MP Board Class 12th Physics Solutions Chapter 7 प्रत्यावर्ती धारा

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प्रत्यावर्ती धारा NCERT पाठ्यपुस्तक के अध्याय में पाठ्यनिहित प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
एक 1000 का प्रतिरोधक 220 वोल्ट, 50 हर्ट्स आपूर्ति से संयोजित है। (a) परिपथ में धारा का rms मान कितना है? (b) एक पूरे चक्र में कितनी नेट शक्ति व्यय होती है?
हल :
दिया है : Vrms = 220 वोल्ट, R= 100 Ω, v = 50 हर्ट्स
(a) परिपथ में धारा का rms मान irms =\(\frac{V_{r m s}}{R}=\frac{220}{100}\) = 2.2 ऐम्पियर
(b) ∵ परिपथ में केवल शुद्ध प्रतिरोध जुड़ा है। अतः
शक्ति-गुणांक cos Φ = cos 0° = 1 [∴ Φ = 0°]
∴ पूरे एक चक्र में नेट शक्ति क्षय P = Vrms × irms × cosΦ .
= 220 × 2.2 × 1 = 484 वाट।

प्रश्न 2.
(a) ac आपूर्ति का शिखर मान 300 वोल्ट है। rms वोल्टता कितनी है?
(b) ac परिपथ में धारा का rms मान 10 ऐम्पियर है। शिखर धारा कितनी है?
हल :
(a) दिया है : Vo = 300 वोल्ट, Vrms = ?
rms वोल्टता Vrms = \(\frac{V_{0}}{\sqrt{2}}=\frac{300}{1.414}\) = 212 वोल्ट।
(b) दिया है : irms = 10 ऐम्पियर, io = ?
धारा का शिखर मान io = irms√2 = 14.14 ऐम्पियर।

प्रश्न 3.
एक 44 मिलीहेनरी का प्रेरित्र 220 वोल्ट, 50 हर्ट्स आपूर्ति से जोड़ा गया है। परिपथ में धारा के rms मान को ज्ञात कीजिए।
हल :
दिया है : L= 44 मिलीहेनरी = 44 × 10-3 हेनरी, v = 50 हर्ट्स, Vrms = 220 वोल्ट
प्रेरित्र में rms धारा irms = \(\frac{V_{r m s}}{X_{L}}\)
प्रेरित्र का प्रेरण प्रतिघात XL = 2πvL = 2 × \(\frac{22}{7}\) × 50 × 44 × 10-3 = 13.83Ω
irms= \(\frac{V_{r m s}}{X_{L}}\) =\(\frac{220}{13.83}[latex] = 15.90 ऐम्पियर।

प्रश्न 4.
एक 60 μF का संधारित्र 110 वोल्ट, 60 हर्ट्स ac आपूर्ति से जोड़ा गया है। परिपथ में धारा के rms मान को ज्ञात कीजिए।
हल :
दिया है : C = 60 μF = 60 × 10-6F, Vrms = 110 वोल्ट, v = 60 हर्ट्स
संधारित्र में rms धारा irms = [latex]\frac{V_{r m s}}{X_{C}}\)
जबकि संधारित्र का धारितीय प्रतिघात
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प्रश्न 5.
प्रश्न 3 व 4 में एक पूरे चक्र की अवधि में प्रत्येक परिपथ में कितनी नेट शक्ति अवशोषित होती है? अपने उत्तर का विवरण दीजिए।
हल :
प्रश्न 3 व 4 दोनों में ही पूरे चक्र में नेट शून्य शक्ति व्यय होती है।
विवरण-शुद्ध प्रेरित्र तथा शुद्ध धारिता दोनों में धारा तथा विभवान्तर के बीच 90° का कलान्तर होता है।
∴ शक्ति गुणांक cos Φ = cos 90° = 0
∴ प्रत्येक में नेट शक्ति व्यय P = Vrms × irms × cos Φ = 0.

प्रश्न 6.
एक LCR परिपथ की, जिसमें L = 2.0 हेनरी, C = 32 μF तथा R = 10Ω अनुनाद आवृत्ति ωr परिकलित कीजिए। इस परिपथ के लिए Q का क्या मान है?
हल :
दिया है : L= 2.0 हेनरी, C = 32 × 10-6F, R= 10Ω
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प्रश्न 7.
30 μF का एक आवेशित संधारित्र 27 मिलीहेनरी के प्रेरित्र से जोड़ा गया है। परिपथ के मुक्त दोलनों की कोणीय आवृत्ति कितनी है?
हल :
दिया है : C = 30 × 10-6F, L= 27 × 10-3 हेनरी
मुक्त दोलनों की कोणीय आवृत्ति \(\omega_{r}=\frac{1}{\sqrt{L C}}=\frac{1}{\sqrt{27 \times 10^{-3} \times 30 \times 10^{-6}}}\)
= 1.1 × 103 रेडियन सेकण्ड-1

प्रश्न 8.
कल्पना कीजिए कि प्रश्न 7 में संधारित्र पर प्रारम्भिक आवेश 6 मिलीकूलॉम है। प्रारम्भ में परिपथ में कुल कितनी ऊर्जा संचित होती है। बाद में कुल ऊर्जा कितनी होगी?
हल
दिया है : C= 30 × 10-6F, Qo = 6 × 10-3 कूलॉम
∴ प्रारम्भ में परिपथ में संचित ऊर्जा
E = संधारित्र की ऊर्जा + प्रेरित्र की ऊर्जा
=\(\frac{1}{2} \frac{Q_{0}^{2}}{C}+\frac{1}{2} L i_{0}^{2}=\frac{1}{2} \times \frac{6 \times 10^{-3} \times 6 \times 10^{-3}}{30 \times 10^{-6}}\)
= 0.6 जूल।   [∵io = 0]
∵ परिपथ में कोई प्रतिरोध नहीं जुड़ा है तथा शुद्ध धारिता तथा शुद्ध प्रेरक में ऊर्जा-हानि नहीं होती है। अत: बाद में परिपथ में कुल 0.6 जूल ऊर्जा ही बनी रहेगी।

प्रश्न 9.
एक श्रेणीबद्ध LCR परिपथ को, जिसमें R= 20 Ω, L= 1.5 हेनरी तथा C = 35μF, एक परिवर्ती आवृत्ति को 200 वोल्ट ac आपूर्ति से जोड़ा गया है। जब आपूर्ति की आवृत्ति परिपथ की मूल आवृत्ति के बराबर होती है तो एक पूरे चक्र में परिपथ को स्थानान्तरित की गई माध्य शक्ति कितनी होगी?
हल :
दिया है : R = 20Ω, L = 1.5 हेनरी, C = 35μF, Vrms = 200 वोल्ट
जब आपूर्ति की आवृत्ति, परिपथ की मूल आवृत्ति के बराबर है तो
परिपथ की प्रतिबाधा Z = R = 20Ω (अनुनाद की स्थिति)
∴ परिपथ में धारा irms = \(\frac{V_{r m s}}{Z}=\frac{200}{20}\)= 10 ऐम्पियर
जबकि शक्ति गुणांक cos Φ = cos 0° = 1
∴पूरे चक्र में परिपथ को स्थानान्तरित शक्ति
P= Vrms × irms × cos Φ = 200 × 10 × 1 = 2000 वाट।

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प्रश्न 10.
एक रेडियो को मेगावाट प्रसारण बैण्ड के एक खण्ड के आवृत्ति परास के एक ओर से दूसरी ओर (800 किलोहर्ट्स से 1200 किलोहर्ट्स) तक समस्वरित किया जा सकता है। यदि इसके LC परिपथ का प्रभावकारी प्रेरकत्व 200 माइक्रोहेनरी हो तो उसके परिवर्ती संधारित्र की परास कितनी होनी चाहिए?
हल :
दिया है : प्रसारण बैण्ड की आवृत्ति v = 800 किलोहर्ट्स-1200 किलोहर्ट्स
∴ vmin in = 800 × 103 हर्ट्स, vmax = 1200 × 103 हर्ट्स, L= 200 माइक्रोहेनरी = 200 × 10-6 हेनरी
रेडियो को प्रसारण बैण्ड के साथ समस्वरित करने हेतु LC परिपथ की मूल आवृत्ति, प्रसारण की आवृत्ति के बराबर होनी चाहिए।
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अतः परिवर्ती संधारित्र की परास 88 pF से 198 pF होनी चाहिए।

प्रश्न 11.
चित्र-7.1 में एक श्रेणीबद्ध LCR परिपथ दिखलाया गया है जिसे परिवर्ती आवृत्ति के 230 वोल्ट के स्त्रोत से जोड़ा गया है। L = 5.0 हेनरी, C = 80 μF, R = 40 Ω
(a) स्रोत की आवृत्ति निकालिए जो परिपथ में अनुनाद उत्पन्न करे।
(b) परिपथ की प्रतिबाधा तथा अनुनादी आवृत्ति पर धारा का आयाम निकालिए।
(c) परिपथ के तीनों अवयवों के सिरों पर विभवपात के rms मानों को निकालिए। दिखलाइए कि अनुनादी आवृत्ति पर LC संयोग के सिरों पर विभवपात शून्य है।
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हल :
दिया है : L = 5.0 हेनरी, C = 80 × 10-6F, R= 40Ω, Vrms= 230 वोल्ट
(a) अनुनाद के लिए स्रोत की कोणीय आवृत्ति
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= 50 रेडियन सेकण्ड-1

(b) अनुनाद की स्थिति में XL = Xc
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(c) R के सिरों का rms विभवपात
VR = irms × R = 5.75 × 40 = 230 वोल्ट।
XL= ωrL = 50 × 5.0 = 250Ω
तथा
∵ XC = XL = 250Ω.
∴ प्रेरक के सिरों पर rms विभवपात
VL = irms × XL
= 5.75 x 250 = 1437.5 वोल्ट।
इसी प्रकार,
VC = irms × XC
= 5.75 × 250 = 1437.5 वोल्ट।
∵ VLतथा VC विपरीत कला में है, अत: LC संयोग के
सिरों पर विभवपात V = VL – VC
= 1437.5-1437.5= 0 वोल्ट।

प्रश्न 12.
किसी LC परिपथ में 20 मिलीहेनरी का एक प्रेरक तथा 50 μF का एक संधारित्र है जिस पर प्रारम्भिक आवेश 10 मिलीकूलॉम है। परिपथ का प्रतिरोध नगण्य है। मान लीजिए कि वह क्षण जिस पर परिपथ बन्द किया जाता है t= 0 है।
(a) प्रारम्भ में कुल कितनी ऊर्जा संचित है? क्या यह LC दोलनों की अवधि में संरक्षित है?
(b) परिपथ की मूल आवृत्ति क्या है?
(c) किसी समय पर संचित ऊर्जा?
(i) पूरी तरह से विद्युत है ( अर्थात् वह संधारित्र में संचित है)?
(ii) पूरी तरह से चुम्बकीय है (अर्थात् प्रेरक में संचित है)?
(d) किन समयों पर सम्पूर्ण ऊर्जा प्रेरक एवं संधारित्र के मध्य समान रूप से विभाजित है?
(e) यदि एक प्रतिरोधक को परिपथ में लगाया जाए तो कितनी ऊर्जा अन्ततः ऊष्मा के रूप में क्षयित होगी?
हल :
दिया है : L = 20 × 10-3 हेनरी, C = 50 × 10-6F, Qo = 10 × 10-3 कूलॉम
(a) प्रारम्भ में कुल संचित ऊर्जा
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∵ परिपथ में शुद्ध प्रतिरोध नहीं लगा है; अत: परिपथ की कुल ऊर्जा संरक्षित है।

(b) परिपथ की कोणीय आवृत्ति
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(c) संधारित्र के निरावेशन समीकरण Q= Qo cos ωt से,
आवेश Q महत्तम अर्थात् Qmax = ± Qo होगा, जबकि t = 0, \(\frac{T}{2}\), T,
\(\frac{3T}{2}\),….. आदि। (∵ cos ωt = ± 1)
इन क्षणों पर धारा i शून्य होगी।
इसके विपरीत आवेश Q शून्य होगा, यदि
cos ωt = t = 0, \(\frac{T}{4}\), T,
\(\frac{3T}{4}\), \(\frac{5T}{4}\)…..
इन क्षणों पर धारा i महत्तम होगी।
अत: (i) क्षणों t = 0, \(\frac{T}{2}\), T,
\(\frac{3T}{2}\),….. आदि पर कुल ऊर्जा विद्युतीय होगी अर्थात् संधारित्र में संचित होगी।
(ii) क्षणों t = 0, \(\frac{T}{4}\), T,
\(\frac{3T}{4}\),….. आदि पर कुल ऊर्जा चुम्बकीय होगी अर्थात् प्रेरक में संचित होगी।
जहाँ T = \(\frac{1}{v}\) = \(\frac{1}{159}\)= 0.0063 सेकण्ड।

(d) प्रारम्भ में परिपथ की कुल ऊर्जा E = \(\frac{Q_{0}^{2}}{2 C}\)
यदि किसी समय t पर संधारित्र पर आवेश Q है तथा कुल ऊर्जा संधारित्र व प्रेरक में आधी-आधी बँटी है, तब
इस क्षण संधारित्र की ऊर्जा = \(\frac{1}{2}\)E.
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अतः व्यापक रूप में,
t = 0, \(\frac{T}{8}\), T,
\(\frac{3T}{8}\), \(\frac{5T}{8}\), \(\frac{7T}{8}\),…….. आदि समयों पर कुल ऊर्जा संधारित्र व प्रेरक में बराबर-बराबर बँटी होगी।
(e) यदि परिपथ में प्रतिरोध जोड़ दिया जाए तो धीरे-धीरे परिपथ की सम्पूर्ण ऊर्जा प्रतिरोधक में ऊष्मा के रूप में व्यय हो जाएगी।

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प्रश्न 13.
एक कुंडली को जिसका प्रेरण 0.50 हेनरी तथा प्रतिरोध 1002 है, 240 वोल्ट व 50 हर्ट्स की एक आपूर्ति से जोड़ा गया है।
(a) कुंडली में अधिकतम धारा कितनी है?
(b) वोल्टेज शीर्ष व धारा शीर्ष के बीच समय-पश्चता (time lag) कितनी है?
हल :
दिया है : L= 0.5 हेनरी, R= 100Ω, Vrms = 240 वोल्ट, v = 50 हर्ट्स
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प्रश्न 14.
यदि परिपथ को उच्च आवृत्ति की आपूर्ति (240 वोल्ट, 10 किलोहर्ट्स) से जोड़ा जाता है तो प्रश्न 13 (a) तथा (b) के उत्तर निकालिए। इससे इस कथन की व्याख्या कीजिए कि अति उच्च आवृत्ति पर किसी परिपथ में प्रेरक लगभग खुले परिपथ के तुल्य होता है। स्थिर अवस्था के पश्चात् किसी dc परिपथ में प्रेरक किस प्रकार का व्यवहार करता है?
हल :
दिया है : Vrms = 240 वोल्ट, v = 10 किलोहर्ट्स = 10000 हर्ट्स, L= 0.5 हेनरी, R = 100Ω
(a) प्रेरक का प्रतिघात XL = 2 πVL
= 2 × 3.14 × 10000 × 0.5 = 31400Ω
∴ प्रतिबाधा \(Z=\sqrt{R^{2}+X_{L}^{2}} \approx 31400 \Omega\) [∵ R<<XL]
∴ परिपथ में महत्तम धारा io = \(\frac{V_{r m s} \sqrt{2}}{Z}=\frac{240 \sqrt{2}}{31400} \approx\) ऐम्पियर।
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महत्तम धारा i0 का मान अत्यन्त कम है इससे यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि अति उच्च आवृत्ति की धाराओं के लिए प्रेरक खुले परिपथ की भाँति व्यवहार करता है।
∵ दिष्ट धारा के लिए v = 0.
अत: दिष्ट धारा परिपथ में XL = 2πvL = 0
अत: दिष्ट धारा परिपथ में प्रेरक साधारण चालक की भाँति व्यवहार करता है।

प्रश्न 15.
40Ω प्रतिरोध के श्रेणीक्रम में एक 100 µ F के संधारित्र को 110 वोल्ट, 60 हर्ट्स की आपूर्ति से जोड़ा गया है।
(a) परिपथ में अधिकतम धारा कितनी है?
(b) धारा शीर्ष व वोल्टेज शीर्ष के बीच समय-पश्चता कितनी है?
हल :
दिया है : R = 40Ω, C = 100 × 10-6 F, Vrms = 110 वोल्ट, v = 60 हर्ट्स
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प्रश्न 16.
यदि परिपथ को 110 वोल्ट, 12 किलोहर्ट्स आपूर्ति से जोड़ा जाए तो प्रश्न 15 (a) व (b) का उत्तर निकालिए। इससे इस कथन की व्याख्या कीजिए कि अति उच्च आवृत्तियों पर एक संधारित्र चालक होता है। इसकी तुलना उस व्यवहार से कीजिए जो किसी dc परिपथ में एक संधारित्र प्रदर्शित करता है।
हल :
दिया है : R= 40Ω, C= 100 × 10-6 F, Vrms = 110 वोल्ट, v = 12 × 103 हर्ट्स
(a)
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भाग (a) के उत्तर से हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि अति उच्च आवृत्ति की धारा के लिए संधारित्र का प्रतिघात नगण्य होता है, अर्थात् यह एक शुद्ध चालक की भाँति व्यवहार करता है।
स्थायी दिष्ट धारा हेतु v = 0, अत: धारितीय प्रतिघात XC = \(\frac{1}{2 \pi \nu C}\)= ∞
इस दिष्ट धारा के लिए संधारित्र खुले परिपथ की भाँति व्यवहार करता है।

प्रश्न 17.
स्त्रोत की आवृत्ति को एक श्रेणीबद्ध LCR परिपथ की अनुनादी आवृत्ति के बराबर रखते हुए तीन अवयवों L, C तथा R को समान्तर क्रम में लगाते हैं। यह दशाइए कि समान्तर LCR परिपथ में इस आवृत्ति पर कुल धारा न्यूनतम है। इस आवृत्ति के लिए प्रश्न 11 में निर्दिष्ट स्रोत तथा अवयवों के लिए परिपथ की हर शाखा में धारा के rms मान को परिकलित कीजिए।
हल :
समान्तर LCR परिपथ की प्रतिबाधा Z निम्नलिखित सूत्र द्वारा प्राप्त होती है –
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अनुनादी आवृत्ति के लिए, XC = XC
अत: इस स्थिति में \(\frac { 1 }{ z }\) न्यूनतम होगी अतः प्रतिबाधा Z अधिकतम होगी।
∴ परिपथ में प्रवाहित कुल धारा न्यूनतम होगी।
प्रश्न 11 से, Vrms = 230 वोल्ट, R = 40Ω, L= 5.0 हेनरी, C = 80 × 10-6F, ω = 50 रेडियन सेकण्ड-1
(अनुनादी आवृत्ति)
∵ L, C व R तीनों समान्तर क्रम में जुड़े हैं।
अतः तीनों के सिरों का विभवान्तर समान (प्रत्येक Vrms = 230 वोल्ट) होगा।
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प्रश्न 18.
एक परिपथ को जिसमें 80 मिलीहेनरी का एक प्रेरक तथा 60 uF का संधारित्र श्रेणीक्रम में है 230 वोल्ट, 50 हर्ट्स की आपूर्ति से जोड़ा गया है। परिपथ का प्रतिरोध नगण्य है।
(a) धारा का आयाम तथा rms मानों को निकालिए।
(b) हर अवयव के सिरों पर विभवपात के rms मानों को निकालिए।
(c) प्रेरक में स्थानान्तरित माध्य शक्ति कितनी है?
(d) संधारित्र में स्थानान्तरित माध्य शक्ति कितनी है?
(e) परिपथ द्वारा अवशोषित कुल माध्य शक्ति कितनी है? [माध्य में यह समाविष्ट है कि इसे ‘पूरे चक्र’ के लिए लिया गया है।]
हल :
दिया है : L = 80 × 10-3 हेनरी, C = 60 × 10-6 F, Vrms = 230 वोल्ट, v = 50 हर्ट्स
(a) प्रेरण प्रतिघात XL = 2 πvL = 2 × 3.14 × 50 × 80 × 10-3 = 25.12Ω
धारितीय प्रतिघात XL =\(\frac{1}{2 \pi v C}=\frac{1}{2 \times 3.14 \times 50 \times 60 \times 10^{-6}}=53.07 \Omega\)
∴ परिपथ की प्रतिबाधा Z = XC – XL = 53.07 – 25.12 = 27.95 ≈ 28Ω
∴ परिपथ में धारा irms= \(\frac{V_{r m s}}{Z}=\frac{230}{28}\) = 8.21ऐम्पियर।

धारा का शिखर मान io = irms√2 = 8.21 × 1.414 = 11.60 ऐम्पियर।

(b) प्रेरक के सिरों पर विभवपात VL = irms x XL = 8.21 × 25.12 = 206 वोल्ट।
∴ संधारित्र के सिरों पर विभवपात VC = irms x XC= 8.21 × 53.07 = 436 वोल्ट।

(c) प्रेरक के लिए धारा तथा विभवान्तर के बीच कलान्तर Φ = \(\frac { π }{ 2 }\)
प्रेरक में माध्य शक्ति PL = Vrms × irms × cos \(\frac { π }{ 2 }\) = 0

(d) संधारित्र के लिए धारा तथा विभवान्तर के बीच कलान्तर क Φ = \(\frac { π }{ 2 }\)
∴ संधारित्र में माध्य शक्ति PC = Vrms × irms × cos\(\frac { π }{ 2 }\)
(e) परिपथ द्वारा अवशोषित माध्य शक्ति भी शून्य होगी।

प्रश्न 19.
कल्पना कीजिए कि प्रश्न 18 में प्रतिरोध 15Ω है। परिपथ के हर अवयव को स्थानान्तरित माध्य शक्ति तथा सम्पूर्ण अवशोषित शक्ति को परिकलित कीजिए।
हल :
प्रश्न 18 से,XL = 25.12 2, XC = 53.07Ω तथा
R = 15Ω, Vrms = 230 वोल्ट
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प्रेरक तथा संधारित्र दोनों को स्थानान्तरित माध्य शक्ति शून्य है।
प्रतिरोध को स्थानान्तरित माध्य शक्ति PR = (irms)2 × R= (7.26)2 × 15 = 791 वाट।
परिपथ द्वारा अवशोषित सम्पूर्ण माध्य शक्ति = 791 वाट।

प्रश्न 20.
एक श्रेणीबद्ध LCR परिपथ को जिसमें L = 0.12 हेनरी, C = 480 µF, R = 23Ω, 230 वोल्ट परिवर्ती आवृत्ति वाले स्रोत से जोड़ा गया है।।
(a) स्त्रोत की वह आवृत्ति कितनी है जिस पर धारा आयाम अधिकतम है। इस अधिकतम मान को निकालिए।
(b) स्रोत की वह आवृत्ति कितनी है जिसके लिए परिपथ द्वारा अवशोषित माध्य शक्ति अधिकतम है।
(c) स्त्रोत की किस आवृत्ति के लिए परिपथ को स्थानान्तरित शक्ति अनुनादी आवृत्ति की शक्ति की आधी है।
(d) दिए गए परिपथ के लिए Q कारक कितना है?
हल :
(a) अधिकतम धारा के लिए XL = XC
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(b) ∵ प्रेरक व संधारित्र द्वारा अवशोषित माध्य शक्तियाँ शून्य हैं।
∴ परिपथ द्वारा अवशोषित माध्य शक्ति P= i2rms × R ⇒ P ∝ i2rms
स्पष्ट है कि शक्ति P महत्तम होगी यदि प्रवाहित धारा महत्तम हो।
इसके लिए XL = XC
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प्रश्न 21.
एक श्रेणीबद्ध LCR परिपथ के लिए जिसमें L = 3.0 हेनरी, C = 27 µ F तथा R = 7.4Ω अनुनादी आवृत्ति तथा Q कारक निकालिए। परिपथ के अनुनाद की तीक्ष्णता को सुधारने की इच्छा से “अर्ध उच्चिष्ठ पर पूर्ण चौड़ाई” को 2 गुणक द्वारा घटा दिया जाता है। इसके लिए उचित उपाय सुझाइए।
हल :
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अर्ध उच्चिष्ठ पर पूर्ण चौड़ाई को आधा करने अथवा समान आवृत्ति के लिए Q को दोगुना करने हेतु प्रतिरोध R का आधा कर देना चाहिए।

प्रश्न 22.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए –
(a) क्या किसी ae परिपथ में प्रयुक्त ताक्षणिक वोल्टता परिपथ में श्रेणीक्रम में जोड़े गए अवयवों के सिरों पर तात्क्षणिक वोल्टताओं के बीजगणितीय योग के बराबर होता है? क्या यही बात rms वोल्टताओं में भी लागू होती है?
(b) प्रेरण कुंडली के प्राथमिक परिपथ में एक संधारित्र का उपयोग करते हैं।
(c) एक प्रयुक्त वोल्टता संकेत एक dc वोल्टता तथ उच्च आवृत्ति के एक ac वोल्टता के अध्यारोपण से निर्मित है। परिपथ एक श्रेणीबद्ध प्रेरक तथा संधारित्र से निर्मित है। दर्शाइए कि dc संकेत C तथा ac संकेत के सिरे पर प्रकट होगा।
(d) एक लैम्प में श्रेणीक्रम में जुड़ी चोक को एक dc लाइन से जोड़ा गया है। लैम्प तेजी से चमकता है। चोक में लोहे के क्रोड को प्रवेश कराने पर लैम्प की दीप्ति में कोई अन्तर नहीं पड़ता है। यदि एक ac लाइन से लैम्प का संयोजन किया जाए तो तद्नुसार प्रेक्षणों की प्रागुक्ति कीजिए।
(e) ac मेंस के साथ कार्य करने वाली फ्लोरोसेंट ट्यूब में प्रयुक्त चोक कुंडली की आवश्यकता क्यों होती है? चोक कुंडली के स्थान पर सामान्य प्रतिरोधक का उपयोग क्यों नहीं होता?
उत्तर :
(a) हाँ, परन्तु यह तथ्य rms वोल्टताओं के लिए सत्य नहीं है क्योंकि विभिन्न अवयवों की rms वोल्टताएँ समान कला में नहीं होती।
(b) संधारित्र को जोड़ने से, परिपथ को तोड़ते समय चिनगारी देने वाली धारा संधारित्र को आवेशित करती है, अत: चिनगारी नहीं निकल पाती।
(c) संधारित्र dc सिग्नल को रोक देता है, अत: dc सिग्नल वोल्टता संधारित्र के सिरों पर प्रकट होगा जबकि ac सिग्नल प्रेरक के सिरों पर प्रकट होगा।
(d) dc लाइन के लिए v = 0.
अत: चोक की प्रतिबाधा XL = 2πvL = 0
अतः चोक दिष्ट धारा के मार्ग में कोई रुकावट नहीं डालती, इससे लैम्प तेज चमकता है।
ac लाइन में चोक उच्च प्रतिघात उत्पन्न करती है (L का मान अधिक होने के कारण), अत: लैम्प में धारा घट जाती है और उसकी चमक मद्धिम पड़ जाती है।
(e) चोक कुंडली एक प्रेरक का कार्य करती है और बिना शक्ति खर्च किए ही धारा को कम कर देती है। यदि चोक के स्थान पर प्रतिरोधक का प्रयोग करें तो वह धारा को कम तो कर देगा परन्तु इसमें वैद्युत शक्ति ऊष्मा के रूप में व्यय होती रहेगी।

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प्रश्न 23.
एक शक्ति संप्रेषण लाइन अपचायी ट्रांसफॉर्मर में जिसकी प्राथमिक कुंडली में 4000 फेरे हैं, 2300 वोल्ट पर शक्ति निवेशित करती है। 230 वोल्ट की निर्गत शक्ति प्राप्त करने के लिए द्वितीयक में कितने फेरे होने चाहिए?
हल :
दिया है : Np = 4000, VP = 2300 वोल्ट, VS = 230 वोल्ट, NS = ?
सूत्र \(\frac{V_{S}}{V_{P}}=\frac{N_{S}}{N_{P}}\) से.
द्वितीयक कुंडली में फेरों की संख्या \(N_{S}=\frac{V_{S}}{V_{P}} \times N_{P}=\frac{230}{2300} \times 4000=400\)

प्रश्न 24.
एक जल विद्युत शक्ति संयंत्र में जल दाब शीर्ष 300 मीटर की ऊँचाई पर है तथा उपलब्ध जल प्रवाह 100 मीटर3 सेकण्ड -1 है। यदि टरबाइन जनित्र की दक्षता 60% हो तो संयंत्र से उपलब्ध विद्युत शक्ति का आकलन कीजिए, g= 9.8 मीटर सेकण्ड-2.
हल :
दिया है : h = 300 मीटर, g= 9.8 मीटर/सेकण्ड2, जल का आयतन V = 100 मीटर3,
समय t = 1 सेकण्ड, जनित्र की दक्षता = 60%
जल विद्युत शक्ति = जल-स्तम्भ का दाब × प्रति सेकण्ड प्रवाहित जल का आयतन
. = hρg × V = 300 x 103 × 9.8 × 100 = 29.4 x 107 वाट
∴ जनित्र द्वारा उत्पन्न वैद्युत शक्ति = कुल शक्ति × दक्षता
= 29.4 × 107 × \(\frac { 60 }{ 100 }\) = 176.4 × 106 वाट = 176. 4 मेगावाट।

प्रश्न 25.
440 वोल्ट पर शक्ति उत्पादन करने वाले किसी विद्युत संयंत्र से 15 किलोमीटर दूर स्थित एक छोटे से कस्बे में 220 वोल्ट पर 800 किलोवाट शक्ति की आवश्यकता है। वैद्युत शक्ति ले जाने वाली दोनों तार की लाइनों का प्रतिरोध 0.5Ω प्रति किलोमीटर है। कस्बे को उप-स्टेशन में लगे 4000-220 वोल्ट अपचायी ट्रांसफॉर्मर से लाइन द्वारा शक्ति पहुँचती है।
(a) ऊष्मा के रूप में लाइन से होने वाली शक्ति के क्षय का आकलन कीजिए।
(b) संयंत्र से कितनी शक्ति की आपूर्ति की जानी चाहिए, यदि क्षरण द्वारा शक्ति का क्षय नगण्य है।
(c) संयंत्र के उच्चायी ट्रांसफॉर्मर की विशेषता बताइए।
हल :
(a) तार की लाइनों का प्रतिरोध R= 30 किमी × 0.5 ओम किमी-1 = 150
उप-स्टेशन पर लगे ट्रांसफॉर्मर के लिए VP = 4000 वोल्ट, VS = 220 वोल्ट
माना प्राथमिक परिपथ में धारा = ip व द्वितीयक परिपथ में धारा = is
ट्रांसफॉर्मर द्वारा द्वितीयक परिपथ में दी गई शक्ति
VS × iS = 800 किलोवाट = 800 × 103 वाट
VP × iP = VS × iS से,
MP Board Class 12th Physics Solutions Chapter 7 प्रत्यावर्ती धारा img 20
यह धारा सप्लाई लाइन से होकर गुजरती है।
∴ लाइन में होने वाला शक्ति क्षय
P= i2p × R= (200)2 × 15 वाट = 600 किलोवाट।

(b) संयंत्र द्वारा आपूर्ति की जाने वाली शक्ति
= 800 किलोवाट + 600 किलोवाट = 1400 किलोवाट।

(c) सप्लाई लाइन पर विभवपात ।
V= ip × R = 200 × 15 = 3000 वोल्ट
∴ उप-स्टेशन पर लगा अपचायी ट्रांसफॉर्मर 4000 वोल्ट-220 वोल्ट प्रकार का है, अतः इस ट्रांसफॉर्मर की प्राथमिक कुंडली पर विभवपात = 4000 वोल्ट
∴ संयंत्र पर लगे उच्चायी ट्रांसफॉर्मर द्वारा प्रदान की जाने वाली वोल्टता = 3000 + 4000 = 7000 वोल्ट
अत: यह ट्रांसफॉर्मर 440 V – 7000 V प्रकार का होना चाहिए।
MP Board Class 12th Physics Solutions Chapter 7 प्रत्यावर्ती धारा img 21

प्रश्न 26.
प्रश्न 25 को पुनः कीजिए। इसमें पहले के ट्रांसफॉर्मर के स्थान पर 40000-220 वोल्ट की अपचायी ट्रांसफॉर्मर है। [पूर्व की भाँति क्षरण के कारण हानियों को नगण्य मानिए। यद्यपि अब यह सन्निकटन उचित नहीं है । क्योंकि इसमें उच्च वोल्टता पर संप्रेषण होता है। अतः समझाइए कि क्यों उच्च वोल्टता संप्रेषण अधिक वरीय है।
हल :
(a) पूर्व प्रश्न की भाँति
VS × iS = 800 × 103
∴\(i_{P}=\frac{V_{S} \times i_{S}}{V_{P}}=\frac{800 \times 10^{3}}{40000}\) = 20 ऐम्पियर [∵ इस बार Vp= 40000 वोल्ट]
∴ लाइन में होने वाला शक्ति व्यय P = i2 S × R
P = (20)2 × 15 = 6000 वाट = 6 किलोवाट।

(b) ∴ संयंत्र द्वारा प्रदान की जाने वाली शक्ति = 800 किलावाट + 6 किलावाट = 806 किलावाट।

(c) सप्लाई लाइन पर विभवपात V = Ip × R
= 20 × 15 = 300 वोल्ट ::
∵ उप-स्टेशन पर लगा ट्रांसफॉर्मर 40000 वोल्ट – 220 वोल्ट प्रकार का है, अत: इसकी
प्राथमिक कुंडली पर विभवपात = 40000 वोल्ट.
∴ संयंत्र पर लगे उच्चायी ट्रांसफॉर्मर द्वारा प्रदान की जाने वाली वोल्टता = 40000 वोल्ट + 300 वोल्ट
= 40300 वोल्ट
∴ संयंत्र पर लगा ट्रांसफॉर्मर 440 वोल्ट – 40300 वोल्ट प्रकार का होना चाहिए।
सप्लाई लाइन में प्रतिशत शक्ति क्षय = \(\frac{6}{806} \times 100\) = 0.74%

प्रश्न 25 व 26 के हलों से स्पष्ट है कि वैद्युत शक्ति उच्च वोल्टता पर सम्प्रेषित करने से सप्लाई लाइन में होने वाला शक्ति क्षय बहुत घट जाता है। यही कारण है कि वैद्युत उत्पादन संयंत्रों से वैद्युत शक्ति का सम्प्रेषण उच्च वोल्टता पर किया जाता है।

प्रत्यावर्ती धारा NCERT भौतिक विज्ञान प्रश्न प्रदर्शिका (Physics Exemplar Problems) पुस्तक से चयनित महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के हल

प्रत्यावर्ती धारा बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
किसी वोल्टता मापक युक्ति को ac मेंस से जोड़ने पर यह युक्ति 220V स्थिर निवेश वोल्टता दर्शाती है। इसका अर्थ
यह है कि
(a) निवेश वोल्टता ac वोल्टता नहीं हो सकती, परन्तु यह dc वोल्टता है
(b) अधिकतम निवेश वोल्टता 220V है
(c) मापक युक्ति υ का पाठ्यांक नहीं देती अपितु < υ2 > का पाठ्यांक देती है और इसका अंशांकन \(\sqrt{<v^{2}>}\) का पाठ्यांक लेने के लिए किया गया है
(d) किसी यान्त्रिक दोष के कारण मापक युक्ति का संकेतक अटक जाता है।
उत्तर :
(c) मापक युक्ति υ का पाठ्यांक नहीं देती अपितु < υ2 > का पाठ्यांक देती है और इसका अंशांकन \(\sqrt{<v^{2}>}\) का पाठ्यांक लेने के लिए किया गया है

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प्रश्न 2.
किसी जनित्र से श्रेणीक्रम से जुड़े LCR परिपथ की अनुनादी आवृत्ति कम करने के लिए –
(a) जनित्र की आवृत्ति कम करनी चाहिए।
(b) परिपथ में लगे संधारित्र के पार्श्व क्रम में एक अन्य संधारित्र जोड़ना चाहिए।
(c) प्रेरक के लोह-क्रोड को हटा देना चाहिए
(d) संधारित्र के परावैद्युत को हटा देना चाहिए।
उत्तर :
(b) परिपथ में लगे संधारित्र के पार्श्व क्रम में एक अन्य संधारित्र जोड़ना चाहिए।

प्रश्न 3.
संचार में प्रयुक्त LCR परिपथ के अधिक अच्छे समस्वरण के लिए निम्नलिखित में किस संयोजन का चयन करना
चाहिए?
(a) R = 20 Ω, L = 1.5 H, C = 35μF
(b) R = 25 Ω, L= 2.5 H, C = 45μF
(c) R = 15 Ω, L= 3.5 H, C = 30μF
(d) R = 25 Ω, L= 1.5 H, C = 45μF.
उत्तर :
(c) R = 15 Ω, L= 3.5 H, C = 30μF

प्रश्न 4.
1Ω प्रतिबाधा के किसी प्रेरक तथा 2Ω प्रतिरोध के किसी प्रतिरोधक को 6 V (rms) के ac स्रोत से श्रेणीक्रम में जोड़ा गया है। परिपथ में क्षयित शक्ति का मान है
(a) 8w
(b) 12w
(c) 14.4W
(d) 18 W.
उत्तर :
(c) 14.4W

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प्रश्न 5.
किसी अपचायी ट्रांसफार्मर का निर्गम 12W के प्रकाश बल्ब को संयोजित करने पर 24V मापा जाता है। शिखर धारा का मान है –
(a) \(\frac{1}{\sqrt{2}} \mathrm{A}\)
(b) √2 A
(c) 2 A
(d) 2√2 A.
उत्तर :
(a) \(\frac{1}{\sqrt{2}} \mathrm{A}\)

प्रत्यावर्ती धारा अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
यदि किसी LC परिपथ को आवर्ती दोलनकारी स्प्रिंग-ब्लॉक प्रणाली के तुल्य समझा जाता है तब इस LC परिपथ की कौन-सी ऊर्जा स्थितिज ऊर्जा के और कौन-सी गतिज ऊर्जा के तुल्य होगी?
उत्तर :
LC परिपथ की चुम्बकीय ऊर्जा, गतिज ऊर्जा के तुल्य एवं वैद्युत ऊर्जा, स्थितिज ऊर्जा के तुल्य होगी।

प्रश्न 2.
अत्युच्च आवृत्ति पर चित्र 7.2 में दर्शाए गए परिपथ का प्रभावी तुल्य परिपथ बनाइए और इसकी प्रभावी प्रतिबाधा ज्ञात कीजिए।
MP Board Class 12th Physics Solutions Chapter 7 प्रत्यावर्ती धारा img 22
उत्तर :
अति उच्च आवृत्ति पर संधारित्र का प्रतिघात (\(X_{c}=\frac{1}{\omega_{C}}=\frac{1}{2.7 f c}\)) बहुत निम्न होगा तथा प्रेरक का प्रतिघात (XL = ωL = 2 πfL) बहुत उच्च होगा। अतः प्रेरक खुले प्रतिरोध की भाँति कार्य करेगा।
अत: दिए गए परिपथ का प्रभावी तुल्य परिपथ, चित्र में दर्शाया गया है।
MP Board Class 12th Physics Solutions Chapter 7 प्रत्यावर्ती धारा img 23
इस परिपथ की प्रभावी प्रतिबाधा (Z) = R1 + R3

प्रश्न 3.
चित्र 7.4 (a) एवं (b) में दर्शाए गए परिपथों का अध्ययन कीजिए और निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए
(a) किन दशाओं में दोनों परिपथों में rms धारा समान होगी?
(b) क्या परिपथ (a) से परिपथ (b) में rms धारा अधिक हो सकती है?
MP Board Class 12th Physics Solutions Chapter 7 प्रत्यावर्ती धारा img 24
उत्तर :
(a) यदि दोनों परिपथों में लगाए गए प्रत्यावर्ती स्रोत की rms वोल्टता समान है तब अनुनाद की स्थिति में LCR परिपथ में rms धारा, केवल R वाले परिपथ में rms धारा के बराबर होगी।
(b) नहीं, परिपथ (b) में rms धारा परिपथ (a) में rms धारा से अधिक नहीं हो सकती है क्योंकि LCR परिपथ की प्रतिबाधा Z ≥ R, अतः Ia ≥ Ib.

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प्रश्न 4.
कोई युक्ति र किसी ac स्रोत से जुड़ी है। एक पूर्ण चक्र में वोल्टता, धारा एवं शक्ति के परिवर्तन चित्र 7.5 में दर्शाए गए हैं –
(a) कौन-सा वक्र एक पूर्ण वक्र में शक्ति-क्षय दर्शाता है?
(b) एक पूर्ण चक्र में औसत उपमुक्त शक्ति कितनी है?
(c) युक्ति ‘X’ की पहचान कीजिए।
MP Board Class 12th Physics Solutions Chapter 7 प्रत्यावर्ती धारा img 25
उत्तर :
(a) वक्र A शक्ति-क्षय दर्शाता है।
(b) एक पूर्ण चक्र में औसत उपमुक्त शक्ति शून्य है।
(c) युक्ति ‘X’, L अथवा C अथवा LC है।

प्रश्न 5.
स्पष्ट कीजिए कि संधारित्र द्वारा प्रदत्त प्रतिघात प्रत्यावर्ती धारा की आवृत्ति में वृद्धि करने पर कम क्यों हो जाता है?
उत्तर :
संधारित्र द्वारा प्रदत्त प्रतिघात \(\left(X_{C}\right)=\frac{1}{\omega_{C}}=\frac{1}{2 \pi f C}\)
अतः संधारित्र द्वारा प्रदत्त प्रतिघात, प्रत्यावर्ती धारा की आवृत्ति में वृद्धि करने पर कम हो जाता है।

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प्रश्न 6.
स्पष्ट कीजिए कि किसी प्रेरक द्वारा प्रदत्त प्रतिघात प्रत्यावर्ती वोल्टता की आवृत्ति में वृद्धि करने पर क्यों बढ़ता है?
उत्तर :
प्रेरक द्वारा प्रदत्त प्रतिघात (XL) = ωL= 2 πfL
अर्थात् XL∝ f
अतः प्रेरक द्वारा प्रतिघात, प्रत्यावर्ती धारा की आवृत्ति में वृद्धि करने पर बढ़ता है।

प्रत्यावर्ती धारा आंकिक प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
0.01 हेनरी प्रेरकत्व तथा 1 ओम प्रतिरोध की कोई कुंडली 200 वोल्ट, 50 हर्ट्स के ac शक्ति प्रदाय से जोड़ी गई है। परिपथ की प्रतिबाधा तथा अधिकतम प्रत्यावर्ती वोल्टता एवं धारा के बीच काल-पश्चता परिकलित कीजिए।
हल :
दिया है, L= 0.01 हेनरी, R = 1 ओम, Vrms = 200 वोल्ट, f = 50 हर्ट्स।
प्रेरण प्रतिघात XL = ωL = 2πfL = 2 x 3.14 x 50 x 0.01= 3.14Ω
MP Board Class 12th Physics Solutions Chapter 7 प्रत्यावर्ती धारा img 26

प्रश्न 2.
किसी शक्ति केन्द्र से 1 MW शक्ति 10 किमी दूर स्थित किसी शहर को प्रदान की जानी है। कोई व्यक्ति इस उद्देश्य के लिए 0.5 सेमी त्रिज्या के ताँबे के तारों के जोड़े का उपयोग करता है। संचरित शक्ति की ओमीय क्षति के अंश का परिकलन कीजिए जबकि –
(i) शक्ति प्रेषण 220 वोल्ट पर किया जाता है। इस स्थिति की व्यवहार्यता पर टिप्पणी कीजिए।
(ii) किसी उच्चायी ट्रांसफॉर्मर द्वारा वोल्टता 11000 वोल्ट तक बढ़ाकर शक्ति संचरण किया जाता है और फिर अपचायी ट्रांसफॉर्मर द्वारा वोल्टता को 220 वोल्ट किया जाता है।
(ρcu = 1.7 × 10-8 SI)
उत्तर :
दिया है, शक्ति (P) = 1 MW = 106 वाट
r = 0.5 सेमी = 0.5 × 10-2 मीटर
l = 10 किमी = 10000 मीटर .
(i)
MP Board Class 12th Physics Solutions Chapter 7 प्रत्यावर्ती धारा img 27
अत: 220 वोल्ट पर शक्ति प्रेषण पर समस्त ऊर्जा दूर स्थित शहर तक पहुँचने से पहले ही ऊष्मा के रूप में क्षय हो जाएगी। अत: यह विधि शक्ति प्रेषण के लिए उपयुक्त नहीं है।

(ii) उच्चायी ट्रांसफॉर्मर द्वारा वोल्टता बढ़ाने पर,
MP Board Class 12th Physics Solutions Chapter 7 प्रत्यावर्ती धारा img 28
इस प्रकार शक्ति प्रेषण में केवल 3.3% ऊर्जा क्षय हो रहा है। अत: यह विधि शक्ति प्रेषण के लिए उपयुक्त है।

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MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण अनेक शब्दों के लिए एक शब्द

MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण अनेक शब्दों के लिए एक शब्द

परीक्षा में कभी–कभी वाक्यांश देकर उनके लिए एक शब्द पूछे जाते हैं। कुछ शब्द तथा अर्थ नीचे दिए जा रहे हैं–
1. जो क्षमा न किया जा सके – अक्षम्य
2. जहाँ पहुँचा न जा सके – अगम्य
3. जिसे पहले गिनना उचित हो – अग्रगण्य
4. जिसका जन्म न हो। – अजन्मा
5. ऐसी वस्तु जिसका कोई मूल्य न हो – अमूल्य
6. जो दूर की बात सोचे। – दूरदर्शी
7. जो दूर की बात न सोचे – अदूरदर्शी
8. जिसका पार न हो – अपार
9. जो दिखाई न दे। – अदृश्य
10. जिसके समान कोई न हो – अद्वितीय

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11. जिसका पता न हो – अज्ञात
12. जो थोड़ा जानता हो। – अल्पज्ञ
13. जो सब कुछ जानता हो – सर्वज्ञ
14. जो सब कुछ नहीं जानता हो – अज्ञ
15. जो कभी बूढ़ा न हो – अजर
16. जो वेतन पर काम करे – वैतनिक
17. जो ऊपर कहा गया हो – उपर्युक्त
18. जो आशा से कहीं बढ़कर हो – आशातीत
19. जिसका कोई आधार न हो – निराधार
20. जो नष्ट न हो सके – अक्षय
21. चारों ओर चक्कर काटना – परिक्रमा
22. जो उचित समय पर न हो – असामयिक
23. जिसका पति मर चुका हो – विधवा
24. जिसकी पत्नी मर चुकी हो – विधुर
25. काँसे का बर्तन बनाने वाला – कसेरा
26. जिसे कर्त्तव्य नहीं सूझ रहा हो – किंकर्तव्यविमूढ़
27. जो उपकार को माने – कृतज्ञ
28. जो उपकार को न माने – कृतघ्न
29. जो आँखों के सामने हो – प्रत्यक्ष
30. जो आँखों के सामने न हो – परोक्ष.

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MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण अनेकार्थक शब्द

MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण अनेकार्थक शब्द

प्रश्न 1.
अनेकार्थक शब्द की परिभाषा सोदाहरण दीजिए।
उत्तर –
प्रसंगानुसार भिन्न अर्थों में प्रयुक्त होने वाले अनेकार्थक शब्द कहलाते हैं;

जैसे –
काम – कामदेव, इच्छा, कार्य।
अम्बर – आकाश, वस्त्र।
उत्तर – हल, उत्तर दिशा, जवाब, बाद में।

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महत्त्वपूर्ण अनेकार्थ शब्द

1. अंक – गोद, चिह्न, नाटक का अंक, संध्या, पुण्य, अध्याय।
2. अंग – भाग, एक देश, शरीर का होई हिस्सा।
3. अनंत – अंतहीन, आकाश, विष्णु।
4. अर्क – सूर्य, काढ़ा या तत्त्व, आक का पौधा।
5. अर्थ – धन, मतलब, कारण, लिए, प्रयोजन।
6. अक्ष – आँख, सर्प, शान, धुरी, रथ, आत्मा, कील, मण्डल।
7. अज – बकरा, मेष राशि, दशरथ के पिता, ब्रह्मा, शिव, जीव।
8. अहि – सूर्य, साँप, कष्ट।
9. अक्षर – ब्रह्मा, विष्णु ‘अ’ आदि अक्षर, शिव, धर्म, मोक्ष ।
10. अच्युत – अविनाशी, स्थिर, कृष्ण, विष्णु।
11. आम – आम का फल, सर्वसाधारण, सामान्य।
12. अंतर – अवधि, आकाश, अवसर, मध्य, छिद्र।
13. अरुण – लाल, सूर्य, सूर्य का सारथि, सिन्दूर, वृक्ष, संध्या, राग।
14. अमृत – जल, दूध, अन्न, पारा।
15. अतिथि – मेहमान, साधु, यात्री, अपरिचित, राम का पोता या कुश का बेटा।
16. अपवाद – नियम के विरुद्ध, कलंक।
17. आपत्ति – मुसीबत, एतराज।
18. अलि – भौ .., पंक्ति, सखी।
19. अशोक – शोकरहित, एक प्रसिद्ध राजा, एक वृक्ष ।
20. अयन – घर, मार्ग, स्थान, आधा वर्ष ।
21. आराम – बाग, विश्राम, शांति।
22. आली – पंक्ति, सखी।
23. अर्थी – इच्छुक, मुर्दा रखने का तख्ता, याचक
24. अचल – पर्वत, स्थिर।
25. अवस्था – आयु, दशा।
26. ईश्वर – मालिक, धनी, परमात्मा।
27. इन्दु – चन्द्र, कपूर, नाम।
28. उत्तर – एक दिशा, जवाब, हल।
29. कंद – मिश्री, वह जड़ जो गुद्देदार और बिना रेशे के हो।
30. कनक – धतूरा, सोना।

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31. कला – किसी कार्य को करने की कुलशता, अंश, चन्द्र का सोलहवाँ भाग, शिल्प आदि विद्या।
32. कटाक्ष – तिरछी नजर, व्यथा, आक्षेप।
33. कसरत – व्यायाम, अधिकता।
34. काम – कामदेव, इच्छा, कार्य।
35. केतु – पताका या ध्वजा, एक ग्रह, पुच्छल तारा।
36. कृष्ण – काला, भगवान कृष्ण, वेद व्यास।
37. केवल – एकमात्र, विशुद्ध नाम।
38. कर – हाथ, लँड, किरण, टैक्स, करने की आज्ञा।
39. कोट – किला, पहनने का कोट ।
40. कोटि – करोड़, धनुष का सिरा, श्रेणी।
41. कषाय – कसैला, गेरू के रंग का।
42. कौरव – गीदड़, धृतराष्ट्र।
43. कुशल – खैरियत, चतुर ।
44. कबंध – एक राक्षस विशेष, पेटी (कमरबंध), राहु, धड़।
45. कल – कल आने वाला, दूसरा दिन, बीता हुआ दूसरा दिन, मशीन, सुंदर, चैन, ध्वनि।
46. काल – समय मृत्यु, यम, शिव, अकाल ।
47. केश – बाल, बादल, शुण्ड, बृहस्पति का बेटा।
48. कुम्भ – हाथी का मस्तक, राक्षस का नाम, तीर्थस्थल।
49. खर – गधा, दुष्ट, तीक्ष्ण, तिनका।
50. खल – दुष्ट, धतूरा, दवा आदि कूटने का खल।
51. गुण – रस्सी, विशेषता, तमोगुण, रजोगुण और सतोगुण।
52. गौ – भूमि, दिशा, वाणी, नेत्र, स्वर्ग, आकाश, शब्द

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53. गुरु – आचार्य, बड़ा, भारी, दो मात्राओं का अक्षर, देवताओं के गुरु बृहस्पति।
54. गण – समूह, भूत – प्रेतादि, शिव के सेवक।
55. गति – चाल, हालत, मोक्ष।

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MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण विलोम शब्द

MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण विलोम शब्द

प्रश्न 1.
विलोम शब्द की परिभाषा सोदाहरण दीजिए।
उत्तर-
एक-दूसरे के विपरीत या उल्टा, अर्थ बतलाने वाले शब्द विलोम शब्द कहलाते हैं। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि संज्ञा शब्द का विलोम या विपरीत शब्द संज्ञा ही होगा और विशेषण शब्द का विलोम शब्द विशेषण शब्द ही होगा;

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जैसे-
अनुराग = विराग,
आकाश = पाताल,
आज = कल आदि।

महत्त्वपूर्ण विलोम शब्द
MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण विलोम शब्द img-1
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MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण विलोम शब्द img-3
MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण विलोम शब्द img-4
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MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द

MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द

प्रश्न 1.
पर्यायवाची शब्द की परिभाषा सोदाहरण दीजिए।
उत्तर –
पर्यायवाची शब्दों को समानार्थक या प्रतिशब्द भी कहते हैं। जिन शब्दों के अर्थों में समानता हो, उन्हें पर्यायवाची शब्द कहते हैं।

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जैसे –
अग्नि – आग, पावक, दहन, अनल, हुताशन, कृशानु।
असुर – दानव, दनुज, दैत्य, राक्षस, तमीचर, रजनीचर।

महत्त्वपूर्ण पर्यायवाची शब्द
1. आकाश – व्योम, गगन, नभ, अम्बर, अन्तरिक्ष, आसमान, अनन्त।
2. कमल – पंकज, सरोज, अरविन्द, शतदल, राजीव, जलज, पद्म, कंज, अम्बुज।
3. चन्द्रमा – हिमांशु, शशि, चन्द्र, सोम, सुधाकर, सुंधाशु, इन्दु, राकापति, राकेश।
4. सूर्य – रवि, दिनकर, भास्कर, पतंग, सविता, आदित्य, भानु।
5. समुद्र – उदधि, सागर, सिन्धु, तोयनिधि, रत्नाकर, पारावार।
6. हवा – वायु, समीर, पवन, प्रभंजन, बयार।
7. तालाब – सर, ताल, सरसी, पुष्कर, जलाशय।
8. अग्नि – पावक, हुताशन, दहन, अनल।
9. जल – नीर, पानी, सलिल, वारि, पय।
10. हाथी – गज, कुंजर, द्विरद, करी, द्वीप, हस्ती।।
11. पर्वत – भूधर, गिरि, नग, तुंग, पहाड़, महीधर।
12. पक्षी – विहग, खग, विहंग, पखेरू, अंडज।
13. घोड़ा – अश्व, हय, बाजि, तुरंग, घोटक।
14. रात – रैन, निशि, रात्रि, यामिनी, तमी।
15. आँख – लोचन, नेत्र, नयन, दृग, चक्षु।
16. सर्प – भुजंग, व्याल, साँप, नाग, फणी, अहि, पन्नग, विषधर।
17. राजा – नृप, भूप, महीप, नरेश, सम्राट, भूपति।
18. फूल – सुमन, पुष्प, कुसुम, प्रसून।
19. अमृत – सुधा, अमी, अभिय, पीयूष।
20. स्त्री – नारी, अबला, बनिता, रमणी, अगना।

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21. सोना – स्वर्ण, हेम, कंचन, कनक, कलधौत।
22. विष – गरल, हलाहल, कालकूट।
23. माता – जननी, अम्बिका, अम्बा, धात्री।
24. मयूर – केकी, शिखण्डी, कलापी, मोर, शिखी।
25. पृथ्वी – भू, धरा, भूमि, वसुंधरा, साडी, वसुमती।
26. बिजली – विद्युत, तड़ित, सौदामिनी, शम्पा, चंचला।
27. घर – गृह, गेह, निकेतन, सदन, धाम, मंदिर।
28. सिंह – शेर, नाहर, व्याघ्र, मृगेन्द, मृगराज।
29. भौंरा – भ्रमर, मधुप, मधुकर, अलि, भृग, मलिन्द।
30. जंगल – वन, विपिन, कानन, अरण्य।
31. बन्दर – कपि, मर्कट, शाखामृग, बानर।
32. नदी – सरिता, तरंगिनी, तटनी।
33. पाँव – पद, पैर, चरण, पग।
34. पेड़ – विटप, वृक्ष, पादप, तरु।
35. महादेव – पशुपति, शिव, शंकर, त्रिलोचन, गिरीश, कैलाशपति।
36. आनंद – हर्ष, मोद, प्रमोद, उल्लास।
37. फूल – सुमन, पुष्प, कुसुम, प्रसून।
38. मनुष्य – मानव, नर, मनुज, आदमी।
39. रास्ता – पथ, राह, मार्ग, पन्थ।
40. असुर – दनुज, दानव, राक्षस, दैत्य, निशाचर।
41. गंगा – भागीरथी, सुरसरि, जाह्नवी, मन्दाकिनी।
42. शत्रु – रिपु, बैरी, प्रतिपक्षी।
43. तलवार – कृपाण, करवाल, आलि, खड्ग।
44. गणेश – विनायक, गजानन, गिरजानन्दन।
45. इन्द्र – सुरेश, पुरन्दर, शचीपति।
46. पुत्र – सुत, वत्स, तात, आत्मज, तनय।
47. दुःख – पीड़ा, व्यथा, वेदना, कष्ट, क्लेश।
48. देवता – देव, सुर, अमर, अमर्त्य।
49. कपड़ा – वस्त्र, पट, अम्बर, वसन, चीर, दुकूल।
50. पुत्री – तनया, बेटी, सुता, आत्मजा, दुहिता, नन्दिनी, तनुजा।
51. संसार – जग, जगत, दुनिया, विश्व, लोक।
52. सखा – मित्र, मीत, प्रिय, स्नेही।

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अति महत्त्वपूर्ण परीक्षोपयोगी पर्यायवाची शब्द
1. पत्थर – पाषाण, प्रस्तर, पाहन।
2. सेना – कटक, दल, फौज, सैन्य।
3. समूह – वृन्द, गण, पुंज, मण्डी, समुदाय।
4. रक्त – लहू, खून, शोणित, रुधिर।
5. सुन्दर – चारू, रम्य, रुचिर, मनोहर।
6. मछली – मीन, झख, मत्स्य, शफरी।
7. पत्नी – भार्या, बधू, बहू, गृहिणी, तिय।
8. बेल – लता, बल्लरी, बेलि।
9. नौका – नाव, तरिणी, तरी, जलयान।
10. धनुष – चाप, शरासन, कोदण्ड, पिनाक।

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MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण समोच्चारित भिन्नार्थक शब्द

MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण समोच्चारित भिन्नार्थक शब्द

प्रश्न 1.
समोच्चारित भिन्नार्थक शब्द से क्या समझते हैं? उदाहरण सहित समझाइए।
उत्तर-
हिन्दी में ऐसे अनेक शब्द प्रयुक्त होते हैं जिनका उच्चारण मात्रा या वर्ण के हल्के हेर-फेर के सिवा प्रायः समान होते हैं, किन्तु अर्थ में भिन्नता होती है, उन्हें समोच्चारित भिन्नार्थक शब्द या युग्म शब्द कहा जाता है।

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इनके उदाहरण इस प्रकार हैं-

1. अंस = कंधा
अंश = भाग

2. अग = जड़, अगतिशील
अघ = पाप

3. अनल = आग
अनिल = वायु

4. अन्न = अनाज
अन्य = दूसरा

5. अपेक्षा = तुलना में, आवश्यकता
उपेक्षा = अवहेलना

6. अलि = भौंरा
आली = सखी

7. अवलम्ब = सहारा
अविलम्ब = शीघ्र

8. अविराम = निरंतर
अभिराम = सुन्दर

9. आकर = खान
आकार = रूप

10. आदि = आरंभ
आदी = अभ्यस्त

11. आवरण = ढकना
आभरण = अलंकरण

12. आहत = घायल
आहट = आवाज

13. आहुत = हवन किया गया
आहूत = निमंत्रित

14. उद्योत = प्रकाश
उद्योग = प्रयत्न

15. उद्धार = मुक्ति
उधार = ऋण

16. कर्म = काम
क्रम = बारी, सिलसिला

17. कलि = कलयुग
कली = फूल की कली

18. कन = वंश
कुल = किनारा

19. कोप = खजाना
कोस = दूरी का माप (दो मील)

20. क्षति = हानि
क्षिति = पृथ्वी

21. गृह = घर
ग्रह = तारे (बुध, शुक्र आदि)

22. चरम = अंतिग।
चर्म = खाल

23. चीर = वस्त्र
चीड़ = एक वृक्ष का नाम

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24. छात्र = विद्यार्थी.
क्षात्र = क्षत्रिय-संबंधी

25. जलज = कमल
जलद = बादल

26. तरणि = सूर्य
तरणी = नाव

27. दूत = संदेश पहुँचाने वाला
द्यूत = जुआ

28. नगर = शहर
नाग = सर्प हाधी

29. निर्वाण = मुक्ति
निर्माण = रचन

30. नीड़ = घोंसला
नीर = पानी

31. पानी = जल
पाणि = हाथ

32. पालतू = पाला हुआ
फालतू = व्यर्थ

33. पुरुष = आदमी
परुष = कठोर

34. प्रणाम = नमस्कार
प्रमाण = सबूत

35. प्रवाह = बहाव
प्रभाव = असर

36. प्रसाद = देवता को चढ़ाया भोग, कृपा
प्रासाद = महल

37. बात = कथन
वात = वायु

38. बेर = एक फल
बैर = शत्रुभाव

39. मध्य = बीच
मद्य = शराब

40. मनोज = कामदेव
मनोज्ञ = सुन्दर

41. मूल = जड़
मूल्य = कीमत

42. याम = पहर
जाम = प्याला

43. रीति = प्रथा
रीती = खाली

44. रेखा = पंक्ति
लेखा = हिसाब

45. लक्ष्य = निशाना
लक्ष = लाख

46. वसन = वस्त्र
व्यसन = कुटेव

47. शुक्ल = स्वच्छ, सफेद
शुल्क = फीस

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48. शूर = योद्धा
सूर = सूरदास, अंधा

49. संकर = मिश्रित
शंकर = शिव

50. सकल = पूरा
शकल = टुकड़ा

51. सर = तालाब
शर = बाण

52. सुत = बेटा
सूत = सारथी, कच्चा धागा

53. स्वेद = पसीना
श्वेत = सफेद

54. हर = शिव
हरि = विष्णु

समरूपी भिन्नार्थक शब्द-
MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण समोच्चारित भिन्नार्थक शब्द img-1
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MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण प्रत्यय

MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण प्रत्यय

जो शब्दांश किसी शब्द या धातु के अन्त में जुड़कर नए अर्थ का ज्ञान कराते हैं, उन्हें प्रत्यय कहते हैं। जैसे–कड़वाहट, लकड़पन, सज्जनता। ‘हट’, ‘पन’, ‘ता’ ये सभी प्रत्यय के रूप हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि शब्द के अंत में प्रत्यय लगने से उनके अर्थ में विशेषता एवं भिन्नता उत्पन्न हो जाती है।

प्रत्यय के दो प्रकार हैं–

  1. कृदन्त,
  2. तद्धित।

1. कृदन्त प्रत्यय
कृदन्त प्रत्यय वे प्रत्यय होते हैं, जो धातुओं (क्रियाओं) के अन्त में लगाए जाते हैं। हिन्दी में कृदन्त प्रत्यय पाँच प्रकार के होते हैं।

1. कृतवाचक कृदन्त–जो प्रत्यय कर्ता का बोध कराते हैं, वे कृतवाचक कृदन्त होते हैं।
जैसे
(क) राखन + हारा = राखनहारा।
(ख) पालन + हारा = पालनहारा।
(ग) मिलन + सार = मिलनसार।

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उदाहरण के लिए कुछ कृदन्त प्रत्यय इस प्रकार हैं
MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण प्रत्यय img-1
2. कर्मवाचक–ये वे कृदन्त हैं, जो सकर्मक क्रिया में ना, नी, प्रत्यय लगाने से बनते हैं।

जैसे –
नि – चाटना–चटनी, सूंघनी, ओढ़नी।
ना – ओढ़ना–ओढ़ना।
हुआ – लिखना–लिखा

3. क्रिया बोधक–जो क्रिया के अर्थ का बोध कराते हैं, वे क्रिया बोधक कृदन्त कहलाते हैं।
जैसे-
सोता + हुआ = सोता हुआ।
पंच + आयत = पंचायत।
गाता + हुआ = गाता हुआ।
आढ़त + इया = आढ़तिया।

4. करण वाचक–जो क्रिया के साधन का बोध कराते हैं, वे करण वाचक कृदन्त कहलाते हैं। जैसे
कूट + नी = कूटनी।।
चास + नी = चासनी।

उदाहरण के लिए कुछ करण वाचक प्रत्यय–
MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण प्रत्यय img-2

5. भाववाचक कृदंत–वे कृदंत हैं जो किसी भाव या क्रिया के व्यापार का व्रोध कराते हैं।

जैसे–
थक + आवट = थकावट।
मिल + आवट = मिलावट ।
धुल + आई = धुलाई।

उदाहरण के लिए कुछ भाववाचक कृदन्त
MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण प्रत्यय img-3

2. तद्धित प्रत्यय

तद्धित प्रत्यय वे होते हैं, जो संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और अव्यय के पीछे लगाए जाते हैं। तद्धित प्रत्यय पाँच प्रकार के होते हैं, जैसे–..
1. कृतवाचक–तद्धित जो कर्ता का बोध कराते हैं, कृतवाचक तद्धित कहलाते हैं,
जैसे –
सोना + आर = सुनार
तेल + इया = तेलिया
गाड़ी + वाला = गाड़ीवाला
माला + ई = माली
घोड़ा + वाला = घोड़ावाला
लकड़ + हारा = लकड़हारा
लोहा + आर = लुहार
भाँग + एड़ी = भँगेड़ी

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2. भाववाचक–जिनसे किसी प्रकार का भाव प्रकट होता है, उसे भाववाचक प्रत्यय कहते हैं,

जैसे–
ममता + त्व = ममत्व
बुनाई + वट = बुनावट
बूढ़ा + पा = बुढ़ापा
लड़का + पन = लकड़पन
कड़वा + हट = कड़वाहट
मीठा + स = मिठास

3. अपत्य वाचक–वे तद्धित जो सन्तान के अर्थ का बोध कराते हैं, उन्हें अपत्य वाचक तद्धित कहतें हैं।
जैसे–
अ – वसुदेव, मनु–मानव, रघु–राघव।
इ – मारुत–मारुति।
ई – रामानन्द–समानन्दी, दयानंद–दयानंदी, आयन–नर–नारायण, रामा–रामायण, एव–गंगा–गांगेय, राधा–राधेय।

4. गुण वाचक–जिससे किसी का गुण मालूम हो, उसे गुंण वाचक तद्धित कहते हैं।

जैसे–
गुण + वान = गुणवान
भूख + आ = भूखा
बुद्धि + वान = बुद्धिवान
भ + ई = लोभी
प्यास + आ = प्यासा
चचा + एरा = चचेरा
घर + ऊ = घरू.

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5. ऊन वाचक–ऊन वाचक संज्ञाओं में वस्तु की लघुता, ओछापन, हीनता आदि का भाव व्यक्त किया जाता है

जैसे–
लोटा + इया = लुटिया
पहाड़ + ई = पहाड़ी
खाट + इया = खटिया
कोठ + री = कोठरी

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MP Board Class 12th Business Studies Important Questions Chapter 9 वित्तीय प्रबन्ध

MP Board Class 12th Business Studies Important Questions Chapter 9 वित्तीय प्रबन्ध

वित्तीय प्रबन्ध Important Questions

वित्तीय प्रबन्ध वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
सही विकल्प चुनकर लिखिए

प्रश्न 1.
वित्तीय-प्रबंध के मुख्य कार्य हैं –
(a) वित्तीय नियोजन
(b) कोषों को प्राप्त करना
(c) शुद्ध लाभ का आबंटन
(d) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(d) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 2.
वित्त का सबसे सस्ता स्रोत है –
(a) ऋण पत्र
(b) समता अंश पूँजी
(c) पूर्वाधिकार अंश
(d) प्रतिधारित उपार्जन।
उत्तर:
(a) ऋण पत्र

प्रश्न 3.
स्थायी संपत्तियों की वित्त व्यवस्था होनी चाहिए –
(a) दीर्घकालीन दायित्वों से
(b) अल्पकालीन दायित्वों से
(c) दीर्घकालीन तथा अल्पकालीन दायित्वों के मिश्रण से
(d) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(a) दीर्घकालीन दायित्वों से

प्रश्न 4.
एक व्यवसाय की चालू संपत्तियों की वित्त व्यवस्था होनी चाहिए –
(a) केवल चालू दायित्वों से
(b) केवल दीर्घकालीन दायित्वों से
(c) दीर्घकालीन तथा अल्पकालीन दोनों से अंशत
(d) (a) व (b) दोनों।
उत्तर:
(c) दीर्घकालीन तथा अल्पकालीन दोनों से अंशत

प्रश्न 5.
यदि अन्य बातें समान रहें तो कर की दर में निगमित लाभ पर वृद्धि होगी –
(a) ऋण अपेक्षाकृत सस्ते होंगे ।
(b)ऋण अपेक्षाकृत कम सस्ते होंगे
(c) ऋणों की लागत पर कोई प्रभाव नहीं होगा
(d) हम कुछ नहीं कर सकते।
उत्तर:
a) ऋण अपेक्षाकृत सस्ते होंगे ।

प्रश्न 6.
निम्न में से कौन-सा समता पर व्यापार का प्रकार है –
(a) अल्प समता पर व्यापार
(b) उच्च समता पर व्यापार
(c) उपरोक्त (a) व (b) दोनों
(d) उपरोक्त (a) व (b) दोनों नहीं।
उत्तर:
(c) उपरोक्त (a) व (b) दोनों

प्रश्न 7.
पूँजी ढाँचा निर्णय क्यों महत्वपूर्ण है –
(a) पूँजी लागत प्रभावित होती है
(b) अंशों का बाजार मूल्य प्रभावित होता है
(c) उपरोक्त (a) व (6) दोनों
(d) उपरोक्त (a) व (b) दोनों नहीं।
उत्तर:
(c) उपरोक्त (a) व (6) दोनों

प्रश्न 8.
कार्यशील पूँजी का स्रोत है –
(a) देनदार
(b) बैंक अधिविकर्ष
(c) रोकड़ विक्रय
(d) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(d) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 9.
कार्यशील पूँजी का निर्धारक है –
(a) संस्था का आकार
(b) निर्माण प्रक्रिया की अवधि
(c) कच्चे माल की उपलब्धता
(d) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(d) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 10.
बोनस निर्णय के निर्धारक हैं –
(a) लाभों की मात्रा
(b) कोषों में तरलता
(c) कंपनी की आयु
(d) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(d) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 11.
संयुक्त पूँजी वाली कंपनी के लिए लाभांश देना है –
(a) ऐच्छिक
(b) अनिवार्य
(c) आवश्यक
(d) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(a) ऐच्छिक

प्रश्न 12.
निम्न में से कौन-सा पूँजी संरचना को निर्धारित करने वाला तत्व है –
(a) रोकड़ प्रवाह स्थिति
(b) ब्याज आवरण अनुपात
(c) ऋण भुगतान आवरण अनुपात
(d) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(d) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 13.
निम्न में से कौन-सा समता पर व्यापार का प्रकार है –
(a) अल्प समता पर व्यापार
(b) उच्च समता पर व्यापार
(c) उपरोक्त (a) व (b) दोनों
(d) उपरोक्त न (a) और न (b)
उत्तर:
(c) उपरोक्त (a) व (b) दोनों

प्रश्न 14.
चालू संपत्तियाँ वे संपत्तियाँ होती हैं जो रोकड़ में परिवर्तित होती है –
(a) छ: महीन के अंदर
(b) एक साल के अंदर
(c) एक से तीन साल के अंदर
(d) तीन से पाँच साल के अंदर।
उत्तर:
(b) एक साल के अंदर

प्रश्न 15.
प्रति अंश उच्चतम लाभांश संबंधित है –
(a) ऊँची आय, ऊँचा रोकड़ प्रवाह, अनुप्रयोग आय तथा उच्चतम विकास अवसर
(b) ऊँची आय, ऊँचा रोकड़ प्रवाह, स्थिर आय तथा ऊँचे विकास अवसर
(c) ऊँची आय, ऊँचा रोकड़ प्रवाह, स्थिर आय तथा निम्नतम विकास अवसर
(d) ऊँची आय, निम्न रोकड़ प्रवाह, स्थिर आय तथा निम्नतम विकास अवसर।
उत्तर:
(c) ऊँची आय, ऊँचा रोकड़ प्रवाह, स्थिर आय तथा निम्नतम विकास अवसर

प्रश्न 16.
पुराने संयंत्र को उन्नतिशील बनाने के लिए एक नये तथा आधुनिक संयंत्र के अधिग्रहण कानिर्णय है –
(a) वित्तीय निर्णय
(b) कार्यशील पूँजी निर्णय
(c) निवेश निर्णय
(d) लाभांश निर्णय।
उत्तर:
(c) निवेश निर्णय

प्रश्न 17.
पितृसुलभ उच्च विकसित कंपनियाँ पसंद करती हैं –
(a) कम लाभांश देना
(b) अधिक लाभांश देना
(c) लाभांश पर विकास विचार का कोई प्रभाव नहीं होता है
(d) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(a) कम लाभांश देना

प्रश्न 18.
अति-पूँजीकरण के कारणों में से क्या कारण उत्तरदायी नहीं है –
(a) अधिक प्रवर्तन व्यय
(b) अधिक पूँजी निर्गमन
(c) स्फीतिकाल में निर्माण
(d) आय का कम अनुमान
उत्तर:
(c) स्फीतिकाल में निर्माण

प्रश्न 19.
अल्प-पूँजीकरण के कारणों में क्या शामिल नहीं है –
(a) मंदी काल में स्थापना
(b) कम पूँजी की आवश्यकता
(c) उदार लाभांश नीति
(d) उच्च कार्यक्षमता।
उत्तर:
(c) उदार लाभांश नीति

प्रश्न 20.
स्थायी संपत्ति में क्या शामिल नहीं है –
(a) मशीन
(b) भवन
(c) फर्नीचर
(d) स्टॉक
उत्तर:
(d) स्टॉक

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प्रश्न 2.
रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए –

  1. व्यवसाय में पूँजी-मिश्रण के स्वरूप को ………… कहते हैं।
  2. व्यवसाय हेतु आवश्यक पूँजी की मात्रा निर्धारण की क्रिया ………. कहलाती है।
  3. व्यवसाय के दैनिक संचालन व रख-रखाव हेतु आवश्यक पूँजी को ……… कहते हैं।
  4. वित्तीय प्रबन्धन का उद्देश्य अनावश्यक तथा अधिक मात्रा के …………. से बचना होता है।
  5. वित्तीय नियोजन का प्रारंभिक बिन्दु …………. का पूर्वानुमान लगाना होता है।
  6. जब कंपनी की आय अनिश्चित हो तथा उसका पूर्वानुमान लगाना कठिन हो तो केवल …………. ____ अंशों का ही निर्गमन करना चाहिए।
  7. लाभ का जो भाग व्यवसाय हेतु बचा लिया जाता है वह स्वामियों के कोष का ………. कहलाता है।
  8. ………… के अनुसार “पूँजी संरचना प्रायः एक व्यापारिक उपक्रम में प्रयुक्त वित्त के दीर्घकालीन ___स्रोतों को इंगित करता है।”
  9. “……….. व्यवसाय के संचालन में प्रयुक्त अपेक्षाकृत स्थायी प्रकृति की संपत्तियाँ होती हैं जो किविक्रय के लिए नहीं होती है।”
  10.  “चालू सम्पत्ति का योग ही व्यवसाय की ……….. है।”
  11. “………… का अभिप्राय वित्तीय क्रियाओं के पूर्व निर्धारण से हैं।”
  12.  शुद्ध कार्यशील पूँजी = चालू संपत्ति + ………….।
  13.  समता अंशों पर, ऊँची दर से लाभांश का वितरण कम्पनी के ……….. का परिचायक है।
  14.  भूमि तथा भवन में विनियोग ……….. पूँजी का प्रतिनिधित्व करता है।
  15.  वित्तीय प्रबंध ……. के अपव्यय को न्यूनतम करता है।
  16.  समता अंशधारियों को कंपनी में ……….. का अधिकार होता है।
  17.  दीर्घकालीन पूँजी की मात्रा का निर्धारण ……… कहलाता है।
  18.  सार्वजनिक उपयोग के उपक्रमों में ………… कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है।
  19. व्यापारिक संस्था के स्थायी पूँजी की आवश्यकता, निर्माणी उद्योग की तुलना में ………. होती है।
  20.  किसी कंपनी की संपत्तियों का वास्तविक मूल्य, पुस्तकीय मूल्य से कम होना…………का प्रतीक है।

उत्तर:

  1. पूँजी संरचना
  2. पूँजीकरण
  3. कार्यशील पूँजी
  4. जोखिमों
  5.  बिक्री
  6. साधारण
  7. पुनर्विनियोग,
  8. आर. एच. वेसिल
  9. स्थायी संपत्तियाँ
  10. कार्यशील पूँजी
  11. वित्तीय नियोजन
  12. चालू दायित्व
  13. अल्प-पूँजीकरण
  14.  स्थायी
  15. साधनों
  16. मतदान
  17. पूँजीकरण
  18. कम
  19. कम
  20. अति-पूँजीकरण।

प्रश्न 3.
एक शब्द या वाक्य में उत्तर दीजिए –

  1. न्यूनतम लागत में वित्त की उपलब्धता तथा वित्त का लाभकारी प्रयोग सुनिश्चित करना क्या कहलाता है ?
  2. अत्यधिक प्रवर्तन व्यय का क्या परिणाम होता है ?
  3. पूँजी की मात्रा का कम अनुमान लगाने पर कंपनी को किस स्थिति का सामना करना पड़ सकता है ?
  4. श्रमिकों द्वारा किस स्थिति में अधिक पारिश्रमिक की माँग की जाती है ?
  5. संस्था के दीर्घकालीन वित्त के विभिन्न स्रोतों के पारस्परिक आनुपातिक संबंध को क्या कहते हैं ?
  6. व्यवसाय का जीवन रक्त किसे कहते हैं ?
  7. ऋणपत्रों का निर्गमन कब लाभप्रद होता है ?
  8. वित्तीय नियोजन का हृदय किसे कहा जाता है ?
  9. उपक्रम के संपदा मूल्य अधिकतम कब होते हैं ?
  10. विभिन्न दीर्घकालीन कोषों के संघटक की बनावट किसका निर्माण करती है ?
  11. पाँच या अधिक वर्षों के लिए की गई वित्त योजना क्या कहलाती है ?
  12. साधारण अंशों पर अधिक लाभ प्राप्त करने की प्रकृति क्या कहलाती है ?
  13. पूँजी की मात्रा का प्रतिनिधित्व कौन करता है ?
  14. कच्चा माल क्रय करने के लिए किस पूँजी का प्रयोग किया जाता है ?
  15.  चालू संपत्ति एवं चालू दायित्व के अंतर को क्या कहते हैं ?
  16. वित्तीय विवरणों से विभिन्न अनुपातों की गणना क्या कहलाता है ?
  17. प्रतिभूतियों का देय मूल्य जब संपत्तियों के चालू मूल्य से अधिक हो तो कौन-सी स्थिति कहलाती है ?
  18. मुद्रास्फीति में विनियोक्ता अधिक जोखिम उठाकर पूँजी संरचना में कौन-से अंगों को प्राथमिकता देते हैं ?
  19. वित्तीय योजना में पूँजी का उपयोग कैसा होना चाहिए?
  20. किसी उपक्रम के वित्त कार्यों पर नियंत्रण किसके द्वारा किया जाता है ?

उत्तर:

  1. वित्तीय नियोजन
  2. अति-पूँजीकरण
  3. अल्प-पूँजीकरण
  4. अल्प-पूँजीकरण
  5. पूँजी संरचना,
  6. वित्त को
  7. मंदी में
  8. लाभ-हानि खाता एवं प्रोफार्मा का
  9. अंशों के बाजार मूल्य अधिकतम हो
  10. पूँजी संरचना
  11. दीर्घकालीन वित्तीय उद्देश्य
  12. इक्विटी बाजार
  13. पूँजीकरण
  14. कार्यशील पूँजी
  15. कार्यशील पूँजी
  16. अनुपात विश्लेषण
  17. अति-पूँजीकरण
  18. इक्विटी अंश
  19. दीर्घकालीन वित्तीय उद्देश्य
  20. वित्तीय प्रबंधन द्वारा।।

प्रश्न 4.
सत्य या असत्य बताइये

  1. वस्तु की प्रकृति स्थायी पूँजी की आवश्यकता को प्रभावित करती है।
  2. वित्तीय नियोजन वित्तीय प्रबन्ध का मुख्य कार्य है।
  3. वित्तीय प्रबन्ध व्यावसायिक प्रबन्ध का अंग है।
  4. वित्तीय प्रबन्ध के अध्ययन की उपयोगिता अंशधारियों के लिए नहीं हैं। .
  5. पूँजीकरण शब्द का उपयोग सभी व्यावसायिक इकाईयों में होता है।
  6. कार्यशील पूँजी की आवश्यकता दीर्घकालीन अवधि के लिए होती है।
  7. वृहद् उपक्रम में स्थायी पूँजी की अधिक आवश्यकता होती है।
  8. पूँजी संरचना का संबंध कोषों की किस्म से होता है।
  9. पूँजी संरचना में कार्यशील पूँजी को सम्मिलित किया जाता है।
  10. पूँजी संरचना का आशय स्थायी पूँजी से है।

उत्तर:

  1. सत्य
  2. सत्य
  3. असत्य
  4. असत्य
  5. असत्य
  6. असत्य
  7. सत्य
  8. सत्य
  9. असत्य
  10. सत्य

प्रश्न 5.
सही जोड़ी बनाइये –
MP Board Class 12th Business Studies Important Questions Chapter 9 वित्तीय प्रबन्ध IMAGE - 1
उत्तर:

  1. (b)
  2. (d)
  3. (c)
  4. (e)
  5. (a
  6. (g)
  7. (f)
  8. (i)
  9. (h)
  10. (j)

वित्तीय प्रबन्ध लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पूँजी संरचना से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
किसी भी संस्था (कंपनी)के आर्थिक चिट्ठे का विश्लेषण करें तो विदित होता हैं कि उसकी कुल पूँजी का कुछ भाग समता अंशों में, कुछ पूर्वाधिकार अंशों में और ऋणपत्रों एवं बंधपत्रों में वितरित किया गया है। विभिन्न प्रकार की प्रतिभूतियों के बीच निर्धारित अनुपात को ही पूँजी ढाँचा कह सकते हैं। अन्य शब्दों में, पूँजी ढाँचा यह दर्शाता है कि पूँजीकरण की कुल राशि का विभिन्न प्रकार की प्रतिभूतियों में किस अनुपात के आशय पर वितरण किया गया है। इस प्रकार पूँजी ढाँचा का आशय पूँजी के दीर्घकालीन साधनों के पारस्परिक अनुपात से है और इनमें स्वामी पूँजी, पूर्वाधिकार अंशपूँजी एवं दीर्घकालीन ऋण पूँजी को शामिल करते हैं। इसे पूँजी संगठन, पूँजी कलेवर, पूँजी स्वरूप आदि नामों से पुकारा जाता है।

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प्रश्न 2.
वित्तीय नियोजन के दो उद्देश्यों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
वित्तीय नियोजन का प्रमुख उद्देश्य पूँजी की इस प्रकार व्यवस्था करना है कि व्यवसाय के संचालन के सभी साधन उपलब्ध हो सकें। उपार्जित आय में से समस्त व्यय घटाने के बाद जो शुद्ध लाभ बचे वह अंशधारियों की विनियोजित पूँजी का उचित प्रव्याय (Return) हो।
वित्तीय नियोजन के दो उद्देश्य निम्नलिखित हैं

  1. कोषों की आवश्यकतानुसार उनकी उपलब्धता का आश्वासन देना-वित्तीय नियोजन का प्रमुख उद्देश्य है कि विभिन्न उद्देश्यों, जैसे कि दीर्घावधि संपत्तियों के क्रय के लिए दैनिक खर्चों को पूरा करने के लिए इत्यादि, के लिए कंपनी में पर्याप्त कोष उपलब्ध होना चाहिए।
  2. लोच-वित्तीय नियोजन इस प्रकार किया जाना चाहिए ताकि उनमें व्यापार के विस्तार एवं संकुचन अपने आप में समेटने में दिक्कत न आवे।

प्रश्न 3.
वित्तीय प्रबंधन तीन विस्तृत वित्तीय निर्णयों पर आधारित होता है, ये क्या हैं ?
उत्तर:
लगातार बदलते हुए आर्थिक परिवेश में वित्तीय प्रबंधक को निर्णय लेने ही पड़ते हैं । इस प्रकार के निर्णय ऐसे लेने चाहिए कि व्यवसाय का निरंतर विकास होता रहे । यदि ऐसा नहीं होता है तो व्यवसाय का विकास तो दूर उसका अस्तित्व बनाये रखना भी कठिन होगा। वित्तीय प्रबंधन मुख्य रूप से तीन विस्तृत वित्तीय निर्णयों पर आधारित होता है। ये तीन निर्णय निम्नलिखित हैं

  • विनियोग निर्णय
  • वित्त व्यवस्था संबंधी निर्णय
  • लाभांश संबंधी निर्णय

(1) विनियोग निर्णय – यह निर्णय उन संपत्तियों के ध्यानपूर्वक चयन से संबंधित होता है जिनमें फर्मों द्वारा अपने फंड में निवेश किया जाएगा। एक फर्म के पास अपने फंड में निवेश करने के कई विकल्प होते हैं परंतु फर्म को अधिक उपयुक्त विकल्प का चयन करना पड़ता है जिससे फर्म को अधिकतम लाभ होगा। इसी विकल्प का निश्चय करना ही विनियोग या निवेश संबंधी निर्णय होता है।

(2) वित्त व्यवस्था संबंधी निर्णय – वित्तीय निर्णय से आशय यह निर्धारित करने से है कि पूँजी ढाँचे में स्वामी के कोषों तथा ऋण कोषों का क्या अनुपात रहना चाहिए। स्वामी के कोषों में समता अंश पूँजी, पूर्वाधिकार अंश पूँजी, संचय कोष, संगृहीत लाभ, अंश प्रीमियम को शामिल किया जाता हैं।

(3) लाभांश संबंधी निर्णय – यह निर्णय आधिक्य कोषों के वितरण से संबंधित है। फर्म के लाभ को विभिन्न पक्षों जैसे कि लेनदारों, कर्मचारियों, ऋणपत्रधारियों, अंशधारियों इत्यादि के बीच वितरित किया जाता है।

प्रश्न 4.
वित्तीय प्रबंधन का मुख्य उद्देश्य क्या है ? संक्षेप में समझाइए।
उत्तर:
वित्तीय प्रबन्ध के उद्देश्य –

1. अधिकतम लाभ की प्राप्ति – कुछ विद्वानों का मानना है कि वित्तीय प्रबन्ध का प्रमुख उद्देश्य अधिकतम लाभ प्राप्त करना है, किन्तु अधिकतम लाभ का आशय एवं सीमा की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं दी गई है, अतः अधिकतम लाभ के उद्देश्य हेतु निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिये

  • लाभ न्यायसंगत होना चाहिये।
  • लाभ व उपयोगिता में सामन्जस्य होना चाहिये।
  • लाभ प्राप्ति हेतु एक मानक (Standard) तैयार करना चाहिये।
  • लाभ का अधिकांश भाग जनहित में वितरित होना चाहिये।

2. अधिकतम प्रतिफल की प्राप्ति – वित्तीय प्रबन्ध का दूसरा उद्देश्य लागत व विनियोग द्वारा अधिकतम प्रतिफल की प्राप्ति करना है, जिससे प्रबन्ध के स्वामी (अंशधारी), ऋणपत्रधारी, प्रबन्धक, कर्मचारी व श्रमिकों को अधिकतम आर्थिक लाभ दिया जा सके। चूँकि ये सभी वर्ग समाज के अंग हैं, अतः कम्पनी से सम्बन्धित इन सभी वर्गों का आर्थिक विकास करना कम्पनी का दायित्व है, इस हेतु अधिकतम प्रतिफल प्राप्त करना आवश्यक होगा।

3. सम्पत्ति के मूल्य को अधिकतम करना वर्तमान में लाभ को अधिकतम बढ़ाने के स्थान पर सम्पत्ति को बढ़ाना वित्तीय प्रबन्ध का उद्देश्य माना जाने लगा है । वित्तीय प्रबन्ध के अन्तर्गत ऐसे कार्य किये जाने चाहिये, जिससे उपक्रम की सम्पदा (सम्पत्ति) के मूल्य में वृद्धि हो जाये। चूँकि सम्पत्ति के मूल्य में वृद्धि से कम्पनी सशक्त व मजबूत होगी जिससे कम्पनी की साख में वृद्धि होगी और इससे सर्वांगीण लाभ प्राप्त होगा, अतः वित्तीय प्रबन्ध व्यवस्था का उद्देश्य कम्पनी की सम्पत्तियों को बढ़ाना होना चाहिये।

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प्रश्न 5.
वित्तीय प्रबंध के कार्य लिखिए।
उत्तर:
वित्तीय प्रबंध के कार्य –

(अ) प्रशासकीय कार्य :

  1. वित्तीय पूर्वानुमान लगाना
  2. वित्तीय नियोजन, संपत्तियों की प्रबंध नीतियों का निर्माण करना
  3. वित्तीय क्रियाओं का संगठन
  4. अन्य विभागों से समन्वय
  5. वित्तीय नियन्त्रण का प्रबंध करना।

(ब) क्रियात्मक कार्य –

  1. वित्त व्यवस्था करना
  2. कोषों का आबंटन
  3. आय का प्रबन्ध करना
  4. रोकड़ प्रबंध
  5. पूँजी उत्पादकता में वृद्धि
  6. लाभ नियोजन
  7. प्रतिवेदन प्रस्तुत करना
  8. अभिलेख रखना
  9. विनियोग संबंधी निर्णय लेना
  10. संपत्तियों की प्रबंध नीतियों का निर्माण करना
  11. वित्तीय निर्णय लेना
  12. वित्तीय साधनों से संपर्क
  13. वित्तीय निष्पादन का विश्लेषण
  14. उच्च प्रबंधक को परामर्श।

(स) दैनिक एवं सलाहकारी कार्य-

  1. सम्पत्तियों का प्रबन्ध
  2. रोकड़ का प्रबन्ध
  3. वित्तीय लेखा रखना
  4. वित्तीय प्रतिवेदन
  5. अन्य कार्य।

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प्रश्न 6.
वित्तीय प्रबंध के कोई चार प्रशासनिक कार्य लिखिए।
उत्तर:
वित्तीय प्रबंध के चार प्रशासनिक कार्य निम्न हैं

1. वित्तीय पूर्वानुसार-वित्तीय प्रबंधक को अपने उपक्रम में लक्ष्यों, विकास, योजनाओं एवं कार्यों की प्रकृति के अनुरूप वित्तीय आवश्यकताओं का पूर्वानुमान लगाना होता है।

2. वित्तीय नियोजन-वित्तीय पूर्वानुमानों के आधार पर वित्तीय प्रबंधक वित्तीय नियोजन का कार्य करता है। इसके अंतर्गत पूँजी की मात्रा व अवधि, वित्त के स्रोत, ऋण-अंशपूँजी अनुपात, लेखांकन का प्रारूप आदि के संबंध में निर्णय लिये जाते हैं।

3. वित्तीय नियंत्रण-वित्त प्रबंधक वित्त विभाग का प्रमुख अधिकारी होता है। किस विभाग को कितनी राशि स्वीकृत करना तथा कुल राशि का अनुमान लगाना आदि वित्त नियंत्रण संबंधी कार्य वित्त प्रबंधक को करना पड़ता है।

4. विभागों में समन्वय-उत्पादन की प्रत्येक क्रिया व विभाग से वित्त का प्रत्यक्ष संबंध रहता है। अतः वित्त प्रबंधक अन्य विभागों में वित्त के संबंध में एक समन्वयक का कार्य करता है ताकि प्रत्येक विभाग का बजट, सुदृढ़ ढंग से बनाया जा सके।

प्रश्न 7. वित्तीय नियोजन का महत्व लिखिए।
उत्तर:
एक उपक्रम एवं व्यवसाय के लिये वित्तीय नियोजन के महत्त्व को निम्नानुसार व्यक्त किया जा सकता है

1. व्यवसाय का सफल प्रवर्तन- किसी भी व्यवसाय की सफलता के लिये यह आवश्यक है कि, व्यवसाय को प्रारम्भ करने के पूर्व उसकी वित्तीय योजना उचित ढंग से बना ली जाये। व्यवसाय के प्रारम्भ के पूर्व ही व्यवसाय के आकार एवं सम्भावित विस्तार की योजना को ध्यान में रखकर वित्तीय नियोजन किया जाता है। इसके बिना अन्य योजनायें अधूरी रह सकती हैं।

2. व्यवसाय का कुशल संचालन व्यवसाय की प्रत्येक गतिविधियों के लिये वित्त की आवश्यकता पड़ती है। पर्याप्त वित्त के बिना किसी भी व्यवसाय का सफल संचालन नहीं किया जा सकता। व्यवसाय की स्थापना, विभिन्न सम्पत्तियों एवं सामग्रियों का क्रय, पारिश्रमिक का वितरण आदि कार्यों में वित्त की आवश्यकता पड़ती है। इन सभी की उचित व्यवस्था के लिये वित्तीय प्रबन्ध आवश्यक है।

3. व्यवसाय का विकास एवं विस्तार–व्यवसाय में अधिक से अधिक लाभ कमाने के लिये अनेक प्रकार की विकास योजनायें बनानी पड़ती हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये व्यवसाय का अनुकूलतम स्तर तक विस्तार किया जाता है। सम्भावित विस्तार को ध्यान में रखकर वित्तीय योजनायें बनाई जा सकती हैं। इससे व्यवसाय के विकास एवं विस्तार के समय वित्तीय कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ता है।

4. व्यावसायिक तरलता सफल वित्तीय नियोजन के माध्यम से व्यवसाय में पर्याप्त मात्रा में तरल कोष (Liquid Fund) रखा जा सकता है। इससे अति व्यापार की स्थिति को दूर कर व्यवसाय की देनदारियों का समय-समय पर भुगतान कर अपनी शोधन क्षमता को बनाये रखा जा सकता है।

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प्रश्न 8.
वित्तीय प्रबंध का महत्व बताइए।
उत्तर:
वित्तीय प्रबंध का महत्व निम्न बिन्दुओं से स्पष्ट होता है।

1. उपक्रम की सफलता का आधार-उपक्रम का स्तर छोटा हो या बड़ा, निर्माणी संस्था हो या सेवा देने वाली संस्था सभी की सफलता का मूल आधार वित्तीय प्रबंध का उचित नियोजन है। एक लाभ में चलने वाले उपक्रम को अकुशल वित्तीय प्रबंध चौपट कर सकता है।

2. विनियोक्ताओं के लिए महत्व-देश के आम लोग अपनी छोटी-छोटी बचतों को किसी कम्पनी या संस्थाओं में विनियोग करते हैं इस हेतु उन्हें वित्तीय प्रबंध का ज्ञान आवश्यक है, अन्यथा दलालों व, बिचौलियों की मदद लेकर कभी-कभी विनियोक्तागण परेशानी में पड़ जाते हैं।

3. वित्तीय संस्थाओं के लिये महत्व-वित्तीय संस्थाओं के लिये वित्तीय प्रबंध का विशेष महत्व है, क्योंकि किसी संस्था या व्यक्ति को ऋण देना या न देना इसके निर्णय हेतु वित्तीय प्रबंध का ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है ताकि-धन की सुरक्षा व तरलता में सामन्जस्य बना रहे।

4. कर्मचारियों के लिये महत्व वित्तीय प्रबंध का कर्मचारियों के लिये प्रत्यक्ष महत्व है वित्तीय प्रबंध से संस्था का विकास होगा, जिसमें कर्मचारी भी अपने विकास की इच्छा रखते हैं, अत: अच्छे वित्तीय प्रबंध से कर्मचारियों को अप्रत्यक्ष रूप से वित्तीय लाभ मिलते हैं।

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प्रश्न 9.
वित्तीय प्रबंध के उद्देश्य लिखिए।
उत्तर:
वित्तीय प्रबंध के निम्नलिखित उद्देश्य हैं

1. अधिकतम लाभ की प्राप्ति – वित्तीय प्रबंध का प्रमुख उद्देश्य अधिकतम लाभ प्राप्त करना है किन्तु लाभ के उद्देश्य के लिए यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि लाभ न्याय संगत हो, लाभ और उपयोगिता में सामंजस्य होना चाहिए तथा इसका मानक तैयार करना चाहिए।

2. अधिकतम प्रतिफल की प्राप्ति – इसका दूसरा उद्देश्य लागत तथा विनियोग द्वारा अधिकतम प्रतिफल की प्रप्ति करना है। जिससे प्रबंध के स्वामी, अंशधारी प्रबंधक कर्मचारी तथा श्रमिकों को अधिकतम लाभ दिया जा सके।

3. संपत्ति के मूल्य में वृद्धि – वर्तमान युग में लाभ को अधिक करने के स्थान पर संपत्ति को बढ़ाना वित्तीय प्रबंध का उद्देश्य माना जाता है।

4. न्यूनतम लागत पर वित्त का अंतरण – वित्तीय प्रबंध का मुख्य उद्देश्य न्यूनतम लागत पर संस्था को पर्याप्त वित्त दिलवाने से है। कोई भी संस्था वित्त के अभाव में तरक्की नहीं कर सकती है।

प्रश्न 10.
स्थायी पूँजी को प्रभावित करने वाले घटकों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
स्थायी पूँजी की मात्रा को निर्धारित करने वाले निम्न तत्व हैं

1. व्यवसाय की प्रकृति-स्थायी पूँजी की मात्रा व्यवसाय की प्रकृति से प्रभावित होती है। इसमें दो तत्व निहित होते हैं। प्रथम, उपक्रम निर्माण कार्य में लगा है अथवा वितरण कार्य में। निर्माण कार्य में लगे व्यवसाय में अधिक स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है जबकि वितरण में लगे व्यवसाय में कम स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है।

2. उपक्रम का आधार एवं संगठन-स्थायी पूँजी की मात्रा को निर्धारित करने में उपक्रम का आकार एवं संगठन अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। यदि उपक्रम बड़े पैमाने पर उत्पादन अथवा विक्रय का कार्य करता है तो अधिक पूँजी की आवश्यकता होती है अन्यथा कम।

3. उत्पादन प्रक्रिया की जटिलता-जिस उपक्रम में जितनी अधिक जटिल उत्पादन प्रक्रिया का प्रयोग होता है वह व्यवसाय उतना ही अधिक स्थायी पूँजी चाहता है, जबकि सरल उत्पादन प्रक्रिया की स्थिति में कम स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है।

4. प्रारम्भिक व्यय-यदि कम्पनी की स्थापना के समय प्रवर्तकों के पारिश्रमिक, स्थापना, व्यय, पेटेण्ट आदि के क्रय पर अधिक व्यय किया जाता है तो इससे स्थायी पूँजी की आवश्यकता बढ़ जाती है।

प्रश्न 11.
कार्यशील पूँजी को प्रभावित करने वाले घटकों (कारकों) को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कार्यशील पूँजी की मात्रा को निम्न घटक प्रभावित करते हैं

1. व्यवसाय की प्रकृति–नियमित एवं निश्चित माँग वाले व्यवसायों में अनियमित एवं अनिश्चित माँग वाले व्यवसायों की अपेक्षाकृत कम कार्यशील पूँजी से काम चल जाता है। क्योंकि नियमित एवं निश्चित माँग होने से नगद प्रवाह बना रहता है तथा निश्चितता होने से स्कंध इत्यादि में अधिक विनियोग नहीं करना पड़ता है।

जिन व्यवसायों में मशीनीकरण की मात्रा कम व मानव श्रम की मात्रा अधिक होती है उन उद्योगों या व्यवसायों की अपेक्षा उन व्यवसायों में अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है जहाँ मशीनीकरण की मात्रा अधिक तथा मानवश्रम से कम काम लिया जाता है।

2. व्यवसाय का आकार–व्यवसाय या फर्म के आकार पर भी कार्यशील पूँजी की मात्रा निर्भर करती है। व्यवसाय का आकार जितना ही बड़ा होगा उतनी ही अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होगी क्योंकि बड़े व्यवसायों में स्थायी पूँजी अधिक होती है, जिसके लाभदायक उपयोग के लिए अधिक कार्यशील पूँजी का होना आवश्यक है।

3. उत्पादन प्रक्रिया यदि उत्पादन प्रक्रिया की सामान्य अवधि लम्बी है या उत्पादन प्रक्रिया जटिल है तो स्वाभाविक रूप से अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होगी क्योंकि उत्पादन प्रक्रिया जटिल या लम्बी होने पर कच्चे माल को निर्मित माल में बदलने में अधिक समय, अधिक भण्डारण व्यय, अधिक उपरिव्यय तथा अंततोगत्वा अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होगी।

4. रोकड़ की आवश्यकता रोकड़ शेष चालू सम्पत्तियों का एक भाग होता है अतः रोकड़ की आवश्यकता कार्यशील पूँजी की मात्रा को प्रभावित करती है। रोकड़ की आवश्यकता प्रायः मजदूरी, वेतन, कर, किराया, विविध व्यय तथा लेनदार इत्यादि को भुगतान के लिए पड़ती है। इन भुगतानों की राशि जितनी अधिक होगी कार्यशील पूँजी की राशि उतनी ही अधिक होगी।

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प्रश्न 12.
श्रेष्ठ वित्तीय योजना के चार लक्षणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
एक सुदृढ़ वित्तीय योजना में निम्नलिखित लक्षण होना चाहिए

1. सरलता-वित्तीय योजनाएँ सरलता के दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए बनायी जानी चाहिए। लेकिन सरलता के कारण कार्यक्षमता को समाप्त नहीं होने देना चाहिए।

2. पूर्णता-यह भी वित्तीय नियोजन की एक विशेषता है कि वित्तीय नियोजन में पूर्णता का गुण होना चाहिए।

3. मितव्ययिता-वित्तीय योजना में पूँजी प्राप्त करने व प्रतिभूतियों के निर्गमन के संबंध में किये जाने वाले व्ययों को न्यूनतम रखा जाना चाहिये।

4. लोचशीलता-किसी भी उद्योग को सफलतापूर्वक संचालित करने के लिए यह आवश्यक है कि उसके पूँजी ढाँचे में किसी भी प्रकार की कठोरता न हो बल्कि वह इस प्रकार का हो कि भविष्य में आवश्यकता पड़ने पर सफलतापूर्वक संचालन किया जा सके।

प्रश्न 13.
कार्यशील पूँजी की पर्याप्तता के पाँच लाभ लिखिए।
उत्तर:
कार्यशील पूंजी की पर्याप्तता के कुछ प्रमुख लाभ निम्न हैं

1. नगद छूट – पर्याप्त कार्यशील पूँजी के बल पर कम्पनी क्रय किये गये माल का भुगतान कर नगद छूट प्राप्त कर सकती है। इससे उत्पादन लागत में कमी आती है।

2. विक्रेताओं को तत्काल भुगतान संस्था अपने विक्रेताओं को समय पर भुगतान कर सकती है, जिससे उनसे नियमित रूप से कच्चा माल उचित मूल्य तथा सही समय पर प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं होती।

3. ऋण क्षमता एवं साख में वृद्धि – पर्याप्त कार्यशील पूँजी सुदृढ़ वित्तीय स्थिति का प्रतीक मानी जाती है। तीसरे पक्ष की दृष्टि में पर्याप्त कार्यशील पूँजी अच्छी शोधन क्षमता का प्रतीक होती है, अतः आवश्यकता पड़ने पर संस्था को तत्काल ऋण प्राप्त करने में कठिनाई नहीं होती। तुरन्त ऋण प्राप्त करने की क्षमता तथा अच्छी साख के कारण संस्था का उत्पादन एवं व्यापारिक कार्य निरन्तर बिना किसी रुकावट के चलता रहता है।

4. पर्याप्त लाभों का वितरण – जब कम्पनी या संस्था में कार्यशील पूँजी की कमी रहती है तो पर्याप्त लाभ होने पर भी लाभांश का वितरण नहीं कर पाती। क्योंकि उस समय संचालकों की नीति लाभों के पुनर्विनियोग की होती है। अगर कम्पनी के पास कार्यशील पूँजी पर्याप्त मात्रा में होती है तो कम्पनी लाभ होने की स्थिति में अंशधारियों को अच्छे लाभांशों का वितरण कर सकती है।

5. बैंकों से ऋण प्राप्ति में सुविधा – पर्याप्त कार्यशील पूँजी ही वास्तव में व्यापारिक ऋणों के लिए एक उत्तम प्रतिभूति होती है। इस प्रकार कार्यशील पूँजी की पर्याप्तता के कारण बैंक ऋणों की प्राप्ति में भी सुविधा होती है।

प्रश्न 14.
लाभांश के निर्णय लेते समय किन-किन घटकों का प्रभाव पड़ता है ? कोई चार घटकों को बताइए।
उत्तर:
किसी भी व्यवसाय में उनके स्वामियों के लिये वहाँ की लाभांश नीति अत्यधिक महत्वपूर्ण होती है। सामान्यतः लाभांश नीति को संचालक निर्धारित करते हैं। किन्तु लाभांश नीति का निर्णय लेने के पूर्व वे कुछ वैधानिक प्रतिबंधों तथा अंशधारियों के दबाव से घिरे रहते हैं। क्योंकि लाभांश का निर्णय लेने के पूर्व संस्था की आर्थिक, सामाजिक स्थिति तथा राजनैतिक परिस्थितियों को ध्यान में रखना आवश्यक होता है। किसी उपक्रम में लाभांश का निर्णय (लाभांश नीति) को निम्न घटक प्रभावित करते हैं।

1. लाभ की मात्रा (Profit Volume) – किसी कंपनी में लाभांश की मात्रा को सर्वाधिक प्रभाव डालने वाला घटक लाभ की मात्रा है अर्थात अधिक लाभ लेने पर अधिक लाभांश तथा कम लाभ होने पर कम लाभांश का निर्णय लेना संचालकों की मजबूरी होगी। अतः लाभांश के निर्णय को लाभ की मात्रा सर्वाधिक प्रभावित करती है।

2. लाभांश की प्रवृत्ति (Trend of dividend) – लाभांश का निर्णय लेने के पूर्व यह देखना आवश्यक है कि गत वर्षों में कितना प्रतिशत लाभ दिया जाता रहा है क्योंकि अचानक कम दर पर लाभांश घोषित करने का अर्थ अंशधारियों को नाराज करना होगा। इसी के साथ समान स्तर के अन्य प्रतिस्पर्धी व्यवसाय द्वारा लाभांश की दर क्या घोषित की गई है। इसका ध्यान रखकर भी लाभांश की दर घोषित की जाती है क्योंकि अन्य समकक्ष व्यवसाय से कम लाभांश देने का आशय है व्यवसाय की कमजोरी या कम लाभ अर्जन करना, इससे व्यवसाय की ख्याति (Goodwill) पर विपरीत असर पड़ता है।

3. भावी वित्तीय आवश्यकताएँ (Financial needs in future)-लाभांश निर्णय को निर्धारित करने के पूर्व यह विचार करना आवश्यक होगा कि उपक्रम को अपने विस्तार एवं विकास के लिये कितनी पूँजी की आवश्यकता होगी तथा लाभ का कितना भाग पुनर्विनियोजित किया जायेगा। अन्य शब्दों में भविष्य में अधिक नवीन पूँजी की आवश्यकता होगी तब लाभांश दर कम तथा आवश्यकता कम रहने पर ऊँचे दर पर लाभांश दिया जा सकता है।

प्रश्न 15.
एक अच्छी पूँजी संरचना में क्या – क्या गुण होने चाहिए ?
उत्तर:
एक कम्पनी को इस प्रकार की पूँजी संरचना का निर्माण करना चाहिए जिससे कम्पनी के उद्देश्यों की सफलतापूर्वक पूर्ति हो सके। इसलिए कम्पनी को आदर्श पूँजी संरचना की स्थिति को चुनना चाहिए। एक पूँजी संरचना सभी कम्पनियों के लिए सभी समयों में आदर्श नहीं हो सकती। सामान्य तथा आदर्श पूँजी-संरचना में निम्न गुण होने चाहिए

1.सरलता-कम्पनी का पूँजी ढाँचा प्रारम्भ में एकदम सरल होना चाहिए। सरलता का तात्पर्य यह है कि प्रारम्भ में कम प्रकार की प्रतिभूतियों से धन संग्रह किया जाए। यदि प्रारम्भ में ही अनेक प्रकार से धन एकत्र किया जाता है तो उसमें नये प्रस्तावों के प्रति विनियोक्ताओं के मन में संदेह पैदा हो जाता है।

2. लोचपूर्ण-पूँजी ढाँचा इस प्रकार का होना चाहिए जिससे व्यवसाय की बढ़ती हुई आवश्यकताओं के लिये भविष्य में भी वित्त प्राप्त किया जा सके । कम पूँजी की आवश्यकता होने पर पूँजी अथवा कोषों को कम करना भी संभव होना चाहिये।

3. पूर्ण उपयोग-संस्था में उचित पूँजीकरण की स्थिति होनी चाहिये न तो अल्प-पूँजीकरण हो और न अति-पूँजीकरण । जब संस्था में उचित पूँजीकरण होता है तब संस्था के पास पूँजी साधन बेकार नहीं पड़े रहते हैं तथा उनका अच्छा उपयोग होता है।

4. पर्याप्त तरलता-उपक्रम को स्थिर एवं तरल सम्पत्तियों का एक उचित अनुपात निर्धारित करना चाहिये। तरल सम्पत्तियों से तात्पर्य चल सम्पत्तियों से है, जैसे-रोकड़, बैंक, चालू विनियोग तथा प्राप्तियाँ आदि। कम्पनी की सम्पत्तियों का मिश्रण इस प्रकार होना चाहिये जिससे संस्था के पास सदैव तरलता बनी रहे। किसी भी संस्था को अपनी पूँजी का कुछ भाग तरल रूप में अवश्य रखना चाहिये।

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प्रश्न 16.
अल्प-पूँजीकरण से अंशधारियों पर क्या प्रभाव पड़ता है ? कोई तीन प्रभावों को बताइए।
उत्तर:
कम्पनी के अंशधारियों पर निम्न प्रभाव पड़ते हैं

  1. अधिक लाभांश (High dividend) – अल्प-पूँजीकृत कम्पनी के अंशधारियों को नियमित रूप से ऊँचे लाभांश प्राप्त होते हैं।
  2. पूँजीगत लाभ (Capital gains)- अंशधारियों के अंशों का बाजार मूल्य बढ़ जाता है अत: अंशों को बेचने पर उन्हें पूँजीगत लाभ प्राप्त होता है।
  3. ऋण प्राप्ति में सुविधा (Easy in getting loan) – यदि अंशधारियों को ऋण लेने की आवश्यकता होती है तो इन अंशों की जमानत पर ऋण प्राप्त कर सकते हैं।

प्रश्न 17
पूँजी संरचना निर्णय निश्चित रूप से जोखिम आय का आशावादी संबंध है। टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
पूँजी संरचना निश्चित रूप से जोखिम आय का आशावादी संबंध है उसके निम्न कारण हैं

1. ऋण समता की तुलना में सस्ता स्रोत-ऋण पूँजी की लागत समता पूँजी से कम होती है। इसका कारण है ऋणदाताओं द्वारा व्यवसाय में किए गए विनियोग का कम जोखिम होना। दूसरी ओर, समता अंश पूँजी पर लाभांश की दर निश्चित न होते हुए भी यह सर्वाधिक महँगी पूँजी होती है।

2. समता की तुलना में ऋण जोखिमपूर्ण होता है-ऋण पूँजी व्यवसाय के लिए सर्वाधिक जोखिमपूर्ण होती है क्योंकि ऋणदाता ब्याज व मूल राशि की वापसी न होने पर न्यायालय में कंपनी के समापन के लिए प्रार्थना दायर कर सकते हैं । समता अंशधारियों को ऐसा अधिकार प्राप्त नहीं है इसलिए इनसे कंपनी को कोई जोखिम नहीं होता है।

3. ऋण एक उधार कोष है जबकि समता स्वामित्व कोष है-ऋण एक दायित्व है जिस पर ब्याज का भुगतान करना ही पड़ता है चाहे कंपनी को लाभ हो या न हो। दूसरी तरफ, समता स्वामित्व कोष है जिस पर लाभांश का भुगतान कंपनी के लाभों पर निर्भर करता है।

प्रश्न 18.
पूँजी बजटिंग निर्णय एक व्यवसाय के वित्तीय भाग्य को बदलने में सामर्थ्यवान होता है। क्यों अथवा क्यों नहीं?
उत्तर:
पूँजी बजटिंग निर्णय कंपनी का भाग्य बदल सकता है। यह निर्णय उन संपत्तियों के ध्यानपूर्वक चयन से संबंधित होता है जिसमें फर्मों द्वारा अपने कोषों का निवेश किया जायेगा। एक फर्म के पास कोषों को निवेश करने के लिए कई विकल्प होते हैं, परंतु फर्म को अधिक उपयुक्त विकल्प का चयन करना पड़ता है जिससे फर्म को अधिकतम लाभ होगा। पूँजी बजटिंग एक व्यवसाय के वित्तीय भाग्य को निम्न तरीकों से बदल सकता है और इसका जवाब भी हाँ है

1. जोखिम-स्थायी पूँजी निर्णयों में एक बड़ी राशि लगी होती है जो कंपनी के लिए एक बहुत बड़ा जोखिम भी होता है क्योंकि लाभ लंबे समय के बाद मिलेगा। अतः कंपनी का जोखिम भी लंबे समय तक रहेगा जब तक लाभ आना शुरू न हो जाय।

2. दीर्घावधि विकास-पूँजी बजटिंग निर्णय कंपनी के दीर्घावधि विकास को प्रभावित करती है। जो पूँजी दीर्घ अवधि वाली संपत्तियों में निवेश की गई है उसे भविष्य में वापस लाती है एवं कंपनी की भविष्य की योजनाएँ तथा विकास केवल इसी निर्णय पर निर्भर करती है।

3. अपरिवर्तित निर्णय-पूँजी बजटिंग निर्णय रात भर में परिवर्तित नहीं हो सकता। इस निर्णय में बहुत बड़ी राशि लगी होती है, और अगर हम कोई परिवर्तन करते हैं तो इस परिवर्ततन का परिणाम होगा बड़ा नुकसान जिसे हम कोष की बर्बादी कह सकते हैं । अतः ऐसे निर्णय सोच-विचारकर सुनियोजित तथा सभी दृष्टिकोणों से इनका मूल्यांकन करने के पश्चात् लेने चाहिए अन्यथा इसके बहुत घातक परिणाम होंगे।

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प्रश्न 19.
स्थायी पूँजी की आवश्यकता क्यों होती है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
स्थायी पूँजी की आवश्यकता निम्न कारणों से होती है –

1. व्यवसाय की प्रकृति (Nature of business) – स्थायी पूँजी की मात्रा व्यवसाय की प्रकृति से प्रभावित होती है। इसमें दो तत्त्व निहित होते हैं। प्रथम, उपक्रम निर्माण कार्य में लगा है अथवा वितरण कार्य में। निर्माण कार्य में लगे व्यवसाय में अधिक स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है जबकि वितरण में लगे व्यवसाय में कम स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है। द्वितीय, उत्पादन अथवा वितरण सामान्य उपभोक्ता वस्तुओं का किया जाता है तो कम स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है और उद्योगों से संबंधित वस्तुओं का उत्पादन अथवा वितरण किया जाता है तो अधिक स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है।

2. उपक्रम का आधार एवं संगठन (Size and organization of the business) – स्थायी पूंजी की मात्रा को निर्धारित करने में उपक्रम का आकार एवं संगठन अत्यंत महत्त्वपूर्ण होता है। यदि उपक्रम बड़े पैमाने पर उत्पादन अथवा विक्रय का कार्य करता है तो अधिक पूँजी की आवश्यकता होती है अन्यथा कम। उपक्रम निगम पद्धति पर संगठित होता है तो अधिक स्थायी पूँजी की आवश्यकता होगी अन्यथा कम।

3. उत्पादन प्रक्रिया की जटिलता (Complexity of process of production) – जिस उपक्रम में जितनी अधिक जटिल उत्पादन प्रक्रिया का प्रयोग होता है वह व्यवसाय उतना ही अधिक स्थायी पूँजी चाहता है, जबकि सरल उत्पादन प्रक्रिया की स्थिति में कम स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है।

4. प्रारम्भिक व्यय (Preliminary expenses) – यदि कम्पनी की स्थापना के समय प्रवर्तकों के पारिश्रमिक, स्थापना, व्यय, पेटेण्ट आदि के क्रय पर अधिक व्यय किया जाता है तो इससे स्थायी पूँजी की आवश्यकता बढ़ जाती है।

प्रश्न 20.
पूँजी बजटिंग से क्या आशय है ? उसकी विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
पूँजी बजटिंग से आशय – स्थायी संपत्तियों में विनियोग संबंधी निर्णय लेना ही पूँजी बजटिंग . कहलाता हैं। इन्हें पूँजीगत व्यय निर्णय भी कहा जाता है। पूँजी बजटिंग निर्णय अधिक जोखिमपूर्ण होते हैं क्योंकि एक तो ये निर्णय दीर्घ अवधि के लिए होते हैं इसलिए इनके अंतर्गत कई वर्षों के संभावित लाभों का पूर्वानुमान लगाना पड़ता है। जो कि गलत भी हो सकता है। दूसरा, इनमें बड़ी मात्रा में विनियोग होने के कारण एक बार लिए गए निर्णय में परिवर्तन करना कठिन हो जाता है।रिचर्ड्स एवं ग्रीनला के अनुसार – “पूँजी बजटिंग का अभिप्राय साधारणतः ऐसे विनियोग करने से है जिनसे लंबे समय तक आय प्राप्त होती है।”
पूँजी बजटिंग की विशेषताएँ-पूँजी बजटिंग की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं

  1. पूँजी बजटिंग निर्णयों की प्रकृति भारी विनियोग की होती है।
  2. दीर्घकालीन लाभदायकता में वृद्धि होती है।
  3. निर्णयों में जोखिम की मात्रा अधिक रहती है।
  4. लिए गए निर्णयों को बदलने में कठिनाई आती है।

प्रश्न 21.
स्थायी पूँजी तथा कार्यशील पूँजी में अंतर बताइए।
उत्तर:
स्थायी पूँजी तथा कार्यशील पूँजी में अंतर –
MP Board Class 12th Business Studies Important Questions Chapter 9 वित्तीय प्रबन्ध IMAGE - 2

प्रश्न 22.
स्थायी पूँजी को प्रभावित करने वाले तत्व लिखिए।
उत्तर:
स्थायी पूँजी की मात्रा को निर्धारित करने वाले निम्न तत्व हैं

1. व्यवसाय की प्रकृति (Nature of business) – स्थायी पूँजी की मात्रा व्यवसाय की प्रकृति से प्रभावित होती है। इसमें दो तत्व निहित होते हैं । प्रथम, उपक्रम निर्माण कार्य में लगा है अथवा वितरण कार्य में। निर्माण कार्य में लगे व्यवसाय में अधिक स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है जबकि वितरण में लगे व्यवसाय में कम स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है। द्वितीय, उत्पादन अथवा वितरण सामान्य उपभोक्ता वस्तुओं का किया जाता है तो कम स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है और उद्योगों से संबंधित वस्तुओं का उत्पादन अथवा वितरण किया जाता है तो अधिक स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है

2. उपक्रम का आधार एवं संगठन (Size and organization of the business)- स्थायी पूँजी की मात्रा को निर्धारित करने में उपक्रम का आकार एवं संगठन अत्यंत महत्त्वपूर्ण होता है। यदि उपक्रम बड़े पैमाने पर उत्पादन अथवा विक्रय का कार्य करता है तो अधिक पूँजी की आवश्यकता होती है अन्यथा कम। उपक्रम निगम पद्धति पर संगठित होता है तो अधिक स्थायी पूँजी की आवश्यकता होगी अन्यथा कम।

3. उत्पादन प्रक्रिया की जटिलता (Complexity of process of production)- जिस उपक्रम में जितनी अधिक जटिल उत्पादन प्रक्रिया का प्रयोग होता है वह व्यवसाय उतना ही अधिक स्थायी पूँजी चाहता है, जबकि सरल उत्पादन प्रक्रिया की स्थिति में कम स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है।

4. प्रारम्भिक व्यय (Preliminary expenses)- यदि कम्पनी की स्थापना के समय प्रवर्तकों के पारिश्रमिक, स्थापना, व्यय, पेटेण्ट आदि के क्रय पर अधिक व्यय किया जाता है तो इससे स्थायी पूँजी की आवश्यकता बढ़ जाती है।

प्रश्न 23.
अति पूँजीकरण एवं अल्प-पूँजीकरण में अंतर बताइए।
उत्तर:
अति-पूँजीकरण एवं अल्प-पूँजीकरण में अंतरक्र –
MP Board Class 12th Business Studies Important Questions Chapter 9 वित्तीय प्रबन्ध IMAGE - 3
प्रश्न 24.
जलयुक्त पूँजी किसे कहते हैं ? यह क्यों उत्पन्न होती है ? इसे समाप्त करने के लिए आप क्या कदम उठाएँगे?
उत्तर:
आशय (Meaning) – “जब कम्पनी की सम्पत्तियों का वास्तविक मूल्य उसके पुस्त मूल्य (Book value) से कम हो जाता है तो उसे जलयुक्त पूँजी कहते हैं।”
कभी-कभी प्रवर्तन के समय प्रवर्तकों एवं अन्य विक्रेताओं के द्वारा अंशों के बदले ऐसी सम्पत्ति हस्तांतरित कर दी जाती है जिसका उत्पादक मूल्य काफी कम रहता है। फलतः कम्पनी में पुस्त मूल्य तो रहता है किन्तु वास्तविक सम्पत्ति कम हो जाती है। स्थायी सम्पत्ति के अतिरिक्त दोषपूर्ण पेटेण्ट, साख प्रवर्तन एवं सेवाओं के कारण भी यह स्थिति निर्मित हो जाती है।

जैसे किसी कम्पनी की सम्पत्ति का पुस्त मूल्य 1,00,000 रु. है तथा उस सम्पत्ति का वास्तविक बाजार मूल्य या उत्पादकता 70,000 रु. है तब ऐसी स्थिति को जलयुक्त पूँजी कहा जायेगा।द्रवित पूँजी के कारण (Causes of Watered Capital) – किसी कम्पनी में द्रवित पूँजी निम्न कारणों से हो जाती है

1. ऊँची दरों पर सम्पत्तियों का क्रय (Purchase of assets at high rates) व्यापार में यदि सम्पत्तियों का क्रय ऊँची दर पर किया जाये तो इससे द्रवित पूँजी का उत्पन्न होना स्वाभाविक होता है।

2. दोषपूर्ण ह्रास नीति (Defective depreciation policy) – यदि कम्पनी की ह्रास कोष नीति दोषपूर्ण है तथा आवश्यकता से कम ह्रास कोष की व्यवस्था की जाती है तब द्रवित पूँजी उत्पन्न हो जाती है ।

3.प्रवर्तकों को अधिक पारिश्रमिक (More remuneration to promotors) – कम्पनी के समामेलन के समय यदि प्रवर्तकों द्वारा अधिक पारिश्रमिक की माँग की जाती है या अधिक पारिश्रमिक का भुगतान कर दिया जाता है तो इससे द्रवित पूँजी उत्पन्न हो जाती है।

4. अमूर्त सम्पत्तियाँ (Intangible assets)- अमूर्त सम्पत्तियाँ जैसे-ख्याति, कॉपीराइट्स, पेटेण्ट, ट्रेडमार्क आदि की उपयोगिता कभी-कभी बाद में कम हो जाती है जबकि चिट्ठे में उसका मूल्य पूर्व की भाँति रहता है इससे भी द्रवित पूँजी की मात्रा बढ़ जाती है।

प्रश्न 25.
अति-पूँजीकरण के प्रमुख कारण बतलाइए।
उत्तर:
अति-पूँजीकरण के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं
1. अधिक प्रवर्तन व्यय-यदि किसी कम्पनी के निर्माण के समय अत्यधिक अथवा अनुचित प्रवर्तन व्यय किये जाते हैं तो वे आगे चलकर अति-पूँजीकरण को जन्म देते हैं। प्रवर्तन व्यय कम्पनी के व्यापार के अनुकूल होना चाहिए। जब पूँजी की राशि अनुमानित आय (अर्जित होने वाली) से अधिक निर्धारित कर ली जाती है तो ऐसी स्थिति अति-पूँजीकरण की होती है।
2. अधिक पूँजी का निर्गमन—जब किसी कम्पनी में आवश्यकता से अधिक पूँजी का निर्गमन किया जाता है तब कम्पनी के पास आवश्यकता से अधिक रकम एकत्रित हो जाती है तथा उसका लाभपूर्ण उपयोग न करने पर अति-पूँजीकरण की स्थिति निर्मित हो जाती है।
3. प्रवर्तन के समय आय का अधिक अनुमान–यदि किसी कम्पनी के प्रवर्तन के समय कम्पनी द्वारा अर्जित की जाने वाली आय का अधिक अनुमान लगाया जाता है तो कम्पनी में अति-पूँजीकरण का कारण बनता है। जब पूँजीकरण की राशि अधिक निर्धारित कर ली जाती है तथा संस्था उनके अनुरूप आय अर्जित नहीं करती तो यह स्थिति अति-पूँजीकरण की होती है।
4. स्फीति काल में कम्पनी का निर्माण यदि किसी कम्पनी का निर्माण स्फीति काल में किया जाता है तो उस कम्पनी में अति-पूँजीकरण की स्थिति पैदा हो सकती है। स्फीति काल में सभी सम्पत्तियों को खरीदना महँगा पड़ता है। जबकि वे भविष्य में अधिक लाभप्रद नहीं होती हैं कि उनके मूल्य की तुलना में वे लाभ कम देती हैं अतः जैसे ही स्फीति काल समाप्त होता है उपक्रम में अति-पूँजीकरण की स्थिति निर्मित हो जाती है।

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प्रश्न 26.
कार्यशील पूँजी के प्रकारों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
कार्यशील पूँजी मुख्यतः दो प्रकार की होती है.
1. नियमित अथवा स्थायी कार्यशील पूंजी (Regular or fixed working capital)-कुछ कार्यशील पूँजी होती है जिसकी आवश्यकता संपूर्ण वर्ष भर लगातार होती है। ऐसी पूँजी की व्यवस्था स्थायी रूप से दीर्घकालीन ऋण से की जाती है। नियमित कार्यशील पूंजी की आवश्यकता न्यूनतम स्टॉक बनाये रखने, बैंक में न्यूनतम राशि रखने, व्यापार की मरम्मत, रख-रखाव, बिजली, वेतन, शक्ति आदि के व्ययों को करने के लिए पड़ती है। व्यवसाय के सामान्य संचालन के लिए यह अत्यंत आवश्यक है। इसी पूँजी से व्यवसाय का संचालन तथा व्यवस्था को आगे बढ़ाया जाता है।

2. मौसमी अथवा परिवर्तनशील कार्यशील पूंजी (Seasonal or variable working capital)-यह एक ऐसी पूँजी है जिसका उपयोग वर्ष में किसी निश्चित मौसम में ही किया जाता है। साथ ही यह व्यय परिवर्तनशील होता है। इसलिए इसे मौसमी या परिवर्तनशील कार्यशील पूँजी कहा जाता है। जैसे-सर्दी के पूर्व गर्म कपड़े या ऊन खरीदने के लिए, बरसात के पूर्व छाता या बरसाती खरीदने के लिए आदि।

जिस वर्ष अधिक बरसात होती है उस वर्ष बरसाती या छाता अधिक बिकता है अतः पूँजी इसी अनुपात में परिवर्तनशील होती है। मौसमी कार्यशील पूँजी अल्पकालीन होती है। अतः इसकी व्यवस्था अल्पकालीन ऋणों द्वारा पूरी की जा सकती है।

प्रश्न 27.
वित्तीय नियोजन की सीमाएँ बताइए।
उत्तर:
वित्तीय नियोजन व्यवसाय की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है किन्तु विभिन्न कारणों से वित्तीय नियोजन की सफलता में बाधा पहुँचता है। वित्तीय नियोजन की प्रमुख सीमायें निम्नांकित हैं

1. पूर्वानुमानों पर आधारित (Based on forecasts) वित्तीय नियोजन प्रायः भविष्य की गर्त में देखता है भविष्य की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर पूर्वानुमान लगाया जाता है। भविष्य सदैव अनिश्चित रहता है अतः इस अनिश्चितता के कारण कभी-कभी पूर्वानुसार मान असफल हो जाते हैं जिससे वित्तीय नियोजन असफल हो जाता है।

2. समन्वय का अभाव (Lack of coordination) – वित्तीय नियोजन में संस्था के बाहर के अधिकारियों में समन्वय का होना आवश्यक है। किन्तु कभी-कभी अच्छा समन्वय न रहने से अच्छी-अच्छी वित्तीय योजना भी असफल हो जाती है तथापित यह दोष अधिकारियों का है।

3. परिवर्तित दशाएँ (Changed conditions) – प्रत्येक दिन कुछ न कुछ नया हो जाता है अर्थात् आज जो स्थिति है व कल रहेंगे या नहीं आवश्यक नहीं जबकि वित्तीय नियोजन आज की स्थिति को आधार मानकर किया जाता है। परिस्थितियाँ बदल जाने पर अच्छा से अच्छा वित्तीय नियोजन असफल हो जाता है।

4. मानसिक सीमाएँ (Mental limitations) – वित्तीय योजना बौद्धिक श्रेष्ठता पर निर्भर करती है। अतः वित्तीय प्रबंधकों में अपेक्षित योग्यता न रहने पर भी वित्तीय योजना का सही रूपांकन नहीं हो पाता।

प्रश्न 28.
पूँजी बजटिंग क्या है ? इसके तीन महत्व बताइए।
उत्तर:
पूँजी बजटिंग का अर्थ-स्थायी संपत्तियों में विनियोग संबंधी सभी निर्णय पूँजी बजटिंग
कहलाते हैं।
पूँजी बजटिंग का महत्व-

  1. लाभप्रदत्ता को निर्धारित करना।
  2. भारी विनियोगों से संबंधित।
  3. जोखिम के स्वरूप को प्रभावित करना।
  4. दीर्घ अवधि विकास एवं प्रभाव अर्थात् यह ऐसे निर्णय हैं जिनका दीर्घ अवधि विकास पर प्रभाव पड़ता है। दीर्घ अवधि संपत्ति में लगाई गई पूँजी पर भविष्य में लाभ प्राप्त होगा। इसका व्यवसाय में आने वाले समय की संभावनाओं एवं भविष्य पर प्रभाव पड़ता है।
  5. लाभों के पूर्वानुमान पर आधारित।
  6. स्थायी निर्णय अर्थात् एक बार लिए गए निर्णयों को पलटने से भारी नुकसान का सामना करना पड़ता है।

प्रश्न 29.
वर्णन कीजिए कि क्या निम्नलिखित वस्तुओं का निर्माण करने वाले व्यवसाय की कार्यशील पूँजी आवश्यकता कम है या अधिक उत्तर स्पष्ट कीजिए

  1. चीनी
  2. मोटरकार
  3. लोकोमोटिव
  4. ब्रेड
  5. कूलर
  6. फर्नीचर।

उत्तर:

  1. चीनी-कार्यशील पूँजी की आवश्यकता अधिक होगी क्योंकि परिचालन चक्र लंबा होता है।
  2. मोटरकार-कार्यशील पूँजी की आवश्यकता अधिक होगी क्योंकि परिचालन चक्र लंबा होगा।
  3. लोकोमोटिव- कार्यशील पूँजी की आवश्यकता कम होगी क्योंकि परिचालन चक्र छोटा होता है।
  4. ब्रेड-कार्यशील पूँजी की आवश्यकता कम होगी क्योंकि इसमें शीघ्र नगद प्रवाह होता है।
  5. कूलर- कार्यशील पूँजी की आवश्यकता अधिक होती है क्योंकि यह मौसमी उत्पादन है।
  6. फर्नीचर-कार्यशील पूँजी की आवश्यकता कम होती है क्योंकि स्टॉक का अनुरक्षण नहीं करना पड़ता।

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प्रश्न 30.
अति-पूँजीकरण से कम्पनी पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर:
अतिपूँजीकरण से कम्पनी पर निम्न प्रभाव पड़ता है

1. ख्याति की हानि–अति-पूँजीकृत कम्पनी के अंशों का वास्तविक मूल्य उनके पुस्तकीय मूल्य से कम हो जाता है तथा लाभांश की दर कम हो जाती है जिससे कम्पनी की ख्याति को हानि पहुँचती है।

2. पूँजी प्राप्ति में कठिनाई अति-पूँजीकृत कम्पनी के बाजार में साख कम हो जाती है तथा लाभांश की मात्रा कम हो जाती है। इससे कोई भी विनियोक्ता ऐसी कम्पनी में विनियोग नहीं करना चाहता है। परिणामस्वरूप पूँजी प्राप्त करने में कठिनाई होती है।

3. ऋण प्राप्ति में कठिनाई अति-पूँजीकरण की स्थिति में कम्पनी की आय कम हो जाने से इनके कोष कम हो जाते हैं जिससे अन्य वित्तीय संस्थाएँ भी इन कम्पनियों को ऋण देने में संकोच करती हैं। इस प्रकार अति-पूँजीकरण की स्थिति में कम्पनियों को ऋण प्राप्ति में कठिनाई होती है।

4. कृत्रिम ऊँची लाभ दर-अति-पूँजीकृत कम्पनी अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को प्राप्त करने के लिए हिसाब-किताब में गड़बड़ी करके ऊँचे लाभांश की घोषणा करती है। लाभांश पूँजी में से भी दे दिया जाता है। यह गलत नीति आगे चलकर अधिक घातक सिद्ध होती है।

प्रश्न 31.
एक कम्पनी के पूँजी ढाँचे के चयन को निर्धारित करने वाले किन्हीं चार घटकों को समझाइए।
अथवा
पूँजी ढाँचे को प्रभावित करने वाले घटकों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
अथवा
एक कम्पनी के पूँजी ढाँचे को प्रभावित करने वाले कोई दो घटक लिखिए।
उत्तर:
पूँजी ढाँचे को निर्धारित करने वाले तत्व (Factors determining the Capital Structure of a Company) – एक कम्पनी की पूँजी संरचना को निर्धारित करने वाले तत्व निम्नलिखित हैं

1. आय की स्थिरता (Stability of Earnings) – जिन कंपनियों की आय में लगातार स्थिरता बनी रहती है वे स्थायी वित्तीय व्ययों (जैसे ब्याज का भुगतान) का भुगतान आसानी से कर सकती है। अतः ऐसी कंपनियों को सस्ते वित्त स्रोत का लाभ उठाते हुए वित्त की व्यवस्था ऋण पूँजी से करनी चाहिए। इसके विपरीत, जिन कंपनियों की आय में अस्थिरता रहती है उन्हें ऋण पूँजी निर्गमित करने का जोखिम नहीं उठाना चाहिए। ऐसी स्थिति में ब्याज व मूलधन के भुगतान में कठिनाई आ सकती है जिसके परिणामस्वरूप कम्पनी का समापन भी हो सकता है अतः कहा जा सकता है कि आय कि स्थिरता एवं ऋण पूँजी के प्रयोग में धनात्मक संबंध (Positive relation) है।

2. संपत्ति ढाँचा (Assets Structure) – संपत्ति ढाँचे का अभिप्राय कुल संपत्तियों में स्थायी एवं अस्थायी संपत्तियों के अनुपात से है। जिन कंपनियों में स्थायी संपत्तियाँ अधिक होती हैं वे अधिक ऋण पूँजी प्राप्त कर सकती हैं। इसका कारण यह है कि स्थायी संपत्तियों को प्रतिभूति (Security) के रूप में रखकर ऋण आसानी से लिया जा सकता है। अतः कहा जा सकता है कि पूँजी ढाँचे के निर्माण में संपत्ति का महत्वपूर्ण स्थान है।

3. व्यवसाय का आकार (Size of Business) – जिन कंपनियों के व्यवसाय का आकार बड़ा होता है वे प्रायः अनेक वस्तुओं का उत्पादन करने वाली (Diversified) होती हैं जिसके कारण वे लाभ की स्थिति में रहती है। यही कारण है कि बड़ी कंपनियाँ अपेक्षाकृत आसान शर्तों पर दीर्घकालीन ऋण प्राप्त करने में समर्थ रहती है। इसके विपरीत, छोटे आकार वाली कंपनियों को दीर्घकालीन ऋण लेने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है।

4. ऋण भुगतान क्षमता (Debt Service Capacity) – एक कंपनी की ऋण भुगतान क्षमता जितनी अधिक होती है वह उतनी ही अधिक ऋण पूँजी का प्रयोग करने में सक्षम होती है। ऋण भुगतान क्षमता का अनुमान ब्याज व कर से पूर्व आय (Earning Before Interest and Taxes-EBIT) व ऋणों पर ब्याज के अनुपात से लगाया जाता है। अतः ऋण भुगतान क्षमता एवं पूँजी के प्रयोग में सीधा संबंध है।

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प्रश्न 32.
अति-पूँजीकरण को ठीक करने के उपाय लिखिए।
उत्तर:
अति-पूँजीकरण को ठीक करने के उपाय (Remedial Measures for Over capitalization)
जब किसी भी व्यावसायिक कंपनी में अति-पूँजीकरण की स्थिति उत्पन्न हो जाती है तो उसे ठीक करना बड़ा कठिन होता है। जिन कंपनियों का निर्माण ही प्रवर्तकों के छल-कपट पूर्ण व्यवहार से होता है, उनमें अतिपूँजीकरण की स्थिति को ठीक करना अधिक कठिन होता है। अति-पूँजीकरण की स्थिति को ठीक करने के लिए निम्न उपाय बताये जाते हैं
1. बन्धक ऋणों में कमी (Reduction in bonded debts) – अति-पूँजीकरण की समस्या का एक उपचार यह है कि पूँजी कम करने के लिए बंधक ऋणों को कम किया जाना चाहिए। ऐसा करने से ब्याज का खर्च कम हो जाता है और लाभों में वृद्धि हो जाती है।

2. ऋणपत्रों पर दिये जाने वाले ब्याज में कमी (Reduction in the Interest rate payable on debentures) – इस समस्या से ग्रसित कम्पनी की आय बढ़ाने का एक सुझाव यह भी है कि ऋणपत्रों की ब्याज दर में कमी की जानी चाहिए तथा ऊँची ब्याज दर वाले ऋणपत्रों में परिवर्तित कर देना चाहिए। यदि ऋणपत्रधारी तैयार हों तो बट्टे पर नये ऋणपत्र भी जारी किये जा सकते हैं।

3. ऊँची लाभांश दर वाले पूर्वाधिकार अंशों का विमोचन (Reduction of high dividend preference shares)….जो कम्पनियाँ अति-पूँजीकरण की समस्या से ग्रसित हैं अगर उनमें ऊँची लाभांश दर वाले संचयी पूर्वाधिकार अंश हों तो उनका विमोचन कर देना चाहिए। ऐसा करने से समता अंशधारियों को मिलने वाली आय बढ़ जायेगी और समता अंशों का वास्तविक मूल्य पुस्तकीय मूल्य के बराबर या अधिक हो जायेगा।

4. अंशों की संख्या कम करना (Reducing number of shares) अनेक बार अति-पूँजीकरण को समस्या कम्पनी के अंशों की संख्या कम करके भी ठीक की जा सकती है। इससे प्रति अंश आय बढ़ने से बाजार में मनोवैज्ञानिक आधार पर कम्पनी की साख बढ़ती है और अंशों के मूल्य में सुधार होता है तथा अति-पूँजीकरण की समस्या ठीक हो जाती है।

प्रश्न 33.
वित्तीय नियोजन के प्रकारों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
वित्तीय नियोजन विभिन्न अवधि के लिए उनकी आवश्यकता के अनुरूप तैयार किये जाते हैं। सामान्य नियोजन की भाँति वित्तीय नियोजन भी निम्न तीन प्रकार के (तीन अवधियों के लिए) होते हैं

1. अल्पकालीन वित्तीय नियोजन (Short-term financial planning) – सामान्यतया एक व्यवसाय में एक वर्ष की अवधि के लिए जो वित्तीय योजना बनाई जाती है, वह अल्पकालीन वित्तीय नियोजन कहलाती है। अल्पकालीन वित्तीय योजनाएँ, मध्यमकालीन तथा दीर्घकालीन योजनाओं के ही भाग होते हैं। अल्पकालीन वित्तीय योजना में प्रमुख रूप से कार्यशील पूँजी के प्रबंध की योजना बनाई जाती है तथा उसको विभिन्न अल्पकालीन साधनों से वित्तीय व्यवस्था करने का कार्य किया जाता है। विभिन्न प्रकार के बजट एवं प्रक्षेपित (Project) लाभ-हानि विवरण कोषों की प्राप्ति एवं उपयोग का विवरण तथा चिट्ठा बनाये जाते हैं।

2. मध्यमकालीन वित्तीय नियोजन (Medium-term financial planning) – एक व्यवसाय में वर्ष से अधिक तथा पाँच वर्ष से कम अवधि के लिए जो वित्तीय योजना बनाई जाती है, उसे मध्यमकालीन वित्तीय नियोजन कहते हैं।

मध्यमकालीन वित्तीय योजना संपत्तियों के प्रतिस्थापन, रख-रखाव, शोध एवं विकास कार्यों को चलाने, अल्पकालीन उत्पादन कार्यों की व्यवस्था करने तथा बढ़ी हुई कार्यशील पूँजी की विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बनाई जाती है।

3. दीर्घकालीन वित्तीय नियोजन (Long-term financial planning) – एक व्यवसाय में पाँच अथवा अधिक अवधि के लिए बनाई गई वित्तीय योजना दीर्घकालीन वित्तीय योजना कहलाती है। दीर्घकालीन वित्तीय योजना विस्तृत दृष्टिकोण पर आधारित योजना होती है जिसमें संस्था के सामने आने वाली दीर्घकालीन समस्याओं के समाधान हेतु कार्य किया जाता है।

इस योजना में संस्था के दीर्घकालीन वित्तीय लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु पूँजी की मात्रा, पूँजी ढाँचे, स्थायी संपत्तियों के प्रतिस्थापना, विकास एवं विस्तार हेतु अतिरिक्त पूँजी प्राप्त करने आदि को शामिल किया जाता है।

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प्रश्न 34.
कार्यशील पूँजी का क्या आशय है ? इसकी गणना कैसे की जाती है ? कार्यशील पूँजी की आवश्यकता को निर्धारित करने वाले पाँच महत्वपूर्ण निर्धारकों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कार्यशील पूँजी का अर्थ-जिस प्रकार वित्तीय प्रबंध में पूँजी शब्द का प्रयोग भिन्न-भिन्न लिया जाता है उसी प्रकार कार्यशील पूँजी का प्रयोग व्यावसायिक जगत में भिन्न-भिन्न तरह से करते हैं।

व्यवसाय के संचालन एवं रख-रखाव में जिस पूँजी का प्रयोग किया जाता है उसे सामान्यतः कार्यशील पूँजी कहा जाता है।
मीड,मैल्ट एवं फील्ड के अनुसार-“कार्यशील पूँजी से आशय चल-संपत्ति के योग से है।’ जे.एस.मिल के अनुसार-“चल संपत्तियों का योग ही व्यवसाय की कार्यशील पूँजी है।”

कार्यशील की गणना –

1. सकल कार्यशील पूँजी- इसका अभिप्राय सभी चालू संपत्तियों जैसे नगद, प्राप्य बिल, पूर्वदत्त व्यय स्टॉक इत्यादि में निवेश करने से है। इन चालू संपत्तियों को एक लेखांकन वर्ष के अंदर नगद में परिवर्तित किया जाता है।

2. शुद्ध कार्यशील पूँजी – इसका अभिप्राय चालू दायित्वों की तुलना में चालू परिसंपत्तियों के आधिक्य से है। चालू दायित्वों का भुगतान लेखांकन वर्ष के अंदर किया जाता है, उदाहरण के लिए, देय बिल, लेनदार इत्यादि।

कार्यशील पूंजी की आवश्यकता को निर्धारित करने वाले महत्वपूर्ण निर्धारक-किसी भी व्यवसाय के लिये मात्र स्थायी सम्पत्ति की व्यवस्था कर लेने से उसकी संचालन व्यवस्था नहीं की जा सकती है। व्यवसाय की सामान्य प्रगति के लिये समय-समय पर आवश्यक क्रय करने पड़ते हैं । इसके लिये कार्यशील पूँजी आवश्यक ही नहीं अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होती है। सामान्यतः एक उपक्रम में कार्यशील पूँजी की आवश्यकता निम्न कार्यों के लिये होती है

  1. कच्चा माल खरीदने के लिये
  2. माल को उपयोगी बनाने के लिये
  3. कच्चे माल को निर्मित माल के रूप में परिवर्तित करने के लिये
  4. वेतन एवं मजदूरी का भुगतान करने के लिये
  5. दैनिक व्ययों को पूरा करने, ईंधन, बिजली व्ययों का भुगतान करने के लिये
  6. विक्रय एवं वितरण के व्ययों के लिये
  7. कार्यालय एवं फैक्ट्री के फुटकर व्ययों की पूर्ति के लिये
  8. अन्य आकस्मिक व्ययों जैसे-दुर्घटना, मरम्मत आदि की पूर्ति के लिये।

MP Board Class 12 Business Studies Important Questions

MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण उपसर्ग

MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण उपसर्ग

वे शब्दांश जो किसी शब्द में जुड़कर उसका अर्थ परिवर्तित कर देते हैं। उपसर्गों का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता; फिर भी वे अन्य शब्दों के साथ मिलकर एक विशेष अर्थ का बोध कराते हैं। उपसर्ग सदैव शब्द के पहले आता है, जैसे-‘परा’ उपसर्ग को ‘जय’ के पहले रखने से एक नया शब्द ‘पराजय’ बन जाता है। जिसका अर्थ होता है-हार।

उपसर्ग के शब्द में तीन प्रकार की स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं।

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जैसे-
1. शब्द के अर्थ में विपरीतता आ जाती है।
2. शब्द के अर्थ में नूतनता आ जाती है।
3. शब्द के अर्थ में कोई नया परिवर्तन नहीं होता।
उत्तर-
हिन्दी भाषा में उपसर्ग तीन भाषाओं के हैं
(a) संस्कृत उपसर्ग
(b) हिन्दी उपसर्ग
(c) उर्दू उपसर्ग।

(a) संस्कृत उपसर्ग
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उपसर्ग के समान प्रयुक्त होने वाले कुछ अन्य शब्द
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MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण उपसर्ग img-6

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(b) हिन्दी उपसर्ग
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(c) उर्दू उपसर्ग
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MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण समास-विग्रह

MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण समास-विग्रह

जब परस्पर संबंध रखने वाले शब्दों को मिलाकर उनके बीच आई विभक्ति आदि का लोप करके उनसे एक पद बना दिया जाता है, तो इस प्रक्रिया को समास कहते हैं। जिन शब्दों के मूल से समास बना है उनमें से पहले शब्द को पूर्व पद और दूसरे शब्द को उत्तर पद कहते हैं। जैसे–पालन–पोषण में ‘पालन’ पूर्व पद है और ‘पोषण’ उत्तर पद है। और ‘पालन–पोषण’ समस्त पद है।

समास में कभी पहला पद प्रधान होता है, कभी दूसरा पद और कभी कोई अन्य पद प्रधान होता है जिसका नाम प्रस्तुत सामासिक शब्द में नहीं होता और प्रस्तुत सामासिक शब्द तीसरे पद का विशेषण अथवा पर्याय होता है।

कुछ समासों में विशेषण विशेष्य के आधार पर और कुछ में संख्यावाचक शब्दों के आधार पर और कहीं अव्यय की प्रधानता के आधार पर तो कुछ समासों में विभक्ति चिह्नों की विलुप्तता के आधार पर तो कुछ समासों में विभक्ति चिहों की विलुप्तता के आधार पर इस बात का निर्णय किया जाता है कि इसमें कौन–सा समास है।

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विग्रह–समस्त पद को पुनः तोड़ने अर्थात् उसके खंडों को पृथक् करके पुनः विभक्ति आदि सहित दर्शाने की प्रक्रिया का नाम विग्रह है।

जैसे–
गंगाजल शब्द का विग्रह होगा गंगा का जल।
इस तरह तत्पुरुष समास के छः भेद होते हैं।
MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण समास-विग्रह img-1

1. अव्ययीभाव समास
इन शब्दों को पढ़िए–
MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण समास-विग्रह img-2

इन सामाजिक शब्दों में प्रथम पद अव्यय और प्रधान या उत्तर पद संज्ञा, विशेषण या क्रिया है।

जिन सामासिक शब्दों में प्रथम पद प्रधान और अव्यय होता है, उत्तर पद संज्ञा, विशेषण या क्रिया–विशेषण होता है वहाँ अव्ययीभाव समास होता है।

2. तत्पुरुष समास
इन शब्दों को पढ़िए–
“शरणागत, तुलसीकृत, सत्याग्रह, ऋणमुक्त, सेनापति, पर्वतारोहण।
MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण समास-विग्रह img-3

उपर्युक्त सामासिक शब्दों में ‘को’, ‘द्वाय’, के लिए, से, का, के, की, ‘पर’ संयोजक शब्द बीच में छिपे हुए हैं जो कारक की विभक्तियाँ हैं। दोनों शब्दों के बीच में कर्ता तथा संबोधन कारकों की विभक्तियों को छोड़कर अन्य कारकों की विभक्तियों का लोप होता है।

जिन सामासिक शब्दों के बीच में कर्म है. लेकर अधिकरण कारक की विभल्लियों का लोप होता है तथा उत्तर पद प्रधान होता है, वे तत्पुरुष समास कहलाते है

(i) कर्म तत्पुरुष समास–
उदाहरण–यशप्राप्त, आशातीत, जेबकतरा, परिलोकगमन।
MP Board Class 12th General Hindi व्याकरण समास-विग्रह img-4
जिस समस्त पद में कर्म कारक की विभक्ति (को) का लोप होता है उसे कर्म तत्पुरुष कहते हैं।

(ii) करण तत्पुरुष–इन उदाहरणों को देखिए
शब्द – विग्रह
शोकातुर – शोक से आतुर।
मुँहमाँगा – मुँह से माँगा।

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जिस समस्त पद में करण कारक (से) की विभक्ति का लोप होता है उसे करण तत्पुरुष कहते हैं।
(ii) सम्प्रदान तत्पुरुष
उदाहरण–
शब्द – विग्रह
विद्यालय – विद्या के लिए घर।
गौशाला – गौ के लिए शाला।
डाक व्यय – डाक के लिए व्यय।

जिसं समस्त पद में सम्प्रदान कारक (के लिए) की विभक्ति का लोप होता है, उसे सम्प्रदान तत्पुरुष कहते हैं।

(iv) अपादान तत्पुरुष
उदाहरण–
शब्द – विग्रह
शक्तिविहीन – शक्ति से विहीन।
पथभ्रष्ट – पथ से भ्रष्ट।
जन्मांध – जन्म से अंधा।
धर्मविमुख – धर्म से विमुख।

जिस सामासिक शब्द में अपादान कारक (से) की विभक्ति का लोप होता है, उसे अपादान तत्पुरुष समास कहते हैं।
नोट–तृतीया विभक्ति करण कारक और पंचमी विभक्ति अपादान कारक की विभक्तियों के चिह्न ‘से’ में एकरूपता होते हुए भी अर्थ में भिन्नता है। करण कारक का ‘से’ का प्रयोग संबंध जोड़ने के अर्थ में प्रयुक्त होता है और अपादान का ‘से’ संबंध–विच्छेद के अर्थ में प्रयुक्त होता है।

(v) संबंध तत्पुरुष समास–
उदाहरण–
शब्द – विग्रह
रामकहानी – राम की कहानी।
प्रेमसागर – प्रेम का सागर।
राजपुत्र – राजा का पुत्र।
पवनपुत्र – पवन का पुत्र।
पराधीन – पर के अधीन।

अर्थात्
जिस सामासिक शब्द में संबंध कारक की विभक्तियों (का, के, की) का लोप . होता है उसे संबंध तत्पुरुष समास कहते हैं।

(vi) अधिकरण तत्पुरुष
उदाहरण–
शब्द – विग्रह
शरणागत – शरण में आया।
घुड़सवार – घोड़े पर सवार।
लोकप्रिय – लोक में प्रिय।

अर्थात्
जिस सामासिक शब्द में अधिकरण (में, पे, पर) कारक की विभक्तियों का लोप होता है उसे अधिकरण तत्पुरुष समास कहते हैं।

3. कर्मधारय समास
महात्मा, शुभागमन, कृष्णसर्प, नीलगाय ।
महात्मा – महान है जो आत्मा।
शुभागमन – जिसका आगमन शुभ है।
कृष्णसर्प – सर्प जो काला है।
नीलगाय – गाय जो नीली है।

उपयुक्त सामासिक शब्दों में पहला पद विशेषण है दूसरा पद विशेष्य अर्थात् दूसरे पद की विशेषता पहला पद बता रहा है।

इन शब्दों को पढ़िए–

शब्द – विग्रह
कनकलता – कनक के समान लता।
कमलनयन – कमल के समान नयन।
घनश्याम – घन के समान श्याम।
चंद्रमुख – चंद्र के समान मुख।
मृगलोचन – मृग के समान नेत्र।

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इन शब्दों में पहले पद की तुलना दूसरे पद से की है। अर्थात् पहला पद उपमान और दूसरा पद उपमेय है।

जब सामासिक शब्द में विशेषण विशेष्य का भाव हो या उपमेय उपमान का भाव हो तब कर्मधारय समास होता है।

इस आधार पर कर्मधारय समास भी दो प्रकार के होते हैं
1. विशेषण विशेष्य कर्मधारय–जैसे– नीलकंठ, महाजन, श्वेताम्बर, अधपका।
2. उपमेयोपमान कर्मधारय–जैसे–करकमल, प्राणप्रिय, पाणिपल्लव, हंसगाभिनी।

4. दिगु समास –
इन शब्दों को पढ़िए
पंचतंत्र, शताब्दी, सप्ताह, त्रिभुवन, त्रिलोक, नवरत्न, दशानन, नवनिधि, चतुर्भुज, . दुराहा। इनका विग्रह इस प्रकार होगा– .

शब्द – विग्रह
पंचतंत्र – पाँच तंत्रों का समूह या समाहार।
शताब्दी – सो वर्षों का समाहार या समूह।
सप्ताह – सात दिनों का समूह।
त्रिभुवन – तीन भवनों का समूह।
त्रिलोक – तीन लोकों का समूह।
नवरत्न – नौ रत्नों का समूह।
दशानन – दस मुखों का समूह।
नवनिधि – नौ निधियों का समूह।

इस प्रकार के शब्दों में पहले पद में संख्यावाचक शब्द का प्रयोग हुआ है।
जिस समास में प्रथम पद संख्यावाचक विशेषण हो और समस्त पद के द्वारा समुदाय का बोध हो, उसे द्विगु समास कहते हैं।

5. द्वन्द्व समास–इन शब्दों को पढ़िए–
सीता–राम – सीता और राम।
धर्मा–धर्म – धर्म या अधर्म।

दोनों पद प्रधान होते हैं। सामासिक शब्द में मध्य में स्थित योजक शब्द और अथवा, वा का लोप हो जाता है उसे द्वन्द्व समास कहते हैं।’
इन समासों को पढ़िए माता–पिता, गंगा–यमुना, भाई–बहिन, नर–नारी, रात–दिन, हानि–लाभ
समास विग्रह

शब्द – विग्रह
माता–पिता – माता और पिता।
गंगा–यमुना – गंगा और यमुना।
भाई–बहिन – भाई और बहिन।
रात–दिन – रात और दिन।

उपर्युक्त शब्दों में दोनों पद प्रधान हैं, सामासिक शब्द के बीच में योजक शब्द ‘और’ लुप्त हो गया है। कुछ शब्द इस प्रकार हैं
शब्द – विग्रह
भला–बुरा – भला या बुरा।
छोटा–बड़ा – छोटा या बड़ा।
थोड़ा–बहुत – थोड़ा या बहुत।
लेन–देन – लेन या देन।

इन शब्दों में ‘या’ अथवा ‘व’ योजक शब्दों का लोप रहता है। उपर्युक्त शब्द परस्पर विरोधीभाव के बोधक होते हैं।
इन शब्दों को पढ़िए–

दाल–रोटी – दाल और रोटी।
कहा–सुनी – कहना और सुनना।
रुपया–पैसा – रुपया और पैसा।
खाना–पीना – खाना और पीना।

इन शब्दों में प्रयुक्त पदों के अर्थ के अतिरिक्त उसी प्रकार का अर्थ साथ वाले पद से सूचित होता है। उपर्युक्त उदाहरणों में हमने तीन तरह की स्थितियाँ देखीं।

पहले उदाहरणों में दोनों पद प्रधान हैं, ‘और’ योजक शब्द का लोप हुआ है। इसे इतरेतर द्वन्द्व कहते हैं।
दूसरे उदाहरणों में दोनों पद प्रधान होते हुए परस्पर विरोधी भाव के बोधक हैं, ‘और’ योजक शब्द से जुड़े हैं। इसे वैकल्पिक द्वन्द्व कहते हैं। .
तीसरे उदाहरणों में प्रयुक्त पदों के अर्थ के अतिरिक्त उसी प्रकार का अर्थ द्वितीय पद से सूचित होता है। इसे समाहार द्वन्द्व कहते हैं।

6. बहुब्रीहि समास

इन शब्दों को पढ़िए
1. गिरिधर – गिरि को धारण करने वाला अर्थात् ‘कृष्ण’।
2. चतुर्भुज – चार भुजाएँ हैं जिसकी अर्थात् ‘विष्णु’ ।
3. गजानन – गज के समान आनन (मुख) है जिसका अर्थात् ‘गणेश’।
4. नीलकंठ – नीला है कंठ, जिसका अर्थात् ‘शिव’ ।
5. पीताम्बर – पीले वस्त्रों वाला ‘कृष्ण’ । उपर्युक्त सामासिक शब्दों में दोनों पद प्रधान नहीं हैं। दोनों पद तीसरे अर्थ की ओर संकेत करते हैं।

जैसे–
अर्थात् – कृष्ण।
अर्थात् – विष्णु।

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जिन सामासिक शब्दों में दोनों पद किसी तीसरे पद की ओर संकेत करते हैं उन्हें बहुब्रीहि समास कहते हैं।

बहुब्रीहि और कर्मधारय समास में अन्तर–
कर्मधारय समास में दूसरा पद प्रधान होता है और पहला पद विशेष्य के विशेषण का कार्य करता है।

उदाहरण के लिए–
नीलकंठ का विशेषण है नीला–कर्मधारय। नीलकंठ–नीला है कंठ जिसका अर्थात ‘शिव–बहुब्रीहि समास बहुब्रीहि समास में दोनों पद मिलकर तीसरे पद की विशेषता बताते हैं।

बहुब्रीहि और द्विगु में अंतर–जहाँ पहला पद दूसरे पद की विशेषता संख्या में बताता है। वहाँ द्विगु समास होता है। जहाँ संख्यावाची पहला पद और दूसरा पद मिलकर तीसरे पद की विशेषता बताते हैं वहाँ बहुब्रीहि समास होता है।

जैसे–
चतुर्भुज – चार भुजाओं का समूह – द्विगु समास।
चतुर्भुज – चार भुजाएँ हैं जिसकी अर्थात् ‘विष्णु’– बहुब्रीहि समास

समास को पहचानने के कुछ संकेत–

  1. अव्ययी भाव समास – प्रथम पद प्रधान और अव्यय होता है।
  2. तत्पुरुष समास – दोनों पदों के बीच में कारक की विभक्तियों का लोप होता है और उत्तम पद प्रधान होता है।
  3. कर्मधारय समास प्रथम पद विशेषण और दूसरा विशेष्य होता है। या उपमेय उपमान का भाव होता है।
  4. द्विगु समास – प्रथम पद संख्यावाचक।
  5. द्वन्द्व समास – दोनों पद प्रधान होते हैं और समुच्चय बोधक शब्द से जुड़े होते हैं।
  6. बहुब्रीहि समास – दोनों पद को छोड़कर अन्य पद प्रधान होता है।

1. अव्ययी भाव समास
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संधि और समास में अन्तर
सन्धि और समास में मख्य रूप से अन्तर यह है कि सन्धि दो वर्णों (अ. आ. इ, क, च आदि) में होती हैं, जबकि समास दो या दो से अधिक शब्दों में होता है। सन्धि में शब्दों को तोड़ने की क्रिया को ‘विच्छेद’ कहते हैं और समास में सामासिक पद को तोड़ने की क्रिया को ‘विग्रह’ कहते हैं। ..

2. तत्पुरुष समास
तत्पुरुष के भेद

(i) कर्म तत्पुरुष
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(ii) करण तत्पुरुष
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(iii) सम्प्रदान तत्पुरुष
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(iv) अपादान तसुरुष
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(v) संबंध तत्पुरुष
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(vi) अधिकरण तत्पुरुष
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एकाधिक शब्दों का लोप-
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3. कर्मधारय समास
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उपमेयोपमान कर्मधारय समस्त
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4. द्विगु समास
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5. द्वन्द्व समास
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6. बहुब्रीहि समास
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