MP Board Class 7th Sanskrit परिशिष्टम्
1. सादरं समीहताम्
(आदर सहित करना चाहिए)
सादरं समीहताम् ……….. जीवनं प्रदीयताम्। सादरं॥
अनुवाद :
हमें आदर सहित (इन कार्यों को) करना चाहिए। ईश्वर की वन्दना करनी चाहिए। श्रद्धा सहित अपनी मातृभूमि की अच्छी तरह से अर्चना करनी चाहिए। चाहे विपत्ति हो अथवा बिजलियाँ चमक रही हों, अथवा मस्तक पर बार-बार आयुध (हथियार) गिर रहे हों, परन्तु (हमें) धैर्य नहीं खोना चाहिए। वीरता के भाव को बनाये रखना चाहिए। चित्त में निर्भय होकर (हमें) (अपने) कदम आगे बढ़ाने चाहिए (रखने चाहिए)। इस प्रकार (श्रेष्ठ कार्य) आदरपूर्वक करने चाहिए।
यह (मातृभूमि) प्राणदायिनी है, यह (मुसीबतों से) रक्षा करने वाली है। यह (हमें) शक्ति, मुक्ति तथा भक्ति देने वाली है और अमृत देने वाली है। इस कारण तो यह वन्दनीय है, सेवा किये जाने योग्य है। अभिनन्दन किये जाने योग्य है। इसलिए हमें इस (मातृभूमि) के लिए अभिमानपूर्वक अपना जीवन दे देना चाहिए। (इस तरह) यह (सारा कार्य) आदरपूर्वक करना चाहिए।
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2. कृत्वा नवदृढ़ संकल्पम्
(नया पक्का संकल्प करके)
कृत्वा ……… नित्यनिरन्तर गतिशीलाः।
अनुवाद :
नया पक्का संकल्प करके नये सन्देश वितरित करते हुए, नया संगठन निर्मित करते हैं। नया इतिहास रचते हैं।
नये युग का निर्माण करने वाले, राष्ट्र की उन्नति की आकांक्षा करने वाले, त्याग ही जिनके लिए धन है, ऐसे वे त्यागपूर्ण कार्यों में लगे रहने वाले हम कार्यों के करने में चतुर और बुद्धि में तेज हैं। नया पक्का संकल्प करके।
भेदभाव को मिटाने के लिए, दीन और दरिद्रों का उद्धार करते हुए, दुःखों से तप्त लोगों को आश्वासन; (धैर्य बँधाते हुए), किये हुए संकल्पों का दैव स्मरण करते रहें। नये पक्के संकल्पों को करके।
प्रगति के मार्ग से विचलित न हों। परम्पराओं की हम रक्षा करें। उत्साह से युक्त होकर, उद्वेग से रहित होकर नित्य और निरन्तर गतिशील बने रहे। नये पक्के संकल्प करके।
3. अवनितलं पुनरवतीर्णा स्यात्
(पृथ्वीतल पर फिर से अवतार लें)
अवनितलं ……… यतामहे कृति शूराः।
अनुवाद :
पृथ्वी तल पर फिर से अवतार लें। संस्कृत रूपी गंगा की धारा के लिए धैर्यशाली भगीरथवंश हमारा है। हम तो पक्का इरादा करने वाले हैं।
यह संस्कृत रूपी गंगा की धारा विद्वानों रूपी भगवान शंकर के शिरों पर गिरती रहे। यह नित्य ही (सबकी) वाणियों में बहती रहे। व्याकरण के विद्वानों के मुख में यह प्रवेश करती रहे। जनमानस में बार-बार बहती रहे। हजारों पुत्र उद्धार प्राप्त करें और जन्म के विकारों से पार हो जायें अर्थात् मुक्ति प्राप्त कर लें। हम धीर भगीरथवंशी हैं और हमारा पक्का इरादा है।
हम प्रत्येक गाँव को जायें। संस्कृत की शिक्षा प्रदान करें। सभी को तृप्ति (सन्तुष्टि) देने तक अपने क्लेशों को न गिनें। प्रयत्न करने पर क्या प्राप्त नहीं होता है, ऐसे हमारे विचार हैं। हम धीर भगीरथवंशी हैं।
जो संस्कृतरूपी माता (हमारी) संस्कृति की मूल है, जिसकी विस्तृत रूप में व्याप्ति है। वह संस्कृत वाङ्मय हो जाय अर्थात् प्रत्येक की वाणी में समा जाये। वह संस्कृत भाषा प्रत्येक मनुष्यों की जिह्वा (वाणी) रूपी माला में सदैव सुशोभित बनी रहे। हम कर्मवीर पुरुष (उस) देववाणी को (संस्कृत को) जनवाणी बनाने के लिए प्रयत्न करते रहें। हम धीर भगीरथवंशी है।
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4. वन्दे भारतमातरम्
(भारत माता की वन्दना करता हूँ)
वन्दे भारतमातरम् ………. नान्यद्देशहितद्धि ऋते।
अनुवाद :
बोलो, मैं भारत माता की वन्दना करता हूँ, माता की वन्दना करता हूँ, भारत माता की। वन्दना करता हूँ माता की, वन्दना करता हूँ माता की। भारत माता की।
यह (भारत माता) श्रेष्ठ वीरों की माता है, त्यागीजनों और धैर्यशाली लोगों की (यह माता है)। मातृभूमि के लिए और लोक कल्याण के लिए नित्य ही अपने मन को समर्पित करने वाले लोगों की (यह जन्मभूमि है) क्रोध पर जीत पाने वाले पुण्यकर्म करने वाले, धन को तिनके के समान समझने वाले, माता की सेवा के द्वारा अपने जीवन में सार्थकता लाने वाले लोगों की यह जन्मभूमि है। (1)
गाँव-गाँव में कर्म का उपदेश देने वाले, तत्व के जानने वाले, धर्म के कार्यों में लगे रहने वाले, धन का संचय केवल त्याग के लिए करने वाले तथा इस संसार में धर्म अनुकूल ही इच्छाएँ करने वाले लोगों की यह जन्मभूमि है। अज्ञान के नाश से युक्त तथा क्षण भर में ही परिवर्तनशील शरीर वाले अपने अन्दर आदरपूर्ण बुद्धि धारण किये हुए जो यहाँ जन्म लेते हैं, वे स्वयं अपने आप को जन्म लेकर धन्य मानते हैं, (उनकी यह भारतमाता जन्मभूमि है)। (2)
हे माता (जन्मभूमि?), तुम से धन, मन, अधिकार, बुद्धि और शारीरिक बल प्राप्त हुआ है। मैं (किसी भी कार्य का) कर्ता नहीं हूँ, तुम ही कार्य कराने वाली हो, मेरे द्वारा किये गये कर्म के फल में कोई आसक्ति नहीं है। हे माता! तुम्हारे शुभ (कल्याणकारी) चरणों में मेरा यह जीवन पुष्प अर्पित है। इससे बढ़कर कोई भी मेरे लिए अन्य मंत्र नहीं है, मैं कोई भी अन्य प्रकार से नहीं सोचता हूँ, इसके अतिरिक्त अन्य किसी देश के हित में कुछ भी नहीं सोचता। (3)