछड़ा वर्ग के मध्य भेदभाव की दीवार खड़ी कर देते हैं। जिस क्षेत्र में जिस जाति का बाहुल्य होता है उसी जाति के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने के लिए खड़ा किया जाता है। इस प्रकार स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष उम्मीदवार का चुनाव में विजय प्राप्त करना बहुत ही कठिन है।

राष्ट्रीय एकता के तत्त्व हमारे राष्ट्र में विभिन्न जातियों में पैदा हुए आदर्श पुरुषों की उपासना की जाती है। ईद, दीपावली, मोहर्रम आदि त्यौहारों को सभी धर्मावलम्बी साथ-साथ मनाते हैं। मेलों में सभी धर्मों को मानने वाले उत्साहपूर्वक भाग लेते हैं। यह राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है।

समस्या का निराकरण-सबसे प्रथम जातिवाद की संकुचित भावना को समाप्त करना होगा। धर्म एवं जाति के आधार पर भेद-भाव करना एक संगीन अपराध मानना होगा। छुआछूत की भावना को भी समाप्त करना होगा। अनुदार एवं संकुचित सम्प्रदायवाद को भी एक विषैला नाग समझकर उसके फन को इस तरह कुचलना होगा ताकि उसका विष राष्ट्र के शरीर को अपने जहर से विषाक्त न बना सके।

उपसंहार—हमारे भारत देश में अनेकता में एकता के स्वर गुंजित हैं। गीता, रामायण, वेद एवं पुराण हमारी राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक एकता के आधार स्तम्भ हैं। एक सम्प्रभु एवं अखण्ड भारत की कल्पना देश की धरती पर युग-युगों से जीवित है। एकता की भावना आज भी जीवन्त है। आज विश्व के अनेक राष्ट्र हमारे देश की एकता के तार को छिन्न-भिन्न करना चाहते हैं, ऐसी दशा में हम सबको जाति, धर्म एवं सम्प्रदाय की भावना से ऊपर उठकर राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाने में भरपूर सहयोग प्रदान करना होगा। कश्मीर में अलगाववाद की भावना भी राष्ट्रीय एकता में बाधक है। राष्ट्र की एकता एवं खुशहाली में ही सबका हित निहित है। आशा है कि निकट भविष्य में भारत की धरती पर एकता, प्रेम, बन्धुत्व की ऐसी धारा प्रवाहित होगी जिसमें अवगाहन करके भारत का जन-जन असीम उल्लास का अनुभव करेगा।

14. कम्प्यूटर के क्षेत्र में भारत की प्रगति
अथवा
आधुनिक युग में कम्प्यूटर की उपयोगिता [2013]
अथवा
कम्प्यूटर का महत्त्व [2008]

“कम्प्यूटर भारत का गौरव, नवीनतम।
गणना करे पलक झपकते अति सुन्दरतम॥”

रूपरेखा [2017]-

  1. प्रस्तावना,
  2. कम्प्यूटर के प्रयोग,
  3. सूचना और संचार क्रान्ति,
  4. कम्प्यूटर के क्षेत्र में विकास,
  5. उपसंहार।]

प्रस्तावना विगत कई सालों में हमारे राष्ट्र भारतवर्ष में कम्प्यूटरों का जीवन के अनेक क्षेत्रों में वृहद् मात्रा में प्रयोग किया जा रहा है। अनेक संस्थानों एवं उद्योग-धन्धों में कम्प्यूटर का प्रयोग इसकी सफलता का मापदण्ड है। कम्प्यूटर की सफलता को देखकर इसके सन्दर्भ में जानकारी प्राप्त करने की जिज्ञासा मन-मस्तिष्क में पनपने लगती है। कम्प्यूटर ऐसे यांत्रिक मस्तिष्कों का समन्वयात्मक तथा गुणात्मक घनत्व है जो तेज गति से अल्प समय में त्रुटिहीन गणना सम्पन्न कर सके। कम्प्यूटर के प्रथम आविष्कारक चार्ल्स बेवेज ये प्रथम ऐसे मानव थे जिन्होंने 19वीं शताब्दी के आरम्भ में प्रथम कम्प्यूटर निर्मित किया। यह कम्प्यूटर विस्तृत गणनाएँ सम्पन्न कर देता था तथा उनके परिणामों की भी सूचना दे देता था।

कम्प्यूटर के प्रयोग आज जीवन के अनेक क्षेत्रों में इसका प्रयोग देखा जा सकता है।

  1. बैंकिंग के क्षेत्र में …भारतीय बैंकों में हिसाब-किताब रखने तथा खातों के संचालन के लिए कम्प्यूटर का प्रयोग किया जा रहा है।
  2. कला के क्षेत्र में…-आज कम्प्यूटर कलाकार एवं चित्रकार की भूमिका को भी सफलतापूर्वक निर्वाह कर रहे हैं। कम्प्यूटर के समक्ष बैठकर कलाकार अपने नियत कार्यक्रम के अनुसार स्क्रीन पर चित्र बनाता है। यह चित्र प्रिण्ट की कुंजी दबाते ही प्रिंटर के माध्यम से कागज पर वास्तविक रंगों के साथ छाप दिया जाता है।
  3. प्रकाशन के क्षेत्र में पुस्तक एवं समाचार-पत्रों के प्रकाशन क्षेत्रों में भी कम्प्यूटर का महत्त्वपूर्ण योगदान है। कम्प्यूटर से संचालित फोटो कम्पोजिंग मशीन के द्वारा छपने वाली मशीन से टंकित किया जाता है। टंकित की जाने वाली सामग्री को कम्प्यूटर के पर्दे पर निहारा जा सकता है तथा उसमें संशोधन भी किया जाता है। कम्प्यूटर में संचित होने के पश्चात् सम्पूर्ण सामग्री एक लघु चुम्बकीय डिस्क पर अंकित हो जाती है। फोटो कम्पोजिंग मशीन इस डिस्क के अंकीय संकेतों को अक्षरीय संकेतों में परिवर्तित कर देती है।
  4. डिजाइनिंग के क्षेत्र में-कम्प्यूटर के द्वारा हवाई जहाजों, मोटर गाड़ियों एवं भवनों आदि के डिजाइन तैयार करने में कम्प्यूटर ग्राफिक का अत्यधिक उपयोग किया जा रहा है।
  5. वैज्ञानिक क्षेत्र में अन्तरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में कम्प्यूटर ने एक नवीन क्रान्ति को जन्म दिया है। इसके माध्यम से अन्तरिक्ष में वृहद् मात्रा में चित्र उतारकर कम्प्यूटर के द्वारा इन चित्रों का विश्लेषण एवं सूक्ष्म अध्ययन किया जा रहा है।
  6. शिक्षा के क्षेत्र में ज्ञान वाहिनी एवं विद्या वाहिनी कार्यक्रम के द्वारा कक्षाओं के अन्तर्गत शिक्षण विधियों को उपयोगी एवं सरल बनाने की चेष्टा की जा रही है। सुदूर शिक्षा के लिए भारत ने ऐजुसैट नामक उपग्रह प्रक्षेपित किया है, सामान्यतः सम्पूर्ण शिक्षा कम्प्यूटरमय बन गई है।
  7. संगीत के क्षेत्र में कम्प्यूटर की सहायता से एक नये प्रकार की संगीत तकनीक का विकास किया गया है।
  8. कृषि के क्षेत्र में कम्प्यूटर द्वारा किए गए परिवर्तनों के आधार पर दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों के किसान घर बैठे खेती सम्बन्धी अनेक प्रकार की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
  9. चिकित्सा के क्षेत्र में अभियान्त्रिकी की सक्रियता के फलस्वरूप ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सा की सुविधा उपलब्ध करवाई जा रही है, दूरस्थ चिकित्सा प्रणाली भी प्रारम्भ की है।

वना और संचार क्रान्ति टेलीफोन मोबाइल के साथ नेटवर्क का क्षेत्र बहुत व्यापक हो गया है, इसके द्वारा दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों में सब प्रकार की सूचनाएँ और जानकारियाँ पहुँचाई जा सकती हैं। कम्प्यूटर के क्षेत्र में विकास

  1. सूचना प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा पूर्वोत्तर राज्यों में ब्लाक स्तर पर सम्पर्क उपलब्ध कराने तथा सामाजिक एवं आर्थिक विकास में तेजी लाने के लिए सामुदायिक सूचना केन्द्रों की स्थापना की गई है।
  2. ‘सक्षम योजना’ द्वारा केरल के चमरावत्तम गाँव को शत-प्रतिशत कम्प्यूटर साक्षर गाँव बना दिया गया है।
  3. चेन्नई के एम. एस. स्वामीनाथन फाउण्डेशन ने पाण्डिचेरी के तटवर्ती गाँवों में ‘इन्फोशॉप’ की स्थापना की है।

MP Board Solutions

उपसंहार—भारत में कम्प्यूटर का प्रयोग प्रत्येक क्षेत्र में देखा जा सकता है। इसके माध्यम से विकास की गति में आशातीत प्रगति हुई है। रोबोट तो साकार रूप में मानव मस्तिष्क का पर्याय प्रमाणित हो रहा है। परन्तु इसके प्रयोग में अत्यधिक ध्यान केन्द्रित करना होगा। कम्प्यूटर ने आज जो कुछ उपलब्ध किया है। वह आज के बुद्धिजीवियों की महत्त्वपूर्ण देन है। किन्तु फिर भी हमें कम्प्यूटर पर पूर्ण रूप से निर्भर न रहकर अपने अस्तित्व के प्रति जागरूक रहना चाहिए इसके लिए दृढ़ इच्छा शक्ति की अत्यधिक आवश्यकता है। कहा भी गया है

“सुख सुविधाएँ जो हमें दी है विज्ञान ने,
हमें इनका गुलाम न होकर उन्हें सेवक बनाना है।
तभी हम सफल, सक्षम और बलशाली बनेंगे,
हमें विज्ञान संग स्वयं का अस्तित्व जगाना है।”

15. भारत में बेरोजगारी की समस्या
[2011, 14]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. बेरोजगारी के कारण,
  3. बेरोजगारी के प्रकार,
  4. बेरोजगारी के परिणाम,
  5. समाधान हेतु सुझाव,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना—आज देश के कर्णधार, मनीषी तथा समाज सुधारक न जाने कितनी समस्याओं की चर्चा करते हैं परन्तु सारी समस्याओं की जननी बेरोजगारी है। इसकी कोख से भ्रष्टाचार, अनुशासनहीनता, चोरी, डकैती तथा अनैतिकता का विस्तार होता है। बेकारों का जीवन अभिशाप की लपटों से घिरा है। यह समस्या अन्य समस्याओं को भी जन्म दे रही है। चारित्रिक पतन, सामाजिक अपराध, मानसिक शिथिलता, शारीरिक क्षीणता आदि दोष बेकारी के ही परिणाम हैं। बेरोजगारी के कारण बेरोजगारी के विभिन्न चरणों में से प्रमुख इस प्रकार हैं

(1) जनसंख्या में वृद्धि-विगत वर्षों में भारत की जनसंख्या तीव्र गति से बढ़ी है। यही कारण है कि पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत रोजगार के अनेक साधनों के उपलब्ध होने के बावजूद बेरोजगारी का अन्त नहीं हो सका है।

(2) लघु एवं कुटीर उद्योग-धन्धों का अभाव-ब्रिटिश सरकार की नीति के कारण देश में लघु एवं कुटीर उद्योगों में समुचित प्रगति नहीं हुई है। काफी उद्योग बन्द हो गए हैं। फलतः इन धन्धों में लगे हुए व्यक्ति बेकार हो गए हैं, नए रोजगार नहीं पा रहे हैं।

(3) औद्योगीकरण का अभाव स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् देश में बड़े उद्योगों का विकास हुआ, परन्तु लघु उद्योगों की उपेक्षा रही। फलस्वरूप यन्त्रों ने मनुष्य का स्थान ले लिया है।

(4) दूषित शिक्षा प्रणाली लिपिक बनाने वाली भारतीय शिक्षा प्रणाली में शारीरिक श्रम का कोई महत्त्व नहीं है। शिक्षित वर्ग के मन में शारीरिक श्रम के प्रति घृणा उत्पन्न होने से बेकारी में वृद्धि होती है। शिक्षित व्यक्ति स्वयं को समाज के अन्य व्यक्तियों से बड़ा मानकर काम करने में कतराता है। वह शासन करने वाली नौकरी की तलाश में रहता है, जो उसे प्राप्त नहीं हो पाती है।

(5) पूँजी का अभाव- देश में पूँजी का अभाव है, इसलिए उत्पादन में वृद्धि न होने से भी बेकारी बढ़ रही है।

(6) कुशल एवं प्रशिक्षित श्रमिकों का अभाव-दीक्षा विद्यालयों एवं कारखानों की कमी के कारण देश में कुशल एवं प्रशिक्षित श्रमिकों का अभाव है, इसलिए कुशल कर्मचारी विदेशों से भी बुलाने पड़ते हैं, इससे बेरोजगारी बढ़ती है।

बेरोजगारी के प्रकार भारत में बेरोजगारी के दो प्रकार हैं
(अ) ग्रामीण बेकारी—इस श्रेणी में अशिक्षित एवं निर्धन कृषक और ग्रामीण मजदूर आते हैं, जो प्रायः वर्ष में 5 से लेकर 9 माह तक बेकार रहते हैं।
(ब) शिक्षित वर्ग की बेकारी शिक्षा प्राप्त करके बड़ी-बड़ी उपाधियों को लेकर अनेक सरस्वती के वरद् पुत्र और पुत्रियाँ बेकार दृष्टिगोचर होते हैं। इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है।

बेरोजगारी के परिणाम—भारत में ग्रामीण तथा नगरीय स्तर पर बढ़ती हुई बेरोजगारी की समस्या से देश में शान्ति-व्यवस्था आदि को भयंकर खतरा उत्पन्न हो गया है। उसे रोकने के लिए यदि समायोजित कदम नहीं उठाया गया तो भारी उथल-पुथल का भय है।

समस्या के समाधान हेतु सुझाव-समस्या के समाधान हेतु कुछ सुझाव अग्रलिखित प्रकार से हैं-

  1. जनसंख्या पर नियन्त्रण-जनसंख्या की वृद्धि को रोकने के लिए पंचवर्षीय योजनाओं में परिवार कल्याण को अधिक-से-अधिक प्रभावशाली बनाया जाए।
  2. लघु एवं कुटीर उद्योगों का विकास-उद्योगों के केन्द्रीयकरण को प्रोत्साहन देकर गाँवों में लघु और कुटीर उद्योग-धन्धों का विकास करना चाहिए। कम पूँजी से लगने वाले ये उद्योग ग्रामों तथा नगरों में रोजगार देंगे। इन उद्योगों का बड़े उद्योगों से तालमेल करना भी आवश्यक है।
  3. बचत एवं विनियोग की दर में वृद्धि-प्रो. कीन्स के अनुसार, “पूर्ण रोजगार की समस्या देश में बचत एवं विनियोग की दर से परस्पर सम्बन्धित है।” अत: देश में घरेलू बचत एवं विनियोग की दर में वृद्धि करके भी बेरोजगारी की समस्या को हल किया जा सकता है।
  4. शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन.-आज की शिक्षा-प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन करके पाठ्यक्रम में अध्ययन के साथ तकनीकी और व्यावहारिक ज्ञान पर बल देना आवश्यक है जिससे छात्र श्रम के महत्त्व को समझ सकें और रोजगार पा सकें।
  5. कृषि में स्पर्धा-कृषकों में कृषि प्रणाली का सुधार करके अधिकाधिक खाद्य सामग्री पैदा करने की स्पर्धा उत्पन्न करनी चाहिए। उन्हें उन्नत बीज, पूँजी, अच्छे हल-बैल तथा अन्य आधुनिक मशीनें और सुविधाएँ देनी चाहिए।

उपसंहार—देश की वर्तमान परिस्थितियों में बेकारी की समस्या को दूर करने के लिए व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों प्रकार के प्रयास होने चाहिए। प्रसन्नता का विषय है कि भारत सरकार इस समस्या के प्रति जागरूक है। लघु एवं विशाल उद्योगों की स्थापना के प्रति सजग है। शिक्षा को भी रोजगारपरक बनाया जा रहा है। अनेक स्वरोजगार योजनाएँ चल रही हैं। विश्वास है कि यह समस्या हल हो जायेगी।

MP Board Solutions

16. आतंकवाद : समस्या और समाधान [2011]
अथवा
आतंकवाद की समस्या [2017]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. आतंकवाद का स्वरूप,
  3. आतंकवाद का विस्तृत क्षेत्र,
  4. भारतवर्ष में आतंकवादी गतिविधियाँ,
  5. विदेशों में आतंकवाद,
  6. आतंकवाद का लक्ष्य।

प्रस्तावना–आज हमारे देश में आतंकवाद का जहर बुरी तरह से फैला हुआ है। इस आतंकवादी सर्प ने हमारे देश को अपने में इस तरह से जकड़ रखा है कि पूर्ण रूप से उसके चंगुल से अपने को नहीं निकाल पा रहा है। आज प्रत्येक व्यक्ति स्टेशन, सिनेमाघर, वायुयान, रेल, बस प्रत्येक स्थान पर स्वयं को असुरक्षित महसूस कर रहा है। लेकिन कवि नीरज कहते हैं देखिए

‘अंगारों को भी अधरों पर, धर कर रे ! मुस्काना होगा।’

आतंकवाद का स्वरूप-अपनी बात को दृढ़ात् (जबरदस्ती) आतंक फैलाकर मनवाना ही आतंकवाद है। अपने अधिकार की माँग करना तो उचित है, किन्तु दूसरे की स्वीकृति न मिलने पर अपनी बात को घृणित बल प्रयोगों द्वारा मनवाना ही आतंकवाद है। इनके मन्सूबे संकीर्ण विचारों वाले स्वार्थ से सने हुए हैं। इन आतंकवादियों में बहुत से तो धन के लालच में पड़कर निर्दोष लोगों की हत्या करते फिरते हैं। वे परिमल पराग की बगिया में रक्त के बीज बो रहे हैं।

अमराइयों में विनाश का झूला डाल रहे हैं।

आतंकवाद का विस्तृत क्षेत्र-आज आतंकवाद का क्षेत्र विश्वव्यापी हो गया है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हमारे भूतपूर्व प्रधानमन्त्री स्वर्गीय राजीव गाँधी की हत्या है, अमेरिका के राष्ट्रपति कैनेडी की हत्या भी इसका जीवन्त प्रमाण है। पंजाब एवं कश्मीर में असंख्य निर्दोष लोगों की हत्या में विदेशी शत्रु राज्यों का विशेष रूप से हाथ रहा है। इस कार्य (आतंकवाद) को करने में अधिकांश रूप से तस्कर भी सम्मिलित हैं।

भारत में आतंकवादी गतिविधियाँ-आतंक पैदा कर एवं भय दिखाकर स्वार्थपूर्ति करने की प्रवृत्ति से असोम, नागालैण्ड में विदेशियों के रचे गये कुचक्रों से आतंकवाद पनपा। उनके पश्चात् उसका भयानक साया पंजाब, कश्मीर तथा अन्य क्षेत्रों में बुरी तरह से पड़ गया है। श्रीनगर, जम्मू, चेन्नई, रुद्रपुर, हैदराबाद, मुम्बई आदि स्थानों पर तथा रेलवे स्टेशन, रेल आदि पर हुए आतंकवादी हमलों से न जाने कितने लोग घर से बेघर हो गये। कितनी नारियों का सुहाग छिना। न जाने कितनी माँ तथा बहिनें पुत्र तथा भाई के मारे जाने पर अश्रु बहाती रह गयीं।

आतंकवादी गतिविधियाँ भारत में निरन्तर बढ़ रही हैं जो विकास में बाधक सिद्ध हो रही हैं।

विदेशों में आतंकवाद-आतंकवाद का प्रभाव विश्वव्यापी है। जापान के याकोहामा रेलवे स्टेशन पर विषैली गैस छोड़ देने से बारह व्यक्ति मारे गये। अमेरिका में बम विस्फोट के कारण भयंकर विनाश हुआ। अनेक व्यक्ति मारे गये। अन्य देशों में भी आतंकवाद पैर फैला रहा है।

आतंकवाद का लक्ष्य आतंक फैलाने का प्रमुख लक्ष्य निर्दोषों की हत्या, विमान अपहरण, विमान में बम विस्फोट, रेल एवं बसों में बम रखना, बैंकों की लूट, पानी की टंकियों एवं कुओं में जहर मिलाना, राजदूतों की हत्या इत्यादि द्वारा समाज में दशहत फैलाकर सबका मुँह बन्द कर देना है जिससे कोई भी व्यक्ति उनके विरुद्ध गवाही न दे सके। राष्ट्र प्रेमी तथा बलिदानी युवक इसकी तनिक भी चिन्ता नहीं करते। वे अपने प्राणों को हथेली पर रखकर सत्य तथा न्याय से तनिक भी विचलित नहीं होते। बज्र-बिजलियों के पतझर में भी पपीहा अपना स्वर अलापता ही रहता है। आतंकवादी गतिविधियों से हमें विचलित न होकर उनका डटकर मुकाबला करना है।

17. किसी खेल का वर्णन
[2012]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. खेल की तैयारियाँ,
  3. खेल का प्रारम्भ,
  4. खेल का आँखों देखा दृश्य,
  5. खेल की समाप्ति,
  6. पुरस्कार वितरण,
  7. उपसंहार।

प्रस्तावना-आज वही बालक जीवन संग्राम में आगे कदम बढ़ा रहे हैं जिनको खेल के प्रति विशेष लगाव होता है। क्रीड़ा स्थल इस प्रकार का उपवन होता है जहाँ सहयोग, स्पर्धा तथा बन्धुत्व के सुरभित पुष्प विकसित होते हैं। स्पष्ट है कि शारीरिक एवं मानसिक दोनों ही दृष्टियों से खेलों का विशेष महत्त्व है। खेल मानव विकास की आधारशिला होते हैं। यही कारण है कि शिक्षा के साथ खेल आवश्यक रूप से जोड़े गये हैं। इनको सभी तरह से बढ़ावा दिया जा रहा है।

खेल की तैयारियाँ-हमारा विद्यालय नगर के मध्य स्थित है। विद्यालय का खेल का मैदान बड़ा विशाल एवं अच्छा है। हमारे क्रीड़ा अध्यापक जी बड़े परिश्रमी एवं सक्रिय हैं। एक दिन राजकीय इण्टर कॉलेज की ओर से क्रिकेट मैच का प्रस्ताव आया जो हमारे अध्यापक जी ने स्वीकार कर लिया तथा कॉलेज के क्रिकेट दल (टीम) को बुलाकर बता दिया। यह मैच हमारे ही मैदान में होना था। यहाँ सभी तैयारियाँ थीं। खेल के लिए रविवार का दिन निश्चित किया गया।

खेल का प्रारम्भ-रविवार के दिन प्रातः 8 बजे ही खेल के मैदान पर दोनों विद्यालयों के दल पहुँच गये थे। मैदान में पिच तैयार थी। निर्णायक महोदय बाहर के विद्यालयों से आमन्त्रित थे। दोनों दलों के कप्तान मैदान में पहुँचे, निर्णायकों ने टॉस उछाला जो हमारे विद्यालय के कप्तान ने जीता। हमारे विद्यालय की टीम के कप्तान ने पहले बल्लेबाजी करने का निर्णय लिया। खेल प्रारम्भ हो गया।

MP Board Solutions

खेल का आँखों देखा दृश्य-हमारे विद्यालय के प्रारम्भिक बल्लेबाज सुनील एवं सुशील मैदान में थे। शासकीय उ. मा. शाला के खिलाड़ी मैदान में फैले थे। उनके कप्तान ने गेंद फेंकने का दायित्व राकेश को सौंपा। खेल की पहली गेंद पर ही सुनील ने चौका जमाया। इस तरह हमारी टीम की शुरूआत बड़ी अच्छी हुई। खेल जमने लगा और तीस रन बने थे कि सुशील बाहर हो गया। तीन खिलाड़ी और बाहर चले गये। रमेश की गेंद पर सुनील को राकेश ने कैच करके बाहर कर दिया, उसके 80 रन बने थे। इसी प्रकार खेल चलता रहा। बीच-बीच में चौकों और छक्कों का आनन्द भी मिलता रहा। सभी प्रसन्न थे। हमारी टीम के 5 खिलाड़ी बाहर हुए और चालीस ओवरों में हमारे दल के 200 रन हो गये थे।

बीच में भोजन के पश्चात् शासकीय उ. मा. शाला का दल खेलने आया। उनकी भी शुरुआत बहुत अच्छी हुई। पहले दस ओवरों में उन्होंने 45 रन बना लिए, जिसमें चार चौके तथा दो छक्के भी लगाये। हमारी टीम के तेज गेंदबाज कुछ कर पाने में असमर्थ रहे। फिर हमारे स्पिनरों ने दायित्व सँभाला और एक के बाद एक उन्होंने विरोधी दल के चार खिलाड़ी 25 ओवर होने तक बाहर कर दिए। अब तक उनके रन मात्र 93 ही बन पाए थे। उनके पाँचवें तथा छठे खिलाड़ी कुछ जमे, परन्तु जैसे ही गेंद बायें हाथ के गेंदबाज धीरज ने सँभाली वे दोनों ही उखड़ गये। उनके जाते ही विरोधी दल.ऐसा निराश हुआ कि 35 ओवरों में ही उनकी समस्त टीम सिमट गयी, जबकि उनके रन 168 मात्र ही थे। इस प्रकार हमारा दल विजयी रहा।

खेल की समाप्ति-इस प्रकार 5 ओवर शेष रहते हुए भी शासकीय उ. मा. शाला का दल अपने सभी खिलाड़ी गँवाकर हार गया और निर्णायकों ने विकेट उखाड़ दिये। इस तरह खेल समाप्त हो गया। दोनों दल मण्डप में लौट रहे थे। दर्शक तालियों से विजयी दल का स्वागत कर रहे थे।

पुरस्कार वितरण-सभी खिलाड़ी मण्डप में आ गये थे। दर्शक उत्सुकता से पुरस्कार पाने वालों के विषय में जानने को बेचैन थे। शील्ड, कप आदि सजे रखे थे। उद्घोषक ने घोषणा की कि अब हमारे मुख्य अतिथि जिला विद्यालय निरीक्षक महोदय विजेताओं को पुरस्कार देंगे। इसके बाद श्रेष्ठ गेंदबाज का पुरस्कार धीरज को, श्रेष्ठ बल्लेबाज का पुरस्कार सुनील को तथा श्रेष्ठ क्षेत्ररक्षण का पुरस्कार राकेश को मिला। शील्ड हमारे विद्यालय को प्रदान की गयी।

उपसंहार-पुरस्कार वितरण के निर्णयों की सभी प्रशंसा कर रहे थे। हमारे प्रधानाचार्य जी ने खिलाड़ियों को बधाई दी। हम सभी आनन्दित होकर खेल की चर्चा करते हुए घर लौट रहे थे। इस मैच को स्मरण करने मात्र से ही मन-मयूर नृत्य करने लगता है। हृदय-वीणा झंकृत होकर आनन्द का तराना छेड़ती है। स्फूर्ति तथा शान्ति का नया संचार होता है। यथार्थ में जीवन को खिलाड़ी की भावना से जीना ही उत्तम तथा श्रेयस्कर है।

18. बालिका शिक्षा
[2012]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. बालिका शिक्षा का महत्त्व,
  3. बालिका शिक्षा के प्रयास,
  4. बालिका शिक्षा की वर्तमान स्थिति,
  5. उपसंहार।

प्रस्तावना-शिक्षा के बिना मानव पशु के समान है। शिक्षा ही मानव की बुद्धि का विकास करती है। शिक्षा से संसार, जीवन आदि के सत्य-असत्य का बोध होता है। इसी से भावी जीवन की आधारशिला रखी जाती है। अतः शिक्षित होना अति आवश्यक है।

बालिका शिक्षा का महत्त्व-यद्यपि बालक और बालिका दोनों के लिए ही शिक्षा का महत्त्व है। बाल्यावस्था में शिक्षित होकर वे अपने भविष्य की नींव रखते हैं किन्तु बालक से अधिक बालिका शिक्षा का महत्त्व है। आज की बालिका कल जननी होगी। वह भावी पीढ़ी का निर्माण करने वाली होगी। शिक्षित बालिका शिक्षित नारी होगी और शिक्षित माँ होगी। वह बच्चों का हर प्रकार से ठीक तरह पालन करेगी। शिक्षित बालिका पत्नी बनकर जायेगी तो घर-गृहस्थी को सही प्रकार से चलायेगी। उसका व्यवहार आदि सभी के प्रति अच्छा होगा। अत: बालिका शिक्षा का विशेष महत्त्व है।

बालिका शिक्षा के प्रयास- भारत में कई महान् विदुषी हुई हैं जिन्होंने मानव को सद्मार्ग दिखाया किन्तु मध्यकाल में नारी के प्रति दृष्टिकोण बदल गया और उसे घर की चहारदीवारी तक सीमित कर दिया गया। उसकी शिक्षा-दीक्षा बन्द प्रायः हो गई। स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत सरकार ने बालिका शिक्षा पर ध्यान दिया। इस दिशा में अनेक प्रयास किये गये। बालिकाओं के लिए विद्यालय खोले गये। उन्हें छात्रवृत्ति, पुस्तकें आदि दी गईं। इसका सुफल सामने आ रहा है।

बालिका शिक्षा की वर्तमान स्थिति-वर्तमान में केन्द्र और राज्य सरकार बालिका शिक्षा पर विशेष बल दे रही हैं। अनेक योजनाएँ प्रारम्भ की हैं जिनसे बालिका शिक्षा की गति बढ़ रही है। छात्राओं को शुल्क से मुक्ति दे दी गई है। विभिन्न प्रकार की छात्रवृत्तियाँ, पुरस्कार, सहयोग आदि अध्ययनशील बालिकाओं को दिये जा रहे हैं। आज बालिकाएँ भी अपनी प्रतिभा दिखा रही हैं। वे विद्यालय से लेकर प्रतियोगी परीक्षाओं में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त कर रही हैं। वे समझ गई हैं कि शिक्षित होकर ही जीवन तथा राष्ट्र का सही निर्माण किया जा सकता है।

उपसंहार-बालिका शिक्षा पर विविध प्रकार से जोर दिया जा रहा है। उसका फल भी दिखाई देने लगा है किन्तु अभी आदिवासी, पिछड़े या अतिदूरस्थ क्षेत्रों में बालिका शिक्षा की कमी देखी जा रही है। इस ओर भी ध्यान दिया जाना आवश्यक है क्योंकि आज की बालिका कल देश की निर्माता होगी। अत: उसकी शिक्षा की समुचित व्यवस्था आवश्यक है।

19. किसी यात्रा का वर्णन [2012]
अथवा
मेरी रोचक यात्रा

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. यात्रा का प्रारम्भ,
  3. मार्ग के रोचक दृश्य,
  4. भ्रमण, दर्शन, स्नान,
  5. वापिसी,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना-जीवन में यात्रा का आनन्द अद्भुत होता है। मेरे पिताजी प्रतिवर्ष किसी न किसी स्थान की यात्रा का कार्यक्रम अवश्य बनाते हैं। इस वर्ष उज्जैन की यात्रा की योजना बनी। माताजी ने यात्रा की सभी सामग्री एकत्र कर ली।

यात्रा का प्रारम्भ-सांस्कृतिक नगरी उज्जैन जाने के लिए ग्वालियर से उज्जयिनी एक्सप्रेस में आरक्षण कराया गया। सभी लोग स्टेशन पर समय से पहुँच गये और गाड़ी आने पर अपनी सीटों पर बैठ गये। उस समय कुम्भ चल रहा था, अत: गाड़ी में उत्तराखण्ड, दिल्ली, उत्तर प्रदेश आदि के लोगों की भीड़ थी। सभी धार्मिक यात्रा पर जा रहे थे।

मार्ग के रोचक दृश्य-गाड़ी चलनी प्रारम्भ हुई तो मन में हिलोरें उठने लगी। मार्ग में नाना प्रकार के दृश्य दिखाई दे रहे थे। वनों की हरियाली, पर्वतों की ढलान, मैदानों के विविध प्रकार मन को आकर्षित कर रहे थे। ट्रेन में बैठे यात्रियों के दल अपनी-अपनी बोलियों में धार्मिक गीत एवं लोकगीत गा रहे थे। सभी तरफ उल्लास भरा वातावरण था। इस तरह पता ही नहीं चला कि कब उज्जैन रेलवे स्टेशन आ गया। सभी ने जल्दी-जल्दी सामान नीचे उतारा।

भ्रमण, दर्शन, स्नान-हम सभी ने धर्मशाला में कमरों में सामान रखा तथा उज्जैन भ्रमण पर निकल लिये। सबसे पहले महादेव मन्दिर गये। नदी में स्नान कर पूजा की तथा वहाँ की मान्यताओं को देखकर चमत्कृत हुए। वहाँ से जगत प्रसिद्ध महाकालेश्वर मन्दिर गये। मन्दिर में दर्शकों की बहुत लम्बी लाइन लगी थी। बहुत देर बाद गर्भगृह में प्रवेश मिला वहाँ महाकालेश्वर जी के दर्शन किये, पूजा की और परिक्रमा लगाई। इसके बाद भैरव मन्दिर, भर्तृहरि, संदीपन, कालिदास के स्मृति स्थलों आदि का भ्रमण किया। कुम्भ मेले के कारण सभी स्थानों पर भीड़ थी किन्तु व्यवस्थाएँ बहुत ठीक थीं इसलिए किसी को परेशानी नहीं हो रही थी।

MP Board Solutions

वापसी-सभी प्रमुख स्थलों का भ्रमण, दर्शन कर हमने तीसरे दिन ग्वालियर लौटने का आरक्षण उज्जैनी एक्सप्रेस में ही करा रखा था। उसी गाड़ी से अनेक यात्री लौट रहे थे। सभी तरफ मेले के दृश्यों तथा अनुभवों की बातें हो रही थीं। हमारे घर के सभी लोग बहुत प्रसन्न तथा रोमांचित अनुभव कर रहे थे। ग्वालियर स्टेशन पर उतरकर ठीक समय पर घर पहुँच गये।

उपसंहार-मैंने पचमढ़ी, इन्दौर, जबलपुर, आगरा आदि की अनेक यात्राएँ की हैं किन्तु कुम्भ मेले के अवसर पर की गयी इस यात्रा ने मुझे अनुभव करा दिया कि भारतीय संस्कृति में एकता भाव व्यापक रूप में विद्यमान है। यह यात्रा मेरी अविस्मरणीय यात्रा रही।

20. आलस्य : मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु [2016]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. आलस्य एक दुर्गुण,
  3. सक्रियता उन्नति का आधार,
  4. श्रम की महिमा,
  5. आलस्य पतन का कारण,
  6. श्रम स्वावलम्बन के विकास का मूल,
  7. उपसंहार।

प्रस्तावना-सक्रियता मानव जीवन के विकास की आधारशिला है। किसी कवि ने कहा है।

‘गति का नाम अमर जीवन है,
निष्क्रियता ही घोर मरण है।’

बाईबिल में कहा गया है कि “तू अपना पसीना बहाकर, अपनी रोटी कमा और खा।”

आलस्य एक दुर्गुण-आलस्य मनुष्य का सबसे हानिकारक दुर्गुण है। हमें अपने जीवन का एक क्षण भी निकम्मा रहकर नहीं गँवाना चाहिए। समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता, वह तो गतिमान है जो आलस्य करेगा वह जीवन के हर क्षेत्र में पिछड़ जायेगा।

सक्रियता उन्नति का आधार-सक्रियता से मनुष्य अपनी उन्नति के साथ-साथ देश, समाज का भी कल्याण करता है। इतिहास बताता है कि सक्रिय लोगों ने असम्भव को सम्भव बनाया है। संघर्षशील जीवन की प्रेरणा देते हुए तारा पांडेय लिखती हैं-

‘संघर्षों से क्लान्त न होना, यही आज जन-जन की वाणी।
भारत का उत्थान करो तुम, शिव सुन्दर बन कल्याणी॥’

श्रम की महिमा-महान ग्रन्थ गीता में कर्म को सर्वोपरि माना गया है। कहा गया है ‘उद्यमेन सिद्धयन्ति कार्याणि न च मनोरथै।’ ईश्वर ने हमें दो हाथ और दो पैर परिश्रम के लिए ही दिए हैं। महान विचारक चाणक्य मानते थे कि “कितने ही कठिन माध्यम हों, मैं साध्य तक पहुँच जाऊँगा।” इस श्रम साधना के द्वारा उन्होंने ऐतिहासिक सफलताएँ प्राप्त की थीं। श्रम का फल मीठा होता है। हमारे देश के निर्माता किसान और मजदूर श्रम के बल पर सफलता की ओर अग्रसर होते हैं

‘परिश्रम करता हूँ अविराम, बनाता हूँ क्यारी औ कुंज।
सींचता दृग जल से सानन्द, खिलेगा कभी मल्लिका पुंज॥’

आलस्य पतन का कारण-आलस्य मनुष्य को पतन की ओर ले जाने वाला है। आलसियों में कायरता भर जाती है। वे कुछ करना नहीं चाहते हैं। उनका जीवन निरन्तर गिरता चला जाता है। फिर वे ईश्वर को पुकारते हैं

‘कायर मन कहुँ एक अधारा। दैव-दैव आलसी पुकारा।’

श्रम स्वावलम्बन के विकास का मूल-परिश्रमी व्यक्ति में स्वावलम्बन की भावना निरन्तर विकसित होती जाती है। उसमें स्वाभिमान का भाव आता जाता है। परिश्रमी व्यक्ति प्रसन्न रहता है और दूसरों को प्रेम करता है। उसमें द्वेष, ईर्ष्या, कटुता आदि दुर्गुण नहीं होते हैं। दिनकर जी लिखते हैं-

‘श्रम होता सबसे अमूल्य धन, सब जन खूब कमाते।
सब अशंक रहते अभाव से, सब इच्छित सुख पाते॥’

उपसंहार-इस प्रकार कहा जा सकता है कि श्रम और सक्रियता जीवन को श्रेष्ठ बनाने का आधार है और आलस्य निरन्तर पतन की ओर ले जाने वाला है। आलस्य से मानव जीवन व्यर्थ चला जाता है, इसीलिए आलस्य मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है।

21. बिन पानी सब सून [2016]
अथवा
जल ही जीवन है

रूपरेखा [2017]-

  1. प्रस्तावना,
  2. जल का महत्त्व,
  3. जल के विविध स्रोत,
  4. जल का अभाव,
  5. जल का समस्या का समाधान,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना-सृष्टि की रचना जल, पृथ्वी, अग्नि, आकाश और वायु-पाँच तत्त्वों से हई है। जल का इनमें महत्त्वपूर्ण स्थान है। संसार के दैनिक जीवन में भी जल आवश्यक तत्व है।

जल का महत्त्व-पृथ्वी के जीव-जन्तुओं, पशु-पक्षियों, फसलों, वनस्पतियों, पेड़-पौधों, आदि सभी के लिए जल अनिवार्य है। बिना जल के इन सभी का रह पाना सम्भव नहीं है। जल से संसार में जीवंतता दिखाई देती है। चारों ओर फैली हरियाली, फसलें, फल-फूल आदि सभी जल के कारण ही जीवित हैं। मानव तो बिना जल के जीवित रह ही नहीं सकता है। अतः सृष्टि में जल विशेष महत्त्वपूर्ण है। बिना पानी के संसार सूना है। रहीम लिखते हैं

“रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून।।
पानी गए न ऊबरे मोती मानुस चून॥”

जल के विभिन्न स्त्रोत-जल प्राप्त करने के कई स्रोत हैं। सागर में अथाह जल भरा है किन्तु वह खारा है, इसलिए वह हर प्रकार की पूर्ति नहीं कर पाता है। पानी का मूल स्रोत वर्षा है।

वर्षा का पानी ही नदियों, तालाबों, जलाशयों में एकत्रित होकर जल की पूर्ति करता रहता है। इसके अतिरिक्त पहाड़ों पर जमने वाली बर्फ पिघलकर जल के रूप में नदियों में आती है। कुंआ, नलकूप आदि के द्वारा पृथ्वी के नीचे विद्यमान जल को प्राप्त किया जाता है। इस तरह विविध स्रोत द्वारा जल की पूर्ति होती है।

जल का अभाव-विगत वर्षों में जल की निरन्तर कमी हो रही है। वर्षा कम हो रही है, धरती का जल स्तर लगातार गिर रहा है। जल की समस्या भारत में ही नहीं संसार भर में हो रही है। कुछ स्थानों पर तो जल के लिए त्राहि-त्राहि मची है। कुछ लोगों का मानना है कि संसार का तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए ही होगा।

MP Board Solutions

जल समस्या का समाधान-जल की कमी को देखते हुए यह आवश्यक है कि हम यह समस्या भयंकर रूप धारण करे उससे पहले ही जाग जायें। जल का पूरी तरह सदुपयोग करे। वर्षा के समय जो पानी नालों और नदियों के द्वारा बहकर समुद्र में पहुँच जाता है, उसे इकट्ठा करके उपयोग में लायें। वर्षा काल में पानी को पृथ्वी में नीचे पहुँचाया जाय तो जल स्तर ऊपर आयेगा। इसलिए इस समस्या के प्रति सजग रहना आवश्यक है।

उपसंहार-यदि समय रहते जल संरक्षण की ओर ध्यान न दिया गया तो संसार का विनाश हो जायेगा। जल के बिना किसी का भी जीवित रहना सम्भव नहीं है। बिना जल के मरण अवश्यम्भावी है। जब जगत में पशु, पक्षी, मानव आदि प्राणी ही नहीं होंगे तो संसार सूना हो जायेगा। सत्य यह है कि जल ही जीवन है। इसलिए जल के महत्त्व को ध्यान में रखकर भावी योजनाएँ बनाई जानी चाहिए।

22. इण्टरनेट : आज की आवश्यकता
[2016]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. इण्टरनेट का परिचय,
  3. इण्टरनेट के लाभ,
  4. आज के जीवन की आवश्यकता,
  5. उपसंहार।

प्रस्तावना-इण्टरनेट पूरे विश्व में फैले कम्प्यूटरों का नेटवर्क है, साथ ही एक कार्यालय में विद्यमान कम्प्यूटरों का भी नेटवर्क है। इण्टरनेट पर कम्प्यूटर के माध्यम से घर, बाहर यहाँ तक कि सारे संसार की जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

इण्टरनेट का परिचय-इण्टरनेट अत्याधुनिक संचार प्रौद्योगिकी है जिसमें अनगिनत कम्प्यूटर एक नेटवर्क से जुड़े होते हैं। इण्टरनेट न कोई सॉफ्टवेयर है,न कोई प्रोग्राम अपितु यह तो एक ऐसा स्थान है जहाँ अनेक सूचनाएँ तथा जानकारियाँ उपकरणों की सहायता से मिलती हैं। इण्टरनेट के माध्यम से मिलने वाली सूचनाओं में विश्वभर के व्यक्तियों और संगठनों का सहयोग रहता है। उन्हें नेटवर्क ऑफ सर्वर्स (सेवकों का नेटवर्क) कहा जाता है। यह एक वर्ल्ड वाइड वेब (W.w.w.) है जो हजारों सर्वर्स को जोड़ती है।

इण्टरनेट के लाभ-इण्टरनेट के द्वारा विभिन्न प्रकार के दस्तावेज, सूची, विज्ञापन, समाचार, सूचनाएँ आदि उपलब्ध होती हैं। ये संसार में कहीं पर भी प्राप्त की जा सकती हैं। पुस्तकों में लिखे विषय, समाचार-पत्र, संगीत आदि सभी इण्टरनेट के माध्यम से प्राप्त किये जाते हैं। संसार के किसी भी कोने से कहीं पर भी सूचना प्राप्त की जा सकती है और भेजी जा सकती है। हमारे व्यक्तिगत, सामाजिक, कार्यालयी, औद्योगिक, शिक्षा, संस्कृति, राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में इण्टरनेट उपयोगी है।

आज के जीवन की आवश्यकता-त्वरित सूचना के इस युग में इण्टरनेट अत्यन्त आवश्यक है। शिक्षा, स्वास्थ्य, यात्रा, पंजीकरण, आवेदन आदि सभी कार्यों में इण्टरनेट सहयोगी है। पढ़ने वाली दुर्लभ पुस्तकों को संसार के किसी कोने में पढ़ा जा सकता है। स्वास्थ्य सम्बन्धी विस्तृत जानकारियाँ इण्टरनेट पर उपलब्ध होती हैं। इण्टरनेट के द्वारा संसार के किसी भी विशिष्ट व्यक्ति के विषय में जाना जा सकता है। सभी प्रकार के टिकट घर बैठे इण्टरनेट से लिये जा सकते हैं। दैनिक जीवन की समस्याओं को भी हल करने वाला इण्टरनेट आज के जीवन की अनिवार्यता बन गया है।

उपसंहार-सूचना प्रौद्योगिकी जगत में यदि हमें सुविधापूर्वक जीवन बिताता है तो इण्टरनेट बहुत उपयोगी है। अत: इण्टरनेट का सहयोग हमें लेना चाहिए। इससे कार्य उपयुक्त तथा त्वरित होता है। यह सभी क्षेत्रों में उपयोगी है इसीलिए इण्टरनेट आज के जीवन की आवश्यकता बन गया है।

MP Board Class 11th Hindi Solutions

MP Board Class 11th Special Hindi पत्र-लेखन

MP Board Class 11th Special Hindi पत्र-लेखन

पत्र लिखना आधुनिक युग में प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है। वह मानव-मन के भाव और सन्देश-प्रेषण का सर्वोत्तम सरल माध्यम है। पत्रों में जो बात कही जाती है, उसका प्रकाशन व्यक्तिगत रूप से अभिव्यक्त करने से उत्तम होता है, क्योंकि पत्र में निर्बाध रूप से वह अपने मनोभावों का चित्रण कर सकता है। यहाँ व्यक्तित्व का व्यवधान बीच में नहीं होता।

पत्र-लेखन की रूपरेखा

  1. प्रेषक का स्थान और पता।
  2. दिनांक।
  3. प्रेषिती को सम्बोधन।
  4. अभिवादन।
  5. पत्र का मुख्य भाग।
  6. प्रेषक का आत्मबोधन।
  7. प्रेषक के हस्ताक्षर और नाम।

औपचारिक पत्र
(कार्यालयीय एवं सरकारी पत्र)

सरकार के कार्य अनेक मन्त्रालयों, विभागों और अनेक अधीनस्थ कार्यालयों के माध्यम से सम्पन्न होते हैं। इस प्रकार जो पत्र एक सरकारी कार्यालय से दूसरे कार्यालय के मध्य एक-दूसरे को लिखे जाते हैं, वे औपचारिक पत्र (अथवा कार्यालयीय या शासकीय पत्र) कहलाते हैं। भारत सरकार की ओर से समस्त विदेशी सरकारों, राज्य सरकारों सम्बद्ध और अधीनस्थ कार्यालयों, संघ लोक सेवा आयोग तथा सरकारी, अर्द्ध-सरकारी कार्यालयों के साथ औपचारिक पत्र व्यवहार सरकारी पत्र के रूप में ही किया जाता है। इसी प्रकार राज्य सरकार की ओर से एक कार्यालय को दूसरे कार्यालय से पत्र सरकारी पत्र के रूप में ही भेजा जाता है। जनता की या सरकारी कर्मचारियों की संस्थाओं और संगठनों के साथ किये जाने वाले पत्र-व्यवहार के लिए भी इसी का प्रयोग किया जाता है।

MP Board Solutions

शासनादेश, अर्द्ध-सरकारी पत्र, गैर-सरकारी पत्र, कार्यालय स्मृति पत्र, अधिसूचना, परिपत्र प्रस्ताव या संकल्प, स्मरण पत्र, प्रेस-विज्ञप्ति प्रतिवेदन तथा नागरिक या नागरिकों द्वारा किसी अधिकारी या कार्यालय के प्रमुख को लिखे पत्र भी इसी प्रकार के होते हैं।

प्रायः इन पत्रों में प्रार्थना या सूचना या परिवाद होता है। कार्यालयीय पत्रों की संरचना सम्बन्धी निम्नलिखित बिन्दुओं का ध्यान रखा जाना चाहिए-

  1. सरनामा-इसमें मन्त्रालय अथवा कार्यालय का नाम होता है।
  2. पत्र-संख्या तथा दिनांक
  3. पत्र पाने वाले का नाम और/या पदनाम
  4. विषय
  5. सम्बोधन
  6. पत्र का मुख्य उद्देश्य
  7. अधोलेख
  8. भेजने वाले के हस्ताक्षर और उसका पद नाम।

सरकारी अधिकारियों को लिखे जाने वाले पत्रों का आरम्भ ‘महोदय’ के सम्बोधन से होना चाहिए। सभी सरकारी पत्रों के अन्त में अधोलेख के रूप में प्रार्थी अथवा भवदीय लिखना चाहिए।

प्रश्न 1.
नगर के सहायक मन्त्री को जल की अनियमित आपूर्ति के सम्बन्ध में शिकायती पत्र लिखिये।
अथवा
मुख्य नगर पालिका अधिकारी को अनियमित जल प्रदाय से होने वाली परेशानी का उल्लेख करते हुए नियमित जल प्रदाय के लिए एक पत्र लिखिए। [2008]
उत्तर-

दिनांक : 25.3.20…….

प्रति,
सहायक मन्त्री,
नगर पालिका, ग्वालियर

विषय : नगर में जल की अनियमित आपूर्ति के सम्बन्ध में।

महोदय,
गतवर्ष की भांति इस साल भी नगर में जल प्रदाय की स्थिति अत्यन्त शोचनीय है। वार्ड संख्या 9 के सम्पूर्ण क्षेत्र में गत तीन दिनों से जल आपूर्ति नहीं हो रही है। क्षेत्रीय नागरिक जल की कमी से आकुल व्याकुल हैं। जब शीतकाल में ही जल आपूर्ति की इस प्रकार की अव्यवस्था है तो ग्रीष्मकाल में जल आपूर्ति की क्या स्थिति होगी यह आप स्वयं ही सोच सकते हैं।

आशा ही नहीं अपितु हमें पूर्णतः विश्वास है कि आप जलापूर्ति की नियमित व्यवस्था करके अनुग्रहीत करेंगे।

सधन्यवाद।

प्रार्थी
वार्ड संख्या 9 के समस्त नागरिक

प्रश्न 2.
नगर की अनियमित विद्युत् व्यवस्था के हेतु अधिशासी अभियन्ता के लिये शिकायती पत्र लिखिए। [2009, 12, 14]
उत्तर-

दिनांक : 2.02.20….

प्रति,
अधिशासी अभियन्ता,
विद्युत् विभाग, बिलासपुर

विषय : विद्युत् की अनियमित व्यवस्था के सम्बन्ध में।

महोदय,
विनम्र निवेदन है कि आजकल गर्मी का भीषण प्रकोप है। चिलचिलाती धूप एवं उमस भरे वातावरण में जीवनयापन करना अत्यन्त ही दुष्कर हो गया है। ऐसे समय में विद्युत् की अव्यवस्था अत्यन्त परेशानी का कारण है। अतः आपसे सानुरोध प्रार्थना है कि अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को उचित निर्देश देकर विद्युत् की सुचारु आपूर्ति का आदेश प्रदान कर अनुग्रहीत करें।

प्रार्थी
वार्ड संख्या 6 के समस्त नागरिक
बिलासपुर

प्रश्न 3.
परीक्षाकाल में ध्वनि विस्तारक यन्त्र के प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगाने हेतु जिलाधीश को आवेदन-पत्र लिखिए। [2009, 10, 13, 15]
उत्तर-

दिनांक : 5.01.20…..

सेवा में,
जिलाधीश महोदय,
जिला-रायपुर

विषय : परीक्षा काल में ध्वनि विस्तारक यन्त्रों पर प्रतिबन्ध लगाने के सम्बन्ध में।

महोदय,
नम्र निवेदन है कि आजकल नगर के छात्र अपनी वार्षिक परीक्षा देने के लिये रात-दिन परिश्रम कर रहे हैं। ऐसे में ध्वनि विस्तारक यन्त्र प्रातः से देर रात तक भारी शोरगुल करते रहते हैं। जिससे तीव्र ध्वनि प्रदूषण के फलस्वरूप छात्र-छात्राओं के अध्ययन में अत्यधिक व्यवधान उत्पन्न हो रहा है। अतः श्रीमानजी से विनम्र प्रार्थना है कि ध्वनि विस्तारक यन्त्र पर अविलम्ब प्रतिबन्ध लगाकर छात्रों को सुचारु रूप से अध्ययन करने की सुविधा प्रदान कर अनुग्रहीत करें।

प्रार्थी
छात्रगण
उच्चतर माध्यमिक विद्यालय
जिला-रायपुर

MP Board Solutions

प्रश्न 4.
आप सुदामा नगर इन्दौर में रहते हैं। आपके मोहल्ले में गन्दगी व्याप्त है, जिससे बीमारियाँ फैल रही हैं, सफाई व्यवस्था हेतु नगर निगम को पत्र लिखिए। [2016]
सेवा में,
श्रीमान् मुख्य स्वास्थ्य अधिकारी
नगर निगम, इन्दौर

दिनांक : 23.09.20……

विषय-सुदामा नगर की सफाई व्यवस्था हेतु।

महोदय,
सुदामा नगर, इन्दौर का महत्त्वपूर्ण मोहल्ला है। यहाँ पर प्रतिष्ठित लोग रहते हैं किन्तु यहाँ की सफाई व्यवस्था बहुत खराब है। सड़कों पर कूड़े के ढेर लगे हैं, नालियाँ बन्द पड़ी हैं, जिससे पानी चारों ओर फैल रहा है। सीवर चॉक है, अतः उफन रही है। गन्दगी और बदबू का सभी तरफ साम्राज्य है। मक्खी-मच्छरों के प्रकोप से आक्रामक बीमारियाँ फैल रही हैं। कई घरों में लोग बीमार हैं।

सफाई की नियमित व्यवस्था का अभाव है। सफाईकर्मी या तो आते ही नहीं और आते भी हैं तो यहाँ की दशा देखकर बड़ा दल लाने की कहकर चले जाते हैं। फिर किसी के दर्शन नहीं होते हैं।

ऐसी स्थिति में आप जनहित में त्वरित कार्यवाही कर इस क्षेत्र की सफाई व्यवस्था ठीक कराने का कष्ट करें।

सधन्यवाद।
दिनांक : 23.9.20….

भवदीय
त्रिभुवन प्रसाद
सुदामा नगर, इन्दौर।

प्रश्न 5.
सचिव, माध्यमिक शिक्षा मण्डल, म. प्र., भोपाल को अंक सूची खो जाने पर अंक सूची की दूसरी प्रति प्राप्त करने हेतु आवेदन-पत्र लिखिए। [2008, 09, 17]
उत्तर-

दिनांक : 7.06.20……

सचिव,
माध्यमिक शिक्षा मण्डल,
मध्य प्रदेश, भोपाल

विषय : अंक सूची की अन्य प्रति प्रदान करने हेतु।

महोदय,
नम्र निवेदन यह है कि मैंने हायर सेकण्डरी बोर्ड की परीक्षा 20…. में उत्तीर्ण की थी। लेकिन मेरी अंकतालिका कहीं खो गई है। अत: मुझे अन्य विद्यालय में प्रवेश लेने के लिये इसकी दूसरी प्रति चाहिये। इसके सन्दर्भ में मुझसे सम्बन्धित जानकारी निम्नवत् है-
MP Board Class 11th Special Hindi पत्र-लेखन img-1

प्रार्थी
विनीत पल्लव

प्रश्न 6.
शिवपुरी के पोस्टमास्टर को एक पत्र लिखकर रकाबगंज मुहल्ले के डाकिये (पोस्टमैन) द्वारा नियमित डाक वितरण नहीं किये जाने के सम्बन्ध में शिकायती पत्र लिखिए। [2010]
उत्तर-

दिनांक : 7.01.20….

सेवा में,
पोस्ट मास्टर,
शिवपुरी (म. प्र.)

विषय : गाँधी नगर मुहल्ले में डाक-वितरण की अनियमितता के सम्बन्ध में।

महोदय,
निवेदन यह है कि आजकल हमारे क्षेत्र गाँधी नगर में डाक वितरण की व्यवस्था नियमित रूप से नहीं हो रही है। पत्र-वितरण में लगातार अनियमितता हो रही है, इसके कारण मुहल्लावासियों को अत्यधिक परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। आवश्यक पत्र विलम्ब से मिलने के फलस्वरूप यदा-कदा बहुत नुकसान भी हो जाता है।

आशा है आप मुहल्लावासियों की परेशानी दृष्टिपथ में रखते हुए क्षेत्र के पोस्टमैन को नियमित रूप से डाक वितरण किये जाने का आदेश देंगे।

प्रार्थी
अक्षय कुलश्रेष्ठ
नं. 109-A, गांधी नगर
शिवपुरी (म. प्र)

MP Board Solutions

प्रश्न 7.
नगर पुलिस अधीक्षक को पत्र लिखकर सूचित कीजिये कि आपके मोहल्ले में चोरी की घटनाओं में वृद्धि हो रही है। [2008]
उत्तर-

दिनांक : 15.02.20….

सेवा में,
नगर पुलिस अधीक्षक,
रायपुर

विषय : सुभाष नगर में चोरी की घटनाओं में वृद्धि।

महोदय,
मैं आपको सुभाष नगर में लगातार चोरी की घटनाओं के सम्बन्ध में सूचित कर इस ओर आपका ध्यान केन्द्रित करना चाहता हूँ, क्योंकि गत पन्द्रह दिनों में इस मोहल्ले में चोरी की लगभग पाँच-छ: घटनाएँ हो गयी हैं। इन चोरी की घटनाओं के कारण मोहल्लावासियों में भय व्याप्त है। अतः आपसे सानुरोध प्रार्थना है कि कॉलोनी में रात्रिकालीन पुलिस गश्त को अधिक सतर्क रहने का आदेश प्रदत्त करें।

कष्ट के लिए धन्यवाद।

भवदीय
विनोद शर्मा
सुभाष नगर, रायपुर

प्रश्न 8.
स्थानान्तरण प्रमाण-पत्र प्राप्त करने हेतु प्राचार्य को आवेदन-पत्र लिखिए। [2011]
विषय : स्थानान्तरण प्रमाण-पत्र प्राप्त करने हेतु प्राचार्य को आवेदन-पत्र लिखिए।

सेवा में,
श्रीमान् प्राचार्य
शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय,
मुरैना (म. प्र.)

महोदय,
विनम्र निवेदन है कि मैंने आपके विद्यालय से 11वीं कक्षा नियमित छात्र के रूप में उत्तीर्ण की है। अब मेरे पिताजी का स्थानान्तरण ग्वालियर के लिए हो गया है। इसलिए मैं आगे की पढ़ाई आपके विद्यालय में करने में असमर्थ हूँ। अत: मुझे स्थानान्तरण प्रमाण-पत्र प्रदान करने की कृपा करें। मुझ पर विद्यालय का कुछ भी देय नहीं है। इसका प्रमाण-पत्र संलग्न है।

दिनांक : 25.6.20….

आपका आज्ञाकारी शिष्य
विकास सिंह
कक्षा 11 ‘स’

अनौपचारिक पत्र
(सामाजिक, व्यक्तिगत, निमन्त्रण एवं बधाई पत्र)

सम्बन्धियों, मित्रों, परिचितों के बीच जिन पत्रों का आदान-प्रदान होता है, उन्हें अनौपचारिक पत्र कहा जाता है। ये पत्र पूर्णत: व्यक्तिगत विषयों से सम्बन्धित होते हैं। इन निजी पत्रों में सम्बोधन, अभिवादन तथा समापन के अंश अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होते हैं, क्योंकि इनसे परस्पर स्नेह, विश्वास, मधुर सम्बन्ध तथा पत्र-लेखक की शिष्टता का संकेत मिलता है। सम्बन्धियों को लिखे गये पत्र में अवस्था तथा पद के छोटेपन-बड़ेपन के आधार पर समुचित सम्बोधन, अभिवादन तथा आत्मबोधन पर पूरा ध्यान देना आवश्यक होता है।

विभिन्न सम्बन्धों के योग्य सम्बोधन, अभिवादन और आत्मबोधन की शब्दावली इस प्रकार होगी

(1) आयु तथा पद में बड़ों को
MP Board Class 11th Special Hindi पत्र-लेखन img-2

(2) छोटों को
MP Board Class 11th Special Hindi पत्र-लेखन img-3
MP Board Class 11th Special Hindi पत्र-लेखन img-4

(3) बराबर वालों को या मित्रों को,
MP Board Class 11th Special Hindi पत्र-लेखन img-5

(4) अपरिचितों को प्रिय
MP Board Class 11th Special Hindi पत्र-लेखन img-6

निमन्त्रण पत्र और बधाई पत्र लिखने की शैली भिन्न होती है। जीवन में ऐसे अनेक खुशी के अवसर आते हैं, जब हम मित्र की खुशी में यदि स्वयं सम्मिलित न हों तो भी पत्र द्वारा बधाई भेज सकते हैं।

हमारे यहाँ कोई मांगलिक अवसर हो तो हम स्वयं व्यस्तता के कारण न जाकर निमन्त्रण पत्र भेज सकते हैं।

प्रश्न 1.
अपने पिताजी को एक पत्र लिखिए जिसमें परीक्षा की तैयारी के विषय में जानकारी दी गयी हो। [2008, 14]
अथवा
अपने पिताजी को पत्र लिखिए जिसमें अध्ययन में आने वाली कठिनाइयों का उल्लेख हो। [2011]
उत्तर-

69, महात्मा गाँधी मार्ग,
भोपाल
दिनांक 18.1.20…..

पूजनीय पिताजी,
सादर चरण स्पर्श।

आपका पत्र प्राप्त हुआ। मेरी परीक्षाएँ समीप आती जा रही हैं। अतः इस समय विशेष रूप से पढ़ाई करनी पड़ रही है। आपने मेरे अध्ययन के विषय में पूछा है। मेरे लगभग सभी विषय भली प्रकार से तैयार हो चुके हैं। विज्ञान, गणित एवं अंग्रेजी के कुछेक अध्यायों में मुझे कठिनाई आ रही है। उनके लिए मैं सम्बन्धित अध्यापकगणों से मार्गनिर्देशन ले रहा हूँ। साथ ही पूर्ण हो चुके अध्यायों का मैं पुनः इस दृष्टि से पुनरावलोकन कर रहा हूँ जिससे अंकों का प्रतिशत बढ़ सके। मेरी परीक्षा प्रारम्भ होने में अभी 26 दिन शेष हैं। आप विश्वास रखिए मैं निश्चित रूप से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होऊँगा। अधिक क्या, माताजी से प्रणाम कहियेगा तथा छोटू को ढेर सारा प्यार।

आपका पुत्र
सत्येन्द्र कुमार

MP Board Solutions

प्रश्न 2.
आपके क्षेत्र में अधिक वर्षा से हुए नुकसान से दुःखी पिता को सांत्वना-पत्र लिखिए। [2012]
उत्तर-

14, राजकीय छात्रावास,
इन्दौर
दिनांक 27.8.20…

परमादरणीय पिताजी,
सादर चरण स्पर्श।

आपका कृपा पत्र मिला। पत्र से ज्ञात हुआ कि हमारे यहाँ अधिक वर्षा हुई है। अतिवृष्टि के कारण फसल नष्ट हो गयी है तथा पशुओं में भी बीमारी फैल गयी है। आदमी भी बीमार हो रहे हैं। स्थिति बहुत खराब है। यह जानकर बहुत दुःख हुआ किन्तु मेरा निवेदन है कि आप चिन्ताग्रस्त न हों। ईश्वर सबका भला करेंगे। जिन्होंने वर्षा के द्वारा हानि की है वे आगे की फसल में इस हानि की भरपाई कर देंगे। अधिक वर्षा से रबी की फसल बहुत अच्छी होगी। मैं भी कम खर्च में काम चलाऊँगा। अत: आप दुःखी न हों।

घर पर माताजी को चरण स्पर्श, छोटी बहन को स्नेह।

आपका आज्ञाकारी पुत्र
चरत

प्रश्न 3.
अपने बड़े भाई के विवाह में सम्मिलित होने के लिए अपनी सहेली/मित्र को निमन्त्रण-पत्र लिखिए। [2017]
अथवा
अपनी बहन के विवाह में सम्मिलित होने के लिए मित्र को पत्र लिखिए। [2008,09]
उत्तर

20, बड़ा बाजार,
जबलपुर
दिनांक 3.1.20….

प्रिय बहिन कविता,

सप्रेम नमस्ते।
अत्यन्त हर्ष के साथ आपको सूचित करना चाहती हूँ कि मेरे बड़े भाई का विवाह दिनांक 3.2.20…. को सम्पन्न होना है। कार्यक्रम 1.2.20…. से ही प्रारम्भ हो जायेंगे। अतः इस शुभ अवसर पर तुम सपरिवार आमन्त्रित हो। मैं चाहती हूँ कि तुम 1.2.20… से पूर्व ही आ जाओ। मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगी।

तुम्हारी सहेली
अंशु

प्रश्न 4.
अपने मित्र को छोटे भाई के जन्म-दिवस पर आमन्त्रित करने के लिए पत्र भेजिए।
उत्तर-

सरस्वती रोड, सागर
दिनांक 6 जनवरी, 20….

प्रिय मित्र राजू !

सप्रेम नमस्ते।
तुम्हें यह लिखते हुए अत्यन्त हर्ष हो रहा है कि मेरा छोटा भाई संजीव 5 वर्ष का हो जायेगा। अत: दिनांक 16 जनवरी, 20…. को हम उसके जन्म-दिन समारोह के उपलक्ष में सभी भाई-बहिनों के साथ तुमको सहर्ष आमन्त्रित कर रहे हैं। समारोह में सम्मिलित होकर चि. संजीव की खुशी में सहभागी बनें। अवश्य आना।

तुम्हारी प्रतीक्षा में।

तुम्हारा प्रिय मित्र
संजय

प्रश्न 5.
अपनी सहेली/मित्र को उसके जन्म-दिवस पर बधाई-पत्र भेजिए। [2008, 09]
उत्तर-

58, छोटा सर्राफा, इन्दौर
दिनांक 20 जनवरी, 20….

प्रिय नीतू !

अनेकानेक बधाइयाँ।
तुम्हारी 16वीं वर्षगाँठ मोदप्रदाता एवं मंगलमयी हो। भावी जीवन की सुखद कामना के साथ तुम्हें एक बार पुनः बधाई।

तुम्हारी शुभेच्छु
स्वाति

प्रश्न 6.
हाईस्कूल परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने पर मित्र को बधाई-पत्र लिखिए। [2013]
उत्तर-

9/25, गुलमोहर कालोनी, सागर
दिनांक 25.1.20….

प्रिय मित्र रमेश,

सस्नेह नमस्कार।
आज नवजागरण में हाईस्कूल परीक्षा का परिणाम देखा। आपका अनुक्रमांक प्रथम श्रेणी में देखकर मेरा मन मयूर-मस्त होकर नृत्य करने लगा। आपका प्रावीण्य सूची में तृतीय स्थान है। इससे आप ही नहीं, शाला तथा हम लोग भी गौरवान्वित हुए हैं। अत: बधाई स्वीकार हो। मैं परमपिता परमात्मा से प्रार्थना करता हूँ कि वह इसी प्रकार आपको सदैव सफलताएँ प्रदान करता रहे और आप सुन्दर सम्पन्न जीवन में विहार करते रहें।

आपका मित्र
सतीश वर्मा

MP Board Solutions

प्रश्न 7.
वाद-विवाद प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त करने पर अपने मित्र को बधाई पत्र लिखिए। [2016]
उत्तर-
प्रिय मित्र रजनीकान्त

सूबात् रोड, मुरैना
9.8.20….

सप्रेम नमस्कार।
समाचार पत्र से ज्ञात हुआ कि तुमने शिक्षा विभाग द्वारा आयोजित की गयी मण्डलीय वाद-विवाद प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त किया है। तुम्हारी इस सफलता से मेरा मन उल्लसित हो रहा है, मेरी ओर से स्नेहपूर्ण हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए। मेरी हार्दिक कामना है कि तुम सफलता की इन ऊँचाइयों को हमेशा चूमते चले जाओ।

मेरे माता-पिता भी तुम्हारी इस सफलता से अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हैं। अपने पूज्य माताजी तथा पिताजी को मेरा सादर चरण स्पर्श कहना, छोटों को स्नेह।

पत्रोत्तर की प्रतीक्षा में।

तुम्हारा शुभेच्छु
पल्लव

प्रश्न 8.
अपने मित्र को, आपके गाँव में वृक्षों की कटाई का वर्णन करते हुए, पत्र लिखिए। [2015]

73, प्रेमनगर, ग्वालियर
23.4.20……

प्रिय मित्र राजेश,

सप्रेम नमस्कार।
हाँ सभी कुशल हैं, आशा है तुम्हारे यहाँ भी सभी कुशल होंगे। मैं इस पत्र से तुम्हें बताना चाहता हूँ कि हमारे गाँव में आजकल वृक्षों की भयंकर कटाई चल रही है। हमारा गाँव सारे क्षेत्र में हरा-भरा था। यहाँ कई बाग थे। किन्तु पिछले वर्ष से गाँव के लोगों ने वृक्षों को काटना प्रारम्भ कर दिया है। उन्हें समझाते हैं तो वे कहते हैं कि वृक्ष कट जायगा तो फसल अधिक होगी। वे मानते ही नहीं हैं। वृक्षों का काटना संकट को निमन्त्रण देना है परन्तु मैं इसे रोक नहीं पा रहा हूँ।

घर के समाचार बताना। आदरणीय माताजी-पिताजी को चरण स्पर्श, छोटों को स्नेह।

आपका मित्र
प्रदीप

MP Board Class 11th Hindi Solutions

MP Board Class 11th Special Hindi अपठित पद्यांश

MP Board Class 11th Special Hindi अपठित पद्यांश

MP Board Class 11th Special Hindi अपठित पद्यांश

(1) क्रुद्ध नभ के वज्रदंतों,
में उषा है मुस्कराती,
घोर, गर्जनमय गगन के,
कंठ में खग-पंक्ति गाती।
एक चिड़िया चोंच में तिनका,
लिये जो जा रही है,
वह सहज में ही पवन,
उनचास को नीचा दिखाती।
नाश के दुःख से कभी,
दबता नहीं निर्माण का सुख,
प्रलय की निस्तब्धता से,
सृष्टि का नवगान फिर-फिर।
नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
सृष्टि का निर्माण फिर-फिर।

प्रश्न
1. प्रस्तुत पद्यांश का भाव स्पष्ट कीजिए।
2. इस पद्यांश का शीर्षक लिखो।
उत्तर-
(1) प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने मानव को सदैव आशा के साथ जीवन जीने की प्रेरणा दी है। जैसे आकाश में काले बादलों के पश्चात् प्रात:काल उषा का आगमन होता है। आकाश में बादल घोर गर्जना करते हैं। पक्षी उसकी तनिक भी परवाह न करके अपने घोंसला बनाने में संलग्न रहते हैं। इसी प्रकार सृष्टि में दुःख-सुख का चक्र चलता है। प्रलय के पश्चात् नया जीवन प्रारम्भ होता है।
(2) शीर्षक ‘नव निर्माण’।

MP Board Solutions

(2) “तुम हो धरती के पुत्र न हिम्मत हारो,
श्रम की पूँजी से अपना काज सँवारो।
श्रम की सीपी में ही वैभव पलता है,
तब स्वाभिमान का दीप स्वयं ही जलता है।
मिट जाता है दैन्य स्वयं क्षण में,
छा जाती है नव दीप्ति धरा के कण में,
जागो, जागो श्रम से नाता तुम जोड़ो,
पथ चुनो कर्म का, आलस भाव तुम छोड़ो।”

प्रश्न
1. प्रस्तुत पद्यांश का भाव स्पष्ट कीजिए।
2. प्रस्तुत पद्यांश का शीर्षक लिखिए।
उत्तर-
(1) कवि कहता है कि जिस प्रकार से सृष्टि में परिवर्तन होता है, उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में भी निरन्तर परिवर्तन होता है। अत: व्यक्ति को जीवन में निराश नहीं होना चाहिये। सदैव स्वाभिमान के साथ परिश्रम करते हुए उद्यम ही सुख की निधि है। श्रम वैभव का प्रवेश द्वार है इसी के कारण स्वाभिमान की भावना जागृत होती है तथा निर्धनता समाप्त हो जाती है। मानव को प्रमाद त्यागकर श्रम करना चाहिये।
(2)शीर्षक-श्रम की महत्ता’।

(3) “प्राचीन हो या नवीन छोड़ो रूढ़ियाँ जो हो बुरी,
बनकर विवेकी तुम दिखाओ हंस जैसी चातुरी।
प्राचीन बातें ही भली हैं यह विचारों अलीक है,
जैसी अवस्था हो जहाँ, तैसी व्यवस्था ठीक है।
सर्वज्ञ एक अपूर्व युग का हो रहा संचार है,
देखो दिनों दिन बढ़ रहा विज्ञान का विस्तार है।
अब तो उठो क्यों पड़ रहे हो व्यर्थ सोच विचार में,
सुख दूर जीना भी कठिन है श्रम बिना संसार में।”

प्रश्न
1. इस पद्यांश का भाव स्पष्ट कीजिए।
2. इस पद्यांश का शीर्षक बताइए।
उत्तर-
(1) हंस का नीर क्षीर विषय ज्ञान विश्वविख्यात है। कवि के मतानुसार मानव को प्राचीन अथवा नवीन रूढ़ियाँ जो उसकी उन्नति में बाधक हैं, उन्हें त्यागकर कल्याणकारी नीतियाँ ग्रहण करनी चाहिये तथा सड़ी-गली रूढ़ियों का मोह त्याग देना चाहिए।
(2) शीर्षक प्रगतिशील दृष्टिकोण’।

MP Board Solutions

(4) “निज राष्ट्र के शरीर के सिंगार के लिये
तुम कल्पना करो, नवीन कल्पना करो,
तुम कल्पना करो।
अब देश है स्वतन्त्र, मेदिनी स्वतन्त्र है
मधुमास है स्वतन्त्र, चाँदनी स्वतन्त्र है,
हर दीप स्वतन्त्र, रोशनी स्वतन्त्र है।
अब शक्ति की ज्वलन्त दामिनी स्वतन्त्र है।
लेकर अनन्त शक्तियाँ संघ समृद्धि की
तुम कामना करो, किशोर कामना करो,
तुम कामना करो।”

प्रश्न
1. प्रस्तुत पद्यांश का भाव स्पष्ट कीजिए।
2. प्रस्तुत पद्यांश का शीर्षक लिखिए।
उत्तर-
(1) कवि नवयुवकों को प्रेरणा प्रदान करते हुए कह रहा है कि तुम्हें नयी-नयी आजादी मिली है फलतः राष्ट्र को सजाने-सँवारने का काम तुम्हारे कंधों पर टिका है। अपनी पृथ्वी, अपना मधुमास एवं चाँदनी भी स्वतन्त्र है, प्रत्येक दीपक स्वतन्त्र है। शक्ति उदात्त स्रोत दामिनी (बिजली) भी स्वतन्त्र है। अतः इन शक्तियों के माध्यम से देश का नया निर्माण करना है।
(2) शीर्षक—देश का नव निर्माण’।

MP Board Class 11th Hindi Solutions

MP Board Class 11th Special Hindi अपठित गद्यांश

MP Board Class 11th Special Hindi अपठित गद्यांश

अपठित गद्यांशों/पद्यांशों के शीर्षक एवं सारांश लेखन

निर्देश : अपठित गद्यांश/पद्यांश वह रचना है, जो पूर्व में पढ़ा हुआ नहीं होता। इसके द्वारा छात्रों के बौद्धिक स्तर और पाठ्येत्तर मनन-अध्ययन का पता चलता है। जिस छात्र का भाषा ज्ञान जितना समृद्ध होता है, वह अपठित गद्यांश/पद्यांश को उतनी ही सरलता से हल कर सकता है।
अपठित गद्यांश/पद्यांश हल करते समय निम्नांकित बातों का ध्यान रखना चाहिए

  1. मूल अवतरण का बड़ी एकाग्रता से समग्र वाचन कर, उसके मूल भाव को समझने का प्रयास कीजिए। वाचन कम से कम चार बार कीजिए।
  2. मूल भाव से शीर्षक ज्ञात हो जाता है उसे अलग से लिख लीजिए।
  3. प्रश्नों के उत्तर मूल अवतरण में सन्निहित होते हैं। उनके अनुसार अपनी भाषा में उत्तर दीजिए।
  4. मूल अवतरण का एक-तिहाई में सारांश दीजिए। सारांश ऐसा सुगठित होना चाहिए कि उसमें सभी प्रमुख बातें आ जायें।
  5. वर्तनी की भूलों से बचने का प्रयास कीजिए।
  6. शीर्षक सरल, संक्षिप्त और सारगर्भित होना चाहिए। यहाँ कुछ गद्यांश एवं पद्यांश दिये गये हैं, उनका गम्भीरतापूर्वक मनन कीजिए।

MP Board Solutions

MP Board Class 11th Special Hindi अपठित गद्यांश

(1) उदारता का अभिप्राय केवल मिःसंकोच भाव से किसी को धन दे डालना ही नहीं वरन् दूसरों के प्रति उदार भाव रखना भी है। उदार पुरुष सदा दूसरों के विचारों का आदर करता है और समाज में सेवक भाव से रहता है। यह न समझो कि केवल धन से उदारता हो सकती है। सच्ची उदारता इस बात में है कि मनुष्य को मनुष्य समझा जाए। धन की उदारता के साथ सबसे बड़ी एक और उदारता की आवश्यकता है। वह यह है कि उपकृत के प्रति किसी प्रकार का अहसान न जताया जाए। अहसान दिखाना उपकृत को नीचा दिखाना है। अहसान जताकर उपकार करना अनुपकार है। [2012]

प्रश्न-
(1) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
(2) उदार पुरुष की क्या विशेषता होती है?
(3) सच्ची उदारता किसमें है?
(4) अनुपकार क्या है?
(5) विरुद्धार्थी लिखिए-उदार, सच्ची।
उत्तर-
(1) उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक ‘उदारता का अर्थ’ है।
(2) उदार पुरुष दूसरों के प्रति उदार भाव रखता है। वह दूसरों के विचारों का आदर करता है और समाज में सेवक भाव से रहता है।
(3) सच्ची उदारता इस बात में है कि मनुष्य को मनुष्य समझा जाय।
(4) अहसान जताकर उपकार करना अनुपकार है।
(5) उदार-कठोर, सच्ची -झूठी।

(2) जो साहित्य मुर्दे को भी जिन्दा करने वाली संजीवनी औषधि का भण्डार है, जो साहित्य पतितों को उठाने वाला और उत्पीड़ितों के मस्तक को उन्नत करने वाला है, उसके उत्पादन और संवर्धन की चेष्टा जो गति नहीं करती वह अज्ञानांधकार की गर्त में पड़ी रहकर किसी दिन अपना अस्तित्व ही खो बैठती है। अतएव समर्थ होकर भी जो मनुष्य इतने महत्वशाली साहित्य की सेवा और श्री वृद्धि नहीं करता अथवा उससे अनुराग नहीं रखता वह समाज द्रोही है, वह देश द्रोही है, वह जाति द्रोही है। [2013]

प्रश्न-
(1) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(2) संजीवनी औषधि का भण्डार क्या है?
(3) साहित्य के संवर्धन की चेष्टा कब अपना अस्तित्व खो बैठती है?
(4) समाजद्रोही एवं देशद्रोही कौन है?
(5) उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
उत्तर-
(1) शीर्षक ‘सत्साहित्य की महत्ता’।
(2) संजीवनी औषधि का भण्डार प्रेरक साहित्य है।
(3) साहित्य के संवर्धन की चेष्टा गतिहीन होने पर अपना अस्तित्व खो बैठती है।
(4) महत्वशाली साहित्य की सेवा और श्री वृद्धि न करने वाला मनुष्य समाजद्रोही एवं देशद्रोही है।
(5) सारांश-मुर्दे में जान डालने वाले, पतितों एवं उत्पीड़ितों को उन्नत बनाने वाले साहित्य के उत्पादन एवं संवर्धन की चेष्टा अनिवार्य है। जो सामर्थ्यवान मनुष्य श्रेष्ठ साहित्य की सेवा नहीं करता है वह राष्ट्र विरोधी है।

(3) मनुष्य के कर्त्तव्य मार्ग में एक ओर तो आत्मा के भले और बुरे कर्मों का ज्ञान और दूसरी ओर आलस्य और स्वार्थपरता रहती है। बस, मनुष्य इन्हीं दोनों के बीच में पड़ा रहता है और अन्त में यदि उसका मन पक्का हुआ तो वह आत्मा की आज्ञा मानकर अपने कर्म का पालन करता है और यदि उसका मन कुछ काल तक दुविधा में पड़ा रहा तो स्वार्थता निश्चित उसे आ घेरेगी और उसका चरित्र घृणा योग्य हो जायेगा। (2009)

प्रश्न
(1) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(2) उपर्युक्त गद्यांश का सार 30 शब्दों में लिखिए।
उत्तर-
(1) कर्त्तव्य-पालन।
(2) मन की दृढ़ता के अभाव में मनुष्य सद्-असद् को पहचान नहीं पाता। आत्मा मनुष्य को कर्त्तव्य का ज्ञान कराती है, इसके विपरीत दुविधा में पड़ा व्यक्ति स्वार्थ के वशीभूत होकर अपने चरित्र को घृणित बना लेता है।

(4) “कई लोग समझते हैं कि अनुशासन और स्वतन्त्रता में विरोध है, किन्तु वास्तव में यह भ्रम है। अनुशासन द्वारा स्वतन्त्रता नहीं छीनी जाती, बल्कि दूसरों की स्वतन्त्रता की रक्षा होती है। सड़क पर चलने के लिए हम स्वतन्त्र हैं। हमें बाईं तरफ से चलना चाहिए, किन्तु हम चाहें तो बीच से भी चल सकते हैं। इससे हम अपने प्राण तो संकट में डालते हैं, दूसरों की स्वतन्त्रता भी छीनते हैं। विद्यार्थी भारत के भावी राष्ट्र-निर्माता हैं। उन्हें अनुशासन के गुणों का अभ्यास अभी से करना चाहिए जिससे वे भारत के सच्चे सपूत कहला सकें।”

प्रश्न-
(1) उपर्युक्त गद्यांश का सार लिखिए।
(2) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर-
(1) प्रत्येक मनुष्य के जीवन में अनुशासन आवश्यक है। इससे व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के साथ-साथ दूसरों की स्वतन्त्रता की भी रक्षा होती है अपना जीवन सुरक्षित होता है और दूसरों का भी। भविष्य के आशा पुंज विद्यार्थियों को अनुशासन में रहना चाहिए, जिससे वे भावी भारत का स्वस्थ निर्माण कर सकें।
(2) अनुशासन और विद्यार्थी जीवन।

(5) संस्कार ही शिक्षा है। शिक्षा इन्सान को बनाती है। आज के भौतिक युग में शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य सुख पाना रह गया है। अंग्रेजों ने देश में अपना शासन सुव्यवस्थित रूप से चलाने के लिए ऐसी शिक्षा को उपयुक्त समझा, यह विचारधारा हमारी मान्यता के विपरीत है। आज की शिक्षा प्रणाली एकांगी है, उसमें व्यावहारिकता का अभाव है, श्रम के प्रति निष्ठा नहीं है। प्राचीन शिक्षा प्रणाली में आध्यात्मिक तथा व्यावहारिक जीवन की प्रधानता थी। यह शिक्षा केवल नौकरी के लिए नहीं थी। अत: आज के परिवेश में आवश्यक हो गया है कि इन दोषों को दूर किया जाये अन्यथा यह दोष सुरसा के समान हमारे सामाजिक जीवन को निगल जाएगा। [2010, 14]

प्रश्न-
(1) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(2) आज के युग में शिक्षा का क्या उद्देश्य है?
(3) उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
उत्तर-
(1) संस्कार की महत्ता।
(2) आज के युग में शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी करके उदर पूर्ति तथा सुख पाना रह गया है।
(3) संस्कारों के द्वारा मनुष्य वाली शिक्षा भौतिक सुखों को प्रदान करने वाली हो गयी है। शासन चलाने के उद्देश्य से प्रारम्भ हुई इस शिक्षा में व्यावहारिकता, परिश्रम तथा आध्यात्मिकता का अभाव है। शिक्षा से इन दोषों को दूर करना आवश्यक है।

MP Board Solutions

(6) ‘जनता के साहित्य’ का अर्थ जनता को तुरन्त ही समझ में आने वाले साहित्य से हरगिज नहीं है। अगर ऐसा होता तो ‘किस्सा तोता मैना’ और नौटंकी ही साहित्य के प्रधान रूप होते। साहित्य के अन्दर सांस्कृतिक भाव होते हैं। सांस्कृतिक भावों को पाने के लिए बुलन्दी बारीकी और खूबसूरती को पहचानने के लिए, उस असलियत को पाने के लिए जिसका नक्शा साहित्य में रहता है, सुनने या पढ़ने वाले की कुछ स्थिति अपेक्षित होती है। वह स्थिति है उसकी शिक्षा, उसके मन के सांस्कृतिक परिष्कार की, जबकि साहित्य का उद्देश्य सांस्कृतिक परिष्कार है, मानसिक परिष्कार है। [2008]

प्रश्न
(1) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
(2) जनता के साहित्य का क्या अर्थ है?
(3) सांस्कृतिक भावों को ग्रहण करने के लिए क्या जरूरी है?
(4) साहित्य के अन्दर क्या होता है?
(5) साहित्य का उद्देश्य क्या है?
उत्तर-
(1) उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक ‘जनता के साहित्य का अर्थ’ है।
(2) जनता के साहित्य का अर्थ है सांस्कृतिक भावों को पाने की सूक्ष्म पहचान एवं जनता के सांस्कृतिक और मानसिक परिष्कार की स्थिति को प्राप्त करने वाला साहित्य।
(3) सांस्कृतिक भावों को ग्रहण करने के लिए सुनने वाले की शिक्षा उसके मन का सांस्कृतिक और मानसिक परिष्कार जरूरी है।।
(4) साहित्य के अन्दर सांस्कृतिक भाव निहित होते हैं।
(5) साहित्य का उद्देश्य है सांस्कृतिक और मानसिक परिष्कार ।

(7) कवि अपनी कल्पना.के पंखों से, इसी विश्व के गीत लेकर अनन्त आकाश में उड़ता है और उन्हें मुक्त व्योम में बिखेरकर अपने भाराक्रान्त हृदय को हल्का कर फिर अपने विश्व नीड़ में लौट आता है। इस क्रिया से कवि अपने जीवन की विश्रान्ति पाता है और स्वस्थ होकर वह नूतन प्रभाव में नूतन हृदय से नित नूतन संसार का स्वागत करता है। यदि ऐसा न हो तो कवि भी अन्य सांसारिक प्राणियों की भाँति ही, विश्व के कोलाहल में ही अपने आपको खो दे और उसके द्वारा संसार को उन अमृत गीतों से वंचित रहना पड़े जिनके सरल शीतल स्रोत में बहकर मानव जगत् अपने संतप्त प्राणों को सान्त्वना का अनुलेप प्राप्त करता है। [2008, 09]

प्रश्न
(1) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
(2) कवि अपने भाराक्रान्त हृदय को किस प्रकार हल्का करता है?
(3) कवि नित नूतन संसार का स्वागत कैसे करता है?
(4) अमृत गीतों से क्या तात्पर्य है?
उत्तर-
(1) उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक कवि की कल्पना’ है।
(2) कवि अपने भाराक्रान्त हृदय को विश्व के गीतों को आकाश में उड़ते हुए उन्हें मुक्त व्योम में बिखेरकर हल्का करता है।
(3) कवि अपने जीवन में स्वस्थ रहते हुए जीवन में शान्ति प्राप्ति से नित नये प्रभाव से नूतन संसार का स्वागत करता है।
(4) अमृत गीतों से तात्पर्य शीतल स्रोत द्वारा मानव के अतृप्त मन को तृप्त करना है।

(8) हम एक ऐसे सभ्य समाज में जिन्दा हैं जिसमें सभ्यता जैसे-जैसे विकसित हुई वैसे-वैसे आदमी जंगली और नंगा होता गया। सोचो कौन से कारण हैं कि कुछ लोग बहुत से लोगों की रोटियाँ माल गोदामों में बन्द किए हुए हैं। लोग भूख से बिलबिला रहे हैं और उन्हें दामों के बढ़ने का इन्तजार है। मानवता को रौंदते हुए अपने लाभ के लिए जीवन रक्षक दवाएँ तक नकली बनाने में लगे हुए हैं। कपड़ा मिलों में रात-दिन कपड़ा बनाया जा रहा है और लोग नंगे है। खेतों में फसलें लहलहा रही हैं और किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं। रेखाएँ, रेखा गणित से बाहर आकर गरीबों की बस्तियों में बस गयी हैं। एक को दूसरे की चिन्ता नहीं है। हर आदमी स्वार्थ में अन्धा हो गया है। बर्बरता जंगलीपन की निशानी मानी जाती है, सभ्य समाज और सभ्यता को तो उससे दूर ही रहना चाहिए। [2008]

प्रश्न-
(1) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
(2) हम कैसे समाज में जिन्दा हैं?
(3) कुछ लोग क्या कर रहे हैं?
(4) आदमी स्वार्थ में कैसा हो गया है?
(5) सभ्य समाज को किससे दूर रहना चाहिए?
उत्तर-
(1) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक ‘बर्बर समाज’ है।
(2) हम सभ्य समाज में जिन्दा हैं।
(3) कुछ लोग बहुत से लोगों की रोटियाँ मालगोदामों में बन्द किए हुए हैं।
(4) आदमी स्वार्थ में अन्धा हो गया है।
(5) सभ्य समाज को जंगलीपन से दूर रहना चाहिए।

(9) हमें स्वराज्य मिला परन्तु सुराज आज भी हमसे बहुत दूर है। कारण स्पष्ट है, देश को समृद्ध बनाने के उद्देश्य से कठोर परिश्रम करना न हमने सीखा है, न सीखने के लिए ईमानदारी से उस ओर उन्मुख ही हैं। श्रम का महत्त्व न तो हम जानते हैं, न मानते हैं। हमारी नस-नस में आराम तलबी समाई है। हाथ से काम करने को हीनता समझते हैं। कामचोरी से हमारा नाता घना है। कम से कम काम करके अधिक दाम पाने की दूषित मनोवृत्ति राष्ट्र की आत्मा में घर कर गई है। इससे हमें मुक्त होना होगा और आज की अपेक्षा कई गुना कठिन परिश्रम करना होगा। तभी देश आगे बढ़ेगा, समाज सुखी होगा और तभी स्वराज्य सुराज में परिणित होगा। [2011]

प्रश्न
(1) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
(2) सुराज हमसे दूर क्यों है?
(3) लेखक ने किस दूषित मनोवृत्ति की ओर संकेत किया है?
(4) स्वराज्य, सुराज में कब परिणित होगा?
उत्तर-
(1) शीर्षक ‘श्रम का महत्त्व’।
(2) सुराज हमसे इसलिए दूर है क्योंकि न हमने कठिन परिश्रम करना सीखा है और न सीखने का प्रयास कर रहे हैं। हमने श्रम के महत्त्व को स्वीकार नहीं किया है।
(3) कामचोरी से नाता जोड़ने वाले हम लोगों की कम से कम काम करके अधिक से अधिक दाम पाने की दूषित वृत्ति की ओर लेखक ने संकेत किया है।
(4) हम आज से कई गुना कठिन परिश्रम करेंगे तभी देश का विकास होगा। कठोर श्रम से ही समाज सुखी होगा और तब ही स्वराज्य सुराज में परिणित होगा।

MP Board Solutions

(10) लक्ष्य-बेधन की महत्त्वाकांक्षा भी एक उपकरण है। जब तक महान् लक्ष्य को प्राप्त करने की बलवती आकांक्षा मानव-हृदय में जाग्रत न होगी, तब तक वह कभी भी कृत-संकल्प होकर न लक्ष्य को स्थिर कर सकेगा, न उसके बेधन के लिए प्रेरित होगा। लक्ष्य-बेध की ओर बढ़ते हुए पथिक को यह शक्ति प्रदान करती है। इसमें स्वार्थ की भावना नहीं होनी चाहिए, मनुष्य को नैतिक, मानसिक और आध्यात्मिक पृष्ठभूमि में ही महत्त्वाकांक्षी होना चाहिए। इस कार्य में आशा, आत्म-विश्वास और तन्मयता के साथ-साथ संकल्प दृढ़ता भी होनी चाहिए। संकल्पों में शिथिलता मनुष्य को लक्ष्य से दूर करती है।

प्रश्न-
(1) उपर्युक्त गद्यांश का सार 30 शब्दों में लिखिए।
(2) उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर-
(1) वही मनुष्य लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है, जो प्रतिपल आगे बढ़ने की दृढ़ इच्छा रखता है। उसमें स्वार्थ की भावना नहीं आनी चाहिए। वह आशा, आत्म-विश्वास, तन्मयता और दृढ़ संकल्प के गुणों से ओत-प्रोत होना चाहिए।
(2) महत्त्वाकांक्षा और संकल्प बल।

(11) जनसंख्या विस्फोट से सारा देश भयाक्रान्त है। जहाँ भी जाओ लोगों की अनन्त भीड़ दिखाई देती है। महानगरों में तो लोगों का पैदल चलना मश्किल हो गया है। चारों तरफ बेरोजगारी का संकट छाया हुआ है। निर्धनता मुँह फैलाए खड़ी है। लोगों का जीवन स्तर गिरता जा रहा है। गरीब और गरीब होते जा रहे हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास की समस्या आदि का संकट गहराता जा रहा है। आबादी और साधनों का सन्तुलन टूट चुका है। [2015, 17]

प्रश्न-
(1) उक्त गद्यांश का शीर्षक लिखिए।
(2) लोगों का पैदल चलना कहाँ मुश्किल हो गया है?
(3) चारों तरफ कौन-सा संकट छाया हुआ है?
(4) सारा देश किससे भयाक्रांत है?
(5) ‘संकट’ और ‘गरीब’ शब्दों के समानार्थी शब्द लिखो।
(6) उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
उत्तर-
(1) शीर्षक-‘जनसंख्या विस्फोट’।
(2) महानगरों में लोगों का पैदल चलना मुश्किल हो गया है।
(3) चारों तरफ बेरोजगारी का संकट छाया हुआ है।
(4) सारा देश ‘जनसंख्या विस्फोट’ से भयाक्रान्त है।
(6) सारांश-जनसंख्या विस्फोट के कारण अनन्त भीड़ बढ़ती जा रही है। बेरोजगारी, निर्धनता बढ़ रही है। गिरते जीवन स्तर के कारण शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास की समस्या विकट
हो रही है। आबादी और साधनों में कोई संतुलन नहीं रह गया है।

(12) ‘चरित्र एक ऐसा हीरा है, जो हर किसी पत्थर को घिस सकता है।’ चरित्र केवल शक्ति ही नहीं सब शक्तियों पर छा जाने वाली महाशक्ति है। जिसके पास चरित्र रूपी धन होता है,
शब्द उसके सामने संसार भर की विभूतियाँ, सम्पत्तियाँ और सुख-सुविधाएँ घुटने टेक देती हैं। चरित्र एक साधना है जिसे अपने प्रयास से पैदा किया जा सकता है। सद्गुणों पर चलकर, प्रेम, करुणा, मानवता, अहिंसा को अपनाना तथा लोभ, मोह, निंदा, उग्रता, क्रोध, अहंकार को छोड़कर चरित्र बल प्राप्त किया जा सकता है। चरित्रवान व्यक्ति छाती तानकर, नजरें उठाकर शान से जीता है। [2016]

प्रश्न-
(1) गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
(2) चरित्रवान व्यक्ति किस प्रकार जीवन जीता है?
(3) चरित्रवान व्यक्ति के सामने कौन घुटने टेक देता है?
(4) गद्यांश का सारांश 30 शब्दों में लिखिए।
उत्तर-
(1) शीर्षक-‘चरित्र बल’।
(2) चरित्रवान व्यक्ति छाती तानकर और नजरें उठाकर शान से जीता है।
(3) चरित्रवान व्यक्ति की सामने समस्त संसार की विभूतियाँ, सम्पत्तियाँ और सुख-सुविधाएँ घुटने टेक देती हैं।
(4) सारांश-चरित्र वह महाशक्ति है जिसके सामने सभी घुटने टेकते हैं। इसकी प्राप्ति लोभ, मोह, निंदा, क्रोध आदि अवगुणों को छोड़कर प्रेम, करुणा, अहिंसा आदि सद्गुणों के अपनाने से होती है। चरित्रवान छाती तानकर व नज़र उठाकर जीता है।

MP Board Class 11th Hindi Solutions

MP Board Class 11th Special Hindi स्वाति लेखक परिचय (Chapter 7-12)

MP Board Class 11th Special Hindi स्वाति लेखक परिचय (Chapter 7-12)

7. विष्णु प्रभाकर

  • जीवन-परिचय

एकांकी कला के क्षेत्र में नवीनता का संचार करने वाले विष्णु प्रभाकर का जन्म 21 जून, सन् 1912 को उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के अन्तर्गत मीरनपुर नामक ग्राम में हुआ। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा मुजफ्फरनगर में ही सम्पन्न हुई। आपने बी. ए. की परीक्षा पंजाब विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण की। हिन्दी की प्रभाकर परीक्षा उत्तर्ण करने पर आपके नाम के साथ ‘प्रभाकर’ स्थायी रूप से जुड़ गया। आपने आकाशवाणी के दिल्ली केन्द्र पर ड्रामा प्रोड्यूसर के रूप में कार्य किया है। आज भी आप साहित्य सृजन में संलग्न हैं।

  • साहित्य-सेवा

विष्णु प्रभाकर वर्षों तक आकाशवाणी के दिल्ली केन्द्र पर ड्रामा प्रोड्यूसर रहे। इसलिए आपकी नाट्य कला में विकास एवं परिष्कार होता गया। आपने पर्याप्त मात्रा में रेडियो रूपक लिखे। आपने बाल भारती’ पत्रिका का सफल सम्पादन किया।

MP Board Solutions

  • रचनाएँ

बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न प्रभाकर जी ने नाट्य साहित्य के अतिरिक्त उपन्यास, कहानी, संस्मरण, यात्रावृत, निबन्ध, बाल-साहित्य आदि का विपुल साहित्य सृजित किया है। ‘इन्सान संघर्ष के बाद’, ‘प्रकाश और परछाई’, ‘गीत और गोली’, ‘स्वाधीनता संग्राम’, ‘ऊँचा पर्वत गहरा सागर’, ‘मेरे श्रेष्ठ रंग एकांकी’ आदि आपके उल्लेखनीय एकांकी संग्रह हैं।

  • वर्ण्य विषय

विषय वस्तु की दृष्टि से आपके एकांकी इस प्रकार विभक्त किए जा सकते हैं

  1. सामाजिक-‘बन्धन मुक्त पाप’, ‘इन्सान’, ‘साहस’, ‘वीर पूजा’, ‘नया समाज’, ‘नये पुराने’, ‘प्रतिशोध’, ‘देवताओं की घाटी’ आदि।
  2. मनोवैज्ञानिक-‘ममता का विष’, भावना और संस्कार’,’जज का फैसला’, हत्या के बाद’ आदि।
  3. राजनीतिक-‘हमारा स्वाधीनता संग्राम’, ‘क्रान्ति’, ‘काँग्रेसमैन बनो’ आदि।
  4. पौराणिक-‘जन्माष्टमी’, ‘नहुष का पतन’, ‘शिवरात्रि’, ‘गंगा की गाथा’,’कंस मर्दन’, ‘सम्भवामि युगे-युगे’ आदि।
  5. हास्य व्यंग्य प्रधान-‘मूर्ख’, ‘पुस्तक कीट’, कार्यक्रम’, ‘प्रो. लाल’ आदि।

इसके अतिरिक्त ‘नया कश्मीर’, ‘पंचायत’ आदि विविध विषयक एकांकी आपने लिखे हैं।

  • भाषा

प्रभाकर जी की भाषा सरल, सुबोध साहित्यिक खड़ी बोली है। तत्सम प्रधान भाषा में तद्भव, विदेशी तथा देशज शब्दों का प्रयोग भी आवश्यकतानुसार किया गया है। वाक्य संरचना सुस्पष्ट एवं सुगठित है। भाषा विषय एवं पात्रों के अनुरूप बदलती चलती है। आपकी भाषा में सम्प्रेषण की अपूर्व क्षमता है।

  • शैली

विष्णु प्रभाकर की शैली के अन्यान्य रूप देखे जा सकते हैं

  1. संवाद शैली-आपने संवाद शैली का बड़ा प्रभावी प्रयोग अपने एकांकियों में किया है। संवाद संक्षिप्त तथा चुटीले होते हैं। पात्र एवं विषय के अनुरूप उनके रूप बदलते रहते हैं।
  2. व्यंग्यात्मक शैली-प्रभाकर जी के एकांकियों में व्यंग्य के बड़े ही सटीक पुट देखे जा सकते हैं। उनके व्यंग्य पाठकों के हृदय पर स्थायी प्रभाव छोड़ते हैं।
  3. भावात्मक शैली-इस शैली का प्रयोग भाव प्रबल स्थलों पर देखा जा सकता है। अतिशय भावुकता से परिपूर्ण इस शैली में सम्प्रेषणीयता निरन्तर बनी रहती है।

इसके अतिरिक्त आपकी शैली पर रेडियो रूपक शैली का पर्याप्त प्रभाव देखा जा सकता है।

  • साहित्य में स्थान

राष्ट्रीय चेतना और समाज-सुधार को अपने नाट्य साहित्य का विषय बनाने वाले विष्णु प्रभाकर ने ब्रिटिश शासन के कोप के कारण नौकरी छोड़कर लेखन को ही जीविका का साधन बनाया। बहुविध रचनाकार प्रभाकर जी का वर्तमान हिन्दी रचनाकारों में सम्मानजनक स्थान है।

8. जगदीश चन्द्र माथुर। [2010, 16]

  • जीवन-परिचय

जगदीश चन्द्र माथुर का जन्म 16 जुलाई, 1917 को उत्तर प्रदेश के खुर्जा नगर में हुआ। शिक्षक पिता से प्राप्त संस्कारों ने आपको लेखन की प्रेरणा दी। आपने हाईस्कूल स्तर के अध्ययन काल से ही नाटक लिखना, अभिनय करना, मंच व्यवस्था आदि में रुचि लेना प्रारम्भ कर दिया था। आपने प्रयाग विश्वविद्यालय से एम. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। आप आई. ए. एस. की परीक्षा में बैठे और सफल हुए। आई. ए. एस. अधिकारी के रूप में आपने अनेक महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। आपने बिहार राज्य के शिक्षा सचिव, तिरहुत डिवीजन के कमिश्नर, आकाशवाणी के महानिदेशक, सूचना और प्रसारण मंत्रालय के संयुक्त सचिव, कृषि मंत्रालय के संयुक्त सचिव आदि राजकीय पदों पर कार्य किया। वरिष्ठ प्रशासनिक पदों पर कार्य करते हुए भी ये साहित्य-सर्जन में संलग्न रहे। 14 मई, 1978 को आप इस संसार से सदैव के लिए विदा हो गये।

  • साहित्य-सेवा

प्रारम्भ से ही अभिनय के प्रति आकर्षण होने के कारण आपका नाटकों के प्रति विशेष जुड़ाव रहा। विद्यार्थी जीवन से ही आपका लेखन प्रारम्भ हो गया था। प्रयाग विश्वविद्यालय में आपके प्रयास से ही रंगमंच पर अभिनीत होने वाले हिन्दी नाटकों की प्रस्तुतियों को गति प्राप्त हुई। आपका प्रथम एकांकी ‘मेरी बाँसुरी’ विश्वविद्यालय के ‘म्योर होस्टल’ के मंच पर अभिनीत हुआ। आकाशवाणी के महानिदेशक तथा नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के अध्यक्ष पदों पर रहते हुए आपने साहित्य सृजन के साथ-साथ नाट्य विधाओं के विकास का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। आप केन्द्रीय गृह मंत्रालय में हिन्दी सलाहकार रहे।

  • रचनाएँ

जगदीश चन्द्र माथुर का प्रथम एकांकी ‘मेरी बाँसुरी’ सन् 1936 में ‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ। सन् 1937 से 1943 तक लिखे गये एकांकी ‘भोर का तारा’ संग्रह में प्रकाशित हुए। इसमें पाँच एकांकी संकलित हैं। फिर तो लेखन और प्रकाशन क्रम चलता रहा। आपकी प्रमुख रचनाएँ हैं एकांकी संग्रह-‘भोर का तारा’ एवं ‘ओ मेरे सपने’।

अन्य प्रमुख एकांकी-‘कोणार्क’,
‘शारदीया’, ‘बन्दी’ आदि।
चरित्र निबन्ध-‘दस तस्वीरें।
इसके अतिरिक्त ‘बोलते क्षण’
आदि रचनाएँ भी हिन्दी जगत् में चर्चित रही हैं।

  • वर्ण्य विषय

भावभूमि की दृष्टि से आपके एकांकी ऐतिहासिक और सामाजिक हैं। आपने इतिहास के पृष्ठों से चयनित गौरवपूर्ण चरित्रों और मानवीय संवेदनाओं को अपनी लेखनी का विषय बनाया है। सामाजिक एकांकियों में आपने आधुनिक सभ्य समाज की मानवीय दुर्बलताओं और नैतिक खोखलेपन का सफल चित्रण किया है। रूढ़ियों और पुरातनता पर आपने करारे प्रहार किए हैं। समाज की विसंगतियों को उजागर करते हुए आपने मानव समाज को सोचने के लिए विवश कर सराहनीय कार्य किया है।

  • भाषा

जगदीश चन्द्र माथुर ने सरल, सुबोध खड़ी बोली में साहित्य रचना की है। विषय, पात्र तथा अवसर के अनुरूप शब्दावली एवं मुहावरों आदि का प्रयोग करने में आप कुशल हैं। पात्रों के संवादों में चारित्रिक विशेषताओं को उद्घाटित करने की पूर्ण क्षमता है। सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर आधारित रचनाओं की भाषा तत्सम प्रधान है तथा सामाजिक एकांकियों में व्यावहारिक खड़ी बोली को अपनाया है। आपकी भाषा में सम्प्रेषण की अद्भुत क्षमता है।

  • शैली

माथुर जी की शैली के प्रमुख रूप इस प्रकार हैं

  1. संवाद शैली-माथुर जी ने अपनी नाट्य कृतियों में इस शैली का प्रयोग किया है। संवाद विषय के अनुसार दीर्घ एवं लघु आकार के लिखे गये हैं। पात्र के अनुरूप कथन आपके एकांकियों की विशेषता है।
  2. व्यंग्य शैली-आपने अपने एकांकियों में व्यंग्य शैली के बड़े प्रभावी प्रयोग किए हैं। इस शैली की विशेषता यह है कि पाठक व्यंग्य को भूल नहीं पाता है।
  3. यथार्थवादी शैली-माथुर जी ने अपने एकांकियों में यथार्थवादी शैली में अनेक समस्याओं का सजीव चित्रण किया है। वे इन समस्याओं के व्यावहारिक समाधान भी प्रस्तुत करते हैं।
  • साहित्य में स्थान

जगदीश चन्द्र माथुर को रंगमंच का बड़ा व्यापक ज्ञान था, यही कारण था कि आपके सभी एकांकी अभिनेय हैं। मात्रा की दृष्टि से भले ही विपुल साहित्य का सृजन आपने न किया हो किन्तु गुणवत्ता के आधार पर हिन्दी नाट्य साहित्य में आपका महत्त्वपूर्ण स्थान है।

MP Board Solutions

9. हरिशंकर परसाई
[2008, 09, 12, 13, 15, 17]

  • जीवन-परिचय

हिन्दी के श्रेष्ठ व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का जन्म का मध्य प्रदेश में इटारसी के निकट जमानी नामक ग्राम में 22 अगस्त, 1924 को हुआ था। आपने स्नातक स्तर तक की शिक्षा इटारसी में ही प्राप्त की तत्पश्चात् नागपुर विश्वविद्यालय से एम. ए. हिन्दी की परीक्षा उत्तीर्ण की। कुछ वर्षों तक आपने अध्यापन कार्य किया। परसाई जी की बाल्यावस्था से ही लेखन में अभिरुचि थी। अध्यापन से उनके लेखन में बाधा उत्पन्न होती थी, अतः अध्यापक पद से त्यागपत्र देकर साहित्य साधना को ही अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया। जीवन पर्यन्त साहित्य सेवा करने वाले परसाई जी का 10 अगस्त, 1995 को देहावसान हो गया।

  • साहित्य-सेवा

समाज तथा व्यक्ति की विभिन्न विसंगतियों पर व्यंग्य प्रहार करने वाले हरिशंकर परसाई ने जबलपुर से ‘वसुधा’ नामक पत्रिका का सम्पादन एवं प्रकाशन किया, किन्तु अर्थाभाव के कारण वह पत्रिका बन्द कर देनी पड़ी। फिर आप साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘धर्मयुग’ आदि पत्र-पत्रिकाओं के लिए नियमित रूप से लिखने में व्यस्त रहे। आपके व्यंग्य, निबन्ध आदि निरन्तर प्रकाशित होते रहते थे।

  • रचनाएँ

हरिशंकर परसाई की रचनाएँ इस प्रकार हैं

  1. व्यंग्य संग्रह-तब की बात और थी’, ‘भूत के पाँव पीछे’, ‘बेईमानी की परत’, ‘पगडण्डियों का जमाना’, ‘सदाचार का ताबीज’, ‘शिकायत मुझे भी है’, ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’, ‘सुनौ भाई साधौ’ और ‘अन्त में’।
  2. कहानी संग्रह-‘हँसते हैं रोते हैं’, ‘जैसे उनके दिन फिरे’।
  3. उपन्यास-‘रानी नागमती की कहानी’, ‘तट की खोज’।
  • वर्ण्य विषय

हरिशंकर परसाई मूलत: व्यंग्य लेखक थे। समाज तथा जीवन की विसंगतियों. विडम्बनाओं आदि का सूक्ष्म निरीक्षण कर आपने प्रभावी व्यंग्य लिखे हैं। आपका मन्तव्य उपहास या खिल्ली उड़ाना नहीं है अपितु व्यंग्य द्वारा रचनात्मक सुधार के सूत्र सुझाने का रहा है। समाज राजनीति, अर्थव्यवस्था आदि की अव्यवस्था, कुटिलता, विद्रूपता आदि पर आपने करारे प्रहार किए हैं। भ्रष्टाचार, नैतिकता, रिश्वतखोरी, कुत्सित मनोवृत्तियों को उजागर करने की अद्भुत कला के धनी परसाई जी की जीवन दृष्टि सर्जनात्मक रही है।

  • भाषा

परसाई जी की भाषा सरल, सुबोध होते हुए भी तीखे प्रहार करने में सक्षम है। आपकी भाषा में फक्कड़पन और जिन्दादिली का पुट सर्वत्र दिखाई देता है। विषय के अनुरूप नपे-तुले शब्दों में अभिव्यक्त आपके व्यंग्य पाठक पर स्थायी प्रभाव छोड़ते हैं। आपने तत्सम, तद्भव, विदेशी तथा देशज सभी प्रकार के शब्दों का प्रयोग किया है। आप लक्षणा एवं व्यंजना के सहारे मूल भाव को सम्प्रेषित करने की कला में पारंगत हैं।

  • शैली

हरिशंकर परसाई की रचनाओं में विषयानुरूप शैली के विविध रूपों का प्रयोग हुआ है।

  1. व्यंग्यात्मक शैली-परसाई जी की व्यंग्य रचनाओं में इस शैली की प्रधानता है। जीवन की विविध प्रकार की विसंगतियों पर करारे प्रहार करने में यह शैली सफल रही है। सामाजिक पाखण्डों, रूढ़ियों, कुरीतियों, राजनीतिक छल-प्रपंचों आदि पर आपके द्वारा प्रभावी व्यंग्य लिखे गये हैं।
  2. वर्णनात्मक शैली-किसी वस्तु, व्यक्ति या घटना को प्रस्तुत करने के लिए परसाई जी ने इस शैली का प्रयोग किया है। इसकी मिश्रित शब्दावली युक्त भाषा में वाक्य प्रायः छोटे ही . प्रयोग किये गये हैं।
  3. उद्धरण शैली-हरिशंकर परसाई अपने कथन की पुष्टि के लिए उद्धरण शैली का सहारा लेते हैं। गद्य तथा पद्य दोनों प्रकार के उद्धरणों का प्रयोग उन्होंने किया है। इस शैली से प्रभावशीलता की वृद्धि होती है।
  4. सूत्र शैली-हरिशंकर परसाई ने सूत्रात्मक कथनों के द्वारा कथ्य को रोचक बनाया है। आवश्यकतानुसार ये उक्तियाँ तीखी अथवा उपदेशात्मक प्रकार की होती हैं।
  • साहित्य में स्थान

सूक्ष्म निरीक्षण-दृष्टि तथा सशक्त अभिव्यक्ति के धनी हरिशंकर परसाई ने हिन्दी व्यंग्य साहित्य को सम्पन्न करने का प्रशंसनीय कार्य किया है। आपने सटीक व्यंग्यों के द्वारा समाज, राष्ट्रीयता, मानवता के उत्थान का महान कार्य किया है। व्यंग्य को अद्भुत अन्दाज में प्रस्तुत करने वाले हरिशंकर परसाई जी हिन्दी जगत् में चिर स्मरणीय रहेंगे।

10. महादेवी वर्मा
[2008, 09]

  • जीवन-परिचय

आधुनिक युग की मीरा महादेवी जी का जन्म 26 मार्च, सन् 1907 को फर्रुखाबाद में एक सम्भ्रान्त कायस्थ परिवार में हुआ था। आपके पिता गोविन्द प्रसाद, भागलपुर विद्यालय में प्रधानाचार्य थे। इनकी माता हेमरानी देवी विदुषी और भक्त महिला थीं। वे मीरा, कबीर आदि के पद गाती थीं और कविता भी करती थीं। आपको अपनी माँ से कविता, साहित्य तथा भक्ति की प्रेरणा प्राप्त हुई।

महादेवी जी की प्रारम्भिक शिक्षा इन्दौर में हुई। इन्होंने घर पर संगीत और चित्रकला की शिक्षा प्राप्त की। इनका विवाह ग्यारह वर्ष की अवस्था में डॉ. स्वरूपनारायण वर्मा के साथ हुआ। श्वसुर के विरोध से शिक्षा में विघ्न पड़ गया। उनके देहावसान के बाद पुन: शिक्षा प्रारम्भ करके संस्कृत विषय में एम. ए. की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की, अनेक वर्षों तक प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या रहीं, जहाँ से सन् 1965 ई. में अवकाश ग्रहण किया। हिन्दी साहित्य की ये महादेवी 11 सितम्बर, 1987 ई. को स्वर्ग सिधार गयीं।

  • साहित्य सेवा

कल्पना लोक में विचरण करने वाली महादेवी वर्मा जीवन के यथार्थ के उतने ही निकट थीं, जितना कि एक महामानव होता है। महादेवी जी की बचपन से ही काव्य के प्रति रुचि रही। उस समय की प्रसिद्ध नारी पत्रिका ‘चाँद’ में उनकी प्रारम्भिक रचनाएँ छपी। बाद में उन्होंने ‘चाँद’ का सम्पादन भी किया। भावपूर्ण कविताओं ने आपको छायावाद की प्रमुख कवयित्री के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया।

महादेवी के गद्य में पर दुःख, कातरता, आत्मीयता, समाज में अन्याय के प्रति दुःख और चिन्ता के दर्शन होते हैं। महादेवी जी ने सहस्रों वर्षों से उपेक्षित नारी के शिवरूप को उभारा है और नारी को अपना वास्तविक रूप पहचानने के लिए प्रेरित किया है। साहित्यिक उपलब्धियों के कारण आप उत्तर प्रदेश विधान परिषद् की सदस्या भी मनोनीत की गयीं। भारत के राष्ट्रपति ने आपको पद्मश्री’ की उपाधि से सम्मानित किया। आपको ‘सेक्सरिया’ तथा ‘मंगलाप्रसाद पुरस्कार’ भी प्राप्त हुए हैं। कुमायूँ विश्वविद्यालय ने 1975 ई. में अपने प्रथम दीक्षान्त समारोह में आपको डी. लिट् की मानद उपाधि से सम्मानित किया। आपने प्रयाग में ‘साहित्यकार संसद’ नामक संस्था तथा देहरादून में ‘उत्तरायण’ नामक साहित्यिक आश्रम स्थापित किया।

  • रचनाएँ

आपने गद्य-पद्य दोनों में ही सफलतापूर्वक रचनाएँ की हैं। महादेवी जी की प्रमुख गद्य रचनाएँ हैं

  1. निबन्ध संग्रह-‘श्रृंखला की कड़ियाँ’, ‘क्षणदा’, ‘साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबन्ध’।
  2. आलोचना-‘हिन्दी का विवेचनात्मक गद्य।’
  3. संस्मरण और रेखाचित्र-अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएँ, पथ के साथी और मेरा परिवार।
  4. सम्पादन-‘चाँद’ मासिक पत्रिका और ‘आधुनिक कवि’ नामक काव्य-संग्रह का आपने कुशलता एवं विद्वतापूर्वक सम्पादन किया।
  • वर्ण्य विषय

वेदना की अमर गायिका महादेवी जी के गद्य में विचार एवं भाव ने व्यापक रूप धारण कर लिया। उनके निबन्धों में विचार प्रधानता दिखाई देती है तो समीक्षा में गहन अनुभूतिपरक चिन्तन उभरकर आया है। उनके रेखाचित्र और संस्मरणों में आत्मीयता, सहजता तथा सरलता की अजस्त्रधारा प्रवाहित है। आपके साहित्य में पशु-पक्षियों, सेवकों के सम्बन्ध में लिखे गए संस्मरण हिन्दी की बहुमूल्य धरोहर हैं। नारी के प्रति आपके हृदय में अपार सहानुभूति रही है।

MP Board Solutions

  • भाषा

महादेवी जी की गद्य-भाषा संस्कृत गर्भित, शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली है। आपकी भाषा संस्कृतनिष्ठ होते हुए भी सरस, माधुर्ययुक्त और प्रवाहपूर्ण है। भाव, भाषा और संगीत की त्रिवेणी के संगम पर उनके गद्य का निर्माण हुआ है। उनका शब्द चयन उत्कृष्ट, भावानुकूल है। भाषा में तल्लीनता और तन्मयता के दर्शन होते हैं।

महादेवी जी की चित्रोपम भाषा में उपमा, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास, विरोधाभास जैसे अलंकारों का सुन्दर प्रयोग हुआ है। आपकी भाषा में मुहावरों और कहावतों का सटीक प्रयोग मिलता है। भावुकता, विदग्धता, मधुरता तथा लालित्य आपकी भाषा के विशेष गुण हैं। एक-एक शब्द बोलता-सा प्रतीत होता है।

  • शैली

महादेवी जी की गद्य-शैली के प्रमुख रूप निम्नांकित हैं-

  1. भावात्मक शैली-महादेवी जी की यह शैली उनके रेखाचित्र में मिलती है। महादेवी जी का कवि हृदय अपनी सम्पूर्ण भाव चेतना के साथ गद्य पर छाया रहता है। आलंकारिक सौन्दर्य, सरलता, भावों की सुकुमारता ने इस शैली को आकर्षक बना दिया है। इनमें महादेवी जी का कोमल हृदय झाँकता दिखायी देता है।
  2. वर्णनात्मक शैली-वर्णनात्मक शैली का प्रयोग वर्णन-प्रधान निबन्धों में हुआ है। वर्णनात्मक शैली सरल और व्यावहारिक है। भाषा सरल होते हुए भी शुद्ध, परिमार्जित और परिष्कृत है। वाक्य छोटे होते हैं, वर्णन में सजीवता और प्रवाह है।।
  3. चित्रात्मक शैली-आपने चित्रात्मक शैली का सफल प्रयोग किया है। पाठक के सामने शब्दों के द्वारा व्यक्ति या वस्तु का चित्र सा उपस्थित हो जाता है। इस शैली की भाषा चित्रात्मक एवं लाक्षणिक है।
  4. विवेचनात्मक शैली-महादेवी जी ने आलोचनात्मक निबन्धों में इस शैली को अपनाया है। इस शैली की भाषा दुरूह और संस्कृतनिष्ठ है, परन्तु उसमें सुबोधता और स्पष्टता सर्वत्र विद्यमान है।
  5. व्यंग्यात्मक शैली-महादेवी जी कभी-कभी शिष्ट-हास्य और तीखे व्यंग्य भी कर देती हैं। जहाँ वे तीखे व्यंग्य करती हैं, वहाँ उनकी शैली व्यंग्यात्मक हो गयी है। आपके व्यंग्यों में सुधार की भावना, करुण और शिष्ट-हास्य का समन्वय है। महादेवी जी की शैली में कल्पना, सजीवता, भाषा-चमत्कार इत्यादि एक साथ देखे जा सकते हैं।

इसके अतिरिक्त उनकी गद्य-रचनाओं में कहीं-कहीं सूक्ति शैली, उद्धरण शैली और आत्माभिव्यंजक शैली के भी दर्शन होते हैं।

  • साहित्य में स्थान

आधुनिक युग की मीरा महादेवी वर्मा का हिन्दी साहित्य मे महत्त्वपूर्ण स्थान है। आपकी रचनाओं में नारी हृदय की शाश्वत वेदना का बड़ा ही मार्मिक चित्रण मिलता है। महादेवी वर्मा ने गद्य में दरिद्र जीवन का सुन्दर चित्रण किया है। इसमें आपकी उन विद्रोही भावनाओं के दर्शन होते हैं, जो समाज के प्रति हृदय में उठती रहती हैं। हिन्दी को उनकी अभूतपूर्व देन सजीव रेखाचित्र हैं। उनकी बहुमुखी साधना कवयित्री, रेखाचित्रकार, निबन्ध लेखिका और आलोचक के रूप में सर्वविदित है।

11. महात्मा गाँधी

  • जीवन-परिचय

सत्य व अहिंसा के पुजारी महात्मा गाँधी का जन्म 2 अक्टूबर, 1869 को गुजरात के पोरबन्दर नगर, काठियावाड़ में हुआ था। आपके पिता का नाम करमचन्द तथा माता का नाम पुतलीबाई था। आपका बचपन का नाम मोहनदास था। आपका पूरा नाम मोहनदास करमचन्द गाँधी था। आपके पिता राजकोट के दीवान थे। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा राजकोट में पूरी हुई। 13 वर्ष की अवस्था में आपका विवाह कस्तूरबा से हुआ। उच्च शिक्षा के लिए आप इंग्लैण्ड गए और बैरिस्टर बनकर भारत लौटे। भारत आकर आपने वकालत शुरू की। एक मुकदमे के सिलसिले में आपको अफ्रीका जाना पड़ा। वहाँ भारतीयों तथा अपने साथ गोरों द्वारा किए गए दुर्व्यवहार का अहिंसा द्वारा आपने विरोध किया। दक्षिण अफ्रीका में 21 वर्ष रहकर आप 1915 में भारत लौटे। गोपाल कृष्ण गोखले के सम्पर्क में आकर आपने राजनीति में प्रवेश किया। आपने असहयोग व सत्याग्रह के द्वारा ब्रिटिश सरकार को भारत छोड़ने पर मजबूर किया। आपने भारतीयों को आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाया और स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग पर जोर दिया। आप निम्न वर्ग व नारी उत्थान तथा साम्प्रदायिक सद्भाव के प्रबल पक्षधर थे। शिक्षा व घरेलू धन्धों को आप भारतीयों के लिए अनिवार्य मानते थे। आपने मई 1915 में साबरमती आश्रम की स्थापना की। 15 अगस्त, 1947 को आपके नेतृत्व में लड़ी गई स्वतन्त्रता की लम्बी लड़ाई के बाद भारत आजाद हुआ। 30 जनवरी, 1948 को भारत माता का यह अमर सपूत चिरनिद्रा में सो गया।

  • साहित्य-सेवा

गाँधीजी मूलतः एक साहित्यकार न होकर एक राजनीतिक व्यक्तित्व थे। अत: उनकी रचनाएँ भी राजनीति से सम्बन्धित रहीं। आपने 1903 में डरबन, अफ्रीका में बहुभाषी साप्ताहिक-पत्र ‘इण्डियन ओपीनियन’ निकाला। भारत आकर आपने ‘हरिजन’ तथा ‘यंग इण्डिया’ नामक पत्र निकाले। आपने ‘हिन्दू स्वराज्य’, ‘सर्वोदय’ (रस्किन की अनटु दि लास्ट पुस्तक का अनुवाद) तथा दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों पर अत्याचारों का वर्णन करने वाली पुस्तक ‘हरि पुस्तिका’ लिखी। आपने गुजराती में ‘नवजीवन’ नामक पुस्तक निकाली। ‘सत्य के प्रयोग’ आत्मकथा लिखकर आपने साहित्य की सेवा की।

  • रचनाएँ

महात्मा गाँधी की रचनाएँ इस प्रकार हैं

  1. आत्मकथा-‘सत्य के प्रयोग’।
  2. अनुवाद-‘हिन्द स्वराज्य’ तथा ‘सर्वोदय’।
  3. पत्र-‘हरिजन’, ‘यंग इण्डिया’, ‘इण्डियन ओपीनियन’।
  4. अन्य पुस्तक-‘नवजीवन’, ‘हरि पुस्तिका’।
  • वर्ण्य विषय

महात्मा गाँधी मूलतः एक बैरिस्टर थे। इस कारण तर्क करना उनकी फितरत थी। देश, समाज तथा जीवन की विसंगतियों, विडम्बनाओं आदि का सूक्ष्म निरीक्षण कर आपने प्रभावी लेख लिखे। दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों पर अत्याचार देखकर गाँधीजी राजनीति में आये थे। समाज, राजनीति, अर्थव्यवस्था आदि की अव्यवस्था तथा विद्रूपता देखकर आपने उस पर प्रहार किये। नारी व निम्न वर्गका उत्थान, साम्प्रदायिक सद्भाव, किसानों की समस्या, ब्रिटिश सरकार के अत्याचार आदि आपके वर्ण्य विषय थे। देश को अंग्रेजों से मुक्ति दिलाना आपका मुख्य उद्देश्य था।

  • भाषा

गुजराती मातृभाषा तथा अंग्रेजी शिक्षा का माध्यम होने पर भी आपने खड़ी बोली हिन्दी में भी लिखा जिसमें संस्कृत शब्दों की अधिकता के कारण क्लिष्टता आ गई है। फिर भी भाषा में सरलता तथा बोधगम्यता मिलती है। आपकी भाषा दर्शन जैसे विषयों में गम्भीर हो गई है। कहीं-कहीं सूत्र ही गद्यांश बन गए हैं। वाक्य लघु हैं।

  • शैली

युग पुरुष महात्मा गाँधी की रचनाओं में भाव, विचार, व्याख्या आदि का मिला-जुला रूप मिलता है। आपके व्यक्तित्व में संस्कार, अध्ययन, अनुशीलन, रुचि व प्रवृत्ति के जो तत्त्व हैं, उन्होंने शैली को रक्षात्मक बना दिया है।

  1. वर्णनात्मक शैली-राजनेता होने के कारण बापू अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए इस शैली को अपनाते हैं।
  2. उद्धरण शैली-अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए गाँधीजी उदाहरण देते हैं तथा व्याख्या करते हैं। इसके लिए वह गीता से उदाहरण देते हैं।
  3. ओजपूर्ण शैली-ब्रिटिश सरकार के विरोध में लिखते समय उनकी भाषा में ओज था, अपने अधिकारों की माँग थी।
  4. सूत्रात्मक शैली-इस शैली में अत्यन्त लघु वाक्यों का प्रयोग है, जैसे-“

अद्वितीय उपाय है कर्म के फल का त्याग”,
“जहाँ देह है वहाँ कर्म तो है ही।”
इन सूत्रों में गीता का सार आ जाता है।

अनुवादों में भी नपी-तुली भाषा व शब्द हैं। मुहावरे व कहावतों का संक्षिप्त प्रयोग दृष्टिगोचर होता है।

  • साहित्य में स्थान

महात्मा गाँधी निबन्धकार, अनुवादक, सम्पादक, आत्मकथा लेखक तथा कुशल वक्ता थे। इस कारण उनका साहित्य में विशेष स्थान है। हिन्दी के विचार प्रधान निबन्धों के क्षेत्र में आपकी देन अनुपम है।

MP Board Solutions

12. श्रीधर पराड़कर

  • जीवन-परिचय

मध्य प्रदेश के ग्वालियर नामक शहर के निवासी श्रीधर पराड़कर का जन्म 15 मार्च, 1954 को हुआ था। आपके पिताजी का नाम गोविन्द राव पराड़कर और माता का नाम श्रीमती इन्दिरा बाई पराड़कर है। श्रीधर पराड़कर ने वाणिज्य विषय के साथ स्नातकोत्तर की शिक्षा प्राप्त की। तत्पश्चात् अपने एकाउंटेंट जनरल कार्यालय में लेखा परीक्षक के रूप में शासकीय सेवा के साथ अपने कैरियर की शुरुआत की। परन्तु रक्त में प्रवाहित देशभक्ति की भावना और हृदय में आकण्ठ राष्ट्रप्रेम के वशीभूत श्रीधर पराड़कर ने 1986 में शासकीय सेवा से निवृत्ति लेकर अपना जीवन राष्ट्रोत्थान के लिए न्यौछावर कर दिया। श्रीधर पराड़कर का व्यक्तित्व आकर्षक है। वे सात्विक ऊर्जा के स्रोत भी हैं। आपके चेहरे पर सदैव विद्यमान रहने वाली बाल सुलभ मुस्कान सम्पर्क में आये व्यक्ति का भी तनाव समाप्त करने में सक्षम है।

  • साहित्य-सेवा

राष्ट्रीय आन-बान-शान और सम्मान को अपनी ओजस्वी कलम से नई धार देने वाले श्रीधर पराड़कर अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य परिषद के राष्ट्रीय संगठन मंत्री एवं देश के प्रख्यात साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। साहित्य के माध्यम से भारतीय संस्कृति और मूल्यों तथा राष्ट्रप्रेम की अलख जगा रहे श्रीधर पराड़कर ने इंग्लैण्ड, श्रीलंका आदि देशों की यात्रा के साथ-साथ भारत में अनेक स्थानों, जैसे-जौनसार (उत्तराखण्ड), लाहौल स्पीति और झाबुआ के वनांचल में साहित्य संवर्धन यात्राएँ की, ताकि लेखक अनुभूत साहित्य का सृजन कर सकें।

  • रचनाएँ

आपने अनेक लोकप्रिय पुस्तकों की रचना कर हिन्दी साहित्य की अद्भुत सेवा की है। आपकी प्रमुख रचनाएँ/पुस्तक निम्नवत हैं-

  1. जीवन-चरित्र—’राष्ट्रनिष्ठ खण्डोबल्लाल,”अप्रतिम क्रांतिदृष्टा भगतसिंह’, ‘रानी दुर्गावती’, माँ सारदा, कर्मयोगी बाबा साहेब आप्टे’, ‘बाला साहेब देवरस’, ‘राष्ट्रसंत तुकडोजी’, ‘1857 के प्रतिसाद,”अद्भुत संत स्वामी रामतीर्थ’, ‘सिद्धयोगी उत्तम स्वामी’ आदि।”
  2. अनुवाद—दत्तोपंत ठेगड़ी की पुस्तक ‘सामाजिक क्रांति की यात्रा और डॉ. आम्बेडकर’ का मराठी से हिन्दी में अनुवाद किया।
  3. अन्य पुस्तकें ‘ज्योति जला निज प्राणों की’ तथा ‘मध्य भारत की संघ गाथा’ आदि।
  • वर्ण्य विषय

राष्ट्रीय स्वाभिमान के अनन्य नायक एवं भारतीय संस्कृति तथा मूल्यों के वाहक श्रीधर पराड़कर की पुस्तकों में राष्ट्रप्रेम प्रमुख रूप से वर्णित विषय रहा है। उनकी पुस्तकों में मनुष्यों के उच्च विचारों के भाव भी परिलक्षित होते हैं। सामाजिक चेतना के स्वर उनकी रचनाओं में स्पष्ट रूप से सर्वत्र दृष्टिगोचर होते हैं। आपने सदैव साहित्य में सद्विचारों को प्रोत्साहन प्रदान करने का कार्य किया है।

  • भाषा

श्रीधर पराड़कर की भाषा विशुद्ध रूप से हिन्दी है। उन्होंने अपनी रचनाओं में सरल, सहज एवं बोधगम्य भाषा का उपयोग किया है। भाषा की क्लिष्टता एवं दुरहता से दूर रहते हुए आपने पाठक की भाषा को ही अपनी साहित्य-भाषा के रूप में चुना है। सम्भवतया इसी कारण प्रत्येक पाठक वर्ग के लिये आपकी पुस्तकें सुग्राह्य हैं।

  • शैली

श्रीधर पराड़कर जी मूलतः वाणिज्य के छात्र रहे हैं। भाषा पर उनकी समझ एवं पकड़ किसी उपाधि से अर्जित ज्ञान की वजह से न होकर जीवन के स्वयं के अनुभवों से अर्जित ज्ञान पर आधारित है।

मुख्य रूप से उनकी शैली वर्णनात्मक, उद्धरण एवं ओजपूर्ण है। कहीं-कहीं उनकी पुस्तकों में चित्रात्मक एवं विवेचनात्मक शैली की झलक भी देखने को मिलती है।

  • साहित्य में स्थान

श्रीधर पराड़कर की पुस्तकें हमारे भीतर राष्ट्रीय चेतना और सामाजिक संवेदनाओं का संचार करती हैं। साहित्य के क्षेत्र में उनके योगदान को दृष्टिपथ पर रखकर केन्द्रीय हिन्दी संस्थान (मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार) द्वारा उन्हें भारतीय विद्या (इन्डोलॉजी) में लेखन के लिए प्रतिष्ठित ‘विवेकानन्द पुरस्कार’ प्रदान किया गया। साथ ही, आपको तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा ‘हिन्दी सेवी सम्मान 2015’ से भी सम्मानित किया जा चुका है।

सम्पूर्ण अध्याय पर आधारित महत्वपूर्ण वस्तुनिष्ठ प्रश्न

  • बहु-विकल्पीय प्रश्न

1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का जन्म हुआ था
(i) सन् 1884 में, (i) सन् 1894 में, (ii) सन् 1904 में, (iv) सन् 1880 में।

2. पारिवारिक मर्यादा का उत्कृष्ट उदाहरण मिलता है
(i) गीता में, (ii) रामचरितमानस में, (iii) महाभारत में, (iv) कामायनी में।

3. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की रचना है
(i) चित्रलेखा, (ii) चिन्तामणि, (ii) अशोक के फूल, (iv) पथ के साथी।

4. जयशंकर प्रसाद का जन्म स्थान है
(i) इलाहाबाद, (ii) सागर, (iii) उज्जै न, (iv) वाराणसी।

5. ‘गीत और गोली’ के रचनाकार हैं
(i) विष्णु प्रभाकर, (ii) पं. कमलापति त्रिपाठी, (iii) हरिशंकर परसाई, (iv) श्रीराम परिहार।

6. कराची में बनारसी ने विद्यानिवास मिश्र से कहा था
(i) मातृभूमि को प्रणाम कहें, (ii) भारतमाता को सलाम कहें, (iii) गंगा और गंगा के कछार से मेरा सलाम कहें, (iv) भारतवासियों को मेरा सलाम कहें।

7. महात्मा गाँधी के राजनीतिक गुरु थे
(i) गोपाल कृष्ण गोखले, (ii) आचार्य विनोबा भावे, (iii) पं. जवाहर लाल नेहरू, (iv) सीमान्त गाँधी।

8. श्रीधर पराड़कर यहाँ के निवासी हैं [2008]
(i) कलकत्ता, (ii) कानपुर, (iii) ग्वालियर, (iv) भोपाल।
उत्तर-
1. (i),
2. (ii),
3. (iii),
4. (iv),
5. (i),
6. (iii),
7. (i),
8. (iii)।

  • रिक्त स्थान पूर्ति

1. हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म ……… में हुआ था।
2. ‘कुटुज’ ………’ की रचना है। [2013]
3. विद्यानिवास मिश्र के एक निबन्ध संग्रह का नाम ……..”
4. जयशंकर प्रसाद का जन्म स्थान ……… है।
5. जगदीशचन्द्र माथुर प्रसिद्ध …………. हैं। [2009]
6. ‘तेरा घर मेरा घर’ की लेखिका ………. हैं।
7. महादेवी वर्मा का निधन ……… में हआ था।
8. विद्यानिवास मिश्र ……… निबन्धकार हैं। [2009]
9. महात्मा गाँधी का जन्म 2 अक्टूबर …………. को हुआ था।
10. गुजराती में प्रकाशित ‘नवजीवन’ नामक पुस्तक के लेखक …….. थे।
11. श्रीधर पराड़कर ने ……… विषय में स्नातकोत्तर तक शिक्षा प्राप्त की।
उत्तर-
1. सन् 1907,
2. हजारी प्रसाद द्विवेदी,
3. चितवन की छाँह,
4. वाराणसी (उ. प्र.),
5. एकांकीकार,
6.मालती जोशी,
7. सन् 1987,
8. ललित,
9. 1869,
10. महात्मा गाँधी,
11. वाणिज्य।

  • सत्य असत्य

1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल एक कवि थे। [2014]
2. विद्यानिवास का निधन सन् 2005 में हुआ था।
3. महादेवी वर्मा श्रेष्ठ उपन्यासकार हैं।
4. हरिशंकर परसाई व्यंग्यकार थे। [2015]
5. श्रीराम परिहार का जन्म उत्तर प्रदेश में हुआ है।
6. प्रेमचन्द उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। [2011]
7. महात्मा गाँधी द्वारा लिखित पुस्तक ‘सर्वोदय’ रस्किन की ‘अन टू दि लास्ट’ का अनुवाद
8. ‘राष्ट्रनिष्ठ खण्डोबल्लाल’ श्रीधर पराड़कर द्वारा लिखित पुस्तक है।
उत्तर-
1. असत्य,
2. सत्य,
3. असत्य,
4. सत्य,
5. असत्य,
6. सत्य,
7. सत्य,
8. सत्य।

  • जोड़ी मिलाइए

1. व्यंग्यकार [2009] – (क) शिकायत मुझे भी है
2. हरिशंकर परसाई [2009] – (ख) हरिशंकर परसाई
3. मर्यादा [2014] – (ग) आकाशदीप
4. जयशंकर प्रसाद – (घ) विष्णु प्रभाकर
5. रामचन्द्र शुक्ल – (ङ) महादेवी वर्मा
6. वेदना की अमर गायिका [2009] – (च) चिन्तामणि [2016]
7. महादेवी वर्मा [2017] – (छ) आधुनिक मीरा
उत्तर-
1.→ (ख),
2. → (क),
3. → (घ),
4.→ (ग),
5.→ (च),
6. → (ङ),
7. → (छ)।

MP Board Solutions

  • एक शब्द/वाक्य में उत्तर

1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का जन्म स्थान कहाँ है?
2. ‘बेईमानी की परत’ के लेखक कौन हैं?
3. श्रीराम परिहार के एक निबन्ध का नाम लिखिए।
4. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के एक निबन्ध संग्रह का नाम लिखिए।
5. जयशंकर प्रसाद का जन्म किस वर्ष में हुआ था?
6. महादेवी वर्मा का जन्म स्थान कहाँ है?
7. गाँधीजी द्वारा 1930 में डरबन, दक्षिण अफ्रीका में निकाले गये बहभाषी साप्ताहिक-पत्र का क्या नाम था?
8. श्रीधर पराड़कर की माताजी का नाम क्या है?
उत्तर-
1. अगोना (उ. प्र.),
2. हरिशंकर परसाई,
3. धूप का अवसाद,
4. कुटज,
5. सन् 1889,
6. फर्रुखाबाद,
7. इण्डियन ओपीनियन,
8. श्रीमती इन्दिरा बाई पराड़कर।

MP Board Class 11th Special Hindi लेखक परिचय (Chapter 7-12) 1
MP Board Solutions
MP Board Class 11th Special Hindi लेखक परिचय (Chapter 7-12) 2
MP Board Class 11th Special Hindi लेखक परिचय (Chapter 7-12) 3
MP Board Solutions
MP Board Class 11th Special Hindi लेखक परिचय (Chapter 7-12) 4

MP Board Class 11th Hindi Solutions

MP Board Class 11th Special Hindi स्वाति लेखक परिचय (Chapter 1-6)

MP Board Class 11th Special Hindi स्वाति लेखक परिचय (Chapter 1-6)

1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
[2008, 09, 13, 17]

  • जीवन-परिचय

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का जन्म 11 अक्टूबर, सन् 1884 को उत्तर प्रदेश के बस्ती जनपद के अगोना ग्राम में हुआ था। आपके पिता पं. चन्द्रबलि शुक्ल सुपरवाइजर कानूनगो थे। शुक्लजी ने एफ. ए. (इण्टर) तक की शिक्षा प्राप्त की। शिक्षा समाप्ति पर जीविकोपार्जन के लिए मिर्जापुर के मिशन स्कूल में ड्राइंग के शिक्षक हो गये। इस समय तक इनके लेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे। जब नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी द्वारा ‘हिन्दी शब्द सागर’ नाम से शब्दकोश के निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया गया, तब शुक्लजी मात्र छब्बीस वर्ष की अवस्था में उसके सहायक सम्पादक नियुक्त किये गये। उसके बाद हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में आप हिन्दी विभाग में प्राध्यापक हो गये। सन् 1937 में आप वहाँ हिन्दी विभाग के अध्यक्ष हो गये। 2 फरवरी, सन् 1940 को आपका निधन हो गया।

MP Board Solutions

  • साहित्य-सेवा

आचार्य शुक्लजी की प्रतिभा बहुमुखी थी। वे कवि, निबन्धकार, आलोचक, सम्पादक तथा अनुवादक अनेक रूपों में हमारे सामने आते हैं। आपने “हिन्दी शब्द सागर” और “नागरी प्रचारिणी पत्रिका” का सम्पादन किया। उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन में हिन्दी को उच्चकोटि के निबन्ध, वैज्ञानिक समालोचनाएँ, साहित्यिक ग्रन्थ एवं सरल कविताएँ प्रदान की। शुक्ल जी ने हिन्दी में समालोचना और निबन्ध कला का उच्च आदर्श स्थापित किया। उनसे पहले की समालोचनाओं में गुण-दोष विवेचन की ही प्रधानता थी। उन्होंने वैज्ञानिक ढंग की व्याख्यात्मक आलोचना-पद्धति की नींव डाली और जायसी, तुलसी तथा सूर के काव्यों पर उत्कृष्ट व्याख्यात्मक आलोचनाएँ लिखीं। आपने करुणा, उत्साह, क्रोध, श्रद्धा और भक्ति आदि मनोविकारों पर सुन्दर निबन्ध लिखे। उनके निबन्ध ‘चिन्तामणि’ नामक पुस्तक में संग्रहीत हैं। ‘चिन्तामणि’ पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ओर से मंगलाप्रसाद पारितोषिक’ प्राप्त हुआ। उन्होंने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ नामक गवेषणापूर्ण प्रामाणिक ग्रन्थ लिखा, जिस पर हिन्दुस्तानी एकेडमी, प्रयाग ने पुरस्कार प्रदान किया।

  • रचनाएँ

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की प्रमुख रचनाएँ अग्र प्रकार हैं

  1. निबन्ध-संग्रह-चिन्तामणि, विचार-वीथी।
  2. आलोचना-त्रिवेणी, रस-मीमांसा।
  3. इतिहास-हिन्दी साहित्य का इतिहास।
  • वर्ण्य विषय

साहित्य के समस्त क्षेत्रों को स्पर्श करने वाली शुक्लजी की प्रतिभा समालोचना एवं निबन्ध के क्षेत्र में भी प्रखरता के साथ परिलक्षित होती है। निबन्ध एवं आलोचना दोनों ही क्षेत्रों में शुक्लजी ने लोक मंगल एवं नैतिक आदर्श को प्रमुख स्थान दिया है। निबन्ध-रचना के क्षेत्र में उन्होंने सामाजिक उपयोगिता से सम्बन्धित मानव-मनोभावों पर सुन्दर निबन्ध लिखे। शुक्लजी ने मनोभावों सम्बन्धी निबन्धों के साथ ही समीक्षात्मक एवं सैद्धान्तिक निबन्धों की भी रचना की।

  • भाषा

आचार्य शुक्लजी की भाषा परिष्कृत, प्रौढ़ एवं साहित्यिक खड़ी बोली है। इस भाषा में सौष्ठव है तथा उसमें गम्भीर विवेचन की अपूर्व शक्ति है। शुक्लजी की भाषा में व्यर्थका शब्दाडम्बर नहीं मिलता। भाव और विषय के अनुकूल होने के कारण वह सर्वथा सजीव और स्वाभाविक है। गूढ़ विषयों के प्रतिपादन में भाषा अपेक्षाकृत क्लिष्ट है। उसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की बहुलता है। वाक्य-विन्यास भी कुछ लम्बे हैं। सामान्य विचारों के विवेचन में भाषा सरल एवं व्यावहारिक है। कहावतों एवं मुहावरों के प्रयोग से उसमें सरसता आ गयी है। शुक्लजी की भाषा व्यवस्थित तथा पूर्ण व्याकरण सम्मत है तथा उसमें कहीं भी शिथिलता देखने को नहीं मिलती। भाषा की इसी कसावट के कारण उसमें समास शक्ति पायी जाती है तथा कहीं-कहीं तो भाषा सूक्तिमयी बन गयी है–“बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है।”

  • शैली

शुक्लजी अपनी शैली के स्वयं निर्माता थे। उनकी शैली समास के रूप से प्रारम्भ होकर व्यास शैली के रूप में समाप्त होती है अर्थात् एक विचार को सूत्र रूप में कहकर फिर उसकी व्याख्या कर देते हैं। मुख्य रूप से शुक्लजी की शैली चार प्रकार की है-

  1. समीक्षात्मक शैली-शुक्लजी ने व्यावहारिक, समीक्षात्मक एवं समालोचनात्मक निबन्धों में इस शैली का प्रयोग किया है। इस शैली में वाक्य छोटे, संयत एवं गम्भीर हैं। इसमें विषय का प्रतिपादन सरलता के साथ इस प्रकार किया गया है कि सहज ही हृदयंगम हो जाता है।
  2. गवेषणात्मक-अनुसन्धानपरक तथा सैद्धान्तिक समीक्षा सम्बन्धी तथा तथ्यों के विश्लेषण-निरूपण में शुक्लजी ने इस शैली का प्रयोग किया है। यह शैली गम्भीर तथा कुछ सीमा तक दुरूह है। शब्द-विन्यास क्लिष्ट तथा वाक्य-विन्यास जटिल है। यह शैली सामान्य पाठकों के लिए बोधगम्य नहीं है।
  3. भावात्मक शैली-इस शैली में वाक्य कहीं छोटे तथा कहीं लम्बे हैं तथा भाषा कुछ-कुछ अलंकारिक हो गयी है। इसमें भावनाओं का धाराप्रवाह रूप मिलता है।
  4. हास्य-विनोद एवं व्यंग्य प्रधान शैली-इस शैली के दर्शन मनोविकारों तथा समीक्षात्मक निबन्धों में यत्र-तत्र ही होते हैं, क्योंकि हास्य तथा व्यंग्य शुक्लजी के निबन्धों का मुख्य विषय नहीं है, फिर भी इस शैली के प्रयोग से निबन्धों में रोचकता आ गयी है।
  • साहित्य में स्थान

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपनी असाधारण प्रतिभा द्वारा साहित्य की अनेक विधाओं में सृजन किया। लेकिन उनकी विशेष ख्याति निबन्धकार, समालोचक तथा इतिहासकार के रूप में है। उन्होंने हिन्दी में वैज्ञानिक आलोचना-प्रणाली को जन्म दिया, निबन्ध-साहित्य को समृद्ध किया तथा हिन्दी साहित्य के इतिहास-लेखन के लिए एक आधार प्रदान किया। शुक्लजी की भाषा तथा शैली आने वाले साहित्यकारों के लिए आदर्श रूप है। वे युग प्रवर्तक निबन्धकार हैं।

2. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
[2008, 10, 14, 16]

  • जीवन-परिचय

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म 19 अगस्त, सन् 1907 में बलिया जिले के दुबे का छपरा नामक ग्राम में हुआ था। द्विवेदी जी के पिता का नाम अनमोल दुबे तथा माता का नाम ज्योतिकली देवी था। इनका परिवार ज्योतिष विद्या के ज्ञान के लिए प्रसिद्ध था। द्विवेदी जी की प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के स्कूल में ही हुई और वहाँ से उन्होंने सन् 1920 में मिडिल की परीक्षा पास की। इसके बाद कुल-परम्परा के अनुसार संस्कृत का अध्ययन करने के लिए आप काशी गये। काशी विश्वविद्यालय से साहित्य एवं ज्योतिष में आचार्य की परीक्षा उत्तीर्ण की। इण्टर के बाद अस्वस्थ हो जाने के कारण आप बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण न कर सके।

सन् 1940 ई. में हिन्दी एवं संस्कृत के अध्यापक के रूप में आप शान्ति निकेतन गये। यहाँ लगभग 20 वर्ष तक हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रहे। आपने महाकवि रवीन्द्र के संसर्ग में अपनी साहित्यिक प्रतिभा का विकास किया। आपने विश्वभारती’ का सम्पादन भी किया।

सन् 1949 ई. में लखनऊ विश्वविद्यालय ने उन्हें डी. लिट. की उपाधि प्रदान की। सन् 1956 ई. में वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष बने। आपने पंजाब विश्वविद्यालय में भी हिन्दी विभागाध्यक्ष के पद को सुशोभित किया। हिन्दी साहित्य की सेवा करते-करते 19 मई, 1979 को यह दैदीप्यमान नक्षत्र सदैव के लिए विलीन हो गया।

  • साहित्य-सेवा

आचार्य द्विवेदी जन्मजात प्रतिभासम्पन्न साहित्यकार थे। कविता के क्षेत्र में दिशा निर्देशन व्योमकेश शास्त्री से प्राप्त किया। शनैः-शनैः इनकी प्रतिभा प्रखर होने लगी। रवीन्द्रनाथ के बंगला साहित्य से आप विशेषतः प्रभावित हुए। उनका एक शब्द तथा वाक्य उनके लिए अमूल्य सिद्ध हुआ। निबन्धकार, इतिहास लेखक, उपन्यासकार, शोधकर्ता के रूप में आप हिन्दी साहित्य में विशेष रूप से जाने-पहचाने जाते हैं। आप एक सफल आलोचक थे। सिद्ध, जैन एवं अपभ्रंश साहित्य को आपने उजागर किया है। उनके उपन्यास तथा निबन्ध शैली, भावों तथा विचारों की दृष्टि से नूतनता तथा गहनता से ओत-प्रोत हैं। आपने ‘हिन्दी-संस्थान’ के उपाध्यक्ष पद को भी सुशोभित किया है। ‘कबीर’ नामक रचना पर आपको मंगलाप्रसाद पारितोषिक’ मिला। भारत सरकार ने आपकी साहित्यिक उपलब्धियों को ध्यान में रखकर सन् 1950 में ‘पद्म भूषण’ की उपाधि से भी सम्मानित किया। ‘सूर साहित्य’ पर आपको इन्दौर साहित्य समिति ने स्वर्ण पदक’ प्रदान किया था। आपने भक्ति साहित्य पर उच्चकोटि के समीक्षक ग्रन्थों की रचना की तथा ‘अभिनव भारती’ ग्रन्थमाला का सराहनीय सम्पादन किया है।

  • रचनाएँ

आचार्य द्विवेदी जी ने साहित्य की विविध विधाओं पर अपनी लेखनी चलायी। उनकी रचनाएँ इस प्रकार हैं- .

  1. आलोचना साहित्य-‘सूर-साहित्य’,’हिन्दी साहित्य की भूमिका’, ‘कबीर’, ‘सूरदास और उनका काव्य’, ‘हमारी साहित्य समस्याएँ’, ‘साहित्य का धर्म’, ‘नख दर्पण में हिन्दी कविता’, “हिन्दी साहित्य’,’समीक्षा साहित्य’ आदि।
  2. उपन्यास-‘चारुचन्द्र लेख’, ‘अनामदास का पोथा’, ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ तथा पुनर्नवा’।
  3. निबन्ध- विचार और वितर्क’, ‘अशोक के फूल’, ‘कल्पना’, ‘साहित्य के साथी’, ‘कुटज’, ‘कल्पलता’, आदि।
  4. शोध सम्बन्धी साहित्य-‘नाथ सम्प्रदाय’, ‘मध्यकालीन धर्म साधना’, ‘हिन्दी साहित्य का अदिकाल’, ‘प्राचीन भारत का कला विकास’ आदि।
  5. अनूदित साहित्य-‘प्रबन्ध चिन्तामणि’, ‘लाल कनेर’, ‘मेरा बचपन’, ‘पुरातन प्रबन्ध संग्रह’, ‘प्रबन्ध कोष’ आदि आपकी अनूदित रचनाएँ हैं।।
  • वर्ण्य विषय

बहुमुखी प्रतिभा के धनी द्विवेदी जी ने साहित्य की विभिन्न विधाओं में विविध प्रकार से साहित्य की रचना की है। आलोचना, निबन्ध, उपन्यास, अन्वेषण आदि रचनात्मक विधाओं के अतिरिक्त आपने अनुवाद के क्षेत्र में सराहनीय कार्य किया है। आपके निबन्धों में साहित्य तथा संस्कृति का अद्भुत संगम दृष्टिगोचर होता है। आपके साहित्य में भारतीय संस्कृति की झलक स्पष्ट देखी जा सकती हैं। ललित निबन्धों में इनकी विशेषताएँ हैं कि अपनी विद्वता की स्थायी छाप पाठक के हृदय पर छोड़ते हैं।

  • भाषा

आचार्य द्विवेदी जी ने सरल, सुस्थिर, संयत एवं बोधगम्य भाषा का प्रयोग किया है। सामान्यत: वे तत्सम प्रधान, शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग करते हैं। भाव और विषय के अनुसार इनकी भाषा का रूप बदलता रहता है। उन्होंने निबन्धों की भाषा में संस्कृत शब्दों को ही प्राथमिकता दी है। संस्कृत शब्दावली की प्रचुरता के कारण कहीं-कहीं क्लिष्टता भी आ गयी है। सामान्यतः उसमें स्पष्टता और प्रवाह बना रहा है। द्विवेदी जी ने व्यावहारिक भाषा का प्रयोग किया है, जिसमें उर्दू, अंग्रेजी के प्रचलित शब्दों का प्रयोग है। इनकी भाषा में ‘देशज’ और ‘स्थानीय’ बोलचाल के शब्दों का भी प्रयोग है, लेकिन मुहावरों का कम ही प्रयोग हुआ है।

  • शैली

द्विवेदी जी एक महान् शैलीकार थे। उनकी शैली में विभिन्नता, विविधता है। उनकी शैली चुस्त और गठी हुई है। द्विवेदी जी के साहित्य को शैली की दृष्टि से हम निम्नलिखित रूपों में विभाजित कर सकते हैं

MP Board Solutions

  1. गवेषणात्मक शैली-यह द्विवेदी जी की प्रतिनिधि शैली है। उनकी आलोचनात्मक एवं विचारात्मक रचनाएँ इस शैली में लिखी गयी हैं। इसमें स्वाभाविकता के सर्वत्र दर्शन होते हैं। इस शैली में उनकी संस्कृतनिष्ठ प्रांजल भाषा की प्रधानता रहती है।
  2. आलोचनात्मक शैली-आलोचनात्मक रचनाएँ तथा ‘कबीर’, ‘सूर साहित्य’ जैसी व्यावहारिक आलोचना की रचनाएँ इस शैली में हैं। इस शैली की भाषा संस्कृत-प्रधान और स्पष्टवादिता से पूर्ण है।
  3. भावात्मक शैली-इस शैली का प्रयोग द्विवेदी जी ने वैयक्तिक और ललित निबन्धों में किया है। भावुकता, माधुर्य और प्रवाह शैली की विशेषताएँ हैं।
  4. व्यंग्यात्मक शैली-द्विवेदी जी के निबन्धों में व्यंग्यात्मक शैली का बहुत ही सुन्दर और सफल प्रयोग हुआ है। उनके व्यंग्य सार्थक होते हैं। इस शैली में भाषा प्रवाहमय तथा उर्दू, फारसी आदि के शब्दों से युक्त है। इसके अतिरिक्त द्विवेदी जी की रचनाओं में अनेक स्थलों पर उद्धरण, व्याख्यात्मक, व्यास एवं सूक्ति शैलियों के भी दर्शन होते हैं।
  • साहित्य में स्थान

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी उच्चकोटि के विद्वान, निबन्धकार, उपन्यासकार, सबल समीक्षक, साहित्य-इतिहासकार के रूप में अपार श्रद्धा के पात्र थे। उनके निबन्धों में विचारों की गम्भीरता, विषय की स्पष्टता तथा विश्लेषण की सूक्ष्मता मिलती है। आधुनिक हिन्दी आलोचकों एवं निबन्धकारों में आपका महत्त्वपूर्ण स्थान है। निश्चय ही वे हिन्दी गद्य साहित्य की महान् विभूति थे।

3. डॉ. विद्यानिवास मिश्र
[2008, 09, 11, 12]

  • जीवन-परिचय

विख्यात निबन्धकार डॉ. विद्यानिवास मिश्र का जन्म गोरखपुर जिले के पकड़डीहा ग्राम में 14 जनवरी, 1926 में हुआ था। अपनी प्रारम्भिक शिक्षा ग्राम में ही अर्जित कर आप उच्च शिक्षा के अध्ययन हेतु इलाहाबाद चले गये। वहाँ संस्कृत में एम. ए. करने के पश्चात् गोरखपुर विश्वविद्यालय से पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त की। कुछ समय तक आपने उत्तर प्रदेश तथा विध्य प्रदेश के सूचना विभागों में कार्य किया। इसके बाद गोरखपुर तथा आगरा विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया। आप क. मुं. हिन्दी एवं भाषा विज्ञान विद्यापीठ, आगरा के निदेशक रहे। काशी विद्यापीठ तथा सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालयों के कुलपति नियुक्त हुए। भारत सरकार ने आपको पद्म भूषण की उपाधि से अलंकृत किया। एक दुर्घटना में 14 फरवरी, 2005 को आपका निधन हो गया।

  • साहित्य-सेवा

प्रारम्भ से ही साहित्यिक अभिरुचि सम्पन्न विद्यानिवास मिश्र ने विविध प्रकार से हिन्दी साहित्य की सेवा की। साहित्य सृजन के साथ-साथ आप नवभारत टाइम्स समाचार पत्र के प्रधान सम्पादक रहे। आपने ‘साहित्य अमृत’ पत्रिका का सम्पादन किया। मिश्र जी हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, काशी नागरी प्रचारिणी सभा एवं नागरी प्रचारिणी सभा, आगरा आदि हिन्दी सेवी संस्थाओं से जुड़े रहे। आपने अमेरिका के वर्कले विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया। अन्तिम समय तक आप साहित्य सेवा में संलग्न रहे।

  • रचनाएँ

विद्यानिवास मिश्र का साहित्य बहुआयामी है। उनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं

  1. निबन्ध संग्रह-‘चितवन की छाँह’, कदम की फूली डाल’, ‘तुम चन्दन हम पानी’, ‘आँगन का पंछी और बनजारा मन’,’तमाल के झरोखे से’, ‘मैंने सिल पहुँचाई’, ‘हल्दी, दूब और अक्षत’, वसंत आ गया पर कोई उत्कण्ठा नहीं’, ‘कंटीले तारों के आर पार’ आदि।
  2. आलोचना-साहित्य की चेतना।।
  3. संस्मरण-अमरकंटक की सालती स्मृति।

इसके अतिरिक्त ‘पानी की पुकार’ (कविता संग्रह), ‘रीति विज्ञान’, हिन्दी शब्द सम्पदा आदि आपकी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं।

  • वये विषय

विद्यानिवास मिश्र ने शिक्षा, भाषा, राष्ट्रीयता, धर्म, जीवन आदि विषयों पर निबन्धों की रचना की है। इन निबन्धों में शास्त्र-ज्ञान तथा लोक जीवन का मणिकांचन योग दिखाई देता है। इनके निबन्धों में लोक जीवन तथा ग्रामीण समाज मुखरित हो उठा है। आपने स्थान-स्थान पर पौराणिक, ऐतिहासिक, साहित्यिक सन्दर्भ देकर विषय को समझाने का स्तुत्य प्रयास किया है।
आपने भावात्मक, विचारात्मक, समीक्षात्मक, संस्मरणात्मक आदि विविध प्रकार के निबन्ध लिखे हैं।

  • भाषा

मिश्र जी की भाषा में विषय के अनुसार विविधता परिलक्षित होती है। आपकी तत्सम प्रधान खड़ी बोली में तद्भव, विदेशी एवं देशज शब्दों को आवश्यकतानुसार अपनाया गया है। भाषा की ताजगी, उक्तियों का चमत्कार, भंगिमाओं की सुसज्जा ने आपके निबन्धों में सम्प्रेषणीयता का अद्भुत गुण पैदा कर दिया है। मिश्र जी भाषा के कुशल पारखी हैं। इसीलिए जिस स्थान पर जो शब्द आना चाहिए वही प्रयोग हुआ है।

• शैली
मिश्र जी ने विषयानुरूप शैली के विविध रूप अपनाये हैं

  1. भावात्मक शैली-मिश्र जी के ललित निबन्धों में इस शैली का प्रयोग हुआ है। भावुकता से परिपूर्ण होकर आप पाठक को अपने साथ बहाए ले जाते हैं। उसमें यत्र-तत्र गद्य काव्य का सा आनन्द अनुभव होता है।
  2. विचारात्मक शैली-विचार प्रधान गूढ़ गम्भीर विषय का विवेचन इस शैली में किया गया है। इस शैली के वाक्य कुछ लम्बे हो गए हैं किन्तु उनमें स्पष्टता का गुण विद्यमान रहता है।
  3. समीक्षात्मक शैली-आलोचनात्मक रचनाओं में इस शैली के दर्शन होते हैं। इस शैली की भाषा तत्सम प्रधान शुद्ध साहित्यिक हो गई है।
  4. विश्लेषणात्मक शैली-विषय का विश्लेषण करते समय इस शैली का प्रयोग किया गया है। इस शैली की भाषा सरल, सुबोध तथा स्पष्ट होती है।
  5. उद्धरण शैली-मिश्र जी अपनी बात को स्पष्ट करने तथा पुष्ट करने के लिए शास्त्र आदि से उद्धरण देना नहीं भूलते हैं। लोक जीवन के उदाहरण देकर आप कथन को सहज सम्प्रेष्य बना देते हैं।

इसके अतिरिक्त व्यंग्यात्मक, वर्णनात्मक, चित्रात्मक आदि शैलियों का प्रयोग मिश्र जी की रचनाओं में हुआ है।

  • साहित्य में स्थान

मिश्र जी के व्यक्तिपरक निबन्धों में ललित अनुभूति के साथ लोक जीवन के अनुभव मिलकर एक नवीन गरिमा का सृजन करते हैं। व्यक्ति व्यंजक निबन्धों के लेखक के रूप में मिश्र जी की छवि अद्वितीय है। निबन्धकार, समीक्षक, भाषाविद् एवं विचारक के रूप में मिश्र जी की हिन्दी जगत् में एक विशिष्ट पहचान रही है।

4. श्रीराम परिहार
[2008]

  • जीवन-परिचय

ललित निबन्धकार डॉ. श्रीराम परिहार का जन्म 16 जनवरी, 1952 को मध्य प्रदेश के खण्डवा जिले के केकरिया ग्राम में हुआ। आपको अपने किसान पिता श्री देवाजी परिहार का भरपूर प्यार मिला। आपकी माता जी श्रीमती लखूदेवी से आपको लोक संस्कारों और लोकगीतों के सरस वातावरण का आनन्द प्राप्त हुआ। गाँव में प्रकृति के उन्मुक्त परिवेश में ही आपका बचपन पुष्ट हुआ। आपने स्नातकोत्तर स्तर तक शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। वर्तमान में मध्य प्रदेश शासन की उच्च शिक्षा महाविद्यालयीन सेवा में कार्य कर रहे हैं। आप श्री नीलकण्ठेश्वर महाविद्यालय, खण्डवा में हिन्दी विभाग में प्राध्यापक एवं अध्यक्ष पद सँभाले हुए हैं।

  • साहित्य-सेवा

गाँव के मनोरम प्राकृतिक परिवेश में माता के लोक गीतों तथा लोक-संस्कारों से प्रभावित श्रीराम परिहार की प्रारम्भ से ही साहित्य के प्रति गहरी रुचि रही है। लोक संस्कृति में रचे-बसे परिहार के लेखन पर भी इसका प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। आपकी सेवाओं को ध्यान में रखकर अनेक साहित्यिक संस्थाओं ने आपको सम्मानित किया है। आप वागीश्वरी पुरस्कार, ईसुरी पुरस्कार, दुष्यन्त कुमार राष्ट्रीय अलंकरण जैसे सम्मानों से अलंकृत हो चुके हैं।

  • रचनाएँ

अब तक आपकी 11 रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं तथा लगभग पचास शोध आलेख विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं

  1. ललित निबन्ध संग्रह-‘आँच अलाब की’, ‘अँधेरे में उम्मीद’, ‘धूप का अवसाद’, ‘बजे तो बंसी गूंजे तो शंख’, ‘ठिठके पल पाँखुरी पर’, ‘रसवन्ती बोलो तो’, ‘झरते फूल हरसिंगार के’, ‘हंसा कहो पुरातन बात’।
  2. समीक्षा-रचनात्मकता और उत्तर परम्परा।
  3. लोक साहित्य-कहे जनसिंगा।
  4. नवगीत संग्रह-चौकस रहना है।
  5. सम्पादन-‘अक्षत’ पत्रिका का सम्पादन।

MP Board Solutions

  • वर्ण्य विषय

भारतीय संस्कृति के प्रति गहरी आस्था रखने वाले श्रीराम परिहार के साहित्य में लोक जीवन एवं लोक-संस्कारों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति मिलती है। आपने अतीत एवं वर्तमान के विविध संदर्भो को अपनी लेखनी का विषय बनाया है। आप विषय से अन्तरंगता रखते हुए लिखते हैं। यही कारण है कि पाठक उसके साथ बँधा हुआ रहता है।

  • भाषा

श्रीराम परिहार की भाषा तत्सम प्रधान खड़ी बोली है जिसमें तद्भव, देशज एवं विदेशी शब्दों को भी यथास्थान लिया गया है। वाक्य रचना सहज एवं सरल है। लक्षणा एवं व्यंजना के पुट भी स्थान-स्थान पर देखे जा सकते हैं। भाषा में दुरूहता या उबाऊपन का नितान्त अभाव है। आपकी भाषा में सम्प्रेषण की अद्भुत क्षमता विद्यमान है।

  • शैली

परिहार जी ने प्रमुखतः ललित शैली को अपनाया है। उनकी शैली के विविध रूप निम्न प्रकार हैं

  1. भावात्मक शैली-श्रीराम परिहार सांस्कृतिक भावानुभूतियों से परिपूर्ण रचनाकार हैं। लालित्य से युक्त आपके निबन्धों में ललित शैली का प्रयोग हुआ है। आपकी रचनाओं में भाव प्रधानं स्थलों पर भावात्मक शैली का सौन्दर्य देखा जा सकता है।
  2. आलंकारिक शैली-परिहार जी अपने निबन्धों में अवसर के अनुरूप अलंकारों का बड़ा स्वाभाविक प्रयोग करते हैं। आपकी आलंकारिक शैली में पाठक के हृदय का स्पर्श करने की भी शक्ति मौजूद है।
  3. चित्रात्मक शैली-श्रीराम परिहार शब्द-चित्र उकेरने में बड़े चतुर हैं। इस शैली के रचित अंश पाठक के मनपटल पर चित्र अंकित कर देते हैं। इसके अतिरिक्त तरंग शैली, प्रवाह शैली, समीक्षात्मक आदि शैली रूप भी आपकी रचनाओं में उपलब्ध हैं।
  • साहित्य में स्थान

परिहार जी ने अपनी लेखनी की क्षमता से हिन्दी साहित्य को अनूठी रचनाएँ प्रदान की हैं। वर्तमान के ललित निबन्धकारों में आपका सम्मानजनक स्थान है। हिन्दी साहित्य को आपसे अनेक अपेक्षाएँ हैं।

5. जयशंकर प्रसाद
[2008, 09, 14]

  • जीवन-परिचय

युग-प्रवर्तक जयशंकर प्रसाद का जन्म वाराणसी के प्रसिद्ध सुघनी साहू नामक वैश्य परिवार में 30 जनवरी, सन् 1889 ई. को हुआ था। उनके पिता का नाम देवीप्रसाद था। प्रसाद जी की बाल्यावस्था में ही उनके माता-पिता का देहान्त हो गया था। सत्रह वर्ष की अवस्था में बड़े भाई की भी मृत्यु हो गयी। इस कारण सारे परिवार का बोझ इन पर ही आ पड़ा। पिता की मृत्यु के बाद गृह-कलह आरम्भ हुआ तथा पैत्रिक व्यवसाय को इतनी अधिक हानि पहुँची कि वैभव सम्पन्न सुघनी साहू परिवार ऋण के भार से दब गया।

प्रसाद जी की प्रतिभा इन सभी संकटों के बीच भी अपना आलोक फैलाने लगी। प्रसाद जी ने साहस, आत्मविश्वास, योग्यता तथा लगन के साथ अपने गिरे हुए व्यवसाय को सँभाला। अपने परिवार को प्रतिष्ठा प्रदान की तथा लाखों रुपये के ऋण से भार-मुक्त हुए। प्रसाद जी ने अपने घर पर ही वेद, पुराण, इतिहास, दर्शन, संस्कृत, अंग्रेजी, हिन्दी, फारसी का गहन अध्ययन किया। इन्होंने तीन शादियाँ की, किन्तु तीनों ही पत्नियों की असमय मृत्यु हो गयी। 15 नवम्बर, सन् 1937 में 48 वर्ष की अल्प आयु में ही यह सरस्वती-पुत्र इस संसार से सदैव के लिए विदा हो गया।

  • साहित्य-सेवा

प्रसाद जी को बाल्यकाल से ही कविता से प्रेम था। उनके साहित्यिक जीवन में साधु का सा मौन विद्यमान था। प्रारम्भ में वे ‘कलाधर’ नाम से ब्रजभाषा में कविताएँ करते थे। बाद में उन्होंने खड़ी बोली में रचनाएँ की। प्रसाद जी ने सन् 1906 में हिन्दी साहित्य के सृजन का कार्य प्रारम्भ किया। उनकी रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। प्रसाद जी ‘इन्दु’ नामक मासिक-पत्र में निरन्तर रचनाएँ प्रकाशित कराते रहे। प्रसाद जी ने नाटक, कहानी, उपन्यास, निबन्ध, मुक्तक काव्य एवं प्रबन्ध काव्य सभी रूपों में हिन्दी साहित्य की अभिवृद्धि की। आपने गम्भीर निबन्ध लिखकर अपने गहन अध्ययन, पाण्डित्य और सूक्ष्म विवेचन-शक्ति का परिचय दिया।

  • रचनाएँ

प्रसाद जी ने अपने छोटे से साहित्यिक जीवन में विविध विषयों पर ग्रन्थ लिखे। उनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं

  1. निबन्ध-‘काव्यकला और अन्य निबन्ध।’ इन निबन्धों में प्रसाद जी का साहित्य सम्बन्धी दृष्टिकोण और गम्भीर चिन्तक रूप प्रकट हुआ है।
  2. कहानी-संग्रह-प्रसाद जी की कहानियाँ-प्रतिध्वनि, छाया, आकाशदीप, आँधी तथा इन्द्रजाल कहानी संग्रहों में संकलित हैं। आपकी पुरस्कार, आकाशदीप, ममता आदि अनेक प्रसिद्ध कहानियाँ हैं।
  3. नाटक-प्रसाद जी ने स्कन्दगुप्त, अजातशत्रु, चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, राज्यश्री, जनमेजय का नागयज्ञ आदि ऐतिहासिक नाटकों की रचना की है।
  4. उपन्यास-कंकाल, तितली तथा इरावती (अधूरा) प्रसिद्ध उपन्यास हैं।
  5. काव्य-कामायनी महाकाव्य प्रसाद जी की सर्वश्रेष्ठ रचना है। लहर, आँसू, झरना आदि आपकी अन्य काव्य कृतियाँ हैं।
  • वर्य विषय

प्रसाद जी की प्रतिभा बहुआयामी थी। उन्होंने भारतीय संस्कृति, इतिहास, मानवीय मूल्य, ग्रामांचल आदि को अपनी लेखनी का विषय बनाया। उनकी नूतन व्यवस्थाएँ तथा अद्भुत विवेचनाएँ गहन विचारशीलता को उजागर करती हैं। आपने इतिहास तथा दर्शन का मधुर समन्वय किया है। मानव मनोवृत्तियों का सफल चित्रण उनके साहित्य की विशेषता है। भावों तथा कल्पना के योग से उन्होंने मोहक शब्द चित्र उकेरे हैं। नारी के प्रति सहानुभूति का भाव, राष्ट्रीयता, दार्शनिकता, प्रेम और सौन्दर्य आपके काव्य के प्रमुख तत्त्व हैं।

  • भाषा

सामान्यतःप्रसाद जी की भाषा शुद्ध एवं संस्कृतनिष्ठ है। उनकी भाषा में तत्सम शब्दावली का बाहुल्य है। संस्कृत शब्द होने के कारण कहीं-कहीं भाषा में क्लिष्टता आ गयी है, किन्तु स्वाभाविकता तथा प्रवाह भाषा में सदैव बना रहता है। एक-एक शब्द मोती की भाँति जड़ा हुआ है। खड़ी बोली में लालित्य और मधुरता लाने का श्रेय प्रसाद जी को ही है। भाषा भावों के अनुकूल है। ‘मुहावरों’ और ‘कहावतों’ को आवश्यकतानुसार साहित्यिक रूप देकर अपनाया गया है। प्रसाद जी की भाषा प्रांजल, प्रौढ़ और परिमार्जित है। विचारों की प्रौढ़ता, भाषा का प्रवाह, सुन्दर शब्द चयन, काव्योचित लालित्य, अर्थ गाम्भीर्य आदि उनकी भाषा की प्रमुख विशेषताएँ हैं। आपकी भाषा प्रसाद गुण युक्त है।

  • शैली

प्रसाद जी ने निबन्ध, कहानी आदि में विविध शैलियाँ अपनायी हैं-

  1. भावात्मक शैली-प्रसाद जी एक भावुक कवि थे। इसलिए गद्य में भी जहाँ कहीं भावपूर्ण स्थल आये हैं, वहाँ उनकी शैली भावात्मक है।
  2. चित्रात्मक शैली-प्रसाद जी ने जहाँ वस्तुओं, स्थानों और व्यक्तियों के शब्द चित्र उपस्थित किये हैं, वहाँ उनकी शैली चित्रात्मक हो गयी है।
  3. आलंकारिक शैली-कवि हृदय प्रसाद जी गद्य में भी अलंकारों का सहज प्रयोग किये बिना नहीं रहे हैं। अतः जहाँ अलंकार आये हैं, वहाँ उनकी शैली आलंकारिक हो गयी है। उनकी अलंकारपूर्ण शैली ने काव्यात्मक सौन्दर्य और सरसता की सृष्टि की है।
  4. संवाद शैली-प्रसाद जी ने उपन्यास, कहानी और नाटकों में संवाद शैली का प्रयोग किया है। नाटकों में ‘प्रसाद’ के संवाद अति प्रवाहपूर्ण हैं। उनके संवाद पात्रानुकूल एवं सरस हैं।
  5. वर्णनात्मक शैली-प्रसाद जी ने उपन्यास, कहानी आदि में जहाँ घटनाओं, वस्तुओं और व्यक्तियों का वर्णन किया है, वहाँ उनकी शैली वर्णनात्मक है। इस शैली में वाक्य छोटे हैं और भाषा सरल है।
  • साहित्य में स्थान

प्रसाद जी एक ऐसे पारस थे, जिसके स्पर्श से हिन्दी की अनेक विधाएँ कंचन बन गयीं। वे हिन्दी के मूर्धन्य कवि, नाटककार, उपन्यासकार, अद्वितीय कहानीकार एवं श्रेष्ठ निबन्धकार थे। प्रसाद जैसे महान् कलाकार को पाकर हिन्दी गौरवान्वित हो गयी और हिन्दी साहित्य प्रसाद के प्रसाद को पाकर धन्य हो उठा।

6. मालती जोशी
[2011, 15]

  • जीवन-परिचय

मालती जोशी का जन्म 4 जून, 1934 ई. को महाराष्ट्र के औरंगाबाद नगर के मध्यमवर्गीय मराठी परिवार में हुआ। आपने प्रारम्भिक तथा माध्यमिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद स्नातक किया और एम. ए. (हिन्दी) की परीक्षा उत्तीर्ण की। आपने अपने पारिवारिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए साहित्य सृजन का स्तुत्य कार्य किया। आपकी प्रारम्भ से ही साहित्यिक अभिरुचि रही। किशोरावस्था से ही कवि सम्मेलनों में आप बहुत चर्चित कवयित्री रहीं। कवयित्री, बाल साहित्यकार, कहानीकार आदि रूपों में आपने ख्याति प्राप्त की। आपकी रचनाएँ मराठी, कन्नड़, गुजराती तथा अंग्रेजी में अनूदित हुई हैं। आपको साहित्यकार के रूप में अनेक पुरस्कार, सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। रेडियो तथा दूरदर्शन पर आपकी कहानियों के नाट्य रूपान्तर प्रसारित होते रहे हैं। आप आज भी साहित्य सजन में संलग्न हैं।

  • साहित्य-सेवा

साहित्यिक रुचि सम्पन्न मालती जोशी ने प्रारम्भ में कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ के माध्यम से लोकप्रियता अर्जित की। तत्पश्चात् आपने बाल साहित्य, कहानी लेखन में पदार्पण किया। सन् 1969 में आपने बच्चों के लिए लिखना प्रारम्भ किया और खूब ख्याति प्राप्त की। आपकी प्रथम रचना सन् 1971 में ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित हुई। तब से अब तक यह क्रम निरन्तर चलता आ रहा है।

MP Board Solutions

  • रचनाएँ

मालती जोशी का लेखन बहुआयामी है। आपने मराठी तथा हिन्दी दोनों में साहित्य सर्जना की है। कवि, बाल साहित्य तथा कहानीकार के रूप में आपकी एक विशिष्ट पहचान है। श्रीमती जोशी की अनेक रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। आपकी हिन्दी तथा मराठी साहित्य की 32 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो मराठी कला संग्रह, दो उपन्यास, पाँच बाल कथा संग्रह, एक गीत संग्रह तथा शेष कहानी संग्रह हैं। श्रीमती जोशी के प्रमुख कहानी संग्रह-‘पाषाण युग’,’तेरा घर मेरा घर’, ‘पिया पीर न जानी’, ‘मोरी रंग दीनी चुनरिया’, ‘बाबुल का घर’ एवं ‘महकते रिश्ते’ हैं।

  • वर्ण्य विषय

भारतीयता में रची बसी मालती जोशी की कहानियों का संसार भी भारतीय परिवारों का जीवंत परिवेश रहा है। आपने जन-जीवन के विविध पक्षों को अपनी कहानियों में उभारा है। घर-परिवार के पारस्परिक सम्बन्ध, व्यवहार, स्वरूप आदि को आधार बनाकर सुश्री जोशी ने आनी बात कहने का सटीक प्रयास किया है। आधुनिक युग के बदलते परिवेश के कारण उभरने वाली परेशानियों को आपने सशक्त अभिव्यक्ति दी है। आपने मध्यमवर्गीय परिवारों की मानवीय संवेदनाओं और नारी मन के सूक्ष्म-स्पन्दनों को स्वाभाविकता के साथ प्रस्तुत किया है।

  • भाषा

श्रीमती मालती जोशी की भाषा आडम्बरों से मुक्त सहजता एवं संवेदनशीलता से परिपूर्ण है। आपकी भाषा में मुख्यतः तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है किन्तु आवश्यकता के अनुसार तद्भव, देशज और विदेशी शब्दों को भी स्थान मिला है। यत्र-तत्र लक्षणा और व्यंजना का पुट पाठक के मानस का स्पर्श करता है। मुहावरे, अलंकार आदि का प्रयोग भाषा को अधिक सम्प्रेषणीय बनाने में सहयोगी रहा है। वाक्य रचना सरल एवं सुस्पष्ट है।

  • शैली

मालती जोशी की कहानियों में विभिन्न शैली रूपों का प्रयोग हुआ है

  1. संवाद शैली-पात्रों के पारस्परिक कथोपकथनों के माध्यम से जब कहानी का विकास होता है तब संवाद शैली होती है। इस शैली के प्रयोग से आपकी कहानियों में सजीवता, स्वाभाविकता तथा प्रभावशीलता आ गई है।
  2. वर्णनात्मक शैली-जहाँ-जहाँ वर्णनों का सहारा लिया गया है, वहाँ वर्णनात्मक शैली है। श्रीमती जोशी की कहानियों में इस शैली का पर्याप्त प्रयोग हुआ है।
  3. विश्लेषणात्मक शैली-सुश्री जोशी की कहानियों में स्थान-स्थान पर विश्लेषण का सहारा लिया गया वहाँ यह शैली परिलक्षित होती है।

इसके अतिरिक्त आपने आत्मकथात्मक, भावात्मक, विवेचनात्मक, चित्रात्मक, आलंकारिक शैली रूपों का प्रयोग अपनी कहानियों में आवश्यकतानुसार किया है।

  • साहित्य में स्थान

अनुभूति और अभिव्यक्ति के विशिष्ट कौशल के कारण मालती जोशी की पहचान हिन्दी कहानीकारों में अलग ही है। आधुनिक युग के संवेदनशील कहानीकारों में उन्हें बड़े सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। वर्तमान कथाकारों में उनका विशिष्ट स्थान है।

MP Board Class 11th Hindi Solutions

MP Board Class 11th Special Hindi स्वाति कवि परिचय (Chapter 6-10)

MP Board Class 11th Special Hindi स्वाति कवि परिचय (Chapter 6-10)

11. भूषण
[2010]

  • जीवन-परिचय

सरस्वती के इस ओजस्वी पुत्र का असली नाम क्या था? इस समस्या का समाधान अभी तक नहीं हुआ है। चित्रकूट के सोलंकी राजा रुद्रराम ने उन्हें भूषण’ की उपाधि दी थी; जो आज उनकी पूर्णरूपेण सामाजिक उपाधि बनी हुई है।

MP Board Solutions

भूषण का जन्म कानपुर के पास तिकवाँपुर नामक गाँव में सन् 1613 ई. (संवत् 1670 वि.) में हुआ था। इनके पिता का नाम पं. रत्नाकर त्रिपाठी था। इनके अन्य भाई चिन्तामणि और मतिराम तथा नीलकण्ठ भी श्रेष्ठ कवि थे। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने खोज की है कि उनका नाम घनश्याम था। परन्तु काव्य जगत् में इनका नाम भूषण ही प्रसिद्ध है।

चित्रकूट के सोलंकी राजा के यहाँ से इन्हें शिवाजी महाराज का राजाश्रय प्राप्त हो गया। शिवाजी इनके एक छन्द ‘इन्द्र जिमि जम्भ पर’ को कई बार बड़ी तल्लीनता से सुनते रहे। इसके लिए उन्होंने भूषण को अठारह लाख स्वर्णमुद्राएँ और अठारह गाँव की जागीर देकर सम्मानित किया। भूषण को आश्रय देने वाले अन्य महाराज छत्रसाल थे। रीतिकालीन विलासितापूर्ण वातावरण में वीरता को स्वर देने वाले ओज गुण सम्पन्न इस कवि ने सन् 1715 ई. (संवत् 1772 वि.) में अन्तिम साँस ली।

  • साहित्य-सेवा व उद्देश्य

विलासी प्रवृत्ति के राजाओं के दरबार में रहने वाले कवियों ने अपने आश्रयदाताओं को सन्तुष्ट करने और उनकी तृप्ति के लिए नारी के अंग-प्रत्यंग के कामोद्दीपक चित्र अपनी कविता में उभारे। इस तरह रीतिकालीन इन कवियों ने कविता को वासना की वाहिका बनाया हुआ था तभी वीर रस की सशक्तवाणी लिए हुए महाकवि भूषण काव्यमंच पर उभर पड़े और उन्होंने अपनी ओजभरी वाणी में राष्ट्र गौरव की अनुभूति कराने वाला शंखनाद फूंक दिया। सम्पूर्ण राष्ट्रीयजनों ने उनके स्वर को सुना और भूषण के इस सिंहनाद ने भारत में राष्ट्रीय चेतना का स्वर फूंक दिया। \

काव्य का विषय-भूषण को काव्यशास्त्र पर विशेष अधिकार प्राप्त था। धर्म, दर्शन, इतिहास और भूगोल आदि विषयों का उन्हें व्यापक ज्ञान प्राप्त था। उनका ओजस्वी व्यक्तित्व, स्वाभिमान, निर्भीकता, जातीय गौरव एवं अन्याय के विरुद्ध विद्रोह की भावना से भरा हुआ था। उन्होंने भारतीय संस्कृति के महान रक्षक शिवाजी और छत्रसाल की वीरता का ओजस्वी वर्णन करके हिन्दी कविता की श्रीवृद्धि की।

  • रचनाएँ

भूषण की निम्नलिखित प्रसिद्ध रचनाएँ हैं

  1. शिवा-बावनी-इस रचना में महाराज शिवाजी के शौर्य का वर्णन किया गया है। इस रचना में ओज गुण की प्रधानता है।
  2. शिवराज भूषण-शिवराज भूषण रीतिकालीन प्रवृत्तियों से प्रभावित ग्रन्थ है। यह अलंकारवादी और लक्षण ग्रंथ के रूप में एक प्रसिद्ध रचना है।
  3. छत्रसाल दशक-छत्रसाल दशक में वीर छत्रसाल के यश और कीर्ति का गान किया गया है। इसमें उनके पराक्रम, वीरता एवं युद्ध कौशल का ओज गुण प्रधान शैली में बखान किया गया है।

उपर्युक्त के अतिरिक्त ‘भूषण हजारा’ और ‘भूषण-उल्लास’ नामक दो कृतियों को भी भूषण की रचनाओं के रूप में बताया गया है। लेकिन ये रचनाएँ अभी तक उपलब्ध नहीं हैं। महाकवि भूषण ने अपने युग की प्रचलित काव्यधारा के विपरीत काव्य-साधना की।

  • भाव-पक्ष

(1) वीर रस की अभिव्यक्ति-वीर रस के अन्यतम कवि भूषण की कविता का प्रतिपाद्य शिवाजी और छत्रसाल की वीरता ही है। भूषण के काव्य में वीर रस ने पूर्णता प्राप्त की है। शिवाजी को युद्धवीर और धर्मवीर के रूप में चित्रित करते हुए भूषण कहते हैं-

युद्धवीर-“साजि चतुरंग वीर रंग में तुरंग चढ़ि,
सरजा शिवाजी जंग जीतन चलत है।”
धर्मवीर-“राखी हिन्दुवानी हिन्दुवान को तिलक राख्यो,
अस्मृति पुरान राखे वेद विधि सुनी मैं।”

भूषण के काव्य में वीर रस की स्वाभाविक और सर्वांगीण अभिव्यक्ति हुई है। जिसे सुनकर या पढ़कर ही एक बार तो कायर व्यक्ति में वीरोचित उत्साह भर जाता है।

(2) अन्य रस-भूषण के काव्य में वीर रस के अतिरिक्त रौद्र, वीभत्स तथा भयानक आदि रसों की अभिव्यक्ति उत्कृष्ट रूप से देखी जा सकती है। भूषण ने भंगार रस प्रधान छन्दों की भी रचना की है, जो बेजोड़ है।

(3) युद्ध वर्णन में सजीवता-शिवाजी महाराज और छत्रसाल के आश्रय में काव्य रचना करने के कारण उन्हें युद्ध को अति निकट से देखने का भी मौका मिला। अत: कवि ने युद्ध में सेना का परिमाण, उसके द्वारा की गई मारकाट, एवं विजय पक्ष द्वारा पराजित पक्ष पर भय पैदा करने वाले प्रभाव का स्वाभाविक वर्णन किया है।

(4) राष्ट्रीय भावना-तत्कालीन परिस्थितियों में भारत एक हिन्दू राष्ट्र था। दिल्ली विदेशी अस्थायी शासन की प्रतीक बन चुकी थी। उस समय विदेशी शक्तियों ने भारत के हिन्दुत्व पर ही सीधा आक्रमण किया हुआ था। वे यहाँ से हिन्दुत्व और भारतीय राष्ट्रीय गौरव को मिटा देने देने पर तुले हुए थे। इधर शिवाजी और छत्रसाल जैसे वीर हिन्दुत्व प्रिय राष्ट्रवादी शासकों से भूषण जैसे राष्ट्रवादी कवि को कुछ उम्मीद थी। अतः भूषण को कहना पड़ा-“दिल्ली दल दाबि के दिबाल राखी दनी में।” शिवाजी रूपी महाकाल के धक्के से दिल्ली दलने’ की चुनौती भी दे दी गई। यह विचार ठीक वैसा ही लगता है जैसे भारतीय आजादी से पूर्व नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने ‘आजाद हिन्द फौज को दिल्ली चलो, दिल्ली दूर नहीं है’ का नारा दिया था। इस तरह भूषण के कवित्व में राष्ट्रीयता की सशक्त भावना उल्लसित है।

(5) आश्रयदाता की प्रशंसा-भूषण को हिन्दू राष्ट्रवादी राजा-महाराजाओं का आश्रय प्राप्त था। वे विलासी राजाओं के सख्त विरोधी थे। उन्हें तो राष्ट्रीय गौरव बाए रखने वाले राजाओं का आश्रय ही अभिप्रेय था। द्रष्टव्य है-

‘अब साहु कौ सराहों के सराहौं छत्रसाल कौ।”

  • कला-पक्ष
  1. विषयानरूप ब्रजभाषाका सशक्त स्वरूप-भषण की काव्यभाषा ब्रज है। उन्होंने अपने काव्य में विषय के अनुरूप ही ब्रजभाषा के सशक्त एवं श्रुति कटु पदावली का प्रयोग किया है। कवि ने वीर, रौद्र और भयानक रसों की व्यंजना के लिए कठोर ध्वनि वाली शब्दावली की भाषा को अधिक उपयुक्त समझा। उनकी भाषा में ओजत्व और वीरत्व विद्यमान है। द्रष्टव्य है ‘चकित चकत्ता चौकि-चौकि उठे बार-बार’ इत्यादि।
  2. मुहावरे और लोकोक्तियों का प्रयोग-भूषण ने अपने काव्य में मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग से उसमें सजीयता उत्पन्न कर दी है। औरंगजेब के लिए प्रयुक्त शब्दावली दर्शनीय है ‘सौ-सौ चूहे खाइ के बिलारी तप को बैठी।’
  3. अन्य भाषाओं के शब्दों का प्रयोग-भूषण ने अपनी काव्यधारा (ब्रज) के साथ अरबी, फारसी, बुन्देली आदि शब्दों का प्रयोग किया है। कहीं-कहीं खड़ी बोली का भी पुट मिलता है।
  4. अलंकार योजना-महाकवि भूषण अलंकारशास्त्र के पूर्णज्ञाता थे। उन्होंने उत्प्रेक्षा, यमक, श्लेष, सांगरूपक आदि अलंकारों का प्रयोग खूब किया है। युद्ध वर्णनों में भूषण ने वीरभावों की अभिव्यंजना के लिए अतिशयोक्ति अलंकार का प्रयोग किया है। देखिए“ऊँचे घोर मंदिर के अन्दर रहन बारी,
    ऊँचे घोर मंदिर में रहाती हैं।” 
  5. शैलीगत ओज और चित्रोपमता-भूषण ने वीर रस की अभिव्यंजना के लिए ओज और चित्रोपमता प्रधान शैली को अपनाया है। शैली में ध्वन्यात्मकता विद्यमान है। भूषण के काव्य में चमत्कार प्रदर्शन भी किया गया है।
  6. छन्द योजना-भूषण ने वीर रस के अनुकूल काव्य में कवित्त, छप्पय, सवैया और दोहा छन्दों का प्रयोग किया है।
  • साहित्य में स्थान

भूषण ने वीरत्व, ओजत्व एवं राष्ट्रीयत्व का सिंहनाद उस समय अपने काव्य में किया जब अधिकांशतः राजा लोग विलासिता में डूबे हुए थे। कविगण भी चाटुकार थे। भूषण ने उस युग में भारत राष्ट्र को अपने ओजस्वी स्वर से जगाने का प्रयास किया। भूषण और भूषण की लेखनी दोनों ही राष्ट्रीय जागरण के प्रतीक बन गए हैं। यही कवि भूषण निश्चय ही माँ भारत के भूषण हैं।

12. रामधारी सिंह ‘दिनकर’।
[2008, 09, 12, 14, 15, 16]

  • जीवन-परिचय

श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का जन्म बिहार के मुंगेर जनपद के सिमरिया घाट नामक गाँव में सन् 1908 ई. (संवत् 1965 वि.) में हुआ था। पटना विश्वविद्यालय से बी. ए. (ऑनर्स) किया। आप एक वर्ष मोकामा घाट के विद्यालय में प्रधानाचार्य रहे। सन् 1935 ई. में सब-रजिस्ट्रार के रूप में सरकारी नौकरी में आए। सन् 1942 ई. में ब्रिटिश सरकार के युद्ध प्रचार विभाग में आए और उपनिदेशक के पद पर रहे। बाद में, मुजफ्फरपुर कॉलेज में हिन्दी विभागाध्यक्ष रहे। आप सन् 1952 ई. से सन् 1963 ई. तक राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत राज्यसभा के सदस्य रहे। सन् 1964 ई. में भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति पद पर आपकी नियुक्ति हुई। हिन्दी साहित्य का यशस्वी ‘दिनकर’ सन् 1974 ई. (सं. 2031 वि.) में सदैव के लिए अस्त हो गया।

MP Board Solutions

  • साहित्य-सेवा

‘दिनकर’ जी ने भारत सरकार की ‘हिन्दी समिति’ के सलाहकार और आकाशवाणी में निदेशक के पद पर रहकर हिन्दी के उत्थान के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया। ‘दिनकर’ जी पर पं. रामनरेश त्रिपाठी की ‘पथिक’ और मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत-भारती’ रचनाओं का बड़ा प्रभाव पड़ा। ‘दिनकर’ जी प्रारम्भ से ही लोक के प्रति निष्ठावान, सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रति सजग और जनसाधारण के प्रति समर्पित कवि थे। इनकी कविताओं में राष्ट्रीयता की छाप सबसे अधिक है।

दिनकर ने काव्य और गद्य दोनों ही क्षेत्रों में सशक्त साहित्य का सृजन किया है। उनकी कविता हृदय को झकझोर डालती है। वर्तमान भारत की दलित आत्मा उनकी कविता में जाग उठी है। दिनकर अपनी रचनाओं के माध्यम से देशव्यापी जागरण का मंच ऊँचे स्तर का बना चुके हैं। उन्होंने अपनी कृतियों के ही माध्यम से भारतीय आर्य संस्कृति की पतितावस्था के प्रति असन्तुष्ट होकर क्रान्ति का बिगुल फूंक दिया। द्रष्टव्य है-

“क्रांतिधात्रि कविते जाग उठ, आडम्बर में आग लगा दे।
पतन, पाप, पाखण्ड जले, जग में ऐसी ज्वाला सुलगा दे।।”

ध्येय-उन्होंने हिन्दी साहित्य की सेवा द्वारा देश में समग्र परिवर्तन लाने के लिए सपना देखा था। वे चाहते थे कि भारतीय आर्य संस्कृति को जीवन्तता प्राप्त कराने वाले समर्पित काव्यकार, सचेतक आर्यजन सामूहिक रूप से पाखण्डों की कारा को तोड़ने का बीड़ा उठाएँ तो फिर यह राष्ट्र अवश्य ही अपने खोए हुए गौरव को प्राप्त कर सकेगा और विश्वगुरु की उपाधि को पुन: धारण करने में सक्षम होगा। भावी राष्ट्र के कंधे पर कवि के सपने को यथार्थ में बदल देने की जिम्मेदारी है।

उपाधियाँ/सम्मान-

  1. भारत गणराज्य के महामहिम राष्ट्रपति ने उनकी प्रतिभा और साहित्य सेवा के लिए उन्हें ‘पद्मभूषण’ की उपाधि से अलंकृत किया।
  2. दिनकर जी को ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया। इस पुरस्कार के लिए एक लाख रुपया दिया जाता है।
  • रचनाएँ

दिनकर जी की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-

  1. रेणुका,
  2. हुंकार,
  3. रसवन्ती,
  4. द्वन्द्वगीत,
  5. सामधेनी,
  6. कुरुक्षेत्र,
  7. रश्मिरथी,
  8. उर्वशी,
  9. परशुराम की प्रतिज्ञा।

इनके अतिरिक्त-प्रणभंग, बापू, इतिहास के आँसू, धूप और धुंआ, दिल्ली, नीम के पत्ते, नीलकुसुम, चक्रवात, ‘सीपी और शंख’, नए सुभाषित, कोयला और कवित्व’, आत्मा की आँखें, हारे को हरि नाम’, आदि रचनाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं।

  • भाव-पक्ष
  1. हिन्दी काव्य को नई धारा प्रदत्त-‘दिनकर’ जी ने काव्य को नई धारा प्रदान की। इन्होंने देश तथा समाज को अपने काव्य का विषय बनाया।
  2. शोषण के विरुद्ध स्वर-दिनकर जी ने अपने काव्य के द्वारा पूँजीपतियों और शासक वर्ग के अत्याचारों एवं शोषण का नग्न चित्रण किया है।
  3. मजदूरों और किसानों के प्रति सहानुभूति-‘दिनकर’ जी ने गरीबों, मजदूरों तथा किसानों के प्रति अपनी विशेष सहानुभूति को अपने गीतों के माध्यम से प्रकट किया है। भुखमरी, गरीबी, दासता के विरुद्ध वे क्रान्ति ला देना चाहते हैं।
  4. उत्साह और ओज-इनके काव्य का अध्ययन करने से पाठकों और श्रोताओं दोनों के हृदय में ओज और उत्साह के भावों की जागृति हो उठती है।
  5. राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत-‘दिनकर’ जी की कविताएँ राष्ट्रीय-भावनाओं से ओत-प्रोत हैं। उन्होंने गंगा, हिमालय और चित्तौड़ को सम्बोधित करते हुए राष्ट्रनेताओं, राष्ट्रसेवकों और जनसाधारण में आचरण की पवित्रता, अपने उद्देश्य के प्रति दृढ़ता और राष्ट्रीय हित में बलिदान की भावना भरने का आह्वान किया है। दिनकर जी आधुनिक युग के कवि हैं। इनके काव्य में ओज और उत्साह तथा क्रान्ति की भावना झलकती है।
  6. प्राचीन संस्कृति और नई प्रेरणा की झाँकी-दिनकर जी की कविताओं से नई प्रेरणा मिलती है। इसके साथ ही भारत की प्राचीन संस्कृति की निर्मल झाँकी झलकती है, जिसके प्रति हमारे अन्दर गौरव की भावना अपने आप ही उद्भुत हो उठती है।
  7. देशहित तथा लोककल्याण की भावना-‘दिनकर’ जी की कविताओं में देशहित और लोककल्याण के प्रयत्नों का पारावार लहराता है। आपकी कविताओं से नए भारत के निर्माण का एक नया सन्देश मिलता है।
  8. रस-दिनकर जी ने मुख्य रूप से वीर रस प्रधान कविताओं की रचना की है। परन्तु फिर भी कहीं-कहीं शान्त तथा श्रृंगार रस भी प्रयुक्त हुए हैं।
  • कला-पक्ष
  1. भाषा-दिनकर जी की भाषा शुद्ध खड़ी बोली है। वे अपनी भाषा में अधिकांश तत्सम शब्दों का प्रयोग करते हैं। उनका शब्द चयन अत्यन्त पुष्ट और भावानुकूल होता है। उनकी भाषा उनके विचारों का पूर्णरूपेण अनुगमन करती है। शब्दों की तोड़-मरोड़ और व्याकरण की अशुद्धियों से उनकी भाषा मुक्त है। इनक भाषा व्याकरण सम्मत है और अलंकारपूर्ण है। उसमें खड़ी बोली का निखरा रूप मिलता है।
  2. शैली-‘दिनकर’ जी की काव्य शैली ओज प्रधान है। उसमें सजीवता है। तन्मयता उनकी शैली की एक विशिष्ट विशेषता है।
  3. छन्द-‘दिनकर’ जी ने अपने काव्य में कवित्त, सवैया आदि प्राचीन अलंकारों को तो प्रयोग में लिया ही है, साथ ही कुछ नवीन छन्दों की भी अवतारणा की है। वे छन्द तुकान्त और अतुकान्त दोनों ही हैं।
  4. अलंकार-‘दिनकर’ जी की कविताओं में अलंकारों की घनी छटा नहीं दिखाई पड़ती है। उन्होंने उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास तथा श्लेष आदि अलंकारों का स्वाभाविक रूप से सहज ही प्रयोग किया है। अलंकारों के असहज प्रयोग के लिए उन्होंने सदैव विरुद्ध भाव ही अपनाया।
  • साहित्य में स्थान

दिनकर जी की प्रतिभा बहुमुखी है। वे अत्यन्त लोकप्रिय कवि हैं। भाव, भाषा तथा शैली सभी दृष्टियों से वे एक कुशल साहित्यकार हैं। वे अपने युग के प्रतिनिधि कवि हैं। उनकी भाषा में ओज, उनके भावों में क्रान्ति की ज्वाला और उनकी शैली में प्रवाह है। उनकी कविता में महर्षि दयानन्द की सी निडरता, भगत सिंह जैसा बलिदान, गाँधी की सी निष्ठा एवं कबीर की सी सुधार भावना एवं स्वच्छन्दता विद्यमान है। वे आधुनिक हिन्दी काव्य धारा के प्रतिनिधि कवि हैं।

13. कबीरदास
[2008]

  • जीवन-परिचय

कबीरदास जी निर्गुण काव्यधारा के ज्ञानमार्गी शाखा के कवि थे। उनका जन्म सन् 1398 ई. (सं. 1455 वि.) में हुआ था। उनकी रचनाओं से यह प्रतीत होता है कि इनके माता-पिता जुलाहे थे। जनश्रुति है कि वे एक विधवा ब्राह्मणी के परित्यक्त सन्तान थे। इनका पालन-पोषण एक जुलाहा दम्पत्ति ने किया था। इस नि:सन्तान जुलाहा दम्पत्ति नीरू और नीमा ने इस बालक का नास कबीर रखा।

MP Board Solutions

कबीर की शिक्षा विधिवत् नहीं हुई। उन्हें तो सत्संगति की अनंत पाठशाला में आत्मज्ञान और ईश्वर प्रेम का पाठ पढ़ाया गया। स्वयं कबीर कहते हैं-“मसि कागद छुऔ नहीं, कलम गहि नहिं हाथ।”

कबीर के गुरु का नाम स्वामी रामानन्द था और उन्होंने ‘राम’ नाम का गुरुमंत्र दिया। कबीर गृहस्थ भी थे। उनकी पत्नी का नाम लोई, पुत्र का नाम कमाल और पुत्री का नाम कमाली था। कबीरदास पाखण्ड और अंधविश्वासों के विरोधी थे। कहा जाता है कि काशी में मरने वाले स्वर्ग जाते हैं और मगहर में मरने पर नरक मिलता है। कबीर ने अनुभव किया है कि ‘जो काशी तन तजै कबीर रामहि कौन निहोरा।’ इसलिए कबीर अपने जीवन के अन्तिम दिनों में मगहर चले गए। इस प्रकार 120 वर्ष की आयु में सन् 1518 ई. (संवत् 1575 वि.) में इनका देहावसान हो गया।

  • साहित्य-सेवा

कबीरदास जी अशिक्षित थे लेकिन अद्भुत प्रतिभासम्पन्न थे। अचानक ही तन्मय होकर गा उठते थे। यही उनकी उच्चकोटि की कविता थी। उनकी इन रचनाओं को धर्मदास नामक प्रमुख शिष्य ने ‘बीजक’ नाम से संग्रह किया है और डॉ. श्यामसुन्दर दास ने कबीर की रचनाओं को ‘कबीर-ग्रन्थावली’ में संग्रहीत करके सम्पादित किया है। खुले आकाश के नीचे आस-पास खड़े व बैठे लोगों के बीच अपनी अनुभूति को अभिव्यक्त करना ही उनकी साहित्य सेवा थी।

उद्देश्य-समाज और कविता का सम्बन्ध अन्योन्याश्रित होता है। समाज से ही कविता अपना प्राणरस ग्रहण करती है। कविता में अपने समाज का यथातथ्य चित्रण होता है और उसका दिशा निर्देशन भी। यह दिशा निर्देशन समाज को अपेक्षाकृत समुन्नत बनाने के लिए कविता का सुधारात्मक आचरण काव्य की क्रान्ति-चेतना का भी पर्याय है। इनमें कबीर अग्रगण्य हैं। उन्होंने समाज के अन्तर्विरोधों को यथार्थ के स्तर पर अनुभव किया और सामाजिक परिवर्तन के लिए अपनी कविताओं में क्रान्ति का शंख फूंका। समाज व्याप्त पाखण्ड, बाहरी प्रदर्शन, विद्वेष और उन्माद को गहराई से अनुभव किया था। उन्होंने सामाजिक सुधार की बात तीक्ष्ण व्यंग्यात्मक लहजे में व्यक्त की थी। उनकी दो टूक सच्ची बात में उनके साहस एवं निर्भीक व्यक्तित्व को परखा गया। उन्होंने साफ स्पष्ट किया कि समाज में समरसता के लिए दया-भाव का विस्तार परमावश्यक है। इसी आधार पर हिन्दू-मुसलमान एक हो सकते हैं।

कबीर अपने काव्य सर्जना में इस उद्देश्य को पूरा करने में सफल हुए। परन्तु समाज सुधार और संक्रान्ति तो सतत् प्रक्रियाएँ हैं जो चलती रहती हैं।

  • रचनाएँ

कबीर की अभिव्यक्तियों को शिष्यों द्वारा तीन रूप में संकलित किया है-वे रूप हैं-
(1) साखी,
(2) सबद,
(3) रमैनी।

(1) साखी-कबीर ने जो अनुभव किया, उसे ‘साख’, नामक दोहा छंद में प्रसिद्धि प्राप्त हुई। “साखी आँखी ज्ञान की” कहकर कबीर ने अपनी भक्ति, आत्मज्ञान, सहज कल्याण एवं सदाचार सम्बन्धी विचारों को स्पष्ट किया है।
(2) सबद-गेय पद ‘सबद’ कहे गए हैं। इन सबदों में विषय की गम्भीरता है तथा संगीतात्मकता है। इनमें कबीर ने भक्ति भावना, समाज सुधार और रहस्यवादी भावनाओं का वर्णन किया है।
(3) रमैनी-रमैनी चौपाई छंद में हैं। इनमें कबीर का रहस्यवाद और दार्शनिकता प्रकट हुई है।

कबीर काव्य में कबीर की खरी अनुभूति है।

  • भाव-पक्ष
  1. निर्गुण ब्रह्मोपासना-कबीर निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे। उनका उपास्य अरूप, अनाम, अनुपम सूक्ष्म तत्व हैं। इसे वे ‘राम’ नाम से पुकारते हैं। कबीर के ‘राम’ निर्गुण निराकार परमब्रह्म हैं। दशरथ के पुत्र ‘राम’ नहीं।
  2. उत्कष्ट प्रेम और भक्ति-कबीर ज्ञान की महत्ता में विश्वास करते हैं। उनकी कविता में स्थान-स्थान पर प्रेम और भक्ति की उत्कृष्ट भावना प्रदर्शित होती है। वे कहते हैं-“यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं।” इत्यादि। वे घोषणा करते हैं कि ‘ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पण्डित होय।’
  3. रहस्य भावना-आत्मा परमात्मा के विविध सम्बन्धों को जोड़कर आत्मा के परमात्मा से मिलन और अन्त में ब्रह्म में लीन हो जाने के भाव अपनी कविता में कबीर ने व्यक्त किए हैं।

द्रष्टव्य है-

  1. ‘राम मोरे पिऊ मैं राम की बहुरिया।’
  2. ‘दुलहिनी गावहु मंगलचार।
  3. म्हारे घर आए है राजा राम भरतार।’
  4. समाज-सुधार-सामाजिक जीवन में व्याप्त जाति-भेद, साम्प्रदायिकता, अंधविश्वास, पाखण्ड एवं आडम्बर और मूर्तिपूजा आदि को मिटाने के लिए कबीर की वाणी थोड़ी कर्कश हो उठी थी। उन्होंने पाखण्डियों और मौलवियों को खूब आढ़े हाथ लिया था। आज हम जिस हरिजन उद्धार और हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात करते हैं, वह तो मध्ययुग में ही शुरू हो गई थी। इन प्रयासों की शुरुआत तो क्रान्तिकारी युग द्रष्टा एवं समाज सुधारक कबीर कर चुके थे।
  5. नीति-उपदेश-कबीर ने समाजगत बुराइयों का खण्डन तो किया ही, लेकिन इसके साथ आदर्श जीवन के लिए नीतिपूर्ण उपदेश भी दिया। सत्य, तप और अहिंसा को जीवन के आधारभूत तत्व माना। धर्म के नाम पर की जाने वाली नरबलि या पशुवध को घृणित माना। अतिथि सत्कार, सन्तोष, दया, क्षमा, करुणा आदि के मूल तत्वों के रूप में प्रतिष्ठापित किए। कथनी करनी के समन्वय पर और सदाचारपूर्ण जीवन पर कबीर ने बल दिया। कर्म प्रधान गृहस्थ जीवन के महत्व को आँका।
  6. धर्मों के अभिन्नता-कबीर के काव्य में हमें इस्लाम के एकेश्वरवाद, भारतीय द्वैतवाद, योग साधना, बौद्धमत एवं वैष्णवों की शरणागत भावना तथा अहिंसा, सूफियों से प्रेम साधना आदि का समन्वित रूप देखने को मिलता है।
  7. रस निरूपण-कबीर के काव्य में काव्यानुभूति व्याप्त है। अतः रस का परिपाक उत्तम कोटि का है। शान्त रस की प्रधानता है। विमुक्त आत्मा का चित्रण एवं आत्मा-परमात्मा के मिलन में श्रृंगार भी इस शान्त रस का ही सहायक बन गया है।
  • कला-पक्ष
  1. अकृत्रिम भाषा की सामर्थ्य-कबीर की भाषा अपरिष्कृत है। उसमें कृत्रिमता का नाम भी नहीं है। स्थानीय बोलचाल के शब्दों की प्रधानता है। उसमें पंजाबी, राजस्थानी, उर्दू, फारसी आदि भाषाओं के शब्दों के प्रयोग विकृत स्वरूप में प्रयोग किए गए हैं जिससे भाषा में विचित्रता आ गई है। कबीर की भाषा में भाव प्रकट करने की सामर्थ्य विद्यमान है। इनकी भाषा को पंचमेल खिचड़ी अथवा सधुक्कड़ी भी कहा गया है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने तो कबीर को भाषा का ‘डिक्टेटर’ बताया है। भाषा का शिथिल स्वरूप है। परन्तु काव्यानुभूति उच्चकोटि की है।
  2. सहज निर्द्वन्द्व शैली-कबीर ने काव्य में सहजता, सजीवता और निर्द्वन्द्वता अपनाई है। काव्य में विरोधाभास, दुर्बोधता एवं व्यंग्यात्मकता का तीखापन मौजूद है। कबीर की भाषा में गतिशीलता और प्रवाह है।
  3. अलंकार-कबीर के काव्य में स्वभावतः अलंकारिता आ गई है। उपमा, रूपक, रूपकातिश्योक्ति, सांगरूपक, अन्योक्ति, उत्प्रेक्षा, विरोधाभास आदि अलंकारों की प्रचुरता है।
  4. छन्द-कबीर की साखियों में दोहा छन्द का प्रयोग है। ‘सबद’ पद है तथा ‘रमैनी’ चौपाई छन्दों में मिलते हैं। ‘कहरवा’ छन्द भी उनकी रचनाओं में प्राप्य है। इन छन्दों का प्रयोग सदोष ही है।
  • साहित्य में स्थान

कबीर समाज सुधारक एवं युगनिर्माता के रूप में सदैव स्मरण किए जायेंगे। उनके काव्य में निहित सन्देश और उपदेश के आधार पर नवीन समन्वित एवं सन्तुलित समाज की संरचना सम्भव है।

MP Board Solutions

14. अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

  • जीवन-परिचय

अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ खड़ी बोली की कविता के प्रतिनिधि कवि हैं। इनका जन्म सन् 1865 ई. में निजामाबाद, जिला आजमगढ़ में हुआ था। इनके पिताजी का नाम पण्डित भोलासिंह उपाध्याय और माता का नाम रुक्मणि देवी था। इनके चाचा ब्रह्मसिंह ज्योतिषी और उच्चकोटि के विद्वान थे। इनकी शिक्षा फारसी के माध्यम से प्रारम्भ हुई। इन्होंने मिडिल तथा नॉर्मल परीक्षाएँ उत्तीर्ण करके काशी में क्वीन्स कॉलेज में प्रवेश लिया, परन्तु अस्वस्थ होने के कारण अध्ययन छुट गया। परन्तु स्वाध्याय से ही इन्होंने अंग्रेजी, फारसी आदि का अच्छा ज्ञान और भाषा पर अधिकार प्राप्त कर लिया।

प्रारम्भ में आप निजामाबाद के मिडिल स्कूल में अध्यापक नियुक्त हुए। पाँच वर्ष बाद कानूनगो के पद पर नियुक्त हुए। इन्होंने सन् 1932 ई. में इस पद से अवकाश ग्रहण कर लिया और निजामाबाद में ही रहने लगे। सन् 1947 ई. में इनका निधन हो गया।

हिन्दी जगत् ने आपको ‘कवि सम्राट’ और ‘साहित्य वाचस्पति’ की उपाधियों से विभूषित किया।

  • साहित्य-सेवा

अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने पौराणिक प्रसंगों को अपनी कविता का आधार बनाया है। उन्होंने अपने समय के उपेक्षित और शोषित नारी समाज के उत्थान हेतु पौराणिक चरित्र राधा को आधार बनाया है। उनके प्रिय प्रवास की राधा विरहिणी होकर भी समाज सेवा में संलग्न है। वे अपने सेवा कर्म से सम्पूर्ण बृज का दुःख बाँटती हैं।

उद्देश्य-‘हरिऔध’ ने श्रीकृष्ण को एक महापुरुष मानकर मानवीय रूप में प्रस्तुत करके समाज के हित और कल्याण के कार्यों में संलग्न होने के लिए लोगों को प्रोत्साहित किया। साथ ही, राधा के स्वरूप में समाज सेवा में निरत रहकर नारी उत्थान की कल्पना को साकार किया है। शोषित और बन्दिनी बनी नारी को शोषण से मुक्ति दिलाने, उसे पुरुष-प्रधान समाज में समानता का अधिकार प्राप्त कराने के लिए विविध उपायों को निर्दिष्ट करना ही कवि का समग्रतः उद्देश्य रहा है। समाज के प्रत्येक सदस्य के सुख-दुःख में सहभागी बनने की प्रेरणा देना ही मुख्य ध्येय रहा है कवि हरिऔध का।

  • रचनाएँ

हरिऔध जी की निम्नलिखित रचनाएँ हैं

  1. ‘प्रिय-प्रवास’-खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य है। इस पर इन्हें मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था।
  2. ‘वैदेही वनवास’-इस महाकाव्य का विषय राम के राज्याभिषेक के बाद सीता के वनवास की करुणा प्रधान गाथा है।
  3. पारिजात’-स्फुट गीतों का क्रमबद्ध संकलन है। इन गीतों में मानव जीवन के विविध रूपों की झाँकी प्रस्तुत की है।
  4. ‘चुभते चौपदे’,
  5. चोखे चौपदे’,
  6. बोलचाल-ये सभी साधारण भाषा में लिखित प्रभावशाली स्फुट काव्य संग्रह हैं।
  7. ‘रस-कलश’ भी ब्रजभाषा के छन्दों का संकलन है।

इनके अतिरिक्त ‘अधखिला फूल’, ‘ठेठ हिन्दी का ठाठ’ (उपन्यास), रुक्मणी परिणय’ (नाटक), हिन्दी भाषा और साहित्य का विकास’ आदि प्रमुख रचनाएँ हैं। अंग्रेजी, बंगला आदि भाषाओं की कृतियों के अनुवाद भी किए हैं। ‘कबीर वचनावली’ नाम से कबीर काव्य का संग्रह किया है।

  • भाव-पक्ष
  1. वर्णन के विविध विषय-‘हरिऔध’ के काव्य की पहली विशेषता है वर्ण्य विषय की विविधता। इन्होंने प्राचीन आख्यानों को वर्तमान युग की नाना समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है।
  2. प्राचीन कथानकों में नवीनताएँ-हरिऔध जी ने अपनी कल्पना शक्ति के आधार पर पात्रों के चरित्रों में स्वाभाविकता का निरूपण किया है।
  3. लोक सेवा का महान सन्देश-‘हरिऔध’ जी के सम्पूर्ण काव्य में लोकमंगल का स्वर सर्वत्र मुखरित हुआ है। प्रिय-प्रवास’ की राधा कहती है-“आज्ञा भूलूँ न प्रियतम की विश्व के काम आऊँ।”
  4. सजीव प्रकृति चित्रण-हरिऔध जी ने प्रकृति का आलम्बन स्वरूप में चित्रण किया है। साथ ही प्रकृति में संवेदनशीलता, उपदेशिका और उसका उद्दीपन भाव आदि का निरूपण किया है।
  5. रस-योजना-हरिऔध के काव्य में सरसता एवं मार्मिक व्यंजना विद्यमान है। आपके काव्य में वात्सल्य, वियोग, शृंगार के हृदयस्पर्शी चित्र चित्रित हैं। साथ ही-‘वैदेही वनवास’ में तो करुण रस की प्रधानता मिलती है। समग्र रूप से देखा जाय तो कवि ने विविध रसों का प्रयोग अवस्था चित्रण में किया है।
  • कला-पक्ष
  1. भाषा वैविध्य-‘हरिऔध’ ने अपने काव्य में भाषा के विविध रूपों का सफल प्रयोग किया है। इनके काव्य में भाषा कोमलकान्त पदावली से युक्त ब्रजभाषा है। उसका माधुर्य सर्वत्र छलक पड़ता है। इनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली है। उर्दू शब्दों की भरमार भी है। मुहावरों का प्रयोग करके भाव को गम्भीर बना दिया है। शुद्ध सरल खड़ी बोली तथा भोजपुरी में काव्य रचना करना कवि के विशेष भाषा अधिकार को व्यक्त करता है। अभिधा, लक्षणा, व्यंजना आदि शक्तियों तथा ओज, माधुर्य और प्रसाद गुणों से युक्त हरिऔध की भाषा अत्यन्त समृद्ध है।
  2. शैली के विविध रूप-हरिऔध जी ने आलंकारिक और चमत्कारपूर्ण शैली, व्यंग्य, विनोद प्रधान शैली को अपनाया है जिसमें मुहावरेदार उर्दू का सौष्ठव विशेष आकर्षण की वस्तु है।
  3. अलंकार-हरिऔध जी ने अपने काव्य में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, सन्देह, यमक, अपहृति, वीप्सा, पुनरुक्तिप्रकाश का प्रयोग किया है।
  4. छन्द-हरिऔध ने अपने से पूर्व प्रचलित-कवित्त, सवैया, छप्पय, दोहा आदि छन्दों का सफल प्रयोग किया है। इनके अतिरिक्त संस्कृत के वर्णवृत्तों में अतुकान्त छन्द योजना अपनाई है।
  • साहित्य में स्थान

हरिऔध जी ने खड़ी बोली को सफल काव्य भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करके आधुनिक हिन्दी कविता की सशक्त नींव रखी। साथ ही इन्होंने दो महाकाव्यों का सृजन अतुकान्त छन्दों में किया। उन्हें ‘कवि सम्राट’ और ‘साहित्य वाचस्पति’ आदि उपाधियों से सम्मानित किया गया। वे अनेक साहित्यिक सभाओं और हिन्दी साहित्य सम्मेलनों के सभापति भी रहे। इनकी साहित्यिक सेवाओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। निःसन्देह, हरिऔध जी हिन्दी साहित्य की एक महान विभूति हैं। उन्हें साहित्य जगत् सदैव स्मरण करता रहेगा।

15. केशवदास

  • जीवन-परिचय

केशवदास रीतिकाल के आचार्य कवि हैं। केशव ने ही हिन्दी में संस्कृत की परम्परा की व्यवस्थापूर्वक स्थापना की थी। इस महान और उच्चकोटि के विद्वान का जन्म संवत् 1612 वि. के लगभग हुआ था। ये दरबारी कवि थे। इन्हें ओरछा नरेश महाराजा रामसिंह के दरबार में विशेष आदर सम्मान प्राप्त था।

विद्वान कवि-केशवदास संस्कृत के बड़े पंडित थे। आधुनिक युग के पूर्व तक संस्कृत की परम्परा का हिन्दी में अनुगमन होता आया है। इनकी कविता बहुत गूढ़ होती थी। इसी से प्रसिद्ध देवकवि ने उन्हें कठिन काव्य का प्रेत’ कहा है। इनकी कविता के विषय में यहाँ भी प्रसिद्ध है कि

“कवि का दीन न चहै विदाई, पूछ केशव की कविताई।।”

  • साहित्य-सेवा

रीति ग्रंथ रचना का श्रेय-रीति ग्रंथों की रचना इनके कवि रूप में आविर्भाव से पूर्ण भी होती रहीं। परन्तु जिस तरह के व्यवस्थित और समग्र ग्रंथ इन्होंने प्रस्तुत किए, वैसे अन्य कोई कवि रीति ग्रंथ प्रस्तुत करने में सफल नहीं हुआ।

कविता जीवन की अभिव्यक्ति-कविता जीवन की अभिव्यक्ति है। कविता जीवन के विस्तार को अपनी संक्षिप्तता में बाँधकर जीवन व्यवहार के अनेक प्रसंग, उसमें मानवीय भाव, चेतना के आधार बिन्दु बन जाते हैं। आस्था, विश्वास, श्रद्धा और स्नेह जैसे भाव मानवीय व्यवहार को सार्वभौमिक और सर्वकालिक स्वीकृतियाँ देने वाले हैं। कविता इन्हीं जीवन मूल्यों से अपने ताने-बाने बुनती है। केशवदास जी ने जीवन मूल्यों को महत्व देते हुए अपने काव्य ग्रन्थों की रचना की; जिनमें मानव जीवन ही पूर्णतः मुखरित हुआ है।

काव्य का उद्देश्य-कविता का लक्ष्य मनुष्यत्व को प्राप्त करने में निहित है। इसलिए कविता में मानवीय चेतना के विस्तार के अवसर सदैव उपस्थित होते रहते हैं। आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक सभी कवियों ने मानव मूल्यों को अनेक तरह से अपनी कविता में (रचनाओं में) प्रस्तुत किया है। प्रायः प्रबन्ध काव्यों में जीवन दर्शन के अनेक पक्षों की अभिव्यक्ति उनके पात्रों के चरित्रगत संरचनाओं से प्राप्त होती है। केशव की रामचन्द्रिका में जीवन दर्शन को अभिव्यक्त करने के अनेक प्रसंग चरित रचनाओं में प्राप्त हो जाते हैं।

केशवदास की रामचन्द्रिका मानवीय व्यवहारों को अपने कथा विन्यास में समाहित किए हुए हैं।

  • रचनाएँ

केशवदास ने निम्नलिखित ग्रंथों की रचना की है

  1. रसिकप्रिया,
  2. कविप्रिया,
  3. रामचन्द्रिका,
  4. विज्ञान गीता,
  5. वीरसिंह देव चरित,
  6. जहाँगीर चन्द्रिका,
  7. नखशिखा,
  8. रत्न बावनी।

MP Board Solutions

इन रचनाओं में से चार-रामचन्द्रिका, कविप्रिया, रसिकप्रिया और विज्ञान गीता बहुत प्रसिद्ध हैं। जनश्रुति है कि रामचन्द्रिका का सृजन उन्होंने गोस्वामी तुलसीदास के कहने से किया। इनमें से रामचन्द्रिका महाकाव्य है।
केशवदास ने लक्षण ग्रंथ, प्रबन्ध काव्य, मुक्तक सभी प्रकार के ग्रंथों की रचना की है। रसिकप्रिया, कविप्रिया और छन्दमाला-उनके लक्षण ग्रंथ हैं।

  • भाव-पक्ष
  1. रस-केशव की रचनाओं में परिस्थिति और क्रियान्विति के आधार पर सभी रसों की निष्पत्ति हुई है। शृंगार वर्णन भी उच्चकोटि का है। वियोग और संयोग अपने सभी अंगों सहित पूर्णता को प्राप्त हुआ है। वीर रस की अनुभूति युद्धकाल और प्रतिद्वन्द्वियों के परस्पर संवादों में होती है। शान्त रस निर्वेद की दशा में, वीभत्स आदि की अनुभूति युद्ध स्थल पर होती है।
  2. अर्थ गाम्भीर्य-केशवदास जी द्वारा प्रयुक्त संवादों में प्रयुक्त शब्दावली अर्थ गाम्भीर्य से परिपूर्ण है।
  3. नीति तत्व-केशव दरबारी कवि थे। अत: वे अपने पात्रों के चरित्राङ्कन में नीति तत्त्व की प्रधानता को स्वीकार करते हैं। संवादों में निर्भीकता, युक्तियों का प्रयोग करके नैतिक मूल्यों की रक्षा का प्रयास भी किया गया है।
  • कला-पक्ष
  1. भाषा-केशव ने अपने ग्रंथों की रचना सामान्य काव्य की भाषा-ब्रजभाषा में की है। लेकिन कुछ रचनाओं पर संस्कृत भाषा का प्रभाव अधिक है। अत: केशव की रचनाओं में कुछ दुरूहता आ गई है। काव्य प्रवाह के अनुरूप भाषा सशक्त, समर्थ और प्रांजलता के गुण से युक्त है।
  2. शैली-केशवदास ने अपनी रचनाओं में प्रबंध शैली एवं मक्तक शैली को अपनाया है। अलंकार प्रधान शैली को केशव ने बहुत आगे बढ़ाया। शैली में व्यंग्यात्मकता अपनाई गई है।
  3. अलंकार-महाकवि केशवदास ने उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति आदि सभी अलंकारों का प्रयोग किया है।
  4. छन्द-केशवदास ने दोहा, कवित्त, सवैया, चौपाई, सोरठा आदि का प्रयोग किया है। अपनी सुविधानुसार अन्य नए छन्दों का प्रयोग भी किया है। क्योंकि केशवदास लक्षण ग्रंथों के रचयिता रहे हैं अतः उन्होंने छन्दों, शैली, भाषा प्रयोग, रस-निष्पत्ति आदि पर नए-नए प्रयोग किए हैं। रीतिबद्धता उनके सम्पूर्ण ग्रंथ साहित्य की विशेषता है।
  5. संवाद योजना-केशव की संवाद योजना अपनी प्रस्तुति में बेजोड़ है। रावण-अंगद के संवाद के माध्यम से संवादों की संक्षिप्तता, अर्थगर्मिता और उनकी मारक शक्तियों के साथ-साथ राजसी परिवेश को नीति – निपुणता तथा व्यक्ति की प्रत्युत्पन्न मति का भी परिचय प्रदान किया है। पात्र संवादों के माध्यम से परस्पर भावजगत की भी अभिव्यक्ति करते चलते हैं।
  • साहित्य में स्थान

केशवदास जी हिन्दी के प्रमुख आचार्य हैं। उनकी सभी रचनाएँ पूर्णतः शास्त्रीय हैं,रीतिबद्ध हैं। उच्चकोटि के रसिक होने पर भी वे पूरे आस्तिक थे। नीतिनिपुण, निर्भीक और स्पष्टवादी केशव की प्रतिभा सर्वतोमुखी है। अपने लक्षण ग्रंथों के लिए उन्हें हमेशा स्मरण किया जाएगा।

16. गिरिजा कुमार माथुर
[2009, 10]

  • जीवन-परिचय

श्री गिरिजा कुमार माथुर का जन्म सन् 1919 ई. (संवत् 1976 वि.) में मध्य प्रदेश के अशोक नगर में हुआ। उन्होंने हाईस्कूल की परीक्षा शासकीय हाईस्कूल, झाँसी से उत्तीर्ण की।

इण्टर तथा बी. ए. की परीक्षाएँ विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर (मध्य प्रदेश) से उत्तीर्ण की। एम. ए. की परीक्षा तथा एल. एल. बी. की उपाधि इन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से प्राप्त की। इन्होंने कुछ समय तक झाँसी में वकालत की परन्तु बाद में संवत् 2000 वि. में इन्होंने आकाशवाणी में नौकर कर ली।

  • साहित्य-सेवा

गिरिजा कुमार माथुर की गणना नई कविता के प्रमुख कवियों में की जाती है। आज के परिवेश में बदलती हुई परिस्थितियों, जटिलताओं और कुण्ठाओं से टकराने से आप कभी पीछे नहीं रहे। हमेशा आपने सामाजिक दायित्व बोध से प्रेरित संघर्ष चेतना को अपनाने पर बल दिया।

श्री गिरिजा कुमार ने सौन्दर्य बोध को सापेक्ष्य अनुभूति के साथ अपनाया है।

विषय व ध्येय-गिरिजा कुमार की प्रारम्भिक कविताएँ प्रणय और वैयक्तिक चेतना से प्रभावित थीं। धीरे-धीरे उनकी कविताओं में जीवन की विषमताओं का प्रभाव स्पष्ट होने लगा। मध्यमवर्गीय जीवन की कुण्ठा और नवीन सामाजिक चेतना उनके काव्य के मुख्य स्वर हैं। किन्तु प्रगतिवादी चौखटे को उन्होंने स्वीकार नहीं किया। इसीलिए उनकी बाद की रचनाओं में आशा और आस्था की अभिव्यक्ति स्पष्ट परिलक्षित होती है।

  • रचनाएँ

गिरिजा कुमार माथुर की निम्नलिखित प्रमुख रचनाएँ हैं

  1. मंजीर,
  2. नाश और निर्माण,
  3. धूप के धान,
  4. शिलापंख चमकीले,
  5. छायामत,
  6. छूनामन,
  7. कल्पान्तर,
  8. पृथ्वीकल्प।
  • भाव-पक्ष
  1. सरसता-गिरिजा कुमार माथुर आधुनिक युग के कवि हैं। इनकी कविता में सरसता
  2. रागात्मकता-इनकी कविता में रागात्मकता की विशेषता है। उनकी कविताओं को विशेष राग और ध्वनि में संगीतबद्ध किया जा सकता है।
  3. नई कविता-आप नई कविता के कवि हैं। छायावाद के उपरान्त प्रारम्भ में आधुनिक नई कविताओं में आपने सामयिक समस्याओं को उभारा है।
  4. प्रयोगवादी विचारधारा-आपकी कविता प्रयोगवादी विचारधारा की है और उसमें नए प्रयोग किये गए हैं।
  5. नवीन विचारधारा की प्रतिष्ठापना-गिरिजा कुमार माथुर ने अपनी कविता में नवीन विचारधारा को आगे बढ़ाया है तथा नया रूप प्रदान किया है। इसके लिए आपने प्राचीन विचारधारा को तोड़ा और मरोड़ा है।
  6. मानस जगत की अभिव्यक्ति-आपकी कविताओं में मनुष्य के मन की गहन व सूक्ष्म अनुभूतियों का उद्घाटन व विश्लेषण किया गया है।
  7. प्रेम और सौन्दर्य-माथुर जी प्रयोगवादी दृष्टिकोण के कवि हैं अत: प्रेम और सौन्दर्य को वर्ण्य विषय के रूप में स्वीकार किया।
  8. प्रकृति चित्रण-माथुर जी का प्रकृति चित्रण छायावादियों से कुछ भिन्न प्रकार का है।
  9. बुद्धि तत्व की प्रधानता-माथुर जी की कविता में बुद्धि तत्व की प्रधानता है। साथ ही भावानुभूति और भावाभिव्यक्ति को भी महत्व दिया।
  10. व्यंग्य की तीक्ष्णता-गिरिजा कुमार माथुर की कविता व्यंग्य की तीक्ष्णता से मन और मस्तिष्क तक चुभ जाती है।
  • कला-पक्ष
  1. भाषा-माथुर जी की भाषा में चित्र खींचने की अद्भुत शक्ति विद्यमान है। आपकी भाषा में विविधता है। भाषा में अन्य भाषाओं के शब्द भी प्रयुक्त हैं।
  2. यथार्थवादी चित्रण-माथुर जी की कविता में यथार्थवादी चित्रण किया गया है जो इनकी भाषा की सशक्तता को व्यंजित करता है। .
  3. बिम्ब और प्रतीक माथुर जी की कविता में दृश्य, स्पर्श एवं ध्वनि के साथ सार्थक प्रतीक बहुत मात्रा में उपलब्ध होते हैं।
  4. छन्द-छन्द प्रयोग के सन्दर्भ में आप पुरानी मान्यताओं के पीछे चलने वाले नहीं हैं। लोकधुनों का प्रयोग करके अपने गीतों की शोभा बढ़ाई है।
  5. अलंकार-माथुर जी ने अपनी कविता में पुराने अलंकारों को नए रूप में प्रयोग किया है। वे प्रायः मानवीकरण, ध्वन्यार्थव्यंजना एवं विशेषण विपर्यय आदि नए अलंकारों का प्रयोग करते हैं।
  6. शैली-आपकी शैली सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण है।
  • साहित्य में स्थान

गिरजा कुमार माथुर हिन्दी साहित्य के नई कविता के महत्त्वपूर्ण कवियों में से एक हैं। आपने “गागर में सागर” भरने का कार्य किया है। हिन्दी कविता में प्रयोग को आपने नई भाषा और शैली प्रदान की है। इसके लिए हिन्दी साहित्य जगत् आपका चिरऋणी है।

MP Board Solutions

17. दीनदयाल गिरि

  • जीवन-परिचय

दीनदयाल गिरि का जन्म काशी के साधारण ब्राह्मण परिवार में सन् 1802 ई. (संवत् 1859 वि.) में हुआ था। यह बालक (दीनदयाल गिरि) जब पाँच या छ: वर्ष का ही रहा होगा, उस समय इसके माता-पिता दोनों का ही निधन हो गया था। अल्पायु के इस बालक का पालन-पोषण महंत कुशगिरि ने किया। इन्होंने संस्कृत का विशेष ज्ञान प्राप्त किया और इस तरह अपने सतत् परिश्रम से संस्कृत और हिन्दी में उच्चकोटि का ज्ञान प्राप्त कर लिया। अपने सतत् अभ्यास से इन्होंने काव्यकला में कदम रखा और उच्चकोटि के कवियों में इनका नाम गिना जाने लगा।

दीनदयाल गिरि और भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के पिता श्री गिरधरदास-दोनों महानुभावों के मध्य गहरी मित्रता थी। दीनदयाल गिरि का देहावसान सन् 1915 ई. में हो गया, ऐसा बताया जाता है।

साहित्य-सेवा

दीनदयाल गिरि ने वसंत, ग्रीष्म, शरद आदि ऋतुओं पर, कोकिल, कौआ, हंस आदि पक्षियों पर, बादल, नदी, समुद्र आदि प्राकृतिक उपादानों पर, हाथी, करंग, अश्व आदि पशओं पर, पलाश-बबूल आदि वृक्षों पर जो अन्योक्तियाँ लिखी हैं, उनकी समानता हिन्दी साहित्य में मिलना कठिन है। यद्यपि दीनदयाल जी ने अन्य कवियों की रचनाओं में भी भाव ग्रहण किए हैं, लेकिन उनकी कविताओं में पूर्व के कवियों की अपेक्षा नूतन चमत्कार है, पूर्ण मौलिकता है। गिरि जी ने अपनी कुण्डलियों में विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से नीति सम्बन्धी बातें कही हैं।

उद्देश्य-काव्य से हमारे मनोलोक में भावों और विचारों के सतरंगी इन्द्रधनुष के निर्माण की प्रेरणा मिलती है। काव्य के माध्यम से ही सुख-दुःख, हर्ष-अमर्ष, प्रेम-घृणा आदि भावों का चित्रण होता है जिससे जीवन में सम्पूर्णता प्रकट होने लगें। काव्य के लिए भाव और भाषा अनिवार्य तत्व हैं। भाव काव्य की आत्मा है जबकि भाषा काव्य का शरीर है। जीवन के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण बनाए रखने के लिए, उसके विकास के लिए तथा आनन्द की सृष्टि के लिए काव्य का बड़ा महत्त्व है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही दीनदयाल गिरि ने अपनी काव्य कृतियों की रचना की।

  • रचनाएँ

दीनदयाल गिरि द्वारा रचित उनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं-

  1. दृष्टान्त तरंगिणी,
  2. विश्वनाथ नवरत्न,
  3. अनुराग वाटिका,
  4. अन्योक्ति कल्पद्रुम।
  • भाव-पक्ष
  1. भाव-दीनदयाल गिरि ने अपने अन्तर्मन से उठते द्वन्द्व को मन की भावभूमि के समतल पर तौलकर अत्यन्त बहुमूल्य नीति बताकर पाठकों को प्रेरित किया है।
  2. प्रतीक-विविध प्रतीकों के माध्यम से नीतिपरक उपदेश दे दिए गए हैं।
  3. रस-दीनदयाल गिरि की कविताओं में शान्त रस की ही निष्पत्ति हुई है।
  • कला-पक्ष
  1. भाषा-दीनदयाल गिरि की भाषा ब्रजभाषा है। ब्रजभाषा ने कवि के भावों को स्पष्टता देने में पूर्ण क्षमता दिखाई है। इनकी भाषा प्रसाद गुण से सम्पन्न है। माधुर्य रस की सम्पूर्ति हो रही है।
  2. मुहावरे लोकोक्तियाँ-दीनदयाल गिरि की भाषा में मुहावरे और लोकोक्तियाँ भी प्रयुक्त हैं, जो अपने गाम्भीर्य को बढ़ावा देती हैं।
  3. शैली-कवि ने व्यंग्य प्रधान शैली अपनाई है। प्रायः सम्पूर्ण काव्य ही व्यंग्य प्रधान है। कवि ने शब्दों की तोड़-मरोड़ जारी रखी है।
  4. व्यंग्यात्मक-कवि महोदय ने अपनी कविता को व्यंग्यात्मक बनाकर कविता को उच्चकोटि का बना दिया है।
  5. अलंकार-दीनदयाल गिरि की कविता में अलंकारों का प्रयोग स्वाभाविक रूप से ही हुआ है। उनका अन्योक्ति अलंकार अत्यन्त प्यारा है।
  • साहित्य में स्थान

दीनदयाल गिरि अपनी अनूठी काव्य शैली के लिए सदैव स्मरण किए जायेंगे।

18. दुष्यन्त कुमार त्यागी
[2008,09]

  • जीवन-परिचय

दुष्यन्त कुमार त्यागी का जन्म 1 सितम्बर, सन् 1933 ई. में हुआ। इन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से एम. ए. किया। इसके बाद कई वर्षों तक आकाशवाणी, भोपाल से सम्बद्ध रहे। आप भाषा विभाग, भोपाल में भी अधिकारी रहे। 30 दिसम्बर, 1975 ई. को अल्पायु में ही आपका निधन हो गया। इससे हिन्दी साहित्य को अपार क्षति पहुँची जिसे पूर्ण करना कठिन है।

  • साहित्य-सेवा

उद्देश्य-अत्याधुनिक काल में सामाजिक यथार्थ के चित्रण में दुष्यन्त कुमार की गजलों का अपना महत्वपूर्ण स्थान है। वे बिना लाग लपेट के अपने समय और अपने समाज की तीखी आलोचना करते रहे हैं। उनकी कविता में यथार्थ से जूझने की शक्ति है। वे मानते हैं कि परिस्थितियाँ यद्यपि अनुकूल नहीं हैं; किन्तु इसमें परिवर्तन की तो हमें हिम्मत जुटानी ही पड़ेगी। संकलित गजलों में उनका वह स्वर जीवन के प्रति गहन आस्था जगाने वाला है। अपने समय की भयावह स्थिति को व्यक्त करने वाली दुष्यन्त की इन गजलों में सामान्य-जन की पीड़ा और सामान्य-जन की जिजीविषा का प्रभावशाली भाषा में चित्रण किया गया है।

  • रचनाएँ

दुष्यन्त कुमार त्यागी द्वारा रचित उनकी कृतियाँ निम्नलिखित हैं
(1) काव्य संकलन-

  • सूर्य का स्वागत,
  • आवाजों के घेरे।

(2) गीति नाट्य-एक कण्ठ विषपायी।
(3) उपन्यास-

  • छोटे-छोटे सवाल,
  • आँगन में एक वृक्ष,
  • दुहरी जिन्दगी।
  • गजल संग्रह-साये में धूप।

दुष्यन्त कुमार त्यागी ने अपनी साहित्य सृजन की यात्रा सन् 1957 ई. में प्रारम्भ की और सन् 1975 ई. में ‘साये में धूप’ गजल संग्रह की सम्पूर्ति के साथ ही अपनी जीवन यात्रा को विराम दे दिया। अपार ख्याति प्राप्त दुष्यन्त जी अपनी कृतियों के साथ ही अमर हो गए हैं और युवा पीढ़ियों के लिए चिरन्तन प्रेरणा स्रोत बने हुए हैं।

  • भाव-पक्ष
  1. गहन व सूक्ष्म अनुभूतियाँ-दुष्यन्त कुमार जी की कविता में भाव की अनुभूति गहन और सूक्ष्म दोनों ही हैं। इन अनुभूतियों से व्यवहार पद्य को समझने में आसानी होती है। उनकी गजलें स्पष्ट कर देती हैं कि उनके ऊपर मनोविश्लेषणवाद का प्रभाव अवश्य ही रहा है।
  2. प्रेम और सौन्दर्य-इनकी गजलों में प्रेम और सौन्दर्य को धरती के ठोस धरातल पर प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।
  3. छायावादी रहस्यवाद-कवि के ऊपर बीते छायावादी युगीन रहस्यवाद का प्रभाव दिखाई पड़ता है।
  4. निराशा उद्विग्नता का भाव-कवि छायावादी लगता है जिसमें घोर निराशा भरने वाली भावना अपनी गजलों में प्रतीक बनकर उभरती है। द्रष्टव्य है“ऐसा लगता है कि उड़कर भी कहाँ पहुँचेंगे,
    हाथ में जब कोई टूटा हुआ ‘पर’ होता है।”
    तथा “गजब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते,
    वो सब के सब परेशां हैं, वहाँ पर क्या हुआ होगा।”
    कवि यथार्थ की अनुभूति के भय से भी टूटा हुआ दिखता है।
  5. रस-शान्त रस का प्रयोग है।

MP Board Solutions

  • कला-पक्ष
  1. भाषा-दुष्यन्त कुमार त्यागी अपनी कविताओं में भाव के अनुकूल भाषा का प्रयोग करते हैं। इस कारण उसमें तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशी सभी प्रकार के शब्दों का अवसर के अनुकूल चयन किया है। भाषा में सहजता है।
  2. छन्द-इनकी कविताएँ अधिकतर छन्द के बन्धन से मुक्त हैं।
  3. शैली-कवि ने अपनी कविता में व्यंग्यात्मक मुक्तक शैली को अपनाया है। प्रत्येक छन्द अपनी भावभूमि के अर्थ के लिए स्वतंत्र होता है। उनकी व्याख्या परस्पर सम्बद्ध नहीं होती।
  4. अलंकार-अलंकारों का प्रयोग सप्रयास नहीं किया गया है। अपने आप ही उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा शामिल हो गये हैं।

काव्य-धर्म का मर्म-दुष्यन्त जी कविता को राजनीतिक, सामाजिक एवं व्यक्तिगत स्तर पर लड़ाई का हथियार स्वीकार करते हैं। उनके व्यंग्यों में हास्य की अपेक्षा आक्रोश की प्रबलता है। दुष्यन्त कुमार की कविता का मूल स्वर आम आदमी है।

  • साहित्य में स्थान

दुष्यन्त कुमार की गजलें जन-जन तक पहुँचती हैं। उन्होंने गज़ल की उर्दू परम्परा को एक मोड़ देते हुए हिन्दी को समृद्ध किया है तथा कवियों को एक नई जमीन और नई दिशा प्रदान की है। समग्र रूप से अपने इस महान योगदान के लिए हिन्दी साहित्य चिर ऋणी रहेगा।

19. वीरेन्द्र मिश्र

  • जीवन-परिचय

कवि एवं गीतकार वीरेन्द्र मिश्र का जन्म दिसम्बर, 1927 ई. को ग्वालियर में हुआ था। उनका जीवन आर्थिक संघर्षों एवं सामाजिक थपेड़ों से जूझते हुए आरम्भ हुआ। संघर्षशील जीवन जीते हुए उन्होंने बड़ी कठिनाई से अपना ग्रेजुएशन पूरा किया। उन्होंने जीवन मूल्यों के प्रति पूर्णतः समर्पित होकर, स्वाभिमानपूर्वक असमानताओं से लोहा लेते हुए कठिनाई का जीवन जिया। जहाँ एक ओर वे अत्यन्त विनम्र, सहज, स्नेहशील और कोमल हृदय थे, वहीं दूसरी ओर प्रबल आत्माभिमानी, दृढ़ निश्चयी और संघर्षशील साहित्यकार थे। अपनी आर्थिक समस्याओं के समाधान के लिए वे निरन्तर इधर-उधर भटके और छोटी-मोटी नौकरियाँ भी की। वे मंचीय कविता के वरिष्ठ एवं लोकप्रिय कवि और गीतकार के रूप में प्रख्यात रहे हैं। उन्होंने लगभग एक दर्जन फिल्मों के लिए गीत लिखे हैं। अपने समय में मिश्र जी कवि सम्मेलनों के लिए अपरिहार्य हो गए थे।

जून 1975 ई. में वीरेन्द्र मिश्र ने सांसारिक बन्धनों को तोड़ दिया और पंचतत्व में विलीन हो गए।

  • साहित्य-सेवा

आदिकाल से ही मनुष्य अपनी हृदयस्थ भावनाओं को काव्य के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। प्राकृतिक सौन्दर्य के मनोहारी दृश्य के अवलोकन से मनुष्य प्रकृति से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। प्रकृति से तादात्म्यता द्वारा गहन भावों के गूढ़ अर्थों को समझा जा सकता है। यही प्रकृति, प्रेरक शक्ति का स्रोत बनकर उभर बैठती है।

ध्येय-इस सिद्धान्त का अनुसरण करते हुए एक काव्यकार अथवा गीतकार अपने ध्येय में सफल होता है। इसी प्रेरक शक्ति ने आधुनिक युग में कवि वीरेन्द्र मिश्र ने अपने गीतों के माध्यम से आधुनिक हिन्दी कविता को नई संवेदना और नई लय प्रदान की है।

प्रस्तुत गीत में बादल को सम्बोधित करते हुए कवि अपने कृतज्ञतापूर्ण व्यवहार को अपनाता है और कहता है कि बादल धरती को जीवन देता है। वर्षा करने के अपने व्यवहार में वह कोई भेदभाव नहीं करता। वह सर्वत्र समान रूप से जल बरसाता है। वह सर्वत्र ही बिना किसी भेदभाव के गागर तथा सागर पर बरस पड़ता है। तेरे द्वारा बरसने पर ही पूर्व दिशा से बहती हवा का मान बढ़ेगा, कजरी गीत की तान छिड़ उठेगी। कवि ने इस संदर्भ में आधुनिक जीवन में आस्था, विश्वास और अपनी क्षमताओं का सही उपयोग करने का सदुपदेश दिया है।

  • रचनाएँ

कविवर वीरेन्द्र मिश्र द्वारा रचित कृतियाँ इस प्रकार हैं

  1. गीतम,
  2. मधुवंती,
  3. गीत पंचम,
  4. उत्सव गीतों की लाश पर,
  5. वाणी के कर्णधार,
  6. धरती गीताम्बरा,
  7. शान्ति गंधर्व।

उपर्युक्त के अतिरिक्त वीरेन्द्र मिश्र ने गीत, नवगीत, राष्ट्रीय गीत, व्यंग्य गीत तथा मुक्तक की रचना की है। इसके अलावा रेडियो नाटक तथा बाल साहित्य की रचना भी की है। . भाव-पक्ष

  1. विषमता और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष-वीरेन्द्र मिश्र जी परिवार, समाज, राष्ट्र तथा साहित्य में व्याप्त रूढ़ि, विषमता तथा अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करते रहे। उनका यह संघर्ष इतिहास के प्रत्येक जीवन संघर्ष से प्रतिबद्ध रहा।
  2. राष्ट्रीय गौरव-मिश्र जी के गीतों में राष्ट्रीय गौरव के भाव भरे हैं। उन्होंने इन गीतों के माध्यम से समाज और राष्ट्र की प्रगतिशील आकांक्षाओं को अभिव्यक्त किया है।
    रहा।
  3. पूँजीवाद का विरोध-मिश्र जी ने अपने गीतों में पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के घृणित स्वरूप का चित्रण किया है और उनके गीतों में शोषण तथा विषमता के विरुद्ध एक सच्ची मानवीय चिन्ता मिलती है। कवि के गीतों के माध्यम से लोगों में आस्था और विश्वास की प्रतिध्वनियाँ लगातार मिलती रहती हैं।
  4. प्रणय के मधुर स्वरों के गायक-मिश्र जी प्रणय के मधुर स्वरों के भी गायक हैं। उनके भाव भरे गीत भावुक प्रेमी कवि के प्रणय की प्रतिध्वनियाँ हैं। इसके साथ ही मिश्र जी के इन्हीं प्रणय गीतों में व्यथा और पीड़ा के मार्मिक स्वर भी समाहित हैं।
  5. रस-शान्त, करुण रस की अभिव्यक्ति महत्वपूर्ण है।
  • कला-पक्ष
  1. वीरेन्द्र मिश्र के गीतों की भाषा सहज, व्यावहारिक तथा लोक में प्रचलित शब्दों में युक्त है। उनकी भाषा की शब्दावली में भाव सम्प्रेषणीयता है, कसावट है, और संगीतात्मकता है।
  2. शैली-कवि ने अपने गीतों में गीति शैली और अभिव्यंजनावाद को स्वीकार किया है। प्रतीक-प्रधान शैली महत्वपूर्ण है।।
  3. छन्द-छन्द बन्धन से मुक्त कविता, प्रतीक शब्दों के प्रयोग से अर्थ को स्पष्ट करती
  4. अलंकार-कवि अपने गीतों में सहज भाव से अलंकारों का प्रयोग करते हैं। नवीन अलंकारों में मानवीकरण का प्रयोग सामान्य रूप से होता रहा है। इसके अतिरिक्त उत्प्रेक्षा, अनुप्रास, विशेषण विपर्यय, व्यतिरेक, ध्वन्यार्थप्रकाश आदि अलंकार कवि को प्रिय हैं।

MP Board Solutions

  • साहित्य में स्थान

उपर्युक्त विशेषताओं के कारण वीरेन्द्र मिश्र का हिन्दी साहित्य में एक काव्यकार और गीतकार के रूप में अति महत्वपूर्ण स्थान है। वीरेन्द्र मिश्र इस नवगीत परम्परा के विशिष्ट कवि माने जाते हैं। हिन्दी काव्य जगत् और गीतकार मण्डल आपकी सेवाओं से सदैव उपकृत अनुभव करता है।

20. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ | [2008]

  • जीवन-परिचय

डॉ. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ का जन्म उन्नाव जनपद (उत्तर प्रदेश) के अन्तर्गत झगरपुर नामक ग्राम में सन् 1915 ई. में नाग-पंचमी के शुभ अवसर पर हुआ था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा इसी ग्राम में हुई थी। इसके बाद वे ग्वालियर चले गए और वहाँ के विक्टोरिया कॉलेज से उन्होंने बी. ए. पास किया। सन् 1940 ई. में एम. ए. की डिग्री और डी. लिट् की उपाधि उन्होंने काशी विश्वविद्यालय से प्राप्त की। अपना विद्यार्थी जीवन पूर्ण करने के पश्चात् उन्होंने होल्कर कॉलेज, इन्दौर और माधव कॉलेज, ग्वालियर में अध्यापन कार्य किया। इसी बीच नेपाल स्थित भारतीय दूतावास में सांस्कृतिक सहायक के पद पर उनकी नियुक्ति हुई। वहाँ से स्वदेश लौटने पर वे 1961 ई. में माधव कॉलेज, उज्जैन के प्राचार्य नियुक्त हुए। तत्पश्चात् वे विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में कुलपति के पद पर आसीन हुए। उसको भारत सरकार द्वारा ‘पद्मश्री’ के अलंकरण से भूषित किया गया।

  • साहित्य-सेवा व विषय

सुमन जी की कविताएँ सामाजिक जीवन एवं राष्ट्रीय चेतना से जुड़ी हुई हैं। उनमें सांस्कृतिक तत्व विद्यमान रहता है। सुमन जी प्रगतिवादी काव्यधारा के प्रमुख कवि हैं। जीवन के गान में संगृहीत उनकी रचनाओं में शोषित, दलित एवं उपेक्षित मानव के प्रति सहानुभूति एवं शोषक सत्ताधारियों के प्रति विद्रोह की भावना जागृत हो उठी है। सुमन जी की कविताओं में जागरण एवं निर्माण का सन्देश है।

सुमन जी आस्था तथा विश्वास के गीतकार हैं। इस दृष्टि से ‘वरदान माँगूंगा नहीं’ तथा ‘तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार’ आदि ओजस्वी गीत उल्लेखनीय हैं।

  • रचनाएँ

सुमन जी की रचनाएँ निम्नलिखित हैं

  1. हिल्लोल,
  2. जीवन के गान,
  3. प्रलय,
  4. सृजन,
  5. विश्वास बढ़ता ही गया,
  6. पर आँखें भरी नहीं,
  7. विन्ध्य-हिमालय,
  8. माटी की बारात आदि उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं।

‘माटी की बारात’ पर आपको साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया गया है।

  1. प्रेम-सुमन जी का छायावाद के अन्तिम चरण में काव्य क्षेत्र में अवतरण हुआ। प्रारम्भ में प्रेम-गीत लिखते रहे। धीरे-धीरे इन्होंने प्रेम से अधिक कर्त्तव्य का महत्व स्वीकार किया। प्रकृति के विस्तृत क्षेत्र से उठती हुई त्रस्त मानवता की कराहट ने इनके ध्यान को आकर्षित किया और वे देश के राष्ट्रीय आन्दोलन में शामिल हो गए।
  2. पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का विरोध-सुमन जी के मन में क्रान्ति की आग धधक उठी। उनका मन पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के प्रति विरक्ति के भाव से भर उठा। उनकी रचनाओं में साम्राज्यवाद के विरुद्ध स्वर मुखरित हो उठा।
  3. साम्यवाद-सुमन जी का झुकाव साम्यवाद की ओर रहा और इन्हें रूस की नवीन अर्थव्यवस्था ने बहुत आकर्षित किया।
  4. सत्य और अहिंसा-सुमन जी की आस्था गाँधी जी के सत्य और अहिंसा के सिद्धान्तों पर दृढ़ रही। इसी कारण इनकी कविताओं में क्रान्तिकारी स्वर लोकप्रिय हो गए।
  5. जीवन दर्शन-इनके काव्य में इनका स्वयं का पुष्ट जीवन दर्शन स्पष्ट झलकता है जिसमें वर्तमान के हर्ष पुलक, राग-विराग, आशा-उत्साह के स्वर भी मुखरित हुए।
  • कला-पक्ष
  1. भाषा-सुमन जी सरल एवं व्यावहारिक भाषा के पक्षपाती हैं। उनकी खड़ी बोली में संस्कृत के सरल तत्सम शब्द प्रयुक्त हुए हैं। साथ ही, उर्दू के शब्द भी यत्र-तत्र मिल जाते हैं। परन्तु उर्दू के ये शब्द खटकते नहीं हैं। वे भावों को उद्दीप्त करने में सहायक होते हैं। सुमन जी एक प्रखर एवं ओजस्वी वक्ता भी थे। अत: उनकी भाषा जनभाषा कही जा सकती है। भाषा उनके भावों का अनुगमन करती है।
  2. शैली-सुमन जी की शैली पर उनके व्यक्तित्व की छाप स्पष्ट है। उनकी शैली में सरलता है, स्वाभाविकता है। उनकी शैली ओज, माधुर्य और प्रसाद गुणों से सम्पन्न है। उनके गीतों में स्वाभाविकता है, संगीतात्मकता है, मस्ती और लय विद्यमान है।
  3. अलंकार-इनकी कविता में अलंकार अपने आप ही आ गए हैं। नए-नए उपमानों के माध्यम से इन्होंने अपनी बात बड़ी ही कुशलता से कह दी है।
  4. छन्द-सुमन जी ने मुक्त छन्द लिखे हैं और परम्परागत शब्दों की समृद्धि में सहयोग दिया है।
  • साहित्य में स्थान

सुमन जी उत्तर छायावादी युग के प्रगतिशील प्रयोगवादी व्यक्तियों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। वे एक सुललित गीतकार, महान् प्रगतिवादी एवं वर्तमान युग के कवियों में अग्रगण्य हैं। हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि में आपका सहयोग अतुलनीय है, अविस्मरणीय है।

सम्पूर्ण अध्याय पर आधारित महत्त्वपूर्ण वस्तुनिष्ठ प्रश्न

  • बहु-विकल्पीय प्रश्न

1. राम राज्य की परिकल्पना के काव्य का प्रमुख आधार है [2013]
(i) सूरदास, (ii) तुलसीदास, (iii) बिहारी, (iv) पद्माकर।

2. तुलसीदास की भक्ति भावना में प्रधानता है [2011]
(i) दास्य भाव, (ii) सखा भाव, (iii) दाम्पत्य भाव, (iv) माधुर्य भाव।

3. सूरदास की साधना-स्थली है
(i) वृन्दावन, (ii) सोरों, (iii) रुनकता, (iv) काशी।

MP Board Solutions

4. अकबर के नवरत्नों में से एक थे [2008]
(i) रहीम, (ii) सेनापति, (iii) रसखान, (iv) जायसी।
5. रामभद्राचार्य ‘गिरिधर’ किस काल के कवि हैं?
(i) आदिकाल, (ii) भक्ति काल, (iii) रीतिकाल, (iv) आधुनिक काल।

6. तुलसीदास जी को हिन्दी साहित्य का सर्य माना [2008]
(i) आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने, (ii) आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने, (iii) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने, (iv) डॉ. नगेन्द्र ने।

7. पद्माकर ने काव्य की रचना की [2008]
(i) ललित ललाम, (ii) गंगा लहरी, (iii) मदनाष्टक, (iv) बारहमासा।
उत्तर-
1. (ii), 2. (i), 3. (iii), 4.(i), 5. (iv), 6. (i), 7. (ii)।

  • रिक्त स्थान पूर्ति

1. रामराज्य की परिकल्पना ……… के काव्य का प्रमुख आधार रही है। [2008]
2. सूर के पदों को …………….” काव्य कहते हैं। [2009]
3. सूरदास ने …………….. में काव्य रचना की है।[2010]
4. जगत विनोद के कवि …………… हैं।
5. …………….. रीतिकाल के वीर रस के कवि हैं।
6. कबीर सच्चे ……………” सुधारक थे।
7. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ …………….” काव्य धारा के कवि थे।
8. श्रीरामभद्राचार्य ‘गिरिधर’ …………….. के कवि थे। [2010]
9. तुलसीदास का ……………. साहित्य एवं समाज की अमूल्य सम्पदा है। [2011]
10. वृन्द के दोहे …………….” की श्रेणी में आते हैं। [2011]
11. रहीम का पूरा नाम ” …………..” था। [2013]
12. गोस्वामी तुलसीदास जी की भक्ति ……………” की थी। [2013]
13. मीराबाई ने …………….” को अपना आराध्य बताया। [2014]
उत्तर-
1. तुलसी, 2. मुक्तक, 3. गेयपद शैली, 4. पद्माकर, 5. भूषण, 6. समाज, 7. प्रगतिवादी, 8. आधुनिक काल,9. रामचरितमानस, 10. मुक्तक, 11. अब्दुल रहीम खानखाना, 12. दास्य भाव, 13. कृष्ण।

  • सत्य/असत्य

1. तुलसीदास नरहरि दास के शिष्य थे।
2. हरिऔध का जन्म फतेहपुर में हुआ था।
3. केशवदास रीतिकाल के आचार्य कवि थे।
4. वीरेन्द्र मिश्र छायावादी गीतकार हैं।
5. दीनदयाल गिरि ने कुण्डलियाँ छन्द का प्रयोग किया है। [2010]
6. गिरिजाकुमार माथुर प्रगतिवादी कवि माने जाते हैं।
7. वृन्द के नीतिपरक दोहे बहुत प्रसिद्ध हैं। 8. अरुन्धति एक महाकाव्य है। [2009]
9. कबीर के कर्मकाण्ड पर करारा प्रहार किया। [2011]
10. दुष्यन्त कुमार ने उर्दू भाषा में ही गज़लें लिखी हैं। [2013]
उत्तर-
1. सत्य, 2. असत्य, 3. सत्य, 4. असत्य, 5. सत्य, 6. असत्य, 7. सत्य, 8. सत्य, 9. सत्य, 10. असत्य।

  • जोड़ी मिलाइए

1. छत्रसाल दशक [2010] – (क) केशवदास
2. जहाँगीर चन्द्रिका [2009] – (ख) भूषण
3. अलीजाह प्रकाश [2009] – (ग) सेनापति ने
4. रीतिकाल में श्रेष्ठ प्रकृति चित्रण किया है – (घ) पद्माकर
5. अतिमा [2009] – (ङ) दुष्यन्त कुमार
6. हिन्दी गजल विधा/प्रसिद्ध हिन्दी – (च) सुमित्रानन्दन पन्त गजलकार [2008, 12]
उत्तर-
1.→ (ख),
2.→ (क),
3.→ (घ),
4. → (ग),
5.→ (च),
6.→ (ङ)।

MP Board Solutions

II.
1. वात्सल्य [2008] – (क) सुमित्रानन्दन पन्त
2. प्रयोगवादी कवि – (ख) केशवदास
3. सुकुमार भावनाओं के कवि – (ग) सूरदास छायावादी कवि [2008, 11]
4. आधुनिक काल के सूरदास [2008] – (घ) गिरिजाकुमार माथुर
5. कठिन काव्य का प्रेत [2008] – (ङ) अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
6. प्रसिद्ध गीतकार [2011] – (च) वीरेन्द्र मिश्र
उत्तर-
1.→ (ग),
2.→ (घ),
3.→ (क),
4. → (ङ),
5.→ (ख),
6. → (च)।

  • एक शब्द/वाक्य में उत्तर

1. मीराबाई की भाषा किस प्रकार की है?
2. भूषण के पिता का नाम क्या था?
3. ‘प्रिय-प्रवास की रचना किसने की?
4. वीरेन्द्र मिश्र का जन्म स्थान कहाँ है?
5. सेनापति ने प्रबन्ध काव्य की रचना की है या मुक्तक काव्य की?
6. गिरिजाकुमार माथुर किस धारा के कवि हैं?
7. अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ किस युग के कवि हैं?
8. दुष्यन्त कुमार का जन्म किस वर्ष में हुआ था?
9. कवि सूरदास जी के गुरु का क्या नाम है? [2013]
10. वात्सल्य रस का सम्राट किसे कहा जाता है? [2015]
उत्तर-
1. राजस्थानी मिश्रित ब्रजभाषा,
2. पं. रत्नाकर त्रिपाठी,
3. अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’,
4. ग्वालियर,
5. मुक्तक काव्य,
6. प्रयोगवादी,
7. द्विवेदी युग,
8. सन् 1933 ई.,
9. बल्लभाचार्य,
10. सूरदास को।

MP Board Class 11th Special Hindi कवि परिचय (Chapter 6-10) 1

MP Board Solutions

MP Board Class 11th Special Hindi कवि परिचय (Chapter 6-10) 2
MP Board Class 11th Special Hindi कवि परिचय (Chapter 6-10) 3
MP Board Class 11th Special Hindi कवि परिचय (Chapter 6-10) 4

MP Board Solutions

MP Board Class 11th Special Hindi कवि परिचय (Chapter 6-10) 5

MP Board Class 11th Hindi Solutions

MP Board Class 11th Special Hindi स्वाति कवि परिचय (Chapter 1-5)

MP Board Class 11th Special Hindi स्वाति कवि परिचय (Chapter 1-5)

1. तुलसीदास
[2008,09, 14, 17]

  • जीवन-परिचय

लोकनायक तुलसीदास कविता कामिनी के ललाट के ज्योति-बिन्दु हैं। इस ज्योति-बिन्दु ने अपने चारों ओर प्रकाश विकीर्ण किया हुआ है। ऐसे महान् कवि गोस्वामी तुलसीदास का जन्म संवत् 1589 वि. में बाँदा जिले के राजापुर नामक स्थान में हुआ था। परन्तु कुछ लोग सोरों (एटा) को ही इनका जन्म-स्थान मानते हैं। तुलसीदास के पिता का नाम आत्माराम दुबे और माता का नाम हुलसी था। इनके सिर से बाल्यावस्था में ही माता-पिता का साया उठ गया था और उनका पालन-पोषण नरहरिदास ने किया था। उन्होंने तुलसीदास को गुरुमंत्र दिया, रामकथा सुनाई तथा संस्कृत की शिक्षा दी। इन्होंने काशी में विभिन्न शास्त्रों का अध्ययन किया तथा दीनबन्धु पाठक की अति सुन्दरी कन्या से विवाह किया। उनका नाम रलावली था। भावुक युवक तुलसीदास अपनी प्रिया के प्रेम और सौन्दर्य में सब कुछ भूल बैठा। विदुषी रत्नावली ने अपने अत्यन्त ज्ञान सम्पन्न पति के प्रेम और आसक्ति को ‘अस्थि-चर्ममय देह’ के प्रति देखकर उन्हें बहुत ही दुत्कारा। उनके ज्ञानचक्षु वैराग्य की ज्योति पाकर अलौकिक प्रकाश को विकीर्ण करने लगे।

MP Board Solutions

तुलसी ने संसार त्याग दिया। राम-गुलाम तुलसी, राम के चरित गायन में लग गए और स्वयं को अपने आराध्य राम की भक्ति में समर्पित कर दिया। संवत् 1680 वि. में इस महात्मा ने शरीर के बन्धनों को तोड़ दिया और परमतत्त्व (राम) में लीन हो गए।

कहा भी है-
“संवत् सोलह सौ अस्सी, असी गंग के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यौ शरीर।।

तुलसी में प्रेम की उन्मत्तता, उत्कृष्ट वैराग्य, राम की अनन्य एवं दास्यभाव की भक्ति एवं लोकमंगल की भावना भरी हुई थी।

  • साहित्य सेवा

एक आदर्श साहित्य सेवक का उद्देश्य अपने वृहद् लोक जीवन को सुख और शान्ति से परिपूर्ण बनाना होता है। ‘स्वान्तः सुखाय’ से ‘पर-अन्तः सुखाय’ के आदर्श को यथार्थ में स्थापित करने के लिए लोक मर्यादा की आवश्यकता का अनुभव तुलसी ने किया। तुलसी ने राम के लोकमंगल व लोककल्याणकारी रूप को अपनी लोकपावनी काव्य कृतियों के माध्यम से जनता-जनार्दन के सामने प्रतिष्ठापित किया है। तुलसी के काव्य का प्रमुख आधार रही है-‘राम राज्य की परिकल्पना’। तुलसी द्वारा परिकल्पित आदर्श राज्य की स्थापना आज के युग में भी बहुत प्रासंगिक और महत्त्वपूर्ण हो गई है। कवि ने (तुलसी ने) अपनी साहित्यिक कृतियों के माध्यम से समाजगत, राजनीतिगत, आर्थिकस्थितिपरक तथा विविध जातिगत सम्बन्धों और उनके एकीकरण का अनन्यतम प्रयास किया है। प्रत्येक तरह की एवं प्रत्येक क्षेत्र की समस्याओं का समाधान ढूँढ़ने का तर्कसंगत उपाय तुलसी ने प्रत्येक वर्ग के लिए अपने ही सृजित साहित्य में यथास्थान संकेतित किया है। अतः अपनी साहित्य सेवा द्वारा तुलसी ने महान् उद्देश्य की प्राप्ति की है। आवश्यकता है उनके साहित्य को अध्ययन व मनन किए जाने की और हो सके तो तद्नुसार अधिक से अधिक जीवन में यथार्थता लाने की।

  • रचनाएँ
  1. रामचरित मानस-यह महाकाव्य भारतीय संस्कृति, धर्मदर्शन, भक्ति और कवित्व का अद्भुत् समन्वयकारी ग्रन्थ है।
  2. विनय पत्रिका-विनय पत्रिका भक्ति रस का अद्वितीय काव्य है। ब्रजभाषा में रचित ‘भक्तों के गले का हार’ है।
  3. कवितावली-कवितावली में कवित्त-सवैया छंदों में राम कथा का गायन किया गया है।
  4. गीतावली-गीतावली गेय-पद शैली का श्रेष्ठ कवित्व-प्रधान रामकाव्य है।
  5. बरवै रामायण’-यह बरवै छंद में रचित श्रेष्ठ काव्यकृति है। उपर्युक्त काव्य रचनाओं के अलावा तुलसीदास द्वारा रचित कृतियाँ हैं-
  6. रामलला नहरु,
  7. रामाज्ञा प्रश्नावली,
  8. वैराग्य संदीपनी,
  9. दोहावली,
  10. जानकी मंगल,
  11. पार्वती मंगल,
  12. हनुमान बाहुक तथा
  13. कृष्ण गीतावली।
  • भाव-पक्ष

(क) शक्ति, शील और सौन्दर्य का समन्वय-तुलसी ‘राम भक्ति’ शाखा के प्रमुख कवि थे। उन्होंने भगवान राम के मर्यादा पुरुषोत्तम का आदर्श रूप प्रतिपादित किया और अपने इष्ट राम में शील-शक्ति और सौन्दर्य का समन्वित स्वरूप देखा। इस तरह समग्र तुलसी-काव्य में भाव लोक की सम्पन्नता द्रष्टव्य है।

(ख) समन्वयवादी व्यापक दृष्टिकोण-तुलसी का दृष्टिकोण अत्यन्त व्यापक एवं समन्वयवादी था। इन्होंने राम के भक्त होते हुए भी अन्य देवी-देवताओं की वंदना की है। तुलसी के काव्य में भारतीय संस्कृति एवं धार्मिक विचारधारा पूर्णतः परिलक्षित हुई है। मानव मन की उदात्त भावनाओं, कर्त्तव्यपरायणता एवं लोक कल्याण का जैसा सुन्दर संदेश इनके काव्य में मिलता है, वैसा अन्यत्र नहीं।

(ग) रससिद्धता-तुलसी रससिद्ध कवि थे। उनकी कविताओं में श्रृंगार, शान्त, वीर रसों की त्रिवेणी प्रवाहित होती है। शृंगार रस के दोनों पक्षों-संयोग व वियोग का बड़ा ही हृदयग्राही वर्णन किया गया है। रौद्र, करुण, अद्भुत रसों का सजीव चित्रण किया गया है। विनय पत्रिका’ में भक्ति और विनय का उत्कृष्टतम स्वरूप मिलता है।

(घ) लोकहित एवं लोक जीवन-तुलसी के काव्य में मानव हृदय की दशाओं का चित्रण सहज और प्राकृतिक है। उन्होंने लोकहित और लोक जीवन को सुखी बनाने के लिए माता-पिता, गुरु, पुत्र, सेवक, राजा-प्रजा का आदर्श रूप प्रस्तुत किया है। इनकी ‘ईश्वर भक्ति-विनय, श्रद्धा एवं करुणा से अभिभूत है। तुलसी के रामराज्य की कल्पना एक आदर्श है। इन्होंने मानवीय सिद्धान्तों पर आधारित समाज और शासन पद्धति के वृहद् स्वरूप को प्रस्तुत किया है।

(ङ) मतमतान्तरों में समन्वय-तुलसी के काव्य में सर्वोत्कृष्ट विशेषता है उनका समन्वयवादी स्वरूप। विभिन्न मतों, सम्प्रदायों और सिद्धान्तों की कटुता को मिटाकर उनमें परस्पर समन्वय स्थापित करने का प्रशंसनीय प्रयास किया है।

  • कला-पक्ष

(1) भाषा-तुलसी के काव्य का कला-पक्ष भी भाव-पक्ष के ही समान पर्याप्त समृद्ध है। वे संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् थे। इस तरह उन्होंने अन्य बहुत-सी भाषाओं-ब्रज, अवधी आदि पर पूर्ण अधिकार प्राप्त किया हुआ था और इन भाषाओं में सर्वोत्कृष्ट कृतियों की रचना की। उनकी कृतियों में सभी भाषाओं के शब्दों का सहज समावेश है। तुलसीदास मुख्य रूप से अवधी भाषा के कवि हैं। उनकी भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों की अधिकता है। अवधी के साथ तुलसी ने ब्रजभाषा का भी प्रयोग किया है। रामचरित मानस अवधी में तथा कवितावली, गीतावली और विनय पत्रिका ब्रजभाषा में लिखी गयी हैं। उनकी भाषा का गुण साहित्यिकता है। उनकी भाषा में सरलता, बोधगम्यता, सौन्दर्य चमत्कार, प्रसाद, माधुर्य, ओज आदि सभी गुणों का समावेश है।

(2) शैली-तुलसीदास ने अपने समय की सभी प्रचलित काव्य शैलियों में रचनाएँ प्रस्तुत करके अपने वृहद् समन्वयवादी स्वरूप को प्रदर्शित किया। विभिन्न मतों, सम्प्रदायों और सिद्धान्तों की कटुता को मिटाकर उनमें समन्वय स्थापित करने का प्रशंसनीय प्रयास किया है। तुलसीदास ने भाषा और छन्द विषयक क्षेत्र में भी समन्वयवादी प्रवृत्ति का परिचय दिया है। उन्होंने अवधी, ब्रज-भाषाओं में समान रूप से रचनाएँ की हैं। इस समय प्रचलित दोहा, चौपाई, कवित्त, सर्वया आदि सभी छन्दों का प्रयोग किया है।

(3) छन्द योजना-तुलसीदास ने जायसी की दोहा-चौपाई छन्दों में रामचरित मानस की रचना की। सूरदास की पद शैली में उन्होंने विनय पत्रिका और गीतावली रची। सवैया शैली में उन्होंने कवितावली की रचना की। दोहा का प्रयोग उन्होंने दोहावली में किया है।

(4)अलंकार-योजना-तुलसीदास का अलंकार विधान भी अत्यन्त मनोहर बन पड़ा है। उनकी उपमाएँ अति मनोहर हैं। उनके उपमा अलंकार को ही हम कहीं पर रूपक, कहीं उत्प्रेक्षा, तो कहीं दृष्टान्त के रूप में प्रतिष्ठित पाते हैं।

MP Board Solutions

  • साहित्य में स्थान

गोस्वामी तुलसीदास लोककवि हैं। उनके काव्य से जीवन जीने की कला सीखी जा सकती है। उनकी लोकप्रियता के आधार पर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि वास्तव में तुलसी ही हिन्दी साहित्याकाश के सूर्य हैं। तुलसीदास को गौतम बुद्ध के बाद सबसे बड़ा लोकनायक माना जाता है। अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने सच ही कहा है-

“कविता करके तुलसी न लसै,
कविता लसी या तुलसी की कला।”

2. मीराबाई
[2009, 12. 15]

  • जीवन-परिचय

हिन्दी साहित्य में मीराबाई का विशेष महत्त्व है। मीरा भक्त कवयित्री हैं। उनकी रचनाएँ हृदय की अनुभूति मात्र हैं। इस कारण इनकी रचनाएँ सीधे हृदय को स्पर्श करती हैं।

मीराबाई का जन्म राजस्थान में जोधपुर में मेड़ता के निकट चौकड़ी ग्राम में सन् 1498 ई. (संवत् 1555 वि.) के लगभग हुआ था। ये राठौर रत्नसिंह की पुत्री थीं। बचपन में ही मीरा की माता का निधन हो गया। इस कारण ये अपने पितामह राव दूदाजी के साथ रहती थीं। राव दूदा जी कृष्णभक्त थे। उनका मीरा पर गहरा प्रभाव पड़ा। मीरा का विवाह चित्तौड़ के राणा साँगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज के साथ हुआ था। विवाह के कुछ ही वर्ष बाद इनके पति का स्वर्गवास हो गया। इस असह्य कष्ट ने इनके हृदय को भारी आघात पहुँचाया। इससे उनमें विरक्ति का भाव पैदा हो गया। वे साधु सेवा में ही जीवन यापन करने लगीं। वे राजमहल से निकलकर मन्दिरों में जाने लगी तथा साधु संगति में कृष्ण कीर्तन करने लगी। इसे चित्तौड़ के तत्कालीन राणा ने प्रतिष्ठा के विरुद्ध मानकर, उन्हें भाँति-भाँति की यातनाएँ देना शुरू कर दिया जिससे ऊबकर मीरा कृष्ण की लीलाभूमि मथुरा-वृन्दावन चली गयी और वहीं शेष जीवन व्यतीत किया। इस तरह मीरा का समग्र जीवन कृष्णमय था। मीरा की भक्ति भावना बढ़ती गई और वे प्रभु-प्रेम में दीवानी बन गईं। संसार से विरक्त, कृष्ण भक्ति में लीन मीरा की वियोग भावना ही इनके साहित्य का मूल आधार है। मीरा अपने जीवन के अन्तिम दिनों में द्वारका पहुँच गईं। रणछोड़ भगवान् की भक्ति करने लगीं। वहाँ ही सन् 1546 ई. (संवत् 1603 वि.) में स्वर्ग सिधार गईं।

  • साहित्य-सेवा

मीराबाई द्वारा सृजित काव्य साहित्य में उनके हृदय की मर्मस्पर्शिनी वेदना है, प्रेम की आकुलता है तथा भक्ति की तल्लीनता है। उन्होंने अपने मन की अनुभूति को सीधे ही सरल, सहज भाव में अपने पदों में अभिव्यक्ति दे दी है। उनका साहित्य, भक्ति के आवरण में वाणी की पवित्रता व शुचिता को लिए हुए संगीत का माधुर्य है जिनसे सभी अनुशीलन कर्ताओं को मनोमुग्ध किया हुआ है। भक्तिमार्ग की पुष्टि करने में, मन को शान्ति देने में, मीरा की साहित्य सेवाएँ उत्कृष्ट हैं।

  • रचनाएँ

मीरा की रचनाओं में नरसी जी का मायरा, गीत-गोविन्द की टीका, राग गोविन्द, राग-सोरठा के पद प्रसिद्ध हैं। इन रचनाओं में अपने आराध्य श्रीकृष्ण-गिरधर गोपाल के प्रति प्रेम के आवेश में गाये पदों के संग्रह मात्र हैं। मीराबाई की रचनाएँ वियुक्त हृदय की अनुभूति हैं। उनमें हृदय की टीस है, माधुर्य है, लालित्य है।

  • भाव-पक्ष
  1. विरह वेदना-मीराबाई भगवान कृष्ण के प्रेम की दीवानी थीं। उन्होंने आँसुओं के जल से सींच-सींचकर प्रेम की बेल बोई थी। मीरा ने अपने प्रियतम (भगवान कृष्ण) के विरह में जो कुछ लिखा, उसकी तुलना कहीं पर भी नहीं की जा सकती। मीरा की विरह वेदना अकथनीय और अनुभूतिपरक है।
  2. रस और माधुर्य भाव-मीरा के साहित्य में माधुर्य भाव को बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त है। उनकी रचनाओं में माधुर्य भाव प्रधान है, शान्त रस और श्रृंगार रस की अभिव्यक्ति है।
  3. रहस्यवाद-मीरा के बहुत से पदों में उनका रहस्यवाद स्पष्ट प्रदर्शित होता है। इस रहस्यवाद में प्रियतम के प्रति उत्सुकता, मिलन और वियोग के सजीव चित्र हैं।
  • कला-पक्ष

(1) भाषा–मीरा की भाषा राजस्थानी-संस्कार से संयुक्त ब्रजभाषा है। उन्होंने राजस्थानी शब्दों और उच्चारणों का खूब प्रयोग किया है। परन्तु अपने पदों की रचना, उस युग की काव्यभाषा ब्रजभाषा में ही की। उनके कुछ पदों में भोजपुरी भाषा का भी पुट दिया हुआ है। मीरा की भाषा को शुद्ध साहित्यिक भाषा नहीं कहा जा सकता। वरन् उनकी भाषा जनभाषा ही कही जा सकती है, इसी जनभाषा का प्रयोग उनके समग्र साहित्य में मिलता है।

(2) शैली-मीरा ने मुक्तक शैली का प्रयोग किया है। उनके पदों में गेयता है। गीति शैली पर रचित प्रत्येक पद-गिरधर गोपाल के प्रति आलम्बन प्रधान है तथा उसमें ‘माधुर्यता’ की उपस्थिति गायक और श्रोताओं को भावविलोडित करने वाली है। भाव-सम्प्रेषणता मीरा की गीति शैली की प्रधान विशेषता है। शैलीगत-प्रवाह-भाव को झंकृत कर बैठता है।

(3) अलंकार-मीराबाई ने अपनी रचना-कविता करने के उद्देश्य से नहीं की है। अतः हृदय से निकले गान में अलंकार अपने आप ही आकर जुड़ते रहे हैं। अधिकतर उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास आदि अलंकारों को इनकी रचनाओं में सर्वत्र देखा जा सकता है।

  • साहित्य में स्थान

मीरा ने हृदय में व्याप्त अपनी वेदना और पीड़ा को बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। मीरा को तीव्र वेदना की मूर्ति के रूप में विशिष्ट स्थान प्राप्त है।

3. सूरदास
[2008, 09, 13, 16]

  • जीवन-परिचय

महात्मा सूरदास का जन्म सन् 1478 ई. (संवत् 1535 वि.) में आगरा से मथुरा जाने वाले राजमार्ग पर स्थित रुनकता नामक गाँव में हुआ था। परन्तु कुछ अन्य विद्वान दिल्ली के समीप ‘सीही’ को इनका जन्म स्थान मानते हैं। पुष्टिमार्ग के संस्थापक महाप्रभु बल्लभाचार्य जी इनकी प्रतिभा से बहुत ही प्रभावित थे अतः आपकी नियुक्ति श्रीनाथ जी के मन्दिर में कीर्तनिया के रूप में कर दी। महाप्रभु बल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलनाथ द्वारा ‘अष्टछाप’ की स्थापना की और अष्टछाप के कवियों में सूरदास’ को सर्वोच्च स्थान दिया गया। इस प्रकार आजीवन गऊघाट पर रहते हुए श्रीमद्भागवत के आधार पर प्रभु श्रीकृष्ण लीला से सम्बन्धित पदों की सर्जना करते थे और उनका गायन अत्यन्त मधुर स्वर में करते थे।

महात्मा सूरदास जन्मान्ध थे, यह अभी तक विवादास्पद है। सूर की रचनाएँ यह सिद्ध करती हैं कि एक जन्मान्ध द्वारा इतना सजीव और उत्तमकोटि का वर्णन नहीं किया जा सकता।

MP Board Solutions

एक किंवदन्ती के अनुसार, वे किसी स्त्री से प्रेम करते थे, परन्तु प्रेम की सम्पूर्ति में बाधा आने पर उन्होंने अपने दोनों नेत्रों को स्वयं फोड़ लिया। परन्तु जो भी कुछ तथ्य रहा हो, हमारे मतानुसार तो सूरदास बाद में ही अन्धे हुए हैं। वे जन्मान्ध नहीं थे।

सूरदास का देहावसान सन् 1583 ई. (संवत् 1640 वि.) में मथुरा के समीप पारसोली नामक ग्राम में गोस्वामी विट्ठलनाथ जी की उपस्थिति में हुआ था। कहा जाता है कि अपनी मृत्यु के समय सूरदास “खंजन नैन रूप रस माते” पद का गान अपने तानपूरे पर अत्यन्त मधुर स्वर में कर रहे थे।

  • साहित्य-सेवा

सूरदास हिन्दी काव्याकाश के सूर्य हैं, जिन्होंने अपने काव्य कौशल से हिन्दी साहित्य की अप्रतिम सेवा की और अपने गुरु बल्लभाचार्य के सम्पर्क में आने के बाद पुष्टिमार्ग में दीक्षा ग्रहण की और दास्यभाव एवं दैन्यभाव के पदों की रचना करना छोड़ दिया। इसके स्थान पर वात्सल्य प्रधान सखाभाव की भक्ति के पदों की रचना करना शुरू कर दिया। अष्टछाप के भक्त कवियों में सूरदास अग्रणी थे। उनके काव्य का मुख्य उद्देश्य कृष्ण भक्ति का प्रचार करके जनसामान्य में तथा संगीतकारों में भक्ति रस से उनके मन को आप्लावित करना रहा था। इसके अतिरिक्त सूर ने अपने काव्य की साधना से प्रभुभक्ति और पवित्र प्रेम का निरूपण किया। सूर के सम्पूर्ण साहित्य में विनय, वात्सल्य और श्रृंगार ने अद्वितीय स्थान प्राप्त किया है। वात्सल्य वर्णन को हिन्दी की अमूल्य निधि कहा गया है जिसमें मानव हृदय की प्रकृत अवस्था निर्विघ्न रूप से निरूपित है। बाल मनोविज्ञान के तो सूर अद्वितीय पारखी थे। शिशु चेष्टाओं का आंकलन कवि ने अपने ग्रंथों में स्वाभाविक रूप से किया है, जो बेजोड़ है।

  • रचनाएँ

विद्वानों के मतानुसार सूरदास ने तीन कृतियों का ही सृजन किया था, वे हैं-
(1) सूरसागर,
(2) सूर सारावली,
(3) साहित्य लहरी।

(1) इनमें सूरसागर ही उनकी अमर कृति है। सूरसागर में भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं से सम्बन्धित सवा लाख गेय पद हैं। परन्तु अभी तक 6 या 7 हजार से अधिक पद प्राप्त नहीं हुए हैं।
(2) सूर सारावली में ग्यारह सौ सात छन्द संग्रहीत हैं। यह सूरसागर का सार रूप ग्रन्थ है।
(3) साहित्य लहरी में एक सौ अठारह पद संग्रहीत हैं। इन सभी पदों में सूर के दृष्ट-कूट पद सम्मिलित हैं। इन पदों में रस का सर्वश्रेष्ठ परिपाक हुआ है।

सूरदास सगुण भक्तिधारा के कृष्णोपासक कवियों में सर्वश्रेष्ठ कवि थे। उनके काव्य में तन्मयता और सहज अभिव्यक्ति होने से उनका भावपक्ष अत्यन्त सबल और कलापक्ष अत्यन्त आकर्षक और सौन्दर्य प्रधान हो गया है।

  • भाव-पक्ष
  1. भक्तिभाव-सूरदास कृष्ण के भक्त थे। काव्य ही भगवत् भजन एवं उनका जीवन था। एक भक्त हृदय की अभिव्यक्ति उनके काव्य में हुई है। सूर की भक्ति सखा भाव की भक्ति थी। कृष्ण को सखा मानकर ही उन्होंने अपने आराध्य की समस्त बाल-लीलाओं और प्रेम-लीलाओं का वर्णन पूर्ण तन्मयता से किया है।
  2. सहृदयता और भावुकता-सूरदास ने अपने पदों में मानव के अनेक भावों का बड़ी सहृदयता से वर्णन किया है। उस वर्णन में सखा गोप-बालकों के, माता यशोदा के और पिता नंद के विविध भावों की यथार्थता और मार्मिकता मिलती है। कृष्ण और गोपी प्रेम में प्रेमी केहदय के भाव पूर्णत् सरोवर में लहराती तरंगें हैं।
  3. उत्कृष्ट रस संयोजना-सूर की उत्कृष्ट रस संयोजना के आधार पर डॉ. श्यामसुन्दर दास ने उन्हें रससिद्ध कवि’ कहकर पुकारा है। सूर के काव्य में शान्त, श्रृंगार और वात्सल्य रस की त्रिवेणी प्रवाहित है।
  4. अद्वितीय वात्सल्य-सूरदास ने कृष्ण के बाल-चरित्र, शरीर सौन्दर्य, माता-पिता के हृदयस्थ वात्सल्य का जैसा स्वाभाविक एवं मनोवैज्ञानिक सरस वर्णन किया है, वैसा वर्णन सम्पूर्ण विश्व साहित्य में दुर्लभ है। सूर वात्सल्य के अद्वितीय कवि हैं।
  5. श्रृंगार रस वर्णन-सूर ने अपनी रचनाओं में श्रृंगार के दोनों पक्षों-संयोग और वियोग का चित्रण करके उसे रसराज सिद्ध कर दिया है। आचार्य रामचन्द्र शक्ल ने कहा है, “श्रृंगार का रस-राजत्व यदि हिन्दी में कहीं मिलता है तो केवल सूर में।”
  • कला-पक्ष
  1. लालित्य प्रधान ब्रजभाषा-सूरदास ने बोलचाल की ब्रजभाषा को लालित्य-प्रधान बनाकर उसमें साहित्यिकता पैदा कर दी है। उनके द्वारा प्रयुक्त भाषा-सरल, सरस एवं अत्यन्त प्रभावशाली है जिससे भाव प्रकाशन की क्षमता का आभास होता है। सूरदास ने अवधी और फारसी के शब्दों का प्रयोग करके एवं लोकोक्तियों के प्रयोग से अपनी भाषा में चमत्कार एवं सौन्दर्य उत्पन्न कर दिया है। भाषा माधुर्य सर्वत्र ही विद्यमान है। इस प्रकार सूर की काव्य भाषा एक आदर्श काव्य भाषा है।
  2. गेय-पद शैली-सूर ने गेय-पद शैली में काव्य रचना की है। माधुर्य और प्रसाद गुण युक्त शैली वर्णनात्मक है। उनकी शैली की वचनवक्रता और वाग्विदग्धता एक प्रधान विशेषता है।
  3. आलंकारिकता की सहज आवृत्ति-सूरदास के काव्य में अलंकार अपने स्वाभाविक सौन्दर्य के साथ प्रविष्ट से होते जाते हैं। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार, अलंकारशास्त्र तो सूर के द्वारा अपना विषय वर्णन शुरू करते ही उनके पीछे हाथ जोड़कर दौड़ पड़ता है। उपमानों की बाढ़ आ जाती है। रूपकों की वर्षा होने लगती है।”
  4. छन्द योजना की संगीतात्मकता-सूरदास ने मुक्तक गेय पदों की रचना की है। इन पदों में संगीतात्मकता सर्वत्र विद्यमान है।
  • साहित्य में स्थान

सूर अष्टछाप के ब्रजभाषा कवियों में सर्वश्रेष्ठ हैं। बाल प्रकृति-चित्रण, वात्सल्य तथा श्रृंगार में तो सूर अद्वितीय हैं। सूर का क्षेत्र सीमित है, पर उसके वे एकछत्र सम्राट हैं। जब तक सूर की प्रेमासिक्त वाणी का सुधा प्रवाह है, तब तक हिन्दू जीवन से समरसता का स्रोत कभी सूखने नहीं पाएगा और उसका मधुर स्वर सदैव हिन्दी जगत में गूंजता रहेगा।

भक्तिकाल के प्रमुख कवि सूरदास अपनी रचनाओं, काव्य कला और साहित्यिक प्रतिभा के कारण निःसन्देह साहित्याकाश के ‘सूर’ ही हैं। इन सभी विशेषताओं के कारण यह

दोहा अक्षरशः सत्य है
“सूर सूर तुलसी ससी,
उडुगन केसव दास।
अब के कवि खद्योत सम,
जहँ-तहँ करत प्रकाश।।”

4. स्वामी रामभद्राचार्य ‘गिरिधर’

  • जीवन-परिचय

कवि रामभद्राचार्य ‘गिरिधर’ का जन्म जनवरी महीने की चौदहवीं तारीख को सन् 1950 ई. में उत्तर-प्रदेश के जौनपुर जिले के गाँव शाणीपुर में हुआ था। इनका पूरा नाम स्वामी रामभद्राचार्य है। दो वर्ष की अल्पायु में ही इनके दोनों नेत्रों की ज्योति सदा के लिए चली गई और ये कुछ भी देख नहीं सकते थे। इन्होंने अपने ही अध्यवसाय से और निरुत्साहित हुए बिना ही विद्यार्जन का उपाय स्वयं ढूंढ़ निकाला और अभ्यास करके ही श्रीमद्भगवद्गीता एवं रामचरितमानस इन्हें कंठस्थ हो गये। श्री ‘गिरिधर’ जी (जो इसी उपनाम से प्रसिद्ध हैं और लोगों द्वारा समादरित होते हैं) ने अपनी सभी परीक्षाओं में प्रथम से लेकर एम. ए. तक-99 (निन्यानवे) प्रतिशत अंक प्राप्त किये। आपके ऊपर माँ शारदा के असीम कृपा और वरदहस्त रहा है। ‘होनहार विरवान के होत चीकने पात वाली कहावत अक्षरशः सत्य सिद्ध होती है। वे उच्चतर शिक्षा प्राप्त करने के प्रत्येक अवसर को प्राप्त करने में कभी पीछे नहीं रहे। इन्होंने संस्कृत व्याकरण सम्बन्धी किसी महत्वपूर्ण विषय में पी-एच. डी. की डिग्री प्राप्त करके अपनी कुशाग्र बुद्धित्व का परिचय दिया तथा कुछ समय के बाद संस्कृत के किसी अति महत्वपूर्ण विषय में डी. लिट. की उपाधि भी प्राप्त कर ली।

उपर्युक्त विवरण हम सभी के लिए प्रेरणा का स्रोत है। परि श्रम और निरन्तर अध्यवसाय से मनुष्य अपने ध्येय तक पहुँचने में सफल हो सकता है। सफलता के शिखर पर उत्साही और अपनी क्षमताओं में अटूट विश्वास रखने वाले ही पहुँचकर अपने देश और समाज को उन्नति पथ पर ले जाते हैं। ऐसे ‘गिरिधर’ जी को हम सम्मान प्रतिष्ठा देते हुए गौरवान्वित अनुभव करते हैं।

MP Board Solutions

  • साहित्य-सेवा

श्री ‘गिरिधर जी ने हिन्दी साहित्य और संस्कृत साहित्य के विकास के लिए निरन्तर प्रयास किया। उन्होंने दोनों भाषाओं में अनन्यतम ग्रंथों की सर्जना करके सूरकालीन भक्तियुग की परम्पराओं को अक्षुण्य बनाने का सतत् प्रयास किया है। उनका प्रयास अत्यन्त स्तुत्य है। भाषा में शास्त्रीयता विद्यमान है, साथ ही साथ लोकभाषा के प्रयोग एवं उसके सम्वर्द्धन के प्रयास अभी भी निरन्तर किए जा रहे हैं। संस्कृत भाषा को सामान्य जनभाषा के रूप में विकसित करने का तथा उसके प्रयोग की विधि में सरलता, सरसता एवं प्रवाह उत्पन्न करने का प्रयत्न आपके द्वारा किया जा रहा है। हमें विश्वास है कि ‘गिरिधर’ जी के दिशा निर्देशन में हिन्दी साहित्य एवं संस्कृत साहित्य अपने चरम विकास को प्राप्त कर सकेगा।

  • रचनाएँ

स्वामी रामभद्राचार्य द्वारा रचित कृतियाँ निम्नलिखित हैं

  1. प्रस्थानमयी काव्य-प्रस्थानमयी काव्य की रचना आचार्य जी ने संस्कृत भाषा में की है। इस ग्रंथ की भाषा में सरसता और सरलता है तथा भाव-सम्प्रेषण की क्षमता विद्यमान है।
  2. भार्गव राघवीयम् महाकाव्य-‘भार्गव राघवीयम्’ एक महाकाव्य है। इसकी रचना संस्कृत भाषा में की गई है। अपने प्रकार का यह अद्वितीय महाकाव्य है।
  3. अरुन्धती महाकाव्य-इस महाकाव्य की रचना कवि श्री रामभद्राचार्य जी ने हिन्दी भाषा में की है। विषयवस्तु समाज के परिवेश में नवीनता उत्पन्न करके सुधार की परिकल्पना से सम्बन्ध रखती है।

उपर्युक्त के अलावा राघवगीत गुंजन, भक्तिगीत सुधा एवं अन्य 75 ग्रन्थों की रचना हिन्दी भाषा में की गई है। हिन्दी का स्वरूप परिष्कृत और परिमार्जित है।

साहित्य और शिक्षा क्षेत्र के विकास के लिए आपने ‘जगद्गुरु’ रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय’ की स्थापना चित्रकूट में की है। शासन द्वारा आपको इस विश्वविद्यालय का जीवनपर्यन्स कुलाधिपति बनाया गया है।

साहित्य सेवा के लिए पुरस्कार-आपको भारतीय संघ के महामहिम राष्ट्रपति द्वारा

  1. महर्षि वेदव्यास वादरायण पुरस्कार दिया गया है। इस पुरस्कार के लिए जीवनपर्यन्त एक लाख रुपये प्रतिवर्ष दिए जाते हैं।
  2. भारत सरकार, नई दिल्ली द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया है। इसके लिए पचास हजार रुपये दिये जाते हैं।
  3. दो लाख का श्री वाणी अलंकरण-यह पुरस्कार रामकृष्ण डालमिया वाणी न्यास, नई दिल्ली द्वारा दिया गया।
  • भाव-पक्ष
  1. प्रेम और हृदय की उदात्तता-कविरामभद्राचार्य की रचनाओं के भाव पक्षीय सबलता स्तुत्य है। हृदयगत भाव वास्तुजगत के प्रभाव से अनुभूतिजन्य हैं जिनमें प्रेम और हृदय की उदात्तता परिलक्षित होती है।
  2. वात्सल्य रस, भक्ति रस के परिपाक से सम्प्रक्त होकर अति पुष्ट होता गया है।
  • कला-पक्ष
  1. भाषा-भाषा भावानुकूल प्रयुक्त हुई है। उसमें शास्त्रीयता का प्राधान्य है। भाषा का परिष्कृत स्वरूप लोकभाषा के विकास को नई दिशा देते हैं। अतः लोकभाषा में प्रवाह की प्रबलता है।
    कवि ने भाव को स्पष्ट करने के अनुरूप ही भाषा का प्रयोग किया है।
  2. शैली-कवि ने सूरदास की मुक्तक गेय-पद शैली को अपनाया है। उसमें विषय की विशदता और गम्भीरता को अनायास ही सरसता देकर एक विशेष शैली का अन्वेषण किया है।
  3. अलंकार योजना-कवि का अपने काव्य में अलंकार संयोजन सप्रयोजन नहीं होता है। वह तो अनायास ही भाव के अभिव्यक्तिकरण के लिए अपने आप ही प्रवेश प्राप्त कर लेते हैं। इनकी कृतियों में उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अनुप्रास आदि महत्त्वपूर्ण सभी अर्थालंकारों और शब्दालंकारों का प्रयोग परिलक्षित होता है।
  4. छंद-योजना-कवि ने मुक्तक-छंद की संयोजना की है जिसे हम भक्तियुगीन सूरदास के छंद विधान के समकक्ष पाते हैं। अन्तर है, तो केवल भाषा का। सूर की भाषा परिष्कृत ब्रजभाषा है और रामभद्राचार्य जी की भाषा परिनिष्ठित खड़ी बोली हिन्दी।
  • साहित्य में स्थान

कवि रामभद्राचार्य ‘गिरिधर’ हिन्दी और संस्कृत भाषा के विकास के लिए प्रयासरत हैं। उनके रचित ग्रन्थ हिन्दी और संस्कृत साहित्य की अक्षुण्यनिधि हैं। हम आशा करते हैं कि आपके द्वारा संस्कृत और हिन्दी साहित्य का विकास दिशा निर्दिष्ट होता रहेगा। हिन्दी और संस्कृत जगत आपके नृत्य कार्यों के लिए चिरऋणी है।

5. पद्माकर
[2011]

  • जीवन-परिचय

पद्माकार रीतिकाल के श्रेष्ठ कवियों में से एक हैं। इनके पूर्वज दक्षिण भारत के तेलंग ब्राह्मण थे। पद्माकर के पिताजी का नाम श्री मोहनलाल भट्ट था। वे मध्य प्रदेश के सागर में आकर बस गए थे। यी (सागर में ही) पद्माकर जी का जन्म सन् 1753 ई. में हुआ था। सागर के तालाब घाट पर पद्माकर जी की मूर्ति स्थापित है। पद्माकर एक प्रतिभा सम्पन्न कवि थे। ‘कवित्त’ छन्द की रचना करने की अलौकिक क्षमता व कौशल उन्हें वंश-परम्परा से प्राप्त था। कवित्त शक्ति और क्षमता सम्पन्न पद्माकर ने मात्र नौ वर्ष की उम्र से ही कवित्त-रचना करना शुरू कर दिया था।

पद्माकर जी रीतिकालीन कवि थे। वे राजदरबारी श्रेष्ठ कवि थे। उन्होंने राजाओं की प्रशंसा में अनेक कृतियों की रचना की। राजाओं की प्रशंसा करते हुए उन्होंने हिम्मत बहादुर विरुदावली, प्रतापसिंह विरुदावली और ‘जगत-विनोद’ की रचना की। समय की प्रबलता से जीवन के अन्तिम समय में उन्हें कुष्ठ रोग हो गया था। उस रोग की मुक्ति के लिए उन्होंने गंगाजी की स्तुति की। गंगा की स्तुति में उन्होंने गंगा-लहरी’ काव्य की रचना की। इस काव्यकृति की रचना करते हुए ही यहीं पर 80 वर्ष की उम्र में सन् 1833 ई. में उनका निधन हो गया।

  • साहित्य-सेवा

पद्माकर जी ने जीवन पर्यन्त साहित्य की अचूक सेवा की। राजदरबार में रहकर श्रेष्ठ काव्य-साहित्य की रचना करना अपने आप में एक बहत ऊँची साधना की। रीतिकालीन परम्पराओं का निर्वाह करते हुए उन्होंने अपने आश्रयदाता राजा-महाराजाओं की प्रशंसा करने में शृंगार प्रधान रचनाओं की सर्जना की। वे निरन्तर ही साहित्य सेवा में संलग्न रहे। रीति युग की विशेषताओं का समावेश पद्माकर की काव्य प्रणाली बन चुकी थी। श्रृंगार के दोनों ही पक्षों-संयोगावस्था व वियोगावस्था में नायक और नायिकाओं के चित्रण अद्वितीय काव्य कौशल से उभारे हैं। समय-समय पर अपनी काव्यकृतियों की भाव-व्यंजना के लिए पद्माकर जी को अन्य राजाओं ने पुरस्कृत करके सम्मानित भी किया।

पद्माकर अपनी साहित्य सेवाओं के लिए सदैव स्मरण किए जाते रहेंगे। उन्होंने अपने कवित्त छंद के प्रयोग के माध्यम से प्रकृति, प्रेम भक्ति और रूप का चित्रण किया है। उन्होंने अलौकिक भाव-भंगिमाओं के चित्र उकेरते हुए अपने मनोभावों की सूक्ष्मता को स्पष्ट किया है।

  • रचनाएँ

पद्माकर ने निम्नलिखित ग्रंथों की रचना की है। वे इस प्रकार हैं-

  1. पद्माभरण,
  2. जगत विनोद,
  3. आलीशाह प्रकाश,
  4. हिम्मत बहादुर विरुदावली,
  5. प्रतापसिंह विरुदावली,
  6. प्रबोध पचासा,
  7. गंगालहरी तथा
  8. राम रसायन।

पद्माकर के काव्य ग्रंथों की विषय-वस्तु-पद्माकर द्वारा प्रणीत ग्रंथ अपने आप में हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। इनके द्वारा कवि ने प्रकृति के विविध स्वरूपों का चित्र उकेरा है। इनका षट्ऋतु वर्णन बहुत ही प्रसिद्ध है। प्रत्येक ऋतु के प्रभाव और मानव-मन में उत्पन्न होते विकारों का बेलाग वर्णन पद्माकर जी की विविधतामयी बुद्धि कौशल की देन है। इसके अतिरिक्त पद्माकर ने प्रेम को ईश्वरीय रूप में प्रतिष्ठापित किया है। उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से सिद्धान्त निरूपति करते हुए कहा है कि-

MP Board Solutions

  1. लौकिक प्रेमानुभूति ही अलौकिक (ईश्वरीय) प्रेम की अनुभूति का आधार है।
  2. लौकिक प्रेम ही मानवीय रचनात्मकता से सीधा सम्बन्ध रखता है।
  • भाव-पक्ष

(1) प्रकृति चित्रण-पद्माकर ने अपने काव्य कौशल से प्रकृति के उद्भ्रान्त स्वरूप को षट्ऋतु वर्णन में अनेक अनुभूतियों के माध्यम से वर्णन करके प्रस्तुत किया है। प्रकृति और मानव सम्बन्धों की घनिष्ठता को काव्यभाषा ब्रजभाषा के प्रयोग से परिभाषित किया है।

(2) भक्ति-पद्माकर अपनी बढ़ती उम्र के पड़ाव पर पहुँचकर शारीरिक कष्टों से पीड़ित करने लगे। अत: उनका स्वाभाविक रूप से झुकाव ईश्वर और इष्ट-भक्ति की ओर हो चला था। पद्माकर की वैराग्य भावना का प्राकट्य उनकी अमर कृतियों-गंगा-लहरी, प्रबोध पचासा तथा राम रसायन में अपने आप ही हो चला है।

(3) रस-संयोजना-पद्माकर की सभी कृतियों में प्रेम का विस्तार और विकास भक्ति, वात्सल्य तथा दाम्पत्य भाव के अन्तर्गत हुआ है। प्रेम की पृष्ठभूमि ‘रति’ नामक स्थायी भाव से होती है। अतः कवि ने श्रृंगार रस का प्रयोग अपनी संयोग और वियोग की दोनों ही अवस्था में चरम तक पहुँचा दिया है। कवि द्वारा संयोगवस्था में प्रिय और प्रियतमा की रूप चेष्टा का वर्णन उनकी काव्य कला की अनुपम धरोहर बन चुकी है। इसके विपरीत वियोग की अवस्था में प्रिय से वियुक्त हुई प्रियतमा स्मृतिजन्य वेदना-व्यथा से व्यथित होती हुई प्रेम की केन्द्रीय भावभूमि में पहुँच चुकी होती है। इस प्रकार पद्माकर के काव्य में प्रेम और श्रृंगार का अनुभूतिपरक चित्रण हुआ है जो अनुपमेय है। उनके द्वारा किया गया प्रेम की एकान्तिक दशा तथा प्रेम परिपूर्ण बहानों का विवेचन इस बात को स्पष्ट करता है कि पद्माकर मनोभावों की सूक्ष्मता के पारखी थे।

  • कला-पक्ष

(1) भाषा-पद्माकर ने ब्रजभाषा में काव्य रचना की है। उनकी प्रारम्भिक रचनाओं में (कविता में) बुन्देली का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। इस बुन्देली के साथ ही कहीं उर्दू, फारसी के प्रचलित शब्दों का प्रयोग बहुत अधिक हुआ है। पद्माकर की भाषा परिष्कृत और बोझिल सी प्रतीत होती है। यद्यपि उन्हें भाषा पर अप्रतिम रूप से अधिकार प्राप्त था।
(2) शैली-पद्माकर एक राजदरबारी कवि थे अतः उनकी शैली वर्णन प्रधान थी। चित्रोपम वर्णन अपनी काव्यकृति के लिए उनकी अनूठी देन है। उन्होंने अलंकार प्रधान शैली का विकास स्वयं ही किया है। यह शैली प्रायः सभी राजदरबारी कवियों के काव्य में प्रतिष्ठापित हुई है। अतः यह परम्परागत शैली है जो रीतिकालीन काव्य की विशेषताओं में से एक अन्यतम विशेषता है।
(3) अलंकार-पद्माकर ने अपनी काव्य कृतियों में यथास्थान अलंकारों का प्रयोग किया है। अनुप्रास अलंकार उनका अति प्रिय अलंकार है। इसके प्रयोग के सौन्दर्य का अवलोकन एक ही उदाहरण से हो जाएगा

“कूलन में, केलिन में, कछारन में, कुंजन में।
क्यारिन में, कलिन कलीन किलकत हैं।।”

पद्माकर ने अनुप्रास के अतिरिक्त यमक, श्लेष, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का भी प्रयोग किया है। अनुप्रास के प्रयोग से ध्वनि चित्र खड़ा करने में पद्माकर अद्वितीय हैं।

(4) मुहावरे व लोकोक्तियाँ-पद्माकर की कविताओं में भाव को स्पष्टता प्रदान करने के उद्देश्य से मुहावरे और लोकोक्तियों का प्रयोग सफलता के साथ किया गया है। द्रष्टव्य है

“नैन नचाइ कही मुसकाइ, लला फिर आइयो खेलन होरी।” और
“अब तो उपाय एकौ चित्त पै चट्टै नहीं।।”

  • साहित्य में स्थान

पद्माकर निःसन्देह रीतिकाल के श्रेष्ठ कवियों में से एक थे। इनके द्वारा प्रयुक्त भाषा की विशेषता के सन्दर्भ में आचार्य रामचन्द्रशुक्ल ने लिखा है-“भाषा की सब प्रकार की शक्तियों (अभिधा व्यंजना आदि) पर इनका अधिकार स्पष्ट दीख पड़ता है। एक महान कवि की भाषा में अनेकरूपता हुआ करती है, उस सबका साक्षात् रूप पद्माकर की कविता में परिलक्षित होता है। आपने साहित्यिक अभिव्यक्ति और विकास की जो दिशा अपनी काव्यकृतियों के माध्यम से हिन्दी जगत को दिखाई है, उसके लिए अध्येता जगत आपका सदैव ऋणी रहेगा। वास्तविकता यह है कि पद्माकर रीतिकालीन परम्परा के उत्तरार्द्ध के प्रतिनिधि कवि हैं।

6. मतिराम

  • जीवन-परिचय

कविवर मतिराम के पिताजी का नाम रत्नाकर था। ये कानपुर के एक गाँव तिकवांपुर के रहने वाले थे। मतिराम के जन्म की निश्चित तिथि का निर्णय नहीं हो सका है। परन्तु इनका जन्म 17वीं शताब्दी में हुआ था। वे बूंदी के महाराज भावसिंह के दरबारी कवि थे। जन्मतिथि के समान ही मतिराम के निधन के सम्बन्ध में भी विवादास्पद स्थिति बनी हुई है।

मतिराम और भूषण दोनों ही सगे भाई थे। दोनों ही उच्चकोटि के कवि हुए। हिन्दी साहित्य में यह एक उदाहरण है। काव्य के क्षेत्र में इन दोनों (मतिराम और भूषण ने) ही ने उत्कृष्ट ख्याति प्राप्त की।

  • साहित्य-सेवा

मतिराम के काव्य के अनुशीलन से यह सिद्ध होता है कि उन्होंने उच्चकोटि की शिक्षा प्राप्त की होगी और श्रेष्ठ ग्रन्थों के प्रतिपादन में अपनी शास्त्रीय क्षमताओं का उपयोग किया। मतिराम ने कई ग्रंथों की रचना की है। उन सभी ग्रंथों में काव्य लक्षण निर्दिष्ट करते हुए विशिष्ट कवि कौशल को प्रदर्शित किया था। चमत्कार प्रदर्शन करने वाले लक्षण ग्रंथ हिन्दी साहित्य की अनूठी निधि हैं।

  • रचनाएँ

मतिराम ने कुल नौ ग्रंथों की रचना की है। लेकिन उनमें से कुल चार ग्रंथ ही उपलब्ध हैं, जो अग्रलिखित हैं

  1. फूल मंजरी,
  2. रसराज,
  3. ललित ललाम,
  4. मतिराम सतसई। (मतिराम सतसई में 703 दोहे सकंलित हैं।)

काव्य विषय-फूल मंजरी, रसराज, ललित ललाम उच्चकोटि के शास्त्रीय लक्षण ग्रंथ हैं। मतिराम सतसई में नीतिपरक दोहे हैं जिनमें व्यावहारिक पक्ष को स्पष्टता प्रदान की है। व्यवहार का उत्कृष्ट स्वरूप निखर आया है। लक्षण ग्रंथों में छंद, रस, काव्यांग, अलंकार प्रयोग की विधि, रूप सौन्दर्य वर्णन आदि प्रमुख विषय वस्तु रहे हैं।

  • भाव-पक्ष

(1) प्रेम-मतिराम ने अपनी काव्यकृति में सहज प्रेम के मर्मस्पर्शी चित्रों में जो भाव व्यक्त किए हैं, वे सभी सामान्य लोगों की सामान्य अनुभूति के अंग हैं।
(2) माधुर्य एवं रस प्रयोग-मतिराम की कविता में माधुर्यता सबसे अधिक है। ‘रसराज’ शीर्षक ग्रंथ में कवि ने रसों के प्रयोग किये हैं जिन्हें हम लाक्षणिकता से पूर्ण मान सकते हैं। श्रृंगार रस की भी प्रचुरता रही है। मतिराम का श्रृंगार वर्णन अद्वितीय है। संयोग और वियोग में मतिराम ने राधा-कृष्ण के माध्यम से श्रृंगार के विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों का मधुरिम चित्रण किया है। शील और सौन्दर्य चित्रण में कवि की विदग्धता परिलक्षित होती है।

  • कला-पक्ष
  1. भाषा-मतिराम की भाषा के विविध रूप दृष्टिगोचर होते हैं। उनकी भाषा विशुद्ध ब्रजभाषा है।
  2. शैली-मतिराम-रीतिबद्ध कवियों में शामिल किए जाते हैं। फिर भी इनकी कविता में कृत्रिमता नहीं है। काव्य में वास्तविक और व्यावहारिक शैली की प्रधानता होने से वर्णन प्रधान हो गई है। शैली में अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना आदि भाषायी शक्तियों का प्रयोग कवि ने अपनाया
  3. छन्द-योजना-कवि ने अपनी कृतियों में कवित्त, सवैया और दोहे आदि छन्दों का प्रयोग किया है। कवित्त और सवैया के माध्यम से उन्होंने अपने शास्त्रीय प्रयोग की उत्कृष्टता परिलक्षित कर दी है। उन्होंने छन्दों के प्रयोग में चमत्कार प्रदर्शन को दूर ही रखा है।
  4. अलंकार का चमत्कारपूर्ण प्रदर्शन-मतिराम अपनी सभी कृतियों के शब्द और अर्थ तथा अलंकार के प्रयोग में चमत्कारपूर्ण प्रदर्शन को अधिक पसन्द नहीं करते हैं। आपकी रचनाओं में अलंकारों का ही सर्वाधिक वर्णन किया गया है क्योंकि वे लक्षण ग्रन्थ हैं। अतः कविता में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, व्यतिरेक, अतिश्योक्ति आदि अलंकारों का प्रयोग उपयुक्त ही किया गया है। मतिराम का अलंकार विधान स्वाभाविक है। इससे उनकी रचना में सौन्दर्य की अभिवृद्धि हो गई है।

MP Board Solutions

  • साहित्य में स्थान

मतिराम रीतिकाल के शीर्षस्थ कवियों में माने जाते हैं। वे अपने सहज कृतित्व के लिए अति प्रसिद्ध हैं, इसलिए रीतिकालीन कवियों में उनका सबसे उच्च स्थान है। लक्षण ग्रन्थ के प्रणेता के रूप में सर्वत्र ख्याति प्राप्त व्यक्तित्व के धनी मतिराम हिन्दी साहित्य जगत में सदैव स्मरण किए जाते रहेंगे। वे अपने कर्त्तव्य कौशल से आचार्यत्व को प्राप्त महाकवि हैं।

7. कविवर वृन्द

  • जीवन-परिचय

रीतिकालीन परम्परा के अन्तर्गत कवि वृन्द का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। उनके नीति के दोहे बहुत प्रसिद्ध हैं। अन्य प्राचीन कवियों की भाँति वृन्द का जीवन परिचय भी प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत नहीं किया जा सकता।

पं. रामनरेश त्रिपाठी इनका जन्म सन् 1643 ई. में मथुरा (उत्तर प्रदेश) क्षेत्र के किसी गाँव का बताते हैं। परन्तु डॉ. नगेन्द्र का मत है कि कवि वृन्द का जन्म मेड़ता, जिला जोधपुर (राजस्थान) में हुआ था। इनका पूरा नाम वृन्दावन था। विद्याध्ययन के लिए इन्हें काशी भेज दिया गया। उस समय इनकी अवस्था सम्भवतः दस वर्ष की रही होगी। काशी में रहकर इन्होंने व्याकरण, साहित्य, वेदान्त तथा गणित दर्शन विषय का अध्ययन किया और ज्ञान प्राप्त किया। इसके साथ ही इन्होंने काव्य की रचना करना भी सीखना शुरू कर दिया। मुगल सम्राट औरंगजेब के दरबार में ये दरबारी कवि रहे। सन् 1723 ई. में इनको देहावसान हो गया।

  • साहित्य-सेवा

कवि वृन्द ने लोक जीवन का गहन अध्ययन करके काव्य में अपने अनुभवों का विशद विवेचन किया है। वृन्द के ‘बारहमासा’ में बारह महीनों का सुन्दर वर्णन मिलता है। भाव-पंचासिका’ में शंगार के विभिन्न भावों के अनुसार सरस छंद लिखे गए हैं। ‘शंगार-शिक्षा’ में नायिका भेद के आधार पर आभषण और अंगार के साथ नायिकाओं का चित्रण किया गया है। ‘नयन पचीसी’ में नेत्रों के महत्व का चित्रण है। छन्दों के लक्षणों के सन्दर्भ में ही इसी कृति में दोहा, सवैया और घनाक्षरी छन्दों का प्रयोग भी हुआ है। ‘नयन पचीसी’ में ऋतु वर्णन अत्यन्त आकर्षक है। हिन्दी में वृन्द के समान सुन्दर दोहे बहुत ही कम कवियों ने लिखे हैं। उनके दोहों का प्रचार शहरों से लेकर गाँवों तक में है। पवन पचीसी में षड्ऋतु वर्णन के अन्तर्गत वृन्द ने पवन के वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त और शिशिर ऋतुओं के स्वरूप और प्रभाव का वर्णन किया है।

उद्देश्य (ध्येय)-काव्य द्वारा जीवन को संस्कार युक्त बनाया जाता है। अगली पीढ़ियों तक जीवन के उच्च अनुभवों को संप्रेषित करने की शक्ति काव्य में होती है। जीवन जीना यदि एक कला है, तो इस कला की शिक्षा काव्य में समायी रहती है। व्यक्ति और समाज के स्वस्थ तालमेल में ही व्यक्ति के स्व-विकास का सही और उच्चकोटि की भूमिका निर्धारित होती है। इस तरह से जीवन-विकास की शिक्षा देने वाला काव्य ही नीतिपरक काव्य कहा जाता है। सभी युगों में कविता का जीवन-शिक्षा से गहरा सम्बन्ध रहा है। अत: कवि वृन्द ने अपने काव्य में नीति को स्थान दिया है।

विषय-वृन्द के दोहे जीवन शिक्षा के कोश हैं। उनका प्रत्येक दोहा जीवन के किसी न किसी अमूल्य अनुभव से परिपूर्ण है। प्रस्तुत दोहों में शिक्षाप्रद जीवन-सूत्रों को संकलित किया गया है। अवसर के अनुकूल बात कहना अति महत्वपूर्ण है। एक बार ही किसी को धोखा देकर सफलता प्राप्त की जा सकती है-बार-बार नहीं क्योंकि काठ की हाँड़ी एक बार ही चूल्हे पर चढ़ती है; फिर से चढ़ाने में तो वह अग्नि से नष्ट हो जाती है। वृन्द के दोहों की विषयवस्तु बहुत ही विस्तृत और विशद है। इसका प्रचलन जनसामान्य तक है।

  • रचनाएँ

कवि वृन्द की निम्नलिखित रचनाएँ अति महत्वपूर्ण हैं। इनके माध्यम से कवि ने काव्य रचना के अपने ध्येय की सम्पूर्ति की है। ये रचनाएँ इस प्रकार हैं

  1. बारहमासा,
  2. भाव पंचासिका,
  3. नयन पचीसी,
  4. पवन पचीसी,
  5. श्रृंगार शिक्षा,
  6. यमक सतसई। यमक सतसई में 715 दोहे हैं।

कवि वृन्द के द्वारा रचित दोहों को ‘वृन्द विनोद सतसई’ में संकलित किया गया है।

  • भाव-पक्ष
  1. नीति तत्त्व-कवि वृन्द ने अपनी कृतियों के अन्तर्गत नीति तत्त्व को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करके उन्हें आत्मविकास का पथ प्रदर्शित किया है। नीतिगत बात कहना, उसके अनुसार आचरण करना स्तुत्य होता है। ज्ञान प्राप्त करके प्रबुद्धजन समाज को विकास की दिशा निर्दिष्ट करते हैं।
  2. व्यावहारिक तत्त्व-कवि वृन्द ने अपने काव्य के माध्यम से व्यावहारिक पक्ष को उन्नत बनाये रखने की शिक्षा दी गई है।
  3. धैर्य गुण-धैर्यपूर्वक अपने कर्तव्य का निर्वाह करते रहने से जीवन सफलता की ओर अग्रसर होता रहता है।
    इस तरह कवि वृन्द ने अपनी कृतियों के द्वारा प्रतिदिन के व्यवहार में आने वाली महत्त्वपूर्ण बातों की शिक्षा देते हुए व्यक्ति और समाज के परस्पर सम्बन्धों को सापेक्षक बनाने का प्रयास किया है।
  4. रस-कवि वृन्द ने ‘भाव पंचासिका’ में श्रृंगार के विभिन्न भावों की अनुभूति कराने वाले छन्द लिखे हैं। नायिकाओं के श्रृंगार सम्बन्धी चित्रण अति मनमोहक बन पड़े हैं जिनके द्वारा संयोग और वियोग की अवस्थाओं की अभिव्यक्ति विषय और वातावरण के अनुकूल हुई है। नीति व व्यवहारपरक दोहों में शान्त रस का परिपाक हुआ है।
  5. प्रकृति चित्रण-कवि के द्वारा अपने ‘बारहमासा’ में बारह महीनों का सुन्दर वर्णन किया गया है। प्रत्येक महीने के बदलते स्वरूप का चित्रण मनुष्य के जीवन चक्र को प्रदर्शित करता है।
  • कला-पक्ष
  1. भाषा-कवि वृन्द के अपने काव्य में ब्रजभाषा के मिश्रित रूप को अपनाया है, जो आंचलिक शब्दावली से परिनिष्ठित है। भाषा के आंचलिक प्रयोग कवि के भाव को पाठकों तक सम्प्रेषित करने में पूर्ण सक्षम हैं। कवि के सूक्ष्मदर्शी व्यक्तित्व को उनकी भाषा पूर्णतः अभिव्यक्ति देने में सफल सिद्ध है। ब्रजभाषा के माध्यम से अपने काव्य में लोक जीवन को, अपने अनुभवों को, नीति भक्ति और लोकदर्शन आदि का विशद विवेचन प्रस्तुत किया है।
  2. शैली-वृन्द की रचनाएँ रीति परम्परा की हैं। उनकी ‘नयन-पचीसी’ युगीन परम्परा से जुड़ी हुई कृति है। इनकी कृतियों में किसी भी व्यवहार तत्त्व को सहज-सरस अभिव्यक्ति देकर लोकोक्ति का स्वरूप दे दिया गया है। जिसका प्रभाव सामान्य लोक जीवन पर प्रत्यक्ष रूप से देखा गया है। अलंकार प्रधान शैली को बारहमासा और षड्ऋतु वर्णन में अपनाया गया है। वस्तुतः वृन्द ने नीति शैली, आलंकारिक शैली, सूत्रशैली का प्रयोग अपने सम्पूर्ण काव्य में किया है।
  3. छन्द-कवि वृन्द का सर्वप्रिय छंद दोहा है। लेकिन दोहा के अतिरिक्त उन्होंने सवैया, घनाक्षरी छन्दों का भी प्रयोग किया है। इन छन्दों के प्रयोग से एवं विषयवस्तु के प्रतिपादन की शैली से कवि वृन्द के आचार्यत्व गुण व विशेषता का आभास होता है।।
  4. अलंकार-कवि वृन्द का यमक अलंकार के प्रति अत्यधिक झुकाव है। उन्होंने अपनी ‘यमक-सतसई’ में यमक अलंकार के विविध स्वरूप को अनेक प्रकार से स्पष्टता प्रदान की है। इस प्रकार से ‘यमक-सतसई’ लक्षण ग्रंथ ही है।
  • साहित्य में स्थान

कवि वृन्द ने अपने दोहों में लोक व्यवहार के अनेक अनुकरणीय सिद्धान्तों का उल्लेख किया है। उनकी रचनाएँ रीतिबद्ध परम्परा में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। उनकी रचनाओं में सरसता-सरलता, अभिव्यक्ति की सहजता एवं वाणी की विदग्धता विद्यमान है। अपनी साहित्यिक सेवा के लिए रीतिकाल के सभी कवियों में कविवर वृन्द अपना विशेष स्थान रखते हैं।

8. रहीम

  • जीवन-परिचय

रहीम का जन्म सन् 1556 ई. में हुआ था। इनका पूरा नाम अब्दुर्रहीम खानखाना था। वे अकबर के अभिभावक सरदार बैरम खाँ खानखाना के पुत्र थे। रहीम जी अकबर के एक मनसबदार थे और दरबार के नवरत्नों में प्रमुख थे। मुगल साम्राज्य के लिए इन्होंने अनेक युद्ध लड़े थे। परिणामतः अनेक प्रदेशों में जीत भी प्राप्त की थी। जागीर में इन्हें बड़े-बड़े सूबे और किले मिले हुए थे। किन्तु अकबर की मृत्यु के बाद जहाँगीर ने इन्हें राजद्रोही ठहराया और बन्दी बनाकर जेल में डाल दिया था। उनकी जागीरें जब्त कर ली गई थीं। इनकी मृत्यु सन् 1626 ई. में हो गयी।

MP Board Solutions

  • साहित्य-सेवा

रहीम हिन्दी साहित्य की दिव्य विभूति हैं। उनकी वाणी में जो माधुर्य है, वह हिन्दी के बहुत थोड़े कवियों की रचनाओं में मिलता है। वे हिन्दी के ही नहीं, फारसी और संस्कृत के भी विद्वान थे। हिन्दी में वे अपने दोहों के लिए प्रसिद्ध हैं। इन दोहों में नीति, ज्ञान, श्रृंगार और प्रेम का इतना सुन्दर समन्वय हुआ है कि मानव हृदय पर उसका बहुत गहरा और स्थायी प्रभाव पड़ता है। अपनी विविध आयामी सेवाओं से रहीम ने हिन्दी साहित्य की सेवा की है। उनकी साहित्यिक सेवाओं से हिन्दी साहित्य विकसित होकर पुष्ट भी हुआ है। . विषय तथा उद्देश्य-रहीम की कविता का विषय नीति और प्रेम है। अनेक सूक्तियों और नीति सम्बन्धी दोहे आज भी मनुष्य जाति का पथ-प्रदर्शन करते हैं। रहीम की मित्रता उस समय के लोक कवि एवं लोकनायक तुलसीदास जी से थी।

रहीम के दोहों की विषयवस्तु विविधता लिए हुए है। रहीम जी ने भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, धर्म, नीति, सत्संग, प्रेम, परिहास, स्वाभिमान आदि सभी विषयों पर सफलतापूर्वक अपने भावों को अपने छोटे से दोहा छंद में अभिव्यक्ति दी है। इस्लामी सभ्यता के परिवेश में रहीम जी का परिपालन और पोषण हुआ, परन्तु भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति रखते थे। तात्पर्य यह है कि रहीम जी हिन्दू संस्कृति, सभ्यता, दर्शन और धर्म तथा विश्वासों के प्रति निष्ठावान् थे।

रहीम की लोकप्रियता-रहीम, वस्तुतः अपने नीति के दोहों के लिए ही हिन्दी भाषा-भाषी जनता में अत्यधिक लोकप्रिय हैं। अपने नीति के दोहों में वह एक शिक्षक और उपदेशक के रूप में हमारे सामने आते हैं। उन्होंने अपने भावों की अभिव्यक्ति सरल, सुबोध शब्दों में की है।

  • रचनाएँ

रहीम की निम्नलिखित काव्य कृतियाँ बहुत ही प्रसिद्ध हैं

  1. रहीम सतसई-यह रहीम के नीति परक दोहों का संग्रह है। इन दोहों में जीवन के भिन्न-भिन्न क्षेत्र से सम्बन्धित नीतियों का प्रतिपादन किया गया है। अभी तक इसके तीन सौ के लगभग दोहे प्राप्त हुए हैं।
  2. शृंगार सतसई-यह शृंगार प्रधान काव्य रचना है। अभी तक इसके कुल छः छन्द ही उपलब्ध हुए हैं।
  3. मदनाष्टक-इसमें कृष्ण और गोपिकाओं की प्रेममयी लीलाओं का भावपूर्ण वर्णन किया गया है।
  4. बरवै नायिका भेद-यह 115 छन्दों का नायिका भेद पर लिखित ग्रंथ है। सम्भवतः यह हिन्दी का सबसे पहला काव्य ग्रंथ है।

उपर्युक्त के अतिरिक्त रहीम की अन्य रचनाओं में-श्रृंगार सोरठा, रास-पञ्चाध्यायी, नगर शोभा, फुटकल बरवै तथा फुटकल कवित्त सवैये भी प्रसिद्ध हैं।

  • भाव-पक्ष
  1. हृदय पक्ष की प्रधानता-रहीम भक्ति एवं नीति के प्रसिद्ध कवि हैं। वे भगवान कृष्ण के अनन्य उपासक थे। इनकी कविता में हृदयपक्ष की प्रधानता तथा भाव अभिव्यंजना की अपूर्व शक्ति मिलती है।
  2. काव्यगत मार्मिकता-रहीम जी अपने जीवन में सरल, सरस और उदार प्रकृति के बने रहे, उसी तरह इनकी कविता में भी सरलता एवं मार्मिकता के दर्शन होते हैं। इनकी कविताएँ हृदय की सच्ची अनुभूति से सम्पुक्त अभिव्यक्ति हैं। इस कारण वे अत्यन्त आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक
  3. नीति, श्रृंगार और प्रेम का समन्वय-रहीम काव्य क्षेत्र में अत्यन्त कौशल प्राप्त विद्वान कवि थे और कृष्ण उपासक भी। इनके काव्य में गहरे अनुभवों की छाप सर्वत्र मिलती है, विशेषतः दोहों में। इनके दोहे संवेदनशील हृदय की मार्मिक उक्तियाँ हैं। इनमें नीति, श्रृंगार और प्रेम का बहुत सुन्दर समन्वय हुआ है।
  • कला-पक्ष
  1. भाषा-रहीम ने ब्रजभाषा और अवधी दोनों ही भाषाओं में काव्य-रचना की है। उनका दोनों भाषाओं पर समान अधिकार है। वे हिन्दी, संस्कृत, अरबी और फारसी के उच्चकोटि के विद्वान थे। अतः इन सभी भाषाओं के शब्दों की आवृत्ति इनकी रचनाओं में खूब होती रही है।उनकी भाषा में बाह्य आडम्बर अथवा पाण्डित्य प्रदर्शन की भावना नहीं है। उसमें स्वाभाविक सौन्दर्य है। उनकी भाषा, परिमार्जित, परिष्कृत और माधुर्य गुण प्रधान है।
  2. शैली-रहीम की शैली सरल, सरस और सुबोध है। उनकी शैली अपने अनुभवजन्य रत्नों से परिपूर्ण है। भावों की व्यंजना करना इनकी शैली की अप्रतिम विशेषता है।
  3. रस-रहीम के काव्य में शृंगार, शान्त एवं हास्य रसों की निष्पत्ति सर्वत्र होती है। उन्होंने श्रृंगार रस के दोनों ही पक्षों-वियोग व संयोग का चित्रण बहुत ही अनूठे ढंग से किया है।
  4. अलंकार-रहीम की रचनाओं में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त आदि अलंकारों का विशेष रूप से प्रयोग हुआ है।
  5. छन्द-दोहों को छोड़कर रहीम ने बरवै, कवित्त, सवैया, सोरठा, पद आदि सभी छन्दों में रचनाएँ की हैं। बरवै छन्द के तो वे जनक ही कहे जाते हैं।
  6. मुहावरे व लोकोक्तियाँ-रहीम ने अपनी रचनाओं में मुहावरे और लोकोक्तियों का भी प्रयोग किया है जिससे विषय बोध में सरलता हो गई है।
  • साहित्य में स्थान

हिन्दी साहित्य में रहीम की रचनाएँ प्रत्येक हिन्दी भाषा-भाषी का पथ प्रशस्त करती रहेंगी। कवित्व क्षेत्र में दिया गया उनका योग अविस्मरणीय है।

9. सेनापति

  • जीवन-परिचय

हिन्दी काव्य के प्रांगण में प्रकृति-चित्रण की अनुपम छटा बिखेरने वाले कवियों में सेनापति का नाम अत्यन्त आदर के साथ लिया जाता है। सेनापति की प्रमाणित जीवनी अन्य अनेक प्राचीन कवियों की भाँति उपलब्ध नहीं है। उनके जीवन के विषय में कुछ सूचनाएँ उन्हीं के द्वारा लिखित एक कवित्त के आधार पर उपलब्ध हैं, जिसके अनुसार उनका जन्म उत्तर प्रदेश में गंगा के तट पर स्थित अनूपशहर (बुलन्दशहर जनपद) में सन् 1589 के आस-पास हुआ था। इनके पिता गंगाधर दीक्षित थे। इनके पितामह परशुराम दीक्षित ने इन्हें हीरामणि दीक्षित नामक किसी काव्यज्ञ से काव्यशास्त्र की शिक्षा में दीक्षित करवाया। आश्चर्य है कि सेनापति ने अपने वास्तविक नाम का उल्लेख कहीं नहीं किया है। सेनापति उनका उपनाम था, जिसका उपयोग उन्होंने अपनी कविता में किया है। उनकी रचनाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि वे कई राजाओं और नवाबों के दरबार में रहे थे। उनके आश्रयदाताओं ने उन्हें पर्याप्त सम्मान भी दिया था। जीवन के अन्तिम दिनों में वे विरक्त होकर वृन्दावन में रहने लगे थे। उन्होंने लिखा है सेनापति चाहता है सफल जनम करि।

वृन्दावन सीमा तें बाहर न निकसिबो। सेनापति का निधन सन् 1649 ई. में हुआ था। साहित्य-सेवा कविवर सेनापति रीतिकाल के उल्लेखनीय और विशिष्ट कवियों की श्रेणी में आते हैं। उन्होंने मानव सहचरी प्रकृति का चित्रण अपने सूक्ष्म निरीक्षण के आधार पर किया है। सेनापति ने प्रकृति की बदलती छवियों का मनोहारी दिग्दर्शन अपने कलात्मक परिवेश में कराया है। अपने द्वारा रचित ग्रन्थों में संवेदनाओं से भरपूर हृदय वाले कवि सेनापति ने अपने काव्य में हमारी जीवन पद्धति को चित्रांकित कर यह उपदेश दे दिया है कि परिवर्तन का यह दिशाचक्र बिना रुके मानव को गतिशील बनाए रखता है। क्योंकि गतिशीलता ही जीवन है, तो गतिहीनता मृत्यु।

ध्येय-कवि का कर्तृत्व (काव्य) सोद्देश्य होता है। प्रकृति ने मनुष्य की संवेदनाओं को विस्तार दिया है और प्रकृति ही मनुष्य के भाव जगत को व्यापकता प्रदान करती है। आलम्बन और उद्दीपन रूप में अभिव्यक्त प्रकृति मनुष्य को अपने उदार भावों-दयालुता, धीरता, उद्देश्य की दृढ़ता एवं आत्म-क्षमताओं का विकास करने का सदुपदेश देकर एक शिक्षक और हितोपदेशक का कार्य करती है। इसी ध्येय से कवि ने अपने द्वारा रचित काव्य में अपने काव्य-कौशल का दिग्दर्शन कराया है।

  • रचनाएँ

इनकी दो रचनाएँ मानी जाती हैं-‘काव्यकल्पद्रुम’ और ‘कवित्त रत्नाकर’। पहली रचना अप्राप्य है। ‘कवित्त रत्नाकर’ में पाँच तरंगें हैं और कुल 394 छन्द हैं। पहली तरंग में श्लेष, दूसरी में श्रृंगार, तीसरी में ऋतु वर्णन, चौथी में रामकथा और पाँचवीं में भक्ति विषयक पद संकलित हैं।

  • भाव-पक्ष

(1) भक्ति भावना-सेनापति की कविताओं में उनकी भक्ति-भावना प्रकट हुई है। वे अपनी भक्ति-भावना के क्षेत्र में वैष्णव-सम्प्रदाय से बहुत प्रभावित थे। वे राम के अनन्य भक्त थे। किन्तु कृष्ण और शिव से भी उन्हें प्रेम था। वैष्णव-भक्त कवियों की भाँति वे गंगा में आस्था रखते थे।
(2) रस-कवि सेनापति ने अपनी कविताओं में रसोत्कर्ष पर ध्यान दिया है। उनमें रस निष्पत्ति भरपूर हुई है। कहीं-कहीं उनके काव्य में रसानुभूति का प्रवाह कुछ मन्द हुआ है, क्योंकि वहाँ अलंकारों का उत्कर्ष और चमत्कार बढ़ गया है। उनके काव्य में शृंगार, भक्ति और वीर रस की प्रधानता है। उन्होंने शृंगार के दोनों पक्षों का निरूपण बहुत गम्भीरता से किया है।

द्रष्टव्य है-

आयो सखि सावन, विरह सरसावन।
लग्यौ है बरसावन, सलिल चहु और तै।।

(3) ऋत वर्णन-सेनापति के काव्य की विशेषता है उनका ऋत वर्णन। रीतिकाल के कवियों ने ऋतु वर्णन उद्दीपन-विभाव के अन्तर्गत किया है। किन्तु सेनापति ने ऋतु वर्णन आलम्बन विभाग के अन्तर्गत किया है। आलम्बन विभाव के अन्तर्गत प्रकृति के स्वतन्त्र रूप का चित्रण किया जाता है। उस पर नायक अथवा नायिका की भावनाओं का आरोप नहीं है। सेनापति ने अपने ऋतु वर्णन में अपने देश की छ: ऋतुओं को स्थान दिया है और वर्ण्य वस्तुओं की संश्लिष्ट योजना की है।

(4) प्रकृति चित्रण-प्रकृति चित्रण सेनापति की अपनी एक विशिष्टता है। कवि स्वयं प्रकृति की प्रत्येक क्षण बदलती छवि पर मन्त्रमुग्ध प्रतीत होता है। उनके द्वारा रचित कवित्तों में प्रकृति के स्वरूप को इस तरह प्रस्तुत किया है-द्रष्टव्य है

“मेरे जान पौनों,
सीरी ठौर को पकरि कौनों,
घरी एक बैठि कहूँ घामै बितवत है।”
“कातिक की राति थोरि-थोरि सियराति।”

  • कला-पक्ष

(1) भाषा-सेनापति ने साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। उनकी ब्रजभाषा के मुख्यतः दो रूप हैं-

  • क्लिष्ट ब्रजभाषा,
  • सरल ब्रजभाषा।

उन्होंने क्लिष्ट ब्रजभाषा का प्रयोग क्लिष्ट रचनाओं में किया है, जबकि चलती हुई एवं सरल ब्रजभाषा का प्रयोग उनकी रस-प्रधान रचनाओं में अनुभूत है। संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ ही आपने अरबी और फारसी के शब्दों का भी प्रयोग किया है। वे अपनी भाषा में शब्दों की तोड़-मरोड़ कभी नहीं करते। ओज, प्रसाद और माधुर्य उनकी भाषा में सर्वत्र देखे जा सकते हैं। उनकी भाषा सरल, सरस, कर्णप्रिय
और सुबोध है। कवि ने अनेक ध्वन्यात्मक शब्दों का आविष्कार किया है, जिनसे काव्य में संगीतात्मकता उत्पन्न हो गई है।

(2) शैली-सेनापति की शैली की दृष्टि से उनकी रचनाओं को दो रूपों में बाँटा जा सकता है-

  1. भावात्मक,
  2. वर्णनात्मक।

भावात्मक शैली में उन्होंने अनुभूतियों का और वर्णनात्मक शैली में घटनाओं, ऋतुओं, दृश्यों आदि का चित्रण किया है। इन दोनों प्रकार की शैलियों की भाषा अलंकार प्रधान है।

(3) अलंकार-सेनापति काव्य के क्षेत्र में अलंकारवादी सम्प्रदाय से प्रभावित थे। उनके अलंकारवादी होने का तात्पर्य यह नहीं कि उन्होंने रस के उत्कर्ष पर ध्यान नहीं दिया हो। इनकी रचनाओं में अलंकारों का उत्कर्ष है एवं चमत्कार से परिपूर्ण हैं। परन्तु यह कहा जाता है कि जिन रचनाओं में अलंकारों की चकाचौंध है, उनमें रस का प्रवाह बहुत ही मन्द है। सेनापति का सबसे प्यारा अलंकार श्लेष है। अनुप्रास, यमक, प्रतीप, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, भ्रान्तिमान, सन्देह और श्लेष आदि अलंकारों से उनकी कविता जगमगाती है।

MP Board Solutions

(4) छन्द-सेनापति के छन्दों में मनहरण कवित्त ही सर्वाधिक लोकप्रिय है। इसके अतिरिक्त उन्होंने घनाक्षरी, छप्पय और दोहे भी लिखे हैं।

  • साहित्य में स्थान

रीतिकालीन कवियों में प्रचलित परम्परा से हटकर काव्य रचना करने वाले कवियों में सेनापति का विशिष्ट स्थान है। आपका प्रकृति चित्रण तो अप्रतिम है। सेनापति की कविता शब्द चमत्कार तथा उक्ति वैचित्र्य की दृष्टि से अन्य कवियों के बीच सहज ही पहचानी जा सकती हैं। आपका ऋतु वर्णन हिन्दी साहित्य में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। इन सभी विशेषताओं के कारण हिन्दी जगत अपने आपको आपके द्वारा बहुत ही उपकृत समझता है। हिन्दी साहित्य में आपका नाम सदैव स्मरण किया जाता रहेगा।

10. सुमित्रानन्दन पन्त।
[2009, 11, 13, 17]

  • जीवन-परिचय

प्रारम्भ में छायावादी फिर प्रगतिवादी और अन्त में आध्यात्मवादी सुमित्रानन्दन पन्त का जन्म हिमालय की अनन्त सौन्दर्यमयी प्रकृति की गोद में बसे कर्माचल प्रदेश (अल्मोड़ा जिला) के कौसानी नामक ग्राम में सन् 1900 ई. (संवत् 1957 वि.) में हुआ था। जन्म के कुछ समय बाद इनकी माता सरस्वती देवी का देहावसान हो गया था। मातृहीन बालक ने प्रकृति माँ की गोद में बैठकर घण्टों तक चिन्तनलीन होना सीख लिया। इससे आभ्यन्तरिक विचारशीलता का संस्कार विकसित होने लगा। अपने गाँव और अल्मोड़ा के शासकीय हाईस्कूल से प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की और काशी से मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। सेन्ट्रल म्योर कॉलेज में एफ. ए. की कक्षा में अध्ययनरत सुमित्रानन्दन पन्त सन् 1921 ई. गाँधी जी के प्रस्तावित असहयोग आन्दोलन में शामिल हो गए। कॉलेज पढ़ाई छूट गई। बाद में स्वाध्याय से ही अंग्रेजी, संस्कृत एवं बंगला साहित्य का गहन अध्ययन किया। 29 सितम्बर, सन् 1977 ई. को प्रकृति का गीतकार हमारे बीच से उठ गया।

  • साहित्य-सेवा

इनका बचपन का नाम गुसाई दत्त था। कविता करने की रुचि बचपन से ही थी। इनकी प्रारम्भिक कविता ‘हुक्के का धुंआ’ थी। काव्य की निरन्तर साधना से शीर्षस्थ कवियों में प्रतिष्ठित हुए। कालाकांकर नरेश के सहयोगी रहे। ‘रूपाभ’ पद के सम्पादक का कार्य सफलतापूर्वक किया। बाद में सन् 1950 ई. में आकाशवाणी में अधिकारी बने। अविवाहित पन्त ने सारा जीवन साहित्य साधना में ही समर्पित कर दिया। साहित्य साधना के लिए भारत सरकार ने ‘पद्म-भूषण’ की उपाधि से अलंकृत किया। इन्हें साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ पुरस्कार भी प्राप्त हुए।

पन्त जी हिन्दी की नई धारा के जागरूक कवि और कलाकार हैं। प्रकृति सुन्दरी की गोदी में जन्म लेने तथा विद्यार्थी जीवन में अंग्रेजी कवि शैली, कीट्स, वर्ड्सवर्थ की स्वच्छन्द प्रवृत्तियों से अत्यधिक प्रभावित होने के कारण वे नई दिशा में अग्रसर हो गए। वे प्रकृति और जीवन की कोमलतम विविध भावनाओं के कवि हैं। प्रकृति की प्रत्येक छवि को, जीवन के प्रत्येक रूप को उन्होंने आत्म-विभोर और तन्मय होकर देखा है। उनके काव्य में दो धाराओं का समावेश हो गया है-एक में उनके कवि हृदय का स्पन्दन है, तो दूसरी में विश्व जीवन की धड़कन।

ध्येय-मुख्य रूप से पन्त जी दृश्य जगत के कवि हैं। पहले वे प्राकृतिक सौन्दर्य के कवि थे। बाद में, वे जीवन सौन्दर्य के कवि के रूप में बदल गए। पन्त जी विश्व में ऐसा समाज चाहते हैं जो एक-दूसरे के सुख-दुःख का सहगामी हो सके। पन्त की पंक्तियों में झाँककर देखिए-

“जग पीड़ित रे अति दुःख से, जग पीड़ित रे अति सुख से।
मानव जग में बट जाए, दुःख-सुख से और सुख-दुःख से।।”

  • रचनाएँ

पन्त जी की रचनाएँ निम्नलिखित हैं

  1. वाणी-प्रेम, सौन्दर्य और प्रकृति चित्रों से युक्त प्रथम रचना।
  2. पल्लव-छायावादी शैली पर आधारित काव्य संग्रह।
  3. गुञ्जन-सौन्दर्य की अनुभूति प्रधान गम्भीर रचना।
  4. युगान्त,
  5. युगवाणी,
  6. ग्राम्य-प्रगतिशील विचारधारा की मानवतावादी कविताएँ,
  7. स्वर्ण किरण,
  8. स्वर्ण धूलि,
  9. युगपथ,
  10. उत्तरा,
  11. अतिमा,
  12. रजत-रश्मि,
  13. शिल्पी,
  14. कला और बूढ़ा चाँद,
  15. चिदम्बरा,
  16. रश्मिबन्ध,
  17. लोकायतन महाकाव्य आदि उनके काव्य संग्रह हैं।।

उपर्युक्त के अतिरिक्त ‘ग्रन्थि’ (खण्डकाव्य), ज्योत्सना, परी, रानी आदि नाटक, हाट’ (उपन्यास), पाँच कहानियाँ (कहानी संग्रह), मधु ज्वाल’ उमर खैयाम की रूबाइयों का अनुवाद, तथा ‘रूपाभ’ पत्र का सम्पादन उनकी प्रतिभा का प्रमाण है।

उपाधि एवं पुरस्कार-लोकायतन-महाकाव्य है-उ. प्र. सरकार द्वारा दस हजार रुपये से पुरस्कृत।
‘कला और बूढ़ा चाँद’ पर साहित्य अकादमी का पाँच हजार रुपये से पुरस्कृत। ‘चिदम्बरा’ पर एक लाख रुपए का पुरस्कार ज्ञानपीठ द्वारा दिया गया। ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त करने वाले हिन्दी के सबसे पहले कवि थे पन्त जी। भारत सरकार ने ‘पद्य भूषण’ की उपाधि से अलंकृत किया।

  • भाव-पक्ष

(1) सुकुमार भावना और कोमल कल्पना-पन्त जी स्वभाव से अत्यन्त कोमल और सुकुमार स्वभाव थे। अतः उन्होंने अपने काव्य में कोमल बिम्बों का ही विधान किया है। उन्हें ‘कोमल भावनाओं का सुकुमार कवि’ कहा जाता है।
(2) वेदना की अनुभूति-पन्त के अनुसार कविता विरह से उठा हुआ गान होती है।

“वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान।
उमड़ कर नयनों से चुपचाप, वही होगा कविता अनजान।।”

(3) प्रकृति का सजीव चित्रण-पन्त जी का सारा जीवन प्रकृति की गोद में बीता, अतः प्रकृति के साथ ही उन्होंने भावात्मक तल्लीनता स्थापित कर ली। पन्त जी की कविता में प्रकृति के रूप, रंग, रस, गन्ध, ध्वनि तथा गति के चित्र प्राप्त होते हैं। गंगा में उतराती नाव का गतिमय चित्र प्रस्तुत है

‘मृदु मन्द-मन्द, मन्थर-मन्थर।
लघु तरणि हंसिनी-सी सुन्दर,
तिर रही खोल पालों के पर।।’

पन्त जी ने प्रकृति में आलम्बन, उद्दीपन, मानवीकरण और एक उपदेशिका के रूप को देखा है। इस तरह वे प्रकृति के अप्रतिम चितेरे हैं।

(4) प्रेम और सौन्दर्य का चित्रण-चिरकुमार कवि पन्त जी की कविता छायावादी है। इन्होंने प्रेम की भावना को और सूक्ष्म भावों के चित्रों को काव्य में उभारा है। संयोग और वियोग की अनुभूतियाँ भी चित्रोपम हैं।
(5) रहस्य भावना-अज्ञात और दिव्य सत्ता के प्रति जिज्ञासा को अपने ‘मौन-निमंत्रण’ में कहते हैं न जाने कौन, अये द्युतिमान आन मुझको अबोध अज्ञान।

सुझाते हो तुम पथ अनजान।
फेंक देते छिद्रों में गान।’
यह जिज्ञासा ही उनके रहस्यवाद की द्योतक है।

(6) मानवतावादी दृष्टिकोण-कवि मानव के आन्तरिक और बाह्य रूप पर अपनी दृष्टि डालते हैं

“सुन्दर है विहग, सुमन सुन्दर,
मानव तुम सबसे सुन्दरतम।।”

MP Board Solutions

(7) नारी के प्रति सहानुभूति-चिर पीड़िता नारी के प्रति अनन्त करुणा और सहानुभूति द्रष्टव्य है
“मुक्त करो नारी को मानव ! चिर वन्दिनी नारी को।”

(8) प्रगतिवाद-पन्त जी पर कार्ल मार्क्स का प्रभाव था। वे आदर्शों के आकाश से ठोस धरती पर उतरकर आने का स्वर-‘युगान्त’, ‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ में गुंजायमान करते हैं।
(9) दार्शनिकता-पन्त जी ने जीवन, जगत् और ईश्वर पर अपने दार्शनिक विचार व्यक्त किये हैं।

  • कला-पक्ष
  1. सशक्त भाषा-पन्त जी का भाषा कोमलकान्त पदावली से युक्त, सहज और सुकुमार है। उसमें चित्रमयता, लालित्य और ध्वन्यात्मकता विद्यमान है। माधुर्य प्रधान अनूठा शब्द चयन है। भावानुसार भाषा कोमलता को त्यागकर भयानकता को प्राप्त हो उठती है।
  2. छायावादी लाक्षणिक शैली-छायावाद से प्रभावित इनकी रचनाओं में लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता, ध्वन्यात्मकता तथा सजीव बिम्ब-विधान सर्वत्र द्रष्टव्य है।
  3. स्वाभाविक अलंकरण-इनकी रचनाओं में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, श्लेष, यमक, रूपकातिशयोक्ति एवं अन्योक्ति अलंकारों का मौलिक प्रयोग किया गया है। मानवीकरण, विशेषण विपर्यय, ध्वन्यार्थ व्यंजना आदि नवीन अलंकारों का बहुत सुन्दर प्रयोग हुआ है।
  4. लय प्रधान छन्दों की योजना-पन्त जी ने अपनी कविताओं में तुकान्त और अतुकान्त सभी प्रकार के परम्परागत व नवीन छन्दों का प्रयोग किया है। उनके छन्दों में लय है एवं संगीत तत्व की प्रधानता है।

साहित्य में स्थान पन्त जी का काव्य, भाव और कला दोनों पक्षों में सशक्त और समृद्ध है। भाव कल्पना, चिन्तन, कला सभी दृष्टियों से काव्य उत्कृष्ट है। आधुनिक हिन्दी साहित्य के शीर्षस्थ कवियों में पन्त जी का अति महत्वपूर्ण स्थान है।

MP Board Class 11th Hindi Solutions