MP Board Class 12th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 6 शौर्य और देशप्रेम

शौर्य और देशप्रेम अभ्यास

शौर्य और देशप्रेम अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पं. बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ ने कविता में किसका आह्वान किया है? (2009)
उत्तर:
पं. बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ ने अपनी कविता में अपने देश के युवकों का आह्वान किया है।

प्रश्न 2.
“क्षणिक आतंक” से क्या तात्पर्य है? (2015)
उत्तर:
क्षणिक आतंक से तात्पर्य तनिक देर के लिए आए हुए भय से है। वह भय (बाधा) एक क्षण में ही नष्ट हो जाएगा, वह तुम्हारा कुछ भी न बिगाड़ सकेगा।

प्रश्न 3.
“नींव के पत्थर” से कवि का क्या तात्पर्य है? (2009, 14)
उत्तर:
“नींव के पत्थर” से कवि का तात्पर्य उन वीर पुरुषों से है जिन्होंने देश की स्वाधीनता के लिए अपने प्राणों का बलिदान किया है।

प्रश्न 4.
किस धरोहर को हाथ से न जाने देने की बात कही गई है?
उत्तर:
देश की स्वाधीनता रूपी धरोहर को हाथ से न जाने देने की बात कही गई है।

प्रश्न 5.
“देश की समृद्धि की प्रबल आशा” से क्या तात्पर्य है? (2009)
उत्तर:
“देश की समृद्धि की प्रबल आशा” से तात्पर्य है भारत की उत्तरोत्तर बढ़ती हुई प्रगति की प्रबल अभिलाषा जो इस देश के मौजवानों से अपेक्षित है।

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शौर्य और देशप्रेम लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कवि ने भारतीय स्वर्णिम इतिहास के किन अंशों का उल्लेख कर युवाओं को प्रेरित किया है
उत्तर:
भारत के पूर्वजों का इतिहास बड़ा गौरवपूर्ण और वीरतापूर्ण रहा है। हमेशा उन्होंने विजय श्री का ही वरण किया है। फूंक से पर्वत उड़ाने की कहावत भारतीयों पर ही सटीक बैठती है। उनके क्रोध से पर्वत भी उन्हें मार्ग दे देते थे। तुम उन्हीं वीर भारतीयों की सन्तान हो, तुम्हारे अन्दर भी वही रक्त, वही वीरता और वही देशप्रेम है। तुम भी उन गुणों से प्रेरणा लेकर अपने मार्ग की बाधाओं को हटाते हुए प्रगति के पथ पर निरन्तर अग्रसर होते रहो।

प्रश्न 2.
भारतीय युवकों का क्रोध किस प्रकार का बताया गया है?
उत्तर:
भारतीय युवाओं का क्रोध इतना भयंकर है कि इसे देखकर भूकम्प आ जाएगा और पृथ्वी और आकाश काँप उठेंगे। आकाश में आग की लपटें उठेगी जो शत्रुओं को जलाकर भस्म कर देंगी। इसी क्रोध को देखकर समाज में फैली हुई बुरी प्रथाएँ भी समाप्त हो जाएँगी। भारतीय युवाओं का क्रोध पृथ्वी को भी इधर-उधर डोलने पर मजबूर कर सकता है। सीता स्वयंवर के समय जनक जी की अनुचित वाणी सुनकर लक्ष्मण जी ने जो गर्जना की थी तो आकाश और पृथ्वी दोनों काँप गए थे। इसी संदर्भ में यह चौपाई देखिए-
“लखन सकोप बचन जे बोले,डगमगानि महि दिग्गज डोले ॥”

प्रश्न 3.
“तुम चलाते हो सदा चिर चेतना के तीर” का आशय स्पष्ट कीजिए। (2012)
उत्तर:
देश का युवा वर्ग दिशा और काल रूपी धनुष को धारण करने वाला धनुर्धर है जो चिर चेतना (उद्बोधन) रूपी तीर चलाकर देश की रक्षा करने वाले पहरुओं को सावधान करता है। युवा अपनी वीरता से देश की रक्षा तो करता ही है साथ-ही-साथ में अन्य लोगों में देश की स्वाधीनता के प्रति जागृति प्रदान करता है। देश के नौजवानों पर ही देश की प्रगति की सुनहरी आशा टिकी हुई है।

प्रश्न 4.
वतन के लाड़लों से क्या अपेक्षा की गई है? (2016)
उत्तर:
वतन के लाड़लों से यह अपेक्षा की गई है कि वे इस देश की स्वाधीनता पर आँच आने न दें अर्थात् शहीदों के बलिदानों से प्राप्त स्वाधीनता की रक्षा करें। देश के युवा ही देश के शृंगार हैं और देश के उत्थान की अभिलाषा की साकार मूर्ति हैं। देश का सुनहरा भविष्य उसके लाड़ले युवाओं पर ही निर्भर है। वे ही अपने देश की स्वतन्त्रता की रक्षा करते हुए उसके अभ्युदय के द्वार खोल देंगे। देश का युवा ही इस धरोहर (स्वाधीनता) की रक्षा करने में समर्थ है। वह कभी भी देश के शत्रुओं को उनके इरादों में सफल नहीं होने देगा।

प्रश्न 5.
“दाँव पर गौरव लगे तो शीश दे देना विहँस कर”-पंक्ति से कवि ने क्या भाव व्यक्त किया है? (2011)
उत्तर:
देश की संस्कृति और देश की रक्षा का भार हमारे ऊपर ही है। इसलिए हमें इस हेतु सदैव तत्पर और सजग रहना चाहिए। कवि देश के युवाओं का आह्वान करता है कि यदि देश के गौरव (सम्मान) पर आँच आए तो तुम अपने प्राणों का उत्सर्ग करने से भी न चूकना देश के युवाओं के उत्सर्ग पर ही देश की सम्पूर्ण समृद्धि का भवन खड़ा है। भारत देश का युवा अपने प्राण रहते हुए कभी भी अपने देश की स्वतन्त्रता पर आँच न आने देगा। धरोहर रूप में प्राप्त इस स्वाधीनता को इस देश के निवासी अपने प्राणों से भी बहुमूल्य मानते हैं। वे अपने प्राण रहते कभी भी देश के गौरव को क्षति नहीं पहुँचने देंगे।

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प्रश्न 6.
“समय की शिला पर चिह्न छोड़ने” यह पंक्ति किस संदर्भ में कही गई है?
उत्तर:
देश के युवा जब भी अपने वीरतापूर्ण कार्यों से देश की प्रगति को आगे बढ़ाते हैं या देश की स्वाधीनता की रक्षा करते हैं तो इतिहास उनके शौर्य की गाथा को स्वर्णाक्षरों में अंकित कर लेता है। देश के वीरों के ये चिह्न ऐसे ही नहीं मिटते जैसे पत्थर की शिला पर खुदे हुए चिह्न। वीर पुरुषों के उत्सर्ग और वीरतायुक्त कार्यों को इतिहास स्वर्णाक्षरों में लिख लेता है जिसे समय का परिवर्तन मिटा नहीं पाता। ऐसे अनेक भारतीय वीर हुए हैं जिन्होंने समय की शिला पर चिह्न छोड़े हैं और वे इतिहास में अमर हो गए हैं।

शौर्य और देशप्रेम दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कवि नवीन ने भारतीय युवाओं को “काल के भी काल” क्यों कहा है? (2013)
उत्तर:
भावना और कर्तव्य के संपुट में ही देश प्रेम पलता है। देश की रक्षा और उसकी प्रतिष्ठा के लिए जिस पराक्रम की आवश्यकता होती है,वही पराक्रम देश प्रेम के अन्तर्गत शौर्य रूप में प्रकट होता है। यहाँ के वीर काल के भी काल हैं। अर्थात् काल से भी ये निडर रहते हैं और आवश्यकता पड़ने पर उससे भिड़ जाते हैं। भारतीय वीर मृत्यु से अभीत रहते हैं। वे प्राणों को हथेली पर रखकर देश की रक्षा के लिए रणक्षेत्र में प्रवेश करते हैं और विजय प्राप्त करके ही लौटते हैं। उन वीरों से मृत्यु भी भयभीत रहती है। मृत्यु उन्हीं लोगों को भय से त्रस्त करती है जो कायर पुरुष हैं। भारत के युवा काल की परवाह किए बिना देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा देते हैं। अतः कवि ने उन्हें काल के भी काल की उपमा दी है।

प्रश्न 2.
“औ, पधारेगा सृजन कर अग्नि में सुस्नान” के द्वारा कवि के किस दृष्टिकोण का पता चलता है?
उत्तर:
उक्त पंक्ति से कवि का तात्पर्य यह है कि युद्ध की अग्नि में स्नान करके ही सृजन पदार्पण करता है या यों कहें कि युद्ध के बाद ही शान्ति स्थापित होती है। देश की स्वाधीनता की रक्षा के लिए युवकों को युद्ध रूपी अग्नि प्रज्ज्वलित करनी पड़ेगी तब उसमें से गुजरकर स्वाधीनता प्राप्त होगी। देश की स्वतन्त्रता में ही देश का निर्माण निहित है। देश के युवाओं का कवि ने आह्वान किया है और उन्हें युद्ध करके भी देश की रक्षा करनी है। देश की रक्षा के लिए वीर युवक अपने प्राणों की चिन्ता नहीं करते। जो जाति अपने प्राणों को हथेली पर रखकर चलती है,वही जाति स्वतन्त्रता को भोगने की अधिकारिणी है। जवानी ने अपना शीश देकर ही स्वतन्त्रता प्राप्त की है।

प्रश्न 3.
कवि सरल ने युवाओं का आह्वान किस हेतु किया है? (2017)
उत्तर-कवि श्रीकृष्ण सरल ने देश के युवाओं का आह्वान देश की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए किया है। देश का युवा ही अपने अपूर्व बलिदान के द्वारा देश की स्वाधीनता की रक्षा कर सकता है। यह स्वतन्त्रता सस्ते में नहीं प्राप्त हुई है,बल्कि असंख्य वीरों के बलिदान के बाद ही इसकी प्राप्ति हुई है। इस स्वतन्त्रता रूपी महल को स्थायित्व प्रदान करने के लिए भारत के अनेक वीर युवा नींव के पत्थर बने हैं। उन्हें हमें स्मरण रखना है। भारत के युवाओं को देशद्रोहियों से अपने देश को बचाना है। जो लहू तुम्हें विरासत में मिला है वह खून तुमसे कह रहा है कि तुम वीर पुत्र हो और सिंह की खेती को स्यारों को खाने मत देना। अर्थात् भारत की पवित्र भूमि को कहीं कायर देशद्रोही कोई नुकसान न पहुँचा दें।

प्रश्न 4.
“सिंह” और “स्यार” किसे और किस संदर्भ में कहा है?
उत्तर:
“सिंह” का तात्पर्य भारत के वीर पुरुषों से है और “स्यार” कायर एवं देश के गद्दार लोगों से है। भारत वीरों का देश है जो सदा से वीर पुत्रों का निवास स्थान रहा है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो कायरता से बद्ध होकर चोरी छुपे देशद्रोह का कार्य करते हैं। उन लोगों को कवि ने बड़ा उपयुक्त स्यार’ नाम दिया है। इनमें कुछ करने का साहस तो होता नहीं, लेकिन सिंह की खेती चरना चाहते हैं। यह कार्य उन्हें रास तो नहीं आता। कभी-कभी जान के लाले भी पड़ जाते हैं। अत: देश के युवा वीरों को ध्यान रखना है कि देश के अन्दर रहने वाले और देश के बाहर रहने वाले शत्रु अपने देश को नुकसान न पहुँचाने पाएँ।

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प्रश्न 5.
निम्नलिखित पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए
(i) काल का तब धनुष ………. सृजन-नाश-हिलोर।
(ii) वह निपट आतंक ……….. अभयता के स्रोत।
(iii) तुम न समझो ……….. पीकर ही खिली है।
(iv) जो विरासत में मिला ………. खाने न देना।
उत्तर:
(i) संदर्भ :
प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘अरे तुम हो काल के भी काल’ नामक कविता से उद्धृत की गई हैं। इसके रचयिता ओजस्वी कवि बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ हैं।

प्रसंग :
इस कविता में कवि ने यह स्पष्ट किया है कि ध्वंस से ही सृजन की संभावना प्रकट होती है। कवि ने यहाँ व्यक्ति को उसके साहस और दृढ़ निश्चय से परिचित कराते हुए स्पष्ट किया है कि उसका लक्ष्य विजय प्राप्त करना ही है।

व्याख्या :
कवि देश के गौरवशाली निवासियों को प्रोत्साहित करते हुए कहता है कि तुम्हारा काल भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता,क्योंकि तुम काल के भी महाकाल और विकराल हो। काल का तुम्हारा धनुष है और दिशाओं की प्रत्यंचा है। जब उस धनुष की प्रत्यंचा में सिहरन होगी तो नाश होगा और फिर सृजन की हिलोर उठती हुई दिखाई देगी अर्थात् तुम्हारे युद्ध करने से ही पुनः सृजन का चक्र चलेगा। तुम दिशा और काल रूपी धनुष को धारण करने वाले धनुर्धर हो। तुम सदा चेतना के तीर चलाकर सुप्त वीरों को जाग्रत करते हो और स्वदेश-रक्षा में तत्पर रहते हो।

(ii) संदर्भ :
प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘अरे तुम हो काल के भी काल’ नामक कविता से उद्धृत की गई हैं। इसके रचयिता ओजस्वी कवि बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ हैं।

प्रसंग :
इस कविता में कवि ने यह स्पष्ट किया है कि ध्वंस से ही सृजन की संभावना प्रकट होती है। कवि ने यहाँ व्यक्ति को उसके साहस और दृढ़ निश्चय से परिचित कराते हुए स्पष्ट किया है कि उसका लक्ष्य विजय प्राप्त करना ही है।

व्याख्या :
क्षणिक आतंक तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। कोई भी आतंक या शत्रु तुम्हें नष्ट नहीं कर सकता। तुम निर्दोष हो और अपने देश की रक्षा के लिए सदा तत्पर हो। तुम्हारे सामने जो भयावना आतंक है वह क्षणिक है और तुम चिरन्तन अभयता के स्रोत हो। अर्थात् तुम्हारे अन्दर अभयता भरी हुई है जिसके सामने आतंक भी भययुक्त परिलक्षित होता है। तुम कभी भी यह मत सोचो कि तुम कभी नष्ट हो जाओगे। तुम अनश्वर (अमर) हो और तुम्हारा भाग्य तुम्हारी कर्मठता के कारण स्पष्ट तौर पर शुभ दिखाई दे रहा है।

(iii) संदर्भ :
प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘राष्ट्र के शृंगार’ नामक कविता से उद्धृत की गई हैं। इसके रचयिता ओजस्वी कवि श्रीकृष्ण सरल हैं।

प्रसंग :
इन पंक्तियों में कवि ने देश के वीर नागरिकों और बलशाली युवाओं का आह्वान किया है कि वे अपने देश की रक्षा करें। अपने देश की स्वतन्त्रता पर वे आँच न आने दें।

व्याख्या :
कवि भारत के देशवासियों को सम्बोधित करते हुए कहता है कि हे मेरे राष्ट्र के श्रृंगार और उसकी अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले वीरो ! तुम अपने देश की स्वतन्त्रता पर आँच न आने देना। जिन शहीदों ने अपना बलिदान देकर इस स्वाधीनता रूपी बगीचे को लहलहाया है,उन वतन के प्रेमियों की याद तुम बिसरा न देना। अर्थात् उन स्वतन्त्रता सेनानियों को हमें याद रखना है जिनके उत्सर्ग के परिणामस्वरूप ही हमें स्वाधीनता प्राप्त हुई। तुम इस स्वाधीनता को सस्ता समझने की भूल मत करना, यह हमें अनेक बलिदानों के बाद प्राप्त हुई है। इस स्वतन्त्रता रूपी चमन की हर कली, मस्त सुगन्ध और फूलों का रूप-रंग शहीदों के रक्त से सींचा गया है।

जिस प्रकार नींव का पत्थर स्वयं धरती के नीचे दफन होकर अपने ऊपर सुन्दर महल को आकार और स्थायित्व देता है, उसी प्रकार उन शहीदों ने अपने को देश की स्वतन्त्रता के लिए बलिदान कर, नींव का पत्थर बनाया है। वे ही शहीद जो नींव के पत्थर बने हैं, अपनी सौगन्ध देकर उनके द्वारा दी गई अमानत (देश की स्वाधीनता) की रक्षा करने के लिए कहते हैं। तुम अपने देश की स्वतन्त्रता पर आँच न आने देना।

(iv) शब्दार्थ :
भेड़िए = गद्दार; देशद्रोही = देश के शत्रु; कल्याण = समाज की प्रगति; सिसकियाँ भरना = रोना; ध्वंस = विनाश; आग-यौवन के धनी = वीर युवक जिनके हृदय में क्रोध की ज्वाला धधक रही है; विरासत = उत्तराधिकार; स्यार = गीदड़ (कायर पुरुष)।

संदर्भ एवं प्रसंग :
पूर्ववत्।

व्याख्या :
कवि कहता है कि देश की भूमि को हड़पने के लिए भेड़िए (देश के शत्रु) ललचा रहे हैं और देश के अन्दर रहने वाले देशद्रोही देश के इतिहास से छेड़छाड़ कर उसे विनाश की ओर ले जा रहे हैं। देश की प्रगति देशद्रोहियों के कारण रो रही है अर्थात् प्रगति अपने को पतन की ओर अग्रसित होते हुए महसूस कर रही है। देश के निर्माण को उसका बैरी विनाश खाए जा रहा है। विनाश ने अपने विकराल हाथ चारों ओर फैला दिये हैं। ऐसे विकराल समय में कवि उन युवकों का आह्वान कर रहा है जिनके हृदय में क्रोध की अग्नि जल रही है।

उनसे कवि कहता है कि तुम व्यर्थ में आपस में मत लड़ो और न ही देश की सम्पत्ति को नुकसान पहुँचा कर अपने बल का ह्रास मत करो। तुम वीर पूर्वजों की सन्तान हो, तुम उन भेड़ियों (देशद्रोहियों) के दाँत ही नहीं तोड़ो बल्कि उनकी गर्दन मरोड़कर मृत्यु की शैया पर सुला दो,सिंह की खेती को कहीं गीदड़ न चर जाएँ ! अर्थात् सिंह के समान वीर पुत्रों के देश को कायर पुरुष दीमक की तरह चट न कर जाएँ। हे वीर पुरुष ! तुम जागो और अपने देश की स्वतन्त्रता की रक्षा करो।

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प्रश्न 6.
“श्रीकृष्ण सरल राष्ट्रीय विचारधारा के कवि हैं।” संकलित कविता के आधार पर इस कथन की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
श्रीकृष्ण सरल राष्ट्रीय विचारधारा के कवि हैं। उनकी देशभक्ति की उत्कृष्ट रचनाएँ इस कथन की साक्षी हैं। इनका लेखन इतिहास जैसा प्रामाणिक और शोधपूर्ण है। देशभक्ति से परिपूर्ण और क्रान्तिकारी लेखन के लिए उन्होंने देश-विदेश की अनेक यात्राएँ कीं। उन्होंने स्वयं निम्न पंक्तियाँ लिखकर यह स्पष्ट कर दिया कि उनका सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र के लिए समर्पित था-
“कर्तव्य राष्ट्र के लिए समर्पित हों अपने, हो इसी दिशा में उत्प्रेरित चिन्तन-धारा,
हर धड़कन में हो राष्ट्र, राष्ट्र ही साँसों में, हो राष्ट्र समर्पित मरण और जीवन सारा।”

इनके मन में क्रान्तिकारियों के प्रति पहले से ही अनुराग था। उन्होंने देश के वीर पुत्रों का आह्वान किया है कि वे अपने देश की स्वाधीनता पर आँच न आने दें। उन्होंने लिखा है-
“राष्ट्र के शृंगार ! मेरे देश के साकार सपनो !
देश की स्वाधीनता पर आँच तुम आने न देना।
जिन शहीदों के लहू से लहलहाया चमन अपना
उन वतन के लाड़लों की
याद मुझाने न देना।”

आगे उन्होंने देश प्रेम की अनुभूति इस प्रकार व्यक्त की है-
“जो विरासत में मिला, वह खून तुमसे कह रहा है
सिंह की खेती किसी भी स्यार को खाने न देना।
देश की स्वाधीनता पर आँच तुम आने न देना।”

इन उदाहरणों से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि सरल जी राष्ट्रीय विचारधारा के कवि हैं।

शौर्य और देशप्रेम काव्य सौन्दर्य

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के विलोम शब्द लिखिए
विजय, स्वाधीनता, सम्मान, निर्माण, देशद्रोही।
उत्तर:
MP Board Class 12th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 6 शौर्य और देशप्रेम img -1

प्रश्न 2.
दिये हुए शब्दों के दो-दो पर्यायवाची लिखिए
दाँत, पर्वत,खून, आग, बाग।
उत्तर:
(i) दाँत – दशन,दंत,रदन।
(ii) पर्वत – गिरि, अचल, भूधर।
(iii) खून – लहू, रक्त,रुधिर।।
(iv) आग – अग्नि, अनल,पावक।
(v) बाग – उद्यान,वाटिका, उपवन।

प्रश्न 3.
अलंकार छाँटिए
(क) क्या करेगा यह विचारा तनिक-सा अवरोध?
(ख) अरे ! तुम हो काल के भी काल।
(ग) देश का कल्याण गहरी सिसकियाँ जब भर रहा हो।
उत्तर:
(क) अनुप्रास।
(ख) अनुप्रास।
(ग) अनुप्रास,मानवीकरण।

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प्रश्न 4.
बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ के संकलित अंश में से ओज गुण की अन्य पंक्तियों को अर्थ के साथ उद्धृत कीजिए।
उत्तर:
“क्या करेगा यह विचारा तनिक-सा अवरोध?
जानता है जग, तुम्हारा है भयंकर,क्रोध !”

अर्थ :
तुम्हारे सामने आया हुआ थोड़ा-सा अवरोध (रुकावट) तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता,क्योंकि तुम वीर हो। संसार तुम्हारे भयानक क्रोध से परिचित है। तुम्हारा क्रोध संसार में प्रलय ला देता है।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित पंक्तियों में कौन-सा रस है? पहचान कर लिखिए-
तुम प्रबल दिक्-काल-धनु-धारी सुधन्वा वीर
तुम चलाते हो सदा चिर चेतना के तीर !
उत्तर:
उक्त पंक्तियों में वीर रस है।

अरे तुम हो काल के भी काल भाव सारांश

प्रस्तुत कविता ‘अरे तुम हो काल के भी काल’ वीर रस के ओजपूर्ण कवि ‘बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ द्वारा लिखित है। इस कविता में कवि ने वीर पुरुषों को प्रोत्साहित किया है।

बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ आधुनिक युग के ऊर्जावान कवि हैं। उनके काव्य में विप्लव की हुंकार दृष्टिगोचर होती है। देश प्रेम की उत्ताल तरंगें उनके काव्य सरोवर में निरन्तर उठती हैं। वे इस समाज से सडी-गली रूढियों और निर्बलताओं को समाप्त करना चाहते हैं। संकलित कविता में उन्होंने स्पष्ट किया है कि ध्वंस से ही सृजन की संभावना प्रकट होती है। असामाजिक प्रथाओं को समाप्त करना नवीन जी का लक्ष्य है। इस कविता में वे व्यक्ति को उसके साहस और दृढ़ निश्चय से परिचित कराते हुए स्पष्ट करते हैं कि उसका लक्ष्य विजय प्राप्त करना ही है। उसके मन में कहीं से भी निर्बलता एवं निराशा का भाव जाग्रत नहीं होना चाहिए। वह अनश्वर है और काल को भी चुनौती देने में समर्थ है। जब व्यक्ति वीरता के साथ खड़ा होगा तभी आतंक का दौर समाप्त होगा। कवि वीर पुरुषों को प्रोत्साहित करता है कि उनके क्रोध के सामने कोई भी विरोध टिक नहीं पाएगा। अन्त में वीर पुरुष की ही विजय होती है।

अरे तुम हो काल के भी काल संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

1. कौन कहता है कि तुमको खा सकेगा काल?
अरे? तुम हो काल के भी काल अति विकराल?
काल का तव धनुष, दिक् की धनुष की डोर,
धनु विकम्पन से सिहरती सृजन-नाश-हिलोर।
तुम प्रबल दिक्-काल-धनु-धारी सुधन्वा वीर
तुम चलाते हो सदा चिर चेतना के तीर !
क्या बिगाड़ेगा तुम्हारा, यह क्षणिक आतंक?
क्या समझते हो कि होगे नष्ट तुम अकलंक
यह निपट आतंक भी है भीति-ओत-प्रोत !
और तुम? तुम हो चिरन्तन अभयता के स्रोत॥
एक क्षण को भी न सोचो कि तुम होगे नष्ट
तुम अनश्वर हो ! तुम्हारा भाग्य है सुस्पष्ट !

शब्दार्थ :
काल = मृत्यु; विकराल = भयंकर; विकम्पन = काँपना; सृजन = निर्माण; प्रबल = शक्तिशाली; दिक्-काल-धनु-धारी-सुधन्वा = दिशा और काल रूपी धनुष को धारण करने वाला धनुर्धर; चिर = हमेशा रहने वाला; चेतना = चेतनता; क्षणिक = थोड़ी देर रहने वाला; आतंक = भय; अकलंक = निर्दोष; चिरन्तन = हमेशा रहने वाली; अनश्वर = नष्ट न होने वाला; सुस्पष्ट = साफ।

संदर्भ :
प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘अरे तुम हो काल के भी काल’ नामक कविता से उद्धृत की गई हैं। इसके रचयिता ओजस्वी कवि बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ हैं।

प्रसंग :
इस कविता में कवि ने यह स्पष्ट किया है कि ध्वंस से ही सृजन की संभावना प्रकट होती है। कवि ने यहाँ व्यक्ति को उसके साहस और दृढ़ निश्चय से परिचित कराते हुए स्पष्ट किया है कि उसका लक्ष्य विजय प्राप्त करना ही है।

व्याख्या :
कवि देश के गौरवशाली निवासियों को प्रोत्साहित करते हुए कहता है कि तुम्हारा काल भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता,क्योंकि तुम काल के भी महाकाल और विकराल हो। काल का तुम्हारा धनुष है और दिशाओं की प्रत्यंचा है। जब उस धनुष की प्रत्यंचा में सिहरन होगी तो नाश होगा और फिर सृजन की हिलोर उठती हुई दिखाई देगी अर्थात् तुम्हारे युद्ध करने से ही पुनः सृजन का चक्र चलेगा। तुम दिशा और काल रूपी धनुष को धारण करने वाले धनुर्धर हो। तुम सदा चेतना के तीर चलाकर सुप्त वीरों को जाग्रत करते हो और स्वदेश-रक्षा में तत्पर रहते हो।

क्षणिक आतंक तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। कोई भी आतंक या शत्रु तुम्हें नष्ट नहीं कर सकता। तुम निर्दोष हो और अपने देश की रक्षा के लिए सदा तत्पर हो। तुम्हारे सामने जो भयावना आतंक है वह क्षणिक है और तुम चिरन्तन अभयता के स्रोत हो। अर्थात् तुम्हारे अन्दर अभयता भरी हुई है जिसके सामने आतंक भी भययुक्त परिलक्षित होता है। तुम कभी भी यह मत सोचो कि तुम कभी नष्ट हो जाओगे। तुम अनश्वर (अमर) हो और तुम्हारा भाग्य तुम्हारी कर्मठता के कारण स्पष्ट तौर पर शुभ दिखाई दे रहा है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. शौर्य और ओजपूर्ण कविता है।
  2. वीर रस का अनूठा सामंजस्य है।
  3. अनुप्रास,रूपक अलंकारों का प्रयोग किया गया है।
  4. कविता उत्साहवर्द्धक है।

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(2) चिर विजय दासी तुम्हारी, तुम जयी उबुद्ध
क्यों बनो हतआश तुम, लख मार्ग निज अवरुद्ध?
फॅक से तुमने उड़ायी भूधरों की पाँत,
और तुमने खींच फेंके काल के भी दाँत
क्या करेगा यह विचारा तनिक-सा अवरोध?
जानता है जग, तुम्हारा है भयंकर क्रोध !
जब करोगे क्रोध तुम, तब आयेगा भूडोल
काँप उठेंगे सभी भूगोल और खगोल,
नाश की लपटें उठेगी गगन-मण्डल बीच
भस्म होंगी ये असामाजिक प्रथाएँ नीच !
औ पधारेगा सृजन कर, अग्नि में स्नान,
मत बनो गत आश ! तुम हो चिर अनन्त महान !

शब्दार्थ :
उबुद्ध = प्रबुद्ध; हतआश = निराश; अवरुद्ध = रुका हुआ; भूधर = पर्वत; पाँत = पंक्ति; तनिक-सा = थोड़ा-सा; अवरोध = रुकावट; भूडोल = भूकम्प; प्रथाएँ = रीतियाँ; असामाजिक = बुरी; सृजन = निर्माण; अग्नि में सुस्नान = युद्ध के उपरान्त; गतआश == निराश; चिर = हमेशा रहने वाला; अनन्त = जिसका अन्त न हो।

संदर्भ :
एवं

प्रसंग :
पूर्ववत्।

व्याख्या :
कवि भारतवासियों से उद्बोधन करते हुए कहता है कि विजय हमेशा से तुम्हारी चेरी रही है। तुम प्रबुद्ध जयी हो। फिर अपने मार्ग की तनिक-सी बाधा को देखकर तुम निराश क्यों हो जाते हो? तुम उन पूर्वजों की सन्तान हो, जिन्होंने फूंक से पहाड़ों को उड़ाया है और काल के भी दाँत तोड़कर उसके हाथ में दे दिए हैं। कहने का तात्पर्य है कि कठिन-से-कठिन कार्य तुमने पूर्व में किए हैं और सफलता प्राप्त की है और मृत्यु का भी अभयता से वरण किया है। यानी मृत्यु भी उनके साहस को तोड़ नहीं पाई है। फिर तुम्हारे रास्ते में आयी थोड़ी-सी बाधा तुम्हारा क्या बिगाड़ सकती है? संसार तुम्हारे क्रोध से परिचित है। जब भी तुमने क्रोध किया है संसार में प्रलय जैसा वातावरण उत्पन्न हो गया है।

जब भी तुम क्रोध करोगे भूकम्प आ जाएगा यानी धरा और अम्बर काँप उठेगे। (सीता स्वयंवर के समय जब लक्ष्मण जी ने जनकजी के अनुचित वाक्यों को सुनकर क्रोध किया था, तो धरा और गगन काँप उठे थे। उदाहरण देखिए-“लखन सकोप वचन जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले।” जब तुम युद्ध के लिए तत्पर हो जाओगे,तो गगन-मण्डल के बीच नाश की लपटें उठने लगेंगी और उसके साथ ही समाज में फैली बुराइयाँ भी नष्ट हो जाएंगी और फिर तुम देखोगे कि युद्ध की ज्वाला में स्नान करके ही नव निर्माण विकसित होगा अर्थात् युद्ध के बाद ही शान्ति और सृजन का उद्भव होता है। इसलिए तुम कभी भी अपने मन में निराशा का भाव मत लाओ। तुम चिर वीर, अनन्त और महान् हो। व्यक्ति के उत्सर्ग में ही उसकी वीरता और महानता आत्मसात है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. ओजपूर्ण कविता है।
  2. वीर रस का प्रयोग किया गया है।
  3. देशभक्ति की प्रेरणा दी गई है।
  4. अतिशयोक्ति अलंकार का प्रयोग प्रेरणाप्रद है।

राष्ट्र के शृंगार भाव सारांश

प्रस्तुत कविता ‘राष्ट्र के श्रृंगार’ वीर रस के उल्लेखनीय कवि ‘श्रीकृष्ण सरल’ द्वारा रचित है। इस कविता में देश प्रेम की भावना दृष्टिगत होती है। कवि ने स्वाधीनता की रक्षा के लिए युवाओं का आह्वान किया है।

सरल जी ने युवाओं का आह्वान करते हुए उन्हें प्रेरणा दी है कि शहीदों के बलिदान से अर्जित स्वाधीनता की हर हाल में रक्षा करनी है। इस देश के शहीद अपने देश के लिए नींव के पत्थर बने। देशद्रोहियों और देश के शत्रुओं से अपने देश की रक्षा करनी है। तुम देश के गौरव हो,वीर हो और तुम नाश की धरती पर सृजन की कथा लिखते हो। देश तुमसे अपने उत्थान की अपेक्षा करता है। अपने अन्दर धधकती ज्वाला को कजलाने न देना।

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राष्ट्र के शृंगार संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

(1) राष्ट्र के श्रृंगार ! मेरे देश के साकार सपनों !
देश की स्वाधीनता पर आँच तुम आने न देना।
जिन शहीदों के लहू से लहलहाया चमन अपना
उन वतन के लाड़लों की
याद मुझाने न देना।
देश की स्वाधीनता पर आँच तुम आने न देना।
तुम न समझो, देश की स्वाधीनता यों ही मिली है
हर कली इस बाग की, कुछ खून पीकर ही खिली है।
मस्त सौरभ, रूप या जो रंग फूलों को मिला है,
यह शहीदों के उबलते खून का ही सिलसिला है।
बिछ गए वे नींव में, दीवार के नीचे गड़े हैं,
महल अपने, शहीदों की छातियों पर ही खड़े हैं।
नींव के पत्थर तुम्हें सौगन्ध अपनी दे रहे हैं
जो धरोहर दी तुम्हें,
वह हाथ से जाने न देना।
देश की स्वाधीनता पर आँच तुम आने न देना।

शब्दार्थ :
श्रृंगार = सजावट; साकार = साक्षात्; सपनों = अभिलाषाएँ; आँच न आने देना = नुकसान न होने देना; चमन = बगीचा; वतन = देश; सौरभ = सुगन्ध; धरोहर = अमानत,थाती।

संदर्भ :
प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘राष्ट्र के शृंगार’ नामक कविता से उद्धृत की गई हैं। इसके रचयिता ओजस्वी कवि श्रीकृष्ण सरल हैं।

प्रसंग :
इन पंक्तियों में कवि ने देश के वीर नागरिकों और बलशाली युवाओं का आह्वान किया है कि वे अपने देश की रक्षा करें। अपने देश की स्वतन्त्रता पर वे आँच न आने दें।

व्याख्या :
कवि भारत के देशवासियों को सम्बोधित करते हुए कहता है कि हे मेरे राष्ट्र के श्रृंगार और उसकी अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले वीरो ! तुम अपने देश की स्वतन्त्रता पर आँच न आने देना। जिन शहीदों ने अपना बलिदान देकर इस स्वाधीनता रूपी बगीचे को लहलहाया है,उन वतन के प्रेमियों की याद तुम बिसरा न देना। अर्थात् उन स्वतन्त्रता सेनानियों को हमें याद रखना है जिनके उत्सर्ग के परिणामस्वरूप ही हमें स्वाधीनता प्राप्त हुई। तुम इस स्वाधीनता को सस्ता समझने की भूल मत करना, यह हमें अनेक बलिदानों के बाद प्राप्त हुई है। इस स्वतन्त्रता रूपी चमन की हर कली, मस्त सुगन्ध और फूलों का रूप-रंग शहीदों के रक्त से सींचा गया है।

जिस प्रकार नींव का पत्थर स्वयं धरती के नीचे दफन होकर अपने ऊपर सुन्दर महल को आकार और स्थायित्व देता है, उसी प्रकार उन शहीदों ने अपने को देश की स्वतन्त्रता के लिए बलिदान कर, नींव का पत्थर बनाया है। वे ही शहीद जो नींव के पत्थर बने हैं, अपनी सौगन्ध देकर उनके द्वारा दी गई अमानत (देश की स्वाधीनता) की रक्षा करने के लिए कहते हैं। तुम अपने देश की स्वतन्त्रता पर आँच न आने देना।

काव्य सौन्दर्य :

  1. ओजस्वी कविता है।
  2. देशप्रेमियों को उत्सर्ग के लिए प्रेरित किया गया है।
  3. वीर रस की कविता होते हुए भी यह सरल और सुबोध है।
  4. रूपक अलंकार और प्रतीकों का सुन्दर समायोजन है।

(2) देश के भूगोल पर जब भेड़िए ललचा रहे हों
देश के इतिहास को जब देशद्रोही खा रहे हों
देश का कल्याण गहरी सिसकियाँ जब भर रहा हो
देश के निर्माण को, जब ध्वंस डटकर चर रहा हो।
आग-यौवन के धनी ! तुम खिड़कियाँ शीशे न तोड़ो,
भेड़ियों के दाँत तोड़ो, गर्दनें उनकी मरोड़ो।
जो विरासत में मिला, वह खून तुमसे कह रहा है
सिंह की खेती
किसी भी स्यार को खाने न देना
देश की स्वाधीनता पर आँच तुम आने न देना।

शब्दार्थ :
भेड़िए = गद्दार; देशद्रोही = देश के शत्रु; कल्याण = समाज की प्रगति; सिसकियाँ भरना = रोना; ध्वंस = विनाश; आग-यौवन के धनी = वीर युवक जिनके हृदय में क्रोध की ज्वाला धधक रही है; विरासत = उत्तराधिकार; स्यार = गीदड़ (कायर पुरुष)।

संदर्भ एवं प्रसंग :
पूर्ववत्।

व्याख्या :
कवि कहता है कि देश की भूमि को हड़पने के लिए भेड़िए (देश के शत्रु) ललचा रहे हैं और देश के अन्दर रहने वाले देशद्रोही देश के इतिहास से छेड़छाड़ कर उसे विनाश की ओर ले जा रहे हैं। देश की प्रगति देशद्रोहियों के कारण रो रही है अर्थात् प्रगति अपने को पतन की ओर अग्रसित होते हुए महसूस कर रही है। देश के निर्माण को उसका बैरी विनाश खाए जा रहा है। विनाश ने अपने विकराल हाथ चारों ओर फैला दिये हैं। ऐसे विकराल समय में कवि उन युवकों का आह्वान कर रहा है जिनके हृदय में क्रोध की अग्नि जल रही है।

उनसे कवि कहता है कि तुम व्यर्थ में आपस में मत लड़ो और न ही देश की सम्पत्ति को नुकसान पहुँचा कर अपने बल का ह्रास मत करो। तुम वीर पूर्वजों की सन्तान हो, तुम उन भेड़ियों (देशद्रोहियों) के दाँत ही नहीं तोड़ो बल्कि उनकी गर्दन मरोड़कर मृत्यु की शैया पर सुला दो,सिंह की खेती को कहीं गीदड़ न चर जाएँ ! अर्थात् सिंह के समान वीर पुत्रों के देश को कायर पुरुष दीमक की तरह चट न कर जाएँ। हे वीर पुरुष ! तुम जागो और अपने देश की स्वतन्त्रता की रक्षा करो।

काव्य सौन्दर्य :

  1. रूपक अलंकार व मुहावरों का प्रयोग सुन्दर बन पड़ा।
  2. वीर रस की कविता है।
  3. भाषा सरल और ओजस्वी है।

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(3) तुम युवक हो, काल को भी काल से दिखते रहे हो,
देश का सौभाग्य, अपने खून से लिखते रहे हो।
ज्वाल की, भूचाल की साकार परिभाषा तुम्ही हो,
देश की समृद्धि की सबसे प्रबल आशा तुम्ही हो।
ठान लोगे तुम अगर, युग को नई तस्वीर दोगे,
गर्जना से शत्रुओं के, तुम कलेजे चीर दोगे।
दाँव पर गौरव लगे तो शीश दे देना विहँस कर
देश के सम्मान पर
काली घटा छाने न देना।
देश की स्वाधीनता पर आँच तुम आने न देना। (2009)

शब्दार्थ :
काल के भी काल = विकराल; ज्वाल = अग्नि; भूचाल = भूकम्प; साकार = साक्षात्; समृद्धि = उन्नति,वैभव; प्रबल = शक्तिशाली; ठान लेना = पक्का निश्चय कर लेना; गर्जना = ललकार; कलेजे चीर देना = भयाक्रान्त कर देना; गौरव = सम्मान,स्वतन्त्रता।

संदर्भ एवं प्रसंग :
पूर्ववत्।

व्याख्या :
कवि देश के युवकों को अपने शौर्य से देश की तस्वीर बदलने के लिए आह्वान करते हुए कहता है कि हे युवक ! तुम काल के भी काल हो अर्थात् काल भी तुमसे भयभीत रहता है। तुम देश का सौभाग्य (उत्कर्ष) अपने रक्त से लिखते हो अर्थात् अपने बलिदान से देश के भाग्य को सौभाग्य में बदल देते हो। तुम अपनी वीरता से धरा पर अग्नि वर्षा कर सकते हो और भूकम्प ला सकते हो। कहने का तात्पर्य है कि तुम्हारे विरुद्ध कोई भी शत्रु टिक नहीं सकता। देश को तुमसे ही अपनी प्रगति की फलदायी आशा है। यदि तुम अपने मन में दृढ़ निश्चय कर लो तो इस युग को भी नये युग के शुभारम्भ में बदल सकते हो। तुम्हारी ललकार शत्रुओं के हृदय को भेद देती है। यदि तुम्हारे गौरव का प्रश्न उठे तो अपने प्राण भी हँसते-हँसते दे देना। तुम्हें ध्यान रखना है कि देश के सम्मान पर काली घटा न छाने पाये अर्थात् देश की स्वतन्त्रता पर काले बादल न छा जाएँ। तुम देश की स्वतन्त्रता को कोई हानि न होने देना।

काव्य सौन्दर्य :

  1. वीर रस का सुन्दर समायोजन है।
  2. कहावतों का समुचित प्रयोग किया गया है।
  3. राष्ट्रवादी कविता है।

(4) वह जवानी, जो कि जीना और मरना जानती है,
गर्भ में ज्वालामुखी के जो उतरना जानती है।
बाहुओं के जोर से पर्वत जवानी ठेलती है,
मौत के हैं खेल जितने भी, जवानी खेलती है।
नाश को निर्माण के पथ पर जवानी मोड़ती है,
वह समय की हर शिला पर चिह्न अपने छोड़ती है।
देश का उत्थान तुमसे माँगता है नौजवानो !
दहकते बलिदान के अंगार
कजलानेन देना।
देश की स्वाधीनता पर आँच तुम आने न देना। (2009)

शब्दार्थ :
गर्भ = अन्दर; बाहुओं = भुजाओं; ठेलती = सरका देती है; शिला = चट्टान; उत्थान = प्रगति; दहकते = जलते हुए; कजलाने = बुझने जैसे।

संदर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ कवि ने जवानी का आह्वान कर देश को निर्माण के पथ पर ले जाने का आग्रह किया है।

व्याख्या :
कवि कहता है कि जवानी अत्यन्त जोशीली और मूल्यवान है,वह जिस प्रकार वीरता से जीना जानती है उसी प्रकार वीरता से मरना भी जानती है। वह ज्वालामुखी के अन्दर जाने में भी भयभीत नहीं होती। यानी विकराल और मृत्यु-सम परिस्थिति में भी अपनी वीरता प्रदर्शित करती है। अपनी भुजाओं के बल से जवानी पर्वतों को भी खिसका देती है, जितने भी खतरनाक खेल हैं, उनको जवानी हँसते-हँसते खेलती है। यह अपने देश के विनाश को भी निर्माण के पथ पर ले जाती है अर्थात् देश की विषम परिस्थितियों में भी वीरता का परिचय देकर सुखद परिस्थिति में बदल देती है।

यह अपने वीरतापूर्ण कार्यों के द्वारा चट्टान पर अपने सुकार्यों के चिह्न छोड़ देती है अर्थात् जवानी के वीरतापूर्ण कार्य इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखे जाते हैं। कवि का यह उद्बोधन है कि हे नौजवानो ! तुम्हारा देश तुमसे अपने उत्थान की आशा लगाए बैठा है। अतः तुम अपने बलिदान रूपी अंगारों को बुझने न देना अर्थात् अपने उत्सर्ग से देश की स्वाधीनता को बनाए रखना। हे जवानो ! अपने देश की स्वाधीनता पर आँच मत आने देना।

काव्य सौन्दर्य :

  1. देश-प्रेम का अपूर्व उदाहरण इस कविता में प्रस्तुत किया गया है।
  2. ओजस्वी उद्बोधन प्रशंसनीय है।
  3. भाषा सरल और बोधगम्य है।

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