MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 11 जीने की कला

MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 11 जीने की कला

जीने की कला अभ्यास

जीने की कला अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
जीवमात्र किसका अवतार है?
उत्तर:
जीवमात्र ईश्वर का अवतार है, लेकिन लौकिक भाषा में सबको अवतार नहीं माना जाता है।

प्रश्न 2.
ईश्वर रूप हुए बिना मनुष्य को क्या नहीं मिलता? (2016)
उत्तर:
ईश्वर रूप हुए बिना मनुष्य को सुख नहीं मिलता एवं शान्ति का अनुभव नहीं होता।

प्रश्न 3.
गाँधीजी के अनुसार गीता में किस युद्ध का वर्णन किया गया है? (2017)
उत्तर:
गाँधीजी के अनुसार गीता में महाभारत के युद्ध का वर्णन किया गया है।

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प्रश्न 4.
हृदय में भीतर के युद्ध को रसप्रद बनाने के लिए की गई कल्पना क्या है?
उत्तर:
हृदय में भीतर के युद्ध को रसप्रद बनाने के लिए हृदय-मन्थन, अर्थात् ज्ञान प्राप्त कर भक्त बनकर आत्मदर्शन की कल्पना की गई है।

प्रश्न 5.
महात्मा गाँधीजी की दृष्टि में निषिद्ध क्या है?
उत्तर:
महात्मा गाँधीजी की दृष्टि में फलासक्ति ही निषिद्ध है।

जीने की कला लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
महाभारत के ऐतिहासिक पात्रों का उपयोग व्यास ने किस हेतु के किया है?
उत्तर:
महाभारत के रचयिता मुनि वेदव्यास ने अपने महाभारत महाकाव्य में ऐतिहासिक पात्रों का प्रयोग किया है क्योंकि महाभारत का युद्ध ऐतिहासिक है तथा युद्धभूमि कुरुक्षेत्र भी इतिहास प्रसिद्ध स्थान है। ऐसे में पात्रों का भी ऐतिहासिक होना अनिवार्य था। इस ऐतिहासिक घटना को प्रमाणित करने तथा कृष्ण के उपदेश को भी सत्यता की कसौटी पर खरा उतारने के लिए ऐतिहासिक पात्रों का होना अनिवार्य था। अतः व्यास का यही हेतु था।

प्रश्न 2.
पात्रों की अमानुषी और अतिमानुषी उत्पत्ति का वर्णन करके व्यास ने किस उद्देश्य की पूर्ति की है?
उत्तर:
गीता का निष्काम कर्म तथा फलासक्ति जैसा सिद्धान्त एक अमानुषी मस्तिष्क की उपज हो सकती है तो उस सिद्धान्त को समझने के लिए भी ऐसा ही अमानुषी पात्र चाहिए था। इसी कारण कृष्ण ने समस्त ब्रह्माण्ड की रचना करके उन्हें (कृष्ण को) अतिमानुषी बताया। जिसे देखकर अर्जुन निष्काम कर्म के तत्त्व को समझा। रचनाकार का जो उद्देश्य था कि संसार को निष्काम कर्म में संलग्न कर मोह से छुड़ाया जाए, वह पूरा हुआ।

प्रश्न 3.
गीता की शिक्षा का आचरण करने वाले मनुष्य का स्वभाव कैसा होता है? (2014)
उत्तर:
गाँधीजी ने बताया है कि गीता की शिक्षा का आचरण करने वाले मनुष्य को स्वभाव से ही सत्य और अहिंसा का पालन करना पड़ता है। गीता की शिक्षा है जो कर्म आसक्ति के बिना हो ही न सकें वे सब कर्म छोड़ने लायक हैं।’ यह सुवर्ण नियम मनुष्य को कई धर्म संकटों से बचाता है। अतः मनुष्य झूठ, हत्या, असत्य को त्यागने वाला बन जाता है, जिससे उसका जीवन सरल तथा शान्तिपूर्ण बन जाता है।

प्रश्न 4.
रीति को दृष्टि में रखकर गीता के मूलमन्त्र का जिज्ञासु क्या कर सकता है?
उत्तर:
गीता सूत्र ग्रन्थ न होकर एक महान ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के भावों की गहराई में हम जितना उतरेंगे उतने ही उसमें से नए और सुन्दर अर्थ निकलेंगे। गीता जनसमाज के लिए है, अतः गीता में आए हुए महान शब्दों के अर्थ सदैव बदलेंगे। अर्थ व्यापक भी बनेंगे। परन्तु गीता का मूलमन्त्र कभी नहीं बदलेगा। गीता का मूलमन्त्र है-कर्म के फल में आसक्ति न होना तथा आत्मदर्शन करना। यह मन्त्र जिस रीति से जीवन में अपनाया जा सके उस रीति को दृष्टि में रखकर जिज्ञासु गीता के महाशब्दों का मनचाहा अर्थ कर सकता है।

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प्रश्न 5.
अवतार का क्या अर्थ है?
उत्तर:
अवतार का अर्थ है-शरीरधारी विशिष्ट पुरुष। सभी जीवमात्र ईश्वर के अवतार हैं, परन्तु सामान्य भाषा में समस्त जीवों को अवतार नहीं कहते। जो प्राणी (पुरुष) अपने युग में सर्वश्रेष्ठ धर्मवान पुरुष होता है, उसे आने वाली पीढ़ी अवतार के रूप में पूजती है क्योंकि उस अवतार रूपी प्राणी में कोई दोष नहीं होता है। इस प्रकार दोष रहित धर्मवान पुरुष ही अवतार होता है।

जीने की कला दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
गीता के अध्ययन से गाँधीजी को क्या अनुभूति हुई?
उत्तर:
गीता के अध्ययन से गाँधीजी को अनुभव हुआ कि गीता में मोक्ष और सांसारिक व्यवहार के बीच कोई भेद नहीं है, परन्तु धर्म को व्यवहार में उतारा गया है। अतः आसक्ति से किया कर्म छोड़ देने लायक है। गीता “आसक्ति त्यागने” को कहती है गीता की इस शिक्षा का आचरण करने वाला व्यक्ति स्वभाव से ही सत्य व अहिंसा का पालन करने लग जाता है, झूठ व लालच से दूर रहने लगता है तब उसके जीवन में सरलता व शान्ति आ जाती है। इसके विपरीत हिंसा या असत्य के पीछे परिणाम की इच्छा रहती है, अतः फलासक्ति में मनुष्य की रुचि बढ़ जाती है, जिससे वह हत्या, झूठ, व्यभिचार में रुचि लेने लगता है। अत: गाँधीजी ने अनुभव किया कि अनासक्ति व फलासक्ति के अभाव में कर्म करना ही मोक्ष है। इसी कारण गाँधीजी ने फलासक्ति को निषिध कहा है। गाँधीजी के अनुसार गीता की रचना परिवार के मामूली झगड़े निपटाने के लिए नहीं बल्कि प्राणी को स्थित प्रज्ञ व्यवहार हेतु हुई है।

प्रश्न 2.
आत्म दर्शन से सम्बन्धित गाँधीजी का दृष्टिकोण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
आत्मदर्शन से सम्बन्धित गाँधीजी का दृष्टिकोण है कि मनुष्य को सुख व शान्ति पाने के लिए ईश्वर रूप बनना होगा। ईश्वर रूप बनने के लिए किए जाने वाले प्रयत्न का ही नाम सच्चा और एकमात्र पुरुषार्थ है और वही आत्मदर्शन है। आत्मदर्शन का अर्थ है-आत्मा के बारे में निरूपण करने वाला शास्त्र। आत्मा के बारे में निरूपण करना समस्त धर्म ग्रन्थों का विषय है। ठीक उसी प्रकार गीता भी आत्मा के बारे में निरूपण करती है अर्थात् आत्मदर्शन के विषय में बताती है।

गाँधीजी कहते हैं कि गीताकार ने आत्मदर्शन का प्रतिपादन करने के लिए गीता की रचना नहीं की। बल्कि गीता आत्मा को पाने के लिए उत्सुक प्राणी को आत्मा का स्वरूप बताती है। आत्मा को पहचानने का एक अनोखा उपाय कर्म के फल का त्याग है। प्रत्येक कर्म में दोष होता है, उस दोष को मन, वचन और काया से ईश्वर को अर्पित करके अर्थात् कर्म के फल का त्याग करके दूर किया जा सकता है। साथ ही, उस कर्म के फल-त्याग में हृदय मन्थन भी हो। अतः संक्षिप्त रूप में गाँधीजी ने कहा है कि ज्ञान प्राप्त करना, भक्त होना ही आत्म-दर्शन है।

प्रश्न 3.
गाँधीजी के अनुसार गीता का उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
गाँधीजी के अनुसार गीता का उद्देश्य आत्मार्थी को आत्मदर्शन करने का एक अद्वितीय उपाय बताना तथा आत्मा को पाने के लिए उत्सुक प्राणी को आत्मा के स्वरूप का ज्ञान कराना है। इस आत्मदर्शन को प्राप्त करने का अद्वितीय उपाय है कर्म के फल का त्याग। इसी केन्द्र बिन्दु के आस-पास गीता का सारा विषय गाँथा गया है। देह कर्म से मुक्त नहीं हो सकती और कर्म दोष से मुक्त नहीं हो सकता, दोष से मुक्त हुए बिना मुक्ति (मोक्ष) नहीं मिल सकती।

तब मुक्ति पाने के लिए इस दोष से कैसे छूटा जा सकता है? इस प्रश्न का उत्तर गीता ने दिया है-“निष्काम कर्म करके, यज्ञार्थ कर्म करके, कर्म के फल का त्याग करके, सारे कर्म मन, वचन और काया से ईश्वर को अर्पित करके” कर्म को दोष मुक्त किया जा सकता है। इस क्रिया में केवल बुद्धि ही नहीं बल्कि हृदय-मन्थन भी आवश्यक है। इस प्रकार किए गए कर्म से मनुष्य को सिद्धि मिलती है। यही कर्म प्राणी का धर्म और मोक्ष है। इसी मोक्ष की प्राप्ति करना गीता का उद्देश्य है।

प्रश्न 4.
गाँधीजी ने फल त्यागी किसे कहा है?
उत्तर:
गीता में आत्मदर्शन का उपाय बताया गया है-कर्म के फल का त्याग। जो व्यक्ति कर्म के फल का त्याग करता है वही फल-त्यागी है। कर्म के फल का त्याग केवल कह देने से नहीं होता, बुद्धि या बुद्धि के प्रयोग से नहीं होता। वह हृदय-मन्थन से ही होता है। हृदय-मन्थन किए कर्म से ही सिद्धि मिलती है। दूसरी ओर फल त्याग का अर्थ कर्म के परिणाम के विषय में लापरवाह रहना भी नहीं है।

परिणाम का और साधना का विचार करना तथा दोनों का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है। इतना करने के बाद जो मनुष्य परिणाम की इच्छा किए बिना साधन में तन्मय रहता है, वह फलत्यागी कहा जाता है। गीताकार ने कर्मफल के त्याग का सिद्धान्त संसार के सामने रखा है। यह स्वर्णिम नियम मनुष्य को अनेक धर्म संकटों से बचाता है। झूठ, असत्य जैसी बुराइयों से बचाता है। अत: गाँधीजी के अनुसार कर्म के फल को त्यागने वाला ही फलत्यागी है।

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प्रश्न 5.
गीताकार ने किस भ्रम को दूर कर दिया है?
उत्तर:
गीताकार ने धर्म और अर्थ के परस्पर विरोधी भ्रम को दूर कर दिया है। सामान्यतः यह माना जाता है कि धर्म और अर्थ परस्पर विरोधी हैं। “व्यापार आदि सांसारिक व्यवहारों में धर्म का पालन नहीं हो सकता, धर्म के लिए स्थान नहीं हो सकता। धर्म का उपयोग केवल मोक्ष के लिए ही किया जा सकता है। धर्म के स्थान पर धर्म शोभा देता है, अर्थ के स्थान पर अर्थ शोभा देता है।” गाँधीजी कहते हैं कि गीताकार ने इस भ्रम को दूर कर दिया है। उन्होने मोक्ष और सांसारिक व्यवहार के बीच ऐसा कोई भेद नहीं रखा है; परन्तु धर्म को व्यवहार में उतारा है। गीता कहती है “जो धर्म व्यवहार में नहीं उतारा जा सकता वह धर्म ही नहीं है।” इस प्रकार गीताकार ने मोक्ष और सांसारिक व्यवहार के बीच के भेद को आसक्ति रहित कर्म के द्वारा दूर कर दिया है।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित पंक्तियों का भाव पल्लवन कीजिए
(क) “जहाँ देह है वहाँ कर्म तो है ही।”
उत्तर:
‘महात्मा गाँधी’ ने ‘जीने की कला’ निबन्ध में गीता के अनासक्ति कर्म की व्याख्या की है। गाँधीजी ने कहा है कि देहधारी प्राणी की आत्मा उसका कर्म है। इस संसार में जन्म लेने वाला प्राणी एक पल भी बिना कर्म के नहीं रह सकता। कर्म से कभी भी मनुष्य को मुक्ति नहीं मिल सकती। जब मनुष्य सोता है तब भी वह साँस लेने, स्वप्न देखने आदि का कर्म करता रहता है तो जागने की अवस्था में वह भला बिना कर्म के कैसे रह सकता ह? अतः कर्म ही मनुष्य की जीवित अवस्था का प्रमाण है।

(ख) “कर्म के बिना किसी को सिद्धि प्राप्त नहीं हुई।”
उत्तर:
‘जीने की इच्छा’ निबन्ध में महात्मा गाँधी’ ने बताया है कि निष्काम कर्म करने से मनुष्य नर से नरश्रेष्ठ बन जाता है। गीता ने ज्ञानियों, भक्तों तथा नर को कर्म करने का सन्देश दिया है। साथ ही गीताकार ने कहा है कि कर्म से ही सिद्धि प्राप्त होती है। सिद्धि का अर्थ है आत्मा की मुक्ति। कहा गया है कि बिना कर्म के शक्तिशाली शेर तक के मुँह में हिरन नहीं जाता तो आत्मा की सिद्धि के लिए आसक्ति रहित कर्म करना अनिवार्य है। कर्म सिद्धि का पर्याय है।

जीने की कला भाषा अध्ययन

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों की शुद्ध वर्तनी लिखिएगिता, ऐतिहसिक, धरम, फलसक्ति, सुत्रग्रन्थ।
उत्तर:
गिता = गीता। ऐतिहसिक = ऐतिहासिक। धरम = धर्म। फलसक्ति = फलासक्ति। सुत्रग्रन्थ = सूत्रग्रन्थ।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित शब्दों को वाक्यों में प्रयोग कीजिएविश्वास, अहिंसा, चिन्तन-मनन, अभिलाषा, स्वभाव।
उत्तर:

  1. विश्वास – अवतार में विश्वास करना प्राणी की उदात्त आध्यात्मिक अभिलाषा का सूचक है।
  2. अहिंसा – सत्य और अहिंसा बापू के शस्त्र थे।
  3. चिन्तन – मनन-भगवद्गीता में निष्काम कर्म पर चिन्तन-मनन किया गया है।
  4. अभिलाषा – मनुष्य की अन्तिम उदात्त आध्यात्मिक अभिलाषा मुक्ति दिलाती है।
  5. स्वभाव – क्रोधी स्वभाव का व्यक्ति कभी विनम्र नहीं होता है।

प्रश्न 3.
दिए गए शब्दों के विलोम शब्द लिखिएउत्पत्ति, निरर्थकता, सच्चा, विधि-निषिद्ध।
उत्तर:
MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 11 जीने की कला img-1

प्रश्न 4.
रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए

  1. महाभारत में ………….. सर्वोच्च स्थान पर विराजती है।
  2. अद्वितीय उपाय है …………. के फल का त्याग।
  3. गीता का ………… आत्मदर्शन करने का एक अद्वितीय उपाय बताना है।

उत्तर:

  1. गीता
  2. कर्म
  3. उद्देश्य आत्मार्थी को।

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प्रश्न 5.
निम्नलिखित वाक्यांश के लिए एक शब्द लिखिए
उत्तर:

  1. संसार से सम्बन्धित = सांसारिक
  2. दोष से मुक्त = निर्दोष
  3. काम से रहित = निष्काम
  4. जानने की इच्छा रखने वाला = जिज्ञासु
  5. धर्म का पालन करने वाला = धर्मवान।

जीने की कला पाठ का सारांश

श्रीमद्भगवतगीता को ‘गीता मैया’ कहने वाले महात्मा गाँधी ने ‘जीने की कला’ निबन्ध में मानव बुद्धि को व्यावहारिक बनाने का सूत्र बताने के लिए गीता को आधार माना है। संसार में बुद्धि दो प्रकार की होती है-भौतिक तथा स्थित प्रज्ञ। गीता में स्थित प्रज्ञ बुद्धि को श्रेष्ठ माना है। गीता की रचना पारिवारिक झगड़े निपटाने या अवतारवाद की स्थापना के लिए नहीं हुई। समस्त धर्म ग्रन्थों तथा गीता का विषय आत्म दर्शन है परन्तु कृष्ण कृत गीता आत्म-दर्शन करने के लिए; एवं आत्म-दर्शन करने का उपाय बताती है।

वह अद्वितीय उपाय है, कर्म के फल का त्याग। देहधारी कर्म से मुक्त नहीं हो सकता और कर्म में दोष अवश्य होते हैं। कर्म में दोष न होने का अर्थ है ‘निष्काम कर्म करके, यंज्ञार्थ कर्म करके, कर्म के लिए फल का त्याग करके, सारे कर्म कृष्णार्पण करके अर्थात् मन, वचन और काया को ईश्वर में होम करके।’ यह निष्कामता स्थिर बुद्धि तथा हृदय-मन्थन से ही उत्पन्न होती है, गीता में इसी को आत्म-दर्शन कहा गया है। परिणाम की इच्छा किए बिना साधना (कर्म) में लीन रहना ही फल का त्याग है। फल के त्याग का अर्थ कर्म के परिणाम के प्रति लापरवाह होना नहीं है।

गीता में दूसरी बात बताई गई है कि धर्म और अर्थ परस्पर विरोधी नहीं हैं। व्यापार आदि सांसारिक व्यवहारों में धर्म का पालन नहीं हो सकता, धर्म का उपयोग केवल मोक्ष के लिए ही किया जा सकता है। परन्तु गीताकार ने इस भ्रम को दूर कर दिया है। उन्होंने मोक्ष और सांसारिक व्यवहार के बीच ऐसा कोई भेद नहीं रखा है, परन्तु धर्म को व्यवहार में उतारा है। अतः जो कर्म अनासक्ति यानि लगाव रहित न हो उसे त्याग देना चाहिए। यह स्वर्णिम नियम मनुष्य को अनेक धर्म संकटों, जैसे हत्या, झूठ, व्यभिचार आदि से बचाता है। इससे जीवन सरल बन जाता है और सरलता से शान्ति मिलती है और गीता की इसी शिक्षा को अपनाने वाले मनुष्य स्वभाव से सत्य और अहिंसा का पालन करते हैं।

गीता सूत्र ग्रन्थ न होकर समाज के लिए एक महान ग्रन्थ है जिसमें जितना डूबेंगे उतने ही अर्थ मिलेंगे। साथ ही ये अर्थ प्रत्येक युग में बदलेंगे तथा व्यापक बनेंगे। लेकिन मूल मन्त्र कभी नहीं बदलेगा। इसीलिए गीता करने योग्य और न करने योग्य कर्म बताने वाला संग्रह-ग्रन्थ भी नहीं है क्योंकि जो कर्म एक के लिए मान्य है वह दूसरे के लिए अमान्य हो सकता है। उसी प्रकार एक काल या एक देश में जो कर्म विहित है वह दूसरे देश तथा दूसरे काल में अमान्य हो सकता है। अतः फलासक्ति निषिद्ध है और अनासक्ति विहित है। इसीलिए गीता नर को नरश्रेष्ठ बनने का मार्ग दिखाती है, जीने की कला सिखाती है।

जीने की कला कठिन शब्दार्थ

सर्वोच्च = सबसे ऊँचा। भौतिक-सांसारिक। स्थित प्रज्ञ- स्थिर बुद्धि वाला। औचित्य = उचित। अनौचित्य = अनुचित। लौकिक = सांसारिक। उदात्त = उदार। आत्म-दर्शन = आत्मा के बारे में निरूपण करने वाला शास्त्र। प्रतिपादन = स्थापित। आत्मार्थी = आत्मा को पाने के लिए उत्सुक। अद्वितीय = अनोखा। देह = शरीर। मुक्त = स्वतन्त्र। काया = शरीर। निष्काम कामना से रहित। हृदय-मन्थन = मन में अच्छे-बुरे की पहचान । सिद्धि = सफलता। तन्मय = लीन। फलासक्ति = फल में लगाव। अनासक्ति = आसक्ति रहित, लगाव रहित। आसक्ति = लगाव। सुवर्ण = सुन्दर। त्याज्य = छोड़ने योग्य। सूत्र = नियम। साधा = अपनाया। जिज्ञासु = जानने की इच्छा रखने वाला। विहित = मान्य, अनिवार्य। निषिध = अमान्य। अमानुषी = जो मनुष्य से सम्बन्धित न हो। अतिमानुषी = मानव धर्म से परे सिद्धि देवी।

जीने की कला संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

1. अवतार का अर्थ है शरीरधारी विशिष्ट पुरुष। जीवमात्र ईश्वर के अवतार हैं, परन्तु लौकिक भाषा में सबको अवतार नहीं कहते। जो पुरुष अपने युग में सबसे श्रेष्ठ धर्मवान पुरुष होता है, उसे भविष्य की प्रजा अवतार के रूप में पूजती है। इसमें मुझे कोई दोष नहीं मालूम होता।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के जीने की कला’ नामक पाठ से अवतरित है। यह पाठ महात्मा गाँधी की पुस्तक ‘गीता माता से संग्रहीत एवं सम्पादित है।

प्रसंग :
लेखक ने गीता की रचना का कारण बताते हुए उस विशिष्ट पुरुष की कल्पना की है जो निर्दोष होने के कारण अवतार कहा जाता है।

व्याख्या :
शरीरधारी पुरुषों में जो पुरुष विशेष होता है, उसे अवतार कहते हैं। इस संसार में जितने भी प्राणी हैं, वे सब ईश्वर के अवतार हैं अर्थात् भगवान की एक महान रचना है। परन्तु संसार में सारे प्राणियों को अवतार नहीं कहते। संसार उस प्राणी को अवतार मानता है जो सब प्राणियों से अलग होता है। कुछ अनोखे-अनुपम कार्य करता है, धर्म का पालनकर्ता होता है, चरित्रवान होता है, उसके प्रति सबके मन में श्रद्धा होती है, समाज के लिए भलाई करता है अर्थात् हर दृष्टि से सबका प्रिय होता है, वही व्यक्ति भविष्य में अवतार माना जाता है। अपने समय में उसे श्रेष्ठ पुरुष माना जाता है। उस श्रेष्ठ पुरुष में कोई भी बुराई नहीं होती। अवतार सदैव अवगुणों से दूर रहता है। अवतार सर्वगुण सम्पन्न होता है। उसकी बुराई करने वाला कोई नहीं होता।

विशेष :

  1. भाषा सरल, बोधगम्य एवं प्रभावपूर्ण खड़ी बोली है।
  2. विशिष्ट, श्रेष्ठ, लौकिक जैसे संस्कृत के शब्दों का प्रयोग है।
  3. व्याख्यात्मक शैली है।
  4. लघु वाक्य सूत्र जैसे प्रतीत होते हैं।

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2. मुक्ति केवल निर्दोष मनुष्य को ही मिलती है। तब कर्म के बंधन से अर्थात् दोष के स्पर्श से कैसे छूटा जा सकता है? इस प्रश्न का उत्तर गीता जी ने निश्चयात्मक शब्दों में दिया है। ‘निष्काम कर्म करके, यज्ञार्थ कर्म करके, कर्म के फल का त्याग करके, सारे कर्म कृष्णार्पण करके अर्थात् मन, वचन और काया को ईश्वर में होम कर।’

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
देह के साथ कर्म और कर्म के साथ दोष जुड़ा है, अतः इस दोष को दूर करके मोक्ष मिलता है। गीता में दोष दूर करने का उपाय बताया है कि बिना फल की इच्छा से कर्म करना ही दोषमुक्त होता है।

व्याख्या-गाँधीजी कहते हैं कि इस संसार में जन्म लेकर प्रत्येक व्यक्ति को कर्म करना पड़ता है। कर्मों में दोष होता है। इन्हीं दोषों के कारण मनुष्य को मुक्ति नहीं मिलती। प्राणी इसी कारण कर्म के बन्धन में बँधता चला जाता है। इस कर्म के बन्धन से मुक्त होने का उपाय या निर्दोष कर्म अपनाने का तरीका गीता बताती है। गीता में बताया गया है कि निष्काम कर्म, अर्थात् बिना किसी फल की इच्छा से किया गया कर्म मुक्ति दिलाता है। कर्म के फल का त्याग करके अर्थात् अपने समस्त कार्य कृष्णार्पण अर्थात् मन, वचन और काया को ईश्वर को अर्पित करके, भले-बुरे फल की कामना न करके, निरन्तर कर्म करते रहने से सांसारिक बंधन टूट जाते हैं और आत्मा मुक्त हो जाती है। इसी आत्म-दर्शन को गाँधीजी गीता का मूल मानते हैं।

विशेष :

  1. संस्कृत शब्दावली युक्त खड़ी बोली।
  2. प्रश्नोत्तर व सूत्रात्मक शैली का प्रयोग है।
  3. भावों की गहनता व बोधगम्यता है।
  4. होम कर’ जैसे मुहावरे का प्रयोग है।

3. गीता के मत के अनुसार जो कर्म आसक्ति के बिना हो ही न सकें वे सब त्याज्य हैं-छोड़ देने लायक हैं। यह सुवर्ण नियम मनुष्य को अनेक धर्म संकटों से बचाता है। इस मत के अनुसार हत्या, झूठ, व्यभिचार आदि कर्म स्वभाव से ही त्याज्य हो जाते हैं। इससे मनुष्य जीवन सरल बन सकता है और सरलता से शांति का जन्म होता है।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
राष्ट्रपिता गाँधी के अनुसार गीता में बताया गया है कि आसक्ति से मुक्त कर्म ही धर्म है। व्यवहार में लाया जाने वाला धर्म ही सच्चा धर्म है। यही धर्म हमें अमानुषिक कर्मों से बचाता है।

व्याख्या :
गीता में एक शब्द आता है आसक्ति, जिसका अर्थ होता है लगाव। गीता में बताया गया है कि जिस कर्म में आसक्ति होती है अर्थात् कर्म में लगाव या मोह होता है, उस कर्म को त्यागना ही मनुष्य का धर्म है। आसक्ति के बिना किया गया कर्म, मनुष्य को धर्म संकटों से बचाता है। श्रेष्ठ फल देने वाले कर्म को मनुष्य करना चाहता है। आसक्ति से रहित होकर मनुष्य जब कर्म करता है तो वह अनेक सांसारिक बुराइयों; जैसे-झूठ, दुराचार, हत्या इत्यादि से बच जाता है और वह स्वभाव से सत्य और अहिंसा का पालन करने वाला बन जाता है। जब मनुष्य आसक्तिपूर्ण कर्म को त्याग देता है तब उसका मन परिणाम के लिए बेचैन नहीं होता जिससे जीवन में सन्तोष व शान्ति का आगमन होता है, सन्तोष मन को शान्ति देता है। जीवन में सरलता व शान्ति के आने पर मनुष्य का व्यवहार तथा आचरण बहुत ही कोमल व साफ-सुथरा हो जाता है जिससे मुक्ति का मार्ग खुल जाता है।

विशेष :

  1. तत्सम शब्दों के साथ खड़ी बोली का प्रयोग है।
  2. विचारात्मक तथा व्याख्यात्मक शैली।
  3. मनुष्य को आसक्ति से दूर रहने का उपदेश।

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MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 10 मेरे बचपन के दिन

MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 10 मेरे बचपन के दिन

मेरे बचपन के दिन अभ्यास

मेरे बचपन के दिन अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
महादेवी वर्मा ने अपने बचपन में सबसे पहली कौन-सी पुस्तक पढ़ी? (2016)
उत्तर:
महादेवी वर्मा ने अपने बचपन में पहली पुस्तक पंचतन्त्र पढ़ी।

प्रश्न 2.
छात्रावास में महादेवी वर्मा की पहली साथिन कौन थी?
उत्तर:
छात्रावास में महादेवी वर्मा की पहली साथिन सुभद्रा कुमारी चौहान थीं।

प्रश्न 3.
लेखिका के भाई का नामकरण किसने किया था?
उत्तर:
लेखिका के भाई का नामकरण “जवारा” की बेगम साहिबा, जिनको वह ताई कहती थी, उन्होंने किया।

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मेरे बचपन के दिन लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
पुरस्कार में मिले चाँदी के कटोरे को देखकर लेखिका को दुःख के साथ-साथ प्रसन्नता क्यों हुई?
उत्तर:
पुरस्कार में मिले चाँदी के कटोरे को देखकर लेखिका को दुःख के साथ प्रसन्नता इस कारण हुई क्योंकि उपहार में मिला चाँदी का कटोरा बापू ने ले लिया था, दुःख इस कारण हुआ क्योंकि उन्होंने कविता सुनाने के लिये नहीं कहा था। इस प्रकार लेखिका को दु:ख व प्रसन्नता की अनुभूति साथ-साथ हुई।

प्रश्न 2.
लेखिका और सहेलियाँ अपने जेब खर्च के पैसे क्यों बचाती थीं?
उत्तर:
लेखिका और उनकी सहेलियाँ अपने जेब खर्च के पैसे देश के लिए बचाती थीं और जब बापू आते थे तब वह पैसा उन्हें दे देती थीं।

प्रश्न 3.
लेखिका की ताई साहिबा उनके भाई के जन्म पर कपड़े लेकर क्यों आई थीं? (2014)
उत्तर:
लेखिका की ताई साहिबा उनके भाई के जन्म पर कपड़े इसलिए लाईं, क्योंकि छोटे बच्चों को माँ के यहाँ के कपड़े पहनाते हैं। यदि माँ न हो तो ताई या चाची छ: महीने तक बच्चे को कपड़े पहनाती हैं। इसी कारण ताई साहिबा उनके भाई के जन्म पर कपड़े लेकर आयीं थीं।

मेरे बचपन के दिन दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
लेखिका ने अपनी माँ की किन विशेषताओं का उल्लेख किया है?
उत्तर:
लेखिका ने अपनी माँ की निम्नलिखित विशेषताओं का वर्णन किया है-
(1) आदर्श महिला-महादेवी वर्मा की माँ एक आदर्श महिला थीं। वे परिवार व बच्चों के प्रति जागरूक थीं। बच्चों की प्रत्येक गतिविधि को स्वयं देखती थीं। महादेवी वर्मा की शिक्षा में सबसे अधिक उनकी माँ का ही सहयोग था क्योंकि महादेवी को संस्कृत में रुचि थी। इस कार्य में उन्हें अपनी माँ के द्वारा सहायता मिल जाती थी।

(2) धर्मपरायण-महादेवी वर्मा की माँ धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। सुबह होते ही वे गीता पढ़ती थीं। इसके अतिरिक्त वे मीरा के भजन भी गाती थीं। इसी कारण महादेवी वर्मा को बचपन से ही काव्यमय वातावरण मिला। अपनी माँ के साथ-साथ महादेवी वर्मा भी गाते-गाते तुकबन्दी करना सीख गयी थीं। महादेवी वर्मा को आगे बढ़ने में उनकी माँ से प्रेरणा मिली।

(3) आदर्श माँ-महादेवी वर्मा को अपनी माँ के रूप में आदर्श शिक्षिका मिल गयी थी, क्योंकि महादेवी वर्मा को जब मौलवी साहब पढ़ाने के लिये आते थे वे चारपाई के नीचे छिप जाती थीं, लेकिन अपनी माँ के द्वारा लायी गयी पुस्तक ‘पंचतन्त्र’ उन्हें बहुत अच्छी लगी। उन्होंने सबसे पहले इसी पुस्तक को पढ़ा। इसके अतिरिक्त जब भी कभी कोई कविता लिखती वे अपनी माँ को अवश्य सुनाती थीं। माँ लेखिका को भाई व परिवार के अन्य सदस्यों से प्रेमपूर्ण व्यवहार करने को कहती थी। माँ को जातिगत भेदभाव तनिक भी पसन्द न था।

(4) उत्तम संस्कार-महादेवी वर्मा ने माँ के उत्तम संस्कारों के विषय में इस प्रकार कहा “जब मैं विद्यापीठ आई तब तक मेरे बचपन का वही क्रम जो आज तक चलता आ रहा है। कभी-कभी बचपन के संस्कार ऐसे होते हैं कि हम बड़े हो जाते हैं, तब तक चलते हैं।” वे अपनी माँ के सानिध्य में अधिक रहती थीं अत: माँ के संस्कारों से प्रभावित थीं।

(5) सबके प्रति अपनत्व की भावना-माँ मानवता के उच्च धरातल पर प्रतिष्ठित थीं। इसी कारण जब बेगम साहिबा उनके घर आती थीं तो उनको पूरा सम्मान देकर ताई कहकर बुलाती थीं। यहाँ तक महादेवी की माँ ने बेगम साहिबा द्वारा रखा गया उनके भाई का नाम हमेशा के लिए मनमोहन ही रखा। इस प्रकार उनकी माँ ने कभी अपने-पराये का भेद न रखा।

बेगम साहिबा के एक बेटा भी था जब राखी का त्यौहार आता था तब वे महादेवी वर्मा से इस प्रकार कहती थीं, “बहनों को राखी बाँधनी चाहिए, राखी के दिन सवेरे से पानी भी नहीं पीने देती थीं।”

निष्कर्ष में कह सकते हैं महादेवी की माँ एक ऐसी उच्च संस्कारों से सम्पन्न महिला थीं जो समाज को अपने स्नेह सम्बन्धों से एकता के सूत्र में बाँधने की इच्छुक थीं। मानव-मानव के मध्य धर्म, सम्प्रदाय एवं जातिगत दीवार खड़ी करने की घोर विरोधी थी। उनका चरित्र आधुनिक महिलाओं के लिये एक अनुकरणीय उदाहरण है।

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प्रश्न 2.
लेखिका के बचपन के दिनों के सामाजिक तथा भाषायी वातावरण का चित्रण कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक वातावरण-लेखिका के बचपन के दिनों में समाज का वातावरण अच्छा था। घर में तथा परिवार में आपस में प्रेम था। लोगों में आपसी सम्बन्ध सगे-सम्बन्धियों की भाँति थे। लेन-देन और व्यवहार में अपनत्व की भावना थी। निम्नलिखित उदाहरण में देखें-

“बेगम साहिबा कहती थीं ‘हमको ताई कहो !’ हम लोग उन्हें ‘ताई साहिबा’ कहते थे। उनके बच्चे हमारी माँ को चाचीजान कहते थे। हमारे जन्म दिन वहाँ मनाए जाते थे। उनके जन्मदिन हमारे यहाँ मनाए जाते थे। समाज में एक-दूसरे को अपनत्व के अतिरिक्त पूरा सम्मान दिया जाता था।” देखिये-

“हमारी माँ को दुल्हन कहती थीं। कहने लगी दुल्हन, जिनके ताई-चाची नहीं होती वो अपनी माँ के कपड़े पहनते हैं।” इस प्रकार लेखिका ने इस संस्मरण के माध्यम से सामाजिक स्थिति को स्पष्ट किया है।

भाषायी वातावरण – समाज में यदि आपसी प्रेम भाव हो तो भाषा के कारण कहीं भी विवाद हो ही नहीं सकता। अत: किसी को भी कोई भी भाषा पढ़ने-लिखने की कोई परेशानी न थी। सभी भाषाओं को सम्मान दिया जाता था। व्यक्ति को किसी भी भाषा के बोलने की स्वतन्त्रता थी। अतः भाषा की दृष्टि से वातावरण सुखद था, आपस में कोई विवाद न था। उदाहरण देखें-

“उस समय यह देखा मैंने कि साम्प्रदायिकता नहीं थी। जो अवध की लड़कियाँ थीं, वे आपस में अवधी बोलती थीं, बुन्देलखण्डी भी आती थीं, वे बुंदेली में बोलती थीं। इसके अलावा प्रत्येक को पूर्ण अधिकार था.चाहे वह उर्दू बोले, मराठी या अन्य भाषा, सब एक-दूसरे की भाषा का सम्मान करते थे। एक-दूसरे को प्रेमपूर्वक अपनी भाषा सिखा भी देते थे। इसी कारण भाषा की दृष्टि से वातावरण अच्छा था।”

प्रश्न 3.
परिवारों में लड़कियों के साथ कैसा व्यवहार होना चाहिए? (2009)
उत्तर:
“मेरे बचपन के दिन” संस्मरण के द्वारा महादेवी वर्मा ने परिवार में लड़कियों की स्थिति के बारे में स्पष्ट किया है। महादेवी वर्मा ने यह बताने का प्रयास किया है कि उनके समय में परिवार में लड़कियों की स्थिति सम्मानजनक थी। जब उनके परिवार में कोई भी कन्या दो सौ वर्ष तक न जन्मी तब परिवार वालों ने कन्या का जन्म न होना दैवीय प्रकोप समझा।

इसके पश्चात् कुल देवी की आराधना के उपरान्त जन्मी कन्या की खातिर की गयी व उसकी शिक्षा-दीक्षा का अच्छा प्रबन्ध किया। इस संस्मरण के माध्यम से लेखिका ने परिवार में लड़कियों की स्थिति को आदर्श दिखाने का प्रयत्न किया है।

(1) परिवार में सम्मान – परिवार में लड़कियों को सम्मान की दृष्टि से देखना चाहिए। लड़कियों को व लड़कों को एक समान दृष्टि से देखना चाहिए। उस समय लड़कियों को इतना सम्मान मिलता था। निम्न उदाहरण से स्पष्ट है-देखिये

“उनका एक लड़का था उसको राखी बाँधने को वे कहती थीं। बहनों को राखी बाँधनी चाहिए। राखी के दिन सवेरे से पानी भी नहीं देती थीं, राखी के दिन बहनें राखी बाँध जाएँ तब तक भाई को निराहार रहना चाहिए।” इस प्रकार बताया है कि परिवार में लड़कियों का आदर होता था।

(2) शिक्षा प्राप्त करने की स्वतन्त्रता – परिवार में लड़कियों को पढ़ने-लिखने की पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिये। इस संस्मरण के माध्यम से लेखिका ने बताया है कि जब उनको घर पर पढ़ना अच्छा न लगा तो उनकी शिक्षा का प्रबन्ध विद्यालय में किया गया।

लड़कियों को पढ़ाने के लिये उनकी रुचि के अनुसार पढ़ने देना चाहिये। लड़कियाँ शहर में ही नहीं अन्य शहरों में छात्रावास में भी रहकर पढ़ सकती हैं। आज से वर्षों पूर्व जब लड़कियाँ बाहर छात्रावासों में रहकर शिक्षा ग्रहण कर सकती थीं तो बदलती हुई परिस्थितियों में लड़कियों पर अंकुश नहीं लगाना चाहिये।

(3) सभा व सम्मेलनों में भाग लेने की स्वतन्त्रता-इस संस्मरण के द्वारा लेखिका ने बताया है कि लड़कियाँ उन्मुक्त होकर सभा, सोसाइटियों एवं सम्मेलनों में भाग ले सकती हैं। उस समय स्त्री-पुरुष एक साथ सम्मेलन में भाग लिया करते थे। आपस में वार्तालाप भी करते थे। इस प्रकार पर्दा-प्रथा व स्त्री-पुरुष के मेल-मिलाप की स्वतन्त्रता थी-उदाहरण देखें-

“हम कविता सुनाते थे हरिऔध जी, अध्यक्ष होते थे, श्रीधर पाठक होते थे कभी रत्नाकर जी होते थे, कभी कोई और होता था।” इस प्रकार बताया है कि लड़कियों को कविता करने व सभाओं में जाने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए।

(4) जाति-पाँति के भेदभाव से मुक्त-इस संस्मरण के माध्यम से लेखिका ने बताया है कि लड़कियों को जाति-पाँति के बन्धन से मुक्त रखना चाहिए जिससे वे बाहर शिक्षा ग्रहण करने जाये तो उन्हें किसी भी प्रकार की कठिनाई न हो। ये समस्त संस्कार लड़कियों को परिवार से ही प्राप्त होते हैं। अतः परिवार में जाँति-पाँति का बन्धन नहीं होना चाहिये।

(5) भाषा की स्वतन्त्रता-परिवार में लड़कियों को उनकी इच्छानुसार भाषा बोलने का अधिकार होना चाहिए।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि परिवार के अन्तर्गत लड़के एवं लड़कियों के मध्य भेदभाव की भावना नहीं रखनी चाहिए। दोनों को समान दृष्टि से देखकर उन्नति की मंजिल की ओर कदम बढ़ाने का अवसर प्रदान करना चाहिए। तभी समाज पल्लवित-पुष्पित एवं विकास की ओर उन्मुख हो सकेगा।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित गद्यांशों की संदर्भ प्रसंग सहित व्याख्या कीजिए
(क) हम हिन्दी ……… नहीं होता था।
(ख) उनके यहाँ भी ………… सपना खो गया है।
उत्तर:
(क) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस गद्यांश में महादेवी वर्मा ने छात्रावास के आदर्श एवं सद्भावना के वातावरण का उल्लेख किया है।

व्याख्या :
जब महादेवी वर्मा छात्रावास में रह रही थीं, उस समय अध्ययन करने वाली सहयोगी छात्राओं में जाति सम्बन्धी एवं भाषा विषयक भेदभाव तनिक भी विद्यमान नहीं था। सब अपनी-अपनी भाषाओं का स्वतन्त्रतापूर्वक निसंकोच प्रयोग करते थे।

उस समय विद्यालय में हिन्दी के अतिरिक्त उर्दू भाषा की भी शिक्षा प्रदान की जाती थी। प्रान्तीयता की भावना छात्राओं के मन-मानस में न थी। वार्तालाप में छात्राएँ अपनी भाषा का प्रयोग करती थीं। मेस में हम सभी एक साथ बैठकर भोजन करते थे। प्रार्थना भी सम्मिलित रूप से होती थी। सब तर्क-वितर्क से कोसों दूर थे। सब प्रेम के सूत्र में आबद्ध होकर जीवन-यापन करते थे।

(ख) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत गद्यांश के द्वारा महादेवी वर्मा ने अपने बाल्यकाल की, परिवार एवं समाज की झाँकी प्रस्तुत करके यह बताने का प्रयत्न किया है, कि उनके समय में वातावरण बहुत सौहार्द्रपूर्ण था।

व्याख्या :
महादेवी वर्मा ने इस गद्यांश में अपने भाई प्रोफेसर मनमोहन वर्मा के विश्वविद्यालय की स्थिति का वर्णन करते हुए बताया है। प्रोफेसर मनमोहन वर्मा का नाम बचपन में बेगम साहिबा ने रखा। उनका नाम सदैव वही रहा, क्योंकि हमारे मन में कोई भी जातिवाद की भावना न थी। जिस प्रकार घरों में जाति-पाँति का भेदभाव न था उसी प्रकार विद्यालयों में भी भाषागत भेदभाव न था। प्रोफेसर मनमोहन के विद्यालय में भी हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाएँ सिखाई जाती थीं जबकि हम लोग घर पर परस्पर अवधी भाषा का प्रयोग करते थे।

इस प्रकार भाषा प्रयोग के लिए किसी पर कोई भी रोक-टोक न थी। परिवार और समाज में एक-दूसरे के प्रति सद्भावना और अत्यधिक स्नेह था। सभी आपस में एक-दूसरे से भावनात्मक रूप से जुड़े हुए थे। परन्तु आज समाज में परिवारों एवं समाज में जातिगत एवं भाषागत भेद-भाव और आपसी मनमुटाव को देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि वे सब बातें स्वप्नवत् थीं। जिस प्रकार स्वप्न नींद खुलने के बाद टूट जाता है उसी प्रकार पिछली बातें स्वप्नवत् ही प्रतीत होती हैं, क्योंकि पूर्व जैसी स्थिति आज न तो परिवार में दिखायी देती है न ही विद्यालयों में।

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प्रश्न 5.
निम्नलिखित पंक्तियों का भाव पल्लवन कीजिए
(क) बचपन की स्मृतियों में एक विचित्र-सा आकर्षण होता है। (2010)
(ख) परिस्थितियाँ सदैव एक सी नहीं रहती हैं।
उत्तर:
(क) उपर्युक्त कथन में महादेवी वर्मा ने अपनी बाल्यावस्था से जुड़ी समस्त बातों को याद करते हुए कहा है कि बचपन की यादों में एक अनोखा सा सम्मोहन होता है, क्योंकि जब मानव अपनी बचपन की बातें याद करता है तो वे सभी बातें अद्भुत-सी प्रतीत होती हैं। बड़े होने के उपरान्त भी व्यक्ति को उन बातों से बहुत लगाव-सा होता है।

जब व्यक्ति अपने बचपन की यादों में खो जाता है, तब वह बड़ा होने पर बचपन की उन अनुभूतियों को स्मरण करके प्रसन्नता का अनुभव करता है, क्योंकि बचपन की सभी यादें क्रमशः हमारे मस्तिष्क पर चित्रपट की रीलों की भाँति एक-एक करके दृष्टिगोचर होने लगती हैं तथा हम उन यादों में खोकर एक अनिर्वचनीय सुख का अनुभव करते हैं।

(ख) महादेवी वर्मा ने इस कथन के द्वारा यह बताने का प्रयत्न किया है कि व्यक्ति के जीवन में परिस्थितियाँ हमेशा एक-सी नहीं रहती हैं। जिस प्रकार राह-चलते समय उतार-चढ़ाव होता है। सुख व दुःख तथा रात और दिन क्रम से आते हैं। उसी प्रकार जीवन में हर क्षण बदलाव होता रहता है। कभी-भी संसार में कोई भी वस्तु एक समान नहीं रहती। परिवर्तन जीवन का शाश्वत नियम है। परिवर्तन के अनुसार परिस्थितियाँ भी परिवर्तित होती हैं। इस सन्दर्भ में लेखक का निम्न कथन देखिए-
“चलाचल ओ राही तू राह न कर कुछ मग की परवाह।
विश्व के कण-कण में तू खेलता रहता है परिवर्तन ॥”

प्रश्न 6.
“शायद वह सपना सत्य हो जाता तो भारत की कथा कुछ और होती।” कथन के आधार पर भारत की वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
आज से लगभग सौ वर्ष पूर्व भारत की सामाजिक परिस्थिति पूर्णरूप से भिन्न थी। समाज में आपस में प्रेम पूर्ण सम्बन्ध होते थे। इस कारण आपसी मनमुटाव नहीं होता था। लोग दूसरों के प्रति त्याग और सद्भाव की भावना रखते थे। लेकिन आज का मानव प्रत्येक सम्बन्ध को स्वार्थ की दृष्टि से देखता है। यदि व्यक्ति का स्वार्थ निहित है, तो वह उसके लिये कोई भी कार्य करना चाहेगा अन्यथा वह उसे देखकर अनजान बन जायेगा।

आज के समाज में इस बदलाव के कारण साम्प्रदायिक झगड़े होते रहते हैं। परिवारों में भी विवाद उत्पन्न होते रहते हैं। परिणामस्वरूप पारिवारिक विघटन हो गया है। पत्नी एवं पति व बच्चों की भी आपस में नहीं पटती है। पति-पत्नी में सम्बन्ध विच्छेद हो जाते हैं। बच्चे वृद्ध होने पर माता-पिता को सम्मान नहीं देते हैं। वे उनके साथ अशोभनीय व्यवहार करते हैं।

यदि आज भी 100 वर्ष पूर्व की सामाजिक स्थिति होती तो आज शायद जो समाज की व्यवस्था है, उस प्रकार की व्यवस्था कदापि न होती। पिछली सभी बातें स्वप्नवत् प्रतीत होती हैं। जिस प्रकार की आज की सामाजिक परिस्थितियाँ हैं, उन्हीं के कारण आजकल लूटपाट, हत्याएँ एवं चोरी-डकैती व अन्याय अत्याचार होते हैं।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि आज की सामाजिक परिस्थितियाँ इतनी घणित एवं अशोभनीय हो गयी हैं कि हमारा मस्तक लज्जा से झुक जाता है। आज देश के उत्थान के लिए पुरानी प्रगतिशील मान्यताओं का अपनापन परम आवश्यक है। राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में-
“परिवर्तन ही उन्नति है, तो अब क्यों बढ़ते जाते हैं।
किन्तु मुझे तो सीधे सच्चे पूर्ण भाव ही भाते हैं।।”

मेरे बचपन के दिन भाषा अध्ययन

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के विलोम शब्द लिखिएअनंत, निरपराधी, दण्ड, शांति।
उत्तर:
अनंत – अन्त, निरपराधी – अपराधी, दण्ड – पुरस्कार, शांति – अशांति।

प्रश्न 2.
निम्न शब्दों के सामने दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प लिखिए
(अ) निराहारी – (निर + आहार + ई) (निरा + हारी) (निराह + आरी)
(आ) अप्रसन्नता – (अप्र + सन्नता) (अ + प्रसन्नता) (अ + प्रसन्न + ता)
(इ) अपनापन – (अप + नापन) (अपन + आपन) (अपना + पन)
(ई) किनारीदार – (कि + नारी + दार) (किनारी + दार) (किना + रीदार)
उत्तर:
(अ) (निर + आहार + ई)
(आ) (अ + प्रसन्न + ता)
(इ) (अपना + पन)
(ई) (किनारी + दार)।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित शब्दों में से तत्सम, तद्भव तथा विदेशी शब्द पहचानकर लिखिए
दर्जे, मेज, जेब, छात्रावास, मित्र, हॉस्टल, प्रथम, कटोरा, भवन, खर्च, खीर, द्वंद, कपड़े, सपना।
उत्तर:
तत्सम शब्द – छात्रावास, मित्र, प्रथम, भवन।
तद्भव शब्द – खीर, सपना, द्वंद, कपड़े।
विदेशी शब्द – दर्जे, मेज, जेब, हॉस्टल, कटोरा, खर्च।

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प्रश्न 4.
निम्नलिखित शब्द युग्मों में से पूर्ण पुनरुक्त, अपूर्ण पुनरुक्त, प्रतिध्वन्यात्मक शब्द और भिन्नार्थक शब्द छाँटकर लिखिए-
पहले-पहल, रोने-धोने, सुन-सुन, प्रचार-प्रसार, जहाँ-तहाँ, कुछ-कुछ, कपड़े-वपड़े, इकड़े-तिकड़े, बार-बार, मिली-जुली, ताई-चाची।
उत्तर:

  1. पूर्ण पुनरुक्त शब्द-सुन-सुन, कुछ-कुछ, बार-बार।
  2. अपूर्ण पुनरुक्त शब्द-पहले-पहल, प्रचार-प्रसार, जहाँ-तहाँ, मिली-जुली।
  3. प्रतिध्वन्यात्मक शब्द-रोने-धोने, कपड़े-वपड़े, इकड़े-तिकड़े।
  4. भिन्नार्थक शब्द-ताई-चाची।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित शब्दों के बीच योजक चिह्न (-) का प्रयोग किस स्थिति को स्पष्ट करता है-
कुल-देवी, दुर्गा-पूजा, जेब-खर्च, कवि-सम्मेलन।
उत्तर:

  1. कुल-देवी-कुल की देवी-सम्बन्धकारक योजक चिह्न
  2. दुर्गा-पूजा-दुर्गा की पूजा-सम्बन्धकारक योजक चिह्न
  3. जेब-खर्च-जेब का खर्च-सम्बन्धकारक योजक चिह्न
  4. कवि-सम्मेलन-कवियों का सम्मेलन-सम्बन्धकारक योजक चिह्न।

मेरे बचपन के दिन पाठ का सारांश

महादेवी वर्मा संस्मरण एवं रेखाचित्रों की सुप्रसिद्ध लेखिका हैं। प्रस्तुत “मेरे बचपन के दिन” नामक संस्मरण में उन्होंने जो पारिवारिक, शैक्षिक एवं सामाजिक सम्बन्धों के हृदयस्पर्शी एवं भावपूर्ण चित्र उकेरे हैं, वे मर्मस्पर्शी हैं।

संस्मरण में धर्मों एवं भाषा बोली की समरसता का अत्यन्त ही भावपूर्ण अंकन है। संस्मरण में पूज्य बाबू द्वारा लेखिका को दिये गये पुरस्कार स्वरूप मिले चाँदी के कटोरे को बाप के माँग लेने का अत्यन्त ही हृदयस्पर्शी चित्रण है।

संस्मरण में सुभद्रा कुमारी चौहान तथा जेबुन्निसा एवं जवारा नबाव के परिवार के साथ सम्बन्धों का उल्लेख है। अध्ययन करते समय लेखिका जिन लड़कियों के सम्पर्क में आयी, उनका भी विवरण है। स्वतन्त्रता आन्दोलन की भी चर्चा है।

मेरे बचपन के दिन कठिन शब्दार्थ

बचपन = बाल्यावस्था। विचित्र = अनोखा। आकर्षण = लगाव। उत्पन्न = पैदा। अवश्य = जरूर। वश = सामर्थ्य। उपरान्त = बाद में। साथिन = सहेली, सहयोगी। तलाशी = ढूँढ़ना। मित्रता = दोस्ती। बेचैनी = व्याकुलता। पुरस्कार = इनाम, उपहार। हमेशा = सदैव। प्रसन्नता = खुशी। अवकाश = छुट्टी। विवाद = तर्क। इकड़े-तिकड़े = इधर-उधर। मुहर्रम = मुसलमानों का त्यौहार । दुल्हन = वधू। लोकर-लोकर = मराठी मूलशब्द अर्थात् जल्दी-जल्दी। नेग = मांगलिक अवसरों पर सगे-सम्बन्धियों को उपहार देने की रस्म। निराहार = बिना भोजन के।

मेरे बचपन के दिन संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

1. हमारी कुल-देवी दुर्गा थीं। मैं उत्पन्न हुई तो मेरी बड़ी खातिर हुई। परिवार में बाबा फारसी और उर्द जानते थे। पिता ने अंग्रेजी पढ़ी थी। हिन्दी का कोई वातावरण नहीं था।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘मेरे बचपन के दिन’ नामक पाठ से अवतरित है। इसकी लेखिका महादेवी वर्मा हैं।

प्रसंग :
प्रस्तुत गद्यांश में महादेवी ने अपने जन्म तथा परिवार के बारे में बताया है।

व्याख्या :
महादेवी वर्मा का जन्म दुर्गा जी की आराधना के बाद हुआ था। उनके जन्म से दो सौ वर्ष पूर्व तक उनके घर में कोई भी कन्या न थी। इसी कारण जब महादेवी वर्मा का जन्म हुआ सबसे पहले कुल देवी दुर्गाजी का पूजा-पाठ किया गया। उसके पश्चात् महादेवी को बहुत लाड़-प्यार से रखा गया। महादेवी वर्मा ने अपने बाबा के विषय में लिखा है। उनके बाबा को फारसी और उर्दू भाषा का ज्ञान था। इसके अतिरिक्त उनके पिताजी को केवल अंग्रेजी भाषा आती थी। इस प्रकार महादेवी वर्मा के परिवार में हिन्दी भाषा का कोई भी वातावरण नहीं था।

विशेष :

  1. भाषा सरल व सुबोध है, शैली विचारात्मक है।
  2. महादेवी वर्मा ने लड़कियों के महत्त्व को दर्शाने का प्रयत्न किया है।
  3. भाषा में प्रचलित शब्दों का व उर्दू शब्दों का प्रयोग है, जैसे-खातिर।”
  4. कुलदेवी में सामासिक पद है।

2. हम पढ़ते हिन्दी थे। उर्दू भी हमको पढ़ाई जाती थी, परन्तु आपस में हम अपनी भाषा में ही बोलती थीं। वह बहुत बड़ी बात थी। हम एक मेस में खाना खाते थे, एक प्रार्थना में खड़े होते थे, कोई विवाद नहीं होता था। (2010)

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस गद्यांश में महादेवी वर्मा ने छात्रावास के आदर्श एवं सद्भावना के वातावरण का उल्लेख किया है।

व्याख्या :
जब महादेवी वर्मा छात्रावास में रह रही थीं, उस समय अध्ययन करने वाली सहयोगी छात्राओं में जाति सम्बन्धी एवं भाषा विषयक भेदभाव तनिक भी विद्यमान नहीं था। सब अपनी-अपनी भाषाओं का स्वतन्त्रतापूर्वक निसंकोच प्रयोग करते थे।

उस समय विद्यालय में हिन्दी के अतिरिक्त उर्दू भाषा की भी शिक्षा प्रदान की जाती थी। प्रान्तीयता की भावना छात्राओं के मन-मानस में न थी। वार्तालाप में छात्राएँ अपनी भाषा का प्रयोग करती थीं। मेस में हम सभी एक साथ बैठकर भोजन करते थे। प्रार्थना भी सम्मिलित रूप से होती थी। सब तर्क-वितर्क से कोसों दूर थे। सब प्रेम के सूत्र में आबद्ध होकर जीवन-यापन करते थे।

विशेष :

  1. छात्रावास के आदर्श वातावरण का चित्रण है।
  2. शैली सरल व सुबोध है।
  3. एकता की भावना का प्रतिपादन है।

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3. उनके यहाँ भी हिन्दी चलाई जाती थी, उर्दू भी चलती थी। यों, अपने घर में वे अवधी बोलती थीं। वातावरण ऐसा था उस समय कि हम लोग बहुत निकट थे। आज की स्थिति देखकर लगता है, जैसे वह सपना ही था। आज वह सपना खो गया है।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत गद्यांश के द्वारा महादेवी वर्मा ने अपने बाल्यकाल की, परिवार एवं समाज की झाँकी प्रस्तुत करके यह बताने का प्रयत्न किया है, कि उनके समय में वातावरण बहुत सौहार्द्रपूर्ण था।

व्याख्या :
महादेवी वर्मा ने इस गद्यांश में अपने भाई प्रोफेसर मनमोहन वर्मा के विश्वविद्यालय की स्थिति का वर्णन करते हुए बताया है। प्रोफेसर मनमोहन वर्मा का नाम बचपन में बेगम साहिबा ने रखा। उनका नाम सदैव वही रहा, क्योंकि हमारे मन में कोई भी जातिवाद की भावना न थी। जिस प्रकार घरों में जाति-पाँति का भेदभाव न था उसी प्रकार विद्यालयों में भी भाषागत भेदभाव न था। प्रोफेसर मनमोहन के विद्यालय में भी हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाएँ सिखाई जाती थीं जबकि हम लोग घर पर परस्पर अवधी भाषा का प्रयोग करते थे।

इस प्रकार भाषा प्रयोग के लिए किसी पर कोई भी रोक-टोक न थी। परिवार और समाज में एक-दूसरे के प्रति सद्भावना और अत्यधिक स्नेह था। सभी आपस में एक-दूसरे से भावनात्मक रूप से जुड़े हुए थे। परन्तु आज समाज में परिवारों एवं समाज में जातिगत एवं भाषागत भेद-भाव और आपसी मनमुटाव को देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि वे सब बातें स्वप्नवत् थीं। जिस प्रकार स्वप्न नींद खुलने के बाद टूट जाता है उसी प्रकार पिछली बातें स्वप्नवत् ही प्रतीत होती हैं, क्योंकि पूर्व जैसी स्थिति आज न तो परिवार में दिखायी देती है न ही विद्यालयों में।

विशेष :

  1. महादेवी वर्मा ने अपने समय के वातावरण की तुलना आज के समाज से की है।
  2. भाषा-शैली गंभीर एवं चिंतन प्रधान है।

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MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 9 भोलाराम का जीव

MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 9 भोलाराम का जीव

भोलाराम का जीव अभ्यास

भोलाराम का जीव अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
यमदूत को किसने चकमा दिया था?
उत्तर:
यमदूत को भोलाराम के जीव ने चमका दिया था।

प्रश्न 2.
भोलाराम का जीव ढूँढ़ने के लिए धरती पर कौन आया?
उत्तर:
भोलाराम का जीव ढूँढ़ने यमराज के आदेश से नारद जी धरती पर आये।

प्रश्न 3.
भोलाराम की स्त्री ने नारद जी से क्या प्रार्थना की? (2015)
उत्तर:
भोलाराम की स्त्री ने नारद जी से यह प्रार्थना की कि यदि वे भोलाराम की रुकी हुई पेंशन दिलवा दें तो बच्चों का पेट कुछ दिन के लिए भर जायेगा।

प्रश्न 4.
भोलाराम के मरने का क्या कारण था?
उत्तर:
भोलाराम को अवकाश के पश्चात् पाँच वर्ष तक पेंशन प्राप्त नहीं हुई। अतः धनाभाव के कारण मृत्यु हो गयी।

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भोलाराम का जीव लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
भोलाराम की जीवात्मा कहाँ अंटकी थी, वहस्वर्गक्यों नहीं जाना चाहता था?
उत्तर:
भोलाराम की जीवात्मा उसकी पेंशन की दरख्वास्तों में अटकी हुई थी। भोलाराम का मन उन्हीं में लगा था। इसी कारण वह स्वर्ग में बिल्कुल भी जाना नहीं चाहता था।

प्रश्न 2.
साहब ने नारद जी की वीणा क्यों माँगी?
उत्तर:
साहब ने नारद जी की वीणा इसलिए माँगी क्योंकि कार्यालयों की फाइलों में रखी दरख्वास्तें तभी आगे बढ़ती हैं जबकि उन दरख्वास्तों पर वजन रखा जाता है। इसी कारण साहब ने नारद जी की वीणा को दरख्वास्तों पर वजन बढ़ाने के लिए माँग लिया।

प्रश्न 3.
“भोलाराम की दरख्वास्तें उड़ रही हैं, उन पर ‘वजन’ रखिये।” वाक्य में वजन शब्द किसकी ओर संकेत कर रहा है?
उत्तर:
भोलाराम की दरख्वास्तें उड़ रही हैं, उन पर ‘वजन’ रखिये का अर्थ वाक्य में इस बात को स्पष्ट करता है कि कुछ घूस दीजिए। क्योंकि आज के युग में जब तक कुछ रिश्वत न दो तो कार्यालयों में दरख्वास्तें आगे नहीं बढ़ी। इस प्रकार लेखक ने कार्यालयों में होने वाले भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी पर करारा व्यंग्य किया है। परसाई जी ने कहा कि यदि दरख्वास्तों पर वजन नहीं रखोगे तो उड़ जायेंगी। साधारण-सी बात द्वारा रिश्वत देने का संकेत किया है।

भोलाराम का जीव दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
भोलाराम के रिटायर होने के बाद उसे और उसके परिवार को किन परेशानियों का सामना करना पड़ा? (2010)
उत्तर:
भोलाराम के रिटायर होने के बाद उसे निम्नलिखित कठिनाइयों का सामना करना पड़ा-
(1) आर्थिक कठिनाई :
भोलाराम के रिटायर होने के पश्चात् उसे और उसके परिवार को सबसे अधिक आर्थिक कठिनाई को झेलना पड़ा। क्योंकि रिटायर होने से पूर्व भी उसके पास धन का अभाव था। रिटायर होने के बाद पाँच वर्ष तक भोलाराम को पेंशन नहीं मिली। इस कारण वह मकान मालिक को किराया भी नहीं दे सका। उसके परिवार में दो पुत्र एवं एक पुत्री थे। इन सबका पालन-पोषण करने वाला एकमात्र भोलाराम ही था। आर्थिक परेशानियों के कारण भोलाराम की मृत्यु हो गयी।

(2) कार्यालय कर्मचारियों का अमानवीय व्यवहार :
भोलाराम रिटायर होने के बाद हर पन्द्रह दिन के बाद दफ्तर में दरख्वास्त देने के लिए जाते थे। लेकिन लगातार पाँच वर्ष तक चक्कर काटने के बाद भी भोलाराम को पेंशन नहीं मिली। भोलाराम का परिवार भुखमरी के कगार पर आ खड़ा हुआ। धीरे-धीरे पेंशन न मिलने के फलस्वरूप गरीबी और भूख से व्याकुल भोलाराम मृत्यु की गोद में समा गया।

(3) पालन-पोषण की चिन्ता :
रिटायर होने के बाद पेंशन न मिलने के कारण भोलाराम को अपने परिवार की बहुत अधिक चिन्ता थी क्योंकि वह भूख से बेहाल बच्चों को नहीं देख सकता था। बच्चों के पालन-पोषण के लिए धीरे-धीरे घर के बर्तन व अन्य सामान भी बिक गये। परन्तु परिवार के पोषण की चिन्ता व मकान मालिक को किराया देने की चिन्ता ने उसे समय से पूर्व ही मौत की गोद में सुला दिया।

प्रश्न 2.
धर्मराज के अनुसार नरक की आवास समस्या किस प्रकार हल हुई?
उत्तर:
धर्मराज के अनुसार नरक की आवास समस्या इस प्रकार हल हुई। नरक में आवास की व्यवस्था करने के लिए उत्तम कारीगर आ गये थे। अनेक इस प्रकार के ठेकेदार भी थे जिन्होंने पूरे पैसे लेने के बाद बेकार इमारतें बनायी थीं।

इसके अतिरिक्त अनेक बड़े-बड़े इंजीनियर भी आये हुए थे। इन इंजीनियरों एवं ठेकेदारों ने बहुत-सा धन पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत हड़प लिया था। इंजीनियर कभी भी काम पर नहीं गये थे। मगर इन गुणी कारीगरों, ठेकेदारों एवं इंजीनियरों ने मिलकर नरक के आवास की समस्या को चुटकियों में हल कर दिया था। क्योंकि ये सभी भवन निर्माण की कला में निपुण थे।

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प्रश्न 3.
“अगर मकान मालिक वास्तव में मकान मालिक है तो उसने भोलाराम के मरते ही उसके परिवार को निकाल दिया होगा।” इस वाक्य में निहित व्यंगार्थ को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
अगर मकान मालिक वास्तव में मकान मालिक है तो उसने भोलाराम के मरते ही परिवार को निकाल दिया होगा। इस वाक्य में आज के मकान मालिकों की हृदयहीनता पर कठोर प्रहार किया है।

इस कहानी के माध्यम से लेखक ने यह बताने का प्रयास किया है कि किरायेदार के पास भोजन के लिए रुपया हो अथवा न हो, वह मरे अथवा जीवित रहे। मकान मालिक को केवल किराये से मतलब है। लेखक का अभिप्राय है जब तक मकान मालिक को आशा थी कि भोलाराम की पेंशन एक न एक दिन मिल जायेगी। तब तक उसने भोलाराम के परिवार को उसमें रहने दिया।

भोलाराम के मरते ही मकान मालिक को किराये के रुपये मिलने की उम्मीद समाप्त हो गयी। अतः उसने उसके परिवार को घर से निकाल दिया।

लेखक ने मकान मालिकों पर भी व्यंग्य किया है कि उन्हें केवल रुपयों से मतलब होता है। मकान मालिक स्वयं को शासक समझते हैं और किरायेदारों पर शासन करते हैं। समय पर मकान का किराया न मिलने पर घर से बाहर सामान फिकवाने से भी नहीं चूकते हैं।

प्रश्न 4.
साहब ने भोलाराम की पेंशन में देर होने की क्या वजह बताई?
उत्तर:
छोटे बाबू ने भोलाराम की पेंशन में देर होने का प्रमुख कारण बताया कि भोलाराम ने अपनी दरख्वास्तों पर वजन नहीं रखा था। अत: वह कहीं पर उड़ गयी होंगी।

इसी कारण नारद जी सीधे बड़े साहब के पास पहँचे। वहाँ पहँचने पर बड़े साहब ने कहा, “क्या आप दफ्तरों के रीति-रिवाज नहीं जानते। असली गलती भोलाराम की थी, यह भी तो एक मन्दिर है। अत: यहाँ भी दान पुण्य करना पड़ता है लेकिन भोलाराम ने वजन नहीं रखा। अतः पेंशन मिलने में देर हो गयी।”

लेखक ने इस कहानी के माध्यम से दफ्तरों के बाबू और साहब लोगों की मानसिक दशा का विवेचन किया है। परसाई जी ने यह बताने का प्रयास किया है कि बिना चढ़ावे के कोई भी कार्य नहीं होता है।

प्रश्न 5.
लेखक ने इस व्यंग्य के माध्यम से किन अव्यवस्थाओं पर चोट की है? (2008, 12)
उत्तर:
लेखक ने अपने इस व्यंग्य के माध्यम से समाज में होने वाले भ्रष्टाचारों के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला है। लेखक का कहना है कि आज चालाकी, झूठ, जालसाजी एवं रिश्वतखोरी का चारों ओर बोलबाला है। समाज का प्रत्येक श्रेणी का व्यक्ति इस रिश्वतखोरी एवं चालाकी के रोग से ग्रसित है। बिना इसके कोई भी काम नहीं होता है।

लेखक ने सबसे पहले कारीगरों, ठेकेसरों एवं इंजीनियरों पर व्यंग्य किया है। वे किस प्रकार रद्दी सामग्री का प्रयोग करके भवन निर्माण करते हैं। भवन निर्माण के लिए आये हुए रुपयों को किस प्रकार हड़प लेते हैं।

इसके पश्चात् सरकारी दफ्तरों की दुर्दशा का वर्णन किया है। जहाँ चपरासी से लेकर साहब तक सभी को रिश्वत चाहिए। बिना रिश्वत लिए किस प्रकार प्रार्थना-पत्र हवा में उड़ जाते हैं अर्थात् कागजों पर कार्यवाही रुक जाती है। इस बात पर लेखक ने व्यंग्य किया है। रिश्वत और घूस लेने की बात को न तो साहब खुलकर कहते हैं और न ही चपरासी।

रिश्वत लेने के साहब व चपरासियों के ऐसे सूक्ष्म संकेतात्मक शब्द होते हैं जो कि इस बात को स्पष्ट कर देते हैं कि कर्मचारी का काम कैसे होगा। इस व्यंग्य में लेखक ने रिश्वत देने के लिए ‘वजन’ शब्द का प्रयोग किया है। बिना वजन’ के कागज उड़ जायेंगे। इस प्रकार व्यंग्यपूर्ण शब्दों का प्रयोग किया है।

सरकारी दफ्फरों में फैली अव्यवस्था, भ्रष्टाचार एवं घूसखोरी का वर्णन किया है। उन्होंने यह भी बताया जो कर्मचारी अपने जीवन के बहुमूल्य क्षण सरकारी सेवा में लगाते हैं। उनको रिटायर होने के बाद किस प्रकार पेंशन के लिए दफ्तरों के चक्कर काटने पड़ते हैं।

दफ्तरों के चक्कर काटने के उपरान्त भी धन का चढ़ावा न चढ़ाने पर व्यक्ति को भूखे मरने की नौबत आ जाती है। इस प्रकार सरकारी दफ्तरों की दशा का ऐसा वर्णन किया है जो पाठक के सम्मुख दफ्तरों की अव्यवस्था एवं अनियमितता का परिचायक है। लेखक ने मानव की आधुनिकता पर भी प्रहार किया है और बताया है कि आज के युग में कोई साधु-सन्तों को भी नहीं पूजता है। वे साधुओं की भी अवहेलना करते हैं।

परसाई जी ने समाज की कुत्सित मनोवृत्ति को उजागर किया है। सामाजिक विसंगतियों तथा मानसिक दुर्बलता, राजनीति व रिश्वतखोरी एवं लालफीताशाही पर तीखा व्यंग्य किया है।

प्रश्न 6.
इन गद्यांशों की संदर्भ एवं प्रसंगों सहित व्याख्या कीजिए
(1) आप हैं बैरागी …………….. करना पड़ता है।
(2) धर्मराज क्रोध ………… इन्द्रजाल हो गया।
उत्तर:
(1) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
उपर्युक्त कथन पेंशन दफ्तर के साहब का नारद जी के प्रति है। वे उनको दान-पुण्य के विषय में समझा रहे हैं। साहब नारद जी को पेंशन के कागजों पर वजन रखने के लिए कहते हैं।

व्याख्या :
प्रस्तुत गद्यांश में नारद जी को पेंशन कार्यालय के साहब सरकारी कार्यालयों की गतिविधियों से परिचित करवा रहे हैं। जब नारद जी को साहब की बात समझ में नहीं आयी तो उन्होंने कहा कि भोलाराम ने जो गलती की वह आप न करें। यदि आप मेरा कहा मान लेंगे तो आपका कार्य पूर्ण हो जायेगा। आप इस कार्यालय को देवालय समझेंगे तभी आपको सफलता मिलेगी। जिस प्रकार ईश्वर से सम्पर्क करने के लिए व्यक्ति को मन्दिर के पुजारी के समक्ष दान-दक्षिणा देनी पड़ती है। उसी प्रकार इस कार्यालय में भी आपको अधिकारी से सहयोग करने के लिए भोलाराम की दरख्वास्तों पर ‘वजन’ रखना होगा, क्योंकि बिना वजन के दरख्वास्तें उड़ रही हैं। आपको यह बात मैं केवल इस कारण बता रहा हूँ कि आप भोलाराम के प्रियजन हैं। इसी कारण इन दरख्वास्तों पर वजन रख दें। जिससे कि भोलाराम द्वारा की गयी गलती सुधर जाय। इस प्रकार नारद जी से रिश्वत देने के लिए व्यंग्य में कहा है।

(2) सन्दर्भ :
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘भोलाराम का जीव’ नामक व्यंग्य से लिया गया है। इसके लेखक सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई’ हैं।

प्रसंग :
प्रस्तुत गद्यांश में बताया है कि भोलाराम की मृत्यु हुए पाँच दिन हो गये। लेकिन वह अभी तक धर्मराज के पास नहीं पहुँचा। अतः धर्मराज दूत के प्रति क्रोध व्यक्त कर रहे हैं।

व्याख्या :
गद्यांश में भोलाराम के जीव के विषय में बताया है कि वह किस प्रकार यमदूत को चकमा दे गया। धर्मराज ने क्रोधित होते हुए दूत से कहा अरे बेवकूफ ! तू निरन्तर कई वर्षों से जीवों को लाने का कार्य कर रहा है। इस कार्य को करते-करते तू वृद्ध हो गया है। लेकिन तुझसे एक साधारण से वृद्ध व्यक्ति को नहीं लाया गया और वह जीव तुझे धोखा देकर कहाँ लोप हो गया।

दूत ने नतमस्तक होकर धर्मराज से कहा-महाराज, मैंने अपने कार्य में तनिक भी असावधानी नहीं की थी। मैं प्रत्येक कार्य को भली प्रकार करता हूँ। इस कार्य को करने की मेरी आदत भी है। मेरे हाथों से कभी भी कोई भी अच्छे-से-अच्छा वकील भी नहीं मुक्त हो पाया है। लेकिन इस समय तो कोई मायावी चमत्कार ही हो गया है। क्योंकि मेरी सावधानी के बाद भी भोलाराम का जीव अदृश्य हो गया।

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प्रश्न 7.
इन पंक्तियों का पल्लवन कीजिए-
(1) साधुओं की बात कौन मानता है?
उत्तर:
उपर्युक्त कथन नारद जी का भोलाराम की पत्नी के प्रति है। जब नारद जी भोलाराम की पत्नी से मिलने गये तब उसकी पत्नी के मन में यह आशा जागृत हुई कि नारद जी सिद्ध पुरुष हैं अतः कार्यालय के कर्मचारी उनकी बात को नहीं टालेंगे। परन्तु उसकी बात को सुनकर नारद जी बोले कि साधुओं की बात कौन मानता है ? कहने का तात्पर्य है कि आधुनिक युग में मनुष्य साधुओं को न तो सम्मान देते हैं, न ही उनके कोप भाजन से भयभीत होकर कोई कार्य करना चाहते हैं। प्राचीन युग में मनुष्य साधु-सन्तों का मान-सम्मान करते थे तथा उनकी आज्ञा का पालन करना कर्त्तव्य मानते थे।

(2) गरीबी भी एक बीमारी है। (2008)
उत्तर:
प्रस्तुत वाक्य भोलाराम की पत्नी का है जब नारद जी भोलाराम की पेंशन के विषय में उससे मिलने जाते हैं। उस समय नारद जी भोलाराम की पत्नी से पूछते हैं कि, “भोलाराम को क्या बीमारी थी?” इस पर भोलाराम की पत्नी कहती है, “मैं आपको किस प्रकार बताऊँ भोलाराम को गरीबी की बीमारी थी।”

अर्थात् भोलाराम की सबसे बड़ी बीमारी उसकी निर्धनता थी, क्योंकि भोलाराम के पास जीवन-यापन के लिए रुपया न था। पेंशन लेने के लिए लगातार कार्यालय के चक्कर लगाते-लगाते थक गया था। उसे हर पल चिन्ता सताती थी कि परिवार का भरण-पोषण किस प्रकार होगा? घर में जितने बर्तन व आभूषण थे सब एक-एक करके बिक गये थे। अतएव भोलाराम अपनी गरीबी की बीमारी से ग्रसित होकर काल के गाल में समा गया।
“चिता हम उसे कहते हैं जो मुर्दे को जलाती है।
बड़ी है इसलिए चिन्ता जो जीते को जलाती है।”

(3) साधु-सन्तों की वीणा से तो और भी अच्छे स्वर निकलते हैं।
उत्तर:
यह कथन पेंशन से सम्बन्धित कार्यालय के साहब का है। जब नारद जी को साहब ने भोलाराम की दरख्वास्त पर ‘वजन’ रखने को कहा तो नारद जी उसका अभिप्राय समझ न पाये। तब साहब ने नारद जी की चापलूसी की और समझाया कि इस वीणा को वे उसे दे दें। क्योंकि उनकी पुत्री गायन-वादन में निपुण है। साहब ने साधु-सन्तों की प्रशंसा भी की जिससे नारद जी अपनी वीणा को साहब को दे दें।

वीणा हथियाने के लिए ही साहब ने इस प्रकार नारद जी से कहा कि साधु-सन्त वीणा का रख-रखाव जानते हैं। इसके अतिरिक्त इसका प्रयोग उत्तम संगीत के लिए करते हैं। अतः इस वीणा के स्वर भी अच्छे होंगे।
अच्छी संगति में वस्तु पर अच्छा ही प्रभाव पड़ता है। ऐसा लेखक ने साहब के माध्यम से कहलवाने का प्रयास किया है।

भोलाराम का जीव भाषा अध्ययन

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के लिए मानक शब्द लिखिए-
ओवरसियर, गुमसुम, इंकमटैक्स, हाजिरी, दफ्तर, आखिर, इमारत, बकाया, काफी, रिटायर।
उत्तर:
MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 9 भोलाराम का जीव img-1

प्रश्न 2.
निम्नलिखित मुहावरों को अपने वाक्यों में प्रयोग कीजिए।
उत्तर:
(1) चमका देना
वाक्य प्रयोग-अपराधी पुलिस को चकमा देकर भाग गये।

(2) चंगुल से छूटना
वाक्य प्रयोग-रोहन का आतंकवादियों के चंगुल से छूटना आसान नहीं है।

(3) उड़ा देना
वाक्य प्रयोग-गुरुजनों की शिक्षा को हँसी में उड़ा देना उचित नहीं है।

(4) पैसा हड़पना
वाक्य प्रयोग-अपहरणकर्ता ने पैसा हड़पने के बाद भी व्यापारी को मार ही डाला।

(5) वजन रखना
वाक्य प्रयोग-प्रत्येक विभाग के कर्मचारी वजन रखवाकर ही काम करना चाहते हैं।

प्रश्न 3.
इस पाठ में से योजक चिह्न वाले विशेषण क्रिया के द्विरुक्ति शब्द छाँटकर लिखिए।
उत्तर:
MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 9 भोलाराम का जीव img-2

प्रश्न 4.
निम्नलिखित वाक्यों के शुद्ध रूप लिखिए
(क) धोखा नहीं खाई थी आज तक मैंने।
(ख) रास्ता मैं कट जाता है डिब्बे के डिब्बे मालगाड़ी के।
(ग) आ गई उम्र तुम्हारी रिटायर होने की।
(घ) फाइल लाओ केस की भोलाराम बड़े बाबू से।
उत्तर:
(क) मैंने आज तक धोखा नहीं खाया था।
(ख) मालगाड़ी के डिब्बे के डिब्बे रास्ते में कट जाते हैं।
(ग) तुम्हारी भी रिटायर होने की उम्र आ गई।
(घ) बड़े बाबू से भोलाराम के केस की फाइल लाओ।

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प्रश्न 5.
निम्नलिखित अनुच्छेद में पूर्ण विराम, निर्देशक चिह्न तथा अवतरण चिह्न आदि का यथास्थान प्रयोग कीजिए-
बाबू हँसा आप साधु हैं आपको दुनियादारी समझ में नहीं आती दरख्वास्तें पेपरवेट से नहीं दबती खैर आप इस कमरे में बैठे बाबू से मिलिए।
उत्तर:
बाबू हँसा-“आप साधु हैं, आपको दुनियादारी समझ में नहीं आती। दरख्वास्तें ‘पेपरवेट’ से नहीं दबतीं। खैर, आप इस कमरे में बैठे बाबू से मिलिए।”

भोलाराम का जीव पाठ का सारांश

हरिशंकर परसाई एक महान् व्यंग्यकार के रूप में हिन्दी जगत् में सुविख्यात हैं। उनके द्वारा लिखित प्रस्तुत पाठ भोलाराम का जीव’ वर्तमान भ्रष्टाचार पर एक करारा व्यंग्य है। पौराणिक प्रतीकों के माध्यम से भोलाराम नामक सेवानिवृत्त एक साधारण व्यक्ति की सेवानिवृत्ति के पश्चात् आने वाली समस्याओं का व्यंग्यात्मक आंकलन है। भोलाराम की जीवात्मा मृत्यु के पश्चात् भी पेंशन सम्बन्धी कार्यों में अटकी हुई है।

व्यंग्य में घूसखोरी एवं प्रशासकीय अव्यवस्था के प्रति करारा प्रहार किया गया है। प्रस्तुत व्यंग्य का उद्देश्य किसी के हृदय को दुखाने का नहीं अपितु कर्त्तव्यपरायणता एवं दूसरों के दुःखों के प्रति संवेदना जागृत करना है।

भोलाराम का जीव कठिन शब्दार्थ

असंख्य = अनेक। लापता = गायब। कुरूप = बदसूरत। चकमा = धोखा। सावधानी = ध्यान से। गुमसुम = चुपचाप। दिलचस्प = रोचक। दरख्वास्त = प्रार्थना-पत्र। कोशिश = प्रयास, प्रयत्न। कुटिल = क्रूर। असल में वास्तव में। ऑर्डर = आदेश। दफ्तरों = कार्यालयों। हाजिर = उपस्थित। तीव्र = तेज। वायु-तरंग = हवा की लहरें। चंगुल = फन्दा, बन्धन में फंसा। अभ्यस्थ = अभ्यस्त। इन्द्रजाल = जादू । व्यंग = चुभने वाली हँसी। विकट = भयानक। छान डाला = खोज डाला, ढूँढ़ डाला। टैक्स = कर। बकाया = शेष। क्रन्दन = रुदन। संसार छोड़ना = मृत्यु को प्राप्त होना।

भोलाराम का जीव संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

1. धर्मराज क्रोध से बोले-“मूर्ख ! जीवों को लाते-लाते बूढ़ा हो गया, फिर भी एक मामूली बूढ़े आदमी के जीव ने तुझे चकमा दे दिया।”
दूत ने सिर झुकाकर कहा, “महाराज, मेरी सावधानी में बिल्कुल कसर नहीं थी। मेरे इन अभ्यस्थ हाथों से अच्छे-अच्छे वकील भी नहीं छूट सके। पर इस बार तो कोई इन्द्रजाल ही हो गया।”

सन्दर्भ :
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘भोलाराम का जीव’ नामक व्यंग्य से लिया गया है। इसके लेखक सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई’ हैं।

प्रसंग :
प्रस्तुत गद्यांश में बताया है कि भोलाराम की मृत्यु हुए पाँच दिन हो गये। लेकिन वह अभी तक धर्मराज के पास नहीं पहुँचा। अतः धर्मराज दूत के प्रति क्रोध व्यक्त कर रहे हैं।

व्याख्या :
गद्यांश में भोलाराम के जीव के विषय में बताया है कि वह किस प्रकार यमदूत को चकमा दे गया। धर्मराज ने क्रोधित होते हुए दूत से कहा अरे बेवकूफ ! तू निरन्तर कई वर्षों से जीवों को लाने का कार्य कर रहा है। इस कार्य को करते-करते तू वृद्ध हो गया है। लेकिन तुझसे एक साधारण से वृद्ध व्यक्ति को नहीं लाया गया और वह जीव तुझे धोखा देकर कहाँ लोप हो गया।

दूत ने नतमस्तक होकर धर्मराज से कहा-महाराज, मैंने अपने कार्य में तनिक भी असावधानी नहीं की थी। मैं प्रत्येक कार्य को भली प्रकार करता हूँ। इस कार्य को करने की मेरी आदत भी है। मेरे हाथों से कभी भी कोई भी अच्छे-से-अच्छा वकील भी नहीं मुक्त हो पाया है। लेकिन इस समय तो कोई मायावी चमत्कार ही हो गया है। क्योंकि मेरी सावधानी के बाद भी भोलाराम का जीव अदृश्य हो गया।

विशेष :

  1. शैली व्यंग्यपूर्ण है। भाषा सरस व सरल है।
  2. लेखक ने धर्मराज के क्रियाकलाप का परिचय दिया है।

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2. “वह समस्या तों हल हो गई, पर एक विकट उलझन आ गई है। भोलाराम नाम के एक आदमी की पाँच दिन पहले मृत्यु हुई। इसने सारा ब्रह्माण्ड छान डाला, पर वह कहीं नहीं मिला। अगर ऐसा होने लगा, तो पाप-पुण्य का भेद ही मिट जायेगा।”

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने धर्मराज की चिन्ता के बारे में बताया है कि भोलाराम का जीव मृत्यु के उपरान्त कहीं भी नहीं मिला।

व्याख्या :
प्रस्तुत गद्यांश में बताया है कि धर्मराज की नरक आवास की चिन्ता तो समाप्त हो गई, क्योंकि धर्मराज ने उस समस्या का समाधान योग्य कारीगर एवं इंजीनियरों द्वारा करवा लिया था, लेकिन अब धर्मराज के सम्मुख एक विकराल समस्या उत्पन्न हो गयी है। यमदूत के पास से भोलाराम का जीव निकलकर गायब हो गया। उसने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में खोज लिया लेकिन वह मिल ही नहीं रहा है, जबकि उसकी मृत्यु को केवल पाँच ही दिन हुए थे। इस बात का हमें कदापि दुःख नहीं है कि भोलाराम का जीव गायब हो गया। हमें तो इस बात का दुःख है यदि इस प्रकार मृत्यु के उपरान्त जीव गायब होने लगे तो पाप-पुण्य का अन्तर समाप्त हो जायेगा, क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि व्यक्ति को अपने कर्मानुसार ही स्वर्ग और नरक में जाना पड़ता है। इसी कारण व्यक्ति संसार में बुरे कर्म करते समय अवश्य भयभीत रहता है कि उसे ईश्वर के दरबार में जाने के उपरान्त वहाँ अपने कर्मों का हिसाब देना पड़ेगा। इसीलिए भोलाराम का जीव गायब होने पर धर्मराज की चिन्ता बढ़ गयी थी।

विशेष :

  1. लेखक ने इस कहानी के माध्यम से बताया है कि व्यक्ति को अपने कर्मानुसार फल भुगतना पड़ता है।
  2. यह उक्ति सत्य है-
    जो जस करहिं, सो तस फल चाखा।
  3. भाषा सरल, व्यंग्यपूर्ण एवं मुहावरेदार है। जैसे-ब्रह्माण्ड छानना।
  4. लेखक ने मानव को सत्कर्म करने की शिक्षा दी है।

3. क्या बताऊँ? गरीबी की बीमारी थी पाँच साल हो गये, पेंशन पर बैठे, पर पेंशन अभी तक नहीं मिली। हर दस पन्द्रह दिन में एक दरख्वास्त देते थे, पर वहाँ से यही जवाब मिलता, “विचार हो रहा है।” इन पाँच सालों में सब गहने बेचकर हम लोग खा गये। फिर बर्तन बिके। अब कुछ नहीं बचा था। फाके होने लगे थे। चिन्ता में घुलते-घुलते और भूखे मरते-मरते उन्होंने दम तोड़ दिया।” (2009, 17)

सन्दर्भ :
पूर्ववत्। प्रसंग-भोलाराम की पत्नी नारद को अपने पति की बीमारी के विषय में बताती है।

व्याख्या :
भोलाराम की बीमारी के विषय में उसकी पत्नी कहती है कि उन्हें गरीबी की बीमारी थी। वे पाँच साल पहले नौकरी पूरी करके पेंशन पर गये थे किन्तु आज तक पेंशन नहीं मिली है। वे पेंशन पाने की कोशिश में लगे रहते थे। दस-पन्द्रह दिन बाद पेंशन के लिए दरख्वास्त लिखते थे। वहाँ पता लगता था कि अभी पेंशन देने पर विचार किया जा रहा है। गरीबी के कारण पेंशन के अभाव में हमने अपने सभी गहने बेचकर अपना पेट भरा। इसके बाद घर के बर्तन बेचकर काम चलाया। अब घर में कुछ नहीं बचा था। भूखे पेट रहने लगे थे। पेंशन की चिन्ता और पेट की भूख से परेशान रहते हुए वे इस संसार से चल बसे।।

विशेष :

  1. सरकारी अधिकारियों के अमानवीय व्यवहार के घातक परिणाम का चित्रण किया गया है।
  2. सरल, सुबोध तथा व्यंग्यात्मक शैली को अपनाया है।
  3. व्यावहारिक खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है।

4. “आप हैं बैरागी ! दफ्तरों के रीति-रिवाज नहीं जानते। असल में भोलाराम ने गलती की। भई यह भी एक मन्दिर है। यहाँ भी दान-पुण्य करना पड़ता है। आप भोलाराम के आत्मीय मालूम होते हैं। भोलाराम की दरख्वास्तें उड़ रही हैं, उन पर वजन रखिए।” (2008)

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
उपर्युक्त कथन पेंशन दफ्तर के साहब का नारद जी के प्रति है। वे उनको दान-पुण्य के विषय में समझा रहे हैं। साहब नारद जी को पेंशन के कागजों पर वजन रखने के लिए कहते हैं।

व्याख्या :
प्रस्तुत गद्यांश में नारद जी को पेंशन कार्यालय के साहब सरकारी कार्यालयों की गतिविधियों से परिचित करवा रहे हैं। जब नारद जी को साहब की बात समझ में नहीं आयी तो उन्होंने कहा कि भोलाराम ने जो गलती की वह आप न करें। यदि आप मेरा कहा मान लेंगे तो आपका कार्य पूर्ण हो जायेगा। आप इस कार्यालय को देवालय समझेंगे तभी आपको सफलता मिलेगी। जिस प्रकार ईश्वर से सम्पर्क करने के लिए व्यक्ति को मन्दिर के पुजारी के समक्ष दान-दक्षिणा देनी पड़ती है।

उसी प्रकार इस कार्यालय में भी आपको अधिकारी से सहयोग करने के लिए भोलाराम की दरख्वास्तों पर ‘वजन’ रखना होगा, क्योंकि बिना वजन के दरख्वास्तें उड़ रही हैं। आपको यह बात मैं केवल इस कारण बता रहा हूँ कि आप भोलाराम के प्रियजन हैं। इसी कारण इन दरख्वास्तों पर वजन रख दें। जिससे कि भोलाराम द्वारा की गयी गलती सुधर जाय। इस प्रकार नारद जी से रिश्वत देने के लिए व्यंग्य में कहा है।

विशेष :

  1. भाषा शैली व्यंग्य प्रधान है। उर्दू शब्दों का प्रयोग है; जैसे-दफ्तर, असल, दरख्वास्तें आदि।
  2. लेखक ने कार्यालय के साहब पर व्यंग्य किया है।

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5. साहब ने कुटिल मुस्कान के साथ कहा, “मगर वजन चाहिए। आप समझे नहीं। जैसे आपकी यह सुन्दर वीणा है, इसका भी वजन भोलाराम की दरख्वास्त पर रखा जा सकता है। मेरी लड़की गाना-बजाना सीखती हैं। यह मैं उसे दूंगा। साधु सन्तों की वीणा से तो और अच्छे स्वर निकलते हैं।”

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
नारद जी जब भोलाराम की पेंशन के सन्दर्भ में साहब के दफ्तर में प्रविष्ट हो जाते हैं तो वे नारद जी को भोलाराम की दरख्वास्त पर वजन रखने को कहते हैं।

व्याख्या :
जब नारद जी भोलाराम की पेंशन के विषय में जानने के लिए कार्यालय में साहब के पास जाते हैं, तब साहब क्रूरता से मुस्करा कर नारद जी से कहते हैं। इस दरख्वास्त पर वजन रखिये। ‘वजन’ का अभिप्राय न समझने पर साहब उदाहरण के लिए कहते हैं आपकी यह वीणा बहुत ही खूबसूरत है। इसके अतिरिक्त आपके पास और कुछ है भी नहीं। अतः बिना वजन के भोलाराम की दरख्वास्त पर कार्यवाही प्रारम्भ नहीं होगी। वजन के रूप में नारद जी को अपनी वीणा गँवानी पड़ी।

ऐसा इस कारण हुआ क्योंकि साहब की लड़की को गायन-वादन का शौक था। अतः साहब ने वीणा को उपयोगी समझकर नारद जी से वजन स्वरूप माँग ली। इसके अतिरिक्त साहब ने यह भी कहा कि यह वीणा मैं अपनी पुत्री को उपहार स्वरूप दे दूँगा। उन्होंने नारद जी की वीणा की भी प्रशंसा की और कहा कि साधु और महात्माओं की वीणा के स्वर वास्तव में, बहुत अच्छे निकलते हैं। यह कहकर साहब ने साधु-सन्तों की प्रशंसा की है।

विशेष :

  1. लेखक ने रिश्वत के लिए व्यंग्य में संकेतात्मक शब्द ‘वजन’ का प्रयोग किया
  2. उर्दू शब्दों का प्रयोग है; जैसे-वजन, दरख्वास्त।
  3. शैली व्यंग्यात्मक है।

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MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 8 कोणार्क

MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 8 कोणार्क

कोणार्क अभ्यास

कोणार्क अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
धर्मपद के प्रति विशु का अतिशय स्नेह का मुख्य कारण क्या था?
(क) धर्मपद का आशु शिल्पी होना।।
(ख) धर्मपद का निश्छल और व्यवहार कुशल होना।
(ग) धर्मपद की कला में अपनी झलक देखना।
(घ) धर्मपद का निडर एवं विद्रोही स्वभाव होना।
(ङ) घोर विपत्ति और असहायता की स्थिति में आशा की किरण बनकर धर्मपद का आना।
उत्तर:
(क) धर्मपद का आशु शिल्पी होना।

प्रश्न 2.
कोणार्क मन्दिर कहाँ स्थित है?
उत्तर:
कोणार्क मन्दिर उड़ीसा प्रान्त में पुरी के समीप समुद्र तट पर स्थित है।

प्रश्न 3.
कोणार्क मन्दिर किस देवता से सम्बन्धित है?
उत्तर:
कोणार्क मन्दिर सूर्य देवता से सम्बन्धित है।

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प्रश्न 4.
महामात्य ने कितने दिन में मन्दिर पूरा करने का आदेश दिया था?
उत्तर:
महामात्य ने मन्दिर को पूरा करने के लिए एक सप्ताह का आदेश दिया।

प्रश्न 5.
विशु ने मन्दिर के पूरा होने पर धर्मपद को क्या देने का वचन दिया?
उत्तर:
विशु ने मन्दिर के पूर्ण होने पर धर्मपद को महाशिल्पी का पद देने का वचन दिया।

कोणार्क लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
धर्मपद कौन था? वह विशु से क्यों मिलना चाहता था? (2009)
उत्तर:
धर्मपद 18 वर्ष का असाधारण वृत्ति वाला युवक था। उसका रंग साँवला, आँखें तेज से युक्त तथा बाल घुघराले थे। वह विशु से इसलिए मिलना चाहता था, क्योंकि उसने यह सुम रखा था कि कोणार्क मन्दिर में वर्षों से अनेक शिल्पी कार्य कर रहे थे। लेकिन उन शिल्पियों को तथा उनकी स्त्रियों को दासियों के समान कार्य करना पड़ता था। समस्त उत्कल में अकाल पड़ रहा था। शिल्पियों के निरन्तर कार्य करने के बाद भी उन्हें अमानवीय व्यवहार और अत्याचार को सहन करना पड़ता था। इस प्रकार धर्मपद शिल्पियों की परेशानियों को सबके सम्मुख रखना चाहता था।

प्रश्न 2.
मन्दिर पूरा न बनने की स्थिति में विशु ने क्या निर्णय लिया और क्यों? कारण सहित लिखिए।
उत्तर:
मन्दिर पूरा न बनने की स्थिति में विशु ने यह निर्णय लिया कि यदि कोणार्क का मन्दिर बनवाकर पूर्ण करने में धर्मपद की युक्ति सफल हो गयी तो विशु अपने स्थान पर धर्मपद को महाशिल्पी बना देगा। यह निर्णय विशु ने इसलिए लिया था क्योंकि महामन्त्री चालुक्य ने यह घोषणा कर दी थी, कि यदि सप्ताह भर के अन्दर कोणार्क की स्थापना नहीं हुई तो वे समस्त शिल्पियों के हाथ काटकर फेंक देंगे। इसका प्रमुख कारण था, कि चालुक्य ने सुन रखा था कि कोणार्क में राज्य कोष व्यर्थ ही नष्ट हो रहा है। शिल्पी अपना कार्य उचित प्रकार नहीं कर रहे हैं। वे अपना समय व्यर्थ की गप्पों में लगाते हैं। अत: दस दिन के बाद भी कलश स्थापना नहीं हो पायी। इस प्रकार धन व समय दोनों का दुरुपयोग हो रहा है। महामन्त्री के विरुद्ध जाने का साहस विशु को न था और वह कभी भी यह नहीं चाहता था कि शिल्पियों के हाथ काट डाले जायें।

प्रश्न 3.
विशु धर्मपद से क्यों प्रभावित हुए? सकारण लिखिए। (2008, 09)
उत्तर:
विशु धर्मपद से इसलिए प्रभावित हुए क्योंकि धर्मपद कला का पारखी था। कला को वह जीवन यापन का साधन ही नहीं अपितु जीवन की सबसे श्रेष्ठ पूँजी समझता था। जब धर्मपद को पता चलता है कि सात दिन के पश्चात उत्कल के समस्त शिल्पियों का रक्त बहेगा, विपत्ति में अन्य शिल्पियों का सहयोग करने के लिए आगे बढ़ता है और इस प्रकार कहता है-
“निर्दय अत्याचार की छाया में ही जो विकसते और मुरझाते हैं, उनको एकाध विपत की घड़ी के लिए तैयार होने की जरूरत नहीं आर्य।”

इस प्रकार की भावना धर्मपद के मन में इसलिए जागृत हुई क्योंकि उसे यह बात ज्ञात थी कि शिल्पियों के साथ अमानवीय व्यवहार होता था। धर्मपद कभी भी यह नहीं चाहता था कि शिल्पियों को परिश्रम करने के उपरान्त कार्य पूरा न होने पर सजा भुगतनी पड़े। इसके पश्चात् वह सरलता से अपनी युक्ति सफल हो जाने पर एक दिन के लिए महाशिल्पी के समस्त अधिकार माँग लेता है।

लेकिन धर्मपद का उद्देश्य प्रधान शिल्पी बनने का नहीं था। उसका उद्देश्य तो केवल इतना था कि कोणार्क का मन्दिर पूर्ण हो जाये। विशु धर्मपद की कर्त्तव्य भावना, सरलता एवं सहनशीलता से प्रभावित था। प्रताड़ित होने पर भी धर्मपद कर्त्तव्य से विमुख नहीं हुआ। अपने शिल्पी साथियों की तत्परता से सहायता करने में जुट गया। शिल्पकार ही शिल्पकार की वेदना को आँकने में सक्षम होता है।

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प्रश्न 4.
महामात्य के चरित्र की तीन विशेषताएँ बताइए। (2017)
उत्तर:
महामात्य के चरित्र की विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
(1) अभिमानी एवं हृदयहीन – महामात्य चालुक्य अभिमानी एवं हृदयहीन था। उसको किसी के भी सम्मान की परवाह नहीं थी। वह अपनी आज्ञा को सर्वोपरि मानकर प्रजा से उसका पालन करवाना चाहता था। उसके हृदय में शिल्पियों के प्रति न तो दया भावना थी, न ही सम्मान की भावना। चालुक्य के इस कथन को देखें धर्मपद को खड़ा देखकर कहता है-
“प्रतिहारी, इसे धक्का देकर निकालो। मुफ्तखोर कहीं का।
वह शिल्पियों को उपेक्षा की दृष्टि से देखता था।

(2) कार्यकुशल – महामात्य चालुक्य एक चतुर महामात्य था। वह प्रजा की प्रत्येक गतिविधि पर निगाह रखता था। उसका मुख्य उद्देश्य रहता था कि कोई भी व्यक्ति किसी प्रकार की चालाकी न करे। इसी कारण वह बिना किसी सूचना के अचानक ही पहुँचकर शिल्पियों की गतिविधियों का निरीक्षण करता था। वह इस बात को भी स्वीकार करता था कि यदि मैं ऐसा न करूँ तो तुम लोगों का भेद कैसे खुलेगा? चालुक्य की कार्यकुशलता का उदाहरण उसके इस कथन से स्पष्ट होता है-
“सूचना देता तो तुम लोगों को भंडाफोड़ कैसे होता? राजनगरी में मैंने ठीक सुना था कोणार्क में राज्य कोष नष्ट हो रहा है। न शिल्पी लोग ठीक काम रहे हैं न मजदूर। दस दिन हो गए कलश तक न स्थापित हो सका।”

(3) कटुभाषी – महामात्य कार्यकुशल ही नहीं अपितु वह कटुभाषी भी था। यह बात उसके व्यवहार से पूर्णतः उजागर हो जाती है- “कटु शब्द (पैशाचिक हास्य) अब कटु शब्दों से काम नहीं चलेगा विशु। मैंने सुना है कि शिल्पी लोग राज्य के विरुद्ध सिर उठा रहे हैं, सुवर्ण मुद्राओं में वेतन माँगते हैं, और-”

इस प्रकार महामात्य के कटु व्यवहार का पता चलता है। उत्कल नरेश कुछ कहे अथवा न कहे वह अपनी आज्ञा को नरेश की आज्ञा घोषित कर मनमानी करना चाहता है। क्योंकि जब उत्कल नरेश बंग विजय करने गये थे तभी महामात्य यह घोषणा कर देता है और कहता है-

“सुन लो और कान खोलकर सुन लो। आज से एक सप्ताह के अन्दर यदि कोणार्क देवालय पूरा न हुआ तो (कुछ रुककर शब्दों पर जोर देते हुए) तुम लोगों के हाथ काट दिये जायेंगे।” महामात्य अपनी बात को महत्त्व देते हुए पुन: कहता है (रुकता हुआ) हाँ, हाँ। महाराज नरसिंह देव की आज्ञा है। ……और मेरी, महादण्डपाशिक की आज्ञा है (चलते समय सब लोगों पर क्रूर दृष्टि डालते हुए) उत्कल नरेश। हूँ।

प्रश्न 5.
सौम्य कौन थे तथा विशु को जीवन की किस घटना का पश्चाताप करने के लिए कहते हैं?
उत्तर:
तातश्री सौम्य नाट्याचार्य की वेशभूषा में हैं। नाट्याचार्य सौम्यश्री का विचार है कि जब नट मन्दिर में देव दासियाँ नृत्य करेंगी, तो ताल देने के लिए कोणार्क देवालय स्वयं ही थिरक उठेगा। इसके पश्चात् सौम्य अपनी मूर्ति बनाने के लिए विशु से कहता है। विशु तत्परता से छैनी, हथौड़ी लेकर मूर्ति बनाने में लग जाता है। उसी समय विशु और सौम्य परस्पर वार्तालाप करते हैं। विशु सौम्य से इस प्रकार कहता है-
“सौमू अगर कोणार्क पूरा नहीं हुआ तो उसे नष्ट करना होगा और मुझे पातकी का प्रायश्चित।”

इस बात का उत्तर देते हुए सौम्य कहता है-
“शिल्पी तुम विष्णु हो शंकर नहीं, निर्माता हो संहारक नहीं, और फिर ये स्तम्भ और ये पाषाण ! इन्हें तो भूकम्प ही गिरा सकते हैं, अथवा काल की गति।”

इस पर तात श्री सौम्य के समक्ष जब विशु अपने विचार पुनः व्यक्त करता है और सूर्य भगवान् की मूर्ति को निराधार बताता है।

तब तात सौम्य विशु को ईश्वर की शक्ति से परिचित कराते हैं। वे कहते हैं कि तुम जिस ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं करते वही ईश्वर इस संसार का निर्माता है। वही इस संसार की गति है। अतः तुम्हें ईश्वर के प्रति इस प्रकार के विचार रखने के लिए पश्चाताप करना होगा। सर्वव्यापक भगवान् की सत्ता के प्रति विश्व नतमस्तक है। इसी घटना का पश्चाताप करने को कहा।

प्रश्न 6.
विशु के चरित्र पर प्रकाश डालिए। (2011)
उत्तर:
(1) आदर्श शिल्पी – कोणार्क एकांकी में विशु प्रमुख पात्र है। सम्पूर्ण एकांकी में एकमात्र आचार्य विशु ही इस प्रकार के आदर्श पात्र हैं जो समाज के प्रति एवं शिल्पियों के प्रति उदारता की भावना रखते हैं। वे एक ऐसे आदर्श व्यक्तित्व के पुरुष है जो कि प्रत्येक व्यक्ति को महत्व प्रदान करते हैं। आचार्य विशु के इस कथन द्वारा यह बात ज्ञात होती है, जब राजीव कहता है कि एक नवयुवक आपसे मिलना चाहता है परन्तु उसकी वाणी ओजपूर्ण है। तब उसकी बात को आचार्य विशु सहजता से लेकर कहते हैं। मैं उसे अवश्य मिलूँगा। क्योंकि वे ऐसे के प्रति इस प्रकार का भाव रखते हैं-
“मेरी दृष्टि के स्पर्श से उसकी प्रतिभा की गंध जागृत होकर उसकी वाणी को मौन कर देगी। मुझे उसकी कला चाहिए।”

(2) उदार एवं सहृदय – आचार्य विशु उदार एवं सहृदय प्रकृति के व्यक्ति हैं। उन्हें तनिक भी घमण्ड नहीं है। वे जीवन के प्रति भी इसी प्रकार कर दृष्टिकोण रखते हैं। देखिए-
“यह मन्दिर नहीं सारे जीवन की गति का रूपक है। हमने जो मूर्तियाँ इसके स्तम्भों, इसकी उपपीठ और अधिस्थान में अंकित की हैं उन्हें ध्यान से देखो। देखते ही उनमें मनुष्य के सारे कर्म, उसकी सारी वासनाएँ एवं मनोरंजन और मुद्राएँ चित्रित हैं। यही तो जीवन है।”

इस प्रकार आचार्य विशु जीवन के प्रत्येक पहलू को अपने ध्यान में रखते थे। उनके मन में शिल्पियों के प्रति उदारता की भावना थी। जब महामन्त्री चालुक्य यह आदेश देते हैं कि यदि कलश स्थापना एक सप्ताह के अन्दर नहीं हुई तो वे समस्त शिल्पियों के हाथ कटवा देंगे। तब आचार्य विशु को आश्चर्य होता है, वे निम्न प्रकार कहते हैं-

“(अविश्वासपूर्ण स्वर में) शिल्पियों के हाथ काट लिए जायेंगे। इसके पश्चात् आचार्य विशु अत्यन्त व्याकुल हो जाते हैं और अपने सहयोगी शिल्पियों को दण्ड के विषय में बताने का साहस नहीं कर पाते हैं। इसके लिए वे एक युवक से कहते हैं “विनाश का वह संदेश अपने साथियों को भी सुना दो साहस नहीं कि उस विकराल घड़ी के लिए उन्हें तैयार कर सकूँ।”

(3) पद लालसा से मुक्त-आचार्य विशु.को केवल कर्म की चिन्ता है। उन्हें न तो अपने पद का घमण्ड है न ही किसी प्रकार का लालच । जब आचार्य विशु से धर्मपद एक दिन के उनके सभी अधिकार माँगता है। तब आचार्य विश सहजता से इस प्रकार कहते हैं-

“अगर कोणार्क पूरा हो जाता है तो एक दिन क्या सभी दिन के लिए वे अधिकार तुम्हारे हो जायेंगे। मैं तुम्हें अपने स्थान पर शिल्पी बना दूंगा।” इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य विशु को पद की कोई लालसा न थी।

(4) पारखी व्यक्ति-युवक धर्मपद यद्यपि आयु में आचार्य विशु से छोटा था। परन्तु आचार्य विशु ने उसे पूर्ण सम्मान दिया एवं उसकी प्रतिभा को सराहा। उस युवक ने आचार्य विशु के विनाश होने पर उन्हें कार्य करने की प्रेरणा दी। युवक की भावनाओं ने उन्हें कोणार्क मन्दिर की कलश स्थापना के लिए प्रेरित किया।

अन्त में कह सकते हैं आचार्य विशु एक आदर्श शिल्पी एवं उत्तम पात्र है। उनके मन मानस में मानवता एवं करुणा की लहरें तरंगित हो रही हैं। उनका जीवन एक वीतरागी संन्यासी की भाँति है, जो सर्वस्व अर्पण करके कलाकारों एवं जन-सामान्य को आनन्द की अनुभूति कराना चाहते हैं।

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कोणार्क दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
नाटक के तत्त्वों के आधार पर कोणार्क के बारे में लिखिए।
उत्तर:
नाटक के तत्वों के आधार पर कोणार्क का वर्णन इस प्रकार है-
(1) कथावस्तु – कोणार्क की कथावस्तु मुख्य रूप से कोणार्क मन्दिर की स्थापना को लेकर है। प्रारम्भ में कोणार्क मन्दिर के विषय में बताया है कि वह एक भौतिक स्मारक नहीं अपितु भारत के सांस्कृतिक वैभव की भी धरोहर है। कोणार्क का सूर्य मन्दिर उड़ीसा प्रान्त में समुद्र तट पर स्थित है। कथावस्तु में लेखक ने कोणार्क मन्दिर के भव्य सौन्दर्य एवं शिल्पियों की कलाकृति को विशेष महत्त्व दिया है। इस एकांकी के माध्यम से लेखक ने उस समय की तत्कालीन सामाजिक एवं राजव्यवस्था का भी वर्णन किया है। कथावस्तु में यथास्थान आरोह-अवरोह है। शिल्पकारों के दण्डाधिकारी द्वारा हाथ कटवाने का आदेश कथा का चरमोत्कर्ष है। कथानक धारा प्रवाह एवं रोचक है।

(2) पात्र चरित्र-चित्रण – प्रस्तुत एकांकी में कई पात्र हैं सबका अपना-अपना स्थान एवं महत्त्व है। एकांकी में सभी पुरुष पात्र हैं। मुख्य रूप से विशु, धर्मपद, सौम्य, चालुक्य (महादण्डाधिकारी), राजीव एवं उत्कल नरेश गौण पात्र हैं।

(i) विशु-प्रस्तुत एकांकी का प्रमुख पात्र महाशिल्पी था। वह सरल, सहृदय एवं उत्तम विचारों वाला था। कोणार्क मन्दिर की स्थापना के लिए अथक प्रयास करता है। धर्मपद को अपना पद देने के लिए भी सहर्ष तैयार हो जाता है, क्योंकि वह महा चालुक्य के दण्ड से भयभीत था। वह यह कदापि नहीं चाहता था कि कोणार्क मन्दिर की स्थापना अपूर्ण रहे। शिल्पियों को अकारण ही अपने हाथ गँवाने पड़े। इस समस्या का समाधान विशु धर्मपद की सहायता से करता है। इस प्रकार विशु एक सहृदय एवं उदार विचारों वाला कलाकार है व कला के प्रति समर्पित है।

(ii) धर्मपद-एक साधारण साँवले रंग का 18 वर्ष का नवयुवक है। वह महत्त्वाकांक्षी, निश्छल एवं व्यवहार कुशल है। धर्मपद निडर एवं विद्रोही स्वभाव का है। विपत्ति में वह अपने अपमान की चिन्ता न करते हुए कोणार्क मन्दिर में कलश स्थापना का प्रयास करना चाहता है। वह एक कर्त्तव्यपरायण और आत्मविश्वासी युवक है। उसे ज्ञात था कि कलश स्थापना करना सरल नहीं है परन्तु वह एक बार प्रयत्न करके सभी शिल्पियों को दण्ड से बचाना चाहता है। इस प्रकार चारित्रिक विश्लेषण में इस एकांकी का श्रेष्ठ पात्र धर्मपद है। पराए दुःख में सहभागी बनना उसके जीवन का मुख्य लक्ष्य है।

(iii) सौम्य-नाट्याचार्य है इस कारण वह कलाकार एवं शिल्पियों को सम्मान देता है। उसके शिल्पियों के प्रति इस प्रकार के विचार हैं-
“शिल्पी तुम विष्णु हो, शंकर नहीं। निर्माता हो संहारक नहीं। और फिर ये स्तम्भ और ये पाषाण। इन्हें तो भूकम्प ही गिरा सकते हैं अथवा काल की गति।”

वह उत्कल नरेश को एक श्रेष्ठ व्यक्ति मानता है। चालुक्य के प्रति उसके विचार निम्नवत् हैं-
“चालुक्य महामात्य का इस तरह सहसा आना मुझे अच्छा नहीं लगता, विशु।”
“उत्कल नरेश का क्रोध चाहे क्षणिक भले ही हो लेकिन महामात्य राजराज चालुक्य उसे प्रज्ज्वलित रखते हैं और उन्होंने दया से पसीजना नहीं सीखा है।”

इस प्रकार सौम्य के हृदय में उत्कल नरेश के प्रति सम्मान की भावना है। महाराज चालुक्य को वे हृदयहीन व्यक्ति घोषित करते हैं। क्योंकि उन्होंने स्वयं महादण्डपाशिक की क्रूरता को देखा है। वे इस प्रकार कहते हैं-
“राजनगरी में अपराधियों के हाथ कटते मैंने देखे हैं। बड़ी पीड़ा होती है।” इस प्रकार सौम्य एक आदर्श एवं उत्तम विचारों वाला नाट्याचार्य है।

(iv) महामंत्री चालुक्य-महामंत्री चालुक्य अत्यन्त क्रूर एवं दुष्ट प्रवृत्ति का शंकालु व्यक्ति है। उसको किसी भी व्यक्ति के प्रति विश्वास न था। प्रत्येक राज्य कर्मचारी को शंका की दृष्टि से देखता था। उसके हृदय में राजकर्मचारियों के प्रति इस प्रकार के विचार थे-

“राजनगरी में मैंने ठीक सुना था कि कोणार्क में राज्य कोष नष्ट हो रहा है। न शिल्पी लोग ठीक काम कर रहे हैं न मजदूर। दस दिन हो गये कलश स्थापित न हो सका।”

इसके पश्चात विशु को आदेश देता है यदि एक सप्ताह के अन्दर कलश स्थापना न हुई तो शिल्पियों के हाथ काट डाले जायेंगे। चालुक्य की उक्त भावना उसके हृदय हीनता और क्रूरता का प्रतीक है।

(v) उत्कल नरेश-एक कुशल शासक एवं आदर्श विचारों के हैं। उनके हृदय में दया सद्भावना है। वे महामात्य पर सम्पूर्ण राज्य का उत्तरदायित्व सौंप कर बंग विजय के लिए प्रस्थान करते हैं। वे सरल व सहृदय व्यक्ति हैं। उनके विषय में शिल्पी विशु के विचार इस प्रकार हैं। “महाराज श्री नरसिंह देव की क्रोधाग्नि? उसे तो करुणा की फुहारें क्षण भर में शान्त कर देती हैं।” वह इस एकांकी के गौण पात्र हैं।

(vi) राजीव-राजीव प्रधान मूर्तिकार है। सरल व सहृदय विचारों वाला व्यक्ति है। शिल्पियों के प्रति उसके हृदय में सम्मान एवं दया की भावना है। उसकी दृष्टि में चालुक्य महामंत्री अत्यन्त दुष्ट है, उसको वह देखना भी पसन्द नहीं करता था। उत्कल नरेश व अन्य शिल्पियों के प्रति उदारता का भाव रखता है। कला का पारखी एवं सम्मान करने वाला आदर्श पुरुष है।

इस प्रकार निष्कर्ष में कह सकते हैं कि नाटकीय तत्त्वों के आधार पर प्रस्तुत नाटक सफल एवं प्रशंसनीय है। नाटक के पात्र जीवन्त एवं विषयानुरूप हैं।

(3) भाषा-शैली – प्रस्तुत एकांकी की भाषा सरल, तत्सम प्रधान संस्कृतनिष्ठ है। वाक्य सुगठित हैं तथा वाक्य विन्यास दीर्घ है। लेकिन उनमें सरलता भावगम्य की सहजता है।

भाषा का उदाहरण देखिए-मुझे न मालूम था कि सूर्यदेव के जिस विशाल वाहन का स्वप्न मैं देखा करता था, वह सच्चा होते-होते इस पार्थिव धरातल से उठकर भगवान भास्कर के चरण छूने के लिए उतावला हो उठेगा। भाषा काव्य गुणों से युक्त है। शैली परिमार्जित तथा प्रवाहपूर्ण तथा विषय को स्पष्ट करने में पूर्णरूपेण सक्षम है।

(4) देशकाल वातावरण – प्रस्तुत एकांकी में मन्दिर कलश की स्थापना के समय उपस्थित व्यवधान का अंकन है। मन्दिर के निर्माण में शिल्पियों ने अथक परिश्रम करके जो योगदान दिया है वह प्रशंसनीय है। एकांकीकार ने तत्कालीन सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था का उल्लेख किया है।

राजनैतिक दशा का उदाहरण देखिए – राज्य सेना तो बंग प्रदेश में यवनों से लड़ रही है और इधर दण्डपाशिक सैनिकों के बल पर महामात्य की शक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।

सामाजिक दशा का उदाहरण – “पसीने में नहाते हुए किसान की, कोसों तक धारा के विरुद्ध नौका को खेने वाले मल्लाह की, दिन-दिन भर कुल्हाड़ी लेकर खटने वाले लकड़हारे की।” इस प्रकार एकांकी का देशकाल एवं वातावरण तात्कालिक व्यवस्था के अनुरूप है।

(5) शीर्षक – सम्पूर्ण कथावस्तु कोणार्क के मन्दिर निर्माण पर आधारित है। आदि से लेकर अन्त तक सबका केन्द्र बिन्दु यह मन्दिर ही है। अतः शीर्षक उपर्युक्त सार्थक तथा औचित्यपूर्ण है।

(6) उद्देश्य – एकांकीकार का एकांकी सृजन में कोई न कोई उद्देश्य रहता है। उद्देश्य के अभाव में नाटक का कोई मूल्य नहीं रहता है।

कुशल एकांकीकार जगदीशचन्द्र माथुर ने प्राचीन, कला एवं संस्कृति का जीवन्त रूप प्रस्तुत किया है। तत्कालीन सामाजिक एवं राजनैतिक दशा का सफल चित्रण किया है। शिल्पकारों की दयनीय स्थिति का विशेष अंकन है। लेखक का मुख्य उद्देश्य शिल्पियों के मनोभावों को चित्रित करना है। एकांकी का अन्त सुखद है। इस प्रकार एकांकी नाट्य कला की दृष्टि से पूर्णरूपेण सफल है।

प्रश्न 2.
कला के सम्बन्ध में आचार्य विशु और धर्मपद के दृष्टिकोणों के अन्तर को स्पष्ट कीजिए। (2008)
उत्तर:
कला के सम्बन्ध में आचार्य विशु और धर्मपद के दृष्टिकोण पृथक्-पृथक् हैं।

विशु कला को जीवन का प्रतिबिम्ब मानता है जबकि धर्मपद कला को जीवन मानता है और जीवन-यापन का साधन भी। धर्मपद का मानना है कि कला जीवन के आदि और उत्कर्ष के मध्य की सीढ़ी है। धर्मपद पुरुषार्थ में विश्वास रखता है जबकि विशु कला को चयन करने के पक्ष में है। विश के कला के विषय में इस प्रकार के विचार हैं देखें-“उपवन में माली छाँट-छाँटकर सुन्दर और मनमोहक पौधों और वृक्षों को ही रखता है।”

लेकिन धर्मपद के विचार विशु के विचारों से अलग हैं देखें-
“छाँटने वाली आँखों का खेल है, आचार्य। आज के शिल्पी की आँखें वहाँ नहीं पड़ती, जहाँ धूल में हीरे छिपे पड़े हैं।”

धर्मपद कलाकारों एवं शिल्पकारों के प्रति उदार विचार रखते हैं। धर्मपद का कहना है कि शिल्पकारों को दास-दासियों के समान कार्य करना पड़ता है। उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता है। अतः शिल्पियों को धर्मपद सम्मान व स्वाभिमान की श्रेणी में रखना चाहता है।

जबकि विशु का विचार है कि हमें राज्य की अनुचित बातों में कभी नहीं पड़ना चाहिए। इस प्रकार हम देखते हैं कि कला के विषय में विशु एवं धर्मपद की भावना पृथक्-पृथक् है। धर्मपद कर्मनिष्ठ है। वह जलती हुई राख में प्राण फूंक देना चाहता है। इस प्रकार धर्मपद कला का सच्चा पारखी है।
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प्रश्न 3.
शिल्पियों की कौन-कौन सी समस्याएँ इस नाटक में बताई गई हैं? विस्तार से लिखिए।
उत्तर:
प्रस्तुत नाटक में शिल्पियों की विभिन्न प्रकार की समस्याओं को जगदीशचन्द्र माथुर ने उजागर किया है निम्नवत् अवलोकनीय हैं-
(1) श्रम को महत्त्व न देना – शिल्पियों को श्रम करने के उपरान्त उसका पूरा लाभ नहीं मिलता था। शिल्पकार का पूरा परिवार मूर्ति बनाने में लगा रहता था। यहाँ तक कि शिल्पियों की स्त्रियों को भी दासियों की भाँति कार्य करना पड़ता था। उनके श्रम को महत्त्व नहीं दिया जाता था। उनको किसी भी प्रकार की स्वतन्त्रता नहीं थी। कार्य करते रहने के उपरान्त भी उनको क्षण भर बात करते देखकर भी प्रताड़ित किया जाता है। उदाहरण के लिए देखिए-
“यहाँ तो मैं देखता हूँ गप्पें हो रही हैं। (सहसा धर्मपद पर दृष्टि पड़ जाती है, बातें करते हुए और यह युवक यहाँ क्यों खड़ा है।)

(2) आर्थिक दृष्टि – शिल्पियों की आर्थिक दशा अच्छी न थी। श्रम करने के उपरान्त भी उन्हें जीवन निर्वाह के लिए धन नहीं प्राप्त होता था। कटु वचन भी सुनने पड़ते थे। उदाहरण देखें-
“मैंने सुना है कि शिल्पी लोग राज्य के विरुद्ध सिर उठा रहे हैं, सुवर्ण मुद्राओं में वेतन माँगते है।

आर्थिक परेशानी को जब शिल्पी किसी से कहते हैं तो उस बात को महत्त्व न देकर उन्हें अव्यवहार का सामना करना पड़ता है। अकाल के समय शिल्पियों पर आर्थिक कठिनाइयों का पहाड़ टूट पड़ता है। भूखे रहने पर भी वे किसी से कुछ नहीं कह सकते। शिल्पियों की भावनाओं की कद्र नहीं की जाती थी।

(3) दण्ड विधान – शिल्पियों को राजकर्मचारियों के कटु वचन और अमानवीय व्यवहार तो सहन करना ही पड़ता है। कार्य पूर्ण न होने पर कठोर दण्ड भी भुगतना पड़ता था। महामात्य चालुक्य के व्यवहार से इस तथ्य का पता चलता है। देखें-
“विशु, वर्षों से बिन माँगी प्रशंसा सुनते-सुनते तुम अपने को दण्डविधान से परे समझने लगे हो। आज में तुम्हारे इस घमण्ड को चूर करने ही आया हूँ ……….

पुनः महामात्य चालुक्य आदेश देता है-
“आज से एक सप्ताह के अन्दर यदि कोणार्क देवालय पूरा न हुआ तो (कुछ रुककर शब्दों पर जोर देते हुए) तुम लोगों के हाथ काट दिये जायेंगे।” इस एकांकी के माध्यम से लेखक ने शिल्पियों की अनेक समस्याओं पर प्रकाश डाला है तथा समाज में शिल्पियों की समस्याओं का निदान करने का प्रयास भी किया है।

क्योंकि इस एकांकी में इस तथ्य को स्पष्ट उजागर किया है कि शिल्पियों के साथ कैसा व्यवहार होता है। देखिए-
“दूर-दूर से आने वाले शिल्पी महामात्य द्वारा किए गए अत्याचारों के समाचार लाते हैं। उनमें से कितनों ही के कुटुम्बों पर महामात्य के अन्याय का हथौड़ा पड़ चुका है।”

प्रश्न 4.
धर्मपद के चरित्र की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
(1) आदर्श नवयुवक – धर्मपद एक आदर्श नवयुवक था। उसकी आयु लगभग 18 वर्ष थी, रंग साँवला था। असाधारण वृत्ति का व्यक्ति है। वह तंग अंगरखा और ऊँची धोती पहनता है। बहुत छोटी आयु में ही बिना किसी आचार्य की सहायता के एक आशु शिल्पी बन गया था। वह एक आदर्श विचारधारा का नवयुवक था। उसे जैसे ही पता चलता है कोणार्क मन्दिर का कार्य अपूर्ण है, तब वह आचार्य विशु के समक्ष एक प्रस्ताव रखता है कि कलश स्थापना के लिए उसे एक अवसर प्रदान किया जाये। उसका कहना था कि-
“मेरे मन में जो चित्र है उसे यों पूरी तरह तो नहीं समझा सकता किन्तु, देखिए अम्ल का आकार यदि कुछ इस तरह का हो तो ……….

इसे पश्चात् वह एक अन्य बात कहता है-
“ठहरिये ! यदि मेरी युक्ति सफल हो जाए और कोणार्क शिखर को हम स्थापित कर सके तो मुझे क्या मिलेगा?”

(2) धर्मपद का निडर एवं विद्रोही स्वभाव होना – धर्मपद एक निर्भीक एवं विद्रोही स्वभाव का व्यक्ति है। वह किसी से कुछ भी कहने में संकोच अथवा भय का अनुभव नहीं करता। जब महामन्त्री चालुक्य उसे बात करते हुए देखते हैं और पूछते हैं कि यह युवक यहाँ क्यों खड़ा है, वह निडरता से उत्तर देता है-

“मैं आचार्य के सामने शिल्पियों की दुःख गाथा कह रहा था। उसे यह भय कदापि न था कि महामंत्री उसे दण्डित भी कर सकते हैं। जब राजीव पहली बार धर्मपद से मिलते हैं तो वह उस नवयुवक में विद्रोह का ताप अनुभव करते हैं।”

(3) धर्मपद की व्यवहार कुशलता – इस बात का प्रमाण है कि वह निर्भीक होते हुए भी व्यवहार कुशल है। उसका घोर विपत्ति के समय शिल्पियों की सहायता करने के लिए आगे बढ़ना उसके निश्छल स्वभाव का प्रमाण है। यद्यपि वह इस बात से भली-भाँति परिचित था कि कोणार्क मन्दिर में यदि कलश स्थापना समय से न हुई तो समस्त शिल्पियों के हाथ काट डाले जायेंगे। लेकिन वह उन शिल्पियों की निश्छल भाव से सहायता करने को आगे बढ़ता है और उसे इस कार्य में सफलता भी मिलती है।

(4) धर्मपद कला में जीवन झाँकी – धर्मपद कला में अपनी झलक देखना पसन्द करता है। क्योंकि उसका दृष्टिकोण अन्य शिल्पियों से पृथक् था। उसकी भावना इस कथन द्वारा स्पष्ट होती है-

“अंगार मूर्तियों को देखते-देखते में अघा गया हूँ। जब चारों ओर अत्याचार और अकाल की लपटें बढ़ रही हों, शिल्पी एक शीतल और सुरक्षित कोने में यौवन और विलास की मूर्तियाँ ही बनाता रहे।”

धर्मपद अपनी इच्छा प्रकट करता है कि यदि मैं कोणार्क शिखर को स्थापित कर सका तो क्या मुझे एक दिन के लिए सिर्फ एक दिन के लिए मन्दिर प्रतिष्ठापन के दिन आप अपने सब अधिकार मुझे दे दें। विशु के हृदय में धर्मपद के क्या विचार हैं, देखिए-
“इस युवक ने ठण्डी होती हुई राख को फूंक मार कर प्रज्ज्वलित कर दिया।”

निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि धर्मपद जैसे साहसी शिल्पकार समाज को नई दिशा देने में समर्थ हो सकते हैं। निम्न विचार देखिए-
“अभी-अभी होगा परिवर्तन याद रहे यह बात हमारी।
हे समाज के ठेकेदारों अब न चलेगी घात तुम्हारी।।”

प्रश्न 5.
कोणार्क के किस पात्र ने आपको अत्यधिक प्रभावित किया है। कारण सहित लिखिए।
उत्तर:
कोणार्क का सबसे अधिक प्रभावित करने वाला पात्र धर्मपद है। इस एकांकी में धर्मपद ही ऐसा व्यक्ति है जो कि सम्पूर्ण एकांकी में आरम्भ से अन्त तक छाया हुआ है। धर्मपद के सफल प्रयास के कारण ही एकांकी का अन्त सुखद हो पाया।

वास्तव में, इस एकांकी में धर्मपद ही एकमात्र ऐसा पात्र है जिसने समाज में शिल्पियों के साथ होने वाले अन्याय और अत्याचारों को निडरता से उजागर किया है।

धर्मपद कला को जीवन-यापन का श्रेष्ठ साधन मानता है। उसका कहना है कि कला की व्यक्ति को साधना करनी चाहिए, तभी व्यक्ति जीवन में सफल हो पाता है। उसके लिए यह आवश्यक नहीं कि उसे किसी आचार्य के समक्ष दीक्षा लेकर ही कार्य करना पड़े। उसका कथन है कि-
“आज के शिल्पी की आँखें वहाँ नहीं पड़ती, जहाँ धूल में हीरे छिपे पड़े हैं।”

वह कला का पारखी है तथा शिल्पियों की दुर्दशा से पूर्णरूपेण परिचित है। वह अपने विचारों को महामंत्री के समक्ष भी रख देता है और कह देता है कि मैं शिल्पियों के साथ होने वाले अन्याय और अत्याचार का वर्णन कर रहा हूँ। राजीव से इस विषय में उसके निम्न विचार देखिए-

“मैं तो एक ऐसे संसार की ओर ध्यान खींचना चाहता हूँ जो कि आपके निकट होते हुए भी ओझल हो गया है। इस मन्दिर में वर्षों से 1200 से अधिक शिल्पी काम कर रहे हैं। इनमें से कितनों की पीड़ा से आप परिचित हैं? जानते हैं आपके महामात्य के भृत्यों ने इनमें से बहुतों की जमीन छीन ली है, कइयों की स्त्रियों को दासियों की तरह काम करना पड़ रहा है, और उधर सारे उत्कल में अकाल पड़ रहा है।”

धर्मपद ने इस एकांकी के शिल्पियों की विषम परिस्थितियों को उजागर किया है। इसके। अतिरिक्त शिल्पियों के प्रति उदार भावना रखने के लिए प्रेरित किया है।
इस सम्बन्ध में किसी कवि की निम्न भावना देखिए-
“मैं कहता हूँ जिओ और जीने दो संसार को।
जितना ज्यादा बाँट सको बाँटो जग में प्यार को।”

इस प्रकार निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि धर्मपद के चरित्र ने हमें सबसे अधिक प्रभावित किया है। वह एक ऐसा नवयुवक है जो दूसरों के दुःख से द्रवीभूत होने वाला है। वह एक आदर्श मानव होने के साथ ही मानवीय भावनाओं का समुचित मूल्यांकन करने वाला है। भारतीय क्षितिज पर वह एक ध्रुव तारे की भाँति प्रकाशित होकर दूसरों को भी उस पथ पर चलने की प्रेरणा दे रहा है।

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प्रश्न 6.
धर्मपद ने कोणार्क के कलश को स्थापित करने में किस प्रकार सहायता की? समझाइए।
उत्तर:
धर्मपद लगभग 18 वर्ष की आयु का साँवले रंग का नवयुवक था। उसने बहुत छोटी आयु से ही शिल्पकारी का कार्य आरम्भ कर दिया था। जब उसे यह बात पता चलती है कि लगातार दस दिन कार्य करने के बाद भी शिल्पियों को कोणार्क मन्दिर की कलश स्थापना में सफलता न मिली। तब धर्मपद ने साहस कर आचार्य विशु से कहा, “यदि मुझे मन्दिर के कलश की स्थापना का एक अवसर मिल जाये तो मैं इस कार्य को पूरा करके अवश्य दिखा दूंगा।”

ऐसा में इसलिए करना चाहता हूँ जिससे शिल्पियों को महामन्त्री चालुक्य के कोप-भाजन का पात्र न बनना पड़े,क्योंकि शिल्पियों की दशा पहले से ही अच्छी नहीं है।

तातश्री सौम्य ने यद्यपि धर्मपद से यह भी कहा, “तुम अनुभव शून्य हो, इसे पूरा करना कठिन है। अपनी शक्ति से बाहर की बात न करो।” परन्तु धर्मपद ने विशु से कहा, “यदि मुझे अवसर मिल जाये क्या करोगे?” इस पर धर्मपद ने उत्तर दिया-
“आचार्य मुझे लगता है कि कोणार्क के कमल की पंखुड़ियाँ उल्टी हैं। इन्हें उलट देने पर भी कलश शायद ठहर सकेगा।”

इसके पश्चात् उसने यह भी कहा कि इस कार्य को करने के लिए यह प्रक्रिया की जाये-
इसके हरेक पटल को फिर से इस तरह रखा जाए कि जो बाहरी हिस्सा है, वह अन्दर केन्द्र पर हो और जो नुकीला भाग है, वह बाहर निकले तो उसकी आकृति खिले कमल की-सी हो जाएगी कली-की-सी नहीं। लेकिन कलश स्थिर रहेगा।

इस प्रकार धर्मपद ने कलश को स्थापित करने की मौखिक विधि समझायी। इसके पश्चात् उसने खड़िया से चित्र बनाकर समझाने का भी प्रयास किया।

पुनः धर्मपद ने कहा-
“मेरे मन में जो चित्र है उसे यों पूरी तरह तो नहीं समझा सकता किन्तु, देखिए अम्ल का आकार यदि कुछ इस तरह का हो तो-
उसकी इस बात को सुनकर विशु ने समर्थन किया। तुम ठीक कहते हो युवक यदि भार को हल्का कर दिया जाए तो शायद पटल को बदलने में सहायता मिल जाए और हम कलश स्थापित करने में सफल हो जायेंगे। धर्मपद आचार्य विशु से कहता है, “यदि उसकी युक्ति सफल हो जाये तब क्या एक दिन के लिए मन्दिर प्रतिष्ठापन के दिन आप अपने सब अधिकार मुझे दे देंगे।”

इस पर महाशिल्पी विशु धर्मपद से कहते हैं, “यदि कोणार्क पूरा हो गया तो वे केवल एक दिन के लिए नहीं अपितु सदैव के लिए अपने स्थान पर महाशिल्पी का पद देंगे।” इस प्रकार धर्मपद अपने वाक्य चातुर्य एवं प्रतिभा के द्वारा सभी को प्रसन्न करके कलश स्थापना के लिए चल देता है। उसके इस प्रयास में आचार्य विशु तथा अन्य शिल्पी सहयोग के लिए प्रस्थान करते हैं।

जिस कार्य में बार-बार सभी शिल्पी असफल हो रहे थे। उस कार्य को धर्मपद ने करके दिखा दिया, क्योंकि इस नवयुवक ने वास्तव में-
“ठण्डी होती हुई राख को फूंक मारकर प्रज्ज्वलित कर दिया।” धर्मपद ने सभी शिल्पियों की निराशा को आशा में बदल कर परिश्रम करने के लिए प्रेरित किया और सफलता प्राप्त की। इस प्रकार से धर्मपद ने कलश स्थापना में सहायता की।

प्रश्न 7.
नीचे दी गई पंक्तियों की व्याख्या कीजिए
(क) “हमने पत्थर में …………….. खड़ा कर दिया है।”
(ख) “शिल्पी को ………. मुझे उसकी कला चाहिए।”
(ग) “शिल्पी तुम ………… काल की गति।”
(घ) “जीवन के आदि ……………… जीवन अधूरा है।”
(ङ) “मैं तो एक ऐसे………………… ओझल हो गया है।”
उत्तर:
(क) सन्दर्भ :
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘कोणार्क’ नामक एकांकी से अवतरित है। इसके रचयिता ‘जगदीश चन्द्र माथुर’ हैं।

प्रसंग :
प्रस्तुत गद्यांश में सौम्य का विशु के प्रति कथन है कि क्या तुम इस बात को सत्य ठहराते हो कि कोणार्क मन्दिर के वृहद् पाषाण एवं विस्तृत मूर्तियाँ आकाश में प्रस्थान कर सकती हैं।

व्याख्या :
इस कथन को सुनकर विशु गम्भीर होकर प्रत्युत्तर देता है कि हमने मूर्तियों को आकार देकर उन्हें जीवन्त बना दिया है साथ ही उन्हें गति भी प्रदान की है। उत्साहपूर्वक पुनः कहता है कि पत्थर वसुधा के गर्भ से निकला है अतः वह पृथ्वी का ही पदार्थ है। उसके चरण पृथ्वी पर स्थिर नहीं रहना चाहते हैं। पाषाण के इस देवालय के निर्माण में शिल्पकारों का ऐसा अद्भुत कौशल है कि यह वायु की भाँति गतिशील तथा किरण की भाँति स्पर्श से रहित है। इसकी महक चहुँओर व्याप्त है अर्थात् इसकी सुषमा की परिधि एक स्थान पर सीमित न होकर चारों ओर फैली हुई है। परन्तु पृथ्वी भी इसके सौन्दर्य पर इतनी मुग्ध है कि इसे ईर्ष्या से कहिये अथवा अपनत्व की भावना से अपने पाश में जकड़े रहने के लिए लालायित है। ऐसा प्रतीत होता है कि हम लोगों ने अज्ञानतावश धरती एवं आसमान के मध्य व्यर्थ में ही भयंकर विवाद उत्पन्न कर दिया है अर्थात् पृथ्वी एवं आकाश एक-दूसरे के पूरक हैं। उन दोनों के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता है।

(ख) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत गद्यांश में जब राजीव किशोर शिल्पी के विषय में विशु को बताता है कि वह बालक तीक्ष्ण बुद्धि वाला है तब विशु उससे मिलने के लिए आतुर है।

व्याख्या :
विशु शिल्पी की वाणी के सन्दर्भ में कहता है कि शिल्पी की वाणी में विद्रोह के स्वर गुंजित न होकर संयमित होने चाहिए। इसी मध्य विशु कहता है कि मेरी कला जिन्दगी की परछाईं की भाँति है साथ ही उसमें विद्रोह की भावना भी मुखरित है। कहने का अभिप्राय यह है कि जब कला को मधुर वाणी एवं विद्रोह दोनों की ही आवश्यकता है। विशु राजीव से कहता है कि मैं उस ओजपूर्ण वाणी से सम्पन्न नवयुवक से भेंट करने का इच्छुक हूँ अतः आप उसे बुलायें। मेरे सम्पर्क से उसकी प्रतिभा (योग्यता) की सुगन्ध पुनः चैतन्य होकर उसकी वाणी पर विराम लगा देगी अर्थात् जब वह नवयुवक मेरी भावनाओं के सम्पर्क में आयेगा तब उस युवक की विचारधारा में परिवर्तन हो जायेगा और उस युवक की प्रतिभा और भी निखर जायेगी। वह मौन होकर कला की साधना में एकाग्रता से संलग्न हो जायेगा। आज मुझे इस प्रकार के कुशल कलाकर की कला की अपेक्षा है जो पत्थरों को अपनी कला के माध्यम से जीवन्त बना दे। कला मौन रूप से जीवन की व्याख्याता है।

(ग) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत गद्यांश में नाट्याचार्य सौम्य शिल्पी एवं सृष्टिकर्ता दोनों का पृथक्-पृथक् महत्त्व बताते हैं।

व्याख्या :
जब विशु सौम्य से कहता है कि मन्दिर के अपूर्ण रहने पर उसे नष्ट करना होगा तथा इस पाप का प्रायश्चित भी निश्चित है। सौम्य अपने विचार विशु के प्रति व्यक्त करते हुए कह रहा है कि एक शिल्पकार विष्णु भगवान की तरह पालन करता है वह सृष्टि को जीवनदान देता है। शिल्पकार निर्माण करने वाला है। शंकर की भाँति तांडव नृत्य करके सृष्टि का संहार अथवा विनाश नहीं कर सकता है। निर्माता कभी संहारक का रूप नहीं ले सकता है। भारतीय कला के प्रतीक स्तम्भ (खम्भा) और ये पत्थर भूकम्प के द्वारा ही ध्वस्त हो सकते हैं अथवा काल के गाल में समा सकते हैं, अर्थात् कोई भी वस्तु प्राकृतिक आपदा से नष्ट हो सकती है या काल के द्वारा।

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(घ) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
विशु की मूर्तियों के सम्बन्ध में विचार सुनकर धर्मपद उत्तर देता है कि जिन्दगी आदि एवं उत्थान के मध्य स्थिर एक सोपान की भाँति है। इनके मूल में मानव के जीवन का पुरुषार्थ निहित है।

व्याख्या :
धर्मपद विशु को उत्तर देता है कि जीवन में आदि एवं उत्कर्ष की एक श्रृंखला है जिसके द्वारा व्यक्ति आगे कदम बढ़ाता है। पुरुषार्थ के अभाव में कला निर्जीव हो जाती है। अपराध क्षमा करें, आचार्य आज हमारी कला पुरुषार्थ को महत्त्व नहीं देती है। उन्नति अथवा उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उद्योग अपेक्षित है।

इन मूर्तियों में आलिंगन करते हुए प्रेमी युगलों को जब मैं देखता हूँ तब मेरी कल्पना में यह बात पुनः जाग्रत हो जाती है कि अथक परिश्रम में जुटे हुए किसान जो कि पसीने से नहाये हुए हैं, सरिता की विपरीत धारा के मध्य योजनों नाव को खेने वाले मल्लाह तथा दिवस पर्यन्त तक कुल्हाड़ी लेकर लकड़ी काटने वाले मजदूरों की जो खून-पसीना एक करके श्रम करते हैं। इनके अभाव में जीवन मूल्यहीन एवं अपूर्ण है अर्थात् शिल्पकार को कला के गर्भ में निहित श्रम को आँकना चाहिए। पुरुषार्थ के बिना जीवन एवं कला अपूर्ण है।

(ङ) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत गद्यांश में राजीव का यह कहना कि धर्मपद तर्क कला में कुशल हैं। इसका उत्तर देता हुआ धर्मपद कह रहा है।

व्याख्या :
मेरे आने का उद्देश्य तर्क-वितर्क न होकर, मैं आपका ध्यान एक ऐसी दुनिया की ओर आकर्षित करना चाहता हूँ जो कि हमारे समीप है फिर भी हम उससे अनजान बने हुए हैं। वह हमारी आँखों से ओझल है। कलाकार की कला का यश तो सर्वत्र विकीर्ण है। लेकिन हम उस ओर दृष्टि केन्द्रित नहीं कर रहे हैं अर्थात् हम कलाकार की भावनाओं से अपरिचित हैं।

प्रश्न 8.
दिए गये वाक्यों का भाव विस्तार कीजिए
(1) “कला जीवन भी है और जीवन-यापन का साधन भी।” (2008)
उत्तर:
कला के सन्दर्भ में धर्मपद विशु से कहता है कि कला के अन्तर्गत कलाकार के जीवन की झाँकी निहित है। कलाकार कला को मूर्त रूप देने के लिए अपने परिश्रम में तनिक भी कमी नहीं रखता। वह तो अपनी कला को जीवन का आधार मानता है। कला के माध्यम से वह धनोपार्जन करके अपने जीवन का निर्वाह करता है, क्योंकि कला जीवन यापन का एक साधन है।

(2) “जीवन के आदि और उत्कर्ष के बीच एक और सीढ़ी है-जीवन का पुरुषार्थ।”
उत्तर:
धर्मपद का विशु के प्रति कथन है-“कला जीवन के आरम्भ एवं उत्थान के मध्य एक सोपान के सदृश है। कला के सृजन में पुरुषार्थ आवश्यक है। बिना पुरुषार्थ के कलाकार अपनी कला को साकार रूप देने में कभी भी सफल नहीं हो सकता। अत: कलाकार को जीवन में आगे बढ़ने के लिए अथक परिश्रम एवं लगन की आवश्यकता है।” कलाकार की निम्न भावना देखिए-
“हारकर सौ बार तमस के समर में,
ज्योति की मैं जोत लेकर आ रहा हूँ।”

कोणार्क भाषा अध्ययन

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों में उपसर्ग और प्रत्ययों का प्रयोग हुआ है। इन शब्दों से उपसर्ग, प्रत्यय पृथक् करके लिखिए-
प्रतिष्ठापन, विचित्र, ओजमयी, प्रतिभावान, निर्द्वन्द, कायरपन, निष्कलुष, रमणीयता, अरुणिमा, निराधार।
उत्तर:
MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 8 कोणार्क img-1

प्रश्न 2.
निम्न शब्दों के पर्यायवाची शब्द लिखिए-
पृथ्वी, नरेश, गगन, जंगल, सूर्य।
उत्तर:
पृथ्वी – भू, धरती, वसुन्धरा, भूमि।
नरेश – भूपति, नृप, राजा, भूपाल, क्षितीश।
गगन – नभ, व्योम, अम्बर, आकाश।
जंगल – वन, कानन, अरण्य, अटवी।
सूर्य – भानु, रवि, भास्कर, सूरज।

प्रश्न 3.
निम्न शब्दों के हिन्दी रूप लिखिए
हरेक, खबर, साफ, चीज, निगाह, साल।
उत्तर:
MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 8 कोणार्क img-2

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प्रश्न 4.
निम्न मुहावरों का अर्थ लिखते हुए उनका वाक्यों में प्रयोग कीजिए।
उत्तर:
(1) मुँह छिपाना – लज्जित होना।
वाक्य प्रयोग – हाईस्कूल परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाने पर रोहन मुँह छिपाकर घर में ही बैठ गया।

(2) राह पर लाना – सुधार करना।
वाक्य प्रयोग – आज के युग में बिगड़े हुए नवयुवकों को राह पर लाना दुष्कर कार्य है।

(3) घमण्ड चूर करना – अभिमान नष्ट करना।
वाक्य प्रयोग – पाकिस्तान की टीम को पराजित करके भारतीय खिलाड़ियों ने उनके घमण्ड को चूर-चूर कर दिया।

(4) छूमन्तर होना – गायब होना।
वाक्य प्रयोग – भीषण गर्मी के कारण पक्षी छूमन्तर हो गये।

(5) पंख लगना – गर्व अनुभव करना।
वाक्य प्रयोग – लॉटरी निकल आने पर पल्लव के मानो पंख लग गये हों।

(6) भंडाफोड़ होना – भेद खुलना।
वाक्य प्रयोग – पुलिस की मार से बैंक डकैती का भंडा फूट गया।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित अशुद्ध वाक्यों को शुद्ध कीजिए।
(अ) मानो स्वप्न भ्रष्ट हुई हो।
(आ) यह कलश छप्र पर नहीं टिकती।
(इ) कोणार्क की सूर्य मन्दिर प्रसिद्ध है।
(ई) क्या ये पाषाण मूर्तियाँ ऊर्ध्वगामी हो जायेंगे?
उत्तर:
(अ) मानो स्वप्न भंग हो गया हो।
(आ) यह कलश छप्र पर नहीं टिकता।
(इ) कोणार्क का सूर्य मन्दिर प्रसिद्ध है।
(ई) क्या ये पाषाण मूर्तियाँ ऊर्ध्वगामी हो जायेंगी?

प्रश्न 6.
निम्नलिखित अनुच्छेद में यथास्थान विराम चिह्नों का प्रयोग कीजिए-
हमने जो मूर्तियाँ इसके स्तम्भों इसकी उपपीठ और अधिस्थान में अंकित की हैं उन्हें ध्यान से देखो देखते हो उसमें मनुष्य के सारे कर्म उसकी सारी वासनाएँ मनोरंजन और मुद्राएँ चित्रित हैं यही तो जीवन है।
उत्तर:
हमने जो मूर्तियाँ इसके स्तम्भों, इसकी उपपीठ और अधिस्थान में अंकित की हैं उन्हें ध्यान से देखो। देखते हो, उसमें मनुष्य के सारे कर्म, उसकी सारी वासनाएँ, मनोरंजन और मुद्राएँ चित्रित हैं। यही तो जीवन है।

कोणार्क पाठ का सारांश 

कोणार्क का सूर्य मन्दिर उड़ीसा प्रान्त में है। यह समुद्र के किनारे है। कोणार्क केवल भौतिक स्मारक न होकर भारत के सांस्कृतिक गुणों का प्रतीक है। कोणार्क का मन्दिर सूर्य के दिव्य एवं विशाल रथ का ही प्रतिरूप है। एकांकी में मन्दिर के कलश स्थापन के समय आये हुए गतिरोध का विवेचन है। कोणार्क मन्दिर कुशल शिल्पकारों के मनोभावों का भी प्रतिबिम्ब है। यह जीवन का जीता जागता चित्रण है। यह मात्र लोकरंजन का ही विषय नहीं अपितु जीवन के आदि एवं उत्कर्ष की कहानी है।

एकांकी का चरमोत्कर्ष उस समय निहारा जा सकता है, जब महादण्ड का अमानवीय आदेश जिसमें शिल्पियों के हाथ काटने की चर्चा है। यह उस समय की राज्य व्यवस्था का भी द्योतक है। एकांकी का अन्त उल्लास का प्रतीक है।

कोणार्क कठिन शब्दार्थ

पाषाण-कोर्तक = पत्थर की मूर्ति बनाने वाला। धरातल = पृथ्वी से। वीरश्रृंखला = जंजीर। सुवर्ण श्रृंखला = सोने की कड़ियाँ। कटकमुद्रा = नृत्य की मुद्रा। उत्कल = आज का उड़ीसा। दण्डपाशिक = डंडा रखने वाले सैनिक। महामात्य = मंत्री। बंग प्रदेश = बंगाल। निर्निमेष = अपलक देखना, एकटक देखना। प्रतिबिम्ब = परछाईं। पाषण = पत्थर। अंगरखा = एक प्रकार का वस्त्र। उत्कर्ष = उत्थान। कीर्तिस्तम्भ = यश का स्मारक। उत्कीर्ण = उकेरना। प्रतिष्ठापन = स्थापित करना। गीति गोविन्द = जयदेव लिखित रचना। कण्ठहार = गले में पहनने की माला। रागिनी = लययुक्त, संगीत। निर्माता = बनाने वाला। कोलाहल = शोर। विषाद = दुःख। निराश्रिता = बेसहारा। उपपीठ = सहस्थान। आशुशिल्पी = जन्मजात कारीगर। अधिस्थान = आधार स्थान। पुरुषार्थ = उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उद्योग करना (पुरुषार्थ चार माने गये हैं-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष)। महादण्डपाशिक = दण्ड देने वाला बड़ा अधिकारी। वेत्रासन = बेंत का आसन। तोशक = रुई भरा बिछावन, रजाई। प्राचीर = दीवार। भंडाफोड = रहस्य उद्घाटित होना। प्रतिहारी= द्वारपाल। षड्यंत्र = कुचक्र। नेपथ्य = मंच के पीछे जगह जहाँ नये वेश की रचना की जाती है। कुठाराघात = भीषण आघात। प्रतारणा = सांत्वना। छप्र = छत। अम्ल = मंडप का ऊपरी खाली भाग। अन्तरमुखी = भीतर की ओर, अन्दर की ओर। स्वप्न भ्रष्ट = सपना टूटा हो, नष्ट हुआ हो। अवलोकन = देखना। युक्ति = उपाय। मुग्ध = मोहित। प्रज्वलित = जलता हुआ। आतुर = बेचैन।

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कोणार्क संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

1. हमने पत्थर में जान डाल दी है, उसे गति दे दी है। (सोत्साह) वह भूल रहा है कि वह धरती का पदार्थ है। उसके पैर धरती पर नहीं टिकते। पत्थर का यह मन्दिर आज कल्पना के स्पर्श से हवा की तरह गतिमान, किरण की तरह स्पर्शहीन, सुगन्ध की तरह सर्वव्यापी हो रहा है। लेकिन ………. लेकिन धरती उसे जकड़े हुए है, ईर्ष्या से। ……..” मुझे लगता है, जैसे अनजाने ही हम लोगों ने पृथ्वी और आकाश के बीच भीषण संघर्ष खड़ा कर दिया है।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘कोणार्क’ नामक एकांकी से अवतरित है। इसके रचयिता ‘जगदीश चन्द्र माथुर’ हैं।

प्रसंग :
प्रस्तुत गद्यांश में सौम्य का विशु के प्रति कथन है कि क्या तुम इस बात को सत्य ठहराते हो कि कोणार्क मन्दिर के वृहद् पाषाण एवं विस्तृत मूर्तियाँ आकाश में प्रस्थान कर सकती हैं।

व्याख्या :
इस कथन को सुनकर विशु गम्भीर होकर प्रत्युत्तर देता है कि हमने मूर्तियों को आकार देकर उन्हें जीवन्त बना दिया है साथ ही उन्हें गति भी प्रदान की है। उत्साहपूर्वक पुनः कहता है कि पत्थर वसुधा के गर्भ से निकला है अतः वह पृथ्वी का ही पदार्थ है। उसके चरण पृथ्वी पर स्थिर नहीं रहना चाहते हैं। पाषाण के इस देवालय के निर्माण में शिल्पकारों का ऐसा अद्भुत कौशल है कि यह वायु की भाँति गतिशील तथा किरण की भाँति स्पर्श से रहित है। इसकी महक चहुँओर व्याप्त है अर्थात् इसकी सुषमा की परिधि एक स्थान पर सीमित न होकर चारों ओर फैली हुई है। परन्तु पृथ्वी भी इसके सौन्दर्य पर इतनी मुग्ध है कि इसे ईर्ष्या से कहिये अथवा अपनत्व की भावना से अपने पाश में जकड़े रहने के लिए लालायित है। ऐसा प्रतीत होता है कि हम लोगों ने अज्ञानतावश धरती एवं आसमान के मध्य व्यर्थ में ही भयंकर विवाद उत्पन्न कर दिया है अर्थात् पृथ्वी एवं आकाश एक-दूसरे के पूरक हैं। उन दोनों के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता है।

विशेष:

  1. भाषा काव्यमयी है।
  2. शिल्पकारों के कौशल का वर्णन है।
  3. भारतीय सभ्यता एवं कला का गौरवपूर्ण चित्रण है।

2. शिल्पी को विद्रोह की वाणी नहीं चाहिए, राजीव मेरी कला में जीवन का प्रतिबिम्ब और उसके विरुद्ध विद्रोह दोनों सन्निहित हैं। तुम उस किशोर को बुला लाओ। मेरी दृष्टि के स्पर्श से उसकी प्रतिभा की गंध जागृत होकर उसकी वाणी को मौन कर देगी। मुझे उसकी कला चाहिए।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत गद्यांश में जब राजीव किशोर शिल्पी के विषय में विशु को बताता है कि वह बालक तीक्ष्ण बुद्धि वाला है तब विशु उससे मिलने के लिए आतुर है।

व्याख्या :
विशु शिल्पी की वाणी के सन्दर्भ में कहता है कि शिल्पी की वाणी में विद्रोह के स्वर गुंजित न होकर संयमित होने चाहिए। इसी मध्य विशु कहता है कि मेरी कला जिन्दगी की परछाईं की भाँति है साथ ही उसमें विद्रोह की भावना भी मुखरित है। कहने का अभिप्राय यह है कि जब कला को मधुर वाणी एवं विद्रोह दोनों की ही आवश्यकता है। विशु राजीव से कहता है कि मैं उस ओजपूर्ण वाणी से सम्पन्न नवयुवक से भेंट करने का इच्छुक हूँ अतः आप उसे बुलायें। मेरे सम्पर्क से उसकी प्रतिभा (योग्यता) की सुगन्ध पुनः चैतन्य होकर उसकी वाणी पर विराम लगा देगी अर्थात् जब वह नवयुवक मेरी भावनाओं के सम्पर्क में आयेगा तब उस युवक की विचारधारा में परिवर्तन हो जायेगा और उस युवक की प्रतिभा और भी निखर जायेगी। वह मौन होकर कला की साधना में एकाग्रता से संलग्न हो जायेगा। आज मुझे इस प्रकार के कुशल कलाकर की कला की अपेक्षा है जो पत्थरों को अपनी कला के माध्यम से जीवन्त बना दे। कला मौन रूप से जीवन की व्याख्याता है।

विशेष :

  1. लेखक ने शिल्पकार एवं उसकी कला का विवेचन किया है।
  2. भाषा, सरल, संयत्र एवं परिमार्जित है।

3. शिल्पी तुम विष्णु हो शंकर नहीं। निर्माता हो संहारक नहीं। और फिर ये स्तम्भ और ये पाषाण। इन्हें तो भूकम्प ही गिरा सकते हैं, अथवा काल की गति। (2012)

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत गद्यांश में नाट्याचार्य सौम्य शिल्पी एवं सृष्टिकर्ता दोनों का पृथक्-पृथक् महत्त्व बताते हैं।

व्याख्या :
जब विशु सौम्य से कहता है कि मन्दिर के अपूर्ण रहने पर उसे नष्ट करना होगा तथा इस पाप का प्रायश्चित भी निश्चित है। सौम्य अपने विचार विशु के प्रति व्यक्त करते हुए कह रहा है कि एक शिल्पकार विष्णु भगवान की तरह पालन करता है वह सृष्टि को जीवनदान देता है। शिल्पकार निर्माण करने वाला है। शंकर की भाँति तांडव नृत्य करके सृष्टि का संहार अथवा विनाश नहीं कर सकता है। निर्माता कभी संहारक का रूप नहीं ले सकता है। भारतीय कला के प्रतीक स्तम्भ (खम्भा) और ये पत्थर भूकम्प के द्वारा ही ध्वस्त हो सकते हैं अथवा काल के गाल में समा सकते हैं, अर्थात् कोई भी वस्तु प्राकृतिक आपदा से नष्ट हो सकती है या काल के द्वारा।

विशेष :

  1. शिल्पकार को विष्णु का रूप प्रदान किया गया है।
  2. शिल्पी का कार्य निर्माण करना है विध्वंस करना नहीं।
  3. भाषा सुबोध, सरस एवं प्रवाहयुक्त है।

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4. जीवन के आदि और उत्कर्ष के बीच एक और सीढ़ी है-जीवन का पुरुषार्थ। अपराध क्षमा हो आचार्य, आपकी कला उस पुरुषार्थ को भूल गई है। जब मैं इन मूर्तियों में बँधे रसिक जोड़ों को देखता हूँ तो मुझे याद आती है पसीने में नहाते हुए किसान की, कोसों तक धारा के विरुद्ध नौका को खेने वाले मल्लाह की, दिन-दिन भर कुल्हाड़ी लेकर खटने वाले लकड़हारे की। ………. इसके बिना जीवन अधूरा है, आचार्य।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
विशु की मूर्तियों के सम्बन्ध में विचार सुनकर धर्मपद उत्तर देता है कि जिन्दगी आदि एवं उत्थान के मध्य स्थिर एक सोपान की भाँति है। इनके मूल में मानव के जीवन का पुरुषार्थ निहित है।

व्याख्या :
धर्मपद विशु को उत्तर देता है कि जीवन में आदि एवं उत्कर्ष की एक श्रृंखला है जिसके द्वारा व्यक्ति आगे कदम बढ़ाता है। पुरुषार्थ के अभाव में कला निर्जीव हो जाती है। अपराध क्षमा करें, आचार्य आज हमारी कला पुरुषार्थ को महत्त्व नहीं देती है। उन्नति अथवा उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उद्योग अपेक्षित है।

इन मूर्तियों में आलिंगन करते हुए प्रेमी युगलों को जब मैं देखता हूँ तब मेरी कल्पना में यह बात पुनः जाग्रत हो जाती है कि अथक परिश्रम में जुटे हुए किसान जो कि पसीने से नहाये हुए हैं, सरिता की विपरीत धारा के मध्य योजनों नाव को खेने वाले मल्लाह तथा दिवस पर्यन्त तक कुल्हाड़ी लेकर लकड़ी काटने वाले मजदूरों की जो खून-पसीना एक करके श्रम करते हैं। इनके अभाव में जीवन मूल्यहीन एवं अपूर्ण है अर्थात् शिल्पकार को कला के गर्भ में निहित श्रम को आँकना चाहिए। पुरुषार्थ के बिना जीवन एवं कला अपूर्ण है।

विशेष :

  1. लेखक ने श्रमिकों की महत्ता का प्रतिपादन किया है।
  2. मूर्तियाँ मानव जीवन की अमूल्य निधि हैं।
  3. भाषा सरस एवं बोधगम्य है।

5. मैं तो एक ऐसे संसार की ओर आपका ध्यान खींचना चाहता हूँ जो कि आपके निकट होते हुए भी आपकी आँखों से ओझल हो गया है।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत गद्यांश में राजीव का यह कहना कि धर्मपद तर्क कला में कुशल हैं। इसका उत्तर देता हुआ धर्मपद कह रहा है।

व्याख्या :
मेरे आने का उद्देश्य तर्क-वितर्क न होकर, मैं आपका ध्यान एक ऐसी दुनिया की ओर आकर्षित करना चाहता हूँ जो कि हमारे समीप है फिर भी हम उससे अनजान बने हुए हैं। वह हमारी आँखों से ओझल है। कलाकार की कला का यश तो सर्वत्र विकीर्ण है। लेकिन हम उस ओर दृष्टि केन्द्रित नहीं कर रहे हैं अर्थात् हम कलाकार की भावनाओं से अपरिचित हैं।

विशेष :

  1. कला की महत्ता का प्रतिपादन है।
  2. भाषा मुहावरेदार है, जैसे-आँखों से ओझल होना।

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MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 7 मर्यादा

MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 7 मर्यादा

मर्यादा अभ्यास

मर्यादा अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
‘मर्यादा’ एकांकी में निहित है (2009)
(अ) सामाजिक आदर्श
(ब) पारिवारिक आदर्श
(स) सांस्कृतिक आदर्श
(द) धार्मिक आदर्श।
उत्तर:
(ब) पारिवारिक आदर्श।

प्रश्न 2.
इनमें से किस ग्रन्थ में पारिवारिक मर्यादा का सर्वोत्तम उदाहरण देखने को मिलता है?
(अ) गीता
(ब) रामायण (रामचरितमानस)
(स) कामायनी
(द) कठोपनिषद।
उत्तर:
(ब) रामायण (रामचरितमानस)।

प्रश्न 3.
संयुक्त परिवार की नींव है
(अ) सद्भाव और त्याग
(ब) भाईचारा
(स) परस्पर भावनाओं का सम्मान
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी।

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प्रश्न 4.
परिवार चलता है”
(अ) धन से
(ब) परिश्रम से
(स) सूझबूझ से
(द) इन सबके सामंजस्य से।
उत्तर:
(द) इन सबके सामंजस्य से।

प्रश्न 5.
जोड़ी बनाइएकिसको किस चीज का घमण्ड था?
जगदीश – डॉक्टर होने का
प्रदीप – सबसे अधिक कमाने का
विनय – सूझ-बूझ का
अशोक – परिश्रम का
उत्तर:
जगदीश – सूझ-बूझ का।
प्रदीप – परिश्रम का।
विनय – डॉक्टर होने का।
अशोक – सबसे अधिक धन कमाने का।

प्रश्न 6.
सुमन कौन थी और वह जगदीश के घर क्यों आई थी? (2015)
उत्तर:
सुमन जगदीश के छोटे भाई की पुत्री थी। वह जगदीश के घर रामायण सुनने के लिए आई थी।

प्रश्न 7.
रीता अपने जेठ जी जगदीश के घर क्यों आई थी?
उत्तर:
रीता का पति तीन वर्ष के लिए अमेरिका चला गया था। अत: रीता अपने जेठ जी जगदीश के घर रहने आई थी।

प्रश्न 8.
प्रदीप किस बात को कहने में शर्म अनुभव कर रहा था?
उत्तर:
प्रदीप को यह बात कहने में शर्म अनुभव हो रही थी कि उनका अपना गुजारा भी नहीं चलता था। किसी अन्य व्यक्ति को किस प्रकार संरक्षण दे पायेगा।

प्रश्न 9.
सुमन के ताऊजी और ताईजी के नाम लिखिए। (2016)
उत्तर:
सुमन के ताऊजी का नाम जगदीश और ताईजी का नाम मालती है।

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मर्यादा लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
सपना देखने से पहले जगदीश क्या सोचता था?
उत्तर:
सपना देखने से पहले जगदीश सोचता था कि एक को कमाने का घमण्ड है, दूसरे को परिश्रम का, तीसरे को डॉक्टरी का, पर यह कोई जानता है कि यह घर मेरी सूझ-बूझ, मेरे प्रभाव के कारण चल रहा है। दूर-दूर तक मेरी पहुँच है। बड़े से बड़ा काम मैं देखते-देखते कर लेता हूँ।

प्रश्न 2.
प्राचीन संयुक्त परिवार के सदस्य किस प्रकार रहते थे? (2008)
उत्तर:
संयुक्त परिवार में परिवार के सभी सदस्य मिल-जुलकर रहते थे। परिवार का सबसे बुजुर्ग व्यक्ति मुखिया होता था। परिवार के समस्त सदस्यों को उसकी आज्ञा माननी पड़ती थी। सभी कार्यों में मुखिया की अनुमति अनिवार्य थी। मुखिया को परिवार के प्रत्येक व्यक्ति के प्रति प्रेम, सद्भावना बनाये रखने के लिए मर्यादा का पालन करना पड़ता था। एकमात्र मुखिया पर सम्पूर्ण परिवार निर्भर रहता था। सम्पूर्ण परिवार को एकसूत्र में बाँधने की जिम्मेदारी मुखिया की होती थी। संयुक्त परिवार में दादी, बाबा, चाचा, चाची, बेटे, बहुएँ एवं उन सबकी सन्तानें मिलकर रहती थीं।

मर्यादा दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
बिखरे हुए परिवार को फिर एक होने में कौन-सी घटनाएं सहायक सिद्ध होती हैं? (2013)
उत्तर:
बिखरे हुए परिवार को फिर से एक होने में बहुत-सी छोटी-छोटी घटनाएँ सहायक सिद्ध होती हैं। प्रस्तुत एकांकी में बताया है कि परिवार विभाजन के उपरान्त छोटे भाई की पुत्री सुमन सुबह-सुबह रामायण सुनने के लिए अपने ताऊजी एवं ताईजी के पास आ जाती है। सुमन से पूछने पर पता चला कि उसके पापा ने उसे घर से भगा दिया क्योंकि वह प्रतिदिन पापा से रामायण की माँग करती थी। इस पर ताऊजी ने कहा-“हाँ, हाँ जा। जा तू रामायण सुन, मैं तेरे बाप के पास जाता हूँ। वाह वा। बच्चे को इस तरह ताड़ते हैं क्या समझा है उसने। समझ लिया कि अलग हो गये तो जैसे मैं मर गया। कोई बात है वाह ……… वा ………..

इसके पश्चात् जब छोटा भाई प्रदीप मिलता है तो बड़े भाई से कहता है-
“क्या बताऊँ-(एकदम) आप उसे यहीं रख लीजिये, वह आपके बिना नहीं रह सकती।” इस प्रकार की बातें परिवार को एकसूत्र में पुनः बाँधने में सहायक हैं।

छोटा भाई विनय जब विदेश में डाक्टरी पढ़ने जाता है तब यह प्रश्न उठता है कि उसकी बहू एवं बच्चों की देखभाल कौन करेगा। शर्म के कारण वह अपने भाई को पत्र में लिखकर भेजता है। इस बात को सुनकर बड़ा भाई जगदीश कहता है-
“प्रदीप, उसे लिख दो कि वह निश्चिन्त होकर अमेरिका जाये। उसकी बहू और बच्चे मेरे पास रहेंगे।”
यह घटना एक बार फिर से परिवार को बिखरने से रोकने में सहायक सिद्ध होती है।

जगदीश का भाई प्रदीप अपनी आर्थिक परेशानी का वर्णन अपने बड़े भाई से करता है तब वह उससे इस प्रकार कहता है-
“वाह-वा शर्म भी क्या पुरुषों का आभूषण है? अरे पागल यह बड़ा अच्छा अवसर है तीन वर्ष के लिए तू भी आ जा।” इसके पश्चात् अन्य घटना है।

जब जगदीश और प्रदीप आपस में बातें कर रहे थे तब उस वक्त वहाँ रीता का प्रवेश होता है। रीता तेजी से एकदम घबराई हुई वहाँ आती है और बताती है कि “परसों अनिल छत से गिर गया है और उसकी पैर की हड्डी टूट गई जिससे उसे ढाई महीने का प्लास्टर लगाया जाएगा।”

वह आगे बताती है कि वह परसों से अपने ताऊजी एवं ताईजी को याद कर रहा है। किसी की कोई बात नहीं सुनता। यह बात सुनकर जगदीश बहुत दुःखी होता है। वह कहता है-
“अनिल मुझे पुकारता रहा, और उसकी आवाज मुझ तक नहीं पहुँचने दी गई। यह सब क्या हो गया? अलग होते सब एक दूसरे के दुश्मन हो गए।”

यह सुनकर रीता बताती है कि उसे अस्पताल ले गए। उसके प्लास्टर लगवा दिया है लेकिन उसके पास अस्पताल में रुकने के लिए कोई नहीं है। वह कहती है कि-
“आज तो जानते हो इन्हें एक क्षण की भी फुर्सत नहीं मिलती है और मुझे सभा-सोसाइटी का काम रहता है।”
इस पर मालती कहती है कि “भला छोटा-सा बच्चा बिना अपनों के अस्पताल में कैसे रहेगा।”

रीता की बातें सुनकर जगदीश को क्रोध आता है। वह रीता से कहता है कि-
“भाई साहब ! कौन भाई साहब ! किसका भाई साहब ! भाई साहब होता तो परसों ही मैं अनिल के पास होता ! बहुत कमाते हो, जाओ बच्चों को घर ले आओ। एक नर्स रख लो ! नौकर रख लो।”

जब मालती से रहा नहीं गया तो वह कहती है-
“मैं चल रही हूँ, अस्पताल अनिल के पास। मैं अनिल को यहाँ ले आऊँगी, मैं देखभाल करूँगी उसकी, देखती हूँ कौन रोकता है मुझे।”
इस तरह आपस में वाद-विवाद चलता है। आखिर जगदीश मान जाता है। वह अनिल को लाने के लिए तैयार हो जाता है।

इससे रीता को अहसास होता है कि वह गलत थी। वह कहती है कि-
“मैं जान गई हूँ। मान गई हूँ मैं कि पैसा सब कुछ नहीं होता है।”
उपर्युक्त सभी घटनाएँ परिवार को एकसूत्र में पिरोने के लिए सहायक सिद्ध हुईं।

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प्रश्न 2.
एकांकी में उल्लेखित चौपाइयों के आधार पर रामचन्द्र जी और भरत जी की भेंट का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत एकांकी में एकांकीकार ने भरत जी एवं रामचन्द्र जी की भेंट का जो चित्र प्रस्तुत किया है वह हृदयस्पर्शी एवं मार्मिक है। भरतजी की राम के प्रति जो निष्ठा है वह अनन्य एवं प्रशंसनीय है। स्वार्थ की भावना से वे कोसों दूर हैं। उनका स्वभाव छल-कपट से परे है। इसी कारण माताओं का उनके प्रति राम जैसा अनुराग ही है।
प्रस्तुत चौपाई इस सत्य को प्रमाणित करती है-
सरल सुभाय माय हित लाये।
अति हित मनहुँ राम फिर आये ।।
भेंटेउ बहुरि लखन लघु भाई।
सोकु सनेहु न हृदय समाई ॥

राम के वन गमन करने पर भरत प्रतिपल उनके विरह में व्यथित रहते हैं। येन-केन-प्रकारेण उनकी यह भावना है कि राम से किस प्रकार भेंट हो। वे राम से मिलने के लिए वन में प्रस्थान करते हैं। राम से भेंट के समय उनका हृदय गद्-गद् था। नेत्रों से अविरल अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी। राम से गले मिलते समय अभिभूत होकर उनके चरणों में गिर पड़े। भगवान् राम ने भरत को हृदय से लगा लिया। पर भरत के निम्न उद्गार दृष्टव्य हैं भरत बोले “मेरा स्थान यहाँ नहीं है मेरा स्थान तो आपके चरणों में है।” फिर वे भगवान के चरणों में पड़ गये-
“बरबस लिए उठाय उर लाए कृपानिधान।
भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान॥”

प्रस्तुत एकांकी के माध्यम से विष्णु प्रभाकर ने,यह सन्देश देने का प्रयास किया है कि भरत और राम की भाँति ही परिवार के सभी भाइयों में स्नेह, त्याग एवं अपनत्व की भावना विद्यमान रहनी चाहिए। इस भावना से ही परिवार में निरन्तर स्नेह और सौहार्द्रपूर्ण वातावरण पल्लवित हो सकता है। लेखक ने एकांकी के माध्यम से संयुक्त परिवार के महत्त्व को प्रदर्शित किया है।

प्रश्न 3.
“अब हम किसी एक के नहीं रहेंगे एक-दूसरे के होंगे।” इस कथन के आधार पर संयुक्त परिवार की आधारशिला को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत एकांकी में यह स्पष्ट है कि संयुक्त परिवार हमेशा सम्पन्न तथा खुशहाल होता है। संयुक्त परिवार में सब एक-दूसरे की सहायता करते हुए नजर आते हैं। वह स्वयं अपने आप में एक पूर्ण समाज के रूप में स्थापित रहता है। प्रस्तुत एकांकी में यह बताया गया है कि जब जगदीश के पास प्रदीप, रीता और सुमन आते हैं तो अपनी-अपनी परेशानी जगदीश को बताते हैं। सुमन रामायण सुनने आती है।

प्रदीप अपने बड़े भाई से कहता है भाईसाहब आप इसे अपने पास ही रखें। यह आपके बिना नहीं रह सकती। उसी समय रीता अनिल के गिरने की खबर लाती है तथा वह यह कहना चाहती है कि अनिल को जगदीश भाईसाहब अपने पास ही रखें। क्योंकि वह दिन भर ताऊजी की रट लगाये रहता है। भाईसाहब के पास रहने से उसकी देखभाल अच्छी तरह से हो जायेगी और अनिल का मन भी लगा रहेगा।

जब सुमन और जगदीश साथ-साथ रहते हैं तब वे इस बात को स्वीकार करते हैं कि हम समस्त परिवार के लिए ही जियेंगे। हम एक-दूसरे की दुःख-सुख में सहायता करेंगे। यही हमारा नैतिक धर्म हो ऐसा करके हमें प्रसन्नता का अनुभव होगा।

एकांकी का उद्देश्य है कि संयुक्त परिवार की परम्परा निरन्तर बनी रहे। परिवार सदा एक सूत्र में बँधा रहे। वह कभी टूटे नहीं और न ही किसी प्रकार का द्वेष एक-दूसरे प्रति आये। सब एक-दूसरे के साथ मिल-जुलकर रहें। इस प्रकार जगदीश का स्वप्न पूरा करने के लिए चारों भाई एक साथ खड़े हो गये। संयुक्त परिवार में यदि एकता हो तो वह कदापि टूटता नहीं है।

प्रश्न 4.
निम्नांकित गद्यांशों की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्या कीजिए
(अ) अपना मन नहीं ………………………… उनकी आन थी।
(आ) आज के जमाने ……………………. लेना नहीं चाहते।
उत्तर:
(अ) सन्दर्भ :
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक की ‘मर्यादा’ नामक एकांकी से अवतरित है। इसके लेखक ‘विष्णु प्रभाकर’ हैं।

प्रसंग :
प्रस्तुत कथन मालती का अपने पति जगदीश के व्यवहार पर आधारित है। संयुक्त परिवार में सब लोग हिलमिल कर रहते थे तथा सबकी भावनाओं का ध्यान रखते थे।

व्याख्या :
मालती कह रही है संयुक्त परिवार का वातावरण प्रेम तथा त्याग की भावना पर आधारित था। अपने मन की भावनाओं को दृष्टिपथ में रखते हुए परिवार के अन्य सदस्यों के प्रति भी उदार एवं सहृदय थे। संयुक्त परिवार के लोग स्वयं के लिए जीवित न रहकर परिवार के अन्य व्यक्तियों के लिए भी हित साधन में जुटे रहते थे। उनकी दृष्टि में कुटुम्ब ही सर्वोपरि था। अत: कुटुम्ब की मर्यादा को वे स्वयं ही मर्यादा ठहराते थे।

(आ) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
जगदीश एवं उसकी पत्नी मालती के परिवार के विषय में उनके हृदयगत भावों का विवेचन है।

व्याख्या :
जगदीश का कथन है वह युग बीत गया जब मनुष्य बिना विचारे भेड़-बकरी की भाँति आचरण करते थे। आज का मानव चिन्तनशील एवं विवेक प्रधान है। वह सोच-समझकर ही किसी कार्य को करता है। वह स्वावलम्बी है। उसे दूसरों का सहारा लेकर जीवित रहना श्रेयस्कर प्रतीत नहीं होता। प्रदीप से जगदीश ने पूछा कि विनय ने अपने पत्र में क्या लिखा है ? इस सन्दर्भ में जानकारी लेने हेतु मैं जिज्ञासु हूँ।

प्रश्न 5.
इन पंक्तियों का भाव पल्लवन कीजिए (2008)
(अ) आज तो मर्यादाओं को फिर से पहचानना है।
(आ) वह जमाना लद गया जब एक का हुक्म चलता था।
(इ) कोई भी वस्तु अपने आप में सब कुछ नहीं है।
उत्तर:
भाव पल्लवन-
(अ) इस पंक्ति का आशय है कि आज का जमाना वह नहीं जब मनुष्य अपनी मर्यादा के लिए कुछ भी कर सकता है। आज व्यक्ति अपनी मर्यादा को भूलकर अपने स्वार्थ के लिए जी रहा है। जगदीश अपने बिखरे परिवार से बहुत दुःखी होते तथा वह स्वयं से कहते हैं। आज रामायण व महाभारत का युग नहीं जहाँ मनुष्य मर्यादा को जानता था। आज मनुष्य को अपनी मर्यादा की सीमा को एक बार फिर जानना पहचानना है।

(आ) मर्यादा नामक एकांकी में यह बताया है कि पहले जमाने में संयुक्त परिवारों में मुखिया होता था। वह घर के सदस्यों के लिए अपने आप नियम और शर्ते तय करता था। वह जो कह देता था वह पत्थर की लकीर होती थी। वहाँ कोई व्यक्ति स्वयं अपनी मर्जी से कुछ नहीं करता था। आज के जमाने में कोई किसी की इच्छा से अपना जीवन नहीं बिताना चाहता; न कोई किसी का हुक्म मानना चाहता। सब मनुष्य अपनी इच्छा का कार्य करना चाहते हैं।

(इ) प्रस्तुत एकांकी में लेखक यह कहना चाहता है कि मनुष्य कभी स्वयं में पूरा नहीं होता। उसे समय पर एक-दूसरे की आवश्यकता पड़ती है। किसी का किसी के बिना पूर्ण रूप नहीं होता है। मनुष्य स्वयं कभी कुछ नहीं कर सकता। उसे किसी न किसी सहारे की जरूरत होती है। संयुक्त परिवार भी कभी पूरा नहीं होता है और एकल परिवार भी कभी पूरा नहीं होता है। अतः लेखक कहना चाहता है कि कभी व्यक्ति को घमण्ड नहीं करना चाहिए।

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मर्यादा भाषा अध्ययन

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के हिन्दी रूप लिखिएगुलाम, कोशिश, खर्च, दुश्मन, चिट्ठी, औलाद, शर्म।
उत्तर:
गुलाम-दास; कोशिश-प्रयत्न; खर्च-व्यय; दुश्मन-शत्रु; चिट्ठी-पत्र; औलाद-सन्तान; शर्म-लज्जा।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित वाक्यांश के लिए एक शब्द लिखिए
(अ) जिसे जीता न जा सके।
(आ) जिसके समान दूसरा न हो।
(इ) जो परिश्रम करने वाला हो।
(ई) जिसका कोई शुल्क न देना पड़े।(2016)
(उ) जिस स्त्री का पति मर गया हो।
(ऊ) जिसका बहुत प्रभाव हो।
उत्तर:
(अ) अजेय
(आ) अद्वितीय
(इ) परिश्रमी
(ई) निःशुल्क
(उ) विधवा
(ऊ) प्रभावशाली।

प्रश्न 3.
नीचे कुछ शब्द और उनके विलोम दिये गये हैं। आप शब्द और उनके विलोम की सही जोड़ी बनाइए
कठोर, गलत, कोमल, सही, सबल, सच, दुर्बल, खाद्य, उन्नति, अवनति, अखाद्य, झूठ।
उत्तर:
कठोर – कोमल
गलत – सही
सबल – दुर्बल
सच – झूठ
खाद्य – अखाद्य
उन्नति – अवनति

प्रश्न 4.
निम्नलिखित लोकोक्तियों का अपने वाक्यों में प्रयोग करो।
उत्तर:
(1) अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता।
वाक्य प्रयोग – कोई भी व्यक्ति अकेले कुछ नहीं कर सकता है, जैसे-अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता है।

(2) आम के आम गुठलियों के दाम।
वाक्य प्रयोग – समाचार-पत्र पढ़ लिया तथा उनकी रद्दी भी बेच दी। यह बात आम के आम गुठलियों के दाम के सदृश प्रमाणित हुई।

(3) ऊँची दुकान फीके पकवान।
वाक्य प्रयोग – सेठ दौलतराम नाम से ही दौलतराम है। वहाँ जाकर पता चला कि ऊँची दुकान फीके पकवान वाली बात है।

(4) खोदा पहाड़ निकली चुहिया।
वाक्य प्रयोग – हम ओरछा से कठिन यात्रा करके ऊटी घूमने के लिए गये परन्तु वहाँ जाकर पता चला कि खोदा पहाड़ निकली चुहिया।

(5) नाच न जाने आँगन टेढ़ा।
वाक्य प्रयोग – रेखा को रसोई में सब्जी बनानी नहीं आई तो उसने सब्जियों में ही मीन-मेख निकालना शुरू कर दिया। इस पर तो नाच न जाने आँगन टेढ़ा वाली बात सही बैठती है।।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित गद्य पंक्तियों में यथास्थान विराम-चिह्नों का प्रयोग कीजिए।
(अ) जगदीश तीव्रता से बन्द करो चुप हो जाओ मैं एक को भी नहीं जाने दूंगा अभी नहीं जाने दूंगा देखूगा कैसे घर से दूर जाता है-कैसे
(आ) जगदीश और प्रकाश मंजू किशोर और इलाहाबाद वाली ताई और सुधीर पप्पू कुणाल ये सब अच्छे नहीं हैं इन्हें तू प्यार नहीं करेगी।
उत्तर:
(अ) जगदीश-(तीव्रता से) बन्द करो, चुप हो जाओ, मैं एक को भी नहीं जाने दूंगा। अभी नहीं जाने दूंगा, देखेंगा, कैसे कोई घर से दूर जाता है ………. कैसे?
(आ) जगदीश-और प्रकाश, मीना, मंजू, किशोर और इलाहाबाद वाली ताई और सुधीर, पप्पू, कुणाल, ये सब अच्छे नहीं हैं? इन्हें तू प्यार नहीं करेगी?

प्रश्न 6.
निम्नलिखित शब्द युग्मों के सामने कुछ विकल्प दिये गये हैं, आप सही विकल्प का चयन कीजिए
(क) कभी-कभी (सामासिक पद, द्विरुक्ति)
(ख) माँ-बाप (द्विरुक्ति, सामासिक पद)
(ग) सूझ-बूझ (अपूर्ण पुनरुक्त शब्द, पूर्ण पुनरुक्त शब्द)
(घ) देखते-देखते (अपूर्ण पुनरुक्त शब्द, पूर्ण पुनरुक्त शब्द)।
उत्तर:
(क) कभी-कभी – द्विरुक्ति पद।
(ख) माँ-बाप – सामासिक पद।
(ग) सूझ-बूझ – अपूर्ण पुनरुक्त शब्द।
(घ) देखते-देखते – पूर्ण पुनरुक्त शब्द।

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मर्यादा पाठका सारांश 

विष्णु प्रभाकर द्वारा लिखित मर्यादा एकांकी की कथावस्तु एक ऐसे संयुक्त परिवार से सम्बन्धित है जो पूर्णरूप से बिखरा हुआ है। एकांकी का प्रमुख पात्र जगदीश है। प्रदीप, विनय एवं अशोक जो जगदीश के भाई हैं अत्यन्त ही स्वार्थी प्रवृत्ति के हैं। हर भाई परिवार के प्रति स्वयं को ही समर्पित मानता है। जगदीश भी इस भावना से मुक्त नहीं है। इसी के फलस्वरूप परिवार की एकता छिन्न-भिन्न हो जाती है। इसका यह परिणाम निकलता है कि बालक संयुक्त परिवार के प्यार एवं निरीक्षण से वंचित हो जाते हैं। सुमन एवं अनिल इस बात के साक्षी हैं।

जगदीश उदार हृदय वाला है। वह अपने भाइयों की भूलों को क्षमा कर देता है। निष्कपट प्रेम और स्वार्थ को तिलांजलि देने पर ही परिवार मिल-जुलकर रह सकता है। इस एकांकी के माध्यम से लेखक ने पुनः संयुक्त परिवार की महत्ता को प्रतिपादित किया है।

मर्यादा कठिन शब्दार्थ

पहरुए = पहरेदार। इच्छाओं का दमन करना = इच्छाओं को रोकना, आत्मनियन्त्रण करना। घमण्ड = गर्व। निःश्वास = दीर्घ साँस लेना। निर्मम = निष्ठुर, कठोर। खास तौर = मुख्य रूप से। दुश्मन = शत्रु। सुभाय = स्वभाव। ताड़ना = डाँट-फटकार। कुबेर = देवताओं के कोषाध्यक्ष। बजीफा = छात्रवृत्ति। मंजूषा = पेटी। कॉरू = एक प्रसिद्ध राजा मूसा का चचेरा भाई जो बहुत धनवान पर बड़ा कंजूस था। बिसराई = भूल जाना। औलाद = सन्तान। दुर्बल = कमजोर । इन्सान = व्यक्ति।

मर्यादा संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

1. “अपना मन मारते नहीं थे, दूसरों का मन रखते थे। वे अपने लिए नहीं दूसरों के लिए, कुटुम्ब के लिए जीते थे। कुटुम्ब उनके लिए सब कुछ था। कुटुम्ब की आन उनकी आन थी। (2010)

सन्दर्भ :
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक की ‘मर्यादा’ नामक एकांकी से अवतरित है। इसके लेखक ‘विष्णु प्रभाकर’ हैं।

प्रसंग :
प्रस्तुत कथन मालती का अपने पति जगदीश के व्यवहार पर आधारित है। संयुक्त परिवार में सब लोग हिलमिल कर रहते थे तथा सबकी भावनाओं का ध्यान रखते थे।

व्याख्या :
मालती कह रही है संयुक्त परिवार का वातावरण प्रेम तथा त्याग की भावना पर आधारित था। अपने मन की भावनाओं को दृष्टिपथ में रखते हुए परिवार के अन्य सदस्यों के प्रति भी उदार एवं सहृदय थे। संयुक्त परिवार के लोग स्वयं के लिए जीवित न रहकर परिवार के अन्य व्यक्तियों के लिए भी हित साधन में जुटे रहते थे। उनकी दृष्टि में कुटुम्ब ही सर्वोपरि था। अत: कुटुम्ब की मर्यादा को वे स्वयं ही मर्यादा ठहराते थे।

विशेष :

  1. भाषा सरल, सुबोध एवं प्रवाहपूर्ण है।
  2. संयुक्त परिवार के विषय में निम्नलिखित कथन देखिए-
    “कोई नहीं पराया मेरा घर सारा संसार है।”

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2. आज के जमाने में लोग भेड़-बकरी नहीं हैं। उनके दिमाग है, वे सोचते हैं, ………. समझते हैं। वे अपने पर निर्भर रहना चाहते हैं। दूसरों का सहारा लेना नहीं चाहते। ……..”हाँ प्रदीप ! क्या लिखा है, विनय ने?

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
जगदीश एवं उसकी पत्नी मालती के परिवार के विषय में उनके हृदयगत भावों का विवेचन है।

व्याख्या :
जगदीश का कथन है वह युग बीत गया जब मनुष्य बिना विचारे भेड़-बकरी की भाँति आचरण करते थे। आज का मानव चिन्तनशील एवं विवेक प्रधान है। वह सोच-समझकर ही किसी कार्य को करता है। वह स्वावलम्बी है। उसे दूसरों का सहारा लेकर जीवित रहना श्रेयस्कर प्रतीत नहीं होता। प्रदीप से जगदीश ने पूछा कि विनय ने अपने पत्र में क्या लिखा है ? इस सन्दर्भ में जानकारी लेने हेतु मैं जिज्ञासु हूँ।

विशेष :

  1. आज का मनुष्य विवेकशील प्राणी है।
  2. वर्तमान युग में मानव स्वावलम्बी बनने का आकांक्षी है।
  3. भाषा बोधगम्य है। उर्दू शब्दों का प्रयोग है।

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MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 6 स्नेह बन्ध

MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 6 स्नेह बन्ध

स्नेह बन्ध अभ्यास

स्नेह बन्ध अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
‘स्नेहबंध’ कहानी किन सम्बन्धों पर आधारित है?
उत्तर:
‘स्नेहबंध’ कहानी पारिवारिक सम्बन्धों पर आधारित है। इस कहानी में प्रमुख रूप से सास, ससुर एवं बहू के सम्बन्धों पर प्रकाश डाला गया है।

प्रश्न 2.
मीता से पहली भेंट पर उसकी सास पर क्या प्रभाव पड़ा? (2015)
उत्तर:
मीता से पहली बार भेंट करने पर उसकी सास उसकी आधुनिक वेशभूषा और उच्छृखल व्यवहार को देखकर स्तब्ध रह गयी।

प्रश्न 3.
मीता के ससुराल वालों ने जात-पाँत के बजाय किन बातों को महत्त्व दिया था? (2017)
उत्तर:
मीता के ससुराल वालों ने जात-पाँत के बजाय उसके रूप-गुण, विद्या-बुद्धि एवं संभ्रांत परिवार को महत्त्व दिया था।

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प्रश्न 4.
“अपनी बिटिया को भूल कैसे गई थी मैं?” इस वाक्य में बिटिया शब्द किसके लिए कहा गया है?
उत्तर:
“अपनी बिटिया को भूल कैसे गई थी मैं?” यह वाक्य मीता की सास ने अपनी बहू के लिए प्रयोग किया था।

प्रश्न 5.
मीता के पति व देवर का नाम लिखिए। (2016)
उत्तर:
मीता के पति का नाम ध्रुव और देवर का नाम शिव है।

स्नेह बन्ध लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
ध्रुव ने मीता के पिता को किस प्रकार आश्वस्त किया?
उत्तर:
ध्रुव ने मीता के पिता को यह कहकर आश्वस्त किया कि उसकी माँ बहुत ही सहनशील एवं स्नेहमयी हैं। वे मीता को अपने अनुसार ही बदल लेंगी।

प्रश्न 2.
शादियों में कुछ लोग किस उद्देश्य से जाते हैं? सबसे अधिक आलोचना किसे झेलनी पड़ती है?
उत्तर:
शादियों में कुछ लोग केवल टीका-टिप्पणी करने के उद्देश्य से ही आते हैं। उनका मुख्य उद्देश्य किसी न किसी प्रकार की कमी निकालकर हँसने का होता है। सबसे अधिक आलोचना नवविवाहिता वधू को झेलनी पड़ती है।

प्रश्न 3.
मीता की सास को मीता की कौन-कौन सी बातें खटकती थीं?
उत्तर:
मीता की सास को मीता का प्रत्येक व्यक्ति से बेधड़क बात करना, बात करते समय संकोच न करना, छोटे-बड़े के मध्य दूरी न बनाये रखना बहुत अखरता था।

प्रश्न 4.
मीता के विदेश न जाने के पीछे क्या भावना थी? (2009, 14)
उत्तर:
मीता अनावश्यक खर्च न करके अपनी ससुराल में ही रहना चाहती थी। क्योंकि उसके पति का विदेश जाने का खर्च कम्पनी दे रही थी, मीता का नहीं। उसकी यह भावना घर के प्रति उत्तरदायित्व एवं मितव्ययिता का परिचायक थी।

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स्नेह बन्ध दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
“हम लोग इतने दकियानूसी नहीं हैं कि एक आर्किटेक्ट लड़की में सोलहवीं सदी की बहू तलाशें।” कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
“हम लोग इतने दकियानूसी नहीं हैं” यह कथन ध्रुव के पिता का मीता के पिता के प्रति है। इस वाक्य द्वारा ध्रुव के पिता ने यह भावना व्यक्त की है कि वे इतने परम्परावादी नहीं हैं कि वे एक आर्किटेक्ट लड़की में सोलहवीं सदी की बहू तलाशें-ऐसा कहकर उन्होंने मीता के पिता को आश्वस्त किया।

इसका प्रमुख कारण था कि मीता के पिता को अपनी पुत्री की बहुत अधिक चिन्ता थी, क्योंकि उनकी पुत्री मातविहीन थी। अधिकतर उसकी शिक्षा हॉस्टल में रहकर सम्पन्न हुई थी। घर और परिवार के परिवेश से वंचित थी। वह घर और परिवार के रीति-रिवाज से अनभिज्ञ थी। इसी कारण मीता के पिता को ध्रुव के पिता ने अपने उचित व्यवहार एवं तर्कसंगत विचारों से पूर्ण आश्वस्त किया और यह भी दर्शा दिया कि वे रूढ़िवादी नहीं हैं।

प्रश्न 2.
‘स्नेहबंध’ कहानी के माध्यम से लेखिका क्या कहना चाहती हैं? (2008)
उत्तर:
‘स्नेहबंध’ कहानी के माध्यम के द्वारा लेखिका मालती जोशी यह कहना चाहती हैं कि प्रत्येक स्त्री के हृदय में ममत्व, स्नेह एवं वात्सल्य की अजस्र धारा प्रवाहित होती रहती है। स्त्री सास हो अथवा माँ, वह ममत्व की भावना संजोये रहती है। प्रस्तुत कहानी में मीता अपनी सास के प्रति अगाध प्रेम एवं श्रद्धा रखती है। लेकिन उसकी सास सदैव ही उससे रुष्ट रहती है। उसका प्रमुख कारण है मीता को व्यावहारिक ज्ञान न होगा।

ससुर, मीता की सास को बार-बार समझाते हैं कि बिना माँ की बच्ची है, उससे स्नेहपूर्ण व्यवहार करो। परन्तु वह हमेशा झुंझलाती रहती है। मीता के ससुर जब बीमार हो जाते हैं तब वह रात-दिन एक करके अपने ससुर की निष्कपट भाव से सेवा करती है। उसकी ससुर के प्रति निष्कपट एवं समर्पित सेवा भावना देखकर मीता की सास का हृदय परिवर्तित हो जाता है। उसके मन-मानस में मीता के प्रति प्रेम का सागर हिलोरें लेने लगता है।

‘स्नेहबंध’ कहानी के माध्यम से लेखिका ने यह व्यक्त करने का प्रयास किया है कि समय के अनुरूप मानव में परिवर्तन उपस्थित हो जाता है, चाहे वह कितना भी निष्ठुर क्यों न हो? वास्तव में ‘स्नेहबंध’ कहानी के द्वारा लेखिका ने सास-बहू के आदर्श प्रेम को दर्शाया है।

प्रश्न 3.
कहानी के आधार पर मीता की चारित्रिक विशेषताओं का वर्णन कीजिए। (2010)
उत्तर:
आधुनिक विचारधारा की मीता एक प्रतिष्ठित परिवार की लड़की है। उसे बनावटी बातें पसन्द न थीं। वह जब पहली बार ध्रुव के साथ अपनी ससुराल गयी तो ध्रुव ने उससे साड़ी पहनने को कहा, तब वह बोली, “मैं जैसी हूँ वैसी ही उन्हें देख लेने दो। बेकार नाटक करने से फायदा …….. खैर कपड़ों की छोड़ो।” पहली बार ससुराल जाती है तो वह वहाँ हँसी-मजाक करती है। उसके हृदय में किसी भी प्रकार का छल-कपट न था। वह विनम्रता की साक्षात् मूर्ति थी। साथ ही, रूप-गुण एवं बुद्धि से परिपूर्ण थी।

सौन्दर्य व गुणों से परिपूर्ण होने पर भी उसे तनिक भी घमण्ड न था। अपनी प्रत्येक बात को स्नेह से मनवाना चाहती थी। जब वह पहली बार मैक्सी पहनकर घर में खड़ी हुई तो उसकी ननद ने टोका और कहा-“मीता रानी ! आज ये कौन-सी पोशाक निकाल ली।” “घर की ड्रेस है दीदी।” यह उत्तर साधारण रूप से दे देती है। कहती है दीदी आप तो घर की हैं, अपनी हैं। इस प्रकार वह प्रत्येक प्रश्न का उत्तर सहजता से दे देती है। साथ ही साथ सास को समझाती है कि-

“पर माँ साड़ी पहनकर जरा-भी आरामदायक नहीं लगता। काम तो कर ही नहीं सकती मैं। बस गुड़िया की तरह बैठे रहना पड़ता है।” इस प्रकार साधारण रूप से अपनी सास को परेशानी बता देती है। सास भी उसकी बात को सहजता से स्वीकार कर लेती है।

बाल प्रवृत्ति-यद्यपि मीता का विवाह हो गया था परन्तु वह अपना बचपना नहीं छोड़ती है। उसे तनिक भी झिझक नहीं है। वह सुबह होते ससुर की कुर्सी के हत्थे पर बैठकर पूरा अखबार पढ़ती है।

“घर में रहती तब तक उनके आस-पास मँडराया करती, पापा का जाप किए जाती। इन्हें इसरार करके खाना खिलाती, दवाई समय पर न लेने के लिए डाँटती है।” लेकिन उसकी यह आदतें उसकी सास को पसन्द नहीं थीं। जब मीता के सास-ससुर की शादी की सालगिरह थी वह बातों में मगन थी। उसे कुछ क्षण के लिए याद न था-“मेरा चेहरा देखते ही वह गले में झूल गई-“पकड़ी गई न ! आप लोगों ने सोचा होगा, चुप्पी लगा जायेंगे तो सस्ते में छूटे जायेंगे।”

परिवार के प्रति उत्तरदायी – मीता को अपने परिवार की जिम्मेदारियों का पूर्ण अहसास था, क्योंकि जब मीता का पति जर्मनी जाने लगा तो सभी परिवार के सदस्यों ने कहा-यह भी ध्रुव के साथ चली जाय परन्तु मीता ने इस प्रस्ताव का विरोध इस प्रकार किया-
“वह बोली बेकार रुपये फेंकने से क्या फायदा पापाजी ! ध्रुव का खर्च तो कम्पनी देगी।” इस वाक्य के द्वारा यह प्रतीत होता है कि वह परिवार के प्रति उत्तरदायी है।

हँसमुख व्यवहार – मीता सदैव प्रसन्न रहती है तथा अपने व्यवहार द्वारा परिवार के सभी सदस्यों को प्रसन्न रखने का प्रयास करती है। इसी कारण वह सबसे हँसी-मजाक कर लेती है और स्नेहयुक्त व्यवहार करती है।

आदर्श वधू – मीता को जैसे ही पता चलता है कि उसके ससुर बीमार हैं वह तुरन्त उनकी सेवा तत्परता से करती है। रात-दिन एक कर डालती है। उसे हर समय एक ही दुःख सताता है कि उसके ससुराल वालों ने उसे उसके ससुर के बीमार होने की खबर क्यों नहीं दी? वह अपनी सास के पास चुपचाप लेट जाती है तभी उसकी सास ने पूछा “क्या हुआ बेटे?” मैंने प्यार से पूछा, वह एकदम पलटी। कुछ क्षण मुझे देखती रही फिर मेरी छाती में मुँह छुपाकर सुबकते हुए बोली, “पहले यह बताइए, आपने हमें खबर क्यों नहीं की? पापाजी इतने बीमार हो गये, किसी को मेरी याद भी न आई।”

उसके इस प्रकार की सेवा भावना से प्रतीत होता है कि वह एक आदर्श वधू है। वह अपने असीम स्नेह द्वारा सास का हृदय परिवर्तित कर देती है और सास भी उसको पुत्रीवत् स्नेह करने लगती है।

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प्रश्न 4.
उस प्रसंग का उल्लेख कीजिए जिसके कारण मीता की सास के व्यवहार में परिवर्तन आया?
उत्तर:
मीता आधुनिक परिवेश में पली-बढ़ी युवती है। वह जिस दिन से विवाह करके आयी थी वह हर समय प्रयास करती है कि वह अपनी सास की इच्छा के विरुद्ध न चले। वह हर सम्भव प्रयास करती है कि वह अपनी सास को प्रसन्न रखे परन्तु वह सदैव रुष्ट ही रहती हैं। यद्यपि मीता के ससुर ने भी अपने इन शब्दों द्वारा समझाया, “वह लड़की बेचारी माँ-माँ कहकर मरी जाती है और तुम?”

“बिना माँ की है तो क्या करूँ।” एकदम फट पड़ी। लेकिन कुछ समय के लिए मीता अपने पिता के घर चली जाती है। अचानक ही वह किसी काम से अपनी ससुराल पहुंची तब उसे पता चला कि उसके ससुर बीमार हैं।

मीता तुरन्त ही अपने बीमार ससुर के लिए प्राइवेट वार्ड में कमरा आरक्षित करवा कर उस कमरे की साफ-सफाई स्वयं करती है। जब उसकी सास कमरे में प्रवेश करती है तो कमरे की सुन्दर व्यवस्था को देखकर हैरान रह जाती है। इसके बाद मीता स्वयं स्टोव जलाकर सास के लिए चाय बना देती है और कहती है-
“माँ चाय पी लीजिये।” थोड़ी देर में वह मेरे सामने खड़ी थी। कमरे में आने के बाद से उसने पहली बार बात की थी और उसका स्वर अत्यन्त सपाट था।
“चाय यहाँ?”
तो कहाँ पियेंगी। क्या पापा को इस हालत में छोड़कर जायेंगी?

इसके पश्चात् रातभर जागकर वह कुर्सी पर बैठी रही। मीता की सेवा भावना को देखकर पहली बार सास ने कहा-
“मीता।” मैंने स्नेहयुक्त स्वर में आवाज दी, “भैया आराम कुर्सी में लेट जायेंगे। तू इधर पलंग पर आ जाना, दिन-भर खड़ी की खड़ी है।” इस प्रकार मीता के प्रति सास के हृदय में स्नेह उमड़ आया।

मीता चुपचाप सास के पास नहीं बच्ची की भाँति लेट जाती है। मीता के अबोध शिशु के समान व्यवहार को देख पहली बार मीता की सास को उस पर स्नेह उमड़ आया। क्योंकि दिनभर थकान के बाद वह एक निष्पाप अबोध निरीह शिशु लग रही थी। इस स्थिति को देखकर मीता की सास के मन में ममत्व की भावना जाग्रत हुई।

मीता की सास के शब्दों में ममता का एक ज्वार-सा उठा मन में। एकदम उसे अंक में भर लेने की इच्छा हुई। पर संकोच में मैं बस उसकी पीठ पर, बालों पर हाथ फेरती रही।

अचानक मेरी उँगलियाँ उसकी पलकों को छू गईं।
वे गीली थीं।
“क्या हुआ बेटे?” मैंने प्यार से पूछा।
वह कुछ नहीं बोली। बस, जैसे रुलाई रोकने के लिए होंठ सख्ती से भींच लिए। इसके बाद मीता ने सास की छाती में मुँह छिपाकर सुबकते हुए पूछा, “पहले यह बताइए आपने हमें खबर क्यों नहीं दी?” पापाजी इतने बीमार हो गये ………

इस वाक्य को सुनकर मीता की सास की अन्तरात्मा हिल उठी और उसे लगा कि वह व्यर्थ ही मीता के प्रति आक्रोश की भावना रखती है। जबकि वह उसको सच्चे हृदय से माँ मानती है।

इस घटना के पश्चात् ही मीता की सास ने स्वयं को-
“कटघरे में खड़ा करके मैं बार-बार पूछ रही थी-मुझे उसकी याद क्यों नहीं आई? अपनी बिटिया को कैसे भूल गई थी मैं?”
इस प्रकार मीता की सास के मन में मीता के प्रति पुत्रीवत स्नेह उमड़ आया और मन की शंका भी समाप्त हो गयी।

प्रश्न 5.
मीता के रोने का क्या कारण था?
उत्तर:
मीता के रोने का प्रमुख कारण था कि मीता अपनी ससुराल से अत्यधिक स्नेह करती थी। विशेषकर अपने ससुर से लेकिन जब मीता का पति ध्रुव विदेश चला गया तो वह अपने पिता के घर रहने चली गयी। इसी मध्य में उसके ससुर की तबियत अधिक खराब हो गयी।

इस बात का पता उसे मेहता जी से चलता है इसलिए वह दुःखी हो जाती है। क्योंकि जिस ससुर को व पिता के समान मानती थी तथा अपूर्व स्नेह रखती थी, उनकी अस्वस्थता के विषय में उसे कोई सूचना नहीं दी गयी थी।

मीता को अपने ससुर से अगाध स्नेह था। उसे यह बात कष्टप्रद प्रतीत हुई जिस पिता को वह अपार स्नेह करती है उन्हीं की अस्वस्थता को उसे न बताकर उसको पराया समझ लिया गया।

लेकिन मीता को पता चलते ही उसने ससुर की तन-मन-धन से सेवा की, परन्तु इस बात को भूलने में असमर्थ रही कि उसे ससुर की बीमारी को नहीं बताया गया। जब भी वह इस बात को सोचती तो उसे रोना आने लगता था।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित गद्यांश की सन्दर्भ व प्रसंग सहित व्याख्या कीजिए
(1) ममता का एक ज्वर …………………… फेरती रही।
(2) कभी कभार …………. घुल रही है।
उत्तर:
(1) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ पर मीता के व्यवहार से प्रभावित उसकी सास के मन की ममता की सहज अभिव्यक्ति हुई है।

व्याख्या :
मीता के अत्यन्त सरल और संवेदनशील सेवाभावी व्यवहार से उद्विग्न हुई मीता की सास के मन में ममता का तीव्र झंझावात जाग उठा। पास लेटी मीता उसे अपनी पुत्री प्रतीत होने लगी। वह उसे अपनी गोद में भर लेना चाहती थी, किन्तु संकोचवश मात्र उसकी पीठ पर तथा बालों पर प्यार भरा हाथ फेरती रही।

(2) सन्दर्भ :
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘स्नेह बंध’ नामक कहानी से उद्धृत है। इसकी लेखिका मालती जोशी हैं।

प्रसंग :
प्रस्तुत पंक्ति में लेखिका ने मीता की उस समय की मनोदशा का सशक्त अकन किया है जब उसके पति जर्मनी चले गये थे। इससे मीता के ससुर एवं सास भी चिन्तित थे।

व्याख्या :
मीता यदा-कदा अपने मायके से ससुराल आ जाती थी। लेकिन वह पहले की भाँति उछल-कूद नहीं करती थी। हँसती-मुस्कराती तो अवश्य थी। परन्तु पहले जैसी हल-चल नहीं करती थी। उसके हास्य के पीछे पहले जैसे जीवंतता नहीं थी। हास्य के पीछे मन की व्यथा निहित थी। जब मीता पुनः अपने मायके प्रस्थान करती थी तब उसके ससुर सास कहते कि उस समय तो अपने पति ध्रुव के साथ विदेश गमन इसलिए नहीं किया कि व्यर्थ ही रुपये व्यय होंगे। लेकिन अब वह मन-ही-मन पश्चाताप कर रही है। उसके मन में प्रतिपल अपने पति की याद कौंधती रहती है। मीता यद्यपि व्यवहार कुशल एवं दूरदर्शी है, परन्तु नारी के हृदय में पति के प्रति स्नेह भावना रहती है, उसे किस प्रकार नकारा जा सकता है।

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प्रश्न 7.
निम्नलिखित पंक्तियों का भाव-विस्तार कीजिए
(1) माँ की जीवन भर की साधना है।
(2) सभी सौजन्य और विनम्रता की मूर्ति बने थे।
(3) मन पर काँटे से उग आते हैं।
उत्तर:
(1) उपर्युक्त कथन ध्रुव का है-जब मीता की सास नाश्ता बनाकर लाती है तब मीता ध्रुव की माँ से कहती है कि आप इतना भारी नाश्ता देती हैं तभी आपके दोनों सुपुत्र मोटूमल हो रहे हैं। इसी बात का खण्डन करते हुए ध्रुव कहता है कि तुम हमें नजर मत लगाओ, क्योंकि हम दोनों पुत्र ही अपनी माँ की जीवन भर की जमा पूँजी हैं।

हमारी माँ ने हमें पूर्ण मनोयोग से परिश्रम करके पाला-पोसा है, अतः हमारे खाने-पीने पर टोक मत लगाओ। क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि खाते समय किसी को टोकना अशुभ माना जाता है। माँ के हाथ से दिया हुआ नाश्ता अमृत तुल्य हो जाता है। उसकी तुलना में संसार के समस्त स्वादिष्ट पदार्थ फीके हैं।

(2) प्रस्तुत वाक्य में मीता के विवाह का उल्लेख है क्योंकि अन्तर्जातीय विवाह को लेकर टीका-टिप्पणी करने के लिए बहुत से लोग लालायित थे, परन्तु मीता के परिवार की ओर से आवभगत में किसी भी प्रकार की कोई भी कमी नहीं थी। मीता के परिवार का प्रत्येक सदस्य अपने-अपने उत्तरदायित्व का सजगता एवं विनम्रता से निर्वाह कर रहा था।

कहने का अभिप्राय है कि पापा के अलावा परिवार के अन्य सदस्य भी विनम्रता की साक्षातमूर्ति थे। कहीं भी किसी भी प्रकार का तनाव न था। इस प्रकार से उनकी विनम्रता के द्वारा कन्यापक्ष की शालीनता और विनम्रता प्रकट हो रही थी।

(3) प्रस्तुत कथन मीता की सास का है जब मीता की सास ने रात जनरल वार्ड में गुजारी थी। उस रात को याद करके उनका मन व्यथित हो जाता है। वह यह जानकर परेशान थी कि उसके पति बीमार हैं उनकी देख-रेख की व्यवस्था उचित प्रकार से नहीं हो पा रही थी। उसका कारण था कि अस्पताल में गन्दगी बहुत थी। ऐसे वातावरण में रहना असहनीय था।

मीता की सास को अस्पताल के अव्यवस्थित माहौल में रात भर बेचैनी रही। वह स्वयं को ही बीमार समझने लगी थी। अस्पताल के दूषित वातावरण एवं दुर्गन्ध को याद करके उनका मन-मानस व्यथित हो रहा था।

उस अस्पताल की दुर्गन्ध की याद करके आज भी मन विह्वल हो उठता है। एक तो पति की बीमारी दूसरे अव्यवस्थित माहौल मन में काँटे की भाँति चुभ रहे थे एवं मन को व्यथित कर रहे थे।

स्नेह बन्ध भाषा अध्ययन

प्रश्न 1.
निम्नलिखित वाक्यों में प्रयुक्त मुहावरे छाँटकर लिखिए.
(अ) पहली नजर में उसका हुलिया देखा और मन खट्टा हो गया था।
(आ) उस समय तो सचमुच मेरा खून जल जाता पर मैंने किसी को हवा नहीं लगने दी।
(इ) प्रेम करते समय इन लोगों की अक्ल क्या घास चरने चली जाती है।
(ई) हमें नजर मत लगाओ।
(उ) बहू को लेकर मन में कितनी कोमल कल्पनाएँ थीं सब राख हो गईं।
उत्तर:
(अ) मन खट्टा हो गया।
(आ) खून जल जाना, हवा न लगने देना।
(इ) अक्ल घास चरने जाना।
(ई) नजर लगाना।
(उ) राख हो जाना।

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित शब्दों के सामने कुछ विकल्प दिये गये हैं, उनमें से सही विकल्प चुनकर लिखिए

  1. स्ट्रेचर (हिन्दी, अंग्रेजी, देशज शब्द)
  2. नज़र (हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू शब्द)
  3. जीवन (तत्सम, तद्भव, देशज शब्द)
  4. माटी (तत्सम, विदेशी, देशज शब्द)।

उत्तर:

  1. स्ट्रेचर-अंग्रेजी शब्द
  2. नज़र-उर्दू शब्द
  3. जीवन-तत्सम शब्द
  4. माटी-देशज शब्द।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित वाक्यों में अशुद्ध वर्तनी वाले शब्दों को शुद्ध करके लिखिए
उत्तर:
(क) अशुद्ध-लेकिन बहू घर में आति न थी।
शुद्ध-लेकिन बहू घर में आती न थी।

(ख) अशुद्ध-उसे परदरशन करने की क्या जरूरत थी?
शुद्ध-उसे प्रदर्शन करने की क्या जरूरत थी?

(ग) अशुद्ध-राम को यह सब सेहज-स्वाभाविक लगता था।
शुद्ध-राम को यह सब सहज स्वाभाविक लगता था।

(घ) अशुद्ध-पापा का स्वास्थ्य इन दीनों ठीक न था।
शुद्ध-पापा का स्वास्थ्य इन दिनों ठीक न था।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित अनुच्छेद में यथास्थान विराम चिह्नों का प्रयोग कीजिए-
कभी कभार वह भी घर पर आ जाती पर पहले का सा तूफान नहीं करती हँसती खिलखिलाती पर उसमें पहले की सी जीवंतता नहीं थी जब वह चली जाती तो यह कहते कहा था साथ चली जाओ तब नहीं मानी पैसे का मुँह देखती रही अब मन ही मन घुल रही है।
उत्तर:
कभी-कभार वह भी घर पर आ जाती है, पर पहले का-सा तूफान नहीं करती। हँसती-खिलखिलाती, पर उसमें पहले की-सी जीवंतता नहीं थी। जब वह चली जाती तो यह कहते, “कहा था, साथ चली जाओ। तब नहीं मानी, पैसे का मुँह देखती रही। अब मन-ही-मन घुल रही है।”

स्नेह बन्ध पाठ का सारांश

‘स्नेह बंध’ कहानी का सम्पूर्ण घटनाक्रम मीता एवं उसकी सास पर आधारित है। यदा-कदा किसी व्यक्ति विशेष के सम्बन्ध में जो धारणा बना लेते हैं उससे छुटकारा पाना दुष्कर है। मीता का आचरण मध्यमवर्गीय संस्कारों से मेल नहीं खाता। यही बात सास एवं बहू के मध्य एक दीवार खड़ी कर देती है। सास की हठधर्मिता सम्बन्धों को सहज रूप बनने में बाधक है। मीता के पति ध्रुव एवं देवर शिव को अपनी माँ का मीता के प्रति ऐसा व्यवहार खलता है।

संयोगवश मीता का पति विदेश गमन करता है। ससुर के आग्रह करने पर भी अपने पति के साथ विदेश इसलिए नहीं जाती है क्योंकि वहाँ अनावश्यक रूप से धन का व्यय होगा। पति की अनुपस्थिति में वह अपने घर के दायित्व के प्रति जागरूक है।

मायके में जब मीता को अपने ससुर की बीमारी का पता चलता है तो अस्पताल जाकर उनकी तत्परता से सेवा करती है। इससे प्रभावित होकर मीता की सास को वह बेटी के रूप में प्रिय प्रतीत होने लगती है।

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स्नेह बन्ध कठिन शब्दार्थ

प्रतिक्रिया = प्रतिकार, बदला। मुआयना = निरीक्षण। तल्ख = कटु, कड़वा, तीखा, तीखापन। कंठस्थ = मौखिक रूप से याद किया। कहकहा = हँसी-मजाक के स्वर, ठहाके। गुलजार = फूलों से भरे बाग की तरह, आनन्दित वातावरण, प्रसन्नता से भरा, हरा-भरा। अदब कायदा = विनीत या शिष्ट व्यवहार। किलककर = प्रसन्न होकर, हर्षित। कृत्रिम = बनावटी। कर्कश = तीखा स्वर। तन्द्रा = नींद। उत्सुक = इच्छुक। अव्यक्त= जिसे व्यक्त न किया जाय। अंधड़ = तूफान। आजिजी = अनमने, बिना मन के। हुलिया = रंग रूप। उसाँस = दीर्घ स्वाँस लेना। औपचारिक = व्यावहारिक। करबद्ध निवेदन = हाथ जोड़कर की गई प्रार्थना। आश्वस्त = भरोसा। सहनशील = विनम्र। स्नेहमयी = ममतामयी। दकियानूसी = रूढ़िवादी। आर्किटेक्ट = वास्तुकार। सौजन्यपूर्ण = सज्जनतापूर्ण। आचारसंहिता = नियमावली। मकसद = उद्देश्य। मीनमेख = नुक्स दोष निकालना। अव्यवस्था = व्यवस्था का अभाव। कोंचना = ताने मारना। उन्मुक्त = स्वतन्त्र। इसरार = अनुरोध। शिकन = सलवट, बल पड़ना। गद्गद् = प्रसन्न होना। आग्नेय दृष्टि = कड़ी नजर से देखना। खीझकर = झुंझलाकर। धींगामुश्ती = शरारत। प्रशिक्षण = ट्रेनिंग, अभ्यास। आक्रोश = क्रोध। स्नेहसिक्त = प्रेम में डूबा हुआ। मिमियाया = गिड़गिड़ाया। प्रतिवाद = विरोध करना। निस्पंद = शान्त, स्वर-मुक्त। निरीह = उदासीन, विरक्त। अंक = गोद। सरजाम = व्यवस्था।

स्नेह बन्ध संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

1. कभी-कभार वह भी घर पर आ जाती, पर पहले का-सा तूफान बरपा नहीं करती। हँसती-खिलखिलाती, पर उसमें पहले की-सी जीवंतता नहीं थी। जब वह चली जाती तो यह कहते “कहा था, साथ चली जाओ। तब नहीं मानी, पैसे का मुँह देखती रही। अब मन-ही-मन घुल रही है।”

सन्दर्भ :
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘स्नेह बंध’ नामक कहानी से उद्धृत है। इसकी लेखिका मालती जोशी हैं।

प्रसंग :
प्रस्तुत पंक्ति में लेखिका ने मीता की उस समय की मनोदशा का सशक्त अकन किया है जब उसके पति जर्मनी चले गये थे। इससे मीता के ससुर एवं सास भी चिन्तित थे।

व्याख्या :
मीता यदा-कदा अपने मायके से ससुराल आ जाती थी। लेकिन वह पहले की भाँति उछल-कूद नहीं करती थी। हँसती-मुस्कराती तो अवश्य थी। परन्तु पहले जैसी हल-चल नहीं करती थी। उसके हास्य के पीछे पहले जैसे जीवंतता नहीं थी। हास्य के पीछे मन की व्यथा निहित थी। जब मीता पुनः अपने मायके प्रस्थान करती थी तब उसके ससुर सास कहते कि उस समय तो अपने पति ध्रुव के साथ विदेश गमन इसलिए नहीं किया कि व्यर्थ ही रुपये व्यय होंगे। लेकिन अब वह मन-ही-मन पश्चाताप कर रही है। उसके मन में प्रतिपल अपने पति की याद कौंधती रहती है। मीता यद्यपि व्यवहार कुशल एवं दूरदर्शी है, परन्तु नारी के हृदय में पति के प्रति स्नेह भावना रहती है, उसे किस प्रकार नकारा जा सकता है।

विशेष :

  1. यहाँ पर लेखिका ने मीता के सास-ससुर की मनोदशा का वर्णन किया है।
  2. मुहावरों का प्रयोग है जैसे मन-ही-मन घुलना, तूफान नहीं बरपा, पैसे का मुँह देखना।
  3. शैली परिमार्जित है।

2. मेरे पास लेटी यह नन्हीं सी लड़की। इसका भी तो कभी-कभी मन होता होगा। तब किसके आँचल में मुँह छिपाती होगी। बड़ी बहन है, वह सात समुन्दर पार इतनी दूर है। भाभी तो खुद ही लड़की है अभी। (2008)

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत पंक्तियों में लेखिका बहू की निरीहता और मासूमियत का वर्णन कर रही है जिसे कभी माँ की गोद नसीब नहीं हुई थी।

व्याख्या :
नन्हीं सी बालिका अपने मन की व्यथा, अपनी भावनाओं और अपनी इच्छाओं को किससे कहती होगी। लेखिका इस बात को सोचकर अत्यन्त द्रवित है कि यह बालिका जो मेरे पास लेटी है, कितनी एकाकी और असहाय है। इसकी माँ नहीं है। यह अपनी व्यथा किससे बाँटे। इसका मन होता होगा कि कोई माँ का आँचल होता जिसमें वह स्वयं को छिपाती और स्वयं को सुरक्षित अनुभव करती। यद्यपि इसकी एक बड़ी बहन है किन्तु वह सुदूर विदेश में रहती है और भाभी जी हैं वह स्वयं ही बालिका हैं। उससे यह अपना सुख-दुःख किस प्रकार बाँट सकती है ? यह सोचकर वह द्रवित है कि सास को उसे अपनी बच्ची की भाँति मानते हुए स्नेह-दुलार देना चाहिए था।

विशेष :

  1. नारी मन का मनोवैज्ञानिक चित्रण है।
  2. पूर्वाग्रहों और परम्पराओं की बेड़ियों में जकड़ी सास अपनी बहू के निश्छल स्नेह और त्याग को नहीं पहचान पाती है। इसका यहाँ पर सूक्ष्म चित्रण किया गया है।

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3. ममता का एक ज्वर सा छा मन में। एकदम उसे अंक में भर लेने की इच्छा हुई। पर संकोच में मैं बस उसकी पीठ पर, बालों पर हाथ फेरती रही। (2015)

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
यहाँ पर मीता के व्यवहार से प्रभावित उसकी सास के मन की ममता की सहज अभिव्यक्ति हुई है।

व्याख्या :
मीता के अत्यन्त सरल और संवेदनशील सेवाभावी व्यवहार से उद्विग्न हुई मीता की सास के मन में ममता का तीव्र झंझावात जाग उठा। पास लेटी मीता उसे अपनी पुत्री प्रतीत होने लगी। वह उसे अपनी गोद में भर लेना चाहती थी, किन्तु संकोचवश मात्र उसकी पीठ पर तथा बालों पर प्यार भरा हाथ फेरती रही।

विशेष :

  1. मीता की दायित्व भावना से प्रभावित उसकी सास की भाव विह्वल दशा को प्रस्तुत किया गया है।
  2. सरल, सपाट भाषा का प्रयोग हुआ है।
  3. भावात्मक शैली में विषय का प्रतिपादन किया गया है।

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MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 5 नीरा

MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 5 नीरा

नीरा अभ्यास

नीरा अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
नीरा के पिता को क्या पढ़ने का शौक था?
उत्तर:
नीरा के पिता को अखबार पढ़ने का शौक था।

प्रश्न 2.
अमरनाथ ने अपना लेख किनके विषय में लिखा था?
उत्तर:
अमरनाथ ने अपना लेख लौटे हुए प्रवासी कुलियों के विषय में लिखा था।

प्रश्न 3.
नीरा के पिता कुली बनकर कहाँ गये थे? (2016)
उत्तर:
नीरा के पिता कुली बनकर मॉरीशस गये थे।

प्रश्न 4.
नीरा की माँ का क्या नाम था?
उत्तर:
नीरा की माँ का नाम ‘कुलसम’ था।

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नीरा लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
“भगवान यदि हों तो आपका भला करें,” कहने के पीछे नीरा के पिता बूढ़े बाबा के किस भाव का आभास होता है?
उत्तर:
‘भगवान यदि हों तो आपका भला करें’ इस कथन का भाव है कि बूढ़े बाबा को अनायास ही साइकिल के कारण चोट लग गयी। साइकिल वाले ने बूढ़े को एक अठन्नी दी। यह उस व्यक्ति की दया का प्रतीक थी। इसी कारण गद्गद् होकर बूढ़े बाबा ने साइकिल वाले के प्रति यह भाव व्यक्त किया।

प्रश्न 2.
नीरा के पिता को किस बात की चिन्ता थी? (2014, 15)
उत्तर:
नीरा के पिता को यह चिन्ता थी कि उसके मरणोपरान्त नीरा की देखभाल करने वाला कोई भी नहीं था। इसी कारण पिता को भय था कि आज समाज में असामाजिक तत्त्व यत्र-तत्र घूमते रहते हैं। ऐसे नर पिशाचों के हाथ में पड़कर नीरा का जीवन बरबाद हो जायेगा। यही चिन्ता उसे प्रति पल कचोटती रहती थी।

प्रश्न 3.
अपराधों का दण्ड तत्काल न मिलने का क्या परिणाम हुआ?
उत्तर:
अपराधों का दण्ड तत्काल न मिलने के फलस्वरूप आज समाज में दिन-प्रतिदिन अपराधों की संख्या में कई गुनी वृद्धि होती चली जा रही है। व्यक्ति का नैतिक पतन निरन्तर हो रहा है। मानवीय मूल्यों की भी गिरावट अवलोकनीय है। यदि यह कहा जाय कि जीवन में अपराधों का इतना जाल फैला हुआ है कि इससे मुक्त होने में मानव को कितना समय लगेगा यह प्रश्न भविष्य के अन्तराल में तिरोहित है।

नीरा दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
देवनिवास नीरा के किन गुणों से प्रभावित है? (2008)
उत्तर:
देवनिवास नीरा के अपूर्व सौन्दर्य, सरलता एवं सहृदयता से प्रभावित है। उसका प्रमुख कारण है कि नीरा यद्यपि निर्धन थी परन्तु उसके पास जो भी रूखा-सूखा पदार्थ सुलभ था उसी को ग्रहण करके अपूर्व सुख तथा आनन्द का अनुभव करती थी। इसके साथ ही उसे अपने बूढ़े बाबा की चिन्ता प्रतिपल सताती रहती थी। उनकी सेवा में वह कोई भी कसर नहीं छोड़ती थी।
बाबा के प्रति कर्त्तव्य निर्वाह को अपने जीवन का सर्वोपरि कर्त्तव्य मानती थी।
नीरा का धनिकों के प्रति कहा गया निम्न कथन देखिए, “जाओ, मेरी दरिद्रता का स्वाद लेने वाले धनी विचारकों और सुख तो तुम्हें मिलते ही हैं, एक न सही।”
देवनिवास नीरा की स्वाभिमानी एवं निश्छल प्रवृत्ति से प्रभावित है।

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प्रश्न 2.
कहानी का शीर्षक ‘नीरा’ कितना सार्थक है?
उत्तर:
जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘नीरा’ कहानी अभावग्रस्त मध्यमवर्गीय परिवार की व्यथा कथा है।

इस कहानी की मुख्य पात्र नीरा है। नीरा मातृविहीन एक बूढ़े की पुत्री है। उसकी माँ का निधन बचपन में ही हो गया था। उसका बूढ़ा पिता अभावग्रस्त होते हुए भी जागरूक है। उसे जीवन के कटु अनुभव हैं। अतः हर पल नीरा के बूढ़े बाबा को अपनी पुत्री की सुरक्षा का भय रहता है। बूढ़े को लगता है कि मेरे मरने के बाद कहीं मेरी पुत्री किसी अत्याचारी के हाथ पड़कर नष्ट न हो जाये।

यद्यपि उसका बूढ़ा बाबा मरणासन्न है लेकिन पुत्री के लिए व्याकुल है। उसकी पुत्री निरन्तर अपने पिता को सांत्वना देती रहती है कि “बाबा, तुम मेरी चिन्ता न करो भगवान मेरी रक्षा करेंगे।”

इसी मध्य देवनिवास ने नीरा के पिता से विवाह का प्रस्ताव रखा और कहा, “यदि तुम्हें ………. इस बात को सुनकर वृद्ध बाबा का हृदय पुलकित हो गया।

उसने अपने दोनों हाथ देवनिवास और नीरा पर फैलाकर रखते हुए कहा-“हे मेरे भगवान।” इस प्रकार हम देखते हैं कि समस्त कहानी का केन्द्र बिन्दु नीरा है। कहानी का ताना-बाना नीरा पर ही आधारित है।

नीरा के प्रणय बँधन में बँधने के पश्चात् कहानी का समापन हो जाता है। कहानी में ऐसा कोई स्थल नहीं है जहाँ नीरा दृष्टिगोचर न होती हो। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि नीरा प्रस्तुत कहानी का शीर्षक सटीक एवं सार्थक है।

प्रश्न 3.
देवनिवास या बूढ़े बाबा नीरा के पिता के चरित्र के आधार पर सिद्ध कीजिए कि यह कहानी अपने पात्रों के चरित्र-चित्रण में सफल रही है?
उत्तर:
जयशंकर प्रसाद द्वारा लिखित ‘नीरा’ नामक कहानी सामाजिक एवं चरित्र-चित्रण की दृष्टि से एक सफल कहानी है। कहानी में पात्रों की संख्या सीमित होते हुए भी कहानीकार ने उनके चरित्र-चित्रण में अभूतपूर्व सफलता पायी है।

कहानी के पात्र जीवन्त एवं यथार्थता के धरातल पर प्रतिष्ठित हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक का मुख्य उद्देश्य पाठकों के हृदय में ईश्वर के प्रति आस्था उत्पन्न करना है, क्योंकि कहानी का मुख्य पात्र बूढ़ा बाबा प्रारम्भ में नास्तिक विचारों वाला दिखाया गया है। देवनिवास एवं अमरनाथ दोनों ही उस वृद्ध व्यक्ति को विभिन्न तर्कों द्वारा ईश्वर के प्रति विश्वास करने को कहते हैं। लेकिन बूढ़े के विचार तनिक भी परिवर्तित नहीं होते।

संयोगवश देवनिवास का साधारण कथन बूढ़े व्यक्ति की विचारधारा को बदल देता है और ईश्वर में आस्था जगा देता है। बाबा अपने जीवन के प्रति उदासीन है। कहानी में देवनिवास, बूढ़े बाबा एवं नीरा प्रमुख पात्र हैं। गौण रूप में अमरनाथ हैं। इस कहानी में समस्त पात्रों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। कहानीकार ने प्रमुख रूप से यह बताने का प्रयास किया है कि “जो जस करिय तो तस फल चाखा”।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि बूढ़ा बाबा नास्तिक था लेकिन कहानीकार ने उसे ईश्वर के प्रति आस्था रखने के लिए प्रेरित किया। कहानीकार अपने इस उद्देश्य में पूर्णतः सफल हुआ है।

आज भी बूढ़े बाबा का चरित्र पाठक के स्मृति पटल पर छा जाता है। देवनिवास ईश्वर के प्रति आस्था रखने वाला व्यक्ति है। वह दूसरों के कष्टों में भाग लेकर अपनी सहृदयता का परिचय देने वाला है।

बूढ़े बाबा की लाचारी को देखकर उसने जो नीरा के साथ विवाह करने का प्रस्ताव रखा वह उसके उज्ज्वल चरित का द्योतक है।

अमरनाथ ईश्वर के प्रति आस्थावान है। लेकिन वह बूढ़े बाबा की नास्तिक विचारधारा को परिवर्तित करने में असमर्थ है। इस कारण वह बूढ़े के प्रति आक्रोश व्यक्त करता है जो उसकी संकुचित मानसिकता का प्रतीक है।

अन्त में कहा जा सकता है कि जयशंकर प्रसाद ने मानव को ईश्वर के प्रति सदैव आस्थावान रहने की प्रेरणा दी है। चाहे कितनी भी विषम परिस्थितियाँ आयें, व्यक्ति को ईश्वर के प्रति आस्था नहीं त्यागनी चाहिए। इस प्रकार कहानी चरित्र-चित्रण की दृष्टि से सफल एवं प्रेरणादायक है।

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प्रश्न 4.
निम्नलिखित गद्यांशों की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्या कीजिए
(1) सुख और सम्पत्ति ………………….. ठुकराता नहीं।
(2) जैसे एक साधारण ……………….. कराना चाहते हो।
उत्तर:
(1) सन्दर्भ :
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक की ‘नीरा’ नामक कहानी से उद्धृत है। इसके लेखक ‘जयशंकर प्रसाद’ हैं।

प्रसंग :
अमरनाथ एवं देवनिवास इस तथ्य को स्पष्ट कर रहे हैं कि अत्यधिक निर्धनता के फलस्वरूप मानव ईश्वर के प्रति अविश्वासी हो जाता है।

व्याख्या :
प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने इस तथ्य को दर्शाने का प्रयास किया है कि मानव यदि निरन्तर कष्ट भोगता रहे तो उसका ईश्वर के प्रति विश्वास कम होने लगता है। वह अपने समस्त कष्टों को उत्तरदायी ईश्वर को ठहराता है। भगवान सर्वव्यापी हैं, वह प्रत्येक जीव के हृदय में विद्यमान हैं, उनकी दृष्टि में मानव-मानव में तनिक भी भेद नहीं है। जब मानव दु:ख के झंझावातों से निराश होने लगता है तो ऐसी दशा में भगवान मानव को कभी दुत्कारता नहीं, ठुकराता नहीं और न प्रताड़ित करता है। मानव को प्रत्येक परिस्थिति में ईश्वर के प्रति अनन्य निष्ठा रखनी चाहिए, जीवन में सुख-दुःख का चक्र तो निरन्तर चलता ही रहता है।

(2) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने यह बताने का प्रयास किया है कि विपत्तियों के फलस्वरूप बूढ़े बाबा की ईश्वर के प्रति आस्था नहीं रही।

व्याख्या :
देव निवास ने कहा जिस प्रकार एक आलोचक हर लेखक से अपने मनोनुकूल कहानी कहलवाने का आकांक्षी रहता है तथा इस बात का भरसक प्रयास करता है कि मैं जिस प्रकार की भावना रखता हूँ तदनुरूप अन्य व्यक्ति भी उसी के अनुकूल चलें।

बूढ़े बाबा भी भगवान् से अपने जीवन में घटित होने वाली घटनाओं, सुख-दुःख के झंझावातों एवं अपनी मनोव्यथा को ईश्वर के माध्यम से सुख और शान्ति में परिवर्तित देखने के इच्छुक हैं।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित पंक्ति का भाव पल्लवन कीजिएआलोक एक उज्ज्वल सत्य है। (2008)
उत्तर:
प्रस्तुत पंक्ति का भाव है कि जीवन की सत्यता उसी प्रकार है जैसे कि प्रकाश में प्रत्येक वस्तु अच्छी हो अथवा बुरी, स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। लेखक ने अपनी इस पंक्ति द्वारा नीरा की दरिद्रता का परिचय दिया है। नीरा अपनी दरिद्रता को किसी भी प्रकार प्रकट नहीं करना चाहती है लेकिन रूखी रोटी मुख में नहीं प्रवेश कर पा रही है फिर भी उसको चबाने का प्रयास कर रही थी। “टीन का गिलास अपने खुरदरे रंग का नीलापन नीरा की आँखों में उड़ेल रहा था।”

अर्थात् उस गिलास में नीरा के जीवन की सत्यता उजागर हो रही थी जिसे नीरा संकोचवश व्यक्त नहीं करना चाहती थी।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि आलोक (प्रकाश) जीवन का एक ऐसा सत्य है जिसको व्यक्ति किसी भी भाँति छिपा नहीं सकता है। जैसे प्रकाश के सम्पर्क में आने पर सभी पदार्थ स्पष्टरूपेण दृष्टिगोचर होने लगते हैं। तद्नुरूप वास्तविकता के ऊपर पड़ा हुआ पर्दा कभी न कभी हट ही जाता है जो वस्तुओं की यथार्थता को स्पष्ट करता है।

प्रश्न 6.
“जो काम देवनिवास अपने तर्कों से नहीं कर सका उसे उसके कर्म ने सम्भव बना दिया।” बूढ़े बाबा के नास्तिक से आस्तिक बनने के घटनाक्रम को दृष्टिगत रखते हुए कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत कथन का भाव है कि निरन्तर प्रयत्न करने के उपरान्त व्यक्ति को कभी न कभी सफलता प्राप्त होती है। अतः व्यक्ति को निरन्तर प्रयास करते रहना चाहिए।

बूढ़ा बाबा नास्तिक था। उसे ईश्वर के प्रति तनिक भी आस्था और विश्वास न था। देवनिवास प्रतिदिन बूढ़े बाबा को विभिन्न प्रकार से ईश्वर के प्रति आस्था रखने के लिए प्रेरित करता रहता था। बूढ़े के मन पर उसके तर्कों का नाममात्र को भी प्रभाव नहीं पड़ता था। लेकिन देवनिवास हताश नहीं हुआ। एक दिन अचानक ही बूढ़े बाबा के समक्ष नीरा से विवाह का प्रस्ताव रखकर देवनिवास ने बूढ़े बाबा के हृदय में ईश्वर के प्रति निष्ठा उत्पन्न कर दी। अन्त में बूढ़े बाबा ईश्वर की सत्ता के प्रति नतमस्तक हो गये। क्योंकि बूढ़े बाबा को पुत्री के विवाह की चिन्ता आकुल-व्याकुल करती रहती थी। उन्हें कदापि देवनिवास से ऐसी उम्मीद न थी। इसी कारण बूढ़े बाबा को देवनिवास के कर्म ने नास्तिक से आस्तिक बना दिया।

नीरा भाषा अध्ययन

प्रश्न 1.
निम्नलिखित मुहावरों को वाक्य में प्रयोग कीजिएढोंग रचना, बिजली कौंधना, दाँत किटकिटाना, चौंक उठना, सुख की नींद सोना।
उत्तर:

  1. ढोंग रचना-आजकल साधु-सन्त ढोंग रचकर भोली-भाली जनता को मूर्ख बनाते हैं।
  2. बिजली कौंधना-उसका झूठ पकड़े जाने पर उसके शरीर में बिजली कौंध गयी।
  3. दाँत किटकिटाना-व्यर्थ में दाँत किटकिटाने से क्या लाभ है? कुछ करके दिखाओ तो जानें।
  4. चौंक उठना-बोर्ड की परीक्षा में आकाश ने सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया इसको देख सभी चौंक उठे।
  5. सुख की नींद सोना-बेटी के विवाह के पश्चात् माता-पिता सुख की नींद सोते हैं।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित वाक्यों में यथास्थान विराम चिह्नों का प्रयोग कीजिए
(अ) क्षमा मैं करूँ अरे आप क्या कह रहे हैं।
(ब) नहीं-नहीं बाबूजी मुझे यह कहने का अधिकार नहीं। मैं हूँ अभागा हाय रे भाग।
उत्तर:
(अ) क्षमा मैं करूँ? अरे ! आप क्या कह रहे हैं?
(ब) नहीं-नहीं बाबूजी, मुझे यह कहने का अधिकार नहीं, मैं हूँ अभागा ! हाय रे भाग !

प्रश्न 3.
प्रस्तुत पाठ में निम्नलिखित द्विरुक्ति वाले शब्दों का प्रयोग हुआ है। उनमें से यह शब्द किस प्रकार की द्विरुक्ति के अन्तर्गत आते हैं। लिखिए।
गिरते-गिरते, खड़े-खड़े, कुछ न कुछ, कभी-कभी, कौन-कौन, ठीक-ठीक, मन ही मन, दूर-दूर, धीरे-धीरे, कहते-कहते।
उत्तर:
MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 5 नीरा img-1

प्रश्न 4.
निम्नलिखित वाक्यांश के लिए एक शब्द लिखिए।
उत्तर:
(क) जो ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास न रखता हो – नास्तिक।
(ख) जो विश्वास करने योग्य न हो – अविश्वसनीय।
(ग) किए गये उपकार को मानने वाला – कृतज्ञ।
(घ) तर्क से सम्बन्धित – तार्किक।
(ङ) जो क्षमा करने योग्य न हो – अक्षम्य।

नीरा पाठ का सारांश

प्रस्तुत कहानी अभावग्रस्त जीवन एवं आस्था के मध्य संघर्षों से जूझते हुए पात्र के हृदय में प्रच्छन्न व्यथा की मार्मिक घटना है। जीवन का अभाव व्यक्ति विशेष को ईश्वर के अस्तित्व के प्रति दुविधा में डाल देता है। सब तरफ से निराश होकर मानव ईश्वर को ही कष्टों के लिए सर्वे सर्वा ठहराकर आस्तिकता की ओर कदम बढ़ाता है।

नीरा बूढ़े बाबा की मातृहीन बेटी है। निर्धन होने के फलस्वरूप नीरा के विवाह के लिए बूढ़ा बाबा अत्यन्त ही व्याकुल है। अमरनाथ को बूढ़े बाबा की नास्तिकता से चिढ़ है, लेकिन देवनिवास एवं नीरा को उससे सहानुभूति है। देवनिवास बूढ़े के कष्टों से द्रवीभूत होकर उसके पास जाकर नीरा के साथ विवाह का प्रस्ताव रखता है। देवनिवास का यह साधारण किन्तु यथार्थ कर्म बूढ़े बाबा की मानसिकता को परिवर्तित कर देता है। बूढ़े बाबा के मन में ईश्वर के प्रति अनायास ही आस्था उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार परिस्थितियाँ जगतनियन्ता के समक्ष व्यक्ति को नास्तिक से आस्तिकता की ओर उन्मुख करती हैं।

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नीरा कठिन शब्दार्थ 

विरक्त= वैराग्य। दर्बल = कमजोर। चिथडे = फटे कपड़े। अडियल = हठीला, जिद्दी। मसखरा = मजाकिया, हसोड़। उज्ज्वल आलोक = चमकता हुआ प्रकाश। आत्मविस्मृत = सुध-बुध न रहना, अपने को भूल जाना। स्मरण = याद। अनिच्छापूर्वक = बिना इच्छा के। मनोयोग = मन से। मलिना = मैली। उत्कण्ठा = उत्सुकता। मुखाकृति = मुख की आकृति, रूपरंग, चेहरे के भाव। मॉरिशस = हिन्द महासागर में एक द्वीप। दरिद्रता = निर्धनता। उलाहनों = उपालम्भ। अवलम्बन = सहारा। उत्कण्ठा = इच्छा, लालसा। नास्तिक = ईश्वर को न मानने वाला। तार्किक = तर्क के योग्य। चरायँध = दुर्गन्ध, जलते हुए शरीर से निकलने वाली गन्ध। हताश = निराश। ऐश्वर्यशाली = धनवान, ऐश्वर्य वाला। सर्वत्र = चारों ओर। मनोनुकूल = मन के अनुरूप। सृष्टिकर्ता = सृष्टि का निर्माण करने वाला। तत्काल = शीघ्र। प्रणत = प्रणाम करने को झुकना। आतिथ्य = आवभगत, सत्कार। वैभव = ऐश्वर्य। अच्छी युक्तियाँ = अच्छे तर्क, उचित विचार। जीर्ण = पुराने। पुआल = धान का चारा, डण्ठल। अभिमान = घमण्ड। धारणा = मान्यता। उच्छृखल = बन्धन न मानने वाला। अन्तरात्मा = अन्त:करण। पुलकित = आनन्दित, हर्ष विह्वल, प्रसन्नचित्त। विनीत = विनम्र।

नीरा संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

1. सुख और सम्पत्ति में क्या ईश्वर का विश्वास अधिक होने लगता है? क्या मनुष्य ईश्वर को पहचान लेता है? उसकी व्यापक सत्ता को मलिन वेश में देखकर दुरदुराता ‘ नहीं, ठुकराता नहीं। (2009)

सन्दर्भ :
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक की ‘नीरा’ नामक कहानी से उद्धृत है। इसके लेखक ‘जयशंकर प्रसाद’ हैं।

प्रसंग :
अमरनाथ एवं देवनिवास इस तथ्य को स्पष्ट कर रहे हैं कि अत्यधिक निर्धनता के फलस्वरूप मानव ईश्वर के प्रति अविश्वासी हो जाता है।

व्याख्या :
प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने इस तथ्य को दर्शाने का प्रयास किया है कि मानव यदि निरन्तर कष्ट भोगता रहे तो उसका ईश्वर के प्रति विश्वास कम होने लगता है। वह अपने समस्त कष्टों को उत्तरदायी ईश्वर को ठहराता है। भगवान सर्वव्यापी हैं, वह प्रत्येक जीव के हृदय में विद्यमान हैं, उनकी दृष्टि में मानव-मानव में तनिक भी भेद नहीं है। जब मानव दु:ख के झंझावातों से निराश होने लगता है तो ऐसी दशा में भगवान मानव को कभी दुत्कारता नहीं, ठुकराता नहीं और न प्रताड़ित करता है। मानव को प्रत्येक परिस्थिति में ईश्वर के प्रति अनन्य निष्ठा रखनी चाहिए, जीवन में सुख-दुःख का चक्र तो निरन्तर चलता ही रहता है।

विशेष :

  1. भाषा सरल, बोधगम्य एवं प्रभावपूर्ण है।
  2. साधारण बोलचाल के शब्दों दुरदुराता, ठुकराता आदि का प्रसंगानुकूल प्रयोग है।

2. जैसे एक साधारण आलोचक प्रत्येक लेखक से अपनी मन की कहानी कहलाना चाहता है और हठ करता है कि नहीं यहाँ तो ऐसा नहीं होना चाहिए था, ठीक उसी तरह तुम सृष्टिकर्ता से अपने जीवन की घटनावली अपने मनोनुकूल सही कराना चाहते हो।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने यह बताने का प्रयास किया है कि विपत्तियों के फलस्वरूप बूढ़े बाबा की ईश्वर के प्रति आस्था नहीं रही।

व्याख्या :
देव निवास ने कहा जिस प्रकार एक आलोचक हर लेखक से अपने मनोनुकूल कहानी कहलवाने का आकांक्षी रहता है तथा इस बात का भरसक प्रयास करता है कि मैं जिस प्रकार की भावना रखता हूँ तदनुरूप अन्य व्यक्ति भी उसी के अनुकूल चलें।

बूढ़े बाबा भी भगवान् से अपने जीवन में घटित होने वाली घटनाओं, सुख-दुःख के झंझावातों एवं अपनी मनोव्यथा को ईश्वर के माध्यम से सुख और शान्ति में परिवर्तित देखने के इच्छुक हैं।

विशेष :

  1. भाषा परिमार्जित, सरल एवं बोधगम्य है।
  2. शैली विषयानुरूप है।

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3. इसके बाद मेरी वह सब उद्दण्डता तो नष्ट हो गई थी, जीवन की पूँजी जो मेरा निज का अभिमान था-वह भी चूर-चूर हो गया था। मैं नीरा को लेकर भारत के लिए चल पड़ा। तब एक तो मैं ईश्वर के सम्बन्ध में एक उदासीन नास्तिक था, किन्तु इस दुःख ने मुझे विद्रोही बना दिया। मैं अपने कष्टों का कारण ईश्वर को ही समझने लगा और मेरे मन में यह बात जम गई कि यह मुझे दण्ड दिया गया है।

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत गद्यांश में जयशंकर प्रसाद ने बूढ़े बाबा की पत्नी ‘कुलसम’ की मृत्यु के पश्चात् उसके जीवन में होने वाले परिवर्तन का उल्लेख किया है।

व्याख्या :
बूढ़े बाबा का कथन है कि पत्नी की मृत्यु के पूर्व वह एक मस्त-मौला प्रवृत्ति का घमण्डी मानव था। लेकिन पत्नी की मृत्यु ने उसे झकझोर कर रख दिया। उसके पश्चात् बूढ़े बाबा की उच्छृखलता समाप्त हो गयी। गाढ़ी कमाई तो बरे व्यसनों में नष्ट हो गयी। लेकिन जीवन की वास्तविक पूँजी जो उसकी धर्मपत्नी थी वह भी मौत की गोद में सो गयी। वही मेरे जीवन की यथार्थ पूँजी थी। इसके पश्चात् मेरा घमण्ड नष्ट हो गया। मैं अपनी बेटी नीरा को लेकर भारत आ गया। उस समय तक मैं घोर नास्तिक था, विपत्तियों ने मुझे विद्रोही बना दिया। बूढ़ा बाबा अपने समस्त कष्टों का मूल कारण ईश्वर को ठहराता है और उसके मन में यह बात गहरे रूप से बैठ चुकी है कि शायद मुझे भगवान ने यह सारी मुसीबतें दण्ड स्वरूप प्रदान की हैं।

विशेष :

  1. भाषा, सरल, सहज एवं विषयानुरूप है।
  2. मुहावरों का प्रयोग है-चूर-चूर होना, बात जमाना।
  3. व्यक्ति को प्रत्येक परिस्थिति में ईश्वर के प्रति दृढ़ आस्था रखनी चाहिए।

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MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 4 धूपगढ़ की सुबह साँझ

MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 4 धूपगढ़ की सुबह साँझ

धूपगढ़ की सुबह साँझ अभ्यास

धूपगढ़ की सुबह साँझ अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
धूपगढ़ कहाँ स्थित है?
उत्तर:
धूपगढ़ प्रसिद्ध पचमढ़ी पर स्थित है।

प्रश्न 2.
प्रकृति की दो सहज स्थितियाँ कौन-सी हैं?
उत्तर:
लेखक ने प्रकृति की दो सहज स्थितियाँ मानी हैं-सुबह और साँझ।

प्रश्न 3.
सतपुड़ा का गौरव किसे कहा गया है? (2017)
उत्तर:
धूपगढ़ को सतपुड़ा का गौरव कहा गया है।

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धूपगढ़ की सुबह साँझ लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
लेखक ने सुबह और साँझ की तुलना माता-पिता के किन गुणों से की है?
उत्तर:
लेखक ने सुबह की तुलना पिता की प्रेरणा और शक्ति सम्पन्नता से की है तथा माता की ममता की तुलना साँझ की सहृदयता से की है।

प्रश्न 2.
साँझ की आँखों में करुणा क्यों उभर आती है?
उत्तर:
वनवासी की पगड़ी पर एवं वनवासी स्त्री की चूनर पर फूल संध्या के समय गिर जाते हैं। इससे साँझ की आँखें करुणा से द्रवित हो जाती हैं।

प्रश्न 3.
सुबह और साँझ की परस्पर तुलना क्यों अनुचित है?
उत्तर:
सुबह और साँझ की तुलना परस्पर अनुचित इसलिए है क्योंकि सुबह और साँझ दोनों की दुनिया अलग-अलग है, दोनों का अपना-अपना महत्व और सम्मोहन है।

धूपगढ़ की सुबह साँझ दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
लेखक ने प्रातःकालीन पूर्ण सूर्य बिम्ब की तुलना किन-किन बातों से की
उत्तर:
लेखक ने प्रात:कालीन पूर्ण सूर्य बिम्ब की तुलना विभिन्न प्राकृतिक उपमानों के माध्यम से की है-जिस प्रकार रोली से स्नात कलश को किरण से युक्त अल्पना पर रख दिया हो या किसी बड़े कुम्हार ने लाल मिट्टी का घड़ा अँधेरी सड़क पर प्यास से व्याकुल मानव की प्यास को बुझाने के लिए भर दिया हो। इसके अतिरिक्त जितने भी सेवा में व्यस्त मनुष्य हैं उनकी निस्वार्थ भावना युक्त सोने की कलश की चमक से तुलना की है।

प्रश्न 2.
तमतमाते दिवस की अवसान बेला कैसी है?
उत्तर:
तमतमाते दिवस की अवसान बेला में एक विशेष प्रकार का परिवर्तन आ जाता है। उसका प्रमुख कारण है कि इस बेला में सब कुछ शान्त हो जाता है। वनस्पति शान्त है, पक्षी भी शान्त हैं। सांसारिक झमेले भी शान्त हैं। आसमान की नीलिमा भी शान्त है। कभी न थकने वाले पक्षियों की उड़ान भी शान्त है क्योंकि वे संध्या काल में अपने नीड़ में विश्राम करते हैं। इसी कारण उनकी तीव्रगामी गति शान्त है। प्रकम्पित ध्वनियाँ शान्त हैं। उसका कारण है कि इस बेला में चारों ओर का कोलाहल शान्त हो जाता है।

प्रश्न 3.
लेखक सुबह और साँझ के माध्यम से क्या कहना चाहता है? (2008, 09)
उत्तर:
लेखक ने सुबह और साँझ के माध्यम से जीवन की विभिन्न परिस्थितियों का वर्णन किया है। इसमें जीवन, मृत्यु, सुख, दु:ख और आदि-अंत तथा विभिन्न प्रकार के उतार-चढ़ाव के द्वारा जीवन के काल चक्र को दर्शाया है।।

सुबह और साँझ एक-दूसरे के विपरीत नहीं है अपितु एक-दूसरे के पूरक हैं। पिता की तुलना एवं माता की तुलना लेखक ने सुबह और साँझ से की है और यह बताने का प्रयास किया है कि जिस प्रकार माता-पिता अपने बच्चों को सहृदय व स्नेह द्वारा आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं तदनुकूल सुबह और साँझ मानव को जीवन पथ पर अग्रसर होने का पाठ पढ़ाते हैं। साथ ही सन्देश देते हैं कि विपरीत परिस्थितियों में व्यक्ति को धैर्य से बढ़ते रहना चाहिए।

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प्रश्न 4.
लेखक की भाषा अलंकारिक तथा शैली ललित है। उदाहरण देते हुए स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
लेखक की अलंकारिक भाषा का उदाहरण निम्नवत् है-
(1) वैसे तो कई सुबहों और साँझों का प्रकाश भीगी-पलकों ने उठते-गिरते देखा है परन्तु उन साँझों में एक साँझ यादों के वृक्ष पर फल की तरह लगी हुई है। धूपगढ़ की साँझ का रूप, रंग, आकार, रस सब कुछ निराकार बनकर अंतरिक्ष में फैला हुआ है। पंचमढ़ी, पर्वतों की रानी कही जाती है। सतपुड़ा का सारा निसर्गगत सौन्दर्य पचमढ़ी की गोदी में झूल रहा है।

(2) लेखक की भाषा शैली का अनुपम उदाहरण द्रष्टव्य है-प्राची के हिरण्य गर्भ से बालारूण की जन्म बेला की प्रतीक्षा में विश्व मोहिनी शक्ति जैसे जाग गई हो। क्षितिज पर पतली-सी रेखा उभरती है और बालक की किलकारी दिशाओं तक फैल जाती है। पक्षी उसी किलक को अपने स्वरों में भरकर आकाश को जाते हैं। क्षितिज पर भुवन भास्कर की पहली रेखा जैसे किसी बालक ने पूरब की स्लेट पर स्वर्णिम पेन से लकीर खींच दी हो; जिसका बीच का भाग ऊपर की ओर हल्का-सा उठा हुआ है। जैसे अंधेरे के महासमुद्र में आती हुई ऊषा का जल सतह पर सुनहरे रंग का केशबंध’ (हेयर बैंड) दिखाई दे रहा है।

(3) अन्य उदाहरण देखिए-यह साँझ पृथ्वी को अमृत, सोम, शीतलता और दुग्ध धार देने वाली है। यह वनैले पशुओं की जागरण बेला है। इसमें मनुष्य जीवन की अलस भरी है, तो हिंसक पशुओं की अंगड़ाई भी है। मनुष्य और मनुष्येत्तर जीव इसकी अतिथिशाला में विश्राम कर सूर्य की पहली किरण के साथ पुनः धरती को नापने हेतु उत्फुल्ल होते हैं तो जंगल राज का राजा अपनी कर्णभेदी दहाड़ से सारसवर्णी जीवों की साँसोच्छेदन में तत्पर भी होता है। उपर्युक्त उदाहरणों द्वारा भाषा की अलंकारिकता एवं शैली की विशेषता अवलोकनीय है।

प्रश्न 5.
इन गद्यांशों की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्या कीजिए
(1) गगन से सूर्योदय ……………. विरला ही पहुँचता है।
(2) धूपगढ़ की साँझ…………….. सुला लेती है।
उत्तर:
(1) सन्दर्भ :
प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक के निबन्ध ‘धूपगढ़ की सुबह साँझ’ से उद्धृत किया गया है। इसके लेखक ‘डॉ. श्रीराम परिहार’ हैं।

प्रसंग :
प्रस्तुत अवतरण में परिहार जी ने धूपगढ़ की सुबह को देखने का अत्यन्त ही सुन्दर वर्णन किया है।

व्याख्या :
धूपगढ़ में प्रात:काल आकाश से सूरज के प्रकाश का अमृत झरता हुआ प्रतीत होता है क्योंकि यह प्रकाश मन एवं मस्तिष्क पर अमृत की शीतलप्रद बिन्दुओं के समान सुखदायी एवं आनन्दप्रद है। किरणें ही अमृत का स्रोत हैं। ये ही सूर्य से लेकर धूपगढ़ की चोटी तक किरणों का बाँध बनाती हैं। यद्यपि किरणों का बाँध देखने में तो मनोरम है लेकिन इस तक पहुँचने में कोई विरला ही सक्षम हो सकता है। लेखक के कहने का तात्पर्य यह है कि प्राकृतिक दृश्यों के सौन्दर्य का पान हर-एक के वश की बात नहीं है।

(2) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस गद्यांश में धूपगढ़ की साँझ के रचनात्मक पक्ष का सटीक अंकन किया है।

व्याख्या :
धूपगढ़ की साँझ धरती को आनन्ददायी अमृत, चन्द्रमा, शीतलता प्रदान करती है। इससे दूध की धार प्रवाहित होती हैं। वन में रहने वाले पशुओं के लिए यह जागे रहकर सक्रिय रहने का समय है। साँझ होते ही दिनभर काम में लगे रहने वाला आदमी सोने को तत्पर होता है तो शिकारी पशु अंगड़ाई लेकर शिकार की खोज में निकल पड़ता है। आराम देने वाले संध्या के आवास में मानव चैन की नींद लेकर सूर्योदय के साथ पुनः संसार के कार्यों में सक्रिय हो जाता है। इसी समय वनराज सिंह अपनी तेज गर्जन से सारस आदि निरीह प्राणियों की स्वांसों के उच्छेदन के लिए तैयार होता है।

प्रश्न 6.
(क) प्रकृति सुख-दुःख से परे है। वह नियंता है।
(ख) जन्म और मृत्यु प्रकृति के लिए दो सहज स्थितियाँ हैं।
(ग) सुख के केन्द्र में स्वतन्त्रता और उन्मुक्तता होती है।
उपर्युक्त पंक्तियों का भाव पल्लवन कीजिए।
उत्तर:
(क) लेखक ने इस पंक्ति द्वारा यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि प्रकृति पर दुःख हो अथवा सुख, किसी भी प्रकार का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। प्रकृति नियंता एवं वीतराग है। वह भौतिक सुख-दुःख से परे रहकर विश्व का नियन्त्रण करती है। उसी के निर्देशन में परिवर्तन के दृश्य उपस्थित होते रहते हैं। प्रकृति पर विषम से विषम परिस्थितियाँ तनिक भी अपना प्रभाव नहीं डाल सकतीं।

(ख) लेखक का कथन है कि इस धरती पर प्रकृति के माध्यम से निरन्तर जन्म और मृत्यु चक्र चलता ही रहता है। इनसे किसी को भी मुक्ति नहीं मिल सकती है। लेखक ने यहाँ गीता के इस तथ्य को उजागर किया है जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु निश्चित है तथा मृत्यु के पश्चात् पुनः जन्म होता है जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नवीन वस्त्र धारण करता है। तद्नुरूप आत्मा पुराना काया रूपी वस्त्र उतारकर नया कायारूपी वस्त्र धारण करती है।

(ग) लेखक का कथन है धूपगढ़ वन क्षेत्र में रहने वाले मानव अभावों एवं गरीबी से त्रस्त हैं। वे इन अभावों के अन्तर्गत एक असीम सुख का अनुभव करते हैं। यद्यपि वे सांसारिक दृष्टि से कंगाल हैं लेकिन प्रकृति की गोद में पल कर एक अनिवर्चनीय सुख का अनुभव करते हैं। उनका सुख किसी के माध्यम से प्राप्त न होकर प्रकृति की निकटता का परिणाम है। वे स्वयं को पराधीन न मानकर स्वतन्त्र भाव से वन की धरती पर विचरण करते हैं।

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धूपगढ़ की सुबह साँझ भाषा अध्ययन

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों में से प्रत्यय और उपसर्ग छाँटकर लिखिए
प्रस्थान, मनुष्यता, उन्मुक्तता, उज्ज्वल, तन्मयता, अविजित, नैसर्गिक, प्राकृतिक।
उत्तर:
प्रत्यय-मनुष्यता, उन्मुक्तता, तन्यता, नैसर्गिक, प्राकृतिक।
उपसर्ग : प्रस्थान, उज्ज्वल, अविजित।

प्रश्न 2.
निम्न शब्दों के तत्सम रूप लिखिए
सुबह, साँझ, गाँव, पाँव, आँच।
उत्तर:
प्रातः, संध्या, ग्राम, पाद, अग्नि।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित वाक्यांश के लिए एक शब्द लिखिए
उत्तर:

  1. जहाँ जाया न जा सके – अगम्य
  2. जिसकी उपमा न हो – अनुपमेय
  3. जिसे पढ़ा न हो – अपठित
  4. काँटों से भरा हुआ – कंटकाकीर्ण
  5. आकाश को छूने वाला – गगनचुम्बी
  6. सदा हरने वाला – अमर।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित वाक्य में विराम चिह्नों का यथास्थान प्रयोग कीजिए-
यह साँझ पृथ्वी को अमृत सोम शीतलता और दुग्ध धार देने वाली है
उत्तर:
यह साँझ पृथ्वी को अमृत, सोम, शीतलता और दुग्ध धार देने वाली है।

धूपगढ़ की सुबह साँझ पाठ का सारांश

पंचमढ़ी स्थित धूपगढ़ सतपुड़ा पर्वत श्रृंखलाओं की सर्वाधिक ऊँची चोटी है। सूर्य के निकलने एवं अस्त होने के समय नेत्रों एवं मन को लुभाने वाले दृश्यों की शोभा देखते ही बनती है। पर्यटक इन्हें देखते-देखते अघाते नहीं हैं। डॉ. श्रीराम परिहार ने अपने निबन्ध में धूपगढ़ की -प्रातः एवं साँझ बेला का छायावादी चित्रण अंकित किया है। प्रकृति का मानवीकरण सटीक एवं जीवन्त है। सुबह एवं शाम के प्रतीकों के द्वारा जिन्दगी, मृत्यु, विषाद एवं सुख आदि कालचक्र का ऐसा गतिशील विवेचन किया है जो जीवन की वास्तविकता को हमारे नेत्रों के समक्ष उपस्थित करने में सक्षम है। वनवासियों के संकटग्रस्त जीवन का भी वर्णन किया है। पशुओं एवं वन प्रदेश का भी चित्रण किया है। प्रातः एवं सन्ध्या के माध्यम से जिन्दगी के संघर्ष एवं शान्ति के तालमेल को भी अंकित किया है। निबन्ध में जिन्दगी का राग गुञ्जित है। आत्मा का वैराग्य भी ध्वनित है। सुबह-शाम एक-दूसरे के विरोधी न होकर जीवन के संदेशप्रद हैं।

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धूपगढ़ की सुबह साँझ कठिन शब्दार्थ

सुगन्ध = खुशबू। साँझ = सायंकाल। वर्ण रंग। अदृश्य = जो दिखायी न दे। दिक्काल = दिशाओं के स्वामी। उद्गम = निकलने का स्थान। क्षितिज = जहाँ आकाश और पृथ्वी मिले हुए दिखाई देते हैं। पखेरुओं = पक्षियों। कर्मपूर्णता = काम के पूरा होने का भाव। अग्निमय = आग से भरा हुआ। शक्ति सम्पन्नता = शक्ति से युक्त। हृदय रसज्ञता = हृदय के रस को जानने की क्षमता। भोर तक = प्रात:काल तक। भीगी पलकों = आँसुओं से गीली पलकें। अंतरिक्ष = आकाश। निसर्गगत सौन्दर्य = प्राकृतिक सुन्दरता। पाग = पगड़ी। निशिवासर = रात-दिन। सान्निध्य = सम्पर्क। ब्रह्ममुहूर्त = प्रात:काल। वन वल्लरियों = लताओं। प्राची = पूर्व। हिरण्य-गर्भ = स्वर्ण या सोने की कोख। बालारुण = प्रात:कालीन सूर्य। स्वर्णिम = सोने के। ऊषा = प्रात:काल। महानिलय = आकाश। तृषा = तृप्ति, प्यास बुझाने के लिए। निष्कलुष = पवित्र। गोरिक वसना = गेरुए वस्त्र धारण करने वाली। नील-कुसुमित = नीले पुष्प के रूप में खिलना, नीलकलिका। माधवी लता = माधवी पुष्प की लता। प्रातिभ = प्रात:कालीन सूर्य की लाली। देहयष्टि = शरीर सौष्ठव। अल्हड़ ठवनि = चंचलमुद्रा। नूपुरों = घुघरुओं। कर्ण आह्लादन = कानों में खुशी उत्पन्न करने वाली। सारस्वत = ज्ञानमयी, बौद्धिक। पूर्वपीठिका = पहली भूमिका। तिमिर = अन्धकार। अनुताप-पूरित = दुःख से भरा हुआ। दिवस = दिन। प्राण बल्लभा = प्रेयसी, प्रियतमा। मलयज चीर = सुगन्धित वस्त्र, मलय चन्दन गन्ध से सुगंधित। मृग मरीचिका = मृगतृष्णा, मिथ्या प्रतीति। भास्वर = प्रकाशवान। उत्पुल्ल = प्रसन्न। सारसवर्णी = सारस के रंग वाली। साँसोच्छेदन = साँसों को समाप्त करना। अहेतुक = निस्वार्थ, स्वार्थ हीन। वात्सल्य = सन्तान के प्रति माता-पिता का प्रेम। स्लथ = बकी। शुभ्र = श्वेत, स्वच्छ।

धूपगढ़ की सुबह साँझ संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

1. गगन से सूर्योदय के प्रकाश का अमृत झरता है। किरणें फूटती हैं और रश्मि-सेतु सूर्य से लेकर धूपगढ़ की चोटी तक बन जाता है। इसे देखना अच्छा लगता है। इस रश्मि सेतु पर चलकर सूर्य तक कोई विरला ही पहुँचता है। (2015)

सन्दर्भ :
प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक के निबन्ध ‘धूपगढ़ की सुबह साँझ’ से उद्धृत किया गया है। इसके लेखक ‘डॉ. श्रीराम परिहार’ हैं।

प्रसंग :
प्रस्तुत अवतरण में परिहार जी ने धूपगढ़ की सुबह को देखने का अत्यन्त ही सुन्दर वर्णन किया है।

व्याख्या :
धूपगढ़ में प्रात:काल आकाश से सूरज के प्रकाश का अमृत झरता हुआ प्रतीत होता है क्योंकि यह प्रकाश मन एवं मस्तिष्क पर अमृत की शीतलप्रद बिन्दुओं के समान सुखदायी एवं आनन्दप्रद है। किरणें ही अमृत का स्रोत हैं। ये ही सूर्य से लेकर धूपगढ़ की चोटी तक किरणों का बाँध बनाती हैं। यद्यपि किरणों का बाँध देखने में तो मनोरम है लेकिन इस तक पहुँचने में कोई विरला ही सक्षम हो सकता है। लेखक के कहने का तात्पर्य यह है कि प्राकृतिक दृश्यों के सौन्दर्य का पान हर-एक के वश की बात नहीं है।

विशेष :

  1. प्रकृति का मानवीकरण है।
  2. प्रात: बेला की मनोरम झाँकी है।
  3. शैली अलंकारिक एवं परिमार्जित है।

2. धूपगढ़ की सुबह देखी है, साँझ भी देखी है। दोनों में किसका सौन्दर्य ज्यादा है? किसका रंग घना है? किसका प्रभाव गहरा है? नहीं कह सकते। यह तुलना भी अनुचित है। सुबह, सुबह है। साँझ, साँझ है। दोनों की अपनी दुनिया है। अपनी महिमा है। अपना सम्मोहन है। सामान्यतः सुबह और साँझ अपने प्राकृतिक चक्र के कारण सहज रूप में आती जाती हैं। इनके होने में प्रकृति की इच्छा ही अभिव्यक्त होती है। (2016)

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
प्रस्तुत गद्यांश में सुबह और साँझ दोनों के स्वाभाविक महत्व को समझाया गया है।

व्याख्या :
धूपगढ़, प्राकृतिक सौन्दर्य का भण्डार है। यहाँ की सुबह और साँझ बहुत ही रोमांचकारी होती है। यहाँ की सुबह और साँझ दोनों की सुन्दरता को देखा है। दोनों का सौन्दर्य अद्भुत है। यह कहना सम्भव नहीं है कि इनमें किसकी सुन्दरता अधिक है। किसका रंग घना प्रभावी है अथवा किसकी प्रभावशीलता गहन है। इन दोनों की सुन्दरता की तुलना करना भी उचित नहीं है। सुबह का सौन्दर्य सुबह का है और साँझ की सुन्दरता साँझ की है। इन दोनों का संसार अपना-अपना है। इनका गौरव, महत्व एवं मोहकता भी अपनी-अपनी है। वास्तविकता यह है कि सुबह और साँझ प्रकृति के चक्र के कारण स्वाभाविक रूप से आती हैं और चली जाती हैं। ध्यान से देखें तो इन दोनों के सम्पादन में प्रकृति की मनोकामना ही व्यक्त होती प्रतीत होती है।

विशेष :

  1. सुबह और साँझ के आवागमन की स्वाभाविकता का सटीक अंकन हुआ है।
  2. शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है।
  3. काव्यमयी आलंकारिक शैली में विषय का प्रतिपादन हुआ है।

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3. यह साँझ पृथ्वी को अमृत, सोम, शीतलता और दुग्ध धार देने वाली है। यह वनैले पशुओं की जागरण बेला है। इसमें मनुष्य जीवन की अलस भरी है, तो हिंस्त्र पशुओं की अंगड़ाई भी है। मनुष्य और मनुष्येतर जीव इसकी अतिथिशाला में विश्राम कर सूर्य की पहली किरण के साथ पुनः धरती को नापने हेतु उत्फुल्ल होते हैं, तो जंगल राज का राजा अपनी कर्णभेदी दहाड़ से सारसवर्णी जीवों की साँसोच्छेदन में तत्पर भी होता है। (2012)

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
इस गद्यांश में धूपगढ़ की साँझ के रचनात्मक पक्ष का सटीक अंकन किया है।

व्याख्या :
धूपगढ़ की साँझ धरती को आनन्ददायी अमृत, चन्द्रमा, शीतलता प्रदान करती है। इससे दूध की धार प्रवाहित होती हैं। वन में रहने वाले पशुओं के लिए यह जागे रहकर सक्रिय रहने का समय है। साँझ होते ही दिनभर काम में लगे रहने वाला आदमी सोने को तत्पर होता है तो शिकारी पशु अंगड़ाई लेकर शिकार की खोज में निकल पड़ता है। आराम देने वाले संध्या के आवास में मानव चैन की नींद लेकर सूर्योदय के साथ पुनः संसार के कार्यों में सक्रिय हो जाता है। इसी समय वनराज सिंह अपनी तेज गर्जन से सारस आदि निरीह प्राणियों की स्वांसों के उच्छेदन के लिए तैयार होता है।

विशेष :

  1. संध्या के समय होने वाली गतिविधियों का रोचक वर्णन हुआ है।
  2. लाक्षणिक भाषा तथा रोचक शैली में विषय का प्रतिपादन हुआ है।

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MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 3 जननी जन्मभूमिश्च

MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 3 जननी जन्मभूमिश्च

जननी जन्मभूमिश्च अभ्यास

जननी जन्मभूमिश्च अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
“गंगा और गंगा के कछार को मेरा सलाम कहें” यह कथन लेखक से किसने कहा?
उत्तर:
गंगा और गंगा के कछार को मेरा सलाम कहें; यह कथन लेखक से बनारस के रहने वाले एक व्यक्ति ने कराची में कहा।

प्रश्न 2.
जननी और जन्मभूमि किससे अधिक श्रेष्ठ है? (2009, 6)
उत्तर:
जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी अधिक श्रेष्ठ है।

प्रश्न 3.
आजादी की लड़ाई में ‘बड़े घर’ से आशय था? सही उत्तर लिखिए।
(अ) महल
(ब) जेलखाना
(स) बहुत बड़ी हवेली
(द) विशाल मकान।
उत्तर:
(ब) जेलखाना।

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जननी जन्मभूमिश्च लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
मातृभूमि और स्वर्ग में क्या अन्तर है?
उत्तर:
मातृभूमि स्वर्ग से श्रेष्ठ होती है। मातृभूमि की गोद में हमारा लालन-पालन होता है। जिस प्रकार मानव अपनी माँ के कर्ज से उऋण नहीं हो सकता, तद्नुरूप अपनी मातृभूमि से भी उऋण नहीं हो सकता।

प्रश्न 2.
फूल की कामना क्या है?
उत्तर:
फूल की एक प्रबल कामना थी कि हे माली ! तुम मुझे तोड़ने के पश्चात् उस पथ पर फेंक देना जिस पथ से मातृभूमि के हितार्थ अपने प्राण प्रसूनों को अर्पित करने वाले शहीद गुजरते हैं।

प्रश्न 3.
गाय के दूध से माँ के दूध की तुलना क्यों नहीं की जा सकती? (2014, 17)
उत्तर:
गाय के दूध की तुलना माँ के दूध से इसलिए नहीं की जा सकती क्योंकि गाय का दूध यत्र-तत्र सर्वत्र बाजार-हाट में उपलब्ध होता है। इसको व्यक्ति धन देकर खरीद सकता है। लेकिन माँ का दूध मूल्यवान है, कोई भी इसका मूल्य चुकता नहीं कर सकता।

प्रश्न 4.
लेखक ने अपने भारतीय हमवतन के चार सौ साल स्वर्ग को किस सुख पर हजार बार न्यौछावर किया है?
उत्तर:
लेखक ने अपने भारतीय हमवतन के चार सौ साल के स्वर्ग को मातृभूमि के सुख पर हजार बार न्यौछावर किया है, क्योंकि मातृभूमि के समान सुख एवं अपनत्व अन्यत्र प्राप्त होना दुर्लभ है।

जननी जन्मभूमिश्च दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
जन्मभूमि के प्रति प्रेम और राष्ट्र प्रेम में कोई अन्तर्विरोध नहीं है। पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए। (2009)
उत्तर:
जन्मभूमि के प्रति प्रेम और राष्ट्र प्रेम में कोई अन्तर्विरोध नहीं है। उसका प्रमुख कारण है कि जो व्यक्ति जन्मभूमि के प्रति प्रेम व आस्था रखता है तथा मानव मूल्यों को समझता है वही व्यक्ति राष्ट्रीय दायित्व का भली प्रकार निर्वाह कर सकता है। मानव को अपने जीवन में विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों में दूसरों की भावनाओं का सम्मान करते हुए आगे बढ़ना पड़ता है और तभी देशभक्ति का सही अर्थ चरितार्थ होता है। राष्ट्र के प्रति व्यक्ति तभी प्रेम कर सकता है, जबकि उसको अपनी जन्मभूमि से स्नेह हो।

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प्रश्न 2.
लेखक के नीग्रो कवि मित्र ने अमेरिका के सम्बन्ध में क्या विचार व्यक्त किए?
उत्तर:
लेखक के नीग्रो कवि मित्र ने अमेरिका के सम्बन्ध में अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किए हैं कि यह कचरा फेंक उपभोक्ता का देश एवं यह आदमी और आदमी के बीच अदृश्य झिल्ली की दीवार बनाने वाली संस्कृति का देश है।

यह खरीदो-वह खरीदो के पागलपन वाला देश अगर वह स्थान स्वर्ग है तो फिर नरक कहाँ है? मन देश की छोटी-छोटी वस्तुओं के लिए तरसता रहता है। तब भी स्वर्ग इसको नहीं छोड़ पाता। यद्यपि स्वर्ग के प्राणी उसे दुतकारते हैं, विभिन्न प्रकार से अपमानित करते हैं लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि स्वर्ग में द्वितीय श्रेणी के नागरिक का अधिकार प्राप्त करने के लिए उसे अपने देश की सरकार की सहायता की आवश्यकता पड़ती है। वह अपनी सरकार से अपेक्षा रखता है क्योंकि वह अपनी सरकार को विदेशी मुद्रा देता है।

लेकिन व्यक्ति उस समय इस बात को भूल जाता है कि मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है। अतः अन्त में यह कहा जा सकता है कि नीग्रो कवि ने भी विदेश के महत्व को नकारते हुए मातृभूमि को श्रेष्ठ ठहराया है।

प्रश्न 3.
अपभ्रंश के पुराने दोहे में देश का सबसे बड़ा घर किसे कहा गया है और क्यों?
उत्तर:
अपभ्रंश के पुराने दोहे में देश का सबसे बड़ा घर वह है जहाँ प्यारे बन्धु रहते हैं। जो प्रत्येक व्यक्ति को दुःखों को सहने की क्षमता प्रदान करते हैं। वे दुःखी व्यक्ति के घावों पर मरहम अपने मधुर वचनों से लगाते हैं।

अत: देश का सबसे बड़ा घर यदि एक साधारण झोंपड़ी को कहा जाये तो उचित ही है। श्रीराम ने चित्रकूट में स्वयं पर्णकुटी बनायी तथा सुखपूर्वक निवास किया।

अन्य सुरम्य स्थान राधा की गौशाला है जहाँ श्रीकृष्णजी स्वयं गायों का दूध दुहने के लिए जाते थे। इसके अतिरिक्त भगवान बुद्ध की साधारण-सी आम की बगिया जहाँ पर उन्होंने महल त्यागने के पश्चात् अपना निवास स्थान बनाया और वैशाली की नगर वधू आम्रपाली को भिक्षा में लिया।

इसके अतिरिक्त जनसाधारण को सत्य, अहिंसा एवं प्रेम का पाठ पढ़ाने वाले महात्मा गाँधी भी साबरमती आश्रम में साधारण सी कुटिया में रहे। गाँधी जी सच्चे अर्थों में आज भी जनसाधारण के हृदय में विद्यमान हैं।

अतः निष्कर्ष में कह सकते हैं कि वह स्थान ही बड़ा घर है जहाँ कि सच्चरित्र व्यक्ति रहते हैं।

प्रश्न 4.
सप्रसंग व्याख्या कीजिए
(अ) देश का वरण……………बस हो जाता है।
(ब) वह अपनी निजता……………..”प्राप्त नहीं होता।
उत्तर:
(अ) सन्दर्भ :
प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य पुस्तक के निबन्ध ‘जननी जन्मभूमिश्च से उद्धत किया गया है। इसके लेखक ‘विद्यानिवास मिश्र’ हैं।

प्रसंग :
प्रस्तुत अवतरण में मिश्र जी ने यह बताने का प्रयास किया है कि मातृभूमि का अन्य विकल्प नहीं है।

व्याख्या :
लेखक का कथन है कि जब लोग अपने देश की धरती को छोड़कर विदेशों में गमन करते हैं, तो वहाँ रहकर विवशता एवं आवश्यकतावश उन्हें उस देश के वातावरण में स्वयं को ढालने का प्रयास करना पड़ता है। लेकिन अपनी धरती माँ के सदृश पूज्यनीय एवं वन्दनीय है, उसको अंगीकार करने का प्रश्न ही नहीं उठता। वह तो मानव के हृदय पटल पर जन्म से ही अंकित रहती है। जिस प्रकार पुत्र का अपनी माँ के प्रति असीम अनुराग होता है, तदनुरूप व्यक्ति का मातृभूमि की मिट्टी के प्रति असीम लगाव होता है। विदेशों में भी जब उसके देश की चर्चा होती है तब भावनाओं का कोमल सागर हृदय में तरंगें लेने लगता है।

(ब) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
मिश्र जी का कथन है प्रवासी भारतीय विदेशों में रहकर भी अपने देश के प्रति प्रेम से जुड़े रहना चाहते हैं।

व्याख्या :
मिश्र जी विदेश यात्रा पर गये। वहाँ प्रवासी भारतीयों की बातचीत से उनकी दुविधा उजागर हुई कि विदेशों में रहते हुए भी वे अपनी निजता या मातृभूमि के प्यार को किसी भी दशा में त्यागने के लिए तैयार नहीं है। यद्यपि उन्हें विदेशी भाषाओं का ज्ञान नहीं था लेकिन भोजपुरी एवं थाई भाषा बोलने में पूरी तरह सक्षम थे। उनकी यह हार्दिक अभिलाषा थी कि वृद्धावस्था के आगमन पर वह अपनी मातृभूमि के प्रांगण में ही जीवनयापन करें।

मृत्यु की गोद में सोने से पूर्व तुलसी दल तथा गंगा के पवित्र जल की एक बूंद उसके गले में अवश्य डाली जाये। मानव मातृभूमि के प्रति अपने अपनत्व को इतना महत्व देता है जितना कंठगत प्राण को वह येन-केन प्रकारेण बचाने का भरसक प्रयास करता है। ये अपनी जड़ से अथवा मातृभूमि से जुड़े रहने का जीवन्त प्रमाण है। मातृभूमि की मिट्टी में जो प्यार निहित है, वह सौभाग्य का प्रतीक है। ऐसा अनुराग अन्यत्र मिलना दुर्लभ है।

प्रश्न 5.
भाव पल्लवन कीजिए
(अ) मुल्क बदल जाये, वतन तो वतन होता है।
उत्तर:
प्रस्तुत कथन में मिश्र जी ने विदेशों की धरती पर रहने वाले व्यक्ति का अपने देश के प्रति लगाव एवं प्यार को व्यक्त किया है।

मुझे मेरे देश का ही एक व्यक्ति करांची की सैर कराने में सहायक हुआ। उसने मेरा इतना स्वागत किया कि मेरे हृदय-तन्त्री के तारों को झंकृत कर दिया। मेरी वायुयान से दूसरी उड़ान का समुचित प्रबन्ध कर दिया। जब लेखक ने उससे विदा माँगी तो उसके नेत्रों में आँसू झलकनोलगे। उसने कहा कि अपना वतन अपना ही होता है। देशों के परिवर्तन से व्यक्ति के अपने देश के प्रति अनुराग में तनिक भी कमी नहीं आती।

(ब) जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।
उत्तर:
प्रस्तुत कथन का भाव है कि जननी एवं जन्मभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ है। इस तथ्य को राम ने लंका के सत्कार को ठुकराकर मातृभूमि के प्रति अपने स्नेह को व्यक्त किया है। इस युक्ति की सार्थकता अचानक पाकिस्तानी की आँखों में छलछलाने वाले अश्रु बिन्दुओं में साकार रूप से दृष्टिगोचर हो रही थी। मनुष्य को मातृभूमि की महत्ता का ज्ञान विदेशों में रहने पर ही ज्ञात होता है, जहाँ आडम्बर एवं बाह्य प्रदर्शन का बोलबाला है।

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प्रश्न 6.
‘जननी जन्मभूमिश्च’ पाठ के आधार पर ‘मातृभूमि स्वर्ग के समान है’ विषय के पक्ष में तीन उदाहरण देकर अपनी बात समझाइए। (2010)
उत्तर:
मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है। इसका कारण है कि हम जन्म लेते ही मातृभूमि पर पैर रखते हैं। वह हमारा भार सहन करती है, हमारी लात सहती है। मातृभूमि ही हमें भोजन, पानी, फल आदि देती है और बड़ा करती है। मातृभूमि हमें अनायास ही सब कुछ देती है। इस तरह मातृभूमि स्वर्ग के समान ही नहीं उससे भी अधिक महत्व की है। यही कारण है कि मातृभूमि को भूल पाना असम्भव है।

जननी जन्मभूमिश्च भाषा अध्ययन

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के हिन्दी रूप लिखिए-
वतन, मुल्क, सलाम, जाहिल, हकीकत, कैदखाना।
उत्तर:
देश, राष्ट्र, प्रणाम, अशिक्षित, वास्तविक, बन्दीगृह।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित वाक्यांश के लिए एक शब्द लिखिए
(क) राष्ट्र से सम्बन्धित भाव
(ख) आध्यात्म से सम्बन्धित
(ग) व्यवसाय से सम्बन्धित
(घ) बूढ़ा होने की अवस्था।
उत्तर:
(क) राष्ट्रीय
(ख) आध्यात्मिक
(ग) व्यावसायिक
(घ) वृद्धावस्था।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित अशुद्ध वाक्यों को शुद्ध करके लिखिए
उत्तर:
(अ) अशुद्ध-मोहन कुत्ते को डण्डे से मारा।
शुद्ध-मोहन ने कुत्ते को डण्डे से मारा।

(आ) अशुद्ध-क्या आप खाना खा लिए हैं?
शुद्ध-क्या आपने खाना खा लिया है?

(इ) अशुद्ध-दरवाजे पर कौन आई है?
शुद्ध-दरवाजे पर कौन आया है?

(ई) अशुद्ध- मेरा बेटा और बेटी बाजार गई हैं।
शुद्ध-मेरा बेटा और बेटी बाजार गये हैं।

(उ) अशुद्ध- इतना मीठा चाय मैं नहीं पी सकती हूँ।
शुद्ध-इतनी मीठी चाय मैं नहीं पी सकती हूँ।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित मुहावरों का वाक्यों में प्रयोग कीजिए-
पसरा होना, घेरे में डालना, आँखें छलछला आना, स्वर्ग बना रहना, लात सहना, भारी पड़ना।
उत्तर:

  1. पसरा होना-प्लेटफार्म पर यात्री रेलगाड़ी की प्रतीक्षा में यत्र-तत्र पसरे हुए थे।
  2. घेरे में डालना-पुलिस ने अपराधियों को घेरे में डालकर बन्दी बना लिया।
  3. आँखें छलछला आना-विदेश में अपनी मातृभूमि का प्रकरण आते ही मेरी आँखें छलछला उठीं।
  4. स्वर्ग बना रहना-आत्मीयता के माध्यम से ही धरती पर स्वर्ग बना रहेगा।
  5. लात सहना-विदेशी शासन में भारतीयों को अंग्रेजों को लात सहनी पड़ी।
  6. भारी पड़ना-भारतीय क्रिकेट टीम इस बार कंगारुओं (ऑस्ट्रेलिया) पर भारी पड़ी।

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जननी जन्मभूमिश्च पाठ का सारांश

प्रस्तुत निबन्ध के लेखक श्री विद्यानिवास मिश्र हैं। ललित निबन्ध लेखन के क्षेत्र में उनका विशिष्ट स्थान है। प्रस्तुत निबन्ध में लेखक ने ऐतिहासिक प्रसंगों एवं विभिन्न संस्मरणों के माध्यम से जन्मभूमि के महत्त्व का दिग्दर्शन कराया है। जन्मभूमि का कोई भी विकल्प नहीं है। पौराणिक उदाहरणों एवं लोकगीत के माध्यम से जन्मभूमि की महिमा का बखान किया है। प्रवासी भारतीयों की भावनाओं को भी व्यक्त किया है जो अपनी मातृभूमि के प्रति लगाव रखते हैं। फूल भी मौन रूप से अपनी यह इच्छा व्यक्त करता है कि उसे देश की बलि वेदी पर प्राण-प्रसून अर्पित करने वाले वीरों के मार्ग पर बिखेर दिया जाये। लेखक के मतानुसार मानवीय मूल्यों पर प्रतिष्ठित भावना, मातृभूमि के प्रेम में बाधक नहीं है।

जननी जन्मभूमिश्च कठिन शब्दार्थ

प्रवास = विदेश में रहने वाला। उत्कण्ठा = आकांक्षा। कोफ्त = खीझ। कानून की कैद – कानून का बन्धन। मुल्क = देश। वतन = मातृभूमि, जन्मभूमि। अपि = भी। रोचते = अच्छी लगती। स्वर्गादपि गरीयसी = स्वर्ग से बढ़कर। सार्थकता वास्तविकता। बेकाबू = काबू से बाहर। दायित्व = जिम्मेदारी। निष्ठा = आस्था। सुधि = याद। लोकाचार = सामाजिक रीति-रिवाज। सुलक्षण कन्या = अच्छे गुणों वाली लड़की। नीग्रो = अश्वेत अमेरिकन नागरिक। जाहिल = अशिष्ट। भौतिक सुख-सुविधा = सांसारिक सुख-सुविधा। आध्यात्मिक = आत्मा सम्बन्धी, ब्रह्म और जीव से सम्बन्धित। उपभोक्ता = उपभोग करने वाला। अदृश्य झिल्ली = जो झिल्ली दिखायी न दे। उद्वेलित = उद्विग्न। विरक्ति = अलगाव, विराग। अनबूझ पहेली = अनसुलझी पहेली। दुतकारते = प्रताड़ित करना। विडम्बना = विसंगति। अपेक्षा = आशा करना। अलाव = आग जलाने का वह स्थान जिसके चारों ओर लोग बैठकर आग तापते हैं। निरुपायता = कोई उपाय न होना। उत्सुकता = जिज्ञासा। बहिश्त = स्वर्ग। रूमानी = रसिक, रस से युक्त। लुभावना = मन को अच्छा लगना। प्रवासी भारतीय = अन्य देश में रहने वाले भारतीय। विवशता = मजबूरी, लाचारी। आत्मीयता = अपनत्व, स्नेह के साथ। मार्गदर्शक = मार्ग दिखाने वाला। परिमार्जित = परिष्कृत। प्रतिबिम्ब = परछाईं। तृप्त = सन्तुष्ट। निजता = अपनापन। कण्ठगत प्राण = गले तक आ चुके प्राण, प्राण निकलने की स्थिति। अपभ्रंश = एक भाषा। बड़प्पन = श्रेष्ठता, बड़ाई। आराध्य = इष्ट देव, जिसकी आराधना की जाये। मुमूर्ष = मरणासन्न, मरण का इच्छुक। पेरियार = केरल प्रान्त का एक क्षेत्र। नवनीत = मक्खन। न्यौछावर = निछावर, समर्पण।

जननी जन्मभूमिश्च संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या

1. देश का वरण न जाने किन-किन दबावों और जरूरतों से आदमी करता है पर माँ का कोई वरण नहीं करता, न कोई जन्मभूमि का वरण करता है। वह माँ का बस बेटा होता है, जन्मभूमि का, माटी का बस हो जाता है। (2008, 14, 17)

सन्दर्भ :
प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य पुस्तक के निबन्ध ‘जननी जन्मभूमिश्च से उद्धत किया गया है। इसके लेखक ‘विद्यानिवास मिश्र’ हैं।

प्रसंग :
प्रस्तुत अवतरण में मिश्र जी ने यह बताने का प्रयास किया है कि मातृभूमि का अन्य विकल्प नहीं है।

व्याख्या :
लेखक का कथन है कि जब लोग अपने देश की धरती को छोड़कर विदेशों में गमन करते हैं, तो वहाँ रहकर विवशता एवं आवश्यकतावश उन्हें उस देश के वातावरण में स्वयं को ढालने का प्रयास करना पड़ता है। लेकिन अपनी धरती माँ के सदृश पूज्यनीय एवं वन्दनीय है, उसको अंगीकार करने का प्रश्न ही नहीं उठता। वह तो मानव के हृदय पटल पर जन्म से ही अंकित रहती है। जिस प्रकार पुत्र का अपनी माँ के प्रति असीम अनुराग होता है, तदनुरूप व्यक्ति का मातृभूमि की मिट्टी के प्रति असीम लगाव होता है। विदेशों में भी जब उसके देश की चर्चा होती है तब भावनाओं का कोमल सागर हृदय में तरंगें लेने लगता है।

विशेष :

  1. प्रवासी भारतीयों का अपने देश के प्रति अगाध स्नेह को दर्शाया है।
  2. मानवीय भावनाओं का अंकन है।
  3. शैली प्रांजल एवं प्रभावपूर्ण है।

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2. इस आदमी की दुविधा एक मानवीय दुविधा है, वह अपनी निजता का प्रतिबिम्ब तो पाना चाहता है, पाकर तृप्त भी होता है, पर अपनी निजता को खोना नहीं चाहता, कंठगत प्राण की तरह उसे बचाये रखना चाहता है। शायद अपनी जड़ से इतना लगाव न होता तो इतना प्यार, अनायास दूसरे से पाने का सौभाग्य प्राप्त नहीं होता। (2009, 11)

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
मिश्र जी का कथन है प्रवासी भारतीय विदेशों में रहकर भी अपने देश के प्रति प्रेम से जुड़े रहना चाहते हैं।

व्याख्या :
मिश्र जी विदेश यात्रा पर गये। वहाँ प्रवासी भारतीयों की बातचीत से उनकी दुविधा उजागर हुई कि विदेशों में रहते हुए भी वे अपनी निजता या मातृभूमि के प्यार को किसी भी दशा में त्यागने के लिए तैयार नहीं है। यद्यपि उन्हें विदेशी भाषाओं का ज्ञान नहीं था लेकिन भोजपुरी एवं थाई भाषा बोलने में पूरी तरह सक्षम थे। उनकी यह हार्दिक अभिलाषा थी कि वृद्धावस्था के आगमन पर वह अपनी मातृभूमि के प्रांगण में ही जीवनयापन करें।

मृत्यु की गोद में सोने से पूर्व तुलसी दल तथा गंगा के पवित्र जल की एक बूंद उसके गले में अवश्य डाली जाये। मानव मातृभूमि के प्रति अपने अपनत्व को इतना महत्व देता है जितना कंठगत प्राण को वह येन-केन प्रकारेण बचाने का भरसक प्रयास करता है। ये अपनी जड़ से अथवा मातृभूमि से जुड़े रहने का जीवन्त प्रमाण है। मातृभूमि की मिट्टी में जो प्यार निहित है, वह सौभाग्य का प्रतीक है। ऐसा अनुराग अन्यत्र मिलना दुर्लभ है।

विशेष :

  1. लेखक की गहन अनुभूति विद्यमान है।
  2. भाषा में कोमल कमनीयता का समावेश है।
  3. शैली सरस, सरल एवं सुबोध है।

3. स्वर्ग से मातृभूमि इसलिए ही शायद बड़ी है कि स्वर्ग का भोग करने वाला अपने को ऊँचा समझने लगता है, मातृभूमि से प्यार करने वाला विनम्र बना रहता है, यह समझने के लिए कि जैसे अपनी भूमि के लिए तड़पता है, वैसे ही दूसरा भी तड़पता होगा। बड़प्पन कहीं रहने से या कहीं न रहने से नहीं आता है, आता है दूसरे को बड़प्पन देने से, दूसरे के दुःख को अपना दुःख मानने से। (2013)

सन्दर्भ :
पूर्ववत्।

प्रसंग :
मिश्र जी ने इस गद्यांश में मानवीय विनम्रता की महत्ता को उजागर किया गया है।

व्याख्या :
सामान्यतः स्वर्ग को सबसे उत्तम माना गया है, किन्तु जन्मभूमि से भी बढ़कर जो स्वर्ग का उपभोग करता है, वह स्वयं को अन्य से ऊँचा समझता है, परन्तु मातृभूमि को प्रेम करने वाला शिष्ट एवं नम्र बना रहता है। उसमें बड़े होने का गर्व नहीं आता है। वह जानता है कि जैसे मेरे मन में अपनी जन्मभूमि के लिए तड़पन है, वैसी ही तड़पन औरों में भी अपनी मातृभूमि के लिए अवश्य होगी। श्रेष्ठता किसी विशेष स्थान पर रहने अथवा नहीं रहने से नहीं आती है। यह तो दूसरे को श्रेष्ठ मानने से प्राप्त होती है, औरों के कष्ट को अपना कष्ट मानने से बड़प्पन आता है।

विशेष :

  1. जन्मभूमि के प्रति प्यार हृदय में विनम्रता का संचार करता है।
  2. सरल, सुबोध, व्यावहारिक भाषा का प्रयोग किया गया है।
  3. तर्कपूर्ण विवेचनात्मक शैली में विषय को स्पष्ट किया गया है।

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MP Board Class 11th Hindi Solutions

MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य महत्त्वपूर्ण वस्तुनिष्ठ प्रश्न

MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य महत्त्वपूर्ण वस्तुनिष्ठ प्रश्न

बहु विकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
लोकमंगल की भावना जिनके काव्य में व्यक्त हुई है (2008,09)
(i) सूरदास,
(ii) बिहारी
(iii) तुलसीदास,
(iv) रसखान।
उत्तर:
(iv) रसखान।

प्रश्न 2.
मीरा भक्त थीं (2009)
(i) राम की
(ii) कृष्ण की
(iii) ब्रह्म की
(iv) शिव की।
उत्तर:
(ii) कृष्ण की

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प्रश्न 3.
सूर ने मनोहारी वर्णन किया है
(i) बालक राम का
(ii) श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का
(iii) शिव के नृत्य का
(iv) नारद के भ्रमण का।
उत्तर:
(ii) श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का

प्रश्न 4.
गोपिका की आँख में दो तत्त्व भर गये थे नंदलाल और (2016)
(i) धूल
(ii) गुलाल
(iii) मिर्च
(iv) मिट्टी।
उत्तर:
(ii) गुलाल

प्रश्न 5.
वृक्ष फल देते हैं
(i) स्वयं के लिए
(ii) किसी के लिए नहीं
(iii) अहसान के लिए
(iv) दूसरों के लिए।
उत्तर:
(iv) दूसरों के लिए।

प्रश्न 6.
सेनापति के संकलित पदों में हुआ है
(i) ऋतु वर्णन
(ii) नगर वर्णन
(ii) दृश्य वर्णन
(iv) नख-शिव वर्णन।
उत्तर:
(i) ऋतु वर्णन

प्रश्न 7.
पन्तजी नौका विहार करने गये (2010, 14)
(i) प्रातःकाल
(ii) सायंकाल
(iii) दोपहर में
(iv) चाँदनी रात में।
उत्तर:
(iv) चाँदनी रात में।

प्रश्न 8.
भूषण के काव्य में वर्णन हुआ है
(i) शौर्य का
(ii) श्रृंखला का
(iii) वात्सल्य का
(iv) भक्ति का।
उत्तर:
(i) शौर्य का

प्रश्न 9.
‘दिनकर’ कविता का आह्वान किसलिए करते हैं?
(i) मनोरंजन के लिए
(ii) दया के लिए
(iii) जनता को जगाने के लिए
(iv) युद्ध के लिए।
उत्तर:
(iii) जनता को जगाने के लिए

प्रश्न 10.
साये में धूप महसूस की (2008)
(i) दिनकर ने
(ii) दुष्यन्त कुमार ने
(iii) गिरिजाकुमार माथुर ने
(iv) शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ ने।
उत्तर:
(ii) दुष्यन्त कुमार ने

प्रश्न 11.
बालक कृष्ण का रुचिकर व्यंजन है (2015)
(i) माखन-मिश्री
(ii) दूध-रोटी
(iii) दाल-चावल
(iv) माखन-मलाई।
उत्तर:
(i) माखन-मिश्री

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प्रश्न 12.
कवच-कुण्डल किसने दान किए? (2017)
(i) अर्जुन ने
(ii) श्रीकृष्ण ने
(iii) कर्ण ने
(iv) दुर्योधन ने।
उत्तर:
(iii) कर्ण ने

रिक्त स्थान पूर्ति

  1. ………… ने राम के लोकमंगल व लोककल्याणकारी रूप को जनता के सामने प्रतिष्ठित किया। (2008)
  2. तुलसीदास के पदों में ………………… रस की प्रधानता है। (2008)
  3. …………………. को कठिन काव्य का प्रेत कहा जाता है। (2008)
  4. सेनापति ने …………… को ऋतुराज कहा है। (2015)
  5. कबीर ने ……………….. ज्ञान को उपयोगी माना है।
  6. ………………. के चले जाने के कारण ब्रजवासी दु:खी थे।
  7. अंगद ………………… का पुत्र था।
  8. कवियों ने …………….. की बोली का बखान किया है।
  9. ………………… ऋतु में सूर्य चन्द्रमा के समान लगता है। (2009, 16)
  10. ……………के तीन भाग हैं-साखी, सबद और रमैनी। (2008)
  11. ……………… ने कवच-कुंडल दान किए थे।
  12. बालि ने काँख में …………………. को छुपा लिया था। (2009)
  13. खंजन पक्षी का दुःख……………… ऋतु में मिट जाता है। (2009)
  14. महल बनाने के लिए ………………… का बलिदान होता है। (2012)
  15. मीरा ने …………….. को अपना आराध्य बताया है। (2017)

उत्तर:

  1. तुलसी
  2. शान्त
  3. केशव
  4. बसंत
  5. व्यावहारिक
  6. श्रीकृष्ण
  7. बालि,
  8. कोयल
  9. शिशिर
  10. बीजक
  11. कर्ण
  12. रावण
  13. शरद
  14. झोंपड़ी
  15. श्रीकृष्ण।

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सत्य/असत्य

  1. तुलसीदास प्रण करके राम के चरण-कमलों में बसना चाहते हैं। (2009)
  2. राधा विरह का दुःख भुलाने के लिए समाज सेवा करती हैं।
  3. शिवाजी के नगाड़ों की घोर से बादशाहों की छाती धड़कती थी।
  4. श्री राम भद्राचार्य ने श्रीकृष्ण का वर्णन किया है। (2010)
  5. बिना अवसर के कही गई अच्छी बात अच्छी लगती है। (2009)
  6. गोपियों की आँखों में दो तत्त्व भर गये थे। (2015)
  7. भूषण ने छत्रसाल के शौर्य का वर्णन किया है।
  8. दुष्यन्त कुमार ने उर्दू में ही गजलें लिखी हैं।
  9. कबीर अनुभूत ज्ञान को ज्यादा महत्व देते थे। (2009)
  10. कजरी ग्रीष्म ऋतु में गाई जाती है। (2016)

उत्तर:

  1. सत्य
  2. सत्य
  3. सत्य
  4. असत्य
  5. असत्य
  6. सत्य
  7. सत्य
  8. असत्य
  9. सत्य
  10. असत्य।

जोड़ी मिलाइए

I.
MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य महत्त्वपूर्ण वस्तुनिष्ठ प्रश्न img-1
उत्तर:
1. → (ख)
2. → (क)
3. → (घ)
4. → (ङ)
5. → (ग)
6. → (च)

II.
MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य महत्त्वपूर्ण वस्तुनिष्ठ प्रश्न img-2
उत्तर:
1. → (च)
2. → (ग)
3. → (क)
4. → (ङ)
5. → (घ)
6. → (ख)

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एक शब्द/वाक्य में उत्तर

प्रश्न 1.
कौआ और कोयल में क्या समानता होती है? (2009)
उत्तर:
काले रंग की

प्रश्न 2.
श्रीकृष्ण ने किसका गर्व चूर करने को गोवर्धन पर्वत धारण किया था?
उत्तर:
इन्द्र का

प्रश्न 3.
श्रीकृष्ण के मुकुट में कौन-सी वस्तु लगी है? (2017)
उत्तर:
मोर पंख

प्रश्न 4.
सज्जन पुरुष किसलिए धन संचय करते हैं?
उत्तर:
परहित के लिए

प्रश्न 5.
‘तुम पै धनुरेख गई न तरी’ किससे कहा गया है? (2009)
उत्तर:
रावण के लिए

प्रश्न 6.
जीवन में सफलता पाने का मूलमंत्र क्या है? (2014)
उत्तर:
कर्मशील रहना

प्रश्न 7.
‘यहाँ तो सिर्फ गूंगे और बहरे बसते हैं’ से क्या आशय है?
उत्तर:
संवेदनशीलता का

प्रश्न 8.
कोई न कोई अभाव रहने के कारण जीवन को क्या कहा गया है?
उत्तर:
अपूर्ण

प्रश्न 9.
छत्रसाल की बरछी ने किनके बल खींच लिए हैं?
उत्तर:
दुष्ट मुगलों के

प्रश्न 10.
‘लाखों क्रोंच कराह रहे हैं’ से दिनकर क्या कहना चाहते हैं?
उत्तर:
अनेक पीड़ित प्राणी

प्रश्न 11.
‘नौका विहार’ कविता में चंचल किरणों की तुलना किससे की गई है?
उत्तर:
चाँदी के साँपों से

प्रश्न 12.
वह कौन-सी सम्पत्ति है जो व्यय करने पर बढ़ती है? (2009)
उत्तर:
विद्या

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प्रश्न 13.
कजरी कब गाई जाती है? (2009)
उत्तर:
वर्षा ऋतु में

प्रश्न 14.
कवच-कुण्डल दान किसने किये थे? (2009)
उत्तर:
कर्ण ने

प्रश्न 15.
पंतजी की कविता ‘नौका विहार’ किस नदी पर विहार की अनुभूति है? (2012)
उत्तर:
गंगा नदी पर

प्रश्न 16.
तुलसीदास किसके चरण छोड़कर जाना नहीं चाहते? (2015)
उत्तर:
श्रीराम के।

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