MP Board Class 10th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 6 शौर्य और देश प्रेम

MP Board Class 10th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 6 शौर्य और देश प्रेम

शौर्य और देश प्रेम अभ्यास

बोध प्रश्न

शौर्य और देश प्रेम अति लघु उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न 1.
सभी दिशाएँ क्या पूछ रही हैं?
उत्तर:
सभी दिशाएँ यह पूछ रही हैं कि वीरों का वसन्त कैसा हो।

प्रश्न 2.
किसके अंग-अंग पुलकित हो रहे है?
उत्तर:
पृथ्वी रूपी वधू के अंग-अंग पुलकित हो रहे हैं।

प्रश्न 3.
वसन्त के आने पर कौन तान भरने लगता है?
उत्तर:
वसन्त के आने पर कोयल अपनी तान भरने लगती हैं।

प्रश्न 4.
कवि चट्टानों की छाती से क्या निकालने के लिए कह रहा है?
उत्तर:
कवि चट्टानों की छाती से दूध निकालने के लिए कह रहा है।

प्रश्न 5.
क के अनुसार मनुष्य का भीतरी गुण क्या
उत्तर:
कवि के अनुसार मनुष्य का भीतरी गुण स्वातन्त्र्य जाति की लगन है।

प्रश्न 6.
भ्रामरी किसका अभिनन्दन करती है?
उत्तर:
जो व्यक्ति युद्ध क्षेत्र में जाकर तलवार की चोट खाकर माथे पर रक्त का चन्दन लगाता है, भ्रामरी उसी का अभिनन्दन करती है।

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शौर्य और देश प्रेम लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
ऐ कुरुक्षेत्र! अब जाग-जाग’ से कवि का क्या आशय है?
उत्तर:
‘ऐ कुरुक्षेत्र! अब जाग-जाग’ से कवि का आशय यह है कि जिस प्रकार द्वापर में कुरुक्षेत्र में अन्याय के विरुद्ध संघर्ष किया गया था, आज पुनः उसी की आवश्यकता है।

प्रश्न 2.
सिंहगढ़ का दुर्ग एवं हल्दी घाटी में किसकी याद छिपी है?
उत्तर:
सिंहगढ़ के दुर्ग में अद्वितीय वीर शिवाजी की तथा हल्दी घाटी में राणा प्रताप की याद छिपी है।

प्रश्न 3.
विजयी के सदृश बनने के लिए कवि क्या-क्या करने को कह रहा है?
उत्तर:
विजयी के सदृश बनने के लिए कवि मनुष्यों से वैराग्य छोड़ने, युद्ध में लड़ने, चट्टानों की छाती से दूध निकालने, चन्द्रमा को निचोड़ कर अमृत निकालने और ऊँची चट्टटानों पर सोमरस पीने के लिए कहता है।

प्रश्न 4.
स्वाधीन जगत में कौन जीवित रह सकता है?
उत्तर:
जो व्यक्ति अपनी आन-बान पर डटा रहता है तथा जो किसी के सामने झुकता नहीं है साथ ही जो अपने शरीर पर वज्रों का आघात सहता है, वही जाति स्वाधीन जगत में जीवित रह सकता है।

प्रश्न 5.
जीवन की परिभाषा क्या है? कवि के विचारों को लिखिए।
उत्तर:
कवि के शब्दों में जीवन गति है, जो विघ्न-बाधाओं को पार करता हुआ निरन्तर चलता रहता है। जीवन एक तरंग है, एक गर्जन है और एक चंचलता है।

प्रश्न 6.
कवि ने वीरता के कौन से दो लक्षण बताये हैं?
उत्तर:
कवि ने वीरता के दो लक्षण इस प्रकार बताये हैं-स्वर में पावक जैसी उष्णता या तीव्रता होनी चाहिए, दूसरे वीर के सिर पर तलवार की चोट का चन्दन लगा होना चाहिए।

शौर्य और देश प्रेम दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कवयित्री वीरों के लिए किस तरह वसन्त का का आयोजन करना चाहती है?
उत्तर:
कवयित्री वीरों के लिए इस तरह के वसन्त का आयोजन करना चाहती हैं, जिसमें इधर तो कोयल अपनी तान सुना रही हो और उधर मारू बाजा बज रहा हो। इस प्रकार रंग (आनन्द) और रण (युद्ध) का वातावरण बन रहा हो।

प्रश्न 2.
वसन्त उत्सव के लिए प्रेरक पंक्तियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
वसन्त उत्सव के लिए प्रेरक पंक्तियाँ निम्नलिखित हैं-
फूली सरसों ने दिया रंग,
मधु लेकर आ पहुँचा अनंग,
वधू-वसुधा, पुलकितअंग-अंग
हैं वीर-देश में, किन्तु कंत।
वीरों का कैसा हो वसन्त?

प्रश्न 3.
कवि के अनुसार जब अहं पर चोट पड़ती है तब उसकी प्रतिक्रिया क्या होती है?
उत्तर:
कवि के अनुसार जब अहं पर चोट पड़ती है, तब उसकी प्रतिक्रियास्वरूप अहं से बड़ी कोई चीज जन्म ले लेती है।

प्रश्न 4.
स्वतन्त्रता प्रेमी जाति के गुणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
स्वतन्त्रता प्रेमी जाति में लगन होती है, वह जाति धुन की पक्की होती है। चाहे कितनी भी विपत्तियाँ क्यों न आ जायें वे उनसे हार नहीं मानती है।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित पद्यांशों की व्याख्या कीजिए-
(अ) गलबाहें हो या हो कृपाण ……………. कैसा हो वसन्त?
उत्तर:
कवयित्री कहती हैं कि चाहे तो प्रेमालाप के समय कोई परस्पर गले में बाँहें डाले हो अथवा रणक्षेत्र आने पर हाथ में कृपाण (तलवार) उठी हो। चाहे आनन्द का रस विलास। हो अथवा दलित नागरिकों की रक्षा की बात हो। आज मेरे सामने यही सबसे बड़ी समस्या है कि वीरों का वसन्त कैसा हो।

(ब) स्वर में पावक …………… मनुष्यता के पथ भी खुलते हैं।
उत्तर:
कवि कहता है कि यदि तुम्हारी वाणी में आग जैसी गर्मी नहीं है तो फिर तुम्हारा क्रन्दन करना वृथा है। यदि तुममें वीरता नहीं है तो फिर सभी प्रकार की विनम्रता केवल रोना है। जिस व्यक्ति के सिर पर तलवार की चोट से रक्त और चन्दन लगा होता है, दुर्गा या काली माँ उसी व्यक्ति का अभिनन्दन किया करती हैं। – कवि कहता है कि राक्षसी रक्त से सभी पाप धुल जाया करते हैं। साथ ही ऐसी वीरता से ऊँची मनुष्यता का मार्ग खुल जाया करता है।

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शौर्य और देश प्रेम काव्य सौन्दर्य

प्रश्न 1.
संकलित कविता में से ‘वीर रस’ की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करते हुए वीर रस को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
वीर रस-जहाँ उत्साह नामक स्थायी भाव जाग्रत होकर विभाग, अनुभाव एवं संचारी के संयोग से पुष्ट होकर रस दशा में पहुँचता है, वहाँ वीर रस होता है।

उदाहरण :
वैराग्य छोड़कर बाँहों की विभा सँभालो।
चट्टानों की छाती से दूध निकालो।
है रुकी जहाँ भी धार शिलाएँ तोड़ो।
पीयूष चन्द्रमाओं को पकड़ निचोड़ो॥

प्रश्न 2.
रौद्र रस को समझाते हुए वीर एवं रौद्र रस में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
शत्रु या दुष्ट जन द्वारा किए गए अत्याचारों या गुरुजन की निन्दा आदि से उत्पन्न क्रोध स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव तथा संचारी के संयोग से पुष्ट होकर रौद्र रस के रूप में परिणत होता है।

वीर एवं रौद्र रस में अन्तर :
वीर एवं रौद्र दो भिन्न-भिन्न रूप हैं। वीर रस का स्थायी भाव उत्साह होता है जबकि रौद्र रस का स्थायी भाव क्रोध है। दोनों के आलम्बन, अनुभाव, संचारी आदि में अन्तर होता है।

प्रश्न 3.
अन्योक्ति अलंकार की उदाहरण सहित परिभाषा कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत कथन के द्वारा अप्रस्तुत का बोध हो वहाँ अन्योक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण :
नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास एहि काल।
अली कली ही सौ बिंध्यौ; आगे कौन हवाल॥

शौर्य और देश प्रेम महत्त्वपूर्ण वस्तुनिष्ठ प्रश्न

शौर्य और देश प्रेम बहु-विकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
हिमालय से क्या आ रही है? (2016)
(क) पुकार
(ख) हुंकार
(ग) दुत्कार
(घ) चीत्कार।
उत्तर:
(क) पुकार

प्रश्न 2.
वसन्त के आने पर कौन तान भरने लगता है?
(क) कौआ
(ख) मोर
(ग) कोयल
(घ) मेंढक
उत्तर:
(ग) कोयल

प्रश्न 3.
“जीवन गति है, वह नित अरुद्ध चलता है” पंक्ति पाठ्य-पुस्तक की किस कविता से ली (2009)
(क) सोये हुए बच्चे से
(ख) श्रद्धा से
(ग) उद्बोधन से
(घ) शौर्य और देश-प्रेम से।
उत्तर:
(ग) उद्बोधन से

प्रश्न 4.
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने जीवन की गति को कैसा बतलाया है?
(क) रुक-रुक कर चलने वाला
(ख) निर्मल
(ग) नित अरुद्ध
(घ) चंचल।
उत्तर:
(ग) नित अरुद्ध

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रिक्त स्थानों की पर्ति

  1. ‘वीरों का कैसा हो वसन्त’ कविता की रचयिता ………….. चौहान हैं।
  2. रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की कविता में ………….. है। (2009)
  3. महाराणा प्रताप ने अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए ……………. की अधीनता स्वीकार नहीं की।
  4. कवि के अनुसार चलते रहने का नाम ………… है।

उत्तर:

  1. सुभद्राकुमारी
  2. ओज गुण
  3. मुगलों
  4. जीवन

सत्य/असत्य

  1. ‘वीरों का कैसा हो वसन्त’ में केवल वसन्त की प्राकृतिक शोभा का वर्णन है।
  2. ‘वीरों का कैसा हो वसन्त’ में कवि ने सिंहगढ़ का किला,राणा प्रताप के शौर्य एवं वीरता की याद दिलवाई है।
  3. वसन्त ऋतु में कोयल का मधुर स्वर सुनायी पड़ता है।
  4. ‘स्वाधीन जगत में वही जाति रहती है ।’ पंक्ति ‘वीरों का कैसा हो’ वसन्त कविता की है।

उत्तर:

  1. असत्य
  2. सत्य
  3. सत्य
  4. असत्य।

सही जोड़ी मिलाइए

MP Board Class 10th Hindi Navneet Solutions पद्य Chapter 6 शौर्य और देश प्रेम img-1
उत्तर:
1. → (घ)
2. → (ग)
3. → (ख)
4. → (क)

एक शब्द/वाक्य में उत्तर

  1. ‘वीरों का कैसा हो वसन्त’ कविता में कवयित्री ने किस पर्व का आयोजन किया है?
  2. वीरों की पुकार किस स्थान से आ रही है?
  3. वसन्त ऋतु में सरसों में किसके द्वारा पीलिमा छा जाती है?
  4. नर पर जब विपत्ति आती है तब वह विपत्ति मानव को किस प्रकार की शक्ति देती है?

उत्तर:

  1. वीरों के वसन्त का
  2. हिमालय पर्वत से
  3. फूलों द्वारा
  4. संघर्षों से जूझने की।

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वीरों का कैसा हो वसन्त? भाव सारांश

प्रस्तुत कविता में कवयित्री ने राष्ट्र को परतन्त्रता से मुक्ति की अपेक्षा राग-रंग को श्रेष्ठ ठहराया है। जैसे प्रकृति अपने फूलों के माध्यम से केसरिया वस्त्र पहनती है,उसी भाँति वीरों को भी वसंत का आह्वान करना चाहिए। संपूर्ण दिशाएँ भी यह पूछ रही हैं कि वीरों का वसंत कैसा होना चाहिए? हिमालय की पुकार में भी यही स्वर गुंजायमान है। वीरों को कोकिला की तान सुनने के साथ ही रणभूमि में जाने के लिए उद्यत रहना चाहिए। कवयित्री पुनः जागृति का सन्देश देते हुए कहती है कि हे वीरो! तुम्हें भली प्रकार विदित है कि लंका में क्यों आग लगायी गयी थी, कुरुक्षेत्र में महासंग्राम क्यों हुआ था। अन्त में कवयित्री का कथन है कि मेरी कविता भूषण अथवा कवि चन्दवरदायी की कविता के समान क्रान्ति की ज्वाला धधकाने में सक्षम नहीं है क्योंकि परतन्त्रता के वातावरण में कलम पर भी बन्धन है। वह अपनी भावनाओं को ब्रिटिश शासन के उत्पीड़न के फलस्वरूप व्यक्त करने में प्तक्षम नहीं है।

वीरों का कैसा हो वसन्त? संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

(1) वीरों का कैसा हो वसन्त?
आ रही हिमालय से पुकार,
है उदधि गरजतां बार-बार
प्राची,पश्चिम,भू,नभ,अपार,
सम पूछ रहे हैं, दिग् दिगन्त
वीरों का कैसा हो वसन्त?

शब्दार्थ :
उदधि = समुद्र। प्राची = पूर्व दिशा। दिग = दिशाएँ।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत छन्द वीरों का कैसा हो वसन्त?’ शीर्षक कविता से लिया गया है। इसकी रचयिता सुश्री सुभद्रा कुमारी चौहान हैं।

प्रसंग :
इस छन्द में कवयित्री ने वीरों का वसन्त कैसा होना चाहिए के बारे में बतलाया है।

व्याख्या :
कवयित्री जी कहती हैं कि वीरों का वसन्त कैसा हो? आज हिमालय की चोटियों से यही पुकार आ रही है, समुद्र बार-बार गर्जन कर पूछ रहा है। पूर्व दिशा, पश्चिम दिशा, पृथ्वी, आकाश एवं दिग-दिगन्त सभी पूछ रहे हैं कि वीरों का वसन्त कैसा हो।

विशेष :

  1. वीरों का सम्मान हिमालय, समुद्र एवं दिशाएँ सभी करते हैं।
  2. अनुप्रास अलंकार।

(2) फूली सरसों ने दिया रंग,
मधु लेकर आ पहुँचा अनंग,
वधू-वसुधा पुलकित अंग-अंग
हैं वीर देश में, किन्तु कंत
वीरों का कैसा हो वसन्त?

शब्दार्थ :
अनंग = कामदेव। वधू-वसुधा = पृथ्वी रूपी दुल्हन। कंत = पति।

सन्दर्भ एवं प्रसंग :
पूर्ववत्।

व्याख्या :
कवयित्री जी कहती हैं कि वसन्त ऋतु में सरसों ने फूलकर अपना वसन्ती रंग सम्पूर्ण पृथ्वी पर बिखेर दिया है। कामदेव मधु लेकर स्वयं उपस्थित हो गया है। इस ऋतु में पृथ्वी रूपी वधू का अंग प्रत्यंग खुशी से पुलकित हो रहा है। आज हमारे देश में वीर तो हैं परन्तु हमारा वसन्त (पति) हमारे पास नहीं है। वीरों का वसन्त कैसा हो।

विशेष :

  1. बसन्त ऋतु की मादकता प्रकृति में छा गई है।
  2. वधू वसुधा में रूपक, अंग-अंग में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार।

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(3) भर रही कोकिला इधर तान,
मारू बाजे पर उधर गान,
है रंग और रण का विधान,
मिलने आए हैं आदि-अंत
वीरों का कैसा हो वसंत?

शब्दार्थ :
कोकिला = कोयल। मारू = युद्ध का बाजा। रण = युद्ध।

सन्दर्भ एवं प्रसंग :
पूर्ववत्।

व्याख्या :
कवयित्री कहती हैं कि एक ओर तो कोयल अपनी मीठी धुन गा-गाकर सुना रही है और दूसरी ओर युद्ध का बाजा मारू बज रहा है। ऐसा लग रहा है कि आज आनन्द और युद्ध दोनों का विधान है। ऐसा लग रहा है कि आज; आदि और अन्त दोनों मिलने के लिए आये हों। वीरों का वसन्त कैसा हो।

विशेष :

  1. चाहे वसन्त की मादकता हो या फिर कोई दूसरा आकर्षण, वीरों को अपने रण क्षेत्र से हटा नहीं सकता है।
  2. अनुप्रास अलंकार।

(4) गलबाँहे हों या कृपाण,
चल चितवन हो या धनुष बाण,
हो रस-विलास, या दलित त्राण,
अब यही समस्या है, दुरन्त,
वीरों का कैसा हो वसन्त?

शब्दार्थ :
गलबाँहें = प्रेम में प्रेमी-प्रेमिका एक-दूसरे के गले में अपनी बाँहे डाल देते हैं। कृपाण = तलवार। चल-चितवन = प्रेम में चंचल दृष्टि। रस-विलास = आनन्द का वातावरण। दलित = दबे हुए। त्राण = रक्षा। दुरन्त = मुश्किल से नष्ट होने वाली।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
जब समाज में एक ओर बलिदान की बात हो तो प्रेम की बात अच्छी नहीं लगती।

व्याख्या :
कवयित्री कहती हैं कि चाहे तो प्रेमालाप के समय कोई परस्पर गले में बाँहें डाले हो अथवा रणक्षेत्र आने पर हाथ में कृपाण (तलवार) उठी हो। चाहे आनन्द का रस विलास। हो अथवा दलित नागरिकों की रक्षा की बात हो। आज मेरे सामने यही सबसे बड़ी समस्या है कि वीरों का वसन्त कैसा हो।

विशेष :
अनुप्रास की छटा।

(5) कह दे अतीत! अब मौन त्याग,
लंके! तुझमें क्यों लगी आग?
ऐ कुरुक्षेत्र! अब जाग, जाग,
बतला अपने अनुभव अनंत,
वीरों का कैसा हो वसंत?

शब्दार्थ :
लंके = रावण की लंका। मौन = खामोशी, चुप्पी।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इसमें कवयित्री अतीत की वीर गाथाओं का सन्दर्भ लेते हुए कह रही हैं।

व्याख्या :
कवयित्री कहती है कि हे अतीत! तुम अब अपना मौन त्याग दो और विगंत की घटनाओं को बतला दो। हे लंके! तू बता तुझमें क्यों आग लगी? हे कुरुक्षेत्र! तुम अब जाग जाओ और अपने अनन्त अनुभवों को हमें बता दो। वीरों का वसन्त कैसा हो।

विशेष :

  1. कवयित्री ने लंका और कुरुक्षेत्र का मानवीकरण किया है।
  2. अतीत काल की वीर गाथाओं का स्मरण किया है।

(6) हल्दी घाटी के शिला खण्ड,
ऐ दुर्ग! सिंहगढ़ के प्रचंड,
राणा-ताना का कर घमण्ड,
दो जगा आज स्मृतियों ज्वलन्त,
वीरों का कैसा हो वसन्त?

शब्दार्थ :
शिला खण्ड = चट्टानें। ज्वलन्त = प्रखर, तेज। सन्दर्भ एवं प्रसंग-पूर्ववत्।

व्याख्या :
कवयित्री कहती हैं कि हे हल्दी घाटी के शिलाखण्डों तथा हे सिंहगढ़ के दुर्ग! तुम राणा प्रताप तथा शिवाजी की वीरता का बखान करके आज तेजी के साथ उन अतीत की स्मृतियों को जगा दो। वीरों का वसन्त कैसा हो।

विशेष :

  1. हल्दी घाटी में राणा प्रताप के शौर्य की गाथा की ओर कवयित्री ने संकेत किया है तो सिंहगढ़ के दुर्ग के माध्यम से वीर शिवाजी की वीरता का बखान किया है।
  2. मानवीकरण अलंकार।
  3. वीर रस।

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(7) भूषण अथवा कवि चन्द नहीं,
बिजली भर दे वह छन्द नहीं
है कलम बँधी, स्वच्छन्द नहीं
फिर हमें बतावै कौन? हंत!
वीरों का कैसा हो वसन्त?

शब्दार्थ :
बिजली भर दे = वीरता का संचार कर दे। हंत = दुर्भाग्य है।

सन्दर्भ एवं प्रसंग :
पूर्ववत्।

व्याख्या :
कवयित्री अतीत का स्मरण करती हुई कहती है कि अतीत काल में हमारे देश में भूषण और चन्दवरदाई जैसे वीर रस का संचार करने वाले दो महाकवि थे। भूषण ने शिवाजी के शौर्य का वर्णन कर उस समय समाज में वीरता का संचार किया था और उससे पूर्व चन्दवरदाई ने पृथ्वीराज के शौर्य का वर्णन कर तत्कालीन समाज में वीरता का संचार किया लेकिन देश का दुर्भाग्य है कि ऐसे महान कवि आज नहीं हैं। इतना ही नहीं वर्तमान शासकों ने इस प्रकार के कवियों की रचना धर्मता को कैद कर लिया है उनको बोलने की आज्ञा नहीं दी है। फिर। हमें कौन मार्गदर्शन देगा, यह हमारा दुर्भाग्य है। वीरों का वसन्त कैसा हो।

विशेष :

  1. कवयित्री अंग्रेजी शासन के उन आदेशों की ओर संकेत कर रही हैं, जब अंग्रेज शासकों ने यहाँ के कवियों द्वारा वीरता के गान पर पाबन्दी लगा दी थी।
  2. वीर रस।

उद्बोधन भाव सारांश

प्रस्तुत कविता में कवि ने मनुष्य का उद्बोधन करते हुए उसे मृत्यु से भयभीत न होने का संदेश दिया है। कवि का आग्रह है कि विषम परिस्थितियों में भी व्यक्ति को स्वाभिमान नहीं छोड़ना चाहिए। इसके लिए चाहे उसे अपना सिर कटाकर भले ही मूल्य चुकाना पड़े। व्यक्ति को अन्याय का डटकर सामना करना चाहिए।

विपत्ति के भयानक बादल छा जाने पर मानव के हृदय में संघर्ष करने की भावना जाग्रत होती है। आघात सहने के साथ ही एक छोटी सी चिंगारी अंगारे का रूप धारण कर लेती है। यदि वाणी में ज्वाला के सदृश तेज नहीं तो वह वन्दना निरर्थक है।

जीवन का नाम ही गति है। पावक के सदृश जलना ही जीवन गति का प्रत्यक्ष प्रमाण है। धरती पर आगे बढ़ने में राह में अनेक बाधायें आती हैं तब भी निरन्तर गतिमान रहना चाहिए।

उद्बोधन संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

(1) वैराग्य छोड़कर बाँहों की विभा सँभालो,
चट्टानों की छाती से दूध निकालो।
है रुकी जहाँ भी धार, शिलाएँ तोड़ो,
पीयूष चन्द्रमाओं को पकड़ निचोड़ो।
चढ़ तुंग शैल-शिखरों पर सोम पियो रे!
योगियों नहीं, विजयी की सदृश जियो रे!

शब्दार्थ :
बाँहों की विभा सँभालो = अपने पौरुष। (शक्ति) पर विश्वास करो। पीयूष = अमृत। तुंग = ऊँचे। शैल = चट्टान। सदश = समान।।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत छन्द ‘उद्बोधन’ शीर्षक कविता से लिया गया है। इसके रचनाकार श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हैं।

प्रसंग :
कवि ने मनुष्यों को वैराग्य छोड़ने और शूरता का पथ अपनाने का सन्देश दिया है।

व्याख्या :
कविवर दिनकर जी कहते हैं कि हे भारतवासियो! तुम वैराग्य की बातों को त्याग दो और अपनी भुजाओं के बल। पर विश्वास करो। तुम ऐसी चेष्टा करो कि आवश्यकता पड़ने पर चट्टानों की छाती से दूध निकाल लो। यदि तुम्हारे मार्ग में, लक्ष्य प्राप्त करने में कोई बाधाएँ आती हैं, तुम्हारी गति की धार को यदि बीच में शिलाएँ रोक देती हैं तो तुम अपने बल पर उन शिलाओं को तोड़कर अपना मार्ग स्वयं बना डालो। अमृतधारी चन्द्रमाओं को पकड़कर उन्हें निचोड़ डालो। हे वीर! तुम ऊँचे पर्वत शिखरों पर चढ़कर सोम का पान करो। अतः योगियों जैसा नहीं अपितु वीर विजेता के समान जीवन जीओ।

विशेष :

  1. समय के अनुरूप कवि ने भारतीयों को शक्ति संचित करने का उपदेश दिया है।
  2. कवि वैरागियों से घृणा करता है।
  3. लाक्षणिक शैली।

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(2) छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाए,
मत झुको अनय पर, भले व्योम फट जाए।
दो बार नहीं यमराज कंठ धरता है,
मरता है जो, एक ही बार मरता है।
तुम स्वयं मरण के मुख पर चरण धरो रे!
जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे!

शब्दार्थ :
आन = मान-मर्यादा। अनय = अनीति। व्योम = आकाश। यमराज = मृत्यु का देवता। कंठ धरता है = मनुष्य को मृत्यु देता है।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि ने हर स्थिति में अन्याय का विरोध करने और अपनी आन-बान-शान की रक्षा का सन्देश दिया है।

व्याख्या :
कवि कहता है कि अपनी आन (मान-मर्यादा) को मत छोड़ो, चाहे इसकी रक्षा के लिए तुम्हें अपना सिर भी क्यों ने कटाना पड़े। कभी भी अनीति के सामने झुको मत, चाहे फिर आकाश ही क्यों न फट जाए। कवि मनुष्यों को सचेत करते हुए कहता है कि मृत्यु का देवता यमराज किसी भी व्यक्ति के प्राणों को दो बार नहीं लेता है। जिसे भी मरना होता है, वह एक ही बार मरता है। अतः भय छोड़कर अनीति का डटकर विरोध करो। कवि कहता है कि तुममें इतना साहस होना चाहिए कि तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चढ़ बैठो। यदि तुममें जीने की इच्छा है तो फिर मौत से भी डरो मत।

विशेष :

  1. आन-बान-शान की रक्षा का उपदेश दिया है।
  2. भाषा लाक्षणिक है।
  3. वीर रस।

(3) स्वातन्त्र्य जाति की लगन, व्यक्ति की धुन है,
बाहरी वस्तु यह नहीं, भीतरी गुण है।
नत हुए बिना जो अशनि-घात सहती है,
स्वाधीन जगत् में वही जाति रहती है।
वीरत्व छोड़, पर-का मत चरण गहो रे!
जो पड़े आन, खुद ही सब आग सहो रे!

शब्दार्थ :
स्वातन्त्र्य = स्वतन्त्रता की। नत = झुकना। अशनिघात = वज्राघात। वीरत्व = वीरता को।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि कहता है कि स्वाधीन जगत में वही जाति जीवित रहती है जो अपनी रक्षा के लिए कठोर से कठोर एवं भीषण विपत्तियों का मुकाबला करती है।

व्याख्या :
कवि कहते हैं कि स्वतन्त्रता की लगन व्यक्ति – विशेष की धुन हुआ करती है। यह कोई बाहरी वस्तु नहीं अपितु यह तो भीतरी गुण है। बिना झुके हुए जो जाति वज्रों का आघात सहती है, वही जाति स्वाधीन संसार में जीवित रह सकती है।

अतः हे वीर पुरुषो! वीरता का बाना छोड़कर अन्य किसी का चरण मत पकड़ो। जो कोई भी परिस्थिति आ जाये, उसका सामना बिना संकोच के तुम्हें स्वयं करना होगा।

विशेष :

  1. अपनी जाति एवं आन की रक्षा के लिए हमें बड़ी से बड़ी विपत्ति को सहन करना होगा।
  2. लाक्षणिक शैली।
  3. वीर रस।

(4) जब कभी अहं पर नियति चोट देती है.
कुछ चीज अहं से बड़ी जन्म लेती है।
नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है,
वह उसे और दुर्घर्ष बना जाती है।
चोटें खाकर विफरो, कुछ अधिक तनो रे!
धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे!

शब्दार्थ :
नियति = भाग्य, ईश्वरीय सत्ता। भीषण = भयानक। दुर्घर्ष = कठिन। स्फुलिंग = ज्योति-कण।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि का कथन है कि विपत्तियों से मानव और अधिक ताकतवर बन जाता है।

व्याख्या :
कवि कहते हैं कि जब कभी भी अहं (आत्म सम्मान) पर भाग्य चोट देता है, तब अहं से बड़ी वस्तु का जन्म – हुआ करता है। मनुष्य पर जब भी भीषण विपत्ति आती है, तो वह उसे और कठोर बना देती है।

अतः हे वीर पुरुषो! चोटें खाकर बिफर पड़ो तथा कुछ। अधिक तन जाओ। तुम अपनी वीरता के क्रोध से धधक पड़ो और ज्योति-कण से बढ़कर अंगार बन जाओ।

विशेष :

  1. कवि ने मनुष्यों को विपत्ति में न घबड़ाने का उपदेश दिया है।
  2. लाक्षणिक शैली।
  3. वीर रस।

(5) स्वर में पावक नहीं; वृथा वन्दन है।
वीरता नहीं, तो सभी विनय क्रन्दन है;
सिर जिसके असिंघात रक्त चन्दन है।
भ्रामरी उसी का करती अभिनन्दन है।
दानवी रक्त से सभी पाप धुलते हैं।
ऊँची मनुष्यता के पथ भी खुलते हैं।

शब्दार्थ :
पावक = अग्नि। वृथा = बेकार का। क्रन्दन = रोना। असिंघात = तलवार की चोट। भ्रामरी =दुर्गा। दानवी = राक्षसी। पथ = रास्ते।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
कवि मनुष्यों में वीरता का संचार करने का उपदेश देता है।

व्याख्या :
कवि कहता है कि यदि तुम्हारी वाणी में आग जैसी गर्मी नहीं है तो फिर तुम्हारा क्रन्दन करना वृथा है। यदि तुममें वीरता नहीं है तो फिर सभी प्रकार की विनम्रता केवल रोना है। जिस व्यक्ति के सिर पर तलवार की चोट से रक्त और चन्दन लगा होता है, दुर्गा या काली माँ उसी व्यक्ति का अभिनन्दन किया करती हैं। – कवि कहता है कि राक्षसी रक्त से सभी पाप धुल जाया करते हैं। साथ ही ऐसी वीरता से ऊँची मनुष्यता का मार्ग खुल जाया करता है।

विशेष :

  1. कवि मनुष्यों में वीरता के संचार का उपदेश देता है।
  2. लाक्षणिक शैली।
  3. वीर रस।

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(6) जीवन गति है, वह नित अरुद्ध चलता है,
पहला प्रमाण पावक का, वह जलता है।
सिखला निरोध-निज्वलन धर्म छलता है।
जीवन तरंग गर्जन है, चंचलता है।
धधको अभंग, पाल-पिवल अरुण जलो रे!
धरा रोके यदि राह, विरुद्ध चलो रे!

शब्दार्थ :
अरुद्ध = बिना रुके। पावक = अग्नि। निरोध = रुकना। निर्व्वलन = जिसमें जलने की क्षमता न हो। अभंग = बिना रुकावट के। अरुण = सूर्य। धरा = पृथ्वी।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।।

प्रसंग :
कवि कहता है कि जीवन की सार्थकता निरन्तर चलते रहने में है। यदि हमारे सत्कार्य में कोई भी बाधा डाले, तो हमें उसका विरोध करना चाहिए।

व्याख्या :
कवि कहता है कि जीवन उसे ही कहते हैं जिसमें गति होती है और वह जीवन बिना किसी के रोके निरन्तर चलता रहता है। अग्नि का पहला प्रमाण ही उसमें जलने का गुण होता है। जो धर्म हमें रुकने तथा न जलने का उपदेश देता है, वह वास्तव में धर्म न होकर छलावा है। जीवन तो चंचलता एवं गर्जन में ही निवास करता है।

हे वीरो! बिना किसी रुकावट के तुम सूर्य के समान निरन्तर धधकते रहो। यदि पृथ्वी भी तुम्हारी राह रोकती है, तो तुम उसके विरुद्ध भी चल पड़ो।

विशेष :

  1. जीवन की सार्थकता चलते रहने में है।
  2. लाक्षणिक शैली।
  3. वीर रस।

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MP Board Class 10th Hindi Navneet लेखक परिचय

MP Board Class 10th Hindi Navneet लेखक परिचय

1. कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ (2009, 14, 16)

जीवन परिचय देश के प्रति विशेष अनुराग रखने वाले प्रभाकर जी का जन्म सन् 1906 ई. में सहारनपुर जिले के देवबन्द नामक कस्बे में हुआ था। उनके पिता श्री रमादत्त मिश्र एक कर्मकाण्डी ब्राह्मण थे। उनके परिवार का जीविकोपार्जन पंडिताई के द्वारा होता था। अतः पारिवारिक परिस्थितियों के अनुकूल न होने के कारण इनकी प्रारम्भिक शिक्षा का प्रबन्ध घर पर ही हुआ। इसके बाद इन्होंने खुर्जा के संस्कृत विद्यालय में प्रवेश लिया।

लेकिन वे मौलाना आसफ अली के सम्पर्क में आने पर उनसे प्रभावित होकर स्वतन्त्रता संग्राम के आन्दोलन में कूद पड़े। उन्होंने अपना जीवन राष्ट्रसेवा और साहित्य सेवा हेतु समर्पित कर दिया।

आपने अपने जीवन के बहुमूल्य वर्ष जेल में बिताये,परन्तु देश के स्वतन्त्र होने के उपरान्त प्रभाकर जी ने अपना समय साहित्य-सेवा और पत्रकारिता में लगा दिया।

माँ भारती का यह वरद् पुत्र अन्तकाल तक मानव तथा साहित्य की साधना करता हुआ सन् 1995 ई. में चिरनिद्रा में लीन हो गया।

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रचनाएँ–

  • ललित निबन्ध संग्रह-बाजे पायलिया के घुघरू।
  • संस्मरण-दीप जले-शंख बजे।
  • लघु कहानी-धरती के फूल, आकाश के तारे।
  • रेखाचित्र-माटी हो गई सोना, नयी पीढ़ी नये विचार, जिन्दगी मुस्कराई।
  • अन्य रचनाएँ-क्षण बोले कण मुस्कराये, भूले बिसरे चेहरे,महके आँगन चहके द्वार।
  • पत्र-सम्पादन-विकास, नया जीवन।
  • पत्रिका-ज्ञानोदय।

भाषा-प्रभाकर जी की भाषा सरल, सुबोध एवं प्रसादयुक्त, स्वाभाविक है। आपकी भाषा भावानुकूल है। इसमें आपने यथास्थान मुहावरे और लोकोक्तियों का प्रयोग किया है।

भाषा में यथास्थान तत्सम शब्दों का भी प्रयोग है। आपके साहित्य में वाक्य छोटे-छोटे तथा सरल हैं। इन्होंने जहाँ-तहाँ बड़े-बड़े वाक्यांशों का प्रयोग किया परन्तु शब्दों को कहीं भी जटिल नहीं होने दिया। इनकी भाषा शुद्ध व साहित्यिक खड़ी बोली है।

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शैली-प्रभाकर जी की शैली में काव्यात्मकता और चित्रात्मक दिखाई देती है। आपकी शैली भी तीन प्रकार की है

  1. वर्णनात्मक शैली-लेखक ने जहाँ विषयवस्तु का सटीक वर्णन किया है, वहाँ इस शैली का प्रयोग किया है। इस शैली का प्रयोग अधिकतर लघु कथाओं में किया है।
  2. नाटकीय शैली-इस शैली के प्रयोग से गद्य में सजीवता और रोचकता आ गयी है। इस शैली का प्रयोग रिपोर्ताज में किया गया है।
  3. भावात्मक और चित्रात्मक शैली-इस शैली का प्रयोग रिपोर्ताज और संस्मरण लिखते समय किया है। शब्दों के द्वारा इतना सुन्दर चित्रांकन अन्य किसी लेखक ने आज तक नहीं किया है।

साहित्य में स्थान-प्रभाकर जी यद्यपि आज हमारे मध्य नहीं हैं,लेकिन फिर भी हम उन्हें राष्ट्रसेवी, देशप्रेमी और पत्रकार के रूप में सदैव याद करते रहेंगे।
पत्रकारिता एवं रिपोर्ताज के क्षेत्र में इनका अद्वितीय स्थान है। सच्चे अर्थों में वे एक उच्चकोटि के साहित्यकार थे। उनके निधन से जो क्षति हुई है वह सदैव अविस्मरणीय रहेगी।

2. वासुदेवशरण अग्रवाल (2009, 12, 13, 18)

जीवन परिचय-डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल का नाम भारतीय संस्कृति, सभ्यता तथा पुरातत्त्व के क्षेत्र में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन विषयों पर उनकी विचार तथा भावों की श्रृंखला गहन चिन्तन तथा उद्गार समन्वित है।

आपका जन्म सन् 1904 ई. में मेरठ जनपद के खेड़ा ग्राम में हुआ था। आपके माता-पिता का निवास स्थल लखनऊ था, वहीं रहकर आपने प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण की। काशी विश्वविद्यालय से एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। लखनऊ विश्वविद्यालय से पी. एच. डी. की उपाधि से सम्मानित हुए।

इन्होंने संस्कृत, अंग्रेजी तथा पाली विषयों का गहन अध्ययन किया। हिन्दी काव्य का यह महारथी सन् 1966 ई.में सदा-सदा के लिए देवलोक को चला गया।

रचनाएँ-वासुदेवशरण अग्रवाल की प्रमुख कृतियाँ निम्न हैं-

  • निबन्ध संग्रह–’उर ज्योति’, ‘माता भूमि’, ‘पृथ्वी पुत्र’, ‘वेद विद्या’, ‘कला और संस्कृति’, ‘कल्पवृक्ष’,’वाग्धारा’।
  • समीक्षा—जायसी के ‘पद्मावत’ तथा कालिदास के ‘मेघदूत’ की संजीवनी व्याख्या।
  • सांस्कृतिक-‘पाणिनिकालीन भारतवर्ष’, ‘भारत की मौलिक एकता’, ‘हर्ष चरित’, ‘एक सांस्कृतिक अध्ययन’।
  • अनुवाद–’हिन्दू सभ्यता’।
  • सम्पादन–’पोद्दार अभिनन्दन ग्रन्थ’।

भाषा-डॉ. अग्रवाल ने अपनी रचना में शुद्ध एवं परिमार्जित खड़ी बोली का प्रयोग किया है।

यत्र-तत्र प्रचलित शब्दों का भी प्रयोग है। जहाँ आपने गहन विचारों तथा भावनाओं की अभिव्यक्ति की है, वहाँ भाषा का रूप जटिल हो गया है। भाषा में प्रचलित अंग्रेजी व उर्दू शब्दों का प्रयोग है। अनेक देशज शब्दों का भी प्रयोग है।

शैली-डॉ. अग्रवाल ने गवेषणात्मक शैली का प्रयोग किया है। यह शैली पुरातत्त्व विभाग के अन्वेषण से सम्बन्धित है।

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विचार प्रधान शैली-विचार प्रधान शैली का प्रयोग विषयों के विश्लेषण में देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त व्याख्यात्मक तथा उद्धरण शैली का प्रयोग भी मिलता है। समग्र रूप से भाषा-शैली उन्नत तथा प्रशंसनीय है।

साहित्य में स्थान–डॉ. अग्रवाल की विचार विश्लेषण तथा अभिव्यक्ति की शैली अपूर्व तथा सरस है, आप कुशल सम्पादक तथा टीकाकार भी हैं।

शब्दों के कुशल शिल्पी और जीवन सत्य के स्पष्ट जागरूक द्रष्टा वासुदेवशरण अग्रवाल हमारे आधुनिक साहित्य के गौरव हैं।

3. हजारीप्रसाद द्विवेदी (2009, 10, 12, 15, 17)

परिचय-आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जाने-माने श्रेष्ठ समालोचक, निबन्धकार, उपन्यासकार, निष्ठावान तथा आदर्श अध्यापक थे।

डॉ. शम्भूनाथ सिंह के कथनानुसार, “आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी हिन्दी साहित्य को बड़ी देन हैं। उन्होंने हिन्दी समीक्षा की एक नई उदार और वैज्ञानिक दृष्टि दी है।”

जीवन परिचय-आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का जन्म सन् 1907 में बलिया जिले के अन्तर्गत दुबे के छपरा नामक गाँव में हुआ। इनके पिता का नाम अनमोल द्विवेदी और माता का नाम श्रीमती ज्योति कली देवी था।

पिता की प्रेरणा एवं दिशा-निर्देशन के फलस्वरूप संस्कृत एवं ज्योतिष का गहन अध्ययन किया। शान्ति-निकेतन काशी विश्वविद्यालय एवं पंजाब विश्वविद्यालय जैसी विख्यात संस्थाओं में हिन्दी के विभागाध्यक्ष के पद पर प्रतिष्ठित रहे। शान्ति-निकेतन में रवीन्द्रनाथ टैगोर और आचार्य क्षितिज मोहन के सम्पर्क के कारण साहित्य साधना में प्राण-पण से जुट गये।

लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा डी.लिट. की उपाधि से आपको विभूषित किया गया। सन् 1957 में भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण से सम्मानित किया। 19 मई,सन् 1979 ई.को हिन्दी का . यह महान साहित्यकार सदा-सदा के लिए मृत्यु के रथ पर सवार हो गया।

रचनाएँ-आचार्य द्विवेदी जी ने साहित्य की विविध विधाओं पर अपनी लेखनी चलाई। उनकी रचनाएँ निम्न हैं

  1. आलोचना—सूर साहित्य’, ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’, ‘कबीर’, ‘सूरदास और उनका काव्य’, ‘हमारी साहित्यिक समस्याएँ’, साहित्य का साथी’, ‘साहित्य का धर्म’, ‘नख दर्पण में हिन्दी कविता’, ‘हिन्दी साहित्य’, समीक्षा साहित्य’।
  2. उपन्यास–’चारुचन्द्र लेख’, ‘अनामदास का पोथा’, ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ तथा ‘पुनर्नवा’।
  3. सम्पादन-सन्देश रासक संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो।
  4. अनूदित रचनाएँ-प्रबन्ध कोष,प्रबन्ध-चिन्तामणि, विश्व परिचय आदि।

भाषा-द्विवेदी जी की भाषा-शैली की अपनी विशेषता है। आपने अपनी रचनाओं में प्रसंगानुकूल उपयुक्त तथा सटीक भाषा का प्रयोग किया है।

भाषा के अन्तर्गत सरल, तद्भव प्रधान तथा उर्दू संस्कृत शब्दों का प्रयोग किया है। वे अपनी बात को स्वाभाविक रूप से अभिव्यक्त करने में सक्षम थे। बोल-चाल की भाषा सरल तथा स्पष्ट है। इसी भाषा को द्विवेदी जी ने अपनी कृतियों में वरीयता प्रदान की है।

भाषा में गति तथा प्रवाह विद्यमान है। मुहावरों के प्रयोग से भाषा में सुधार आ गया है। संस्कृत के शब्दों के प्रयोग से भाषा जटिल और दुरूह हो गयी है। भाषा की चित्रोपमता तथा अलंकारिता के कारण हृदयस्पर्शी और मनोरम बन गई है।

शैली-

  1. गवेषणात्मक शैली-शोध तथा पुरातत्त्व से सम्बन्धित निबन्धों में इस शैली का प्रयोग है।
  2. आत्मपरक शैली-इस शैली का प्रयोग द्विवेदी जी ने प्रसंग के साथ-साथ स्वयं को समाहित करने के लिए किया है।
  3. सूत्रात्मक शैली–बौद्धिकता के कारण अनेक स्थान पर सूत्रात्मक शैली का प्रयोग किया है।
  4. विचारात्मक शैली-अधिकांश निबन्धों में इस शैली का प्रयोग है।
  5. वर्णनात्मक शैली-द्विवेदी जी की वर्णनात्मक शैली इतनी स्पष्ट, सरस तथा सरल है कि वह वर्णित विशेष स्थलों का मानव पटल के समक्ष चित्र सा उपस्थित कर देती है।
  6. व्यंग्यात्मक शैली-इस शैली के अन्तर्गत द्विवेदी जी ने कोरे व्यंग्य किये हैं।
  7. भावात्मक शैली-द्विवेदीजी जहाँ भावावेश में आते हैं वहाँ उनकी इस शैली की सरसता दर्शनीय है।

साहित्य में स्थान द्विवेदीयुगीन साहित्यकारों में हजारीप्रसाद द्विवेदी का शीर्ष स्थान है। ललित निबन्ध के सूत्रधार एवं प्रणेता हैं। निबन्धकार,उपन्यासकार, आलोचक के रूप में आपका योगदान अविस्मरणीय हैं। आपने अपनी पारस प्रतिभा से साहित्य के जिस क्षेत्र को भी स्पर्श किया उसे कंचन बना दिया।

4. रामवृक्ष बेनीपुरी (2011, 14, 16)

जीवन परिचय–विचारों से क्रान्तिकारी तथा राष्ट्रसेवा के साथ-साथ साहित्य सेवा में संलग्न श्री बेनीपुरी जी हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। रामवृक्ष बेनीपुरी का जन्म सन् 1902 ई. में बिहार के अन्तर्गत मुजफ्फरपुर जिले में हुआ था। राष्ट्र के प्रति अनन्य निष्ठा रखने वाले बेनीपुरी ने अध्ययन पर विराम लगाकर राष्ट्रसेवा का व्रत लिया।

उन्होंने गाँधीजी के साथ असहयोग आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। वे अनेक बार जेल गये और वहाँ की यातनाओं को भी सहन किया।

17 सितम्बर, सन् 1968 ई.को ये मृत्यु के रथ पर सवार हो गये।

रचनाएँ-पैरों में पंख बाँधकर (यात्रा साहित्य), माटी की मूरतें (रेखाचित्र), जंजीर और दीवारें (संस्मरण), गेहूँ बनाम गुलाब (निबन्ध)।

भाषा-इनकी भाषा प्रवाहपूर्ण, सरस तथा ओजमयी है। संस्कृत, उर्दू तथा अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग भाषा में किया है। भाषा शुद्ध साहित्यिक हिन्दी है।

शैली-बेनीपुरी जी की शैली सरल, सरस तथा हृदयस्पर्शी है। शैली कहीं-कहीं विश्लेषणात्मक तो कहीं अन्वय व्याख्यात्मक रूप भी लिए हुए है। शैली में लालित्य का भी समन्वय है। वाक्य दीर्घ न होकर लघु हैं, जिससे भाषा में चार चाँद लग गये हैं। बेनीपुरी जी के निबन्धों में जीवन के प्रति अगाध निष्ठा व आशा के स्वर मुखरित हैं। शब्द शिल्पी रामवृक्ष बेनीपुरी की शैली का चमत्कार एवं प्रभाव उनकी कृतियों में विद्यमान है।

साहित्य में स्थान-बेनीपुरी जी हिन्दी साहित्य की अपूर्व निधि हैं। उनके साहित्य में आदर्श कल्पना एवं गहन चिन्तन का समन्वय है। सम्पादक के रूप में भी आपका विशिष्ट योगदान है।

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आपकी शैली काव्यात्मक तथा मनभावन है। प्रसाद तथा माधुर्य गुण से सम्पन्न हैं। आप ऐसे साहित्यकार थे जिनके कण्ठ में कोमल तथा माधुर्य पूर्ण स्वर,मस्तिष्क में अपूर्व कल्पना शक्ति तथा हृदय में भावना का समुद्र हिलोरें ले रहा था। उनकी कविताएँ नेत्रों के समक्ष चित्र प्रस्तुत करने में सक्षम हैं।

5. श्रीलाल शुक्ल (2010, 11, 15)

जीवन परिचय-हिन्दी साहित्य के दैदीप्यमान व्यंग्य साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल का जन्म 31 दिसम्बर,सन् 1925 को लखनऊ के समीप अतरौली नामक गाँव में हुआ था।

इनकी शिक्षा लखनऊ एवं इलाहाबाद में हुई थी। सन् 1950 में इनको (आई. ए. एस) प्रशासनिक सेवा के लिये चुन लिया। इसके अतिरिक्त उत्तर प्रदेश में इन्होंने उत्तरदायित्वपूर्ण पदों पर भी कार्य किया व अपने कर्तव्यों का उचित पालन भी किया। आप एक उच्चकोटि के व्यंग्यकार के रूप में प्रसिद्ध हुए। आज भी वे साहित्य सृजन कर हिन्दी साहित्य की सेवा कर रहे

रचनाएँ—आपकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं

  • सूनी घाटी का सूरज,
  • अज्ञातवास,
  • मकान,
  • अंगद का पाँव तथा
  • आदमी का जहर।

भाषा-श्रीलाल शुक्ल जी की भाषा सरल, सहज व सजीव है। भाषा में शुक्लजी ने यथा-स्थान मुहावरे लोकोक्तियों का प्रयोग किया है। उन्होंने अपनी भाषा में साधारण बोल-चाल के अतिरिक्त उर्दू एवं अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग किया है। उनकी भाषा में व्यंग्य का अनोखा पुट है। वह शब्दों में चार चाँद लगा देता है।

शैली-शुक्लजी ने अपने साहित्य में भाषा की भाँति अनेक प्रकार की शैली का चयन किया है।

  1. वर्णनात्मक शैली-शुक्लजी ने वर्णन शैली का प्रयोग छोटे-छोटे प्रसंगों में किया है। वाक्य छोटे व संयत व सहज हैं।
  2. भावात्मक शैली इस प्रकार की शैली में शुक्लजी ने कोमल पदावली का प्रयोग किया है।
  3. व्यंग्यात्मक शैली-शुक्लजी ने अपने साहित्य में व्यंग्यात्मक शैली का खुलकर प्रयोग किया है। उन्होंने व्यंग्य शैली का प्रयोग करके राजनीति, शिक्षा,गाँव,समाज और घर जहाँ भी अन्याय व अत्याचार दिखायी दिया उसी पर तीखा प्रहार करके समाज में फैली विसंगतियों को दूर करने का प्रयास किया है। उनकी रचनाओं में शिक्षाप्रद प्रेरक प्रसंग भी हैं।
  4. संवाद शैली-श्रीलाल शुक्लजी की रचनाओं में संवाद शैली का प्रयोग है। उनके संवाद सरल और सहज होते हैं। संवादों में स्वाभाविक शैली का प्रयोग है।
  5. विवरणात्मक शैली-इस प्रकार की शैली में घटनाओं व तथ्यों का वर्णन होता है। इस प्रकार की शैली की भाषा प्रवाहयुक्त होती है।

साहित्य में स्थान-श्रीलाल शुक्ल जी एक उच्चकोटि के व्यंग्य निबन्धकार हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में रहस्यात्मक एवं रोमांचक कथाओं के द्वारा साहित्य जगत में ख्याति प्राप्त की। उनके कई प्रसिद्ध उपन्यास हैं लेकिन ‘राग दरबारी’ उनका विशेष व्यंग्यपूर्ण आंचलिक उपन्यास है। इस उपन्यास पर उन्हें साहित्य अकादमी से पुरस्कार देकर सम्मानित किया गया। उन्होंने समाज की विसंगतियों पर प्रहार करके उन्हें दूर करने का सफल प्रयास किया है।

6. प्रेमचन्द (2009, 13, 17)

जीवन परिचय-प्रेमचन्द सच्चे अर्थों में हिन्दी उपन्यासों के जन्मदाता तथा मौलिक एवं सर्वश्रेष्ठ कहानीकार भी हैं।

इसी कारण वे जनता के मध्य उपन्यास सम्राट के रूप में विख्यात हैं।

प्रेमचन्द का जन्म सन् 1880 में बनारस के निकट लमही नामक ग्राम में हुआ। एण्ट्रेन्स की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् एक स्कूल में आठ रुपये मासिक पर अध्यापक नियुक्त हुए। इसके बाद व्यक्तिगत रूप से बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। सौभाग्यवश आप स्कूलों के डिप्टी इंस्पेक्टर पद पर प्रतिष्ठित हुए।

गाँधीजी के असहयोग आन्दोलन में आपने सक्रिय भाग लिया। इसके बाद नौकरी से त्याग-पत्र देकर आप जीवन-पर्यन्त साहित्य साधना में संलग्न रहे। सन् 1936 ई. में आप सदा के लिए मृत्यु की गोद में सो गये।

रचनाएँ-प्रेमचन्द ने हिन्दी गद्य की विविध विधाओं पर अपनी लेखनी के द्वारा हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया। प्रेमचन्द उपन्यास सम्राट के नाम से विख्यात थे। इनकी कहानियाँ भी पाठकों को मन्त्रमुग्ध कर देती हैं। इनकी कृतियाँ निम्न प्रकार हैं

  1. कहानियाँ-‘मानसरोवर’ तथा ‘गुप्तधन’ में आपकी तीन सौ से अधिक कहानियाँ संकलित हैं। पूस की रात, कफन, ईदगाह, पंचपरमेश्वर, परीक्षा, बूढ़ी काकी, बड़े घर की बेटी, सुजान भगत आदि प्रेमचन्द की प्रसिद्ध कहानियाँ हैं।
  2. उपन्यास-वरदान, प्रतिज्ञा, सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, गबन, कर्मभूमि, निर्मला, कायाकल्प, गोदान और मंगलसूत्र (अपूर्ण)।
  3. नाटक-कर्बला, संग्रमा और प्रेम की वेदी।
  4. निबन्ध संग्रह-स्वराज्य के फायदे,कुछ विचार, साहित्य का उद्देश्य।
  5. जीवनियाँ-महात्मा शेखसाथी, दुर्गादास,कलम-तलवार और त्याग।

भाषा-इन्होंने संस्कृत, अरबी एवं फारसी के प्रभाव से मुक्त भाषा का प्रयोग किया, जिससे जनसाधारण भाषा को समझ सकें। आपने हिन्दी,उर्दू का मिश्रण करके हिन्दुस्तानी भाषा का साहित्य में प्रयोग किया जो कि जनसामान्य की भाषा थी। . हिन्दी साहित्य में भारतेन्दु जी के समान प्रेमचन्द ने ही ऐसी भाषा का प्रयोग किया जो

आज भी आदर्श रूप में प्रतिष्ठित हैं। प्रेमचन्द ने प्रारम्भ में उर्दू में साहित्य सृजन किया, बाद में हिन्दी में लेखन कार्य प्रारम्भ किया। शैली-उनकी भाषा-शैली सरस,प्रवाहमय तथा सरल है जिसे हिन्दू, मुसलमान शिक्षित, अशिक्षित भली प्रकार पढ़ तथा लिख सकते हैं। मुहावरों तथा कहावतों के प्रयोग से भाषा में चार चाँद लग गये हैं।

भाषा शैली का एक उदाहरण देखिए
“अँधेरा हो चला था। बाजी बिछी हुई थी। दोनों बादशाह अपने सिंहासनों पर बैठे हुए मानो इन दोनों वीरों की मृत्यु पर रो रहे थे।”

“अनुराग स्फूर्ति का भण्डार है।”
साहित्य में स्थान प्रेमचन्द अपने युग के लोकप्रिय उपन्यासकार हैं। उनकी लोकप्रियता का कारण यह है कि उन्होंने जनसामान्य की आशा, आकांक्षाओं तथा यथार्थता का सजीव चित्रण किया है।
वे उपन्यास सम्राट के रूप में प्रसिद्ध हैं। ग्रामीण जीवन के कुशल शिल्पी हैं।

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उनके पथ का अनुसरण करते हुए समकालीन उपन्यासकार भी अपने उपन्यासों में आदर्श के सुनहरे चित्र उभारने लगे।

वास्तव में प्रेमचन्द एक उच्चकोटि के श्रेष्ठ साहित्यकार थे। उनकी कहानियाँ कला के चिरन्तन पृष्ठों पर इस कहानी सम्राट की अक्षय कीर्ति को अंकित कर रही हैं। उनकी मृत्यु पर कविन्द्र रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था—“तुझे एक रत्न मिला था, वही तूने खो दिया।”

7. पं. रामनारायण उपाध्याय (2018)

जीवन परिचय-लोक संस्कृति पुरुष पण्डित रामनारायण उपाध्याय का जन्म मध्य प्रदेश के खण्डवा जिले के कालमुखी नामक ग्राम में 20 मई,सन् 1918 को हुआ था। इनकी माता का नाम श्रीमती दर्गा देवी तथा पिता का नाम श्री सिद्धनाथ उपाध्याय था। गाँव के किसान परिवेश में रचे बसे उपाध्याय जी के व्यक्तित्व में भावुकता,सहृदयता एवं कर्मठता के स्पष्ट दर्शन होते हैं। उपाध्याय जी के व्यक्तित्व में गाँव और गाँव की संस्कृति साकार हो उठी है। रामनारायण उपाध्याय ‘राष्ट्रभाषा परिषद, भोपाल’ तथा मध्य प्रदेश आदिवासी लोककला परिषद, भोपाल के संस्थापकों में से हैं। आप जीवनपर्यन्त कई संस्थाओं से जुड़कर कार्य करते रहे। 20 जून, सन् 2001 ई. को आप इस संसार से सदैव के लिए विदा हो गए।

कृतियाँ-रामनारायण उपाध्याय अपने आंचलिक परिवेश में रम कर साहित्य सृजन करते हैं। इनकी रचनाओं में लोक कल्याण का भाव तथा प्राकृतिक सहजता का सर्वत्र समावेश रहा है ! उपाध्याय जी ने निमाडी लोक साहित्य का शोधपरक अध्ययन कर विस्तृत लेखन कार्य किया है। आपने निमाड़ी लोक साहित्य के विविध रूपों की खोज कर लोक साहित्य का संकलन किया है। इसके अतिरिक्त आपने व्यंग्य,ललित निबन्ध, संस्मरण, रिपोर्ताज आदि की रचना की है।

भाषा-शैली–श्री रामनारायण उपाध्याय की भाषा एवं शैली में सुबोधता एवं सरसता का भाव सर्वत्र विद्यमान है।

भाषा-लोक भाषाओं के मर्मज्ञ पण्डित रामनारायण उपाध्याय की साहित्यिक भाषा शुद्ध खड़ी बोली है। आपकी भाषा भाव-विचार के अनुकूल परिवर्तित होती रहती है। भाषा में प्रवाह एवं प्रभावशीलता के गुण सर्वत्र विद्यमान हैं। आवश्यकता के अनुसार उर्दू, अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग भी आपने किया है। उक्तियों,मुहावरों का वे सटीक प्रयोग करते हैं। भाषा में बनावटीपन या क्लिष्टता नहीं मिलती है।

शैली-श्री रामनारायण उपाध्याय की शैली विविध रूपिणी है। प्रमुख शैली रूप इस प्रकार हैं

  1. व्यंग्यात्मक शैली-उपाध्याय जी ने व्यंग्य रचनाओं में इस शैली का प्रयोग किया है। विविध प्रकार के संदर्भो को इंगित करते हुए अपने करारे प्रहार करने में यह शैली सफल सिद्ध हुई है। आपकी अन्य रचनाओं में भी यत्र-तत्र यह शैली देखी जा सकती है।
  2. संस्मरण शैली-संस्मरण साहित्य के लेखन में इस शैली का प्रयोग पण्डित रामनारायण उपाध्याय करते हैं। आपकी यह शैली सहृदयता, भावात्मकता तथा सरसता से पूर्ण है। आपके संस्मरणों में आत्मीयता और सत्य का सुन्दर समन्वय हुआ है।
  3. वर्णनात्मक शैली-किसी वस्तु,व्यक्ति या घटना को प्रस्तुत करते समय उपाध्याय जी वर्णनात्मक शैली का प्रयोग करते हैं। इसमें सरल भाषा तथा छोटे-छोटे वाक्यों को अपनाया गया
  4. भावात्मक शैली–पण्डित रामनारायण उपाध्याय,सहृदय,सरल एवं सरस साहित्य के रचनाकार हैं। उनके लेखन में भावात्मक शैली का पर्याप्त प्रयोग हुआ है। ललित निबन्धों के साथ-साथ संस्मरण, रिपोर्ताज, रूपक आदि में इस शैली की प्रभावशीलता अवलोकनीय है।

इसके अतिरिक्त गवेषणात्मक विचारात्मक विवेचनात्मक आदि शैली रूपों का प्रयोग उपाध्याय जी ने किया है। उनके लेखन में सम्प्रेषण की अनूठी क्षमता है।

साहित्य में स्थान-सादा जीवन उच्च विचार की प्रतिमूर्ति रहे श्री रामनारायण उपाध्याय ने लोक जीवन तथा लोक संस्कृति के लिए जो कार्य किया है वह सराहनीय है। आप अन्वेषक के साथ नवीन विधाओं के रचनाकार के रूप में विशेष स्थान रखते हैं।

महत्त्वपूर्ण वस्तुनिष्ठ प्रश्न

बहु-विकल्पीय प्रश्न

1. कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ने लिखे हैं-
(i) निबन्ध
(ii) नाटक
(iii) उपन्यास
(iv) ऐतिहासिक घटनाक्रम।
उत्तर-
(i) निबन्ध

2. डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने अध्यक्ष पद बड़ी निष्ठा और लगन से निभाया-
(i) हिन्दी विभाग का
(ii) भूगोल विभाग का
(iii) भारतीय पुरातत्त्व विभाग का
(iv) मनोविज्ञान विभाग का।
उत्तर-
(iii) भारतीय पुरातत्त्व विभाग का

3. हजारीप्रसाद द्विवेदी को अपनी साहित्यिक सेवाओं के लिए मिला
(i) भारत रत्न
(ii) साहित्य अकादमी पुरस्कार एवं पद्म भूषण
(iii) ज्ञानपीठ पुरस्कार
(iv) भारत भूषण।
उत्तर-
(ii) साहित्य अकादमी पुरस्कार एवं पद्म भूषण

4. रामवृक्ष बेनीपुरी के जीवन का महत्त्वपूर्ण समय जेल यात्राओं में बीता
(i) 1930 से 1942 तक
(ii) 1925 से 1928 तक
(ii) 1940 से 1943 तक
(iv) 1920 से 1925 तक।
उत्तर-
(i) 1930 से 1942 तक

5. व्यंग्यकार एवं कथाकार श्रीलाल शुक्ल की रचना है
(i) भारत की मौलिक एकता
(ii) अंगद का पाँव
(iii) कुटज
(iv) चिता के फूल।
उत्तर-
(ii) अंगद का पाँव

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6. पं. रामनारायण उपाध्याय का जन्म हुआ
(i) 27 नवम्बर,1929
(ii) 20 मई,1918
(iii)2 अगस्त,1919
(iv) 19 मार्च,1908।
उत्तर-
(ii) 20 मई,1918

7. सेठ गोविन्ददास का जन्म कहाँ हुआ ?
(i) जबलपुर
(ii) भोपाल
(iii) ग्वालियर
(iv) इन्दौर।
उत्तर-
(i) जबलपुर

8. हरिकृष्ण प्रेमी ने अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत किसके साथ की ?
(i) प्रेमचन्द
(i) मैथिलीशरण गुप्त
(iii) महादेवी वर्मा
(iv) माखनलाल चतुर्वेदी।
उत्तर-
(iv) माखनलाल चतुर्वेदी।

9. प्रेमचन्द का वास्तविक नाम था
(i) रासबिहारी
(ii) बाबूलाल
(iii) धनपतराय
(iv) अजायबराय।
उत्तर-
(iii) धनपतराय

10. सियारामशरण गुप्त के प्रेरणा स्रोत थे
(i) मैथिलीशरण गुप्त
(ii) जयशंकर प्रसाद
(iii) भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
(iv) माखनलाल चतुर्वेदी।
उत्तर-
(i) मैथिलीशरण गुप्त

रिक्त स्थानों की पूर्ति

1. रामनारायण उपाध्याय का जन्म जिला खण्डवा के …………………… नामक ग्राम में हुआ था।
2. सेठ गोविन्ददास ने बारह वर्ष की अवस्था में तिलिस्मी उपन्यास …………………… की रचना की।
3. सियारामशरण गुप्त के कहानी संग्रह का नाम …………………… है।
4. सुप्रसिद्ध नाटककार हरिकृष्ण प्रेमी के पौराणिक नाटक का नाम है ……………………
5. श्रीलाल शुक्ल का जन्म लखनऊ के पास …………………… नामक ग्राम में हुआ।
6. कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ …………………… लेखन में सिद्धहस्त थे।
7. डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल भारतीय पुरातत्त्व विभाग के …………………… पद पर रहे।
8. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से …………………… की उच्च शिक्षा प्राप्त की।
9. रामवृक्ष बेनीपुरी का जन्म एक …………………… परिवार में हुआ था।
10. कहानी सम्राट …………………… को कहा जाता है। [2018]
उत्तर-
1. कालमुखी,
2. चम्पावती,
3. मानुषी,
4. पाताल विजय,
5. अतरौली,
6. रिपोर्ताज,
7. अध्यक्ष,
8. ज्योतिष एवं संस्कृत,
9. साधारण किसान,
10. मुंशी प्रेमचंद।

सत्य/असत्य

1. कन्हैयालाल मिश्र ने ‘त्यागभूमि’ में पत्रकार के रूप में अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत की।
2. हजारीप्रसाद द्विवेदी का जन्म बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के एक गाँव में हुआ।
3. डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ इण्डोलॉजी में प्रोफेसर नियुक्त हुए।
4. सन् 1920 में असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के कारण रामवृक्ष बेनीपुरी को स्कूली शिक्षा अधूरी रह गई।
5. श्रीलाल शुक्ल द्वारा लिखित ‘अज्ञातवास’ धारावाहिक दूरदर्शन पर बहुत लोकप्रिय हुआ।
6. पं. रामनारायण उपाध्याय ‘राष्ट्रभाषा परिषद-भोपाल’ के संस्थापक सदस्य रहे।
7. सेठ गोविन्ददास का जन्म एक निर्धन परिवार में हुआ था।
8. हरिकृष्ण प्रेमी एक सुप्रसिद्ध उपन्यासकार थे।
9. प्रेमचन्द ने ‘माधुरी’ नामक मासिक पत्रिका का सम्पादन किया।
10. सियारामशरण गुप्त अपने अन्तिम दिनों में दिल्ली में रहे।
उत्तर-
1. असत्य,
2. असत्य,
3. सत्य,
4. सत्य,
5. असत्य,
6. सत्य,
7. असत्य,
8. असत्य,
9. सत्य,
10. सत्य।

सही जोड़ी मिलाइए

‘अ’ – ‘आ’
1. श्रीलाल शुक्ल की रचना – (क) कुंकुम-कलश
2. पण्डित रामशरण उपाध्याय द्वारा लिखित रचना – (ख) रक्षाबन्धन
3. सेठ गोविन्ददास द्वारा लिखित नाटक – (ग) प्रेम की वेदी
4. हरिकृष्ण प्रेमी का नाटक – (घ) सीमाएँ टूटती हैं
5. प्रेमचन्द द्वारा लिखित नाटक – (ङ) कर्त्तव्य
उत्तर-
1. →(घ),
2. → (क),
3. → (ङ),
4. → (ख),
5. → (ग)।

एक शब्द/वाक्य में उत्तर

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1. कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ किस नेता के भाषण से प्रभावित होकर स्वतन्त्रता आन्दोलन ___में कूद पड़े ?
2. सियारामशरण गुप्त के बड़े भाई कौन थे ?
3. डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल का जन्म किस सन् में हुआ ?।
4. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के पिता का क्या नाम था ?
5. रामवृक्ष बेनीपुरी ने ‘विशारद’ की परीक्षा कहाँ से उत्तीर्ण की ?
6. श्रीलाल शुक्ल सन् 1950 में कौन-सी सरकारी सेवा के लिए चुने गये ?
7. रामनारायण उपाध्याय ने अपनी पत्नी शकुन्तला देवी की स्मृति में किस न्यास की स्थापना की ?
8. सेठ गोविन्ददास ने सन् 1919 में कौन-सा नाटक लिखा ?
9. हरिकृष्ण प्रेमी की प्रथम रचना कौन-सी है ?।
10. प्रेमचन्द द्वारा लिखित एक उपन्यास का नाम लिखिए।
उत्तर-
1. मौलाना आसिफ अली,
2. राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त,
3. सन् 1904 में,
4. अनमोल दुबे,
5. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयोग,
6. भारतीय प्रशासनिक सेवा,
7. लोक-संस्कृति,
8. विश्वप्रेम,
9. स्वर्ण विधान,
10. निर्मला।

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MP Board Class 10th Special Hindi पद्य साहित्य का विकास

MP Board Class 10th Special Hindi पद्य साहित्य का विकास

हिन्दी काव्य साहित्य का प्रारम्भ कब हुआ ? इसके विषय में विभिन्न विद्वानों के मतभेद हैं। कुछ विद्वान 800 ई.के आस-पास, तो अन्य लोग 1000 ई. के निकट हिन्दी काव्य साहित्य का प्रारम्भ स्वीकार करते हैं । अतः इसके विषय में निश्चित नहीं कहा जा सकता है। अतः विगत 1000 वर्षों से पूर्व के हिन्दी साहित्य को सरलतापूर्वक अध्ययन करने के उद्देश्य से उसे अनेक विद्वानों ने काल खण्डों में विभाजित किया है । इसे हिन्दी साहित्य का काल विभाजन कहते हैं। काल विभाजन का श्रेष्ठतम विभाजन आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने ग्रन्थ हिन्दी साहित्य में किया है,वह इस प्रकार है-

  1. वीरगाथा काल (आदिकाल) – (सन् 993-1318 ई)
  2. भक्ति काल (पूर्व मध्यकाल) – (सन् 1318-1643 ई)
  3. रीति काल (उत्तर मध्य काल) – (सन् 1643-1843 ई)
  4. गद्य काल (आधुनिक काल) – (सन् 1843-अब तक)

MP Board Class 10th Special Hindi पद्य साहित्य का विकास img-1

आधुनिक काल या नई कविता-

  1. भारतेन्दु युग – (1843 ई.-1900 ई)
  2. द्विवेदी युग – (1900 ई.-1920 ई)
  3. छायावादी युग – (1920 ई.-1936 ई)
  4. प्रगतिवाद – (1936 ई.-1942 ई)
  5. प्रयोगवाद एवं नई कविता – (सन् 1942 ई.- अब तक)

रीति काल का संक्षिप्त परिचय

भक्ति काल में सूरदास के द्वारा कृष्ण भक्ति व तुलसीदास द्वारा रामभक्ति का उल्लेख किया गया है।

इसके उपरान्त एक नवीन काव्यधारा का जन्म हुआ। इसे रीति काल अथवा श्रृंगार काल या कला काल के नाम से पुकारा जाता है । रीति काव्य वह काव्य है, जो लक्षण के आधार पर ध्यान में रखकर रचा गया है अर्थात् बँधी हुई परम्परा में काव्य रचना की गई है । रीति काल में मुक्तक काव्य की परम्परा प्रधान रही है । इस काल में कवियों ने साहित्यिक प्रवृत्ति को प्रधानता दी है,क्योंकि भूषण जैसे वीर रस के कवि ने भी रीति ग्रन्थ की रचना की। रीति काल में कवित्त, सवैया, दोहा तथा कुण्डलियाँ छन्दों की रचना हुईं।

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रहीम, वृन्द, गिरिधर की नीतिपरक रचनाएँ बहुत प्रसिद्ध रही हैं। रीति काल में तीन प्रकार की रचनाएँ हुईं-

  1. रीतिसिद्ध,
  2. रीतिबद्ध,
  3. रीतिमुक्त

रीतिसिद्ध और रीतिबद्ध कवियों ने प्रायः राजाश्रय प्राप्त किया। अतः इन्होंने आश्रयदाताओं की प्रशंसा करके पुरस्कार प्राप्त करने की प्रबल आकांक्षा रखी है।

रीतिमुक्त कवियों ने स्वतन्त्र भाव से रचना की है। भक्ति काल को जिस प्रकार से स्वर्ण युग कहा गया, उसी प्रकार से रीति काल को कला काल और श्रृंगार काल कहकर पुकारा गया।

रीतिकालीन प्रमुख कवि और रचनाएँ इस प्रकार हैं-
प्रमुख कवि – प्रमुख रचनाएँ

  1. केशवदास – कवि प्रिया,रामचन्द्रिका, रसिक प्रिया,रतन बावनी आदि
  2. देव – रस विलास,रस रहस्य, प्रेम तरंग, काव्य रसायन
  3. भूषण – शिवा बावनी,छत्रसाल दशक, शिवराज भूषण
  4. बिहारी – ‘बिहारी सतसई’
  5. घनानन्द – सुजान रसखान, विरह लीला, पद्मावत
  6. आलम – आलम केलि
  7. ठाकुर – ठाकुर ठसक,ठाकुर शतक
  8. चिंतामणि – काव्य विवेक, श्रृंगार मंजरी
  9. मतिराम – मतिराम,माधुरी,रसराज

आधुनिक काल का संक्षिप्त परिचय
MP Board Class 10th Special Hindi पद्य साहित्य का विकास img-2
रीति काल के पश्चात् काव्य जगत में एक नवीन काव्यधारा का जन्म हुआ जिसे छायावाद के नाम से पुकारा जाता है।

छायावादी कवियों ने जीवन की विभिन्न समस्याओं पर प्रकाश डाला। प्रेम एवं मानवतावाद की भावना का काव्य के माध्यम से प्रचार एवं प्रसार किया।

छायावाद
छायावादी कवियों ने प्रकृति प्रेमी होने के कारण प्रकृति का मानवीकरण किया। नारी के महिमामय स्वरूप का बखान किया। इस युग में गाँधी व रवीन्द्रनाथ टैगोर के दर्शनों का व्यापक प्रभाव है।
छायावादी कवियों में जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पन्त और महादेवी वर्मा का प्रमुख स्थान है।

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प्रगतिवाद
छायावाद के उपरान्त प्रगतिवादी नवीन विचारधारा का जन्म हुआ। प्रगतिवादी कवि कॉर्ल मार्क्स से प्रभावित थे। अतः इन्होंने ‘कला को कला के लिए’ न मानकर ‘कला जीवन के लिए’ का सिद्धान्त अपनाया।

प्रगतिवादी युग का समय 1936 से 1942 तक माना गया है। इस युग के प्रमुख कवि-सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, निराला, दिनकर,शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ और भगवतीचरण वर्मा,नागार्जुन,केदारनाथ अग्रवाल आदि हैं।

प्रयोगवाद
प्रगतिवाद के उपरान्त सन् 1943 ई. में अज्ञेय के ‘तार सप्तक’ के प्रकाशन के उपरान्त प्रयोगवाद नाम की नई काव्य धारा का जन्म हुआ।

प्रमुख कवि-अज्ञेय, धर्मवीर भारती।

नई कविता
इन कवियों ने नये प्रतीकों,नये उपमानों एवं नये बिम्बों का प्रयोग कर काव्य परम्परा की पुरानी रीतियों से पृथक् रचना की, लेकिन इस युग की कविता न होकर अकविता हो गयी है।
सन् 1950 के बाद नई कविता का शुभारम्भ हुआ। यह कविता किसी वाद या परम्परा में बँधकर नहीं चली। इस कविता में अति यथार्थतापूर्ण वर्णन है लेकिन इस कविता से निराशा ही मिली है।

प्रमुख कवि-
भवानी प्रसाद मिश्र,गिरिजाकुमार माथुर,जगदीश गुप्त।

प्रश्नोत्तर

(क) वस्तुनिष्ठ प्रश्न

बहु-विकल्पीय प्रश्न

1. निम्नलिखित में से कौन-सी कृति रीतिकाल में लिखी गयी है?
(क) पृथ्वीराज रासो,
(ख) विनय पत्रिका,
(ग) बिहारी सतसई,
(घ) साकेत।
उत्तर-
(ग) बिहारी सतसई,

2. महाकवि भूषण की रचना है
(क) रेणुका,
(ख) चिदम्बरा,
(ग) दीप शिखा,
(घ) छत्रसाल दशक।
उत्तर-
(घ) छत्रसाल दशक।

3. रीतिमुक्त कवि कहे जाते हैं-
(क) बिहारी,
(ख) देव,
(ग) केशव,
(घ) घनानन्द।
उत्तर-
(घ) घनानन्द।

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4. रीतिकाल के कवियों में प्रधानता है
(क) सखा भाव की भक्ति प्रधानता,
(ख) समन्वयकारी भावना,
(ग) भक्ति की प्रधानता,
(घ) नारी सौन्दर्य का विलासितापूर्ण वर्णन।
उत्तर-
(घ) नारी सौन्दर्य का विलासितापूर्ण वर्णन।

5. निम्नलिखित में से कौन-सा कवि छायावादी नहीं है?
(क) जयशंकर प्रसाद,
(ख) सुमित्रानन्दन पन्त,
(ग) मैथिलीशरण गुप्त,
(घ) महादेवी वर्मा।
उत्तर-
(ग) मैथिलीशरण गुप्त,

6. प्रकृति का सुकुमार कवि कहा जाता है [2009]
(क) रामधारी सिंह ‘दिनकर’,
(ख) सुमित्रानंदन पन्त,
(ग) जयशंकर प्रसाद,
(घ) महादेवी वर्मा।
उत्तर-
(ख) सुमित्रानंदन पन्त,

7. कौन-सा अलंकार छायावाद की देन है?
(क) अनुप्रास,
(ख) उत्प्रेक्षा,
(ग) सन्देह,
(घ) मानवीकरण।
उत्तर-
(घ) मानवीकरण।

8. प्रगतिवादी कवि हैं
(क) निराला,
(ख) महादेवी वर्मा,
(ग) अज्ञेय,
(घ) प्रसाद।
उत्तर-
(क) निराला,

9. प्रयोगवाद का जनक कहा जाता है [2018]
(क) नरेश मेहता,
(ख) त्रिलोचन,
(ग) अज्ञेय,
(घ) भवानी प्रसाद मिश्र।
उत्तर-
(ग) अज्ञेय,

10. नई कविता का युग सन् से है [2010]
(क) 1936,
(ख) 1850,
(ग) 1943,
(घ) 1950.
उत्तर-
(घ) 1950.

11. छायावादी युग के प्रर्वतक हैं [2012]
(क) जयशंकर प्रसाद,
(ख) श्रीधर पाठक,
(ग) सुमित्रानन्दन पंत,
(घ) रामचन्द्र शुक्ल।
उत्तर-
(क) जयशंकर प्रसाद,

रिक्त स्थानों की पूर्ति

1. पदमाकर …….. के प्रमुख कवियों में से है। [2014, 17]
2. तुलसीदास जी ………. के कवि हैं। [2010]
3. कवि सेनापति ………… के कवि माने गये हैं। [2011]
4. महादेवी वर्मा को ……….. कहा जाता है।
5. पन्त जी के काव्य में ……… प्रकृति के दर्शन होते हैं।
6. छायावादी युग में प्रसाद के काव्य में ……… का उद्घोष दिखायी देता है।
7. तार सप्तक के प्रवर्तक ………. कवि हैं।
8. प्रयोगवाद का प्रारम्भ ……… माना जाता है।
9. नई कविता के प्रवर्तक ……… कवि हैं।
10. आधुनिक हिन्दी कविता का प्रारम्भ संवत् ……… से माना जाता है। [2016]
11. आधुनिक हिन्दी साहित्य के जन्मदाता ………. हैं। [2018]
उत्तर-
1. भक्तिकाल,
2. रामभक्ति शाखा,
3. रीतिकाल,
4. आधुनिक मीरा,
5. मानवतावादी भावना,
6. राष्ट्र प्रेम,
7. ‘अज्ञेय’,
8. 1943 ई. से,
9. डॉ. जगदीश गुप्त,
10. 1900,
11. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र।

सत्य/असत्य

1. रीतिकालीन कवियों ने शृंगार रस का सुन्दर वर्णन किया है।
2. रीतिकाल के कवियों ने निर्गुण भक्ति पर बल दिया है। [2018]
3. गिरिधर कवि की कुण्डलियाँ नीतिपरक हैं।
4. छायावादी कविता के पतन का कारण विदेशी शासन कहा जा सकता है।
5. प्रसाद ने कथा साहित्य व गद्य एवं पद्य सभी प्रकार की रचनाएँ की हैं।
6. प्रगतिवाद मार्क्सवाद से प्रभावित नहीं है।
7. प्रगतिवादी कवियों ने धर्म,जाति वर्ग को असमान माना है।
8. नई कविता में नये प्रतीकों व नवीन भाषा-शैली का प्रयोग हुआ है।
उत्तर-
1. सत्य,
2. असत्य,
3. सत्य,
4. सत्य,
5. सत्य,
6. असत्य,
7. असत्य,
8. सत्य।

सही जोड़ी मिलाइए

I. ‘अ’ – ‘ब’
1. बिहारी कवि की बिहारी सतसई – (क) केवल राजाओं की प्रशंसा करते थे
2. कामायनी जयशंकर प्रसाद का। – (ख) शृंगार का वर्णन है
3. रीतिकाल के समस्त कवि दरबारी – (ग) सुप्रसिद्ध महाकाव्य है कवि थे वे
4. प्रगतिवादी कवियों ने मानव की – (घ) प्रसिद्ध श्रृंगार रस की रचना है
5. छायावाद में सौन्दर्य की भावना, प्रेम और – (ङ) महत्ता का प्रतिपादन किया है
उत्तर-
1. → (घ),
2. → (ग),
3. → (क),
4. , (ङ),
5. → (ख)।

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II. ‘अ’ – ‘ब’
1. नागार्जुन की प्रसिद्ध रचना है – (क) भक्तिकाल
2. प्रगतिवादी कवि को शोषित वर्ग के प्रति – (ख) का विरोध किया है
3. हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग [2009] – (ग) मधुशाला है
4. प्रगतिवादी कवियों ने धर्म और ईश्वर – (घ) सहानुभूति थी
5. हरिवंश राय बच्चन की प्रमुख रचना – (ङ) “प्यासी पथराई आँखें
उत्तर-
1. → (ङ),
2. → (घ),
3. → (क),
4. → (ख),
5. → (ग)

एक शब्द/वाक्य में उत्तर
1. भक्तिकाल के पश्चात् एक नवीन विचारधारा ने जन्म लिया वह हिन्दी साहित्य में किस नाम से विख्यात है?
2. “गागर में सागर भर दिया है” यह उक्ति किस कवि के लिए प्रयोग की गयी है?
3. कठिन काव्य का प्रेत किसे कहा जाता है?
4. छायावाद के प्रमुख तीन कवियों के नाम लिखिये, जिन्होंने इस काल को स्वर्णिम बनाया।
5. छायावाद के उपरान्त काव्य जगत में क्रान्ति लाने वाले विद्रोही कवि का नाम लिखिए।
6. प्रयोगवादी कवि प्रमुख रूप से किससे प्रभावित थे?
7. प्रयोगवादी कवियों ने प्रयोग के उपरान्त क्या-क्या अन्वेषण किया?
8. ‘सुनहले शैवाल’ कविता की रचना किस कवि ने की है?
उत्तर-
1. रीतिकाल के नाम से,
2. बिहारी,
3. केशवदास,
4. महादेवी वर्मा,प्रसाद व पन्त,
5. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’,
6. फ्रायड से,
7. नये प्रतीक, नये बिम्ब, नये उपमान, नई कविता,
8. अज्ञेय।

(ख) अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
रीतिकाल को श्रृंगार काल क्यों कहा जाता है? रीतिकाल के कोई दो कवियों एवं उनकी रचनाओं के नाम लिखिए। [2015]
अथवा
रीतिकाल के प्रमुख कवि तथा उनकी एक-एक रचनाओं का उल्लेख कीजिए। [2009, 13]
अथवा
रीतिकालीन काव्य को किन धाराओं में विभक्त किया गया है? इस काल के दो कवियों के नाम लिखिए। [2011]
उत्तर-
इस काल में दरबारी कवियों ने श्रृंगार की रचनाओं का ही सृजन किया था, अतः इसे श्रृंगार काल के नाम से सम्बोधित किया जाता है। इस काल में नारी के नख-शिख का अतिरंजित चित्रण है।

रीतिकाल को तीन भागों में बाँटा गया है-

  • रीतिसिद्ध,
  • रीतिबद्ध,
  • रीतिमुक्त।

रीतिकाल के प्रमुख कवि एवं उनकी प्रतिनिधि रचनाएँ-बिहारी (‘बिहारी सतसई), केशव (रामचन्द्रिका), भूषण (शिवराज भूषण), घनानन्द (विरह लीला)।

प्रश्न 2.
रीतिकाल में कौन-से छन्दों का विशेष रूप से प्रयोग हुआ है?
उत्तर-
छन्दों में दोहा, चौपाई, कवित्त तथा सवैया छन्द का प्रयोग विशेष रूप से किया गया है।

प्रश्न 3.
रीतिकाल के कवियों की प्रमुख विशेषताएँ बताइए। [2009]
अथवा
रीतिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए। किन्हीं दो कवियों के नाम लिखिए। [2009]
उत्तर-
रीतिकाल के कवियों की विशेषताएँ इस प्रकार हैं

  1. रीति ग्रन्थों की रचना,
  2. श्रृंगार रस की प्रधानता,
  3. आश्रयदाताओं की प्रशंसा,
  4. नीतिपरक काव्यों की रचना,
  5. भक्ति-नीति प्रकृति का चित्रण,
  6. नारी-सौन्दर्य का विलासितापूर्ण चित्रण,
  7. अलंकारों का चमत्कारिक प्रयोग।

प्रमुख कवि-बिहारी, भूषण।

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प्रश्न 4.
छायावादी युग के प्रमुख चार कवियों तथा उनकी रचनाओं के नाम लिखिए। [2009, 10]
उत्तर-

  • महादेवी वर्मा-नीरजा, यामा।
  • जयशंकर प्रसाद कामायनी, लहर।
  • सुमित्रानन्दन पन्त-युगवाणी, पल्लव।
  • सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’-परिमल, अपरा।

प्रश्न 5.
छायावाद की प्रमुख प्रवृत्तियों का वर्णन कीजिए।
अथवा
छायावाद की विशेषताओं का वर्णन कीजिए। [2009, 10]
उत्तर-

  • काव्य में वर्णन की काल्पनिकता,
  • प्रकृति के कोमल पक्ष का चित्रण,
  • रहस्यवादी भावनाओं का पुट,
  • सामाजिकता के स्थान पर वैयक्तिकता।

प्रश्न 6.
छायावाद की प्रमुख दो विशेषताएँ लिखते हुए इस काल के चार कवियों के नाम, उनकी रचनाओं सहित लिखिए। [2017]
उत्तर-

  • काव्य में वर्णन की काल्पनिकता,
  • प्रकृति के कोमल पक्ष का चित्रण,
  • रहस्यवादी भावनाओं का पुट,
  • सामाजिकता के स्थान पर वैयक्तिकता।
  • महादेवी वर्मा-नीरजा, यामा।
  • जयशंकर प्रसाद कामायनी, लहर।
  • सुमित्रानन्दन पन्त-युगवाणी, पल्लव।
  • सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’-परिमल, अपरा।

प्रश्न 7.
प्रगतिवादी चार कवियों के नाम लिखिए।
उत्तर-

  • नरेन्द्र शर्मा,
  • बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’,
  • सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’,
  • सुमित्रानन्दन पन्त।

प्रश्न 8.
छायावादी युग में प्रमुख रूप से कौन-सी शैली प्रयुक्त हुई?
उत्तर-
छायावादी युग प्रमुख रूप से मुक्तक गीतों का युग है।

प्रश्न 9.
प्रगतिवाद के किसी ऐसे कवि का नाम और उसकी दो रचनाओं का उल्लेख करें जो दो युगों से सम्बन्धित हैं?
उत्तर-
सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ दो युगों-छायावाद और प्रगतिवाद से सम्बन्धित कवि हैं। इनकी दो रचनाएँ हैं-

  • अनामिका एवं
  • अणिमा।

प्रश्न 10.
प्रयोगवाद का प्रारम्भ किस कविता के संकलन से माना जाता है?
उत्तर-
प्रयोगवाद का प्रारम्भ अज्ञेय द्वारा सम्पादित तारसप्तक, जो कि सन् 1943 ई. में प्रकाशित हुआ था; से माना जाता है।

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प्रश्न 11.
प्रयोगवादी काव्यधारा के दो कवि और उनकी एक-एक रचना का उल्लेख कीजिए। [2009, 14]
उत्तर
कवि – रचना

  1. धर्मवीर भारती – कनप्रिया
  2. सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’। – ऑगन के पार द्वार

प्रश्न 12.
प्रथम ‘तारसप्तक’ के चार कवियों का नाम लिखिए।
उत्तर-

  • सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’,
  • गजानन माधव मुक्तिबोध,
  • विष्णु प्रभाकर माचवे,
  • गिरिजा कुमार माथुर।

प्रश्न 13.
अज्ञेय की कुछ रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर-

  • आँगन के पार द्वार,
  • अरी ओ करुणा प्रभामय,
  • इन्द्रधनुष रौंदे हुए ये,
  • कितनी नावों में कितनी बार,
  • बावरा अहेरी,
  • इत्यलम्,
  • चिन्ता,
  • पहले मैं सन्नाटा बुनता था,
  • सागर मुद्रा,
  • हरी घास पर क्षण भर आदि।

प्रश्न 14.
प्रगतिवादी कवियों का प्रमुख उद्देश्य क्या है?
उत्तर-
सरल शैली को अपनाकर अपनी रचनाओं को जनसाधारण तक पहुँचाना इनका मुख्य उद्देश्य रहा है।

प्रश्न 15.
प्रगतिवादी काव्य की कोई चार विशेषताएँ लिखिए। [2013, 14, 18]
अथवा
प्रगतिवाद की दो प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए। दो कवियों एवं उनकी एक-एक रचना का नाम लिखिए। [2009, 10]
उत्तर-

  • व्यंग्य शैली का प्रयोग।
  • साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित।
  • मानवीय सम्बन्धों में समानता पर जोर।
  • रूढ़ियों का विरोध।
  • क्रान्ति की भावना।
  • शोषितों की दुर्दशा का चित्रण।

प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएँ-

  • सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’-अनामिका।
  • नागार्जुन-युगाधार।
  • रामधारी सिंह ‘दिनकर’-रेणुका।

प्रश्न 16.
नई कविता की चार विशेषताएँ लिखिए। [2009]
उत्तर-

  • बौद्धिकता,
  • शिल्पगत नवीनता,
  • मानवता की महत्ता,
  • परम्परागत नहीं है।

प्रश्न 17.
नई कविता की बिम्ब योजना किस प्रकार की है?
उत्तर-
नई कविता की बिम्ब योजना सांकेतिक एवं प्रतीकात्मक रूप में अंकित है।

प्रश्न 18.
नई कविता में किस गुण का अभाव है?
उत्तर-
नई कविता में रसात्मकता का अभाव है।

प्रश्न 19.
नई कविता के दो कवि और उनकी दो-दो रचनाओं के नाम लिखिए। [2009]
उत्तर-
कवि – रचनाएँ

  1. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना काठ की घंटियाँ,बाँस का पुल
  2. गजानन माधव मुक्तिबोध चाँद का मुँह टेढ़ा है, भूरी-भूरी खाक धूल

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प्रश्न 20.
प्रयोगवादी कविता का परिष्कृत रूप क्या है?
उत्तर-
प्रयोगवादी कविता का परिष्कृत रूप नई कविता है।

प्रश्न 21.
नई कविता का उद्देश्य क्या है?
उत्तर-
नई कविता का मुख्य उद्देश्य वैयक्तिकता के साथ सामाजिकता का भी चित्रण करना है।

प्रश्न 22.
आधुनिक काल की दो प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिए।
अथवा
आधुनिक काल की कोई दो विशेषताएँ लिखते हुए बताइए कि इसे गद्य काल क्यों कहा जाता है? [2017]
उत्तर-
विशेषताएँ (प्रवृत्तियाँ)-

  1. हिन्दी काव्य में नवीन भाव, विचार एवं अभिव्यंजना का विकास हुआ।
  2. छायावाद,प्रयोगवाद एवं प्रगतिवाद का शुभारम्भ हुआ।

आधुनिक काल का समय सन् 1843 ई. से अब तक माना गया है। इस काल में हिन्दी साहित्य का बहुमुखी विकास हुआ। इस काल में अंग्रेजों के शासन के विरुद्ध जन-जागरण समाज-सुधार, नारी जागृति, हरिजनोद्धार, भाषा परिमार्जनोद्धार आदि पर विशेष ध्यान केन्द्रित रहा। आधुनिक चेतना से युक्त होने तथा गद्य प्रधान रचनाओं के कारण इस काल को आधुनिक काल अथवा गद्य काल कहा जाता है।

प्रश्न 23.
रहस्यवाद से आप क्या समझते हो?
उत्तर-

  1. महादेवी वर्मा के शब्दों में, “अपनी सीमा को असीम तत्त्व में खोजना ही रहस्यवाद है।”
  2. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में, “चिन्तन के क्षेत्र में जो अद्वैतवाद है. भावना के क्षेत्र में वही रहस्यवाद है।”

प्रश्न 24.
(अ) रहस्यवाद के दो कवियों के नाम तथा उनकी रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर-

  1. कबीर (कबीर ग्रन्थावली)
  2. मलिक मोहम्मद जायसी (पद्मावत)।

(ब) सूर एवं तुलसीदास की भक्ति भावना की दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर-
सूरदास-

  1. सखा भाव की भक्ति,
  2. कृष्ण का लोक रंजन रूप का चित्रण।

तुलसीदास

  1. दास भाव की भक्ति,
  2. राम का लोकरक्षक रूप में अंकन।

प्रश्न 25.
रीतिबद्ध एवं रीतिमुक्त काव्य से आप क्या समझते हैं?
उत्तर-
रीति का आशय है काव्य शास्त्रीय लक्षण। रीतिकाल में जो काव्य रचनाएँ काव्यशास्त्र की रीतियों अथवा लक्षणों के आधार पर लिखे गये, वे रीतिबद्ध काव्य की कोटि में आते हैं।

प्रश्न 26.
लोकायतन महाकाव्य के रचयिता कौन हैं?
उत्तर-
इसके रचयिता महाकवि सुमित्रानन्दन पन्त हैं।

प्रश्न 27.
हिन्दी साहित्य के प्रथम युग का नाम वीरगाथा काल क्यों पड़ा?
उत्तर-
इस युग में अधिकांशत: वीर रस प्रधान काव्य का सृजन हुआ है। इसलिए इस युग का नाम वीरगाथा काल पड़ा।

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(ग) लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
रीतिकाल के लिए कौन-कौन-से नाम सुझाये गये हैं? नामकरण करने वाले लेखकों के नाम लिखिए।
उत्तर-
रीतिकाल के विभिन्न नाम और नामकरण करने वाले लेखकों के नाम इस प्रकार हैं

  • रीतिकाल-आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
  • कला काल-डॉ. रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल’
  • अलंकृत काल-मिश्र बन्धु
  • श्रृंगार काल-आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र।

प्रश्न 2.
रीतिबद्ध और रीतिमुक्त काव्य में अन्तर बताइए।
उत्तर-
रीतिबद्ध काव्य में रीतिकालीन काव्य के समस्त बन्धनों एवं रूढ़ियों का दृढ़ता से पालन किया जाता था।

रीतिमुक्त कविता में रीतिकाल की परम्परा के साहित्यिक बन्धनों एवं रूढ़ियों से मुक्त स्वच्छन्द रूप से काव्य रचना की जाती थी।

प्रश्न 3.
“रीतिकाल की कविता, कविता न होकर राज दरवार की वस्तु है।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
इस काल में प्रत्येक कवि इस बात का प्रयत्न करता था कि वह अन्य कवियों से आगे निकल जाये। फलस्वरूप अपने आश्रयदाता को प्रसन्न करने के निमित्त कविता की रचना करने का प्रयास करता था। इस प्रकार कविता, कविता न होकर राज दरबार की सीमा तक सिमट कर रह गई।

प्रश्न 4.
रीतिकाल की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। [2016]
उत्तर-
रीतिकाल की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं

  • रीति या लक्षण ग्रन्थों की रचना,
  • श्रृंगार रस की प्रधानता,
  • काव्य में कलापक्ष की प्रधानता,
  • मुक्तक काव्य की प्रमुखता,
  • ब्रजभाषा का चरमोत्कर्ष,
  • आश्रयदाताओं की प्रशंसा,
  • प्रकृति का उद्दीपन रूप में चित्रण,
  • नीतिपरक सूक्तियों की रचना,
  • दोहा, सवैया, कवित्त छन्दों की प्रचुरता।

प्रश्न 5.
भारतेन्दुयुगीन काव्य की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए। [2018]
उत्तर-
भारतेन्दु युग की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

  • समाज में फैली कुरीतियों, आडम्बरों, अंग्रेजों के अत्याचारों आदि का चित्रण कर जन-जागरण करना,
  • भारत के प्राचीन गौरव तथा नवीन आवश्यकताओं का चित्रण,
  • देश-प्रेम तथा राष्ट्रीयता का उद्घोष,
  • प्रेम, सौन्दर्य और प्रकृति के विविध रूपों का अंकन,
  • सरल एवं सुबोध भाषा शैली।

प्रश्न 6.
आधुनिक काल की कविता के इतिहास को कितने कालों में विभाजित किया गया है? प्रत्येक काल के एक-एक कवि का नाम लिखिए। [2009]
उत्तर-
आधुनिक काल की कविता के इतिहास को निम्नलिखित प्रकार से विभाजित किया गया है-
काल – प्रमुख कवि

  1. छायावाद – जयशंकर प्रसाद
  2. प्रगतिवाद – सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’
  3. प्रयोगवाद – अज्ञेय
  4. नई कविता – गिरिजाकुमार माथुर

प्रश्न 7.
आधुनिक काल की चार विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर-

  • राष्ट्रीय चेतना के स्वर मुखरित हैं।
  • साहित्य की विभिन्न विधाओं का सृजन हुआ है।
  • अंग्रेजी तथा बाल साहित्य का प्रभाव दृष्टिगोचर है।
  • खड़ी बोली का प्रयोग है।
  • प्राचीन एवं नवीन का समन्वय।

प्रश्न 8.
छायावादी काव्य का परिचय दीजिए तथा प्रमुख कवियों के नाम का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
जिस काव्य में भावुकतापूर्ण व्यक्तिगत सूक्ष्म अनुभूतियों का चित्रण छाया रूप में किया गया है,मनीषियों ने छायावादी काव्य के नाम से सम्बोधित किया है। काव्य चित्रों के छाया रूप चित्रण के कारण ही छायावादी काव्य में दार्शनिकता रहस्यात्मकता दिखायी देती है।

महादेवी वर्मा,जयशंकर प्रसाद एवं सुमित्रानन्दन पन्त प्रमुख छायावादी कवि हैं।

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प्रश्न 9.
छायावादी काव्य की विशेषताएँ लिखिए। [2009, 15]
उत्तर-
छायावादी काव्य की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  • छायावादी काव्य में कल्पना को प्रधानता दी गई है।
  • प्रकृति को चेतन मानते हुए उसका सजीव चित्रण किया गया है।
  • प्रेम और सौन्दर्य की व्यंजना हुई है।
  • भाषा अत्यन्त ही सरल तथा लाक्षणिक कोमलकान्त पदावली युक्त है।
  • छन्दों तथा अलंकारों का नवीनतम् प्रयोग किया गया है।

प्रश्न 10.
प्रगतिवादी प्रमुख कवियों के नामों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
प्रगतिवादी प्रमुख कवि इस प्रकार हैं-

  • सुमित्रानन्दन पन्त,
  • सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’,
  • भगवतीचरण वर्मा,
  • रामधारी सिंह ‘दिनकर’,
  • नरेन्द्र शर्मा,
  • डॉ. रामविलास शर्मा,
  • शिवमंगल सिंह ‘सुमन’,
  • नागार्जुन,
  • केदारनाथ अग्रवाल।

प्रश्न 11.
प्रगतिवादी युग की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
प्रगतिवादी काव्यधारा में पूँजीवादी व्यवस्था का विरोध करते हुए साम्यवाद का रूपान्तरण हुआ है। प्रगतिवादी युग की विशेषताएँ इस प्रकार हैं

  • साम्यवादी विचारधारा (विशेष रूप से कार्ल मार्क्स से प्रभावित),
  • मानवतावादी दृष्टिकोण,
  • पूँजीपति के प्रति विद्रोह,
  • शोषितों के प्रति सहानुभूति,
  • छन्दों के बन्धन की उपेक्षा,
  • ‘कला को कला के लिए’ न मानकर ‘कला को जीवन के लिए’ का सिद्धान्त अपनाया।

प्रश्न 12.
प्रयोगवादी काव्यधारा का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
उत्तर-
प्रयोगवाद हिन्दी साहित्य की आधुनिकतम विचारधारा है। इसका एकमात्र उद्देश्य प्रगतिवाद के जनवादी दृष्टिकोण का विरोध करना है। प्रयोगवादी कवियों ने काव्य के भावपक्ष एवं कलापक्ष दोनों को ही महत्त्व दिया है। इन्होंने प्रयोग करके नये प्रतीकों, नये उपमानों एवं नवीन बिम्बों का प्रयोग कर काव्य को नवीन छवि प्रदान की है। प्रयोगवादी कवि अपनी मानसिक तुष्टि के लिए कविता की रचना करते थे। प्रयोगवादी कविता का प्रारम्भ 1943 ई. में अज्ञेय के ‘तारसप्तक’ के प्रकाशन से माना जाता है।

प्रश्न 13.
प्रयोगवाद की दो विशेषताएँ लिखिए। [2009, 14]
अथवा
प्रयोगवादी कविता की कोई तीन विशेषताएँ कौन-कौन-सी हैं?
उत्तर-

  • जीवन का यथार्थ चित्रण।
  • भाषा का स्वच्छन्द प्रयोग किया गया।
  • नवीन उपमानों का प्रयोग किया गया।
  • व्यक्तिवाद को प्रधानता।।

प्रश्न 14.
प्रयोगवादी प्रमुख कवियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
प्रयोगवादी प्रमुख कवि इस प्रकार हैं

  • सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ प्रवर्तक,
  • गिरिजाकुमार माथुर,
  • प्रभाकर माचवे,
  • नेमिचन्द्र जैन,
  • भारत भूषण,
  • धर्मवीर भारती,
  • गजानन माधव मुक्तिबोध,
  • शकुन्त माथुर,
  • रामविलास शर्मा,
  • भवानीप्रसाद मिश्र,
  • जगदीश गुप्त आदि।

प्रश्न 15.
नई कविता की प्रमुख विशेषताएँ बताइए। [2009]
अथवा
नई कविता की दो विशेषताएँ लिखते हुए दो कवियों के नाम लिखिए। [2016]
उत्तर-
सन् 1950 ई. के बाद नई कविता के नये रूप का शुभारम्भ हुआ। प्रयोगवादी कविता ही विकसित होकर नई कविता कहलायी। यह कविता किसी भी प्रकार के वाद के बन्धन में न बँधकर वाद मुक्त होकर रची गयी। इस प्रकार यह नया काव्य परम्परागत न होकर इतना अलग हो गया कि इसे कविता न कहकर अकविता कहा जाने लगा। नई कविता की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं

  • नये प्रतीकों व बिम्बों का प्रयोग,
  • अति यथार्थता,
  • पलायन की प्रवृत्ति,
  • वैयक्तिकता,
  • निराशावाद,
  • बौद्धिकता।

नई कविता के प्रमुख कवि-डॉ.जगदीश चन्द्र गुप्त,सोम ठाकुर, दुष्यन्त कुमार।

प्रश्न 16.
तृतीय तारसप्तक कब प्रकाशित हुआ? इसके सात कवियों के नामों का भी उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
तीसरा सप्तक’ सन् 1959 ई.में प्रकाशित हुआ। इसके सात कवि इस प्रकार हैं

  • केदारनाथ सिंह,
  • कुँवर नारायण,
  • प्रयाग नारायण त्रिपाठी,
  • मदन वात्स्यायन,
  • कीर्ति चौधरी,
  • विजय देव नारायण साही,
  • सर्वेश्वर दयाल सक्सेना।

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प्रश्न 17.
वर्तमान हिन्दी काव्य से सम्बन्धित दो प्रमुख प्रवृत्तियाँ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
वर्तमान हिन्दी काव्य की प्रवृत्तियाँ इस प्रकार हैं-
(1) नारी के प्रति परिवर्तित दृष्टिकोण,
(2) यथार्थवादी चित्रण।

प्रश्न 18.
नई कविता के प्रवर्तक कवि तथा दो जीवित कवियों का नाम लिखिए।
अथवा
नई कविता के प्रमुख कवि बताइए। [2009]
उत्तर-
नई कविता के प्रवर्तक कवि डॉ. जगदीश चन्द्र गुप्त हैं। वर्तमान में नई कविता के प्रमुख कवि हैं

  • सोम ठाकुर,
  • दुष्यन्त कुमार।

प्रश्न 19.
नई कविता की संज्ञा किस प्रकार की कविताओं को दी गयी है?
उत्तर-
जिन कविताओं में आधुनिक युगीन भावों तथा विचारों की अभिव्यक्ति नवीन भाषाशिल्पों के द्वारा होती है, उसे नई कविता की संज्ञा दी जाती है। बौद्धिकता, क्षणवाद, संघर्ष तथा व्यक्तिगत कुंठाओं की नवीन काव्य धारा में प्रधानता होती है।

प्रश्न 20.
द्विवेदी युग की कविता की तीन विशेषताएँ लिखकर दो कवियों के नाम लिखिए। [2011]
उत्तर-
द्विवेदी युग की कविता की विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

  • यथार्थ प्रधान भाव,
  • हिन्दी खड़ी बोली का प्रयोग,
  •  समाज सुधार की भावना।

कवि-

  • मैथिलीशरण गुप्त,
  • अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’।

MP Board Class 10th Hindi Solutions

MP Board Class 10th Special Hindi भाषा बोध

MP Board Class 10th Special Hindi भाषा बोध

1. सन्धि

दो वर्णों के मेल को सन्धि कहते हैं;

जैसे-

विद्या + आलय = विद्यालय, रमा + ईश = रमेश आदि।

सन्धि के भेद-सन्धि तीन प्रकार की होती हैं-

  1. स्वर सन्धि,
  2. व्यंजन सन्धि,
  3. विसर्ग सन्धि।

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(1) स्वर सन्धि
स्वर वर्ण के साथ स्वर वर्ण के मेल में जो परिवर्तन होता है, वह स्वर सन्धि कहलाता है;

जैसे-

पुस्तक + आलय = पुस्तकालय, विद्या + अर्थी = विद्यार्थी। स्वर सन्धि के पाँच प्रकार होते हैं

(अ) दीर्घ सन्धि-हस्व या दीर्घ अ,इ, उ, ऋ के बाद ह्रस्व या दीर्घ समान स्वर आये तो दोनों के मेल से दीर्घ स्वर हो जाता है।

जैसे-

हत + आश = हताश, कपि + ईश = कपीश, भानु + उदय = भानूदय आदि।

(आ) गुण सन्धि-अ या आ के बाद इ या ई आये तो दोनों के स्थान पर ए हो जाता है। अ या आ के बाद उ या ऊ आये तो ओ हो जाता है और अ या आ के बाद ऋ आये तो अर् हो जाता है।

जैसे-

देव + ईश = देवेश, वीर + उचित = वीरोचित,महा + ऋषि = महर्षि।

(इ) वृद्धि सन्धि–यदि अ या आ के बाद ए या ऐ हो तो दोनों के स्थान पर ऐ हो जाते हैं और अ या आ के बाद ओ या औ हो तो दोनों मिलकर औ हो जाते हैं;

जैसे-

सदा + एव = सदैव,महा + औषध = महौषध।

(ई) यण सन्धि–यदि हस्व या दीर्घ इ.उ.ऋके बाद कोई असमान स्वर आये तो इ का य,उ का व् एवं ऋ का र् हो जाता है;

जैसे-

  • प्रति + एक = प्रत्येक,
  • सु + आगत = स्वागत,
  • पित्र + आदेश = पित्रादेश।

(3) अयादि सन्धि–यदि ए.ऐ ओ औ के बाद कोई स्वर आये तो ए का अय.ऐ का आय, ओ का अव् और औ का आव् हो जाता है;

जैसे-

  • ने + अन = नयन,
  • नै + अक = नायक,
  • पो + अन = पवन,
  • पौ + अक = पावक।

(2) व्यंजन सन्धि
व्यंजन वर्ण के बाद व्यंजन या स्वर वर्ण के आने पर जो परिवर्तन होता है, उसे व्यंजन सन्धि कहते हैं;

जैसे-

  • जगत + ईश = जगदीश,
  • जगत + नाथ = जगन्नाथ।

(i) श्चुत्व सन्धि–यदि ‘स’ तथा त वर्ग के योग में (आगे या पीछे) ‘श’ या च वर्ग आये, तो ‘स’ के स्थान पर ‘श’ और त वर्ग के स्थान पर च वर्ग हो जाता है;

जैसे-

  • हरिस् + शेते = हरिश्शेते
  • सत् + चयन = सच्चयन
  • सत् + चरित = सच्चरित
  • श्यामस + शेते = श्यामश्शेते

(ii) ष्टनाष्ट सन्धि-यदि ‘स’ तथा त वर्ग के योग में (आगे या पीछे) ‘स’ और त वर्ग कोई भी हो तो स् का और त वर्ग का ट वर्ग (ट,ठ, ड, ढ, ण) हो जाता है;

जैसे-

  • रामस् + टीकते = रामष्टीकते
  • पेष् + ता = पेष्टा
  • तत् + टीका = तट्टीका
  • उद् + डयन = उड्डयन

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(iii) अपदान्त सन्धि-झल् अर्थात् अन्तःस्थ य र ल व् और अनुनासिक व्यंजन को छोड़कर और किसी व्यंजन के पश्चात् झश् आवे तो पहले वाले व्यंजन जश् (ज, व, ग, ड,द) में बदल जाते हैं;

जैसे-

  • योध् + धा = योद्धा
  • एतत् + दुष्टम् = एतदुष्टम्
  • बुध् + धिः = बुद्धिः
  • दुध् + धम् = दुग्धम्

(iv) चरत्व सन्धि–यदि जल् (अनुनासिक व्यंजन) ड,ज,ण, न,म् तथा अन्तःस्थ-य् र् ल् व् को छोड़कर किसी भी व्यंजन के बाद ख्र (वर्ग का प्रथम, द्वितीय व्यंजन) क् च् त् प् तथा श् ष् स् में से कोई आये, तो झल् के स्थान चर् (उसी वर्ग का प्रथम अक्षर) हो जाता है;

जैसे-

  • वृक्षात् + पतति = वृक्षात्पतति
  • विपद् + कालः = विपत्काल
  • सद् + कारः = सत्कार
  • तज् + शिवः = तत्छिव

(v) अनुस्वार सन्धि-यदि पद के अन्त में ‘म्’ आये और उसके बाद कोई व्यंजन आवे तो ‘म्’ के स्थान पर अनुस्वार (-) हो जाता है। यथा

  • हरिम् + वन्दे = हरिं वन्दे
  • गृहम् + चलति = गृहं
  • चलति गृहम् + गच्छति = गृहं गच्छति
  • सत्यम् + वद = सत्यं वद
  • कार्यन् + कुरु = कार्यं कुरु

(vi) लत्व सन्धि–यदि त वर्ग (त् थ् द् ध् न्) के बाद ल आये तो त वर्ग के स्थान पर ल हो जाता है;

जैसे-

  • तत् + लीन = तल्लीन
  • उद् + लेख = उल्लेख

(vii) परसवर्ण सन्धि–यदि अनुस्वार (-) के बाद श, ष,स, ह को छोड़कर कोई अन्य व्यंजन आए तो अनुस्वार के स्थान पर अगले वर्ग का पंचम वर्ण हो जाता है;

जैसे-

  • शां + त = शान्त
  • अं + क = अंक

(3) विसर्ग सन्धि
विसर्ग के साथ स्वर या व्यंजन के मिलने से जो परिवर्तन होता है, उसे विसर्ग सन्धि कहते हैं;

जैसे-

  • निः + आशा = निराशा,
  • मनः + ताप = मनस्ताप।

विग्रह-शब्द के वर्गों को अलग-अलग करना विग्रह या विच्छेद कहलाता है;

जैसे-

  • रमेश = रमा + ईश,
  • वस्त्रालय = वस्त्र + आलय।

(i) विसर्ग सन्धि–विसर्ग के बाद यदि ‘खर्’ प्रत्याहार का कोई वर्ण (वर्ग का प्रथम, द्वितीय तथा श् ष स) रहे, तो विसर्ग के स्थान पर ‘स्’ हो जाता है;

जैसे-

  • विष्णुः + माता = विष्णुस्माता
  • रामः + मायते = रामस्मायते
  • निः + छलः = निश्छल = निश्छल

(ii) रुत्व सन्धि-पदान्त ‘स्’ तथा सजुष् शब्द के ष् के स्थान में (र) हो जाता है। इस पदान्तर के बाद र द् प्रत्याहार (वर्गों के प्रथम, द्वितीय और स्) का कोई अक्षर हो अथवा कोई भी वर्ण न हो,तो र के स्थान में विसर्ग हो जाता है;

जैसे-

  • हरिस् + अवदत् = हरिरवदत्
  • वधूस + एषा = बधूरेषा
  • पुनस् + आगत = पुनरागत
  • पुनस् + अन्तरे = पुनरन्तरे

(iii) उत्व सन्धि-स् के स्थान में जो र् आदेश होता है, उसके पूर्व यदि ह्रस्व अ आवे और बाद में ह्रस्व अ अथवा हश् प्रत्याहार का कोई अक्षर आवे,तो र के स्थान में उ हो जाता है;

जैसे-
शिवस् + अर्घ्यः = शिवर् + अर्घ्यः = शिव + उ + अर्घ्यः = शिवो + अर्ध्यः = शिवोऽर्यः . रामस् + अस्तिरामर् + अस्ति = राम + उ + अस्ति = रामोऽस्ति सः + अपि = सस् + अपि = सर् + अपि = स + उ + अपि = सोऽपि। बालस् + वदति = बालर् + वदति = बाल + उ + वदति = बालो वदति

(iv) र लोप सन्धि-यदि ‘र’ के बाद ” आए तो पहले ‘र’ का लोप हो जाता है और यदि लुप्त होने वाले ‘र’ से पूर्व अ, इ, उ में से कोई हो, तो वह स्वर दीर्घ हो जाता है; जैसे-

  • हरिर् + रम्यः = हरीरम्यः
  • शम्भुर् + राजते = शम्भूराजते।

सन्धि-विग्रह-सन्धि के जोड़े गये वर्गों को अलग-अलग करना विच्छेद कहा जाता है। जैसे-‘पुस्तकालय’ का सन्धि-विच्छेद ‘पुस्तक + आलय’, ‘महेश’ का सन्धि-विच्छेद ‘महा + ईश’ होगा।

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अन्य उदाहरण-
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MP Board Class 10th Special Hindi भाषा बोध img-2

2. समास

दो या दो से अधिक पदों के योग से बने शब्द को समास कहते हैं। समास छ: प्रकार के होते हैं

(1) अव्ययीभाव समास-जिस समास में प्रथम पद अव्यय हो तथा वह पद ही प्रधान हो, वहाँ अव्ययीभाव समास होता है।
जैसे-
प्रतिदिन–प्रत्येक दिन, यथाशक्ति-शक्ति के अनुसार, आजीवन-जीवनपर्यन्त या जीवनभर।

(2) तत्पुरुष समास-जिस समास में उत्तर पद प्रधान होता है तथा पूर्व पद के कारक (विभक्ति) का लोप करके दोनों पदों को मिला दिया जाता है, वहाँ तत्पुरुष समास होता है।
जैसे-
मन्त्रीपुत्र-मन्त्री का पुत्र,समुद्रयात्रा-समुद्र की यात्रा, विद्यालय [2009] विद्या का आलय, व्यायामशाला व्यायाम की शाला,पर्वतमाला-पर्वतों की माला,दुर्गपति-दुर्ग का पति।

विभक्तियों के भेद के आधार पर इसके कर्म तत्पुरुष, करण तत्पुरुष, सम्प्रदान तत्पुरुष, अपादान तत्पुरुष, सम्बन्ध तत्पुरुष तथा अधिकरण तत्पुरुष छ: प्रकार के होते हैं।

(3) कर्मधारय समास-विशेषण और विशेष्य अथवा उपमान और उपमेय के मिलने पर कर्मधारय समास होता है।
जैसे-
श्वेताम्बर-श्वेत है जो अम्बर, मधुरस-मधुर रस, घनश्याम-घन के समान श्याम।

(4) द्वन्द्व समास-इस समास में दोनों पद प्रधान होते हैं, परन्तु उसके संयोजक शब्द ‘और’ का लोप रहता है। [2010]
जैसे-
आदान-प्रदान-आदान और प्रदान, भाई-बहिन-भाई और बहिन, राम-कृष्ण-राम और कृष्ण,शत्रु-मित्र-शत्रु और मित्र, पिता-पुत्र-पिता और पुत्र।

(5) द्विगु समास-जिस समास में पूर्व पद- संख्यावाचक हो वह द्विगु समास कहलाता है। [2009]
जैसे-
सप्तद्वीप-सात द्वीपों का समूह, त्रिभुवन-तीन भुवनों का समूह, अष्टकोण-आठ कोण, षडानन—षट् मुख।

(6) बहुब्रीहि समास-जिस समास में पूर्व एवं उत्तर पद के अतिरिक्त कोई अन्य पद प्रधान होता है, उसे बहुब्रीहि समास कहते हैं। [2009]
जैसे-
पंचानन—पाँच मुख वाला = शिव,लम्बोदर-लम्बा है उदर जिसका = गणेश।

विग्रह सहित समास के कुछ उदाहरण-
MP Board Class 10th Special Hindi भाषा बोध img-3
MP Board Class 10th Special Hindi भाषा बोध img-4
MP Board Class 10th Special Hindi भाषा बोध img-5

3. वाक्य के प्रकार

शब्दों का वह समूह जिसका कुछ अर्थ निकलता हो, उसे वाक्य कहते हैं। अर्थ के आधार पर वाक्य के आठ प्रकार होते हैं—

  1. विधानार्थ वाक्य-साधारणतः जिस वाक्य में किसी बात का उल्लेख किया जाए, वह विधानार्थक वाक्य कहलाता है।
    जैसे- श्याम नित्यप्रति घूमने जाता है।
  2. निषेधात्मक वाक्य-जिन वाक्यों में ना या निषेध का भाव हो, वे निषेधात्मक वाक्य कहलाते हैं।
    जैसे- राम आज पढ़ने नहीं आयेगा।
  3. प्रश्नवाचक वाक्य-जिन वाक्यों में प्रश्न किया जाये,वे प्रश्नवाचक वाक्य कहलाते हैं।
    जैसे- क्या आप मेला देखने जायेंगे।
  4. आज्ञार्थक वाक्य-जिन वाक्यों में आज्ञा देने का भाव पाया जाता है, वे आज्ञार्थक वाक्य कहलाते हैं।
    जैसे-तुम विद्यालय जाओ।
  5. उपदेशात्मक वाक्य-उपदेश या परामर्श देने वाले वाक्य उपदेशात्मक वाक्य कहलाते हैं।
    जैसे- गुरु की आज्ञा का पालन करना चाहिए।
  6. इच्छासूचक वाक्य-इच्छा, आशीष या निवेदन प्रकट करने वाले वाक्य इच्छा सूचक वाक्य कहलाते हैं।
    जैसे- ईश्वर करे, तुम्हारी नौकरी लग जाये।
  7. विस्मयादिबोधक वाक्य-हर्ष, शोक, दर्द, भय, क्रोध, घृणा आदि प्रकट करने वाले वाक्य विस्मयादिबोधक वाक्य कहलाते हैं।
    जैसे- आह ! कितना भयानक दृश्य है।
  8. सन्देहसूचक वाक्य-सन्देह या सम्भावना प्रकट करने वाले वाक्य सन्देहसूचक वाक्य कहलाते हैं।
    जैसे- सम्भवतः वह लौट नहीं पायेगा।

4. वाक्य परिवर्तन

एक प्रकार के वाक्य को दूसरे प्रकार के वाक्य में बदलना वाक्य परिवर्तन कहलाता है। वाक्य परिवर्तन में अर्थ या भाव का ध्यान रखना आवश्यक होता है।

विधानार्थ वाक्य से निषेधवाचक वाक्य में परिवर्तन

विधानार्थ वाक्य – निषेधवाचक वाक्य
1. राम घर में सबसे बड़ा है। – घर में राम से बड़ा कोई नहीं है।
2. ताज सबसे सुन्दर इमारत है। – ताज से सुन्दर इमारत कोई नहीं है।
3. रहीम निर्धन है। – रहीम धनवान नहीं है।

विधानार्थक वाक्य से प्रश्नवाचक वाक्य में परिवर्तन
विधानार्थक वाक्य – प्रश्नवाचक वाक्य
1. श्याम मेरा भाई है। – क्या श्याम मेरा भाई है?
2. विवेक धनवान है। – क्या विवेक धनवान है?
3. चिन्मय सो रहा है। – क्या चिन्मय सो रहा है?

विधानार्थक वाक्य से आज्ञावाचक वाक्य में परिवर्तन
विधानार्थक वाक्य – आज्ञावाचक वाक्य
1. पिता का आदर करते हैं। – पिता का आदर करो।
2. विभोर दूध पीता है। – विभोर,दूध पिओ।
3. सुभाष समाज की सेवा करता है। – सुभाष,समाज की सेवा करो। .

विधानार्थक वाक्य से उपदेशात्मक वाक्य में परिवर्तन
विधानार्थक वाक्य – उपदेशात्मक वाक्य
1. राजीव खाना खाता है। – ‘राजीव को खाना खाना चाहिए।
2. मोहन पानी पीता है। – मोहन को पानी पीना चाहिए।
3. सिद्धार्थ सोता है। – सिद्धार्थ को सोना चाहिए।

विधानार्थक वाक्य से विस्मयादिबोधक वाक्य में परिवर्तन
विधानार्थक वाक्य – विस्मयादिबोधक वाक्य
1. वह दृश्य बड़ा सुन्दर है। – वाह ! वह दृश्य कितना सुन्दर है।
2. यह झील बहुत गहरी है। – ओ ! यह झील कितनी गहरी है।
3. रमन बहुत कमजोर हो गया है। – अरे ! रमन कितना कमजोर हो गया है।

5. अनेक शब्दों के लिए एक शब्द

संक्षेप में बात कहना एक विशेषता मानी गई है। अनेक शब्दों के लिए एक शब्द बोलने से ही संक्षिप्तता आती है। सूत्र रूप में बात कहने की परम्परा श्रेष्ठ मानी गई है। अनेक शब्दों के लिए एक शब्द की तालिका में कुछ शब्द यहाँ प्रस्तुत हैं-

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अनेक शब्द – एक शब्द

  • हाथी को हाँकने का हुक – अंकुश
  • जो जीता न जा सके – अजेय
  • वह बच्चा जिसके माता-पिता न हों – अनाथ [2017]
  • बिना वेतन के काम करने वाला – अवैतनिक
  • जिसका कोई शत्रु न हो – अजातशत्रु
  • जिसके समान दूसरा न हो – अद्वितीय [2010, 17]
  • जो कभी मरता न हो – अमर [2009]
  • जिसकी कोई सीमा न हो – असीम
  • दोपहर के बाद का समय – अपराह्न
  • जो ईश्वर में विश्वास करता है। – आस्तिक [2009, 17]
  • आदि से अन्त तक – आद्योपरान्त
  • इन्द्रियों को जीतने वाला – इन्द्रियजित
  • जिसका हृदय उदार हो – उदार हृदय
  • जिसका उल्लेख करना आवश्यक हो – उल्लेखनीय
  • जिस भूमि में कुछ पैदा न होता हो – ऊसर
  • विद्या पढ़ने वाला – विद्यार्थी
  • सदैव रहने वाला – शाश्वत
  • श्रद्धा करने योग्य – श्रद्धेय
  • जो सब कुछ आनता हो – सर्वज्ञ
  • जो सबसे श्रेष्ठ हो – सर्वश्रेष्ठ
  • जो सबका प्यारा हो – सर्वप्रिय
  • अपने ही बल पर निर्भर रहने वाला। – स्वावलम्बी
  • अपना ही हित चाहने वाला – स्वार्थी
  • हाथ से लिखा हुआ – हस्तलिखित
  • भलाई चाहने वाला – हितैषी
  • क्षण भर में नष्ट होने वाला – क्षणभंगुर
  • जिसकी एक आँख फूटी हो – काणा, काना
  • उपकार मानने वाला – कृतज्ञ
  • किये गये उपकार को न मानने वाला। – कृतघ्न
  • जो छिपाने योग्य हो – गोपनीय
  • जो घृणा के योग्य हो – घृणित
  • जिसके चार भुजाएँ हों – चतुर्भुज
  • इन्द्रियों को जीत लेने वाला – जितेन्द्रिय
  • जानने की इच्छा रखने वाला – जिज्ञासु
  • तीनों लोकों में होने वाला – त्रिलोकी
  • पति-पत्नी का जोड़ा – दम्पत्ति
  • जिसकी आयु लम्बी हो – दीर्घायु
  • दूर की बात जान लेने वाला – दूरदर्शी [2009]
  • कठिनाई से प्राप्त होने वाला – दुर्लभ
  • धर्म में रुचि रखने वाला – धर्मात्मा
  • जो नष्ट होने वाला हो – नश्वर
  • जिसका आकार न हो – निराकार
  • जिसे ईश्वर पर विश्वास न हो – नास्तिक
  • जो एक अक्षर भी न जानता हो – निरक्षर
  • वह स्त्री जिसे पति ने छोड़ दिया हो – परित्यक्ता
  • अपने पति के प्रति ही प्रेम रखने वाली – पतिव्रता स्त्री
  • दूसरों का उपकार करने वाला – परोपकारी
  • मन्दिर में पूजा करने वाला – पुजारी
  • फल खाकर जीने वाला – फलाहारी
  • बहुत से रूप धारण करने वाला – बहरूपिया
  • जिसके जोड़ का कोई और न हो – बेजोड़
  • कम बोलने वाला – मितभाषी
  • कम खर्च (व्यय) करने वाला – मितव्ययी
  • जो मीठा बोलता हो – मृदुभाषी
  • बहत अधिक बोलने वाला – वाचाल
  • जिसका पति मर गया हो – विधवा
  • जिसकी पत्नी मर गई हो – विधुर
  • जो जानने योग्य हो – ज्ञातव्य
  • जो ज्ञान से युक्त हो – ज्ञानी
  • ठेका लेने वाला – ठेकेदार [2016]
  • नीति का बोध कराने वाला – नीतिबोधक [2016]
  • उपासना करने वाला – उपासक [2018]
  • पूजा करने वाला – पुजारी [2018]

प्रश्नोत्तर

(क) वस्तुनिष्ठ प्रश्न

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बहु-विकल्पीय प्रश्न

1. ‘वागीश’ किस सन्धि का उदाहरण है? [2009]
(i) स्वर सन्धि
(ii) दीर्घ सन्धि
(iii) विसर्ग सन्धि .
(iv) व्यंजन सन्धि।
उत्तर-
(ii) दीर्घ सन्धि

2. ‘महा + ओजस्वी = महौजस्वी’ में सन्धि है [2011]
(i) गुण सन्धि
(ii) वृद्धि स्वर सन्धि
(iii) यण सन्धि
(iv) दीर्घ सन्धि।
उत्तर-
(ii) वृद्धि स्वर सन्धि

3. ‘नि: + चय = निश्चय’ कौन-सी सन्धि का उदाहरण है? [2016]
(i) विसर्ग
(ii) स्वर
(iii) व्यंजन
(iv) दीर्घ स्वर।
उत्तर-
(i) विसर्ग

4. ‘पथ भ्रष्ट’ में समास है [2011]
(i) सम्प्रदान तत्पुरुष
(ii) करण तत्पुरुष
(iii) अपादान तत्पुरुष
(iv) सम्बन्ध तत्पुरुष।
उत्तर-
(ii) करण तत्पुरुष

5. ‘चौराहा’ में समास है [2015]
(i) द्वन्द्व
(ii) तत्पुरुष
(iii) द्विगु
(iv) अव्ययी भाव।
उत्तर-
(iii) द्विगु

6. किस समास में दोनों पद प्रधान होते हैं? [2013]
(i) द्वन्द्व
(ii) द्विगु
(iii) बहुब्रीहि
(iv) तत्पुरुष।
उत्तर-
(i) द्वन्द्व

7. ‘पावक’ शब्द उदाहरण है
(i) दीर्घ स्वर सन्धि
(ii) गुण स्वर सन्धि
(iii) वृद्धि स्वर सन्धि
(iv) अयादि स्वर सन्धि।
उत्तर-
(iv) अयादि स्वर सन्धि।

8. सब कुछ जानने वाले को क्या कहा जाता है? [2017]
(i) जानकार
(ii) ज्ञानी
(iii) बहुज्ञानी
(iv) सर्वज्ञ।।
उत्तर-
(iv) सर्वज्ञ।।

9. ईश्वर पर विश्वास रखने वाले को कहा जाता है [2018]
(i) ईश्वरीय
(ii) सेवक
(iii) आस्तिक
(iv) नास्तिक।
उत्तर-
(iii) आस्तिक

10. ‘जिसका कोई आकार हो’ के लिए एक शब्द है-
(i) आकार रहित
(ii) साकार
(iii) पूर्वाकार
(iv) आकार सहित।
उत्तर-
(iv) आकार सहित।

11. ‘नीरस’ का सन्धि-विच्छेद होगा [2014]
(i) निरा + रस,
(ii) निः + रस,
(iii) नि + अरस
(iv) नि + रस।
उत्तर-
(ii) निः + रस,

रिक्त स्थानों की पूर्ति

1. दो वर्णों के मेल को …………… कहते हैं।
2. सन्धि …………….” प्रकार की होती है। [2015]
3. स्वर सन्धि के ………… भेद होते हैं।
4. द्वन्द्व समास में . .. शब्द का लोप होता है।
5. भोजन करके पढ़ाई करो …………… वाक्य है।
6. ‘रमेश को पढ़ना चाहिए।’ …………. वाक्य है।
7. अर्थ के आधार पर वाक्य के प्रकार ………… हैं। [2013]
8. ‘दर्शन शास्त्र को जानने वाला’ …………….” कहलाता है।
9. ‘ईश्वर में …….रखने वाला’ आस्तिक कहलाता है।
10. ‘यात्रा करने वाला’ ………… कहलाता है।
11. रसोईघर ……… समास का उदाहरण है। [2014]
12. द्विगु समास का उदाहरण ……..” है। [2016]
उत्तर-
1. सन्धि,
2. तीन,
3. पाँच,
4. और,
5. सरल,
6. उपदेशात्मक,
7. आठ,
8. दर्शनशास्त्री,
9. आस्था,
10. यात्री,
11. तत्पुरुष,
12. पंचवटी।

सत्य/असत्य

1. दो पदों के मेल को सन्धि कहते हैं।
2. ‘जगदीश’ शब्द में विसर्ग सन्धि है। [2009]
3. पुनर्जन्म में व्यंजन सन्धि है। [2013]
4. मनोहर शब्द में व्यंजन संधि है। [2017]
5. ‘निराला’ शब्द में व्यंजन संधि है। [2018]
6. शुद्ध वाक्य के तीन गुण होते हैं।
7. ‘अरे ! वह मर गया।’ वाक्य विस्मयादिबोधक है।
8. ‘वह देश की रक्षा करता है।’ प्रश्नवाचक वाक्य है।
9. जो कभी नहीं मरता वह अमर कहलाता है। [2015]
10. ‘जानने की इच्छा रखने वाला’ जिज्ञासु कहलाता है।
11. ‘जिसकी एक आँख हो’ अन्धा कहलाता है। [2014]
12. ‘यथाशक्ति’ अव्ययीभाव समास का उदाहरण है। [2012]
13. ‘पुष्प’ का पर्यायवाची शब्द ‘कमल’ है। [2016]
14. ‘पुरुषों में उत्तम’ पुरुषोत्तम कहलाता है। [2016]
उत्तर-
1. असत्य,
2. असत्य,
3. असत्य,
4. सत्य,
5. असत्य,
6. सत्य,
7. सत्य,
8. असत्य,
9. सत्य,
10. सत्य,
11. असत्य,
12. सत्य,
13. असत्य,
14. सत्य।

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सही जोड़ी मिलाइए

MP Board Class 10th Special Hindi भाषा बोध img-6
उत्तर-
1. → (ग), 2. → (क), 3. → (ख), 4. → (ङ), 5. → (घ)।

MP Board Class 10th Special Hindi भाषा बोध img-7
उत्तर-
1. → (ग), 2. → (ङ), 3. → (घ), 4. → (क), 5. → (ख)।

एक शब्द/वाक्य में उत्तर

1. सन्धि के कितने प्रकार हैं?
2. हरेऽव में कौन-सी सन्धि है?
3. किस समास में विभक्तियों के चिह्नों का लोप होता है?
4. जगन्नाथ का सन्धि-विच्छेद लिखिए। [2018]
5. पुस्तकालय शब्द का सन्धि विग्रह है। [2010]
6. सच्चरित्र का सन्धि विच्छेद कर सन्धि का नाम बताइए। [2017]
7. “राम ! तुम नगर में रहो” यह किस प्रकार का वाक्य है? [2014]
8. ‘हमें पढ़ाई करनी चाहिए’ कैसा वाक्य है?
9. निन्दा करने वाला क्या कहलाता है? [2016]
10. जिसके समान कोई दूसरा न हो। [2012]
11. गागर में सागर भरने का क्या अर्थ है? [2012]
12. उपासना करने वाला क्या कहलाता है? [2014]
13. ‘ईश्वर के अनेकों नाम हैं।’ वाक्य को शुद्ध कीजिए। [2015]
उत्तर-
1. तीन,
2. पूर्वरूप,
3. तत्पुरुष,
4. जगत + नाथ,
5. रमा + ईश,
6. सत् + चरित्र (व्यंजन सन्धि),
7. आज्ञावाचक वाक्य,
8. इच्छात्मक,
9. निन्दक,
10. अद्वितीय,
11. कम शब्दों में बड़ी बात करना,
12. उपासक,
13. ईश्वर के अनेक नाम हैं।

(ख) लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों की सन्धि-विच्छेद कीजिए तथा सन्धि का नाम लिखिएरामावतार, परोपकार, विद्यालय, रमेश, धनादेश, गायक।
उत्तर-
MP Board Class 10th Special Hindi भाषा बोध img-8

प्रश्न 2.
निम्नलिखित शब्दों का सन्धि-विच्छेद करते हुए सन्धि का नाम बताइएमनोरथ, उच्चारण, सदाचार, शिवालय,महोत्सव।
उत्तर-
MP Board Class 10th Special Hindi भाषा बोध img-9

प्रश्न 3.
निम्नलिखित शब्दों की सन्धि-विच्छेद कर सन्धि का नाम लिखिएतथैव, अत्यन्त, जगन्नाथ, नरेश।
उत्तर-
MP Board Class 10th Special Hindi भाषा बोध img-10

प्रश्न 4.
निम्नलिखित शब्दों की सन्धि-विच्छेद कर सन्धि का नाम लिखिएहिमालय, परमार्थ,मनोरम, निस्सार।
उत्तर-
MP Board Class 10th Special Hindi भाषा बोध img-11

प्रश्न 5.
स्वर-सन्धि की क्या पहचान है? उदाहरण देकर समझाइए।
उत्तर-
स्वर के साथ स्वर का मेल होने पर स्वर सन्धि होती है, जैसे-देवालयः।

प्रश्न 6.
दीर्घ सन्धि किसे कहते हैं?
उत्तर-
जब दो शब्दों ह्रस्व या दीर्घ परस्पर मिलने से जो परिवर्तन होता है,उसे दीर्घ सन्धि कहते हैं।
यथा-विद्यालय।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित शब्दों में कौन-सी सन्धि हैकश्चित्, नायक, हिमालय।
उत्तर-
MP Board Class 10th Special Hindi भाषा बोध img-12

प्रश्न 8.
विसर्ग सन्धि की परिभाषा लिखिए।।
उत्तर-
विसर्ग के साथ स्वर या व्यंजन के मिलने से जो परिवर्तन होता है, उसे विसर्ग सन्धि कहते हैं;

जैसे-
मनोरथः = मनः + रथ।

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प्रश्न 9.
समास किसे कहते हैं?
उत्तर-‘
समास शब्द का आशय है-संक्षेप। दो या दो से अधिक शब्दों का अपने विभक्ति चिह्नों को छोड़कर मिलना ही समास कहलाता है।

प्रश्न 10.
सामासिक पद का क्या आशय है?
उत्तर-
जिन शब्दों में समास होता है उनके योग से एक नया ही शब्द बन जाता है, ऐसे पद को सामासिक पद कहते हैं।
जैसे-राजपुत्र = राजा का पुत्र।

प्रश्न 11.
तत्पुरुष समास में कौन-सा पद प्रधान होता है?
उत्तर-
तत्पुरुष समास में अन्तिम पद प्रधान होता है।

प्रश्न 12.
कर्मधारय समास एवं द्विगु समास के दो-दो उदाहरण दीजिए।
उत्तर-
कृष्णसर्प,श्वेत अश्व – कर्मधारय समास।
पंचवटी,त्रिलोक – द्विगु समास

प्रश्न 13.
निम्नलिखित में से किन्हीं दो पदों का समास-विग्रह कर समास का नाम बताइएराजपुरुष, दशानन, भाई-बहिन, चन्द्रमुख।
उत्तर-
MP Board Class 10th Special Hindi भाषा बोध img-13

प्रश्न 14.
निम्नलिखित में से किन्हीं दो पदों का समास-विग्रह करके समास का नाम लिखिए
सुख-दुःख, नवग्रह, नीलकमल,प्रतिदिन,प्रत्येक।
उत्तर-
MP Board Class 10th Special Hindi भाषा बोध img-14
MP Board Class 10th Special Hindi भाषा बोध img-15

प्रश्न 15.
सन्धि और समास में कोई तीन अन्तर लिखिए। [2010, 14]
उत्तर-

  1. सन्धि दो वर्गों के मेल को कहते हैं जबकि दो या दो से अधिक पदों के योग से बनने वाले शब्द को समास कहते हैं।
  2. सन्धि तीन प्रकार की होती हैं जबकि समास छ: प्रकार के होते हैं।
  3. सन्धि को तोड़ना विच्छेद कहलाता है,जबकि समास को तोड़ना विग्रह कहलाता है।

प्रश्न 16.
वाक्य रूपान्तरण से क्या तात्पर्य है? हिन्दी में वाक्य रूपान्तरण कितने प्रकार से किया जाता है? [2014]
उत्तर-
एक प्रकार के वाक्य को दूसरे प्रकार के वाक्य में बदलना,वाक्य परिवर्तन अथवा वाक्य रूपान्तरण कहलाता है। वाक्य रूपान्तरण करते समय अर्थ या भाव का ध्यान रखना आवश्यक होता है।

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जैसा कि हमें ज्ञात है कि अर्थ की दृष्टि से वाक्य आठ प्रकार के होते हैं। इनमें से विधानवाचक वाक्य को मूल आधार माना जाता है। अन्य वाक्य भेदों में विधानवाचक वाक्य का मूलभाव ही विभिन्न रूपों में परिलक्षित होता है। किसी भी विधानवाचक वाक्य को सभी प्रकार के भावार्थों में प्रयुक्त किया जा सकता है।

जैसे-

  1. विधानवाचक वाक्य-राम भोपाल में रहता है।
  2. विस्मयादिवाचक वाक्य-अरे ! राम भोपाल में रहता है।
  3. प्रश्नवाचक वाक्य-क्या राम भोपाल में रहता है?
  4. निषेधवाचक वाक्य-राम भोपाल में नहीं रहता है।
  5. संदेशवाहक वाक्य-शायद राम भोपाल में रहता है।
  6. आज्ञावाचक वाक्य-राम, तुम भोपाल में रहो।
  7. इच्छावाचक वाक्य-काश,राम भोपाल में रहता।
  8. संकेतवाचक वाक्य-यदि राम भोपाल में रहना चाहता है, तो रह सकता है।

प्रश्न 17.
निर्देशानुसार वाक्य परिवर्तन कीजिए [2009]
(क) मोहित फूल लाता है। (प्रश्नवाचक)
(ख) तुम वाराणसी में रहते हो। (प्रश्नवाचक)
(ग) माता-पिता की सेवा करनी चाहिए। (आज्ञावाचक)
(घ) गौरव पुस्तक पढ़ता है। (आज्ञावाचक)
उत्तर-
(क) क्या मोहित फूल लाता है?
(ख) क्या तुम वाराणसी में रहते हो?
(ग) माता-पिता की सेवा करो।
(घ) गौरव पुस्तक पढ़ो।

प्रश्न 18.
निम्नलिखित वाक्यों को निर्देशानुसार परिवर्तित कीजिए-
1. गुरु का सम्मान करना चाहिए। (आज्ञावाचक)
2. सीता रो रही है। (प्रश्नवाचक)
3. गुड्ड कक्षा में सबसे छोटा है। (निषेधवाचक)
4. बाढ़ का दृश्य बड़ा भयानक था। (विस्मयादिबोधक)
5. मैं खेती के बारे में अधिक जानता हूँ। [2013] (निषेधात्मक)
6. बादल समय पर पानी नहीं देते हैं। [2013] (विधानवाचक)
7. दीपक बाजार जा रहा है। [2015] (प्रश्नवाचक वाक्य)
8. गणित का प्रश्न-पत्र कठिन है। [2015] (निषेधात्मक वाक्य)
9. तुम्हें अपना गृह कार्य करना चाहिए। [2015] (आदेशात्मक वाक्य)
10. मोहन दिल्ली में रहता है। [2016] (निषेधवाचक)
11. सीता गाना गाती है। [2016] (विस्मयादिसूचक)
12. वह आस्तिक है। [2018] (निषेधवाचक)
13. अशेक रामनगर में रहता है। [2018] (विस्मयादिबोधक)
उत्तर-
1. गुरु का सम्मान करो।
2. क्या सीता रो रही है?
3. कक्षा में गुड़ से छोटा कोई नहीं है।
4. आह ! बाढ़ का दृश्य कितना भयानक था।
5. मैं खेती के बारे में कम नहीं जानता हूँ।
6. बादल असमय पानी देते हैं।
7. क्या दीपक बाजार जा रहा है?
8. गणित का प्रश्न-पत्र सरल नहीं है।
9. तुम अपना गृहकार्य करो।
10. मोहन दिल्ली में नहीं रहता है।
11. वाह ! सीता गाना गाती है।
12. वह नास्तिक नहीं है।
13. अरे ! अशोक रामनगर में रहता है।

प्रश्न 19.
निम्नलिखित वाक्यों को पहचानकर वाक्य के भेद लिखो- [2009]
(क) तुम विद्यालय जाओ।
(ख) मैं चाय नहीं पीता हूँ।
(ग) मैं आज भोजन नहीं करूंगा।
(घ) भगवान तुम्हें स्वस्थ रखे।
उत्तर-
(क) आज्ञार्थक वाक्य।
(ख) निषेधात्मक वाक्य।
(ग) निषेधात्मक वाक्य।।
(घ) इच्छासूचक वाक्य।

प्रश्न 20.
निम्नलिखित वाक्यों के लिए एक शब्द लिखिए [2009]
(1) जो ईश्वर में विश्वास रखता हो।
(2) बिना वेतन के काम करने वाला।
(3) जिसे क्षमा न किया जा सके।
(4) लकड़ी काटने वाला।
उत्तर-
(1) आस्तिक,
(2) अवैतनिक,
(3) अक्षम्य,
(4) लकड़हारा।

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प्रश्न 21.
निम्नलिखित अशुद्ध वाक्यों को शुद्ध रूप में लिखिए-
(क) गरम गाय का दूध पिओ।
(ख) मैं आपको मिलकर प्रसन्न हुआ।
(ग) खरगोश को काटकर गाजर खिलाओ। [2015]
(घ) बाढ़ में कई लोगों के डूबने की आशा है।
(ङ) में आपकी श्रद्धा करता हूँ।
(च) नेताजी को एक फूल की माला पहनाओ।
(छ) अपराधी को मृत्युदण्ड की सजा मिली।
(ज) छात्र कक्षा के अन्दर गया। [2011]
(झ) मैंने गाते हुए लता मंगेशकर को देखा। [2011]
(ज) मुझसे अनेकों भूलें हुईं। [2011]
उत्तर-
(क) गाय का गरम दूध पिओ।
(ख) मैं आपसे मिलकर प्रसन्न हुआ।
(ग) गाजर काटकर खरगोश को खिलाओ।
(घ) बाढ़ में कई लोगों के डूबने की आशंका है।
(ङ) में आप में श्रद्धा रखता हूँ।
(च) फूलों की एक माला नेताजी को पहनाओ।
(छ) अपराधी को मृत्युदण्ड मिला।
(ज) छात्र कक्षा में गया।
(झ) मैंने लता मंगेशकर को गाते हुए देखा।
(ज) मुझसे अनेक भूलें हुईं।

प्रश्न 22.
निम्नलिखित अशुद्ध वाक्यों का शुद्ध रूप लिखिए [2010]
(i) सेठ ज्वालाप्रसाद अच्छा महाजन थे।
(ii) स्त्री शिक्षा पर निवेदिता का विचार स्पष्ट कीजिए।
(iii) राम पुस्तक पढ़ती है।
(iv) अमित को अनुत्तीर्ण होने की आशा है। [2015]
(v) हर्षित शुद्ध गाय का दूध पीता है। [2015]
उत्तर-
(i) सेठ ज्वालाप्रसाद अच्छे महाजन थे।
(ii) स्त्री शिक्षा पर निवेदिता के विचार स्पष्ट कीजिए।
(iii) राम पुस्तक पढ़ता है।
(iv) अमित को अनुत्तीर्ण होने की आशंका है।
(v) हर्षित गाय का शुद्ध दूध पीता है।

प्रश्न 23.
निम्नलिखित अशुद्ध वाक्यों का शुद्ध रूप लिखिए। [2012]
(i) श्याम ने सत्यता को पहचान लिया।
(ii) मैं आपको मिलकर प्रसन्न हुआ।
(iii) बाढ़ में कई लोगों के बह जाने की आशा है।
उत्तर-
(i) श्याम ने सत्य को पहचान लिया।
(ii) मैं आपसे मिलकर प्रसन्न हुआ।
(iii) बाढ़ में कई लोगों के बह जाने की आशंका है।

प्रश्न 24. निम्नलिखित मुहावरों का अर्थ लिखकर वाक्यों में प्रयोग कीजिए- [2009]
(1) श्रीगणेश करना। [2013, 17]
(2) गढ़े मुर्दे उखाड़ना।
(3) फूला न समाना। [2013]
(4) आँख का तारा होना। [2014]
(5) रंग में भंग होना।
(6) काला अक्षर भैंस बराबर।
(7) हथेली पर सरसों जमाना।
(8) कलेजे पर साँप लोटना।
(9) बाल की खाल खींचना।
(10) तूती बोलना।
(11) दिन-रात एक करना। [2017]
(12) गज भर की छाती होना।
(13) गागर में सागर भरना। [2017]
(14) मान न मान में तेरा मेहमान। [2011]
(15) आग बबूला होना। [2013]
(16) चकमा देना। [2013]
(17) हाथ मारना। [2014]
उत्तर-
(1) श्रीगणेश करना किसी कार्य को प्रारम्भ करना।
प्रयोग-आज बिग बाजार का श्रीगणेश हुआ।

(2) गढ़े मुर्दे उखाड़ना-पुरानी बातें करना।
प्रयोग रमेश तो गढ़े मुर्दे उखाड़ता रहता है। इसके कारण झगड़े होते हैं।

(3) फूला न समाना-प्रसन्न होना।
प्रयोग-प्रथम आने पर रोहित फूला न समाया।

(4) आँख का तारा होना बहुत प्यारा होना।
प्रयोग-श्रीकृष्ण जी अपने माँ-बाप के आँख के तारे थे।

(5) रंग में भंग होना किसी काम में विघ्न पड़ना।
प्रयोग-विवाह समारोह में बारिश पड़ने के कारण लोगों के रंग में भंग पड़ गया।

(6) काला अक्षर भैंस बराबर-अनपढ़ होना।
प्रयोग काजल के लिए तो काला अक्षर भैंस बराबर है।

(7) हथेली पर सरसों जमाना-जल्दबाजी करना।
प्रयोग-रवीन्द्र ने सोहन से कहा, तुम तो हथेली पर सरसों जमाना चाहते हो। इस प्रकार मुझसे काम न होगा।

(8) कलेजे पर साँप लोटना-ईर्ष्या करना।
प्रयोग–मेरी लॉटरी निकलने पर रिश्तेदारों के कलेजे पर साँप लोट गया।

(9) बाल की खाल निकालना-कानून निकालना या बारीकी से जाँच-पड़ताल करना।
प्रयोग-सोहन का स्वभाव तो बाल की खाल निकालना है।

(10) तूती बोलना-धाक होना।
प्रयोग-आजकल तो शक्तिशाली लोगों की समाज में तूती बोलती है।

(11) दिन-रात एक करना कठिन परिश्रम करना।
प्रयोग-दिन-रात एक करके मैंने जिले में प्रथम स्थान पाया।

(12) गज भर की छाती होना-प्रसन्न होना।
प्रयोग-अच्छी नौकरी मिल जाने के कारण रोहित के माता-पिता की छाती गज भर की हो गयी।

(13) गागर में सागर भरना-कम शब्दों में बड़ी बात करना।
प्रयोग-बिहारी ने अपने दोहों में गागर में सागर भरा है।

(14) मान न मान मैं तेरा मेहमान-अनाधिकार चेष्टा करना।
प्रयोग कुछ लोग दूसरों के कार्य में हस्तक्षेप करके इस कहावत को चरितार्थ करते हैं कि मान न मान मैं तेरा मेहमान।

(15) आग बबूला होना अत्यधिक क्रोधित होना।
प्रयोग-श्याम को देखकर महेश आग बबूला हो गया।

(16) चकमा देना-झाँसा देना।
प्रयोग-चोर पुलिस को चकमा देकर भाग गया।

(17) हाथ मारना-प्राप्त करना।
प्रयोग-सुरेश ने अपनी मेहनत के बल पर अल्प समय में ही नौकरी में उच्च पद प्राप्त करके एक बड़ा हाथ मारा है।

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प्रश्न 25.
निम्नलिखित मुहावरों का अर्थ लिखिए [2010]
(i) आँख लगना।
(ii) घड़ों पानी पड़ना।
(iii) अक्ल का दुश्मन।
(iv) आँख का काँटा।
उत्तर-
(i) आँख लगना सो जाना।
प्रयोग-अभी मेरी आँख लगी थी कि चोर चोरी करके सारा सामान ले गये।
(ii) घड़ों पानी पड़ना-लज्जित होना।
प्रयोग नकल करते समय पकड़े जाने पर रोहित पर घड़ों पानी पड़ गया क्योंकि सभी छात्रों ने देख लिया था।
(iii) अक्ल का दुश्मन-मूर्ख।
प्रयोग-तुम तो निरे अक्ल के दुश्मन हो, पन्द्रह हजार का टेलीविजन दस हजार में ही बेच आये।
(iv) आँख का काँटा-शत्रु। प्रयोग-विनोद अपने सौतले भाई को आँख का काँटा समझता है।

प्रश्न 26.
लोकोक्ति किसे कहते हैं? एक उदाहरण सहित लिखिए। [2014]
उत्तर-
लोक प्रचलित कथन (उक्ति) को लोकोक्ति कहते हैं। यह विशेष अर्थ व्यक्त करती है। उदाहरण-नाच न जाने आँगन टेढ़ा,न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी आदि।

प्रश्न 27.
निम्नलिखित लोकोक्तियों का अर्थ लिखकर वाक्यों में प्रयोग कीजिए- [2011]
(क) भूत मरे पलीत जागे।
(ख) गुदड़ी का लाल।
(ग) आ बैल मुझे मार।
उत्तर-
(क) भूत मरे पलीत जागे-एक दुष्ट के उपरान्त अन्य दुष्ट का उत्पन्न होना।
प्रयोग–पाकिस्तान की धरती पर आतंकवाद का कहर इस प्रकार जमा जैसे भूत मरे पलीत जागे।

(ख) गुदड़ी का लाल-साधारण परिवार में असाधारण व्यक्ति।
प्रयोग-भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री श्री लाल बहादुर शास्त्री गुदड़ी के लाल थे।

(ग) आ बैल मुझे मार-स्वयं ही मुसीबत मोल लेना।
प्रयोग-घर के बाहर दुश्मन घूम रहे हैं लेकिन मोहन फिर भी रात में बाहर आ गया। यह तो वही बात हुई कि आ बैल मुझे मार।

प्रश्न 28.
निम्नलिखित लोकोक्तियों का अर्थ लिखकर वाक्य प्रयोग कीजिए-[2012]
(क) थोथा चना बाजे घना।
(ख) दूर के ढोल सुहावने लगते हैं।
(ग) हाथ कंगन को आरसी क्या।
उत्तर-
(क) थोथा चना बाजे घना-अकर्मण्य बात बहुत करता है।
प्रयोग-आतंकवादियों को बढ़ावा देने वाला पाकिस्तान विश्व मंच पर आतंकवाद मुक्त विश्व की बात करता है। इसे कहते हैं थोथा चना बाजे घना।

(ख) दूर के ढोल सुहावने होते हैं दूर की वस्तु भली लगती है, असलियत का पता पास से चलता है।
प्रयोग-जी. आई.सी. के अनुशासन और उत्तम परीक्षाफल से प्रभावित होकर मैंने इसमें प्रवेश पा लिया था लेकिन यहाँ के वातावरण को देखकर यही लगता है कि दूर के ढोल सुहावने होते हैं।

(ग) हाथ कंगन को आरसी क्या प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।
प्रयोग-रिश्वत लेते कैमरे पर पकड़े गये नेताजी के लिए जाँच बैठाने की क्या आवश्यकता है। यह तो हाथ कंगन को आरसी क्या वाली बात है।

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प्रश्न 29. आज्ञावाचक वाक्य किसे कहते हैं? उदाहरण सहित लिखिए। [2013]
उत्तर-
जिन वाक्यों में आज्ञा देने का भाव पाया जाता है,वे आज्ञावाचक वाक्य कहलाते हैं।
उदाहरण-
तुम विद्यालय जाओ।

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MP Board Class 10th Special Hindi काव्य बोध

MP Board Class 10th Special Hindi काव्य बोध

1. काव्य की परिभाषा

‘छन्दबद्ध’ रचना काव्य कहलाती है। आचार्य विश्वनाथ ने काव्य को परिभाषित करते हुए लिखा है—’वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, “कविता शेष सृष्टि के साथ हमारे रागात्मक सम्बन्धों की रक्षा और निवास का साधन है। वह इस जगत के अनन्त रूपों, अनन्त व्यापारों और अनन्त चेष्टाओं के साथ हमारे मन की भावनाओं को जोड़ने का कार्य करती है।”

काव्य के भेद-काव्य के दो भेद माने गये हैं-

  1. श्रव्य काव्य,
  2. दृश्य काव्य

(1) श्रव्य काव्य
जिस काव्य को पढ़कर या सुनकर आनन्द प्राप्त किया जाये,वह श्रव्य काव्य कहलाता है। श्रव्य काव्य के दो भेद माने गये हैं-

  1. प्रबन्ध काव्य,
  2. मुक्तक काव्य।

(क) प्रबन्ध काव्य-प्रबन्ध काव्य वह काव्य रचना कहलाती है जिसकी कथा शृंखलाबद्ध होती है। इसके छन्दों का सम्बन्ध पूर्वापर होता है। प्रबन्ध काव्य के दो प्रकार माने गये हैं-
(i) महाकाव्य,
(ii) खण्डकाव्य।

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(i) महाकाव्य-महाकाव्य में किसी महापुरुष के समस्त जीवन की कथा होती है। इसमें कई सर्ग होते हैं। मूल कथा के साथ प्रासंगिक कथाएँ भी होती हैं। महाकाव्य का प्रधान रस श्रृंगार, वीर अथवा शान्त होता है।

हिन्दी के प्रमुख महाकाव्य एवं उनके रचयिता-
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(ii) खण्डकाव्य-खण्डकाव्य में जीवन का खण्ड चित्रण होता है। इसका नायक यशस्वी होता है। सीमित कलेवर में इसकी कथा अपने आप में पूर्ण होती है।

हिन्दी के प्रमुख खण्डकाव्य एवं उनके रचयिता-
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(ख) मुक्तक काव्य-मुक्तक काव्य में प्रत्येक छन्द स्वयं में पूर्ण होता है तथा पूर्वापर सम्बन्ध से मुक्त होता है। बिहारी सतसई के दोहे,कबीर की साखी मुक्तक काव्य हैं।

2. रस

रस की परिभाषा
जिसका आस्वादन किया जाये वही रस है। रस का अर्थ आनन्द है अर्थात् काव्य को पढ़ने, सुनने या देखने से मिलने वाला आनन्द ही रस है। रस की निष्पत्ति विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के संयोग से होती है। रस काव्य की आत्मा माना गया है। रस के अंग

रस के चार अंग-
(i) स्थायी भाव,
(ii) विभाव,
(iii) अनुभाव,
(iv) संचारी भाव-माने गये हैं।

(i) स्थायी भाव-मानव हृदय में स्थायी रूप से विद्यमान रहने वाले भाव स्थायी भाव कहलाते हैं। स्थायी भावों की संख्या नौ-रति,हास,शोक,उत्साह,क्रोध, भय, घृणा, विस्मय एवं निर्वेद मानी गई है। कुछ विद्वान देव विषयक प्रेम और वात्सल्य भाव को स्थायी भाव मानते हैं।
(ii) विभाव-स्थायी भाव को जगाने वाले और उद्दीप्त करने वाले कारण विभाव कहलाते हैं। विभाव दो प्रकार के होते हैं—
(क) आलम्बन,
(ख) उद्दीपन।

(क) आलम्बन विभाव-जिस कारण से स्थायी भाव जाग्रत हो. उसे आलम्बन विभाव कहते हैं। जैसे-वन में शेर को देखकर डरने का आलम्बन विभाव शेर होगा।
(ख) उद्दीपन विभाव-जाग्रत स्थायी भाव को उद्दीप्त करने वाले कारण उद्दीपक विभाव कहे जाते हैं। जैसे वन में शेर देखकर भयभीत व्यक्ति के सामने ही शेर जोर से दहाड़ मार दे,तो दहाड़ भय को उद्दीप्त करेगी। अतः यह उद्दीपन विभाव होगी।

(iii) अनुभाव-स्थायी भाव के जाग्रत होने तथा उद्दीप्त होने पर आश्रय की शारीरिक चेष्टाएँ अनुभाव कहलाती हैं। जैसे वन में शेर को देखकर डर के मारे काँपने लगना, भागना आदि।

अनुभाव-

  1. कायिक,
  2. वाचिक,
  3. मानसिक,
  4. सात्विक तथा
  5. आहार्य-पाँच प्रकार के होते हैं।

(iv) संचारी भाव-जाग्रत स्थायी भाव को पुष्ट करने के लिए कुछ समय के लिए जगकर लुप्त हो जाने वाले भाव संचारी या व्यभिचारी भाव कहलाते हैं। जैसे वन में शेर को देखकर भयभीत व्यक्ति को ध्यान आ जाये कि आठ दिन पूर्व शेर ने एक व्यक्ति को मार दिया था। यह स्मृति संचारी भाव होगा। संचारी भावों की संख्या 33 मानी गई है।

रस नौ प्रकार के माने गये हैं-

  • शृंगार,
  • वीर,
  • शान्त,
  • करुण,
  • हास्य,
  • रौद्र,
  • भयानक,
  • वीभत्स एवं
  • अद्भुत।

कुछ विद्वान भक्ति एवं वात्सल्य को भी रस मानते हैं।
(1) श्रृंगार रस [2011]-श्रृंगार रस का स्थायी भाव रति है। नर और नारी का प्रेम पुष्ट होकर श्रृंगार रस रूप में परिणत होता है। श्रृंगार रस के दो भेद हैं-
(i) संयोग शृंगार,
(ii) वियोग शृंगार।

(i) संयोग शृंगार–जहाँ नायक-नायिका के मिलन,वार्तालाप, स्पर्श आदि का वर्णन है। वहाँ संयोग श्रृंगार होता है; जैसे-

“दूलह श्री रघुनाथ बने, दुलही सिय सुन्दर मन्दिर माहीं।
गावत गीत सबै मिलि सुन्दरि, वेद तहाँ जुरि विप्र पढ़ाहीं॥
राम को रूप निहारति जानकी, कंकन के नंग की परछाहीं।
याते सबै सुधि भूल गयी, कर टेकि रही पल टारत नाहीं॥”

यहाँ राम और सीता का प्रेम (रति) स्थायी भाव है। राम आलम्बन और सीता आश्रय हैं। नग में राम का निहारना, गीत आदि उद्दीपन हैं। कर टेकना,पलक न गिराना अनुभाव हैं। जड़ता, हर्ष,मति आदि संचारी भाव हैं।

(ii) वियोग शृंगार–जहाँ नायक-नायिका के वियोग का वर्णन हो वहाँ वियोग शृंगार होता है; जैसे-

“भूषन वसन विलोकत सिय के
प्रेम विवस मन कम्प, पुलक तनु नीरज-नयन नीर भये पिय के।”

यहाँ आलम्बन सीता तथा आश्रय राम हैं। सीता के आभूषण, वस्त्र आदि उद्दीपन हैं। कम्पन, पुलक,आँख में आँसू अनुभाव हैं। दर्द,स्मृति संचारी भाव हैं।

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(2) वीर रस युद्ध या कठिन कार्य करने के लिए जगा उत्साह भाव विभावादि से पुष्ट होकर वीर रस बन जाता है। इसका आलम्बन विरोधी होता है, शत्रु की गर्जना, रणभेरी आदि उद्दीपन हैं। हाथ उठाना, वीरता की बातें करना आदि अनुभाव और गर्व,उत्सुकता आदि संचारी भाव हैं; जैसे-

“सौमित्र से घनानन्द का, रव अल्प भी न सहा गया,
निज शत्रु को देखे बिना, तनिक उनसे न रहा गया।
रघुवीर का आदेश ले, युद्धार्थ वे सजने लगे,
रण वाद्य भी निर्घोष करके, धूम से बजने लगे।”

यहाँ मेघनाद आलम्बन तथा लक्ष्मण आश्रय हैं। मेघनाद का रव,रण वाद्य आदि उद्दीपन हैं। लक्ष्मण का युद्ध हेतु तैयार होना आदि अनुभाव और औत्सुक्य,अमर्ष आदि संचारी भाव हैं।

(3) शान्त रस-संसार की असारता, वस्तुओं से विरक्ति के कारण उत्पन्न निर्वेद भाव विभावादि से पुष्ट होकर शान्त रस के रूप में परिणत होता है; जैसे-

“मो सम कौन कुटिल खल कामी।
तुम सों कहा छिपी करुनामय सबके अंतरजामी।
जो तन दियौ ताहि बिसरायौ ऐसौ नोन हरामी।
भरि-भरि द्रोह विषयों को धावत, जैसे सूकर ग्रामी।
सुनि सतसंग होत जिय आलस, विषयनि संग बिसरामी।
श्री हरि-चरन छाँड़ि बिमुखनि की; निसदिन करत गुलामी।
पापी परम, अधम अपराधी, सब पतितनि मैं नामी।
सूरदास प्रभु अधम-उधारना सुनियै श्रीपति स्वामी॥”

यहाँ भक्त आश्रय तथा विषय वासना, संसार की असारता आलम्बन है। शरीर विस्मृत कर देना,सत्संग में आलस्य आदि उद्दीपन विभाव हैं। द्रोह भरकर विषय को धाना, गुलामी करना आदि अनुभाव और मति, वितर्क, विवोध आदि संचारी भाव हैं।

(4) करुण रस-प्रिय व्यक्ति वस्तु के विनाश या अनिष्ट की आशंका से जागे शोक स्थायी भाव का विभावादि से पुष्ट होने पर करुण रस का परिपाक होता है; जैसे- [2012]

“करि विलाप सब रोबहिं रानी।
महाविपति किमि जाइ बखानी।।
सुनि विलाप दुखद दुख लागा।
धीरज छूकर धीरज भागा॥”

इसमें रानियाँ आश्रय, राजा दशरथ की मृत्यु आलम्बन है। मृत्यु की सूचना उद्दीपन है। आँसू बहाना, रोना, विलाप करना, अनुभाव और विषाद, दैन्य, बेहोशी आदि संचारी भाव हैं।

(5) हास्य रस-विचित्र वेश-भूषा, विकृत आकार, चेष्टा आदि के कारण जाग्रत हास स्थायी भाव विभावादि से पुष्ट होकर हास्य रस में परिणत होता है; जैसे [2017]

“हँसि हँसि भजे देखि दूलह दिगम्बर को,
पाहुनी जे आवै हिमाचल के उछाह में।
कहै पद्माकर सु काहु सों कहै को कहा,
जोई जहाँ देखे सो हँसोई तहाँ राह में।।
मगन भएई हँसे नगन महेश ठाड़े,
और हँसे वेऊ हँसि-हँसि के उमाह में।
सीस पर गंगा हँसे भुजनि भुजंगा हँसे।
हास ही को दंगा भयो नंगा के विवाह में।”

यहाँ दर्शक आश्रय हैं तथा शिवजी आलम्बन हैं। उनकी विचित्र आकृति, नग्न स्वरूप आदि उद्दीपन हैं। लोगों का हँसना, भागना आदि अनुभाव तथा हर्ष, उत्सुकता, चपलता आदि संचारी भाव हैं।

(6) रौद्र रस-दुष्ट के अत्याचारों, अपने अपमान आदि के कारण जाग्रत क्रोध स्थायी भाव का विभावादि में पुष्ट होकर रौद्र रस रूप में परिपाक होता है; जैसे-

“श्रीकृष्ण के सुन वचन, अर्जन क्रोध से जलने लगा।
सब शोक अपना भूलकर, करतल युगल मलने लगा || [2009]
संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े।
करते हुए यह घोषणा, वे हो गए उठकर खड़े॥”

यहाँ अर्जुन आश्रय, अभिमन्यु के वध पर कौरवों का हर्ष आलम्बन है। श्रीकृष्ण के वचन उद्दीपन विभाव हैं। हाथ मलना, कठोर बोल,उठकर खड़ा होना, अनुभाव तथा अमर्ष,उग्रता, गर्व आदि संचारी भाव हैं।

(7) भयानक रस-किसी भयंकर व्यक्ति, वस्तु के कारण जाग्रत भय स्थायी भाव विभावादि के संयोग से भयानक रस रूप में परिणत होता है; जैसे-

“एक ओर अजगर सिंह लखि, एक ओर मृगराय।
विकल वटोही बीच ही, पर्यो मूरछा खाय।।”

यहाँ आश्रय वटोही तथा आलम्बन अजगर और सिंह हैं। अजगर एवं सिंह की डरावनी चेष्टाएँ उद्दीपन हैं। बटोही (राहगीर) का मूच्छित होना अनुभाव तथा स्वेद, कम्पन, रोमांच आदि संचारी भाव हैं।

(8) वीभत्स रस-घृणापूर्ण वस्तुओं के देखने या अनुभव करने के कारण जगने वाला जुगुप्सा (घृणा) स्थायी भाव का विभावादि के संयोग से वीभत्स रस रूप में परिपाक होता है; जैसे-

“सिर पर बैठो काग आँखि दोऊ खात निकारत।
खींचति जीभहिं स्यार अतिहि आनन्द उर धारत।।
गिद्ध जाँघ कहँ खोदि-खोदि के मांस उपारत।
स्वान अंगुरिन काटि के खात विरारत।।”

यहाँ युद्ध क्षेत्र या श्मशान आलम्बन तथा दर्शक आश्रय हैं। कौओं का आँख निकालना, स्यार का जीभ खींचना, गिद्ध का मांस नोंचना आदि उद्दीपन हैं। इन्हें देखने पर हृदय की व्याकुलता,शरीर का कम्पन आदि अनुभाव तथा मोह,स्मृति, मूर्छा आदि संचारी भाव हैं।

(9) अद्भुत रस-किसी असाधारण या अलौकिक वस्तु के देखने में जाग्रत विस्मय स्थायी भाव विभावादि के संयोग से अद्भुत रस में परिणत होता है; जैसे-

“अखिल भुवन चर-अचर सब, हरि मुख में लखि मातु।
चकित भई गद्-गद् वचन, विकसित दृग पुलकातु।।”

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यहाँ माँ यशोदा आश्रय तथा श्रीकृष्ण के मुख में विद्यमान सब लोक आलम्बन हैं। चर-अचर आदि उद्दीपन हैं। आँख फाड़ना,गद-गद स्वर,रोमांच अनुभाव तथा दैन्य,त्रास आदि संचारी भाव हैं।

(10) वात्सल्य रस-सन्तान के प्रति वात्सल्य भाव उपयुक्त विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के सम्मिश्रण के परिणामस्वरूप जब आनन्द में परिणत हो जाता है, तब वहाँ वात्सल्य रस होता है। [2009, 10, 18]

उदाहरण-

“जसोदा हरि पालने झलावै।
हलरावै दुलराय मल्हावें, जोइ सोइ कछु गावै।।”

3. अलंकार

परिभाषा-काव्य में भाव तथा कला के सौन्दर्य को बढ़ाने वाले उपकरण अलंकार कहलाते हैं।

भेद-जिन अलंकारों के प्रयोग से शब्द में चमत्कार उत्पन्न होता है, वे शब्दालंकार तथा जिनसे अर्थ में चमत्कार पैदा होता है,वे अर्थालंकार कहलाते हैं। शब्दालंकारों में प्रमुख अनुप्रास, यमक और श्लेष तथा अर्थालंकारों में उपमा, रूपक एवं उत्प्रेक्षा प्रमुख हैं।

अलंकार परिचय

1. वक्रोक्ति अलंकार [2009, 16]

लक्षण-जहाँ किसी उक्ति का अर्थ जानते हुए कहने वाले के आशय से भिन्न लिया जाए, वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता है; जैसे

“कौन तुम? हैं घनश्याम हम, तो बरसो कित जाई।”

यहाँ राधा ने ‘घनश्याम’ का अर्थ जानते हुए भी श्रीकृष्ण न लगाकर बादल लिया है। अतः यहाँ वक्रोक्ति अलंकार है।

2. अतिश्योक्ति अलंकार [2009, 10, 12, 13, 15, 17]
लक्षण–जहाँ कोई बात आवश्यकता से अधिक बढ़ा-चढ़ाकर कही जाय, वहाँ अतिश्योक्ति अलंकार होता है; जैसे

“हनुमान की पूँछ में, लगन न पाई आग।
लंका सारी जरि गई, गये निसाचर भाग ॥”

यहाँ बात को बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन हुआ है। अतः अतिश्योक्ति अलंकार है।

3. अन्योक्ति अलंकार [2009, 11, 18]
लक्षण-जहाँ अप्रस्तुत कथन के द्वारा प्रस्तुत अर्थ का बोध कराया जाये वहाँ अन्योक्ति अलंकार होता है; जैसे

“माली आवत देखकर, कलियन करी पुकार।
फूले-फूले चुनि लिए, कालि हमारी बार।”

यहाँ पर बात तो अप्रस्तुत माली,कलियाँ, फूलों की कही गई है परन्तु बोध प्रस्तुत वृद्धजनों और प्रौढ़जनों का कराया गया है।

4. छन्द

(क) परिभाषा-छन्द का शब्दार्थ बन्धन है। वर्ण,मात्रा, गति, यति,तुक आदि नियमों से नियोजित शब्द-रचना छन्द कहलाती है।

(ख) छन्द के अंग-
(1) वर्ण-वर्ण अक्षर को कहते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं-
(अ) लघु (ह्रस्व) वर्णों के बोलने में बहुत कम समय लगता है; जैसे-क, उ, नि, ह आदि।
(आ) दीर्घ (गुरु) वर्णों के बोलने में कुछ अधिक समय लगता है; जैसे-तू, आ,पौ आदि।

(2) मात्रा-वर्ण के बोलने में जो समय लगता है, उसे मात्रा कहते हैं। मात्रा दो प्रकार की होती हैं-
(अ) लघु,
(आ) दीर्घ। लघु वर्ण की एक तथा दीर्घ वर्ण की दो मात्राएँ होती हैं। लघु का चिह्न (l) और दीर्घ का चिह्न (s) होता है।

(3) यति–विराम या रुकने को यति कहते हैं। छन्द पढ़ते समय जहाँ कुछ समय रुकते हैं,वही यति है। इसके संकेत के लिए विराम चिह्न प्रयोग किये जाते हैं।

(4) चरण या पाद-छन्द के एक भाग को चरण या पाद कहते हैं। प्रत्येक छन्द में चरणों की संख्या निश्चित होती है; जैसे–चार पद,छ: पद आदि।

(5) तुक-छन्द की प्रत्येक पंक्ति के अन्तिम भाग की समान ध्वनि तुक कहलाती है।
(ग) छन्द के भेद-छन्द दो प्रकार के होते हैं-
(i) मात्रिक एवं
(ii) वर्णिक।

(i) मात्रिक छन्द-जिन छन्दों में मात्रा की गणना की जाती है, वे मात्रिक छन्द कहलाते हैं।
(ii) वर्णिक छन्द-जिन छन्दों में वर्गों की गणना की जाती है, वे वर्णित छन्द होते हैं।

छन्दों का परिचय

1. गीतिका [2009, 11, 13, 14, 17]
लक्षण-गीतिका मात्रिक छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में 14 तथा 12 पर यति होती हैं; कुल मात्राएँ 26 होती हैं। अन्त में लघु-गुरु होता है; जैसे-

हे प्रभो आनन्ददाता, ज्ञान हमको दीजिए।
शीघ्र सारे दुर्गुणों को, दूर हमसे कीजिए।

2. हरिगीतिका [2009, 14, 16, 18]
लक्षण-इसमें कुल 28 मात्राएँ होती हैं तथा 16 एवं 12 पर यति होती है। अन्त में लघु-गुरु होता है; जैसे-

संसार की समर स्थली में, वीरता धारण करो।
चलते हुए निज इष्ट पथ पर, संकटों से मत डरो॥
जीते हुए भी मृतक सम रहकर न केवल दिन भरो।
वीर वीर बनकर आप, अपनी विघ्न बाधाएँ हरो॥

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3. उल्लाला [2015]
लक्षण-उल्लाला छन्द के प्रथम तथा तृतीय चरण में 15 मात्राएँ होती हैं; जैसे-

करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की।
हे मातृभूमि तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की। [2009]

4. रोला
लक्षण-रोला के प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं। 11 एवं 13 पर यति होती है। अन्त में प्रायः दो गुरु होते हैं; जैसे

नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुन्दर है।
सूर्य चन्द्र, युग-मुकुट, मेखला रत्नाकर है।
नदियाँ प्रेम प्रवाह, फूल तारे मण्डल हैं।
बन्दीजन खग-वृन्द, शेष प्राय सिंहासन हैं।

प्रश्नोत्तर

(क) वस्तुनिष्ठ प्रश्न

बहु-विकल्पीय प्रश्न

1. ‘छन्दबद्ध रचना कहलाती है
(i) काव्य
(ii) छन्द
(iii) मुक्तक
(iv) गेय मुक्तक।
उत्तर-
(i) काव्य

2. ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’ परिभाषा दी है.
(i) भामह
(ii) दण्डी
(iii) विश्वनाथ
(iv) पण्डितराज जगन्नाथ।
उत्तर-
(ii) दण्डी

3. सर्वाधिक लोकप्रिय महाकाव्य है [2013]
(i) कामायनी
(ii) रामचरितमानस
(ii) साकेत
(iv) पद्मावत।
उत्तर-
(ii) रामचरितमानस

4. काव्य की आत्मा है-
(i) अलंकार
(ii) रस
(iii) छन्द
(iv) दोहा।
उत्तर-
(ii) रस

5. स्थायी भाव को जगाने वाले और उद्दीप्त करने वाले कारण कहलाते हैं-
(i) आलम्बन
(ii) उद्दीपन
(iii) विभाव
(iv) अनुभाव।
उत्तर-
(iii) विभाव

6. काव्य में भाव तथा कला के सौन्दर्य को बढ़ाने वाले तत्त्व कहलाते हैं-
(i) रस
(ii) छन्द
(iii) चौपाई
(iv) अलंकार।
उत्तर-
(iv) अलंकार।

7. हरिगीतिका के प्रत्येक चरण में मात्राएँ होती हैं-
(i) 26 मात्राएँ
(ii) 28 मात्राएँ
(iii) 24 मात्राएँ
(iv) 16 मात्राएँ।
उत्तर-
(ii) 28 मात्राएँ

8. जहाँ अप्रस्तुत कथन के द्वारा प्रस्तुत का बोध हो, वहाँ अलंकार होता है-
(i) वक्रोक्ति
(ii) अतिश्योक्ति
(iii) विशेषोक्ति
(iv) अन्योक्ति।
उत्तर-
(iv) अन्योक्ति।

9. वर्ण के बोलने में जो समय लगता है, उसे कहते हैं-
(i) यति
(ii) मात्रा
(iii) चरण
(iv) तुक।
उत्तर-
(ii) मात्रा

10. उल्लाला छन्द में मात्राएँ होती हैं [2009]
(i) 26.
(ii) 28
(iii) 14
(iv) 18.
उत्तर-
(ii) 28

11. ‘श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्रोध से जलने लगे’ में कौन-सा रस विद्यमान है? [2012]
(i) हास्य रस
(ii) रौद्र रस
(iii) वीर रस
(iv) करुण रस।
उत्तर-
(ii) रौद्र रस

12. ‘चौपाई छन्द में मात्राएँ होती हैं [2012, 15]
(i) 12
(ii) 15
(iii) 16
(iv) 24.
उत्तर-
(ii) 15

13. ‘रौद्र रस का स्थायी भाव’ है [2014]
(i) उत्साह
(ii) हँसी
(iii) क्रोध
(iv) विस्मय।
उत्तर-
(ii) हँसी

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14. ‘अद्भुत रस का स्थायी भाव’ है [2016]
(i) रति
(ii) निर्वेद
(iii) विस्मय
(iv) शोक।
उत्तर-
(i) रति

रिक्त स्थानों की पूर्ति

1. महाकाव्य में जीवन का ………………………………. चित्रण होता है।
2. कामायनी एक ………………………………. है। [2009, 13]
3. लोक सीमा से परे बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन ………………………………. में होता है।
4. गीतिका छन्द ………………………………. छन्द है।
5. ‘चरण-सरोज पखावन लागा’ ………………………………. अलंकार का उदाहरण है। [2009]
6. गेय मुक्तक को ………………………………. भी कहते हैं।
7. श्रृंगार रस का स्थायी भाव ……………………………….” है। [2010, 15]
8. रस के ………………………………. अंग होते हैं।
9. जहाँ शब्द सम्बन्धी चमत्कार हो, उसे ………………………………. कहते हैं।
10. करुण रस का स्थायी भाव ……………………………….” है। [2009]
11. जिसके प्रति स्थायी भाव उत्पन्न हो, वह ………………………………. कहलाता है। [2014, 17]
12. दोहा और रोला छंद से मिलकर ………………………………. छंद बनता है। [2018]
उत्तर-
1. समग्र,
2. महाकाव्य,
3. अतिश्योक्ति,
4. मात्रिक,
5. रूपक,
6. प्रगीति,
7. रति,
8. चार,
9. शब्दालंकार,
10. शोक,
11. आलम्बन,
12. कुण्डलियाँ।

सत्य/असत्य
1. खण्डकाव्य मुक्तक काव्य का एक भेद है। [2014]
2. अस्थिर मनोविकारों को स्थायी भाव कहते हैं। [2013]
3. करुण रस का स्थायी भाव शोक है। [2017]
4. शान्त रस का स्थायी भाव निर्वेद है। [2009]
5. वीर रस का स्थायी भाव उत्साह है। [2018]
6. रोला वर्णिक छन्द है।
7. रस को काव्य की आत्मा माना गया है।
8. काव्य का प्रत्येक छंद अपने आप में स्वतंत्र, पूर्ण तथा रस की अनुभूति कराने में असमर्थ होता है। [2011]
9. सवैया वर्ण वृत्त है। [2011]
10. ‘उद्धव शतक’ रत्नाकर रचित महाकाव्य है। [2011]
11. प्रबन्ध काव्य में पूर्वापर सम्बन्ध नहीं होता है। [2011, 15]
12. ‘अनुराग तड़ाग में भानु उदै’ में उपमा अलंकार है। [2011]
13. माली आवत देखकर कलियन करी पुकार। फूले-फूले चुन लिये काल्हि हमार बार ॥ में अन्योक्ति अलंकार है। [2012]
14. रामचरितमानस का प्रमुख छंद चौपाई है। [2017]
उत्तर-
1. असत्य,
2. असत्य,
3. सत्य,
4. सत्य,
5. सत्य,
6. असत्य,
7. सत्य,
8. असत्य,
9. सत्य,
10. असत्य,
11. असत्य,
12. असत्य,
13. सत्य,
14. सत्य।

सही जोड़ी बनाइए

MP Board Class 10th Special Hindi काव्य बोध img-4
उत्तर-
1. → (ग), 2. → (क), 3. → (ख), 4. → (ङ), 5. → (घ)।

MP Board Class 10th Special Hindi काव्य बोध img-5
उत्तर-
1. → (घ), 2. → (ङ), 3. → (क), 4. → (ख), 5.→ (ग)।

एक शब्द/वाक्य में उत्तर
1. हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय महाकाव्य का नाम लिखिए।
2. नायक के सम्पूर्ण जीवन का चित्रण किस काव्य में होता है? (2013, 15)
3. जिस काव्य में एक ही सर्ग होता है, उसे क्या कहते हैं? [2009]
4. जहाँ नायक-नायिका के विरह का वर्णन हो, वहाँ कौन-सा रस होगा?
5. स्थायी भाव कितने माने गये हैं?
6. संचारी भावों की संख्या कितनी है? [2013]
7. स्थायी भावों के उत्पन्न होने के कारणों को क्या कहते हैं? [2018]
8. छन्दोबद्ध एवं लयात्मक रचना को क्या कहते हैं?।
9. अनुभाव कितने प्रकार के होते हैं?
10. जिनसे अर्थ में चमत्कार पैदा होता है,वो क्या कहलाते हैं?
11. गीतिका किस प्रकार का छन्द है?
12. वात्सल्य रस के अलावा रसों की संख्या कितनी मानी गयी है? [2016]
13. आश्रय के चित्त में उत्पन्न होने वाले अस्थिर मनोविकारों को क्या कहते हैं? [2017]
उत्तर-
1. रामचरितमानस,
2. महाकाव्य,
3. खण्डकाव्य,
4. वियोग श्रृंगार,
5. नौ,
6. तैंतीस,
7. विभाव,
8. काव्य,
9. पाँच,
10. अर्थालंकार,
11. मात्रिक,
12. नौ,
13. संचारी भाव।

(ख) लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. कविता से क्या तात्पर्य है?
अथवा
काव्य की परिभाषा लिखिए।
उत्तर-
(1) रसयुक्त वाक्य को काव्य की संज्ञा से विभूषित किया जाता है।
अथवा
(2) छन्द में बँधी रचना को काव्य कहते हैं।
(3) पंडितराज जगन्नाथ के मतानुसार-“रमणीय अर्थ को व्यक्त करने वाली शब्दावली काव्य है।”

प्रश्न 2.
कविता के बाह्य स्वरूप सम्बन्धी तत्त्वों का विवरण दीजिए।
उत्तर-
कविता के बाह्य तत्त्व निम्नवत् हैं
(1) भाषा,
(2) छन्द,
(3) अलंकार,
(4) गेयता,
(5) चित्रात्मकता,
(6) शब्द-गुण,
(7) शब्द शक्ति।

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प्रश्न 3.
कविता के आन्तरिक तत्त्व बताइए।
उत्तर-
कविता के आन्तरिक तत्त्व निम्नलिखित हैं
(1) भावों एवं विचारों की उत्कृष्टता,
(2) रसानुभूति,
(3) अनुभूति की तीव्रता,
(4) हृदयस्पर्शी होना,
(5) अनुभूतियों का मर्मस्पर्शी होना।

प्रश्न 4.
दृश्य काव्य और श्रव्य काव्य का अर्थ बताइए।
उत्तर-
काव्य के दो भेद स्वीकारे गये हैं, ये क्रमशः दृश्य-काव्य एवं श्रव्य-काव्य के नाम से जाने जाते हैं। नाटक एवं एकांकी आदि दृश्य-काव्य के अन्तर्गत आते हैं। दृश्य-काव्य रंगमंच पर अभिनीत किये जाते हैं। इसका रसास्वादन देखकर ग्रहण किया जा सकता है। इस हेतु इन्हें दृश्य-काव्य कहा जाता है। दूसरी तरह के काव्य श्रव्य-काव्य के नाम से सम्बोधित किये जाते हैं। इनका रसास्वादन प्रमुखतः श्रवण करके (सुनकर) ग्रहण किया जा सकता है।

प्रश्न 5.
श्रव्य काव्य एवं दृश्य काव्य में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
अथवा
‘दृश्य काव्य और श्रव्य काव्य’ में क्या अन्तर है?
उत्तर-

  1. श्रव्य-काव्य का रसास्वादन श्रवण करके अथवा पढ़कर प्राप्त किया जाता है; यथा-उपन्यास, कविता एवं कहानी।
  2. दृश्य काव्य का रसास्वादन अथवा आनन्द रंगमंच पर अभिनीत होते हुए देखकर प्राप्त किया जा सकता है; यथा-नाटक एवं एकांकी।

प्रश्न 6.
शब्द गुण (काव्य गुण) के प्रमुख प्रकारों को परिभाषित कीजिए। [2014]
उत्तर-
शब्द गुण (काव्य गुण) निम्नलिखित तीन प्रकार के होते हैं
(1) माधुर्य गुण-जिस काव्य के सुनने से आत्मा द्रवित हो जाये, मन आप्लावित और कानों में मधु घुल जाये वही माधुर्य गुणयुक्त है।

उदाहरण-

छाया करती रहे सदा, तुझ पर सुहाग की छाँह।
सुख-दुख में ग्रीवा के नीचे हो, प्रियतम की बाँह ॥

(2) प्रसाद गुण-जब किसी कविता का अर्थ आसानी से समझ में आ जाये तब वहाँ प्रसाद गुण होता है।

उदाहरण-

“अब हरिनाम सुमिरि सुखधाम,
जगत में जीवन दो दिन का ॥”

(3) ओज गुण [2012] -जिस काव्य के सुनने या पढ़ने से चित्त की उत्तेजना वृत्ति जाग्रत हो,वह रचना ओज गुण सम्पन्न होती है।

उदाहरण-

“बुन्देले हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।”

प्रश्न 7.
मुक्तक काव्य किसे कहते हैं? इसकी दो विशेषताएँ लिखिए। [2009]
उत्तर-
मुक्तक रचना में हर पद स्वतः पूर्ण होता है। इसकी रचना में कथा नहीं होती। प्रत्येक छन्द पूर्व पद के प्रसंग से सर्वथा अछूता अथवा मुक्त होता है, अतः मुक्तक काव्य पुकारा जाता है। सूर एवं मीरा के पद तथा गिरिधर की कुंडलियाँ मुक्तक काव्य के अन्तर्गत आते हैं।

विशेषताएँ-

  • हर छन्द अपने आप में पूर्ण होता है।
  • एक प्रकार का जीवन दर्शन छिपा रहता है।

प्रश्न 8.
पाठ्य मुक्तक एवं गेय मुक्तक में अन्तर लिखिए। [2018]
उत्तर-
पाठ्य मुक्तक-पाठ्य मुक्तक पढ़े जाते हैं। इनमें किसी एक भाव या अनुभूति की गहनता होती है। बिहारी,कबीर, रहीम, तुलसी के दोहे इस कोटि में आते हैं। गेय मुक्तक-गेय मुक्तक गाये जाते हैं। इनमें संगीतात्मकता अथवा गेयता विद्यमान रहती है। सूर, मीरा,तुलसी के पद इसके जीवन्त उदाहरण हैं।

प्रश्न 9.
खण्डकाव्य किसे कहते हैं? हिन्दी के चार खण्डकाव्यों के नाम लिखिए।
अथवा [2009]
खण्डकाव्य की परिभाषा एवं एक खण्डकाव्य का नाम लिखिए। [2015]
उत्तर-
खण्डकाव्य में जीवन के किसी एक पक्ष का अंकन होता है। एक घटना अथवा व्यवहार का ही चित्रण किया जाता है।
हिन्दी के चार खण्डकाव्य निम्नवत् अवलोकनीय हैं-

  • जानकी मंगल-तुलसीदास।
  • सिद्धराज-मैथिलीशरण गुप्त।
  • सुदामा-चरित-नरोत्तमदास।
  • गंगावतरण-जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’।

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प्रश्न 10.
महाकाव्य किसे कहते हैं? दो प्रमुख महाकाव्यों एवं उनके रचनाकारों के नाम लिखिए। [2012]
अथवा
महाकाव्य की विशेषताएँ लिखिए।
अथवा
महाकाव्य की परिभाषा देते हुए दो महाकाव्यों के नाम लिखिए। [2009]
उत्तर-
महाकाव्य में किसी महापुरुष के समस्त जीवन की कथा होती है। इसमें कई सर्ग होते हैं। मूल कथा के साथ प्रासंगिक कथाएँ भी होती हैं। महाकाव्य का प्रधान रस श्रृंगार, वीर अथवा शान्त होता है।

इसकी विशेषताएँ निम्नवत् हैं-

  • महाकाव्य के कथानक में क्रमबद्धता होती है।
  • नायक उदात्त एवं धीरोदात्त होता है।
  • हृदयस्पर्शी मार्मिक प्रसंगों का वर्णन होता है।
  • विषय विस्तृत एवं कथा इतिहास सम्मत होती है।
  • सम्पूर्ण महाकाव्य में एक छन्द प्रयुक्त होता है। भावी कथा के आयोजन हेतु छन्द बदला जाता है।
  • शान्त, शृंगार एवं वीर रस में से किसी एक रस का उद्रेक होता है।
  • जीवन के सम्पूर्ण रूप का चित्रण होता है।

दो प्रमुख महाकाव्यों के नाम-

  • रामचरितमानस (तुलसीदास),
  • कामायनी (जयशंकर प्रसाद)।

प्रश्न 11.
महाकाव्य और खण्डकाव्य में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2009, 14, 16, 17]
उत्तर-

  • महाकाव्य में जीवन के समग्र रूप का उल्लेख होता है। खण्डकाव्य में जीवन के एक पक्ष का उद्घाटन किया जाता है।
  • महाकाव्य विस्तृत होता है तथा खण्डकाव्य संक्षिप्त होता है।
  • महाकाव्य में प्रकृति चित्रण विशद् रूप में किया जाता है जबकि खण्डकाव्य में प्रकृति चित्रण संक्षिप्त रूप में किया जाता है।
  • महाकाव्य में पात्रों की संख्या अधिक होती है। खण्डकाव्य में पात्र कम तथा सीमित होते हैं।

प्रश्न 12.
प्रबन्ध काव्य किसे कहते हैं? [2009]
अथवा
प्रबन्ध काव्य किसे कहते हैं? इसके भेद बताइए तथा उदाहरण लिखिए। [2011]
अथवा
प्रबन्ध काव्य का अर्थ लिखते हुए उसके भेदों का उदाहरण सहित वर्णन कीजिए। [2012]
उत्तर-
प्रबन्ध काव्य काव्य का एक प्रमुख भेद है। प्रबन्ध काव्य में छन्द किसी एक कथासूत्र में पिरोये रहते हैं। छन्दों के क्रम में कोई परिवर्तन नहीं होता है. इसका क्षेत्र विस्तृत होता है। इसमें किसी व्यक्ति के जीवन चरित्र की विभिन्न झाँकियाँ होती हैं।

प्रबन्ध काव्य के दो प्रकार माने गये हैं-

  • महाकाव्य,
  • खण्डकाव्य।

उदाहरण-

महाकाव्य-रामचरितमानस, साकेत, कामायनी।
खण्डकाव्य-सुदामाचरित्र,पंचवटी, हल्दीघाटी।

प्रश्न 13.
रस के अंगों के नाम लिखिए और विभाव को समझाइए।
उत्तर-
रस के अंग-स्थायी भाव, आलम्बन विभाव, अनुभाव,संचारी भाव होते हैं। विभाव-स्थायी भाव को जाग्रत तथा उद्दीपन करने वाले कारक विभाव कहलाते हैं।

प्रश्न 14.
रसों के नाम बताइए।
उत्तर-
हिन्दी साहित्य में रसों की संख्या 9 (नौ) मानी गई है। ये निम्नवत् हैं-

  • शृंगार,
  • वीर,
  • अद्भुत,
  • रौद्र,
  • करुण,
  • भयानक,
  • हास्य,
  • वीभत्स,
  • शान्त।

प्रश्न 15.
रसों के स्थायी भावों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
MP Board Class 10th Special Hindi काव्य बोध img-6

प्रश्न 16.
“बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाइ” पंक्ति में कौन-सा रस है? पहचान कर उसके भेद बताइए।
उत्तर-
शृंगार रस। शृंगार रस के दो भेद होते हैं-संयोग एवं वियोग। उपर्युक्त दोहे में संयोग रस की छटा है।

प्रश्न 17.
“अब मैं नाच्यो बहुत मोपाल” पंक्ति में कौन-सा रस है? [2009]
उत्तर-
शान्त रस की छटा है।

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प्रश्न 18.
रस की निष्पत्ति कैसे होती है?
उत्तर-
“विभाव, अनुभाव एवं संचारी भाव के संयोग से स्थायी भाव परिपक्व होते हैं तभी रस की निष्पत्ति होती है।”

प्रश्न 19.
वीर रस का स्थायी भाव लिखते हुए एक उदाहरण दीजिए। [2016]
उत्तर-
वीर रस का स्थायी भाव ‘उत्साह’ है।

उदाहरण-

“बुंदेले हर बोलो के मुख हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।”

प्रश्न 20.
स्थायी भाव एवं संचारी भाव में अन्तर बताइये।। [2012, 15]
उत्तर-
स्थायी भाव एवं संचारी भाव में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं-

  1. मानव हृदय में सुषुप्त रूप में रहने वाले मनोभाव स्थायी भाव कहलाते हैं, जबकि हृदय में अन्य अनन्त भाव जाग्रत तथा विलीन होते रहते हैं,उनको संचारी भाव कहा जाता है।
  2. स्थायी भाव स्थायी रूप से हृदय में विद्यमान रहते हैं, जबकि संचारी भाव कुछ समय रहकर समाप्त हो जाते हैं।
  3. स्थायी भाव उद्दीपन के प्रभाव से उद्दीप्त होते हैं, जबकि संचारी भाव स्थायी भाव के विकास में सहायक होते हैं। .
  4. स्थायी भावों की कुल संख्या 10 है, जबकि संचारी भाव तैंतीस माने गये हैं।

प्रश्न 21.
निम्नलिखित में कौन-सा अलंकार है? [2009, 10]
पड़ी अचानक नदी अपार, घोड़ा कैसे उतरे पार।
राणा ने सोचा इस बार, तब तक चेतक था उस पार।।
उत्तर-
इस पंक्ति में ‘अतिश्योक्ति’ अलंकार है।

MP Board Class 10th Hindi Solutions

MP Board Class 10th Special Hindi निबन्ध-लेखन

MP Board Class 10th Special Hindi निबन्ध-लेखन

निबन्ध-रचना विषयक महत्त्वपूर्ण बातें-

  1. जो निबन्ध परीक्षा में पूछा गया हो, उस पर चिन्तन-मनन करके ही लेखनी चलानी चाहिए।
  2. निबन्ध में यत्र-तत्र कविता,सूक्ति तथा विद्वानों के उद्धरण प्रस्तुत करना परमावश्यक है। इससे निबन्ध के सौन्दर्य में वृद्धि होती है।
  3. प्रस्तावना तथा उपसंहार का प्रभावोत्पादक एवं रोचक होना नितान्त आवश्यक है।
  4. निबन्ध में विचार-श्रृंखला क्रमबद्ध होनी चाहिए।
  5. विस्तार के लोभ का संवरण करना चाहिए। एक सुव्यवस्थित ढंग से लिखा गया निबन्ध ही आदर्श होता है।
  6. विषय से सम्बन्धित सामग्री सँजोकर ही निबन्ध लिखना चाहिए।
  7. पत्र-पत्रिकाओं तथा ग्रन्थों में से नवीन विचारों को एकत्र करना चाहिए।
  8. समग्र विषय को पैराग्राफों (अनुच्छेदों) में विभक्त कर लेना चाहिए।
  9. भाषा शुद्ध तथा शैली आकर्षक एवं लेख सुन्दर होना चाहिए।
  10. विराम-चिह्नों का यथा-स्थान समुचित प्रयोग करना चाहिए।

1. विज्ञान के बढ़ते चरण [2016]
अथवा
विज्ञान अभिशाप अथवा वरदान
अथवा
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी [2011, 17]
अथवा
विज्ञान और मानव [2012]
अथवा
विज्ञान का जीवन पर प्रभाव [2015]
अथवा
विज्ञान की देन [2018]

MP Board Solutions

एमसन नामक विद्वान के शब्दों में-
“आज हम विज्ञान के युग में रह रहे हैं और विज्ञान के बिना मानव के अस्तित्व की कल्पना असम्भव प्रतीत होती है।”

“दर तारों से किया सम्पर्क हमने।
पर पड़ोसी से न हम हँस-बोल पाये।
सरल जीवन से रहा न वास्ता
दुश्वारियों को दौड़कर हम मोल लाए॥”

रूपरेखा-

  • प्रस्तावना,
  • विज्ञान वरदान के रूप में,
  • विज्ञान अभिशाप के रूप में,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना-आज विज्ञान का युग है। चहुंओर विज्ञान की दुन्दभी बज रही है। मानव-जीवन से सम्बन्धित ऐसा कोई भी पहलू नहीं है,जहाँ विज्ञान का प्रवेश न हो। यह विज्ञान की प्रगति विगत् दो सौ वर्षों में हुई है। पुरातन काल में भी वैज्ञानिक उपलब्धियों का उल्लेख है, परन्तु इस सन्दर्भ में अभी तक प्रामाणिक जानकारी नहीं है।

विज्ञान के क्षेत्र में नित्य नवीन आविष्कार हो रहे हैं। इन परिवर्तनों के फलस्वरूप दुनिया का मानचित्र ही बदल गया है। आज मानव ने प्रकृति को अपनी क्रीत दासी बना लिया है। वह समय अतीत के गर्भ में विलीन हो गया जब मानव दुनिया की हर वस्तु को अचम्भे भरी दृष्टि से निहारकर उसकी उपासना किया करता था। आज वे ही सम्पूर्ण वस्तुएँ उसके जीवन में पानी में नमक की भाँति घुल-मिल गई हैं।

विज्ञान वरदान के रूप में विज्ञान ने मानव जीवन को सुखी तथा सम्पन्न बना दिया है।

उदाहरणार्थ-
चिकित्सा के क्षेत्र में चिकित्सा के क्षेत्र में विज्ञान एक वरदान है। एक्स-रे द्वारा आन्तरिक फोटो लिया जाता है। इससे घातक बीमारियों का आसानी से पता लगाया जा सकता है। टी.बी. की बीमारी को अतीत की बात बना दिया है। कैंसर पर भी नित नये शोध चल रहे हैं। अब मानव की आयु में भी औसतन वृद्धि हुई है। आपरेशन के द्वारा न जाने कितने इन्सानों को नई जिन्दगी जीने का मौका मिला है।

उद्योग एवं विज्ञान-प्राचीनकाल में जिन कार्यों को सौ आदमी सम्पन्न कर पाते थे, आज विज्ञान द्वारा आविष्कृत मशीनों के माध्यम से उन्हें एक व्यक्ति ही पूरा कर लेता है। मशीनों से उत्पादन की क्षमता कई गुनी बढ़ गई है।

आवागमन के क्षेत्र में विज्ञान ने आवागमन के साधनों को भी सुलभ बना दिया है। प्राचीनकाल में यात्राएँ कष्ट तथा भय का प्रतीक थीं लेकिन आज,रेल,मोटर तथा वायुयानों द्वारा मनुष्य दुनिया के एक छोर से दूसरे छोर तक आसानी से पहुँच सकता है।

खाद्यान्न एवं विज्ञान-खाद्यान्न के क्षेत्र में भी विज्ञान ने अभूतपूर्व क्रान्ति-सी उपस्थित कर दी है। अब किसानों को वर्षा-ऋतु पर निर्भर नहीं रहना पड़ता। ट्यूबवैल खेतों को हरा-भरा कर रहे हैं। वैज्ञानिक खाद तथा बीजों से कई गुना अन्न उत्पादन किया जा रहा है। ट्रैक्टर खेतों को जोतने में प्रयुक्त हो रहे हैं। रासायनिक खाद उत्पादन में बहुत सहायक है। कीटनाशक दवाएँ फसलों को नष्ट होने से बचा रही हैं।

शिक्षा के क्षेत्र में विज्ञान कम्प्यूटर द्वारा आज शिक्षा दी जा रही है। इससे अनेक स्थानों पर एक ही समय में आसानी से शिक्षा दी जा सकती है। चित्रपट पर प्रदर्शित प्राकृतिक दृश्य, राजनीतिक वार्ता तथा शैक्षणिक कार्यक्रम शिक्षा जगत में बहुत लाभदायी सिद्ध हो रहे हैं।

भवन निर्माण के क्षेत्र में बहुमंजिली इमारतें आज विज्ञान के बल पर ही बन रही हैं। बुलडोजर, क्रेन एवं खनन यन्त्र इस क्षेत्र में बहुत सहायक सिद्ध हो रहे हैं।

संचार के क्षेत्र में संचार क्षेत्र में भी विज्ञान की अभूतपूर्व देन है। टेलीविजन, टेलीफोन तथा टेलीग्राम इस क्षेत्र में विशेष रूप में उल्लेखनीय हैं।

कपड़ों के क्षेत्र में आज के मानव का पुराने वस्त्रों से मोह भंग हो चुका है। अब वह रेशमी तथा ऊनी वस्त्रों के स्थान पर टेरालीन,टेरीवूल तथा नायलॉन के वस्त्र धारण करने में गौरव का अनुभव कर रहा है। वस्त्र निर्माण के लिए मिलें स्थापित हैं। सिलाई के लिए मशीनें आविष्कृत हैं।

मनोरंजन के क्षेत्र में विज्ञान ने मनोरंजन के क्षेत्र में टेलीविजन, रेडियो, चलचित्र एवं ग्रामोफोन आदि साधन प्रदान किये हैं।

विज्ञान अभिशाप के रूप में विज्ञान ने जहाँ मानव को अपरिमित सुख साधन जुटाये हैं, वहाँ उससे मानव को हानि भी पहुंची है। आज मानव विज्ञान के द्वारा आविष्कृत साधनों से लाभ उठाकर आलसी बन गया है। जिस काम को सौ मनुष्य करते थे, आज वैज्ञानिक मशीनों के माध्यम से एक आदमी पूरा कर लेता है। इस प्रकार विज्ञान ने एक आदमी को रोटी देकर निन्यानवे इन्सानों के पेट पर लात मार दी है। हाइड्रोजन बम तथा जहरीली गैसें मानव को मौत की गोद में सलाने के लिए आतर हैं।

आज वैज्ञानिक आविष्कारों की विनाशलीला की गाथा जापान के हिरोशिमा तथा नागासाकी नगरों के खण्डहर दुहरा रहे हैं। विज्ञान के बसन्त के पीछे पतझड़ की काली छाया भी मँडरा रही है। आज मानव विलासी हो गया है। विज्ञान ने वातावरण को प्रदूषण युक्त कर दिया है। वायुयान, मोटर तथा स्कूटर उसे बहरा बना रहे हैं। कारखानों से निकलने वाला गंदा जल पानी को विषैला बना रहा है। आज इन्सान की जिन्दगी बहुत ही सस्ती हो गई है।

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उपसंहार-परन्तु एक बात ध्यान देने योग्य है कि विज्ञान स्वयं में शक्ति नहीं है। वह मानव के हाथ में आकर शक्ति प्राप्त करता है। अब यह मानव पर निर्भर करता है कि वह विज्ञान का दुरुपयोग करे अथवा सदुपयोग। विष डॉक्टर के हाथ में पहुँचकर जीवनदायक बनता है। हत्यारे के हाथ में पहुँचकर जानलेवा बनता है। यही बात विज्ञान पर लागू होती है। महत्त्वाकांक्षी तथा नरपिशाच उस विज्ञान का दुरुपयोग करते हैं। मानवतावादी उससे जन-जीवन को उल्लासमय बनाते हैं। हमें अपनी महत्त्वाकांक्षा पर अंकुश लगाना होगा। विज्ञान को स्वामी न मानकर दास मानना होगा तभी मानव विश्व सुख तथा आनन्द के झूले में बैठकर अपरिमित सुख तथा शान्ति का अनुभव करेगा-

“विध्वंस की सोचे नहीं निर्माण की गति और दें
विज्ञान के उत्पाद से सुख स्वयं लें, औरों को दें।”

2. वन-महोत्सव
अथवा
वन संरक्षण [2016]
अथवा
वृक्षारोपण एवं मानव [2013]

यदि वृक्ष हैं तो जीवन है, जीवन है तो इन्सान है।
आने वाली सन्तति की, वृक्षों से ही पहचान है।।

“वृक्ष मानव के लगभग सबसे अधिक विश्वस्त मित्र हैं और जो देश अपने भविष्य को सँवारना सुधारना चाहता है, उसे चाहिए कि वह अपने वनों का अच्छी प्रकार ध्यान रखे।”

-इन्दिरा गाँधी

रूपरेखा [2015, 17, 18]-

  • प्रस्तावना,
  • भारतीय संस्कृति एवं वन,
  • वनों के विनाश का दुष्परिणाम,
  • वृक्षों से लाभ,
  • वन संरक्षण की जरूरत,
  • वन-महोत्सव आयोजन,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना-भारत प्रकृति का पालना है। यहाँ के हरे-भरे वृक्ष धरती की शोभा में चार चाँद लगाते हैं। दुर्भाग्यवश आज के वातावरण में लाभ अर्जित करने तथा भवन निर्माण करने के नाम तथा अतिवृष्टि वनों के संरक्षण से ही रुक सकती है। वन नदियों को सीमा में बाँधे रहते हैं। जंगली जीव-जन्तुओं तथा पक्षियों को अभयदान देकर मातृवत् पालन-पोषण करते हैं। अपनी हरियाली से मानव मन को भी हरा-भरा तथा प्रफुल्लित करते हैं।

वन-महोत्सव आयोजन-वृक्षों की इसी उपादेयता को देखकर वन-महोत्सव कार्यक्रम आयोजित किया गया। सन् 1950 में अधिक-से-अधिक वृक्ष लगाने का आयोजन प्रारम्भ किया गया। जनता इसमें अधिक-से-अधिक सहभागी बने, इस उद्देश्य से इसका नाम वन-महोत्सव निर्धारित किया गया। वन-महोत्सव जुलाई मास में सम्पन्न किया जाता है। इसके पीछे यही भावना जुड़ी है कि इन्सान वृक्षों की महत्ता से परिचित होकर उनका अधिक-से-अधिक रोपण करे। साथ ही जन-मानस इतना जाग्रत हो जाय कि वह वृक्षों की अपने पुत्रवत् देखभाल करे।

महाभारत में तो वृक्षों को जीवन नाम से सम्बोधित किया गया है। मानव जीवन के समस्त सुख वनों में ही निहित हैं। इसी भावना से ही प्रेरित होकर मनीषी वनों की कन्दराओं तथा गुफाओं में जाकर तप करते थे।

आज हमारी राष्ट्रीय सरकार भी इस दिशा में सकारात्मक कदम उठा रही है। समस्त देश में वृक्षारोपण का कार्यक्रम संचालित किया जा रहा है।

उपसंहार-यह बात अपने स्थान पर सही है कि वन-महोत्सव के फलस्वरूप वृक्ष लगाने के सम्बन्ध में लोगों के मन-मानस में नई चेतना का संचार हुआ है, परन्तु अभी हमें इस आयोजन पर विराम नहीं लगाना है। वन-महोत्सव के द्वारा अभी जितने वृक्ष लगाये गये हैं, वे भारत के विशाल भू-भाग को देखते हुए अपेक्षाकृत कम हैं। अभी इस दिशा में निरन्तर प्रयास की महती आवश्यकता है। वृक्ष हमसे कुछ चाहते नहीं हैं। वह प्रतिपल हमें छाया, फल, पुष्प प्रदान कर जीवन में सरसता तथा आनन्द का संचार करते हैं। हमें उनका आभारी होना चाहिए। वृक्षों से परोपकार की शिक्षा ग्रहण करके उसे स्वयं के जीवन में उतारना चाहिए। इसी में हमारा तथा जन-सामान्य का कल्याण निहित है

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“धुंध प्रदूषण की छायी है, उसको दूर भगाओ।
पर्यावरण शुद्ध करने को दस-दस वृक्ष लगाओ।”

3. जीवन में खेलों का महत्त्व [2009, 12, 15, 17, 18]
अथवा
खेल : जीवन के लिए आवश्यक [2016]

“खेल जीवन खेल उसमें जीत जाना चाहता हूँ।
मीत मैं तो सिन्धु के उस पार जाना चाहता हूँ॥”

रूपरेखा-

  • प्रस्तावना,
  • व्यस्त जीवन एवं खेल,
  • मन तथा दिमाग पर खेल का प्रभाव,
  • खेलों की महत्ता,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना-जीवन संघर्षमय है, इस संघर्ष में उसको ही मुक्ति मिल सकती है, जो सक्षम एवं सशक्त हो। सशक्त, पुष्ट तथा बलवान बनने का एकमात्र साधन खेल ही है। खेलों से रक्त परिभ्रमण उचित मात्रा में होता है। शरीर में स्फूर्ति जाग्रत होती है। अतः शरीर एवं मस्तिष्क के विकास के लिए खेल नितान्त आवश्यक है।

व्यस्त जीवन एवं खेल-आज मानव का जीवन इतना व्यस्त है कि वह सुबह से लेकर शाम तक किसी न किसी कार्य में व्यस्त रहता है। रोजी-रोटी की समस्या उसे प्रतिपल विकल बनाये रहती है। वह इसी उधेड़-बुन में रात-दिन घुलता रहता है। चिन्ता तथा आवश्यकता से अधिक श्रम उसे कमजोर बना देता है। ऐसी दशा में पुनः शक्ति प्राप्त करने के लिए किसी न किसी प्रकार का खेल अथवा व्यायाम अपेक्षित है।

पर इन हरे-भरे वृक्षों को निर्दयतापूर्वक काटा जा रहा है। इन सभी बातों को दृष्टि में रखकर वृक्षारोपण कार्यक्रम या वन-महोत्सव चलाया जा रहा है। इसका उद्देश्य धरती की हरियाली को पुनः लौटाना है। वृक्षों के लाभ अनगिनत हैं। ये धरती की शोभा हैं। वृक्ष मानव के चिर सहचर हैं। देवताओं के निवास-स्थल हैं तथा प्राणवायु के दाता हैं।

भारतीय संस्कृति एवं वन भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता वनों से गहरे रूप में जुड़ी हुई है। हमारे ऋषियों.दार्शनिकों तथा चिन्तकों ने शहर एवं ग्रामों के कोलाहल से दर जाकर वनों की गोद में ही अनेक अमूल्य जीवन नियमों की खोज की। ज्ञान-विज्ञान के नये सिद्धान्त खोजे। सरिताओं के किनारे बैठकर तपस्या की। वेद-मन्त्रों से वातावरण को गुंजित एवं मुखरित किया। तत्कालिक युग में शिक्षा के केन्द्र गुरुकुल विद्यालय वनों की गोद में ही स्थित थे। वृक्षों की छाया के नीचे बैठकर लोग एक अनिर्वचनीय शान्ति का अनुभव करते थे। वृक्ष हमें मूक रूप में परोपकार का पाठ पढ़ाते हैं। उत्सर्ग की शिक्षा देते हैं। नैतिक शिक्षा के रूप में आशा एवं धीरज का पाठ पढ़ाते हैं।

वनों के विनाश का दुष्परिणाम-आज जनसंख्या सुरसा के मुँह की तरह बढ़ रही है। मानवों को आवास की सुविधा प्रदान करने के लिए वनों को बेरहमी से उजाड़ा जा रहा है। कलकारखानों को बनाने.रेल-मार्गों को बनाने के लिए जगह की जरूरत पडी। इसको पूरा करने के लिए वनों पर ही कुठाराघात हुआ। कल-कारखानों को कच्चे माल की आपूर्ति के लिए भी वन-सम्पदा का बुरी तरह से विनाश किया गया।

वृक्षों के काटने से भूमि का कटाव बढ़ रहा है। वर्षा भी समय पर नहीं हो रही है। रेगिस्तानों में दिन-प्रतिदिन बढ़ोत्तरी अवलोकनीय है। जलवायु भी गर्म तथा पीड़ादायक हो गई है। धरती की उपजाऊ शक्ति में ह्रास हुआ है। भूकम्प आये दिन आते रहते हैं। गर्मी के प्रकोप से मानव का जीना भी दूभर हो गया है।

वृक्षों से लाभ-

  • वृक्ष हरियाली के भण्डार हैं। धरती की शोभा हैं।
  • स्वास्थ्य-वर्द्धक फल प्रदान करते हैं।
  • गोंद, कत्था, सुपाड़ी,नारियल तथा अन्य जीवनोपयोगी सामग्री प्रदान करते हैं।
  • वर्षा को नियन्त्रित करते हैं।
  • उद्योगों के हेतु कच्चा माल वृक्षों से ही प्राप्त होता है।
  • धरती को उपजाऊ बनाते हैं।
  • उपासना के लिए फल तथा फूल देते हैं।
  • भवन-निर्माण की लकड़ी प्रदान करते हैं।
  • वायुमण्डल को संतुलित करते हैं।
  • पशुओं को चारा प्रदान करते हैं।
  • भूमि-कटाव को रोकते हैं।
  • शान्ति तथा मन बहलाने के साधन भी हैं।
  • आध्यात्मिक विकास के सोपान हैं।
  • देश की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने वाले हैं।
  • हमारी सभ्यता एवं संस्कृति की अमूल्य धरोहर को सहेज कर रखने वाले हैं।
  • प्राणियों के लिए शुद्ध वायु देते हैं।
  • औषधियों के स्रोत हैं।

वन संरक्षण की जरूरत-आज प्राकृतिक, दैवीय एवं अन्य संकटों से बचने के लिए वन-संरक्षण की महती आवश्यकता है। वन संरक्षण से पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा। बाढ़,अकाल

मन तथा दिमाग पर खेल का प्रभाव-खेल का मन तथा दिमाग से घनिष्ठ सम्बन्ध है। खेल के मैदान में उतरने पर मन प्रसन्नता से भर उठता है। दिमाग सक्रिय तथा प्रभा सम्पन्न होता है। मानव यदि खेल के मैदान में नहीं उतरे तो वह दैनिक क्रियाकलापों को पूरा करने के पश्चात् प्रमाद में चारपाई पर पड़ा रहता है। जो इन्सान खेल के प्रति अरुचि रखता है, उसका जीवन उत्साह रहित हो जाता है। सुस्ती,प्रमाद तथा रोग उस पर अपना अधिकार जमा लेते हैं। सच्चा खिलाडी खेल के मैदान से ही समता का पाठ पढ़ता है। वह गीता के इस दृष्टान्त को सच्चे अर्थों में प्रमाणित करता है कि मानव को सुख-दुःख और हार-जीत में एक-सा रहना चाहिए।

खेलों की महत्ता-खेल को केवल मन बहलाव का साधन-मात्र ठहराना कोरी मूर्खता है। खेल से मन बहलाव होने के साथ ही हमारे समय का भी अच्छा उपयोग होता है। अगर इन्सान खेल के मैदान में नहीं उतरे,तो वह व्यर्थ की गप-शप में ही अपने समय को नष्ट कर देता है।

खेल से मनुष्य की थकावट दूर हो जाती है। वह नई स्फूर्ति तथा शक्ति का स्वयं में अनुभव करने लगता है। खेल मानव की थकान को मिटाता है। खेल हमें सहयोग तथा मित्रता का पाठ पढ़ाते हैं। खेल के मैदान में उतरने पर हर टीम हार जीत के प्रश्न को लेकर ऐसी सहयोगी भावना से खेलती है कि देखते ही बनता है। यहाँ शत्रु भी मित्र बन जाते हैं। आपस के बैर-भाव को भुलाकर ऐसी एकता का प्रदर्शन करते हैं,जो देखते ही बनती है।

खेल हमें अनुशासन का पाठ पढ़ाते हैं। खेल के मैदान जैसा अनुशासन अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। जो खिलाड़ी खेल के नियमों की अवहेलना करते हैं, उन्हें खेल के मैदान से बाहर कर दिया जाता है। संगठन तथा एकता का विकास भी खेलों के माध्यम से होता है।

खिलाड़ी सबकी श्रद्धा तथा प्रेम का पात्र बनता है। जन-सामान्य उसे आदर की दृष्टि से निहारते हैं। जब वह बाहर निकलता है तो लोग उसे निहार कर गर्व का अनुभव करते हैं। खिलाड़ी हमारे देश का नाम विदेशों में रोशन करते हैं।

खेल इन्सान की रोजी-रोटी में भी सहायक हैं। जब छात्र अपनी शिक्षा पूर्ण कर लेता है, तो वह नौकरी की तलाश करता है। साक्षात्कार के समय अच्छे खिलाड़ी को खेल की वजह से ही अच्छे अंक मिल जाते हैं। उससे उसका चयनित होना अनिवार्य हो जाता है।

खिलाड़ी प्रतिपल चुस्ती तथा स्फूर्ति का अनुभव करता है। वह प्रत्येक कार्य को चाहे वह शरीर से सम्बन्धित हो अथवा मस्तिष्क से,उसे तुरन्त पूरा कर लेता है। निराशा उसके पास नहीं फटकती। उदासीनता उससे कोसों दूर रहती है।

उपसंहार-हर्ष का विषय है कि आज हमारी राष्ट्रीय सरकार खिलाड़ियों को विविध प्रकार की सुविधाएँ देकर उनके उत्साह को बढ़ावा दे रही है। सरकारी नौकरियों में उन्हें वरीयता प्रदान की जा रही है।

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हमारी जिन्दगी शरीर पर निर्भर है। शरीर समाप्त हुआ तो जिन्दगी बीत गई। स्वस्थ शरीर हमारे जीवन की आधारशिला है। जीवन का रस अच्छे स्वास्थ्य में निहित है। शरीर नहीं होगा तो अन्य कार्य कैसे सम्पन्न होंगे ? हमारे ऋषियों का कहना था कि “जीवेम् शरदः शतम्” अर्थात् हम सौ साल तक जीवित रहें। यह तभी सम्भव है,जब शरीर वेगमय तथा गतिशील हो। खेल इन दोनों आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। अत: वीर,पुष्ट,प्रसन्न तथा स्वस्थ बनने के लिए खेल परमावश्यक है। कहा भी गया है मृतप्राय जीवन में संजीवन फँकते प्राणों की जो तमिस्र के गर्त से खींच ज्योति भर दे हृदय में जो वो खेल जीवन को नया आयाम देते हैं। वो खेल जीवन में नया उत्साह भरते हैं।

4. जल मानव जीवन के प्राणों का आधार है [2009]
अथवा
जल ही जीवन है [2009]
अथवा
बिन पानी सब सून [2013]

रूपरेखा-

  • प्रस्तावना,
  • जल के विभिन्न कार्य,
  • जल के प्रमुख स्रोत,
  • उपसंहार॥

प्रस्तावना प्रत्येक जीवधारी के जीवन के लिए जल एवं वायु आवश्यक हैं। जल ही मानव के जीवन का प्रमुख आधार है। जल के बिना मानव जीवन की कल्पना असम्भव है। अतः जल के महत्त्व को प्रदर्शित करते हुए रहीम कवि ने उचित ही कहा है

“रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे, मोती मानुष चून ॥”

जल के विभिन्न कार्य-जैसा कि पूर्व में कहा गया है जल ही जीवन का आधार है। जीवन के लिए आवश्यक रोटी भी है। इसके लिए उत्तम फसल का होना लाभदायक है। जल के बिना उत्तम खेती व खुशहाली असम्भव है। वास्तव में,जल ही ऐसा प्रमुख स्रोत है जिसके द्वारा उत्तम खेती हो सकती है।

यदि समय पर वर्षा होगी तो जुताई, बुवाई भी समय से हो जायेगी। यदि वर्षा न हो तो पेड़-पौधे नष्ट हो जायेंगे। अतः वर्षा का समय से होना शुभ संकेत है। किसानों को तो बादलों को देखकर ही अनुमान हो जाता है कि वर्षा किस समय होगी।

यदि पृथ्वी पर जलाभाव हो जाये तो अकाल व सूखा पड़ जायेगा। हजारों लाखों लोग काल के मुख में समा जायेंगे।

जिस प्रकार मानव के लिए जल आवश्यक है, उसी प्रकार पशु-पक्षी व जलीय जन्तुओं के लिए भी जल आवश्यक है। जल के अभाव में इन प्राणियों का जीवन भी असम्भव है।

जल के प्रमुख स्रोत-जल का सर्वश्रेष्ठ प्राकृतिक स्रोत वर्षा है लेकिन आज के वैज्ञानिक युग में मानव ने जल प्राप्ति के कृत्रिम स्रोतों की खोज कर ली है। इसीलिए उसने नहर एवं बाँधों का निर्माण किया है।

जल के अन्य स्रोत कुएँ,तालाब व झरने हैं। इसके अतिरिक्त जल संचय करने हेतु मानव ने एक नवीन विधि का आविष्कार किया है। इस विधि में बड़े-बड़े गड्ढे खोदकर जल संचय किया जाने लगा है। इससे जल की कमी को पूरा करने का प्रयास किया जा रहा है।

उपसंहार-जल ही जीवन का आधार है लेकिन खेद का विषय है कि जल का प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। जल के स्तर में भी निरन्तर कमी होती जा रही है। मानवता को खुशहाल रखने के लिए जल आवश्यक है। इसके लिए जल के देवता इन्द्र को प्रसन्न करना पड़ेगा। वास्तव में, जल ही प्राणदायिनी शक्ति है।

5. राष्ट्रीय एकता और अखण्डता [2009, 10, 14]
अथवा
भारत की राष्ट्रीय एकता
अथवा
राष्ट्रीय एकता [2012]

“क्या बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी।
सदियों रहा है दुश्मन, दौरे जहाँ हमारा ॥”

रूपरेखा [2017, 18]-

  • प्रस्तावना,
  • राष्ट्रीय एकता का तात्पर्य,
  • राष्ट्रीय एकता की जरूरत,
  • देश की वर्तमान स्थिति,
  • राष्ट्रीय एकता को खंडित करने वाले तत्त्व,
  • राष्ट्रीय एकता तथा हमारा उत्तरदायित्व,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना-राष्ट्रीय एकता का गम्भीर प्रश्न आज देश के समक्ष चुनौती के रूप में उपस्थित है। इसका प्रमुख कारण यह है कि इस देश की धरती पर विभिन्न धर्म,जाति,सम्प्रदाय तथा वर्ग के लोग निवास करते हैं। भिन्नता होने पर यदा-कदा संघर्षों का भी सूत्रपात हो जाता है। एकता के स्थान पर भेद-भाव पनप जाता है। इससे राष्ट्रीय एकता को खतरा उत्पन्न हो गया है।

देश को आजाद करने में न जाने कितने लोग शहीद हुए। अनेक लोगों ने कारागार की कठोर यातनाओं को सहर्ष स्वीकार किया। गोली,डण्डे तथा लाठियों के प्रहार को सहन किया। आज इसी स्वतन्त्र भारत के वायुमण्डल में विद्रोह तथा हिंसा के स्वर गूंज रहे हैं। मानवता पर दानवता हावी है।

राष्ट्रीय एकता का तात्पर्य राष्ट्र एवं उसके स्वरूप के प्रति निष्ठा एवं श्रद्धा का भाव राष्ट्रीयता के नाम से सम्बोधित किया जाता है। राष्ट्र की रक्षा का भाव राष्ट्रीय एकता का सूचक है। विभिन्न धर्मों तथा सम्प्रदाय के लोगों में भाषा, धर्म तथा जाति के आधार पर भेद पाये जाते हैं। आचार-विचार तथा खान-पान में भी भिन्नता होती है। इस अनेकता के मध्य एकता का पाया जाना ही राष्ट्रीय एकता है। विचारों में सामंजस्य तथा राजनीतिक एकता, राष्ट्रीय एकता का प्रतिरूप है। समस्त देश की राजनीतिक, वैचारिक, आर्थिक तथा सामाजिक एकता ही राष्ट्रीय एकता का प्रतिरूप है।

राष्ट्रीय एकता की जरूरत-देश की बाह्य एवं आन्तरिक सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय एकता अति जरूरी है। यदि हमने देश को जोड़ने के स्थान पर तोड़ने का प्रयास किया तो इसका लाभ शत्रु-पक्ष उठायेगा। आज भारतवर्ष की उन्नति को पड़ोसी देश फूटी आँख भी नहीं देखना चाहते। हमें उन तथ्यों का सावधानीपूर्वक पता लगाना है जो कि राष्ट्रीय एकता के मार्ग में रोड़ा बनकर खड़े हुए हैं। बिना तथ्यों की खोज के प्रयास करना बालू में तेल निकालने के समान व्यर्थ सिद्ध होगा। राष्ट्र के हित में सम्पूर्ण देश का हित है। देश के प्रति समर्पण भाव ही राष्ट्रीय एकता को मजबूत करता है। राष्ट्र पर किसी एक जाति, धर्म,वर्ग तथा सम्प्रदाय की बपौती नहीं है। राष्ट्र पर सबका समानाधिकार है।

देश की वर्तमान स्थिति आज भारत देश अनेक परिस्थितियों के जाल में फंसा हुआ है। सम्प्रदाय, धर्म एवं जाति को लेकर संकुचित मनोवृत्ति वाले घृणित अलगाववादी भावना का विषैला बीज बो रहे हैं। आन्दोलन, तोड़-फोड़ तथा हड़ताल राष्ट्र की एकता के तार को छिन्न-भिन्न कर रहे हैं। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि भारत परतन्त्रता के पाश में भी अलगाववादी भावना के कारण ही बँधा।

राष्ट्रीय एकता को खंडित करने वाले तत्त्व-आज आजादी प्राप्त करने के पश्चात् भारत एक प्रभुता-सम्पन्न गणराज्य है। यदि हम राष्ट्रीय एकता के सन्दर्भ में भारत पर दृष्टिपात करें तो इसे एक कमजोर राष्ट्र ही समझा जायेगा।

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आज भारत भूमि पर अनेक प्रकार की ऐसी शक्तियाँ विद्यमान हैं, जो इसकी एकता के तारों को छिन्न-भिन्न करने के लिए सक्रिय हैं।

क्षेत्रीयता, भाषा, धार्मिक उन्माद तथा साम्प्रदायिकता राष्ट्रीय एकता में सेंध लगाने वाले तत्त्व हैं। इनमें सबसे बुरा तत्त्व साम्प्रदायिकता है। साम्प्रदायिकता मानव मन में फूट के विषैले बीजों का वमन करती है। मित्रों के मध्य द्वेष तथा जलन पैदा करती है। भाई से भाई को सदा के लिए विलग कर देती है।

भाषागत विवाद भी देश की एकता के लिए एक समस्या है। भारत में अनेक प्रान्त हैं। उन प्रान्तों की अलग-अलग बोलियाँ हैं। अपनी भाषा के मोह में दूसरी भाषा का निरादर किया जाता है।

प्रान्तीयता की भावना भी राष्ट्रीय एकता के पथ में रोड़ा बनी हुई है। आज अलग-अलग अँचल में निवास करने वाले लोग अपने स्वतन्त्र अस्तित्व की माँग दुहरा रहे हैं। ऐसी स्थिति में एकता किस प्रकार स्थापित की जा सकती है।

सुमित्रानन्दन पन्त की एक पंक्ति राष्ट्रीय एकता के महत्त्व को प्रतिपादित करने के लिए पर्याप्त है, देखिए-

“राजनीति और अर्थशास्त्र के बिना भले ही जी लें,
जन-राष्ट्रीय ऐक्य के बिना असम्भव।”

राष्ट्रीय एकता तथा हमारा उत्तरदायित्व-राष्ट्रीय एकता को बनाये रखने के लिए आज देश के प्रत्येक नागरिक का पावन कर्त्तव्य है। आज देश के लेखक, कवि, दार्शनिक सभी देश की एकता को बनाये रखने के लिए प्रयासरत् हैं। सभी समझदार चाहते हैं कि राष्ट्रीय एकता खंडित न हो। देश में प्रेम तथा सौहार्द्र का वातावरण बने। भेद तथा अलगाव की लौह दीवारें धराशायी हों। ईर्ष्या,द्वेष तथा तनाव का अन्त हो, परन्तु दुःख का विषय यह है कि विद्वेष की ज्वाला आज भी देश में अनेक स्थानों पर यदा-कदा भड़क उठती है। किसी शायर ने ठीक ही कहा है

“मर्ज बढ़ता गया,ज्यों ज्यों दवा की” समय-समय पर जो अनहोनी घटनाएँ घट जाती हैं, उससे यह सिद्ध होता है कि हम अभी विघटनकारी तत्त्वों को पूरी तरह से कुचल नहीं पाये हैं। यह कार्य सरकार अथवा राष्ट्रीय नेताओं के बल पर पूरा नहीं किया जा सकता है। इसके लिए देश के प्रत्येक नागरिक को कमर कसकर मैदान में उतरना होगा।

राष्ट्र की सेवा एवं एकता के लिए हमें प्रतिपल तत्पर रहना चाहिए। इकबाल के शब्दों में-

“पत्थरों की मूरतों ने समझा है तू खुदा है।
खाके वतन का मुझको हर जर्रा देखता है।”

उपसंहार-राष्ट्रीय एकता का सामूहिक प्रयास ही फलदायी सिद्ध हो सकता है। साहित्यकार, पत्रकार, बुद्धिजीवी वर्ग,समाज-सेवी तथा देश-प्रेमी प्रत्येक व्यक्ति को इसके लिए जी-जान से कोशिश करनी पड़ेगी। परिवार तथा नारियों की भी इस सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। बालकों के मन-मानस से बचपन से ही बन्धुत्व की भावना का बीजारोपण करना परमावश्यक है। सभी परम-पिता की संतान हैं। आबाल वृद्ध सबको ही राष्ट्रीय एकता के तार को दृढ़ बनाने में अपना योगदान देना चाहिए, तभी राष्ट्र में एकता के स्वर गुंजित होंगे। सभी नागरिक प्रेम तथा बन्धुत्व के सम सूत्र में आबद्ध होकर सुख तथा शान्ति का अनुभव करेंगे।

(6) स्वच्छ भारत अभियान
अथवा
स्वच्छ भारत, श्रेष्ठ भारत

“स्वच्छ भारत का यह अभियान,
आज करता सबका आह्वान।
देश हित उठो सफाई करो,
बढ़ाओ जग में निज सम्मान॥”

रूपरेखा [2018]-

  • प्रस्तावना,
  • स्वच्छ भारत का स्वप्न,
  • स्वच्छ भारत अभियान का प्रारम्भ,
  • गन्दगी के दुष्परिणाम,
  • स्वच्छ भारत अभियान का प्रचार-प्रसार,
  • सभी वर्गों का सहयोग अपेक्षित,
  • शुभ परिणाम,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना-सदाचारी, सहृदय, मृदुभाषी,स्पष्टवक्ता आदि की तरह ही सफाई पसन्द होना श्रेष्ठ मानव की विशेष पहचान है। स्वच्छ तन में निर्मल मन विकसित होता है। घर-बाहर का स्वच्छ परिवेश उल्लास,स्फूर्ति,कर्मण्यता को बढ़ाता है। जीवन मंगल मार्ग की ओर अग्रसर होता है। इसके विपरीत गन्दगी व फूहड़ परिवेश पतन के कारण बनते हैं। सफाई पसन्द व्यक्ति स्वयं के साथ-साथ अपने परिवेश को भी सुवासित करता है,वह सभी को अपनी ओर आकर्षित करता . है। स्वच्छता गुण की महिमा अकथनीय है।

स्वच्छ भारत का स्वप्न स्वच्छता के महत्त्व को ध्यान में रखकर ही महात्मा गाँधीजी ने ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ का आह्वान करने के साथ ही स्वच्छ भारत का स्वप्न संजोया था। वे भारत को अंग्रेजों से मुक्त कराने में तो सफल हो गये किन्तु स्वच्छ भारत का स्वप्न उनके लिए सपना ही बनकर रह गया।

स्वच्छ भारत अभियान का प्रारम्भ-भारत के प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने महात्मा गाँधी के जन्म दिवस 2 अक्टूबर, 2014 को ‘स्वच्छ भारत अभियान’ की उद्घोषणा की। उन्होंने स्वच्छता के महत्त्व को रेखांकित करते हुए इसे अपनाने पर बल दिया। उन्होंने बताया कि स्वयं स्वच्छ रहने के साथ-साथ अन्य को सफाई के प्रति जागरूक करना हर भारतीय की नैतिक जिम्मेदारी है। सफाई के सन्दर्भ में भारत संसार के अनेक देशों से पिछड़ा हुआ है। कई देश ऐसे हैं जहाँ गन्दगी का नामोनिशान भी नहीं है, किन्तु भारत में गन्दगी का भयंकर प्रकोप है।

गन्दगी के दष्परिणाम-भारत के नगरों, महानगरों व गाँवों में भयंकर गन्दगी फैली है। नगरों में बजबजाती नालियाँ, उफनते सीवर,खुले नाले, गलियों, चौराहों पर कूड़े-करकट के ढेर, उन पर भिनभिनाते मक्खी-मच्छर सामान्य बात है। ऐसी स्थिति के मध्य भारत की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा जीवनयापन करता है। इस गन्दगी के कारण विभिन्न बीमारियाँ फैलती हैं। बीमारी के कारण उनके काम-धन्धे रुक जाते हैं। इलाज का अतिरिक्त खर्च बढ़ जाता है। परिवार के सदस्यों पर संकट छा जाता है। गरीब और गरीब होता जाता है।

गाँवों की स्थिति और भी दयनीय है। वहाँ की अधिकांश आबादी खले में शौच के लिए जाती है। सर्वाधिक दुःखद बात यह है कि माँ-बहनें भी खुले में शौच को जाती हैं। गन्दगी के सन्दर्भ में विश्व स्वास्थ्य संगठन के आँकड़े बताते हैं कि भारत में गरीबी के कारण प्रत्येक व्यक्ति को 6,500 रुपये का नुकसान प्रतिवर्ष झेलना पड़ता है। इस कलंक को मिटाना आवश्यक है।

स्वच्छ भारत अभियान का प्रचार-प्रसार–’स्वच्छ भारत अभियान’ को जन आन्दोलन का रूप देना होगा। यह राष्ट्र भक्ति से जुड़ा कार्य है जिसके प्रति प्रत्येक भारतवासी का समर्पण अपेक्षित है। किसी सरकार,संगठन, संस्था या व्यक्ति द्वारा यह कार्य पूरा नहीं किया जा सकता है। इसे सफल बनाने के लिए दूरदर्शन, रेडियो, समाचार-पत्र आदि के माध्यम से प्रचार-प्रसार, परिचर्चा आदि की आवश्यकता है। भारत की सवा सौ करोड़ आबादी को सफाई के प्रति जागरूक करना अनिवार्य है।

सभी वर्गों का सहयोग अपेक्षित स्वच्छता अभियान में जब तक सभी वर्गों का सहयोग नहीं मिलेगा। तब तक सफलता सम्भव नहीं है। इसमें प्रभावशाली नेताओं, अभिनेताओं, कलाकारों, खिलाड़ियों, उद्योगपतियों, समाज सेवियों का सक्रिय सहयोग अपेक्षित है। ये सभी अपने-अपने ढंग से स्वच्छ भारत अभियान को बढ़ावा दे सकते हैं। ये चाहेंगे तो प्रत्येक भारतवासी अपनी जन्मभूमि को स्वच्छ रखने के प्रति सजग हो जायेगा। गाँव के स्तर पर प्रधान-सरपंच,नगर के स्तर पर नगर प्रमुख,महानगर के स्तर पर महापौर इस अभियान को सफल बनाने में मददगार होंगे। नगरों में सफाई व्यवस्था दुरुस्त की जाय। गाँवों में सफाई व्यवस्था के साथ-साथ शौचालयों का भी निर्माण कराया जाय। तभी सफाई को गति मिल सकेगी।

शुभ परिणाम–’स्वच्छ भारत अभियान’ की सफलता भारत के मंगलकारी भविष्य की निर्माता सिद्ध होगी। स्वच्छता रहेगी तो तन स्वस्थ होगा, मन उल्लसित रहेगा, कार्यकुशलता बढ़ेगी। इससे आय में वृद्धि होगी,तो गरीबी मिटेगी। बीमारियों पर होने वाला व्यय बचेगा तथा देश के निवासी स्वस्थ एवं स्वावलम्बी बनेंगे। भारत सतत् विकास पथ पर अग्रसर होगा।

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उपसंहार-महात्मा गाँधी के स्वच्छ भारत के स्वप्न को साकार करने में प्रत्येक भारतवासी को सहयोग करना चाहिए। उसे अपने घर एवं बाहर सफाई रखनी चाहिए तथा दूसरों को सफाई के प्रति प्रेरित करना चाहिए। यदि सभी स्वच्छता को अपनी आदत बना लेंगे तो भारत में गन्दगी का नामोनिशां नहीं होगा। फलस्वरूप भारत का सम्मान उत्तरोत्तर शिखर की ओर बढ़ता जायेगा।

7. जीवन में अनुशासन का महत्त्व
अथवा
अनुशासित छात्र जीवन [2009]
अथवा
विद्यार्थी एवं अनुशासन [2009, 13, 15]
अथवा
विद्यार्थी जीवन [2018]

“सूर्य, चन्द्रमा, तारे सारे प्रकृति से अनुशासित होते।
समय बद्ध हो चलते रहते,
कभी न पथ से विचलित होते ॥”

रूपरेखा [2016]-

  • प्रस्तावना,
  • अनुशासित जिन्दगी,
  • अनुशासन का महत्त्व,
  • अनुशासन के प्रकार,
  • अनुशासन का तात्पर्य,
  • अनुशासनहीनता के कारण,
  • विद्यार्थी एवं अनुशासन,
  • उपसंहार।।

“अनुशासन दो शब्दों अनु + शासन के योग से बना है। इसका तात्पर्य है-शासन के पीछे चलना या नियमानुकूल कार्य करना। इस प्रकार नियमों का पालन ही अनुशासन कहलाता है।” बिना अनुशासन के जीवन अटपटा एवं सारहीन है।

प्रस्तावना-समस्त सृष्टि नियमबद्ध तरीके से संचालित हो रही है। सूर्य एवं चन्द्र नियमित रूप से उदय होकर दुनिया को प्रकाश लुटाते हैं। जिस प्रकार प्रकृति के नियम हैं, उसी भाँति समाज, देश तथा धर्म की भी कुछ मर्यादाएँ होती हैं। कुछ नियम होते हैं, कुछ आदर्श निर्धारित होते हैं। इन आदर्शों के अनुरूप जीवन ढालना अनुशासन की परिधि में आता है।

अनुशासित जिन्दगी–वास्तव में अनुशासित जिन्दगी बहुत ही मनोहर तथा आकर्षक होती है। इससे जीवन दिन-प्रतिदिन प्रगति के मार्ग पर अग्रसर होता है। अनुशासन के पालन से जीवन में मान-मर्यादा मिलती है। जो जीवन अनुशासित नहीं होता, वह धिक्कार तथा तिरस्कार का पात्र बनता है।

अनुशासन का महत्त्व-अनुशासन का जीवन से गहरा लगाव है। जो समाज अथवा राष्ट्र अनुशासन में बँधा होता है,उसकी उन्नति अवश्यम्भावी है। दुनिया की कोई भी ताकत उसे बढ़ने से रोक नहीं पाती। यदि अनुशासन का उल्लंघन किया जाय तो राष्ट्र तथा समाज अधोगति गर्त में गिरता चला जाता है।

अनुशासन के प्रकार-अनुशासन के अनेक प्रकार हैं। नैतिक अनुशासन, सामाजिक अनुशासन तथा धार्मिक अनुशासन। अनुशासन बाह्य तथा आन्तरिक दो प्रकार का होता है। जब भय तथा डंडे के बल पर अनुशासन स्थापित किया जाता है, तो इस प्रकार के अनुशासन को बाहरी अनुशासन कहकर पुकारा जाता है। जब व्यक्ति अथवा बालक स्वेच्छा से प्रसन्न मन से नियमों का पालन करता है, तो इस प्रकार का अनुशासन आन्तरिक अनुशासन की श्रेणी में आता है।

अनुशासन का तात्पर्य-अनुशासन शब्द दो शब्दों के मेल से बना है। पहला ‘अनु’ जिसका अर्थ है पीछे, दूसरा ‘शासन’ अर्थात् शासन के पीछे अनुगमन करना।

अनुशासनहीनता के कारण आज छात्र वर्ग में असंतोष तथा निराशा है। यही निराशा तथा असंतोष अनुशासनहीनता का जनक है। आज छात्र-वर्ग अनुशासन को भंग करने में अपनी शान समझता है।

इसका प्रमुख कारण यह है कि आज जीवन मूल्यों में निरन्तर गिरावट आ रही है। शिक्षा व्यवस्था ऐसी है कि छात्रों को अपना भविष्य अन्धकारमय नजर आता है। सिनेमा के अश्लील तथा संघर्षमय चित्र आग में घी का काम कर रहे हैं। वातावरण दूषित है। धन को ही सर्वस्व स्वीकारा जा रहा है। आज के नेता अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए छात्र-वर्ग को गुमराह कर रहे हैं। इन सब कारणों से अनुशासनहीनता पनपती जा रही है।

विद्यार्थी एवं अनुशासन-वैसे हर मानव के लिए अनुशासन का पालन करना आवश्यक है, लेकिन छात्रों के लिए तो अनुशासन में रहना अमृत-तुल्य है। छात्र जीवन मानव जीवन की आधारशिला है।

आज छात्रों द्वारा परीक्षा का बहिष्कार, सार्वजनिक स्थानों में तोड़-फोड़ तथा पुलिस के साथ संघर्ष एक आम बात हो गई है। समाचार-पत्र छात्रों की अनुशासनहीनता तथा हिंसक घटनाओं की खबर नित्य-प्रति प्रकाशित करते रहते हैं। हम इन्हें पढ़कर मात्र इतना कह देते हैं कि यह बहुत बुरी बात है,लेकिन हमारे इतना कहने मात्र से इसका निराकरण नहीं होता। क्या कभी हमने शान्त-मन से यह सोचा है कि यदि यह बीमारी बढ़ती गई तो इसका निराकरण करना हमारे वश की बात नहीं रहेगी।

छात्र एवं अनुशासन एक सिक्के के दो पहलू हैं। प्राचीन काल में छात्रों को आश्रमों तथा गुरुकुलों में गुरु के समीप रहकर शिक्षा प्राप्त करनी पड़ती थी। उनको अनुशासन के कठोर नियमों में बँधकर जीवनयापन करना पड़ता था। वर्तमान समय के छात्रों को भी यह ध्यान रखना चाहिए कि वे आज अनुशासनहीनता के जिस पथ पर अग्रसर हो रहे हैं,वह उनके भविष्य के लिए घातक तथा अमंगलकारी है।

इसके निराकरण के लिए नियमित रूप से नैतिक शिक्षा, धार्मिक उपदेश तथा जीवनोपयोगी चर्चायें, प्रार्थना स्थल तथा कक्षाओं में होनी चाहिए जिससे छात्र सद्मार्ग के अनुगामी बन सकें। अभिभावकों, शिक्षाविदों तथा अध्यापकों को भी स्वयं के आदर्श प्रस्तुत करके छात्रों को देश का उत्तम नागरिक बनाने में यथाशक्ति सहयोग देना चाहिए।

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उपसंहार-छात्र देश के भाग्य विधाता हैं। शक्ति के पुंज हैं। देश उनकी ओर आशा भरी दृष्टि से निहार रहा है। यदि वे सुधरे तो देश सुधरेगा। उनके न सुधरने पर देश रसातलगामी बनेगा।

8. बेकारी की समस्या
अथवा
बेरोजगारी एक समस्या: कारण एवं निवारण [2009]

“अकुलाती है प्यास धरा की
घिरती जब दारिद्र्य दुपहरी।
छलनी हो जाता नभ का उर,
छाती जब अँधियारी गहरी॥”

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. भारत में बेरोजगारी की समस्या,
  3. बेरोजगारी के कारण,
  4. बेकारी निराकरण के उपाय,
  5. उपसंहार।।

प्रस्तावना-आज प्रत्येक साल विद्या-मन्दिरों से उपाधि का बोझ धारण किये लाखों की संख्या में नौजवान निकल रहे हैं। शिक्षा समापन के बाद वे दर-दर नौकरी के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं। नौकरी सीमित हैं। नौकरी चाहने वालों की संख्या असीमित है। किसी शायर ने इसे देखकर कहा देखिए

“कॉलेजों से सदा आ रही है, पास-पास की।
ओहदों से सदा आ रही है, दूर-दूर की ॥”

कैसी विडम्बना है कि भविष्य की आशालता नौजवान आज बेकार है। उनकी रुचि का कार्य उन्हें नहीं मिल पा रहा है।

भारत में बेरोजगारी की समस्या जब हम अपने देश भारत पर दृष्टिपात करते हैं, तो यहाँ बेरोजगार व्यक्ति सीमा से अधिक हैं। काम सीमित है तथा काम करने वाले हाथ अधिक हैं। मशीनीकरण के कारण भी बेकारी बढ़ी है। भूमि भी कम है। कल-कारखाने भी आदमी के अनुपात में कम हैं।

बेरोजगारी के कारण बेरोजगारी के प्रमुख कारण निम्नवत हैं

  1. शारीरिक श्रम से बचने का प्रयास-आज़ देश के अधिकांश नवयुवक शारीरिक श्रम से बचने का प्रयास करते हैं।
  2. प्रत्येक नौकरी का आकांक्षी-आज हर छात्र शिक्षा समाप्त करके नौकरी प्राप्त करना चाहता है। नौकरी कम तथा नौकरी पाने के इच्छुक नौजवानों की संख्या अधिक है। इस दशा में बेकारी का बढ़ना स्वाभाविक है।
  3. जनसंख्या में वृद्धि-आज भारत में जनसंख्या द्रुत गति से बढ़ रही है। ऐसी स्थिति में सबके लिए रोजी-रोटी की समस्या आज प्रश्न रूप में उपस्थित है।
  4. दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली-वर्तमान शिक्षा प्रणाली दोषपूर्ण है। लार्ड मैकाले के सपने को यह आज भी साकार कर रही है। आज किसी व्यवसाय विशेष को अपनाने के स्थान पर नौजवान बाबू बनने को तत्पर है। शिक्षा रोजगारपरक नहीं है।
  5. कुटीर उद्योग-धन्धों का समापन-आज प्रायः कुटीर उद्योग-धन्धों का समापन-सा ही हो गया है। मशीनी युग आ गया है। इस दशा में कुटीर उद्योग-धन्धों को करने वाले हाथ बेकार हो गये हैं।
  6. उद्योग-धन्धों का उचित विकास न होना–भारत की जनसंख्या के अनुपात में उद्योग-धन्धों का जितना विकास होना चाहिए था, उतना नहीं हो पा रहा है, फलतः बेकारी फैलेगी ही।
  7. सामाजिक कुरीतियाँ-सामाजिक कुरीतियाँ भी बेकारी के लिए उत्तरदायी हैं। जाति विशेष के लोग किसी व्यवसाय विशेष को सम्पन्न करने में अपना अपमान समझते हैं। चाहे वे बेकार भले ही बैठे रहें, परन्तु काम नहीं करते।

बेकारी निराकरण के उपाय-बेकारी की समस्या का निराकरण होना परमावश्यक है। इस सम्बन्ध में देश के नौजवानों में श्रम करने की भावना जाग्रत होनी चाहिए। शारीरिक श्रम के प्रति उनमें सर्वदा सच्चा भाव होना चाहिए। इसे असम्मान के स्थान पर सम्मान समझना चाहिए।

बढ़ती हुई जनसंख्या पर तत्क्षण रोक लगाना जरूरी है। शिक्षा रोजगारपरक हो, योजनाएँ मंगलकारी तथा सुविचारित होनी चाहिए। शिक्षा प्रणाली में समय के अनुरूप परिवर्तन अपेक्षित है।

लघु कुटीर उद्योग-धन्धों को प्रोत्साहन देना नितान्त आवश्यक है। इन धन्धों के माध्यम से निम्न तथा निर्धन वर्ग अपनी रोजी-रोटी की समस्या का समाधान करने में स्वयं ही सक्षम हो जायेगा।

भारत एक कृषि-प्रधान देश है। यहाँ की अधिकांश जनता कृषि पर आश्रित है। इस हेतु यह परमावश्यक है कि हर योजना में कृषि को प्रमुखता दी जाय। तरुण पीढ़ी को कृषि कार्य करने के लिए प्रोत्साहित किया जाय। दुःख का विषय तो यह है कि आज का नवयुवक नगरों की रंग-बिरंगी शोभा पर कुर्बान है। गाँव की प्राकृतिक सुषमा को भुला बैठा है। युवकों के मन मानस में अनाज की बालियों को प्राप्त करने की ललक होनी चाहिए।

देश के नौजवानों को जापान से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए, जहाँ पर हर एक की उँगली काम पर थिरकती रहती है। सब कर्म-यज्ञ के आराधक हैं।

उपसंहार-बेरोजगारी की समस्या का निदान राष्ट्र का सर्वोपरि लक्ष्य होना चाहिए। जब तक देश की जनसंख्या पेट की ज्वाला से दग्ध होती रहेगी, तब तक देश की शक्ति का प्रयोग रचनात्मक कार्यों में कदापि नहीं हो सकता। उस समय तक गाँधी तथा नेहरू के सपनों का भारत केवल काल्पनिक वस्तु बनकर ही रह जायेगा।

9. पर्यावरण-प्रदूषण [2011, 12, 14, 17]
अथवा
पर्यावरण प्रदूषण-कारण और निदान [2015]

“अपनी हालत का कुछ अहसास नहीं मुझको,
मैंने औरों से सना है कि परेशाँ हँ मैं।”
“दुनिया में कुछ इस कदर छाया है प्रदूषण,
कि देखकर ये हाल हैराँ हूँ मैं।”

रूपरेखा-

  • प्रस्तावना,
  • प्रदूषण का अभिप्राय,
  • प्रदूषण के प्रकार,
  • प्रदूषण की रोकथाम,
  • उपसंहार।।

प्रस्तावना-पर्यावरण प्रदूषण आज समस्त विश्व के लिए गम्भीर चुनौती बना हुआ है। इस समस्या का अविलम्ब निराकरण होना परमावश्यक है। आज आकाश विषाक्त हो गया है। धरती दूषित हो गई है। जल जानलेवा बन गया है। आज का इन्सान भोग-विलास तथा आमोद-प्रमोद में मस्त है। अपनी सुख-सुविधाओं की वृद्धि की सनक में प्राकृतिक सम्पदाओं का निरन्तर दोहन करता हुआ चला जा रहा है। वृक्ष काटे जा रहे हैं। हरियाली नष्ट की जा रही है। पुष्पों को कुचला जा रहा है। प्राकृतिक छटा स्वप्नवत् हो गई है। यही वजह है कि आज मानव

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स्वच्छ वायु का सेवन करने के लिए भी तरस रहा है। पर्यावरण-प्रदूषण के फलस्वरूप जिन्दगी की गुणात्मकता में प्रतिपल हास हो रहा है। प्रदूषण का अभिप्राय-साधारण रूप से वे समग्र कारण जो प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से इन्सान के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाते हैं, संसाधनों पर विपरीत प्रभाव डालते हैं, प्रदूषण के प्रमुख कारण हैं। प्रदूषण से हमारा अभिप्राय यह है-वायु, जल एवं धरती की भौतिक, रासायनिक एवं जैविक विशेषताओं में अवांछनीय परिवर्तन द्वारा दोष पैदा हो जाना। सरिता, पर्वत,पानी, वायु तथा वन आदि की स्वाभाविक स्थिति में विकार (दोष) का समावेश हो जाता है, तब प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो जाती है।

प्रदूषण के प्रकार-

  • वायु प्रदूषण,
  • जल प्रदूषण,
  • रेडियोधर्मी प्रदूषण,
  • ध्वनि-प्रदूषण,
  • रासायनिक प्रदूषण।।

(1) वायु प्रदूषण-आजकल फैक्टरी तथा कारखानों की चिमनियाँ रात-दिन काला धुआँ उगल रही हैं। सड़क पर दौड़ते हुए वाहन एवं कोयले के प्रयोग से घर से निकलने वाला धुआँ वातावरण में जहर घोल रहा है। सड़क पर चलना तथा घर में रहना भी दुश्वार हो गया है। हर स्थल पर धुएँ की घुटन विद्यमान है। मानव इनसे त्राण पाना चाहता है,परन्तु स्वयं को लाचार तथा असहाय अनुभव कर रहा है। इन्सान स्वयं की साँस में वायु से ऑक्सीजन ग्रहण करता है तथा कार्बन डाइऑक्साइड नामक गैस को छोड़ता है। यह अत्यधिक विषाक्त गैस है। पृथ्वी पर वृक्ष तथा पौधे इसे सोख लेते हैं। दुर्भाग्य की बात तो यह है कि आज कार्बन डाइ-ऑक्साइड जैसी जहरीली गैसों का प्रतिदिन विस्तार हो रहा है। इन गैसों से धरती का तापमान अनुपात से अधिक बढ़ रहा है।

(2) जल प्रदूषण जब जल दूषित तथा दुर्गन्धयुक्त हो जाता है तब उसे जल प्रदूषण पुकारते हैं। आज फैक्ट्री तथा कारखानों द्वारा छोड़ा गया रासायनिक पदार्थ जल को दूषित बना रहा है। मल-मूत्र जल में मिलकर कोढ़ में खाज का काम कर रहा है। ये रासायनिक पदार्थ नदियों के माध्यम से सागर तक पहुँचते हैं, फलतः सागर जल भी दूषित हो जाता है। जीव-जन्तु व्याकुल होकर मरणोन्मुख हो जाते हैं। आज का जल इतना विषाक्त तथा दूषित हो गया है, जो मानव को मौत तथा बीमारियों की ओर अग्रसर कर रहा है।

(3) रेडियोधर्मी प्रदूषण-आज विश्व के शक्तिशाली राष्ट्र परमाणु शक्ति के विस्तार में संलग्न हैं। परमाणु विस्फोट आज आम बात हो गई है। विस्फोटों से ढेर के रूप में रेडियोधर्मी कणों का विसर्जन होता है। इससे स्थान विशेष की वायु दूषित हो जाती है।

(4) ध्वनि प्रदूषण-आज औद्योगीकरण की वजह से मशीनों का अम्बार लगा हुआ है। मशीनों तथा वाहनों के कर्ण-भेदी शोर के मध्य में ही जैसे-तैसे करके हमको जीना पड़ रहा है। इससे स्नायुमंडल पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। मानव प्रत्येक क्षण तनाव में जीता है। शान्ति आज उससे कोसों दूर है। दिनभर श्रम करने के पश्चात् आदमी सोना चाहता है, परन्तु शोर के कारण वह गहरी निद्रा की गोदी में समाकर तनिक भी विश्राम नहीं कर पाता है।

(5) रासायनिक प्रदूषण-खेती के कीड़ों को मारने के लिए अनेक कीटनाशक दवाओं का प्रयोग किया जा रहा है। इससे पृथ्वी बंजर भूमि में परिवर्तित हो सकती है। आज इनके प्रयोग से अन्न दूषित तथा स्वाद-रहित हो गया है। ये मानव के स्वास्थ्य को भी चौपट किये डाल रहा है।

प्रदूषण की रोकथाम-समय की महती आवश्यकता है कि प्रदूषणकारी तत्त्वों पर पूरी तरह से अंकुश लगाया जाये। इस सन्दर्भ में समस्त दुनिया में एक नवीन विचारधारा जाग्रत हुई है। चेतना का नव संचार हुआ है। प्रदूषण की समस्या का मूल कारण उद्योगों का विकास है।

इस विकास से पूर्व किसी ने भी नहीं सोचा था कि प्रदूषण इतना जानलेवा बन जायेगा। एक तरह से द्रौपदी की चीर की तरह प्रदूषण की समस्या निरन्तर बढ़ती जा रही है।

प्रदूषण पर नियन्त्रण लगाने के लिए व्यक्तिगत प्रयास का कोई मूल्य नहीं है। इसके लिए संगठित होकर प्रयास करना होगा। जल प्रदूषण की रोकथाम के लिए “जल प्रदूषण निवारण एवं नियन्त्रण अधिनियम” पहले ही लागू किया जा चुका है। प्रदूषण बोर्डों का गठन हो चुका है।

उद्योगों से सम्बन्धित उनके स्वामियों से शर्त रखी गई है कि वे कचरे के निस्तारण की समुचित व्यवस्था करें। गन्दे पानी की निकासी की भी समुचित व्यवस्था करें। इससे पूर्व उन्हें उद्योगों की सुविधा उपलब्ध नहीं होगी। पर्यावरण विशेषज्ञों की राय लेना भी आवश्यक है।

जंगलों तथा वनों को काटने पर भी रोक लगायी गई है। वन-महोत्सव सम्पन्न किये जा रहे हैं। वृक्षों को आरोपित करने का अभियान भी तीव्र गति से चलाया जा रहा है लेकिन इस दिशा में जितना सार्थक कार्य होना चाहिए, वह अभी तक नहीं हो पाया है।

उपसंहार-आज विज्ञान का युग है। मानव की सुख-सुविधाओं में निरन्तर विस्तार हो रहा है लेकिन इसका दुःखद पहलू यह है कि इससे प्रदूषण निरन्तर बढ़ रहा है। प्रदूषण की समस्या किसी राष्ट्र विशेष की न होकर सम्पूर्ण विश्व की समस्या है। इसमें विश्व के समस्त देशों को समवेत रूप से प्रयास करना होगा। मानव-मानव में कोई भी भेद नहीं है। सब परमपिता की सन्तान हैं। सबके हित में ही अपना हित है। किसी कवि ने ठीक ही कहा है

“कोई नहीं पराया मेरा, घर सारा संसार है।
मैं कहता हूँ जिओ, और जीने दो संसार को॥”

10. किसी खेल का आँखों देखा वर्णन-क्रिकेट मैच [2011]
अथवा
आकर्षक मैच का वर्णन [2009, 14]

रूपरेखा-

  • प्रस्तावना,
  • मैच का अर्थ,
  • मैच खेलने का निश्चय,
  • क्रीड़ा स्थल पर,
  • मैच का शुरू होना,
  • हार-जीत की होड़,
  • खेल का समापन,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना-दुनिया प्रकृति का रंगमंच है। प्रकृति विविध प्रकार की क्रीड़ाओं में निरन्तर संलग्न रहती है। भ्रमर प्रसूनों से गुनगुना कर बात करते हैं। तितलियाँ फूलों के ऊपर मँडराकर नृत्य करती,खेलती तथा इठलाती हैं। जब छोटे-से-छोटे कीड़े भी निश्चित क्रीड़ा करते रहते हैं, तो मानव भला इनसे कैसे उदासीन रह सकता है। छात्र तथा छात्राओं के मन-मानस में खेल के प्रति उत्कंठा तथा ललक होती है।

मैच का अर्थ-खेल व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक है। इसी हेतु विभिन्न प्रकार के खेलों का अस्तित्व मानव के समक्ष प्रकट हुआ। खेलों के माध्यम से खिलाड़ियों को एक उत्साह मिलता है। इसी बात को दृष्टिपथ में रखकर प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। खेल की प्रतियोगिता को ही मैच के नाम से सम्बोधित किया जाता है।

मैच खेलने का निश्चय-हर विद्यालय में प्रत्येक साल खेलों का आयोजन होता है। हमारा विद्यालय फिर इसका अपवाद कैसे हो सकता है ? विगत वर्ष जनवरी का प्रथम सप्ताह था। प्रिंसिपल महोदय ने क्रीडाध्यक्ष के माध्यम से यह आदेश प्रसारित किया कि 20 जनवरी को हमारे कॉलेज की टीम स्थानीय विक्टोरिया इण्टर कॉलेज की टीम से मैच खेलेगी। आदेश को सुनते ही छात्र एवं खिलाड़ी फूले नहीं समा रहे थे।

क्रीड़ा-स्थल पर-20 जनवरी को करीब 9 बजे मैं क्रीड़ा-स्थल जा पहुँचा। नगर के बहुत से कॉलेजों के विद्यार्थी इस मैच को देखने के लिए एकत्रित हुए थे, अतः भीड़ का कोई अन्त नहीं था। सुप्रसिद्ध टीमों का नाम सुनकर बहुत से खेल-प्रेमी तथा नागरिक भी आ गये थे। मैच शुरू होने में अभी एक घण्टा शेष था। मैं शनैःशनैः अग्रिम पंक्ति में अपने सहपाठियों के निकट पहुँचने में सफल हुआ।

इसी अन्तराल में दो निर्णायक क्रीड़ा-स्थल पर पधारे। इसी मध्य दोनों कॉलेजों की टीमें अपनी साज-सज्जा के साथ उपस्थित हुईं। ,

मैच का शुरू होना-दोनों टीमों के कप्तान तथा मैच निर्णायक मैदान के मध्य में स्थित खेल पट्टी के पास खड़े होकर ‘टॉस’ करने लगे। हमारे विद्यालय के कप्तान ने ‘टॉस’ जीता और पहले बल्लेबाजी करने का निर्णय लिया। हमारे दल के प्रारम्भिक बल्लेबाज अपने खेल का प्रदर्शन करने के लिए तैयार थे।

हार-जीत की होड़-क्रिकेट खेल का तो रोमांच ही निराला है। गेंद-बल्ले के इस खेल के सभी आयुवर्ग के लोग दीवाने होते हैं। हमारे बल्लेबाजों ने शुरू से ही तेज गति से रन बनाने प्रारम्भ कर दिये। दोनों ने मिलकर बिना आउट हुए 10 ओवरों में 60 रन कूट डाले,लेकिन तभी विपक्षी दल के गेंदबाज राकेश ने घातक गेंदबाजी करते हुए अपने दो लगातार ओवरों में हमारे तीन बल्लेबाजों को आउट कर दिया। अब हमारा स्कोर हो गया 72 रन पर तीन विकेट। अब खेलने के लिए हमारे दल का कप्तान मैदान में आया और आते ही पहली गेंद पर उसने शानदार छक्का जड़ा। धीरे-धीरे मैच के रोमांच के साथ-साथ हमारे विद्यालय की पारी भी आगे बढ़ने लगी। खेल का दौर निरन्तर गतिमान रहा। कुल मिलाकर हमारे विद्यालय के दल ने अपने कोटे के 30 ओवरों में 150 रन बनाये और विपक्षी दल को जीत के लिए 151 रन बनाने की चुनौती दी।

दर्शक बहुत ही आनन्द का अनुभव कर रहे थे। आधा घण्टे का विश्राम एवं अल्पाहार के पश्चात् विक्टोरिया इण्टर कॉलेज की टीम खेलने आयी। उन्होंने खेल का प्रारम्भ बहुत ही अच्छे तरीके से किया। प्रथम 9 ओवरों में उनके 40 रन बने।

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यद्यपि हमारी टीम के गेंदबाज बहुत ही चतुर तथा जाने-माने थे, लेकिन इस समय वह लाचार से दृष्टिगोचर हो रहे थे। अब हमारे स्पिनरों ने अपने गुरुतर भार को उठाया। उन्होंने तेजी से विपक्ष के तीन खिलाड़ी जल्दी-जल्दी आउट कर डाले। वे अब तक मात्र 96 रन बना पाये थे। चौथे तथा पाँचवें खिलाड़ी भी स्पिनर अजय ने आउट कर दिये। विपक्षी हताश हो गये और मात्र 25 ओवरों में ही उनकी टीम कुल 117 रन बनाकर आउट हो गयी। सौभाग्यवश विजयश्री ने हमारे कॉलेज की टीम का वरण किया।

खेल का समापन-खेल समाप्त हुआ। मैदान में पण्डाल के अन्तर्गत अल्पाहार का आयोजन किया गया था। दोनों दलों के समस्त खिलाड़ी तथा उपस्थित शिक्षक अल्पाहार के लिए टेबिलों पर उपस्थित हुए।

चाय-पान के पश्चात् पुरस्कार वितरण का आयोजन किया गया। हमारे कॉलेज के खिलाड़ी क्रम से उत्साहित होकर पुरस्कार ग्रहण करने के लिए जा रहे थे। हमारे दल के कप्तान ने कार्यक्रम के मुख्य अतिथि जिला-विद्यालय निरीक्षक से हाथ मिलाकर चल बैजयन्ती ग्रहण की। समस्त खिलाड़ियों तथा उपस्थित जन-समूह ने ताली बजाकर प्रसन्नता व्यक्त की। उत्साहवर्धन के लिए विपक्ष के खिलाड़ियों को भी सान्त्वना पुरस्कार प्रदत्त किये गये।

उपसंहार-खेल का महत्त्व इसलिए भी है कि इससे खेल की भावना का विकास होता है। आज हमें अपने मन-मानस में इस भावना को पल्लवित करके देश के माहौल को उन्नत करना होगा। यह भावना हमें खुशी के साथ जीने का सम्बल देगी। सहयोग, मैत्री तथा सद्भाव का पाठ इन खेलों के माध्यम से ही प्राप्त होगा। यह आज के युग की महती आवश्यकता है।

11.समाचार-पत्रों की उपयोगिता [2013, 16]
अथवा
प्रजातन्त्र के सजग प्रहरी समाचार-पत्र [2009]

“न तोप निकालो,
न तलवार निकालो।
मुकाबिल है तो,
एक अखबार निकालो।”

रूपरेखा [2015]-

  • प्रस्तावना,
  • समाचार-पत्रों के प्रकार,
  • जन्म तथा विकास,
  • समाचार-पत्रों की आवश्यकता,
  • समाचार-पत्रों का महत्त्व,
  • समाचार-पत्रों की शक्ति,
  • समाचार-पत्रों का उत्तरदायित्व,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना-आज विज्ञान का युग है। विज्ञान ने सम्पूर्ण संसार को एक कुटुम्बवत् बना दिया है। संचार का विस्तार सिमटता हुआ चला जा रहा है। आज हर इन्सान इस बात का इच्छुक है कि उसे संसार की अधिकाधिक जानकारी मिले। इस बात को जानने का सबसे सशक्त साधन समाचार-पत्र ही हैं। समाचार-पत्र जीवन से इस प्रकार जुड़ गया है कि इसके बिना जीवन अधूरा लगता है। शिक्षित व्यक्तियों के लिए तो समाचार-पत्र चाय तथा जलपान की तरह जिन्दगी का अविभाज्य अंग बन गया है।

समाचार-पत्रों के प्रकार-समाचार-पत्रों की कई श्रेणियाँ होती हैं। कतिपय समाचार-पत्र रोजाना छपते हैं। कुछ साप्ताहिक होते हैं। कुछ समाचार-पत्र प्रातः एवं संध्या के रूप में ही छपते हैं। चाहे समाचार-पत्र किसी भी प्रकार का क्यों न हो, जनसामान्य को विश्व की गतिविधियों का अधिकाधिक लेखा-जोखा प्रस्तुत करना ही उसका लक्ष्य होता है।

जन्म तथा विकास समाचार-पत्रों का जन्म सोलहवीं शताब्दी में ठहराया जाता है। इंग्लैण्ड में प्रथम बार सत्रहवीं शताब्दी में समाचार-पत्र का प्रकाशन स्वीकारा गया है। भारतवर्ष में अंग्रेजों के पदार्पण से पूर्व किसी भी समाचार-पत्र का उल्लेख नहीं मिलता। ‘इण्डिया गजट’ नामक ‘सरकारी पत्र’ सबसे पहली बार भारत में प्रकाशित हुआ। ईसाइयों ने अपने धर्म के प्रचार के लिए समाचार-पत्र छापने प्रारम्भ कर दिये। ‘दर्पण’ नामक समाचार-पत्र इसी श्रृंखला की एक कड़ी है। ईश्वर चन्द्र ने ‘प्रभाकर’ तथा राजा राममोहन राय ने ‘कौमुदी’ नामक समाचार-पत्र प्रकाशित किये। मुद्रण कला के आविष्कार के साथ तो आज समाचार-पत्रों की बाढ़-सी आ गई है। ये समाचार-पत्र देश-विदेश की दैनिक खबर प्रकाशित करके जनसामान्य को प्रबुद्ध तथा जागरूक बना रहे हैं।

समाचार-पत्रों की आवश्यकता-इन्सान एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज में जन्म लेता है। समाज में ही उसका पालन-पोषण होता है। वह समाज के सुख एवं दुःख को जानने के लिए प्रतिपल उत्सुक रहता है। वह चाहता है कि उसकी बात को कोई सुने तथा दूसरों की भावना को भी वह जाने। इस सबको जानने का एकमात्र साधन समाचार-पत्र है।

समाचार-पत्रों का महत्त्व–इस बात में कोई भी विरोध नहीं हो सकता कि समाचार-पत्रों का मानव जीवन में अत्यधिक महत्त्व है। विभिन्न प्रकार के राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक विषयक समाचार दिन-प्रतिदिन प्रकाशित होते हैं। जनसामान्य इन्हें बड़े शौक से पढ़ता है। दुनियाभर के समाचार इन पत्रों में प्रकाशित होते हैं। विश्व के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक के समाचार इन पत्रों में पढ़ने को मिल जाते हैं। चन्द पैसों में हम दुनिया के समाचार पढ़ लेते हैं। यदि कोई घटना हमारे लिए हानिप्रद अथवा लाभप्रद हो तो हम चैतन्य तथा जाग्रत होकर

उससे लाभ ग्रहण कर सकते हैं। व्यापारी व्यापार के विज्ञापन पढ़कर अपनी बिक्री में बढ़ोत्तरी कर सकते हैं। काम की तलाश में बेकार बैठे नवयुवक रिक्त स्थानों के विज्ञापन पढ़कर आवेदन-पत्र प्रस्तुत करके नौकरी प्राप्त कर सकते हैं। विवाह के इच्छुक वैवाहिक विज्ञापन को पढ़कर मनवांछित जीवन साथी का चयन कर सकते हैं।

महत्त्वपूर्ण विषय के सन्दर्भ में सम्पादक महोदय जिस स्तम्भ को लिखते हैं, वह बहुत ही उपयोगी होता है। सम्पादक जनसामान्य की अपेक्षा अधिक प्रबुद्ध तथा जानकार होता है। उसकी सम्मति बहुत ही सारपूर्ण तथा उपयोगी होती है। पाठकों के स्तम्भ के अन्तर्गत पाठकों के विचार छपते हैं। ये विचार भी सारगर्भित होते हैं। . आज प्रजातन्त्र का युग है। आधुनिक समय में समाचार-पत्रों का महत्त्व और भी बढ़ गया है। ये जनमत को बनाने तथा बिगाड़ने के प्रबल साधन हैं। चुनाव के समय किसी भी दल को जिताने तथा हराने में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।

सरकार तथा जनता के मध्य की कड़ी समाचार-पत्र ही होते हैं। सरकार की नीति तथा विचारों का खुलासा जनता के समक्ष समाचार-पत्र ही करते हैं। जनता के आक्रोश को भी सरकार के कानों तक समाचार-पत्र ही पहुँचाते हैं।

समाचार-पत्रों की शक्ति-समाचार-पत्रों की बहुत शक्ति होती है। वे किसी भी समस्या को लेकर आन्दोलन का सूत्रपात कर सकते हैं। जनता को प्रबुद्ध तथा जागरूक बनाकर सरकार को उसकी बात को स्वीकार करने के लिए विवश कर सकते हैं।

समाचार-पत्रों का उत्तरदायित्व-समाचार-पत्रों पर बहुत बड़ा उत्तरदायित्व होता है। समाचार-पत्रों को शक्ति-सम्पन्न होने पर भी सन्तुलित एवं मर्यादित होना चाहिए। समाचार-पत्रों को जनसामान्य का ठीक दिशा निर्देश करना चाहिए। उत्तेजक तथा सनसनीपूर्ण खबरें जनमानस में गलत धारणा का बीजारोपण करती हैं। अश्लील तथा हत्या की खबरें जनमानस को विकृत करती हैं। इनका प्रकाशन घटिया किस्म का है, अतः इसे रोकना चाहिए।

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उपसंहार-समाचार-पत्रों की प्रत्येक उन्नत राष्ट्र को महती आवश्यकता है। समाचार-पत्रं सभ्यता तथा संस्कृति के सजग प्रहरी होते हैं। ये क्रान्ति के अग्रदूत तथा सुधार तथा अलख जगाने वाले होते हैं। देश की आन्तरिक शान्ति स्थापना में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। हमारे देश में समाचार-पत्रों का भविष्य स्वर्णिम तथा मंगलमय है। राष्ट्र को ये नया स्वर देते हैं, नवीन प्राण प्रतिष्ठा करते हैं। ये उन्नति के संदेशवाहक हैं।

12. किसी त्योहार का वर्णन-दीपावली

“दीपावली कह रही है,
दीप-सा युग-युग जलो।
घोर तम को पाट कर,
आलोक बनकर तुम चलो।।”

रूपरेखा-
(1) प्रस्तावना,
(2) दीपावली का तात्पर्य,
(3) दीपावली मनाने के कारण,
(4) लक्ष्मी पूजा पर्व,
(5) दीपावली की तैयारियाँ,
(6) बुराइयाँ,
(7) उपसंहार।

प्रस्तावना-अमावस की घनघोर काली रात में झिलमिल करती एवं जगमगाती मिट्टी के दीपकों की पंक्तियाँ तथा आसमान को चूमती हुई रंग-बिरंगी पटाखे तथा फुलझड़ियाँ जन-सामान्य के हृदय में खुशी की लहर पैदा कर देती हैं। दीपावली भारतवर्ष का प्रमुख त्योहार है। यह पर्व छोटे-छोटे नगर तथा ग्राम से लेकर बड़े-से-बड़े नगरों तथा कस्बों में सोत्साह मनाया जाता है। यह पर्व तिमिर नाशक है। सफाई तथा वैभव का प्रकाश विकीर्ण करने वाला है। कवि नीरज की निम्न पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं

“जलाओ दिए, पर ध्यान रहे इतना। धरा पर अँधेरा कहीं रह न जाये ?”

दीपावली का तात्पर्य-दीपावली को दीपोत्सव के नाम से भी जाना जाता है। दीपक विवेक तथा प्रसन्नता का द्योतक है। दीपक प्रकाश विकीर्ण करते हैं। दीपावली का तात्पर्य रोलनी के पर्व से व्यक्त किया जाता है।

दीपावली मनाने के कारण यह ज्योति पर्व हर साल कार्तिक मास की अमावस्या के दिन उल्लासमय वातावरण में सम्पन्न किया जाता है। इसके मनाने के अनेक कारण हैं। कुछ लोगों की यह धारणा है कि भगवान राम चौदह साल के वनवास के पश्चात् अयोध्या लौटे, तो दीप जलाकर जनता द्वारा प्रसन्नता व्यक्त की गई,तभी से यह पर्व मनाया जाता है।

इसके अलावा भी दीपावली मनाने के अनेक कारण हैं। भारत एक कृषि-प्रधान देश है। यहाँ फसलों के तैयार होने पर कोई न कोई उत्सव मनाया जाता है। जब फसल (खरीफ) पककर तैयार हो जाती है, तब दीपावली का पर्व मनाया जाता है।

अन्य कारण बरसात के महीने में सर्वत्र गन्दगी तथा सीलन हो जाती है। कीचड़ की दुर्गन्ध राह चलना भी दुश्वार कर देती है। वर्षा के समाप्त होने पर सफाई करना अपेक्षित हो जाता है। दीपावली पर मकानों की सफाई की जाती है तथा उन पर सफेदी की जाती है। रात्रि में दीपक जलाये जाते हैं। इससे हानिप्रद-कीट-पतंगों का नाश हो जाता है।

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लक्ष्मी पूजा पर्व–दीपावली लक्ष्मी पूजा का पर्व है। व्यापारी वर्ग इस अवसर पर विशेष रूप से लक्ष्मी की उपासना करते हैं। पुराने बहीखातों के स्थान पर नवीन बहीखाते खोलते हैं।

दीपावली की तैयारियाँ-दीपावली को मनाने के लिए कई दिन पूर्व से ही तैयारी की जाने लगती है। मकान साफ-सुथरे करके उन पर सफेदी की जाती है। दरवाजों तथा खिड़कियों पर रंग किया जाता है।

प्रातःकाल से ही बाजारों का दृश्य लुभावना तथा चित्ताकर्षक होता है। हलवाई की दुकानें अनेक स्वादिष्ट तथा रुचिकर मिठाइयों से सजी रहती हैं। चित्र, खिलौने तथा बर्तन दुकानों पर पंक्तिबद्ध लगे रहते हैं।

रात को लोग अपने घरों पर दीपक,मोमबत्ती तथा बिजली के बल्ब जलाते हैं। रोशनी के निमित्त बल्बों की झालरें घर के बाहरी भाग पर लटका देते हैं।

बालक आतिशबाजी, फुलझड़ी तथा पटाखे चलाते हैं। इस अवसर पर लोग तनाव तथा चिन्ता से मुक्त होकर हर्षपूर्वक त्योहार मनाने की खुशी में तिरोहित से हो जाते हैं।

इस दिन बताशे तथा खील का विशेष रूप से सेवन किया जाता है। बालक इनको प्रसन्नतापूर्वक खाते हैं। चीनी के खिलौनों का भी प्रचलन है।

त्योहार की शुरुआत नवरात्रि से ही हो जाती है। त्योहार वैसे धनतेरस से प्रारम्भ होता है। इसी दिन निर्धन एवं सम्पन्न बाजार से छोटा या बड़ा बर्तन खरीदते हैं। अगले दिन नरक-चौदस मनाते हैं। इसी दिन भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर राक्षस को मारा था। प्रतीक रूप में इस दिन यम का दीया प्रज्ज्वलित किया जाता है। कार्तिक अमावस्या को दीपावली विशेष रूप से मनाई जाती है। रात को धन की देवी लक्ष्मी की उपासना की जाती है। गणेश पूजा होती है। रात को दीपक जलाये जाते हैं। प्रतिपदा को गोवर्धन पूजा होती है। इस दिन अन्नकूट तैयार किया जाता है। कार्तिक शुक्ला द्वितीया को भैयादूज के पर्व का आगमन होता है। इस अवसर पर बहिन अपने भाई के मस्तक पर रोली का टीका लगाती है। भाई उनको पुण्य के रूप में उपहार देता है।

बुराइयाँ-दीपावली के पर्व में अच्छाइयों के साथ बुराइयाँ भी प्रवेश कर गई हैं। आतिशबाजी तथा पटाखे असावधानीपूर्वक छोड़ने से आग लगने का कारण बनते हैं। इससे जान तथा माल का नुकसान होता है।

दीपावली की रात्रि में लोगों में जुआ खेलने का प्रचलन बढ़ गया है। उनकी यह गलत मान्यता है कि इस दिन जुआ में पैसा जीतने पर वह धन-सम्पन्न हो जायेंगे। उनके घरों पर लक्ष्मी का वास हो जायेगा, लेकिन जुआ की यह प्रथा निन्दनीय है।

चोर भी यह सोचते हैं कि हमें दीपावली के दिन रात को चोरी करके अपनी भाग्य की आजमाइश करनी चाहिए। यदि इस दिन वे चोरी करने में सफल हुए तो मालामाल हो जायेंगे।

अन्ध-विश्वास में जकड़े कुछ लोग रात को घर के मुख्य प्रवेश द्वार को खुला छोड़ देते हैं। इस प्रकार द्वार को खुला छोड़ना चोरों को चोरी करने का खुला निमन्त्रण है।

उपसंहार-दीपावली उल्लास तथा रोशनी का पर्व है। भारत की संस्कृति तथा सभ्यता का प्रतीक है। यह अन्धकार पर प्रकाश की विजय का परिचायक है। हमें स्वयं उल्लास में डूबकर दूसरों को भी प्रफुल्लित करना चाहिए तभी इस पर्व का मनाना सार्थक होगा-मिलकर करें हम कोशिश यहीं कि हृदय में अँधेरा कहीं रह न जाये।

13. साक्षरता के बढ़ते चरण [2009]
अथवा
साक्षरता अभियान

रूपरेखा-

  • प्रस्तावना,
  • साक्षरता का अर्थ,
  • शिक्षा और साक्षरता,
  • असाक्षरता के कारण,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना शिक्षा का मानव जीवन में अत्यधिक महत्त्व है। आज के समाज में अशिक्षित व्यक्ति मृतक के समान है, क्योंकि शिक्षा ही एकमात्र ऐसा साधन है जिसके द्वारा व्यक्ति का सर्वांगीण विकास होता है। व्यक्ति अपनी जन्मजात शक्तियों को शिक्षा के द्वारा विकसित करके प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ सकता है। अशिक्षित व्यक्ति को प्रत्येक कर्म के लिए दूसरों का मुँह ताकना पड़ता है। अशिक्षित व्यक्ति एक अपाहिज की भाँति होता है, उसे प्रतिक्षण दूसरों की वैसाखी की आवश्यकता पड़ती है। अतः पराधीन रहकर व्यक्ति सफल नहीं हो सकता है। किसी कवि ने उचित ही कहा है

“पराधीन सपनेऊ सुख नाहीं।”

अतः प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षित होना चाहिए तभी देश व समाज का उत्थान सम्भव है अन्यथा देश की उन्नति अवरुद्ध हो जायेगी।

साक्षरता का अर्थ-साक्षरता से तात्पर्य सा + अक्षर अर्थात् अक्षरों को पढ़ने-लिखने और शब्दों-वाक्यों आदि के अर्थ को समझने की क्षमता से है।

साक्षर व्यक्ति ही भाषा के लिखित रूप को पढ़-लिख और समझ सकता है। निरक्षर व्यक्ति को साक्षर व्यक्ति की सहायता लेनी पड़ती है। इस प्रकार वह व्यक्ति दूसरों पर निर्भर रहता है। निरक्षर व्यक्ति समाज के लिए अभिशाप है। निरक्षर व्यक्तियों का सरलता से शोषण कर लिया जाता है। वे अन्धविश्वासों व परम्पराओं में जकड़े रहते हैं।

शिक्षा और साक्षरता शिक्षा जीवनभर चलने वाली प्रक्रिया है। व्यक्ति जीवन-पर्यन्त कुछ न कुछ सीखता रहता है। यह प्रक्रिया किसी न किसी रूप में चलती रहती है। शिक्षा के लिए कोई उम्र नहीं होती,प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षित होने का अधिकार है। शिक्षित व्यक्ति शिक्षा के माध्यम से अपने मार्ग की बाधाओं को सरलता से दूर कर लेते हैं।

भारतीय संविधान के नीति-निदेशक सिद्धान्तों में 14 वर्ष तक की आयु के बालक-बालिकाओं के लिए निःशुल्क अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा को भी शामिल किया गया।

इसके लिए राष्ट्रीय चेतना उपसंहार को जाग्रत करना अत्यधिक आवश्यक है। साक्षरता के प्रसार के लिए मिशनरी भावना का होना अपेक्षित है।

सरकारी अधिकारी, कर्मचारियों एवं सम्पूर्ण समाज को निरक्षरों को साक्षर बनाने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।

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अतः साक्षरता को जन आन्दोलन बनाने की महती आवश्यकता है। मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में-

“सबसे प्रथम कर्त्तव्य है, शिक्षा बनाना देश में
शिक्षा बिना ही पड़ रहे हैं, आज हम सब क्लेश में।”

सन् 1986 में जब संसद ने शिक्षा की राष्ट्रीय नीति स्वीकृत की तब देश में साक्षरता का प्रतिशत 36.2 प्रतिशत था। इसके अन्तर्गत नारी साक्षरता का प्रतिशत पुरुष साक्षरता के प्रतिशत से न्यून था।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के लम्बे अन्तराल के पश्चात् भी अनेक कानून बने। इसके लिए भरसक प्रयास हुआ परन्तु फिर भी अधिक सुधार दृष्टिगोचर नहीं हुआ। जनसंख्या वृद्धि के फलस्वरूप मूल स्थिति में सुधार नहीं हुआ है।

असाक्षरता के कारण

  1. आर्थिक तथा कुछ सामाजिक कारण थे। 6 से 14 वर्ष की उम्र के बालक आज भी पाठशाला नहीं जा रहे हैं। ऐसे अशिक्षितों की संख्या करोड़ों से भी ऊपर है।
  2. प्रौढ़ शिक्षा मात्र कागजी है। इसके अन्तर्गत मिले हुए अनुदान का दुरुपयोग हो रहा है।
  3. प्रौढ़ शिक्षा एवं साक्षरता के अनेक आन्दोलन भी हुए। फलस्वरूप पर्याप्त भाग में साक्षर बनाये गये। अनेक जनपद साक्षर घोषित भी कर दिये गये लेकिन सत्य इसके विपरीत है।

नव साक्षरों के पठन-पाठन की भी सुव्यवस्था नहीं है। प्रौढ़ शिक्षा के लिए मिशनरी भावना का समावेश अपेक्षित है।

उपसंहार–प्रत्येक साक्षर कम-से-कम एक निरक्षर को साक्षर बनाने का प्रयास करे। – साक्षरता के अभाव में सुराज की कल्पना दुराशा मात्र है। साक्षरता को आन्दोलन बनाने की आवश्यकता है।

14. आतंकवाद [2017]

रूपरेखा-

  • प्रस्तावना,
  • आतंकवाद का समाज पर प्रभाव,
  • आतंकवाद राजनीति के क्षेत्र में,
  • आतंकवाद का मूल कारण आर्थिक समस्या,
  • पंजाब विभाजन की माँग,
  • उत्तर भारत आतंकवाद का प्रमुख केन्द्र,
  • उपसंहार।।

प्रस्तावना हमारे देश में अनेक समस्यायें हैं, उनमें से आतंकवाद एक प्रमुख समस्या है। आज यह समस्या भारत के समक्ष एक विकट चुनौती के रूप में उपस्थित है, विशेषकर इस कारण क्योंकि उसका पड़ोसी देश पाकिस्तान आतंकवाद को सामरिक एवं राजनीतिक रूप प्रदान कर चुका है, वह आतंकवाद द्वारा सम्प्रति कश्मीर की ओर अन्ततः भारत को अपने अधीन करने का दुःस्वप्न देखता है। विश्व मंच पर यह प्रश्न उपस्थित है, क्या पाकिस्तान को एक आतंकवादी राष्ट्र घोषित कर दिया जाए?

आतंकवाद का समाज पर प्रभाव-आतंकवाद विश्व के क्षितिज पर बादलों की भाँति छाया हुआ है। आतंकवाद परमाणु बम से भी अधिक भयावह बन गया है,क्योंकि इसने विश्व मानव को संत्रास्त बना रखा है और मानव समाज को विनाश के घेरे में स्थित कर दिया है। आज आतंकवाद अपनी बात को मनवाने का एक सामान्य नियम बन गया है, तोड़-फोड़, लूट-खसोट, अपहरण, हत्या, आत्महत्या आदि इसके रूप हैं।

आतंकवाद राजनीति के क्षेत्र में आज आतंकवाद साधारण व्यक्ति से लेकर राजनीति तक अपने पाँव पसारे हुए है। इसकी जड़ें दिनों-दिन गहरी होती जा रही हैं। भारत में राजनीतिक क्षेत्र में क्षेत्रवाद एक बहुत ही महत्वपूर्ण विभाजक तत्व बन गया है, सांस्कृतिक टकराव, आर्थिक विषमता,मतभेद,न्यायपालिका की दुर्बलता सर्वव्यापी भ्रष्टाचार आदि अनेक तत्व आतंकवाद का पोषण करते हैं। भारत में आतंकवाद का बीजारोपण भाषायी राज्यों के गठन ने किया। भाषायी प्रदेशों के नाम पर खून-खराबा हुआ, राजभाषा का हिन्दी के नाम पर दक्षिण भारत में कितने

आतंकवादियों को जन्म दिया है, इन सब बातों का हिसाब किसके पास है ? खालिस्तान की माँग, मिजोरम समस्या, गोरखालैण्ड आन्दोलन, पृथक् उत्तराखण्ड की माँग आदि क्षेत्रवाद की उपज हैं, श्रीलंका में तमिल समस्या, इसी कोटि के क्षेत्रवादी आतंकवाद का ज्वलंत उदाहरण है। बंगाल में इस प्रकार की विचारधारा बंगाल में बाहर से जाकर बसने वालों के लिए सिरदर्द रही है।।

आतंकवाद का मूल कारण आर्थिक समस्या-आज आतंकवाद का मूल कारण लोगों की आर्थिक समस्या है। इस समस्या ने सामान्य जन को विशेष कर युवावर्ग को विद्रोही एवं असंतोषी बना दिया है। इनमें साहसी व्यक्ति दुस्साहसपूर्ण आतंकवाद का रास्ता अपनाकर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं।

पंजाब विभाजन की माँग-आतंकवाद का जन्म स्व. श्रीमती इन्दिरा गाँधी के कार्यकाल में हो गया था। राजनीति की रोटियाँ सेकने की दृष्टि से स्व.श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने भिंडरवाला की पीठ थपथपा दी,फलतःस्थिति बेकाबू हो गयी,इसके बाद अमृतसर का स्वर्ण मन्दिर आतंकवादियों का गढ़ बन गया। इस पर विजय प्राप्त करने के लिए सैनिक कार्यवाही की गयी, अंगरक्षक सिक्ख सैनिकों द्वारा इन्दिरा गाँधी की हत्या की गयी। इसके अतिरिक्त अनेक निर्दोष सिक्खों की हत्याएँ की गयीं। इसके बाद आतंकवादी गतिविधियाँ दिन पर दिन शक्तिशाली होती गयीं।

उत्तर भारत आतंकवाद का प्रमुख केन्द्र-इन्दिरा गाँधी की हत्या के पश्चात् उत्तर भारत आतंकवाद का प्रमुख केन्द्र बन गया। रेलों में लूटपाट,बलात्कार,रेलमार्ग की तोड़-फोड़,रेलों की टक्करें, बसों में लूटपाट आदि आतंकवाद के परिवार में जन्मे हैं। संक्षेप में उत्तर भारत में जन-जीवन सर्वथा अनिश्चित बन गया है। कश्मीर में आतंकवाद की समस्या का जन्म हुआ फलतः कारगिल की समस्या उसकी परिणति के रूप में सामने आयी।

उपसंहार-अब स्थिति यह बन गयी है कि प्रायःप्रत्येक राष्ट्र में आतंकवाद संत्रास का हेतु बन गया है। कुछ ऐसी हवा चलने लगी है कि भारत को समर्थन देने के नाम पर विश्व के अनेक देश आतंकवाद के विरुद्ध लामबन्द होने की बातें करने लगे हैं। पाकिस्तान का प्रबल समर्थक अमरीका भी अब पाकिस्तानी आतंकवाद से परेशान है और वह भी उसे आतंकवादी राष्ट्र घोषित करने का मन बनाने लगा है। आतंकवाद पर विजय प्राप्त करने के लिए राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक सभी स्तरों पर निष्ठा के साथ प्रयत्न उपेक्षित हैं।

15.विद्यालय का वार्षिकोत्सव [2009]

“गा उठी हैं कन्दराएँ,
बह उठे हैं स्रोत रस के।
हर्ष और उल्लास का,
नव पर्व सा छाया हुआ है।”

रूपरेखा [2016]-

  • प्रस्तावना,
  • समय,
  • उत्सव का शुभारम्भ,
  • अनेक आयोजन,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना प्रत्येक विद्यालय में वार्षिकोत्सव सम्पन्न किया जाता है। वार्षिकोत्सव विद्यालय की प्रगति तथा उल्लास का प्रतीक है। छात्रों, अध्यापकों तथा अभिभावकों के मिलने का एक शुभ अवसर है। इस अवसर पर विद्यालय खूब सजाया जाता है। विद्यालय के भवन पर रोशनी की जाती है। रोशनी के प्रकाश से विद्यालय की शोभा में चार चाँद लग जाते हैं। वार्षिकोत्सव का नाम कर्ण कुहरों में पड़ते ही छात्रों के मन प्रसन्नता से हिलोरें लेने लगते हैं।

समय-हमारे विद्यालय में वार्षिकोत्सव प्रतिवर्ष शिवरात्रि के पर्व पर सम्पन्न किया जाता है। इसी दिन महर्षि दयानन्द सरस्वती को बोध प्राप्त हुआ था। हर साल की तरह हमारे विद्यालय का वार्षिक उत्सव महान् समाज सेविका डॉ. आर. के. वर्मा की अध्यक्षता में सम्पन्न किया गया। वार्षिकोत्सव मनाने का समय सायंकाल चार बजे का निर्धारित किया गया। नगर के प्रतिष्ठित महानुभाव, शिक्षा शास्त्री, प्रधानाचार्य तथा विद्यालय के छात्र तथा अध्यापक निश्चित समय से पूर्व ही आकर नियत स्थानों पर आसीन हुए। सबके चेहरों में हर्ष तथा उमंग के भाव नजर आ रहे थे।

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उत्सव का शुभारम्भ-विद्यालय के प्रवेश द्वार पर प्रधानाचार्य तथा कतिपय अध्यापक गण उस उत्सव के लिए मनोनीत अध्यक्ष का स्वागत करने के लिए पलक पाँवड़े बिछाए हुए थे। ठीक 3.50 बजे अध्यक्ष का वाहन प्रवेश द्वार पर आकर रुका। प्रधानाचार्य तथा अध्यापकों ने उनका भव्य तथा सोत्साह स्वागत किया। जैसे ही अध्यक्ष ने पंडाल में कदम बढ़ाये,छात्रों तथा अध्यापकों ने खड़े होकर तथा ताली बजाकर उनके प्रति आदर भाव व्यक्त किया। विद्यालय के प्रधानाचार्य ने अध्यक्ष से आसन ग्रहण करने की प्रार्थना की। अध्यक्ष के आसन पर आसीन होने पर पंडाल तालियों की गड़गड़ाहट से गुंजायमान हो गया। विद्यालय के एक छात्र ने अध्यक्ष को माला पहनाकर स्वागत गान गाया। जिसके बोल निम्नवत् हैं-

“स्वागत समादर आपका,
आये कृपा कर आप हैं।
दर्शन सुमग देने हमें,
हरने हमारे ताप हैं ॥”

ईश वन्दना से इस उत्सव का कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ। कार्यक्रम की एक प्रति संयोजक के पास थी तथा दूसरी अध्यक्ष की मेज पर रख दी गई। विद्यालय के प्रधानाचार्य ने मुख्य अतिथि का स्वागत किया। उसके बाद आये हुए गणमान्य लोगों के प्रति भी आभार प्रदर्शित किया। विद्यालय के छात्रों ने महान् कहानीकार प्रेमचन्द द्वारा लिखित पंच परमेश्वर कहानी का नाट्य रूपान्तर बड़े ही सफल ढंग से अभिनीत किया था। पात्र अलगू तथा जुम्मन चौधरी के यह कथन सुनकर-“पंच न किसी का दोस्त होता है तथा न दुश्मन,पंच खुदा का स्थान होता है।”

इन शब्दों को सुनकर दर्शक भाव-विभोर हो गए। एक छात्र ने डॉ.श्याम नारायण पांडेय की वीर रस की कविता सुनाकर सबको वीर रस का ही कर दिया। देश-प्रेम तथा कारगिल युद्ध से सम्बन्धित भारतीय सैनिकों के शौर्य तथा बलिदान की कविता दर्शकों के मन-मानव को झकझोरने वाली थी। एक छात्र का मूक अभिनय भी प्रशंसनीय था।

अनेक आयोजन-इस भाँति छात्रों ने अनेक प्रकार के कार्यक्रम प्रस्तुत किये। इन कार्यक्रमों की दर्शकों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की। प्रधानाचार्य ने विद्यालय की वार्षिक प्रगति का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया। विद्यालय में जो छात्र हाईस्कूल तथा इण्टर की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए थे, उनके नाम पढ़कर सुनाये। नामों को सुनकर सम्बन्धित छात्र मित्र तथा अभिभावक प्रसन्नता का अनुभव करने लगे। प्रधानाचार्य ने इस अवधि में विद्यालय में आये उतार-चढ़ावों का भी उल्लेख किया तथा सबके सहयोग की आकांक्षा भी की क्योंकि बिना सहयोग के अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता।

इसके पश्चात् डॉ. आर. के. वर्मा ने छात्रों को चरित्र निर्माण विषयक बहुत ही शिक्षाप्रद भाषण दिया। उन्होंने छात्रों से कहा

“उद्यम ही बस सुख की निधि है।
बनता जो मानव का विधि है ॥”

इसके पश्चात् अध्यक्ष महोदय ने विभिन्न प्रतियोगिताओं में विजयी हुए छात्रों को पुरस्कार प्रदान किये।

प्रधानाचार्य ने आगन्तुकों, अभिभावकों, अध्यापकों तथा छात्रों के प्रति आभार व्यक्त किया क्योंकि सबके सहयोग के फलस्वरूप ही उत्सव की शोभा में चार चाँद लग सके। मिष्ठान्न वितरण के साथ ही प्रधानाचार्य ने एक दिन के अवकाश की घोषणा की। इसे सुनकर छात्र प्रसन्नता से फूले नहीं समा रहे थे।

उपसंहार-वार्षिकोत्सव विद्यालय का एक आवश्यक पहलू है। छात्र, अभिभावकों तथा अध्यापकों के मिलने का एक पावन अवसर है। विद्यालय की उन्नति तथा उतार-चढ़ावों का परिचायक है। छात्रों के मन-मानस में एक नवीन उत्साह तथा उल्लास को भरने वाला है। मन तथा मस्तिष्क को तरोताजा बनाने का सर्वोत्तम साधन है।

16. समाज में नारी का स्थान
अथवा
स्वतन्त्र भारत में नारी का स्थान [2009]
अथवा
आधुनिक भारत में नारी [2010, 15]
अथवा
भारतीय समाज में नारी का स्थान [2012]

रूपरेखा [2018]-

  • प्रस्तावना,
  • प्राचीन काल में नारी,
  • मध्य युग में नारी,
  • वर्तमान युग में नारी,
  • पाश्चात्य प्रभाव,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना-आधुनिक नारी जीर्ण-शीर्ण मान्यताओं एवं गुलामी की जंजीर को छिन्न-भिन्न करके उन्नति की दौड़ में पुरुष के साथ कदम मिलाकर प्रतिपल आगे बढ़ रही है। उच्च शिक्षा प्राप्त करके कार्यालयों, विश्वविद्यालयों, रक्षा एवं वैज्ञानिक क्षेत्रों में सक्रिय सहयोग देकर महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रही है। अनेक साहित्यिक एवं वैज्ञानिक विषयक पुस्तकों की भी रचना कर रही है। उनके दिशा निर्देशन के फलस्वरूप शिक्षा जगत् में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन की झलक स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही है

“पहले भारत में नारी को, देवी सा पूजा जाता था।
फिर उसको पददलित मानकर, घर में ही रौंदा जाता था।
पुनः जागरण का युग आया, नारी का सम्मान बढ़ा।
अपने श्रम पौरुष से उसको, फिर ऊँचा स्थान मिला।”

नारी के अभाव में मानवता की कल्पना करना आकाश कुसुम के समान है। वह जननी, बेटी,पत्नी, देवी एवं प्रेयसी आदि रूपों से विभूषित है। नारी के बिना मानव अपूर्ण है। मानव पर उसका अमूल्य उपकार है। वह पुरुष की सहभागिनी है, जीवन संगिनी है।

प्राचीन काल में नारी-वैदिक काल में नारी का महत्त्वपूर्ण स्थान था। आध्यात्मिक एवं धार्मिक क्षेत्र में भी नारी की भूमिका अग्रणी थी। सीता, अनसूया,गार्गी,सावित्री एवं सुलभा इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। इनके नाम इतिहास में स्वर्णांकित हैं।

मध्य युग में नारी-मध्य युग में नारी के गौरव का ह्रास हुआ। कबीर,तुलसी आदि सन्तों ने भी नारी को विकार एवं ताड़ना का पात्र ठहराया। मुसलमानों के अत्याचारों के फलस्वरूप उसे मकान की चहारदीवारी में कैद कर दिया गया।

वर्तमान युग में नारी-राष्ट्रीय एवं सामाजिक चेतना जाग्रत होने के कारण वर्तमान में नारी की दशा में आशातीत सुधार हुआ है। राजा राममोहन राय एवं दयानन्द ने नारी को पुरुष के समकक्ष होने के अधिकार से सम्पन्न कराया। शिक्षा के द्वार खोले।।

आज नारी उन्मुक्त होकर पुरुष के साथ कदम मिलाकर प्रतिपल उन्नति की मंजिल की ओर अग्रसर है। इन्दिरा गाँधी, कमला नेहरू, सरोजनी नायडू, महादेवी वर्मा एवं विजय लक्ष्मी पंडित इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं।

पाश्चात्य प्रभाव-पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव के फलस्वरूप आज भारतीय नारी अपने प्राचीन आदर्शों और मान्यताओं को तिलांजलि दे रही है। भोग-विलास, मौज-मस्ती एवं ‘खाओ पीओ मौज उड़ाओ’ के कुपथ का अनुगमन कर रही है। करुणा, ममता, कोमलता एवं स्नेह को त्याग कर अपनी छवि को धूमिल कर रही है। आर्थिक दृष्टि से स्वतन्त्र होने की वजह से नारी आज विलासिता की ओर उन्मुख है।

उपसंहार-अतः आज इस बात की परम आवश्यकता है कि भारतीय नारी को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पाश्चात्य सभ्यता का अन्धानुकरण न करके प्राचीन उत्तम आदर्शों एवं मान्यताओं को स्वीकार करना चाहिए। ऐसा होने पर वह ऐसा स्थान प्राप्त कर सकेगी, जो देवों के लिए भी दुर्लभ है।

17. दहेज प्रथा
अथवा
दहेज एक सामाजिक अभिशाप है [2009, 16]
अथवा
दहेज एक सामाजिक समस्या [2010]

“पढ़-लिख स्वावलम्बिनी बनकर, जग को आज दिखा दो।
जिसने तुम्हें जलाया उसको, जड़ से आज मिटा दो।”

रूपरेखा-

  • प्रस्तावना,
  • प्राचीन काल में दहेज का स्वरूप,
  • मध्यकाल में नारी की दयनीय स्थिति,
  • आधुनिक काल में दहेज का स्वरूप,
  • निराकरण के उपाय,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना-आज भारतीय समाज में दहेज एक अभिशाप के रूप में व्याप्त है। दहेज के अभाव में निर्धन अभिभावक अपनी बेटी के हाथ पीले करने में स्वयं को असमर्थ पा रहे हैं। दहेज उन्मूलन के जितने प्रयास किये जाते हैं, उतना ही वह सुरसा के मुँह की तरह बढ़ता जा रहा है। किसी शायर के शब्दों में-

“मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की।”

प्राचीन काल में दहेज का स्वरूप-प्राचीन काल में कन्या को ही सबसे बड़ा धन समझा जाता था। माता-पिता वर-पक्ष को अपनी सामर्थ्य के अनुसार जो कुछ देते थे, उन्हें वे सहर्ष स्वीकार कर लेते थे और जो धन कन्या को दिया जाता था, वह स्त्री धन समझा जाता था।

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मध्यकाल में नारी की दयनीय स्थिति-मध्यकाल में नारी के प्राचीन आदर्श ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते’ को झुठलाकर भोग एवं विलासिता का साधन बना दी गई। उसका स्वयं का अस्तित्व घर की चारदीवारी में सन्तानोत्पत्ति करने में ही सिमट कर रह गया। इस समय पर पुरुष समाज द्वारा उसे धन के समान भोग्य वस्तु समझा जाता था। उसके धन को और माता-पिता द्वारा दिये गये धन को वह अपनी वस्तु समझने लगा।

आधुनिक काल में दहेज का स्वरूप-आधुनिक काल में दहेज का लेना वर पक्ष का जन्म सिद्ध अधिकार-सा बन गया है। दहेज के बिना सद्गुणी कन्या का विवाह होना भी एक जटिल समस्या बन गया है। इस दहेज की बलिवेदी पर न जाने कितनी कन्याएँ आत्महत्या करने के लिए विवश हो रही हैं। इतने पर भी दहेज लोभियों का हृदय तनिक भी द्रवीभूत नहीं होता। .

निराकरण के उपाय

  • युवक और युवतियाँ दहेज रहित विवाह के लिए कृतसंकल्प हों।
  • अन्तर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन दिया जाये।
  • दहेज लोलुपों का सामाजिक बहिष्कार हो।
  • सरकार को इस विषय में सक्रिय एवं कठोर कदम उठाने चाहिए।
  • सामूहिक विवाहों का प्रचलन हो।
  • दहेज रहित विवाह करने वालों को सामाजिक संगठनों द्वारा पुरस्कृत किया जाय।

उपसंहार-दहेज का उन्मूलन अकेले सरकार के द्वारा नहीं किया जा सकता। इसके लिए देश के कर्णधारों, मनीषियों एवं समाज सुधारकों को भगीरथ प्रयास करना होगा। प्राचीन भारतीय आदर्शों की पुनः प्रतिष्ठा करनी होगी जिसमें नारी को गृहस्थी रूपी रथ का एक पहिया समझा जाता था। वह गृहलक्ष्मी की गरिमा से मंडित थी। उसकी छाया में घर-घर स्वर्ग बना हुआ था तथा घर आँगन फुलवारी के रूप में सुवासित था।

18. मेरा देश महान्
अथवा
मेरा भारत महान्

“सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा।
हम बुलबुले हैं इसकी, यह गुलिस्ताँ हमारा॥”

रूपरेखा-

  • प्रस्तावना,
  • भौगोलिक स्थिति,
  • गौरवपूर्ण संस्कृति,
  • विशेषताएँ,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना हमारे देश की गिनती दुनिया के प्राचीनतम देशों में होती है। सभ्यता एवं ज्ञान का आलोक भारत की धरती से ही समस्त संसार में प्रसारित हुआ था। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण, गौतम बुद्ध एवं महावीर स्वामी ने यहाँ की भूमि पर ही अपने शैशव की आँखें खोली थीं। सज्जनों की रक्षा तथा दुष्टों का दमन करने के लिए भगवान भारत की धरती पर ही अवतार लेते हैं तथा मानव मात्र को एक दिव्य संदेश देते हैं। यह कितने गौरव की बात है।

भौगोलिक स्थिति-भारत की उत्तर दिशा में पर्वत राज हिमालय इसके मुकुट के समान सुशोभित है। दक्षिण में विशाल सागर इसके चरणों को निरन्तर धो रहा है। पूर्व में बांग्लादेश एवं पश्चिम में पाकिस्तान देश स्थित हैं। हम अपने पड़ोसी देशों से बन्धुत्व एवं मानवीय व्यवहार के पक्षधर हैं; जिओ और जीने दो’ के सिद्धान्त के अनुयायी हैं।

गौरवपूर्ण संस्कृति-विभिन्न प्रान्तों,समुदायों एवं भाषाओं के मेल से हमारी संस्कृति का निर्माण हुआ है। हमारी संस्कृति समन्वय की भावना से आपूरित है। हम सम्मान देकर सम्मान पाने की कामना करते हैं। हमारे हृदय के द्वार सभी के लिए खुले हुए हैं। मेरे देश का हृदय उदार तथा मानवीय गुणों से भरा है।

विशेषताएँ–

  • अनेकता में एकता,
  • धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र,
  • आपसी भाईचारे की भावना सुदृढ़ है,
  • विशाल एवं उदार दृष्टिकोण है,
  • महान् विभूतियों की जन्मस्थली है।

उपसंहार-यह बड़े गर्व एवं सौभाग्य का विषय है कि हमने इस देश की धरती में जन्म लिया है। प्रकृति ने इस देश की सुषमा को स्वयं सजाया है। लहराती एवं इठलाती हुई नदियाँ एवं सरोवर इसकी शोभा को बढ़ा रहे हैं। वास्तव में इस देश का वैभव अवर्णनीय है। हम भाग्यशाली हैं क्योंकि हमने ऐसे देश में जन्म लिया है, जहाँ देवता भी जन्म लेने के लिए लालायित रहते हैं।

“सम्पूर्ण देशों से अधिक जिस देश का उत्कर्ष है
वह देश मेरा देश है, वह देश भारतवर्ष है।”

19. देश में कम्प्यूटर की प्रगति
अथवा
भारत में कम्प्यूटर के बढ़ते चरण
अथवा
कम्प्यूटर और उसका महत्त्व [2009, 10, 11, 13]
अथवा
कम्प्यूटर आज की आवश्यकता [2009]

रूपरेखा-

  • प्रस्तावना,
  • भारत में कम्प्यूटर का विकास,
  • शिक्षा के क्षेत्र में कम्प्यूटर,
  • चिकित्सा के क्षेत्र में कम्प्यूटर,
  • विज्ञान के क्षेत्र में कम्प्यूटर,
  • रोजगार के क्षेत्र में कम्प्यूटर,
  • समाज के अन्य क्षेत्रों में कम्प्यूटर,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना-आधुनिक युग में विज्ञान ने चमत्कारिक उन्नति की है। विज्ञान ने मानव को वे चमत्कार दिये हैं कि आज पूरी दुनिया उसकी मुट्ठी में कैद हो गई है। विश्व-पटल की कोई भी घटना से अब वह अनभिज्ञ नहीं रह गया है। विज्ञान के द्वारा उसने प्रकृति को भी अपने नियन्त्रण में कर लिया। बाहर चाहे भीषण गर्मी का प्रकोप बरस रहा हो, अन्दर एयर कंडीशनर (वातानुकूलन-यन्त्र) शीत का आनन्द प्रदान कर रहा है। रेफ्रीजरेटर शीतल पेय और भोज्य पदार्थों का आस्वादन करा रहा है। एयर कंडीशन्ड गाड़ियाँ पलक झपकते इधर से उधर पहँचा रही हैं। टेलीविजन सारी दुनिया की आँखों देखी घटना आँखों को दिखा रहा है। अब इस क्षेत्र में यदि कोई कमी रह गई, तो वह है संगणक अथवा कम्प्यूटर की। इतने सारे आविष्कारों में वैज्ञानिक इसे कैसे भूल सकते हैं। पलक झपकते सारी समस्याओं के हल चाहिए, पृथ्वी और अन्तरिक्ष का ज्ञान चाहिए,गणित के बड़े-बड़े सवालों के हल चाहिए,तो उपस्थित है कम्प्यूटर-ज्ञान का बक्सा। खोलो और अपनी-अपनी मन-वांछित जानकारियाँ लो।

भारत में कम्प्यूटर का विकास-भारत में कम्प्यूटर का विकास, सन् 1984 ई. से सरकार द्वारा कम्प्यूटर नीति की घोषणा के उपरान्त प्रारम्भ हुआ। भारत का सर्वश्रेष्ठ कम्प्यूटर है-सुपर कम्प्यूटर। कम्प्यूटर के क्षेत्र में विश्व में हमारे देश का पाँचवाँ स्थान है। इस समय कम्प्यूटर के सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में हम निर्यातक भी हो चुके हैं।

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शिक्षा के क्षेत्र में कम्प्यूटर शिक्षा के क्षेत्र में कम्प्यूटर का अत्यन्त महत्त्व है। इस समय यह एक अपरिहार्य आवश्यकता बन चुका है। कम्प्यूटर के विद्यावाहिनी एवं ज्ञानवाहिनी कार्यक्रमों द्वारा शिक्षण कार्य सरल और रोचक बनाया जा रहा है। भारत ने शिक्षा में कम्प्यूटर को सर्वसुलभ बनाने हेतु एजुसैट नामक उपग्रह भी स्थापित किया है। इस कारण आज छात्र तकनीकी ज्ञान,गणितीय ज्ञान, वैज्ञानिक ज्ञान आदि सभी का भरपूर लाभ ले सकते हैं।

चिकित्सा के क्षेत्र में कम्प्यूटर-कम्प्यूटर से दूरस्थ चिकित्सा प्रणाली विकसित की गई है। साथ ही शरीर के अन्दर की गतिविधियाँ, बीमारियाँ आदि कम्प्यूटर के जरिए बड़ी आसानी से जानी जा रही हैं। इससे मरीज का इलाज करने में बहुत सुविधा रहती है।

विज्ञान के क्षेत्र में कम्प्यूटर-कम्प्यूटर का वैज्ञानिक जगत में अत्यन्त महत्त्व है। सुदूर, अन्तरिक्ष में होने वाली गतिविधियाँ अथवा अतल सागर की गहराई में होने वाली हलचल, मौसम, ग्रहों, उपग्रहों,उल्कापिंडों आदि की जानकारी कम्प्यूटर द्वारा प्राप्त की जा सकती है।

रोजगार के क्षेत्र में कम्प्यूटर-रोजगार के क्षेत्र में कम्प्यूटर की बहुत अहमियत है। कम्प्यूटर पर ई-मेल, ई-रेल, ई-कॉमर्स, इलैक्ट्रॉनिक गवर्नेन्स, इण्टरनेट आदि के द्वारा रोजगारों के नये अवसर उपलब्ध रहते हैं। समाज के अन्य क्षेत्रों में कम्प्यूटर-आधुनिक युग में कम्प्यूटर एक अनिवार्य आवश्यकता है। सिनेमा,मनोरंजन,संगीत,खेल आदि के क्षेत्र में कम्प्यूटर ने क्रान्ति उत्पन्न कर दी है।

उपसंहार-इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वर्तमान समय में भारत के शहरी और ग्रामीण, सभी क्षेत्रों में कम्प्यूटर का बोलबाला है। सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कम्प्यूटर ने अत्यन्त उन्नति की है।

20. देश में भ्रष्टाचार की समस्या

“भ्रष्टाचार नहीं मिटता है
फैली जड़ किस वन में ?
कहीं न ढूँढ़ो यारो, यह तो
रहती अपने मन में॥”

रूपरेखा-

  • प्रस्तावना,
  • भ्रष्टाचार के विविध रूप,
  • राजनीति के क्षेत्र में भ्रष्टाचार,
  • शिक्षा के क्षेत्र में भ्रष्टाचार,
  • चिकित्सा के क्षेत्र में भ्रष्टाचार,
  • धर्म के क्षेत्र में भ्रष्टाचार,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना-आज देश में भ्रष्टाचार की विकराल समस्या व्याप्त है। संसार को नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले जगद्गुरु भारत की यह दुर्दशा। आखिर कौन है जिम्मेदार इस मर्ज का ? भ्रष्टाचार रूपी मर्ज का आज तो यह हाल है कि ‘मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की’ अर्थात इस रोग का कोई उपचार क्यों नहीं है ? इसका कारण है कि यह रोग दूसरों से नहीं फैलता,बल्कि स्वयं अपने से फैलता है। हम सभी स्वयं में झाँककर देखें,क्या इसे पल्लवित और पुष्पित करने में हमारा योगदान नहीं है ? समाज में हम रहते हैं और समाज में ही भ्रष्टाचार व्याप्त है।

भ्रष्टाचार के विविध रूप-आज हमारे समाज का कोई भी क्षेत्र भ्रष्टाचार से अछूता नहीं है। राजनीति का क्षेत्र हो, शिक्षा का क्षेत्र हो, चिकित्सा का क्षेत्र हो, धर्म का क्षेत्र हो, सभी क्षेत्रों में भ्रष्टाचार का बोलबाला है।

राजनीति के क्षेत्र में भ्रष्टाचार-आज शुद्ध और सात्विक राजनीति की तो कल्पना करना भी दुष्कर है। राजनीति में आते ही नेता अपनी-अपनी पीढ़ी-दर-पीढ़ी की आर्थिक सुरक्षा की व्यवस्था करने लगते हैं। जनता की परिश्रम की कमाई उनके बैंक-बैलेंस का वजन बढ़ाती है। राजनेता देश के दलाल हो गये हैं। उनका वश चले तो वे अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए देश को ही. बेच डालें। बोफोर्स काण्ड, किट्स काण्ड, चारा घोटाला, यूरिया घोटाला, हवाला काण्ड आदि तो अत्यन्त छोटे उदाहरण हैं।

शिक्षा के क्षेत्र में भ्रष्टाचार-शिक्षार्थी हो या शिक्षक; आज सभी शिक्षा माफियाओं के शिकार हो रहे हैं। शिक्षा माफिया ‘पैसे दो और डिग्री लो’, पैसे दो और एडमिशन लो’, ‘पैसे दो और नौकरी लो’ आदि के व्यवसाय में लगा हुआ है। उसे न देश के भविष्य की चिन्ता है,न छात्र के जीवन की। नकल की व्यवस्था कराकर अनपढ़ पीढ़ी की उपज बढ़ाने वाले ये लोग देश के सबसे खतरनाक दुश्मन हैं।

चिकित्सा के क्षेत्र में भ्रष्टाचार-आज का डॉक्टर या चिकित्सक जिसे लोग भगवान कहकर पूजते हैं, अपना ईमान-धर्म खोकर येन-केन प्रकारेण मोटी कमाई के चक्कर में फंस गया है। दवा बनाने वाली कम्पनियाँ नकली दवा बनाकर मरीजों के प्राणों से खेल रही हैं, तो कहीं नर्सिंग होम से नवजात शिशुओं का व्यापार हो रहा है। आये दिन नवजात शिशुओं को अपहरण कर दूसरों को बेच देने का धंधा जोरों पर है। इतना ही नहीं मानव अंगों की तस्करी भी आज एक बड़े व्यापार के रूप में फल-फूल रही है।

धर्म के क्षेत्र में भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार के दल-दल में कोई ऐसा क्षेत्र नहीं बचा है,जो डूबा न हो। कथित धर्म-गुरुओं ने तो दूसरों के कष्ट, क्लेशों को दूर करने का लाइसेंस ले लिया है। धर्मभीरू जनता इनकी सेवा में लाखों रुपये लुटाती है। ये धर्म की आड़ में लूटते हैं और जनता पुण्य कमाने के लिए लुटती है। आज कथित गुरुओं के आश्रम कई-कई एकड़ जमीन में फैले हुए हैं। जैसे राजसिक वैभव इनके यहाँ उपलब्ध हैं,वह सामान्य जनता के नसीब में कहाँ ?

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उपसंहार-विहंगम दृष्टि डालकर हम यही पाते हैं कि समाज का कोई कोना भी तो ऐसा नहीं दिखाई देता जहाँ भ्रष्टाचार रूपी राक्षस ने अपना पंजा न फैला रखा हो। इतना होने पर भी इसके जिम्मेदार भी हम ही हैं। यदि हम अपने विवेक चक्षुओं को खोलकर, कानून का सहारा लेकर इसका मुकाबला करें तो ऐसी बात नहीं है कि यह राक्षस समाप्त नहीं किया जा सके। इसके लिए आवश्यक है कि हम इसके विरुद्ध आवाज उठाएँ,संगठित हों और किसी कार्य को अनैतिक रूप से न करें। यदि हम किसी को रिश्वत देना न चाहें, तो कोई हमसे ले नहीं सकता, यदि हम बिना परिश्रम अपने बच्चे को डिग्री न खरीदवाएँ तो भी हमें कोई रोक नहीं सकता। सच तो यह है कि बेचने वाले वे हैं और खरीदने वाले हम, तो इस प्रकार भ्रष्टाचार में हम सभी तो सम्मिलित हो गये। यदि हम खरीदें ही नहीं, तो वे बेचेंगे किसे ? इसलिए भ्रष्टाचार की जड़ को समाप्त करने के लिए पहले हमें स्वयं संयम रखना होगा, तभी इसे दूर किया जा सकता है। कहा भी गया है कि

“अपना-अपना करो सुधार।
तभी मिटेगा भ्रष्टाचार॥”

21.साहित्य और समाज [2014]
अथवा
साहित्य समाज का दर्पण है

“अन्धकार है वहाँ, जहाँ आदित्य नहीं है,
मुर्दा है वह देश, जहाँ साहित्य नहीं है।”

रूपरेखा-

  • प्रस्तावना,
  • साहित्य तथा समाज का सम्बन्ध,
  • साहित्य का समाज पर प्रभाव,
  • समाज का साहित्य पर प्रभाव,
  • हिन्दी साहित्य और समाज,
  • समाज के उत्थान में साहित्य का योगदान,
  • उपसंहार।।

प्रस्तावना-मानव अपनी जीवन-यात्रा को सुखद तथा आनन्दमय बनाने का प्रारम्भ से ही आकांक्षी रहा है। इस लक्ष्य की पूर्ति हेतु उसने वीणा के तारों को झंकृत किया है। कोर पाषाण को तराश कर आकर्षक तथा भव्य मूर्तियों का निर्माण किया है। शब्दों को साकार रूप प्रदान करके भाषा का सृजन किया है। कलाएँ मानव की अभिव्यक्ति का माध्यम हैं। साहित्य भी कला की श्रेणी में आता है।

जिस प्रकार सूर्य की किरणों से जगत में प्रकाश फैलता है उसी प्रकार साहित्य के आलोक से समाज में चेतना का संचार होता है। साहित्य ही अज्ञान के अन्धकार को मिटाकर समाज का मार्गदर्शन करता है। डॉ. श्यामसुन्दर दास का कथन सत्य है कि, “सामाजिक मस्तिष्क अपने पोषण के लिए जो भाव-सामग्री निकालकर समाज को सौंपता है, उसी के संचित भण्डार का नाम
साहित्य है।”

साहित्य तथा समाज का सम्बन्ध–साहित्य और समाज एक-दूसरे के अत्यन्त निकट हैं। साहित्य में मानव समाज के भाव निहित होते हैं। इसी आधार पर कुछ विद्वानों ने साहित्य को ‘समाज का दीपक’, कुछ ने साहित्य को ‘समाज का मस्तिष्क’ और कुछ ने साहित्य को ‘समाज का दर्पण’ माना है। वास्तव में, समाज की प्रबल एवं वेगवती मनोवृत्तियों की झलक साहित्य में दिखायी पड़ती है। विश्व के महान् साहित्यकारों ने अपने-अपने समाज का सच्चा स्वरूप अंकित किया है। यूरोप के गोर्की और भारत के प्रेमचन्द का साहित्य इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। इन साहित्यकारों की रचनाएँ अपने समय के समाज का सच्चा प्रतिनिधित्व करती हैं।

साहित्य का समाज पर प्रभाव-किसी भी काल का समाज साहित्य के प्रभाव से अछूता नहीं रह सकता। समाज को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए साहित्य पर आश्रित रहना पड़ता है। श्रेष्ठ साहित्य समाज के स्वरूप में परिवर्तन कर देता है। मुगल शासकों के अत्याचारों से पीड़ित हिन्दू जनता को भक्त कवियों के साहित्य ने ही सद्मार्ग का अवलोकन कराया। शिवाजी की तलवार भूषण के छन्दों को सुनकर झनझना उठती थी। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ठीक ही लिखा है कि “साहित्य में जो शक्ति छिपी है वह तोप, तलवार और बम के गोले में नहीं पायी जाती।”

समाज का साहित्य पर प्रभाव-समाज का प्रभाव ग्रहण किये बिना सच्चे साहित्य की रचना असम्भव है। साहित्यकार त्रिकालदर्शी होता है इसीलिए वह अतीत के परिप्रेक्ष्य में वर्तमान का अंकन भविष्य के दिशा-निर्देश के लिए करता है। साहित्य मे समाज की समस्याएँ और उनके समाधान निहित रहते हैं। अतः साहित्य और समाज दोनों ही एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। सामाजिक परम्पराएँ, घटनाएँ, परिस्थितियाँ आदि समाज के प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित करती हैं। साहित्यकार भी समाज का प्राणी है, अतः वह इस प्रभाव से अछूता नहीं रह सकता है ! वह अपेक्षाकृत अधिक संवेदनशील होने के कारण समाज की परिस्थितियों से अधिक प्रभावित होता है। वह जो कुछ समाज में देखता है, उसी को अपने साहित्य में अभिव्यक्त करता है। इस प्रकार साहित्य समाज से प्रभावित होता ही है।

हिन्दी साहित्य और समाज-हिन्दी-साहित्य के इतिहास पर दृष्टिपात करने से यह बात स्वयं पुष्ट हो जाती है। वीरगाथा काल का वातावरण युद्ध एवं अशान्ति का था। वीरता प्रदर्शन में ही जीवन का महत्व था। उक्ति प्रसिद्ध है ‘जा घर देखी सुघढ़ महरिया ता घर धरयो बरौगा जाइ’ उस युग के वातावरण के अनुकूल ही उस समय के चारण कवियों ने काव्य रचना की है। भक्तिकाल में विदेशी शासन में दबे भारतीय समाज को शान्ति तथा प्रगति का रास्ता दिखाने का प्रयास सन्त तथा भक्त कवियों ने किया। उन्होंने समाज में चेतना का संचार किया। रीतिकाल में दरबारों की विलासिता का प्रभाव साहित्य पर पड़ा। कवियों ने नायक-नायिकाओं की विविध क्रीड़ा-कलापों का चमत्कारपूर्ण वर्णन किया।

आधुनिक काल में नव-चेतना संचार हुआ। राष्ट्रीयता की लहर व्याप्त हुई। स्वदेश प्रेम का भाव उमड़ पड़ा। समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप मार्ग-दर्शन का कार्य साहित्य ने किया। मैथिलीशरण गुप्त ने भविष्य का निर्देश देते हुए लिखा-

“हो रहा है जो जहाँ, वह हो रहा, यदि वही हमने कहा तो क्या कहा?
किन्तु होना चाहिए कब क्या, कहाँ व्यक्त करती है कला ही वह, यहाँ।”

समाज के उत्थान में साहित्य का योगदान-जीवन में साहित्य की उपयोगिता अनिवार्य है। साहित्य मानव जीवन को वाणी देने के साथ-साथ समाज का पथ-प्रदर्शन भी करता है। साहित्य मानव-जीवन के अतीत का ज्ञान कराता है, वर्तमान का चित्रण करता है और भविष्य निर्माण की प्रेरणा देता है। साहित्यिक रचना का महत्त्व स्थायी होता है। वाल्मीकि, कालिदास, तुलसीदास, शेक्सपीयर आदि की साहित्यिक कृतियों से आज भी मानव जीवन प्रेरणा ले रहा है और भविष्य में भी लेता रहेगा। विभिन्न जातियों के आगमन से मानव के धर्म एवं संस्कृति पर पड़ने वाले प्रभाव भी साहित्य के माध्यम से जाने जा सकते हैं।

उपसंहार-निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि साहित्य और समाज का अटूट सम्बन्ध है जो साहित्य धरती से जुड़ा हुआ नहीं होता है वह सनातन तथा लोक मंगलकारी नहीं हो सकता है। साहित्यकार किसी देश विशेष की सीमा से आबद्ध नहीं होता वह सम्पूर्ण मानव-मात्र का हित-साधक होता है। आदर्श साहित्य मानव-मन को आलोकित करता है। सद्गुणों का विकास करके असत् वृत्तियों का उच्छेदन करता है। साहित्य मानव की रुचि का पूर्णतः परिष्कार करके उसमें निरन्तर उदात्त मनोवृत्तियों को जाग्रत करता है। जब साहित्य का पतन होने लगता है तब समाज भी रसातल को चला जाता है। इस प्रकार साहित्य समाज के लिए प्रकाश स्तम्भ का कार्य करता है।

22. इण्टरनेट : आधुनिक जीवन की आवश्यकता [2017]

“विज्ञान का एक और विलक्षण, वरदान है ‘इण्टरनेट’।
खोजिए जानकारी, पाइए ज्ञान और कीजिए ‘चैट’।”

रूपरेखा-

  • प्रस्तावना,
  • आखिर क्या है इण्टरनेट?,
  • इण्टरनेट के लाभ,
  • वर्तमान युग और इण्टरनेट,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना-एक समय था जब न तो यातायात के पर्याप्त साधन थे और न ही संचार की उन्नत सुविधाएँ ही मौजूद थीं। तब व्यक्ति को पड़ोसी नगर अथवा गाँव तक के समाचार प्राप्त नहीं हो पाते थे, देश-विदेश के सम्बन्ध में जानकारी तो दूर की कौड़ी थी। परन्तु जैसे-जैसे सभ्यता का विकास और प्रसार होता गया, वैसे-वैसे विभिन्न जादुई वैज्ञानिक उपादानों ने ईश्वर की बनाई इस दुनिया को बहुत छोटा कर दिया। रेल, हवाई जहाज,रेडियो, टेलीफोन, टेलीविजन, कम्प्यूटर इत्यादि उपकरणों की सहायता से पूरा विश्व घर के ‘ड्राइंग रूम’ में सिमट गया। कम्प्यूटर के अस्तित्व में आने के बाद से अब तक उसकी उपयोगिता में सर्वाधिक वृद्धि तब हुई जब उस पर ‘इण्टरनेट’ सेवा बहाल की गई।

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आखिर क्या है इण्टरनेट-इण्टरनेट पूरे विश्व में फैले कम्प्यूटरों का नेटवर्क है। इण्टरनेट पर कम्प्यूटर के माध्यम से सारे संसार की जानकारी पलक झपकते ही प्राप्त की जा सकती है। वास्तव में, इण्टरनेट एक ऐसी अत्याधुनिक संचार प्रौद्योगिकी है जिसमें अनगिनत कम्प्यूटर एक नेटवर्क से जुड़े होते हैं। इण्टरनेट न कोई सॉफ्टवेयर है,न कोई प्रोग्राम अपितु यह तो एक ऐसी युक्ति है जहाँ अनेक सूचनाएँ तथा जानकारियाँ उपकरणों की सहायता से मिलती हैं। इण्टरनेट के माध्यम से मिलने वाली सूचनाओं में विश्वभर के व्यक्तियों और संगठनों का सहयोग रहता है। उन्हें ‘नेटवर्क ऑफ सर्वर्स’ (सेवकों का नेटवर्क) कहा जाता है। यह एक वर्ल्ड वाइड वेव (w.w.w.) है जो हजारों सर्वर्स को जोड़ता है।

इण्टरनेट के लाभ-इण्टरनेट के द्वारा विभिन्न प्रकार के दस्तावेज, सूची, विज्ञापन, समाचार,सूचनाएँ आदि सरलता से उपलब्ध हो जाती हैं। ये सूचनाएँ संसार में कहीं पर भी प्राप्त की जा सकती हैं। पुस्तकों में लिखे विषय, समाचार-पत्र,संगीत आदि सभी इण्टरनेट के माध्यम से प्राप्त किये जाते हैं। संसार के किसी भी कोने से कहीं पर भी सूचना प्राप्त की जा सकती है और भेजी जा सकती है। हमारे व्यक्तिगत, सामाजिक, औद्योगिक, शिक्षा, संस्कृति, राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में इण्टरनेट उपयोगी है।

वर्ततान युग और इण्टरनेट त्वरित सूचना के इस युग में इण्टरनेट अत्यन्त आवश्यक है। शिक्षा,स्वास्थ्य, यात्रा,पंजीकरण,आवेदन आदि सभी कार्यों में इण्टरनेट सहयोगी है। पढ़ने वाली दुर्लभ पुस्तकों को संसार के किसी भी कोने में पढ़ा जा सकता है। स्वास्थ्य सम्बन्धी विस्तृत जानकारियाँ इण्टरनेट पर उपलब्ध हैं। इण्टरनेट के द्वारा संसार के किसी भी विशिष्ट व्यक्ति के विषय में जाना जा सकता है। सभी प्रकार के टिकट घर बैठे इण्टरनेट से प्राप्त किये जा सकते हैं। दैनिक जीवन की समस्याओं को हल करने वाला इण्टरनेट आज के जीवन की अनिवार्यता बन गया है।

उपसंहार-समाज के प्रत्येक वर्ग में इण्टरनेट की बढ़ती स्वीकार्यता इस बात का स्पष्ट संकेत है कि इस युक्ति ने मानव-जीवन में चमत्कार-सा कर दिया है। किन्तु जैसा कि हम जानते हैं हर अच्छी बात में कोई-न-कोई बुरी बात भी छुपी होती है। वह बुरा पक्ष व्यक्ति विशेष द्वारा उपलब्ध युक्ति का दुरुपयोग करने पर सामने आता है। इण्टरनेट का दुरुपयोग करने वालों ने इस अनूठी सुविधा का भी स्याह पक्ष सामने ला खड़ा किया है। आज इण्टरनेट पर अश्लील वेबसाइट्स की बाढ़-सी आ गई है। सबसे खतरनाक तथ्य है कि ऐसी ‘साइट्स’ अब किशोरों तक की पहुँच में आ गई हैं। इससे भावी पीढ़ी के नैतिक एवं शारीरिक पतन का खतरा मँडराने लगा है। हमें इस समस्या से मुक्ति के लिए तत्काल प्रभावी उपाय करने होंगे ताकि बहुपयोगी ‘इण्टरनेट’ का श्वेत पक्ष मानव कल्याण में सहायक सिद्ध हो सके।

23. जनसंख्या वृद्धि [2018]

रूपरेखा-

  • प्रस्तावना,
  • जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न समस्याएँ,
  • अभाव की स्थिति,
  • जनसंख्या वृद्धि का प्रभाव,
  • समस्या का समाधान,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना-आज विश्व के सामने अनेक छोटी-छोटी समस्याएँ हैं। प्रत्येक देश उनके समाधान के लिए अपने-अपने ढंग से प्रयासरत है। भारत में तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण हमारी उन्नति और प्रगति की सारी योजनाएँ विफल होती जा रही हैं, परन्तु विडम्बना है कि कोई इतनी गम्भीर समस्या को समस्या मानने को तैयार नहीं वरन् उसे सम्पन्नता का प्रतीक मान बैठे हैं और ईश्वर द्वारा प्रदत्त उपहार मान बैठे हैं।

जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न समस्याएँ-जनसंख्या वृद्धि की एक समस्या अनेक अन्य समस्याओं को जन्म देती है। हर किसी की मुख्य आवश्यकताएँ हैं-रोटी, कपड़ा एवं मकान। आज हमारे देश में लाखों लोगों को भरपेट रोटी नहीं मिलती, तन ढकने को. कपड़े नहीं मिलते और वे बिना घर-बार के खुले आसमान के नीचे जीवन जीने को मजबूर हैं।

अभाव की स्थिति स्वतन्त्रता मिलने के बाद भारत तीव्र गति से कृषि, उद्योग तथा व्यवसाय के क्षेत्र में विकास के पथ पर अग्रसर हुआ। हर क्षेत्र में आशातीत प्रगति हुई। आज कृषि योग्य देश की लगभग सारी भूमि पर खेती हो रही है। हम अपनी दैनिक आवश्यकता की सभी वस्तुओं का उत्पादन अपने देश में प्रचुर मात्रा में करने लगे हैं। फिर भी हम अपने देश में आवश्यक वस्तुओं की कमी पूरी नहीं कर सके। जीवन के लिए परम आवश्यक वस्तुओं की खरीद एवं बिक्री पर भी सरकार को प्रतिबन्ध लगाना पड़ता है। आज हम पहले की तुलना में कई गुना अधिक निर्यात कर रहे हैं, फिर भी हमारे देश की गिनती अविकसित देशों में की जाती है। हमें अपने विकास कार्यों के लिए दूसरों से कर्ज लेना पड़ रहा है।

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MP Board Class 10th Special Hindi प्रायोजना कार्य

MP Board Class 10th Special Hindi प्रायोजना कार्य

मध्य प्रदेश की क्षेत्रीय बोलियाँ

  1. छत्तीसगढ़ – दुर्ग, विलासपुर, रायगढ़,रायपुर।
  2. बुन्देली – टीकमगढ़, दतिया, छतरपुर।
  3. मालवी – मंदसौर, देवास, धार, रतलाम,उज्जैन, इन्दौर।
  4. ब्रज – गुना, – भिण्ड, शिवपुरी, मुरैना।
  5. निमाड़ी – खण्डवा, झाबुआ,खरगौन।
  6. बघेली – शहडोल,सतना, सीधी,रीवा, बालघाट।

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विशेष – घर – परिवार में प्रयुक्त की जाने वाली भाषा बोली कहलाती है। इसका सुनियोजित व्याकरण नहीं होता।

हिन्दी की चार बोलियों के नाम

  1. ब्रजभाषा,
  2. अवधी,
  3. खड़ी बोली,
  4. राजस्थानी।

1. पहेलियाँ

(क) छत्तीसगढ़ी पहेलियाँ
पहेलियाँ मनोरंजन का बहुत ही आकर्षक तथा सरस साधन हैं। इससे मानव की बुद्धि का भी परिचय मिलता है। जो जितना कुशाग्र बुद्धि होता है,पहेलियों का उत्तर उचित तथा कम समय में देने में सक्षम होता है। यहाँ पाठकों के ज्ञानवर्द्धन हेतु छत्तीसगढ़ की कुछ पहेलियाँ निम्नवत् अवलोकनीय हैं –

1. चघेल नाक ऊपर, धरेल कान ला
बतावा ओहर हवै, कौन शैतान जा।
अर्थात् वह कौन – सा शैतान है, जो नासिका (नाक) के ऊपर चढ़ता है तथा कर्ण (कान) को पकड़ता है।
उत्तर –
चश्मा।

2. मोर घर कर पहरेदार, नई खाय नई पीये।
जुग – जुग तलक जिये।
मेरे गृह का चौकीदार न कभी खाना खाता है एवं न जल पीता है, लेकिन अत्यधिक समय तक जिन्दा रहता है।
उत्तर –
कपाट (किवाड़)।

3. पायंच भाई का एगोट आंगना।
पाँच बंधुओं के मध्य एक आंगन है।
उत्तर –
पाँच अंगुली तथा हथेली।

4. छोटा सा काला घर
घूमत रहेल इधर – उधर।
मेरे पास छोटा – सा काले वर्ण (रंग) का गृह है जो इधर – उधर घूमता है।
उत्तर –
छाता।

5. एक ठन पेड़ के एकेच ठन पतई
एक वृक्ष में एक ही पत्ता।
उत्तर –
झण्डा।

6. ना राजा के राज मा, न माली के बाग मा।
फोड़े मा गुठली नहीं, खाये मा स्वाद नहीं।
नृप के राज्य में नहीं है एवं न माली के बगीचे में है। फोड़ने पर इसमें गुठली नहीं निकलती एवं खाने में स्वादिष्ट नहीं।
उत्तर –
ओला (करा)।

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7. आयल लुलु जाय ल लु, पानी लां उर्सयलुलु।
वह आता जाता है, परन्तु जल से भयभीत रहता है।
उत्तर –
जूता।

(ख) निमाड़ी पहेलियाँ

1. गाय चलती जाय, दूध पड़ती जाय।
गाय गमन करती है, दुग्ध (दूध) गिरता जाता है।
उत्तर –
चक्की।

2. ‘तू चल हऊँ आयो’।
तुम चलो मैं आया।
उत्तर –
दरवाजा।

3. “बाकी तेकी पावलई, वजावण वालो कण।
सुन्दर नाय सारसऽ मनावण बालो कूण॥”
टेढ़ी एवं तिरछी बांसुरी कौन बजा सकता है एवं ससुराल गमन करने वाली लड़की को कौन मनाने में सक्षम हो सकता है।
उत्तर –
नदी।

4. “आरकस बारकस नौ सौ खूटा, गाय है
भारकराई दूध छे मीठा।”
सैकड़ों चौखटों एवं दरवाजों से सुसज्जित पायगा में बहुत से खूटे गढ़े हैं, वहाँ की गायें मरखनी हैं परन्तु उनका दूध मधुर है।
उत्तर –
मधुमक्खी का छत्ता।

5. एक वाई असी कि सरकजऽनी
एक नारी ऐसी है, जो हटती ही नहीं।
उत्तर –
दीवार।

6. “काला खेत मंड दही को छीटों”
काले खेत में दही फैला हो।
उत्तर –
कपास।

7. “नीलई बेटी झूलड बठी, लड़रे सगा थारी बेटी।”
नीली लड़की झूले पर बैठी है। इसी कारण कहा है कि समधी लड़की को भली प्रकार रखा करो।
उत्तर –
केरी।

8. “असो कसो पावणों पाय
घर मंड सूतो आंगरणऽपांव” हे माता ! वह कैसा अतिथि (मेहमान) है जो सोता गृह में है, परन्तु इसके पैर आँगन तक आते हैं।
उत्तर –
दीपक (दिया)।

9. “छोटी सी छड़ी जमीन मंऽ गड़ी
रुम – झुम करती महले मंऽ चढ़ी” जब छोटी – सी थी तब धरती में गढ़ी थी, परन्तु अब बढ़ने पर रुम – झुम करती हुई प्रासादों महलों में चढ़ी जा रही है।
उत्तर –
ज्वार।

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10. “काला खेत मंड शेर को पंजो”
काले खेत में शेर का पंजा हो।
उत्तर –
अदरक।

2. चुटकुले

(1) रात को पत्नी जोर से खाँस रही थी। पति ने सहानुभूति प्रकट करते हुए कहा –

“कल मैं तुम्हारे गले के लिए कुछ लाऊँगा।”
“हाँ, मेहरा ज्वैलर्स पर मैंने एक लॉकेट देखा था। वह ले आना प्लीज।”

(2) एक जानी मानी महिला वक्ता महिला उत्थान के सम्बन्ध में भाषण दे रही थी।

जोश में कहने लगी – “बताइए, यदि स्त्री न होती तो ये पुरुष कहाँ होते ?”
पीछे से आवाज आई-‘स्वर्ग में।’

(3) एक नवयुवती ने टैक्सी रोकी और ड्राइवर से कहा –

“जल्दी जच्चा – बच्चा अस्पताल ले चलो।”
टैक्सी ड्राइवर बहुत तेज टैक्सी चलाने लगा, तब वह नवयुवती बोली –
“इतनी तेज भी न चलाओ। मैं वहाँ नर्स हूँ।”

(4) एक मित्र ने देरी से आने का कारण बताते हुए कहा –

“यार, मेरी आदत है कि मैं जो भी काम करता हूँ, उसी में डूब जाता हूँ।”
‘तो फिर तुम एक कुआँ क्यों नहीं खोदते ?’ दूसरा मित्र क्रोध में बोला।

3. लोकगीत

(क) बुन्देली लोकगीत
तोरे गुन जान गई अरे बलमा रे।
जब तो कहत ते रंगामहल में, हो रंगामहल में
टूटी टपरिया में ल्याये बलमारे॥ तोरे गुन॥
जब तो कहत ते सेजा सुपैती, हो सेजा सुपैती।
टूटी खटुलिया पै ल्याये बलमा रे। तोरे गुन॥

(ख) ब्रज का लोकगीत
देखो री मुकुट झोंका ले रहयो
एजी लै रहयो यमुना के तीर॥
कुंजन झूले रानी राधिका,
एजी बागन झूलें घनश्याम। देखो री ………….॥
कौन झुला मैं रानी राधिका
एजी कौन झुलामैं घनश्याम॥ देखो री ………….॥
सखी झुलामैं राधिका
एजी सखा झुलामैं घनश्याम॥ देखो री ………….॥
कौन बरन हैं रानी राधिका
एजी कौन बरन घनश्याम॥ देखो री ………….॥
गौर बरन हैं रानी राधिका
एजी स्याम बरन घनश्याम॥ देखो री ………….॥
बिजुरी सी चमकें रानी राधिका
एजी वारिस से घनश्याम॥ देखो री ………….॥
सावन रस सरसावनों
जामें झूलत हैं घनश्याम॥ देखो री ………….॥

4. दूरदर्शन और आकाशवाणी के कार्यक्रम

दूरदर्शन पर प्रातः से लेकर रात्रि वेला तक निरन्तर कोई – न – कोई कार्यक्रम प्रसारित होता रहता है।

प्रात:काल समाचार, मौसम की भविष्यवाणी, चित्रहार, डिस्कवरी तथा धारावाहिक नाटकों का प्रसारण होता रहता है।

धारावाहिक नाटकों में तारक मेहता का उल्टा चश्मा,बालिका वधू, ये रिश्ता क्या कहलाता है,रामायण, महाभारत, भाभीजी घर पर हैं आदि बहुत लोकप्रिय हैं।

दूरदर्शन पर कृषि दर्शन, जनमंच तथा अन्य महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम प्रसारित होते हैं। इन कार्यक्रमों के अतिरिक्त बच्चों के लिए व बड़ों के लिए अंताक्षरी प्रतियोगिता व धार्मिक धारावाहिक भी प्रसारित होते रहते हैं।

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प्रत्येक कार्य को इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है कि बच्चे, बड़े,बूढ़े व युवा वर्ग उसका भरपूर लाभ उठा सकें। इसके अतिरिक्त महत्त्वपूर्ण स्थानों की जानकारी भी दूरदर्शन पर दी जाती हैं। विभिन्न प्रकार की औषधियाँ तथा योगासन व अन्य स्वास्थ्य सम्बन्धी जानकारियाँ भी मिलती हैं।

5. हिन्दी साहित्य का स्वतन्त्र पठन

मानव के सभ्य एवं सुसंस्कृत होने का श्रेय वाणी के माध्यम से होता है।

भावों तथा मनोगत विचारों को व्यक्त करने के दो साधन हैं –
1. मौखिक एवं लिखित। दोनों रूपों को व्यक्त करने का साधन भाषा है। प्रस्तुत विवेचन में मौखिक अभिव्यक्ति विषयक कतिपय उपादेय प्रकारों का विवेचन निम्नवत् है

(क) टिप्पणियाँ
सुने अथवा पढ़े गये संवाद,भाषण,कविता, लेख,आलोचना,धार्मिक एवं साहित्यिक ग्रन्थ घटना दृश्य के संदर्भ में लिखित एवं मौखिक रूप से संयत वाणी में व्यक्त कर देना ही टिप्पणी कही जाती है।

टिप्पणी को शब्द सीमा में आबद्ध नहीं किया जा सकता है, लेकिन संक्षिप्त एवं सारगर्भित टिप्पणी ही प्रशंसनीय होती है। टिप्पणियाँ निम्नवत् तीन श्रेणियों में विभक्त की जा सकती हैं
(क) कार्यालय टिप्पणी,
(ख) सम्पादकीय टिप्पणी,
(ग) सामान्य टिप्पणी।

(ख) प्रेरणाएँ
साहित्य के अन्तर्गत प्रेरणा का आशय उन कृतियों एवं रचनाओं से है,जो पाठक के मनमानस का जीवन पथ पर आगे कदम बढ़ाने की प्रेरणा देते हैं। उसके अन्तर्गत प्रमुख रूप से उन कहानियों को सम्मिलित किया जाता है जो इस उद्देश्य को लेकर लिपिबद्ध की जाती हैं। इस संदर्भ में कहानी इतनी बड़ी न हो, जिसे पढ़ने से पाठक ऊबकर निश्चित लक्ष्य से भटक जाये।

आज के संघर्षमय जीवन में पाठक कम – से – कम समय में मनोरंजन करना चाहता है। अतः कहानी का कलेवर भी सीमित होना भी नितान्त आवश्यक है। जो कहानी एक ही बैठक में समाप्त हो जाती है; पाठक का मन भी इससे पूरी तरह इसी प्रकार की कहानियों में रमता है तथा ये कहानियाँ ही साहित्य जगत में उपयुक्त ठहराई जाती हैं।

6. हस्तलिखित पत्रिका तैयार करना

छात्र परस्पर मिलकर हस्तलिखित पत्रिका का प्रारूप तैयार कर सकते हैं जिसके अन्तर्गत सबसे पहले स्वयं के निबन्ध, कहानियाँ, कविताओं तथा चुटकले आदि हो सकते हैं।

इनको सूचीबद्ध करना आवश्यक है। सूची में उसके संकलनकर्ता अथवा लेखक का नाम देना भी अनिवार्य है।

इसके पश्चात् सम्पादक की ओर से अपने सहयोगियों को धन्यवाद देना चाहिए।

पत्रिका का परिचय प्रस्तुत करते हुए उसमें संकलित अथवा लिखित लेखों पर मन्तव्य व्यक्त करना अथवा प्रकाश डालना भी अपेक्षित है। इसके बाद लेखों को रोचक तथा आकर्षक रूप में पूर्ण रूप से प्रस्तुत करना श्रेयस्कर होगा।

यह बात स्मरण रखने योग्य है कि पत्रिका के लेखों का कलेवर इतना विस्तृत न हो जो पत्रिका की रोचकता तथा उपादेयता में व्यवधान बने।

7. क्षेत्रीय पत्र – पत्रिकाएँ

बुन्देलखण्ड अंचल

  • टीकमगढ़ – ओरछा टाइम्स।
  • कटनी – भारती, महाकौशल केशरी, जनमेजय।
  • सागर – आचरण,
  • जन – जन की पुकार,न्यू बेंकट टाइम्स, राही।
  • जबलपुर-दैनिक भास्कर, नवीन दुनिया, देशबन्धु, नवभारत, युगधर्म, नर्मदा ज्योति, लोकसेवा।
  • सतना – सतना समाचार, जवान भारत।
  • शहडोल – जनबोध विन्ध्यवाणी, भारती समय।
  • रीवा – आलोक, जागरण, बाँधवीय समाचार।

छत्तीसगढ़ अंचल

  • रायपुर – नवभारत, स्वदेश, देशबन्धु, भास्कर।
  • बिलासपुर – भास्कर, नवभारत, लोकस्वर।
  • दुर्ग – छत्तीसगढ़ टाइम्स,ज्योति जनता।

मालवा अंचल

  • मंदसौर – कीर्तिमान, ध्वज, दशपुर, दर्शन।
  • उज्जैन – अग्निबाण, प्रजादूत, विक्रम दर्शन, जलती मशाल, अवन्तिका, भास्कर।
  • नीमच – नई विधा।
  • शाजापुर – नन्दन वन।
  • देवास – देवासदूत, देवास दर्पण।
  • रतलाम – प्रसारण, जनवृत, हमदेश, जनमत टाइम्स।
  • इन्दौर – इन्दौर समाचार, स्वदेश, नई दुनिया, नवभारत, जागरण, भावताव, दैनिक भास्कर।

निमाड़ अंचल

  • बड़वानी – निमाड़ एक्सप्रेस।
  • खण्डवा – लाजवान, विन्ध्याचल।
  • बुहरामपुर – वीर सन्तरी।

प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
हिन्दी के चार समाचार – पत्रों के नाम लिखिए।
उत्तर-

  • नवभारत,
  • नई दुनिया,
  • हिन्दुस्तान टाइम्स,
  • दैनिक भास्कर,
  • दैनिक जागरण।

प्रश्न 2.
दूरदर्शन पर प्रसारित दो धार्मिक धारावाहिकों के नाम लिखिए।
उत्तर-

  • जय बजरंगवली,
  • महादेव।

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प्रश्न 3.
हिन्दी की चार बाल पत्रिकाओं के नाम लिखिए। [2009]
उत्तर-

  • पराग,
  • चन्दा मामा,
  • नन्दन,
  • बाल भारती।

प्रश्न 4.
लोकगीत की चार पंक्तियाँ लिखिए।
उत्तर-

  • छोटी – छोटी गैय्यां,छोटे – छोटे ग्वाल।
  • छोटो सो मेरो, मदन गोपाल।

प्रश्न 5.
लोककथा की कोई दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर-

  • सामान्य जन – जीवन का यथार्थांकन,
  • मनोरंजन का सुलभ साधन।

प्रश्न 6.
मध्य प्रदेश की चार क्षेत्रीय बोलियों के नाम लिखिए।
उत्तर-

  • बुन्देली,
  • मालवी,
  • निमाड़ी,
  • बघेली।

प्रश्न 7.
कोई एक छत्तीसगढ़ी पहेली लिखिए।
उत्तर-

  • “पाँच कबूतर पाँचे रंग,
  • महल में जाके एके रंग।”

प्रश्न 8.
दूरदर्शन पर प्रसारित दो सामाजिक धारावाहिकों के नाम लिखिए।
उत्तर-

  • बालिका वधू,
  • ये रिश्ता क्या कहलाता है।

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प्रश्न 9.
इन्दौर से प्रकाशित दो समाचार – पत्रों के नाम लिखिए।
उत्तर-

  • इन्दौर समाचार,
  • स्वदेश।

प्रश्न 10.
ब्रजभाषा मध्य प्रदेश के किन क्षेत्रों में बोली जाती है ?
उत्तर-

  • गुना,
  • भिण्ड,
  • शिवपुरी,
  • मुरैना।

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MP Board Class 10th General Hindi निबंध लेखन

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1. दशहरा (विजयादशमी) अथवा एक भारतीय त्योहार

हमारे देश में विभिन्न धर्मों और जातियों के लोग रहते हैं। उनके विविध कर्म-संस्कार होते हैं। वे अपने कर्मों और संस्कारों को समय-समय पर विशेष रूप से प्रकट करते रहते हैं। इन रूपों को हम आए दिन, त्योहारों, पर्यों, आयोजनों में देखा करते हैं। इस प्रकार के अधिकांश तिथि, पर्व, त्योहार, आयोजन, उत्सव आदि सर्वाधिक हिंदुओं में होते हैं। हिंदुओं के जितने तिथि, त्योहार, पर्व, उत्सव आदि हैं उनमें दशहरा (विजयादशमी) का महत्त्व अधिक बढ़कर है। यह भी कहा जाना कोई अनुचित या अतिशयोक्ति नहीं है कि दशहरा (विजयादशमी) हिंदुओं का सर्वश्रेष्ठ पर्व, त्योहार या उत्सव है।

दशहरा (विजयादशमी) का त्योहार सम्पूर्ण भारत में ही नहीं अपितु पूरे विश्व में हिंदू धर्म-मत के अनुयायी बड़े ही उल्लास और प्रयत्न के साथ मनाते हैं। यह आश्विन (क्वार) मास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा (एकम्) से पूर्णिमा (पूर्णमासी) तक बड़ी धूमधाम के साथ मनाया जाता है। अंग्रेजी तिथि-गणना के अनुसार यह त्योहार अक्टूबर माह . में पड़ता है।

दशहरा (विजयादशमी) का त्योहार-उत्सव मनाने के कई कारण और मत हैं। प्रायः सभी हिंदू धर्मावलंबी इस धारण से इसे मनाते हैं कि इसी समय भगवान् श्रीराम ने युग-युग सर्वाधिक अत्याचारी लंका नरेश रावण का अंत करके उसकी स्वर्णमयी नगरी लंका पर विजय प्राप्त की थी। चूँकि प्रतिपदा (एकम्) से लेकर दशमी तक (दस दिनों तक) लगातार भयंकर युद्ध करने के उपरांत ही श्रीराम ने रावण पर विजय प्राप्त की थी, इसलिए इसे विजयादशमी भी कहा जाता है। ‘दशहरा’ शब्द भी ‘विजयादशमी’ शब्द का पर्याय और प्रतीक है।

दशहरा (विजयादशमी) त्योहार, पर्व और पुण्य-तिथि के भी रूप में मनाया जाता है। मुख्य रूप से बंगाल-निवासी इसे महाशक्ति की उपासना-आराधना के रूप में मनाते हैं। उनका यह घोर विश्वास होता है कि इसी समय महाशक्ति दुर्गा ने असुरों का विध्वंस करके कैलाश पर्वत को प्रस्थान किया था। महाशक्ति की पूजा-उपासना, ध्यान-भक्ति आदि के द्वारा वे लगातार नौ दिनों तक अखंड पाठ और नवरातों तक पूजा के दीप जलाया करते हैं। इसलिए इसे लोग ‘नवरात’ भी कहते हैं। दुर्गा के अतिरिक्त अन्य देवी-देवताओं के भी व्रत, उपासना, पाठ, संकीर्तन आदि पुण्य कार्य-विधान इसी समय सभी श्रद्धालु अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए निष्ठा से करते हैं।

इस त्योहार के समय सबमें अद्भुत खुशी और उमंग की झलक होती है। प्रकृति देवी अपनी सुंदरता को सुखद हवा, वनस्पतियों के रंग-बिरंगे फूलों फसलों, फलों, और सभी जीवधारियों विशेष रूप से मनुष्यों के रौनकता और चंचलता के रूप में प्रकट करती हुई दिखाई पड़ती है। उधर मनुष्य भी अपनी विविध सौंदर्य-सज्जा से पीछे नहीं रहता है। दशहरा (विजयादशमी) के समय जगह-जगह मेलों, दंगलों, सभाओं, उद्घाटनों, प्रीतिभोजों, समारोहों आदि के कारण सारा वातावरण अपने आप में बन-ठनकर अधिक रोचक दिखाई देने लगता है।

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दशहरा (विजयादशमी) के त्योहार का बहुत बड़ा संदेश है। वह यह कि सत्य और सदाचार की असत्य और दुराचार पर निश्चय ही विजय होती है। यह त्योहार हमें यह सिखलाता है कि हमें पूरी निष्ठा और श्रद्धा बनाए रखनी चाहिए। भारतीय सांस्कृतिक चेतना का अगर कोई वास्तविक त्योहार है तो सबसे पहले दशहरा (विजयादशमी) ही है।

2. समय का सदुपयोग (समय बहुमूल्य है)

महाकवि तुलसी ने समय का महत्त्वांकन करते हुए लिखा है”का वर्षा जब कृषि सुखानी। समय चूकि पुनि का पछतानी।।”

अर्थात् समय के बीत जाने पर पछताने से कोई लाभ नहीं। दूसरे शब्दों में समय के रहते ही कुछ कर लेने का लाभ होता है। अन्यथा समय बार-बार नहीं मिलता है।

गोस्वामी तुलसीदास के उपर्युक्त उपदेश पर विचारने से यह स्पष्ट हो जाता है कि समय का महत्त्व समय के सदुपयोग करने से ही होता है। केवल कथा-वार्ता, चर्चा, घटना-व्यापार आदि के अनुभवों के द्वारा हम अच्छी तरह से समझ जाते हैं कि समय का प्रभाव सबसे बड़ा होता है। दूसरे शब्दों में यह कि समय सबको प्रभावित करता है। समय के उपयोग से गरीबी अमीरी में बदल जाती है। असत्य सत्य सिद्ध हो जाता है। लघुता प्रभुता में बदल जाती है। इसी प्रकार यह कहा जा सकता है कि असंभव संभव में बदल जाता है। इसीलिए कोई भी प्रयत्नशील व्यक्ति-प्राणी समय का सदुपयोग करके मनोनुकूल दशा को प्राप्त करके चमत्कार उत्पन्न कर सकता है।

समय का प्रवाह बहते हुए जल-प्रवाह के समान होता है जिसे रोक पाना सर्वथा कठिन और असंभव होता है। इस तथ्य को बड़े ही सुस्पष्ट रूप से एक अंग्रेज विचारक ने इस प्रकार से व्यक्त किया है-

“Time and Tide wait for none.”

इसी प्रकार से समय के प्रभाव को स्पष्ट करते हुए किसी अन्य अंग्रेज चिंतक ने ठीक ही सुझाव किया है कि समय सबसे बड़ा धर्म है। यही सबसे बड़ी पूजा है। इसलिए सब प्रकार से महान् और सफल जीवन बिताने के लिए समय की पूजा-आराधना करने के सिवा और कोई चारा नहीं है-

“No religion is greater than time, time is the greatest dharma. So believe the time, worship the time if you want to live and if you want to survive.”

समय के महत्त्व को सभी महापुरुषों ने सिद्ध किया है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सदुपदेश देते हुए स्वयं को समय (काल) की संज्ञा दी है। काल ही विश्व का कारण है। वही विश्व की रचना करता है, विकास करता है और वही इसका विनाश भी करता है। अतः काल ही काल का कारण है। काल ही महाकाल है। महाकाल ही अतिकाल है और अतिकाल ही विनाश, सर्वनाश, विध्वंस और नाश-विनाश को भी सदैव के लिए स्वाहा करने वाला है। इसलिए यह किसी प्रकार से आश्चर्य नहीं कि काल का अभिन्न स्वरूप सभी देव-शक्तियाँ, ब्रह्मा, विष्णु और महेश काल भी काल के प्रभाव से कभी दूषित, खोटे और निंदनीय कर्म में लिप्त होने से बच नहीं पाते हैं। फिर सामान्य प्राणी जनों की काल के सामने क्या बिसात है।

हम यह देखते हैं और अनुभव करते हैं कि काल अर्थात् समय का सदुपयोग करने वाले विश्व के एक से एक महापुरुषों ने समय के सदुपयोग को आदर्श रूप में व्यक्त किया है। समय का सदुपयोग ही अनंत संभावनाओं के द्वार को खोलता है और अनंत समस्याओं के समाधान को भी प्रस्तुत करता है। यही कारण है कि आज के वैज्ञानिकों ने अनंत असंभावनाओं को संभावनाओं में बदलते हुए सबके कान खड़े कर दिए हैं। इस प्रकार से यह कहा जा सकता है कि संभावनाओं की ओर आकर्षित होकर समय का सदुपयोग करने वाले निरंतर ही समय के एक-एक अल्पांश को किसी प्रकार से हाथ से निकलने नहीं देते हैं। ऐसा इसलिए कि वे भली-भाँति इस तथ्य के अनुभवी होते हैं-

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“मुख से निकली बात और धनुष से निकला तीर कभी वापस नहीं आते।”

इसलिए समय का सदुपयोग करने से हमें कभी भी कोई चूक नहीं करनी चाहिए अन्यथा हाथ मल-मल कर पश्चाताप करने के सिवा और कुछ नहीं हो सकता-

“अब पछताए क्या होत है, जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत।”

3. सिनेमा या चलचित्र

प्राचीन काल से लेकर अब तक मनुष्य ने अपने शारीरिक और मानसिक थकान और ऊब को दूर करने के लिए विभिन्न प्रकार के साधनों को तैयार किया है। प्राचीन काल में मनुष्य कथा, वार्ता, खेल-कूद और नाच-गाने आदि के द्वारा अपने . तन और मन की थकान और ऊब को शांत किया करता था। धीरे-धीरे युग का परिवर्तन हुआ और मनुष्य के प्राचीन मनोरंजन और विनोद के साधनों में बढ़ोत्तरी हुई। आज विज्ञान के बढ़ते-चढ़ते प्रभाव के फलस्वरूप मनोरंजन के क्षेत्र में प्राचीन काल की अपेक्षा कई गुना वृद्धि हुई। पत्र, पत्रिकाएँ, नाटक, ग्रामोफोन, रेडियो, दूरदर्शन, टेपरिकॉर्डर, वी.सी.आर., वी.डी.ओ., फोटो कैमरा, वायरलेस, टेलीफोन सहित ताश, शतरंज, नौकायन, पिकनिक, टेबिल टेनिस, फुटबाल, वालीवाल, हॉकी, क्रिकेट सहित अनेक प्रकार की कलाएँ और प्रदर्शनों ने मानव द्वारा मनोरंजन हेतु आविष्कृत चौंसठ कलाओं में संवृद्धि की है। दूसरे शब्दों में कहना कि पूर्वकालीन मनोरंजन के साधन यथा-कथा, वार्ता, वाद-विवाद, कविता, संगीत, वादन, गोष्ठी, सभा या प्रदर्शन तो अब भी मनोरंजनार्थ हैं ही, इनके साथ ही कुछ अत्याधुनिक और नयी तकनीक से बने हुए मनोरंजन भी हमारे लिए अधिक उपयोगी हो रहे हैं। इन्हीं में से सिनेमा या चलचित्र भी हमारे मनोरंजन का बहुत बड़ा आधार है।

‘सिनेमा’ अंग्रेजी का मूल शब्द है जिसका हिंदी अनुवाद चलचित्र है अर्थात् चलते हुए चित्र। आज विज्ञान ने जितने भी हमें मनोरंजन के विभिन्न स्वरूप प्रदान किए हैं उनमें सिनेमा की लोकप्रियता बहुत अधिक है। इससे हम अब तक संतुष्ट नहीं हुए हैं और शायद अभी और कुछ युगों तक हम इसी तरह से संतुष्ट नहीं हो पाएँगे तो कोई आश्चर्य नहीं। कहने का भाव यह कि सिनेमा से हमारी रुचि बढ़ती ही जा रही है। इससे हमारा मन शायद ही कभी ऊब सके।

चलचित्र या सिनेमा का आविष्कार 19वीं शताब्दी में हुआ। इसके आविष्कारक टामस एल्बा एडिसन अमेरिका निवासी थे जिन्होंने 1890 में इसको हमारे सामने प्रस्तुत किया था। पहले-पहल सिनेमा लंदन में ‘कुमैर’ नामक वैज्ञानिक द्वारा दिखाया गया था। भारत में चलचित्र दादा साहब फाल्के के द्वारा सन् 1913 में बनाया गया। उसकी काफी प्रशंसा की गई। फिर इसके बाद न जाने आज तक कितने चलचित्र बने और कितनी धनराशि खर्च हुई; यह कहना कठिन है। लेकिन यह तो ध्यान देने का विषय है कि भारत का स्थान चलचित्र की दिशा में अमेरिका के बाद दूसरा अवश्य है। कुछ समय बाद यह सर्वप्रथम हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं।

अब सिनेमा पूर्वापेक्षा रंगीन और आकर्षक हो गया है। इसका स्वरूप अब न केवल नैतिक ही रह गया है अपितु विविध भद्र और अभद्र सभी अंगों को स्पर्श कर गया है। अतः सिनेमा स्वयं में बहुविविधता भरा एक अत्यंत संतोषजनक मनोरंजन का साधन सिद्ध होकर हमारे जीवन और दिलो-दिमाग में भली भाँति छा गया है, सिनेमा से हम इतने बंध गए हैं कि इससे हम किसी प्रकार मुक्त नहीं हो पाते हैं। हम भरपेट भोजन की चिंता न करके सिनेमा की चिंता करते हैं। तन की एक-एक आवश्यकता को भूलकर या तिलांजलि देकर हम सिनेमा देखने से बाज नहीं आते हैं। इस प्रकार सिनेमा आज हमारे जीवन को दुष्प्रभावित कर रहा है। इसके भद्दे, अश्लील और दुरुपयोगी चित्र समाज के सभी वर्गों को विनाश की ओर लिये जा रहे हैं। अतः समाज के सभी वर्ग बच्चा, युवा और वृद्ध, शिक्षित और अशिक्षित सभी भ्रष्टता के शिकार होने से किसी प्रकार बच नहीं पा रहे हैं।

आवश्यकता इस बात की है कि हमें अच्छे चलचित्र को ही देखना चाहिए। बरे चलचित्रों से दूर रहने की पूरी कोशिश करनी चाहिए। यही नहीं चरित्र को बर्बाद करने वाले चलचित्रों को विरोध करने में किसी प्रकार से संकोच नहीं करना चाहिए। यह भाव सबमें पैदा करना चाहिए कि चलचित्र हमारे सुख के लिए ही है।

4. किसी यात्रा का रोचक वर्णन या किसी पर्वतीय स्थान का वर्णन

जीवन में कुछ ऐसे भी क्षण आते हैं जिन्हें भूल पाना बड़ा कठिन हो जाता है। दूसरी बात यह कि जीवन में कुछ ऐसे भी अवसर मिलते हैं। जो अत्यधिक रोचक और आनंददायक बन जाते हैं। सभी की तरह मेरे भी जीवन में कुछ ऐसे अवसर अवश्य आए हैं जिनकी स्मृति कर आज भी मेरा मन बाग-बाग हो उठता है। उन रोचक और सरस क्षणों में एक क्षण मुझे ऐसा मिला जब मैंने जीवन में पहली बार एक पर्वतीय स्थान की सैर की।

छात्रावस्था से ही मुझे प्रकृति के प्रति प्रेमाकर्षण, प्रकृति के कवियों की रचनाओं को पढ़ने से पूर्वापेक्षा अधिक बढ़ता गया। प्रसाद, महादेवी, मुकुटधर पांडेय आदि की तरह कविवर सुमित्रानंदन पंत की रचनाओं ने हमारे बचपन में अंकुरित प्रकृति के प्रति प्रेम-मोह के जाल को और अधिक फैला दिया। इसमें मैं इतना फँसता गया कि मैंने यह निश्चय कर लिया कि कविवर सुमित्रानंदन पंत का पहाड़ी गाँव कौसानी एक बार अवश्य देखने जाऊँगा। ‘अगर मंसूबे मजबूत हों तो उनके पूरे होने में कोई कसर नहीं रहती है। यह बात मुझे तब समझ में आ गई जब मैंने एक दिन कौसानी के लिए यात्रा करने का निश्चय कर ही लिया।

गर्मी की छुट्टियाँ आ गई थीं। स्कूल दो माह के लिए बंद हो गया था। एक दिन मैंने अपने इष्ट मित्रों से कोई रोचक यात्रा करने की बात शुरू कर दी। किसी ने कुछ और किसी ने कुछ सुझाव दिया। मैंने सबको कौसानी नामक पहाड़ी गाँव की सैर करने की बात इस तरह से समझा दी कि इसके लिए सभी राजी हो गए। एक सुनिश्चित दिन में हम चार मित्र कविवर पंत की जन्मस्थली ‘कौसानी’ को देखने के लिए चल दिए। रेल और पैदल सफर करके हम लोग दिल्ली से सुबह चलकर ‘कौसानी’ को पहुँच गए।

हम लोगों ने देखा कि ‘कौसानी गाँव एक मैदानी गाँव की तरह न होकर बहुत टेढ़ा-मेढ़ा, ऊपर-नीचे बसा हुआ तंग गाँव है। तंग इस अर्थ में कि स्थान की कमी मैदानी गाँव की तुलना में बहुत कम है। यह बड़ी अच्छी बात रही कि हम लोगों का एक सुपरिचित और कुछ समय का सहपाठी कौसानी में ही मिल गया। अतएव उसने हम लोगों को इस पहाड़ी क्षेत्र की रोचक सैर करने में अच्छा दिशा-निर्देश दिया।

हम लोगों ने देखा इस पर्वतीय क्षेत्र पर केवल पत्थरों का ही साम्राज्य है। लंबे-लंबे पेड़ों के सिर आसमान के करीब पहुँचते हुए दिखाई दे रहे थे। कहीं-कहीं लघु आकार में खेतों में कुछ फसलें थोड़ी-बहुत हरीतिमा लिये हुए थी; बिना मेहनत और संरक्षण के पौधों से फूलों के रंग-बिरंगे रूप मन को अधिक लुभा रहे थे। झाड़ियों के नामों-निशान कम थे फिर भी पत्थरों की गोद में कहीं-न-कहीं कोई झाड़ी अवश्य दीख जाती थी जिसमें पहाड़ी जीव-जंतुओं के होने का पता चलता था। उस पहाड़ी क्षेत्र में सैर के लिए बढ़ते हुए हम बहुत पतले और घुमावदार रास्ते पर ही जा रहे थे। ऐसा कोई रास्ता नहीं था जिसमें कोई चार पहिए वाला वाहन आ-जा सके। बहुत दूर एक ही ऐसी सड़क दिखाई पड़ी थी।

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इस पर्वतीय क्षेत्र के निवासी हम लोगों को बड़ी ही हैरानी से देख रहे थे। उनका पत्थर जैसा शरीर बलिष्ठ और चिकना दिखाई देता था। वे बहुत सभ्य और सुशील दिखाई दे रहे थे। घूमते-टहलते हुए हम लोग एक बाजार में गए। वहाँ पर कुछ हम लोगों ने जलपान किया। उस जलपान की खुशी यह थी कि दिल्ली और दूसरे मैदानी शहरों-गाँवों की अपेक्षा सभी सामान सस्ते और साफ-सुथरे थे। धीरे-धीरे शाम हो गई। सूरज की डूबती किरणें सभी पर्वतीय अंग को अपनी लालिमा की चादर से ढक रही थीं। रात होते-होते एक गहरी चुप्पी और उदासी छा गई। सुबह उठते ही हम लोगों ने देखा कि वह सारा पर्वतीय स्थल बर्फ में कैद हो गया है। आसमान में रुई-सी बर्फ उड़ रही है। सूरज की आँखें उन्हें देर तक चमका रही थीं। कुछ धूप निकलने पर हम लोग वापस आ गए। आज भी उस यात्रा के स्मरण से मन मचल उठता है।

5. समाचार-पत्र या समाचार-पत्र का महत्त्व

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज की प्रत्येक स्थिति से प्रभावित होता है। दूसरी ओर वह भी अपनी गतिविधियों से समाज को प्रभावित करता है। आए दिन समाज में कोई घटना, व्यापार या प्रतिक्रिया अवश्य होती है। इन सबकी जानकारी देने में समाचार-पत्र की भूमिका बहुत बड़ी है। यह सत्य है कि इस प्रकार – की खबरें तो हमें आज विज्ञान की कृपा से रेडियो, टेलीप्रिंटर, टेलीफोन और टेलीविजन के द्वारा अवश्य प्राप्त होती हैं। लेकिन समाचार-पत्र की तरह उनसे एक-एक खबर का हवाला संभव नहीं होता है। यही कारण आज विभिन्न प्रकार के संचार-संदेश के साधनों के होते हुए भी समाचार-पत्र का महत्त्व सर्वाधिक है।

समाचार-पत्र के जन्म के विषय यह आमतौर पर कहा जाता है कि इसका शुभारंभ सातवीं सदी में चीन में हुआ था। यह तो सत्य ही है कि हमारे देश में समाचारपत्र का शुभारंभ 18वीं शताब्दी में हुआ था। सन् 1780 ई. में बंगाल में ‘बंगाल गजट’ नामक समाचार पत्र प्रकाशित हुआ था। इसके बाद धीरे-धीरे हमारे देश के विभिन्न भागों से समाचार-पत्र निकलने लगे थे। यह निर्विवाद सत्य है कि हमारे देश में समाचार-पत्रों की संख्या युग-प्रवर्तक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के प्रचार-प्रसार के फलस्वरूप बढ़ती गई। सबसे अधिक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के हिंदी महत्त्व के लिए किए गए योगदानों के परिणामों से हिंदी समाचार-पत्रों की गति और संख्या में वृद्धि हुई।

हमारे देश में स्वतंत्रता के पश्चात् समाचार-पत्रों की संख्या में पूर्वापेक्षा दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि हुई। आज हमारे देश में समाचार-पत्रों की संख्या बहुत अधिक है। देश की प्रायः सभी भाषाओं में समाचार-पत्र आज धड़ल्ले से निकलते जा रहे हैं। आज के प्रमुख समाचार-पत्रों के कई रूप, प्रतिरूप दिखाई दे रहे हैं : दैनिक, सांध्य दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक-त्रैमासिक और छमाही (अर्द्धवार्षिक) सहित कुछ वार्षिक समाचार-पत्र भी प्रकाशित हो रहे हैं। मुख्य रूप से ‘नवभारत टाइम्स, ‘जनसत्ता’, ‘हिंदुस्तान’, ‘पंजाब केसरी’, ‘राष्ट्रीय सहारा’, ‘दैनिक ट्रिब्यून’, ‘अमृत बाजार पत्रिका’, ‘इंडियन एक्सप्रेस’, ‘स्टेट्समैन’, ‘वीर अर्जुन’, ‘राजस्थान पत्रिका’, ‘नयी दुनिया’, ‘समाचार मेल’, ‘आज’, ‘दैनिक जागरण’ आदि दैनिक पत्रों की बड़ी धूम है। ‘सांध्य टाइम्स’ आदि सांध्य-दैनिकों की बड़ी लोकप्रियता है। इसी तरह से समाचारों को प्रस्तुत करने वाली पत्रिकाओं की भी भरमार है। इनमें धर्मयुग, ब्लिट्स, सरिता, इंडिया टुडे, माया, मनोहर कहानियाँ आदि हैं।

समाचार-पत्रों की उपयोगिता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। समाचार-पत्रों के माध्यम से हमें न केवल राजनीतिक जानकारी हासिल होती है, अपितु सामाजिक, साहित्यिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक आदि गतिविधियों का भी ज्ञान हो जाता है। यही नहीं हमें देश और विदेश की पूरी छवि समाचार-पत्रों में साफ-साफ दिखाई देती है। इससे हम अपने जीवन से संबंधित किसी भी दशा से अछूते नहीं रह पाते हैं। इस प्रकार से हम यह कह सकते हैं कि समाचार-पत्र की उपयोगिता और महत्त्व निःसंदेह है। अतएव हमें समाचार-पत्र से अवश्य लाभ उठाना चाहिए।

6. विद्यार्थी और अनुशासन

मनुष्य समाज में रहता है। उसे समाज के नियमों और दायित्वों के अनुसार रहना पड़ता है। जो इस प्रकार से रहता है उसे अनुशासित कहते हैं। इस प्रकार के नियम और दायित्व को अनुशासन कहते हैं।

अनुशासन जीवन के प्रारंभ से ही शुरू हो जाता है। यह अनुशासन घर से शुरू होता है। बच्चे को उसके संरक्षक उचित और आवश्यक अनुशासन में रखने लगते हैं। इसे पारिवारिक अनुशासन कहते हैं। बच्चा जब बड़ा हो जाता है तब वह शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश करता है। उसे शैक्षिक नियमों-निर्देशों का पालन करना पड़ता है। इस प्रकार के नियम-निर्देश को ‘विद्यार्थी-अनुशासन’ कहा जाता है।

विद्यार्थी अनुशासन का शुभारंभ विद्यालय या पाठशाला ही है। वह शिक्षा के सुंदर और शुद्ध वातावरण में पल्लवित और विकसित होता है। यहाँ विद्यार्थी को शिष्ट गुरुजनों की छत्रछाया में रहकर अनुशासित होकर रहना पड़ता है। यहाँ विद्यार्थी को अपने परिवार के अनुशासन से कहीं अधिक कड़े अनुशासन में रहना पड़ता है। इस प्रकार के अनुशासन में रहकर विद्यार्थी जीवन भर अनुशासित रहने का आदी बन जाता है। इससे विद्यार्थी अपने गुरु की तरह योग्य और महान बनने की कोशिश करने लगता है। उसे किसी प्रकार के कड़े निर्देश-नियम या आदेश धीरे-धीरे सुखद और रोचक लगने लगते हैं। कुछ समय बाद वह जब अपनी पूरी शिक्षा पूरी कर लेता है तब वह समाज में प्रविष्ट होकर समाज को अनुशासित करने लगता है। इस प्रकार से विद्यार्थी जीवन का अनुशासन समाज को एक स्वस्थ और सबल अनुशासित स्वरूप . देने में बहुत बड़ी भूमिका निभाता है।

विद्यार्थी-अनुशासन के कई अंग-स्वरूप होते हैं-नियमित और ठीक समय पर विद्यालय जाना प्रार्थना सभा में पहुंचना, कक्षा में प्रवेश करना, कक्षा में आते ही गुरुओं के प्रति अभिवादन, प्रणाम, साष्टांग दंडवत करना, कक्षा में पूरे मनोयोग से अध्ययन-मनन करना, बाल-सभा, खेल-कूद वाद-विवाद, जल-क्रीड़ा, गीत संगीत आदि में सनियम सक्रिय भाग लेना आदि विद्यार्थी-अनुशासन के ही अभिन्न अंग हैं। इससे विद्यार्थी-अनुशासन की आग में पूरी तरह से तपता है। इससे विद्यार्थी पके हुए घड़े के समान टिकाऊ बनकर समाज को अपने अंतर्गत अनुशासन में मीठे जल का मधुर पान कराता है। इस प्रकार से विद्यार्थी-अनुशासन के द्वारा समाज एक सही और निश्चित दिशा की ओर ही बढ़ता है। वह अपने पूर्ववर्ती कुसंस्कारों और त्रुटियों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है। एक अपेक्षित सुंदर और सुखद स्थिति को प्राप्त कर अपने भविष्य को उज्ज्वल और समृद्ध बनाता है। यह ध्यान देने का विषय है कि विद्यार्थी-अनुशासन को पाकर समाज के सभी वर्ग बालक, युवा और वृद्ध एवं शिक्षित व अशिक्षित सभी में एक अपूर्व सुधार-चमत्कार आ जाता है।

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विद्यार्थी अनुशासन हमारे जीवन का सबसे प्रथम और महत्त्वपूर्ण अंग है। यह हमारे समाज की उपयोगिता की दृष्टि से तो और अधिक मूल्यवान और अपेक्षित है। अतएव हमें इस प्रकार से विद्यार्थी-अनुशासन में विश्वास और उत्साह दिखाना चाहिए। यह पक्का इरादा और समझ रखनी चाहिए कि विद्यार्थी-अनुशासन सभी प्रकार के अनुशासन का सम्राट है। यह अनुशासन सर्वोच्च है, यह अनुशासन सर्वव्यापी है। यह अनुशासन सर्वकालिक है। अतएव इसकी पवित्रता और महानता के प्रति समाज के सभी वर्गों को पूर्ण रूप से प्रयत्नशील रहना चाहिए।

7. खेलों का महत्त्व

जिस प्रकार से शिक्षा मनुष्य के सांस्कृतिक और बौद्धिक मानस को पुष्ट और संवृद्ध करती है उसी प्रकार से खेलकूद उसकी शारीरिक संरचना को अधिक प्रौढ़. और शक्तिशाली बनाते हैं। इन दोनों ही प्रकार के तथ्यों की पुष्टि करते हुए एक बार महात्मा गांधी ने कहा था-“By education, I mean, all round development of a child”. इस प्रकार के कथन का अभिप्राय यही है कि बच्चों का सर्वांगीण विकास होना चाहिए, अर्थात् बच्चों को शैक्षिक और सांस्कृतिक वातावरण के साथ-साथ शारीरिक वृद्धि हेतु खेल-कूद, व्यायाम आदि के वातावरण का भी होना आवश्यक है। इस तरह के विचारों को अनेक शिक्षाविदों, चिंतकों और समाज-सुधारकों ने व्यक्त किया है।

जीवन में खेलों के महत्त्व अधिक-से-अधिक रूप में दिखाई देते हैं। खेलों के द्वारा हमारे सम्पूर्ण अंगों की अच्छी-खासी कसरत हो जाती है। सभी मांसपेशियों पर बल पड़ता है। थकान तो अवश्य होती है। लेकिन इस थकान को दूर करने के लिए जब हम कुछ विश्राम कर लेते हैं तब हमारे अंदर एक अद्भुत चुस्ती और चंचलता आ जाती है। फिर हम कोई भी काम बड़ी स्फूर्ति और मनोवेगपूर्वक करने लगते हैं। खेलों से हमारी खेलों में अभिरुचि बढ़ती जाती है। इस प्रकार से हम श्रेष्ठ खिलाड़ी बनने का प्रयास निरंतर करते रहते हैं। खेलों को खेलने से न केवल खेलों के प्रति ही अभिरुचि बढ़ती है अपितु शिक्षा, कृषि, व्यवसाय, पर्यटन, वार्तालाप, ध्यान-पूजा आदि के प्रति भी हमारा मन एकदम केंद्रित होने लगता है।

खेलों के द्वारा हमारा मनोरंजन होता है। खेलों के द्वारा हमारा अच्छा व्यायाम होता है। हमारे अंदर सहनशक्ति आने लगती है। हम संघर्षशील होने लगते हैं। ऐसा इसलिए कि खेलों को खेलते समय हमारे खेल के साथी हमको पराजित करना चाहते हैं और हम उन्हें पराजित कर अपनी विजय हासिल करना चाहते हैं। इस प्रकार से हम जब तक विजय नहीं प्राप्त करते हैं तब तक इसके लिए हम निरंतर संघर्षशील बने रहते हैं। इस तरह खेलों को खेलने से हमारी हिम्मत बढ़ती है। हम निराश नहीं होते हैं। हम आशावान बनकर एक कठिन और दुर्लभ वस्तु की प्राप्ति के लिए अपने विश्वास, अपने बल-तेज और अपने प्रयत्न को बढ़ाते चलते हैं। इस प्रकार इतने अपने पक्के इरादों की दौड़ से किसी अपने मंसूबों की प्राप्ति करके फूले नहीं समाते हैं।

खेलों के खेलने से हमारा अधिक और अपेक्षित मनोरंजन होता है। इससे हमारा चिड़चिड़ापन दूर हो जाता है। हमारे अंदर सरसता और मधुरता आ जाती है।

हम अधिक विवकेशील, सरल और सहनशील बन जाते हैं। खेलों के खेलने से हमारा परस्पर सम्पर्क अधिक सुदृढ़ और घनिष्ठ बनता जाता है। फलतः हम एक उच्चस्तरीय प्राणी बन जाते हैं। खेलों के खेलने से हमारे अंदर अनुशासन का वह अंकुर उठने लगता है जो जीवन भर पल्लवित और फलित होने से कभी रुकता नहीं है। ठीक समय से खेलना, नियमबद्ध होकर खेलना और ठीक समय पर खेल से मुक्त होना आदि सब कुछ नियम अनुशासन के सच्चे पाठ पढ़ाते हैं।

हम देखते हैं कि प्राचीनकालीन खेलों के अतिरिक्त मूर्तिकला, चित्रकला, नाट्यकला, संगीतकला आदि कलाएँ भी एक विशेष प्रकार के खेल ही हैं। जिनसे हमारा बौद्धिक और शारीरिक सभी प्रकार के विकास होते हैं। इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि विविध प्रकार के खेलों के द्वारा हमारा जीवन सम्पूर्ण रूप से महान विकसित और कल्याणप्रद बन जाता है। इसलिए निःसंदेह हमारे जीवन में खेलों के अत्यधिक महत्त्व हैं। अतएव हमें किसी-न-किसी प्रकार के खेल में सक्रिय भाग लेकर अपने जीवन को समुन्नत और सर्वोपयोगी बनाना चाहिए।

8. विद्यालय का वार्षिकोत्सव

विद्यालय का वार्षिकोत्सव अन्य वार्षिकोत्सव के समान ही व्यापक स्तर पर होता है। यह उत्सव प्रतिवर्ष एक निश्चित समय पर ही होता है। इसके लिए सभी विद्यालय के ही सदस्य नहीं अपितु इससे संबंधित सभी सामाजिक प्राणी भी तैयार रहते हैं।

हमारे विद्यालय का वार्षिकोत्सव प्रति वर्ष 13 अप्रैल की बैसाखी के शुभावसर पर होता है। इसके लिए लगभग पंद्रह दिनों से ही तैयारी शुरू हो जाती है। हमारे कक्षाध्यापक इसके लिए काफी प्रयास किया करते हैं। वे प्रतिदिन की होने वाली तैयारी और आगामी तैयारी के विषय में सूचनापट्ट पर लिख देते हैं। हमारे कक्षाध्यापक घिद्यालय के वार्षिकोत्सव के लिए नाटक, निबंध, एकांकी, कविता, वाद-विवाद, खेल आदि के लिए प्रमुख और योग्य विद्यार्थियों के चुनाव कर लेते हैं। कई दिनों के अभ्यास के उपरांत वे योग्य और कुशल विद्यार्थियों का चुनाव कर लेते हैं। इस चुनाव के बाद वे पुनः छात्रों को बार-बार उनके प्रदत्त कार्यों का अभ्यास कराते रहते हैं।

प्रतिवर्ष की भाँति इस वर्ष भी हमारे विद्यालय के वार्षिकोत्सव के विषय में प्रमुख दैनिक समाचार-पत्रों में समाचार प्रकाशित हो गया। इससे पूर्व विद्यालय के निकटवर्ती सदस्यों को इस विषय में सूचित करते हुए उन्हें आमंत्रित कर दिया गया। प्रदेश के शिक्षामंत्री को प्रमुख अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया। जिलाधिकारी को सभा का अध्यक्ष बनाया गया। विद्यालय के प्रधानाचार्य को अतिथि-स्वागताध्यक्ष का पदभार दिया गया। हमारे कक्षाध्यापक को सभा का संचालक पद दिया गया। विद्यालय के सभी छात्रों, अध्यापकों और सदस्यों को विद्यालय की पूरी साज-सज्जा और तैयारी के लिए नियुक्त किया गया। इस प्रकार के विद्यालय के वार्षिकोत्सव की तैयारी में कोई त्रुटि नहीं रहने पर इसकी पूरी सतर्कता रखी गई।

विद्यालय के वार्षिकोत्सव के दिन अर्थात् 13 अप्रैल बैसाखी के शुभ अवसर पर प्रातः 7 बजे से ही विद्यालय की साज-सज्जा और तैयारी होने लगती है। 8 बजते ही सभी छात्र, अध्यापक और सदस्य अपने-अपने सौंपे हुए दायित्वों को सँभालने लगते हैं। अतिथियों का आना-जाना शुरू हो गया। वे एक निश्चित सजे हुए तोरण द्वार से प्रवेश करके पंक्तिबद्ध कुर्सियों पर जाकर बैठने लगे थे। उन्हें सप्रेम बैठाया जाता था। कार्यक्रम के लिए एक बहुत बड़ा मंच बनाया गया था। वहाँ कई कुर्सियाँ और टेबल अलग-अलग श्रेणी के थे। लाउडस्पीकर के द्वारा कार्यक्रम के संबंध में बार-बार सूचना दी जा रही थी।

ठीक 10 बजे हमारे मुख्य अतिथि प्रदेश के शिक्षामंत्री, सभाध्यक्ष जिलाधिकारी और उनके संरक्षकों की हमारे स्वागताध्यक्ष प्रधानाचार्य ने बड़े ही प्रेम के साथ आवभगत की और उन्हें उचित आसन प्रदान किया। हमारे कक्षाध्यापक ने सभा का संचालन करते हुए विद्यालय से कार्यक्रम संबंधित सूचना दी। इसके उपरांत प्रमुख अतिथि शिक्षामंत्री से वक्तव्य देने के लिए आग्रह किया। प्रमुख अतिथि के रूप में माननीय शिक्षामंत्री ने सबके प्रति उचित आभार व्यक्त करते हुए शिक्षा के महत्त्व पर प्रकाश डाला। विद्यार्थियों को उचित दिशाबोध देकर विद्यालय के एक निश्चित अनुदान की घोषणा की जिसे सुनकर तालियों की गड़गड़ाहट से सारा वातावरण गूंज उठा। इसके बाद संचालक महोदय के आग्रह पर सभाध्यक्ष जिलाधिकारी ने संक्षिप्त वक्तव्य दिया। फिर संचालक महोदय के आग्रह पर स्वागताध्यक्ष हमारे प्रधानाचार्य ने सबके प्रति आभार व्यक्त करते हुए विद्यालय की प्रगति का विस्तार से उल्लेख किया। बाद में संचालक महोदय ने मुख्य अतिथि से आग्रह करके पुरस्कार के घोषित छात्रों को पुरस्कृत करवाया अंत में सबको धन्यवाद दिया। सबसे अंत में मिष्ठान वितरण हुआ।

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दूसरे दिन सभी दैनिक समाचार-पत्रों में हमारे विद्यालय के वार्षिकोत्सव का महत्त्व प्रकाशित हुआ जिसे हम सबने ही नहीं प्रायः सभी अभिभावकों, संरक्षकों ने गर्व का अनुभव किया।

9. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी

समय-समय पर भारत में महान् आत्माओं ने जन्म लिया है। गौतम बुद्ध, महावीर, अशोक, नानक, नामदेव, कबीर जैसे महान त्यागी और आध्यात्मिक पुरुषों के कारण ही भारत भूमि संत और महात्माओं का देश कहलाती है। ऐसे ही महान् व्यक्तियों के परम्परा में महात्मा गांधी ने भारत में जन्म लिया। सत्य, अहिंसा और मानवता के इस पुजारी ने न केवल धार्मिक क्षेत्र में ही हम भारतवासियों का नेतृत्व किया, बल्कि राजनीति को भी प्रभावित किया। सदियों से परतंत्र भारत माता के बंधनों को काट गिराया। आज महात्मा गांधी के प्रयत्नों से हम भारतवासी स्वतंत्रता की खुली वायु में साँस ले रहे हैं।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जन्म पोरबंदर (कठियावाड़) में 2 अक्टूबर, 1869 को हुआ था। उनके पिता राजकोट के दीवान थे। इनका बचपन का नाम मोहनदास था। इन पर बचपन से ही आदर्श माता और सिद्धांतवादी पिता का पूरा-पूरा प्रभाव पड़ा।

गांधी जी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा राजकोट में प्राप्त की। 13 वर्ष की अल्पआयु में ही इनका विवाह हो गया था। इनकी पत्नी का नाम कस्तूरबा था। मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद में वकालत की शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड चले गए। वे 3 वर्ष तक इंग्लैंड में रहे। वकालत पास करने के बाद वे भारत वापस आ गए। वे आरंभ से ही सत्य में विश्वास रखते थे। भारत में वकालत करते हुए अभी थोड़ा ही समय हुआ था कि उन्हें एक भारतीय व्यापारी द्वारा दक्षिण अफ्रीका बुलाया गया। वहाँ उन्होंने भारतीयों की अत्यंत शोचनीय दशा देखी। गांधी जी ने भारतवासियों के अधिकारों के लिए संघर्ष आरंभ कर दिया।

दक्षिण अफ्रीका से लौटकर गांधी जी ने अहिंसात्मक तरीके से भारतीयों के अधिकारों के लिए लड़ने का निश्चय किया। उस समय भारत में तिलक, गोखले, लाला लाजपतराय आदि नेता कांग्रेस पार्टी के माध्यम से आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। गांधी जी पर उनका अत्यधिक प्रभाव पड़ा।

1921 में गांधी जी ने असहयोग आंदोलन चलाया। गांधी जी धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत में प्रसिद्ध हो गए। अंग्रेजी सरकार ने आंदोलन को दबाने का प्रयास किया। भारतवासियों पर तरह-तरह के अत्याचार किए। गांधी जी ने 1930 में नमक सत्याग्रह और 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन चलाए। भारत के सभी नर-नारी उनकी एक आवाज पर उनके साथ बलिदान देने के लिए तैयार थे।
गांधी जी को अंग्रेजों ने बहुत बार जेल में बंद किया। गांधी जी ने अछूतोद्धार के लिए कार्य किया। स्त्री-शिक्षा और राष्ट्रभाषा हिंदी का प्रचार किया। हरिजनों के उत्थान के लिए काम किया। स्वदेशी आंदोलन और चरखा आंदोलन चलाया। गांधी जी के प्रयत्नों से भारत 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्र हुआ।

सत्य, अहिंसा और मानवता के इस पुजारी की 30 जनवरी, 1948 को नाथू राम गोडसे ने गोली मारकर हत्या कर दी। इससे सारा विश्व विकल हो उठा।

10. बाल दिवस

हमारे विद्यालय में प्रतिवर्ष 14 नवंबर को बाल दिवस का आयोजन किया जाता है। बाल दिवस पूज्य चाचा नेहरू का जन्मदिवस है। चाचा नेहरू भारत के प्रथम प्रधानमंत्री थे। वे स्वतंत्रता संग्राम के महान् सेनानी थे। उन्होंने अपने देश की आजादी के लिए सर्वस्व न्योछावर कर दिया। अपने जीवन के अनेक अमूल्य वर्ष देश की सेवा में बिताए। अनेक वर्षों तक विदेशी शासकों ने उन्हें जेल में बंद रखा। उन्होंने साहस नहीं छोड़ा और देशवासियों को आगे बढ़ने की प्रेरणा देते रहे।

पं. नेहरू बच्चों के प्रिय नेता थे। बच्चे उन्हें प्यार से ‘चाचा’ कहकर संबोधित करते थे। उन्होंने देश में बच्चों के लिए शिक्षा सुविधाओं का विस्तार कराया। उनके अच्छे भविष्य के लिए अनेक योजनाएँ आरंभ की। वे कहा करते थे ‘कि आज के बच्चे ही कल के नागरिक बनेंगे। यदि आज उनकी अच्छी देखभाल की जाएगी तो आगे आने वाले समय में वे अच्छे डॉक्टर, इंजीनियर, सैनिक, विद्वान, लेखक और वैज्ञानिक बनेंगे।’ इसी कारण उन्होंने बाल कल्याण की अनेक योजनाएँ बनाईं। अनेक नगरों में बालघर और मनोरंजन केंद्र बनवाए। प्रतिवर्ष बाल दिवस पर डाक टिकटों का प्रचलन किया। बालकों के लिए अनेक प्रतियोगिताएँ आरंभ कराईं। वे देश-विदेश में जहाँ भी जाते बच्चे उन्हें घेर लेते थे। उनके जन्मदिवस को भारत में बाल-दिवस के रूप में मनाया जाता है।

हमारे विद्यालय में प्रतिवर्ष बाल-दिवस के अवसर पर बाल मेले का आयोजन किया जाता है। बच्चे अपनी छोटी-छोटी दुकानें लगाते हैं। विभिन्न प्रकार की विक्रय योग्य वस्तुएँ अपने हाथ से तैयार करते हैं। बच्चों के माता-पिता और मित्र उस अवसर पर खरीददारी करते हैं। सारे विद्यालय को अच्छी प्रकार सजाया जाता है। विद्यालय को झंडियों, चित्रों और रंगों की सहायता से आकर्षक रूप दिया जाता है।

बाल दिवस के अवसर पर खेल-कूद प्रतियोगिता और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी आयोजन किया जाता है। बच्चे मंच पर आकर नाटक, गीत, कविता, नृत्य और फैंसी ड्रेस शो का प्रदर्शन करते हैं। सहगान, बाँसुरी वादन का कार्यक्रम दर्शकों का मन मोह लेता है। तत्पश्चात् सफल और अच्छा प्रदर्शन करने वाले छात्र-छात्राओं को पुरस्कार वितरण किए जाते हैं। बच्चों को मिठाई का भी वितरण किया जाता है। इस प्रकार दिवस विद्यालय का एक प्रमुख उत्सव बन जाता है।

11. विज्ञान की देन या विज्ञान वरदान है या विज्ञान का महत्त्व

आधुनिक युग विज्ञान का युग है। विज्ञान ने मनुष्य के जीवन में महान परिवर्तन ला दिया है। मनुष्य के जीवन को नये-नये वैज्ञानिक आविष्कारों से सुख-सुविधा प्राप्त हुई है। प्रायः असंभव कही जाने वाली बातें भी संभव प्रतीत होने लगी हैं। मनुष्य विज्ञान के सहारे आज चंद्रमा तक पहुँच सका है। सागर की गहराइयों में जाकर उसके रहस्य को भी खोज लाया है। भीषण ज्वालामुखी के मुँह में प्रवेश कर सका है; पृथ्वी की परिक्रमा कर चुका है। बंजर भूमि को हरा-भरा बनाकर भरपूर फसलें उगा सका है।

विज्ञान की सहायता से मनुष्य का जीवन सुखमय हो गया है। आज घरों में विज्ञान की देन हीटर, पंखे, रेफ्रिजरेटर, टेलीविजन, गैस, स्टोव, रेडियो, टेपरिकॉर्डर, टेलीफोन, स्कूटर आदि वस्तुएं दिखाई देती हैं। गृहिणियों के अनेक कार्य आज विज्ञान की सहायता से सरल बन गए हैं।

विज्ञान की सहायता से आज समय और दूरी का महत्त्व घट गया है। आज हजारों मील की दूरी पर बैठा हुआ मनुष्य अपने मित्रों और संबंधियों से इस प्रकार बात कर सकता है जैसे कि सामने बैठा हुआ हो। आज दिल्ली में चाय पीकर, भोजन बंबई में और रात्रि विश्राम लंदन में कर सकना संभव है। ध्वनि की गति से तेज चलने वाले ऐसे विमान और एयर बस हैं जिनकी सहायता से हजारों मील का सफर एक दिन में किया जाना संभव है। रेल, मोटर, ट्राम, जहाज, स्कूटर आदि आने-जाने में सुविधा प्रदान करते हैं।

टेलीप्रिंटर, टेलीफोन, टेलीविजन मनुष्य के लिए बड़े उपयोगी साधन सिद्ध हुए हैं। विज्ञान की सहायता से समाचार एक स्थान से दूसरे स्थान पर शीघ्र-से-शीघ्र पहँचाए जा सकते हैं। रेडियो-फोटो की सहायता से चित्र भेजे जा सकते हैं। लाहौर में खेला जाने वाला क्रिकेट मैच दिल्ली में देखा जा सकता है। एक घंटे में एक पुस्तक की हजारों प्रतियाँ छापी जा सकती हैं। आवाज को टेपरिकॉर्डर और ग्रामोफोन रिकॉर्ड पर कैद किया जा सकता है।

चिकित्सा के क्षेत्र में विज्ञान की देन भुलाई नहीं जा सकती। एक्स-रे मशीन की सहायता से शरीर के अंदर के भागों का रहस्य जाना जा सकता है। शरीर के किसी भी भाग का ऑपरेशन किया जा सकना संभव है। शरीर के अंग बदले जा सकते हैं। खून-परिवर्तन किया जा सकता है। प्लास्टिक सर्जरी से चेहरे को ठीक किया जा सकता है। भयानक बीमारियों के लिए दवाएँ और इंजेक्शन खोजे जा चुके हैं।

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कृषि के क्षेत्र में नवीन वैज्ञानिक आविष्कारों ने कृषि उत्पादन में तो वृद्धि की ही है, साथ ही भारी-भारी कार्यों को सरल भी बना दिया है। कृषि, यातायात, संदेशवाहन, संचार, मनोरंजन और स्वास्थ्य के क्षेत्र में विज्ञान की देन अमूल्य है।

12. परोपकार

परोपकार की भावना एक पवित्र भावना है। मनुष्य वास्तव में वही है जो दूसरों का उपकार करता है। यदि मनुष्य में दया, ममता, परोपकार और सहानुभूति की भावना न हो तो पशु और मनुष्य में कोई अंतर नहीं रहता। मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में, ‘मनुष्य है वही जो मनुष्य के लिए मरे।’ मनुष्य का यह परम कर्तव्य है कि वह अपने विषय में न सोचकर दूसरों के विषय में ही सोचे, दूसरों की पीड़ा हरे, दूसरों के दुख दूर करने का प्रयत्न करे।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है कि ‘परहित सरस धर्म नहिं भाई।’ दूसरों की भलाई करने से अच्छा कोई धर्म नहीं है। दूसरों को पीड़ा पहुँचाना पाप है और परोपकार करना पुण्य है।
परोपकार शब्द ‘पर + उपकार’ से मिलकर बना है। स्वयं को सुखी बनाने के लिए तो सभी प्रयत्न करते हैं परंतु दूसरों के कष्टों को दूर कर उन्हें सुखी बनाने का कार्य जो सज्जन करते हैं वे ही परोपकारी होते हैं। परोपकार एक अच्छे चरित्रवान व्यक्ति की विशेषता है। परोपकारी स्वयं कष्ट उठाता है लेकिन दुखी और पीड़ित मानवता के कष्ट को दूर करने में पीछे नहीं हटता। जिस कार्य को अपने स्वार्थ की दृष्टि से किया जाता है वह परोपकार नहीं है।

परोपकारी व्यक्ति अपने और पराये का भेद नहीं करता। वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते, नदियाँ अपना जल स्वयं काम में नहीं लेतीं। चंदन अपनी सुगंध दूसरों को देता है। सूर्य और चंद्रमा अपना प्रकाश दूसरों को देते हैं। नदी, कुएँ और तालाब दूसरों के लिए हैं। यहाँ तक कि पशु भी अपना दूध मनुष्य को देते हैं और बदले में कुछ नहीं चाहते। यह है परोपकार की भावना। इस भावना के मूल में स्वार्थ का नाम भी नहीं है।

भारत तथा विश्व का इतिहास परोपकार के लिए अपने प्राण न्योछावर करने वाले व्यक्तियों के उदाहरणों से भरा पड़ा है। स्वामी दयानंद, महात्मा गांधी, ईसा मसीह, दधीचि, स्वामी विवेकानंद, गुरु नानक सभी महान् परोपकारी थे। परोपकार की भावना के पीछे ही अनेक वीरों ने यातनाएँ सही और स्वतंत्रता के लिए फाँसी पर चढ़ गए। अपने जीवन का त्याग किया और देश को स्वतंत्र कराया।

परोपकार एक सच्ची भावना है। यह चरित्र का बल है। यह निःस्वार्थ सेवा , है, यह आत्मसमर्पण है। परोपकार ही अंत में समाज का कल्याण करता है। उनका नाम इतिहास में अमर होता है।

13. वृक्षारोपण

हमारे देश में ही नहीं अपितु पूरे विश्व में भी वनों का विशेष महत्त्व है। वन ही प्रकृति की महान् शोभा के भंडार हैं। वनों के द्वारा प्रकृति का जो रूप खिलता है वह मनुष्य को प्रेरित करता है। दूसरी बात यह है कि वन ही मनुष्य, पशु-पक्षी, जीव-जंतुओं आदि के आधार हैं, वन के द्वारा ही सबके स्वास्थ्य की रक्षा होती है। वन इस प्रकार से हमारे जीवन की प्रमुख आवश्यकता है। अगर वन न रहें तो हम नहीं रहेंगे और यदि वन रहेंगे तो हम रहेंगे। कहने का तात्पर्य यह है कि वन से हमारा अभिन्न संबंध है जो निरंतर है और सबसे बड़ा है। इस प्रकार से हमें वनों की आवश्यकता सर्वोपरि होने के कारण हमें इसकी रक्षा की भी आवश्यकता सबसे बढ़कर है। . वृक्षारोपण की आवश्यकता हमारे देश में आदिकाल से ही रही है। बड़े-बड़े ऋषियों-मुनियों के आश्रम के वृक्ष-वन वृक्षारोपण के द्वारा ही तैयार किए गए हैं, महाकवि कालिदास ने ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ के अंतर्गत महर्षि कण्व के शिष्यों के द्वारा वृक्षारोपण किए जाने का उल्लेख किया है। इस प्रकार से हम देखते हैं कि वृक्षारोपण की आवश्यकता प्राचीन काल से ही समझी जाती रही है और आज भी इसकी आवश्यकता ज्यों-की-त्यों बनी हुई है।

अब प्रश्न है कि वृक्षारोपण की आवश्यकता आखिर क्यों होती है? इसके उत्तर में हम यह कह सकते हैं कि वृक्षारोपण की आवश्यकता इसीलिए होती है कि वृक्ष सुरक्षित रहें, वृक्ष या वन नहीं रहेंगे तो हमारा जीवन शून्य होने लगेगा। एक समय ऐसा आ जाएगा कि हम जी भी न पाएँगे। वनों के अभाव में प्रकृति का संतुलन बिगड़ जाएगा। प्रकृति का संतुलन जब बिगड़ जाएगा तब सम्पूर्ण वातावरण इतना दूषित और अशुद्ध हो जाएगा कि हम न ठीक से साँस ले सकेंगे और न ठीक से अन्न-जल ही ग्रहण कर पाएँगे। वातावरण के दूषित और अशुद्ध होने से हमारा मानसिक, शारीरिक और आत्मिक विकास कुछ न हो सकेगा। इस प्रकार से वृक्षारोपण की आवश्यकता हमें सम्पूर्ण रूप से प्रभावित करती हुई हमारे जीवन के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध होती है। वृक्षारोपण की आवश्यकता की पूर्ति होने से हमारे जीवन और प्रकृति का परस्पर संतुलन क्रम बना रहता है।

वनों के होने से हमें ईंधन के लिए पर्याप्त रूप से लकड़ियाँ प्राप्त हो जाती हैं। बांस की लकड़ी और घास से हमें कागज प्राप्त हो जाता है जो हमारे कागज उद्योग का मुख्याधार है। वनों की पत्तियों, घास, पौधे, झाड़ियों की अधिकता के कारण तीव्र वर्षा से भूमि का कटाव तीव्र गति से न होकर मंद गति से होता है या नहीं के बराबर होता है। वनों के द्वारा वर्षा का संतुलन बना रहता है जिससे हमारी कृषि संपन्न होती है। वन ही बाढ़ के प्रकोप को रोकते हैं, वन ही बढ़ते हुए और उड़ते हुए रेत-कणों को कम करते हुए भूमि का संतुलन बनाए रखते हैं।

यह सौभाग्य का विषय है कि 1952 में सरकार ने ‘नयी वन नीति’ की घोषणा करके वन महोत्सव की प्रेरणा दी है जिससे वन रोपण के कार्य में तेजी आई है। इस प्रकार से हमारा ध्यान अगर वन सुरक्षा की ओर लगा रहेगा तो हमें वनों से होने वाले, लाभ, जैसे-जड़ी-बूटियों की प्राप्ति, पर्यटन की सुविधा, जंगली पशु-पक्षियों का सुदर्शन, इनकी खाल, पंख या बाल से प्राप्त विभिन्न आकर्षक वस्तुओं का निर्माण आदि सब कुछ हमें प्राप्त होते रहेंगे। अगर प्रकृति देवी का यह अद्भुत स्वरूप वन, सम्पदा नष्ट हो जाएगी तो हमें प्रकृति के कोप से बचना असंभव हो जाएगा।

14. दूरदर्शन से लाभ और हानियाँ

विज्ञान के द्वारा मनुष्य ने जिन चमत्कारों को प्राप्त किया है। उनमें दूरदर्शन का स्थान अत्यंत महान और उच्च है। दूरदर्शन का आविष्कार 19वीं शताब्दी के आस-पास ही समझना चाहिए। टेलीविजन दूरदर्शन का अंग्रेजी नाम है। टेलीविजन का आविष्कार महान वैज्ञानिक वेयर्ड ने किया है। टेलीविजन को सर्वप्रथम लंदन में सन् 1925 में देखा गया। लंदन के बाद ही इसका प्रचार-प्रसार इतना बढ़ता गया है कि आज यह विश्व के प्रत्येक भाग में बहुत लोकप्रिय हो गया है। भारत में टेलीविजन का आरंभ 15 सितंबर, सन् 1959 को हुआ। तत्कालीन राष्ट्रपति ने आकाशवाणी के टेलीविजन विभाग का उद्घाटन किया था।

टेलीविजन या दूरदर्शन का शाब्दिक अर्थ है-दूर की वस्तुओं या पदार्थों का ज्यों-का-त्यों आँखों द्वारा दर्शन करना। टेलीविजन का प्रवेश आज घर-घर हो रहा है। इसकी लोकप्रियता के कई कारणों में से एक कारण यह है कि यह एक रेडियो कैबिनेट के आकार-प्रकार से तनिक बड़ा होता है। इसके सभी सेट रेडियो के सेट से मिलते-जुलते हैं। इसे आसानी से एक जगह से दूसरी जगह या स्थान पर रख सकते हैं। इसे देखने. के लिए हमें न किसी विशेष प्रकार के चश्मे या मानभाव या अध्ययन आदि की आवश्यकताएँ पड़ती हैं। इसे देखने वालों के लिए भी किसी विशेष वर्ग के दर्शक या श्रोता के चयन करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। अपितु इसे देखने वाले सभी वर्ग या श्रेणी के लोग हो सकते हैं।

टेलीविजन हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को बड़ी ही गंभीरतापूर्वक प्रभावित करता है। यह हमारे जीवन के काम आने वाली हर वस्तु या पदार्थ की न केवल जानकारी देता है अपितु उनके कार्य-व्यापार, नीति-ढंग और उपाय को भी क्रमशः बडी ही आसानीपूर्वक हमें दिखाता है। इस प्रकार से दूरदर्शन हमें एक-से एक बढ़कर जीवन की समस्याओं और घटनाओं को बड़ी ही सरलता और आवश्यकता के रूप में प्रस्तुत करता है। जीवन से संबंधित ये घटनाएँ-व्यापार-कार्य आदि सभी कुछ न केवल हमारे आस-पास पड़ोस के ही होते हैं अपितु दूर-दराज के देशों और भागों से भी जुड़े होते हैं जो किसी-न-किसी प्रकार से हमारे जीवनोपयोगी ही सिद्ध होते हैं। इस दृष्टिकोण से हम कह सकते हैं कि दूरदर्शन हमारे लिए ज्ञानवर्द्धन का बहुत बड़ा साधन है। यह ज्ञान की सामान्य रूपरेखा से लेकर गंभीर और विशिष्ट रूपरेखा को बड़ी ही सुगमतापूर्वक प्रस्तुत करता है। इस अर्थ से दूरदर्शन हमारे घर के चूल्हा-चाकी से लेकर अंतरिक्ष के कठिन ज्ञान की पूरी-पूरी जानकारी देता रहता है।

दूरदर्शन द्वारा हमें जो ज्ञान-विज्ञान प्राप्त होते हैं उनमें कृषि के ज्ञान-विज्ञान – का कम स्थान नहीं है। आधुनिक कृषि यंत्रों से होने वाली कृषि से संबंधित जानकारी का लाभ शहरी कृषक से बढ़कर ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले कृषक अधिक उठाते हैं। इसी तरह से कृषि क्षेत्र में होने वाले नवीन आविष्कारों, उपयोगिताओं, विभिन्न प्रकार के बीज, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, वनस्पतियाँ आदि का पूरा विवरण हमें दूरदर्शन ही दिया करता है।

दूरदर्शन के द्वारा पर्यो, त्योहारों, मौसमों, खेल-तमाशे, नाच, गाने-बजाने, कला, संगीत, पर्यटन, व्यापार, साहित्य, धर्म, दर्शन, राजनीति, अध्याय आदि लोक-परलोक के ज्ञान-विज्ञान के रहस्य एक-एक करके खुलते जाते हैं। दूरदर्शन इन सभी प्रकार के तथ्यों का ज्ञान हमें प्रदान करते हुए इनकी कठिनाइयों को हमें एक-एक करके बतलाता है और इसका समाधान भी करता है।

दूरदर्शन से सबसे बड़ा लाभ तो यह है कि इसके द्वारा हमारा पूर्ण रूप से मनोरंजन हो जाता है। प्रतिदिन किसी-न-किसी प्रकार के विशेष आयोजित और प्रायोजित कार्यक्रमों के द्वारा हम अपना मनोरंजन करके विशेष उत्साह और प्रेरणा प्राप्त करते हैं। दूरदर्शन पर दिखाई जाने वाली फिल्मों से हमारा मनोरंजन तो होता ही है इसके साथ-ही-साथ विविध प्रकार के दिखाए जाने वाले धारावाहिकों से भी हमारा कम मनोरंजन नहीं होता है। इसी तरह से बाल-बच्चों, वृद्धों, युवकों सहित विशेष प्रकार के शिक्षित और अशिक्षित वर्गों के लिए दिखाए जाने वाले दूरदर्शन के कार्यक्रम हमारा मनोरंजन बार-बार करते हैं जिससे ज्ञान प्रकाश की किरणें भी फूटती हैं।

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हाँ, अच्छाई में बुराई होती है और कहीं-कहीं फूल में काँटे भी होते हैं। इसी तरह से जहाँ और जितनी दूरदर्शन में अच्छाई है वहाँ उतनी उसमें बुराई भी कही जा सकती है। हम भले ही इसे सुविधा सम्पन्न होने के कारण भूल जाएँ लेकिन दूरदर्शन के लाभों के साथ-साथ इससे होने वाली कुछ ऐसी हानियाँ हैं जिन्हें हम अनदेखी नहीं कर सकते हैं। दूरदर्शन के बार-बार देखने से हमारी आँखों में रोशनी मंद होती है। इसके मनोहर और आकर्षक कार्यक्रम को छोड़कर हम अपने और इससे कहीं अधिक आवश्यक कार्यों को भूल जाते हैं या छोड़ देते हैं। समय की बरबादी के साथ-साथ हम आलसी और कामचोर हो जाते हैं। दूरदर्शन से प्रसारित कार्यक्रम कुछ तो इतने अश्लील होते हैं कि इनसे न केवल हमारे युवा पीढ़ी का मन बिगड़ता है अपितु हमारे अबोध और नाबालिक बच्चे भी इसके दुष्प्रभाव से नहीं बच पाते हैं। दूरदर्शन के खराब होने से इनकी मरम्मत कराने में काफी खर्च भी पड़ जाता है। इस प्रकार दूरदर्शन से बहुत हानियाँ और बुराइयाँ हैं, फिर भी इससे लाभ अधिक हैं, इसी कारण है कि यह अधिक लोकप्रिय हो रहा है।

15. प्रदूषण की समस्या और समाधान

आज मनुष्य ने इतना विकास कर लिया है कि वह अब मनुष्य से बढ़कर देवताओं की शक्तियों के समान शक्तिशाली हो गया। मनुष्य ने यह विकास और महत्त्व विज्ञान के द्वारा प्राप्त किया है। विज्ञान का आविष्कार करके मनुष्य ने चारों ओर से प्रकृति को परास्त करने का कदम बढ़ा लिया है। देखते-देखते प्रकृति धीरे-धीरे मनुष्य की दासी बनती जा रही है। आज प्रकृति मनुष्य के अधीन बन गई है। इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि मनुष्य ने प्रकृति को अपने अनुकूल बनाने के लिए कोई कसर न छोड़ने का निश्चय कर लिया है।

जिस प्रकार मनुष्य मनुष्य का और राष्ट्र राष्ट्र का शोषण करते रहे हैं, उसी प्रकार मनुष्य प्रकृति का भी शोषण करता रहा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रकृति में कोई गंदगी नहीं है। प्रकृति में बस जीव-जंतु, प्राणी तथा वनस्पति-जगत् परस्पर मिलकर समतोल में रहते हैं। प्रत्येक का अपना विशिष्ट कार्य है जिससे सड़ने वाले पदार्थों की अवस्था तेजी से बदले और वह फिर वनस्पति जगत् तथा उसके द्वारा जीवन-जगत् की खुराक बन सके अर्थात् प्रकृति में ब्रह्मा, विष्णु और महेश का काम अपने स्वाभाविक रूप में बराबर चलता रहता है। जब तक मनुष्य का हस्तक्षेप नहीं होता तब तक न गंदगी होती है और न रोग। जब मनुष्य प्रकृति के कार्य में हस्तक्षेप करता है तब प्रकृति का समतोल बिगड़ता है और इससे सारी सृष्टि का स्वास्थ्य बिगड़ जाता है।

आज का युग औद्योगिक युग है। औद्योगीकरण के फलस्वरूप वायु-प्रदूषण बहुत तेजी से बढ़ रहा है। ऊर्जा तथा उष्णता पैदा करने वाले संयंत्रों से गरमी निकलती है। यह उद्योग जितने बड़े होंगे और जितना बढ़ेंगे उतनी ज्यादा गरमी फैलाएँगे। इसके अतिरिक्त ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए जो ईंधन प्रयोग में लाया जाता है वह प्रायः पूरी तरह नहीं जल पाता। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि धुएँ में कार्बन मोनोक्साइड काफी मात्रा में निकलती है। आज मोटर वाहनों का यातायात तेजी से बढ़ रहा है। 960 किलोमीटर की यात्रा में एक मोटर वाहन उतनी ऑक्सीजन का उपयोग करता है जितनी एक आदमी को एक वर्ष में चाहिए। दुनिया के हर अंचल में मोटर वाहनों का प्रदूषण फैलता जा रहा है। रेल का यातायात भी आशातीत रूप से बढ़ रहा है। हवाई जहाजों का चलन भी सभी देशों में हो चुका है। तेल-शोधन, चीनी-मिट्टी की मिलें, चमड़ा, कागज, रबर के कारखाने तेजी से बढ़ रहे हैं। रंग, वार्निश, प्लास्टिक, कुम्हारी चीनी के कारखाने बढ़ते जा रहे हैं। इस प्रकार के यंत्र बनाने के कारखाने बढ़ रहे हैं यह सब ऊर्जा-उत्पादन के लिए किसी-न-किसी रूप में ईंधन को फूंकते हैं और अपने धुएँ से सारे वातावरण को दूषित करते हैं। यह प्रदूषण जहाँ पैदा होता है वहीं पर स्थिर नहीं रहता। वायु के प्रवाह में वह सारी दुनिया में फैलता रहता है।

सन् 1968 में ब्रिटेन में लाल धूल गिरने लगी, वह सहारा रेगिस्तान से उड़कर आई। जब उत्तरी अफ्रीका में टैंकों का युद्ध चल रहा था तब वहाँ से धूल उड़कर कैरीबियन समुद्र तक पहुँच गई थी। आजकल लोग घरों, कारखानों, मोटरों और विमानों के माध्यम से हवा, मिट्टी और पानी में अंधाधुंध दूषित पदार्थ प्रवाहित कर रहे हैं। विकास के क्रम में प्रकृति अपने लिए ऐसी परिस्थितियाँ बनाती है जो उसके लिए आवश्यक है इसलिए इन व्यवस्थाओं में मनुष्य का हस्तक्षेप सब प्राणियों के लिए घातक होता है। प्रदूषण का मुख्य खतरा इसी से है कि इससे परिस्थितीय संस्थान पर दबाव पड़ता है। घनी आबादी के क्षेत्रों में कार्बन मोनोक्साइड की वजह से रक्त-संचार में 5-10 प्रतिशत आक्सीजन कम हो जाती है। शरीर के ऊतकों को 25 प्रतिशत आक्सीजन की आवश्यकता होती है। आक्सीजन की तुलना में कार्बन मोनोक्साइड लाल रुधिर कोशिकाओं के साथ ज्यादा मिल जाती है, इससे यह हानि होती है कि ये कोशिकाएँ ऑक्सीजन को अपनी पूरी मात्रा में सँभालने में असमर्थ रहती हैं।

लंदन में चार घंटों तक ट्रैफिक सँभालने के काम पर रहने वाले पुलिस के सिपाही के फेफड़ों में इतना विष भर जाता है मानो उसने 105 सिगरेट पी हों। आराम की स्थिति में मनुष्य को दस लीटर हवा की आवश्यकता होती है। कड़ी मेहनत पर उससे दस गुना ज्यादा चाहिए लेकिन एक दिन में एक दिमाग को इतनी ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है जितनी कि 17,000 हेक्टेयर वन में पैदा होती है। मिट्टी में बढ़ते हुए विष से वनस्पति की निरंतर कमी महासागरों के प्रदूषण आदि की वजह से ऑक्सीजन की उत्पत्ति में कमी होती रही है। इसके अतिरिक्त प्रतिवर्ष हम वायुमंडल में अस्सी अरब टन धुआँ फेंकते हैं। कारों तथा विमानों से दूषित गैस निकलती है। मनुष्य और प्राणियों के साँस से जो कार्बन डाइआक्साइड निकलती है वह अलग प्रदूषण फैलाती है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि वातावरण के प्रदूषण से वर्तमान रफ्तार से 30 वर्ष में जीवन-मंडल (बायोस्फियर) जिस पर प्राण और वनस्पति निर्भर हैं समाप्त हो जाएगा। पशु, पौधे और मनुष्यों का अस्तित्व नहीं रहेगा। सारी पृथ्वी की जलवायु बदल जाएगी, संभव है बरफ का युग फिर से आए। 30 साल के बाद हम कुछ नहीं कर पाएँगे। उस समय तक पृथ्वी का वातावरण नदियाँ और महासमुद्र सब विषैले हो जाएँगे।

यदि मनुष्य प्रकृति के नियमों को समझकर, प्रकृति को गुरु मानकर उसके साथ सहयोग करता और विशेष करके सब अवशिष्टों की प्रकृति को लौटाता है तो सृष्टि और मनुष्य स्वस्थ्य रह सकते हैं, नहीं तो लंबे, अर्से में अणु विस्फोट के खतरे की अपेक्षा प्रकृति के कार्य में मनुष्य का कृत्रिम हस्तक्षेप कम खतरनाक नहीं है।

अतएव हमें प्रकृति के शोषण क्रम को कम करना होगा। अन्यथा हमारा जीवन पानी के बुलबुले के समान बेवजह समाप्त हो जाएगा और हमारे सारे विकास-कार्य ज्यों-के-त्यों पड़े रह जाएँगे।

16. ‘दहेज प्रथा’ एक सामाजिक बुराई . पंचतंत्र में लिखा है

पुत्रीति जाता महतीह, चिन्ताकस्मैप्रदेयोति महानवितकैः।
दत्त्वा सुखं प्राप्तयस्यति वानवेति, कन्यापितृत्वंखलुनाम कष्टम।।

अर्थात् पुत्री उत्पन्न हुई, यह बड़ी चिंता है। यह किसको दी जाएगी और देने के बाद भी वह सुख पाएगी या नहीं, यह बड़ा वितर्क रहता है। कन्या का पितृत्व निश्चय ही कष्टपूर्ण होता है।

इस श्लेष से ऐसा लगता है कि अति प्राचीन काल से ही दहेज की प्रथा हमारे देश में रही है। दहेज इस समय निश्चित ही इतना कष्टदायक और विपत्तिसूचक होने के साथ-ही-साथ इस तरह प्राणहारी न था जितना कि आज है। यही कारण है कि आज दहेज-प्रथा को एक सामाजिक बुराई के रूप में देखा और समझा जा रहा है।

आज दहेज-प्रथा एक सामाजिक बुराई क्यों है? इस प्रश्न के उत्तर में यह कहना बहुत ही सार्थक होगा कि आज दहेज का रूप अत्यंत विकृत और कुत्सित हो गया है। यद्यपि प्राचीन काल में भी दहेज की प्रथा थी लेकिन वह इतनी भयानक और प्राण संकटापन्न स्थिति को उत्पन्न करने वाली न थी। उस समय दहेज स्वच्छंदपूर्वक था। दहेज लिया नहीं जाता था अपितु दहेज दिया जाता था। दहेज प्राप्त करने वाले के मन में स्वार्थ की कहीं कोई खोट न थी। उसे जो कुछ भी मिलता था उसे वह सहर्ष अपना लेता था लेकिन आज दहेज की स्थिति इसके ठीक विपरीत हो गई है।

आज दहेज एक दानव के रूप में जीवित होकर साक्षात् हो गया है। दहेज एक विषधर साँप के समान एक-एक करके बंधुओं को डंस रहा है। कोई इससे बच नहीं पाता है, धन की लोलुपता और असंतोष की प्रवृत्ति तो इस दहेज के प्राण हैं। दहेज का अस्तित्व इसी से है। इसी ने मानव समाज को पशु समाज में बदल दिया है। दहेज न मिलने अर्थात् धन न मिलने से बार-बार संकटापन्न स्थिति का उत्पन्न होना कोई आश्चर्य की बात नहीं होती है। इसी के कारण कन्यापक्ष को झुकना पड़ता है। नीचा बनना पड़ता है। हर कोशिश करके वरपक्ष और वर की माँग को पूरा करना पड़ता है। आवश्यकता पड़ जाने पर घर-बार भी बेच देना पड़ता है। घर की लाज भी नहीं बच पाती है।

दहेज के अभाव में सबसे अधिक वधू (कन्या) को दुःख उठाना पड़ता है। उसे जली-कटी, ऊटपटाँग बद्दुआ, झूठे अभियोग से मढ़ा जाना और तरह-तरह के दोषारोपण करके आत्महत्या के लिए विवश किया जाता है। दहेज के कुप्रभाव से केवल वर-वधू ही नहीं प्रभावित होते हैं, अपितु इनसे संबंधित व्यक्तियों को भी इसकी लपट में झुलसना पड़ता है। इससे दोनों के दूर-दूर के संबंध बिगड़ने के साथ-साथ मान-अपमान दुखद वातावरण फैल जाता है जो आने वाली पीढ़ी को एक मानसिक विकृति और दुष्प्रभाव को जन्माता है।

दहेज के कुप्रभाव से मानसिक अव्यस्तता बनी रहती है। कभी-कभी तो यह भी देखने में आता है कि दहेज के अभाव में प्रताड़ित वधू ने आत्महत्या कर ली है, या उसे जला-डूबाकर मार दिया गया है जिसके परिणामस्वरूप कानून की गिरफ्त में दोनों परिवार के लोग आ जाते हैं, पैसे बेशुमार लग जाते हैं, शारीरिक दंड अलग मिलते हैं। काम ठंडे अलग से पड़ते हैं और इतना होने के साथ अपमान और असम्मान, आलोचना भरपूर सहने को मिलते हैं।

दहेज प्रथा सामाजिक बुराई के रूप में उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर सिद्ध की जा चुकी है। अब दहेज प्रथा को दूर करने के मुख्य मुद्दों पर विचारना अति आवश्यक प्रतीत हो रहा है।

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इस बुरी दहेज-प्रथा को तभी जड़ से उखाड़ा जा सकता है जब सामाजिक स्तर पर जागृति अभियान चलाया जाए। इसके कार्यकर्ता अगर इसके भुक्त-भोगी लोग हों तो यह प्रथा यथाशीघ्र समाप्त हो सकती है। ऐसा सामाजिक संगठन का होना जरूरी है जो भुक्त-भोगी या आंशिक भोगी महिलाओं के द्वारा संगठित हो। सरकारी सहयोग होना भी जरूरी है क्योंकि जब तक दोषी व्यक्ति को सख्त कानूनी कार्यवाही करके दंड न दिया जाए तब तक इस प्रथा को बेदम नहीं किया जा सकता। संतोष की बात है कि सरकारी सहयोग के द्वारा सामाजिक जागृति आई है। यह प्रथा निकट भविष्य में अवश्य समाप्त हो जाएगी।

17. अगर मैं प्रधानमंत्री होता

किसी आजाद मुल्क का नागरिक अपनी योग्यताओं का विस्तार करके अपनी आकांक्षाओं को पूरा कर सकता है, वह कोई भी पद, स्थान या अवस्था को प्राप्त कर सकता है, उसको ऐसा होने का अधिकार उसका संविधान प्रदान करता है। भारत जैसे विशाल राष्ट्र में प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के पद को प्राप्त करना यों तो आकाश कुसुम तोड़ने के समान है फिर भी ‘जहाँ चाह वहाँ राह’ के अनुसार यहाँ का अत्यंत सामान्य नागरिक भी प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बन सकता है। लालबहादुर शास्त्री और ज्ञानी जैलसिंह इसके प्रमाण हैं।

यहाँ प्रतिपाद्य विषय का उल्लेख प्रस्तुत है कि ‘अगर मैं प्रधानमंत्री होता’ तो क्या करता? मैं यह भली-भाँति जानता हूँ कि प्रधानमंत्री का पद अत्यंत विशिष्ट और महान् उत्तरदायित्वपूर्ण पद है। इसकी गरिमा और महानता को बनाए रखने में किसी एक सामान्य और भावुक व्यक्ति के लिए संभव नहीं है फिर मैं महत्त्वाकांक्षी हूँ और अगर मैं प्रधानमंत्री बन गया तो निश्चय समूचे राष्ट्र की काया पलट कर दूँगा। मैं क्या-क्या राष्ट्रोत्थान के लिए कदम उठाऊँगा, उसे मैं प्रस्तुत करना पहला कर्तव्य मानता हूँ जिससे मैं लगातार इस पद पर बना रहूँ।

सबसे पहले शिक्षा-नीति में आमूल चूल परिवर्तन लाऊँगा। मुझे सुविज्ञात है कि हमारी कोई स्थायी शिक्षा-नीति नहीं है जिससे शिक्षा का स्तर दिनोंदिन गिरता जा रहा है, यही कारण है कि अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण से हम शिक्षा के क्षेत्र में बहुत पीछे हैं, बेरोजगारी की जो आज विभीषिका आज के शिक्षित युवकों को त्रस्त कर रही है, उनका मुख्य कारण हमारी बुनियादी शिक्षा की कमजोरी, प्राचीन काल की गुरु-शिष्य परंपरा की गुरुकुल परिपाटी की शुरुआत नये सिरे से करके धर्म और राजनीति के समन्वय से आधुनिक शिक्षा का सूत्रपात कराना चाहूँगा। राष्ट्र को बाह्य शक्तियों के आक्रमण का खतरा आज भी बना हुआ है। हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा अभी अपेक्षित रूप में नहीं है। इसके लिए अत्याधुनिक युद्ध के उपकरणों का आयात बढ़ाना होगा। मैं खुले आम न्यूक्लीयर विस्फोट का उपयोग सृजनात्मक कार्यों के लिए ही करना चाहूँगा। मैं किसी प्रकार ढुलमुल राजनीति का शिकार नहीं बनूँगा अगर कोई राष्ट्र हमारे राष्ट्र की ओर आँख उठाकर देखें तो मैं उसका मुंहतोड़ जवाब देने में संकोच नहीं करूंगा। मैं अपने वीर सैनिकों का उत्साहवर्द्धन करते हुए उनके जीवन को अत्यधिक संपन्न और खुशहाल बनाने के लिए उन्हें पूरी समुचित सुविधाएँ प्रदान कराऊँगा जिससे वे राष्ट्र की आन-मान पर न्योछावर होने में पीछे नहीं हटेंगे।

हमारे देश की खाद्य समस्या सर्वाधिक जटिल और दुखद समस्या है। कृषि प्रधान राष्ट्र होने के बावजूद यहाँ खाद्य संकट हमेशा मँडराया करता है। इसको ध्यान में रखते हुए मैं नवीनतम कृषि यंत्रों, उपकरणों और रासायनिक खादों और सिंचाई के विभिन्न साधनों के द्वारा कृषि-दशा की दयनीय स्थिति को सबल बनाऊँगा। देश की जो बंजर और बेकार भूमि है उसका पूर्ण उपयोग कृषि के लिए करवाते हुए कृषकों को एक-से-एक बढ़कर उन्नतिशील बीज उपलब्ध कराके उनकी अपेक्षित सहायता सुलभ कराऊँगा।

यदि मैं प्रधानमंत्री हूँगा तो देश में फैलती हुई राजनीतिक अस्थिरता पर कड़ा अंकुश लगाकर दलों के दलदल को रोक दूँगा। राष्ट्र को पतन की ओर ले जाने वाली राजनीतिक अस्थिरता के फलस्वरूप प्रतिदिन होने वाले आंदोलनों, काम-रोको और विरोध दिवस बंद को समाप्त करने के लिए पूरा प्रयास करूंगा। देश में गिरती हुई अर्थव्यवस्था के कारण मुद्रा प्रसार पर रोक लगाना अपना मैं प्रमुख कर्त्तव्य समझूगा। उत्पादन, उपभोग और विनियम की व्यवस्था को पूरी तरह से बदलकर देश को आर्थिक दृष्टि से अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व प्रदान कराऊँगा।।

देश को विकलांग करने वाले तत्त्वों, जैसे-मुनाफाखोरी और भ्रष्टाचार ही नव अवगुणों की जड़ है। इसको जड़मूल से समाप्त करने के लिए अपराधी तत्त्वों को कड़ी-से-कड़ी सजा दिलाकर समस्त वातावरण को शिष्ट और स्वच्छ व्यवहारों से भरने की मेरी सबल कोशिश होगी। यहीं आज धर्म और जाति को लेकर तो साम्प्रदायिकता फैलाई जा रही है वह राष्ट्र को पराधीनता की ओर ढकेलने के ही अर्थ में हैं, इसलिए ऐसी राष्ट्र विरोधी शक्तियों को आज दंड की सजा देने के लिए मैं सबसे संसद के दोनों सदनों से अधिक-से-अधिक मतों से इस प्रस्ताव को पारित करा करके राष्ट्रपति से सिफारिश करके संविधान में परिवर्तन के बाद एक विशेष अधिनियम जारी कराऊंगा . जिससे विदेशी हाथ अपना बटोर सकें।

संक्षेप में यही कहना चाहता हूँ कि यदि मैं प्रधानमंत्री हूँगा तो राष्ट्र और समाज के कल्याण और पूरे उत्थान के लिए मैं एड़ी-चोटी का प्रयास करके प्रधानमंत्रियों की परम्परा और इतिहास में अपना सबसे अधिक लोकापेक्षित नाम स्थापित करूँगा। भारत को सोने की चिड़िया बनाने वाला यदि मैं प्रधानमंत्री होता तो कथनी और करनी को साकार कर देता।

18. परिश्रम अथवा परिश्रम का महत्त्व अथवा परिश्रम ही जीवन है

संस्कृत का एक सुप्रसिद्ध श्लोक है-

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य, प्रविशन्ति मुखे मृगाः।।

अर्थात् परिश्रम से ही कार्य होते हैं, इच्छा से नहीं। सोते हुए सिंह के मुँह में पशु स्वयं नहीं आ गिरते। इससे स्पष्ट है कि कार्य-सिद्धि के लिए परिश्रम बहुत आवश्यक है।

सृष्टि के आरंभ से लेकर आज तक मनुष्य ने जो भी विकास किया है, वह सब परिश्रम की ही देन है। जब मानव जंगल अवस्था में था, तब वह घोर परिश्रमी था। उसे खाने-पीने, सोने, पहनने आदि के लिए जी-तोड़ मेहनत करनी पड़ती थी। आज, जबकि युग बहुत विकसित हो चुका है, परिश्रम की महिमा कम नहीं हुई है। बड़े-बड़े बाँधों का निर्माण देखिए, अनेक मंजिले भवन देखिए, खदानों की खुदाई, पहाड़ों की कटाई, समुद्र की गोताखोरी या आकाश-मंडल की यात्रा का अध्ययन कीजिए। सब जगह मानव के परिश्रम की गाथा सुनाई पड़ेगी। एक कहावत है- ‘स्वर्ग क्या है, अपनी मेहनत से रची गई सृष्टि। नरक क्या है? अपने आप बन गई दुरवस्था।’ आशय यह है कि स्वर्गीय सुखों को पाने के लिए तथा विकास करने के लिए मेहनत अनिवार्य है। इसीलिए मैथिलीशरण गुप्त ने कहा है-

पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो,
सफलता वर-तुल्य वरो, उठो,
अपुरुषार्थ भयंकर पाप है,
न उसमें यश है, न प्रताप है।।

केवल शारीरिक परिश्रम ही परिश्रम नहीं है। कार्यालय में बैठे हुए प्राचार्य, लिपिक या मैनेजर केवल लेखनी चलाकर या परामर्श देकर भी जी-तोड़ मेहनत करते हैं। जिस क्रिया में कुछ काम करना पड़े, जोर लगाना पड़े, तनाव मोल लेना पड़े, वह मेहनत कहलाती है। महात्मा गांधी दिन-भर सलाह-मशविरे में लगे रहते थे, परंतु वे घोर परिश्रमी थे।

पुरुषार्थ का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इससे सफलता मिलती है। परिश्रम ही सफलता की ओर जाने वाली सड़क है। परिश्रम से आत्मविश्वास पैदा होता है। मेहनती आदमी को व्यर्थ में किसी की जी-हजूरी नहीं करनी पड़ती, बल्कि लोग उसकी जी-हजूरी करते हैं। तीसरे, मेहनती आदमी का स्वास्थ्य सदा ठीक रहता है। चौथे, मेहनत करने से गहरा आनंद मिलता है। उससे मन में यह शांति होती है कि मैं निठल्ला नहीं बैठा। किसी विद्वान का कथन है-जब तुम्हारे जीवन में घोर आपत्ति और दुख आ जाएँ तो व्याकुल और निराश मत बनो; अपितु तुरंत काम में जुट जाओ। स्वयं को कार्य में तल्लीन कर दो तो तुम्हें वास्तविक शांति और नवीन प्रकाश की प्राप्ति होगी।

राबर्ट कोलियार कहते हैं- ‘मनुष्य का सर्वोत्तम मित्र उसकी दस अँगुलियाँ हैं।’ अतः हमें जीवन का एक-एक क्षण परिश्रम करने में बिताना चाहिए। श्रम मानव-जीवन का सच्चा सौंदर्य है।

19. साक्षरता से देश प्रगति करेगा अथवा साक्षरता आंदोलन

साक्षरता का तात्पर्य है-अक्षर-ज्ञान का होना। दूसरे शब्दों में, व्यक्ति का पढ़ने-लिखने में समर्थ होना साक्षर होना कहलाता है। इस बात में कोई दो मत नहीं हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को अक्षर-ज्ञान होना चाहिए। अक्षर-ज्ञान व्यक्ति के लिए उतना ही अनिवार्य है जितना कि अँधेरे कमरे के लिए प्रकाश; या अंधे के लिए आँखें।

वर्तमान सभ्यता काफी उन्नत हो चुकी है। इस उन्नति का एक मूलभूत आधार है- शिक्षा। शिक्षा के बिना प्रगति का पहिया एक इंच भी नहीं सरक सकता। यदि शिक्षा प्राप्त करनी है तो अक्षर-ज्ञान अनिवार्य है। आज की समूची शिक्षा अक्षर-ज्ञान पर आधारित है। भारतीय मनीषियों ने तो अक्षर को ‘ब्रह्म’ माना है। आज ज्ञान-विज्ञान ने जितनी उन्नति की है, उसका लेखा-जोखा हमारे स्वर्णिम ग्रंथों में सुरक्षित है। अतः उस ज्ञान को पाने के लिए साक्षर होना पड़ेगा।

निरक्षर व्यक्ति जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पिछड़ जाता है। वह छोटी-छोटी बातों के लिए दूसरों पर निर्भर बना रहता है। उसे पत्र पढ़ने, बस-रेलगाड़ी की सूचनाएँ पढ़ने के लिए भी लोगों का मुँह ताकना पड़ता है। परिणमास्वरूप उसके आत्मविश्वास में कमी आ जाती है। यहाँ तक कि वह समाचार-पत्र पढ़कर दैनंदिन गतिविधियों को भी नहीं जान पाता। इस प्रकार वह विश्व की प्रगतिशील धारा से कट कर रह जाता है। रोज-रोज होने वाले नये आविष्कार उसके लिए बेमानी हो जाते हैं।

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दुर्भाग्य से भारत में निरक्षरता का अंधकार बहुत अधिक छाया हुआ है। अभी यहाँ करोड़ों लोग वर्तमान सभ्यता से एकदम अनजान हैं। ईश्वर ने उन्हें जो-जो शक्तियाँ प्रदान की हैं, वे भी सोई पड़ी हैं। अगरबत्ती की सुगंध की भाँति उनकी प्रतिभा उन्हीं में खोई पड़ी है। अगर ज्ञान की लौ लग जाए, साक्षरता का दीप जल जाए तो समूचा हिंदुस्तान उनकी सुगंध से महमह कर उठेगा। तब हमारे वनवासी बंधु, जो अज्ञान के कारण अपनी वन-संपदा के महत्त्व को नहीं जानते, उसके महत्त्व को जानेंगे; अपनी वन-भूमि का चहुंमुखी विकास करेंगे। परिणामस्वरूप नये उद्योग-धंधों से भारतवर्ष तो फलेगा-फूलेगा ही; उनके सूखे चेहरों पर भी रंगत आएगी। अतः साक्षरता आज का युगधर्म है। उसे प्रथम महत्त्व देकर अपनाना चाहिए।

20. विज्ञान-वरदान या अभिशाप

विज्ञान एक शक्ति है, जो नित नये आविष्कार करती है। वह शक्ति न तो अच्छी है, न बुरी, वह तो केवल शक्ति है। अगर हम उस शक्ति से मानव-कल्याण के कार्य करें तो वह ‘वरदान’ प्रतीत होती है। अगर उसी से विनाश करना शुरू कर दें तो वह ‘अभिशाप’ लगने लगती है।

विज्ञान ने अंधों को आँखें दी हैं, बहरों को सुनने की ताकत। लाइलाज रोगों की रोकथाम की है तथा अकाल मृत्यु पर विजय पाई है। विज्ञान की सहायता से यह युग बटन-युग बन गया है। बटन दबाते ही वायु देवता पंखे को लिये हमारी सेवा करने लगते हैं, इंद्र देवता वर्षा करने लगते हैं, कहीं प्रकाश जगमगाने लगता है तो कहीं शीत-उष्ण वायु के झोंके सुख पहुँचाने लगते हैं। बस, गाड़ी, वायुयान आदि ने स्थान की दूरी को बाँध दिया है। टेलीफोन द्वारा तो हम सारी वसुधा से बातचीत करके उसे वास्तव में कुटुंब बना लेते हैं। हमने समुद्र की गहराइयाँ भी नाप डाली हैं और आकाश की ऊँचाइयाँ भी। हमारे टी.वी., रेडियो, वीडियो में सभी मनोरंजन के साधन कैद हैं। सचमुच विज्ञान ‘वरदान’ ही तो है।।

मनुष्य ने जहाँ विज्ञान से सुख के साधन जुटाए हैं, वहाँ दुःख के अंबार भी खड़े कर लिए हैं। विज्ञान के द्वारा हमने अणुबम, परमाणु बम तथा अन्य ध्वंसकारी शस्त्र-अस्त्रों का निर्माण कर लिया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि अब दुनिया में इतनी विनाशकारी सामग्री इकट्ठी को चुकी है कि उससे सारी पृथ्वी को पंद्रह बार नष्ट किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त प्रदूषण की समस्या बहुत बुरी तरह फैल गई है। नित्य नये असाध्य रोग पैदा होते जा रहे हैं, जो वैज्ञानिक साधनों के अंधाधुंध प्रयोग करने के दुष्परिणाम हैं।

वैज्ञानिक प्रगति का सबसे बड़ा दुष्परिणाम मानव-मन पर हुआ है। पहले जो मानव निष्कपट था, निःस्वार्थ था, भोला था, मस्त और बेपरवाह था, अब वह छली, स्वार्थी, चालाक, भौतिकवादी तथा तनावग्रस्त हो गया है। उसके जीवन में से संगीत गायब हो गया है, धन की प्यास जाग गई है। नैतिक मूल्य नष्ट हो गए हैं। जीवन में संघर्ष-ही-संघर्ष रह गए हैं। कविवर जगदीश गुप्त के शब्दों में-

संसार सारा आदमी की चाल देख हुआ चकित।
पर झाँक कर देखो दृगों में, हैं सभी प्यासे थकित।।

वास्तव में विज्ञान को वरदान या अभिशाप बनाने वाला मनुष्य है। जैसे अग्नि से हम रसोई भी बना सकते हैं और किसी का घर भी जला सकते हैं; जैसे चाकू से हम फलों का स्वाद भी ले सकते हैं और किसी की हत्या भी कर सकते हैं; उसी प्रकार विज्ञान से हम सुख के साधन भी जुटा सकते हैं और मानव का विनाश भी कर सकते हैं। अतः विज्ञान को वरदान या अभिशाप बनाना मानव के हाथ में है। इस संदर्भ में एक उक्ति याद रखनी चाहिए–

‘विज्ञान अच्छा सेवक है लेकिन बुरा हथियार।’

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MP Board Class 10th General Hindi अपठित अनुच्छेद

MP Board Class 10th General Hindi अपठित अनुच्छेद

परीक्षा में अपठित गद्यांश का प्रश्न अनिवार्य रूप से पूछा जाता है। ऐसे प्रश्न पूछने का उद्देश्य यह जानना है कि विद्यार्थी किसी गद्यांश को पढ़कर उसमें निहित भावों को समझकर अपने शब्दों में लिख सकते हैं या नहीं। अपठित गद्यांश वे होते हैं, जिन्हें विद्यार्थी अपनी पाठ्यपुस्तकों में नहीं पढ़ते। अपठित गद्यांश के प्रश्न को हल करते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए:

  1. गद्यांश को समझने के लिए यह आवश्यक है कि आप उसका वाचन कम-से-कम दो बार करें। यदि दो बार में भी गद्यांश का मूलभाव समझ में नहीं आता तो एक बार और उसे पढ़ें।
  2. अपठित गद्यांश पर दो प्रश्न तो अनिवार्य रूप से पूछे ही जाते हैं-एक तो अपठित का सारांश और दूसरा उसका शीर्षक।
  3. दो या तीन बार पढ़ने से अपठित का मूल भाव आपकी समझ में आ जाएगा। पहले उत्तर पुस्तिका के एक पृष्ठ पर उसका सारांश लिखिए। यह ध्यान रखिए कि कोई मूल भाव छूटने न पाए।
  4. सारांश की भाषा आपकी अपनी हो, गद्यांश की भाषा का प्रयोग न करें। 5. सारांश मूल अंश का एक-तिहाई होना चाहिए।
  5. सारांश में न तो आप अपनी तरफ से कोई बात जोड़ें और न कोई उदाहरण, किसी महापुरुष का कथन या किसी कवि की कोई उक्ति ही उद्धृत करें।
  6. गद्यांश का शीर्षक गद्यांश के भीतर ही प्रारंभिक पंक्तियों या अंतिम पंक्तियों में रहता है। शीर्षक अत्यंत संक्षिप्त हो। वह गद्यांश के मुख्य भाव को प्रकट करे। मुख्य भाव को प्रकट करनेवाला कोई शीर्षक अपनी ओर से भी दिया जा सकता है।
  7. अपठित का सारांश या उसके शीर्षक के अतिरिक्त भी कुछ प्रश्न पूछ जाते हैं। इन प्रश्नों के उत्तर गद्यांश में ही रहते हैं। इन प्रश्नों के उत्तर देते समय यह ध्यान रहे कि इनकी भाषा अपनी रहे। गद्यांश की भाषा में उत्तर देना ठीक नहीं। यहाँ अपठित गद्यांश के कुछ उदाहरण हल सहित दिए जा रहे हैं। उनके बाद अभ्यासार्थ कुछ अपठित गद्यांश दिए गए हैं।

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I. गद्यांश

उदाहरण 1.
यह सच है कि विज्ञान ने मानव के लिए भौतिक सुख का द्वार खोल दिया है, किंतु यह भी उतना ही सच है कि उसने मनुष्य से उसकी मनुष्यता छीन ली है। भौतिक सुखों के लोभ में मनुष्य यंत्र की भाँति क्रियारत है, उसकी मानवीय भावनाओं का लोप हो रहा है और वह स्पर्धा के नाम पर ईर्ष्या और द्वेष से ग्रसित होकर स्वजनों का ही गला काट रहा है। इसी का परिणाम है, अशांति। मनुष्यता को दाँव पर हारकर भौतिक सुख की ओर बढ़ना अशुभ है।

प्रश्न-
(क) उपर्युक्त गद्य खण्ड का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(ख) इस गद्य खण्ड का सारांश लगभग 25 शब्दों में लिखिए।
उत्तर-
(क) शीर्षक-विज्ञान : एक अभिशाप।
(ख) सारांश-विज्ञान ने मानव को सुख के बहुत-से साधन दिए हैं, किंतु उसके कारण मनुष्य की मनुष्यता भी छिन गई है। आज मनुष्य अपने ही भाइयों का विनाश कर रहा है, इसी के कारण सर्वत्र अशांति फैली है।

उदाहरण 2.
राष्ट्र की उन्नति पर ही व्यक्ति की उन्नति निर्भर है। यदि किसी के घोर संकुचित स्वार्थपूर्ण कामों के कारण राष्ट्रीय हित को क्षति पहुँचती हो अथवा राष्ट्र की निंदा होती हो तो ऐसे कुपुत्र का जन्म लेना निरर्थक है। राष्ट्रभक्त के लिए राष्ट्र का तिनका-तिनका मूल्यवान है। उसे राष्ट्र का कण-कण परम प्रिय है। वह अपने गाँव, नदी, पर्वत तथा मैदान को देख आनंद विभोर हो उठता है। जिसका मन, वाणी और शरीर सदा राष्ट्र-हित के कामों में तत्पर है, जिसे अपने पूर्वजों पर गर्व है, जिसको अपनी संस्कृति पर आस्था है तथा जो अपने देशवासियों को अपना समझता है, वही सच्चा राष्ट्रभक्त है।

प्रश्न-
(क) उपर्युक्त गद्य-खण्ड का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) इस गद्यांश का सारांश लगभग तीस शब्दों में लिखिए।
उत्तर-
(क) शीर्षक-सच्चा राष्ट्रभक्त कौन?
(ख) सारांश-एक राष्ट्रभक्त अपने राष्ट्र के तृण-तृण का आदर करता है। वह राष्ट्र की एक-एक वस्तु नदी, पर्वत, मैदान को देख आनन्दित होता है। राष्ट्रभक्त अपने पूर्वजों, अपनी संस्कृति पर गर्व करता है और अपने देशवासियों को अपना समझता है।

उदाहरण 3.
परोपकार-कैसा महत्त्वपूर्ण धर्म है। प्राणिपात्र के जीवन का तो यह लक्ष्य होना चाहिए। यदि विचारपूर्वक देखा जाए तो ज्ञात होगा कि प्रकृति के सारे कार्य परोपकार के लिए ही हैं नदियाँ स्वयं अपना पानी नहीं पीतीं। पेड़ स्वयं अपने फल नहीं खाते। गुलाब का फूल अपने लिए सुगन्ध नहीं रखता। वे सब दूसरों के हितार्थ हैं। महात्मा गांधी और अन्य महात्माओं का मत है कि परोपकार ही करना चाहिए, किंतु परोपकार निष्काम हो। यदि परोपकार किसी प्रत्युपकार की आशा से किया जाता है, तो उसका महत्त्व क्षीण हो जाता है।

भारत का प्राचीन इतिहास दया और परोपकार के उदाहरणों से भरा है। राजा शिवि ने कपोल की रक्षा के लिए अपने प्राण देने तक का संकल्प कर लिया था। परोपकार का इससे ज्वलंत उदाहरण और कौन-सा मिल सकता है? चाहे जो हो, परोपकार आदर्श गुण है। हमें परोपकारी बनना चाहिए।

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प्रश्न-
(क) इस गद्यांश का मूल भाव बताइए।
(ख) इस गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
(ग) प्राणिमात्र के जीवन का लक्ष्य क्या होना चाहिए?
(घ) महात्मा गांधी जैसे महात्माओं ने परोपकार के सम्बन्ध में क्या मत व्यक्त किया है?
(ङ) हमें कैसा बनना चाहिए?
उत्तर-
(क) परोपकार महत्त्वपूर्ण धर्म है। यह प्राणिमात्र के जीवन का परम उद्देश्य होना चाहिए। प्रकृति के सारे कार्य परोपकार के लिए ही हैं। सभी महात्मा जन-जीवन में इसके महत्त्व की आवश्यकता का अनुभव करते हैं। पर यह होना कामना रहित चाहिए। भारत के प्राचीन इतिहास में अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं। अतः हमें यह परोपकार अवश्य करना चाहिए।
(ख) इस गद्यांश का शीर्षक ‘परोपकार’ है।
(ग) प्राणिमात्र के जीवन का एकमात्र उद्देश्य परोपकारी बनना होना चाहिए।
(घ) महात्मा गांधी जैसे महात्माओं ने कहा है कि मानव को परोपकार अवश्य करना चाहिए। परंतु यह निष्काम भावना से सम्पादित होना चाहिए। यदि परोपकार बदले की भावना से किया जाता है, तो उसका महत्त्व क्षीण हो जाता है।
(ङ) हमें परोपकारी बनना चाहिए।

उदाहरण 4.
ऐसा देखा जाता है कि अधिकांश लोग अपने बहुमूल्य समय को व्यर्थ में ही व्यतीत कर देते हैं। परंतु फिर तो वही बात कही जाती है “कि अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत”, आज हम लोग जितना समय व्यर्थ की बातों में नष्ट कर देते हैं, यदि उसके दशमांश का भी सदुपयोग करना सीख जाते तो हम अपने जीवन में असाधारण सफलताएँ प्राप्त कर सकते हैं। प्रत्येक सुंदर समय हमारे लिए वस्तुएँ लेकर आता है, किंतु हम उनसे कोई लाभ नहीं उठाते।

प्रश्न-
(क) उपर्युक्त गद्यांश का एक उचित शीर्षक दीजिए।
(ख) गद्यांश का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर-
(क) ‘समय का सदुपयोग’
(ख) समय बीत जाने से पछताने के सिवा और कोई चारा नहीं रहता। मगर इससे कोई लाभ नहीं होता है। समय के सदुपयोग से हम अपने जीवन में असाधारण सफलताओं को प्राप्त कर सकते हैं।

II. पद्यांश

उदाहरण-

रण-बीच चौकड़ी भर-भर कर,
चेतक बन गया निराला था।
राणा प्रताप के घोड़े का,
(पड़ गया हवा से पाला था)
गिरता न कभी चेतक तन पर,
राणा प्रताप का घोड़ा था।
(वह दौड़ रहा अरि मस्तक पर)
या आसमान पर घोड़ा था।

प्रश्न-
(क) पद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(ख) इस पद्यांश का भावार्थ लिखिए।
(ग) कोष्ठांकित शब्दों का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
(क) शीर्षक-‘चेतक’
(ख) महाराणा प्रताप के घोड़े का नाम चेतक था जो बड़ा ही अनोखा था। वह हल्दीघाटी के मैदान में तीव्र गति से दौड़ रहा था। उसे दौड़ाने के लिए कोड़ा न मारना पड़ता था। वह इतना समझदार था कि राणा का संकेत पाते ही मुड़ जाता था और शत्रुओं के मस्तक पर पैर रखता हुआ दौड़ पड़ता था।
(ग) पड़ गया हवा से पाला था-राणा प्रताप के घोड़े की तीव्र गति को देखकर ऐसा प्रतीत होता था मानो वायु भी उसकी गति से हार मान गई है।
वह दौड़ रहा अरि मस्कक पर-राणा प्रताप का घोड़ा निर्भय होकर शत्रुओं के मस्तकों को कुचलता हुआ दौड़ जाता था।

अभ्यास के लिए अपठित गद्यांश

(1) प्रत्येक मनुष्य, चाहे वह स्थिति में कितना ही छोटा हो, ऊपर उठ सकता है। प्रत्येक मनुष्य अपनी शक्तियों का विकास कर सकता है। प्रत्येक मनुष्य अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है अथवा उसे बहुत निकट ला सकता है। आवश्यकता इतनी है कि वह भूल जाय कि वह तुच्छ है, पंगु है, कुछ नहीं कर सकता। निराशा का बीज बड़ा घातक होता है। वह जब कलेजे की भूमि में घुस जाता है, तो उसे फोड़कर अपना विस्तार करता है। निराशा से अपने आपको बचाओ। निराशा जीवन के प्रकाश पर दुर्दिन की बदली की तरह छा जाती है। यह आत्मा के स्वर को क्षीण करती है और चेतना के स्थान पर जड़ता, निश्चेष्टता की प्रतिष्ठा करती है।

(क) उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
(ख) इस गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ग) रेखाकित अंशों को स्पष्ट कीजिए।

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(2) मस्तिष्क की शक्ति से ही हम गिरते और उठते हैं; बड़े होते और चलते हैं। विचार की तीव्र शक्ति से ही सब काम होते हैं। जो अपने विचारों के स्रोत को नियंत्रित कर सकता है, वह अपने मनोवेग पर भी शासन कर सकता है। ऐसा व्यक्ति. अपने संकल्प से वृद्धावस्था को यौवन में बदल सकता है, रोगी को नीरोग कर सकता है। विचार-शक्ति संसार को चेतना प्रदान करती और चलाती है। शुभ, उन्नत और कल्याणकारी विचारों से मानव-शरीर अधिक सक्षम एवं नीरोग रहता है।

(क) उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
(ख) इस गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(ग) रेखांकित अंशों का भाव स्पष्ट कीजिए।

(3) राष्ट्रीय एकता, प्रत्येक स्वतंत्र राष्ट्र के लिए नितांत आवश्यक है। जब भी धार्मिक या जातीय आधार पर राष्ट्र से अलग होने की कोई कोशिश होती है, तब हमारी राष्ट्रीय एकता के खंडित होने का खतरा बढ़ जाता है। यह एक सुनिश्चित सत्य है कि राष्ट्र का स्वरूप निर्धारित करने में वहाँ विकास करने वाले जन एक अनिवार्य तत्त्व होते हैं। राष्ट्र के निवासियों के मन में राष्ट्रहित की दृष्टि से भावनात्मक स्तर पर स्नेह-संबंध, सहिष्णुता, पारस्परिक सहयोग एवं उदार मनोवृत्ति के माध्यम से राष्ट्रीय एकता की अभिव्यक्ति होती है। राष्ट्र को केवल भूखण्ड मानकर उसके प्रति अपने कर्तव्यों से उदासीन होने वाले राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में कदापि सहायक नहीं हो सकते। वस्तुतः राष्ट्रीय एकता के आदर्श को व्यवहार में अवतरित करके ही राष्ट्र के निवासी अपने राष्ट्र की उन्नति और प्रगति में सच्चे सहायक सिद्ध हो सकते हैं।

(क) उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लगभग 40 शब्दों में लिखिए।
(ख) इस गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।

(4) आत्मविश्वास श्रेष्ठ जीवन के लिए पहली आवश्यकता है। तन्मयता से आत्मविश्वास का जन्म होता है। संसार का इतिहास उन लोगों की कीर्तिकथाओं से भरा पड़ा है, जिन्होंने अंधकार और विपत्ति की घड़ियों में आत्मविश्वास के प्रकाश में जीवन की यात्रा की और परिस्थितियों से ऊपर उठ गए। उनसे भी अधिक संख्या उन वीरों की है, जिन्हें इतिहास आज भूल गया है पर जिन्होंने मानवता के निर्माण में, उसे उठाने में नींव का काम किया है। केवल आत्म-विश्वास और आशा के बल पर वे जिए और उसी के साथ उच्च उद्देश्य के लिए प्राण समर्पण करने में भी न चूके। जैसे तूफान के समय नाविक के लिए दिग्दर्शक यंत्र का उपयोग है, वैसे ही जीवन-यात्रा में आशा और आत्मविश्वास का महत्त्व है।

(क) उपर्युक्त गद्यांश का सारांश एक-तिहाई भाग में लिखिए।
(ख) इस गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।

(5) यूरोप और अमेरिका में जिन अनेक नए शास्त्रों की खोज हुई है, उन सबसे हमें बहुत कुछ सीखना है। लेकिन भारत की अपनी भी कुछ विद्याएँ हैं और कुछ शास्त्र यहाँ पर भी प्राचीनकाल से विकसित हैं। वेद भगवान ने हमें आज्ञा दी है-आ नो भद्राः कृतवो यन्तु विश्वतः, अर्थात् दुनिया भर से मंगल विचार हमारे पास आएँ। हम सब विचारों का स्वागत करते हैं और यह नहीं समझते कि यह विचार स्वदेशी है या परदेशी, पुराना है या नया। हम इतना ही सोचते हैं कि वह ठीक है या गलत। जो विचार ठीक है, वह पुराना भी हो तो भी अपनाया जाय। इसमें कोई शक नहीं कि हमको बहुत लेना है। लेकिन जो अपने पास है, उसे भी पहचानना चाहिए। यह इसलिए भी जरूरी है कि जो यहाँ का होता है, वह यहाँ की परिस्थिति और चारित्र्य के लिए अनुकूल होता है। वह हमारे स्वभाव के अनुकूल होने के कारण हमें काफी मदद दे सकता है।

(क) इस अवतरण का सारांश लिखिए।
(ख) गद्यांश के लिए उचित शीर्षक लिखिए।

(6) भारत हम सभी का घर है और हम सभी इस घर के सदस्य हैं। हमें आपस में मिल-जुलकर रहना चाहिए। यदि घर में एकता नहीं होगी तो आपस में कलह और द्वेष बढ़ेगा। जिस घर में फूट हो, उस घर की कोई इज्जत नहीं करता। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब-जब हममें एकता का अभाव हुआ, तब-तब हम पराधीन हो गए। जयचंद के कारण भारत पराधीन हुआ। एकता के अभाव के कारण ही सन् 1857 का स्वतंत्रता का संग्राम असफल हुआ। आपस की फूट के कारण ही सन् 1947 में देश का विभाजन हुआ। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद आज फिर फूट डालने वाली शक्तियाँ सिर उठा रही हैं। यदि हम सभी आपस में संगठित रहेंगे तो कोई भी देश हमारा बाल बाँका नहीं कर सकता। संगठन में बड़ी शक्ति होती है। पानी की एक-एक बूंद से बड़ी नदी बन जाती है। अनेक धागे निकलकर जब रस्सी बनाते हैं तो बड़े-बड़े हाथी भी उससे बाँधे जा सकते हैं। आग की छोटी-छोटी चिनगारियाँ मिलकर महाज्वाला बनती हैं और बड़े-बड़े जंगलों और भवनों को स्वाहा कर डालती हैं।

(क) इस अवतरण का उचित शीर्षक लिखिए।
(ख) गद्यांश का सारांश एक-तिहाई भाग में लिखिए।
(ग) आपस की फूट के कारण क्या हानियाँ होती हैं?

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(7) यदि सभी लोग अपने-अपने धर्म का पालन करें तो सभी सुखी और समृद्ध हो सकते हैं, परन्तु आज ऐसा नहीं है। धर्म का स्थान छोटा होने से सुख-समृद्धि गूलर का फूल हो गई है। यदि एक सुखी और संपन्न है तो पचास दुखी और दरिद्र हैं। साधनों की कमी नहीं है, परंतु धर्मबुद्धि के विकसित न होने से उनका उपयोग नहीं हो रहा है। कुछ स्वार्थी प्रकृति के प्राणी तो समाज में सभी कालों में रहे हैं और रहेंगे। परंतु आजकल ऐसी व्यवस्था है कि ऐसे लोगों को अपनी प्रवृत्ति के अनुसार काम करने का खुला अवसर प्राप्त हो जाता है और उनकी सफलता दूसरों को उनका अनुगामी बना देती है। दूसरी ओर जो सचमुच सदाचारी हैं, उनके मार्ग में बड़ी-बड़ी अड़चनें

(क) उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक लिखो।
(ख) दुखी और दरिद्र लोगों की संख्या अधिक क्यों है?
(ग) इस गद्यांश का सारांश 25 शब्दों में लिखिए।

(8) साम्प्रदायिक सद्भाव और सौहार्द्र बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि हम दूसरे धर्मावलंबियों के विचारों को समझें और उनका सम्मान करें। हमारा ही धर्म सर्वश्रेष्ठ है, इस विचार को मन में जमने दें। हमें यह हमेशा याद रखना चाहिए कि प्रेम से प्रेम और विश्वास से विश्वास उत्पन्न होता है और यह भी नहीं भूलना चाहिए कि घृणा से घृणा का जन्म होता है, जो दावाग्नि की तरह सबको जलाने का काम करती है। भगवान बुद्ध, महात्मा ईसा, महात्मा गांधी सभी घृणा को प्रेम से जीतने में विश्वास करते थे। गांधीजी ने सर्वधर्म संभव द्वारा साम्प्रदायिक घृणा को मिटाने का आजीवन प्रयत्न किया। हिन्दू और मुसलमान दोनों की धार्मिक भावनाओं को समान आदर की दृष्टि से देखा। सभी धर्म आत्मा की शांति के लिए भिन्न-भिन्न उपाय और साधन बताते हैं। धर्मों में छोटे-बड़े का कोई भेद नहीं है। सभी धर्म सत्य, प्रेम, समता, सदाचार और नैतिकता पर बल देते हैं, इसलिए धर्म के मूल में पार्थक्य या भेद नहीं है।

(क) उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक लिखो।
(ख) सर्वधर्म समभाव से क्या तात्पर्य है।
(ग) इस गद्यांश का सार लगभग 30-40 शब्दों में लिखिए।

(9) नैतिक का अर्थ है, उचित और अनुचित की भावना। यह भावना हमें कुछ कार्य तथा व्यवहार करने की अनुमति देती है। प्रत्येक समाज की अपनी नैतिकता पृथक्-पृथक् होती है, परंतु इससे समस्त समाज नियंत्रित रहता है। नैतिकता से नियम प्रत्येक देश या समाज के सांस्कृतिक आदर्शों पर आधारित रहते हैं। उदाहरण के लिए भारतीय समाज में सत्य, अहिंसा, न्याय, समानता, दया, वृद्धों के प्रति श्रद्धा आदि कुछ ऐसे नियम हैं, जिनसे सभी व्यक्तियों के आचरण प्रभावित होते हैं। इन नियमों को मारने के लिए कोई दबाव नहीं डाला जाता, बल्कि ये हमारी आत्मा से संबंधित

(क) इस अंश का सारांश लिखिए।
(ख) गद्यांश के लिए उचित शीर्षक लिखिए।

अभ्यास के लिए अपठित पद्यांश :

1. चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊँ।
चाह नहीं प्रेमी बाला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ।
चाह नहीं सम्राटों के शव पर हे हरि डाला जाऊँ .
चाह नहीं देवों के सिर पर चर्दै भाग्य पर इठलाऊँ।

प्रश्न-
(क) उपर्युक्त पयांश का शीर्षक लिखिए।
(ख) मोटे छपे (काले) शब्दों का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
(ग) इस पद्यांश का भावार्थ लिखिए।

2. सीस पगा न झगा तन पै प्रभु! जानै को आहि बसै केहि ग्रामा।
धोती फटी सी लटी दुपटी, अरु पाँय उपानहु को नहीं सामा॥
द्वार खड़े द्विज दुर्बल देखि रह्यो चकि सों बसुधा अभिरामा।
पूछत दीनदयाल को धाम, बतावत अपनो नाम सुदामा।।

प्रश्न-
(क) उपर्युक्त पद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(ख) इस पद्यांश का भावार्थ अपने शब्दों में लिखिए।

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3. गाँवों में संकुचित विचार, अन्धविश्वास, कुरीतियाँ और व्यर्थ व्यय का बोलबाला है। पंचायतों को चाहिए कि गाँवों में बच्चों के लिए पाठशाला खोलें और उनकी पढ़ाई का प्रबन्ध करें। जब लोग पढ़-लिख जायें तब ग्रामीणों की बुरी आदतें स्वतः ही समाप्त हो जायेंगी।

प्रश्न-
(क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(ख) उपयुक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
(ग) मोटे छपे (काले) शब्दों के अर्थ स्पष्ट कीजिए।

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MP Board Class 10th General Hindi व्याकरण मुहावरे एवं लोकोक्तियाँ

MP Board Class 10th General Hindi व्याकरण मुहावरे एवं लोकोक्तियाँ

(क) मुहावरे

‘मुहाविरा’ अरबी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है ‘अभ्यास’। वह वाक्यांश, जिसका साधारण शब्दार्थ न लेकर कोई विशेष अर्थ ग्रहण किया जाए, मुहावरा कहलाता-

  1. महावरे वाक्यांश होते हैं। इनका प्रयोग वाक्यों के बीच में ही होता है. स्वतंत्र रूप से नहीं होता।
  2. मुहावरों के प्रयोग से भाषा में सजीवता और रोचकता आ जाती है।
  3. मुहावरा अपना असली रूप कभी नहीं बदलता। उसमें प्रयुक्त शब्दों को उनके पर्यायवाची शब्दों से भी नहीं बदला जा सकता। ‘गाल बजाना’ के स्थान पर ‘कपोल बजाना’ हास्यास्पद है।
  4. मुहावरे का शब्दार्थ नहीं लेना चाहिए, बल्कि प्रसंग के अनुसार उसका अर्थ लेना चाहिए। ‘छाती पर पत्थर रखना’ का यदि शब्दार्थ लिया जाए तो उसका अर्थ बिल्कुल भिन्न होगा, जबकि मुहावरे के रूप में प्रयोग करने पर इसका अर्थ होगा ‘चुपचाप सहना’।
  5. मुहावरे समय के साथ बनते – बिगड़ते रहते हैं।

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यहाँ कुछ बहुप्रचलित मुहावरों के अर्थ और उनका वाक्यों में प्रयोग दिया जा रहा है –

1. अक्ल पर पत्थर पड़ना=बुद्धि मारी जाना।
प्रयोग – तुम्हारी अक्ल पर क्या पत्थर पड़ गए थे तो तुम बच्चे को अकेला छोड़ आए?

2. अंकुश लगाना=नियंत्रण करना।
प्रयोग – सुरेश! तुम अपने बेटे पर अंकुश लगाओ, नहीं तो आगे बहुत पछताओगे।

3. अपना उल्लू सीधा करना स्वार्थ पूरा करना।
प्रयोग – आज के राजनीतिज्ञ जनता की सेवा नहीं करते अपना उल्लू सीधा करते हैं।

4. अपनी खिचड़ी अलग पकाना सबसे अलग।
प्रयोग – मिलजुलकर काम करो, अपनी खिचड़ी अलग पकाने से कोई लाभ नहीं।

5. अपने पैरों पर खड़ा होना स्वावलम्बी होना।
प्रयोग – मैं तुम लोगों का बोझ कब तक उठाऊँगा अपने पैरों पर खड़े होने का प्रयास करो।

6. अपने पैरों कुल्हाड़ी मारना – अपने ही हाथों अपना अहित करना।
प्रयोग – तुमने शर्माजी का कहा न मानकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है।

7. आँखों में धूल झोंकना धोखा देना।
प्रयोग – तुम यह सड़ी – गली सब्जी देकर मेरी आँखों में धूल झोंकना चाहते हो।

8. आँख खुलना – समझ आ जाना।
प्रयोग – उसका व्यवहार देखकर मेरी आँखें खुल गईं।

9. आँख दिखाना – धमकाना।
प्रयोग – माताजी ने ज्यों ही आँखें दिखाईं त्यों ही बालक ने मिठाई लेने से इन्कार कर दिया।

10. आटे – दाल का भाव मालूम होना वास्तविकता का ज्ञान होना।
प्रयोग – आठ सौ – नौ सौ रुपये में घर का सब खर्च चलाओगे तब आटे – दाल का भाव मालूम होगा।

11. आस्तीन का साँप होना विश्वासघाती सिद्ध होना।
प्रयोग – जिसे हमने अपना परम मित्र समझा था, वह आस्तीन का साँप सिद्ध हुआ।

12. ईंट से ईंट बजाना नष्ट कर देना।
प्रयोग – मानसिंह ने राणा प्रताप से कहा, “मैं मेवाड़ की ईंट से ईंट बजा दूंगा।”

13. उँगली उठाना=दोषारोपण करना।
प्रयोग – ऐसा काम करना कि कोई उँगली न उठा सके।

14. कमर कसना कार्य करने को तैयार होना।
प्रयोग – नौजवानों को देश के सम्मान की रक्षा के लिए कमर कस लेनी चाहिए।

15. कमर टूटना – दुःखदायक स्थिति बनना।
प्रयोग – व्यापार में बहुत हानि होने से उसकी तो कमर ही टूट गई।

16. काठ का उल्लू – महान् मूर्ख।
प्रयोग – उसे क्या समझते हो, वह तो निरा काठ का उल्लू है।

17. कान भरना – चुगली करना, भड़काना।
प्रयोग – शर्माजी अन्य अध्यापकों के खिलाफ प्रिंसिपल साहब के कान भरते रहते हैं।

18. कान का कच्चा होना दूसरों की बात पर शीघ्र विश्वास कर लेना।
प्रयोग – जो अधिकारी कान का कच्चा होता है, उससे न्याय की आशा कैसे की जा सकती है।

19. खरी – खोटी सुनाना भला – बुरा कहना।
प्रयोग – मेरी कोई गलती नहीं थी, फिर भी प्रिंसिपल साहब ने मुझे खरी – खोटी सुना दी।

20. खून खौलना=बहुत क्रुद्ध होना।
प्रयोग – द्रोपदी को लज्जित होते देख भीम का खून खौलने लगा।

21. खाक में मिलना बर्बाद हो जाना।
प्रयोग – रावण की हठधर्मी से सोने की लंका खाक में मिल गई।

22. गड़े मुर्दे उखाड़ना=पुरानी बातें दोहराना।
प्रयोग – इतिहास में तो गड़े मुर्दे ही उखाड़े जाते हैं।

23. गले का हार – अत्यंत प्रिय।
प्रयोग – रामचरितमानस भक्तों के गले का हार है।

24. गाल बजाना बढ़ – चढ़कर बातें करना।
प्रयोग – धीरेन्द्र की बात पर यकीन न करना, उसे गाल बजाने की आदत है।

25. गुदड़ी का लाल=निर्धनता में उत्पन्न प्रतिभाशाली व्यक्ति।
प्रयोग – लाल बहादुर शास्त्री गुदड़ी के लाल थे।

26. घाव पर नमक छिड़कना – दुखी को और दुखी करना।
प्रयोग – एक तो उसका नुकसान हुआ, अब ताने देकर उसके घाव पर नमक मत छिड़को।

27. चंगुल में फँसना काबू में कर लेना।
प्रयोग – भोले – भाले लोग धूर्तों के चंगुल में फँस जाते हैं।

28. चकमा देना – धोखा देना।
प्रयोग – चोर पुलिस को चकमा देकर भाग निकला।

29. चार दिन की चाँदनी थोड़े समय की सम्पन्नता।
प्रयोग – लक्ष्मी चंचल है, चार दिन की चाँदनी पर गर्व मत करो।

30. चिकना घड़ा जिस पर किसी बात का असर न हो।
प्रयोग – वह तो चिकना घड़ा है, तुम्हारी बातों का उस पर कोई असर नहीं पड़ेगा।

31. छप्पर फाड़कर देना=भाग्य के बल पर लाभ होना।
प्रयोग – भगवान ने उसे छप्पर फाड़कर धन दिया।

32. छोटे मुँह बड़ी बात अपनी मर्यादा से अधिक बोलना।
प्रयोग – छोटे मुँह बड़ी बात करके तुमने समझदारी का काम नहीं किया।

33. जान के लाले पड़ना=संकट में पड़ना।
प्रयोग – सारा गाँव बाढ़ की चपेट में आ गया; लोगों को जान के लाले पड़ गए।

34. जले पर नमक छिड़कना दुखी के दुख को और अधिक बढ़ाना।
प्रयोग – सुरेश तो परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने पर वैसे ही दुखी था, तुमने उसका उपहास करके जले पर नमक छिड़क दिया।

35. टका – सा जवाब देना – साफ इन्कार कर देना।
प्रयोग – इस बार भी जब चंदा देने की बात उठी तो उसने टका – सा जवाब दे दिया।

36. टाँग अड़ाना रुकावट डालना।
प्रयोग – मेरी उसकी बात हो रही है, तुम क्यों बीच में टाँग अड़ाते हो?

37. टेढ़ी खीर कठिन कार्य।
प्रयोग – कक्षा में प्रथम आना टेढ़ी खीर है।

38. डंके की चोट सबके सामने।
प्रयोग – उसने डंके की चोट पे समाज से बाहर शादी की।

39. तलवे चाटना – चापलूसी करना।
प्रयोग – वे कोई और होंगे जो आपके तलवे चाटते हैं, मुझसे आशा न करना

40. तिनके का सहारा थोड़ा – सा आश्रय।
प्रयोग – डूबते को तिनके का सहारा होता है।

41. तूती बोलना धाक जमना।
प्रयोग – वे दिन गए, जब जमींदारों की तूती बोलती थी।

42. दंग रह जाना आश्चर्यचकित होना।
प्रयोग – बालक के करतब देखकर दर्शक दंग रह गए।

43. दाँत खट्टे करना=पराजित करना।
प्रयोग – भारत ने अनेक बार दुश्मनों के दाँत खट्टे किए हैं।

44. दाल. में काला होना=संदेहजनक बात होना।
प्रयोग – आपकी बातों से लगता है कि दाल में कुछ काला है।

45. दाल न गलना=चाल सफल न होना।
प्रयोग – पिताजी को पता लग गया है, अब तुम्हारी दाल नहीं गलेगी।

46. दुम दबाकर भागना डरकर भाग जाना।
प्रयोग – दुम दबाकर भागना तो कायरों का काम है।

47. दो टूक बात कहना – साफ – साफ बात कहना।
प्रयोग – मुझे कुछ लेना – देना नहीं है, मैंने दो टूक बात कह दी।

48. नमक खाना – पालन – पोषण होना।
प्रयोग – मैंने इस घर का नमक खाया है, इसे बरबाद न होने दूंगा।

49. नाक कटना – बदनामी होना।
प्रयोग – भारतीय टीम तीनों मैच हार गई, उसकी तो नाक कट गई।

50. नाक में दम करना परेशान करना।
प्रयोग – मच्छरों ने तो नाक में दम कर रखी है, रात भर सोने नहीं देते।

51. नाक रगड़नाखुशामद करना।
प्रयोग – पहले तो बहुत ताव दिखा रहे थे, अब क्यों नाक रगड़ते हो?

52. नाक – भौं सिकोड़ना – नफरत प्रकट करना।
प्रयोग – नाक – भौं मत सिकोड़ो, जो कुछ परोसा गया है, वह खा लो।

53. पत्थर की लकीर अमिट।
प्रयोग – मेरी बात पत्थर की लकीर मानो, शहर में दंगा होनेवाला है।

54. परदा डालना कोई बात छिपाना।
प्रयोग – अपने पापों का प्रायश्चित करो, उन पर पर्दा मत डालो। प्रमा

55. पहाड़ टूटना अत्यधिक विपत्ति आ जाना।
प्रयोग – अवधेश के निधन से पूरे परिवार पर पहाड़ टूट पड़ा।

56. पानी – पानी होना अधिक शर्मिन्दा होना।
प्रयोग – बद्रीसिंह को जब प्रिंसिपल साहब ने डाँटा तो वह पानी – पानी हो गया।

57. पाँचों उँगलियाँ घी में होना सभी प्रकार का सुख होना।
प्रयोग – तुम्हारे भाई एम.एल.ए. हो गए हैं, अब तो तुम्हारी पाँचों उँगलियाँ घी में हैं।

58. पीठ दिखाना कायरता दिखाना।
प्रयोग – युद्ध में पीठ दिखाना क्षत्रिय को शोभा नहीं देता।

59. पेट में चूहे कूदना – बहुत भूखा होना।
प्रयोग – पेट में चूहे कूद रहे हैं, अब काम – धाम नहीं हो सकता।

60. पौ बारह होना बहुत लाभ होना।
प्रयोग – मंत्रीजी का हाथ सिर पर है; अब तो तुम्हारे पौ बारह हैं।

61. फूंक – फूंककर कदम रखना सावधानी बरतना।
प्रयोग – वह एक बार धोखा खा चुका है, इसलिए फूंक – फूंककर कदम रखता

62. बाल की खाल निकालना – अनावश्यक रूप से दोष निकालना।
प्रयोग – बाल की खाल निकालना उसका स्वभाव बन गया है।

(ख) लोकोक्ति

लोकोक्ति का अर्थ है – लोक में प्रचलित उक्ति। किसी महापुरुष, किसी कवि या लेखक की उक्ति कहावत बन जाती है। कहावतों में एक अनुभूत सत्य छिपा रहता है। लोकोक्ति एक स्वतंत्र वाक्य की तरह भाषा में प्रयुक्त होती है। इसका प्रयोग किसी कथन की पूर्ति में उदाहरण के रूप में किया जाता है। लोकोक्ति का क्षेत्र मुहावरे की अपेक्षा अधिक व्यापक है। इसमें स्वयं एक स्वतंत्र अर्थ ध्वनित करने की क्षमता होती है। ‘सुनिए सबकी, करिए मन की’ यह एक लोकोक्ति है। इसका अर्थ है, ‘सबकी बात सुनकर जो मन को अच्छा लगे, वही करना चाहिए। इस प्रकार इस लोकोक्ति में एक वाक्य के सभी आवश्यक तत्त्व विद्यमान हैं।

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मुहावरे और लोकोक्ति में अंतर है। मुहावरा वाक्यांश है, जबकि कहावत स्वतंत्र वाक्य है। मुहावरे का स्वतंत्र रूप में प्रयोग नहीं हो सकता, उसे किसी वाक्य का अंग बनना पड़ता है, कहावत का एक वाक्य की तरह प्रयोग किया जाता है।

लोकोक्ति किसी कथा या चिर- सत्य से संबद्ध रहती है। यहाँ कुछ लोकोक्तियों के अर्थ और उनका वाक्यों में प्रयोग दिया जा रहा है –

1. अधजल गगरी छलकत जाय=गुणहीन व्यक्ति अपने गुणों का अधिक प्रदर्शन करता है।
प्रयोग – किशोर एक साधारण क्लर्क है। घूसखोरी में उसने कुछ धन कमा लिया है तो उसके दिमाग नहीं मिलते। सच है – अधजल गगरी छलकत जाय।

2. अपनी करनी पार उतरे – अपने सुकर्मों से ही अच्छा फल मिलता है।
प्रयोग – अगर पढ़ाई में मन लगाओगे और मेहनत करोगे तो अच्छे नंबरों से पास हो जाओगे, नहीं पढ़ोगे तो फेल हो जाओगे। अपनी करनी पार उतरे।

3. अक्ल बड़ी कि भैंस – शारीरिक शक्ति से बौद्धिक शक्ति बड़ी होती है।
प्रयोग – भीमसिंह देखने में हाथी जरूर है, लेकिन उसकी बुद्धि मोटी है। वह वाद – विवाद में तुम्हारी बराबरी नहीं कर सकता। अक्ल बड़ी कि भैंस कहावत तुमने सुनी ही होगी।

4. अपना हाथ जगन्नाथ अपना काम स्वयं करना चाहिए।
प्रयोग – सत्यम् ने अलमारी खोलकर लड्डू निकाला और खा लिया। फिर वह बोला, “अपना हाथ, जगन्नाथ”।

5. अंधा पीसे, कुत्ता खाय – ठीक न्याय न होना।
प्रयोग – आज न्याय तो कहीं रहा ही नहीं। भ्रष्टाचारी और चापलूस लोगों का बोलबाला है। स्थिति तो यह है कि अंधा पीसे, कुत्ता खाय।

6. अंधेर नगरी, चौपट राजा – जहाँ कोई व्यवस्था या न्याय न हो।
प्रयोग – बिहार की बात मत पूछो। वहाँ तो अंधेर नगरी चौपट राजा की बात चरितार्थ हो रही है।

7. अपनी – अपनी ढपली, अपना – अपना राग – अपनी – अपनी बात को महत्त्व देना।
प्रयोग – चौदह पार्टियों की सरकार में सब अपनी – अपनी हाँकते हैं। इसीलिए इस सरकार के कार्यकलापों पर लोग कहते हैं – अपनी – अपनी ढपली, अपना – अपना राग।

8. अपनी गली में कुत्ता भी शेर अपने घर पर कमजोर भी अपने आपको बहुत ताकतवर समझता है।।
प्रयोग – जसवीर अपने घर पर खड़ा होकर उदयन को गालियाँ दे रहा था। उदयन ने कहा, “जसवीर अपनी गली में कुत्ता भी शेर होता है, अगर हिम्मत हो तो बाहर निकल आओ।”

9. अंधों में काना राजा मूर्तों के बीच में कोई साधारण समझदार।
प्रयोग – गाँव के अशिक्षितों के बीच वहाँ का पटवारी ही अंधों में काना राजा होता है।’

10. अब पछताये होत का जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत – समय निकल जाने पर पछताने से कोई लाभ नहीं।
प्रयोग – साल भर से तुम्हें समझा रहे थे कि पढ़ाई में ध्यान लगाओ, लेकिन तुमने एक न सुनी। अब फेल हो गए तो रोते हो। यह बेकार है, क्योंकि अब पछताये होत क्या जब चिड़ियाँ चग गई खेत।।

11. अंधा बाँटे रेवड़ी, फिरि – फिरि अपने को देय अपने सगे – सम्बन्धियों को लाभ पहुँचाना।
प्रयोग – यादवजी मंत्री हो गए हैं, वे सरकारी नौकरी में यादवों को ही भर रहे हैं। सच है – अंधा बाँटे रेवड़ी, फिर – फिर अपने को देय।

12. आँखों का अंधा नाम नयनसुख नाम और गुण में विरोध।
प्रयोग – नाम तो है सुशील, लेकिन काम है चरित्रहीनों का। ऐसे ही लोगों के लिए यह कहावत कही जाती है – आँखों का अंधा नाम नयनसुख।

13. आम के आम गुठलियों के दाम दोहरा लाभ।
प्रयोग – हम तो अखबार खरीदते हैं, हमारी बीवी रद्दी अखबारों के लिफाफे बनाकर बेच देती है। आम के आम गुठलियों के दाम।

14. आप भला तो जग भगाभले के लिए सब भले होते हैं।
प्रयोग – छोटे भैया तो यथाशक्ति सबकी सहायता करते हैं और सबसे अच्छी तरह से मिलते हैं, इसलिए सब लोग आदर करते हैं। सच है – आप भला तो जग भला।

15. आगे नाथ न पीछे पगहा – आगे – पीछे कोई न होना।
प्रयोग – पता नहीं अमरनाथ इतने धन का क्या करेगा, उसके आगे नाथ न पीछे पगहा।

16. उल्टे बाँस बरेली का उल्टा काम करना।
प्रयोग – भोपाल से पेठा लेकर आगरा जा रहे हो। दिमाग तो ठीक है. उल्टे बाँस बरेली को।

17. ऊँची दुकान, फीका पकवान बाहरी दिखावा।
प्रयोग – होटल का नाम तो है ग्राण्ड होटल, लेकिन वहाँ कोई विशेष सुविधाएँ नहीं हैं। ऊँची दुकान फीका पकवान की कहावत चरितार्थ होती है।

18. ऊँट के मुँह में जीरा आवश्यकता से बहुत कम वस्तु।
प्रयोग – शर्मा जी के लिए चार पूड़ियाँ तो ऊँट के मुँह में जीरा साबित होंगी।

19. एक अनार सौ बीमार – वस्तु कम, माँग अधिक।
प्रयोग – पिताजी ने आइसक्रीम मँगाई चार और खानेवाले इकट्ठे हो गए चौदह। यह तो एक अनार सौ बीमार वाली कहावत हो गई।

20. ओखली में सिर दिया तो मूसलों से क्या डर कठिन काम शुरू करके कठिनाइयों से क्या डरना।
प्रयोग – बंजर जमीन खरीदकर उसे जोतना शुरू किया है तो उसमें कठिनाइयाँ तो आएँगी ही। ओखली में सिर दिया तो मूसलों से क्या डर?

21. कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तेली – दो ऐसे असमान व्यक्ति जिनकी आपस में कोई तुलना न हो।
प्रयोग – कहाँ परमानन्द जैसा संत पुरुष और कहाँ रवीन्द्र जैसा स्वार्थी व्यक्ति। आप भी क्या समानता दिखा रहे हैं? कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली।

22. काला अक्षर भैंस बराबर – निरक्षर व्यक्ति।
प्रयोग – राम से पत्र पढ़वाने जा रहे हो। अरे भाई उसके लिए तो काला अक्षर भैंस बराबर है।

23. का वर्षा जब कृषी सुखानी – अवसर निकल जाने पर प्रयत्न करना व्यर्थ है।
प्रयोग – परीक्षा के पहले पुस्तकें खरीदने को रुपये मँगाए थे, वह पिताजी ने भेजे नहीं। अब परीक्षा समाप्त होने पर मनीआर्डर आया है। अब रुपये किस काम के। ठीक ही कहा है – का वर्षा जब कृषी सुखानी।

24. खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है – संगति का प्रभाव पड़ता है।
प्रयोग – उमेश का बड़ा लड़का कामचोर है, छोटे लड़के पर भी उसका प्रभाव पड़ा है। वह भी कामधाम नहीं करता। सच ही तो है – खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है।

25. खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे लज्जित होने पर निरपराध पर क्रोधित होना।
प्रयोग – जब ऊषा को उसके पिताजी ने डांट दिया तो वह अपनी छोटी बहिन पर बिगड़ी। तब उसके भाई ने कहा ‘खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे।’

26. खोदा पहाड़ निकली चुहिया=बहुत प्रयास करने का थोड़ा फल मिलना।
प्रयोग – सेन्ट्रल लायब्रेरी में मैथिलीशरण जी की पुस्तकें तलाश करने गया था, लेकिन मिली एक पंचवटी। मन ही मन कहा – खोदा पहाड़ निकली चुहिया।

27. गेहूँ के साथ घुन भी पिसता है बड़ों के साथ रहने वालों को भी उनके साथ कष्ट उठाना पड़ता है।
प्रयोग – जसवीर और परमवीर आपस में लड़ रहे थे, विजय दोनों को समझा रहा था। प्रिंसिपल साहब ने तीनों को बुलाकर मार लगाई। गेहूँ के साथ घुन भी पिस गया।

28. घर का जोगी जोगड़ा आन गाँव का सिद्ध – स्वयं के स्थान पर सम्मान नहीं मिलता।
प्रयोग – बनवारीलालजी गाँव के बहुत अच्छे वैद्य हैं, लेकिन गाँववाले डिस्पेन्सरी के कम्पाउण्डर से दवाइयाँ लेते हैं। ठीक ही है – घर का जोगी जोगड़ा आन गाँव का सिद्ध।

29. घर का भेदी लंका ढावै आपसी फूट का फल बुरा होता है।
प्रयोग – जयचन्द ने मुहम्मद गोरी से मिलकर पृथ्वीराज के खिलाफ युद्ध लड़ा। ठीक ही कहा है – घर का भेदी लंका ढावै।

30. चार दिन की चाँदनी, फिर अँधेरी रात – थोड़े समय का सुख।
प्रयोग – धन – संपत्ति का गर्व न करना; यह तो आती – जाती रहती है, चार दिन। की चाँदनी फिर अंधेरी रात कहावत को याद रखो।

31. चोर – चोर मौसेरे भाई एक जैसी मनोवृत्ति वाले लोग।
प्रयोग – विकास और प्रयास दोनों में से किसी पर विश्वास मत करना, दोनों चोर – चोर मौसेरे भाई हैं।

32. चोर की दाढ़ी में तिनका – अपराधी की चेष्टा से उसका अपराध प्रकट हो जाता
प्रयोग – कक्षाध्यापक ने जब चार अपराधी प्रवृत्ति के लड़कों को शीशा तोड़ने के जुर्म में प्रिंसिपल साहब के सामने खड़ा किया तो एक ने चिल्लाकर कहा, “मैं तो कल आया ही नहीं था। इसी को कहते हैं चोर की दाढ़ी में तिनका।”

33. जहाँ चाह वहाँ राह – दृढ़ इच्छाशक्ति से सब काम हो सकते हैं।
प्रयोग – हिम्मत हारकर मत बैठो, प्रयत्न करो – जहाँ चाह वहाँ राह।

34. जिसकी लाठी उसकी भैंस बलवान की ही जीत होती है।
प्रयोग – बद्रीप्रसाद अदालत से तो जीत गए, लेकिन खेत तो अभी भी पहलवान सिंह जोत रहा है। आजकल तो जिसकी लाठी उसकी भैंस है।

35. जैसे नागनाथ, वैसे साँपनाथ दोनों एक समान।
प्रयोग – क्या सुधीर और क्या मधुर’ दोनों में से किसी से सहायता की उम्मीद न करना। जैसे नागनाथ, वैसे साँपनाथ।

36. थोथा चना बाजे घना कम जाननेवाला अधिक बुद्धिमान होने का प्रदर्शन करता
प्रयोग – किशोर एक साधारण ठेकेदार है लेकिन बातें करोड़ों की करता है। सच है – थोथा चना बाजे घना।

37. दूर के ढोल सुहावने होते हैं दूर की चीजें अच्छी लगती हैं।
प्रयोग – सुना था कि कृष्ण जहाँ रासलीला करते थे, वहाँ बड़े सुंदर कुल हैं किंतु जाकर देखा तो सब वीरान दिखा। ठीक ही कहा है – दूर के ढोल सुहावने होते हैं।

38. धोबी का कुत्ता घर का न घाट का=दोनों तरफ की साधने वाले को कहीं सफलता नहीं मिलती।
प्रयोग – हरीश ने कम्प्यूटर की कक्षा में प्रवेश लिया और एम.बी.ए. की भी तैयारी की। दोनों ओर दिमाग रहने से कहीं भी सफलता नहीं मिली। उसके मित्रों ने कहा – धोबी का कुत्ता घर का न घाट का।

39. न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरीन कारण होगा, न कार्य होगा।
प्रयोग – सत्यम और संकेत कैरम के लिए लड़ते रहते थे। एक दिन उनकी माँ ने कहा, “मैं कैरम उठाके रखे देती हूँ। न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी।”

40. नाच न जाने आँगन टेढ़ा – स्वयं की अयोग्यता को छिपाकर साधनों को दोष देना।
प्रयोग – सुरेश को चित्र बनाना आता तो नहीं, लेकिन वह कहता था कि ब्रुश खराब था, इसलिए चित्र अच्छा नहीं बना। इसी को नाच न जाने आँगन टेढ़ा कहते हैं।

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