MP Board Class 11th Special Hindi स्वाति कवि परिचय (Chapter 6-10)

MP Board Class 11th Special Hindi स्वाति कवि परिचय (Chapter 6-10)

11. भूषण
[2010]

  • जीवन-परिचय

सरस्वती के इस ओजस्वी पुत्र का असली नाम क्या था? इस समस्या का समाधान अभी तक नहीं हुआ है। चित्रकूट के सोलंकी राजा रुद्रराम ने उन्हें भूषण’ की उपाधि दी थी; जो आज उनकी पूर्णरूपेण सामाजिक उपाधि बनी हुई है।

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भूषण का जन्म कानपुर के पास तिकवाँपुर नामक गाँव में सन् 1613 ई. (संवत् 1670 वि.) में हुआ था। इनके पिता का नाम पं. रत्नाकर त्रिपाठी था। इनके अन्य भाई चिन्तामणि और मतिराम तथा नीलकण्ठ भी श्रेष्ठ कवि थे। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने खोज की है कि उनका नाम घनश्याम था। परन्तु काव्य जगत् में इनका नाम भूषण ही प्रसिद्ध है।

चित्रकूट के सोलंकी राजा के यहाँ से इन्हें शिवाजी महाराज का राजाश्रय प्राप्त हो गया। शिवाजी इनके एक छन्द ‘इन्द्र जिमि जम्भ पर’ को कई बार बड़ी तल्लीनता से सुनते रहे। इसके लिए उन्होंने भूषण को अठारह लाख स्वर्णमुद्राएँ और अठारह गाँव की जागीर देकर सम्मानित किया। भूषण को आश्रय देने वाले अन्य महाराज छत्रसाल थे। रीतिकालीन विलासितापूर्ण वातावरण में वीरता को स्वर देने वाले ओज गुण सम्पन्न इस कवि ने सन् 1715 ई. (संवत् 1772 वि.) में अन्तिम साँस ली।

  • साहित्य-सेवा व उद्देश्य

विलासी प्रवृत्ति के राजाओं के दरबार में रहने वाले कवियों ने अपने आश्रयदाताओं को सन्तुष्ट करने और उनकी तृप्ति के लिए नारी के अंग-प्रत्यंग के कामोद्दीपक चित्र अपनी कविता में उभारे। इस तरह रीतिकालीन इन कवियों ने कविता को वासना की वाहिका बनाया हुआ था तभी वीर रस की सशक्तवाणी लिए हुए महाकवि भूषण काव्यमंच पर उभर पड़े और उन्होंने अपनी ओजभरी वाणी में राष्ट्र गौरव की अनुभूति कराने वाला शंखनाद फूंक दिया। सम्पूर्ण राष्ट्रीयजनों ने उनके स्वर को सुना और भूषण के इस सिंहनाद ने भारत में राष्ट्रीय चेतना का स्वर फूंक दिया। \

काव्य का विषय-भूषण को काव्यशास्त्र पर विशेष अधिकार प्राप्त था। धर्म, दर्शन, इतिहास और भूगोल आदि विषयों का उन्हें व्यापक ज्ञान प्राप्त था। उनका ओजस्वी व्यक्तित्व, स्वाभिमान, निर्भीकता, जातीय गौरव एवं अन्याय के विरुद्ध विद्रोह की भावना से भरा हुआ था। उन्होंने भारतीय संस्कृति के महान रक्षक शिवाजी और छत्रसाल की वीरता का ओजस्वी वर्णन करके हिन्दी कविता की श्रीवृद्धि की।

  • रचनाएँ

भूषण की निम्नलिखित प्रसिद्ध रचनाएँ हैं

  1. शिवा-बावनी-इस रचना में महाराज शिवाजी के शौर्य का वर्णन किया गया है। इस रचना में ओज गुण की प्रधानता है।
  2. शिवराज भूषण-शिवराज भूषण रीतिकालीन प्रवृत्तियों से प्रभावित ग्रन्थ है। यह अलंकारवादी और लक्षण ग्रंथ के रूप में एक प्रसिद्ध रचना है।
  3. छत्रसाल दशक-छत्रसाल दशक में वीर छत्रसाल के यश और कीर्ति का गान किया गया है। इसमें उनके पराक्रम, वीरता एवं युद्ध कौशल का ओज गुण प्रधान शैली में बखान किया गया है।

उपर्युक्त के अतिरिक्त ‘भूषण हजारा’ और ‘भूषण-उल्लास’ नामक दो कृतियों को भी भूषण की रचनाओं के रूप में बताया गया है। लेकिन ये रचनाएँ अभी तक उपलब्ध नहीं हैं। महाकवि भूषण ने अपने युग की प्रचलित काव्यधारा के विपरीत काव्य-साधना की।

  • भाव-पक्ष

(1) वीर रस की अभिव्यक्ति-वीर रस के अन्यतम कवि भूषण की कविता का प्रतिपाद्य शिवाजी और छत्रसाल की वीरता ही है। भूषण के काव्य में वीर रस ने पूर्णता प्राप्त की है। शिवाजी को युद्धवीर और धर्मवीर के रूप में चित्रित करते हुए भूषण कहते हैं-

युद्धवीर-“साजि चतुरंग वीर रंग में तुरंग चढ़ि,
सरजा शिवाजी जंग जीतन चलत है।”
धर्मवीर-“राखी हिन्दुवानी हिन्दुवान को तिलक राख्यो,
अस्मृति पुरान राखे वेद विधि सुनी मैं।”

भूषण के काव्य में वीर रस की स्वाभाविक और सर्वांगीण अभिव्यक्ति हुई है। जिसे सुनकर या पढ़कर ही एक बार तो कायर व्यक्ति में वीरोचित उत्साह भर जाता है।

(2) अन्य रस-भूषण के काव्य में वीर रस के अतिरिक्त रौद्र, वीभत्स तथा भयानक आदि रसों की अभिव्यक्ति उत्कृष्ट रूप से देखी जा सकती है। भूषण ने भंगार रस प्रधान छन्दों की भी रचना की है, जो बेजोड़ है।

(3) युद्ध वर्णन में सजीवता-शिवाजी महाराज और छत्रसाल के आश्रय में काव्य रचना करने के कारण उन्हें युद्ध को अति निकट से देखने का भी मौका मिला। अत: कवि ने युद्ध में सेना का परिमाण, उसके द्वारा की गई मारकाट, एवं विजय पक्ष द्वारा पराजित पक्ष पर भय पैदा करने वाले प्रभाव का स्वाभाविक वर्णन किया है।

(4) राष्ट्रीय भावना-तत्कालीन परिस्थितियों में भारत एक हिन्दू राष्ट्र था। दिल्ली विदेशी अस्थायी शासन की प्रतीक बन चुकी थी। उस समय विदेशी शक्तियों ने भारत के हिन्दुत्व पर ही सीधा आक्रमण किया हुआ था। वे यहाँ से हिन्दुत्व और भारतीय राष्ट्रीय गौरव को मिटा देने देने पर तुले हुए थे। इधर शिवाजी और छत्रसाल जैसे वीर हिन्दुत्व प्रिय राष्ट्रवादी शासकों से भूषण जैसे राष्ट्रवादी कवि को कुछ उम्मीद थी। अतः भूषण को कहना पड़ा-“दिल्ली दल दाबि के दिबाल राखी दनी में।” शिवाजी रूपी महाकाल के धक्के से दिल्ली दलने’ की चुनौती भी दे दी गई। यह विचार ठीक वैसा ही लगता है जैसे भारतीय आजादी से पूर्व नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने ‘आजाद हिन्द फौज को दिल्ली चलो, दिल्ली दूर नहीं है’ का नारा दिया था। इस तरह भूषण के कवित्व में राष्ट्रीयता की सशक्त भावना उल्लसित है।

(5) आश्रयदाता की प्रशंसा-भूषण को हिन्दू राष्ट्रवादी राजा-महाराजाओं का आश्रय प्राप्त था। वे विलासी राजाओं के सख्त विरोधी थे। उन्हें तो राष्ट्रीय गौरव बाए रखने वाले राजाओं का आश्रय ही अभिप्रेय था। द्रष्टव्य है-

‘अब साहु कौ सराहों के सराहौं छत्रसाल कौ।”

  • कला-पक्ष
  1. विषयानरूप ब्रजभाषाका सशक्त स्वरूप-भषण की काव्यभाषा ब्रज है। उन्होंने अपने काव्य में विषय के अनुरूप ही ब्रजभाषा के सशक्त एवं श्रुति कटु पदावली का प्रयोग किया है। कवि ने वीर, रौद्र और भयानक रसों की व्यंजना के लिए कठोर ध्वनि वाली शब्दावली की भाषा को अधिक उपयुक्त समझा। उनकी भाषा में ओजत्व और वीरत्व विद्यमान है। द्रष्टव्य है ‘चकित चकत्ता चौकि-चौकि उठे बार-बार’ इत्यादि।
  2. मुहावरे और लोकोक्तियों का प्रयोग-भूषण ने अपने काव्य में मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग से उसमें सजीयता उत्पन्न कर दी है। औरंगजेब के लिए प्रयुक्त शब्दावली दर्शनीय है ‘सौ-सौ चूहे खाइ के बिलारी तप को बैठी।’
  3. अन्य भाषाओं के शब्दों का प्रयोग-भूषण ने अपनी काव्यधारा (ब्रज) के साथ अरबी, फारसी, बुन्देली आदि शब्दों का प्रयोग किया है। कहीं-कहीं खड़ी बोली का भी पुट मिलता है।
  4. अलंकार योजना-महाकवि भूषण अलंकारशास्त्र के पूर्णज्ञाता थे। उन्होंने उत्प्रेक्षा, यमक, श्लेष, सांगरूपक आदि अलंकारों का प्रयोग खूब किया है। युद्ध वर्णनों में भूषण ने वीरभावों की अभिव्यंजना के लिए अतिशयोक्ति अलंकार का प्रयोग किया है। देखिए“ऊँचे घोर मंदिर के अन्दर रहन बारी,
    ऊँचे घोर मंदिर में रहाती हैं।” 
  5. शैलीगत ओज और चित्रोपमता-भूषण ने वीर रस की अभिव्यंजना के लिए ओज और चित्रोपमता प्रधान शैली को अपनाया है। शैली में ध्वन्यात्मकता विद्यमान है। भूषण के काव्य में चमत्कार प्रदर्शन भी किया गया है।
  6. छन्द योजना-भूषण ने वीर रस के अनुकूल काव्य में कवित्त, छप्पय, सवैया और दोहा छन्दों का प्रयोग किया है।
  • साहित्य में स्थान

भूषण ने वीरत्व, ओजत्व एवं राष्ट्रीयत्व का सिंहनाद उस समय अपने काव्य में किया जब अधिकांशतः राजा लोग विलासिता में डूबे हुए थे। कविगण भी चाटुकार थे। भूषण ने उस युग में भारत राष्ट्र को अपने ओजस्वी स्वर से जगाने का प्रयास किया। भूषण और भूषण की लेखनी दोनों ही राष्ट्रीय जागरण के प्रतीक बन गए हैं। यही कवि भूषण निश्चय ही माँ भारत के भूषण हैं।

12. रामधारी सिंह ‘दिनकर’।
[2008, 09, 12, 14, 15, 16]

  • जीवन-परिचय

श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का जन्म बिहार के मुंगेर जनपद के सिमरिया घाट नामक गाँव में सन् 1908 ई. (संवत् 1965 वि.) में हुआ था। पटना विश्वविद्यालय से बी. ए. (ऑनर्स) किया। आप एक वर्ष मोकामा घाट के विद्यालय में प्रधानाचार्य रहे। सन् 1935 ई. में सब-रजिस्ट्रार के रूप में सरकारी नौकरी में आए। सन् 1942 ई. में ब्रिटिश सरकार के युद्ध प्रचार विभाग में आए और उपनिदेशक के पद पर रहे। बाद में, मुजफ्फरपुर कॉलेज में हिन्दी विभागाध्यक्ष रहे। आप सन् 1952 ई. से सन् 1963 ई. तक राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत राज्यसभा के सदस्य रहे। सन् 1964 ई. में भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति पद पर आपकी नियुक्ति हुई। हिन्दी साहित्य का यशस्वी ‘दिनकर’ सन् 1974 ई. (सं. 2031 वि.) में सदैव के लिए अस्त हो गया।

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  • साहित्य-सेवा

‘दिनकर’ जी ने भारत सरकार की ‘हिन्दी समिति’ के सलाहकार और आकाशवाणी में निदेशक के पद पर रहकर हिन्दी के उत्थान के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया। ‘दिनकर’ जी पर पं. रामनरेश त्रिपाठी की ‘पथिक’ और मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत-भारती’ रचनाओं का बड़ा प्रभाव पड़ा। ‘दिनकर’ जी प्रारम्भ से ही लोक के प्रति निष्ठावान, सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रति सजग और जनसाधारण के प्रति समर्पित कवि थे। इनकी कविताओं में राष्ट्रीयता की छाप सबसे अधिक है।

दिनकर ने काव्य और गद्य दोनों ही क्षेत्रों में सशक्त साहित्य का सृजन किया है। उनकी कविता हृदय को झकझोर डालती है। वर्तमान भारत की दलित आत्मा उनकी कविता में जाग उठी है। दिनकर अपनी रचनाओं के माध्यम से देशव्यापी जागरण का मंच ऊँचे स्तर का बना चुके हैं। उन्होंने अपनी कृतियों के ही माध्यम से भारतीय आर्य संस्कृति की पतितावस्था के प्रति असन्तुष्ट होकर क्रान्ति का बिगुल फूंक दिया। द्रष्टव्य है-

“क्रांतिधात्रि कविते जाग उठ, आडम्बर में आग लगा दे।
पतन, पाप, पाखण्ड जले, जग में ऐसी ज्वाला सुलगा दे।।”

ध्येय-उन्होंने हिन्दी साहित्य की सेवा द्वारा देश में समग्र परिवर्तन लाने के लिए सपना देखा था। वे चाहते थे कि भारतीय आर्य संस्कृति को जीवन्तता प्राप्त कराने वाले समर्पित काव्यकार, सचेतक आर्यजन सामूहिक रूप से पाखण्डों की कारा को तोड़ने का बीड़ा उठाएँ तो फिर यह राष्ट्र अवश्य ही अपने खोए हुए गौरव को प्राप्त कर सकेगा और विश्वगुरु की उपाधि को पुन: धारण करने में सक्षम होगा। भावी राष्ट्र के कंधे पर कवि के सपने को यथार्थ में बदल देने की जिम्मेदारी है।

उपाधियाँ/सम्मान-

  1. भारत गणराज्य के महामहिम राष्ट्रपति ने उनकी प्रतिभा और साहित्य सेवा के लिए उन्हें ‘पद्मभूषण’ की उपाधि से अलंकृत किया।
  2. दिनकर जी को ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया। इस पुरस्कार के लिए एक लाख रुपया दिया जाता है।
  • रचनाएँ

दिनकर जी की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-

  1. रेणुका,
  2. हुंकार,
  3. रसवन्ती,
  4. द्वन्द्वगीत,
  5. सामधेनी,
  6. कुरुक्षेत्र,
  7. रश्मिरथी,
  8. उर्वशी,
  9. परशुराम की प्रतिज्ञा।

इनके अतिरिक्त-प्रणभंग, बापू, इतिहास के आँसू, धूप और धुंआ, दिल्ली, नीम के पत्ते, नीलकुसुम, चक्रवात, ‘सीपी और शंख’, नए सुभाषित, कोयला और कवित्व’, आत्मा की आँखें, हारे को हरि नाम’, आदि रचनाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं।

  • भाव-पक्ष
  1. हिन्दी काव्य को नई धारा प्रदत्त-‘दिनकर’ जी ने काव्य को नई धारा प्रदान की। इन्होंने देश तथा समाज को अपने काव्य का विषय बनाया।
  2. शोषण के विरुद्ध स्वर-दिनकर जी ने अपने काव्य के द्वारा पूँजीपतियों और शासक वर्ग के अत्याचारों एवं शोषण का नग्न चित्रण किया है।
  3. मजदूरों और किसानों के प्रति सहानुभूति-‘दिनकर’ जी ने गरीबों, मजदूरों तथा किसानों के प्रति अपनी विशेष सहानुभूति को अपने गीतों के माध्यम से प्रकट किया है। भुखमरी, गरीबी, दासता के विरुद्ध वे क्रान्ति ला देना चाहते हैं।
  4. उत्साह और ओज-इनके काव्य का अध्ययन करने से पाठकों और श्रोताओं दोनों के हृदय में ओज और उत्साह के भावों की जागृति हो उठती है।
  5. राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत-‘दिनकर’ जी की कविताएँ राष्ट्रीय-भावनाओं से ओत-प्रोत हैं। उन्होंने गंगा, हिमालय और चित्तौड़ को सम्बोधित करते हुए राष्ट्रनेताओं, राष्ट्रसेवकों और जनसाधारण में आचरण की पवित्रता, अपने उद्देश्य के प्रति दृढ़ता और राष्ट्रीय हित में बलिदान की भावना भरने का आह्वान किया है। दिनकर जी आधुनिक युग के कवि हैं। इनके काव्य में ओज और उत्साह तथा क्रान्ति की भावना झलकती है।
  6. प्राचीन संस्कृति और नई प्रेरणा की झाँकी-दिनकर जी की कविताओं से नई प्रेरणा मिलती है। इसके साथ ही भारत की प्राचीन संस्कृति की निर्मल झाँकी झलकती है, जिसके प्रति हमारे अन्दर गौरव की भावना अपने आप ही उद्भुत हो उठती है।
  7. देशहित तथा लोककल्याण की भावना-‘दिनकर’ जी की कविताओं में देशहित और लोककल्याण के प्रयत्नों का पारावार लहराता है। आपकी कविताओं से नए भारत के निर्माण का एक नया सन्देश मिलता है।
  8. रस-दिनकर जी ने मुख्य रूप से वीर रस प्रधान कविताओं की रचना की है। परन्तु फिर भी कहीं-कहीं शान्त तथा श्रृंगार रस भी प्रयुक्त हुए हैं।
  • कला-पक्ष
  1. भाषा-दिनकर जी की भाषा शुद्ध खड़ी बोली है। वे अपनी भाषा में अधिकांश तत्सम शब्दों का प्रयोग करते हैं। उनका शब्द चयन अत्यन्त पुष्ट और भावानुकूल होता है। उनकी भाषा उनके विचारों का पूर्णरूपेण अनुगमन करती है। शब्दों की तोड़-मरोड़ और व्याकरण की अशुद्धियों से उनकी भाषा मुक्त है। इनक भाषा व्याकरण सम्मत है और अलंकारपूर्ण है। उसमें खड़ी बोली का निखरा रूप मिलता है।
  2. शैली-‘दिनकर’ जी की काव्य शैली ओज प्रधान है। उसमें सजीवता है। तन्मयता उनकी शैली की एक विशिष्ट विशेषता है।
  3. छन्द-‘दिनकर’ जी ने अपने काव्य में कवित्त, सवैया आदि प्राचीन अलंकारों को तो प्रयोग में लिया ही है, साथ ही कुछ नवीन छन्दों की भी अवतारणा की है। वे छन्द तुकान्त और अतुकान्त दोनों ही हैं।
  4. अलंकार-‘दिनकर’ जी की कविताओं में अलंकारों की घनी छटा नहीं दिखाई पड़ती है। उन्होंने उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास तथा श्लेष आदि अलंकारों का स्वाभाविक रूप से सहज ही प्रयोग किया है। अलंकारों के असहज प्रयोग के लिए उन्होंने सदैव विरुद्ध भाव ही अपनाया।
  • साहित्य में स्थान

दिनकर जी की प्रतिभा बहुमुखी है। वे अत्यन्त लोकप्रिय कवि हैं। भाव, भाषा तथा शैली सभी दृष्टियों से वे एक कुशल साहित्यकार हैं। वे अपने युग के प्रतिनिधि कवि हैं। उनकी भाषा में ओज, उनके भावों में क्रान्ति की ज्वाला और उनकी शैली में प्रवाह है। उनकी कविता में महर्षि दयानन्द की सी निडरता, भगत सिंह जैसा बलिदान, गाँधी की सी निष्ठा एवं कबीर की सी सुधार भावना एवं स्वच्छन्दता विद्यमान है। वे आधुनिक हिन्दी काव्य धारा के प्रतिनिधि कवि हैं।

13. कबीरदास
[2008]

  • जीवन-परिचय

कबीरदास जी निर्गुण काव्यधारा के ज्ञानमार्गी शाखा के कवि थे। उनका जन्म सन् 1398 ई. (सं. 1455 वि.) में हुआ था। उनकी रचनाओं से यह प्रतीत होता है कि इनके माता-पिता जुलाहे थे। जनश्रुति है कि वे एक विधवा ब्राह्मणी के परित्यक्त सन्तान थे। इनका पालन-पोषण एक जुलाहा दम्पत्ति ने किया था। इस नि:सन्तान जुलाहा दम्पत्ति नीरू और नीमा ने इस बालक का नास कबीर रखा।

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कबीर की शिक्षा विधिवत् नहीं हुई। उन्हें तो सत्संगति की अनंत पाठशाला में आत्मज्ञान और ईश्वर प्रेम का पाठ पढ़ाया गया। स्वयं कबीर कहते हैं-“मसि कागद छुऔ नहीं, कलम गहि नहिं हाथ।”

कबीर के गुरु का नाम स्वामी रामानन्द था और उन्होंने ‘राम’ नाम का गुरुमंत्र दिया। कबीर गृहस्थ भी थे। उनकी पत्नी का नाम लोई, पुत्र का नाम कमाल और पुत्री का नाम कमाली था। कबीरदास पाखण्ड और अंधविश्वासों के विरोधी थे। कहा जाता है कि काशी में मरने वाले स्वर्ग जाते हैं और मगहर में मरने पर नरक मिलता है। कबीर ने अनुभव किया है कि ‘जो काशी तन तजै कबीर रामहि कौन निहोरा।’ इसलिए कबीर अपने जीवन के अन्तिम दिनों में मगहर चले गए। इस प्रकार 120 वर्ष की आयु में सन् 1518 ई. (संवत् 1575 वि.) में इनका देहावसान हो गया।

  • साहित्य-सेवा

कबीरदास जी अशिक्षित थे लेकिन अद्भुत प्रतिभासम्पन्न थे। अचानक ही तन्मय होकर गा उठते थे। यही उनकी उच्चकोटि की कविता थी। उनकी इन रचनाओं को धर्मदास नामक प्रमुख शिष्य ने ‘बीजक’ नाम से संग्रह किया है और डॉ. श्यामसुन्दर दास ने कबीर की रचनाओं को ‘कबीर-ग्रन्थावली’ में संग्रहीत करके सम्पादित किया है। खुले आकाश के नीचे आस-पास खड़े व बैठे लोगों के बीच अपनी अनुभूति को अभिव्यक्त करना ही उनकी साहित्य सेवा थी।

उद्देश्य-समाज और कविता का सम्बन्ध अन्योन्याश्रित होता है। समाज से ही कविता अपना प्राणरस ग्रहण करती है। कविता में अपने समाज का यथातथ्य चित्रण होता है और उसका दिशा निर्देशन भी। यह दिशा निर्देशन समाज को अपेक्षाकृत समुन्नत बनाने के लिए कविता का सुधारात्मक आचरण काव्य की क्रान्ति-चेतना का भी पर्याय है। इनमें कबीर अग्रगण्य हैं। उन्होंने समाज के अन्तर्विरोधों को यथार्थ के स्तर पर अनुभव किया और सामाजिक परिवर्तन के लिए अपनी कविताओं में क्रान्ति का शंख फूंका। समाज व्याप्त पाखण्ड, बाहरी प्रदर्शन, विद्वेष और उन्माद को गहराई से अनुभव किया था। उन्होंने सामाजिक सुधार की बात तीक्ष्ण व्यंग्यात्मक लहजे में व्यक्त की थी। उनकी दो टूक सच्ची बात में उनके साहस एवं निर्भीक व्यक्तित्व को परखा गया। उन्होंने साफ स्पष्ट किया कि समाज में समरसता के लिए दया-भाव का विस्तार परमावश्यक है। इसी आधार पर हिन्दू-मुसलमान एक हो सकते हैं।

कबीर अपने काव्य सर्जना में इस उद्देश्य को पूरा करने में सफल हुए। परन्तु समाज सुधार और संक्रान्ति तो सतत् प्रक्रियाएँ हैं जो चलती रहती हैं।

  • रचनाएँ

कबीर की अभिव्यक्तियों को शिष्यों द्वारा तीन रूप में संकलित किया है-वे रूप हैं-
(1) साखी,
(2) सबद,
(3) रमैनी।

(1) साखी-कबीर ने जो अनुभव किया, उसे ‘साख’, नामक दोहा छंद में प्रसिद्धि प्राप्त हुई। “साखी आँखी ज्ञान की” कहकर कबीर ने अपनी भक्ति, आत्मज्ञान, सहज कल्याण एवं सदाचार सम्बन्धी विचारों को स्पष्ट किया है।
(2) सबद-गेय पद ‘सबद’ कहे गए हैं। इन सबदों में विषय की गम्भीरता है तथा संगीतात्मकता है। इनमें कबीर ने भक्ति भावना, समाज सुधार और रहस्यवादी भावनाओं का वर्णन किया है।
(3) रमैनी-रमैनी चौपाई छंद में हैं। इनमें कबीर का रहस्यवाद और दार्शनिकता प्रकट हुई है।

कबीर काव्य में कबीर की खरी अनुभूति है।

  • भाव-पक्ष
  1. निर्गुण ब्रह्मोपासना-कबीर निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे। उनका उपास्य अरूप, अनाम, अनुपम सूक्ष्म तत्व हैं। इसे वे ‘राम’ नाम से पुकारते हैं। कबीर के ‘राम’ निर्गुण निराकार परमब्रह्म हैं। दशरथ के पुत्र ‘राम’ नहीं।
  2. उत्कष्ट प्रेम और भक्ति-कबीर ज्ञान की महत्ता में विश्वास करते हैं। उनकी कविता में स्थान-स्थान पर प्रेम और भक्ति की उत्कृष्ट भावना प्रदर्शित होती है। वे कहते हैं-“यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं।” इत्यादि। वे घोषणा करते हैं कि ‘ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पण्डित होय।’
  3. रहस्य भावना-आत्मा परमात्मा के विविध सम्बन्धों को जोड़कर आत्मा के परमात्मा से मिलन और अन्त में ब्रह्म में लीन हो जाने के भाव अपनी कविता में कबीर ने व्यक्त किए हैं।

द्रष्टव्य है-

  1. ‘राम मोरे पिऊ मैं राम की बहुरिया।’
  2. ‘दुलहिनी गावहु मंगलचार।
  3. म्हारे घर आए है राजा राम भरतार।’
  4. समाज-सुधार-सामाजिक जीवन में व्याप्त जाति-भेद, साम्प्रदायिकता, अंधविश्वास, पाखण्ड एवं आडम्बर और मूर्तिपूजा आदि को मिटाने के लिए कबीर की वाणी थोड़ी कर्कश हो उठी थी। उन्होंने पाखण्डियों और मौलवियों को खूब आढ़े हाथ लिया था। आज हम जिस हरिजन उद्धार और हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात करते हैं, वह तो मध्ययुग में ही शुरू हो गई थी। इन प्रयासों की शुरुआत तो क्रान्तिकारी युग द्रष्टा एवं समाज सुधारक कबीर कर चुके थे।
  5. नीति-उपदेश-कबीर ने समाजगत बुराइयों का खण्डन तो किया ही, लेकिन इसके साथ आदर्श जीवन के लिए नीतिपूर्ण उपदेश भी दिया। सत्य, तप और अहिंसा को जीवन के आधारभूत तत्व माना। धर्म के नाम पर की जाने वाली नरबलि या पशुवध को घृणित माना। अतिथि सत्कार, सन्तोष, दया, क्षमा, करुणा आदि के मूल तत्वों के रूप में प्रतिष्ठापित किए। कथनी करनी के समन्वय पर और सदाचारपूर्ण जीवन पर कबीर ने बल दिया। कर्म प्रधान गृहस्थ जीवन के महत्व को आँका।
  6. धर्मों के अभिन्नता-कबीर के काव्य में हमें इस्लाम के एकेश्वरवाद, भारतीय द्वैतवाद, योग साधना, बौद्धमत एवं वैष्णवों की शरणागत भावना तथा अहिंसा, सूफियों से प्रेम साधना आदि का समन्वित रूप देखने को मिलता है।
  7. रस निरूपण-कबीर के काव्य में काव्यानुभूति व्याप्त है। अतः रस का परिपाक उत्तम कोटि का है। शान्त रस की प्रधानता है। विमुक्त आत्मा का चित्रण एवं आत्मा-परमात्मा के मिलन में श्रृंगार भी इस शान्त रस का ही सहायक बन गया है।
  • कला-पक्ष
  1. अकृत्रिम भाषा की सामर्थ्य-कबीर की भाषा अपरिष्कृत है। उसमें कृत्रिमता का नाम भी नहीं है। स्थानीय बोलचाल के शब्दों की प्रधानता है। उसमें पंजाबी, राजस्थानी, उर्दू, फारसी आदि भाषाओं के शब्दों के प्रयोग विकृत स्वरूप में प्रयोग किए गए हैं जिससे भाषा में विचित्रता आ गई है। कबीर की भाषा में भाव प्रकट करने की सामर्थ्य विद्यमान है। इनकी भाषा को पंचमेल खिचड़ी अथवा सधुक्कड़ी भी कहा गया है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने तो कबीर को भाषा का ‘डिक्टेटर’ बताया है। भाषा का शिथिल स्वरूप है। परन्तु काव्यानुभूति उच्चकोटि की है।
  2. सहज निर्द्वन्द्व शैली-कबीर ने काव्य में सहजता, सजीवता और निर्द्वन्द्वता अपनाई है। काव्य में विरोधाभास, दुर्बोधता एवं व्यंग्यात्मकता का तीखापन मौजूद है। कबीर की भाषा में गतिशीलता और प्रवाह है।
  3. अलंकार-कबीर के काव्य में स्वभावतः अलंकारिता आ गई है। उपमा, रूपक, रूपकातिश्योक्ति, सांगरूपक, अन्योक्ति, उत्प्रेक्षा, विरोधाभास आदि अलंकारों की प्रचुरता है।
  4. छन्द-कबीर की साखियों में दोहा छन्द का प्रयोग है। ‘सबद’ पद है तथा ‘रमैनी’ चौपाई छन्दों में मिलते हैं। ‘कहरवा’ छन्द भी उनकी रचनाओं में प्राप्य है। इन छन्दों का प्रयोग सदोष ही है।
  • साहित्य में स्थान

कबीर समाज सुधारक एवं युगनिर्माता के रूप में सदैव स्मरण किए जायेंगे। उनके काव्य में निहित सन्देश और उपदेश के आधार पर नवीन समन्वित एवं सन्तुलित समाज की संरचना सम्भव है।

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14. अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

  • जीवन-परिचय

अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ खड़ी बोली की कविता के प्रतिनिधि कवि हैं। इनका जन्म सन् 1865 ई. में निजामाबाद, जिला आजमगढ़ में हुआ था। इनके पिताजी का नाम पण्डित भोलासिंह उपाध्याय और माता का नाम रुक्मणि देवी था। इनके चाचा ब्रह्मसिंह ज्योतिषी और उच्चकोटि के विद्वान थे। इनकी शिक्षा फारसी के माध्यम से प्रारम्भ हुई। इन्होंने मिडिल तथा नॉर्मल परीक्षाएँ उत्तीर्ण करके काशी में क्वीन्स कॉलेज में प्रवेश लिया, परन्तु अस्वस्थ होने के कारण अध्ययन छुट गया। परन्तु स्वाध्याय से ही इन्होंने अंग्रेजी, फारसी आदि का अच्छा ज्ञान और भाषा पर अधिकार प्राप्त कर लिया।

प्रारम्भ में आप निजामाबाद के मिडिल स्कूल में अध्यापक नियुक्त हुए। पाँच वर्ष बाद कानूनगो के पद पर नियुक्त हुए। इन्होंने सन् 1932 ई. में इस पद से अवकाश ग्रहण कर लिया और निजामाबाद में ही रहने लगे। सन् 1947 ई. में इनका निधन हो गया।

हिन्दी जगत् ने आपको ‘कवि सम्राट’ और ‘साहित्य वाचस्पति’ की उपाधियों से विभूषित किया।

  • साहित्य-सेवा

अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने पौराणिक प्रसंगों को अपनी कविता का आधार बनाया है। उन्होंने अपने समय के उपेक्षित और शोषित नारी समाज के उत्थान हेतु पौराणिक चरित्र राधा को आधार बनाया है। उनके प्रिय प्रवास की राधा विरहिणी होकर भी समाज सेवा में संलग्न है। वे अपने सेवा कर्म से सम्पूर्ण बृज का दुःख बाँटती हैं।

उद्देश्य-‘हरिऔध’ ने श्रीकृष्ण को एक महापुरुष मानकर मानवीय रूप में प्रस्तुत करके समाज के हित और कल्याण के कार्यों में संलग्न होने के लिए लोगों को प्रोत्साहित किया। साथ ही, राधा के स्वरूप में समाज सेवा में निरत रहकर नारी उत्थान की कल्पना को साकार किया है। शोषित और बन्दिनी बनी नारी को शोषण से मुक्ति दिलाने, उसे पुरुष-प्रधान समाज में समानता का अधिकार प्राप्त कराने के लिए विविध उपायों को निर्दिष्ट करना ही कवि का समग्रतः उद्देश्य रहा है। समाज के प्रत्येक सदस्य के सुख-दुःख में सहभागी बनने की प्रेरणा देना ही मुख्य ध्येय रहा है कवि हरिऔध का।

  • रचनाएँ

हरिऔध जी की निम्नलिखित रचनाएँ हैं

  1. ‘प्रिय-प्रवास’-खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य है। इस पर इन्हें मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था।
  2. ‘वैदेही वनवास’-इस महाकाव्य का विषय राम के राज्याभिषेक के बाद सीता के वनवास की करुणा प्रधान गाथा है।
  3. पारिजात’-स्फुट गीतों का क्रमबद्ध संकलन है। इन गीतों में मानव जीवन के विविध रूपों की झाँकी प्रस्तुत की है।
  4. ‘चुभते चौपदे’,
  5. चोखे चौपदे’,
  6. बोलचाल-ये सभी साधारण भाषा में लिखित प्रभावशाली स्फुट काव्य संग्रह हैं।
  7. ‘रस-कलश’ भी ब्रजभाषा के छन्दों का संकलन है।

इनके अतिरिक्त ‘अधखिला फूल’, ‘ठेठ हिन्दी का ठाठ’ (उपन्यास), रुक्मणी परिणय’ (नाटक), हिन्दी भाषा और साहित्य का विकास’ आदि प्रमुख रचनाएँ हैं। अंग्रेजी, बंगला आदि भाषाओं की कृतियों के अनुवाद भी किए हैं। ‘कबीर वचनावली’ नाम से कबीर काव्य का संग्रह किया है।

  • भाव-पक्ष
  1. वर्णन के विविध विषय-‘हरिऔध’ के काव्य की पहली विशेषता है वर्ण्य विषय की विविधता। इन्होंने प्राचीन आख्यानों को वर्तमान युग की नाना समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है।
  2. प्राचीन कथानकों में नवीनताएँ-हरिऔध जी ने अपनी कल्पना शक्ति के आधार पर पात्रों के चरित्रों में स्वाभाविकता का निरूपण किया है।
  3. लोक सेवा का महान सन्देश-‘हरिऔध’ जी के सम्पूर्ण काव्य में लोकमंगल का स्वर सर्वत्र मुखरित हुआ है। प्रिय-प्रवास’ की राधा कहती है-“आज्ञा भूलूँ न प्रियतम की विश्व के काम आऊँ।”
  4. सजीव प्रकृति चित्रण-हरिऔध जी ने प्रकृति का आलम्बन स्वरूप में चित्रण किया है। साथ ही प्रकृति में संवेदनशीलता, उपदेशिका और उसका उद्दीपन भाव आदि का निरूपण किया है।
  5. रस-योजना-हरिऔध के काव्य में सरसता एवं मार्मिक व्यंजना विद्यमान है। आपके काव्य में वात्सल्य, वियोग, शृंगार के हृदयस्पर्शी चित्र चित्रित हैं। साथ ही-‘वैदेही वनवास’ में तो करुण रस की प्रधानता मिलती है। समग्र रूप से देखा जाय तो कवि ने विविध रसों का प्रयोग अवस्था चित्रण में किया है।
  • कला-पक्ष
  1. भाषा वैविध्य-‘हरिऔध’ ने अपने काव्य में भाषा के विविध रूपों का सफल प्रयोग किया है। इनके काव्य में भाषा कोमलकान्त पदावली से युक्त ब्रजभाषा है। उसका माधुर्य सर्वत्र छलक पड़ता है। इनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली है। उर्दू शब्दों की भरमार भी है। मुहावरों का प्रयोग करके भाव को गम्भीर बना दिया है। शुद्ध सरल खड़ी बोली तथा भोजपुरी में काव्य रचना करना कवि के विशेष भाषा अधिकार को व्यक्त करता है। अभिधा, लक्षणा, व्यंजना आदि शक्तियों तथा ओज, माधुर्य और प्रसाद गुणों से युक्त हरिऔध की भाषा अत्यन्त समृद्ध है।
  2. शैली के विविध रूप-हरिऔध जी ने आलंकारिक और चमत्कारपूर्ण शैली, व्यंग्य, विनोद प्रधान शैली को अपनाया है जिसमें मुहावरेदार उर्दू का सौष्ठव विशेष आकर्षण की वस्तु है।
  3. अलंकार-हरिऔध जी ने अपने काव्य में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, सन्देह, यमक, अपहृति, वीप्सा, पुनरुक्तिप्रकाश का प्रयोग किया है।
  4. छन्द-हरिऔध ने अपने से पूर्व प्रचलित-कवित्त, सवैया, छप्पय, दोहा आदि छन्दों का सफल प्रयोग किया है। इनके अतिरिक्त संस्कृत के वर्णवृत्तों में अतुकान्त छन्द योजना अपनाई है।
  • साहित्य में स्थान

हरिऔध जी ने खड़ी बोली को सफल काव्य भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करके आधुनिक हिन्दी कविता की सशक्त नींव रखी। साथ ही इन्होंने दो महाकाव्यों का सृजन अतुकान्त छन्दों में किया। उन्हें ‘कवि सम्राट’ और ‘साहित्य वाचस्पति’ आदि उपाधियों से सम्मानित किया गया। वे अनेक साहित्यिक सभाओं और हिन्दी साहित्य सम्मेलनों के सभापति भी रहे। इनकी साहित्यिक सेवाओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। निःसन्देह, हरिऔध जी हिन्दी साहित्य की एक महान विभूति हैं। उन्हें साहित्य जगत् सदैव स्मरण करता रहेगा।

15. केशवदास

  • जीवन-परिचय

केशवदास रीतिकाल के आचार्य कवि हैं। केशव ने ही हिन्दी में संस्कृत की परम्परा की व्यवस्थापूर्वक स्थापना की थी। इस महान और उच्चकोटि के विद्वान का जन्म संवत् 1612 वि. के लगभग हुआ था। ये दरबारी कवि थे। इन्हें ओरछा नरेश महाराजा रामसिंह के दरबार में विशेष आदर सम्मान प्राप्त था।

विद्वान कवि-केशवदास संस्कृत के बड़े पंडित थे। आधुनिक युग के पूर्व तक संस्कृत की परम्परा का हिन्दी में अनुगमन होता आया है। इनकी कविता बहुत गूढ़ होती थी। इसी से प्रसिद्ध देवकवि ने उन्हें कठिन काव्य का प्रेत’ कहा है। इनकी कविता के विषय में यहाँ भी प्रसिद्ध है कि

“कवि का दीन न चहै विदाई, पूछ केशव की कविताई।।”

  • साहित्य-सेवा

रीति ग्रंथ रचना का श्रेय-रीति ग्रंथों की रचना इनके कवि रूप में आविर्भाव से पूर्ण भी होती रहीं। परन्तु जिस तरह के व्यवस्थित और समग्र ग्रंथ इन्होंने प्रस्तुत किए, वैसे अन्य कोई कवि रीति ग्रंथ प्रस्तुत करने में सफल नहीं हुआ।

कविता जीवन की अभिव्यक्ति-कविता जीवन की अभिव्यक्ति है। कविता जीवन के विस्तार को अपनी संक्षिप्तता में बाँधकर जीवन व्यवहार के अनेक प्रसंग, उसमें मानवीय भाव, चेतना के आधार बिन्दु बन जाते हैं। आस्था, विश्वास, श्रद्धा और स्नेह जैसे भाव मानवीय व्यवहार को सार्वभौमिक और सर्वकालिक स्वीकृतियाँ देने वाले हैं। कविता इन्हीं जीवन मूल्यों से अपने ताने-बाने बुनती है। केशवदास जी ने जीवन मूल्यों को महत्व देते हुए अपने काव्य ग्रन्थों की रचना की; जिनमें मानव जीवन ही पूर्णतः मुखरित हुआ है।

काव्य का उद्देश्य-कविता का लक्ष्य मनुष्यत्व को प्राप्त करने में निहित है। इसलिए कविता में मानवीय चेतना के विस्तार के अवसर सदैव उपस्थित होते रहते हैं। आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक सभी कवियों ने मानव मूल्यों को अनेक तरह से अपनी कविता में (रचनाओं में) प्रस्तुत किया है। प्रायः प्रबन्ध काव्यों में जीवन दर्शन के अनेक पक्षों की अभिव्यक्ति उनके पात्रों के चरित्रगत संरचनाओं से प्राप्त होती है। केशव की रामचन्द्रिका में जीवन दर्शन को अभिव्यक्त करने के अनेक प्रसंग चरित रचनाओं में प्राप्त हो जाते हैं।

केशवदास की रामचन्द्रिका मानवीय व्यवहारों को अपने कथा विन्यास में समाहित किए हुए हैं।

  • रचनाएँ

केशवदास ने निम्नलिखित ग्रंथों की रचना की है

  1. रसिकप्रिया,
  2. कविप्रिया,
  3. रामचन्द्रिका,
  4. विज्ञान गीता,
  5. वीरसिंह देव चरित,
  6. जहाँगीर चन्द्रिका,
  7. नखशिखा,
  8. रत्न बावनी।

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इन रचनाओं में से चार-रामचन्द्रिका, कविप्रिया, रसिकप्रिया और विज्ञान गीता बहुत प्रसिद्ध हैं। जनश्रुति है कि रामचन्द्रिका का सृजन उन्होंने गोस्वामी तुलसीदास के कहने से किया। इनमें से रामचन्द्रिका महाकाव्य है।
केशवदास ने लक्षण ग्रंथ, प्रबन्ध काव्य, मुक्तक सभी प्रकार के ग्रंथों की रचना की है। रसिकप्रिया, कविप्रिया और छन्दमाला-उनके लक्षण ग्रंथ हैं।

  • भाव-पक्ष
  1. रस-केशव की रचनाओं में परिस्थिति और क्रियान्विति के आधार पर सभी रसों की निष्पत्ति हुई है। शृंगार वर्णन भी उच्चकोटि का है। वियोग और संयोग अपने सभी अंगों सहित पूर्णता को प्राप्त हुआ है। वीर रस की अनुभूति युद्धकाल और प्रतिद्वन्द्वियों के परस्पर संवादों में होती है। शान्त रस निर्वेद की दशा में, वीभत्स आदि की अनुभूति युद्ध स्थल पर होती है।
  2. अर्थ गाम्भीर्य-केशवदास जी द्वारा प्रयुक्त संवादों में प्रयुक्त शब्दावली अर्थ गाम्भीर्य से परिपूर्ण है।
  3. नीति तत्व-केशव दरबारी कवि थे। अत: वे अपने पात्रों के चरित्राङ्कन में नीति तत्त्व की प्रधानता को स्वीकार करते हैं। संवादों में निर्भीकता, युक्तियों का प्रयोग करके नैतिक मूल्यों की रक्षा का प्रयास भी किया गया है।
  • कला-पक्ष
  1. भाषा-केशव ने अपने ग्रंथों की रचना सामान्य काव्य की भाषा-ब्रजभाषा में की है। लेकिन कुछ रचनाओं पर संस्कृत भाषा का प्रभाव अधिक है। अत: केशव की रचनाओं में कुछ दुरूहता आ गई है। काव्य प्रवाह के अनुरूप भाषा सशक्त, समर्थ और प्रांजलता के गुण से युक्त है।
  2. शैली-केशवदास ने अपनी रचनाओं में प्रबंध शैली एवं मक्तक शैली को अपनाया है। अलंकार प्रधान शैली को केशव ने बहुत आगे बढ़ाया। शैली में व्यंग्यात्मकता अपनाई गई है।
  3. अलंकार-महाकवि केशवदास ने उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति आदि सभी अलंकारों का प्रयोग किया है।
  4. छन्द-केशवदास ने दोहा, कवित्त, सवैया, चौपाई, सोरठा आदि का प्रयोग किया है। अपनी सुविधानुसार अन्य नए छन्दों का प्रयोग भी किया है। क्योंकि केशवदास लक्षण ग्रंथों के रचयिता रहे हैं अतः उन्होंने छन्दों, शैली, भाषा प्रयोग, रस-निष्पत्ति आदि पर नए-नए प्रयोग किए हैं। रीतिबद्धता उनके सम्पूर्ण ग्रंथ साहित्य की विशेषता है।
  5. संवाद योजना-केशव की संवाद योजना अपनी प्रस्तुति में बेजोड़ है। रावण-अंगद के संवाद के माध्यम से संवादों की संक्षिप्तता, अर्थगर्मिता और उनकी मारक शक्तियों के साथ-साथ राजसी परिवेश को नीति – निपुणता तथा व्यक्ति की प्रत्युत्पन्न मति का भी परिचय प्रदान किया है। पात्र संवादों के माध्यम से परस्पर भावजगत की भी अभिव्यक्ति करते चलते हैं।
  • साहित्य में स्थान

केशवदास जी हिन्दी के प्रमुख आचार्य हैं। उनकी सभी रचनाएँ पूर्णतः शास्त्रीय हैं,रीतिबद्ध हैं। उच्चकोटि के रसिक होने पर भी वे पूरे आस्तिक थे। नीतिनिपुण, निर्भीक और स्पष्टवादी केशव की प्रतिभा सर्वतोमुखी है। अपने लक्षण ग्रंथों के लिए उन्हें हमेशा स्मरण किया जाएगा।

16. गिरिजा कुमार माथुर
[2009, 10]

  • जीवन-परिचय

श्री गिरिजा कुमार माथुर का जन्म सन् 1919 ई. (संवत् 1976 वि.) में मध्य प्रदेश के अशोक नगर में हुआ। उन्होंने हाईस्कूल की परीक्षा शासकीय हाईस्कूल, झाँसी से उत्तीर्ण की।

इण्टर तथा बी. ए. की परीक्षाएँ विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर (मध्य प्रदेश) से उत्तीर्ण की। एम. ए. की परीक्षा तथा एल. एल. बी. की उपाधि इन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से प्राप्त की। इन्होंने कुछ समय तक झाँसी में वकालत की परन्तु बाद में संवत् 2000 वि. में इन्होंने आकाशवाणी में नौकर कर ली।

  • साहित्य-सेवा

गिरिजा कुमार माथुर की गणना नई कविता के प्रमुख कवियों में की जाती है। आज के परिवेश में बदलती हुई परिस्थितियों, जटिलताओं और कुण्ठाओं से टकराने से आप कभी पीछे नहीं रहे। हमेशा आपने सामाजिक दायित्व बोध से प्रेरित संघर्ष चेतना को अपनाने पर बल दिया।

श्री गिरिजा कुमार ने सौन्दर्य बोध को सापेक्ष्य अनुभूति के साथ अपनाया है।

विषय व ध्येय-गिरिजा कुमार की प्रारम्भिक कविताएँ प्रणय और वैयक्तिक चेतना से प्रभावित थीं। धीरे-धीरे उनकी कविताओं में जीवन की विषमताओं का प्रभाव स्पष्ट होने लगा। मध्यमवर्गीय जीवन की कुण्ठा और नवीन सामाजिक चेतना उनके काव्य के मुख्य स्वर हैं। किन्तु प्रगतिवादी चौखटे को उन्होंने स्वीकार नहीं किया। इसीलिए उनकी बाद की रचनाओं में आशा और आस्था की अभिव्यक्ति स्पष्ट परिलक्षित होती है।

  • रचनाएँ

गिरिजा कुमार माथुर की निम्नलिखित प्रमुख रचनाएँ हैं

  1. मंजीर,
  2. नाश और निर्माण,
  3. धूप के धान,
  4. शिलापंख चमकीले,
  5. छायामत,
  6. छूनामन,
  7. कल्पान्तर,
  8. पृथ्वीकल्प।
  • भाव-पक्ष
  1. सरसता-गिरिजा कुमार माथुर आधुनिक युग के कवि हैं। इनकी कविता में सरसता
  2. रागात्मकता-इनकी कविता में रागात्मकता की विशेषता है। उनकी कविताओं को विशेष राग और ध्वनि में संगीतबद्ध किया जा सकता है।
  3. नई कविता-आप नई कविता के कवि हैं। छायावाद के उपरान्त प्रारम्भ में आधुनिक नई कविताओं में आपने सामयिक समस्याओं को उभारा है।
  4. प्रयोगवादी विचारधारा-आपकी कविता प्रयोगवादी विचारधारा की है और उसमें नए प्रयोग किये गए हैं।
  5. नवीन विचारधारा की प्रतिष्ठापना-गिरिजा कुमार माथुर ने अपनी कविता में नवीन विचारधारा को आगे बढ़ाया है तथा नया रूप प्रदान किया है। इसके लिए आपने प्राचीन विचारधारा को तोड़ा और मरोड़ा है।
  6. मानस जगत की अभिव्यक्ति-आपकी कविताओं में मनुष्य के मन की गहन व सूक्ष्म अनुभूतियों का उद्घाटन व विश्लेषण किया गया है।
  7. प्रेम और सौन्दर्य-माथुर जी प्रयोगवादी दृष्टिकोण के कवि हैं अत: प्रेम और सौन्दर्य को वर्ण्य विषय के रूप में स्वीकार किया।
  8. प्रकृति चित्रण-माथुर जी का प्रकृति चित्रण छायावादियों से कुछ भिन्न प्रकार का है।
  9. बुद्धि तत्व की प्रधानता-माथुर जी की कविता में बुद्धि तत्व की प्रधानता है। साथ ही भावानुभूति और भावाभिव्यक्ति को भी महत्व दिया।
  10. व्यंग्य की तीक्ष्णता-गिरिजा कुमार माथुर की कविता व्यंग्य की तीक्ष्णता से मन और मस्तिष्क तक चुभ जाती है।
  • कला-पक्ष
  1. भाषा-माथुर जी की भाषा में चित्र खींचने की अद्भुत शक्ति विद्यमान है। आपकी भाषा में विविधता है। भाषा में अन्य भाषाओं के शब्द भी प्रयुक्त हैं।
  2. यथार्थवादी चित्रण-माथुर जी की कविता में यथार्थवादी चित्रण किया गया है जो इनकी भाषा की सशक्तता को व्यंजित करता है। .
  3. बिम्ब और प्रतीक माथुर जी की कविता में दृश्य, स्पर्श एवं ध्वनि के साथ सार्थक प्रतीक बहुत मात्रा में उपलब्ध होते हैं।
  4. छन्द-छन्द प्रयोग के सन्दर्भ में आप पुरानी मान्यताओं के पीछे चलने वाले नहीं हैं। लोकधुनों का प्रयोग करके अपने गीतों की शोभा बढ़ाई है।
  5. अलंकार-माथुर जी ने अपनी कविता में पुराने अलंकारों को नए रूप में प्रयोग किया है। वे प्रायः मानवीकरण, ध्वन्यार्थव्यंजना एवं विशेषण विपर्यय आदि नए अलंकारों का प्रयोग करते हैं।
  6. शैली-आपकी शैली सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण है।
  • साहित्य में स्थान

गिरजा कुमार माथुर हिन्दी साहित्य के नई कविता के महत्त्वपूर्ण कवियों में से एक हैं। आपने “गागर में सागर” भरने का कार्य किया है। हिन्दी कविता में प्रयोग को आपने नई भाषा और शैली प्रदान की है। इसके लिए हिन्दी साहित्य जगत् आपका चिरऋणी है।

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17. दीनदयाल गिरि

  • जीवन-परिचय

दीनदयाल गिरि का जन्म काशी के साधारण ब्राह्मण परिवार में सन् 1802 ई. (संवत् 1859 वि.) में हुआ था। यह बालक (दीनदयाल गिरि) जब पाँच या छ: वर्ष का ही रहा होगा, उस समय इसके माता-पिता दोनों का ही निधन हो गया था। अल्पायु के इस बालक का पालन-पोषण महंत कुशगिरि ने किया। इन्होंने संस्कृत का विशेष ज्ञान प्राप्त किया और इस तरह अपने सतत् परिश्रम से संस्कृत और हिन्दी में उच्चकोटि का ज्ञान प्राप्त कर लिया। अपने सतत् अभ्यास से इन्होंने काव्यकला में कदम रखा और उच्चकोटि के कवियों में इनका नाम गिना जाने लगा।

दीनदयाल गिरि और भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के पिता श्री गिरधरदास-दोनों महानुभावों के मध्य गहरी मित्रता थी। दीनदयाल गिरि का देहावसान सन् 1915 ई. में हो गया, ऐसा बताया जाता है।

साहित्य-सेवा

दीनदयाल गिरि ने वसंत, ग्रीष्म, शरद आदि ऋतुओं पर, कोकिल, कौआ, हंस आदि पक्षियों पर, बादल, नदी, समुद्र आदि प्राकृतिक उपादानों पर, हाथी, करंग, अश्व आदि पशओं पर, पलाश-बबूल आदि वृक्षों पर जो अन्योक्तियाँ लिखी हैं, उनकी समानता हिन्दी साहित्य में मिलना कठिन है। यद्यपि दीनदयाल जी ने अन्य कवियों की रचनाओं में भी भाव ग्रहण किए हैं, लेकिन उनकी कविताओं में पूर्व के कवियों की अपेक्षा नूतन चमत्कार है, पूर्ण मौलिकता है। गिरि जी ने अपनी कुण्डलियों में विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से नीति सम्बन्धी बातें कही हैं।

उद्देश्य-काव्य से हमारे मनोलोक में भावों और विचारों के सतरंगी इन्द्रधनुष के निर्माण की प्रेरणा मिलती है। काव्य के माध्यम से ही सुख-दुःख, हर्ष-अमर्ष, प्रेम-घृणा आदि भावों का चित्रण होता है जिससे जीवन में सम्पूर्णता प्रकट होने लगें। काव्य के लिए भाव और भाषा अनिवार्य तत्व हैं। भाव काव्य की आत्मा है जबकि भाषा काव्य का शरीर है। जीवन के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण बनाए रखने के लिए, उसके विकास के लिए तथा आनन्द की सृष्टि के लिए काव्य का बड़ा महत्त्व है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही दीनदयाल गिरि ने अपनी काव्य कृतियों की रचना की।

  • रचनाएँ

दीनदयाल गिरि द्वारा रचित उनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं-

  1. दृष्टान्त तरंगिणी,
  2. विश्वनाथ नवरत्न,
  3. अनुराग वाटिका,
  4. अन्योक्ति कल्पद्रुम।
  • भाव-पक्ष
  1. भाव-दीनदयाल गिरि ने अपने अन्तर्मन से उठते द्वन्द्व को मन की भावभूमि के समतल पर तौलकर अत्यन्त बहुमूल्य नीति बताकर पाठकों को प्रेरित किया है।
  2. प्रतीक-विविध प्रतीकों के माध्यम से नीतिपरक उपदेश दे दिए गए हैं।
  3. रस-दीनदयाल गिरि की कविताओं में शान्त रस की ही निष्पत्ति हुई है।
  • कला-पक्ष
  1. भाषा-दीनदयाल गिरि की भाषा ब्रजभाषा है। ब्रजभाषा ने कवि के भावों को स्पष्टता देने में पूर्ण क्षमता दिखाई है। इनकी भाषा प्रसाद गुण से सम्पन्न है। माधुर्य रस की सम्पूर्ति हो रही है।
  2. मुहावरे लोकोक्तियाँ-दीनदयाल गिरि की भाषा में मुहावरे और लोकोक्तियाँ भी प्रयुक्त हैं, जो अपने गाम्भीर्य को बढ़ावा देती हैं।
  3. शैली-कवि ने व्यंग्य प्रधान शैली अपनाई है। प्रायः सम्पूर्ण काव्य ही व्यंग्य प्रधान है। कवि ने शब्दों की तोड़-मरोड़ जारी रखी है।
  4. व्यंग्यात्मक-कवि महोदय ने अपनी कविता को व्यंग्यात्मक बनाकर कविता को उच्चकोटि का बना दिया है।
  5. अलंकार-दीनदयाल गिरि की कविता में अलंकारों का प्रयोग स्वाभाविक रूप से ही हुआ है। उनका अन्योक्ति अलंकार अत्यन्त प्यारा है।
  • साहित्य में स्थान

दीनदयाल गिरि अपनी अनूठी काव्य शैली के लिए सदैव स्मरण किए जायेंगे।

18. दुष्यन्त कुमार त्यागी
[2008,09]

  • जीवन-परिचय

दुष्यन्त कुमार त्यागी का जन्म 1 सितम्बर, सन् 1933 ई. में हुआ। इन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से एम. ए. किया। इसके बाद कई वर्षों तक आकाशवाणी, भोपाल से सम्बद्ध रहे। आप भाषा विभाग, भोपाल में भी अधिकारी रहे। 30 दिसम्बर, 1975 ई. को अल्पायु में ही आपका निधन हो गया। इससे हिन्दी साहित्य को अपार क्षति पहुँची जिसे पूर्ण करना कठिन है।

  • साहित्य-सेवा

उद्देश्य-अत्याधुनिक काल में सामाजिक यथार्थ के चित्रण में दुष्यन्त कुमार की गजलों का अपना महत्वपूर्ण स्थान है। वे बिना लाग लपेट के अपने समय और अपने समाज की तीखी आलोचना करते रहे हैं। उनकी कविता में यथार्थ से जूझने की शक्ति है। वे मानते हैं कि परिस्थितियाँ यद्यपि अनुकूल नहीं हैं; किन्तु इसमें परिवर्तन की तो हमें हिम्मत जुटानी ही पड़ेगी। संकलित गजलों में उनका वह स्वर जीवन के प्रति गहन आस्था जगाने वाला है। अपने समय की भयावह स्थिति को व्यक्त करने वाली दुष्यन्त की इन गजलों में सामान्य-जन की पीड़ा और सामान्य-जन की जिजीविषा का प्रभावशाली भाषा में चित्रण किया गया है।

  • रचनाएँ

दुष्यन्त कुमार त्यागी द्वारा रचित उनकी कृतियाँ निम्नलिखित हैं
(1) काव्य संकलन-

  • सूर्य का स्वागत,
  • आवाजों के घेरे।

(2) गीति नाट्य-एक कण्ठ विषपायी।
(3) उपन्यास-

  • छोटे-छोटे सवाल,
  • आँगन में एक वृक्ष,
  • दुहरी जिन्दगी।
  • गजल संग्रह-साये में धूप।

दुष्यन्त कुमार त्यागी ने अपनी साहित्य सृजन की यात्रा सन् 1957 ई. में प्रारम्भ की और सन् 1975 ई. में ‘साये में धूप’ गजल संग्रह की सम्पूर्ति के साथ ही अपनी जीवन यात्रा को विराम दे दिया। अपार ख्याति प्राप्त दुष्यन्त जी अपनी कृतियों के साथ ही अमर हो गए हैं और युवा पीढ़ियों के लिए चिरन्तन प्रेरणा स्रोत बने हुए हैं।

  • भाव-पक्ष
  1. गहन व सूक्ष्म अनुभूतियाँ-दुष्यन्त कुमार जी की कविता में भाव की अनुभूति गहन और सूक्ष्म दोनों ही हैं। इन अनुभूतियों से व्यवहार पद्य को समझने में आसानी होती है। उनकी गजलें स्पष्ट कर देती हैं कि उनके ऊपर मनोविश्लेषणवाद का प्रभाव अवश्य ही रहा है।
  2. प्रेम और सौन्दर्य-इनकी गजलों में प्रेम और सौन्दर्य को धरती के ठोस धरातल पर प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।
  3. छायावादी रहस्यवाद-कवि के ऊपर बीते छायावादी युगीन रहस्यवाद का प्रभाव दिखाई पड़ता है।
  4. निराशा उद्विग्नता का भाव-कवि छायावादी लगता है जिसमें घोर निराशा भरने वाली भावना अपनी गजलों में प्रतीक बनकर उभरती है। द्रष्टव्य है“ऐसा लगता है कि उड़कर भी कहाँ पहुँचेंगे,
    हाथ में जब कोई टूटा हुआ ‘पर’ होता है।”
    तथा “गजब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते,
    वो सब के सब परेशां हैं, वहाँ पर क्या हुआ होगा।”
    कवि यथार्थ की अनुभूति के भय से भी टूटा हुआ दिखता है।
  5. रस-शान्त रस का प्रयोग है।

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  • कला-पक्ष
  1. भाषा-दुष्यन्त कुमार त्यागी अपनी कविताओं में भाव के अनुकूल भाषा का प्रयोग करते हैं। इस कारण उसमें तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशी सभी प्रकार के शब्दों का अवसर के अनुकूल चयन किया है। भाषा में सहजता है।
  2. छन्द-इनकी कविताएँ अधिकतर छन्द के बन्धन से मुक्त हैं।
  3. शैली-कवि ने अपनी कविता में व्यंग्यात्मक मुक्तक शैली को अपनाया है। प्रत्येक छन्द अपनी भावभूमि के अर्थ के लिए स्वतंत्र होता है। उनकी व्याख्या परस्पर सम्बद्ध नहीं होती।
  4. अलंकार-अलंकारों का प्रयोग सप्रयास नहीं किया गया है। अपने आप ही उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा शामिल हो गये हैं।

काव्य-धर्म का मर्म-दुष्यन्त जी कविता को राजनीतिक, सामाजिक एवं व्यक्तिगत स्तर पर लड़ाई का हथियार स्वीकार करते हैं। उनके व्यंग्यों में हास्य की अपेक्षा आक्रोश की प्रबलता है। दुष्यन्त कुमार की कविता का मूल स्वर आम आदमी है।

  • साहित्य में स्थान

दुष्यन्त कुमार की गजलें जन-जन तक पहुँचती हैं। उन्होंने गज़ल की उर्दू परम्परा को एक मोड़ देते हुए हिन्दी को समृद्ध किया है तथा कवियों को एक नई जमीन और नई दिशा प्रदान की है। समग्र रूप से अपने इस महान योगदान के लिए हिन्दी साहित्य चिर ऋणी रहेगा।

19. वीरेन्द्र मिश्र

  • जीवन-परिचय

कवि एवं गीतकार वीरेन्द्र मिश्र का जन्म दिसम्बर, 1927 ई. को ग्वालियर में हुआ था। उनका जीवन आर्थिक संघर्षों एवं सामाजिक थपेड़ों से जूझते हुए आरम्भ हुआ। संघर्षशील जीवन जीते हुए उन्होंने बड़ी कठिनाई से अपना ग्रेजुएशन पूरा किया। उन्होंने जीवन मूल्यों के प्रति पूर्णतः समर्पित होकर, स्वाभिमानपूर्वक असमानताओं से लोहा लेते हुए कठिनाई का जीवन जिया। जहाँ एक ओर वे अत्यन्त विनम्र, सहज, स्नेहशील और कोमल हृदय थे, वहीं दूसरी ओर प्रबल आत्माभिमानी, दृढ़ निश्चयी और संघर्षशील साहित्यकार थे। अपनी आर्थिक समस्याओं के समाधान के लिए वे निरन्तर इधर-उधर भटके और छोटी-मोटी नौकरियाँ भी की। वे मंचीय कविता के वरिष्ठ एवं लोकप्रिय कवि और गीतकार के रूप में प्रख्यात रहे हैं। उन्होंने लगभग एक दर्जन फिल्मों के लिए गीत लिखे हैं। अपने समय में मिश्र जी कवि सम्मेलनों के लिए अपरिहार्य हो गए थे।

जून 1975 ई. में वीरेन्द्र मिश्र ने सांसारिक बन्धनों को तोड़ दिया और पंचतत्व में विलीन हो गए।

  • साहित्य-सेवा

आदिकाल से ही मनुष्य अपनी हृदयस्थ भावनाओं को काव्य के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। प्राकृतिक सौन्दर्य के मनोहारी दृश्य के अवलोकन से मनुष्य प्रकृति से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। प्रकृति से तादात्म्यता द्वारा गहन भावों के गूढ़ अर्थों को समझा जा सकता है। यही प्रकृति, प्रेरक शक्ति का स्रोत बनकर उभर बैठती है।

ध्येय-इस सिद्धान्त का अनुसरण करते हुए एक काव्यकार अथवा गीतकार अपने ध्येय में सफल होता है। इसी प्रेरक शक्ति ने आधुनिक युग में कवि वीरेन्द्र मिश्र ने अपने गीतों के माध्यम से आधुनिक हिन्दी कविता को नई संवेदना और नई लय प्रदान की है।

प्रस्तुत गीत में बादल को सम्बोधित करते हुए कवि अपने कृतज्ञतापूर्ण व्यवहार को अपनाता है और कहता है कि बादल धरती को जीवन देता है। वर्षा करने के अपने व्यवहार में वह कोई भेदभाव नहीं करता। वह सर्वत्र समान रूप से जल बरसाता है। वह सर्वत्र ही बिना किसी भेदभाव के गागर तथा सागर पर बरस पड़ता है। तेरे द्वारा बरसने पर ही पूर्व दिशा से बहती हवा का मान बढ़ेगा, कजरी गीत की तान छिड़ उठेगी। कवि ने इस संदर्भ में आधुनिक जीवन में आस्था, विश्वास और अपनी क्षमताओं का सही उपयोग करने का सदुपदेश दिया है।

  • रचनाएँ

कविवर वीरेन्द्र मिश्र द्वारा रचित कृतियाँ इस प्रकार हैं

  1. गीतम,
  2. मधुवंती,
  3. गीत पंचम,
  4. उत्सव गीतों की लाश पर,
  5. वाणी के कर्णधार,
  6. धरती गीताम्बरा,
  7. शान्ति गंधर्व।

उपर्युक्त के अतिरिक्त वीरेन्द्र मिश्र ने गीत, नवगीत, राष्ट्रीय गीत, व्यंग्य गीत तथा मुक्तक की रचना की है। इसके अलावा रेडियो नाटक तथा बाल साहित्य की रचना भी की है। . भाव-पक्ष

  1. विषमता और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष-वीरेन्द्र मिश्र जी परिवार, समाज, राष्ट्र तथा साहित्य में व्याप्त रूढ़ि, विषमता तथा अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करते रहे। उनका यह संघर्ष इतिहास के प्रत्येक जीवन संघर्ष से प्रतिबद्ध रहा।
  2. राष्ट्रीय गौरव-मिश्र जी के गीतों में राष्ट्रीय गौरव के भाव भरे हैं। उन्होंने इन गीतों के माध्यम से समाज और राष्ट्र की प्रगतिशील आकांक्षाओं को अभिव्यक्त किया है।
    रहा।
  3. पूँजीवाद का विरोध-मिश्र जी ने अपने गीतों में पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के घृणित स्वरूप का चित्रण किया है और उनके गीतों में शोषण तथा विषमता के विरुद्ध एक सच्ची मानवीय चिन्ता मिलती है। कवि के गीतों के माध्यम से लोगों में आस्था और विश्वास की प्रतिध्वनियाँ लगातार मिलती रहती हैं।
  4. प्रणय के मधुर स्वरों के गायक-मिश्र जी प्रणय के मधुर स्वरों के भी गायक हैं। उनके भाव भरे गीत भावुक प्रेमी कवि के प्रणय की प्रतिध्वनियाँ हैं। इसके साथ ही मिश्र जी के इन्हीं प्रणय गीतों में व्यथा और पीड़ा के मार्मिक स्वर भी समाहित हैं।
  5. रस-शान्त, करुण रस की अभिव्यक्ति महत्वपूर्ण है।
  • कला-पक्ष
  1. वीरेन्द्र मिश्र के गीतों की भाषा सहज, व्यावहारिक तथा लोक में प्रचलित शब्दों में युक्त है। उनकी भाषा की शब्दावली में भाव सम्प्रेषणीयता है, कसावट है, और संगीतात्मकता है।
  2. शैली-कवि ने अपने गीतों में गीति शैली और अभिव्यंजनावाद को स्वीकार किया है। प्रतीक-प्रधान शैली महत्वपूर्ण है।।
  3. छन्द-छन्द बन्धन से मुक्त कविता, प्रतीक शब्दों के प्रयोग से अर्थ को स्पष्ट करती
  4. अलंकार-कवि अपने गीतों में सहज भाव से अलंकारों का प्रयोग करते हैं। नवीन अलंकारों में मानवीकरण का प्रयोग सामान्य रूप से होता रहा है। इसके अतिरिक्त उत्प्रेक्षा, अनुप्रास, विशेषण विपर्यय, व्यतिरेक, ध्वन्यार्थप्रकाश आदि अलंकार कवि को प्रिय हैं।

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  • साहित्य में स्थान

उपर्युक्त विशेषताओं के कारण वीरेन्द्र मिश्र का हिन्दी साहित्य में एक काव्यकार और गीतकार के रूप में अति महत्वपूर्ण स्थान है। वीरेन्द्र मिश्र इस नवगीत परम्परा के विशिष्ट कवि माने जाते हैं। हिन्दी काव्य जगत् और गीतकार मण्डल आपकी सेवाओं से सदैव उपकृत अनुभव करता है।

20. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ | [2008]

  • जीवन-परिचय

डॉ. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ का जन्म उन्नाव जनपद (उत्तर प्रदेश) के अन्तर्गत झगरपुर नामक ग्राम में सन् 1915 ई. में नाग-पंचमी के शुभ अवसर पर हुआ था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा इसी ग्राम में हुई थी। इसके बाद वे ग्वालियर चले गए और वहाँ के विक्टोरिया कॉलेज से उन्होंने बी. ए. पास किया। सन् 1940 ई. में एम. ए. की डिग्री और डी. लिट् की उपाधि उन्होंने काशी विश्वविद्यालय से प्राप्त की। अपना विद्यार्थी जीवन पूर्ण करने के पश्चात् उन्होंने होल्कर कॉलेज, इन्दौर और माधव कॉलेज, ग्वालियर में अध्यापन कार्य किया। इसी बीच नेपाल स्थित भारतीय दूतावास में सांस्कृतिक सहायक के पद पर उनकी नियुक्ति हुई। वहाँ से स्वदेश लौटने पर वे 1961 ई. में माधव कॉलेज, उज्जैन के प्राचार्य नियुक्त हुए। तत्पश्चात् वे विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में कुलपति के पद पर आसीन हुए। उसको भारत सरकार द्वारा ‘पद्मश्री’ के अलंकरण से भूषित किया गया।

  • साहित्य-सेवा व विषय

सुमन जी की कविताएँ सामाजिक जीवन एवं राष्ट्रीय चेतना से जुड़ी हुई हैं। उनमें सांस्कृतिक तत्व विद्यमान रहता है। सुमन जी प्रगतिवादी काव्यधारा के प्रमुख कवि हैं। जीवन के गान में संगृहीत उनकी रचनाओं में शोषित, दलित एवं उपेक्षित मानव के प्रति सहानुभूति एवं शोषक सत्ताधारियों के प्रति विद्रोह की भावना जागृत हो उठी है। सुमन जी की कविताओं में जागरण एवं निर्माण का सन्देश है।

सुमन जी आस्था तथा विश्वास के गीतकार हैं। इस दृष्टि से ‘वरदान माँगूंगा नहीं’ तथा ‘तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार’ आदि ओजस्वी गीत उल्लेखनीय हैं।

  • रचनाएँ

सुमन जी की रचनाएँ निम्नलिखित हैं

  1. हिल्लोल,
  2. जीवन के गान,
  3. प्रलय,
  4. सृजन,
  5. विश्वास बढ़ता ही गया,
  6. पर आँखें भरी नहीं,
  7. विन्ध्य-हिमालय,
  8. माटी की बारात आदि उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं।

‘माटी की बारात’ पर आपको साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया गया है।

  1. प्रेम-सुमन जी का छायावाद के अन्तिम चरण में काव्य क्षेत्र में अवतरण हुआ। प्रारम्भ में प्रेम-गीत लिखते रहे। धीरे-धीरे इन्होंने प्रेम से अधिक कर्त्तव्य का महत्व स्वीकार किया। प्रकृति के विस्तृत क्षेत्र से उठती हुई त्रस्त मानवता की कराहट ने इनके ध्यान को आकर्षित किया और वे देश के राष्ट्रीय आन्दोलन में शामिल हो गए।
  2. पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का विरोध-सुमन जी के मन में क्रान्ति की आग धधक उठी। उनका मन पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के प्रति विरक्ति के भाव से भर उठा। उनकी रचनाओं में साम्राज्यवाद के विरुद्ध स्वर मुखरित हो उठा।
  3. साम्यवाद-सुमन जी का झुकाव साम्यवाद की ओर रहा और इन्हें रूस की नवीन अर्थव्यवस्था ने बहुत आकर्षित किया।
  4. सत्य और अहिंसा-सुमन जी की आस्था गाँधी जी के सत्य और अहिंसा के सिद्धान्तों पर दृढ़ रही। इसी कारण इनकी कविताओं में क्रान्तिकारी स्वर लोकप्रिय हो गए।
  5. जीवन दर्शन-इनके काव्य में इनका स्वयं का पुष्ट जीवन दर्शन स्पष्ट झलकता है जिसमें वर्तमान के हर्ष पुलक, राग-विराग, आशा-उत्साह के स्वर भी मुखरित हुए।
  • कला-पक्ष
  1. भाषा-सुमन जी सरल एवं व्यावहारिक भाषा के पक्षपाती हैं। उनकी खड़ी बोली में संस्कृत के सरल तत्सम शब्द प्रयुक्त हुए हैं। साथ ही, उर्दू के शब्द भी यत्र-तत्र मिल जाते हैं। परन्तु उर्दू के ये शब्द खटकते नहीं हैं। वे भावों को उद्दीप्त करने में सहायक होते हैं। सुमन जी एक प्रखर एवं ओजस्वी वक्ता भी थे। अत: उनकी भाषा जनभाषा कही जा सकती है। भाषा उनके भावों का अनुगमन करती है।
  2. शैली-सुमन जी की शैली पर उनके व्यक्तित्व की छाप स्पष्ट है। उनकी शैली में सरलता है, स्वाभाविकता है। उनकी शैली ओज, माधुर्य और प्रसाद गुणों से सम्पन्न है। उनके गीतों में स्वाभाविकता है, संगीतात्मकता है, मस्ती और लय विद्यमान है।
  3. अलंकार-इनकी कविता में अलंकार अपने आप ही आ गए हैं। नए-नए उपमानों के माध्यम से इन्होंने अपनी बात बड़ी ही कुशलता से कह दी है।
  4. छन्द-सुमन जी ने मुक्त छन्द लिखे हैं और परम्परागत शब्दों की समृद्धि में सहयोग दिया है।
  • साहित्य में स्थान

सुमन जी उत्तर छायावादी युग के प्रगतिशील प्रयोगवादी व्यक्तियों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। वे एक सुललित गीतकार, महान् प्रगतिवादी एवं वर्तमान युग के कवियों में अग्रगण्य हैं। हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि में आपका सहयोग अतुलनीय है, अविस्मरणीय है।

सम्पूर्ण अध्याय पर आधारित महत्त्वपूर्ण वस्तुनिष्ठ प्रश्न

  • बहु-विकल्पीय प्रश्न

1. राम राज्य की परिकल्पना के काव्य का प्रमुख आधार है [2013]
(i) सूरदास, (ii) तुलसीदास, (iii) बिहारी, (iv) पद्माकर।

2. तुलसीदास की भक्ति भावना में प्रधानता है [2011]
(i) दास्य भाव, (ii) सखा भाव, (iii) दाम्पत्य भाव, (iv) माधुर्य भाव।

3. सूरदास की साधना-स्थली है
(i) वृन्दावन, (ii) सोरों, (iii) रुनकता, (iv) काशी।

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4. अकबर के नवरत्नों में से एक थे [2008]
(i) रहीम, (ii) सेनापति, (iii) रसखान, (iv) जायसी।
5. रामभद्राचार्य ‘गिरिधर’ किस काल के कवि हैं?
(i) आदिकाल, (ii) भक्ति काल, (iii) रीतिकाल, (iv) आधुनिक काल।

6. तुलसीदास जी को हिन्दी साहित्य का सर्य माना [2008]
(i) आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने, (ii) आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने, (iii) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने, (iv) डॉ. नगेन्द्र ने।

7. पद्माकर ने काव्य की रचना की [2008]
(i) ललित ललाम, (ii) गंगा लहरी, (iii) मदनाष्टक, (iv) बारहमासा।
उत्तर-
1. (ii), 2. (i), 3. (iii), 4.(i), 5. (iv), 6. (i), 7. (ii)।

  • रिक्त स्थान पूर्ति

1. रामराज्य की परिकल्पना ……… के काव्य का प्रमुख आधार रही है। [2008]
2. सूर के पदों को …………….” काव्य कहते हैं। [2009]
3. सूरदास ने …………….. में काव्य रचना की है।[2010]
4. जगत विनोद के कवि …………… हैं।
5. …………….. रीतिकाल के वीर रस के कवि हैं।
6. कबीर सच्चे ……………” सुधारक थे।
7. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ …………….” काव्य धारा के कवि थे।
8. श्रीरामभद्राचार्य ‘गिरिधर’ …………….. के कवि थे। [2010]
9. तुलसीदास का ……………. साहित्य एवं समाज की अमूल्य सम्पदा है। [2011]
10. वृन्द के दोहे …………….” की श्रेणी में आते हैं। [2011]
11. रहीम का पूरा नाम ” …………..” था। [2013]
12. गोस्वामी तुलसीदास जी की भक्ति ……………” की थी। [2013]
13. मीराबाई ने …………….” को अपना आराध्य बताया। [2014]
उत्तर-
1. तुलसी, 2. मुक्तक, 3. गेयपद शैली, 4. पद्माकर, 5. भूषण, 6. समाज, 7. प्रगतिवादी, 8. आधुनिक काल,9. रामचरितमानस, 10. मुक्तक, 11. अब्दुल रहीम खानखाना, 12. दास्य भाव, 13. कृष्ण।

  • सत्य/असत्य

1. तुलसीदास नरहरि दास के शिष्य थे।
2. हरिऔध का जन्म फतेहपुर में हुआ था।
3. केशवदास रीतिकाल के आचार्य कवि थे।
4. वीरेन्द्र मिश्र छायावादी गीतकार हैं।
5. दीनदयाल गिरि ने कुण्डलियाँ छन्द का प्रयोग किया है। [2010]
6. गिरिजाकुमार माथुर प्रगतिवादी कवि माने जाते हैं।
7. वृन्द के नीतिपरक दोहे बहुत प्रसिद्ध हैं। 8. अरुन्धति एक महाकाव्य है। [2009]
9. कबीर के कर्मकाण्ड पर करारा प्रहार किया। [2011]
10. दुष्यन्त कुमार ने उर्दू भाषा में ही गज़लें लिखी हैं। [2013]
उत्तर-
1. सत्य, 2. असत्य, 3. सत्य, 4. असत्य, 5. सत्य, 6. असत्य, 7. सत्य, 8. सत्य, 9. सत्य, 10. असत्य।

  • जोड़ी मिलाइए

1. छत्रसाल दशक [2010] – (क) केशवदास
2. जहाँगीर चन्द्रिका [2009] – (ख) भूषण
3. अलीजाह प्रकाश [2009] – (ग) सेनापति ने
4. रीतिकाल में श्रेष्ठ प्रकृति चित्रण किया है – (घ) पद्माकर
5. अतिमा [2009] – (ङ) दुष्यन्त कुमार
6. हिन्दी गजल विधा/प्रसिद्ध हिन्दी – (च) सुमित्रानन्दन पन्त गजलकार [2008, 12]
उत्तर-
1.→ (ख),
2.→ (क),
3.→ (घ),
4. → (ग),
5.→ (च),
6.→ (ङ)।

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II.
1. वात्सल्य [2008] – (क) सुमित्रानन्दन पन्त
2. प्रयोगवादी कवि – (ख) केशवदास
3. सुकुमार भावनाओं के कवि – (ग) सूरदास छायावादी कवि [2008, 11]
4. आधुनिक काल के सूरदास [2008] – (घ) गिरिजाकुमार माथुर
5. कठिन काव्य का प्रेत [2008] – (ङ) अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
6. प्रसिद्ध गीतकार [2011] – (च) वीरेन्द्र मिश्र
उत्तर-
1.→ (ग),
2.→ (घ),
3.→ (क),
4. → (ङ),
5.→ (ख),
6. → (च)।

  • एक शब्द/वाक्य में उत्तर

1. मीराबाई की भाषा किस प्रकार की है?
2. भूषण के पिता का नाम क्या था?
3. ‘प्रिय-प्रवास की रचना किसने की?
4. वीरेन्द्र मिश्र का जन्म स्थान कहाँ है?
5. सेनापति ने प्रबन्ध काव्य की रचना की है या मुक्तक काव्य की?
6. गिरिजाकुमार माथुर किस धारा के कवि हैं?
7. अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ किस युग के कवि हैं?
8. दुष्यन्त कुमार का जन्म किस वर्ष में हुआ था?
9. कवि सूरदास जी के गुरु का क्या नाम है? [2013]
10. वात्सल्य रस का सम्राट किसे कहा जाता है? [2015]
उत्तर-
1. राजस्थानी मिश्रित ब्रजभाषा,
2. पं. रत्नाकर त्रिपाठी,
3. अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’,
4. ग्वालियर,
5. मुक्तक काव्य,
6. प्रयोगवादी,
7. द्विवेदी युग,
8. सन् 1933 ई.,
9. बल्लभाचार्य,
10. सूरदास को।

MP Board Class 11th Special Hindi कवि परिचय (Chapter 6-10) 1

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MP Board Class 11th Special Hindi कवि परिचय (Chapter 6-10) 2
MP Board Class 11th Special Hindi कवि परिचय (Chapter 6-10) 3
MP Board Class 11th Special Hindi कवि परिचय (Chapter 6-10) 4

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MP Board Class 11th Special Hindi कवि परिचय (Chapter 6-10) 5

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MP Board Class 11th Special Hindi स्वाति कवि परिचय (Chapter 1-5)

MP Board Class 11th Special Hindi स्वाति कवि परिचय (Chapter 1-5)

1. तुलसीदास
[2008,09, 14, 17]

  • जीवन-परिचय

लोकनायक तुलसीदास कविता कामिनी के ललाट के ज्योति-बिन्दु हैं। इस ज्योति-बिन्दु ने अपने चारों ओर प्रकाश विकीर्ण किया हुआ है। ऐसे महान् कवि गोस्वामी तुलसीदास का जन्म संवत् 1589 वि. में बाँदा जिले के राजापुर नामक स्थान में हुआ था। परन्तु कुछ लोग सोरों (एटा) को ही इनका जन्म-स्थान मानते हैं। तुलसीदास के पिता का नाम आत्माराम दुबे और माता का नाम हुलसी था। इनके सिर से बाल्यावस्था में ही माता-पिता का साया उठ गया था और उनका पालन-पोषण नरहरिदास ने किया था। उन्होंने तुलसीदास को गुरुमंत्र दिया, रामकथा सुनाई तथा संस्कृत की शिक्षा दी। इन्होंने काशी में विभिन्न शास्त्रों का अध्ययन किया तथा दीनबन्धु पाठक की अति सुन्दरी कन्या से विवाह किया। उनका नाम रलावली था। भावुक युवक तुलसीदास अपनी प्रिया के प्रेम और सौन्दर्य में सब कुछ भूल बैठा। विदुषी रत्नावली ने अपने अत्यन्त ज्ञान सम्पन्न पति के प्रेम और आसक्ति को ‘अस्थि-चर्ममय देह’ के प्रति देखकर उन्हें बहुत ही दुत्कारा। उनके ज्ञानचक्षु वैराग्य की ज्योति पाकर अलौकिक प्रकाश को विकीर्ण करने लगे।

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तुलसी ने संसार त्याग दिया। राम-गुलाम तुलसी, राम के चरित गायन में लग गए और स्वयं को अपने आराध्य राम की भक्ति में समर्पित कर दिया। संवत् 1680 वि. में इस महात्मा ने शरीर के बन्धनों को तोड़ दिया और परमतत्त्व (राम) में लीन हो गए।

कहा भी है-
“संवत् सोलह सौ अस्सी, असी गंग के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यौ शरीर।।

तुलसी में प्रेम की उन्मत्तता, उत्कृष्ट वैराग्य, राम की अनन्य एवं दास्यभाव की भक्ति एवं लोकमंगल की भावना भरी हुई थी।

  • साहित्य सेवा

एक आदर्श साहित्य सेवक का उद्देश्य अपने वृहद् लोक जीवन को सुख और शान्ति से परिपूर्ण बनाना होता है। ‘स्वान्तः सुखाय’ से ‘पर-अन्तः सुखाय’ के आदर्श को यथार्थ में स्थापित करने के लिए लोक मर्यादा की आवश्यकता का अनुभव तुलसी ने किया। तुलसी ने राम के लोकमंगल व लोककल्याणकारी रूप को अपनी लोकपावनी काव्य कृतियों के माध्यम से जनता-जनार्दन के सामने प्रतिष्ठापित किया है। तुलसी के काव्य का प्रमुख आधार रही है-‘राम राज्य की परिकल्पना’। तुलसी द्वारा परिकल्पित आदर्श राज्य की स्थापना आज के युग में भी बहुत प्रासंगिक और महत्त्वपूर्ण हो गई है। कवि ने (तुलसी ने) अपनी साहित्यिक कृतियों के माध्यम से समाजगत, राजनीतिगत, आर्थिकस्थितिपरक तथा विविध जातिगत सम्बन्धों और उनके एकीकरण का अनन्यतम प्रयास किया है। प्रत्येक तरह की एवं प्रत्येक क्षेत्र की समस्याओं का समाधान ढूँढ़ने का तर्कसंगत उपाय तुलसी ने प्रत्येक वर्ग के लिए अपने ही सृजित साहित्य में यथास्थान संकेतित किया है। अतः अपनी साहित्य सेवा द्वारा तुलसी ने महान् उद्देश्य की प्राप्ति की है। आवश्यकता है उनके साहित्य को अध्ययन व मनन किए जाने की और हो सके तो तद्नुसार अधिक से अधिक जीवन में यथार्थता लाने की।

  • रचनाएँ
  1. रामचरित मानस-यह महाकाव्य भारतीय संस्कृति, धर्मदर्शन, भक्ति और कवित्व का अद्भुत् समन्वयकारी ग्रन्थ है।
  2. विनय पत्रिका-विनय पत्रिका भक्ति रस का अद्वितीय काव्य है। ब्रजभाषा में रचित ‘भक्तों के गले का हार’ है।
  3. कवितावली-कवितावली में कवित्त-सवैया छंदों में राम कथा का गायन किया गया है।
  4. गीतावली-गीतावली गेय-पद शैली का श्रेष्ठ कवित्व-प्रधान रामकाव्य है।
  5. बरवै रामायण’-यह बरवै छंद में रचित श्रेष्ठ काव्यकृति है। उपर्युक्त काव्य रचनाओं के अलावा तुलसीदास द्वारा रचित कृतियाँ हैं-
  6. रामलला नहरु,
  7. रामाज्ञा प्रश्नावली,
  8. वैराग्य संदीपनी,
  9. दोहावली,
  10. जानकी मंगल,
  11. पार्वती मंगल,
  12. हनुमान बाहुक तथा
  13. कृष्ण गीतावली।
  • भाव-पक्ष

(क) शक्ति, शील और सौन्दर्य का समन्वय-तुलसी ‘राम भक्ति’ शाखा के प्रमुख कवि थे। उन्होंने भगवान राम के मर्यादा पुरुषोत्तम का आदर्श रूप प्रतिपादित किया और अपने इष्ट राम में शील-शक्ति और सौन्दर्य का समन्वित स्वरूप देखा। इस तरह समग्र तुलसी-काव्य में भाव लोक की सम्पन्नता द्रष्टव्य है।

(ख) समन्वयवादी व्यापक दृष्टिकोण-तुलसी का दृष्टिकोण अत्यन्त व्यापक एवं समन्वयवादी था। इन्होंने राम के भक्त होते हुए भी अन्य देवी-देवताओं की वंदना की है। तुलसी के काव्य में भारतीय संस्कृति एवं धार्मिक विचारधारा पूर्णतः परिलक्षित हुई है। मानव मन की उदात्त भावनाओं, कर्त्तव्यपरायणता एवं लोक कल्याण का जैसा सुन्दर संदेश इनके काव्य में मिलता है, वैसा अन्यत्र नहीं।

(ग) रससिद्धता-तुलसी रससिद्ध कवि थे। उनकी कविताओं में श्रृंगार, शान्त, वीर रसों की त्रिवेणी प्रवाहित होती है। शृंगार रस के दोनों पक्षों-संयोग व वियोग का बड़ा ही हृदयग्राही वर्णन किया गया है। रौद्र, करुण, अद्भुत रसों का सजीव चित्रण किया गया है। विनय पत्रिका’ में भक्ति और विनय का उत्कृष्टतम स्वरूप मिलता है।

(घ) लोकहित एवं लोक जीवन-तुलसी के काव्य में मानव हृदय की दशाओं का चित्रण सहज और प्राकृतिक है। उन्होंने लोकहित और लोक जीवन को सुखी बनाने के लिए माता-पिता, गुरु, पुत्र, सेवक, राजा-प्रजा का आदर्श रूप प्रस्तुत किया है। इनकी ‘ईश्वर भक्ति-विनय, श्रद्धा एवं करुणा से अभिभूत है। तुलसी के रामराज्य की कल्पना एक आदर्श है। इन्होंने मानवीय सिद्धान्तों पर आधारित समाज और शासन पद्धति के वृहद् स्वरूप को प्रस्तुत किया है।

(ङ) मतमतान्तरों में समन्वय-तुलसी के काव्य में सर्वोत्कृष्ट विशेषता है उनका समन्वयवादी स्वरूप। विभिन्न मतों, सम्प्रदायों और सिद्धान्तों की कटुता को मिटाकर उनमें परस्पर समन्वय स्थापित करने का प्रशंसनीय प्रयास किया है।

  • कला-पक्ष

(1) भाषा-तुलसी के काव्य का कला-पक्ष भी भाव-पक्ष के ही समान पर्याप्त समृद्ध है। वे संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् थे। इस तरह उन्होंने अन्य बहुत-सी भाषाओं-ब्रज, अवधी आदि पर पूर्ण अधिकार प्राप्त किया हुआ था और इन भाषाओं में सर्वोत्कृष्ट कृतियों की रचना की। उनकी कृतियों में सभी भाषाओं के शब्दों का सहज समावेश है। तुलसीदास मुख्य रूप से अवधी भाषा के कवि हैं। उनकी भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों की अधिकता है। अवधी के साथ तुलसी ने ब्रजभाषा का भी प्रयोग किया है। रामचरित मानस अवधी में तथा कवितावली, गीतावली और विनय पत्रिका ब्रजभाषा में लिखी गयी हैं। उनकी भाषा का गुण साहित्यिकता है। उनकी भाषा में सरलता, बोधगम्यता, सौन्दर्य चमत्कार, प्रसाद, माधुर्य, ओज आदि सभी गुणों का समावेश है।

(2) शैली-तुलसीदास ने अपने समय की सभी प्रचलित काव्य शैलियों में रचनाएँ प्रस्तुत करके अपने वृहद् समन्वयवादी स्वरूप को प्रदर्शित किया। विभिन्न मतों, सम्प्रदायों और सिद्धान्तों की कटुता को मिटाकर उनमें समन्वय स्थापित करने का प्रशंसनीय प्रयास किया है। तुलसीदास ने भाषा और छन्द विषयक क्षेत्र में भी समन्वयवादी प्रवृत्ति का परिचय दिया है। उन्होंने अवधी, ब्रज-भाषाओं में समान रूप से रचनाएँ की हैं। इस समय प्रचलित दोहा, चौपाई, कवित्त, सर्वया आदि सभी छन्दों का प्रयोग किया है।

(3) छन्द योजना-तुलसीदास ने जायसी की दोहा-चौपाई छन्दों में रामचरित मानस की रचना की। सूरदास की पद शैली में उन्होंने विनय पत्रिका और गीतावली रची। सवैया शैली में उन्होंने कवितावली की रचना की। दोहा का प्रयोग उन्होंने दोहावली में किया है।

(4)अलंकार-योजना-तुलसीदास का अलंकार विधान भी अत्यन्त मनोहर बन पड़ा है। उनकी उपमाएँ अति मनोहर हैं। उनके उपमा अलंकार को ही हम कहीं पर रूपक, कहीं उत्प्रेक्षा, तो कहीं दृष्टान्त के रूप में प्रतिष्ठित पाते हैं।

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  • साहित्य में स्थान

गोस्वामी तुलसीदास लोककवि हैं। उनके काव्य से जीवन जीने की कला सीखी जा सकती है। उनकी लोकप्रियता के आधार पर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि वास्तव में तुलसी ही हिन्दी साहित्याकाश के सूर्य हैं। तुलसीदास को गौतम बुद्ध के बाद सबसे बड़ा लोकनायक माना जाता है। अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने सच ही कहा है-

“कविता करके तुलसी न लसै,
कविता लसी या तुलसी की कला।”

2. मीराबाई
[2009, 12. 15]

  • जीवन-परिचय

हिन्दी साहित्य में मीराबाई का विशेष महत्त्व है। मीरा भक्त कवयित्री हैं। उनकी रचनाएँ हृदय की अनुभूति मात्र हैं। इस कारण इनकी रचनाएँ सीधे हृदय को स्पर्श करती हैं।

मीराबाई का जन्म राजस्थान में जोधपुर में मेड़ता के निकट चौकड़ी ग्राम में सन् 1498 ई. (संवत् 1555 वि.) के लगभग हुआ था। ये राठौर रत्नसिंह की पुत्री थीं। बचपन में ही मीरा की माता का निधन हो गया। इस कारण ये अपने पितामह राव दूदाजी के साथ रहती थीं। राव दूदा जी कृष्णभक्त थे। उनका मीरा पर गहरा प्रभाव पड़ा। मीरा का विवाह चित्तौड़ के राणा साँगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज के साथ हुआ था। विवाह के कुछ ही वर्ष बाद इनके पति का स्वर्गवास हो गया। इस असह्य कष्ट ने इनके हृदय को भारी आघात पहुँचाया। इससे उनमें विरक्ति का भाव पैदा हो गया। वे साधु सेवा में ही जीवन यापन करने लगीं। वे राजमहल से निकलकर मन्दिरों में जाने लगी तथा साधु संगति में कृष्ण कीर्तन करने लगी। इसे चित्तौड़ के तत्कालीन राणा ने प्रतिष्ठा के विरुद्ध मानकर, उन्हें भाँति-भाँति की यातनाएँ देना शुरू कर दिया जिससे ऊबकर मीरा कृष्ण की लीलाभूमि मथुरा-वृन्दावन चली गयी और वहीं शेष जीवन व्यतीत किया। इस तरह मीरा का समग्र जीवन कृष्णमय था। मीरा की भक्ति भावना बढ़ती गई और वे प्रभु-प्रेम में दीवानी बन गईं। संसार से विरक्त, कृष्ण भक्ति में लीन मीरा की वियोग भावना ही इनके साहित्य का मूल आधार है। मीरा अपने जीवन के अन्तिम दिनों में द्वारका पहुँच गईं। रणछोड़ भगवान् की भक्ति करने लगीं। वहाँ ही सन् 1546 ई. (संवत् 1603 वि.) में स्वर्ग सिधार गईं।

  • साहित्य-सेवा

मीराबाई द्वारा सृजित काव्य साहित्य में उनके हृदय की मर्मस्पर्शिनी वेदना है, प्रेम की आकुलता है तथा भक्ति की तल्लीनता है। उन्होंने अपने मन की अनुभूति को सीधे ही सरल, सहज भाव में अपने पदों में अभिव्यक्ति दे दी है। उनका साहित्य, भक्ति के आवरण में वाणी की पवित्रता व शुचिता को लिए हुए संगीत का माधुर्य है जिनसे सभी अनुशीलन कर्ताओं को मनोमुग्ध किया हुआ है। भक्तिमार्ग की पुष्टि करने में, मन को शान्ति देने में, मीरा की साहित्य सेवाएँ उत्कृष्ट हैं।

  • रचनाएँ

मीरा की रचनाओं में नरसी जी का मायरा, गीत-गोविन्द की टीका, राग गोविन्द, राग-सोरठा के पद प्रसिद्ध हैं। इन रचनाओं में अपने आराध्य श्रीकृष्ण-गिरधर गोपाल के प्रति प्रेम के आवेश में गाये पदों के संग्रह मात्र हैं। मीराबाई की रचनाएँ वियुक्त हृदय की अनुभूति हैं। उनमें हृदय की टीस है, माधुर्य है, लालित्य है।

  • भाव-पक्ष
  1. विरह वेदना-मीराबाई भगवान कृष्ण के प्रेम की दीवानी थीं। उन्होंने आँसुओं के जल से सींच-सींचकर प्रेम की बेल बोई थी। मीरा ने अपने प्रियतम (भगवान कृष्ण) के विरह में जो कुछ लिखा, उसकी तुलना कहीं पर भी नहीं की जा सकती। मीरा की विरह वेदना अकथनीय और अनुभूतिपरक है।
  2. रस और माधुर्य भाव-मीरा के साहित्य में माधुर्य भाव को बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त है। उनकी रचनाओं में माधुर्य भाव प्रधान है, शान्त रस और श्रृंगार रस की अभिव्यक्ति है।
  3. रहस्यवाद-मीरा के बहुत से पदों में उनका रहस्यवाद स्पष्ट प्रदर्शित होता है। इस रहस्यवाद में प्रियतम के प्रति उत्सुकता, मिलन और वियोग के सजीव चित्र हैं।
  • कला-पक्ष

(1) भाषा–मीरा की भाषा राजस्थानी-संस्कार से संयुक्त ब्रजभाषा है। उन्होंने राजस्थानी शब्दों और उच्चारणों का खूब प्रयोग किया है। परन्तु अपने पदों की रचना, उस युग की काव्यभाषा ब्रजभाषा में ही की। उनके कुछ पदों में भोजपुरी भाषा का भी पुट दिया हुआ है। मीरा की भाषा को शुद्ध साहित्यिक भाषा नहीं कहा जा सकता। वरन् उनकी भाषा जनभाषा ही कही जा सकती है, इसी जनभाषा का प्रयोग उनके समग्र साहित्य में मिलता है।

(2) शैली-मीरा ने मुक्तक शैली का प्रयोग किया है। उनके पदों में गेयता है। गीति शैली पर रचित प्रत्येक पद-गिरधर गोपाल के प्रति आलम्बन प्रधान है तथा उसमें ‘माधुर्यता’ की उपस्थिति गायक और श्रोताओं को भावविलोडित करने वाली है। भाव-सम्प्रेषणता मीरा की गीति शैली की प्रधान विशेषता है। शैलीगत-प्रवाह-भाव को झंकृत कर बैठता है।

(3) अलंकार-मीराबाई ने अपनी रचना-कविता करने के उद्देश्य से नहीं की है। अतः हृदय से निकले गान में अलंकार अपने आप ही आकर जुड़ते रहे हैं। अधिकतर उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास आदि अलंकारों को इनकी रचनाओं में सर्वत्र देखा जा सकता है।

  • साहित्य में स्थान

मीरा ने हृदय में व्याप्त अपनी वेदना और पीड़ा को बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। मीरा को तीव्र वेदना की मूर्ति के रूप में विशिष्ट स्थान प्राप्त है।

3. सूरदास
[2008, 09, 13, 16]

  • जीवन-परिचय

महात्मा सूरदास का जन्म सन् 1478 ई. (संवत् 1535 वि.) में आगरा से मथुरा जाने वाले राजमार्ग पर स्थित रुनकता नामक गाँव में हुआ था। परन्तु कुछ अन्य विद्वान दिल्ली के समीप ‘सीही’ को इनका जन्म स्थान मानते हैं। पुष्टिमार्ग के संस्थापक महाप्रभु बल्लभाचार्य जी इनकी प्रतिभा से बहुत ही प्रभावित थे अतः आपकी नियुक्ति श्रीनाथ जी के मन्दिर में कीर्तनिया के रूप में कर दी। महाप्रभु बल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलनाथ द्वारा ‘अष्टछाप’ की स्थापना की और अष्टछाप के कवियों में सूरदास’ को सर्वोच्च स्थान दिया गया। इस प्रकार आजीवन गऊघाट पर रहते हुए श्रीमद्भागवत के आधार पर प्रभु श्रीकृष्ण लीला से सम्बन्धित पदों की सर्जना करते थे और उनका गायन अत्यन्त मधुर स्वर में करते थे।

महात्मा सूरदास जन्मान्ध थे, यह अभी तक विवादास्पद है। सूर की रचनाएँ यह सिद्ध करती हैं कि एक जन्मान्ध द्वारा इतना सजीव और उत्तमकोटि का वर्णन नहीं किया जा सकता।

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एक किंवदन्ती के अनुसार, वे किसी स्त्री से प्रेम करते थे, परन्तु प्रेम की सम्पूर्ति में बाधा आने पर उन्होंने अपने दोनों नेत्रों को स्वयं फोड़ लिया। परन्तु जो भी कुछ तथ्य रहा हो, हमारे मतानुसार तो सूरदास बाद में ही अन्धे हुए हैं। वे जन्मान्ध नहीं थे।

सूरदास का देहावसान सन् 1583 ई. (संवत् 1640 वि.) में मथुरा के समीप पारसोली नामक ग्राम में गोस्वामी विट्ठलनाथ जी की उपस्थिति में हुआ था। कहा जाता है कि अपनी मृत्यु के समय सूरदास “खंजन नैन रूप रस माते” पद का गान अपने तानपूरे पर अत्यन्त मधुर स्वर में कर रहे थे।

  • साहित्य-सेवा

सूरदास हिन्दी काव्याकाश के सूर्य हैं, जिन्होंने अपने काव्य कौशल से हिन्दी साहित्य की अप्रतिम सेवा की और अपने गुरु बल्लभाचार्य के सम्पर्क में आने के बाद पुष्टिमार्ग में दीक्षा ग्रहण की और दास्यभाव एवं दैन्यभाव के पदों की रचना करना छोड़ दिया। इसके स्थान पर वात्सल्य प्रधान सखाभाव की भक्ति के पदों की रचना करना शुरू कर दिया। अष्टछाप के भक्त कवियों में सूरदास अग्रणी थे। उनके काव्य का मुख्य उद्देश्य कृष्ण भक्ति का प्रचार करके जनसामान्य में तथा संगीतकारों में भक्ति रस से उनके मन को आप्लावित करना रहा था। इसके अतिरिक्त सूर ने अपने काव्य की साधना से प्रभुभक्ति और पवित्र प्रेम का निरूपण किया। सूर के सम्पूर्ण साहित्य में विनय, वात्सल्य और श्रृंगार ने अद्वितीय स्थान प्राप्त किया है। वात्सल्य वर्णन को हिन्दी की अमूल्य निधि कहा गया है जिसमें मानव हृदय की प्रकृत अवस्था निर्विघ्न रूप से निरूपित है। बाल मनोविज्ञान के तो सूर अद्वितीय पारखी थे। शिशु चेष्टाओं का आंकलन कवि ने अपने ग्रंथों में स्वाभाविक रूप से किया है, जो बेजोड़ है।

  • रचनाएँ

विद्वानों के मतानुसार सूरदास ने तीन कृतियों का ही सृजन किया था, वे हैं-
(1) सूरसागर,
(2) सूर सारावली,
(3) साहित्य लहरी।

(1) इनमें सूरसागर ही उनकी अमर कृति है। सूरसागर में भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं से सम्बन्धित सवा लाख गेय पद हैं। परन्तु अभी तक 6 या 7 हजार से अधिक पद प्राप्त नहीं हुए हैं।
(2) सूर सारावली में ग्यारह सौ सात छन्द संग्रहीत हैं। यह सूरसागर का सार रूप ग्रन्थ है।
(3) साहित्य लहरी में एक सौ अठारह पद संग्रहीत हैं। इन सभी पदों में सूर के दृष्ट-कूट पद सम्मिलित हैं। इन पदों में रस का सर्वश्रेष्ठ परिपाक हुआ है।

सूरदास सगुण भक्तिधारा के कृष्णोपासक कवियों में सर्वश्रेष्ठ कवि थे। उनके काव्य में तन्मयता और सहज अभिव्यक्ति होने से उनका भावपक्ष अत्यन्त सबल और कलापक्ष अत्यन्त आकर्षक और सौन्दर्य प्रधान हो गया है।

  • भाव-पक्ष
  1. भक्तिभाव-सूरदास कृष्ण के भक्त थे। काव्य ही भगवत् भजन एवं उनका जीवन था। एक भक्त हृदय की अभिव्यक्ति उनके काव्य में हुई है। सूर की भक्ति सखा भाव की भक्ति थी। कृष्ण को सखा मानकर ही उन्होंने अपने आराध्य की समस्त बाल-लीलाओं और प्रेम-लीलाओं का वर्णन पूर्ण तन्मयता से किया है।
  2. सहृदयता और भावुकता-सूरदास ने अपने पदों में मानव के अनेक भावों का बड़ी सहृदयता से वर्णन किया है। उस वर्णन में सखा गोप-बालकों के, माता यशोदा के और पिता नंद के विविध भावों की यथार्थता और मार्मिकता मिलती है। कृष्ण और गोपी प्रेम में प्रेमी केहदय के भाव पूर्णत् सरोवर में लहराती तरंगें हैं।
  3. उत्कृष्ट रस संयोजना-सूर की उत्कृष्ट रस संयोजना के आधार पर डॉ. श्यामसुन्दर दास ने उन्हें रससिद्ध कवि’ कहकर पुकारा है। सूर के काव्य में शान्त, श्रृंगार और वात्सल्य रस की त्रिवेणी प्रवाहित है।
  4. अद्वितीय वात्सल्य-सूरदास ने कृष्ण के बाल-चरित्र, शरीर सौन्दर्य, माता-पिता के हृदयस्थ वात्सल्य का जैसा स्वाभाविक एवं मनोवैज्ञानिक सरस वर्णन किया है, वैसा वर्णन सम्पूर्ण विश्व साहित्य में दुर्लभ है। सूर वात्सल्य के अद्वितीय कवि हैं।
  5. श्रृंगार रस वर्णन-सूर ने अपनी रचनाओं में श्रृंगार के दोनों पक्षों-संयोग और वियोग का चित्रण करके उसे रसराज सिद्ध कर दिया है। आचार्य रामचन्द्र शक्ल ने कहा है, “श्रृंगार का रस-राजत्व यदि हिन्दी में कहीं मिलता है तो केवल सूर में।”
  • कला-पक्ष
  1. लालित्य प्रधान ब्रजभाषा-सूरदास ने बोलचाल की ब्रजभाषा को लालित्य-प्रधान बनाकर उसमें साहित्यिकता पैदा कर दी है। उनके द्वारा प्रयुक्त भाषा-सरल, सरस एवं अत्यन्त प्रभावशाली है जिससे भाव प्रकाशन की क्षमता का आभास होता है। सूरदास ने अवधी और फारसी के शब्दों का प्रयोग करके एवं लोकोक्तियों के प्रयोग से अपनी भाषा में चमत्कार एवं सौन्दर्य उत्पन्न कर दिया है। भाषा माधुर्य सर्वत्र ही विद्यमान है। इस प्रकार सूर की काव्य भाषा एक आदर्श काव्य भाषा है।
  2. गेय-पद शैली-सूर ने गेय-पद शैली में काव्य रचना की है। माधुर्य और प्रसाद गुण युक्त शैली वर्णनात्मक है। उनकी शैली की वचनवक्रता और वाग्विदग्धता एक प्रधान विशेषता है।
  3. आलंकारिकता की सहज आवृत्ति-सूरदास के काव्य में अलंकार अपने स्वाभाविक सौन्दर्य के साथ प्रविष्ट से होते जाते हैं। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार, अलंकारशास्त्र तो सूर के द्वारा अपना विषय वर्णन शुरू करते ही उनके पीछे हाथ जोड़कर दौड़ पड़ता है। उपमानों की बाढ़ आ जाती है। रूपकों की वर्षा होने लगती है।”
  4. छन्द योजना की संगीतात्मकता-सूरदास ने मुक्तक गेय पदों की रचना की है। इन पदों में संगीतात्मकता सर्वत्र विद्यमान है।
  • साहित्य में स्थान

सूर अष्टछाप के ब्रजभाषा कवियों में सर्वश्रेष्ठ हैं। बाल प्रकृति-चित्रण, वात्सल्य तथा श्रृंगार में तो सूर अद्वितीय हैं। सूर का क्षेत्र सीमित है, पर उसके वे एकछत्र सम्राट हैं। जब तक सूर की प्रेमासिक्त वाणी का सुधा प्रवाह है, तब तक हिन्दू जीवन से समरसता का स्रोत कभी सूखने नहीं पाएगा और उसका मधुर स्वर सदैव हिन्दी जगत में गूंजता रहेगा।

भक्तिकाल के प्रमुख कवि सूरदास अपनी रचनाओं, काव्य कला और साहित्यिक प्रतिभा के कारण निःसन्देह साहित्याकाश के ‘सूर’ ही हैं। इन सभी विशेषताओं के कारण यह

दोहा अक्षरशः सत्य है
“सूर सूर तुलसी ससी,
उडुगन केसव दास।
अब के कवि खद्योत सम,
जहँ-तहँ करत प्रकाश।।”

4. स्वामी रामभद्राचार्य ‘गिरिधर’

  • जीवन-परिचय

कवि रामभद्राचार्य ‘गिरिधर’ का जन्म जनवरी महीने की चौदहवीं तारीख को सन् 1950 ई. में उत्तर-प्रदेश के जौनपुर जिले के गाँव शाणीपुर में हुआ था। इनका पूरा नाम स्वामी रामभद्राचार्य है। दो वर्ष की अल्पायु में ही इनके दोनों नेत्रों की ज्योति सदा के लिए चली गई और ये कुछ भी देख नहीं सकते थे। इन्होंने अपने ही अध्यवसाय से और निरुत्साहित हुए बिना ही विद्यार्जन का उपाय स्वयं ढूंढ़ निकाला और अभ्यास करके ही श्रीमद्भगवद्गीता एवं रामचरितमानस इन्हें कंठस्थ हो गये। श्री ‘गिरिधर’ जी (जो इसी उपनाम से प्रसिद्ध हैं और लोगों द्वारा समादरित होते हैं) ने अपनी सभी परीक्षाओं में प्रथम से लेकर एम. ए. तक-99 (निन्यानवे) प्रतिशत अंक प्राप्त किये। आपके ऊपर माँ शारदा के असीम कृपा और वरदहस्त रहा है। ‘होनहार विरवान के होत चीकने पात वाली कहावत अक्षरशः सत्य सिद्ध होती है। वे उच्चतर शिक्षा प्राप्त करने के प्रत्येक अवसर को प्राप्त करने में कभी पीछे नहीं रहे। इन्होंने संस्कृत व्याकरण सम्बन्धी किसी महत्वपूर्ण विषय में पी-एच. डी. की डिग्री प्राप्त करके अपनी कुशाग्र बुद्धित्व का परिचय दिया तथा कुछ समय के बाद संस्कृत के किसी अति महत्वपूर्ण विषय में डी. लिट. की उपाधि भी प्राप्त कर ली।

उपर्युक्त विवरण हम सभी के लिए प्रेरणा का स्रोत है। परि श्रम और निरन्तर अध्यवसाय से मनुष्य अपने ध्येय तक पहुँचने में सफल हो सकता है। सफलता के शिखर पर उत्साही और अपनी क्षमताओं में अटूट विश्वास रखने वाले ही पहुँचकर अपने देश और समाज को उन्नति पथ पर ले जाते हैं। ऐसे ‘गिरिधर’ जी को हम सम्मान प्रतिष्ठा देते हुए गौरवान्वित अनुभव करते हैं।

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  • साहित्य-सेवा

श्री ‘गिरिधर जी ने हिन्दी साहित्य और संस्कृत साहित्य के विकास के लिए निरन्तर प्रयास किया। उन्होंने दोनों भाषाओं में अनन्यतम ग्रंथों की सर्जना करके सूरकालीन भक्तियुग की परम्पराओं को अक्षुण्य बनाने का सतत् प्रयास किया है। उनका प्रयास अत्यन्त स्तुत्य है। भाषा में शास्त्रीयता विद्यमान है, साथ ही साथ लोकभाषा के प्रयोग एवं उसके सम्वर्द्धन के प्रयास अभी भी निरन्तर किए जा रहे हैं। संस्कृत भाषा को सामान्य जनभाषा के रूप में विकसित करने का तथा उसके प्रयोग की विधि में सरलता, सरसता एवं प्रवाह उत्पन्न करने का प्रयत्न आपके द्वारा किया जा रहा है। हमें विश्वास है कि ‘गिरिधर’ जी के दिशा निर्देशन में हिन्दी साहित्य एवं संस्कृत साहित्य अपने चरम विकास को प्राप्त कर सकेगा।

  • रचनाएँ

स्वामी रामभद्राचार्य द्वारा रचित कृतियाँ निम्नलिखित हैं

  1. प्रस्थानमयी काव्य-प्रस्थानमयी काव्य की रचना आचार्य जी ने संस्कृत भाषा में की है। इस ग्रंथ की भाषा में सरसता और सरलता है तथा भाव-सम्प्रेषण की क्षमता विद्यमान है।
  2. भार्गव राघवीयम् महाकाव्य-‘भार्गव राघवीयम्’ एक महाकाव्य है। इसकी रचना संस्कृत भाषा में की गई है। अपने प्रकार का यह अद्वितीय महाकाव्य है।
  3. अरुन्धती महाकाव्य-इस महाकाव्य की रचना कवि श्री रामभद्राचार्य जी ने हिन्दी भाषा में की है। विषयवस्तु समाज के परिवेश में नवीनता उत्पन्न करके सुधार की परिकल्पना से सम्बन्ध रखती है।

उपर्युक्त के अलावा राघवगीत गुंजन, भक्तिगीत सुधा एवं अन्य 75 ग्रन्थों की रचना हिन्दी भाषा में की गई है। हिन्दी का स्वरूप परिष्कृत और परिमार्जित है।

साहित्य और शिक्षा क्षेत्र के विकास के लिए आपने ‘जगद्गुरु’ रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय’ की स्थापना चित्रकूट में की है। शासन द्वारा आपको इस विश्वविद्यालय का जीवनपर्यन्स कुलाधिपति बनाया गया है।

साहित्य सेवा के लिए पुरस्कार-आपको भारतीय संघ के महामहिम राष्ट्रपति द्वारा

  1. महर्षि वेदव्यास वादरायण पुरस्कार दिया गया है। इस पुरस्कार के लिए जीवनपर्यन्त एक लाख रुपये प्रतिवर्ष दिए जाते हैं।
  2. भारत सरकार, नई दिल्ली द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया है। इसके लिए पचास हजार रुपये दिये जाते हैं।
  3. दो लाख का श्री वाणी अलंकरण-यह पुरस्कार रामकृष्ण डालमिया वाणी न्यास, नई दिल्ली द्वारा दिया गया।
  • भाव-पक्ष
  1. प्रेम और हृदय की उदात्तता-कविरामभद्राचार्य की रचनाओं के भाव पक्षीय सबलता स्तुत्य है। हृदयगत भाव वास्तुजगत के प्रभाव से अनुभूतिजन्य हैं जिनमें प्रेम और हृदय की उदात्तता परिलक्षित होती है।
  2. वात्सल्य रस, भक्ति रस के परिपाक से सम्प्रक्त होकर अति पुष्ट होता गया है।
  • कला-पक्ष
  1. भाषा-भाषा भावानुकूल प्रयुक्त हुई है। उसमें शास्त्रीयता का प्राधान्य है। भाषा का परिष्कृत स्वरूप लोकभाषा के विकास को नई दिशा देते हैं। अतः लोकभाषा में प्रवाह की प्रबलता है।
    कवि ने भाव को स्पष्ट करने के अनुरूप ही भाषा का प्रयोग किया है।
  2. शैली-कवि ने सूरदास की मुक्तक गेय-पद शैली को अपनाया है। उसमें विषय की विशदता और गम्भीरता को अनायास ही सरसता देकर एक विशेष शैली का अन्वेषण किया है।
  3. अलंकार योजना-कवि का अपने काव्य में अलंकार संयोजन सप्रयोजन नहीं होता है। वह तो अनायास ही भाव के अभिव्यक्तिकरण के लिए अपने आप ही प्रवेश प्राप्त कर लेते हैं। इनकी कृतियों में उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अनुप्रास आदि महत्त्वपूर्ण सभी अर्थालंकारों और शब्दालंकारों का प्रयोग परिलक्षित होता है।
  4. छंद-योजना-कवि ने मुक्तक-छंद की संयोजना की है जिसे हम भक्तियुगीन सूरदास के छंद विधान के समकक्ष पाते हैं। अन्तर है, तो केवल भाषा का। सूर की भाषा परिष्कृत ब्रजभाषा है और रामभद्राचार्य जी की भाषा परिनिष्ठित खड़ी बोली हिन्दी।
  • साहित्य में स्थान

कवि रामभद्राचार्य ‘गिरिधर’ हिन्दी और संस्कृत भाषा के विकास के लिए प्रयासरत हैं। उनके रचित ग्रन्थ हिन्दी और संस्कृत साहित्य की अक्षुण्यनिधि हैं। हम आशा करते हैं कि आपके द्वारा संस्कृत और हिन्दी साहित्य का विकास दिशा निर्दिष्ट होता रहेगा। हिन्दी और संस्कृत जगत आपके नृत्य कार्यों के लिए चिरऋणी है।

5. पद्माकर
[2011]

  • जीवन-परिचय

पद्माकार रीतिकाल के श्रेष्ठ कवियों में से एक हैं। इनके पूर्वज दक्षिण भारत के तेलंग ब्राह्मण थे। पद्माकर के पिताजी का नाम श्री मोहनलाल भट्ट था। वे मध्य प्रदेश के सागर में आकर बस गए थे। यी (सागर में ही) पद्माकर जी का जन्म सन् 1753 ई. में हुआ था। सागर के तालाब घाट पर पद्माकर जी की मूर्ति स्थापित है। पद्माकर एक प्रतिभा सम्पन्न कवि थे। ‘कवित्त’ छन्द की रचना करने की अलौकिक क्षमता व कौशल उन्हें वंश-परम्परा से प्राप्त था। कवित्त शक्ति और क्षमता सम्पन्न पद्माकर ने मात्र नौ वर्ष की उम्र से ही कवित्त-रचना करना शुरू कर दिया था।

पद्माकर जी रीतिकालीन कवि थे। वे राजदरबारी श्रेष्ठ कवि थे। उन्होंने राजाओं की प्रशंसा में अनेक कृतियों की रचना की। राजाओं की प्रशंसा करते हुए उन्होंने हिम्मत बहादुर विरुदावली, प्रतापसिंह विरुदावली और ‘जगत-विनोद’ की रचना की। समय की प्रबलता से जीवन के अन्तिम समय में उन्हें कुष्ठ रोग हो गया था। उस रोग की मुक्ति के लिए उन्होंने गंगाजी की स्तुति की। गंगा की स्तुति में उन्होंने गंगा-लहरी’ काव्य की रचना की। इस काव्यकृति की रचना करते हुए ही यहीं पर 80 वर्ष की उम्र में सन् 1833 ई. में उनका निधन हो गया।

  • साहित्य-सेवा

पद्माकर जी ने जीवन पर्यन्त साहित्य की अचूक सेवा की। राजदरबार में रहकर श्रेष्ठ काव्य-साहित्य की रचना करना अपने आप में एक बहत ऊँची साधना की। रीतिकालीन परम्पराओं का निर्वाह करते हुए उन्होंने अपने आश्रयदाता राजा-महाराजाओं की प्रशंसा करने में शृंगार प्रधान रचनाओं की सर्जना की। वे निरन्तर ही साहित्य सेवा में संलग्न रहे। रीति युग की विशेषताओं का समावेश पद्माकर की काव्य प्रणाली बन चुकी थी। श्रृंगार के दोनों ही पक्षों-संयोगावस्था व वियोगावस्था में नायक और नायिकाओं के चित्रण अद्वितीय काव्य कौशल से उभारे हैं। समय-समय पर अपनी काव्यकृतियों की भाव-व्यंजना के लिए पद्माकर जी को अन्य राजाओं ने पुरस्कृत करके सम्मानित भी किया।

पद्माकर अपनी साहित्य सेवाओं के लिए सदैव स्मरण किए जाते रहेंगे। उन्होंने अपने कवित्त छंद के प्रयोग के माध्यम से प्रकृति, प्रेम भक्ति और रूप का चित्रण किया है। उन्होंने अलौकिक भाव-भंगिमाओं के चित्र उकेरते हुए अपने मनोभावों की सूक्ष्मता को स्पष्ट किया है।

  • रचनाएँ

पद्माकर ने निम्नलिखित ग्रंथों की रचना की है। वे इस प्रकार हैं-

  1. पद्माभरण,
  2. जगत विनोद,
  3. आलीशाह प्रकाश,
  4. हिम्मत बहादुर विरुदावली,
  5. प्रतापसिंह विरुदावली,
  6. प्रबोध पचासा,
  7. गंगालहरी तथा
  8. राम रसायन।

पद्माकर के काव्य ग्रंथों की विषय-वस्तु-पद्माकर द्वारा प्रणीत ग्रंथ अपने आप में हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। इनके द्वारा कवि ने प्रकृति के विविध स्वरूपों का चित्र उकेरा है। इनका षट्ऋतु वर्णन बहुत ही प्रसिद्ध है। प्रत्येक ऋतु के प्रभाव और मानव-मन में उत्पन्न होते विकारों का बेलाग वर्णन पद्माकर जी की विविधतामयी बुद्धि कौशल की देन है। इसके अतिरिक्त पद्माकर ने प्रेम को ईश्वरीय रूप में प्रतिष्ठापित किया है। उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से सिद्धान्त निरूपति करते हुए कहा है कि-

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  1. लौकिक प्रेमानुभूति ही अलौकिक (ईश्वरीय) प्रेम की अनुभूति का आधार है।
  2. लौकिक प्रेम ही मानवीय रचनात्मकता से सीधा सम्बन्ध रखता है।
  • भाव-पक्ष

(1) प्रकृति चित्रण-पद्माकर ने अपने काव्य कौशल से प्रकृति के उद्भ्रान्त स्वरूप को षट्ऋतु वर्णन में अनेक अनुभूतियों के माध्यम से वर्णन करके प्रस्तुत किया है। प्रकृति और मानव सम्बन्धों की घनिष्ठता को काव्यभाषा ब्रजभाषा के प्रयोग से परिभाषित किया है।

(2) भक्ति-पद्माकर अपनी बढ़ती उम्र के पड़ाव पर पहुँचकर शारीरिक कष्टों से पीड़ित करने लगे। अत: उनका स्वाभाविक रूप से झुकाव ईश्वर और इष्ट-भक्ति की ओर हो चला था। पद्माकर की वैराग्य भावना का प्राकट्य उनकी अमर कृतियों-गंगा-लहरी, प्रबोध पचासा तथा राम रसायन में अपने आप ही हो चला है।

(3) रस-संयोजना-पद्माकर की सभी कृतियों में प्रेम का विस्तार और विकास भक्ति, वात्सल्य तथा दाम्पत्य भाव के अन्तर्गत हुआ है। प्रेम की पृष्ठभूमि ‘रति’ नामक स्थायी भाव से होती है। अतः कवि ने श्रृंगार रस का प्रयोग अपनी संयोग और वियोग की दोनों ही अवस्था में चरम तक पहुँचा दिया है। कवि द्वारा संयोगवस्था में प्रिय और प्रियतमा की रूप चेष्टा का वर्णन उनकी काव्य कला की अनुपम धरोहर बन चुकी है। इसके विपरीत वियोग की अवस्था में प्रिय से वियुक्त हुई प्रियतमा स्मृतिजन्य वेदना-व्यथा से व्यथित होती हुई प्रेम की केन्द्रीय भावभूमि में पहुँच चुकी होती है। इस प्रकार पद्माकर के काव्य में प्रेम और श्रृंगार का अनुभूतिपरक चित्रण हुआ है जो अनुपमेय है। उनके द्वारा किया गया प्रेम की एकान्तिक दशा तथा प्रेम परिपूर्ण बहानों का विवेचन इस बात को स्पष्ट करता है कि पद्माकर मनोभावों की सूक्ष्मता के पारखी थे।

  • कला-पक्ष

(1) भाषा-पद्माकर ने ब्रजभाषा में काव्य रचना की है। उनकी प्रारम्भिक रचनाओं में (कविता में) बुन्देली का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। इस बुन्देली के साथ ही कहीं उर्दू, फारसी के प्रचलित शब्दों का प्रयोग बहुत अधिक हुआ है। पद्माकर की भाषा परिष्कृत और बोझिल सी प्रतीत होती है। यद्यपि उन्हें भाषा पर अप्रतिम रूप से अधिकार प्राप्त था।
(2) शैली-पद्माकर एक राजदरबारी कवि थे अतः उनकी शैली वर्णन प्रधान थी। चित्रोपम वर्णन अपनी काव्यकृति के लिए उनकी अनूठी देन है। उन्होंने अलंकार प्रधान शैली का विकास स्वयं ही किया है। यह शैली प्रायः सभी राजदरबारी कवियों के काव्य में प्रतिष्ठापित हुई है। अतः यह परम्परागत शैली है जो रीतिकालीन काव्य की विशेषताओं में से एक अन्यतम विशेषता है।
(3) अलंकार-पद्माकर ने अपनी काव्य कृतियों में यथास्थान अलंकारों का प्रयोग किया है। अनुप्रास अलंकार उनका अति प्रिय अलंकार है। इसके प्रयोग के सौन्दर्य का अवलोकन एक ही उदाहरण से हो जाएगा

“कूलन में, केलिन में, कछारन में, कुंजन में।
क्यारिन में, कलिन कलीन किलकत हैं।।”

पद्माकर ने अनुप्रास के अतिरिक्त यमक, श्लेष, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का भी प्रयोग किया है। अनुप्रास के प्रयोग से ध्वनि चित्र खड़ा करने में पद्माकर अद्वितीय हैं।

(4) मुहावरे व लोकोक्तियाँ-पद्माकर की कविताओं में भाव को स्पष्टता प्रदान करने के उद्देश्य से मुहावरे और लोकोक्तियों का प्रयोग सफलता के साथ किया गया है। द्रष्टव्य है

“नैन नचाइ कही मुसकाइ, लला फिर आइयो खेलन होरी।” और
“अब तो उपाय एकौ चित्त पै चट्टै नहीं।।”

  • साहित्य में स्थान

पद्माकर निःसन्देह रीतिकाल के श्रेष्ठ कवियों में से एक थे। इनके द्वारा प्रयुक्त भाषा की विशेषता के सन्दर्भ में आचार्य रामचन्द्रशुक्ल ने लिखा है-“भाषा की सब प्रकार की शक्तियों (अभिधा व्यंजना आदि) पर इनका अधिकार स्पष्ट दीख पड़ता है। एक महान कवि की भाषा में अनेकरूपता हुआ करती है, उस सबका साक्षात् रूप पद्माकर की कविता में परिलक्षित होता है। आपने साहित्यिक अभिव्यक्ति और विकास की जो दिशा अपनी काव्यकृतियों के माध्यम से हिन्दी जगत को दिखाई है, उसके लिए अध्येता जगत आपका सदैव ऋणी रहेगा। वास्तविकता यह है कि पद्माकर रीतिकालीन परम्परा के उत्तरार्द्ध के प्रतिनिधि कवि हैं।

6. मतिराम

  • जीवन-परिचय

कविवर मतिराम के पिताजी का नाम रत्नाकर था। ये कानपुर के एक गाँव तिकवांपुर के रहने वाले थे। मतिराम के जन्म की निश्चित तिथि का निर्णय नहीं हो सका है। परन्तु इनका जन्म 17वीं शताब्दी में हुआ था। वे बूंदी के महाराज भावसिंह के दरबारी कवि थे। जन्मतिथि के समान ही मतिराम के निधन के सम्बन्ध में भी विवादास्पद स्थिति बनी हुई है।

मतिराम और भूषण दोनों ही सगे भाई थे। दोनों ही उच्चकोटि के कवि हुए। हिन्दी साहित्य में यह एक उदाहरण है। काव्य के क्षेत्र में इन दोनों (मतिराम और भूषण ने) ही ने उत्कृष्ट ख्याति प्राप्त की।

  • साहित्य-सेवा

मतिराम के काव्य के अनुशीलन से यह सिद्ध होता है कि उन्होंने उच्चकोटि की शिक्षा प्राप्त की होगी और श्रेष्ठ ग्रन्थों के प्रतिपादन में अपनी शास्त्रीय क्षमताओं का उपयोग किया। मतिराम ने कई ग्रंथों की रचना की है। उन सभी ग्रंथों में काव्य लक्षण निर्दिष्ट करते हुए विशिष्ट कवि कौशल को प्रदर्शित किया था। चमत्कार प्रदर्शन करने वाले लक्षण ग्रंथ हिन्दी साहित्य की अनूठी निधि हैं।

  • रचनाएँ

मतिराम ने कुल नौ ग्रंथों की रचना की है। लेकिन उनमें से कुल चार ग्रंथ ही उपलब्ध हैं, जो अग्रलिखित हैं

  1. फूल मंजरी,
  2. रसराज,
  3. ललित ललाम,
  4. मतिराम सतसई। (मतिराम सतसई में 703 दोहे सकंलित हैं।)

काव्य विषय-फूल मंजरी, रसराज, ललित ललाम उच्चकोटि के शास्त्रीय लक्षण ग्रंथ हैं। मतिराम सतसई में नीतिपरक दोहे हैं जिनमें व्यावहारिक पक्ष को स्पष्टता प्रदान की है। व्यवहार का उत्कृष्ट स्वरूप निखर आया है। लक्षण ग्रंथों में छंद, रस, काव्यांग, अलंकार प्रयोग की विधि, रूप सौन्दर्य वर्णन आदि प्रमुख विषय वस्तु रहे हैं।

  • भाव-पक्ष

(1) प्रेम-मतिराम ने अपनी काव्यकृति में सहज प्रेम के मर्मस्पर्शी चित्रों में जो भाव व्यक्त किए हैं, वे सभी सामान्य लोगों की सामान्य अनुभूति के अंग हैं।
(2) माधुर्य एवं रस प्रयोग-मतिराम की कविता में माधुर्यता सबसे अधिक है। ‘रसराज’ शीर्षक ग्रंथ में कवि ने रसों के प्रयोग किये हैं जिन्हें हम लाक्षणिकता से पूर्ण मान सकते हैं। श्रृंगार रस की भी प्रचुरता रही है। मतिराम का श्रृंगार वर्णन अद्वितीय है। संयोग और वियोग में मतिराम ने राधा-कृष्ण के माध्यम से श्रृंगार के विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों का मधुरिम चित्रण किया है। शील और सौन्दर्य चित्रण में कवि की विदग्धता परिलक्षित होती है।

  • कला-पक्ष
  1. भाषा-मतिराम की भाषा के विविध रूप दृष्टिगोचर होते हैं। उनकी भाषा विशुद्ध ब्रजभाषा है।
  2. शैली-मतिराम-रीतिबद्ध कवियों में शामिल किए जाते हैं। फिर भी इनकी कविता में कृत्रिमता नहीं है। काव्य में वास्तविक और व्यावहारिक शैली की प्रधानता होने से वर्णन प्रधान हो गई है। शैली में अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना आदि भाषायी शक्तियों का प्रयोग कवि ने अपनाया
  3. छन्द-योजना-कवि ने अपनी कृतियों में कवित्त, सवैया और दोहे आदि छन्दों का प्रयोग किया है। कवित्त और सवैया के माध्यम से उन्होंने अपने शास्त्रीय प्रयोग की उत्कृष्टता परिलक्षित कर दी है। उन्होंने छन्दों के प्रयोग में चमत्कार प्रदर्शन को दूर ही रखा है।
  4. अलंकार का चमत्कारपूर्ण प्रदर्शन-मतिराम अपनी सभी कृतियों के शब्द और अर्थ तथा अलंकार के प्रयोग में चमत्कारपूर्ण प्रदर्शन को अधिक पसन्द नहीं करते हैं। आपकी रचनाओं में अलंकारों का ही सर्वाधिक वर्णन किया गया है क्योंकि वे लक्षण ग्रन्थ हैं। अतः कविता में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, व्यतिरेक, अतिश्योक्ति आदि अलंकारों का प्रयोग उपयुक्त ही किया गया है। मतिराम का अलंकार विधान स्वाभाविक है। इससे उनकी रचना में सौन्दर्य की अभिवृद्धि हो गई है।

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  • साहित्य में स्थान

मतिराम रीतिकाल के शीर्षस्थ कवियों में माने जाते हैं। वे अपने सहज कृतित्व के लिए अति प्रसिद्ध हैं, इसलिए रीतिकालीन कवियों में उनका सबसे उच्च स्थान है। लक्षण ग्रन्थ के प्रणेता के रूप में सर्वत्र ख्याति प्राप्त व्यक्तित्व के धनी मतिराम हिन्दी साहित्य जगत में सदैव स्मरण किए जाते रहेंगे। वे अपने कर्त्तव्य कौशल से आचार्यत्व को प्राप्त महाकवि हैं।

7. कविवर वृन्द

  • जीवन-परिचय

रीतिकालीन परम्परा के अन्तर्गत कवि वृन्द का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। उनके नीति के दोहे बहुत प्रसिद्ध हैं। अन्य प्राचीन कवियों की भाँति वृन्द का जीवन परिचय भी प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत नहीं किया जा सकता।

पं. रामनरेश त्रिपाठी इनका जन्म सन् 1643 ई. में मथुरा (उत्तर प्रदेश) क्षेत्र के किसी गाँव का बताते हैं। परन्तु डॉ. नगेन्द्र का मत है कि कवि वृन्द का जन्म मेड़ता, जिला जोधपुर (राजस्थान) में हुआ था। इनका पूरा नाम वृन्दावन था। विद्याध्ययन के लिए इन्हें काशी भेज दिया गया। उस समय इनकी अवस्था सम्भवतः दस वर्ष की रही होगी। काशी में रहकर इन्होंने व्याकरण, साहित्य, वेदान्त तथा गणित दर्शन विषय का अध्ययन किया और ज्ञान प्राप्त किया। इसके साथ ही इन्होंने काव्य की रचना करना भी सीखना शुरू कर दिया। मुगल सम्राट औरंगजेब के दरबार में ये दरबारी कवि रहे। सन् 1723 ई. में इनको देहावसान हो गया।

  • साहित्य-सेवा

कवि वृन्द ने लोक जीवन का गहन अध्ययन करके काव्य में अपने अनुभवों का विशद विवेचन किया है। वृन्द के ‘बारहमासा’ में बारह महीनों का सुन्दर वर्णन मिलता है। भाव-पंचासिका’ में शंगार के विभिन्न भावों के अनुसार सरस छंद लिखे गए हैं। ‘शंगार-शिक्षा’ में नायिका भेद के आधार पर आभषण और अंगार के साथ नायिकाओं का चित्रण किया गया है। ‘नयन पचीसी’ में नेत्रों के महत्व का चित्रण है। छन्दों के लक्षणों के सन्दर्भ में ही इसी कृति में दोहा, सवैया और घनाक्षरी छन्दों का प्रयोग भी हुआ है। ‘नयन पचीसी’ में ऋतु वर्णन अत्यन्त आकर्षक है। हिन्दी में वृन्द के समान सुन्दर दोहे बहुत ही कम कवियों ने लिखे हैं। उनके दोहों का प्रचार शहरों से लेकर गाँवों तक में है। पवन पचीसी में षड्ऋतु वर्णन के अन्तर्गत वृन्द ने पवन के वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त और शिशिर ऋतुओं के स्वरूप और प्रभाव का वर्णन किया है।

उद्देश्य (ध्येय)-काव्य द्वारा जीवन को संस्कार युक्त बनाया जाता है। अगली पीढ़ियों तक जीवन के उच्च अनुभवों को संप्रेषित करने की शक्ति काव्य में होती है। जीवन जीना यदि एक कला है, तो इस कला की शिक्षा काव्य में समायी रहती है। व्यक्ति और समाज के स्वस्थ तालमेल में ही व्यक्ति के स्व-विकास का सही और उच्चकोटि की भूमिका निर्धारित होती है। इस तरह से जीवन-विकास की शिक्षा देने वाला काव्य ही नीतिपरक काव्य कहा जाता है। सभी युगों में कविता का जीवन-शिक्षा से गहरा सम्बन्ध रहा है। अत: कवि वृन्द ने अपने काव्य में नीति को स्थान दिया है।

विषय-वृन्द के दोहे जीवन शिक्षा के कोश हैं। उनका प्रत्येक दोहा जीवन के किसी न किसी अमूल्य अनुभव से परिपूर्ण है। प्रस्तुत दोहों में शिक्षाप्रद जीवन-सूत्रों को संकलित किया गया है। अवसर के अनुकूल बात कहना अति महत्वपूर्ण है। एक बार ही किसी को धोखा देकर सफलता प्राप्त की जा सकती है-बार-बार नहीं क्योंकि काठ की हाँड़ी एक बार ही चूल्हे पर चढ़ती है; फिर से चढ़ाने में तो वह अग्नि से नष्ट हो जाती है। वृन्द के दोहों की विषयवस्तु बहुत ही विस्तृत और विशद है। इसका प्रचलन जनसामान्य तक है।

  • रचनाएँ

कवि वृन्द की निम्नलिखित रचनाएँ अति महत्वपूर्ण हैं। इनके माध्यम से कवि ने काव्य रचना के अपने ध्येय की सम्पूर्ति की है। ये रचनाएँ इस प्रकार हैं

  1. बारहमासा,
  2. भाव पंचासिका,
  3. नयन पचीसी,
  4. पवन पचीसी,
  5. श्रृंगार शिक्षा,
  6. यमक सतसई। यमक सतसई में 715 दोहे हैं।

कवि वृन्द के द्वारा रचित दोहों को ‘वृन्द विनोद सतसई’ में संकलित किया गया है।

  • भाव-पक्ष
  1. नीति तत्त्व-कवि वृन्द ने अपनी कृतियों के अन्तर्गत नीति तत्त्व को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करके उन्हें आत्मविकास का पथ प्रदर्शित किया है। नीतिगत बात कहना, उसके अनुसार आचरण करना स्तुत्य होता है। ज्ञान प्राप्त करके प्रबुद्धजन समाज को विकास की दिशा निर्दिष्ट करते हैं।
  2. व्यावहारिक तत्त्व-कवि वृन्द ने अपने काव्य के माध्यम से व्यावहारिक पक्ष को उन्नत बनाये रखने की शिक्षा दी गई है।
  3. धैर्य गुण-धैर्यपूर्वक अपने कर्तव्य का निर्वाह करते रहने से जीवन सफलता की ओर अग्रसर होता रहता है।
    इस तरह कवि वृन्द ने अपनी कृतियों के द्वारा प्रतिदिन के व्यवहार में आने वाली महत्त्वपूर्ण बातों की शिक्षा देते हुए व्यक्ति और समाज के परस्पर सम्बन्धों को सापेक्षक बनाने का प्रयास किया है।
  4. रस-कवि वृन्द ने ‘भाव पंचासिका’ में श्रृंगार के विभिन्न भावों की अनुभूति कराने वाले छन्द लिखे हैं। नायिकाओं के श्रृंगार सम्बन्धी चित्रण अति मनमोहक बन पड़े हैं जिनके द्वारा संयोग और वियोग की अवस्थाओं की अभिव्यक्ति विषय और वातावरण के अनुकूल हुई है। नीति व व्यवहारपरक दोहों में शान्त रस का परिपाक हुआ है।
  5. प्रकृति चित्रण-कवि के द्वारा अपने ‘बारहमासा’ में बारह महीनों का सुन्दर वर्णन किया गया है। प्रत्येक महीने के बदलते स्वरूप का चित्रण मनुष्य के जीवन चक्र को प्रदर्शित करता है।
  • कला-पक्ष
  1. भाषा-कवि वृन्द के अपने काव्य में ब्रजभाषा के मिश्रित रूप को अपनाया है, जो आंचलिक शब्दावली से परिनिष्ठित है। भाषा के आंचलिक प्रयोग कवि के भाव को पाठकों तक सम्प्रेषित करने में पूर्ण सक्षम हैं। कवि के सूक्ष्मदर्शी व्यक्तित्व को उनकी भाषा पूर्णतः अभिव्यक्ति देने में सफल सिद्ध है। ब्रजभाषा के माध्यम से अपने काव्य में लोक जीवन को, अपने अनुभवों को, नीति भक्ति और लोकदर्शन आदि का विशद विवेचन प्रस्तुत किया है।
  2. शैली-वृन्द की रचनाएँ रीति परम्परा की हैं। उनकी ‘नयन-पचीसी’ युगीन परम्परा से जुड़ी हुई कृति है। इनकी कृतियों में किसी भी व्यवहार तत्त्व को सहज-सरस अभिव्यक्ति देकर लोकोक्ति का स्वरूप दे दिया गया है। जिसका प्रभाव सामान्य लोक जीवन पर प्रत्यक्ष रूप से देखा गया है। अलंकार प्रधान शैली को बारहमासा और षड्ऋतु वर्णन में अपनाया गया है। वस्तुतः वृन्द ने नीति शैली, आलंकारिक शैली, सूत्रशैली का प्रयोग अपने सम्पूर्ण काव्य में किया है।
  3. छन्द-कवि वृन्द का सर्वप्रिय छंद दोहा है। लेकिन दोहा के अतिरिक्त उन्होंने सवैया, घनाक्षरी छन्दों का भी प्रयोग किया है। इन छन्दों के प्रयोग से एवं विषयवस्तु के प्रतिपादन की शैली से कवि वृन्द के आचार्यत्व गुण व विशेषता का आभास होता है।।
  4. अलंकार-कवि वृन्द का यमक अलंकार के प्रति अत्यधिक झुकाव है। उन्होंने अपनी ‘यमक-सतसई’ में यमक अलंकार के विविध स्वरूप को अनेक प्रकार से स्पष्टता प्रदान की है। इस प्रकार से ‘यमक-सतसई’ लक्षण ग्रंथ ही है।
  • साहित्य में स्थान

कवि वृन्द ने अपने दोहों में लोक व्यवहार के अनेक अनुकरणीय सिद्धान्तों का उल्लेख किया है। उनकी रचनाएँ रीतिबद्ध परम्परा में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। उनकी रचनाओं में सरसता-सरलता, अभिव्यक्ति की सहजता एवं वाणी की विदग्धता विद्यमान है। अपनी साहित्यिक सेवा के लिए रीतिकाल के सभी कवियों में कविवर वृन्द अपना विशेष स्थान रखते हैं।

8. रहीम

  • जीवन-परिचय

रहीम का जन्म सन् 1556 ई. में हुआ था। इनका पूरा नाम अब्दुर्रहीम खानखाना था। वे अकबर के अभिभावक सरदार बैरम खाँ खानखाना के पुत्र थे। रहीम जी अकबर के एक मनसबदार थे और दरबार के नवरत्नों में प्रमुख थे। मुगल साम्राज्य के लिए इन्होंने अनेक युद्ध लड़े थे। परिणामतः अनेक प्रदेशों में जीत भी प्राप्त की थी। जागीर में इन्हें बड़े-बड़े सूबे और किले मिले हुए थे। किन्तु अकबर की मृत्यु के बाद जहाँगीर ने इन्हें राजद्रोही ठहराया और बन्दी बनाकर जेल में डाल दिया था। उनकी जागीरें जब्त कर ली गई थीं। इनकी मृत्यु सन् 1626 ई. में हो गयी।

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  • साहित्य-सेवा

रहीम हिन्दी साहित्य की दिव्य विभूति हैं। उनकी वाणी में जो माधुर्य है, वह हिन्दी के बहुत थोड़े कवियों की रचनाओं में मिलता है। वे हिन्दी के ही नहीं, फारसी और संस्कृत के भी विद्वान थे। हिन्दी में वे अपने दोहों के लिए प्रसिद्ध हैं। इन दोहों में नीति, ज्ञान, श्रृंगार और प्रेम का इतना सुन्दर समन्वय हुआ है कि मानव हृदय पर उसका बहुत गहरा और स्थायी प्रभाव पड़ता है। अपनी विविध आयामी सेवाओं से रहीम ने हिन्दी साहित्य की सेवा की है। उनकी साहित्यिक सेवाओं से हिन्दी साहित्य विकसित होकर पुष्ट भी हुआ है। . विषय तथा उद्देश्य-रहीम की कविता का विषय नीति और प्रेम है। अनेक सूक्तियों और नीति सम्बन्धी दोहे आज भी मनुष्य जाति का पथ-प्रदर्शन करते हैं। रहीम की मित्रता उस समय के लोक कवि एवं लोकनायक तुलसीदास जी से थी।

रहीम के दोहों की विषयवस्तु विविधता लिए हुए है। रहीम जी ने भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, धर्म, नीति, सत्संग, प्रेम, परिहास, स्वाभिमान आदि सभी विषयों पर सफलतापूर्वक अपने भावों को अपने छोटे से दोहा छंद में अभिव्यक्ति दी है। इस्लामी सभ्यता के परिवेश में रहीम जी का परिपालन और पोषण हुआ, परन्तु भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति रखते थे। तात्पर्य यह है कि रहीम जी हिन्दू संस्कृति, सभ्यता, दर्शन और धर्म तथा विश्वासों के प्रति निष्ठावान् थे।

रहीम की लोकप्रियता-रहीम, वस्तुतः अपने नीति के दोहों के लिए ही हिन्दी भाषा-भाषी जनता में अत्यधिक लोकप्रिय हैं। अपने नीति के दोहों में वह एक शिक्षक और उपदेशक के रूप में हमारे सामने आते हैं। उन्होंने अपने भावों की अभिव्यक्ति सरल, सुबोध शब्दों में की है।

  • रचनाएँ

रहीम की निम्नलिखित काव्य कृतियाँ बहुत ही प्रसिद्ध हैं

  1. रहीम सतसई-यह रहीम के नीति परक दोहों का संग्रह है। इन दोहों में जीवन के भिन्न-भिन्न क्षेत्र से सम्बन्धित नीतियों का प्रतिपादन किया गया है। अभी तक इसके तीन सौ के लगभग दोहे प्राप्त हुए हैं।
  2. शृंगार सतसई-यह शृंगार प्रधान काव्य रचना है। अभी तक इसके कुल छः छन्द ही उपलब्ध हुए हैं।
  3. मदनाष्टक-इसमें कृष्ण और गोपिकाओं की प्रेममयी लीलाओं का भावपूर्ण वर्णन किया गया है।
  4. बरवै नायिका भेद-यह 115 छन्दों का नायिका भेद पर लिखित ग्रंथ है। सम्भवतः यह हिन्दी का सबसे पहला काव्य ग्रंथ है।

उपर्युक्त के अतिरिक्त रहीम की अन्य रचनाओं में-श्रृंगार सोरठा, रास-पञ्चाध्यायी, नगर शोभा, फुटकल बरवै तथा फुटकल कवित्त सवैये भी प्रसिद्ध हैं।

  • भाव-पक्ष
  1. हृदय पक्ष की प्रधानता-रहीम भक्ति एवं नीति के प्रसिद्ध कवि हैं। वे भगवान कृष्ण के अनन्य उपासक थे। इनकी कविता में हृदयपक्ष की प्रधानता तथा भाव अभिव्यंजना की अपूर्व शक्ति मिलती है।
  2. काव्यगत मार्मिकता-रहीम जी अपने जीवन में सरल, सरस और उदार प्रकृति के बने रहे, उसी तरह इनकी कविता में भी सरलता एवं मार्मिकता के दर्शन होते हैं। इनकी कविताएँ हृदय की सच्ची अनुभूति से सम्पुक्त अभिव्यक्ति हैं। इस कारण वे अत्यन्त आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक
  3. नीति, श्रृंगार और प्रेम का समन्वय-रहीम काव्य क्षेत्र में अत्यन्त कौशल प्राप्त विद्वान कवि थे और कृष्ण उपासक भी। इनके काव्य में गहरे अनुभवों की छाप सर्वत्र मिलती है, विशेषतः दोहों में। इनके दोहे संवेदनशील हृदय की मार्मिक उक्तियाँ हैं। इनमें नीति, श्रृंगार और प्रेम का बहुत सुन्दर समन्वय हुआ है।
  • कला-पक्ष
  1. भाषा-रहीम ने ब्रजभाषा और अवधी दोनों ही भाषाओं में काव्य-रचना की है। उनका दोनों भाषाओं पर समान अधिकार है। वे हिन्दी, संस्कृत, अरबी और फारसी के उच्चकोटि के विद्वान थे। अतः इन सभी भाषाओं के शब्दों की आवृत्ति इनकी रचनाओं में खूब होती रही है।उनकी भाषा में बाह्य आडम्बर अथवा पाण्डित्य प्रदर्शन की भावना नहीं है। उसमें स्वाभाविक सौन्दर्य है। उनकी भाषा, परिमार्जित, परिष्कृत और माधुर्य गुण प्रधान है।
  2. शैली-रहीम की शैली सरल, सरस और सुबोध है। उनकी शैली अपने अनुभवजन्य रत्नों से परिपूर्ण है। भावों की व्यंजना करना इनकी शैली की अप्रतिम विशेषता है।
  3. रस-रहीम के काव्य में शृंगार, शान्त एवं हास्य रसों की निष्पत्ति सर्वत्र होती है। उन्होंने श्रृंगार रस के दोनों ही पक्षों-वियोग व संयोग का चित्रण बहुत ही अनूठे ढंग से किया है।
  4. अलंकार-रहीम की रचनाओं में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त आदि अलंकारों का विशेष रूप से प्रयोग हुआ है।
  5. छन्द-दोहों को छोड़कर रहीम ने बरवै, कवित्त, सवैया, सोरठा, पद आदि सभी छन्दों में रचनाएँ की हैं। बरवै छन्द के तो वे जनक ही कहे जाते हैं।
  6. मुहावरे व लोकोक्तियाँ-रहीम ने अपनी रचनाओं में मुहावरे और लोकोक्तियों का भी प्रयोग किया है जिससे विषय बोध में सरलता हो गई है।
  • साहित्य में स्थान

हिन्दी साहित्य में रहीम की रचनाएँ प्रत्येक हिन्दी भाषा-भाषी का पथ प्रशस्त करती रहेंगी। कवित्व क्षेत्र में दिया गया उनका योग अविस्मरणीय है।

9. सेनापति

  • जीवन-परिचय

हिन्दी काव्य के प्रांगण में प्रकृति-चित्रण की अनुपम छटा बिखेरने वाले कवियों में सेनापति का नाम अत्यन्त आदर के साथ लिया जाता है। सेनापति की प्रमाणित जीवनी अन्य अनेक प्राचीन कवियों की भाँति उपलब्ध नहीं है। उनके जीवन के विषय में कुछ सूचनाएँ उन्हीं के द्वारा लिखित एक कवित्त के आधार पर उपलब्ध हैं, जिसके अनुसार उनका जन्म उत्तर प्रदेश में गंगा के तट पर स्थित अनूपशहर (बुलन्दशहर जनपद) में सन् 1589 के आस-पास हुआ था। इनके पिता गंगाधर दीक्षित थे। इनके पितामह परशुराम दीक्षित ने इन्हें हीरामणि दीक्षित नामक किसी काव्यज्ञ से काव्यशास्त्र की शिक्षा में दीक्षित करवाया। आश्चर्य है कि सेनापति ने अपने वास्तविक नाम का उल्लेख कहीं नहीं किया है। सेनापति उनका उपनाम था, जिसका उपयोग उन्होंने अपनी कविता में किया है। उनकी रचनाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि वे कई राजाओं और नवाबों के दरबार में रहे थे। उनके आश्रयदाताओं ने उन्हें पर्याप्त सम्मान भी दिया था। जीवन के अन्तिम दिनों में वे विरक्त होकर वृन्दावन में रहने लगे थे। उन्होंने लिखा है सेनापति चाहता है सफल जनम करि।

वृन्दावन सीमा तें बाहर न निकसिबो। सेनापति का निधन सन् 1649 ई. में हुआ था। साहित्य-सेवा कविवर सेनापति रीतिकाल के उल्लेखनीय और विशिष्ट कवियों की श्रेणी में आते हैं। उन्होंने मानव सहचरी प्रकृति का चित्रण अपने सूक्ष्म निरीक्षण के आधार पर किया है। सेनापति ने प्रकृति की बदलती छवियों का मनोहारी दिग्दर्शन अपने कलात्मक परिवेश में कराया है। अपने द्वारा रचित ग्रन्थों में संवेदनाओं से भरपूर हृदय वाले कवि सेनापति ने अपने काव्य में हमारी जीवन पद्धति को चित्रांकित कर यह उपदेश दे दिया है कि परिवर्तन का यह दिशाचक्र बिना रुके मानव को गतिशील बनाए रखता है। क्योंकि गतिशीलता ही जीवन है, तो गतिहीनता मृत्यु।

ध्येय-कवि का कर्तृत्व (काव्य) सोद्देश्य होता है। प्रकृति ने मनुष्य की संवेदनाओं को विस्तार दिया है और प्रकृति ही मनुष्य के भाव जगत को व्यापकता प्रदान करती है। आलम्बन और उद्दीपन रूप में अभिव्यक्त प्रकृति मनुष्य को अपने उदार भावों-दयालुता, धीरता, उद्देश्य की दृढ़ता एवं आत्म-क्षमताओं का विकास करने का सदुपदेश देकर एक शिक्षक और हितोपदेशक का कार्य करती है। इसी ध्येय से कवि ने अपने द्वारा रचित काव्य में अपने काव्य-कौशल का दिग्दर्शन कराया है।

  • रचनाएँ

इनकी दो रचनाएँ मानी जाती हैं-‘काव्यकल्पद्रुम’ और ‘कवित्त रत्नाकर’। पहली रचना अप्राप्य है। ‘कवित्त रत्नाकर’ में पाँच तरंगें हैं और कुल 394 छन्द हैं। पहली तरंग में श्लेष, दूसरी में श्रृंगार, तीसरी में ऋतु वर्णन, चौथी में रामकथा और पाँचवीं में भक्ति विषयक पद संकलित हैं।

  • भाव-पक्ष

(1) भक्ति भावना-सेनापति की कविताओं में उनकी भक्ति-भावना प्रकट हुई है। वे अपनी भक्ति-भावना के क्षेत्र में वैष्णव-सम्प्रदाय से बहुत प्रभावित थे। वे राम के अनन्य भक्त थे। किन्तु कृष्ण और शिव से भी उन्हें प्रेम था। वैष्णव-भक्त कवियों की भाँति वे गंगा में आस्था रखते थे।
(2) रस-कवि सेनापति ने अपनी कविताओं में रसोत्कर्ष पर ध्यान दिया है। उनमें रस निष्पत्ति भरपूर हुई है। कहीं-कहीं उनके काव्य में रसानुभूति का प्रवाह कुछ मन्द हुआ है, क्योंकि वहाँ अलंकारों का उत्कर्ष और चमत्कार बढ़ गया है। उनके काव्य में शृंगार, भक्ति और वीर रस की प्रधानता है। उन्होंने शृंगार के दोनों पक्षों का निरूपण बहुत गम्भीरता से किया है।

द्रष्टव्य है-

आयो सखि सावन, विरह सरसावन।
लग्यौ है बरसावन, सलिल चहु और तै।।

(3) ऋत वर्णन-सेनापति के काव्य की विशेषता है उनका ऋत वर्णन। रीतिकाल के कवियों ने ऋतु वर्णन उद्दीपन-विभाव के अन्तर्गत किया है। किन्तु सेनापति ने ऋतु वर्णन आलम्बन विभाग के अन्तर्गत किया है। आलम्बन विभाव के अन्तर्गत प्रकृति के स्वतन्त्र रूप का चित्रण किया जाता है। उस पर नायक अथवा नायिका की भावनाओं का आरोप नहीं है। सेनापति ने अपने ऋतु वर्णन में अपने देश की छ: ऋतुओं को स्थान दिया है और वर्ण्य वस्तुओं की संश्लिष्ट योजना की है।

(4) प्रकृति चित्रण-प्रकृति चित्रण सेनापति की अपनी एक विशिष्टता है। कवि स्वयं प्रकृति की प्रत्येक क्षण बदलती छवि पर मन्त्रमुग्ध प्रतीत होता है। उनके द्वारा रचित कवित्तों में प्रकृति के स्वरूप को इस तरह प्रस्तुत किया है-द्रष्टव्य है

“मेरे जान पौनों,
सीरी ठौर को पकरि कौनों,
घरी एक बैठि कहूँ घामै बितवत है।”
“कातिक की राति थोरि-थोरि सियराति।”

  • कला-पक्ष

(1) भाषा-सेनापति ने साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। उनकी ब्रजभाषा के मुख्यतः दो रूप हैं-

  • क्लिष्ट ब्रजभाषा,
  • सरल ब्रजभाषा।

उन्होंने क्लिष्ट ब्रजभाषा का प्रयोग क्लिष्ट रचनाओं में किया है, जबकि चलती हुई एवं सरल ब्रजभाषा का प्रयोग उनकी रस-प्रधान रचनाओं में अनुभूत है। संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ ही आपने अरबी और फारसी के शब्दों का भी प्रयोग किया है। वे अपनी भाषा में शब्दों की तोड़-मरोड़ कभी नहीं करते। ओज, प्रसाद और माधुर्य उनकी भाषा में सर्वत्र देखे जा सकते हैं। उनकी भाषा सरल, सरस, कर्णप्रिय
और सुबोध है। कवि ने अनेक ध्वन्यात्मक शब्दों का आविष्कार किया है, जिनसे काव्य में संगीतात्मकता उत्पन्न हो गई है।

(2) शैली-सेनापति की शैली की दृष्टि से उनकी रचनाओं को दो रूपों में बाँटा जा सकता है-

  1. भावात्मक,
  2. वर्णनात्मक।

भावात्मक शैली में उन्होंने अनुभूतियों का और वर्णनात्मक शैली में घटनाओं, ऋतुओं, दृश्यों आदि का चित्रण किया है। इन दोनों प्रकार की शैलियों की भाषा अलंकार प्रधान है।

(3) अलंकार-सेनापति काव्य के क्षेत्र में अलंकारवादी सम्प्रदाय से प्रभावित थे। उनके अलंकारवादी होने का तात्पर्य यह नहीं कि उन्होंने रस के उत्कर्ष पर ध्यान नहीं दिया हो। इनकी रचनाओं में अलंकारों का उत्कर्ष है एवं चमत्कार से परिपूर्ण हैं। परन्तु यह कहा जाता है कि जिन रचनाओं में अलंकारों की चकाचौंध है, उनमें रस का प्रवाह बहुत ही मन्द है। सेनापति का सबसे प्यारा अलंकार श्लेष है। अनुप्रास, यमक, प्रतीप, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, भ्रान्तिमान, सन्देह और श्लेष आदि अलंकारों से उनकी कविता जगमगाती है।

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(4) छन्द-सेनापति के छन्दों में मनहरण कवित्त ही सर्वाधिक लोकप्रिय है। इसके अतिरिक्त उन्होंने घनाक्षरी, छप्पय और दोहे भी लिखे हैं।

  • साहित्य में स्थान

रीतिकालीन कवियों में प्रचलित परम्परा से हटकर काव्य रचना करने वाले कवियों में सेनापति का विशिष्ट स्थान है। आपका प्रकृति चित्रण तो अप्रतिम है। सेनापति की कविता शब्द चमत्कार तथा उक्ति वैचित्र्य की दृष्टि से अन्य कवियों के बीच सहज ही पहचानी जा सकती हैं। आपका ऋतु वर्णन हिन्दी साहित्य में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। इन सभी विशेषताओं के कारण हिन्दी जगत अपने आपको आपके द्वारा बहुत ही उपकृत समझता है। हिन्दी साहित्य में आपका नाम सदैव स्मरण किया जाता रहेगा।

10. सुमित्रानन्दन पन्त।
[2009, 11, 13, 17]

  • जीवन-परिचय

प्रारम्भ में छायावादी फिर प्रगतिवादी और अन्त में आध्यात्मवादी सुमित्रानन्दन पन्त का जन्म हिमालय की अनन्त सौन्दर्यमयी प्रकृति की गोद में बसे कर्माचल प्रदेश (अल्मोड़ा जिला) के कौसानी नामक ग्राम में सन् 1900 ई. (संवत् 1957 वि.) में हुआ था। जन्म के कुछ समय बाद इनकी माता सरस्वती देवी का देहावसान हो गया था। मातृहीन बालक ने प्रकृति माँ की गोद में बैठकर घण्टों तक चिन्तनलीन होना सीख लिया। इससे आभ्यन्तरिक विचारशीलता का संस्कार विकसित होने लगा। अपने गाँव और अल्मोड़ा के शासकीय हाईस्कूल से प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की और काशी से मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। सेन्ट्रल म्योर कॉलेज में एफ. ए. की कक्षा में अध्ययनरत सुमित्रानन्दन पन्त सन् 1921 ई. गाँधी जी के प्रस्तावित असहयोग आन्दोलन में शामिल हो गए। कॉलेज पढ़ाई छूट गई। बाद में स्वाध्याय से ही अंग्रेजी, संस्कृत एवं बंगला साहित्य का गहन अध्ययन किया। 29 सितम्बर, सन् 1977 ई. को प्रकृति का गीतकार हमारे बीच से उठ गया।

  • साहित्य-सेवा

इनका बचपन का नाम गुसाई दत्त था। कविता करने की रुचि बचपन से ही थी। इनकी प्रारम्भिक कविता ‘हुक्के का धुंआ’ थी। काव्य की निरन्तर साधना से शीर्षस्थ कवियों में प्रतिष्ठित हुए। कालाकांकर नरेश के सहयोगी रहे। ‘रूपाभ’ पद के सम्पादक का कार्य सफलतापूर्वक किया। बाद में सन् 1950 ई. में आकाशवाणी में अधिकारी बने। अविवाहित पन्त ने सारा जीवन साहित्य साधना में ही समर्पित कर दिया। साहित्य साधना के लिए भारत सरकार ने ‘पद्म-भूषण’ की उपाधि से अलंकृत किया। इन्हें साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ पुरस्कार भी प्राप्त हुए।

पन्त जी हिन्दी की नई धारा के जागरूक कवि और कलाकार हैं। प्रकृति सुन्दरी की गोदी में जन्म लेने तथा विद्यार्थी जीवन में अंग्रेजी कवि शैली, कीट्स, वर्ड्सवर्थ की स्वच्छन्द प्रवृत्तियों से अत्यधिक प्रभावित होने के कारण वे नई दिशा में अग्रसर हो गए। वे प्रकृति और जीवन की कोमलतम विविध भावनाओं के कवि हैं। प्रकृति की प्रत्येक छवि को, जीवन के प्रत्येक रूप को उन्होंने आत्म-विभोर और तन्मय होकर देखा है। उनके काव्य में दो धाराओं का समावेश हो गया है-एक में उनके कवि हृदय का स्पन्दन है, तो दूसरी में विश्व जीवन की धड़कन।

ध्येय-मुख्य रूप से पन्त जी दृश्य जगत के कवि हैं। पहले वे प्राकृतिक सौन्दर्य के कवि थे। बाद में, वे जीवन सौन्दर्य के कवि के रूप में बदल गए। पन्त जी विश्व में ऐसा समाज चाहते हैं जो एक-दूसरे के सुख-दुःख का सहगामी हो सके। पन्त की पंक्तियों में झाँककर देखिए-

“जग पीड़ित रे अति दुःख से, जग पीड़ित रे अति सुख से।
मानव जग में बट जाए, दुःख-सुख से और सुख-दुःख से।।”

  • रचनाएँ

पन्त जी की रचनाएँ निम्नलिखित हैं

  1. वाणी-प्रेम, सौन्दर्य और प्रकृति चित्रों से युक्त प्रथम रचना।
  2. पल्लव-छायावादी शैली पर आधारित काव्य संग्रह।
  3. गुञ्जन-सौन्दर्य की अनुभूति प्रधान गम्भीर रचना।
  4. युगान्त,
  5. युगवाणी,
  6. ग्राम्य-प्रगतिशील विचारधारा की मानवतावादी कविताएँ,
  7. स्वर्ण किरण,
  8. स्वर्ण धूलि,
  9. युगपथ,
  10. उत्तरा,
  11. अतिमा,
  12. रजत-रश्मि,
  13. शिल्पी,
  14. कला और बूढ़ा चाँद,
  15. चिदम्बरा,
  16. रश्मिबन्ध,
  17. लोकायतन महाकाव्य आदि उनके काव्य संग्रह हैं।।

उपर्युक्त के अतिरिक्त ‘ग्रन्थि’ (खण्डकाव्य), ज्योत्सना, परी, रानी आदि नाटक, हाट’ (उपन्यास), पाँच कहानियाँ (कहानी संग्रह), मधु ज्वाल’ उमर खैयाम की रूबाइयों का अनुवाद, तथा ‘रूपाभ’ पत्र का सम्पादन उनकी प्रतिभा का प्रमाण है।

उपाधि एवं पुरस्कार-लोकायतन-महाकाव्य है-उ. प्र. सरकार द्वारा दस हजार रुपये से पुरस्कृत।
‘कला और बूढ़ा चाँद’ पर साहित्य अकादमी का पाँच हजार रुपये से पुरस्कृत। ‘चिदम्बरा’ पर एक लाख रुपए का पुरस्कार ज्ञानपीठ द्वारा दिया गया। ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त करने वाले हिन्दी के सबसे पहले कवि थे पन्त जी। भारत सरकार ने ‘पद्य भूषण’ की उपाधि से अलंकृत किया।

  • भाव-पक्ष

(1) सुकुमार भावना और कोमल कल्पना-पन्त जी स्वभाव से अत्यन्त कोमल और सुकुमार स्वभाव थे। अतः उन्होंने अपने काव्य में कोमल बिम्बों का ही विधान किया है। उन्हें ‘कोमल भावनाओं का सुकुमार कवि’ कहा जाता है।
(2) वेदना की अनुभूति-पन्त के अनुसार कविता विरह से उठा हुआ गान होती है।

“वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान।
उमड़ कर नयनों से चुपचाप, वही होगा कविता अनजान।।”

(3) प्रकृति का सजीव चित्रण-पन्त जी का सारा जीवन प्रकृति की गोद में बीता, अतः प्रकृति के साथ ही उन्होंने भावात्मक तल्लीनता स्थापित कर ली। पन्त जी की कविता में प्रकृति के रूप, रंग, रस, गन्ध, ध्वनि तथा गति के चित्र प्राप्त होते हैं। गंगा में उतराती नाव का गतिमय चित्र प्रस्तुत है

‘मृदु मन्द-मन्द, मन्थर-मन्थर।
लघु तरणि हंसिनी-सी सुन्दर,
तिर रही खोल पालों के पर।।’

पन्त जी ने प्रकृति में आलम्बन, उद्दीपन, मानवीकरण और एक उपदेशिका के रूप को देखा है। इस तरह वे प्रकृति के अप्रतिम चितेरे हैं।

(4) प्रेम और सौन्दर्य का चित्रण-चिरकुमार कवि पन्त जी की कविता छायावादी है। इन्होंने प्रेम की भावना को और सूक्ष्म भावों के चित्रों को काव्य में उभारा है। संयोग और वियोग की अनुभूतियाँ भी चित्रोपम हैं।
(5) रहस्य भावना-अज्ञात और दिव्य सत्ता के प्रति जिज्ञासा को अपने ‘मौन-निमंत्रण’ में कहते हैं न जाने कौन, अये द्युतिमान आन मुझको अबोध अज्ञान।

सुझाते हो तुम पथ अनजान।
फेंक देते छिद्रों में गान।’
यह जिज्ञासा ही उनके रहस्यवाद की द्योतक है।

(6) मानवतावादी दृष्टिकोण-कवि मानव के आन्तरिक और बाह्य रूप पर अपनी दृष्टि डालते हैं

“सुन्दर है विहग, सुमन सुन्दर,
मानव तुम सबसे सुन्दरतम।।”

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(7) नारी के प्रति सहानुभूति-चिर पीड़िता नारी के प्रति अनन्त करुणा और सहानुभूति द्रष्टव्य है
“मुक्त करो नारी को मानव ! चिर वन्दिनी नारी को।”

(8) प्रगतिवाद-पन्त जी पर कार्ल मार्क्स का प्रभाव था। वे आदर्शों के आकाश से ठोस धरती पर उतरकर आने का स्वर-‘युगान्त’, ‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ में गुंजायमान करते हैं।
(9) दार्शनिकता-पन्त जी ने जीवन, जगत् और ईश्वर पर अपने दार्शनिक विचार व्यक्त किये हैं।

  • कला-पक्ष
  1. सशक्त भाषा-पन्त जी का भाषा कोमलकान्त पदावली से युक्त, सहज और सुकुमार है। उसमें चित्रमयता, लालित्य और ध्वन्यात्मकता विद्यमान है। माधुर्य प्रधान अनूठा शब्द चयन है। भावानुसार भाषा कोमलता को त्यागकर भयानकता को प्राप्त हो उठती है।
  2. छायावादी लाक्षणिक शैली-छायावाद से प्रभावित इनकी रचनाओं में लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता, ध्वन्यात्मकता तथा सजीव बिम्ब-विधान सर्वत्र द्रष्टव्य है।
  3. स्वाभाविक अलंकरण-इनकी रचनाओं में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, श्लेष, यमक, रूपकातिशयोक्ति एवं अन्योक्ति अलंकारों का मौलिक प्रयोग किया गया है। मानवीकरण, विशेषण विपर्यय, ध्वन्यार्थ व्यंजना आदि नवीन अलंकारों का बहुत सुन्दर प्रयोग हुआ है।
  4. लय प्रधान छन्दों की योजना-पन्त जी ने अपनी कविताओं में तुकान्त और अतुकान्त सभी प्रकार के परम्परागत व नवीन छन्दों का प्रयोग किया है। उनके छन्दों में लय है एवं संगीत तत्व की प्रधानता है।

साहित्य में स्थान पन्त जी का काव्य, भाव और कला दोनों पक्षों में सशक्त और समृद्ध है। भाव कल्पना, चिन्तन, कला सभी दृष्टियों से काव्य उत्कृष्ट है। आधुनिक हिन्दी साहित्य के शीर्षस्थ कवियों में पन्त जी का अति महत्वपूर्ण स्थान है।

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MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 9 ठोसों के यांत्रिक गुण

MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 9 ठोसों के यांत्रिक गुण

ठोसों के यांत्रिक गुण अभ्यास के प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 9.1.
4.7 m लम्बे व 3.0 x 10-5 m2अनुप्रस्थ काट के स्टील के तार तथा 3.5 m लंबे व 4.0 x 10-5m2 अनुप्रस्थ काट के ताँबे के तार पर दिए गए समान परिमाण के भारों को लटकाने पर उनकी लंबाइयों में समान वृद्धि होती है। स्टील तथा ताँबे के यंग प्रत्यास्थता गुणांकों में क्या अनुपात है?
उत्तर:
दिया है: स्टील के तार के लिए
तार की लम्बाई, I1 = 4.7 m
अनुप्रस्थ काट का क्षेत्रफल
a1 = 3.0 × 10-5 m2
माना लम्बाई में वृद्धि,
∆I2 = ∆l; F2 = F
माना स्टील व ताँबे के तार के यंग प्रत्यास्थता गुणांक Y1, व Y2 हैं।
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 9 ठोसों के यांत्रिक गुण img 1
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 9 ठोसों के यांत्रिक गुण img 2

प्रश्न 9.2.
नीचे चित्र में किसी दिए गए पदार्थ के लिए प्रतिबल – विकृति वक्र दर्शाया गया है। इस पदार्थ के लिए –
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 9 ठोसों के यांत्रिक गुण img 3
(a) यंग प्रत्यास्थता गुणांक तथा –
(b) सन्निकट पराभव सामर्थ्य क्या है?
उत्तर:
(a) ग्राफ पर स्थित बिन्दु P पर विकृति, E = 0.002
प्रतिबल, σ = 150 × 106 न्यूटन/मीटर2
सूत्र यंग प्रत्यास्थता गुणांक, Y = \(\frac{σ}{E}\) से
y = \(\frac { 150\times 10^{ 6 } }{ 0.002 } \)
= 7.5 × 1010 न्यूटन/मीटर2
(b) परास व सामर्थ्य = ग्राफ के उच्चतम बिन्दु के संगत प्रतिबल
= 290 × 106 न्यूटन प्रति मीटर 2

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प्रश्न 9.3.
दो पदार्थों A और R के लिए प्रतिबल-विकृति ग्राफ चित्र में दर्शाए गए हैं।
इन ग्राफों को एक ही पैमाना मानकर खींचा गया है।

  1. किस पदार्थ का यंग प्रत्यास्थता गुणांक अधिक है?
  2. दोनों पदार्थों में कौन अधिक मजबूत है?

MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 9 ठोसों के यांत्रिक गुण img 4

उत्तर:

  1. ∵ पदार्थ A के ग्राफ का ढाल दूसरे ग्राफ की तुलना में अधिक है; अत: पदार्थ A का यंग गुणांक अधिक है।
  2. दोनों ग्राफों पर पराभव बिन्दुओं की ऊँचाई लगभग बराबर है परन्तु पदार्थ A के ग्राफ, पदार्थ B की तुलना में प्लास्टिक क्षेत्र अधिक सुस्पष्ट है; अत: पदार्थ A अधिक मजबूत है।

प्रश्न 9.4.
निम्नलिखित दो कथनों को ध्यान से पढ़िये और कारण सहित बताइये कि वे सत्य हैं या असत्य –

  1. इस्पात की अपेक्षा रबड़ का यंग गुणांक अधिक है;
  2. किसी कुण्डली का तनन उसके अपरूपण गुणांक से निर्धारित होता है।

उत्तर:

  1. असत्य, चूँकि इस्पात व रबड़ से बने एक जैसे तारों में समान विकृति उत्पन्न करने के लिए इस्पात के तार में रबड़ की अपेक्षा अधिक प्रतिबल उत्पन्न होता है। इससे स्पष्ट है कि इस्पात का यंग गुणांक रबड़ से अधिक है।’
  2. सत्य, चूँकि हम किसी कुण्डली या स्प्रिंग को खींचते हैं तो न तो स्प्रिंग निर्माण में लगे तार की लम्बाई में कोई परिवर्तन होता है और न ही उसका आयतन परिवर्तित होता है। स्प्रिंग का केवल रूप बदलता है। अतः स्प्रिंग का तनन उसके अपरूपण गुणांक से निर्धारित होता है।

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प्रश्न 9.5.
0.25 cm व्यास के दो तार, जिनमें एक इस्पात का तथा दूसरा पीतल का है, चित्र के अनुसार भारित है। बिना भार लटकाए इस्पात तथा पीतल के तारों की लम्बाइयाँ क्रमश: 1.5 m तथा 1.0 m हैं। यदि इस्पात तथा पीतल के यंग गुणांक क्रमश: 2.0 × 10 11 Pa तथा 0.91 × 1011 Pa हों तो इस्पात तथा पीतल के तारों में विस्तार की गणना कीजिए।
उत्तर:
दिया है: Rs = RB = 0.125 cm
= 1.25 × 10-3 m
Ls = 1.5 m, LB = 1.0 m
Ys = 2.0 × 10 11 Pa,
YB = 0.91 × 10 11 Pa
जहाँ S व B क्रमशः इस्पात
(Steel) तथा पीतल (Brass) को प्रदर्शित करते हैं।
पीतल के तार पर केवल 6.0 kg द्रव्यमान के पिंड का भार लगा है, जबकि इस्पात के तार पर (6.0 + 4.0 = 10.0 kg) का भार लगा है।
∴FB = 6.0 kg × 9.8 Nkg-1 = 58.8 N
FS = 10.0 kg × 9.8 Nkg-1 = 98 N
प्रत्येक का अनुप्रस्थ क्षेत्रफल A = πR2
= 3.14 × (1.25 × 10-3 m)2
= 4.91 × 10-6 m2
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 9 ठोसों के यांत्रिक गुण img 5
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 9 ठोसों के यांत्रिक गुण img 5a
= 14.96 × 10 -5 m = 0.015 cm

प्रश्न 9.6.
ऐल्युमिनियम के किसी घन के किनारे 10 cm लम्बे हैं। इसकी एक फलक किसी ऊर्ध्वाधर दीवार से कसकर जुड़ी हुई है। इस घन के सम्मुख फलक से 100 kg का एक द्रव्यमान जोड़ दिया गया है। ऐल्युमीनियम का अपरूपण गुणांक 25 GPa है। इस फलक का ऊर्ध्वाधर विस्थापन कितना होगा?
उत्तर:
दिया है:
अपरूपण गुणांक G = 25 GPa
= 25 × 109 Nm-2
बल – आरोपित फलक का क्षेत्रफल A =10 cm × 10 cm = 100 × 10 -4m2
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 9 ठोसों के यांत्रिक गुण img 6
आरोपित बल
F = 100 kg × 9.8 Nkg-1 = 980 N
माना फलक का ऊर्ध्व विस्थापन = ∆x
जबकि L = 10 cm = 0.1 m
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 9 ठोसों के यांत्रिक गुण img 7

प्रश्न 9.7.
मृदु इस्पात के चार समरूप खोखले बेलनाकार स्तम्भ 50,000 kg द्रव्यमान के किसी बड़े ढाँचे को आधार दिये हुए हैं। प्रत्येक स्तम्भ की भीतरी तथा बाहरी त्रिज्याएँ क्रमश: 30 तथा 60 cm हैं। भार वितरण को एकसमान मानते हुए प्रत्येक स्तम्भ की संपीडन विकृति की गणना कीजिये।
उत्तर:
दिया है:
आन्तरिक त्रिज्या (भीतरी त्रिज्या)
Rext = 30 सेमी = 0.3 मीटर
बाहरी त्रिज्या, Rext = 60 सेमी = 0.6 मीटर
प्रत्येक स्तम्भ का अनुप्रस्थ काट का क्षेत्रफल A = πR2ext – πR2int
= 3.14 [(0.6)22 – (0.3)2]
= 0.85 मीटर 2
ढाँचे का सम्पूर्ण भार,
W = 50,000 × 9.8
= 4.9 × 10 5 न्यूटन
अतः प्रत्येक स्तम्भ पर भार, F1 = \(\frac{1}{4}\) = 1.225 × 105 न्यूटन
हम जानते हैं कि इस्पात का यंग गुणांक,
Y = 2 × 1011 न्यूटन/मीटर2
सूत्र Y = \(\frac { FL }{ A\Delta L } \)
प्रत्येक स्तम्भ पर संपीडन विकृति
= \(\frac { \Delta L }{ L } \) = \(\frac { F_{ 1 }O }{ AY } \)
= \(\frac { 1.225\times 10^{ 5 } }{ 0.85\times 10^{ 2 }\times 2\times 10^{ 11 } } \)
= 0.72 × 10 -6
चारों स्तम्भों पर संपीडन विकृति
= (0.72 × 10 -6) × 4
= 32.88 × 10 -6

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प्रश्न 9.8.
ताँबे का एक टुकड़ा, जिसका अनुप्रस्थ परिच्छेद 15.2 mm × 19.1 mm का है, 44,500 N बल के तनाव से खींचा जाता है, जिससे केवल प्रत्यास्थ विरूपण उत्पन्न हो। उत्पन्न विकृति की गणना कीजिये।
उत्तर:
दिया है, Y = 1.1 × 1011 Nm-2
A = परिच्छेद क्षेत्रफल
= 15.2 mm × 19.1 mm
= 15.2 × 10-3 m × 19.1 × 10-3 m
बल F = 44500N
परिणामी = विकृति = ?
Y = प्रतिबल/विकृति
या विकृति प्रतिबल/Y = \(\frac{F}{AY}\)
या अनुदैर्ध्य विकृति
= \(\frac { 44500 }{ 15.2\times 19.1\times 10^{ -6 }\times 1.1\times 10^{ 11 } } \)
= 139.34 × 10-3 = 0.139

प्रश्न 9.9.
1.5 cm त्रिज्या का एक इस्पात का केबिल भार उठाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यदि इस्पात के लिए अधिकतम अनुज्ञेय प्रतिबल 108 Nm-2 है तो उस अधिकतम भार की गणना कीजिए जिसे केबिल उठा सकता है।
उत्तर:
दिया है: इस्पात के तार की त्रिज्या, r = 1.5 सेमी
= 1.5 × 10-2 मीटर 2
अधिकतम अनुज्ञेय प्रतिबल × अनुप्रस्थ काट का क्षेत्रफल
= 10 8 × π × (1.5 × 10 -2)2
= 3.14 × 2.25 × 10 4 न्यूटन

प्रश्न 9.10.
15 kg द्रव्यमान की एक दृढ़ पट्टी को तीन तारों, जिनमें प्रत्येक की लंबाई 2 m है, से सममित लटकाया गया है। सिरों के दोनों तार ताँबे के हैं तथा बीच वाला लोहे का है। तारों के व्यासों के अनुपात निकालिए, प्रत्येक पर तनाव उतना ही रहना चाहिए।
उत्तर:
माना कि ताँबे व लोहे के यंग गुणांक क्रमशः Y1 व Y2 है।
Y1 = 110 × 109 न्यूटन/मीटर2
Y2 = 190 × 109 न्यूटन/मीटर2
माना कि ताँबे व लोहे के अनुप्रस्थ काट के क्षेत्रफल क्रमश:
a1, व a2 हैं तथा इनके व्यास क्रमश: a1 व d2 हैं।
सूत्र क्षेत्रफल = T (व्यास/2)2 से,
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 9 ठोसों के यांत्रिक गुण img 8
दिया है:
L = 2 मीटर
माना प्रत्येक तार में उत्पन्न वृद्धि ∆l है तथा प्रत्येक तार में उत्पन्न तनाव F है।
सूत्र Y = प्रतिबल/विकृति से,
ताँबे के तार की विकृति = \(\frac { F/a_{ 1 } }{ Y_{ 2 } } \)
या अनुप्रस्थ परिच्छेद
= \(\frac { 44500 }{ 15.2\times 19.1\times 10^{ -6 }\times 1.1\times 10^{ 11 } } \)
= 139.34 × 10-3 = 0.139

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प्रश्न 9.11.
एक मीटर अतानित लंबाई के इस्पात के तार के एक सिरे से 14.5 kg का द्रव्यमान बाँध कर उसे एक ऊर्ध्वाधर वृत्त में घुमाया जाता है, वृत्त की तली पर उसका कोणीय वेग 2 rev/s है। तार के अनुप्रस्थ परिच्छेद का क्षेत्रफल 0.065 cm 2है। तार में विस्तार की गणना कीजिए जब द्रव्यमान अपने पथ के निम्नतम बिंदु पर है।
उत्तर:
निम्नतम बिन्दु पर द्रव्यमान के घूर्णन के कारण तार में उत्पन्न बल,
T – mg = \(\frac { m }{ \omega ^{ 2 } } \)
जहाँ T = तार में तनाव है।
T = mg + \(\frac { m }{ \omega ^{ 2 } } \)
= 14.5 × 9.8 + 14.5 × 1 × (4π)2
= 14.5 (9.8 + 16 × 9.87)
= 14.5 (9.8 + 157.92)
= 2431.94 N
प्रतिबल = \(\frac{T}{A}\) = \(\frac { 2431.94 }{ 65\times 10^{ 7 } } \)
विकृति = \(\frac{∆L}{l}\) = \(\frac{∆L}{l}\) = ∆L
सम्बन्ध
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 9 ठोसों के यांत्रिक गुण img 9

प्रश्न 9.12.
नीचे दिये गये आँकड़ों से जल के आयतन प्रत्यास्थता गुणांक की गणना कीजिए, प्रारंभिक आयतन = 100.0 L दाब में वृद्धि = 100.0 atm (1 atm = 1.013 × 105 Pa), अंतिम आयतन = 100.5 L। नियत ताप पर जल तथा वायु के आयतन प्रत्यास्थता गुणांकों की तुलना कीजिए। सरलं शब्दों में समझाइये कि यह अनुपात इतना अधिक क्यों है?
उत्तर:
दिया है:
P = 100 वायुमण्डलीय दाब = 100 × 1.013 × 105 Pa (∴1 atm = 1.013 × 105 Pa)
प्रारम्भिक आयतन,
V1 = 100 litre = 100 × 10-3 m-3
अन्तिम आयतन,
V2 = 100.5 litre = 100.5 × 10-3 m-3
आयतन में परिवर्तन = ∆V = V2 – V1
= (100.5 – 100) × 10-3 m-3
= 0.5 × 10-3 m-3
जल का आयतन गुणक = KW = ?
सूत्र KW = \(\frac { P/\Delta V }{ V } \) से
KW = \(\frac { PV }{ \Delta V } \)
= \(\frac { PV }{ \Delta V } \)
= \(\frac { 100\times 1.013\times 10^{ 5 }\times 100\times 10^{ -3 } }{ 0.5\times 10^{ -3 } } \) (∵V = V1
या
KW = 2.026 × 109 Pa
पुनः हम जानते हैं की STP पर वायु का आयतन गुणांक
Kair = 1.0 × 10-4 GPa
= 1 × 10-4 × 109 Pa = 105 Pa
\(\frac { K_{ W } }{ K_{ air } } \) = \(\frac { 2.026\times 10^{ 9 } }{ 10^{ 5 } } \) = 2.026 × 104
= 20260
यहाँ अनुपात बहुत आदिक है अयथार्थ जल का आयतन प्रत्यास्थता वायु की आयतन प्रत्यास्थता से बहुत अधिक है। इसका कारण यह है कि समान दाब द्वारा जल के आयतन में होने वाली कमी, वायु के आयतन में होने वाली कमी की तुलना में नगण्य होती है।

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प्रश्न 9.13.
जल का घनत्व उस गहराई पर, जहाँ दाब 80.0 atm हो, कितना होगा? दिया गया है कि पृष्ठ पर जल का घनत्व 1.03 × 103 kgm-3, जल की संपीडता 45.8 × 10-11 Pa-1 (1 Pa = 1Nm-2)
उत्तर:
दिया है:
P = 80 atm = 80 × 1.013 × 105 Pa
\(\frac { 1 }{ k } \) = 45.8 × 10-11 Pa-1
पृष्ठ पर जल का घनत्व,
ρ = 1.03 × 103 किग्रा प्रति मीटर3
माना दी हुई गहराई पर जल का घनत्व ρ है।
माना M द्रव्यमान के जल के द्वारा पृष्ठ व दी हुई गहराई पर आयतन क्रमश: V व V’ है।
अत:
V = \(\frac { M }{ \rho } \) तथा V’ = \(\frac { M }{ \rho’ } \)
∴ आयतन में परिवर्तन
∆V = V – V’ = M (\(\frac { 1 }{ \rho } -\frac { 1 }{ \rho ^{ ‘ } } \))
∴ आयतनात्मक विकृति
\(\frac { \Delta V }{ V } \) = M(\(\frac { 1 }{ \rho } -\frac { 1 }{ \rho ^{ ‘ } } \)) × \(\frac { \rho }{ M } \) = (1 – \(\frac { \rho }{ \rho ^{ ‘ } } \))
या \(\frac { \Delta V }{ V } \) = (1 – \(\frac { 1.03\times 10^{ 3 } }{ \rho ^{ ‘ } } \))
पुनः हम जानते हैं कि जल का आयतन गुणांक निम्नवत्
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 9 ठोसों के यांत्रिक गुण img 10
p’ = 1.034 × 103 kgm-3

प्रश्न 9.14.
काँच के स्लेब पर 10 atm का जलीय दाब लगाने पर उसके आयतन में भिन्नात्मक अंतर की गणना कीजिए।
उत्तर:
दिया है:
P = 10 atm = 10 × 1.013 × 105 Pa
सारणी से, काँच के गुटके के लिए,
K = 37 × 109 Nm-2
काँच के गुटके के आयतन में भिन्नात्मक अन्तर
= \(\frac { \Delta V }{ V } \) = ?
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 9 ठोसों के यांत्रिक गुण img 11
= 0.0274 × 10-3
= 2.74 × 10-5
= 0.0274 × 10-3 % = 0.003 %

प्रश्न 9.15
ताँबे के एक ठोस घन का एक किनारा 10 cm का है। इस पर 7.0 x 106 Pa का जलीय दाब लगाने पर इसके आयतन में संकुचन निकालिए।
उत्तर:
दिया है:
L = 10 cm = 0.1 m
ताँबे का आयतन गुणांक
= 140 × 109 Pa
P = 7 × 106 Pa
ठोस ताँबे के घन में आयतन सम्पीडन
= ∆V = ?
V = L3 = (0.1)3 = 0.001 m3
सूत्र, K = – \(\frac { P }{ \frac { \Delta V }{ V } } \) से
\(\frac { \Delta V }{ V } \) = \(\frac { -PV }{ K } \)
= \(\frac { 7\times 10^{ 6 }\times 0.001 }{ 140\times 10^{ 9 } } \)
= \(\frac { -1 }{ 20 } \) × 10-6m3
= – 0.05 × 10-6 m3 = – 0.05cm3
यहाँ ऋणात्मक चिह्न से स्पष्ट होता है कि आयतन संकुचित होता है।

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प्रश्न 9.16.
1 लीटर जल पर दाब में कितना अन्तर किया जाए कि वह 0.10% सम्पीडित हो जाए।
उत्तर:
दिया है:
V = 1 लीटर
∆V = – 0.10 % of V
= \(\frac { -0.10 }{ 100 } \) × 1 = \(\frac{1}{1000}\) लीटर
माना ∆p = 1 लीटर जल संकुचित करने के लिए आवश्यक दाब
पानी का आयतन प्रसार गुणांक
K = 2.2 × 109 Nm-2
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 9 ठोसों के यांत्रिक गुण img 12

ठोसों के यांत्रिक गुण अतिरिक्त अभ्यास के प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 9.17.
हीरे के एकल क्रिस्टलों से बनी निहाइयों, जिनकी आकृति चित्र में दिखाई गयी है, का उपयोग अति उच्च दाब के अंतर्गत द्रव्यों के व्यवहार की जाँच के लिए किया जाता है। निहाई के संकीर्ण सिरों पर सपाट फलकों का व्यास 0.50 mm है। यदि निहाई के चौड़े सिरों पर 50.000 N का बल लगा हो तो उसकी नोंक पर दाब ज्ञात कीजिए।
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 9 ठोसों के यांत्रिक गुण img 13
उत्तर:
दिया है: आरोपित बल, F = 5 × 104 न्यूटन
व्यास, D = 5 × 10-4 मीटर
त्रिज्या, r = \(\frac{D}{2}\) = 2.5 × 10-4
क्षेत्रफल, A = πr2
= \(\frac{22}{7}\) × (2.5 × 10-4)2
नोंक पर दाब, P = ?
सूत्र P = \(\frac{F}{A}\) से,
P = \(\frac { 5\times 10^{ 4 } }{ \frac { 22 }{ 7 } \times (2.5\times 10^{ -4 })^{ 2 } } \)
= 0.225 × 1012Pa
= 2.55 × 1011Pa

प्रश्न 9.18.
1.05 m लंबाई तथा नगण्य द्रव्यमान की एक छड़ को बराबर लंबाई के दो तारों, एक इस्पात का (तार A) तथा दूसरा ऐल्युमीनियम का तार (तार B) द्वारा सिरों से लटका दिया गया है, जैसा कि चित्र में दिखाया गया है। A तथा B के तारों के अनुप्रस्थ परिच्छेद के
क्षेत्रफल क्रमशः 1.0 mm2 और 2.0 mm2 हैं। छड़ के किसी बिन्दु से एक द्रव्यमान m को लटका दिया जाए ताकि इस्पात तथा एल्युमीनियम के तारों में (a) समान प्रतिबल तथा (b) समान विकृति उत्पन्न हो।
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 9 ठोसों के यांत्रिक गुण img 14
उत्तर:
माना कि स्टील तथा एल्युमीनियम के दो तारों क्रमश: A व B की लम्बाई L है।
माना कि A तथा B के अनुप्रस्थ क्षेत्रफल क्रमश: a1 व a2, हैं।
a1 = 1 मिमी2 = (10-3)2 = 10-6 मीटर m2
a2 = 2 मिमी2 = 2 × 10-6 मीटर 2
सारणी से, स्टील के लिए,
Y1 = 2 × 1011 न्यूटन मीटर 2
एल्युमीनियम के लिए,
Y2 = 7 × 1019 न्यूटन मीटर-2 माना तारों के निचले सिरों पर लगाए गए बल F1 व F2 हैं।
(a) A तथा B पर प्रतिबल क्रमश: F1/a1 व F2/a2 हैं। जब दोनों प्रतिबल बराबर हैं, तब
\(\frac { F_{ 1 } }{ a_{ 1 } } \) = \(\frac { F_{ 1 } }{ a_{ 2 } } \) या \(\frac { F_{ 1 } }{ F_{ 2 } } \)
= \(\frac { a_{ 1 } }{ a_{ 2 } } \)
माना कि दोनों छड़ों से x व y दूरी पर लटकाए गए भार mg द्वारा आरोपित बल F1 व F2 हैं। तब
F1x = F2Y
या \(\frac { F_{ 1 } }{ F_{ 2 } } \) = \(\frac{Y}{x}\)
समी० (i) व (ii) से,
\(\frac{y}{x}\) = \(\frac { a_{ 1 } }{ a_{ 2 } } \)
या
x = \(\frac { a_{ 2 } }{ a_{ 1 } } \) y
परन्तु x + y = 1.05 m
y = 1.05 – x
समी० (iii) व (iv) से,
x = \(\frac { a_{ 2 } }{ a_{ 1 } } \) (1.05 – x)
या a1x = 1.05 a2 – xa2
या x (a1 + a2) = 1.05a2
x = \(\frac { 1.05\times 2\times 10^{ -6 } }{ (1+2)\times 10^{ -6 } } \)
x = \(\frac { 1.05\times 2 }{ 3 } \) = 0.70m
y = 1.05 – 70 = 0.35 m
अतः द्रव्यमान m को A (स्टील तार.) से 0.7 मीटर या B (Al) से 0.35 मीटर की दूरी पर लटकाना चाहिए।
सूत्र y = प्रतिबल/विकृति से, विकृति = \(\frac { F_{ 1 }/a_{ 2 } }{ Y_{ 2 } } \)
चूँकि विकृतियाँ समान हैं।
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 9 ठोसों के यांत्रिक गुण img 15
Y = 1.05 – x = 1.05 – 0.43 = 0.62m
अतः द्रव्यमान m को A से 0.43 मीटर दूरी पर लटकाना चाहिए।

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प्रश्न 9.19
मृदु इस्पात के एक तार, जिसकी लंबाई 1.0 m तथा अनुप्रस्थ परिच्छेद का क्षेत्रफल 0.50 × 10-2 cm2 है, को दो खम्भों के बीच क्षैतिज दिशा में प्रत्यास्थ सीमा के अंदर ही तनित किया जाता है। तार के मध्य बिंदु से 100g का एक द्रव्यमान लटका दिया जाता है। मध्य बिंदु पर अवनमन की गणना कीजिए।
उत्तर:
दिया है: 1 = 1 मीटर
क्षेत्रफल: A = 0.5 × 10-2 cm2
= 0.5 × 10-2 × 10-2 × (10-2 m)2
= 0.5 × 10 -6m2
द्रव्यमान:
m = 100 g = 0.1 kg
भार W = mg = 0.1 × 9.8 N
माना तार की त्रिज्या r है।
A = πr2 = 0.5 × 10-6 m2
r2 = \(\frac { 0.5\times 10^{ -6 } }{ \pi } \) m2
स्टील के लिए, y = 2 × 1011 Pa
अवनमन δ = ? = ?
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 9 ठोसों के यांत्रिक गुण img 16
= 0.051 m = 0.01m

प्रश्न 9.20.
धातु के दो पहियों के सिरों को चार रिवेट से आपस में जोड़ दिया गया है। प्रत्येक रिवेट का व्यास 6 mm है। यदि रिवेट पर अपरूपण प्रतिबल 6.9 × 107 Pa से अधिक नहीं बढ़ना हो तो रिवेट की हुई पट्टी द्वारा आरोपित तनाव का अधिकतम मान कितना होगा? मान लीजिए कि प्रत्येक रिवेट एक चौड़ाई भार वहन करता है।
उत्तर:
माना रिवेट पर w भार लगाया जाता है।
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 9 ठोसों के यांत्रिक गुण img 17
प्रत्येक रिवेट पर आरोपित बल = \(\frac{w}{4}\)
प्रत्येक रिवेट पर अधिकतम अपरूपण प्रतिबल
= 6.9 × 107 Pa
माना अपरूपण बल प्रत्येक रिवेट के A क्षेत्रफल पर लगाया जाता है।
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 9 ठोसों के यांत्रिक गुण img 18
माना रिवेट पट्टी द्वारा लगाया गया अधिकतम तनाव wmax है।
अतः
\(\frac { w_{ max } }{ 4A } \) = 6.9 × 107
या wmax = 4A = 6.9 × 107
दिया है:
प्रत्येक रिवेट का व्यास
D = 6 mm = 6 × 10-3
A = \(\frac { \pi D^{ 2 } }{ 4 } \)
= \(\frac { 3.142\times (6\times 10^{ -3 })^{ 2 } }{ 4 } \)
समी० (i) व (ii) से,
Wmax = 4 × \(\frac { 3.142\times 36\times 10^{ -6 } }{ 4 } \) × 6.9 × 10-3
= 7804.73N = 7.8 × 103N

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प्रश्न 9.21.
प्रशांत महासागर में स्थित मैरिना नामक खाई एक स्थान पर पानी की सतह से 11 km नीचे चली जाती है और उस खाई में नीचे तक 0.32 m3 आयतन का इस्पात का एक गोला गिराया जाता है, तो गोले के आयतन में परिवर्तन की गणना करें।खाई के तल पर जल का दाब 1.1 × 108 Pa है और इस्पात का आयतन गुणांक 160 GPa है।
उत्तर:
दिया है: h = 11 km = 11 × 103 m
जल का घनत्व, ρ = 103 kgm-3
खाई के तल पर जल के 11 किमी स्तम्भ द्वारा लगाया गया दाब
P = hpg
= 11 × 103 × 103 × 10 Pa
= 1.1 × 108 Pa
V = 0.32 m3
∆V = ?
जल का आयतन गुणांक = K
= 2.2 × 104
= 2.2 × 104 × 105 Pa
= 2.2 × 109Pa (∴ 1 atm = 105 Pa)
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 9 ठोसों के यांत्रिक गुण img 19
= 0.016 m3

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MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ

MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ

अपचयोपचय अभिक्रियाएँ NCERT अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1.
निम्नलिखित स्पीशीज़ में रेखांकित तत्वों की ऑक्सीकरण संख्या बताइए –
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उत्तर:
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 3

प्रश्न 2.
निम्नलिखित स्पीशीज़ में रेखांकित तत्वों की ऑक्सीकरण संख्या ज्ञात कीजिए –
(a) KI3
(b) H2S4O6
(c) Fe3O4
(d) CH3CH2OH
(e) CH3COOH
उत्तर:
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 3.1 या x = 1/3 (I की ऑक्सीकरण संख्या)
व्याख्या: I2 की ऑक्सीकरण संख्या प्रभाज में आती है। इसकी I3 की संरचना द्वारा व्याख्या कर सकते हैं।
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I का औसत ऑक्सीकरण संख्या = -1/3 यह प्रदर्शित करता है कि परमाणु विभिन्न ऑक्सीकरण अवस्था में होते हैं। दो I परमाणुओं की ऑक्सीकरण संख्या शून्य तथा एक की -1 है इसलिये I3 की -1 होगी।

MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 3.2 या x = 2.5 (S की ऑक्सीकरण संख्या)
S की ऑक्सीकरण संख्या प्रभाज में आती है जो प्रदर्शित करता है कि S परमाणु विभिन्न ऑक्सीकरण अवस्था प्रदर्शित करता है।
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 5
इसे निम्न प्रकार से समझा सकते हैं –

  1. यहाँ S – S बंध के बीच कोई इलेक्ट्रॉन का वितरण नहीं है।
  2. दो किनारे की S – परमाणुओं की ऑक्सीकरण संख्या +5 है।
  3. दो बीच के S – परमाणुओं की ऑक्सीकरण संख्या शून्य है।

औसत ऑक्सीकरण संख्या = \(\frac {5 + 0 + 0 + 5}{ 4 }\) = 2.5

(c) Fe2O2 यह FeO. Fe2O3, का मिश्रण है। Fe की ऑक्सीकरण संख्या +2 और +3 है। अत: औसत ऑक्सीकरण संख्या + 8 / 3 होगी।

(d) CH3CH2OH या C2H6O परम्परागत (conventional) कार्बन की ऑक्सीकरण संख्या = -2 होता है, परन्तु दो कार्बन परमाणु विभिन्न ऑक्सीकरण संख्या प्रदर्शित करते हैं।
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 6
सभी H- परमाणु का ऑक्सीकरण संख्या +1 है, O की ऑक्सीकरण संख्या = -2, C का CH3 समूह में ऑक्सीकरण संख्या -3 तथा C जो O परमाणु से जुड़ी है,  की ऑक्सीकरण संख्या -1 है।  इस कार्बन पर इलेक्ट्रॉन 2H परमाणु से आते हैं, तथा इलेक्ट्रॉन को O परमाणु ले लेता है और C – C बंध के बीच इलेक्ट्रॉन का वितरण नहीं होता है।
C की औसत ऑक्सीकरण संख्या जो O-परमाणु से जुड़ी है, होगी = -2 + 1 = -1.
कार्बन की औसत ऑक्सीकरण संख्या है- (-3 -1)/2 = -2.

(e) CH3COOH या C2H4O2 में C की परम्परागत ऑक्सीकरण संख्या = 0
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 7
सभी H – परमाणु का ऑक्सीकरण संख्या +1 है तथा 0 परमाणु का – 2 तथा C – परमाणु जो O – परमाणु से जुड़ी हुई है उसकी ऑक्सीकरण संख्या + 3, कार्बन CH3– समूह वाले की ऑक्सीकरण संख्या – 3 है। औसत ऑक्सीकरण संख्या शून्य होगी।

प्रश्न 3.
सिद्ध कीजिए कि निम्नलिखित अभिक्रियाएँ रेडॉक्स अभिक्रियाएँ हैं –
1. CuO(s) + H2(g) →  Cu(s) + H2O(g)
2.  Fe2O3(s) + 3CO(g) → 2Fe(g) + 3CO2(g)
3. 4BCl3(g) + 3LiAlH4(s) → 2B2H6(g)) + 3LiCl(s) + 3AlCl3(s)
4. 2K(s) + F2(g) → 2K+F(s)
5. 4NH3(g) + 5O2(g) → 4NO(g) + 6H2O(g)
उत्तर:
1. Cuo ऑक्सीजन का निष्कासन करके Cu में अपचयित हो जाता है जबकि H2, H2O में ऑक्सीकृत ऑक्सीजन का योग करके होती है। अतः यह एक रेडॉक्स अभिक्रिया है।

2. Fe2O3 ऑक्सीजन का निष्कासन करके Fe में अपचयित हो जाता है। जबकि CO ऑक्सीजन के योग द्वारा CO2 में ऑक्सीकृत हो जाता है। अतः यह एक रेडॉक्स अभिक्रिया है।

3. BCl3, B के चारों तरफ इलेक्ट्रॉन घनत्व बढ़ाकर B2H6 में बदल जाता है। अतः BCl3 में B अपचयित हुआ कहलायेगा जबकि Li और AI के चारों ओर इलेक्ट्रॉन घनत्व की कमी होकर LiCl में बदल जाता है अर्थात् Li और Al ऑक्सीकृत हुये कहलायेंगे। अतः यह एक रेडॉक्स अभिक्रिया है।

4. ऑक्सीकरण संख्या परिवर्तन के आधार पर K की ऑक्सीकरण संख्या 0(K में) से +1(KF में) बढ़ती है। दूसरे शब्दों में, K ऑक्सीकृत जबकि F2 अपचयित हुई है। अत: यह एक रेडॉक्स अभिक्रिया है।

5. N की ऑक्सीकरण संख्या -3(NH3 में) से +2(NO में) बढ़ी है तथा O2 की शून्य (O2में) से -2(H2O में) घटी है। दूसरे शब्दों में NH3 ऑक्सीकृत हुई जबकि O2 अपचयित हुई है। अत: यह एक रेडॉक्स अभिक्रिया है।

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प्रश्न 4.
फ्लुओरीन बर्फ से क्रिया करके निम्नानुसार उत्पाद बनाती है –
H2O(s) + F2(g) → HF(g) + HOF(g)
सिद्ध कीजिए कि उक्त अभिक्रिया रेडॉक्स अभिक्रिया है। यदि HOF का ऑक्सीजन परमाणु विषमानुपात में टूटता है तो कौन – सी अभिक्रिया होगी ?
उत्तर:
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 8
यहाँ F, HF में अपचयित तथा HOF में ऑक्सीकृत होती है इसलिये ये रेडॉक्स अभिक्रिया है। HOF अस्थायी है तथा अपघटित होकर O2 और HF बनाता है।
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 9
इस अभिक्रिया में HOF की F अपचयित तथा HOF की ऑक्सीजन ऑक्सीकृत हुई है। अत: यह एक रेडॉक्स अभिक्रिया है परन्तु विषमानुपाती अभिक्रिया नहीं है। यदि HOF की ऑक्सीजन विषमानुपातित होती तो ऑक्सीजन तीन ऑक्सीकरण अवस्था प्रदर्शित करती है। यदि हम यह मानते हैं कि ऑक्सीजन की ऑक्सीकरण अवस्था HOF में शून्य है तो उसकी ऑक्सीकरण अवस्था घटकर-2 हो जाती है, HOF H2O में अपचयित होती है और बढ़कर +2 हो जाती है यदि HOF OF2, में ऑक्सीकृत होता है। अतः संभावित अभिक्रिया
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प्रश्न 5.
H2SO5, में सल्फर की, CrO5, में क्रोमियम की तथा NO3 में नाइट्रोजन की ऑक्सीकरण संख्या क्या है? इन स्पीशीज़ की संरचनाएँ बनाइए।
उत्तर:
(i) S की H2SO5 में ऑक्सीकरण संख्या:
परम्परागत विधि के आधार पर S की ऑक्सीकरण संख्या H2SO5 में + 8 आता है जैसा कि नीचे दिखाया गया है –
2(+1) + x + 5(-2)= 0 या x = + 8

यह असंभव है क्योंकि S की अधिकतम ऑक्सीकरण संख्या 6 से अधिक नहीं हो सकती क्योंकि इसमें छः संयोजी इलेक्ट्रॉन होते हैं। रासायनिक बंध विधि द्वारा S की O.N. की गणना कर इसकी इस संयोजकता को नियंत्रित किया जा सकता है।
H2SO5 की संरचना विभिन्न परमाणुओं की ऑक्सीकरण संख्या के साथ है –
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 11
अर्थात्, 2(+1) + 3(-2) + x + 2(-1) = 0 या x = +6

(ii) Cr की CrO5 में ऑक्सीकरण संख्या:
परम्परागत विधिनुसार Cr की ऑक्सीकरण संख्या x + 5(-2) = 0 या x = +10 यह असंभव है क्योंकि Cr की अधिकतम ऑक्सीकरण संख्या 6 से ज्यादा नहीं हो सकती क्योंकि बाहरी कक्षक विन्यास में अधिकतम 6 इलेक्ट्रॉन (3d54s1) होते हैं जो बंध बनने में भाग ले सकते हैं, इस दोष को ऑक्सीकरण संख्या (Cr के) की रासायनिक बंध विधि द्वारा गणना करके हटाया जाता है। CrO5 की संरचना है –
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 12
उपर्युक्त संरचनानुसार Cr की ऑक्सीकरण संख्या की इस तरह गणना कर सकते हैं –
x + 4(-1) + 1(-2)= 0 या x = +6
यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि चार ऑक्सीजन परमाणु परॉक्सी – लिंकेज (ऑक्सीकरण संख्या = -1) और एक ऑक्सीजन द्विबंध द्वारा जुड़ी है उसकी ऑक्सीकरण संख्या = -2

(iii) N की NO3 में ऑक्सीकरण संख्या:
परम्परागत विधिनुसार NO3में N की ऑक्सीकरण संख्या ⇒ x + 3(-2) = -1 या x = + 5. रासायनिक बंध विधि के अनुसार NO3 आयन की संरचना है –
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अतः नाइट्रोजन का ऑक्सीकरण संख्या x + 3(-2) = -1 या x = +5
अर्थात् N का NO3 में ऑक्सीकरण संख्या परम्परागत विधि या रासायनिक बंध विधि दोनों में समान है।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित यौगिकों के सूत्र लिखिए –

  1. मर्करी (II) क्लोराइड
  2. निकिल (II) सल्फेट
  3. टिन (IV) फ्लुओराइड
  4. थैलियम (II) सल्फेट
  5. आयरन (III) सल्फेट
  6. क्रोमियम (III) ऑक्साइड।

उत्तर:

  1. Hg(II)Cl2
  2. Ni(II)SO4
  3. Sn(IV)O2
  4. TI(I)SO4
  5. Fe2(III)(SO4)3
  6. Cr2 (III)O3.

प्रश्न 7.
उन यौगिकों के उदाहरण दीजिए जो कार्बन की -4 से +4 ऑक्सीकरण अवस्था तथा नाइट्रोजन की -3 से +5 ऑक्सीकरण अवस्था को प्रदर्शित करते हैं।
उत्तर:
1. C की परिवर्ती ऑक्सीकरण अवस्थायें:
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2. N की परिवर्ती ऑक्सीकरण अवस्थायें हैं:
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प्रश्न 8.
SO2 तथा H2O2ऑक्सीकारक तथा अपचायक दोनों के समान व्यवहार करते हैं जबकि O3 तथा HNO3, केवल ऑक्सीकारक के समान। ऐसा क्यों ?
उत्तर:
सल्फर डाइऑक्साइड (SO2) और हाइड्रोजन परॉक्साइड (H2O2) में S और ऑक्सीजन की ऑक्सीकरण अवस्थायें क्रमश: + 4 और -1 है। अतः घट या बढ़ सकते हैं जब इनके यौगिक रासायनिक क्रिया में भाग लेते हैं। ये ऑक्सीकारक या अपचायक की तरह कार्य कर सकते हैं।
उदाहरण:
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इसी तरह, O3 (ओजोन) में ऑक्सीजन की ऑक्सीकरण अवस्था शून्य तथा नाइट्रिक अम्ल में नाइट्रोजन की ऑक्सीकरण अवस्था +5 है। अर्थात् दोनों में ऑक्सीकरण अवस्था घटती है और उसका मान नहीं बढ़ता ये सिर्फ ऑक्सीकारक की तरह कार्य करते हैं अपचायक की तरह नहीं।
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प्रश्न 9.
निम्नलिखित क्रियाओं को ध्यान से देखिए –
(a) 6CO2(g) + 6H2O(l) → C6H12O6(s) + 6O2(g)
(b) O3(g) + H2O2(l) → H2O(l) + 2O2(g).
उपर्युक्त अभिक्रियाओं को निम्नानुसार लिखना अधिक योग्य है, क्यों ?
(a) 6CO2(g) + 12H2O(l) → C6H12O6(s) + 6H2O(l) + 6O2(g)
(b) O3(g) + H2O(l) → H2O(l) + O2(g) + O2(g).
उत्तर:
(a) प्रकाश संश्लेषण में पानी से O2 मुक्त होता है, CO2 से नहीं। ये रेडियोएक्टिव ट्रेसर विधि द्वारा निश्चित होता है। क्रियाविधि निम्न प्रकार दी जाती है
6CO2(g) + 12H2O*(l) → C6H12O6(aq)+ 6H2O(l) + 6O*2

(b) इस क्रिया की क्रियाविधि निम्न प्रकार दी जा सकती है –
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प्रश्न 10.
AgF2, एक अस्थायी यौगिक है फिर भी यदि यह बनता है तो एक तीव्र ऑक्सीकारक होगा। क्यों?
उत्तर:
Ag47 → 4d105s1
Ag+ → 4d105s0
Ag2+ → 4d95s0

विन्यास दर्शाता है कि Ag+, Ag2+ से ज्यादा स्थायी है इसलिये Ag2+ Ag+ में परिवर्तित हो जाता है तथा यह ऑक्सीकारक की तरह कार्य करती है।
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प्रश्न 11.
जब भी किसी ऑक्सीकारक तथा अपचायक के मध्य अभिक्रिया होती है, तो यदि अपचायक आधिक्य में हो तो निम्नतर ऑक्सीकरण संख्या वाला उत्पाद बनता है जबकि ऑक्सीकारक आधिक्य में हो तो उच्चतर ऑक्सीकरण संख्या वाला उत्पाद बनता है। तीन उदाहरण प्रस्तुत करते हुए उक्त कथन की पुष्टि कीजिए।
उत्तर:
1.  कार्बन और ऑक्सीजन के बीच होने वाली अभिक्रिया पर विचार करते हैं –
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 20

2. सफेद फॉस्फोरस और Cl2(g) के बीच अभिक्रिया पर विचार करते हैं-
अपचायक + ऑक्सीकारक
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 21

3. सल्फर व ऑक्सीजन के बीच होने वाली क्रिया पर विचार करते हैं-
अपचायक + ऑक्सीकारक
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 22

प्रश्न 12.
निम्नांकित प्रेक्षणों का कारण बताइए –
(a) यद्यपि क्षारीय KMnO4 तथा अम्लीय KMnO4 दोनों ऑक्सीकारक के रूप में प्रयुक्त होते हैं फिर भी टॉलुईन से बेंजोइक अम्ल बनाने के लिए एल्कोहॉलिक KMnO4 ऑक्सीकारक के रूप में लिया जाता है। क्यों ? अभिक्रिया का संतुलित समीकरण लिखिए।
(b) किसी अकार्बनिक मिश्रण में जिसमें क्लोराइड हो, सान्द्रH2SO4 मिलाने पर तीक्ष्ण गंध वाली HCl गैस निकलती है। किन्तु यदि मिश्रण में ब्रोमाइड हो तो ब्रोमीन की लाल वाष्प निकलती है। क्यों?
उत्तर:
(a) टॉलुईन अम्लीय, क्षारीय व उदासीन माध्यम में बेन्जोइक अम्ल में पोटैशियम परमैंग्नेट का उपयोग कर ऑक्सीकृत होती है –
(i) अम्लीय माध्यम में –
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 23

(ii) उदासीन (एल्कोहॉलीय) और क्षारीय माध्यम में से –
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 23

टॉलुईन से बेन्जोइक अम्ल निर्माण में उदासीन माध्यम को अम्लीय या क्षारीय माध्यम की तुलना में प्राथमिकता निम्न कारणों से दी जाती है –
उदासीन माध्यम में न तो अम्ल न तो क्षार बाहर से मिलते हैं जो कि निर्माण विधि में दर की निश्चित बचत करती है। ऐल्कोहॉल का यदि विलायक की तरह उपयोग करें तो ये टॉलुईन (अध्रुवीय) और KMnO4 (आयनिक) के बीच समांगी मिश्रण बनने में सहायता करता है। दरअसल ऐल्कोहॉल में अध्रुवीय एल्काइल समूह तथा ध्रुवीय OH समूह होता है।

(b) क्लोराइड जैसे NaCl सान्द्र सल्फ्यूरिक अम्ल के साथ गर्म करने पर क्रिया करके हाइड्रोजन क्लोराइड गैस निकालती है। इसकी तीक्ष्ण गंध होती है।
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 25
इसी तरह से हाइड्रोजन ब्रोमाइड भी बनाया जा सकता है जब एक ब्रोमाइड को सान्द्र सल्फ्यूरिक अम्ल के साथ गर्म करते हैं । अर्थात् अम्ल प्रबल ऑक्सीकारक है जो HBr को Br, में ऑक्सीकृत करता है जिससे लाल वाष्प निकलती है।
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 26
HCl(g) पूर्णतः स्थायी है और क्लोरीन में ऑक्सीकृत नहीं होता है सान्द्र सल्फ्यूरिक अम्ल के साथ।

प्रश्न 13.
निम्नलिखित अभिक्रियाओं में ऑक्सीकृत होने वाले, अपचयित होने वाले पदार्थ, ऑक्सीकारक तथा अपचायक की पहचान कीजिए –
(a) 2AgBr(s) + C6H6O2(aq)) → 2Ag(s) + 2HBr(aq) + C6H4O2(aq)
(b) HCHO(l) + 2[Ag(NH3)2]+(aq) + 3OH(aq) → 2Ag(s) + HCOO(aq) + 4NH3(aq) + 2H2O
(c) HCHO(l) + 2Cu2+(aq) + 5OH(aq) → Cu2O(s) + HCOO(aq) + 3H2O(l)
(d) N2H4(l) + 2H2O2(l) → N2(g) + 4H2O(l)
(e) Pb(s) + PbO2(s) + 2H2SO4(aq) → 2PbSO4(s) + 2H2O(l)
उत्तर:
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 27
AgBr अपचयित होता है ऑक्सीकारक की तरह कार्य करता है।
C6H6O2, ऑक्सीकृत होता है एवं अपचायक की तरह कार्य करता है।

MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 28
HCHO ऑक्सीकृत होता, अपचायक की तरह कार्य करता है।
[Ag(NH3)2]+ अपचयित होता है एवं ऑक्सीकारक का कार्य करता है।

MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 29
Cu2+(हलीय) अपचयित होता है ऑक्सीकारक की तरह कार्य करता है।
HCHO ऑक्सीकृत होता है एवं अपचायक की तरह कार्य करता है।

MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 30
H2O2अपचयित हुआ, ऑक्सीकारक की तरह कार्य करता है।
N2H4 ऑक्सीकृत हुआ, अपचायक की तरह कार्य करता है।

MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 31
PbO2 अपचयित हुआ, ऑक्सीकारक की तरह कार्य करता है।
Pb ऑक्सीकृत हुआ, अपचायक की तरह कार्य करता है।

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प्रश्न 14.
निम्नलिखित अभिक्रियाओं में एक ही थायोसल्फेट आयन S2\(O \frac{2-}{3}\),आयोडीन तथा ब्रोमीन से अलग-अलग प्रतिक्रिया क्यों करता है –
1. 2S2\(\mathrm{O}_{3(a q)}^{2-}\) + I2(s) → S2\(\mathrm{O}_{6(a q)}^{2-}\)+ 2I(aq)
2. S\(\mathrm{O}_{3(a q)}^{2-}\) + 2Br2(l) + 5H2O(l) → 2S\(\mathrm{O}_{4(a q)}^{2-}\) +4Br(aq) + 10H+4(aq)
उत्तर:
Br2 I2 की तुलना में प्रबल ऑक्सीकारक है यह S2\(O \frac{2-}{3}\) को SO\(O \frac{2-}{4}\) अर्थात् सल्फर की +2 अवस्था से +6 अवस्था में ऑक्सीकृत कर देता है। अतः I2 दुर्बल ऑक्सीकारक है। S2\(O \frac{2-}{3}\) को S4\(O \frac{2-}{6}\) – आयन में ऑक्सीकृत होता है अर्थात् सल्फर की +2 से +2.5 अवस्था में।

प्रश्न 15.
कारण बताओ कि क्यों हैलोजनों में फ्लुओरीन सबसे अच्छा ऑक्सीकारक है जबकि हैलोजन अम्लों में HI सबसे अच्छा अपचायक ?
उत्तर:
अपचयन विभव जितना अधिक होगा उसका ऑक्सीकरण क्षमता उतनी ही अधिक होगी इसलिये ऑक्सीकरण क्षमता निम्न क्रम में घटती है –
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 776
अतःF2 प्रबल ऑक्सीकारक है। इस बात को इस आधार पर सहारा मिलता है कि F, सभी हैलोजनों को उनके लवण विलयन (आयन) से विस्थापित करती है।
2KCl + F2 → 2KF + Cl, 2KI + F → 2KF + I2यदि अधातु प्रबल ऑक्सीकारक हो तो उसका समरूपी ऐनायन दुर्बल अपचायक होगा। अत: F2प्रबल ऑक्सीकारक है इसलिये F-आयन दुर्बल अपचायक है। HX(या X आयन) की अपचयन क्षमता निम्न क्रम में घटती है –
HI > HBr > HCl > HF
I2दुर्बल ऑक्सीकारक तथा I एक प्रबल अपचायक है।

प्रश्न 16.
निम्नलिखित अभिक्रिया क्यों संभव है –
Xe\(\mathbf{O}_{6}^{4}\) + 2F(aq) + 6H+(aq) → XeO3(aq) + F2(g)+ 3H2O(l)
यौगिक Na4 XeO6(जिसका Xe\(\mathbf{O}_{6}^{4}\) एक भाग है) के बारे में क्या निष्कर्ष निकलता है ? इस अभिक्रिया से K2MnF6 बनाया जा सकता है।
उत्तर:
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 33

Xe का ऑक्सीकरण संख्या + 8 से + 6 घटता है। यह सिद्ध करता है कि XeO4-6एक ऑक्सीकारक है, ये F को F2 में ऑक्सीकृत करता है। यह अभिक्रिया सिद्ध करती है कि Na4 xeO6 (या Xe\(\mathbf{O}_{6}^{4}\))F2 की तुलना में प्रबल ऑक्सीकारक है।

प्रश्न 17.
निम्नलिखित अभिक्रियाओं में Ag+ तथा Cu2+ आयन के व्यवहार के बारे में क्या निष्कर्ष निकाला जा सकता है –
1. H3PO2(aq) + 4AgNO3(aq) + 2H2O(l) → H3PO4(aq) + 4Ag(s) + 4HNO3(aq)
2. H3PO2(aq) + 2CuSO4(s) + 22O(l) → H3PO4(aq) + 2Cu(s) + 2H2SO4(aq)
3. C6H5CHO(l) + 2[Ag(NH3)2 \(\mathrm{I}_{(a q)}^{+}\) + 3OH(aq) → C6H6COO(aq) + 2Ag(s) + 4NH3(aq) + 2H2O(l)
4. C6H5CHO(l) + \($2 \mathrm{Cu}_{(a q)}^{2+}$\) + 5OH(aq) → No change

उत्तर:
(a) H3PO2(aq) + 4AgNO3(aq) + 2H2O(l) → H3PO4(aq) + 4Ag0(s) + 4HNO3(aq)
Ag+ आयन Ag में अपचयित हो जाता है इसलिये Ag+ एक ऑक्सीकारक की तरह कार्य करता है तथा ये H3PO2 को H3PO4 में ऑक्सीकृत करता है।

(b) H3PO2(aq) + 2\(\overset { +2 }{ cu } \)SO4(s) + 22O(l) → H3PO4(aq) + 2Cu(s) + 2H2SO4(aq)
Cu2+ आयन Cu(s) में अपचयित होता है। अत: Cu2+ ऑक्सीकारक की तरह कार्य करता है तथा H3PO2 को H3PO4 में ऑक्सीकृत करता है।

(c) C6H5CHO(l) + 2[\(\overset { +1 }{ ag } \)(NH3)]2+(aq)) + 3OH(aq) → C6H6COO(aq) + 2Ag(s)+ 4NH3(aq) + 2H2O(l)
उपर्युक्त क्रिया में Ag+ आयन Ag(s)अपचयित होता है अर्थात् यह ऑक्सीकारक का कार्य करता है, ये C6H5CHO(l) को CHECOO(aq) में ऑक्सीकृत करता है।

(d) C6H5CHO(l) + 2Cu2+(aq) + 5OH(aq) → कोई परिवर्तन नहीं, यह रेडॉक्स अभिक्रिया नहीं है।

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प्रश्न 18.
आयन इलेक्ट्रॉन विधि से निम्नलिखित रेडॉक्स अभिक्रियाओं को संतुलित कीजिए –
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 75
उत्तर:
(a) पद 1.
अभिक्रिया के लिये ढाँचागत (कंकाल) समीकरण है –
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 34

पद 2.
दोनों अर्द्ध अभिक्रिया लिखने पर,
ऑक्सीकरण अर्द्ध अभिक्रिया-
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 35
अपचयन अर्द्ध अभिक्रिया –
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 36

पद 3.
अर्द्ध अभिक्रिया में परमाणु को संतुलित करने पर,
2I(aq)→ I2(s)
दूसरे समीकरण में इस पद की आवश्यकता नहीं है क्योंकि Mn संतुलित है।

पद 4.
अर्द्ध अभिक्रिया में इलेक्ट्रॉन योग द्वारा आवेश संतुलित करना –
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 77

पद 5.
ऑक्सीजन तथा H परमाणुओं को संतुलित करना –
MnO4(aq) + 3e → MnO2(s) + 2H2O(l))

H परमाणुओं को संतुलित करने के लिये हम 4H+ आयनों को बायें तरफ जोड़ते हैं –
MnO4+ 4H(aq) → MnO2(s) + 2H2O(l)

अभिक्रिया क्षारीय माध्यम में हो रही है इसलिये 4H+ आयन के लिये हम 4OH आयनों को समीकरण के दोनों तरफ जोड़ते हैं –
MnO4(aq) + 4H+(aq) + 4OH(aq) → MnO2(s)+ 2H2O(l) + 4OH(aq)

H+ तथा OH आयन पानी बनाते हैं इसलिये परिणामी समीकरण होगा –
MnO4(aq) + 2H2O(aq) + 3e → MnO2(s)) + 4OH(aq)

पद 6.
दोनों अर्द्ध समीकरणों में इलेक्ट्रॉनों को संतुलित करने पर,
2I(aq) → I2(s) ) + 2e ………….(i)
MnO4(aq) + 2H2O(aq) + 3e → MnO2(s) + 4OH(aq) ………….(ii)

संमी. (i) को 3 तथा समी. (ii) को 2 से गुणा कर योग करने पर,
6I(aq) + 2MnO4(aq) + 4H2O(l)→ 3I2(s) + 2MnO2(s) + 8OH(aq)

(b) उपर्युक्त समीकरण के बतायी गई विधि के उपयोग द्वारा ऑक्सीकारक अर्द्ध समीकरण होगा –
SO2(g) + 2H2O(l) → HSO4(aq) + 3H+(aq) + 2e ………….(i)
अपचयन अर्द्ध समीकरण होगा –
MnO4(aq)+ 8H(aq) + 5e → Mn2+(aq) + 5HSO+4(aq) ………….(ii)
समी. (i) को 5 तथा समी. (ii) को 2 से गुणा कर योग करने पर,
2MnO+4(aq)+ 5SO2(g) + 2H2O(l) + H+(aq) → 5HSO4(aq) + 2Mn2+(aq)

(c) ऊपर वर्णित प्रथम पाँच पदों के उपयोग द्वारा ऑक्सीकरण अर्द्ध समीकरण होगा –
Fe2+(aq) → Fe3+(aq) + e ………….(i)
अपचयन अर्द्ध समीकरण होगा –
H2O2(aq) + 2H+(aq) + 2e → 2H2O(l) ………….(ii)
समीकरण (i) को 2 से गुणा करके समीकरण (ii) से जोड़ने पर प्राप्त होता है –
H2O2(aq) + 2Fe2+(aq) + 2H+ → 2Fe3+(aq)+ 2H2O(l)

(d) उपर्युक्त विधि द्वारा वर्णित विधि के 5 पदों के प्रयोग द्वारा संतुलित अर्द्ध अभिक्रिया है –
ऑक्सीकरण अर्द्ध समीकरण –
SO2(g) + 2H2O(l) → SO2-4(aq) + 4H+4(aq) + 2e ………….(i)
अपचयन अर्द्ध समीकरण –
Cr2O2-7(aq)+ 14H(l) + 6e → 2Cr3+(aq) + 7H2O(l) ………….(ii)
समीकरण (i) का 3 से गुणा करके समीकरण (ii) के साथ जोड़ने पर,
Cr2O2-7(aq) + 3SO2(g)+ 2H+(aq) → 2Cr+(s) + 3SO2-4(aq)+ H2O(l).

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प्रश्न 19.
क्षारीय माध्यम में निम्नलिखित रेडॉक्स अभिक्रियाओं को आयन-इलेक्ट्रॉन विधि तथा ऑक्सीकरण संख्या विधि से संतुलित कीजिए। क्रियाओं में ऑक्सीकारक तथा अपचायक की पहचान कीजिए –
(a) P4(s) + OH(aq) → PH3(aq) + H2PO2(aq)
(b) NH2H4(l) + ClO3(aq) → NO(g) + Cl(g)
(c) Cl2 O7(g) + H2O2(aq) → ClO2(g) + O2(g) + H+
उत्तर:
(a) ऑक्सीकरण संख्या विधि –
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 43
अतः O.N. में कमी या वृद्धि को संतुलित करने के लिये PH, को 1 से तथाHPO, को 3 से गुणा करने पर –
P4(s) + OH(aq) → PH3(s) + 3H2PO2(aq)

क्षारीय माध्यम में ‘O’ तथा ‘H’ को संतुलित करने पर,
P4(s) + 3OH(aq) + 3H2O(g) → PH3(g) + 3H2PO2(aq)

आयन – इलेक्ट्रॉन विधि –
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 38

ऑक्सीकरण अर्द्ध में P परमाणु को संतुलित करना –
P4 →4H2 PO2(aq)

O.N. को e जोड़कर संतुलित करना –
P4(s) →4H2PO2 + 4e

8 OH आयन को जोड़कर आवेश संतुलित करना –
P4 + 8OH(aq) → 4H2 PO2 + 4e

‘H’ तथा ‘O’ स्वतः संतुलित हो जाते हैं।
अब अपचयन अर्द्ध P4(s) → PH3(g)
P परमाणु को संतुलित करना P4(s) → 4PH3(g)

e जोड़कर O.N. को संतुलित करना –
P4(s) + 12e → 4PH3(g)

आवेश को OH द्वारा संतुलित करना –
P4(s) + 12e → 4PH3(g) + 12OH(aq)

H2O को जोड़कर ‘O’ को संतुलित करना –
P4(s) + 12e + 12H2O(l) → 4PH3(g) + 12OH(aq)

इलेक्ट्रॉनों की कमी या वृद्धि को समान करने के लिये ऑक्सीकरण अर्द्ध को 3 से गुणा कर संयुक्त करने पर –
4P4(s) + 24OH(aq) + 12H2O(l) → 4PH3(g)+ 12H2PO2(aq) + 12OH(aq)
या
P4(s) +3OH(aq) + 3H2O(l) → PH3(g)+ 3H2PO2(aq)

(b) ऑक्सीकरण संख्या विधि –
N के O.N. में कुल कमी N = 2 x 4 = 8
Cl के O.N. में कुल वृद्धि Cl = 1 x 6 = 6
O.N. को संतुलित करने के लिए N.H, को 3 से तथा ClO3 को 4 से गुणा करने पर –
3N2H4(l) + 4CIO3(aq) → NO(g) + Cl(aq)

N तथा Cl अणु को संतुलित करना –
3N2H4(l) + 4ClO3(aq) → 6NO(g) + 4Cl(aq)

6H2O को जोड़कर O अणु को संतुलित करना –
3N2H4(l) + 4ClO3(aq) → 6NO(g) + 4Cl(aq) + 6H2O(l)
यह ही आवश्यक संतुलित समीकरण है।

आयन-इलेक्ट्रॉन विधि –
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 39

N परमाणु को संतुलित करना –
N2H4(l)→ 2NO(g)

O.N. को जोड़कर संतुलित करना –
N2H4(l) → 2NO(g) + 8e

आवेश को OH जोड़कर संतुलित करना –
N2H4(l) + 8OH(aq) → 2NO(g) + 8e

‘O’ परमाणु को संतुलित करना –
N2H4(l) + 8OH(aq) → 2NO(g) + 6H2O2(l) + 8e
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 40

O.N. को इलेक्ट्रॉन जोड़कर संतुलित करना –
CIO3(aq) + 6e → Cl(aq)

आवेश को OH जोड़कर संतुलित करना –
CIO3(aq) + 6e → Cl(aq) + 6OH(aq)

O’ परमाणु को संतुलित करना –
ClO3(aq) + 3H2O(l) + 6e → Cl(aq) + 6OH(aq)

e के कमी या वृद्धि को अपचयन अर्द्ध को 4 से तथा ऑक्सीकरण अर्द्ध को 3 से गुणा कर समान करने पर –
3N2H4(l) + 4ClO3(aq) + 6e → Cl(aq) + 6H2O(l)

(c) ऑक्सीकरण संख्या विधि –
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 78
O.N. में कमी व वृद्धि को H2O2 को 4 से गुणा कर संतुलित करने पर –
Cl2O7+ 4H2O2 → ClO2 + O2

दूसरे परमाणुओं को संतुलित करने पर –
Cl2O7(g) + 4H2O2(aq) → 2ClO2O2(aq) + 4O2(g)

आवेश संतुलित करने पर –
Cl2O7(g) + 4H2O2(aq) + 2OH(aq) → 2CIO2(aq) + 4O2(g)

‘H’ संतुलित करने पर –
Cl2O7(g) + 4H2O2(aq) + 2OH(aq) → 2CIO2(aq) + 4O2(g) + 5H2O

आयन-इलेक्ट्रॉन विधि –
ऑक्सीकरण अर्द्ध समीकरण –
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 79
2 इलेक्ट्रॉन जोड़कर O.N. को संतुलित करना –
H2O2(aq) → O2(g) + 2e

2OH जोड़कर आवेश को संतुलित करना –
H2O2(aq) + 2OH(aq) → O2(g) + 2e

2H2O जोड़कर ऑक्सीजन अणु को संतुलित करना –
H2O2(aq) + 2OH(aq) → O2(g) + 2H2O(l) + 2e ………(i)

अपचयन अर्द्ध समीकरण –
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 80
Cl अणु को संतुलित करना –
Cl2O7(g) → 2ClO2(aq)

8 इलेक्ट्रॉनों को जोड़कर O.N. को संतुलित करना
Cl2O7(g) + 8e → 2ClO2(aq)

6OH जोड़कर आवेश को संतुलित करना –
ClO2O7(g) + 8e → 2CIO2(aq) + 6OH(aq)

3H2O जोड़कर ऑक्सीजन अणु को संतुलित करना –
Cl2O7(g) + 3H2O(l) + 8e → 2CIO2(aq) + 6OH(aq) ………(ii)

संतुलित समीकरण, समीकरण (i) में 4 का गुणा करके और समीकरण (ii) में जोड़कर प्राप्त किया जा सकता है –
Cl2O7(g) + 4H2O2(aq) + 2OH(aq) → 2CIO2(aq)+ 4O2(g) + 5H2O(l)

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प्रश्न 20.
निम्नलिखित अभिक्रिया के बारे में चार सूचनाएँ लिखिए –
(CN)2(g) + 20H(aq) → CN(aq) + CNO(aq) + H2O(l)
उत्तर:

  • यह एक विषमानुपाती अभिक्रिया है।
  • अभिक्रिया क्षारीय माध्यम में होती है।
  • N का ऑक्सीकरण संख्या (CN)2 में -3 तथा CN में -2 तथा CNO में -5 है।
  • सायनोजन (CN)2 एक साथ CN आयन में अपचयित तथा CNO आयन में ऑक्सीकृत होता है।

प्रश्न 21.
Mn3+ आयन एक अस्थायी आयन है तथा विलयन में विषमानुपाती अपघटन से Mn3+ MnO2 तथा H+ आयन देता है। अभिक्रिया का संतुलित समीकरण लिखिए।
उत्तर:
2Mn3+ + 2H2O → Mn2+ + MnO2 + 4H+

प्रश्न 22.
निम्नलिखित तत्वों पर विचार कीजिए –
Cs, Ne, I, F
उस तत्व की पहचान करो जो –

  • केवल ऋण ऑक्सीकरण अवस्था देता है।
  • जो केवल धन ऑक्सीकरण अवस्था देता है।
  • जो धन तथा ऋण दोनों अवस्थाएँ देता है।
  • जो कोई भी ऑक्सीकरण अवस्था प्रदर्शित नहीं करता।

उत्तर:

  • F(-1); यह सर्वाधिक विद्युत्ऋणी तत्व है।
  • Cs(+1); यह सर्वाधिक विद्युत्धनी तत्व है।
  •  I; (-1 से +7)
  • Ne; यह शून्य समूह का तत्व है।

प्रश्न 23.
जल को क्लोरीन से शुद्ध कर पेयजल बनाया जाता है। अधिक क्लोरीन हानिकारक है, उसे SO2 गैस से अभिकत करके अलग किया जाता है। जल में होने वाली इस रेडॉक्स अभिक्रिया के लिए संतुलित रासायनिक समीकरण लिखिए।
उत्तर:
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 44

प्रश्न 24.
आवर्त तालिका का अवलोकन करते हुए निम्नांकित के उत्तर लिखिए –
(a) ऐसी संभावित अधातुओं को छाँटो जो विषमानुपाती अपघटन देती हैं।
(b) ऐसी तीन धातुओं को छाँटो जो विषमानुपाती अपघटन देती हैं।
उत्तर:
(a) अधातु P4 Cl2 Br2 I2 तथा S8 द्वारा प्रदर्शित विषमानुपाती (अपघटन) अभिक्रियायें हैं –

  • P4(s) + 3OH(aq) + 3H2O(l) → PH3(g) + 3H2PO2(aq)
  • Cl2(aq) + 2OH(aq) → Cl(aq) + CIO(aq) + H2O
  • S8(s) + 12HO(aq) → 4S + 2SO2O2-(aq)+ 6H2O(l)

(b) तीन धातुएँ जो विषमानुपाती अपघटन अभिक्रिया देती हैं –
Cu2+, Ga+ In+

  • 2Cu+(aq)→ Cu++(aq)+ Cu(s)
  • 3Ga+(aq) → Ga3+(aq) + 2Ga(s)
  • 3In+(aq) → In3+(aq) + 2In(s).

प्रश्न 25.
नाइट्रिक अम्ल के निर्माण में (ओस्टवाल्ड विधि) प्रथम पद में अमोनिया का ऑक्सीजन गैस से ऑक्सीकरण होकर नाइट्रिक ऑक्साइड तथा वाष्प बनती है। 10.00 ग्राम अमोनिया तथा 20.00 ग्राम ऑक्सीजन से अधिक से अधिक कितने ग्राम नाइट्रिक ऑक्साइड बनेगी?
हल:
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 81
∴ 68 ग्राम NH3 से NO = 120 ग्राम
∴ 10 ग्राम NH3 से NO = \(\frac { 120 × 10 }{68 }\)=17.65 ग्राम
∴ 160 ग्राम ऑक्सीजन से NO = 120 ग्राम
∴ 20 ग्राम ऑक्सीजन से NO = \(\frac { 120 × 20 }{160 }\) = 15 ग्राम

प्रश्न 26.
सारणी में दिये प्रमाणिक इलेक्ट्रोड विभव के उपयोग करते हुये बताइये कि अभिक्रिया संभव है या नहीं –
1. Fe3+(aq) और I(aq)
2.  Ag+(aq और Cu(s)
3. Fe3+(aq) और Br(aq)
4. Ag(s) और Fe3+(aq)
5. Br2(aq) और Fe3+(aq)

उत्तर:
1. Fe3+(aq) + I(aq) → Fe2+(aq) + \(\frac { 1 }{ 2 }\) I2
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 82
मान धनात्मक है अतः अभिक्रिया संभव है।

2. Ag+(aq) + Cu(s) →Ag0+ Cu+2
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 46
मान धनात्मक है अतः अभिक्रिया संभव है।

3. Fe3+(aq) + Br(aq)→ Fe2+(aq) + Br2(गैस)
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 47
मान ऋणात्मक है, अतः अभिक्रिया संभव नहीं है।

4.  Ag(s) + Fe3+(aq) → Ag+(aq) + Fe2+(aq)
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 48
मान ऋणात्मक है, अतः अभिक्रिया संभव नहीं है।

5. Br2(aq) + 2Fe2+(aq) → 2Fe3+(aq) + 2Br(aq)
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 49
मान धनात्मक है अतः अभिक्रिया संभव है।

प्रश्न 27.
निम्नलिखित प्रत्येक के विद्युत् – अपघटन के उत्पादों की भविष्यवाणी कीजिये –
(a) सिल्वर इलेक्ट्रोड के साथ AgNO3 का जलीय विलयन
(b) प्लेटिनम इलेक्ट्रोड के साथ AgNO3 का जलीय विलयन
(c) प्लेटिनम इलेक्ट्रोड के साथ H2SO4 का तनु विलयन
(d) प्लेटिनम इलेक्ट्रोड के साथ CuCI2 का जलीय विलयन।
उत्तर:
(a) कैथोड पर – Ag+ +e →Ag(s)
एनोड पर – Ag → Ag+(aq) + e

(b) कैथोड पर – Ag+ +e →Ag(s)
एनोड पर – 2OH → H2O + \(\frac { 1 }{ 2 }\) O2 + 2e

(c) कैथोड पर – 2H+ + 2e → H2
एनोड पर – 20H → H2O +\(\frac { 1 }{ 2 }\)O2 + 2e

(d) कैथोड पर – Cu+2 + 2e → Cu(s)
एनोड पर – 2Cl → Cl2(g) + 2e.

प्रश्न 28.
निम्नलिखित धातुओं को इस क्रम में व्यवस्थित कीजिये जिसमें वे एक दूसरे को उनके लवणों के विलयनों से विस्थापित करते हैं –
Al, Cu, Fe, Mg और Zn.
उत्तर:
Mg, Zn, Fe, Cu.

प्रश्न 29.
प्रमाणिक इलेक्ट्रोड विभव दिये गये हैं –
K+/ K = -2.93V,
Ag+/ Ag = 0.80V
Hg 2+/ Hg = 0.79V
Mg2+/ Mg = -2.37V,
Cr3+/ Cr = 0.74V
इन धातुओं को उनके बढ़ते अपचयन क्षमता में व्यवस्थित कीजिये।
उत्तर:
अपचयन विभव का कम मान (प्रमाणिक अपचयन विभव का ज्यादा ऋणात्मक होना) होने पर अपचयन क्षमता अधिक होगी –
Ag < Hg

प्रश्न 30.
गैल्वेनिक सेल जिसमें निम्न अभिक्रिया Zn(s) + 2Ag+(aq) → Zn2+(aq) + 2Ag(s) होती है, दर्शाये तथा प्रदर्शित कीजिये –

  • कौन – सा इलेक्ट्रोड ऋण आवेशित है।
  • सेल में धारा को ले जाने वाला है।
  • प्रत्येक इलेक्ट्रोड की अलग-अलग अभिक्रियायें।

उत्तर:

  • Zn(s) |Zn2+(aq)|| Ag+(aq) | Ag(s) एनोड पर ऑक्सीकरण तथा कैथोड पर अपचयन होता है।
  • इलेक्ट्रॉन।
  • Zn(s) → Zn2+ + 2e (एनोड)
    2Ag+(aq) + 2e → 2Ag(s) (कैथोड)।

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अपचयोपचय अभिक्रियाएँ अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न

अपचयोपचय अभिक्रियाएँ वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
सही विकल्प चुनकर लिखिए –

प्रश्न 1.
धातुएँ जो डेनियल सेल में प्रयुक्त होती हैं –
(a) N और Cu
(b) Zn और Ag
(c) Ag और Cu
(d) Zn और Cu.
उत्तर:
(d) Zn और Cu.

प्रश्न 2.
निम्न में से कौन-सा प्रबल अपचायक है –
(a) F
(b) Cr
(c) Br
(d) I.
उत्तर:
(d) I.

प्रश्न 3.
वैद्युत अपघटन में ऑक्सीकरण होता है –
(a) ऐनोड पर
(b) कैथोड पर
(c) दोनों इलेक्ट्रोडों पर
(d) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(a) ऐनोड पर

प्रश्न 4.
निम्न कथनों में से कौन – सा सही है ? गैल्वेनिक सेल परिवर्तित करता है –
(a) रासायनिक ऊर्जा को विद्युत् ऊर्जा में
(b) विद्युत् ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में
(c) धातु को उसकी तत्व अवस्था से संयुक्त अवस्था में
(d) विद्युत् – अपघट्य को व्यक्तिगत आयनों में।
उत्तर:
(a) रासायनिक ऊर्जा को विद्युत् ऊर्जा में

प्रश्न 5.
K,MnO में Mn की ऑक्सीकरण संख्या है –
(a) +2
(b) +6
(c) +7
(d) 0.
उत्तर:
(b) +6

प्रश्न 6.
Ni(CO) में Ni की ऑक्सीकरण संख्या है –
(a) 0
(b)+2
(c) +1
(d) -1.
उत्तर:
(a) 0

प्रश्न 7.
नाइट्रोजन की ऑक्सीकरण अवस्था किसमें उच्चतम है –
(a) N3H
(b) NH2OH
(c) N2H4
(d) NH3
उत्तर:
(a) N3H

प्रश्न 8.
K4[Fe (CN)6] में Fe की ऑक्सीकरण अवस्था है –
(a) +2
(b) +6
(c) +3
(d) +4.
उत्तर:
(a) +2

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प्रश्न 9.
H2S2O8, में S की ऑक्सीकरण संख्या है –
(a) +2
(b) +4
(c) +6
(d) 7.
उत्तर:
(c) +6

प्रश्न 10.
किस यौगिक में Cl की ऑक्सीकरण संख्या +1 है –
(a) Cl2O
(b) HCl
(c) ICl
(d) HClO4
उत्तर:
(a) Cl2O

प्रश्न 11.
सबसे आसानी से अपचयित होने वाला हैलोजन है –
(a) F2
(b) Cl2
(c) Br2
(d) I2
उत्तर:
(a) F2

प्रश्न 12.
CCl4 में C की ऑक्सीकरण संख्या है –
(a) +4
(b) -4
(c) +6
(d) -6.
उत्तर:
(a) +4

प्रश्न 13.
ऑक्सीकारक पदार्थ –
(a) इलेक्ट्रॉन ग्राही है
(b) इलेक्ट्रॉन दाता है
(c) प्रोटॉन ग्राही है
(d) न्यूट्रॉन ग्राही है।
उत्तर:
(a) इलेक्ट्रॉन ग्राही है

प्रश्न 14.
अभिक्रिया 3ClO(aq) → ClO3 + 2Cl उदाहरण है –
(a) ऑक्सीकरण
(b) अपचयन
(c) असमानुपातन
(d) विलोपन।
उत्तर:
(c) असमानुपातन

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प्रश्न 15.
S8, S2, F2, H2S में S की ऑक्सीकरण संख्या है –
(a) 0, +1, -2
(b) +2, +1, -2
(c) 0, +1, +2
(d) -2, +1, -2.
उत्तर:
(a) 0, +1, -2

प्रश्न 2.
रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए –

  1. इलेक्ट्रॉन ग्रहण करने वाली अभिक्रिया ……….. कहलाती है।
  2. वायुमण्डलीय गैसों व नमी द्वारा धातुओं में होने वाला अवांछित परिवर्तन ……….. कहलाता है।
  3. विद्युत् रासायनिक श्रेणी में धातुओं की अपचयन क्षमता ऊपर से नीचे जाने पर ……….. है।
  4. सबसे प्रबल अपचायक तत्व ……….. है।
  5. सेल की साम्यावस्था पर Ecell का मान ……….. होता है।
  6. सोडियम अमलगम में सोडियम की ऑक्सीकरण संख्या ……….. है।
  7. Cr(CO)2 में Cr की ऑक्सीकरण संख्या ……….. है।
  8. SiH4, में Si की ऑक्सीकरण संख्या ……….. है।
  9. OF2, और O2, F2, में O की ऑक्सीकरण संख्या क्रमश ……….. है।
  10. Cu(OCl) Cl में Cl की ऑक्सीकरण संख्या क्रमश ……….. है।

उत्तर:

  1. अपचयन
  2. संक्षारण
  3. घटती
  4. लीथियम
  5. शून्य
  6. शून्य
  7. शून्य
  8. – 4
  9. +2, +1
  10. +1, -1.

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प्रश्न 3.
उचित संबंध जोड़िए –
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 1
उत्तर:

  1. (d) लवण सेतु
  2. (f) [Ni (CN)4]2-
  3. (e) एनोड
  4. (a) नर्नस्ट समीकरण
  5. (c) 0.00V
    1. (b) सिल्वर

प्रश्न 4.
एक शब्द / वाक्य में उत्तर दीजिए –

  1. लोहा, ताँबे को उसके लवण के विलयन से विस्थापित क्यों करता है ?
  2. Cl2O में क्लोरीन की ऑक्सीकरण अवस्था कितनी है ?
  3. किसी विद्युत् अपघट्य को जल में विलेय करने पर वह आयनों में क्यों विभाजित हो जाता है ?
  4. लवण – सेतु बनाने हेतु KNO3, के संतृप्त विलयन का उपयोग किया जाता है, क्यों ?
  5. SnCl2 + 2FeCl3 → SnCl4 + 2FeCl2, में ऑक्सीकरण कौन – सा यौगिक है ?
  6. XeO3, में Xe की ऑक्सीकरण संख्या कितनी है ?

उत्तर:

  1. क्योंकि लोहे का मानक अपचयन विभव ताँबे के मानक अपचयन विभव से कम है।
  2. +1
  3. क्योंकि जल के कारण आयनों के मध्य स्थिर वैद्युत आकर्षण बल टूट जाता है।
  4. क्योंकि K+ तथा NO3आयनों का वेग लगभग बराबर होता है।
  5. FeCl3
  6. +6.

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अपचयोपचय अभिक्रियाएँ अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
ऑक्सीकरण प्रक्रम किसे कहते हैं ? रेडॉक्स अभिक्रिया उदाहरण सहित समझाइये।
उत्तर:
ऑक्सीजन या ऋण विद्युती तत्व का योग या हाइड्रोजन अथवा धन विद्युती तत्व का त्याग ऑक्सीकरण कहलाता है।
2Mg + O2 → 2MgO [ऑक्सीजन का योग]
2FeCl + Cl2 → 2FeCl, [ऋण विद्युती तत्व का योग]
H2S + Cl2 → S + 2HCl [हाइड्रोजन का त्याग]
2KI + H2O2 → 2KOH + I2 [धन विद्युती तत्व का त्याग]

प्रश्न 2.
अपचयन या अवकरण प्रक्रम किसे कहते हैं ? उदाहरण सहित समझाइये।
उत्तर:
किसी पदार्थ द्वारा हाइड्रोजन अथवा धन विद्युती तत्व ग्रहण करने की प्रवृत्ति या ऑक्सीजन अथवा ऋण विद्युती तत्व का त्याग करने की प्रक्रिया अपचयन कहलाती है।
CuO + H2 → Cu+H2O[ऑक्सीजन का त्याग]
2FeCl3 + H2S → 2FeCl2 + 2HCl + S [ऋण विद्युती तत्व का त्याग]
C2 + H2 S → 2HCl + S [हाइड्रोजन का योग]
S + Fe → FeS [धन विधुती तत्व का योग]

प्रश्न 3.
AgF2 एक अस्थिर यौगिक है। यदि यह बन जाए, तो यह यौगिक एक अति शक्तिशाली ऑक्सीकारक की भाँति कार्य करता है। क्यों?
उत्तर:
AgF2 में Ag + 2 ऑक्सीकरण अवस्था में है। यह अत्यधिक अस्थायी है यह शीघ्रता से इलेक्ट्रॉन ग्रहण कर Ag + 1 ऑक्सीकरण अवस्था प्राप्त करता है क्योंकि Ag* में पूर्णतया भरे हुए विन्यास का होता है जो कि अधिक स्थायी है।
Ag2+ + e →Ag+ यही कारण है कि AgF2 एक प्रबल ऑक्सीकारक की भाँति व्यवहार करता है।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित अभिक्रियाओं में एक ही अपचायक थायोसल्फेट, आयोडीन तथा ब्रोमीन से अलग-अलग प्रकार से अभिक्रिया क्यों करता है –
2S2O2-3(aq) + I2(s) → S4O2-6(aq) + 2I(aq)
S2O2-3(aq) + 2Br2(l) + 5H2O(l) → 2SO2-4(aq) + 4Br(aq) + 10H+(aq)
उत्तर:
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 50
ब्रोमीन, आयोडीन की अपेक्षा प्रबल ऑक्सीकारक है। यह S2O32-की S (+2) कोSO42   (+2) में ऑक्सीकृत करता है। जबकि आयोडीन S2O2-3 में S(+2) को S4O2-6 में S(+2.5) में ऑक्सीकृत कर पाता है। हम देखते हैं कि SO2-4 की अपेक्षा S4O2-6 में S की ऑक्सीकरण संख्या कम है। यही कारण है एक ही अपचायक थायोसल्फेट, आयोडीन तथा ब्रोमीन से अलग – अलग व्यवहार करता है।

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प्रश्न 5.
S4O2-6 की संरचना से स्पष्ट कीजिए सल्फर की ऑक्सीकरण अवस्था (+ 5) है।
उत्तर:
दो केन्द्रीय सल्फर परमाणुओं की ऑक्सीकरण संख्या शून्य है क्योंकि S-S बंध बनाने वाला इलेक्ट्रॉन युग्म केन्द्र में रहेगा। अतः शेष सल्फर परमाणु जो संरचना में (सिरों) पर है उनकी ऑक्सीकरण संख्या (+5) होगी।
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 51

प्रश्न 6.
विद्युत् रासायनिक श्रेणी किसे कहते हैं ?
उत्तर:
विभिन्न तत्वों एवं आयनों को उनके मानक अपचयन विभव के मानों के बढ़ते हुए क्रम में व्यवस्थित करने से जो श्रेणी प्राप्त होती है, उसे विद्युत् रासायनिक श्रेणी कहते हैं।

प्रश्न 7.
लवण सेतु क्या है ? इसके दो कार्य लिखिए।
उत्तर:
किसी विद्युत् अपघट्य जैसे KCl या KNO3 तथा अगर-अगर विलयन की जेली से भरी हुई U आकार की नली को लवण सेतु कहते हैं।
कार्य:

  • यह परिपथ को पूर्ण करता है तथा धारा को प्रवाहित होने देता है।
  • दोनों पात्रों में उपस्थित विलयन की उदासीनता को बनाये रखता है।

प्रश्न 8.
इलेक्ट्रॉन स्थानान्तरण के आधार पर ऑक्सीकरण और अपचयन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
इलेक्ट्रॉनिक सिद्धान्त के अनुसार, ऑक्सीकरण प्रक्रम में कोई परमाणु मूलक या आयन एक से अधिक इलेक्ट्रॉन का त्याग करता है। अर्थात् उसकी धनात्मक ऑक्सीकरण संख्या में वृद्धि होती है या ऋणात्मक ऑक्सीकरण संख्या में कमी आती है। अपचयन प्रक्रिया में कोई परमाणु मूलक या आयन एक से अधिक इलेक्ट्रॉन ग्रहण करता है, जिससे उसकी धनात्मक ऑक्सीकरण में कमी या ऋणात्मक ऑक्सीकरण संख्या में वृद्धि होती है।
K – e → K+ ऑक्सीकरण
Cu+2 + 2e → Cu° अपचयन

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प्रश्न 9.
वैद्युत रासायनिक तुल्यांक किसे कहते हैं ?
उत्तर:
किसी वैद्युत अपघट्य के विलयन में 1 ऐम्पियर की धारा को 1 सेकण्ड तक प्रवाहित करने पर किसी इलेक्ट्रोड पर मुक्त होने वाली पदार्थ की मात्रा वैद्युत रासायनिक तुल्यांक कहलाती है। इसका मात्रक ग्राम / कूलॉम है।

प्रश्न 10.
Zn धातु को CuSO4 के विलयन में रखने पर क्या होता है ? समीकरण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
Zn धातु को CuSO4 विलयन में डालने पर जिंक Cu को विस्थापित कर देता है क्योंकि जिंक Cu की तुलना में अधिक क्रियाशील है।
Zn + CuSO4 + ZnSO4 + Cu

प्रश्न 11.
मानक इलेक्ट्रोड विभव से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
जब किसी धातु इलेक्ट्रोड को 298 K ताप पर 1 मोलर सान्द्रण वाले विलयन में रखने पर धातु और विलयन के मध्य जो विभवान्तर उत्पन्न होता है उसे मानक इलेक्ट्रोड विभव कहते हैं। इसे E से दर्शाते हैं। यदि इलेक्ट्रोड गैसीय इलेक्ट्रोड है तो गैस का दाब एक वायुमण्डलीय दाब होना चाहिये।

प्रश्न 12.
निम्नलिखित धातुओं को उनके लवणों के विलयन में से विस्थापन के क्षमता के क्रम में लिखिए- AI, Cu, Fe, Mn तथा Zn
उत्तर:
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 52
E 0अपचायक के अधिक ऋणात्मक मान वाली धातु का ऋणात्मक या धनात्मक E 0अपचायक वाली धातुओं की अपेक्षा प्रबल अपचायक अभिकर्मक है। अत: Mg दी गई सभी धातुओं को उनके लवणों के जलीय विलयन से विस्थापित कर सकती है। AI, Mg के अतिरिक्त सभी धातुओं को उनके लवणों के जलीय विलयन से विस्थापित कर सकती है। Zn, Fe तथा Cu को उनके लवणों के जलीय विलयन से विस्थापित कर सकती है। Fe केवल Cu को उसके लवणों के जलीय विलयन से विस्थापित कर सकती है। अतः धातुओं का लवणों के जलीय विलयन से विस्थापित करने की क्षमता का क्रम निम्न है-Mg, AI, Zn, Fe, Cu.

प्रश्न 13.
निम्नलिखित अभिक्रिया विरंजन की प्रक्रिया को प्रदर्शित करती है। उस स्पीशीज को पहचान कर उसका नाम लिखिए जो पदार्थों को उसकी ऑक्सीकारक प्रवृत्ति के कारण विरंजित करती है।
Cl2(aq) + 2OH(aq) → CIO(aq) + Cl(aq) + H2O(l)
उत्तर:
प्रत्येक तत्व की ऑक्सीकरण संख्या को उसके प्रतीक के ऊपर लिखने पर,
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 53
इस क्रिया में Cl की ऑक्सीकरण संख्या 0(Cl2) में बढ़कर 1 (ClO) में हो जाती है। जबकि 0(Cl2) में से घटकर -1 (Cl) हो जाती है। अतः क्लोरीन अपचायक और ऑक्सीकारक दोनों की भाँति व्यवहार करती है। यह एक असमानुपातन अभिक्रिया का उदाहरण है। इस क्रिया में ClO(हाइपोक्लोरेट आयन) अपने ऑक्सीकारक गुण के कारण पदार्थों को विरंजित करती हैं। ClO में, Cl अपनी ऑक्सीकरण संख्या + 1 से 0 अथवा -1 तक घटा सकता है।

प्रश्न 14.
ऑक्सीकारक व अपचायक को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
ऑक्सीकारक:
वह अभिकारक जो दूसरे अभिकारक से इलेक्ट्रॉन ग्रहण कर उसे ऑक्सीकृत कर देता है तथा स्वयं अपचयित हो जाता है ऑक्सीकारक कहलाता है।

अपचायक:
वह अभिकारक जो स्वयं इलेक्ट्रॉन का त्याग कर दूसरे अभिकारक को अपचयित कर देता है तथा स्वयं ऑक्सीकृत होता है, अपचायक कहलाता है।
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 54

प्रश्न 15.
लोहे की एक छड़ को यदि CuSO4 के विलयन में रखा जाये तो ताँबा विस्थापित हो जाता है। परन्तु ताँबे की छड़ को FeSO4 के विलयन में डालने पर लोहा विस्थापित नहीं होता है, क्यों ?
उत्तर:
लोहा कॉपर की तुलना में अत्यधिक क्रियाशील है इसलिये CuSO4 के विलयन में Fe की छड़ रखने पर Fe विलयन में से Cu को प्रतिस्थापित कर देता है।
Fe + CuSO4 → FeSO4 +Cu

लेकिन कम क्रियाशील होने की वजह से Cu, FeSO4 विलयन में से Fe को प्रतिस्थापित नहीं कर पाता है।
Cu + FeSO4 → कोई अभिक्रिया नहीं।

प्रश्न 16.
क्या हम CuSO4के विलयन को रजत के पात्र में रख सकते हैं और क्यों ?
उत्तर:
विद्युत् रासायनिक श्रेणी में रजत Cu के नीचे आता है अर्थात् Ag की क्रियाशीलता Cu से कम है इसलिये Ag, CuSO4 विलयन में Cu को प्रतिस्थापित नहीं करेगा इसलिये रजत के पात्र में CuSO4को रखा जा सकता है।

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प्रश्न 17.
ऑक्सीकरण संख्या किसे कहते हैं ?
उत्तर:
किसी तत्व की ऑक्सीकरण संख्या वह संख्या है जो किसी आयन में उपस्थित उस तत्व के परमाणु पर उपस्थित आवेश को दर्शाती है। इसका मान धनात्मक, ऋणात्मक या उदासीन हो सकता है।
उदाहरण – KMnO4 में Mn की ऑक्सीकरण संख्या + 7 है।

प्रश्न 18.
फ्लुओरीन बर्फ से अभिक्रिया करके यह परिवर्तन लाती है –
H2O(s)+ F2(g) → HF(g) + HOF(g) इस अभिक्रिया का रेडॉक्स औचित्य स्थापित कीजिए।
उत्तर:
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 55
F का ऑक्सीकरण संख्या 0 (F2 में ) से घटकर -1 (HF में ) हो जाता है तथा 0 का ऑक्सीकरण संख्या -2 (H2O में) से बढ़कर + 2 (OF2 में) हो जाती है। अत: F2 का अपचयन तथा H2O का ऑक्सीकरण हो रहा है। अतः यह अभिक्रिया रेडॉक्स अभिक्रिया है।

प्रश्न 19.
MnO42- अम्लीय माध्यम में असमानुपातन अभिक्रिया प्रदर्शित करता है परन्तु MnO42- नहीं करता है। कारण भी दीजिए।
उत्तर:
MnO42- में Mn की ऑक्सीकरण संख्या + 6 है। यह अपनी ऑक्सीकरण संख्या में वृद्धि (+7) या कमी (+ 4, + 3, + 2, 0 तक) कर सकता है। अतः यह अम्लीय माध्यम में असमानुपातन अभिक्रिया प्रदर्शित करता है।
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 56
MnO4 में Mn अपनी उच्चतम ऑक्सीकरण अवस्था (+7) में है। यह अपनी ऑक्सीकरण संख्या में केवल कमी कर सकता है। जिसके कारण यह असमानुपातन अभिक्रिया प्रदर्शित नहीं कर पाता है।

प्रश्न 20.
निम्न अभिक्रिया में किसका ऑक्सीकरण और किसका अपचयन हो रहा है –
PbS + 4H2O2 → PbSO4 + 4H2O
उत्तर:
इस अभिक्रिया में PbS का PbSO4 में ऑक्सीकरण हो रहा है तथा H2O2 का H2O में अपचयन हो रहा है।

प्रश्न 21.
ऑक्सीकरण संख्या व संयोजकता में क्या अंतर है ?
उत्तर:
ऑक्सीकरण संख्या व संयोजकता में अंतर –

  • ऑक्सीकरण संख्या
  • यह वह संख्या है जो किसी आयन पर उपस्थित आवेश को दर्शाती है।
  • ऑक्सीकरण संख्या धनात्मक, ऋणात्मक होती है इसका मान शून्य भी हो सकता है।
  • इसका मान पूर्णांक में या भिन्नात्मक भी हो सकता है।

संयोजकता

  • इलेक्ट्रॉनों की वह संख्या जिसे कोई दान करता है या ग्रहण करता है।
  • संयोजकता का मान धन या ऋण आवेश रहित होता है।
  • इसका मान सदैव पूर्णांक में होता है।

प्रश्न 22.
विद्युत् रासायनिक श्रेणी में धातुओं की सक्रियता किस क्रम में घटती और बढ़ती है ?
उत्तर:
जिस धातु का मानक अपचयन विभव का मान जितना अधिक ऋणात्मक होता है उसकी इलेक्ट्रॉन त्याग करने की प्रवृत्ति उतनी अधिक होती है तथा वह धातु उतनी अधिक क्रियाशील होती है। इस प्रकार विद्युत् रासायनिक श्रेणी में ऊपर से नीचे आने पर क्रियाशीलता में कमी आती है।

प्रश्न 23.
गैल्वेनिक सेल के लिये E cell का धनात्मक मान क्या दर्शाता है ?
उत्तर:
गैल्वेनिक सेल के Ecell का धनात्मक मान दर्शाता है कि –

  • जिस इलेक्ट्रोड पर ऑक्सीकरण हो रहा है उसे एनोड की भाँति माना जाये।
  • जिस इलेक्ट्रोड पर अपचयन हो रहा है उसे कैथोड की तरह माना जाये।

प्रश्न 24.
इलेक्ट्रोड विभव क्या है ? इसका मान किन कारकों पर निर्भर करता है ?
उत्तर:
किसी धातु इलेक्ट्रोड को उनके आयनों के किसी लवण के विलयन के संपर्क में रखने पर धातु तथा विलयन के मध्य उत्पन्न हुआ विभवान्तर इलेक्ट्रोड विभव कहलाता है । इलेक्ट्रोड विभव किसी अर्द्ध सेल में किसी इलेक्ट्रोड द्वारा इलेक्ट्रॉन मुक्त करने या इलेक्ट्रॉन ग्रहण करने की प्रवृत्ति है।

प्रश्न 25.
फ्लुओरीन असमानुपातन अभिक्रिया प्रदर्शित नहीं करता है, क्यों ? ..
उत्तर:
असमानुपातन अभिक्रिया में एक ही स्पीशीज एक साथ ऑक्सीकृत तथा अपचयित होती है। अतः ऐसी रेडॉक्स अभिक्रिया के होने के लिए अभिकारक स्पीशीज में कम से कम तत्व अवश्य होना चाहिए जो कम से कम तीन ऑक्सीकरण अवस्थाएँ प्रदर्शित करता हो। अभिकारक स्पीशीज में तत्व मध्यवर्ती ऑक्सीकरण संख्या में होना चाहिए जबकि निम्न और उच्च ऑक्सीकरण अवस्थाएँ क्रमशः अपचयन तथा ऑक्सीकरण के लिए उपलब्ध होनी चाहिए। फ्लुओरीन प्रबलतम ऑक्सीकारक पदार्थ है। यह धनात्मक ऑक्सीकरण अवस्था (संख्या) प्रदर्शित नहीं करता है। यही कारण है कि फ्लुओरीन असमानुपातन अभिक्रिया प्रदर्शित नहीं करता है।

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प्रश्न 26.
उस गैल्वेनिक सेल को चित्रित कीजिए, जिसमें निम्न अभिक्रिया होती है –
Zn(s) + 2Ag+(aq) → Zn2+(aq) + 2Ag(s)
अब बताइए कि –

  1. कौन-सा इलेक्ट्रोड ऋण आवेशित है?
  2. सेल में विद्युत्धारा का वाहक कौन है ?
  3. प्रत्येक इलेक्ट्रोड पर होने वाली अभिक्रियाएँ क्या हैं ?

उत्तर:
गैल्वेनिक सेल –
Zn(s) |Zn2+(aq)| Ag+(aq)| Ag(s)

  1. Zn इलेक्ट्रोड ऋणात्मक आवेशित है। Zn का Zn+2 आयनों में ऑक्सीकरण होता है।
  2. धारा सिल्वर से जिंक इलेक्ट्रोड की ओर बहेगी एवं इलेक्ट्रॉन जिंक से सिल्वर की ओर बहेगा।
  3. इलेक्ट्रोड पर होने वाली अभिक्रिया

कैथोड – Zn → Zn2+ + 2e
एनोड- 2Ag2++2e → 2Ag(s)

प्रश्न 27.
नीचे दिए गए मानक इलेक्ट्रोड विभवों के आधार पर धातुओं को उनकी बढ़ती अपचायक क्षमता के क्रम में लिखिए –
1. K+/K = – 2.93V
2. Ag / Ag = 0 – 80V
3. Hg + /Hg = 0.79V
4. Mg + /Mg = -2:37V
5. Cr+3 /Cr =  – 0.74V.
उत्तर:
मानक इलेक्ट्रोड विभव (E ) का मान जितना कम है, पदार्थ उतना ही प्रबल अपचायक होता है। अतः धातुओं की बढ़ती हुई अपचायक क्षमता का क्रम निम्न है- Ag < Hg < Cr < Mg

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प्रश्न 28.
निम्नलिखित अभिक्रिया क्यों होती है –
XeO4-6(aq) + 2F(aq) +6H+(aq) →XeO3(g)+ F3(g) +3H2O(l). यौगिक Na4Xe06 (जिसका एक भाग XeO4-6(aq) है) के बारे में आप इस अभिक्रिया से क्या निष्कर्ष निकाल सकते हैं ?
उत्तर:
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 57
उपर्युक्त अभिक्रिया में Xe की ऑक्सीकरण संख्या +8(XeO4-6(aq) में) से घटकर +6(XeO3 में) होती है तथा F की ऑक्सीकरण संख्या -1 (F में) से बढ़कर 0 (F, में) हो जाती है अतः XeO4-6(aq)या Na XeO6 अपचयित होता है तथा F ऑक्सीकृत होता है। यह अभिक्रिया संभव है क्योंकि Na4XeO6 या XeO4-6(aq)फ्लुओरीन की अपेक्षा प्रबल ऑक्सीकारक है।

प्रश्न 29.
Mgo, Zn0, Cuo और Cao में कौन-सा ऑक्साइड हाइड्रोजन से अपचयित होगा और क्यों?
उत्तर:
Mg, Zn तथा Ca विद्युत् रासायनिक श्रेणी में हाइड्रोजन की तुलना में अत्यधिक क्रियाशील हैं इसलिये ये हाइड्रोजन द्वारा अपचयित नहीं होंगे। Cu विद्युत् रासायनिक श्रेणी में हाइड्रोजन के नीचे व्यवस्थित है अर्थात् Cu की क्रियाशीलता हाइड्रोजन से कम है इसलिये CuO हाइड्रोजन द्वारा सरलता से अपचयित हो जाता है।

प्रश्न 30.
Ag, Ba, Mg और Au के E के मान क्रमशः + 0.80, – 2.90, – 2.37 और + 1.42 Volt है, इसमें कौन-सी धातु अम्लों में से हाइड्रोजन को विस्थापित करेगी और कौन-सी नहीं?
उत्तर:
जिन धातुओं के E° के मान ऋणात्मक होते हैं वे हाइड्रोजन की तुलना में अधिक क्रियाशील हैं तथा तनु अम्लों में से हाइड्रोजन को सरलता से विस्थापित कर सकते हैं। इसलिये Ba तथा Mg तनु अम्लों में H2 को प्रतिस्थापित कर सकते हैं। तथा Ag और Au के E° के मान धनात्मक हैं ये हाइड्रोजन की तुलना में कम क्रियाशील हैं इसलिये ये तनु अम्लों में से हाइड्रोजन को प्रतिस्थापित नहीं कर सकते।।

प्रश्न 31.
विद्युत् रासायनिक सेल की परिभाषा लिखिये। डेनियल सेल की रासायनिक अभिक्रिया दर्शाइये।
उत्तर:
वह पात्र या निकाय जिसमें रासायनिक अभिक्रिया के फलस्वरूप विद्युत् धारा उत्पन्न होती है विद्युत् रासायनिक सेल कहलाता है। इसमें होने वाली रेडॉक्स अभिक्रिया अप्रत्यक्ष होती है अर्थात् ऑक्सीकरण और अपचयन अभिक्रिया अलग – अलग पात्र में होती है।
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 58
अपचयोपचय अभिक्रियाएँ लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
इलेक्ट्रॉन विभव को प्रभावित करने वाले कारक लिखिए।
उत्तर:
इलेक्ट्रॉन विभत्र को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित हैं –

  • धातु की इलेक्ट्रॉन त्यागने की प्रवृत्ति-जिस धातु की इलेक्ट्रॉन त्यागने की प्रवृत्ति जितनी अधिक होगी उसका इलेक्ट्रोड विभव उतना ही अधिक होगा।
  • ताप-विलयन का ताप बढ़ाने पर इलेक्ट्रोड विभव का मान बढ़ता है।
  • विलयन की सान्द्रता-विलयन में धातु आयनों की सान्द्रता अधिक होने पर इलेक्ट्रोड विभव का मान उच्च होता है।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित की ऑक्सीकरण संख्या ज्ञात कीजिए –

  1. K2Cr2O7 में Cr की –
  2. KMnO4में Mn की,
  3. Na2S4O6 में S की,
  4. H3PO4 में P की,
  5. K2MnO4 में Mn की,
  6. MnO2 में Mn की।

उत्तर:
(1) K2Cr2O7 में Cr की –
2(+1) + 2x+7(-2)= 0
या 2+ 2 x – 14 = 0
या 2 x = 12
या x = +6

(2) KMnO4में Mn की –
1(+1) +1 x + 4(-2)= 0
या 1 + x – 8 = 0
या x = +7

(3) Na2S4O6 में S की –
2(+1) + 4x +6(-2) = 0
या 2 + 4x – 12 = 0
या 4x = 10
या x = \(\frac { 10 }{ 4 }\) = 2.5

(4) H3PO4 में P की –
3(+1) + 1 x + 4(-2)= 0
3+ x – 8 = 0
x = + 5.

(5) K2MnO4 में Mn की –
(+1 x 2)+ x + (-2 × 4)= 0
2 + x – 8 = 0
x = 8 – 2 = 6.

(6) MnO2 में Mn की।
x + (-2) × 2 = 0
या x – 4 = 0
x = 4.

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प्रश्न 3.
रेडॉक्स अभिक्रिया क्या है ? उदाहरण सहित समझाइये।
उत्तर:
ऑक्सीकरण प्रक्रम वह प्रक्रम है जिसमें कोई तत्व एक या एक से अधिक इलेक्ट्रॉन दान करता है इसे डी-इलेक्ट्रोनेशन भी कहते हैं। तथा अपचयन वह प्रक्रम है जिसमें कोई तत्व एक या एक से अधिक इलेक्ट्रॉन ग्रहण करता है इसे इलेक्ट्रोनेशन भी कहते हैं। इस प्रकार अभिक्रिया के दौरान यदि एक तत्व इलेक्ट्रॉन दान करता है तो दूसरा तत्व इलेक्ट्रॉन ग्रहण करता है अर्थात् किसी भी अभिक्रिया में ऑक्सीकरण तथा अपचयन प्रक्रम एक साथ होते हैं। इसलिये इसे ऑक्सीकरण-अपचयन प्रक्रम या रेडॉक्स अभिक्रिया कहते हैं अत: रेडॉक्स अभिक्रिया वह अभिक्रिया है जिसमें इलेक्ट्रॉनों का स्थानांतरण एक अभिकारक से दूसरे अभिकारक तक होता है।
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 59

प्रश्न 4.
विद्युत् अपघटनी सेल तथा विद्युत् रासायनिक सेल में अंतर लिखिए।
उत्तर:
विद्युत् अपघटनी सेल तथा विद्युत् रासायनिक सेल में अंतर –
विद्युत् अपघटनी सेल:

  • इसमें विद्युत् ऊर्जा का रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तन होता है।
  • रेडॉक्स अभिक्रिया प्रत्यक्ष विधि द्वारा होती है।
  • लवण सेतु की कोई आवश्यकता नहीं होती है।
  • एनोड धन ध्रुव तथा कैथोड ऋण ध्रुव होता है।

विद्युत् रासायनिक सेल:

  • इसमें रासायनिक ऊर्जा का विद्युत् ऊर्जा में परिवर्तन होता है।
  • रेडॉक्स अभिक्रिया अप्रत्यक्ष विधि द्वारा होती है।
  • लवण सेतु की आवश्यकता होती है।
  • एनोड ऋण ध्रुव तथा कैथोड धन ध्रुव होता है।

प्रश्न 5.
विद्युत् रासायनिक श्रेणी की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
विद्युत् रासायनिक श्रेणी की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  • वैद्युत रासायनिक श्रेणी में धातुओं की रासायनिक सक्रियता ऊपर से नीचे आने पर घटती है।
  • वैद्युत रासायनिक श्रेणी में अधातुओं की रासायनिक सक्रियता ऊपर से नीचे आने पर बढ़ती है।
  • श्रेणी में मानक अपचयन विभव का ऋणात्मक मान जितना अधिक होगा वह तत्व उतना प्रबल अपचायक होगा।
  • श्रेणी में मानक अपचयन विभव का धनात्मक मान जितना उच्च होगा वह तत्व उतना प्रबल ऑक्सीकारक होगा।
  • श्रेणी में जो तत्व H, से ऊपर व्यवस्थित है वह तनु अम्लों में से सरलता से हाइड्रोजन को प्रतिस्थापित करती है।
  • श्रेणी में जो तत्व हाइड्रोजन से नीचे व्यवस्थित है वह तनु अम्लों में से हाइड्रोजन को प्रतिस्थापित नहीं करती है।
  • श्रेणी में ऊपर आने वाले तत्व बाद में आने वाले तत्वों को उनके लवणों के विलयन में से सरलता से प्रतिस्थापित करते हैं।

प्रश्न 6.
ननस्ट समीकरण क्या है ? E और E° में संबंध स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
किसी इलेक्ट्रोड का विभव विलयन की सान्द्रता 1M तथा ताप 298 K से किस प्रकार प्रभावित होता है। तथा साधारण परिस्थितियों में ज्ञात किये गये इलेक्ट्रोड विभव और मानक इलेक्ट्रोड विभव के बीच संबंध को स्थापित करने के लिये ननस्ट ने एक समीकरण दिया जिसे ननस्ट समीकरण कहते हैं।
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 60

प्रश्न 7.
विद्युत् रासायनिक श्रेणी के प्रमुख उपयोग लिखिए।
उत्तर:
(1) गेल्वनिक सेलों का E.M.E. ज्ञात करना-दो अर्द्ध सेलों से बने हुये किसी गैल्वनिक सेल का मानक विद्युत वाहक बल E° की गणना निम्न सूत्र की सहायता से ज्ञात की जा सकती है।
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 83

(2) रेडॉक्स अभिक्रिया की सम्भावना:
यदि सेल विभव का मान धनात्मक हो, तो रेडॉक्स अभिक्रिया संभव है और यदि सेल विभव का मान ऋणात्मक हो, तो रेडॉक्स अभिक्रिया संभव नहीं होगी।

(3) धातुओं का धन विद्युती गुण;
जो परमाणु अपने बाह्यतम कोश से सबसे सरलता से इलेक्ट्रॉन त्यागते हैं, वह उच्चतम धन विद्युती गुण दर्शाता है। और जो कठिनाई से इलेक्ट्रॉन त्यागते हैं, निम्नतम धन विद्युती गुण दर्शाता है।

(4) धातु की सक्रियता की तुलना:
जिस धातु के E° का ऋणात्मक मान जितना अधिक होगा वह उतनी ही सरलता से इलेक्ट्रॉन त्याग कर धनायन बनाता है अतः E° का ऋणात्मक मान होने पर धातु की क्रियाशीलता व अपचायक गुण अधिक होता है।

(5) ऑक्सीकारक व अपचायक का ज्ञान:
मानक अपचयन इलेक्ट्रोड विभव का ऋणात्मक मान जितना अधिक होगा वह तत्व उतना प्रबल अपचायक होगा तथा मानक अपचयन इलेक्ट्रोड विभव का मान जितना अधिक धनात्मक होगा वह तत्व उतना प्रबल ऑक्सीकारक होगा।

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अपचयोपचय अभिक्रियाएँ दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
नाइट्रिक अम्ल निर्माण की ओस्टवाल्ड विधि के प्रथम पद में अमोनिया गैस के ऑक्सीजन गैस द्वारा ऑक्सीकरण से नाइट्रिक ऑक्साइड गैस तथा जल वाष्प बनती है। 100 ग्राम अमोनिया 20.0 ग्राम ऑक्सीजन द्वारा नाइट्रिक ऑक्साइड की कितनी अधिकतम मात्रा प्राप्त हो सकती है।
उत्तर:
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 61
परन्तु O2 की उपलब्ध मात्रा 20.0g है जो कि 10g NH3 से पूर्णतः क्रिया करने के लिए आवश्यक मात्रा (23.5g) से कम है। अत: O2 सीमांत अभिकर्मक है तथा यह उत्पन्न NO की मात्रा को सीमित करता है।

उपर्युक्त संतुलित समीकरण से –
∴ 160 g O2 उत्पन्न होती है = 120g NO से
∴ 1g O2 उत्पन्न होती है = \(\frac { 120 x 1 }{ 160 }\) g NO से
∴ 20 g O2 उत्पन्न होगी = 120 = \(\frac { 120 x 1 x 20 }{ 160 }\) = 15 g NO से।

प्रश्न 2.
मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड क्या है ? यह कैसे बनाया जाता है ?
उत्तर:
मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड:
इसमें प्लैटिनम ब्लैक की पर्त चढ़ी हुई प्लैटिनम की एक पतली पत्ती का इलेक्ट्रोड हाइड्रोजन आयन के 1 मोलर सान्द्रता के विलयन में डुबोकर रखा जाता है। यह काँच की एक नली से ढंका रहता है। नली में से एक वायुमण्डलीय। शुद्ध हाइड्रोजन गैस दाब पर शुद्ध हाइड्रोजन गैस प्रवाहित करते हैं।

प्लैटिनम या हाइड्रोजन हाइड्रोजन गैस प्लेटिनम तार गैस अवशोषित होती है तथा शीघ्र ही H, गैस HO+ आयनों के काँच का जैकेट मध्य एक साम्य स्थापित हो जाता है। परिस्थिति के अनुसार हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड एनोड तथा कैथोड की तरह कार्य करता है, यदि मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड एनोड की तरह कार्य करता है तो उस पर ऑक्सीकरण होता है और इस पर होने वाली सेल अभिक्रिया
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 62
H2 → 2H2++ 2e
इस सेल अभिक्रिया को निम्न प्रकार से दर्शाया जा सकता है –
Pt, H2(g) (1 atm P) | 2H+ (1M)
यदि मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड कैथोड की तरह कार्य करता है तो उस पर अपचयन होगा और इस पर होने वाली सेल अभिक्रिया
2H+ + 2e → H2
2H+ (1M) / PtH2(g) (latmP)
इस मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड विभव का मान मानक स्थिति में शून्य होता है।

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प्रश्न 3.
ऑक्सीकरण संख्या क्या है ? इसे ज्ञात करने के प्रमुख नियम लिखिए।
उत्तर:
किसी यौगिक या आयन में किसी तत्व के परमाणु पर स्थित धन या ऋण आवेश को उस तत्व की ऑक्सीकरण संख्या कहलाती है।
ऑक्सीकरण संख्या ज्ञात करने के नियम –

  • किसी तत्व की स्वतंत्र अवस्था या मूल अवस्था में ऑक्सीकरण संख्या शून्य होती है।
  • किसी तत्व के एक परमाण्विक आयन की ऑक्सीकरण संख्या उस आयन पर उपस्थित आवेश के बराबर होती है।
  • किसी भी संकुल आयन में + ve और – ve ऑक्सीकरण संख्या का जो अंतर होता है वही उस संकुल आयन पर आवेश होता है।
  • किसी भी उदासीन अणु या यौगिक में धनात्मक तथा ऋणात्मक ऑक्सीकरण संख्या का योग शून्य है।
  • जब दो ऋणविद्युती तत्व आपस में संयोग कर यौगिक बनाते हैं तो प्रबल ऋणविद्युती तत्व ऋणात्मक ऑक्सीकरण संख्या तथा कम ऋणविद्युती तत्व धनात्मक ऑक्सीकरण संख्या दर्शाता है।
  • फ्लुओरीन आवर्त सारणी में सबसे ऋणविद्युती तत्व है इसीलिये F सदैव – 1 ऋणात्मक ऑक्सीकरण संख्या दर्शाता है। जबकि अन्य हैलोजन ऋणात्मक ऑक्सीकरण संख्या के साथ धनात्मक ऑक्सीकरण संख्या भी दर्शाते हैं।
  • जब हाइड्रोजन किसी अधातु के साथ संयोग कर यौगिक बनाता है तो हाइड्रोजन की ऑक्सीकरण संख्या + 1 होती है जब H2 धातु के साथ संयोग कर हाइड्राइड बनाता है तो H2 की ऑक्सीकरण संख्या – 1 होती है।
  • सामान्य यौगिकों में ऑक्सीजन की ऑक्सीकरण संख्या – 2 होती है। इस परिस्थिति में इन्हें ऑक्साइड कहते हैं। कुछ यौगिकों में O2
    की ऑक्सीकरण संख्या -1 और –\(\frac { 1 }{ 2 }\) भी संभव है इन्हें परॉक्साइड तथा सुपर ऑक्साइड कहते हैं।

प्रश्न 4.
रेडॉक्स अभिक्रिया के समीकरण को आयन इलेक्ट्रॉन विधि से किस प्रकार संतुलित किया जाता है ? समझाइये।
उत्तर:

  • दिये गये रासायनिक समीकरण में प्रत्येक तत्व की ऑक्सीकरण संख्या को दर्शाते हैं।
  • ऑक्सीकरण संख्या के आधार पर ऑक्सीकरण तथा अपचयन की अभिक्रिया की पहचान करते हैं।
  • ऑक्सीकरण तथा अपचयन के आधार पर रेडॉक्स अभिक्रिया को दो पदों में विभाजित करते हैं।
  • H2 तथा O2 के अतिरिक्त प्रत्येक अन्य तत्वों को अर्द्ध समीकरण में संतुलित करते हैं।
  • ऑक्सीकरण संख्या में परिवर्तन के आधार पर इलेक्ट्रॉन का आदान-प्रदान कर आवेश को संतुलित करते हैं।
  • जिस ओर ऑक्सीजन की कमी हो उस ओर H2O को जोड़कर ऑक्सीजन को संतुलित करते हैं।
  • H2 को संतुलित करने के लिये निम्नलिखित दो पदों का उपयोग करते हैं
    • अम्लीय माध्यम में – यदि अभिक्रिया अम्लीय माध्यम में हो रही है तो जिस तरफ H2 की कमी हो उस तरफ H आयन जोड़ते हैं।
    • क्षारीय माध्यम में – यदि अभिक्रिया क्षारीय माध्यम में हो रही है तो जिस तरफ H2 की कमी हो उस तरफ H2O तथा दूसरी तरफ OH आयन जोड़ते हैं।
  • दोनों अर्द्ध समीकरण में इलेक्ट्रॉन को संतुलित करने के लिये किसी उपयुक्त संख्या से गुणा करते हैं।
  • दोनों अर्द्ध समीकरण को जोड़कर पूर्ण समीकरण प्राप्त करते हैं।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित अभिक्रिया से आप कौन-सी सूचनाएँ प्राप्त कर सकते हैं –
(CN)2(g) + 2OH2(aq) → CN2(aq) + CNO2(aq) + H2O(l)
उत्तर:
(CN)2(g) + 2OH2(aq) → CN2(aq) + CNO2(aq) + H2O(l)
1. माना (CN)2में C की ऑक्सीकरण संख्या = x
2x + 2(-3) = 0
x = + 3

2. माना CN में C की ऑक्सीकरण संख्या = x
x+ (-3) = -1
x = +2

3. माना CNO में C की ऑक्सीकरण संख्या = x
x+ (-3) + (-2) = -1
x = + 4

MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 63

ऑक्सीकरण संख्या में वृद्धि उपर्युक्त समीकरण से निम्नलिखित सूचनाएँ प्राप्त होती हैं –

  • साइनोजन का साइनाइड आयन (CN) तथा सायनेट आयन (CNO ) में अपघटन क्षारीय माध्यम में होता है।
  • साइनोजन ऑक्सीकारक तथा अपचायक दोनों की भाँति व्यवहार करता है।
  • यह समीकरण असमानुपातन अभिक्रिया (रेडॉक्स अभिक्रिया का विशिष्ट प्रकार) का उदाहरण है।
  • साइनोजन (CN)2 को छद्म हैलोजन कहते हैं जबकि CN ,CNO आयनों को छद्म हैलाइड आयन कहते हैं।

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प्रश्न 6.
निम्नलिखित रेडॉक्स अभिक्रिया को आयन इलेक्ट्रॉन विधि द्वारा संतुलित कीजिए –
Cr2O-27 + Fe+2 + H+ → Cr+3 + Fe+3
उत्तर:
(1) प्रत्येक तत्व की ऑक्सीकरण संख्या को दर्शाते हैं।
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 64
(2) ऑक्सीकरण तथा अपचयन अभिक्रिया की पहचान
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 65
(3) अभिक्रिया को दो पदों में विभाजित करते हैं -]
Fe+2 → Fe+3
Cr2O-27 → Cr+3

(4) तत्व को संतुलित करना –
Fe+2 → Fe+3
Cr2O-27 → 2Cr+3

(5) आवेश संतुलित करना –
Fe+2 – 1e →F+3
Cr2O-27 +6e → 2Cr+3

(6) ऑक्सीजन को संतुलित करना –
Fe+2 – 1e → Fe+3
Cr2O-27+6e →2Cr+3 + 7H2O

(7) H2 को संतुलित करना –
Fe+2 – 1e → Fe+3
Cr2O-27 + 6e +14H+ →2Cr+3 + 7H2O

(8) इलेक्ट्रॉन को संतुलित करना –
6Fe+2 – 6e → 6Fe+3
Cr2O-27 +6e+ 14H+ →2Cr+3+ 7H2O

(9) दोनों समीकरण को जोड़ने पर –
6Fe+2 – 6e → 6Fe+3
Cr2O-27 + 6e +14H+ → 2Cr+3 + 7H2O
6Fe+2 + Cr2O-27 + 14H+ →2Cr+3 + 6Fe+3 +7H2O

प्रश्न 7.
Cs, Ne, I और F में ऐसे तत्व की पहचान कीजिए जो –

  1. केवल ऋणात्मक ऑक्सीकरण अवस्था प्रदर्शित करता है।
  2. केवल धनात्मक ऑक्सीकरण अवस्था प्रदर्शित करता है।
  3. ऋणात्मक और धनात्मक दोनों ऑक्सीकरण अवस्था प्रदर्शित करता है।
  4. न ऋणात्मक और न ही धनात्मक ऑक्सीकरण अवस्था प्रदर्शित करता है।

उत्तर:

  1. F केवल ऋणात्मक ऑक्सीकरण अवस्था प्रदर्शित करता है क्योंकि यह सर्वाधिक विद्युत् ऋणात्मक तत्व है।
  2. Cs केवल धनात्मक ऑक्सीकरण अवस्था प्रदर्शित करता है क्योंकि यह सर्वाधिक विद्युत् धनात्मक तत्व है।
  3. I धनात्मक एवं ऋणात्मक दोनों ऑक्सीकरण अवस्थाएँ प्रदर्शित करता है। आयोडीन -1,0,+1,+3,+5 और +7 ऑक्सीकरण अवस्थाएँ प्रदर्शित करता है। (+3,+5 और +7 ऑक्सीकरण अवस्थाएँ रिक्त d- कक्षक के कारण प्रदर्शित करता है।)
  4. Ne अक्रिय गैस है, अतः यह न ऋणात्मक और न धनात्मक ऑक्सीकरण अवस्था प्रदर्शित करती है।

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प्रश्न 8.
किसी विलयन में अपचायक/ऑक्सीकारक की क्षमता को ज्ञात करने के लिए किस विधि का प्रयोग करते हैं ? उदाहरण सहित वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सर्वप्रथम मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड के साथ दी गई स्पीशीज के रेडॉक्स युग्म को युग्मित करके इसके इलेक्ट्रोड विभव का मापन करते हैं। यदि यह धनात्मक होता है तो दी गई स्पीशीज का इलेक्ट्रोड अपचायक की भाँति कार्य करता है तथा यदि यह ऋणात्मक होता है तो दी गई स्पीशीज का इलेक्ट्रोड ऑक्सीकारक की भाँति व्यवहार करता है। इसी विधि से अन्य दी गई स्पीशीज का इलेक्ट्रोड विभव ज्ञात करते हैं। इन मानों की तुलना करते है तथा अपचायक अथवा ऑक्सीकारक के रूप में उनकी आपेक्षिक क्षमता ज्ञात करते हैं।

उदाहरण:
मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड (SHE) को संदर्भ इलेक्ट्रोड की भाँति प्रयोग करके Zn+2 / Zn इलेक्ट्रोड के मानक इलेक्ट्रोड विभव की गणना निम्न प्रकार से करते हैं –
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 66
सेल के विद्युत् वाहक बल (emf) का मान 0.76V प्राप्त होता है। (वोल्टामीटर का पाठ्यांक 0.76V है) Zn+2 / Zn युग्म एनोड की भाँति कार्य करता है तथा मानक हाइड्रोजन कैथोड की भाँति कार्य करता है।
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 67

प्रश्न 9.
अपनी अभिक्रियाओं में SO2 और हाइड्रोजन परॉक्साइड ऑक्सीकारक तथा अपचायक दोनों के रूप में क्रिया करते हैं, जबकि ओजोन तथा HNO3 केवल ऑक्सीकारक के रूप में ही क्यों?
उत्तर:
1. SO2 में S की ऑक्सीकरण संख्या +4 है। इसकी न्यूनतम ऑक्सीकरण संख्या-2 तथा अधिकतम ऑक्सीकरण संख्या +6 हो सकती है। अत: SO2 में S अपनी ऑक्सीकरण संख्या को घटा तथा बढ़ा दोनों सकता है, इसी कारण SO2 ऑक्सीकारक और अपचायक दोनों की भाँति व्यवहार कर सकता है।

2. H2O2 में 0 की ऑक्सीकरण संख्या -1 है। इसकी न्यूनतम ऑक्सीकरण संख्या – 2 तथा अधिकतम ऑक्सीकरण संख्या ऑक्सीजन की(O2F2 तथा OF2 में क्रमशः +1 तथा +2 भी संभव है) अतः H2O2 में ऑक्सीजन की ऑक्सीकरण संख्या को घटा तथा बढ़ा भी सकता है। अत: HO2 ऑक्सीकारक एवं अपचायक दोनों की भाँति व्यवहार कर सकता है।

3. O3 में ऑक्सीजन की ऑक्सीकरण संख्या शून्य है। यह अपनी ऑक्सीकरण संख्या में वृद्धि नहीं कर पाता है। यह केवल ऑक्सीकरण संख्या शून्य से -1 तथा –2 तक घटा सकता है। अत: O3 (ओजोन)केवल ऑक्सीकारक की भाँति व्यवहार कर सकता है।

4. HNO3 में, N की ऑक्सीकरण संख्या +5 है जो कि अधिकतम है। अत: HNO3 में N की ऑक्सीकरण संख्या में केवल कमी ही हो सकती है। अतः केवल ऑक्सीकारक की भाँति व्यवहार कर सकता है।

प्रश्न 10.
उन यौगिकों की सूची तैयार कीजिए जिसमें कार्बन -4 से +4 तक की तथा नाइट्रोजन -3 से +5 तक की ऑक्सीकरण अवस्था में होता है।
उत्तर:
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 68

प्रश्न 11.
अभिक्रिया देते हुए सिद्ध कीजिए कि हैलोजनों में फ्लुओरीन श्रेष्ठ ऑक्सीकारक तथा हाइड्रोहैलिक यौगिकों में हाइड्रो आयोडिक अम्ल (HI) श्रेष्ठ अपचायक है।
उत्तर:
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 69

हैलोजन का मानक अपचयन विभव धनात्मक होता है तथा फ्लुओरीन से आयोडीन तक क्रमशः घटता है। अत: हैलोजन प्रबल ऑक्सीकारक अभिकर्मक की भाँति व्यवहार करते हैं तथा उनकी ऑक्सीकारक क्षमता फ्लुओरीन से आयोडीन तक घटती जाती है। फ्लुओरीन प्रबलतम ऑक्सीकारक अभिकर्मक है। यह अन्य हैलाइड आयनों को विलयन या शुष्क अवस्था में संगत हैलोजन में ऑक्सीकृत कर देता है।
F2 + 2X F + X2 (X = CI,Br,I)

सामान्य रूप से, निम्न परमाणु संख्या वाली हैलोजन उच्च परमाणु संख्या वाली हैलोजन के हैलाइड आयन को ऑक्सीकृत कर देती है।
हैलाइड आयन, Xअथवा HX अणु जब किसी ऑक्सीकारक के साथ क्रिया करता है तो यह ऑक्सीकारक पदार्थ को अपचयित कर देता है तथा स्वयं X2 अणु में अपचयित हो जाता है। X आयन की इलेक्ट्रॉन त्यागकर X2 अणु बनाने की प्रवृत्ति F से I आयन तक क्रमशः बढ़ती है। X आयनों अथवा HX अणुओं की यह अपचायक क्षमता F से I आयनों अथवा HF से HI अणुओं तक क्रमशः बढ़ती है।
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 70
प्रबलतम अपचायक → दुर्बलतम अपचायक
2HF + H2SO4 → कोई क्रिया नहीं
HCl भी H2SO4 के साथ क्रिया नहीं करता है।

किन्तु 2HI + H2SO4 → SO2 +2H2O + I2
HBr भी इसी प्रकार क्रिया करता है।

HF या F आयन एक दुर्बल अपचायक है। यह इतना दुर्बल अपचायक है कि यह अत्यधिक प्रबल ऑक्सीकारक पदार्थ जैसे – H2SO4R को भी अपचयित नहीं कर पाता है। जबकि HI या I आयन प्रबल ऑक्सीकारक पदार्थों को अपचयित करते हैं तथा स्वयं I2 में ऑक्सीकृत हो जाते हैं। यही कारण है कि HI श्रेष्ठ अपचायक है।

प्रश्न 12.
मानक इलेक्ट्रोड विभव के मानों के आधार पर बताइये कि निम्नलिखित में से कौन-सी अभिक्रियाएँ संभव होगी
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 71
1. Cu+Zn2+ → Cu2+ + Zn
2. Mg + Fe2+ → Mg 2+ + Fe
3. Br2 + 2Cl → Cl2 + 2Br
4. Fe+ Cd 2+ → Cd + Fe 2+
उत्तर:
1. Cu + Zn2+ → Cu2+ + Zn
दी गई सेल अभिक्रिया में Cu, Cu2+ में ऑक्सीकृत होता है। अत: Cu2+/ Cu युग्म एनोड की भाँति कार्य करते है तथा Zn2+/ Zn युग्म कैथोड की भाँति कार्य करेगा।
E0cell = E0cathod – E0Anode
E0cell = -0. 76 – (+0.34) = -1.1v
E0cell का मान ऋणात्मक यह प्रदर्शित करता है कि यह क्रिया संभव नहीं है।

2. Mg + Fe2+ → Mg2+ + Fe
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 72
Mg, Mg 2+ में ऑक्सीकृत होगा अतः एनोड का कार्य Mg2+ / Mg करेगा।
Fe2+ Fe में अपचयित होगा अतः कैथोड का कार्य Fe2+ / Fe युग्म करेगा।
E0cell = E0cathod – E0Anode
E0cell = -0. 74 – (-2.37) = +1.63v
E0सेल का धनात्मक मान प्रदर्शित करता है कि यह अभिक्रिया होगी।

3. Br2 + 2Cl → Cl2 + 2Br
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 73
सेल क्रिया में Cl, Cl2 में ऑक्सीकृत होता है अत: Cl/ Cl2 युग्म एनोड की भाँति एवं Br2 Br में अपचयित होता है अत: Br/ Br2 युग्म कैथोड की भाँति कार्य करेगा।
E0cell = E0 कैथोड – E0 एनोड 
E0cell = +1. 08 – (+1.36) = +0.28v
E0सेल का मान ऋणात्मक होना यह दर्शाता है कि यह अभिक्रिया नहीं होगी।

4. Fe+ Cd 2+ → Cd + Fe 2+
इसमें Fe, Fe2+ में ऑक्सीकृत होता है अत: Fe2+/ Fe एनोड और Cd2+,Cd में अपचयित होता है अतः Cd2+ / Cd युग्म कैथोड की भाँति कार्य करेगा।
MP Board Class 11th Chemistry Solutions Chapter 8 अपचयोपचय अभिक्रियाएँ - 74
E0सेल= E0 कैथोड  = E0 एनोड
E0सेल = -0.44 – (-0.74) = + 0.30v
E0सेल का मान धनात्मक है अत: यह अभिक्रिया संभव है।

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MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण

MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण

गुरुत्वाकर्षण अभ्यास के प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 8.1.
निम्नलिखित के उत्तर दीजिए:
(a) आप किसी आवेश का वैद्युत बलों से परिरक्षण उस आवेश को किसी खोखले चालक के भीतर रखकर कर सकते हैं। क्या आप किसी पिंड का परिरक्षण, निकट में रखे पदार्थ के गुरुत्वीय प्रभाव से, उसे खोखले गोले में रखकर अथवा किसी अन्य साधनों द्वारा कर सकते हैं?

(b) पृथ्वी के परितः परिक्रमण करने वाले छोटे अन्तरिक्षयान में बैठा कोई अन्तरिक्ष यात्री गुरुत्व बल का संसूचन नहीं कर सकता। यदि पृथ्वी के परितः परिक्रमण करने वाला अन्तरिक्ष स्टेशन आकार में बड़ा है, तब क्या वह गुरुत्व बल के संसूचन की आशा कर सकता है?

(c) यदि आप पृथ्वी पर सूर्य के कारण गुरुत्वीय बल की तुलना पृथ्वी पर चन्द्रमा के कारण गुरुत्व बल से करें, तो आप यह पाएँगे कि सूर्य का खिंचाव चन्द्रमा के खिंचाव की तुलना में अधिक है (इसकी जाँच आप स्वयं आगामी अभ्यासों में दिए गए आँकड़ों की सहायता से कर सकते हैं।) तथापि चन्द्रमा के खिंचाव का ज्वारीय प्रभाव सूर्य के ज्वारीय प्रभाव से अधिक है। क्यों?
उत्तर:
(a) नहीं।
(b) हाँ, यदि अंतरिक्ष यान का आकार उसके लिए इतना अधिक हो कि वह गुरुत्वीय त्वरण (g) के परिवर्तन का संसूचण कर सके।
(c) ज्वारीय प्रभाव दूरी के घन के व्युत्क्रमानुपाती होता है तथा इस अर्थ में यह उन बलों से भिन्न है जो दूरी के वर्ग के व्युत्क्रमानुपाती होते हैं।

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प्रश्न 8.2.
सही विकल्प का चयन कीजिए:

  1. बढ़ती तुंगता के साथ गुरुत्वीय त्वरण बढ़ता/घटता
  2. बढ़ती गहराई के साथ (पृथ्वी को एकसमान घनत्व को गोला मानकर) गुरुत्वीय त्वरण बढ़ता/घटता है।
  3. गुरुत्वीय त्वरण पृथ्वी के द्रव्यमान/पिंड के द्रव्यमान पर निर्भर नहीं करता।
  4. पृथ्वी के केन्द्र से r 2 तथा r 1 दूरियों के दो बिन्दुओं के बीच स्थितिज ऊर्जा – अन्तर के लिए सूत्र – GMm (1/r2 – 1/r2 ) सूत्र mg(r2 – r1 ) से अधिक/कम यथार्थ है।

उत्तर:

  1. घटता है।
  2. घटता है।
  3. पिंड के द्रव्यमान पर निर्भर नहीं करता है।
  4. अधिक।

प्रश्न 8.3.
मान लीजिए एक ऐसा ग्रह है जो सूर्य के परितः पृथ्वी की तुलना में दो गुनी चाल से गति करता है, तब पृथ्वी की कक्षा की तुलना में इसका कक्षीय आमाप क्या है?
उत्तर:
माना कक्षीय आमाप क्रमशः TE व Tp हैं।
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण img 1
अर्थात् ग्रह का आमाप पृथ्वी से 0.63 गुना छोटा है।

प्रश्न 8.4.
बृहस्पति के एक उपग्रह, आयो (lo), की कक्षीय अवधि 1.769 दिन तथा कक्षा की त्रिज्या 4.22 x 108 m है। यह दर्शाइए कि बृहस्पति का द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान का लगभग 1/1000 गुना है।
उत्तर:
दिया है –
सूर्य का द्रव्यमान = Ms = 2 x 1030 kg
बृहस्पति के उपग्रह का आवर्त काल = T = 1.769 दिन
= 1.769 × 24 × 3600s
= 15.2841 × 104s बृहस्पति के चारों ओर उपग्रह की त्रिज्या
= r = 4.22 × 108m
G = 6.67 × 10-11 Nm2kg-2
माना बृहस्पति का द्रव्यमान MJ, है।
MJ = \(\frac{1}{1000}\) Ms सिद्ध करने के लिए
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण img 2
अतः बृहस्पति का द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान का लगभग (1/1000) गुना है।

प्रश्न 8.5.
मान लीजिए कि हमारी आकाशगंगा में एक सौर द्रव्यमान के 2.5 x 1011 तारे हैं। मंदाकिनीय केन्द्र से 50,000 1y दूरी पर स्थित कोई तारा अपनी एक परिक्रमा पूरी करने में कितना समय लेगा? आकाशगंगा का व्यास 105 ly लीजिए।
उत्तर:
एक सौर द्रव्यमान = 2 × 1030kg
एक प्रकाश वर्ष = 9.46 × 1015 m
माना M = आकाश गंगा में तारे का द्रव्यमान
= 2.5 × 1011 × 2 × 1030kg
= 5 × 1041kg
तारे की कक्षा की त्रिज्या = r = मंदाकिनी के केन्द्र से तारे की दूरी
= 50,000 प्रकाश वर्ष
= 50,000 × 9.46 × 1015m
G = 6.67 × 10-11Nm2kg-2
एक आवृत्ति काल = T
आकाशगंगा का व्यास = 105 प्रकाश वर्ष
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण img 3
= 3.55 × 108 yrs.

प्रश्न 8.6.
सही विकल्प का चयन कीजिए:

  1. यदि स्थितिज ऊर्जा का शून्य अनन्त पर है,तो कक्षा में परिक्रमा करते किसी उपग्रह की कुल ऊर्जा इसकी गतिज/स्थितिज ऊर्जा का ऋणात्मक है।
  2. कक्षा में परिक्रमा करने वाले किसी उपग्रह को पृथ्वी के गुरुत्वीय प्रभाव से बाहर निकालने के लिए आवश्यक ऊर्जा समान ऊँचाई (जितनी उपग्रह की है) के किसी स्थिर पिंड को पृथ्वी के प्रभाव से बाहर प्रक्षेपित करने के लिए आवश्यक ऊर्जा से अधिक/कम होती है।

उत्तर:

  1. गतिज ऊर्जा
  2. कम होती है।

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प्रश्न 8.7.
क्या किसी पिंड की पृथ्वी से पलायन चाल –

  1. पिंड के द्रव्यमान
  2. प्रक्षेपण बिन्दु की अवस्थिति
  3. प्रक्षेपण की दिशा
  4. पिंड के प्रमोचन की अवस्थिति की ऊँचाई पर निर्भर करती है।

उत्तर:

  1. नहीं
  2. नहीं
  3. नहीं
  4. हाँ।

प्रश्न 8.8.
कोई धूमकेत सूर्य की परिक्रमा अत्यधिक दीर्घवृत्तीय कक्षा में कर रहा है। क्या अपनी कक्षा में धूमकेतु की शुरू से अन्त तक –

  1. रैखिक चाल
  2. कोणीय चाल
  3. कोणीय संवेग
  4. गतिज ऊर्जा
  5. स्थितिज ऊर्जा
  6. कुल ऊर्जा नियत रहती है। सूर्य के अति निकट आने पर धूमकेतु के द्रव्यमान में हास को नगण्य मानिये।

उत्तर:

  1. नहीं
  2. नहीं
  3. हाँ
  4. नहीं
  5. नहीं
  6. हाँ।

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प्रश्न 8.9.
निम्नलिखित में से कौन से लक्षण अन्तरिक्ष में अन्तरिक्ष यात्री के लिए दुःखदायी हो सकते हैं?
(a) पैरों में सूजन
(b) चेहरे पर सूजन
(c) सिरदर्द
(d) दिक्विन्यास समस्या।
उत्तर:
(b), (c) व (d):

प्रश्न 8.10.
एक समान द्रव्यमान घनत्व की अर्धगोलीय खोलों द्वारा परिभाषित ढोल के पृष्ठ के केन्द्र पर गुरुत्वीय तीव्रता की दिशा [देखिए चित्र]

  1. a
  2. b
  3. c
  4. 0 में किस तीर द्वारा दर्शायी जाएगी?

MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण img 4
उत्तर:
गोलों को पूरा करने पर, केन्द्र C पर नेट तीव्रता शून्य होगी। इसका तात्पर्य है कि केन्द्र C पर दोनों अर्धगोलों के कारण तीव्रताएँ परस्पर विपरीत व बराबर होंगी। अर्थात् दिशा (iii)C द्वारा व्यक्त होगी।

प्रश्न 8.11.
उपरोक्त समस्या में किसी यादृच्छिक बिन्दु P पर गुरुत्वीय तीव्रता किस तीर –

  1. d
  2. e
  3. f
  4. g द्वारा व्यक्त की जाएगी?

उत्तर:
2. (e) द्वारा व्यक्त होगी।

प्रश्न 8.12.
पृथ्वी से किसी रॉकेट को सूर्य की ओर दागा गया है। पृथ्वी के केन्द्र से किस दूरी पर रॉकेट पर गुरुत्वाकर्षण बल शून्य है? सूर्य का द्रव्यमान = 2 × 1030 kg, पृथ्वी का द्रव्यमान = 6 x 1024 kg। अन्य ग्रहों आदि के प्रभावों की उपेक्षा कीजिए (कक्षीय त्रिज्या = 1.5 × 1011 m)
उत्तर:
माना पृथ्वी के केन्द्र से r दूरी पर सूर्य व पृथ्वी के कारण गुरुत्वाकर्षण बल बिन्दु P पर है।
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण img 5
अतः रॉकेट पर गुरुत्वाकर्षण बल शून्य है।
माना सूर्य से पृथ्वी से बीच की दूरी = पृथ्वी की त्रिज्या
सूर्य का द्रव्यमान, Ms = 2 × 1030 किग्रा
पृथ्वी का द्रव्यमान Me = 6 × 1024 किग्रा
x = 1.5 × 1011मीटर
माना रॉकेट का द्रव्यमान m है।
बिन्दु P पर, सूर्य व रॉकेट के मध्य गुरुत्वाकर्षण बल = पृथ्वी व रॉकेट के मध्य गुरुत्वाकर्षण बल।
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण img 6
या = 2.6 x 108 m पृथ्वी से

प्रश्न 8.13.
आप सूर्य को कैसे तोलेंगे, अर्थात् उसके द्रव्यमान का आंकलन कैसे करेंगे? सूर्य के परितः पृथ्वी की कक्षा की औसत त्रिज्या 15 x 108 km है।
उत्तर:
हम जानते हैं कि पृथ्वी, सूर्य के चारों ओर 1.5 1011 मीटर त्रिज्या की कक्षा में घूमती है। पृथ्वी एक चक्कर 365 दिनों में पूरा करती है।
दिया है : पृथ्वी की त्रिज्या = R = 1.5 × 1011मीटर
सूर्य के चारों ओर पृथ्वी और पृथ्वी का आवर्तकाल, T = 365 दिन = 365 × 24 × 60 × 60 से०,
G = 6.67 × 1011 न्यूटन – मीटर2 प्रति किग्रा2
जहाँ M = सूर्य का द्रव्यमान है = ?
हम जानते हैं कि
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण img 7
जहाँ. Ms = सूर्य का द्रव्यमान है।

प्रश्न 8.14.
एक शनि वर्ष एक पृथ्वी – वर्ष का 29.5 गुना है। यदि पृथ्वी सूर्य से 15 × 108 km दूरी पर है, तो शनि सूर्य से कितनी दूरी पर है?
उत्तर:
केप्लर के नियम से,
i.e., T2 ∞ R3
∴शनि के लिए T2s ∝ R3s
समी० (i) को (ii) से भाग देने पर,
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण img 8
दिया है:
Ts = 29.5Te या \(\frac { T_{ s } }{ T_{ e } } \) = 29.5
सूर्य से पृथ्वी की दूरी = Re = 1.5 × 108 km
सूर्य से शनि की दूरी = Rs
∴ समी० (iii) व (iv) से,
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण img 9
= 1.43 × 109 किमी

प्रश्न 8.15.
पृथ्वी के पृष्ठ पर किसी वस्तु का भार 63N है। पृथ्वी की त्रिज्या की आधी ऊँचाई पर पृथ्वी के कारण इस वस्तु पर गुरुत्वीय बल कितना है?
उत्तर:
पृथ्वी के पृष्ठ से ऊँचाई = h = \(\frac{R}{2}\)
जहाँ R = पृथ्वी की त्रिज्या है।
हम जानते हैं कि gh = g (1 + \(\frac{h}{R}\))2
दिया है: h = \(\frac{R}{2}\)
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण img 10
माना m = वस्तु का द्रव्यमान है
माना पृथ्वी के पृष्ठ व hऊँचाई पर भार क्रमश: W व Wh हैं।
अतः w = mg = 63 N दिया है।
तथा
Wh = mgh
= m × \(\frac{4}{9}\)g = \(\frac{4}{9}\)mg
= \(\frac{4}{9}\) × 63 = 28N
∴Wh = 28N

प्रश्न 8.16.
यह मानते हुए कि पृथ्वी एकसमान घनत्व का एक गोला है तथा इसके पृष्ठ पर किसी वस्तु का भार 250 N है, यह ज्ञात कीजिए कि पृथ्वी के केन्द्र की ओर आधी दूरी पर इस वस्तु का भार क्या होगा?
उत्तर:
माना कि पृथ्वी के पृष्ठ तथा पृथ्वी के पृष्ठ से d दूरी पर गुरुत्व के कारण त्वरण क्रमशः g व gd हैं।
माना कि पृथ्वी के पृष्ठ तथा पृथ्वी के पृष्ठ से d दूरी पर भार क्रमश: W व Wd है।
∴W = mg = 250 N … (i)
तथा Wd = mgd …. (ii)
हम जानते हैं कि gd = g (1 – \(\frac{d}{R}\)) … (iii)
दिया है: d = \(\frac{R}{2}\)
जहाँ R = पृथ्वी की त्रिज्या … (iv)
∴समी० (iii) व (iv) से,
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण img 11
∴पृथ्वी के केन्द्र से आधी दूरी पर वस्तु पर वस्तु का भार
= 125 N

प्रश्न 8.17.
पृथ्वी के पृष्ठ से ऊर्ध्वाधरतः ऊपर की ओर कोई रॉकेट 5 kms-1 की चाल से दागा जाता है। पृथ्वी पर वापस लौटने से पूर्व यह रॉकेट पृथ्वी से कितनी दूरी तक जाएगा? पृथ्वी का द्रव्यमान = 6.0 × 1024 kg पृथ्वी की माध्य त्रिज्या = 6.4 x 106 m तथा
G = 6.67 x 10-11 Nm2kg-22
उत्तर:
माना रॉकेट की प्रारम्भिक चाल v है रॉकेट की पृथ्वी से h ऊँचाई पर वेग शून्य है।
माना रॉकेट का द्रव्यमान m है तथा पृथ्वी के पृष्ठ पर इसकी सम्पूर्ण ऊर्जा .
K.E. + P.E. = \(\frac{1}{2}\)mv2 – \(\frac{GMm}{R}\)
जहाँ M = पृथ्वी का द्रव्यमान
R = पृथ्वी की त्रिज्या
G = सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण नियतांक उच्चतम बिन्दु पर K.E. =0
तथा P.E = \(\frac{- GMm}{R + h}\)
h ऊँचाई पर रॉकेट की सम्पूर्ण ऊर्जा
= K.E. + P.E. = 0 + P.E. = P.E.
= \(\frac { GM_{ m } }{ R+h } \)
ऊर्जा संरक्षण के नियम से,
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण img 12
दिया है:
v = 5 kms-1 = 5000 ms-1
दिया है: R = 6.4 x 106 m
समी० (iv) में दिया मान रखने पर,
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण img 13
∴पृथ्वी के केन्द्र से दूरी
= R + h = 6.4 x 106 + 1.6 x 106
= 8.0 x 106 मीटर।

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प्रश्न 8.18.
पृथ्वी के पृष्ठ पर किसी प्रक्षेप्य की पलायन चाल 11.2 kms-1 है। किसी वस्तु को इस चाल की तीन गुनी चाल से प्रक्षेपित किया जाता है। पृथ्वीसे अत्यधिक दूर जाने पर इस वस्तु की चाल क्या होगी? सूर्य तथा अन्य ग्रहों की उपस्थिति की उपेक्षा कीजिए।
उत्तर:
माना वस्तु की प्रारम्भिक व अन्तिम चाल v व v है।
माना वस्तु का द्रव्यमान m है।
वस्तु की प्रारम्भिक गतिज ऊर्जा
= \(\frac{1}{2}\) mv2
वस्तु की स्थितिज ऊर्जा (पृथ्वी की सतह पर)
= \(\frac{-GMm}{R}\)
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण img 14
जहाँ M व R क्रमशः पृथ्वी के द्रव्यमान व त्रिज्या हैं। वस्तु की अन्तिम स्थितिज ऊर्जा (अनन्त पर) = 0
वस्तु की अन्तिम गतिज ऊर्जा (अनन्त पर) = \(\frac{1}{2}\) mv2
ऊर्जा संरक्षण के नियम से,
प्रा० गतिज ऊर्जा + प्रा० PE = अन्तिम (KE + PE)
या \(\frac{1}{2}\) mv2 – \(\frac{GMm}{R}\) = \(\frac{1}{2}\) mv2 + 0
या \(\frac{1}{2}\) mv2 = \(\frac{1}{2}\)mv2 – \(\frac{-GMm}{R}\)
Also Let ve = escape velocity
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण img 15
= 31.7 kms-1

प्रश्न 8.19.
कोई उपग्रह पृथ्वी के पृष्ठ से 400 km ऊँचाई पर पृथ्वी की परिक्रमा कर रहा है। इस उपग्रह को पृथ्वी के गुरुत्वीय प्रभाव से बाहर निकालने में कितनी ऊर्जा खर्च होगी? उपग्रह का द्रव्यमान = 200 kg; पृथ्वी का द्रव्यमान = 6.0 × 1024 kg; पृथ्वी की त्रिज्या = 6.4 x 106m तथा G = 6.67 x 10-11 Nm2kg-2
उत्तर:
माना पृथ्वी का द्रव्यमान व त्रिज्या क्रमश: M व R
माना पृथ्वी पृष्ठ से Lऊँचाई पर उपग्रह का द्रव्यमान है।
h ऊँचाई पर कक्ष में वेग = कक्षीय वेग = y
कक्ष में उपग्रह की KE = \(\frac{1}{2}\) mv2 ऊँचाई पर उपग्रह की स्थितिज ऊर्जा
= \(\frac { GM_{ m } }{ R+h } \)
अतः चक्रण करते उपग्रह की सम्पूर्ण ऊर्जा (KE + PE)
= \(\frac{1}{2}\) mv2 – \(\frac { GM_{ m } }{ R+h } \)
= \(\frac{1}{2}\) m (\(\frac{GM}{R + h}\))
(∴h ऊँचाई पर कक्षीय वेग = \(\sqrt { \frac { GM }{ R+h } } \))
= – \(\frac{1}{2}\) \(\frac{GMm}{R + h}\)
उपग्रह को पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण से बाहर भेजने के लिए इसकी गुरुत्वाकर्षण स्थितिज ऊर्जा शून्य होगी तथा इसकी गतिज ऊर्जा भी शून्य होगी।
पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से बाहर भेजने पर उपग्रह की अन्तिम ऊर्जा = 0
Rऊँचाई पर चक्रण करती वस्तु की ऊर्जा + दी गई ऊर्जा = 0 (ऊर्जा संरक्षण के नियम से)
उपग्रह को पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से बाहर भेजने के लिए दी गई ऊर्जा
= E = – चक्रण करते उपग्रह की ऊर्जा
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण img 16
दिया है h = 400 km
= 400 × 103 m, R = 6400 × 103m,
G = 6.67 × 1024 Nm2kg-2
M = 6 × 1024 kg. m = 200 kg
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण img 17
= 5.885 × 109J

प्रश्न 8.20.
दो तारे, जिनमें प्रत्येक का द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान (2 × 1030 kg) के बराबर है, एक दूसरे की ओर सम्मुख टक्कर के लिए आ रहे हैं। जब वे 109 km की दूरी पर हैं तब इनकी चाल उपेक्षणीय है। ये तारे किस चाल से टकराएंगे? प्रत्येक तारे की त्रिज्या 104 km है। यह मानिए कि टकराने के पूर्व तक तारों में कोई विरूपण नहीं होता (G के ज्ञात मान का उपयोग कीजिए)।
उत्तर:
दिया है: प्रत्येक तारे का द्रव्यमान
M = 2 × 1030 किग्रा
दोनों तारों के मध्य प्रा० दूरी,
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण img 18
r = 109 किमी = 1012 मीटर
प्रत्येक तारे का आकार = त्रिज्या
= r = 104 किमी = 107 मीटर
माना दोनों तारे एक दूसरे से टकराते हैं। माना दोनों तारे की प्रा० चाल u है।
r दूरी पर रखे एक तारे की दूसरे के सापेक्ष स्थितिज ऊर्जा
PE = \(-\frac { Gm_{ 1 }m_{ 2 } }{ r } \) = – \(\frac { GM_{ m } }{ r } \)
7 दूरी पर KE = 0 [∴u = 0]
सम्पूर्ण प्रा० ऊर्जा
KE + PE = 0 – \(\frac { GM^{ 2 } }{ r } \) = \(\frac { – GM^{ 2 } }{ r } \) … (i)
माना दोनों तारों के केन्द्र ।’ दूरी पर जब दोनों तारे एकदम टकराने वाले होते हैं = 2R
संघट्ट के बाद दोनों तारों की KE
= \(\frac{1}{2}\) Mv2 + \(\frac{1}{2}\) Mv2
= Mv2
संघट्ट के समय दोनों तारों की
PE = \([latex]\frac { -GMM }{ r^{ ‘ } } \) = \(\frac { -GM^{ 2 } }{ 2R } \)
ऊर्जा संरक्षण के नियम से
सम्पूर्ण प्रा० ऊर्जा = अन्तिम (ICE + IPE) या
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण img 19

प्रश्न 8.21.
दो भारी गोले जिनमें प्रत्येक का द्रव्यमान 100 kg, त्रिज्या 0.10 m है किसी क्षैतिज मेज पर एक दूसरे से 1.0 m दूरी पर स्थित हैं। दोनों गोलों के केन्द्रों को मिलाने वाली रेखा के मध्य बिन्दु पर गुरुत्वीय बल तथा विभव क्या है? क्या इस बिन्दु पर रखा कोई पिंड संतुलन में होगा? यदि हाँ, तो यह सन्तुलन स्थायी होगा अथवा अस्थायी?
उत्तर:
माना दोनों गोले क्रमश: A व B बिन्दु पर रखे गए हैं। दोनों गोलों के बीच की दूरी = r = AB = 1 मीटर
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण img 20
AB का मध्य बिन्दु 0 = AB × \(\frac{1}{2}\)
= \(\frac{1}{2}\) × 1m = 0.5m
AO = OB
= \(\frac{1}{2}\) × 1m = 0.5m
प्रत्येक गोले का द्रव्यमान = M = 100 kg
माना कि 0 बिन्दु पर रखी प्रत्येक वस्तु का द्रव्यमान = m हम जानते हैं कि गुरुत्वाकर्षण बल,
F = \(\frac { GMm }{ d^{ 2 } } \)
माना A व b के कारण 0 पर बल क्रमश: FA व FB हैं। अतः
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण img 21
ये दोनों विपरीत दिशा में लगते हैं।
अतः 0 पर परिणामी बल = 0
इसका तात्पर्य यह है कि बिन्दु पर रखी वस्तु पर कोई बल नहीं लगता है। अतः यह वस्तु सन्तुलन में है। लेकिन यह सन्तुलन अस्थिर है चूँकि A व B में सूक्ष्म विस्थापन से भी सन्तुलन बदला जाता है।
पुनः हम जानते हैं कि गुरुत्वाकर्षण विभव,
= \(-\frac { GM }{ d } \)
माना A व B बिन्दुओं पर रखे गोलों पर 0 के कारण गुरुत्वाकर्षण विभव क्रमश: VA व VB है।
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण img 22
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण img 22a

अतः मध्यबिन्दु पर रखी वस्तु अस्थिर सन्तुलन में होती है।

गुरुत्वाकर्षण अतिरिक्त अभ्यास के प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 8.22.
जैसा कि आपने इस अध्याय में सीखा है कि कोई तुल्यकाली उपग्रह पृथ्वी के पृष्ठ से लगभग 36,000 km ऊँचाई पर पृथ्वी की परिक्रमा करता है। इस उपग्रह के निर्धारित स्थल पर पृथ्वी के गुरुत्व बल के कारण विभव क्या है? (अनन्त पर स्थितिज ऊर्जा शुन्य लीजिए।) पृथ्वी का द्रव्यमान = 6.0 × 1024 k; पृथ्वी की त्रिज्या = 6400 km.
उत्तर:
दिया है: ME = 6 × 1024 किग्रा
RE = 6400 किमी = 6.4 x 106 मीटर
हम जानते हैं कि गुरुत्वीय विभव
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण img 23
= – 9.4 x 106 जूल प्रति किग्रा

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प्रश्न 8.23.
सूर्य के द्रव्यमान से 2.5 गुने द्रव्यमान का कोई तारा 12 km आमाप से निपात होकर 1.2 परिक्रमण प्रति सेकण्ड से घूर्णन कर रहा है। (इसी प्रकार के संहत तारे को न्यूट्रॉन तारा कहते हैं कुछ प्रेक्षित तारकीय पिंड, जिन्हें पल्सार कहते हैं, इसी श्रेणी में आते हैं।) इसके विषुवत् वृत्त पर रखा कोई पिंड, गुरुत्व बल के कारण, क्या इसके पृष्ठ से चिपका रहेगा? (सूर्य का द्रव्यमान = 2 x 1030 kg)
उत्तर:
तारे से चिपके तारकीय पिंड के लिए, तीर का गुरुत्वाकर्षण बल अभिकेन्द्र बल के बराबर या अधिक होगा। इस दशा में अभिकेन्द्र बल, गुरुत्वाकर्षण बल से अधिक नहीं होगा तथा पिंड नहीं उड़ेगा।
mg ≥ m \(\frac { v^{ 2 } }{ r } \)
या
g > \(\frac { v^{ 2 } }{ r } \)
या g ≥ ac
जहाँ ac = \(\frac { v^{ 2 } }{ r } \) अभिकेन्द्रीय त्वरण
अतः तारे से तारकीय पिंड से चिपकने के लिये, गुरुत्व के कारण तारे पर त्वरण 2 अभिकेन्द्रीय त्वरण
दिया है:
r = 12 km = 12 x 103 m
आवृत्ति v = 1.5 rps
w = 2πv = 21 x 1.5 = 3π rads-1 अभिकेन्द्रीय त्वरण,
ac = \(\frac { v^{ 2 } }{ r } \) = rω2
= 12 × 103 × (3π)2
= 12 × 103 × 9 × 9.87
= 1065.96 × 103 ms-2
= 1.1 × 106

पुनः हम जानते हैं कि तारे पर गुरुत्व के कारण त्वरण निम्नवत् है –
g = \(\frac { GM }{ r^{ 2 } } \)
दिया है: M = सूर्य के द्वयमान का 2.5 गुना
= 2.5 × 2 × 1030 kg
(∴ सूर्य के द्वयमान = 2 × 1030 kg
= 5 × 1030
r = 12km
G = 6.67 × 10-11 Nm2 kg-2
g = \(\frac { 6.67\times 10^{ -11 }\times 5\times 10^{ 30 } }{ (12000)^{ 2 } } \)
= 0.2316 × 1013 ms-2
= 23.16 × 1011 ms-2
= 2.3 × 1012 ms-2
समीकरण (i)  व  (iv) से
अतः पिंड तारे से चिपका रहेगा। … (iv)

प्रश्न 8.24.
कोई अन्तरिक्षयान मंगल पर ठहरा हुआ है। इस अन्तरिक्षयान पर कितनी ऊर्जा खर्च की जाए कि इसे सौरमण्डल से बाहर धकेला जा सके। अन्तरिक्षयान का द्रव्यमान = 1000 kg; सूर्य का द्रव्यमान = 2 x 1030 मंगल का द्रव्यमान = 6.4 x 1023 kg; मंगल की त्रिज्या = 3395 km; मंगल की कक्षा की त्रिज्या = 2.28 x 108 km तथा G = 6.67 x 10-11 Nm2kg-2
उत्तर:
G = 6.67 x 10-11 Nm2 kg-2
माना कि सूर्य के सापेक्ष मंगल का द्रव्यमान व त्रिज्या क्रमश: M व R है।
दिया है: सूर्य का द्रव्यमान M = 2 x 1030 kg
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण img 26
व्यक्ति की सूर्य के चारों ओर त्रिज्या,
= R = 2.28 x 108 km
मंगल की त्रिज्या = R’ = 3395 km
मंगल का द्रव्यमान = M’ = 6.4 x 1023 kg
सौरमण्डल का द्रव्यमान m = 1000 किग्रा
सूर्य के गुरुत्वाकर्षण के कारण अन्तरिक्षयान की स्थितिज ऊर्जा
= \(\frac{-GMm}{R}\)
मंगल के गुरुत्वाकर्षण के कारण सौरमण्डल की स्थितिज ऊर्जा
= \(\frac { -GM^{ ‘ }m }{ R^{ ‘ } } \)
मंगल के पृष्ठ पर अन्तरिक्षयान की सम्पूर्ण स्थितिज ऊर्जा
= \(\frac{-GMm}{R}\) – \(\frac{-GMm}{R}\)
चूँकि अन्तरिक्षयान की KE शून्य है
∴अन्तरिक्षयान की सम्पूर्ण ऊर्जा
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण img 27
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण img 27a

अन्तरिक्षयान को सौरमण्डल से बाहर करने के लिए, इसकी गतिज ऊर्जा इतनी बढ़ानी चाहिए जिससे इस ऊर्जा का मान, मंगल के पृष्ठ पर ऊर्जा के समान हो जाए।
अभीष्ट ऊर्जा = — (अन्तरिक्षयान की सम्पूर्ण ऊर्जा)
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण img 28

प्रश्न 8.25.
किसी रॉकेट को मंगल के पृष्ठ से 2 kms-1 की चाल से ऊर्ध्वाधर ऊपर दागा जाता है। यदि मंगल के वातावरणीय प्रतिरोध के कारण इसकी 20% आरंभिक ऊर्जा नष्ट हो जाती है, तो मंगल के पृष्ठ पर वापस लौटने से पूर्व यह रॉकेट मंगल से कितनी दूरी तक जाएगा? मंगल का द्रव्यमान = 6.4 x 1023 kg; मंगल की त्रिज्या = 3395 km तथा G = 6.67 x 10-11 Nm2kg-2
उत्तर:
माना रॉकेट का द्रव्यमान m है।
दिया है:
मंगल का द्रव्यमान, M = 6.4 x 1023 किग्रा
मंगल की त्रिज्या, R = 3395 किमी
गुरुत्वाकर्षण नियतांक G = 6.67 x 10-11 न्यूटन – मीटर2 प्रति किग्रा2
माना कि रॉकेट मंगल से h ऊँचाई तक पहुँचता है।
माना कि मंगल के पृष्ठ से रॉकेट को प्रारम्भिक चाल v से छोड़ा जाता है।
रॉकेट की प्रारम्भिक गतिज ऊर्जा = \(\frac{1}{2}\) mv2
व रॉकेट की प्रारम्भिक स्थितिज ऊर्जा = \(\frac { -GMm }{ R } \)
रॉकेट की सम्पूर्ण प्रा० ऊर्जा = K.E. + P.E.
= \(\frac{1}{2}\) mv2 – \(\frac { -GMm }{ R } \)
चूँकि h ऊँचाई पर 20% ऊर्जा नष्ट हो जाती है जबकि 80% ऊर्जा संचित रहती है।
संचित ऊर्जा = \(\frac{80}{100}\) x \(\frac{1}{2}\)mv2
सम्पूर्ण उपलब्ध प्रा० ऊर्जा,
= \(\frac{4}{5}\)\(\frac{1}{2}\)mv2 – \(\frac { -GMm }{ R } \)
= 0.4 mv2 – \(\frac { -GMm }{ R + h} \)
MP Board Class 11th Physics Solutions Chapter 8 गुरुत्वाकर्षण img 29

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MP Board Class 11th General Hindi पत्र-लेखन

MP Board Class 11th General Hindi पत्र-लेखन

पत्र-लेखन की आवश्यकता-हम सब अपने निकट संबंधियों, इष्ट मित्रों से बराबर सम्पर्क रखना चाहते हैं। जो हमारे, पास में ही रहते हैं, उनसे तो हम मिलते रहते हैं, किंतु जो हमसे दूर दूसरे नगर या गाँव में रहते हैं, उनको तो हम लिखकर ही अपनी कुशल-क्षेम भेज सकते हैं और लिखकर ही उनकी कुशल-क्षेम मँगा सकते हैं। इस प्रकार लिखकर विचारों का जो आदान-प्रदान किया जाता है, उसे पत्र-लेखन कहते हैं। विद्यालय में भी कई अवसरों पर हमें अपने प्राचार्य को प्रार्थना-पत्र लिखने पड़ते हैं। कभी-कभी हम अपने गाँव या नगर के बाहर के किसी पुस्तक विक्रेता से अपनी जरूरत की पुस्तकें भी मँगाते हैं। इसके लिए भी हमें पत्र लिखना पड़ता है। इस तरह हम यह कह सकते हैं कि पत्र व्यवहार हम सबके लिए अनिवार्य हो गया हैं।

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पत्र के प्रकार-पत्र के कई प्रकार हो सकते हैं, जिनमें निम्नलिखित प्रमुख

  1. निजी पत्र या घरेलू पत्र,
  2. कार्यालयीन पत्र,
  3. शासकीय पत्र,
  4. व्यापारिक पत्र।

1. कार्यालयीन पत्र-अपने संबंधियों, मित्रों को लिखे गए पत्र इसी श्रेणी में आते हैं। निमंत्रण-पत्र भी इसी श्रेणी में आते हैं।
2. कार्यालयीन पत्र-जिस कार्यालय में व्यक्ति काम करता है अथवा विद्यालय में अध्ययन कहता है, उस कार्यालय प्रधान या विद्यालय में प्राचार्य/प्राचार्या को लिखे जाने वाले पत्र इस श्रेणी में आते हैं।
3. शासकीय पत्र-शासकीय अधिकारियों को लिखे गए प्रार्थना-पत्र/आवेदन-पत्र, शिकायत-पत्र शासकीय आदेश आदि इस श्रेणी में आते हैं।
4. व्यापारिक पत्र-व्यापारियों को लिखे गए पत्र, सामान भेजने या मँगाने के लिए लिखे गए पत्र इस श्रेणी में आते हैं।
पत्र के भाग-साधारणतः पत्र के निम्नलिखित भाग होते हैं :

(क) पत्र भेजनेवाले का पता एवं तिथि-यह पत्र के प्रारंभ में दाहिनी ओर लिखा जाता है। उसके नीचे पत्र भेजने की तिथि लिखी जाती है,
जैसे-

89/19, तुलसीनगर,
भोपाल
25, दिसंबर, 2204

(ख) संबोधन तथा अभिवादन शब्द-जिस व्यक्ति को पत्र लिखा जाता है, उसे आदरसूचक, आशीर्वादसूचक शब्द के साथ अभिवादन या आशीर्वचन लिखा जाता है। यह पत्र के बायीं ओर लिखा जाता है। (अभिवादन और आशीर्वचन के विषय में आगे लिखा जा रहा है।)
(ग) विषय-यह पत्र का मुख्य अंग है। पत्र का विषय सरल भाषा में स्पष्ट रूप में लिखा जाना चाहिए। विषय को अनावश्यक विस्तार न दिया जाय।
(घ) पत्र के अंत में पत्र लिखनेवाला जिसे पत्र लिखता है, उसके प्रति, संबंधसूचक शब्द लिखकर अपना नाम लिखता है।
(ङ) पाने वाले का पता-पता पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय पत्र अथवा लिफाफे पर निश्चित स्थान पर लिखा जाता है। पता बिल्कुल शुद्ध और स्पष्ट होना चाहिए। पते के दो नमूने यहाँ दिए जा रहे हैं-
श्री आनन्द मोहन माथुर – श्री राधेश्याम शर्मा
आनन्द नगर, रेलवे कॉलोनी, – गाँव/पत्रालय कमतरी,
खण्डवा, पिन-450001 जिला आगरा (उ.प्र.)

पत्र का आरंभ, पत्र समाप्त करने की औपचारिक तालिका-
MP Board Class 11th General Hindi पत्र-लेखन img-1

प्राचार्य/प्राचार्या को लिखे जाने वाले आवेदन-पत्र

1. अपने विद्यालय के प्राचार्य को दो दिन का बीमारी के कारण अवकाश देने के लिए प्रार्थना-पत्र लिखिए।
सेवा में,
श्रीमान प्राचार्य महोदय,
शासकीय सुभाष उ.मा.वि.
शिवाजी नगर, भोपाल।

महोदय,
निवेदन है कि गत रात्रि से मैं सर्दी और बुखार से पीड़ित हूँ। डॉक्टर ने मुझे दो दिन पूर्ण विश्राम के लिए सलाह दी है। अतः मैं दो दिन विद्यालय में उपस्थित नहीं हो सकूँगा। कृपया दिनांक 8 एवं 9 अगस्त का अवकाश स्वीकृत करने का कष्ट करें।

धन्यवाद!

आपका आज्ञाकारी शिष्य
परसराम पाण्डेय,
कक्षा 9-ब

8-12-2004

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2. ‘वार्षिक परीक्षा की तैयारी की सूचना हेतु पिताजी को पत्र’

175, शिवाजी मार्ग
भोपाल
10-5-2004

पूज्य पिताजी!

सादर चरण-स्पर्श,
आपका कृपापत्र हमें 8-5-2004 को मिला। पढ़कर मन खुश हुआ। मैं आप सब पूज्य-वृन्दों के आशीर्वाद से सकुशल हूँ। आशा है कि आप सब भी परमात्मा की महाकृपा से ठीक से होंगे।

पूज्य पिताजी! आजकल मैं अपनी वार्षिक परीक्षा की तैयारी में अति व्यस्त हूँ। मेरी वार्षिक परीक्षा 20-5-2004 से आरंभ होने वाली है। अब तक मैंने हिंदी, अंग्रेजी, गणित, विज्ञान और सामाजिक विषयों की पूरी तरह से तैयारी कर ली है परीक्षा के दिन तक तो मुझे सारे विषय कंठस्थ हो जाएँगे। इस आधार पर मैं आपको यह विश्वास दिला रहा हूँ कि मैं प्रथम श्रेणी में अवश्य उत्तीर्ण हो जाऊँगा। आशा है कि इससे आप सबको आनंद और उल्लास होगा।

पूज्य माताजी को सादर चरण-स्पर्श और अनुज शशि को शुभाशीर्वाद।

आपका आज्ञाकारी पुत्र
‘रवि’

3. शाला (विद्यालय छोड़ने का प्रमाण-पत्र प्राप्त करने हेतु प्राचार्य महोदय को एक प्रार्थना-पत्र लिखिए।
विषय-शाला (विद्यालय) छोड़ने का प्रमाण-पत्र हेतु प्राचार्य को प्रार्थना-पत्र।

सेवा में,
प्राचार्य
राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय,
भोपाल (म.प्र.)

सविनय निवेदन है कि प्रार्थी आपके विद्यालय की कक्षा 9वीं ‘अ’ अनुक्रमांक 11 का भूतपूर्व छात्र है। प्रार्थी ने आपके विद्यालय से उपर्युक्त कक्षा को द्वितीय श्रेणी से उत्तीर्ण करके अध्ययन छोड़ दिया है जिसके प्रमाण-पत्र की आज अत्यंत आवश्यकता आ गई है। – अतः आपसे प्रार्थना है कि आप उपर्युक्त प्रमाण-पत्र देने की कृपा करें।

प्रार्थी
सुरेन्द्र कुमार
कक्षा 9 ‘अ’
अनुक्रमांक 11

दिनांक 4-4-2002

4. अपने पिताजी को पत्र लिखिए तथा उसमें मासिक जेब खर्च बढ़ाने की मांग कीजिए।
विषय-जेब खर्च बढ़ाने हेतु पिताजी को पत्र।

विष्णु गार्डन,
भोपाल
3-3-200…

पूज्य पिताजो,

सादर चरण-स्पर्श
आप सब सकुशल हैं, इसके लिए मैं परमात्मा से सदैव प्रार्थी हूँ, आपके पत्र की प्रतीक्षा करके मैं यह पत्र लिख रहा हूँ। आपको यह ज्ञात हो कि मेरी परीक्षा आगामी माह की 15वीं तारीख से आरंभ होने वाली है। इसके लिए मैंने जी-जान से अध्ययन आरंभ कर दिया है। कुछ पुस्तकें, कापियाँ और कुछ परीक्षोपयोगी आवश्यकताएँ आ गई हैं। इसलिए आप अब 50 रुपये और अधिक भेजते जाइएगा। ऐसा इसलिए कि परीक्षा खर्च के साथ-साथ आवागमन और सम्पर्क हेतु भी पैसे खर्च होंगे। अतएव आप 500 रुपये तो अवश्य बढ़ाकर भेजते रहियेगा। अन्यथा परीक्षा की तैयारी अधूरी रह जाएगी।

माताजी को सादर चरण-स्पर्श, अनुज, दिव्या को शुभाशीर्वाद

आपका आज्ञाकारी पुत्र
‘प्रभाकर’

5. अपने विद्यालय के प्राचार्य को निर्धन छात्र को पुस्तकालय से पुस्तकें प्रदान करने विषयक प्रार्थना-पत्र लिखिए।
विषय-प्राचार्य को निर्धन छात्र को पुस्तकालय से पुस्तकें हेतु प्रार्थना-पत्र।

सेवा में,
प्राचार्य राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय
इन्दौर (म.प्र.)

महोदय,
सविनय निवेदन है कि प्रार्थी आपके विद्यालय की कक्षा 9वीं ‘द’ का एक छात्र प्रतिनिधि है। प्रार्थी की कक्षा का एक छात्र ‘रमेश’ जिसका अनुक्रमांक 30 है। यह छात्र अत्यंत निर्धन है। यह अनाथ है। जिस किसी तरह से हिम्मत बाँधकर यह अपनी पढ़ाई कर रहा है। पढ़ने में तेज है। यह पुस्तकें खरीदने में असमर्थ है। अतः इसे पुस्तकालय से पुस्तकें दिलवाने की कृपा करें।

आपका आज्ञाकारी छात्र
सुरेश
कक्षा 9वीं ‘द’
अनुक्रमांक 23

दिनांक 22-5-200…

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6. शिक्षक पद हेतु एक आवेदन-पत्र संचालक शिक्षा विभाग के नाम लिखिए।

श्रीमान् संयुक्त संचालक महोदय,
शिक्षा विभाग
संभाग ग्वालियर (म.प्र.)
दिनांक 15-10-200…

सेवा में,
विषय-शिक्षक पद पर नियुक्ति हेतु आवेदन-पत्र।

महोदय,
सेवा में सविनय निवेदन है कि प्रार्थी को दैनिक-पत्र आचरण व स्वदेश में प्रकाशित एक विज्ञापन से ज्ञात हुआ है कि आपके अधीनस्थ ग्रामीण अंचलों के प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षकों के पद रिक्त हैं। अतः माध्यमिक विद्यालय हेतु शिक्षक पद पर नियुक्ति के लिए मैं अपना आवेदन-पत्र कर रहा हूँ। अतः आपसे अनुरोध है कि मेरी निम्नलिखित योग्यताओं को देखते हुए आप मेरी नियुक्ति शिक्षक पद पर करने की कृपा करें।

मेरी शैक्षणिक योग्यता का विवरण इस प्रकार है-
(1) शैक्षणिक योग्यता-बी.एस.सी.-द्वितीय श्रेणी
(2) प्रशिक्षण योग्यता-बी.एड.-द्वितीय श्रेणी
(3) हायर सेकेण्ड्री परीक्षा-प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण
(4) अन्य योग्यता-हॉकी व क्रिकेट खेल में विशेष रुचि
(5) प्रार्थी की जन्मतिथि एवं चरित्र का प्रमाण-पत्र प्रार्थना-पत्र के साथ संलग्न है। अतः श्रीमान् से पुनः निवेदन है कि प्रार्थी को विभाग में सेवा का अवसर प्रदान करें।
पता
दर्पण कॉलोनी ठाठीपुर मुरार।

प्रार्थी
कमल किशोर अष्ठाना

7. पाठ्य-पुस्तक निगम भोपाल से निर्धारित पाठ्य पुस्तकें मँगवाने हेतु एक पत्र संचालक के नाम लिखिए।

सुभाष उच्चतर माध्यमिक विद्यालय
रतलाम
दिनांक 7-7-200

श्रीमान् संचालक महोदय,
पाठ्य-पुस्तक महोदय,
भोपाल (म.प्र.)

महोदय,
सेवा में निवेदन है कि पाठ्य-पुस्तक निगम भोपाल (म.प्र.) द्वारा प्रकाशित कक्षा 9 की पुस्तकें हैं हमारे नगर के पुस्तक विक्रेताओं के पास उपलब्ध नहीं हैं। जिन दुकानों पर कुछ पुस्तकें हैं वे दुकानदार अधिक मूल्य पर पुस्तकें बेचना चाहते हैं। अतः आपसे निवेदन है कि निम्नलिखित विषयों की पुस्तकें शासकीय दर पर कमीशन काट कर भेजने की कृपा करें।

  1. विशिष्ट हिंदी कक्षा IX 1 प्रति
  2. विशिष्ट अंग्रेजी कक्षा IX 1 प्रति
  3. गणित कक्षा IX 1 प्रति
  4. भौतिक शास्त्र कक्षा IX 1 प्रति
  5. रसायन शास्त्र कक्षा IX 1 प्रति

भवदीय
अशोक कुमार गौड़

8. विद्यालय के प्राचार्य को एक आवेदन-पत्र अपनी शुल्क मुक्ति के लिए लिखिए।
श्रीमान् प्राचार्य महोदय
शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय जबलपुर

महोदय,
सेवा में सविनय निवेदन है कि प्रार्थी कक्षा IX’ब’ का नियमित छात्र है। इस वर्ष मैंने माध्यमिक शिक्षा मण्डल भोपाल द्वारा संचालित कक्षा IX की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की है। भौतिक शास्त्र और रसायन शास्त्र में मैंने विशेष योग्यता प्राप्त कर अपने विद्यालय का गौरव बढ़ाया है। . मैं एक निर्धन छात्र हूँ। पिताजी शासकीय सेवा से निवृत हो चुके हैं। परिवार में आय का साधन नहीं है। पूरा परिवार पिताजी की पेंशन शक्ति पर ही निर्भर है। इस कारण परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। अतः आपसे करबद्ध प्रार्थना है कि मुझे विद्यालय के शुल्क से मुक्त करने की कृपा करें।

आशा है कि आप मेरी निर्धन अवस्था पर ध्यानपूर्वक विचार कर मुझे कक्षा के सम्पूर्ण शुल्क से मुक्त करने की कृपा करेंगे।।

आपका आज्ञाकारी छात्र
मुरली मनोहर
पाठक
कक्षा IX ‘ब’

9. जन्मदिवस समारोह में सम्मिलित होने के लिए अपने मित्र को आमंत्रण पत्र लिखिए।

17/15 तिलक नगर
ग्वालियर
4 फरवरी, 200…

प्रिय मोहन,
तुम्हें यह जानकर प्रसन्नता होगी कि मैं दिनांक 6 फरवरी को अपना जन्मदिवस मना रहा। घर में इसके लिए अच्छी तैयारियाँ की गई हैं। इस अवसर पर चाय तथा संगीत पार्टी का भी आयोजन किया गया है। गत वर्ष तुम इस अवसर पर बीमार होने के कारण नहीं आ सके परंतु इस बार अवश्य आना। तुम्हारे बिना पार्टी का रंग फीका पड़ जाएगा। आशा है तुम समय से पूर्व आकर काम में भी हाथ बँटाओगे।

पूज्य पिताजी और माताजी को मेरा प्रणाम कहना।

तुम्हारा अभिन्न मित्र
रविन्द्र सिंह

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10. अपने क्षेत्र के स्वास्थ्याधिकारी के नाम क्षेत्र की गंदगी दूर करने के विषय में पत्र लिखिए।
विशेष-स्वास्थ्य अधिकारी को पत्र।

WZ-125, विष्णु गार्डन, भोपाल।

सेवा में,
स्वास्थ्य अधिकारी जी,
भोपाल नगर निगम,
क्षेत्रीय कार्यालय,
भोपाल।

मान्यवर,
मैं आपका ध्यान विष्णु गार्डन कॉलोनी की ओर दिलाना चाहता हूँ। इस कॉलोनी में आजकल गंदगी का साम्राज्य है। स्थान-स्थान पर कूड़े के ढेर लगे हुए हैं। नालियों में पानी सड़ रहा है। सड़क पर जगह-जगह गड्ढे हैं जिनमें वाहन फँस जाते हैं और पैदल चलने वाले ठोकर खाकर गिर जाते हैं। चारों ओर बदबू, गंदगी और मक्खी -मच्छरों का राज्य है। ऐसे वातावरण में हैजा और मलेरिया का डर है। सफाई कर्मचारी अपने काम में लापरवाही दिखा रहे हैं।।

आपसे अनुरोध है कि आप स्वयं इस क्षेत्र की सफाई व्यवस्था का निरीक्षण करें और उचित कार्यवाही के लिए निर्देश दें।

भवदीय
सुजान सिंह
मंत्री, ब्लाक समिति
विष्णु गार्डन, भोपाल।

11. क्षेत्रीय डाक मास्टर को अनियमित डाक के संबंध में शिकायती पत्र लिखिए।
विशेष-पोस्ट मास्टर को एक शिकायती पत्र अनियमित डाक के संबंध में। सेवा में,
पोस्ट मास्टर जनरल,
जनरल पोस्ट ऑफिस,
शिकनी नगर भोपाल,
विषय-डाक वितरण में अनियमतता।

महोदय,
इस पत्र के माध्यम से मैं आपका ध्यान अरेरा कॉलोनी क्षेत्र में डाक वितरण की अनियमितता के विषय में दिलाना चाहता हूँ। इस क्षेत्र में पिछले कई मास से डाक वितरण में अनियमितता देखने को मिल रही है। समय पर डाक न मिलने से बड़ी कठिनाई होती है।

इस क्षेत्र में नियुक्त पोस्ट मैन डाक वितरण कार्य ठीक प्रकार नहीं करता। वह प्रायः दो-तीन दिन में पत्र एक साथ ही डालता है। कभी-कभी आवश्यक पत्र भी बाहर बरामदे में फेंक देता है। वह पत्रों को खेलते हुए बच्चों के हाथ में फेंककर चला जाता है।

मुझे आशा है कि आप इस ओर समुचित ध्यान देकर डाक वितरण की अनियमितता को समाप्त करेंगे।

भवदीय
क ख ग
अरेरा कॉलोनी सुधार समिति
भोपाल

दिनांक-7-4-200…

12. पिता को पत्र लिखिए, जिसमें 300 रुपये पुस्तकों में और अन्य खर्चे के लिए मनीऑर्डर द्वारा मँगाइए।

15 टी.टी. नगर
भोपाल
दिनांक : 15-1-200…..

पूजनीय पिताजी,

सादर चरण-स्पर्श।
मैं यहाँ सकुशल हूँ। आशा करता हूँ कि आप सब लोग सकुशल होंगे। आपके निर्देशों का मैं पूरी तरह पालन कर रहा हूँ। मेरा ध्यान ठीक चल रहा है। मेरी छ:माही परीक्षाएँ 15-12 से हो रही हैं। मुझे कुछ पुस्तकें और स्टेशनरी आदि खरीदनी हैं। पढ़ाई के लिए मैं एक छोटा टेबिल लैंप भी लेना चाहता हूँ। इन सबके लिए लगभग : 300 रुपये की आवश्यकता पड़ेगी। अतः कृपया उक्त धनराशि यथाशीघ्र मनीऑर्डर द्वारा भेजने का कष्ट करिएगा।

शेष कुशल है। मधु को प्यार और माताजी को चरण-स्पर्श।

आपका आज्ञाकारी पुत्र
अमित

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13. फीस माफ कराने के लिए एक प्रार्थना-पत्र अपने विद्यालय के प्रधानाचार्य के नाम लिखिए।

सेवा में,
श्रीमान् प्रधानाचार्य जी,
रा.उ.मा. विद्यालय,
भोपाल।

महोदय,
नम्र निवेदन है कि मैं 9वीं कक्षा का एक परिश्रमी व मेधावी छात्र हूँ। गत वर्ष 8वीं कक्षा में मैंने सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया था। साथ ही मैं हॉकी टीम का कप्तान भी रह चुका हूँ। गत वर्ष मुझे हॉकी टूर्नामेंट में भेजा गया था। मुझे पढ़ने का अत्यंत शौक है। परंतु मेरे पिताजी मेरी पढ़ाई पर व्यय नहीं कर पाएँगे। क्योंकि उनकी मासिक आय केवल 400 रुपये है। घर के पाँच सदस्यों का जीवननिर्वाह बड़ी कठिनाई से चलता है। उनकी स्थिति बहुत ही दयनीय है। मैं पिताजी से फीस के पैसे माँगने की हिम्मत नहीं जुटा पाता क्योंकि वह पहले ही बड़ी कठिनाई में हैं। अतः आपसे करबद्ध प्रार्थना है कि मुझे पूर्ण शुल्कमुक्ति प्रदान करके मुझे इस संकट से उभारें। आपकी अनुकम्पा मेरे लिए वरदान बन सकती है। ऐसा मेरा विश्वास है आप मेरी सहायता अवश्य करेंगे।

धन्यवाद।
दिनांक : 20 जुलाई 200………….

आपका आज्ञाकारी शिष्य
क ख ग

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MP Board Class 11th General Hindi निबंध-लेखन

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1. दशहरा (विजयादशमी) अथवा एक भारतीय त्योहार

हमारे देश में विभिन्न धर्मों और जातियों के लोग रहते हैं। उनके विविध कर्म-संस्कार होते हैं। वे अपने कर्मों और संस्कारों को समय-समय पर विशेष रूप से प्रकट करते रहते हैं। इन रूपों को हम आए दिन, त्योहारों, पर्यो, आयोजनों में देखा करते हैं। इस प्रकार के अधिकांश तिथि, पर्व, त्योहार, आयोजन, उत्सव आदि सर्वाधिक हिंदुओं में होते हैं। हिंदुओं के जितने तिथि, त्योहार, पर्व, उत्सव आदि हैं उनमें दशहरा (विजयादशमी) का महत्त्व अधिक बढ़कर है। यह भी कहा जाना कोई अनुचित या अतिशयोक्ति नहीं है कि दशहरा (विजयादशमी) हिंदुओं का सर्वश्रेष्ठ पर्व, त्योहार या उत्सव है।

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दशहरा (विजयादशमी) का त्योहार सम्पूर्ण भारत में ही नहीं अपितु पूरे विश्व में हिंदू धर्म-मत के अनुयायी बड़े ही उल्लास और प्रयत्न के साथ मनाते हैं। यह आश्विन (क्वार) मास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा (एकम्) से पूर्णिमा (पूर्णमासी) तक बड़ी धूमधाम के साथ मनाया जाता है। अंग्रेजी तिथि-गणना के अनुसार यह त्योहार अक्टूबर माह में पड़ता है।

दशहरा (विजयादशमी) का त्योहार-उत्सव मनाने के कई कारण और मत हैं। प्रायः सभी हिंदु धर्मावलंबी इस धारण से इसे मनाते हैं कि इसी समय भगवान श्रीराम ने युग-युग सर्वाधिक अत्याचारी लंका नरेश रावण का अंत करके उसकी स्वर्णमयी नगरी लंका पर विजय प्राप्त की थी। चूँकि प्रतिपदा (एकम्) से लेकर दशमी तक (दस दिनों तक) लगातार भयंकर युद्ध करने के उपरांत ही श्रीराम ने रावण पर विजय प्राप्त की थी, इसलिए इसे विजयादशमी भी कहा जाता है। ‘दशहरा’ शब्द भी ‘विजयादशमी’ शब्द का पर्याय और प्रतीक है।

दशहरा (विजयादशमी) त्योहार, पर्व और पुण्य-तिथि के भी रूप में मनाया जाता है। मुख्य रूप से बंगाल-निवासी इसे महाशक्ति की उपासना-आराधना के रूप में मनाते हैं। उनका यह घोर विश्वास होता है कि इसी समय महाशक्ति दुर्गा ने असुरों का विध्वंस करके कैलाश पर्वत को प्रस्थान किया था। महाशक्ति की पूजा-उपासना, ध्यान-भक्ति आदि के द्वारा वे लगातार नौ दिनों तक अखंड पाठ और नवरातों तक पूजा के दीप जलाया करते हैं। इसलिए इसे लोग ‘नवरात’ भी कहते हैं। दुर्गा के अतिरिक्त अन्य देवी-देवताओं के भी व्रत, उपासना, पाठ, संकीर्तन आदि पुण्य कार्य-विधान इसी समय सभी श्रद्धालु अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए निष्ठा से करते हैं।

इस त्योहार के समय सबमें अद्भुत खुशी और उमंग की झलक होती है। प्रकृति देवी अपनी सुंदरता को सुखद हवा, वनस्पतियों के रंग-बिरंगे फूलों फसलों, फलों, और सभी जीवधारियों विशेष रूप से मनुष्यों के रौनकता और चंचलता के रूप में प्रकट करती हुई दिखाई पड़ती है। उधर मनुष्य भी अपनी विविध सौंदर्य-सज्जा से पीछे नहीं रहता है। दशहरा (विजयादशमी) के समय जगह-जगह मेलों, दंगलों, सभाओं,

हिन्दी व्याकरण
उद्घाटनों, प्रीतिभोजों, समारोहों आदि के कारण सारा वातावरण अपने आप में बन-ठनकर अधिक रोचक दिखाई देने लगता है।

दशहरा (विजयादशमी) के त्योहार का बहुत बड़ा संदेश है। वह यह कि सत्य और सदाचार की असत्य और दुराचार पर निश्चय ही विजय होती है। यह त्योहार हमें यह सिखलाता है कि हमें पूरी निष्ठा और श्रद्धा बनाए रखनी चाहिए। भारतीय सांस्कृतिक चेतना का अगर कोई वास्तविक त्योहार है तो सबसे पहले दशहरा (विजयादशमी) ही है।

2. समय का सदुपयोग (समय बहुमूल्य है)

महाकवि तलसी ने समय का महत्त्वांकन करते हुए लिखा है-

“का वर्षा जब कृषि सुखानी। समय चूकि पुनि का पछतानी।।”

अर्थात् समय के बीत जाने पर पछताने से कोई लाभ नहीं। दूसरे शब्दों में समय के रहते ही कुछ कर लेने का लाभ होता है। अन्यथा समय बार-बार नहीं मिलता गोस्वामी तुलसीदास के उपर्युक्त उपदेश पर विचारने से यह स्पष्ट हो जाता है कि समय का महत्त्व समय के सदुपयोग करने से ही होता है। केवल कथा-वार्ता, चर्चा, घटना-व्यापार आदि के अनुभवों के द्वारा हम अच्छी तरह से समझ जाते हैं कि समय का प्रभाव सबसे बड़ा होता है। दूसरे शब्दों में यह कि समय सबको प्रभावित करता है। समय के उपयोग से गरीबी अमीरी में बदल जाती है। असत्य सत्य सिद्ध हो जाता है। लघुता प्रभुता में बदल जाती है। इसी प्रकार यह कहा जा सकता है कि असंभव संभव में बदल जाता है। इसीलिए कोई भी प्रयत्नशील व्यक्ति-प्राणी समय का सदुपयोग करके मनोनुकूल दशा को प्राप्त करके चमत्कार उत्पन्न कर सकता है।

समय का प्रवाह बहते हुए जल-प्रवाह के समान होता है जिसे रोक पाना सर्वथा कठिन और असंभव होता है। इस तथ्य को बड़े ही सुस्पष्ट रूप से एक अंग्रेज विचारक ने इस प्रकार से व्यक्त किया है-

“Time and Tide wait for none.”

इसी प्रकार से समय के प्रभाव को स्पष्ट कर हए किसी अन्य अंग्रेज चिंतक ने ठीक ही सुझाव किया है कि समय सबसे बड़ा ध पर्म है। यही सबसे बड़ी पजा है। इसलिए सब प्रकार से महान् और सफल जीवन बिताने के लिए समय की पूजा-आराधना करने के सिवा और कोई चारा नहीं है-

“No religion is greater than time, time is the greatest dharma. So believe the time, worship the time if you want to live and if you want to survive.”

समय के महत्त्व को सभी महापुरुषों ने सिद्ध किया है। भगवान् श्रीकृष्ण सदुपदेश देते हुए स्वयं को सम्य (काल) की संज्ञा दी है। काल ही विश्व का कारण है। वही विश्व की रचना करता है, विकास करता है और वही इसका विनाश भी करता है। अतः काल ही काल का कारण है। काल ही महाकाल है। महाकाल ही अतिकाल है और अतिकाल ही विनाश, सर्वनाश, विध्वंस और नाश-विनाश को भी सदैव के लिए स्वाहा करने वाला है। इसलिए यह किसी प्रकार से आश्चर्य नहीं कि काल का अभिन्न स्वरूप सभी देव-शक्तियाँ, ब्रह्मा, विष्णु और महेश काल भी काल के प्रभाव से कभी दूषित, खोटे और निंदनीय कर्म में लिप्त होने से बच नहीं पाते हैं। फिर सामान्य प्राणी जनों की काल के सामने क्या बिसात है।

हम यह देखते हैं और अनुभव करते हैं कि काल अर्थात् समय का सदुपयोग करने वाले विश्व के एक से एक महापुरुषों ने समय के सदुपयोग को आदर्श रूप में व्यक्त किया है। समय का सदुपयोग ही अनंत संभावनाओं के द्वार को खोलता है और अनंत समस्याओं के समाधान को भी प्रस्तुत करता है। यही कारण है कि आज के वैज्ञानिकों ने अनंत असंभावनाओं को संभावनाओं में बदलते हुए सबके कान खड़े कर दिए हैं। इस प्रकार से यह कहा जा सकता है कि संभावनाओं की ओर आकर्षित होकर समय का सदुपयोग करने वाले निरंतर ही समय के एक-एक अल्पांश को किसी प्रकार से हाथ से निकलने नहीं देते हैं। ऐसा इसलिए कि वे भली-भाँति इस तथ्य के अनुभवी होते हैं-

“मुख से निकली बात और धनुष से निकला तीर कभी वापस नहीं आते।”

इसलिए समय का सदुपयोग करने से हमें कभी भी कोई चूक नहीं करनी चाहिए अन्यथा हाथ मल-मल कर पश्चाताप करने के सिवा और कुछ नहीं हो सकता हैं-

“अब पछताए क्या होत है, जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत।”

3. सिनेमा या चलचित्र

प्राचीन काल से लेकर अब तक मनुष्य ने अपने शारीरिक और मानसिक थकान और ऊब को दूर करने के लिए विभिन्न प्रकार के साधनों को तैयार किया है। प्राचीन काल में मनुष्य कथा, वार्ता, खेल-कूद और नाच-गाने आदि के द्वारा अपने तन और मन की थकान और ऊब को शांत किया करता था। धीरे-धीरे युग का परिवर्तन हुआ और मनुष्य के प्राचीन मनोरंजन और विनोद के साधनों में बढ़ोत्तरी हुई। आज विज्ञान के बढ़ते-चढ़ते प्रभाव के फलस्वरूप मनोरंजन के क्षेत्र में प्राचीन काल की अपेक्षा कई गुना वृद्धि हुई। पत्र, पत्रिकाएँ, नाटक, ग्रामोफोन, रेडियो, दूरदर्शन, टेपरिकॉर्डर, वी.सी.आर., वी.डी.ओ., फोटो कैमरा, वायरलेस, टेलीफोन सहित ताश, शतरंज, नौकायन, पिकनिक, टेबिल टेनिस, फुटबाल, वालीवाल, हॉकी, क्रिकेट सहित अनेक प्रकार की कलाएँ और प्रदर्शनों ने मानव द्वारा मनोरंजन हेतु आविष्कृत चौंसठ कलाओं में संवृद्धि की है। दूसरे शब्दों में कहना कि पूर्वकालीन मनोरंजन के साधन यथा-कथा, वार्ता, वाद-विवाद, कविता, संगीत, वादन, गोष्ठी, सभा या प्रदर्शन तो अब भी मनोरंजनार्थ हैं ही, इनके साथ ही कुछ अत्याधुनिक और नयी तकनीक से बने हुए मनोरंजन भी हमारे लिए अधिक उपयोगी हो रहे हैं। इन्हीं में से सिनेमा या चलचित्र भी हमारे मनोरंजन का बहुत बड़ा आधार है।

सिनेमा’ अंग्रेजी का मूल शब्द है जिसका हिंदी अनुवाद चलचित्र है अर्थात् चलते हुए चित्र। आज विज्ञान ने जितने भी हमें मनोरंजन के विभिन्न स्वरूप प्रदान किए हैं उनमें सिनेमा की लोकप्रियता बहुत अधिक है। इससे हम अब तक संतुष्ट नहीं हुए हैं और शायद अभी और कुछ युगों तक हम इसी तरह से संतुष्ट नहीं हो पाएँगे तो कोई आश्चर्य नहीं। कहने का भाव यह कि सिनेमा से हमारी रुचि बढ़ती ही जा रही है। इससे हमारा मन शायद ही कभी ऊब सके।

चलचित्र या सिनेमा का आविष्कार 19वीं शताब्दी में हुआ। इसके आविष्कारक टामस एल्बा एडिसन अमेरिका निवासी थे जिन्होंने 1890 में इसको हमारे सामने प्रस्तुत किया था। पहले-पहल सिनेमा लंदन में ‘कुमैर’ नामक वैज्ञानिक द्वारा दिखाया गया था। भारत में चलचित्र दादा साहब फाल्के के द्वारा सन् 1913 में बनाया गया। उसकी काफी प्रशंसा की गई। फिर इसके बाद न जाने आज तक कितने चलचित्र बने और कितनी धनराशि खर्च हुई; यह कहना कठिन है। लेकिन यह तो ध्यान देने का विषय है कि भारत का स्थान चलचित्र की दिशा में अमेरिका के बाद दूसरा अवश्य है। कुछ समय बाद यह सर्वप्रथम हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं।

अब सिनेमा पूर्वापेक्षा रंगीन और आकर्षक हो गया है। इसका स्वरूप अब न केवल नैतिक ही रह गया है अपितु विविध भद्र और अभद्र सभी अंगों को स्पर्श कर गया है। अतः सिनेमा स्वयं में बहुविविधता भरा एक अत्यंत संतोषजनक मनोरंजन का साधन सिद्ध होकर हमारे जीवन और दिलो-दिमाग में भली भाँति छा गया है, सिनेमा से हम इतने बंध गए हैं कि इससे हम किसी प्रकार मुक्त नहीं हो पाते हैं। हम भरपेट भोजन की चिंता न करके सिनेमा की चिंता करते हैं। तन की एक-एक आवश्यकता को भूलकर या तिलांजलि देकर हम सिनेमा देखने से बाज नहीं आते हैं। इस प्रकार सिनेमा आज हमारे जीवन को दुष्प्रभावित कर रहा है। इसके भद्दे, अश्लील और दुरुपयोगी चित्र समाज के सभी वर्गों को विनाश की ओर लिये जा रहे हैं। अतः समाज के सभी वर्ग बच्चा, युवा और वृद्ध, शिक्षित और अशिक्षित सभी भ्रष्टता के शिकार होने से किसी प्रकार बच नहीं पा रहे हैं।

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आवश्यकता इस बात की है कि हमें अच्छे चलचित्र को ही देखना चाहिए। बुरे चलचित्रों से दूर रहने की पूरी कोशिश करनी चाहिए। यही नहीं चरित्र को बर्बाद करने वाले चलचित्रों को विरोध करने में किसी प्रकार से संकोच नहीं करना चाहिए। यह भाव सबमें पैदा करना चाहिए कि चलचित्र हमारे सुख के लिए ही है।

4. किसी यात्रा का रोचक वर्णन या किसी पर्वतीय स्थान का वर्णन

जीवन में कुछ ऐसे भी क्षण आते हैं जिन्हें भूल पाना बड़ा कठिन हो जाता है। दूसरी बात यह कि जीवन में कुछ ऐसे भी अवसर मिलते हैं। जो अत्यधिक रोचक और आनंददायक बन जाते हैं। सभी की तरह मेरे भी जीवन में कुछ ऐसे अवसर अवश्य आए हैं जिनकी स्मृति कर आज भी मेरा मन बाग-बाग हो उठता है। उन रोचक और सरस क्षणों में एक क्षण मुझे ऐसा मिला जब मैंने जीवन में पहली बार एक पर्वतीय स्थान की सैर की।

छात्रावस्था से ही मुझे प्रकृति के प्रति प्रेमाकर्षण, प्रकृति के कवियों की रचनाओं को पढ़ने से पूर्वापेक्षा अधिक बढ़ता गया। प्रसाद, महादेवी, मुकुटधर पांडेय आदि की तरह कविवर सुमित्रानंदन पंत की रचनाओं ने हमारे बचपन में अंकुरित प्रकृति के प्रति प्रेम-मोह के जाल को और अधिक फैला दिया। इसमें मैं इतना फँसता गया कि मैंने यह निश्चय कर लिया कि कविवर सुमित्रानंदन पंत का पहाड़ी गाँव कौसानी एक बार अवश्य देखने जाऊँगा। ‘अगर मंसूबे मजबूत हों तो उनके पूरे होने में कोई कसर नहीं रहती है। यह बात मुझे तब समझ में आ गई जब मैंने एक दिन कौसानी के लिए यात्रा करने का निश्चय कर ही लिया।

गर्मी की छुट्टियाँ आ गई थीं। स्कूल दो माह के लिए बंद हो गया था। एक दिन मैंने अपने इष्ट मित्रों से कोई रोचक यात्रा करने की बात शुरू कर दी। किसी ने कुछ और किसी ने कुछ सुझाव दिया। मैंने सबको कौसानी नामक पहाड़ी गाँव की सैर करने की बात इस तरह से समझा दी कि इसके लिए सभी राजी हो गए। एक सुनिश्चित दिन में हम चार मित्र कविवर पंत की जन्मस्थली ‘कौसानी’ को देखने के लिए चल दिए। रेल और पैदल सफर करके हम लोग दिल्ली से सुबह चलकर ‘कौसानी’ को पहुंच गए। – हम लोगों ने देखा कि ‘कौसानी गाँव एक मैदानी गाँव की तरह न होकर बहुत टेढ़ा-मेढ़ा, ऊपर-नीचे बसा हुआ तंग गाँव है। तंग इस अर्थ में कि स्थान की कमी मैदानी गाँव की तुलना में बहुत कम है। यह बड़ी अच्छी बात रही कि हम लोगों का एक सुपरिचित और कुछ समय का सहपाठी कौसानी में ही मिल गया। अतएव उसने हम लोगों को इस पहाड़ी क्षेत्र की रोचक सैर करने में अच्छा दिशा-निर्देश दिया।

हम लोगों ने देखा इस पर्वतीय क्षेत्र-पर केवल पत्थरों का ही साम्राज्य है। लंबे-लंबे पेड़ों के सिर आसमान के करीब पहुँचते हुए दिखाई दे रहे थे। कहीं-कहीं लघु आकार में खेतों में कुछ फसलें थोड़ी-बहुत हरीतिमा लिये हुए थी; बिना मेहनत और संरक्षण के पौधों से फूलों के रंग-बिरंगे रूप मन को अधिक लुभा रहे थे। झाड़ियों के नामों-निशान कम थे फिर भी पत्थरों की गोद में कहीं-न-कहीं कोई झाड़ी अवश्य दीख जाती थी जिसमें पहाड़ी जीव-जंतुओं के होने का पता चलता था। उस पहाड़ी क्षेत्र में सैर के लिए बढ़ते हुए हम बहुत पतले और घुमावदार रास्ते पर ही जा रहे थे। ऐसा कोई रास्ता नहीं था जिसमें कोई चार पहिए वाला वाहन आ-जा सके। बहुत दूर एक ही ऐसी सड़क दिखाई पड़ी थी।

इस पर्वतीय क्षेत्र के निवासी हम लोगों को बड़ी ही हैरानी से देख रहे थे। उनका पत्थर जैसा शरीर बलिष्ठ और चिकना दिखाई देता था। वे बहुत सभ्य और सुशील दिखाई दे रहे थे। घूमते-टहलते हुए हम लोग एक बाजार में गए। वहाँ पर कुछ हम लोगों ने जलपान किया। उस जलपान की खुशी यह थी कि दिल्ली और दूसरे मैदानी शहरों-गाँवों की अपेक्षा सभी सामान सस्ते और साफ-सुथरे थे। धीरे-धीरे शाम हो गई। सूरज की डूबती किरणें सभी पर्वतीय अंग को अपनी लालिमा की चादर से ढक रही थीं। रात होते-होते एक गहरी चुप्पी और उदासी छा गई। सुबह उठते ही हम लोगों ने देखा कि वह सारा पर्वतीय स्थल बर्फ में कैद हो गया है। आसमान में रुई-सी बर्फ उड़ रही है। सूरज की आँखें उन्हें देर तक चमका रही थीं। कुछ धूप निकलने पर हम लोग वापस आ गए। आज भी उस यात्रा के स्मरण से मन मचल उठता है।

5. समाचार-पत्र या समाचार-पत्र का महत्त्व

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज की प्रत्येक स्थिति से प्रभावित होता है। दूसरी ओर वह भी अपनी गतिविधियों से समाज को प्रभावित करता है। आए दिन समाज में कोई घटना, व्यापार या प्रतिक्रिया अवश्य होती है। इन सबकी जानकारी देने में समाचार-पत्र की भूमिका बहुत बड़ी है। यह सत्य है कि इस प्रकार की खबरें तो हमें आज विज्ञान की कृपा से रेडियो, टेलीप्रिंटर, टेलीफोन और टेलीविजन के द्वारा अवश्य प्राप्त होती हैं। लेकिन समाचार-पत्र की तरह उनसे एक-एक खबर का हवाला संभव नहीं होता है। यही कारण आज विभिन्न प्रकार के संचार-संदेश के साधनों के होते हुए भी समाचार-पत्र का महत्त्व सर्वाधिक है।

समाचार-पत्र के जन्म के विषय यह आमतौर पर कहा जाता है कि इसका शुभारंभ सातवीं सदी में चीन में हुआ था। यह तो सत्य ही है कि हमारे देश में समाचार पत्र का शुभारंभ 18वीं शताब्दी में हुआ था। सन् 1780 ई. में बंगाल में ‘बंगाल गजट’ नामक समाचार पत्र प्रकाशित हुआ था। इसके बाद धीरे-धीरे हमारे देश के विभिन्न भागों से समाचार-पत्र निकलने लगे थे। यह निर्विवाद सत्य है कि हमारे देश में समाचार-पत्रों की संख्या युग-प्रवर्तक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के प्रचार-प्रसार के फलस्वरूप बढ़ती गई। सबसे अधिक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के हिंदी महत्त्व के लिए किए गए योगदानों के परिणामों से हिंदी समाचार-पत्रों की गति और संख्या में वृद्धि हुई।

हमारे देश में स्वतंत्रता के पश्चात् समाचार-पत्रों की संख्या में पूर्वापेक्षा दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि हुई। आज हमारे देश में समाचार-पत्रों की संख्या बहुत अधिक है। देश की प्रायः सभी भाषाओं में समाचार-पत्र आज धड़ल्ले से निकलते जा रहे हैं। आज के प्रमुख समाचार-पत्रों के कई रूप, प्रतिरूप दिखाई दे रहे हैं : दैनिक, सांध्य दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक-त्रैमासिक और छमाही (अर्द्धवार्षिक) सहित कुछ वार्षिक समाचार-पत्र भी प्रकाशित हो रहे हैं। मुख्य रूप से ‘नवभारत टाइम्स, ‘जनसत्ता’, ‘हिंदुस्तान’, ‘पंजाब केसरी’, ‘राष्ट्रीय सहारा’, ‘दैनिक ट्रिब्यून’, ‘अमृत बाजार पत्रिका’, ‘इंडियन एक्सप्रेस’, ‘स्टेट्समैन’, ‘वीर अर्जुन’, ‘राजस्थान पत्रिका’, ‘नयी दुनिया’, ‘समाचार मेल’, ‘आज’, ‘दैनिक जागरण’ आदि दैनिक पत्रों की बड़ी धूम है। ‘सांध्य टाइम्स’ आदि सांध्य-दैनिकों की बड़ी लोकप्रियता है। इसी तरह से समाचारों को प्रस्तुत करने वाली पत्रिकाओं की भी भरमार है। इनमें धर्मयुग, ब्लिट्स, सरिता, इंडिया टुडे, . माया, मनोहर कहानियाँ आदि हैं।

समाचार-पत्रों की उपयोगिता दिन-प्रतिदिन बढती जा रही है। समाचार-पत्रों के माध्यम से हमें न केवल राजनीतिक जानकारी हासिल होती है, अपितु सामाजिक, साहित्यिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक आदि गतिविधियों का भी ज्ञान हो जाता है। यही नहीं हमें देश और विदेश की पूरी छवि समाचार-पत्रों में साफ-साफ दिखाई देती है। इससे हम अपने जीवन से संबंधित किसी भी दशा से अछूते नहीं रह पाते हैं। इस प्रकार से हम यह कह सकते हैं कि समाचार-पत्र की उपयोगिता और महत्त्व निःसंदेह है। अतएव हमें समाचार-पत्र से अवश्य लाभ उठाना चाहिए।

6. विद्यार्थी और अनुशासन

मनुष्य समाज में रहता है। उसे समाज के नियमों और दायित्वों के अनुसार रहना पड़ता है। जो इस प्रकार से रहता है उसे अनुशासित कहते हैं। इस प्रकार के नियम और दायित्व को अनुशासन कहते हैं।

अनुशासन जीवन के प्रारंभ से ही शुरू हो जाता है। यह अनुशासन घर से शुरू होता है। बच्चे को उसके संरक्षक उचित और आवश्यक अनुशासन में रखने लगते हैं। इसे पारिवारिक अनुशासन कहते हैं। बच्चा जब बड़ा हो जाता है तब वह शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश करता है। उसे शैक्षिक नियमों-निर्देशों का पालन करना पड़ता है। इस प्रकार के नियम-निर्देश को ‘विद्यार्थी-अनुशासन’ कहा जाता है।

विद्यार्थी-अनुशासन का शुभारंभ विद्यालय या पाठशाला ही है। वह शिक्षा के सुंदर और शुद्ध वातावरण में पल्लवित और विकसित होता है। यहाँ विद्यार्थी को शिष्ट हिन्दी व्याकरण गुरुजनों की छत्रछाया में रहकर अनुशासित होकर रहना पड़ता है। यहाँ विद्यार्थी को अपने परिवार के अनुशासन से कहीं अधिक कड़े अनुशासन में रहना पड़ता है। इस प्रकार के अनुशासन में रहकर विद्यार्थी जीवन भर अनुशासित रहने का आदी बैन जाता है। इससे विद्यार्थी अपने गुरु की तरह योग्य और महान बनने की कोशिश करने लगता है। उसे किसी प्रकार के कड़े निर्देश-नियम या आदेश धीरे-धीरे सुखद और रोचक लगने लगते हैं। कुछ समय बाद वह जब अपनी पूरी शिक्षा पूरी कर लेता है तब वह समाज में प्रविष्ट होकर समाज को अनुशासित करने लगता है। इस प्रकार से विद्यार्थी जीवन का अनुशासन समाज को एक स्वस्थ और सबल अनुशासित स्वरूप देने में बहुत बड़ी भूमिका निभाता है।

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विद्यार्थी अनुशासन के कई अंग-स्वरूप होते हैं-नियमित और ठीक समय पर विद्यालय जाना प्रार्थना सभा में पहुंचना, कक्षा में प्रवेश करना, कक्षा में आते ही गुरुओं के प्रति अभिवादन, प्रणाम, साष्टांग दंडवत करना, कक्षा में पूरे मनोयोग से अध्ययन-मनन करना, बाल-सभा, खेल-कूद वाद-विवाद, जल-क्रीड़ा, गीत संगीत आदि में सनियम सक्रिय भाग लेना आदि विद्यार्थी-अनुशासन के ही अभिन्न अंग हैं। इससे विद्यार्थी अनुशासन की आग में पूरी तरह से तपता है। इससे विद्यार्थी पके हुए घड़े के समान टिकाऊ बनकर समाज को अपने अंतर्गत अनुशासन में मीठे जल का मधुर पान कराता है। इस प्रकार से विद्यार्थी-अनुशासन के द्वारा समाज एक सही और निश्चित दिशा की ओर ही बढ़ता है। वह अपने पूर्ववर्ती कुसंस्कारों और त्रुटियों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है। एक अपेक्षित सुंदर और सुखद स्थिति को प्राप्त कर अपने भविष्य को उज्ज्वल और समृद्ध बनाता है। यह ध्यान देने का विषय है कि विद्यार्थी अनुशासन को पाकर समाज के सभी वर्ग बालक, युवा और वृद्ध एवं शिक्षित व अशिक्षित सभी में एक अपूर्व सुधार-चमत्कार आ जाता है।

विद्यार्थी अनुशासन हमारे जीवन का सबसे प्रथम और महत्त्वपूर्ण अंग है। यह हमारे समाज की उपयोगिता की दृष्टि से तो और अधिक मूल्यवान और अपेक्षित है। अतएव हमें इस प्रकार से विद्यार्थी-अनुशासन में विश्वास और उत्साह दिखाना चाहिए। यह पक्का इरादा और समझ रखनी चाहिए कि विद्यार्थी-अनुशासन सभी प्रकार के अनुशासन का सम्राट है। यह अनुशासन सर्वोच्च है, यह अनुशासन सर्वव्यापी है। यह अनुशासन सर्वकालिक है। अतएव इसकी पवित्रता और महानता के प्रति समाज के सभी वर्गों को पूर्ण-रूप से प्रयत्नशील रहना चाहिए।

7. खेलों का महत्त्व

जिस प्रकार से शिक्षा मनुष्य के सांस्कृतिक और बौद्धिक मानस को पुष्ट . और संवृद्ध करती है उसी प्रकार से खेलकूद उसकी शारीरिक संरचना को अधिक प्रौढ़ और शक्तिशाली बनाते हैं। इन दोनों ही प्रकार के तथ्यों की पुष्टि करते हुए एक बार महात्मा गांधी ने कहा था-“By education, I mean, all round development of a child”. इस प्रकार के कथन का अभिप्राय यही है कि बच्चों का सर्वांगीण विकास होना चाहिए, अर्थात् बच्चों को शैक्षिक और सांस्कृतिक वातावरण के साथ-साथ शारीरिक वृद्धि हेतु खेल-कूद, व्यायाम आदि के वातावरण का भी होना आवश्यक है। इस तरह के विचारों को अनेक शिक्षाविदों, चिंतकों और समाज-सुधारकों ने व्यक्त किया है।

जीवन में खेलों के महत्त्व अधिक-से-अधिक रूप में दिखाई देते हैं। खेलों के द्वारा हमारे सम्पूर्ण अंगों की अच्छी-खासी कसरत हो जाती है। सभी मांसपेशियों पर बल पड़ता है। थकान तो अवश्य होती है। लेकिन इस थकान को दूर करने के लिए जब हम कुछ विश्राम कर लेते हैं तब हमारे अंदर एक अद्भुत चुस्ती और चंचलता आ जाती है। फिर हम कोई भी काम बड़ी स्फूर्ति और मनोवेगपूर्वक करने लगते हैं। खेलों से हमारी खेलों में अभिरुचि बढ़ती जाती है। इस प्रकार से हम श्रेष्ठ खिलाड़ी बनने का प्रयास निरंतर करते रहते हैं। खेलों को खेलने से न केवल खेलों के प्रति ही अभिरुचि बढ़ती है अपितु शिक्षा, कृषि, व्यवसाय, पर्यटन, वार्तालाप, ध्यान-पूजा आदि के प्रति भी हमारा मन एकदम केंद्रित होने लगता है।

खेलों के द्वारा हमारा मनोरंजन होता है। खेलों के द्वारा हमारा अच्छा व्यायाम . होता है। हमारे अंदर सहनशक्ति आने लगती है। हम संघर्षशील होने लगते हैं। ऐसा इसलिए कि खेलों को खेलते समय हमारे खेल के साथी हमको पराजित करना चाहते हैं और हम उन्हें पराजित कर अपनी विजय हासिल करना चाहते हैं। इस प्रकार से हम जब तक विजय नहीं प्राप्त करते हैं तब तक इसके लिए हम निरंतर संघर्षशील बने रहते हैं। इस तरह खेलों को खेलने से हमारी हिम्मत बढ़ती है। हम निराश नहीं होते हैं। हम आशावान बनकर एक कठिन और दुर्लभ वस्तु की प्राप्ति के लिए अपने विश्वास, अपने बल-तेज और अपने प्रयत्न को बढ़ाते चलते हैं। इस प्रकार इतने अपने पक्के इरादों की दौड़ से किसी अपने मंसूबों की प्राप्ति करके फूले नहीं समाते हैं। – खेलों के खेलने से हमारा अधिक और अपेक्षित मनोरंजन होता है। इससे हमारा चिड़चिड़ापन दूर हो जाता है। हमारे अंदर सरसता और मधुरता आ जाती है। हम अधिक विवकेशील, सरल और सहनशील बन जाते हैं। खेलों के खेलने से हमारा परस्पर सम्पर्क अधिक सुदृढ़ और घनिष्ठ बनता जाता है। फलतः हम एक उच्चस्तरीय प्राणी बन जाते हैं।

खेलों के खेलने से हमारे अंदर अनुशासन का वह अंकुर उठने लगता है जो जीवन भर पल्लवित और फलित होने से कभी रुकता नहीं है। ठीक समय से खेलना, नियमबद्ध होकर खेलना और ठीक समय पर खेले से मुक्त होना आदि सब कुछ नियम अनुशासन के सच्चे पाठ पढ़ाते हैं।

हम देखते हैं कि प्राचीनकालीन खेलों के अतिरिक्त मूर्तिकला, चित्रकला, नाट्यकला, संगीतकला आदि कलाएँ भी एक विशेष प्रकार के खेल ही हैं। जिनसे हमारा बौद्धिक और शारीरिक सभी प्रकार के विकास होते हैं। इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि विविध प्रकार के खेलों के द्वारा हमारा जीवन सम्पूर्ण रूप से महान् विकसित और कल्याणप्रद बन जाता है। इसलिए निःसंदेह हमारे जीवन में खेलों के अत्यधिक महत्त्व हैं। अतएव हमें किसी-न-किसी प्रकार के खेल में सक्रिय भाग लेकर अपने जीवन को समुन्नत और सर्वोपयोगी बनाना चाहिए।

8. विद्यालय का वार्षिकोत्सव

विद्यालय का वार्षिकोत्सव अन्य वार्षिकोत्सव के समान ही व्यापक स्तर पर होता है। यह उत्सव प्रतिवर्ष एक निश्चित समय पर ही होता है। इसके लिए सभी विद्यालय के ही सदस्य नहीं अपितु इससे संबंधित सभी सामाजिक प्राणी भी तैयार रहते हैं।

हमारे विद्यालय का वार्षिकोत्सव प्रति वर्ष 13 अप्रैल की बैसाखी के शुभावसर हिन्दी व्याकरण पर होता है। इसके लिए लगभग पंद्रह दिनों से ही तैयारी शुरू हो जाती है। हमारे . कक्षाध्यापक इसके लिए काफी प्रयास किया करते हैं। वे प्रतिदिन की होने वाली तैयारी और आगामी तैयारी के विषय में सूचनापट्ट पर लिख देते हैं। हमारे कक्षाध्यापक विद्यालय के वार्षिकोत्सव के लिए नाटक, निबंध, एकांकी, कविता, वाद-विवाद, खेल आदि के लिए प्रमुख और योग्य विद्यार्थियों के चुनाव कर लेते हैं। कई दिनों के अभ्यास के उपरांत वे योग्य और कुशल विद्यार्थियों का चुनाव कर लेते हैं। इस चुनाव के बाद वे पुनः छात्रों को बार-बार उनके प्रदत्त कार्यों का अभ्यास कराते रहते हैं।

प्रतिवर्ष की भाँति इस वर्ष भी हमारे विद्यालय के वार्षिकोत्सव के विषय में प्रमुख दैनिक समाचार-पत्रों में समाचार प्रकाशित हो गया। इससे पूर्व विद्यालय के निकटवर्ती सदस्यों को इस विषय में सूचित करते हुए उन्हें आमंत्रित कर दिया गया। प्रदेश के शिक्षामंत्री को प्रमुख अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया। जिलाधिकारी को सभा का अध्यक्ष बनाया गया। विद्यालय के प्रधानाचार्य को अतिथि-स्वागताध्यक्ष का पदभार दिया गया। हमारे कक्षाध्यापक को सभा का संचालक पद दिया गया।

विद्यालय के सभी छात्रों, अध्यापकों और सदस्यों को विद्यालय की पूरी साज-सज्जा और तैयारी के लिए नियुक्त किया गया। इस प्रकार के विद्यालय के वार्षिकोत्सव की तैयारी में कोई त्रुटि नहीं रहने पर इसकी पूरी सतर्कता रखी गई।

विद्यालय के वार्षिकोत्सव के दिन अर्थात् 13 अप्रैल बैसाखी के शुभ अवसर पर प्रातः 7 बजे से ही विद्यालय की साज-सज्जा और तैयारी होने लगती है। 8 बजते ही सभी छात्र, अध्यापक और सदस्य अपने-अपने सौंपे हुए दायित्वों को सँभालने लगते हैं। अतिथियों का आना-जाना शुरू हो गया। वे एक निश्चित सजे हुए तोरण द्वार से प्रवेश करके पंक्तिबद्ध कुर्सियों पर जाकर बैठने लगे थे। उन्हें सप्रेम बैठाया जाता था। कार्यक्रम के लिए एक बहुत बड़ा मंच बनाया गया था। वहाँ कई कुर्सियाँ और टेबल अलग-अलग श्रेणी के थे। लाउडस्पीकर के द्वारा कार्यक्रम के संबंध में बार-बार सूचना दी जा रही थी।

ठीक 10 बजे हमारे मुख्य अतिथि प्रदेश के शिक्षामंत्री, सभाध्यक्ष जिलाधिकारी और उनके संरक्षकों की हमारे स्वागताध्यक्ष प्रधानाचार्य ने बड़े ही प्रेम के साथ आवभगत की और उन्हें उचित आसन प्रदान किया। हमारे कक्षाध्यापक ने सभा का संचालन करते हुए विद्यालय से कार्यक्रम संबंधित सूचना दी। इसके उपरांत प्रमुख अतिथि शिक्षामंत्री से वक्तव्य देने के लिए आग्रह किया। प्रमुख अतिथि के रूप में माननीय शिक्षामंत्री ने सबके प्रति उचित आभार व्यक्त करते हुए शिक्षा के महत्त्व पर प्रकाश डाला। विद्यार्थियों को उचित दिशाबोध देकर विद्यालय के एक निश्चित अनुदान की घोषणा की जिसे सुनकर तालियों की गड़गड़ाहट से सारा वातावरण गूंज उठा। इसके बाद संचालक महोदय के आग्रह पर सभाध्यक्ष जिलाधिकारी ने संक्षिप्त वक्तव्य दिया। फिर संचालक महोदय के आग्रह पर स्वागताध्यक्ष हमारे प्रधानाचार्य ने सबके प्रति आभार व्यक्त करते हुए विद्यालय की प्रगति का विस्तार से उल्लेख किया। बाद में संचालक महोदय ने मुख्य अतिथि से आग्रह करके पुरस्कार के घोषित छात्रों को पुरस्कृत करवाया अंत में सबको धन्यवाद दिया। सबसे अंत में मिष्ठान वितरण हुआ।

दूसरे दिन सभी दैनिक समाचार-पत्रों में हमारे विद्यालय के वार्षिकोत्सव का महत्त्व प्रकाशित हुआ जिसे हम सबने ही नहीं प्रायः सभी अभिभावकों, संरक्षकों ने गर्व का अनुभव किया।

हिन्दी व्याकरण 9 राष्ट्रपिता महात्मा गांधी . समय-समय पर भारत में महान आत्माओं ने जन्म लिया है। गौतम बुद्ध, महावीर, अशोक, नानक, नामदेव, कबीर जैसे महान त्यागी और आध्यात्मिक पुरुषों के कारण ही भारत भूमि संत और महात्माओं का देश कहलाती है। ऐसे ही महान व्यक्तियों के परम्परा में महात्मा गांधी ने भारत में जन्म लिया। सत्य, अहिंसा और मानवता के इस पुजारी ने न केवल धार्मिक क्षेत्र में ही हम भारतवासियों का नेतृत्व किया, बल्कि राजनीति को भी प्रभावित किया। सदियों से परतंत्र भारत माता के बंधनों को काट गिराया। आज महात्मा गांधी के प्रयत्नों से हम भारतवासी स्वतंत्रता की खली वायु. में साँस ले रहे हैं।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जन्म पोरबंदर (कठियावाड़) में 2 अक्टूबर, 1869 को हुआ था। उनके पिता राजकोट के दीवान थे। इनका बचपन का नाम मोहनदास – था। इन पर बचपन से ही आदर्श माता और सिद्धांतवादी पिता का पूरा-पूरा प्रभाव पड़ा।

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गांधी जी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा राजकोट में प्राप्त की। 13 वर्ष की अल्पआयु में ही इनका विवाह हो गया था। इनकी पत्नी का नाम कस्तूरबा था। मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद में वकालत की शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड चले गए। वे 3 वर्ष तक इंग्लैंड में रहे। वकालत पास करने के बाद वे भारत वापस आ गए। वे आरंभ से ही सत्य में विश्वास रखते थे। भारत में वकालत करते हुए अभी थोड़ा ही समय हुआ था कि उन्हें एक भारतीय व्यापारी द्वारा दक्षिण अफ्रीका बुलाया गया। वहाँ उन्होंने भारतीयों की अत्यंत शोचनीय दशा देखी। गांधी जी ने भारतवासियों के अधिकारों के लिए संघर्ष आरंभ कर दिया।

दक्षिण अफ्रीका से लौटकर गांधी जी ने अहिंसात्मक तरीके से भारतीयों के अधिकारों के लिए लड़ने का निश्चय किया। उस समय भारत में तिलक, गोखले, लाला लाजपतराय आदि नेता कांग्रेस पार्टी के माध्यम से आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। गांधी जी पर उनका अत्यधिक प्रभाव पड़ा।

1921 में गांधी जी ने असहयोग आंदोलन चलाया। गांधी जी धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत में प्रसिद्ध हो गए। अंग्रेजी सरकार ने आंदोलन को दबाने का प्रयास किया। भारतवासियों पर तरह-तरह के अत्याचार किए। गांधी जी ने 1930 में नमक सत्याग्रह और 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन चलाए। भारत के सभी नर-नारी उनकी एक आवाज पर उनके साथ बलिदान देने के लिए तैयार थे। – गांधी जी को अंग्रेजों ने बहुत बार जेल में बंद किया। गांधी जी ने अछूतोद्धार के लिए कार्य किया। स्त्री-शिक्षा और राष्ट्रभाषा हिंदी का प्रचार किया। हरिजनों के उत्थान के लिए काम किया। स्वदेशी आंदोलन और चरखा आंदोलन चलाया। गांधी जी के प्रयत्नों से भारत 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्र हुआ।

सत्य, अहिंसा और मानवता के इस पुजारी की 30 जनवरी, 1948 को नाथू राम गोडसे ने गोली मारकर हत्या कर दी। इससे सारा विश्व विकल हो उठा।

10. बाल दिवस

हमारे विद्यालय में प्रतिवर्ष 14 नवंबर को बाल दिवस का आयोजन किया जाता है। बाल दिवस पूज्य चाचा नेहरू का जन्मदिवस है। चाचा नेहरू भारत के प्रथम प्रधानमंत्री थे। वे स्वतंत्रता संग्राम के महान् सेनानी थे। उन्होंने अपने देश की आजादी के लिए सर्वस्व न्योछावर कर दिया। अपने जीवन के अनेक अमूल्य वर्ष देश की सेवा में बिताए। अनेक वर्षों तक विदेशी शासकों ने उन्हें जेल में बंद रखा। उन्होंने साहस नहीं छोड़ा और देशवासियों को आगे बढ़ने की प्रेरणा देते रहे। .. . पं. नेहरू बच्चों के प्रिय नेता थे। बच्चे उन्हें प्यार से ‘चाचा’ कहकर संबोधित करते थे। उन्होंने देश में बच्चों के लिए शिक्षा सुविधाओं का विस्तार कराया। उनके अच्छे भविष्य के लिए अनेक योजनाएँ आरंभ की। वे कहा करते थे ‘कि आज के बच्चे ही कल के नागरिक बनेंगे। यदि आज उनकी अच्छी देखभाल की जाएगी तो आगे आने वाले समय में वे अच्छे डॉक्टर, इंजीनियर, सैनिक, विद्वान, लेखक और वैज्ञानिक बनेंगे। इसी कारण उन्होंने बाल कल्याण की अनेक योजनाएँ बनाईं। अनेक नगरों में बालघर और मनोरंजन केंद्र बनवाए। प्रतिवर्ष बाल दिवस पर डाक टिकटों का प्रचलन किया। बालकों के लिए अनेक प्रतियोगिताएँ आरंभ कराईं। वे देश-विदेश में जहाँ भी जाते बच्चे उन्हें घेर लेते थे। उनके जन्मदिवस को भारत में बाल-दिवस के रूप में मनाया जाता है। – हमारे विद्यालय में प्रतिवर्ष बाल-दिवस के अवसर पर बाल मेले का आयोजन किया जाता है। बच्चे अपनी छोटी-छोटी दुकानें लगाते हैं। विभिन्न प्रकार की विक्रय योग्य वस्तुएँ अपने हाथ से तैयार करते हैं। बच्चों के माता-पिता और मित्र उस अवसर पर खरीददारी करते हैं। सारे विद्यालय को अच्छी प्रकार सजाया जाता है। विद्यालय को झंडियों, चित्रों और रंगों की सहायता से आकर्षक रूप दिया जाता है।

बाल दिवस के अवसर पर खेल-कूद प्रतियोगिता और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी आयोजन किया जाता है। बच्चे मंच पर आकर नाटक, गीत, कविता, नृत्य और फैंसी ड्रेस शो का प्रदर्शन करते हैं। सहगान, बाँसुरी वादन का कार्यक्रम दर्शकों का मन मोह लेता है। तत्पश्चात् सफल और अच्छा प्रदर्शन करने वाले छात्र-छात्राओं को पुरस्कार वितरण किए जाते हैं। बच्चों को मिठाई का भी वितरण किया जाता है। इस प्रकार दिवस विद्यालय का एक प्रमुख उत्सव बन जाता है।

11. विज्ञान की देन या विज्ञान वरदान है या विज्ञान का महत्त्व

आधुनिक युग विज्ञान का युग है। विज्ञान ने मनुष्य के जीवन में महान परिवर्तन ला दिया है। मनुष्य के जीवन को नये-नये वैज्ञानिक आविष्कारों से सुख-सुविधा प्राप्त हुई है। प्रायः असंभव कही जाने वाली बातें भी संभव प्रतीत होने लगी हैं। मनुष्य विज्ञान के सहारे आज चंद्रमा तक पहुँच सका है। सागर की गहराइयों में जाकर उसके रहस्य को भी खोज लाया है। भीषण ज्वालामुखी के मुँह में प्रवेश कर सका है; पृथ्वी की परिक्रमा कर चुका है। बंजर भूमि को हरा-भरा बनाकर भरपूर फसलें उगा सका है।

विज्ञान की सहायता से मनुष्य का जीवन सुखमय हो गया है। आज घरों में विज्ञान की देन हीटर, पंखे, रेफ्रिजरेटर, टेलीविजन, गैस, स्टोव, रेडियो, टेपरिकॉर्डर, टेलीफोन, स्कूटर आदि वस्तुएं दिखाई देती हैं। गृहिणियों के अनेक कार्य आज विज्ञान की सहायता से सरल बन गए हैं।

विज्ञान की सहायता से आज समय और दूरी का महत्त्व घट गया है। आज हजारों मील की दूरी पर बैठा हुआ मनुष्य अपने मित्रों और संबंधियों से इस प्रकार हिन्दी व्याकरण : बात कर सकता है जैसे कि सामने बैठा हुआ हो। आज दिल्ली में चाय पीकर, भोजन बंबई में और रात्रि विश्राम लंदन में कर सकना संभव है। ध्वनि की गति से तेज चलने वाले ऐसे विमान और एयर बस हैं जिनकी सहायता से हजारों मील का सफर एक दिन में किया जाना संभव है। रेल, मोटर, ट्राम, जहाज, स्कूटर आदि आने-जाने में सुविधा प्रदान करते हैं।

टेलीप्रिंटर, टेलीफोन, टेलीविजन’ मनुष्य के लिए बड़े उपयोगी साधन सिद्ध हुए हैं। विज्ञान की सहायता से समाचार एक स्थान से दूसरे स्थान पर शीघ्र-से-शीघ्र पहुँचाए जा सकते हैं। रेडियो-फोटो की सहायता से चित्र भेजे जा सकते हैं। लाहौर में खेला जाने वाला क्रिकेट मैच दिल्ली में देखा जा सकता है। एक घंटे में एक पुस्तक की हजारों प्रतियाँ छापी जा सकती हैं। आवाज को टेपरिकॉर्डर और ग्रामोफोन रिकॉर्ड पर कैद किया जा सकता है।

चिकित्सा के क्षेत्र में विज्ञान की देन भुलाई नहीं जा सकती। एक्स-रे मशीन की सहायता से शरीर के अंदर के भागों का रहस्य जाना जा सकता है। शरीर के किसी भी भाग का ऑपरेशन किया जा सकना संभव है। शरीर के अंग बदले जा सकते हैं। खून-परिवर्तन किया जा सकता है। प्लास्टिक सर्जरी से चेहरे को ठीक किया जा सकता है। भयानक बीमारियों के लिए दवाएँ और इंजेक्शन खोजे जा चुके हैं।

कृषि के क्षेत्र में नवीन वैज्ञानिक आविष्कारों ने कृषि उत्पादन में तो वृद्धि की ही है, साथ ही भारी-भारी कार्यों को सरल भी बना दिया है। कृषि, यातायात, संदेशवाहन, संचार, मनोरंजन और स्वास्थ्य के क्षेत्र में विज्ञान की देन अमूल्य है।

12. परोपकार

परोपकार की भावना एक पवित्र भावना है। मनुष्य वास्तव में वही है जो दूसरों का उपकार करता है। यदि मनुष्य में दया, ममता, परोपकार और सहानुभूति की भावना न हो तो पशु और मनुष्य में कोई अंतर नहीं रहता। मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में, ‘मनुष्य है वही जो मनुष्य के लिए मरे।’ मनुष्य का यह परम कर्तव्य है कि वह अपने विषय में न सोचकर दूसरों के विषय में ही सोचे, दूसरों की पीड़ा हरे, दूसरों के दुख दूर करने का प्रयत्न करे।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है कि ‘परहित सरस धर्म नहिं भाई।’ दूसरों की भलाई करने से अच्छा कोई धर्म नहीं है। दूसरों को पीड़ा पहुँचाना पाप है और परोपकार करना पुण्य है।

परोपकार शब्द ‘पर + उपकार’ से मिलकर बना है। स्वयं को सुखी बनाने के लिए तो सभी प्रयत्न करते हैं परंतु दूसरों के कष्टों को दूर कर उन्हें सुखी बनाने का कार्य जो सज्जन करते हैं वे ही परोपकारी होते हैं। परोपकार एक अच्छे चरित्रवान व्यक्ति की विशेषता है। परोपकारी स्वयं कष्ट उठाता है लेकिन दुखी और पीड़ित मानवता के कष्ट को दूर करने में पीछे नहीं हटता। जिस कार्य को अपने स्वार्थ की दृष्टि से किया जाता है वह परोपकार नहीं है।

परोपकारी व्यक्ति अपने और पराये का भेद नहीं करता। वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते, नदियाँ अपना जल स्वयं काम में न लेतीं। चंदन अपनी सुगंध दूसरों को देता है। सूर्य और चंद्रमा अपना प्रकाश दूसरों को देते हैं। नदी, कुएँ और तालाब दूसरों के लिए हैं। यहाँ तक कि पशु भी अपना दूध मनुष्य को देते हैं और बदले हिन्दी व्याकरण में कुछ नहीं चाहते। यह है परोपकार की भावना। इस भावना के मूल में स्वार्थ का नाम भी नहीं है।

भारत तथा विश्व का इतिहास परोपकार के लिए अपने प्राण न्योछावर करने वाले व्यक्तियों के उदाहरणों से भरा पड़ा है। स्वामी दयानंद, महात्मा गांधी, ईसा मसीह, दधीचि, स्वामी विवेकानंद, गुरु नानक सभी महान् परोपकारी थे। परोपकार की भावना के पीछे ही अनेक वीरों ने यातनाएँ सहीं और स्वतंत्रता के लिए फाँसी पर चढ़ गए। अपने जीवन का त्याग किया और देश को स्वतंत्र कराया।

परोपकार एक सच्ची भावना है। यह चरित्र का बल है। यह निःस्वार्थ सेवा है, यह आत्मसमर्पण है। परोपकार ही अंत में समाज का कल्याण करता है। उनका नाम इतिहास में अमर होता है।

13. वृक्षारोपण

हमारे देश में ही नहीं अपितु पूरे विश्व में भी वनों का विशेष महत्त्व है। बन ही प्रकृति की महान् शोभा के भंडार हैं। वनों के द्वारा प्रकृति का जो रूप खिलता है वह मनुष्य को प्रेरित करता है। दूसरी बात यह है कि वन ही मनुष्य, पशु-पक्षी, जीव-जंतुओं आदि के आधार हैं, वन के द्वारा ही सबके स्वास्थ्य की रक्षा होती है। वन इस प्रकार से हमारे जीवन की प्रमुख आवश्यकता है। अगर वन न रहें तो हम नहीं रहेंगे और यदि वन रहेंगे तो हम रहेंगे। कहने का तात्पर्य यह है कि वनं से हमारा अभिन्न संबंध है जो निरंतर है और सबसे बड़ा है। इस प्रकार से हमें वनों की आवश्यकता सर्वोपरि होने के कारण हमें इसकी रक्षा की भी आवश्यकता सबसे बढ़कर है।

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वृक्षारोपण की आवश्यकता हमारे देश में आदिकाल से ही रही है। बड़े-बड़े ऋषियों-मुनियों के आश्रम के वृक्ष-वन वृक्षारोपण के द्वारा ही तैयार किए गए हैं, महाकवि . कालिदास ने ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ के अंतर्गत महर्षि कण्व के शिष्यों के द्वारा वृक्षारोपण किए जाने का उल्लेख किया है। इस प्रकार से हम देखते हैं कि वृक्षारोपण की आवश्यकता प्राचीन काल से ही समझी जाती रही है और आज भी इसकी आवश्यकता ज्यों-की-त्यों बनी हुई है।

अब प्रश्न है कि वृक्षारोपण की आवश्यकता आखिर क्यों होती है? इसके उत्तर में हम यह कह सकते हैं कि वृक्षारोपण की आवश्यकता इसीलिए होती है कि वृक्ष सुरक्षित रहें, वृक्ष या वन नहीं रहेंगे तो हमारा जीवन शून्य होने लगेगा। एक समय ऐसा आ जाएगा कि हम जी भी न पाएँगे। वनों के अभाव में प्रकृति का संतुलन बिगड़ जाएगा। प्रकृति का संतुलन जब बिगड़ जाएगा तब सम्पूर्ण वातावरण इतना दूषित और अशुद्ध हो जाएगा कि हम न ठीक से साँस ले सकेंगे और न ठीक से अन्न-जल ही ग्रहण कर पाएँगे। वातावरण के दूषित और अशुद्ध होने से हमारा मानसिक, शारीरिक और आत्मिक विकास कुछ न हो सकेगा। इस प्रकार से वृक्षारोपण की आवश्यकता हमें सम्पूर्ण रूप से प्रभावित करती हुई हमारे जीवन के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध होती है। वृक्षारोपण की आवश्यकता की पूर्ति होने से हमारे जीवन और प्रकृति का परस्पर संतुलन क्रम बना रहता है।

वनों के होने से हमें ईंधन के लिए पर्याप्त रूप से लकड़ियाँ प्राप्त हो जाती . . हैं। बांस की लकड़ी और घास से हमें कागज प्राप्त हो जाता है जो हमारे कागज उद्योग का मुख्याधार है। वनों की पत्तियों, घास, पौधे, झाड़ियों की अधिकता के कारण तीव्र वर्षा से भूमि का कटाव तीव्र गति से न होकर मंद गति से होता है या नहीं के बराबर होता है। वनों के द्वारा वर्षा का संतुलन बना रहता है जिससे हमारी कृषि संपन्न होती है। वन ही बाढ़ के प्रकोप को रोकते हैं, वन ही बढ़ते हुए और उड़ते हुए रेत-कणों को कम करते हुए भूमि का संतुलन बनाए रखते हैं।

यह सौभाग्य का विषय है कि 1952 में सरकार ने ‘नयी वन नीति’ की घोषणा करके वन महोत्सव की प्रेरणा दी है जिससे वन रोपण के कार्य में तेजी आई है। इस प्रकार से हमारा ध्यान अगर वन सुरक्षा की ओर लगा रहेगा तो हमें वनों से होने वाले, लाभ, जैसे-जड़ी-बूटियों की प्राप्ति, पर्यटन की सुविधा, जंगली पशु-पक्षियों का सुदर्शन, इनकी खाल, पंख या बाल से प्राप्त विभिन्न आकर्षक वस्तुओं का निर्माण आदि सब कुछ हमें प्राप्त होते रहेंगे। अगर प्रकृति देवी का यह अद्भुत स्वरूप वन, सम्पदा नष्ट हो जाएगी तो हमें प्रकृति के कोष से बचना असंभव हो जाएगा।

14. दूरदर्शन से लाभ और हानियाँ

विज्ञान के द्वारा मनुष्य ने जिन चमत्कारों को प्राप्त किया है। उनमें दूरदर्शन का स्थान अत्यंत महान् और उच्च है। दूरदर्शन का आविष्कार 19वीं शताब्दी के आस-पास ही समझना चाहिए। टेलीविजन दूरदर्शन का अंग्रेजी नाम है। टेलीविजन का आविष्कार महान वैज्ञानिक वेयर्ड ने किया है। टेलीविजन को सर्वप्रथम लंदन में सन् 1925 में देखा गया। लंदन के बाद ही इसका प्रचार-प्रसार इतना बढ़ता गया है कि आज यह विश्व के प्रत्येक भाग में बहुत लोकप्रिय हो गया है। भारत में टेलीविजन का आरंभ 15 सितंबर, सन् 1959 को हुआ। तत्कालीन राष्ट्रपति ने आकाशवाणी के टेलीविजन विभाग का उद्घाटन किया था।

टेलीविजन या दूरदर्शन का शाब्दिक अर्थ है-दूर की वस्तुओं या पदार्थों का ज्यों-का-त्यों आँखों द्वारा दर्शन करना। टेलीविजन का प्रवेश आज घर-घर हो रहा है। इसकी लोकप्रियता के कई कारणों में से एक कारण यह है कि यह एक रेडियो कैबिनेट के आकार-प्रकार से तनिक बड़ा होता है। इसके सभी सेट रेडियो के सेट से मिलते-जुलते हैं। इसे आसानी से एक जगह से दूसरी जगह या स्थान पर रख सकते हैं। इसे देखने के लिए हमें न किसी विशेष प्रकार के चश्मे या मानभाव या अध्ययन आदि की आवश्यकताएँ पड़ती हैं। इसे देखने वालों के लिए भी किसी विशेष वर्ग के दर्शक या श्रोता के चयन करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। अपितु इसे देखने वाले सभी वर्ग या श्रेणी के लोग हो सकते हैं।

टेलीविजन हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को बड़ी ही गंभीरतापूर्वक प्रभावित करता है। यह हमारे जीवन के काम आने वाली हर वस्तु या पदार्थ की न केवल जानकारी देता है अपितु उनके कार्य-व्यापार, नीति-ढंग और उपाय को भी क्रमशः बड़ी ही आसानीपूर्वक हमें दिखाता है। इस प्रकार से दूरदर्शन हमें एक-से एक बढ़कर जीवन की समस्याओं और घटनाओं को बड़ी ही सरलता और आवश्यकता के रूप में प्रस्तुत करता है। जीवन से संबंधित ये घटनाएँ-व्यापार-कार्य आदि सभी कुछ न केवल हमारे आस-पास पड़ोस के ही होते हैं अपितु दूर-दराज के देशों और भागों से भी जुड़े होते हैं जो किसी-न-किसी प्रकार से हमारे जीवनोपयोगी ही सिद्ध होते हैं। इस दृष्टिकोण से हम कह सकते हैं कि दूरदर्शन हमारे लिए ज्ञानवर्द्धन का बहुत बड़ा साधन है।

यह ज्ञान की सामान्य रूपरेखा से लेकर गंभीर और विशिष्ट रूपरेखा को बड़ी ही सुगमतापूर्वक प्रस्तुत करता है। इस अर्थ से दूरदर्शन हमारे घर के चूल्हा-चाकी से लेकर अंतरिक्ष के कठिन ज्ञान की पूरी-पूरी जानकारी देता रहता है।

दूरदर्शन द्वारा हमें जो ज्ञान-विज्ञान प्राप्त होते हैं उनमें कृषि के ज्ञान-विज्ञान का कम स्थान नहीं है। आधुनिक कृषि यंत्रों से होने वाली कृषि से संबंधित जानकारी का लाभ शहरी कृषक से बढ़कर ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले कृषक अधिक उठाते हैं। इसी तरह से कृषि क्षेत्र में होने वाले नवीन आविष्कारों, उपयोगिताओं, विभिन्न प्रकार के बीज, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, वनस्पतियाँ आदि का पूरा विवरण हमें दूरदर्शन ही दिया करता है।

दूरदर्शन के द्वारा पर्यो, त्योहारों, मौसमों, खेल-तमाशे, नाच, गाने-बजाने, कला, संगीत, पर्यटन, व्यापार, साहित्य, धर्म, दर्शन, राजनीति, अध्याय आदि लोक-परलोक के ज्ञान-विज्ञान के रहस्य एक-एक करके खुलते जाते हैं। दूरदर्शन इन सभी प्रकार के तथ्यों का ज्ञान हमें प्रदान करते हुए इनकी कठिनाइयों को हमें एक-एक करके बतलाता है और इसका समाधान भी करता है।

दूरदर्शन से सबसे बड़ा लाभ तो यह है कि इसके द्वारा हमारा पूर्ण रूप से मनोरंजन हो जाता है। प्रतिदिन किसी-न-किसी प्रकार के विशेष आयोजित और प्रायोजित कार्यक्रमों के द्वारा हम अपना मनोरंजन करके विशेष उत्साह और प्रेरणा प्राप्त करते हैं। दूरदर्शन पर दिखाई जाने वाली फिल्मों से हमारा मनोरंजन तो होता ही है इसके साथ-ही-साथ विविध प्रकार के दिखाए जाने वाले धारावाहिकों से भी हमारा कम मनोरंजन नहीं होता है। इसी तरह से बाल-बच्चों, वृद्धों, युवकों सहित विशेष प्रकार के शिक्षित और अशिक्षित वर्गों के लिए दिखाए जाने वाले दूरदर्शन के कार्यक्रम हमारा मनोरंजन बार-बार करते हैं जिससे ज्ञान प्रकाश की किरणें भी फूटती हैं।

.हाँ, अच्छाई में बुराई होती है और कहीं-कहीं फूल में काँटे भी होते हैं। इसी तरह से जहाँ और जितनी दूरदर्शन में अच्छाई है वहाँ उतनी उसमें बुराई भी कही जा सकती है। हम भले ही इसे सुविधा सम्पन्न होने के कारण भूल जाएँ लेकिन दूरदर्शन के लाभों के साथ-साथ इससे होने वाली कुछ ऐसी हानियाँ हैं जिन्हें हम अनदेखी नहीं कर सकते हैं। दूरदर्शन के बार-बार देखने से हमारी आँखों में रोशनी मंद होती है। इसके मनोहर और आकर्षक कार्यक्रम को छोड़कर हम अपने और इससे कहीं अधिक आवश्यक कार्यों को भूल जाते हैं या छोड़ देते हैं। समय की बरबादी के साथ-साथ हम आलसी और कामचोर हो जाते हैं। दूरदर्शन से प्रसारित कार्यक्रम कुछ तो इतने अश्लील होते हैं कि इनसे न केवल हमारे युवा पीढ़ी का मन बिगड़ता है अपितु हमारे अबोध और नाबालिक बच्चे भी इसके दुष्प्रभाव से नहीं बच पाते हैं। दूरदर्शन के खराब होने से इनकी मरम्मत कराने में काफी खर्च भी पड़ जाता है। इस प्रकार दूरदर्शन से बहुत हानियाँ और बुराइयाँ हैं, फिर भी इससे लाभ अधिक हैं, इसी कारण है कि यह अधिक लोकप्रिय हो रहा है।

15. प्रदूषण की समस्या और समाधान

आज मनुष्य ने इतना विकास कर लिया है कि वह अब मनुष्य से बढ़कर देवताओं की शक्तियों के समान शक्तिशाली हो गया। मनुष्य ने यह विकास और महत्त्व विज्ञान के द्वारा प्राप्त किया है। विज्ञान का आविष्कार करके मनुष्य ने चारों हिन्दी व्याकरण ओर से प्रकृति को परास्त करने का कदम बढ़ा लिया है। देखते-देखते प्रकृति धीरे-धीरे मनुष्य की दासी बनती जा रही है। आज प्रकृति मनुष्य के अधीन बन गई है। इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि मनुष्य ने प्रकृति को अपने अनुकूल बनाने के लिए कोई कसर न छोडने का निश्चय कर लिया है।

जिस प्रकार मनुष्य मनुष्य का और राष्ट्र राष्ट्र का शोषण करते रहे हैं, उसी . प्रकार मनुष्य प्रकृति का भी शोषण करता रहा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रकृति में कोई गंदगी नहीं है। प्रकृति में बस जीव-जंतु, प्राणी तथा वनस्पति-जगत् परस्पर मिलकर समतोल में रहते हैं। प्रत्येक का अपना विशिष्ट कार्य है जिससे सड़ने वाले पदार्थों की अवस्था तेजी से बदले और वह फिर वनस्पति जगत् तथा उसके द्वारा जीवन-जगत की खुराक बन सके अर्थात प्रकृति में ब्रह्मा, विष्णु और महेश का काम अपने स्वाभाविक रूप में बराबर चलता रहता है। जब तक मनुष्य का हस्तक्षेप नहीं होता तब तक न गंदगी होती है और न रोग। जब मनुष्य प्रकृति के कार्य में हस्तक्षेप करता है तब प्रकृति का समतोल बिगड़ता है और इससे सारी सृष्टि का स्वास्थ्य बिगड़ जाता है।

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आज का युग औद्योगिक युग है। औद्योगीकरण के फलस्वरूप वायु-प्रदूषण बहुत तेजी से बढ़ रहा है। ऊर्जा तथा उष्णता पैदा करने वाले संयंत्रों से गरमी निकलती है। यह उद्योग जितने बड़े होंगे और जितना बढ़ेंगे उतनी ज्यादा गरमी फैलाएँगे। इसके अतिरिक्त ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए जो ईंधन प्रयोग में लाया जाता है वह प्रायः पूरी तरह नहीं जल पाता। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि धुएँ में कार्बन मोनोक्साइड काफी मात्रा में निकलती है। आज मोटर वाहनों का यातायात तेजी से बढ़ रहा है। 960 किलोमीटर की यात्रा में एक मोटर वाहन उतनी ऑक्सीजन का उपयोग करता है जितनी एक आदमी को एक वर्ष में चाहिए। दुनिया के हर अंचल में मोटर वाहनों का प्रदूषण फैलता जा रहा है। रेल का यातायात भी आशातीत रूप से बढ़ रहा है। हवाई जहाजों का चलन भी सभी देशों में हो चुका है। तेल-शोधन, चीनी-मिट्टी की मिलें, चमड़ा, कागज, रबर के कारखाने तेजी से बढ़ रहे हैं। रंग, वार्निश, प्लास्टिक, कुम्हारी चीनी के कारखाने बढ़ते जा रहे हैं। इस प्रकार के यंत्र बनाने के कारखाने बढ़ रहे हैं यह सब ऊर्जा-उत्पादन के लिए किसी-न-किसी रूप में ईंधन को फूंकते हैं और अपने धुएँ से सारे वातावरण को दूषित करते हैं। यह प्रदूषण जहाँ पैदा होता है वहीं पर स्थिर नहीं रहता। वायु के प्रवाह में वह सारी दुनिया में फैलता रहता है।

सन् 1968 में ब्रिटेन में लाल धूल गिरने लगी, वह सहारा रेगिस्तान से उड़कर आई। जब उत्तरी अफ्रीका में टैंकों का युद्ध चल रहा था तब वहाँ से धूल उड़कर कैरीबियन समुद्र तक पहुंच गई थी।

आजकल लोग घरों, कारखानों, मोटरों और विमानों के माध्यम से हवा, मिट्टी और पानी में अंधाधुंध दूषित पदार्थ प्रवाहित कर रहे हैं। विकास के क्रम में प्रकृति अपने लिए ऐसी परिस्थितियाँ बनाती है जो उसके लिए आवश्यक है इसलिए इन व्यवस्थाओं में मनुष्य का हस्तक्षेप सब प्राणियों के लिए घातक होता है। प्रदूषण का मुख्य खतरा इसी से है कि इससे परिस्थितीय संस्थान पर दबाव पड़ता है। घनी आबादी के क्षेत्रों में कार्बन मोनोक्साइड की वजह से रक्त-संचार में 5-10 प्रतिशत आक्सीजन कम हो जाती है। शरीर के ऊतकों को 25 प्रतिशत आक्सीजन की आवश्यकता होती है। आक्सीजन की तुलना में कार्बन मोनोक्साइड लाल रुधिर कोशिकाओं के साथ ज्यादा मिल जाती है, इससे यह हानि होती है कि ये कोशिकाएँ ऑक्सीजन को अपनी पूरी मात्रा में सँभालने में असमर्थ रहती हैं। लंदन में चार घंटों तक ट्रैफिक सँभालने के काम पर रहने वाले पुलिस के सिपाही के फेफड़ों में इतना विष भर जाता है मानो उसने 105 सिगरेट पी हों।

आराम की स्थिति में मनुष्य को दस लीटर हवा की आवश्यकता होती है। कड़ी मेहनत पर उससे दस गुना ज्यादा चाहिए लेकिन एक दिन में एक दिमाग को इतनी ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है जितनी कि 17,000 हेक्टेयर वन में पैदा होती है। मिट्टी में बढ़ते हुए विष से वनस्पति की निरंतर कमी महासागरों के प्रदूषण आदि की वजह से ऑक्सीजन की उत्पत्ति में कमी होती रही है। इसके अतिरिक्त प्रतिवर्ष हम वायुमंडल में अस्सी अरब टन.धुआँ फेंकते हैं। कारों तथा विमानों से दूषित गैस निकलती है। मनुष्य और प्राणियों के साँस से जो कार्बन डाइआक्साइड निकलती है वह अलग प्रदूषण फैलाती है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि वातावरण के प्रदूषण से वर्तमान रफ्तार से 30 वर्ष में जीवन-मंडल (बायोस्फियर) जिस पर प्राण और वनस्पति निर्भर हैं समाप्त हो जाएगा। पशु, पौधे और मनुष्यों का अस्तित्व नहीं रहेगा। सारी पृथ्वी की जलवायु बदल जाएगी, संभव है बरफ का युग फिर से आए। 30 साल के बाद हम कुछ नहीं कर पाएंगे। उस समय तक पृथ्वी का वातावरण नदियाँ और महासमुद्र सब विषैले हो जाएँगे।

यदि मनुष्य प्रकृति के नियमों को समझकर, प्रकृति को गुरु मानकर उसके साथ सहयोग करता और विशेष करके सब अवशिष्टों की प्रकृति को लौटाता है तो सृष्टि और मनुष्य स्वस्थ्य. रह सकते हैं, नहीं तो लंबे, अर्से में अणु विस्फोट के खतरे की अपेक्षा प्रकृति के कार्य में मनुष्य का कृत्रिम हस्तक्षेप कम खतरनाक नहीं है।

अतएव हमें प्रकृति के शोषण क्रम को कम करना होगा। अन्यथा हमारा जीवन पानी के बुलबुले के समान बेवजह समाप्त हो जाएगा और हमारे सारे विकास-कार्य ज्यों-के-त्यों पड़े रह जाएँगे।

16. ‘दहेज प्रथा’ एक सामाजिक बुराई

पंचतंत्र में लिखा है-

पुत्रीति जाता महतीह, चिन्ताकस्मैप्रदेयोति महानवितकैः।
दत्त्वा सुखं प्राप्तयस्यति वानवेति, कन्यापितृत्वंखलुनाम कष्टम।।

अर्थात् पुत्री उत्पन्न हुई, यह बड़ी चिंता है। यह किसको दी जाएगी और देने के बाद भी वह सुख पाएगी या नहीं, यह बड़ा वितर्क रहता है। कन्या का पितृत्व निश्चय ही कष्टपूर्ण होता है।।

इस श्लेष से ऐसा लगता है कि अति प्राचीन काल से ही दहेज की प्रथा हमारे देश में रही है। दहेज इस समय निश्चित ही इतना कष्टदायक और विपत्तिसूचक होने के साथ-ही-साथ इस तरह प्राणहारी न था जितना कि आज है। यही कारण है कि आज दहेज-प्रथा को एक सामाजिक बुराई के रूप में देखा और समझा जा रहा आज दहेज-प्रथा एक सामाजिक बुराई क्यों है? इस प्रश्न के उत्तर में यह कहना बहुत ही सार्थक होगा कि आज दहेज का रूप अत्यंत विकृत और कुत्सित हो गया है। यद्यपि प्राचीन काल में भी दहेज की प्रथा थी लेकिन वह इतनी भयानक और प्राण संकटापन्न स्थिति को उत्पन्न करने वाली न थी। उस समय दहेज स्वच्छंदपूर्वक था। दहेज लिया नहीं जाता था अपितु दहेज दिया जाता था। दहेज प्राप्त करने वाले के मन में स्वार्थ की कहीं कोई खोट न थी। उसे जो कुछ भी मिलता था उसे वह सहर्ष अपना लेता था लेकिन आज दहेज की स्थिति इसके ठीक विपरीत हो गई है।

आज दहेज एक दानव के रूप में जीवित होकर साक्षात् हो गया है। दहेज एक विषधर साँप के समान एक-एक करके बंधुओं को डंस रहा है। कोई इससे बच नहीं पाता है, धन की लोलुपता और असंतोष की प्रवृत्ति तो इस दहेज के प्राण हैं। दहेज का अस्तित्व इसी से है। इसी ने मानव समाज को पशु समाज में बदल दिया है। दहेज न मिलने अर्थात् धन न मिलने से बार-बार संकटापन्न स्थिति का उत्पन्न होना कोई आश्चर्य की बात नहीं होती है। इसी के कारण कन्यापक्ष को झुकना पड़ता है। नीचा बनना पड़ता है। हर कोशिश करके वरपक्ष और वर की माँग को पूरा करना पड़ता है। आवश्यकता पड़ जाने पर घर-बार भी बेच देना पड़ता है। घर की लाज भी नहीं बच पाती है।

दहेज के अभाव में सबसे अधिक वधू (कन्या) को दुःख उठाना पड़ता है। उसे जली-कटी, ऊटपटाँग बद्दुआ, झूठे अभियोग से मढ़ा जाना और तरह-तरह के दोषारोपण करके आत्महत्या के लिए विवश किया जाता है। दहेज के कुप्रभाव से केवल वर-वधू ही नहीं प्रभावित होते हैं, अपितु इनसे संबंधित व्यक्तियों को भी इसकी लपट में झुलसना पड़ता है। इससे दोनों के दूर-दूर के संबंध बिगड़ने के साथ-साथ मान-अपमान दुखद वातावरण फैल जाता है जो आने वाली पीढ़ी को एक मानसिक विकृति और दुष्प्रभाव को जन्माता है।

दहेज के कुप्रभाव से मानसिक अव्यस्तता बनी रहती है। कभी-कभी तो यह भी देखने में आता है कि दहेज के अभाव में प्रताडित वधु ने आत्महत्या कर ली है, या उसे जला-डूबाकर मार दिया गया है जिसके परिणामस्वरूप कानून की गिरफ्त में दोनों परिवार के लोग आ जाते हैं, पैसे बेशुमार लग जाते हैं, शारीरिक दंड अलग मिलते हैं। काम ठंडे अलग से पड़ते हैं और इतना होने के साथ अपमान और असम्मान, आलोचना भरपूर सहने को मिलते हैं।

दहेज प्रथा सामाजिक बुराई के रूप में उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर सिद्ध की जा चुकी है। अब दहेज प्रथा को दूर करने के मुख्य मुद्दों पर विचारना अति आवश्यक प्रतीत हो रहा है।

इस बुरी दहेज-प्रथा को तभी जड़ से उखाड़ा जा सकता है जब सामाजिक स्तर पर जागृति अभियान चलाया जाए। इसके कार्यकर्ता अगर इसके भुक्त-भोगी लोग हों तो यह प्रथा यथाशीघ्र समाप्त हो सकती है। ऐसा सामाजिक संगठन का होना जरूरी है जो भुक्त-भोगी या आंशिक भोगी महिलाओं के द्वारा संगठित हो। सरकारी सहयोग होना भी जरूरी है क्योंकि जब तक दोषी व्यक्ति को सख्त कानूनी कार्यवाही करके दंड न दिया जाए तब तक इस प्रथा को बेदम नहीं किया जा सकता। संतोष . की बात है कि सरकारी सहयोग के द्वारा सामाजिक जागृति आई है। यह प्रथा निकट भविष्य में अवश्य समाप्त हो जाएगी।

17. अगर मैं प्रधानमंत्री होता

किसी आजाद मुल्क का नागरिक अपनी योग्यताओं का विस्तार करके अपनी आकांक्षाओं को पूरा कर सकता है, वह कोई भी पद, स्थान या अवस्था को प्राप्त कर सकता है, उसको ऐसा होने का अधिकार उसका संविधान प्रदान करता है। भारत जैसे विशाल राष्ट्र में प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के पद को प्राप्त करना यों तोआकाश कसम तोड़ने के समान है फिर भी ‘जहाँ चाह वहाँ राह’ के अनुसार यहाँ का अत्यंत सामान्य नागरिक भी प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बन सकता है। लालबहादुर शास्त्री और ज्ञानी जैलसिंह इसके प्रमाण हैं।

यहाँ प्रतिपाद्य विषय का उल्लेख प्रस्तुत है कि ‘अगर मैं प्रधानमंत्री होता’ तो क्या करता? मैं यह भली-भाँति जानता हूँ कि प्रधानमंत्री का पद अत्यंत विशिष्ट और महान् उत्तरदायित्वपूर्ण पद है। इसकी गरिमा और महानता को बनाए रखने में किसी एक सामान्य और भावुक व्यक्ति के लिए संभव नहीं है फिर मैं महत्त्वाकांक्षी हूँ और अगर मैं प्रधानमंत्री बन गया तो निश्चय समूचे राष्ट्र की काया पलट कर दूंगा। मैं क्या-क्या राष्ट्रोस्थान के लिए कदम उठाऊँगा, उसे मैं प्रस्तुत करना पहला कर्तव्य मानता हूँ जिससे मैं लगातार इस पद पर बना रहूँ।

सबसे पहले शिक्षा-नीति में आमूल चूल परिवर्तन लाऊँगा। मुझे सुविज्ञात है कि हमारी कोई स्थायी शिक्षा नीति नहीं है जिससे शिक्षा का स्तर दिनोंदिन गिरता जा रहा है, यही कारण है कि अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण से हम शिक्षा के क्षेत्र में बहुत पीछे हैं, बेरोजगारी की जो आज विभीषिका आज के शिक्षित युवकों को त्रस्त कर रही है, उनका मुख्य कारण हमारी बुनियादी शिक्षा की कमजोरी, प्राचीन काल की गरु-शिष्य परंपरा की गुरुकुल परिपाटी की शुरुआत नये सिरे से करके धर्म और राजनीति के समन्वय से आधुनिक शिक्षा का सूत्रपात कराना चाहूँगा। राष्ट्र को बाह्य शक्तियों के आक्रमण का खतरा आज भी बना हुआ है। हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा अभी अपेक्षित रूप में नहीं है। इसके लिए अत्याधुनिक युद्ध के उपकरणों का आयात बढ़ाना होगा। मैं खुले आम न्यूक्लीयर विस्फोट का उपयोग सृजनात्मक कार्यों के लिए ही करना चाहूँगा। मैं किसी प्रकार ढुलमुल राजनीति का शिकार नहीं बनूँगा अगर कोई राष्ट्र हमारे राष्ट्र की ओर आँख उठाकर देखें तो मैं उसक हतोड़ जवाब देने में संकोच नहीं करूंगा। मैं अपने वीर सैनिकों का उत्साहवर्द्धन करते हुए उनके जीवन को अत्यधिक संपन्न और खुशहाल बनाने के लिए उन्हें पूरी समुचित सुविधाएँ प्रदान कराऊँगा जिससे वे राष्ट्र की आन-मान पर न्योछावर होने में पीछे नहीं हटेंगे।

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हमारे देश की खाद्य समस्या सर्वाधिक जटिल और दुखद समस्या है। कृषि प्रधान राष्ट्र होने के बावजूद यहाँ खाद्य संकट हमेशा मँडराया करता है। इसको ध्यान में रखते हुए मैं नवीनतम कृषि यंत्रों, उपकरणों और रासायनिक खादों और सिंचाई के विभिन्न साधनों के द्वारा कृषि-दशा की दयनीय स्थिति को सबल बनाऊँगा। देश की जो बंजर और बेकार भूमि है उसका पूर्ण उपयोग कृषि के लिए करवाते हुए कृषकों को एक- से – एक बढ़कर उन्नतिशील बीज उपलब्ध कराके उनकी अपेक्षित सहायता सुलभ कराऊँगा।

यदि मैं प्रधानमंत्री हूँगा तो देश में फैलती हुई राजनीतिक अस्थिरता पर कड़ा अंकुश लगाकर दलों के दलदल को रोक दूंगा। राष्ट्र को पतन की ओर ले जाने वाली राजनीतिक अस्थिरता के फलस्वरूप प्रतिदिन होने वाले आंदोलनों, काम-रोको और विरोध दिवस बंद को समाप्त करने के लिए पूरा प्रयास करूंगा। देश में गिरती हुई अर्थव्यवस्था के कारण मुद्रा प्रसार पर रोक लगाना अपना मैं प्रमुख कर्तव्य समझूगा।

उत्पादन, उपभोग और विनियम की व्यवस्था को पूरी तरह से बदलकर देश को आर्थिक दृष्टि से अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व प्रदान कराऊँगा।

देश को विकलांग करने वाले तत्त्वों, जैसे-मुनाफाखोरी और भ्रष्टाचार ही नव अवगुणों की जड़ है। इसको जड़मूल से समाप्त करने के लिए अपराधी तत्त्वों को कड़ी-से-कड़ी सजा दिलाकर समस्त वातावरण को शिष्ट और स्वच्छ व्यवहारों से भरने की मेरी सबल कोशिश होगी। यहीं आज धर्म और जाति को लेकर तो साम्प्रदायिकता फैलाई जा रही है वह राष्ट्र को पराधीनता की ओर ढकेलने के ही अर्थ में हैं, इसलिए ऐसी राष्ट्र विरोधी शक्तियों को आज दंड की सजा देने के लिए मैं सबसे संसद के दोनों सदनों से अधिक-से-अधिक मतों से इस प्रस्ताव को पारित करा करके राष्ट्रपति से सिफारिश करके संविधान में परिवर्तन के बाद एक विशेष अधिनियम जारी कराऊंगा जिससे विदेशी हाथ अपना बटोर सकें।

संक्षेप में यही कहना चाहता हूँ कि यदि मैं प्रधानमंत्री हँगा तो राष्ट्र और समाज के कल्याण और पूरे उत्थान के लिए मैं एड़ी-चोटी का प्रयास करके प्रधानमंत्रियों की परम्परा और इतिहास में अपना सबसे अधिक लोकापेक्षित नाम स्थापित करूँगा। भारत को सोने की चिड़िया बनाने वाला यदि मैं प्रधानमंत्री होता तो कथनी और करनी को साकार कर देता।

18. परिश्रम अथवा परिश्रम का महत्त्व अथवा परिश्रम ही जीवन है।

संस्कृत का एक सुप्रसिद्ध श्लोक है-

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य, प्रविशन्ति मुखे मृगाः।।

अर्थात् परिश्रम से ही कार्य होते हैं, इच्छा से नहीं। सोते हुए सिंह के मुँह में पशु स्वयं नहीं आ गिरते। इससे स्पष्ट है कि कार्य-सिद्धि के लिए परिश्रम बहुत आवश्यक है।

सृष्टि के आरंभ से लेकर आज तक मनुष्य ने जो भी विकास किया है, वह सब परिश्रम की ही देन है। जब मानव जंगल अवस्था में था, तब वह घोर परिश्रमी था। उसे खाने-पीने, सोने, पहनने आदि के लिए जी-तोड़ मेहनत करनी पड़ती थी। आज, जबकि युग बहुत विकसित हो चुका है, परिश्रम की महिमा कम नहीं हुई है। बड़े-बड़े बाँधों का निर्माण देखिए, अनेक मंजिले भवन देखिए, खदानों की खुदाई, पहाड़ों की कटाई, समुद्र की गोताखोरी या आकाश-मंडल की यात्रा का अध्ययन कीजिए। सब जगह मानव के परिश्रम की गाथा सुनाई पड़ेगी। एक कहावत है- ‘स्वर्ग क्या है, अपनी मेहनत से रची गई सष्टि। नरक क्या है? अपने आप बन गई दुरवस्था।’ आशय यह है कि स्वर्गीय सुखों को पाने के लिए तथा विकास करने के लिए मेहनत अनिवार्य है। इसीलिए मैथिलीशरण गुप्त ने कहा है-

पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो,
सफलता वर-तुल्य वरो, उठो,
अपुरुषार्थ भयंकर पाप है,
न उसमें यश है, न प्रताप है।।

केवल शारीरिक परिश्रम ही परिश्रम नहीं है। कार्यालय में बैठे हुए प्राचार्य, लिपिक या मैनेजर केवल लेखनी चलाकर या परामर्श देकर भी जी-तोड़ मेहनत करते हैं। जिस क्रिया में कुछ काम करना पड़े, जोर लगाना पड़े, तनाव मोल लेना पड़े, वह मेहनत कहलाती है। महात्मा गांधी दिन-भर सलाह-मशविरे में लगे रहते थे, परंतु वे घोर परिश्रमी थे।

पुरुषार्थ का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इससे सफलता मिलती है। परिश्रम ही सफलता की ओर जाने वाली सड़क है। परिश्रम से आत्मविश्वास पैदा होता है। मेहनती आदमी को व्यर्थ में किसी की जी-हजूरी नहीं करनी पड़ती, बल्कि लोग उसकी जी-हजूरी करते हैं। तीसरे, मेहनती आदमी का स्वास्थ्य सदा ठीक रहता है। चौथे, मेहनत करने से गहरा आनंद मिलता है। उससे मन में यह शांति होती है कि मैं निठल्ला नहीं बैठा। किसी विद्वान का कथन है-जब तुम्हारे जीवन में घोर आपत्ति और दुख आ जाएँ तो व्याकुल और निराश मत बनो; अपितु तुरंत काम में जुट जाओ। स्वयं को कार्य में तल्लीन कर दो तो तुम्हें वास्तविक शांति और नवीन प्रकाश की प्राप्ति होगी।

राबर्ट कोलियार कहते हैं- ‘मनुष्य का सर्वोत्तम मित्र उसकी दस अंगुलियाँ हैं।’ अतः हमें जीवन का एक-एक क्षण परिश्रम करने में बिताना चाहिए। श्रम मानव-जीवन का सच्चा सौंदर्य है।

19. साक्षरता से देश प्रगति करेगा
अथवा
साक्षरता आंदोलन

साक्षरता का तात्पर्य है-अक्षर-ज्ञान का होना। दूसरे शब्दों में, व्यक्ति का पढ़ने-लिखने में समर्थ होना साक्षर होना कहलाता है। इस बात में कोई दो मत नहीं हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को अक्षर-ज्ञान होना चाहिए। अक्षर – ज्ञान व्यक्ति के लिए उतना ही अनिवार्य है जितना कि अँधेरे कमरे के लिए प्रकाश; या अंधे के लिए आँखें।

वर्तमान सभ्यता काफी उन्नत हो चुकी है। इस उन्नति का एक मूलभूत आधार है-शिक्षा। शिक्षा के बिना प्रगति का पहिया एक इंच भी नहीं सरक सकता। यदि शिक्षा प्राप्त करनी है तो अक्षर-ज्ञान अनिवार्य है। आज की समूची शिक्षा अक्षर-ज्ञान पर आधारित है। भारतीय मनीषियों ने तो अक्षर को ‘ब्रह्म’ माना है। आज ज्ञान-विज्ञान ने जितनी उन्नति की है, उसका लेखा-जोखा हमारे स्वर्णिम ग्रंथों में सुरक्षित है। अतः उस ज्ञान को पाने के लिए साक्षर होना पड़ेगा।

निरक्षर व्यक्ति जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पिछड़ जाता है। वह छोटी-छोटी बातों के लिए दूसरों पर निर्भर बना रहता है। उसे पत्र पढ़ने, बस-रेलगाड़ी की सूचनाएँ पढ़ने के लिए भी लोगों का मुँ ताकना पड़ता है। परिणमास्वरूप उसके आत्मविश्वास में कमी आ जाती है। यहाँ तक कि वह समाचार-पत्र पढ़कर दैनंदिन गतिविधियों को भी नहीं जान पाता। इस प्रकार वह विश्व की प्रगतिशील धारा से कट कर रह जाता है। रोज-रोज होने वाले नये आविष्कार उसके लिए बेमानी हो जाते हैं।

दुर्भाग्य से भारत में निरक्षरता का अंधकार बहुत अधिक छाया हुआ है। अभी यहाँ करोड़ों लोग वर्तमान सभ्यता से एकदम अनजान हैं। ईश्वर ने उन्हें जो-जो शक्तियाँ प्रदान की हैं, वे भी सोई पड़ी हैं। अगरबत्ती की सुगंध की भाँति उनकी प्रतिभा उन्हीं. में खोई पड़ी है। अगर ज्ञान की लौ लग जाए, साक्षरता का दीप जल जाए तो समूचा हिंदुस्तान उनकी सुगंध से महमह कर उठेगा। तब हमारे वनवासी बंधु, जो अज्ञान के कारण अपनी वन-संपदा के महत्त्व को नहीं जानते, उसके महत्त्व को जानेंगे; अपनी वन-भूमि का चहुंमुखी विकास करेंगे। परिणामस्वरूप नये उद्योग-धंधों से भारतवर्ष तो फलेगा-फूलेगा ही; उनके सूखे चेहरों पर भी रंगत आएगी। अतः साक्षरता आज का युगधर्म है। उसे प्रथम महत्त्व देकर अपनाना चाहिए।

20. विज्ञान-वरदान या अभिशाप

विज्ञान एक शक्ति है, जो नित नये आविष्कार करती है। वह शक्ति न तो अच्छी है, न बुरी, वह तो केवल शक्ति है। अगर हम उस शक्ति से मानव-कल्याण के कार्य करें तो वह ‘वरदान’ प्रतीत होती है। अगर उसी से विनाश करना शुरू कर दें तो वह ‘अभिशाप’ लगने लगती है।

विज्ञान ने अंधों को आँखें दी हैं, बहरों को सुनने की ताकत। लाइलाज रोगों की रोकथाम की है तथा अकाल मृत्यु पर विजय पाई है। विज्ञान की सहायता से यह युग बटन-युग बन गया है। बटन दबाते ही वायु देवता पंखे को लिये हमारी सेवा करने लगते हैं, इंद्र देवता वर्षा करने लगते हैं, कहीं प्रकाश जगमगाने लगता है तो कहीं शीत-उष्ण वायु के झोंके सुख पहुँचाने लगते हैं। बस, गाड़ी, वायुयान आदि ने स्थान की दूरी को बाँध दिया है। टेलीफोन द्वारा तो हम सारी वसुधा से बातचीत करके उसे वास्तव में कुटुंब बना लेते हैं। हमने समुद्र की गहराइयाँ भी नाप डाली हैं और आकाश की ऊँचाइयाँ भी। हमारे टी.वी., रेडियो, वीडियो में सभी मनोरंजन के साधन कैद हैं। सचमुच विज्ञान ‘वरदान’ ही तो है।

मनुष्य ने जहाँ विज्ञान से सुख के साधन जुटाए हैं, वहाँ दुःख के अंबार भी खड़े कर लिए हैं। विज्ञान के द्वारा हमने अणुबम, परमाणु बम तथा अन्य ध्वंसकारी शस्त्र-अस्त्रों का निर्माण कर लिया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि अब दुनिया में इतनी विनाशकारी सामग्री इकट्ठी को चुकी है कि उससे सारी पृथ्वी को पंद्रह बार नष्ट किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त प्रदूषण की समस्या बहुत बुरी तरह फैल गई है। नित्य नये असाध्य रोग पैदा होते जा रहे हैं, जो वैज्ञानिक साधनों के अंधाधुंध प्रयोग करने के दुष्परिणाम हैं।

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वैज्ञानिक प्रगति का सबसे बड़ा दुष्परिणाम मानव-मन पर हुआ है। पहले जो मानव निष्कपट था, निःस्वार्थ था, भोला था, मस्त और बेपरवाह था, अब वह छली, स्वार्थी, चालाक, भौतिकवादी तथा तनावग्रस्त हो गया है। उसके जीवन में से संगीत गायब हो गया है, धन की प्यास जाग गई है। नैतिक मूल्य नष्ट हो गए हैं। जीवन में संघर्ष-ही-संघर्ष रह गए हैं। कविवर जगदीश गुप्त के शब्दों में-

संसार सारा आदमी की चाल देख हआ चकित।
पर झाँक कर देखो दृगों में, हैं सभी प्यासे थकित।।

वास्तव में विज्ञान को वरदान या अभिशाप बनाने वाला मनुष्य है। जैसे अग्नि से हम रसोई भी बना सकते हैं और किसी का घर भी जला सकते हैं; जैसे चाकू से हम फलों का स्वाद भी ले सकते हैं और किसी की हत्या भी कर सकते हैं; उसी प्रकार विज्ञान से हम सुख के साधन भी जुटा सकते हैं और मानव का विनाश भी कर सकते हैं। अतः विज्ञान को वरदान या अभिशाप बनाना मानव के हाथ में है। इस संदर्भ में एक उक्ति याद रखनी चाहिए ‘विज्ञान अच्छा सेवक है लेकिन बुरा हथियार।’

MP Board Class 11th Hindi Solutions

MP Board Class 11th General Hindi अपठित बोध

MP Board Class 11th General Hindi अपठित बोध

MP Board Class 11 General Hindi अपठित गद्यांश

अपठित रचना से तात्पर्य बिना पढ़े पद्यांश और गद्यांश से है। अपठितांश बहुधा निर्धारित है और प्रचलित पाठ्य पुस्तकों के अतिरिक्त किसी भी पुस्तक से प्रश्न-पत्र में दिया जाता है। ऐसे अपठित गद्यांशों और पद्यांशों से छात्रों की योग्यता और अध्ययनशीलता का परिचय मिलता है। अपठित अंश की व्याख्या अथवा संक्षेपण करने से यह भी पता चलता है कि विद्यार्थी में भाषा पर कितना अधिकार है और उसकी अभिव्यंजना शक्ति कितनी है।

अपठित अवतरण

1. हम नाम के आस्तिक हैं, हर बात में ईश्वर का तिरस्कार करके ही हमने आस्तिक की ऊँची उपाधि पाई है। ईश्वर का एक नाम दीनबन्धु है। यदि हम वास्तव में आस्तिक हैं, ईश्वर भक्त हैं, तो हमारा यह पहला धर्म है कि दीनों को प्रेम से गले लगाएँ, उनकी सहायता करें, उनकी सेवा-सुश्रूषा करें तभी न दीनबन्धु ईश्वर हम पर प्रसन्न होगा।

(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
(ख) संक्षेप में सारांश लिखिए।

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2. हमारे समस्त आचरण में संयम की आवश्यकता है। हमें अपने विचारों और आवेगों को भी संयम की वल्गा से रोकना चाहिए। गाँधीजी के देश में यह बताने की आवश्यकता नहीं कि सत्य के लिए दण्ड भोगना समाज का हितकर कार्य है। परन्तु संयम और विवेक से ही यह स्थिर किया जा सकता है कि कौन-सा कार्य नीति संयम है। संयम और विवेक ही इस समय हमें उबार सकता है।

(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
(ख) संक्षेप में सारांश लिखए।

3. कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है। वह केवल नीति और सद्वृत्ति का ही नाश नहीं करता बल्कि बुद्धि का भी क्षय करता है। किसी युवा पुरुष की संगति यदि बुरी होगी तो वह उसके पैर में बँधी चक्की के समान होगी, जो उसे दिन-रात अवनति के गड्ढे में गिराती जाएगी और यदि अच्छी होगी तो सहारा देने वाली बाहु के समान होगी जो उसे निरन्तर उन्नति की ओर उठाती जाएगी।

(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
(ख) संक्षेप में सारांश लिखिए।

4. भारत आधुनिक युग के विश्व-जीवन में अन्य राष्ट्रों का समभागी होकर . भी उनसे भिन्न है। राष्ट्र केवल सीमाओं और जनसंख्या के समच्चय का नाम नहीं है। उनके साथ परिस्थितियों के एक विशिष्ट आपात और एक विशिष्ट इतिहास का योग होता है। राष्ट्र एक व्यक्ति के सदृश्य ही है। जिन परिस्थितियों और ऐतिहासिक मकरंद : हिंदी सामान्य प्रतिक्रियाओं से भारत गुजरा है वे अपना स्वतन्त्र स्वरूप रखती हैं। उनके अनुरूप हमारी चेतना और व्यापक जीवन परिवेदना का निर्माण हुआ है।

(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
(ख) संक्षेप में सारांश लिखिए।

5. दूर के ढोल सुहावने होते हैं क्योंकि उनकी कर्कशता दूर तक नहीं पहुँचती। जब ढोल के पास बैठे हुए लोगों के कान के पर्दे फटते रहते हैं, तब दूर किसी नदी के तट पर संध्या समय, किसी दूसरे के कान में वही शब्द मधुरता का संचार कर देते हैं। ढोल के उन्हीं शब्दों को सुनकर वह अपने हृदय में किसी के विवाहोत्सव का चित्र अंकित कर लेता है। कोलाहल से पूर्ण घर के एक कोने में बैठी हुई किसी लज्जाशील नववधू की कल्पना वह अपने मन में कर लेता है।

(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
(ख) संक्षेप में सारांश लिखिए।’

6. उदारता का अभिप्राय केवल निःसंकोच भाव से किसी को धन दे डालना ही नहीं वरन् दूसरों के प्रति उदार भाव रखना भी है। उदार पुरुष सदा दूसरों के विचारों का आदर करता है और समाज में सेवक-भाव से रहता है। यह न समझो कि केवल धन से उदारता हो सकती है। सच्ची उदारता इस बात में है कि मनुष्य को मनुष्य समझा जाए। धन की उदारता के साथ सबसे बड़ी एक और उदारता की आवश्यकता यह है कि उपकृत के प्रति किसी प्रकार का एहसान न जताया जाए।

(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
(ख) संक्षेप में सारांश लिखिए।

7. हमें स्वराज्य तो मिल गया, परन्तु सराज्य अभी हमारे लिए एक सखद स्वप्न ही है। इसका प्रधान कारण यह है कि देश को समृद्ध बनाने के उद्देश्य से कठोर परिश्रम करना हमने अब तक नहीं सीखा। श्रम का महत्त्व और मूल्य हम जानते ही नहीं। हम अब भी आराम तलब हैं। हमे हाथों से यथेष्ट काम करना रुचता ही नहीं। हाथों से काम करने को हम हीन लक्षण समझते हैं। हम कम से कम काम द्वारा जीविका चाहते हैं। हम यही सोचते रहते हैं किसी तरह काम से बचा जाए। यह दूषित मनोवृत्ति राष्ट्र की आत्मा में आ बैठी है और वहाँ से हटती नहीं। यदि हम इससे मुक्त नहीं होते तो देश आगे बढ़ नहीं सकता।

(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
(ख) संक्षेप में सारांश लिखिए।

8. मनुष्य को स्वयं पर गर्व है। वह स्वयं को जगदीश्वर की अत्युत्तम तथा सर्वश्रेष्ठ कृति समझता है। वह अपने व्यक्तित्व को चिरस्थायी बनाना चाहता है। मनुष्य जाति का इतिहास क्या है? उसके सारे प्रयत्नों का केवल एक ही उद्देश्य है। चिरकाल से मनुष्य यही प्रयत्न कर रहा है कि किसी प्रकार वह उस अप्राप्य अमृत को प्राप्त करे जिसे पीकर वह अमर हो जाए।

(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
(ख) संक्षेप में सारांश लिखिए।

9. जो साहित्य मुर्दे को भी जिन्दा करने वाली संजीवन औषधि का भण्डार है, जो साहित्य पतितों को उठाने वाला और उत्पीड़ितों के मस्तक को उन्नत करने वाला है, उसके उत्पादन और संवर्धन की चेष्टा जो जाति नहीं करती वह अज्ञानांधकार की गर्त में पड़ी रहकर किसी दिन अपना अस्तित्व ही खो बैठती है। अतएव समर्थ होकर भी जो मनुष्य इतने महत्त्वशाली साहित्य की सेवा और श्रीवृद्धि नहीं करता अथवा उससे अनुराग नहीं रखता वह समाज-द्रोही है, वह देश-द्रोही है, वह जाति-द्रोही है।

(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
(ख) संक्षेप में सारांश लिखिए।

10. शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को मनुष्य बनाना, उनमें आत्मनिर्भरता की भावना भरना तथा देशवासियों का चरित्र-निर्माण करना होता है। परन्तु वर्तमान शिक्षा प्रणाली से इस प्रकार का कोई लाभ नहीं हो रहा है। इसे उदर-पूर्ति का साधन मात्र कह सकते हैं। परन्तु यह भी पूर्णतया नहीं, क्योंकि जब भी प्रतिवर्ष विद्यालयों से हजारों नवयुवक डिग्री प्राप्त करके निकलते हैं और उन्हें नौकरी नहीं मिल पाती। इस कारण बेकारी दिनोंदिन बढ़ती जा रही है।

(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
(ख) संक्षेप में सारांश लिखिए।

11. सामाजिक जीवन में क्रोध की जरूरत बराबर पड़ती है। यदि क्रोध हो तो मनुष्य दूसरों के द्वारा पहुँचाए जाने वाले बहुत-से कष्टों की चिर-निवृत्ति का उपाय ही न कर सके। कोई मनुष्य किसी दुष्ट के नित्य दो-चार प्रहार सहता है। यदि उसमें क्रोध का विकास नहीं हुआ है तो वह केवल आह-ऊँह करेगा, जिसका उस दुष्ट पर कोई प्रभाव नहीं। उस दुष्ट के हृदय में विवेक, दया आदि उत्पन्न करने में बहुत समय लगेगा।

(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
(ख) संक्षेप में सारांश लिखिए।

12. जन का प्रवाह अनन्त होता है। सहस्रों वर्षों से भूमि के साथ राष्ट्रीय जन ने तादात्म्य प्राप्त किया है। जब तक सूर्य की रश्मियाँ नित्य प्रातःकाल भुवन को अमृत से भर देती हैं, तब तक राष्ट्रीय जन का जीवन भी अमर है। इतिहास के अनेक . उतार-चढ़ाव पार करने के बाद भी राष्ट्र निवासी जन नई उठती लहरों से आगे बढ़ने के लिए आज भी अजर-अमर हैं। जन का सततवाही जीवन नदी के प्रवाह की तरह है, जिसमें कर्म और ा के द्वारा उत्थान के अनेक घाटों का निर्माण होता है।

(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
(ख) संक्षेप में सारांश लिखए।

13. दंडकोप का ही एक विधान है। राजदंड राजकोप है, जहाँ कोप लोककोप और लोककोप धर्मकोप है, जहाँ राजकोप धर्मकोप से एकदम भिन्न दिखाई पड़े वहाँ उसे राजकोप न समझकर कुछ विशेष मनुष्यों का कोप समझना चाहिए। ऐसा कोप राजकोप के महत्त्व और पवित्रता का अधिकारी नहीं हो सकता। उसका सम्मान जनता अपने लिए आवश्यक नहीं समझती।

(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
(ख) संक्षेप में सारांश लिखिए।

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14. विकृत भोजन से जैसे शरीर रुग्ण होकर बिगड़ जाता है उसी तरह विकृत साहित्य से मस्तिष्क भी विकारग्रस्त होकर रोगी हो जाता है। मस्तिष्क का बलवान
और शक्ति सम्पन्न होना अच्छे ही साहित्य पर अवलम्बित है। अतएव एक बात निर्धान्त है कि मस्तिष्क के यथेष्ट विकास का एकमात्र साधन उसका साहित्य है। यदि हमें जीवित रहना है और सभ्यता की दौड़ में अन्य जातियों की बराबरी करना है तो हमें श्रद्धापूर्वक बड़े उत्साह से सत्साहित्य का उत्पादन और प्राचीन साहित्य की रक्षा करनी चाहिए।

(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
(ख) संक्षेप में सारांश लिखिए।

15. हमारा एक जातीय व्यक्तित्व है। वेश-भूषा, रहन-सहन और शक्ल-सूरत में भेद होते हुए भी भारतवासी अपने जातीय व्यक्तित्व से पहचान लिए जाते हैं। वह व्यक्तित्व हमारी जातीय मनोवृत्ति, जीवन-मीमांसा, रहन-सहन, रीति-रिवाज, उठने-बैठने के ढंग, चाल-ढाल, वेश-भूषा, साहित्य, संगीत आदि में अभिव्यक्त होता है। विदेशी प्रभाव पड़ने पर भी वह बहुत अंशों में अक्षुण्ण बना हुआ है। वह हमारी एकता का मूल सूत्र है।

(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
(ख) संक्षेप में सारांश लिखिए।

16. कश्मीर का नाम लेते ही हृदय में जो आनन्द की लहरें उठने लगती हैं उसकी नम दलदलभरी भूमि किसने सौंदर्य में रंगी? किसने झेलम के तटवर्ती आकाश की सुरभि को बोझिल वाय से मदहोश किया? किसने उसके केसर की फैली क्यारियों में जादू की मिट्टी डाली?

(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
(ख) संक्षेप में सारांश लिखिए।

17. “यह संसार एक पुलिया है, इसके ऊपर से निकल जा, किन्तु इस पर घर बनाने का विचार मन में न ला। जो यहाँ एक घंटाभर भी ठहरने का इरादा करेगा, वह चिरकाल तक यहाँ ठहरने को उत्सुक हो जाएगा। सांसारिक जीवन तो एक घड़ी भर का ही है, उसे ईश्वर-स्मरण तथा भगवद् भक्ति में बिता। ईश्वरोपासना के अतिरिक्त सब कुछ व्यर्थ है, सब कुछ आसार है।”

(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
(ख) संक्षेप में सारांश लिखिए।

18. सर्वोदय शब्द का अर्थ सबका उदय, सबका उत्कर्ष तथा सबका विकास है। यह सिद्धान्त भारत का पुरातन आदर्श माना गया है। महात्मा गाँधी के मतानुसार सर्वोदय का अर्थ आदर्श समाज व्यवस्था है। किसी भी व्यक्ति या समूह का दमन, शोषण या विनाश से नहीं किया जाएगा। इस समाज-व्यवस्था में सब बराबर के सदस्य होंगे। सबको उनके परिश्रम की पैदावार में हिस्सा मिलेगा। बलवान दुर्बलों की रक्षा करेंगे और उनके संरक्षक का काम करेंगे तथा प्रत्येक सदस्य सबके कल्याण का ध्यान रखेगा।

(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
(ख) संक्षेप में सारांश लिखिए।

19. पुस्तकों का हम सबको बहुत ऋणी होना चाहिए। मनुष्य जाति ने आज तक जितना भी ज्ञान तथा अनुभव प्राप्त किया है, जो भी अन्वेषण और आविष्कार किए हैं, वे सब इनमें संचित हैं। इनसे हम हर प्रकार का ज्ञान प्राप्त करते हैं। ये अध्यापक हमको बिना दंड प्रकार के, बिना कुटिल शब्द कहे अथवा क्रोध किए और बिना शुल्क लिए ही शिक्षा दे सकते हैं। यदि हम इनके सन्निकट जाएँ तो वे सोते अथवा अन्य किसी कार्य में संलग्न न मिलेंगे। यदि हम जिज्ञासु हैं और इनसे प्रश्न करते हैं तो यह हमसे कुछ परोक्ष न रखेंगे। यदि हम इनके यथार्थ रूप को न समझे तो ये भुनभुना नहीं जाएँगे और यदि हम अज्ञानी हैं तो हमारी मूर्खता पर हँसेंगे नहीं। इसलिए बुद्धि तथा ज्ञान से पूर्ण पुस्तकालय संसार की बहुमूल्य वस्तु है।

(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
(ख) संक्षेप में सारांश लिखिए।

20. दार्शनिक कहते हैं, जीवन एक बुदबुदा है। भ्रमण करती हुई आत्मा को ठहरने की एक धर्मशाला-मात्र है। वे यह भी कहते हैं कि हम जीवन का संग तथा वियोग क्या है? प्रवाह में साथ ही बढ़ते हुए लकड़ी के टुकड़ों का साथ और विलग होने के समान है। परन्तु क्या ये विचार एक संतृप्त हृदय को शांत कर सकते हैं? क्या ये भावनाएँ चिरकाल की विरहाग्नि में जलते हुए हृदय को सांत्वना प्रदान कर सकती हैं। सांसारिक जीवन की व्यवस्थाओं से दूर बैठा सांसारिक जीवन संग्राम का एक तटस्थ दर्शक भले कुछ भी कहे, किन्तु जीवन के इस भीषण संग्राम में युद्ध करते हुए सांसारिक घटनाओं के कठोर धपेड़े खाते हुए हृदयों की क्या दशा होतो है, वह एक भुक्तभोगी कह सकता है।

(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
(ख) संक्षेप में सारांश लिखिए।

21. मानव जाति के लिए एक नए युग का सूत्रपात हो गया है। यह नया युग आणविक क्रांति का युग है। भविष्य में इतिहासकार इस युग को आणविक युग कहकर पुकारेंगे या सभ्यता के महाविनाश को बीभत्स और रोमांचकारी गाथा सुनने के लिए कोई इतिहासकार जीवन ही नहीं बचेगा। इसका निर्णय आज हमें समस्त मानव जाति को ही करना है, क्योंकि आज समस्त संसार का भविष्य खतरे में पड़ गया है।
(क) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
(ख) संक्षेप में सारांश लिखिए।

MP Board Class 11 General Hindi अपठित पद्यांश

सच्चा कर्म सच्ची सेवा सच्चा धरम।
दुश्मन के आगे कभी झुके नहीं हम॥
खौलता है खून, साँस चलती गरम।
कितने हों कष्ट नहीं होते जो नरम॥
भारत माँ की आबरू ये पहचानते।
माता भारती का दर्द ये ही जानते॥1॥

इनको न कोई प्यारे जाति और पंथ।
इनकी राष्ट्रभक्ति का होता नहीं अंत॥
नहीं जानते हैं ये हिंदू मुसलमान।
इनको चाहिए सलामत हिन्दुस्तान॥
तोप के भी आगे जो हैं सीना तानते।
माता भारती का दर्द ये ही जानते॥2॥

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चाहे हो पहाड़ चाहे गहरी हो खाई।
हर प्रतिकूलता में हिम्मत बनाई।
आग उगलें दुश्मन की गोलियाँ।
बढ़ती गई हैं फिर भी आगे टोलियाँ।
तोड़ते पहाड़ नहीं राख छानते।
माता भारती का दर्द ये ही जानते॥3॥

जिसमें नहीं है देश-भक्ति का जुदून।
उसका कहेंगे हम बेईमान खून॥
चाहे कोई जाति हो या कोई हो धन।
सबकी जुबाँ पे हो वंदे मातरम्।
ये ही सच्ची देशभक्ति हम मानते
इसको ही सच्चा धर्म हम जानते॥4॥

-कमलेश कुमार जैन ‘वसंत’

  • उपर्युक्त पद्यांश का शीर्षक लिखिए।’
  • कवि सच्चा धर्म किसे मानता है?
  • कवि ने कविता में किसका चित्रण किया है?
  • उपर्युक्त कविता का भावार्थ लिखिए।

2. अपठित पद्यांश
निम्नलिखित पद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-

वन-उपवन पनप गए सब
कितने नव अंकुर आए।
वे पीले-पीले पल्लव
फिर से हरियाली लाए।
वन में मयूर अब नाचें
हँस-हँस आनन्द मनाएँ।
उनकी छवि देख रही हैं
नभ से घनघोर घटाएँ।

-संकलित

  • उक्त पद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए?
  • उक्त पंक्तियों में किस मौसम का वर्णन हुआ है?
  • आकाश से बरसाती बादल कौन-सा दृश्य देख रहे हैं?

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3. अपठित पद्यांश
निम्नलिखित पद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-

जय हे मातृभूमि कल्याणी
शुभ्र किरीट हिमालय तेरा
सागर है चरणों का चेरा
हृदय देवताओं का डेरा
शस्य श्यामला रूप तुम्हारा
शीतल चूनर धानी।

-मधु चतुर्वेदी

  • उक्त पद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए?
  • ये पंक्तियाँ किस देश के संबंध में कही गई हैं?
  • इन पंक्तियों में मातृभूमि की किन विशेषताओं का उल्लेख किया गया है:

3. अपठित पद्यांश

निम्नलिखित पद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
बस कागजी घुड़दौड़ में है आज इति कर्त्तव्यता,
भीतर मलिनता हो, भले की किन्तु बाहर भव्यता,
धनवान ही धार्मिक बनें यद्यपि अधर्मासक्त हैं,
हैं लाख में दो-चार सुहृदय शेष बगुला भक्त हैं।

-मैथिलीशरण गुप्त

  1. उक्त पद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए?
  2. आजकल कर्त्तव्य की समाप्ति किसे समझा जाता है?
  3. अधर्मी किस आधार पर धार्मिक बन गए हैं?
  4. बगुला भक्त से क्या आशय है?

3. अपठित पद्यांश

निम्नलिखित पद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
यदि तुम अपनी अमित शक्ति को समझ काम में लाते,
अनुपम चमत्कार अपना तुम देख परम सुख पाते,
यदि उदीप्त हृदय में सच्चे सुख की हो अभिलाषा,
वन में नहीं जगत् में आकर करो प्राप्ति की आशा।

-रामनरेश त्रिपाठी

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  1. उक्त पद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए?
  2. अमित शक्ति से कवि का क्या आशय है?
  3. सच्चा सुख कहाँ प्राप्त किया जा सकता है?

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MP Board Class 11th General Hindi व्याकरण वाक्य के भेद

MP Board Class 11th General Hindi व्याकरण वाक्य के भेद

1. अर्थ के आधार पर वाक्य के भेद-

अर्थ के आधार पर वाक्यों के निम्नलिखित आठ – भेद होते हैं –

  • विधानवाचक वाक्य – जिन वाक्यों से किसी क्रिया के करने या होने की – सामान्य सूचना मिलती है, उन्हें विधानवाचक वाक्य कहते हैं। किसी के अस्तित्व का बोध भी इस प्रकार के वाक्यों से होता है।

जैसे–
अशोक राजनगर में रहता है।

  • निषेधवाचक वाक्य – जिन वाक्यों से किसी कार्य के निषेध (न होने) का बोध होता हो, उन्हें निषेधवाचक वाक्य कहते हैं। इन्हें नकारात्मक वाक्य भी कहते हैं।

जैसे–
मैं आज नहीं जाऊँगा।

  • प्रश्नवाचक वाक्य – जिन वाक्यों में प्रश्न किया जाए अर्थात् किसी से कोई बात पूछी जाए, उन्हें प्रश्नवाचक वाक्य कहते हैं।

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जैसे–
क्या तुम आज ही वापस जाओगे।

  • विस्मयादिवाचक वाक्य – जिन वाक्यों से आश्चर्य (विस्मय), हर्ष, शोक, घृणा आदि के भाव व्यक्त हों, उन्हें विस्मयादिवाचक वाक्य कहते हैं।

जैसे–
अरे! शुभम् तुम!

  • आज्ञावाचक वाक्य – जिन वाक्यों से आज्ञा या अनुमति देने का बोध हो, उन्हें आज्ञावाचक वाक्य कहते हैं। जैसे तुम बाजार चले जाओ। इच्छावाचक वाक्य – वक्ता की इच्छा, आशा या आशीर्वाद को व्यक्त करने वाले वाक्य इच्छावाचक वाक्य कहलाते हैं।

जैसे–
मैं चाहता हूँ कि मैं भी कल तुम्हारे साथ ही घर चलूँ।

  • संदेहवाचक वाक्य – जिन वाक्यों में कार्य के होने में संदेह अथवा संभावना का बोध हो, उन्हें संदेहवाचक वाक्य कहते हैं।

जैसे–
शायद मैं देर से लौटूं।

  • संकेतवाचक वाक्य – जिन वाक्यों में एक क्रिया के दूसरी क्रिया पर निर्भर होने का बोध हो, उन्हें संकेतवाचक वाक्य कहते हैं। इन्हें हेतुवाचक वाक्य भी कहते हैं। इनसे कारण, शर्त आदि का बोध होता है।

जैसे–
अगर तुम मेरे साथ रहोगे तो मुझे सुविधा होगी।

2. रचना के आधार पर वाक्य के भेद-

(a) साधारण वाक्य – जिन वाक्यों में एक मुख्य क्रिया हो, उन्हें साधारण वाक्य कहते हैं।

जैसे–

  • शुभम् उनसे मिलने राजनगर गया।
  • बच्चे मैदान में खेल रहे हैं।
  • मोहन पुस्तकें खरीदकर घर से होता हुआ आपके पास पहुँचेगा।
  • इस गाँव के लोग कसरत के शौकीन हैं।
  • शिकारी ने वन में अपनी बन्दूक से एक बड़ा जंगली सुअर मारा।
  • लता मंगेशकर की बहन आशा भोंसले ने भी पार्श्वगायन में अपार ख्याति अर्जित की है।

ऊपर के सभी वाक्यों में मुख्य क्रिया एक ही है, जैसा कि वाक्यों से स्पष्ट है। आकार में छोटे – बड़े होते हुए भी रचना की दृष्टि से ये साधारण वाक्य हैं। इन्हें सरल वाक्य भी कहा जाता है।।

2. संयुक्त वाक्य – जहाँ दो या दो से अधिक उपवाक्य किसी समुच्चयबोधक (योजक) अव्यय शब्द से जुड़े होते हैं, वे संयुक्त वाक्य कहलाते हैं।

जैसे–

  • उसने एक छोर से दूसरे छोर तक बाजार का चक्कर लगाया किन्तु उसे कपड़ों की कोई अच्छी दुकान दिखाई नहीं दी।
  • हमने सुबह से शाम तक बाजार की खाक छानी, किन्तु काम नहीं बना।
  • इधर अध्यापक पहुँचे और उधर छात्र एक – एक करके खिसकने लगे।

ऊपर लिखे उदाहरणों में शब्दों ‘किंतु’, ‘और’, ‘या’, ‘इसलिए’ अव्यय शब्दों से जुड़े हुए हैं। यदि इन योजक अव्यय शब्दों को हटा दिया जाए तो प्रत्येक में दो – दो स्वतन्त्र वाक्य बनते हैं। योजकों की सहायता से जुड़े हुए होने के कारण इन्हें संयुक्त वाक्य कहते हैं।

3. मिश्र वाक्य – जिन वाक्यों की रचना एक से अधिक ऐसे उपवाक्यों से हुई हो, जिनमें एक प्रधान तथा अन्य वाक्य गोण हों, उन्हें मिश्र वाक्य कहते हैं।

जैसे–

  • अशोक ने बताया कि कल उसकी छुट्टी रहेगी।
  • श्याम लाल, जो गाँधी गली में रहता है, मेरा मित्र है।
  • हिरण ही एक ऐसा वन्य पशु है, जो कुलाँचें भरता है।
  • यह वही भारत देश है, जिसे कभी सोने की चिड़िया कहा जाता था।

ऊपरलिखित उदाहरणों में वाक्य के अंश गौण वाक्य हैं और दूसर अंश प्रधान वाक्य। अतः ये सभी मिश्र वाक्य के उदाहरण हैं।

वाक्य – परिवर्तन

  • अर्थ की दृष्टि से वाक्य में परिवर्तन।

आप पढ़ चुके हैं कि अर्थ की दृष्टि से वाक्य आठ प्रकार के होते हैं। इनमें से विधानवाचक वाक्य को मूल आधार माना जाता है। अन्य वाक्य भेदों में विधानवाचक वाक्य का मूलभाव ही विभिन्न रूपों में परिलक्षित होता है। किसी भी विधानवाचक वाक्य को सभी प्रकार के भावार्थों में प्रयुक्त किया जा सा है।

जैसे–

  1. विधानवाचक वाक्य – अशोक राजनगर में रहता है।
  2. विस्मयादिवाचक वाक्य – अरे! अशोक राजनगर में रहता है।
  3. प्रश्नवाचक वाक्य – क्या अशोक राजनगर में रहता है।
  4. निषेधवाचक वाक्य – अशोक राजनगर में नहीं रहता है।
  5. संदेहवाचक वाक्य – शायद अशोक राजनगर में रहता है।
  6. आज्ञावाचक वाक्य – अशोक तुम राजनगर में रहता है।
  7. इच्छावाचक वाक्य – काश, अशोक राजनगर में रहता।
  8. संकेतवाचक वाक्य – यदि अशोक राजनगर में रह सका है।

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कुछ अन्य उदाहरण
विधानवाचक अज्ञार्थक सार्थक में परिवर्तन के कुछ उदाहरण
पालक
विधानवाचक – शीला रोज पढ़ने आती है।
अज्ञार्थक – शीला’ तम रोज पढ़ने आया करो।

2. विधानवाचक – रमेश तो खेलने से रोका जाता है।
आज्ञार्थक – रमेश को खेलने से रोको।

विधानवाचक से प्रश्नवाचक और निषेधवाचक में परिवर्तन
1. विधानवाचक – वह जी खोलकर दान देता है।
प्रश्नवाचक – क्या वह जी खोलकर दान देता है?
निषेधवाचक – वह जी खोलकर दान नहीं देता।

2. विधानवाचक – पुलिस को देखते ही चोर भाग गए।
प्रश्नवाचक – क्या पुलिस को देखते ही चोर भाग गए?
निषेधवाचक – पुलिस को देखते ही चोर नहीं भागे।

3. विधानवाचक – राम स्कूल जाएगा।
प्रश्नवाचक – क्या राम स्कूल जाएगा?
निषेधवाचक – राम स्कूल नहीं जाएगा।

विधानवाचक से विस्मयादिवाचक में परिवर्तन
1. विधानवाचक – तुम आ गए हो!
2. विस्मयवाचक – अरे, तुम आ गए हो!

इच्छावाचक वाक्य से प्रश्नवाचक और निषेधवाचक वाक्य
1. इच्छवाचक – संसार में सब सुखी हो जाएँ।
2. प्रश्नवाचक – क्या संसार में सब सुखी हो जाएँ?
3. निषेधवाचक – संसार में सभी सुखी न हों।

विस्मयवाचक वाक्य से प्रश्नवाचक और निषेधवाचक वाक्य
1. विस्मयवाचक – वाह! तुमने तो कमाल कर दिया।
2. प्रश्नवाचक – तुमने कौन – सा कमाल कर दिया?
3. निषेधवाचक – तुमने कोई कमाल नहीं किया।

प्रश्नवाचक से विस्मयवाचक और निषेधवाचक में परिवर्तन
1. प्रश्नवाचक – क्या वह इतना मूर्ख है?
2. विस्मयवाचक – बाप रे, वह तो बड़ा मूर्ख है!
3. निषेधवाचक – वह इतना मूर्ख नहीं है।

निषेधवाचक तथा प्रश्नवाचक से विधानवाचक में परिवर्तन
1. प्रश्नवाचक – गाँधीजी का नाम किसने नहीं सुना?
2. विधानवाचक – गाँधीजी का नाम सबने सुना है।
3. निषेधवाचक – उसने कोई उपाय नहीं छोड़ा।
4. विधानवाचक – उसने सब उपाय छोड़ दिए।

साधारण वाक्यों का संयुक्त वाक्य में परिवर्तन-

संयुक्त वाक्य में एक से अधिक साधारण वाक्य विभिन्न योजकों द्वारा जुड़े रहते हैं। अतः दो बाक्यों को संयुक्त बनाते समय उन्हें किसी योजक से जोड़ देना चाहिए।

उदाहरणतया –
रात हुई।
तारे निकले।

संयुक्त वाक्य – रात हुई और तारे निकले।

यदि वाक्य दो से अधिक हों तो पहले उन्हें दो साधारण वाक्यों में बदल लेना चाहिए फिर किसी योजक से जोड़ देना चाहिए। यथा –
(क) दिन हुआ।
(ख) सूरज निकला।
(ग) ठण्ड नहीं रुकी।

संयुक्त वाक्य – दिन होने पर सूरज निकला परन्तु ठण्ड न रुकी।

अनेक साधारण वाक्यों का मिश्र वाक्य में परिवर्तन
→ मिश्र वाक्य में एक प्रधान उपवाक्य तथा एकाधिक आश्रित उच्चाक्य होते हैं। इसलिए पहले साधारण वाक्यों में से किसी एक उपवाक्य को प्रधान उपवाक्य के रूप में प्रयुक्त करना चाहिए तथा शेष उपवाक्यों को संज्ञा उपवाक्य, क्रिया – विशेषण उपवाक्य, विशेषण उपवाक्य आदि बनाकर योजकों की सहायता से यथास्थान प्रयुक्त करना चाहिए।

यथा –
(क) वह राजा प्रतापी था।
(ख) अब वह सत्तालोलुप हो गया है।
मिश्र वाक्य – वह राजा, जो प्रतापी था, अब सत्तालोलुप हो गया है।

उदाहरण
1. साधारण वाक्य से संयुक्त वाक्य

साधारण वाक्य – सयुक्त वाक्य
1. बालक रो – रोकर चुप हो गया। – 1. बालक रोता रहा और चुप हो गया।
2. मुझसे मिलने के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। – 2. मुझसे मिल लेना परन्तु प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
3. कठोर बनकर भी. सहृदय बनो। – 3. कठोर बनो परन्तु सहृदय रहो।
4. सूर्योदय होने पर पक्षी बोलने लगे। – 4. सूर्योदय हुआ और पक्षी बोलने लगे।
5. वह फल खरीदने के लिए बाजार गया। – 5. उसे फल खरीदने थे, इसलिए वह बाजार गया।

2. साधारण वाक्य से मिश्र वाक्य।

साधारण वाक्य – सयुक्त वाक्य
1. स्वावलंबी व्यक्ति सदा सुखी रहते हैं। – 1. जो व्यक्ति स्वावलंबी होते हैं, वे सदा सुखी रहते हैं।
2. धनी व्यक्ति हर चीज़ खरीद सकता – 2. जो व्यक्ति धनी है, वह हर चीज खरीद सकता है।
3. वह जूते खरीदने के लिए बाजार गया। – 3. क्योंकि उसे जूते खरीदने थे, इसलिए बाजार गया।
4. दंड क्षमा कराने के लिए प्रार्थना – पत्र लिखो। – 4. एक ऐसा पत्र लिखो, जिसमें दंड क्षमा कराने के लिए प्रार्थना हो।
5. तुम वहाँ चले जाओ, जहाँ गाड़ी रुकती है। – 5. तुम वहाँ चले जाओ, जहाँ गाड़ी रुकती है।

3. संयुक्त वाक्य से साधारण वाक्य
संयुक्त वाक्य – साधारण वाक्य
1. तुम बाहर गए और वह सो गया। – 1. तुम्हारे बाहर जाते ही वह सो गया।
2. यदि वह झूठ न बोलता, तो दंड न पाता। – 2. झूठ न बोलने पर वह दंड न पाता।
3. माँ ने मारा, तो बालक रूठ गया। – 3. माँ के मारने पर बालक रूठ गया।
4. शशि गा रही है और नाच रही है। – 4. शशि गा और नाच रही है।
5. मजदूर परिश्रम करता है लेकिन उसका लाभ उसे नहीं मिलता। – 5. मजदूर को अपनी मेहनत का लाभ नहीं मिलता।

4. मिश्र वाक्य से साधारण वाक्य
मिश्र वाक्य – साधारण वाक्य
1. सुषमा इसलिए स्कूल नहीं गई क्योंकि वह बीमार है। – 1. सुषमा बीमार है इसलिए स्कूल नहीं गई।
2. यदि आप उससे मिलना चाहते हैं तो द्वार पर प्रतीक्षा करें। – 2. आप उससे मिलना चाहते हैं इसलिए द्वार पर प्रतीक्षा करें।
3. मेरे पिताजी वे हैं जो पलंग पर लेटे हैं। – 3. मेरे पिताजी वे हैं जो पलंग पर लेटे हैं।
4. जो विद्यार्थी परिश्रमी होता है, वह अवश्य सफल होता है। – 4. जो विद्यार्थी परिश्रमी होता है, वह अवश्य सफल होता है।
5. संगम उस स्थान को कहते हैं, जहाँ दो नदियाँ आकर मिलती हैं। – 5. संगम उस स्थान को कहते हैं, जहाँ दो नदियाँ आकर मिलती हैं।

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5. संयुक्त वाक्य से मिश्र वाक्य
संयुक्त वाक्य – मिश्र वाक्य
1. नीरजा ने कहानी सुनाई और नमिता रो पड़ी। – 1. नीरजा ने ऐसी कहानी सुनाई कि नमिता रो पड़ी।
2. तुम महान हो क्योंकि सच बोलते हो। – 2. तुम इसलिए महान हो क्योंकि सच बोलते हो।
3. आपने कठिन परिश्रम किया और उत्तीर्ण हो गए। – 3. आप इसलिए उत्तीर्ण हो गए क्योंकि आपने कठिन परिश्रम किया।
4. मेरे पाठ्यक्रम में गोदान उपन्यास है, जिसके लेखक मुंशी प्रेमचन्द हैं। – 4. मेरे पाठ्यक्रम में गोदान नामक वह उपन्यास है जिसे प्रेमचन्द ने लिखा है।
5. वह बुद्धिमान है इसलिए उसे सोच – समझकर काम करना चाहिए। – 5. क्योंकि वह बुद्धिमान है, इसलिए उसे सोच – समझकर काम करना चाहिए।

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MP Board Class 11th General Hindi व्याकरण वाक्य अशुद्धि संशोधन

MP Board Class 11th General Hindi व्याकरण वाक्य अशुद्धि संशोधन

भावों की अभिव्यक्ति प्रायः दो प्रकार से होती है, एक-वाणी के द्वारा हम अपने विचारों को बोलकर प्रकट करते हैं तथा दूसरे-लेखनी द्वारा हम अपनी भावनाओं को लिपिबद्ध करते हैं। भावों को लिपिबद्ध करने के लिए आवश्यक है कि भाषा पर हमारा पूर्ण अधिकार हो अन्यथा अस्पष्ट, अशुद्ध भाषा के माध्यम से भावों का अर्थ स्पष्ट नहीं हो पाता।

भाषा को परिमार्जित, सशक्त और आकर्षक बनाने के लिए यह आवश्यक है कि हम प्रत्येक शब्द की आत्मा को समझें और उस पर अधिकार कर अपनी अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बना लें। मनुष्य मन के भावों को व्यक्त करने के लिए वाक्यों में शब्दों का उपयुक्त और क्रमबद्ध प्रयोग अत्यधिक आवश्यक है। उचित और अनुरूप शब्दों का चयन तथा उनका व्यवस्थित नियोजन सही और सुन्दर वाक्य रचना के मुख्य उपकरण हैं।

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संक्षेप में शुद्ध लेखन से आशय ऐसे लेखन से है जिसमें सार्थक और उपयुक्त शब्दावली का उपयोग हो। अलंकार, मुहावरों-लोकोक्तियों का विषय के अनुरूप उचित . प्रयोग हो। भाषा अस्वाभाविकता से दूषित न हो। वर्तनी व्याकरण के नियमों के अनुकूल हो और अभिव्यक्ति अपने आप में पूर्ण हो।

वाक्य अशुद्धि

1. क्रम दोष-वाक्य में प्रत्येक शब्द व्याकरण के नियम के अनुसार सही क्रम में होना चाहिए। कर्ता, क्रिया और कर्म को उपयुक्त स्थान पर रखना अत्यन्त आवश्यक है। मिश्र वाक्य में प्रधान वाक्य तथा उसके अन्य उपवाक्यों को ठीक क्रम में न रखने पर वाक्य अशुद्ध हो जाता है,
जैसे-
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2. पुनरुक्ति दोष-एक ही वाक्य में एक शब्द का एक से अधिक बार प्रयोग अथवा पर्यायवाची शब्द का प्रयोग भी दोषपूर्ण हो जाता है। यह आडम्बर की रुचि दर्शाता है,
जैसे-
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3. संज्ञा संबंधी दोष-अपने कथन को प्रभावशाली बनाने के लिए हम संज्ञा को प्रयुक्त करते समय उसके सही अर्थ से अनभिज्ञ होकर उसका अशुद्ध प्रयोग करते जाते हैं। ऐसे प्रयोग के द्वारा हमारे कथन का सही अर्थ भी स्पष्ट नहीं होता तथा भाषा दोषपूर्ण हो जाती है, जैसे-
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4. लिंग सम्बन्धी दोष-लिंग के प्रयोग में भी सामान्य रूप से अशुद्धि देखने को मिलती हैं, जैसे-
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5. वचन सम्बन्धी अशुद्धियाँ-वचन के प्रयोग में असावधानी बरतने के कारण भी वाक्य में अशुद्धि आ जाती है; जैसे-
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6. सर्वनाम सम्बन्धी अशुद्धियाँ-वाक्य रचना में सर्वनाम सम्बन्धी अनेक अशुद्धियाँ देखने को मिलती हैं। सर्वनाम का यथास्थान प्रयोग न करना, सर्वनाम का अधिक प्रयोग करना या गलत सर्वनामों का प्रयोग करना प्रायः देखा गया है; जैसे-
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7. विशेषण सम्बन्धी अशुद्धियाँ-वाक्यों में विशेषण सम्बन्धी अनेक अशुद्धियाँ देखने में आती हैं। विशेषणों के अनावश्यक अनुपयुक्त तथा अनियमित प्रयोग से वाक्य भद्दा व प्रभावहीन हो जाता है; जैसे-
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8. क्रिया सम्बन्धी अशुद्धियाँ-क्रियाओं सम्बन्धी अनेक अशुद्धियाँ देखने को मिलती हैं। जैसे क्रियापदों का अनावश्यक प्रयोग, आवश्यकता के समय प्रयोग न करना, अनुपयुक्त क्रियापद का प्रयोग, सहायक क्रिया में अशुद्धि तथा क्रियाओं में असंगति के कारण ये अशुद्धियाँ होती हैं।
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9. क्रिया-विशेषण सम्बन्धी अशुद्धियाँ-क्रिया-विशेषण सम्बन्धी अनेक अशुद्धियाँ। उनके अशुद्ध, अनुपयुक्त और अनियमित प्रयोग से दिखाई देती हैं, जैसे
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10. कारकीय परसों की अशुद्धियाँ-शुद्ध रचना के लिए कारकीय परसर्गों का समुचित प्रयोग करना आवश्यक है। सामान्य रूप से ‘ने’, ‘को’, ‘से’, ‘के ‘द्वारा’, ‘में’, ‘पर’, ‘का’, ‘की’, ‘के लिए’ आदि परसर्गों का गलत प्रयोग करने से वाक्य में अशुद्धि आती है। जैसे-
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11. मुहावरे सम्बन्धी अशुद्धियाँ-मुहावरे हमारी भाषा को सुन्दर, समृद्ध व प्रभावशाली बनाते हैं। इनका प्रयोग करते समय यह विशेष ध्यान रखना होता है कि इनका रूप विकृत और हास्यास्पद न हो। जैसे-
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