MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 2 शिरीष के फूल

MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 2 शिरीष के फूल

शिरीष के फूल अभ्यास

शिरीष के फूल अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
शिरीष किस ऋतु में फूलता है?
उत्तर:
शिरीष जेठ मास की तपती धूप में फलता-फूलता है।

प्रश्न 2.
शिरीष की तुलना किससे की गई है?
उत्तर:
शिरीष की तुलना अद्भुत अवधूत से की गई है।

प्रश्न 3.
शिरीष अपना पोषण कहाँ से प्राप्त करता है? (2017)
उत्तर:
शिरीष अपना पोषण वायुमण्डल से रस खींचकर प्राप्त करता है।

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शिरीष के फूल लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
“शिरीष निर्धात फलता रहता है।” लेखक ने ऐसा क्यों कहा है? (2014)
उत्तर:
शिरीष जेठ मासं की गर्मी में तो फलता-फूलता ही है बसन्त के आगमन के साथ लहक उठता है। आषाढ़ में मस्ती से भरा रहता है। यदि इच्छा हुई एवं मन रम गया तो भरे भादों में भी बेरोक-टोक फूलता रहता है। इसी कारण लेखक ने शिरीष निर्धात फूलता है, कहा है।

प्रश्न 2.
किन परिस्थितियों में शिरीष जीवन जीता है?
उत्तर:
चाहे जेठ की चिलचिलाती धूप हो, चाहे पृथ्वी धुयें से रहित अग्नि कुण्ड बनी हो; शिरीष नीचे से ऊपर तक फूल से लदा रहता है। बहुत ही कम पुष्प इस प्रकार की तपती दुपहरी में फूल सकने का साहस जुटा पाते हैं। अमलतास भी शिरीष की तुलना नहीं कर सकता है। इस प्रकार विषम परिस्थितियों में भी शिरीष जीवन जीता है।

प्रश्न 3.
लेखक ने शिरीष के फूल की तुलना किससे की है और क्यों ? लेखक के अनुरूप शिरीष के फूलों की क्या प्रकृति है?
उत्तर:
लेखक ने शिरीष के फूल की तुलना कालजयी अवधूत से की है क्योंकि अवधूत की भाँति ही यह हर परिस्थिति में मस्त रहकर जीवन की अजेयता का सन्देश देता है। शिरीष का फूल एक अवधूत की भाँति दुःख एवं सुख में समान रूप से स्थिर रहकर कभी पराजय स्वीकार नहीं करता है। उसे किसी से कुछ लेना-देना नहीं है। धरती एवं आसमान के जलते रहने पर भी यह अपना रस खींचता ही रहता है।

प्रश्न 4.
शिरीष के फूलों के सम्बन्ध में तुलसीदास जी का क्या कथन है?
उत्तर:
शिरीष के फूलों के सम्बन्ध में तुलसीदास जी ने कहा है-“धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा सो झरा जो बरा सो बताना’ अर्थात् जो फूल फलता है वही अवश्य कुम्हलाकर झड़ जाता है। कुम्हलाने के पश्चात पुनः विकसित हो जाता है।

प्रश्न 5.
लेखक ने शिरीष के सम्बन्ध में किन-किन विद्वानों के नाम बताये हैं?
उत्तर:
लेखक ने शिरीष के सम्बन्ध में कालिदास, कबीरदास, तुलसीदास तथा आधुनिक काल में अनासक्ति सुमित्रानन्दन पंत एवं रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि विद्वानों के नामों का उल्लेख किया है।

प्रश्न 6.
शिरीष और अमलतास में क्या अन्तर है?
उत्तर:
शिरीष का फूल हर मौसम में फलता फूलता है जबकि अमलतास मात्र पन्द्रह-बीस दिन के लिए फूलता है। बसन्त ऋतु के पलाश पुष्प की भाँति शिरीष का फूल कालजयी एवं अजेय है इस कारण इसकी तुलना अमलतास से नहीं की जा सकती है।

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शिरीष के फूल दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
जरा और मृत्यु ये दोनों ही जगत के अति परिचित और अति प्रामाणिक सत्य हैं। इस वाक्य पर अपने भाव अभिव्यक्त कीजिए।
उत्तर:
जरा (वृद्धावस्था) और मृत्यु ये दोनों ही संसार के चिरपरिचित एवं कटु सत्य हैं। यह तथ्य पूर्णतः सिद्ध एवं प्रामाणिक है। इसका उल्लेख गीता में भी है। जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु भी निश्चित है। मृत्यु के उपरान्त जीव काया रूपी पुराने वस्त्र को त्याग नवीन शरीर धारण करता है। यह क्रम शाश्वत है। किसी कवि ने इस तथ्य को निम्नवत् व्यक्त किया है, देखिए-
“आया है सो जायेगा राजा रंक फकीर”
कोई हाथी चढ़ चल रहा कोई बना जंजीर।”

निष्कर्ष में कहा जा सकता है कि जरा एवं मृत्यु ये दोनों ही तथ्य सत्य हैं इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। इस तथ्य को तुलसीदास ने भी स्वीकारा है।

प्रश्न 2.
लेखक ने कबीर की तुलना शिरीष से क्यों की है? समझाइए। (2009)
उत्तर:
लेखक ने कबीर की तुलना शिरीष से इसलिए की है क्योंकि जिस प्रकार शिरीष का फूल चाहे गर्मी हो, बरसात हो, बसन्त हो अथवा ग्रीष्म ऋतु की लू के भयंकर थपेड़े हों वह हर दशा में फलता-फूलता है तथा झूम-झूम कर अपनी प्रसन्नता को निरन्तर व्यक्त करता है। शिरीष पर सर्दी, गर्मी, धूप का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

जिस प्रकार कबीर अनासक्त योगी थे एवं मस्त-मौजा प्रवृत्ति के संत थे। निन्दा, अपमान अथवा प्रशंसा का उन पर तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ता था। जैसा कि कबीर के निम्न कथन से यह सत्य उजागर होता है-
“कबिरा खड़ा बाजार में लिए लकुटिया हाथ।
जो घर फूंकै आपनो चलै हमारे साथ।।”

लेखक ने शिरीष के फूल को कबीर की भाँति मस्त-मौला एवं मनमौजी प्रवृत्ति का पाया इसी कारण उन्होंने शिरीष की तुलना कबीर से की है और इसे कालजयी एवं अनासक्त अवधूत की संज्ञा प्रदान की।

प्रश्न 3.
कालिदास को अनासक्त योगी क्यों कहा गया है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कालिदास को अनासक्त योगी इसलिए कहा गया है क्योंकि उन्हें सम्मान की तनिक भी लालसा नहीं थी। वे सत्ता एवं अधिकार लिप्सा के घोर विरोधी थे। ऐसे व्यक्ति भविष्य में आने वाली पीढ़ी की उपेक्षा को भी सहन कर लेते थे। कालिदास ने अपने शृंगारिक वर्णन में अनासक्त भाव का भली प्रकार विवेचन किया है। वे स्थित प्रज्ञ एवं अनासक्त योगी बनकर कवि सम्राट के आसन पर प्रतिष्ठित हुए। अन्त में कहा जा सकता है जिस प्रकार शिरीष का फूल हर विषम परिस्थिति में फूलता-फलता एवं मुस्कुराता रहता है उसी प्रकार कालिदास भी विषम परिस्थूिति में प्रसन्नतापूर्वक अनासक्त योगी की भाँति अविचल खड़े रहते थे। वास्तव में कालिदास एक सच्चे योगी थे।

प्रश्न 4.
शिरीष एक अद्भुत अवधूत है। दुःख हो या सुख, वह हार नहीं मानता। इस वाक्य के सन्दर्भ में अपने भाव लिखिए। (2008, 09)
उत्तर:
शिरीष का फूल एक अवधूत के समान चाहे दुःख की आँधी हो अथवा सुख की चाँदनी हो वह हर परिस्थिति को समान रूप से ग्रहण करता है। दुःख में कभी हताश नहीं होता तथा सुख में कभी इठलाता नहीं है। वह समान रूप से जीवन जीता है। पराजय स्वीकार करना तो वह जानता नहीं है क्योंकि उसकी धारणा है कि “गति ही जीवन है तथा निष्क्रियता घोर मरण है।”

निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि शिरीष एक अद्भुत अवधूत की तरह सब कुछ सहन करने के लिए अटल होकर अपने स्थान पर प्रसन्नता से झूमता रहता है। ऋतुओं का क्रम उसको तनिक भी प्रभावित नहीं करता। उसने तो हर परिस्थिति में अवधूत की भाँति मस्त रहना सीखा है। जिस प्रकार अवधूत को सांसारिक भोगों की लिप्सा नहीं रहती है उसी प्रकार शिरीष को भी सर्दी, गर्मी, धूप, छाया की परवाह नहीं रहती है। “प्रसन्नता ही जीवन है”, यही उसके जीवन का मूलमन्त्र है।

प्रश्न 5.
शिरीष जीवन में किस गुण का प्रचार करता है? (2013)
उत्तर:
शिरीष जीवन में इस गुण का प्रचार करता है कि दुनिया के मानव दुःख आने पर क्यों आहें भरता है तथा सुख आने पर गर्व से झूम उठता है। सुख एवं दुःख तो क्रम से आते-जाते रहते हैं। जो मनुष्य आज दुःख की चट्टान के तले दबकर सिसकियाँ ले रहा है कल उसी के कंठ से सुख के स्वर ध्वनित होंगे। इस प्रकार से शिरीष का फूल जीवन में हमें निरन्तर आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। सत्ता के मोह और अधिकार के प्रति हम लिप्त न रहें। यह उसका एकमात्र सन्देश है।

जो मानव निरन्तर सत्ता के प्रति लोलुप रहता है, उसका पराभव निश्चित है। धैर्य, साहस एवं तटस्थता जीवन के अपेक्षित गुण हैं जो व्यक्ति को उन्नति के शिखर पर आरूढ़ करते हैं। शिरीष इन्हीं गुणों का परिचायक है।

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शिरीष के फूल भाषा अध्ययन

प्रश्न 1.
निम्नलिखित मुहावरों और लोकोक्तियों को अपने वाक्यों में प्रयोग कीजिए
डटे रहना, आँख बचाना, हार न मानना, आँच न आना, न ऊधो का लेना न माधो का देना।
उत्तर:
प्रयोग : (1) डटे रहना – हमें हर परिस्थिति में अपने कर्तव्य पालन के प्रति डटे रहना चाहिए।
(2) आँख बचाना – नौकरानी ने आँख बचाकर मालिक के सारे आभूषण गायब कर दिये।
(3) हार न मानना – उत्साही पुरुष कैसी भी विषम परिस्थिति हो कभी हार नहीं मानते।
(4) आँच न आना – सज्जन ऐसा कोई कार्य नहीं करते जिससे उनके चरित्र पर कोई आँच आये।
(5) न ऊधो का लेना न माधो का देना – इस षड्यन्त्र में मधु का कोई हाथ नहीं है उसका तो एकमात्र उद्देश्य है न ऊधो का लेना न माधो का देना।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित वाक्यों को शुद्ध कीजिए-
(अ) अशुद्ध – महक उठता है शिरीष का फूल बसन्त के आगमन के साथ।
उत्तर:
शुद्ध – शिरीष का फूल बसन्त के आगमन के साथ महक उठता है।

(आ) अशुद्ध – हिल्लोल जरूर पैदा करते हैं शिरीष के पुष्प मेरे मानस में।
उत्तर:
शुद्ध – शिरीष के पुष्प मेरे मानस में हिल्लोल जरूर पैदा करते हैं।

(इ) अशुद्ध – छायादार हैं होते बड़े वृक्ष शिरीष के।
उत्तर:
शुद्ध – शिरीष के वृक्ष बड़े छायादार होते हैं।

(ई) अशुद्ध – शिरीष का फूल साहित्य में कोमल मानी जाती है।
उत्तर:
शुद्ध – शिरीष का फूल साहित्य में कोमल माना जाता है।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित गद्यांश में यथास्थान विरामचिह्नों का प्रयोग कीजिए-
मैं सोचता हूँ कि पुराने की यह अधिकार लिप्सा क्यों नहीं समय रहते सावधान हो जाती जरा और मृत्यु ये दोनों ही जगत के अति परिचित और अति प्रामाणिक सत्य हैं तुलसीदास ने अफसोस के साथ इसकी गहराई पर मुहर लगाई थी धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा सो झरा जो बरा सो बताना।
उत्तर:
मैं सोचता हूँ कि पुराने की यह अधिकार लिप्सा क्यों नहीं समय रहते सावधान हो जाती? जरा और मृत्यु ये दोनों ही जगत के अति परिचित और अति प्रमाणिक सत्य हैं। तुलसीदास ने अफसोस के साथ इसकी गहराई पर मुहर लगाई थी, “धरा को प्रमान यही तुलसी, जो फरा सो झरा जो बरा सो बताना।”

शिरीष के फूल पाठ का सारांश

शिरीष का फूल, साहित्य मनीषी आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का एक सफल एवं उच्च कोटि का प्रेरणादायक निबन्ध है। विद्वान लेखक ने शिरीष के फूल का विभिन्न रूपों में वर्णन किया है, वह प्रशंसनीय है। शिरीष एक ऐसा फूल है जिसने कालरूपी समय पर विजय प्राप्त कर ली है। वह हर ऋतु में झूमता एवं लहराता रहता है। वह जीवन की अजेय शक्ति का प्रतीक है।

अद्भुत अवधूत की भाँति दुःख एवं सुख को समान रूप से स्वीकार करता है। कबीर तथा आधुनिक काल के सुमित्रानन्दन पन्त एवं रवीन्द्रनाथ टैगोर भी अनासक्ति भाव से जीवन जीते थे। महात्मा गाँधी भी मार-काट, लूटपाट, रक्त प्रवाह आदि परिस्थितियों में अडिग रहकर धैर्य एवं साहस का परिचय देते थे। अतः उनको भी अवधूत की संज्ञा से विभूषित किया गया है।

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शिरीष के फूल कठिन शब्दार्थ

शिरीष = अति कोमल फूलों वाला एक वृक्ष। धरित्री = धरती। निर्धूम = धुआँ रहित। पलाश = एक प्रकार का लाल रंग का पुष्प। लहक उठता = झूमता। निर्धात अवधूत = सुखदुःख को समान समझने वाला संन्यासी, योगी। कालजयी = जिसने काल पर विजय प्राप्त कर ली हो। मानस = हृदय। हिल्लोल = प्रसन्नता, लहर। अशोक, अरिष्ठ, पुन्नाग और शिरीष = वृक्षों के नाम। मसृण = चिकनी, हरियाली, हरीतिमा। परिवेक्षिष्ठत = घिरी हुई। तुन्दिल = तोंद वाले। पक्षपात = किसी का पक्ष लेना। अधिकार-लिप्सा = अधिकार की लालसा। जीर्ण = पुराने। दुर्बल = कमजोर। परवर्ती = बाद के। ऊर्ध्वमुखी = ऊपर की ओर मुख वाला। ततुंजाल = रेशों का जाल। अनाविल = स्वच्छ, साफ। अनासक्त= आसक्ति रहित। विस्मयविमूढ़ = आश्चर्यचकित। कृषीवल = गन्ने में लगने वाला कीट। कार्पण्य = कंजूस, लोभी। मृणाल = सफेद कमल की डंडी। ईक्षु दण्ड = गन्ना। गन्तव्य = पहुँचने का स्थान। अभ्रभेदी = आकाश को भेदने वाला।

शिरीष के फूल संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

1. बसंत के आगमन के समय जब सारी वनस्थली पुष्प-पत्र से मर्मरित होती रहती है। शिरीष के पुराने फूल बुरी तरह लड़खड़ाते रहते हैं। मुझे उनको देखकर उन नेताओं की याद आती है, जो किसी प्रकार जमाने का साथ नहीं पहचानते और जब तक नई पौध के लोग उन्हें धक्का मारकर निकाल नहीं देते, तब तक जमे रहते हैं। (2013)

सन्दर्भ :
प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक के निबन्ध ‘शिरीष के फूल’ से उद्धृत है। इसके लेखक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं।

प्रसंग :
प्रस्तुत गद्यावतरण में लेखक ने शिरीष के पुराने फूलों के माध्यम से जमे रहने वाले वृद्ध खुर्रार नेताओं पर कटाक्ष किया गया है।

व्याख्या :
ऋतुराज बसंत के आते ही सारा वन प्रदेश फूल और पत्तों से भर उठता है। पत्तों और फूलों की रगड़ से सरसराहट का स्वर निकलता रहता है, परन्तु शिरीष के पुराने फूल अब तक पेड़ों पर लगे रहते हैं और सूख जाने के कारण परस्पर टकराकर खड़खड़ाहट करते रहते हैं। लेखक को इन फूलों को देखकर उन नेताओं का स्मरण हो उठता है, जो किसी भी तरह समय के परिवर्तन को पहचानने को तैयार नहीं होते हैं। वे राजनीति में जमे ही रहना चाहते हैं। जब नवीन पीढ़ी के नेता उन्हें धकियाकर बाहर कर देते हैं तब बेइज्जत होकर राजनीति से बाहर होते हैं।

विशेष :

  1. शिरीष के पुराने फूलों के टिके रहने के आधार बनाकर राजनीति में जमे बेशर्म नेताओं पर तीखा प्रहार हुआ है।
  2. शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है।
  3. विवेचनात्मक शैली अपनाई गई है।

2. मैं सोचता हूँ कि पुराने की यह अधिकार-लिप्सा क्यों नहीं समय रहते सावधान हो जाती? जरा और मृत्यु ये दोनों ही जगत के अति परिचित और अति प्रामाणिक सत्य हैं। तुलसीदास ने दुःख के साथ इसकी सच्चाई पर मुहर लगाई थी,”धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा सो झरा जो बरा-सो बताना।” मैं शिरीष के फूलों को देखकर कहता हूँ कि क्यों नहीं फलते ही समझ लेते बाबा, कि झड़ना निश्चित है। सुनता कौन है? महाकाल देवता सपासप कोड़े चला रहे हैं, जीर्ण और दुर्बल झड़ रहे हैं। जिनमें प्राणकण थोड़ा भी ऊर्ध्वमुखी है, वे टिक जाते हैं। (2011)

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने वृद्धावस्था एवं मृत्यु को प्रामाणिक सत्य ठहराकर, इस सत्य की तुलना शिरीष के फूल से की है।

व्याख्या :
लेखक का कथन है कि वृद्धावस्था एवं मृत्यु दोनों ही अटल सत्य हैं। इसे कोई भी कदापि असत्य नहीं ठहरा सकता। इतने पर भी मानव अधिकारों के प्रति, प्रतिक्षण लालायित रहता है। उसकी यह आकांक्षा रहती है कि वह अधिक से अधिक अधिकार सम्पन्न बने।

महाकवि तुलसीदास ने इस बात पर वेदना व्यक्त की है और इसकी सत्यता को इस कथन से उजागर किया है-जो फलता-फूलता है वह कुम्हलाकर झड़ भी जाता है। लेखक शिरीष के फूल को देखकर इस बात को स्पष्ट कर रहा है कि पल्लवित एवं पुष्पित होने वाला वृक्ष भी अवश्य ही झड़ता है। काल रूपी देवता निरन्तर बेधड़क कोड़े चला रहा है अर्थात् प्राणी निरन्तर काल-कवलित हो रहे हैं। लेकिन मनुष्य इस तथ्य को नहीं स्वीकार कर रहा है। जो समय के थपेड़े से जीर्ण-शीर्ण एवं दुर्बल हो चुके हैं, वे धराशायी हो रहे हैं। परन्तु जिनके प्राणों में ऊर्जा शक्ति विद्यमान है वे ही उन्नत रहने में सक्षम हैं।

विशेष :

  1. जीवन और मृत्यु दोनों ही प्रामाणिक सत्य हैं।
  2. भाषा अलंकारिक, परिमार्जित एवं प्रसंगानुकूल है।

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3. शिरीष तरु सचमुच पक्के अवधूत की भाँति मेरे मन में ऐसी अग्नि जगा देता है जो ऊपर की ओर उठती रहती है। इस चिलकती धूप में इतना सरस वह कैसे बना रहता है? क्या ये बाह्य परिवर्तन-धूप, आँधी, लू अपने आप में सत्य नहीं हैं? हमारे देश के ऊपर से जो यह मार-काट, अग्निदाह, लूटपाट, खून-खच्चर का बवंडर बह गया है उसके भीतर भी क्या स्थिर रहा जा सकता है? शिरीष रह सका है । अपने देश का एक बूढ़ा रह सका था। क्यों? मेरा मन पूछता है कि ऐसा क्यों सम्भव हुआ है? क्योंकि शिरीष भी अवधूत है और अपने देश का वह बूढ़ा अवधूत था।
(2008)

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने शिरीष के वृक्ष को अवधूत की भाँति स्वीकार किया है। इसके अतिरिक्त मानव को उस वृक्ष से प्रेरणा ग्रहण करने का संदेश दिया है।

व्याख्या :
लेखक का कथन है कि शिरीष का वृक्ष एक योगी की तरह से हमारे मन-मानस में ऐसी साहस की अग्नि जगा देता है जो हमें सदैव जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। चिलचिलाती, धूप, आँधी एवं लू में भी वह सदैव झूमता एवं लहराता रहता है। ये प्रकृति के विभिन्न उपादान जो कि मानव को व्यथित एवं भयभीत करते रहते हैं, लेकिन शिरीष के फूल पर इन बाह्य परिवर्तनों का तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ता है। हमारे देश में हिंसा, मार-काट, लूट-पाट एवं रक्त-पात का ज्वार सर्वत्र व्याप्त है। परन्तु इस भयावह वातावरण में भारत देश का एक बूढ़ा राष्ट्र नायक शिरीष के फूल की भाँति जीवन में हमें स्थिर रहने का संदेश दे रहा है। गाँधी एवं शिरीष दोनों ही अवधूत की श्रेणी में रखे जा सकते हैं।

विशेष :

  1. गाँधी की तुलना शिरीष के फूल से की है। दोनों ही योगी हैं।
  2. अग्नि जगाना, खून-खच्चर का बवंडर आदि मुहावरों का प्रयोग है।
  3. भाषा-शैली प्रामाणिक एवं विषयानुरूप है।

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MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 1 उत्साह

MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 1 उत्साह

उत्साह अभ्यास

उत्साह अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
उत्साह के बीच किनका संचरण होता है?
उत्तर:
उत्साह के बीच धृति (धैर्य) और साहस का संचरण होता है।

प्रश्न 2.
लेखक ने वीरों के कितने प्रकार बताये हैं?
उत्तर:
लेखक ने वीरों के चार प्रकार बताये हैं-

  1. कर्मवीर
  2. युद्धवीर
  3. दानवीर, और
  4. दयावीर।

प्रश्न 3.
प्रयत्न किसे कहते हैं?
उत्तर:
बुद्धि द्वारा पूर्ण रूप से निश्चित की हुई व्यापार-परम्परा का नाम प्रयत्न है।

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उत्साह लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
प्रत्येक कर्म में किस तत्त्व का योग अवश्य होता है?
उत्तर:
प्रत्येक कर्म में थोड़ा या बहुत बुद्धि का तत्त्व अवश्य होता है। कुछ कर्मों में बुद्धि और शरीर की तत्परता साथ-साथ चलती है। उत्साह की उमंग जिस प्रकार हाथ-पैर चलवाती है उसी प्रकार बुद्धि से भी कार्य करवाती है।

प्रश्न 2.
फलासक्ति का क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
फलासक्ति से कर्म के लाघव की वासना उत्पन्न होती है। चित्त में यह आता है कि कर्म बहुत सरल करना पड़े और फल बहुत-सा मिल जाए। इससे मनुष्य कर्म करने के आनन्द की उपलब्धि से भी वंचित रहता है।

प्रश्न 3.
कौन-सी भावना उत्साह उत्पन्न करती है? उदाहरण सहित लिखिए।
उत्तर:
कर्म भावना उत्साह उत्पन्न करती है। किसी वस्तु या व्यक्ति के साथ उत्साह का सीधा लगाव नहीं होता। उदाहरणार्थ, समुद्र लाँघने के लिए उत्साह के साथ हनुमान उठे हैं उसका कारण समुद्र नहीं-समुद्र लाँघने का विकट कर्म है। अतः कर्मभावना ही उत्साह की जननी है।

उत्साह दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
भय और उत्साह में क्या अन्तर है? (2009, 11)
उत्तर:
भय का स्थान दुःख वर्ग में आता है और उत्साह का आनन्द वर्ग में अर्थात् यदि किसी कठिन कार्य को हमें भयवश करना होता है तो उससे हमें कष्ट और दुःख का अनुभव होता है क्योंकि उस कार्य को करने में हमारी प्रवृत्ति नहीं होती। मन में उत्साह नहीं होता। हमारा मन चाहता है कि उक्त कार्य हमें न करना पड़े तो अच्छा रहे किन्तु उत्साह में मन के अन्दर सुख, उमंग, साहस और प्रेरणा का समावेश होता है। इसमें हम आने वाली कठिन परिस्थिति के भीतर भी साहस का अवसर ढूँढ़ते हैं और निश्चय करने से मन में प्रस्तुत कार्य को करने के सुख की उमंग का अनुभव करते हैं। अतः हम आनन्दित होकर उस कार्य को करने का प्रयत्न करते हैं। इस प्रकार भय में दुःख और उत्साह में आनन्द की सृष्टि होती है।

प्रश्न 2.
किसी कर्म के अच्छे या बुरे होने का निश्चय किस आधार पर होता है? उत्साह के सन्दर्भ में सोदाहरण स्पष्ट कीजिए। (2008)
उत्तर:
किसी कार्य के अच्छे या बुरे होने का निश्चय अधिकतर उसकी प्रवृत्ति के शुभ या अशुभ परिणाम के विचार से होता है। वही उत्साह जो कर्त्तव्य कर्मों के प्रति इतना सुन्दर दिखाई पड़ता है, अकर्त्तव्य कर्मों के प्रति होने पर वैसा प्रशंसनीय नहीं प्रतीत होता। आत्म-रक्षा, पर-रक्षा, देश-रक्षा आदि के निमित्त साहस की जो उमंग देखी जाती है और उसमें जो सौन्दर्य निहित है वह पर-पीड़ा, डकैती आदि जैसे साहसिक कार्यों में कभी दिखाई नहीं देता अर्थात् उत्साह में साहस और सौन्दर्य दोनों निहित हैं। अच्छे कर्मों को करने में दोनों होते हैं और उनकी प्रशंसा की जाती है। बुरे कर्मों को करने वाले उत्साह में केवल साहस होता है, सौन्दर्य नहीं होता। अत: ऐसा उत्साह प्रशंसनीय नहीं कहा जाता है।

प्रश्न 3.
उत्साह का अन्य कर्मों पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
उत्साह में मनुष्य आनन्दित होता है और उस आनन्द के कारण उसके मन में एक ऐसी स्फूर्ति उत्पन्न होती है जो एक के साथ उसे अनेक कार्यों के लिए अग्रसर करती है। यदि मनुष्य को उत्साह से किए किसी एक कार्य में बहुत-सा लाभ हो जाता है या उसकी कोई बहुत बड़ी मनोकामना पूर्ण हो जाती है तो अन्य जो कार्य उसके सामने आते हैं उन्हें भी वह बड़े हर्ष और तत्परता के साथ करता है। उसके इस हर्ष और तत्परता में कारण उत्साह ही होता है। इसी प्रकार किसी उत्तम फल या सुख प्राप्ति की आशा या निश्चय से उत्पन्न आनन्द, फलोन्मुखी प्रयत्नों के अतिरिक्त अन्य दूसरे कार्यों के साथ संलग्न होकर उत्साह के रूप में दिखाई देता है। यदि हम किसी ऐसे उद्योग में संलग्न हैं जिससे भविष्य में हमें बहुत लाभ या सुख प्राप्त होने की आशा है तो उस उद्योग को हम बहुत उत्साह से करते हैं। इस प्रकार उत्साह का अन्य कर्मों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 4.
इन गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए।
(अ) आसक्ति प्रस्तुत ………. का नाम उत्साह है।
(ब) धर्म और उदारता ………. सच्चा सुख है।
उत्तर:
(अ) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पंक्तियों में आचार्य जी ने बताया है कि मनुष्य को आसक्ति अपने कर्म में रखनी चाहिए न कि कर्मफल में। तभी उसे अपने कार्य में आनन्द की उपलब्धि हो सकती है।

व्याख्या :
लेखक का कथन है कि मनुष्य को लगाव अथवा आसक्ति अपने संकल्पित कर्म में होनी चाहिए क्योंकि हमारे सामने तो वह कर्म ही प्रस्तुत होता है जिसे हमें करना होता है अथवा वह वस्तु जिसे पाने का लक्ष्य हो, उसमें आसक्ति का होना उचित है क्योंकि तब हम कर्म में प्रवृत्त होने के लिए प्रेरित होंगे। इसका कारण है कि कर्म अथवा वह वस्तु तो हमारे सम्मुख उपस्थित है जिसे हमें करना है अथवा पाना है किन्तु उसका फल तो दूर रहता है फिर हम फल में आसक्ति क्यों करे।

फल में आसक्ति करने से कर्म करने का आनन्द जाता रहता है और हम कर्म करने से विरत हो जाते हैं। अतः हमें अपने कर्म का लक्ष्य ही ध्यान में रखना चाहिए। कर्म का लक्ष्य ध्यान रखने पर हमें कर्म करने की प्रेरणा प्राप्त होती है। उससे एक प्रकार की उत्तेजना अथवा उमंग हमारे मन में भी भर जाती है। इससे हमें कार्य करते समय निरन्तर आनन्द की अनुभूति होती रहती है। कर्म करने की उत्तेजना और आनन्द की अनुभूति इसी को उत्साह मनोभाव के नाम से जाना जाता है।

(ब) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत गद्य खण्ड में लेखक ने बताया है कि जब मनुष्य उच्च और लोकोपकारी कर्म करता है तो उसे कर्म करते हुए ही फल की प्राप्ति के आनन्द की अनुभूति होने लगती है। इससे उसका मन एक दिव्य प्रकार के आनन्द से भर जाता है।

व्याख्या :
लेखक का कथन है कि धर्म और उदार दृष्टिकोण से युक्त होकर जो कार्य किए जाते हैं उन कार्यों का आदर्श ऊँचा होता है। इनमें स्वतः ही एक ऐसा अलौकिक आनन्द भरा हुआ होता है कि जब कर्ता इन्हें करने में अग्रसर होता है तो उसे ऐसे आनन्द की प्रतीति होती है जैसे कि उसे उनका फल प्राप्त हो गया हो अर्थात् पर-कल्याण की भावना से युक्त होकर किए जाने वाले कार्य ही कर्ता को फल प्राप्ति जैसे आनन्द की अनुभूति करा देते हैं। ऐसा व्यक्ति अत्याचार और अनाचार को नष्ट करने में अपना पुरुषार्थ मानता है। संसार से कलह और संघर्ष को समाप्त करने में वह कर्त्तव्यनिष्ठ होता है। उसका चित्त एक अलौकिक उल्लास और आनन्द से भर जाता है। उसके मन में अच्छे कार्य करने का परम सन्तोष होता है। ऐसे व्यक्ति को ही कर्मवीर कहा जाता है। ऐसा कर्मवीर मनुष्य अपने कर्मों द्वारा संसार का उपकार करता है। इससे उसे भी परम सुख की प्राप्ति होती है।

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प्रश्न 5.
(अ) साहसपूर्ण आनन्द की उमंग का नाम उत्साह है।
(ब) कर्म में आनन्द उत्पन्न करने वालों का नाम ही कर्मण्य है। उपर्युक्त वाक्यों का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
(अ) साहसपूर्ण आनन्द की उमंग का नाम उत्साह है-जब हमारे मन में किसी कार्य को करने का उत्साह होता है तो उस उत्साह में आनन्द की उमंग छिपी होती है अर्थात् उत्साह की अवस्था में कठिन स्थिति आने पर उसका सामना हम साहस से करते हैं। उस साहस में कर्म करने का सुख निहित रहता है। यही आनन्द की उमंग होती है, जिससे संकल्पित कार्य को हम पूर्ण तत्परता और मनोयोग से करते हैं। तब हमें कठिन परिस्थिति भी कठिन नहीं प्रतीत होती। इसी को उत्साह कहा जाता है।

(ब) कर्म में आनन्द उत्पन्न करने वालों का नाम ही कर्मण्य है-कर्म करने वाला अथवा कर्मण्य उसी को कहा जाता है जो प्रत्येक कर्म को आनन्दपूर्ण होकर सम्पादित करता है। आनन्दपूर्ण स्थिति उत्साह से प्राप्त होती है। उत्साह में आनन्द और कर्म करने की तत्परता दोनों का समावेश होता है। जो कार्य बिना उत्साह के किए जाते हैं वे एक प्रकार से विवशता अथवा भय ही प्रकट करते हैं। उनका परिणाम प्रायः दुःख ही रहता है। इसीलिए जो कर्म करने के महत्त्व को जानता है, वह कर्म उत्साह से सम्पादित करता है। वह कर्म में एक विशेष प्रकार का आनन्द उत्पन्न कर लेता है। अतः वास्तविक रूप में उसी को कर्मण्य अथवा कार्य करने वाला कहा जाता है।

उत्साह भाषा अध्ययन

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के हिन्दी पर्याय लिखिएहाकिम, मिजाज, मुलाकात, अर्दली, सलाम।
उत्तर:
अधिकारी, स्वभाव, मिलन, सेवक, नमस्ते।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित शब्दों के विलोम लिखिएभय, दु:ख, हानि, शत्रु, उपस्थित।
उत्तर:
निर्भय, सुख, लाभ, मित्र, अनुपस्थित।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित शब्दों में से उपसर्ग छाँटकर लिखिएविशेष, आघात, उत्कर्ष, अप्राप्ति, विशुद्ध।
उत्तर:
वि, आ, उत्, अ, वि।

प्रश्न 4.
पाठ में आए हुए विभिन्न योजक शब्दों को छाँटकर लिखिए।
उत्तर:
आनन्द-वर्ग, साहस-पूर्ण, कर्म-सौन्दर्य, साहित्य-मीमांसकों, दान-वीर, दया-वीर, आनन्द-पूर्ण, हाथ-पैर, पर-पीड़न, प्रसन्न-मुख, आराम-विश्राम, दस-पाँच, इधर-उधर, आते-जाते, साथ-साथ, कर्म-शृंखला, युद्ध-वीर, कर्म-प्रेरक, कर्म-स्वरूप, विजय-विधायक, कीर्ति-लोभ-वश, श्रद्धा-वश, कर्म-भावना, फल-भावना, धन-धान्य, प्रयत्न-कर्म, एक-एक, व्यापार-परम्परा, ला-लाकर, दौड़-धूप, आत्म-ग्लानि, सोच-सोचकर, फल-स्वरूप, कर्म-वीर, थोड़ा-थोड़ा, बहुत-सा, स्थिति-व्याघात, सलाम-साधक।

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प्रश्न 5.
निम्नलिखित वाक्यों को शुद्ध रूप में लिखिए
(अ) आप पुस्तक क्या पढ़ेंगे?
(आ) कितना वीभत्स दृश्य है, ओह ! यह !
(इ) बीमार को शुद्ध भैंस का दूध पिलाइए।
(ई) एक फूलों की माला लाओ।
(उ) छब्बीस जनवरी का भारत के इतिहास में बहुत महत्त्व है।
(ऊ) यह बहुत सुन्दर चित्र है।
उत्तर:
शुद्ध वाक्य-
(अ) क्या आप पुस्तक पढ़ेंगे?
(आ) ओह ! यह कितना वीभत्स दृश्य है?
(इ) बीमार को भैंस का शुद्ध दूध पिलाइए।
(ई) फूलों की एक माला लाओ।
(उ) भारत के इतिहास में छब्बीस जनवरी का बहुत महत्त्व है।
(ऊ) यह चित्र बहुत सुन्दर है।

उत्साह पाठ का सारांश

प्रस्तुत निबन्ध आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा लिखित निबन्ध-ग्रन्थ चिन्तामणि-भाग 1 से संकलित है। प्रस्तुत निबन्ध में आचार्य जी ने ‘उत्साह’ मनोभाव की विश्लेषणात्मक विवेचना करते हुए बताया है कि यह एक ऐसा गुण है जो व्यक्ति को कार्य में प्रवृत्त रखने के लिए सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करता है। उत्साह कार्य करने की एक आनन्दमय अवस्था है। इससे कठिन से कठिन कार्य सम्पादित करने में भी मन को थकान नहीं होती अपितु कार्य में एक तरह का आनन्द प्राप्त होता है जो मन को प्रफुल्लित बनाये रखता है। किसी कार्य में सफलता तभी मिल पाती है। जब उस कार्य को करने के लिए हमारे मन में उत्साह हो। साहसपूर्ण आनन्द की उमंग उत्साह है। उत्साह से कार्य करने वाले व्यक्ति ही युद्धवीर, दानवीर और दयावीर कहलाते हैं।

उत्साह कठिन शब्दार्थ 

आनन्द वर्ग = आनन्द का वर्गीकरण। कर्म सौन्दर्य = कार्य की सुन्दरता। उपासक = पुजारी, आराधना करने वाले। श्लाध्य = प्रशंसनीय। उत्कण्ठापूर्ण = जिज्ञासायुक्त। साहित्य-मीमांसक = साहित्य की मीमांसा (विवेचन, विश्लेषण आदि) करने वाले। आघात = चोट। परवा = चिन्ता, फिक्र। चरम उत्कर्ष = पराकाष्ठा। स्फुरित = फड़कना। धीरता = धैर्य, मन की स्थिरता। निश्चेष्ट = चेष्टा या प्रयत्न रहित। धुति = धैर्य। संचरण = संचार। अकर्तव्य कर्मों = न करने योग्य कार्यों। परपीड़न = दूसरे को सताना। विशुद्ध = शुद्ध, पूर्णतया। शौर्य = वीरता का भाव। सुभीते = सुविधा, आराम। विजेतव्य = विजय करने योग्य। आलम्बन = आधार। दुस्साध्य = कठिनता से प्राप्त होने वाला। निर्दिष्ट = निर्देशित। यौगिक= मिला-जुला। उन्मुख = उत्साहयुक्त। अनुष्ठान = सम्पादन करना, संकल्पित कार्य पूर्ण करना। आसक्ति = लगाव। लाघव = लघुता, छोटा करना, कौशल। फलासक्ति = फल की इच्छा। वासना = इच्छा। कर्मण्य = कर्म करने वाला। दिव्य = अलौकिक।शमन = शान्त करना। आत्मग्लानि = मन ही मन पछतावा। फलोन्मुख = फल प्राप्ति का इच्छुक। लोकोपकारी = संसार की भलाई करने वाला (कल्याण करने वाला)। क्रुद्ध = क्रोधित। व्याघात = व्यवधान, बाधा। सलाम साधक = दुआ सलाम करने वाले। हाकिमों = अधिकारियों। अर्दलियों = सेवकों। मिजाज = स्वभाव, आदत।

उत्साह संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

1. उत्साह में हम आने वाली कठिन स्थिति के भीतर साहस के अवसर के निश्चय द्वारा प्रस्तुत कर्म सुख की उमंग से अवश्य प्रयत्नवान् होते हैं। कष्ट या हानि सहने के साथ-साथ कर्म में प्रवृत्त होने के आनन्द का योग रहता है।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य पुस्तक के निबन्ध ‘उत्साह’ से उद्धृत किया गया है। इसके लेखक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल’ हैं।

प्रसंग :
प्रस्तुत अवतरण में शुक्ल जी ने ‘उत्साह’ मनोविकार पर प्रकाश डालते हुए उसकी विशेषताएँ बतलाई हैं।

व्याख्या :
जब हमारे मन के अन्दर उत्साह के भाव का संचार होता है तो हम कठिन से कठिन परिस्थिति की चिन्ता नहीं करते हैं और मन में आनन्द की उमंग के साथ उस कार्य को करने में प्रवृत्त होते हैं। तब हमारे मन में एक नया साहस भरा हुआ होता है। इस साहस और कार्य करने के सुख से कठिनाइयों को सहन करते हुए भी हम अपने संकल्पित कार्य में संलग्न रहते हैं। हमारे मन में इस बात का उत्साह रहता है कि हम अपने लक्ष्य को अवश्य प्राप्त कर लेंगे। कष्ट हो अथवा हानि हो, हम इसकी चिन्ता नहीं करते। अत: यह स्पष्ट है कि उत्साह का भाव हमारे मन में कार्य में संलग्न होने के साथ-साथ एक आनन्दमय अनुभूति भी प्रदान करता है जिससे हम विषम परिस्थिति में भी अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए तत्पर रहते हैं।

विशेष :

  1. उत्साह मनोभाव का मनोविश्लेषणात्मक विवेचन प्रस्तुत किया गया है।
  2. उत्साह जीवन में सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करता है, लेखक ने इस बात पर प्रकाश डाला है।
  3. शैली विचारोत्तेजक एवं गवेषणापूर्ण है। भाषा सरल, सुबोध और साहित्यिक हिन्दी है।

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2. आसक्ति प्रस्तुत या उपस्थित वस्तु में ही ठीक कही जा सकती है। कर्म सामने उपस्थित रहता है। इससे आसक्ति उसी में चाहिए, फल दूर रहता है इससे उसकी ओर कर्म का लक्ष्य काफी है। जिस आनन्द से कर्म की उत्तेजना होती है और जो आनन्द कर्म करते समय तक बराबर चला चलता है उसी का नाम उत्साह है। (2016)

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पंक्तियों में आचार्य जी ने बताया है कि मनुष्य को आसक्ति अपने कर्म में रखनी चाहिए न कि कर्मफल में। तभी उसे अपने कार्य में आनन्द की उपलब्धि हो सकती है।

व्याख्या :
लेखक का कथन है कि मनुष्य को लगाव अथवा आसक्ति अपने संकल्पित कर्म में होनी चाहिए क्योंकि हमारे सामने तो वह कर्म ही प्रस्तुत होता है जिसे हमें करना होता है अथवा वह वस्तु जिसे पाने का लक्ष्य हो, उसमें आसक्ति का होना उचित है क्योंकि तब हम कर्म में प्रवृत्त होने के लिए प्रेरित होंगे। इसका कारण है कि कर्म अथवा वह वस्तु तो हमारे सम्मुख उपस्थित है जिसे हमें करना है अथवा पाना है किन्तु उसका फल तो दूर रहता है फिर हम फल में आसक्ति क्यों करे।

फल में आसक्ति करने से कर्म करने का आनन्द जाता रहता है और हम कर्म करने से विरत हो जाते हैं। अतः हमें अपने कर्म का लक्ष्य ही ध्यान में रखना चाहिए। कर्म का लक्ष्य ध्यान रखने पर हमें कर्म करने की प्रेरणा प्राप्त होती है। उससे एक प्रकार की उत्तेजना अथवा उमंग हमारे मन में भी भर जाती है। इससे हमें कार्य करते समय निरन्तर आनन्द की अनुभूति होती रहती है। कर्म करने की उत्तेजना और आनन्द की अनुभूति इसी को उत्साह मनोभाव के नाम से जाना जाता है।

विशेष :

  1. लेखक ने गीता में श्रीकृष्ण द्वारा दिए गए उपदेश ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ का प्रतिपादन करते हुए बताया है कि मनुष्य को आसक्ति अपने कर्म में रखनी चाहिए न कि फल में। फल में आसक्ति होने से मनुष्य के मन में लोभ आदि वासनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं और कर्म करने का आनन्द समाप्त हो जाता है। तब कर्म में उसकी प्रवृत्ति न होने से उसके जीवन में उत्साह नहीं रहता।
  2. शैली विचारोत्तेजक, गवेषणात्मक है।
  3. भाषा सरल, सहज और बोधगम्य है।

3. कर्म में आनन्द अनुभव करने वालों ही का नाम कर्मण्य है। धर्म और उदारता के उच्च कर्मों के विधान में ही एक ऐसा दिव्य आनन्द भरा रहता है कि कर्ता को वे कर्म ही फलस्वरूप लगते हैं। अत्याचार का दमन और क्लेश का शमन करते हुए चित्त में जो उल्लास और तुष्टि होती है वही लोकोपकारी कर्मवीर का सच्चा सुख है। (2008, 09, 14)

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत गद्य खण्ड में लेखक ने बताया है कि जब मनुष्य उच्च और लोकोपकारी कर्म करता है तो उसे कर्म करते हुए ही फल की प्राप्ति के आनन्द की अनुभूति होने लगती है। इससे उसका मन एक दिव्य प्रकार के आनन्द से भर जाता है।

व्याख्या :
लेखक का कथन है कि धर्म और उदार दृष्टिकोण से युक्त होकर जो कार्य किए जाते हैं उन कार्यों का आदर्श ऊँचा होता है। इनमें स्वतः ही एक ऐसा अलौकिक आनन्द भरा हुआ होता है कि जब कर्ता इन्हें करने में अग्रसर होता है तो उसे ऐसे आनन्द की प्रतीति होती है जैसे कि उसे उनका फल प्राप्त हो गया हो अर्थात् पर-कल्याण की भावना से युक्त होकर किए जाने वाले कार्य ही कर्ता को फल प्राप्ति जैसे आनन्द की अनुभूति करा देते हैं। ऐसा व्यक्ति अत्याचार और अनाचार को नष्ट करने में अपना पुरुषार्थ मानता है। संसार से कलह और संघर्ष को समाप्त करने में वह कर्त्तव्यनिष्ठ होता है। उसका चित्त एक अलौकिक उल्लास और आनन्द से भर जाता है। उसके मन में अच्छे कार्य करने का परम सन्तोष होता है। ऐसे व्यक्ति को ही कर्मवीर कहा जाता है। ऐसा कर्मवीर मनुष्य अपने कर्मों द्वारा संसार का उपकार करता है। इससे उसे भी परम सुख की प्राप्ति होती है।

विशेष :

  1. लेखक के अनुसार जो मनुष्य संसार के हित को ध्यान में रखते हुए उदार दृष्टिकोण से कार्य करता है वही कर्मवीर होता है और वही कर्म करने में सच्चे आनन्द की उपलब्धि पाता है।
  2. शैली विचारपरक और मनोविश्लेषणात्मक है।
  3. भाषा सरल, सहज और बोधगम्य, साहित्यिक हिन्दी है।

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MP Board Class 11th Hindi Solutions

MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 7 सामाजिक समरसता

MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 7 सामाजिक समरसता

सामाजिक समरसता अभ्यास

सामाजिक समरसता अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कबीर ने पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा किस ज्ञान को उपयोगी माना है?
उत्तर:
कबीर ने पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा व्यावहारिक एवं प्रत्यक्ष ज्ञान को उपयोगी माना है।

प्रश्न 2.
राधा दुःखी माता यशोदा को क्या कहकर सांत्वना देती थीं?
उत्तर:
‘श्रीकृष्ण ब्रज को कैसे छोड़ सकते हैं वे अवश्य लौटकर आयेंगे’ यह कहकर राधा यशोदा को सांत्वना देती थीं।

प्रश्न 3.
राधा अपने विरह जनित दुःख को छिपाने के लिए किस प्रकार का बहाना बनाती थीं?
उत्तर:
‘मैं रो नहीं रही हूँ, मेरी आँखों में अति हर्ष का पानी छलक आया है।’ यह बहाना बनाकर राधा अपने दुख को छिपाती थीं।

प्रश्न 4.
ब्रजवासियों के व्यथित होने का क्या कारण था? (201 15, 16)
उत्तर:
श्रीकृष्ण का ब्रज छोड़कर मथुरा चले जाना ब्रजवासियों के व्यथित होने का कारण था।

प्रश्न 5.
कबीर का मन फकीरी में क्यों सुख पाता है?
उत्तर:
नाशवान जगत से परे रहकर राम नाम के भजन का आनन्द मिलने के कारण कबीर को फकीरी में सुख प्राप्त होता है।

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सामाजिक समरसता लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कबीर ने संसार को पागल क्यों कहा है? भाव स्पष्ट कीजिए। (2017)
अथवा
‘साधो देखो जग बौराना’ पद के माध्यम से कबीर क्या कहना चाहते हैं? (2008)
उत्तर:
कबीर कहते हैं कि संसार पागल हो गया है। उससे सत्य बात कही जाय तो वह मारने दौड़ता है और जो झूठ कहते हैं उनका वह विश्वास कर लेता है। हिन्दू और मुसलमान राम तथा रहीम नाम पर झगड़ते हैं जबकि दोनों एक ही हैं। नियमी-धर्मी और पीर-औलिया नाना पाखण्ड करते हैं किन्तु संसार उन्हीं के बहकावे में आ जाता है। संसार के लोग सच्चे गुरु द्वारा बताए गए ज्ञान के मार्ग का अनुसरण न करके जीवन को नष्ट करने वाले संसार की ओर आकर्षित होते हैं। इससे स्पष्ट है कि वे पागल हो गए हैं।

प्रश्न 2.
कबीर ने कर्मकाण्ड पर करारा प्रहार किया है। स्पष्ट कीजिए। (2014)
उत्तर:
कबीर धार्मिक पाखण्ड के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने कर्मकाण्ड पर करारे प्रहार किये हैं। वे कहते हैं किं बहुत से तथाकथित नियमों का पालन करने वाले धर्मात्मा मिले हैं जो प्रात:काल ही स्नान कर लेते हैं किन्तु आत्मा की आवाज न मानकर स्थूल पत्थर की पूजा करते हैं। उनका ज्ञान खोखला एवं दिखावटी है। इसी प्रकार अनेक पीर-औलिया देखें हैं जो वक्तव्य देकर अपने शिष्य बनाते हैं, किन्तु वे भी खुदा को नहीं जानते हैं। उनके हृदय में दया, अनुकम्पा आदि मानवीय भाव नहीं होते हैं।

प्रश्न 3.
राधा ने विरह व्यथा में डूबे ब्रजवासियों को कर्त्तव्य पालन का उपदेश क्यों दिया था? (2008)
उत्तर:
भारतीय संस्कृति का मूलाधार कर्म है। यहाँ कर्म को सर्वोपरि माना गया है। जीवन की सार्थकता कर्म में ही है। इसलिए राधा श्रीकृष्ण के विरह की वेदना में डूबे ब्रजवासियों को समझाती हैं कि उन्हें श्रीकृष्ण के प्रिय कार्यों में लग जाना चाहिए। इससे श्रीकृष्ण जो चाहते थे वे कार्य पूर्ण होंगे और ब्रजवासियों को भी सन्तोष होगा कि वे श्रीकृष्ण के प्रिय कार्यों को कर रहे हैं। कर्म करने से व्यक्ति को मानसिक सन्तोष भी मिलता है। ब्रजवासी जब कामों में लग जायेंगे तो उनका ध्यान भी बँटेगा। वे धीरे-धीरे विरह कष्ट से छुटकारा पा लेंगे।

प्रश्न 4.
ब्रजवासियों के सुख-दुःख दूर करने के लिए राधा ने क्या-क्या उपाय किए थे?
उत्तर:
राधा ने नन्द, यशोदा, गोप, गोपियों, बच्चों, पशु-पक्षियों एवं वनस्पतियों के प्रति दया, सहानुभूति एवं सेवा का भाव अपनाया। उन्होंने यशोदा को कृष्ण के लौटने का आश्वासन दिया तो नंद को शास्त्रों का ज्ञान सुनाया। गोपों को श्रीकृष्ण के प्रिय कार्यों में लगाकर, बालकों को फूलों के खिलौने देकर तथा गोपियों को कृष्ण की लीला के गीत, वंशी तथा वीणा सुनाकर प्रसन्न किया। उन्होंने वृद्ध-रोगियों तथा अनाथों की सेवा की तथा दीन-हीन, निर्बलों एवं विधवाओं को सहारा दिया। इस तरह उन्होंने सभी के संताप (दुःख) दूर करने के लिए अनेक उपाय अपनाए।

प्रश्न 5.
राधा ब्रजबालाओं का दुःख किस प्रकार दूर करती थी?
उत्तर:
राधा ने ब्रजबालाओं का विरह दुःख दूर करने के लिए सेवा धर्म अपनाया था। उन्होंने यशोदा का दुःख पैर सहलाकर, आँखों के आँसू पोंछकर तथा सांत्वना देकर दूर किया तो नन्द का दुःख उनकी सेवा करके तथा शास्त्र ज्ञान सुनाकर समाप्त किया। गोपों की पीड़ा को कम करने के लिए उन्हें श्रीकृष्ण के काम में लगाया। विरहिणी गोपियों को श्रीकृष्ण की लीलाएँ वंशी आदि सुनाई और उनके दुःख को शान्त करने का प्रयास किया। बच्चों को फूलों के खिलौने देकर प्रसन्न करती तो रोगियों, अनाथों, विधवाओं, दीन-हीनों को सहारा देकर उनका कष्ट मिटाया। इस तरह राधा सभी की वेदना दूर करने का प्रयास करती थीं।

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सामाजिक समरसता दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संकलित अंशों के आधार पर कबीर के विचार लिखिए।
उत्तर:
इस प्रश्न के उत्तर के लिए ‘कबीर की वाणी’ शीर्षक का सारांश पढ़िए।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित की सप्रसंग व्याख्या कीजिए-
(अ) मन लाग्यौ मेरा फकीरी में
जो सुख पायौ नाम भजन में, सो सुख, नाहि अमीरी में।
भला-बुरा सबकों सुनि लीजै, करि गुजरान गरीबी में।

(आ) तू तो रंगी फिरै बिहंगी, सब धन डारा खोइ रे।।
सत गुरु धारा निरमल बाहे, वा में काया धोइ रे।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, तब ही वैसा होई रे॥
उत्तर:
इन पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या इस पाठ के ‘सन्दर्भ-प्रसंग सहित पद्यांशों की व्याख्या’ भाग से पढ़िए।

प्रश्न 3.
‘राधा की समाज सेवा’ विषय का केन्द्रीय भाव लिखिए। (2009)
उत्तर:
इसके लिए ‘राधा की समाज सेवा’ का भाव-सारांश पढ़िए।

प्रश्न 4.
“अपने दुःख को भुला देने का सबसे अच्छा उपाय है, अपने को किसी और काम में लगा देना।” राधा ने इस आदर्श का पालन किस प्रकार किया? (2009)
उत्तर:
जब व्यक्ति दुःखी होता है तब उसके चित्त पर बड़ा दबाव रहता है। इसलिए यह माना गया है कि दु:ख के समय व्यक्ति स्वयं को किसी अन्य कार्य में संलग्न कर दे ताकि उसका ध्यान उस कार्य से बँट जाए और दुःख भूल में पड़ जाए। जब श्रीकृष्ण ब्रजवासियों को बिलखता छोड़कर मथुरा चले गये तो उनकी प्रेमिका विरह वेदना से ग्रस्त हो गयी। उन्होंने उस वियोग की पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए स्वयं को समाज की सेवा में संलग्न कर दिया। वे यशोदा को सांत्वना देने, उसके पैर सहलाने, आँसू पोंछने का कार्य करने लगीं। ब्रज के राजा नन्द को शास्त्र सुनाने लगीं। गोपों को काम में संलग्न कर दिया। गोपियों को कृष्ण लीला सुनाना और वंशी बजाकर प्रसन्न करना प्रारम्भ कर दिया। बच्चों को विविध फूलों के खिलौने देकर बहलाया। वृद्धों, रोगियों, अनाथों, विधवाओं आदि को सहारा देने में व्यस्त हो गयीं। इस तरह सभी की सेवा में व्यस्त होने के कारण वे अपना दुःख भूल गयीं।

प्रश्न 5.
“पत्तों को भी न तरुवर के वे वृथा तोड़ती थीं।” आधुनिक सन्दर्भ में इसकी उपयोगिता समझाइए।
उत्तर:
वृक्ष-वनस्पतियाँ प्रदूषण को नियन्त्रित करने में बड़ी सहयोगी होती हैं। जितनी अधिक हरियाली होगी उतना पर्यावरण सुधार होगा। राधा को इस बात का ज्ञान था इसीलिए वे पेड़-पौधों की पत्तियों को व्यर्थ में नहीं तोड़ती थीं। आज संसार भर में पर्यावरण प्रदूषण का प्रकोप है इसीलिए नाना प्रकार के वृक्ष लगाने के अभियान चलाये जा रहे हैं। वन संरक्षण की अनेक योजनाओं का कार्यान्वयन हो रहा है। हरित पट्टिकाएँ तथा हरित क्षेत्र निर्धारित किए जा रहे हैं ताकि हरियाली बनी रहे और मनुष्य को प्रदूषण से कुछ मुक्ति मिले। आज के वैज्ञानिक युग में प्राकृतिक सम्पदा का महत्त्व और बढ़ गया है। इस प्रकार के विचार हरिऔध के समय में आने लगे थे। इसीलिए उन्होंने राधा के द्वारा वनस्पतियों के संरक्षण का कार्य कराया है।

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प्रश्न 6.
निम्नलिखित काव्यांशों की सन्दर्भ सहित व्याख्या कीजिए
(अ) हो उद्विग्ना बिलख ………….. तजेंगे।
(आ) सच्चे स्नेही ………….. कोई न होवे।
उत्तर:
(अ) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांशों में राधा द्वारा यशोदा की सेवा एवं यशोदा द्वारा राधा को धीरज बँधाने का अंकन हुआ है।

व्याख्या :
जब यशोदा परेशान एवं व्याकुल होकर राधा से पूछती थीं कि मेरे जीवन के आधार श्रीकृष्ण क्या कभी भी ब्रज लौटकर नहीं आयेंगे तब वे धीरे से मीठे स्वर में विनम्र होकर बताती थीं कि हाँ श्रीकृष्ण अवश्य लौटेंगे। वे दुःखी ब्रजवासियों को इस तरह कैसे छोड़ सकेंगे?

(आ) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांश में ब्रजभूमि में श्रीकृष्ण के सुखद क्रिया-कलापों का स्मरण करते हुए भारत भूमि पर राधा-कृष्ण के बार-बार अवतरण की कामना की गई है।

व्याख्या :
कवि कामना करते हैं कि हे परमात्मा ! ब्रजभूमि के निवासियों के श्रीकृष्ण जैसे सच्चे प्रेमी और राधा जैसी दयालु सहृदया संसार भर को प्रेम करने वाली नारी इस भारत भूमि पर पुनः पुनः आयें, किन्तु इस प्रकार बुरी तरह प्रभावित करने वाली कोई विरह की घटना कभी न हो।

सामाजिक समरसता काव्य सौन्दर्य

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के तत्सम रूप लिखिए-
पथरा, चदरिया, कागद, जुग, जतन, हाथ।
उत्तर:
MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 7 सामाजिक समरसता img-1

प्रश्न 2.
निम्नलिखित शब्दों के दो-दो पर्यायवाची शब्द लिखिए
पृथ्वी, आँख, पक्षी, पुष्प, दिन।
उत्तर:
MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 7 सामाजिक समरसता img-2

प्रश्न 3.
कबीर के संकलित पदों में कौन-सा रस है?
उत्तर:
कबीर के संकलित पदों में शान्त रस है।

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प्रश्न 4.
कबीर की भाषा के सम्बन्ध में अपने विचार लिखिए।
उत्तर:
कबीर भ्रमण करने वाले सन्त थे। वे यहाँ-वहाँ जाकर जनमानस को ज्ञान का उपदेश दिया करते थे। वे एक स्थान पर स्थिर होकर नहीं रहे। अतः उनकी भाषा में विविध क्षेत्रों के शब्द आ गये हैं। इसलिए उनकी भाषा को खिचड़ी या सधुक्कड़ी भाषा कहा जाता है। ब्रज, अरबी, फारसी, अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली, उर्दू आदि सभी भाषाओं के शब्द कबीर के काव्य में मिल जाते हैं। विविध भाषाओं का संगम होते हुए भी कबीर की भाषा में अभिव्यक्ति की अद्भुत क्षमता है।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित काव्य पंक्तियों में अलंकार पहचानकर लिखिए-
(अ) काहे के ताना काहे के मरनी, कौन तार से बीनी चदरिया।
(आ) जुगन जुगन समुझावत हारा, कहा न मानत कोई रे।
(इ) राधा जैसी सदय हृदया विश्व प्रेमानुरक्ता।
(ई) पूजी जाती ब्रज अवनि में देवियों सी अतः थी।
उत्तर:
(अ) अनुप्रास
(आ) पुनरुक्तिप्रकाश
(इ) उपमा
(ई) उपमा।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित पंक्तियों का भाव सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए (2009)
(क) आखिर यह तन खाक मिलेगा, कहाँ फिरत मगरूरी में।
(ख) साधो देखो जग बौराना, सांची कहो तो मारन धावै झूठे जग पतियाना।
उत्तर:
(क) इस पंक्ति में सन्त कबीर ने भौतिक जगत् की नश्वरता का बोध कराया है। संसार की वस्तुओं पर अभिमान करना जीव की अज्ञानता है। ये सभी तो नष्ट होने वाली हैं। जिस शरीर के बल पर जीव अहंकार पाले फिरता है, एक दिन यह मिट्टी में मिल जाता है। इसलिए इस पर गर्व करना व्यर्थ है। अमर तो केवल आत्मा है, उसी का अनुसरण करना चाहिए।

(ख) साक्षात संसार से ज्ञान अर्जित करने वाले सन्त कबीर कहते हैं कि इस संसार के लोग अज्ञान अहंकार में फंसकर पागल हो गये हैं। यही कारण है कि जब उनसे सत्य बात कही जाती तो मारने दौड़ते हैं; उसका विश्वास नहीं करते हैं किन्तु कोई झूठा व्यक्ति उनसे कुछ कहता है तो वे उसका विश्वास कर लेते हैं।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित शब्दों के विलोम शब्द लिखिए
गुण, प्रेम, सदय, विधवा, सबल।
उत्तर:
MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 7 सामाजिक समरसता img-3

प्रश्न 8.
छन्द किसे कहते हैं? यह कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर:
मात्रा, वर्ण संख्या, यति, गति (लय) तथा तुक आदि के नियमों से युक्त रचना छन्द कहलाती है।
छन्द दो प्रकार के होते हैं।-
(1) मात्रिक छन्द-इसमें मात्राओं की गणना की जाती है।
(2) वर्णिक छन्द-इसमें वर्गों की गणना की जाती है।

प्रश्न 9.
आपकी पाठ्य-पुस्तक के पद्य भाग में कौन-कौन से पाठ मुक्तक काव्य की श्रेणी में आते हैं?
उत्तर:
हमारी पाठ्य-पुस्तक के विनय के पद, पदावली, कृष्ण की बाल लीलाएँ, पद्माकर के छन्द, मतिराम के छन्द, वृन्द के दोहे, रहीम के दोहे, ऋतु वर्णन, नौका विहार, छत्रसाल का शौर्य वर्णन, कविता का आह्वान, कबीर की वाणी, कुण्डलियाँ, दुष्यन्त की गजलें, बरसो रे तथा चलना हमारा काम है पाठ मुक्तक काव्य की श्रेणी में आते हैं।

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प्रश्न 10.
निम्नलिखित पंक्तियों में गण पहचानिए
(क) जो वे होता मलिन लखतीं गोप के बालकों को।
(ख) आटा चींटी विहग गण थे वारि औ अन्न पाते।
उत्तर:
(क) ऽऽऽ ऽ।। ।।। ऽऽ। ऽऽ।
मगण भगण नगण तगण तगण ऽऽ
जो वे हो ता मलि न लख ती गोप के बाल कौं को
(ख) ऽऽऽ ऽ।। ।।। ऽ।ऽ ऽ।ऽ
मगण भगण नगण तगण तगण ऽऽ
आटा ची टी विह गगण थेवारि औ अन्न पाते

प्रश्न 11.
निम्नलिखित काव्यांश में निहित काव्य सौन्दर्य को लिखिए
(अ) तो धीरे मधुर स्वर से हो विनीता बताती।।
हाँ आवेंगे व्यथित ब्रज को श्याम कैसे तजेंगे।
(आ) गाके लीला स्व प्रियतम की वेणु वीणा बजा के।
प्यारी बातें कथन करके वे उन्हें बोध देतीं।
उत्तर:
इन काव्यांशों के काव्य सौन्दर्य इस पाठ के ‘सन्दर्भ-प्रसंग सहित पद्यांशों की व्याख्या’ भाग से पढ़िए।

कबीर की वाणी भाव सारांश

सारग्राही सन्त कबीर ने सभी धर्मों के सत्य को ग्रहण कर मानवतावादी व्यावहारिक धर्म अपनाया। जीवन के प्रत्यक्ष ज्ञान के सहारे उन्होंने सत्यासत्य का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। उन्होंने बाह्य आडम्बरों, पाखण्डों, द्वेष-भावनाओं का डटकर विरोध किया। संकलित पदों में उन्होंने उन्हीं भावों को व्यक्त किया। फकीरी में रमने वाले कबीर को अमीरी के बजाय भगवान् का भजन प्रिय है। इस शरीर को नश्वर कहने वाले कबीर सन्तोष को सर्वोपरि मानते हैं। उन्हें पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा प्रत्यक्ष ज्ञान पर विश्वास है। इसीलिए वे समझाते हैं कि सजग रहकर सच्चे गुरु के बताये मार्ग पर चलकर ही उद्धार हो सकता है। धर्म या सम्प्रदाय के नाम पर आडम्बर करने वालों को उन्होंने खूब फटकारा है। उनके लिए राम और रहीम एक हैं। पत्थर पूजा, जीव हत्या आदि में संलग्न ढोंगी हिन्दू-मुसलमानों को उन्होंने करारी डाँट लगाई है। वे सत्य पर आधारित मानवता को सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं।

कबीर की वाणी संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

[1] मन लाग्यो मेरा यार फकीरी में।
जो सुख पावों नाम भजन में, सो सुख नाहि अमीरी में।।
भला-बुरा सबको सुनि लीजै, करि गुजरान गरीबी में।।
प्रेमनगर में रहनि हमारी, भलि बनि आई सबूरी में।।
हाथ में पूड़ी बगल में सोंटा, चारों दिसा जगीरी में।।
आखिर यह तन खाक मिलेगा, कहाँ फिरत मगरूरी में।।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, साहिब मिलै सबूरी में ।।1।।

शब्दार्थ :
फकीरी = वैराग्य; अमीरी = वैभव सम्पन्नता; गुजरान = गुजारा; भलि = भला; सबूरी = सन्तोष; कँड़ी = पत्थर की बनी कटोरी; सोंटा = डण्डा, छड़ी; खाक = धूल; मगरूरी = अहंकार, अभिमान; साहिब = स्वामी।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद (शब्द) हमारी पाठ्य-पुस्तक के पाठ ‘सामाजिक समरसता’ के ‘कबीर की वाणी’ से अवतरित है। इसके रचयिता सन्त कबीरदास हैं।

प्रसंग :
इस पद में कवि ने मन की वैराग्य प्रवृत्ति पर बल दिया है।

व्याख्या :
कबीर कहते हैं कि मेरा मन तो वैराग्य में लग गया है। मुझे जो आनन्द परमब्रह्म के भजन में मिला है; वह वैभव सम्पन्नता में नहीं मिल सकता है। अमीरी नाशवान है और अस्थायी सुख देने वाली है। जबकि ब्रह्म परमानन्द देने वाले हैं। अभिमान से दूर रहकर जो कोई भला-बुरा कहे उसे सहन करके गरीबी में गुजारा करना अच्छा है। कवि का निवास तो प्रेम की नगरी है अर्थात् जहाँ प्रेम भाव है वहीं रहना उचित है। सन्तोष सबसे अधिक हितकारी है इसलिए मेरे हाथ में पूड़ी आदि पात्र तथा बगल में एक डण्डा रहता है। इनके साथ मैं संसार की चारों दिशाओं में चाहे जहाँ जाने को मुक्त हूँ। सांसारिक बन्धन व्यर्थ हैं, धन, वैभव अस्थिर हैं क्योंकि अन्त में यह शरीर मिट्टी में मिल जायेगा। अतः सम्पत्ति, बल आदि का अभिमान करना व्यर्थ है। हे सन्तो! वास्तविकता यह है कि सन्तोष से ही स्वामी (ब्रह्म) मिलते हैं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. सांसारिक आकर्षणों से परे रहकर सन्तोष के द्वारा ब्रह्म प्राप्ति का सन्देश दिया गया है।
  2. अनुप्रास अलंकार तथा पद मैत्री का सौन्दर्य दृष्टव्य है।
  3. सरल, सुबोध भाषा में गम्भीर विषय को समझाया गया है।

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[2] मेरा तेरा मनवा, कैसे इक होई रे।
मैं कहता हौं आँखिन देखी, तू कहता कागद की लेखी।
मैं कहता सुरझावन हारी, तू राख्यों उरझाइ रे।।
मैं कहता तू जागत रहियो, तू रहता है सोइ रे।
मैं कहता निरमोही रहियो, तू जाता है मोहि रे।।
जुगन जुगन समझावत हारा, कहा न मानत कोई रे।
तू तो रंगी फिरै बिहंगी, सब धन डारा खोइ रे।।
सतगुरु धारा निरमल बाहै, वामें काया धोइ रे।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, तब ही वैसा होई रे ।।2।। (2008)

शब्दार्थ :
मनवा = मन; लेखी = लिखी हुई; सुरझावन हारी = सुलझाने वाली; उरझाई = उलझाकर; निरमोही = मोह से मुक्त; जुगन-जुगन = युगों-युगों से; रंगी = संसार के माया मोह में डूबा; बिहंगी = पक्षी के समान इधर-उधर भटकने वाला; बाहै = बहती है; वामें = उसमें; काया = शरीर।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद में पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा प्रत्यक्ष ज्ञान की महिमा को बताते हुए सच्चे गुरु के ज्ञान के मार्ग को अपनाने पर बल दिया गया है।

व्याख्या :
सांसारिक माया मोह में फँसे व्यक्ति को सम्बोधित करते हुए कवि कहते हैं कि मेरा और तुम्हारा मन एक कैसे हो सकता है। मैं तो वह कहता हूँ जो साक्षात् आँखों से देखा है और तुम वह बात कहते हो जो पुस्तकों में लिखी है। मैं व्यावहारिक ज्ञान के आधार पर सुलझाने वाली स्पष्ट बात करता हूँ। जबकि तुम अज्ञानतावश सोच में उलझे रहते हो। मैं समझाता हूँ कि सत्य, उचित की पहचान के प्रति जागरूक रहो, अन्धानुकरण मत करो किन्तु तुम अज्ञान की निद्रा में सोते रहते हो। मैं सजग करता हूँ कि संसार नाशवान है इसके प्रति मोह मत पालना परन्तु तुम इस नश्वर संसार के प्रति मोहित रहते हो।

मैं युगों-युगों से समझाते -समझाते थक गया हूँ कि मायावी संसार से मुक्त रहकर सत्य का अनुसरण करो किन्तु मेरी इस बात को कोई नहीं मानता है। तुम तो संसार के माया-मोह में लीन होकर उड़ने वाले पक्षी की तरह इधर-उधर भटक रहे हो। इस तरह भटकते हुए तुमने समस्त ज्ञानरूपी धन खो दिया है। सारा जीवन व्यर्थ गँवा दिया है। सन्त कबीर कहते हैं कि हे सज्जनो! ध्यान से सुन लो कि सच्चे गुरु के ज्ञान की पवित्र धारा बह रही है। उसी में अपने शरीर के विकारों को धो डालोगे तभी तुम्हारा मनचाहा हो सकेगा अर्थात् गुरु का सच्चा उपदेश ही तुम्हारा उद्धार कर सकेगा।

काव्य सौन्दर्य :

  1. संसार की निरर्थकता को इंगित करते हुए सच्चे ज्ञान के मार्ग को अपनाने पर बल दिया गया है।
  2. पुनरुक्तिप्रकाश, अनुप्रास अलंकार तथा पद मैत्री की छटा अवलोकनीय है।
  3. सरल, सुबोध, व्यावहारिक भाषा में दार्शनिक विषय का प्रतिपादन किया है।

[3] साधो, देखो जग बौराना।
साँची कहाँ तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना।।
हिन्दू कहत है राम हमारा, मुसलमान रहमाना।
आपस में दोऊ लहै मरतु हैं, मरम कोई नहिं जाना।।
बहुत मिले मोहि नेमी धर्मी प्रात करै असनाना।
आतम छोड़ि पषानै पू0, तिनका थोथा ज्ञाना।
बहुतक देखे पीर औलिया, पढ़े किताब कुराना।
करै मुरीद कबर बतजावै, उनहूँ खुदा न जाना।।
हिन्दु की दया मेहर तुरकन की, दोनों घर से भागी।
वे करैं जिबह वे झटका मारे, आग दोऊ घर लागी।
या विधि हँसत चलत है हमको, आपु कहावै स्याना।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, इनमें कौन दीवाना ।।3।।

शब्दार्थ :
जग = संसार; बौराना = पागल हो गया है; धावै = दौड़ता है; पतियाना = विश्वास करता है; मरम = रहस्य, वास्तविकता; नेमी = नियमों का पालन करने वाले आतम = आत्मा; पषाने = पाषाण, पत्थर; तिनका = उनका; थोथा = खोखला, निरर्थक; मुरीद = शिष्य; उनहूँ = उन्हें भी; मेहर = अनुकम्पा; तुरकन = मुसलमानों; जिबह = हलाल करना, पशु को धीरेधीरे काटना; झटका = एक ही बार में पशु का वध करना; स्याना = चतुर, होशियार; दीवाना = पागल।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्। प्रसंग-इस पद में धार्मिक पाखण्डों की निन्दा कर समरसता का सन्देश दिया है।

व्याख्या :
सन्त कबीर कहते हैं कि हे सज्जनो! देख लो संसार कैसा पागल हो गया है। पागलपन की यह स्थिति है कि यदि कोई व्यक्ति सत्य बात कहे तो उसे मारने दौड़ता है। यह संसार झूठे पाखण्डियों का विश्वास करता है। हिन्दू कहते हैं कि हमारे तो राम सब कुछ हैं और मुसलमान कहते हैं कि रहीम ही सब कुछ है। इस तरह ये आपस में लड़ते-मरते रहते हैं। उनमें इस रहस्य को कोई नहीं जानता है कि राम और रहीम दोनों एक ही हैं। कवि कहते हैं कि मुझे बहुत से नियमों का पालन करने वाले धार्मिक व्यक्ति मिले हैं। वे प्रात:काल ही स्नान-ध्यान करते हैं। आत्मा की आवाज की अवहेलना करके पत्थर की पूजा करने वाले उन लोगों का ज्ञान खोखला (दिखावटी) है।

मैंने बहुत से पीर और औलिया भी देखे हैं जो कुरान आदि पुस्तकें पढ़ते हैं। वे लोगों को अपने शिष्य बनाते हैं, बड़े-बड़े व्याख्यान देते हैं किन्तु उन्हें भी खुदा की जानकारी नहीं होती है। हिन्दुओं की दया तथा मुसलमानों की मेहर (कृपा)दोनों ही मनुष्यों के हृदय से पलायन कर गयी हैं। दोनों ही निर्दयी, हिंसक हो गये हैं। उनमें से एक हलाल करते हैं तो दूसरे झटका मारते हैं। इस तरह दोनों ही ओर हिंसा की आग लगी है। वे हम सब का उपहास करते हैं तथा स्वयं बहुत चतुर कहलाते हैं। कबीर कहते हैं कि ऐसी स्थिति में इनमें से किसे पागल कहा जाय। दोनों ही उन्मत्त हैं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. धार्मिक पाखण्ड जनित विद्वेष का तिरस्कार कर सामंजस्य एवं सहभाव का सन्देश दिया है।
  2. अनुप्रास अलंकार एवं पद मैत्री का सौन्दर्य दृष्टव्य है।
  3. सरल, सुबोध एवं व्यावहारिक भाषा में समझाया गया है।

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राधा की समाज सेवा भाव सारांश

पौराणिक प्रसंगों का अपने काव्य का आधार बनाने वाले अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ का प्रिय प्रवास कृष्ण काव्य परम्परा में आता है। ‘राधा की समाज सेवा’ अंश ‘प्रिय प्रवास’ महाकाव्य से लिया गया है।

परमप्रिय श्रीकृष्ण के ब्रज छोड़कर चले जाने पर समस्त ब्रजवासियों में विरह-वेदना व्याप्त हो जाती है। राधा श्रीकृष्ण के वियोग में व्याकुल हैं किन्तु वे अपने दुःख को भुला देने का सबसे उत्तम उपाय खोजती हैं और स्वयं को समाज सेवा में लगा देती हैं। वे नित्यप्रति यशोदा के पास जाकर उनको समझाती हैं। उनके पैर सहलाकर तथा आँसू पोंछकर सांत्वना देती हैं। उन्हें आश्वासन देती हैं कि दुःखी ब्रज को श्रीकृष्ण कैसे छोड़ सकते हैं, वे अवश्य लौटकर आयेंगे। नन्द की पीड़ा को मिटाने के लिए वे विभिन्न शास्त्रों को सुनाकर सांसारिक वैभव की हीनता का प्रतिपादन करती हैं। दुःखी ग्वालों को समझाकर श्रीकृष्ण के प्रिय कार्यों में लगाती हैं। ग्वालों के बालकों को दुःखी देखकर वे उन्हें फूलों के विभिन्न प्रकार के खिलौने लाकर देती हैं। उनसे श्रीकृष्ण की लीलाएँ कराती हैं और स्वयं ध्यानमग्न होकर उन्हें देखती रहती हैं। विरहिणी गोपियों को वे विधिपूर्वक सुखी करती हैं।

उन्हें श्रीकृष्ण की लीलाएँ गाकर सुनाती हैं, वंशी तथा वीणा बजाती हैं। वृद्धों, रोगियों की वे सेवा करती हैं तथा दवा आदि देती हैं। निर्बल, दीन-हीन, अनाथ तथा विधवाओं को वे सम्मान सहित सहारा देती हैं। उनके मन में जो भी विकार हैं उनको अपने सद्व्यवहार से धो देती हैं। चींटी, पक्षी, कीड़ों आदि को अन्न-जल आदि देती हैं। वे वृक्षों के पत्तों को भी व्यर्थ में नहीं तोड़ती हैं। वे सज्जनों की संरक्षक तथा दुष्टों की प्रशासक बनी हैं। वे सभी प्राणियों की समृद्धि के कार्यों में लगी रहती हैं, कुमारी बालिकाएँ भी ब्रज में शान्ति का विस्तार करने में लगी हैं। कवि कहते हैं कि श्रीकृष्ण के ब्रज छोड़कर जाने पर जो महाकाली संकट देने वाली रात्रि अब आयी थी उसमें राधा चाँदनी के समान सुशोभित थीं। श्रीकृष्ण के संयोग से ब्रज में आनन्द वर्षा हुई थी, वह पुनः-पुनः आये। राधा और श्रीकृष्ण इस भूमि पर आयें किन्तु इस प्रकार की वियोग की घटना फिर न हो।

राधा की समाज सेवा संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

[1] राधा जाती प्रति- दिवस थीं पास नन्दांगना के।
नाना बातें कथन करके थीं उन्हें बोध देती।
जो वे होती परम- व्यथिता मूर्छिता या विपन्ना।
तो वे आठों पहर उनकी सेवना में बितातीं॥1॥ (2014)

घण्टे ले के हरि-जननि को गोद में बैठती थी।
वे थी नाना जतन करती पा उन्हें शोक मग्ना।
धीरे-धीरे चरण सहला औ मिटा चित्त-पीड़ा।
हाथों से थी दृग-युगल के वारि को पोंछ देती ॥2॥

शब्दार्थ :
प्रति-दिवस = रोजाना, प्रतिदिन; नन्दांगना = यशोदा, नन्द की पत्नी; नाना = तरह-तरह की; कथन = कहकर; बोध = ज्ञान समझाना; परम = बहुत; व्यथिता = पीड़ित; मूछिता = बेहोश; विपन्न = दु:खी; सेवना = सेवा; जननि = माँ; जतन = प्रयत्न, उपाय; शोक = दुख; चित्त-पीड़ा = हृदय का कष्ट; दृग-युगल = दोनों आँखें; वारि = जल, आँसू।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के पाठ ‘सामाजिक समरसता’ के ‘राधा की समाज सेवा’ शीर्षक से लिया गया है। इसके रचयिता अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ हैं।

प्रसंग :
इस पद्यांश में राधा द्वारा की गयी यशोदा की सेवा का अंकन किया गया है।

व्याख्या :
श्रीकृष्ण के विरह में व्याकुल होते हुए भी राधा प्रतिदिन नन्द की पत्नी यशोदा के पास जाती और तरह-तरह की बातें करके उन्हें समझाती थीं। यदि वे बहुत पीड़ित बेहोश या दुःखी होती तो राधा दिन-रात उनकी सेवा में ही बिताती थी अर्थात् हर समय उनकी देखभाल में ही लगी रहती थीं।

राधा श्रीकृष्ण की माँ यशोदा को अपनी गोद में लेकर घण्टों तक बैठी रहती थीं। उनको श्रीकृष्ण के चले जाने के दुःख से दुखी पाकर वे विभिन्न प्रकार के उपाय करती थीं। धीरे-धीरे उनके पैरों को सहलाती थीं और उनकी समस्त पीड़ा को मिटा देती थीं। वे अपने हाथों से यशोदा की दोनों आँखों के आँसू पोंछ देती थीं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. राधा के सेवाभावी रूप का सजीव चित्रण किया गया है।
  2. पुनरुक्तिप्रकाश, अनुप्रास अलंकार है।
  3. मन्दाक्रान्ता छन्द है।
  4. तत्सम प्रधान खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है।

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[2] हो उद्विग्ना बिलख जब यों पूछती थीं यशोदा।
क्या आवेंगे न अब ब्रज में जीवनाधार मेरे।
तो वे धीरे मधुर-स्वर से हो विनीता बतातीं।
हाँ आवेंगे, व्यथित बृज को श्याम कैसे तजेंगे ॥ 3 ॥

आता ऐसा कथन करते वारि राधा-दृगों में।
बूंदों-बूंदों टपक पड़ता गाल पै जो कभी था।
जो आँखों से सदुख उसको देख पातीं यशोदा।
तो धीरे यों कथन करतीं खिन्न हो तू न बेटी ॥ 4॥

शब्दार्थ :
उद्विग्ना = परेशान; बिलख = व्याकुल; जीवनाधार = जीवन के आधार, श्रीकृष्ण; विनीता = विनम्र; व्यथित = पीड़ित; तजेंगे = छोड़ेंगे; सदुःख = दुःख युक्त; खिन्न = परेशान।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांशों में राधा द्वारा यशोदा की सेवा एवं यशोदा द्वारा राधा को धीरज बँधाने का अंकन हुआ है।

व्याख्या :
जब यशोदा परेशान एवं व्याकुल होकर राधा से पूछती थीं कि मेरे जीवन के आधार श्रीकृष्ण क्या कभी भी ब्रज लौटकर नहीं आयेंगे तब वे धीरे से मीठे स्वर में विनम्र होकर बताती थीं कि हाँ श्रीकृष्ण अवश्य लौटेंगे। वे दुःखी ब्रजवासियों को इस तरह कैसे छोड़ सकेंगे?

इस प्रकार की बात कहते हुए विरह से व्याकुल राधा के नेत्रों में भी आँसू छलक आते थे। जो कभी-कभी आँसुओं की बूंदें यशोदा के गाल पर टपक पड़ती थीं तो वे कहती थीं कि बेटी राधा तू परेशान मत हो, सब ठीक होगा।

काव्य सौन्दर्य :

  1. राधा द्वारा व्याकुल यशोदा की सेवा तथा यशोदा द्वारा राधा को सांत्वना देने का वर्णन है।
  2. पुनरुक्तिप्रकाश, अनुप्रास अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है।
  3. मन्दाक्रान्ता छन्द है।
  4. तत्सम प्रधान खड़ी बोली अपनायी गयी है।

[3] हो के राधा विनत कहतीं मैं नहीं रो रही हूँ।
आता मेरे दृग युगल में नीर आनन्द का है।
जो होता है पुलक कर के आप की चारु सेवा।
हो जाता है प्रगटित वही वारि द्वारा दृगों में ॥5॥

वे थीं प्रायः ब्रज नृपति के पास उत्कण्ठ जातीं।
सेवायें थीं पुलक करतीं क्लान्तियाँ थीं मिटाती।
बातों ही में जग विभव की तुच्छता थी दिखाती।
जो वे होते विकल पढ़ के शास्त्र नाना सुनातीं ॥6॥

शब्दार्थ :
विनत = विनम्र; दृग युगल = दोनों नेत्र; पुलक = रोमांच, हर्ष; चारु = सुन्दर; ब्रज-नृपति = ब्रज के राजा, नन्द; उत्कण्ठ उद्यत; क्लांतियाँ = दु:ख; जग-विभव = सांसारिक वैभव; तुच्छता = दीनता।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांश में सेवा भावी राधा के ज्ञानपरक प्रबोध को प्रस्तुत किया गया है।

व्याख्या :
राधा की आँखों में छलके आँसुओं की बूंद कभी यशोदा के गाल पर पड़ जाती थीं तो वे उसे सांत्वना देती तब राधा विनम्र होकर कहती कि मैं रो नहीं रही हूँ। मेरे दोनों नेत्रों में तो अति आनन्द के आँसू हैं। आपकी सुखद सेवा करके मुझे जो हर्ष होता है, वही आँखों से जल के रूप में प्रकट हो जाता है।

राधा प्रायः उद्यत होकर ब्रज के राजा के पास जाती और प्रसन्नतापूर्वक उनकी सेवा करती तथा उनके समस्त दुःखों को मिटाती थीं। बातों ही बातों में वे सांसारिक वैभव की दीनता प्रदर्शित करती और यदि वे अधिक व्याकुल होते थे तो राधा विभिन्न शास्त्र पढ़कर सुनाती थीं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. प्रबुद्ध राधा के सेवा भावी रूप का अंकन हुआ है।
  2. तत्सम प्रधान सानुप्रासिक भाषा का प्रयोग किया गया है।
  3. मन्दक्रान्ता छन्द है।

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[4] होती मारे मन यदि कहीं गोप की पंक्ति बैठी।
किम्वा होता विकल उनको गोप कोई दिखाता।
तो कार्यों में सविधि उनको यत्नतः वे लगाती।
औ ए बातें कथन करती भूरि गंभीरता से।। 7॥

जी से जो आप सब करते प्यार प्राणेश को हैं।
तो पा भू में पुरुष तन को, खिन्न हो के न बैठे।
उद्योगी हो परम रुचि से कीजिए कार्य ऐसे।
जो प्यारे हैं परम प्रिय के विश्व के प्रेमिकों के ॥8॥

शब्दार्थ :
किम्वा = अथवा; गोप = ग्वाला; सविधि = विधि से; यत्नतः = प्रयत्नपूर्वक; भूरि = बहुत अधिक; रुचि = लगन।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांश में राधा ने गोपों को कर्म में लीन होने का उद्बोधन दिया है।

व्याख्या :
यदि कहीं पर कोई मलिन मन वाले ग्वालाओं की कोई पंक्ति होती अथवा राधा को कोई ग्वाला व्याकुल होता हुआ दिखाई पड़ता तो वे विधि से प्रयत्नपूर्वक उनको अपने-अपने काम में लगा देतीं। वे बहुत गम्भीरता से यह बात कही कि यदि आप सभी प्राणप्रिय श्रीकृष्ण को हृदय से प्यार करते हो तो पृथ्वी पर दुर्लभ मनुष्य का शरीर पाकर दुःखी होकर न बैठे। पूरी लगन के साथ ऐसे कामों को करें जो परमप्रिय श्रीकृष्ण के प्रेमियों को अच्छे लगते हैं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. कल्याणकारी कार्यों में संलग्न रहने का उद्बोधन दिया गया है।
  2. कर्म के प्रति निष्ठा भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है। उसी का प्रतिपादन यहाँ हुआ है।
  3. संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली में विषय की अभिव्यक्ति हुई है।
  4. मन्दाक्रान्ता छन्द है।

[5] जो वे होता मलिन लखतीं गोप के बालकों को।
देती पुष्पों रचित उनको मुग्धकारी-खिलौने।
दे शिक्षाएँ विविध उनसे कृष्ण लीला करातीं।
घंटों बैठी परम रुचि से देखतीं तद्गता हो ॥9॥

पाई जातीं यदि दुखित जितनी अन्य गोपांगनाएँ।
राधा द्वारा सुखित वह भी थीं यथा रीति होती।
गा के लीला स्व प्रियतम की वेणु, वीणा बजा के।
प्यारी-बातें कथन कर के वे उन्हें बोध देतीं ॥10॥

शब्दार्थ :
मलिन = उदास; लखती = देखती; मुग्धकारी = मोहित करने वाले तद्गता = तन्मय; गोपांगनाएँ = गोपियाँ, ग्वालों की पत्नियाँ; वेणु = वंशी।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांश में राधा द्वारा ग्वालों के बच्चों तथा उनकी पत्नियों (गोपियों) की उदासी दूर करने का वर्णन है।

व्याख्या :
वे राधा यदि ग्वालों के बच्चों को उदास देखतीं तो वे उन्हें फूलों से बने मन को मोहित करने वाले खिलौने देतीं। वे उन्हें नाना प्रकार की शिक्षाएँ देकर कृष्ण लीला कराती । घण्टों तक बैठी रहतीं और उस लीला को तन्मय होकर देखती रहती थीं।

यदि ग्वालों की पत्नियाँ दु:खी पाई जाती तो वे भी राधा द्वारा इसी तरह सुखी होती थीं। अपने प्रियतम श्रीकृष्ण की लीलाएँ गाकर, वंशी एवं वीणा बजाकर और प्यारी-प्यारी बातें कहकर उनको उद्बोधन देती थीं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. ग्वालों के बच्चों तथा पत्नियों की सेवा का वर्णन किया गया है।
  2. मन्दाक्रान्ता छन्द है। तत्सम युक्त सरल सुबोध भाषा का प्रयोग किया गया है।

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[6] संलग्ना हो विविध कितने सान्त्वना कार्य में भी।
वे सेवा थीं सतत करती वृद्ध-रोगी जनों की।
दीनों, हीनों, निबल विधवा आदि को मानती थीं।
पूजी जाती बृज-अवनि में देवियों सी अतः थी ॥11॥

खो देती थीं कलह जनि, आधि के दुर्गुणों को।
धो देती थीं मलिन मन की व्यापनी कालिमायें।
बो देती थी हृदय तल में बीज भावज्ञता का।
वे थी चिन्ता-विजित गृह में शांति धारा बहाती ॥12॥

शब्दार्थ :
संलग्ना हो = लगकर; निबल = निर्बल; बृज-अवनि = ब्रज भूमि; आधि = मानसिक चिन्ता; व्यापिनी = प्रभावित करने वाली; कालिमाएँ = दोषों को; भावज्ञता = मनोभाव समझने; चिन्ता-विजित-गृह = चिन्ता को जीत लेने वाला घर।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांश में राधा द्वारा किए गए सद्भावपूर्ण सेवा कार्यों का वर्णन हुआ है।

व्याख्या :
राधा नाना प्रकार के कितने ही सान्त्वना देने वाले कार्यों में लगी रहती थी। वे वृद्ध और रोगी जनों की निरन्तर सेवा करती रहती थीं। वे दीन-हीनों, निर्बलों, विधवाओं आदि का सम्मान करती थीं, उनकी सेवा करती थीं। इसीलिए ब्रजभूमि में वे देवियों की तरह पूजी जाती थीं।

राधा पारस्परिक कलह तथा मानसिक दुःखों को दूर कर देती थीं। वे दुःखी मन को प्रभावित करने वाले सभी दोषों को धो डालती थीं। वे मनुष्यों के तन-मन के सभी कष्टों को दूर करके उनके हृदय में सहृदयता भर देती थीं। वे चिन्ता को जीत लेने वाले घर में शान्ति की धारा प्रवाहित कर देती थीं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. राधा के जन सेवी रूप का वर्णन हुआ है।
  2. सानुप्रासिक भाषा तथा पद मैत्री का सौन्दर्य दर्शनीय है।
  3. समास प्रधान तत्सम शब्दावली में विषय-का प्रतिपादन किया गया है।
  4. मन्दाक्रान्ता छन्द है।

[7] आटा चींटी विह्या गण थे वारि ओ अन्न पाते।
देखी जाती सदय उनकी दृष्टि कीटादि में भी।
पत्तों को भी न तरुवर के वे वृथा तोड़ती थी।
जी से भी निरस्त रहती भूत सम्बर्द्धना में ॥13॥

वे छाया थी सुजन शिर की शासिका थी खलों में।
कंगालों की परम निधि थी औषधि पीड़ितों की।
दोनों की थी बहिन, जननी थी अनाथाश्रितों की।
आराध्य थी ब्रज-अवधि की प्रेमिका विश्व की थीं ॥14॥

शब्दार्थ :
विा = पक्षी; कीटादि = कीड़े आदि; वृथा = व्यर्थ में; निरत = संलग्न; भूत सम्बर्द्धना = प्राणियों के उत्थान में; अनाथ = सहारे हीन।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांश में राधा की पशु-पक्षियों, अनाथों आदि की व्यापक सेवा का वर्णन हुआ है।

व्याख्या :
राधा की सेवा का क्षेत्र व्यापक था। चींटी, पक्षी राधा से अन्न एवं जल पाते थे। कीड़े आदि के प्रति भी उनकी दयापूर्ण दृष्टि थी। श्रेष्ठ वृक्षों के पत्तों को भी वे व्यर्थ में नहीं तोड़ती थीं। वे अपने हृदय से स्वाभाविक रूप में प्रेमियों के उत्थान के कार्यों में लगी रहती थीं।

वे (राधा) सज्जनों के सिर की छाया थीं तथा दुष्टजनों पर शासन करने वाली थीं। वे निर्धनों के लिए महान् सम्पत्ति का भण्डार थीं और पीड़ितों (रोगियों) के लिए सही उपचार करने वाली दवा थीं। वे दीन-हीनों की बहन थीं और जो अनाथ और आश्रयहीन थे उनके लिए माँ थीं। वे ब्रज भूमि के निवासियों की पूज्य थीं तथा समस्त संसार की प्रेमिका थीं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. राधा के सेवाभाव का व्यापक रूप अंकित किया गया है।
  2. समास प्रधान संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है।
  3. मन्दाक्रान्ता छन्द है।

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[8] जैसा व्यापी विरह दुख था गोप गोपांगनाका।
वैसी ही थी सदै हृदया स्नेह की मूर्तिराधा।
जैसी मोहावरित ब्रज में तामसी रात आयी।
वैसी ही वे लसित उसमें कौमुदी के समा थी॥15॥

जो थी कौमार-व्रत निरता बालिकायें अनेकों।
वे भी पा के समय ब्रज में शान्ति विस्तारती थीं।
राधा के हृदय बल से दिव्य शिक्षा गुणों से।
वे भी छाया सृदृश उनकी वस्तुतः हो गई थीं॥16॥

शब्दार्थ :
सदै = दयामय; मोहावरित = मोह से जकड़ी; तामसी रात = महाकाली अंधेरी रात; निरता = संलग्न; विस्तारती = बढ़ाती; दिव्य = अलौकिक; छाया-सदृश = परछाईं के समान।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांश में राधा के स्नेहपूर्ण व्यापक सेवा भाव का वर्णन हुआ है।

व्याख्या :
जिस प्रकार की व्यापक विरह वेदना ग्वालों और ग्वालों की पत्नियों में थी, उसी प्रकार की दयामय हृदय वाली राधा साक्षात् स्नेह की प्रतिमा थीं। श्रीकृष्ण के ब्रज से चले जाने पर जिस प्रकार की मोह से जकड़ी महाकाली अन्धेरी रात ब्रज में आयी थी उसी तरह से वे (राधा) उस रात में चाँदनी के समान सुशोभित थीं अर्थात् श्रीकृष्ण के विरह से व्यथित ब्रजवासियों में वे सुख का संचार कर रही थीं।

जो कौमार्य व्रत में संलग्न अनेक बालिकाएँ थीं वे भी कुछ समय पाकर ब्रज में शान्ति का विकास करती थीं। राधा के हृदय में विद्यमान सद्भावनाओं के प्रभाव से और उनकी शिक्षा के अलौकिक गुणों के कारण वे उनकी परछाईं के समान हो गई थीं अर्थात् वे उनके हर कार्य में सहयोग करती थीं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. सहृदय राधा के सेवा भाव की प्रभावशीलता का अंकन हुआ है।
  2. सामाजिक एवं सानुप्रासिक भाषा में विषय का प्रतिपादन किया गया है।
  3. मन्दाक्रान्ता छन्द है। उपमा, अनुप्रास, रूपक अलंकारों का सौन्दर्य दर्शनीय है।

[9] तो भी आई न वह घटिका और न वे बार आये।
वैसी सच्ची सुखद ब्रज में वायु भी आ न डोली।
वैसे छाये न घन रस की सोत सी जो बहाते।
वैसे उन्माद कर-स्वर से कोकिला भी न बोली ॥17॥

जीते भूले न ब्रज महि के नित्य उकण्ठ प्राणी।
जी से प्यारे जलद तनको, केलि क्रीड़ादिकों को।
पीछे छाया विरह दुख की वंशजों-बीच व्यापी।
सच्ची यों है ब्रज अवनि में आज भी अंकिता है ॥18॥

सच्चे स्नेही अवनिजन के देश के श्याम जैसे।
गधा जैसी सद्य हृदया विश्व प्रेमानुरक्ता।
हे विश्वात्मा ! भरत भुव के अंक में और आवें।
‘ऐसी व्यापी विरह घटना किन्तु कोई न होवे ॥19॥

शब्दार्थ :
घटिका = घड़ी, 24 मिनट का समय; सोत = स्रोत; महि = भूमि। जलद-तन = बादल के समान श्याम शरीर वाले, श्रीकृष्ण; विश्व प्रेमानुरक्ता = संसार भर से प्रेम करने वाली; भरत भुव = भारत भूमि; अंक = गोद।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांश में ब्रजभूमि में श्रीकृष्ण के सुखद क्रिया-कलापों का स्मरण करते हुए भारत भूमि पर राधा-कृष्ण के बार-बार अवतरण की कामना की गई है।

व्याख्या :
ब्रज में राधा की सेवा के प्रभाव स्वरूप पर्याप्त अच्छा वातावरण था किन्तु जो आनन्द श्रीकृष्ण के ब्रज में होने पर था वे घड़ी या दिन आये ही नहीं। श्रीकृष्ण के समय जैसी सच्चा सुख देने वाली वायु भी ब्रज में फिर नहीं बही। आनन्द का स्रोत सा बहाने वाले वैसे बादल भी फिर नहीं छाए और न उस प्रकार के मस्ती भरे स्वर में कोयल ही कुहकी।

नित्य प्रति श्रीकृष्ण पुनः मिलन की उत्कण्ठा से भरे रहने वाले ब्रजभूमि के निवासी प्राणों से प्यारे श्रीकृष्ण और उनके क्रीड़ा-विहार आदि से मिलने वाले आनन्द को जीते जी नहीं भूल पाए। श्रीकृष्ण के वियोग जनित दुःख ने उनके वंशजों को भी प्रभावित किया। वास्तविक सत्य यह है कि ब्रजभूमि में आज भी उस विरह का प्रभाव अंकित है।

कवि कामना करते हैं कि हे परमात्मा ! ब्रजभूमि के निवासियों के श्रीकृष्ण जैसे सच्चे प्रेमी और राधा जैसी दयालु सहृदया संसार भर को प्रेम करने वाली नारी इस भारत भूमि पर पुनः पुनः आयें, किन्तु इस प्रकार बुरी तरह प्रभावित करने वाली कोई विरह की घटना कभी न हो।

काव्य सौन्दर्य :

  1. श्रीकृष्ण के संयोग काल के सुख और विरह काल के दुःख का स्मरण किया गया है।
  2. परमात्मा से प्रार्थना की गई है कि श्रीकृष्ण जैसी विभूतियाँ पुनः-पुनः अवतरित हों किन्तु विरह का व्यापक कष्ट न दें।
  3. उपमा एवं अनुप्रास अलंकार तथा सामाजिक भाषा का सौन्दर्य दर्शनीय है।
  4. मन्दाक्रान्ता छन्द है।

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MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 10 विविधा-2

MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 10 विविधा-2

विविधा-2 अभ्यास

विविधा-2 अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कवि के लिए कब तक विराम नहीं है?
उत्तर:
कवि को जीवन की अन्तिम साँस तक विराम नहीं है।

प्रश्न 2.
जीवन को अपूर्ण क्यों कहा है?
उत्तर:
मानव जीवन में कोई न कोई अभाव रहता ही है। इसलिए जीवन को अपूर्ण कहा गया है।

प्रश्न 3.
कजरी कब गाई जाती है?
उत्तर:
कजरी वर्षा ऋतु में गाई जाती है।

प्रश्न 4.
बादलों से मिलने के लिए कौन-कौन से प्राणी आतुर रहते हैं?
उत्तर:
बादलों से मिलने के लिए मानव, कोयल, मयूर, दादुर आदि समस्त प्राणीमात्र आतुर रहते हैं।

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विविधा-2 लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
‘विशद विश्व प्रवाह में बहने का अर्थ क्या है?
उत्तर:
मानव इस विशाल संसार में जन्म लेता है। वह यहाँ के रहन-सहन, चाल-चलन, कार्य-व्यवहार आदि के क्रम में बचपन से ही सक्रिय होने लगता है। धीरे-धीरे वह इस जगत में पूरी तरह फंस जाता है। वह अन्यान्य कार्य अपने लक्ष्य को ध्यान में रखकर करता है, जिनमें उसे विभिन्न प्रकार की स्थितियों से गुजरना पड़ता है। कार्य में सफलता मिलते जाने पर उसे सुख होता है और जब काम में बाधाएँ आती हैं तो वह दुखी होता है। यह सुख-दुःख की अनुभूति करते हुए हर मानव जीवनयापन करता है। यही इस विशद संसार के प्रवाह का आशय है।

प्रश्न 2.
सफलता प्राप्त करने का मूल मंत्र क्या है? (2011)
उत्तर:
संसार में अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए मनुष्य प्रयास करता है। उसे विविध बाधाओं को पार करना पड़ता है। कुछ व्यक्ति बाधाएँ आने पर निराश हो जाते हैं, और कार्य को त्याग देते हैं। किन्तु कुछ ऐसे होते हैं जो अन्यान्य संकटों का सामना करते हैं उन संकटों से छुटकारा पाते हैं और लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं। अन्त में सफलता उन्हीं को मिलती है जो निरन्तर चलते ही रहते हैं। जो रुक जाते हैं वे असफल रहते हैं। अतः सफलता प्राप्त करने का मूल मंत्र निरन्तर काम करते रहना है।

प्रश्न 3.
कवि मेघों से पृथ्वी पर उतरने के लिए आह्वान क्यों कर रहा है? (2008)
उत्तर:
कवि आकाश की चोटियों पर विराजमान बादलों से धरती पर उतरने का आह्वान इसलिए करता है कि वे जीवन की प्रत्येक राह से जल की धारा बहाकर जीवन के प्रवाह को जीवंत बना दें। वे गागर से लेकर सागर तक को पानी से सराबोर कर दें। वर्षा आने से पुरवाई हवा का मान बढ़ेगा तथा उल्लास से भर कर लोग कजरी की तान छेड़ेंगे। आकाश में बादलों के छा जाने से काम नहीं चलता। जब वे जल वर्षा करते हैं, तभी जीवन में आनन्द का संचार होता है। इसीलिए कवि मेघों से पृथ्वी पर उतरने के लिए आह्वान करता है।

प्रश्न 4.
‘कवि ने सूरज के रथ को धीमा-धीमा’ क्यों बताया है? (2014, 16)
उत्तर:
यह सत्य है कि सूर्य अपने रथ पर सवार होकर निरन्तर गतिमान रहता है। किन्तु जब वर्षा ऋतु में आकाश में बादल छाए रहते हैं तब वह ढक जाता है तथा दिखाई नहीं पड़ता है। उसका तीव्र ताप भी कम हो जाता है। जब तेज हवा चलती है तो आकाश में बादल भी बड़ी तेजी से दौड़ते हैं। उनकी तेज गति की तुलना से सूर्य की गति बहुत धीमी प्रतीत होती है। इसीलिए कवि ने तीव्र गति वाले बादलों का हौसला बढ़ाते हुए शीघ्र पृथ्वी पर जल वर्षा करने का आग्रह किया है।

विविधा-2 दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
‘गति-मति न हो अवरुद्ध’ इसके लिए कवि ने क्या-क्या प्रयास किए हैं?
उत्तर:
कवि मानते हैं कि मनुष्य का काम निरन्तर सफलता की ओर चलते रहना है। संभव है मार्ग में बाधाएँ आएँ, चलते हुए कभी कुछ मिल सकता तो कभी कुछ गँवाना भी पड़ सकता है। सफलता-असफलता के फलस्वरूप आशा-निराशा के भाव भी हो सकते हैं। परन्तु सुख-दुःखात्मक स्थितियों में मनुष्य को अपने बढ़ते कदम नहीं रोकने चाहिए और न अपने चिन्तन को सही बात सोचने से हटाना चाहिए। जीवन नाम चलते रहना है। यदि गति और मति अवरुद्ध हो जाएगी, तो मानव मृतवत् हो जाएगा। चलते रहने पर यह निश्चित है कि सही प्रयास रहे तो एक न एक दिन अवश्य सफलता मिलेगी। इसलिए कवि हर स्थिति में गति-मति को सचल रखने हेतु प्रयासरत हैं। वे हर प्रकार का सम्भव प्रयास कर रहे हैं कि मानव जीवन पथ पर निरन्तर बढ़ता ही रहे।

प्रश्न 2.
‘चलना हमारा काम है’ कविता के मूलभाव का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए। (2008, 09, 13)
अथवा
‘चलना हमारा काम है।’ शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ की इस कविता के मूलभाव का चार बिन्दुओं में विस्तार कीजिए। (2012)
उत्तर:
इसका उत्तर ‘चलना हमारा काम है’ कविता के भाव-सारांश से पढ़िए।

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प्रश्न 3.
कवि बादलों को हँसते-गाते आने के लिए क्यों कहता है? (2009)
उत्तर:
वर्षा जनमानस में हर्ष और उल्लास का भाव पैदा करती है। मनुष्य ही नहीं जानवर, पक्षी, वनस्पतियों में भी एक स्फूर्ति की लहर वर्षा से दौड़ जाती है। वर्षा में बड़े-छोटे, ऊँच-नीच, धनी-निर्धन का भेद भी नहीं होता है। वह तो गागर से लेकर सागर तक को जल से सराबोर कर देती है। यह तभी सम्भव है जब बादल हँसते-गाते, उल्लास भरे होकर वर्षा करें। छुट-पुट वर्षा से काम नहीं चलेगा। बादल प्रसन्न होकर झूम के बरसेंगे, तभी आनन्द का भाव व्याप्त होगा। इसीलिए कवि बादलों को हँसते-गाते अठखेलियाँ करते हुए आने तथा मुक्त भाव से वर्षा करने की आग्रह करते हैं।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित पंक्तियों की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्या कीजिए
(अ) ऊँची नीची जीवन घाटी ……………..”बाहों में।
(आ) आओ तुम ……………..अफवाहों में।
(इ) जीवन अपूर्ण ………………काम है।
(ई) मैं पूर्णतः ………………..काम है।
उत्तर:
(अ) शब्दार्थ :
अम्बर = आकाश; शिखरों = चोटियों; जीवन = जल, जिन्दगी; राहों = रास्तों; प्रतिध्वनि = अनुगूंज।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के ‘विविधा-2’ पाठ के ‘बरसो रे’ गीत से अवतरित है। इसके रचयिता वीरेन्द्र मिश्र हैं।

प्रसंग :
भावों के कुशल चितेरे वीरेन्द्र मिश्र ने आकाश में छाए बादलों से बिना भेदभाव के सर्वत्र वर्षा करने का आग्रह किया है।

व्याख्या :
बादलों को सम्बोधित करते हुए कवि कहते हैं कि हे बादल ! तुम जगत भर में जल की वर्षा कर दो। तुम आकाश की चोटियों से उतरकर मानव-जीवन के रास्तों पर उतरकर तीव्र वर्षा कर दो। जीवन की विकट-गहन, ऊँची-नीची घाटियों से तथा धरती की मिट्टी से यही अनुगूंज आ रही है कि तुम बिना भेदभाव के गागर से लेकर सागर तक को जल से परिपूर्ण कर दो अर्थात् सभी के प्रति समान व्यवहार करते हुए जीवन का दान करके हर्ष व्याप्त कर दो।

(आ) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांश में बादलों के घिरने तथा वर्षा की मदमस्त फुहारों के मध्य गाये जाने वाले गीतों का वर्णन हुआ है।

व्याख्या :
वर्षा होते ही जो उल्लासमय वातावरण हो जाता है उसकी ओर इंगित करते हुए कवि कहते हैं कि हे बादलो! तुम वर्षा कर दो ताकि आनन्दोल्लास के गीत कजरी की तान छिड़ जाय। तुम्हारे वर्षा के जल से वाणी की मधुरता का वरदान मिल जायेगा अर्थात् मधुर स्वर में कजरी गीतों का गायन प्रारम्भ हो जायेगा। हे बादलो! अभी कल तक तो तुम घिर करके आकाश में चारों ओर छाए हुए थे और कुछ दिन पूर्व तो तुम वर्षा आई-वर्षा आई; इस प्रकार अफवाहों में आये थे अर्थात् तुम्हारे आने की चर्चा आकाश में आच्छादित होने से ही होने लगी थी। किन्तु आज तुम वास्तव में वर्षा कर दो ताकि वह अफवाह सत्य सिद्ध हो जाय।

(इ) शब्दार्थ :
अपूर्ण = अधूरा; अवरुद्ध = बाधित, रुके आठों याम= हर समय (दिन और रात दोनों आठ याम (प्रहर) के होते हैं)।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ बताया गया है कि व्यक्ति अधूरा जीवन जीते हुए कभी कुछ प्राप्त कर लेता है, तो कभी कुछ खो भी देता है।

व्याख्या :
मानव के अधूरे जीवन की पूर्णता के प्रयास में कभी कुछ मिल जाता है तो कभी कुछ खो भी जाता है अर्थात् इस जीवन में लाभ-हानि, उत्थान-पतन, ऊँच-नीच चलती ही रहती है। इसी के अनुसार आशा-निराशा के भाव जगते ही रहते हैं। सफलता से आशा और असफलता से कुछ निराशा होती ही है। फलस्वरूप व्यक्ति हँसता-रोता हुआ जीवन पथ पर चलता ही जाता है। उसका ध्यान दिन-रात इस बात पर रहता है कि उसके जीवन की चाल कहीं बाधित न हो जाय। क्योंकि व्यक्ति का काम निरन्तर चलते रहना ही है।

(ई) शब्दार्थ :
दर-दर = द्वार-द्वार; पग = कदम; रोड़ा अटकता = बाधा आती रही; निराश = हताश।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ बताया गया है कि जीवन में आने वाली बाधाओं से निराश नहीं होना चाहिए।

व्याख्या :
मनुष्य जीवन में समग्र सफलता पाने के लिए विभिन्न प्रकार से प्रयास करता है। उसे द्वार-द्वार चक्कर काटने पड़ते हैं। जहाँ भी वहे प्रयास करता है वहाँ कुछ न कुछ बाधाएँ भी आती रहती हैं। व्यक्ति को उन बाधाओं से निराश नहीं होना चाहिए। आशा-निराशा तो जीवन में अपरिहार्य हैं। उनसे डरकर रुकने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि जीवन पथ पर चलते रहना ही व्यक्ति का कार्य है।

विविधा-2 काव्य सौन्दर्य

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के पर्यायवाची शब्द लिखिएसागर, आकाश, सूर्य, पानी, बादल, हाथी।
उत्तर:
MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 10 विविधा-2 img-1

प्रश्न 2.
निम्नलिखित शब्दों के हिन्दी मानक रूप लिखिएछाँह, बरखा, नैया, माटी, बानी, अचम्भा।
उत्तर:
MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 10 विविधा-2 img-2

बरसो रे भाव सारांश

वर्तमान हिन्दी कविता को नवीन संवेदनाएँ प्रदान करने वाले गीतकार वीरेन्द्र मिश्र के गीतों ने विशेष पहचान बनाई है। ‘बरसो रे’ गीत में कवि ने वर्षा ऋतु के बादलों का आह्वान किया है। गीत आधुनिक जीवन के संदर्भ को भी व्यंजित करता है। कवि बादलों से वर्षा करने का आग्रह करते हुए कहते हैं कि तुम आकाश के शिखरों से उतरकर जगत की राहों में जल वर्षा कर जीवंतता का संचार कर दो। जीवन की ऊँची-नीची घाटियों से धरती के कोने-कोने से आवाज आ रही है कि तुम अपनी गागर से सागर के समान जल वर्षा कर गागर से सागर तक परिपूर्ण जल व्याप्त कर दो।

हे बादलो! तुम हँसते-गाते हुए खुशी से मदमस्त होकर आओ और मिलने को आतुर धरती की बाहों में समा जाओ। तुम्हारे आने से पुरवाई की मानवृद्धि होगी तथा आनन्द व्याप्त करने वाली कजरी की तान छिड़ जायेगी। तुम सघन रूप से आकाश में छा जाओगे तो सूर्य का रथ भी धीमा प्रतीत होगा और मन में विविध कल्पनाएँ उमड़ पड़ेंगी। तुम आम के बागों को वर्षा की बौछारों से जलमग्न कर दो ताकि वनस्पतियों में जीवंतता आ जाए। कल जब तुम आकाश में छाए हुए थे तो वर्षा के आगमन की अफवाहें प्रारम्भ हो गयी थीं। किन्तु आज तुम वर्षा करके जीवन में हर्ष व्याप्त कर दो।

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बरसो रे संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

[1] बरसो रे, बरसो रे, बरसो रे,
अम्बर के शिखरों से उतरो रे
जीवन देने राहों में
ऊँची नीची जीवन घाटी से
प्रतिध्वनियाँ आती हैं माटी से
गागर से सागर दुलकाओ, धन! (2012)

शब्दार्थ :
अम्बर = आकाश; शिखरों = चोटियों; जीवन = जल, जिन्दगी; राहों = रास्तों; प्रतिध्वनि = अनुगूंज।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के ‘विविधा-2’ पाठ के ‘बरसो रे’ गीत से अवतरित है। इसके रचयिता वीरेन्द्र मिश्र हैं।

प्रसंग :
भावों के कुशल चितेरे वीरेन्द्र मिश्र ने आकाश में छाए बादलों से बिना भेदभाव के सर्वत्र वर्षा करने का आग्रह किया है।

व्याख्या :
बादलों को सम्बोधित करते हुए कवि कहते हैं कि हे बादल ! तुम जगत भर में जल की वर्षा कर दो। तुम आकाश की चोटियों से उतरकर मानव-जीवन के रास्तों पर उतरकर तीव्र वर्षा कर दो। जीवन की विकट-गहन, ऊँची-नीची घाटियों से तथा धरती की मिट्टी से यही अनुगूंज आ रही है कि तुम बिना भेदभाव के गागर से लेकर सागर तक को जल से परिपूर्ण कर दो अर्थात् सभी के प्रति समान व्यवहार करते हुए जीवन का दान करके हर्ष व्याप्त कर दो।

काव्य सौन्दर्य :

  1. वर्षा ऋतु के बादलों से बरसने का आग्रह किया गया है।
  2. अनुप्रास अलंकार तथा पद मैत्री का सौन्दर्य दृष्टव्य है।
  3. शुद्ध-साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है।

[2] अब तो हँसते गाते आओ, घन।
इन मिलनातुर बाहों में
पुरवैया नैया के पालों में
नभ के नारंगी रुमालों में
सूरज का रथ धीमा धीमा है।
सपनों की क्या कोई सीमा है
अमराई की छाँओ में।

शब्दार्थ :
मिलनातुर = मिलने के लिए बैचेन; नैया = नाव; पाल = नाव के मस्तूल के सहारे ताना जाने वाला एक कपड़ा जिसमें हवा भरने पर नाव चलती है; नभ = आकाश; अमराई = आम का बाग, उद्यान।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यांश में वर्षा ऋतु के बादलों से मुस्कराते हुए वर्षा करने के लिए आने का आग्रह किया गया है।

व्याख्या :
कवि बादलों को आमन्त्रित करते हुए कहते हैं कि हे बादलो ! तुम अब मुस्कराते और गायन करते हुए मिलन के लिए बेचैन धरती की इन बाँहों में आ जाओ, तुम पुरवाई पवन के पालों में आकर सम्मान बढ़ा दो तथा आकाश में रंगीन रुमालों (बदलियों) के रूप में छा जाओ। तुम्हारी गति इतनी तीव्र है कि सूर्य का रथ भी धीमा हो गया है। पुरवाई हवा के तेज झोंकों से बादल इतनी तीव्र गति से उड़ रहे हैं तथा सूर्य को ढक रहे हैं तो ऐसा लगता है कि सूर्य के रथ की गति धीमी हो गयी है। बादलों से होने वाली वर्षा के वातावरण में जो कल्पनाएँ उठती हैं, उनकी कोई सीमा नहीं है अर्थात् नाना प्रकार के मनोरम स्वप्न इस समय जागते हैं। इसलिए हे बादल! तुम आम के बागों की छाया में वर्षा करने आ जाओ ताकि वनस्पतियों को जल रूपी जीवन मिल जाए।

काव्य सौन्दर्य :

  1. आनन्द व्याप्त करने वाले बादलों से हर्षपूर्वक बरसने को कहा गया है।
  2. रूपक, पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार। शुद्ध साहित्यिक भाषा का प्रयोग हुआ है।

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[3] आओ तुम कजरी को स्वर देने
वाणी को पानी के वर देने।
कल तक तुम घिर-घिर कर छाए थे
कल तक तो तुम केवल आए थे।
बरखा की अफवाहों में।

शब्दार्थ :
कजरी वर्षा ऋतु में गाया जाने वाला गीत; वर = वरदान; बरखा = वर्षा।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांश में बादलों के घिरने तथा वर्षा की मदमस्त फुहारों के मध्य गाये जाने वाले गीतों का वर्णन हुआ है।

व्याख्या :
वर्षा होते ही जो उल्लासमय वातावरण हो जाता है उसकी ओर इंगित करते हुए कवि कहते हैं कि हे बादलो! तुम वर्षा कर दो ताकि आनन्दोल्लास के गीत कजरी की तान छिड़ जाय। तुम्हारे वर्षा के जल से वाणी की मधुरता का वरदान मिल जायेगा अर्थात् मधुर स्वर में कजरी गीतों का गायन प्रारम्भ हो जायेगा। हे बादलो! अभी कल तक तो तुम घिर करके आकाश में चारों ओर छाए हुए थे और कुछ दिन पूर्व तो तुम वर्षा आई-वर्षा आई; इस प्रकार अफवाहों में आये थे अर्थात् तुम्हारे आने की चर्चा आकाश में आच्छादित होने से ही होने लगी थी। किन्तु आज तुम वास्तव में वर्षा कर दो ताकि वह अफवाह सत्य सिद्ध हो जाय।

काव्य सौन्दर्य :

  1. उल्लास फैलाने वाली वर्षा के आगमन से पूर्व की उत्सुकता का वर्णन हुआ है।
  2. वर्षा काल में कजरी गीत गाये जाते हैं।
  3. पुनरुक्तिप्रकाश, अनुप्रास अलंकार तथा पद मैत्री की छटा दर्शनीय है।
  4. भावानुरूप भाषा का प्रयोग हुआ है।

चलना हमारा काम है भाव सारांश

अथक ऊर्जा, तेज और प्रेरणा के कवि शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ द्वारा रचित ‘चलना हमारा काम है’ कविता मानव को जीवन पथ पर गतिशील रहने के प्रति सचेष्ट करती है। जब जीवन का विस्तृत विकास मार्ग खुला पड़ा है और मेरे पग अपार शक्ति तथा गति से परिपूर्ण हैं, तो मुझे लक्ष्य प्राप्ति तक विश्राम नहीं करना है। सांसारिक सम्पर्कों में कुछ कहना-सुनना होने से परस्पर का दुःख-सुख बँट जाता है और मन हल्का हो जाता है। साथ ही जीवन भी सरल बन जाता है। जब जीवन पथ पर बढ़ते हैं तो सफलता-असफलता जन्य सुख-दुःख, आशा-निराशा का आना स्वाभाविक है। उसको हँसते-रोते हुए पार करके आगे चलते रहना ही मानव का मन्तव्य होना चाहिए। उसे हर पल आगे बढ़ने के प्रति जागरूक रहना चाहिए।

संसार के इस विशाल प्रवाह में सभी को किसी न किसी रूप में सुख-दुःख तो सहने ही होते हैं, इसको भाग्य का दोष या गुण मानना संगत नहीं है। जब मनुष्य लक्ष्य की ओर बढ़ने का प्रयास करता है तो बाधाओं का आना भी निश्चित है। किन्तु इन बाधाओं से विचलित होने की आवश्यकता नहीं क्योंकि इन बाधाओं को पार करते हुए आगे का मार्ग प्रशस्त करना ही जीवन है। संसार में बढ़ते हुए अन्यान्य साथी मिलते हैं, उनमें से कुछ छूट जाते हैं और कुछ चलते रहते हैं। जो सतत् गतिशील रहते हैं, उनको सफलता का मिलना निश्चित है। लक्ष्य के प्रति सजग रहकर हर स्थिति में चलते रहना ही मानव की जीवन्तता का लक्षण है। इसलिए उसकी गति कभी भी अवरुद्ध नहीं होने देनी चाहिए।

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चलना हमारा काम है संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

[1] गति प्रबल पैरों में भरी
फिर क्यों रहूँ दर-दर खड़ा
जब आज मेरे सामने
है रास्ता इतना पड़ा
जब तक न मंजिल पा सकूँ, तब तक मुझे न विराम है,
चलना हमारा काम है। (2015, 16)

शब्दार्थ :
गति = चाल; प्रबल = तीव्र; दर-दर = द्वार-द्वार; मंजिल = लक्ष्य; विराम = आगम, रुकना।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित विविधा-2′ के ‘चलना हमारा काम है’ कविता से अवतरित है। इसके रचयिता शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ हैं।

प्रसंग :
यहाँ कवि ने प्रेरित किया है कि क्षमता के रहते हुए व्यक्ति को लक्ष्य की ओर अविराम कदम बढ़ाने चाहिए।

व्याख्या :
कवि कहते हैं कि मेरे कदमों में चलने की तीव्र सामर्थ्य भरी हुई है इसलिए मैं द्वार-द्वार पर क्यों रुककर खड़ा रहूँ। जब आज मेरे सामने बहुत बड़ा प्रगति का मार्ग खुला पड़ा है तब मुझे खड़ा होने की क्या आवश्यकता है। मैं जब तक अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँचता हूँ, तब तक मुझे रुकना स्वीकार नहीं है। क्योंकि हमारा वास्तविक कार्य तो जीवन में गतिशील रहना ही है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. लक्ष्य प्राप्ति के लिए सतत् सचेष्ट रहने की प्रेरणा दी गई है।
  2. पुनरुक्तिप्रकाश, अनुप्रास अलंकारों का सौन्दर्य अवलोकनीय है।
  3. शुद्ध साहित्यिक भाषा का प्रयोग किया गया है।

[2] कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया
कुछ बोझ अपना बँट गया
अच्छा हुआ तुम मिल गए
कुछ रास्ता ही कट गया
क्या राह में परिचय कहूँ, राही हमारा नाम है,
चलना हमारा काम है। (2010)

शब्दार्थ :
बोझ = भार; राह = मार्ग; राही = राहगीर, पंथी।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ बताया गया है कि हिल-मिलकर चलने से जीवन की राह बड़ी सरलता से कट जाती है।

व्याख्या :
संसार में जीवन की राह पर जब साथ-साथ चलते हैं तो कुछ कहन-सुनन होना स्वाभाविक है। आपस में दुःख-दर्द की बातें कहने-सुनने से मानव के हृदय का भार तो कम हो ही जाता है। यह भी अच्छा रहा कि साथी मिल जाने से बातों ही बातों में जीवन का कुछ रास्ता कट गया। अब मैं अपने नाम आदि का क्या परिचय बताऊँ वास्तव में तो हम सभी इस जीवन पथ के पंथी हैं क्योंकि हमारा काम चलते रहना ही है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. साथी से दुःख-दर्द बाँटकर जीवन की राह कुछ सहज कट जाती है।
  2. अनुप्रास अलंकार तथा पद मैत्री का सुन्दर संयोग देखा जा सकता है।
  3. सरल, सुबोध तथा साहित्यिक भाषा का प्रयोग हुआ है।

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[3] जीवन अपूर्ण लिए हुए
पाता कभी खोता कभी,
आशा निराशा से घिरा
हँसता कभी रोता कभी,
गति मति न हो अवरुद्ध, इसका ध्यान आठों याम है
चलना हमारा काम है।

शब्दार्थ :
अपूर्ण = अधूरा; अवरुद्ध = बाधित, रुके आठों याम= हर समय (दिन और रात दोनों आठ याम (प्रहर) के होते हैं)।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ बताया गया है कि व्यक्ति अधूरा जीवन जीते हुए कभी कुछ प्राप्त कर लेता है, तो कभी कुछ खो भी देता है।

व्याख्या :
मानव के अधूरे जीवन की पूर्णता के प्रयास में कभी कुछ मिल जाता है तो कभी कुछ खो भी जाता है अर्थात् इस जीवन में लाभ-हानि, उत्थान-पतन, ऊँच-नीच चलती ही रहती है। इसी के अनुसार आशा-निराशा के भाव जगते ही रहते हैं। सफलता से आशा और असफलता से कुछ निराशा होती ही है। फलस्वरूप व्यक्ति हँसता-रोता हुआ जीवन पथ पर चलता ही जाता है। उसका ध्यान दिन-रात इस बात पर रहता है कि उसके जीवन की चाल कहीं बाधित न हो जाय। क्योंकि व्यक्ति का काम निरन्तर चलते रहना ही है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. सुख-दुःखमय जीवन की गति निरन्तर सचल रहनी चाहिए।
  2. यमक, अनुप्रास अलंकार।
  3. शुद्ध, साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है।

[4] इस विशद विश्व प्रवाह में
किसको नहीं बहना पड़ा,
सुख दुःख हमारी ही तरह
किसको नहीं सहना पड़ा,
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ, मुझ पर विधाता वाम है,
चलना हमारा काम है। (2009)

शब्दार्थ :
विशद विशाल; विश्व-प्रवाह संसार का श्रम; व्यर्थ = बेकार, अनावश्यक रूप से; विधाता = भाग्य, ब्रह्मा; वाम = विपरीत।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ बताया गया है कि संसार में सुख-दुःख तो सभी को सहने होते हैं। उनका बखान करना अनावश्यक है।

व्याख्या :
ऐसा कौन है जिसे संसार के इस विशाल क्रम की धारा में प्रवाहित न होना पड़ा हो अर्थात् सभी को इस संसार रूपी सरिता में बहना ही पड़ता है। संसार में सभी को जीवन में सुख और दुःख सहन करने ही पड़ते हैं। इनसे कोई नहीं बच पाता है। फिर दुःख आने पर यह कहना अनावश्यक है कि भाग्य मेरे विपरीत है। हमें तो दुःख की चिन्ता छोड़कर जीवन की राह पर चलते रहना चाहिए क्योंकि चलना ही हमारा कार्य है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. दु:ख आने पर भाग्य को दोष देना उचित नहीं है।
  2. सुख-दुःख तो आते-जाते ही रहते हैं।
  3. रूपक, अनुप्रास अलंकार।
  4. शुद्ध साहित्यिक भाषा का प्रयोग हुआ है।

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[5] मैं पूर्णता की खोज में
दर-दर भटकता ही रहा
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ
रोड़ा अटकता ही रहा
पर हो निराशा क्यों मुझे? जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है।

शब्दार्थ :
दर-दर = द्वार-द्वार; पग = कदम; रोड़ा अटकता = बाधा आती रही; निराश = हताश।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ बताया गया है कि जीवन में आने वाली बाधाओं से निराश नहीं होना चाहिए।

व्याख्या :
मनुष्य जीवन में समग्र सफलता पाने के लिए विभिन्न प्रकार से प्रयास करता है। उसे द्वार-द्वार चक्कर काटने पड़ते हैं। जहाँ भी वहे प्रयास करता है वहाँ कुछ न कुछ बाधाएँ भी आती रहती हैं। व्यक्ति को उन बाधाओं से निराश नहीं होना चाहिए। आशा-निराशा तो जीवन में अपरिहार्य हैं। उनसे डरकर रुकने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि जीवन पथ पर चलते रहना ही व्यक्ति का कार्य है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. जीवन पथ में आने वाली बाधाओं से निराश होने की आवश्यकता नहीं है।
  2. अनुप्रास अलंकार एवं पद मैत्री।
  3. शुद्ध साहित्यिक भाषा का प्रयोग हुआ है।

[6] कुछ साथ में चलते रहे
कुछ बीच ही से फिर गए
पर गति न जीवन की रुकी
जो गिर गए सो गिर गए,
चलता रहे हमदम, उसी की सफलता अभिराम है,
चलना हमारा काम है।

शब्दार्थ :
फिर गए = वापस लौट गए; हमदम = साथी; अभिराम = सुन्दर, श्रेष्ठ।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ बताया गया है कि जीवन के क्रम में कुछ साथ चलते रहते हैं, कुछ छूट जीते हैं किन्तु जो चलता रहता है उसे सफलता अवश्य मिलती है।

व्याख्या :
इस जीवन की राह के कुछ साथी तो साथ चलते ही रहे परन्तु कुछ मध्य मार्ग से ही लौट गये; किन्तु जीवन की चाल में ठहराव नहीं आया। वह तो चलता ही रहा, जो लौट गये सौ लौट गये। किन्तु जो साथी अथक रूप से निरन्तर साथ चलते रहते हैं, उन्हें श्रेष्ठ सफलता प्राप्त होती है। अतः मानव को निरन्तर चलते ही रहना चाहिए क्योंकि चलना ही हमारा कार्य है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. जीवन में श्रेष्ठ सफलता उसे मिलती है जो निरन्तर चलता ही रहता है।
  2. यमक, अनुप्रास अलंकार।
  3. सरल सुबोध तथा भाव के अनुरूप भाषा का प्रयोग हुआ है।

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MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 9 विविधा-1

MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 9 विविधा-1

विविधा-1 अभ्यास

विविधा-1 अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कौआ और कोयल में क्या समानता है?
उत्तर:
कौआ और कोयल दोनों में काले रंग की समानता है।

प्रश्न 2.
‘घर अन्धेरा’ से कवि का संकेत किस ओर है?
उत्तर:
‘घर अन्धेरा’ से कवि का संकेत है कि घर में निर्धनता जनित दुःखों का अन्धकार छाया है।

प्रश्न 3.
‘यहाँ तो सिर्फ गूंगे और बहरे बसते हैं।’ से कवि क्या कहना चाहते हैं? (2010)
उत्तर:
‘यहाँ तो सिर्फ गूंगे और बहरे बसते हैं।’ से कवि कहना चाहता है समाज इतना संवेदनहीन हो गया है कि किसी के दुःख-दर्द में न बोलना चाहता है और न सुनना चाहता है।

प्रश्न 4.
कवियों ने किसकी बोली का बखान किया है?
उत्तर:
कवियों ने मधुर स्वर वाली कोयल का बखान किया है।

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विविधा-1 लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
केले के पौधे को देखकर कवि को क्या अचम्भा होता है? (2016)
उत्तर:
दीनदयाल गिरि कवि को यह अचम्भा होता है कि रंभा मात्र एक जन्म के लिए रूप के गर्व से भर कर झूमती फिरती है। एक जीवन बहुत छोटा होता है, उसमें भी रूप का चमत्कार यौवन में ही रहता है। इस प्रकार यह बहुत अस्थायी तथा अल्पकालिक है। कवि मानते हैं कि रूप, धन आदि तो आते-जाते रहते हैं, ये स्थिर नहीं है। अतः इनके कारण व्यक्ति को गर्व नहीं करना चाहिए।

प्रश्न 2.
‘यातनाओं के अन्धेरे में सफर होता है।’ का आशय लिखिए।
उत्तर:
कवि दुष्यन्त कुमार ने संघर्ष भरे जीवन की यातनाओं को सटीक अभिव्यक्ति दी है। ‘यातनाओं के अन्धेरे में सफर होता है।’ के माध्यम से कवि कहना चाहते हैं कि निर्धनता और निर्बलता के दीन-हीन जीवन में दिन-रात यातनाएँ ही भरी रहती हैं। निर्धन का जीवन कष्टों के अन्धेरे में घिरा रहता है, क्योंकि यह पंक्ति रात्रि के बारह बजे के सन्दर्भ में कही है। अत: आशय यह है कि रात में नींद में आने वाले स्वप्नों में भी यातनाओं के मध्य से गुजरना होता है अर्थात् स्वप्न भी दुःख भरे ही आते हैं।

प्रश्न 3.
‘मिट्टी का भी घर होता है।’ इसका क्या अर्थ है? (2014)
उत्तर:
सामान्यतः घर ईंट, सीमेंट, चूना आदि से बनाये जाते हैं किन्तु अति निर्धन वर्ग मिट्टी के घर बनाकर रहता है। यद्यपि यह घर इतना मजबूत और टिकाऊ नहीं होता है जितना ईंट-सीमेंट का बना घर किन्तु घर तो होता ही है। प्रत्येक व्यक्ति जीवन में एक घर का स्वप्न देखता है। निर्धनता के कारण वह अच्छा नहीं बना सकता है, तो घरौंदा ही सही रहने का सहारा तो होता ही है।

प्रश्न 4.
कौआ और कोयल का भेद कब ज्ञात होता है? (2017)
उत्तर:
सामान्यतः रंग, आकार, प्रकार की दृष्टि से कौआ और कोयल समान प्रकार के प्रतीत होते हैं। इनमें इतनी समानता होती है कि यदि कौआ कोयलों के बीच बैठ जाय तो उसे पहचानना कठिन होगा। दोनों का रंग काला होता है। बनावट, पंख आदि भी एक ही तरह के होते हैं किन्तु जब बोलते हैं तो दोनों का भेद स्पष्ट पता लग जाता है। कोयल की पीऊ-पीऊ बड़ी मधुर और कर्णप्रिय होती है, जबकि कौए की काँऊ-काँऊ बड़ी तीखी और कर्ण कट होती है।

विविधा-1 दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
दुष्यन्त कुमार की गजलों के आधार पर कवि के विचार अधिकतम तीन बिन्दुओं में व्यक्त करें। (2012)
अथवा
“दुष्यन्त कुमार की गजलें आम आदमी की पीड़ा को जनमानस तक पहुँचाने में सफल हुई हैं।” विवेचना कीजिए। (2008, 09)
उत्तर:
इसके उत्तर के लिए ‘दुष्यन्त की गजलें’ शीर्षक का सारांश पढ़िए।

प्रश्न 2.
दीनदयाल गिरि की कुण्डलियों का सार अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
इसके उत्तर के लिए ‘कुण्डलियाँ’ शीर्षक का सारांश पढ़िए।

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प्रश्न 3.
निम्नलिखित पंक्तियों की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्या कीजिए
(अ) करनी विधि …………….. अधीने।
(आ) वायस …………… बखानी।
(इ) कोई रहने …………….. घर होता है।
(ई) वे सहारे …………… प्यारे न देख।
उत्तर:
(अ) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्य में भाग्य के विधान की महिमा को उजागर किया गया है।

व्याख्या :
दीनदयाल कवि कहते हैं कि देखिए, ब्रह्मा के द्वारा रचित भाग्य के कार्य बड़े अद्भुत हैं, उनका वर्णन करना सम्भव नहीं है। हिरणी के बड़े सुन्दर नेत्र होते हैं, वह बड़ी आकर्षक होती है फिर भी वह दिन-रात जंगलों में मारी-मारी फिरती है। वह वन में रहते हुए अनेक बच्चों को जन्म देती है। दूसरी ओर कोयल काले रंग वाली होती है फिर भी सारे कौए उसके वशीभूत होते हैं। कवि बताते हैं कि दिनों की टेक को देखकर धैर्य धारण करना चाहिए। भाग्य के विधान से प्रिय के मध्य रहते हुए भी विरह की अवस्था बनी रहती है। भाग्य बहुत बलवान होता है।

(आ) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्य में बताया गया है कि नीच व्यक्ति भले ही सज्जनों के मध्य पहुँच जाय किन्तु वह अपने नीच स्वभाव को नहीं छोड़ता है।

व्याख्या :
कवि दीनदयाल कहते हैं कि हे कौए ! तू कोयलों के बीच बैठकर स्वयं पर क्यों गर्व करता है। वंश के स्वभाव से तुम्हारे बोलते ही पहचान हो जाएगी कि तुम मृदुभाषी कोयल नहीं, कौए हो। तुम्हारी वाणी तीखी, कर्ण कटु है जबकि जिनके बीच तुम बैठे हो वे कोयल पंचम स्वर में बड़ी मधुर ध्वनि करती हैं जिसकी प्रशंसा बड़े-बड़े कवियों ने की है। कवि स्पष्ट करते हैं ‘कि कौए के सामने कोई दूध की बनी स्वादिष्ट खीर ही क्यों न परोस दे, पर स्वभाव से नीच ये कौए उसे छोड़कर गन्दी चीजें खाये बिना नहीं मानेंगे। आशय यह है कि नीच स्वभाव का व्यक्ति अपनी स्वाभाविक नीचता को नहीं छोड़ पाता है।

(इ) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इन गजलों में यथार्थ जीवन की यातनाओं का वर्णन हुआ है।

व्याख्या :
दिन तो सांसारिक संघर्ष में कटता ही है किन्तु रात भी कष्ट में ही गुजरती है। नित्य प्रति जब रात को बारह बजने के घण्टे बजते हैं। उस समय भी व्यक्ति कष्टों के अन्धकार से गुजर रहा होता है अर्थात् रात में आने वाले स्वप्न भी उसे यातनाएँ ही देते हैं।

मेरे जीवन के जो स्वप्न हैं उनके लिए इस संसार में नया कोई स्थान उपलब्ध है क्या? अर्थात् कोई जगह नहीं है। इसलिए स्वप्नों के लिए घरौंदा ही ठीक है। चाहे वह मिट्टी का ही सही, घर तो है।

जीवन की यातनाओं ने ये हालत कर दी है कि कभी सिर से लेकर छाती तक, कभी पेट से लेकर पाँव तक पीड़ा होती है और वास्तविकता यह है कि एक जगह होता हो तो बताया जाय कि इस स्थान पर दर्द होता है। नीचे से ऊपर तक बाहर से भीतर तक, सब जगह दर्द ही दर्द है।

(ई) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांश में व्यक्ति को संघर्षशील संसार में अकेले ही सामना करने के लिए प्रेरित किया गया है।

व्याख्या :
कवि व्यक्ति को हिम्मत बँधाते हुए कहते हैं कि अब तक जिन सहारों से इस जगत का सामना कर रहे थे, अब वे भी नहीं रहे हैं। अब तो तुम्हें स्वयं के बल पर जीवन का युद्ध लड़ना है। जो हाथ कट चुके हैं अर्थात् जो सम्बन्ध समाप्त हो चुके हैं अब उन सहारों के सहयोग की अपेक्षा करना व्यर्थ है। अब तो अपने आप ही परिस्थितियों का सामना करना होगा।

संघर्षशील जीवन में मनोरंजन भी आवश्यक है किन्तु इतना मनोरंजन नहीं कि कठोर जगत को भूल कल्पना की उड़ानें भरनी प्रारम्भ कर दी जायें। विकास के लिए भविष्य के स्वप्न देखना आवश्यक है, किन्तु इतने प्यारे स्वप्न नहीं कि उन्हीं में डूबकर रह जायें। स्वप्न को साकार करने के लिए प्रत्यक्ष यथार्थ का सामना करने की क्षमता भी आवश्यक है।

विविधा-1 काव्य-सौन्दर्य

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के पर्यायवाची शब्द लिखिएकोयल, कौआ, मोर, बादल।
उत्तर:
कोयल – पिक, कोकिला
कौआ – काक, वायस
मोर – मयूर, केकी
बादल – मेघ, जलद।

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित शब्दों के हिन्दी मानक रूप लिखिए
हकीकत, खौफ, इजाजत, सफर, जिस्म, जलसा।
उत्तर:
MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 9 विविधा-1 img-1

प्रश्न 3.
निम्नलिखित मुहावरों और लोकोक्तियों का वाक्यों में प्रयोग कीजिए-
गागर में सागर भरना, का वर्षा जब कृषि सुखाने, टेढ़ी खीर होना, ऊँट के मुँह में जीरा, दाँत खट्टे करना, अधजल गगरी छलकत जाय।
उत्तर:
गागर में सागर भरना – बिहारी ने अपने दोहों में गागर में सागर भर दिया है।
का वर्षा जब कृषि सुखाने – मरीज की मृत्यु हो गई तब डॉक्टर आने लगा, तो घर वालों ने कह दिया का वर्षा जब कृषि सुखाने।
टेढ़ी खीर होना – पाकिस्तान के अड़ियल रवैये के कारण कश्मीर समस्या को हल करना टेढ़ी खीर हो गया है।
ऊँट के मुँह में जीरा – दारासिंह के लिए दो सौ ग्राम दूध ऊँट के मुँह में जीरे की तरह है।
दाँत खट्टे करना – 1962 के युद्ध में भारतीय जवानों ने पाकिस्तानी सैनिकों के दाँत खट्टे कर दिये थे।
अधजल गगरी छलकत जाय – राजेश शहर से पढ़कर गाँव में आया तो बड़ी-बड़ी बातें करने लगा। उसकी बातों को सुनकर एक वृद्ध ने कह ही दिया कि अधजल गगरी छलकत जाय।

प्रश्न 4.
‘कुण्डलियाँ’ छन्द किन मात्रिक छन्दों के योग से बनता है? उदाहरण देकर समझाइये।
उत्तर:
कुण्डलियाँ’ छन्द दोहा और रोला मात्रिक छन्दों के योग से बनता है।
करनी विधि की देखिये, अहो न बरनी जाति।
हरनी के नीके नयन बसै बिपिन दिन राति।।
बसै बिपिन दिनराति, बराबर बरही कीने। कारी
छवि कलकंठ किये फिर काक अधीने।।
बरनै दीनदयाल धीर धरते दिन धरनी।
बल्लभ बीच वियोग, विलोकहु विधि की करनी।।

प्रश्न 5.
सही विकल्प छाँटिए
(अ) कोकिला शब्द है-(तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशी)
(ब) वायस का अर्थ है-(तोता, कौआ, बाज, कबूतर)
उत्तर:
(अ) तद्भव
(ब) कौआ।

प्रश्न 6.
दुष्यन्त कुमार की गजलों की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
वर्तमान समय के सामाजिक यथार्थ को सशक्त अभिव्यक्ति देने वाले दुष्यन्त कुमार की गजलों में भाव एवं कला पक्ष की विभिन्न विशेषताएँ उपलब्ध हैं।

सामाजिक यथार्थ का चित्रण :
दुष्यन्त कुमार का समाज की विषमताजन्य समस्याओं से पूरा परिचय है। अर्थ, कार्य, भोजन, आवास आदि की भिन्नताएँ उन्हें बैचेन करती हैं। वे कह उठते हैं-
रोज जब रात को बारह बजे का गजर होता है
यातनाओं के अन्धेरे में सफर होता है।।

दीन-हीन की पीड़ा का वर्णन :
निम्न वर्ग के प्रति सहानुभूति रखने वाले दुष्यन्त कुमार की गजलों में विविध प्रकार की यातनाओं का सजीव अंकन हुआ है। यातनाओं के कारण दर्द की यह स्थिति होती है-
सिर से सीने में कभी, पेट से पाँवों में कभी।
एक जगह हो तो कहें, दर्द इधर होता है।।

संघर्षशील होने की प्रेरणा-दुष्यन्त पलायनवादी नहीं हैं। वे मानते हैं कि समस्याओं का डटकर सामना करना चाहिए। वे कहते हैं-
अब यकीनन ठोस है धरती, हकीकत की तरह।
वह हकीकत देख, लेकिन खौफ के मारे न देख।।

स्वाभाविक अभिव्यक्ति :
दुष्यन्त कुमार सीधी, सरल, सपाट भाषा में प्रभावी ढंग से अपनी बात कहते हैं। चमत्कार या आडम्बरों के लिए उनकी गजलों में कोई स्थान नहीं है। इस प्रकार दुष्यन्त कुमार का काव्य भाव एवं कला दोनों दृष्टियों से सशक्त अभिव्यक्ति की क्षमता रखता है।

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कुण्डलियाँ भाव सारांश

विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से अपनी बात कहने में कुशल दीनदयाल गिरि की कुण्डलियों में जीवन के अनुभव का सार समाहित है। उन्होंने नीति पर बड़ी सटीक बातें कही हैं। थोड़े ही दिन के रूप सौन्दर्य पर गर्व न करने की नीति बताते हुए वे कहते हैं कि रूप तथा सौन्दर्य तो अस्थायी तथा क्षणिक है। गुणों के महत्त्व को उजागर करते हुए वे बताते हैं कि कौए का कोयलों के बीच बैठकर गर्व करना व्यर्थ है क्योंकि जैसे ही वह बोलेगा, उसकी पहचान कर्णकटु वाणी से हो जायेगी। कोयल सुमधुर स्वर में पीऊ-पीऊ करेगी तो वह तीखी ध्वनि में काँऊ-काँऊ करेगा। उसे कितनी ही स्वादिष्ट खीर क्यों न खिलाई जाय, वह गन्दी चीज खाये बिना नहीं मानेगा। इसी प्रकार अवगुणी गुणवानों के मध्य अपने दुर्गुणों से शीघ्र प्रकट हो जायेगा। भाग्य की महिमा को उजागर करते हुए कवि ने कहा है कि विधि का विधान बड़ा विचित्र है उसका वर्णन करना सम्भव नहीं है।

हिरणी बहुत सुन्दर नेत्रों वाली होकर दिन-रात वनों में घूमती-फिरती है। वह वहाँ प्रसूता होकर कष्ट भोगती रहती है जबकि कोयल श्याम वर्ण की होते हुए भी सभी कौओं को अपने वश में रखती है। इस प्रकार कवि ने इन पद्यों से व्यावहारिक अनुभव के आधार पर नीतिपरक ज्ञान बढ़ाने का सफल प्रयास किया है।

कुण्डलियाँ संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

[1] रंभा ! झूमत हौं कहा थोरे ही दिन हेत।
तुमसे केते है गए अरु कै हैं इहि खेत।।
अरु कै हैं इहि खेत मूल लघु साखा हीने।
ताहू पै गज रहे दीठि तुमरे प्रति दीने।।
बरनै दीनदयाल हमें लखि होत अचंभा।
एक जन्म के लागि कहा झुकि झूमत रंभा।।

शब्दार्थ :
रंभा – सुन्दरी, रूप सौन्दर्य के लिए विख्यात एक अप्सरा; हेत = प्रेम; केते = कितने; 8 गए = हो गये; इहि = इस; खेत = क्षेत्र, संसार; मूल = जड़; साखा = टहनियाँ; हीने = रहित; दीठिगज = हाथी दिखाई दे रहे; लखि = देखकर; अचम्भा = आश्चर्य; लागि = लिए।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्य हमारी पाठ्य-पुस्तक के विविधा भाग-1′ के ‘कुण्डलियाँ’ शीर्षक से उद्धृत है। इसके रचयिता दीनदयाल गिरि हैं।

प्रसंग :
इस पद्य में अल्पकालीन रूप सौन्दर्य पर गर्व न करने का परामर्श दिया गया है।

व्याख्या :
कवि कहते हैं कि रंभा समान रूपवान हे सुन्दरी ! तुम गर्व से युक्त होकर मदमस्त होकर क्यों घूम रही हो? यह प्रेम थोड़े दिन का ही है। रूप स्थायी नहीं होता है। तुम कोई अकेली रूपवान नहीं हो। इस संसार में तुम जैसे पता नहीं कितने हो चुके हैं और भविष्य में कितने ही होंगे। इस संसार में होने वाले ये रूपवान अस्थिर होते हैं। न इनकी जड़ें होतीं न शाखाएँ अर्थात् ये तो अल्पकालीन हैं, स्थिर रहने वाले नहीं हैं। इस पर भी मोहित होने वाले युवक रूपी हाथी भी तुम्हारे प्रति उदास ही दिखाई दे रहे हैं। दीनदयाल कवि बताते हैं कि हमें यह जानकर आश्चर्य होता है कि मात्र एक जन्म के अल्पकाल के लिए प्राप्त रूप सौन्दर्य पर सुन्दरी गर्व से भरकर झूमती हुई घूम रही है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. अस्थायी रूप सौन्दर्य पर गर्व न करने का वर्णन है।
  2. अनुप्रास अलंकार एवं पद मैत्री का सौन्दर्य दर्शनीय है।
  3. सरल, सुबोध एवं भावानुरूप ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।

[2] वायस ! तू पिक मध्य खै कहा करै अभिमान।
है हैं बस सुभाव की बोलत ही पहिचान।।
बोलत ही पहिचान कानकटु तेरी बानी।
वे पंचम धुनि मंजु करैं जिहिं कविन बखानी।।
बरनै दीनदयाल कोऊ जौ परसौ पायस।
तऊन न तजै मलीन मलिन खाये बिन वायस।।

शब्दार्थ :
वायस = कौआ; पिक = कोयल; मध्य = बीच; बंस = वंश, कुल; कानकटु = कर्ण कटु, कठोर; बानी = वाणी; मंजु = मनोहर; जिहिं = जिसका; बखानी = प्रशंसा, वर्णन किया है; परसो = परोस दो; पायस = खीर, दूध का बना स्वादिष्ट पदार्थ; तऊन = तो भी; तजै = छोड़ता है; मलीन = नीच; मलिन = गन्दा।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्य में बताया गया है कि नीच व्यक्ति भले ही सज्जनों के मध्य पहुँच जाय किन्तु वह अपने नीच स्वभाव को नहीं छोड़ता है।

व्याख्या :
कवि दीनदयाल कहते हैं कि हे कौए ! तू कोयलों के बीच बैठकर स्वयं पर क्यों गर्व करता है। वंश के स्वभाव से तुम्हारे बोलते ही पहचान हो जाएगी कि तुम मृदुभाषी कोयल नहीं, कौए हो। तुम्हारी वाणी तीखी, कर्ण कटु है जबकि जिनके बीच तुम बैठे हो वे कोयल पंचम स्वर में बड़ी मधुर ध्वनि करती हैं जिसकी प्रशंसा बड़े-बड़े कवियों ने की है। कवि स्पष्ट करते हैं ‘कि कौए के सामने कोई दूध की बनी स्वादिष्ट खीर ही क्यों न परोस दे, पर स्वभाव से नीच ये कौए उसे छोड़कर गन्दी चीजें खाये बिना नहीं मानेंगे। आशय यह है कि नीच स्वभाव का व्यक्ति अपनी स्वाभाविक नीचता को नहीं छोड़ पाता है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. नीच व्यक्ति कितना ही अच्छे लोगों के पास पहुँच जाय, पर स्वाभाविक नीचता उसमें बनी ही रहती है।
  2. कौआ नीच व्यक्तियों का तथा कोयल श्रेष्ठ व्यक्तियों के प्रतीक हैं।
  3. निनोक्ति, अनुप्रास अलंकार।
  4. सरल, सुस्पष्ट ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।

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[3] करनी विधि की देखिये, अहो न बरनी जाति।
हरनी के नीके नयन बसै बिपिन दिनराति।।
बसै बिपिन दिनराति बराबर बरही कीने।
कारी छवि कलकण्ठ किये फिर काक अधीने।।
बरनै दीनदयाल धीर धरते दिन धरनी।
बल्लभ बीच वियोग, विलोकहु विधि की करनी।। (2009)

शब्दार्थ :
विधि = भाग्य; बानी = वर्णित करना; हरनी = हिरणी; नीके = सुन्दर, भले; करनी = कार्य; नयन = नेत्र; बिपिन = वन, जंगल; बरही = प्रसूता, बच्चों को जन्म देने वाली; छवि = शोभा; कलकण्ठ= सुन्दर गला, कोयल; काक = कौए; अधीने = वश में; धीर = धैर्य; बल्लभ = प्रिय; विलोकहु = देखिए।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्य में भाग्य के विधान की महिमा को उजागर किया गया है।

व्याख्या :
दीनदयाल कवि कहते हैं कि देखिए, ब्रह्मा के द्वारा रचित भाग्य के कार्य बड़े अद्भुत हैं, उनका वर्णन करना सम्भव नहीं है। हिरणी के बड़े सुन्दर नेत्र होते हैं, वह बड़ी आकर्षक होती है फिर भी वह दिन-रात जंगलों में मारी-मारी फिरती है। वह वन में रहते हुए अनेक बच्चों को जन्म देती है। दूसरी ओर कोयल काले रंग वाली होती है फिर भी सारे कौए उसके वशीभूत होते हैं। कवि बताते हैं कि दिनों की टेक को देखकर धैर्य धारण करना चाहिए। भाग्य के विधान से प्रिय के मध्य रहते हुए भी विरह की अवस्था बनी रहती है। भाग्य बहुत बलवान होता है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. विधि के विधान की महिमा का वर्णन किया है।
  2. अनुप्रास अलंकार एवं पद मैत्री का सौन्दर्य दृष्टव्य है।
  3. भावानुरूप ब्रजभाषा का प्रभावी प्रयोग हुआ है।

दुष्यन्त की गजलें भाव सारांश

दुष्यन्त कुमार को हिन्दी में गजल को प्रतिष्ठित कराने का श्रेय प्राप्त है। वे सामाजिक यथार्थ के कुशल चितेरे हैं। अपने समय के समाज की विषमताओं पर करारे प्रहार करते हुए उन्होंने संघर्ष की प्रेरणा दी है।

(1) सामान्य जन को सजग करते हुए वे बताते हैं कि विविध प्रकार के प्रचार-प्रसार आज समाज में चल रहे हैं, तुझे उन सबके झमेले में फंसने से पहले अपने स्वयं के घर-परिवार की कठिनाइयों का समाधान करना है। संसार विशाल है। उसमें स्वयं में करने की जो क्षमता है, उसी अनुसार सचेष्ट होना है। जीवन के यथार्थ संघर्षों से बिना घबराये स्वयं की शक्ति से जूझना है कोरी कल्पनाओं में विचरण नहीं करना है-
दिल को बहला ले इजाजत है, मगर इतना न उड़।
आज सपने देख लेकिन, इस कदर प्यारे न देख।।

(2) संघर्षशील निम्न तबके को दिन-रात कष्टों से ही गुजरना होता है। उनके नींद में आने वाले स्वप्न भी संकटों से भरे होते हैं। जीवन में व्यक्ति की कामना होती है कि उसका भी एक निवास हो, चाहे वह मिट्टी का ही क्यों न हो। यातनाओं की पीड़ा सिर से पाँव तक एक-एक अंश में व्याप्त रहती है। कवि कहते हैं-
सिर से सीने में कभी, पेट से पाँवों में कभी।
एक जगह हो तो, कहें दर्द उधर होता है।।

जब किसी हताश व्यक्ति से मिलन हो जाता है तो लगने लगता है कि जीवन में सफल होना सम्भव नहीं । आज तो स्थितियाँ ही भयावह हो गयी हैं। घूमने निकलने पर भी पथराव के शिकार हो सकते हैं।

(3) निर्धनता कमर तोड़ देती है और व्यक्ति नमन की तरह झुक जाता है। विषम व्यवस्था में बँटवारा उचित न होने से एक वर्ग कष्ट ही पाता रहता है। निर्धनता से ग्रस्त को अपने मरण का भी बोध नहीं होता है। जबकि अन्य उसके विषय में जानने के लिए परेशान रहते हैं। शहरों के शोर-शराबे पशुओं के हाँके की तरह लगते हैं। आज की स्वार्थपरता ने मनुष्य को जड़ बना दिया है। उसकी संवेदनाएँ मर चुकी हैं।

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दुष्यन्त की गजलें संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

[1] आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख
घर अन्धेरा देख तू आकाश के तारे न देख
एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ
आज अपने बाजुओं को देख, पतवारें न देख
अब यकीनन ठोस है धरती, हकीकत की तरह
वह हकीकत देख, लेकिन खौफ के मारे न देख

शब्दार्थ :
आकाश के तारे देखना = कल्पनाजीवी होना; दरिया = नदी, सागर; बाजुओं = भुजाओं; पतवारें = नाव में पीछे की ओर लगी डण्डी; यकीनन = निःसन्देह; हकीकत = वास्तविकता; खौफ = भय।।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘विविधा भाग-1’ के ‘दुष्यन्त की गजलें’ शीर्षक से अवतरित है। इसके रचयिता दुष्यन्त कुमार हैं।

प्रसंग :
इस पद्यांश में व्यक्ति को यथार्थ का सामना करते हुए सचेष्ट होने की प्रेरणा दी गयी है।

व्याख्या :
दुष्यन्त कुमार ने यथार्थपरक होने का उद्बोधन देते हुए कहा कि आज सड़कों पर अनेक प्रकार के नारे लिखे हैं। व्यक्ति को सड़क के नारों की ओर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। उसके लिए यह आवश्यक कि वह अपने घर के कष्टों के अन्धकार को दूर करने पर ध्यान दे। वह कल्पनाजीवी न होकर यथार्थवादी बने।

जगत का सागर बड़ा विस्तृत और विशाल है। वह बहुत दूर तक फैला है। उसे पार करने के लिए व्यक्ति को अपनी भुजाओं के बल को देखना है, न कि नाव की पतवारों को अर्थात् व्यक्ति अपनी सामर्थ्य से संसार रूपी सागर को पार कर पायेगा, पतवारों से नहीं।

प्रत्यक्ष सत्य है कि जगत बहुत ही कठोर है। यहाँ जीवनयापन करना सरल नहीं है। इस सत्य को जानकर संसार से भयभीत न होकर उसका सामना करना है अर्थात् संघर्षशील जगत में घबराने से काम नहीं चलेगा।

काव्य सौन्दर्य :

  1. यहाँ यथार्थ से सामना करने की प्रेरणा दी गयी है।
  2. उपमा, अनुप्रास अलंकार।
  3. विषय के अनुरूप लाक्षणिक भाषा का प्रयोग हुआ है।
  4. शैली बहुत प्रभावशाली है।

[2] वे सहारे भी नहीं अब, जंग लड़नी है तुझे
कट चुके जो हाथ, उन हाथों में तलवारें न देख
दिल को बहला ले, इजाजत है, मगर इतना न उड़
आज सपने देख, लेकिन इस कदर प्यारे न देख

शब्दार्थ :
जंग = युद्ध; इजाजत = अनुमति; मगर = परन्तु; कदर = तरह।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांश में व्यक्ति को संघर्षशील संसार में अकेले ही सामना करने के लिए प्रेरित किया गया है।

व्याख्या :
कवि व्यक्ति को हिम्मत बँधाते हुए कहते हैं कि अब तक जिन सहारों से इस जगत का सामना कर रहे थे, अब वे भी नहीं रहे हैं। अब तो तुम्हें स्वयं के बल पर जीवन का युद्ध लड़ना है। जो हाथ कट चुके हैं अर्थात् जो सम्बन्ध समाप्त हो चुके हैं अब उन सहारों के सहयोग की अपेक्षा करना व्यर्थ है। अब तो अपने आप ही परिस्थितियों का सामना करना होगा।

संघर्षशील जीवन में मनोरंजन भी आवश्यक है किन्तु इतना मनोरंजन नहीं कि कठोर जगत को भूल कल्पना की उड़ानें भरनी प्रारम्भ कर दी जायें। विकास के लिए भविष्य के स्वप्न देखना आवश्यक है, किन्तु इतने प्यारे स्वप्न नहीं कि उन्हीं में डूबकर रह जायें। स्वप्न को साकार करने के लिए प्रत्यक्ष यथार्थ का सामना करने की क्षमता भी आवश्यक है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. यथार्थ जगत में विकास के लिए व्यक्ति को स्वयं की क्षमता का विस्तार करना आवश्यक है।
  2. लाक्षणिकता से युक्त खड़ी बोली में बड़े प्यारे ढंग से विषय को प्रस्तुत किया गया है।

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[3] रोज जब रात को बारह का गजर होता है
यातनाओं के अन्धेरे में सफर होता है।
कोई रहने की जगह है मेरे सपनों के लिए
वो घरौंदा सही, मिट्टी का भी घर होता है।
सिर से सीने में कभी, पेट से पाँवों में कभी
एक जगह हो तो कहें, दर्द इधर होता है।

शब्दार्थ :
रोज = प्रतिदिन; गजर = हर घण्टे पर बजने वाले घण्टे; यातनाओं = मुसीबतों, कष्टों; सफर = यात्रा; घरौंदा = बच्चों के द्वारा खेलने को बनाया गया मिट्टी का छोटा घर; दर्द = पीड़ा।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इन गजलों में यथार्थ जीवन की यातनाओं का वर्णन हुआ है।

व्याख्या :
दिन तो सांसारिक संघर्ष में कटता ही है किन्तु रात भी कष्ट में ही गुजरती है। नित्य प्रति जब रात को बारह बजने के घण्टे बजते हैं। उस समय भी व्यक्ति कष्टों के अन्धकार से गुजर रहा होता है अर्थात् रात में आने वाले स्वप्न भी उसे यातनाएँ ही देते हैं।

मेरे जीवन के जो स्वप्न हैं उनके लिए इस संसार में नया कोई स्थान उपलब्ध है क्या? अर्थात् कोई जगह नहीं है। इसलिए स्वप्नों के लिए घरौंदा ही ठीक है। चाहे वह मिट्टी का ही सही, घर तो है।

जीवन की यातनाओं ने ये हालत कर दी है कि कभी सिर से लेकर छाती तक, कभी पेट से लेकर पाँव तक पीड़ा होती है और वास्तविकता यह है कि एक जगह होता हो तो बताया जाय कि इस स्थान पर दर्द होता है। नीचे से ऊपर तक बाहर से भीतर तक, सब जगह दर्द ही दर्द है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. विपरीत परिस्थितिजन्य यथार्थ यातनाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई हैं।
  2. रूपक, अनुप्रास अलंकार।
  3. सशक्त खड़ी बोली में किये गये सटीक कथन सहज ही प्रभावित करते हैं।

[4] ऐसा लगता है कि उड़कर भी कहाँ पहुँचेंगे,
हाथ में जब कोई टूटा हुआ पर होता है।
सैर के वास्ते सड़कों पे निकलते थे,
अब तो आकाश से पथराव का डर होता है।

शब्दार्थ :
पर = पंख; सैर = भ्रमण; वास्ते = लिए। सन्दर्भ-पूर्ववत्। प्रसंग-इन गजलों में वर्तमान की यथार्थ परिस्थितियों का अंकन हुआ है।

व्याख्या :
जीवन के उत्थान के लिए कल्पना की उड़ानें भी आवश्यक हैं। किन्तु उनका पूरा होना आवश्यक नहीं है। इसलिए कवि कहते हैं कि जब हमारे हाथ कोई टूटा हुआ पंख होता है तो प्रतीत होने लगता है कि हम कल्पना की उड़ान भरकर भी वहाँ पहुँच पायेंगे? टूटा हुआ पंख उड़ान की असफलता का द्योतक है। अत: उड़ान पूरा हो पाना आवश्यक नहीं है।

अराजकतापूर्ण स्थिति की विषमता को उजागर करते हुए कवि कहते हैं कि पहले भ्रमण के लिए सड़कों पर निकला करते थे परन्तु अब तो इतनी भयानक स्थिति हो गयी है कि भ्रमण के लिए निकलें और आसमान से पत्थरों की वर्षा प्रारम्भ हो जाये। अतः भ्रमण को निकलना भी खतरनाक है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. विषम स्थिति का अंकन हुआ है।
  2. विषय को उजागर करने में सक्षम लाक्षणिक एवं व्यंजक भाषा का प्रयोग हुआ है।

[5] ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा।
यहाँ तक आते आते सूख जाती हैं कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा।
गजब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते
वो सब के सब परेशां हैं, वहाँ पर क्या हुआ होगा। (2008)

शब्दार्थ :
जिस्म = शरीर; सजदे = झुककर नमन करना; गजब = परेशानी। सन्दर्भ-पूर्ववत्। प्रसंग-यथार्थ जगत के कष्टों का सटीक अंकन इन गजलों में हुआ है।

व्याख्या :
कवि कहते हैं कि आपको धोखा हो गया होगा कि मैं झुककर नमन कर रहा हूँ। मैं सजदे में नहीं था। हो सकता है यथार्थ जगत की नाना प्रकार की यातनाओं के भार के कारण मेरा शरीर झुककर दोहरा हो गया हो।
जगत की विषम व्यवस्था पर व्यंग्य करते हुए कवि कहते हैं कि यहाँ तक पहुँचते-पहुंचते अनेक नदियाँ सूख जाती हैं अर्थात् विभिन्न साधन यहाँ नहीं आ पाते हैं। मुझे पता है कि इन नदियों का पानी अर्थात् दिए गये साधन-सुविधाओं को कहाँ पर रोक लिया गया होगा। आशय यह है कि अव्यवस्था के कारण जहाँ तक कुछ पहुँचना चाहिए वहाँ तक कुछ पहुँचता ही नहीं है, बीच में ही झपट लिया जाता है।

दीन-हीन निर्बल वर्ग निरन्तर मरता जाता है किन्तु परेशानी यह है कि यह वर्ग अपने मरने की आहट को सुन भी नहीं पाता है अर्थात् इस वर्ग के साथ जो अन्याय, अत्याचार हो रहे हैं उनका आभास उन्हें नहीं हो पाता है। दूसरे जो उनके हितों पर आघात करते हैं, उनको मारने के काम करते हैं वे यह जानने को परेशान हैं कि निर्बल वर्ग में क्या प्रतिक्रिया हो रही होगी?

काव्य सौन्दर्य :

  1. यथार्थ जगत की विषमता से उत्पन्न यातनाओं का व्यंग्यात्मक अंकन हुआ है।
  2. पुनरुक्तिप्रकाश, अनुप्रास अलंकार।
  3. उर्दू मिश्रित खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है।

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[6] तुम्हारे शहर में ये शोर सुन सुन कर तो लगता है
कि इन्सानों के, जंगल में कोई हाँका हुआ होगा।
कई फाके बिताकर मर गया, जो उसके बारे में
वो सब कहते हैं अब, ऐसा नहीं, ऐसा हुआ होगा।
यहाँ तो सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं
खुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा। (2008)

शब्दार्थ :
इन्सानों = आदमियों; हाँका = जोर से पुकारना, हुँकार; फाके = भूखे रहकर; गूंगे = बोल न पाने वाले, मूक; बहरे = सुन न पाने वाले; जलसा = अधिवेशन।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्। प्रसंग-इस पद्यांश में यथार्थ जीवन की संवेदनहीनता का सटीक अंकन हुआ है।

व्याख्या :
आज के कौलाहल से पूर्ण नगरीय जीवन पर व्यंग्य करते हुए कवि कहते हैं कि तुम्हारे नगर में हो रहे शोर-शराबे को सुनकर तो यह लगता है कि जैसे जंगल में पशुओं का हाँका होता है, ऐसे ही मनुष्यों के जंगल में कोई चिल्ल-पुकार हो रही होगी।

विषम अर्थव्यवस्था पर करारा प्रहार करते हुए कवि ने कहा है कि कई दिनों तक बिना भोजन के रहने के कारण भूख से उसकी मृत्यु हो गयी और लोग उसके बारे में अन्यान्य बातें कह रहे हैं कि इस प्रकार न होकर इस प्रकार उसकी मौत हुई होगी।

संवेदनहीनता पर कटाक्ष करते हुए कवि ने कहा है कि यहाँ पर रहने वाले सभी गूंगे और बहरे हैं। किसी के दुःख-दर्द में न कोई बोलता है न कोई सुनता है। इस प्रकार के माहौल में ईश्वर ही जाने कि किस प्रकार समाज का संचालन हो रहा होगा।

काव्य सौन्दर्य :

  1. आधुनिक जीवन की विविध जड़तामय स्थितियों का सटीक अंकन हुआ है।
  2. उर्दू मिश्रित खड़ी बोली में सशक्त अभिव्यक्ति हुई है।

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MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 8 जीवन दर्शन

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जीवन दर्शन अभ्यास

जीवन दर्शन अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर कोष्ठक में दिए विकल्पों में हैं। सही विकल्प छाँटकर लिखिए
(अ) अंगद किसका पुत्र था? (राम, सुग्रीव, बालि)
(आ) बालि ने काँख में किसे छिपा लिया था? (सुग्रीव, रावण, अंगद)
(इ) ‘भृगुनन्दन’ शब्द का प्रयोग किसके लिए किया गया है? (परशुराम, राम, रावण)
(ई) ‘तुम पै धनु रेख गई न तरी’ किसके लिए कहा गया है? (राम, हनुमान, रावण)
(उ) ‘कवच-कुंडल’ दान किसने किए थे? (कर्ण, इन्द्र, अर्जुन)
उत्तर:
(अ) बालि
(आ) रावण
(इ) परशुराम
(ई) रावण
(उ) कर्ण

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जीवन दर्शन लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कुछ न पाया जिन्दगी में-किसने, किस कारण कहा है? (2010, 14, 17)
उत्तर:
‘कुछ न पाया जिन्दगी में यह कथन कवि गिरिजा कुमार माथुर का है। वे समस्त जीवन भर दौड़-भाग करते रहे, किन्तु उन्हें ऐसा कुछ प्राप्त नहीं हुआ जिससे कह सकें कि उनके जीवन की यह उपलब्धि है। आशय यह है कि सारा जीवन जिस विश्वास के लिए खपा दिया, वह सब व्यर्थ गया। अब जीवन की अन्तिम अवस्था में खाली हाथ ही रह गये। कोई आश्रय भी नहीं है। अनाथ होकर भटकने को विवश है। विश्वास भी साथ छोड़ रहा है।

प्रश्न 2.
‘विश्वास की साँझ’ कविता के माध्यम से कवि क्या कहना चाहता है?
अथवा
‘विश्वास की साँझ’ कविता का मुख्य कथ्य क्या है? (2016)
उत्तर:
‘विश्वास की साँझ’ कविता में कवि कहना चाहता है कि व्यक्ति इस विश्वास के सहारे समस्त जीवन में अति सक्रिय रहकर दौड़-भाग करता रहता है कि उसे कुछ विशेष उपलब्धि होगी। वह कुछ ऐसा करेगा जो उल्लेखनीय होगा। यह लालसा ही उसे दिन-रात नाना प्रकार के कार्यों में व्यस्त रखती है। लेकिन जीवन के उत्तरार्द्ध के आते-आते उसके पास मात्र अपने होने का विश्वास मात्र रह जाता है और कुछ शेष नहीं बचता है। जिस संसार के लिए व्यक्ति भला-बुरा सब करता है, वह भी अलग हो जाता है। अन्तिम वास्तविकता अर्थात् मृत्यु से व्यक्ति को निहत्थे ही सामना करना पड़ता है। कोई साथ नहीं होता है, हाथ भी खाली होते हैं।

प्रश्न 3.
केशव की ‘रामचन्द्रिका’ में अंगद-रावण संवाद अधिक सुन्दर, स्वाभाविक और प्रभावशाली है। उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
हिन्दी काव्य में जितने अच्छे संवाद केशव ने रचे हैं, उतने अन्यत्र दुर्लभ हैं। उनके संवादों में सजीवता, नाटकीयता तथा प्रति उत्पन्न मतित्व का सौन्दर्य सर्वत्र दिखाई पड़ता है। वाक्-चातुर्य, उत्साह, तत्परता, राजनीतिक सूझबूझ, शिष्टाचार आदि की सफलता ने संवादों को बहुत सुन्दर बना दिया है। व्यंग्य, संक्षिप्तता, स्वाभाविकता, पात्रानुकूलता आदि के संयोग से केशव के संवाद अत्यन्त प्रभावशाली हो गए हैं। केशव दरबारी कवि थे, उन्हें राज दरबार का पूरा ज्ञान था इसीलिए उनके संवादों में सभी प्रकार का कौशल स्पष्ट दृष्टिगत होता है। केशव के संवाद अनूठे हैं।

जीवन दर्शन दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
‘अंगद-रावण संवाद’ शीर्षक में सभी संवाद पात्रों के अनुकूल हैं। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कथोपकथन में पात्र का विशेष महत्त्व होता है। अत: यह आवश्यक है कि संवाद पात्र के स्तर के अनुरूप हों। केशव ने इन सभी बातों को ध्यान में रखकर संवाद-योजना की है। उनके संवाद पात्रों के मनोभावों एवं परिस्थितियों को स्पष्ट परिलक्षित करते हैं। उनके संवाद से पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं का ज्ञान सहज ही हो जाता है। प्रस्तुत अंश में जहाँ अंगद का शिष्टाचार, वीरत्व, वाक्चातुर्य तथा भक्ति भाव व्यक्त होता है, वहीं रावण के कथन उसके अहंकारी चरित्र का स्पष्ट आभास कराते हैं। अंगद अपनी या अपने सहयोगियों की प्रशंसा न करके अपने स्वामी राम की महिमा को आधार बनाकर अपनी बात सशक्त रूप में रखता है, जबकि रावण कुण्ठाग्रस्त होकर अपनी प्रशंसा स्वयं ही करता है। एक उदाहरण प्रस्तुत है-
“कौन के सुत” ‘बालि के’, ‘वह कौन बालि’, ‘नजानिए?’
काँख चापि तुम्हें जो सागर सात न्हात बखानिए।”
“है कहाँ वह बीर? अंगद “देवलोक बताइयो”
‘क्यों गयो? रघुनाथ बान बिमान बैठि सिधाइयो।’
इस तरह केशव के संवादों में पात्रानुकूलता की विशेषता सर्वत्र विद्यमान है।

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प्रश्न 2.
क्या विश्वास की साँझ’ कविता में निराशावाद है? तर्क सहित समझाइए।
उत्तर:
‘विश्वास की साँझ’ कविता में जीवन पर्यन्त सक्रिय एवं सचेष्ट रहने वाले व्यक्ति के विश्वास को जीवन के उत्तरार्द्ध में डगमगाते दिखाया गया है। आस्था एवं विश्वास के साथ कार्यशील रहने वाला कवि अब जीवन के आखिरी पड़ाव में पूर्व अनुभव करता है कि मैंने भाग-दौड़, हाय-हाय, काम-धाम करते-करते जीवन गँवा दिया और कोई उपलब्धि प्राप्त नहीं कर पाया। मात्र एक विश्वास बचा था। नियति ने यह कहकर कि “जिन्दगी में साथ देता है कभी कोई बशर, असलियत से युद्ध होता है निहत्था जान ले।” उस विश्वास को भी छीन लिया और नियति ने स्पष्ट कर दिया कि तू अपने आस्था और विश्वास सभी कवच-कुण्डल का दान कर दे।

जब जीवन में आस्था और विश्वास ही नहीं रहेगा तो जीवन की क्या सार्थकता होगी। व्यक्ति को हताशा आकर घेर लेगी। इससे स्पष्ट होता है कि इस कविता में निराशावाद का निरूपण हुआ है।

प्रश्न 3.
सन्दर्भ सहित व्याख्या लिखिए
(अ) नियति बोली, आस्था वाले
अरे ओ होश कर
जिन्दगी में साथ देता है
कभी. कोई बशर।
असलियत से युद्ध होता है
निहत्था जान ले।

(आ) सिन्धु तर्यो उनको वनरा तुम पै धनु रेख गई न तरी।
बाँध्योइ बाँधत सो न बँध्यो, उन बारिधि बाँधिकै बाट करी
अजहूँ रघुनाथ प्रताप की बात तुम्हें दसकंठ न जानि परी।
तेलनि तूलनि पूँछ जरी न जरी, जरी लंक जराइ जरी।।
उत्तर:
इन पद्यांशों की सन्दर्भ सहित व्याख्या पाठ के ‘सन्दर्भ-प्रसंग सहित पद्यांशों की व्याख्या’ भाग में पढ़िए।

जीवन दर्शन काव्य-सौन्दर्य

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के हिन्दी मानक रूप लिखिएसाँझ, न्हात, जित्यो, जरी।
उत्तर:
MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 8 जीवन दर्शन img-1

प्रश्न 2.
निम्नलिखित काव्यांशों में अलंकार पहचान कर लिखिए
(अ) कौन के सुत? बालि के, वह कौन बालि? न जानिए?
(आ) बाँध्योइ बाँधत सो न बँध्यों, उन वारिधि बाँधि के बाट करी।
(इ) तेलनि तूलनि पूँछ जरी न जरी, जरी लंक जराइ जरी।
उत्तर:
(अ) अनुप्रास
(आ) अनुप्रास
(इ) यमक।

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प्रश्न 3.
निम्नलिखित काव्यांशों का काव्य-सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए
(क) असलियत से युद्ध होता है निहत्था जान ले।
इसलिए तू पूर्व इसके कवच कुंडल दान दे।
(ख) आज तक मानी नहीं, वह आज मानी हार।
(ग) हैहय कौन? वहै बिसर्यो जिन खेलत ही तोहि बाँधि लियो।
उत्तर:
इन काव्यांशों का काव्य-सौन्दर्य पाठ के सन्दर्भ प्रसंग सहित पद्यांशों की व्याख्या’ भाग से सम्बन्धित काव्यांश की व्याख्या के काव्य सौन्दर्य से पढ़िए।

प्रश्न 4.
‘अंगद-रावण संवाद’ काव्यांश में से उन पंक्तियों को लिखिए जिनमें रौद्र और वीर रस है।
उत्तर:
‘अंगद-रावण संवाद’ काव्यांश में से कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं जिनमें वीर एवं रौद्र रस है-
(क) काँख चापि तुम्हें जो सागर सात न्हात बखानिए।
(ख) ‘हैहय कौन?’ वहै विसर्यो जिन खेलत ही तोहि बाँधि लियो।
(ग) तेलनि तूलनि पूँछ जरी न जरी, जरी लंक जराई जरी।
(घ) छत्र विहीन करी छन में छिति गर्व हर्यो तिनके बल कौ रे।

प्रश्न 5.
‘विश्वास की साँझ’ कविता के आधार पर सिद्ध कीजिए कि जीवन में आस्था और विश्वास जैसे भाव मानव को त्याग की ओर प्रेरित करते हैं।
उत्तर:
व्यक्ति को जीवन में कार्य करने की शक्ति आस्था और विश्वास प्रदान करते हैं। ये ही विषम से विषम स्थिति में भी मनुष्य को संघर्ष का साहस देते हैं। किन्तु जीवन के उत्तरार्द्ध में एक ऐसी स्थिति भी आती है, जब आस्था और विश्वास जैसे भाव मानव को त्याग की ओर प्रेरित करते हैं। आखिरी समय में अनाथ होने पर आस्था और विश्वास भी डगमगाने लगते हैं और जीवन से पलायन की प्रेरणा देते हैं।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित कथनों में निहित शब्द शक्ति का नाम लिखिए
(क) कौन के सुत? बालि के
(ख) ‘है कहाँ वह वीर? अंगद ‘देवलोक बताइयो।’
(ग) ‘बालि बली’, ‘छल सों’।
‘भृगुनन्दन गर्व हर्यो’, ‘द्विज दीन महा’।
(घ) ‘सिन्धु तरयो उनको वनरा, तुम पै धनु रेख गई न तरी।’
उत्तर:
(क) अभिधा
(ख) लक्षणा
(ग) लक्षणा
(घ) व्यंजना।

अंगद-रावण संवाद भाव सारांश

रीतिकाल के आचार्य केशवदास की ‘रामचन्द्रिका’ में मानवीय व्यवहारों का सुन्दर समायोजन हुआ है। ‘रावण अंगद संवाद’ शीर्षक इसी श्रेष्ठ महाकाव्य से संकलित है।

प्रस्तुत अंश में रावण-अंगद के सटीक संवादों का सौन्दर्य अवलोकनीय है। जहाँ रावण का अहंकारी रूप प्रतिध्वनित है वहीं अंगद नैतिक व्यक्तित्व वाले राम भक्त सिद्ध होते हैं। जैसे ही अंगद रावण के दरबार में पहुँचते हैं तो रावण उनसे परिचय पूछता है। वे उसी परिचयात्मक वार्तालाप में ही रावण की हीनताओं को व्यंजित कर देते हैं। जब अंगद ने अपना नाम बताते हुए कहा कि मैं बालि का पुत्र हूँ तो रावण पूछ बैठे कौन बालि तो अंगद उसे बताते हैं कि तुम बालि को नहीं जानते? ये वहीं हैं जिन्होंने तुम्हें अपनी बगल में दबाकर सप्त सागरों का स्नान किया था। राम के बाण से उनका वध हो गया है।

जब रावण ने पूछा लंका स्वामी कौन है तो अंगद ने कहा विभीषण। तुम्हें जीवित कौन कहता है? तुम अपनी सुबुद्धि से काम लो और राजाधिराज राम के पैरों पड़कर क्षमा माँग लो वे तुम्हें राज्य, कोष आदि सब देकर सीता को लेकर शीघ्र अपने घर चले जायेंगे।

यह सुनकर रावण अहं से भरकर कहता है कि संसार तथा लोकपाल आदि की सीमाएँ हैं। ये सब विष्णु भगवान की रक्षा में रहते हैं किन्तु देव, देवेश आदि का संहार शिवजी मात्र भ्रू भ्रंग द्वारा कर देते हैं। अतः मैं पैर पढूंगा तो शिव के पढूंगा अन्य के नहीं। वह कहता है राम में शत्रु पर विजय पाने की क्षमता ही नहीं है। अंगद बताते हैं राम ने परशुराम, सहस्रार्जुन आदि वीरों को पराजित किया है। सहस्रार्जुन ने तो खेल में तुमको बाँध लिया था।

राम महाप्रतापी हैं उनका बन्दर तुम्हारी लंका जला गया, उन्होंने पत्थरों का पुल बनाकर सागर पर रास्ता बना लिया। यह सुनते रावण बताता है-मृत्यु मेरी दासी है, सूर्य द्वारपाल है, चन्द्रमा मेरा छत्र लिए रहता है, यमराज कोतवाली करता है। अतः मुझे राम, सुग्रीव आदि कैसे हरा पायेंगे। अंगद के बार-बार समझाने पर भी रावण अपनी गर्वोक्तियों से बाज नहीं आता है। फिर भी अंगद राम के महान् प्रभाव को सिद्ध करने में समर्थ होता है। ये संवाद अनूठे हैं।

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अंगद-रावण संवाद संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

[1] अंगद कूदि गए जहाँ, आसनगत लंकेस।
मनु मधुकर करहट पर, सोभित श्यामल बेस॥
रावण-कौन हो, पठाए सो कौने, ह्याँ तुम्हें कह काम है?
अंगद-जाति वानर, लंकनायक ! दूत अंगद नाम है।
“कौन है वह बाँधि कै हम देह छि सबै दही”?
“लंक जारि संहारि अच्छ गयो सो बात बृथा कही।

शब्दार्थ :
आसनगत = आसन पर; लंकेस = लंका का स्वामी; मधुकर = भौंरा; करहट = कमल की छतरी; ह्याँ = यहाँ; दही = जला दिया; बृथा = व्यर्थ।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक के पाठ ‘जीवन दर्शन’ के ‘रावण अंगद संवाद’ शीर्षक से लिया गया है। इसके रचयिता केशवदास हैं।

प्रसंग :
इस पद्यांश में राम द्वारा युद्ध से पहले अंगद को दूत के रूप में लंका भेजने पर रावण-अंगद का परिचयात्मक संवाद है।

व्याख्या :
लंका का राजा रावण जहाँ सिंहासन पर बैठा था अंगद कूदकर वहीं पहुंच गए। वे ऐसे लग रहे हैं मानो कलम की छतरी पर श्याम वेष वाला भौंरा बैठा हो। रावण अंगद से पूछता है कि तुम कौन हो, तुम्हें किसने भेजा है और यहाँ तुमको क्या काम है? तब अंगद उत्तर देते हुए कहता है कि मेरी जाति वानर है, मैं श्रीराम का दूत हूँ और मेरा नाम अंगद है। तब रावण कहता है कि वह कौन है जिसे हमने बाँध लिया तथा उसकी पूँछ, शरीर आदि सब जला दिया। तब अंगद उत्तर देते हैं कि वे (हनुमान) लंका को जलाकर और तुम्हारे बेटे अक्षय कुमार को मारकर गये। वह बात व्यर्थ रही।

काव्य सौन्दर्य :

  1. अंगद का रावण के दरबार में पहुँचकर वार्ता को प्रारम्भ किया गया है।
  2. उत्प्रेक्षा, अनुप्रास अलंकार । सरल, सुबोध एवं लाक्षणिकता से परिपूर्ण ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।

[2] “कौन के सुत?” ‘बालि के’, ‘वह कौन बालि’, न जानिए?
काँख चापि तुम्हें जो सागर सात न्हात बखानिए।”
“है कहाँ वह बीर?” अंगद “देवलोक बताइयो।” ‘क्यों गयो’?
रघुनाथ बान बिमान बैठि सिधाइयो। ‘लंका नायक को’?
विभीषण, देव दूषण को दहै? ‘मोहि जीवन होहिं क्यों?
जग तोहि जीबत को कहै। ‘मोहि को जग मारि है’?
दुर्बुद्धि तेरिय जानिए? ‘कौन बात पठाइयो कहि वीर बेगि बखानिए।’

शब्दार्थ :
सुत = पुत्र; काँख = बगल; चापि = दबाकर; बान-बिमान = बाण रूपी विमान; सिधाइयो = सिधार गये; देवदूषण = देवताओं के शत्रु; दहै = दग्ध करता है, जलाता है; दुर्बुद्धि = कुबुद्धि; पठाइयो = भेजा है।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांश में रावण और अंगद के प्रश्नोत्तर हैं।

व्याख्या:
रावण अंगद से पूछता है कि तुम किसके पुत्र हो? अंगद बताता है कि मैं बालि का पुत्र हूँ। रावण ने पूछा कि यह बालि कौन है? अंगद ने पूछा कि क्या तुम बालि को नहीं जानते हो? जिसने तुम्हें अपनी बगल में दबाकर सप्त सागरों में स्नान किया था। आशय है कि दीर्घकाल तक तुम्हें अपनी बगल में दबाए रखा था। रावण ने पूछा कि वह पराक्रमी वीर अब कहाँ है? उत्तर में अंगद ने कहा कि वे देवलोक (स्वर्ग) सिधार गये हैं। रावण ने प्रश्न किया कि वे देवलोक क्यों गये हैं आशय है कि उनका निधन कैसे हुआ? अंगद ने बताया कि रघुकुल के स्वामी श्रीराम के बाण रूपी विमान पर बैठकर वे देवलोक सिधार गये हैं।

आशय यह है कि श्रीराम के बाण से उनका वध हो गया है। पुनः रावण पूछता है कि लंका का स्वामी कौन है? अंगद ने उत्तर दिया कि देवताओं के शत्रु को दग्ध करने वाले विभीषण लंका के स्वामी हैं। रावण बोला मेरे जीते जी वह लंका का स्वामी कैसे है? अंगद ने कहा कि तुम्हें संसार में जीवित कहता ही कौन है? आशय यह है कि तुम तो मरे के समान हो। रावण ने कहा कि मुझे संसार में कौन मार सकता है? अंगद ने बताया कि तेरी कुबुद्धि ही तेरा वध कराएगी। रावण ने अंगद से पूछा कि हे वीर ! शीघ्र बताइए कि तुमको यहाँ किस काम के लिए भेजा है?

काव्य सौन्दर्य :

  1. रावण और अंगद के संवाद से आभास मिलता है कि रावण की कुबुद्धि ही उसका विनाश कर देगी और विभीषण लंका का नायक बनेगा।
  2. श्लेष एवं अनुप्रास अलंकार।
  3. सरल, सुबोध ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।

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[3] राम राजान के राज आये इहाँ
धाम तेरे महाभाग जागे अबै।
देवि मंदोदरी कुम्भकर्णादि दै
मित्र मंत्री जिते पूछि देखो सबै।
राखिजै जाति को, पांति को वंश को
साधिजै लोक में पर्लोक को।
आनि कै पाँ परौ देस लै, कोस लै
आसुहीं ईश सीताहि लै ओक को।

शब्दार्थ :
धाम = नगर; देवि = पटरानी; पांति = सम्मान; कोस लै = खजाना ले; आसुही = शीघ्र ही; ओक = घर।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्। प्रसंग-इस पद्यांश में अंगद रावण को सत्परामर्श दे रहे हैं।

व्याख्या :
अंगद कहते हैं कि हे रावण ! यह तेरे महाभाग्य जाग्रत हो गये हैं कि राजाधिराज राम यहाँ तेरे घर पर आए हैं। मैं जो श्रेष्ठ परामर्श देने जा रहा हूँ, उसके बारे में तुम अपनी पटरानी मंदोदरी, अपने बन्धु कुम्भकर्ण आदि से और जितने भी तुम्हारे मित्र और मन्त्री हैं उन सभी से पूछकर देख लो कि मेरी सलाह उत्तम है या नहीं। तुम अपनी जाति, अपनी प्रतिष्ठा और वंश की रक्षा कर लो, अपने इस लोक में ही परलोक की साधना कर लो। श्रीराम को सादर महल में लाकर उनके चरणों में गिरकर क्षमा माँग लो और सीता जी को लौटा दो। तुम्हारे द्वारा ऐसा किए जाने पर परम उदार श्रीराम तुमको यह देश, यहाँ का खजाना आदि देकर अपनी पत्नी सीता को साथ लेकर शीघ्र ही अपने घर चले जायेंगे।

काव्य सौन्दर्य :

  1. अंगद ने रावण की भूल के लिए क्षमा याचना का परामर्श दिया है।
  2. अनुप्रास अलंकार एवं पद-मैत्री का सौन्दर्य दृष्टव्य है।
  3. सरल, सुबोध ब्रजभाषा का प्रयोग किया गया है।

[4] रावण-लोक लोकेस स्यौं सोचि ब्रह्मा रचे
आपनी आपनी सीव सो सो रहे।
चारि बाहें धरे विष्णु रच्छा करें
बान साँची यहै वेदवाणी कहै।।
ताहि भ्रूभग ही देस देवेस स्यों
विष्णु ब्रह्मादि दै रुद्रजू संहरै।
ताहि सौं छाँड़ि कै पायँ काके परों
आजु संसार तो पायँ मेरे परै।।

शब्दार्थ :
लोकेश = लोक के स्वामी; रचे = बनाए हैं; स्यौं = से, सहित; भ्रूभग = भौंह टेढ़ी होने से, क्रुद्ध होने से; सींव = सीमा; रुद्रजू = शंकर जी; काके = किसके।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यांश में अहंकारी रावण अंगद का परामर्श सुनकर क्रोध से भर उठता है तथा शिव के अतिरिक्त किसी के भी सामने न झुकने की गर्वोकित करता है।

व्याख्या :
रावण कहता है कि ब्रह्मा ने विचार करके जितने भी लोक और लोकों के स्वामी रचे हैं वे सभी अपनी-अपनी सीमाओं में रहते हैं। चार भुजा वाले विष्णु उस सृष्टि की रक्षा करते हैं। वेदवाणी इस सत्य को कहती है कि उस सृष्टि का देवताओं, देवराज इन्द्र सहित विष्णु और ब्रह्मा के होते हुए भी शिवजी भृकुटि मात्र से संहार कर देते हैं। इस प्रकार के सर्वशक्तिमान शिव को छोड़कर मैं किसके पैरों में पढूं। आज तो मेरे प्रताप की यह स्थिति है कि सारा संसार मेरे पैरों में पड़ता है। अतः मैं किसी के पैरों में नहीं पड़ सकता हूँ।

काव्य सौन्दर्य :

  1. इसमें अभिमानी रावण की गर्वोक्ति है।
  2. अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश, यमक, श्लेष अलंकारों का सौन्दर्य अवलोकनीय है।
  3. भावानुरूप ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।

[5] ‘राम को काम कहा’? ‘रिपु जीतहिं’
‘कौन कबै रिपु जीत्यौ कहा’?
‘बालि बली’, ‘छल सों, भृगुनंदन
‘गर्व हर्यो’, ‘द्विज दीन महा।।
‘दीन सो क्यों? छिति छत्र हत्यो’
‘बिन प्राणनि हैहयराज कियो’
“हैहय कौन? “वहै विसरयो जिन’
खेलत ही तोहि बाँधि लियो।।

शब्दार्थ :
रिपु = शत्रु; छल सों = धोखे से; भृगुनन्दन = परशुराम; छिति छत्र हत्यो = पृथ्वी के क्षत्रिय मारे; हैहयराज = सहस्रार्जुन; विसर्यो = भूल गये।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यांश के संवादों में रावण की गर्वोक्तियों और अंगद के व्यंग्यों का सुन्दर संयोजन है।

व्याख्या :
रावण अंगद से पूछता है कि राम का उल्लेखनीय कार्य क्या है? अंगद ने उत्तर दिया कि श्रीराम अपने शत्रु पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। रावण ने पलटकर प्रश्न किया कि राम ने कब, कौन-से शत्रु पर विजय पाई है? तो अंगद ने बताया कि उन्होंने वीरवर बालि पर विजय प्राप्त की। रावण ने तुरन्त कहा बालि को तो छलपूर्वक मारा गया था अर्थात् छिपकर मारने में कौन सी वीरता है ? फिर अंगद दूसरा नाम बताते हैं कि राम ने भृगु के पराक्रमी पुत्र परशुराम का मान मर्दन किया है। इस पर रावण ने कहा कि वह (परशुराम) तो महादीन ब्राह्मण था। उसमें युद्ध की शक्ति ही कहाँ थी? अंगद इसकी काट करते हुए कहते हैं कि वह दीन क्यों हैं ? उन्होंने अनेक बार पृथ्वी भर के क्षत्रियों को मार डाला था। इतना ही नहीं उन्होंने ही प्रसिद्ध योद्धा सहस्रार्जुन (हैहयराज) का वध कर प्राण लिए थे। तब रावण पूछता है कि हैहय कौन है? अंगद ने बताया कि तुम उस बलशाली हैहयराज को भूल गये जिन्होंने तुम्हें खेल-खेल में ही बाँध लिया था और अपनी घुड़साल में रखा था।

काव्य सौन्दर्य :

  1. यहाँ रावण की गर्वोक्तियों का मुंहतोड़ जवाब अंगद ने दिया है।
  2. परशुराम तथा सहस्रार्जुन का बल विख्यात रहा है।
  3. अनुप्रास अलंकार।
  4. विषयानुरूप ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।

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[6] अंगद-सिंधु तर्यो उनको वनरा तुम पै धनुरेख गई न तरी।
बाँध्योई बाँधत सो न बँध्यो उन वारिधि बाँधि कै बाट करी।।
अजहूँ रघुनाथ-प्रताप की बात तुम्हें दसकंठ न जानि परी।
तेलनि तूलनि पूँछ जरी न जरी, जरी लंक जराई जरी।। (2009,14)

शब्दार्थ :
वनरा = बन्दर (हनुमान); धनुरेख = धनुष की रेखा लक्ष्मण ने सीता की सुरक्षा के लिए पर्णकुटी के सामने धनुष की नोंक से जो रेखा खींची थी उसे रावण पार नहीं कर पाया था; तरी = पार की गई; वारिधि = समुद्र; बाट = मार्ग; दसकंठ = रावण; तूलनिक रुई; जराई जरी = रत्नों से जड़ी हुई।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्। प्रसंग-प्रस्तुत पद्यांश में राम की महिमा तथा रावण की दीनता का वर्णन किया गया है।

व्याख्या :
अंगद राम की महिमा का बखान करते हुए अहंकारी रावण से कहता है कि उन श्रीराम का छोटा बन्दर (हनुमान) विशाल सागर को पार कर गया और स्वयं को बहुत बलशाली कहने वाले तुम लक्ष्मण द्वारा खींची गई एक धनुष की रेखा को भी लाँघ नहीं पाए। उन श्रीराम ने विशालकाय सागर को सेतुबन्ध द्वारा बाँधकर रास्ता बना लिया किन्तु तुम छोटे से बन्दर को बाँधने का प्रयास करते हुए भी नहीं बाँध सके। अंगद कहते हैं कि हे दशकंठ रावण ! आज भी तुम्हें रघुकुल के स्वामी श्रीराम के प्रताप का बात बोध नहीं हुआ है। वे महाप्रतापी हैं और तुम बहुत हीन हो क्योंकि तुम पूरा प्रयास करके तेल और रूई के सहारे भी छोटे से बन्दर की पूँछ को नहीं जला पाये। इसके विपरीत वह बन्दर रत्नों से जड़ी तुम्हारी लंका को जला गया।

काव्य सौन्दर्य :

  1. यहाँ राम की महिमा तथा रावण के हीनत्व का अंकन हुआ है।
  2. यमक, अनुप्रास अलंकार तथा पद मैत्री की छटा दर्शनीय है।
  3. विषय के अनुरूप ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।

[7] रावण- महामीचु दासी सदा पाइँ धोवै
प्रतीहार हैं कै कृपा सूर जोवै।
क्षमानाथ लीन्हें रहै छत्र जाको।
करैगो कहा सत्रु सुग्रीव ताकौ”
सका मेघमाला, सिखी पाककारी
करें कोतवाली महादंडधारी।
पढ़े, वेद ब्रह्मा सदा द्वार जाके,
कहा बापुरो, सत्रु सुग्रीव ताके।

शब्दार्थ :
महामीचु = मृत्यु; प्रतीहार = द्वारपाल; सूर = सूर्य; जोवै= देखता है; क्षमानाथ = चन्द्रमा; ताकौ = उसका; सका = भिश्ती; मेघमाला = बादल; सिखी = अग्नि; पाककारी = रसोइया; बापुरो = बेचारा।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्। प्रसंग-इस पद्यांश में रावण ने अपनी महिमा का स्वयं बखान किया है।

व्याख्या :
रावण कहता है कि हे अंगद ! महामृत्यु जिसकी (रावण की) दासी बनकर सदैव पैर धोती रहती है, सूर्य द्वारपाल होकर जिसकी कृपा की बाट जोहता रहता है, चन्द्रमा जिसका छत्र लिए रहता है। उस रावण का शत्रु सुग्रीव क्या बिगाड़ पायेगा।

मेघमालाएँ जिसके यहाँ भिश्ती का काम करती हैं, स्वयं अग्नि जिसकी रसोइया है, यमराज जिसके यहाँ कोतवाल का दायित्व निभाता है, जिसके दरवाजे पर ब्रह्मा सदैव वेदों का पाठ करते हैं उस रावण का शत्रु बेचारा सुग्रीव क्या कर लेगा।

काव्य सौन्दर्य :

  1. रावण की महिमा का वर्णन हुआ है।
  2. अनुप्रास अलंकार तथा पद मैत्री। भावों के अनुरूप ब्रजभाषा का प्रयोग किया गया है।

[8] डरै गाय बि, अनाथै जो भाजै।
परद्रव्य छाँई, परस्त्रीहि लाजै
परद्रोह जासौं न होवै रती को
सु कैसे लरै वेष कीन्हें यती को।।
तपी गयी विप्रनि छिप ही हरौं।
अवेद-द्वेषी सब देव संहरौ।
सिया न दैहों, यह नेम जी धरौं
अमानुषी भूमि अवानरी करौं।

शब्दार्थ :
विप्र = ब्राह्मण; परद्रव्य = दूसरे का धन; परद्रोह = विरोध; रती = कामदेव की स्त्री; यती = संन्यासी; छिप्र= शीघ्र; अवानरी= बानरों से हीन; अमानुषी = मनुष्यों से हीन।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांश में रावण ने राम के गुणों को कमजोरी तथा अपने दोषों को गुणों के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।

व्याख्या :
जो गाय और ब्राह्मण से डरता है अर्थात् गाय और ब्रह्म के समक्ष भीरू बन जाता है, दूसरे के धन को छोड़ देता है, दूसरे की स्त्री के सामने लज्जित हो उठता है, जिससे एक रत्तीभर परद्रोह (विरोध). नहीं होता है, संन्यासी का वेष धारण करने वाला वह राम कैसे युद्ध कर सकता है। अर्थात् वह युद्ध नहीं कर पायेगा।

तपस्या में लीन ब्राह्मणों का शीघ्र ही हरण कर लूँगा, जो वेदों को न मानने वालों (राक्षसों) के शत्रु देवता हैं उनका संहार कर दूंगा, मैंने अपने हृदय में यह दृढ़ कर लिया है कि सीता को नहीं दूंगा और समस्त भूमि को नर व वानरों से रहित कर दूंगा।

काव्य सौन्दर्य :

  1. यहाँ रावण ने राम के गुणों को कमजोरियों तथा अपने अवगुणों को वीरता के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
  2. अनुप्रास अलंकार तथा पद मैत्री।
  3. भावानुरूप ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।

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[9] अंगद-पाहन तै पतिनी करि पावन, टूक कियौ हर को धनु को रे?
छत्र विहीन करी छन में छिति गर्व हर्यो तिनके बल को रे।।
पर्वत पुंज पुरैनि के पात समान तरे, अजहूँ धरको रे।
होइँ नरायन हूँ पै न ये गुन, कौन इहाँ नर वानर को रे?

शब्दार्थ :
पाहन = पत्थर; पावन = पवित्र; हर = शिव; छिति = पृथ्वी; विहीन = रहित; पुंज = समूह; पुरैनि = कमल; धरको = धड़का; नरवानर को = मनुष्य और बन्दरों की तो बात ही क्या।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ पर अंगद द्वारा श्रीराम की महिमा का वर्णन किया गया है।

व्याख्या :
अंगद कहता है कि हे रावण तुमको राम की महिमा का ज्ञान नहीं है। जिन्होंने पत्थर रूपी अहिल्या को स्पर्शमात्र से पवित्र (उद्धार) कर दिया, जिस शिव के धनुष को कोई भी वीर हिला नहीं पाया था उसके टुकड़े कर दिए, जिन्होंने समस्त पृथ्वी को क्षण भर में छत्र रहिल कर दिया उनकी शक्ति का कौन पार पा सकता है। राम के अलावा ऐसा कौन कर सकता है। जिस राम के स्पर्श से पर्वत समूह कमल पत्तों की तरह सागर के पानी पर तैर गये जिसका धमाका तुम्हारे हृदय पर आज भी है। ये गुण तो नारायण में भी नहीं हैं। यहाँ मनुष्य या बन्दर कौन है? अर्थात् यहाँ राम के साथ होने वाले महान् गुणवान हैं। राम में नारायण से अधिक बल प्रभाव है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. राम की परम शक्ति का वर्णन हुआ है।
  2. यमक, अनुप्रास अलंकार तथा पदमैत्री की सुन्दरता दर्शनीय है।
  3. प्रवाहमयी ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।

विश्वास की साँझ भाव सारांश

आधुनिक हिन्दी कविता के महत्त्वपूर्ण कवि गिरिजा कुमार माथुर ने अपने काव्य में जीवन-संवेदना के विविध रूप अंकित किए हैं। आपका काव्य विषम स्थितियों में भी उत्प्रेरणा देने की क्षमता से युक्त है। विश्वास की साँझ कविता में आस्था और विश्वास की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है। ये जीवन मूल्य जीवन के लिए कितने महत्वपूर्ण हैं उसका संकेत यह कविता करती है। कवि कहते हैं कि जीवन भर संघर्ष करने के बाद भी जिन्दगी में कुछ उपलब्धि न मिल सकी।

आज तक आस्था और विश्वास के सहारे जो संघर्ष करता रहा, आज वे भी डगमगा रहे हैं। मेरी दयनीय दशा हो गयी है। मैंने नियति से आस्था और विश्वास के अतिरिक्त सब कुछ लूट लेने को कहा किन्तु उसने स्पष्ट कर दिया कि जीवन में कुछ भी साथ नहीं होता है। वस्तुतः आस्था और विश्वास के कवच-कुंडल दान करने के बाद ही निहत्थे होकर मृत्यु से संघर्ष करना होता है। इस प्रकार इस कविता में आस्था और विश्वास त्याग के प्रेरक बनकर प्रस्तुत हुए हैं।

विश्वास की साँझ संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

[1] कुछ न पाया जिन्दगी में
रही साँझ अनाथ
लौट आये युद्ध से हम
हाय खाली हाथ
आज तक मानी नहीं
वह आज मानी हार
एक था विश्वास
वह भी छोड़ता है साथ।

शब्दार्थ :
जिन्दगी = जीवन; अनाथ = बिना संरक्षक, असहाय; साँझ = संध्या; साथ छोड़ना = दूर होना।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘विश्वास की साँझ’ पाठ से अवतरित है। इसके रचयिता गिरिजा कुमार माथुर हैं।

प्रसंग :
कवि ने इन पंक्तियों के माध्यम से जीवन की व्यस्तता एवं संघर्ष का हृदयस्पर्शी चित्रण किया है।

व्याख्या :
जीवन संवेदनाओं में विभिन्न रूपों का अंकन करने की सामर्थ्य रखने वाले कवि कहते हैं कि समस्त जीवन भर संघर्ष करने के बाद भी जीवन की संध्या अनाथ, असहाय रह . गई। हम जीवन युद्ध में संघर्ष करते-करते खाली हाथ लौट आए हैं। कुछ भी उल्लेखनीय प्राप्त नहीं कर सके हैं। संघर्षशील जीवन जीते हुए मैंने जो हार स्वीकार नहीं की थी आज स्वीकार कर ली है। मेरे पास मात्र एक विश्वास था जो संघर्ष की प्रेरणा देता था। आज वह भी साथ छोड़ रहा है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. जीवन के प्रति निराशावादी दृष्टिकोण का अंकन हुआ है।
  2. सरल सुबोध किन्तु प्रभावी भाषा में विषय का प्रतिपादन हुआ है।

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[2] अब अकेला हूँ झुका है माथ
सरल होगा आखिरी आघात
कहा मैंने नियति से
सब खत्म कर दे
लूट ले
एक मेरी आस्था,
विश्वास रहने दे।

शब्दार्थ :
माथ = मस्तक; आघात = प्रहार; नियति = भाग्य; खत्म = समाप्त; आखिरी = अन्तिम।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांश में जीवन के उत्तरार्द्ध की असहाय अवस्था (वृद्धावस्था) में होने वाली निराशाजन्य स्थिति का अंकन हुआ है।

व्याख्या :
जीवन में हार मानने पर असहाय हुए कवि कहते हैं कि मैं आज अकेला रह गया हूँ, कोई संगी-साथी नहीं है। इसलिए निराशा से आज मेरा मस्तक झुक गया है। इससे यह स्पष्ट हो गया है कि मृत्यु का अन्तिम प्रहार अधिक कष्टप्रद नहीं होगा। मैंने नियति से प्रार्थना की कि मेरे पास जो भी है उस सब को तू समाप्त कर दे और लूटकर ले जा; किन्तु मेरी आस्था और विश्वास को मेरे ही पास रहने दे। मैं इनसे रहित नहीं होना चाहता हूँ।

काव्य सौन्दर्य :

  1. जीवन-निराशा का स्वाभाविक अंकन हुआ है।
  2. अनुप्रास अलंकार तथा सरल, सुस्पष्ट भाषा में गम्भीर विषय को समझाया गया है।

[3] नियति बोली
आस्था वाले
अरे ओ होश कर
जिन्दगी में साथ देता है
कभी कोई बशर
असलियत से युद्ध होता है निहत्था
जान ले
इसलिए तू
पूर्व इसके
कवच कुण्डल दान दे।

शब्दार्थ :
नियति = भाग्य, अदृष्ट; होश = भली प्रकार जान ले; असलियत = वास्तविकता; निहत्था = खाली हाथ; कवच-कुण्डल = कवच और कुण्डल कर्ण के पास थे; जिनके रहते उसे कोई पराजित नहीं कर सकता था किन्तु इन्द्र ने वे कर्ण से दान में माँग लिए और दानवीर कर्ण मना नहीं कर पाए।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांश में स्पष्ट किया गया है कि जब तक आस्था तथा विश्वास का त्याग नहीं होगा, जीवन समापन असंभव है।

व्याख्या :
जब नियति से सब कुछ लेने पर भी आस्था एवं विश्वास को छोड़ देने की बात कही तो नियति ने कहा कि हे आस्था चाहने वाले मानव? तू भली प्रकार जान ले कि जीवन में कोई किसी का साथ नहीं देता है। जीवन की वास्तविकता तो मृत्यु है, उससे खाली हाथ ही संघर्ष करना होता है अर्थात् मृत्यु के समय मानव के साथ कुछ नहीं होता है। इसलिए हे मानव ! तू आस्था और विश्वास रूपी कवच-कुण्डल का दान कर दे।

काव्य सौन्दर्य :

  1. यहाँ पर आस्था और विश्वास त्याग की भावना को परिपुष्ट करते हैं।
  2. सरल, सुबोध एवं स्पष्ट भाषा में गम्भीर विषय को समझाया गया है।

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MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 5 प्रकृति-चित्रण

MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 5 प्रकृति-चित्रण

प्रकृति-चित्रण अभ्यास

प्रकृति-चित्रण अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
खंजन पक्षी का दुःख किस ऋतु में मिट जाता है? (2016)
उत्तर:
खंजन पक्षी का दु:ख शरद ऋतु में मिट जाता है।

प्रश्न 2.
किस ऋतु में सूर्य चन्द्रमा के समान दिखाई देता है?
उत्तर:
शिशिर ऋतु में सूर्य भी चन्द्रमा के समान दिखाई देता है।

प्रश्न 3.
नौका विहार कविता में किसकी तुलना चाँदी के साँपों से की है? (2015, 17)
उत्तर:
जल में नाचती हुई चन्द्रमा की चंचल किरणों की तुलना चाँदी के साँपों से की गयी है।

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प्रकृति-चित्रण लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सेनापति के अनुसार, वर्षा ऋतु में प्रकृति में क्या-क्या परिवर्तन दिखाई देने लगते हैं? (2014)
उत्तर:
सेनापति के अनुसार वर्षा ऋतु में प्रकृति में अनेक परिवर्तन दिखाई देने लगते हैं। आकाश में बिजली कौंधती है, इन्द्रधनुष चमकता है, काली घटाएँ भयंकर गर्जना करती हैं। कोयल एवं मोर इधर-उधर मधुर कूजन करते हैं। वायु के झोंकों से हृदय शीतल हो जाता है। वर्षा ऋतु के श्रावण माह में चारों ओर जल बरसने लगा है। प्रकृति के ये सभी परिवर्तन बड़े मनभावन होते हैं।

प्रश्न 2.
गंगाजल में प्रतिबिम्बित चन्द्रमा के लिए कवि ने क्या कल्पना की है?
उत्तर:
प्रकृति के अनुपम चितेरे सुमित्रानन्दन पन्त ने ‘नौका विहार’ कविता में चन्द्रमा एवं चाँदनी के नाना रूपों का सुन्दर अंकन किया है। कभी गंगाजल की गोल लहरें चन्द्रमा की रेशमी कान्ति पर साड़ी की सिकुड़न जैसी सिमटी दिखाई पड़ती है तो कभी गंगा नायिका के चाँदी जैसे लहराते श्वेत बालों में चमचमाती लहरों से छिपकर ओझल हो जाती है। गंगाजल में पड़ती दशमी के चन्द्रमा की परछाई की कल्पना करते हुए कवि ने कहा है कि दशमी का चन्द्रमा, उसका प्रतिबिम्ब, मुग्धा नायिका के समान लहरों के घूघट में से अपना टेड़ा मुँह थोड़ी-थोड़ी देर में रुक-रुककर दिखाता जाता है।

प्रश्न 3.
गंगा की धार के मध्य स्थित द्वीप कवि को कैसा दिखाई देता है?
उत्तर:
‘नौका विहार’ कविता में कवि ने गंगा की विविध छवियों का भव्य अंकन किया है। एक रूप इस प्रकार है-गंगा की धारा के बीच एक छोटा-सा द्वीप है जो प्रवाह को रोककर उलट देता है। धारा में स्थित वही शान्त द्वीप चाँदनी रात में माँ की छाती पर चिपककर सो गये शिशु जैसा दिखाई दे रहा है।

प्रकृति-चित्रण दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सेनापति ने बसन्त को ऋतुराज क्यों कहा है? (2008, 17)
उत्तर:
रीतिकाल के श्रेष्ठ कवि सेनापति का ऋतु वर्णन अनुपम है। उन्होंने ग्रीष्म, वर्षा, शरद, शिशिर आदि सभी ऋतुओं का मनोरम चित्रण किया है किन्तु बसन्त को उन्होंने ऋतुओं का राजा माना है। वे कहते हैं कि जैसे राजा हाथी, घोड़ा, रथ एवं पैदल की चतुरंगिणी सेना के साथ चलता है वैसे ही बसन्त.रूपी राजा के चहुंओर विभिन्न प्रकार के रंग-बिरंगे फूल वन-उपवन में खिले हैं। जैसे राजा का गुणगान बन्दी, भाट आदि करते हैं वैसे ही भौरे, कोयल आदि ऋतुराज बसन्त का मधुर ध्वनि में यशगान करते हैं। जैसे राजा के आने पर सुगन्ध बिखर जाती है। वैसे ही बसन्त के आगमन पर भीनी-भीनी गन्ध चारों ओर व्याप्त हो जाती है। जैसे राजा की शोभायात्रा सुसज्जित होकर निकलती है वैसे ही ऋतुराज बसन्त सभी प्रकार के साज-सामान से युक्त होकर आते हैं। बसन्त के सभी लक्षण राजाओं जैसे हैं। इसीलिए सेनापति ने बसन्त को ऋतुओं का राजा कहा है।

प्रश्न 2.
सेनापति ने ग्रीष्म की प्रचण्डता का वर्णन किस प्रकार किया है? (2010)
उत्तर:
सेनापति ने ग्रीष्म की भयंकरता का सटीक वर्णन किया है। भीषण गर्मी देने वाली वृष राशि पर विराजमान सूर्य की हजारों किरणों के तेजस्वी समूह, भयंकर ज्वालाओं की लपटों की वर्षा कर रहे हैं। धरती तीव्र ताप से तप रही है। आग के तेज ताप से जगत जला जा रहा है। इस भीषण गर्मी से व्याकुल राहगीर और पक्षी भी छाया में विश्राम कर रहे हैं। थोड़ी-सी दोपहरी ढलते ही जो भयंकर उमस पड़ती है उसके कारण पत्ता भी नहीं खड़कता है। पूरी तरह चारों ओर सुनसान हो जाता है। गर्मी की इस भीषणता से घबराकर शान्ति देने वाली हवा भी ठण्डा सा कोना खोजकर इस ताप के समय को व्यतीत करने पर विवश हो रही है। इस प्रकार सेनापति ने ग्रीष्म की प्रचण्डता का प्रभावी वर्णन किया है।

प्रश्न 3.
तापस बाला के रूप में विश्राम कर रही गंगा के सौन्दर्य का वर्णन कवि ने किस प्रकार किया है? (2008)
उत्तर:
कोमल कल्पना के कवि सुमित्रानन्दन पन्त ने अपनी नौका विहार’ कविता में गंगा का तापस बाला के रूप में बड़ा ही मनोरम चित्रण किया है। शान्त, प्रिय और स्वच्छ चाँदनी चारों ओर बिखरी है। आकाश अपलक नेत्रों से एवं धरती शान्त भाव से दत्तचित्त होकर गंगा को देख रहे हैं। तपस्वी कन्या जैसी पवित्र एवं क्षीणकाय गंगा बालू की दूध के समान श्वेत सेज पर शान्त, थकी सी स्थिर भाव से लेटी है। उसकी कोमल हथेलियाँ चाँदनी से चमत्कृत हो रही हैं। उस गंगा रूपी तापस बाला के हृदय पर तरंगों की छाया रूपी कोमल केश लहरा रहे हैं, उसके गौर वर्ण वाले जल में प्रतिबिम्बित नीला आकाश तरंगों के कारण उस बाला के आँचल की तरह लहरा रहा है। तापस बाला के स्पर्श से उसका शरीर सिहरन के कारण तरल एवं चंचल बना हुआ है। गंगाजल पर पड़ने वाली आकाश की लहराती परछाईं चन्द्रमा की रेशमी आभा से भरकर साड़ी की सिकुड़नों के समान सिमटी हुई है। इस प्रकार गंगा का तापस बाला के रूप में सजीव चित्रण किया गया है।

प्रश्न 4.
रात्रि के प्रथम प्रहर की चाँदनी में नदी, तट व नाव का सौन्दर्य क्यों बढ़ गया है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
चाँदनी रात्रि का प्रथम प्रहर है। चारों ओर श्वेत चाँदनी छिटक रही है। नदी के किनारों पर बिछी बालू पर चमकती चाँदनी को देखकर ऐसा लगता है मानो मुस्कराती हुई खुली सीपी पर सुन्दर मोती कौंध रहा है। श्वेत चाँदनी तथा शान्त वातावरण ने नाव का सौन्दर्य भी दोगुना कर दिया है। छोटी सी नाव मदमस्त हंसिनी के समान मन्द-मन्द, मन्थर-मन्थर गति से पाल रूपी पंख फैलाकर गंगा की सतह पर तैरने लगी है। गंगा के चाँदनी से चमकते श्वेत तट गंगाजल रूपी स्वच्छ दर्पण में दोगुने ऊँचे प्रतीत हो रहे हैं। इस तरह शान्त वातावरण में फैली श्वेत चाँदनी ने नदी तट तथा नाव के सौन्दर्य को अत्यन्त मनोहारी बना दिया है।

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प्रश्न 5.
सुमित्रानन्दन पन्त ने नौका विहार की तुलना जीवन के शाश्वत रूप से किस प्रकार की है? (2009, 13)
उत्तर:
सुमित्रानन्दन पन्त ने ‘नौका विहार’ कविता में नौका विहार की तुलना जीवन के शाश्वत रूप से की है। जीवन रूपी नौका का विहार नित्य है। गंगा की धारा की तरह उस सृष्टि की रचना सनातन है। इसकी गति भी चिरन्तन है। इस जगत की धारा के साथ जीवन का मिलन भी शाश्वत है। जैसे नीले आकाश की अद्भुत क्रीड़ाएँ, चन्द्रमा की चाँदी से श्वेत हँसी और छोटी-छोटी लहरों का विलास चिरन्तन है वैसे ही जीवन’रूपी नौका विहार शाश्वत है। धारा के रूप में प्राप्त जीवन के चिरन्तन प्रमाण ने आभास करा दिया है कि जन्म और मृत्यु के आर-पार आत्मा अमर है। वह कभी समाप्त नहीं होगी।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित पद्यांशों की सन्दर्भ सहित व्याख्या कीजिए
(i) चाहत चकोर ………………. सकति है।
(ii) मेरे जान पौनों ……………….. वितवत है।
(iii) मद मन्द-मन्द ………………. क्षण भर।
(iv) माँ के उर पर ……………… विपरीत धार।
उत्तर:
(i) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यांश में शीत ऋतु की सजीव झाँकी प्रस्तुत की गयी है। साथ ही शिशिर के प्रभाव का मर्मस्पर्शी चित्रण है।

व्याख्या :
शिशिर ऋतु में ठण्ड बढ़ जाती है और वातावरण में इतनी अधिक शीतलता . होती है कि सूर्य भी चन्द्रमा का रूप धारण कर लेता है अर्थात् चन्द्रमा के समान शीतल लगता है। धूप भी चाँदनी की चमक प्रतीत होती है (धूप भी चाँदनी के समान लगती है)। सेनापति कहते हैं कि ठण्ड हजार गुनी बढ़ जाती है और दिन में भी रात की झलक दिखती है (सूर्य के तेज रहित होने के कारण दिन में रात की झलक दिख पड़ती है। दिन भी रात की तरह शीतल है।)

चकोर पक्षी यद्यपि चाँद का प्रेमी होता है, पर शिशिर में वह भी सूर्य की ओर अपलक दृष्टि से देखे जा रहा है। चक्रवाक पक्षी रातभर अपनी चकवी से बिछुड़ कर रहता है। शिशिर में दिन में जब रात का भ्रम होता है तो चक्रवाक पक्षी का दिल बैठने लगता है कि कहीं रात तो नहीं हो गयी और उसका धीरज छूटने लगता है। चन्द्रमा के भ्रमवश कुमुदिनी अत्यन्त प्रसन्न होती है। (वह दिन में भी सूर्य को शीतलता के कारण चाँद समझ बैठती है।) लेकिन चन्द्रमा की शंका में पड़कर कमलिनी दिन में भी विकसित नहीं हो पा रही है।

(ii) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि ने प्रस्तुत पद्यांश में ग्रीष्म ऋतु की भयंकरता का सजीव चित्रण किया है। साथ ही साथ जीव एवं दुनिया पर ग्रीष्म के ताप के भयंकर प्रभाव का सजीव चित्रण प्रस्तुत है।

व्याख्या :
यहाँ पर कवि सेनापति ग्रीष्म की प्रचण्ड गर्मी का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वृष राशि पर सूर्य स्थित है। (ज्योतिष की मान्यता के अनुसार जब वृष राशि पर सूर्य आ जाता है तो भीषण गर्मी पड़ती है।) उसकी सहस्रों तेजस्वी किरणों के समूह से ऐसी भीषण गर्मी पड़ रही है, मानो भयंकर ज्वालाओं के जाल अर्थात् लपटों के समूह अग्नि की वर्षा कर रहे हों। पृथ्वी भी गर्मी की अधिकता से तप रही है। अग्नि की तीव्रता से संसार जल रहा है। यात्री और पक्षी ठण्डी छाया को ढूँढ़कर विश्राम करते हैं। सेनापति कहते हैं कि तनिक दोपहर ढलते ही विकराल गर्मी के कारण सन्नाटा हो जाता है कि पत्ता तक नहीं खड़कता, अर्थात् सर्वत्र सुनसान हो जाता है। कोई भी बाहर नहीं निकलता। ऐसी गर्मी में हवा भी नहीं चलती है कि कुछ शीतलता मिले। कवि कहते हैं कि मेरी समझ में तो हवा भी गर्मी से घबरा कर कोई ठण्डा-सा कोना ढूँढ़कर छिप गयी है और कहीं ऐसी जगह में गर्मी बिता रही है।

(iii) शब्दार्थ :
सत्वर = शीघ्र; सिकता = रेती, बालू; सस्पित = मुस्कराती; ज्योत्सना = चाँदनी; मन्थर-मन्थर = धीरे-धीरे; तरणि = नौका; पर = पंख; निश्चल = शान्त; रजत = चाँदी; पुलिन = किनारे; प्रमन = प्रसन्न मन; वैभव-स्वप्न = वैभव भरे सपने।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यांश में नौका-विहार के मनोरम दृश्यों का अंकन हुआ है।

व्याख्या :
चाँदनी रात्रि का प्रथम प्रहर है। हम नौका विहार के लिए नाव लेकर शीघ्र ही चल दिये हैं। गंगा नदी की रेती पर चाँदनी इस प्रकार चमक रही है कि मानो मुस्कराती हुई खुली सीपी पर मोती चमक रहा हो। इस प्रकार की रमणीय बेला में नाव के पाल नौका विहार हेतु चढ़ा दिये गये और लंगर उठा लिया है। फलस्वरूप हमारी छोटी सी नाव एक सुन्दर हंसिनी की तरह मन्द-मन्द, मंथर पालों रूपी पंख खोलकर गंगा की सतह पर तैरने लगी है। गंगा के शान्त तथा निर्मल जल रूपी दर्पण पर प्रतिबिम्बित चाँदनी से चमकते श्वेत तट एक क्षण के लिए दोहरे ऊँचे प्रतीत होते हैं। गंगा के तट पर स्थित कालाकांकर का राजभवन जल में प्रतिबिम्बित होता हुआ इस प्रकार का प्रतीत हो रहा है मानो वैभव के अनेक स्वप्न संजाए निश्चित भाव से सो रहा हो।

शब्दार्थ :
चपला = चंचल नौका; दूरस्थ = दूरी पर स्थित; कृश = दुबला-पतला; विटप-माल – वृक्षों की पंक्ति; भू-रेखा = भौंह; अराल = टेढ़ी; उर्मिल = लहरों से युक्त; प्रतीप = उल्टा; कोक = चकवा।

(iv) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यावतरण में चाँदनी रात में गंगा नदी की बीच धारा में नौका-विहार के समय की प्राकृतिक सुषमा को चित्रित किया गया है।

व्याख्या :
जब चंचल नौका गंगा की बीच धारा में पहुँची तो चाँदनी में चाँद-सा चमकता हुआ रेतीला कगार हमारी दृष्टि से ओझल हो गया। मैंने देखा कि गंगा के दूर-दूर तक स्थित तट फैली हुई दो बाँहों के समान लग रहे हैं, जो गंगा धारा के दुबले-पतले कोमल-कोमल नारी के शरीर का आलिंगन करने (अपने में भरकर कस लेने) के लिए अधीर हैं और उधर, बहुत दूर क्षितिज पर वृक्षों की पंक्ति है। वह पंक्ति धरती के सौन्दर्य को अपलक (बिना पलक झपकाये) निहारते हुए आकाश के नीले-नीले विशाल नयन की तिरछी भौंह के समान प्रतीत हो रही है।

पास की धारा के बीच एक छोटा-सा द्वीप है; जो लहरों वाले प्रवाह को रोककर उलट देता है। धारा में स्थित वही शान्त द्वीप चाँदनी रात में माँ की छाती पर चिपककर सो गये नन्हें बच्चे जैसा लग रहा है। और वह उड़ता हुआ.पक्षी कौन है? क्या वह अपनी प्रिया चकवी से रात्रि में बिछड़ा हुआ व्याकुल चकवा तो नहीं है? शायद वही है, जो जल में पड़े हुए प्रतिबिम्ब को देखकर उसे चकवी समझा बैठा है और विरह दुःख मिटाने के लिए उससे मिलन हेतु उड़ रहा है।.

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प्रकृति-चित्रण काव्य-सौन्दर्य

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के तत्सम रूप लिखिए. बरन, पंछी, सोभा, सहसौं, पौनों, पाउस, साँप, चाँदी, बरसा।
उत्तर:
MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 5 प्रकृति-चित्रण img-1

प्रश्न 2.
निम्नलिखित पंक्तियों के सामने अलंकारों के कुछ विकल्प दिए गए हैं। सही विकल्प छाँटकर लिखिए
(अ) बरन-बरन तरु फूले उपवन वन। (उपमा/यमक/अनुप्रास)
(आ) मेरे जान पौनों सीरी ठौर का पकरि कौंनो, घरी एक बैठि कहुँ, घामै वितवत है। (उत्प्रेक्षा/रूपक/उपमा)
(इ) माँ के उर पर शिशु सा, समीप सोया धारा में एक द्वीप। (उत्प्रेक्षा/रूपक/उपमा)
उत्तर:
(अ) अनुप्रास
(आ) उत्प्रेक्षा
(इ) उपमा।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित पंक्तियों में अलंकार पहचानकर लिखिए
(क) चन्द के भरम होत मोद है कमोदिनी को।
(ख) ससि संक पंकजिनी फूलि न सकति है।
मेरे जान पौनों, सीरी ठौर कौं पकरि कौंनो।
घरी एक बैठि कहूँ घामै वितवत है।
उत्तर:
(क) तथा
(ख) पंक्तियों में भ्रम से निश्चयात्मक स्थिति होने के कारण भ्रान्तिमान’ अलंकार है।

प्रश्न 4.
कविवर पन्त के संकलित अंश से मानवीकरण के कुछ उदाहरण छाँटकर लिखिए।
उत्तर:

  1. सैकत शैया पर दुग्ध धवल, तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म विरल लेटी है श्रान्त, क्लान्त, निश्चल।
  2. विस्फारित नयनों से निश्चल, कुछ खोज रहे चल तारक दल।
  3. दो बाहों से दूरस्थ तीर, धारा का कृश कोमल शरीर। आलिंगन करने को अधीर।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित पंक्तियों में शब्द गुण पहचान कर लिखिए
(अ) गुंजत मधुप गान गुण गहियत है।
आवै आस पास पुहुपन की सुवास सोई
सौंधे के सुगन्ध माँझ सने रहियत है।
(आ) मेरे जान पौनों सीरी ठौर कौं पकरि कौंनो,
घरी एक बैठि कहूँ घामै वितवत है।
उत्तर:
(अ) माधुर्य गुण
(आ) प्रसाद गुण।

प्रश्न 6.
इस पाठ से पुनरुक्तिप्रकाश के उदाहरण छाँटकर लिखिए।
उत्तर:
(i) बरन-बरन तरू फूले उपवन-वन।
(ii) गोरे अंगों पर सिहर-सिहर लहराता तार तरल सुन्दर।
(iii) लहरों के घूघट से झुक-झुक, दशमी की राशि निज तिर्यक मुख। दिखलाता, मुग्धा सा रुक-रुक।
(iv) डांडों के चल करतल पसार, भर-भर मुक्ताफल फेन स्फार, बिखराती जल में तार हार।
(v) लहरों की लतिकाओं में खिल सौ-सौ शशि सौ-सौ उहै झिलमिल।
(vi) ज्यों-ज्यों लगती नाव पार।

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प्रश्न 7.
आवन कहयो है मनभावन सु, लाग्यो तरसावन विरह जुर जोर तें। ………..में कौन-सा रस है?
उत्तर:
इस पद्यांश में वियोग शृंगार रस है।

ऋतु वर्णन भाव सारांश

रीतिकाल की परम्परा से परे काव्य सृजन करने वाले सेनापति ने प्रकृति का अद्वितीय वर्णन किया है। आपने बड़े सूक्ष्म, चमत्कृत एवं कलात्मक ढंग से प्रकृति का वर्णन किया है। आपने ऋतुराज बसन्त के मनोरम सौन्दर्य, ग्रीष्म की भयंकर तपन, वर्षा की आर्द्रता, शरद की निर्मलता, शिशिर की शीतलता का स्वाभाविक एवं हदयस्पर्शी अंकन किया है। आपके काव्य में लाक्षणिकता, प्रौढ़ता, सानुप्रासिकता का सौन्दर्य सर्वत्र देखा जा सकता है। ऋतु वर्णन में उनके उस कौशल का प्रत्यक्ष प्रभाव प्रस्तुत है।

ऋतु वर्णन संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

[1] बरन बरन तरु फूले उपवन वन,
सोई चतुरंग संग दल लहियत है।
बन्दी जिमि बोलत विरद वीर कोकिल है,
गुंजत मधुप गान गुन गहियत है।
आवे आस पास पुहुपन की सुबास सोई,
सौंधे के सुगन्ध माझ सने रहियत है।
सोभा को समाज ‘सेनापति’ सुख साज आजु
आवत बसन्त रितुराज कहियत है ।।1।। (2008)

शब्दार्थ :
बरन-बरन = विभिन्न रंगों के; तरु = वृक्ष ; सोई = वही; चतुरंग = चतुरंगिणी सेना (चार प्राकर की सेना-हाथी, घोड़ा, रथ, पैदल); दल सेना; लहियत = शोभायमान होना; बन्दी = चारण, भाट; जिमि = जिस प्रकार; विरद = प्रशंसा, बड़ाई; कोकिल = कोयल; मधुप = भीरा; पुहुपन = फूलों की; सुबास = सुगन्ध; माझ = में; सने = सुवासित; रहियत = रहता है; रितुराज = ऋतुओं का राजा, बसन्त; सने = सुगन्धित।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्य हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘प्रकृति चित्रण’ पाठ के ‘ऋतु वर्णन’ शीर्षक से उद्धृत है। इसके रचयिता कविवर सेनापति हैं।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यांश में बसन्त के आगमन का मनोहारी अंकन है।

व्याख्या :
बसन्त ऋतु को ऋतुराज कहा जाता है। इसमें बसन्त ऋतु को राजा मानकर उसका वर्णन किया गया है। जिस प्रकार कोई राजा अपनी चतुरंगिणी सेना (हाथी, घोड़ा, रथ और पैदल-ये चार प्रकार की चतुरंगिणी सेना) को लेकर प्रस्थान करता है, उसी प्रकार ऋतुराज बसन्त भी अनेक प्रकार के रंग-बिरंगे फूलों को जो वन-उपवन में खिले हैं, लेकर उपस्थित हुआ है। तात्पर्य यह है कि बसन्त ऋतु में वन-उपवन में सर्वाधिक फूल खिलते हैं। जिस प्रकार राजाओं का गुणगान करने बन्दी, भाट, चारण उनकी विरुदावली गाते आगे-आगे चलते हैं, उसी प्रकार भ्रमर और कोकिल [जार और कुहू कुहू की ध्वनि कर रहे हैं, वे ऋतुराज बसन्त की अगवानी में मानो उसका यशोगान कर रहे हैं। जिस प्रकार राजा के आने पर सर्वत्र प्रसन्नता छा जाती है, उसी प्रकार ज्यों-ज्यों बसन्त ऋतु पास आने लगती है फूलों की सौंधी-सौंधी सुगन्ध से ऋतु ओत-प्रोत रहती है। कवि सेनापति कहते हैं कि यह शोभायात्रा सुख को सज्जित करती है अर्थात् सुख को और बढ़ाती है। ऐसी बसन्त रूपी राजा की शोभायात्रा अपने सभी साज-सज्जा से सुसज्जित होकर पृथ्वी पर पदार्पण कर रही है। बसन्त नहीं, वरन् बसन्त रूपी राजा ही मानो आ गया है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. इस पद में सांगरूपक अलंकार है। सांगरूपक में उपमान के समस्त अंगों का आरोप उपमेय में होता है। यहाँ पर राजा उपमान है और बसन्त ऋतु उपमेय।
  2. वर्णों की आवृत्ति से छेकानुप्रास है।
  3. ‘स’ वर्ण की आवृत्ति से वृत्यानुप्रास है।
  4. व्यंजन शब्द-शक्ति है।
  5. माधुर्य शब्दगुण है। मनहरण कवित्त छन्द है।
  6. आलम्बन रूप में प्रकृति चित्रण है।
  7. ब्रजभाषा का सुन्दर प्रयोग है।

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[2] वृष कों तरनि तज सहसौं किरन करि,
ज्वालन के जाल बिकराल बरसत हैं।
तचति धरनि, जग जरत झरनि, सीरी
छाँह को पकरि पंथी पंछी बिरमत हैं।
‘सेनापति’ नैकुंदुपहरी के ढरत, होत
धमका विषम, ज्यौं न पात खरकत हैं।
मेरे जान पौनों सीरी ठौर को पकरि कोनों
घरी एक बैठि कहूँघामै बितवत हैं।।2।। (2009)

शब्दार्थ :
वृष राशि का एक नाम, वृषभ राशि; सहसौं = हजारों; तरनि= सूर्य; बिकराल = भयंकर; तचति-धरनि = पृथ्वी तप रही है; झरनि = ताप, गिराने वाली; सीरी = ठण्डी; पंथी = राहगीर; पंछी = पक्षी; बिरमत = विश्राम करना; नैकु = थोड़ी; धमका = उमस; विषम = भयानक; पात = पत्ते; खरकत = खटकना (हिलना); मेरे जान = मेरी समझ से; पौनों = हवा; घरी = क्षण; ठौर = स्थान; घामै = गर्मी; बितवत = बिताना, व्यतीत करना।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि ने प्रस्तुत पद्यांश में ग्रीष्म ऋतु की भयंकरता का सजीव चित्रण किया है। साथ ही साथ जीव एवं दुनिया पर ग्रीष्म के ताप के भयंकर प्रभाव का सजीव चित्रण प्रस्तुत है।

व्याख्या :
यहाँ पर कवि सेनापति ग्रीष्म की प्रचण्ड गर्मी का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वृष राशि पर सूर्य स्थित है। (ज्योतिष की मान्यता के अनुसार जब वृष राशि पर सूर्य आ जाता है तो भीषण गर्मी पड़ती है।) उसकी सहस्रों तेजस्वी किरणों के समूह से ऐसी भीषण गर्मी पड़ रही है, मानो भयंकर ज्वालाओं के जाल अर्थात् लपटों के समूह अग्नि की वर्षा कर रहे हों। पृथ्वी भी गर्मी की अधिकता से तप रही है। अग्नि की तीव्रता से संसार जल रहा है। यात्री और पक्षी ठण्डी छाया को ढूँढ़कर विश्राम करते हैं। सेनापति कहते हैं कि तनिक दोपहर ढलते ही विकराल गर्मी के कारण सन्नाटा हो जाता है कि पत्ता तक नहीं खड़कता, अर्थात् सर्वत्र सुनसान हो जाता है। कोई भी बाहर नहीं निकलता। ऐसी गर्मी में हवा भी नहीं चलती है कि कुछ शीतलता मिले। कवि कहते हैं कि मेरी समझ में तो हवा भी गर्मी से घबरा कर कोई ठण्डा-सा कोना ढूँढ़कर छिप गयी है और कहीं ऐसी जगह में गर्मी बिता रही है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. इस पद में कवि ग्रीष्म ऋतु की गर्मी की विकरालता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जब वृष राशि पर सूर्य होता है तो उसकी तेजस्वी हजारों किरणों का समूह आग की लपटों के जाल की तरह भयंकर रूप से गर्मी बरसाता है।
  2. यहाँ अनुप्रास और उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग दृष्टव्य है। हवा का मानवीकरण है। कवित्त छन्द एवं भाषा ब्रजभाषा है।
  3. लक्षणा शब्द शक्ति है।
  4. प्रकृति का आलम्बन वर्णन है।

[3] दामिनी दमक, सुरचाप की चमक, स्याम
घटा की झमक अति घोर घनघोर तैं।
कोकिला, कलापी कल कूजत हैं जित तित
सीतल है हीतल, समीर झकझोर तैं।
‘सेनापति’ आवन कह्यो है मनभावन, सु।
लाग्यो तरसावन विरह जुर जोर तें।
आयो सखी सावन, मदन सरसावन
लाग्यो है बरसावन सलिल चहुँ ओर तैं ।।3।।

शब्दार्थ :
दामिनी दमक = बिजली की चमक; सुर = इन्द्रधनुष; कलापी = मयूर; हीतल = हृदय तल; मनभावन = प्रियतम कोकिला= कोयल; जित-तित = जहाँ-तहाँ; सीतल = ठण्डा; समीर = वायु; विरह-जुर = वियोगरूपी ज्वर (रूपक); मदन= कामदेव, काम-वासना को बढ़ाने वाला; बरसावन = बरसना; सलिल = पानी; चहुँ ओर = चारों तरफ।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्। प्रसंग-महाकवि सेनापति ने वर्षा ऋतु का मनभावन चित्रण किया है।

व्याख्या :
यहाँ पर कवि सेनापति वर्षा ऋतु का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वर्षा के कारण विरहिणी नायिका अपनी सखी से कह रही है कि इस ऋतु में चारों ओर बिजली चमकने लगी है। इन्द्रधनुष चमक रहे हैं, काली घटाएँ जोर से गर्जन कर रही हैं। घनघोर घटाएँ छाई हैं। कोयल और मयूर इधर-उधर सुन्दर वाणी में कूजन कर रहे हैं। हृदयस्थल हवा के झोंकों से शीतल है। कवि सेनापति नायिका के विरह का वर्णन करते हुए कहते हैं कि मनभावन प्रियतम वर्षा प्रारम्भ होने के पूर्व आने के लिए कह गये थे, पर अभी तक नहीं आए। अत: उनके न आने से विरह-ताप जोर से बढ़ गया है और मन को व्याकुल करने लगा है। एक सखी दूसरी से कहती है-हे सखि ! विरह के दुःख को और बढ़ाने वाला सावन चारों ओर से जल बरसाने लगा है। प्रकृति में तो वर्षा हो रही है जो मेरी कामवासना को उदीप्त कर रही है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. इसमें सभंग यमक का प्रयोग हुआ है। ‘सावन’ शब्द पद-भंग से बार-बार भिन्न-भिन्न अर्थों में आया है।
  2. इसमें प्रकृति को उद्दीपन के रूप में चित्रित किया गया है।

[4] पाउस निकास तारौं पायो अवकास, भयो
जोन्ह कौं प्रकास, सोभा ससि रमनीय कौं।
विमल अकास, होत वारिज विकास, सेना
पति फूले कास, हित हंसन के हीय कौं।
छिति न गरद, मानो रँगे हैं हरद सालि
सोहत जरद, को मिलावै हरि पीय कौं।
मत्त है दुरद, मिट्यौ खंजन दरद, रितु
. आई है सरद सुखदाई सब जीय कौं ।।4।।

शब्दार्थ :
पाउस = पावस, वर्षा ऋतु; अवकाश = छुटकारा; जोन्ह = चाँदनी; ससि = चन्द्रमा (शशि); रमनीय = रमणीय, मनोहर; विमल = निर्मल; वारिज = कमल; हीय = हृदय; छिति = पृथ्वी; गरद = धूल; हरद = हल्दी; सालि = धान; जरद = पीला; मत्त = मस्त, प्रसन्न; दुरद = द्विरद, हाथी; दरद = दर्द, पीड़ा; जीय = जीव।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
वर्षा के बाद शरद ऋतु आती है। वर्षा की गन्दगी, अंधेरापन आदि से मुक्त शरद बड़ी सुखदाई होती है। यहाँ शरद का बड़ा मनोहारी अंकन हुआ है।

व्याख्या :
वर्षा ऋतु निकल गयी है उसके जाने से वर्षा के कारण होने वाले अन्धकार, गन्दगी आदि से छुटकारा मिल गया है। स्वच्छ आकाश में चारों ओर निर्मल चाँदनी प्रकाश फैल गया है और अपनी पूरी आभा से आलोकित मनोहारी चन्द्रमा बड़ा शोभायमान लग रहा है। बादलों के न होने के कारण आकाश निर्मल दिखाई दे रहा है। कमल प्रफुल्लित हो रहे हैं। कविवर सेनापति कहते हैं कि चारों ओर श्वेत पुष्पों वाले कास फूले हुए। इससे हंसों के हृदय में बड़ी प्रसन्नता हो रही है। वर्षा में जो हंस पर्वतों की ओर चले गये थे, अब वे प्रसन्न होते हुए इस मनोरम वातावरण को और सुन्दर बना रहे हैं।

धरती पर धूल नहीं छाई है। चारों ओर पीली-पीली धान पकी फसलों को देखकर ऐसा लगता है मानो उन्हें हल्दी से रंगकर पीला कर दिया हो। विरहिणी नायिका कहती है कि इस प्रकार की उत्तेजक ऋतु में मेरे प्रियतम को कौन बुलाए। मादक बना देने वाली उस शरद ऋतु में हाथी मदमस्त हो रहे हैं। गर्मी से दुःखी होकर पलायन कर गये खंजन पक्षियों की पीड़ा मिट गयी है। अब वे अपने देश में लौट आये हैं। इस प्रकार सभी जीवों को सुख देने वाली शरद ऋतु आ गई है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. इसमें शरद ऋतु के सुखद आगमन का चित्रण हुआ है जिसमें धरती, आकाश सभी में निर्मलता, मनोरमता छाई है।
  2. अनुप्रास, उत्प्रेक्षा अलंकारों तथा पद-मैत्री की छटा अवलोकनीय है।
  3. प्रकृति का उद्दीपन रूप में अंकन हुआ है।

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[5] सिसिर में ससि को सरूप पावै सविताऊ,
घाम हूँ में चाँदनी की दुति दमकति है।
सेनापति होत सीतलता है सहस गुनी,
रजनी की झाँई वासर में झलकति है।
चाहत चकोर सूर और दृग छोर करि,
चकवा की छाती तजि धीर धसकति है।
चंद के भरम होय मोद है कुमोदिनी को,
ससि संक पंकजिनी फूलि न सकति है ।।5।।

शब्दार्थ :
सिसिर = (शिशिर) शीत ऋतु; सविताऊ = सूर्य भी; घाम = धूप; दुति = चमक; दमकति = चमकती; सहस गुमी = हजारों गुनी, बहुत अधिक; झाँई = छाया; वासर = दिन; धसकति = दिल बैठ जाना, निराशा, नीचे की ओर धंसना; मोद = आनन्द; संक= सन्देह; पंकजिनी = कमलिनी; ससि = चन्द्रमा।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यांश में शीत ऋतु की सजीव झाँकी प्रस्तुत की गयी है। साथ ही शिशिर के प्रभाव का मर्मस्पर्शी चित्रण है।

व्याख्या :
शिशिर ऋतु में ठण्ड बढ़ जाती है और वातावरण में इतनी अधिक शीतलता . होती है कि सूर्य भी चन्द्रमा का रूप धारण कर लेता है अर्थात् चन्द्रमा के समान शीतल लगता है। धूप भी चाँदनी की चमक प्रतीत होती है (धूप भी चाँदनी के समान लगती है)। सेनापति कहते हैं कि ठण्ड हजार गुनी बढ़ जाती है और दिन में भी रात की झलक दिखती है (सूर्य के तेज रहित होने के कारण दिन में रात की झलक दिख पड़ती है। दिन भी रात की तरह शीतल है।)

चकोर पक्षी यद्यपि चाँद का प्रेमी होता है, पर शिशिर में वह भी सूर्य की ओर अपलक दृष्टि से देखे जा रहा है। चक्रवाक पक्षी रातभर अपनी चकवी से बिछुड़ कर रहता है। शिशिर में दिन में जब रात का भ्रम होता है तो चक्रवाक पक्षी का दिल बैठने लगता है कि कहीं रात तो नहीं हो गयी और उसका धीरज छूटने लगता है। चन्द्रमा के भ्रमवश कुमुदिनी अत्यन्त प्रसन्न होती है। (वह दिन में भी सूर्य को शीतलता के कारण चाँद समझ बैठती है।) लेकिन चन्द्रमा की शंका में पड़कर कमलिनी दिन में भी विकसित नहीं हो पा रही है।

काव्य सौन्दर्य :
इस पद में इन कवि सत्यों का प्रयोग किया गया है-

  1. चकोर पक्षी चन्द्रमा को एकटक देखता है।
  2. चक्रवाक पक्षी अपनी चकवी से रात भर मिल नहीं पाता, अतः रोता रहता है। सफेद रंग की कुमुदिनी चन्द्रविकासी है; अतः रात में ही खिलती है।
  3. लाल रंग का पंकज (अरविन्द) सूर्यविकासी होता है, अतएव दिन में खिलता है। अलंकार भ्रान्तिमान, अतिशयोक्ति, सन्देह तथा अनुप्रास अलंकार का प्रयोग सहज ही हो गया है।
  4. रस-शृंगार।

नौका विहार भाव सारांश

छायावाद के प्रतिनिधि कवि सुमित्रानन्दन पन्त की ‘नौका विहार’ कविता में प्रकृति के कोमलकान्त स्वरूप का अंकन हुआ है। काला कांकर के राजभवन में निवास करते समय एक चाँदनी रात में पास ही बह रही गंगा में कवि नौका विहार करते हैं। उसी का भावात्मक अंकन इस कविता में है।

शान्त, प्रिय एवं स्निग्ध, चाँदनी से आलोकित रमणीय वातावरण में आकाश और धरती मग्न होकर सौन्दर्य का अवलोकन कर रहे हैं। इस मनोहारी वातावरण में क्षीणकाय गंगा चाँदनी से दूध के समान श्वेत बालू की सेज पर स्थिर भाव से लेटी है। उसकी हथेलियाँ चमत्कृत हैं। तापस वाला के समान निर्मल गंगा के हृदय पर तरंगों की छायारूपी बाल लहरा रहे हैं। गंगा के जल में आकाश का नीला प्रतिबिम्ब आँचल सा लग रहा है।

इस प्रकार की चाँदनी रात्रि के पहले प्रहर में कवि गंगा में नौका विहार को निकल पड़ते हैं। छोटी नौका गंगा की धारा में तैरने लगती है। काला कांकर का राजभवन गंगा के जल में प्रतिबिम्बित होता हुआ ऐसा जान पड़ता है मानो वह समग्र वैभव को समेटे हुए निश्चित भाव से सो रहा हो। आकाश के तारे पानी की लहरों में हिलते से दिख रहे हैं। तारों और चाँदनी की विविध छटाएँ जल की तरंगों में उभर रही हैं। दशमी का चन्द्रमा लहरों के घूघट से तिरछी दृष्टि से देख रहा है।

तैरती हुई नौका जब गंगा के मध्य में पहुंची तो दोनों किनारों को देखकर ऐसा प्रतीत होने लगा कि मानो वे दो बाँहें हैं जो गंगा को अपने आलिंगन में कस लेना चाहती हैं। धारा के बीच एक छोटा-सा द्वीप है जो लहरों के प्रवाह को रोक रहा है। वह शान्त द्वीप चाँदनी रात में माँ की छाती से चिपककर सोए बच्चे जैसा लगता है। प्रिया चकवी से बिछुड़ा चकवा पानी में अपनी ही परछाईं देखकर चकवी समझ बैठता है और उसे पकड़ने को दौड़ पड़ता है।

पतवार घुमाने पर नाव विपरीत धारा में घूम गई जिससे श्वेत बुलबुले उठने लगे। उन्हें देखकर लगा कि मानो तारों का हार बिखर गया है या तरंगों रूपी लताएँ खिल रही हैं अथवा सैकड़ों-सैकड़ों चन्द्रमा एवं तारे झिलमिला रहे हैं। जैसे-जैसे नाव किनारे पर आने लगी वैसे-वैसे ही रहस्य उजागर होता है कि गंगा की धारा के समान ही यह जीवन शाश्वत है। प्रमाणित हो गया कि जन्म-मृत्यु के आर-पार आत्मा अमर है। इस प्रकार जीवन सम्बन्धी दर्शन के साथ कविता समाप्त होती है।

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नौका विहार संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

[1] शान्त, स्निग्ध, ज्योत्सना, उज्ज्वल।
अपलक अनन्त, नीरव भूतल।
सैकत शैया पर दुग्ध धवल, तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म विरल
लेटी हैं श्रान्त, क्लान्त, निश्चल
तापस बाला गंगा निर्मल, शशि, मुख से दीपित मृदु करतल,
लहरे उर पर कोमल कुन्तल।
गोरे अंगों पर सिहर सिहर लहराता तार तरल सुन्दर,
चंचल अंचल सा नीलाम्बर
साड़ी की सिकुड़न सी जिस पर, शशि की रेशमा विभा से भर,
सिमटी है वर्तुल, मृदुल लहर। (2013)

शब्दार्थ :
स्निग्ध = चिकनी, स्नेह युक्त; ज्योत्सना = चाँदनी; अपलक = बिना पलक झपके अनन्त = आकाश; नीरव = शान्त; सैकत शैया = बालू की सेज; धवल = सफेद; तन्वंगी= दुबली-पतली; विरल = पतली; श्रान्त = शान्त क्लान्त = थकी हुई; तापस बाला = तपस्वी की कन्या; दीपित = प्रकाशित; कुन्तल = बाल; नीलाम्बर = नीला आकाश; विभा = कान्ति; वर्तुल = गोलाकार, चक्राकार।

सन्दर्भ :
यह पद्यांश प्रकृति के कुशल चितेरे तथा श्रेष्ठ विचारक श्री सुमित्रानन्दन पन्त की ‘नौका विहार’ कविता से अवतरित किया गया है।

प्रसंग :
इस पद्यांश में नौका विहार प्रारम्भ करने से पूर्व श्वेत चाँदनी से चमत्कृत क्षीण धारा वाली गंगा का वर्णन किया गया है।

व्याख्या :
शान्त, प्रिय तथा चिकनी, श्वेत चाँदनी चारों ओर फैली है। इस रम्य वातावरण को आकाश बिना पलकें झपके निहार रहा है तथा पृथ्वी शान्त भाव से दत्तचित्त होकर देख रही है।

इस प्रकार के शान्त तथा मनोहारी वातावरण में गर्मी के कारण दुबली-पतली हो, क्षीणकाय गंगा बालू की दूध के समान श्वेत सेज पर शान्त, थकी हुई तथा स्थिर भाव से लेटी हुई है। तपस्वी कन्या जैसी पवित्र गंगा की कोमल हथेलियाँ चन्द्रमा की चाँदनी से चमत्कृत हो रही हैं। उस गौर वर्ण वाली गंगा रूपी बाला के हृदय पर लहरों की छाया रूपी कोमल बाल लहरा रहे हैं। श्वेत जल युक्त गंगा गौर वर्ण वाली सुन्दरी है। उसके श्वेत जल में प्रतिबिम्बित होता हुआ नीला आकाश लहरों के कारण आँचल के समान लहरा रहा है।

वह गंगा के शरीर को छूकर सिहरन का अनुभव करता है और तार-तार की तरह तरल होकर चंचल बना हुआ है। भाव यह है कि आकाश की गंगाजल में पड़ने वाली परछाईं लहरों से चमत्कृत तथा विच्छिन्न-सी दिखायी देने लगी है। यह पानी में लहराता आकाश के प्रतिबिम्ब गंगारूपी नायिका का आँचल जैसा प्रतीत होता है। उस पर गंगाजल की गोल आकाश वाली लहरें चन्द्रमा की रेशमी कान्ति से भर कर साड़ी की सिकुड़नों की तरह सिमटी हुई हैं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. ग्रीष्म ऋतु में पतली धार वाली गंगा का चाँदनी से प्रकाशित रात्रि में सुन्दर दृश्य अंकित किया है।
  2. छायावादी प्रवृत्तियों के अनुपम सौन्दर्य का सूक्ष्म चित्रण हुआ है।
  3. मानवीकरण, उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश आदि अलंकारों का सौन्दर्य दृष्टव्य है।
  4. कोमलकान्त पदावली से युक्त भावानुरूप भाषा का प्रयोग किया गया है।

[2] चाँदनी रात का प्रथम प्रहर,
हम चले नाव लेकर सत्वर
सिकता की सस्पित सीपी पर, मोती की ज्योत्सना रही विचर,
लो, पालें चढ़ी, उछा लंगर
मृदु मन्द-मन्द मन्थर-मन्थर, लघु तरणि हंसनि सी सुन्दर,
तिर रही खोल पालों के पर
निश्चल जल के शुचि दर्पण पर, बिंबित हो रजत पुलिन निर्भर,
दुहरे ऊँचे लगते क्षण भर
कालाकांकर का राजभवन, सोया जल में निश्चित प्रमन,
पलकों पर वैभव स्वप्न सघन।

शब्दार्थ :
सत्वर = शीघ्र; सिकता = रेती, बालू; सस्पित = मुस्कराती; ज्योत्सना = चाँदनी; मन्थर-मन्थर = धीरे-धीरे; तरणि = नौका; पर = पंख; निश्चल = शान्त; रजत = चाँदी; पुलिन = किनारे; प्रमन = प्रसन्न मन; वैभव-स्वप्न = वैभव भरे सपने।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यांश में नौका-विहार के मनोरम दृश्यों का अंकन हुआ है।

व्याख्या :
चाँदनी रात्रि का प्रथम प्रहर है। हम नौका विहार के लिए नाव लेकर शीघ्र ही चल दिये हैं। गंगा नदी की रेती पर चाँदनी इस प्रकार चमक रही है कि मानो मुस्कराती हुई खुली सीपी पर मोती चमक रहा हो। इस प्रकार की रमणीय बेला में नाव के पाल नौका विहार हेतु चढ़ा दिये गये और लंगर उठा लिया है। फलस्वरूप हमारी छोटी सी नाव एक सुन्दर हंसिनी की तरह मन्द-मन्द, मंथर पालों रूपी पंख खोलकर गंगा की सतह पर तैरने लगी है। गंगा के शान्त तथा निर्मल जल रूपी दर्पण पर प्रतिबिम्बित चाँदनी से चमकते श्वेत तट एक क्षण के लिए दोहरे ऊँचे प्रतीत होते हैं। गंगा के तट पर स्थित कालाकांकर का राजभवन जल में प्रतिबिम्बित होता हुआ इस प्रकार का प्रतीत हो रहा है मानो वैभव के अनेक स्वप्न संजाए निश्चित भाव से सो रहा हो।

काव्य सौन्दर्य :

  1. नौका विहार के समय जल में प्रतिबिम्बित तटों तथा राजभवन का रमणीय वर्णन हुआ है।
  2. शान्त रस की नियोजना तथा प्रसाद गुण एवं उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास आदि अलंकारों की शोभा अवलोकनीय है।
  3. शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है।

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[3] नौका में उठती जल हिलोर,
हिल पड़ते नभ के ओर- छोर
विस्फारित नयनों से निश्चल, कुछ खोज रहे चल तारक दल,
ज्योतित करनभ का अंतस्तल, जिनके लघु दीपों को चंचल,
अंचल की ओट किए अविरल,
फिरती लहरें लुक छिप पल पल।
सामने शुक्र की छवि झलमल, तैरती परी सी जल में कल,
रुपहरे कचों में हो ओझल।
लहरों के घूघट से झुक झुक, दशमी का शशि निज तिर्यकमुख,
दिखलाता, मुग्धा सा रुक रुक।

शब्दार्थ :
विस्फारित = पूर्णतः खुले अविरल = निरन्तर; शुक्र = शुक्र नाम का तारा; कल=सुन्दर; रुपहरे = चाँदी के कचों = बालों; तिर्यक = तिरछा, टेढा; मुग्धा = प्रेम की प्रथम अनुभूति में मग्न नायिका।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने चाँदनी रात में गंगा के चंचल जल में प्रतिबिम्बित तारों और चन्द्रमा का सौन्दर्य चित्रित किया है।

व्याख्या :
नौका चलने से हिलोर उठने के कारण गंगा के जल में प्रतिबिम्बित होते हुए तारे हिलने लगते हैं। वे चंचल तारे अपने नेत्र फाड़कर अपलक निहारते हुए, जल में प्रतिबिम्बित आकाश के हृदय को प्रकाशित करके कुछ खोजते से जान पड़ते हैं। उनके साथ ही नन्हें-नन्हें से दीपक लिए हुए निरन्तर उन (तारों) को अपने अंचल की ओट में छिपाये हुए चंचल लहरें हर पल लुकती-छिपतो फिर रही हैं।

सामने ही जल में तेज चमकते हुए शुक्र तारे की झिलमिलाती हुई छवि दिखायी देती है। वह जल में परी के समान तैरती हुई सुन्दर लगती है जो कभी अचानक ही अपने चाँदी जैसे लहराते श्वेत बालों (चाँदनी) में चमचमाती लहरों में छिपकर दृष्टि से ओझल हो जाती है। आज दशमी है। दशमी का चन्द्रमा-उसका प्रतिबिम्ब किसी मुग्धा नायिका के समान लहरों के चूंघट से अपना टेढ़ा मुँह थोड़ी-थोड़ी देर में रुक-रुककर दिखाता जाता है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. जल में प्रतिबिम्बित तारों, शुक्र की झिलमिलाहट और दशमी के चन्द्रमा के गतिशील चित्र इन पंक्तियों में अंकित हुए हैं।
  2. कोमलकान्त पदावली से युक्त पन्त की भाषा में यहाँ अद्भुत संगीतात्मकता आ गयी
  3. अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश, उत्प्रेक्षा, उपमा, मानवीकरण आदि अलंकारों का सौन्दर्य देखते ही बनता है।
  4. अन्तिम पंक्ति में लहरों की ओट से झाँकते चन्द्रमा के लिए ‘यूंघट’ से टेढ़ा मुख दिखलाती ‘मुग्धा नायिका’ का उपमान बड़ा ही सटीक बन पड़ा है।

[4] अब पहुँची चपला बीच धार, छिप गया चाँदनी का कगार।
दो बाहों से दूरस्थ तीर, धारा का कृश कोमल शरीर।
आलिंगन करने को अधीर।
अति दूर क्षितिज पर विटफ् माल, लगती भू-रेखा सी अराल,
अपलक नभ नील नयन विशाल,
माँ के उर पर शिशु सा, समीप, सोया धारा में एक द्वीप,
उर्मिल प्रवाह को कर प्रतीप,
वह कौन विहग? क्या विकल कोक, उड़ता हरने निज विरल शोक?
छाया की कोकी को विलोक।

शब्दार्थ :
चपला = चंचल नौका; दूरस्थ = दूरी पर स्थित; कृश = दुबला-पतला; विटप-माल – वृक्षों की पंक्ति; भू-रेखा = भौंह; अराल = टेढ़ी; उर्मिल = लहरों से युक्त; प्रतीप = उल्टा; कोक = चकवा।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यावतरण में चाँदनी रात में गंगा नदी की बीच धारा में नौका-विहार के समय की प्राकृतिक सुषमा को चित्रित किया गया है।

व्याख्या :
जब चंचल नौका गंगा की बीच धारा में पहुँची तो चाँदनी में चाँद-सा चमकता हुआ रेतीला कगार हमारी दृष्टि से ओझल हो गया। मैंने देखा कि गंगा के दूर-दूर तक स्थित तट फैली हुई दो बाँहों के समान लग रहे हैं, जो गंगा धारा के दुबले-पतले कोमल-कोमल नारी के शरीर का आलिंगन करने (अपने में भरकर कस लेने) के लिए अधीर हैं और उधर, बहुत दूर क्षितिज पर वृक्षों की पंक्ति है। वह पंक्ति धरती के सौन्दर्य को अपलक (बिना पलक झपकाये) निहारते हुए आकाश के नीले-नीले विशाल नयन की तिरछी भौंह के समान प्रतीत हो रही है।

पास की धारा के बीच एक छोटा-सा द्वीप है; जो लहरों वाले प्रवाह को रोककर उलट देता है। धारा में स्थित वही शान्त द्वीप चाँदनी रात में माँ की छाती पर चिपककर सो गये नन्हें बच्चे जैसा लग रहा है। और वह उड़ता हुआ.पक्षी कौन है? क्या वह अपनी प्रिया चकवी से रात्रि में बिछड़ा हुआ व्याकुल चकवा तो नहीं है? शायद वही है, जो जल में पड़े हुए प्रतिबिम्ब को देखकर उसे चकवी समझा बैठा है और विरह दुःख मिटाने के लिए उससे मिलन हेतु उड़ रहा है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. तटों के मध्य क्षीण धारा हुए क्षितिज पर स्थित वृक्ष पंक्ति, गहरे नीले आकाश, द्वीप, उड़ता चकवा आदि का सजीव अंकन हुआ है।
  2. उपमा, रूपक, मानवीकरण, भ्रान्तिमान अलंकारों का सौन्दर्य दर्शनीय है।
  3. माधुर्य गुण तथा संस्कृतनिष्ठ भाषा।

[5] पतवार घुमा अब प्रतनु भार। नौका घूमी विपरीत धार।
डांडों के चल करतल पसार,
भर-भर मुक्ताफल फेन स्फार, बिखराती जल में तार हार।
चाँदी के साँपों की रलमल, नाचती रश्मियाँ जल में चल,
रेखाओं सी खिंच तरल तरल।
लहरों की लतिकाओं में खिल, सौ-सौ शशि, सौ-सौ उ झिलमिल।
फैले फूले जल में फेनिल।
अब उथला सरिता का प्रवाह, लग्गी से ले ले सहज थाह।
हम बढ़े घाट को सहोत्साह!

शब्दार्थ :
प्रतनु = अत्यन्त क्षीण; करतल = हथेली; मुक्ताफल = मोती; फेन-स्फार = बुलबुले, झाग; रलमल = चमकती; रश्मियाँ = किरणें; उडै = तारे; लग्गी = बाँस; सहोत्साह = उत्साहपूर्वक।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यांश में चाँदनी रात में नौका विहार के समय के मनोरम दृश्यों का वर्णन हुआ है।

व्याख्या :
जब हमने पतवार को घुमाया तो हल्की नौका धारा की विपरीत दिशा में घूम गयी और लौटने लगी। ऐसी स्थिति में हमने डाण्डों रूपी हथेलियों को फैलाया तो गंगा के जल में श्वेत बुलबुले उठने लगे। उसे देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो तारों का हार पानी में बिखरकर चारों ओर फैल गया है। गंगा जल में नाचती लहरें व्याप्त चाँदनी में ऐसी प्रतीत हो रही थीं, मानो चाँदी के साँप तैर रहे हों। चारों ओर फैले झागदार गंगा जल में लहरें रूपी लताएँ खिल रही हैं। वे ऐसी लगती थीं मानो सैकड़ों-सैकड़ों चन्द्रमा, सैकड़ों-सैकड़ों तारे झिलमिला रहे हों। अब नदी का प्रवाह कम हो गया है, पानी की गहराई कम हो गयी है, इसलिए हम लग्गी से उसकी थाह लेते हुए उत्साहपूर्वक घाट की ओर बढ़ दिये हैं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. जल में उठते बुलबुले तथा पानी की लहरों का चाँदनी रात्रि में जो सौन्दर्य बढ़ गया है; उसका रमणीय चित्रण यहाँ हुआ है।
  2. नौका विहार के बंदलते विविध रूपों की साकार अभिव्यक्ति हुई है।
  3. उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, मानवीकरण तथा अनुप्रास अलंकारों की छटा अवलोकनीय
  4. भाव के अनुरूप साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है।

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[6] ज्यों ज्यों लगती है नाव पार, उर में आलोकित शत विचार
.इस धारा-सा ही जग का क्रम,
शाश्वत इस जीवन का उद्गम,
शाश्वत है गति, शाश्वत संगम
शाश्वत नभ का नीला विकास,
शाश्वत शशि का यह रजत हास
शाश्वत लघु लहरों का विलास,
हे जग-जीवन के कर्णधार !
चिर जन्म मरण के आर-पार, शाश्वत जीवन नौका विहार,
मैं भूल गया अस्तित्वज्ञान, जीवन का यह शाश्वत प्रमाण,
करता मुझको अमरत्व दान। (2008)

शब्दार्थ :
आलोकित = चमत्कृत; शत = सैकड़ों;शाश्वत = सनातन, चिरन्तन; उद्गम = प्रारम्भ, उत्पत्ति; संगम = मिलन; विलास = क्रीड़ा, विहार।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यांश में समस्त संसार की सतत् प्रवाहवान धारा के समान और जीवन को नौका विहार के रूप में अंकित किया गया है।

व्याख्या :
जैसे-जैसे नाव किनारे पर आती जा रही है, वैसे ही वैसे मेरे मन में विविध प्रकार के सैकड़ों विचार उठ रहे हैं। मैं सोच रहा हूँ कि इस जग का निरन्तर गतिवान क्रम भी इस (नदी की) धारा के समान ही चलता रहने वाला है। गंगा की इस धारा के जल (जीवन) की तरह ही इस जीवन की उत्पत्ति सनातन है। इसकी गति भी चिरन्तन है। इस जगत की धारा के साथ जीवन का संयोग (मिलन) भी शाश्वत है। नीले प्रकाश की विविध क्रीड़ाएँ भी कभी समाप्त नहीं होती हैं। चन्द्रमा की चाँदी के समान हँसी भी अनन्त है तथा छोटी-छोटी लहरों की (मनोरम) क्रीड़ाएँ भी नित्य हैं, अनन्त हैं।

हे संसाररूपी जीवन धारा के नाविक (जीवन की नौका खेने वाले) परमात्मा ! मैं तो अनुभव करता हूँ कि इस नित्य जन्म तथा मरण के आर-पार (इस ओर, उस ओर तथा सभी ओर) इस जीवनरूपी नौका का विहार नित्य है। इस विचारशील अवस्था में मैं अपने अस्तित्व (विद्यमानता) का ज्ञान ही भूल गया हूँ। मुझे स्वयं की विद्यमानता का बोध नहीं है। इस धारा के रूप में मैंने जीवन का चिरन्तन प्रमाण प्राप्त कर लिया है। इस प्रमाण ने मुझे अमरता प्रदान कर दी है। मुझे अनुभव हो रहा है कि मृत्यु तथा जन्म के आर-पार मैं अमर हूँ, मैं कभी समाप्त नहीं हूँगा।

काव्य सौन्दर्य :

  1. कवि ने गंगा की धारा तथा नौका विहार के द्वारा जगत तथा जीवन के सतत् संयोग तथा चिरन्तनता का प्रतिपादन किया है।
  2. यहाँ दार्शनिक चिन्तन की प्रधानता है।
  3. भावानुरूप शुद्ध तथा साहित्यिक भाषा अपनायी है।
  4. उपमा, रूपक, अनुप्रास, रूपकातिशयोक्ति अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है।

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MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 6 शौर्य और देश प्रेम

MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 6 शौर्य और देश प्रेम

शौर्य और देश प्रेम अभ्यास

शौर्य और देश प्रेम अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भूषण ने अपने छन्दों में किन-किन राजाओं की प्रशंसा की है? (2017)
उत्तर:
भूषण ने अपने छन्दों में छत्रपति शिवाजी तथा महाराज छत्रसाल की प्रशंसा की है।

प्रश्न 2.
शिवाजी के नगाड़ों की आवाज सुनकर राजाओं की क्या दशा होती है?
उत्तर:
शिवाजी के युद्ध के नगाड़ों की आवाज से भयभीत राजा थर-थर काँपने लगते हैं, तथा उनका हृदय दहल जाता है।

प्रश्न 3.
दिनकर जी ने जनता को जगाने के लिए किसका आह्वान किया है? (2016)
उत्तर:
दिनकर जी ने जनता को जगाने के लिए क्रान्तिकारी कविता का आह्वान किया है।

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शौर्य और देश प्रेम लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
“तीन बेर खाती थीं, वेतीन बेरखाती हैं।” पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए। (2014)
उत्तर:
शिवाजी के शौर्य तथा युद्ध कौशल से भयभीत मुगल शासकों की रानियाँ महल छोड़कर वनों में रहने के लिए विवश हैं। वहाँ वे विविध प्रकार के कष्ट सहन कर रही हैं। जब वे महलों में रहती थीं तो प्रतिदिन तीन समय प्रातः, दोपहर एवं सायंकाल विविध प्रकार के व्यंजन, फल, मेवा आदि का आस्वादन किया करती थीं। अब वे ही रानियाँ जंगलों में भटकते हुए पूरे दिन में मात्र तीन बेर (बेर का फल) खाकर ही गुजारा करती हैं।

प्रश्न 2.
‘दिनकर’ जी कैसे समाज की रचना करना चाहते हैं ? उनके द्वारा कथित समाज की तीन विशेषताएँ लिखिए। (2011, 12)
उत्तर:
प्रगतिवादी विचारधारा से प्रेरित दिनकर जी को इस समय की वर्ग विषमता से कष्ट होता है। वे देखते हैं कि निर्धन किसानों, दलितों, मजदूरों के बलिदान से विशाल भवन, उद्योग आदि खड़े हो रहे हैं और वे बेचारे दो समय की सूखी रोटी के लिए मोहताज हैं। इसलिए वे ऐसे समाज की रचना चाहते हैं जहाँ पर धनी-निर्धन, ऊँच-नीच, धर्म या सम्प्रदाय का भेद न हो, सभी प्रेमभाव से हिलमिल कर रहें, किसी प्रकार के कटुता, द्वेष आदि का विकार न हों।

‘दिनकर’ जी द्वारा कथित समाज की तीन विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

  1. नदी किनारे या कहीं भी झोंपड़ी हो या घर हो किन्तु वहाँ पर सरसता विराजमान होनी चाहिए।
  2. इस समाज के सभी लोग प्रेम भाव के साथ मिल-जुलकर रहें।
  3. इस समाज के लोगों में धार्मिक भेदभाव न हो।

प्रश्न 3.
‘लाखों क्रोंच कराह रहे हैं’ से कवि का क्या आशय है? (2008, 09)
उत्तर:
अपनी प्रिय क्रोंची के वध से आहत क्रोंच पक्षी के करुण क्रन्दन की मर्मांतक पीड़ा से उद्वेलित कवि वाल्मीकि की वाणी कविता के रूप में फूट पड़ी थी। ‘दिनकर’ जी कहना चाहते हैं कि वाल्मीकि ने तो मात्र एक क्रच पक्षी की वेदना को काव्य का रूप दिया था किन्तु आज धन, वर्ग आदि-आदि की विषमता ने समाज में अनेक क्रोंच आहत कर दिए हैं। अनेक मनुष्य असह्य पीड़ा से कराह रहे हैं। अतः इन पीड़ा से कराहते निरीह जनों की आवाज कविता के द्वारा जन-जन तक पहुँचनी चाहिए।

शौर्य और देश प्रेम दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
शिवाजी के भय से मुगल रानियों की दशा का वर्णन भूषण ने किस प्रकार किया है? (2009)
उत्तर:
शिवाजी के शौर्य का भय सर्वत्र व्याप्त है। यहाँ तक कि मुगल शासकों की जो रानियाँ विशाल महलों में आनन्दपूर्वक रहती थीं अब वे भयभीत होकर पर्वतों की गुफाओं में छिपती फिर रही हैं। जो रानियाँ मिष्ठान, मेवा, फल आदि का आस्वादन करती थीं, अब वे जंगल में वृक्षों की जड़ें खाकर ही गुजारा कर रही हैं। प्रतिदिन प्रातः, दोपहर एवं सांय तीन समय भोजन करने वाली रानियाँ अब वन में भटकते हुए मात्र तीन बेर (एक फल) खाकर ही दिन काटती हैं। रत्नजड़ित गहनों के भार से जिनके अंग थक जाया करते थे, वे रानियाँ भूख के कारण सुस्त रहती हैं। अनेक दासियाँ जिनके पंखे झलती रहती थीं अब वे ही मुगल रानियाँ वन में अकेली फिर रही हैं। शिवाजी के भय के संत्रास के कारण जो रानियाँ गहनों में रत्न जड़वाती थीं, अब वे वस्त्रों के अभाव में सर्दी से ठिठुर रही हैं। उनकी दशा बड़ी दयनीय हो गयी है।

प्रश्न 2.
छत्रसाल की बरछी का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए। (2011)
उत्तर:
कविवर भूषण महाराज छत्रसाल के युद्ध कौशल के बड़े प्रशंसक रहे हैं। उन्होंने उनकी बरछी के कौशल का अद्भुत वर्णन किया है। छत्रसाल की बरछी उनकी भुजा में हर समय सुशोभित रहती है। नागिन के समान लहराती यह बरछी बड़े से बड़े शत्रु दल को खदेड़ने में समर्थ है। वह कवच और पाखरन के बीच तेजी से प्रवेश कर शत्रु को आहत कर देती है। लोहे तक को काटने में समर्थ उनकी बरछी से कटे शत्रु पक्ष के सैनिक परकटे पक्षियों की तरह पंगु बने पड़े रहते हैं। उस बरछी के सामने दुष्ट तो टिक ही नहीं पाते हैं। वे शक्तिहीन, निरीह हो जाते हैं। इस प्रकार महाराज छत्रसाल की बरछी का कौशल भयंकर है।

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प्रश्न 3.
कवि ने कविता के क्रान्तिकारी रूप का आह्वान क्यों किया है? (2013)
अथवा
‘कविता का आह्वान’ के माध्यम से दिनकर समाज की किन स्थितियों का चित्रण कर रहे हैं और क्यों? (2008, 09)
उत्तर:
आज समाज में ऊँच-नीच, धनी-निर्धन, छोटे-बड़े आदि की विषमता व्याप्त है। निर्धनों, किसानों, मजदूरों के बलिदान से विशाल महल खड़े हो गये हैं, बड़े-बड़े उद्योग निरन्तर बढ़ रहे हैं। धनी बिना काम किये ही धनवान होते जा रहे हैं; निर्धन लगातार श्रम करते हुए भी और गरीब होते जा रहा है। शोषित और शोषक की खाई निरन्तर गहरी होती जा रही है। लाखों लोग असह्य पीड़ा से कराह रहे हैं। उनकी कोई आवाज नहीं है।

अत: कवि ने कविता का आह्वान किया है कि वह क्रान्तिकारी बनकर निरीह, असहायों की आवाज को जन-जन तक पहुँचाए ताकि समाज विषमता से मुक्त होकर समरसता से ओत-प्रोत हो जाय। सभी हिल-मिलकर प्रेमपूर्वक रहें। ‘दिनकर’ मानते हैं कि संवेदनशील कवि ही कविता के द्वारा क्रान्ति का बिगुल बजा सकता है और समाज में अपेक्षित परिवर्तन ला सकता है। बिना क्रान्तिकारी कविता के यह विकट समस्या हल नहीं हो पायेगी।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित पद्यांशों की प्रसंग सहित व्याख्या कीजिए
(क) दावा दुम दण्ड पर …………… सेर शिवराज हैं।
(ख) भूषण सिथिल अंग…………….. नगन जड़ाती हैं।
(ग) क्रान्तिधात्री ! कविते………… बलि होती है।
(घ) छ भूषण की भाव…………… निज युग की वाणी।
उत्तर:
(क) सन्दर्भ :
यह पद्य हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘छत्रसाल का शौर्य वर्णन’ पाठ से लिया गया है। इसके रचियता महाकवि भूषण हैं।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्य में शिवाजी के वीरतापूर्ण व्यक्तित्व की विविध प्रकार से प्रशंसा की गई हैं।

व्याख्या :
कविवर भूषण कहते हैं कि जिस प्रकार इन्द्र का जम्भासुर पर अधिकार है, सागर के जल पर बड़वाग्नि का अधिकार है, अहंकारी रावण पर श्रीराम का शासन है, बादलों पर वायु का अधिकार है, कामदेव पर शिव का शासन है, सहस्रबाहु नामक राजा पर परशुराम का अधिकार है, वन के पेड़ों पर दावानलं का अधिकार है, हिरणों के समूह पर चीते का अधिकार है, सिंह का हाथी पर अधिकार है, अन्धकार पर तेजवान सूर्य का अधिकार है, कंस पर श्रीकृष्ण का शासन है; उसी प्रकार म्लेक्ष वंश के मुगल शासक (औरंगजेब) पर वीरवर शिवाजी का शासन है।

(ख) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्य में शिवाजी के शौर्य से भयाक्रांति रानियों का प्रभावी वर्णन हुआ है।

व्याख्या :
भूषण कवि कहते हैं कि वीर शिवाजी का इतना त्रास व्याप्त है कि ऊँचे विशाल महलों में निवास करने वाली मुगल शासकों की रानियाँ भय के कारण ऊँचे-ऊँचे पर्वतों की गुफाओं में रह रही हैं। जो फल, मिष्ठान आदि का उपभोग किया करती थीं अब उन्हें पेड़ों की जड़ें खाने को मिल पाती हैं। जो रानियाँ दिन में तीन समय मिष्ठान, मेवा आदि खाया करती थीं अब वे मात्र तीन जंगली बेर खाकर ही दिन गुजारा करती हैं। जिनके अंग सुन्दर आभूषणों के भार से थक जाते थे अब उनके अंग भूख के कारण सुस्त हो रहे हैं। जिनके लिए अनेक सेविकाएँ हर समय पंखा झलती रहती थीं अब वे रानियाँ निर्जन वनों में अकेली मारी-मारी फिर रही हैं। जो अपने गहनों में नग, रत्न जड़वाती थीं वे रानियाँ वस्त्रों के बिना सर्दी में ठिठुर रही हैं।

(ग) सन्दर्भ :
यह पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में कविता का आह्वान’ नामक पाठ से अवतरित है। इसके रचयिता रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हैं।

प्रसंग :
क्रान्तिदृष्टा कवि ने इस पद्यांश में समाज की विषमता, शोषण, अन्याय आदि विकृतियों का अंकन करते हुए कविता से परिवर्तन का आह्वान किया है।

व्याख्या :
कवि कहते हैं कि हे क्रान्ति की जननी कविते! तू आज की विषम परिस्थितियों को देखकर जाग्रत हो जा। तुझमें जो दिखावटीपन है उसको नष्ट करके दूर हटा दे तथा संसार में तू चेतना की ऐसी आग लगा दे कि समाज को पतन की ओर ले जाने वाली सभी पापी एवं पाखण्डी जलकर भस्म हो जाएँ। आज धनवानों की बिजली की चकाचौंध इतनी बढ़ गयी है कि निर्धन के घर में जलने वाला दीपक उस चकाचौंध के कारण आँसू बहाने को विवश है। हे कविते! तू अपने हृदय को स्थिर करके इस रहस्य को उजागर कर दे कि विशालकाय महलों के लिए निर्धनों की झोंपड़ियों का बलिदान हो रहा है अर्थात् बिजली की चकाचौंध वाले बड़े-बड़े महल निर्धनों के शोषण से बन रहे हैं।

दिन-रात धूप-ताप और धूल में काम करने वाले किसान खेती की उपज के रूप में अपने हृदय का रक्त दे रहे हैं। उनके श्रम के बल पर शोषकों की समृद्धि की दीवारें निरन्तर बढ़ती जा रही हैं अर्थात् किसान गरीब होता जा रहा है; शोषक सम्पन्न होते जा रहे हैं। किसान के सामने पशु प्रवृत्ति वाले दानव मदमस्त होकर नंगानाच नाच रहे हैं। बाहर से आने वाले इस देश के वासियों के खून-पसीने की कमाई पर ऐश करते हैं। शोषक वर्ग निम्न वर्ग का शोषण कर रहा है।

(घ) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांश में क्रान्ति दूतों के उद्धरण देकर क्रान्तिकारी भावों की अभिव्यक्ति के लिए कविता का आह्वान किया गया है।

व्याख्या :
वीर रस के प्रख्यात कवि भूषण में विविध भाव भंगिमाओं का संचार करने हेतु कविते तू जाग उठ। फ्रांस की क्रान्ति के जनक रूसो तथा रूसी क्रान्तिकारी लेनिन के हृदय में जल उठने वाली विद्रोह की आग के रूप में तू जाग्रत हो उठ अर्थात् जैसे रूसो और लेनिन ने क्रान्ति का बिगुल फूंका था उसी प्रकार हे कविते! तू आग के रूप में तुरन्त जाग्रत हो जा। अथवा तपोवन के सुखद कुञ्जों में एक फूस की झोंपड़ी का आवास मिल जाये। जिस झोंपड़ी के तिनकों में तमसा नदी की धारा में कविता इठलाकर संचरित होती हो और प्रत्येक वृक्ष पर पक्षियों के सुमधुर स्वर में गीत गाकर पर्व मनाती कविता ध्वनित हो रही हो, वहीं मेरा घर हो। के पास में हिंगोट के पेड़ के तेल से दीपक जलाकर, वृक्षों की जड़ें, फल-फूल, धान आदि खाकर आनन्दपूर्वक रहना चाहते हैं। कवि चाहते हैं कि मनुष्यों में धर्म आदि की भिन्नता के बावजूद भी कटुता न हो। पर्वत की तलहटी में उषा काल के सुनहरे प्रकाश में सभी मिल-जुलकर भावुक भक्ति के आनन्द में लीन होकर प्रेम एवं समरसता के गीत गायें।

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शौर्य और देश प्रेम काव्य सौन्दर्य

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के तत्सम रूप लिखिए
पौन, सम्भू, कान्ह, मलिच्छ, सिब, सिथिल, आग।
उत्तर:
MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 6 शौर्य और देश प्रेम img-1

प्रश्न 2.
निम्नलिखित समोच्चरित भिन्नार्थक शब्दों को इस प्रकार वाक्यों में प्रयोग कीजिए कि उनका अर्थ स्पष्ट हो जाए
अंश-अंस, बंस वंश, शे-सेर, ग्रह गृह, छात्र क्षात्र, बात वात।
उत्तर:
(i) अंश-आमदनी का एक अंश (भाग) अपंगों को दान दे देना चाहिए।
अंस-उठे हुए अंसों (कन्धों) वाला पुरुष बहादुर होता है।

(ii) बंस-बंस (बाँस) से बाँसुरी बनती है।
वंश-कुपुत्र वंश (कुल) के यश को नष्ट कर देता है।

(iii) शेर-शेर (सिंह) जंगल का राजा होता है।
सेर-घर में प्रतिमाह चार सेर (किलो) चीनी लग जाती है।

(iv) ग्रह-प्रकाश के ग्रह (नक्षत्र) बहुत अच्छे चल रहे हैं।
गृह-मेरे गृह (घर) में चार प्राणी निवास करते हैं।

(v) छात्र-निरन्तर अध्ययनशील छात्र (विद्यार्थी) ही सफल होते हैं।
क्षात्र-शिवाजी ने औरंगजेब का विरोध कर क्षात्र (क्षत्रिय) धर्म का पालन किया था।

(vi) बात-बात (अधिक बोलना) बनाना तो कोई मोहन से सीखे।
वात-वात (वायु) विकार से शरीर में दर्द हो जाता है।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित काव्य पंक्तियों में अलंकार पहचानकर लिखिए
(अ) ‘क्रान्तिधात्रि ! कविते जाग उठ आडम्बर में आग लगा दे।’
(आ) तीन बेर खाती सो तो तीन बेर खाती हैं।
(इ) फूट फूट तू कवि कण्ठों से बन व्यापक निज युग की वाणी।
(ई) बरस सुधामय कनक वृष्टि बन ताप तप्त जन वक्षस्थल में।
उत्तर:
इन पंक्तियों में अलंकार इस प्रकार हैं-
(अ) रूपक
(आ) यमक
(इ) पुनरुक्ति प्रकाश
(ई) रूपक।

प्रश्न 4.
भूषण के संकलित अंश में से वीर रस का एक उदाहरण लिखिए।
उत्तर:
भूषण के संकलित अंश में से वीर रस का उदाहरण है-
‘राजा शिवराज के नगारन की धाक
सुनि कैते बादसाहन की छाती दरकति है।’

प्रश्न 5.
निम्नलिखित पंक्तियों में शब्द गुण लिखिए
राजा शिवराज के नगारन की धाक
सुनि कैते बादसाहन की छाती दरकति है।
उत्तर:
इन पंक्तियों में ओज गुण है।

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छत्रसाल का शौर्य वर्णन भाव सारांश

रीतिकाल के श्रृंगार प्रधान वातावरण में अपने काव्य के द्वारा वीर रस को साकार करने का श्रेय कविवर भूषण को जाता है। उन्होंने अपने काव्य के नायक वीर शिवाजी और छत्रसालं जैसी विभूतियों को बनाया। इन छन्दों में कवि ने शिवाजी के शौर्य, युद्ध कौशल, निर्भीकता, तेज आदि का प्रभावी वर्णन किया है। शिवाजी म्लेक्षों पर वैसे ही शेर की सी गर्जना कर शासन करते हैं जैसे अहंकारी रावण पर श्रीराम, कामदेव पर शिव, सहस्रबाहु पर परशुराम और कंस पर श्रीकृष्ण का अधिकार है। उनके युद्ध नगाड़ों की धाक से बड़े-बड़े बादशाह भयभीत हो उठते हैं। विजयपुर, गोलकुण्डा आदि के शासक शिवाजी के भय से काँपते हैं। उनके भय से डरकर महलों में रहने वाली बेगमें भी विलासी जीवन त्यागकर कष्टमय जीवन बिता रही हैं। महाराजा छत्रसाल की वीरता एवं उनका शौर्य अद्भुत है। उनकी बरछी के करतब इतने प्रभावी हैं कि शत्रु पक्ष हताश हो उठता है, दुष्ट लोग शक्तिहीन हो जाते हैं।

छत्रसाल का शौर्य वर्णन संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

[1] इन्द्र जिमि जम्भ पर बाड़व सुअम्भ पर,
रावन सदम्भ पर रघुकल राज हैं।
पौन वारिवाह पर सम्भु रनिनाह पर,
ज्यों सहस्त्रबाहु पर राम द्विजराज हैं।
दावा दुम दंड पर चीता मृगझुण्ड पर,
भूषण वितुण्ड पर जैसे मुगराज हैं।
तेज तम अंस पर कान्ह जिमि कंस पर,
त्यौं मलिच्छ बंस पर सेर शिवराज हैं।।

शब्दार्थ :
जिमि = जिस प्रकार; जम्भ = जम्भासुर, जम्भ नाम का राक्षस; बाड़व = बड़वाग्नि, पानी में लगने वाली आग; सुअम्भ = उत्तम जल; सदम्भ = अहंकारी; रघकुल राज = श्रीराम पौन = पवन, वायु; वारिवाह = बादल; सम्भु = शिव; रनिनाह = रति के पति, कामदेव; राम द्विजराज = परशुराम; दावा = दावानल, वन में लगने वाली आग; दुम दंड = पेड़ों के तने; मृगझुण्ड = हिरणों का समूह; वितुण्ड = हाथी; मृगराज = शेर; तम अंस= अंधकार का भाग; कान्ह = श्रीकृष्ण; मलिच्छ = म्लेक्ष, यवन।

सन्दर्भ :
यह पद्य हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘छत्रसाल का शौर्य वर्णन’ पाठ से लिया गया है। इसके रचियता महाकवि भूषण हैं।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्य में शिवाजी के वीरतापूर्ण व्यक्तित्व की विविध प्रकार से प्रशंसा की गई हैं।

व्याख्या :
कविवर भूषण कहते हैं कि जिस प्रकार इन्द्र का जम्भासुर पर अधिकार है, सागर के जल पर बड़वाग्नि का अधिकार है, अहंकारी रावण पर श्रीराम का शासन है, बादलों पर वायु का अधिकार है, कामदेव पर शिव का शासन है, सहस्रबाहु नामक राजा पर परशुराम का अधिकार है, वन के पेड़ों पर दावानलं का अधिकार है, हिरणों के समूह पर चीते का अधिकार है, सिंह का हाथी पर अधिकार है, अन्धकार पर तेजवान सूर्य का अधिकार है, कंस पर श्रीकृष्ण का शासन है; उसी प्रकार म्लेक्ष वंश के मुगल शासक (औरंगजेब) पर वीरवर शिवाजी का शासन है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. इस छंद में भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ पुरुषों, प्राकृतिक तथ्यों के माध्यम से शिवाजी के प्रभाव का वर्णन किया गया है।
  2. यह छन्द शिवाजी को बहुत पसंद आयो था। उन्होंने इसे 52 बार सुना था और प्रसन्न होकर कवि भूषण को 52 गाँव, 52 लाख रुपये तथा 52 हाथी उपहार में दिए थे।
  3. मालोपमा, अनुप्रास अलंकारों का सौन्दर्य दृष्टव्य है। (4) भावानुरूप ब्रजभाषा में सशक्त भावाभिव्यक्ति हुई है।

[2] चकित चकता चौंकि चौकि छै,
बार-बार दिल्ली दहसति चितै चाह करसति है।
बिलखि बदन बिलखात बिजैपुर पति,
फिरत फिरंगिन की नारी फरकति है।।
थर थर काँपत कुतुबशाह गोलकुण्डा,
हहरि हबम भूप भीर भरकति है।
राजा शिवराज के नगारन की धाक,
सुनि कैते बादसाहन की छाती दरकति है।।

शब्दार्थ :
चकित = भौंचक्के; दहसति = भयभीत; चाह = खबर; करसति = कर्षित होती है, निकलती है; बिलखि = व्याकुल; बदन = मुख, शरीर; बिलखात = दुःखी होता है; नारी = नाड़ी; हहरि = डरकर; भरकति = भड़कती है; धाक = प्रभाव; दरकति = फट जाती है।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांश में शिवाजी के युद्ध के नक्कारों से भयभीत करने वाले रूप का वर्णन किया गया है।

व्याख्या :
शिवाजी की वीरता एवं युद्ध कौशल का इतना प्रभाव है कि उसके युद्ध के नक्कारों की आवाज सुनकर ही भय व्याप्त हो जाता है। बड़े-बड़े शासक उनके युद्ध कौशल को देखकर बार-बार आश्चर्यचकित हो उठते हैं। शिवाजी के युद्ध की खबर सुनकर ही शिवाजी के भय से दिल्ली के शासक भी भयभीत हैं। व्याकुल मुख विजयपुर के राजा अत्यन्त दु:खी हैं। उनके भय के कारण फिरंगी (विदेशी) शासकों की नाड़ी फड़कने लगती हैं। शिवाजी के शौर्य से डरकर गोलकुण्डा के कुतुबशाह थर-थर काँपते हैं। उनके डर से विलासी शासकों की भीड़ भय से भड़क उठती है। महाराज शिवाजी के युद्ध के नक्कारों की घनघोर ध्वनि सुनकर कितने ही बादशाहों की छाती फटने लगती है अर्थात् वे शिवाजी के युद्ध का संकेत सुनकर ही भयंकर रूप से डर जाते हैं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. शिवाजी के युद्ध की भयप्रद स्थिति की प्रभावशीलता का वर्णन हुआ है।
  2. पुनरुक्तिप्रकाश, अनुप्रास अलंकारों तथा पद-मैत्री की छटा अवलोकनीय है।
  3. भावानुरूप ब्रजभाषा की लाक्षणिकता ने विषय की अभिव्यक्ति को प्रभावी बना दिया है।

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[3] ऊँचे घोर मन्दिर के अन्दर रहनवारी,
ऊँचे घोर मंदिर के अन्दर रहाती हैं।
कन्दमूल भोग करें कन्दमूल भोग करें,
तीन बेर खाती सो तो तीन बेर खाती हैं।
भूषन सिथिल अंग भूखन सिथिल अंग,
बिजन डुलाती ते वे बिजन डुलाती हैं।
भूषन भनत सिवराज वीर तेरे त्रास,
नगन जड़ाती ते बे नगन जड़ाती हैं।। (2017)

शब्दार्थ :
घोर = बहुत भयानक; मन्दिर = महल, पर्वत; कन्दमूल = फल-फूल, पेड़ों की जड़ें; तीन बेर = तीन बार, तीन बेर (फल) मात्र; भूषन = आभूषण; भूखन = भूख से; सिथिल = थका हुआ, सुस्त; बिजन = पंखा, निर्जन, एकाकी; मनत= कहते हैं; त्रास = भय; नगन = रत्नों से, नग्न; जड़ाती = जड़वाती, ठिठुरती हैं।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्य में शिवाजी के शौर्य से भयाक्रांति रानियों का प्रभावी वर्णन हुआ है।

व्याख्या :
भूषण कवि कहते हैं कि वीर शिवाजी का इतना त्रास व्याप्त है कि ऊँचे विशाल महलों में निवास करने वाली मुगल शासकों की रानियाँ भय के कारण ऊँचे-ऊँचे पर्वतों की गुफाओं में रह रही हैं। जो फल, मिष्ठान आदि का उपभोग किया करती थीं अब उन्हें पेड़ों की जड़ें खाने को मिल पाती हैं। जो रानियाँ दिन में तीन समय मिष्ठान, मेवा आदि खाया करती थीं अब वे मात्र तीन जंगली बेर खाकर ही दिन गुजारा करती हैं। जिनके अंग सुन्दर आभूषणों के भार से थक जाते थे अब उनके अंग भूख के कारण सुस्त हो रहे हैं। जिनके लिए अनेक सेविकाएँ हर समय पंखा झलती रहती थीं अब वे रानियाँ निर्जन वनों में अकेली मारी-मारी फिर रही हैं। जो अपने गहनों में नग, रत्न जड़वाती थीं वे रानियाँ वस्त्रों के बिना सर्दी में ठिठुर रही हैं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. मुगल शासकों की रानियों की दयनीय दशा का वर्णन करके शिवाजी के आतंक की भयावह स्थिति का अभ्यास कराया है।
  2. यमक, पुनरुक्तिप्रकाश एवं अनुप्रास अलंकारों का सौन्दर्य दृष्टव्य है।
  3. प्रवाहमयी ब्रजभाषा में प्रवाह गुण का पुट विद्यमान है।

[4] भुज भुजगेस की बैसंगिनी भुगिनी सी,
खेदि खेदि खाती दीह दारूने दलन के।
बखतर-पाखरन बीच सि जाति मीन,
पैरि पार जात परवाह ज्यों जलन के।
रैयाराव चंपति के छत्रसाल महाराज,
भूषन सकै करि बखान को बलन के।
पच्छी परछीने ऐसे परे पर छीने बीर,
तेरी बरछी ने बर छीने हैं खलन के।।

शब्दार्थ :
भुज = भुजा; भुजगेस = शेषनाग; बैसंगिनी = आयु भर साथ देने वाली; भुजंगिनी = नागिन; खेदि = खदेड़कर; पाखरन = झूलें; परछीने = पक्ष छिन्न, परकटे; पर = शत्रु; छीने = क्षीण, कमजोर; वर = बल, शक्ति।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्य में भूषण ने महाराज छत्रसाल की बरछी के कौशल की प्रशंसा तथा उसकी शत्रुओं को नष्ट करने की भयानकता का चमत्कारी वर्णन किया है।

व्याख्या :
कवि भूषण कहते हैं कि हे रैयावराव चम्पतिराय के सुपुत्र महाराज छत्रसाल! आपकी बरछी आपके साथ सदा बाहुरूपी शेषनाग की तरह रहने वाली नागिन के समान है। यह भयंकर शत्रु दल को खदेड़कर नष्ट करती है। यह कवच और लोहे की झूलों में उसी प्रकार प्रवेश कर जाती है, जैसे मछली पानी की धारा को तैरकर पार कर जाती है। भाव यह है कि यह बरछी इतनी तेज है लोहे को भी सरलता से काट देती है। भूषण कहते हैं कि आपके बल का वर्णन कौन कर सकता है। बरछी के कटने से शत्रु की सेना के वीर परकटे पक्षी की तरह निर्बल होकर क्षीण पड़ गये हैं। हे वीर! आपकी बरछी ने दुष्टों के बल ही छीन लिये हैं अर्थात् तेरी बरछी के कौशल को देखकर शत्रु शक्तिहीन हो गये हैं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. यहाँ छत्रसाल महाराज की बरछी के कला-कौशल तथा युद्ध-कौशल का सरस अंकन हुआ है।
  2. रूपक, उपमा, उदाहरण, यमक, पुनरुक्तिप्रकाश तथा अनुप्रास आदि अलंकारों की छटा दर्शनीय है।
  3. गत्यात्मक तथा चमत्कारिक भाषा के प्रयोग से प्रभावशीलता में वृद्धि हुई है।

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कविता का आह्वान भाव सारांश

क्रांतिदर्शी कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने ‘कविता का आह्वान’ में क्रान्तिकारी परिवर्तन का आह्वान किया है। वे चाहते हैं आज के विषमता की पराकाष्ठा के युग में, कविता क्रान्ति जाग्रत कर दे। कविता को सम्बोधित करते हुए वे कहते हैं कि तू क्रान्ति की जननी बनकर जाग उठ और दिखावटी आडम्बरों का त्याग कर दे। पुनः उत्थान और विकास का मार्ग प्रशस्त कर, दीन-हीन किसानों और मजदूरों का बलिदान कर खड़े होने वाले ऊँचे भवनों, उद्योगों का जो विकास हो रहा है, वह बड़ा कष्टदायी है। शोषितों के खून-पसीने से बड़े-बड़े वैभव सम्पन्न लोग विलास कर रहे हैं। शोषक दानव बनकर मजदूर-किसानों का खून चूस रहे हैं। निर्धन निरन्तर पिस रहा है। यह विषमता की चरमावस्था है।

इसलिए हे कविता! तू इसके विरुद्ध क्रान्ति का बिगुल बजा दे। हे क्रान्तिकारी कविता! तू अपने युग की वाणी बनकर कवियों के कण्ठों से प्रस्फुटित हो उठ। निराशा के गहन अन्धकार में पड़े असहाय और मूक प्राणियों की भाषा बनकर उनमें आशा का संचार कर दे। आज अनेक दीन-हीन मर्मान्तक पीड़ा से कराह रहे हैं तू उनकी वाणी बनकर आज की आपाधापी तथा कोलाहलमय जिन्दगी को सुख और शान्तिमय बनाने का सूत्रपात कर। जहाँ तेरा वास है वही समरसता और एकता का प्रेममय वातावरण होगा। वही वातावरण धर्म आदि की भिन्नता से मुक्त एकता और प्रेम का गायन कराने वाला होगा। यह कार्य कविता ही कर सकती है।

कविता का आह्वान संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

[1] क्रांतिधात्रि ! कविते जाग उठ आडम्बर में आग लगा दे।
पतन पाप पाखण्ड जले, जग में ऐसी ज्वाला सुलगा दे।
विद्युत् की इस चकाचौंध में देख, दीप की लौ रोती है।
अरी ! हृदय को थाम महल के लिए झोंपड़ी बलि होती है।
देख कलेजा फाड़ कृषक, दे रहे हृदय शोणित की धारें।
और उठी जातीं उन पर ही वैभव की ऊँची दीवारें।
बन पिशाच के कृषक मेघ में नाच रही पशुता मतवाली।
आगन्तुक पीते जाते हैं, दीनों के शोणित की प्याली।

शब्दार्थ :
क्रान्तिधात्री = क्रान्ति की जननी; आडम्बर = दिखावटीपन; ज्वाला आग; विद्युत् = बिजली; कृषक = किसान; शोणित = रक्त; वैभव = समृद्धि; पिशाच = राक्षस; मतवाली= मदमस्त, उन्मत्त।।

सन्दर्भ :
यह पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में कविता का आह्वान’ नामक पाठ से अवतरित है। इसके रचयिता रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हैं।

प्रसंग :
क्रान्तिदृष्टा कवि ने इस पद्यांश में समाज की विषमता, शोषण, अन्याय आदि विकृतियों का अंकन करते हुए कविता से परिवर्तन का आह्वान किया है।

व्याख्या :
कवि कहते हैं कि हे क्रान्ति की जननी कविते! तू आज की विषम परिस्थितियों को देखकर जाग्रत हो जा। तुझमें जो दिखावटीपन है उसको नष्ट करके दूर हटा दे तथा संसार में तू चेतना की ऐसी आग लगा दे कि समाज को पतन की ओर ले जाने वाली सभी पापी एवं पाखण्डी जलकर भस्म हो जाएँ। आज धनवानों की बिजली की चकाचौंध इतनी बढ़ गयी है कि निर्धन के घर में जलने वाला दीपक उस चकाचौंध के कारण आँसू बहाने को विवश है। हे कविते! तू अपने हृदय को स्थिर करके इस रहस्य को उजागर कर दे कि विशालकाय महलों के लिए निर्धनों की झोंपड़ियों का बलिदान हो रहा है अर्थात् बिजली की चकाचौंध वाले बड़े-बड़े महल निर्धनों के शोषण से बन रहे हैं।

दिन-रात धूप-ताप और धूल में काम करने वाले किसान खेती की उपज के रूप में अपने हृदय का रक्त दे रहे हैं। उनके श्रम के बल पर शोषकों की समृद्धि की दीवारें निरन्तर बढ़ती जा रही हैं अर्थात् किसान गरीब होता जा रहा है; शोषक सम्पन्न होते जा रहे हैं। किसान के सामने पशु प्रवृत्ति वाले दानव मदमस्त होकर नंगानाच नाच रहे हैं। बाहर से आने वाले इस देश के वासियों के खून-पसीने की कमाई पर ऐश करते हैं। शोषक वर्ग निम्न वर्ग का शोषण कर रहा है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. वर्ग वैषम्य जनित विकृतियों के प्रति रोष व्यक्त हुआ है।
  2. दिनकर’ जी की प्रगतिवादी विचारधारा व्यक्त है।
  3. रूपक, अनुप्रास अलंकारों तथा लाक्षणिकता के पुट से अभिव्यक्ति प्रभावी बन गयी है।
  4. विषयानुरूप खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है।

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[2] उठ भूषण की भाव रंगिणी ! रूसो के दिल की चिनगारी।
लेनिन के जीवन की ज्वाला जाग जागरी क्रांतिकुमारी।
लाखों क्रोंच कराह रहे हैं जाग आदि कवि की कल्याणी।
फूट-फूट तू कवि कंठों से, बन व्यापक निज युग की वाणी।
बरस ज्योति बन गहन तिमिर में फूट मूक की बनकर भाषा।
चमक अन्ध की प्रखर दृष्टि बन, उमड़ गरीबी की बन आशा।
गूंज शान्ति की सुखद साँस सी, कलुष पूर्ण युग कोलाहल में।
बरस सुधामय कनक वृष्टि बन, ताप तप्त जन के वक्षस्थल में।
खींच स्वर्ग संगीत मधुर से जगती को जड़ता से ऊपर।
सुख की स्वर्ण कल्पना सी तू छा जाए कण-कण में भूपर।

शब्दार्थ :
रूसो = फ्रांस की राज्य क्रांति का जनक; लेनिन – सुप्रसिद्ध रूसी क्रान्तिकारी; क्रोंच – क्रोंच पक्षी के करुण क्रंदन से ही वाल्मीकि की कविता प्रस्फुटित हुई थी; आदिकविवाल्मीकि; गहन = गहरे; तिमिर = अन्धकार; कलुष = दोषमय; कोलाहल = शोर-शराबा; वृष्टि= वर्षा; ताप तप्त = ताप तपा हुआ; वक्षस्थल = हृदय; भूपर = धरती पर।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद्यांश में क्रान्ति दूतों के उद्धरण देकर क्रान्तिकारी भावों की अभिव्यक्ति के लिए कविता का आह्वान किया गया है।

व्याख्या :
वीर रस के प्रख्यात कवि भूषण में विविध भाव भंगिमाओं का संचार करने हेतु कविते तू जाग उठ। फ्रांस की क्रान्ति के जनक रूसो तथा रूसी क्रान्तिकारी लेनिन के हृदय में जल उठने वाली विद्रोह की आग के रूप में तू जाग्रत हो उठ अर्थात् जैसे रूसो और लेनिन ने क्रान्ति का बिगुल फूंका था उसी प्रकार हे कविते! तू आग के रूप में तुरन्त जाग्रत हो जा। अथवा तपोवन के सुखद कुञ्जों में एक फूस की झोंपड़ी का आवास मिल जाये। जिस झोंपड़ी के तिनकों में तमसा नदी की धारा में कविता इठलाकर संचरित होती हो और प्रत्येक वृक्ष पर पक्षियों के सुमधुर स्वर में गीत गाकर पर्व मनाती कविता ध्वनित हो रही हो, वहीं मेरा घर हो। के पास में हिंगोट के पेड़ के तेल से दीपक जलाकर, वृक्षों की जड़ें, फल-फूल, धान आदि खाकर आनन्दपूर्वक रहना चाहते हैं। कवि चाहते हैं कि मनुष्यों में धर्म आदि की भिन्नता के बावजूद भी कटुता न हो। पर्वत की तलहटी में उषा काल के सुनहरे प्रकाश में सभी मिल-जुलकर भावुक भक्ति के आनन्द में लीन होकर प्रेम एवं समरसता के गीत गायें।

काव्य सौन्दर्य :

  1. यहाँ आडम्बररहित सहज जीवन का समर्थन किया गया है।
  2. सरल, सुबोध तथा भावानुरूप भाषा में भाव को अभिव्यक्त किया गया है।

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MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 4 नीति

MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 4 नीति

नीति अभ्यास

नीति अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
बिना उपयुक्त अवसर के कही गई बात कैसी लगती है? (2015)
उत्तर:
बात करते समय अवसर के अनुरूप बात करनी चाहिए जैसे विवाह के समय दी हुई गालियाँ भी मन को प्रसन्न करती हैं। इसी प्रकार युद्ध के प्रसंग में श्रृंगार रस की बात अच्छी नहीं लगती है। अतः प्रसंगानुकूल ही बात करनी चाहिए।

प्रश्न 2.
ऐसी कौन-सी सम्पत्ति है जो व्यय करने पर बड़ती है? (2009)
उत्तर:
सरस्वती का कोश (विद्या धन) ऐसी सम्पत्ति है जो व्यय करने पर सदैव बढ़ती है।

प्रश्न 3.
सुख और दुःख को किस प्रकार ग्रहण करना चाहिए?
उत्तर:
सुख और दुःख को बड़ी शान्ति से ग्रहण करना चाहिए जिस प्रकार कि उदय होता हुआ चन्द्रमा और अस्त होता हुआ चन्द्रमा एक-सा होता है।

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नीति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
किस उदाहरण के द्वारा कवि ने यह बताया है कि कोई बुरी चीज यदि भले स्थान पर स्थित हो, तो भली लगती है?
उत्तर:
कवि ने काजल के माध्यम से बताया है कि यद्यपि काजल में मलिनता होती है। परन्तु उचित स्थान पर प्रयोग करने से उसका महत्त्व बढ़ जाता है।

प्रश्न 2.
वृक्ष के माध्यम से कवि क्या संदेश देता है? (2015, 17)
उत्तर:
वृक्ष के माध्यम से कवि ने संदेश दिया है कि सज्जन व्यक्ति दूसरों की भलाई के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर देते हैं।

प्रश्न 3.
रहीम ने ‘विपदा’ को भला क्यों कहा है? (2011, 14)
उत्तर:
रहीम ने ‘विपदा’ को इसलिए भला कहा है क्योंकि विपत्ति आने पर ही संसार में अच्छे और बुरे व्यक्ति की पहचान हो पाती है। सुख में तो सभी साथ देते हैं परन्तु विपत्ति पड़ने पर जो साथ दे वही सच्चा मित्र या व्यक्ति होता है।

प्रश्न 4.
अच्छे लोग सम्पत्ति का संचय किसलिए करते हैं?(2016)
उत्तर:
अच्छे लोग सम्पत्ति का संचय दूसरों के लिए करते हैं। जिस प्रकार वृक्ष अपने फल नहीं खाते हैं, तालाब अपना जल स्वयं नहीं पीते हैं, उसी प्रकार सज्जन भी सम्पत्ति का संचय परहित (दूसरों के हित) के लिए ही करते हैं।

नीति दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
वृन्द के संकलित दोहों के आधार पर उनके ‘नीति’ सम्बन्धी विचार दीजिए। (2012)
उत्तर:
महाकवि वृन्द ने जीवन के सम्बन्ध में गहन अनुभव किये हैं। उसी के अनुसार उन्होंने अपने दोहे में कहा है कि अवसर के अनुरूप ही सोच-समक्ष कर बात करनी चाहिए। किस अवसर पर किस प्रकार की बात करें यह अधोलिखित दोहे से स्पष्ट होता है-
फीकी पैनीकी लगै, कहिये समय विचारि।
सबको मन हर्षित करै, ज्यों विवाह में गारि ।।
नीकी पै फीकी लगै, बिन अवसर की बात।
जैसे बरनत युद्ध में, रस शृंगार न सुहात ।।

अन्य दोहे में कवि ने कपट युक्त व्यवहार के विषय में कहा है कि-
जैसे हांडी काठ की चढ़े न दूजी बार।

कपट करने से व्यक्ति का विश्वास नष्ट हो जाता है, फिर चाहे वह कितना भी अच्छा व्यवहार करे, कोई भी उसकी बात का विश्वास नहीं करेगा।
कवि वृन्द ने कहा है कि मूर्ख व्यक्ति को धैर्यवान होना चाहिए। समयानुसार कार्य पूर्ण होता है जिस प्रकार-
कारज धीरै होतु है, काहै होत अधीर।
समय पाय तरुवर फलै. केतक सींचो नीर।।

इसी प्रकार कवि ने कहा है कि मूर्ख व्यक्ति को सम्पत्ति देना व्यर्थ है क्योंकि मूर्ख व्यक्ति सम्पत्ति के महत्त्व को नहीं जानता है। उदाहरण देखें-
कहा कहाँ विधि को अविधि, भूले परे प्रबीन।
मूरख को सम्पत्ति दई, पंडित सम्पत्ति हीन।।

कवि ने सरस्वती के कोश को अपूर्व बताया है और कहा है कि एकमात्र यही धन ऐसा है जो खर्च करने से बढ़ता है और संचय करने से घटता है। उदाहरण देखें-
सरस्वति के भंडार की, बड़ी अपूरब बात।
ज्यों खरचै त्यों-त्यों बढ़े, बिन खरचै घट जात।।

कवि ने एक अन्य दोहे में यह नीति की बात समझायी है। व्यक्ति के नेत्रों को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वह आपका हितैषी है या नहीं है जिस प्रकार दर्पण में व्यक्ति की अच्छाई-बुराई स्पष्ट दिखाई देती है, उसी प्रकार नेत्र भी अच्छे-बुरे का भाव प्रकार करते हैं। उदाहरण में देखें-
“नयना देत बताय सब, हिय को हेत अहेत।
जैसे निर्मल आरसी, भली बुरी कहि देत।।”

इस प्रकार कवि वृन्द ने व्यक्ति, समाज, परिवार अच्छे-बुरे व्यवहार सम्बन्धी बातें नीति सम्बन्धी दोहों में कही हैं। ओछे व्यक्ति के सम्बन्ध में वृन्द कवि के विचार देखें-
“ओछे नर के पेट में, रहै न मोटी बात” इस प्रकार कवि ने विभिन्न नीतिपरक दोहों द्वारा मानव को शिक्षा दी हैं।

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प्रश्न 2.
वृन्द की किन शिक्षाओं को आप जीवन में अपनाना चाहेंगे?
उत्तर:
महाकवि वृन्द के दोहे जीवन-शिक्षा के लिए अपूर्व भंडार हैं। उनके द्वारा लिखा गया प्रत्येक दोहा मानव जीवन के किसी न किसी लक्ष्य को परिलक्षित करता है। कभी-कभी कवियों के द्वारा कही गयी शिक्षाप्रद बातें मानव को जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा देती हैं।

नीतिपरक दोहों के माध्यम से मानव को समयानुरूप बात करने की प्रेरणा मिलती है। वाणी का उचित अवसर का प्रयोग करके व्यक्ति सफलता प्राप्त कर सकता है।

कार्य करते समय धैर्य धारण करके ही कार्य करना चाहिए। क्योंकि कार्य करते समय जल्दबाजी उचित नहीं होती है। मूर्ख या अज्ञानी व्यक्ति को कभी भी उसके हित की बात नहीं समझानी चाहिए। क्योंकि वह व्यक्ति अर्थ का अनर्थ कर देता है।
उदाहरण देखें-
हितहू की कहिये न तिहि, जो नर होय अबोध।
ज्यों नकटे को आरसी, होत दिखाये क्रोध।।

इसी प्रकार कवि ने सरस्वती के कोश के विषय में बताया है कि यह सरस्वती का खजाना अनूठा है जो कि व्यय करने पर बढ़ता है। इस अपूर्व धन को मानव को निरन्तर व्यय करते रहना चाहिए।

इसके अतिरिक्त कवि ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने मन की बात नहीं बतानी चाहिए क्योंकि ओछे व्यक्ति के मन में कभी भी बात पचती नहीं है। उदाहरण देखें-
“ओछे नर के पेट में, रहै न मोटी बात।
आध सेर के पात्र में, कैसे सेर समात।।

इस प्रकार के सुन्दर दोहों के द्वारा कवि वृन्द ने मानव को उन्नति के पथ पर बढ़ने के लिए प्रेरित किया है।

प्रश्न 3.
‘जो रहीम ओछौ बढ़े तो अति ही इतराय’ इस पंक्ति के द्वारा रहीम क्या कहना चाहते हैं?
उत्तर:
इस पंक्ति के द्वारा रहीम कवि ने निम्न श्रेणी के व्यक्ति के विषय में बताया है कि व्यक्ति यदि छोटे पद से अचानक ही बड़े पद पर प्रतिष्ठित हो जाता है तो वह इठलाता है। ऐसी प्रवृत्ति केवल उन व्यक्तियों में होती है जिनके पास कुछ भी न हो और अचानक बहुत-सा धन सम्पत्ति या सम्मानित पद मिल जाये तो वे घमण्ड का अनुभव करते हैं। अपने गर्व से चूर होकर वे किसी से बात करना भी पसन्द नहीं करते। ऐसी प्रवृत्ति ओछे व्यक्तियों में ही होती है। अपने इस दोहे के माध्यम से कवि ने ओछे व्यक्ति की मानसिकता को इस प्रकार व्यक्त किया है-
“प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ो-टेढ़ो जाय।”

कवि ने मानव को इस पंक्ति के माध्यम से बताया है कि व्यक्ति को उच्च पद पर प्रतिष्ठित होने पर इतराना नहीं चाहिए। इससे व्यक्ति का ओछापन प्रतीत होता है।

व्यक्ति को सम्पत्ति अथवा सत्ता प्राप्त हो जाने पर घमण्ड नहीं करना चाहिए। यदि मानव घमण्ड करता है तो यह प्रवृत्ति अच्छी नहीं कही जायेगी।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित पंक्तियों की व्याख्या कीजिए-
(अ) कौन बड़ाई जलधि मिलि गंग नाम भौं धीम।
केहि की प्रभुता नहि घटी, पर घर गये रहीम।।
(आ) सरस्वति के भण्डार की बड़ी अपूरब बात।
ज्यों खरचै त्यौं त्यौं बदै, बिन खरचै घट जात।।
उत्तर:
उपर्युक्त पंक्तियों की व्याख्या सन्दर्भ सहित पद्यांशों की व्याख्या’ भाग में देखिए।

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नीति काव्य सौन्दर्य

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के तत्सम रूप लिखिएसरवर, आंगुर, गुनी, अपूरब, खरचै, ओड़े।
उत्तर:
तत्सम शब्द-सरोवर, आंगुल, गुणी, अपूर्व, खर्चे, ओढ़े।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित काव्य पंक्तियों के अलंकार पहचानिए
(अ) ज्यों खरचै त्यों त्यों बढ़े, बिन खरचे घट जात।
(आ) दीन सबन को लखत हैं, दीनहि लखै न कोय।
(इ) साँचे से तो जग नहीं, झूठे मिले न राम।
(ई) कहि रहीम परकाज हित, सम्पत्ति संचहि सुजान।
उत्तर:
(अ) विरोधाभास अलंकार।
(आ) पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार।
(इ) स्वभावोक्ति अलंकार।
(ई) अनुप्रास अलंकार।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित छंदों में मात्राएँ गिनकर छन्द की पहचान कीजिए
(अ) कारज धीरै होतु है, काहे होत अधीर।
समय पाय तरुवर फलै, केतक सींचौ नीर।।
(आ) नयना देत बताय सब, हिय को हेत अहेत।
जैसे निर्मल आरसी, भली बुरी कहि देत।।
उत्तर:
(अ) ऽ।। ऽऽ ऽ। ऽ ऽ ऽ ऽ।।ऽ । (13-11)
कारज धीरे होतु है, काहे होत अधीर।
।।। ऽ ।।।।। । ऽ ऽ ।। ऽ ऽ ऽ । (13-11)
समय पाय तरुवर फलै, केतक सींचौ नीर।।

(आ) ।। ऽ ऽ।।ऽ।।। ।। ऽ ऽ। । ऽ । (13-11)
नयना देत बताय सब, हिय को हेत अहेत।
ऽ ऽ ऽ ।। ऽ । ऽ । ऽ । ऽ ।। ऽ । (13-11)
जैसे निर्मल आरसी, भली बुरी कहि देत।।

उपर्युक्त दोनों छन्दों के प्रथम व तृतीय छन्द में 13-13 तथा द्वितीय व चतुर्थ छन्द में 11-11 मात्राएँ हैं जोकि दोहा छन्द की विशेषता है। अतः दोनों दोहा छन्द हैं।

प्रश्न 4.
रहीम के संकलित दोहों में से प्रसाद गुण सम्पन्न दोहे छाँटकर लिखिए
उत्तर:
(1) तरुवर फल नहीं खात है, सरवर पियहिं न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति संचहि सुजान।।
(2) रहिमन याचकता गहे, बड़े छोट्र बै जात।
नारायण हूँ को भयो, बावन आँगुर गात।।
(3) रहिमन मनहिं लगाइ के, देखि लेहु किन कोय।
नर को बस करिबो कहा, नारायन बस होय।।
(4) भूप गनत लघु गुनिन को, गुनी गनत लघु भूप।
रहिमन गिरि ते भूमि लौं, लखौ तो एकै रूप।।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित काव्यांश में अलंकार पहचानिए
(क) सुनहू देव रघुवीर कृपाला, बन्धु न होइ मोरि यह काला।
(ख) या अनुरागी चित्त की, गति समझे नहिं कोई।
ज्यों ज्यों बूढे स्याम रंग, त्यों त्यों उज्ज्वल होई।।
उत्तर:
(क) अपहृति।
(ख) विरोधाभास।

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वृन्द के दोहे भाव सारांश

कवि वृन्द ने अपने दोहों के माध्यम से मनुष्य को नीति की शिक्षा दी है। उन्होंने इन दोहों में बताया है कि मनुष्य को किसी से भी बात करने से पूर्व उचित अवसर देखना चाहिए। किसी को धोखा नहीं देना चाहिए। ऐसा करके व्यक्ति एक बार तो सफलता पा लेगा, किन्तु फिर कभी जीवन में सफल नहीं हो सकता। मूढ़ व्यक्ति से यदि उसके हित की बात करो तो वह भी उसे विष समान लगती है। इसलिए जो सुनने को तैयार न हो उससे उसके हित की बात नहीं करनी चाहिए। सरस्वती का ज्ञान कोष अपूर्व है। इसे जितना ही व्यय किया जाए वह उतना ही वृद्धि करता है। उचित स्थान पर तुच्छ और मलिन वस्तु भी शोभा देती है। जैसे नारी के नेत्रों में लगा हुआ काजल मलिन होते हुए भी अत्यन्त सुशोभित होता है।

वृन्द के दोहे संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

फीकी पै नीकी लगै, कहिये समय विचारि।
सबको मन हर्षित करै, ज्यों विवाह में गारि।। (1)

शब्दार्थ :
फीकी = स्वादहीन; नीकी = अच्छी; विचारि = सोच, समझकर; हर्षित = प्रसन्न; विवाह = एक संस्कार; गारि = गाली।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत दोहा ‘नीति’ पाठ के अन्तर्गत ‘वृन्द के दोहे’ शीर्षक से अवतरित है, इसके रचनाकार ‘वृन्द’ हैं।

प्रसंग :
इस दोहे में वृन्द ने यह बताया है कि किसी भी बात को समय देखकर कहना चाहिए। इससे उस बात का महत्व बढ़ जाता है।

व्याख्या :
वृन्द कवि का कथन है कि बात चाहे नीरस या कड़वी हो उसे उचित समय पर ही बोलना चाहिए इससे सुनने वाले को बात अच्छी लगेगी। जैसे विवाह के अवसर पर जो गाली गाई जाती हैं वे उसका आनन्द बढ़ा देती हैं। जबकि यदि क्रोध में कोई गाली दे तो विवाद उत्पन्न हो जाता है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. यहाँ कवि ने लोक-व्यवहार बताया है। उचित अवसर पर कई बार खराब बात भी अच्छी लगती है।
  2. फीकी नीकी ………. में अनुप्रास अलंकार है।
  3. दोहे में उत्प्रेक्षा अलंकार है।

नीकी पै फीकी लगै, बिन अवसर की बात।
जैसे बरनत युद्ध में, रस शृंगार न सुहात।। (2)

शब्दार्थ :
अवसर = मौका; युद्ध = लड़ाई; सुहात = अच्छा लगता है।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ पर कवि अच्छी बात को भी समय देखकर बोलने का सुझाव देता है।

व्याख्या :
कवि कहता है कि अच्छी बात भी समय को देखकर ही करनी चाहिए अथवा उस बात का कोई महत्व नहीं रह जाता। जैसे रणभूमि में वीर रस के गीत छोड़कर शृंगार रस के गीत गाए जाएँ तो वह महत्वहीन ही सिद्ध होंगे।

काव्य सौन्दर्य :

  1. लोक-व्यवहार के सत्य को उद्घाटित किया है।
  2. अनुप्रास और उपमा अलंकार का प्रयोग द्रष्टव्य है।

जो जेहि भावे सौ भलौ, गुन को कछु न विचार।
तज गजमुक्ता भीलनी, पहिरिति गुजाहार।। (3)

शब्दार्थ :
भावे = अच्छा लगना; गुन = गुण; तज= छोड़ना; गजमुक्ता = हाथी के मस्तक से निकलने वाला मोती।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ कवि ने बताया है कि जो वस्तु जिसे पसन्द होती है वही उसके लिए श्रेष्ठ होती है चाहे वह कितनी ही कम मूल्य की वस्तु क्यों न हो।

व्याख्या :
जो जिसको रुचिकर लगे वही अच्छा है। इसमें उस वस्तु के गुण-अवगुण अथवा मूल्य का कोई विचार नहीं होता है क्योंकि भीलनी गजमुक्ता को त्यागकर गुजाफल का हार पहनना ही पसन्द करती है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. दोहा छन्द है।
  2. ब्रजभाषा में सरल, सरस भाषा शैली है।

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फेर न हवै है कपट सो, जो कीजै व्यौपार।
जैसे हांडी काठ की चढ़े न दूजी बार।। (4)

शब्दार्थ :
कपट = छल; हांडी = बरतन; दूजी = दूसरी।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ पर कवि ने व्यापार में कपट नीति का परित्याग करने को बताया है।

व्याख्या :
यदि व्यापार करना है तो कपट व्यवहार त्याग देना चाहिए। क्योंकि यदि कपट व्यवहार किया जाता है तो उसका व्यापार पुनः उसी प्रकार नहीं चल सकता; जिस प्रकार काठ की हँडिया चूल्हे पर पुनः नहीं चढ़ाई जा सकती।

काव्य सौन्दर्य :

  1. लोक-व्यवहार का सत्य उद्घाटित किया गया है।
  2. ब्रजभाषा में सरस, सरल और प्रवाहमयी शैली है।
  3. काठ की हांडी चढे न दूजी बार-लोकोक्ति का प्रयोग है।

नयना देय बताय सब, हिय को हेत अहेत।
जैसे निर्मल आरसी, भली बुरी कहि देत।। (5)

शब्दार्थ :
नयना = नेत्र; हिय = भलाई; अहेत = बुराई; निर्मल पवित्र; आरसी = दर्पण।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ पर कवि ने बताया है कि मनुष्य के नेत्र उसके हृदय की बात को दूसरे के सम्मुख प्रकट कर देते हैं।

व्याख्या :
नेत्र हृदय के हित अथवा अनहित सभी प्रकार के भावों को व्यक्त कर देते हैं जिस प्रकार से स्वच्छ दर्पण हमारे चेहरे के सुन्दर अथवा कुरूपत्व सभी प्रकार के स्वरूप को व्यक्त कर देता है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. लोक-व्यवहार की सच्चाई का उद्घाटन है।
  2. ब्रजभाषा में दोहा छन्द है।
  3. हेत अहेत देत में अनुप्रास अलंकार है।

हितह की कहिये न तिहि, जो नर होय अबोध।
ज्यों नकटे को आरसी, होत दिखाये क्रोध।। (6)

शब्दार्थ :
तिहि = उससे; नर = मनुष्य; अबोध = नासमझ।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ पर कवि ने कहा है कि जो व्यक्ति अपने हित की बात नहीं सुनना चाहता उससे वह बात नहीं कहनी चाहिए।

व्याख्या :
यदि मनुष्य अबोध, अज्ञानी अथवा समझने वाला न हो तो उससे उसके हित की बात नहीं कहनी चाहिए। क्योंकि नाक कटे हुए व्यक्ति को दर्पण दिखाकर यदि उसका वास्तविक स्वरूप दिखाया जाए तो वह क्रोधित ही हो उठेगा।

काव्य सौन्दर्य :

  1. जीवन के लिए आवश्यक नीति वचन है।
  2. ब्रजभाषा में दोहा छन्द है। उत्प्रेक्षा अलंकार है।

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कारज धीरै होतु है, काहे होत अधीर।
समय पाय तरुवर फलै, केतक सींचो नीर।। (7) (2011, 16)

शब्दार्थ :
कारज = कार्य; तरुवर = वृक्ष; केतक = कितना; नीर = जल।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ कवि ने बताया है कि मनुष्य को उसके कार्य का फल तुरन्त नहीं मिल जाता, इसके लिए उसे प्रतीक्षा करनी पड़ती है।

व्याख्या :
कवि का कथन है कि संसार में कार्य धीरे-धीरे ही फलीभूत होते हैं। इसलिए धैर्य न खोकर समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए क्योंकि मौसम आने पर ही वृक्ष फल देते हैं। इससे पूर्व चाहे उन्हें कितना ही पानी देकर सींच लो, समय से पूर्व वे फल नहीं देते।

काव्य सौन्दर्य :

  1. ब्रजभाषा में सरस, सरल भाषा शैली है।
  2. दृष्टान्त अलंकार है।

ओछे नर के पेट में रहे न मोटी बात।
आध सेर के पात्र में कैसे सेर समात।। (8)

शब्दार्थ :
ओछे = नीच; मोटी बात = गम्भीर बात; सेर = पुराने जमाने का एक तौल (एक किलो)।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत दोहे में कवि ने तुच्छ मनुष्यों के स्वभाव के विषय में बतलाया है।

व्याख्या :
तुच्छ मनुष्य के पेट में गम्भीर बात नहीं पचती अर्थात् वह किसी रहस्य को रहस्य बनाकर नहीं रख सकता, तुरन्त दूसरों से उस बात को उगल देता है। कवि कहता है कि भला आधा सेर (किलो) के बरतन में एक सेर सामान कैसे आ सकता है अर्थात् जैसा पात्र होता है उसी प्रकार की बात उसके स्तर की होती है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. दृष्टान्त अलंकार, ब्रजभाषा, प्रसाद गुण, सहज, सरल शैली का प्रयोग है।
  2. लोक-व्यवहार के सत्य का उद्घाटन है।

कहा कहौं विधि की अविधि, भूले परे प्रवीन।
मूरख को सम्पत्ति दई, पंडित सम्पत्ति हीन।। (9)

शब्दार्थ :
विधि = विधाता; अविधि = उल्टा, विधि रहित; प्रवीन = विद्वान। सन्दर्भ-पूर्ववत्। प्रसंग-यहाँ पर कवि ने विधि की विडम्बना का उल्लेख किया है।

व्याख्या :
कवि कहता है कि विधाता की विधिरहित भाग्य रचना को क्या कहा जाए? वह प्रवीणों (बुद्धिमानों) को भूल गया है क्योंकि उसने मूरों को तो सम्पत्ति दी है और ज्ञानियों को सम्पत्तिहीन रखा है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. ब्रजभाषा में दोहा छन्द है।
  2. प्रतीप अलंकार है।

सरस्वति के भंडार की, बड़ी अपूरब बात।।
ज्यों खरचै त्यों-त्यों बढ़े, बिन खरचै घट जात।। (10) (2011)

शब्दार्थ :
अपूरब = अपूर्व, अनोखी; घट जात = कम हो जाता है।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत दोहे में कवि ने सरस्वती के भंडार की विशेषताएँ बताई हैं।

व्याख्या :
सरस्वती (ज्ञान) के भण्डार की तो बड़ी अनोखी बात है कि इस भण्डार को तो जैसे-जैसे खर्च करो वैसे-वैसे बढ़ता है और यदि नहीं खर्च करो तो कम होता जाता है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. दोहा छन्द है।
  2. ब्रजभाषा है, भाषा शैली सरल, सहज व बोधगम्य है।
  3. विरोधाभास अलंकार है।

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छमा खड्ग लीने रहे, खल को कहा बसाय।
अगिन परी तृनरहित थल, आपहिं ते बुझि जाय।। (11)

शब्दार्थ :
खड्ग = तलवार; खल = दुष्ट; बसाय = वश; तृन = तिनका, घास; थल = पृथ्वी।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत दोहे में कवि ने क्षमा की विशेषताएँ बताई हैं।

व्याख्या :
मनुष्य को सदैव क्षमा रूपी तलवार को लिए रहना चाहिए इस पर दुष्ट का कोई वश नहीं चलता। जैसे तिनका रहित भूमि पर यदि आग लग जाए तो वह स्वयं ही बुझ जाती है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. छमा खड्ग में रूपक अलंकार है।
  2. द्वितीय पंक्ति में दृष्टान्त अलंकार है।

बुरौ तऊ लागत भलो, भली ठौर परलीन।
तिय नैननि नीको लगै, काजर जदपि मलीन।। (12)

शब्दार्थ :
तऊ = तब भी; तिय = स्त्री; नीको = अच्छा; जदपि = यद्यपि; मलीन = काला।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत दोहे में कवि ने बताया है कि सही स्थान पर तुच्छ वस्तु भी भली लगती है।

व्याख्या :
यदि कोई वस्तु बुरी अथवा महत्वहीन हो किन्तु यदि वह उचित स्थान पर है तो वह भली लगती है जैसे काजल यद्यपि मलिन होता है किन्तु स्त्री के नेत्रों में वह अत्यन्त सुन्दर लगता है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. ब्रजभाषा में रचित दोहा छन्द है।
  2. नैननि नीको अनुप्रास अलंकार है।

रहीम के दोहे भाव सारांश

प्रस्तुत दोहों में रहीम ने बताया है कि सुख और दुःख में मनुष्य को समान भाव रखना चाहिए। सज्जन परोपकार के लिए सम्पत्ति का संचय करते हैं। धन कम हो अथवा अधिक हो इसका प्रभाव केवल धनिक वर्ग पर पड़ता है। घास पत्ते बेचने वाले तो सदैव एक जैसे ही रहते हैं। दीनबन्धु जैसा बनने के लिए दीनों की ओर देखना भी आवश्यक है, दूसरों के घर में रहने वाला अपनी गरिमा खो बैठता है। यदि थोड़े दिन विपदा के हों तो ठीक है। इससे कौन हमारा हितैषी है और कौन शत्रु, इसकी पहचान हो जाती है। इस प्रकार, रहीम के दोहे जीवन के अमूल्य रत्न हैं। ये जीवन में पग-पग पर मनुष्य का मार्ग निर्देशित करते हैं।

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रहीम के दोहे संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

यों रहीम सुख दुख सहत, बड़े लोग सह साँति।
उदत चन्द जेहि भाँति सो, अथवत ताही भाँति।। (1)

शब्दार्थ :
साँति = शान्ति; उदत = उदित होता हुआ; अथवत = अस्त होता हुआ।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत दोहा ‘नीति’ पाठ के अन्तर्गत ‘रहीम के दोहे’ से उद्धृत किया गया है। इसके रचयिता रहीम हैं।

प्रसंग :
प्रस्तुत दोहे में कवि ने बताया है कि महान् लोग सुख और दुःख दोनों में समान भाव से शान्तिपूर्वक रहते हैं।

व्याख्या :
रहीम कहते हैं कि महान् लोग सुख और दुःख को शान्तिपूर्वक उसी प्रकार से सहन करते हैं। जिस प्रकार से चन्द्रमा उदय होने पर जैसा रहता है, अस्त होने पर भी वह वैसा ही रहता है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. यहाँ कवि ने दुःख-सुख में शान्त रहने का उपदेश दिया है। गीता में भी कहा है ‘सुखे दुःखे समे कृत्वा।’
  2. प्रस्तुत दोहे में चन्द्रमा के उदय और अस्त होने की एकरूपता बताई गई है। इसी प्रकार अन्यत्र महापुरुषों को सूर्य की भाँति बताया है-
    उदयति सविता ताम्रो ताम्रोएव अस्तमेति।
    सम्पत्तौ च विपत्तौ महतां एकरूपताम्।।

तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पिवहिं न पान।
कहि रहीम परकाज हित संपति संचहि सुजान।। (2) (2008)

शब्दार्थ :
तरुवर = वृक्ष; सरवर = सरोवर, नदी; पान = पानी; परकाज- दूसरों के हित के लिए; संचहि = एकत्र करते हैं; सुजान = सज्जन।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस दोहे में रहीम ने परोपकार के महत्त्व को बताया है।

व्याख्या :
रहीम कहते हैं कि जिस प्रकार वृक्ष कभी अपने फल स्वयं नहीं खाते, सरोवर अपना जल नहीं पीता। उसी प्रकार सज्जन व्यक्ति भी दूसरों की भलाई के लिए ही सम्पचि का संचय करते हैं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. भावसाम्य-“वृक्ष कबहूँ नहिं फल भखै, नदी न संचै नीर
    परमारथ के कारने साधुन धरा सरीर।”
  2. दृष्टान्त अलंकार है। ब्रजभाषा का प्रयोग है।
  3. दोहा छन्द है।

कहि रहीम धन बढ़ि घटे, जात धनिन की बात।
घटै बट्टै उनको कहा घास बेचि जो खात।। (3)

शब्दार्थ :
धनिन = धनिको; कहा = क्या मतलब।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत दोहे में रहीम ने बताया है कि धन बढ़कर कम होने का प्रभाव केवल धनिक वर्ग पर पड़ता है, निर्धन वर्ग पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

व्याख्या :
रहीम कहते हैं कि धन बढ़कर कम हो जाए तो इसका प्रभाव धनिक वर्ग पर पड़ता है। धन घटे या बढ़े इसका उन लोगों पर क्या प्रभाव पड़ेगा जो घास बेचकर अपनी रोजीरोटी कमाते हैं अर्थात् उनके लिए सभी दिन एक समान हैं वे तो सदा निर्धन के निर्धन ही हैं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. लोक व्यवहार के सत्य का उद्घाटन।
  2. ब्रजभाषा है। दोहा छन्द है।

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बड़ माया को दोष यह, जो कबहू घटि जाय।
तो रहीम मरिबो भलो, दुख सहि जिये बलाय।। (4)

शब्दार्थ :
माया = धनसम्पत्ति, भौतिक पदार्थ; मरिबो = मरना।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत दोहे में कवि ने धन सम्पत्ति रूपी गया के दोष को बताया है।

व्याख्या :
रहीम कहते हैं कि माया का यह सबसे बड़ा दोष है कि यदि वह कम हो जाए तो लोग मरना पसन्द करते हैं; दुख सहकर वे जीना नहीं चाहते।

काव्य सौन्दर्य:

  1. दोहा छन्द है। ब्रजभाषा का प्रयोग है।
  2. लोक सत्य का उद्घाटन।

रहिमन याचकता गहे, बड़े छोट बै जाति।
नारायण हू को भयो बावन आँगुर गात।। (5)

शब्दार्थ :
याचकता = माँगने की प्रवृत्ति; गहे = ग्रहण करने से; गात = शरीर। सन्दर्भ-पूर्ववत्। प्रसंग-रहीम ने यहाँ पर माँगने के अवगुण के प्रभाव को बताया है।

व्याख्या :
रहीम जी कहते हैं कि माँगने की प्रवृत्ति को ग्रहण करने से बड़े लोग भी छोटे हो जाते हैं। जैसे नारायण ने जब बलि से भिक्षा माँगी तो उनका शरीर भी बावन अंगुल का हो गया था।

काव्य सौन्दर्य :

  1. लोक सत्य का उद्घाटन।
  2. दोहा छन्द, ब्रजभाषा का प्रयोग।
  3. दृष्टान्त अलंकार है।

दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय।
जो रहीम दीनहिं लखै, दीनबंधु सम होय।। (6)

शब्दार्थ :
दीन = दीन हीन; लखत – देखते हैं; दीनबन्धु = भगवान, परमात्मा।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत दोहे में रहीम ने कहा है कि दीन दुखियों के दुःख को समझने वाला मनुष्य ईश्वर के समान हो जाता है।

व्याख्या :
दीन मनुष्य अपनी दीनता भरी दृष्टि से सबको देखता रहता है (कि कोई उसकी सहायता कर दे) किन्तु दीन व्यक्ति को कोई नहीं देखता। रहीम कहते हैं कि जो मनुष्य दीनों को देखता है, वह दीनबन्धु परमेश्वर के समान हो जाता है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. संसार के सत्य का उद्घाटन।
  2. दीनों पर दया करने का संदेश दिया गया है।

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जो रहीम ओछो बढै, तो अति ही इतराय।
प्यादे सों फरजी भयो, टेढो-टेढो जाय।। (7)

शब्दार्थ :
ओछो = तुच्छ, नीच; इतराय = घमंड में अकड़ना।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ पर रहीम ने तुच्छ व्यक्ति के स्वभाव के विषय में बताया है।

व्याख्या :
रहीम कहते हैं कि यदि तुच्छ प्रवृत्ति वाला व्यक्ति ऊँची पदवी प्राप्त कर ले तो वह बहुत घमंडी हो जाता है। पैदल चलने वाला व्यक्ति यदि फरजी हो जाए तो वह टेढ़ी-टेढ़ी चाल ही चलता है। जैसाकि शतरंज के खेल में फरजी हमेशा टेढ़ी-टेढ़ी चाल चलता है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. नीच व्यक्ति की मानसिकता का वर्णन है।
  2. दृष्टान्त अलंकार और दोहा छन्द है।

कौन बड़ाई जलधि मिलि, गंग नाम भौं धीम।
केहि की प्रभुता नहि घटी, पर घर गये रहीम।। (8)

शब्दार्थ :
बढ़ाई = प्रशंसा; जलधि = समुद्र; धीम = धीमा; प्रभुता = सम्मान, गरिमा; पर घर = दूसरे के घर में।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ पर कवि ने बताया है कि दूसरे के घर में रहने से मनुष्य की गरिमा समाप्त हो जाती है।

व्याख्या :
समुद्र में मिलकर गंगा को क्या श्रेष्ठता प्राप्त हुई अर्थात् कुछ नहीं। अपितु उसका नाम भी समाप्त हो गया। इसी प्रकार से दूसरे के घर में रहने पर किस मनुष्य की प्रभुता नहीं घटी अर्थात् सबकी घट जाती है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. यहाँ के लोक व्यवहार का वर्णन किया गया है।
  2. दृष्टान्त अलंकार है।

दुरदिन परे रहीम कहि भूलत सब पहिचानि।
सोच नहीं वित हानि को, जो न होय हित हानि।। (9)

शब्दार्थ :
दुरदिन = बुरे दिन; वित = धन; हित = मान-सम्मान।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत दोहे में कवि ने बताया है कि मनुष्य के बुरे दिन आने पर लोग उसे पहचानना भी बन्द कर देते हैं।

व्याख्या :
रहीम कहते हैं कि अच्छे दिनों के साथी उसके बुरे दिन आने पर उसे पहचानते भी नहीं है। यह अत्यन्त कष्ट की बात है। धन की हानि होती है, तो कोई दुःख नहीं है। यदि हित (अथवा मान-सम्मान) की हानि होती है तो यह अत्यन्त कष्टदायी है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. प्रायः अच्छे दिनों के स्वार्थी मित्र बुरे समय पर साथ छोड़ देते हैं, इसलिए ऐसे लोगों का साथ छोड़ देना चाहिए।
  2. दोहा छन्द ब्रजभाषा में निबद्ध है।

रहिमन मनहिं लगाय के देखि लहु किन कोय।
नर को बस करिबो कहा, नारायन बस होय।। (10)

शब्दार्थ :
मनहिं लगाय के = एकाग्र चित्त करके; किन = क्यों न; नर = मनुष्य।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत दोहे में रहीम ने बताया है कि संसार के सभी कार्य ईश्वर के अधीन हैं, मनुष्य का उन पर कोई वश नहीं चलता।

व्याख्या :
रहीमदास जी कहते हैं कि अपने मन को भली-भाँति एकाग्र करके चिन्तन कर लीजिए कि किसी भी कार्य में मनुष्य का कोई वश नहीं है, सब कुछ नारायण के वश में ही है।

काव्य सौन्दर्य :
प्रस्तुत दोहे में जीवन की वास्तविकता को व्यक्त किया गया है। तुलसीदास जी ने भी ऐसा ही कुछ कहा है-
उमा दारू जोषित की नाईं।
सबहि नचावत राम गोसाईं।।

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भूप गनत लघु गुणिन को, गुनी गनत लघु भूप।
रहिमन गिरि ते भूमि लौं, लखो तो एकै रूप।। (11)

शब्दार्थ :
भूप = राजा; गनत = गिनते हैं; लघु = छोटा; गुणिन = विद्वानों को; गिरि = पर्वत; लखो = देखो।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ पर कवि ने बताया है कि संसार में कोई भी छोटा बड़ा नहीं है, सभी एक समान

व्याख्या :
राजा गुणियों (विद्वानों) को छोटा समझते हैं और विद्वान् राजाओं को छोटा गिनते हैं। रहीमदास जी कहते हैं कि यह उनका भ्रम है क्योंकि पर्वतों से लेकर समतल स्थान तक सारी पृथ्वी एक ही है, अलग-अलग नहीं है।

काव्य सौन्दर्य :
प्रस्तुत दोहे में रहीम ने जीवन का दार्शनिक पक्ष प्रस्तुत किया है। यहाँ कोई छोटा बड़ा नहीं, अपितु सभी समान हैं।

रहिमन विपदा हू भली, जो थोरे दिन होय।
हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय।। (12) (2008)

शब्दार्थ :
विपदा = विपत्ति; हित-अनहित = हितैषी और शत्रु; जगत = संसार।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ पर कवि कहता है कि बुरे और भले की पहचान के लिए यदि थोड़े दिन के कष्ट हों, तो वह भी श्रेयस्कर हैं।

व्याख्या :
रहीम कहते हैं कि ऐसी विपत्ति भी अच्छी है जो थोड़े दिन के लिए आई हो, क्योंकि ऐसे में कौन हमारा हितैषी है और बुरा चाहने वाला है, उन सबकी पहचान हो जाती है।

काव्य सौन्दर्य :
जीवन के सत्य का उद्घाटन है। सच्चे मित्र की परख विपत्ति में ही होती है। अंग्रेजी में कहावत है-
A friend in need,
is a friend indeed.

अब रहीम मुश्किल पड़ी, गाढ़े दोऊ काम।
साँचे से तो जग नहीं, झूठे मिलै न राम।। (13)

शब्दार्थ :
मुश्किल = कठिनाई; गाढ़े = कठिन।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ पर रहीम ने मनुष्य की कठिनाई के विषय में बताया है कि उसके जीवन के दो रास्ते हैं, किन्तु दोनों में ही कठिनाई है।

व्याख्या :
रहीम कहते हैं कि यह बड़ी मुश्किल की घड़ी है जब उसके पास दो काम है और मनुष्य के लिए दोनों कार्य एक साथ करना कठिन हो जाता है। यदि वह सच बोलता है तो संसार में उसकी स्थिति अच्छी नहीं हो पाती और यदि झूठ बोलता है तो परमात्मा से वंचित हो जाता है।

काव्य सौन्दर्य :
यहाँ कवि ने दोहे के माध्यम से बताया है कि मनुष्य को संसार में जीने के लिए छल-प्रपंच और झूठ का सहारा लेना पड़ता है। किन्तु ऐसा करके वह परमात्मा से दूर हो जाता है। क्योंकि परमात्मा उन्हें प्राप्त होता है जिनका हृदय निर्मल और शुद्ध होता है और जो सदैव सत्य के मार्ग पर चलते हैं।

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MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 2 वात्सल्य

MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 2 वात्सल्य

वात्सल्य अभ्यास

वात्सल्य अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
बालक कृष्ण के रुचिकर व्यंजन क्या हैं? (2017)
उत्तर:
बालक कृष्ण के रुचिकर व्यंजन मक्खन, मिश्री, दही एवं बेसन से बने हुए स्वादिष्ट पदार्थ हैं।

प्रश्न 2.
‘मनहुँ नील नीरद बिच सुन्दर चारु तड़ित तनु जोहे’ की उत्प्रेक्षा को लिखिए।
उत्तर:
इस पंक्ति में राम के शरीर की सुन्दरता को नीचे बादल के मध्य चमकने वाली बिजली के सदृश कल्पना कल्पित की गयी है। मनहुँ वाचक शब्द का प्रयोग है।

प्रश्न 3.
माता कौशल्या बालक राम की नजर उतारने के लिए क्या-क्या उपक्रम करती हैं? (2015, 16)
उत्तर:
माता कौशल्या बालक राम की नजर उतारने के लिए दो-दो डिठौने अर्थात् नजर के काले टीके लगाती हैं।

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वात्सल्य लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कृष्ण के बाल रूप को किस प्रकार अलंकृत किया गया है?
उत्तर:
सूरदाज जी ने कृष्ण के बाल रूप का वर्णन मनोवैज्ञानिक एवं स्वाभाविक किया है। उन्होंने बताया है कि बालकृष्ण ने अपने मुख में मिट्टी का लेप कर लिया है। मस्तक पर रोली का तिलक है। उनके बालों की सुन्दर लट लटक रही है। उदाहरण देखें-
“घुटुरुवन चलन रेनु मंडित मुख में लेप किये।
चारु कपोल लोल लोचन छवि-गौरोचन को तिलक दिये।
लर लटकन मानो मत्त मधुप गन माधुरी मधुर पिये।”

प्रश्न 2.
प्रस्तुत पदों में बाल स्वभाव की कौन-कौन सी प्रवृत्तियाँ प्रकट हुई हैं?
उत्तर:
प्रस्तुत पदों में बाल स्वभाव की विभिन्न मनोवृत्तियों का चित्रण किया गया है-
(1) बाल वृत्तियों का चित्रण-बालक कृष्ण नन्द जी की उँगली पकड़कर चलना सीखते हैं-
“गहे अंगुरिया तात की नन्द चलन सिखावत।”

कभी बालक कृष्ण नन्द जी की गोद में बैठकर भोजन करते हैं। देखें-
“जेंवत श्याम नन्द की कनियाँ।”

उनको कौन-कौन से भोज्य पदार्थ रुचिकर लगते थे और वे उन्हें किस प्रकार खाते थे। देखें-
बरी बरा बेसन बहु भांतिन व्यंजन विविध अनगनियाँ
मिश्री दधि माखन मिश्रित करि मुख नावत छविधनियाँ।

(2) बालक कृष्ण की खीझ का वर्णन :
सूर ने बालक कृष्ण की छोटी-छोटी बातों का सुन्दर वर्णन किया है। बच्चे खेल में परस्पर लड़ते-झगड़ते हैं और एक-दूसरे से रूठ जाने पर अपनी माँ से शिकायत करते हैं। माँ बच्चे की बात सुनती है और उसे समझाती है। तब बालक प्रसन्न हो जाता है। इस पद में देखें कृष्ण नन्द बाबा से बलदाऊ की शिकायत करके कह रहे हैं-
“खेलन अब मोरी जात बलैया।
जबहि मोहि देखत लरिकन संग तबहि खिझत बलभैया।
मोसों कहत पूत वसुदेव को देवकी तेरी मैया।
मोल लियौ कछु दै वसुदेव को करि-करि जतन बटैया॥”

(3) बाल हठ का चित्रण- बच्चों की नासमझी का चित्रण सूरदास ने किया है। बालक अबोध होता है उसे यह नहीं मालूम है कि क्या वस्तु खेलने की है। बालक कृष्ण देखिये किस प्रकार चाँद खेलने के लिए माँग रहे हैं-
“मैया मैं तो चन्द खिलौना लैहों।
जैहों लोटि धरनि पर अबहीं तेरी गोद न ऐहौं।”

जब माँ बालक को प्रलोभन देकर कहती है कि मैं तेरे लिए दुल्हन ला दूंगी तो उस माँग को भी बिना समझे तुरन्त पूरी करने को कहते हैं। देखें-
“तेरी सौं मेरी सनि मैया, अबहिं बियावन जैहों।”

प्रश्न 3.
बालकृष्ण खेलते समय कौन-कौन सी क्रीड़ाएँ करते हैं? (2014)
उत्तर:
बालक कृष्ण खेलते समय अपने मुख पर मिट्टी का लेप लगा लेते हैं। बालक कृष्ण छोटी-छोटी बातों पर चिढ़ जाते हैं। जब बलराम उनसे कहते हैं तू तो मोल का लिया है, तब वे खिसियाकर उठकर चल देते हैं। अपने साथियों से कह देते हैं कि सब मुझे चिढ़ाते हैं, अब मैं कभी नहीं खेलूँगा। उदाहरण देखें-
“ऐसेहि कहि सब मोहि खिझावत तब उठि चलौ सिखैया।”

प्रश्न 4.
कवि राम भद्राचार्य गिरिधर के अनुसार बालक राघव की छवि का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
कवि राम भद्राचार्य गिरिधर ने बालक राघव की छवि का वर्णन इस प्रकार किया है
बालक राम अपनी माँ की गोद में हैं। वे धूल से लिपटे हुए भी बहुत सुन्दर लग रहे हैं। इस उदाहरण में देखें-
“राघव जननी अंक बिराजत।
नख सिख सुभग धूरि धूसर तनु चितइ काम सत लाजत॥”

श्री राम भद्राचार्य गिरिधर ने कहा है कि राम के सौन्दर्य के समक्ष कामदेव फीके पड़ गये, उनका सौन्दर्य पूर्व दिशा में उदित हुए चन्द्रमा के सदृश है। देखें-
प्राची दिशि जनु शरद सुधाकर, पूरन है निकसे।

राघव की प्रशंसा में अन्य उदाहरण देखिये-
“शरद शशांक मनोहर आनन दैतुरिन लखि मन मोहे।
मनहुँ नील नीरद बिच सुन्दर चारु तड़ित तनु जोहे।

इस प्रकार राघव के सौन्दर्य का वर्णन परिवार पर केन्द्रित है। कवि का कथन है ऐसी छवि को निहारने के लिए उसके हृदय रूपी नेत्र आतुर हैं।

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प्रश्न 5.
माता कौशल्या की प्रसन्नता को अपने शब्दों में व्यक्त कीजिए। (2009)
उत्तर:
माता कौशल्या राम के सुन्दर रूप को देखकर प्रसन्न होती हैं। जब श्रीराम किलकारी मारकर हँसते हैं। उस समय माँ कौशल्या आँचल की ओट से अपने पुत्र को हँसते हुए देखकर आनन्द का अनुभव करती हैं।

जब श्रीराम की तोतली बोली माँ कौशल्या सुनती हैं तो उनका हृदय पुलकित हो उठता है। श्रीराम जब ठुमक ठुमक कर डगमगाते हुए चलते हैं तब माता कौशल्या चुटकी बजा-बजा कर राम को बुलाती हैं और हँसती हैं तथा अपूर्व आनन्द का अनुभव करती हैं। उदाहरण देखिये-
किलकत चितइ चहूँ दिसि विहँसत तोतरि वचन सुबोलत।
ठुमुकि ठुमुकि रुनझुन धुनि सुनि कनक अजिर शिशु डोलत।
निरखि चपल शिशु चुटकी दै दै हँसि हँसि मातु बुलावे।

माँ कौशल्या रंग-बिरंगे खिलौने देती हैं व विभिन्न प्रकार से राम को भोजन कराने का प्रयास करती हैं। इन सभी कार्यों में एक माँ को जो अपूर्व आनन्द का अनुभव होता है, वह अवर्णनीय है। माँ की प्रसन्नता का अन्य उदाहरण देखें-
आँचर ढाँकि बदन विधु सुन्दर थन पय पान करावति।
कहति मल्हाइ खाहु कछु राघव मातु उछाइ बढ़ावति।

इस प्रकार श्री रामभद्राचार्य गिरिधर ने राघव की विभिन्न बाल लीलाओं के द्वारा माँ कौशल्या के हृदय की प्रसन्नता को व्यक्त किया है।

वात्सल्य दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
बालक कृष्ण चन्द्र खिलौना लेने के लिए क्या-क्या हठ करते हैं?
उत्तर:
बालक कृष्ण जब चन्द्रमा लेने की हठ करते हैं तो वे माँ यशोदा से कहते हैं कि माँ मैं तो आकाश में दिखने वाले इस चन्द्रमा से ही खेलूँगा। वे चाँद को पाने के लिए मचलने लगते हैं वे माँ यशोदा को धमकी देते हैं, कि यदि वे चाँद खेलने के लिए नहीं देंगी तो वे भूमि पर लोट जायेंगे तथा यशोदा के पुत्र नहीं कहलायेंगे। परन्तु माँ उन्हें चाँद से भी सुन्दर दुलहनियाँ लाकर देने को कहती हैं।

इस बात को सुनते ही बालक कृष्ण विवाह करने के लिए मचल उठते हैं। माँ यशोदा तो बालक को बहलाने का प्रयत्न कर रही थीं लेकिन कृष्ण तो विवाह की तैयारी में लग जाते हैं। माँ के लिए चाँद जैसा खिलौना तो दुर्लभ था अतः वे जल के पात्र में चाँद का प्रतिबिम्ब दिखाकर बालक कृष्ण को बहलाने का प्रयत्न करती हैं।

प्रश्न 2.
कवि राम भद्राचार्य गिरिधर के पदों में बाल छवि का जो रूप उभरा है, उसे अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
कवि राम भद्राचार्य गिरिधर ने अपने पदों में बालक श्रीराम की बाल चेष्टाओं का सुन्दर एवं सटीक वर्णन किया है। उन्होंने प्रभु राम के बचपन की सुन्दर झाँकी प्रस्तुत की है। देखिये जब प्रभु राम अपनी माँ कौशल्या की गोद में हैं; वे कितने सुन्दर लग रहे हैं-
राघवजू जननी अंक लसे। प्राची दिशि जनु शरद सुधाकर, पूरन है निकसे।

शारीरिक सौन्दर्य का वर्णन करते समय बताया है कि उनके अंगों पर किस प्रकार के आभूषण हैं। उदाहरण देखें-
“भाल तिलक सोहत श्रुति कुण्डल दृग मनसिज सरसे।

इस प्रकार राम का सौन्दर्य अपूर्व है। माँ कौशल्या को हर पल यह चिन्ता रहती है कि कहीं मेरे पुत्र के अपूर्व सौन्दर्य को किसी की नजर न लग जाये। इसके लिये माँ बार-बार ईश्वर से प्रार्थना करती हैं। वे कहती हैं कि हे ईश्वर मेरे पुत्र दीर्घायु हों। उदाहरण देखें-
“नजर उतारि झिगुनि जनि फेकहुँ हरिहि निहोरि बुलावति।”

उन्हें बुरी नजर से बचाने के लिये दो-दो डिठौने लगाती हैं। वे ईश्वर से अपने पुत्र के लिए आशीष माँगती हैं। माँ कौशल्या प्रभु राम को भाइयों एवं मित्रों के साथ मिलकर खेलने के लिए कहती हैं। उदाहरण देखें-
“खेलहु अनुज सखन्ह मिलि अंगना प्रभुहि उपाय सुझावति।”

वे राम को उत्साहपूर्वक खाद्य पदार्थ खिलाने का प्रयास करती हैं। राम के मना करने पर वे उन्हें विभिन्न प्रकार के प्रलोभन देकर मनाती हैं। वे राम को गोद में लेकर प्यार करती हैं और दुलारते हुए दूध भी पिलाती हैं। राम के इन कार्यों को करके माँ कौशल्या अपूर्व आनन्द का अनुभव करती हैं।

माँ कौशल्या बालक श्रीराम को उनकी रुचि के अनुरूप रंग-बिरंगे खिलौने देकर उन्हें प्रसन्न करने का प्रयत्न करती हैं। वास्तव में श्री राम भद्राचार्य गिरिधर ने चर्म चक्षुओं की अनुपस्थिति के बावजूद भी राम की बाल लीलाओं का सुन्दर एवं हृदयहारी वर्णन किया है। राम के बाल रूप में इतना सुन्दर चित्रण अन्य किसी भी कवि ने करने का प्रयास नहीं किया है।

प्रश्न 3.
वात्सल्य के पदों में बालक राम और बालक कृष्ण की समानताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
वात्सल्य के पदों में बालक राम और बालक कृष्ण के पदों में निम्न समानताएँ हैं-
बाल छवि का समान वर्णन :
जिस प्रकार सूरदास ने बालक कृष्ण की बाल लीला का वर्णन किया है, कि वे घुटनों के बल किस प्रकार चलते हैं। इसका उदाहरण देखें-
घुटुरुवन चलत रेनु मंडित मुख में लेप किये।

इसी प्रकार श्री रामभद्र गिरिधर ने श्रीराम के ठुमककर चलने का वर्णन किया है-
ठुमुकि ठुमुकि रुनझुन धुनि सुनि कनक अजिर शिशु डोलत।

इन दोनों के वर्णन में अन्य साम्य इस प्रकार हैं। उदाहरण देखें-
“गहे अंगुरिया तात की नंद चलन सिखावत”

कृष्ण और राम के खाने के वर्णन में समानता है-
“जेंवत श्याम नन्द की कनियाँ”
कछुक खात कछु धरनि गिरावत छवि निरखत नंदरनियाँ।

इस प्रकार राम के खाने का वर्णन है। उदाहरण देखें-
“कहति मल्हाइ खाहु कछु राघव मातु उछाइ बढ़ावति”

इसी प्रकार दोनों के खेलने में भी साम्य है। उदाहरण देखें-
“खेलन अब मेरी जात बलैया।
मैया मैं तो चन्द्र खिलौना लैहों।”

इसी प्रकार श्रीराम के खेलने का वर्णन है-
“खेलहु अनुज सखन्ह मिलि अंगना प्रभुहिं उपाय सुझावति।”

इसी प्रकार बालक कृष्ण की माँ और राम की माँ के हृदय की प्रसन्नता का वर्णन है। देखें-
“नन्द यशोदा बिलसत सोनहि तिहं भुवनियाँ।”

इसी प्रकार राम का वर्णम है-
“राघव निरखि जननि सुख पावति।”
इस प्रकार श्रीराम और कृष्ण के वर्णन में यही समानताएं हैं।

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प्रश्न 4.
निम्नलिखित काव्यांशों की प्रसंग सहित व्याख्या कीजिए
(अ) हँसि समझावति कहति जसोमति नई दलनियाँ देहों।
(आ) खेलन अब मेरी जात बलैया।
जबहि मोहि देखत लरिकन संग तबहि खिझत बलभैया॥
मौसौं कहत पूत वसुदेव को देवकी तेरी मैया।
मोल लियो कछु दे वसुदेव को करि करि जतन बटैया॥
(इ) राघव जननी अंक विराजत।।
नख सिख सुभग धूरि धूसर तनु चितई काम सत लाजत॥
ललित कपोल उपरि अति सोहत द्वैवै असित डिठौना।
जनु रसाल पल्लव पर बिलसत द्वै पिक तनय सलौना॥
उत्तर:
उपर्युक्त पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या सन्दर्भ प्रसंग सहित पद्यांशों की व्याख्या’ भाग में देखें।

वात्सल्य काव्य सौन्दर्य

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों में तत्सम और तद्भव शब्द पहचान कर लिखिए
नवनीत, हिये, लिये, कपोल, अंगुरिया, धरणि, कान्ह, दधि, माखन, भैया, मैया, पूरन, धूरि, गोद, शरद, माल।
उत्तर:
तत्सम शब्द :
नवनीत, लिये, कपोल, धरणि, दधि, गोद, शरद।

तद्भव शब्द :
हिये, अंगुरिया, कान्ह, माखन, भैया, मैया, पूरन, धूरि, माल।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित पंक्तियों में अलंकार पहचान कर लिखिए-
(अ) लर लटकन मानो मत्त मधुप गन माधुरी मधुर पिये।
(आ) बार-बार बकि श्याम सों कछु बोल बकावत।
(इ) जो रस नन्द यशोदा बिलसत सो नहिं तिहं भुवनियाँ।
(ई) मनहुँ इन्दु मण्डल विच अनुपम मन्मध बारिज से।
(उ) ठुमुकि ठुमुकि रुनझुन धुनि सुनि सुनि कनक अजिर शिशु डोलत।
उत्तर:
(अ) उत्प्रेक्षा अलंकार
(आ) अनुप्रास अलंकार
(इ) अतिशयोक्ति अलंकार
(ई) उत्प्रेक्षा अलंकार
(उ) अनुप्रास अलंकार।

प्रश्न 3.
अधोलिखित काव्यांश में काव्य-सौन्दर्य लिखिए
(अ) है हौं पूत नंद बाबा को तेरो सुत न कहैहों।
आगे आऊ बात सुनि मेरी बलदेवहिं न जनैहों।
(आ) खेलत शिशु लखि मुदित कोसिला झाँकत आँचर से।
यह शिशु छबि लखि लखि नित ‘गिरधर’ हृदय नयन तरसे।
(इ) गोद सखि चुप चारि दुलारति पुनि पालति हलरावति।
आँचर ढाँकि बदन विधु सुन्दर थन पय पान करावति ।।
उत्तर:
(अ) (1) ब्रजभाषा का प्रयोग है।
(2) पुत्र का पिता के प्रति अनुरागमय चित्रण है।
(3) वात्सल्य रस की सजीव झाँकी है।
(4) अनुप्रास अलंकार है क्योंकि-आगे आऊ शब्द में अ’ वर्ण की आवृत्ति है।
(5) गुण-माधुर्य है।

(आ) (1) ब्रजभाषा का प्रयोग है, जैसे-कोकिला, झाँकत, आँचल।
(2) माँ का पुत्र के प्रति अमिट प्रेम अवलोकनीय है। वात्सल्य रस है।
(3) आँचल से झाँकने में मातृ हृदय की मार्मिक झाँकी है।
(4) अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है-
लखि-लखि-लखि में ‘ल’ वर्ण की आवृत्ति है।
‘हृदय नयन’ में रूपक अलंकार है।
(5) गुण-माधुर्य है।

(इ) (1) ब्रजभाषा का प्रयोग है, जैसे-चुचुकारि, दुलराति, पुनपालति, हलरावति।
(2) बदन, विधु सुन्दर में उपमा अलंकार है।
(3) पय पान करावति में मातृ हृदय का प्रेम व्यंजित है।
(4) रस वात्सल्य है।

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प्रश्न 4.
सूर वात्सल्य रस का कोना-कोना झाँक आए हैं। उदारण देकर समझाइए।
उत्तर:
सूरदास को वात्सल्य रस का सम्राट कहा जाता है। उसका प्रमुख कारण सूर के काव्य में शृंगार रस के साथ-साथ बालक श्रीकृष्ण के अनुपम सौन्दर्य की सुन्दर झाँकी मिलती है।
(1) विस्तृत बाल वर्णन-सूरदास जी ने अपने काव्य में वात्सल्य का विस्तृत चित्रण किया है। उनका यह वर्णन बालक कृष्ण के जन्म के पश्चात् प्रारम्भ हो जाता है। उन्होंने बालक कृष्ण के पालने में झूलने का वर्णन किया है। इसके उपरान्त बालक कृष्ण का घुटनों चलने का, देहली को लाँघने को, बालकों के साथ मक्खन, दही चुराने का सजीव वर्णन है।

इसके अतिरिक्त बाल कृष्ण गाय चराने जाते हैं, ग्वाल-वालों के साथ हँसी मजाक करते हैं। खेलते समय खिसियाकर खेल छोड़कर भाग जाते हैं। इसके अतिरिक्त माँ यशोदा से चाँद खिलौना लेने की हठ करते हैं। सूरदास ने इन्हीं सब बाल वृत्तियों का सुन्दर चित्रण किया है उदाहरण देखें जैसे, यशोदा जब पालने में श्रीकृष्ण को झूला झुलाती है तो वे गाती हैं-
“यशोदा हरि पालने झुलावै”

जब कृष्ण खेलने जाते हैं और बलराम उन्हें यह कहकर खिझाते हैं कि तू तो मोल का लिया है। इस बात को सुनकर वे अपनी माँ यशोदा से इस प्रकार शिकायत करते हैं
“मोसों कहत तात वसुदेव को देवकी तेरी मैया …..”
ऐसेहि कहि सब मोहि खिझावत तब उठि चलौ सिखैया।

(2) बाल लीलाओं का सजीव अंकन :
सूरदास जी ने बाल कृष्ण की बाल लीलाओं का सजीव अंकन किया है। उन्होंने कहा है बाल कृष्ण अपनी माता यशोदा से चाँद खिलौना माँग रहे हैं और वे हठ करते हैं कि यदि वे उन्हें चाँद खेलने के लिये नहीं देंगी तो वे भूमि पर लोट जायेंगे, उनके पुत्र भी नहीं कहायेंगे व दूध भी नहीं पियेंगे। उदाहरण देखें-
“मैया मैं तो चन्द खिलौना लैहों।
जैहौं लेटि धरनि पर अबहीं तेरी गोद न ऐहौं।

इसके अतिरिक्त जब माँ यशोदा कृष्ण से कहती है वे चाँद से भी सुन्दर दुल्हन ला देंगी, तो वे तुरन्त विवाह की हठ इस प्रकार करते हैं-
तेरी सौं मेरी सुनि मैया, अबहि बियावन जैहों।”
इस प्रकार की विभिन्न बाल चेष्टाओं का वात्सल्य रस में वर्णन है।

प्रश्न 5.
“सूर की भाषा में ग्रामीण बोली का माधुर्य है।” सूर की भाषा की विशेषताएँ लिखते हुए इस कथन की पुष्टि कीजिए।
उत्तर:
सूर की भाषा में यथास्थान प्रचलित शब्दों का व ग्रामीण शब्दों का यत्र-तत्र प्रयोग हुआ। सूर की भाषा में प्रसाद तथा माधुर्य गुण की प्रचुरता है। सूरदास जी ने अपनी भाषा में मुहावरे एवं लोकोक्तियों का प्रयोग किया है। उनके सभी पद गेय हैं।

सूरदास जी ने साधारण बोलचाल की भाषा को अपनी सुन्दर भाव भूमि से सजाया, सँवारा एवं साहित्यिक रूप प्रदान किया है। उन्होंने अनुप्रास, यमक, श्लेष, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग किया है।

अनुप्रास अलंकार का उदाहरण देखें-
“बार बार बकि श्याम सों कछु बोल बकावत।”

उत्प्रेक्षा का उदाहरण देखें-
“लर लटक मानो मत्त मधुप गन माधुरी मधुर पिये।”

ग्रामीण भाषा का अन्य उदाहरण देखें-
डारत खाट लेट अपने कर रुचि मानत दधि दनियाँ।
मिश्री दधि माखन मिश्रित करि मुख नावत छवि धनियाँ॥

सूरदास जी ने अपनी भाषा में सरल, सहज एवं स्वाभाविक शब्दों का प्रयोग किया है। उन्होंने तुकबन्दी का भी प्रयोग यथास्थान किया है। उदाहरण देखें-
हँसि समुझावति कहति जसोमति, नई दुलनियाँ दैहों।
तेरी सौं मेरी सुनि मैया, अबहि बियावन जैहों।

इस प्रकार सूरदाज जी की भाषा माधुर्य गुण से परिपूर्ण है। उन्होंने यथास्थान प्रचलित शब्दों का भी प्रयोग किया है। वास्तव में, सूरदास जी ने अपनी भाषा को भावों के अनुरूप ही प्रयोग किया है। सूरदास जी ने वात्सल्य रस का प्रयोग भी किया है।

प्रश्न 6.
संकलित काव्यांश में से एक उदाहरण देकर उसमें निहित रस तथा विभिन्न अंगों को समझाइए।
उत्तर:
सोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरुवन चलत रेनु तन मंडित मुख में लेप किए।
चारु कपोल लोल लोचन छवि गौरोचन को तिलक दिए।
लर लटकन मानो मत्त मधुप गन माधुरी मधुर पिए ।।
कठुला के वज्र केहरि नख राजत है सखि रुचिर हिए।
धन्य सूर एकौ पल यह सुख कहा भयो सत कल्प जिए॥

रस – वात्सल्य
स्थायी भाव – स्नेह, अनुराग
संचारी भाव – हर्ष
अनुभाव – घुटनों चलना, लोचनों की चपलता आदि
विभाव-आश्रय – श्रीकृष्ण
आलम्बन – धूल भरा हुआ तन।

प्रश्न 7.
काव्य में माधुर्य गुण की श्रृंगार, वात्सल्य और शांत रस में सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है। माधुर्य गुण में मधुर शब्द योजना और सरल प्रवाह देखते ही बनता है। देखिए-कंकन, किंकन, नूपुर, धुनि, सुनि।
इसी प्रकार की सुन्दर, सहज, मधुर शब्द योजना के कुछ अंश इस पाठ से छाँटकर लिखिए।
उत्तर:
(1) लर लटकन मानो मत्त मधुप गन माधुरी मधुर पिए।
(2) बरी बरा बेसन बहु भाँतिन व्यंजन।
(3) ठुमकि ठुमकि रुनझुन धुन सुनि।
(4) शरद शशांक मनोहर आनन।
(5) गोद राखि पुचकारि दुलारति।

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कृष्ण की बाल लीलाएँ भाव सारांश

महाकवि सूरदास का भक्तिकालीन कवियों में शीर्ष स्थान है। कवि ने श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं को जो झाँकी उतारी है वह हिन्दी काव्य में अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। बाल चेष्टाओं का वर्णन भी यत्र-तत्र काव्य के पृष्ठों में अंकित है।
कृष्ण की बाल लीलाओं में घुटनों के बल चलना, मक्खन को मुँह पर मलना, आदि ऐसी चेष्टाएँ हैं जो आनन्ददायक एवं सुख देने वाली हैं। नंद बाबा कृष्ण की उंगली पकड़ कर चलना सिखाते हैं तो कहीं कृष्ण बोलने का प्रयत्न करते हैं। पुत्र को इस प्रकार की चेष्टाओं को निहार कर यशोदा माँ आनन्द से अभिभूत हो जाती हैं।

कृष्ण का सखाओं के साथ खेलना तथा खेलते समय बलदाऊ का उन्हें खिझाना बाल्यकाल के जीवन की मनोरम झाँकी हैं। यह सूर के बालकृष्ण, नन्द एवं यशोदा को अपने अलौकिक क्रिया-कलापों से मंत्र मुग्ध कर देते हैं।

कृष्ण की बाल लीलाएँ संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

[1] शोभित कर नवनीत लिये। घुटुरुवन चलत रेनु मंडित मुख में लेप किये।।
चारु कपोल लोल लोचन छवि गौरोचन को तिलक दिये।
लर लटकन मानो मत्त मधुप गन माधुरी मधुर पिये।।
कठुला के वज्र केहरि नख राजत है सखि रुचिर हिये।
धन्य ‘सूर’ एकौ पल यह सुख कहा भयो सत कल्प जिये।। (2015)

शब्दार्थ :
कर = हाथ; नवनीत = मक्खन; घुटुरुवन = घुटनों के बल; रेनु = मिट्टी; चारु = सुन्दर; कपोल = गाल; लोचन = नेत्र; मधुप = भौंरा; गौरोचन – रोली का टीका; तिलक = टीका; मत्त = मस्त; वज्र = कठोर; केहरि = केसरी, सिंह; हिये – हृदय; पल = क्षण; सत = सौ; लर = बालों की लट।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्य वात्सल्य’ पाठ के श्रीकृष्ण की बाल लीलाएँ’ शीर्षक से अवतरित है। इसके रचयिता महाकवि सूरदास जी हैं।

प्रसंग :
इस पद में श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं की मनोरम झाँकी प्रस्तुत की गई है।

व्याख्या :
बालक श्रीकृष्ण अपने हाथ में मक्खन लिए हुए अत्यन्त ही शोभायमान एवं आकर्षक प्रतीत हो रहे हैं। वह अपने आँगन में घुटनों के बल चल रहे हैं, अपने मुख में मिट्टी का लेप किये हुए हैं। उनके गाल सुन्दर हैं, नेत्र चंचल हैं, गौरोचन (रोली का टीका) मस्तक पर शोभायमान हो रहा है। उनके मुख पर बालों की लटें इस प्रकार सुशोभित हो रही हैं मानो मतवाले भँवरों का समूह उनकी सुन्दरता का रसपान कर रहा है। हे सखि ! उनके सुन्दर हृदय पर कठुला (गले में पड़े धागे में) बज्र के सदृश कठोर सिंह का नाखून शोभित है। सूरदास जी कहते हैं ऐसी सुन्दर छवि को एक पल निहारकर भी जीवन धन्य है। सौ कल्प जीवित रहना भी इसकी अपेक्षा श्रेष्ठ नहीं है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. श्रीकृष्ण की बाल छवि का सुन्दर वर्णन है।
  2. वात्सल्य रस है।
  3. अलंकार की छटा दर्शनीय है, जैसे-लोल, लोचन; लर लटकन में अनुप्रास अलंकार है, मानो मत्त मधुप गन में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
  4. गुण-माधुर्य है।
  5. भाषा ब्रजभाषा है।

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[2] गहे अंगुरिया तात की नंद चलन सिखावत।
अरबराई गिरि परत हैं कर टेकि उठावत।।
बार बार बकि श्याम सों कछु बोल बकावत।
दुहंधा दोउ दंतुली भई अति मुख छवि पावत।।
कबहुँ कान्ह कर छाड़ि नंद पग द्वै करि धावत।
कबहुँ धरणि कर बैंठ के मन महं कछु गावत।।
कबहुँ उलटि चलै धाम को घुटरुन करि धावत।
‘सूर’ श्याम मुख देखि महर मन हर्ष बढ़ावत।।

शब्दार्थ :
गहे = पकड़कर; अंगुरिया = उँगलियाँ; तात = पिता; गिरि = पर्वत; कर = हाथ; दोउ= दोनों; पग = पैर; धावत = दौड़ना; धाम = गृह, घर; महर = ब्रज में प्रतिष्ठित स्त्रियों के लिए आदरसूचक शब्द; हर्ष = प्रसन्नता; बढ़ावत = बढ़ाते हैं।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यांश में श्रीकृष्ण का पैरों से चलना सीखने का वर्णन है। नन्द जी श्रीकृष्ण के बाल सौन्दर्य एवं लीलाओं को देखकर प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हैं।

व्याख्या :
श्रीकृष्ण जी ने पिता नन्द की उँगली पकड़ी हुई है और श्री नन्द जी बालक श्रीकृष्ण को चलना सिखाते हैं। वे चलते समय डगमगाकर धरती पर गिर जाते हैं। नन्द जी अपने हाथ का सहारा देकर उठाते हैं। वे बार-बार बातें करके श्रीकृष्ण से कुछ न कुछ बुलवाने का प्रयास करते हैं। उनके दुधमुंहे दो दाँतों की पंक्तियाँ मुख में अत्यन्त ही सुशोभित हो रही हैं। कभी श्रीकृष्ण नन्द जी का हाथ छोड़कर दो पग दौड़ने का प्रयास करते हैं। कभी धरती पर बैठ करके मन ही मन कुछ गाते हैं।

कभी उलटी ओर घुटनों के बल घर को दौड़कर जाते हैं। सूरदास जी कहते हैं श्रीकृष्ण के ऐसे सुन्दर मुख को देखकर माँ यशोदा अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव करती हैं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. बालक कृष्ण की बाल छवि का वर्णन है।
  2. बार-बार बकि श्याम-बोल बकावत में अनुप्रास अलंकार है।
  3. सिखावत, उठावत, धावत, पावत आदि ब्रजभाषा के शब्दों का प्रयोग है।
  4. वात्सल्य रस है।

[3] जेंवत श्याम नंद की कनियाँ।
कछुक खात कछु धरनि गिरावत छवि निरखत नंदरनियाँ।
बरी बरा बेसन बहु भांतिन व्यंजन विविध अनगनियाँ।
डारत खात लेत अपने कर रुचि मानत दधि दनियाँ॥
मिश्री दधि माखन मिश्रित करि मुख नावत लवि धनियाँ।
आपुन खात नन्द मुख नावत सो सुख कहत न बनियाँ।
जो रस नन्द यशोदा बिलसत सो नहि तिहं भुवनियाँ।
भोजन करि नन्द अँचवन कियो माँगत ‘सूर’जुठनियाँ॥

शब्दार्थ :
जेंवत = जीमना, भोजन करना; कनियाँ = गोद में; धरनि = भूमि; निरखत = देखना; बहु भांतिन = अनेक प्रकार के व्यंजन, भोज्य पदार्थ; विविध = अनेक; दधि = दही; दनियाँ = दोनी; आपुन = स्वयं; तिहं भुवनियाँ = तीनों लोक; अँचवन = आचमन; जुठनियाँ = जूठन।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्य में बालक कृष्ण की बाल-सुलभ चेष्टाओं का अत्यन्त सुन्दर वर्णन है। इसके साथ ही श्रीकृष्ण को जो वस्तुएँ रुचिकर लगती हैं, उनका भी वर्णन किया है।

व्याख्या :
श्रीकृष्ण जी नन्द जी की गोद में बैठकर कुछ खा रहे हैं। खाते समय कुछ भोज्य पदार्थ भूमि पर गिरा रहे हैं। इस बाल छवि को निरखकर (देखकर) नन्द की रानी प्रसन्न्ता का अनुभव कर रही हैं। वे बड़ियों, दही बड़ों तथा बेसन से बने अनेक व्यंजनों का स्वाद ले रहे हैं। वे खाते समय खाद्य वस्तुओं को अपने हाथ से लेकर भूमि पर गिरा रहे हैं। उन्हें दही की दोनी अत्यन्त ही रुचिकर हैं। वे दही, मक्खन एवं मिश्री को मिलाकर अपने मुख में जब डालते हैं तो उनका सौन्दर्य देखते ही बनता है।

स्वयं खाकर उसमें से कुछ भोज्य पदार्थ नन्द जी के मुख में डालते हैं तो उस सुख का वर्णन करते नहीं बनता। बालक श्रीकृष्ण के सौन्दर्य को निहार कर जो सुख नन्द-यशोदा को प्राप्त हो रहा है वह सुख तीनों लोकों में मिलना असम्भव है। भोजन करने के पश्चात् नन्द जी ने कुल्ला कर लिया है। सूरदास जी कहते हैं कि उन्हें यदि कृष्ण की जूठन ही प्राप्त हो जाए तो वे धन्य हो जाएँ।

काव्य सौन्दर्य :

  1. ब्रजभाषा का प्रयोग है, अनगनियाँ, दनियाँ, बनियाँ भुवनियाँ, जुठनियाँ आदि शब्दों का प्रयोग है। तुकबन्दी है।
  2. वात्सल्य रस तथा गुण माधुर्य है।
  3. अतिशयोक्ति, अनुप्रास अलंकार है।

[4] खेलन अब मेरी जात बलैया।
जबहि मोहि देखत लरिकन संग तबहि खिझत बल भैया।
मोसों कहत पूत वसुदेव को देवकी तेरी मैया।
मोल लियो कछु दे वसुदेव को करि करि जतन बटैया॥
अब बाबा कहि कहत नंद को यसुमति को कह मैया।
ऐसेहि कहि सब मोहि खिझावत तब उठि चलौ सिखैया॥ (2011)
पाछे नंद सुनत है ठाढ़े हँसत हँसत उर लैया।
‘सूर’ नंद बलिरामहि धिरयो सुनि मन हरख कन्हैया॥

शब्दार्थ :
लरिकन = लड़कों; संग = साथ; खिझत = चिढ़ाते हैं; बल भैया = बलराम; मोसों = मुझसे; वसुदेव = श्रीकृष्ण के पिता; देवकी = श्रीकृष्ण को जन्म देने वाली माँ; मोल = खरीदना; जतन = यत्न पूर्वक; यसुमति = श्रीकृष्ण को पालने वाली माता यशोदा; ठाढ़े = खड़े; उर = हृदय; हरख = हर्ष; कन्हैया = श्रीकृष्ण का नाम।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस पद में श्रीकृष्ण जी के द्वारा बलराम जी की शिकायत का वर्णन किया गया है। खेलते समय कभी-कभी उन्हें बलदाऊ चिढ़ाते हैं तो वे खेलने जाने से मना कर देते हैं और माता यशोदा से कहते हैं।

व्याख्या :
अब खेलने को मेरी बला जायेगी अर्थात् मैं खेलने नहीं जाऊँगा। क्योंकि जब भी बलदाऊ जी उन्हें लड़कों के संग खेलते देखते हैं, तो वे उन्हें चिढ़ाते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे मुझसे कहते हैं कि तू तो वसुदेव का पुत्र है और देवकी तेरी माता है। तुझे तो कुछ ले-देकर, बड़ी कोशिश कर के वसुदेव जी से खरीदा गया है। इसलिए अब तुम नन्द जी को बाबा कहते हो और यशोदा को मैया कहकर पुकारते हो। इस प्रकार ऐसा कहकर मुझे सभी मित्र खिझाने लगते हैं तो वह सिखाने वाला उठकर चल देता है। कृष्ण की इस बात को पीछे खड़े हुए नन्द बाबा सुन रहे हैं। वे कृष्ण को हँसते हुए अपने हृदय से लगा लेते हैं। सूरदास जी कहते हैं कि तब नन्द बाबा ने बलराम को समझाया एवं डाँट लगाई जिसे सुनकर श्रीकृष्ण जी मन में अत्यन्त प्रसन्न हो रहे हैं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. ब्रजभाषा का प्रयोग है। जतन, बटैया, मैया, सिखैया आदि शब्दों का प्रयोग है।
  2. वात्सल्य रस है। बाल मन का अत्यन्त मनोवैज्ञानिक और मनोहारी चित्रण किया गया है।

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[5] मैया मैं तो चन्द खिलौना लैहौं।
जैहों लोटि धरनि पर अबहीं, तेरी गोद न ऐहौं।
सुरभी कौ पयपान न करहौं, बैनी सिर न गुहैहौं।
हवै हौं पूत नंद बाबा को, तेरो सुत न कहैहौं।
आणु आउ, बात सुनि मेरी बलदेवहिं न जनैहौं।
हँसि समुझावति, कहति जसोमति, नई दुलनियाँ दैहौं।
तेरी सौं मेरी सुनि मैया, अबहिं बियावन जैहौं।
सूरदास है कुटिल बराती गीत सुमंगल गैहौं।

शब्दार्थ :
मैया = माँ; चन्द = चन्द्रमा; लैहौं = लूगाँ; जैहौं = जाऊँगा; धरनि = भूमि, पृथ्वी; ऐहौं = आऊँगा; सुरभी = गाय; पयपान = दुग्ध पीना; बैनी सिर = सिर पर चोटी; गुहैहों = गुँथवाऊँगा; सुत = पुत्र, बेटा; जनैहों = जताना, बताना; दुलनियाँ = दुल्हन, वधू; बियावन = ब्याह करने; अबहिं = अभी; जैहौं = जाऊँगा; सौं = सौगन्ध; गैहौं = गायेंगे।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद में बालक श्रीकृष्ण माँ यशोदा से हठकर रहे हैं कि उन्हें खेलने के लिए चन्द्र खिलौना चाहिए।

व्याख्या :
श्रीकृष्ण माँ यशोदा से कह रहे हैं कि माँ मैं तो चाँद का खिलौना लूँगा। यदि तुम चन्द्रमा को खेलने के लिए नहीं दोगी तो मैं अभी भूमि पर लोट जाऊँगा और तेरी गोद में नहीं आऊँगा। मैं गाय का दूध भी नहीं पीऊँगा तथा सिर पर चोटी भी नहीं गुंथवाऊँगा। अब मैं तेरा पुत्र न कहलाकर नन्द बाबा का पुत्र कहलाऊँगा। माँ यशोदा श्रीकृष्ण से कह रही हैं कि तुम मेरे पास आओ और मेरी बात सुनो लेकिन इस बात को बलदेव को नहीं बताना। यशोदा हँसकर श्रीकृष्ण को समझाती है और कहती है कि मैं तेरे लिए नई दुल्हन लाऊँगी। तब श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि माँ मैं तेरी सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि मैं अभी विवाह करने जाऊँगा। सूरदास जी कहते हैं कि वे श्रीकृष्ण की बारात के कुटिल बराती होकर मंगलाचार के गीत गायेंगे।

काव्य सौन्दर्य :

  1. ब्रजभाषा का प्रयोग है।
  2. श्रीकृष्ण के बाल हठ का अत्यन्त मनोवैज्ञानिक वर्णन है।
  3. वात्सल्य रस का प्रस्तुतीकरण है।

राम की बाल लीलाएँ भाव सारांश

राम भद्राचार्य गिरिधर ने राम की बाल-लीलाओं का वर्णन करते हुए बताया है कि राम माता कौशल्या की गोद में अत्यन्त सुन्दर लग रहे हैं। उनके माथे पर तिलक है, कानों में कुण्डल हैं तथा नेत्र कामदेव के समान हैं, किलकारी मारने पर उनके दाँत बहुत सुन्दर प्रतीत होते हैं।

धूल से सने हुए उनके शरीर का सौन्दर्य सैकड़ों कामदेव की शोभा लजाने वाला है। कपोलों के ऊपर काला डिठोना (टीका) सुशोभित है। बालक राम तोतली बोली बोलते हैं। ठुमक-ठुमक कर स्वर्ण जड़ित आँगन में विहार कर रहे हैं। माता राम की बाल्यकाल की क्रीड़ाओं को देखकर सुख का अनुभव कर रही हैं। प्रेम से पुलकायमान होकर उन्हें स्नान करा रही हैं। माता उनके दीर्घ जीवन हेतु भगवान से प्रार्थना करती हैं।

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राम की बाल लीलाएँ संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

[1] राघवजू जननी अंक लसे।
प्राची दिशि जनु शरद सुधाकर, पूरन है निकसे॥
भाल, तिलक सोहत श्रुति कुण्डल दृग मनसिज सरसे।
मनहुँ इन्दु मण्डल बिच अनुपम, मन्मध बारिज से॥
कल दंत वचन कबहुँ कहुँ किलकत बिलसत दशन हँसे।
दामिनी पटधर मनहुँ नीलधन, प्रेम अमिय बरसे।
खेलत शिशु लखि मुदित, कौसिला झाँकत आँचर से।
यह शिशु छवि लखि नित ‘गिरधर’ हृदय नयन तरसे॥ (2009)

शब्दार्थ :
जननी = माँ; अंक = गोद; प्राची = पूर्व; दिशि = दिशा; सुधाकर = चन्द्रमा; शरद = शीतकाल; पूरन = पूर्ण; निकसे = निकलता; भाल = माथा; तिलक = टीका; सोहत = सुशोभित; श्रुति = कान; कुण्डल = कान में पहनने का आभूषण; दृग = नेत्र; मनसिज = कामदेव; सरसे = प्रसन्न होना; अनुपम = सुन्दर; दंत = दाँत; कबहुँ = कभी; किलकत = किलकारी मारना; दामिनी = बिजली; अमिय = अमृत; शिशु = बालक; मुदित = प्रसन्न; कौसिला = राम की जन्मदात्री माँ (कौशल्या); झाँकत = झाँकते; आँचर = आँचल; छवि = शोभा; नित = प्रतिदिन; नयन = नेत्र; तरसे = तृषित।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश ‘वात्सल्य’ पाठ के ‘राम की बाल लीलाएँ’ से उद्धृत है। इसके रचयिता राम भद्राचार्य गिरिधर हैं।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्य में कवि ने माता कौशल्या की गोद में सुशोभित बालक राम के बाल्यकालीन अपूर्व सौन्दर्य का वर्णन किया है।

व्याख्या :
रामचन्द्र जी माता कौशल्या की गोद में सुशोभित हो रहे हैं। उनकी सुन्दरता को देखकर प्रतीत हो रहा है। मानो पूर्व दिशा से शरद पूर्णिमा का पूर्ण चन्द्रमा निकल आया हो। श्रीराम के माथे पर तिलक सुशोभित है, कानों में कुण्डल विराजमान हैं और उनकी आँखें कामदेव की सुन्दरता को प्राप्त कर रही है। उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो चन्द्रमण्डल के बीच में अत्यन्त सुन्दर कामदेव रूपी कमल विकसित हुआ हो जिसकी कोई उपमा नहीं की जा सकती।

सुन्दर दाँतों से सुशोभित मुख से कभी बोलते हैं, कभी किलकारी भरते हैं और उनके किलकारी भरने से उनके मुख के सुन्दर दाँत दिखाई देते हैं, जिन्हें देखकर ऐसा लगता है मानो नीले बादलों के बीच में बिजली रूपी वस्त्र चमक गया हो जिससे प्रेम की अमृत रूपी धारा बह रही हो। शिशु राम को आँचल के भीतर से बाहर झाँकते और खेलते देखकर कौशल्या का हृदय अत्यन्त प्रसन्नता से भर गया है। गिरिधर कहते हैं कि इस कवि को निरन्तर देखने के लिए उनके नेत्र तरस रहे हैं।

काव्य सौन्दर्य :

  1. बाल क्रीड़ाओं, सौन्दर्य और भावों का अत्यन्त मनोहारी और मनोवैज्ञानिक वर्णन किया गया है।
  2. उत्प्रेक्षा अलंकार की छटा दर्शनीय है।

[2] राघव जननी अंक बिराजत।
नख सिख सुभग धूरि धूसर तनु चितइ काम सत लाजत।
ललित कपोल उपर अति सोहत द्वै दै असित डिठोना॥
जनु रसाल पल्लव पर बिलसत द्वै पिक तनय सलोना।
शरद शशांक मनोहर आनन दंतुरिन लखि मन मोहे।
मनहुँ नील नीरद बिच सुन्दर चारु तड़ित तनु जोहे॥
किलकत चितई चहूँ दिसि विहँसत तोतरि वचन सुबोलत।
ठुमुकि ठुमुकि रुनझुन धुनि सुनि कनक अजिर शिशु डोलत॥
निरखि चपल शिशु चुटकी दै दै हँसि हँसि मातु बुलावे।
यह शिशु रूप राम लाला को ‘गिरधर’ दृगनि लुभावे॥

शब्दार्थ :
राघव = श्रीराम; बिराजत = सुशोभित; सुभग = सुन्दर; धूरि धूसर = धूल से सने; तनु = शरीर; चितइ = चित्त, मन; ललित = सुन्दर; द्वै = दो; डिठोना = नजर का टीका; रसाल = आम; पिक = कोयल; तनय = पुत्र; सलोना = सुन्दर; शशांक = चन्द्रमा; मनोहर = सुन्दर; नील = नीलरंग; नीरद = बादल; बिच = मध्य; चारु = सुन्दर; तड़ित = बिजली; तोतरि = तोतली; वचन = बोली; कनक = सोने; निरखि = देखकर; चपल = चंचल; दृगनि = नेत्रों; लुभावे = प्रसन्न करें।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्य में माता की गोद में सुशोभित बालक राम के सौन्दर्य का वर्णन किया गया है।

व्याख्या :
शिशु श्रीराम माता की गोदी में शोभायमान हो रहे हैं। नख से शिख तक (सिर से पैर तक) सुन्दर उनका शरीर धूल से भरा हुआ है। इस सुन्दरता को देखकर सैकड़ों कामदेव लज्जित हो जाते हैं अर्थात् धूल से सने हुए राम का शरीर इतना सुन्दर लग रहा है कि सैकड़ों कामदेवों की सुन्दरता भी उनके सामने नगण्य है। उनके गुलाबी रक्ताभ कपोलों (गालों) पर दो-दो काले डिठौने (टीके) शोभित हो रहे हैं। उन्हें देखकर प्रतीत हो रहा है कि मानो आम के पत्ते पर कोयल के दो सुन्दर बच्चे सुशोभित हो रहे हों। उनका मुख शरद पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान है, उस पर दाँतों की पंक्तियाँ मन को मोह लेती हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो नीले बादलों के मध्य विद्युत् की सफेद रेखा शोभित हो रही है। रामचन्द्र जी किलकारी मारते हैं, चारों ओर देखते हैं, और हँसते हैं तथा तोतली वाणी में बोलते हैं। वे ठुमक ठुमक कर चलते हैं। उनकी करधनी के घुघरुओं से रुनझुन की ध्वनि सुनाई दे रही है और वे शिशु राम स्वर्णजड़ित आँगन में इधर-उधर डोल रहे हैं। अपने बालक के ये मनोहर, चंचल कार्यकलाप देखकर माता हँसती है और चुटकी बजा-बजा कर उन्हें बुलाती है। गिरिधर जी कहते हैं कि राम का यह सुन्दर शिशु रूप नेत्रों को अत्यन्त मनमोहक लगता है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. बाल क्रीड़ाओं का अत्यन्त मनोवैज्ञानिक वर्णन है।
  2. उत्प्रेक्षा अलंकार की छटा द्रष्टव्य है।

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[3] राघव निरखि जननि सुख पावत।
सँघि माथ रघुनाथ गोद लै प्रेम पुलकि अन्हवावति॥
पोछि बसन पहिराइ विभूषन आशिष वचन सुनावति।
चिर जीवहु मेरे छगन मगन शिशु कहि विधि ईश मनावति॥
धूरि न भरहु शीष पर लालन यों कहि तनय बुझावति।
खेलहु अनुज सखन्ह मिलि अंगना प्रभुहि उपाय सुझावति॥
गोद राखि चुचुकारि दुलारति पुनि पालति हलरावति।
आँचर ढाँकि बदन विधु सुंदर थन पय पान करावति॥
कहति मल्हाइ खाहु कछु राघव मातु उछाइ बढ़ावति।
नजर उतारि झिगुनि जनि फेकहुँ हरिहि निहोरि बुलावति॥
देत रुचिर बहुरंग खिलौना रायहिं अजिर खिलावति।
यह झाँकी रघुवंश तिलक की ‘गिरिधर’ चितहिं चुरावति॥

शब्दार्थ :
जननि = माँ; माथ = माथा, मस्तक; पुलकि = प्रसन्न; बसन = वस्त्र; पहिराइ = पहनाकर; सरस = सुन्दर; आशिष = आशीर्वाद; ईश = भगवान; मनावति = मनाते हैं, प्रसन्न करते है; अनुज = छोटा भाई; उपाय = तरकीब; आँचर = आँचल; विधु = चन्द्रमा; बदन = शरीर; पय = दूध; उछाइ = उत्साह; बढ़ावति = बढ़ाते हैं; निहारि = निहारकर, देखकर; हरिहि = राम को; चितहिं = चित्त, मन; चुरावति = चुराते हैं; रघुवंश तिलक = श्रीराम।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पद्य में कवि रामचन्द्र की बाल लीलाओं का वर्णन करते हुए माता कौशल्या के स्नेह का वर्णन कर रहे हैं।

व्याख्या :
बालक राम को देखकर माता कौशल्या को अत्यन्त सुख प्राप्त हो रहा है। वे रघुनाथ जी (राम) का माथा चूमती हैं और उन्हें गोद में लेकर प्रेम से रोमांचित होकर स्नान कराती हैं। फिर उनका शरीर पोंछकर वस्त्र और आभूषण पहनाती हैं तथा उन्हें अनेक आशीर्वाद देती हैं। वे कहती हैं कि हे मेरे छगन मगन (छोटे से छौने) तुम चिरकाल तक जीवित रहो। इस प्रकार कहकर वे ब्रह्मा और शिव से उनकी चिरायु के लिए प्रार्थना करती हैं। वे पुत्र को यह कहकर समझाती हैं कि हे लाल ! तुम अपने सिर पर धूल मत भरो।

अपने छोटे भाइयों और मित्रों के साथ मिलकर आँगन में खेलो। वह इस प्रकार प्रभु राम को उपाय बताती हैं फिर गोद में लेकर पुचकारती हैं, दुलारती हैं फिर पालने में हिलाती हैं तथा पुनः आँचल से उनके सुन्दर चन्द्रमुख को ढककर स्तनपान कराती हैं। माता कहती हैं कि हे राघव ! तुम कुछ खा लो ऐसा कहकर उनका उत्साह बढ़ाती हैं। फिर उनकी नजर उतारती हैं उन्हें निहोरे करके (खुशामद करके) बुलाती हैं और बड़े सुन्दर रंग-बिरंगे खिलौने देती हैं तथा उन्हें आँगन में खिलाती हैं। गिरिधर कहते हैं कि रघुवंश के तिलक स्वरूप बालक राम की बाल क्रीड़ाओं की यह झाँकी हृदय को चुरा लेती है।

काव्य सौन्दर्य :

  1. माता के नेह का सूक्ष्म और मनोवैज्ञानिक वर्णन किया गया है।
  2. रघुवंश तिलक में रूपक अलंकार का प्रयोग है।

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