MP Board Class 7th Hindi Bhasha Bharti Solutions महत्त्वपूर्ण पाठों के सारांश

मेरी भावना

‘मेरी भावना’ नामक कविता में जुगल किशोर ‘युगवीर’ ने हम सभी को सदुपदेश दिया है कि हमारे अन्दर अभिमान, ईर्ष्या, द्वेष और क्रोध की भावना न रहे। सबके प्रति हमारा व्यवहार सरल और सत्य से परिपूर्ण हो तथा प्रत्येक क्षण दूसरों का उपकार करने की भावना बनी रहे। सभी जीवों के प्रति मैत्री भाव और करुणा का स्रोत हमारे हदयों में बहता रहे। समता का भाव बना रहे। दुर्जनों की संगति से बचे रहें। गुणवान जनों का सम्मान करते रहें। हम सदैव किए गये उपकार को भूले नहीं। द्रोह न करें. दोषों को न देखें। न्याय मार्ग पर चलें,लालच में न फंसे। मृत्यु का भी भय न हो।

अन्त में कवि कामना करता है कि संसार के सभी लोग परस्पर प्रेमपूर्वक रहें। उनमें मोह भाव उत्पन्न हो। किसी से कोई भी कटु वचन बोलने वाला न हो।

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छोटा जादूगर

कार्निवाल के मैदान में मेला लगा था। चारों ओर बिजली की जगमगाहट थी। फब्बारे के पास लेखक खड़ा था। वहीं एक लड़का चुपचाप उन लोगों को देख रहा था जो शरबत पी रहे थे। इस लड़के की उम्र तेरह-चौदह वर्ष की रही होगी। उसका कुर्ता फटा था। उसके गले में एक मोटी-सी सूत की रस्सी पड़ी थी। उसकी जेब में ताश के पत्ते थे। उसके चेहरे से दु:ख टपक रहा था, लेकिन वह धैर्यवान था।

लेखक के पूछने पर उसने बताया कि वह वहाँ के जादूगर से भी अच्छा ताश का खेल दिखा सकता है। लेखक और छोटा जादूगर दोनों शरबत पीते हैं। लेखक ने परिचय पूछा, तो उसने बताया कि उसके परिवार में तीन आदमी है-उसकी माँ और बाप तथा वह स्वयं। उसके पिता देश की आजादी के लिए जेल गये हैं। माँ बीमार है। माँ के बीमार होते हुए भी वह खेल दिखाने के लिए चला आया है। खेल-तमाशा दिखाने से मिले पैसों से माँ की बीमारी का इलाज करता है और अपना पेट भी भरता है, परन्तु इस कमाई से खर्च पूरा नहीं होता है।

लेखक की पत्नी ने कमलिनी की छोटी झील पर उसे एक रुपया खेल दिखाने के लिए दिया। वह उसे लेकर चलने लगा। छोटा जादूगर ने बताया कि सबसे पहले वह पकौड़े खायेगा और फिर सूती चादर खरीदेगा अपनी माँ के लिए। लेखक ने अपनी स्वार्थ भरी आदत पर अचम्भा किया। छोटा जादूगर नमस्कार करके चला गया। लेखक अपने परिवार सहित कुंज देखने चला जाता है। छोटा जादूगर उन्हें वहाँ स्मरण हो आता है।छोटा जादूगर की माँ को अस्पताल से बाहर निकाल दिया गया है। लेखक भी अपनी कार से उतर छोटे जादूगर की झोपड़ी में उसकी बीमार काँपती हुई माँ को देखता है। उसकी दशा दयनीय थी।

छोटा जादूगर अन्य किसी दिन उद्यान में अपना रंगमंच जमाये हुए है। विभिन्न खेल दिखा रहा है। लेखक ने आगे बढ़कर पूछा कि आज तुम्हारा खेल क्यों नहीं जमा है। छोटा जादूगर ने बताया कि “माँ ने कहा था कि आज तुरन्त चले आना। मेरी घड़ी समीप है।” लेखक ने कहा “फिर भी तुम खेल दिखाने चले आये।” लेखक के कहने पर उसने कहा ‘क्यों नहीं आता?’ लेखक ने तुरन्त ही उसका झोला गाड़ी में फेंका, उसे पीछ बैठाया और बताये मार्ग से गाड़ी चला दी।

कुछ क्षण में झोंपड़ी के सामने गाड़ी पहुँची। छोटा जादूगर दौड़कर “माँ, माँ” पुकारता हुआ झोपड़ी में घुसा। उस बीमार स्त्री के मुख से अस्पष्ट शब्द “बे……..” निकलकर रहा गया। छोटा जादूगर उससे लिपटा रो रहा था। लेखक चकित था। चारों ओर धूप फैली हुई थी। संसार सपना सा-एक जादू-सा चारों ओर नाचता-सा लग रहा था।

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हींगवाला 

लगभग पैंतीस वर्ष का एक खान “अम्माँ हींगवाला” कहता हुआ सावित्री के आँगन में मौलश्री के पेड़ के चबूतरे पर आकर बैठ गया। सावित्री के नौ-दस बरस के बच्चे ने कहा कि अभी कुछ नहीं लेना है। खान ने फिर कहा कि वह अपने देश को लौट कर जा रहा है। बहुत दिनों में आयेगा। हींग ले लो। खान की बात सुन सावित्री रसोईघर से बाहर निकलकर आती है। खान कहता है कि वह उसके हाथ से बोहनी करना चाहता है। उसकी हींग, हेरा हींग है। वह धोखे का व्यापार नहीं करता है। सावित्री के न

चाहते हुए भी वह हींग तोलकर देता है जिसकी कीमत सवा छः आने होती है। सावित्री मूल्य देती है। खान चला जाता है। बच्चे अपनी खर्ची मांगने की रट लगाते हैं। सावित्री बच्चों को खाना खाने के लिए कहती है।समय बीता। होली निकली। शहर में दंगा हो गया। खान तो नहीं मर गया। वह हींग वालों की बात करते हुए खान को याद कर बैठती है।

एकदिन ‘खान’ अचानक ही “हींग है हींग” कहता हुआ सावित्री के घर में घुस जाता है। दंगे की बात करने पर खान ने कहा कि लड़ने वाले नासमझ हैं। दशहरे और होली के त्यौहारों पर दंगा हुआ। दशहरे का त्यौहार है। पक्के प्रबन्ध हैं। त्यौहार का जोश है। सावित्री का पति घर पर नहीं है। उसके बच्चे काली के जुलूस को देखने की जिद कर बैठते हैं। उसने घर के नौकर के साथ उन्हें जुलूस में भेज दिया।

थोड़ी देर बाद, सावित्री ने गली में लोगों की भगदड़ सुनी। उसने बाहर निकलकर पूछा कि वे क्यों भागे जा रहे हैं। लोगों ने कहा दंगा हो गया है। सावित्री सालभर के बच्चे सहित घर में अकेली है। जुलूस में गये बच्चों को देखने कैसे जाये। उसे न अन्दर चैन न बाहर। बच्चों को भेजने की अपनी मूर्खता के लिए स्वयं को कोस रही थी। देर रात का समय था। दरवाजे पर ‘खान’ बच्चों को लेकर आता है। घर का नौकर बच्चों को जुलूस में छोड़कर कहीं भाग गया। खान ने कहा “माँ, वक्त अच्छा नहीं। बच्चों को भीड़भाड़ में मत भेजा करो।” बच्चे सावित्री से लिपट जाते है। कहते हैं, ‘खान बहुत अच्छा आदमी है। खान हमारा दोस्त है।’ खान ने कहा, “दोस्त नहीं-भाई है।”

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नरबदी

मैकल पर्वत के घने जंगलों में आठ-दस झोपड़ियों का एक गाँव था। वहाँ एक झोपड़ी में दुग्गन रहता था। उसकी एक पुत्री थी नरबदी। उसकी माँ उसे जन्म देकर मर गयी थी। नरबदी अब बारह बरस की हो गयी थी। वह अपनी बेटी को सदा अपने साथ ही रखता था।

एक दिन झोपड़ी की मरम्मत के लिए वह एक बाँस लेने के लिए मैकल पर्वत पर गया। धूप तेज थी। वे दोनों चढ़ते गये। नरबदी को प्यास लगी। वह पानी की खोज में मैकल के घने वनों में इधर-उधर भटका। नरबदी पेड़ों की घनी छाया में बैठी रही। उसने अनुभव किया कि वह तो यहाँ छौंव में बैठी है। उसका पिता तो धूप और थकावट से बहुत प्यासा होगा। नरबदी देवता को मनाने लगी. “हे बड़े देवता ! तू मेरे बाबा की रक्षा करना।” लौटकर दुग्गन झुरमुट के पास पहुँचा।

नरबदी झुरमुट में नहीं दिखी। वह व्याकुल हो गया। तभी झुरमुट के बीच कल-कल की आवाज करते झरने को सुना। दुग्गन रोता हुआ अपनी पुत्री को पुकार रहा था। नरबदी झरने के रूप में कल-कल कर बहती जा रही थी। नरबदी ने दुग्गन से कहा, “तुम अपनी प्यास बुझा लो, मैं झरने में बदल गयी हूँ। अब इस जंगल में कोई प्यासा नहीं रहेगा।” नरबदी बाँसों के झुरमुटों से बह रही थी, कल-कल करती। वह तब से अमरकण्टक से बह रही है-समुद्र तक। वही नरबदी-नर्मदा के रूप में अमरकण्टक से जीवनरेखा बनकर बहती रहती है।

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